Book Title: Madhyam vrutti vachuribhyamlankrut Siddhahemshabdanushasan Part 02
Author(s): Rajshekharvijay
Publisher: Shrutgyan Amidhara Gyanmandir
Catalog link: https://jainqq.org/explore/004402/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद्हेमचन्द्राचार्यविरचित श्रीसिद्धहमराब्दानुशासन मध्यमवृत्त्यवचूरि-संवलितम्। MAAT 15.3 ASTER ONM KOMALE MIN तत्त्वज्ञानात् परमश्रेयः। अर्थनिर्णयात् तत्त्वज्ञानम्। 3 पदसिधरयोनिर्णयः। व्याकरणात् पदसिद्धि: 1 श्रीसिठीम (व्याकरण सम्पादकः संशोधकश्च-पू० मुनिराज श्री राजशेखरविजयजी म० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० पू० आचार्य श्रीक्षमाभद्रसूरिजी महाराजनी साहित्य सेवा 1 हैमप्रकाश पूर्वार्ध 2 हैमप्रकाश उत्तरार्ध 3 जिनगुण अमीधारा 4 हैमलिंगानुशासन (केशर वि. कृत टिप्पण) 5 हैमलिंगानुशासन (स्वोपज्ञविवरणादि युक्त) 6 अनंतनाथ चरित्रमाथी उद्धृत पूजा कथा 7 जैन ज्योतिष ग्रन्थ संग्रह 8 सावचूरिक श्री प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार (श्री हैमीयद्वात्रिंशिकाद्वययुक्त) 6 सावचूरि मध्यमवृत्ति (प्रथम विभाग) 10 हैमचन्द्रिका Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // सिद्धान्तमहोदधि-श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरेभ्यो नमः / / कुमारपालभूपालप्रतियोधक-लब्धसरस्वतीप्रसाद-कलिकालसर्वज्ञ-श्रीहेमचन्द्रसरिप्रणोतं 9 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनम् // [मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम्] तस्यायम्द्वितीयो विभागः . टीप्पणकादिना समलंकृत्य संपादकः संशोधकश्चसिद्धान्तमहोदधि-कर्मसाहित्यनिष्णात--विशालगच्छाधिपति-श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरा- ऽन्तेवासि-निरीहतानीरधि--करुणाकन्द-परमगीतार्थ-पंन्यासश्रीहेमंतविजय. गणिवर्य-विनीतविनेय-पूज्य-मुनिवर्य-श्रीललितशेखरविजय चरणारविन्दचश्चरीकमुनिवर्यश्रीराजशेखरविजयः * चीर संवत् 2491] विक्रम संवत् 2021 ई० सन् 1965 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: श्री श्रुतज्ञान अमोधारा ज्ञानमंदिर शाह पूनमचन्दजी गोमाजी मु० बेड़ा (राजस्थान) प्राप्तिस्थान : - श्रीविजयप्रेमसूरीश्वरज्ञानमंदिर | * श्रीश्रुतज्ञान अमीधारा * संघवी वाडीलाल. धुराभाई पिंडवाडा (राजस्थान) रांधेजा (वाया कलोल) . मुद्रक : 1 थी 100 पृष्ठमनोहर प्रिन्टिग प्रेस ब्यावर (राजस्थान) मुद्रक : 101 थी सम्पूर्णज्ञानोदय प्रिन्टिग प्रेस, मेनेजर फतहचन्द जैन . पिन्डवाडा (राजस्थान) . Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालभूपालप्रतिबोधक लब्धसरस्वतीप्रासाद कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज दीक्षा सूरिपद निर्वाण वि. सं. 1145 वि. सं 1154 वि. सं. 1166 वि. सं. 1226 जम्म 41 SS परमाईत श्रीकुमारपाल भूपाल राज्याभिषेक बारव्रत स्वीकार वि. सं. 1166 वि. सं. 121 जम्म वि. सं. 1146 स्वर्गगमन वि. सं. 1230 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE SIDDHAHEM-SHABDANUSHASANA of * Kalikalasarvagya Shrimad Hemachandracharya With Madhyam Vritti (Commentry] And Avachuri Part II EDITED BY MUNI RAJSHEKHARVIJAY Disciple of MUNI LALITSHEKHARVIJAY Disciple of PANNYAS HEMANTVIJAYJI GANIVARYA Disciple of SIDDHANT MAHODADHI ACHARYA VIJAY PREMSURISHWARJI A.D. 1965 Vir Samvat 2491 Vikram-Samvat 2021 Can be had from - [1] Shree Vijay Premsurishwar Gyan Mandir PINDWARA (Rajasthan) INDIA [2] Shree Shrutgyan Amidhara C./ Sanghvi Vadilal Dhoorabhai RANDHEJA [(via Kalol) GUJ.] INDIA Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गुरुस्तुतिः // श्रीदानसरिवक्त्रस्यन्दात्स्यन्न कृपामृतं पीत्वा। यः साम्प्रतसममुनिषु विबुधीयते कर्मसाहित्ये . // 1 // आर्या यं सोमसमं सौम्यं दृष्ट्वा तिनां चकोरति स्वान्तम् / येन परिपाल्यते साद्विशतव्रतिगणो भव्यः // 2 // ,, यस्मै श्लाघन्ते गौर्जरादयो मुक्तकण्ठत इदानीम् / यस्माद् भव्यजनगणो वाञ्छितमाप्नोति सुचरित्रात् / / 3 // , यस्य स्पों विघ्नविघातनिदानं पवित्रपद्रेणोः। यस्मिन् करुणाब्धौ शत्रुर्मित्रं तुल्यतां याते // 4 // स समतासुधासिन्धुः श्रीप्रेमसरिकुञ्जरः / सनात्करोतु संवासं मम मानसमन्दिरे // 5 // अनुष्टुब तं सकृदेव भोजिष्णु जितजिह्व स्तवाम्यहम् / तेन प्राप्नोमि कल्याण-मनन्तं सवेदाऽचलम् // 6 // तस्मै नमोऽस्तु भावेन ज्ञानमग्नाय सर्वदा / तस्माद् भव्याञ्जभानेमेः विवोधतु तित्रजः // 7 // तस्य रतस्य चारित्रे ब्रजामि शरणं सदा। तस्मिन् स्थितं गुणस्तोमं प्रशंसे तत्प्रलिप्सया // 8 // इत्थं मयाऽत्र सुनुतो वतिनां वरेण्यः , कक्षीकरोतु सततं मम दासभावम् ; तस्मादहं खलु सदा सविभुभवेयम् , मेऽयं सुदुलभभवः सफलश्च भूयात् // 9 / / वसन्ततिलका स्तुतिकार:पू० मु० श्रीराजशेखरविजयजी म० Page #9 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F FEDEDEEDEREDEREDEEDEREDEREDEE सिद्धान्तमहोदधि कर्मसाहित्यनिष्णात वात्सल्यवारिधि आचार्यदेव श्रीमद्विजय प्रेमसूरीश्वरजी म० FEDEEEEEEEEEEEEEEEDEDDEDEHAHEEDEDEDERED REEDEDEREDEEMEDEREDEEDEREDEREDEEDEDEDERED जन्म दीक्षा गणिपद पंन्यापपद उपाध्यायपद आचार्यपद वि.सं.१६४०वि.सं.१६५७ वि.सं.१६७६ वि.सं.१९८१ वि.सं.१९८७ वि सं.१६११ पिंडवाड़ा पालीताणा डभोई अहमदाबाद बम्बई राधनपुर (मारवाड़) (सौराष्ट्र) (गुजरात) (उ.गुजरात). फEEEEEEEEDEDEEDERED Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादर समर्पण A ddit सिद्धान्तमहोदधि कर्मसाहित्यनिष्णात परमकृपामृतसिन्धु विशालगच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरजो महाराज साहेब ! मानवीने स्वर्गना अमृतनी पिपासा त्यां सुधी ज रहे छे, ज्यां सुधी आपना कृयामृतर्नुपान नथी कयु. आपना कृणामृतनु पान करवा श्रीमंतो लक्ष्मीने रझळती मूकीने आपनी सेवा करे छे. कलैया कुंवर जेवा नव युवानो संसारना रंग-राग भूलीने आपनी पाछळ दोड़े छे. पुण्यशाली मानव ज आपना कृपामृतनु पान करी शके छे. आपना कृपामृतनी महत्तानु वास्तविक वर्णन करवा मने शब्दो ज नथी मळता. छतां मारो अनुभव अटलुतो अवश्य कहे छे के स्वर्गर्नु अमृत विबुध (देवता) थया पछी प्राप्त थाय छे; ज्यारे आपर्नु कृपामृत तो अविबुधने (मूर्खने) पण विबुध (विद्वान) बनाववानी असाधारण शक्ति धरावे छे. अनिवर्णनीय आपना कृपामृतना पानथी ज थयेल यत् किंचित् आ प्रयत्नने आजीवन आपना कृपामतर्नुपान मळे अवी पवित्र भावनाथी आपना कल्याणकारी कर-कमलमां समर्पण करुं छु. -आपनो कृपापात्र शिशु राजशेखर Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सहायकोनी नामावली * तपस्वी पू० मुनिराज श्रीभावविजयजी | रूपिया नाम गाम महाराजना सदुपदेशथी 25) ,, कान्तिलाल सरूपचंद नवा डीसा 25) ,, मोतीलाल मोहनलाल रूपिया नाम गाम 125) श्री नाणा संघना ज्ञानखातामांथी. नाणा | पू० मु० श्रीदया वि० म० ना उपदेशथी 250) श्री वेरावळ संघना ज्ञानखातामांथी. वेरावळ 130) श्री नाणानी श्राविकाओ तरफथी. 51) शा रायचंदजी ह० देवीचंद भाई 51) भाणजीभाई टेकाजी 250) श्रीकोट शान्तिनाथजी पेढीना ज्ञान . खातामांथी ह• गुलाबचंद मुंबई-कोट. पू. मुनिराज श्रीललित वि. म. ना उपदेशथी 100) शा. ओतमचंद वसनजी .. वेरावळ 100) श्री वीटा संघना ज्ञानखातामांथी. वीटा 100), अचलाजी वीरभाणजी- शिवगंज 100) श्री कुम्भोज तीर्थ कमिटीना ज्ञान 100), रीकबाजी मनाजी लुणावा खातामांथी. कुम्भोज 50) ,, केसरीमलजी साकळचंदजी शिवगंज 50) शा रतिलाल राजाराम वीटा 50), हिमतमलजी रूपाजी लुणावा पू. मुनिराज श्रीतीर्थप्रभ वि.म.ना उपदेशथी 50), धरमचंदजी ताराचंदजी नांवी 1501) नवा डीसाना ज्ञानखातामांथी. नवा डीसा | 50), वर्धमानमाई टोकरशीभाई वेरावळ ह० खुबचंद बीरचंद 50) ,, श्रीप्रभासपाटण संघना ज्ञानखाता७५०) श्रीविश्वनंदीकर संघ तरफथी. अमदावाद मांथी. ह. जादवजीभाई प्रभासपाटण . अरुण सोसायटी 50), हरखचंद रायचंद प्रभासपाटण 503) श्री अजित संघ तरफथी श्री जिनगुण 50) , जिनदास रामचंद वेरावळ अमीधारामां आवेल ज्ञानना. ह० प्रभुभाई 500) जुना डीसा उपाश्रयना ज्ञानखातामांथी. 50) मनसुखलाल केशवलाल ह० शेठ मफतलाल 50) डॉक्टर धीरूभाई छोटालाल 400) जुना डीसा धर्मशाळाना ज्ञानखातामांथी. 52) शा० रजंत कुपनी . ह० बचुभाई कांटी ह० बाबुभाई 300) डीसा-राजपुरसंघना ज्ञानखातामांथी. 50) शा० प्राणलालभाई ओइलमील वेरावळ 200) जना डीसाना उपाश्रयनी श्राविकाओना 50) शा० खाते, ह० चीमनभाई ज्ञानखातामांथी. ह0 समुबहेन 30) , हंसराजजी पेथाजी दानराई 100) डीसा राजपुरसंघना ज्ञानखातामांथी. 25) ,, गोरधनदास दीपचंदभाई वेरावळ ह० पोपटलाल 25), मणिलाल लालभाई 25) शा. देवचंद मगनलाल नवा डीसा 25) , गुलाबचंद भीमजी 25), मणिलाल परशोत्तमदास 25) "नागरदास चत्रभुज 25) , मफतलाल मोहनलाल 10), चीमनलाल Page #13 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासनप्रभावक प्रखरवक्ता परमनिःस्पृही परमपूजनीय श्रो अमोवि ज य जी महाराज प०पू० मुनिराज श्री अमीविजयजी म. आचार्य भगवंत श्री क्षमाभद्रसूरिजी . तपस्वीरत्न पूप.श्री भक्तिवि.म., पू.मु.श्री गुणवि.म., पू.श्री भाववि.म, पू.श्री माणक वि.म. वगेरे मुनिमंडल * Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F हैमप्रकाश इत्यादि अनेक ग्रन्थों के सम्पादक एवं संशोधक NAINAMAN आचार्य श्रीक्षमाभद्रसूरीश्वरजी म. NAINIKHIR KI ASTHANI || |100\AIN |AIN |JAN | TRAINIKANT WITHIN Jio THAN | NAINIKANAKANAINANT IN MAINAUKHIRAM |HAN||HAIRMAN || NITIAN STATRAHINAMIKARAN, TRAiRATHIRAINIRONIJHIANIMATION ABHINE जम्म दीक्षाबड़ी दीक्षा पंन्यासपद उपाध्यायपद आचार्यपद विसं.१६५८ वि.सं.१६७३ वि.सं.१६७५ वि.सं.१६६० वि.सं.१६६२ वि.सं.१६६४ जंबु बीकानेर महेसाणा अहमदाबाद बम्बई बम्बई (पजाब) (मारवाड़) (3 गुजरात) FILM Page #16 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܗܗܗܗ श्रीहेमंतविजयजी गणिवर्य निरीहतानीरधि करुणाकन्द परमगीतार्थ पूज्य पंन्यासप्रवर ܗܐ ////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////// Page #18 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सूत्रविषयानुक्रमणिका * विषयः सूत्राङ्क: विषयः सूत्राङ्क: तृतीयोऽध्यायः अद्यतन्यां ते परे बिच्प्रत्ययविधानम् 66-68 स्यसिजाऽऽशीःश्वस्तनीषु जिप्रत्ययविधानम् 69 तृतीयः पादः भावकर्मणोः शिति क्यप्रत्ययविधानम् 70 अनुक्रमेण वृद्धि-गुण-धातुसंज्ञाविधानम् 13 शव श्य-श्नु-श्ना-प्रत्ययविधानम् 71-79 प्रादेरुपसर्गस्य धातुसंज्ञानिषेधः श्नायुक्तहिप्रत्ययस्यानादेशः दाधारूपाणां धातूनां दासज्ञाविधानम् श-श्नप्रत्ययविधानम् 81-82 वर्तमाना-सप्तमी-पञ्चमी-यस्तनीसंज्ञाविधानम् 6-9 उप्रत्ययविधानम् वर्तमानादिचतुर्विभक्तीनां शित्संज्ञाविधानम् 10 बि-क्या-ऽऽत्मनेपदानां विधिनिषेधौ 84-94 अद्यतनी-परोक्षा-ऽऽशी:-श्वस्तनी-भविष्यन्ती चतुर्थोऽध्यायः क्रियातिपत्तिसंज्ञाविधानम् 11-16 विभक्तिवचनानामस्मदाद्यर्थे प्रयोगविधानम् 17-18 प्रथमः पादः द्वित्वप्रकरणम् 1-15 परस्मैपदा-ऽऽत्मनेपदसंज्ञाविधानम् 19-20 द्वित्वाभावप्रकरणम् सकर्मकाद्धातोः कर्मण्यकर्मकाच्च भावे आत्मने 16-33 पदस्य कृत्यक्तखलानां च प्रत्ययानां विधानम 21 द्वित्वे सति परस्य नानादेशाः 34-37 कर्तर्यात्मनेपदविधानम् द्वित्वे सति पूर्वस्य नानादेश 22-99 कर्तरि परस्मैपदविधानम् 100-108 लुगात्व-गुण-न्याद्यागम-वृद्विधानम् 38-72 य्वृन्निषेधप्रकरणम् 73-78 तृतीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः वृद्विधानप्रकरणम् 79-90 स्वार्थ आय-णिङ्-डीय-सन्-यप्रत्ययविधानम् 18 प्यायतेः पीरादेशः 91-93 भृशाऽऽभीक्ष्ण्याद्यर्थे यङ्प्रत्ययविधानम् 9-12 क्तयोः परयोः धातूनां नानादेशविधानम् 94-101 यड्प्रत्ययनिषेधः 13 यवृतः सकृद्विधानम् 102 यङ्लुब्विधानम् 14-15 अन्त्यम्वृदादीनां दीर्घत्वविधानम् 103-107 यङ्लुबभावविधानम् च्छवोः शूटविधिः 108-109 णिचप्रत्ययविधानम् 17-18 च्छवोलुंग्विधानम् 110 णिप्रत्ययविधानम् चजोः कत्वगत्वविधानम् 111 प्रयोक्तृव्यापारे णिगप्रत्ययविधानम् न्यवादीनां निपातः 112 इच्छायां सन्प्रत्ययविधानम् चजोः कत्वगत्वनिषेधः 113-120 नाम्नः काम्य-क्यन् क्विप क्या क्यन् वीरुन्यग्रोधयोर्निपातः णिङ् णिच्-प्रत्ययविधानम् 22-43 चतुर्थाध्यायस्य द्वितीयः पादः णिज्योगे आदेशादिविधानम् 4445 सन्ध्यक्षरादीनामात्त्वस्य विधिनिषेधौ 1-13 परोक्षायामामो विधानम् णी परे नानादेश नानागम-हस्वत्ववत्तः पञ्चम्याः स्थाने आविधानम् 52 दीर्घत्वादि-विधानम् .. 14-41 अद्यतन्यां सिच-सक्-का-ऽङ्प्रत्ययविधानम् 53.65 / कृतगुणस्य गुहेरुपान्त्यस्य ऊत्वविधानम् 42 121 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 8 ] विषयः सूत्राङ्कः विषयः सूत्राङ्कः वकारान्तस्य भुव उपान्त्यस्य ऊत्वविधानम् 43 / अतः परयोर्याम्युसोरियमियुसादेशौ 123 गमादीनामुपाम्त्यस्य लुग्विधानम् . धातोरुपान्त्यनस्य लुम्विधानम् चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः 45-54 धातोरन्त्यस्य लुग्विधानम् 55-58 गुणविधानम् गमादीनां लुग्दीर्घत्वयोनिषेधः / गुणवृद्धिनिषेधः धातोरन्तस्यात्वविधानम् 6064 गुणनिषेधः 12-14 पञ्चमस्य वनि परे आ-आविधानम् विण्धात्वोर्वकारयकारादेशौ अपपूर्वस्य चायः क्तौ चिरादेशः इधातोर्यकारादेशः क्तक्तवतु-क्तिषु ह्लादो ह्रदादेशः / डिद्वद्विधानम् 17-20 क्ति-क्त-क्तवतूनां तकारस्य नकारादेशः किद्वद्विधानम् 21-26 क्तक्तवत्वोस्तकारस्य नकारादेशः / 69-77 किद्वन्निषेधः 27-30 :-शुषि-पचिभ्यः परस्य क्तयोस्तस्य किद्वद्विधानम् 31-41 यथासंख्यं म क व इत्यादेशाः 78 वृद्धिविधिनिषेधौ 42-52 क्तान्तशब्दानां निपातनम् 79-82 आत ऐकारादेशः 53 पञ्चम्या हिप्रत्ययस्यादेशादिविधानम् 83 86 वृद्धिनिषेधः 54-57 प्रत्ययसम्बन्धिन उकारस्य लुग्विधानम् 87-88 परोक्षाणवो विकल्पेन णित्त्वविधानम् 58 शित्यविति कृगोऽकारस्योकारादेशः व्यञ्जनादौ विति उकारान्तस्य धातोरौकारः 59 श्नाप्रत्ययस्यास्तेश्वाकारस्य लुग्विधानम् व्यञ्जनादौ विति ऊोर्विकल्पेनौत्त्वविधानम् 60 अनः पुसादेशः 91-93 दिस्योः परयोः ऊोरौत्त्वनिषेधः अन्तो नकारस्य लुग्विधानम् 94-95 तृहेः भात्पर ईकारः व्युक्तजक्षपञ्चतः श्नासंबधिनश्वाकारस्य ब्रूतेरूकारात् परादेरीकारस्य विधानम् 63 लुग्विधानम् यङ्तु-रु स्तुभ्यः परादेरीतो विधानम् 64 व्युक्तजक्षपश्चतः श्नासंबन्धिनश्चाकारस्य दिस्योः सिजस्तिभ्यः परादेरीतो विधानम् 65 ईकारादेशः सिचो लुम्विधानम् 66-68 दरिद्रातेर्बिभेतेश्चान्तस्य इकागदेशः . 98-99 सिचो लुपि सन्धातोरन्तस्याकारादेशः जहातेरन्त्यस्येकारादेशादिविधानम् 100-102 सिचो लुग्विधानम् 70-73 ओकारस्य श्ये परे लुम्विधानम् 103 सको लुविधानम् 74-75 शिति धातूनां नानादेश ह्रस्वत्वविधानम् 104.108 दरिद्रातेरन्तस्य लुग्विधानम् 76-77 क्रमादीनां दीर्घविधानम् 106-113 व्यञ्जनान्तधातोः परयोः दिस्योः लुग्विधानम् 78-81 अन्तोऽदाद्यादेशविधानम् 114-116 व्यअनान्तधातोः परयोर्य-क्योरशीति लुग् 80-81 वेत्तेः परेषां तिवादीनां णवाद्यादेशाः 117 अशित्यकारान्तधातोरकारस्य लुग - 2 ब्रूगः परेषां तिवादीनां पञ्चानां णवाद्यादेशाः 118 णेलुगविधानम् तु-ह्योस्तातङादेशः 119 णेरयादेशः आकारात्परस्य णव औकारादेशः यपि मेडो मित् क्षेश्च क्षीरादेशः / 88-89 अकारात्परेषामातामादीनामात इकारः 121 यप्रत्ययेऽनिपातनम् 90-91 अतः परस्य सप्तम्या याशब्दस्येदादेशः 122 / सकारान्तधातोः तकारोऽन्तादेशः . 92 83-84 85-87 120 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः 1-28 [ 9 ] विषयः सूत्राङ्कः सूत्राङ्क: विकृत्यशिति स्वरे दीको दीयादेशः 93 | कर्मकर्तरि घुर-केलिमप्रत्ययाः आकारान्तधातोरन्तस्य लुगादिविधानम् 94-98 / कर्तरि निपातनम हन्ते नादेशाः 99-101 कतरिक्तविधानम् अङि प्रत्यये धातूनामादेशाः 102-103 आधारे क्तविधानम् शीडोऽनुक्रमेण एकारः शय् चादेशः 104-105 भावे क्त्वातुममां विधानम् उपसर्गात्परस्योहतेरिणश्च ह्रस्वविधानम् 106-107 अपादाने निपातनम् भन्त्यस्वरस्य दीर्घत्वविधानम् 108 कर्मादिषु उणादीनां विधानम् ऋदन्तस्य ऋकारस्य ‘री रि' इत्यादेशौ 109-110 अपवादविषये विकल्पेनोत्सर्गविधानम् अवर्णान्तस्य ईकारोऽन्तादेशः 111-112 कृत्यप्रत्ययानां विधानम् क्यन्नन्तानां निपातनम् 113 णक, तृच , अच, अन, णिन् , क, ड, श, ण, क्यनि स्सोऽसश्चागमविधानम् 114-115 अकलू, थक, टनण् , अक, अकन् , अण् ,ण, टक्, चतुर्थाध्यायस्य चतुर्थः पादः .. ङ, णिन् , टक् , खि, अच् , इ, अ, ट, ख, अण् , ख, णिन् ; खश् , खिष्णु, खुकम् , खनट् , ख, धातूनां नानादेशाः धातोरादौ अविधानम् खड् , ड, अ, ट, क, डुघ, विण , मन् , वन , इणिकस्तीनां स्वरादेश्च धातोरादिस्वरवृद्धिः 30-31 क्वनिप , विच , क्विप् , टक् , सक् , क्विप् , अशित्सादि तादिप्रत्ययानामादौ इड्विधानम् 32 णिन् , इन् , क्विप्', क्वनिप् , ड, वनिप् , तिप्रत्यये इटो नियमः अत, क्त, क्तवतु इति अनुक्रमेण प्रत्ययाः 48-174 इटो दीर्घत्वविधानम् पञ्चमाध्यायस्य द्वितीयः पादः 34-35 इटो विधि-निषेध-विकल्पानां विधानम् 36-88 परोक्षाविधानम् शितोर्दिस्योरादौं ईटोऽटश्च विधानम् 89-90 परोक्षायां क्वसुकानौ धातोरादौ स्सटो विधानम् अद्यतनी--शस्तनी--भविष्यन्ती--परोक्षा-वर्तमाना 91-97 धातोः स्वराद् नागमविधानम् विभक्तीनां विधानम् 3-19 98-110 धातोः स्वरादकारागमविधानम् शत्रानशोर्विधानम् 20-21 111-112 ह्रस्वान्तधातोः तागमविधानम् 22-26 क्वसु-शाना-ऽतृशप्रत्ययाः 113 आनप्रत्ययेऽकारागमविधानम् शीलादिसदाधिकारः 27-91 114 आसीन इति निपातनम् 115 तृन् , इष्णु, णुक, स्नु, क्नु, उ, आरु, रु, विङति ऋतः स्थाने इरुर्विधानम् 116-117 आलु, ङि, उकण , अन, ऊक इति प्रत्ययाः 27-48 शास आसः स्थाने इसादेशः 118-120 घिनण्प्रत्ययाधिकारः 49-66 यवोलुग्विधानम् 121 णक, टाक, इन , मरक् , घुर, रु, रुक, लुक, ट्वरप् कृतः कीर्तिरादेशः 122 र, नजिङ्, वर, क्विप् , डु, इत्र, त्रट , त्र इति पञ्चमोऽध्यायः प्रत्ययाः 67-91 प्रथमः पादः ज्ञानाद्यर्थेभ्यो धातुभ्यः सदर्थे क्तविधानम् 92 कृत्संज्ञाविधानम् सदर्थे उणादिप्रत्ययाः बहुलाधिकारः पञ्चमाध्यायस्य तृतीयः पादः / कर्तरि कृद्विधानम् वस्य॑त्यर्थे गम्यादीनां निपातनम् Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 11 [ 1. ] विषयः सूत्राङ्कः विषयः सूत्राङ्कः वर्त्यदर्थाद् धातोः क्तप्रत्ययः 2-3 / णम्प्रत्ययविधानम् 54-88 भविष्यन्ती-श्वस्तनी-वर्तमाना-सप्तमी विभक्तयः४-१२ | सप्तमीविभक्तिविधानम् क्रियायां क्रियार्थायां तुम्-णकच-भविष्यन्त्यण- तुम्प्रत्ययविधानम् भावप्रत्ययानां विधानम् . 13-15 षष्ठोऽध्यायः भावाकोंः घञ्प्रत्ययाधिकारः 16-22 भावाकोंः अल्प्रत्ययाधिकारः 23-53 प्रथमः पादः भावाकोंः घञ्प्रत्ययाधिकारः 54-81 तद्धित-वृद्धथादिसंज्ञाविधानम् भावाकत्रोः क, अथु, त्रिमक, न, नङ् वा-ऽऽद्ययोरधिकारविधानम् इति प्रत्ययाः 82-91 गोत्रप्रत्ययान्तोत्तरपदाद् गोत्रप्रत्ययान्तादिव.. स्त्रीप्रत्ययाधिकारः 92-122 प्रत्ययानां विधानम् .. 12 क्लीबे भावे ता-नट्प्रत्ययौ 123-125 प्राग्जितोयेऽर्थेऽणादिप्रत्ययानां विधानम् 13-23 काद्यर्थेऽनट् प्रत्ययः 126-129 प्राग्जितीयेऽर्थे द्विगोः परस्य प्रत्ययस्य लुप् 24 पुन्नाम्नि घप्रत्ययः 130-131 स्त्रीपुसाभ्यां ननन्प्रत्ययौ . 25-26 पुन्नाम्नि घप्रत्ययः 132-137 गोर्यप्रत्ययस्य विधानम् 27 स्वरूपार्थे इ-कि श्तिवप्रत्ययाः 138 __ अपत्यार्थाधिकारे- ... दुःस्वीषतः परात् धातोः खल् प्रत्ययः 139-140 अण् , इञ् , अब् , यम् , बायन्य, आयनम् , दुःस्वीषतः पराद् धातोः अनट्प्रत्ययः 141 आयनण् अण् , एयण , गैर, एरण ,णार,एयम्, पश्चमाध्यायस्य चतुर्थ पादः इकण , ण, व्य, ईय, डेवण , ईयण , य, इय, य, सत्सामीप्ये सद्वत् प्रत्ययाः . अण् , ण, ईन, एयकम् , एयण, अन् , ईनन् , आशंस्ये भूतवत् सद्वञ्च प्रत्ययाः / व्य, इब , आयनिबित्यादिप्रत्ययाः 28-119 क्षिप्राशंसार्थयोर्भविष्यन्ती-सप्तम्यौ द्रिसंज्ञकादिप्रत्ययानां लुविधानम् 120-134 सम्भावने सिद्धवत् प्रत्ययाः प्रत्ययलुनिषेधः 135-136 अनबतनविहितप्रत्ययनिषेधः युवार्थस्य प्रत्ययस्य लुम्विधानम् 137-143 क्रियातिपत्ति वर्तमाना-सप्तमी-भविष्यन्ती षष्टाध्यायस्य द्वितीयः पादः पञ्चमीविभक्तीनां विधानम् 9-34 रक्तार्थाधिकारः शक्ताईयोः कृत्यप्रत्ययाः नक्षत्रार्थाद् युक्त ऽब्दे प्रत्ययविधानम् आवश्यकाधर्मण्ययोः णिन्-कृत्याः 36 कालार्थाधिकारः . 6.8 अहें तृच्प्रत्ययः समूहार्थाधिकारः ___9-29 आशिष्याशी.पञ्चम्यौ विकारार्थाधिकारः 30.61 मादि उपपदे अद्यतनीह्यरतन्यौ 39-40 पितृ मातृभ्यां भ्रातर्यर्थे व्य-डुलप्रत्ययौ धातो: सम्बन्धेऽयथाकालमपि प्रत्ययानां पितृ-मातृभ्यां मातापित्रो महट प्रत्ययः विधानम् अवेदुग्धेऽर्थे सोढ-दूस-मरीसप्रत्ययाः ..64 भृशाभीक्ष्ण्याद्यर्थेषु हि-स्वादीनां विधानम् 42-43 राष्ट्रार्थाधिकारः 65-68 क्याप्रत्ययविधानम् 44-47 निवासाद्यर्थचतुष्काधिकारः 69-97 ख्णम्प्रत्ययविधानम् 48-53 साऽस्य पौर्णमासीत्यर्थाधिकारः / 98-100 37 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 11 ]. विषयः सूत्राङ्कः विषयः सूत्राङ्कः साऽस्य देवतेत्यर्थाधिकारः 101-111 / षष्ठयन्ताद् धावक्रययोः प्रत्ययविधानम् 50.52 आदेः छन्दसः प्रगाथे वाच्ये प्रत्ययविधानम् 112 प्रथमान्ताद् तदस्य पण्यम् , शिल्पम् , शीलम् , योद्धृ-प्रयोजनाद् युद्ध ऽर्थे प्रत्ययविधानम् . 113 प्रहरणमित्याद्यर्थेषु प्रत्ययविधानम् 53-68 भावघनन्तादस्यामित्यर्थे णः प्रत्ययः भक्ष्यं हितमस्मै नियुक्त दीयते, तत्र नियुक्तमित्यामोऽन्तविधानम दिनानाऽर्थेषु प्रत्ययविधानम् 69-128 प्रहरणार्थाद् क्रीडायां वाच्यायां णप्रत्ययः 116 आईदाधिकारः 129-149 तद्वेत्त्यधीते वा इत्यर्थाधिकारः 117-130 मूल्यैः क्रीते, तस्य वापे इत्यादिनानाऽर्थेषु छन्नाद्यर्थे प्रत्ययविधानम् . 131-136 प्रत्ययविधानम् 150-176 संस्कृतभक्ष्यार्थाधिकारः 140-144 तमहत्याधिकारः 177-185 अपत्यादिभ्योऽन्येऽर्थेऽपि प्रत्ययविधानम् 145 सप्तमोऽध्यायः - षष्ठाध्यायस्य तृतीयः पादः प्रथमः पादः शेषार्थाधिकारः यप्रत्ययाधिकारः तत्र कृत-लब्ध-क्रीत-सम्भूतेऽर्थे प्रत्ययाः 94 / वहत्याधिकारः कुशलार्थाधिकारः . विध्यत्यनन्येनेत्याद्यर्थेषु यादिप्रत्ययविधानम् 8-14 जातार्थाधिकारः . 98152 तत्र साधावाधिकारः 15-21 देर्यणार्थाधिकारः 513-116 तदर्थार्थाधिकारः 22.24 साधु-पुष्यत् पच्यमानाद्यर्थे प्रत्ययाः 117.122 आ तदोऽर्थाधिकारः 25-34 भवार्थाधिकार 123-141 तस्मै हितार्थाधिकारः तस्य व्याख्यानार्थाधिकारः 142-148 तदर्थाद्यर्थाधिकारः 44-50 तत मागतार्थाधिकारः 149-156 वत्प्रत्ययविधानम् 51-54 ततः प्रभवत्यर्थाधिकारः 157156 भावार्थाधिकारः तस्येदमर्थाधिकारः 160-180 भावकर्मार्थाधिकारः 60-77 तेन प्रोक्तार्थाधिकारः 181-160 क्षेत्राद्यर्थाधिकारः 78-107 कृतार्थाधिकारः 191-203 तुल्यार्थाधिकारः 108-139 भजत्यर्थाधिकारः 204-209 प्रमाणाद्यर्थाधिकारः 140-154 तुल्यदिगथोधिकारः 210-212 संख्यापूरणाद्यर्याधिकारः 155-198 . निवासार्थाधिकारः 213-219 सप्तमाध्यायस्य द्वितीयः पादः ____षष्ठाध्यायस्य चतुर्थः पादः / मत्वर्थाधिकारः 1-74 इकणप्रत्ययाधिकारः प्रकारार्थाधिकारः 75-77 तृतीयान्तानाम्नः जितम् , जयति, दीव्यति, खनति, भूतपूर्वार्थाधिकारः 78-80 संसृष्टम् , उपसिक्तम् , तरति, चरति, जीवति, / व्याश्रयाद्यर्थेषु तस्वादिप्रत्ययविधानम् 81-101 निर्वृत्तम् , हरति, वर्तते इत्यर्थेषु प्रत्ययाः 2-27 / प्रकाराद्यर्थाधिकारः 102.108 द्वितीयान्तानाम्नः वर्तते, रक्षति, उच्छति, नति, वारार्थाधिकारः 109-112 तिष्ठति, गृह्णाति, गच्छति, धावति, पृच्छति, | दिग्देशाद्यर्थाधिकारः 113-125 ब्रवति,समवेति, चरतीत्यर्थेषु प्रत्ययविधानम् 28-49 च्याद्यर्थाधिकारः 126-134 35-43 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 12 ] विषयः सूत्राङ्कः विषयः सूत्राङ्क: कृष्याद्यर्थे डाचप्रत्ययादिविधानम् 135-152 / निर्धायद्यर्थाधिकारः 52-68 स्वार्थाधिकारः .153-172 समासान्तप्रकरणम् 69-182 सप्तमाध्यायस्य तृतीयः पादः सप्तमाध्यायस्य चतुर्थः पादः प्रकृतेऽर्थे मयटादिप्रत्ययविधानम् .. 1-3 वृद्धयादिविधानम् निन्द्येऽर्थे पाशपप्रत्ययविधानम यवः प्रागैदौतोविधिनिषेधौ 5-12 . बहूनां मध्ये प्रकृष्टेऽर्थे तमप्विधानम् 5 वृद्धयधिकारः 13.28 द्वयोर्मध्ये प्रकृष्टेऽर्थे तरविधानम् वृद्धिनेषाधादिविधानम् 29-31 स्वार्थे तरप्विधानम् णीष्ठादिप्रत्ययेषु लुबादिविधानम् 32-43 तमप्तरपोरन्तस्यामादेशः अन्त्यस्वरादेलु ग्निषेधविधी 44-65 तमप्तरपोर्विषये इष्ठेयस्प्रत्यययोर्विधानम् 9 अदादीनां लुग्विधानम् त्याद्यन्तानाम्नश्च प्रशस्तार्थाद् रूपप्प्रत्ययः 10 | उवर्णस्याविधानम् त्याद्यन्तानाम्नश्च किश्चिदसमाप्तार्थाद् कल्पप्- इकस्येतो लुम्विधानम् देश्यप-देशीयरप्रत्ययविधानम् 11 / संभ्रमे पदादीनामसकृत्प्रयोगः . किश्चिदसमाप्तार्थान्नाम्नःप्राग बहुप्रत्ययविधानम् 12 | द्विरुक्तिप्रकरणम् 73-90 तमबादेनिषेधः 13-14 / प्लुतप्रकरणम् 89-103 स्वार्थाद्यर्थेषु कादिप्रत्ययानां विधानम् 15-45 परिभाषाप्रकरणम् 104-122 ह्रस्वार्थाधिकारः 46-51 प्रस्तुतग्रन्थना सम्पादन-संशोधनमां सहायक ग्रन्थो बृहवृत्ति अभिधानचिंतामणि श्री कनकप्रभसूरिजी कृत लघुन्यास अमरकोश हैमप्रकाश पूर्वार्द्ध सावचूरि मध्यमवृत्तिनो प्रथम विभाग हैमप्रकाश उत्तरार्ध सिद्धांत कौमुदी (पाणिनीय व्यानो प्रक्रियाग्रंथ) हैमलिंगानुशासनविवरण काशिका (पाणिनीय व्याकरणनी टीका) वगेरे. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत सावचूरि मध्यमवृत्तिनी प्राचीन हस्तलिखित प्रतनुं प्रथम पृष्ठ ... युवा प्रक्षनाजिममा परमानविय शासनासावार्यहमजाकिदिापकास्पानिश्लोक मापदायिक्षपदाच्यामampiपायात्राटोनयन नावाप्रवामानाप्रकारे मननोनिसेशमोऽसिसम्म / विवादा या पाकर यूनाकामनाय इत्याननका मानय मेडरुप्रसाशनिनस्यनावमासिामरायसानिमि लीपापालनमरणयोgromनपूरयनिगान श्तावानिविपरमाएपविकटिकदरमस्कारर पदीने तिरस्थ विमा पद्रसिंहपदसिरवानासमूत्रामानिनियालाका गाविपरगमन तसानपगमन अwanान पनगनिंगति नानपर्य यानिनिमामा मामजान्मानिनियानमान्दाधवरावासालामायामाकापति रुबारक मिनि सारबिनियनिवज्ञानंतवादी धावतीलीयामनिटासा प्रवावास्यनिष्कम्पकवान महाकालिकामयामादिमिममिति नाहजन स्मादिनजमिनी म्याइजिाद नीमायणातगाकामाशापमानकावसादशानदार वासववस्त्राविमएसमाधान हमचन्द्रासिथानकामनास्पाबनयोध्ययनयन कास्पायर 4 नापरणयवश 4 स्पेदिनेऽत्याला सातायनायवजय इलामनबम श्रीक्रमदेवलायनमाश्यारमात्मानश्याशहाचशासनामामारेदमचडेगस्टछाकिचितपकायोतािदायमित्याशिवायननजामनीक तश्करणरामश्चरमपरामशिनावाचको मंगलाघेशापश्यादिशिणदधव्हिस सिाियाहादानाचाहादधनकांतवादातपशनानांशमा दणका रणासन्यन नामनामन भरपात निशादाबहीबई मह जिसराममानादसामा नतिजा कारप्लेविष्याणा प्रदमिनिसावनियाशिलाकाताछाकामासंज्ञानायायानाचालाकाहियाकरणादासिदिनानितिश्चावदिताय तोमुमो जिनको प्रतिभाप पायीलाई आर्द तिच्यष्टानाहा मानायस्पचानासदतारागाअकारावमानावामान्धरसंज्ञासकामाश्रु शायउम्मश्चशिरिमामासात या चराचराजस्थान मेद्यनेविनय विशाहगाई वाशियपत्याचायकवलयंजनाची MAMराट्यानिमामामाघाकालविरामायकञ्चिारणमात्रामदतवमायधासयहदाधवतसंज्ञा स्फीयकमावाझनामEिD नामिकनकलाबिंध सघाउराहमाशदघावाआवरणे याचारासायीक सियालि आईफकायमस्यामानुनायाश्चमहाशय वीन विनिविण्यावारसाधुः। अशानवमीमामीश्वमवज्ञीमदंतायमीनामिडीमा यतिनिश्तर। परमेश्वरमा गमावस्याए कामायनशाहदंतासमानानाशकारावंसानासम्ममा सपमानामसझान्स्फ:5सनमाइनिया वर्मवर्णस्पति कस्यैवपरमठिमोहिमवतोय - emera का त्यस्ता का अहकारे वाहनध्यायत छात्यातवमासंघावणाास्फकाग्रामवाधिमाका S A HITERYSTARRAHAMROआकारमान र म मामांसहाराइफलायाएनअसंघाकागावालापार निसावरिपूरात्यविधायnamaina- MITA INDIRAKज्यकाका काराचारणाक्षिाग्रंशतिनासिौक्यावमानियनकारिया जाने विनिसिसिपनेहियधासामसारविमानास्पातांधिकादिसिनाका हपर्शताछजनस्याताकरवगछटावलेजकनारमाBHAI 4839ीबार 3REENNECTERIALSDAHALFARRAN-SIMIरामीबालकपदावदिनान विनियोति योगीनानाथमायालयमाघसमुचमाताभावाश्याचमा सायक्रोकादिवीमामा RRRR TATESसेकशमिनारविमानमा मनपनन भासायनिक टकाइमातछy स स्यरसावानेमनरजनीका त्रिोऽतितकारस्वधातावनिकोना मान जेमा राय2 मिजाजी से कम नकितिबाAKारामबापखारफाटादातवटाउकुरुकककककौकिक Panasशिवस्पदमिनाबाउमाविकायाकादियामायायायसवापारमागाठामत्मसम्मानमरातबाराकाम कोरियाविशेषयनेविक्टिव निकात प्रतिरूपसोयबा मायमSENHANIMOOनयमानीमासे पानसमSEगारटकदरमाकमव्ययविनाशकशकमतीय ENAMASIKाचशधाषास्फिगकरवाछनाaHRITINEतनतासामयी इतिका यजयकानीवानिवदनंदा मिनि कतिकलिन ADDHARTE HISTOपमा ज रामारयावास्थानमaisna कतरुपतरूपानमसामनमायायातायासाअायाASEMERRATramadeRASTRatinAmasरिदिावादORSAMAGRAM मानवनि काययवादस्पाहातोलाकमानहानिनिशा माशाखाकातगजऊसारुमaHMATAPSARANAदियट लामाधामांश्चशितगरफलासानासावशास्गामामासात उदैवानाकाकालाक्यननवाननासायानी परामवनवावयम्पमारकावावस्थाकदस्पन्धानकायमभानमनमानाबाजतश्रावदा नामगिदितााम्पवयन प्रारम्पयन स्पृश्तादिविल्यावनिरिसाशा शासनका मानकाजामा नामितिक्रियाणवनातिका कतिहमतिनाउमापक क्रीमोहिम MARATतिवमानविदितिमांडित्यत्यारासावयादराम इतिलाबारकावाचतिमाएकाहना पकाहामानायवनप्रकारासरियोस्पादी एकत्यत्रवाना जदाशाखयमनifiniRaRad2030SiroaiSIVE मानपानातिनामाश्रितो कमरादिनिधनावर निपला प त्ययकावामात्र पनगोधने व्यापरेलsaapश्यागीमा शनिट सातसमक्रमकोहिमा प्रदिपचन्याना नामांत्रिकाहत्यानजनलाइमनकाकतिबननामनियमनायेहान नमान्खमय अनीता रतवान्दा धे। सादा यापेनिसिलीयानामिनानामानिमलsaBAR afineमासरख्यातासामुमारास ROOMRITAमाEिSSसमेनियाsirm o न मुना क्त्रमानाना कारवायालरभिटक लोपामुकाकारताAATREASERAISHIRAMAYAमकानारामानमामानमाMAAHARA HEARRIसासमान मायामामा कारन करवसननविन THIHARमासानानकमायामानयतम जानव्यायानरपासचनकालिसिरिनासयनिय मानेमानमDa315 नानाम्यवहारिक जान-विधिमाधम काशकसमानता मालवानवायरलवायातस्तमास्फगाशमाएकामपाल शकत्याधसा शिवाकिमोनोसाधनाबसमाएरलवMMEANIN नियाना श्रमायनिजाकरापानुनको नियनत्या ए Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत सावचूरि मध्यमवृत्तिनी प्राचीन हस्तलिखित प्रतनु अन्तिम पृष्ठ ... मोकादिस्या मनात पटयोपरस्योपरि 10- लोकवहारेउसमामासमासतामझामघामविशामाकर्मापालाकद्यापछयाहातालावनविनकमातशाता यतवसाम।। घनितनसमासापथधर्मश्रिातातिनागरुकुलभित्यादिविनाममात्राथािसमवेतिकिाययति मामामुख॥ हवाङसकारासमतिकिापश्चाऊलाकारातिकोतहितामपगमयदविता। द्विानामादावल्यानयाधायाचदाशसियामाधामीवासमतिक्ट्मिामादिद्यावृष्णता युष्मदस्म हादशाक्षामा सर्वसमशतिक्रिीमदतपतितक्तवियतिलताधाकुडादानीझायसिॉल्माय दमवणार्मचिधिवसामाणियातातिवद शानवंशाकिनविनऊमाराजारामत्राटावधि चलवतिसमासनामधारवाहिनी वारणाएदाज्ञाचकाहीनावानिधि पुन पिघमामनिवति यदिसमधीपद विधिकघासामाछाश्यपथाराङदान समीयातायनायिानाका हाई नवप्रवाहालाजीपचालवणातोडासर्वधर्म साहसाचंचमीणारघकृतार्धकटाक्षान तितिक्षीकटायाद्यातायाततिक्षामाद्यपि बहुलाधिकारान्नतिमात्रासमासाद्याटगायचनाया इत्यासाश्रिाव्दमदधिरहितायांप्रसिद्ध हमवदासिक्षनाधायझशष्टानुशासनलहाहासनमाथायशवछीपादासमानाबाझतिसन्नामा धायशामाग्रघाग्र३३क्षा हितयाकाणध्याययंशा शाशयादा अश्याइसकिामल नाएगधारक्ष्यातिप्रीहेमव्याकरणलपुत्रिरिया। संचा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. सम्पादकीय वक्तव्य . वर्षा ऋतुना दिवसो काचींडानी जेम घडी घडीमां | सागर प० पू० आआचार्य भगवंतना वचन चीले चालीने पोतानु स्वरूप बदली रह्या हता. हुं पिंडवाडानी | अनेक जीवो सिद्धिना शिखरो सर कर्या छे. विशाळ धर्मशालाना अक नानकडा होलमां अकलो | बुद्धि अने बळने संसारमा खर्चीने आवेला वृद्ध मुनिबेठो हतो. चोमेर शान्ति पथरायेली हती. माझं मन | पुंगवो) अमना वचनने अनुसरीने नव जवान "सादृश्यमपि न पदार्थान्तरं किन्तु"... इत्यादि साधुओने शरमावे तेवी बुद्धि अने बळनु पुनित न्याय मिक्तावली नी पंक्तिओनी साथे रमी रह्य हत्. | प्रभात खीलव्यु'. तो पछी शा माटे तु निष्फळताना तेटलामां अकाओक ओक मुनिराजना शब्दो काने अथ- | विचारना अंधकारमा अथडाय छे ? डाया-पू० आचार्य भगवंत तमने बोलावे छे. हुं तुरत ऊठीने पू०आचार्य भगवंत पासे गयो. मत्थअण........ आथी में पू० आचार्य भगवंतनी आज्ञाथी हुँ सम्पूर्ण बोली रह से पहेलांज पोताना हाथमां | आ काये मारा शिरे लई लीधु. मेज चातुर्मासमां रहेला सावचूरि मध्यमवृत्तिनी प्रेसकोपीना केट | सावचूरि मध्यमवृत्तिना संशोधनना श्रीगणेश मंडाई लाक पाना मने आपवा हाथ लम्बावतां पूज्य आचार्य गया. मे शुभ चातुर्मास हतु वि० सं० 2018 नु. भगवंते जणाव्यु के "तारे आ सावचूरि मध्यमवृत्तिना 2019 नी शरूआतमां ब्यावर (राज.) सावचूरि अन्थनु सम्पादन-संशोधन करवानु छे”. आ मध्यमवृत्तिनु मुद्रण शरू थयु. से सालमा सांभळी मारा मने विचारना सागरमा डूबकी | मारं चातुर्मास पूज्य आचार्य भगवंत साथे जावाल मारी. मारुं मन विचारी रह्य के सम्पादन संशोधननो (राजस्थान) मां थयु. आ चातुर्मासमां पण प्रेस बिलकुल अनुभव नहीं, स्वास्थ्यनी अनुकूलता कोपीन संशोधन चालु ज हतु. लगभग बार महीनामां व्याकरणनु मुद्रण कार्य पूर्ण थशे मेवी मारी नहीं ........................... धारणा हती. पण संयोगोनी सांकळमां संकळायेला मारु मन विचारना सागरमांथी बहार नीकळे | मनुष्योनी बधी ज धारणाओ क्यां सफळ थाय छे. से पहेलां ज आचार्य भगवंत बोल्या-मां शुमारी आ धारणा निष्फळ बनी. प्रेसनु कार्य धीमे विचार करे छे ? तें व्याकरण कयु छे अटले | धीमे मन्द थतुगयु अने 2020 नी शरूआतथी ज आ तुआ कार्य खुशीथी करी शकीश''. पू. आचार्य भग- | कार्य सर्वथा बंध थई गयु. प्रेसनु कार्य आगळ चाले वंतना आ वचनोमां सफळता गुजती हती. अमना | ओ माटे घणो प्रयत्न थवा छतां कार्य आगळ न चाल्यु. आ वचनोसे मारा आत्मामां सुषुप्त एक शक्तिने | पुरुषार्थथी पलटावी न शकाय अवा आ समयने में जाग्रत बनावी. ढीला पडेला मनने पुरुषार्थनी पग- | प्रारब्धनी पहेरामणी समजी वधावी लीधो. प्रेसन दंडीये चडायवा अन्तरात्मामांथी अकाक नाद उठ्यो- | कार्य स्थगित थवाथी में प्रेस कोपीन संशोधन शुतने आ वचन उपर श्रद्धा नथी ? शुतें प्रत्यक्ष | करवानी प्रवृत्ति पण स्थगित करी दीधी. प्रसनु कार्य जोयु ने अनुभव्यं नथी के करुणाना विराटकाय | चालु करवा पुनः पुन: अनेक प्रयत्नो थवा छतां Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गई. 2] [संपादकीय वक्तव्य प्रेसनु कार्य चालु न थयु. हवे आ कार्य क्यारे पूर्ण / तेमां ज्यां लखनारनी स्खलनाथी अशुद्ध लखायु हतु थशे अनी कल्पना पण थई शकती न हती. आथी के पाठ लखवोरही गयो हतो त्यां ते सर्व प्रेस कोपीमां मारा मनोगगन पर निराशानी काळी वादळीओ फेलाई | सुधारी लीधु'. पण ज्यां फोटो कोपी अशुद्ध होवाना कारणे प्रेस-कोपीमां अशुद्धि हती त्यां में बृहवृत्ति, निराशानी वादळीओ वर्षवानी तैयारी हती हैमप्रकाश वगेरेनो आश्रय लीधो. ज्यारे बृहद्वृत्ति तेवामां घणां समय पहेला मारी डायरीमा नोंधायेल के हैमप्रकाश वगेरेथी पण स्पष्टता न जणाई त्यारे श्लोक याद आव्यो. आ रह्यो ते श्लोक 'काशिका' अने सिद्धान्तकौमुदी' नो आश्रय लीधो. आ प्रमाणे ज्यां अशुद्धि जणाई त्यां अनेक ग्रन्थो जोया प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः, बाद अवचूरिनो पाठ अशुद्ध छे अने अमुक पाठ शुद्ध छे प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः; अवो चोक्कस निर्णय थया बाद अशुद्ध पाठनी आगळ विनैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः, ब्रकेट (काउंस) मा प्रश्नार्थ चिह्न साथे मने जे पाठ प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति // 1 // शुद्ध जणायो ते पाठ मूकेल छे. आथी मने फरी पुरुपार्थने अजमाववानी प्रेरणा मळी. में करुणाना कंद परमाराध्यपाद आचार्य में संशोधन पद्धतिने अन्याय न थई जाय तेनी भगवंतने आ कार्यने लक्ष्यमां लेवा विनंती करी. | संपूर्ण काळजी राखी छ.छतां में आटली तो छट राखी ज तेओश्रीधे आ अंगे घटतां सर्व प्रयत्नो कर्या. आखरे छ के-ज्यां भवति, पचति,चैत्रः जेवा प्रसिद्ध प्रयोगोमां 1921 ना प्रारंभमां व्याकरणनु मुद्रण कार्य पिंडवाड़ाना | 'ति' ने बदले 'पि' होय 'च' ने बदले 'ज' होय "ज्ञानोदय प्रिन्टींग प्रेस" मां शरू थयु. आथी | | 'चैत्रः' ने बदले 'चैत्र' होय, तथा ते पाठो बृहद्वृत्ति पुनः आशाना समीरण वाया अने मनोगगन पर | वगेरे अनेक ग्रन्थोमां शुद्ध मळता होय तेवा स्थळोमां फेलायेली निराशानी काळी वादळीओ अणवर्षी दूर | शुद्ध पाठ काउंसमा न मूकतां अशुद्ध पाठने ज शुद्ध दूर क्यांय पलायन थई गई. स्थगित बनेली संशो- | करेल छे. दा० त०-७३।५।। सूत्रनी अवचूरिमां धननी प्रवृत्तिने पुनः चालु करी. मूलप्रत मां “सवत्सेत्युक्ते तु सह वत्सेन वत्सया वा स्व० आचार्य श्रीनीतिसूरिजी म० पासेथी 'वर्तन्ते अवो बहुवचनमा प्रयोग अशुद्ध छे. कारण 'वर्तन्ते इति संशयः स्यात्' प्रमाणे पाठ.छे, अहीं आ सावरि मध्यमवृत्तिनी प्राचीन अक प्रत स्व० पू० के सवत्सा प्रयोग अकवचनमा छे अटले तेनो विग्रह आचार्य श्रीक्षमाभद्रसूरिजी म० ने प्राप्त थई हती. | | पण अक वचनमा थाय. तथा लघुन्यास आदिमां भा तेमणे से प्रत अति जीर्ण होवाथी तेनी क फोटो | | स्थळे 'वर्तते' अवो शुद्ध प्रयोग छे. आथी आ स्थळे कोपी तैयार करावी. आ फोटो-कोपीना आधारे | 'वर्तते' प्रयोग काउंसमां न राखतां 'वर्तन्ते' ने स्थाने तेमणे प्रेस-कोपी तैयार करावी हती. पण मूल | ज 'वर्तते' अवो शुद्ध पाठ राखवामां आवेल छे. प्रतमां अशुद्धिओ घणी होवाथी आ प्रेस-कोपी घणी ज अशुद्ध हती. तथा प्रेस-कोपी लखनारनी स्खलनाथी अज सूत्रनी अवचूरिमां "गौतमोऽयं पण घणे ठेकाणे पाठो लखवाना रही गया हता. आ सुलक्षणः शकटं सीरं च वहति" अ प्रमाणे पाठ छे, प्रतमां मध्यमवृत्ति लगभग शुद्ध हती, पण अवचूरि अहीं 'गौतमोऽयं' अवो पाठ अशुद्ध छे, 'गोतमोऽयं' घणी ज अशुद्ध हती. आथी में अवचूरिनी अन्य प्रन पाठ शुद्ध छे. कारण के मूलशब्द 'गो' छे. तथा मेळववा माटे पूना 'भांडारकर इन्स्टीट्य ट' वगेरे बृहद्वृत्ति आदि अन्य ग्रन्थोमां 'गोतमोऽयं' अवो अनेक स्थळोवे तपास करावी. पण तेमां मने सफळता शुद्ध पाठ छे. आथी आ स्थळे पण 'गौतमोऽयं ने मळी नहीं. प्रेस कोपीमां ज्या ज्यां अशुद्धि जणाई त्यां स्थाने 'गोतमोऽयं पाठ राखवामां आवेल छे. जो त्यां प्रथम फोटो-कोपीनी साथे अप्रेस कोपी मेळवी. | आवी अशद्धिओने पण तेमने तेम राखवामां आवे अने Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [3 संपादकीय वक्तव्य काउंसमा प्रश्नार्थचिह्न पूर्वक शुद्ध पाठ राखवामां आवे | वे सुसंभवित छे. प्रेस कोपीमां अनेक स्थळे मूल तो वांचनारने घणी ज कठिनता पड़े, वांचवामां समय प्रतना पाठो लखवा रही गया हता, लक्ष्यमा आवतां घणो व्यतीत थाय, अने परिणामे वांचनमा कंटाळो | ते पाठो प्रेसकोपीमा लई लेवामां आव्या छे, छतां पण आवे. कारण के आवी सामान्य अशुद्धिओ तो अक | | क्वचित् रही गयेला पाठो लक्ष्यमां न आव्या अक पादमां सेंकडो आवे छे. .. होय अने अथी तेमनु मुद्रण न थयु होय पण सहज | छे. विषयोनी स्पषता माटे अथवा. पाठनी अशद्धि __आ सावचूरि मध्यमवृत्तिनी मूल प्रतमां अनेक आदिना कारणे अनेक स्थळे टीप्पण करेल छे; स्थळे अवचूरिना पाठो खण्डित बताववामां आव्या छ, आ टोप्पणोमां अनुपयोग आदिना कारणे कोई स्थळे से उपरथी जणाय छे के आ मल प्रत पण अन्य कोई | . . | क्षति थई जाय से असंभवित न ज गणाय. आथी प्रतना आधारे लखवामां आवी हशे, जे अन्य प्रतना | टीप्पण आदिमां कोई ठेकाणे क्षति थई गई होय सोमन ई गई रोग आधारे आ मूल प्रत लखाई हशे ते प्रत कालना प्रभाव अथवा अशुद्ध संशोधन थई गयु होय से बदल या अन्य कोई कारणथी अनेक स्थळे फाटी गई हशे ह त्रिविध क्षमा याचुछु अने आवा स्थळे वाचक अथवा अक्षरो भूसाई गया.हशे, अम आ मूल प्रतमां...| सज्जन महाशयो पोताना दिलने गंभीर बनावशे ."प्रमाणे दर्शाववामां आवेल खाली जग्या उपरथी क्षेत्री आशा रावु छु. अनुमान थाय छे. संशोधनमापण ते स्थळो प्रायः तेवाने तेवा बताववामां आव्या छे. तथा बृहवृत्ति आदिना कारण? . आधारथी या अनुमानथी ते ते स्थळे जे पाठ होवो गच्छतः स्खलनं क्वापि, भवत्येव प्रमादतः; जोई ते पाठ ब्रकेटमां बतावषामां आवेल छे. आवा हसन्ति दुर्जनास्तत्र, समादधति सज्जनाः / त्रुटित स्थळोमां ज्यां बृहद्वृत्ति आदिना आधारथी या आ कार्यमा मने बिलकुल अनुभव न हतो, अनुमानथी कयो पाठ होवो जोई श्रेबो निर्णय न थई मासमां आ कार्य करवानी जरा पण गुंजायश न हती, शक्यो त्यां केवल..................... आ प्रमाणे त्रुटित | छतां केवळ पूज्योनी कृपादृष्टि उपर ज श्रद्धा राखीने स्थळो बताववामां आवेला छे. आवा स्थळोमा क्वचित् | आ कार्य करवा में साहस कयु. आथी आ कार्यमां क्वचित् काउंसमा प्रश्नार्थ चिह्न पण मूकेल छे. मने यत्किंचित् जे सफलता प्राप्त थई छे, तेनो यश * अहों बहुधा वृत्तिना ते ते पदनी या वाक्यनी मने नहि, किन्तु जेमना नयनोमांथी सदा वात्सल्यनु अवचूरि,वृत्तिना ते ते पदना या वाक्यना प्रतीक लीधा | वारि वही रह्य छे ते मारी जीवननौकाना कर्णधार, विना करवामां आवी छे. आथी आ अवचूरि वृत्तिना | सिद्धान्तमहोदधि सूरिपुरंदर श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वकया पदनी या वाक्यनी छे ते शीघ्र ख्यालमा नथी | रजी महाराजने तथा निरीहतानीरधि परमगुरुदेव आवतु. आथी अहीं अभ्यासीओनी सुगमता माटे | पंन्यासप्रवर श्रीहेमंतविजयजी गरिणवर्यने छे. आ ते ते अवचूरि वृत्तिना कया पदनी या वाक्यनी छे श्रे| कार्यनो प्रारंभ पूज्य आचार्य भगवंतना आशीर्वादथी थयो दर्शाधवा वृत्तिमा भने अवचूरिमां' 2 3 4 वगेरे अंक | अने तेनी शीघ्र पूर्णाहुति थई पूज्य परमगुरुदेवश्रीनी मूकवामां आव्या छे. वृत्तिमा जे पद पासे 1 अंक छे | कृपादृष्टिथी. परमगुरुदेवश्रीओ मारी साथे पोताना तेनी अवचूरि, अवचूरिमांज्यां 1 अंक मूकवामां आवेल | सेवाभावी मुनिपुंगवोने राखीने पिंडवाडामां स्थिरता छे त्यांथी शरू थाय छे. अज प्रमाणे 2 3 4 वगेरे करवाना अनुकूळता करी आपी अथी ज आ कार्य हु अंको माटे जाणवु. शीघ्रताथी पूर्ण करी शक्यो छु संशोधन कार्य अत्यन्त काळजीथी अने शान्तिथी ज्यारे हुअज्ञानना अंधकारमा अथडाता मारा करवामां आवेल छे, छतां अशुद्धि बाहुल्यना कारणे पूर्व जीवननी साथे अत्यारना जीवननी तुलना करूं कोई कोई अशुद्धिओ तदवस्थ रही जवा पामी होय | छु', त्यारे आ पूज्योना अनहद उपकारनी स्मृति थया Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ संपादकीय वक्तव्य विना रहेती नथी. आ वखते हु मारा अंतरात्माने | पोताना अमूल्य समयनो भोग आपीने मने घणी पूछुछु के तुम उपकारनो बदलो वाळी शकीश ? | ज मदद करी छे. तेमना अनेक उपकारो साथे आ त्यारे अंतरात्मामांथी स्पष्ट ध्वनि नीकळे छे के नहि | उपकार पण चिरस्मरणीय रहेशे. नहि, हरगीझ नहीं. . स्व०पू०आचार्यश्री क्षमाभद्रसूरिजी म. ना जीवन __ अत्रे मने ग कार्यमां अनेक रीते मदद | प्रसंगो आलेखवामां, हैमप्रकाश पूर्वार्धमां तेमणे लखेल करनार प० पू० गुरुदेवश्री (पू. मु. श्रीललित- 'सम्पादकीय निवेदन' नी तथा पू० श्रीश्रमी वि०म०ना शेखर वि० म०) ने हुँ' केम भूली शकु? योगो- 'जीवन चरित्र'नी, हैमप्रकाश उत्तरार्धमा प्रशान्तमूर्ति द्वहन आदि अनेक कार्योमा पोतानो समय पं० श्रीकनकविजयजी महाराजे आलेखेल स्व० पू० श्री व्यतीत थतो होवाथी समय न होवा छतां मारी क्षमाभद्रसूरिम. नु जीवन चरित्र' वगेरेनी सहाय विनंतीने स्वीकारीने तेमणे शुद्धि-पत्रक वगैरे माटे | मळी छे. आथी अत्रे हु तेओनो आभार मानुछु. पिरबाड़ा श्रावण शुद पूर्णिमा. -मुनि राजशेखरविजय FOREn Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ************************** * ** *** * 7x+ ___ दरेक मनुष्यो मृत्यु लोकमांथी विदाय थवानी / प्रभुनी पूजा-स्तुति आदि करी नजीकना उपाश्रयमां चिठ्ठी साथे ज लईने आवे छे. आथी जन्मेला दरेक | बिराजमान गुरुने वंदन करवा आवी. भा समये त्यां मनुष्यो चिठ्ठीमां मुकरर करेल समय आवतां मनुष्य- | चांद्रगच्छना आचार्य श्रीदेवचन्द्रसूरिजी संयमनी लोकमांथी विदाय ले छे. पण "परोपकाराय सतां | सुवास फेलावी रह्या हता. भ्रमरगण जेम पुष्पनी विभूतथ:" निथमने चरितार्थ करनारा संत पुरुषोनो | सुवासथी आकर्षाय तेम श्रावकवर्ग आ. श्रीदेवचन्द्रसूरिआत्मा मनुष्य लोकमांथी विदाय थवा छतां | जीनी संयमसुवासथी आकर्षातो हतो. सती पाहिनी पोताना परोपकारादि गुणोथी तथा तेनाथी उत्पन्न | आचार्यश्रीने वंदन करी स्वप्ननी बीना जणावी. थयेली कीर्तिथी अहीं ज रहे छे. भारत देशना | आचार्यश्री जणाव्यु के तने क पुत्रनी प्राप्ति जुदा जुदा देशोनी धरती. माता आवा दिव्यांशी संत थशे. आ पुत्र महान शासन प्रभावक थशे. आ पुत्र पुरुषोनी उत्पत्तिनी खाण छे. भारतना जुदा जुदा भेटलेदेशोनी धरती माता अनेक युगवीर प्रतापी पुरुषोने जैन शासननु अमूल्य चिंतामणि रत्न ! जन्म आप्यो छे. आमां गुजरातनी धरती माताओं पण जैन शासन महेलनो समर्थ दिव्य स्तंभ ! जरा य कमीना नथी राखी. आ गुर्जरभूमिमां धंधुका आर्य संस्कृतिने प्रकाशित करनारो गुजरातनो मगर पोतानी संस्कृतिथी मशहूर हतु. महापुरुषोना झळहळतो दीपक ! आशीर्वाद लेवानां तेना सुन्दर सौभाग्य सर्जायेला आ सांभळी पाहिनीना बदन उपर हर्ष हता. ते नगरमा चाचिंग श्रेष्ठी अने तेनी पत्नी पाहिनी छवायो. पोताना पुत्रनो उत्कर्ष सांभळीने कयी माताने पोताना जीवन उपवनने आर्य संस्कृति अने सदाचारथी | आनन्द न थाय ? सुवासित बनावी रह्या हता. चाचिंग शिवधर्माव . विक्रम संवत् 1145 नी कार्तिकपूर्णिमानी लम्बी हतो, ज्यारे पाहिनी जैन धर्मनु शरणु | रात हती. चन्द्र रूपेरी अजवाळां ढोळी रह्यो हतो. स्वीकार्यु हतु. छतां तेमना दाम्पत्य जीवननी नौका चोमेर शान्ति प्रसरेली हती. आ समये पाहिनी से कोई पण प्रकारनी अथडामण विना संसार समुद्रमां - एक पुत्र रत्नने जन्म आप्यो. तेनु नाम चांगदेव पसार थई रही हती. जैन इतिहास कहे छे के पूर्वे | भूप राखवामां आव्यु. जोत जोतामां ते बाळकना आवां अनेक कुटुम्बो विद्यमान हता के जेमां पति दूधीया दांत गया भने आव्या मजबूत दांत. पाहिनी पत्नीनो धर्म अलग हतो, छतां जीवनमां कोई पण | तेना शरीरनु पालन पोषण करवा साथे आर्य जातनो विरोध खडो थतो न हतो. संस्कृति भने सदाचारथी तेना आत्मानु पण पालन श्रीहेमचन्द्रसरिजीनो जन्म पोषण करीने स्वइतिकर्तव्यतानु पालन करी रही हती. श्रेक वखत पाहिनीने रात्रे स्वप्नमां चिंतामणि | अन्यदा पाहिनी ते बाळकने साथे लईने रत्ननी प्राप्ति थई, तेणे ते चिन्तामणिरत्न परम मंदिरमां देवाधिदेवना दर्शन करवा भावी. पाहिनी . भक्तिथी गुरुना चरणे धरी दी. सवार थतां मंदिरमा प्रदक्षिणा मापीने स्तुति करवामां तत्पर बनी, साहिनी पोताना रोजना कार्यक्रम मुजब जिनालयमां / तेवामां आ चांगदेव नजीकना उपाश्रयमां खाली पड़ेल Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उपोद्घात अक आसन उपर वेसी गयो. आ आसन जेमनाथी / छे. प्रभावकचरित्र, प्रबंधकोश, प्रबंधचिंतामणि वगेरें आ बाळकनी जीवन ज्योत प्रगटवानी छे ते आचार्य | ग्रन्थोमां आ वृत्तान्त ओछा-वता फेरफार साथे जोवामां श्रीदेवचन्द्रसूरिजी महाराजनु हतु. आचार्य महाराजे | आवे छे. उपाश्रयमा आवतां ज पोताना आसन पर बेठेल आ कुमारपाल चरित्रमा "देवचन्द्रसरिजी माता चांगदेवने जोयो. तेमणे आ दृश्य वंदन करवा | पिता उभयनी संमतिथी चांगदेवने खंभात लई गया आवेल सती पाहिनीने बताव्यं अने पूर्वे आवेल स्वप्ननु | भने वि० सं० 1154 मां प्रव्रज्या प्रदान करी" श्रेम स्मरण करावीने आ पुत्र रत्ननी मागणी करी. | जणाववामां आव्यु छे, ज्यारे प्रभावक चरित्रमा पाहिनीना रगे रगमा देव गुरु उपरना प्रेमनो झरो | "देवचन्द्रसूरिजी बाळकना पिता परदेश होवाथी केवल वहेतो हतो. ते त्याग मार्गनी महत्ता समजती हती. | मातानी अनुमतिथी चांगदेवने खंभात लई गया अने आथी तेणे प्रसन्न थईने पुत्रने आपवानी पोतानी | वि० सं० 1150 मां दीक्षा आपी” प्रेम बताववामां संमति जणावतां कह्य के हे गुरुदेव ! मारी कुक्षि | आव्यु छे. उत्पन्न थयेल पुत्र भगवान महावीरे बतावेल त्यागना | प्रबंधकोशना कर्ता श्रीराजशेखरसूरिजी आ. मार्गे जईने जैन शासननी जयपताका फरकावे सेवा प्रसंगने जुदी ज रीते बतावे छे. श्रीहेमचन्द्रसूरिजीना मारा अहोभाग्य क्याथी ! हु आ पुत्ररत्न आपवा दीक्षाप्रसंगर्नु वर्णन करतां तेओ जणावे छे के-अक वख्त तैयार छ. पण एक संतान उपर माता पिता बनेनी श्रीदेवचंद्रसूरिजी विहार करतां करतां धंधुकामां आव्या, समान मालिकी होय छे. आथी तेना पितानी पण त्यां व्याख्यान कयु. व्याख्यानना अंते नेमिनाग अनुमति मेळववानी जरूर छे. आथी श्रीदेवचन्द्र- नामनो श्रावक उभो थईने आचार्य महाराजने कहे सूरिजी चांगदेवना पिता चाचिंगने तेनी प्रव्रज्याथी छे के आ चांगदेवनामना मारा भाणेजनु अंतःकरण भविष्यमा थनारा लाभो समजावीने तेनी पासेथी आपनी वैराग्यमय देशना सांभळीने वैराग्यवासित पण अनुमति लीधी. बन्युछे. अथी से प्रव्रज्या लेवानी मागणी करे छे. ज्यारे आम माता पिता उभयनी अनुमतिथी तेओ | आ गर्भमा हतो त्यारे मारी बहेने र बहेने रात्रे स्वप्नमां अक आ बाळकने साथे लईने खंभात आव्या. त्यां विक्रम | सुन्दर आम्रवृक्ष जोयु, अन्यस्थाने रोपवाथी ते संवत् 1154 मां महा शुद चतुर्दशीने शनिवारना | अतिशय फलवान बन्यु. गुरु आ स्वप्ननु फल बताशुभमुहूर्ते प्रव्रज्या आपी. चाचिंग अने पाहिनीना वतां जणाव्यु के आ बाळक अन्य स्थळे रहेवाथी लाडिला चांगदेव आजथी आचार्य श्रीदेवचन्द्रसरि- अत्यंत दीपशे, प्रवरगुणोनुभाजन बनशे. आ बाळक 'जीना शिष्य सोमचन्द्र मुनि बनी गया. सुलक्षणवालो छे अने दीक्षाने योग्य छ, तेथी तेने कोटि कोटि प्रणाम हो सोमचन्द्र मुनिने !!! दीक्षा आपवी जोई;पण माता पितानी अनुज्ञा जोई. आथी नेमिनाग चांगदेवनी साथे तेना माता पिता धन्य छे तेमना माता पिताने !!! अने पासे आव्यो अने चांगदेवनी प्रव्रज्या लेवानी पवित्र धन्य छ जैन शासनने !!! भावना व्यक्त करी. माता पिता प्रव्रज्या लेवानो जेना प्रभावे नवकिसलयसमा कोमल अने निषेध कर्यो. तेमने खूब समजाववामां आव्या. कलैया कुवर जेवा बालकुमारो पण संपत्तिने रझळती. प्रत्रज्याग्रहणथी थनार भविष्यनो लाभ बताववामां मूकीने, स्वजन परिवारनो त्याग करीने, स्व-परना आव्यो. पण मोहनी प्रकृष्टताथी अनुमति न ज आपी. कल्याण माटे प्रभु महावीरनो भेख स्वीकारवा तैयार | आथी माता पितानी अनुज्ञा विना चांगदेवे चारित्रनो . स्वीकार कर्यो. आ प्रसंगमा मतांतरो / प्रबंधचिंतामणिमां आ प्रसंगनु वर्णन ... आ प्रसंग "कुमारपाल चरित्र" ने आधारे लखेल | .. आ प्रसंग प्रबन्धचिन्तामणि ग्रन्थमा घणाज थाय छे. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात ] फेरफारथी जोवामां आवे छे. प्रबंधचिंतामणिमां आ | मागणी करे छे. पण तुरत तेना मनोगगनमां चिंता नी प्रसंगने वर्णवतां श्रीमानतुगसूरिजी जणावे छे के- अक वादळी आक्रपण कयु. आ बाळकना पिता पाटणनी यात्रार्थे नीकळेला श्रीदेवचन्द्रसूरिजी धंधुके | मिथ्यादृष्टि छ, अने अहीं हाजर पण नथी. आवी पहोंच्या. त्यां मौढवंशना उपाश्रये उतर्या, त्यार खरेखर ! मारा कमनसीब छे. आजे हुँ गृहांगणे बाद जिनालयमा दर्शन करवा पधार्या. आ समये आवेल श्रीसंघनी मागणीनो स्वीकार नहि करी शकु. ॐआठ वर्षनी उम्मरनो चांगदेव पोताना मित्रोनी श्रीसंघने प्रत्युत्तर आपवा तेनी जिह्वा उपडती नथी; साथे रमतो रमतो आवी पहोंच्यो अने जिनदर्श- पण कह्या विना छूटको नथी. आथी हिमत अकठी नार्थे गयेल आचार्यना आसन उपर बेसी गयो. करीने पोताना सघळा विचारो संघ समक्ष दर्शाव्या. दर्शन करीने आवतां पोताना आसन उपर बेठेला आ| संघे का के तेना पितानी अनुज्ञा अमे लई लेशु. तमे बालकने जोई आचार्य महाराज खुश थया. आचार्य तमारा तरफथी आ बाळकने प्रसन्न हृदये गुरुने महाराजे तेना शरीरना लक्षणो जोईने तेनु' भविष्य समर्पण करी दो अटली ज अमारी मागणी छे. बाळभाख्यु,-"आ बाळक क्षत्रिय हशे तो चक्रवर्ती बनशे, कना पिताने अमो समजावी दईशु. आथी पाहिनी वणिक के ब्राह्मण हशे तो श्रेष्ठ प्रधान थशे अने जो पोताना बालकने गुरुना चरणे समी दीधो. प्रव्रज्या ग्रहण करशे तो कलियुगमां पण सत्ययुग | आचार्य भगवंते बाळक उपर प्रेमभरी दृष्टि नाखी प्रवर्तावशे”. . | तु मारो शिष्य थईश ? अम पुछयु अटले बाळक बोल्यो- जी हा, हु अवश्य आपनो शिष्य थई श. ___आचार्य महाराजे आ. बाळकना माता पितानी | ओळखाण लेतां जाण्यु के-आ बाळकनी माता जैन बाद आचार्य भगवंत ते बाळकने साथे लईने धर्ममां अनुरागिणी छे. आथी आचार्य महाराजनु, खंभात पधार्या.त्यां उदयनमंत्री ते बाळकने पोताने घेर मन आ बाळकने दीक्षा आपवा प्रेरायु. तेओ नामां- राखे छ; अने पोताना पुत्रथी पण अधिक तेनुपालनकित आगेयान व्यक्तिओने साथे लईने ते बाळकने | पोषण करे छे. आ तरफ थोडा वखत बाद बाळकनो घेर पधार्या. आ स.ये बाळकनो पिता चाचिंग पर- पिता चाचिंग पोताने घेर आव्यो. बाळकनी बिना देश गयो हतो. विवेकवती बाळकनी माता पाहिनी | जाणीने तेनी आंखोमांथी क्रोधाग्निा कणियां खरवा स्वगृहना आंगणे पधारेल आचार्य महाराजनु अने लाग्या. पुत्रनु मुख जोया विना अन्न पाणी नहि संघनु सन्मान करीने का के पचीसमा तीर्थकर लेवानो निर्णय करी ते खंभात उपड्यो. क्रोधयुक्त त्यां समान श्रीसंघ अमारा गृहांगणे पधारवाथी अमारुं | आवीने तपास करी उपाश्रयमां गयो. आचार्य भगवंते गृहांगण पवित्र बन्यु. फरमावो, आ दासी योग्य शु| तेने आवतानी साथेज पिछाणी लीधो अने योग्य उपदेश कार्य छे ? आथी संघे पोताना आगमननु कारण आपीने शान्त कर्यो. तेटलामा खबर मळतां उदयन जणाच्यु. ते सांभळी छीपमाथी मोती झरे तेम मंत्री बाळकने लईने त्यां आवी पहोंच्या. थोडो पाहिनीना नयनोमांथी हर्षना अश्रओ झरवा लाग्या. वार्तालाप कर्या बाद उदयन मंत्री चाचिंगने ते मनोमन विचारवा लागी- अहो ! आनन्दनो | पोताने घेर लई गया. स्वधर्मबन्धु गणीने अतिशय विषय छे के जेने तीर्थकरो पण नमस्कार करे छे ते | सत्कार-सन्मान तथा अनेक प्रकारनी भक्ति करी. श्रीसंघ आजे मारे घेर आवीने मारा पुत्र रत्ननी | बाद पुत्रने तेना खोळामां बेसाडी त्रण ला व रूपिया 'अहीं कुमारपालप्रबंधमां पांच वर्षनी वय बतावी छ.-"पञ्चवार्षिको मात्रा मोढवसहिकायां देववन्दनायागतयाऽऽगतः / ★स चाष्टवर्षदेश्यः श्रीदेवचन्द्राचार्येषु श्रीपत्तनतीर्थयात्राप्रस्थितेषु धुन्धुक्के मोढवसहिकायां देवनमस्करणाय प्राप्तेषु सिंहासनस्थिततदीयनिषद्याया उपरि सवयोभिः समं रममाण: शिशुभिः सहसा निषसाद / Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उपोद्घात कारण ? तथा त्रण मूल्यवंता वस्त्रो भेट धर्या. पण चाचिंगे। आत्मविकास अने आचार्यपद उदयनमंत्री आपेल भेटने शिवनिर्माल्य तुल्य गणीने ___त्यार बाद अनेक सूर्य अने चन्द्र उदय पाम्या तथा न स्वीकारी. उदयनमंत्रीनी आ भक्तिथी ते घणो | अस्त पाम्या. श्रीसोमचंन्द्र मुनि तपथी कायाने दमे छे. प्रसन्न थयो. अथी उदयन मंत्रीना कहेवाथी पोताना | | प्रतिकूलता अनुकूलता बनेने पचावे छे. विषयोने बाळकने देवचन्द्रसूरिजीना चरणे समी दीधो. | विषनी दृष्टिथी जुओ छे. कषायोने कातिल शस्त्रथी पण गुरुओ ते बालकने प्रव्रज्या आपी. ते निमित्ते चाचिंगे। | भयंकर गणे छे. महोत्सव कर्यो.॥ सरस्वतीनी साधना अयमात्मैव संसारः, कषायेन्द्रियनिर्जितः; तमेव तद्विजेतारं, मोक्षमाहुर्मनीषिणः / / ___श्रीसोमचन्द्रमुनि गुरुनी सेवाना मेवा आस्वा [कषाय अने इन्द्रियोथी जितायेलो आआत्मा ज दवा लाग्या. सतत स्वाध्यायनी मधुर बंसरी बजाववा लाग्या. तेमनी बुद्धि बृहस्पतिने पण शरमावे तेवी संसार छे. आथी विचक्षण पुरुषो कषाय अने इन्द्रियो उपर विजय मेळवनार आत्नाने ज मोक्ष कहे छे.) हती. तेमनी ज्ञानतृषा अगस्त्य ऋषिनी सागरपान कर आ सूत्रना भावने तेमणे पोतानी नसे नसमां वानी इच्छाथी पण अधिक हती. आथी पोते सर्व साधुओथी अधिक अभ्यास करता होवा छतां तेमां | परिणमावी दीधो हतो. पोतानी पासे आवनार सर्वने तेमने संतोष न थयो. श्रीसोमचंद्रमुनिना अंतरमांथी | . तेओ कहेता-तमारे संसारमा स्वर्गनो अनुभव करवो काश्मीरदेशमा जईने सरस्वतीने प्रसन्न करवानो नाद | छ ? जो जवाब हकारमा होय तो विषय-कषाय उपर ऊठयो.गुरुदेवनी आज्ञाथी श्रीसोमचंद्रमुनि शुभमुहूर्ते | | तिरस्कारवृत्ति करी तेना उपर विजय मेळवो. अन्य मुनिओनी साथे काश्मीर देशमा जवा खंभातथी काळनो प्रवाह वणथंभ्यो वह्यो जतो हतो. पण प्रयाण कयु. प्रथम मुकाम रैवतावतार तीर्थमां थयो. काळप्रवाहनुवहेण जेटली झडपथी वहेतु हतुतेनाथी श्रीसोमचन्द्रमुनिना मनमां तो हवे सरस्वतीनी ज मूर्ति अधिक झडपथी श्रीसोमचन्द्र मुनि आत्मविकासनी रमवा लागी. आहार करतां जाणे सरस्वती सामेथी साधना शरू करी दीधी. आथी अल्पसमयमां ते आचार्य भावी रह्या छे अवो भास थाय छे. गोचरी जता सामे | | पदने योग्य बनी गया. अक दिवस अवो आवी गयो के | जे दिवसे आचार्य श्रीदेवचन्द्रसूरिजी श्रीसोमचन्द्रसरस्वतीनी मूर्ति खडी थाय छे. हवे सरस्वतीना दर्शनमां विलंब शय से तेमने पोषाय तेम न हतु. तेमणे | Baa मुनिने तेमना शिरे जैनशासननी जबाबदारीआनो बोजो ओज रात्रे अकाग्र चित्ते सरस्वतीनुध्यान कयु. सरस्वती | | मूकीने आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरि बनाव्या. शुभ दिवस देवी प्रसन्न थई त्यां ज प्रत्यक्ष दर्शन आपीने का. | हतो विक्रम संवत् 1166 नो वै० सु० अक्षय तृतीया. "वत्स ! तारे काश्मीर जवानी जरूर नथी. तारी भक्ति सिद्धराज साथे श्रोहेमचंद्रसरिजोनु मोलन अने प्रणिधानथी हु प्रसन्न थई छु मारा तने आशी- | जल जेम भूमिने द्रवित करतु जाय तेम र्वाद छे के- तु सिद्धसारस्वत था'. आ प्रमाणे आचार्य श्रीहेमचन्द्रसरिजी भव्य जीवोना हृदयपटने कहीने देवी स्वस्थाने चाल्या गया. श्रीसोमचन्द्र मुनि | धर्मभावनाथी द्रवित करता करता पाटण पधार्या. प्रातःकाल थतां गुरुनी पासे आव्या. तेमणे गुरुने अक वखत तेओ पाटणना राजमार्ग उपर पसार थई रात्रिनो वृत्तांत विदित करीने प्रसन्न कर्या. / रह्या हता.*मना देह उपर ब्रह्मचर्यनु तेज अने ज प्रबंधचिंतामणि अने कुमारपालप्रबंधमां आ वृत्तांत लगभग मळतो प्रावे छे, नहिवत् फेरफार छे. aa हकीकत 'कुमारपाल चरित्र' ना प्राधारे लखवामां आवी छे. 'प्रभावक चरित्र'मां सिद्धराजे श्रीहेमचन्द्रसूरिजीने अंक दुकान उपर उभेला जोया प्रेम जणाववामां आव्यु छे. जुमो प्रभावक च० पृ० 300 श्लोक 65. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [. उपोद्घात ] संयमनु लावण्य चमकारा मारी रप हतु. तेमनु / संयमथी अने विद्वत्ता भरी वाणीथी राजाने आकर्षी हेम समान देदीप्यमान अने चन्द्र समान लीधा. राजा तेमनी मेघ जेवी गम्भीर वाणीने युग कान्तिमान प्रसन्न वदन सौ कोईने आनंद आपतु युगना तृषातुर चातक पक्षीना जल पाननी जेम पी हतु. श्रावणनी जलभरी वादळी समान अने करुणा | रह्या हता. जलथी छलछलता तेमना नयनो जोतां ज जोनारन / मस्तक स्वतः झूकी जतु. तेमना परवाळा समान अमी अक वखतनी वात छे. सिद्धराज जयसिंहे झरता अधर, कमळदण्ड समान सरेख नाक.कंब जेबी मालवपति यशोवमोने जीतीने पाटणमा प्रवेश कर्यो. ग्रीवा, अने मृणालदण्ड जेवा पुरुषार्थ भर्या बाहु सर्वने | " आ वखते राजाने आशीर्वाद आपवा सर्वधर्मना अनुआर्षता हता. चन्द्र जेम शीतलताथी शोभेले तेस यायीओ अकत्रित थया हता. आ अवसरे आचार्य आ. श्रीहेमचन्द्रसूरिजी संयमथी शोभता हता. |. श्रीहेमचन्द्रसूरिजी पण पधार्या हता. तेमणे "भूमि कामगवि"; इत्यादि अर्थगम्भीर श्लोकथी राजाने आ समये हाथी उपर बेशीने स्वसवारी सहित आशीर्वाद आप्या. आ श्लोक सांभळी सिद्धराजना राजमार्ग उपर पसार थई रहेल गुर्जरनरेश सिद्धराज | हैयामां आनन्दनी अक भावना छलकी ऊठी. जयसिंहनी चोतरफ घूमती दृष्टि आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिजीने जोईने तेमनीउपर स्थिर थई गई. तेमनी | नूतन व्याकरणना निर्माण माटे विनंती आंखो कहेती, हती के आ जिन्दगीमां अनेक मनुष्यो| सिद्धराज जयसिंह अवन्तीना भंडारमाथी जोया,अनेक विद्वानो जोया,अनेक योगीओ जोया,अनेक | लावेला पुस्तकोनु निरीक्षण करी रह्या हता. निरीक्षण ब्रह्मचारीओ जोया, पण आवा नहि. आ कोई असाधा- | करतां करतां "सरस्वती कण्ठाभरण" नामन' पुस्तक रण मनुष्य छ, अनन्य विद्वान छे, योगी नहि किन्तु | दृष्टिपथमां आव्यु. राजा तेनी माहिती पूछतां योगिराज छ, परमब्रह्मचारी छे. जिंदगीमां प्रथमवार सेवको जणाव्यु के आ शब्दशास्त्र छे. आ शब्दप्राप्त थयेल आ रूप मने धराईने पीवा दे. आचार्यश्री शास्त्रनी रचना भोजराजा स्वयं करी छे. तेणे अन्य नजीक आव्या अटले सिद्धराज जयसिंहे पोताने कंईक पण शब्दालंकार वगेरे अनेक शास्त्रोन निर्माण कयु कहेवा माटे तेमने प्रार्थना करी. व्युत्पन्नमति | छे. राजा भोज जेम दानेश्वरी हतो, तेम महा विद्वान आचार्यश्री जणाव्यु के पण हतो. आ सांभळतां ज तेमना हृदयमा झणझणाट कारय प्रसरं सिद्ध ! हस्तिराजमशङ्कितम् / पेदा थयो. च्हेरा उपर श्याम रेखा उपसी आवी. मानस पट पर साहित्यन पारतन्त्र्य रमवा लाग्यु. तेमणे त्रस्यन्तु दिग्गजाः किं तैर्भू स्त्वयैवोद्धृता यतः॥ | त्यां उपस्थित थयेला विद्वानो तरफ प्रश्न भरी दृष्टि [सिद्धराज ! तारा गजने कशी शंका राख्या | नाखतां कह्यु के “शु आपणा देशमाआवा शब्दशास्त्रोन विना आगळ चलाव. दिग्गजो भलेने गभराई जाय, नव निर्माण करी शके तेवा विद्वानो नथी ? शु तेनो कोई भय नथी. कारण के पृथ्वीने तो तें ज | आ गुजरातदेश पराया शब्दशास्त्र उपर जीवीने सदाने धारण करी छे.] माटे परतन्त्रतानी जंजीरमां जकडायेलो ज रहेशे ? जे राज्य अन्यना साहित्य अने संस्कृतिन आश्रय ले आचार्यश्रीनी आ वाणीथी सिद्धराजना अन्तरमा | छे ते राज्य सत्ताथी स्वतंत्र होगा छतापरतन्त्र ज छे." प्रसन्नतानी दीपिका प्रगटी. तेमणे दररोज राजसभामा | राजाना आ वचनोथी वातावरण गम्भीर बनी गयु. आववा आचार्यश्रीने विनन्ती करी. आचार्यश्री | सौना मन शब्दशास्त्रने रचवामां समर्थ विद्वाननी दररोज राजसभामां जवा लाग्या. पोताना पवित्र | शोधमा खोवाई गया, आखरे सौनी दृष्टि आचार्ग 9 जुत्रो प्रभावकचरित पृष्ठ 300 श्लोक 72 तथा प्रबंधचिंतामणि, कुमारपालप्रबंध वगेरे. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [ उपोपात श्रीहेमचन्द्रसूरिजी उपर स्थिर थई. आथी राजाभे | 'सिद्धहेमशब्दानुशासन'नी रचना करी. सिद्धहेमना आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिजीने शब्दशास्त्रनी नवरचना सूत्रोनी रचना अटली सरळ करी के सामान्य बुद्धिकरवा नम्र विनन्ति करतां जणाव्यु के | मान विद्यार्थी पण सूत्र वांचता आ व्याकरणने सहे"यशो मम तव ख्यातिः, पुण्यं च मुनिनायक !; लाईथी हृदयंगम करी शके. आमा सर्वत्र निर्दोषता विश्वलोकोपकाराय, कुरु व्याकरणं नवम्" ||1|| | पोतानु स्थान जमाव्यु. श्रीहेमचन्द्रसूरिजीओ पाणिनीय | आदि व्याकरणना आधारे सिद्धहेमनी रचना करी छे ___ आचार्यश्री विनंतीनो स्वीकार कर्यो. | से बात जेटली सत्य छे, तेटली ज से बात पण सत्य आचार्यश्रीती सूचनाथी सिद्धराज जयसिंहे पोताना | छे के श्रीहेमचन्द्रसूरिजी पाणिनीय आदिव्याकरणोनु माणसोने काश्मीरदेशमां मोकलीने सरस्वती पासेथी | केवळ अनुकरण नथी कर्य; किन्तु पोतानी दिव्य आठ व्याकरणनां पुस्तको मंगाव्या. आचार्य श्रीहेमचन्द्र-। | प्रतिभाथी तेमां अनेक प्रकारनी नवीनतानु सिंचन सूरिजीओ ते सर्व व्याकरणोनु सूक्ष्मदृष्टिले अवलोकन | | करीने तेने खूब विकसित अने रोचक बनावेल छे. करीने अक वर्षमां सवालाख श्लोक प्रमाण पंचांग | आथी ज सिद्धहेमनु निरीक्षण करीने ते काळना व्याकरण तैयार कयु. राजाना अने पोताना नामने साक्षरो मौन न रही शक्या. काक तेमना मुखजोडीने ते ग्रन्थनु नाम “सिद्धहेमशब्दानुशासन" कमलमांथी "भ्रातः संवृणु"* इत्यादि प्रशंसानी पराग राखवामां आव्यु.5 खरी पडी. सिद्धहेमनी विशेषता ___ आधुनिक विद्वानो पण तेमनी सूत्र रचनानी आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिजीनेते समये प्रसिद्ध व्याकर- पटुता उपर आफरीन बनी गया छे. आचार्यश्रीनी सूत्र णोना सूक्ष्म निरीक्षणथी जणायु के कोई व्याकरणमां | रचना विषे डो० नेमिचंद्रशास्त्री लखे छ केनिरर्थक विस्तार छे,तो कोई व्याकरण कठिनताथी कलु- “हेम के पूर्ववर्ती व्याकरणोमें विस्तार काठिषित छे, कोई व्याकरण अनुवृत्तिनी बहुलताथी बेडोळ | न्य एवं क्रमभंग या अनुवृत्ति बाहुल्य ये तीन दोष छे, तो कोई व्याकरणमां क्रमभंगनी कलंकितता छे. | पाये जाते हैं; किन्तु आचार्यहेम उक्त तीनों दोषों से आथी तेमणे पोतानी प्रतिभाना बळे सर्वदोषोथी मुक्त / मुक्त है / व्याकरण में विवक्षित विषय को कम सूत्रो 卐व्याकरणनी रचना अंगे या वृत्तांत प्रबंधवितामणिमां अन्य रीते जोवामां आवे छे. व्याकरणना नव निर्माण संबंधी वृत्तांत लखता मानतुगसूरिजी जणावे छे के - सिद्धराज मालवदेश जीतीने आव्या त्यारे श्रीहेमचन्द्रसूरिजीने "भूमि कामगवि'' इत्यादि अर्थमधुर श्लोकथी राजाने आशीर्वाद प्राप्या. पाथी राजा प्रसन्न थया अने श्रीहेमचन्द्रसूरिजीनी प्रशंसा करी. केटलाक ब्राह्मणो पा प्रशंसा सहन न थवाथी बोल्या के अमारा व्याकरण आदि शास्त्रो भणीने तो विद्वान थया, प्रेमा शु आश्चर्य. पा सांभळी राजाने प्रश्नभरी दृष्टिथी श्रीहेमचन्द्रसूरिजी सन्मुख जोयु अने पूछच के प्रा ब्राह्मणो कहे छे ते साचु छ ? आचार्य बोल्या- अमे तो जैनेंद्र व्याकरणनो अभ्यास करीने छीने. महावीर भगवाने बाल्यावस्थामां इन्द्र समक्ष प्रा व्याकरणनु व्याख्यान कयु हतु. ब्राह्मणो बोल्या-या तो बहु जपुराण कालनी वातो छे. पुराणकालनी वातो ने जवा दो. हमणां नवीन व्याकरणनी सांगोपांग रचना करी शके अवो विद्वान तमारामां कोण छ ? होय तो बोलो. aa तो श्रीहेमचन्द्रसूरिजीने भावतु हतु अने वैद्ये कह्य" प्रेवु बन्यु'. पाथी तेस्रो बोल्या-जो राजा सहायक बने तो जरूर थोडा ज दिवसोमां नूतन पंचांग व्याकरणनी रचना करी आपु. राजाने सहाय आपवानी कबूलात पापी. बाद राजाने अनेक देशोमां पंडितोने मोकली अनेक व्याकरणना ग्रन्थो मंगाव्या. श्रीहेमचन्द्रसूरिजीने सर्व व्याकरणोनु अवलोकन करीने 'सिद्धहेम' नामना व्याकरणनी रचना करी. * जुत्री कुमारपालप्रबंध वगेरे. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोत्यात ] में निबद्ध करना अच्छा समजा जाता है / अल्पवाक्यों | संज्ञानु विधान करवा ‘कृत्तद्धितसमासाश्च' भे सूत्रन वाले प्रकरण एवं अल्पाक्षरों वाले सूत्रो में प्रतिपाद्य | प्रणयन करवु पड्य. वळी "अर्थवदधातुरप्रत्ययः विषय को प्रगट किया जाय तो रचना सुदर और प्रातिपदिकम्" से सूत्रमा जेम धातु अने प्रत्ययमां विस्तार दोष से मुक्त समजी जाती है। हेम ने उक्त प्रातिपदिक ( नाम ) संज्ञानु निवारण कयु तेम सिद्धान्त का पूर्णतः पालन किया है / जिसप्रकार की 'वाक्यमां' नाम संज्ञानु निवारण न कयु", आथी शब्दावली के अनुशासन के लिये जितने और जैसे 'कृत्तद्धितसमासाश्च' सूत्रमा समासनु ग्रहण करीने सूत्रों की आवश्यकता थी, इन्होंने वैसे और उतने ही वाक्यमा प्रातिपदिक (नाम) संज्ञानो निषेध को. सूत्रों का प्रणयन किया है / अक भी सूत्र असा नहि ज्यारे श्रीहेमचन्द्रसूरिजीओ 'अधातुविभक्तिवाक्यमहै जिस का कार्य दूसरे सूत्रसे चलाया जा सकता है।"5 र्थवन्नाम' भेज सूत्रमा वाक्यनु ग्रहण करीने तेमां | नामसंज्ञानु निवारण कयु. श्रीहेमचंद्रसूरिजीओ क ज पाणिनीय व्याकरणनी क्लिष्टता सूत्रमा जेटला विषयने गुथी लीधो तेटला विषयने अने सिद्धहेमनी सरळता | महर्षि पाणिनि बे सूत्रो करीने पण न गुथी शक्या. . अत्यारे सांप्रदायिक मत बाहुल्यना कारणे प्रातिपदिक संज्ञामां बोधनी दृष्टि क्लिष्ठता पण छे. पाणिनीय व्याकरणनो प्रचार अधिकतम भले होय; "धातु, प्रत्यय अने प्रत्ययान्तथी भिन्न अर्थवान शब्दनी पण सरळतानी दृष्टि तुलना करवामां आवे तो प्रातिपदिक संज्ञा छे" अम जाण्या बाद नूतन विद्यार्थीने पाणिनीय व्याकरणनी अपेक्षा सिद्धहेमशब्दानु प्रश्न थाय के प्रातिपदिक भेटले शु? आथी अहीं नूतन शासन अति सरळ छे. दाखला तरीके 3 विद्यार्थीने समजावयु पडे के प्रातिपदिक भेटले नाम. ज्यारे 'नाम' संज्ञा करवामां आ प्रश्नने अवकाश (1) महर्षि पाणिनि “अर्थवदधातुरप्रत्ययः | नथी रहेतो. प्रातिपदिकम्” (12 / 45) तथा "कृत्तद्धितसमासाच" (1 / 2 / 46) से बे सूत्रोथी शब्दनी 'प्रातिपदिक' (नाम) ___ दा० (२)—पाणिनीय व्याकरणमां हेतु, कर्ता, संज्ञा करी छे, ज्यारे श्रीहेमचन्द्रसरिजी "भधातु- करण भने इत्थंभूतलक्षणमां तृतीया विभक्तिनु विधान विभक्तिवाक्यमर्थवन्नाम" से क ज सत्रथी शब्दनी करवा त्रण सूत्रोनी रचना करवामां आवी छे. ज्यारे 'नाम' संज्ञा करी छे. खरेखर ! अहीं आचार्यश्रीनु 'सिद्धहेमशब्दानुशासन'मां में त्रणे सूत्रोना विषयने सूत्ररचनाविषयक चातुर्य स्पष्ट जणाई आवे छे. अहीं क ज सूत्रमा गुथीने से विषयने सरळ बनाववामां श्रीहेमचन्द्रसूरिजीओ 'विभक्ति' शब्दनो प्रयोग | आव्यो छे. करीने 'कृदंत' भने 'तद्धितान्त' शब्दोनी पण नाम ____ पाणिनीयसूत्र सिद्धहेमसूत्र संज्ञा करी दीधी छे. सूत्रमा 'विभक्ति' नुं ग्रहण | (1) कर्तृ करणयोस्तृतीया) करवाथी 'विभक्त्यन्त' शब्दोमा नाम संज्ञानो निषेध | (2) इत्थंभूतलक्षणे हेतुक करणेत्थंभूतलक्षणे थयो. 