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(८) उत्सपिणी से अवसर्पिणी तक तथा अवसर्पिणी से उत्सपिणी होते हुए। अनंतानंत कल्पकाल क्रम से प्रवर्तते रहते हैं।
॥शविघकल्पद्रुमाः ॥४॥ गृाहाँगरभोजनांग ३भाजनांम ४पानांग ५वस्त्रांग ६भूषणाँग ७माल्यांग दीपांग ज्योतिराँग १०तूर्यांग । इस प्रकार के कल्प वृक्ष उस भोग भूमि के जीवों को नाना भोगोपभोग सामग्री देते रहते हैं । जेसे आगे कहा भी है
हाटभिसिसमन्वित । नाटकशालेगळ विविघसौंदगळ कों। डाटमनेमेरदुनिच्छ । पाटिसुवुदु मिथुनततिगेगृहमहिजातं ॥२॥ अनतिशय सौख्यभाजन- मेनिसुव भाजनयिवप्पुदेवते कन-। कनकमरिणखचितबहभा-जनंगळं भाजनांगतरुकोडुतिक्कु ॥३॥ अमदिन सवियोष्ठसवि । समनेनिसुन सेजाबलायुरारोग्य सज-। तमनमृतान्नमनोल्दिी- गुमागळं, भोजनांग कल्पावनिजं ॥४॥ कुडिवडेसोक्किसदनु ना- डिसखु मनक्केल्लंप नोवुधुरतमं । पडेयनघवेनिसुबमधुगळ । नेडेमडगवे कुडुगुमुचित मांगकुजं ॥५॥ पळि चित्रावळिभोगं । पळि बिडे देवांगब वसनंगळनें ॥ घळियिपुदोमंडिपळकन । परिणहतनेने पोल्तुविषदवसनांगकुजं ॥६॥ मघमधिप जादिपोंगे-। दगेमल्लिगेयेंब पलवु पूमालेगळं ॥ अगेयरिदुनीयुगुमा-। लेगानं पोल्तुदग्रमाल्यमहीजं ॥७॥ मकुटं केसर क-। रणकुतलकोप्पुसरिगे दुसरं मरिणमु-॥ द्रिकेतिसरमेंब भूषा-। निकायम भूषणांगतरु कुडुतिक्कु ॥८॥
आपोत्तु मरिणदीपक-।ळापोयज्योतिगळं दिशा मंडलमं ॥ व्यापिसुत्तिरेसोगियसुत्रु । दीपांग ज्योतिरंग कल्पकुजंगळ् ॥६॥ अतिसूदुरवदायिगळं । ततधनसुषिरावनत वाद्य गर्ने । मतमरेदोल गिपुदुदं । पाडगेदुमवार्यवीर्यतूर्यक्सजं ॥१०॥
अर्थ-स्वणं की बनी हुई दीवाल से युक्त ऐसी नाट्यशाला, बड़े सुन्दर दरवाजों से युक्तमहल, इत्यादि नाना प्रकार के मकान जो कि उन भोगभूमि के मिथुन को इद्रिय सुखदायक हो उन सबको देनेवाले गृहोम जाति के कल्प वृक्ष हैं ॥ १ ॥
अत्यन्त सुख देने वाले स्वर्ण और मणियों से बने हुए नाना प्रकार के