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( २९३३) के कम हो जाने पर शेष अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में तथा सूक्ष्म-सांपराय, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय इन गुण स्थानों में १४ परीषह होती हैं।
ज्ञानावर और अन्तराय कर्म के नष्ट हो जाने के कारण १३वें गुरण स्थान में प्रज्ञा, अज्ञान तथा अलाभ परीषह नहीं होती अतः शेष ११ परीष ह होती हैं।
वेदनीय कर्म की सत्ता के कारण १३वें गण स्थानवर्ती प्ररहन्त भगवान को ११ परीषह कही जाती है, किन्तु वास्तव में ये परीषह अनन्त बली, तथा अनन्त सुख सम्पन्न अरहन्त भगवान को रंच मात्र भी कष्ट नहीं दे सकती । जिस प्रकार औषधि द्वारा शुद्ध किया हया शंखिया ग्रादि विष भी मारण शक्ति से रहित होकर खाने पर कुछ मनिष्ट नहीं करता इसी प्रकार मोहनीय कर्म के न रहने से वेदनीय कर्म भी अपना अनिष्ट फल देने योग्य नहीं रहता तथा वृक्ष की जड़ काट जाने के पश्चात् उसमें फल, फूल पत्ते आदि नहीं पाते, बल्कि वह सूख कर नीरस हो जाता है इसी प्रकार मोहनीय कर्म के समूल नष्ट हो जाने पर वेदनीय कर्म भी शक्ति रहित नीरस हो जाता है। वह मोहनीय कर्म की सहायता न मिलने के कारण अपना कुछ भी फल नहीं दे पाता तथा जिस प्रकार प्रात्मध्यान निमग्न योगियों को शुक्ल ध्यान के समय वेद कर्मों की ससा रहने पर भी तथा लोभ कषाय और रति के रहते हुए भी मैथुन संज्ञा
और परिग्रह संज्ञा नहीं होती, इसी प्रकार अरहन्त भगवान को अनन्तात्म सुख में निमग्न होने के कारण वेदनीय कर्म की परीषह दुःखदायी नहीं बन पाती।
वेदनीय प्रघाती कर्म है। इसलिए यह घाती कर्म की सहायता के बिना अपना फल नहीं दे सकता। बेदनीय कर्म का सहायक मोहनीय कर्म है । वह १३ वें गुण स्थान में समूल नष्ट हो जाता है । अतः वेदनीय कर्म असहाय हो जाने से परहन्त भगवान को वह दुःख प्रदान नहीं कर सकता। इस कारण वास्तव में १३२ गुण स्थान में कोई भी परीषह नहीं होती।
नरक गति और तिर्यच गति में सभी परीषह होती हैं । मनुष्य गति में भिन्न-भिन्न गुण स्थानों में यथायोग्य परीषह होती है । देव गति में भूख, प्यास, नग्नता, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, सत्कार पुरस्कार, प्रज्ञा, अशान, प्रदर्शन ये १४ परीषह होती हैं ।
इन्द्रियमार्गणा और कषाय मार्गणा में सभी परीषह होती हैं । बारह तपःद्वादशविधतपः ॥४६॥ अर्थ-तप १२ प्रकार के होते हैं । भेद अभेद रूप प्रकट होने में या कर्म