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जो चक्षुदर्शन को ढके यह चक्षुदर्शनावरण है, जो अचक्षुदर्शन को न होने दे वह अचक्षुदर्शनावरण है । जो अवधि दर्शन को ढक देता है वह प्रवधि दर्शनावरण है । केवल दर्शन को जो प्रगट नहीं होने देता वह केवल दर्शनावरण हैं ।
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जिसके उदय से नींद श्राती है वह निद्रा कर्म है। जिसके उदय से जागकर तत्काल फिर सो जावे वह निद्रानिद्रा कर्म है । जिसके कारण बैठे-बैठे नींद श्रा जावे, कुछ सोता रहे, कुछ जागता सा रहे वह प्रचला है । जिसके उदय से सोते हुए मुख से लार बहती रहे. हाथ पैर भी चलते रहें व प्रचलाप्रचला है। जिसके उदय से ऐसी भारी बुरी नींद प्राती है कि सोते सोते अनेक कार्य कर लेता है, सोते हुए दौड़ भाग भी लेता है, किन्तु जागने पर उसको कुछ स्मरण नहीं रहता ।
aarti द्विविधम् ॥ ५३॥
वेदनीय कर्म के दो भेद हैं- साता, असाता । साता वेदनीय कर्म के उदय से इन्द्रियजन्य सुख के साधन प्राप्त होते हैं और साता वेदनीय कर्म के उदय से दुःखजनक सामग्री मिलती है ।
मोहनीयम विशंति विधम् ॥५४॥
मोहनीय कर्म के मूल दो भेद हैं-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय | दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं- मिध्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक्
प्रकृति |
चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं कषाय, नोकषाय । श्रनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ । अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ । प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ । संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ मे १६ कषाय हैं ।
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तो कषाय मोहनीय के भेद हैं- हास्य, रति, प्ररति, शोक, भय तथा जुगुप्सा स्त्री वेद, पुवेद, नपुंसक वेद ।
मिथ्यात्व के उदय से अदेवों में देवत्व भाव, प्रधर्म में, धर्म भावना, तत्व में प्रतत्व भाव होता है, यह सभी मिथ्यात्व भावना | सम्यग्मिथ्यात्व के उदय से तत्वों में तथा अतत्व में समान भाव होता है, मिले हुए भाव होते हैं । यह सम्यग्मिथ्यात्व है । सम्यक् प्रकृति के उदय से आगम, पदार्थ का श्रद्धान होता है किन्तु सम्यक्त्व में चल मल दोष होते हैं ।
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अनंतानुबंधी कोष पत्थर की रेखा के समान, मान पत्थर के स्तम्भ के समान, माया बांस की जड़ के समान, लोभ तिमि रंग के कंबल के समान होकर