'कृदंत' अने 'तद्धितान्त' शब्दो विभक्त्यन्त नथी | भेटले ते शब्दोने आ निषेध लागु न पडवाथी तेमनी नाम संज्ञा थई. ज्यारे पाणिनिमे सूत्रमा 'प्रत्यय' दा० (३)–'कर्तृ करणे कृता बहुलम्' मे शब्दनो प्रयोग कर्यो छे. 'कृदंत' अने 'तद्धितान्त' सूत्रमा पाणिनि 'कर्तृ' अने 'करण' से बे शब्दोन शब्दो प्रत्ययान्त होवाथी 'अप्रत्ययः' थी ते शब्दोमां ग्रहण कयु. ज्यारे श्रीहेमचन्द्रसूरिजी भेज विषयने 'प्रातिपदिक' (नाम) संज्ञानो निषेध थयो. भाथी | 'कारकं कृता से सूत्रमा केवळ कारक शब्दनु ग्रहण 'कृदंत' अने 'तद्धितान्त' शब्दोमा 'प्रातिपदिक' (नाम) | करीने टुकमां गुथी लीधो छे. (3) हेतौ 9 जुो तेमणे लखेल "माचार्य हेमचन्द्र और उनका शब्दानुशासन : मेक अध्ययन" ग्रन्थनी प्रस्तावना. पृ. 4. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 ]. [ उपोद्घात - ___ दा० (४)-पाणिनीय व्याकरणना "विभाषा / व्यक्ति अपंचांग परिपूर्ण बनाव्यु', भने ते पण चत्वारिंशत्प्रभृतौ सर्वेषाम्" (6 / 3 / 49 ) मे सूत्रना | अंक ज वर्षमां. विषयने 'सिद्धहेम' मां ‘चत्वारिंशदादौ वा से सूत्रथी सिद्धराज राजाने आ व्याकरण उपर अत्यन्त टुकमां बताववामां आव्यो छे. श्रद्धा, बहुमान अने भक्ति हती. तेमणे आ व्याकरण आ सिवाय अन्य पण आवां अनेक दृष्टांतो तैयार थयु त्यारे सुवर्णाक्षरे लखावो तेनो वरघोडो छे. तेमाथी केटलांक दृष्टांतो लघुवृत्ति आदि ग्रन्थोनी काठ्यो हतो. तेमनी सहायथी अनेक रीते आ व्याकरप्रस्तावनामां प्रसिद्ध थई गयेला छे. आथी पिष्टपेष- णनो प्रचार करवामां आव्यो. त्रण सो लहीयाओने णना भये अत्रे तेनो उल्लेख नथी करतो...... | रोकीने त्रण वर्ष सुधी ते व्याकरणनी अनेक प्रतो आ प्रमाणे पाणिनीयव्याकरणना सयोनी लखावीने भण्डारोमा सुव्यवस्थित रीते मकवामां अपेक्षाओ सिद्धहेमव्याकरणना सूत्रोमां लाघवता साथे आवी. तथा अध्ययन करवा कराववा अढार देशोमां सरळता पण रहेली छे. पाणिनीय सूत्रोमां स्थाने | तेनो प्रचार करवामां आव्यो. स्थाने अर्थनी संकुचितता देखाय छे. अथीज तेना त्यारबाद अनेक विद्वानोभे सिद्धहेम उपर उपर वार्तिकनी रचना करवी पड़ी. ज्यारे सिद्धहेममां | विविध साहित्यनु निर्माण कयु. आधी से व्याकरण अर्थनी विशाळता अने गम्भीरता देखाय छे. सिद्ध- | आज बृहद्वृत्ति, मध्यमवृत्ति, लघुवृत्ति, रहस्यहेमनी अनेक विशेषतामोमां अक विशेषता से पण छे | वृत्ति वगेरे अनेक वृत्तिओथी विभूषित बन्युछे. के सूत्रोमा आवता शब्दो रोचक अने व्यवहारप्रसिद्ध छ. आथी अभ्यासक वर्गने तेनो बोध शीघ्र थई जाय मध्यमवृत्तिना प्रणेता कोण ? छे. पाणिनीय व्याकरणनी संपूर्णता अनेक व्यक्ति- / कलिकाल सर्वज्ञ भगवते सिद्धहेम व्याकरण ओना सहकारथी थई.ज्यारे सिद्धहेमने अकज उपर वृत्ति स्वयमेव रची छे निर्विवाद छे. पण ★महर्षि पाणिनिने मात्र सूत्रो रच्या. ते सूत्रो उपर वररुचिने (अन्य नाम कात्यायन) वार्तिकनी रचना करी. जयादित्य अने वामन श्रेबे विद्वानो काशिकात्तिनी रचना करी. लिंगानुशासन धातुपाठ, कोश वगेरेनी रचना पण अन्य अन्य व्यक्तियो करी छे. ..卐 सूत्र, धातुपाठ, गणपाठ, उणादि अने लिंगानुशासन में व्याकरणना पांच अंगो छे. * पा रहस्य वृत्ति लगभग 2500 श्लोक प्रमाण छे. जेप्रो लघुवृत्तिने कंठस्थ न करी शके तेश्रो पा रहस्य वृत्तिने कंठस्थ करीने पण सिद्धहेममा प्रवेश करी शके छे. या ग्रन्यनु संपादन-संशोधन पंडित सुश्रावक प्रभुदास बेचरदासे कयु छ; अने प्रकाशन श्रीजैन श्रेयस्कर मंडल तरफथी करवामां आव्यु छे. आ ग्रन्थ मोटी साइझमां छपायो छे. पण आ ग्रन्थ कंठस्थ करवामां उपयोगी होवाथी नानी साइझमा प्रकाशन करवानी आवश्यकता छे. कंठस्थ करवा माटे या वृत्ति जेम मंद स्मरण शक्तिवालाोने उपयोगी छे तेम तीव्र स्मरण शक्तिवालाअोने पण उपयोगी छे. कारण के वृत्तिने कंठस्थ कर्या पछी तेने टकाववा तेनी पुनः पुनः परावृत्ति अनिवार्य बने छे. या वृत्तिनु प्रमाण अल्प होवाथी तेनी पुनः पुनः प्रावृत्ति करवामां घणीज अनुकूलता रहे, घणा दीर्घ काल सुधी तेनी प्रावृत्ति थइ शके. आथी सूत्रो तथा वृत्तिना संस्कारो मगजमां दृढ थाय, कयो विषय क्यां छे तेनो पण ख्याल रहे. या वृत्तिनी रचना सूत्रार्थनो बोध थवामां अनिवार्य शब्दो ज वापरीने अत्यंत संक्षेपमा करवामां प्रावी छे. ज्यां वृत्तिनी आवश्यकता न जणाई त्यां केवल उदाहरणादि ज बताववामां आवेल छे. छतां सूत्रार्थनो बोध थवामां हरकत नथी पावती. अनेक सूत्रोमांउदाहरण के प्रत्युदाहरण पण नथी आपवामां पाव्या. पाथी सिद्धहेममां शीघ्र प्रवेश करवा पा वृत्ति पण घणी ज उपयोगी छे अम मारमान छे........ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात ] तेमणे केटली अने कई कई वृत्तिओ रची अ विषे | "इत्यावार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां लघुवृत्तौ चतुर्थचोक्स कोई प्रमाण हाल उपलब्ध नथी. बृहद्वृत्तिनी | स्याध्यायस्य चतुर्थः पादः" से प्रमाणे पाठ छे. रचना कलिकाल सर्वज्ञ भगवंते करी छे में विषे | त्यारबाद 'कृवृत्ति'ने अंते पुष्पिकामां "इत्याबहत्तिमा ज प्रमाण मळी रहे छे. सिद्धहेमना | चार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वो"सिद्धिः स्याद्वादात्" अबीजा ज सूत्रनी बृहवृत्तिमां | पज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्ती..."थे प्रमाणे पाठ छे. "यदवोचाम स्तुतिषु" अम कहीने अन्ययोगव्यव ___त्यार बाद 'तद्धितवृत्ति'ने अंते "इत्याचार्यच्छेदिका द्वात्रिंशिकानो त्रीसमो श्लोक मूकबामां आव्यो श्रीहेमचन्द्रविरचितायां श्रीसिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वो. छे. आ अन्ययोगव्यवच्छेदिका द्वात्रिंशिका कलिकाल सर्वज्ञ भगवंत प्रणीत छे. आथी बृहद्वृत्ति कलिकाल पज्ञशब्दानुशासनलघुवृतौ............." | ओ प्रमाणे पाठ छे. सर्वज्ञ भगवते रची छे प्रमाण सिद्ध छे. आ विषयमा आधुनिक साक्षरोनु पण औक्य छे. पण अहीं क्यांय पण आ वृत्तिनो मध्यमवृत्ति तरीके प्रस्तुत मध्यमवृत्तिना कर्ता विषे कोई चोकस प्रमा- | निर्देश करवामां नथी आव्यो; किन्तु लघुवृत्ति तरीके णना अभावे आज विद्वानोना मानस पट पर मध्यम- | ज निर्देश करवामां आव्यो छे. आथी आ वृत्ति लघुवृत्ति वृत्तिना कर्ता कोण ? अ प्रश्न अथडाई रह्यो छे. केट- | ज छे; पण मध्यमवृत्ति नथी. छतां अत्यारे जे अन्य लाकनु मानवुछे के कलिकाल सर्वज्ञ भगवंते लघुवृत्ति उपलब्ध थाय छे तेनु प्रमाण 6000 श्लोक सिद्धहेम उपर बृहद्, मध्यम अने लघु अमत्रण | छे, ज्यारे आ वृत्तिनु प्रमाण लगभग 8000 श्लोक छे. वृत्तिओ रची छे. पण आ विषयमां कोई प्राचीन *आथी आपणे आ वृत्तिने उपलब्ध लघुवृत्तिनी प्रमाण मारा जाणवामां नथी आव्यु. तेथी इच्छु छ | अपेक्षा मोटी होवाथी मध्यमवृत्ति तरीके स्वीकारी के जे भाग्यवान पासे प्रमाण होय ते प्रकाशमा लावे. तो खास हरकत न गणाय. छतां पण तेने स्वोपज्ञ सौ प्रथम विचारणीय छे के सिद्धहेम उपर कहेवी या नहि से विचार करवानी जरूर रहे छे.. मध्यमवृत्तिनी रचना थई छे के केम ? कारण के प्रस्तुत अलबत, मूल प्रतमां आ वृत्तिनो स्वोपज्ञ तरीके वृत्तिनी प्राचीन अंक ज प्रत हाल उपलब्ध थाय छे, | निर्देश करवामां आवेल छ, तेथी आपणे तेने जेम मध्यमवत्ति तरीके स्वीकारी तेम स्वोपन तरीके पण तेमां चार स्थळे वृत्तिना कर्ता आदिनो निर्देश करवामां आव्यो छे; तेमां सर्वप्रथम 'चतुष्कवृत्ति' ना अंते पुष्पि केम न स्वीकारी, से प्रश्न उठे छ; छतां'चतुष्कवृत्ति' कामां "इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते सिद्धहेम वगेरे चारे य वृत्तिने अंते पुष्पिकामां आ वृत्तिनो उल्लेख लघुवृत्ति तरीके ज को छे तो प्रश्न थाय के जो आ पूर्णा॥चतुष्कव्याकरणलवुवत्तिसर्वपादमेलने सर्वानं- | वास्तविक लघुवृत्ति छ अने स्वोपज्ञ छे तो शुकलिकाल .2874" प्रमाणे पाठ छे. | सर्वज्ञ भगवंते बे लघुवृत्तिओ रची ? कारण के आनाथी | नानी पूर्व प्रसिद्ध लघुवृत्ति पण स्वोपज्ञ मानवामां त्यारबाद 'आख्यातवृत्ति'ने अंते पुष्पिकामां | आवे छे. चन्द्राभि परि * व्याकरणमां 'चतुष्कवृत्ति' आदि चार वृत्तिो प्रसिद्ध छे. प्रस्तुतवृत्तिनी मूलप्रतमां ते ते वृत्तिने अंते नीचे मुजबनी ग्रन्थ श्लोक संख्या लखवामां आवी छे. चतुष्कव्याकरणलघुवृत्ति सर्वपादमेलने सर्वाग्रम् -2874 एवमाख्यातसर्वाग्रम्-१३११ कृतः सर्वपादसंख्या एवम् -660 (तद्धितस्य) अष्टपाद सर्वाङ्कमेलने एवं ग्रन्थानम्-२६७४ 7849 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थयु छे. [ उपोद्गात प्रश्नः-आवृत्ति कलिकाल सर्वज्ञ भगवंत विरचित मध्यम , हैमप्रकाशना पूर्वार्धमा उपोद्घातमां तेभो स्पष्ट . वृत्ति छे. पण लेखक आदिना प्रमादादि दोषथी | लखे छे के-"कोई विद्वान उद्धरेल मध्यमवृत्ति 8000 _ 'मध्यम' ना स्थाने 'लघु' शब्द लखाई गयो | श्लोक प्रमाण छे". आथी "आ वृत्तिने कलिकाल होय अम केम न संभवे ? सर्वज्ञ भगवंत सिवाय अन्य कोई विद्वाने (बृहद्उत्तरः-लेखक आदिना दोषथी अकाद बे स्थळे क्षति | वृत्तिमांथी) उद्धरी छे" अत्रा तेमनां विचारो हता संभवे,पण अहीं तो चार स्थळोमा छ वखत लघुवृत्तिनो सिद्ध थाय छे. तेमणे आ वृत्तिनोस्वोपज्ञ तरीके क्या य ज प्रयोग थयो छे, अने क्यांय पण मध्यमवृत्तिनो उल्लेख नथी को. प्रकाशित थयेल आ वृत्तिना प्रथम निर्देश ज नथी विभागमा टाइटल पेजमां 'स्वोपज्ञ' शब्दनो उल्लेख अन्यव्यक्ति को छे. कारण के श्रीक्षमाभद्रसूरिजी वळी आ वृत्तिनी भाषामा तथा बहवृत्तिनी | महाराजना स्वर्गवास बाद आ टाइटल पेज तैयार भाषामां अमुक स्थळोमां तफावत छे. आ वृत्ति जो | कलिकाल सर्वज्ञ भगवंत विरचित होय तो आ भाषानो | तफावत न होय. ___ लघुवृत्ति स्वोपज्ञ छे ? हवे से प्रश्न आवीने उभो रहे छ के तो पछी लघुवृत्ति पण स्वोपज्ञ छे के केम विचारणीय मूल प्रतमां आ वृत्तिने स्वोपज्ञ कही छे तेनु शु? | छे. प्राचीन तिहासिक ग्रन्थोमांथी आपणने अटल __आ प्रभनु समाधान से थई शके के कलिकाल | ज जाणवा मळे छे के-“कलिकाल सर्वज्ञ भगवंते सिद्धसर्वज्ञ भगवंत विरचित बृहवृत्ति उपरथी आ वृत्ति | र राजनी प्रार्थनाथी अक वर्षमा सवा लाख श्लोक प्रमाण लखवामां आवी होय अटले कर्ता आ वृत्तिने | पंचांगपरिपूर्ण व्याकरण रच्यु." पण से व्याकरण पोताना नामे जाहेर न करता कलिकाल सर्वज्ञ उपर केटली अने कई कई वृत्तिभोरची, तथा मे वृत्तिभगवंतना नामे जाहेर करी होय. आ प्रमाणे मानवामां | ओनु प्रमाण केटलु हतुओ जाणवा नथी मळतु. कोई विरोध मने नथी जणातो अटले अम मानवानु हाल लघुवृत्तिनी प्राचीन जे प्रतो प्राप्त थाय मन थाय छे के छे ते बे प्रकारनी छे. कोई प्रतोमां तेनो 'स्वोपज्ञ' प्रस्तुतवृत्ति नथी तो कलिकाल सर्वज्ञ भगवंत | तराक निदश | तरीके निर्देश छे, अने कोई प्रतोमां तेना कर्ता विरचित प्रने नथो तो मध्यमवृत्ति, किन्तु अन्य कोई | तरीके काकलकायस्थ' नो निर्देश करवामां आवेल छे. | बंने प्रकारनी प्रतोमा प्रयोगोनो के वाक्यरचना आदि विद्वान विरचित लघुवृत्ति छे. | नो कोई खास तफावत देखातो नथी. क्यांक क्यांक प्रश्न:-तो पछी स्व० पू० आचार्य भगवंत श्रीक्षमा- | नहिवत् तफावत जणाय छे. भद्रसूरिजी महाराजे, आ वृत्तिना चतुष्कवृत्ति पर्यन्तना प्रथम विभागने प्रकाशित करवामां __हवे अहीं प्रश्न थाय छे के जो कलिकालसर्वज्ञ आवेल छे, तेमां टाइटल पेजमां आ वृत्तिनो भगवंते लघुवृत्तिनु प्रणयन कयु हतु तो आ काकल'स्वोपज्ञमध्यमवृत्ति' मे प्रमाणे उल्लेख शा कायस्थने अन्य लघुवृत्ति रचवानी शी जरूर ? शु माटे को ? कलिकाल सर्वज्ञ भगवंत प्रणीत लघुवृत्तिमां क्लि ठता हती ? सरस्वतीलब्धप्रसाद कलिकालसर्वज्ञ भगउत्तरः-स्व० पू० आचार्य भगवंत श्रीक्षमाभद्रसूरिजी वंतनी कृतिमां कोई जातनी न्यूनता तो न ज होय.छतां . महाराजे हाल प्रसिद्ध अन्य लघुवृत्तिनी अपेक्षा काफलकायस्थे लघुवृत्ति रची अथी अनुमान थाय छे आ वृत्तिनु प्रमाण वधारे होवाथी तेने मध्यम के कलिकाल सर्वज्ञ भगवंते मात्र बृवृत्ति ज रची वृत्ति तरीके गणी छे, परन्तु तेमणे आ वृत्तिने हशे अने अथी नूतन विद्यार्थिओ सिद्धहेममां शीघ्र स्वोपज्ञ तरीके गणी ज नथी. अने सरळताथी प्रवेश करी शके से दृष्टिले काकल Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योधात ] [ 15 कायस्थे लघुवृत्तिनु प्रणयन कर्य हशे. आ काकलकाय- | __अव रिनी प्रथम विशेषता स्थ कलिकालसर्वज्ञ भगवंतनी हयातिमां ज सिद्ध तेमा प्रथम विशेषता से छे के- तेमां वृत्तिमा हेमनो मुख्य अध्यापक हतो, अने आठ व्याकरणोनो। आवता उदाहरणोनी तथा प्रत्युदाहरणोनी ठेर ठेर अभ्यासी हतो. लघुवृत्तिनी रचना काकलकायस्थे करी साधनिका करवामां आवी छे. साधनिका माटे आ होवा छतां केटलीट प्रतोमा तेनो स्वोरज्ञ तरीके जे | अवचूरि अत्यंत उपयोगी छे. जेमा उदाहरण के प्रत्युनिर्देश करवामां आव्यो छे, ते का लकायस्थे बृहद्व्- | दाहरणनी साधनिका न करवामां आवी होय तेवी त्तिमांथी ज संक्षेप करीने लघुवृत्ति रची होय अटले | अवचूरि थोडा ज सूत्रोनी छे. आथी आ अवचूरि सिद्धकेटलाको आ वृत्तिने स्वोपज्ञ गणी होय अम मारुहेमना प्राथमिक अभ्यासीओने तथा शिक्षकोने पण मानवु छे. मारी आ मान्यतामां फेरफार होय तो | अत्यंत उपयोगीथई पडशे.उदाहरण तथा प्रत्युदाहरणमा प्रमाण साथे जणाववा अथवा आना अंगे सप्रमारण | आवता नामना रूपोनी, धातुना रूपोनी, कृदंत नामोनी स्पष्टता करवा विद्वद्वर्ग पासेथी आशा राख्छु. | तथा तद्धितान्त शब्दोनी सिद्धि क्रमशः सूत्रो आपीने अवचूरिना प्रणेता वगेरे | बहु सुदर रीते करवामां आधी छे. हुजो न भूलतो होउं तो, सिद्धहेमना अभ्यासमा उपयोगी ग्रन्थो अत्यारे जे ___ मध्यमवृत्तिनी अवचूरिना प्रणेता कोण हता ? | उपलब्ध थाय छे-प्रकाशित थया छे तेमांना कोई ते क्यारे थई गया ? तेमणे अवचूरिनी रचना क्यारे ग्रन्थमां आ अवचूरिनी जेम ठेर ठेर क्रमशः सूत्रो आपीने करी? अन्य कया कया ग्रन्थोनी रचना करी ? | साधनिका नथी करवामां आवी; सिवाय शब्दमहारणइत्यादि कोई प्रकारनो उल्लेख.आ वृत्तिनी उपलब्ध | वन्यास. कलिकालसर्वज्ञ भगवंत विरचित बृहन्न्यास मूल प्रतमां करवामां आव्यो नथी. अन्य पण सेवा / अत्यारे जेटला प्रमाणमां उपलब्ध थाय छे तेने जोवाथी साधनो हाल उपलब्ध नथी के जेनाथी प्रस्तुत अव- जणाय छे के तेमां बृहद्वृत्तिमा आवता दृष्टांतोनी साधचूरिना कर्तानो निर्णय करी शकाय. निका लगभग बताववामां आवी छे. स्व०पू० प्राचार्य छतां अवचूरिना अंतमा आवेल 'संवत् 14...' | श्रीलावण्यसूरिजी महाराजे त्रुटक न्यासनु अनुसंसे अक्षरथी अनुमान थाय छे के आ अवचूरिनी प्रत धान कयं छे, तेमां पण सूत्रोना निर्देश पूर्वक साध१५ मां सैकामां लखायेली हशे. से प्रत वळी अन्य कोई निका करवामां आधी छे. प्रतना आधारे लखायेली हशे, अम तेमां आवता यद्यपि हैमप्रकाश क साधनिकानो ज ग्रन्थ .................."आवा त्रुटित स्थानोथी अनुमान थाय | छे. छतां अवचूरिमां अनेक स्थळे सावनिका करवामां छे.आथी अवचूरिनाकर्ता 15 मांसैकामां या तेनीपण पूर्वे जे क्रमशः सूत्रो वतात्रवामां आव्या छे ते हैमप्रकाशमां थया हशे. आथी अवचूरि नी रचना पण 15 मां सैकामां नहि मळे. हैमप्रकाशमां जे अक शब्दना के धातुना या तेनी पण पूर्वे थई हशे अम संभवे छे. आथी आ रूपनी प्रक्रिया चालती हशे ते ज शब्दना के धातुना अवचूरि घणी प्राचीन छे अम अनुमान करी शकाय छे. रूपनी सिद्धि माटे क्रमशः सूत्रो बतात्रवामां आव्या छे. अवचूरिना कर्ता विद्वान हता मे तो अवचूरिना निरी- आथी तेमां अकवार आवी गयेल सूत्रनो पुनः निर्देश क्षणथी सुस्पष्ट जणाई आवे छे.तेमनोव्याकरणविषयक | नहि आवे. दाखला तरीके-षलिंग प्रकरणमा अझै च' तेमां पण प्रक्रियाविषयक बोध घणो ज संगीन हतो (1 / 4 / 39) सूत्रनी अवचूरिमां कत णि शब्दनी प्रक्रिया भे अधचूरिमां ठेर ठेर आवती साधनिकाओथी जणाई | "कर्तृणि' इत्यत्र जस् शस् वा, नपुंसकस्य शिः' (1 / 4 / भावे छे. आ अवचूरिनु प्रमाण लगभग 24-25 हजार | 55), 'अनाम् स्वरे नोऽन्तः' (1 / 4 / 64) इति नकारागमः, लोक प्रमाग लागे छे. साधनिका माटे आ अवचूरि 'नि दीर्घ.' (114.85) इति दीर्घः, कत णि सिद्धम्" अत्यंत उपयोगी छे. आ अवचूरिमां मुख्य बे विशेष- आ प्रमाणे क्रमशः सूत्रोनो निर्देश करीने बतायवामां ताओ छे. आवी छे. ज्यारे हैमप्रकाशमां ऋकारान्त नपुंसकलिंग Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उपोद्घात नामोनी साधनिकामां कणि मे प्रमाणे मात्र रूपनो | मनीषी श्रीकनकप्रभसूरिजीकृत बृहवृत्तिना निर्देश करवामां आवेल छ पण तेनी सिद्धि माटे क्रमशः | लघुन्यासमां साधनिकाओ बताववामां आवी छे, पण सत्रो आपवामां नथी आव्या. कारण के जे सत्रोथी | बहुज अल्पस्थळोमां. आ लघुन्यास ग्रन्थमां बहुधा 'कणि' रूपनी सिद्धि थाय छे ते 'नपुसकस्य शिः' | सूत्रोमा रहेला पदार्थना रहस्योने प्रकट करवा साथे (शा५५) 'अनाम् स्वरे नोऽन्तः' (1 / 4 / 64) वगेरे सूत्रो | प्रसंगोचित विविध चर्चाओ करवामां आवी छे. आथी पूर्वे नपुसकलिंग अकारादिशब्दोनी 'साधनिकामां | आ ग्रन्थ सिद्धहेमना प्रौढ अभ्यासकोने ज उपयोगी छे. आवी गया छे. आ प्रमाणे हैमप्रकाशमां क्रमशः सूत्रो बतावीने साधनिका बहुज अल्पस्थळोमां करवामां आवी विद्वद्वर्य श्रीमदमरचन्द्रविरचित (बृहद्वृत्तिनी) छ, आथी अपेक्षाओ हैमप्रकाशथी पण आ अवचूरिनी प्रवचूरिण नव पाद सुधीनी छपायेली छे. आ प्रन्थनी महत्ता वधारे छे. प्रतिपादनशैली बहुधा श्रीकनकप्रभसूरिजीकृत लघु न्यासने मळती आवे छे. आथी तेमां पण साधनिकाओ आगळ वधीने आपणे जोई तो आख्यात बहु अल्प स्थळोमां बताववामा आवी छे. प्रकरणमा ते ते स्थळे आवता धातुना रूपोनी साधनिका पण अत्यन्त सुन्दर रीते करवामां आवी छे. लघुवृत्ति उपर मुनिवर्य श्रीजितेन्द्रविजयजी दाखला तरीके-'रुदविदमुष'० (4 / 3 / 32 ) सूत्रनी | महाराजकृत प्रवचूरिपरिष्कार दश पाद सुधी अवचूरिमां 'पृष्ट्वा' रूपनी सिद्धि-"पृष्ट्वा इत्यत्र | छपायेल छे. तेमां प्रस्तुत अवचूरिनी जेम साधनिका प्रच्छ, क्त्वा, किवद्भावात् 'प्रहश्चभ्रस्जप्रच्छ:' ठीक ठीक उपलब्ध थाय छे. आथी अनुमान थाय छे के (4 / 1184) इत्यनेन वृन्-रस्य ऋ, 'अनुनाशिके च | आगळ अगीयारमा वगेरे पादोमां पण साधनिका ठीक च्छवः शूट्' (4 / 1 / 108) इत्यनेन छकारस्थाने ताल ठीक हशे. पण हाल तो आ ग्रन्थ दश पाद सुधी ज व्यशकारः, 'यजसृजमृज०' (2 / 1187) इत्यनेन शका | छपायेल छे. तथा अबचूरिपरिष्कार लघुवृत्ति उपर रस्य षकारः, 'तवर्गस्य श्ववर्ग०' ( 13660 ) इत्यनेन | | होवाथी आ अबचूरिनी अपेक्षा तेमां सावनिका अल्प प्रत्ययतकारस्य ट:" आ प्रमाणे क्रमशः सूत्रोना उल्लेख होय से स्वाभाविक छे. साथे बताववामां आवी छे. मोटे भागे दरेक सूत्रनी अवचूरि आ प्रमाणे साधनिकाथी ज परिपूर्ण छे. अवचूरिनी बोजी विशेषता “यपि चादो जग्ध्" (4|4|16) से सूत्रनी अवचूरिकार केवळ साधनिकाओ बतावीने वृत्तिमा जणाव्यु के "अन्तरङ्गानपि विधीन् बहिरङ्गा | नथी अटकी गया. तेमणे साधनिका बतायवा उपरांत लुब् बाधते" ओ न्यायथी प्रशम्य, प्रपृच्छय, प्रदीव्य... | ठेर ठेर बृहद्वृत्तिमांथी उपयोगी विषयो लईने अव.............'' इत्यादि स्थळे अनुक्रमे दीर्घत्व, शत्व, | चूरिमां गुथी लीधा छे. आ अवचूरिनु सूक्ष्मदृष्टिों ..."यप' थी बाधित थाय छे. अहीं | निरीक्षण करवाथी अ पण स्पष्ट जणाई आवे छे के अवचूरिकारे प्रशम्य, प्रपृच्छय, प्रदीव्य............. | मनीषी श्रीकनकप्रभसूरिजीकृत लघुभ्यासमाथी पण .............. इत्यादिमां दीर्घत्व, शत्व, ऊत्व........." उपयोगी विषयोनो संग्रह करी लीधो छे. कोई कोई ......"नी प्राप्ति कया सूत्रथी थाय छे ते क्रमशः स्थळे बृहद्वृत्तिनी तथा लघुन्यासनी पंक्तिओ बताववामां आव्युं छे. आ स्पष्टता नथी हैमप्रकाशमां | अक्षरशः तेवीने नेत्री ज मळे छ; तो कोई कोई स्थळे के नथी लघुन्यासमां. | ओछावत्ता फेरफार साथे देखाय छे. ऊत्व जमा ग्रन्थन संपादन-संशोधन पू० पं० श्रीचन्द्रसागरजी गणिवर्ये (हाल सूरि) कयुं छे. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र नंबर योगात] अवचरिमा बृहद्वृत्तिनो तथा लघुन्यासनी अक्षरशः आवती पंक्तिओनु दिग्दर्शन बृहवृत्तिनी पंक्तियो अववरिनी पंक्तियो पुरुषस्कन्धस्य वृक्षस्कन्धस्य वा पुरुषस्कन्धस्य वृक्षस्कन्धस्य वा तिर्यक् प्रसृतमङ्ग शाखेत्युच्यते, तिर्यक् प्रसृतमङ्ग शाखेत्युच्यते, तद्यथा शाखा पाश्र्वायता तथा // 71 / 114 // तद्यथा शाखा पायता तथा कुलस्य यः पायितोऽङ्गभूतः कुलस्य यः पार्था यतोऽङ्गभूतः स शाखायास्तुल्यः / स शाखायास्तुल्यः। सिकता देशः शर्करा देशः / सिकता देशः शर्करा देशः इत्यभेदोपचारात् // 12 // 36 // इत्यभेदोपचारात् लघुन्यासनी पत्तियो भत्र सूत्रे शेषस्य घुट आघ्रातत्वाद् अत्र सूत्रे शेषस्य घुट आघ्रातत्वाद् एतत्सूत्रमुक्तः प्राक्तनसूत्रविषयः // 4/82 // एतत्सूत्रमुक्तः प्राक्तनसूत्रविषयः इति भावः . इति भावः ननु समायाः कथं व्याप्तिरेकदेश एव ननु समायाः कथं व्याप्तिरेकदेश एवं गर्भग्रहणात् ? // 1 / 105 // गर्भग्रहणात् ? अवचूरिमा बृहवृत्तिनी तथा लघुन्यासनी फेरफार साथे आवती पंक्तिओनु दिग्दर्शन बृहद्वृत्तिनी पंत्ति.मो सूत्र नंबर अव रिनी पंक्तिमो [थोडा फेरफार साथे] समानानामिति बहुवचनस्य व्याप्त्यर्थत्वेनो- समानानामिति बहुवच तस्य व्याप्त्यर्थत्वेनोक्तत्वादिहोत्तरत्र च ह्रस्वोऽपि भवति। // 17 // क्तत्वादिहोत्तरत्र सूत्रेष्वपि लस्वोऽपि भवति / [विशेष फेरफार साये] लिङ्गविशिष्टस्य ग्रहणात् चटकाया "नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्" अपि चाटकैरः / // 6 // 79 // इति न्यायात् चटका इति शब्दस्यापि ___चटकाया अपत्यं चाटकर इति प्रयोगः / लधुन्यासनी पंक्तियो [थोडा फेरफार साथे आचं मतं जैनेन्द्रस्य, ____ आद्यं मतं जैनेन्द्रस्य व्याकरणस्य, द्वितीयमुत्पलस्य। // 6 / 11 // द्वितीयमुत्पलस्य / [विशेष फेरफार साथे]. यदा नदी तदा सरणं गमन 'सरस्वती' इत्यत्र यदा नदीपर्यायः सरस्वतीशब्दः मस्यास्तीति वाक्यम् , यहा तु 72 / 47 // तदा सरः सरणं गमनमस्या अस्तीति वाक्ये मतुः, भारती तदा सरो मानसाद्यस्यास्तीति / 'मावणान्तोपान्त्यः' इति मस्य वः,ततो डी, यदा भारतीवाचकः सरस्वतीशब्दः तदा सरो मानसाख्वादि अस्या अस्ति इति वाक्ये मतुः / Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 ] [ उपोद्दार ___ आ अवचूरिमां केटलाक स्थळोमा बृवृत्ति अने लघुन्यासनी समान संबंधवाली पंक्तिओ भेक साथे जोवामां आवे छे. दाखला तरीकेबृहद्वृत्तिनी पंक्तिप्रो. सूत्र नंबर प्रवचूरिनी पंक्तियो प्रत्यासत्तेः शब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्य प्रत्यासत्तेः शब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्य भूतपूर्वत्वेऽयं भूतपूर्वत्वेऽयं प्रत्यय इतीह न भवति, प्रत्ययो भवति इति इह न चरट, अर्जुनो अर्जुनो माहिष्मत्यां भूतपूर्व इति / माहिष्मत्यां भूतपूर्व इति / अत्र हि अर्जुन____ लघुन्यासनी पंक्तिप्रो ॥२७८|त्वस्यार्जुनशब्दाभिधेयस्य न भूतपूर्वस्वम् / अत्र हि नार्जुनत्वस्यानिशब्दाभिधेयस्य नहि अर्जुनो माहिष्मत्यामर्जुनत्वेन भूतपूर्वः भूतपूर्वत्वम्, नहि अर्जुनो माहिष्मत्यामर्जुनत्वेन किन्तु राजत्वेन इत्यर्थः / भूतपूर्व इत्यत्र विवक्षाऽपि तु राजत्वेनेत्यत्र न भवति / अवचूरिना निर्माणमा सहायक ग्रन्थो __ प्रमाणे आ अवचूरि अटले शब्दमहार्णव- | आ अवचूरिमां संगृहीत करवामां आव्या छे. न्यास, बृहवृत्ति अने लघुन्यासनो उपयोगी निचोड़. भाप्रमाणे आ अवचरिमां साधनिकाने मुख्य आ उपरथी अ पण सम्भावना थई शके छे के अव- राखी ते ते स्थळे उपयोगी अन्य विषयोनो पण संग्रह चूरिकारे आ अबचूरि मुख्यपणे आ त्रण ग्रन्थना | | करवामां आव्यो छे. आमां प्राथमिक अभ्यासक वर्गने आधारे लखी हशे. अवचूरिमां अनेक स्थळे "ब्रहदव | अनुपयोगी न्यास आदिमां आवती चर्चाने बिलकुल तो तु" मे प्रमाणे लखीने बृहद्वृत्तिथी अवचूरिनो स्थान आपवामां नथी आव्यु, भने प्राथमिक अभ्यासक अभिप्राय भिन्न जणाववामां आव्यो छे. अनेक | | वर्गने तथा शिक्षकने अत्यन्त उपयोगी थई पड़ती स्थळे बृहद्वृत्तिनी पंक्तिओ उपर पण अवचूरि र साधनिकाओ ठेर ठेर आफ्वामां आवी छे. माथी आ करवामां आवो छे.* अभिधान चितामरिण कोशनो। अवचूरि प्राथमिक अभ्यासकवर्ग माटे मेक शिक्षकनी उपयोग पण ठीक ठीक करवामां आवेल छे. अहीं | गरज सारशे मेम कहेवामां जराय अतिशयोक्ति नथी. अभिधान चिंतामणि कोश माटे बहधा नाममाला' | शब्द वापरवामां आव्यो छे.. कोई ठेकाणे भेना सिद्धहेमनो संगीन, सरळ अने शीघ्र अभ्यास माटे 'शब्दानुशासन' शब्दनो पण प्रयोग करवामां | करवा या कराववा प्राथमिक विद्यार्थीओ तथा शिक्षको भावेल छे.. श्रीहैमलिङ्गानुशासननो उपयोग पण आ अवचूरिनो उपयोग करीने शीघ्र सफळता प्राप्त कम नथी करवामां आव्यो.. दरेक गण पाठो पण 'करे अज अंक शुभ भावना. पिंडवाडा -मुनि राजशेखरविजय श्रावण सुद पंचमी * जुप्रो-सूत्र 12141, 6 / 2 / 12, 6 / 3 / 206, 64aa वगेरे. जुो सूत्र 1 / 3 / 12, 2 / 1 / 23, 2 / 2 / 81, वगेरे. 卐 जुो सूत्र 6 / 3 / 186, 7 / 172, 7 / 2 / 89 वगेरे. जुओ सूत्र 1175 वगेरे. * जुनो सूत्र 6 / 4 / 173, 7 / 1 / 140, 7 / 1173 वगैरे. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैमप्रकाश वगेरे अनेक ग्रन्थोना सम्पादक-संशोधक प्रातःस्मरणीय पू० आचार्य श्रीक्षमाभद्रसूरि म० ना केटलाक जीवन प्रसंगो tirkirakritkarxxx****** wwww Pratimaratiriktionary लेखक-पू० मु० श्री राजशेखर विजयजी म. ... वांचको ! जरा विश्व उपर दृष्टिपात करो. अक स्वभाव कहो के संस्कारनो वारसो कहो, परंतु ज्यारे मानव यौवनना आंगणे प्रवेश करे छे, त्यारे तेनी हृदय-भूमि पर बे आग प्रज्वलित बने छे. ओक आग कन्यापति बनवाना कोडनी, अने ' बीजी आग लक्ष्मीपति बनवाना होंशनी. ___आ बे आगना असह्य तापथी कोण बच्यु छ ? अनंता मानवीओ आ आगना तापथी शेकाई गया. हता न हता थई गया. तेमनुजीवन काळनी कारमी चक्कीमां पीसाई गयु. तेमनो आत्मा अनंत संसारनी मुसाफरी माटे विदाय थई गयो. तो शु आ अग्निना तापथी कोई ज मानवी बचतो नथी ? बचे छे, जरूर बचे छे. जेनो हृदय हंस जीवनपति बनवानी आशाना सरोवरमां गेल करे छे ते आ बे आगथी बचे छे. तेनु जीवन जगतना जीवोने आशीर्वादरूप नीवडे छे. ते पोताना आत्माने तथापोताना परिचयमां आवनारना आत्माने ऊर्ध्वगामी बनावे छे. . जीवनपति अटले पोताना जीवननो पति-मालिक-स्वामी. उच्छृखल बनेला पोताना जीवनने काबूमां राखनार दरेक मनुष्य जीवनपति बनी शके छे.. ... पण जीवनपति बनवु में बच्चाना खेल नथी. से माटे दुर्दान्त मनने दमवु पडशे. इन्द्रियोने वश करवी पडशे. संसारना रंगरागने भूली जवा पडशे. कंचन अने कामिनीना स्पर्शथी पण दूर रहेवु पडशे. काया अने कीर्तिनी ममताने फगावी देवी पडशे. जीवनपति बनवु दुःशक्य जरूर छे, पण अशक्य नथी ज.. आ भारत देशमा अनेक नर रत्नो थया छे, के जेओ यौवनना आंगणे आवता पहेला ज संसारना भौतिक सुखोने तिलांजलि आपी जीवनपति बनी गया. आवा महापुरुषो पोतानी जीवनमोटरने जरा य विपरीत मार्गे जवा नथी देता, अने भूले चूके जाय तो तुरत ब्रेक मारे छे. अमनु भव्यजीवन सर्व कोई ने जीवनपति बनवानी दिव्य प्रेरणा आपे छे. अहीं तमने आवाज ओक जीवनपति बननार दिव्यपुरुषना जीवन उपवनमा विकसेला गुणकुसुमोनी सौरभनो आनंद लूटवा मळशे. महानुभावो ! तमो मात्र जरा वार से आनंद है लूटीने बेशी नहि रहेता पण मे गुण-कुसुमोने तमारा हृदय-करंडकमां भरी लेशो. जेथी सदा "है 1 तेनी-सौरभनो आनंद मल्या करे. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 ], [ जीवनपाव महापुरुषो कंईक आपीने ज जाय छे / अने स्तवनोनी रचना करी.तेमना निःस्पृहता, त्याग, | कठोर संयमपालन वगेरे गुणौ सौ कोईने आकर्षता ... पुष्प सुवास आपीने करमाय छे. सूर्य तेज / हता, तेमणे आ निःस्पृहता वगेरे गुणो पोताना शिष्य . आपीने अस्त थाय छे. वृक्षो फल आपीने विनाश | रत्न पू० मुनिवर्य श्रींचारित्र विजयजी म. ने आप्या. पामें छे. नदीओ पाणी आपीने सुकाई. छे. माता पुत्रने | पू० श्रीचारित्रविजयजी महाराजे परम पूजनीय मांटे ममताना फुलनी शय्या बिछाव्या पछी ज विदाय | श्रीअमीविजयजी म०वगेरे अनेक निःस्पृही भने संयमी ले छे. भेज प्रमाणे महापुरुषो जगत्ने कईने कई | शिष्योने तैयार कर्या. . , . आपीने ज विदाय ले छे. भारतना जुदा जुदा देशोमां थयेला महापुरुषो भारतने कईने कई आपीने ज़, .. , पू० अमीविजयजी म. प्रखर वक्ता हता. तेमना गया छे. | व्याख्यानमां 'जैनेतरोनो पण लाईन लागती हती. | व्याकरण, न्याय आदि विषयोमा प्रवीण हता. तेमनी / कलिकालसर्वज्ञ। भगवंतनी शासनप्रभावना नि:स्पृहता असाधारण हती.. .: .. इतिहासमां अमर रही. अमना साहित्यपुष्पोनी सुवास 'आजे पण विद्वानोने आनंद आपी रही छे. पू० उपा- तेमना गुरु श्रीचारित्र विजयजी म ने तथा ध्याय श्रीयशोविजयजी म० नु पांडित्य इतिहासमा | तेमने पंन्यास आदि पद माटे शिष्यवर्गे तथा भक्त श्रावक सुवर्णाक्षरे लखायु. तेमणे वहेवडावेली साहित्यनी | वर्ग घणी ज आजीजी अने कालावाला कर्या हता. सरिताओमांथी ज्ञानामृततुपान करी ने केई मनुष्यों | छतां तेओ अडग रह्या. बंने ज्यारे.. ज्यारे पदवीनी विबुध बनी गया: | वाल आत्री त्यारे त्यारे घसीने ना पाडी हती. / अज प्रमाणे वीसमी सदीमां थयेल प० 0 . . / केवी निःस्पृहता! केवो त्याग ! श्रीविजयानंदसूरिजी म. पण आपणने घणु घणु पू० श्रीअमी विजयजी महाराजे आपणने अंक आपी गया. तेओ प्रथम स्थानकवासी साधु हता. पणः | दिव्यमहापुरुषनी भेट आपी. से महापुरुष जीवन पति तेमनामां सत्यनु संशोधन करवानी तीव्र धगश हती. | प० पू० आचार्य श्रीक्षमाभद्रसूरिजी महाराज. परिणामे तेमणे मूर्तिनी उपासनामां सत्यता निहाळी. धन्य हो ! महापुरुषोने. अथी सर्प जेम कांचळी ने फगावे तेम स्थानकवासीपणानो वेश फमावीने भूर्तिपूजक संवेगी साधुतानो पू० आचार्य श्रीक्षमाभद्रसूरिजी महाराजे वेश स्वीकार्यो. .स्थानकवासीपणामां आत्मारामजी आपणने शु आप्यु तेनु संपूर्ण वर्णन करवुमारा महाराजना नामथो प्रसिद्ध थयेल अटले अहीं पण जेवा माटे अशक्य छे. अमना अगाध जीवन आत्मारामजी म० ना नामथी अधिक प्रसिद्ध थया. समुद्रमा रहेला अनेक गुणरत्नोने मारा जेवो सामा- . तेमनी स्मरणशक्ति अजब हती. अकं दिवसमां त्रण सो. न्य साधु जाणवाने माटे पण समर्थ नथी तो शब्ददेह श्लोको कंठस्थ करी-शक्ता हता. केटलाय आगम तेमने तो शी रीते आपीज शके. छतां, मध्यमत्तिना ग्रन्थन कंठस्थ हता. सिंहनी जेवी तेमनी सत्यतानी गर्ज-- संपादन-संशोधन करवानी मने जे तक मळी छे तेमां नाथी कुमतरूपी हरणीयाओ त्रासी जता. सम्यक्त्व- | अमनो घणोज, उपकार छे, मेमना आ उपकारने वश शल्योद्धार, तत्त्वादर्श, तत्त्वनिर्णयप्रासाद प्रज्ञान- थईने तेमना केटलाक जीवनप्रसंगो अत्रे आलेख्या छे. तिमिरभास्कर जेया आकर ग्रन्थोनु प्रणयन कयु. | तेमांथी पूज्यश्री आपणने शुआपी गया छे ते आपणे तेमनामां कवित्व-शक्ति पण गजब हती. अनेक पूजाओ | यत्किंचित् जाणी शकीशु. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनपति ]. [ 21 . महापुरुषनो जन्म पण धनदेवी माताने क्या खबर छ के आ | बाळक संसारनी गटरमा रगदोळावा नथी जन्म्यो. .. वि० सं० 1958 ना मागसर सुद बीजनो | मे जन्म्यो छे संयम जोबनना उपवननी खुशबो सोहामणो सूर्य रथमां बेशीने गगनना पंथने कापी | माणवा. माता धनदेवीने शु खबर के आ बाळक रह्यो हतो. आ दिवसे काश्मीरदेशना जम्मुशहेरमां | मारो मटीने विश्वनो बनशे. पोतानो, मारो अने रहेता लाला रामलाल शेठ हर्ष विभोर बनी गया हता. | विश्वना अनेक जीवोनो उद्वारक बनशे. अने खबर न कारण के आजे तेमना धर्मपत्नी श्रीधनदेवीअक | हती के आ बाळक केवळ मारा घरमां गोंधाई नहि रहे, पुत्र रत्नने जन्म आप्यो हतो. आ पुत्ररत्नना जन्मथी | केवळ जम्मूशहेरमां अटवाई नहि रहे. मे तो रामलाल शेठना कुटुम्बमां तो हर्ष छवाई गयो हतो, काश्मीरदेशमाथी पण बहार नीफळीने गुजरात, पण जाणे आ बाळकना जन्मना समाचार चंद्रलोकमां काठियावाड, सौराष्ट्र, राजस्थान, मेवाड, माळवा पण पहोंची गया, अने तेथी तेना दर्शन माटे उत्सुक न | वगेरे देशोमां फरीने सर्वज्ञः भगवान महावीरनो बनेल होय तेम सोंज पडता चंद्र पण गगनमांथी | धर्मध्वज फरकावशे... , डोकियु करवा लाग्यो. पण आजे चन्द्र कला रहित. | हृदयमां वैराग्यनी ज्योत प्रगटी इतो. जाणे आ महापुरुषना दर्शननी उत्सुकताथी पोतानी कलाओने चन्द्रलोकमां भूली गयो हतो. ... हवे काश्मीरीलाल निशाळे जवा लाग्यो. | कुटुंम्बना संस्कारथी दररोज मंदिरे पण जवा लाग्यो. / 'जेम जेम दिवसो पसार थता हता तेम तेम | अबसरे अवसरे उपाश्रयमां पण जवा लाग्यो. दिनगगनमा चन्द्रमा खीलतो जतो हतो, अने लाला राम- प्रतिदिन तेनी धर्म भावना वृद्धि पामती जती हती. लाल शेठना घरमां आ बाळक खीलतु हतु, जाणे के' | देव गुरु धर्म प्रत्येनु आकर्षण वधवा लाग्यु. बन्ने स्पर्धामा उता. आ बाळकनु नाम काश्मीरीलाल | क दिवस तेने प्रखरव का पू० मु. श्री अमीविजयजी राखवामां आव्यु...... | मनो भेटो थई गयो. धीमे धीमे तेमनाव्याख्याननी | असर तेने थवा लागी. हवे तेने पू० अमीविजयजी काठमोरीलाल कोई वखत माताना खोळाने | मनी वाणीनु श्रवण कर्या विना चेन पड़तु न हतु . नुदे छे, तो कोई वखत पारणामां पोढे छे. कोई | | पू० मु० श्रीअमीविजयजी महाराजे आ कोई उच्च घखल रमकडाथी रमे छे, तो कोई वखत पिताना | | ओत्मा छे अम पारखी लीधु, अने तेने संसारनी सोपान करें छे. जोत जोतामां आ बाळक डगुमगु | असारता समजाववा मांडी.. चालवा लाग्यो. हवे तो माता धनदेवी तेने आंगळी वळगाडीने कोई वखत आडोश पाडोशमां लई जाय महानुभाव ! सत्य सुख तारी पासेज छे. तारो | आत्मा अजर अमर अने अनंतसुखमय छे. कर्मना छे, कोई वखत मंदिरमा लई जाय छे, कोई वखत / संयोगने कारणे आत्मा मनुष्यादि चार गतिमा भमे छे, उपाश्रयमा लई जाय छे. . ! . | तथा नटनी जेम विविध वेशने अने रूपने धारण करे माता धनदेवी आ बाळकना मुखने जोईने छे. आ कर्मनु आवरण दूर थाय तो आत्मानु अनंत आनन्द पामे छे अने भविष्यना अनेक सोळसलां घड़े सुख प्रगट थाय. कर्मना आवरणो दूर करवा माटे छे. आ बाळक मोटो थशे त्यारे स्कुलमा भणीने कुशल प्रथम कर्म आवंवाना द्वारो बंध करवा जोई. मिथ्याबनशे. युवान बनशे त्यारे तेने परणाधीने पुत्रवधून त्व, अविरति, कषाय अने योग आ चार कर्म आत्रवाना मुख जोवा मळशे. अना बाळकोने रमाडीश. घरनु द्वारो छे. मिथ्यात्व दूर थया पछी पण विरतिना परिकार्य पुत्रवधू संभाळी लेशे बेटले हु अधिक धर्म- | णाम थवा दुर्लभ छे. कंचन, कामिनी, काया अने कार्य करीश................. काय करीश." ....' . . | कुटुंब उपरनो ममत्व भाव दूर थया विना सर्व Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [ जीवनपति करवु जोई. विरतिना परिणाम न आवे. ज्यां सुधी ममत्व भाव दूर आशाओ अपूर्ण रहे तेनो हजी वांधो नथी, पण संयमन थाय त्यां सुधी कषाय उपर विजय न मेळवी शकाय. | मार्ग घणो कठिन छे, मीणना दांते लोढाना चणा ज्यां सुधी कषायो दूर न थाय त्यां सुधी अयोग | चावथा समान छे. आथी तु घणो दुःखी थईश तेनु अवस्था प्राप्त न थई शके. अयोग अवस्था | मने दुःख छे. तारुं सुकोमल शरीर आ संयमना प्राप्त थया पछी आ जीत्र सकल कर्मोथी | भारने शी रीते वहन करी शकशे ?.................... मुक्ति मेळवीने मुक्तिमां पहोंची जाय छे. पछी | काश्मीरीलाल आ सांभळी जराय गभरायो तेन आ संसारनी विटंबणा कदी प्राप्त थती नथी. | नहि. ते समजतो हतो के अन्य सर्व संबन्धो करतां माटे सर्व प्रथम संसारना भौतिक पदार्थो भने कुटुंब- | माता-पुत्रना सम्बन्धमा प्रेमनी लागणी वधारे होय कबीला उपरना ममत्वने दूर करवानी जरूर छे. | छे. तेमां पण मातानो पुत्र उपर प्रेम वधारे होय छे. भौतिक पदार्थोनो तथा कुटुंब कबीलानो त्याग कर्या माता पुत्रना प्रेममा पोताना दुःखो भूली जाय छे. विना तेमना उपरनो ममत्व भाव दूर थवो अशक्य छे. | पोताना प्राणथी पण अधिक पुत्रनी संभाळ राखे छे. माटे आत्म कल्याण इच्छनारे आ संसारने तिलांजलि | माता पुत्रना दुःखे दुःखी अने पुत्रना सुखे सुखी बनी आपीने भगवान महावीरे बतावेल संयमपंथे प्रयाण | जाय छे. अथी ज लोकोना मुखेथी शब्दो "मा ते मा, बीजा बधा वगडाना वा". आथी ज पू० अमी वि० म० आवी वैराग्यमय वाणी | पुत्रनो वियोग माताने असह्य बनी जाय छे. पूर्वे जम्बूस्वामो जेबा महापुरुषोने पण संसारनो त्याग अवार नवार काश्मीरीलालनेसंभळावता हता. यौवनना आंगणे प्रवेश करवानी तैयारी करता काश्मीरीलालना करता पहेलां माताने मनाववामां महेनत कम नथी अंतरमा आ वाणीनो जब्बर पडघो पड्यो.तेने संसारना। करवी पडी. आथी गमे तेम करीने माताने मनाव्ये भौतिक पदार्थोनी क्षणिकता समजाणी. संसारना संबं | ज छूटको. ___काश्मीरीलाले हिंमत धारण करीने गंभीर धीओनी स्वार्थपरायणता समजाणी. आथी तेना हृद स्वरे छतां बाहोशता भरी वाणीथी माताने कह्य, मा ! यमां वैराग्यनी ज्योत प्रगटी. तेणे संसारनो त्याग करी | | आ विषयमां तारी गेरसमज छे, अज्ञानता छे. शु संयमना सन्मार्गे जवानो निर्णय को. खरेखर ! | संसारमा रहेनारने तकलीफ नथी वेठवी पडती ? लघुकर्मी जीवोने उपदेशनी असर शीघ्र थाय छे. निर्धनोनी वात जबा दई, धनवानोने पण क्या माता पासे पुत्रनी जीत सुख छे ! घरे क्यारेक 11 वागे जमवा आवे तो कोई | वखत 1 वागे आवे. भाग्येज क्यारेक समयसर वैरागी बनेल काश्मीरीलाल हवे संसारनी जमवा आवे. जमवामां पण क्यां शान्ति ! जमता केदमांथी छूटवानी तैयारी करवा लाग्यो.पोतानो संसार | जमता पण संसारना अनेक प्रश्नो मगजमां रमता त्याग करवानो निर्णय वडिलो पासे व्यक्त को. तेनो होय छे. क्यारेक ईन्कमटेक्षनु लफरूं आवे तो कोई आ निर्णय सांभळीने माता धनदेवीनी अक आंख | वखत लेण देणनु लफरूं आवे. घरनी पण चिंता माथी श्रावण अने बीजी आंखमांथी भादरवो वर्षवा | केटली ? आजे अक वस्तु लाववानी तो काले बीजी लाग्यो. पुत्रवियोगनी वात सांभळीने कयी माता दुःखी नथी बनी ? धनदेवीनु हृदय शोकथी भराई गयु.लीयोन लीधो त्यां तो पुत्रीने परणाववानी चिन्ता वस्तु लाववानी. हजी पुत्र ने परणावी शान्तिनो श्वास तेनामां बोलवानी पण हिंमत न रही. छतां महा. ऊभी थई. आम अक पछी अक चिन्ताओ ऊभीज रहे महेनते बल अकठु करीने ते बोली.. छे. छताय घडीभर मानी लई के संयममां तकलीफ हे लाल ! आ तु शु बोले छे ! मारा मननी वेठवी पड़े छे, तो पण संसारमा परिभ्रमण करता आ सघळी आशाओने तें भग्न करी नाखी. बेटा ! मारी | जीवे पराधीनपणे शु सहन नथी कयु ?.. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनपति] [ 23 चार गतिमां नरक गति तो केवळ दुःखनी ज | होय. आथी संयममा आवंती तकलीफो दुःखो कोई 'खाण छे. नरकमां परमाधामीओ बिचारा नरकना | हिसाबमा ज नथी. जीवोने अनेक प्रकारे दुःखी करे छे. परमाधामीओ। नारकोने क्यारेक दडानी जेम अफाळे छे. क्यारेक, मा ! आतो में गुरुमहागजना व्याख्यानमांथी तेना मुखमां ककडतो शीशानो रस रेड़े छे. क्यारेक सांभळीने तथा वैराग्यना ग्रन्थो वांचीने जे याद रह्यं करवतथी सुथार लाकडाने वेरे तेम वेरी नाखे छे. तेनी सामान्य बात करी. बाकी मने वांचत्रा माटे क्यारेक भजीयानी जेम तळी नाखे छे, तो क्यारेक | पू0 गुरुमहाराजश्री अमी वि० महाराजे 'उपमिति धगधगती लोखण्डनी पृतळीओ साथे आलिंगन | भवप्रपंचा' ग्रन्थ आपेल, से ग्रन्थमां दुःखमय संसारनं करावे छे. नरकभूमिमां र हेली भयंकर गरमीनी तो जे आबेहूब स्वरूप दर्शाव्युछे, तेने तु सांभळे तो वात जशी करवी ? त्यां ठंडी पण तेटलीज. नारको खबर पडे के संसारमा आ जीये केवा दुःखो सहन परस्पर अक बीजानी साथे युद्ध करीने अत्यंत दुःख कर्या छे, अने केवा केया रूपो कर्या छे ! आ ग्रन्थ पामे छे. ............................ | वांच्या बाद लघुकर्मी जीपने प्रायः वैराग्य थया मा ! ओ ना(कोनु दुःख दूर छे अथी ते आपणे | विना न रहे. जोई शकता नथी भेटले अनी वात दूर राखी, मा ! संयममां कठिनता होय तो छ के तोपण आपणी सामे प्रत्यक्ष देखातु आतियेच गतिना संयममां मळती अनुकूळताओने पचावी. अनुकूळताजीवोनु दुःख शु' ओछुछे ? आपणने तात्र आवे तो | ओने पचाववी भेटले तेमां समभाव राखबो, गर्वित न आपणे तुरत वैद्य या डोक्टरने बोलावी. पण बिचारा | बनवु', शिथिलताने वश न थबु. प्रतिकूळताओ तिर्यंचोने ताव आवे तो कोने बोलावे ? अनी सार | पचारवी सहेली छे. पण अनुकूळतानो पचावधी घणी संभाळ कोण करे ? आपणने साप करडे तो आपणे | | कठिन छे. भलभला महामुनिओ अनुकूळतामा फसाईने तुरत झेर उतारनारने बोलाबीओ, वैद्य-डोक्टरने बोला | आ संसारनी केदमां पराई गया. प्रव्रज्या बाद बी, पण बिचारा जंगलमा हरणीयाओने साप करडे गुरुओनी कृपाथी यत्किंचित् ज्ञान प्राप्त थाय तो झेर उतारनार कोण ? कडकडती ठंडीमा ठरता तेनाथी गर्वित न बनी जवाय तथा अन्तरमा स्वतंत्रतानी जंगलना प्राणीओनु दुःख शुओछु छे ? आपणी | " | चिनगारी न प्रगटे मे माटे बहुज सावध रहेवानी नजर सामे आपणे जोई छी के श्वान वगेरेना | | जरूर रहे छे. भक्तवर्गनी वाह वाहमा फुलाई न शरीरमां चांदा पडे छे त्यारे तेने केटलु सहन करवु जवाय तेनी तकेदारी राववानी आवश्यक्ता रहे छे. पडे छे ? मांदगीमां आपणा शरीर पर माखीओ बेशे | अन्यथा मान-सन्माननी तथा प्रशंसानी प्राप्तिथी तो आपणे उडाडी दई अथवा बीजाओ उडाडे. पण | आंधळा बनीने अहंकारना स्तंभ साथे अथडाई संयमना आ श्वाननी पीठमां चांदा पडे अने ते उपर माखीओ | देहमांथी सत्त्वना लोहीने वही जता वार न लागे. बेशीने तेने कनडे त्यारे माखीओने उडाडवा कोण जाय ? पोते पण उडाडी न शके. आ स्थितिमा मा ! पण हुआ माटे संपूर्ण सावध रहीश. तेनी वेदनानो पार नथी हो तो. मा! आ नरक गतिना तारी कीर्ति वधारीश. सारा नामने दीपावीश. भगवान अने तिर्यच गतिना दुःखो आ जीवे अनन्त वार सहन | महावीरना वेशने शोभावीश. मारा आत्माने उजाळीश. कर्या के. वी कोई गति नथी, अबी कोई योनि नथी, | अन्यने आलबनरूप बने तेवु उदात्त जीवन जीवीश.. भेवु कोई स्थान नथी, अर्बु कोई कुल नथी के ज्या पण आमां तारा आशीर्वादनी जरूर छे. मा! वहालआ जीव अनन्तीवार न जन्म्यो होय भने न मर्यो | सोया तारा हाथ मारा मस्तक उपर मूकीने "तारो होय. शारीरिक के मानसिक अवकोई दुःख नथी आत्मकल्याण मार्गनिर्षित बनो"प्रमाणे नारे के जेनो अनुभव संसारमा भटकता आ जीव न कयो ' आशीर्वाद आपवा ज पडशे. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 ] जीवनपति आ प्रमाणे काश्मीरीलाल दररोज माताने | वन्दनीय बनी गया. शुभ दिवस हतो वि० सं० समजावे छे, छतां माता रजा नथी आपती. माता अने | 1973 नी असाड सुद अकमनो. आ समये काश्मीरीपुत्र बंने जिदे चड्या. पण आखरे विजय काश्मीरी- | लालनी वय 15 वर्षनी हती. ज्यारे अन्य युवानो लालनो ज थयो. पुत्रनी पासे पोतानी हठ मूकीने | गाम परगामनी रूपवती सुन्दरीओने परणवाना कोड कयी माताओ आनन्द नथी अनुभव्यो ? धनदेवी) | करी रह्या हता त्यारे आ युवाने संसारनो त्याग कर्यो, काश्मीरीलालने कही दीधु के बेटा! हुतने संयम | संसारना सुखोने सर्प कांचळीने फगावे तेम फगावी मार्गे जवानी रजा आपुं छ', पण वर्ष बे वर्ष पछी. दीधा. काश्मीरीलाल “साप मरे नहि अने लाठी भांगे नहि" से पद्धति कार्य पार उतारवानी बुद्धिमत्ता धरावतो | धन्य छे ! ओ नररत्नने. धन्य छ ! से जीवनपतिने. हतो. माथी तेणे कह्य के मा ! हु तारुं कयु मान्य . 1975 ना महा सुद दशमना दिवसे महेसाणा राख्छु. पण त्यां सुधी हु अहीं रहीने शुकरूं ? | नगरमा पू० वयोवृद्ध संघस्थविर आचार्यदेव श्रीमद्विहवे हु थोडो वखत गुरु महाराज पासे ज रहीश, अने | जयसिद्धिसूरि म० ना पुण्यहस्ते पू० मु० श्रीक्षमाअभ्यास करीश. माताओ कचवाता हृदये तेनी वातनो | विजयजी म. नी वडी दीक्षा थई. स्वीकार कर्यो. विद्वानोनी पंक्तिमा समावेश काश्मीरीलालनी प्रव्रज्या प्रव्रज्या बाद पू० मु० श्री क्षमा वि०म० जगतने हवे काश्मीरीलाल तुरत पू० गुरुमहाराज | भूली गया. मनोमंदिरमा गुरुनी मूर्तिने स्थापी श्री अमीविजयी म० पासे आवी पहोंच्यो. विहारमा | दीधी. गुरुनी पासे ते पांच वर्षना नाना बाळक बनी पण स्वयं पगे चालीने गुरुमहाराजनी साथे ज रहेतो. | गया. नम्रताना अवतार बनी गया. पळे पळे गुरु आ समय हतो वि० सं० 1972 नो. पू० अमी वि० | आज्ञानु स्मरण करवा लाग्या. रात अने दिवस अदना म० नु चातुर्मास मालेरकोटला नगरमां ( काश्मीर | आज्ञांकित सेवक बनीने गुरुनो पडतो बोल झीलया देशमा ) थयु . काश्मीरीलाले त्यां रहीने संगीन | लाग्या. गुरुसमर्पणभावरूप भोमियाने साथे लईने अभ्यास कर्यो. पू. श्री अमीबिजयजी महाराजे तेनी आत्मोन्नतिना शिखर तरफ प्रयाण करवा लाग्या. जाणे तीक्ष्ण बुद्धि जाणीने सिद्धहेम-लघुवृत्तिनो अभ्यास | कर्मराजाने युद्धनु आमंत्रण आपता न होय तेम स्वाशरू कराव्यो. संयमनी तालीम आपी. चातुर्मास बाद | ध्यायना बुलंद घोषो शरू करी दीधा. गुरुविनयपू० अमी वि० म० विहार करता करता काश्मीरदेश | गुरुसेवानीचावीथी आत्ममंदिरमा लागेलाज्ञानावरणना छोडीने मारवाडमां बीकानेर नगरमां पधार्या. ताळाने तडातड खोलवा लाग्या. अल्पसमयमा प्रकरणो काश्मीरीलाल पण तेमनी साथे ज हतो. हवे काश्मीरी- कर्मग्रन्थ वगेरेनुअध्ययन कर्या बाद हैमलघुप्रक्रिया, लालनी चारित्र लेवानी भावना अत्यंत उत्कट बनी. हैमलिङ्गानुशासन, अभिधानचितामणि, प्राकृतव्याहवे संयम ग्रहणमां थतो विलंब तेने असह्य बनी करण जेवा कठिन ग्रन्थो कंठस्थ की लीधा. आगळ गयो. संयम विनाना कलाको दिवस जेवा अने दिवसो वधीने मुक्तावली, दिनकरी वगेरे जैनेतर न्यायना वर्ष जेवा लांबा लागवा मांड्या. आथी पू० अमी वि० ग्रन्थोनु तथा रत्नाकर अवतारिका, स्याद्वादमंजरी महाराजे तेने बिकानेरमा प्रव्रज्या प्रदान करवानो | वगेरे गहन जैन न्यायग्रन्थोनु अवगाहन करी लीधु. निर्णय कर्यो.आखरे अक दिवमअवो आवीलाग्यो के जे | ज्योतिषना विषयमां पण पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त करी लीधु. दिवसे क्षण पहेलांना रामलाल अने धनदेवीना लाल | हवे तेमनी विद्वानोनी पंक्तिमां गणतरी थवा मांडी. पू. श्री अमी वि० म० ना विनीत शिष्यरत्न पू० मु० पू० क्षमा वि० म० ना विद्वत्ता साथे गंभीरता, उदारता श्री क्षमाविजयजी बनी गया. त्रणे लोकने पूजनीय | सहनशीलता,निःस्पृहता वगेरेगुणोपणझडपथी विकास Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [25 जीवनपति ] पाम्या हता. पोताना शिष्यमा सुवर्ण अने सुगंधना | शरदी अने तावथी घेराई गयु. औषधोपचारथी आराम सुमेळनी जेम विनय अने विद्वत्तानो सुयोग जोईने | थयो. चातुर्मास बाद तेओ अनेक क्षेत्रोने लाभ आपता पू० श्रीअमी वि० म० ना मनमा आनंदनी अक भावना | आपता पाली पधार्या. अहीं पुनः ज्वरे तेमना शरीर उपर छलकी ऊठी. पोताना पछी पोतानी शिष्य संततिनी | आक्रमण कये. अनेक उपचारो करवामां आव्या छतां जीवननौकानो कर्णधार कोण बनशे मे चिंताथी तेओ | आराम न थयो. आथी तेमणे 1987 नु चातुर्मास मुक्त बन्या. आथी तेमणे शान्तिनो अक श्वास लीधो. संघना आग्रहथी पालीमा ज कयु. गुरुदेवनी अस्व स्थताना कारणे व्याख्यान गुरुनी सेवामा खडे पगे भावना अपूर्ण रही हाजर रहेनार पू० मु० श्रीक्षमावि० महाराजे संभाळी - पू० म० श्री क्षमा वि०म० मनमां विचारी लीधु पू० अमी वि० म० नी तबीयत दिन प्रतिदिन रह्या हता के-गुरुदेवश्रीनी पासे शिष्यसंपत्ति छ, वधारे लथडवा मांडी. क्षय लागु पडी गयो. आजुविद्वत्ताछे, व्याख्याननी कळा छे, शासनप्रभावना कर- बाजुना गामोमा खबर पडतां आगेवान गृहस्थो तथा वानी शक्ति छे. आथी जो तेओ पदारूढ बने तो | भक्तो तुरत साता पूछवा आववा लाग्या. पण पृ० अमी शासननी प्रभावना अधिक थाय. पण ते समजता| वि०म० नु चित्त तो नवकार मंत्रनी स्मृतिमा ज हतु. हता के-पू० गुरुदेवनी पदारूढ थवानी बिलकुल | | कोण आवे छे अने कोण जाय छे से तरफ तेओ बहु इच्छा नथी. वडिलोने पण तेमणे पदवी माटे स्पष्ट ना | लक्ष आपता ज न हता. कही दीधी छे तो पछी मारी विनंती तो शेना माने. छतां पू० क्षमा वि० म० ने आशा हती के भविष्यमां आ मांदगी दरमीयान तेमणे लगभग छ थी सात तेओ मारी विनंतीनो स्वीकार करशे. लाख नवकारनो जाप को. खरेखर ! कहेवु पडशे के अमने नवकारमंत्र अस्थिमज्जा थई गयो हतो. अमना पण भाविनी भीतरमां शुपड्य छे ते कोण | रगेरगमां लोहीना अकेअक अणुमां नवकारमंत्र प्रत्येनी जाणी शके ! क्यारेक मनुष्य धारे के कर्डक अने बने श्रद्धा प्रेम अने भक्ति हती. पोताना दीर्घ काळना संयम छे कईक. मनुष्य पोतानी भविष्यनी आशाओनो महेल | जीवनमां पंच परमेष्ठिनी असाधारण उपासना करी तैयार करे छ, पण कर्मनी कारमी सत्तानो प्रचंड हती. आथी ज तेओ आ समये लाखोनी संख्यामां नवपवन अक काची सेकंडमां से आशाना महेलने कडबु- | कार मंत्रनो जाप करी शक्या. ताव सखत रहेवा छतां भूस तोडी नाखे छे. अयोध्या नगरीनी प्रजा आनंदमां | तेमना मुख उपर जराय उदासीनता के दुःखनी अकेय हती,अने आवतीकाले रामचन्द्रजीने राजगादीबिराज- | रेखा जणाती न हती.खरेखर ! महापुरुषो 'पुरुषार्थथी मान करवाना मनोरथोसेवीरहीहती, पण बीजे दिवसे | न पलटी शकाय अवी क्षणोने प्रारब्धनी भेट गणी राम वनवास तरफ चाल्या अने प्रजानी आंखोमांथी | वधावी ले छे'. आ समये पू० अमी वि० म० नी शोकना अश्रनी धाराओ बहेवा मांडी. पहेला कोण उत्कट बनेली समाधि "दुःखं दुष्कृतसंक्षयाय मह. जाणतु हतु के अयोध्या नगरीनी प्रजा माटे आ | ताम्" से वचनने याद करावती हती. आ समये पू० हर्षनो दिवस शोक माटे थशे. भाविनी कळा सदा मु० श्री क्षमा०वि० महाराज रात भने दिवस गुरुदेवनी मकळ ज रही छे. अहीं पू० क्षमा वि० म0 नी प० / सेवामां खडे पगे हाजर रहेता. मांदगीमां अनेक गरदेवने 'पदवी प्रदान कराववानी भावना पण | रात्रिभो पसार थई गई. तेवामां अचानक श्रावण अपूर्ण रही. वद त्रीजनी काळमुख समी रात्रि आवी पहोंची. लग भग 9-30 नो समय हतो. संथारा पोरिसी भणाव्या गुरुसेवा अने गुरुविरह बाद नवकारमंत्रनु स्मरण करता करता पू. अमी वि० वि० सं० 1986 मां पू० अमी वि० महाराजे | म० नो आत्मा पहोंची गयो अमरलोकमां अने काया सादडी चातुर्मास कर्य. भा चातुर्मासमां तेमनु शरीर | पडी रही मृत्युलोकमां. आम अकाभेक अनेक जीवोनी Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 ] [ जीवनपति जीवन-नौकाना कर्णधार पृ० अमी वि० म० आ मनुष्य | जातना प्रतिबंध विना अस्खलित पणे चलावी रह्या लोकमांथी विदाय थई गया. हता. तेओ शासनना अक वफादार सुभट हता. ज्यारे विलापनु वलोणु / ज्यारे शासन उपर विपत्तिओ आवती त्यारे त्यारे तेओ पोताना प्राणनी पण परवा कर्या विना वफादारीना पोते हसता गया, पण अनेकने रडता मूकी लोही रेडता हता. कटोकटीना प्रसंगोमां पण शासनना गया. जे घटादार वृक्ष उपर अनेक पक्षीओ विश्राम सिद्धांतोनु रक्षण करता हता. तेमणे पोताना दिव्य करता होय, जेनी उपर बेशीने मधुर किलकिलाट | जीवननी ज्वलंत ज्योतमांथी अनेक प्रदीपो प्रगटाव्या करता होय, उनाळानी गरमीमां मधुर हवा लेता होय, हता. अमांथी केटलाक प्रदीपो से समये शासन उपर जेना फलो आरोगीने तृप्त बनता होय मे वृक्ष काक पूर्ण झगमगतो उज्ज्वल प्रकाश पाथरी रह्या हता. अणधार्य पडी जाय त्यारे ते पंखीओने केटलुदुःख तेमांनो अक प्रदीप हतो प० पू० महोपाध्याय श्रीथाय ? अथी पण अधिक दुःख पू० अमी वि० म० ना प्रेमविजयजी गणिवर्य ( हाल सूरिपुरन्दर ).आ समये स्वर्गवासथी चतुर्विध संघने थयु. सौथी बधारे दुःख पू० उपाध्याय श्रीप्रेमविजयजी महाराज पाटणनी . पू० मु० श्रीक्षमा वि० महाराजने लाग्यु. गुरुना | प्रतिष्ठाने प्रबल बनावी रह्या हता.. विरहथी तेमना अंतरमा विलापनु बलोणु घूमया सामागीहारिलो नोनियामां लाग्यु. अरे ! आ अकाअक शु थयु ? शुकर्मराजाने . अमनी उन्नति जोइने ईर्ष्या थई के शु ! अरे ! | वि० सं 1987 ना पालीना चातुर्मासमां पू० गुरुदेव ! तमे क्यां गया ! हवे मारी जीवन नौका क्षमा वि० म० ने गुरुनो विरह थयो. आ चातुर्मास कोण चलावशे! विपत्तिनो वायु वाशे त्यारे तेनुरक्षण | बाद तेओ तुरत त्यांथी विहार करी गुजरातमां पाटण कोण करशे ! हवे हुगुरुदेव ! गुरुदेव ! अम कहीने आव्या. आ समये तेमने महोपाध्याय श्रीप्रेमविजयजी कोने बोलावीश ! हवे मने क्षमाधिजय ! अवा मधुर गणिवर्यना दर्शन थया. तेमने माटे,आ महापुरुषना वचनोथी कोण बोलावशे! दर्शन सर्वप्रथम हता. अहीं तेमणे पू०महोपाध्यायजीनी जीवननौकाना सुकानीनी शोधमा / शीतल छायामां महानिशीथना योग कर्या. बाद गिरिराज श्रीसिद्धगिरिनी यात्रा करवा पालीताणा ___“दुःखनु औषध दहाडा" से कहेतानुसार आव्या. हवे तेमनु मन सकलागमरहस्यवेदी पू० थोडा दिवसो बाद पू० क्षमा वि० म० नुगुरु विर- आ० श्रीदानसूरिजी म. नी निर्मल निश्रामा रहेवा हनु दुःख धीमे धीमे ओछु थवा लाग्यु. मन | उत्कंठित बन्यु. आथी तेओ पालीताणाथी खंभात स्वस्थ थतुगयु. हवे तेमनु मन पोतानी जीवन आव्या. आ समये तेमने पू० दानसूरिजी म० ना नौकानु सुकान सारी रीते संभाळी शके अवा अक | दर्शनथी जे आनन्द थयो ते अवर्णनीय हतो. तेमणे सुकानीनी शोध माटे उपडी गयु. फरता फरता तेणे हर्षना अश्रुथी आचार्य भगवंतना चरणोनु प्रक्षालन अक कुशल सुकानीनी पसंदगी करी लीधी. अ सुकानी कयु. तेननु अन्तर पोतानी जीवननौका पू० आचार्य हता सकलागमरहस्यवेदी परमकारुणिक पू. आचार्य भगवंतने सोंपीने तेमनी कृपादृष्टिमां समाई जवा देव श्रीमद्विजयदानसूरीश्वरजी महाराज. आ समये | मथतु हतु. पू. आचार्य भगवंते पण उदार दिलथी तेओ खंभात विराजता हता. तेमनी साथे कविकुल- | तेमनी जीवननौका संभाळी लीधी अने पू० शमा वि० किरीट आचार्य भगवंत श्री लब्धिसूरिजी म० आदि | म० ने पोतानी कृपादृष्टिमा समावी लीधा. खरेखर ! पण हता. महापुरुषोनी उदारता अजब कोटिनी होय छे. पूआचार्य भगवंत श्रीदानसूरीश्वरजी म. पू.आ० श्रीदानसूरि मनु चातुर्मास वढवाण नकी अनेक संयमी जीवोनी जीवन-नौकाने कोई पण | थयु होवाथी तेमणे खंभातथी वढवाण तरफ विहार Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [27 तरीके जीवनपति ] कर्यो. पू० क्षमा वि० महाराजे पण तेमनी साधे ज | अन्य पण सावचूरि हैमलिंगानुशासन, सावचूरि चातुर्मास करवानी इच्छाथी तेमनी साथे ज विहार | मध्यमवृत्ति, बृहट्टीकायक्त हैमलिंगानुशासन वगेरे को. आ चातुर्मासमां तेमणे कर्मसाहित्यसुधासिन्धु | अनेक ग्रन्थो प्राप्त थया, के जे ग्रन्थोनु प्रकाशन पृ० महोपाध्यायजी पासेथी मलता कर्मसाहित्यना | अत्यन्त जरूरी हतु. रसनु पान कयु. पंन्यास पद प्रदान हैमप्रकाशनी प्राप्ति ___त्यारबाद 1989 नु चातुर्मास अमदागद पू० श्री क्षमा वि० ना जीवन-उपवनने प्रथम महोपाध्याय श्रीप्रेम वि०म० नी निश्रामा कर्य'. आ| पू० श्रीअमी वि० महाराजे वात्सल्यवारिथी सिंच्य', चातुर्मासमां तेमने विद्याशाळाना हस्तलिखित प्रतना | त्यारबाद पू० श्रीदानसूरिजी म० नी कृपारूपी सहस्ररभण्डारमाथी वैयाकरणशिरोमणि महोपाध्याय | श्मिनी ज्योति प्राप्त थई. आथी ते खूब विकसित बनी श्रीविनय विजयजी म. विरचित हैमप्रकाशनी प्रत | गपुं. हवे तेमाथी खुशबो चारे बाजु फेलावा लागी. अथी प्राप्त थई. आ प्रतनी प्राप्तिथी तेमने अंध माणसने | सौ कोई पू०क्षमा वि०म०तरफ अंक आदर्श साधु चक्षु प्राप्त थतां जे मानन्द थाय तेनाथी पण अधिक आकर्षाया. तेमनी निःस्पृहता, गंभीरता, उदारता, आनन्द थयो. कारण के पू० क्षमा वि० जी म० बालक तुल्य निखालसता वगेरे गुणो जोईने सौ मुमुक्षु अवस्थामा हता त्यारे तेमणे पू० गुरुदेव श्री- कोईने तेमना उपर बहुमान थई जतु. तेओ पू० अमी वि० म० पासे लघुवृत्तिनो अभ्यास शरू को श्रीदानसूरीश्वरजी म. नी छत्रछाया स्वीकार्या बाद हतो. पण प्रव्रज्या बाद थोडा ज़ संमयमां लघुवृत्तिनो | जेटली निष्ठाथी गुरुनी आज्ञानु पालन अने सेवा ' छोडीने महोपाध्याय श्रीविनय वि०म० करता हता. तेटलीज निष्ठाथी पज्यपाद श्रीदानसूरीविरचित "हैमलघुप्रक्रियानो" अभ्यास शरू को श्वरजी म. नी तथा महोपाध्यायजीनीआज्ञानुपालन हतो. आ वखते तेमणे पू. गुरुमहाराज पासेथी अने सेवा करता हता. तेमणे विनयमां कदी कचाश जाण्य हतु के आ हैमलघुप्रक्रिया उपर पू. राखी न हती. लांबा काळ सुधी पू० महोपाध्यायजीनो उपाध्यायजी महाराजे बृहद् टीका पण रची छे. आथी | साथे रहेतां पु० क्षमा वि० म० नो पू० मु० श्री तेमणे गुरु साथे ज्या ज्यां विहार कर्यो त्यां त्यां सर्वत्र जम्बू वि० म० ( हाल सूरि ) साथे घणो ज घनिष्ठ * तेनी शोध करी. अन्य स्थळोजे पण तपास करावी. | संबंध थई गयो हतो. बंने अक बीजाना प्रेमना पात्र छतां से टीका तेमने प्राप्त न थई. आ समये तेमने बनी गया हता. पू. जंबू वि० म० पण स्वगुरुदेव काक अणधारी आ प्रतनी प्राप्ति थई गई. आ पूर्व महोपाध्यायजी श्रीप्रेमविजयजी गणिवर्यनी सेवानो तेमणे गुरुनी पासे ज हैमलघुप्रक्रिया, बृहवृत्ति, पर्ण लाभ उठात्रता हता. तेओ बने पू0 श्रीदानसूरिजी हैमलिंगानुशासन वगेरे व्याकरणना ग्रन्थोनु संगीन म ना तथा पु० श्रीमहोपाध्यायजीना वात्सल्यामृतना अध्ययन करी लीधुहतु. आथी तेओ वैयाकरणोनी | पात्र बनी गया हता. से बने महानुभावो विद्वान अने कोटिमा आवी गया हता. आ प्रतनु निरीक्षण करतां | अनेक गुणोना भाजन हता. तेमने आ ग्रन्थनी महत्ता समजाणी. आथी तेमना हृदयमां आ प्रन्थनु प्रकाशन कराववानी भावना - आथी ज पू० आचार्य भगवंत श्रीदानसूरिजी प्रगटी. आथी तुरत हैमप्रकाशनी प्रेस कोपी तैयार म० विचारी रह्या के-आ बंने मुनिओनी आत्मसाधना करावी लीधी. अहीथी तेमनी संशोधन-सम्पादन | उत्तरोत्तर उत्कर्षने पामी रही छे, साथे साथे गुणोनो करवानी प्रवृत्तिना पगरण मंडाया. हवे तेओव्याकरण | विकास पण वधतो जाय छे. तेमना बाहु शासनना साहित्यना अप्रकाशित ग्रन्थोनी शोधमा रहेवा लाग्या. | भारने वहन करवाने शक्तिमान बनता जाय छे. तेमनी प्राचीन अप्रकाशित ग्रन्थोनी शोधखोळ करतां तेमने | विद्वत्तानी वेलडी पण आगळ वधी रही छे. बनेमां अभ्यास Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 ] [ जीवनपतिः पंन्यास पदने धारण करवानी योग्यता आवी गई छे. मृतनु पान करवा छतां अतृप्त ज रह्या. आथी तेमना आथी मारे तेमने पंन्यासपद अर्पण करवु जोई. आग्रहथी तथा पूज्योनी आज्ञाथी 1991 नु चातुर्मास पूज्यश्रीना आ विचारनी आ बंने मुनिपुंगवोने खबर | पण तेमणे मुंबई-लालबाग ज कयु. पडता तुरत तेओझे पूज्यश्रीने विनंती करीके-| आ बे चातुर्मास दरमीयान लालबागना संधे गुरुदेव ! आ पद माटे अमारी कोई योग्यता नथी. | | जोयु हतुके-पू० पं० श्रीक्षमा वि० मनी निःस्पृहता क्यां आपना जेवा महापुरुषोनु गंभीरता, विद्वत्ता, | | अजब कोटिनी हती. विद्वत्ता पण असाधारण हती. वात्सल्यभाव वगेरे गुणोनी सुवासथी मघमघतु / वक्तृत्त्र शक्ति पण प्रबळ हती. संयमनु पालन जीवन अने क्या अनेक दोषोथी दूषित अमाझं जीवन. अप्रमत्तपणे करता हता. तेमनी दरेक प्रवृत्तिमां संयकागनी डोकमां मोतीनी माला न शोभे तेम आ पद मनी झलक जणाती हती. स्वभाव पण मध जेवो अमारा जेवाथी नहि शोभे. अमने आपनी कृपा सिवाय मीठो हतो. तेमना अक अंक वचनमा वात्सल्य भयु अन्य कई ज न जोई. आपनी कृपा अमारा माटे हतु. ब्रह्मचर्य व्रत विषे तेओ बहु सावध रहेता सर्वस्व छ. हता. उपाश्रयमां कवेळा कदी स्त्रीओनो संचार थतो ___ पण पूज्यपादश्री क्यां समजता न हता के गुण-न हतो. पू. साध्वीजी म. साथे पण तेओ बहु परिवान मनुष्यो पोताने कदी गुणवान कहे नहि. तेमणे | चय राखता न हता. . उक्त मुनिवर्याने पंन्यासपद प्रदान करबानी पोतानी आ वारसो तेमने पू० श्रीदानसूरीश्वरजी म० इच्छाने मूर्त स्वरूप बनाववा प्रयत्नो शरू करी दीधा. | | तथा पू० उपाध्याय श्रोप्रेमविजयजी गणिवर्यनी परिणामे वि० सं० 1990 मा फागण सुद चोथना | पासेथी मल्यो हतो. मे वारसो आजे पण सुसंयमी. दिवसे शुभ मुहूर्ते जैन विद्याशालाना विशाल होलमा | | ओने मळतो रहे छे. मे बने पूज्यो साधुओना जंगी मानवमेदनीनी वच्चे पू० वयोवृद्ध संघस्थविर | ब्रह्मचर्यमां जरा पण आंच न आवे ओ माटे सतत आचार्यदेव श्रीसिद्धिसूरीश्वरजी महाराजना पुण्यहस्ते काळजी राखता हता. तेओ दरेंक स्थळे स्त्रीओने अकाळे आ बंने मुनिपुगबोने पंन्यासपदथी अलंकृत करवामां उपाश्रयमा आववानो कडक निषेध करता. कारण के आव्या. आ समये पू0 आचार्य श्रीदानसूरिजी महा पांच महाव्रतोमां ब्रह्मचर्य व्रतनु निरतिचार पालन राजे तथा महोपाध्याय श्रीप्रेमविजयजी महाराजे करवु घणु ज दुष्कर छे. स्त्रीओनो परिचय व्रतना तेमना मस्तके वासक्षेप नाख्यो अने पदनी सफलताना पालनमां बाधक बने छे. स्त्रीनी मोहिनी झरने आदीर्वाद आप्या. पीनारा अने श्मशानमा रहेनारा नीलकंठ शंकरने पण मुंबईना आंगणे नचाव्या हता. जंगलना जोगी विश्वामित्र पण मेनकाना रूपना निरीक्षणथी मुग्ध बनी गया हता. अरणिक प. पंन्यास श्रीक्षमा वि०म०पू० श्रीदानसूरी- | मनिवर जेवा महापुरुष पण स्त्रीकटाक्षनी जंजीरमा श्वरजी म.नी आज्ञाना चीले ज चालता हता. आथी जकडाई गया हता. तो पछी आजना साधुओओ पण पूज्यश्री तरफथी मुबई जवानी आज्ञा थतां तेमणे | ब्रह्मचर्यनी रक्षा माटे पूरे पूरी तकेदारी राखवी जोई. अमदाबादथी मुबई तरफ विहार कों. 1990 नु चातुर्मास तेमण मुंबई लालबाग कयु. मुंबई लालबाग | | पूज्य पं० श्री क्षमावि. जी महाराजे आ बे चातुउपाश्रयमा आवनार भाविकोने आ प्रथम बार ज | सिमां प्राचीन ग्रन्थोना संपादन-संशोधनन कार्य पू० पं० श्री क्षमा वि० गणिवर्यनी वाणीनु अमृत | हाथ धयु हतु. आ अवसरे हैमप्रकाश पूर्वार्ध, सावपीवा मल्यु हतु. अमनी वैराग्यना रंगथी रंगायेली | चूरि हैमलिंगानुशासन, स्वोपज्ञविवरणादियुक्त हैमवाणीनी असर जनता उपर घणीज सुदर पडी हती. लिंगानुशासन, मध्यमवृत्त्यवचूरियुक्तसिद्धाहेमशब्दानुत्यांना श्राक्को अनेक महिनाओ सुधी तेमना वचना- शासन वगेरे ग्रन्थोनु संपादन-संशोधन चालतु तु. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 29 जीवनपति ] साथ साथै महोत्सवो वगेरे शासनप्रभावनाना अद्भूत | गोडीजीना जिनमंदिरमा उजवायेल महोत्सव अपूर्व .प्रसंगो पण बन्या हता... | हतो. आ भव्य महोत्सवमा लाभ लेनार जनतानी ___आ उपरथी वांचको समजी शकशे के प्राचीन | प्रचुरता अने प्रसन्नता जोईने त्यांनी बुझर्ग वर्ग कहेतो उपयोगी साहित्यनुसंपादन संशोधन करवानी तेमने हतो के- मुंबई शहेरमा छेल्ला पचाश वर्षमा आवो महोत्सव अमारा जोवामां नथी आव्यो. आ केटली धगश हती. हवे तेओ संपादन-संशोधननी कलामां सिद्धहस्त बनी गया हता. महोत्सवनी आटली महत्तानो यश पू० दानसूरीश्वरजी म. ना स्वर्गवास अंगे हृदयद्रावक प्रवचन करनार अक कारमो दिवस पू० पं० श्रीक्षमा विजयजी गणिवर्यनै मल्यो हतो. पू० चातुर्मास बाद पू० पंन्यासजी म० मुंबई- | पंन्यासजी महाराजने श्रीदानसूरीश्वरजी म० ना स्वर्ग वासथी अत्यंत दुःख थयु हतु. आथी तेमणे स्वर्ग गोडीजीना उपाश्रये पधार्या.संपादन-संशोधननी प्रवृत्ति | स्थ सूरीश्वरजीना स्वर्गवास अंगे जे प्रवचन आप्यु चालु ज हती. अहीं तेमना माटे अक कारमो दिवस | आवी गयो के जे दिवसथी तेमने सदाने माटे अंक | | हतु, तेमां अके अंक वाक्यमां, अके अंक वचनमा | आघातनी लागणीनो अनुभव थतो हतो. आथी ज उपकारी पूज्यनो असह्य वियोग थयो. अ अमंगल | तेमनु आ प्रवचन खरेखर असाधारण हृदयद्रावक दिवस हतो वि० सं० 1992 नी महा सुद बीजनो. आ | दिवसे पाटडी मुकामे सकलागमरहस्यवेदी परमपूज्य | | बन्यु हतु: तेमनु अके अंक वाक्य श्रोताना हृदयमां आचार्य श्रीदानसूरीश्वरजी म. समाधि पूर्वक कालधर्म | प्रय झणझणाटो पैदा करतु हतु. तेमना आ प्रवचननी पाम्या हता. आ समाचार पंन्यासजी म० ने मळतां | | असरथी अने तेमनी प्रेमभरी प्रेरणाथी गोडीजीनी तेमणे सखत आघात अनुभंव्यो. आ समये मुंबईना | | जनता आ भव्य महोत्सव उजव्यो हतो. भाविक भक्तवर्गने पण दुःख कम न थयु हतु.. मुबईमा प्रवेशोत्सव _____ कारण के तेमने वि०सं० 1987 मां स्वर्गस्थ पू० | | वि० सं० 1992 नी चैत्रवद 6 नु मंगल प्रभात आचार्य भगवंतना जीवननो पूर्ण परिचय थयो हतो. खील्यु. पूर्व आकाशमां ऊषानु हास्य खोली उठ्य तेमना परिचयमा आवनार सर्व कोई जोय हतके थोडी ज वारमा सूर्यनारायणे मुंबई बंदर उपर डोकियु तेमनी वाणी अद्भूत संजीवनी हतो. अमना त्यागे | नेत्री तापी अन संजीवनी तो मामा कय.मुबईनु शान्त बनलु वातावरण पुन: धमालियु सौना मन गळगळां करी नाख्या हता. अमनी सहन- बनी गयु. आ समये मुंबईनी धर्म प्रेमी जनताना शीलता) सर्वना मुखमां आंगळा घलांव्या हता. | हृदय सागरमा उत्साहनी ऊर्मिओ उछळी रही हती. श्रेमनी निःस्पृहता अनेकने अचंबो पमाड्यो हतो. सर्वे मेक महापुरुषना स्वागत माटे अधीरा बनी रह्या अमना देह उपर चमकारा मारतुं संयमन लावण्य / हता. आज सिद्धान्तमहोदधि परमकारुणिक आचार्यसवेने प्रसन्नतानी अने त्यागनी भव्य प्रेरणा आपतः| श्रीमद्विजय प्रमसूरिजी म० पोताना शिष्यरत्न प्रखर हतु. आभना तारलिया जेवी अमनी आंखोमांथी | वक्ता उपाध्याय श्रीरामविजयजी गणिवर्य आदि मुनिसदाय करुणाना किरणो प्रसरी रह्या हता. आवा | मंडल साथे मुंबई-लालबागमा प्रवेश करवाना हता. महापुरुषनो सदा माटेनो वियोग मुबईनी धर्मप्रेमी | पू० पं० श्रीक्षमाविजयजी गणिवर्य पण तेमनी साथे जनता माटे असह्य बनी गयो. ज हता. तेओ मुबई आजुबाजुना पराओमां विहार करतां करतां मलाड मुकामे पूज्यश्रीनी साथे थई गया ... हृदयद्रावक प्रवचन हता. प्रवशेनो समय थतां मुंबईनी तथा जुदा जुदा ___ महापुरुषना स्वर्गवास निमित्ते मुंबईमां | पराओनी जनता अकत्रित थई गई. प्रवेश समये अनेक स्थळे महोत्सवो उजवामां आव्या हता. तेमां | तेमना स्वागत माटे कीडीओनी जेम मुंबईनी प्रजा पू० पंन्यासश्रीक्षमाविजयजी गणिवर्यनी सान्निध्यमा | उभराणी हती. गगनचुंबी महामहेलोनी अटारीओ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 ] [ जीवनपति अने झरुखाओ मानव मेदनीथी संकीर्ण बनी गया | श्री जंबू वि०म० ने उपाध्याय पदथी विभूषित कर्या. हता. से अटारीओमाथी अने झरुखाओमांथी नारीवर्ग | सिद्धांतमहोदधि पू० आचार्यश्रीमद्विजयप्रेमसूरीपूज्यश्रीने सोना रूपाना फुलडे वधावतो हतो. आम | श्वरजी म० तथा प्रखरवक्ता आचार्यश्रीरामचन्द्रसूरिजी अंतरना आनंदी अने बाह्य शणगारथी अं अणगार | म० अने पू० उपा० श्री जंबू वि० गणिवर्य आदि नायकनो मुबईमां प्रवेशोत्सव थयो. मुनिमंडलनु चातुर्मास मुंबई लालबागमां थयु. पू० मुबईमां पदप्रदान उपा० श्रीक्षमा वि० म० नु चातुर्मास गोडीजीना उपाआ प्रवेशोत्सवना पडघाओ शम्या न शम्या | श्रयमां थयु. चातुर्मास बाद पू० उपाध्यायजी महाराजे त्यां तो बीजा महोत्सवनी तडामार तैयारीओ थवा | मांडी. आ उत्सव हतो प्रसिद्धवक्ता उपा० श्रीरामवियजी गुजरात तरफ विहार को. 1993 नु चातुर्मास गणिवर्यनी आचार्य पदवी तथा पू० पं० श्रीक्षमाविज सूरत नेमुभाईनी वाडीना उपाश्रयमा कर्य. 1996 नु यजी गणिवर्यनी अने पू० पं० श्री जम्बूविजयजी गणि चातुर्मास स्तंभनतीर्थमां कयु.अहीं चातुर्मास बाद तेमनी वर्यनी उपाध्याय पदवी निमित्ते. आ प्रसंगे श्रीशत्रुजय निश्रामा श्रीमद्विजयानंदसूरीश्वरजी म०, श्रीमद्विजयतीर्थादि विविध रचनाओ तथा ध्वजा पताकाओ | कमलसूरीश्वरजी म. तथा श्रीमद्विजयदानसूरीश्वरजी वगेरेथी लालबागना विशाळ मंडपने देवविमान म० क्षेत्रण स्वर्गीय पू. गुरुदेवोनी प्रतिष्ठा निमित्ते महोत्सव थयो. तुल्य बनावी देवामां आव्यो हतो. जोतजोतामां महोत्सवनी शरूआत थई, अने सातदिवस पूर्ण पण थई ' आचार्य पद गया. हवे आव्यो पदप्रदाननो सोहामणो आठमो ____ अत्यार सुधीमां आपणे जोई आव्या के पू० दिवस वैशाख सुद 6 नो. उपा० श्रीक्षमा वि० महाराजे स्वगुरुदेवनी अखंड पदार्पणनी क्रियानी शरूआत करवानो समय सेवा बजावी हती. अहर्निश तेमनी आज्ञाना पालन थता पहेला ज आ प्रसंगने वधाववा साकरनो कणीयो / माट तत्पर रहता हता. 'गुरु आज्ञा तहत्ति' अ अमनो जमीन उपर पडे अने कीडीओनी कतार आववा लागे जीवनमंत्र हतो. स्वगुरुने देव तुल्य मानता हता. तेम मंडपमा जनता आववा लागी. थोडी ज वारमा | | स्वगुरुदेवना स्वर्गवास बाद तेमणे पू० आ० श्रीपदप्रदाननिमित्ते. शणगारेल माधवबागनो भब्य | मद्विजयदानसूरीश्वरजी म. नी छत्र छाया स्वीकारी मंडप गीचोगीच भराई गयो. क्रियानो समय थतां | हती. आथी तेमने पण देवतुल्य मानता हता अने संयमता . लावण्यथी .सबने आकर्षता पू० आचार्य | | उछळता हैये तेमनी सेवा बजावता हता. भगवंत श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराज पधार्या बाद तेमनी जीवननौकानु संचालन आचार्य अने साथे लाव्या प० उपाध्यायश्री रामविजयजी म. श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरजी म. ना हाथमा आव्य. ने, पू० पं० श्री क्षमा वि० म० ने, अने प० पं० | तेमणे आ पूज्यश्रीनी पण आज्ञा अने सेवामां कमीना श्री जम्बू वि० म० ने. पाछळ आव्युमुनिमंडले. आ| राखी न हती. आ प्रमाणे तेमणे उक्त त्रणे पूज्योनी समये हर्षनी किकियारीओथी तथा सिद्धान्तमहोदधि | आज्ञा अने सेवा अखंड बजावीने त्रणे पज्योना हदयोने श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरजी म. नी जयना मंगलनादथी | जीती लीधा हता. त्रणे पूज्यो अमना प्रत्ये असाधारण गगनगाजी रह्यौं अने आनंदथी नाची रह्यो जनतानो ममतानी दृष्टि निहाळता हता. तेमणे त्रणे पूज्योनी हृदयमयूर. पूज्यपादश्रीओ क्रियानो प्रारंभ कराव्यो. पूर्ण कृपादृष्टि प्राप्त करी हती. समय थतां पूज्यपादश्री पू० . उपाध्यायजी म ने | पूज्य गुरुदेवश्रीनी कृपाथी तेओ प्रव्रज्याना आचार्यपदथी अलंकृत कर्या. क्षण पहेलानां उपाध्याय प्रारंभथीज सिद्धहेम व्याकरण जेवा गहन विषयना श्री रामविजयजी गणिवर्य आचार्य श्रीरामचन्द्रसूरिजी अभ्यासनो प्रारंभ करी शक्या हता.. परिणामे वैयाबनी गया. प० पं० श्री.