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________________ की उत्कृष्ट स्थिति है । जघन्य स्थिति अन्त मुहूर्त होती है। नारकी, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, सम्मूर्छन, नपुंसक होते हैं । गर्भज नर तथा तिर्यच, नपुंसक, स्त्री, पुरुष वेद वाले होते हैं । भोग भूमि के जोव व देव स्त्री पुरुष वेदी होते हैं। गाथा-- निरयगिविगला समुच्छनपंचनक्खाय होंति संढाई । भोगासुरसत्थूणा तिबेदना गब्भ नर तिरया ।।। अब मध्य लोक का प्रमाण लिखते हैं। इस मेरु पर्वत के मूल से लेकर अन्त के समुद्र के अन्त तक जो चौड़ाई है वह सभी तिर्यक्लोक कहलाता है। . तत्राद्धं द्वितीयद्वीपसमुद्रौमनुष्यक्षेत्रम् ॥२॥ अर्थ---उस असंख्यात द्वीप समुद्र में पहिले मध्य का १ लाख योजन विस्तार वाला जम्बू द्वीप है । उससे दूना विस्तार बाला लवण समुद्र है । उस से दूना विस्तार वाला धातकी खंड द्वीप है । उससे दूना विस्तार वाला कालोदधि " समुद्र है। उसके प्रमाण अष्ट योजन लक्ष प्रमाण बलय विस्तार वाला अर्ध पुष्करवर द्वीप है। इस प्रकार से ४५ ००,००० योजन विस्तार वाला मनुष्य क्षेत्र है । इस प्रकार यह ढाई की है। यह दो समुद्रों से घिरा हुआ मानुषोत्तर पर्वत तक है। मानुषोत्तर पर्वत १७२१ योजन ऊंचा और १०२२ योजन चौड़ाई मूल की तथा ४२४ योजन ऊपर की चौड़ाई है, ऐसे स्वर्ण वर्ण युक्त उस पर्वत के ऊपर नैत्रत्य वायव्य दिशा बिना बाकी ६ दिशा में ३-३ कूट हैं । उनके अभ्यंतर महादिशा के चार कूटों में जिन मंदिर हैं । उस पर्वत तक भनुष्य रहते हैं उसके बाहर जाने को मनुष्य में शक्ति नहीं है। .. ऐसा मनुष्य क्षेत्र प्रार्य, म्लेच्छ, भोग-भूमिज, कुभोग-भूमिज ऐसे पार प्रकार का है। उसमें प्रार्य खंड में उत्पन्न हुश्रा मनुष्य प्राय कहलाता है। उनमें पर्याप्तक अपर्याप्तक ऐसे दो भेद हैं। वहां पर्याप्तक की मासु अधन्यं से अन्तमुहर्त है । उत्कृष्ट मायु एक करोड़ पूर्व है अपर्याप्त मनुष्य की अन्तमुहर्त श्रायु होती है । इनमें लब्ध्यपर्याप्तक जीव एक उच्छवास काल में १८ बार जन्म और मरण करते हैं । म्लेच्छ की आयु जघन्य अन्तमुहूर्त, उत्कृष्ट एक करोड़ पूर्व होती है । भोगभूमिवाले की प्रायु स्थिर भोग भूमि में एक, दो, तीन पल्य की होती है । अस्थिर भोगभूमि वाले की अनन्य भायु समयाधिक एक करोड़ पूर्व
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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