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परिणाम की उत्कृष्टता से मरणकर सातवें नरक को प्राप्त हो गया । त्रिदृष्ट के बाद विजय नामक राम ने घोर तपश्चरण द्वारा मोक्ष पद प्राप्त किया ।
वासुपूज्य
पुष्करार्द्ध दोष के वत्सकावती देश के अन्तर्गत रत्नपुर का शासन करने वाला धर्म-प्रिय न्यायी राजा पद्मोत्तर था, वह वहां के तीर्थंकर युगन्धर का उपदेश सुन कर संसार से विरक्त हुआ और राजपाट पुत्र को देकर मुनि हो गया । उसने अच्छा तप किया तथा सोलह कारण भावनाओं को भा कर तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया और आयु के अन्त में समाधि से मरण किया । तदनन्तर के महाशुक्र स्वर्ग का इन्द्र हुआ । स्वर्गे की श्रायु जब समाप्त हुई तब चम्पापुर राजा वासुपूज्य की रानी जयावती को कोख में श्राकर उसने १२ वें तीर्थंकर वासुपूज्य के रूप में जन्म लिया । भगवान् श्रेयांसनाथ की मुक्ति से उन ५४ सागर समय पीछे भगवान वासुपूज्य का जन्म हुआ । इनका शरीर कमल के समान लाल रंग का था। इनकी प्रायु ७२ लाख वर्ष की थी, शरीर ७० धनुष ऊंचा था। पैर में भैंसे का चिन्ह था । इन्होंने अपना विवाह नहीं किया 1 बाल ब्रह्मचारी रहे और कुमार अवस्था में मुनि पद धारण किया । तपश्चरण करके जब अरहंत पद पाया तब समवशरण द्वारा सर्वत्र विहार करके धर्म का पुनरूद्धार किया। उनके श्रर्म प्रादि ६६ गणवर थे तथा सेना श्रादि श्रायिकायें थीं । कुमार यक्ष, गांधारी यक्षिणी, महिष का चिन्ह था । अन्त में आपने चम्पापुरी से मुक्ति प्राप्त की।
भगवान वासुपूज्य के समय में अचल नामक बलभद्र, द्विपुष्ठ नामक नारायण और तारक नाम प्रतिनारायण हुए | १२ |
विमलनाथ
- धातकी खरड में रम्यकावती देश के अन्तर्गत महानगर का राज्य करने वाला राजा पद्मसेन बहुत प्रतापी था। बहुत दिन राज्य करके वह स्वर्गगुप्त
नामक केवल ज्ञानी का उपदेश सुनकर
राज पाट छोड़ मुनि बन गया और विशुद्धि आदि भावनाओं के द्वारा उसने तीर्थंकर कर्म का बन्ध किया । फिर वह मानव शरीर छोड़कर सहस्रार स्वर्ग का इन्द्र हुआ। वहां की १८ सागर की आयु जिता कर कम्पिला नगरी के राजा कृतवर्मा की रानी जयश्यामा के उदर से विमलनाथ नामक १३ वां तीर्थंकर हुआ । भ० विमलनाथ का जन्म भगवान् वासुपूज्य से ३० सागर पोछे हुआ इसी समय के अन्तर्गत उनकी ६० लाख वर्ष की प्रायु भी है। उनका शरीर का रंग स्वर्ण के समान था । उनके पैर में
का मिन्ह पा. !.
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