क्षमा वि०म०ने तथा पपं०. करणोनी श्रेणिमां दाखल थया. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनपति ] [31 पज्याचार्य श्रीमद्विजयदानसूरीश्वरजी म. नी / नूतन आचार्यश्रीना वात्सल्यनीरना भर्या कृपाथी शास्त्रबोधनो विकास को अने पंन्यासोनी प्रसन्न नयनो, संयमना लावण्यथी ओपन मुख, पंक्तिमा प्रवेश कर्यो. शासन माटे सदा वफादार रहेनारा बाहु जोईने सर्वना पूज्याचार्य श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरजी म. नी मनोमंदिरमा प्रसन्नताना प्रदीपो प्रगट्या. कृपाथी त्याग वैराग्य अने संयमने विकसावीने पंच पूज्याचार्य श्रीक्षमाभद्रसूरिजी महाराजे 1995 परमेष्ठीमां चतुर्थपदे बिराजमान थया. दिन प्रति नु चातुर्मास वापी कयु. आ चातुर्मासमां तेओओ दिन तेमनी आज्ञापालननी अने सेवानी भावना सटीक ‘गौतमीय महाकाव्यनु' संपादन कार्य वधती ज जती हती. तेमणे अनेकवार प्रज्योनी सेवाना| प्रारंभ्यु हतु. पण आ काव्यनु प्रिन्टींग ( छपाई ) अवसरो प्राप्त कर्या हता, छतां तेमनु हृदय अतृप्त ज | मुंबई-निर्णय सागर प्रेसमां थतु होवाथी टपाल रोतहत जेम जेम सर्यन तेज बधत जाय तेम द्वारा प्रूफ आवता समय घणोज लागी जतो हो. तेम कमलनो विकास, वृद्धि पामतो जाय छे. ओज | आधी तेमणे आ कार्य मुबई बिराजमान विद्वान प्रमाणे पू० उपा० श्री क्षमा वि० म० नो सिद्धांतमहो- | मु मुनिवर्य श्रीकनक विजयजी म० ( हाल पंन्यास )ने दधि श्रीमद्विजय प्रेमसूरीश्वरजी म. प्रत्येनो सेवाभाव | सॉप्यु. मुनिवर्यश्रीओ पण वडिलोनी आज्ञाथी आ जेम जेम वधतो. जतो हतो तेम तेम तेमना प्रत्ये | कार्य संभाळी लीधु. आचार्य देवश्रीनी कृपादृष्टि पण वृद्धि पामती हती. चातुर्मास बाद तेमणे राजस्थान ( मारवाड ) आथी अक अवो दिवस आवी पहोंच्यो के जे दिवसे | तरफ विहार कर्यो. पूनमचन्दजी गोमाजी वगेरे श्राव: भाचार्यदेवश्रीमद्विजय प्रेमसूरीश्वरजी म० ना हृदय- | कोनी विनंतीथी तेमणे मारवाडमां बेडा मुकामे सागरमां पू० उपा० श्री क्षमाविजयजी म० ने आचार्य- स्थिरता करी. आ समये त्यां पूनमचन्दजी गोमाजीनी पदथी अलंकृत करवानी भावनानुक मोजुउछळी | आर्थिक सहायथी तैयार थयेल ज्ञानमंदिरमां न्याय, आव्यु. व्याकरण, ज्योतिष, आगम वगेरे विविध साहित्यना अनेक पुस्तको वसाववामां आव्या. तेओश्रोना पुण्य आ समये पू० आचार्यदेवेश मोहमयी मुबईनी | हस्ते वैशाख सुद 6 ना तेरमा तीर्थंकर श्री विमलनाथ भूमिने संयमना संस्कारोथी सिंची रह्या हता, ज्यारे | स्वामी वगेरे जिनबिंबोनी अंजनशालाका-प्रतिष्ठा पू० उपाध्यायाजी महाराज स्तंभनतीर्थनी भूमिमां धर्म- | तथा स्वगुरुदेव श्रीअमी वि० म० नी मूर्तिनी प्रतिष्ठा वृक्षने नवपल्लवित करी रह्या हता. तेमने पू० आचार्य | करवामां आवी. वैशाख सुद बीजना दिवसे शुभमुहूर्ते भगवंतनी मुबई आववानी आज्ञा थतां कशो विचार | तपस्त्रीरत्न पू0 पंन्यास श्रीकपूर वि0 गणिवयंने कर्या विना तेमणे तुरत मुबई तरफ विहार को. | | उपाध्याय पदनु प्रदान कयं. 1996 नु चातुर्मास अल्पसमयमा पूज्यपादश्रीनी सेवामां हाजर थई गया. लुणावा, 1997 नु चातुर्मास रतलाम, 1998 नु चातुर्मास ईन्दोर कयु. आ त्रण चातुर्मास दरमीयान वि० सं० 1995 नी महा सुद सातमना दिवसे उपधान, तीर्थयात्राना संघो, प्रतिष्ठा, दीक्षा, महोत्सवो मंगल मुहूर्ते मुबईनी विशाळ मानवमेदनीनी वच्चे | वगेरे अनेक शासन प्रभावनाना कार्यो थया हता. पूज्याचार्य श्रीमद्विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजे उपा- | 1999 न चातर्मास पन 1999 नु चातुर्मास पुनः खंभात कयु: ध्याय श्रीक्षमा वि० म० ने आचार्यपदे बिराजमान कर्या. आ समये नाम निर्देश करतां पूज्यपादश्रीओ | चातुर्मास बाद सिद्धगिरिनी नवाणु यात्रा मंगलशब्दो उच्चार्या- आचार्य श्रीक्षमाभद्रसूरि. पूज्यपाद- | करवाना भावथी तेओ पालीताणा पधार्या. अहीं तेगे श्रीना आ शब्दोने उपस्थित जनता जयध्वनिथी | दररोज सवारना सिद्धगिरिनी थात्रा करता अने बपोवधावी लीधा. रना "श्रीशत्रुजयमाहात्म्य" उपर प्रवचन आपता हता. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32] [जीवनपति अन्तिम चातुर्मासप्रवेश / लेवा ओक वृक्ष नीचे बेसाड्या. आराम करवाथी पण समय पोतानी काळखंजरी बजावतो चाल्यो छातीनो दुःखावो शान्त न थयो. बल्के वधतो ज रह्यो. जतो हतो. जोत जोतामां वि० सं० 2000 नी जेठ वद | सूरिजीओ जल्दी उपाश्रये पहोंचवा आत्मबळथी चालवा दशमनी रात्रि पसार थई गई. जेठ वद 11 नो प्रभात मांड्यं. जेम तेम करीने उपाश्रयना बजार बाजुना खीलवानी तयारी ती नीरव बनेपी शान्तिकोपीन ओटला सुधी तेओ आवी पहोंच्या. छातीनो द:खावो धीमे भंग थतो गयो. आ समये वढ़वाण केम्पमां अक | वधतो ज रह्यो. उपाश्रयमा रहेला मुनिओने खबर तरफ वृक्षो उपर बेठेला पक्षीओ ऊषादेवीना स्वागतनी पडतां तेओ तुरत त्यां आवी पहोंच्या. सेवाभावी तैयारी करवा लाग्या, अने बीजी तरफ जैन जनता मुनिओओ त्यां ओटला उपर ज शय्या पाथरीने पूज्यअक सूरिदेवना स्वागतनी तैयारी करवा लागी. प्रभात श्रीन सुवाड्या. आ वात गाममा वायुद श्रीने सुवाड्या. आ वात गाममां वायुवेगे प्रसरी गई. खील्यु अने थोडी ज वारमा सूर्यनारायण पण रथमां | श्रावकवर्ग घणा प्रमाणमां हाजर थई गयो. पू० पं०श्री बेशीने आवी गया. सूरिदेवना स्वागत माटे शणगार धर्मविजयजी गणिवर (हाल उपाध्याय) तथा पू. वामां आवेल सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगरनी स्मृति | माणेक वि० म. वगेरे मुनिपुगयों औषध माटे करावतु हतु. समय थतां लोको चातुर्मास माटे | व्यवस्था करावी. आ मुनिर्योनी तेम ज श्रावकवर्गनी पधारता प० आचार्य श्रीक्षमाभद्रसूरिजी म. न विनातथी पूज्यश्री डोक्टरे आपल औषधनु सेवन स्वागत करवा माटे चाल्या. उत्साह पूर्वक पज्य | कयु. आचार्यश्रीनो नगर प्रवेश थयो. बाद पूज्यश्रीओ प्रवचन छतां आराम थवानी वात दूर रही, पण आप्यु. दररोजना व्याख्यान माटे जाहेरात थई गई. छातीनो दुःखावो वधतो ज गयो. शरीर धीमे धीमे जीवनज्योत बुझाई गई | ठंडु पडवा लाग्यु. आथी संघना हैयामां चिंतानी जगतना जन्तुओ उपर यम राजा पोतानी | : ही चिनगारी प्रगटी. पूज्यश्री चिंतातुर बनेल संघने कारमी सत्ता चलावी रह्यो छे. से नथी जोतो तवंगरने | " | पोतानु स्वास्थ्य थोडीज वारमा शान्त थशे अम के नथी जोतो गरीबने. अनथी गणकारतो राजाने | कहीने निश्चित रहेवा माटे जणाव्यु . खरेखर ! महाके नथी गणकारतो राजेन्द्रने. ओ नथी ख्याल राखतो | " पुरुषोनी संयमसाधना प्रबळ होय छे. तेथी ज ज्यारे वयनो के नथी ख्याल राखतो आजुबाजुनी परिस्थि- 4 मनुष्यलोकमांथी विदाय थवानी यमराजानी घंटडी तिनो. से नथी छोडतो सेवकने के नथी छोडतो वागती होय छे त्यारे पण से महापुरुषो निश्चिंततानी स्वामीने. सर्वना उपर अक सरखी पोतानी अफर आण | | मधुर बंसरी बजावता होय छे. पूज्याचार्यश्रीनी प्रवर्तावी रह्यो छे. आ यम राजामे जाणे पू० आ० श्री अद्भूत धैर्यता अने निश्चितता "महापुरुषोने मृत्यु क्षमाभद्रसूरिजी म. नी कीर्ति-प्रतिष्ठा तेनाथी सहन महोत्सवरूप बने छ” से वाणीनी स्मृति करावती इती. न थई शकी होय तेम तेमना उपर दृष्टिपात को. आ वखते तेमनो आत्मा नमो अरिहंतारणं.............. ..................."चत्तारि मंगलं................ अषाड सुद अकमनुप्रभात थयु. प्रातःकालनी प्रतिलेखनादि आवश्यक क्रियाओ करीने प. आ० खामेमि सव्वजीवे..............वगेरेनी मंगल ध्वनिना श्रीक्षमाभद्रसूरिजी म. मुनिवर्य श्रीलाभ वि० म. ने | . श्रवणमा अने ध्यानमा लीन बनी गयो. दीपक छेल्ली साथे लईने स्थंडिल भूमि गया. स्थंडिल भूमिथी 1 | वार झबकारो मारी बुझाई जाय तेम से जीवनपति पाछा फरता हजो तो मात्र अ? ज पंथ पसार थयो | महापुरुषनी आंखो छेल्लीवार चमकीने सदाने माटे इतो, तेटलामा अचानक तेमना संयमदेहे तकलीफ | | मींचाई गई. आम अकाओक महापुरुषनी जीवन खडी थई. छातीमां दुःखावो शरू थई गयो. सहवर्ती ज्यात बुझाई गई. अमनो आत्मा स्वर्गमा पहोंची गयो. मुनिराज चकोर हता.. तेमणे पूज्यनी अस्वस्थता तुरत अमर रहो से जीवनपति महापुरुष !!! कळी लीधी. तेमणे सूरिजीने आग्रह करीने आराम | कोटि कोटि वंदन हो से जीवनपति महापुरुषने !!! Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अहम् // सिद्धान्तमहोदधिपूज्याचार्यश्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरेभ्यो नमः / कलिकालसर्वज्ञश्रीमद्धेमचन्द्राचार्यविरचितं श्रीसिद्धहेपशब्दानुशासनम् / मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यां संवलितम् / * तृतीयोऽध्याय: * ( तृतीयः पादः ) करोत्यर्थः क्रिया, तत्र युक्त पचादीनां किं करोति ? पचति, किं करोति ? पठतीति करोत्यर्थ मिश्रत्वात क्रियात्वम। ५३विद्यतेऽस्तिभवतीनां न वृद्धिरारंदौत्. / 3 / 3 / 1 / / युक्तम् / नहि भवति किं करोति ? अस्ति भवति .. वृत्तिः-आकार, बार्, ऐकार, औकारश्चैते वेति / तद्युक्तम् , करोत्यर्थः क्रियाशब्दस्य न वृद्धिसंज्ञा भवन्ति / [श्रा] दाक्षिः, [पार्आर्षम्, / प्रवृत्तिनिमित्तं किन्तु कारकव्यापारविशेषः, १०व्याऋषीणामिदम् , 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) अण् , [ऐ] पारश्च व्यापारान्तराद्भिद्यते, ११इत्यस्त्याद्यर्थोऽपि नायकः, [au औपगवः // 1 // क्रियैव / करोत्यर्थस्तु क्रियाशब्दस्य व्युत्पत्तिमात्रगुणोऽरेदोत् / 3 / 3 / 2 / / [अर-एत्-ओत्] निमित्तमेव / एवं सति कृभ्वस्तयः क्रियासामान्यअर्, एत् , ओत्, एते गुणसंज्ञाः स्युः / करोति, वचनाः, पचादयस्तु क्रियाविशेषवचना इति सिद्धम् ! १२“यावत् सिद्धमसिद्धं वा साध्यत्वेनाभिचेता, स्तोता ||2|| धीयते / आश्रितक्रमरूपत्वास्क्रियेति प्रतीयते" / / 1 / / 'क्रियाओं धातुः / 3 / 3 / 3 / / वृत्तिः-कृतिः, क्रिया, प्रवृत्तिापार इत्येकार्थाः / __ अवचूरिः-१क्रिया, कृतिः, प्रवृत्तिः, व्यापार पूर्वापरीभूता साध्यमानरूपा सा [क्रिया, अर्थो इत्येकार्थाः / २साध्यमानं' कोर्थः ? साधनायत्त वाच्यं यस्स स शब्दो धातुसंज्ञः स्यात् / भवति, 'रूप' स्वरूपं यस्याः सा क्रिया इत्यर्थः। यथा पति, अत्ति, दीव्यति, सुनोति, तुदति, रुणद्धि, तनोति, कः ? चैत्रः, किम्? ओदनम्,कैः ? काष्ठः, क्व ? स्थाक्रीणाति, सहति / आयादिप्रत्ययान्तानामपि ल्याम्, कस्मात् ? कुशूलात्, कस्मै ? मैत्रायेति भावना। क्रियार्थत्वाद् धातुत्वम्, गोपायति, "कामयते, धातुत्वात् त्यादयः प्रत्ययाः परतो भवन्ति / गोपायऋतीयते, 'जुगुप्सते, कण्डूयति, “पापच्यते, तीत्यत्र "गुपौधूपविच्छिपणिपनेरायः" (3 / 4 / 11) / चोरयति, कारयति, चिकीर्षति, पुत्रीयति, अश्वति, "कामयतेऽत्र “कमेणि" (3 / 4 / 2) / 'जुगुप्सते 'श्येनायते, हस्तयते / एवं जुस्तम्भूचुलुम्पादीनामपि। "गुप्तिजोगर्दाक्षान्तौ सन्" (3 / 4 / 5) / कण्डूयति शिष्टप्रयोगानुसारित्वाल्लक्षणस्याऽऽणपयत्यादिनिवृ- "धातोः कण्ड्वादेर्यक्” (3 / 4 / 81) / पापच्यते "व्यञ्जनात्तिः, शिष्टज्ञापनाय चेदं लक्षणम् / ननु कृतिः / देरेकस्वरा०" इति (3 / 4 / 9 / ) यङ् / पचति, पाक इत्यादौ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने [अ० 3 पा० 3 सू० 3-4 प्रकृतिप्रत्ययसमुदाये प्रकृतेः पच् इत्यस्यैव क्रियार्थ- | स्मिन् कस्मिश्चित् पिण्डे पाकक्रिया सत्ता च पूर्वापरीभूता त्वाऽवगमः / कथमिदम् ? उच्यते अन्वयव्यतिरेकाभ्यां च ततस्तस्या माहात्म्यात् सत्तापि पूर्वापरीभूता भवति धातोरेव प्रकृतेः क्रियार्थत्वाऽगमः / तथाहि-अन्वयव्य- इति साध्यमानत्वं भावनीयं सत्तायाः / कि बहना, तिरेकयोर्भावनामाह, पचतीतिप्रयोगे द्वयं श्रूयते-पच् आख्यातपदेन उच्यमानः सिद्धभावोऽपि साध्यरूपता इति प्रकृतिः अतिरिति च प्रत्ययः, अर्थोऽपि विक्लित्तिः, भजति तन्माहात्म्यात् // 3 // कर्तृत्वमेकत्वमित्यादिकः कोऽपि कोऽपि प्रतीयते इति एकत्रान्वयभावना। पठतीत्युक्त कश्चिच्छब्दो हीयते, न प्रादिरप्रत्ययः / 3 / 3 / 4 / / कोऽप्युपजायते, कश्चिदन्वयी। पच्शब्दो हीयते, पठ इति वृत्तिः-प्रादिर्वातुर्न स्यात् / 'प्रादेः पर एव उपजायते, अतिप्रत्ययोऽन्वयी / अथों पि कोऽपि हीयते, धातुः / अप्रत्ययः न चेत्ततः प्रत्यय: स्यात् / 'अभ्यकोऽपि जायते, कोप्यन्वयी। विक्लित्तिहीयते, पठिर्जायते; मनायत, प्रासादीयत् / प्रादिरितिकिम? ४अमहा. कर्तृत्वमेकत्वं चान्वयि; इति अन्वयव्यतिरेकयोयोरप्य- पुत्रीयत् / अप्रत्यय इति किम् ? "श्रौत्सुकायत। वतार इति युक्त्या सर्वत्र पचस्त्यादीनां क्रियार्थत्वाऽवगम अभिमनायादिः प्रत्ययान्तः सप्रादिः समुदायः ऊहनीयः / श्येन इवाचरति "क्यङ" (3 / 4 / 26 / ) क्रियार्थ इति तस्मिन् धातुसंज्ञ प्राप्त ततः प्रादिनिइति क्यङ्। १°व्यापारश्चेति-चैत्रः पचतीति व्या- षेधेन बहिस्क्रियते / ततश्च तत उत्तर एव पारतत्परो न पठति, न याति इति व्यापारान्तरं किमपि धातुरिति 1 तस्या' १ऽट १२द्वित्वं च भवति / / 4 / / न करोति / एवं मंत्रोऽस्तीति मैत्रस्य सत्ता व्यापारो, न चलति, न नश्यतीत्यादि व्यापारान्तराभावः। कारक- ___अवचूरिः- 'प्राद्युपसगों धातोः प्रागपि न धातुव्यापारविशेषादेव सर्वस्यापि धातोः क्रियात्वं कल्पनीयम् / संज्ञो भवति, कोर्थः? धातोरवयवो न भवतीत्यर्थः / *प्रादेः १२अथ यदि साध्यमानरूपा क्रियेत्युच्यते तहि जायते- परेत्यादि-प्राद्युपसर्गेभ्यः परतो भ्वादिः केवल एव सन् प्रभृतीनामभूतप्रादुर्भावाद्यर्थानां साध्यमानत्वाभावादना- धातुसंज्ञो भवति, न प्रादिसहित इति यावत् / २अभ्यमश्रितक्रमरूपत्वाच्च कथं क्रियात्वमित्याह / यथा पच- नायत-अभिमनस्, अनभिमना अभिमना भवति अभिमनातीत्यत्र पूर्वापरीभावस्तथा जायतेऽस्ति, भवति, यते "व्यर्थे भृशादेः स्तोः" (3 / 4 / 29 / ) इत्यनेन क्यङ्, विपरिणमते, वर्द्धते, क्षीयते, विद्यते, संयुज्यते, समवैति, अनेनैव सूत्रेण स्लुप्यतो "दीर्घश्चिवयङ०"(४।३।१०८१) लज्जते, शेते, तिष्ठति, इत्यादिषु आख्यातिकपदाश्रय- इति दीर्घः, अभिमनाय,शस्तनी-त, ततः “कर्तर्यनद्भ्यः त्वासाध्यत्वाभिधानेन क्रमरूपाश्रयणात्क्रियात्वं सिद्धय शव्" (3 / 4 / 7 / ) इति धातोः पूर्वम् 'अट्', "लुगस्यादे०" ति। यावत् सिद्धत्यत्र विशेषावचूरिः-सिद्धं सत्तादि, (2111113 / ) इति अलोपः / प्रासादमच्छत् , क्यन असिद्धं घटादि, कारकाश्रयत्वात् इति शेषः। 13 भवतीनां मस्तनी। 'महापुत्रमैच्छत्, क्यन् / "औत्सुकायतेति न युक्तम् इति कोर्थः ? अस्तिभवत्यादिषु सत्ताया उत्सुकः, अनुत्सुकः उत्सुकोऽभवत् “च्वयर्थे भृशादेः स्तोः" नित्यत्वेन साध्यमानत्वाऽभावात् साध्यमानाभावे च ( 3 / 4 / 291 ) क्यङ्, शस्तनी-त, "स्वरादेस्तासु" पूर्वापरविभगाभावात् पूर्वापरविभागाभावेन क्रियार्थत्वा- (4 / 4 / 31) इति वृद्धिः, उकारस्य औ, औत्सुकायतेति भावे सति धातुसंज्ञा न प्राप्नोति / सत्यम्, आवेयभेदेन सिद्धम्, एवं उत्सुकायित्वा। क्यङ्ग्यनादिप्रत्ययान्तः / सत्तापि पूर्वापरीभूता साध्यमानरूपा। यथा-सैव देवदत्त- "सोपसर्गः / 'बहिष्करणात् / प्रादेः परत एव / सत्ता क्वचिद् गमनयुक्ता, क्वचिद् भोजनयुक्ता, क्वापि "मलधातोरेव / ११अभ्यमनायत इत्यत्र अट् / पठनयुक्ता / नन्वेवं तहि सत्तायाः कया युक्तघा साध्य .अभिमिमनायिषते, अत्र द्विवचनं सिद्धम् / तहि प्रादेः मानता भविष्यति ? उच्यते, यथा एकस्मिन् स्थाने किं फलम् ? इत्याह-प्रादेश्च उत्तरेण क्त्वाप्रत्ययान्तेन कस्तूरी पाषाणखण्डमपि विद्यते, ततः कस्तुरीमाहात्म्यात धातना सह समासो भवति / समासे सति क्त्वास्थाने पाषाणखण्डमपि सुगन्धि भवत्येव / एवमत्राप्येक- | यप् इति फलम् // 4 // . Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यातप्रत्ययाः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते 'अवी दाधौ दा ।३।३।शा आनिव आवव आमव ; ताम आताम अन्ताम,स्त्र वृत्तिः-२दा धा इति रूपौ धातू अवानुबन्धौ आथाम ध्वम , ऐव आवहैव आमहैन् / 3 / 3 / 8 // दासंज्ञौ भवतः / दारूपाश्चत्वारः / धारूपौ द्वौ / दाम् , ____ वृत्तिः-इमानि वचनानि पञ्चमीसंज्ञानि प्रणिदाता। देंट ,प्रणिदयते। डुदांग्क प्रणिददाति दोच , प्रणिद्यति। धे, प्रणिधयति / प्रणिदधाति / स्युः / / 8 / / अबाविति किम् ? दातम् , अबदातम् ।।शा ह्यस्तनी-दिव ताम अन् ,सिव तम त,अम्ब व म; त आताम् अन्त, थास् आथाम् ध्वम् , इ अवचूरिः-'न विद्यते वोऽनुबंधो ययोस्तो अवौ। २दाम् दाने इति भौवादिकः, 1 देंङ् त्रैङ् पालने इति वहि महि / 3 / 3 / 9 / / भौवादिकः,२४डुदांगक दाने इत्यदादिः,३ दोच् छोंच छेदने | वृत्ति:-इमानि वचनानि ह्यस्तनीसंज्ञानि स्युः इति दिवादिः, एते दासंज्ञा धातवः / तथा 'धे पाने' इति // 9 // भ्वादिः, 'डुधांगक, धारणे' इत्यदादिः, एतौ दा- ___एताः शितः / 3 / 3 / 10 // संज्ञो। एवं धातुषट्वन्दं दासंज्ञ ज्ञेयम् / सूत्रे दाधारू वृत्तिः-एता वर्तमानासप्तमीपञ्चमीह्यस्तन्यः पोपलक्षितस्य दासंज्ञावचनाद् दों, दें, धे इत्येतेषां शिति प्रत्यये परे दाधारूपाऽभावेऽपि दासंज्ञा सिद्धा / तथा शितः शानुबंधा ज्ञेयाः। भवति,भवेत् ,भवतु, अभवत् // 10 // निनिमित्तत्वेनान्तरङ्गत्वाद दासंज्ञायां विधेयायां दोङ् 'धातोरविडत्प्रत्ययापेक्षया नियमाणे आत्वे दारूपत्वेऽपि अवचूरिः-सर्वत्र "कर्तर्यनद्भ्यः शव" (3-4-71) बहिरङ्गस्य ओत्वस्य असिद्धत्वान्न दासंज्ञाप्रसंगस्तेनो इत्यनेन शव प्रत्ययः। वर्तमाना,सप्तमी,पञ्चमी,शस्तनीति पादास्तेत्यत्र "इश्च स्थादः" (4-3-41) इति इत्वं न | एतेषां शानुबंधत्वादिति फलम् // 10 // भवतीत्यर्थः। प्रणिदाता इत्यादिषु प्रणिदधातीतिपर्य अद्यतनी-दि ताम् अन् , सि तम त, अम् व न्तेषु दापतपदेत्यनेन(२-३-७६)णत्वम्। देङ् डुदांग दोंगट घे?॥५॥ म; त आताम अन्त, थास् आथाम् ध्वम् , . वर्तमाना-तिव तस अन्ति, सिव थस् थ, | इ वहि महि / 3 / 3 / 11 // मिव वस मस ; ते आते अन्ते, से आथे ध्वे, ए- वृत्तिः-इमानि वचनान्यद्यतनीसंज्ञानि स्युः बहे महे / 3 / 3 / 6 // वृत्तिः-इमानि वचनानि वर्तमानासंज्ञानि। परोक्षा-णव अतुस् उस , थव अथुस् अ, वित्करणं “शिदविद्' (4-3-20) इत्यत्र विशेष णव व म; ए आते इरे, से आथे ध्वे, ए बहे महे णार्थम् / एवमन्यत्रापि / वर्तमानाप्रदेशाः "स्मे च / 3 / 3 / 12 // वर्तमाना" (5-2-16) इत्यादयः / / 6 / / ___ सप्तमी-यात् याताम् युस , यास याताम् वृत्तिः–इमानि वचनानि परोक्षासंज्ञानि स्युः // 12 // यात, याम् याव यामः ईत ईयाताम् ईरन् ,ईथास् ईयाथाम ईध्वम् , ईय ईवहि ईमहि // 3 // 3 // 7 // ___ आशी:-क्यात क्यास्ताम् क्यासुस्, क्यास ___ वृत्तिः-इमानि वचनानि सप्तमीसंज्ञानि क्यास्तम् क्यास्त, क्यासम् क्यास्व क्यास्म; स्युः // 7 // सीष्ट सीयास्ताम सीरन् , सीष्ठास सीयास्थाम पञ्चमी-तुव ताम् अन्तु, हि तम् त, | सीध्वम् , सीय सीवहि सीमहि / 3 / 3 / 13 / / Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने [अ०३ पा०३ सू०१३-१८ वृत्तिः-इमानि वचनान्याशी:संज्ञानि स्युः।।१३।। / यूयं पचथ। एवं पचसीत्यादि। एवं त्वं पचसे, युवां पचेथे, यूयं पचध्वे / अस्मदि अहं पचामि, आवा अवचूरिः-ककारानुबन्धकरणम् 'नामिनो गुणो०' पचावः, वयं पचामः। पचे, पचावहे, पचामहे / एवं इत्यादिषु विशेषणार्थम् // 13 // सर्वासु / तथा द्वययोगे त्रययोगे च शब्दस्पर्द्धात श्वस्तनी-ता तारौ तारस् , तासि तास्थस् / पराश्रयमेव वचनं भवति / स च त्वं च पचथ, स तास्थ,तास्मि तास्वस तास्मस ; ता तारौ तारस , चाहं च पचावः, स च त्वं चाहं च पचामः / 'एहि मन्ये रथेन यास्यसि, नहि यास्यसि यातस्ते पितेतासे तासाथे ताध्वे, ताहे तास्वहे तास्महे ति यथाप्राप्तमेव // 17 // / 3 / 3 / 14 // ___अवचूरिः-"वीप्सायाम्" (7-4-80-) इत्यनेन वृत्तिः-इमानि वचनानि श्वस्तनीसंज्ञानि द्वित्वम् / २अन्यस्मिन्नर्थे इत्युक्त त्यदादिगणः सर्वोस्युः // 14 // ऽपि युष्मदस्मदी वर्जयित्वा देवदत्तेत्यादिनामशब्दाच.' भविष्यन्ती-स्यति स्यतस स्यन्ति, स्यसि ज्ञातव्याः, ततस्त्यदादिभ्यः सर्वेभ्यो वाच्येषु(सत्सु)धातोः परस्त्यादिविभक्त राधं वचनं भवति। युष्मदर्थे वाच्ये स्यथस स्यथ,स्यामि स्यावस् स्यामस ; स्यते सति धातोद्वितीयं वचनम् / ४अस्मदर्थे वाच्ये सति धातोस्येते स्यन्ते,स्यसे स्येथे स्यध्वे,स्ये स्यावहे स्यामहे स्तृतीयं वचनं भवतीत्यर्थः / "उपसृष्टः संमिलितः / / 3 / 3 / 15 // आत्मनेपदं दर्शयति / भवन्तौ पचतः, भवन्तः पचन्ति, वृत्तिः—इमानि वचनानि भविष्यन्तीसंज्ञानि पचथः, पचथ। पचामि,पचावः,पचामः। यः परो भवति स्युः॥१२॥ तत्सम्बन्धि वचनं भवतीति अतिदिश्यते। कथमत्वं त्वं सम्पद्यते त्वद्भवति, अनहमहं संपद्यते मद्भवति, अत्र क्रियातिपत्तिः-स्यत् स्यताम् स्यन् , स्यस् युष्मदर्थेऽस्मदर्थे वा द्वितीयं तृतीयं वचनं प्राप्नोतीति स्यतम् स्यत; स्यम् स्याव स्याम; स्यत स्येताम् . परपृच्छा / अत्राह युस्मदस्मच्छब्दयोगौणत्वात् / त्वमादेस्यन्त, स्यथास् स्येथाम् स्यध्वम् , स्ये स्यावहि शौ तु शब्दमात्राश्रयत्वाद् भवत एव इति विशेषः पचाम इत्यस्याग्रे ज्ञातव्यः। अत्वं त्वं संपद्यते इति वाक्यस्यामहि / 3 / 3 // 16 // मर्थकथनमात्रमिदम् / अन्यथा' कृभ्वस्तियोगाभावात ___ वृत्तिः-इमानि वचनानि क्रियातिपत्तिसंज्ञा विन स्यात् / एहि मन्ये इत्यत्र यथाप्राप्तं वचनं नि भवन्ति / क्रियातिपत्तिप्रदेशाः"सप्तम्यर्थे क्रियाति युज्यते। तथाहि-प्रहासे परिहासे गम्यमानेऽस्मदर्थस्य पत्तौ क्रियात्तिपत्तिः” (5-4-6-) इत्यादयः॥१६॥ प्रतिपत्तिः, अहमेवं मन्ये यत् त्वं रथेन यास्यसि इति 'त्रीणि त्रीण्यन्ययुष्मदस्मदि / 3 / 3 / 17 / / लोकप्रसिद्धार्थविषयः प्रकटोऽनुभूयत इत्यस्मदर्थवचनमत्र भवति / रथेन यास्यसि इति साभिप्रायं रथगमनाभिधावृत्तिः-सर्वासां विभक्तीनां त्रीणि त्रीणि नात् प्रहासो गम्यते / नहि यास्यसि इत्यनेन परिहासकर्ता वचनान्यन्यस्मिन्नर्थे युष्मदर्थे ऽस्मदर्थे वा वाच्ये बहिर्गमनं प्रतिषिध्यते। तथा अनेकस्मिन्नपि परिहासकजने यथाक्रमं भवन्ति / अन्यत्वं युष्मदस्मदपेक्षं सन्निधा प्रायेणकमेव प्रति लोकरूढया परिहासवचने प्रयोक्तृभावो नात् / युष्मच्छब्दोप"सृष्टोऽर्थो युष्मदर्थः / तेन दृश्यत इति हेतोरस्मदर्थवचनस्यकवचनमेव घटते / भवच्छब्देनोच्यमानो (अर्थः) न युष्मदर्थः। स इति युक्तचा मन्ये यास्यसि इति सिद्धम् // 17 // .. पचति, तौ पचतः, ते पचन्ति / पचति, पचतः, पचन्ति / स पचते,तौ पचेते,ते पचन्ते / एवं भवान् एकद्विबहुषु / 3 / 3 / 18 / / पचति इत्यादि / युष्मदि त्वं पचसि, युवां पचथः, | वृत्तिः–अन्ययुष्मदस्मदि यानि त्रीणि त्रीणि Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मनेपदविधानम्] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते “वचनान्युक्तानि तान्येकस्मिन्नर्थ एकवचनम्, द्वयोः / अवचूरिः-१क्रियते इति क्रियमाणः, “शत्रानशारर्थयोद्विवचनम् , बहुष्वर्थेषु बहुवचनमिति युक्त्या / वेष्यति तु सस्यौ (5 / 2 / 20 / ) इत्यनेन आनश् , "क्यः भवन्ति / स पचति, तौ पचतः, ते पचन्ति' इत्यादि।।१८।। शिति (3 / 4 / 70) (इति क्यः,) रिःशक्याशीर्ये (4 / 3 / 110 / ) इति रिः, "अतो म आने" (4 / 4 / 114) इति अवचूरिः- आदिशब्दात् त्वं पचसि, युवां मोन्तः, क्रियमाण इति सिद्धम् / तथा चक्रे (इति) पचथः,यूयं पचथ इति युष्मदर्थे वचनत्रयम्। अहं पचामि, चक्राणः। "तत्र क्वसुकानौ तद्वत्' (५।२।२।)इत्यनेन कानआवां पचावः, वयं पचामः इत्यस्मदर्थे वचनत्रिकम् // 18 // प्रत्ययः, 'द्विर्धातुः परोक्षा०'(४।१।११)इति द्विवचनं,ऋतोत् नवाद्यानि शतृक्वम् च परस्मैपदम् / 3 / 3 / 16 // (4111381) (इतिअत्) कङश्चञ् (4 / 1 / 46 / ) इति च / __ वृत्तिः सर्वधिभक्तीनामाद्यानि 'नव नववच अत्र आत्मनेपदमित्युक्ते आनशकानौ ज्ञेयाविति तयोः नानि शतृक्वसू च प्रत्ययौ परस्मैपदसंज्ञानि प्रयोगः / 3एकत्र निष्टा पर्यवसानं यस्य व्यापारस्य स भवन्ति / तिव सस अन्ति, सिव थस थ, मिव वस एकनिष्टः, कर्ता कृत्वा एकनिष्टः कत्रेकनिष्टः, करैंकनिष्टो मस् , इति / एवं सर्वासु विभक्तिषु / / 1 / / व्यापारो येषां धातूनां ते। "मृदू पच्यते भवता इत्यपि ज्ञेयं, पञ्चवारान् भुज्यते भवता इत्यपि / क्रियते स्म . अवचूरिः-'नवनशब्दः नकारान्तः / संज्ञिनां (इति) कृतः कटो भवता इति कर्मणि / अथ भावे बहुत्वादगृहीतवीप्सोपि सूत्रे नवन् शब्दो वीप्सां गमयति कृतं भवता, शयितं भवता / तथा केचिद वैयाकरणा: एवमुत्तरसूत्रेण (सूत्रेऽपि) इत्यत्र // 19 // सकर्मकादपि धातोः क्लीबे भावे क्तप्रत्ययमिच्छन्ति पराणि कानानशौ चात्मनेपदम / 33 / 20 // तन्मते ग्रामं गतं भवता, ओदनं भुक्तं भवता इति / कूर्यादिति कार्यः, "ऋवर्णव्यअनाद ध्यण" / एवं कर्तव्यः वृत्तिः- सर्व विभक्तीनां पराणि नव नव कटो भवता, करणीयः कटो भवता, कृत्यः कटो भवता, . वचनानि कानानश्प्रत्ययौ चात्मनेपदसंज्ञानि स्युः / देयः कटो भवता, सर्वत्र कुर्यादिति वाक्यम् / ते आते अन्ते, से आये ध्वे, ए वहे महे। एवं सर्व एवं शयितव्यं भवता, शयनीयं भवता, शेयं भवता, कार्य विभक्तिषु // 20 // भवतेत्यादिप्रयोगाः भावे। अविवक्षितकर्मत्वाद् भावे तत्साप्यांनाप्यात्कर्मभावे कृत्यक्तखलाश्च प्रयोगाः कार्यम, कर्तव्यम् , करणीयमित्यादयः। सुखेन ... / 3 / 3 / 21 // क्रियत इति सुकरः, "दुःस्वीषतः कृच्छ्राकृच्छ्रार्थात् खल्" वृत्तिः–तत्-आत्मनेपदं कृत्यक्तखलाश्च- (5 / 3 / 139 / ) इत्यनेन भावकर्मणोः खल् / सुखेनानायाप्रत्ययाः साप्यात्-सकर्मकाद्धातोः कर्मणि अना सेन अकटः कटः क्रियन्त इति सुकटंकराणि, "व्यर्थे कर्ताप्याद्-अकर्मकादविवक्षितकर्मकाच्च धातो वे प्याद् भूकृगः" (5 / 3 / 140) इत्यनेन खल, "खित्यनभवन्ति / कर्मणि-क्रियते कटश्चैत्रेण, 'क्रियमाणः, व्ययारूषो मोन्तश्च" (3 / 2 / 11) इति मोन्तः / तथा सु२चक्राणः / भावे-भूयते भवता, भूयमानं (भूयते) ज्ञायते इति सुज्ञानम् , “शासयुधदृशि षिमृषातोऽनः" भवता / सकर्मका धातव अपि अविवक्षितकाणः (5 / 3 / 1411) इति अनप्रत्ययो भावे कर्मणि च // 21 // कर्वेकनिष्ठव्यापारा अकर्मका भवन्ति / तेनैषां भावेपि प्रयोगः / क्रियते भवता (भावे)। कृत्यः, इङितः 'कर्तरि / 3 / 3 / 22 // कार्यः कटो भवता (कर्मणि) इत्यादि / कार्य भवता __ वृत्तिः–इदितो ङितश्च धातोः कर्तर्यात्मनेपदं (भावे) / क्त-कृतः कटो भवता(कर्मणि)। खलर्थः -- स्यात् / इदित्-(एवि वृद्धौ) एधते, एधमानः / ङित्सुकरः कटो भवता (कर्मणि)। सुकरं भवता (भावे)। / (शीङ् शये) शेते, महीयते, महीयमानः, कामयते, सुकटंकराणि वीरणानि / सुज्ञानं तत्वं मुनिना (कमेर्णिङ 3-4-2) पापच्यते / एभ्य एव कर्तरी॥२१॥ ति नियमार्थमिदम् / / 22 / / Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने [अ० 3 पा० 3 सू० 22-25 . अवचूरिः-कर्तरीत्यधिकारः पादान्तं यावत् मुद्यमतया करोतीत्यर्थः / एवं व्यतिहरन्ते, व्यतिवहन्ते सर्बसूत्रेषु ज्ञातव्यः / इदित इकारानुबन्धात्, ङितो ! इत्यस्याप्यर्थः / “प्वादेहस्वः" (4-2-105-) अनेन लू हुकारानुबन्धात् / “3महीङ् पूजायां वृद्धौ च" मही- इत्यस्य लु, "नश्चातः" (4-2-96) इत्यनेन श्नाआकारश्य धातोः “कण्ड्वादेर्यक्" (3-4-8-) इति यक् प्रत्ययः / लुक् / क्रियाव्यतिहारः प्रायेण व्यतिपूर्वकेनैव धातुना वक्ष्यमाण 'सति" (5-2-19-) इत्यादिसूत्रः परस्मैपदा- द्योत्यते / क्वापि अन्योपसर्गायाम् / अत एव संप्रहरन्ते त्मनेपदविशेषरहितानां सामान्येन वर्तमानादिविभक्तीनां संविवहन्त इत्यत्र समृद्र० (?) समतिउपसर्गाभ्यामुदाविधानादात्मनेपदे सिद्धऽपि "इडित" इति नियमार्थ हृदयतेऽत्र शिष्टप्रयोगानुसारो हेतः / अनेकार्थत्वाद कृतम् / प्रत्ययनियमश्चायम् / इङित एव कर्तर्यात्मनेपदं धातूनां वहिरत्र गत्यर्थो ज्ञेयः। व्यावृत्तौ व्यतिलनन्ति भवति / एभ्यः-इङितधातुभ्य आत्मनेपदमेव न प्रत्यया- अत्र लुनातिरुपसंग्रहात्मके लवने वर्तते, उपसंग्रहस्य न्तरं स्यादिति विपरीतनियमो न भवति, "इडितो लवनपूर्वकलाभस्य आत्मा यस्मात् लवनात् , कोऽर्थः ? व्यञ्जनाद्यन्तात्” (५-२-४४-)इत्यादिना सूत्रेण अनप्रत्यय- लवनपूर्वकमादानमित्यर्थः / इत्यस्या व्यावृत्याः परमार्थो स्य करणात् / तथा इङितधातोः कर्तर्येव आत्मनेपद- वृत्तिकारेण चैत्रेण यद् गृहीतमित्याद्यक्षरर्वद्यते / मित्यपि विपरीतनियमो न कल्पनीयः, तत्साप्यानाप्ये- विअतिउपसर्गाभ्यां क्रियाव्यतिहारो . व्यतित्यनेन व्यक्त्यात्मनेपदप्रवृत्तेः // 22 // नैव प्रद्योतितः ततोऽन्योऽन्यादिशब्दाः क्व प्रयुज्यन्ते ? क्रियाव्यतिहारेऽगतिहिंसाशब्दार्थहसो इत्याह अन्योन्यादिभिरिति। तत्कर्म कोर्थः ? क्रियाव्यति हारे कर्मकेदारे लवनं व्यापारमभिसंबध्यते, संयोज्यते हृवहश्वानन्योन्यार्थे / 3 / 3 / 23 // इत्यर्थः। १"तत् साप्यानाप्यांद्"(३-३-२१-)इत्यनेन / वृत्तिः-क्रियाव्यतिहारेऽर्थे वर्तमानाद् गति- | २अनेन मा भूत् इत्यक्षराने यदि हि क्रियाव्यतिहारेऽगतीहिंसाशब्दार्थहसजिताद्धातोह वहिभ्यां च “कर्त्तर्या- त्यनेनात्मनेपदं भावकर्मणोरपि स्यात् तदा व्यतिगम्यते त्मनेपदं" स्यात्, न त्वन्योन्येतरेतरपरस्परशब्दयोगे। ग्रामः, व्यतिहन्यन्ते दस्यवः इत्यत्र '(अ)गतिहिंसाशब्दार्थव्यतिलुनते, व्यतिहरन्ते, व्यतिवहन्ते भारं, संप्रह- हस०" इति प्रतिषेधबलादात्मनेपदं न स्यादित्यक्षराणि रन्ते राजानः, संविवहन्ते वगैः / व्यतिहार इति ज्ञातव्यानि // 23 // किम ? लुनन्ति / क्रियेति किम् ? द्रव्यव्यतिहारे मा भूत् , चैत्रस्य धान्यं व्यतिलुनन्ति, चैत्रेण यद् गृहीतं निविशः / 3 / 3 / 24 // धान्यं पुरस्तात् तल्लवनेनोपसंगृहत्तीत्यर्थः / वृत्तिः-निपूर्वाद्विशः"कर्त्तर्यात्मनेपदं" भवति / गत्यादिवर्जनं किम् ? व्यतिगच्छन्ति,व्यतिहिंसन्ति, निविशते, न्यविशत इत्यटो (अडागमस्य) धात्ववयव्यतिपठन्ति, व्यतिजल्पन्ति, व्यतिहसन्ति / अनन्यो- वत्वान्न व्यवधायकत्वम् / 'मधुनि विशन्ति भृङ्गा अत्र न्यार्थ इति किम् ? अन्योन्यस्य व्यतिलुनन्ति / | निविशोरसंबन्धादनर्थकत्वाञ्च नात्मनेपदम् // 24 // एवं इतरेतरस्य, परस्परस्य लुनन्ति / क्रियाव्यतिहारो व्यतिनैव द्योतित इत्यन्योन्यादिभिस्तत्कर्मा- अवचूरिः–नेः 'परो विश् निविश्, तस्मात्, नि भिसम्बद्ध्यते,यथान्योन्यस्य केदारंव्यतिलुनन्तीति। इत्यस्य विश् इत्यस्य चोभयोः सम्बन्धाभावात् // 24 // कर्तरीत्येव- तेन भावकर्मणोः पूर्वेणैवात्मनेपदं उपसर्गादस्योहो वा / 3 / 3 / 25 // स्यादने न मा भूत् // 23 // वृत्तिः-उपसर्गात्पराभ्यामस्यत्युहिभ्यामात्मनेअवचूरिः-केनापि कर्तु" वाञ्छितायाः क्रियाया | पदं वा स्यात् / विपर्यस्यते,विपर्यस्यति,समूहते,समूभन्येन करणं क्रियाव्यतिहार उच्यते / व्यतिलुनते, - हति। अस्यतेरप्राप्ते ऊहेश्च नित्यं प्राप्ते उभयत्र कोर्थः ? केनापि लवनादिकं वाञ्छितमपरो लवनादिक- | विभाषेयम् / / 2 / / Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मनेपदविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते अवचूरिः--उपसर्गादस्चेतिसूत्रेऽस्थति देवादिकः (2 / 11761) इति षस्य डत्वमपि न भवति, विधान'असूच क्षेपणे' इति गृह्यते, "दिवादेः श्यः" (३-४-६२-)इति सामर्थ्यात् / सर्वत्र 'ईगितः' (3 / 3 / 55 / ) इत्यनेन ईगिश्यनिर्देशात् / तेन 'असक भुवि' इत्यदादिः, 'अषी असी तो धातोः फलवति कर्तर्यात्मनेपदं सिद्धमेबास्ति परगत्यादानयोश्च' इति भ्वादिर्न गृह्यते // 25 // मफलवत्यर्थे आत्मनेपद-सिद्धये योगोऽयम् / अत एव ... उत्स्वरायुजेरयज्ञतत्पात्रे / 3 / 3 / 26 / / व्यावृत्त्युदाहरणेषु सर्वत्र परस्मैपदम् / “२क्रयादेः"(३।४। 96 / ) इत्यनेन श्ना / एषामीयंजनेदः (4 / 2 / 971) इति वृत्तिः–उदः स्वरान्ताच्चोपसर्गात्पराद् युनक्ते ईकारः। बहवो वयः पक्षिणो यत्र वने तद् बहुवि वनम् / रात्मनेपदं स्यात् , यदि यज्ञ यत्तत्पात्रं तद्विषयो ४अपचाव- ह्यस्तनी, “मव्यस्याः" (4 / 2 / 113 / ) इति युज्यर्थो न स्यात्। उद्युङ्क्ते उपयुक्ते / उत्स्वरादिति अकारस्य आ // 27 // किम् ? द्वन्द्व यज्ञपात्राणि प्रयुनक्ति // 26 // परावेर्जेः / 3 / 3 / 28 // अवचूरिः-उत्स्वरायुजेरितिसूत्रे 'युऋपी योगे' इति वृत्तिः–पराविपराज्जयतेः “कर्त्तर्यात्मनेपदं" रुधादिधातु ह्यते, न 'युजिच् समाधौं' इति दैवा स्यात् / पराजयते, विजयते। उपसर्गादित्येव सेना दिकोऽस्य इदित्त्वादात्मनेपदं सिद्धमेवास्ति। युऋपी योगे परा जयति, बहुवि जयति वनम् / / 28 / / ऽस्य ईदित्त्वात् फलवति कर्तरि आत्मनेपदे सिद्धेऽपि अफलवति कर्तरि आत्मनेपदसिद्धयर्थमुत्स्वरादिति सूत्रं 'समः क्ष्णोः / 3 / 3 / 29 // कृतम् / “युऋपीयोगे' उद्युङ्क्ते इत्यादिषु 'इनास्त्यो- वृत्तिः-समः परात् क्ष्णोतेरात्मनेपदं स्यात् / लुक्' (4-2-90-) इत्यनेन इनसम्बन्धिनोऽकारस्य लुक् संक्ष्णुते शस्त्रम् // 26 // // 26 // अवचूरिः- 'ननु “समोगमृच्छि०" (3-3-84-) परिव्यवात् 'क्रियः / 3 / 3 / 27 // इत्यत्र णग्रहणं क्रियतां किमत्र पृथगारम्भेण ? नवं, वृत्तिः–परि, वि, अव (इत्येतेभ्य) उपसर्गेभ्यः / समोगमी (मि)त्यत्र कर्मण्यसति आत्मनेपदविधिः,इह तु सकपरात् क्रीणातरात्मनेपदं स्यात् / परिक्रीणीते, मणोऽपि भवति इति भावः // 29 // २विक्रीणीते, अवक्रीणीते / उपसर्गादित्येव उपरि अपस्किरः / 3 / 3 / 30 // क्रीणाति, बहुवि क्रीणाति वनम् , “अपचाव क्रीणीवः वृत्तिः-अपपूर्वात् किरतेः सस्सटकाकर्तर्यात्मने॥२७॥ पदं स्यात् / अपस्किरते वृषभो हृषः,अपस्किरते कुक्कुटो अवचूरिः-१परिव्यवात्क्रियः, अत्र इयादेशविषये भक्ष्यार्थी,अपस्किरते श्वा आश्रयार्थी। सस्सटादित्येव युक्तिलिख्यते- क्रीइत्यनुकरणमनुकार्येणार्थेन कृत्वाऽर्थ- अपकिरति वृषभः // 30 // वत् सार्थकम् “अधातुविभक्तिवाक्यमर्थवन्नाम" (1 / 1 / 27 / ) अवधरिः- "अपाश्चतुष्पात्पक्षिशुनि हृष्यनाथायार्थे" इति वचनादर्थवच्छब्दो नामसंज्ञं भवति / नामसंज्ञ (4 / 4 / 95 / ) इति स्सट् / स्त्रियमाणः सन् (?) // 30 // त्वात् क्रीरूपानुकरणात् स्यादिङसिः, "प्रकृतिवदनुकरणम् इति न्यायाञ्चधातुकार्यम् इयादेशः सिद्धः। वत् करणात् सर्वथा उदश्वरः साप्यात // 3 // 3 // 31 // धातुत्वाभावादनुकरणान्न त्यादयः / प्रकृतिवदनुकरण- ___वृत्ति –उत्पूर्वाञ्चरते: साप्यात् (कोऽर्थः ?) मिति ज्ञापकादेव अनुकरणे प्रकृतिवत् कार्य भवति / सकर्मकाकर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात्। मार्गमुच्चरते,व्युत्क्रम्य तेन मुनी इत्याह द्विष्पचतीत्याह इत्यादौ"ईदूदेद् द्विवचनम्". गच्छतीत्यर्थः। 'ग्रासमुञ्चरते, उद इति किम् ? चार (1 / 2 / 33 / ) इत्यनेन प्रकृतिभावः (असन्धिरित्यर्थः)। चरति / साप्यादिति किम ? धूम उच्चरति-ऊर्ध्व "सुचोवा"(२।३।१०१)इत्यनेन षत्व-विकल्पः,'घटस्तृतीयः' / गच्छतीत्यर्थः // 31 // Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने [अ०३पा० 3 सू० 32-38 अवचूरिः- प्रासमुच्चरते भक्षयतीत्यर्थः, पशुभक्ष्यं / इति वाचा / तवाङ्गमिदं पादौ वा स्पृशामि यद्यहं गतिविशेषं वा // 31 // अमुकं कार्य करोमि करिष्यामीतिशपथैः परं प्रत्यायतीति समस्तृतीयया / 3 / 3 / 32 // द्वितीयोऽर्थः / अथवा प्रोषितस्य देशान्तरगतस्य भावा भावोपलब्धौ कस्यचिदर्थस्यानुरूपस्य यद् विधानं तत् वृत्तिः-समः पराञ्चरतेस्तृतीयान्तेन योगे सति उपलम्भनमुच्यते / मैत्राय शपते इति कोर्थः? प्रोषितमंत्रस्य कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् / अश्वेन संचरते,रथेन सञ्चरते भावेऽभावे वा स्वरूपे ज्ञाते सति भावाभावविषयानुरूपां तृतीययेति किम् ? 'उभौ लोकौ सञ्चरसि इमें चामु कामपि चेष्टां परस्याने दर्शयतीत्यर्थः / इति तृतीयोऽर्थः। 'च देवल। (देवल नारद) // 32 // उपलम्भनं-प्रकाशनं, शपथो वा इति // 35 // . अवचूरिः- मनुष्यस्वर्गलोकौअयं लोकः परैलोकः / आशिषि नाथः / 3 / 3 / 36 // ४हे नारद ! // 32 // वृत्ति:-आशिष्येवार्थे नाथतेः कर्तर्यात्मनेपदं क्रीडोऽकूजने / 3 / 3 / 33 // स्यात्। सप्पिषो नाथते, सर्पिमें भूयादित्याशास्ते वृत्तिः-कूजनमव्यक्तशब्दस्ततोऽन्यस्मिन्नर्थे इत्यर्थः / आशिष्येवेति नियमः किम् ? याञ्चायां संपूर्वात् क्रीडे: कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् / संक्रीडते, मा भूत् , मधु नाथति // 36 / / . संक्रीडमानः, रमते इत्यर्थ / अकूजन इति किम् ? अवचूरिः- नाथूङ उपतापेश्वर्याशीःषु च इत्यत्र संक्रीडन्ति शकटानि, अव्यक्तं शब्दं कुर्वन्तीत्यर्थ: डितः *करणमनप्रत्ययस्य विधानार्थम् // 36 // // 33 // अवचूरिः-व्यक्तशब्देर्थे (?) // 33 // भुनजोऽत्राणे / 3 / 3 / 37 // अन्वाङपरेः / 3 / 3 // 34 // वृत्तिः–त्राणात पालनादन्यस्मिन्नर्थे भुनक्तेः कर्त्तयां मनेपदं भवति / ओदनं भुङ क्ते,उपभुक्ते। वृति:-अन्वाङपरिपरात् क्रीडेः कर्त्तर्यात्मनेपदं अत्राण इति किम् ? पृथिवीं भुनक्ति / / 37 / / स्यात्। अनुक्रीडते, आक्रीडते,परिक्रीडते। उपसर्गेश्य इति किम् ? माणवकमनुक्रीडति [ हेतुसहार्थेऽनुना' ___ अवधूरिः-सूत्रे भुनज् इति भनिर्देशो "भुजोंत् (2-2-38) इति द्वितीया माणवकेन सह क्रीडती- कौटिल्ये' इति तौदादिकभुधातोनिवृत्त्यर्थः / ननु त्यर्थः // 34 // "निरनुबन्धुग्रहणे न सानुबन्धस्ये" तिन्यायादेव तुदादिभुजो शप उपलम्भने / 3 / 3 / 3 // (ग्रहणं) न भविष्यति ? सत्यम्, व्यक्तिव्याल्याने स्यात्, अथवा न्यायानामप्यनित्यत्वात् / भुज्तौदादिकस्य ओष्ठौ वृत्तिः–'उपलम्भनेऽर्थे शपतेः कर्तर्यात्मने नि जति कुटिलयतीत्यर्थः। परिभागेऽर्थे (?) "रुधां स्वपदं स्यात् / मैत्राय शपते / उपलम्भन इति किम् मैत्रं राच्श्नो न लुक् च" (3-4-82-) इत्यनेन धातुविचाले शपति, आक्रोशतीत्यर्थः // 35 // (?) श्न,श्नास्त्योलक (4-2-90-) इत्यनेन इन इत्यउपलम्भनं-प्रकाशनं, ज्ञापनमित्यर्थः / मंत्राय स्याकारलोपः / पालयतीत्यर्थः // 37 // शपते [ श्लाघ-ह्न-स्था-शपा प्रयोज्ये' (2-2-60) इति हगो 'गतताच्छील्ये / 3 / 3 / 38 // चतुर्थी] इति कोर्थः? मैत्रं मैत्रस्य वा किंचिदर्थ बोधयति वृत्तिः-हरतेर्गतताच्छील्येर्थे प्रकारताच्छीज्ञापयतीत्यर्थः। अथवा स्वाभिप्रायस्य परस्याग्रे आविष्करणं ल्येऽर्थे कर्तर्यात्मानेपदं स्यात् / पैतृ कमश्वा अनुप्रकटनमुपलम्भनमुच्यते / शपथः कृत्वा परप्रत्यायनमिति हरन्ते, “क्रियाविशेषणाद्" (2-2-41-) इत्यनेन यावत् / मैत्राय शपते इति कोऽर्थः ? वाचा शरीराङ्गस्पर्शनेन वा मैत्रं स्वाभिप्रायं संबोधयति / गुरु शपथामि / *"इङितो व्यञ्जनाद्यन्तातू" [1 / 2 / 44] इत्यनेन सूत्रेण / Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मनेपदविधानम् मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते अम्, मातृकं गावोऽनुहरन्ते, एवं पितुरनुहरते, "मातु- रति, कोऽर्थः ? चोरयतीत्यर्थः / ताच्छील्यमात्रमत्राप्यस्ति रनुहरते, पितरमनुहरते, मातरमनुहरते / यद्वा चोरस्वभावात्तस्यातत्सादृश्यगतं वहिः (?) / 'नटो हि गतेन गमेन ताच्छील्यम् गतताच्छील्यम्, गतताच्छी- किञ्चिदेव (कञ्चिदेव) कालं राममनुहरति-राममनुकरोति, ल्ये वर्तमानाद्वरतेरात्मनेपदं ( भवति ) / पैतृकमश्वा न सर्वकालमिति न भवति // 38 // अनुहरन्ते, पितुरागतं गमनमविच्छेदेन शीलयन्ती पूजाचार्यकमृत्युत्क्षेपज्ञानविगणनव्यये त्यर्थः / अथवागते-गमने ताच्छील्ये च वर्तमानाद्धरतेरात्मनेपदं, पैतृकमश्वा अनुहरन्ते, तद्वद् गच्छन्ति / नियः / 3 / 3 / 3 / / गतग्रहणं किम् ? *पितुर्हरति / ताच्छील्यमिति किम्? ___ वृत्तिः--पूजाचार्यकादिषु गम्यमानेषु नयतेः 'नटो राममनुहरति // 38 // कतर्यात्मनेपदं स्थात् / पूजा, 'नयते विद्वान् स्याद्वादे / आचार्यकम्, माणवकमुपनयते / भृतिअवचूरिः- 'गम्यते-ज्ञायते सदृशतया कर्म(इति) व्युत्प- तनम्, कर्मकरानुपनयते / उत्क्षेप ऊर्ध्व नयनम् ,शिशुत्या सादृश्य-गतम् / गतं च तद् गतेन वा ताच्छील्यं गतता- मुदानयते, उत्क्षिपतीत्यर्थः, उत्पाटयति वा / ज्ञानम् , च्छील्यं, तस्मिन् / गतं, 'प्रकारः, सादृश्यमनुकरणमित्ये-नयते तत्त्वार्थे। विगणनम,मद्राः कारं विनयन्ते। व्ययः, कोऽर्थः / तत् शीलमस्य तच्छीलः, तच्छीलस्य भावस्ता- शतं विनयते / गित्त्वादफलवदर्थ आरंभः // 34 // च्छील्यम्, कोऽर्थ.? उत्पत्तेः प्रभृत्याविनाशात तत्स्वभावतेत्यर्थः। यद्वा इत्यादि-गमनं गतमुच्यते / तस्य पित्रादेः शील अवचूरि:-"नयते विद्वान् स्याद्वादे," कोऽर्थः? विद्वान् मस्य तच्छोलः, तच्छीलस्य भावस्ताच्छील्यम् / ततो गतेन- प्रमाणव्यापारवित् स्याद्वादे-जिनशासनविषये जीवादीन् गमनेन कृत्वा ताच्छील्यं, तस्मिन् / २एवं पितुरनुहरते, पदार्थान् युक्तिभिः स्थिरीकृत्य शिष्यबुद्धि प्रापयति, शिष्या पितरमनुहरते इत्यपि ज्ञातव्यम् / शब्दशक्तिस्वाभाव्यादनूप धुक्तिभि: स्थिरीकृताः पूजिता मवन्तीति पूजा गम्यते / सर्गपूर्वक एव हरतिधातुर्गतताच्छील्येऽर्थे वर्तत इति उदा तथा "आचार्यस्य भावः कर्म वा आचार्यकम्", "योपाहरणे "अनुहरते” इति दशितम् / पितुरागतं पैतृकम्, मातु न्त्याद्गुरूपोत्तमादसुप्रख्यादकञ्" ( 7-1-72 ) इति सूत्रण रागतं मातृकं, "ऋत इकण्" ( 6-3-152- ) इति अकञ् / माणवकमुपनयतेऽस्य कोऽर्थः ? स्वयमाचार्यों इकण, "ऋवर्णोवर्णदोसिसुसशश्वदकस्मात्त इकस्येतो लक" भवन्माणवकं छात्रमध्ययनायात्मसमीपं प्रापयतीत्यर्थः / * (7--4--71 ) इत्यनेन इकण इकारलोपः कोऽर्थः ? "तथा भृतिवेतनं, कर्मकरानुपनयते, वेतनेनात्मसमीपं प्रापपितुरागतं, मानुरागतं गुणविषयं क्रियाविषयं वा सादृश्यमवि यतीत्यर्थः, "उत्क्षेपः ऊर्ध्व नयनम्, शिशुमुदानयते, उत्क्षिपकलमश्वा गावः ( वा ) शीलयन्ति, प्रकटयन्तीत्यर्थः / / तीत्यर्थः, उत्पाटयति वा / तथा 'ज्ञानं ज्ञेयपदार्थनिश्चयः, तथा "५मातुरनहरते. पितरनहरते' अत्र कथं षष्ठी ? नयते तत्वार्थे, तत्वार्थविषये ज्ञानं प्रकाशयतीत्यर्थः। विगउच्यते. प्रकारानकारसादयानामेकायऽपि निम्या जनमृणादेः शोधनं, मद्रा: कारेति ( कारं विनयन्ते इति ) भाव्यात् सा दृश्ये कर्म नास्ति इति हेतोः पितुरनुहरते, मातु मद्राः मद्रदेशजा नरा राजग्राह्य भागं दानेन शोधयन्तीरनुहरते अत्र संबन्धे षष्ठी भवति / यत्र तु पैतकं, मातृक त्यर्थः / व्ययो धर्मादिषु द्रव्यव्यापारणम्, शतं विनयते, मिति द्वितीया तत्र प्रकारानुकारार्थो विवक्षित इति भावः। धर्मादिकार्य तीर्थादिषु शतसहस्रद्रव्याणि व्यापारयतीत्यर्थः एवं पितुरनुहरते, पितरमनुहरते, इत्यपि ज्ञेयम् / तद् / १०णीधातोर्गकारानुबन्धत्वादात्मनेपदे * सिद्धेऽपि / / 39 // गच्छन्ति, कोऽर्थः ? पितुरागतं यथा भवत्येवं गच्छन्ति, कत स्थामूत्तोप्यात् / 3 / 3 / 40 / / पितवद् गच्छन्तीत्यर्थः / अथवा तद्वत्छीलन्तीत्यर्थः / पित- वृत्ति;-कर्तृ स्थममर्तमाप्यं कर्म यस्य नयतेः तस्मा वदाचरन्ते सर्वमिति भावः / व्यावृत्त्युदाहरणे पितुर्ह- नयतेः कर्त्तयात्मनेपदं स्यात् / श्रमं विनयते, क्रोधं ★णीधातोर्गकारानुबन्धत्वादात्मनेपदे सिद्धेऽपि "पूजाचार्य" इत्यादि सूत्रारम्भोऽफलवदर्थ इत्यर्थः। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने [अ०३ पा० 3 सू०४१-४७ विनयते, शमयतीत्यर्थः ।कर्तृस्थ इति किम् / चैत्रो मैत्रस्य | अरोचिष्ट // 44 // मन्यु शोकं वा विनयति / अमूर्तेति किम् ? गईं विनयति / आप्येति किम् ? बुद्धया विनयति // 40 // अवचूरिः-बहुवचनं गणार्थम् / धुति रुचि घुटिरुटि नुटि" लुठि 6 श्विताङ् जिमिदाङ् शिक्ष्विदाङ् मिष्वि___ शदेः शिति / 3 / 3 / 41 / / दाङ्' शुभि११ क्षुभि 2 णभि3 तुमि१४ सम्मूङ१५ वृत्तिः-शदेः शिद्वषयात्कतर्यात्मनेपदं स्यात् / / भ्रसूङ् 16 संसूङ१७ध्वसूङ 8 वृतूङ्१९ स्यन्दौर वृधू' शीयते / शितीति किम् ? शत्स्यति // 41 / / शृङ२२ कृपौङ२३ एते धुतादिधातवः / बुतादिगणप्रान्ते ___ अवरिः-'शोयते',शद्लशातने, वर्तमाना, शव, श्रौति- वृतादिधातुपञ्चकः ( ? कं)ज्ञातव्यम् / धुतादिभ्य. आत्मकुखु. (4-8-108 ) इत्यादिना शीय इत्यादेशः // 41 // / नेपदे प्राप्तेऽपि विभाषेयम् व्यधुतत् ( इति ) अत्र “लुदि__ म्रियतेरद्यतन्याशिषि च / 3 / 3 / 42 / / | दुधुतादिपुष्यादेः परस्मै" ( 3 / 4 / 64 ) इति अङ्, एव मरुचत् // 44 // वृत्तिः-म्रियतेरद्यतन्याशीविषयाच्छिद्विषयाच्च कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् / 'अमृत, मृषीष्ट, म्रियते / तिव वृद्भयः स्यसनोः / / 3 / 4 // निर्देशाद् या लुपि न भवति, मर्मतिं // 42 // वृत्तिः-वृतादेः पञ्चतः स्यकारादिप्रत्ययवि - षये सन्प्रत्ययविषये च कर्तर्यात्मनेपदं वा स्यात् / अवचूरि:--मृत् प्राणत्यागे, मृ, अद्यतनीत, सिच्, | वर्त्यति, वर्तिष्यते, विवृत्सति, विवर्तिषते // 4 // 'धुहस्वाल्लुगनिटस्तथोः' ( 4-3-70 ) इति सिच् लुप्यते, ब्रियतेऽत्र वर्तमानाते, "तुदादेः शः" ( 3.4811) इति | अवचूरि:-बहुवचनं गणार्थम् / (वृद्भयः)स्यसनोः (इति) शः, "रिः शक्याशीर्ये'( 413 / 110 // ) इति ऋकारस्य रिः, इदम् नित्यमेवात्मनेपदे प्राप्तेऽपि, विभाषार्थ कृतम् / वृतङ, 'धातोरिवर्णो.' (2111501) इति इय, एवं म्रियते, वत्स्यति, वतिष्यते, अवय॑त्, अवतिष्यत्, वय॑न्. वतिष्यनियताम्, अम्रियत // 42 // .. माणः,विवृत्सति,विवतिषते / एवं स्वन्दौङ्,स्यन्त्स्यति, स्यन्दि ष्यते सिस्यन्त्सति, सिन्दिषते / वृधूङ्, वस्य॑ति, वद्धिष्यते, क्यो नवा / 3 / 3 / 43 // विवृत्सति, विद्धिषते / तथा धूङ, शत्यति, शद्धिय॑ते, वृत्तिः-क्यमन्ताद्धातोः कर्त्तर्यात्मनेपदं वा स्यात्। शिश॒त्सति, शिद्धिषते / कृपौङ्, कल्प्स्यति, कल्पिष्यते, पटपटायते, पटपटायति, निद्रायते, निद्रायति // 43 // चिक्लप्सति, चिकल्पिषते / इति वृताधुवाहरणावली // 45 // कृपः श्वस्तन्याम्।३।३।४६।। ___अवचूरि:--पटत (?) अपटत् पटद्भवति ( इतिपटपटायते ) "अव्यक्तानुकरणादनेकस्वरात् कृस्वस्तिनानितौ वृत्तिः--कृपेः श्वस्तनीविषये कर्तर्यात्मनेपदं वा विश्न" (7 / 2 / 145) इति सूत्रेण डाच् द्विवचनं च, 'पटत्- | स्यात् / कल्लासि, कल्पितासे // 46 // पटत्, 'डाच्यादौ' (7 / 2 / 149) इत्यनेनाभ्यासेऽत् लुप्यते , क्रमोऽनुपसर्गात् / 3 / 3 / 47|| . 'डित्यन्त्यस्वरादेः' (2111114 ) इति अन्त्यस्वरादिलोप:, 'डाच्लोहितादिभ्यः पित्' ( 3 / 4 / 30 ) इति क्य, स च ' वृत्तिः--उपसर्गवर्जितात् क्रमेः कर्त्तर्यात्मनेपदं 'षित' / अनिद्रा निद्रा भवति, अत्राप्यनेन क्या // 43 // वा स्यात् / क्रमते, कामति, "क्रमो दीर्घः परस्म" धुद्भयोऽद्यतन्याम् / 3 / 3 / 44 // ( 4 2 / 106 / / इति दीर्घः ) अनुपसर्गादिति किम् ? संक्रामति // 47 // वृत्तिः--द्यु तादिधातुभ्योऽद्यतनीविषये कर्त्तत्मिनेपदं वा स्यात् / व्या तत्, व्यद्योतिष्ट, अरुचत्, | अवचूरिः-वक्ष्यमाणवृत्तिसप्रेत्याविसूत्रपञ्चकप्राप्ति Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मनेपदविधानम्] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते [11 विषयादन्यत्र "क्रमोऽनुपसर्गात्" इति सूत्रं प्रवर्तते। , क्रमेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् / साधु विक्रमते गजः / सोपसर्गक्रमेवृत्यादिसूत्रपञ्चकरात्मनेपदम्, निरुपसर्गा- | स्वार्थ इति किम् ? अश्वन २विक्रामति // 50 / / चक्रमेः क्रमोऽनुपसर्ग (गात्) इत्यनेनैव विकल्पेनात्मनेपदं भवति / अप्राप्ते विभाषा // 47 // अवचूरिः-स्वार्थे इति किम् ? इत्यस्यायं भाव: कर्तृ कृते स्वार्थयात्मनेपदं भवति, न करणकृते परकृते वृत्तिसर्गतायने / 3 / 3 / 48 // स्वार्थयात्मनेपदं भवति / नन्वश्वेन विक्रामतीत्यत्र पाद____ वृत्तिः -- 'वेति निवृतम् / त्यत्तदिष्वर्थेषु क्रमः विक्षेप एव क्रमिवर्तते, स च पादविक्षेपः कर्तृकृतः करकर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् / वृत्तिः अप्रतिबन्धः आत्मया- णकृतो वा भवतु ? सत्यम्, “गौणमुख्ययोमुख्य कार्य" पनं वा, शास्त्रेऽस्य क्रमते बुद्धिः, शास्त्रे न प्रतिह- मिति न्यायात् सर्वकारकप्रधानभूतकर्तृत एव गृह्यते / न्यते आत्मानं यापयति वेत्यर्थः / सर्गः-उत्साहः अत्र तु करणकृतः पादविक्षेप इति नात्रात्मनेपदम् / तथा चेष्टागम्यः, तात्पर्य क्रियागम्यं वा, सूत्राय क्रमते, | विक्रामति राजा, उत्सहते इत्यर्थः / अत्र परोपादेवेति तत्परो वा अनुज्ञातो वा सूत्राथमुत्सहते / तायन- नियमात् वृत्तिसप्रेत्यादिनाप्यात्मनेपदं न भवति // 50 // स्फीतता,संतानः पालनं वा, क्रमन्तेऽस्मिन् योगाः प्रोपादारम्भे / 3 / 3 / 51 / / समाधयः / “वृत्त्यादिष्विति किम् ? कामति / / 4 / / वृत्तिः- १आरम्भार्थात् प्रोपाभ्यां परात् क्रमेः अवचूरिः- 'व्यावृत्तेर्व्यवच्छेद्याभावात् अर्थवि- | कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् / प्रक्रमते, उपक्रमते भोक्त, शेषोपादानाद्वा वा इति निवृत्तम् / "२भामा सत्यभामा" प्रारभते अङ्गीकरोति वेत्यर्थः / आरम्भ इति किम् ? . "भीमो भीमसेनः' इतिवन् सर्गेणाऽतिसर्गशब्दस्य लक्ष प्रक्रामति, यातीत्यर्थः / 2 उपक्रामति समीप यातीणादनुज्ञा वोच्यते, अनेकार्थत्वाद्धातूनाम् / क्रमन्तेऽ- त्यथः / / 5 / / स्मिन् योगाः, कोऽर्थः? स्फीता भवन्ति योगाः, ( यद्वा ) संतन्यन्ते-संतानेन प्रवर्तन्ते, अथवा पाल्यन्तेऽस्मिन् विषये ____ अवचूरिः- 'बहूनां क्रियाणामाद्यमनुष्ठानमादौ कगुरुणा योगाः, रक्ष्यन्ते इत्यर्थः / वृत्त्यादिष्वित्येव-परा र्तव्यमारम्भ उच्यते, आदिकर्म इति पर्यायः, आदिकक्रामति-परावृत्त्या कामति,शौर्य वा कुरुते समीपे गच्छति र्थेि वर्तमानात्क्रमेकर्तरि (आत्मनेपदं भवतीत्यर्थः) / २उपक्रामतीत्यत्र परोपादित्येनेनापि नात्मनेपदं, वृत्त्यावेत्यर्थः // 48 // देरर्थस्याऽविवक्षितत्वात् // 51 // परोपात 3 / 3 / 46 // . आडो ज्योतिरुद्गमे / 3 / 3 / 52 // वृत्तिः--परोपाभ्यामेव पराक्रमेच्याद्यर्थेषु वृत्तिः-आङः परात्क्रमः ज्योतिषां चन्द्रादीनाकर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् / पराक्रमते, उपक्रमते / परो मुद्गमे (उदये) वर्तमानाकर्तर्यात्मनेपदं स्यात् / पादिति किम् ? अनुक्रामति / वृत्त्यादिषु त्वन्योपस आक्रमते चन्द्रः सूर्यो वा, उदयते इत्यर्थः, ऊँअयि र्गपूर्वादपि पूर्वेण सूत्रेण मन्यन्ते / निष्क्रमते, प्रति वयि धातुः / ज्योतिरुद्गम इति किम् ? आक्रामति क्रमते, न प्रतिहन्यते इत्यर्थः // 46 / / माणवक: कुतुपम्, (दर्भम् / अवष्टभ्नातीत्यर्थः / . अवचूरिः—पूर्वेण सिद्धेऽपि नियमार्थमित्याह-परो- धूम आक्रामति, हर्म्यतलमुद्गच्छन् व्याप्नोतीपाभ्यामेव // 49 // त्यर्थः // 52 // वेः स्वार्थे / 3 / 3150 // ___ अवचूरिः--तलशब्दः स्वरूपार्थः, यथा नभस्तलं वृत्तिः-स्वार्थः पादविक्षेपः / स्वार्थे विपूर्वात् / तथा हर्म्यमेव (हर्म्यतलम्) // 52 // .'उदयते' इत्यत्र अयिवयीत्यादिगणप्रविष्टः अयि धातुरित्यर्थः / Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने [अ०३ पा०३ सू०५३-५६ दागोऽस्वास्यप्रसारविकासे / 3 / 3 / 53 / / / गमेः प्रयोगो दशितः / आगच्छन्तं प्रयुक्त आगमयति, अथवा-"णिज् बहुलं नाम्नः कृगादिषु" ( 3-4-42 वृत्तिः-स्वास्यप्रसारविकासाभ्यामन्यादाङ इति सूत्रेण) आगमं गृह्णाति (इति) णिच् // 55 // पूर्वाददातेः कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् / विद्यामादत्ते, धनमादत्त,स्वास्यादिवर्जनं किम् ? उष्ट्रो मुखं व्याद ह्वः स्पर्द्ध / 3 / 3 / 56 / / दाति प्रसारयतीत्यर्थः / *विपादिका व्याददाति, वृत्ति-आङ पूर्वाद् ह्वयतेः कर्त्तात्मनेपदं स्यात्, विकसतीत्यर्थः। फलवतोऽन्यत्रायं विधिः।।५३।। स्पर्द्ध गम्यमाने / मल्लो मल्लमाह्वयते, स्पर्द्धमान आकारयतीत्यर्थः / स्पर्द्ध इति किम् ? गामाह्वअवचूरिः-प्रसारः ( इति ) कोऽर्थः ? प्रसारणं, यति // 56 // प्रयोजकव्यापारः, प्रसरन्तं प्रयुक्त इति परिणा (हः) अवचूरि:-'स्पर्द्ध-संघर्षः, पराभिभव , पराभवविकासश्च कर्तृव्यापार इत्यनयोर्भेदोऽयम् / स्वग्रहणं करणे वाञ्छा वा,स स्पों धात्वर्थस्य विशेषणम्, धात्वकिम्? व्याददते पिपीलिकाः पतङ्गस्य मुखम् // 53 // र्थश्च स्वभावादापूर्वकस्य ह्वयतेः शब्द एव / ( अतः ) नुप्रच्छः।३।३।५४॥ स्पर्धापूर्वकेन शब्देन आकारणम् ( स्पर्द्धः ), तस्मिन् वृत्तिः-आठ पूर्वान्नौतेः प्रच्छेश्च कर्तर्यात्मने गम्यमाने / हग् स्पर्दाशब्दयोरितिपाठे सत्यपि आपूर्व कस्यैव ह्वयते: स्वभावात् शब्द एव वृत्तिरिति स्पर्द्ध: शब्द पदं स्यात् / आनुते शृगालः,आपृच्छते गुरून् // 54 // स्यैव धात्वर्थस्य विशेषणं घटते इति भावः // 56 // अवचूरिः—आनुते शृगालः ( इति ) कोऽर्थः ? संनिवेः / 3 / 3 / 57 // शृगालो जन्तुक उत्कण्ठित: सन् शब्दं करोतीत्यर्थः / वृत्तिः 'संनिविभ्यः पराद् ह्वयतेः कर्तर्यात्मउत्कण्ठापूर्वके संशब्दने नौतेश्य विधिः, न सर्वत्र / प्रच्छि- नेपदं स्यात् / संह्वयते, निह्वयते, विह्वयते / / 57 / / धातोरपि संबन्धिनो गुरोरेव प्रश्ने सत्यात्मनेपदविधिः, न प्रवाहतः सर्वत्र / एवमापृच्छस्व प्रियसखम् // 54 // उपात् / 3 / 3 / 58 // वृत्तिः–उपपराद् ह्वयतेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् / गमेः क्षान्तौ / 3 / 3 / 55 // उपह्वयते / योगविभाग उत्तरार्थः / / 58 / / वृत्तिः-क्षान्तिः कालहरणम् / क्षान्त्यर्थे साम यमः स्वीकारे / 3 / 3 / 56 / / ादाढ पूर्वाद् गमयतेः कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् ।आग ___ वृत्तिः-यमं उपरमे, उपाद्यमेः स्वीकारेऽर्थे मयते गुरून्, कञ्चित्कालं प्रतीक्षते ( एवम् आगमयस्व तावत् / क्षान्ताविति किम्? आगमयति विद्यां, वर्तमानात् कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् / कन्यामुपयच्छते अङ्गीकरोति, उपायंस्त महास्त्राणि / च्विनिर्देशः गृह्णातीत्यर्थः / / 5 / / किम् ? शाटकानुपयच्छति / 56|| अवचूरि:--भान्तावर्थे स्वभावात् गमिधातुः आङ्- अवचूरि:--'उपायंस्त',अत्राद्यतनी, आत्मनेपदं, त, पूर्वो ण्यन्त एव वर्तते. अत एव उदाहरणे आङ्पूर्वण्यन्त- | सिच् / यमः स्वीकारे" इत्यत्र अस्वं स्वं क्रियत इति ★पादसातो गण्डः, तथा चोक्तममिधानचिन्तामणौ- पादस्फोटो विपादिका' इति / अत्र "यमः स्वीकारे" इत्यादिपाठोऽसंगतः प्रतिभाति / अत्र हि आत्मीयत्वेन निर्जातस्य यदग्रहणं तत्स्वीकार इत्युच्यते" इत्युक्त, परं तदयुक्त, यतो यदि स्वखेन निर्मातस्य यग्रहणं तत्स्वीकार इत्युच्येत Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मनेपदविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते [ 13 * स्वीकार शब्दरस्य नेयं व्युत्पत्तिः, किन्त्वात्मीयत्वेन मन्त्रकरणः // 6 // स्वत्वेन निर्मातस्य व (य) द्ग्रहणं तत्स्वीकार इत्युच्यते वा लिप्सायाम् / 3 / 3 / 61 // इति शाटकानुपयच्छति (इति) अत्र नात्मनेपदम् // 59 / / वृत्ति.-उपात् तिष्ठतेर्लिप्सायां गम्यामानायाम् देवार्चा-मैत्री-संगम-पथिक कर्त्तर्यात्मनेपदं वा स्यात् / भिक्षदोतृकुलमुपतिष्ठते तक-मन्त्रकरणे स्थः / 3 / 3 / 60 // उपतिष्ठति वा भिक्षां लभेयेति // 6 // वृत्तिः एष्वर्थेषु (वर्तमानात् ) उपपूर्वात्- अवचरिः-अथवा भिक्षको दातकूलमुपतिष्ठते तिष्ठतेः कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् / देवार्चायां, जिनेन्द्र- उपतिष्ठति वा, तत्र भिक्षुरेव भिक्षुकः, 'यावादिभ्यः मुपतिष्ठते / *"मैत्र्याम्, महामात्रान् (प्रधानपुरु- कः' ( 7-3-15 इत्यनेन स्वार्थे कप्रत्ययः ) // 61 // पान ) अतिष्ठते / संगमे ( सम्बन्धे ), यमुना गङ्गामुपतिष्ठते / पन्थाः कर्ता यस्यार्थस्य स पथि उदोऽनूव॑हे / 3 / 3 / 62 / / कर्तृकः, अयं पन्थाः सुध्नमुपतिष्ठते / मन्त्रकरणे,- वृत्तिः-अनू; यः इहश्चेष्टा तत्र वर्तमासावित्र्या सूर्यमुपतिष्ठते, आराधयतीत्यर्थः // 60 // नादुदः परात्तिष्ठतेः कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् / मुक्ता वृत्तिष्ठते, मुक्त्यर्थं चेष्टत इत्यर्थः / अनूर्ध्व इति अवचूरिः- मित्रतया मित्रं वा कर्तुमाचरणं संश्ल. किम् ? आसनादुत्तिष्ठति / ईह इति किम् ? ग्रामाषेण विनापि हि मंत्र्युच्यते, (सा) उपस्थापनस्य-आरा च्छतमुत्तिष्ठति, उत्पद्यते इत्यर्थः / / 2 / / धनस्य हेतु फलं वा / महामात्रानुपतिष्ठते ( इति ) कोऽर्थः ? मैत्र्या हेतुना फलेन वाऽऽराधयतीत्यर्थः / * उप- अवचूरिः-न ऊर्ध्वः अनूर्ध्वः, अनू+श्वासावीहतिष्ठते इत्यस्यायं विशेषः श्वाइँहः-प्राणिधर्मः, तस्मिन् // 62 // 'बहूनामप्यचित्तानामेको भवति चितवान् / संविप्रावात् / 3 / 3 / 63 // पश्यवानरसंघेऽस्मिन् यदर्कमुपतिष्ठते' // 1 // यदा तु नेयं देवपूजाऽपि तु चापलमिति विवक्षितं वृत्तिः-एभ्यः परात्तिष्ठतेः कर्तर्यात्मनेपदं - तदा नात्मनेपदं भवति। स्यात् / संतिष्ठते, वितिष्ठते, प्रतिष्ठते, अवति ष्ठते // 63 / / "मवं मंस्थाः सचित्तोयमेषोऽपि हि यथा वयम् / एतदप्यस्य कापेयं यदर्कमुपतिष्ठति" // 2 // ज्ञीप्सास्थये / 3 / 3 / 64 // कपेर्भावः कापेयः, (यम्) "कपिज्ञातेरेयण" (7-1-65) वृत्तिः- ज्ञीप्सायां स्थेयार्थे च वर्तमानात स्थः ( इति 'एयण'-प्रत्ययः ) २मन्त्रः करणं यस्य अर्थस्य स - कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् / तिष्ठते कन्या च्छात्रेभ्यः, शाटकानुपयच्छतीत्यत्रात्मनेपदप्रसङ्गः, शाटकानां स्वत्वेन नितित्वाद् / कन्यामुपच्छते इत्यत्र च परस्मैपदप्रसंगः, कन्यायाः स्वत्वेन नितित्वाभावाद / अत्र संगतपाठस्त्वस्माकमयं प्रतिभाति, तद्यथा-यमः स्वीकारे इत्यत्रास्वं स्वं क्रियते इति स्वीकारशब्दस्य व्युत्पत्तिः / ततः शाटकानुपयच्छतीत्यत्र नात्मनेपदम्, अत्र नास्वं स्वं क्रियते किन्तु स्वत्वेन निर्जातस्य ग्रहणम् / अस्मिन् विषये बृहवृत्तिपाठ एवम्-"विनिर्देशः किम् ? शाटकानुपयच्छति / नाऽत्रास्वं स्वं क्रियते, स्वत्वेत निर्जातस्य तु प्रहणमिति न भवति" / यदि शेमुषीधनानां निदिष्टावचूरिपाठः संगतः प्रतिभायात तहि संसूचनीयोऽहम् / संशोधक:-मुनिराजशेखरविजयः। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने [अ०३ पा० 3 सू० 65-71 स्वाभिप्रायप्रकाशनेन कन्यात्मानं रोचयतीत्यर्थः / अवचूरिः--गिर इत्येव-अवगृणाति // 6 // त्वयि तिष्ठते विवादः // 14 // निह्नवे ज्ञः।३।३।६८॥ अवचूरिः-परपरितोषार्थमात्मरूपादिप्रकाशनं जीप्सो- वृत्तिः--निह्नवे वर्तमानाज्ज्ञाधातोः कर्तर्याच्यते / तिष्ठत्यस्मिन्निति स्थेय;, बाहुलकादधिकरणेपि | त्मनेपदं स्यात् / शतमपजानीते, अपहृते इत्यर्थः। . “य एचातः" ( 5 / 1 / 28 इत्यनेन यप्रत्यय आत स्वभावादपपूर्व एव ज्ञाधातनिहवेऽभिव्यज्यते / एच) लोकरूढिवशाद विवादपदे निर्णता प्रमाणभूतः निह्न वे इति किम् ? तत्वं जानाति / / 6 / / सत्यपुरुषः स्थेय इत्युच्यते / ततो जीप्सायां स्थेयविषयायां च क्रियायां वर्तमानात्तिष्ठतेः (कतर्यात्मनेपदं भवति इ) अवचूरिः-निह्नवोऽपलाप उच्यते। 'जा ज्ञाजति सूत्रार्थः / "श्लाद्य स्थाशपा प्रयोज्ये" (2 / 2 / 60) नोऽत्यादौ' (4 / 2 / 104) इति ज्ञास्थाने जा, "एषाइत्यनेन *चतुर्थी / स्थेयविषये,-"त्वयि तिष्ठये (ते ) मीयंअनेऽदः" ( 4 / 2 / 97 ) इति ईः // 68 // विवादः", एकमिदमुदाहरणं द्वितीयं चेदं-"संशय्य की सम्प्रतेरस्मतौ / 3 / 3 / 69 // दिषु, तिस्ठते यः," कोऽर्थः ? कर्णादिसभ्यस्थेयोपदिष्टं वृत्तिः--सम्प्रतिभ्यां पराज्जानातेरस्मृतावर्थे दुर्योधनो निर्णयतीत्यर्थः // 64 / / कतर्यात्मनेपदं स्यात् / शर्त संजानीते, *शतेन प्रतिज्ञायाम् / 3 / 3 / 65 / / संजानौते, अवेक्षत इत्यर्थः। शतं प्रतिजानीते, अभ्युवृत्तिः-प्रतिज्ञाऽर्थे तिष्ठतेः कर्तर्यात्मनेपदं / पगच्छतीत्यर्थः / अस्मृताविति किम् ? मातुः संजास्यात् / स्वभावादाङ पूर्व एव स्थाधातुः प्रतिज्ञायां नाति,मातर संजानाति, स्मरतीत्यर्थः // 66 // वर्तते / नित्यं शब्दमातिष्ठते // 6 // अवचूरिः-*"समो ज्ञोऽस्मृतौ वा" (2 / 2 / 51) अवचूरिः-प्रतिज्ञाऽभ्युपगम उच्यते / योगविभाग इत्यनेन विकल्पेन तृतीया, प्रत्युदाहरणे "स्मृत्यर्थदयेशः" उत्तरार्थः॥६५॥ ( 2 / 2 / 11 ) इत्यनेन विकल्पेन षष्ठी // 69 // समो गिरः।३।३।६६।। ___अननोः सनः / 3 / 3 / 70 // वृत्तिः-अनूपसर्गवर्जिताज्जानातेः सन्नन्ता ___ वृत्तिः--सम्पूर्वाद गिरतेः प्रतिज्ञार्थे कर्तर्या कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् / धर्म जिज्ञासते / अननोत्मनेपदं स्यात् / स्याद्वादं 'संगिरते, अङ्गीकरोतीत्यर्थः / प्रतिज्ञायामित्येव- संगरिति ग्रासम् // 66 / / / रिति किम् ? धम्ममनुजिज्ञासति / / 70 // अवचूरिः-१प्रतिजानीते इत्यर्थः। सूत्रे गिर श्रुवोऽनाङ्मतेः / 3 / 3 / 71 // इति निर्देशाद् गृणातेन भवतीति विशेषः // 66 // वृत्तिः-आठ प्रतिवर्जिताच्छणोतेः . सन्नन्ता कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् / शुश्रूषते गुरून , संशुश्र - अवात् / 3 / 3 / 67 // षते शब्दान / अनाद प्रतेरिति किम् ? आशुश्र पति, वृत्तिः-पृथग्योगात्प्रतिज्ञेति निवृत्तम् / अव प्रतिशुश्र पति // 1 // पूर्वादगिरतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति / अवगिरते अवचूरि:-"श्रुवोऽनाङ् प्रतेः" अत्र सूत्रे विशेषोऽयं॥६७|| | कथं चैत्रं प्रति शुश्रूषते ? सूरिराह-धातोः प्रतिना शब्देन * छात्रेभ्य इत्यत्र। *प्रासमत्ति इत्यर्थः / Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मनेपदविधानम्] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते [ 15 सह संबन्धाभावात् आत्मनेपदं भवति, चैत्रण सह प्रतिशब्दस्य सम्बन्धोऽस्ति / 71 / / स्मृदृशः / 3 / 3 / 72 // वृत्तिः -- सन्नन्तस्मृदृशीभ्यां कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् / सुस्मूर्षते पूर्ववृत्तम्, दिदृक्षते देवम् / / 72 / / शको जिज्ञासायाम् / 3 / 3 / 73 // वृत्तिः-स्वभावादन्यधात्वर्थानुसहितः शकिः प्रवर्त्तते, शक्नोति भोक्तुमअन्यद्वेति / ततो ज्ञानानुसंहितार्थात् सन्नन्तादत्मनेपदं स्यात् / २विद्याः *शिक्षते, विद्यासु शिक्षते, ज्ञातु शक्नुयामितीच्छतीत्यर्थः.। जिज्ञासायामिति किम् ? शक्तुमिछति-शिक्षति i73 // प्राग्वत् / 3 / 3 / 74 / / वृत्तिः-सनः प्राक्-पूर्वो यो धातुस्तस्मादिव सन्नन्तादात्मनेपदं स्यात् / यत्पूर्वस्य धातोरनुबन्धेन वा उपपदेन वा अर्थविशेषेण वात्मनेपदं दृष्टं तत् आत्मनेपदम् सन्नन्तादतिदिश्यते / अनुबन्धेन[“इहिन्तः कर्तरि" ( 3 / 3 / 22 ) इत्यनेन ] शीढशेते, शिशयिषते, लोलूयते, लोलूयिषते, श्येनायते, शिश्येनायिषते / उपपदेन- [ “निविशः" / / 3 / 3 / 24 ) इत्यनेन ] निविशते, निविविक्षते / [ 'समस्तृतीयया' ( 3 / 3 / 32 / ) इत्यनेन ] अश्वेन/ संचिचरिषते / अर्थविशेषेण- [ वृत्तिसगतायने (3 / 3 / 48) इत्यनेन] शास्त्रेऽस्य क्रमते बुद्धिः, चिक्रसते // 7 // ___ अवचूरिः- 'अन्यस्य धातोरर्थेन युक्तः सन् शकि: अवचूरि:-'प्राग्वत्' इति सूत्रे विशेषोऽयं लिख्यतेप्रवर्तते इत्यर्थः, यथा शक्नोति भोक्तुमित्यत्र भुज्यर्थेन उभयेन आत्मनेपदं भवति / उभयेन कोऽर्थः ? उपपदेन, युक्तः / २तथा विद्याः शिक्षते, अत्रात्मनेपदेनैव जिज्ञा- अर्थविशेषेण इति उभयम्, तेन आक्रमते चन्द्रः, आचि. 'सायाः परिज्ञानात् विद्या: शिक्षते जिज्ञासितुमिति न प्रयु- 'कंसते अत्र 'आङो ज्योति०" ( 3 / 3 / 521) इत्यनेज्यते / 3 अन्यद्वेति कोऽर्य; ? यथा शक्नोति भोक्त नात्मनेपदम् / यत्पुनः सप्रत्ययधातुनिमित्तमात्मनेपद तथा शक्नोति पतितु, पक्तुं गन्तुं वा इति परिणा(हः) तत् सन्नन्तानातिदिश्यते, यथा-शिशत्सति, मुमूर्षति / अन्यक्रियार्थाध्याहारः कर्तव्यः / ४शिक्षते, अत्र "शक्लट अ. हि शदिमृधातू नात्मनेपदनिमित्तौ, कि तहि ? 'शदेः शक्तौ" शक , शक्तुमिच्छति, "तुमर्हादिच्छायां सन्नत- शिति' ( 3 / 3 / 41 ) "म्रियतेरधतन्याशिषि च" त्सनः" (34 / 21) इति सन्, “रभलभशकपतपदामिः" (3 / 3 / 42. ) इति शिदाशीरधतन्य ( याः ) प्रत्ययाः / (४।१।२१)इति सूत्रेण धातोरकारस्य इकार:द्विवचनाभावश्च, | ( अतः) शदिमृधातू नात्मनेपदनिमित्तम् ( तौ) इति 'नाम्यन्तस्था.' (3 / 3 / 15) इति सस्य षत्वम् / ननु शिक्षि सन्नन्तादपि नात्मनेपदम् / तथा अनुबन्धशेषात्, उपसर्गविद्योपादाने' इत्यनेनैव शिक्षते इति सेत्स्यति किमर्थ शेषात्, अर्थशेषात्, उपपदशेषात्, प्रत्ययशेषादिति "शको जिज्ञासाया" मिति वचनं कृतम्? सूरिराह-आमो- ( इत्यादि) निमित्तमाश्रित्य यदात्मनेपदनिषेधः कृतः ऽनुप्रयोगार्थ, यदि चेदं "शको जिज्ञासाया' मितिवचनं परस्मैपदं च कृतं तत्रापि आत्मनेपद नातिदिश्यते / नाकरिष्यत् तदा शकेर्धातोः सन्नन्तस्य 'आम कृगः' यथा-अनुकरोति, अनुचिकीर्षति, पगकरोति, पराचिकी(३।३।७५) इति सूत्रेण आमः परात् कृगो (ग) आत्म- र्षति, अत्र सन्नन्तानात्मनेपदम् / अनुबन्धशेषादिस्वरूपं नेपदं नाभविष्येत, ( व्यत् ) धातोः परस्मैपदित्वात्। शेषात् परस्मै" ( 3 3.100 / / 'परानोः कृगः" तत: शिक्षाञ्चक्रे इति न सिध्येत् / शिक्षिधातुनापि (३।३.१०१:इति)अत्र वक्ष्यते। परस्मैपदविधिः आत्मनेपदशिक्षाञ्चक्रे इति न स्यात्, शिक्षेरेकस्वरत्वात् आमः प्रतिषेधः "शेषात् परस्मै" ( 3 / 31100 / ) इत्यतो प्रतिषेधात् / अनेकस्वरधातूनां हि आमविधिः / अयं ( इत्यादितो ) ज्ञातव्यः। तथा तिजादीनां त्वर्थ विशेषेषु विशेषः शको जिज्ञति सूत्रान्ते ज्ञातव्या ( य. ) // 73 // केवलानां (अप्रयोगात्) कोऽर्थः ? सन्नन्तरहितानामप्रयो Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने (अ०पा०३ सू०७५-७७ गात् सन्नन्तसमुदायार्थमेवानुबन्धविधानम्, तेन तिति- पाचयाञ्चकार इत्यपि / णिलोपापवादः "आमन्ताल्वाक्षिते,जुगुप्सते, मीमांसते इत्यादी प्रागदृष्टमप्या- य्येत्नावय्" ( 4-3-85) इत्यय् // 75 // त्मनेपदमनुबन्धसामर्थ्याद्भवति, यथा-चित्रीयते, महीयते / इयमवचूरिः 'प्राग्वत्' इति सूत्रान्ते चिकंसते इत्यस्याने गन्धनावक्षेपसेवासाहसप्रतियत्नप्रकज्ञातव्या // 74 // थनोपयोगे / 3 / 376 // आमः कृगः / 3 / 3 / 7 // वृत्ति:-गन्धनाद्यर्थेषु करोतेः कर्त्तर्यात्मनेपदं वृत्तिः-आमः पराद् (-पश्चात् ) अनुप्रयुज्यमा- स्यात् / गन्धनं-द्रोहाभिप्रायेण परदोषोद्घट्टनम्, नात्करोतेराम एव प्राग यो धातस्तस्मादिव कर्ता- 'उत्कुरुते / अवक्षेपः-कुत्सनम् (निन्दा) / दुर्वृत्तानत्मनेपदं स्यात् / भवति न भवति चेति विधिप्रति- वकुरुते-निन्दयति, कुत्सयतीत्यर्थः। सेवा-अनुवृत्तिः षेधावतिदिश्यते / ईहांचक्रे, ईक्षांचक्र, इत्यफल महामात्रानुपकुरुते / साहसम्-अविमृश्यः(य)प्रवृत्तिः, वत्यपि ६आत्मनेपदम् / बिभयाञ्चकार, जाग- परदारान् प्रकुरुते (5) प्रतियत्नः-सतो (विद्यमाराञ्चकारेति फलवत्यपि नात्मनेपदम् , भीधातोः जागृ- नस्य) गुणान्तराधानम्, एधोदकस्योपस्कुरुते / प्रकधातोश्च परस्मैपदित्वात् / यत्र तु पूर्वस्मादुभयम् थने,-जनापवादान प्रकुरुते / ४उपयोगः-धर्मादौ तत्र फलवत्यफलवति चोभयम् , बिभराञ्चक्र, द्रव्यव्ययः, शतं प्रकुरुते / अफलवत्कर्बर्थ आरम्भः पबिभराञ्चकार / कृग इति किम् ? करोतेरेव यथा // 76 // स्यात् / इह मा भूत्-ईक्षामास, ईक्षाम्बभूव / / 75 // अवचूरिः-.'उदाकुरुते माम, अध्याकुरुते, उत्अवचूरिः-'ईहाञ्चक्रे इत्यत्र "गुरुनाम्यादेरनृ- | कुरुते इत्यादीनामयमर्थः-जिघांसुरपकत्रं कथयतीत्यर्थः / च्छूर्णोः" ( 3-4-48) इति सूत्रेण आम् / आमपूर्वस्य ५परदारान् प्रकुरुते (इति) कोऽर्थः? स्वस्य विनाशमविधातोरात्मनेपदित्वात् इत्यर्थः / २बिभयाञ्चकारेत्यत्र भाव्य पराङ्गनां रमते / एधोदकमुपस्कुरुते ( इति ) जिभोक् भये, भी, परस्मैपदी परोक्षाणव्, "भीहीभृहो. कोऽर्थः ? तत्र गुणान्तरं रचयति, "उपाडू षासमवायस्तिव्वत्" (3-4-50) इत्यनेन आम्, "हवः "शिति" प्रतियत्नविकारवाक्याध्याहारे" (4-4-92) इति स्सट् / (4-1-12 ) इति द्वित्वं-द्विवचनम् / उजागराञ्चका- प्रकथनं-कथनारम्भः प्रकर्षेण कथनं वा, जनदोषान् रेत्यत्र "जाग्रुषसमिन्धेर्नवा" (3-3-49) इत्यनेन आम्, कथयितुमारभते, प्रकर्षेण वा कथयति / "धर्माविकार्ये जागृक निद्राक्षये, परस्मैपदम् / यत्र तु इत्यक्षराणां | व्यापारयति // 76 // भावोऽयम्-यत्र धातौ उभयपदं-यो धातुरुभयपदी तत्र उभयपदी दि धातुविषये फलवत्यात्मनेपदं भवति, अफलवति अधेः प्रसहने / 3 / 3 / 77 // परस्मैपदं भवति, इति परिणा (हः)उभयं-परस्मैपदात्म वृत्तिः-अधेः परात्कृगः-करोतेः प्रसहने बतनेपदम् / पटुडुइंग्क् पोषणे च", भृ, “प्त्रइभृमाहाङामिः" मानाकर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् / प्रसहनं पराभिभवः (4-1-58) इत्यनेनाभ्यासे इकारः, "भीहीभृहोस्ति- परेणापराजयो वा, तं हाऽधिचक्र , तमभिभूतवानिव्वत्" ( 3-4-50 ) इति आम् / एवं पाचयाञ्चक्रे, त्यर्थः, तेन वा न पराजितः / प्रसहने इति किम् ? न. चात्र परोक्षाया अशित्वात् कथं ? "हवः शिति" इत्यनेन द्विर्षचनमित्यारेकणीयम्, "भीही. महोस्तिव्बत्" इत्यनेनामस्तिव्वत्करणात् तिवश्च शित्त्वात् / *सेवते इत्यर्थः। .उदाकुरुते माम्, अध्याकुरुते इत्युदाहरणद्वयं वृत्तौ नास्ति / लेखकदोषवशादलिखितमिति सम्भाव्यते / Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्मनेपदविधानम्] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते तमधिकरोति-नियुक्त // 7 // त्रिधा दीप्त्यर्थोऽयम्-सम्यग्ज्ञानादनाकुलकथनाच विकसित मुखत्वाद् गुरुः कर्ता दीप्यमानो वदति,(१)गुरुवंदन दीप्यते - अवचूरिः--अथवा सहनम्- क्षमा, तितिक्षा, उपेक्षा इति वा;(२) गुरुर्दीप्यते एव इति वा(३)। ज्ञानमवबोधः, तब इति यावत् / प्रकर्षेण सहनं-प्रसहनं, तच्च प्रसहनं द्विधा,- ज्ञानं वदिक्रियाया हेतुः, (1) विषयि वा, (2) फलं शक्तस्य अशक्तस्य च / वा,(३) केवलमेव वा धात्वर्थः (4) / अत्र वदते धीमा"पुरःसरा धामवतां यशोधनाः, सुदुःसहं प्राप्य निका- स्तत्त्वार्थे, अस्यार्थोयम्-ज्ञात्वा वदतीति वा, (1) जानाति रमीदृशम् / मवादृशाश्चेदधिकुर्वते' परान्निराश्रया हन्त हता | वदितुमिति वा, (2) वदन् जानाति बा (3) मनस्विता" ॥