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________________ { २५५ } सभी दु:ख द्वन्द्व मिटकर चित्त शुद्ध हो जाता है । यतः यह कायक्लेश लप प्रयत्न के साथ करना चाहिए 1 प्रमादवश छोटे-मोटे दोष हो जाने से देश काल तथा शक्ति संहनन आदि के अनुसार संयम पूर्वक उपवास आदि करना प्रायश्चित्त तप कहलाता है । सम्यक्त्वादि उत्तम गुणों से सुशोभित गुणी पुरुषों का विनय करना तथा उनके शरीरस्थ पीड़ा को दूर करने के लिए औषधिप्रादि उपचारों से स्वयं सेवा, करना या दूसरों से कराना वैयावृत्य कहलाता है । द्रव्य क्षेत्र काल भाव की शुद्धि पूर्वक शास्त्र का स्वाध्याय करना तथा स्वाध्याय करानेवाले श्रुतगुरुनों की भक्ति भाव से पूजा तथा श्रादर सत्कार करना स्वाध्याय नामक तप कहलाता है । कर्म बन्धन के कारणभूत सभी दोषों को त्याग देना व्युत्सर्ग तप कहलाता है । बाह्य रामस्त पर पदार्था से मन को सर्वथा हटाकर केवल अपने शुद्धात्मा में एकाग्रता पूर्वक लीन रहना ध्यान तप है । पंच पद का महत्व: — श्री करमभीष्टसकल सुखाकर मपवर्ग कारणं भवहरणं लोकहित गड निरुपम पंचपदम् । २०० । दशविधं प्रायश्चित्तानि ॥४७॥ , अर्थ-ग्रालोचना, प्रतिक्रमना, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार, उपस्थापना और श्रद्धान ऐसे प्रायश्चित्त के १० भेद हैं । इस प्राथश्चित्त को बुधजन प्रमाद परिहार के लिए भावशुद्धि के लिए, मन की निश्चलता के लिए और मार्ग में लगे हुए दोषों के परिहार के लिए, संयम की हृढ़ता के लिए एवं चतुविधाराधन की वृद्धि के लिए निरन्तर करते रहते हैं । गुरु के द्वारा प्रश्न करने पर अपने मानसिक दोषों को एकान्त स्थान में स्पष्ट रूप से बतलाकर पाप क्षालनार्थ शिष्य जब अपने गुरु के संनिकट प्रायश्चित लेने को प्रस्तुत हो जाता है और उत्तम श्रावक जघन्य श्रावक ब्रह्मचारी क्षुल्लक ऐलका ग्रायिका आदि गर्व तथा लज्जा का त्यागकर किए हुए पापों की आलोचना करता है तो उसका व्रत सफल होता है किन्तु यदि उपयुक्त आलोचना न करके अपने पापों को छिपाता है तो उसके सभो व्रत व्यर्थ हो जाते हैं। इस प्रकार जिसे स्वर्गापवर्ग की प्राप्ति करतो हो उसे विशुद्ध मन से के निकट अपने पापों को नष्ट करने के लिए प्रायश्चित्त ग्रहण करना गुरु चाहिए ।
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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