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( २२७ ) निष्क्रिया-रूप शुसात्म भावना में अपने मन के परिणाम को प्रयत्न-पर्वक प्राकर्षित करते हुए स्वपर-वैय्यावृत्ति की अपेक्षा न रखकर शरीर भार को छोड़ना इगिनी मरण है।
५ पय॑वासन, २ एक पाश्र्वासन, ३ पादोपादान, इन तीनों में से किसी एक ग्रासन को नियत करके चतविशति तीर्थकरके गुणस्तवन, रूपस्तवन, और बस्तुस्तवन करते हुए पालोचना, प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त नियमादि दण्डकों में अपने वचन को स्थिर करके दर्शन विशुद्ध यादि घोर भावनामों को भाने हा देव मयुष्य, तिथंच इन तीनों से होने वाले चेतनोपसर्ग, अशनिपात (अग्निपात) शिलापात, बज्रपात, भूपात, गिरिपात, वृक्षपात, वनाग्नि. दावाग्नि, विषभूमि, (नदी की बाढ) नदी पूर, जल वर्षण, शीतवात प्रातप इत्यादि से होने वाले अचेतनोपसर्ग और प्रबल अग्निपुटपाक से गलते हुए निर्मल कान्ति युक्त सोने के समान परम उपशान होते हुए निज परमात्म स्वरूप में अपनी परगति को अविचल वृत्ति से रखते हुए सम्यक सन्यसन रूप वीर शय्यासन को स्वीकार करने परवैव्या वृत्ति को अपेक्षा बिना शरोर परित्याग करने को प्रायोपगमन मरग (प्रायोग मरण) कहते हैं। इन तीन प्रकार के मरण को पण्डित मरण कहते हैं।
तद्भव अर्थात् उसी भव में समस्त कर्मों को क्षय करके समय मात्र में लोकायनिवासी होने वाले जीवों के मरण को पंडित मरण कहते हैं। अथवा पूर्व जन्म में बंधी हुई आयुकम की स्थिति विनाश को मरण कहते हैं। स्नेह, पैर, मोह आदि सब परिग्रह त्याग कर, वन्धु जन से क्षमा याचना करके, निःशल्य भाव से परस्पर क्षमा करते हुए, प्रिय वचन से समाधान पूर्वक, बन्धु जनों की सम्मति से, अपने गृह से बाहर निकलकर, मुनिजन के निवास में जाकर, अपने समस्त दोषों को पालोचन करके, शुद्धान्तरंग हो आमरण महाव्रत धारण करके, गुरु की अनुमति से चारों अाराधना पूर्वक सस्तरण पर बैठकर पेय पदार्थ को छोड़ बाकी तीनों प्रकार के, आहारों को त्याग करके प्रत्याख्यान पूर्वक स्निग्धपान सरपान दोनों में से किसी एक का परिणामों की शान्ति निमित्त पान करे फिर आत्म शक्ति के विकास होने पर इस का भी त्याग कर देते हैं । इस प्रकार निरवधि प्रत्याख्यान रूप उपवास धारण करते हुए पंच परमेष्ठी को स्वात्म स्वरूप में स्थापित कर, मन को अपने अधीन कर सब प्रयत्न से, शीत, उष्ण, दशमंशम आदि परिषह को सहन करके दृढ़ पयंकासन से वैठकर, मुनि जनों के द्वारा पठित णमोकार मंत्र प्रादि को सुनते हैं । मंत्र इस तरह है
परण तीस सोल छप्परग, चवुदुग मेगं च जवह भाएह । परमेट्ठिवाचयारणं अण्णंच गुरूवएसेन ॥४॥