(किराता.प्र.स. श्लोक-४३, अत्रोत्तरार्धव्या- जानात्येव (4) / यत्नः-उत्साहः, स चोत्साहो धात्वर्थस्य ख्येवम्-) यदि भवादृशाः समर्था अपि शत्रूनुपेक्षन्ते तदा, विषयः धात्वर्थ एव वा / अत्र श्रुते बदते, तपसि वदते, हन्त इति खेदे, मनस्विता निराश्रया-आधारं विना हता, ( इत्युदाहरणे)। नानामतिः - विमतिः, सा च विमतिप्रलयं गता इत्यर्थः / स प्रसेहे जन- जनेन स पुरुषो न र्धात्वर्थस्य हेतुः धात्वर्थ एव वा। अत्र धर्मे विवदन्ते इत्युजितः // 77 // दाहरणम् / उपसंभाषा- उपसान्त्वनमुपालम्भो वोच्यते, धात्वर्थ एव वोपसंभाषः / अत्र कर्मकरानुपवदते इत्युदादीप्तिज्ञानयत्नविमत्युपसंमाषोप हरणम् / उपमन्त्रणं-रहस्युपच्छन्दनम्, उपलोभनं, दानामन्त्रणे वदः / 3 / 3 / 78 // दिना आवर्जनमित्यभिप्रायः। अत्र कुलभार्येत्यादि(क) मुदाहरणद्वयम् // 78 // ___ वृत्तिः-दीप्त्याद्यर्थे वर्तमानाद्वदतेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् / वदते विद्वान् स्याद्वादे, ( उदाहर- व्यक्तवाचां सहोक्तौ / 3 / 3 / 79 // णार्थोऽयम्-) सम्यगज्ञानादनाकुलकथनाच विकसित ___ वृत्तिः-व्यक्तवाचां मनुष्यादीनां सहोक्तौ, कोऽर्थः? मुखत्वाद्दीप्यमानो विद्वान्वदति, अथवा *वदन् संभूयोच्चारणे वर्तमानाद्वदेःकत यात्मनेपदं स्यात् / दीप्यत इति, दीप्यत एवेति वा / वदते धीमांस्त संप्रवदन्ते ग्राम्याः, संप्रवदन्ते पिशाचाः; संभूय-मिस्वार्थे, उदाहरणार्थोयं-ज्ञात्वा वदति, वदितु जानाति लित्वा भाषन्ते इत्यर्थः / व्यक्तवाचामिति किम् ? वा, वंदन फलं जानाति वा, जानात्येवेति वेत्यर्थः / संप्रवदन्ते शुकाः / सहोक्ताविति किम् ? चैत्रेणोक्ते तपसि वदते,श्रु ते वदते = तपोविषयं, श्रुतविषयम मैत्रो वदति ||7|| त्साहं वाचाऽऽविष्करोति, श्रु ते तपसि वा उत्सहते / धर्मे विवदन्ते, उदाहरणार्थोयं-विमतिपूर्वकं विचित्रं अवचूरिः-व्यक्ता, कोऽर्थः ? व्यक्ताक्षरा स्पष्टनानाप्रकारं भाषन्ते, विविधं मन्यन्त इति वा / कर्म वर्णा वाग येषां ते व्यक्तवाचः, लोकरूढया व्यक्तवाचो करानुपवदते, उपसान्त्वयति उपालभते वेत्यर्थः / मनुष्यादय एवोच्यन्ते / संप्रवदन्ति सारिकाः कुक्कुटा वा कुलभार्यामुपवदते, परदारानुपवदते; रहसि (एकान्ते) // 79 // उपलोभयतीत्यर्थः / / 7 / / ' विवादे वा / 3 / 3 / 80 // अवचूरिः-दीप्तिर्भासनमुच्यते / सा च दीप्तिः वृत्तिः–व्यक्तवाचां सहोक्तौ विवादरूपायां कर्तृविशेषणम्,(१)अथवा वदनक्रियासहचारिणी सती दीप्तिर्धात्वर्थः;(२)यद्वा केवलैव दीप्तिर्धात्वर्थ उच्यते(३)। सत्यां वदेः कर्त यात्मनेपदं वा स्यात् / विप्रवदन्ते * अत्र वदते विद्वान् स्याद्वादे इति उदाहरणम् / अनुक्रमेण मौहूर्ताः, विप्रवदन्ति (वा) / उदाहरणार्थोयम्-पर 'वावदनू' इति बहवृत्तौ। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 . श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन (अ० 3 पा० 3 सू० 81-84, -स्परप्रतिषेधेन युगपद्विरुद्धं वदन्तीत्यर्थः / विवाद / (4-2-104) इति जादेशः / कर्मण्यसतीत्येव-तैलं इति किम् ? संप्रवदन्ति वैयाकरणाः, सह वदन्ती- सर्पिषो जानाति, तैलं सर्पिष्टया जानातीत्यर्थः / / 2 / / त्यर्थः // 8 // अवचूरिः-- 'सपिषो जानीते, मधुनो जानीते; अत्र अवचूरिः-'विरुद्धार्थो वादो विवाद उच्यते / जानातिः कथमकर्मकोऽस्ति ? उच्यते, अत्रोदाहरणद्वये / "विवादे वा" अत्र सूत्रे सहोक्तावित्येव-मौहूर्तो मौहूर्तेन | सपिर्मधु च ज्ञेयत्वेन न विवक्षितं, कि तहि ? प्रवृत्ती सह क्रमेण विप्रवदति / विरुद्धाभिधानमात्रमिह विवक्षितं, करणत्वेन विवक्षितम्, जानातेरर्थः प्रवृत्तिरूपः ततः मतु विमतिपूर्वकमः तेन-दीप्तिज्ञानयत्नविमत्यु०(३॥३॥ कोऽर्थः? सर्पिषा मधुना वा करणभूतेन प्रवर्तते, सर्पिषा, 78 ) इत्यनेनाप्यत्र नात्मनेपदमिति विशेषो ज्ञातव्यः / मधुना करणेन मोक्तु प्रवर्तत इत्यर्थः; अत एवात्रोदा२एको वादी अन्यम् ( अन्यस्तं) प्रतिषेधयति-निवारयति हरणे "अज्ञाने ज्ञः षष्ठी" ( 2 / 2 / 80 ) इत्यनेन षष्ठी इति परस्परप्रतिषेधेन / सहशब्देनाऽपि सहोक्तावुक्तायां भवति / अथवा मिथ्याज्ञानार्थोऽत्र जानातिः, सपिषि, गम्यमानायां वा व्यक्तवाचां सहोतावित्यनेनाप्यात्मनेपदं रक्तो विरक्तो वा चित्तभ्रान्त्या सर्व जलादिकं सर्पोरूपेण म भवत्यत्र // 8 // प्रतिपद्यते, इत्थं मिथ्याज्ञानवचनोऽत्र जानातिः, मिथ्या ज्ञानं च तत्त्वतोऽज्ञानमेवेत्यज्ञानार्थत्वे सति पूर्ववत षष्ठी। अनोः कर्मण्यसति / 3 / 3 / 81 // अथवा सपिःसम्बन्धिज्ञानं करोतीति विवक्षायां ज्ञानार्थोपि वृत्तिः–व्यक्तवाचामर्थे वर्तमानादनुपूर्वा जानातिरकर्मको ज्ञेयः, तदा संबन्धेऽत्र षष्ठी माषाणाम भीयादित्यादिवत् ज्ञातव्या / यद्वा सपिषो जानीते इति द्वदेः कर्मण्यसति कर्यात्मनेपदं स्यात् / सादृश्येअनुवदते चैत्रो मैत्रस्य, यथा मैत्रो वदति तथा चैत्रो कोऽर्थः ? ज्ञानमुत्पादयति, धात्वर्थे न्यग्भूतं कर्म, यथा लज्जते इत्यकर्मकः / सोरूपेण प्रतिपद्यते इत्यर्थः। वदतीत्यर्थः; पश्चादर्थे - अनुवदते गुरोः शिष्यः, गुरुणोक्त पूर्वम् (-आचार्येण पूर्व भणिते सति ) एवं स्वरेण पुत्रं जानाति // 82 // पश्चाच्छिष्यो वदतीत्यर्थः / कर्मण्यसतीति किम् ? उपात् स्थः / 3 / 3 / 83 // उक्तमनुवदति // 1 // , वृत्तिः-उपपूर्वात्तिष्ठतेः कर्मण्यसति कर्त्तर्याअवचूरिः--अनोः कर्मण्यसतीति सूत्रे अकर्मका त्मनेपदं स्यात / योगे योग उपतिष्ठते, भोजनकाल दिति अनुक् वा कर्मण्यसतीति निर्देश उत्तरत्र "आङो यम- उपतिष्ठते, ज्ञानमस्य जनस्य ज्ञेयेषूपतिष्ठते, सन्निहनः स्वेङ्गे च" ( 33386 ) इत्यादिसूत्रेषु “स्वेङ्गे धीयते इत्यर्थः / कर्मण्यसतीत्येव-राजानमुपतिष्ठति च कर्मणि"इति सुखेन प्रतिपत्त्यर्थः। अत्र व्यक्तवाचामित्ये // 3 // वानुवर्तते, न तु सहोक्तो (इत्यपि) / अनुशब्दः सादृश्ये अवचूरिः--संनिधीयते इति रूप 'धौङच् अनापश्चावर्षे वा ज्ञातव्यः / सादृश्यपश्चावर्थयोर्वर्त्तमानो वदि दरें इत्यस्य वा *कर्मकर्तरि // 83 // रकर्मको भवति / उदाहरणद्वयं तथैव दर्शयति // 8 // समो गमृच्छि-प्रच्छि*-श्रु -वित्-"स्व ज्ञः / 3 / 3182 // वृत्तिः-जानातेः कर्मण्यसति कर्तर्यात्मने रत्यर्ति -दृशः / 3 / 3 / 84 / पदं स्यात् / 'सर्पिषो जानीते, “जा ज्ञाजनोऽत्यादौ" वृत्तिः समः परेभ्यो गमादिभ्यः कर्मण्यसति 'प्रय लघुन्या पाठ एवम्-संनिधीयत इति कर्मकर्तरि 'घोडच् अनादरें' इत्यस्य वा रूपमिदम्। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्मनेपदविधानम् ] . मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते 11 कतर्यात्मनेपदं स्यात् / संगच्छते, 'समृच्छिष्यते / कर्मणि-क्रोष्टा ( शृगालः ) विकुरुते स्वरान्, नानासंपृच्छते, संशृणुते, संवित्ते, संस्वरते, समृच्छते, बहुविध (धान ) उत्पादयतीत्यर्थः / अनाश इति समियते, संपश्यते / कर्मण्यसतीत्येव-संगच्छति किम् ? विकरोत्यध्याय, विकरोति शब्द; विनाशयमित्रम् / / 4 / / तीत्यर्थः // 8 // अवचूरि--"औस्वृ शब्दोपतापयोः"। 'विकुर्वते अवचूरिः- सम्पूर्वऋच्छेरतेश्च रूप्प (रूप) ( इत्यत्र ) कृ विपूर्वः, वर्तमाना,अन्ते, "कृग्तनादेशः" साम्यं भवति, अत ऋच्छेरभिव्यक्त्यर्थ समृच्छिष्यत इति परिणा(हे न)उदाहरणं दर्शितम् / गमादिभिनित्यपरस्मै ( 3-4-83- इत्यनेन उप्रत्ययः,) 'उश्नोः' (4-3-2) इति गुणः, “अतः शित्युत्" ( 4-3-89) इत्यनेन कृगोऽपदिभिः साहचर्याज्ज्ञानार्थस्यैव विदेर्ग्रहणं, दिवादितुदा कारस्य उकारः, “अनतोऽन्तोऽदात्मने" (4-2-114) विरुधादिसंबन्धिविदेर्न ग्रहणं, तेषामात्मनेपदित्वात / अर्तीति सामान्यनिर्देशात् "ऋ प्रापणे च" इति इति अतो ( अन्तो ) 'न्' लुप्यते इत्यर्थः // 85 // म्वादिः, "ऋक् गतौ" इत्यदादौ जुहोत्यादिः(इति द्वावपि ___ आङो यमहनः स्वेङ्गे च / 3 / 3 // 86 // धातू गृह्यते / परमयं विशेषः-भ्वादिअर्तेः "श्रौतिकृवु." (4-2-108 ) इत्यादिना "ऋच्छ्" आदेशः, तत्र समृ. वृत्तिः–आङः पराभ्यां यमिहनिभ्यां कर्मण्यच्छते इति प्रयोग , "ऋक् गतौ', अदादौ ऋ, ते, "हवः सति कर्तु: स्वेङगे च कर्मणि कर्त्तर्यात्मनेपदं शिति" ( 4-1-12) इति द्वित्वं, "पऋभमाहाङामिः" स्यात्। आयच्छते, आहते / स्वेङ्गे-'आयच्छते ( 4-1-58 इत्यनेन ) अभ्यासे इत्वं, "पूर्वस्यास्वे पादम, २आहते शिरः / स्वेङगे चेति किम् ?आयस्वरे य्वोरियुक्"(४-१-३७ इत्यनेन) अभ्यासे "इय्" आदे च्छति रज्जुम् , आहन्ति दासम् / स्व इति किम् ? - शः / *"श्रौतिकवुधिवुपाघ्राध्मास्थाम्नादामदृश्यत्तिशद आयच्छति पादौ मैत्रस्य / अङ्ग इति किम् ? स्वं . सदः शकृधिपिबजिघ्रधमतिष्ठमनयच्छपश्यछंशीयसीदम्" पुत्रमाहन्ति // 86 // ( 4-2-108 ) इत्यनेन शृणोतेः 'शू' आदेशः। "समो गमृ० इति सूत्रे स्वरत्ययोस्तिन्निर्देशो यङ्लुपि सति __ अवचूरि.-'आयच्छते इत्यत्र 'यमूउपरमें यम्, "गमिषयमश्छः" ( 4-2-106 ) इति मस्य छत्वम् / आत्मनेपदनिवृत्त्यर्थः कृतः / तेन स्वरतेः संसरिस्वत्ति , अर्तेस्तु "रिरीआगमे" "पूर्वस्यास्वे०" (4-1-37) इति आहते इत्यत्र हन् आपूर्वः, वर्तमाना, ते, "शिदवित्" इयादेशे समरियत्ति,समरियरीति; 'र' आगमे च 'समरत्ति' ( 4 / 3 / 20 ) इति सूत्रेण शित् प्रत्ययो द्वित् भवति, ङित्त्वात् “यमिरमिनमिगमिहनिमनिवनतितनादेः० (4 // इति भवति / किचित (केचित्) तु यङ्लुप्यपि संजंगते, संपरीपृष्टे, संशोश्रु ते, संवेवित्ते, संदे(द)रीदृष्टे इत्य 2055 ) इत्यादिना ( धुटि ) ङिति प्रत्यये परेऽन्तस्य लक् // 86 // त्रात्मनेपदमिच्छन्ति / ऋच्छेस्तु यडोऽसंभवः // 84 / / ... व्युदस्तपः / 3 / 3 / 87 // वेः कृगः शब्दे चानाशे / 3 / 3 / 85 // - वृत्तिः–व्युत्पात्तपेः कर्मण्यसति स्वेङ्गे च वत्तिः-विपूर्वात् करोतेरनाशार्थात् कर्मण्य- | कर्मणि कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् / वितपते,उत्तपते रविः; सति शब्दे च कर्मणि कर्तर्यात्मनेपदं स्यात / कर्म- / दीप्यत इत्यर्थः / स्वेङ्ग-वितपते, उत्तपते पाणिं; तापण्यसति-'विकुर्वते सैन्धवाः, साधु दान्ताः शोभनं यतीत्यर्थः / व्युद इति किम् ? निष्टपति / स्वेने वल्गन्तीत्यर्थः / ओदनस्य पूर्णच्छात्रा विकुर्वते, / चेत्येव- वितपति पृथ्वीं रविः, संतापयतीत्यर्थः / (सम्बन्धषष्ठी ) निष्फलं चेष्टन्ते इत्यर्थः / शब्दे / उत्तपति-द्रवीकरोति स्वर्ण स्वर्णकारः / / 87 // Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने [अ०३ पा०३ सू० 88 अवचूरिः-व्युदस्तप इति सूत्रे विशेषोऽयम्-इह | (शरीररूपात्मा ) अन्तरात्मा च / तत्र भेदेनैव लोके दीप्यते, ज्वलति, भासते, रोचते इत्येतेष्वर्येषु तपिधातुम- नित्यमयं प्रयोगः / हन्त्यात्मानमिति बाह्यात्मनोऽन्तकर्मकं वृद्धा वदन्ति / वितपते-सामान्येन दीप्तो भवति, रात्मनो वा कर्मत्वम् / घातयत्यात्मानमित्यपि तस्यैव ज्वालावान् भवति, उद्भूतरूपो भवति, किरणवान् कर्मत्वं, न कर्तृत्वमिति / / 8 / / भवति / एवम् उत्तरपते ( उत्तपते ) इत्यस्याप्यर्थचतुष्टयम् / यथा वहधातुः प्रापणार्थे सकर्मकः, (यथा-) वहति अवचूरिः- 'आरोहन्ति हस्तिनं हस्ति(प)काः, हस्तिभारं, स्पन्दनार्थे तु वहोऽकर्मकः, ( यथा- ) वहति नदी, | पकान् आरोहतो हस्ती *प्रयुङ्क्त, "प्रयोक्तृव्यापारे कोऽर्थः ? स्पदन्त इत्यर्थः, एवं तप् धातुरपि / / 87 // णिग्" (3-4-20) इति परिणा (हेन) वाक्यम् / आस्क न्दयते इत्यत्रापि हस्तिन उपरि हस्तिपका आगच्छन्ति, अणिकर्मणिक्कत काण्णि तान् हस्तिपकान् हस्ती उपरि आगमयति; आक्रमयते गोऽस्मृतौ / 3 / 3 / 88 // इत्यर्थः / इति युक्त्याऽणिक्कर्मत्यनेनैवात्मनेपदं भवती त्यर्थः / कर्मविकल्पपक्षे तु भृत्यरित्यत्र प्रयोज्यकर्तरि वृत्तिः–अणिगवस्थायां यत्कर्म तदेव णिगव- तृतीया भवति। पश्यन्ति भृत्या राजानं, तान भृत्यान् राजस्थायां कर्ता यस्य–सोऽणिक्कर्मणिकर्तृ कः, तस्मा वानुकूलाचरणेन, कोऽर्थः? प्रसादकरणेन प्रयुक्त व्यापाण्णिगन्ताद्धातोरस्मृतौ वर्तमानात्कर्त्तर्यात्मनेपदं भव- रयति इति वाक्यम् / उपश्यन्ति भृत्याः प्रदीपेन, तातू ति / आरोहयते हस्ती हस्तिपकान्, आस्कन्द- भृत्यान् पश्यतः प्रदीपः प्रयुक्त इति वाक्यम् / आरोयत इत्यर्थः; २दर्शयते राजा भृत्यान भृत्यैर्वा / अणि .हन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः, आरोहयति हस्तिपकान्महामात्रः, गिति किम् ? ४आरोहयति हस्तिपकान्महामात्रः, आरोहयन्तं महामात्र हस्तिपकाः प्रयुञ्जते, ( महामात्रेण आरोहयन्ति महामात्रेण हस्तिपकाः / गितकरणं हस्तिपकाः) आरोहयन्तीत्यत्र प्रथमणिगन्तकर्मणि द्वितीयकिम् ? "गणयते गणो गोपालकम् / कर्मेति किम् ? णिगन्तकर्तर्यपि आत्मने( पदं )मा भूदिति एतदर्थकरणादेः कर्तृत्वे मा भूत्-, दर्शयति प्रदीपो भृत्यान्।। मणिगिति किम् ? इत्युक्तम् / ""गणण संख्याने' गण, "णिगिति किम् ? यस्याणिगन्तस्यैव कर्म कर्ता "चुरादिभ्यो णिच्" ( 3 / 4 / 17 इति णिच् प्रत्ययः) भवति ततोणिगन्तान्मा भूत्,-लावयति केदारं चैत्रः / "अतः” ( 4-3-82 ) इति सूत्रेण गणोऽकारो लुप्यते / कर्तेति किम् ? आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः, तान् गणयति गणं गोपालकः, तं गणयन्तं गोपालकं गण: हस्तिपकानेनमारोहयति महामात्रः / *णिग इति प्रयुक्त, "प्रयोक्तृव्यापारे णिग्" ( 3 / 4 / 20 / ) अत्र किम् ? आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः, तानारोह- णिजन्तकर्मणिक्कर्तृकादपि णिगन्तादात्मनेपदप्रतिषेधो मा यते हस्तीत्यणिगवस्थायामात्मनेपदं मा भूत् / अस्म- भूत् / लुनाति केदारं चैत्रः, * लूयते केदारः स्वयमेव, ताविति किम् ? उत्कमेवापूर्वकं [ ? | स्मरति वन- तं केदारं चैत्रः प्रयुक्त इति वाक्यम्, अत्र आत्मनेपदं गुल्म कोकिलः, स्मरयति कोकिलं वनगुल्मः / कथं ? मा भूदित्यर्थः / तानारोहयते हस्तीत्यस्मिन्नर्थे विवहन्त्यात्मानं, घातयत्यात्मा,अत्र ह्यात्मनोऽणिक्कर्मणो क्षिते सति आरोहन्तीत्यत्रात्मनेपदं प्राप्तम्, तत् आत्मणिक्कर्तृत्वमस्ति / नैवं, द्वावात्मानौ, बाह्यात्मा | नेपदं णिग इति किम् ? इति व्यावृत्त्या निषिध्यते इति *पादार्पणशिरोऽधूननप्रमुखानुकूलाचरणेन / •ननु'लूयते केदारः' इत्यादाविव 'आरोहयते हस्ती हस्तिपकान्' इत्यादावपि यदेव पूर्व कर्म, तदेव कति 'एकपाती'...........इत्यनेन कर्मकर्तवैवात्मनेपदं भविष्यति किमनेन ? | सत्यम, अकर्मक्रियत्वाभावान्न / अत्र कर्मणः प्रयोजकव्यापारातू कर्तृत्वम्, एकघातावित्यत्र तु सौकर्यादित्यनयोर्भेदः। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मनेपदविधानम् ) मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते ( 21 भावः / 'कथं हन्त्यात्मेत्यादि, य एवात्माऽणिक्कर्म / र्चाभिभवयोःप्रलम्भे चार्थे वर्तमानाभ्यां कर्त्तर्यात्मवर्तते, स एव णिक्कर्ताऽस्ति इत्यात्मनेपदमत्र प्राप्नोतीति नेपदं स्यात्, अनयोश्चान्त्यस्य-लिङ्लिन (नो) धातोपराशयः / सूरिराह-द्वावात्मानौ इत्यादि, हन्ति राजान्त- रन्त्यस्य अकर्त्तर्यप्याकारः स्यात् / अर्चायां-जटाभिरात्मानं बाह्य वा चौरसत्कं, तमेकमात्मानं घ्नन्तमपरो रालापयते, परैरात्मानं पूजयतीत्यर्थः। अभिभवे,बाह्यात्मा वा अन्तरात्मा वा प्रयुक्त इति घातयती- •श्योनो *वर्तिकामपलापयते, चटिका अभिभवतीत्यस्य वाक्यस्य युक्तया आत्मनः कर्मत्वमेव घटते, न कर्तृ- त्यर्थः / प्रलम्भे-कस्त्वामुल्लापयते, वञ्चयते इत्यर्थः / त्वमिति नात्मनेपदं घातयतीत्यस्य भवतीत्यर्थः। अत्र अकर्त्तर्यपीति किम्? जटाभि: आलाप्यते जटिलेन। पुनः परः प्राह-ननु यदि अणिक्कर्मणो णिक्कर्तृतायां णिग- एष्विति किम् ? बालकमुल्लापयति, उत्क्षिपतीत्यर्थः न्तादात्मनेपदमिष्यते, तर्हि शुष्यन्त्यातपे बीहयः, शोषयते // 30 // श्रोहीनातपः इत्यादावधिकरणादेः कर्तृतायामात्मनेपदं न प्राप्नोति / न, ' अत्र फलवत्कर्तरि आत्मनेपदं भवि अवचूरिः-१ लीडच् श्लेषणे" इति दिवादिः / व्यति / अहो कीहक तीव्र आतप इति कृषीवलादि "लीश श्लेषणे" इति क्रयादिः / आलीयमानमथवा जनस्य या प्रशंसा, सैव आतपकर्तुः फलमिति फलवत्क आलिनन्तं प्रयुक्त, “लिलिनोर्वा" ( 4 / 2 / 9 / ) तरीति भावना // 8 // इत्यात्वम्, “अतिरीव्लीह्रो०" ( 4 / 2 / 21 ) इत्यादिना पोन्तः / अत्र "तत्साप्यानाप्य०" ( 3 / 3 / 21 ) इत्याप्रलम्भे गृधिवञ्च :' / 3 / 3 / 89 // त्मनेपदम्, “लोड्लिनोर्वा" (4 / 2 / 9 / ) इति वक्ष्यमावृत्तिः–गृधिवञ्चिन्यां णिगन्ताभ्यां प्रलम्भे, / णसूत्रेण आकारः, “अत्तिरीलीही.” (4 / 2 / 21) कोऽर्थः? वञ्चने वर्तमानाभ्यां कर्तर्यात्मनेपदं स्यात्।। इत्यनेन पोन्तश्च / तया सूत्रे लीङ् इति ङिनिर्देशः, लिन बटु गर्धयते, बटुवञ्चयते / प्रलम्भ इति किम्? | इति श्नानिर्देशश्चौरादिक लीण् द्रवीकरणे' इति यौजा3श्वानं गर्धयति, प्रलोभयतीत्यर्थः; अहिं वञ्च यति,४ | दिक-धातुनिवृत्त्यर्थः कृत इति भावः // 10 // गमयतीत्यर्थः / णिग आत्मनेपदविधानं सर्वत्र स्मिङः प्रयोक्तुः स्वार्थे / 3 / 3 / 91 / / (-सर्वसूत्रेषु ) अफलवदर्थम् / / 6 / / वृत्ति.–प्रयोक्तुः सकाशाद् यः स्वार्थः स्मय____ अवचूरिः--१'वञ्चिण प्रलम्भने' इति चुरादि- स्तत्र वर्तमानाण्णिगन्तात् स्मयते: कर्तर्यात्मनेपदं नापि सिद्धयति, परं णिगन्तस्य विध्यर्थम् / “२बटु गर्ध- धातोरन्तस्याकारश्चाकत यपि स्यात् / 'जटिलो यते, बटुवञ्चयते," कोर्थः ? विप्रतारयति इत्यर्थः / | विस्मापयते / प्रयोक्त : स्वार्थे इति किम् ? रूपेण 3श्वानं गर्धयति,अत्र फलवत्त्वेपि सत्यात्मनेपदं न भवति. विस्माययति / अकतर्यपीत्येव-विस्मापनम् / / 6 / / "अणिगि प्राणिकर्तृ कानाप्याण्णिग." ( 3 // 3 // 107 ) अवचूरिः- जटा अस्य सन्तीति जटिलः, 'कालाइति वक्ष्यमाणसूत्रप्रतिषेधात् / अहिं वञ्चयतीत्यत्र वञ्चे जटाघटात्क्षेपे' ( 7 / 2 / 23) इति सूत्रेण इलप्रत्ययः / रकर्मकत्वे अणिगि प्राणीत्यनेनात्मनेपदनिषेधः / सक अत्र करणात् स्वार्थे मा भूदात्मनेपदम् / सूत्रे स्मिङ् मकत्वे तु फलवत्यात्मनेपदं भवत्येव॥८९॥ इति ङिन्निर्देशात् यङ्लुप्यात्मनेपदं न भवति- सेष्मायलीडलिनोऽर्चाभिमवे चाचार्तः यति, सेष्मियन्तं प्रयुक्त ( इति वाक्यम् ) // 91 // यपि / 3 / 3 / 90 // विभी(भे)तेीष' च / 3 / 3 / 12 / / वृत्तिः-लीयतिलिनातिभ्यां णिगन्ताभ्याम- | वृत्तिः-प्रयोक्तुः सकाशात् स्वार्थे ण्यन्ताद् बि 'बाजपक्षी' इति भाषायाम् / चकली' इति भाषायाम् / Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने [अ०३पा०३ सू०६३-६५ भेतेः कत्र्तर्यात्मनेपदं स्यात्, धातोर्मीषादेशः; 'पक्षे | वदवसतिदमादरुचनृतिभ्यश्चणिगन्तेभ्यः कर्त्तर्यात्मआत्वं चाकर्त्तर्यपि स्यात् / मुण्डो भीषयते भाप- नेपदं स्यात् / परिमोहयते चैत्रम् / आयामयते यते वा / 'भिभीक् भये' (इति धातुः ) / प्रयोक्तुः सर्पम् / आयासयते मैत्रम् / पाययते बटुम् / धापस्वार्थे इत्येव- कुञ्चिकया भाययति / अकर्तर्यपी- यते शिशुम् / वादयते जनम् / वासयते पान्थम् / त्येव-भीषा, भापनम् / / 12 // दमयतेऽश्वम् / आदयते चैत्रेण / रोचयते मैत्रम् / नर्त्तयते नटम् / ट्धेसाहचर्यात् पा इति पिबतेह- . अवचरिः-सत्रत्वात षस्य डत्वं न भवति / 'जिभीक णम्, न पातेः। वदसाहचर्याच्च वस इति वसतेस्रहणं, भये' भी, बिभ्यन्तं प्रयुक्त, णिग, "बिभेतेर्भीष च" इति न वस्तेः / / 4 / / भीष आकारश्च / २पो,-पक्षे ( इति )कोर्थः ? यत्र भीषादेशस्ततोऽन्यत्रात्वमधिकारागतं च भवतीत्यर्थः / 'बिभ्यन्तं प्रयुक्त, "अत्तिरीब्ली." (4 / 2 / 21) इति अवचूरिः-पिबत्यत्तिट्ये इति धातुत्रग्रस्याहारार्थपोन्तः / ४भीषणं-भीषा, "भीषिभूषिचिन्तिपूजिकथिकु त्वात् औदासीन्यनिवृत्त्यर्थतायां, कोऽर्थः ? औदासीन्यं = ' म्बिचिस्पृहितोलिदोलिभ्यः' (5 / 6 / 109 / ) इत्यनेन निःक्रियत्वम्, तस्य निवृत्तिः - औदासीन्यनिवृत्तिरर्थो यस्य 'अङ्'। "भापनम्, अत्र 'अनट्' / “बिभीतेर्भीष च" इति धातोः, तस्य भावः - ( औदासीन्यनिवृत्त्यर्थता) तस्यासूत्रे तिनिर्देशात् यङ्लुपि नात्मनेपदम्, तेन मुण्डो मकर्मकत्वाचनृतेश्चलनार्थत्वाच्च शेषाणां स्वरूपतो विवबेभाययतीति प्रयोगः / अत्र बेभ्यन्तं प्रयुक्त इति वाक्यम्। क्षातो वाऽकर्मकत्वात् “चल्याहारार्थेब्रुघयुधप्रस्नुनशभीषा, भापनमित्यस्य भीषणमित्याद्यवचूरिः॥१२॥ जनः" ( 3 / 3 / 108 ) “अणिगि प्राणिकर्तृकानाप्या ण्णिगः, (3 / 3 / 107) इति सूत्रद्वयेन सर्वत्र परस्मैपदे : मिथ्याकृगोऽभ्यासे / 3 / 3 / 63 // प्राप्ते परिमुहायमायसेति सूत्रं कृतमिति भावः / 'न पातेः' इति-पातेरयं प्रयोग:-पांक रक्षणे, पान्तं प्रयुक्त, वृतिः-'मिथ्यायुक्तागण्यन्तादभ्यासार्थात् णिग्, “पातेः” ( 4 / 2 / 17 ) इति सूत्रेण लोऽन्तः, कृगः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् / पदं मिथ्या कारयते / "आणिगिप्राणि०" ( 3 / 3 / 1071 ) इत्यनेन परस्मैपदं मिथ्येति किम् ? पदं साधु कारयति / अभ्यास इति भवति, पालयति चैत्र मंत्रः / तथा "न वस्तेः" ( इतिकिम् ? उसकृत्पदं मिथ्या कारयति ||6|| वस्तेरयं प्रयोगः-) "वसिक आच्छादने", वस्ते मैत्रः, न नग्नः, तं मैत्रं वसन्तं देवदत्तः प्रयुङ्क्त, णिग्, वासअवचूरिः-.अभ्यासः पुनः पुनः क्रियाभ्यावृत्ति- यति मैत्रमित्येव भवति / पिबतेः पाययते इति प्रयोगः। रुच्यते / मिथ्याशब्दयुक्तात् / अभ्यासेऽर्थे वर्तमा वसतेर्वासयते, वस्तेस्तु वासयति इति प्रयोगः // 14 // नात् / मिथ्या (इत्यत्र) द्वितीयाऽम्, अव्ययस्य (3 / 2 / 7) इति लुक् / पदं मिथ्या कारयत इति कोर्थः ? स्वरा ईगितः / 3 / 3 / 95 // दिदोषदुष्ट पदमसकृदु-वारंवारमुचारयति-पाठयतीत्यर्थः। 'एकवारम् // 9 // वृत्तिः-ईकारेतः (ईकारानुबन्धेतः) गकारेतश्च (गकारानुबन्धेतश्च ) धातोः फलवति कर्तर्यात्मनेपरिमुहायमायसपाट्धेवदवसदमादरु पदं स्यात् / 'यजते, पचते, कुरुते, कण्डूग्-कण्डूचनृतः फलवति / 3 / 3 / 94 // यते,णिगन्त(धातो:-)गमयते। फलवतीत्येव- पचन्ति पाचकाः, कुर्वन्ति भृत्याः; अत्रीदनादि प्रधानं फल वृत्तिः–प्रधानफलवति कर्तरि विवक्षिते सति का सह न संबध्यते, यच्च दक्षिणावेतनादि संबपरिपूर्वान्मुहे:,आङ पूर्वयमियसिभ्यां पिबतिधे- ध्यते तत् क्रियाया न प्रधानं फलम् , तच्चै तत् स्वार्थ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्मैपदविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते लक्षणं फलं सदसद्वा विवक्षानिबन्धनमेव ग्राह्यम्, करोतीत्यर्थः // 98 // तथैव लोके व्यवहारात् // 65 // 'दापन्तरगम्ये वा / 3.3 / 99 // ___अवचूरिः-यजी देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु / वृत्तिः-अनन्तरसूत्रपञ्चकेन यदात्मनेपदडुपचीपाके। डुकृग् करणे / अर्थ्यते इत्यर्थ:-अर्थ- मुक्तं तत् पदान्तरगम्ये फलवत्कर्तरि वा स्यात्। नीयः, स्वस्यार्थः = स्वार्थः-स्वर्गादिः, स स्वार्थः लक्षणं स्वं शत्रं परिमोहयते, परिमोहयति; स्वं कटं कुरुते, यस्य फलस्य-तत् / / 95 / / करोति इत्यादि / / 6 / / ज्ञोऽनुपसर्गात् / 3 / 3 / 66 // अवचूरि:- पदं च तत् अन्तरं च = पदान्तरं, ____ वृत्तिः-उपसर्गरहितजानातेः फलवति कर्तर्या पदान्तराद गम्यो-ज्ञातव्यः =पदान्तरगम्यः, तस्मिन् सतीस्मनेपदं भवंति / गां *जानीते / अनुपसर्गादिति त्यर्थः / अनन्तरैः - पाश्चात्त्यैः "परिमुहायमायस०, किम् ? स्वर्ग प्रजानाति / फलवतीत्येव- परस्य गां / ईगितः, ज्ञोऽनुपसर्गातू, वदोऽपातू, समुदाङोयमे." जानाति / अकर्मकाज्ज्ञाधातोः परतः "ज्ञ" (3 / / इति पञ्चभिः सूत्रः फलवत्कर्तर्यात्मनेपदं विहितं तत् 382) इत्यनेन सिद्धे सकर्मकार्थ वचनम् // 66 // आत्मनेपदं पदान्तरेणापि कर्तुः फलवत्त्वे गम्ये -प्रतीय माने सति पक्षे यथा स्यादित्याह-"अनन्तर" इत्यादि, - अवचूरि:- *"एषामीळअनेऽदः" ( 4 / 2 / 97 ) अन्यथा कत्तुंः फलवत्त्वस्य शब्दान्तरेणाभिहितत्वात इत्यनेन ईकारः / / 96 / / आत्मनेपदं न स्यात् इति भावः / उप्रतीयमाने सति / वदोऽपात् / 3 / 3 / 67 // ४आदिशब्दातू स्वमच गमयते गमयति वा, स्वं शिरः कण्डूयते कण्डूयति वा, स्वां गां जानीते जानाति वा, ___ वृत्तिः-अपपूर्वाद्वदतेः फलवति कर्त्तर्यात्मनेपदं स्वं शत्रुमपवदते अपवदति वा, स्वान् व्रीहीन संयच्छते स्यात् / एकान्तमपवदते, निराकरोतीत्यर्थः / फल | संयच्छति वा // 99 // वतीत्येव: अपवदति, परं स्वभावतः / / 67 / / शेषात्परस्मै / 3 / 3 / 100 // - समुदाडो यमेरग्रन्थे / 3 / 398 // वृत्तिः–उपयुक्तात्-प्रोक्ताद् अन्यः शेषः। येभ्यो वृत्तिः-समुदाङपराद् यमेरग्रन्थविषये फल- धातुभ्यो येन विशेषेणात्मनेपदमुक्त, ततोऽन्यस्मावत्कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् / 'संयच्छते ब्रीहीन्, २उद्य- द्धातोः कर्तरि परस्मैपदं भवति / अनुबन्धोपसर्गाच्छते भारम्, आयच्छते भारम् / अग्रन्थे इति र्थोपपदप्रत्ययभेदाचानेकधा शेषः / अनुबन्धशेषात्किम् ? वैद्यश्चिकित्सामुद्यच्छति // 8 // भवति, अत्ति, बोभवीति इत्यादि / उपसर्गशेषात, प्रविशति / अर्थशेषात्,-करोति,नयति। उपपदशेषात्अवचूरिः-'सम्बध्नातीत्यर्थः / उत्पाटयतीत्यर्थः / यः / / साधुभ्यः संप्रयच्छति, गृहे संचरति, साधु पदं समुदाङो यमेरिति सूत्रे फलवतीति किम् ? संयच्छति, कारयति / प्रत्ययशेषात् ,-शत्स्यति // 10 // उद्यच्छति, आयच्छति परस्य वस्त्रम् / तथा आङपूर्वात अकर्मकात स्वाङ्गकर्मकाच "आङो यमहनः " ( 3 / 3 अवचूरिः-पूर्वप्रकरणेनात्मनेपदनियमः कृतः, पर८६ ) इत्यनेनात्मनेपदे सिद्धेऽन्यकर्मकार्थ "समूदाङो." स्मैपदं त्वनियतम्, अतस्तन्नियमार्थ "शेषात्परस्मै" इवं इति वचनं कृतमित्यर्थः / उवैद्यश्चिकित्साग्रन्थे उद्यम वचनं कृतम्। "इङितः कर्तरि" (3 / 3 / 22) इत्यनेना अयं विग्रहश्चिन्त्यः, अन्यद मतं मतान्तरमित्यादिवदनान्यत् पदं पदान्तरमिति विग्रहस्वरूपत्वादू / Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने [अ०३ पा० ३.सू० 101-106 त्मनेपदविधिः / "ईगितः" (3 // 3 // 95) इत्यनेन फल- | परस्मैपदं स्यात् / प्रतिक्षिपति, अभिक्षिपति / ईदिवकतर्यात्मनेपदविधिः / इतोऽन्ये धातवो निरनुबन्धा स्वात्फलवति प्राप्तस्यात्मनेपदस्यापवादोऽयम् / एवम्वादयोऽनुबन्धशेषा इत्युच्यन्ते / भवति, अत्ति, दीव्यति, मुत्तरसूत्रद्वयमपि // 102 // गोपायति, पणायति, पुत्रीयति, पुत्रकाम्यति, अश्वति इमेऽनुबन्धशेषस्योदाहरणानि / अथोपसर्गशेषोदाहरणानि, अवचूरि:-"प्रत्यभ्यते: क्षिपः, अत्र सूत्रे बटुप्रति "निविश:' ( 3 / 3 / 24 / इत्यनेन ) निपूर्वविश आत्म- क्षिपते भिक्षाम् इत्यत्र क्षिपधातु प्रतिना सह संबद्धो नहि / नेपदविधिः, इतोऽन्योपसर्ग उपसर्गशेष उच्यते, यथा- तथा इह सूत्रे ( क्षिप् धातुः ) "क्षिपीत् प्रेरणे" इति प्रविशति, ( एवम् ) अधितिष्ठति, आगच्छति / अथा- तौदादिः ईदित् गृह्यते, न तु वैवाविकः, तस्य "शेषार्थशेषः,- गन्धनार्थे करोतेरात्मनेपदमन्यत्र परस्मैपदं- त्परस्मै" ( 3 // 3 // 100 ) इत्यनेनानुबन्धशेषत्वेन परस्मकरोति, एवं नयति, वदति / अथोपपदशेषः,-'समस्तृतीय- पदस्य सिद्धत्वात् / / 102 // . या" (333332) इत्यनेन तृतीयान्तोपपदयोगे सति चर प्राद्वहः / 3 / 3 / 103 / / तेरात्मनेपदम्, यत्र तु उपपदं तृतीयान्तं नहि स उपपदशेष उच्यते, तत्र परस्मैपदम् / “साधूभ्यः संप्रयच्छति" वृत्तिः-प्रपूर्वाद्वहतेः कर्तरि परस्मैपदं स्यात् / इत्यत्रेयं योजना-"क्रियाहेतुः कारकम्” (2 / 2 / 1) इति / प्रवहति // 103 // पादे "दामः संप्रदानेऽधर्म्य आत्मने च" ( 2 / 2 / 52) परेमृषिश्च / 3 / 3 / 104 // इति सूत्रम् / अस्यार्थः-संपूर्वदामः संप्रदानेऽधर्मरूपे वर्तमानान्नाम्नस्तृतीया, तृतीयायोगे च दामः परत आत्मन- वृत्तिः--परिपूर्वान्मृषेर्वहेश्च कर्तरि परस्मैपदं पदं भवति / दास्याः संप्रयच्छते / अधर्म्य इति किम् ? स्यात् / परिमृष्यति, परिवहति // 104 // पन्य संप्रयच्छति इत्युक्तम् / इति अत्र ( साधुभ्यः संप्रयच्छतीति ) उदाहरणे अधर्मी ( मि ) पदमुपपदं नहि, अवचूरि:-मैत्रं परि मृष्यते, धनं परि वहते इत्यत्र धर्मी (मि) पदं साधुरूपमस्तीति तृतीयोपपदाभावादा- मृषिवहिन्यां सह परिन सम्बध्यत इति न परस्मैपदम् त्मनेपदं (न) भवतीत्यर्थः / अथ प्रत्ययशेषः,-"शदेः // 104 // शिति" ( 33141 ) इत्यादिना प्रत्ययनियमः, अतो व्याऽऽपरे रमः / 3 / 3 / 10 / / ऽन्यः प्रत्ययशेषः / / 100 // वृत्तिः-व्याङ परिभ्यः पराद् रमेः "कर्तरि परानोः कगः / 3 / 3 / 101 // परस्मैपदं" स्यात् / विरमति, आरमति, परिरमति / वृत्तिः-परानुपूर्वात्करोतेः कर्तरि परस्मैपदं स्यात् / / इदित्त्वादात्मनेपदस्थापवादः // 10 // पराकरोति, अनुकरोति / गङ्गामनु कुरुते तप इत्यत्र वोपात् / 3 / 3 / 106 // करोतिरनुना सह न सम्बध्यते // 101 / / वृत्तिः-उपपूर्वाद्रमेः परस्मैपदं वा स्यात् / अवचूरि:-गन्धनादावर्थे तथा गित्त्वात् फलवति भार्यामुपरमति उपरमते वा। उपसंप्राप्तिपूर्विकायां च प्राप्तस्यात्मनेपदस्यापवादोऽयं "परानोः कृगः" इति / रतौ वर्तमानोऽन्त तणिगर्थो वा रमिः सकर्मकः। कुतः॥१०१॥ उपरमति उपरमते वा संतापः, उपरमति उपरमते. वाऽवद्यात् ( पापात् ) // 106 // प्रत्यभ्यतेः क्षिपः / 3 / 3 / 102 // वृत्ति:-प्रत्यभ्यतिभ्यः परात् क्षिपेः कर्त्तरि अवचूरिः ननु रमिधातुरकर्मकस्तत्कथं भार्यामुपरमते Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्मैपदविधानम् मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते [ 25 * इति सकर्मकोदाहरणं दशितमित्याह-उपसंप्राप्तीत्यादि, | भूत्, एतदर्थ गकारः कृतः, तेन चेतयते, नात्र परस्म अयमभिप्रायः- अकर्मका अपि धातवः सोपसर्गाः सकर्मका पदम् / ईगित (तः।३।३।९५) इत्यात्मनेपदस्यापवादोऽयभवन्ति / उपपूर्वकस्तु रमिरकर्मकोऽपि स्यादिति "उपरमते / मणिगि प्राणि इति योगः // 10 // संतापः, उपरमत्यवद्यात्' इति अकर्मकपरिणा ( ? ) | 'चल्याहारार्थे बुधयुधपुद्रुस नशजनः दर्शितमित्यर्थः // 10 // अणिगि प्राणिक कानाप्याण्णिगः / / 3 / 3 / 108 // वृत्तिः-चल्यर्थेभ्यः, ( कम्पनार्थेभ्यः ) आहा. 3 / 3 / 107 // रर्थेभ्यः इक बुधयुधादिभ्यश्च णिगन्तेभ्यः "कर्तरि ___वृत्तिः–अणिगवस्थायां य: प्राणिकर्तृ कोऽ- परस्मैपदं" स्यात् / चल्यर्थः, चलयति, कम्पयति / कर्मकश्च धातुस्तस्माण्णिगन्तात् “कर्तरि परस्मैपदं" आहारार्थः, भोजयति, आशयति चैत्रमन्नम् ( अशस्यात् / 'आसयति चैत्रम् / अणिगिति गकारः किम् ? श् भोजने)। इङ,-सूत्रमध्यापयति शिष्यम् / बुध-, णिजवस्थायां प्राणिकत कानाप्याण्णिगन्ताद् यथा बोधयति पद्मं रविः, बोधयति शिष्यं धर्मम् / युध्-, परस्मैपदं स्यात्- चेतयमानं प्रयुक्त चेतयति / योधयति काष्ठानि / पु,-प्रावयति राज्यं, प्रापयतीप्राणिकर्तृकांदिति किम् ? शोषयते ब्रीहीनातपः। | त्यर्थः / द्रु,-द्रावयत्ययः(लोहः) / स्नु, स्रावयति तैलं, अनाप्यादिति किम् ? कटं कुर्वाणं प्रयुक्त = कटं | स्यन्दतीत्यर्थः / नश, नाशयति पापम / जन-जनयति कारयते // 10 // पुण्यम् // 10 // इति तृतीयस्याध्यायस्य तृतीयः पादः / ग्रन्थाग्रम्-२५५॥ अवचूरिः-'आस्ते चैत्रः, आसीनं चैत्र मैत्रः प्रयुक्त, णिग् / एवं शेते चैत्रः, चैत्रं शयानं मंत्रः प्रयुक्त शाय- . अवचूरिः-१चलिश्च आहारश्न, तयोरर्थश्चल्याहारार्थः, यति चैत्रम् / शुष्यन्ति व्रीहयः, तान् व्रीहीन शुष्यत चल्याहारार्थश्च इङ् चेत्यादि / २"बुध अवगमने,' "बुधग् आतपः प्रयुङ्क्त, शोषयते व्रीहीनातपः / “प्राण्यौषधि- बोधने" इति भ्वादिको, "बुधि मनि च ज्ञाने" इति वृक्षोभ्योऽवयवे च" ( 6 / 2 / 31 ) इति सूत्रे प्राणिन दिवादिः इति त्रयोऽपि बुधा गृह्यन्ते / णी क्रीजीऔषधिवृक्षाः पृथग्-विभावे(गे)न दर्शिताः / तथाहि- ङः” (4 / 2 / 10) इति आत्वम् / “च्युङ ज्युङ् जुङ्ङ् इह शास्त्रे लोकप्रतीता एव त्रसरूपाःप्राणिनो गृह्यन्ते, न प्लुङ् गतो," " इंदुद्रुशुनुगतो" इति " पुत्रस्थावरा औषधिवृक्षाः, इति व्रीह्यादय औषधयः प्राणी- | णामचलनार्थार्थ', शेषाणां धातूनां सकर्मकार्थमप्राणिति न प्रसिद्धाः / णिग् इत्यत्र गकारः किम् ? अणिग- कर्तृकार्थ च चल्याहारेति वचनं कृतम् // 108 // अत्र वस्थायां प्राणिकर्तृकानाप्यात् णिजन्तात् परस्मैपदं मा | सूत्रेऽवचूरिश्लोक-४४०, अक्षर-२३ (?) / इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते सिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य ततीयः पादः समाप्तः ma Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तृतीयोऽध्याय: * ( चतुर्थः पादः ) गुपौ-धूप-विच्छि-पणि-पनेरायः / 3 / 4 / 1 // | इति न्यायात् यङ्लोपानन्तरमायप्राप्तिरस्ति // 1 // वृत्तिः-गुपादिधातुभ्यः "स्वार्थे श्रायप्रत्ययः” ___ कमेणिङ् / 3 / 4 / 2 // स्यात। गोपायति, धूपायति, विच्छायति, 'पणा- वृत्तिः–कमे; “स्वार्थे णिङ" स्यात् / काम- . यति, पनायति / २अनुबन्धस्याशव्यायप्रत्ययाऽभा- यते // 2 // . वपक्षे चरितार्थत्वादायप्रत्ययान्ताभ्यां पणिपनिभ्यामात्मनेपदं न भवति / गुपावित्यौकारो 'गुपि ____ अवचूरिः–णकारो वृद्धघर्षः / डकारे (इकारः ) गोपने' इत्यस्य निवृत्त्यर्थो यङ्लुब्निवृत्त्यर्थश्च आत्मनेपदार्थः॥२॥ // 1 // __ ऋतेर्डीयः / 3 / 4 / 3 // ___ अवचूरिः-सूत्रे विशेषः कोऽपि न निर्दिष्ट इति वृत्तिः-ऋतः धातोः “स्वार्थ डीयः" स्यात् / स्वार्ये वृत्तावुक्तम् / गुपौ रक्षणे, तपं धूप संतापे, विच्छत् | ऋतीयते / डकार आत्मनेपदगुणाभावार्थः // 3 / / गतो, पणि व्यवहारस्तुत्योः, पनि स्तुतौ / 'पणायति ____ अवचूरि:-'ऋत् घृणागतिस्पद्धेषु' इति ऋत व्यवहरति, स्तौति वा, विलायतीत्यर्थः (?) आत्मने धातुः॥३॥ पवस्य / उपणिपनी इदनुबन्धौ, इत्त्वात् (इदित्त्वात् ) आत्मनेपदं प्रसिद्धमेवास्ति, परमशवविषये पणिपने:' ___ अशवि ते वा / 3 / 4 / 4 // परत आत्मनेपदं भवति / यदि पणिपनेः परतः शववि वृत्तिः-गुपादिभ्योऽशक्विषये "ते- आयाषयः तत्र परस्मैपदमेव भवति / यथा-पणायति, पना दिप्रत्यया वा' स्युः / गोपायिता, गोप्ता; कामयिता, यति / ननु यप्रत्ययस्य प्राप्तिरेव नास्ति, आय कमिता; ऋतीयिता, अर्चिता / / 4 / / प्रत्यये सति धातोरनेकस्वरत्वात; तत्कथं यङ्लुपि निवृत्यर्थत्युक्तम् ? सत्यम्, "अशवि ते वा" (3 / 4 / 4) अवचूरिः-पायिता, पिता; विच्छायिता, विच्छिइति वक्ष्यमाणसूत्रेणाविषये विकल्पितस्याऽऽयस्य | ता; पणायिता, पणिता; पनायिता, पनिता इयमबाहप्रथमं यहिते "प्रकृतिग्रहणे यालबन्तस्य प्रहणम्" रणावली गोखा-अप्रेमातव्या / गोपायिता, पूपायिता, Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्थिकसन्प्रत्ययविधानम्] मध्यमवृत्त्यवचरिसंवलिते [26 पणायिता, पनायिता, कामयिता, ऋतीयिता इत्यत्र विक- | त्सति, प्रतिकरोतीत्यर्थः / संशयप्रतीकार इति किम्? ल्पेनाऽऽये कृते स्वस्तनीता, “स्ताद्यशितोऽत्रोणादेरिट्" / केतनं, केतयति // 6 // ( 4 / 4 / 32 ) इति इट्, “अतः” ( 4 / 3 // 82 ) इति सूत्रेण यकारसम्बन्ध्यकारो लुप्यते // 4 // अवचूरिः-कित निवासे / 'संशयं करोतीत्यर्थः। निग्रहविनाशौ प्रतिकारस्यैव भेदौ, तेन क्षेत्र चिकित्स्यः ___ गुप्तिजो गर्हा-क्षान्तौ सन् / 3 / 4 / 5 / / पारदारिकः, निग्राह्य इत्यर्थः, चिकित्स्यानि क्षेत्रे तृणानि, - वृत्तिः- “गुपो गर्हार्थे, तिजः १क्षान्त्यर्थे वर्त विनाशयितव्यानीत्यर्थः; अत्रापि सन् सिद्धःनिवसत्यमानात् स्वार्थे सन् प्रत्ययः" स्यात् / जुगुप्सते, स्मिन्निति केतनं, निवसन्तं प्रयुक्त =केतयति // 6 // गर्हते इत्यर्थः; तितिक्षते, सहत इत्यर्थः / गर्हाक्षान्ताविति किम् ? गोपनं, गोपयति; तेजनं, तेज- शान्-दान-मान्-बधान्निशाना-ऽऽर्जव-विचारयति / अनयोरर्थान्तरेऽपि त्यादयो नोच्यन्ते-न वैरूप्ये दीर्घश्चेतः / 3 / 4 / 7 // विधीयन्ते इत्यत्यादिना प्रत्युदाहृतम् / एवमुत्तर वृत्तिः-"शानादिधातुभ्यो यथासंख्यं निशाने, सूत्रद्वयेऽपि प्रायेण ज्ञेयम् / / 5 / / आर्जवे, विचारे, वैरूप्ये (च) वर्तमानेभ्यः स्वार्थे ___ अवचूरिः-'सन्' इत्यत्राऽकारोच्चारणं सनग्रहण सन्" स्यात्, एषां द्वित्वे सति पूर्वस्येकारस्य दीसूत्रेषु, कोऽर्थः ? सनाश्रितविधिषु सामान्येन स्वार्थसन घश्च / शीशांसति, शीशांसते; दीदांसते, दीदांसति; इच्छासनश्च द्वयोरपि सनोहणार्थ कृतम्, नकारश्च मीमांसते, बीभत्सते / अर्थनिर्देशः किम् ? अर्था'सन्यच' (4 / 1 / 3) इत्यत्र विशेषणार्थः कृतः / 'सह- / न्तरे मा भूत् ,- निशानम्, अवदानं, मानयति,(माननार्थे / गुपि गोपनकुत्सनयोः, तिजि क्षमानिशानयोः। | ण-पूजायाम् ) बाधयति ( बन्धण संयमने // 7 // रक्ष्यत इति गोपनम्, अनट / रक्षन्तं प्रयुक्त -गोपयति। अवचूरि:-शानूदान्साहचर्यात् मानिधातुर्वादितथा निशायत इति तेजनम् / निश्यन्तं प्रयुक्त तेज रेव ग्राह्यः, न तु चुरादिः। द्विवंचने कृते सति / यति / 'त्यादयो नोच्यन्ते' इत्याद्यक्षराणामयं भावार्थः शानी तेजने-शान्, दानी अवखण्डने-दान्, मानि पूजायाम्प्रायेण गुप्तिजो *गेत्पादयः, त्यादिसमानार्थत्वाच्छत्रान मान, बधि बन्धने-बधु, सन्, “सन्यङश्च" (४११३)इति नशावपि न भवतः / केचिच्छत्रानशाविच्छन्ति, तन्मते द्वित्वं, "ह्रस्वः' ( 4 / 1 / 39 ) इति दीर्घस्य ह्रस्वः, गोपमान, तेजमानं प्रयुक्त इत्यपि / तथा प्रायेणेति "सन्यस्य" ( 431159 ) इति अकारस्य इत्वं, ततः भणनात् गोपते, तेजते, केतति, बधते इत्याद्यपि भवन्ति / शान्दान्० सूत्रेण ईकारः / बीभत्सते' इत्यत्र "गडदबादे." अत एव रसवाचकतिक्तशब्दसिद्धये तेजते इति वाक्यं ( 221177 ) इत्यादिना धातुबकारस्य मः, “प्राग्वत्" कर्तव्यम् // 5 // ( 313144) इत्यनेन आत्मनेपदम् / निशानम, अवदामकितः संशय-प्रतिकारे / 3 / 4 / 6 / / मित्यत्र 'शांनी तेजने, दानी अवखण्डने; परं धात्वन्तवृत्तिः-"कितः संशये प्रतीकारे च वर्तमानात् / रेण वाक्यं, निश्यतीति निशानम्, अवद्यतीति अवदानम, स्वार्थ सन्" स्यात्। 'विचिकित्सति, व्याधिं चिकि- ."अच्' *"शोंच तक्षणे, दो छोंच् छदने" // 7 // __*अत्र त्पादयः' इति पाठोऽशुद्धश्च्युतकियदंशश्च प्रतीयते / तत्स्थाने "ग्रे त्यादयो न भवन्ति" इति पाठ साधु प्रतिभाति / 'निशानम्, अवदानमित्यत्र 'अच्' ( 5 // 1 // 49 ) इति सूत्रेण 'अच्' प्रत्यय इत्यर्थः / *'निश्यति' इत्यत्र 'शोंच तक्षणे' इति शोधातुः, एवम् 'अवधति' इत्यत्र 'दों छोंच् छेदने' इति दोषातुरित्यर्थः। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने [अ०३ पा० 4 सू०८-१० धातोः कण्डवादेर्यक् / 3 / 4 / 8 / / वृत्तिः-कण्ड्वादिधातुभ्यः “स्वार्थे यक् प्रत्ययः" स्यात् / कण्डूयति, कण्डूयते; महीयते, मन्तूयति / धातोरिति किम् ? कण्डूः। धातुग्रहणमुत्तरार्थमिह सुखार्थे च / कण्डूग, गकारः फलवति "ईगितः" ( 3 / 3 / 65) इत्यात्मनेपदार्थः / / 8 / / अधिश्रयणं-चुल्युपरि स्थाल्यादिरोपणमादिर्येषां तृणकाष्ठक्षेपणादीनां-ते, तेषां क्रियान्तरविरोधिग्रामगमनादिभिरव्यवहितानां साकल्येन संपत्तिः-निष्पत्तिभृशत्वमुच्यते, फलातिरेको वा, कोऽर्थः ? अधिश्रयणादीनां यत् साध्यंफलं कर्तुविवक्षितं, तस्मात् अतिरेक:-आधिक्यम्, अत्यर्थता. इति यावत्, फलस्य समाप्तावपि क्रियाया अनुपरतिर्वा, स ईदृग् फलातिरेको भृशत्वमुच्यते / तथा प्रधानक्रियाया विक्लेदादेः क्रियान्तराऽव्यवधामेनावृत्तिराभीक्ष्ण्यमुच्यते // 9 // अट्यतिमूत्रिमूत्रिसूच्यशूर्णोः / 3 / 4 / 10 // वृत्तिः--"एभ्यो भृशाभीक्षण्यार्थवत्तिभ्यो यह" स्यात् / भृशं पुनः पुनर्वाऽटति-अटाट्यते, एवं इयर्ति ऋच्छति वा-अरायते, सोसूयते,मोमूत्र्यते सोसूच्यते, अश्नुते अश्नाति वा-अशाश्यते, २प्रोर्णोनूयते // 10 // ____ अवचूरिः--कण्डूग गात्रविघर्षणे, मही पूजायां वृद्धौ च, मन्तु रोषवैमनस्ययोः, “दीर्घश्च्वियङ्यक्क्येषु च" (4 // 3 // 108 ) इति दीर्घः / द्विविधाः कण्ड्वादयः, धातवो नामानि च; परमत्र प्रायेण धातवो गृह्यन्ते इत्युक्त “कण्ड्वादिधातुभ्यः" / कण्डूग्, महीङ्, हृणीङ्, वेङ्, लाङ्, डकार आत्मनेपदार्थः, मन्तु, वल्गु, असु, वेट्, ला, लिट्, लोट्, उरस्, उषस्, इरस, अस्, तिरस्, इयेस्, इमस्, पयस् संभूयस्, दुवस्, दुरज, भिषज, भिष्णुक, रेखा, लेखा, एला, वेला, केला, खेला, गोधा, मेधा, मगध, इरध, इषुध, कुषुम, सुख, दुःख, अगद, गद्गद, तरण, चरण, ( वरण ) उरण, तुरण, पुरण, चुरण, (वुरण् ) भरण, तन्तस्, (तम्पस् ) पम्पस्, अरर, समर, सपर इति कण्ड्वादिगणः // 8 // व्यञ्जनादेरेकस्वराद् भशा-ऽऽभीक्ष्ण्ये यङ वा / 3 / 4 / 9 / / वृत्तिः-"भृशाभीक्ष्ण्ये वर्तमानाद्धातोर्व्यजनादेरेकस्बराद्य प्रत्ययो वा" भवति / भृशं "पुनः पुनर्वा पचति-पापच्यते / धातोरित्येव-तेन सोपसर्गान्न यक - भृशं प्रात्ति। व्यञ्जनादेरिति किम? भृशमीक्षते / एकस्वरादिति किम् ? भृशं चकास्ति / भृशाभीक्ष्ण्य इति किम् ? पचति / वेति किम् ? लुनीहि लुनीहीत्येवायं लुनातीत्यादि यथा स्यात् अवचूरिः- 'ऋक् गतौ, भृशं पुनः पुनर्वा इत्ति'अरार्यते,' यङ्, “क्ययङाशीर्ये' ( 4 / 3 / 10) इति गुणः-ऋस्थाने अर्, अर्थ, “स्वराद्वितीयः" (4 / 14) इति द्वित्वम्, ( अर्यर्य ) "व्यअनस्यानादेलुक" (4 // 1 // 44 / इति) आद्ययकारलोपः, “आगुणावन्यादेः" (4 // 1148 ) इति आकारः। एवमटाट्यते / सूत्रण विमोचने, मूत्रण प्रस्रवणे, सूचण् पैशून्वे, अशूटि ( अशौटि ) व्याप्तो, अशस् भोजने, ऊर्गुगक आच्छादने / 25 (प्रपूर्वः), भृशं पुनः पुनर्वा प्रोर्णोति- यङ, स्वरादेद्वितीयः" ( 4 / 1144) इति तथा “अयि र:" ( 41 6) इति 'ऊर्' विश्लिष्य “णषमसत्परे स्यादिविधौ च" (2 // 1 // 60 ) इति सूत्रेण द्वित्वरूपे परे विधौ कर्तव्ये णत्वशास्त्रस्यासिद्धत्वात् 'नु' इत्यस्य द्वित्वम् / अटचय॑शामव्यअनादित्वात्, सूत्रिमूत्रिसूचीनामनेकस्वरात, ऊर्णोतेरव्यअनाद्यनेकस्वरत्वात् "व्यञ्जनादे:०" ( 3.41 - 9) इति सूत्रेणाऽप्राप्ते सति अटयत्तिसूत्रि० इति सूत्र कृतमित्यर्थः // 10 // // 6 // / अवचूरिः-गुणक्रियानामषिधयणादीनां, कोऽर्थः ? पुनः पुनः इत्यामीक्ण्याः / Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या-पक्लुविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते [26 गत्यर्थात् कुटिले / 3 / 4 / 11 // 113 ) इति द्वित्वं, “गहोर्जः" ( 4 / 1 / 40 इति पूर्वस्य वृत्तिः-व्यञ्जनादेरेकस्वराद् गत्यर्थात् “कुटिल गस्य जः,) "आगुणावन्यादेः" ( 43148 ) इति गुणः, "यो यडि" (2 / 3 / 101) इति रस्य लत्वम् / २"चरएवार्थे वर्तमानाद्धातोर्यट" स्यात्, न भृशाभीक्ष्ण्ये / फलाम्" (411153) इत्यभ्यासे मोन्तः, “ति चोपान्त्याकुटिलं क्रामति='चंक्रम्यते, (एवं ) दंद्रम्यते / ऽतोऽनोदुः" (4 / 1154) इति धातोः अतः उः, "भ्वाकुटिल इति किम् ? भृशमभीक्ष्णं वा क्रामति / धात्व देनामिनो दी?" इत्यादिना (2 / 1163 सूत्रेण) दीर्घः, र्थविशेषणं किम् ? साधने कुटिले मा तभू,- कुटिलं ( इत्येवं ) चञ्चूर्यते ( इति सिद्धम् ) 3"जपजभवहदपन्थानं गच्छति / कथं जङ्गमः ? रूढिशब्दोऽ शभञ्जपशः” ( 41352) इत्यनेनाभ्यासे मोऽन्तः, यम् , लक्षणया स्थावरप्रतिपक्षमात्रे वर्त्तते // 11 / / "अन्तरङ्गानपि विधीन्बहिरङ्गा लुब् बाधते''इति न्यायाअवचूरिः--१"मुरतोऽनुनासिकस्य" (4 / 1 / 51) त्प्रथमं यङो लोपे कृते "नो व्यञ्जनस्य०" ( 412345) इति मोऽन्तः / २“जङ्गमः” इत्यत्र कुटिलार्थाभावात्कथं | इत्यनेन नकारस्य लोपो न भवेदित्येतदर्थम् // 12 // यङ् इति पराऽऽशङ्का, तत्राह-रूढीति, गम्धातुः, गच्छ न गृणा-शुभ-रुचः / 3 / 4 / 13 // तीति जङ्गमः, “गमेर्जम् च वा" (13) इत्युणादिसूत्रेण अप्रत्ययः, (द्वित्वे) धातोः पूर्व 'जम्' इत्यादेशश्च, ___ वृत्तिः-गृणातिशुभिरुचिभ्यो भृशादौ “यङ ( इत्येवं ) जंङ्गमः इति सिद्धम् / यन्मुख्यं प्रवृत्तिनि / न" स्यात् / गर्हितं गृणाति, भृशं शोभते, रोचते . मित्तं शब्दस्य तत्प्रत्यासत्या तदुपलक्षितं धर्मान्तरमुपा // 13 // दाय प्रवृत्तिलक्षणा उच्यते, तया // 11 // अवचूरि:-'आदिशब्दादू गृणातेर्गझेऽप्यर्थे न - गऋ-लुप-सद-चर-जप-जभ-दश-दहो गर्ये यङ् / भृशं पुनः पुनर्वा रोचते / गऋश् शब्दे,शुभि दीप्ती / 3 / 4 / 12 // (रुचि अभिप्रोत्यां च ) // 13 // वृत्तिः--"गर्य एवार्थे वर्तमानेभ्यो गऋप्रभृति बहुलं लुप् / 3 / 4 / 14 // धातुभ्यो यह" स्यात् / गर्हितं-निन्द्यं निगिरति- वृत्तिः-“यो 'बहुलं लुप्" स्यात् / बोभूयते, निजेगिल्यते, ( एवं ) लोलुप्यते, सासद्यते, 'चञ्चू- .बोभवीति, बोभोति / बहुलग्रहणं प्रयोगानुसरणार्यते, जाप्यते, दन्दश्यते, दंदह्यते / दशेः कृतनलो- र्थम्, तेन क्वचिद् यङ न लुप्यते,-'लोल्या, पोपूपस्य निर्देशोयकोलुप्यपि नलोपार्थः, तेन उदंदशीति / या // 14 // गर्दा इति किम् ? साधु जपति / धात्वर्थविशेषणं किम्? साधने गर्दै मा भूत्,- जपति वृषलः। नियमः ___ अवचूरिः- 'बहुङ् महुङ् वृद्धौ, बह,, "उदितः किम् ? भृशं पुनः पुनर्वा निगिरति, कुटिलं चर स्वरान्नोऽन्तः" (4 / 4 / 98 // इति) बंह, बहतेऽस्मात्कातीत्यत्र न यङ् // 12 // र्यजातमिति "बहुलम्," "स्थावङ्किवंहितन्दिभ्यः किन्न लुत्क"* ( 486 ) इत्युणादिसूत्रेण "उल" ( प्रत्ययअवचूरिः--न भृशादिष्वित्येवकारार्थः। 'ग्ऋत् / स्तथा) नोऽन्तलोपः / लोलूयन-लोलूया, पोपूयनंनिगरणे, गहितं-निन्धं निगिरति इति यङ्, "ऋतां क्ङ्-ि पोपूया, “शंसिप्रत्ययातू" (5 / 3 / 105 ) इत्यनेन अप्रतीर्' ( 4 / 4 / 116 ) इति ईर्, “सन्यङश्च" (4 // | त्ययः, "आतू" ( 2 / 4 / 18 ) इत्यनेन आप् / भृशं इदं सूत्रमशुद्धं प्रतीयते, बृहद्वृत्तौ "स्थावङ्किबंहिबन्दिभ्यः किन्नलुक् च" इत्याकारकसूत्रस्य वर्शनात् / Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने [अ०३ पा०४ सू०१५-१८ पुनः पुनर्वा भवति-यङ्, "द्वितीयतुर्ययोः पूर्वो" ( 4 // 1 // वृत्तिः-णितश्चुरादयः / चुरादिधातुभ्यः 42) इति भस्य बः, “आगुणावन्यादेः' ( 4148 // | "स्वार्थे णिच् प्रत्ययः'' स्यात् / चोरयति, नाटयति / इति द्वित्वे पूर्वस्य गुणः,) "बहुलं लुप्" इति यो लोपः, णकारो वृद्धयर्थः, णिग्रहणसूत्रेषु सामान्यग्रहणायङ्लोपानन्तरं "यतुरुस्तोर्बहुलम्" ( 4 / 3 / 64 ) इत्य- र्थश्च / “अनित्यो हि णिच चुरादीनां" "घुषेरविनेन ईतु, ( इत्येवं ) बोभवीतीति सिद्धम् / बोमोती- शब्दे" (4 / 4 / 66 ) इत्यत्र ज्ञापयिष्यते / वहुवचनत्यत्र बहुलबलात् क्वचिद् ( ईत् विकल्पः // 14 // माकृतिगणार्थम् , तेन संवाहयतीत्यादि सिद्धम् . // 17 / / अचि / 3 / 4 / 15 // वृत्तिः-"अचिप्रत्यये परे यढने लुप्" स्यात् / अवचूरिः-णकारानुबन्धाः चुरादयः / "चुरालोलुवः, पोपुवः, नेन्यः / / 15 / / दिभ्यो णिच्” इति सूत्रे विशेषोऽयं लिख्यते-चुरादिगणे 'इतोऽदन्ताः' इत्युक्तमस्ति, इतोऽङ्कणादयो धातवोऽवन्ता. अवचूरिः-नित्यार्थ वचनमिदम् / लोलूयत इति ज्ञातव्याः / अदन्तत्वं च सुखादिधातूनां णिच् संयोगे एव लोलुवः, एवं पोपुवः इति वाक्ये यङन्तात् "अच्" ( 5 द्रष्टव्यम्, तेन णिजभावे "जगणतुः, जगणिथ" इत्यत्र २४६)इति अच्, “अचि"इति सूत्रेण यङ् लुप्यते, "धातो परोक्षायां सत्यामनेकस्वरत्वाभावात् 'आम्' प्रत्ययो न रिवर्णोवर्णस्य०" ( 211150 ) इत्यनेन 'उव्' आदेशः / भवति, द्विवंचने कृते अनेकस्वरत्वेपि संनिपातेतिन्यायान 'नेन्यः' इत्यत्र अचि कृते "योऽनेकस्वरस्य' (2 / 1156) 'आम्' / 'संवाहयति, कोऽर्थ: ? अङ्गानि मृदनाति, इति सूत्रेण 'य' आदेशः // 15 // विश्रामणां करोतीत्यर्थः // 17 // नोतः / 3 / 4 / 16 / / युजादेनेवा / 3 / 4 / 18 // वृत्तिः-“उकारान्तधातोर्विहितस्य यढोऽचि परे लुप् न” स्यात् / योयूयः, रोरूयः / / 16 / / _वृत्तिः–चुरादिप्रान्ते गणो युजादिः / युजा दिधातुभ्य: "स्वार्थे वा णिच् " स्यात् / योजयति, अवचूरिः-योयूयः, रोख्य इत्यत्र "बहुलं लुप्" योजति; साहयति, सहति // 18 // . (3 / 4 / 14 ) इत्यनेनापि यङ् न लुप्यते, पृथग्योगकरजात, अन्यथा "अचि नोतः” इत्येकमेव योगं कुर्यात् अवचूरिः-. नदीवप्रान मित्त्वा कुवलयमिवोत्पाव्य च तरून्, // 16 // मदोन्मत्तान् हत्वा करचरणदन्तः प्रतिगजान् / चुरादिभ्यो णिच् / 3 / 4 / 17 / / जरां प्राप्यानार्या तरुणजनविद्वेषजननी,. नन्वदन्तधातूनामादौ अधातुर्वर्तते, सुखधातुस्तु तृतीयः, ततोऽत्रादन्तत्वं च "अङ्गादीना"मिति वक्तव्ये कथमदन्तत्वं च "सुखादीना" मित्युक्तम् ? सत्यम्, अङ्कादीनामिति वक्तव्येऽप्यङ्कब्लष्कयोः फलामावाद सुखादीनामित्युक्तम् / इदमुक्तं भवति-धातूनामदन्तत्वस्य फलं यथासम्भवं वृद्धयादेरभावः, परमब्लेष्कघातू मध्येऽदन्तधातु न पठेत् तथापि वृद्धयादेः प्राप्तिरेव नास्ति, वृद्धयादियोग्यान्त्योपान्त्यस्वराद्य मावात्, इत्यङ्कग्लेष्कयोरदन्तत्वे वृद्धयाधभावरूपफलाभावादङ्कादीनामित्यनुक्त्वा सुखादीनामित्युक्तम् / ननु तहि कथमन्तरदन्तं " पठति ? इति चेद्, पूर्वाचार्यानुरोधात्, पूर्वाचायः स्वव्याकरणेऽब्लेष्कधात्वदन्तमध्ये पठितावितिः श्री हेमचन्द्रसूरिभगवानपि तथैव पठति / एवमेवंविधान्यधातुष्वपि ज्ञातव्यम्। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिक-णिग्प्रत्ययविधानम्] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते. [ 31 स एवायं नागः सहति कलभेभ्यः परिभवम्।१।(शिखरिणी)। प्रस्थितः शत्रुञ्जये सूर्य पातयति। ननु कर्ताऽपि इति चुरादिसहधातुप्रयोगे पूर्वकविप्रयोगोऽयं, भ्वादिना करणादीनां प्रयोजक इति तद्व्यापारेऽपि णिग् तु 'सहते' इति स्यात् // 18 // प्राप्नोति / नैव, प्रयोक्तृग्रहणसामर्थ्यात् / तथा क्रियां कुर्वन्नेव कर्लोच्यते, तेन तूष्णीमासीने प्रयोज्ये भूङः प्राप्तौ णिङ्।३।४।१६।। "अनुयुक्तां मा भवान्' इत्यत्र न णिग्' // 20 // वृत्तिः-"भूधातो: प्राप्तावर्थे वर्तमानात् णिङ प्रत्ययो वा" स्यात् / भावयते, भवते; प्राप्नोतीत्यर्थः / - अवचूरिः- "युजादेवा" ( 3 / 4 / 18 ) प्राप्तावित्येव-भवति / णिङिति डकार आत्मनेपदा- | इति सूत्रादारभ्य नवा इत्यऽधिकारो............... र्थः / भूङ इति उकारनिर्देशो णिङभावेऽप्यात्मने ( "भूङः ) प्राप्तौ ................. ( णिङ्,” ) ‘पदार्थः / प्राप्त्यर्थाभावेऽपि क्वचिदात्मनेपदमिष्यते, "प्रयोक्तृव्यापारे णिग्" इत्यादिसूत्रेषु 23. “णिज् यथा बहुलं नाम्नः कृगादिषु' इति सूत्रे यावज्ज्ञातव्यः / "याचितारश्च नः सन्तु, दातारश्च भवामहे। एकत्र सूत्रः प्रत्यया भवन्ति, पक्षे वाक्यं तिष्ठति; यथाआक्रोष्टारश्च नः सन्तु, क्षन्तारश्च भवामहे" // 1 // कारयति, कुर्वन्तं प्रयुङ्क्ते इति / पराभिभवपूर्वको (अनुष्टुब्) व्यापारः प्रेषणमुच्यते, सत्कारपूर्वको व्यापारोऽध्येषणप्राप्त्यर्थेऽपि परस्मैपदमित्यन्ये, यथा-सर्वं भवति, मुच्यते; एतयोरुदाहरणमेकमेव, यथा-'कारयति,' अत्र सर्व प्राप्नोतीत्यर्थः / ( अवकल्कनाऽर्थे तु ) 'भूण प्रेषणेन वा अध्येषणेन वा यथासंभवं प्रयोक्तृत्वम् / तथा अवकल्कने' इति चुरादिपाठात् भावयतीत्येव निमित्तभावेन-कारणसंभवे प्रयोक्तृत्वम्, यथा-"वासयति // 16 // भिक्षा, कारीषाऽग्निरध्यापयति; ' अत्र भिक्षाप्राप्त्यग्नि प्रज्वलने निमित्तं कारणम् / “राजानमाग ( म ) यति, प्रयोक्तृव्यापारे णिग / 3 / 4 / 20 // रात्रि विवासयति कथकः;" अत्र आख्यानेन प्रयोक्तृवृत्तिः–कर्तारं यः प्रयुक्त -प्रेरयति, व्यापा- व्यापारः, कथककथानकरसविस्तारेण श्रोतृजनचित्तवर्तरयतीत्यर्थः,सः प्रयोक्ता,“तव्यापारे वाच्ये धातोर्वा माना राजादयः प्रयुक्ताः-प्रवर्तिताः प्रतीयन्ते / तथा णिग् प्रत्ययो" भवति।व्यापारश्च प्रेषणाध्येषणनि- "कसं घातयति, बलि बन्धयति नट::" अत्राभिनयेन / मित्तभावाख्यानाभिनयज्ञानप्राप्तिभेदैरनेकधा भव- तथा "पुष्येण चन्द्र योजयति गणकः' इत्यत्र ज्ञानेन / ति। कुर्वन्तं प्रयुङक्ते = कारयति, अत्र प्रेषणाध्येषणे "उजयिन्याः प्रदोषे प्रस्थितः उज्जयन्तात् प्रातः प्रस्थितः" णिग्; एवं वसन्तं प्रयुक्त = वासयति,अत्र निमि- इत्यत्र प्राप्त्या। प्रयोक्तृव्यापारकेन* सप्तधा प्रयोक्तते णिग्; भिक्षा राजानमागमयति, रात्रि विवास- व्यापारविधिः। राजानमागच्छन्तं प्रयुङ्क्ते,-णिग, यति कथकः, कंसं घातयति, बलिं बन्धयति नटः, | "णिति" ( 413150 / इति ) वृद्धिः, "अमोऽकम्यमिपुष्येण चन्द्रं योजयति गणकः-ज्योतिष्कः, उज्ज- चमः" ( 4 / 2 / 26) इति ह्रस्वः / तथा विपूर्वो वस् यिन्याः प्रदोषे प्रस्थितो माहिष्मत्यां नगर्या सूर्य- धातुरतिक्रमेऽर्थे वर्तते, तेन "विवासयति," कोऽर्थः ? मुद्गमयति, . उज्जयन्तात्(-रेवतकात्) प्रातः अतिक्रमयति / कथको व्यासस्तथा कथानकरसं कथयति, त्रयोविंशतिसूत्रेष्वित्यर्थः / इयं गणना 'प्रयोक्तृ०' इति प्रकृतसूत्रादारभ्य 'णिग् बहुलम्' इति सूत्रं यावद् विधेया, 'युजादेर्नवा' इति सूत्रं सूत्राद् "णिज् बहुलम्" इति सूत्रं यावत्तु पञ्चविंशतिसूत्राणि भवन्ति / *व्यापार एव व्यापारक इति स्वार्ये कप्रत्ययः / Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32) श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने (अ० 3 पा० 4 सू० 21-22 यथा श्रोतृणां रात्रिः सुखेन परिगलति, अत्र आल्यानेन / काञ्च सन् मा भूत्,-'गमनेनेच्छति, भोजनमिणिग् / कंसं घ्नन्तं प्रयुङ्क्ते-कंसं घातयति, हनः परो च्छति मैत्रस्य / इच्छायामिति किम् ? भोक्तुं णिग, "णिति घात" ( 4 / 3 / 100 ) इति सूत्रेण हनु याति / अतत्सन इति किम् अचिकीर्षितुमिच्छति / स्थाने 'घात्' इत्यादेशः / बन्धश् बन्धने, बध्नन्तं प्रयु तद्ग्रहणं किम् ? जुगुप्सिषते / सनोऽकारः किम् ? ङ्क्ते,-णिग, अत्र अभिनयेन, नटो नाटकरङ्ग तथाऽनुभवं दर्शयति, यथा जनो जानाति कंसो मारितो, बलिर्बन्धा- अर्थान् प्रतीषिषति / नकारः सनग्रहणेषु विशेषपित: ( उत्पलमतेनान्त्याऽकारस्य वृद्धिः• ) / "पुष्येण णार्थः / / 21 // . युअन्तं प्रयुक्त," अत्र ज्ञानेन-ज्योतिर्विद्यया / उद्गच्छन्तं प्रयुङ्क्त पान्थः, *तथा सूर्योदयस्तमनकारयतीति अवचूरि:-गमधातुपरतः। भुजिधातुपरतः। चिकीप्राप्तौ अस्तमयति (?) / "मनु कर्ताऽपि"(इति)- एतस्य र्षणं- चिकीर्षितुं', "शकघृषज्ञारमलभसहार्हग्लाघटाभावार्थोऽयं लिख्यते-कटं करोतीत्यादौ मुख्यकर्तृव्यापारेऽपि स्तिसमर्थार्थे च तुम्" ( 5 / 4 / 90 ) इत्यनेन तुम् / णिग् प्राप्नोति, अत्रापि प्रयोगव्यापारस्य विद्यमान *'अट पट इट किट कट कटु कटै' इगतो, इ प्रतिपूर्वकं, त्वात्; तथापि (तथाहि)- कटं करोतीति कोऽर्थः ? जाय प्रत्येतुमिच्छति,-'सन्,' "स्वरादेद्वितीयः” (13) मानं कटं जनयतीत्यर्थः, इति पराशङ्कायामाह- प्रयोक्तृ इत्यनेन सनो द्वित्वम्, इति सनोऽकारविधानफलम् / ग्रहणसामर्थ्यात् / सूत्रे "प्रयोवतृ' इति किं कृति कथं नदीकूलं पिपतिषति ?, श्वा मुमूर्षत ?; अत्रोत्तरम्, ( कृतं ) ? तस्य प्रयोपतुर्यग्रहणं, कोऽर्थः? "प्रयोवत' पतितुमिच्छति, मर्तुमिच्छतीति वाक्यवदुपमानादत्रापि इत्यक्षरकरणं, तत्सामर्थ्यात् कत्तारं यः प्रयुक्त-व्यापा सन् भविष्यतीत्यर्थः / एषाऽवचूरिस्तुमर्हा० इति सूत्ररयति, स हि प्रयोक्ता; यदि च व्यापारमात्रे पिग् स्यात्, प्रान्ते ज्ञेया // 21 // तदा "व्यापारे णिग्" इत्येव सूत्रं कुर्वीत / “तूष्णीम्" इत्यादि, प्रयोज्ये च्छात्र-पृच्छये शिष्ये तूष्णीमासीने-मौनं द्वितीयायाः काम्यः / 3 / 4 / 22 // कृतवति प्रयोजक:-प्रच्छिक्रियायाः कारयिता प्राह-मां पृच्छतु भवान्, अनुयुक्तां मां भवान् इति व्यापारमात्रे वृत्तिः-"द्वितीयान्तानाम्न इच्छाऽर्थे काम्यप्रत्ययो प्रयोगे णिग् न भवति / 1 "मां पृच्छतु भवान्" इत्यपि वा" स्यात् ।पुत्रमिच्छति (इति) वाक्यं, पुत्रकाम्यति; ज्ञेयम् // 20 // इदमिच्छति-इदं काम्यति, स्वरिच्छति-स्वःकाम्यति द्वितीयाया इति किम् ? इष्यते पुत्रः, तथा भ्रातुः तुमर्हादिच्छायां सन्नतत्सनः / 3 / 4 / 21 // पुत्रमिच्छति, आत्मनः पुत्रमिच्छति; अत्र कथं न काम्यः ? ( इति ) पृच्छा, उत्तरम्- 'सापेक्षत्वात् / वृत्तिः-यो धातुरिषेः कर्म इषिणैव सह(च)समा भ्रातुष्पुत्रकाम्यतीत्यत्र समर्थत्वात्काम्यः / / 22 / / नकर्तृकः स तुम) धातुः, "तस्माद् तुमर्हात् धातोः इच्छायामर्थे सन् वा" स्यात् ; अतत्सनः, कोऽर्थः ? ___ अवचूरिः- "द्वितीयायाः काम्यः” इति सूत्रे काइच्छासनन्तात्पुनरपि न सन् / कर्तुमिच्छति-चिकी- | म्येनैव कर्मण उक्तत्वात् भावकोरेव काम्यप्रयोगः, पति। तुमादिति किम् ? अकर्मणोऽसमानकर्तृ. / यथा-पुत्रकाम्यत्यसौ। तथा काम्यप्रत्ययस्य सस्वरस्य फलम् •'बन्धापितः' इत्यत्र / *'तथा' इत्यतः 'अस्तमयति' इति यावत् पाठेऽशुद्धिःप्रतिमाति। *"अट" इत्यतः 'कट' इति यावद् धातुपाठः प्रस्तुतेऽसंगतः प्रतीयते / Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम्यादिप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते [ 33 अजघटकाम्यत्,' तत्काम्याञ्चकार' इत्यादौ ज्ञात- | इत्यादौ आम् प्रत्ययः सिद्धः। कमियेष-क्यन्, “क्यनि" व्यम् / १“सापेक्षत्वात्' इति- नान्यमपेक्ष्यमाणोऽ- इति दीर्घः 'ई,' तत: परो........... ( "धातोरनेकन्येन सहकार्थीभावमनुभवितुं शक्नोतीत्यर्थः, तथा "अघ- स्वरादाम् परोक्षायाः, कृभ्वस्ति चानु तदन्तम्" ( 3 / 4 / मिच्छति, दुःखमिच्छति" इत्यत्रापि नहि कोऽप्यात्मनोऽघं 46 / इति परो) क्षादिकं विधेयम् / मश्च-मकारोऽव्ययं दुखं वा इच्छति इति परस्यैवेत्यु (य) पेक्षितत्वात् सापे- च-माऽव्ययं,न माऽव्ययम् अमाऽव्ययं, तस्मात् / 'म' इति क्षत्वमस्ति, इति काम्यो न भवति / कथं तहि पुत्रकाम्य- मकारान्तशब्दपरिग्रहः / पुत्रमिच्छति / चकारं विना तीत्यत्र पुत्रस्यात्मीयता गम्यते ? अत्राह-अन्यस्याऽश्रुतेः ( इदमिच्छति, स्वरिच्छतीत्यादौ ) मान्ताव्ययाभ्यां इच्छायाश्च प्रायेणात्मविषयत्वात् / "ऋतां विद्यायो- परतः काम्यः सावकाशः सन् क्यना काम्यो बाध्येत, निसम्बन्धे" ( 3 // 2 // 37 ) इत्यलुक् समास:, "भ्रातुष्पु- •तत इदं काम्यति, स्वःकाम्यति इति न सिध्येत्, परं त्रकस्कादयः” ( 2 / 314 ) इति षत्वम् // 22 // मान्ताव्ययाभ्यां काम्य इष्टोऽस्ति, "द्वितीयाया: काम्यः' इति सूत्र। ४"नं क्ये"(११११२२)"क्यो वा" (4 // 381) अमाव्ययात् 'क्यन् च 3 / 4 / 23 // "दीर्घश्च्वियङ्यक्क्येषु च ( 4 / 3 / 108) इत्यादि सूत्रेषु वृत्तिः-अमकारान्तादनव्ययाच “द्वितीयान्ता- // 23 // नाम्न इच्छार्थे क्यन वा स्यात. काम्यश्च / २पत्रीयति, पुत्रकाम्यति / चकारः काम्यार्थः, अन्यथा आधाराचोपमानादाचारे / 3 / 4 / 24 // मान्ताव्यययोः सावकाशः स क्यना बाध्येत / अमा- वृत्तिः- "अमाव्ययादुपमानभूनात् द्वितीयाव्ययादिति किम् ? इदमिच्छति, स्वरिच्छति / न- न्तादाधाराचाचारे क्यन् वा" स्यात् / द्वितीयान्तात्,कारः “क्यनि" ( 4 / 3 / 112 ) इत्यत्र विशेषणार्थः / पुत्रमिवाचरति (इति ) वाक्यम्, पुत्रीयति च्छात्रम् ; कारः क्यग्रहणे सामान्यग्रहणार्थः / / 23 / / आधारात्-प्रसाद इवाचरति (इति) वाक्यम्, प्रासा दीयति कुट्याम् / उपमानादिति किम् ? छात्राअवचूरिः- "अमाव्ययात् क्यन्च"इति सूत्रे क्यन्प्रत्यये देर्मा भूत् / आधाराच्चेति किम् ? परशुना दात्रेणेयकारः सस्वर एव, सस्वरत्वे सति "कीयाञ्चकार" वाचरति / अमाव्ययादित्येव- इदमिवाचरति // 24 // - घटमिच्छति-घटकाम्यति. घटकाम्यन्तं प्रायुङ्क्त इत्यत्र उपरे णौ सस्वरस्य काम्यस्य-स्वरान्तकाम्यस्य सत्त्वात् "अतः" (4 / 3 / 82) इत्यनेनान्त्याकारलोपे समानलोपित्वाद "असमानलोपे सनवल्लघुनि " (4 / 1063 ) इत्यनेनाभ्यासे पूर्वस्य सन्वभावो न प्रवर्तते, एवं "लघोर्दीर्घोऽस्वरादेः" (41264 ) इत्यस्याप्यप्रवृत्तिः, ततः 'अजघटकाम्यत्' इति भवति / अन्यथा-स्वरान्तकाम्यस्यासत्त्वे समानलोपित्वाऽभावाद् 'असमानलोपे०' इत्यादिना "अजीघटकाम्यत्" इति स्यात्, तच्चानिष्टम् / अत्र पाठाशुद्धिः, 'काम्याञ्चकार' इति पाठः शुद्धः / तकारमियेष = काम्याञ्चकार, 'तकारम्' इत्यस्य केवलं 'त्' इति वर्णमित्यर्थः / अत्रायमाशयः-काम्य' इति व्यञ्जनान्तप्रत्ययविधाने 'तकारमियेष' इत्यत्र 'काम्य इत्येकस्वर एव धातुरिति 'परोक्षायाः स्थाने आमादेशाभावः' स्यात्, स चानभिमतः / 'काम्य' इति स्वरान्तप्रत्ययविधाने तु 'काम्य' इति धातोरनेकस्वरत्वादामादेशो भवति / * अत्र “ततः” इत्यत आरभ्य “सूत्रे” इति यावत् पाठोऽशुद्ध आभाति / अत्रायं पाठः समुचितः प्रतिभाति, तद्यथा-"ततः पुत्रमिच्छतीत्यादावमान्ताव्ययेभ्यः परत: "क्यन् एव" प्रवर्तेत, ततश्च पुत्रकाम्यतीत्यादि सिद्धिपथं नेयात, परं "द्वितीयायाः काम्यः' इति सूत्रेणामान्ताव्ययेभ्योऽपि काम्यप्रत्यय इष्टः, अतोऽत्र काम्यस्य कृते चकारः पठितः। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०३ पा० 4 सू० 25-26 वृत्तिः- 'कर्तु रुपमानादाचारार्थे क्यढ प्रत्ययो कर्तुः विप, गल्भक्लीबहोडात्तु ङित् वा' स्यात् / श्येन इवाचरति (इति) वाक्यम्,श्येना यते, हंसायते, अश्वायते, एवं गल्भायते, क्लीबायते। 3 / 4 / 25 // क्विपक्यङोस्तुल्यविषयत्वादस्त्युत्सर्गापवादत्वे पर्यावृत्तिः-"कर्तु रुपमानान्नाम्न आचारार्थे क्वि / येण प्रयोगः / ककारः सामान्यग्रहणार्थः। ङकार आप्रत्ययो' वा स्यात् , गल्भक्लीबहोडेभ्यस्तु क्वि त्मनेपदार्थः // 26 // वित्" / अश्व इवाचरति ( इति ) वाक्यम्, अश्वति; राजेवाचरति ( इति ) वाक्यम् ; राजनति गल्भते, सो वा लुक च / 3 / 4 / 27 // क्लीबते, होडते, गल्भाञ्चक्रे // 25 // वृत्तिः–स इत्यावृत्त्या पञ्चम्यन्तं षष्ठ्यन्तं अवचूरिः--"अश्वति' इति- अश्व इवाचरति / च सम्बध्यते / “सकारान्तात्कर्तु रुपमानादाचारार्थे एवं गर्दभति, वधयति / गौरिवाचरति, नौरिवाचरति, क्यङ्वा ' स्यात् ,अन्त्यसकारस्य च वा लुक / प्रय क्विप्, ( गवति, नावति; ) गवनं नावनम्; "शंसिप्रत्य इवाचरति (इति) वाक्यम, पयायते, पयस्यते; यात्" (5 / 3 / 105) इति अप्रत्यये गवा, नावा इत्यपि सरायते, सरस्यते // 27 // ज्ञेयाऽवचूरिः / “राजनति," अत्र क्विप्प्रत्ययस्य व्यञ्ज अवचूरिः—क्यङ् सिद्ध एवास्ति, लुगर्थ “सो नादिफलं नेष्यते, तेन “नाम सिदयव्यअने” (1 / 1 / 21) वा लुक् च"इति सूत्रं कृतम् / अन्ये त्वपसरस एव सलोइति सूत्रेण पदसंज्ञाया अभावेन राजनशब्दस्य नकार पविकल्पं, नान्यस्य; तन्मते- अप्सरायते, एवमपसरलोपाभावः सिद्धः / 'गल्भाञ्चक्रे,' गल्भ इवाचरति, स्यते, किन्त्वन्यत्र प्रयस्यते इत्याद्येव // 27 // "क: क्विप्०" इति क्विप्, “अप्रयोगोत्" (1 / 1137: इति क्विपो लुप् ) ततः परोक्षा ए, "धातोरनेकस्व. ओजोऽप्सरसः / 3 / 4 / 28 // रादाम् परोक्षायाः, कृम्वस्ति चानु तदन्तम्” ( 314 वत्तिः-ओज शब्दादप्सरःशब्दाच्च कर्तुरु४६ ) इत्यादिना परोक्षास्थाने आम् प्रत्ययः, चक्रे इत्यनु पमानभूता दाचारार्थे क्यङ्, सलोपश्च वा" स्यात् / प्रयोगः कार्यः / विशेषोऽत्रायं ज्ञेयः- गल्भते, क्लीबते, ओजस्वीवाचरति-ओजायते, अप्सरायते // 28 // होडत इत्यादि प्रयोगाः, 'गल्भि धाष्ट्ये, क्लीबृङ् मदे, हेडङ् अनादरे' इति धातुभिर्गल्भते, क्लीबते, होडत एव अवचूरिः-नित्यं सकारलोपार्थ ओजो० इति सिध्यन्ति, परं “गल्भाञ्चक्रे” इति ( न सिध्यति, ) सूत्रं कृतम् / ओजःशब्दः स्वभावात वृत्तिविषये, कोर्थ: ? गल्भधातु(तुः) मण्डने, (?) अग्रे परोक्षा, तदन- वाक्याभावे मत्वथीर्यप्रत्ययान्त एव प्रवर्तते, यथा-ओजन्तरमाम् न स्यात्, अनेकस्वरधात्वऽभावात्; इति स्वीवाचरति इति वाक्यम्, ओज इवाचरतीति वाक्यं हेतोः गल्भशब्दः, गल्भ इवाचरतीति वाक्ये क्विप् ; न कार्यमिति भावः // 28 // एवं नामधातोः परतोऽनेकस्वरत्वात् आम् सिद्धः। सूत्रे गल्मादिशब्दा एव दर्शिताः, न धातुरूपं दर्शितम् / च्व्यर्थे भृशादेः स्तोः / 3 / 4 / 29 // गल्भ इति शब्दः, एवं क्लीबशब्दः, होडशब्दः / गल्भ वृत्तिः-भृशादिभ्यः कर्तृभ्यः “व्यर्थे क्यङ् इवाचरति, एवं क्लीब इवाचरति,होड इवाचरतीति वाक्ये स्याद्वा, सकारतकारयोर्यथासंभवं लुक् च" / अभृशो कर्तुः क्विप, स च ङित, ङित्त्वाद् आत्मनेपदं भवति भृशो भवति इति वाक्यम्, भृशायते, एवं उन्मना. // 25 // यते, वेहायते, अनोजस्वी ओजस्वी भवति-'ओजाक्यङ / 3 / 4 / 26 // | यते, अत्र तद्वद्वत्तेरेव व्यर्थ इति धर्ममात्रे न Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्थिकसन्प्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् [ 35 क्यङ् - अनोज ओजो भवति / कर्तुरित्येव- अभृशं / इति सूत्रे लिखितास्ति, (इति) ततो ज्ञातव्या / 'क्यक्षो भृशं करोति / प्रागतत्तत्त्वमात्रे च्वेविधानात् क्यङा / नवा' सूत्रेण सर्वत्र विकल्पेनात्मनेपदं ज्ञातव्यम् / ननु चिर्न बाध्यते- भृशीभवति / भवत्यर्थविशिष्टे च्व्यर्थे क्यङ्ग प्रत्ययो विहितः, ततश्च क्यपप्रत्ययेन भवत्यर्थस्योक्तत्वात भवत्यर्थाभावे 'निमिअवचूरि:-भृश, उत्सुक, शीघ्र, चपल, पण्डित, ताभावे ( नैमित्तिकस्याप्यभावः" ) इति न्यायात् डाचअण्डर, कम्बर, फेन, शुचि, नील, हरित, मन्द, मद्र, प्रत्ययस्यापि निवृत्तिः प्राप्नोतीत्याशङ्क्याह'-'डाजभद्र, संश्चत्, *तपत्, रेफत्, रेहत्, वेहत्, वर्चस्, न्ताद्" इति, क्यविधानसामर्थ्यात् कृभ्वस्तिभावेऽपि ओजस् उन्मनस् दुर्मनस् सुमनस्, अभिमनस् इति डाच् न निवर्तते // 30 // भृशादिगण: / शब्दान्तरसाधनाय नाकृतिगणः / आचार्यस्येयं शैली- यत्र शब्दा नियतास्तत्रैकवचनमेवाचार्यः कष्ट-कक्ष-कच्छ-सत्र-गहनाय पापे क्रमणे सूत्रे निर्दिशति, यत्र बहुवचनं तत्राकृतिगण इति ज्ञापयति / ५'ओजायते' इत्यत्र तदवृते:- (तद्वद्वृत्ते:-) / 3 / 4 / 31 / / मत्वर्थीयवृत्तेः परत एव / कलापकव्याकरणेऽभूतत- ____ वृत्तिः–१ 'कष्टादिभ्यश्चतुर्थ्यन्तेभ्यः पापे द्भावः, हेमव्याकरणेऽभूततद्भावस्य प्रागतत्तत्त्वमिति वर्त्तमानेभ्यः क्रमणेऽर्थे क्यङ् वा" स्यात् / २कष्टाय संज्ञा / प्रागतत्तत्त्वे अभूततद्भावेऽर्थे / / 29 / / कर्मणे क्रामति-कष्टायते, कक्षायते, कृछायते, सत्रा यते, गहनायते / चतुर्थ्यन्त इति किम् ? रिपुः कष्टं डाज-लोहितादिभ्यः पित् 3 / 4 / 30 / / क्रामति / पाप इति किम् ? 'कष्टाय तपसे कामति. वृत्तिः-'डाजन्तेभ्यों लोहितादिभ्यश्च कर्तु- // 32 // भ्यश्च्व्य र्थे क्यङ् स्यात् , स च पित्" / डाच -अप __ अवचूरिः-सूत्रे निर्देशवशात् / २वाक्यमिदं, टत् पटद्भवति ( इति ) वाक्यम् , पटपटायति, विकल्पोदाहरणमपीदं ज्ञेयम्; एवमग्रेऽपि सर्वत्र / कपटपटायते / डाजन्तान क्यङष प्रत्ययविधाना क्षाय कर्मणे कामति / पापम् = अनार्जवाचारः, स इह स्कृभ्वस्तिभिरिव क्यापि योगे डान् भवति / नास्तीति न क्यङ् / 31 // अलोहितो लोहितो भवति-लोहितायते. लोहिता• यति / कर्तुरित्येव- अपटपटा पटपटा करोति, अलो रोमन्थाद् व्याप्यादुच्चवणे / 3 / 4 / 32 // हितं लोहितं करोति / षकार: “क्यषो नवा" (3 / 243 ) इति विशेषणार्थः // 30 // वत्तिः- रोमन्थात्कर्मण 2 'उच्चत्रणऽर्थे क्यङ वा" स्यात् / रोमन्थम् 3 उच्चर्वयति-रोमन्थायते गौः, अवचूरि:-लोहित, जिह्म, श्याम, धूम, चर्मन्, उद्गीर्य चयतीत्यर्थः। उच्चर्वण इति किम् ? कीटो हर्ष, गर्व, सुख, दुःख, मूर्छा, निद्रा, कृपा, करुणा इति रोमन्थं वर्तयति // 32 // लोहितादिगण: / बहुवचनमाकृतिगणार्थम, तेन-"अमृतं यस्य विषायति' इत्यादि सिद्धम् / 'पटपटायते' इत्यस्य अवरिः- 'अभ्यवहृतं द्रव्यं-रोमन्थः / उद्गीर्य सानिकाऽख्यातप्रथमपादे “क्यो नवा" ( 3 / 3 / 43) | चर्वणमुच्चर्वणम् / 'बहुलमेतन्निदर्शनमिति चुरादित्वम् / 5'कण्डर' इति तत्त्वप्रकाशिकाभिधबृहवृत्तौ / *'तृपद्' इति बृहद्वृत्तौ। 'अत्र क्रमणं न पादविन्यासः, किन्तु प्रवृत्तिमात्रम् / अन्यथा यह पापं नास्ति तथैव क्रमणमपि पादविक्षेपो नास्तीति द्वयवैकल्यं स्याद् / Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं __ [अ०३ पा० 4 सू० 33-37 ४कीटो रोमन्यं वर्तयतीत्यस्यायमर्थ:-उद्गीर्य बहिस्त्य- | गणः / (सर्वे) शब्दा:२१, नाधिकाः / आचार्यस्य शैलीयं क्तमथवा पृष्ठान्तेन-गुदेन निर्गतं द्रव्यं गुटिका कीर: यत्र शब्दनयत्यं तत्र एकवचनमेव प्रयुक्त, बहुवचने करोतीत्यर्थः // 32 // आकृतिगणः / 'एवं वैरायते, कलहायते / व्यवस्थितं प्रयोगारूढं विधिप्रतिषेधादिकार्य विशेषेण भाषते इति फेनोष्म-बाष्प-धूमादुद्वमने / 3 / 4 / 33 / / / व्यवस्थितविमाषाओं वा शब्दोऽयं ज्ञातव्य इत्यर्थः / / वृत्तिः-फेनादिभ्यः कर्मभ्य 'उद्वमनेऽर्थे क्यङ् 3णिच् प्रत्ययोऽपि / ४एवं-वैरायति। "प्रत्ययविध्यर्थे वा वा" स्याद् / फेनमुद्वमति-फेनायते, उष्मायते बाष्पा- शब्दो न ज्ञातव्य इति शेषः / 35 / / यते, धूमायते // 33 // तपसः क्यन / 3 / 4 / 36 // अवचूरिः- उष्माणमुद्वमति / घूममुद्वमति // 33 / वत्तिः- “तपःशब्दात्करोत्यर्थे क्यन् वा" स्यात् / तप करोति-तपस्यति // 36 / / ..... सुखादेरनुभवे / 3 / 4 / 34 // वृत्तिः-१“सुखादिभ्योऽनुभवेऽर्थे क्यङ्वा" अवचूरि:-कर्मण इति सर्वत्र ज्ञेयम् / तपस्यतीस्यात् / सुखमनुभवति-सुखायते, दुःखायते / अनु त्यत्र यदा व्रतपर्यावस्तपःशब्दः तदा क्यन्कर्मणो वृत्तीभव इति किम्? सुखं वेदयते मैत्रस्य साधकः। सुख, समासे अन्तर्भूतत्वादकर्मकत्वम्, यदा पुनस्तप.