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________________ ( १०६ ) जात, अदृश्य रूप हो जाना अन्सन तथा एक ही बार में अनेक रूप धारण करके दिखाना काम रूपित्य, विक्रिया ऋद्धि कहलाती है । तपः सप्तविधम् ॥ ६२॥ १ उग्रतप, २ दीप्त तप, ३ तप्त तप, ४ महालय, ५ घोर तप, घोर बीर पराक्रम तप तथा ७ थोरगुणब्रह्मचर्य ये तप ऋद्धि के सात भेद होते हैं । उसमें उग्रोग्र तप, श्रनवस्थितोय तप से तप के दो भेद होते हैं । १ उपवास करके पारण करना और १ पार करके २ जावास करना, ३ उपवास करके पारण करना इसी प्रकार क्रमशः ११ उपवास तक बढ़ा घटां कर जीवन पर्यन्त उपवास करते जाना उग्र तप कहलाता है । दीमा उपवास करने के पश्चात् पारण करके एकान्तर को करते हुये किसी भी निमित्त से उपवास करके ३ रात्रि तक उपवास करते हुये जीवन पर्यन्त बढ़ाते जाना अवस्थितोग्र तप कहलाता है। अनेक उपवास करने पर भी सुगंधितश्वास तथा शरीर की शोभा बढ़ते जाना दीप्त वप कहलाता है ! तपे हुये लोहे के ऊपर पड़ी हुई जल की छोटी छोटी बूँदें जिस प्रकार जल जातीहैं उसी प्रकार ग्रहण किये हुये आहार तप के द्वारा मल व रुधिर न बन कर भस्म हो जाना या जल जाना तप्त तप है । अणिमादि प्रष्ट गुणों से शरीरादि की कान्ति, सर्वोषधि अनन्त बल तथा त्रिलोक व्यापक आदि से समन्वित होने को महातप कहते हैं । वात, पित्त श्लेष्मादि अनेक प्रकार के ज्वर होने पर भी अन शनादि करना घोर तप कहलाता है । ग्रहण किये हुये तप योग की वृद्धि करना तीनों लोक में बराबर शरीर को फैलाना तथा समुद्र को सुखा देना, जल, ग्रन्ति शिलादि के द्वारा पानी बरसाने आदि की शक्ति प्रकट करना मोर वीर पराक्राम तप कहलाता है | अखंड ब्रह्मचर्य सहित तथा दुःस्वप्न यादि गुणों से युक्त होन घोर गुण ब्रह्मचर्यं तप कहलाता है । बलस्त्रिधा । ६३॥ मन, वचन तथा काय भेद से बल ऋद्धि तीन प्रकार को होती है । सो इस प्रकार है— महान अर्थागम को मन से चिन्तन करते रहने पर भी नहीं थकना - मनोबल है, संपूर्ण शास्त्रों को रात दिन पढ़ते-पढ़ाते रहने पर भी न थकता बचन बल है तथा मासिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक इत्यादि प्रतिमायोग में रहने पर भी किंचितन्मात्र कष्ट न होना कामबल है । भेषजमष्टधा ॥ ६४ ॥ १ ग्रामोषध ऋद्धि, २ क्षल्लोषध ऋद्धि ३ मिल्लोषध ऋद्धि, ४ मुली-. 1
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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