शब्द: सन्तापक्रियावचनस्तदापि क्यन्कर्मणो वृत्तावन्तर्भावेऽपि दुःख, तृप्र, कृछ, "अन, आस्र, अलीक, करुण, स्वकर्मणा तप:शब्दः सकर्मक एव; यथा-शत्रूणां तपः = कृपण, सोढ, प्रतीप इति सुखादिगणः, एकादशेष सन्तापं करोति इति वाक्ये तपस्यति शत्रनिति प्रयोगो शब्दाः // 34 // भवति / "अतपसस्यंत्" इत्यत्र “अन्यस्य" (418 ) अवचूरिः-- 'कर्मभ्यः / साक्षात्कारेऽर्थे / 'दुःख- | इति सूत्रेण तृतीयावयवस्य "स्य", इति द्विर्धचनेऽदन्तमनुभवति / "सुखं वेदयते मैत्रस्य साधकः" इत्यस्यार्थी- क्यनः फलम् // 36 // ऽयं- मुखनेत्रादिचेष्टाविकाराकाररनुमानतो वा साधकश्च... (तुरो मैत्रसुखं निश्चिनोति) // 34 / नमो-वरिवश्चित्रलोऽर्चा सेवाऽऽश्चर्ये 3 / 4 / 37 // शब्दादेः कृतौ वा / 3 / 43 // वृत्तिः-"नमस्-वरिवस्-चित्रशब्देभ्यः कर्मभ्यो वृत्तिः-शब्दादिभ्यः कर्मभ्यः “करोत्यर्थे क्यङ् | यथासंख्यं पूजासेवाऽऽश्चर्यार्थेषु करोत्यर्थे क्यन् वा'' वा" स्यात् / णिजपवादः / शब्दं करोति-शब्दायते। स्यात् / 'नमः करोति ( इति ) वाक्यम् , नमस्यति वा शब्दो व्यवस्थितविभाषार्थः, तेन यथादर्शनं देवान् ; गुरूणां वरिवः करोति ( इति ) वाक्यम् , णिजपि भवति-शब्दयति / "वाऽधिकारस्तु वा- वरिवस्यति गुरून्; चित्रं करोति ( इति ) वाक्यम्, क्यार्थः // 35 // चित्रीयते / अर्चादिष्विति किम् ? नमः करोति, वरिवः करोति; नमो वरिव इति शब्दमुच्चारयतीअवचूरिः-शब्द, वैर, कलह, ओघ, वेग, युद्ध, त्यर्थ , चित्रं करोति, नानात्वमालेख्यं वा करोतीअभ्र, कण्व, मम, मेघ, अट, अव्या, अटाव्या, सीका, त्यर्थः // 37 // सोका, ( बृहत्वृत्तौ सोटा) कोटा, पोटा,पुष्टा, (बृहवृत्तौ प्लुष्टा, ) सुदिन, दुर्दिन, नोहार इति शब्दादि. अवचूरि:-'चित्र इत्यत्र कार 'आत्मनेपदार्थः / "बृहवृत्तौ न। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिक-णिच्प्रत्ययविधानम् मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् [ 37 ननु "नमस्यति देवान्" इत्यत्र नम.शब्दयोगे चतुर्थी अवचूरिः-उच्च परिश्च विश्व-उत्परिवि ( वयः), कथं न भवति ? उच्यते, नामधातूनामविवक्षितप्रकृति- उत्परिविभ्योऽसनम् - उत्परिव्यसनम्, उत्परिप्रत्ययभेदानां धातुत्वादत्र नमःशब्दोऽनर्थकः / अथवा व्यसनं चाऽसनं च ( इति उत्परिव्यसनं, तस्मिन् ) "उपपदविभक्त': कारकविभक्तिर्बलीयसी" / एवं च सूत्रत्वात एकस्य असनशब्दस्य लोपः कार्यः / "पुच्छनमस्करोति देवानिति वाक्यमध्येऽपि द्वितीया विभक्तिः मुदस्यति," कोऽर्थः? ऊर्ध्व क्षिपति पुच्छम् अत्र ऊर्थेि सिद्धा। यद्येवं "नमस्करोति देवेभ्य" इति प्रयोगेण सर्व- उत्शब्दः / एवं पुच्छं पर्यस्यति ( इति ) वाक्यम्, कोऽर्थः? थाऽपि न भवितव्यं ? नवं, करोतेर्नमःशब्दसम्बन्धेन देव- पुच्छं परितः क्षिपति, अत्र परिशब्दः परितोऽर्थे / पदेन सह संबन्धाभावात् / (अयंभावः-करोते. सम्बन्धाभा- (पुच्छं ) व्यस्यति इति वाक्यम्, 'विपुच्छयते' ( इति ) पात्, केन सह ? देवपदेन, कि भूतेन ? नमः शब्देन सह उदाहरणम्, अत्र विशेषेण पुच्छं क्षिपति इत्यर्थः, विशब्दः संबन्धो यस्य-तेन, अनया युक्त्या कारकविभक्तेः प्राप्ति- विशेषेण इत्यर्थे / तथा 'पुच्छयते' इत्यस्य पुच्छमस्यति रेव नास्ति) कस्मै नम इति त्वाकाङ्क्षायां सत्यां देवेभ्य इति वाक्यम्, अत्र सामान्येन क्षेपणम् / उदादयः शब्दाइति युक्त्या सम्बन्धोऽपि घटते, इति संप्रदाने चतुर्थी स्तत्तदर्थस्य द्योतका ज्ञातव्याः // 39 // भवत्येव; इत्यदोषः / “कस्य चित्रीयते न धी;" इतिबत् "चित्रीयते '' इत्यकर्मकः प्रयोगः / चित्रम्-आश्चर्य भाण्डात् समाचितौ / 3 / 4 / 40 // करोति जनस्य इति विवक्षायां "चित्रीयते जनम्" इति वृत्तिः– भाण्डात् समाचयनेऽर्थे "णिङवा" सकर्मकोऽपि प्रयोगो ज्ञातव्यः, यथा- व्याकरणस्य सूत्रं स्यात् / भाण्डानि समाचिनोति-संभाण्डयते,' करोति इत्यर्थे व्याकरणं सूत्रयतीति प्रयोगः // 37 // १परिभाण्डयते // 40 // अडानिरसने णिङ / 3 / 4 / 38 / / अवचूरिः-वाक्यं भाण्ड खडकइ कुम्भाभ इत्यर्थः / - वृत्तिः-"अङ्गवाचिशब्दान्निरसनेऽ५ णि भाण्डानि परिचिनोति // 4 // पा" स्यात् / हस्तौ निरस्यति-हस्तयते, एवं पाद यते / निरसन इति किम् ? हस्तं करोति-हस्तयति चीवरात्परिधानार्जने / 3 / 4 / 41 // वत्तिः- चीवरात्परिधानेऽर्जने चार्थे "णिवा" अवचूरिः- कर्मणः / 'क्षेपणार्थे / क्षिपति-लङ्घते / स्यात् / चीवरं परिधत्ते-परिचीबरयते, एवं सश्त्री( ? लङ्कति ) उणिङ् इत्यत्र ङकार आत्मनेपदार्थः / वरयते, चीवरमर्जयति-चीवरयते // 41 / / ४पादौ क्षिपति / रोमन्थाद् ( 3 / 4 / 32 ) इति सूत्रात् कर्मण इत्यनुवर्तनात्कर्मण इति किम् ? हस्तेन अवचूरिः- परिधानं, समाच्छादनमिति पर्यायः; निरस्यतीति व्यावृत्तिर्ज्ञातव्या / 38|| ततो यथा चीवरं परिधत्ते इति वाक्ये परिचीवरयते, तथा चीवरं समाच्छादयति इति वाक्ये संचीवरयते पुच्छादुत्परिव्यसने / 3 / 4 / 39 / / इत्यप्युदाहरणानि ( ? म् ) // 41 // वृत्तिः- कर्मणः पुच्छशब्दाद् "उदसनेऽर्थे, पर्यसनेऽर्थे, व्यसनेऽर्थे असने चार्थे णिङ् वा" णिज् बहुलं नाम्नः कृगादिषु / 3 / 4 / 42 // स्यात् / पुच्छमुदस्यति-उत्पुच्छयते, एवं परिपुच्छ- वृत्तिः- कृगादीनां धातूनामर्थे नाम्नः परतो यते, विपुच्छयते, पुच्छयते // 36 // "णिच् प्रत्ययो भवति, बहुलम्' / बहुलग्रहणं प्रयो *अयं पाठोऽशुद्धो वर्तते। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०३ पा०४ सू०४२ गानुसरणार्थम् , तेन यस्मान्नाम्नो यद्विभक्त्यन्ता दृश्यते, उत्पन्ने च प्रत्यये कथं द्वितीया ? उच्यते, सूत्रद्यस्मिन् धात्वर्थे दृश्यते, तम्मात्तद्विभक्त्यन्तात्तद्- व्याकरणयोर्यः सम्बन्धः स उत्पन्ने प्रत्यये निवर्त्तते, सूत्रधात्वर्थे एव णिच् स्यादिति लभ्यते / मुण्डं करोति / यतित्रियासम्बन्धात्तु द्वितीयैव भवति / "एवं द्वारस्यो( इति ) वाक्यम् , 'मुण्डयति च्छात्रम्; एवं लघु / दुघाट करोति / त्रिलोक्यास्तिलकं करोति / स्थवकरोति (इति) वाक्यम् , लघयति; एवं २छिद्र- यतीत्यादिषु स्कूलमाचष्टे करोति वा, दूरमाचष्टे यति, दण्डयति, अन्धयति, व्याकरणस्य सूत्रं करोति वा, युवानमाचष्टे करोति वा, “णिच् बहुलम्०" करोति व्याकरणं सूत्रयति,"द्वारमुद्घाटयनि, 'त्रि- इति णिच् प्रत्ययः, “स्थूल दूरयुवह्रस्वक्षिप्रक्षुद्रस्यान्तस्थादेलोकी तिलकयति, पटुमाचष्टे करोति वा-पटयति, णश्च नामिनः" ( 7 / 4 / 42) इति सूत्रेणान्तस्थाद्यवयएवं अस्थवयति, दवयति, यवयति, ‘प्रापयति, वस्य लुक, नाम्यन्तस्य च गुणः, ततः स्थव, दव, यव स्थापयति, वृक्षमाचष्टे रोपयांत वा इति) वाक्यम् इति प्रकृतिः / 'तथा प्रियमाचष्टे करोति वा-प्रापयति, वृक्षयति; कृतं गृह्णाति ( इति) वाक्यम् , कृतयति; स्थिरमाचष्टे, "णिच् बहुलम्' इति णिच्, "प्रियएवं वर्ण गृह्णाति-वर्णयति, 1 त्वचयति; रूपं स्थिर-स्फिरोरु-गुरु-बहुल-तृप्र-दीर्घ-वृद्ध-वृन्दारकस्येमनि च दर्शयति ( इति ) वाक्यम् , रूपयति; रूपं निध्या- प्रा-स्था-स्फा-वर-गर-बह-त्रप-द्राघ-वर्ष-वृन्दम्" ( 7 // यति ( इति ) वाक्यम् , निरूपयति; वस्त्रं वस्त्रेण 4 / 38 ) इति सूत्रेण प्रियस्य प्रा, स्थिरस्य स्था आदेशः; वा समाच्छादयति (इति ) वाक्यम् , संवस्त्रयति; "अत्ति-री-व्ली-ही-क्नूयि-क्ष्माय्यातां पुः” (4 / 2 / 21) वस्त्रं परिदधाति (इति ) वाक्यम्, परिवस्त्रयति; इत्यनेन पोऽन्तः, (इत्येवं) प्रापयति, स्थापयतीतिसिद्धम् / हस्तिनाऽतिक्रामति (इति) वाक्यम्, अतिहस्त एवं क्षिप्रमाचष्टे करोति वा क्षेपयति, क्षुद्रमाचष्टे यति; अश्वेनातिक्राति अत्यश्वयति, वीणया उपगा | करोति वा, 'स्थूल० इत्यादिना(सूत्रेण)अन्त्यलोपो गुणश्च, यति (इति) वाक्यम्, उपवीणयति; सेनया अभि क्षोदयति इत्यपि प्रयोगा ज्ञेयाः। त्वच' शब्दो व्यञ्जयाति ( इति) वाक्यम् , अभिषेणयति; वास्या नान्तः, 'त्वच' इति अकारान्तोऽप्यस्ति, परं व्यञ्जनान्तच्छिनत्ति ( इति ) वाक्यम् , वासयति; ११एवं पक्षे त्वचं गृह्णाति, णिच्, "नकस्वरस्य" ( 7444 ) परशयति, १२असयति; श्लोकैरुपस्तौति (इति) इति सूत्रेणान्त्यस्वरादिर्न लुप्यते, ततो वृद्धिः, 'त्वाचयति' वाक्यम्, उपश्लोकयति; हस्तेनापक्षिपति (इति) इति प्रयोगः, अकारान्तपक्षे तु त्वचं गृह्णाति, णिच्, वाक्यम्, अपहस्तयति; गन्धेनार्चयति (इति) "त्रन्त्यस्वरादेः" ( 74 / 43') इत्यन्तस्वरादिलोपः, वाक्यम्, गन्धयति; एवं १३पुष्पयति, बलेन सहते त्वचयतीति प्रयोगः / विशेषप्रयोगाश्चेमे-लोमान्यनुमाष्टिबलयति, शीलेनाचरति-शीलयति, एवं १४सामयति, अनुलोमयति, तूस्तानि विहन्ति- वितूस्तयति, तूस्तानि पाशेन संयच्छति-संपाशयति, १५विपाशयति, शूरो उद्धन्ति-उत्तूस्तयति, केशान विजटीकरोतीत्यर्थः; तृणान्यु-. भवति (इति ) वाक्यम् , शूरयति; वीर उत्सहते त्प्लुत्य शातयति-उत्तृणयति, वर्मणा-सन्नाहेन संनातिवीरयति, कूलमुल्लङ्घयति - उत्कूलयति, कूलमनुग संवर्मयति, चूर्णैरवध्वंसयति अवकिरति वा, कोऽर्थः ? च्छति-अनुकूलयति, कूलं प्रतीपं गच्छति-प्रतिकूल पत्त्यादिकं विनाशयति - अवचूर्णयति; सूलैरनुकुष्णाति यति, लोष्ठानवमर्दयति-अवलोष्ठयति, पुत्रं सूते-पुत्र अनुगृह्णाति वा-अनुतूलयति, तथा वास्या परिछिनत्तियति / 'इन्द्रियाणां जयम्' 1" इत्यादिषु बहुलवचनान्न परिवासयति वासयति चेति एकार्थाः, वास (?) वासणिच् // 42 // सा उन्मोचयति-उद्वासयति, अश्वेन संयुनक्ति- समश्वयति, अवचूरिः-१एवं मिश्रयति ओदनम् / छिद्रं करोति / छन्दसोपचरति उपमन्त्रयते वा- उपच्छन्दयतीत्यादि / दण्डं करोति / ननु व्याकरणशब्दात् वाक्ये षष्ठी ११परशना छिनत्ति / १२असिना छितत्ति / 13 पुष्पे Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोक्षास्थाने आविधानम्] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् [ 36 णार्चयति / १४साम्ना आचरति / १"पाशं पाशाद्वा विमोचयति इति वाक्यम, विपाशयति इति प्रयोगः / १४एवं सान्त्वयति / १६आदिशब्दात् क्षीरस्य पानं, देवस्य यागं, धान्यस्य क्रयं, धनस्य त्यागम्, ओदनस्य पाकं करोत्यर्थे, तथा नलोपाख्यानं, कंसवधं, सीताहरणं, रामप्रव्रजनं, राजागमनं, मृगरमणम्, आरात्रिविवासमाचष्टेऽर्थे णिच् प्रत्ययो न भवति / इन्द्रियाणां जयम-इन्द्रियजयम, इन्द्रियजयं करोतीत्येवं सर्वत्र वाक्ये कृतेऽपि बहुलवचनान्न णिच् // 42 // . स्याऽश्व-तरेत-कलुक् / 3 / 4 / 45 // वृत्तिः-“श्वेताश्व, अश्वतर, गालोडित, आह्वरक इत्येषां णिज्योगे यथासंख्यमश्व, तर, इत, क इत्येषां लुक" स्यात्। श्वेतयति, अश्वयति, गालोडयति, “आह्वरयति // 45 // व्रताद् भुजि-तन्निवत्त्योः 3 / 4143 / / वृत्तिः-व्रतं = शास्त्रविहितो नियमः, व्रता. द्भोजने तन्निवृत्तौ च वर्तमानात्कृगाद्यर्थेषु “णिच् स्याद्, बहुलम्" ।पयो व्रतयति, सावद्यान्नं व्रतयति अववूरिः-श्वेतोऽश्वो यस्य स श्वेताश्व इति, श्वेतश्चासावश्वश्चेति वा कर्मधारयः, श्वेताश्वमाचष्टे, श्वेताश्वं वा करोति, अथवा श्वेताश्वेनाऽतिक्रामतीति वाक्येषु "णिज् बहुलम" ( इति सूत्रेण णिचि सति ) श्वेतयति / एवमश्वतरमाचष्टे करोति वा अश्वयति / गालोडितमाचष्टे करोति वा / आह्वरको देशविशेषः, आह्वरकमाचष्टे करोति वा / सर्वत्र "णिज्बहुलम्" इत्यनेन णिच् सिद्ध एव, परं लुगर्थ सूत्रमिदम् // 45 // // 43 // .. . अवचूरिः--१भोजननिवृत्तौ-भोजननिषेधे / रपय एव मया भोक्तव्यमिति व्रत करोति, व्रतं गृह्णाति वा इति वाक्यम्, पयो व्रतयति / सावद्यान्नं मया न भोक्तव्यमिति व्रतं करोति, गृह्णाति वा इति वाक्यम्, सावद्यान्नं व्रतयति इत्युदाहरणम् // 43 // सत्याथवेदस्याः / 3 / 4 / 44 // वृत्तिः- “सत्यार्थवेद" इत्येषां “णिच् संयोगे (-णिचि सति) 'आ' इत्यन्तादेश.'' स्यात् / 'सत्यापयति, अर्थापयति, वेदापयति / / 44 / / ___ धातोरनेकस्वरादाम् परोक्षायाः, कृम्व स्ति चानु तदन्तम् / 3 / 4 / 46 / / वृत्ति - अनेकस्वराद्धातोः परस्याः “परोक्षायाः स्थाने आम् इत्यादेशः स्यात्, आमन्ताच्च परे कृभ्वस्तयो धातवः परोक्षान्ता अनु = पश्चात् प्रयुज्यन्ते' / 'चकासाञ्चकार, चकासाम्बभूव , चकासामास; एवं लोलूयाञ्चक्रे लोलूयाम्बभूव, ( लोलूयामास ) / *अस्तेभू न भवति, विधानबलात् / अनेकस्वरादिति किम् ? उपपाच / उपसर्गस्य तु क्रियाविशेषकत्वाद् व्यवधायकत्वं नास्ति, तेन उक्षाम्प्रचक्रुः // 46 // अवचूरिः- सत्यमाचष्टे सत्यं करोति वा / एवमर्थमाचष्टे करोति वा / वेदमाचष्टे करोति वा / "णिज् बहुलम्०" ( 3 / 4 / 42 // इति ) णिच् / अत्रोदाहरणेषु "त्रन्त्यस्वरादेः' (74 / 43 ) इत्यनेनाऽऽकारस्य न लोपः, 'आ' इति विधानसामर्थ्यात् // 44 // श्वेताऽश्वा-ऽश्वतर-गालोडिजा-ऽऽह्वरक अवचूरिः- 'तदन्तम्' इति पदस्य 'परोक्षान्ता' *ननु “अस्तिब्रुवो वचावशिति' (4 / 4 / 1 ) इत्यनेनात्रास्ते: 'भू' इत्यादेशो भविष्यतीत्यामः परतः परोक्षान्तास्तेरनुविधानं निरर्थकमित्याह- अस्तेरित्यादि / Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 3 पा०४ सू०४७ इत्यर्थों ज्ञातव्यः / सूत्र*................... ( सूत्रे 'अनु' | तत्र "आमः कृगः' ( 33175 ) इत्यनेनात्मनेपदम्, इति कोऽर्थः ? पूर्वमनेकस्वराद धातोः परत आम्, इति कृगः परतः परोक्षायाः ए, यत्र च भू, अस् ( इत्यतदनन्तरं कृम्वस्तयो धातवः, ततः ) परोक्षासम्बन्धि नयोः ) अनुप्रयोग: तत्र परस्मैपदमेव, भू-असोः परस्मै'ए णव' इत्येवं ( कृभ्वस्तयो धातवः) आमः परतः पदित्वात् / पपाचेत्यत्र द्विवंचने कृतेऽनेकस्वरत्वात् प्रयुज्यन्ते / तदनन्तरं द्विवचनादिकं सर्व कर्तव्यम् / यत्र 'आम' कथं न भवति ? अत्राह- परोक्षानिमित्तं द्विर्वच................... (भूधातोः परतः)णव तत्र जनामिनो चनं जातमिति "सन्निपातन्यायाद" आम् न भवति / (क) लि. (4 / 3 / 51 ) इति वृद्धि:- औ, “ओदौ- णवाश्रितं द्विवचनं त्वेक ( त्वनेक )स्वरमपि णवि - तोऽवाव्" ( 102 / 24 ) इति अ................ ( अनेन घाताय न भवति / अथवा सूत्रार्थेऽनेकस्वरस्य धातोवि. आव, ) ततो[द्विर्धातुः 0 (4 / 1 / 1) इति] अद्विवचनम्, हितायाः परस्याः परोक्षायाः स्थाने इति विशेषणाद् ......................" [ 'भाव् भाव,' "व्य ञ्जनस्याना-. आम् न भवतीत्यर्थः / “गुरुनाम्यादे०" (3 / 4 / 48) देलक" ( 4 / 1 / 44 ) इत्यनेन वलुकि 'भाभाव्,' इति आम्, 'उक्षाम्प्रचक्रुर्नगरस्य मार्गान्' इति (भट्टि) "ह्रस्वः” ( 4 / 1 / 39 ) इत्यनेन ह्रस्वे कृते 'भभाव,' काव्यपदम् // 46 // "द्वितीयतुर्ययो. पूर्वो' ( 4 / 1 / 42 ) इत्यनेन पूर्व भकारस्य ब, 'बभाव, ] "भुवो वः परोक्षाद्यतन्योः ( 4 / 2 / दया-ऽया-ऽऽस-कासः 3 / 4 / 47 // 43 ) इत्यनेन 'आ' स्थाने 'ऊ,' (इत्येवं ) 'बभूव' वृत्तिः दय, अय, आस् , कास् इत्येभ्यः इति सिद्धम् / धातुभ्यः परस्याः “परोक्षायाः स्थाने आम् स्यात् , "चकासृक् दीक्षा इत्यदादौ परस्मैपदी, चकासाञ्चकार, आमन्ताच्च परे कृभ्वस्तयः परोक्षान्ता अनु- पश्चात् एवं कारयाञ्चकार, कृ, कुर्वन्तं प्रयुङ्क्ते- णिच्, वृद्धिः, प्रयुज्यन्ते" / दयाञ्चक्रे, दयाम्बभूव, दयामास; परोक्षाया णव, “धातोरनेकस्वरा०" इत्यनेन आम्, 'पलायाञ्चक्रे, पलायाम्बभूव, पलायामास; एवमा"आमन्ताऽऽल्वाऽऽय्येत्नावय" (4 / 3 / 85) इति सूत्रेण साञ्चक्रे, कासाञ्चक्रे इत्यादय.२ // 47 // णिस्थाने "अय्" इत्यादेशः, ( "कारयाम्' इति जातम् ) तदनन्तरं कृ, णव, वृद्धिः / ( इत्येवं कारया अवचूरिः- "दयि दानगतिहिंसादहनेषु च , श्वकार इति सिद्धम् ) एवं चुलुम्पाञ्चकार, चुलुम्पाम्ब- अयि वयि पयि मयि नयि चयि रयि गतौ, कासृज भूव, चुलुम्पामास / यत्र आमः परतः कृगोऽनुप्रयोगः शब्दकुत्सायाम" एते भ्वादय आत्मनेपदिनः, 'आसिक *अत्र हस्तलिखितप्रतौ पाठः त्रुटितोऽस्ति, पूर्वापरसम्बन्धमुपजीव्य यथामत्यनुसन्धाय ( ) इति चिह्नान्तो दर्शितः / एवमग्रेऽप्येतादृशस्थले बोध्यम् / असूक्ष्मेक्षिकयाऽवलोकनेन स्पष्टं प्रतीयते. यदवचूरिकारैरत्र "नामिनोऽकलि..............."ततो द्विवचनम्" इति वचनेन स्वरादौ णवि प्रत्यये द्विर्वचनात् पूर्वमेव वृद्धिरूपं कार्य कृतम् परं तथाकरणेन द्विर्धातुः परोक्षा. प्राक् तु स्वरे स्वरविधेः ( 4 / 1 / 1 ) इति सूत्रेण सह विसंवादः समापतति, तत्सूत्रे वृद्धद्यादेः स्वरविधेः पूर्वमेव द्वित्वं भवतीत्युक्तत्वाद् / अत एव हैमप्रकाशे द्विर्धातुः परोक्षा० इति सूत्रमनुसृत्य 'बभूव' इत्यस्य साधनिकवं कृता--'भू + णव्,' "द्विर्धातु:०' ( 4 / 1 / 1 ) इत्यनेन द्विवचनं, 'भूभू + णव,' ततः 'भूस्वपोरदुतो' (4 / 1170) इत्यनेन द्वित्वे पूर्वस्य 'अत्,' 'भभू + णव, द्वितीयतुर्ययोः पूर्वो (411042) इत्यनेन भस्य 'ब,' बभू + णव्, नामिनोऽकलिहलेः ( 4 / 3 / 51 ) इत्यनेन वृद्धिः, 'बभौ + णम्,' ततः ओदौतोऽवाव् (1 / 2 / 24) इत्यनेनौकारस्य आव्, 'बभाव + णव्,' भुवो वः परोक्षाद्यतन्योः ( 4 / 2 / 43 ) इत्यनेन आकारस्य 'ऊत्वे' 'बभूव' इति सिद्धम्। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोक्षास्थाने आम्विधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 41 उपवेशने' इत्यदादिः आत्मनेपदी। परापूर्वोऽयं धातुः, | इति वृद्धिः। २जिइन्धपि दोतो, "नो व्यञ्जनस्यानुदितः" उपसर्गस्याऽयो" ( 2 / 33100) इति रकारस्य लत्वम्। / (4 / 2 / 45 ) इति नकारस्य लोपः // 49 // आसाम्बभूव, आसामास; कासाम्बभूव, कासामास भी-ही-भृ-होस्तिव्वत् / 3 / 4 / 50 // // 47 // वृत्ति:-भीहीभृहुधातुभ्यः “परोक्षास्थाने आम् गुरुनाम्यादेरनच्छूर्णोः / 3 / 4 / 48|| वा स्यात् , स आम् च 'तिव्वत्" / बिभयाञ्चकार, वृत्तिः- गुरुर्नामी आदिर्यस्य धातोः तस्मा बिभयाम्बभूव, बिभयामास, बिभाय; जिह्रयाञ्चद्धातोः ऋच्छूर्ण वर्जितात्परस्याः “परोक्षायाः स्थाने कार, जिह्राय; बिभराञ्चकार, बभार; 3जुहवाआम् स्यात् , आमन्तादित्यादि"। ईहाञ्चक्रे उब्जा ञ्चकार, जुहाव / तिव्वद्भावाद् द्वित्वमित्वं च भवति // 50 // श्वकार / गुर्विति किम् ? इयेष / नामीति किम् ? आनर्च / आदीति किम् ? निनाय / अनृच्छ्रो- अवचूरिः-'लिभीक् भये, ह्रींक् लज्जायाम्, दुडुरिति किम् ? २आनछे, उपोर्ण नाव; अत एव भृग्क् पोषणे च, हुंक दानादनयोः' एतेऽदादिजुहोत्याऋच्छप्रतिषेधात् संयोगे परे पूर्वो गुरुरिति विज्ञा- दयः / तिव् इव = तिव्वत्, वर्तमानातिवसदृशो भवति। यते // 4 // २"पभृमाहाङामिः" (41158) इति इत्वमभ्यासे / 3 गहोर्जः ( 4 // 1 // 40 ) इत्यनेन हस्य जत्वम् // 50 // ___ अवचूरिः-ईहि चेष्टायाम्, ईहाम्बभूव, ईहामास / 'आनर्च, अर्घ पूजायाम्, परोक्षाणव, द्विर्धातुः० (4 // वेत्तेः कित् // 3 / 4 / 51 // 11) इति ) द्वित्वम, 'अनातो नश्चान्त ऋदायशौसं. वृत्तिः–विद्धातो: “परोक्षास्थाने आम् वा योगस्य' ( 4 / 1 / 69 ) इति सूत्रेण पूर्वस्याकारस्य स्यात् , स च कित् , 'आमन्तेत्यादि'' / विदाआकारः, नोन्तश्च / २ऋच्छत् गतौ, ऋच्छ, परोक्षाणव, उचकार, विदाम्बभूव, विदामास / २कित्त्वान्न स्कृच्छतोऽकि परोक्षायाम्" ( 4138 ) इति गुणः / पशे- विवेद // 51 // सूत्रेण गुणः, ततो द्वित्वम्, "अनातो नश्चान्त ऋदाघशौसंयोगस्य" (4 / 1 / 69 ) इत्यनेन अकारस्य आत्वं, अवचूरिः-वेत्तेरित्यत्र 'विदंक ज्ञाने' इत्यदादिनोन्तश्च / ऊर्गुग्क् आच्छादने प्रपूर्वः, परोक्षाणव, परिग्रहार्थ यङलुपि आमनिवृत्त्यर्थ च तिनिर्देशः 'ऊर' विश्लिष्य “स्वरादेद्वितीयः” (41 / 4) इति कृतः, तेन यङ्लुपि "वेवेदाञ्चकार" इति सिद्धम् / 'नु' द्विरुच्यते // 48 // अत्र "धातोरनेकस्वरा" (3 / 4 / 46 ) इत्यनेन आम, न 'वेत्तेः कित्" इत्यनेन / 'आमन्ताच्च परे जाग्रुप-समिन्धेर्नवा // 3 // 4 // 49 // कृभ्वस्तयः परोक्षान्ता अनु प्रयुज्यन्ते इत्यर्थः। किवत्तिः-जागृ, उष, सम्पूर्व इन्ध ( इत्येभ्यः) स्वान्न गुणः" इत्यक्षरस्याग्रे इदं ज्ञेयम्-"वेत्तेरवित्" इति धातुभ्यः “परोक्षास्थाने आम् वा स्यात् , आमन्ता सूत्रे कृतेऽपि “इन्ध्यसंयोगा०” (4 / 3 / 21 ) इति च्चेत्यादि"। जागराञ्चकार, जागराम्बभूव, जाग सूत्रण आमः स्थानिवद्भावेन कित्त्वे सिद्धेऽपि विदो रामास, 'जजागार; उषाञ्चकार, उवोष; समिन्धा- धातोः कित्त्वविधानमामः परोक्षावद्भावनिवृत्तिज्ञाप नार्थम, तेन परोक्षावद्धावेन कित्त्वद्विवचनादिकं न चक्रे, समीधे // 4 // भवति / तथाहि 'जुहवाञ्चक्रे' इत्यत्र कित्त्वाऽभावात अवचूरिः-१"जागुभिणवि” ( 4 // 3 // 52) 'गुणः सिद्धः, विदाञ्चकार, अत्रत्वपरोक्षामावात 'द्विर्व Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०३ पा०४ सू०५२-५५' चनामावः' संपन्नः। द्विवचनादिकम् (इति ) आदिशब्दादू दयाश्चक्रे' इत्यत्र 'अनादेशादेः०' ( 411024) इत्यनेन 'एत्वाभावः' सिद्धः // 51 // . आर्, “यजसृजमृजराजभ्राज.” (21187) इत्यनेन शकारस्य षत्वम्, "षढोः कस्सि" (211162 ) इति सूत्रेण षस्य ककारः; "नाम्यन्तस्था०" ( २॥३॥१५)इति ( प्रत्ययस्य ) सस्य षत्वम् / हशिटः० ( 34155) इत्यनेन सक् / मृशंत् आमर्शने / 'कृषीत् विलेखने / "तृपौच प्रीतौ / दृपौ च हर्षमोहनयोः / “अतृपत, अपत्;" उभयत्र "लुदिातादिपुष्यादेः परस्मै" (3 / 4 / 64 ) इत्यनेन अङ् प्रत्ययः / तृपट्टपोः पुष्यादित्वादङि प्राप्ते, शेषाणां तु हशिटः० (34 / 55) इत्यनेन सकि प्राप्ते "स्पृशमृशकृष०" इति सूत्रं कृतम्। इयमवचूरिः स्पृशमृशेति सूत्रे प्रान्ते अपत् इत्यस्याये बोद्धव्या // 54 // हशिटो नाम्युपान्त्याददृशोऽनिटः सक / 3 / 4 / 5 // पञ्चम्याः कृग् / 3 / 4 / 52 // वृत्तिः-वेत्तेः परस्याः “पञ्चम्याः स्थाने आम् वा, स च कित्, आमन्ताच्च परः ‘पञ्चम्यन्तः कृग् अनु- पश्चात्प्रयुज्यते” / विदाङ्करोतु, वेत्त; विदाङ्कुरु, विद्धि; विदाङ्करवाणि, वेदानि / कृगग्रहणं भ्वस्तिव्युदासार्थम् // 52 // सिजद्यतन्याम् / 3 / 4 / 53 // वृत्तिः-धातोरद्यतन्यां परभूतायां १“सिच् प्रत्ययः" स्यात् / वेति निवृत्तम् / अनैषीत् , अकृषातां कटौ चैत्रेण // 53 // - अवचूरि:- 'इकारचकारौ विशेषणार्थो / २आमोऽधिकारनिवृत्तः, तत्सम्बद्धत्वात् / “अनैषीदि"- त्यत्र "सः सिजस्तेदिस्योः" (4 // 3 // 65 ) इत्यनेन ईत / "सिचि परस्मै समानस्याङिति" ( 4 // 3 // 44) इति वृद्धिः // 53 // स्पृश-मृश-कृष-तृप-दृपो वा // 3 // 4 // 54 // वृत्तिः-स्पृशादिधातुभ्योऽचतन्यां परभूतायां "वा सिच्'' स्यात् / 'अस्पाक्षीत् , अस्पार्षीत् , २अस्पृक्षत्; अम्राक्षीत् , अमाक्षीत् , अमृक्षत् ; . अक्राक्षीत् , अकार्तीत्, अकृक्षत्; अत्राप्सीत्, अतार्सीत्, भतृपत्; 'भद्राप्सीत् , अदार्सीत् , अपत् // 54 // अवचूरिः-स्पृशंत् संस्पर्श, स्पृश्, (सिच्) अद्यतन्याः परस्मैपदं,.............. ( दिव, ) "सः सिजस्ते." (413365 ) इति ईत , "स्पृशादि सृपो वा' (4 // 1112 ) इत्यनेन स्पृशो विचालेऽकारः, “व्यञ्जनानामनिटि" (4 // 345) इति वृद्धिः,एकत्र आकारः, अन्यत्र वृत्तिः-'हशिडन्तानाम्युपान्त्याद् दृशिवर्जितादनिटो धातोरद्यतन्यां परंभूतायां “सक् प्रत्ययः" स्यात् / सिचोऽपवादः / दुइ,- 'अधुत्, विशअविक्षत् , लिहलिशोः अलिशत्, द्विष, अद्विक्षत् / नाम्युपान्त्यादिति किम् ? अधाक्षीत् / अदृश इति किम् ? अद्रातीत् / विकल्पितेटोऽपि धातोः परः पक्षेऽनिट्वात् सक्-न्यवृक्षत्, अन्यत्र इटि सति न सक्- न्यगृहीत् / 5 / / अवचूरि:-'हशिडन्ताद्धातोः परः सक् भवतीति सम्बन्धः, कीदृशात् हशिडन्तात् ? नाम्युपान्त्यातू, पुनः कीदृशात् ? अनिटः, इति योजना / "अक्षत्," अत्र दुहीक क्षरणे, दि, सक्, “हो घुट्पदान्ते" ( 2 // 1 // 82 ) इति हस्य ढः, “ग-उ-द-बावेश्चतुर्थान्तस्यकस्वरस्याऽऽदेश्चतुर्थः स्ध्वोश्च प्रत्यये” (231177) इति दस्य धकारः, "षढोः कः सि" (2 / 1262) इति ढस्य कः, 'नाम्यन्तस्थाकवर्गात पदान्तः०"( 2 / 3 / 15) इति सस्य षत्वम् / “अलिक्षत्," लिहीक आस्वादने, अथवा लिशं ऋषत् गतौ, लिह लिश वा, अत्र "हो घुट्” ( 221182 ) इति हस्य ढः, अन्यत्र यजसृज. Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘अद्यतन्यां सिविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 43 (2 / 1 / 87) इति शस्य षः, उभयत्र "षढोः कः सि" (23 / कर्त्तरि"डप्रत्ययः"स्यात् / णि,- अचीकरत', औज११६२॥ इति कः, इत्येवम्) अलिक्षत् इति सिद्धम् / दहं / ढत् ; श्रि,- अशिश्रियत् , अदुद्रुवत् , असुस्त्रुवत् , भस्मीकरणे / “न्यधुक्षत्," गुहौग संवरणे, गुह, सक्, / अचकमत / कर्तरीति किम् ? अकारयिषातां कटौ "हो धु०" ( 2 / 1182 ) इति हस्य ढः, "गडदबादे०" | मैत्रेण // 8 // ( 261277 ) इति गस्य घकारः / "न्यगृहीत्," [ गुह, | - अवचूरिः-'कृ, करोति कश्चित्, तमन्यः प्रायुअद्यतनीदि, सिजद्यतन्याम्" (3 / 453) इति सिच, ] ङ्क्त, "प्रयोक्तृ०” ( 3 / 4 / 20) इति णिग्, "नामिनोअत्र च "घूगौदितः" (4 / 4 / 38) इत्यनेन इट्, ["लघो ऽकलिहलेः" ( 41351 ) इति वृद्धिः, कार्, अद्य० दि, रुपान्त्यस्य" ( 4 / 3 / 4) इति गुणः, ] "गोहः स्वरे" "णि-श्रि-द्रु-स्त्रु०" इत्यनेन ( प्रस्तुतसूत्रेण ) प्र - (4 / 2 / 42) इति सूत्रण गृहेरोकारस्य ऊकारः, “सः त्ययः, "उपान्त्यस्यासमानलोपि०” (4 / 235 ) इत्यसिच्०" ( 4 / 3 / 65 ) इति ईत्, “इट ईति' (4 // 3 // नेन धातोराकारस्य ह्रस्वः, कर, तदनन्तरं "द्विर्धातुः०" 71 ) इत्यनेन सिच् लुप्यते // 55 // ( 411 // इति ) द्विवचनम्, "असमानलोपे सन्वल्लघुश्लिषः / 3 / 4 / 56 // नि है" (4 / 1163) इत्यनेनाभ्यासे सन्वत् कार्यम् "इत्वम्,” "लघोर्दीर्घोऽस्वरादेः" (4 / 1164 ) इत्यनेवृत्तिः–श्लिषोऽनिटोऽद्यतन्यां “सक्” स्यात् / नाभ्यासे दीर्घः ईत्वम्, "कङश्च" (4 / 1146) इति आश्लिक्षत् कन्यां मैत्रः / अनिट इत्येव-'श्लिषू कस्य चोऽभ्यासे, "जेरनिटि" (4 / 3 / 83) इति णिग दाहे' इति सेटः परो न सक्- अश्लेषीत् , अधाक्षी लुप्यते, ( इत्येवम् ) अचीकरदिति सिद्धम् / "औजदित्यर्थः // 56 // ढत्,' वहीं प्रापणे, वह, उह्यते स्म, 'क्त,' (वह + क्त) - अवचूरिः-"श्लिषंच आलिङ्गने," "श्लिषः' इति "यजादिवचेः किति” (4.1179 ) इति स्वृत् वस्य उ, सूत्र पुष्यादित्वादडि प्राप्ते लषः' इति वचनं / तथा ( उह +त ) हो धुट्पदान्ते (231182) इति "पुरस्तादपवादा अनन्तरान् विधीन बाधन्ते नोत्तरान" धातुहस्य ढः, ( उढ् +त ) "अधश्चतुर्थात्तथोर्धः" ( 2 // इत्यङ एव बाघः, नचि :- आश्लेषि कन्या मैत्रेण 1179) इति प्रत्ययतकारस्य धः, ( उढ़+ध)"तवर्गस्य श्चवर्गष्टवर्गाभ्यां योगे चटवर्गों" (23 // 60) इति // 56 // धस्य ढः, ( उढ् + ढ) “ढस्तड्ढे ( 1 // 3 // 42) इति नासत्त्वाश्लेषे / 3 / 4 / 57 // दीर्घः ऊ, प्रकृतिढस्य च लोपः, (ऊढ) ऊढमारव्यत्, वृत्तिः श्लिषोऽप्राण्याश्लेषे वर्तमानात् ' “सक् "प्रयोक्तृव्यापारे णिग्” ( 3 / 4 / 20 ) इति णिग, ( ऊढ+णि ) "त्रन्त्यस्वरादेः” (7 / 4143) इति न" स्यात् / उपाश्लिषज्जतु च काष्ठं च / असत्त्वा ढस्य अकारलोपः, ( ऊढ़ + णि) "स्वरादेस्तासु" (4 // श्लेष इति किम् ? व्यत्यश्लिक्षन्त मिथुनानि // 57 / / 4 / 31 ) इति वृद्धिः औ, ( औढ् + णि) अत्र द्विवचने अवचूरिः--"नासत्त्वाश्लेषे" इति पृथग्योगकर- परे कर्तव्ये "हो धुट्पदान्ते" इति ( 211182) कृतढणात् पूर्वेणापि प्राप्तः सक् प्रतिषिध्यते // 57 // त्वस्यासत्वे, तदाश्रितस्य "अधश्चतुर्थात्तर्योधः" (2 // 1 // 79) इत्यनेन कृतधत्वस्याप्यासत्त्वे, “णौ यत्कृतं कार्य तत् सर्व स्थानिवद्” इति न्यायात् अन्त्याऽकारलोप।३।४।५८॥ स्य स्थानित्वे सति, "नाम्नो द्वितीयाद् यथेष्टम्" (411 // ७)इत्यनेन 'ह त' इति द्विर्वचनम्, "व्यञ्जनस्यानादेर्लुक्" वृत्तिः- ण्यन्तात् भ्यादिधातुभ्यश्चाद्यतन्यां (4 / 1 / 44 ) इति तकारलोपे, गहोर्जः (4 / 1140) णि-श्रि-द्रु-स्र-कमः कर्तरि छः Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०३ पा०४ सू० 56-61 इत्यम्यासे हस्य जे कृते, " हो घुट पदान्ते" ( 221182) | अङ, "इसासः शासोऽङ् व्यञ्जने" (4 / 4 / 118) इति शास्त्रस्यासिद्धिराश्रीयते तदा पुनरपि "हो घुट- इति सूत्रेण 'इस्' आदेशः। “आस्थत,' असूच क्षेपणे, पदान्ते" (21282) इति प्रक्रिया क्रियते, ततः "ढस्त- अस, ( अद्यतन्याः ) दि, "शास्त्यसूक्तिः " इति (प्रड्ढे (1 // 3 // 42) इति ढलोपे, पूर्वजकाराऽकारस्य स्तुतसूत्रेण ) 'अङ्,' "श्वयत्यसूवच्पत: श्वास्थवोच्पदीर्घत्वे, "ह्रस्वः" (411039) इत्यनेन ह्रस्वः, इति तम्' ( 4 / 3 / 103) इति असूस्थानेषु 'प्रस्थ' आदेशः। 'औजढत्' इति सिद्धम् / उणिश्रिद्रु० इति सूत्रे कमिग्रह- 3 'अवोचत्' अत्र वच्स्थाने "श्वयत्य०" इति वोच् / ' णम् "अशवि ते वा" (3 / 4 / 4 ) इति यदा णिङ् शास्त्यसूवक्ति० इति ( प्रस्तुत ) सूत्रे 'असू' इत्ययमूकारः .................(ना) स्ति तदा कमि ग्रहणं स............ "असक् भुवि' 'अषी असी' (गत्यादानयोश्च ) इति ( सार्थ)कम् , को..................... (ऽर्थः ? णिङ् धातुयप्रतिषेधार्थः, "असूच क्षेपणे" इति दिवाविह्या , प्रत्य ) यः ................ ....... ( यदाक ) मेः पर... तथाऽस्यतेः पुष्यादित्वादङि सिद्धेऽपि, यवत्र “शास्त्यसू." ........... ( रो भवति तदा णिद्वारेण प्रत्ययः,........ इति पाठः स आत्मनेपदार्थः / तहि परस्मैपदेऽपि आत्म: . ("अची)कमत" इति प्रयोगः, यत्र च न णिङ् तत्र नेपदेऽपि "शास्त्यसू' इत्यनेनैव सिद्धः, कि पुष्यादिपा"अचकमत" इति प्रयोगः। इयमवरिः कटौ मैत्रण ठेन ? सत्यम्, पुष्यादिगणेऽस्यतेः पाठो नियमार्थ एव इत्यस्याग्ने ज्ञातव्या // 5 // कृतः, तेनास्यतेः परतोऽवश्यम् "अ" भवति, अन्येषां पुष्यादीनां तु कारणवशात् व्यभिच........................ टधे-श्वेर्वा / 3 / 4 / 59 // (चारोऽपि, तेन "भगवन् मा) कोपीः" इत्यादि (? इति) वृत्तिः-ट्धे-श्विभ्यां "कर्त्तर्यद्यतन्यां डो वा” / बालरामायणे प्रयोगः सिद्धः॥६॥ स्यात् / 'अदधत् , २अधात् , अधासीत् ; अशिश्वियत् , अश्वयीत् , अश्वत् // 56 // सयतें / 3 / 4 / 61 // अवचूरिः--"इडेत्पुसि चातो लुक्” (4 // 3 // वृत्तिः-सृऋधातुभ्यां “कर्त्तर्यद्यतन्यामहवा" स्यात् / 'असरत् , असार्षीत् ; आरत् , आर्षीत् / 94) इति आकारलोपः। धेघ्राशाच्छासो वा (4 // 3667) इत्यनेन सिचो लोपो विकल्पेन / उ'श्वयत्यसू तिनिर्देशो यङ्लुबन्तनिवृत्त्यर्थः, असरिसारीत् , आरारीत् // 6 // वच्पतः श्वास्थवोच्पतम्" ( 4 / 3 / 103 ) इत्यनेन शिवस्थाने 'श्व' आदेशः॥५९॥ अवचूरिः- "ऋवर्णदृशोऽडि (4137 ) इत्यशास्त्यमू-वक्ति-ख्यातेरङ् / 3 / 4 / 60 // नेन सधातोर्गणः / "असरिसारीत, आरारीत,, मृशं पुनः पुनर्वा सरति, इति ऋच्छति वा "व्यञ्जनादे०". वृत्तिः–एभ्यः “कर्त्तर्यद्यतन्यामा प्रत्ययः" ( 3 / 4 / 9) इति सृधातोः यङ्, अन्यत्र ( =ऋषातोः) स्यात्। 'अशिषत् , आस्थत् , अवोचत , आ "अयतिसूत्रि." (3 / 4 / 10) इति यङ्, द्विर्वचनम्, ख्यत् / कर्तरीत्येव- अशासिषातां शिष्यौ गुरुणा / "ऋतोऽत्" (4 / 1138) इति सूत्रेणाम्यासे ऋकारस्य तिनिर्देशो यङ्लुबन्तनिवृत्त्यर्थः; अशाशासीत् , अः, 'रि-रौ च लुपि" (4 / 1 / 56 ) इत्यनेनाम्यासे भवावाचीत् , अचाख्यासीत् // 6 // (सृधातो ऋधातौ चानुक्रमेण) “री, र्' आगमः, "बहु लं लुप" (3 / 414 ) इति यह लुप्यते / यो लोपे अवरि:-"अशिषत," शासूक् अनुशिष्टी, शास्, कृते एव द्वित्वम्, ऋतोऽत्, रिरी च लुपीत्यादिकं (अवतन्याः) वि, शास्त्यसू० इति (प्रस्तुतसूत्रेण ) | कार्यम्, न यहि सति / तथा यहि लुप्ते सति अनुस्वारे Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्यतन्यामप्रत्ययविधानम्] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [45 तोऽपि धातोरिट् भवत्येव, “एकस्वर.. रानुबन्धधातुभ्यः- असृपत, अशकत / ( धुतादिभ्यः-) [रादनुस्वारेतः” (4 / 4 / 56) इति "एकस्वरत्वेन" इट् अरुचत्, “युद्भ्योऽद्यतन्याम्" ( 3 // 3 // 44 ) इत्यनेन प्रतिषेधविहितत्वात्.] / अद्यतनीदि, सिच्, “सः विकल्पेनात्मनेपदम् // 64 // सिज." ( 4 / 365 ) इति ईत्, तत इट्, “इट ईति" (1371 ) इति सिचो लोपः, “सिचि परस्मै०" ऋदिच्छ्यि-स्तम्भू-म्रचू-म्लुचू( 41344 ) इति वृद्धिः आर्, आरारोदित्यत्र ग्रुचू-ग्लुचू-ग्लुञ्बू-ब्रोवा "स्वरादेस्तासु" (4 / 4 / 31) इत्यभ्यासेऽकारस्य आकारो वृद्धिः // 61 // / 3 / 4 / 6 // ह्वा-लिप सिचः / 3 / 4 / 62 // वृत्तिः-ऋदिद्धातोः श्विप्रभृतिभ्यश्च “कर्त यद्यतन्यां परस्मैपदे परे वाऽङ" स्यात् / अरुधत्, वृत्तिः-ह्वादिभ्यः “कर्त्तर्यद्यतन्यामङ" स्यात् / अरौत्सीत् अभिदत् , अभैत्सीत्। अश्वत् , अश्वयीत्, आह्वत् , अलिपत्, असिचत् / / 62 // १अशिश्वियत् ; अस्तभत्, अस्तम्भीत्। अम्र चत्, वात्मने / 3 / 4 / 63 // | अम्रोचीत् ; अम्लुचत् , अम्लोचोत्; अग्रुचत् , अग्रोचीत् अग्लुचत् , अग्लोचीत् ; अग्लुचत् , अग्लुश्चीत् / वृत्तिः-ह्वादिभ्यो “कर्त्तर्यद्यतन्यामात्मनेपदे अजरत् , अजारीत् // 65 / परे वाऽङ" स्यात् / आह्वत, आह्वास्त; अलिपत, अलिप्त; असिचत, असिक्त // 63 // अवचूरिः- 'ट्वेश्वेर्वा (3 / 4159 ) इति / स्तभू इति सौत्रो धातुः / 'वञ्चू चञ्चू तञ्चू स्वञ्चू लदिद्-द्युतादि-पुष्यादेः परस्मै मञ्चू मुञ्चू चू चुम्लु ग्लुञ्बू षस्च गतौ,' / 3 / 4 / 64 // 'ग्रुचू ग्लुचू स्तेये' इति भ्वादौ, 'जऋर वयोहानी' इति क्रयादिः, 'जऋष् ज ऋष्च् जरसि' इति दिवादिः, वृत्तिः-लूदितो द्यु तादिभ्यः पुष्यादिभ्यश्च"कर्त्त- : द्वावपि ज्ञेयौ // 65 // यद्यतन्यां परस्मैपदे परेऽङ " स्यात् / लुदित् ,अगमत् , द्यु तादि,- अद्यु तत् , पुष्यादि,- अपुषत् , बिच ते पदस्तलुक च 3 / 4 / 66 / / अश्लिषजतु च काष्ठं च / परस्मै इति किम् ?सम- वृत्तिः-पद्यतेर्धातोः कतैयद्यतन्यास्तकारे गस्त // 64 // परे “जिच् प्रत्ययः" स्यात् / निमित्तभूतस्य तका रस्य लुक् च / उपादि / त इति किम् ? उदपत्साअवचूरिः-छुतादयो धातव: 23 भ्वादौ, पुष्या ताम् // 66 / / विधातवः 67..................... (दिवादी ज्ञातव्याः ) / पुष्य इति 'श्य' निर्देशात् पोषतिपुष्णात्यादि............. __ अवचूरिः- "जिव् ते पद." इति सूत्रे पदिषा(म्योऽङ् न भवति, किन्तु सिजेव- अपोषी)त् / लुका- तोरात्मनेपदित्वात् निमिततकारोऽद्यतन्या आत्मनेप तिवा शवानुबन्धेन, निर्दिष्टं यद् गणेन च / एकस्वरनिमित्तं च, पञ्चैतानि न यङ्लुपि // 1 // इति न्यायादेकस्वरत्वेन निविष्टानि कार्याणि यङ्लुपि न भवितुमर्हन्ति, प्रकृते इन तवेषः एकस्वरत्वेन निविड इति यपि न भवति; ततः 'स्तान. (44 // 32) इत्यनेनेड् भवत्येवेति भावः / Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं 104 सू०६७-६६ धिषाताम् , अहसाताम् ; घानिषीष्ट, "जिणवि घन्” (4 / 3 / 101 ) इति घनादेशः, वधिषीष्ट; घानिता, हन्ता / / 6 / / .. बस्य प्रथमत्रिकसम्बन्ध्येकवचनतकारो गृह्यते, परस्मैपदमध्यमत्रिकस्य बहुवचनतकारो न ग्राह्यः / एवमुत्तरत्र / बिच्प्रत्यये जकारो "णिति" ( 41350) इति सूत्रे विशेषणार्थः। चकारो "न कर्मणा जिच" (3488 ) इति विशेषणार्थः // 66 // दीप-जन-बुधि-पूर-ताय- प्यायो वा 3 / 4 / 67 / / वृत्तिः–दीपादिधातुभ्यः कर्तर्यद्यतन्यास्ते परे "बिच् वा स्यात् , तलुक् च"। अदीपि, अदीपिष्ट; अजनि, अजनिष्ट; अबोधि, अबुद्ध; अपूरि, अपूरिष्ट; अताथि, अतायिष्ट; अप्यायि, अप्यायिष्ट / त इत्येव- अदीपिषाताम् // 67 // अवचूरिः-बुधीति इकारो देवादिकस्य बुघेरात्मनेपदिनः परिग्रहार्थः // 67 // भाव-कर्मणोः / 3 / 4 / 68 // वृत्तिः-सर्वस्माद्धातो वकर्मविहितेऽद्यतनीते परे "जिच् तलुक् च" स्यात् / श्रासि त्वया, अकारि कट: चैत्रेण // 6 // स्वर-ग्रह-दृश-हन्भ्यः स्य-सिजाऽऽशी:-श्वस्तन्यां जिट् वा / 3 / 4 / 69 / / वृत्तिः स्वरान्ताद्धातोर्ग्रहादिभ्यश्च विहितासु भावकर्मविषयासु स्य-सिजा-ऽऽशी:- श्वस्तनीषु “निट् प्रत्ययो वा" स्यात् / 'दायिष्यते, दास्यते; अदायिषाताम् अदिषाताम् ; दायिषीष्ट, दासीष्ट; दायिता, दाता; ग्राहिध्यते, "ञ्णिति" (4 / 3 / 50 ) इति वृद्धिः, 'ग्रहीष्यते; अग्राहिषाताम् , अग्रहीषाताम् ; ग्राहिषीष्ट, ग्रहीषीष्ट ; प्राहिता, ग्रहीता; दर्शिष्यते, द्रक्ष्यते; अदर्शिषाताम् , अदृक्षाताम् ; दर्शिषिष्ट, दृक्षीष्ट; दशिता, द्रष्टा घानिष्यते, हनिष्यते; अघानिषाताम , अव अवचुरिः-- प्रकृतिप्रत्ययोर्वचनवैषम्यान यथासंख्यं भवति / १"आत ऐः कृऔ" (41353) इति सूत्रेण आकारस्यकारः / २"इश्च स्थादः" (4 // 341) इत्यनेन इकारः। 'आत ऐः कृऔ" ( 4 // 3 // 53) इति ऐः। दायिता, दाता इत्यस्याने शमिष्यते, शामिष्यते, शमयिष्यते इत्यप्युदाहरणानि ज्ञेयानि / अत्र शम,. शाम्यन्तं प्रयुक्ते-णिग, णिति / 41350) ( इत्यनेन वृद्धिः ) आ, (शामि )स्यते, "स्वरग्रह०" इति ( प्रस्तुतसूत्रण ) वा जिट, (अतः) "शमयिष्यते” अत्र न जिट् / घटादेह्रस्वो० (4 / 2 / 24 ) इत्यनेन सर्वत्र ह्रस्वः / यत्र जिट् तत्र विकल्पेन दीर्घः। ( अतः जिटि सति शामिष्यते, शमिष्यते इति रूपद-- यम् / एवमशमिष्यत, अशामि........."( ष्यत, ) अशमयिष्यत; अशमिषाताम्, अशामिषाताम, अशमयिषाताम्; शमिषीष्ट, (शामिषीष्ट, ) शमयिषीष्ट ; शमिता, शामिता, शमयिता एवं चयिष्यते, चेष्यते; शायिष्यते, शयिष्यते; स्ताविष्यते, स्तोष्यते; कारिष्यते,. करिष्यते; तारिष्यते, तरिष्यते, तरीष्यते। भावफर्मणोरिति किम् ? दास्यति / "ग्रहीष्यते" इत्यादौ यत्र जिट नास्ति, तत्र सर्वत्र "तेर्ग्रहादिभ्यः" ( 4 / 4 / 33) इति सूत्रेण इट्, “गृह्णोऽपरोक्षायां दीर्घः ( 4 / 4 / 34) इति सूत्रण इटो दीर्घः सर्वत्र, यत्र च स्वरग्रहेत्यादिना' जिट तत्र सर्वत्र "णिति" (41350) इति सूत्रेण वृद्धिः, धालोरकारस्य आकारो वृद्धिः कार्या / 'ब्रक्ष्यते इत्यत्र "अः सृजिदृशोऽकिति" (4 / 4 / 111) इति सूत्रेण धातुविचाले अकारागमः / 'घानिष्यते' इत्यत्र स्वरेत्या-- दिना जिट् प्रत्यये कृते सति “जिणवि घन" (4 // 3 // 101 ) इति सूत्रेण हनो “घन्" इत्यादेशः / 'हनि-- ष्यते,' अत्र च "हनृतः स्यस्य" ( 4 / 4 / 49) इति सूत्रेण 'इट्'। 'अघानिषाताम्' इत्यत्र मिटि कृते "निणवि घन्' (4 / 3 / 101) इति घन् आदेशः। "अव-- विषाताम्," अत्र च जिटि कृते "अद्यतन्यां वा त्वात्मने"" Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकर्मणोः शिति क्यविधानम् मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / (44122 ) इति सूत्रेणात्मनेपदे विकल्पेन "वध इति | अनद्भ्यः इति किम् ? अत्ति / / 71 / / सस्वर" आदेशः, 'अतः" (4 / 3 / 82 ) इति सूत्रण वधस्यान्त्यास्वरलोप: / "अहसाताम्" इत्यत्र "हनः अवचूरिः-अनभ्य इति अदादिवर्जनात् इति सिच्” ( 4 / 3 / 38 ) इति सूत्रेण "सिच् “अदं प्सांक भक्षणे" इत्यादय : ककारानुबन्धा ज्ञेयाः। शकारवकारौ शिद्वित्कार्याौँ / "धारयः," , धरन्तं किद्वत्,” तदनन्तरं = सिचः कित्त्वे सति “यमिरमिनमिगमिहनिमनिवनतितनादेधुटि क्ङिति" ( 4 / 2 / प्रयुङ्क्ते, "प्रयोक्तृव्यापारे णिग्" ( 3 / 4 / 20 ) इति णिग, "नामिनोऽकलि० (4 / 3151 ) इति वृद्धिः '55 ) इति सूत्रेण हनो "नकारस्य लोपः" / "वधि , 'पोष्ट," अत्र 'हनो वध आशिष्यजौ' (4 / 4 / 21) धारयतीति धारयः, "साहि-साति-वेधुदेजि-धारि - इति सूत्रेण 'वध,' “अतः" (4 / 3 / 82) इति सूत्रेणा पारि-चेतेरनुपसर्गात्" ( 5 / 1159 ) इति सूत्रेण 'शः' कारलोपः॥६९॥ प्रत्ययः, “कर्तर्यनद्भ्यः शब्' [ इति प्रस्तुतसूत्रेण क्यः शिति / 3 / 4 / 70 / / . धातोः परः शवप्रत्ययः, "नामिनो गुणोऽविति" इत्य नेन इकारस्य गुणः 'एं,' “एदैतोऽयाय" इत्यनेन.. वृत्तिः-"धातो वकर्मविहिते १शिति क्य एकारस्य 'अय्,'"लुगस्यादेत्यपदे' (2 / 1 / 113) इत्यकाप्रत्यय :" स्यात् / २शय्यते त्वया, शय्येत, शय्य- रलकि धारयः इति सिद्धम् ] एज कम्पने, एज. एजन्तताम्, अशय्यत त्वया; उक्रियते, क्रियेत , क्रिय मेजमानं वा प्रयुङ्क्ते, णिग, जनमेजयतीति 'एजेः' ताम् , अक्रियत कटस्त्वया; अक्रियेतां कटौ, अक्रि ( 5 / 1 / 118) इति सूत्रेण ख..............(२), यन्त कटाः, “क्रिया। पशितीति किम् ? अभावि "कर्तर्य० शव्,खित्यनव्यया० ( 3 / 2 / 111 ) इति // 7 // मोन्तः, ( शेषप्रक्रिया धारयवत् ) // 71 // - अवचूरिः- 'शकारानुबन्धे प्रत्यये / २शय्यते" दिवादेः श्यः / 3 / 4 / 72 / / इत्यादिषु "विङति यि शय्" (4 // 3 / 105) इति सूत्रण 'शय' आदेशः। 3'क्रियते' इत्यत्र "रिः शक्याशीर्ये" वृत्तिः-दिवादिधातोः “कर्तरि शिति श्यप्र(१३३११०) इति सूत्रेण ऋकारस्य स्थाने 'रि' आदेशः। त्ययः" स्यात् / शकारः शिकार्यार्थः / दीव्यति / "कृ, क्रियते इति क्रिया, “कृगः श च वा" ( 5 / 3 / श्यादिप्रत्ययाः शवोऽपवादाः / / 72 / / 100 ) इति सूत्रेण शप्रत्ययः, क्यः, "रिः शक्याशीर्ये" (4 // 3110 ) प्रत्ययः( ? इति ऋकारस्य स्थाने 'रिः' __ अववूरिः--दिवादयः दिवूच् क्रीडाजयेच्छापणीआदेशः)। पशितीति किम् ? अभावि, बभूवे; अत्र भू, त्यादयश्चकारानुबन्धा मन्तव्याः // 72 // (परोक्षायाः) ए, द्वित्वम्, "भूस्वपोरदुतौ" (4 / 170) इति अकारोऽभ्यासे, 'धातोरिवर्णोवर्ण०" ( 2 // 1150) भ्रास-म्लास-भ्रम-क्रम-क्लम-त्रसिइत्यनेन उवादेशः, “भुवो वः परोक्षा०" ( 4 / 2 / 43 ) त्रुटि-लषि-यसि-संयसेवा 'इत्यनेन ऊकारः / एवं भविषीष्ट, भविता, भविष्यते, अभविष्यत भवता; एवमकारि कटस्त्वया // 7 // / 3 / 4 / 73 // कर्तर्यनद्भ्यः शव / 3 / 4 / 71 // वृत्तिः–एभ्यः “कर्त्तरि शिति श्यो वा" स्यात् / वत्तिः धातोरदादिवर्जितात "कर्तरि विहिते | भ्रास्यते, भ्रासते; भ्लास्यते, भ्लासते; 'भ्राम्यति, -शिति शव् प्रत्ययो" भवति / भवति, चोरयति, पचन, भ्रमति; भौत्रादिकस्य भ्रम्यति, "भ्रमू चलने" इति धारयः, जनमेजयः राजा / कर्तरीत्येव-पच्यते / / भ्वादौ परस्मैपदी; क्राम्यति, क्रामति; क्लाम्यति, Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48) श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं (अ०३ पा०४ सू०७४-७७ क्लामति; त्रस्यति, सति; त्रुट्यति,त्रुटति; लष्यति, / अथवा कुष्णाति = देशान्तरं प्रापयति / कुष्णाति पावं मैत्र लषति; यस्यनि, यसति; संयस्यति, संयसति / इति वाक्यं, वाक्ये 'पादम्' इति कर्म, कुष्णाति पादः प्राप्ताप्राप्तविभाषेयम् // 73 // स्वयमेव इति प्रयोगे 'पादः' इति कर्ता / कुष्यन पावः स्वयमेव, कुष्यमाणः पाद: स्वयमेव इत्यपि। रज्यद अवचूरि:-'भ्रमूवलमूत्रसैयसू' इत्येषा (इत्येषां) वस्त्रं, रज्यमानं वस्त्रं स्वयमेव इत्यपि ज्ञेयम् / कुष्णाति प्राप्ते, भ्रासम्लासक्रमूत्रुट्लषीनम् ( लषीनाम् ) पादं मैत्र इति परिणयात्रावाक्यं (?) रजति वस्त्र अप्राप्ते, उभयत्रापि विकल्पेन श्यप्रत्ययः / “मासि रजक इत्थम..................(त्र वाक्यम्)। परस्मटुभ्रासि टुम्लासृङ् दीप्तौ' इति (भ्रांसभ्लासधातू ) पदसन्नियोगे श्यप्रत्ययस्य विज्ञानादिह न श्यप्रत्ययः, भ्वादी आत्मनेपदी (पदिनौ ) / "भ्रमूच अनवस्थाने" यथा- ("कतीह 'कुष्णानाः' पादाः? ) कतीह 'रजइति दिषादौ शमादिसप्तके परस्मैपदी, श्ये सति "शम्- मानानि' वस्त्राणि ?" अत्र "वयःशक्तिशोले" (52 // . सप्तकस्य श्ये" (12 / 111) इति सूत्रेण दीर्घः, 'भ्राम्य 24) इति सूत्रेण शानप्रत्ययः, शानप्रत्ययोऽपि न परस्मै ति' इति सिद्धम् / "वमू पादविक्षेपे" इति भ्वादी पर- पदी, नापि आत्मनेपदी इति हेतोरत्र न श्यः। अयं विशेष: स्मैपदी, "क्रमो दीर्घः परस्मै ( 4 / 2 / 109) इति 'कुष्णाति पादं रोगः" इत्यस्याग्रे ज्ञातव्यः / यदि कुषिदीर्घः / "क्लमूच ग्लानौ" इति दिवादौ परस्मैपदी, रजेः परः क्याऽऽत्मनेपदौ ( ? क्यात्परस्मैपदं ) विक'ष्ठिवू-कुम्वाऽचमः' (4 / 2 / 110) इति दीर्घः / रूपेन कुर्यात्, तदा "कुष्यन्ती, रज्यन्ती" इति (नित्यं ) 'प्रसंचमये' इति दिवादी परस्मैपदी। "चुट छुट त्रुटत् न सिध्येत्, इति श्यपरस्मैपदविधानं कृतं, येन "श्यच्छेदने" सुबादौ / "लषी कान्तौ" इति भ्वादावुभयपदी। शवः' (2.1.116 ) इत्यनेन "अतृस्थाने अन्त" यसूच प्रयत्ने इति दिवादौ। यसिनैव सिद्धे सम्पूर्वयसे- इत्यादेशः ( नित्यं ) स्यात् / / 74|| ग्रहणमुपसर्गान्तरपूर्वकस्य यसेनिवृत्त्यर्थः, तेन 'आयस्यति' इत्यादिषु नित्यं श्यः // 73 // _ 'स्वादेः श्नुः / 3 / 4 / 7 // कुषिरञ्जर्व्याप्ये वा परस्मै च / 3 / 4.74 // वृत्तिः--स्वादिगणात् "कर्तरि- कर्तृ विहिते शिति श्नुः प्रत्ययः" स्यात् / शकारः शित्कार्यार्थः / वृत्तिः-कुषिरञ्जिभ्यां "व्याप्ये 'कर्तरि सुनोति, सुनुते // 7 // शिद्विषये परस्मैपदं वा" स्यात् , २'तद्योगे श्यश्च / क्यात्मनेपदापवादौ / कुष्णाति पादं मैत्रः, कुष्यति अवचूरि:-१'स्वादे': 'षुगट अभिषवे' इत्यापादः स्वयमेव, कुष्यते पादः स्वयमेव, रजति वस्त्र दिधातोः परः / २"उ-इनोः" (4 / 3 / 2) इत्यनेन रजकः, रज्यति वस्त्रं स्वयमेव, रज्यते वस्त्रं स्वय 'इनु'इत्यस्य गुणः / / 75 / / मेव / व्याप्ये कर्तरीति किम् ? कुष्णाति पादं रोगः। क्यात् परस्मैपदविकल्पविधानेनैव सिद्धे श्यवि __ वाऽक्षः / 3 / 4 / 76 / / धानं 'कुष्यन्ती, रज्यन्ती-' त्यत्र "श्यशवः" (2|| वृत्तिः--अक्षात् “कर्त्तरि शिति श्नुर्वा" स्यात् / 116) इति नित्यमन्तादेशार्थम् / / 74 / / / अक्ष्णोति, अक्षति / / 76 // अवचूरिः- 'कर्तरि कोदृशे ? व्याप्ये कर्मरूपे, अवचूरि:--"अक्षौ व्याप्तौ च" इति म्बादौ यत् कर्म प्रथम, पश्चात् तदेव कर्म कर्तृ रूपं भवति; परस्मैपदी, इत्यस्माद्धातोः // 76 / / ' एवंविषे कर्तरि सति / परस्मैपदयोगे। 3"कुष्णाति," कोऽर्थः ? बहिनिः (?बहिनिः) कृष्टान्तरवयवं करोति, तक्षः स्वर 417 पात, Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तरि शिति शवादिविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [46 - वृत्तिः- स्वार्थ = तनूकरणेऽर्थे 'तक्षौ' इत्यस्मात् / ण / व्यञ्जनान्तादिति किम् ? लुनीहि / इनाहे. "कर्तरि शिति श्नुर्वा' स्यात् / तक्ष्णोति, तक्षति | रित्येव-अभाति // 8 // काष्ठम् / स्वार्थ इति किम् ? 'संतक्षति वाग्भिः शिष्यम् // 7 // तुदादेः शः 3 / 4 / 81 // वत्तिः-'तुदादिधातोः २"शिति शप्रत्ययः" , अवचूरि:-"तक्षौ त्वक्षौ तनूकरणे" इति भ्वादो स्यात् / तुदति, तुदते // 1 // परस्मैपदी, इत्यस्य धातोरर्थः तनूकरणं स्वार्थ इत्युज्यते / तक्ष्णुवानः, तक्षमाणः ( इत्यपि ज्ञेयम् ) / नि- अवचूरिः-१"तुदीतू व्यथने' इत्यादिकाबातोः / भसंयतीत्यर्थः / / 77 // 'कर्तृविहिते / शिकारः शित्कार्यार्थः / / 81 // स्तम्भू-स्तुम्भू-स्कम्भू-स्कुम्भू-स्कोः रुषां स्वराच्छनो नलुक च / 3 / 4 / 82 // श्ना च / 3 / 4 / 78 // ___ वृत्तिः-रुधादिधातोः "स्वरात्परः अप्रत्य यः" स्यात् , कविहिते शिति, तद्योगे च "प्रकृवृत्तिः- स्तम्भादिसौत्रधातुभ्यः स्कुगश्च तिनकारस्य लुक् च,' प्रत्ययनकारस्य तु विधान"शिति नाप्रत्ययः श्नुश्च" स्यात् / स्तभ्नाति, सामर्थ्यान्न लुक्- रुणद्धि, हिनस्ति / / 2 / / स्तभ्नोति; स्तुभ्नाति, स्तुभ्नोति; स्कभ्नाति, स्कभनोति; स्कुभ्नाति, स्कुभ्नोति; स्कुनाति, स्कुनोति अवचूरिः--१"तयोगे च प्रकृतिनकारस्य" इत्य. स्यायं भावार्थः संभाव्यते,-यत्र “उदितः स्वरान्नोऽन्तः" (41498 ) इत्यनेन नोऽन्तः क्रियते,तस्य नः= अन्तस्य भवरि:-'कर्तृ विहिते / शिकारः शित्कार्यार्थः / नकारस्य लुक् भवति, यथा- 'हिनस्ति' इत्यत्र / रुणद्धि' स्तम्नानः, स्तम्नुवानः; (अत्र ) अनिर्दिष्टानुबन्धानां इत्यत्र "अधश्चतुर्थात्तथोर्षः" ( 23179) इति प्रत्ययसौत्रधातूनां प्रायेण परस्मैपदित्वात् ["वयःशक्तिशिले" तकारस्य धकारः / एवं 'रुन्छे' इत्यत्र "भास्त्योलुंग" (5 / 2 / 24 ) इति ] शानादिप्रत्ययः / एवं स्कुनीते, / 4 / 2 / 90 ) इति सम्बन्धिनकारस्याकारलोपः / 'हिसुनुते (इत्यपि ज्ञेयम्) / स्कुनातीत्यादौ "स्कुंग्श् आप्र नस्ति' इत्यत्र 'हिसु, "उदितः स्वरानोऽन्तः" (44 // बजे" इति क्यादौ // 7 // ९८ाइति नोऽन्तः ), ततो 'रुधां स्वरा०' (इत्यनेन ) क्रयादेः / 3 / 4 / 79 // भ,रुधाम० इत्यनेनैव नः = अन्तनकारस्य लुप्(क) / / 8 / / वृत्तिः–क्रयादेर्गणात् “कर्तृ विहिते शिति कृग-तनादेरुः 3 / 4 / 83 // मा" स्यात् / क्रीणाति, प्रीणाति / / 7 / / वृत्ति:-कृगः 'तनादिधातोश्च "कर्तृ विहिते अवचूरि:--क्रयादयो “डुक्रौंग्श् द्रव्यविनिमये" शिति उप्रत्ययः" स्यात् / करोति, तनोति // 3 // इत्यादयोऽत्र शकारानुबन्धा ज्ञातव्याः // 79 // अवचूरिः-१'तनूयी विस्तारे' इत्याविकषातोः। २"उभो:" (4 / 3 / 2 ) इत्यनेन उकारस्य गुणः / व्यञ्जनाच्छनाहेरानः।३।४।८०॥ तनादिगणेऽपठित्वा भ्वादिमध्ये 'कृग' इत्यस्य पाठः वत्तिः--"व्यञ्जनान्तात्क्रयादेः परस्य भायु- | 'करति' इति प्रयोगे शवर्थम्, येषां मते तु कृगस्तनादी तस्य 'हे:' स्थाने 'आन' इत्यादेशः" स्यात् / पुषा- | पाठः, तन्मते "तनभ्यो वा तयासि गोत्र" ( // 3 // Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०३ पा०४ सू०८४-८६ 68 ) इत्यनेन रूपद्वयम् “अकृत, अकृष्ट" इति प्रापेत्, / च" ( 3 / 4 / 91 ) इत्यनेन प्रतिषेधात् तपेः परो मिच् (प्राप्येत) शव् च न सिध्येत्, स्वमते तु "अकृत,अकृथाः" न भवति, इति जिप्रयोगो न दर्शित उदाहरणे // 5 // इति नित्यमेव, “धुडह्रस्वाल्लगनिटस्तयोः (4 // 370) इत्यनेन सिचो लुक् // 83 // 'एकधातौ कर्मक्रिययैकाऽकर्म क्रिये' - सृजः श्राद्वे जि-क्या-ऽऽत्मने तथा / 3 / 4 / 86 // / 3 / 4 / 84 // वृत्ति.-एकस्मिन् धातौ कर्मस्थक्रियया "पूर्ववृत्तिः- सजधातोः पराणि "जिक्याऽऽत्मनेप दृष्टया एका=ऽभिन्ना संप्रत्यकर्मिका क्रिया यस्य, दानि श्रद्धावति कर्तरि भवन्ति, तथा यथाविहि- तस्मिन् कर्तरि कर्मकत्र्त रूपे "धातोर्जिक्यात्मनेतानि" / असर्जि मालां धार्मिकः, सज्यते माला पदानि" स्युः। अकारि कटः स्वयमेव, क्रियते धार्मिकः, स्रश्यते मालां धार्मिकः श्राद्धे इति कटः स्वयमेव, करिष्यते कटः स्वयमेव; एवमभेदि, किम् ? व्यत्यसृष्ट माले मिथुसृनम्, जति मालां भिद्यते, बिभिदे कुशूल: स्वयमेव / एकधाताविति मालिकः // 4 // किम् ? पचत्योदनं चैत्रः, सिध्यत्योदनः स्वयमेव / कर्मक्रिययेति किम् ? "साध्वसिश्छित्ति / एकक्रिय अवचूरिः-'सृजः श्राद्ध' इति सूत्रे 'तथा' इति इति किम् ? स्रवत्युदकं कुण्डिका, स्रवत्युदक वचनात् यथा विहितानि जिचक्याऽत्मनेपदानि कुण्डिकायाः / अकर्मक्रिय इति किम् ? भिद्यमानः भवन्ति, तथाहि- "भावकर्मणोः" ( 3 / 4 / 68 ) इति कुशूलः पात्राणि भिनत्ति, हन्त्यात्मानमात्मा // 86|| सूत्रेण “जिच् तलुक" च, "क्यः शिति" (3 / 4 / 70) इति 'क्यः,' भावे कर्मणि ( च ) जिच्क्याऽऽस्मनेपदानि, अब तु कर्तरि जिक्यादयो भवन्ति, तथेति ___ अवचूरिः- 'एकश्चासौ धातुश्च =एकधातुस्तस्मिन् / कर्मणि क्रियाकर्मक्रिया, तयां। न विद्यते कर्म वचनावद्यतन्यामात्मनेपदते (परे ) 'जिच्,' 'तलुक, यस्याः क्रियायाः = सा अकर्मा, एका अकर्मा क्रिया यस्य शिति चक्य' इति सिद्धमिति भावार्थः।।८४॥ कर्तुः=स एकाकर्मक्रियः, तस्मिन्, एवंविघे कर्तरि सति / तपेस्तपःकर्मकात् / 3 / 4 / 85 // "पुनः कर्तरि कोशे? कर्मकर्तृरूपे, इत्याह- कर्तरि कर्मकर्तृरूपे / 'पूर्वस्मिन् काले दृष्टा = पूर्वदृष्टा, तया, वृत्तिः-तपिधातोः ( *अर्थान्तरवृत्तित्वेन' ) अत्र 'सहार्थे ( 2 / 2 / 45 / इति ) तृतीया / "अकारि तपःकर्मकात् “कर्तरि भिक्यात्मनेपदानि स्युः, कटः स्वयमेव" इत्यादीनां भावार्थोऽयम्- अत्र करोति तथा' / तप्यते साधुस्तपः, तेपे तपांसि साधुः / कटं मंत्रः, भिनत्ति कुशूलं चत्रः इत्यादौ यैव क्रिया तपिरत्र करोत्यर्थः / तपेरिति किम् ?कुरुते तपांसि साधुः। कटादिकर्मणां निष्पत्तिविदारणादिका, सैव क्रिया सुकतप इति किम् ? उत्तपति स्वर्ण स्वर्णकारः। कर्मेति रत्वेनाविवक्षते कर्तृव्यापारे स्वातन्त्र्यविवक्षायां तस्मिकिम् ? तपांसि [ कर्तृ पदं ] साधु तपन्ति / / 5 / / नेव धातावऽमिका च, एवं चाकर्मकत्वाद्भावेऽप्यात्मअवचूरिः-१ अर्थान्तरवृत्तित्वेन,” कोऽर्थः ? नेपदं भवति- क्रियते कटेनेत्यादि, एवं क्रियमाणः कटः, करोत्यर्थेन / यथा विहितानि करोतीत्यर्थः (? यथा चक्के कटः स्वयमेव / साध्वसिछिनत्ति, एवं साधु विहितानीत्यर्थः ) / अग्रे वक्ष्यमाणेन “तपः कर्बनुतापे स्थाली ..........."( पचति, ) अत्र असिना कृत्वा *इदं पदं हस्तलिखितप्रतौ न विद्यते, बृहवृत्तौ सत्त्वादत्र तदीयावचूरेरपि सद्भावाच ( ) इति चिहान्तोऽस्माभिः प्रक्षितम् / Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि-क्या-उंऽत्मनेपदविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / साधु छिनत्ति, स्थाल्यां साधु पचा भवति, एवं करणाधि- | स्वयमेव, ) एवं "गां दोन्धि पयो गोपालकः" इति करणक्रिययकक्रिये कर्तरि मा मूत् / अत्र 'स्रवति' / मूलप्रयोगः, दुग्धे गौः पयः स्वयमेव, अदुग्ध गौः कोऽर्थः ? विसृजति, निडक्रामति इत्येवं क्रियामेवः, इति पयः स्वयमेव, अधुक्षत गौः पयः स्वयमेव, नैकक्रियत्वम् / 9 स्रवत्युदकं कुण्डिकायाः" इत्यस्याने / ( इति ) दुहिपच्योः कर्मणि प्रयोगः / तथा "गलन्त्युदकं वलीकानि, कोऽर्थः ? छदिप्रान्तं, 'छाननि' दुहिपच्योः कर्मणि प्रयोगः (गे) उत्तरसूत्रेण "न इति प्रसिद्धिः, गलत्युदकं वलीकेभ्यः, अत्रापि मुञ्चति, कर्मणा जिच्" इत्यनेन जिचो निषेधं वक्ष्यति इति माटात कब्गित्वम."त्यक्षराणि ज्ञेयानि | जिचः प्रयोगो न दशितः। तथा अविशेषेण बडेनिचो "हन्त्यात्मानमात्मा" इत्यस्याग्रे (इ - एक विकल्पं क्यस्य च प्रतिषेधं वक्ष्यति इति न क्यप्रयोगो स्यैव कर्मत्वं कर्तृत्वं च कथम्? इति चेत्, उच्यते,-सर्व- दशितः // 87 // मपि ( कर्म स्वातन्त्र्यमनुभूय ) कर्तृव्यापारेण न्यक्कृतं न कर्मणा निच 3 / 4 / 88 // सत् कर्मतामनुभवति, कर्तृव्यापाराविवक्षायां तु स्व. व्यापारे स्वातन्त्र्यात् कर्तृत्वमस्याव्यावृत्तमेवर वृत्तिः–पचिदुहे: “कर्मणा योगेऽनन्तरोक्ते' // 86 // 'कर्तरि भिच न" स्यात् / अपक्तोदुम्बरः फलं स्वयमेव, अदुग्ध गौः पयः स्वयमेव / कर्मणेति पचिदुहेः / 3 / 4 / 87 // किम् ? अपाच्योदनः स्वयमेव, अदोहि गौः स्वयवृत्तिः-पचिदुहिभ्यामेकधातौ कर्मस्थक्रियया- मेव / 'अनन्तरोक्ते कर्तरीत्येव - अपाच्युदम्बरः * ऽकम्मिकया' सकर्मिकया वा; एकक्रिये कर्तरि फलं वायुना // 8 // कर्मक रूपे, “भिक्यात्मनेपदानि" स्युः / अपा अवचूरि:-...""(अ)नन्तरोक्त," एक........ च्योदनः स्यवमेव, एवं उपच्यते; अदोहि गौः / (क्रिये ) कर्मकर्तृरूपे .... (इ) त्यर्थः / एवमदोहि स्वयमेव, दुग्धे गौः स्वयमेव, अदुग्ध / / 87 // .. गौः पयो गोपालकेन / / 88 // अवचूरिः-अकर्मकस्येह पूर्वेणैव सिद्धे सकर्मकार्थ रुधः / 3 / 4 / 89 // "पचिदुहेः' इति वचनं कृतम् / 'पूर्वदृष्टयाकर्मत्वे पूर्वेण सिद्धमपि पुनरनूद्यते, सूत्रारम्भात् / २अपवादविषयं वृत्तिः–“रुधोऽनन्तरोक्त कर्तरि मिच्न" मुक्त्वा। पिच्यते ओदनः स्वयमेव, पक्ष्यते ओदनः स्वय स्यात् / अरुद्ध गौः स्वयमेव / / 6 / मेव / अदुग्ध गौः स्वयमेव / "उदुम्बरं फलं पचति वायुः" इति मूलप्रयोगः, पचिरन्तभूतण्यों द्विकर्मकः, अवचूरि:-अनन्तरोक्त कर्तरीत्येव- मरोधि उदुम्बरः फलं पच्यते स्वयमेव, (अपक्तोदुम्बरः फलं गौर्गोपालकेन / / 89 // *यदाहुः-निर्वृत्त्यादिषु तत्पूर्वमनुभूय स्वतन्त्रताम् / कञन्तराणां व्यापारे कर्म संपद्यते ततः॥१॥ निवृत्तप्रेषणं चैतत्स्वक्रियावयवे स्थितम् / निवर्तमाने कर्मत्वे स्वे कर्तृत्वेऽवतिष्ठते // 2 // अत्र कनकप्रमसूरीणामाक्षेपपरिहारवचनविलास एवम्-"अनेन तु कर्मणि विधीयते, तात्र (वृत्ती) कर्मणीत्युच्यताम् ? न, एवं कृते पचिदुद्योस्तक्रकौण्डिन्यन्यायेन सत्येव कर्मणि स्यात, ततश्च कर्मण्यसति पूर्वेणापि म स्यात्। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन (अ०३ पा०४ सू०:०-६३ स्वरदुहो वा / 3 / 4 / 90 // / षीष्ट गौः स्वयमेव; जिणवि घन् (4 / 3 / 101 / इति हन्धातोः “घन्” आदेशः ) / पृथग्योगादुत्तरसूवृत्तिः-"स्वरान्ताद् धातोर्दुहेश्वानन्तरोक्त / त्रेण न चिनिषेधः / / 12 // कर्तरि भिच् वा न" स्यात् / अकृत, अकारि कटः अवचूरि:--'येभ्यः कर्मण्यसत्यात्मनेपदं विधीस्वयमेव; अदुग्ध, अदोहि गौः स्वयमेव // 10 // यते, त आत्मनेपदाकर्मका धातवः। २पचत्योदनं चैत्रः, अवचूरिः-१"धुहस्वाल्लुगनिटस्तथोः" (4 // तं चैत्रं पचन्तं प्रायुक्त इति वाक्ये णिग, ततोऽपीपच३७०) इति सिच्लोपः। अनन्तरोक्त कर्तरीत्येव- दोदनं चैत्रेण मैत्र इत्येकः प्रयोगः, पुनरोदनस्येत्यादि,अकारि कटश्चत्रेण, अदोहि गौर्वलवेन=गोपालेन अपीपचतौदनः स्वयमेव इति सूत्रोक्तं मूलोदाहरणं // 9 // ज्ञातव्यम् / यदि वा स्वयं पच्यमान ओदनः स्वम्-आत्मानं प्रायुङ्क्त, तत्रापि अपीपचतौदनः स्वयमेव / उभयत्रोतपः कत्र नुतापे च / 3 / 4 / 91 // दाहरणे "स्वयमेवौदनोऽपाचि" इत्यर्थो ज्ञातव्यः। प्रास्नावीत वृत्तिः-"तपिधातोः कर्मकर्तरि, कर्त्तर्यनुतापे / गां देवदत्तः ( इति वाक्यम् ), प्रास्नोष्ट गौः स्वयमेवेति 'चार्थे बिच न' स्यात् / ( कर्मकर्त्तरि,-) अन्व- - मूलोदाहरणम् ।"उदशिश्रियद्दण्डं दण्डी इति वाक्यम्, उदवातप्त कितवः स्वयमेव, कर्त्तरि,- अतप्त तपांसि शिश्रियत दण्डः स्वयमेवेति उदाहरणं ज्ञातव्यम् / तथा साधुः / (अनुतापे,-) •अन्वतप्त चैत्रेण,3 *अन्व- व्यकार्षीत् सैन्धवं चैत्रः इति वाक्यम्, व्यकार्षीत् (इति) वातप्त पापः पापेन कर्मणा / कर्चनुतापे चेति / कोऽर्थः ?वल्गयति स्म, गति शिक्षयति स्मेत्यर्थः, व्यकृत किम् ? अतापि पृथ्वी राज्ञा // 1 // सैन्धवः स्वयमेवेति मूलोदाहरणम्, विपूर्वकरोतिर्वल्गनेऽ र्थेऽन्तर्भूतण्यर्थः कर्मस्थक्रियः / आत्मनेपदाकर्मकविषये अक्चूरिः- 'कर्तुरनुतापे =सन्तापे सतीत्यर्थे च शेषोदाहरणावलीयं ज्ञेया,- ........ ( अव )धीनां विवक्ष्यमाणे इत्यर्थः / अनुतापग्रहणाद् भावे कर्मणि च गोप इति वाक्ये आ.......(हत) गौः स्वयमेव, बिच् ( न भवति ) / कर्मकर्तरीवमुदाहरणम् / व्यताप्सीत् पृथ्वी रविरिति गक्ये व्यतप्त पृथ्वी स्वय. 3भावे इदमुदाहरणम् / 'कर्मणीवमुदाहरणम् // 11 // मेव / स्वरग्रहदृशहनुभ्यः" (3 / 4 / 69) इत्यनेन जिट भवत्येव // 92 // णि-स्नु-यात्मनेपदाऽकर्मकात् / 3 / 4 / 92 // वृत्तिः-“ण्यन्तात् स्नुश्रिभ्यां 'चात्मनेपद भूषार्थ-सन्-किरादिभ्यश्च निक्यौ।३।४।६।। विधावकर्मकेभ्यश्च कर्मकर्तरि बिच् न" स्यात् / / ___ वृत्तिः- "भूषार्थेभ्यः, सन्नन्तेभ्यः, किरादिभ्यः, ण्यन्तात्,- 'अपीपचदोदनं चैत्रेण मैत्रः, पुनरोद- | चकाराण्णिस्नुभयात्मनेपदाकर्मकेभ्यश्च धातुभ्यः नस्य सुकरत्वेन कर्तत्वे सति अपीपचतौदनः स्वय- | कर्मकर्तरि निक्यौ न'' भवतः। भूषार्थ, अलममेव / स्नु, प्रास्नोष्टः गौः स्वयमेव, श्रि,-उदशि- कार्षीत्कन्यां चैत्रः, अलमकृत कन्या स्यवमेव; एवश्रियत दण्डः स्वयमेव, आत्मनेपदाकर्मक,-व्य- मलंकरिष्यते कन्या स्वयमेव, अलंकुरुते कन्या कृत सैन्धवः स्वयमेव / भिनिषेधात् निट् / स्वयमेव; सन्नन्त, अचिकीर्षीत्कटं चैत्रः, अचिकीर्षिष्ट स्यादेव,- पाचिता, पाचिषीष्टौदनः स्वयमेव; एवं चिकीर्षते वा कटः स्वयमेव; किरादि,- अकारीत् प्रास्नाविष्ट, प्रस्नाविषीष्ट गौः स्वयमेव; उच्छायिता पांसुकरी, अकीष्ट, कीर्षीष्ट, किरते पांशुः स्वथउच्छायिषीष्ट दण्डः स्वयमेव; अघानिष्ट, अघानि- मेव ण्यन्त,- कारयते कटः स्वयमेव, स्नु, प्रस्नुते 'पश्चात्तापः कृत इत्यर्थः। पश्चात्तापं कारित इत्यर्थः / Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मि-क्या-ऽऽत्मनेपदनिषेधादि] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / "गौः स्वयमेव, श्रि,- उच्छ्रयते दण्डः स्वयमेव, आत्म- | अग्रन्थिष्ट, प्रथ्नीते, प्रन्थते ग्रन्थः स्वयमेव; अन्थिग्रन्थी क्यावी, नेपदाकर्मक,- विकुर्वते सैन्धवाः स्वयमेव / / 13 / / / चुरादौ युजादौ वा पोते, (पठ्येते ) अनंसीद् व दण्डी, अनंस्त, नमते दण्डः स्वयमेव; किरादिम्य इति अवचूरिः-- 'मि इत्युक्त अिच्, भिट्' इति बहुवचनं शिष्टप्रयोगानुसरणार्थम् / ४णिस्नुध्यात्मने - इयोरपि प्रत्ययोर्ग्रहणं भवति / भूषार्थाः अलंपूर्वक, भूष, पदा० ( 3 / 4 / 92 ) इति पूर्वसूत्रेण णिस्नुध्यात्मनेपमण्डण इत्यादयः / पर्यस्कार्षीत् कन्यां चैत्र इति वाक्ये . दाकर्मणां 'जिच्' निषिद्धोऽस्ति,परंण्यन्तस्नुयात्मनेपदापर्यस्कृत, परिस्करिष्यते, परिस्कुरुते कन्या स्वयमेव; ऽकर्मणां 'जिट्' भवत्येव, पृथग्योगात्, इत्ययं विशेष: एवमबूभुषत्कन्यां छात्रः, अबूभुषत भूषयिष्यते, भूष णिस्नुभ्येति(३।४।९२)पूर्वसूत्रे भणितोऽस्ति इति भूषार्थयते कन्या स्वयमेव, अममण्डतू; मण्डयिष्यते, मण्डयते सन्० इति सूत्रे ण्यन्तस्नुयात्मनेपदाकर्मणां क्यप्रत्ययप्रकन्या स्वयमेव / किरादिः,- क, गु, दुह, ब्रू, तिषेध उदाहियते इत्याह- ण्यन्तेत्यादि // 93 // अत्र सूत्रे भन्थ, प्रन्थ, नमिः (नम् ) इति सप्तकिरादयः: अवY ( पादे )ऽवचूरिश्लोक-४४९ / अक्षर- 24 // वक, अवाकीट, अवकीर्णोष्ट, अवकिरते पांशुः स्वयमेव अगारीत् प्रासं चैत्रः, अगोष्ट, गोर्षीष्ट, गिरते ग्रासः करणक्रियया क्वचित् / 3 / 4 / 94 // स्वयमेव; एवं न्यगीष्टं, (निगीर्षीष्ट, निगिरते प्रास: वृत्तिः-"एकधातौ पूर्वदृष्टया करणस्थया क्रियया स्वयमेव; ) दोग्ध्रि गां पयो गोपः इति वाक्ये दुग्धे गौः | एकाकर्मक्रिये कर्तरि निक्यात्मनेपदानि क्वचिद्भस्वयमेव; अवोचत्कथां चैत्रः, अवोचत, ब्रूते कथा स्वय- वन्ति" / परिवारयन्ति कएटकैः पुरुषा वृक्षम् , मेव; अश्रन्थीत माला मालिक इति वाक्ये अश्रन्थिष्ट, परिवारयन्ते कण्टका वृक्षं स्वयमेव / क्वचिन्न भनीते, श्रन्थते माला स्वयमेव; अग्नन्थीवू अन्यं विद्वान्, | भवति,-साध्वसिरिछनत्ति॥६४॥मन्थानम् -221 / / इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते सिद्धहेमशब्दानुशासने . तृतीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः। // इति तृतीयोऽध्यायः समाप्तः / / // शुभं भवतु // BANK MOVIE Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अई * * चतुर्थोऽध्यायः * [प्रथमः पादः] स 'द्विर्धातुः परोक्षा-डे प्राक्तु स्वरे स्वरविधेः / / चनं भवतीत्यर्थः / स्वरादिप्रत्यये परे पूर्व पातो द्विवचनं भवति, पश्चात्तु धातोः स्वरस्य गुणवृद्धचाविक।४।१।१॥ कार्य क्रियते इत्यर्थः / 'प्रोपसर्गस्य न द्विवचनमित्यर्थः। वृत्तिः-परोक्षायां च प्रत्यये परे २"धातु पानिनाय,' अत्र नी, गव, स्वरादौ प्रत्यये परे पूर्व विर्भवति, स्वरादौ तु द्विवचननिमित्ते प्रत्यये द्विवचनम्, पश्चात् "नामिनोऽकलिहले: (13351 ) इत्यनेन वृद्धिः, यदि पश्चाद् द्विवचनं ( क्रियेत ), तदा परे स्वरस्य कार्यात् प्रागेव द्वित्वं" स्यात् / पपाच, 'निनाय' इति न सिद्धचेत; 'एवं पपावित्यत्र "आतो अचकमत / धातुरिति किम् ?/प्राशिश्रियत् / विदाश्चकार; अत्र "वेत्तेः कित्" (3 / 4 / 51 ) इति वच णव औः" ( 4 // 2 // 120 ) इत्यनेन ‘णवः' स्थाने 'ओ'। अ'जेघ्रीयते, "ध्रां गन्धोपादाने," भृशं पुनः पुनर्वा नादामि परोक्षाकार्य न भवति / प्रागिति किम् ? पनिनाय, पपौ; एवमादिषु वृद्धयादेः स्वरविधेः जिघ्रति (इति) “व्यञ्जनादे०" (349) इति या या प्रागेव द्वित्वं सिद्धम् / स्वर इति किम् ? जेघ्री प्रत्ययो न स्वरादिः इति (पूर्व) "घ्राध्मोडि" (4 // यते / स्वरविधेरिति किम् ? श्वि-'शुशाव / "प्राक्तु 3398 ) इति सूत्रेण धातोराकारस्य ईकारः, पश्चात् स्वरे (स्वरविधेः)” इति आद्विवचनमधिकारः // 1 // द्विवचनम्; एवं 'जेगीयते,' “ईयअनेऽयपि" (4 // 397) इति ईः / शशाव' इत्यत्र 'टवोश्नि गतिवद्धयोः' अवचूरिः-'द्वौ वारौ ( अस्य )= द्विः, "द्वित्रि- (इति)श्वि, णव, “वा परोक्षायडि" (190) इति चतुरः सुच" ( 72110) इति स्। धातोद्विर्व- सूत्रेण इकारसहितवकारस्य स्वृत - उकारः, 'शु', Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोक्षादिषु द्वित्वविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम। .. तदनन्तरं शु इत्यस्य द्विवचनम्, "नामिनोऽकलि०" | सिद्धम् / 2 तिजि क्षमानिशानयोः," "गुप्लिजोगी।" (41351) इति वृद्धिः, 'शौ,'"ओदौतोऽवाक् (1 / 2 / 24 / / (3 / 45) इति सन्, अत्र 'तिज्,' 'चिकीर्ष' इत्यत्र इत्यौकारस्याऽऽव् ) / स्वरविधेरयमर्थ:- 'यत्र केवलस्य / 'कोर्' इति द्विवचनम्; एवं पच् इति // 3 // स्वरस्य' कार्य भवति तत्र पूर्व द्विवचनम्, पश्चात स्वरस्य कार्य =स्वरविधिः; 'शुशाव' इत्यत्र च स्वरव्या स्वरादेद्वितीयः / 4 / 14 // नयोरुभययोरपि कार्यमुपस्थितं म्वृत्, इति पूर्व स्वृत्, वृत्तिः-स्वरादेर्धातोर्विचनभाजो "द्वितीपश्चात् 'यु' इति द्विवचनम्; तदनन्तरं स्वरकार्य वृद्धिः / योऽश एकस्वरो द्विः" स्यात्, न त्वाद्यः / अटिटिसंजाता इति परमार्थः / अन्यथा हि 'आटिटत्' | पति, अटाट्यते / प्राक्तुस्वरे स्वरविधेरित्येब-आइत्यादि न सिध्यति, यदि प्रागेव णेर्लोपः, पश्चादू द्वित्वं टिटत्, प्रोर्ण नाव, अरिरिषति // 4 // कृतं स्यात; परन्त्वेवं न, पूर्व टिरिति ( 'टि' इति ) द्वित्वं, पश्चात गेर्लोपः कर्तव्यः / "द्विर्धातुः०" इति . अवचूरिः-द्वितीयोऽवयवः / २'मत्वाच:,' आयोडप्रथमसूत्रादारभ्य "हवः शिति" (4 / 1 / 12 / इति) वयवो न द्विरुच्यते इत्यर्थः। आटिटत, "अट पट सूत्रं यावत् द्वित्वाधिकारे सूत्राणि 12 // 1 // इट किट कट कटु कट गतौ,"अटति कश्चित्,तमन्यः प्रायु ङक्त, णिग्,' णिति' (4 // 3 // 50 // इति ) वृद्धिः आ, श्राद्योंऽश एकस्वरः / 4 / 1 / 2 / / अद्यतनीत्, 'णिश्रि०' (3 / 4 / 58) इति प्रत्ययः, प्राक्तु स्वरे स्वरविधेरिति वचनात्पूर्व 'टि' इति हित्वम्, वृत्तिः-"अनेकस्वरस्य धातोराद्य एकस्वरो तदनन्तरं रनिटि (4 / 3 / 83) इत्यनेन णिग्लोपः / ऽवयवः परोक्षायां के चं परे द्विः" स्यात् / जजा ४'प्रोणुनाव' इत्यत्र प्र, उणु, गव्, अत्राऽपि प्राप्तु गार // 2 // स्वरे इति वचनात् 'ऊर्' विश्लिष्य 'नु' इति विरुच्यते, पश्चात् "नामिनोऽकलिहले." ( 41351 // इति) अवचूरिः अंशपर्यायोऽवयव उच्यते / पूर्वेण सर्वस्य वृद्धिः / अरिरिषति, अत्र 'ऋ प्रापणे ' इति पातोद्वित्वे प्राप्ते 'आधोंश:०' इति वचनं कृतम् / भ्वादिः, अथवा ऋक् गतौ' इत्यदादी बुहोत्यादिः, नाग् इति द्विवचनम्, अनु जागृ इति* // 2 // अथवा 'ऋश् गतौ' इति क्रयादिः, ऋ, अर्तुमिच्छति, "तुमर्हादिच्छायां सन्नतत्सनः" (3 / 4 / 21) इति स, 'सन्-यङश्च / 4 / 1 / 3 / / ऋस्मिपूङञ्जशौकगटप्रच्छः” (4 / 4 / 48) इति सूत्रेण इट, "नामिनो गुणो." (4 // 31 // इति ) भर, वृत्तिः-“सन्नन्तस्य यदन्तस्य च "आद्य एकस्व 'रि'द्विरुच्यते, अत्र च इट: कायित्वं,न निमित्तत्वम्, ततो रोंऽशः = अवयवः द्विः" स्यात् / २तितिक्षते, उचि- | द्वित्वनिमित्तस्य स्वरादिप्रत्ययस्याऽभावात् प्राकस्वरकीर्षति, पापच्यते / चकारः पूर्वोक्तनिमित्तसमुच्च- विधिर्गुण एव भवति, पश्चात् 'रि' इति द्वित्वम् // 4 // यार्थ उत्तरार्थ एव, तेन उत्तरत्र परोक्षाः सन्नन्त न बदनं 'संयोगादिः / 4 / 115 यहन्तानां यथासंभवं द्वित्वं भवति // 3 // वृत्तिः-स्वरादिधातोर्द्वितीयांशस्य = द्वितीअवचूरिः- 'सन्याश्चेत्यत्र षष्ठीनिर्देश उत्त- | यस्यावयवस्य एकस्वरस्य "बकारदकारनकाराः रावः, तेन 'प्रतीषिषति' इत्यावावुत्तरसूत्रेण सनो द्वित्वं संयोगस्याद्या न द्विर्भवन्ति" / २उब्जिजिषति, *अत्र पाठोऽशुखश्च्युतकियवंशश्च प्रतीयते / Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 ) श्रीसिद्धहेमशब्दानुशान (म०४ पा०१ सू० 6-10 अडिडिपति, उन्दिदिषति / संयोगादिरिति / (4 // 4 // 32 // )इति ] इद् // 7 // किम् ? 'प्राणिणिषति // 5 // अन्यस्य / 4 / 11 / / अवचूरिः- 'संयोगाविरिति शब्दस्य 'बदनम्' इत्यस्य वृत्तिः-स्वरादेरन्यस्य व्यअनादेर्नामधातोः विशेषणत्वानपुंसकत्वप्राप्तावपि "पुलिङ्ग कटणथपभ- | “एकस्वरोंऽशः प्रथमो द्वितीयस्तृतीयादिर्वा यथेष्टं मय" इति लिङगे (लिङ्गामुशासनप्रथमश्लोके ) द्विरुच्यते"। पुपुत्रीयिषति, पतित्रीयिषति पत्रीयि. "किर्मावे" इति पाठबलात् पुंलिङ्गत्वमेव, न क्लीब- यिषति, पुत्रीयिषिषति // 8 // स्वमिति। २'उन्जत् आर्जवे, अद्ड् अभियोगे, उन्दप के दने "प्राणिणिषति,'अत्र 'अन श्वसन प्राणने (इति) अवचूरि:-आदिशब्दाच्चतुर्थोऽवयवोऽपि // 8 // अन्, प्राणितुमिच्छति (इति) सन्, "द्वित्वेप्यन्तेऽप्यनिते: परेस्तु वा” (26381 ) इत्यनेन नकारद्वयस्यापि कण्डवादेस्तृतीयः / 4 / 1 / // णत्वम् // 5 // वृत्तिः-कण्डवादिधातोरेकस्वर- "स्तृतीय एषांशों अयि रः।४।१।६।। द्विः" स्यात् / कण्डूयियिषति // 6 // वृत्तिः-स्वरादिधातोद्वितीयांशस्यैकस्वरस्य "रेफः / / ____ अवचूरि:-'कण्डूग् गात्रविघर्षणे' (इति) कण्डू रकारः संयोगादिर्न द्विः" स्यात् , अयि = यदि रेफा "धातोः कण्डवादेर्यक्" (3 / 4 / 8 / इति यक्) कडूयितुत्पर आनन्तर्येण यकारो न स्यात् / अर्चिचिषति, मिच्छति // 9 // प्रोणुनाव / अयोति किम् ? 'अरार्यते // 6 // पुनरेकेषां / 4 / 1 / 10 // अवचूरिः- "अरार्यते," 1 गतौ' भृशं पुनः वृत्तिः- 'एकेषां मते "द्वित्वे कृते पुनर्दित्व" पुनर्वा इयति = ऋच्छति, "अतिसूत्रिमू०" (3 / 4 / 10) / स्यात् / सुसोषुपिषते, बुबोभूयिषते / एकेषामिति इत्यादिना यङ, "क्ययङाशीर्ये" (4 / 3 / 10) इत्यनेन किम् ? सोषुपिषते // 10 // गुणः अर, "स्वरादेद्वितीयः" (4 / 114) इति 'य' इति द्वित्वम्, 'आगुणावग्यादेः' (4 / 1 / 48) इति दीर्घः अवचूरिः- एकेषामाचार्याणां मते / 'सुसोषुपिआ॥६॥ वते, 'भिष्वपंक् शये' (इति) स्वप्, भृशं स्वपिति, यङ, नाम्नो द्वितीयाद् यथेष्टम् / 4 / 1 / 7 / / "स्वपेर्य च.(४।१६८०) इति सूत्रेण स्वृत् उकारः, ततो द्वित्वम्, “आगुणावन्यादेः" (41 // 48 // इति ) वृत्तिः- स्वरादिनामधातोद्विवचनभाजो “द्विती | अभ्यासे ओत्वम्, ( एवं 'सोषप्य' इति स्थिते ) सोवृपियादारभ्य एकस्वरोंऽशो यथेष्टं द्विरुच्यते"। अशि तुमिच्छति (इति) सन्, 'अतः' (४३॥८२)इति सूत्रेण यकारश्वीयिषति, अश्वीयियिषति, अश्वीयिषिषति / 7 // स्याकारलोपः, 'योऽशिति' (4 / 3 / 80) इति सूत्रेण य लुप्यते, पुद्वित्वम् 'सो' इति, 'हस्वः' (4 / 139) अवचूरिः- अश्वमिच्छति (इति) "अमाव्ययातू क्यन् इति 'सो' इत्यस्य ह्रस्वः सु / एवं 'बुबोभूयिषते,' च" (3 / 4 / 23 / इति ) क्यन्, 'क्यनि (4 / 3 / 112) भू, यङ्, द्विः, “आगुणा०" ( 411048 / इति ) गुणः, इति सूत्रेण ईकारः; अश्वीयितुमच्छिति, [तुमर्हादि० "द्वितीयतुर्ययोः पूर्वो" (4 / 1 / 42 ) इति सूत्रेण भका(३॥॥२१) इति ] सन्, ["स्ताद्यशितोऽत्रोणादेरिट" रस्य बकारः, शेषं प्राग्वत्, नवरम् 'अतः' ( 4 // 3 // 82) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वित्वनिपातनादिविधिः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम्। [ 57 . इति अकारो लुप्यते, न यकारलोपोऽप्राप्तेः // 10 // वृत्तिः-एतौ निपात्येते / 'चिक्लिदः, चक्नसः // 14 // यिः सन् वेष्यः / 4 / 1:11 // वृत्तिः-"ईय॑धातोर्थिः सन् वा द्विः" स्यात् / ___ अवचूरिः- "क्लिवोच् आर्द्रभावे,' क्लिद्, क्लिद्यईयियिषति, ईयिषिषति // 11 // तोति "नाम्युपान्त्यप्रोकगजः कः” (5.154 ) इति कः / तथा 'क्नसूच ह.वृतिदीप्त्योः', क्नस्, क्नस्यतीति अवचूरिः-सूर्य ईक्ष्य ईj ईार्थाः॥१॥ [ 'अच्' ( 5 / 1146 ) इति सूत्रेण ] अच् / अथवा उभयत्रापि क्लेदन-चिक्लिदः, क्नसनं-चक्नसः इति ..हवः शिति / 4 / 1 / 12 / / वाक्ये 'स्थादिभ्यः कः' ( 5 / 3 / 82 ) इति सूत्रोण वृत्तिः-जुहोत्यादयः “शिति द्विर्भवन्ति' / कप्रत्ययः, निपातनादुभयत्र द्विवचनम्, 'कङश्चञ्' (4 // जुहोति, ददाति // 12 // 1146 / इति ककारस्य चकारः ) // 14 // अववूरिः-अदादिधातुप्रान्ते 'हु क् दानादनयोः' . दाश्वत्साह्वत्मीढवत् / 4 / 1 / 15 // इत्यादयो 'विष्लको व्याप्तौ इति पर्यन्ताः "जुहोत्यादय" वृत्तिः-एते "क्वसन्ता" निपात्यन्ते / 'दाइति संज्ञाधातवः 14 ज्ञातव्याः // 12 // श्वान् , 'साह्वान , मीढ्वान् // 15 / / चराचर-चलाचल-पतापत-बदावद-घनाघन- अवचूरिः-१'दाशग दाने, ददाश (इति) दाश्वान, "तत्र क्वसुकानौ तद्वत्" ( 5 / 2 / 2) इति क्वसुः, पाटूपटं वा / 4 / 1 / 13 / / निपातनादत्र न द्वित्वं, न इट् च / २षहि मर्षणे,' "ष वृत्तिः-एते शब्दा अचि "कृतद्विवचना सोऽष्टचष्ठिवष्वस्कः” (2 / 3 / 98 / इति षस्य सः) सह भ्वादौ आत्मनेपदी, परं निपातनबलात् कानप्राप्तावा निपात्यन्ते / चरतीति चराचरः, चलतीति वपि क्वसुः कार्यः, निपातनान्न द्वित्वम्, न इट्, उपाचलाचलः, पतापतः, वदावदः. 'घनाघनः, पाटय- त्यदीर्घश्च कार्यः / ३'मिहं सेचने,' मिह, क्वसुः, अत्र तीति पाटूपटः; पक्षे- चरः, चलः, पतः, वदः, हनः, निपातनादुपान्त्यदीर्घः, हस्य ढः, न द्वित्वं, न इट् पाटः // 13 // // 15 // - अवचूरिः- 'चराचर०' (4 / 1 / 13 / इति प्रस्तुत) | ज्ञप्यापो ज्ञीपीप न च द्विः सि सनि / 4 1 / 16 / / सूत्रादारभ्य 'दाश्वत्' (4 / 1 / 15 ) इति सूत्रपर्यन्तं द्वित्वनिपातसूत्राणि-३ / चरिचलिपतिवदिहन्तीनां अज. वृत्तिः--ज्ञपेरापेश्च सकारादौ सनि परे न्तानां निपातनात् द्विवचनम्, अभ्यासे दीर्घः / 'हन्ते- यथासंख्यम् "ज्ञीप ईप्" इत्यादेशौ भवतः, हंकारस्य घकारः, सर्व निपातनात् / तथा णिगन्त- "अनयोरेकस्वरांशो न द्विः" स्यात् / ज्ञीप्सति, पाटयतेरजन्तस्य द्वित्वं, ह्रस्वत्वं, पूर्वस्य च ऊकारा- ईप्सति / सीति किम् ? जिज्ञपयिषति // 16 // न्तता च निपात्यते // 13 // अवचूरिः-धातोः सन्प्रत्ययस्य (च) विचाले चिक्लिद-चक्नसम् / 4 / 1 / 14 // न इट्, नान्यः प्रत्ययः / सि ( ? स् ) सकारादिसन् "व्यञ्जनान्ताद् धातोः परस्य" यकारस्य लुग भवति, भूधातुः स्वरान्त इत्यत्र तस्याप्राप्तिः / Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०४ पा० 1 सू०१७-२१ उच्यते / “ज्ञप्यापो जीपी०" इति ( प्रकृत ) सूत्रादार- / ( 34193) इत्यनेन क्यप्रत्ययनिषेधः // 19 // भ्य ' पिबः पीप्य' (411233) इति सूत्रपर्यन्तं धातोरादेशविधाने द्विर्वचनाभावे च सूत्राणि 10 / 'ज्ञांश ___मि-मी-मा-दामित् स्वरस्य / 4 / 1 / 20 // अवबोधने,' जानन्तं प्रयुङ्क्ते, णिग्, “अतिरीव्लीह्रो- वत्तिः--मिमीमादासंज्ञकानां स्वरस्य सादौ क्नूयिक्ष्माय्यातां 'पुः" (4 / 2 / 21 ) इति सूत्रेण / सनि परे 'इत्' आदेशः स्यात्, "न चैषां द्विः" / पोन्त:, "मारणतोषणनिशाने ज्ञश्च" ( 412 / 30) मित्सति, "मित्सते, 'प्रमित्सति, ( एवं प्रमिइत्यनेन ह्रस्वः, पश्चात् जीप् / एवम् 'आप्लट् व्यापतौ,' आप, णिग, सन्, ईपादेशे..."(कृ)ते द्वित्वं प्राप्त त्सते)। मित्सति, "प्रमित्सते भूमिम्, 'अपमिमपि,न च द्विरिति वचनात् प्रतिषिध्यते द्वित्वम् // 16 // त्सते यवान् , 'दासंज्ञा,- दित्सति, धित्सति | // 20 // ऋध ई / 4 / 1 / 17 / वृत्तिः--ऋधः सकारादौ सनि परे 'ई' ___ अवचूरिः--१मिमीमादाम्" इत्यत्र बहुवचनं आदेशः स्यात् , “न चास्य द्विः" / ईर्त्यति / व्याप्त्यर्थम्, तेन “निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धग्रहणम्' सीत्येव- अदिधिषति / इवृध. (4 / 4 / 47 / (इति अयं न्यायोऽत्र नाश्रीयते। तथा सूत्रे यत् 'स्वरस्य' इति इट् ] // 17 // तत् "सर्वस्य धातोर्मा भूत् इत आदेश." इति ज्ञापयित कृतमित्यर्थः / ३'डुमिन्ट प्रक्षेपण, मातुमिच्छति, ( एवं अवचूरिः-१"इवृधभ्रस्जदम्भश्रियूर्णभरज्ञपिस- मित्सते ) / 4 मित्सते.' अत्र 'मीङच हिसायाम' इति नितनिपतिवृद्दरिद्रः सनः" ( 4 / 4 / 47 ) इति दिवादावात्मनेपदी, मेतुमिच्छति मित्सते / "प्रमिसूत्रेण विकल्पेन इट्, अत्र धातुसन्विचाले इट् जात त्सति,' अत्र 'मोगश, हिंसायाम्' इति ऋणदावुभयपदी, इति सकारादिसनत्र नास्ति / "ऋधंच् वृद्धौ” इति प्रमातुमिच्छति / 'मी' इति ( 'मींग मीञ्' इति ) दिवादौ, "ऋघंट वृद्धो" इति स्वादौ; उमावपि गृह्यते; उभयोरपि ग्रहणम्। 'मांक माने। मांङ्क् मान'ऋध' इति सामान्यनिर्देशात् / ऋष, अधितुमिच्छति, शब्दयोः / मेङ प्रतिदाने। 'मा' इति मांमांङ्कमेङां सन् // 17 // ग्रहणम् / 'दासंज्ञका इमें-"दां. दाने, देङ् ङ् पालने, डुदांग्क दाने, दों छोंच छेदने" इतिदा / रूपाः)४, दम्भो धिप धीप् / 4 / 1 / 18 / / "धे पाने, डुधांग्क् धारणे" ( इति धारूपौ द्वौ;) वृत्तिः-दम्भेः सादौ सनि परे 'धिप , धीप' / दारूपाणां 'दित्सति,' दासंज्ञयोः ( 'ट्धे, डुधांग्क्' इत्यआदेशौ भवतः, न चास्य द्विः / धिप्सति, धीप्सति नयोर्धारूपयोः). 'धित्सति' इति रूपं सिद्धम् / वासं॥१८॥ ज्ञानां चतुर्णा यथाक्रममेते प्रयोगाः, तथाहि-दाम, प्रदि त्सति दानं; // 1 // देङ्, दित्सते पुत्रम्; / 2 / डुदांग्क, अव्याप्यस्य मुचेर्मोग्वा / 4 / 1 / 16 / / दित्सति, दित्सते वस्त्रम; / 3 / दोंच, दित्सति दण्डम्; वृत्तिः--अकर्मकस्य मुचेः सादौ सनि परे / 4 अथ धासंज्ञ ( धारूपो ) 2 ट्र्धे, वित्सति 'मोक्' स्याद्वा, न चास्य द्विः / मोक्षति, मुमुक्षति | स्तनम् / 1 / डुधांग्क्- वित्सति, धित्सते श्रुतम् / 2 / चैत्रः, 'मोक्षते, 'मुमुक्षते वत्सः स्वयमेव / अव्या- | वृत्तावेकक एव प्रयोगो लिखितोऽस्ति, दित्सति, धित्सप्यस्येति किम् ? मुमुक्षति वत्स चैत्रः // 16 // ति ( इति ) // 20 // अवचूरिः-१"भूषार्थसकिरादिभ्यश्च जिक्यो" रभलभशकपतपदामिः / 4 / 1 / 21 / / Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोक्षायामेत्वविधिः ] . मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / | 56 वृत्तिः—एषां स्वरस्य सादौ सनि परे ‘इकारः' / क्रियते, ते आदेशादयो धातव उच्यन्ते; यथा-बभणः, आदेशः स्यात् , “न चैषां द्विः।” आरब्धुमिच्छति = चकणुः इत्यादयः / येषां तु परोक्षादिनिमित्तेऽपि सति आरिप्सते, लिप्सते, शिक्षति, पित्सति, पित्सते / आदेशो न स्यात्, तेऽनादेशादयो धातवः; यथा-पेचुः, सीत्येव-पिपतिषति // 21 // रेणुः / तथा "णम्, पहि" इत्यादीनां नत्व-सत्वविधिः परोक्षाद्यालम्बनं नाश्रयति, निरालाम्बौ नत्वसत्वौ = निराधेवधे / 4 / 1 / 22 // मित्तं विना नकारसकारो, इति तेऽपि नमिसहिप्रभृति- वृत्तिः-राधेर्वधे = हिंसायां वर्तमानस्य सादौ धातवोऽनादेशादयः, / अत एव नेमतुः, नेमुः, नेमिथ; सनि स्वरस्य 'इकारः' स्यात् , "न चास्य द्विः” सेहे. सेहाते, सेहिरे, सेहिथ इत्यादयोऽपि दर्शिता एकारप्रतिरित्सते (?ति), अपरित्सते (?ति)। वध इति विधौ, युजादौ षहण। २एके च = असहाये च ते व्यञ्जने किम् ? आरिरात्सति गुरुन् // 22 // च इति एकव्यञ्जने, एकव्यञ्जनयोर्मध्यम् = एकव्यञ्ज__ अवचूरिः-'प्रतिरित्सते ति)', राधंच वृद्धौ, प्रति नमध्यम्, तस्मिन् / केवलयोरेव, न संयोगाक्षरयोः॥२४॥ रामिच्छति, एवमपरित्सति / आपूर्वो राध आरा- त-त्रप-फल-भजाम् / 4 / 1 / 25 // धनार्थे वर्तते / / 22 / / वृत्तिः-एषां 'स्वरस्यात एत्वं' स्यादवित्परोक्षाअंवित्परोक्षासेट्थवोरेः / 4 / 1 / 23 / / / सेटथवोः,-'न च द्विः'। 'तरुः, तेरिथ, पे, पाते, वेपिरे; फेलुः, फेलिथ; भेजुः, भेजिथ / तरतेरतो वृत्तिः-राधेहिंसार्थस्याविति परोक्षायां थवि गुणरूपात, त्रपेरनेकव्यञ्जनमध्यत्वात्, फलभजो- . च सेटि स्वरस्य 'एकारः' स्यात् , 'न च द्विः'।। रादेशादित्वान्न प्राप्नोतीति वचनम् // 25 // रेधतुः, रेधुः, रेधिथ, अपरेधतुः, अपरेधिथ। अविदिति किम् ? अपरराध। वध,-इत्येव आरराधुः, ___ अवचूरिः- १स्कृच्छ्रतोऽकि परोक्षायाम्" आरराधिथ // 23 // (4 / 3 / 8) इति सूत्रेण गुणः / “२फल निष्पत्ती, दल त्रिफला विशरणे" उभयोरपि ग्रहणम् / गुणरूपअवचूरिः–एवं प्रतिरेषुः, प्रतिरेधिय; "स्क्रसृवृ- त्वात्', कोऽर्थः ? वक्ष्यमाणेन "न शशददवादिभृस्तुद्रुश्रुस्रोर्व्यञ्जनादेः परोक्षायाः" (4 / 4 / 81) इत्य. गुणिनः" (4 / 1 / 30) इति सूत्रेण गुणवतां धातूनानेन इटु // 23 // मेत्वप्रतिषेध उक्तोऽस्ति इत्यत्र तरतिग्रहणं कृत'अनादेशादेरेकव्यञ्जनमध्ये ऽतः।४।१।२४॥ मित्यर्थः // 25 // __वृत्तिः–अवित्परोक्षासेट्यवोः परयोर्योऽना भ्रमवमत्रसफणस्यमस्व नराजभ्राजभ्रासदेशादिर्धातुस्तत्सम्बन्धिनः स्वरस्यातः = अकारस्य म्लासो वा / 4 / 1 / 26 // असहायव्यञ्जनयोर्मध्यगतस्य 'ए' इत्यादेशः वृत्तिः- एषां "स्वरस्यातोऽवित्परोक्षासेटस्यात् ; 'न च द्विः।' पेचतुः, पेचुः, पेचिवान् , पेचुषी, थवोरेत्वं वा स्यात् , न च द्विः” / 'जेरुः, जजरुः; पेचिथ, नेमुः, नेमिथ / अविदित्येव,-अहं पपच / जेरिथ, जजरिथ, भ्रमुः, बभ्रमुः; भ्रमिथ, बभ्रअनादेशादेरिति किम् ? बभणुः / एकव्यञ्जन मिथ, एवं वेमुः, ववमुः इत्यादयः / 26 / / मध्ये इति किम् ? ततक्षिय / अत इति किम् ? दिदिवुः // 24 // अवचूरिः- 'जेरुरित्यत्र "स्कृच्छृतोऽकि परो क्षायाम्" (4 / 3 / 8) इति सूत्रेण गुणः / आदि अवचूरिः- 'येषां धातूनां परोक्षादिनिमित्त- | शब्दादेवं प्रयोगावली ज्ञातव्या,-वमिथ, ववमिथ; माश्रित्याभ्यासे आदेशो = वर्ण .... य: (?वर्णविकारः) | त्रेसुः, तत्रसुः; त्रेसिथ, तत्रसिथ; फेणतुः, पफणतुः; Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 4 पा० 1 सू० 27-33 फेणिथ, पफणिथ; स्येमुः, सस्यमुः; स्येमिथ, सस्य- | तत्र द्विर्वच ......."(नं प्र) तिषिध्यते इति भावः / मिथः; स्वेनतुः सस्वनतुः; स्वेनिथ, सस्वनिथ; रेजुः, / २'शसू हिंसायाम्' / उददि दाने' / '४वलि वल्लि रराजुः; रेजिथ, रराजिथ; भ्रजे, बभ्राजे; भ्रसे, संवरणे' / *क मृ शृश् हिंसायां, "स्कृच्छृतोऽकि बभ्रासे; भ्लेसे, बभ्लासे / / 26 / / परोक्षायाम्” (4 / 3 / 8) इति गुणः // 30 // वा 'श्रन्थ-ग्रन्थो न लुक च / / 4 / 1 / 27 / / हो दः।४।१३१॥ वृत्तिः-श्रन्थग्रन्थोः स्वरस्यावित्परोक्षासेट- वृत्तिः–दासंज्ञधातोही परे-'ऽन्तस्यैत्वं स्यान्न थवोः 'एकारो वा स्यात्, 'तद्योगे च नकारस्य लुक; 'च द्विः'। देहि, धेहि / हाविति व्यक्तिनिर्देशादिह न च द्विः' / श्रथुः, शश्रन्थुः; थिथ, शश्रन्थिथ; नैत्वं,-२दत्तात्, धत्तात् / 31 // ग्रेथुः, जग्रन्थुः; ग्रेथिथ, जग्रन्थिथ // 27 // __ अवचूरिः-न च द्विः' इति वचनात्कृतमपि अवचूरिः- श्रन्थग्रन्थः' इत्युक्ते श्रन्थग्रन्थ- | द्वित्वं निवर्तते, तेन यङ लुप्यपि "देहि" इत्येष धातू क्रयादिको चौरादिको वा ग्राह्यौ / 'श्रथुङ भवति / “आशिषि तुह्योस्तातङ" (4 / 2 / 116) इति शैथिल्ये', 'प्रथुङ कौटिल्ये' इति अनयोर्न ग्रहणम्, | सूत्रेण हिस्थाने 'तातङ् // 31 // (' उदितः स्वरान्नोऽन्तः" (4 / 4 / 68) इत्यनेन) नोन्त देर्दिगिः परोक्षायाम् / 4 / 1 / 32 / / .... विधिरिति लाक्षणिकत्वादनयोर्न एत्वमिति विशेषः / ___वृत्तिः- 'देङ : परोक्षायां दिगिरादेशः' स्यात्, २श्रन्थश मोचनप्रतिहर्षयोः। ग्रन्थश संदर्भ // 27 // 'न च द्विः' / २दिग्ये, अवदिग्यिरे // 32 // दम्भः / 4 / 1 / 28 // अवचूरिः- देङ ङ पालने'। "योऽनेक वृत्तिः-दम्भेः स्वरस्यावित्परोक्षायाम् एत्वं' स्वरस्य' (2 / 1 / 56 ) इति य आदेशः इवर्णस्यात्, 'न लुक् च; न च द्विः' / देभुः / अविदित्येव स्थाने // 32 // ददम्भ // 28 // __ढे 'पिवः पिप्य / 4 / 1 / 33 / / थे वा / 4 / 1 / 26 // वृत्तिः–एयन्तस्य पिबते. परे पीप्यू' आदेशः वृत्तिः-दम्भेः 'स्वरस्यत्वं वा' स्यात् थपरे, / स्यात, 'न द्विः' / 'अपीप्यत / पिबतिनिर्देशात्पातेन 'तद्योगे न लुक न च द्विः'। देभिथ, ददम्भिथ // 26 // | पीप्य,-२अपीपलत् / लुप्ततिवनिर्देशाद यङ लुप्यपि न शसददवादिगुणिनः / 4 / 1 / 30 / / न पीप्य, अपापयत् / / 33 // वृत्तिः-शसिदद्योः, वकारादीनां गुणिनां च ____ अवचूरिः-१पां पाने' इति भ्वादिः, पान्तं धातूनां स्वरस्य "एत्वं न' स्यात् / २विशशसुः, प्रयुङ क्ते, णिग, अद्यतनीदि, "णिश्रिद्रु०" (3 / 4 / विशशसिथ; दददे, ववले, "विशशरुः, विश 58 / इति) ङप्रत्ययः / 'पांक रक्षणे, पान्तं प्रयुङक्ते, शरिथ // 30 // णिग, “पातेः” (4 / 2 / 17) इति सूत्रेण लोऽन्तः, अद्यतनीदि, ‘णिश्रिद्रु० (3 / 4 58 / इति) ङः, ततः अवचूरि:-............[ "न शसददवादि- ... ....."ङपरे णौ “उपान्त्यस्यासमानलोपिगुणिनः"] इति सूत्रे 'एत्वं' नि..... [षिध्य] ते, | | शास्वृदितो ड” (4 / 2 / 35) इत्यनेन धातोरुपान्त्यस्य द्विवचनं भवत्येव / ... ....... (यत्र) एत्वविधिः | ह्रस्वः, पश्चात् ‘पल' इति द्विवचनम्, “असमान * अत्र वैयाकरण: 'पान्तम्' इति प्रयोगश्चिन्त्यः, अत्र 'पिबन्तम्' इति प्रयोगः प्रसिद्धः / Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वित्वे सति परस्य पूर्वस्य चादेशाः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम्। लोपे०” (4 / 1 / 63) इति सूत्रेण इकारोऽभ्यासे, / वृत्तिः-धातोत्वेि सति यः पूर्वस्तस्य संब'लघोर्दीर्वोऽस्वरादेः' (4 / 1 / 64 / इति इकारः) | धिनो योः = इकारस्योकारस्य चास्वे स्वरे परे 'णेरनिटि' (4 / 3 / 83 / इति सूत्रेण) णिग्लोपः, / 'इय, उव' आदेशौ भवतः / इयेष, इयत्ति अरिअपीपलदिति सिद्धम् // 33 // यर्ति, अरियरीति, उपोष। अस्त्र इति किम् ? ईषतुः, ऊषतुः / स्वर इति किम् ? "इयाज // 37 // अडे हिहनो हो घः पूर्वात् / 4 / 1 / 34 // वृत्तिः-हिहन्धात्वोङ वर्जिते प्रत्यये परे 'द्वि ___ अवचूरि:-'योः,-'इ उ' इति मण्डनिका, सन्धौ कृते (? कृतायां) षष्ठीङस् / इयर्ति, ' ऋगतौ', त्वे सति पूर्वस्मात्परस्य हकारस्य घः' स्यात् / हि वर्तमानातिव, 'हवः शिति' (4 / 1 / 12) इत्यनेन प्रजिघाय, 'प्रजिघीषति, प्रजेघेति; हन-जिघां ऋ ऋ' इति द्विवचनम्। 'पृभृमाहाङामिः' (4 / 1158) सति, जंघन्यते / अङ इति किम ? प्राजीहयत् इति सूत्रेण पूर्वस्य ऋकारस्य इकारः, 'पूर्वस्यास्वे०" पूर्वादिति वचनान्न च द्विरिति निवृत्तम् / / 34 // (4 / 1 37) इति (प्रस्तुतसूत्रेण) इय् , ततो (ऋकाअवचूरिः-स्वरहन्गमोः सनि धुटि (4 / 1 / स्य) गुणः, इयति इति सिद्धम् / 3"अरियर्ति, 104) इति दीर्घः / २(बहुलं लुप् 3 / 4.14 इति "अरियरीति”; अत्र 'ऋक् गतौ', भृशमियति, सूत्रेण) यङ लोपः / (एवं) जघनीति / मुरतोऽनुना- 'अट्यतिसूत्रिमूत्रिसूच्यशूर्णोः' (3 / 4 / 10) इति सिकस्य (4 / 1 / 51) इत्यभ्यासे मोऽन्तः // 34 // 'यङ', "बहुल लुप” (3 / 4 / 14) इति यङ लुप्यते, 'रिरौ च लुपि' (4 / 1 / 56) इत्यनेन पूर्वस्य 'रि, री' जेर्गिः सन्परोक्षयोः / 4 / 1 / 35 / / इत्यागमः, 'ऋतोऽत' (4 / 1 / 38 / इत्यनेन पूर्वस्य वृत्तिः–जयतेः सनपरोक्षयोर्द्वित्वे सति पूर्व- अकारः,) तदनन्तरं "पूर्वस्यास्वे स्वरे०"। (4 / 1 / 37) स्मात्परस्य 'जि' इत्यस्य 'गि' इत्यादेशः स्यात् / / इत्यनेन 'इय', ततो गुणः, 'अरियति' इति सिद्धम्। १जिगीषति, जिगाय 'अरियरीति' इत्यत्र तु 'यङ-तुरस्तोर्बहुलम्' जेजीयते // 3 // (4 / 364 ) इत्यनेन धातुप्रत्ययविचाले ईकारः। "यजादिवस्वचः सस्वरान्तस्था य्वृत् (4 / 1 / 72) इति - अवचूरिः-(एवं) विजिगीषते / "जिगीषति', यवृत् ( = संप्रसारणम् ) // 37 // अत्र 'जिं जिं अभिभवे' इत्ययं जिगुह्यते, 'ज्यांश वयोहानौ' इत्यस्यापि 'ज्याव्यधः क्ङिति' (4 / 1 / 81) ऋतोऽन् / 4 / 1 / 38 / इत्यनेन य्वृति कृते जिरूपं (जिरूपस्य) 'गि' (इत्या- .. वृत्तिः-धातोत्वेि सति पूर्वस्य 'ऋतोऽत' देशः) प्राप्नोति, परं स जिः 'लाक्षणिकः' इति स्यात् / चकार // 38 // "जिज्यतुः” इति रूपं भवति; अत्र ('गि' इति) आदेशो न भवति // 3 // ह्रस्वः / 4 / 1 / 39 // चेः किर्वा / 4 / 1 / 36 / वृत्तिः द्वित्वे सति पूर्वस्य स्वरान्तस्य (? स्वरस्य) वृत्तिः–चिनोतेः सन्परोक्षयोत्वेि सति पूर्व- | 'हस्वः' स्यात् / पपौ, निनाय, लुलाव // 36|| स्मात्परस्य 'किर्वा' स्यात् / चिक्ये, चिच्ये। . अवचूरिः-( एवम् ) कृ, चकार, सिसेके, चिकाय, चिचाय // 36 // लुलौके, तुत्रौके // 36 // पूर्वस्यास्वे स्वरे 'योरियुक् / 4 / 1 / 37 // | गहोर्जः / 4 / 1 / 40 // Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०४ पा०१ सू०४१४६ वृत्तिः-द्वित्वे सति पूर्वयोर्गकारहकारयो- | रपि ग्रहणम् / २तथा तेरिकार उच्चारणमात्रमेव, 'जकारः' स्यात् / जगाम, जहास, जहाति, / न तु 'ति' इत्येतेनादेशेनैव तूष्ट्य पति टुष्ट्य पति जुहोति // 40 // इति सिद्धम् / ३ष्ठिव, प्ठेवितुमिच्छति, सन्, "अनुनासिके च च्छ-वः शूट" (4 / 1 / 108) इति द्युतेरिः / 4 / 1 / 41 // . सूत्रेण वकारस्य ऊट, 'इवर्णादेरस्वे स्वरे यवरलम्' ___ वृत्तिः–यु तेर्द्वित्वे सति पूर्वस्य उत इ.' (1 / 2 / 21) इति यत्वम्, 'प्ठय' इति द्विवचनम्, 'अघोषे शिटः' (4 / 1 / 45) इत्यनेन षकारो लुप्यते, स्यात् / 'दिद्यु ते / / 41 // 'व्यञ्जनस्यानादेलुक' (4 / 1144) इति यलोपे ["ह्रस्वः” (4 / 1 / 36 इति सूत्रेण ह्रस्वत्वे च ] अवचूरिः- "दिद्यु ते' इत्यस्याग्रे अदिद्य तत, 'ठुकारः' स्थितः, तदनन्तरं तिर्वा ष्ठिवः (4 / 1 / 43) देद्य त्यते, विदिद्य तिषते, 'विदिद्योतिषते इत्यादि इत्यनेन (प्रस्तुतसूत्रेण) विकल्पेन 'ठु' इत्यस्य 'तुः'; (ज्ञेयम)। “वौ व्यञ्जनादेः सन् चाय-वः", पक्षे–'द्वितीयतुर्य' (4 / 1 / 42 / इत्यनेन) ठस्य टः, ' (4 / 3 / 25 इति सनो वा कित्त्वम् // 41 // (यदि) तिरेव स्यात्, तदा 'तुष्ट्य पति' इति न सिद्धय त् / तथा 'तष्ट्यौ' इत्यत्र ष्ट्रय स्त्य संघाते द्वितीयतुर्ययोः पूर्वी / 4 / 1 / 42 / / च, ष्ट्य , णव, “आत्सन्ध्यक्षरस्य" (4 / 2 / 1) इति आत्वम्, 'ट्या, णव, 'ष्ट्या' इति द्विवचनम्, वृत्तिः-द्वित्वे सति पूर्वस्य 'द्वितीयतुर्ययोः "अघोषे शिटः" (4 / 1 / 45) इति पूर्वस्य षस्य लोपः, स्थाने यथासंख्यं “पूर्वी = आद्यतृतीयावासन्नौ” "निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः” इति न्यायात् भवतः / चखान, जुघोष // 42 // टकारस्य तकारः, “षः सोऽष्ट्य ष्ठिवष्वष्कः” (223068) इत्यनेन 'तष्ट्यौ ' इत्यत्र 'षत्वं न भवति अवचूरिः- 'द्वितीयचतुर्थवर्णयोः स्थाने / इति तत्त्वम् // 43 // २(एवं) चिच्छेद, जझाम, टिठकारयिषति, तस्थौ, पफाल जुघोष, डुढौके दधौ, बभार, इत्थमुदाहर व्यजनस्यानादेलक / 4 / 144 // णावली ज्ञातव्या // 42 // वृत्तिः-द्वित्वे सति 'पूर्वस्य व्यञ्जनस्यानादे'तिर्वा ष्ठिवः / 4 / 1 / 43 // लुक्' स्यात् / जग्ले, पपाच // 44 / / वृत्तिः–ष्ठिवेर्द्वित्वे सति पूर्वस्य 'तिर्वा' अवचरिः-अभ्याससत्कान्त्यव्यञ्जनस्य लुक, स्यात्। तिष्ठेव टिष्ठेव / तेरिकारोऽत्रोच्चारणार्थः, न पूर्वव्यञ्जनस्येति भावः // 44 // तेन तुष्ठ्यू षति, टुष्ठ्य पति। पूर्वस्य त्यादेशविधानमेव ज्ञापयति, ष्ठिवेः षकारः ठकारपरः ष्ठा अघोषे शिटः / 4 / 1 / 4 // ष्ट्य प्रभृतीनां तु तवर्गपरः, तेन तस्थौ, तष्ट्यौ // 43 // वृत्तिः-द्वित्वे सति पूर्वस्य (यः) शिटस्तत्सम्बन्धि न्येवाघोषे परे 'लुक'। चुश्च्योत, तिष्ठेव, चस्कन्द। अवचूरिः- 1 तिर्वा ष्ठिवः' ;4 / 143) इति / अघोष इति किम् ? सस्नौ // 45 // सूत्रे 'ष्ठिवू क्षिवू निरसने' इति भ्वादिः, 'ष्ठिवू | क्षिबूच् निरसने' इति दिवादिः; अत्रोदाहरणे द्वयो- / कङश्चन / 4 / 1 / 46 // Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यङन्तधातोद्वित्वे पूर्वस्यागुणौ ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / वृत्तिः-द्वित्वे सति पूर्वयोः ककारङकारयो- / न्यादेः' इति न्यादिवर्जनेन ? सत्यम, धातोत्वेि यथासंख्यं 'चकारत्रकारौं' भवतः / चकार, सति पूर्वस्य विकारे कर्तव्ये बाधकोऽपवादरूपी न अङवे // 46 // बाधकः” इति ज्ञापनार्थ न्यादिवर्जनं कृतम्, तेन "अचीकरद्" इत्यत्र सन्वद्भावस्य 'लघोर्दीर्घोऽस्व'न करतेर्यङः / 4 / 1 / 47|| रादेः' (4 / 1 / 64) इति सूत्रं न बाधते, अन्यथा * वृत्तिः–यङन्तस्य कवतेर्द्वित्वे सति पूर्वस्य परत्वात अपवादत्वाच्च पूर्व "लघोर्दीर्घोऽस्वरादेः" 'चो न स्यात् / कोकूयते स्वरः / कवतेरिति किम ? (4 / 1 / 64 ) इति प्रवर्तेत, ततः 'अचाकरत्' इति चोकूयते / यङ इति किम् ? चुकुवे / 47 / / प्रयोगः स्यात; 'अचीकरद्' इति इष्टश्च / इति पूर्वमुत्सर्गः सन्वत, पश्चादपवादो "लघोर्दीर्घोऽस्त्र रादेः” (4 / 1 / 64) इति प्रवत्तेते / न्यादिवर्जनेनाऽअवचूरिः-१"न कवर्यङः” इति सूत्रे कवते यमर्थः साधितः // 48 // रित्यत्र शवनिर्देशात् 'उंङ कुङ गुङ घुङ ङ ङ शब्दे' इति भ्वादेरेव चकारप्रतिषेधः। कौतेः 'टुक्षु न हाको लुपि / 4 / 1 / 49 / रु कुक शब्दे इत्यस्य अदादेः, कुवतेः 'कुंङ कुङ त शब्दे' इति तुदादेः इति द्वयोरपि पूर्वस्य चकारो वृत्तिः–हाको द्वित्वे पूर्वस्य यङो लुपि 'आ न' भवत्येव / कवतिधातुरव्यक्तशब्दे वर्तते, कौतिश्च / स्यात् / जहाति, एवं जहेति / लुपीति किम् ? शब्दमात्रे एव वर्तते, कुवतिश्च आस्वरे वीते। जेहीयते // 4 // एषां धातूनां त्रयाणां पाठे शब्दमात्रार्थत्वेऽपि गत्यर्थत्वाऽविशेषे धावतिगच्छत्यादीनामिवार्थभेदोऽस्ति। __ अवचूरिः - 'ओहांक त्यागे' इत्यस्य न हाको तथा यङ लुपि च चकारप्रतिषेधो न भवति, चकारो / लुपीति सूत्रवृत्तौ जहाति, (जहेति) इति प्रयोगद्वयं भवत्येव-चोकवीति / २चोकूयते' इति कौतिकु- भवति / 'जहेति', अत्र यङ लोपानन्तरं “यङ तुरुवत्योः प्रयोगोऽयम् // 47 // स्तोर्बहुलम" (4 / 3 / 64) इत्यनेन धातो: परत ईत्, अपर्णस्य (1 / 2 / 6) इत्यादिना एत्वे' जहेतीति आगुणावन्यादेः।४।११४८॥ सिद्धम् // 46 // वृत्तिः–“यङन्तधातोत्वेि सति पूर्वस्या- वञ्चस्रसध्वंसभ्रंशकसपतपदस्कन्दोऽन्तो नीः न्यादेः- नीमुरीरिरन्तवर्जितस्याकारगुणावासन्नौ” भवतः / *पापच्यते, चेचीयते, लोलूयते; तथा ||4|1150 // उपापचीति, बेभिदीति, लोलवीति / “एतावाकार- वृत्तिः-एषां यङन्तानां द्वित्वे सति पूर्वस्य गुणौ न यङ् निमित्तौ” इति यङ लुप्यप्यागुणौ 'नीरन्तोऽवयवो' भवति। वनीवञ्च्यते, वनीवञ्चीभवतः / अन्यादेरिति किम् ? वनीवञ्च्यते, यंयम्यते, ति; एवं सनीस्रस्यते, सनीस्रसीति; दनीध्वस्यते, नरीनृत्यते, नरिनति, नर्ति / 48! / बनीभ्रश्यते, चनीकस्यते, पनीपत्यते, पनीपद्यते, चनीस्कद्यते. ! // 50 // अवचूरिः-'न भविष्यन्ति न्यादयो यत्र / २एवमटाट्यते / यङ लुबन्तेऽप्यागुणौ दर्शयति / . अवचूरिः-(एवं) दनीध्वंसीति, बनीध्र सीति, ननु 'वनीवञ्च्यते' इत्यादौ अपवादत्वात् न्यादय | चनीकसीति, पनीपतीति, (पनीपदीति)। सनीनएव बाधका भविष्यन्ति, किमत्र सूत्रे 'आगुणाव- | सीति, दनीध्वंसीति, बनीभ्रशीति, चनीस्कन्दीति Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 4 पा० 1 सू० 51-54 एषु यदा यङ , तदा "नो व्यञ्जनस्यानुदितः” / दंदह्यते, दंदश्यते, बंभज्यते, पंपस्यते // 52 // (4 / 2 / 45) इत्यनेनानुस्वारो लुप्यते, यङ लुपि सत्यां "निमित्ताभावे नैमित्तकस्याप्यभावः” इति न्यायात् अवचूरिः-(एवं) जंजभीति, दंदहीति, दंदपुनरनुस्वारप्रत्यावृत्तिः // 50 // शीति, बंभजीति, पंपसीति / 'जंजभीति', अत्र ईति कृते 'जभः स्वरे' (4 / 4 / 100) इत्यनेन नोऽन्तः मुरतोऽनुनासिकस्य 4 / 1 / 51 // प्राप्नोति, परम् "आगमशासनमनित्यम्" इति स वृत्तिः—अकारात्परो योऽनुनासिकस्तदन्तस्य आगमो न भवति / तो (? पस्) धातुः दन् ....... धातोर्यङन्तस्य द्वित्वे सति पूर्वस्य मुरन्तः' स्यात् / (त्यो) वा तालव्यो वा......(ज्ञेयः) // 52 // बंभण्यते, बभणीति; जंगम्यते, जंगमीति; "यलवा चर-फलाम् / 4 / 1 / 53 // नामनुनासिकत्वे 'तन्तम् यते, तन्तयः, २चंचलं यते, चंचले., ममम्यते, ममः, यलवानामननुनासि- वृत्तिः- एषां यङन्तानां द्वित्वे सति पूर्वस्य कत्वे तु तातय्यते, तातयः चाचल्यते, चाचलः, मुरन्तः स्यात् / चञ्चूर्यते, चञ्चुरीति; पंफुल्यते, मामव्यते, मामवः // 51 // पंकुलीति // 53 / / अवचूरिः-प्रथमे पादे "तुल्यस्थानास्यप्रयत्नः अवचूरिः-'चरफलाम' इत्यत्र बहुवचनं. स्वः” (1 / 1 / 17) इति सूत्रे स्वसंज्ञाप्रस्तावे यलवा- .......फल निष्पत्ती', 'दल त्रिफला विशरणे' नामनुनासिकोऽननुसिकश्चेति द्वौ भेदौ परस्परं | इति द्वयोः परिग्रहार्थम् ! // 53 // स्वसंज्ञौ भवतः इत्युक्तमस्ति, तत्र यलवानामनुनासिकत्वे "तन्तयते तन्तयः” इत्यादावपि मुरन्त: 'ति चोपान्त्यातोऽनोदुः 14 / 154 // प्राप्तः। 'तयि णयि रक्षणे च'-तय, २चल कम्पने च- . वत्तिः-चरफलां यङन्तानां तकारटौ च चल, मुर्वे मव बन्धने-मव. यङ, द्वित्वम्, 'मुर- प्रत्यये परे उपान्त्यस्यातः = अकारस्य 3उ आदेशः तोऽनु० (4 / 1 / 51 ) इति (प्रस्तुतसूत्रेण ) मोन्तः, स्यात, स चानोत = न ओत्" / चञ्चूर्यते, तन्तयते इति तन्तयः, एवं चंचल्यते इति वाक्ये चञ्चुरीति; पंकुल्यते; पंकुलीति,' 'चूर्तिः, प्रफुल्लिः, चंचलः, मंमयते इति मंमः; 'अच' (11 / 46 / / प्रफुल्लः, प्रफुल्लवान् / अत इति किम् ? "चंचार्यते इति अच प्रत्ययः ) अचि ( 3 / 4 / 15) इति सूत्रेण पंफाल्यते // 54 // यङ लुप्यते / यत्र च यलवानामनुनासिकाः कल्पिताः तत्र .......... ( भवति ) मोऽन्तः, तत्र अवचूरिः-'त् सप्तमी ङि इति तितका(? अन्यत्र) “तातय्यते तातयः” इ......... (त्या) रादौ / उपान्त्यश्चासावच्च उपान्त्यात, तस्योपादयो भवन्ति // 51 // त्यातः। तस्य–'उ' ( इति ) आदेशस्य न ओत, जप-जम-दह-दश-भञ्ज-पसः / 4 / 1.52 / / कोऽर्थः ? ओकारो गुणो न भवतीत्यर्थः / ४अनो दिति किम् ? चंचूर्ति, पंफुल्ति; अत्र यङलुपि वृत्तिः एषां यङन्तानां द्वित्वे सति पूर्वस्य / वर्तमानातिव, "ति चो०" (4 / 1154) इति 'उ', अत्र 'मुरन्तः' स्यात् / जंजप्यते, जंजपीति; एवं जंजभ्यते, / गुणः प्राप्नोति परम् 'अनोत्' इति वचनान्न भवति / x बृहद्वृत्यादिषु 'पश्' इति तालव्यशकारान्तः / Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यङन्तधातोद्वित्वे पूर्वस्य राद्यागमः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / 5. चंचूर्यते", अत्र "भवादे मिनो दी? र्वोयंजने" स्यादौ स्कोलुक्' (2 / 1 / 88) इत्यनेन शलोपे 'यज(२।१।६३) इति दीर्घः ऊः,। यत्र तकारादिप्रत्ययः सृजमृजराजभ्राजभ्रस्जत्रश्चपरिव्राजः शः षः' तत्र चरफलौ न यङन्तौ, चर्, फल; अग्रे क्तिः, क्तः, (2 / 187) इति चकारस्य '', परे गुणे कर्तव्ये चरणं = चूत्तिः, "श्रवादिभ्यः” (5 // 362 ) इति शलोपोऽसन (इति) गुणाभावः। एवं चलिक्लपीति, क्तिः, प्रफुलनं - प्रफुल्लिः, प्रफलितुमारब्धः = प्रफुल्ला, चलिकलिप्त; चल्क्लपीति, चल्कल्प्ति; चलीक्ल"आरम्भे" (5 / 1 / 10) इत्यनेन क्तः, अथवा 'क्तक्त- पीति, चलीकल्ति / ऋमतामित्येव-क, चाकरीति, वतू' (2 / 1 / 174) इति सूत्रेणाप्यारम्भेऽर्थे क्तक्तवतू; चाकर्ति चाकीर्गः, चाकिरति; अन्ति (प्रत्ययस्थनतदनन्तरं 'ति चोपान्त्या०' इति (प्रस्तुतसूत्रेण उकारः, कारस्य) “अन्तो नो लुक्” (4 / 2 / 64 // इति सूत्रेण ('चूर्तिः' इत्यत्र) 'भवादे मिनो दीर्घो ऊर्व्यञ्जने' लुक्), गृ-जागल्ति, "लुप्यम्वृल्लेनत्” (7 / 4 / 112 // (2 / 1 / 63) इति ऊ। 'चर, चरन्तं प्रयुङ क्त, फल, इति सूत्रे) "अयवृल्लेनद्" इत्युक्तेर्यङ लुप्यपि फलन्तं प्रयुङक्त, चारयति फालयतीति क्विप, "यो यडि" (2 / 3 / 101) इत्यनेन लत्वम् / त-तात( चार्, फाल्, ) चारिवाचरति, फालिवाचरति; तिं / इति सूत्रान्ते उदाहरणावली ज्ञेया // 56 // "कर्तुः क्विप०" ( 3 / 4 / 25 / / इति क्विप् प्रत्ययः ) ततो यङ, पूर्वसूत्रेण मोऽन्तः, अत्र चंचायते, निजां शित्येत् / 4 / 1157 // (पंफाल्यते) इति “एकदेशविकृतस्यानन्यत्वात्" वृत्तिः–निजिविजिविषां शिति द्वित्वे सति प्राप्नोति // 54 // पूर्वस्य 'ए' आदेशः स्यात् / 'नेनेक्ति, २वेवेक्ति, * ऋमतां रीः // 41 // 55 // 3वेवेष्टि / शीतीति किम् ? निनेज // 57 // . ... वृत्तिः-ऋकारवतां धातूनां यङन्तानां द्वित्वे अवचूरिः-णिज'की शौचे च, विजू की सति पूर्वस्य ‘रीरन्तः' स्यात् / नरीनृत्यते, दरी पृथगभावे, विष्ल की व्याप्तौ इत्यदादौ जुहोत्यादिदृश्यते, वरीवृत्यते, परीपृच्छयते, वरीवृश्च्यते, जरी पर्यन्ते, एते एवाऽत्र ज्ञातव्याः / वर्तमाना, सप्तमी, गृह्यते / ऋमतामिति किम् ? चेक्रीयते // 55 // पञ्चमी, यस्तनी एताः (चतस्रः) शितः // 57 // रि-रौ च लुपि / 4 / 1 / 56 / / प-भृ-मा-हाङामिः / 4 / 1 / 58 / / वृत्तिः-ऋमतां यङो लुपि द्वित्वे पूर्वस्य 'रि, र री चान्तः' स्यात् / चरिकर्ति, चर्कर्ति, चरीकर्त्ति; वृत्तिः-पृ, ऋ, भृग, माङ, हाङ् इत्येषां नरिनृतीति, नरिनति; न तीति, नर्ति; नरीनृ शिति द्वित्वे सति पूर्वस्य 'इ:= इकारः' स्यात् / तीति, नरीनति // 56 // पिपति, पिपृयात; 'इयर्ति इययात्; बिभर्ति, २मि मीते, जिहीते / हाङिति कारः किम् ? 'ओहांक___ अवचूरिः-'रिरौ च लुपि' इति सूत्रे विशेष- - जहाति / शितीति द्वित्वस्य विशेषणं किम् ? “पर्पप्रयोगा इमे-वरिवृश्चिति, वरिवृष्टि, वर्वश्चीति, ति, परिपर्ति // 5 // वर्वृष्टि, वरीवृश्चीति, वरीवृष्टि; यत्र 'वर्वश्चीति' तत्र “यङ तुरुस्तो०" ( 4 / 3 / 64) इत्यनेन 'ईत् / यत्र / अवचूरिः- "इयति', 'इय' अत्र पूर्वस्येकारे * "वष्टि"तत्र यङो लुपि तिवि (प्रत्यये परे) 'संयोग- कृते "पूर्वस्यास्वे स्वरे०" (4 / 1 / 37) इत्यनेन इय् / . बहुवचननिर्देशो लाक्षणिकपरिग्रहार्थः, तेन प्रच्छ्यादीनां सूत्रकृतर्काराणामपि ऋमत्त्वं सिद्धम् // Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०४ पा०१ सू० 56-61 मांङ्कमानशब्दयोः। ओहांङ्क गतौ। 'ओहांक / स्थानिवद्" इति न्यायात् 'जु, यु, रु, लू' ईदृशां द्विर्वत्यागे। "पृ, यङ, द्वित्वम्, "ऋतोऽत्" (4 / 1138 / चनम, तत "ओर्जान्तस्था०० (4 / 1 / 60) इत्यनेनाइति द्वित्वे पूर्वस्याऽत,) "रिरौ च लुपि" (4 / 1156 / भ्यासे इकारः / पिपावयिषति, बिभावयिषतीति इत्यनेन) र, री.........(अत्र) य...... " (डन्तस्य / प्रयोगद्वयं पवर्गे' इत्यस्य / पू. भू; णिग, वृद्धिः द्वित्वं न) शिति, इति न इकारः // 58 / / (इत्यादि) सर्व पूर्ववत् / 3 यियविषति' इत्यत्र यु, सन्, “इवृध०" (4 / 4!47) इति इट् / 'पिपविषते', सन्यस्य / 4 / 1159 // पू, सन्, 'ऋस्मिपूङ०" (4 / 4 / 48 ) इति इट् / वृत्तिः-धातोद्धित्वे सति पूर्वस्याकारस्य सनि "आदिशब्दात् रिरावयिषति, लिलावयिषवि, पिपपरे ‘इकारः' स्यात् / पिपासति, प्रतीषिषति // 5 // विषते, पिपावयिषति, बिभावयिषति इति / प्रयोगओर्जा-ऽन्तस्था-पवर्ग-ऽवणे' 14 / 160 // द्वयसाधनाय (?) जुहावयिषति" इत्यत्र वेंग स्पर्द्धाशब्दयोः (इति) हवे, आत् , हवयन्तं वृत्तिः-धातोत्वेि सति पूर्वस्योकारान्तस्या- प्रयुक्त (इति) णिग, “णौ ङ सनि" (4 / 1 / 88) ऽवर्णान्ते जान्तस्थापवर्गे परे सनि 'इकारः' स्यात् / इति य्वृत्-उ, "दीर्घमवोऽन्त्यम्” (4 / 1 / 103) इति २जिजावयिषति, यियविषति, यियावयिषति इत्या- दीर्घः, वृद्धिः, आव, हावयितुमिच्छति (इति) सन् , दि / जान्तस्थापवर्ग इति किम ? "जुहावयिषति। "णौ यत्कृतं तत् सर्व स्थानिवद्" इति 'हु' इत्यस्य अवर्ण इति किम् ? बुभूषति, भू सत्तायाम् / ननु द्विवचनम् / "पुस्फारयिषति" इत्यत्र "स्फुर फुलत् एयन्तानां वृद्धपावयोः कृतयोर्द्वित्वे सति पूर्वस्योदन्त- स्फुरणे" (इति) स्कुर, णिग, “चिस्फुरोर्नवा" ता न संभवति, तत्र 'सन्यस्य' इत्यनेनैव सिद्धे किं (4 / 2 / 12) इति सूत्रेण आकारः। "शुशावयिषति", गुरुणा सूत्रेण ? "ओः पयेऽवणे" इत्येव विधेयम्, अत्र "ट्वोश्वि गतिवृद्धयोः” श्वयन्तं प्रयुङ क्त "पिपविषते, यियविषति' इत्यत्र पूर्वस्य उत इत्वं (इति) णिग, सन्, 'श्वेर्वा" (4|1186) इति यथा स्यात् / सत्यं, "णौ यत्कृतं कार्य तत्सर्व स्था- सूत्रेण वृत्-शु, तदनन्तरं "नामिनोऽकलिहलेः" निवद्" इति न्यायज्ञापनार्थ वचनमिदम्; तेन (4 / 3 / 51 इति) वृद्धिः-शौ, "ओदौतोऽवाव" "पुस्फारयिषति, "शुशावयिषति" इत्याद्यपि सिद्धम् (1 / 2 / 24 इति) आव, 'शा','अत्र "णौ यत्कृतं // 60 // कार्य तत्सर्व स्थानिवत्' इति न्यायात् 'स्फुर' इति 'शु' इति द्विवचनं सिद्धम् / अन्यथा "स्फार, शाक्" अवचूरिः- "अवर्णे', कोऽर्थः ? अवर्णान्ते इति द्वित्वं स्यात् / “णौ यत्कृतम०" [इत्यादि]-ए इत्यर्थः / 'जुः सौत्रो, धातुः, "जिजावयिषति" इति, तच्च ज्ञापकं जान्तस्थापवर्गवत् अन्यत्रापि, कोजु, जवन्तं प्रयुङ क्त, णिग, "नामिनोऽकलिहले" ऽर्थः 1 अजान्तस्थापवर्गेऽपि घातौ अवर्णसहिते एव (4 / 3 / 51 // इति ) वृद्धिः औः, "ओदौतोऽवाव" प्रवर्तते, न प्रवाहतः सर्वधातो; तेनाऽचिकीर्तत (1 / 2 / 24) इत्याव, एवं यियावयिषति, रिरावयि- इत्यत्र 'ईकारवतो' द्विर्वचनं जातम्, न त्वपति, लिलावयिषति इति त्रयोऽप्यन्तस्थोदाहरणे; कारवतः // 6 // 'यक मिश्रणे' ( इति ) यु, 'टु तु रु कुक शब्दे' (इति) रु, 'लूग्शच्छेदने' (इति) लू, यवन्तम्, रवन्त श्रु-व-द्र-अ-प्लु-च्योर्वा !4 / 1 / 61 // . म, लुनन्तं प्रयुक्ते (इति) णिग, वृद्धिः, आव, वृत्तिः-एषां सनि परे द्वित्वे सति पूर्वस्योजावयितु, यावयितु, रावयितु, लावयितु- | दन्तस्य = उकारान्तस्यान्तस्थायामवर्णान्तायां परत मिच्छति (इति) सन्, “णौ यत्कृतं कार्य तत्सर्व' | "इत् = इकारोऽन्तादेशो वा" स्यात् / शिश्रावयिषति, Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वित्वे सति पूर्वस्य सन्वद्भावः ] मध्यमवृत्स्यवचूरिसंवलितम् / - शुश्रावयिषति, सिस्रावयिषति, सुस्रावयिषति; दिद्रा- "लघोरुपान्त्यस्य' '4 / 3 / 4 इति) गुणः, 'सोषोप', वयिषति, दुद्रावयिषति; पिप्रावयिषति, पुप्रावयिषति, / सोषोपयितुमिच्छति (इति) सन्, "णिस्तोरेव" पिप्लावयिषति, पुप्लावयिषति; चिच्यावयिषति, चु- (2 / 3 / 37 इति) सस्य षत्वमः अत्र यङि सति द्वित्वम, च्यावयिषति / अवर्ण इत्येव-शुश्रूषते // 61 / / ततो यह लुबन्तात् णिग, "णौ सति न द्वित्वम" इति न उत् भवतीत्यर्थः / / 62 / / . अवचूरिः-"श्रु सु द्रुप प्लु च्योर्वा" इति वचनबलात शुश्रावयिषतीत्यादावदाहरणेष्वेकेन असमानलोपे सन्वन्लघुनि डे / 4 / 1 / 63 // वर्णेनान्तस्थाया व्यवधानमाश्रीयते, तत इत्वं सि वृत्तिः-न विद्यते समानस्य लोपो यस्मिन द्धपति। शुश्रावयिषतीत्यादौ णौ वृद्धपावोः कृतयोः धाती, तस्मिन परे णौ द्वित्वे सति पूर्वस्य लघुनि "णौ यत्कृतं कार्य तत्सर्व स्थानिवद्" इत्यनेन 'श्र, धात्वक्षरे परे "सनीव कार्य' स्यात् / अचीकरत, स . द्रु, प्र, प्लु, च्यु' इति द्विवचनम् // 61 // . अजीजवत्, अयीयवत, अरीरवत, अलीलवत्,अपीपस्वपो णावुः / 4 / 1 / 62 // वत्, तथा अशिश्रवत्, अशुश्रवत्, एवमसिस्रवत्, असुस्रवत् / लघुनीति किम् ? अततक्षत्, २अबभावृतिः सनीति निवृत्तम् / स्वपेरें सति द्वित्वे णत / असमानलोप इति किम ? अचकथत / कृते पूर्वस्य 'उत् = उकारः' आदेशः स्यात् / सुष्वा- *पटुमाख्यत् = अपीपटत् इत्यादौ त्वसमानलोपपयिषति / स्वपो णाविति किम् ? सिष्वापयिषति। त्वात् सन्वद्भावः / "अवीवदद्वीणां परिवादकेन, स्वपो णौ सति द्वित्व इति किम् ? सोषोपयि- अत्र णेः समानलोपेऽपि सन्वद्भावः // 63 / / षति // 62 // अवचूरिः-१"सनीव कार्यस्याद्" इत्यस्यायअवचूरिः-'सिष्वापयिषति', अत्र स्वप्, स्व- मर्थः- यथा सनिपरेऽभ्यासेऽकारस्य "सन्यस्य" पनं = स्वापः, "भावाकोंर्घन" (5 / 3 / 18) इति (4 / 1 / 56) इत्यनेन इकारो भवति, तथा "असमान घन , स्वापं करोति (इति) "णिज् बहुलं नाम्नः लोपे" (4 / 1 / 63) इत्यनेनाप्यभ्यासे इकार:; पूर्वम् .. कृगादिषु" (3 / 4 / 42 इति णिच), स्वापयितुमिच्छ- "ओर्जान्तस्थापवर्गेऽवणे" (4 / 1 / 60) इत्युक्तं, तत ति (इति) सन, “अन्यस्य" (4 / 1 / 8) इत्यनेन 'स्वा' / इहापि भवति, अजीजवदित्याद्यपीपवदिति पर्यन्तं इति द्वित्वम् / अथवा स्वापशब्दः, तदनन्तरं ज्ञातव्यम् / जु सौत्रो धातुः, जु, यु, रु, लू, पू, 'स्वापं चिकीर्षति' इति वाक्यं कृत्वा णिच सन् च | रिंणग, ङप्रत्ययः; पूर्व "श्रु-स-द्रु-अ-प्लु-च्योर्वा" आनीयते, ततः "अन्यस्य" (4 / 1 / 8) इति द्वित्वम्। (4.1 / 61) इत्युक्तम्, इहापि तथा- अशिश्रवत, अत्र न स्वर्णिग, किन्तु स्वापतो णिः / 'सोषो- अशुश्रवतः असिस्रवत् असुस्रवत; अदिद्रवत्, अदुपयिषति" इत्यत्र स्वप, भृशं पुनः पुनर्वा स्वपिति द्रवत; अपिप्रवत, अपुप्रवत् अपिप्लक्त, अपुप्लवत्; (इति) या, "स्वपेर्यङ ङ च" (4 / 1 / 80 / इति) अचिच्यवत्, अचुच्यवत् / अन्यस्य न भवति सन् वृत, सुप, “सन्यङश्च" (4 / 1 / 3 इत्यनेन) 'सुप' वद्भावः-'अजूहवत् / २'अबीमणत्, अबमाणत्" इति द्वित्वम्, “आगुणावन्यादेः” (4 / 1148 इति इति प्रयोगद्वयम्, अणरण-इति (भण) दण्डकद्वित्वे पूर्वसुकारस्य ) सो, “बहुलं लुप्" (3 / 4 / 4) / धातुः, णिग, ङ, "भ्राजभासभाषदीप०" (4 / 2 / 36) इति यङ लुप्यते, सोषुपन्तं प्रयुङक्त (इति) णिग, / इत्यनेन विकल्पेन ह्रस्वः, यत्र ह्रस्वः तत्र सन्वत, # अन्यथा 'अजूहवत्' इत्यत्र म्वृवर्थ "गो सनि" (41148) इति सूत्रे ग्रहणं व्यर्थ स्यात् / Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०४ पा० 1 सू० 64-68 अन्यत्र "अबभाणत्" इत्येव / तथा "अचिक्वणत्, / स्मृ-दृ-त्वर-प्रथ-म्रद-स्त-स्पशेरः / 4 / 1 / 65 / / अचिक्रमद्" इत्यादी अनेकव्यजनव्यवधानेऽपि वक्ष्यमाण 'स्मृहत्वर" इत्यादीनामित्वबाधकस्याऽ- वृत्तिः—एषामसमानलोपे उपरे णौ द्वित्वे त्वस्य शासनात सन्वद्भावो भवत्येव / कथण सति पूर्वस्य 'अत्' इत्यन्तादेशः स्यात्। सन्वदपवाक्यप्रबन्धे (इति) कथ अदन्तः, णिच, "अतः” | वादः / असस्मरत , अददरत् , अतत्वरत् , अप(४।३।८२) इत्यनेन धातुप्रान्तेऽकारलोपः / 'पटुमा- प्रथत , अमम्रदत् , अतस्तरत् , अपस्पशत् // 65 // ख्यत, एवं लघु, कपिम्, हरिम् आख्यत् ( इति ) णिच, "नामिनोऽकलिहले” (4 / 3 / 51 // इति ) अवचूरिः-"समृदृत्वरप्रथम्रद" इत्येतेषां घवृद्धिः- पटौ, लघौ, कपौ, हरौ, "त्रन्त्यस्वरादेः" टादित्वात् “घटादेह स्वो०” (4 / 2 / 24 ) इत्यनेन (7 / 4 / 43) इत्यन्त्यस्वरसन्ध्यक्षरलोपः- पट, लघ, हृस्वः / 65 // कप, हर्, ङ, अद्यतनीदि, “पट, लघ, कप, हर्" इति द्वित्वम्, अत्र सन्ध्यक्षरश्च न समान इत्य वा वेष्ट-चेष्टः / 4 / 1 / 66 // . .. समानलोपत्वात सन्वत; अपीपटत, अलीलघत्, वृत्तिः- वेष्टचेष्टोरसमानलोपे ङपरे णौ द्वित्वे अचीकपत, अजीहरदिति प्रयोगाः / ५"अवीवदत्", | सति पूर्वस्य 'वाऽत'१ स्यात् / अववेष्टत्, अविवेष्टत्; "वद व्यक्तायां वाचि" अवादीत = शब्दमकार्षी द्वीणा, तां वीणां वदन्ती परिवादको वैणिकः अचचेष्टत् , अचिचेष्टत् ! // 66 // प्रायुक्तः (१प्रायुङ्कत इति) 'प्रयोक्तृव्यापारे णिग्" (3 / 4 / 20 / इत्यनेन णिग), पुनरपि वीणां वादितवन्तं अवचूरिः - 'अकारोऽन्तादेशः // 66 // परिवादक मैत्रः प्रयोजितवान (इति ) “प्रयोक्तृ ई च गणः / 4 / 1 / 67|| व्यापारे णिग" (3 / 4 / 20 / इत्यनेन णिग), 'त्रन्त्यस्व०" (74 / 43 / इति) एकस्य पूर्वस्य णिगो लोपः, वृत्तिः-गणेः ङपरे णौ द्वित्वे सति पूर्वस्य अत्र कथं सन्वद्भावः ? इति पराशयः, सूरिराह- 'इकारोऽच्च' स्यात् ! अजीगणत्, अजगणत् // 65 // णाविति जात्याश्रयणात् णेः समानस्य लोपेऽपि सन्वत्- अवीवदद्वीणां परिवादकेन मैत्रः, एवम- अवचूरिः-गणधातोः 'चुरादावदन्तत्वेन पीपठन्माणवकमुपाध्यायेन मेत्रः इति परिणा (हेन) / समानलोपित्वात् सन्वद्भावो दीर्घत्वं च न प्राप्नोप्रयोगः; इति. प्रयोगद्वयं "लघोर्दीर्घोऽस्वरादेः | तीति ईकारविधिरकारादेशश्च // 6 // (4 / 1 / 64) इत्यत्राऽपि दीर्घविधिप्रस्तावे ज्ञातव्यम् // 63 // अस्यादेराः परोक्षायाम् / 4 / 1 / 68 // लघोदीर्घोऽस्वरादेः / 4 / 1 / 64 // वृत्तिः-परोक्षायां धातोत्वेि सति पूर्वस्यादेवृत्तिः–अस्वरादेर्धातोः ङपरेऽसमानलोपे / रकारस्य 'आकारः' स्यात्। आटतुः, आदुः / अस्येति णौ द्वित्वे सति पूर्वस्य लघोर्लघुनि धात्वक्षरे परे / किम् ? 'ईयतुः, ईयुः / आदेरिति किम् ? पपाच 'दीर्घः' स्यात् / अचीकरत् / लघोरिति किम् ? | // 6 // अचिक्षणत् / अस्वरादेरिति किम णावित्येव- अचकमत // 64|| अवचूरिः-लुगस्यादेत्यपदे (2 / 1 / 113) इत्य स्यापवादोऽयम्। 'ईयतुः,२ईयुरिति- “इएक गतौ” अवचूरिः-'क्षणग् क्षिणूयी हिंसायाम् // 64 // (इति) इ, परोक्षा, अतुस् , उस्, ततो द्वित्वम्, अत्रै Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोक्षायां द्वित्वे सति पूर्वस्याकारादिः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / यजादि-वश-वचः सस्वराऽन्तस्था य्वत् / 4 / 1 / 72 / / का दीर्घप्राप्तिः, इतरेयः (प्राप्तिः); परं "वार्णात्प्राकृतं बलीयः” इति न्ययात् प्रथमम् “इणः” (2 / 1151) इत्यनेन इयादेशः, न दीर्घः, // 6 // 'अनातो नश्चान्त ऋदाद्यशौ-संयोगस्य / 4 / 1166 // वृत्तिः -- ऋकारादेरश्नोतेः संयोगान्तस्य च धातोः परोक्षायां द्वित्वे सति पूर्वस्यादेरकारस्य अनातः, कोऽर्थः? आकारस्थानेऽनिष्पन्नस्य, 'आः' स्यात, 'कृताकाराच्चास्मान्नोऽन्तश्च'। आनृधु; "ऋधूच वृद्धौ" आनृजे, अशो-आनशे, संयोग-आनच्चे, आनञ्च / ऋदादेरिति किम ? आर। संयोगस्येति किम् ? आट / अनात इति किम् ? आब्छ / / 6 / / वृत्तिः-१यजादीनां वशवचोश्च परोक्षायां द्वित्वे सति पूर्वस्य २सस्वरान्तस्था “य्वत् = इकारउकार-ऋकाररूपा प्रत्यासत्या' स्यात् / इयाज, ४उवाय, उवाप, उवाह, उवाद, उवास, “वशउवाश, उवाच // 72 // ___ अवचूरिः-'न विद्यते आत् = आकारः स्थानितयाऽस्याऽकारस्य स अनात,तस्याऽनातः // 6 // भू-स्वपोरदुतौ / 4 / 1170 // वृत्तिः-'भूस्वपोः' परोक्षायां द्वित्वे सति पूर्वस्य 'यथासंख्यमकारोंकारौं' भवतः / बभूव, बभूवे; सुस्वाप / परोक्षायामित्येव- बुभूषति // 7 // अवचरिः-भ्वादिप्रान्ते यजी देवपजा-सनति-करण-दानेषु / 1 // वेग तन्तुसंताने / 2 / व्येग संवरणे / 3 / हवंग स्पर्धा-शब्दयोः।४। टुवपी बीजसन्ताने / / वहीं प्रापणे / 6 / टवोश्वि गतिवद्धयोः / 7 / वद व्यक्तायां वाचि / / वसं निवासे / / एवं यजादयः, परमत्र यजादिसूत्रे धातुषट्कं ज्ञातव्यमा व्येधातोः "ज्याव्येव्यधि०" (4 / 1171) इत्यनेन इकार उक्तः, हवेश्विधात्वोः पूर्वस्याभ्यासेऽन्तस्थाया अभावादेव य्वत् न प्राप्नोति। “सस्वरान्तस्था स्वत," स्वरसहितान्तस्थायाः 'यवर' इति वर्णस्थाने यथासंख्यम "इकार-उकार-ऋकाराः' भवन्तीत्यर्थः / प्रत्यासत्या किमुच्यते ? "इवर्णचवर्गयशास्तालव्याः", एते परस्परं स्वा भवन्ति, इति यकारान्तस्थाया इकारो भवति; एवं "उवर्णपवर्गोपध्मानीयाः औष्ठयाः,” “वो दन्तोष्ठ्यः” इति वकारान्तस्थास्थाने उकारः; तथा "ऋवर्णटवर्गरषाः मूर्धन्याः" इति रकारान्तस्थास्थाने ऋत-ऋकारः, एवं स्वसंज्ञाभावेन प्रत्यासत्तिः = सामीप्यं वर्णानाम् / ४'उवाय' इत्यत्र 'वंग तन्तुसन्ताने' (इति) वे, णव् , "वेर्वय" (4 / 4 / 16) इत्यनेन 'वय' आदेशः।"वशक् कान्ती”। विशसाहचर्यात् “वचंक भाषणे" इत्यदादिको ज्ञातव्यः, अंगादेशो वच् चुरादौ यौजादिको वा वच् न ग्राह्यः / / 72 / / न वयो य / 4 / 173 // वृत्तिः-पूर्वस्येति निवृत्तमसम्भवात् / वेगादे अवचूरिः-"बभूव बभूवे" इत्युभयोः प्रथम वृद्धय वौ, ततो "भुवो वः परोक्षाद्यतन्योः” (4 / 2 / 43) इत्यनने 'ऊ' // 7 // ज्या-व्ये व्यधि-व्यचि-व्यथेरिः / 4 / 1 / 71 / / / वृत्तिः-एषां परोक्षायां द्वित्वे सति पूर्वस्य 'इकारः' स्यात् / 'जिज्यौ, संविव्याय, विव्याध, विव्याच, विव्यथे // 71|| अवचूरिः-१"जिज्यौ,' "ज्यांश वयोहानी"। संविव्याय," "व्यग् संवरणे" णव, "व्यस्थवणवि" (4 / 2 / 3) इति सूत्रेण आत्वनिषेधः // 71 // Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 4 पा० 1 सू०७४-७६ शवयेर्यकारे 'वृन्न' स्यात्परोक्षायाम् / ऊयुः // 73 // वृत्तिः-ज्या इत्यस्य वेगश्च यपि परे 'म्वृन्न' स्यात् / प्रज्याय, उपवाय // 76 // अवचूरिः-"ऊयतुः, ऊयुः," अत्र "वेग तन्तुसन्ताने" परोक्षा, "वेर्व" (4 / 4 / 16) इति सूत्रेण वेस्थाने 'वय' आदेशः / अत्र 'यजादिवचेः किति' (4 / 1 / 16) * इत्यनेन यकारस्य वकाराकारेण सह यवृत् प्राप्तो निषिध्यते, परं वकारस्य “यजादिवचे. किति" (4 / 1176) इत्यनेन य्वृत् उकारो भवत्येव // 73 / अवचूरिः-ज्यांश वयोहानौ // 76 / / व्यः / 4 / 1 / 77 // वृत्तिः–व्येगो यपि 'वृन्न' स्यात् / प्रव्याय // 77|| वेरयः / 4 / 1 / 74 / / - वृत्तिः-वेगोऽयकारान्तस्य पूर्वस्य (परस्य च) 'वृन्न' स्यात्, परोक्षायाम। 'ववौ / अय इति किम् ? उवाय // 74 // अवचूरिः-१"ववौ,' अत्रापि वेवय" (4 / 4 / 16) इति विकल्पेन वय, यत्र वय तत्र ‘उवाय' इति प्रयोगः, यत्र च न वय तत्र 'ववौ' इति // 74 // अविति वा 4 / 1 / 75 // वृत्तिः-वेगो 'ऽयन्तस्याविति परोक्षायां 'वृत् वा न स्यात् / ववतुः, वयुः; ऊवतुः, ऊवुः / / 75 // अवचूरिः-योगविभाग उत्तरार्थः // 77 // संपरेर्वा / 4 / 178 // ... वृत्तिः-संपरिभ्यां परस्य व्येगो यपि 'य्यद्वा न' स्यात् / संव्याय, संवीय; परिव्याय, परिवीय // 7 // अवचूरि:-'दीर्घमवोऽन्त्यम्" (4 / 1 / 103 इ दीर्घत्वे) संवीय, परिवीय; अत्रय्वृत् (1 य्वृति) कृते तोऽन्तः प्राप्नोति, तत्राह-निरपेक्षत्वेनान्तरङ्गत्वात प्रागेव य्वृतो दीर्घ एव; न तु तोऽन्तः // 78 // यजादि-वचेः किति / 4 / 1:76 / / वृत्तिः-नेति निवृत्तम् / ' यजादीनां वचेश्च किति प्रत्यये परे सस्वरान्तस्था 'यवृत्' स्यात् / ईजुः, इज्यते, इज्यात, इष्टः, वेग-ऊयः, ऊवुः, ऊयते, उतः; व्यग-संविव्यः संवीतः; हवै-हयते, हतः, वपी-ऊपुः, उप्यते, उप्तः, वहीं- उह्यते, ऊढः, शिव-शूयते,शूनः'; वद- उद्यते, उदितः, ऊदुः, वसं- उष्यते, उषितः; श्वच- ऊचुः, उक्तः, उच्यते // 7 // अवचूरिः-यजादिवचेरित्यत्र सूत्रे नवाऽपि यजादयः संगृहीताः सन्ति, सर्वेषां य्वृतः प्राप्तिभावार्थः (? थम्) / "'सूयत्याद्योदितः” (4 / 2 / 70) इति तस्य नः / वच् अदादिः, न तु चुरादौ यौजादिकः, तस्य वच्यते इति भवति // 7 // अवचूरिः- 'अयकारान्तस्य / श्ववतुः,3 "वः, ऊवतुः, ऊवु;" "वेग" (इति) वे, “आत् सन्ध्यक्षरस्य" (4 / 2 / 1 इत्यनेन) 'वा', ववतुः, ववुः; अत्र द्विवंचने कृते, पूर्वस्य "यजादिवशवचः 41172) इति य्वत प्राप्तः, “वेरय" इत्यनेन वृनिषिध्यते / ऊवतुः, ऊवुः; अत्र..." (वे) गो यवृत्, ततो द्विर्वचने कृते ...."(सति 'धा) तोरिवणे' (2 / 1 / 50) इति परत्वात् उव्, (एवं) कृते सति पश्चात् “समानानां तेन दीर्घः” (1 / 2 / 1 // इति दीर्घः) // 7 // ज्यश्च यपि / 4 / 176 // Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रसारणविधानम् ] मध्यमवृत्यवचूरिसंवलितम् / [71 स्वपेर्यङ-डे च / 4 / 1180 // ग्रह-वश्व-भ्रस्ज-प्रच्छः / 4 / 1 / 84 // वृत्तिः-स्वपेर्यङि, ऊँ किति च प्रत्यये परे वृत्तिः–ग्रहादीनां क्ङिति सस्वरान्तस्था 'यवृत्' 'यवृत्' स्यात् / बिस्वपंक शये ( इति ) स्वप्, यङ, स्यात् / जगृहुः, गृह्यते, 'गृहीतः, गृहणाति, जिघृक्षति, सोषुप्यते, सोषुपीति; असूषुपत, कित्प्रत्ययः-सुप्यते, / जरीगृह्यते; वृश्च्यते वृश्चति, वृक्णः; भृज्जति, सुषुपतुः, सुषुप्सति // 8 // पृच्छयते, पृष्टः, पृच्छति, परीपृच्छ्यते, पिपृच्छि षति, पृच्छा // 4 // ज्या-व्यधः क्ङिति / 4 / 1 / 1 / / वृत्तिः-ज्याव्यधोः किति ङिति च प्रत्यये ___अवचूरिः- 'तेर्ग्रहादिभ्यः' (4 / 4 / 33 / इत्यनेन * परे 'वत्' स्यात् / किति-जीयते, जीयात्, जीनः; | इट् , गृहणोऽपरोक्षायां दीर्घः” (4 / 4 / 34) इत्यनेन जिति-जिनाति, जेजीयते, जेजेंतिकिति–२विध्यते, इट् दीर्घः / ..२सूयत्याद्योदितः” (4 / 2 / 70) इति विद्धः; जिति-विध्यति, वेविध्यते वेवेद्धि // 1 // नकारः / भृज्जति', अत्र 'तृतीयस्तृतीयचतुर्थे" (1 / 3 / 46) इति सकारस्य जकारः / 4 'भिदादयः" अवचूरिः- 'सस्वरान्तस्था। व्यधंच ताडने (5 / 3 / 108) इति अङ् / / 4 / / ॥शा ___व्ये-स्यमोर्यङि / 4 / 18 // व्यचोऽनसि / 4 / 1382 // ... वृत्तिः-व्यंगस्यमोर्यङि १'वत्' स्यात् / वेवीवृत्तिः-'व्यचेरस्वर्जिते विङति सखरान्त- | यते, वेवयीति; सेसिम्यते // 8 // स्था 'स्वत्' स्थात् / विचति, विचितुम / अनसीति किम् ? २उरुव्यचाः // 2 // अवचूरिः-'सस्वरान्तस्था / (एवं) सेसि मीति, स्यम् शब्दे // 8 // ____ अवचूरिः-व्यचत् व्याजीकरणे / 'उरु विचतीति अस्” (उणादि० 652 इत्युणादिसूत्रेण चायः कीः / 4 / 1 / 86 // अस्, “अभ्वादेरत्वसः सौ' (1 / 4 / 46 / इति दीर्घ वृत्ति:-'चायधातोः 'कीः' आदेशः स्याद्यङि त्वम् ) // 2 // परे। चेकीयते / दीर्घनिर्देशो यङ्लुबर्थः-चेकीतः वशेरयति / 4 / 1 / 83 // वृत्तिः–वशेरयङि' विङति परे वृत्' ____ अवचूरिः-१'चायुग पूजानिशामनयोः' (इति) स्यात् / उश्यते, उशितम्, उष्टः, उशन्ति / अयडीति किम् ? वावश्यते / विडतीत्येव- वष्टि // 3 // चाय / 86 // द्वित्वे हः / 4 / 18 // ___ अवचूरिः-यवर्जिते। सस्वरान्तस्था। वशक् कान्तौ (इति अदादौ परस्मैपदी // 3 // वृत्तिः-हवयतेर्द्वित्वे विषये सस्वरान्तस्था 'थ्व. * कुटादित्वात् हित्त्वेन ग्वृद् गुणाभावश्च / / // 66 // Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं . [अ० 4 पा० 1 सू० 88-62 त्' स्यात् / जुहाव, जोहूयते, जोहवीति, जुहूषति - दितो डे" (4 / 2 / 65) इति ह्रस्वः, “णौ यत्कृतं कार्य 1187 // तत्स्थानिवत्" इति न्यायात् 'शु' इति द्वित्वम्, "ल घोर्दी?ऽस्वरादेः” (4 / 1 / 64) इत्यनेन दीर्घः-शू. णौ ङ सनि 4 / 188 // एवं "शुशावयिषति", अत्र सन् / / 8 / / वृत्तिः-ह्वयतेङपरे सन्परे च णौ विषये वा परोक्षा-यङि / 4 / 1 / 10 / / 'यवृत्' स्यात् / अजूहवत् , जुहावयिषति // 8 // वृत्तिः-श्वयतेः परोक्षायां यङि च परे 'यवद्वा' स्यात् / 'शुशाव, शिश्वाय; शोशूयते, शोशवीति; अवचूरिः- "अजूहवत्', हवा, णिग, अद्यत शेश्वीयते, शेश्वयीति // 60 / / नीदि, "णिश्रिद्रस्र” (3 / 4 68) इति ङप्रत्ययः, "णौ ङसनि' (4 / 1 / 88) इत्यनेन 'हवा' इत्यस्य __अवचूरिः-"णिद्वाऽन्त्यो ण' (4 / 3 / 58) य्वत-हु, "नामिनोऽकलिहलेः” (4.3.51 इति) इति वा णित, ततो वा वृद्धिः / अवित्परोक्षायां वृद्धिः-हौ, "ओदौतोऽवाव ' (1 / 224 इति) हांव, परतः कित्त्वात् “यजादिवचेः किति" (4 / 276) "भ्राजभासभाष०" (4.2 36) इत्यादिना विकल्पेन इत्यनेन य्वति प्राप्ते विति परोक्षायां तु यङि च हृस्वः, "णौ यत्कृतं कार्य तत्सर्व स्थानिवत' इति परेऽप्राप्ते "वा परोक्षायङि" (4 / 160) इति न्यायात् 'हु' इति द्वित्वम्, "लघोर्दीर्घोऽस्वरादेः' विकल्पः कृतः इति / ( एवम् ) शुशुवतुः, शिश्वि(४।१।६४) इति पूर्वस्य दीर्घः, 'अजूहवत्' इति यतुः // 30 // सिद्धम्; यत्र न हृस्वस्तत्र 'अजुहावत्' इति / / 8 / / ___प्यायः पी।४।१।११॥ वृत्तिः-प्यायतेः परोक्षायां यङि च 'पीः' श्वेर्वा / 4 / 186 // आदेशः स्यात् / आपिप्ये, पेपीयते, आपेपेति, वृत्तिः-श्वयतेः ङसम्परे णौ विषये सस्वरा आपेपीतः // 1 // न्तस्था 'वद्वा' स्यात् / - अशूशवत, अशिश्वयतः अवचूरि:- 'स्फायैङ् ओप्यायैङ् वृद्धौ सन्- शुशावयिषति, शिश्वाययिषति / णावित्येव (इति) प्याय, पी-आदेशानन्तरं द्वित्वे कृते "योऽनेअशिश्वियत्, शिश्वयिषति // 8 // कस्वरस्य' (2 / 1 / 56) इति यत्वम् !!61 / / क्तयोरनुपसर्गस्य / 4 / 1 / 12 / / अवचूरिः- णौ ङसनि" (4 / 1 / 88) “श्वेर्वा" वृत्तिः-अनुपसर्गस्य प्यायः क्तयोः क्तक्त(४।१।८६) इति सूत्रद्वये णावित्यत्र विषयसप्तमीयम्, विषयसप्तमीबलादन्तरङ्गमपि वृद्धयादिकं य्वृता वतोः परयोः पीः' स्यात् / 'पीनं, पीनवन् मुखम् / अनुपसर्गस्येति किम् ? २प्रप्यानो मेघः // 62 / / बाध्यते; पूर्व वृत् प्रवर्तते, पश्चात् वृद्धथावौ; इति "अजूहवत्, अशूशवत्" इत्यादौ पूर्व यवृत्, ततो __अवचूरिः-प्यायते' स्म=पीनं, “गत्यार्थावृद्धिः, आव, उपान्त्यह्रस्वः, ततो णौ कृतस्य वृद्धथा- कर्मकपिबभुजेः” (51111) इति क्तः, “सूयत्यावादेशस्य स्थानित्वम्, न तु य्वृतः स्थानित्वम्. इति द्योदितः" (4 / 270 इति) नकारः। 'प्रप्यानो मेघः', 'हु, शु' इति रूपेण द्वित्वम्, (ततः) पूर्वस्य लघोर्दी- प्याय," "प्रप्यायते स्म (इति) क्तः, 'य्वोः प्वय्'र्घः' इति वृद्धजनाम्नायक्रमः / “अशूशवत्", शिव, व्यञ्जने लुक्' (4 / 4 / 121) इति यकारो लुप्यते, णिग, ङ, दि, "श्वेर्वा' (4 / 1 / 88) इत्यनेन वृत्, "व्यञ्जनान्तस्थातोऽख्याध्यः" (4 / 2 / 71 ) इत्यनेन शु, वृद्धिः-आव, "उपान्त्यस्यासमानलोपिशास्वृ- तकारस्य नकारः // 62 / / Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को परमोत्तदेशा ] मन्यमापूरिसंवलियम्। संस्फीतवान् // 64 / / निया. आहोऽन्धूधसोः / 4 / 1 / 63 // / अत्र नकारादेशो न संजातः ( स्पर्शविषयत्वाद् ) / . शीतेन वृश्चिकः संकुचितः // 17 // वृत्ति:-मर परस्य प्यायतेरन्धौ ऊधसि चार्थे. क्तयोः परतः 'पीः' स्यात् / आपीनोऽन्धुः. आपीम प्रतेः।४। 18 // मूधः / अन्धूधसोरिति किम् ? आप्यानश्चन्द्रः // 13 // कृतिः-प्रते. परस्य श्यायतेः 'शीः, क्तयोस्तस्फायः स्फी वा / 4 / 1.64 // कारस्य च 'ना' स्यात् / प्रतिशीनः, प्रतिशीनवान् // 6 // वृत्तिः-फायतेः क्तयोः 'स्फीः' स्यात् वा। स्फीतः, स्फीतवान्। स्फातः, स्फातवान्। संस्फीतः, अवचूरिः- 'नकारादेशः / प्रतिपूर्कः श्याय तिरयं रोगे वर्तते / पूर्वेणाप्राप्त प्रतेरिति वचन कृतम् / 68 // 'प्रसम स्त्यः स्ती / 4 / 1 / 6 / / वाऽभ्यवाभ्याम् / 4 / 1 / 66 वृत्तिः-'प्रात सम् = प्रसम्, तस्मात 'प्रसम्' इति समुदायपूर्वस्य स्त्यायतेः क्तयोः 'ती' स्यात् / वृत्तिः-अभ्यवाभ्यां परस्य श्यः क्तयोः प्रसंस्तीतः, प्रसस्तीतवान् / प्रसम इति किम् ? 'शीर्वा' स्यात् तयोगे 'क्तयोस्तस्यास्पर्श न च। संप्रस्त्यानः ॥ध्या अभिशीनः, अभिशीनवान् ; अभिश्यानः. अभि श्यानवान् ; अवशीनः. अवशीनवान् ; अवश्यानः, .. प्रात्तश्च मो वा / 4 / 166 / / द्रवमूर्तिस्सयोरप्यनेनैव परत्वाद्विकल्पः-अभिवृत्तिः-प्रात्केवलात्परस्य स्त्य क्तयोः 'सी' शीनम् . अभिश्यानं घृतम् , " अवशीनम्, स्यात्, 'क्तयोस्तकारस्य च मकारो वा' स्यात् / अवश्यानं हिमम्, तथा अभिशीतः, अक्शीतो वायुः; प्रस्तीमः, प्रस्तीमवान प्रस्तीतः, प्रस्तीतवान् // 66 // स्पर्शत्वान्न नत्वम् अभिश्यानः , अवश्यानो वायुः HEL अवचूरिः-ष्ट्य स्त्य संघाते च ( इति ) स्त्यै ___ अवचूरिः-तकारस्य नकारादेशः / २व्यधातुः // 66 // अनान्तस्थातोऽख्याध्यः” (4 / 2 / 71) इत्यनेन तका रस्य नकारः, एवमग्रेऽपि / एवम) अवश्यानवान् / श्यः शीर्द्रवमूर्तिस्पर्शे नश्वास्पः / 4 / 1 / 6 // वा शब्दस्य च व्यवस्थितविभाषार्थत्वादन्योपसर्गा___वृत्तिः-द्रवस्य मूर्तिः = काठिन्यम्, तस्मिन, न्ताभ्यामभ्यवाभ्यां परतः श्यायतेः शीर्नकारच न स्पर्शे च वर्तमानस्य 'श्यायतेः क्तयोः भवति-समभिश्यानः, समभिश्यानवान , समव'शीः' आदेशः स्यात्, तद्योगे च 'क्तयोस्त श्यानः, (समवश्यानवान्)। इयमक्चूरिः "काभ्यकारस्याऽस्पर्शविषये नकारादेशः'। शीनं; शीनवद् वाभ्याम्" सूत्रार्थप्रान्ते ज्ञातव्या। "व्यवनान्तस्था." घतम्। व्यावस्थायाः काठिन्यं गतमित्यर्थः, स्पर्श (4 / 2671) इत्यनेन स्पर्शऽपि नकारः // 6 // शीतं वीते, शीतो वायुः। द्रवमूर्तिस्पर्श इति किम् ? संश्यानो वृश्चिकः // 17 // श्रः शृतं हविः-क्षीरे / 4 / 1 / 100 // वृत्तिः-श्राते. श्रायतेश्च ते परे हविषि वीरें अवनि- गतौ इति आत्मनेपदी। | घा' इति मिपास्यते / भृतं हविः, शुतं चीरम् Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०४ पा०१ सू० 101-104 स्वयमेव / हविःक्षीर इति किम् ? 'श्राणा यवागूः / स्वयमेव श्रायते स्म; यवागू : स्वयमेव श्रायमाणा // 10 // देवदोन प्रायज्यत, णिग. "अतिरीवली०' (4 / 2 / 21) इति पोऽन्तः, घटादेः०० (4 / 2 / 24) इति ह्रस्वः अवचूरिः-श्रांक पाके। मैं मैं पाके / श्राति // 101 // श्रायती हि अकर्मको कर्मक विषयस्य पचेरर्थे वर्त वृत् सकृत् / 4 / 1 / 102 / / ते, तयोरेतन्निपातनम शतं हविः, शतं क्षीरम् / अत्र 'श्रांक पाके' अथवा 'मैं मैं पाके" इति वृत्तिः–'धातोर्वृत् सकृद् = एकवारमेव' भ्वादिः / श्राति स्म श्रायति स्म वा हविः क्षीरं भवति / संवीयते, विध्यते // 102 / / देवदत्तः, स एवं विवक्षितवान्-नाहं श्रामि स्मश्रायामि स्म वा किन्तु हविः क्षीरं स्वयमेव श्रायते स्म; दीर्घमत्रो'ऽन्त्यम्' 41103 // “गत्यर्थाकर्मकपिबभुजेः" (5 / 1 / 11) इति क्तः / वृत्तिः-वेगवर्जितस्य धातोर्वृदन्त्य दीर्घः' अण्यन्तयोः पच्यमानकर्त कयोनिपातोऽयम् / तथा स्यात् / जीनः, संवीतः, हूतः, शूनः / अव इति श्रायते स्मेति वाक्ये निष्ठाक्तः / अण्यन्तयोः पक्तक किम् ? उतः, "उतवान् // 103 // / तू कयोर्निपातः / 'अत्र पक्षे देवदोन इति अध्याहार्यम् / “व्यअनान्त०" (4 / 2 / 71) इति तस्य ___ अवचूरिः-'नवा - अवा, ङस / “दीर्घमवोनकारः // 10 // न्त्यं =धातोरन्त्यं य्वृत दीर्घभवतीत्यस्याप्ययं भावः- यत्र अपेः प्रयोक्त्रैश्ये / 4 / 1 / 101 // धातोरन्ते य्वृत, तस्य रबृतो दीर्घो भवति, यत्र धातो रादौ विचाले वा वृत, तस्य य्वृतो न दीर्घ इत्यर्थः; वत्तिः-श्रातः श्रायतेर्वा ण्यन्तस्यैकस्मिन प्रयो- | यथा-सुप्तः, उप्तः / एवं जिनाति, अत्र "प्वादेतरिक्ते हविःक्षीरार्थे 'शृ' निपात्यते। 'शृतं हविः. हूं स्वः" (4 / 2 / 105 // इति ह्रस्वत्वम्)। "ऊयते स्म / शतं क्षीरं चैत्रेण / हविःक्षीर इत्येव- श्रपित। श्वयति स्म // 10 // यवागूः॥१०१। स्वर हन्-गमोः सनि धुटि / 4 / 1 / 104 / अवचूरिः- “शतं हविश्च त्रेण, शतं क्षीरं वृत्तिः-स्वरान्तस्य धातोर्हन्तेर्गमोश्च धुड़ादी चैत्रेण;" अत्र श्राति श्रायति वा हविः क्षीरं [स्वय सनि परे स्वरस्य दीर्घः' स्यात् / चिचीषति, चिकीमेव, तत] चैत्रेण प्रायुज्यत, "प्रयोक्तव्यापारे णिग" पति; हन्-'जिघांसति, गमु-जिगांस्यते / (34 20 इति णिग)। यदा पुनर्द्वितीये प्रयोक्तरि धुटीति किम् ? यियविषति, इवृधज० (4 / 4 47 णिगुत्पद्यते तदा शृन निपात्यते, तदा श्रपितं हवि इत्यनेन) इट् / / 104 // चैत्रेण मैत्रेण इत्येव प्रयोगः इदमेव व्यावृत्त्युदाहरणं ज्ञातव्यम, वाक्यं त्वेवं कार्यम-श्राति स्म श्रायति ___ अवचूरिः-"स्वरहन्गमोः०” इति सूत्रे सनीस्म वा हविः क्षीरं स्वयमेव, तद् देवदत्तेन ति किम् ? स्तुतः, पश्चात् धुटीति किम् ? [इति प्रयुज्यते स्मेति वाक्ये णिग, सोऽपि देवदत्तः वक्तव्यम् ] १"अछे हिहनो हो घः पूर्वात्" अपयन्मत्रेण प्रयुज्यते स्मेति वाक्ये द्वितीयवारे णिग्। | (4 / 1 / 34) इति हस्य घः / २स्वरहनगमोरिति 3 'श्रपिता यवागू' अत्र श्रा, श्राति स्म श्रायति / सूत्रे इण-इक्-इङां 'सनीङश्च' (4 / 4 25) इति सूत्रेण स्म (वा) यवागू देवदत्तः, स एवं विवक्षितवान्- | यो गम्' आदेशः स इह सूत्रे ज्ञातव्यः, न गम् नाह श्रामि स्म श्रायामि स्म (वा), किन्तु यवागू: / धातुः / इंएक-जिगांस्यते, संजिगासते। इंक-अधि Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्छवः शूविधानम् ] मध्यमवृत्यवचूरिसंवलितम्। जिगांस्यते माता / इक- अधिजिगांसते सूत्रम् / अक्षयू : हिरण्या : (धुडादौ-) द्यूतः दुय पति। / / 104 / / धातोरित्येव - 'धुभिः // 108 / / तनो वा / 4 / 1 / 10 / / अवचूरिः- अनुनासिके च० इति 'च्छवः' इत्यत्र छकारस्य द्विः पाठात् द्वित्वापन्नस्य छकारस्य वृत्तिः-तनोतेधुंडादौ सनि स्वरस्य 'दीर्घो वा' / द्वयस्यापि श्' इत्यादेशः क्रियते इत्यर्थः / ऊट इति स्यात् / तितांसति, तितंसति / धुटीत्येव- तित टकारः ‘ऊटा' (1 / 2 / 13 इत्यत्र विशेषणार्थः / 'प्रछ, निषति / 105 // प्रच्छनं प्रश्नः, "यजिस्वपिरक्षियति (5 / 3 / 85) इति 'न,' स्वरेभ्यः" (1 / 330) इत्यनेन क्रमः क्त्वि वा / 4 / 1 / 106 / / छकारस्य द्वित्वम् --'च्छ', द्वयोरपि छकारयोः "अ नुनासिके च० (4 / 1 / 108 ) इत्यनेन 'शकारः' / वृत्तिः-क्रमः स्वरस्य धुडादौ क्त्वाप्रत्यये / शब्दं पृच्छति ( इति ) "दिधुहह" ( 5 / 2 / 83) 'दीपों वा' स्यात् / क्रान्त्वा, कन्वा। धुटीत्येव इत्यनेन किप् दीर्घश्च, "अनुनासिके०" (इति) छस्य क्रमित्या / “ऊदितो वा" (४।४।४२।इति) विकल्पेन 'श.' यजसृजमृजराज० (2 / 1 / 87) इत्यनेन शकाइट 'प्रक्रम्य' इत्यत्र त्वन्तरङ्गमपि दीर्घत्वं बाधित्वा रस्य 'ष,' "धुटस्तृतीयः" ( 2 / 1176 इति ) षस्य 'ड', "विरामे वा ( 113 // 51 // इति ) ट / 'छकाइत्यत्र ज्ञापयिष्यते // 106 / रस्य श्. ग्रहत्रश्च वस्जप्रच्छः (4 / 1 / 84) इति) यवृत् / 4 स्योमा', सिव, सीव्यतीति स्योमा, 'मन्वअहन्पञ्चमस्य कि क्छिति / 4 / 1 / 107 // नवनिप्विच क्वचित्" (5 / 1 / 147) इति मन्' वृत्तिः - हन्वर्जस्य पञ्चमान्तस्य धातोः स्त्र- प्रत्ययः, नित्यत्वात् पूर्वम् “अनुनासिके०' इत्यनेन रस्य को धुडादौ च किङति दीर्घः स्यात् / 'प्रशान्, वकारस्य ऊट , न गुण ; ऊटि कृतेऽन्तरङ्गत्वात् (पूर्व) 'यत्वम्'. ततो नकारस्य गुणः-ओ। 'तथा प्रदान किति-शान्तः, शान्तिः; जिति-शशान्तः / अर्दीव्यति (इति) किप वस्य उट्। [एवं] 'द्य भ्याम् पन्चमस्येति किम् ? पक्त्वा / अहनिति किम् ? दिव् धातुः, दीव्यतीति "दिवेर्डिच्” [उणा० 646] 3वृत्रहणि। धुटीत्येव-यम्यते // 107 // इति औणादिकः दिव् शब्दः, भ्याम्, "उः पदान्ते ऽनूत" (2 / 1 / 118) इति वकारस्य उ: / यदा तु दिवः अवचूरिः- "मो नो म्वोच" ( 2 167 ) किए तदा धातुत्वात ऊट धुभ्यां भिरिति भवति / इति मकारस्य 'न्' आदेशः / [एवम्] रेशान्तवान्, यङलुपि तु देद्योति, देद्योषि इति प्रयोगः // 108 / / एवम् दान्तः / “कवर्गकरघरवति" ( 2 / 3 / 76 / इति) णत्वम् // 10 // मव्यवि श्रिवि वरि-त्वरेरुपान्त्येन / 4 / 1 / 109 / / वृत्तिः-मव्यादीनामनुनासिकादौ को धुडादौ अनुनासिके च च्छाः शूट / 4 / 1 / 108 / / च प्रत्यये वकारस्योपान्त्येन सह "ऊट' स्यात् / वृत्तिः-अनुनासिकादौ क्वौ धुडादौ च प्रत्यये मोमा. मूः, मूतिः, "मामोति; 'ओम्, 'ओमा, घातोश्छकारवकारयोर्यथासंख्यं 'श, ऊट्' इत्यादेशौ 'ऊ, ऊतिः श्रोमा, ''शू:, ११अतः, १२शेश्रोति, भवतः / [ अनुनाशिकादौ-] 'प्रश्नः, वि-शब्द- [ शेत; ] 3जूर्मा, जूः, जूरौ, जूरः, जूतिः, प्राट, धुडादौ - पृष्टः, प्रष्टा, वकारस्य ऊट- | जाति, "जाजूझ, तूर्मा, तू, तूरौ, "तूर्णः, "स्योमा; ( अनुनाशिकादौ-) स्योमा, (वि-) | तूर्णवान्, तातूर्ति // 10 // Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहमशब्दानुशासन [म०४ पा० 10 110-119 - भवचूरि:-'शकारस्य स्थानी छकारोऽत्र सूत्रे / दिको ज्ञातव्यः / इयमक्चूरिः "धूः, धुरौ, धूरः इति न सम्भवतीति 'ऊट' एवानुवरीते न श, अतो वृत्ती / प्रयोगाऽग्रे द्रष्टव्या। "भिदादयः" (5233108 / उक्तम् ‘उट्' स्यात् / "मोमा' 'मुर्वे मव बन्धने' इत्यनेन स्त्रियामा प्रत्ययः ) // 110 // इति मव, “मन्वन०' (२१६१४७इति मन् ) वस्य उपान्त्येन सह ऊट. गुणः / मू:', किप, क्तेऽनिटश्वजोः कगौ घिति / 4 / 1 / 111 // "मूतिः', क्तिः / "मामोति', यङ्लुपि / 'अव, वृत्तिः-स्तेऽनिटो धातोश्चकारजकारयोः भवतीति ओम् औणादिकः म', "मव्यवि०" स्थाने यथासंख्यं 'कगौ' भवतः, घिति[ = घकारानु(४।१।१०४) इति अवस्थाने ऊट. गुणः - ओम् / बन्धे] प्रत्यये। पाकः, सेक; त्यागः, रागः, भोग्यम, "ओमा', अत्र मन्' प्रत्ययः / ऊ', अत्र किप', योग्यम् / क्तेऽनिट इति किम ? संकोचः, ["कुचत् 'उवौ, उवः; अत्र उवादेशः / श्रिोमा,' 'श्रीवूच गतिशोषणयोः' (इत्यतः) मन् / "किप'। "क्तः / संकोचने"] कूजः, गर्जः, समाजः / घितीति किम् ? १२य लुपि ति, तस् / १३ज्वररोगे। 14 भित्वरिष् पचनम् / 111 // सम्भ्रमे" (इति) स्वर, 'रदादमूर्च्छमदः क्तयोर्दस्य न्य द्ग-मेघादयः / 4 / 1 / 112 // च" (4 / 2 / 66) इति तकारस्य नकारः। श्रिव्यविमवधातूनां पूर्व उपान्त्यो वकारात विद्यते, ज्वरित्वरो- वृत्तिः-'न्यङ क्वादयः कृतकत्वाः, उद्गादयः र्वकारात्पर उपान्त्यः; इत्थं पूर्वोपान्त्येन सह, परो कृतगत्वाः, मेघादयः कृतघत्वा" निपात्यन्ते। न्यङ्क: पान्त्येन सह वकारस्य ऊट भवतीत्यर्थः / // 106 / / 'तक्रम, वक्रम, शुक्रः, शोकः 'रोकः, श्वपाकः, 'मांसपाकः, पिण्डपाकः, “कर्मणोऽण" (21172) राल्लुक् / 4 / 1.110 // इत्यणि, अणभावे श्वपचः इत्यादि, अच (5 / 1 / 46) वृत्तिः-रेफात्परयोश्छकारवकारयोरनुनासि इति सूत्रेणच / 'नीचेपाकः, "दूरेपाकः, फले पाकः, क्षणेपाकः, उकारान्ता अपि गणे पठ्यन्तेकादौ क्वौ धुडादौ च प्रत्यये लुक्' स्यात् / शूटोsपवादः / 'मोर्मा, होर्मा, मू:, हू:, "मूर्तः, नीचेपाकुः, दुरेपाकु, फलेपाकुः; अत एव निपातना"मूर्तिः, मोमोति; तू, तुरौ, तुरः; धूः, धुरौ, दुकारः, तुरेपाका इत्या (द्या) बन्ता अपि; 'उद्गः, समुद्गः, अभ्युद्गः, तथा सृजेः कर्त्तर्यचि- सर्गः, धुरः। 'धूर्त इति त्वौणादिकः / अनुनासिकादावित्येव-मूर्छा // 10 // उपसर्गः; 'मद्गुः, भृगुः; तथा मिहेरचि संज्ञायां हस्य घत्वम्-मेघः, अन्यत्र मेहः; "वहेरनुपस र्गस्य वकारस्य ओत्वं चत्वं च- भोघः = प्रवाहः; __ अवचूरिः- "मुर्छा मोहसमुच्छाययोः 'हुर्छा दहेयवाभ्यां पत्रि-१५निदाघः, १६अवदाघः = कौटिल्ये" मुर्छा, हुर्छा, मन् / ३क्षिप् / 'क्तः / केवलपानीयपक्वोऽपूपः; अर्हतेघमि संज्ञायाम"क्तिः / ('मूर्तः, मूर्तिः' इत्यत्र ) "भवादेर्नामिनो दी? वो० (221 / 63) इति दीर्घः, मूर् हुर्, तूरि अर्घः = मूल्यं पूजाद्रव्यं च संज्ञायामित्येव-अहः // 112 // त्यत्रैव च ‘पदान्ते" ( 2 / 1 / 64 ) इत्यनेन दीर्घः / (एवम् ) उर्व तुर्वै० दण्डकधातुः, तुर्व , धुर्व, मन- अवचूरिः- 'नि(पूर्वः) अञ्च, न्यञ्चतीति लोर्मा, धोर्मा . इत्यनुनासिकादौ इत्यस्योदाहरणं न्वङ्क , निपातनात् उप्रत्ययः, निपातनात् चस्य कः / नेयम् / [ एवम् ] तूर्शः, तूर्णवान, तूतिः; धूर्णः; धूर्ण- "२तक्रम्, 'वक्रम, शुक्रः;" सञ्चिवञ्चिशूचीनां बान, धूर्तिः। .........: ( ननु धूर्ण इत्यत्र णकार धातूनां रक् प्रत्यये निष्पत्तिः, 'तम्चयते' इत्यादि स्तत्कथं धूरी इत्याह -) 'धूरी इति च प्रयोग औणा- / परिवाक्यम् / पशुचि रुच्योनि-शोकः, रोक Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भोः काममायोनिष मध्यमवृष्यवधरिसंवलितम् / इति, घनोऽन्यत्र शोच्यम, रोच्यम् / श्वानं पचति, ध्यण्यावश्यके / 4 / 1 / 11 // एवं मांसं पचति; "कर्मणोऽण" ( 51172 ) इत्यनेन अण, निपातनात् घस्य कत्वम् / "नीचे- वृत्तिः—आवश्यकोपाधिके ध्यणि परे धातो'पाकः, '•"दूरेपाकः” इत्यादि, नीचे पच्यते स्वय- श्वजोः 'कगौ न भवतः / अवश्यपाच्यम, अवश्यरमेव इति कर्मकरीरि "अच दीर्घत्वं च" निपातनात, ज्यम्, अवश्यभज्यम् / आवश्यक इति किम् ? "तसुरुषे कृति" (3 / 2 / 20) इत्यनेन बहुलाधिकारात् पाक्यम् / / 115 // सप्तम्या अलुप् / १"उन्जत आर्जवे" (इति) उब्ज, घर . क्ते सेट, क्ते सेटत्वान्न प्राप्नोति इति घत्रि अवचूरिः-अवश्यं पचतीति अवश्यपाच्यम, सति जकारस्य निपानात गत्वम, उपान्त्यस्य च एवमग्रेऽपि; ‘णिन् चावश्यकाधमण्यें” (14 / 33) दत्वम्। उद्ग इति सिद्धम् / 12 मद्गुः'. मस्ज, इति सूत्रेण ध्यण / अकारान्तोऽपि अनव्ययमवश्यमज्जतीति मद्गुः, मस्जेरुः / भ्रस्ज, भृज्जतीति शब्दोऽस्ति // 11 // भृगुः. भ्रस्जेः कुः, निपातनात् गत्वं सलोपश्च / वहेरनुपसर्गस्य वस्यौकारश्चेत्यस्य अनुपसर्ग- निप्रायुजः शक्ये / 4 / 1 / 116 // स्येत्येव-प्रवहः, निवहः, विवहः, उद्वहः इत्यादि। "निदह्यतेऽत्र, ग्रीष्मः। १६"अवदाघः', कोऽर्थः 1 | वृत्तिः-निप्राभ्यां परस्य युजेः शक्ये गम्यकेवलेति [ केवलपानीयपक्वोऽपूप इति] // 112 // | मानेऽर्थे घ्यणि 'गो न' स्यात्। 'नियोज्यः, प्रयोज्यः / शक्य इति किम् ? प्रयोग्यः // 116 // _ न बञ्चेर्गतौ / 4 / 1 / 113 // . वृत्तिः-गत्यर्थस्य[ = गत्यर्थे वर्तमानस्य] वन्चेः / अवचूरिः- 'नियोक्तुं शक्यः = नियोज्यः, 'कत्वं न' स्यात् / [वम्चेम्-] वञ्चं वञ्चति, "शक्तार्हे कृत्याश्च" (14 / 35) इति सूत्रेण ध्यण / गन्तव्यं गच्छतीत्यर्थः। गताविति किम् ? वङ्क एवं प्रयोक्तुं शक्यः = प्रयोज्यः // 116 // काष्ठं; कुटिलमित्यर्थः // 113 // भुजो भक्ष्ये / 4 / 1 / 117 // अवचूरिः वृत्तिः-भुजो भक्ष्यार्थे घ्यणि 'गो न' स्यात् / पश्यते व्याधवाण्यसङ्कले वित्तवत्तमाः। भोज्यमन्नम, भोज्यं पयः / भक्ष्य इति किम् ? रात्रावपि महाऽरण्ये, वन्चं वञ्चन्ति वाणिजाः / / १भोग्यः कम्बलः, भोग्या अपूपाः // 117 / / [अनुष्टुप्] // 113 // अवचूरिः- 'प्रावरणीय इत्यर्थः / पालनीया यजेर्यज्ञाङगे / 4 / 1 / 114 / / इत्यर्थः // 117 // वृत्तिः—'यज्ञाङ्ग वृत्तेर्यजेर्गत्वं न' स्यात् / पन्च त्यज-यज-प्रवचः / 41 / 118 // प्रयाजाः / यज्ञाङ्ग इत्येव-यागः, प्रयागः / 114 // वृत्तिः-एषां ध्यणि 'कगौ न' भवतः / अवचूरिः-प्रेज्यन्त एभिः = प्रयाजाः"व्यज- | | त्याज्यम्, 'याज्यम् , प्रवाच्यो नाम पाठविशेषः नाद घन' (5 / 3 / 132 इति करणे घम) / 114 // / // 118 // Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०४ पा० १सू० 116-121 अवचूरिः-१ याज्यम्" इति, अत एव प्रति- / वृत्तिः-भुजेनिपूर्वस्योब्जेश्च घनन्तस्य पाणी षेधात् यजिधातोः परो ध्यणपि भवति, अन्यथा / रोगे चार्थे यथासंख्यं 'भुजन्युजौ' निपात्येते। 'शकितकिचतियतिशसिसहियजिभजिपवर्गात" (5 "भुजः पाणिः, न्युजो नाम रोगविशेषः // 120 // 1226) इत्यनेन “यप्रत्यय एव" स्यात् / प्रवचि अवचूरिः - 'भुज्यतेऽनेनेति भुजः = पाणिः, प्रहणं शब्दसंज्ञार्थमुपसर्गनियमार्थ वा, प्रपूर्वस्यैव [ न्युजिताः ] शेरतेऽस्मिन् इति "व्यखनाद वचे कत्वप्रतिषेधो भवति, नान्योपसर्गपूर्वस्य, तत्र घन" (5 / 3 / 132) इति अधिकरणे) घम्, गत्वा(= अन्योपसर्गपूर्व) –अधिवाक्यमिति / 'प्रवाच्यो नाम पाठविशेषः, तदुपलक्षितग्रन्थोऽपि प्रवाच्य भावः मुजेगुणभावश्च निपात्यते // 120 // इत्युच्यते // 11 // वीरुन्न्यग्रोधौ / 4 / 1 / 121 // वचोऽशब्दनाम्नि / 4 / 1 / 116 // वृत्तिः–विपूर्वस्य ‘रुहेः किपि न्यकपूर्वस्य | चाचि 'वीरुन्न्योप्रधशब्दौ धकारान्तौ' निपात्येते। वृत्तिः-अशब्दसंज्ञायां गम्यमानायां वचेय॑- | 'वीरुत, न्यग्रोधः // 121 // णि 'को न' स्यात् / वाच्यमाह / अशब्दनाम्नीति किम् ? वाक्यम् = विशिष्टः पदसमुदायः // 11 // ___ अवचूरिः . 'रुहधातोः 'वीरुत्', अत्र निपातनातू दीर्घः॥१२१।। अत्र सूत्रे (पादे) अवचूरिश्लोक-३३८॥ भुज-न्युज पाणि रोगे / 4 / 1 / 120 // प्रन्थानम्-१६४॥ चतुर्थस्याध्यायस्य प्रथमः पादः / इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते सिद्धहेमशब्दानुशासने चतुर्थाध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः // Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अहम् // // चतुर्थोऽध्यायः // [द्वितीयः पादः ]. आत्सन्ध्यक्षरस्य / 4 / 2 / 1 / / द्वित्वम्, 'ज्याव्येव्यधिव्यचिव्यथेरिः' (4 / 1171) इत्यनेन पूर्वस्य 'इकार':;"ऋवृव्येऽद इट् (1 / 4 / 80) म० ०-धातोः सन्ध्यक्षरान्तस्य 'आकारो / इति सत्रेण इट / “संविव्याय", इहापि 'ज्याव्ये.' निनिमित्तः स्यात् संव्याता,म्लाता,निशाता; [शोंच (4 171 इति इकारः' // 3 // तक्षणे] अनैमित्तिकत्वादात्वस्य प्रागेव कृतत्वादाकारान्तलक्षणः प्रत्ययो भवति-' सुम्लः, मुम्लानम् / / स्फुर-स्फुलोजि / 4 / 2 / 4 // धातोरित्येव-गोभ्याम् / “चेता, स्तोता' इत्यत्र लाक्षणिकत्वान्नाऽऽत्वम् // 1 // म० ०:-फुरस्फुलोर्घमि सन्ध्यक्षरान्तस्य 'आत् [ = आकारः]' स्यात् / विस्फारः, विस्फालः, विष्फारः, विष्फालः; 'येः' (2 / 3354) इति सूत्रेण अव०-धातोः पूर्वमाकारः क्रियते, पश्चात् वा पः॥४॥ आकारान्तधातुमाश्रित्य आकारान्तलक्षणः प्रत्ययः / "सुष्ठु म्लायति = सुम्लः, "उपसर्गादातो डोऽश्य" वाऽपगुगे णमि / 4 / 2 / 5 / (431156) इति 'ड:' / सुखेन म्लायते - सुम्लानम, "शासूयुधिशिधृषिमृषातोऽनः” (13 / 141) / ___ म० ३०-अपपूर्वस्य गुरेः सन्ध्यक्षरस्य स्थाने इत्यनेन 'अनप्रत्ययः' // 1 // णमि प्रत्यये परे 'आस्याद्वा [-विकल्पेन | अपगोरमपगोरम् , अपगारमपगारम् // 5 // न शिति / 4 / 2 / 2 / / ____ अव०-"अपगोरमपगोरम्", 'गुरैति उद्यम००-सन्ध्यक्षरान्तस्य धानोः शिति प्रत्यये मे'(इति)गुर अपपूर्वः अभीक्ष्णमपर्य(इति) 'रुणम् विषयभूते 'आग्न' स्यात् [ = आकारो न भवति / चाभीक्ष्ण्ये (1448) इति सूत्रेण ख्णम् , 'भृशाग्लायति, संव्ययति // 2 // भीक्ष्ण्याविच्छदे द्विः प्राक तमबादेः' (7 / 4 / 73) इति व्यस्थव-णवि / 4 / 2 / 3 / / सूत्रेण द्वित्वम् = 'अपगोरम' इति द्वितीयं वारं कि यते, ततः प्रथमासिः, 'अव्ययस्य' (327) इति म००-व्ययतेः थवि णवि च विषयभूते 'आन्न' सिलोपः // 5 // स्यात् [= आकारो न भवति] / संविव्ययिथ, संविव्याय, अहं संविव्यय // 3 // दीङः सनि वा / 4 / 2 / 6 // म०८०-दीङः सनि परे 'आत्वं वा' स्यात् / . है.. अब०-"संविठययिथ", अत्र "व्यग् संव- दिदासते, दिदीषते। दीङ्च क्षये (इति) दी, दातुखे(इति) व्ये, परोक्षायव, द्विर्धातु०(४।१।१।इति) | मिच्छति // 6 // Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०४ पा०२ सू०७-११ यवङिति / 4 / 27 // आमयः / 'मिग्मीग' इति गकारनिर्देशात् यङलुपि नाऽऽत्वम्-निमेमेति / तथा विशेषमाह-'मींच् म० वृ० दीडो यपि अक्ङिति च प्रत्यये विषय- हिंसायाम्' इति देवादिकस्य माभूत–मेता, मेतुम् / भूते 'आत्' अन्तादेशः स्यात् / उपदाय, उपदाता।। 'मङ्च हिंसायाम्' (इति) अस्यापि केचिदात्वमिविषयसप्तमीनिर्देशात्प्रागेवात्वे सति ईषदुपदानः, च्छन्ति-माता, मातुम् / इयमवचूरिः 'मिग्मीगोऽउपदायो' वत्तेते; अत्र आकारान्तलक्षणो नः घन्च खलचलि' इति प्रान्ते झेया // 8 // स्यात् / सानुबन्धनिर्देशात् यङ्लुपि नाऽऽत्वम्उपदेदेति // 7 // लीङ-लिनोर्वा / 4 / 2 / 6 / / म००-'लीयतेर्लिनातेश्च यपि खलचलवअव०-अवदाय, दातुम, उपदातुम्, उप जेऽङिति च विषये 'आत्= [आकारः] स्याद्वा' / दातव्यम, उपादास्त इत्यादयोऽत्र ज्ञातव्याः / 'आकारे कृते सति ईषदुपदीयते = ईषदुपदानः, 'शासू विलाय, विलीय विलाता, विलेता; विलास्यते विले प्यते / अखलचलीत्येव-ईषद्विलयः, विलयः, युधिशिधृषिमृषातोऽनः' (23.141) इत्यनेन 'अनप्रत्ययः'। २'भावाऽकोंः ' ( 5 / 3 / 18 / इति ) विलयो वर्तते / यबक्ङितीत्येव- लीनः, लीयते, लेलीयते // 6 // घा / ननु घनः कथमाकारान्तलक्षणत्वम् ? आदन्तेभ्योऽप्यन्यत्रापि घञः सामान्येन विधानात, उच्यते-घनोऽप्याकारान्तलक्षणत्वं सामान्यमस्ति, अव०-"लींच् श्लेषणे' 'लेश श्लेषणे' यत आकाराभ वे ईदन्तत्वादल स्यात। (अनन्तरसूत्रे) (इति) द्वयोरपि समान रूपम् / २लिनाति इत्यपि। उदीङः इत्यत्र ङकारनिर्देशात् / यबक्तिीति किम् ? उलीनः. लीनवान; अत्र लीधातुः क्रयादिर्दिवादिर्वा, दीनः, उपदीयते, उपदेदीयते // 7 // क्रयादित्वात ऋल्वादेरेषां तो नोऽप्रः' 4 / 2 / 68) इत्यनेन, देवादिकस्य तु * 'सूयत्याद्योदितः' मिग-मीगोऽखलचलि / 4 28 // (4 / 2 / 70) इत्यनेन तकारस्य नकारः ॥धा म०व०-१मिनोति मीनात्योर्यपि परे खलच णौ क्री-जीङः।४२।१०॥ लवर्जिोऽङिति च प्रत्यये विषयभूते 'आत्' म० ३०-गजीडां णौ परे 'आत्' अन्तादेशः अन्तादेशः स्यात् / निमाय, निमाता, निमातुम, निमातव्यम, प्रमाय, प्रमाता, प्रमातुम्, प्रमातव्यम् / स्यात् / क्रापयति, जापयति, अध्यापयति // 10 // अखलचलीति किम् ? ( खलि-) ईषन्निमयः3, "दुष्प्रमयः / अचि-मयः, आमयः;अलि-निमयः / अव०-सर्वत्र 'अतिरीली०' (4 / 2 / 21) यबक्तिीत्येव-निमितः, निमीतः, प्रमेमीयते // 8 // इत्यनेन पोऽन्तः // 10 // सिध्यतेरज्ञाने / 4 / 2 / 11 // अव०-'डुमिंग्ट प्रक्षेपणे' इति मिनोतिः। "म गश हिंसायाम्' इति मीनातिः / ईषद-अना- म. वृ०-अज्ञानार्थस्य[ = अज्ञाने वर्तमानस्य] 'सियासेन निमीयते ईषनिमयः, दुःखेन प्रमीयते - | ध्यतेणे परतः स्वरस्य 'आत्' स्यात् / मन्त्रं साधयति, दुष्प्रमयः; "दुःस्वीषतः कृच्याकृच्छात्विल' (13 / एवं तपः (साधयति), अन्न साधयति साधर्मिके१३६) इत्यनेन 'खल'। "मिनोति दुःखमिति मयः। भ्यो दातुम् / अज्ञान इति किम् ? तपरतापसं से'आ = सामस्त्येन मीनाति=हिनस्ति प्रापिनम् / धयति / सिध्यतेरिति किम् / बिधू गत्यामित्यस्य. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णौ धातूनामागमविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [1 भौवादिकस्य मा भूत- तपः सेधयति / साधिनैव / लियो नोऽन्तः स्नेहद्रवे // 4 / 2 / 15 // सिद्धे सिध्यतेरज्ञाने "सेधयति" इति प्रयोगनिवृत्त्यर्थ वचनम् // 11 // म० वृ०-लियः स्नेहद्रवेऽर्थे गम्यमाने णौ परे 'नकारान्तावयवो वा' स्यात् / घृतं विलीनयति, अव०-१षिधूच संराद्धौ'। समानोधर्म:= | विलाययति / स्नेहद्रव इति किम ? अयो विलायसंधर्मः, सधर्मः प्रयोजनमेषाम ते साधर्मिकाः, 'प्रयो- | यति / 'व्यलीलिनद्' इत्यत्रोपान्त्यह्रस्वः, [ 'उपान्त्यजनम्' (6 / 4:117) इतीकण] / 3तपस्तापसं सेधय- स्यासमान०' (4 / 2 / 35) ] एवमुत्तरेष्वपि // 15 // ति" इत्यस्य एवं वाक्यरचना-सिध्यति, कोऽर्थः ? सिध्यति = जानीते, तापस. ज्ञानविशेषमासाद- अव०-'लियो नोऽन्तः' इति सूत्रे ली इति यति, तं तापसं तपः कर्तृ प्रयुक्त (इति) णिग; देवादिको 'लींच श्लेषणे' इति, 'लीश श्लेषणे' भावार्थोऽयम-स्वान्येव कर्माणि एनं तापसं सेध- इति क्रयादिः, 'लीण द्रवीकरणे' इति त्रयाणामपि यन्ति = अनुभवविशेषमासादयन्ति (?न्तं)तं कर्माणि सामान्येन ग्रहणं भवति / घृतं विलीनयति, घृतं प्रयुञ्जते, अस्य तापसस्य अनुभवविशेषमुत्पादयन्ती- विलाययति; अत्रायं विशेषः- लीधातोर्णिग, यदि त्यर्थः; अनुभवः = साक्षात्कारः, स च ज्ञानमेव / / 11 / / परत्वागणौ वृद्विः आयादेशः, तदा “लिय ईः = लीः" इति युक्त्या ईकारप्रश्लेषादीकारान्तस्यैव लीधातोचि-स्फुरोर्नवा / / 4 / 2 12 // !ऽन्तो भवति / अथ ली, णिग, 'लीलिनोर्वा' म० वृ०-चिस्कुरोणों "स्वरस्यात् [=आकारः] (4 / 2 / 6) इत्यनेन आत्, कृतात्वस्य तु लीधातोर्वक्ष्यस्याद्वा" / चापयति, चाययति; स्फारयति, स्फोर माणौ 'लो लः' (4 / 2 / 16) इत्यनेन लोऽन्तः, 'अति रीली० (4 / 2 / 21) इत्यनेन पोऽन्तः परत्वात् भवतः; यति // 12 // तदा “घृतं विलालयति, घृतं विलापयति" इति "वियः प्रजने // 4 / 2 / 13 // रूपद्वयम, एतेन घृतं विलीनयति / 1 / विलाययति / 2 / विलालयति / 3 / विलापयति / 4 / इति रूपचतुष्टयम० वृ०-प्रजनो = गर्भग्रहणम / प्रजनार्थस्य | सिद्विर्भवतीति ज्ञातव्यम् // 15 // 'वी' इत्यस्य णौ 'धा आन्' स्यात् / पुरो वातः = पवनः] गाः प्रवापयति प्रवाययति (वा), गर्भ लो लः / / 4 / 2 / 16 // ग्राहयतीत्यर्थः // 13 // म० वृ० - लातेः ली इत्यस्य च कृतात्वस्य स्नेहअव० - 'प्रजननं = प्रजनः, 'भावाकोंः ' | द्रवे गम्यमाने णौ 'लोऽन्तो वा' स्यात् / घृतं विला(५।३।१८। इति) पत्र, 'न जनवधः' (4 / 3 / 64) इति / लयति, विलापयति, [ लीलिनो वा स्यात् ] सूत्रेण वृद्धिर्न भवति = आकारप्रतिषेधः / वीक घृतं व्यलीललत् / स्नेहद्रव इत्येव-श्येनो वर्तिकामुप्रजनकान्त्यसनखादनेषु चागो, द्वितीयाशस, आ- | ल्लापयते // 16 // त्वम्। 'शसोऽता०' (1 / 4 / 41) इत्यनेन शसोऽकारेण सह ओकारस्य 'आकारः // 13 // अव०-१( एवं ) जटाभिरालापयते, परैः स्वं रुहः पः / / 4 / 2 / 14 // पूजयतीत्यर्थः; पूर्वमिदम्, पश्चात् 'श्येनो वर्तिका०' इति ज्ञेयम, वञ्चयते अभिभवति वा, अत्र 'लीक्लिम० वृ०–रुहेणों 'पकारान्तादेशो वा' स्यात् / / नोर्चाभिभवे चाच्चाकर्त्तर्यपि' (3 / 3 / 60) इत्यनेनारोपयति, रोहयति ब्रीहीन // 14 // स्मनेपदमात्वं च // 16 // Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 4 पा०२ सू० 17-21 , / पातेः // 4 / 2 / 17 / / पा-शा-छा-सा-वे व्या-ह्वो यः // 4 / 2 / 20 / / म० वृ० - पृथग्योगान्नवेति निवृत्तम / पार्टी म. वृ०-एषां णौ परे 'योऽन्तः' स्यात पाय'लोऽन्तः' स्यात् / पालयति, अपीपलत् / / 17 // यति, शाययति, अवच्छाययति, अवसाययति, वेग वाययति, व्यंग-व्याययति, ह्वाययति। पोरपवादो ___ अव०-'पातेः' इत्यत्र तिवनिर्देशेन 'पांक योगः // 20 // रक्षणे' इत्ययमदादिको गृह्यते, 'पां पाने' 'मैं ओवै शोषणे' इति धातुद्वयं निवार्यते; तयोः पाययति अव० -'पां पाने 4 ओवै शोपणे' इति इति प्रयोगः; यङलुांपच लोऽन्तः प्रतिषिध्यते,- पाद्वयं ज्ञेयम, न पातिः; पातेलॊन्त उक्तोऽस्ति / 'शांच पापतं प्रयुङ्क्ते = पापायति' इति प्रयोगः / तथा तक्षणे (इति) शों / दो छांच छेदने ( इति ) छा। 'पलण रक्षणे' इति चौरादिकेनैव पालयतीति सिद्धे, पांच अन्तकर्मणि (इति) सा, अथवा में 5 सैं पातेरादन्तत्वात् परत्वात् योऽन्तः स्यात्, इति पाते- क्षये'; उभयत्र 'आत्सन्ध्यक्षरस्य'। सूत्रे 'वे' इति रिति सूत्रं कृतम् / / 17 // निर्देशो वेग संवरणे' इत्यस्य ज्ञापकः, 'वांक गति गन्धनयोः 4 ओवै शोषणे' इत्यनयोर्निवृत्त्यर्थः / धृग-प्रीगोनः // 42 // 18 // तयोर्वापयतीत्येव स्यात् / 'व्यंग संवरणे' (इति) म० वृ०-धूगप्रीगोणी 'नोऽन्तः' स्यात् / धून व्या। तथा पासादीनां कृतात्वानां ग्रहणाद् इह यति', प्रीणयति // 18 / प्रकरणे सर्वत्र लाक्षणिकस्यापि ग्रहणं भवति, तेन "क्रापयति, जापयति; अध्यापयति" इत्यादि सिद्धम अव० -- "धूगृ कम्पने धूम्श कम्पने / धूण कम्पने” इति त्रयोऽप्यत्र ज्ञातव्याः / 'अदुधूनत् इत्यपि / “प्रीश तृप्तिकान्त्योः प्रीगण तर्पणे” इति अतिनी-ब्ली-ही-क्नूयि-क्ष्माय्यातां पुः॥४२॥२१॥ द्वयं ज्ञेयम्। 'धूग, प्रीग' इत्यनुबन्धनिर्देशो यङ् म० वृ० - एषामाकारान्तानां च धातनां णी लुपि नोऽन्तनिवृत्त्यर्थः- 'दोधावयति, पेप्राययति'; परे 'पुरन्तः' स्यात् / अर्पयति, रेपयति, व्लपयति, 'धूत् विधूनने प्रोङ्च प्रीतो' इति धातुद्वयप्रतिषेधा हपयति, कोपयति, क्ष्मापयति; आदन्त[ - आकार्थश्व-धावयति, प्राययति // 18 / / रान्त-]दापयति, क्रापयति, जापयति, अध्यापयति / बहुवचनं व्याप्त्यर्थम, तेन नाम्नोऽपि-सत्यापयति, * वो विधूनने जः // 4 / 2 / 16 // अर्थापयति, वेदापयति; ['सत्यार्थवेदस्याः' (3 / 4 / 44) म० वृ०-वातेर्विधूननेऽर्थे णौ 'जोऽन्तः' / इति आकार:] प्रिय-प्रापयति / / 21 / / . स्यात् / पक्षकेणोपवाजयति, पुष्पाणि प्रवाजयति, अवीवजत् / विधूनन इति किम ? केशानावापयति 2, अव०-'ऋक् गतौ' 'ऋ प्रापणे च' (इति शोषयतीत्यर्थः / / 16 // द्वयमपि ज्ञातव्यम ) / अतः तिवनिर्देशो यङ्लुपि पोऽन्तनिषेधार्थः,-आरतं प्रयुक्त = अरारयति, अव०-१वांक गतिगन्धनयोरित्यस्य' / / अरियतं प्रयुङ्क्ते = अरियारयति / रेपयतीत्यत्र 2. ओवै शोषणे' आत्सन्ध्यक्षरस्य' (4 / 2 / 1 इति) रीङच् स्रवणे रीश गतिरेषणयोः' ( इति ) द्वयमपि वा॥१६॥ ज्ञेयम् / 'ब्लीश वरणे' (इति) व्ली। 'ह्रींक लज्जा * वजिनैव सिद्ध वाते रूपान्तरनिवृत्यर्थ बचनम् / Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो हस्वस्य त्रिणमपरेणी वा दीर्घस्य च विधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम / [83 याम' (इति) ही। 'क्नूयैड शब्दोन्दनयोः' (इति) / सर्वत्र णिग। 'झिणति' (1.3 / 50) इत्यनेन वृद्धिः कनय / 'मायेंड विधनन' (इति)क्ष्माय / पुरित्यत्र 'आकार' सर्वत्र / अघाटि अघटीत्यत्र णिगपरतो'उकार:' उच्चारणार्थः, 'पस्पो' (4 / 323) इत्यत्र डाननीन, भावकर्मणाः' (3468 ) इति सत्रण विशेषणार्थः (च)। ‘प्रियमाचप्टे' (इति) गिग, गिगगपरतो त्रिचप्रत्ययः, अद्यतनीतकारलोपश्च / 'प्रियस्थिर' (14 // 38) इत्यादिना 'प्रा' आदेशः 'घाटघाटम' इत्यत्र 'अभीक्षणं घटनं पूर्वम इति वाक्यम, 'गणम चाभीक्ष्ण्ये (5 / 4 / 48) इति सूत्रेण ग्रामप्रत्ययः णिगपरतः / खकारोऽप्रयोगी। णम, कायः म्फाय / / 4 / 2 / 22 // तदनन्तरं 'घटादेह वो दीर्घस्तु वा भिणम्परे' इत्यम. वृ०- स्फायतेो परे 'स्फाव' इत्यादेश नेन सर्वत्र ह्रस्व उपान्त्ये. पश्चात् यत्र अद्यतनीतचिच म्यान / स्कावयति। अभेदनिर्देशोऽन्ताधिकारनिवृ प्रत्ययस्तत्र अघाटि अघटि' इति, यत्र च रुपमप्रत्यत्यर्थः [फायड ओप्यायैक वृद्धौ] // 22 / / यसत्र 'घाटघाटम, घटघटम' इति, अत्र सर्वत्र घटादेह स्त्रो० इत्यनेन त्रिणमपरे णौ आश्रित्य विकशविरगती शान् // 4 / 2 / 23 // ल्पेन दीर्घः कर्त्तव्य ; यत्र दीर्घस्तत्र 'अघाटि, घाटम' इति, पक्षे-अघटि, घटम / खणमप्रत्ययमाश्रित्य म० वृक्ष-शीयतिः 'शात' स्यादगतावर्थ गौ "भृशाभीक्षण्याविच्छेदे द्विः प्राक्तमवादेः” (74.73) परे / पप्याणि शातयति'शदल शासने। अगता इत्यनेन द्वित्वम-घाटघाट, घटंघटम; प्रथमासिः, विति किम ? गोपालो गाः शादयति, गमयतीत्यर्थः 'अव्ययस्य' इति सिलोपः। एवं हिडयतीत्यादिषु, [गा.' इत्यत्र "आ अमशसोता” (1 / 4 / 75) इत्य- 'हेड वेष्टने णिग सर्वत्र, शेपं पूर्ववत् / अत्र ह्रस्वः नेनाकारः] / / 23 // एकारस्य सर्वत्र इकारः, पश्चात् दीर्घः ईकार / तथा घटादेह बो दीर्घन्तु वा जिणम्परे // 4 / 2 / 24 // 'घटादेह स्वः' इति सूत्रेऽयं विशेषः- दक्षादीनां कंपांचिद् धातूनामुपान्त्याकाराभावेऽपि, घटादिम. वृ०-घटादीनां धातूनां णौ परे 'हस्वो' पाठवलादनुपान्त्यस्यापि अकारस्य ह्रस्वदी?; यथा• ' भवति, त्रिणमपरे तु णौ 'दीर्घो वा' स्यात् / घट अदाक्षि, अदक्षिः दाक्षंदाक्ष, दशंदुक्षम; अक्षाजि, यति, त्रिंणम्परे गौ-अघाटि, अवटि; घाटघाटम, अक्षञ्जि; क्षाजंक्षाज, क्षजंक्षञ्जमः / 'दक्षघटंघटमः हिडयनि, अहीडि, अहिडि; हीडंहीडम्, यति, क्षजयति' इति प्रयोगे न घटते, 'ञ्णिति' हिडंहिडम [अत्र प्रथमासिः, 'अव्ययस्य' ( 3 / 2 / 7 ) वृद्धिर्न प्राप्नोति / वृद्धौ असत्यां ह्रस्वः कथं क्रियते इति सिलुक] / भ्वादिपर्यन्ते घटादयः / / 24 // इति न दर्शितम / / 24 // - अव-इह 'घटादेह वो दीर्घ०' इति कगे-वन-जन जप-क्नस-रजः / 4 / 2 / 25 / / सूत्रे घटादय. 'पठितार्था एव = यथाश्र तार्था एव ह्रस्वदीर्घकार्ये गृह्यन्ते; अर्थान्तरे तु घटादीनां न ह्रस्व- ___ म० वृ० - एषां णौ परे 'ह्रस्वः स्यात् त्रिणम्विधिः / उपसर्गः प्रायेणार्थान्तरं भवति, यथा-उद्- . परे णौ 'वा दीर्घः'। कगे सौत्रो धातुः, कगयति, घाटयति, श्रापयति, स्मारयति, विस्मारयति, दार- अकागि, अकगि; कागंकागं, कगंकगम् [सिः, यति, विदारयति, प्रमादयति, नाटयति, लाडयति, 'अव्ययस्य' इत्यनेन सेलु प] / 'वनूयि याचने'चालयति इत्यादिपु घटादीनामर्थान्तरवृत्तित्वात् न / उपवनयति, अवानि, अवनि; वानवानं, वनंवनम्; हस्वः। घटिष चेष्टायाम' (इति) घट, घटमानं 'जनैचि प्रादुर्भावे'-जनयति, अजानि, अजनि; जानंप्रयुङक्के / 'प्रयोक्तृव्यापारे णिग' (3 / 4 / 20) इत्यनेन / जानं, जनंजनम्, 'जप झषच अरसि'-जरयति, Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०४ पा०२ सू० 26-26 अजारि, अजरि; जारंजारम, जरंजरम एवं क्लस- आमि; आचामायति // 26 // यति, "कसूच हतिदीप्त्योः " / रजि,-रजयति मृगान् व्याधः, अराजि, अरजि; राजराजम, रज- अव०-'रमयति, अरामि. रामराम, रमरजम् / नलोपे वचनस्य चरितार्थस्वान्नलोपाभावे' रमम' इत्यादिपु उत्तरसूत्रोदाहरणेष्वपि (च) धातु'अरब्जि, रजरब्जम्' इत्यत्र दीर्घो वा न भवति परतः सर्वत्र णिग, 'ब्णिति' (4 / 3 / 50 / इति) वृद्धिः 'आ, तदनन्तरमेकत्राद्यतनीत, 'भावकर्मणोः' (3 / 4 / 68 / इति) निच तलोपश्च; अन्यत्र 'रूणम चाभीअव०-इह 'घटादेह स्वो दीर्घः' इति सूत्रे क्ष्ण्ये' (5 / 4 / 48 / इति) ख्णम, तदनन्तरं तैः तै: घटादयः पठितार्था एव = यथाश्रुतार्था एव ह्रस्वदीर्घ- सूत्रैः सर्वत्र ह्रस्वः, त्रिणमपरे णौ विकल्पेन दीर्घः कार्ये गृह्यन्ते, अर्थान्तरे तु घटादीनां न ह्रस्वविधिः। / कार्यः, 'भृशाभीक्ष्ण्याविच्छेदे० (74 / 73) इति उपसर्गः प्रायेणार्थान्तरं भवति, यथा-उद्घाटयति / द्वित्वं सर्वत्र, ख्णमुदाहरणेषु प्रथमासिः, 'अव्ययस्य' स्मारयति, विस्मारयति, दारयति, विदारयति, प्रमाद- (3 / 2 / 7) इत्यनेन सिलृप्यते। 'संक्रामतीति शतप्र- . . यति, नाटयति, लाडयति, चालयतीत्यादिपु घटादी- त्ययः, णिजबहुलम्० (3 / 4 / 42) णिज, 'त्रन्त्यस्वनामर्थान्तरवृत्तित्वात न ह्रस्वः। तथा 'कगेवनू' इति / रादेः' इति (74 / 43 / इत्यनेन) अन्त्यस्वरादिलोपः / सूत्रे तु कगादीनां धातूनामर्थविशेषविवक्षा कापि २(एवम) आममामम / आचामयति, आचामि, न कार्या, पृथग्योगात् / कगे इति सौत्रो धातुः, आचाममाचामम / / 26 // एकारश्चादितकार्यार्थः, "न विजागृशसक्षणहम्येदितः' (4 / 3 / 41) इति सूत्रे एकारान्तधातूनां वृद्धि पर्यपात्स्खदः // 42 // 27 // निषेधः; यथा-अकगीत् / तथा 'वनू' इति ऊकार ____ म० वृ०-पर्यपाभ्यामेव परस्य स्वदेणे ह्रस्वः' निर्देशात् 'वनूयि याचने' इत्ययं ग्राह्यः, 'वन षन त्रिणम्परे णौ 'दीर्घश्च वा स्यात् / परिखदयति, संभक्तौ' इत्यस्य न ह्रस्वदीर्घविधिः / “रजयति मृगान् व्याधः” इत्यादौ रनों रागे' (इति) भ्वादि पर्यस्खादि, पर्यस्खदि; परिस्खादंपरिस्खादम, दिवादिर्वा, णिग सर्वत्र, ‘णौ मृगरमणे (4 / 2 / 61) परिस्खदंपरिस्वदम / एवमपस्खदयतीत्यादि / स्व देर्घटादिपाठेन मिद्धे नियमार्थ वचनम, अन्योपइति सूत्रेण उपान्त्यस्य नकारस्य लोपः; नलोपे कृते 'कगेवनू०' इति वचनं चरितार्थ जातम्, कोऽर्थः ? सर्गपूर्वस्य मा भूत - प्ररखादयति / / 27 / / सूत्रं प्रवर्तितम, उपान्त्याकारस्य ह्रस्वदीर्घकार्य शमोऽदशने // 4 / 2 / 28 // सिद्धिः / 'अत्रणों मृगरमण (4 / 2 / 61 / इत्यनेन) नलोपो न प्राप्नोति, मृगरमणार्थाभावात् / / 25 // म० वृ०-अदर्शनेऽर्थे वर्तमानस्य शमेौँ 'वस्वः', त्रिणम्परे णौ 'दीर्घश्च वा' स्यात् / शमयति अमोऽकम्यमि-चमः ! 4 / 2 / 26 / / रोगम, निशमयति श्लोकान; अशामि, अशमिः म० वृ०-कम्यमिचमिवर्जितस्य अमन्तस्य धा शामंशामम्, शमंशमम्। अदर्शन इति किम ? तोणे 'हस्वः'स्यात, त्रिणम्परे तु णौ 'वा दीर्घः'। निशामयति रूपम् // 28 // रमयति, अरामि, अरमि रामरामम्, रमरमम्।। ___ यमोऽपरिवेषणे णिचि च / / 4 / 2 / 26 / / . कथं संक्रामयति ? संक्रामन्तं करोतीति शत्रन्तारिणजि भविष्यति। अकम्यमिचम इति किम ? ___म० वृ०-अपरिवेषणे वर्तमानस्य यमेणिचि कामयते, अकामि, कामकामम्। एवमामयति, . अणिचि च णौ परे 'हस्वो मिणम्परे णौ 'दीर्घश्च Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णौ ह्रस्वस्य जिणम्परे णौ वा दीर्घस्य च विधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / वा' स्यात् / यमयति, अयामि, अयमि; यामंयामम, मारणम' इति धात्वर्थः स्वार्थ उच्यते। 3'प्रथम “यमयममा अपरिवेषण इति किम् ? यामयत्यतिथीन, मरणम, पश्चात् मारणम' इति प्रयोक्तव्यापारः // 30 // यामयति चन्द्रम् / णाविति सिद्धेऽस्य णिचि चेति वचनादन्येषां चुरादिधातूनां णिचि न ह्रस्वः, न चहणः शाठय / / 4 / 2 / 31 / / दीर्घः / “स्यमिण वितर्के” (इत्यस्य) स्यामयते,अस्या- - म० वृ०-चहे: = 'चहण कल्कने इति] चौरामि, स्यामस्यामम; “शमिण आलोचने" (इत्यस्य) / दिकस्य शाठ्य ऽर्थे णिचि णौ परे 'हस्वः', भिणनिशामयते, न्यशामि निशामंनिशामम् // 26 // म्परे णौ "वा दीर्घश्व" स्यात् / चहयति, चाहिष्यते. चहिष्यते; अचाहि, अचहि; चाहंचाहम, चहचहम्। अव०-'यमोऽपरिवेषणे णिचि च' इति शाठय इति किम् ? अचहि, चहचहम। चहयतीसूत्रेऽयं धातुः ‘यमू उपरमे' इति भ्वादिः, 'यमण त्यदन्तत्वात् सिद्धम, 'दीर्घार्थ' वचनम् // 31 // परिवेपणे' इति चुरादिः (इति) धातुद्वयमप्यत्र ग्राह्यम , अतः सूत्रार्थ यमेणिचि अणिचि चेति उक्तम् / अब.-'चाहिष्यते, चहिष्यते'; 'स्वरग्रहपरिवेपणं भोजनविषयम; चन्द्रसूर्यादिवेष्टनं परि- दृशहन्भ्यः स्यसिजाशीःश्वस्तन्यां बिट वा' (3 / 4 / 66) वेपो वा गृह्यते / चकारोऽणिचि चेत्यस्यानुकर्षणार्थः। इत्यनेन चिट / 'चहण कल्कने' इति अदन्तो धातुः / 1 अस्य णिचि चेति कोऽर्थः ? सूत्रार्थे 'यमेणिचि अदन्तत्वात् दीर्घोऽप्राप्तः, ह्रस्वः सिद्ध एवास्ति, परं अणिचि च' इत्युतम् , इति अस्य यमेरित्यर्थः // 26 // दीर्घकारणे वचनं कृतम // 31 // मारण-तोषण-निशाने ज्ञश्च // 4 / 2 / 30 / / ज्वल-बल-झल-ग्ला-स्ना-बनू-वम-नमोऽनुपस गेस्य वा // 4 / 2 / 32 // ___ म० वृ०-ध्वर्थपु वर्तमानस्य जानातः[ = ज्ञाधातोः] णिचि अणिचि च णौ 'ह्रस्वः', त्रिणम्परे णौ तु - म० वृ०-एषामनुपसर्गाणां णौ परे 'ह्रस्वो 'वा दीर्घः'। मारणे,—संज्ञपयति पशुम / तोषणे,- वा स्यात् / ज्वलयति, ज्यालयति; ह्वलयति, बालज्ञपयति गुरुम, विज्ञपयति राजानम्। निशाने, ज्ञप- यति; मलयति, मालयति; ग्लपयति, ग्लापयति; स्नयति शरान्। अज्ञापि, अज्ञपि; ज्ञापंज्ञापम, ज्ञपंज्ञपम्।। पयति, स्नापयति; वनयति, वानयति; 'वमयति, * 'इह पूर्वत्र च सूत्रे णिचि अणिचि च णौ 'रूपसा- वामयति; नमयति, नामयति / ग्लास्नोरप्राप्ते, शेषा म्येऽप्यर्थभेदः, एकत्र स्वार्थोऽन्यत्र प्रयोक्त- णां तु प्राप्ते विभाषा / / 32 // व्यापारः // 30 // __अव०–एवमज्वालि, अज्वलि, ज्वालंज्वालम, ____ अव०-चकारो णिचि चेत्यस्यानुकर्षणा- ज्वलंज्वलम् इत्यादि। सर्वत्र ज्वलादिप्रयोगेषु दीर्घविर्थः / निशानं तीक्ष्णीकरणमुच्यते / ज्ञाधातुः 'ज्ञांश कल्पः सिद्ध एवास्ति, 'ज्वलह्वलेति सूत्रेण विकल्पेन अवबोधने' इति क्रयादिः, 'ज्ञाण मारणादिनियोज- ह्रस्वकरणात्, एकत्र ह्रस्वः कृतः, ह्रस्वविकल्पपक्षे नेपु' इति चुरादिः, द्वयमप्यत्र ज्ञातव्यम्। यदि चुरा- दीर्घस्तिष्ठत्येव; इति हेतो+लह्वलेतिसूत्रार्थे 'त्रिदिस्तदा 'चुरादिभ्यो णिच (3 / 4 / 17) भवति, यदि णम्परे' इत्यनुवादो न कृतः / "टुवमू उद्गिरणे। च क्रयादिः तदा 'अणिचे' इति विशेषः। णिचि | अनुपसर्गस्येति किम ? प्रज्वलयति, प्रहलयति, प्रमअणिचि चेति व्यक्तं वृत्तौ। 'यमोऽपरिवेषणे णिचि | लयति; इह 'घटादेह स्वः०० (4 / 2 / 24 ) इत्यनेन च' (4 / 2 / 26) इति सूत्रे णाविति सिद्धे, कोऽर्थः ? | ह्रस्वः; प्रग्लापयति, प्रस्नापयति; प्रवनयति; अत्र 'कगेसर्वत्र णौ परे इत्यधिकारे आयाते सत्यपि इत्यर्थः। वनू०' (4 / 2 / 25) इति ह्रस्वः; प्रवमयति, प्रणमयति; 'ज्ञाण मारणादिनियोजनेषु इत्यस्य / २प्रथममेव 'अमोऽकम्यमि० (४।२:२६)इति ह्रस्वः, इति अवचूरिः - ------ -------- - - --- Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०४ पा०२ सू० 33-36 'सूत्रार्थप्रान्ते', एवमज्वालि, अज्वलि इत्यवचूरिः / ऐजिजत, अययाचत् ५अन्नुलोकत्, अडुढौकत / 'नमयति, नामयति' इत्युदाहरणाग्रे ज्ञातव्या // 32 // शासेरूकारग्रहणं यङ्लुपि निवृत्त्यर्थम्-अशाश सत / 3 'अबीवदद्वीणां परिवादकेन मैत्रः" (इति) छदेरिस-मन् बट-क्यौ / / 4 / 2 / 33 / / गिजात्याश्रयणात् मिद्धम / / 35 / / म० वृ०-१छद्रेः इस-मन-बट-क्किप्परे णौ अव० - एवमदीदपत दाधातोः / अलील'हस्वः' स्यात्। छदिः, छद्म, छत्रम, किप्-उपच्छन् / वत् इत्यादी "कृताकृतप्रसङ्गि यल्लक्षणम (तन्नित्यम्") त्रडिति किम् ? त्रे मा भूत-छात्रः, उग्णादित्रप्रत्ययः इति ज्ञायते नित्यत्वं द्विवचनस्य, नित्यमपि द्विर्व।। 33 // चनं वाधित्वा प्रागेव ह्रस्वः / 'मा भवानटिटत' इ__ अव० - "छदण संवरणे' / 2 चुरादिभ्यो त्यादी ह्रस्वत्वे कृतेऽकृतेऽपि द्वित्वं प्राप्नोतीति नित्यणिच' (३।४।१७।इति णिच); छादयतीति रुच्यर्चि' म्। हस्वस्तु द्वित्वे कृते न प्राप्नोतीत्यनित्यः / न केवलं नित्यं द्विवचनं बाधित्वा प्रागेव ह्रस्वः, प्राक्तन (उणादि० 686) इति उणादिसूत्रेण इस्। 'छद्म', स्वरे स्वरविधेरित्यपि बाधित्वा, (इति) अपेरर्थः / अत्र 'मन्वनक्वनिप्० (5 / 1147 ) इत्यनेन मन् / 'छात्रम', 'ट' (446 इति ) उणादिसूत्रेण त्रट अत्र 'ओणधातोः ऋदित्करणं' ज्ञापकम / ऋदित्करणं हि ‘मा भवानोग्गिणद्' इत्यत्र ऋदित्वात् 'उपा त्यह्रस्वत्वप्रतिषेधो' यथा स्यादित्येवमर्थ क्रियते / एकोपसर्गस्य च घे / / 4 / 2 / 34 // यदि चात्र 'ओरिणणत्' इत्यत्र नित्यत्वात्प्रागेव द्विती यावयवस्य द्वित्व स्यात्तदाऽनुपान्त्यत्वादेव ह्रस्वत्वम. वृ०-एकोपसर्गपूर्वस्यानुपसर्गस्य च छदे स्याप्राप्तिः, इति हृस्वनिवृत्त्यर्थेन किमृदित्करणेन ? घंपरे णौ 'ह्रस्वः' स्यात्। 'प्रच्छदः, छदः; एवं सप्त एवं 'मा भवानटिटत' इत्यादि सिद्धं भवति। 'अत्यच्छदः / एकोपसर्गस्येति किम् ? समुपच्छादः / घ इति किम् ? प्रच्छादनम् / 34 / / रराजत्' इत्यादि, गजानमतिक्रान्तः अतिराजः, अतिक्रान्तो राजानं वा, 'राजन्सखेः' (73 / 106) अव०-'प्रच्छाद्यतेऽनेन = प्रच्छदः, एवं इति सूत्रेण अट समासान्तः, 'नोऽपदस्य तद्धिते' छदः; 'पुन्नाम्नि घः' ( 5 / 3 / 130 इति घप्रत्ययः ) / (7 / 4.61) इति नस्य लोपः, अतिराजमाख्यत् (इति) तथा सप्त छदा अस्य / एवमुरश्छदः, उरसश्छदः 'णिज्बहुलम०' (3 / 4 / 42 / इति) णिच, 'त्रन्त्यस्वउरश्छदः, दन्तच्छदः, दन्तस्य छदः = दन्तच्छदः रादेः' (74 / 43 ) इत्यन्त्यस्वरलोपः, 'अन्यस्य' // 34 // (4 / 18) इति द्वित्वम्। एवं स्वामिनमाख्यत, उपान्त्यस्यासमानलोपिशास्वृदितो 3 तादृशमाख्यत्, "मातरमाख्यत् [इति] णिज, शेपं प्राग्वत्। 'लोक भ्वादिः चुरादिर्वा अवाढीत = वा॥४॥२॥३५॥ दमकार्षीत वीणा, तां वीणां वदन्ती परिवादको = __ म० वृ०-समानलोपि-शासूक-ऋदनुब- वैणिकः प्रायुक्त (इति) 'प्रयोक्त०' (3 / 4 / 20 / इति) न्धवर्जितस्य धातोरुपान्त्यस्य ङपरे णौ 'हस्वः' स्यात् / णिग, तदनन्तरं वीणां वादितवन्तं परिवादकमन्यो अपीपचत, अचीकरत्, अलीलवत् / उपान्त्यस्येति मैत्रः प्रयोजितवान / इति) पुनरपि णिग // 35 // किम् ? अचकाङक्षत् / असमानलोपिशास्वृदित भ्राज-भास-माष-दीप-पीड-जीव-मील कण-गणइति किम् ? 'अत्यरराजत, असस्वामत्, अततादत्, “अममातत्, अशशारत् शासू-अशशासत्, वण-भण-श्रण-ह-हेठ-लुट-लुप-लपां नवा ऋदित्-मा भवानोणिणत् [ओणन्तं प्रायुङक्त], / / / 4 / 2 / 36 // Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ङपरे णौ धातूनामुपान्त्यस्य ह्रस्वादिः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [87 - “म० वृ०-एषामुपान्त्यस्य ङपरे णौ 'हस्वो तत्, अववर्त्तत् इत्यादौ वचनसामर्थ्यात् अरगुणः नवा' स्यात् / अबिभ्रजत, अबभ्राजत; अबीभसत, कीर्त्यादेशश्च बाध्यते / यदि ऋकारे कृतेऽपि अरअबभासत, अबीभषत अबभाषत; अदीदिपत, अदि- गुणः, 'कृतः कीर्तिः' (4 / 4.122) इत्यनेन 'कीर्त' दीपत; अपीपिडत, अपिपीडत्; अजीजिवत, अजि- आदेशश्च स्यात, तदा ऋव०................. जीवत; अमीमिलत, अमिमीलत; अचीकरणत, अच- ... ... ... ... .. (इति वचनं व्यर्थ स्यात्। ऋकाणत; अरीरणत, अरराणत; अवीववणत, अव- हवर्णस्य० इति वचनं विकल्पेनार-) कीर्त्यादेशवाणत; अबीभणत, अबभाणत, अशिश्रणत, अश- बाधनार्थम् / / 37 // श्राणत; अजूहवत, अजूहावत; अजीहिठत, अजिहेठत्; अलुलुटत, अलुलोटत; अलुलुपत्, अलुलोपत; जिघ्रतेरिः / 4.2 // 38 // अलीलपत् अलीलापत् / बहुवचनं शिष्टप्रयोगानु म. वृ०–ध्राधातोरुपान्त्यस्य ङपरे णौ 'इकारो सरणार्थम, तेन' अबिभ्रसत् अबभ्रासदित्यादि वा' स्यात् / अजिविपत, अजिव्रपत। तिवनिर्देशासिद्धम। 36 // . द् यङ्लुपि नेत्वम् = इकारो न भवति-अजाबपत् .अव० - 'एजङ भ्रंजङ् भ्राजि दीप्तौ अथवा / / 38 // 'राजगटुभ्राजि दीप्तौ' इति भ्राज / “भासि टुभ्रासि तिष्ठतेः // 4 / 2 / 36 // टुभ्लामृङ दीप्तौ" (इति) भास / भापि च व्यक्तायां वाचि' (इति) भाष / 'दीपैचि दीप्तौ' (इति) दीप / म० वृ०-स्थाधातोरुपान्त्यस्य ङपरे णौ 'पीडण गहने' (इति) पीड़। 'जीव प्राणधारणे' 'इत्वं' स्यात् / अतिष्ठिपत / तिवनिर्देशो यङलुपि (इति) जीव / 'मील श्मील स्मील क्ष्मील निमेषणे' इत्वनिषेधार्थः-अतास्थपत् / योगविभागो नित्यार्थः (इति) मील / 'अण रण वणे'ति दण्डकधातौ कण, // 36 // रण, वण, भण। तथा 'शण श्रण दाने' इत्यस्य दानार्थस्य श्रधातोर्घटादित्वात् ह्रस्वत्वं सिद्धमेवा ऊद् दुषो णौ / / 4 / 240|| स्ति, अत्र च पाकार्थेऽर्थान्तरे सति 'भ्राजभास' म. वृ०-दुषेरुपान्त्यस्य णौ परे 'ऊत' स्यात / इत्यनेन विकल्पेन ह्रस्वः / 'हग स्पर्द्धाशब्दयोः' (इति) ह / 'एठि हेठि विबाधायाम' (इति) हेठ / 'दूषयति / पुनर्णिग्रहणं ङनिवृत्त्यर्थम् / / 40 / / 'लुटच विलोटने 'लुट विलोटने' ( इति ) लुट् / लुप्लती छेदने' (इति) लुप / 'रप लप जल्प व्यक्ते अव०-'दुष्यन्तं प्रयुक्ते। णाविति किम ? दोषो वर्त्तते // 40 // वचने' (इति) भ्वादौ लप् / / 36 // ऋवणस्य / 4 / 2 // 37 // चित्तं वा // 4 / 2 / 41 // म० वृ०--धातोरुपान्त्यस्य ऋवर्णस्य ङपरे म० वृ०-चित्तविषयस्य दुषरुपान्त्यस्य णौ णौ "ऋकारो वा' स्यात् / अवीवृतत्, अववर्तत; 'वा ऊत्' स्यात् / चित्तं दूषयति, चित्तं दोषयति; अवीवृधत, अववर्द्धत; अदीदृशत, अददर्शत; अची मनो दूषयति, मनो दोषयति; चित्तग्रहणेन प्रज्ञाया कृतत, अचिकीर्तत [कतः कीर्तिः (4 / 4 / 122 / इति अपि ग्रहणात् प्रज्ञां दूषयति, प्रज्ञां दोषयति // 41 // सूत्रेण कृतः ‘कीत' इत्यादेशः] / / 37 // अव० - चित्तसहचारित्वात् प्रज्ञापि चित्तअव०-अमीमृजत्, अममार्जन, अवीवृ- / मुच्यते // 41 // Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 4 पा०२ सू० 42-46. गोहः स्वरे // 4 // 2 // 42 // घस्-जक्षतुः, जक्षः; डिति-घ्नन्ति ['हनो हो घ्नः' (2 / 1 / 112) इति घ्नः] / स्वर इति किम ? गम्यते / म० वृ०-कृतगुणस्य गुहे: स्वरादौ प्रत्यये परे / अनङीति किम् ? अगमत् ['लदितातादि०' (3 / 4 / उपान्त्यस्य 'ऊ' स्यात् / निगृहति, निगूहकः / गोह 64) इत्यङ् // 44 // इति किम् ? निजुगुहुः // 42 // ____ अव०-ङिति, कीदृशे ? स्वरादौ, पुनः अव०-'गुहौग संवरणे'। निगृहति // 42 // कीदृशे ? अवर्जिते / 'जक्षतुः, जक्षः', अत्र 'घस्ल अदने' (इति) घस, घसो द्वित्वम' द्वितीयतुर्ययोः भुवो वः परोक्षा-ऽद्यतन्योः / / 4 / 2 / 43 // पूर्वी' (4 / 1 / 42) इति पूर्वस्य घस्य गः, गहोर्जः' म० वृ०-भुवो वकारान्तस्य उपान्त्यस्य परो (4 / 1140) इत्यनेन गस्य जः, गमहन०' इत्यनेन क्षाद्यतन्योः परत 'ऊ' स्यात् / २बभूव, बभूवुषः, उपान्त्याकारलोपः, 'अघोषे प्रथमोऽशिटः' (1 / 3 / 50.) अभूवन्. अभूवम् / वृद्धिगुणाऽऽवाद्यादेशेषु कृतेषु इति घस्य कः, 'घस्वसः' (2 / 3 / 36) इति सूत्रेण भुवो वकारान्तत्वं भवति, पश्चात् 'ऊः' उपान्त्यस्य सस्य पः; अथवा 'अदं प्सांक भक्षणे' (इति) अद्, कर्त्तव्यः / व इति किम् ? बभूवान्, अभूत; अत्र परोक्षा, परोक्षायां नवा' ( 44 / 18 ) इति सूत्रेण भस्य मा भूत् // 43 // अदः स्थाने 'घस' आदेशः, शेषं प्राग्वत् परं 'नाम्य न्तस्थाकवर्ग (2 / 3 / 15) इत्यनेन सस्य षत्वम् / ___ अव० - "भूस्वपोरदुतौ' (4 / 1170 / इत्य 'गमहनजने ति सूत्रे 'जनैचि प्रादुर्भावे' (इति) अयनेन द्वित्वे पूर्वस्य) अकारः। (एवं) बभूवतुः / 'अभू मेव देवादिको जंन गृह्यते, जनेरात्मनेपदित्वात, वम्' इत्यत्र अद्यतनी, अम् , सिच, अट्, 'पिबति अत एव 'जज्ञे' इति प्रयोगः / कथं 'जज्ञतुः, जज्ञः'; ? दाभूस्थः०' (4 / 3 / 66) इत्यनेन सिचलोपः, पश्चात सत्यम, छान्दसावेतौ प्रयोगौ / जुहोत्यादौ हि केचित् 'धातोरिवर्णोवर्णस्य०' ( / 1150) इत्यनेन भुव ऊका 'जनं जनने' इति परस्मैपदिनं छान्दसं पठन्ति, रस्थाने 'उ' आदेशः, उवादेशे कृते 'भुवो वः परो तन्मते—'जज्ञतुः, जञ्जः' इति प्रयोगद्वयम, न स्वमते क्षाद्यतन्योः' इत्यनेन उकारस्थाने ऊः आदेशः, अभू // 44 // , वमिति सिद्धम् / इत्येवं साधनिका पुराणादर्श दृष्टा, नो व्यञ्जनस्याऽनुदितः / / 4 / 2 / 45 / / एतदनुसारेण ज्ञायते / 'बभूवुषः' इत्यादीनामुवादेशे कृते 'भुवो वः परोक्षाद्यतन्योः' इति सूत्रं प्रवर्त्तते / म० वृ०-व्यञ्जनान्तस्य धातोरनुदितः [%D सूत्रार्थे तु "वृद्धिगुणावा(?द्या)देशेषु कृतेषु भुवो उकारानुबन्धवर्जितस्य] उपान्त्यनकारस्य विङति प्रवकारान्तत्वं भवति" इत्युक्तम्, उवादेशवार्ताऽपि त्यये 'लुक' स्यात् / स्रस्तः, स्रस्यते; ध्वस्तः, परिन कृता; इति बहु विमृश्यं तत्त्वं ....... ध्वजते, सनीस्रस्यते [वञ्चस्रस० (4 / 1 / 50) इत्य(कथितं भव) ति // 43 // नेन नीरन्तः] / अनुदित इति किम? ('टुनदु समृद्धौं' गम-हन-जन-खन-घसः स्वरेऽनडि विङति इत्यस्य) नन्द्यते, नानन्द्यते। विङतीत्येव-स्रसिता // 45 // लुक् // 4 / 2 / 44 // अञ्चोऽनर्चायाम् / / 4 / 2 / 46 / / म० वृ०-एषामुपान्त्यस्य अङ्वर्जिते स्वरादौ विडति प्रत्यये परे 'लुक' स्यात् / किति-गम्,- म० वृ०–अञ्चेरनर्चायामेव वर्तमानस्योपाजग्मुः, हन्-जघ्नुः, जन्,-जज्ञे, खन,-चख्नुः, / त्यस्य नकारस्य 'लुक् स्यात् / उदक्तमुदकं कूपात, Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातोरुपान्त्यनस्य लुग्विधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [उदष्चति स्म (इति) 'गत्यर्था०' (5 / 1 / 11) इति / अवा-'प्रत्यये परे। प्रत्यये परे। रजक्तः] / अनायामिति किम्? 'अजिचता गुरवः॥४६॥ / तीति रजकः, 'नृतखत्रजः शिल्पिन्यकट्' (5 // 1 // 65) इति सूत्रेण 'अकट्'। रजतीत्येवं शीलो= अव०- 'नो व्य ञ्जन' (4 / 2 / 45) इति रागी, 'युजभुजभजत्यजरञ्जद्विषदुषद्र हदुहाभ्यापूर्वेण सिद्धे 'अञ्चोऽनर्चायाम्' इति सूत्रं नियमार्थ हनः' (5 / 2 / 50) इति सूत्रेण घिनण। "रजी रागे' कृतम्, अनर्चायामेवेति अञ्च्यते स्म(इति)'लुभ्य- रजति वस्त्रादिकमिति रजः, मिथिरजिउषिनृतृशूचेर्विमोहाचे' (4 / 4 / 44 / इत्यनेन) इट् // 46 // भूवष्टिभ्यः किंत' (171) इत्युणादिसूत्रेण 'अस, स च कित्' / 'रजनिः' इत्यत्र 'रजेः कित्'(६८१) लङ्गि-कम्प्योरुपतापा-ऽङ्गविकृत्योः / / 4 / 2 / 46 / / इत्युणादिसूत्रेण 'अनिः, स च कित्' / 'रजनम' म० वृ०-लङ्गिकम्प्योरुपान्त्यनस्य यथासङ्ख इत्यत्र 'तुदादिवृजिरजिनिधाभ्यः कित्' (273) इत्यु णादिसूत्रेण 'अनः, स च कित्' / 'रजतम्'. अत्र यमुपतापे अङ्गविकारे चार्थे क्ङिति प्रत्यये लुक्' च 'पृषिरजिसिकिकालावृभ्यः कित्' (208) इत्युस्यात् / विलगितः विकपितः। उपतापाङ्गविकृत्यो णादिसूत्रेण 'अतः, स च कित'। सर्वत्र 'नो व्यरिति किम् ? विलङ्गितः, विकम्पितः // 47 // अनस्यानुदितः' (4 / 2 / 45) इति नलोपः // 50 // अव०- लङ्गिकम्प्योरुदित्वात्पूर्वेणाप्राप्ते णौ मृगरमणे // 4 / 2 / 51 // लङ्गिकम्प्योरुपतापाङ्गविकृत्योः' इति वचनं कृतम् / उख नखेति दण्डकधातौ लगुधातुः / कपुङ चलने / म० वृ० - रब्जेरुपान्त्यनस्य णौ परे मृगाणां 'विलगितः', कोऽर्थः ? रोगादिना उपतापितः / रमणे, कोऽर्थः ? क्रीडाऽर्थे 'लुक्' स्यात् / रजयति 'विलङ्गितः', कोऽर्थः ? केनचिदङ्गन हीनः / 'विक- मृगान् व्याधः / मृगरमणे इति किम् ? रब्जयति म्पितः', कोऽर्थः ? मनसि कम्पितः, चित्ते भीत सभां नटः // 51 // इत्यर्थः, इति नाङ्गविकृतिः // 47 // ____ अव:-( एवं ) रञ्जयति रजको वस्त्रम् . भजेौं वा // 4 / 2 / 4 / / // 51 // म० वृ०-भजेरुपान्त्यस्य नस्य [नकारस्य] घत्रि भावकरणे // 4 / 2 / 52 // बौ परे 'लुग्वा' स्यात् / अभाजि, अभजि // 48 // ___ म० वृ०-रजेनस्य भावकरणार्थे घवि दंशसञ्चः शवि // 4246 // परे 'लुक्' स्यात् / रागः / घनीति किम् ? रजनम् / भावकरणे इति किम् ? रङ्गः // 52 // म० वृ०-अनयोरुपान्त्यस्य नस्य शवि परे 'लुक्' स्यात् / दशति, सजति // 46 // अव०-रजनं = रागः, रजत्यनेन वा इति रागः / रजत्यस्मिन्निति रङ्गः, 'भावाऽकोंः' ( // 3 // अकड-घिनोश्च रजेः / / 4 / 2 // 50 // 81 / इति) घम् // 52 // म० वृ०-रब्जेरकटि' घिनणि' शवि च स्यदो जवे // 5.2 // 53 // प्रत्यये परे उपान्त्यस्य नस्य 'लुक' स्यात् / रजकः, रागी, रजति / तथा "रजः, रजनिः, 'रजनम्, म० वृ०-'स्यदः' इति स्यन्देर्घत्रि 'नलोपो रजतमित्यौणादिकाः // 50 // वृद्धथभावश्च' निपात्यते, जवे = वेगार्थे / गोस्यदः, Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [ अ०४ पा० 2 सू० 54-57 अश्वस्थदः / जव इति किम् ? घृतस्यन्दः, तिलस्यन्दः / (5 / 3 ६४)इति बाधनार्थम् श्रवादिभ्यः क्तिः क्रियते / // 53 // हनपरतः 'सातिहेति०'इति यदि क्तिः, तदा 'हेतिः' इति प्रयोगो भवति, 'न हतिः'। आहत, आहथः'; दशना.ऽवोदधौद्म-प्रश्रथ-हिमश्रथम् / / 4 / 2 / 54 // हन् आङपूर्वः, अद्यतनी, त, थास, सिच, 'हनः म० वृ० =:एते शब्दाः कृतनलोपादयो निपा सिच' (4 / 3 / 38) इत्यनेन सिच कित्, 'यमि०' इति त्यन्ते' / 'दशनम्, अवोदः, एधः, ओद्मः, (प्रकृतसूत्रेण) हनो नस्य लुक्, 'धुडह्रस्वाल्लुगनिट स्तथोः' (4 / 3 / 70 ) इत्यनेन सिचो लुक् / 'मतः' "प्रश्रथः, 'हिमश्रथः // 54 // इत्यत्र मन्यते इति मतः, 'ज्ञानेच्छार्चाऽर्थः' इति अव०-'दश्यतेऽनेनेति दशनम्, करणा क्तः, मन् धातुः देवादिकोऽत्र, न तनादिसत्कः, मनोधारे' (5 / 3 / 126) इत्यनेन अनट् / प्रायेण अनट तिस्तनादिषु गृहीतः। यम्यते स्म = यतः, यच्छति स्म = प्रत्ययान्तः क्लीबः स्त्रीलिङ्गो वा / यदि च दन्तपर्यायः यतवान् / एवं रतः, रतवान् इत्यादिषु वाक्यानि . दशनशब्दः तदा पुल्लिङ्गत्वम् / तथावेदमत्वचि कार्याणि / “वतिः", अत्र 'वन पन भक्तौ' (इति) न्त्यम(?)। अवपूर्वः 'उन्दैप क्लेदने' (इति) उन्द्, वन्, क्तिः, न तिक, तिकि तु 'न तिकि दीर्घश्च' अबोदनम्, 'भावा०' (5 / 3 / 18 / इति) घञ्, गुणः, (4 / 2 / 56) इति निषेधो वक्ष्यते / वनधातोः क्तिप्रत्यअत्र गुणे कृते 'उपसर्गस्यानिणे०' (1 / 2 / 16) इति यस्यैव प्रयोगो दर्शितः, क्तौ न इट, क्तक्तवत्वोः इटअकारलोपः / 'बिइन्धैपि दीप्तौ' (इति) इन्ध, प्राप्तिः / तनादिः 'तनूयी विस्तारे' इत्यादिः सर्वोsघय / ४'ओमः', अत्र उन्देः परो मन् / "प्रपूर्वः पि ग्राह्यः, 'षणूथी दाने' इति वर्जयित्वा / तनादीश्रन्थ, हिमपूर्वः श्रन्थ, 'घ' / निपातनात् सर्वत्र नामिमे प्रयोगाः, ततः, ततवान् , तत्वा, ततिः, न लोपः दीर्घाभावश्च // 54 // तणूग, - क्षतः, क्षतवान् , क्षत्वा, क्षतिः; ऋणूयी, ऋतः, ऋतवान्, 'तृणूयी,-तृतः, तृतवान् घृणूयी,यमि-रमि-नमि-गमि-हनि-मनि वनति-तनादे- घृतः, घृतवान्ः 'वनूयि --वतः, वतवान्। मनृयि,धुटि क्लिति / 4. 2 // 55 // मतः, मतवान् / एषामिति किम् ? शान्तः, दान्तः / अवनतिरित्यत्र / २वनतितनादीनाम / / 55 // म० वृ०-एषां धुडादौ विङति प्रत्यये परे यपि // 4.256 / / 'अन्तस्य लुक' स्यात् / यतः, ( यत्वा ) यतिः; रतः, रत्वा, रतिः; नतः, नत्वा; गतः, गत्वा, गति:; हतः, म० वृ०-एषां धातूनां यपि (परे) 'अन्तस्य हत्वा, आहत; मतः, मत्वा, मति; वतिः, तनादि.- लुक्' स्यात् / वा मः (4 / 2 / 57) इति वक्ष्यमाणततः, ततिः इत्यादि / तिवगणनिर्देशाद्यङलुपि वचनान्नान्तानामेव धातूनामयं विधिः / प्रहत्य, २नाऽन्तलोपः-वंवान्तः, तंतान्तः / अन्येषां यमादी मन,-प्रमत्य, वन,-प्रवत्य, तन्,-प्रतत्य, प्रसनां यङलुप्यप्यन्तलोपः-यंयतः, रंरतः, नंनतः, त्य / यपीति किम ? हन्यते / / 56 / / जङ्गतः, जङ्घतः, मंमतः / धुटीति किम् ? यम्यते, अव०- 'नकारान्तधातूनामेव 'यपि' इति यंयम्यते // 55 // सूत्रं प्रवर्त्तते इत्यर्थः / २हन। प्रक्षत्येत्यादि अव०-(एव) यतवान्, रतवान्, नतवान्, नतिः, गतवान् हतवान् , हतिः, आहथः, मतवान् / वा मः // 4 / 2 / 58 // 'हतिः' इत्यत्र हननं हतिः, श्रवादिभ्यः' (5 / 3 / 62) म० वृ०- एषां मान्तानां[ = मकारान्तानाम्] इति सूत्रेण क्तिः / 'सातिहेतियूतिजूतिज्ञप्तिकीर्तिः' / 'अन्तस्य लुग वा' स्याद्, यपि / प्रयत्य, प्रयम्या Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमादीनामन्तस्य लुगादेविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम्। [61 विरत्य, विरग्यः प्रणत्य, प्रणम्य; आगत्य, आग- - नो हन्तिः, मंसीष्टेत्याशास्यमानो मन्तिः, वन्यादिम्य // 57 // त्याशास्यमानो वन्तिः, तन्यादित्याशास्यमानस्त न्तिः / सर्वत्र तिक्कृतौ नाम्नि' (5 / 1171) इति गमा क्वौ // 4 / 2 / 58 // सूत्रेण तिक / 'न तिकि ...."(दीर्घश्च)' इत्यनेना न्तलोपः प्रतिषिध ............. (यते, एवम) 'अहनम० वृ० - एषां गमादीनामन्तस्य पञ्चमस्य' (4 / 1 / 107) इत्यादिना प्राप्तोऽपि' ...... कौ विङति लुक' स्यात् / गम,-जनंगत्, संयम्, (दीर्घविधिः) प्रतिषिध्यते / / 56 // संयत् , वियत् ; मन्,-सुमत , सुवत् , परीतत् , सन् ,-सत् // 58 // - . आः खनि-सनि-जनः // 4 / 2 / 60 // अव०-“गमाम” इत्यत्र बहुवचनं प्रयोगा- म० वृ०-एषां धुडादौ विङति 'अन्तस्याकानुसरणार्थम् , तेन गमयममनवनतनादीनामेव रादेशः' स्यात् / [खायते खन्यते स्म वा ] खातः, पञ्चानां धातूनानन्तस्य लुग भवति / अत एव सूत्रा खातवान; [खननं] खातिः; सातः सातिः, जातः, थं यथादर्शनमित्यक्तम। यथादर्शनम', कोऽर्थः / जातवान, जातिः // 60 // बहुलम् / गमयममनवनतनादीनामेवोदाहरणानि वृत्तौ दर्शितानि सन्ति / एतेन 'गमाम्' इत्युक्ते 'यमि- ___ अव०-'पणूयी दाने' 'वन षन भक्तौ' द्वयोरमिनमिगमि०' (1 / 2 / 55) इति सूत्रोक्तगमादि- रपि ग्रहणम् / सन,-सायते स्म सन्यते स्म वा इति पाठो नानुसरणीयः / जनं गच्छतीति जनंगत, / सातः, सातवान् / 'सात्वा' इत्ययं प्रयोगः ‘षणयी किप / संयमनं = संयत्, 'क्रु संपदादिभ्यः विप' दाने' इत्यस्यैव, 'ऊदितो वा' (4 / 4 / 42) इति विक(५।३।११४) / एवं वियत् / परितनोतीति परीतत्, ल्पेन इटकरणात् / वन पन भक्तौ इति सनपरत किप / 'गतिकारकस्य नहि०' (3 / 2 / 85) इत्यादिना / इट / कृतत्ये च (?) .......... (क्ङितीत्येव-चंख'परि' इत्यस्य दीर्घः / सर्वत्र नलोपो भवति सर्व- | न्ति) संसन्ति, जंजन्ति // 60 // त्रापि वा ततिश्च (?) / कथम् 'अग्रेगू' ? औणादिकः, * यथा- अग्रे गच्छतीति अग्रेगूः, इत्यौणादिको डूः / सनि / 4 / 2 / 61 // गमां क्वौ इति प्रान्ते (?) / / 58 / / ... म० वृ०-खनादीनां धुडादौ सनि परतो उन्तस्यात्वम=[आकारदेशः स्यात। सिषासति / न तिकि दीपश्च / / 4 / 2 / 56 / खनिजनोरिटा भाव्यमिति धुडादिः सन न स्यात् / म० वृ०–एषां तिकि प्रत्यये 'लुग दीर्घश्व न' धुटीत्येव-सिसनिषति // 61 // भवति / यन्तिः, रन्तिः, नन्तिः, गन्तिः. हन्तिः, अव०-१इति हेतोः खनिजनोः प्रयोगौ अमन्तिः, वन्तिः, तन्तिः / एषामित्येव-शम्यादित्या दर्शितौ॥ 61 // शास्यमानः शान्तिर्जिनः // 56 // ये नवा // 4 / 2 / 62 // अव०-'एषाम', यमिरमिनमिगमिहनि(मनि, म० वृ०-खनादीनां ये क्ङिति 'अन्तस्यावनतितनादीनां सर्वेषाम् / 'यमू उपरमे' (इति) | त्वम[ = आकारादेशः] वा' स्यात् / खायते, खन्यते; यम्, यम्यादित्याशास्यमानो यन्तिः एवं रंसीष्ट इत्या- | चाखायते, चङ्खन्यते; सायते, सन्यते; सासायते, - शास्यमानो रन्तिः, नम्यादित्याशास्थमानो नन्तिः, - संसन्यते; जायते, जन्यते; प्रजाय, प्रजन्य; जाजायते, गम्यादित्याशास्यमानो गन्तिः, हन्यादित्याशास्यमा- | जंजन्यते / 'श्यप्रत्यये तु 'जा ज्ञाजनोऽत्यादौ' Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०४ पा०२ सू० 63-68 (4 / 2 / 104) इति नित्यं जादेशः-जायते। य' इत्य- / स्यात् / एवं ध्वावा अवावा घूरावा इत्यत्र गुणः कारान्तनिर्देशादिह नात्वम् [ = न आकारः]-सन्यात्, / स्यात् / विजायते ( इति ) विजावा। अग्रे गच्छति खन्यात् / अन्यथा 'यि' इति क्रियेत / / 62 / / | ( इति ) अग्रेगावा / 'घुण घूर्णत् भ्रमणे' ( इति ) घुण, घूर्ण, घुणतीति ध्वावा, घूर्णतीति घूरावा / अव०-'संसन्यते' इत्यस्यान्ते 'प्रसाय, प्रसत्य' 'औण अपनयने' ओणतीति अरावा / 'इवु व्याप्तौं' इति उभयोरपि भ्वादितनादिसनोः समानम् (रूपं (इति) इव, इवतीति यावा, 'मन्वनक्कनिविच ज्ञेयम)। "दिवादेः श्यः' (3 / 4 / 72 / इति श्यप्रत्यय कचित्' (5 / 1 / 147) इति वन / 'वन्याङ पञ्चमस्य' सम्बन्धिनि यकारे परत इत्यर्थः / / 62 // इति आकारः आङ च, सर्वत्र सिः, 'नि दीर्घः' तनः क्ये // 4 / 2 / 63 / / (1 / 4 / 85 / इत्यनेन दीर्घः ) / 'यावा' इत्यत्र 'थ्वोः प्व्यव्यञ्जने०' (4 / 4 / 121) इत्यनेन वलोपः, ततो म. वृ० -तनोऽन्तस्य क्ये परे 'आत्वं वा / नकारस्य आत्वम्, यावा इति सिद्धम् // 65 // स्यात् / तायते, तन्यते / / 63 // अपाञ्चायश्चिः क्तौ // 4 / 2 / 66 // तौ सनस्तिकि // 4 / 2 / 64 // म० वृ० -अपपूर्वस्य चायतेः क्ति प्रत्यये म० वृ०-सनः [सन्धातोः] तिकि प्रत्यये / 'चिरित्यादेशः' स्यात् / अपचितिः / / 66 // 'तौ = लुगाऽऽकारौ वा' भवतः / सतिः, सातिः, ह्लादो हृद् क्तयोश्च // 4 / 2 / 67 // सन्तिः // 64 / / ___म० वृ०-हादतेः क्तक्तवत्वोः क्तौ च हृद्' अव-तौ सनस्तिकि' इति सूत्रे 'षणूयी आदेशः स्यात् / हून्नः, हन्नवान, हृत्तिः // 67 // दाने, वन पन भक्तौ' इति द्वावपि धातू ग्राह्यौ। 'षणू' इत्यस्य वृत्तौ उदाहरणानि / 'वन षन' इत्य- अव०–रदादमूर्च्छमदः क्तयोर्दस्य च' स्य इमे प्रयोगाः-सतिः, सातिः, सान्तिः........... (4 / 2 / 66) इत्यनेन दकारतकारयोर्नकारः // 67 // ( सान्तिरि ) त्यत्र 'अहन्पञ्चमस्य' (4 1 / 107) इति दीर्घः // 64 // अल्वादेरेषां तो नोऽप्रः // 4 / 2 / 68 // वन्याङ् पञ्चमस्य / 4 / 2 / 6 / / ___ म० वृ०-धातुवर्जात् ऋकारान्ताद्धातोर्खा दिभ्यश्च परेषामेषां क्तिक्तक्तवतूनां तकारस्य म० वृ०-धातोः पञ्चमस्य वनि प्रत्यये परे / नकारादेशः' स्यात्। [तरणं = ]तीणिः, [तीयते स्म = ] 'आ आङ्' स्यात् / प्रविजावा, अग्रेगावा, घूरावा, | तीर्णः, तीर्णवान्। ल्वादि-[लवनं = ] लूनिः, [क्तिः] ध्वावा, अवावा. यावा। पुनराग्रहणम[=आकार- लूनः, लूनवान् ; धूनिः, धूनः, धूनवान् / अप्र इति ग्रहणं] ताविति नवेति च निवृत्त्यर्थम् // 6 // किम् ? पूर्तिः, पूर्तः, पूर्त्तवान् // 68 / अव० - 'वन्याङ् पञ्चमस्ये'-ति सूत्रे 'आङ' ___ अव०-इदम्, षष्ठी (बहुवचनस्य) आम्, 'आतुरः' इत्यत्र 'आश्चासौ आङ् च = आ आङ्' इत्येवमाका- (1 / 41) इत्यनेन मकारस्य अकारः, 'अवर्णस्यामः .. रान्तरप्रश्लेषात् अननुनासिकोऽनुनासिकश्वायम् आ साम्' (1 / 4 / 15) इत्यनेन साम्, 'अद् व्यञ्जने देशः / ङित्करणात ध्वावा इत्यादौ गुण- | (2 / 1135) अनेनाकारः, 'एद् बहुस्भोसि (1 / 4 / 4). निषेधः / अन्यथा आ इति 'अननुनासिक' एव / एकारः, 'नाम्यन्तस्था०' (203 / 15) इत्यनेन षत्वम् / Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक्तवत्वोस्तस्य नत्वविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [63 क्रयादिधातुमध्येऽन्तर्गणो 'लू आच्छेदने' [? लूगश् / 'ओविजैति भयचलनयोः' / एभ्य इति किम ? छेदने] इत्यादिधातवः 21 ल्वादिगणः / ल्वादि- पीतः // 7 // मध्ये ये ऋकारान्ताः स्तवप्रभृतयो धातवः तेषामकारान्तग्रहणेनैव तकारादेशे सिद्धेऽपि, तत्र अव० - 'सूयति' ( इति ) दिवादिनिर्देशात् पाठः प्वादिगणकार्यार्थः // 6 // सूतिसुवत्योर्नत्वं न भवति। ओत् - ओकार इत् = अनुबन्धो येषां ते ओदितः / दिवादिधातुमध्ये रदादमूछ-मदः क्तयोदस्य च / / 4 / 2 / 66 / / 'पूडौच् प्राणिप्रसवे' इत्यादयो 'बाङ्च् वरणे' इति पर्यन्ता वृत् स्वादिः इति संज्ञाप्रसिद्धाः, तेषामिमे ___म० वृ०-मूछिमदिवर्जितात् रेफदकारान्ता- प्रयोगाः-सूनः, सूनवान; 'दङच परितापे' दनः, द्धातोः परयोः क्तक्तवत्वो—'स्तकारस्य तत्संयोगे दूनवान; 'धींच् अनादरे धीनः, धीनवान; 'दींच धातुदकारस्य च नकारादेशः' स्यात् ।['पूरैचि आप्या क्षये' दीनः, दीनवान; 'मींच् हिंसायाम्' मीनः, यने'] पूर्णः, पूर्णवान; भिन्नः, भिन्नवान, छिन्नः, मीनवान्, 'रोंच श्रवणे' रीणः रीणवान; 'लींचछिन्नवान् / अमूर्च्छमद इति किम् ? मूर्तः, मूर्त श्लेषणे' लीनः, लीनवान; 'डीङ्च गतौ डीन:, डीनवान; मत्तः, मत्तवान् / क्तयोरिति किम् ? चूर्तिः, वान; उड्डीनः; 'श्रींच वरणे' वीणः, त्रीणवान, / भित्ति / कथं चूर्णिः ? औणादिको णिः / कथं लग्नः, लग्नवान इत्यत्र 'ओलजैङ् ओलस्जैति ब्रीडे'। x चीर्णिः ? औणादिको णिः। एवं कथम् आचीर्णः लज् लस्ज वा लज्यते स्म ( इति ) 'क्तक्तवतू', 'संआचीर्णवान ? (च इति धात्वन्तरं चरति समा योगस्यादौ स्कोलुक' (2 / 188 ) इत्यनेन 'लस्ज' नार्थ तक्तवतुविषयमामनन्ति ) // 66 // इत्यत्र सकारलोपः, 'चजः कगम्' (2 / 1 / 86 / इति) जस्य गः / ततः 'सूयत्या०' (इत्यनेन) तस्य नकारः / - अव०-'मूर्तः', 'मूर्छा मोहसमुच्छाययोः' मू- 'पीनः', 'स्फायैङ ओप्यायै वृद्धौ' इति प्याय, 'गत्यपर्जयते स्म (इति) तक्तवतू'(५११११७४ / इति क्तः,) र्थ' (5 / 1 / 11 ) इति क्तः, 'क्तयोरनुपसर्गस्य' 'राल्लुक' (4 / 1 / 110) इत्यनेन छलोपः, 'भ्वादेर्ना- (4 / 1 / 62) इति 'पीः' आदेशः, ततो नत्वम् / 'शूनः', मिनो०' (2 / 1 / 63) इति दीर्घः / 'चूर्णिः', अत्र अत्र 'ट्वोश्वि गतिवृद्धयोः' (इति) श्वि, 'यजादिव• चूरैचि दाहे' (इति) चूर, चूरतीति चूर्णिः, 'कावा- चे० (4 / 1 / 76 / इति ) य्वृत्, 'दीर्घमवोऽन्त्यम्' वीक्रीश्रिश्र धुज्वरितूरिचूरिपूरिभ्यो णिः' (उणा० (4 / 1 / 103 / इति) ऊः, ततो नत्वम् / 'वृक्णः ', 634) इति णिः / रदात्तस्येति किम्? वरितम्, वर- 'ओत्रश्चौत छेदने (इति व्रश्च,क्तः,संयोग०' (2 / 1 / 88 णम् (इति) वाकयम्, मोदनं = मुदितम् / “क्लीबे इति) सलोपः, 'चजः कगम्' 2 / 1 / 86 / इति) कः, क्तः” ( 5 / 3 / 123 / इति क्तः) / अत्र इटा व्यवधानं ततो नत्वम, 'रघुवर्णा०' ( 2 / 3 / 63 ) इति नस्य तकारस्येति न नत्वम् / / 66 / / गत्वम् / / 70 // ... सूयत्याद्योदितः / / 4 / 2 / 70 // व्यञ्जनान्तस्थातोऽख्या-ध्यः // 4 / 2 / 71 // म० वृ०-सूयत्यादिभ्यो नवभ्यो धातुभ्य / म० वृ०-ख्याध्यावर्जितस्य धातोर्यद् व्यञ्जनम्, ओकारान्तेभ्यश्च 'क्तयोः' 'तकारस्य नकारादेशः' तस्मात् परा या अन्तस्था, तस्याः परो य आकारः, स्यात् / सूनः, सूनवान; दूनः, दीनः, धीनः, ओदित- तस्मात्परस्य क्तयोस्तस्य नः [तकारस्य नकारः] स्यात् / लमः, . लग्नवान, पीनः, शूनः, वृक्णः, उद्विग्नः, / [ष्ट्रय स्त्य संघाते'] स्त्यानः, स्त्यानवान्; निद्राणः, xऋतूटसृवृषिभ्यः कित (उणा० 635) इत्यनेन चूधातोः कित:णिः / Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 4 पा० 2 सू० 72-76 / निद्राणवान; ग्लानः, ग्लानवान / व्यञ्जनेति किम ? क्षेः क्षी चाध्यार्थे / 4 / 2 / 74 // यातः / अन्तस्थेति किम ? स्नातः / आत इति किम ? च्युतः, (च्युतवान;) द्रुतः, द्रतवानः प्लुतः म. वृ० - ध्यणर्थो भावकर्मणी, ततोऽन्यप्लुतवान् / अख्याध्य इति किम् ? ख्यातः, ध्यातः / / स्मिन् कर्नाद्यर्थे विहितयोः "क्तयोतकारस्य क्षिआतः परस्येति किम ? दरिद्रितः, दरिद्रितवान; धातोः परस्य नः' स्यात, तद्योगे च क्षेः क्षी इत्यादेशः / अत्र इटा व्यवधानम / / 71 // कतरि-क्षीणः मैत्रः, अधिकरणे,- इदमेषां क्षी णम / अध्यार्थ इति किम् ? 'क्षितमस्य / / 74 / / पू-दिव्यञ्चेनांशा-ऽद्यूताऽनपादाने / 4 / 2 / 72 / / अव०-'क्षयति स्म, 'गत्यर्थः' (5 / 1 / 11 / म० वृ० - पूदिवञ्चेभ्यो यथासङ्घय नाशे, इति) क्तः / एवं क्षीणवान / क्षयणं = क्षितम, अद्यूते अनपादाने चार्थे क्तयोस्तस्य' नः स्यात् / भावे क्तः / / 74 // पूना यवाः, विनष्टा इत्यर्थः। आयूनः / समनौ पक्षौ / वा-ऽऽक्रोश देन्ये / / 4 / 2 / 7 / / नाशाद्यूतादीति किम ? पूतं धान्यम, यूतं वर्तते, उदक्तमुदकं कूपात् / कथं व्यक्तम् ? अञ्जर्भवि ___म० वृ०-आक्रोशे दैन्ये च गम्यमानेऽध्यार्थे ष्यति // 72 // क्षेः परस्य 'क्तयोस्तस्य नो वा' स्यात्, क्षेः क्षीश्च / क्षीणायुः, क्षितायुः जाल्मः; क्षीणकः, क्षितकस्तपअव०-'अनपादाने', कोऽर्थः ? अञ्चिवाच्या स्वी। अध्यार्थ इत्येव-क्षितं. जाल्मस्य, क्षितं तपक्रिया यदि अपादानकारकसाधिका न भवतीत्यर्थः / स्विनः / / 75 // . व्यावृत्त्युदाहरणे 'कूपात्' इति अपादानविषया अचिरस्ति / 'तकारस्य / २शकुनेः पक्षिणः पक्षौ अव० --- 'अनुकम्पा तद्युक्तनीत्योः०' (7 / 3 / 34) इति (कप) // 75 // सङ्गतौ इत्यर्थः // 72 // . सेनासे कर्मकत्तरि // 4 / 273 // ऋ-ही-घ्रा-धा-त्रोन्द-नुद-विन्तेर्वा // 4 / 2 / 76 / / ___म० वृ० एभ्यः 'क्तयोस्तस्य नो वा' स्यात् / म० वृ०-सिधातोः परस्य क्तयोस्तस्य[=तका- | ऋणम्. ऋतम्; ह्रीणः, ह्रीतः; वाणः, व्रातः; ध्राणः, रस्य] ग्रासे कर्मणि कर्तृत्वेन विवक्षिते सति नः ध्रातः; त्राणः, त्रातः; उन्द-, समुन्नः, समुत्तः, नुद्,(नकार:) स्यात् / सिनो ग्रासः स्वयमेव / ग्रास इति नुन्नः, नुत्तः, विदिप,-विन्न , विन्नवान, वित्तः, किम् ? सितं कर्म स्वयमेव / कर्मकर्तरीति किम् ? (वित्तवान्) / व्यवस्थितविभाषेयम् / तेन ऋणमिति सितो ग्रासो मैत्रेण, सितो गलो ग्रासेन // 73 // 'उत्तमर्णाधमणयोरेव', अन्यत्र ऋतं सत्यम् / त्राय तेस्त संज्ञायां न नत्वं-त्रातः, देवत्रातः; अन्यत्र तु __ अव०–सिनोते' सिनातेर्वा द्वयस्यापि सिनः / नत्वमेव-त्राणम् // 76 // 'सिन' इत्यत्र 'पिंगट बन्धने' इति स्वादिः, पिंगश बन्धने इति क्रयादिः, 'षः सोऽष्ट्रयैष्ठिवष्वष्कः' - अव० (एवं) ह्रीणवान, ह्रीतवान्; घ्राण(२।३।६८। इति सः) सिनोति सिनाति वा ग्रासं वान् , नातवान; ध्राणवान, धातवान; त्राणवान, मैत्रः, स एवं विवक्षिते (? विवक्षति) नाहं प्रासं त्रातवान; समुन्नवान, समुत्तवान; नुन्नवान्, नुत्तसिनामि सिनोमि स्म, अपि तु सितो ग्रासः स्वय- वान् / 'विन्तेः' इत्यत्र ननिर्देशात् विदिप विचारणे' मेव / एवं सितं कर्म स्वयमेवेत्यस्य वाक्यम् // 73 // इत्यस्य विकल्पेन क्ततकारस्य नकारः / विदिच Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्तक्तवत्वोस्तस्य नत्वादिविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / सत्तायाम' इति दिवादेः, 'विद्लती लाभे' इति अनुपसर्गाः क्षीयोल्लाघ कृश-परिकशतुदादेः नित्यं नकारः-विन्नः, विन्नवान / तथा ऋहीभ्यां नत्वेऽप्राप्ते घ्रादिभ्यस्तु नत्वे प्राप्ते सर्वत्र फुल्लोत्फुल्ल-सम्फुल्लाः / / 4.280 / / विकल्पः / परं दकारान्तानां दकारस्यापि 'रदाद०' म० वृ०-'अनुपसर्गाः तान्ता एते शब्दा (4 / 2 / 66) इत्यनेन नकारः / तकारस्य नकाराभाव निपात्यन्ते' / क्षीबः, उल्लाघः, कृशः, परिकृशः, फुल्लः, पक्षे च सन्नियोगशिष्टत्वाद्दकारस्यापि नकारो न उत्फुल्लः, सम्फुल्लः / अनुपसर्गा इति किम् ? प्रक्षीभवति इति भावः // 76 // बितः / 'निपातनस्येष्टविषयत्वात् 'फल निष्पत्तौ' (इत्यस्य) फलितः, फलितवान / कथं प्रक्षीवः ? दुगोरू च // 42177 // प्रादिसमासाद्भविष्यति // 8 // म० वृ०-दुगुभ्यां परस्य 'क्तयोस्तस्य नः[ = ____ अवल-क्षीवङ महे' उत्पूर्वो 'लावृङ् सामनकारादेशः]' स्यात्तद्योगे . 'दुगोरूकारश्चान्तादेशः' / ये' 'कृशच तनुत्वे केवलः परिपूर्वश्च, एभ्यः परदूनः, दूनवान, गूनः / / 77 // स्य क्ततकारस्य निपातनात् लोपः, अकारस्तिष्ठति, इडभावश्च / तथा 'दल त्रिफला विशरणे' केवलः, _ अव... 'टुटुट उपतापे'। ' उङ कुङ गुङ् उत्पूर्वः समपूर्वश्च / 'फुल्ल' इत्यत्र फल, फलतीति घुङ कुङ शब्दे" (इति) गु, 'तक्तवतू' (5 / 1 / 174 / फुल्लः; ज्ञानेच्छा० (5 / 2 / 62) इत्यनेन क्तः, इति क्तः, एवं ) गूनवान / / 77 // अथवा एवमपि फुल्लः साध्यते- फलितुमारब्धः(इति) 'गत्यर्थः' (5 / 1 / 11) इति क्तः, अथवा 'आरम्भे' ...क्षै-शुषि-पचो-म-क-वम् // 4 / 21 8 // (5 / 1 / 10) इत्यनेन क्तः / 'ति चोपान्त्यातोऽनोदा' (4 / 1 / 54) इत्यनेन फल उपान्त्याकारस्य उकारः, म० वृ०-शुपिपचिभ्यः परस्य 'क्तयोस्तस्य निपातनात तकारस्य लकारः इडभावश्च; एवमुकुल्ला, यथासङ्घय 'म, क, व' इत्यादेशा' भवन्ति / क्षामः, सम्फुल्ल इत्यपि / केचित् तीववान, उल्लाघवान, कृशक्षामवानः; शुष्कः, शुष्कवान् पक्वः, पक्ववान् वान, परिकृशवान, पुल्लवान, उत्फुल्लवान, सम्फुल्ल॥७८ // वान् इति क्तवतुप्रत्ययेऽपि रूपमिच्छन्ति / तदर्थ क्तान्ता इत्युक्तौ क्तक्तवन्निपातनं द्रष्टव्यम, एतदर्थ निर्वाणमवाते // 4 / 2 / 76 // सूत्रे बहुवचनम्। 'उपलक्षणत्वात् 'पल फल शल म. वृ०–निर्वाणमिति निरपूर्वाद्वाधातोः पर गतौ' इत्यस्यापि फलितः, फलितवान् / क्षीबादयः स्य 'क्ततस्य नो [नकारः)' निपात्यते, अवाते कर्तरि = शब्दाः सर्वे कप्रत्ययेन अचप्रत्ययेनापि सिध्यन्ति, निर्वातिक्रियायाश्चेद्वातः कर्त्ता न स्यात् / निर्वाणो परं क्षीबित' इत्यादिरूपप्रतिषेधार्थम् 'अनुपसर्गाः०' मुनिः, निर्वाणो दीपः / अवात इति किम् ? निर्वातो इति सूत्रं कृतम् / प्रगतः क्षीबः प्रक्षीब इति वातः / तथा 'निर्वाणः प्रदीपो वातेन' इत्यत्र प्रदीपः समासः // 80 // कर्ता, वातस्तु हेतुः करणं वेति न निषेधः // 7 // भित्तं शकलम् / / 4 / 2 81 / / __ अव०–'वांक गतिगन्धनयोः' निर्वाति स्म म० वृ० -भिदेः परस्य 'क्तस्य नत्वं' न निपात्यते, (इति) 'गत्यर्थः' (5 / 1 / 11) इति क्तः, 'स्वरात्' | शकलपर्यायश्चेद् भित्तशब्दः / भित्तं शकलम्, (2 / 3 / 85) इत्यनेन णत्वम् // 7 // खण्डमित्यर्थः / शकलमिति किम् ? भिन्नम् // 1 // Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 4 पा० 2 सू० 82-87 वित्तं धन-प्रतीतम् / / 4 / 2 / 82 // 'अतः प्रत्ययाल्लुक / / 4 / 2 / 85 / म० वृ०–विन्दतेः परस्य 'क्तस्य नत्वाभावो' म०७०-धातोः परो योऽकारान्तः प्रत्ययनिपात्यते / धनपर्यायः प्रतीतपर्यायश्च चेत्तद्वित्त- / स्तस्मात्परस्य 'हेलुक' स्यात् / पठ, दीव्य, तुद,.. शब्दः / वित्तं = धनम, वित्तः = प्रतीतः / चोरय / प्रत्ययादिति किम् ? पापहि / 85 // धनप्रतीतमिति किम ? विन्नः, वेत्तेर्विदितम्, विन्तेर्विन्न वित्तं च, विद्यतेर्विन्नम् / / 82 // __ अव०-१अकारान्तात् / 'अयि वयि पयि मयि नयि चयि रयि गतौ (इति) पय, भृशं पयते (इति) अव०–'विद्लती लाभे' इति तुदादे यङ, द्वित्वम्, 'बहुलं लुप् (3 / 4 / 14 / इति) यङ्रेव वित्तं प्रयोगः, नान्येषाम् / 'विद्लती लाभे' - लोपः, अथ 'थ्वोः प्व्यव्यञ्जने' (४।४।१२१॥इति) विद्यते लभ्यते इति वित्तं - धनम; विद्यते = उपल य लुप्यते / (एवं वावहि)॥८५॥ . भ्यतेऽसौ इति वित्तः प्रतीतः / ५'विदंक ज्ञाने। असंयोगादोः / / 4 286 / / २विदिप विचारणे' / 'विदिच सत्तायाम्' / / 82 // म० वृ०-असंयोगात्परो य उकारस्तदन्ताहु-धुटो हेधिः // 4 / 2 / 83 // त्प्रत्ययात् 'हेलुक' स्यात् / सनु, तनु, कुरु / असंयोम० वृ०-जुहोतेधु डन्ताच्च धातोः परस्य 'हे गादिति किम् ? अणुहि // 86 // धिरादेशः' स्यात् / जुहुधि, धुट,-भिन्द्धि छिन्द्धि, ____ अव० 'अणुहि', 'ऋणूयी गतौ' 'कृगतनादेरुः विन्द्धि / हुधुट इति किम् ? क्रीणीहि / हृधुडभ्यां परस्य हेर्विशेषणादिह न धिः-रुदिहि // 3 // (३।४।८।इत्युप्रत्ययः), 'उन्नोः' (4.3 / 2), गुणः अर / प्रत्ययादित्येव - युहि, रुहि। 'एवम् 'आप्नुहि' इत्याद्यपि ज्ञेयम् // 86 // अव०–'जुहुतात्त्वम्, भित्तात्त्वम्' इत्यत्र नित्यत्वात् प्रकृत्यनपेक्षणेन अन्तरङ्गत्वात् च हेः वम्यविति वा // 4 / 2187 // स्थाने 'तातङ्', तस्य तातङो न पुनर्धिः, हेरिति शब्दाश्रयणात् / / 83 // म० वृ०–'असंयोगात्परो य उकारस्तस्य प्र त्ययसम्बन्धिनो लुग्वा' स्यात्, वकारादौ मकारादौ *शासस-हनः शाध्येधि-जहि / / 4 / 2 / 84 / / चाविति प्रत्यये परे / सुन्वः, सुनुवःसुन्मः, सुनुमः; तन्वः, तनुवः, तन्मः, तनुमः / अवितीति किम् ? म०वृक-शाससहनां हिप्रत्ययान्तानां यथा- सुनोमि, तनोमि / असंयोगादित्येव-अण्णवः, . सङ्खयशाधि, एधि, जहि (इति) आदेशाः' स्युः / आप्नुवः / / 87 // शाधि, एधि; जहि // 84 // ___ अव०-पूर्वसूत्रे 'उ' इति पञ्चम्यन्तमपि अव०-शासहनोर्यलुप्यपि 'शाधि, जहि' - "अर्थवशाद्विभक्तिपरिणामः” इति न्यायात् षष्ठय, इत्येव प्रयोगः / हनेस्तु यङलुपि नेच्छन्त्यन्ये, तन्म- | ततया विपरिणम्यते, तत्र उकारस्य लुक् इति व्या ते-'जङ्गहि' इति प्रयोगः / अस्तेस्तु स्वरादिधातुत्वात् ख्यातम, उकारस्य लुक स्यादिति सम्बन्धः / व इत्यङ न भवति इति भावः // 24 // अनुबन्धो येषां तिवसिवमिवित्यादीनां ते वितः. # शासहनसाहचर्याद असिति 'आदादिकस्य' ग्रहणम् / Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनः पुसादेशः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम्। [ 7 न विद्यते वित् यस्य वस मस् इत्यादेः (सोऽवित्), I अव०–'श्नास्त्योलक' इत्यत्र 'अतः' इति वा तस्मिन् / सुन्वहे, सुनुवहे; सुन्महे, सुनुमहे | अधिकारो न स्यात्, तदा 'षष्ठयान्त्यस्य' (7 / 4 / 106) इत्यपि / तन्वहे, तनुवहे; तन्महे, तनुमहे / प्रत्यय- | | इति सूत्रबलाद् ( अस्तेः ) अन्त्यसकारस्यैव लुक् स्येत्येव-युवः, युमः। 'असंयोगात् इति उकारस्य स्यात् * इति सूत्रार्थे अकारस्येति अधिकार कृतः / विशेषणात् 'आप्नुमः' इत्यत्रापि लुक् न भवती- | 'अस्ती'- त्यत्र तिन्निर्देशात् दिवादेरस्यतेन लुक् त्यर्थः // 87 // // 10 // कृगो पि च / / 4 / 2 / 88 // वा द्विषा-ऽऽतोऽनः पुस्' // 4 / 2 / 61 // म० वृ० - कृगः परस्य 'उकारस्य यकारादौ म०७०-द्विष आकारान्ताच्च धातोः परस्य वमि चाविति परे लुक' स्यात् / कुर्यात्, कुर्याताम, | 'शितोऽवितोऽनः स्थाने पुस्' इत्यादेशो वा स्यात् / फुयुः, कुर्वः, कुर्मः; कुर्वहे, कुर्महे। अवितीत्येव- अद्विषुः, अद्विषन; अयुः, अयान अरुः, अरान् / / 61 // करोमि // 8 // अव० - 'पकारः 'पुस्पौ' (4 / 3 / 3) इत्यत्र अतः शित्युत् / / 4 / 2 / 86 // विशेषणार्थः / 'वा द्विषातोऽनः पुस्' इत्यनेन ह्यस्त न्या अनः स्थाने पुस् क्रियते, 'सिज्विदोभुवः' म० वृ०-शिति अविति परे य उकारस्त (4 / 2 / 62) इत्यनेन अद्यतन्या अनः स्थाने पुस् / निमितो यः कृगोऽकारस्तस्य 'अकारस्य उकारः' 'व्युक्तजक्षपञ्चतः (4 / 2 / 63) इत्यनेनापि हस्तन्या स्यात् / कुरु, कुरुतः, कुर्वन्ति, कुर्यात्, कुरुताम्, | अनः स्थाने पुस् // 11 // कुर्वन्, कुर्वाणः / / 86 // सिविदोऽभुवः // 42 // 2 // - अव०-"कुर्वन्, कुर्वाण" इत्यत्र उकारकरण ___म० वृ०-सिचः प्रत्ययात् विदश्च धातोः परबलान्न गुण ओकारः, अन्यथा 'ओकार' एव कुर्यात् / तथा 'उकारनिमित्तत्वेन' अकारविज्ञानात् स्य 'अनः स्थाने पुस्' स्यात्, भुवः परः सिच् चेन्न कुर्यादित्यादौ उकारलोपेऽपि, अकारस्य उत् भव स्यात् / सिचः परात्,--अकार्षः, 'अगुः, अदुः, त्येव / तथा शित्यवितीति उकारविशेषणं किम् ? अधुः, विद्,-अविदुः / अभुव इति किम् ? अभू'कुरुत' इत्यादौ शिति व्यवहिते उत्वं यथा स्यात् वन् // 12 // ||8|| ____ अव०-१"इडेत्पुसि चातो लुक्' (4 / 3 / 64) श्ना-ऽस्त्योलुक् / / 4 / 2 / 60 // इति आकारस्य लुग् / अत्र पूर्वगुणः, अव, पश्चात् 'भुवो वः०' (4 / 2 / 43) इति ऊव // 12 // - म० वृ०-प्रत्ययस्यास्तेश्च सम्बन्धिनोऽकारस्य शित्यविति परे लुक्' स्यात् / रुन्धः, रुन्धन्ति, 'द्वय क्त-जक्षपञ्चतः // 4 / 2 / 63 // रुन्ध्यात्, रुन्धानः; स्तः, सन्ति, स्थः, स्वः, स्मः, स्यात्, स्तात्, सन् / अवितीत्येव- रुणद्धि, अस्ति / म० वृ०-कृतद्वित्वधातोः [ = कृतद्विवचन अत इत्येव- आस्ताम्, आसन // 10 // धातोः परतः जक्षपञ्चकाच परस्य 'शितोऽवितोऽनः लघोरुपान्त्यस्य' (41314) इत्यनेन प्राप्तः / *श्नस्य तु 'प्रत्ययस्य' इति परिभाषया सर्वस्यापिलक स्यात। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०४ पा०२ सू०६४-६७ स्थाने पुस्' स्यात् / द्विर्वचनधातुः,-अजुहवुः, अबि- | . शौ वा // 4 / 2 / 15 // भयुः, अददुः, अदधुः / जक्षादि,-अजतुः, अदरि- | द्रुः, अजागरुः, अचकासुः, अशासुः // 63 // म० वृ०-'व्युक्तजक्षपञ्चतः परस्यान्तो न कारस्य शिप्रत्यये वा लुक्' स्यात् / ददति, ददन्ति; अव०-द्वे उक्त यस्य = सव्युक्तः / “पञ्चत्', दधति, दधन्ति; जक्षति, जक्षन्ति कुलानीत्यादि / पञ्चानां वर्गः = पञ्चत्, ‘पञ्चदशद्वर्गे वा' शाविति किम् ? ददती कुले // 65 // (6 / 4 / 175) इति सूत्रेण पञ्चत् निपातः; जक्षाणां पन्चत् (=जक्षपञ्चत्), तस्मात् जक्षपञ्चतः / ___ अव०–'ददति' इत्यादिषु सर्वत्र पूर्व शत, "अजुहवुः, अबिभयुः, अजागरुः” अत्र 'पुस्पौ' | पश्चात् जस, शस् वा, 'नपुसकस्य शिः' (1 / 4 / 55) (4 / 3 / 3) इत्यनेन गुणः / "जक्षक भक्षहसनयोः, / इति सूत्रेण जसशसस्थाने 'शिः' आदेशः / 'जक्षति, दरिद्राक् दुर्गती, जागृक् निद्राक्षये, चकासृक् दीप्तौ, जक्षन्ति'; आदिशब्दात् दरिद्रति, दरिद्रन्ति; जापति, शासूक अनुशिष्टौ” इति जक्षपञ्चकम् // 63 // जाप्रन्ति; चकासति, चकासन्ति; शासति, शासन्ति. कुलानि / एषु सर्वत्र पूर्व धातोः परः शत. पश्चात् अन्तो नो लुक / 4 / 2 / 64 // जस् शस् वा, नपुसकस्य शिः(१।४।५५॥ इति जस् शसस्थाने 'शिः' आदेशः)॥६५॥ म० वृ०-व्युक्तजक्षपञ्चकात्परस्य शितोऽवितोऽन्तः सम्बन्धिनो नकारस्य लुक स्यात् / अन्ति, श्नश्चा-ऽऽतः॥४।२।१६॥ ददति, अन्तु,-ददतु, शत, ददत्, ङी-औ,-ददती स्त्री कुले वा, जक्षति इत्यादि // 14 // म० वृ०-व्युक्तजक्षपञ्चतः श्नासम्बन्धिन- : श्वाकारस्य लुक' स्यात्, शित्यविति परे। मिमते, अव०-'ददति' इत्यत्र जुह्वति, जुह्वतु, शत- अमिमत; दरिद्रति, श्ना,-क्रीलन्ति, लुनते, पुनजुह्वत् इत्यपि ज्ञातव्यम्, एषु 'ह्विणोरपविति व्यौ' ताम्, अपुनत / आत इति किम् ? बिभ्रति / अवि(४।३।१५): इत्यनेन धातोः उकारस्य 'व्' इति तीत्येव -अक्रीणाम् // 66 // क्रियते / 'ददती स्त्री', डी, / 'ददती कुले', औ, औरीः(१।४।५६।इति) ईः / 'ददती'इत्यत्र 'अवर्णा - अव०-'व्युक्तजक्षपञ्चकसम्बन्धिन आकादश्नोऽन्तो० (2 / 1 / 115) इति (सूत्रस्य) वृत्तौ इत्यु- रस्य इत्यर्थः / 'अमिमत' इत्यस्याने यायति, यायतु, क्तं यद्,-'ददती' इत्यत्र 'अवर्णा'-दिति विशेषणात् संजिहते, समजिहत इत्यपि। (एवं) क्रीणन्तु, लुन भश्न' इति प्रतिषेधाच्च 'भश्चातः' (4 / 2 / 66) इति ताम्, अलुनत, लुनन्ति; एवं पुनन्ति // 16 // 'समानानां तेन' (श२।१) इति लोपदीर्घाभ्यां पूर्वमेव 'अवर्णादश्नोऽन्तो०' इति एषामीळजनेऽदः / 4 / 2 / 67 // सूत्रेण अत्रस्थाने अन्त् आदेशः। यदि वा परत्वात् म० ०-'एषां व्युक्तजक्षपञ्चत्नामाकार'श्नश्चात' (4 / 2 / 66) इत्यनेनावश्यमाकारलोपः स्व शित्यविति व्यञ्जनादौ परे 'ई:' स्यात्, दासंझं तदा भूतपूर्वतया पश्चात् अन्तादेशः क्रियते। कृते वर्जयित्वा / मिमीते', लुनीतः, लुनीहि / व्यञ्जन चान्तादेशे 'अन्तो नो लुक' इत्यनेन अन्तो नकारस्य इति किम् ? मिमते / अद इति किम् ? दत्तः, लुक कार्यः / (एवम्) जक्षति, जक्षतु, जक्षत्; दरि धत्तः, दद्वः, दद्मः, दद्यात् / / 67 // द्रति, दरिद्रतु, दरिद्रती स्त्री कुले वा; जाग्रति, जाग्रतु, जाप्रत्। चकासति, चकासतु, चकासत् अव०-दासंज्ञकानामित्ववर्जनात् दांवर्दैवोन शासति, शासतु; शासत् // 64 / / दासंज्ञा इति दांवर्दैवीर्यङ्लुपि कृतेऽपि ईत्वं भवति। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरिद्रादिधातूनामाकारादेरित्वादिविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [o 'एषामीयंजनेऽदः' इति सूत्रेण 'दादीतः, दादीथ' | अभ्यासे दीर्घनिषेधः / योगविभाग उत्तरार्थः / एवं इत्यादि / (एवं) मिमीताम्, अमिमीत, अत्र 'पृभृ- - जहिवः, जहीवः; जहिमः, जहीमः // 10 // माहाङामिः' (4 / 158 ) इत्यनेन पूर्वस्य इ. / "श्नश्चातः' (4 / 2 / 66) इति आकारलोपः सर्वत्र / आ च हो // 4 2 / 101 // // 7 // म० वृ० - 'जहातेयुक्तस्य हौ परे आत् इच्च[ = इर्दरिद्रः // 4 / 268 // आकार इकारश्च] वा' स्यात्। जहाहि, जहिहि, जहीहि / / 101 // म० वृ०-'दरिद्रातरातः[ = आकारस्य] इत[ = इकारः] स्यात् व्यञ्जनादौ शित्यविति / दरिद्रितः, अव०-'आ च हौ' इति सूत्रे अवितीति दरिद्रिवः, दरिद्रियात् / व्यञ्जन इत्येव- दरिद्रति, निवृत्तम्, वितोऽसम्भवात् ; हिविभक्तिमेवाश्रित्य (अत्र) अन्ति, 'श्नश्चातः' (4 / 2 / 66 इत्यातो लुक्,) सूत्रप्रवृत्तेः / 'शिति' इत्यनुवर्तते / / 101 / / 'अन्तो नो' (4 / 2 / 64 / इति नो लुक)। अविती यि लुक् / / 4 / 2 / 102 // त्येव-दरिद्राति // 6 // म० वृ०-यकारादौ शिति परे 'जहातेरन्तस्य भियो नवा // 4 / 2 / 66 // लुक्' स्यात् / जह्यात् // 102 // म० वृ०-'बिभेतेरन्तस्य इत्वं वा' स्यात्, अव०-'यि लुक्' इति सूत्रे नवेति निवृत्तम् / व्यञ्जनादौ शित्यविति / बिभितः, बिभीतः व्य- | पूर्वसूत्रेषु इकाराधिकारे नवा इत्यधिकृतः, इह तु जन इत्येव-बिभ्यति / शितीत्येव-बिभीषति, | "यि लुक्' सूत्रे लुक् विधीयतेऽतो नवाऽधिकारो बेभीयते / अवितीत्येव-बिभेति // 6 // निवृत्तः / / 102 // अव०-(एवं) बिभियात् बिभीयात्; तथा ओतः श्ये // 4 / 2 / 103 // . . यङलुपि बेभितः, बेभीतः // 66 / म० वृ०-'धातोरोकारस्य श्ये परे लुक' हाकः // 4 / 2 / 100 // स्यात् ['दों छोंच् छेदने']अवद्यति, ['षोंच् अन्तकर्म णि']अवस्यति / श्य इति किम् ? 'गवति / / 103 / / 0 वृ०-'जहातेयुक्तस्य शित्यविति व्यञ्जनादावन्त्यस्य इत् वा' स्यात् / जहितः, जहीत:' / ___ अव०-गौरिवाचरति = गवति, कतः क्विप व्यञ्जन इत्येव-जहति / शितीत्येव-जिहासति, जेही- गल्भक्लीबहोडात्तु ङित्' (3 / 4 / 25) इत्यनेन विप, यते / अवितीत्येव-जहाति // 100 / / 'अप्रयोगीत्' (11 / 37 / इत्यनेन क्विप्लोपः), तिव, शव, अवादेशः / / 103 // अव०–'हाक' इत्यत्रानुबन्धनिर्देश 'ओहाङ्क जा ज्ञा-जनोऽत्यादौ // 4.2 / 104 // धातोः यङ्लुपश्च' निवृत्त्यर्थः कृतः, तेन उज्जिहीते, जहीत'; अत्र इत्वं न भवति / "ओहाँङ्क गतौ” म० वृ०-'ज्ञाजनोर्धात्वोः शिति प्रत्यये परे ओहांक त्यागे"। "न हाको लुपि (4 1 / 46) इति | 'जा' इत्यादेशः" स्यात्, अत्यादौनत्वनन्तरे ति * 'पृभृमाहाकामिः' (4 / 1 / 58) इति सूत्रेण द्वित्वे पूर्वस्य इः / मजहीतः' इत्यत्र / Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं, [अ० 4 पा० 2 सू० 105-108 वादौ / जानाति, जानीते, जानन्, जानानः; जायते, / म० वृ०-“सरतेवेंगे गम्यमाने शिति परे जायमानः / अत्यादाविति किम् ? जाज्ञाति, जज- | अत्यादौ 'धाव' आदेशः” स्यात् / धावति, धाव / न्ति; यङ् (लुप)। शितीत्येव-ज्ञायते, जन्यते / 104 // / वेग इति किम् ? प्रियामनुसरति // 107 // अव०-'अत्यादौ' इति कोऽर्थः ? न त्वनन्तरे अव०-धावधातुना सिद्धे, सरतेवेंगे गम्यतिवादौ, अस्यायं भावार्थः-यदि धातुतिवादीना- माने सरति इति प्रयोगनिवृत्त्यर्थ वचनमिदम् / मन्तरे= विचाले श्नाश्यादिप्रत्यया भवन्ति, तदा 'वेगे सत्ते'-रित्यत्र तिवनिर्देशात् यङलुपि सरतेन ज्ञाजनधात्वोदेशो भवति; यदि तु पुनर्धातोः धाव,-सस्रत्, सरिस्रत, सरीस्रत् // 107 // परस्तिवादिप्रत्ययोऽनन्तरो भवति, कोऽर्थः ? धातुतिवादेरन्तरे - विचाले श्नाश्यादिप्रत्ययो न भवति, श्रौति-कृत्-धिवु-पा घ्रा-ध्मा-स्था-म्ना-दाम-दृश्रतदा जा आदेशो न स्यात् इत्यर्थः // 104 // र्ति-शद-सदः शृ-कृ धि-पिब-जिघ्र-धम-तिष्ठघादेह स्वः // 4 / 2 / 10 // . मन-यच्छ-पश्यच्छे-शीय-सीदम् / / 4 / 2 / 108 म० वृ०-'प्वादिगणस्य शिति ह्रस्वः' स्यात, - म० ०-"श्रौत्यादीनां शिति [ = शकारानु अत्यादौ। पुनाति, लुनाति / प्वादेरिति किम् ? बन्धे प्रत्यये परे] यथासङ्ख्यं शृ इत्याद्यादेशा" भव['नीश वरणे'] वीणाति / जानातीत्यत्र विधानसाम न्ति, अत्यादौ / श्रौतेः शृ, शृणोति; कृवोः कृ, •न्न ह्रस्वः // 105 // कृणोति; धिवोधिः, धिनोति; पः पिबः, पिबति; घ्रो जिघ्रः, जिवति, उंज्जिनः; ध्मो धमः, धमति,उद्धमः; अव०-क्रयादिधातुमध्ये 'पूग्श पवने' इत्या स्थः तिष्ठः, तिष्ठति, उत्तिष्ठमानः; म्नो मनः, आमरभ्य वृत्करणपर्यन्ताः प्वादयो धातवः 21 ज्ञेयाः नति, कतीहामनमानाः, दामो यच्छः, प्रयच्छति; // 105 // दृशः पश्य, पश्यति,शे प्रत्यये उत्पश्यः अर्तेः ऋच्छ., गमिषद्-यमश्छः // 4 / 2 / 106 // ऋच्छति, समृच्छमानः; शदेः शीयः, शीयते, शीय मानः; सदेः सीदः, सीदति, कतीह सीदमानाः म०व०-"एषामन्तस्य 'छ' इत्यादेशः' शिति // 108 // अत्यादौ स्यात् / गच्छति, इच्छति, यच्छति / शितीत्येव-गन्ता, एष्टा. यन्ता। अत्यादावित्येव अव०-श्रौत्योस्तिनिर्देशः कृवधिवह जङ्गन्ति / / 106 / / शुदामामनुबन्धश्च यङ्लुपि 'शृ' इत्याद्याादेशअव०-'गमिषत' (इति) अत्रातनिर्देशः निवृत्त्यर्थः कृतः, ततः “शोश्रु वत्, आरत, चरीक'इषच गतौ' इति दिवादेः, 'इषश आभीक्ष्ण्ये' इति . एवत्, देधिन्वत, दर्द शत, दादत्" इत्येव प्रयोगाः / क्र यादेनिवृत्त्यर्थः / शितीत्येव- गन्ता, एष्टा इत्यादि, 'ऋप्रापणे च' ( इति धातोः ) भृशमति (इति) अत्र श्वस्तुनीता, न तृच प्रत्ययः, अन्यथा व्यङ्ग- 'अट्यति' (3 / 4 / 10 / इति)यङ्, द्वित्वम्,'ऋतोऽत्' विकलता स्यात्, यथा-शित् नास्ति, तथाऽत्यादिरपि (4 / 1 / 38) इति द्वित्वे पूर्वस्य ऋतः अकारः, 'रि रौच नास्ति इति // 106 // लुपि (4 / 1 / 56 / इति)अभ्यासे रोऽन्तः, 'बहुलं लुप्' वेगे सर्तेर्धात् // 4 / 2 / 107 // | (3 / 4 / 14 / इति ) यङ्लोपः / 'आगुणवन्यादेः' Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिति प्रत्यये परे दीविधिः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [101 (4 / 1 / 48) अकारस्य आ, * यङ निमित्तो रोऽन्त- | भ्रमक्रमलमत्रसित्रुटिलषियसिसंयसेवा' (3 / 4 / 73) लोपोऽपि कार्यः, आरीति आरत् , शतृ, 'इव- इत्यनेन विकल्पेन श्यप्रत्ययः // 109 / / देरस्वेः' (12 / 21) धात्वकारस्यर आरत इति सिद्धम् / एवं चरिकणोतीति देधिनोतीति उटि गुणे ष्ठिवू-क्लम्बाचमः // 4 / / 110 // 'च कृते शतवाक्यम् एवं ददृ शीति (? दर्दर्शीति) द म० वृ० "ष्ठित्रः, क्लमेः आठ पूर्वस्य च श्रीति वा दर्द शत्, शत् / यत्र यद लुप् नत्र 'ऋदु- / चमेः शिति दीर्घः' स्यादत्यादौ / ष्ठीवति, लामति, दितः' (1 / 4 / 70) इत्यनेन नोऽन्तो न भवति / क्लाम्यति [ 'भ्रासभ्लास०' (3 / 4 / 73) इत्यनेन "तिवा शवा-ऽनुन्धेन, निर्दिष्टं णेन च / वा श्यः ] आचामति // 120 // एकस्वरनिमित्तं च, पञ्चैतानि न यह लुपि" / 1 / इति न्यायबलान्न नोऽन्तः / श्रीति, 'श्रृंट * श्रवणे' / कृव, ‘कृवुट हिंसाकरणयोः' / धिक् , अव०-'ष्ठीवति' इत्यत्र भ्वादेः 'ष्ठिवू क्षिवू निर'धिवुट् गतौ' / तथा घ्राध्मादिभिः साहचर्यात् पा सने' इत्यस्यैव 'ष्ठिवूक्लम्बाचमः' इत्यनेन दी? इति 'पां पाने' इति भौत्रादिकस्यैव ग्रहणम् , तस्य भवति, 'ष्ठिवू क्षिवूच निरसने' इति देवादिकस्य 'भ्वादेर्नाभिनो दीर्घो वोर्व्यञ्जने' (2 / 1 / 63) इत्यनेन पिबादेशः सस्वरः, स्वरान्तत्वादुपान्त्वलक्षणो गुणो न भवति / 4 ओ. शोषणेपे इत्यस्य लाक्षणिक दीर्घो विहितोऽस्ति,-दीव्यति,....(ष्टीव्य) तीत्यादि // 11 // त्याच न ग्रहणम् / तेन पायति, पान (? पायन ) इति प्रयोगः / तथा उत्पिबतीति उत्सिवः' उत्पूर्वपि- शम्सप्तकस्य श्ये // 4 / 2 / 111 / / बतेः परः 'घ्राध्मापाट्धेदृशः शः' (5 / 1158) इनि म. वृ०-अत्यादाविति निवृत्तम् / 'शमासूत्रेण शप्रत्ययः, ततः पिब आदेशः, 'उस्पिबः, इति दीनां सप्तानां श्ये परे दीर्घः' स्यात् / शाम्यति, सिद्धम् / दाम् इत्यत्र मकारनिर्देर्शो दासंज्ञकश दाम्यति इत्यादि / / / 111 / / कानिवृत्त्यर्थः / / 108|| क्रमो दीर्घः परस्मै // 4 / 2 / 109 / / अव०-'शमू दमूच उपशमे' तमूच कादक्षायाम् म. वृ०-'क्रमेः परस्मैपदनिमित्ते शिति परे 'श्रमूच खेदतपसोः' 'भ्रमूच अनवस्थाने' 'क्षमौच दीर्घः' स्यादत्यादौ / क्रामति, क्रामन् , क्राम्यति, सहने' 'मदैच हर्षे' इति शमादिसप्तकम / यथाक्रमक्रामेत्, अक्रामत् / परस्मै इति किम् ? आक्रमते मुदाहरणानि,-शाम्यति, दाम्यति, ताम्यति, श्राम्यति, सूर्यः, आक्रममाणः / परस्मैपदनिमित्तविज्ञानात् भ्राम्यति, क्षाम्यति, माद्यति / शम्सप्तकस्येति किम् ? हेलक्यपि दीर्घः- क्राम // 109 / / अस्यति / श्य इति किम् ? भ्रमति, 'भ्रमूच अनवअव०--'क्रामति, क्राम्यति' इत्यत्र भ्रासभ्लास- J स्थाने' इत्यस्यैवधातोभ्रंमतीति रूपं ज्ञेयम् , अन्यथा *चिन्त्येयं प्रक्रिया वैयाकरणः / अत्र 'पारत्' इत्यस्य साधनिका क्रियते / अत्र 'पागुणावन्यादेः' इत्यनेन 'प्रकारस्य प्रा' इति यदुक्तं तदसङ्गतम् / यतोऽकारस्याकारविधायके 'पागुणावन्यादेः (4 / 1148) इति सूत्रे 'अन्यादे:' इत्यनेन न्याद्यागमवर्जस्य धातोरकारस्याकारः प्रतिपादितः, अत्र तु"रिरौ च लुपि"(४।११५६) इत्यनेन रागमो विद्यते / एवं “यनिमित्तो रोऽन्तलोपोऽपि कार्यः" इति यदुक्त तदप्यचारु, "रो रे लुक् दीर्घश्वादिदुतः” (1 / 3 / 41) इति सूत्रेण रागमस्य लोपात् / अत्र रागमानन्तरं घांत्वकारस्य र्' इति कृते सति 'रो रे लुक् दीर्घश्चादिदुत:' (1 / 3 / 41) इत्यनेनैव रागमस्य लोपोऽकारस्याकारश्च भवति / तदुक्त हैमप्रकाशे यङ्लुबन्तप्रक्रियायाम्- "शतरि द्वित्वे, पूर्वस्य अत्वे, रागमे धातोश्च रत्वे, रो रे लुग्'० इति रलोपे पूर्वदीर्घत्वे च पारत्"। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102] 'श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 4 पा० 2 सू० 112-120. द्वयङ्गविकलता स्यात् / 'भ्रासभ्लास०' (3 / 4 / 73) | छिप्रच्छिश्रुवित्स्वरत्यर्तिदशः' (3 / 3 / 84) इत्यनेनाइति वा श्यः // 111 // त्मनेपदम् // 116 // ष्ठित्र-सिवोऽनटि वा // 4 / 2 / 112 / / तिवां णवः परस्मै // 4 / 2 / 117 // म०व०-'ष्ठित्रः सीव्यतेश्चानटि दीर्घो वा' म. वृ०-वेत्तेः परेषां परस्मैपदसम्बन्धिनां स्यात्। निष्ठीवनम् , निष्ठेवनम् ; सीधनम् , सेवनम् तिवादीनां नवानां स्थाने "परस्मैपदसम्बन्धिन // 112 // एवं" णवादयो नवादेशा यथासङ ख्यं नवा स्युः / मव्यस्याः / / 4 / 2 / 113 / / 'वेद, विदतुः, [तसोऽतुस् ] विदुः; (अन्तेरस ) वेत्थ, म०व०-'धातोर्विहिते मकारादौ वकारादौ च (सेर्थव) विदधुः, (थसोऽथुस् ) विद; (थस्य अ) प्रत्यये 'अकारस्य आकारो दीर्घः' स्यात् / पचामि, वेद, (मेर्णव ) विद्व, (वसो व) विद्मः (मसो म) / पचावः, पचामः; पचावहे, पचामहे // 113 // पक्षे वेत्ति, वित्तः, विदन्ति; वेत्सि, वित्थः, वित्थ; वेद्मि, विद्वः, विद्मः // 117 // अव०-:मव्यस्याः ' अत्र सूत्रे 'मव , अ, आ' इति रचना / 'मव्यस्याः' इति सूत्रे विशेषोऽयम्- धातोः अ०-तिब् , तस् , अन्ति; सिव् , थस् , थ; प्रत्ययेन सहाभिसम्बन्धः, न अकारेण सह; इति भिव् , बस् , मस् इति नवानां णव ,अतुस् , उस्; प्रत्ययाऽकारस्यापि दीर्घो भवति / / 113 // थव , अथुस् , अ; णव , व, म इति नव आदेशाः / अनतोऽन्तोऽदात्मने // 4 / 2 / 114 // १तिवो णव // 17 // म०७०--अनकारात्परस्यात्मनेपदसम्बन्धिनोऽ- गः पश्चानां पश्चाहश्च।।४।२।११८॥ न्तरूपस्य अवयवस्य 'अत्' इत्यादेशः स्यात् / चिन्वते, वृ०-ब्र गः परेषां तिवादीनां पञ्चानां स्थाने अचिन्वत; लुनते, लुनताम् ; एवं मिमते, मिमताम् , यथासङ्ख्य ‘पञ्च णवादयो नवा' स्युः, तद्योगे 'ब्र गः अमिमत इत्यपि / आत्मनेपदस्येति किम् ? चिन्व- स्थाने 'आह' इत्यादेशश्च / आह, आहतुः, आहुः; न्ति / अनत इति किम् ? पचन्ते, पच्यन्ते / // 114 // आत्थ, आहथुः / पक्षे ब्रवीति, ब्रूतः,व वन्ति; अवीपि, ब्रूथः // 118|| अवा-ज अत्-अकार: अन त् , तस्मात् अ(न)तः, न अकारात् परस्य (इत्यर्थः) // 114 / / प्रव०-तिवस्थाने णव् , तसस्थानेऽतुस् ,अन्तिशीङो रत् // 4 / 2 / 115 // स्थाने उस् , सिस्थाने थव् , थसस्थाने अथुस् / म०७०-शीङः परस्यात्मनेपदसम्बन्धिनोऽन्तो पोलो 'आत्थ' इत्यत्र 'नहाहोर्धती' (2 / 1 / 85) इत्यनेन 'रत्' [ इत्यादेशः ] स्यात् / शेरते, शेरताम् , अशेरत हकारस्य तकारः // 118|| [शीङ ए: शिति (4 / 3 / 104) इत्यनेन एकारः]॥११५॥ आशिषि तु-ह्योस्तातङ् // 4 / 2 / 119 // वेत्तेर्नवा // 4 / 2 / 116 / / म०वृक्ष-ढिन्त्करणं गुणनिषेधार्थम् ] आशिषि म०७०-वेत्तेः परस्यात्मनेपदसम्बन्धिनोऽन्तो - विहितयोस्तुह्योः स्थाने तात आदेशो नवा' स्यात् / 'रत्' [ इत्यादेशः] वा स्यात् / संविद्रते,संविदते।। जीवतात् , जीवतु भवान् ; जीवतात् , जीव त्वम् आत्मनेपद इत्येव- विदन्ति // 116 // | (हि) / आशिषीति किम् ? जीवतु, जीव // 119 // अव०-“संविद्रते, संविदते' इत्यत्र ‘समो गम- आतो णव औः / / 4 / 2 / 120 // Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम्-याशद्धस्येविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [103 म०वृ०-नवेति निवृत्तम् / आकारात्परस्य / इति न्यायात् व्याख्येयम् / आत=अकारात्॥१२१॥ णवः स्थाने 'औ' आदेश: स्यात् / 'पपौ सः, . यः सप्तम्याः / / 4 / 2 / 122 / / सुनोऽहं किल पपौ 2 // 120 // म० ७०-'आत्परस्य सप्तम्या याशब्दस्य 'इत्' * अव.-'परोक्षायाः प्रथमपुरुषे णव / परोक्षाया स्यात् / पचेत् , पचेताम् , पचेः // 122 / / उत्तमपुरुषे णत् / / 120 // आतामाते-आथामाथे आदिः // 4 / 2 / 121 // अव०-'आत्-अकारात्परस्य / एवं पचेत,पचेव, पचेम / // 122 // म०७०-अकारात्परेषां 'आताम्, आते, आथाम् , आथे' इत्येषामाकारस्य' 'इकारः' स्यात् / पचेताम् , याम्-युसोरियमियुसौ // 4 / 2 / 223 // पचेते; पचेथाम् , .पचेथे / आदिति किम् ?. म० वृ०-१आत्परयोर्याम्युसोर्यथासङ्ख्यम् ‘इयअद्यात् // 1 // मियुसादेशौ" भवतः / पचेयम् , पचेयुः॥१२३।। इति चतुर्थस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः / ग्रन्थाग्र० 205 / / अव०-'बृहद्वत्तौ 'आत' इति मूलपाठः / आदिति किम् ? मिमाताम्, मिमाते / पूर्वसूत्रे आतः= . प्रव०-'अकारात्परयोः // 12 // अत्र सूत्रे आकारात्परस्येति अस्ति, आतामाते० इति सूत्रे तु (? पादे ) अवचूरिश्लोकाः 359 / / आत इति षष्ठ्यन्तम् 'अर्थवशाद्विभक्तिपरिणामः' // इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते सिद्धहेमशब्दानुशासने चतुर्थाध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः // Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अहम् / / // चतुर्थोऽध्यायः // [ तृतीयः पादः] नामिनो गुणोऽक्ङिति // 4 // 3 // 1 // / 'व्युक्तजक्षपञ्चतः' (4 / 2 / 93 / इति) अनस्थाने पुस्, म० वृ०-नाम्यन्तस्य धातोः किन्दित्वज्जिते | 'पुस्पौ' (इति) गुणः अर्, 'स्वरादेस्तासु' (4 / 4 / 31 / इति)अभ्यासे वृद्धिः ऐः, ऐयरुरिति सिद्धम् / 'अर्पप्रत्यये परे 'आसन्नो गुणः' स्यात् / चेता, नेता, यति', 'ऋक् गतौ' 'ऋ प्रापणे च' वा, णिग्, स्तोता, कर्ता, जयति, 'एता, एति / नामिन इति 'अतिरीव्ली०' (4 / 2 / 21) इत्यादिना पोऽन्तः, 'पुस्पौ' किम् ? उम्भिता / अक्तिीति किम् ? युतः, अशि (इति) गुणः अर् / (एवं) रेपयति, हृपयति, क्नोश्रियत् // 1 // पयति // 3 // अव०-'आसन्नः,' किमुच्यते ? इवर्णस्य ए एते लघोरुपान्त्यस्य // 4 / 3 / 4 // परस्परं स्वाः, उवर्ण ऋवर्ण अर् (?) / एकारः, ओ __म०व०-धातोरुपान्त्यस्य नामिनो लघोरडिति कारः, अर् एते गुणसंज्ञकाः / आद्यन्तवद्भावाद् * प्रत्यये परे 'गुणः' स्यात् / भेत्ता, गोपनम् , वेत्ति / नाम्यन्तत्वम् / (एवं) २चितः, चितवान् ; लुलुवे, लघोरिति किम्? ईहते, ऊहते / उपान्त्यस्येति लिल्ये / 'नीभ्यां लूभ्याम्' इत्यत्र नामार्थसंवलित किम् ? भिनत्ति,रुणद्धि / अक्तिीत्येव भिन्नः,भिन्नधात्वर्थाभिधायित्वेन नामिनो गौणत्वमिति न वान् ||4|| गुणः // 1 // उ-श्नोः / / 4 / 3 / 2 / / मिदः श्ये // 4 / 3 / 5 // म० व०-मिदेरुपान्त्यस्य श्ये परे ‘गुणः' म. वृ०-धातोः परयोरुश्नुप्रत्यययोरक्ङिति | | स्यात् / मेद्यति // 5 // प्रत्यये परे गुणः' स्यात् / तनोति, तपर्णोति, करोति, सुनोति / अक्दितीत्येव- कुरुतः / / 2 / / जागुः किति // 4 // 3 // 6 // पुस-पौ / / 4 / 3 / 3 / / म० वृ०-जागर्तेः किति प्रत्यये परे 'गुणः' स्यात् / जागरितः, जागरितवान्; जागर्यते, को,म० वृ०-नाम्यन्तस्य धातोः पुसि पौ च परे / जागः, जजागरतुः। कितीति किम् ? [तस.-] जागृतः, * 'गुणः' स्यात् / अबिभयुः, अजुवुः, २ऐयरुः, पु,- [अन्ति-] जाग्रति,[अन्तो नो लुक् (4 / 2 / 94) इत्यन्तिअर्पयति // 3 // नकारस्य लुक् ] जाग्रत् / विडति प्रतिषेधे प्राप्ते अव०-'ऋक् गतौ' ह्यस्तनी, अनु द्वित्वम् , वचनम् / अङिति तु पूर्वेणैव गुणः- जागरिता / / 6 / / 'ऋतोत्' (4 / 1 / 38 इत्यभ्यालेऽकारः) 'पभृमाहा अव-जजागृवान् , अत्र गुणः कथं न भवति? डामिः' (4 / 1158 / इति) अभ्यासे इ:, 'पूर्वस्यास्वे + सूरिराह-जागर्तेः परतः कम्प्रत्ययाऽनभिधानाद् स्वरे य्वोरियुब्' (4 / 1 / 37 ) इति अभ्यासे इय्, | भाषायां नास्तीत्येके आहुः / अपरे च केचित् कसु * 'आद्यन्तवदेकस्मिन्' इति न्यायेन / + 'बृहदत्तौ' इत्यध्याहारः / Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणविधानम् ] . मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 105 "कानयोगुणप्रतिषेधमे बाहुः, तन्मते-जजागृवान , व्य- / विचकार निजगारेत्यत्र परत्वाद् वृद्धिरेव, न गुणः। तिजजागृवान , व्यतिजजाग्राणः / केचित्पुनर्गुण- चक्रतुः, चक्रुरित्यत्र न गुणः, 'स्कृच्छतोऽकि०' इति मिच्छन्त्येव, तन्मते-जजागर्वान् / 'जाग्रत्' इत्यत्र सूत्रे सस्सद्कृगो ग्रहणाद् / तथा कृ इत्यस्य 'क्य'ऋदुदितः' (1 / 4 / 70) इत्यनेन नोऽन्तः, तदनन्तरम् यदाशीर्ये' (4 / 3 / 10) इति वक्ष्यमाणेनैव गुणो 'अन्तो नो लुक्' (4 / 2 / 94) इत्यनेन अन्तो नकारस्य भविष्यति (इत्याशङ्कायाम् ) अत्राह-- वक्ष्यमाणेनैव लुक् // 6 // सिद्धेऽपि, यदत्र 'स्कृच्छतोऽकि०' सूत्रे स्कृग्रहणं ऋवणे-दृशोऽङि / / 4 / 3 / 7 // कृतं तत् 'क्ययङा०' इति सूत्रे औपदेशिक-[स्वाभा विक] संयोगपरिग्रहार्थम् , तेन 'संस्क्रियते' इत्यादौ म० वृ०-ऋवर्णान्तानां धातूनां दृशश्वाडि प्रत्यये परे ‘गुणः' स्यात् / [आरत् ] असरत् , अज 'क्यया०' (4 / 3 / 10) इति सूत्रेण न गुणः / / 8 / / रत् , अदर्शत् // 7 // __ संयोगाददः // 4 / 3 / 9 // अव०-'असरत् ', अत्र 'सर्त्यर्ता' (3 / 4 / 61) म. वृ०–संयोगात्परो य ऋकारस्तदन्तस्य इत्यनेन अङः , 'ऋवर्णदृशोऽङि' (4 / 327) इत्यनेन धातोरर्तेश्च परोक्षायां 'गुणः' स्यात् , अकि / सस्मगुणः अर्। 'अजयत्', 'ऋदिच्छ्विस्तम्भूम्र चुम्लुचून रतुः, सस्मरुः, सस्वरतुः, अति,-आरतुः, आरुः / चूग्लुचूग्लुचूनो वा' (3 / 4 / 65) इत्यनेनाद // 7 // संयोगादिति किम् ? चक्रुः / गुणप्रतिषेधविषये पुनः प्रसवार्थ [-गुणोत्पत्त्यर्थं] वचनम् / वृद्धिस्तु स्कृच्छ्रतोऽकि परोक्षायाम् / / 4 / 3 / 8 // भवत्येव- सस्मार / ऋतः संयोगेन विशेषणादति म० वृ०-स्कछधात्वोः ऋकारान्तानां च ग्रहणम् / तिनिर्देश उत्तरार्थः // 9 // धातूनां नामिनः परोक्षायां परतो 'गुणः' स्यात् , कय-यङा-ऽऽशीर्ये / / 4 / 3 / 10 // अकि = ककारोपलक्षितायां कसुकानरूपायां न म. वृ.-संयोगात्परो य ऋकारस्तदन्तस्य स्यात् =गुणो न भवति।स्कृ,-संचस्करतुः, ['संपरेः धातोरत्तेश्च कये, यढि आशीःसम्बन्धिनि ये च . ' कृगः स्सट (4 / 4 / 91) इति कृाआदिः स्सट ] ऋछ, परे 'गुणः' स्यात् / स्मर्यते , अर्यते , सास्मयते, आनछे,ऋत् ,-विचकरुः,['कत् विक्षेपे']तेरुः / एवं अरायते, स्मर्यात् , अर्यात् / औपदेशिक स्वाभाविक श,-विशशरुः, दू,-विददरुः, प, निपपरतुः, निप संयोगग्रहणादिह न गुणः, संस्क्रियते,संचेस्क्रियते,रिः परुः / अकीति किम् ? संचस्कृवान् , संचस्क्राणः, शक्याशीर्ये (4 / 3 / 110 इति) ऋतोरिः। ऋत इत्येवएवम् आनृच्छ वान् , विचिकीर्वान् , वितितीर्वान् , आस्तीयते, आतेस्तीयते / अर्जेस्तिवनिर्देशाद् यटविततिराणः, [वितेरे इति वाक्यम् ] // 8 // लुपि न गुणः- आरियात् , अर्थियात् // 10 // 64 अव०- एवं विशिशीर्वान , विशशिराणः, निपु अव० –'आरियात् , अर्थियात्' इत्यत्र 'ऋक पूर्वान् , निपप्रे निपपरे वा निपपुराणः, "तत्र कसु- गतौ, अत्यर्थमिति (इति) यक, द्वित्वम् , 'बहुलं कानौ०" (5 / 2 / 2 / इति कानप्रत्ययः) / विशशरे लुप्' (3 / 4 / 14 इति) यङ् लुप्यते, 'रिरौ च लुपि' (इति) विशशिराणः, अथवा 'ऋः शदप्रः' (4 / 4 / 20) (4 / 1156) इत्यनेन र , रि; 'ऋतोऽत्' (4 / 1 / 38 इति ऋत्वे कृते विशने (इति) विशशिराणः, “तत्र इति) अभ्यासे अः, 'रिः शकयाशीर्ये' इत्यनेन धात्वकसु० (5 / 2 / 2 / इति कानप्रत्ययः) तथा काने पूर्व / कारस्य रिः, 'आरियात् ' अत्र रो रे लुग्दीर्घश्वा० द्वित्वं क्रियते, पश्चात् इरादिः, स्वरविधित्वात् / / (1 / 3 / 41) इत्यनेन अभ्यासे अकारस्य आ, र लुप्यते, * Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०४ पा०३ सू०११-१३ 'अथियादि'-त्यत्र “इवर्णादेरस्वे स्वरे यवरलम्” (1 / नेन उकारस्य उव् , (एवं) पोपुवः / 'ऋतः स्वरे वा' 2221 इति) यत्वं कृत्वा 'रिः शकया०' इति 'रिः' / (4 / 3 / 43) इत्यनेन वृद्धिप्राप्तिः / केचित्त दधीवाचकार्यः // 10 // रति (इति) किप् , विपो लोपः, दधयनं दध्या न वृद्धिश्चाविति किडल्लोपे // 4 / 3 / 11 // / इति स्वमते वाक्यम् , मतान्तरे तु दध्यनं दध्या इति वाक्ये 'शंसिप्रत्ययात्' (5 / 3 / 105) इत्यनेन अप्रम० वृ०-अवितिप्रत्यये यः कितो हितश्च त्ययः, दधयन्तं प्रयुङ क्ते इति स्वमते परमते च लोपस्तस्मिन् सति 'गुणो वृद्धिश्च न' स्यात् / यद- 'प्रयोक्त 0' (3 / 4 / 20) णिग् , अप्रत्यये गुणः, णिति लोपे-चेच्यः,नेन्यः,लोलुवः,नरीनृजः (मरीमृजः)। | वृद्धिः, एतं गुणवद्धयोः प्रतिषेधमिच्छन्ति, तन्मतविडदिति किम् ? रागी, गगः / // 11 // संग्रहार्थं वत्तौ क्टिल्लोपे-कितो दिन्तश्च लोपे इत्यक्त सूरिणा*। एतच्चाचार्यस्य संमतम्। वृत्तौडिल्लोपोदाप्रव०-'चेच्यः' इत्यादि, "चिंग्ट् चयने, णींग हरणं दर्शितम् / किल्लोपे दध्या, दध्ययति इति उदाह- . . प्रापणे, लूग्श् छेदने, पूग्श् पवने" भृशं पुनः पुनः वा रणं ज्ञातव्यम् / वितिप्रत्यये तु दधयति / 'रागी' इत्यत्र चिनोति, नयति, लुनाति, पुनाति (इति) 'व्यञ्ज- 'रब्जींच रागे" रजतीत्येवं शीलः (इति) 'युजभुनादेरेकस्वरा' (3 / 4 / 9) इति यह, द्वित्वम् , | जमजरज' (5 / 250) इत्यनेन घिनण . 'अकट'आगुणावन्यादेः' (4 / 1 / 48) इति गुणः- चे, ने,लो, / धिनोश्च रब्जे.' (4 / 2 / 50) इत्यनेन 'न' लुप्यते-- पो; 'चेचीयते, नेनीयते, लोलूयते, पोपूयते” इति / रागी। 'राग' इत्यत्र नलोपे सति (वृद्धः) प्रतिषेधो वाक्ये कृते, अच्०' (5 / 1 / 49) इत्यनेन अच् , 'अचि' मा भूत् // 11 // (3 / 4 / 15) इति सूत्रेण या लुप्यते, या सस्वर एव भवतेः सिजलुपि // 4 / 3 / 12 / / लुप्यते, यदि पुनः 'अतः' (4 / 3 / 82) इति सूत्रेण यकाराकारो लुप्यते ततो य लोपः(तर्हि) स्वरस्य परे ____ म० ०--सिचो लुपि ‘भवतेगुणो न' स्यात् / प्राग्विधौ' (74 / 110) इति सूत्रबलात् लुप्तोऽकारः | अभूत् , अभूताम् , अभूः / सिज्लुपीति किम् ? अत्यस्थानिवत् भवति, स्थानित्वे च गुणप्राप्तिरेव नास्ति, भविष्ट / तिनिर्देशाद्यङो लुपि न प्रतिषेधः- अबोइति हेतोः 'अचि' (3 / 4 / 15) इत्यनेन सस्वरो यङ भोत् // 12 // लुप्यते / या लोपानन्तरं 'चेच्यः, नेन्यः' (इति) अत्र सूतेः पञ्चम्याम् / / 4 / 3 / 13 // 'योऽनेकस्वरस्य (2 / 1156) इत्यनेन धातुस्वरस्य यः; 'लोलुव' इत्यत्र धातोरिवर्णोवर्ण०' (2 / 1150) इत्य- / म०३०-सूतेः पञ्चम्यां 'गुणो न' स्यात् / सुवै, * अत्र 'मरीमज:' इत्यस्य स्थाने मकारे नकार भ्रान्त्या 'नरीनृजः' इति लिखितमिति संभाव्यते, यत: बृहद्वृत्त्यादिषु 'मरीमृजः' इत्येव दृष्टिपथमवतरति, अत्रावचूरौ 'ऋतः स्वरे वा' इत्यादिपाठोऽपि 'मरीमजः' इत्येनमेवोदाहर श्रित्य घटामटति / * इदमुक्त भवति केचित्त 'दघीवाचरति' इति क्विप, 'अप्रयोगीद' इति तल्लोपे. 'शंसिप्रत्ययादः' इति अप्रत्यये 'दध्या' इत्यत्र गुणस्य, तथा 'दघीवाचरति' इति क्विप्, तल्लोपे, शतृप्रत्यये परे दधयन्, 'दधयन्तं प्रयुङ क्ते' इति [दधि-रिण-अ-ति] 'दध्ययति' इत्यत्र वृद्धेः प्रतिषेधमिच्छन्ति / तन्मतसंग्रहार्थं "क्डिल्लोपे सति अविति प्रत्यये परे गुणवृद्धी न भवत:" इति व्याख्येयम् / 'दध्या' इत्यत्र स्वमते 'दधयनम्' परमते च 'दध्यनम्' इति वाक्यं कार्यम् / 'दध्ययति' इत्यत्र स्वपरोभयमते 'दधयन्तं प्रयुङ क्ते' इत्येवमेव वाक्यं कर्तव्यम्, अत्र परस्य शवप्रत्ययस्य वित्त्वादुभयमते गुणसभावाद् / 'दध्या' इत्यत्र स्वमते तु गुणसद्भावाद् 'दधया' इति भवति / एवं 'दध्ययति' इत्यत्र स्वमते वृद्धिसत्त्वाद् दधाययति इति भवति / Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिद्वत्त्व-किद्वत्त्वविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 107 सुवावहै / तिवनिर्देशाद्यढो लुपि गुणः--सोषवाणि, / कुटादेर्डिद्वदणित् / / 4 / 3 / 17 // सोषवाव // 13 // म०वृ०-कुटादेर्गणात् परो त्रिणित्वर्जितः द्युक्तोपान्त्यस्य शिति स्वरे / / 4 / 3 / 14 / / / प्रत्ययो 'दिद्वत्' स्यात् / कुटिता, कुटितुम् , कुटितम०व०- कृतद्वित्वस्य धातोरुपान्त्यनामिनः | व्यम् , कुटित्वा / 'अणिदिति किम् ? उदकोटि, स्वरादौ शिति प्रत्यये परे ‘गुणो न' स्यात् / नेनि उत्कोटः, उच्चुकोट // 17 // जानि, अनेनिजम् ; वेविषाणि अवेविषम् ; बेभि अव०-तुदाद्यन्तः कुटत् कौटिल्ये इत्यारभ्य दीति, अबेभिदम् ; मोमुदीति,अमोमुदम् ; नतीति गुरैति उद्यमे वृत् कुटादिः इति पर्यन्तः कुटादिर्गणः / अनन्तम् / युक्त ति किम् ? वेद, वेदानि, अवेदम् / 'एवं नुविता, नुवितुम् , धुविता , धुवितुमिशितीति किम् ? नितेज, बिभेद / स्वर इति किम् ? नेनेक्ति, मोसोक्ति // 14 // त्यादि / 'न्यनुवीद्' इत्यत्र सिचो ङित्त्वात् “सिचि परस्मै समानस्याङिति" (4 / 3 / 44) इत्यनेन वृद्धिरपि ह्विणोरपविति व्यौ // 4 / 3 / 15 / / (न) भवतीत्यर्थः // 17 // म०वृ०- हिणवात्यो मिनः स्वरादावपिति, विजेरिट // 4 / 3 / 18 // अविति च शिति परे यथासङ्घय 'वकारयकारादेशी' म०वृ०-विजेरिट 'विद्वत्' स्यात् / उद्विजिता, भवतः / 'जुह्वति, यन्ति, यन्तु; मा स्म यन् , शत, उद्विजिष्यते, उद्विजितव्यम् / इडिति किम् ? उद्वेयन्ती, यन्तः / शितीत्येन-जुहुवतुः, ईयतुः, ईयुः। / अपवितीति किम ? पुस .-अजहया: वित- अयानि जनम् , उद्वेजयति इत्यपि // 18 // [इण्क् गतौ आनि गुणः] आयन्नित्यत्र ‘एत्यस्ते वोर्णोः // 43 // 19 // वृद्धिः' (4-4-30) इति वृद्धिरपवादत्वात् / // 15 // म०वृ०-ऊर्णोतेरिट 'दिद्वद्वा' स्यात् / प्रोणुअव०-स्वरादौ शिति प्रत्यये परे, कीदृशे ? विता, प्रोणविता // 19 // अपिति अविति च इति व्याख्येयम् / पच व च= शिदवित् / / 4 / 3 / 20 // प्व, प्=पकारो व्=बकार इत् अनुबन्धो यस्य म०७०-धातोः परो विद्वर्जितः शित्प्रत्ययो शित्प्रत्ययस्य स प्वित् , न वित् = अप्वित् , 'दिद्वत्' स्यात् ! वर्तमानातस् ,- इतः,स्तुतः, अधीते, तस्मिन् / ' अन्तु,-जुह्व नु, कतीह जुह्वानाः / (एवं) यन् ।'ईयतुः ईयुः,' अत्र पूर्व द्विवचनम् , ततः दीव्यति, सुनुतः, तुदति, क्रीणाति, अधीयन् , 'इणः' (2 / 1 / 51) इत्यनेन धातोरिकारस्य (इय् ,) न सिद्धान्तमधीयानः, जिनाति, गृह्णाति, विध्यति, य / ईयतुः ईयुः इत्यस्यान स्वरादाविति किम् ? घ्नन्ति / अविदिति किम् ? एति / कथं प्लवन्ते ? जुहुवः, इतः इति व्यावृत्तिः // 15 // अन्तरङ्गत्वाद् गुणे कृते शवो'लोपात्, स्थानिवद्भा वाद्वा // 20 // इको वा // 4 / 2 / 16 // म० वृ०-इकः [इक स्मरणे इत्यस्य] स्वरादा- अव०-''लुगस्यादेत्यपदे' (2 / 1 / 113) विति 'शिति यकारो वा' स्यात् / अधियन्ति, अधी- इत्यनेन शव लुप्यते // 20 // यन्ति; अधियन्तु, अधीयन्तु; कतीहाधियानाः, कती- __इन्ध्यसंयोगात्परोक्षा किद्वत् / / 4 / 3 / 21 // . . हाधीयानाः // 16 // म० वृ०-इन्धेरसंयोगान्ताच्च धातोः पराऽवित् प्रव०-(एवं) मा स्माधियन् , मा स्माधीयन् // 16 // | परोक्षा 'किद्वत्' स्यात् / समीधे, समीधाते, Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 4 पा० 3 सू० 22-26 निन्यतुः, बिभिदुः, ऊचुः, जजागरुः, सुषुपतुः, / (४।४।४२)इतीट्विधेर्विकल्पत्वादत्र नेट ] वक्ष्यमाणसुषुपुः / इन्ध्यसंयोगादिति किम् ? सस्रसे। अवि- 'क्त्वा' (4 / 3 / 29) इत्यनेन क्त्वि प्रतिषेधे प्राप्ते दित्येव-निनय, निनयिथ // 21 // विकल्पार्थमिदम् / / 24 // अव०-'डिद्वत्' इति प्रकृते, कोऽर्थः ? दिद्वत् अव०-न्युपान्त्ये इति प्रवाहत एवोक्तमस्ति, इत्यधिकारे प्रस्तुतेऽपि, यत् ‘इन्ध्वसंयोगा० इत्यत्र यतः ऋत्तृषमृषकृशानां नोऽन्तस्य सम्भव एव नास्ति, सूत्रे 'किद्वत्' इति वचनं कृतम् , तत् यजादिवचिस्व वञ्चलुञ्चथफान्तानां व्यभिचाराभावात् वञ्चादीनां पीनां य्वृदर्थ जागर्तेश्च गुणार्थम् / डिद्वद्भावे कृते पाठसिद्धं नोऽन्तत्वम् / अत एव बृहद्वृत्ती “न्युपान्त्य हि य्वृत् गुणो द्वावपि न स्याताम् , यथा-स्वपितः, इति विशेषणं थफान्तानाम् , नान्येषाम , सम्भवव्यस्वपन्ति,जागृतः, जाग्रति, जाग्रत् ,जागृयात् / 'इन्ध्य भिचाराभावात्" इत्युक्तम् / थान्त-, 'श्रन्थश् मोचसंयोगात्परोक्षा' इति सूत्रे विशेषोऽयं ज्ञातव्यः / 21 / | नप्रतिहर्षयोः' 'ग्रन्थ सन्दर्भ'। फान्त,-'गुफ़ गुम्फन ग्रन्थने' | 'कोथित्वा, पोथित्वा' इत्यत्र 'कुथच प्रतिस्वञ्जर्नवा // 4 / 3 / 22 // भावे' (इति) कुथ , 'पुथच हिंसायाम्' (इति) पुथ , म० वृ०-स्वञ्जः परोक्षा 'किद्वत् ' स्यान्नवा व्यावत्तिबलादुत्तरेण 'वी व्यञ्जनादेः सन चायवः' [विकल्पेन] / परिपस्वजे, परिपस्वञ्ज // 22 // (4 / 3 / 25) इत्यनेनापि न विकल्पः, किन्तु ‘क्त्वा' (4 / 3 / 29) इत्यनेन नित्यनिषेधो भवति // 24 // ज-नशो न्युपान्त्ये तादिः क्त्वा // 4 / 3 / 23 // वौ व्यञ्जनादेः सन् चायवः / / 4 / 3 / 25 / / ___म० वृ०--जकारान्तानशेश्च नकारे उपान्त्ये म० वृ०-वौ-उकारे इकारे चोपान्त्ये सति सति तकारादिः क्त्वा 'किद्वन्नवा' 'स्यात् / रक्त्वा, व्यञ्जनादेर्धातोः परः क्त्वा सन् च सेटी “किद्वन्नवा" रङ्कत्वा, भक्त्वा, भङ क्त्वा; नश् -नष्ट्वा, नंष्ट्वा; स्याताम् , अय्वः=यकारान्ताद्वकारान्ताद्धातोर्न [किद्['नशो धुटि' (4 / 4 / 109) इति नोऽन्तः] / नीति वत्] स्यात् / द्युतित्वा, द्योतित्वा; मुदित्वा, मोदिकिम् ? भुक्त्वा / तादिरिति किम् ? विभज्य, त्वा; लिखित्वा, लेखित्वा; दिद्युतिपते, दिद्योतिअञ्जित्वा // 23 // पते. लिलिखिपति. लिलेखिपति वाधिति किम? ऋत्-तृष-मृष-कृश-वश्व-लुश्च-थ-फः वर्त्तित्वा / व्यञ्जनादेरिति किम् ? ओपिषिषति, सेट् // 4 / 3 / 24 // ओपित्वा / सेडित्येव- भुक्त्वा, बुभुक्षते। अय्व इति किम् ? दिदेविषति, देवित्वा / / 25 / / म० ०-न्युपान्त्ये सति एभ्यः क्त्वा सेट 'किद्वन्नवा' स्यात् / [ 'ऋत् घृणागतिस्पर्धेषु'] अव०-१श्वितित्वा, श्वेतित्वा; शिशिवितिषते, ऋतित्वा , अतित्या; तृषित्वा, तर्षित्वा; मृषि- शिश्वेतिषते; मुमुदिपते, मुमोदिपते इत्यपि त्वा, मर्षित्वा; कृशित्वा कर्शित्वा; वचित्वा, वश्चित्वा; | ज्ञेयम् / // 25 // [उदितो वा (4 / 4 / 42) इति इट् ,] लुचित्वा, लुम्चि- / उति शवद्भ्यिः क्तौ भावारम्भे // 4 / 3 / 26 // त्वा; श्रथित्वा, श्रन्थित्वा; ग्रथित्वा, ग्रन्थित्वा; गुफित्वा, गुम्फित्वा / न्युपान्त्य इत्येव- कोथित्वा, पोथि- मवृ०-उकारे उपान्त्ये सति शवहेभ्योऽदात्वा / सेडिति किम् ? वश्च -वक्त्वा [ऊदितो वा | दिभ्यश्च परौ, भावे आरम्भे च विहितौ क्तक्तवतू अयं पाठोऽसङ्गतः / अत्र 'वञ्चलुञ्चोः' इति पाठ आवश्यकः। अने 'वञ्चादीनाम्' इत्यत्रापि इति पाठोऽपेक्ष्यते / "ऋत्तृषमृषकृशां न संभव:, वञ्चलुञ्चोर्न व्यभिचारः" इति बृहद्वृत्तिलधुन्यासे / Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक्तवत्वोः किद्वत्त्वनिषेधः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [109 | // 26 // सेटौ 'किद्वद् वा' स्याताम् / कुचितम् , कोचितमनेन | तक्तवतू , नवा भावारम्भे (४।४।७२।इति) इट् , [ 'कुच्यते स्म' इति भावे क्तः ] / प्रकुचितः, प्रको- प्रधर्षितः, प्रधर्षितवान् / 5 'विश्विदाङ मोचने च' चितः; प्रकुचितवान् , प्रकोचितवान [प्रकोचितुमार- (इति) श्विद् / निविदांच गात्रप्रक्षरणे' 'षः सोऽभते स्म आरब्धवान वा इति तक्तवतू ] / अद्भ्यः ,- ष्ट्यै०' (2 / 3 / 98 इति) स्विद् / नवा भावारम्भे रुदितम् , रोदितमेभिः; प्ररुदितः, प्ररोदितः; प्ररु- (4 / 4 / 72) इत्यनेन सर्वत्र इट् / देवादिकस्यैवायं दितवान् , प्ररोदितवान् / उतीति किम् ? शिवति- प्रयोगः, ‘डीलच गतो' 'सूयत्याद्योदितः' (4 / 2 / 70) तम् , प्रश्वितितः / भाषा(म्भे इति किम् ? | इति नकारः / मूलोदाहरणे भौवादिक एव ‘डयितः', रोचते स्म (इति) रुचिता कन्या / सेटाविति किम् ? | अस्य इडेव / देवादिकस्य इनिषेधउक्तोऽस्ति // 27 // रोहते स्म (इति) रुढम् / प्ररोहितुमारब्धः प्ररुडः मृषः क्षान्तौ // 4 / 3 / 28 // म० वृ०-क्षान्ती वर्तमानान्मृषः परौ सेटौ अव०-एवं प्रद्युतितः, प्रद्योतितः; द्युतितम- | ।.क्तक्तवतू 'किद्वन्न' स्याताम् / :मृषीत् तितिक्षायाम्' नेन, द्योतितम् , “नवा भावारम्भे' (४।४।७२।इति) | म" (४।४।७२।इति) | मर्षितः, मर्षितवान् / क्षान्ताविति किम् ? अपमृषितं .. इट् / एवं मुदितम् , मोदितमनेन; प्रमुदितः, | वाक्यमाह, सासूर्य-समत्सरं वचनं वदति / सेटाप्रमोदितः // 26 // विति किम् ? 'मृषू सहने च' मृष्टः, मृष्टवान् // 28 // न डीङ्-शीङ्-पू-धृषि-विदि-स्विदि-मिदः क्त्वा / / 4 / 3 / 29 // / 4 / 3 / 27 म० वृ०-धातोः परः सेट् क्त्वा 'किद्वन्न' म०व०-एभ्यः परौ सेटी तक्तवतू 'किद्वद् / स्यात् / देवित्वा, सेवित्या, वर्तित्वा। सेडित्येषन' भवतः / ' डयितः, डयितवान; 2 शयितः, कृत्वा // 29 // शथितवान ; पत्रितः, पवितवान् ; 4 प्रधर्षितः, स्कन्द-स्यन्दः // 4 // 3 // 30 // ५प्रक्ष्वेदितः, 6 प्रस्वेदितः' प्रमेदितः, प्रमेदितवान् बिमिदाङ स्नेहने / सेटावित्येव-- डीनः, डीनवान ; म० ३०-स्कन्दिस्यन्दिभ्यां परः क्त्वा पूतः, पूतवान् ; *धृष्टः, चिण्णः, स्विन्नः, मिन्नः, 'किद्वन्न' स्यात् / स्कन्त्वा, स्यन्त्वा; प्रस्कन्ध, प्रस्यमिन्नवान् // 27 // न्य; सेटि तु 'क्त्वा' (4 / 3 / 29) इत्यनेनैव 'स्यन्दि त्वा' इत्येव भवति, अनिडर्थ वचनम् // 30 // अव०--डीङ -शीङ -पूडामनुबन्धनिर्देशो यत् क्षुध-क्लिश-कुष-गुध-मृड-मद-वद-वसः लुपि निवृत्त्यर्थः, डेव्यितः, डेव्यितवान्; शेश्यितः, शेश्यितवान् ; पोपुवितः, पोपुवितवान् / १“डीङ // 43 // 31 // विहायसां गतौ" / 2 शीङ क् स्वप्ने, श्लिषशीङ० म० वृ०--नेति निवृत्तम् / एभ्यः परः क्त्वा सेन (5 / 1 / 9) इति तः।' पूङ --क्लिशिभ्यो नवा' / किद्वत्' स्यात् / क्षुधित्वा, क्लिशित्वा, कुषित्वा, (4 / 4 / 45) इति विकल्पेन इट् / 4 निधृषाट् | गुधित्वा, मृडित्वा, मृदित्वा, उदित्वा, उषित्वा / प्रागल्भ्ये, (इति) धृष् , प्रधर्षितुमारब्धवान (इति) / 'क्त्वा' (4 / 3 / 29) इति प्रतिषेधे 'वौ व्यञ् * वृष-शसः प्रगल्भे (4 / 4 / 66) इति नेट् / # 'क्ष्विण्ण:' इत्यादिषु 'पादितः' (4 / 4 / 71) इति नेट् / * डीयश्व्यैदितः क्तयोः (4 / 4 / 61) इति नेट् / Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०४ पा० 3 सू० 32-36 जनादे:०' (4 / 3 / 25) इत्यनेन विकल्पे च प्राप्ते / अव०-एवं चिचीषति, लुलूषति, चिकीर्षति वचनम् // 31 // इत्यपि // 33 // अ०-'उषित्वा' इत्यत्र 'क्षधवसस्तेषाम्' (4 / 4 / उपान्त्ये // 4 / 3 / 34 // 43) इति इट, 'घस्वसः' (2 / 3136) इत्यनेन म० वृ०-नामिन्युपान्त्ये सति धातोरनिट् सन् षकारः // 31 // 'किद्वत्' स्यात् / भिद्,-बिभित्सते, बुभुत्सते ' ।अनिरुद-विद-मुष-ग्रह-स्वप-प्रच्छः सन् च // 4 / 4 / 32 // | डित्येव-विवर्तिषते // 34 // म० वृ०-'सेडिति निवृत्तम्। एभ्यः परःसन् क्त्वा प्रव०-'बुध् , सन् , द्वित्वम् , 'गडदबादेश्चतुच 'किद्वत्' स्यात् / रुदित्वा,रुरुदिषति; विदित्वा, र्थान्तस्यैकस्वरस्यादे:०' (2 / 1177 / इति) बकारस्य विविदिषति; मुषित्वा, मुमुषिषति; गृहीत्वा,२ जिघृ भः। एवं विवृत्सति / एवं विवर्धिषते। नामिन क्षति; सुप्त्वा, सुषुप्सति; पृष्ट्वा, पिपृच्छिषति इत्येव- यियक्षति, यियक्षते // 34 // .. // 32 // सिजाशिषावात्मने // 4 / 3 / 35 / / अव०-रुदविदमुषां 'वौ व्यञ्जनादेः सन् चायवः' (4 / 3 / 25) इति विकल्पे, ग्रहेस्तु ‘क्त्वा' म०७०-नामिन्युपान्त्ये सति धातोः परे आत्मनेप(४।३।२९) इत्यनेन प्रतिषेधे च प्राप्ते सति 'रुदवि दविषयेऽनिटौ सिजाशिषौ 'किद्वद्' भवतः। अभित्त, दमुष०' इति सूत्रं कृतमित्यर्थः / १स्वप्पृच्छोरि- भित्सीष्ट; बुध,-अबुद्ध, भुत्सीष्ट / आत्मने इति किम् ? टोऽसम्भवात् / 'जिघृक्षति', 'ग्रहीश उपादाने' ग्रही अस्राक्षीत् / उपान्त्य इत्येव- अचेष्ट / अनिडित्येवतुमिच्छति (इति) सन् , द्वित्वम् , 'रुदविद०' इत्य अवर्धिष्ट, वर्द्धिषीष्ट // 35 // नेन सन् किद्वत्, ‘ग्रहवश्वभ्रस्जप्रच्छः' (4 / 1184) अव०-'अस्राक्षीत्', सृज , अद्यतनीदि, सिच, इत्यनेन य्वृत्-रकारस्य ऋ, 'हो धुट पदान्ते' (2 / 1 / 'सः सिजस्तेर्दिस्योः' (4 / 3 / 65 / इति) ईत् , 'अः 82 // इति) हस्य ढः, 'गडदबादेः (2 / 1177) इत्य सृजिदृशोऽकिति' (4 / 4 / 111 इति) धातुविचाले नेन गकारस्य घः, षढोः कस्सि' (2 / 1 / 62 इति) अकारः, 'व्यञ्जनानामनिटि' (4 / 3 / 45) इति ढस्य क, 'नाम्यन्तस्थाकवर्गाo' (2 / 3 / 15) इत्यनेन वृद्धिः, 'यजसृजमृजराजभ्राज०', (2 / 1187) इति सस्य षत्वम् / “पृष्ट्वा' इत्यत्र प्रच्छ, क्त्वा, किद्व जस्य षत्वम् , 'षढोः कः सि' (2 / 1162) इति षस्य भावात् ग्रहब्रश्वभ्रस्जप्रच्छ:' (4 / 1184) इत्यनेन कः, 'नाम्यन्तस्थाक०' (2 / 3 / 15) इति सस्य षः / यवृत्-रस्य ऋ, 'अनुनासिके च च्छवः शूट' (4 / 1 / एवमद्राक्षीत् / नामिन इत्येव- अयष्ठ,यक्षीष्ट // 35 / / 108) इत्यनेन छकारस्य स्थाने तालव्यशकारः, ऋवर्णात् / / 4 / 3 / 36 // 'यजसृजमृज०' (2 / 1187) इत्यनेन शकारस्य षकारः, तवर्गस्य श्ववर्ग० (1 / 3 / 60) इत्यनेन प्रत्ययतका- म० वृ०--ऋवर्णान्ताद्धातोरात्मनेपदविषयेऽनिटौ रस्य.ट: // 32 // सिजाशिषौ 'किद्वद्' भवतः / अकृत, कृषीष्ट; अतीष्ट, नामिनोऽनिट् // 43 // 33 // तीर्षीष्ट; अपूर्ट, पूर्षीष्ट / अनिडिति किम् ? अतरिष्ठ, तरिषीष्ट // 36 // म० वृ०-नाम्यन्ताद्धातोरनिट् सन् 'किद्वत्' स्यात् / निनीषति // 33 // अव०-"अतीष्ठ, अपूष्ट, तीर्षीष्ट, पूर्षीष्ट"; एषु * विदेति 'विदक् ज्ञाने' इत्यस्य ग्रहणम्, नान्येषाम्, तेषां हि निषेधाभावात् किद्वदेव क्त्वा, न च वाच्यं “वो व्यञ्जनादेः०" इति विकल्पः, तत्र सेटीति विशेषणात् / Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिन्प्रत्ययस्य कित्त्वविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [111 'एकधातौ कर्मक्रिययैका०' (3 / 4 / 86) इत्यनेन कर्म- | भयं सीताम् , नोपायंस्त दशाननः" // 40 // कर्तरि आत्मनेपदं भवति / आत्मनेपदसम्बन्धित इश्च स्था-दः // 4 / 3 / 41 // प्रत्यये सति 'स्वरदुहो वा' (3 / 4 / 90) इति सूत्रेण विकल्पेन बिच् , विकल्पत्वादत्र न बिच् , कर्म म०व०--स्थादासंज्ञकात्पर आत्मनेपदविषयः विवक्षायां सत्यां तु नित्यं घिच् प्राप्नोति // 36 // सिच् ‘किद्वत्' स्यात् , तद्योगे च स्थादोरन्तस्य इका रादेशः / उपास्थित, दाम् , व्यत्यदित, व्यत्यदिषातां गमो वा // 4 // 3 // 37 // वस्त्रे, देङ,-अदित पुत्रम् , डुदांगक् , अदित धनम् , ____ म० वृ०-गमेरात्मनेपदविषये सिजाशिषौ दोंच ,-व्यत्यदित दण्डौ, धे, व्यत्यधित स्तनौ, 'किद्वद्वा' स्याताम् / समगत, समगंस्त चैत्रः; संग- | डुधांग्क ,-अधित भारम् / स्थाद इति किम् ? सीष्ट, संगंसीष्ट // 37 // दांवक् दैव, व्यत्यदास्त ' // 41 // अव०-(एवम ) अगसाताम् , अगंसाताम् ग्रामौ अव०--व्यत्यदितेत्यत्र ‘क्रियाव्यतिहारेऽगतिचैत्रेण; गसीष्ट, गंसीष्ट चैत्रेण चैत्रः / (? ग्रामः)। | हिंसाशब्दार्थहसोहृवहश्चानन्योन्यार्थे' (3 / 3 / 23) समगतेत्यादौ 'समो गच्छ०' (2 / 3 / 84) इति / इत्यनेनात्मनेपदम् / (एवं) 'व्यत्यदासाताम् , व्यत्यआत्मनेपदम् // 37 // दासत // 41 // हनेः सिच / / 4 / 3 / 38 // मजोऽस्य वृद्धिः / / 4 / 3 / 42 // म० व०-हनेः पर आत्मनेपदविषयः सिच् म० वृ०--मृजेर्गणे सत्यकारस्य वृद्धिर्भवति' / 'किद्वत्' स्यात्। आहत,आहसाताम् , आहसत॥३८।। मार्टि, मार्टी, माष्टव्यम् ; मार्जिता, मार्जकः,संमायमः सूचने / / 4 / 3 / 39 // जनम् , ' सम्मार्गः / अत इति किम् ? मृज्यते, म०व०--सूचने वर्तमानाद् यमेः पर आत्म- | मृष्ठः 2 // 42 // नेपदविषयः सिच् 'किद्वत्' स्यात् / उदायत / सूचन इति किम् ? आयस्त कूपाद्रज्जुम् // 39|| अव०--१क्त ऽनिटश्चजोः कगौ घिति' (4 / 1 / 111) इति गत्वम् / एवं मरीमृज्यते, मृष्टवान् // 42 // अव०-उदायत, उदायसाताम् , उदायसत, अत्र __ ऋतः स्वरे वा // 4 / 3 / 43 // 'आडो यमहनः स्वेङ्गे च' (3 / 386) इत्यात्मनेपदम् / सकर्मकात् 'समुदाडो यमेरग्रन्थे' (3 / 3 / 98) - म० वृ०--मृजेः ऋकारस्य स्वरादौ प्रत्यये परे इत्यात्मनेपदम् / परदोषाविष्करणं सूचनमुच्यते / 'वृद्धिा' स्यात् / परिमार्जन्ति, परिमृजन्ति / ऋत 'उद्धृतवानित्यर्थः / / 39 // इति किम् ? 'ममार्ज, मार्जयति / स्वर इति किम् ? वा स्वीकृतौ // 4 // 3 // 40 // मृष्टः, मृष्ठः [थस् ] // 43 // म० वृ०-स्वीकारार्थाद् यमेरात्मनेपदविषयः अव०-परिमार्जन्तुः, परिमृजन्तु; पर्यमार्जन , सिच् 'किद्वद्वा' स्यात् / उपायत, उपायंस्त महा- पर्यमृजन ; परिममा तुः, परिममृजतुः; परिमार्जन , स्त्राणि / स्वीकृताविति किम् ? आयंस्तपाणिम् / / 40 // परिमृजन् इत्यपि ज्ञेयानि / 'ममार्ज,' अत्र गुणे कृते 'मृजोऽस्य वृद्धिः' (4 / 3 / 42) इत्यनेन नित्यं अव०-(एवम् ) उपायत, उपायंस्त कन्याम् ; 'यमः वृद्धिः, न त्वनेन विकल्पः // 43 // स्वीकारे' (3 / 3 / 59) इत्यात्मनेपदम् / उपायत उपायंस्त इत्युदाहरणविषये पूर्वकविप्रयोगाविमौ-"मोपयध्वं / सिचि परस्मै समानस्याङिति / / 4 / 3 / 44 // Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 4 पा० 3 सू० 45-48 म० ३०-समानान्तस्य धातोः परस्मैपदवि- | धकारस्य ढः, 'सहिवहेरोच्चावर्णस्य' (1 / 3 / 43) षये सिचि अदिति परे 'आसन्ना वृद्धिः' स्यात् / - इत्यनेन धातुढकारो लुप्यते, 'एकदेशविकृतमनअचैषीत् , अनैषीत्,अकार्षीत् , अनेनायीत् / 'परस्मै न्यवत्' इति न्यायात् वाहेरपि ओत्वम् , सूत्रे वहेइति किम् ? अच्योष्ट, अप्लोष्ट // 44 // रित्युक्तम् , तदनन्तरं भूतपूर्वगत्या, ढस्य परेऽस त्त्वाद् वा व्यञ्जनान्तधातुत्वे सति पुनरपि 'व्यञ्जनाअव०--अयावीत् , अलावीत् , अतारीत् नामनिटि इत्यनेन (ओकारस्य) वृद्धिः प्राप्नोति, परं (इत्यपि) / 'अच्योष्ट, अप्लोष्ट' इत्यत्र नित्यत्वादन्त 'समानस्येत्येव' इति व्यावृत्तिबलात् वृद्धिः प्रतिषिरङ्गत्वाच्च पूर्व गुणो भवति, गुणे कृते हि सिचो ध्यते, उदवोढामिति सिद्धम् // 45 // लुप न प्राप्नोति // 44 // वोणुगः सेटि // 4 / 3 / 46 // व्यञ्जनानामनिटि // 4 / 3 / 45 // _म० वृ०-ऊर्णो: सेटि सिचि परस्मैपदविषये म० ३०--व्यञ्जनान्तस्य धातोः परस्मैपदवि- | 'वृद्धिर्वा' स्यात् / प्रौर्णावीत् , प्रौर्णवीत् ; प्रौणुवीत् षयेऽनिटि सिंचि परे समानस्य ‘वद्धिः' स्यात् / ['संयोगात्' (2 / 1152) इति) उच् परस्मै इत्येवअपाक्षीत् , अभैत्सीत् , अरौत्सीत् / बहुवचनं जात्य- प्रौर्णविष्ट / सानुबन्धोपादानं यढोलुपि निवृत्त्यर्थमर्थम् , तेनानेकव्यञ्जनव्यवधानेऽपि वृद्धिः, रज,- प्रौर्णोनावीत् // 46 // अराङ क्षीत् ; भज् , अभाङ क्षीत् , 'अताक्षीत् / व्यञ्जनादेोपान्त्यस्यातः / / 4 / 3 / 47 // समानस्येत्येव-- उदवोढाम् / अनिटीति किम् ? अत म० ०-व्यञ्जनादेर्धातोरुपान्त्यस्य अत: = क्षीत् , अकोषीत् , अदेवीत् , अनीत् / / 45|| अकारस्य] सेटि सिंचि परस्मैपदे 'वृद्धिर्वा' स्यात् / अव०--'अताक्षीत्' , 'तक्षौ त्वक्षो तनूकरणे' अकाणीत् , अकणीत् ; अश्वासीत्., अश्वसीत् ; गौरि(इति) तक्ष, दि, अट् , 'सिजद्यतन्याम्' (3 / 4 / 53 / वाचारीत् अगावीत् , अगवीत् / व्यञ्जनादेरिति .इति सिच् ,) 'सः सिजस्तेर्दिस्योः' (4 / 3 / 65) इत्य किम् ? मा भवानटीत् / उपान्त्यस्येति किम् ? अरनेन सिचः पर ईत् , 'धूगौदितः' (4 / 4 / 38) इत्य क्षीत् / अत इति किम् ? अदेवीत् / सेटीत्येव- दह, नेन विकल्पेन इट् , यत्र न इट् तत्र 'व्यञ्जनानाम अधाक्षीत् // 47 // निटि' इत्यनेन उपान्त्यदीर्घः, 'संयोगस्यादौस्कोलक्' (2 / 1188) इत्यनेन क्षमध्ये ककारो लुप्यते, ततः ___ अव०-गौरिवाचारीत् इति वाक्ये 'कर्तुः किप् षढोः कः सि' (2 / 1162) इति षस्य कः, 'नाम्यन्त गल्भलीबहोडात्तुङित् (3 / 4 / 25) इति किप, (तस्य) लोपश्च, अद्यतनीदि, सिच् , 'सः सिज०' (४।३।६५स्था०' (2 / 3 / 15) इति सस्य षः / 'अतक्षीत्' इति इति) इत् , 'स्ताद्यशितो०' (4 / 4 / 32 / इति) इट् , व्यावृत्त्युदाहरणम् , 'इट ईति' (4 / 3 / 71) इति सूत्रेण सिच् लुप्यते / 'उदवोढाम्' इति, उत्पूर्ववह, 'इट ईति' (4 / 371 / इति) सिचो लोपः, गुणः, ? अद्यतनीताम्, 'अड्धातोरादि:०' (4 / 4 / 29 / इत्यट) 'ओदौतोऽवाऽऽव् ' स्वरे (1 / 2 / 24) इत्यवादेशः ] 'सिजद्यतन्याम्' (3 / 4 / 53 / इति सिच.) 'व्यञ्जनाना ततो वृद्धिः / 'अरक्षीत्' इत्यस्याने 'अवधीत्' इत्यपि मनिटि' इति वृद्धिः आ, वाह. , 'धुड्हस्वाल्लुग ज्ञेयम् / हनंक , अद्यतनीदिविषये 'अद्यतन्यां वा त्वानिट'० (4 / 3 / 70) इति सिचो लोपः, 'हो धुट्पदान्ते' (मने'(४।४।२२) इत्यनेन वध आदेशोऽदन्तः, सिच , (2 / 1 / 82) इत्यनेन हकारस्य ढः, 'अधश्चतुर्थात्त ईत्, इट् , 'अतः' (4 / 3 / 82) इत्यनेन अकारो लुप्यते // 47 // थोधः' (2 / 1179) इत्यनेन ततकारस्य धकारः, 'तवर्गस्य श्ववर्गष्टवर्गाभ्याम्' (1 / 3 / 60) इत्यनेन / वद-व्रज-लः / / 4 / 3 / 48 // Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिति वृद्धिविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [113 म० वृ०-बदब्रजोर्लान्तानां' रान्तानां च कारः, कारकः / कलिहलिवर्जनानाम्नोऽपि वृद्धिः,धातूनामुपान्त्यातः3 परस्मैपदे सेटि सिचि ‘वृद्धिः' / पटुमाख्यातवान् अपीपटत् , अलीलघत् / कलिहस्यात् / अवादीत्, अव्राजीत् , अज्वालीत् , अक्षा- लिवर्जनं किम् ? अचकलत् , अजहलत् // 51 // रीत् / पूर्वस्यापवादोऽयम् / / 48 / / अव०-१ अपीपटत् , अलीलघत्' इत्यत्र णिच्, अव०-'लकारान्तानाम् / २रकारान्तानाम् / उपा ततो वृद्धिः, 'नामिनोऽकलिः' इत्यनेन वृद्धिः औ, त्याऽकारस्य / " ( एवम् ) अचालीत् / उपान्त्य 'यन्त्यस्वरादेः' (7 / 4 / 43) इत्यनेन अन्त्यस्वरादिस्येत्येव- अश्वल्लीत् // 48 // लोपः; 'पट, लघ' इति शब्दः, ततोऽद्यतनीदि. न वि-जागृ-शस-क्षण-ड्म्येदितः / / 4 / 3 / 49 / / 'णिश्रिख 0' (3 / 4 / 58) इति ङप्रत्ययः, द्विर्वचनम्, म०व०-विजागृशसक्षणां धातूनाम् , हान्तमा अभ्यासेऽसमानलोपित्वात् सन्वभावः, 'लघोर्दी ?ऽस्वरादेः' (4 / 1 / 64 / इति दीर्घः) // 51 // न्तयान्तानामेदितां च धातूनां परस्मैपदे सेटि सिचि ‘वृद्धिर्न' स्यात् / अश्वयीत् , अजागरीत्, जागुर्जि-णवि // 4 / 3 / 52 // अशसीत , अक्षणीत, हान्त,- अग्रहीत , मान्त,- अवमीत् , यान्त, अव्ययीत् ,एदित्,- अकगीत् , श्विजा- ___म० ०-जागर्तेों,णव्येव णिति प्रत्यये वृद्धिः' योः ‘सिचि परस्मै समानस्यः' (4 / 3 / 44) इति स्यात् / अजागारि, जजागार। बिणवीति किम् ? बद्धौ अन्येषां च 'व्यजनादेोपान्त्यस्यातः' (4 / 3 / जागरयति, जागरकः, 'जागरंजागरम् , जागरो 47) इति विकल्प प्राप्ते वचनम् / / 49 / / वर्त्तते // 52 // अव०-एकारानुबन्धानां 'न विजागृ०' (इति) सूत्रेविशेषोऽयम् - श्विजाग्रादीनां यह लबन्तानामपि प्रव०-'अभीक्ष्णं' जागरणं पूर्वम्' इति वाक्ये वद्धिप्रतिषेधः, अशेश्वयीत् , अजर्जागरीत् , अशा- | 'ख्णम् चाभीक्ष्ण्ये' (5 / 4 / 48) इति ख्णम् , 'भृशाशसीत् , अचंक्षणीत् , अचाचहीत् , असंस्यमीत् , भीक्ष्ण्याविच्छेदे द्विः प्राक् तमबादेः' (74 / 73) अबाव्ययीत् ; एदितां तु यहो लुपि वृद्धिप्रतिषेधो न इति द्वित्वम् , सिः, 'अव्ययस्य' (3 / 2 / 7) इति लुप्। भवति,- अजाहासीत् / सेटीत्येव- अधाक्षीत् // 49 // पूर्वेणैव सिद्धे नियमार्थोऽयं योगः, बौ णव्येवेति / एवं साधु जागरी, 'साधौ' (५।१।१५५)इति णिन् / ञ्णिति // 4 / 3 / 50 // // 52 // म० वृ०-मिति णिति च प्रत्यये परे धातोरुपान्यातो' 'वृद्धिः' स्यात् / अपाचि, पाकः, पाचकः, आत ऐः कृऔ // 4 // 3 // 53 // पपाच, पाचयति // 50 // म० ०-आकारान्तस्य धातोणिति कृति प्रत्यये जौ च परे 'ऐ:' स्यात् / दायः,(अत्र घञ् ,) दायकः, ' प्रव०-मिति अकारानुबन्धे / णिति=णकारा- शतं दायी, गोदायो याति,अदायि, [भावकर्मणोः' नुबन्धे। 'उपान्त्याऽकारस्य / / 50 / / (3 / 4 / 68) इति बिच ,] दायिष्यते, ['स्वरग्रहदृश०' (3 / 4 / 69) इति बिच् ] कृदिति किम् ? ददौ॥५३॥ नामिनोऽकलि-हलेः / / 4 / 3 / 51 / / म०व०-नाम्यन्तस्य धातोर्नाम्नोवा कलिहलिवर्जि- प्रव०-दास्यतीति दायी, 'णिन् चावश्यकाध. तस्य णिति परे 'वृद्धिः' स्यात् / अनायि, अकारि, / मर्ये' (5 / 4 / 36) इत्यनेन णिन् , 'आत ऐः कृन्नौ' Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 4 पा० 3 सू० 5457 (इति) ऐः, ॐ शतस्य दायी, शतं दायी, अत्र 'एष्य- | 'अमः, अमक' इति / कृञ्चावित्येव,- शशाम, निशाहणेनः' (2 / 2 / 94) इत्यनेन षष्ठी न भवति, किन्तु मयते [शमिण आलोचने] // 55 / / कर्मणि द्वितीयैव भवति / एवं सहस्रदायी इत्यपि / A२गां ददातीति गोदायः, *'कर्मणोऽण' (5 / 3 / 14) अव०-१एवं तमः,तमकः,तमी,(अतमि;) दमः,दमकः, इति सूत्रेण 'वर्त्यति गम्यादिषु' (? दिः) (5 / 3 / 1) दमी, (अदमि)। शाम्यतीत्येवंशीलः- शमी, 'शमष्टइति कृत्तृतीयपादोक्तेन 'अण्' भवति, न प्रथम | काद् घिनण' (5 / 2 / 45) इति (घिनण); (एवं) तमी, कृत्पादोक्तेन 'कर्मणोऽण्' इत्यनेन, तस्याऽविषयः दमीत्यपि / आदिशब्दात् रामः,रामकः, अरामि; // 53 // नामः, नामकः,अनामि; आगामुकः, आगामि; वामः, वामकः,अवामि;आचामः, आचामकः,आचामि // 55 // न जन-बधः // 4 / 3 / 54 // म० वृ०-जनिबध्योः कृति णिति बौ च परे वृद्धिर्न' / विश्रमेयं / / 4 / 3 / 56 / / स्यात् / घम् ,- प्रजनः; ध्यण ,- जन्यः; णक,-जनकः; बिच् ,- अजनि; बधः, बध्यः, बधकः,अबधि / बधि म० व०-विपूर्वश्रमेणिति कृत्प्रत्यये बौ च रिह सूत्रे 'बधि बन्धने' इत्ययं गृह्यते , “भक्षकश्च - परे 'वृद्धिर्वा न' स्यात् / [घ-] विश्रामः, विश्रमः; 1 नास्ति बधकोऽपि न विद्यते," हन्यादेशस्य तु वधेर [णक, ] विश्रामकः, विश्रमकः; [भिच,-] व्यश्रामि, दन्तत्वाद् वृद्धेरप्रसङ्ग एव / [अद्यतन्यां वा त्वात्मने | व्यश्रमि / वीति किम् ? [घञ्] श्रमः, [णक,-] (4 / 4 / 22) इत्यनेन हनो 'वध' (इति) अकारान्ता- श्रमकः, [भिच्-] अश्रमि / / 5 / / देशः // 54 // अव०-१ अविश्रमं याप्रदिदं शरीरम् // 56 // मोऽकमि-यमि-रमि-नमि-गमि-बमाचमः॥४।३।५५॥ उद्यमोपरमो // 4 / 3157|| ___म० वृ०---मान्तधातोः कम्यादिवर्जितस्य म. वृ०--उत्पूर्वयमेरुपपूर्वरभेबि 'वृद्धयकिणति कृत्प्रत्यये बौ च परे 'वृद्धिर्न' स्यात् / शमः, भावो' निपात्यते / उद्यमः, उपरमः // 57 / / शमकः, शमी,२ अशमि / कम्यादिवर्जनं किम् ? कामः, कामुकः, अकामि; यामः, यामकः, अयामि। अव०- उद्यमोपरमौ इति सत्रे उदपाभ्याराम इत्यादि। कथमामः, आमकः, आमि; ? मन्यत्र उपसर्गान्तरे सति पूर्वेण वृद्धिरेव- यामः, 'अमण रोगे' इत्यस्य भवष्यिति / भौवादिकस्य त्वमः / संयामः, सुयानः; रामः, विरामः // 57|| * अत्र 'शतस्य दायी' इति पाठोऽसङ्गतोऽधिकश्च प्रतीयते / / अत्र "गां दास्यामीति यातीति गोदायो याति" इति विग्रहेण भाव्यम् / 'गोदायः' इति अप्रत्ययेनैव भवति,प्रणप्रत्ययः 'कर्मणोऽण' इति सूत्रेण विहितः, परं 'कर्मणोऽण' इति द्वे सूत्रे स्तः,तयोः केन सूत्रेण 'गोदायः' इति भवतीत्याशङ्कायामत्राह-"कर्मणोऽण" इति सूत्रेण वय॑ति गम्यादिषु'इति कृतृतीयपादोक्तेन अण् भवति" इत्यादि / अत्रायं हेतु:-प्रथमपादोक्तस्य 'कर्मणोऽण' इति सूत्रस्य 'प्रातो डोऽह्ववाम:' इत्यपवादसूत्रम्, उत्सर्गापवादोभयसूत्रप्राप्ती 'उत्सर्गादपवादः' इति न्यायादपवादसूत्र प्रवर्तते,अतः 'गां ददाति' इत्यत्र. 'प्रातो डोऽह्वा-वा-मः' इति सूत्रस्य प्रवर्तनाद् ‘गोद:' इति भवति, न तु 'कर्मणोऽण' इत्यनेन 'गोदायः' इत, न च 'असरूपोऽपवादे वोत्सर्गः प्राक्क्ते:' इत्यनेनात्रोत्सर्गप्रत्ययस्यापि प्रवर्तनात् 'गां ददाति' इत्यत्र प्रथमपादोक्तेन 'कर्मणो ऽण ' इति सूत्रेणापि प्रवर्तते इति वाच्यम् , असरूपोऽपवादे०' इति सूत्रेणापवादेनासमानरूपस्यैवौत्सर्गिकप्रत्ययस्यापवादविषये प्रवर्तनात . अनुबन्धोऽप्रयोगीति डाणप्रत्यययोः सारूप्याच्च / Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोक्षाया ण यो विकल्पेन णित्त्वविधिः / मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 115 णिद्वाऽन्त्यो णव // 4 / 3 / 58 // / 'ओर्वा' स्यात् / प्रो#ति, प्रोर्णोति / अद्वेरिति किम ? म० वः-परोक्षातृतीयत्रिकैकवचनमन्त्यो णव प्रोर्णोनोति / पूर्वेण नित्यं प्राप्ते विकल्पः // 60 / / ‘णिद् वा न' स्यात् ,' णित्त्वाश्रयं कार्य पक्षेप्रतिषि अव०- 'वकारानुबन्धे प्रत्यये परे सति।।६।। ध्यते / सुमोऽहं किल विललप, विललाप; निनय, निनाय; जजागर, जजागार; वा णित्त्वप्रतिषेधात् न दि-स्योः / / 4 / 361 // कुटाहीनां गुणविभाषा- चुकुट, चुकोट / / 58 // म० वृ०-'ऊर्णोतेर्दिस्योः परयोरौन' स्यात् / अव०-१ णिति (4 / 350) इत्यादिविधि प्रौर्णोत् , प्रौर्णोः // 6 // कार्यम् / अन्त्य इति किम् ? स पपाच / णित्त्वाश्र अव०-* 'वोर्णोः' इति पूर्वसूत्रेण प्राप्तोऽपि यस्य विकल्पनात् णवाश्रयं कार्य नित्यमेव भवति, औः, 'न दिस्योः' इति .:. पृथग्योगात्प्रतिषिध्यते अहं पपौ / ननु एवं तर्हि णवाश्रयत्वात् 'जागुर्बि इति भावः / 'स्वरादेस्तासु' (४।४।६१।इति ) णधि' (363.52) इत्यनेन जजागरेत्यत्र नित्यं वृद्धिः प्राप्नोति, सत्यम् , 'णिद्वान्स्यो णव् ' (? 'जागुर्बि वृद्धिः // 61 // णवि' / 4 / 3:52) इत्यनेन नात्र वृद्धिः क्रियते, निय- तृहः श्नादीत् / / 4 / 3 / 62 // मविधायकवादस्य; वृद्विश्च पूर्वेणैव भवति, तत्र ___म० वृ०-तृहेः भात्पर 'ईत्-ईकारः' स्यात् , णित्वमाश्रीयते इति भावः / / 5 / / व्यञ्जनादौ विति ।तृणेढि व्यञ्जनादावित्येव- तृण___उत और्विति व्यञ्जनेऽद्वेः // 4 / 3 / 59 / / हानि 2 / वितीत्येव- तृण्ढः // 62 // .. म० वृ०- अद्विरुक्तस्य उकारान्तस्य धातोयञ्जनादौ विति प्रत्यये 'औः' स्यात् / यौति, रौति; अव०-१'हिसु तृहप हिंसायाम्' (इति) तृह, यौषि, यौमि, यौतु; अयौत् , अयौः, अरौः' धातो वर्तमानातिव , एवं सिव , मिव , रुधां स्वरात् श्नो०' रिति किम् ? तनोमि / वीतीति किम् ? रुतः / व्य इति धातुविचाले भः, 'तृहः श्रादीत् ' (4 / 3 / 62 / अने इत्येव- यवानि, स्तवानि / अद्वेरिति किम् ? इतीत् ,) हो धु' (2 / 1182 इति) हस्य ढः, जुहोति, योयोति / तथा तोः स्थाने तातडो ङित्त्वात् 'अधश्चतुर्था० (2 / 1279 / इति) तस्य धः, 'तवर्गस्थानिवत्त्वं बाध्यते, तेन- युतात् // 59 / / स्य श्च०' (१।६।६०।इति) धस्य ढः, 'ढस्तड्ढे' (1 / 3 ।४२।इति) एको ढो लुप्यते, 'तृणेढि' इति सिद्धम् , अव०-वितिकारानुबन्धे प्रत्यये परे सति। / एवं तृणेक्षि, तृणेमि / २(एवम् ) अतृणहम् // 62 / / (एवं) रौषि, रौमि,रौतु, अरौत् / (एवं) सुनोमि / ब्रूतः परादिः।।४।३।६३॥ केचित्तु या लुबन्तस्यापि उकारान्तधातोः औत्वमिच्छन्ति,- नोनौति, रोरौति, योयौति / ( एवं )3 म० वृ०-[ब्रुवः ऊत्-रुत् , तस्मात् , इति 'रुतात्' इत्यत्र न औकारः / / 59 // रचना ] ब्रूतेरुकारात्पर 'ईत् ' स्यात् , व्यञ्जनादौ विति, स 'परादिः परावयवो'] भवति / ब्रवीति, वोर्णोः।।४।३।६०॥ ब्रवीषि, बिवीमि, अब्रवीत् / ऊत इति किम् ? 4 म० वृ०-ऊर्णोतेरद्विरुक्तस्य व्यञ्जनादौ विति / आत्थ / व्यञ्जनादावित्येव- अब्रवम् // 6 // * अत्र 'वोर्णोः' इति पाठोऽसङ्गतः, 'उत प्रोविति' व्यञ्जनेऽद्वेः' इति पाठः सङ्गतः। .:. अन्यथा 'वोर्णोरदिस्योः' इत्येकमेव सूत्र क्रियेत / Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०४ पा०३ सू० 64-67 अव०- 'ब्र , वर्तमानासि, 'ब्रूगः पञ्चानां / अस्तेश्च सकारान्तात्पर ईत् इति पुनर्व्याख्यानं व्यपश्चाहश्च' (4 / 2 / 118 / इति) रूस्थाने आहे ; सि- थै स्यात् ,सिचद्वारेणैव ईत् भवेत् / 'सः सिजस्ते'स्थाने थः, 'नहाहोर्धतौ' (2 / 1985) इत्यनेन हका- | रिति पाठोऽलीकः स्यादिति ह्यस्तन्या एव 'दिवृ रस्य तकारः // 6 // सिव् ' अस्तेः परो भवति / / 5 / / यङ्-तु-रु-स्तोर्बहुलम् // 4 / 3 / 64 // पिवैति- दा-भू' -स्थः सिचो लुप् परस्मै म० वृ०-यङ लुबन्तात् 'तुरुस्तु' इत्येतेभ्यश्च न चेट् // 4 / 3 / 66 धातुभ्यः पर 'ईत्' स्यात् , व्यञ्जनादौ विति, स च 'परादिः', बहुलं-शिष्प्रयोगानुसारेण / कचिद्वा म. वृ०-एभ्यः परस्य 'सिचो लुप्' स्यात् , बोभवीति, बोभोति; न तीति, नर्नति' / क्वचिन्न, | परस्मैपदे परे, न चेट-लुब्योगे चैतेभ्यो धातुभ्यः वृत् (इत्यस्य) वर्ति, कृ (इत्यस्य) चर्कमि / अन्ये पर 'इट् न' स्यात् / अपात् , अगात् , अव्यगात् , . . तु- वावदीति, लालपीति, रोरवीति (इति) नित्यम् / दासंज्ञ,- अदान , अधात् ; अभूत्, अस्थात् / सिच लोपः परत्वादीतं बाधते / परस्मै इति किम् ? [तुक् वृत्तिहिंसापूरणेषु। टुक्षु रु कुंक् शब्दे ) तुंक् , अपासत पयांसि चैत्रेण / लुकमकृत्वा लुप्करणं स्थातवीति, तौति; ' रु--२रवीति, रौति; स्तु- स्तवीति, निवद्भावाभावार्थम् , तेन- अबोभोद् , अत्र न स्तौति / व्यञ्जनादावित्येव- बोभवानि अबोभवम् , वृद्धिः // 66 // लालपानि, तवानि; रवाणि स्तवानि / वितीत्येवबोभूतः, लालप्तः, स्तुतः; [सर्वत्र तस् ] / अद्वेरित्य अव०-१पिब' इति निर्देशात् 'पां पाने' इति नुवृत्तः 'तुतोथ, तुष्टोय' इत्यत्र न ईत् / / 64|| भौवादिकस्यैव ग्रहणम् ,पातिपायत्यानं ग्रहणम् ,तयोः अव०- (एवं) ' लालपीति, लालप्ति / यङ 'अपासीद्वनं वस्त्र वा' इति प्रयोगः / सूत्रे एतीति तुरुस्तोरिति सत्रे 'यङ' इति सामान्याभिधानेन निर्देशात् 'इक् गतौ"इक स्मरणे इत्येतयोर्ग्रहणम ; यङ लुबन्तस्यैव ग्रहणम् , यङन्तधातोरात्मनेपदि- तयोः 'अगात्'इति उदाहरणम् ; इकोऽध्यात्। 'भू' त्वाद् व्यञ्जनादिवित्प्रत्ययस्यासम्भवात् / यङ- इति निर्देशात् भवतेः, अस्त्यादेशस्य 'भू' इत्यलुबन्तं हि परस्मैपदिनं धातुमाहुः (अदादौ) / यङ- स्यापि ग्रहणम् / दासंज्ञ इति किम् ? अदासीत् लुबन्ताच तिसिवादयः प्रत्यया भवन्ति // 64 // केदारं भोजनं बा // 66 // सः सिजस्तेर्दिस्योः // 4 // 3 // 65 // ट्थे-घा-शा-छा-सो वा // 4 / 3 / 67 // म० वृ०-सिजन्ताद्धातोरस्तेश्च सकारान्तात्परः म. वृ०-एभ्यः 'सिचो लुप् परस्मैपदे वा' 'परादिरीत् ' स्यादिस्योः परयोः / अकार्षीत् , | स्यात् , लुब्योगे एभ्यो नेट्' / अधात् , अधासीत् ; अकार्षीः; आसीत् , आसीः / स इति किम् ? अघ्रात् , अघ्रासीत ; अशात् , अशाली ; अछात्, अदात् , अभूत् / / 65 / / अछासीत ; असात् , असासीन् / परस्मै इति किम् ? अधिषातां स्तनी वत्सेन // 6 // प्रव०-१'आसीत् , आसीः' इत्यत्र ह्यस्तन्या एव दिव , सिव ; न अद्यतन्याः दि,सि; अद्यतन्यां सत्यां अव०-धेः (धातोः) पूर्वेण नित्यं प्राप्ते,शेषेहि वक्ष्यमाणसूत्रेणास्तेः 'भूः' आदेशः स्यात् / किं च / भ्योऽप्राप्ते विकल्पोऽयम् // 67 / / * नन्वत्र 'अस्ते: सि: हस्त्वेति' इति सलोपेऽस्ते: कथं सकारान्तत्वम् ? इति चेद् , न, 'आदेशागमः' इति न्यायेनादावेवाकारागमः। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिचो लुम्विधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिस्वलितम् / [117 तन्भ्यो वा 'त-थासि न्णोश्च / / 4 / 3 / 68 // सिचमाश्रित्य वृद्धयादिकार्यप्रतिपत्त्यर्थम् ], तेन __म० वृ०- तनादेर्गणात् 'सिचो लुप्' ते / ५'अवात्ताम् , अवात्तम् , अवात्त;' अत्र सिचि क्रियथासि च प्रत्यये परे 'वा' स्यात् , लुब्योगे 'नकार माणा वृद्धिः सिजभावेऽपि सिद्धा / तथासीत्यनुवर्त्त माने तथग्रहणं व्याप्त्यर्थम् , 'तेन साहचर्य नास्ति / स्य णकारस्य च लुप् ; न चेट्' / अतत, अतनिष्ठ; तथोरिति द्विवचनं यथासङ्ख्यपरिहारार्थम् // 70 / / अतथाः, अतनिष्ठाः; असत, असनिष्ठ; असथाः, असनिष्ठाः / एवमक्षत 2 इत्यादि // 68 / / श्रव०-(एवम् ) 'अभैत्तम् , अभैत्त, अभित्त प्रव०-'तप्रत्यये परे थासप्रत्यये च परे / / इति प्रयोगा ज्ञेयाः / २एवं समस्थित, समस्थिथाः / 'तन्भ्यो वा तथासि न्णोश्च' इति सूत्रे परस्मैपदे इति / 3'आहत, अहथाः'; अत्र 'यमिरमिनमिगमिहनिमनिवृत्तम् ,थास्ग्रहणात् ।थास्साहचर्याञ्च तप्रत्ययोऽ- निवनतितनादेटि क्डिति' (4 / 2 / 55) इति नकारो प्यात्मनेपदसम्बन्ध्येव गृह्यते, तेन- अतनिष्ट यूयमि- लुप्यते / (एवम् ) अच्योष्ठाः। “अवात्ताम्' इत्यादि, त्यत्र ते सिचोऽल्प / २अक्षत'. आदिशब्दात अक्ष- 'वसं निवासे' (इति) वस् , अद्यतन्याः ताम् , तम् , णिष, अक्षथाः, अक्षणिष्ठाः; आर्त, आर्णिष्ट; आर्थाः, त; 'सस्तः सि' (4 / 3 / 92) इति सूत्रेण धातुसकारआर्णष्ठाः; अतृत, अतर्णिष्ट; अतृथाः, अतर्णिष्ठाः; स्य तकारः, तत्पश्चात् पूर्व 'धुडह्रस्वाल्लुग०' (४॥३अघृत, अधर्णिष्ठ; अघृथाः, अघर्णिष्ठाः; अवत, अब- 70) इति सिच लुप्यते, सिचो लुक्यपि स्थानित्वात् निष्ठ; अवथाः, अवनिष्ठाः; अमत, अमनिष्ट; अमथाः, 'व्यञ्जनानामनिटि' (4 / 3 / 45 इति) वृद्धिः क्रियते / अमनिष्ठाः // 68| ६'तेन साहचर्य नास्ति',-यथा 'तन्भ्यो वा तथासि.' सनस्तत्रा वा // 4 / 3 / 69 / / (4 / 3 / 68)............ ... (इति सूत्रे थास साहचर्यात् तप्रत्ययोऽप् ) यात्मनेपदी गृह्यते,......" म० वृ०-सनोतेस्तत्र लुपि [सिचो लुपि] सत्यां (तथा) धुड्ह्रस्वेत्यत्र थप्रत्ययेन सह तप्रत्ययस्य सन्धातोरन्तस्य 'वा आः' स्यात् / असात, असत; साहचर्य न ग्राह्यम् , इ................... (ति परस्मैअसाथाः, असथाः / तत्रेति किम् ? असनिष्ट, अस पदेऽपि 'अभैत्तम्' इत्यादिषु सिचो लुक्, तस्य निष्ठाः / / 69 / / च स्थानिवद्भावाद् 'व्यञ्जनानाम)निटि' (इति) वृद्धिः // 7 // अव०-'असनिष्ट, असनिष्ठाः'; अत्र 'तन्भ्यो वा०' (4 / 3 / 68) इत्यादिना विकल्पेन सिचो लुप् , इट ईति // 4 / 3 / 71 // अत्र सिच् न लुप्तः / / 39 // म० वृ०-इटः परस्य सिचो 'लुक्' स्यादीति धुड-ह्रस्वाल्लुगनिटस्त-थोः / / 4 / 3 / 70 // | परे। अलावीत् , सिचो लुक्यपि स्थानिवदभावात् ___ म० वृ०-धुडन्तात् ह्रस्वान्ताच्च धातोरनिष्टः वृद्धिः; अग्रहीत् / इट इति किम् ? अकार्षीत् // 71 / / 'सिचो लुक्' स्यात्तकारादौ थकारादौ च प्रत्यये . सो धि वा // 4 // 3 // 72 // परे। अभैत्ताम् , 'अभित्थाः ह्रस्व,- अकृत, अकृथाः; आहत, आहथाः / धुड्ह्रस्वादिति किम् ? अमंस्त, म. व०-धातोः सकारस्य 'लुग् वा' स्याद्धकाअमंस्थाः / “अच्योष्ट,- अत्र लुकः परत्वेऽपि नित्य- रादौ प्रत्यये / चकाधि, चकाद्धि; ['हुधुटो हेर्धिः' (4 / त्वात्प्रागेव गुणः / तथोरिति किम् ? अभिसाताम् , - 283) इति हेधिः,] आशाध्वम् , आशाद्ध्वम् ; अभित्सत; अकृषाताम् , अकृषत / लुबधिकारे लुगा- ['तृतीयस्तृतीयचतुर्थे' (1 / 3 / 49) इति सस्य दकारः] हणं सिजलुक्यपि स्थानित्वेन तत्कार्यप्रतिपत्त्यर्थम् // 72 // Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 4 पा० 3 सू० 73-76 प्रव०–'आशाद्ध्वम्' इत्यस्याग्रे 'अलविध्वम् , / ह्वहि; अधुक्षावहि इत्यादि / दन्त्येति किम् ? अलविड्व म् , इत्यपि ज्ञेयम् , (तत्प्रक्रियैवम् -) | अधुक्षामहि // 74|| अद्य० ध्वम् , सिच् , (इट ) अट् , सो धि वा' इत्यनेन सिसकारो विकल्पेन लुप्यते, यत्र सो लुप्तः अव०-'त, थास् , ध्वम , वहि'- एते प्रत्यया तत्र अलविध्वम् , अन्यत्र 'नाम्यन्तस्थाः' (2 / 3 / 15) दन्त्या उच्यन्ते;"लुवर्णतवर्गलसा दन्त्याः, वो दन्त्यो(इति) सस्य षः, 'तृतीयस्तृतीयचतुर्थे (1 / 3 / 49) ष्ठयः' इति न्यायात् / २'दुहदिह' इति सूत्रे आदिइति षस्य डः, 'तवर्गस्य श्चवर्ग०'(१।३।६०) इत्यनेन शब्दात् दिह,- अदिग्ध, अधिक्षत; अदिग्धाः, अधिध्वमो धस्य ढः / सिच(?सिच्य)नुवर्त्तमाने सग्रहणं क्षथाः; अधिग्ध्वम् ,अधिक्षध्वम् अदिहि, अधिक्षासामान्यसकारपरिग्रहार्थम् , तेन प्रकृतिसकारस्य वहि; लिह,- अलीढ, अलिक्षत; अलीढाः,अलिक्षथाः; प्रत्ययसकारस्यापि लुग् भवतीत्यर्थः / / 72 / / अलीढ्वम् , अलिक्षध्वम् ; अलिह्वहि, अलिक्षावहिः गुह, न्यगूढ, न्यघुक्षत; न्यगूढाः, न्यघुक्षथाः; न्यगूअस्तेः सि हस्त्वेति // 4 / 3 / 73 // ढवम् , न्यघुक्षध्वम् ; न्यगुह्वहि, न्यघुक्षावहि; एवम० वृ०- अस्तेः सकारस्य सकारादौ प्रत्यये / मुदाहरण (?णानि) 32 / एषु सर्वत्र 'हशिटो नाम्यु'लुक' स्यात् , 'एकारे तु प्रत्यये परे सति सकारस्य पान्त्याददशोऽनिटः सक्' (3 / 4 / 55 / इंति सक् ,) हकारः' / असि, व्यतिसे, हस्त्वेति- व्यतिहेर 'दुह दिह०' इत्यनेन वा सको लुक् , 'भ्वादेर्दादेर्घः' // 73 // (2 / 1 / 83) इति दुहो हस्य घः, लिहगुहो हस्य 'हो धु' (2 / 1182) इत्यनेन ढः, सफि सति अव०-१व्यतिसे' इत्यत्र 'असक् भुवि' (इति)अस् 'गडदबादेः'० (2 / 1177) इत्यनेन दस्य धः गस्य घः, व्यतिपूर्वम,वर्तमानासे, ‘नाऽस्त्योर्मुक् ' (4 / 2 / 90) सर्वत्र प्रत्ययत-थोर्धकारः, 'तवर्गस्य०' (1 / 3 / 60) इति इत्यनेन अस्तेः अकारो लुप्यते, 'अस्तेः सि हस्त्वेति' धस्य ढः, 'ढस्तड्ढे'(१।३।४।इति)ढलोपः, उपान्त्यइत्यनेन अस्तेः सकारो लुप्यते,एवमकारसकारयोर्लो- स्य दीर्घः, 'अघोषे प्रथमो०' (1 / 3 / 50i इति) घस्य पे प्रत्ययमानं 'व्यतिसे' इति पदम् / 2 व्यतिहे'इत्य- क्, 'नाम्यन्तस्था०' (2 / 3 / 15) इति सस्य षः / / 74 / / स्याग्रे 'भावयामाहे, कारयामाहे चैत्रेण' इति प्रयोग स्वरेऽतः // 4 / 3 / 75 / / द्वयं द्रष्टव्यम् / (तत्प्रक्रियैवम्-) भू , कृ; णिग्, वृद्धिः; भाव , कार; परोक्षा-ए, 'धातोरनेकस्वरा म० ३०-सकोऽकारस्य स्वरादौ प्रत्यये 'लुक' दाम०' (3 / 4 / 46) इत्यनेन परोक्षा-एस्थाने आम , स्यात् / अधुक्षाताम् , अधुक्षाथाम् , अधुक्षि' / स्वर 'आमन्ताल्वाययेत्नावय ' (4 / 3 / 85 ) इत्यनेन इति किम् ! अधुक्षत ||5|| णिग्रस्थाने अय् , 'धातोरनेकस्वरा०'इत्यनेनैव आम् अव०-- 'एवमधिक्षाताम् , अधिक्षाथाम् , परतः 'अस् , ए' इत्यनुप्रयोगः, 'अस्यादेराः परो०' अधिक्षि / (एवम् ) अधिक्षत / / 5 / / (4 / 1 / 68 / इति) पूर्वस्य आकारः, 'अस्तेः सि हस्त्वेति' इति सकारस्य हकारः / एकारे नेच्छन्त्यन्ये सस्य दरिद्रोऽद्यतन्यां वा // 4 / 3 / 76 / / हम् ,- भावयामासे, कारयामासे चैत्रेण / / 3 / / म० वृ०-दरिद्रातेरद्यतन्यां विषयेऽन्तस्य 'वा दुह-दिह-लिह-गुहो दन्त्यात्मने वा सकः / / 4 / 3 / 74 / / लुक्' स्यात् / अदरिद्रीत् , अदरिद्रासीत् , . २अदरिद्रि, अदरिद्रायि // 76 // म० वृ०-एभ्यः परस्य सकप्रत्ययस्य 'वा लुक' स्यात् , दन्त्यादौ आत्मनेपदे। अदुग्ध, अधुक्षत; I अव०- 1 अदरिद्रीत्' इत्यादि, दरिद्रा, अद्यअदुग्धाः, अधुक्षथाः; अधुग्ध्वम् , अधुक्षध्वम् , अदु- | तनी-दि, सिच , ईत् , विषयव्याख्यानात् 'आदे Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दि-सि-यकाराणां लुविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 119 शादागमो बलवान्' इति न्यायबलात् पूर्व 'यमिर- | म० वृ०-धातोर्व्यञ्जनान्तात्परस्य ‘देर्लुक्' मिनम्यातः सोऽन्तश्च' (4 / 4 / 86) इति सूत्रेण 'इट् / स्यात् ,यथासम्भवं 'धातुसकारस्य च दः' / अचकाद् (तथा) सोऽन्तो न कार्यः' इति हेतोः पूर्वं विकल्पेन भवान् , अन्वशात् , अजागः / / 78 // दरिद्र आकारलोपः; पक्षे- इट् सोऽन्तश्च, ‘इट ईति' (4 // 3 // 71 इति) सिच लुप्यते / २'अदरिद्र, अद्य ___ अव०- धातोरित्येष- अभैत्सीत् / अत्र ईतः परातनीत, 'भावकर्मणोः' (3 / 4 / 68 इति) विच विषय- दित्वेन सेतोऽपि देलु प्राप्नोति इति प्रतिषेधः, व्याख्यानबलात् 'आत ऐ: कृऔं' (4 / 3 / 53) सिचः परो दिः, न धातोः पर इति न लुक् // 78 // इत्यनेन ऐकारो न भवति, पक्षे ऐ: स्यात् / / 76 / / सेः स-द्-धां च रुवा // 4 / 379 // अशित्यस्सन् णकच-णकाऽनटि // 4 / 3 / 77 / / मवृ०-धातोय॑ञ्जनान्तात् ‘सेलु क्' स्यात् , म० वृ०-सकारादिसन-णकच् -णकानट्वर्जि यथासम्भवं 'सकारदकारधकाराणां च वा रुः' / तेऽशिति विषये दरिद्रोऽन्तस्य लुक् ' स्यात् / 'दरि अचकास्त्वम् , अचकात्त्वम् ; एवमन्वशास्त्वम् , द्रयति, दरिदितुम् ; दरिद्यते, दरिद्रातीति दरिद्रः,२ अन्वशात्त्वम् / सकारस्य रुत्वे सिद्धे' पक्षे रुत्वबाव नार्थ वचनम् , ततश्च पक्षे 'धुटस्तृतीय': (2 / 1 / 76 / दरिद्राणम् दरिद्रः / अशितीति किम् ? दरिद्राति / इति सस्य दः- अभिनस्त्वम् , अभिनत्त्वम् , अरुसन्नादिवर्जनं किम् ? दिदरिद्रासति, दरिद्रायको णस्त्वम . अरुणत्त्वम ; अजर्घाः, अजर्घः, अजागयाति, दरिद्रायिका, दरिद्रायकः, दरिद्यूते (इति) स्त्वम् / रोरुदित्करणं किम् ? उत्वादिकार्य यथा अनट - दरिद्राणम् / सनः सादिविशेषणं किम् ? दिदरिद्रिषति [‘इवृधभ्रस्जदम्भ०' (4 / 4 / 47) इति स्यात् ,- अभिनोऽत्र, अरुणोऽत्र // 79 // इट् ]||7|| अव०- 'व्यजनाद् देः सश्च दः' इति सूत्र ह्यस्तनीसम्बन्धी दिः, तत्साहचर्यात्-तत्प्रत्यासत्तेः अव०-'विषयविज्ञानाद् ‘अतिरीव्ली०' (4 / | 'सेः रद्धां च रुर्वा' इत्यत्रापि सूत्रे सिरपि ह्यस्तनी।२।२१) इति न पोऽन्तः। विषयसप्तमीविज्ञानादेव सम्बन्ध्येव गृह्यते, तेन 'हिनत्सि' इत्यत्र न 'सेः' पूर्वमाकारलोप एव, तदनन्तरमचप्रत्ययः क्रियते, लुक् / 'सो रुः' (2 / 172) इत्यनेन रुत्वप्राप्तिः / न तु 'तन्व्यधीणश्वसातः' (5 / 1 / 64) इत्यनेन आद- २परं सकारस्य दकारः कार्यः। 3'अतोऽति रोरुः' न्तलक्षणो णप्रत्ययः / उ'दरिद्राणम्-दरिद्रः,' अत्र | (1 / 3 / 20) इत्यनेन उत्वम् , आदिशब्दात् 'रोर्यः' घधि सति ‘आत ऐ: कृौ ' (4 / 3153) इति ('ऐः') (1 / 3 / 26) इत्यपि / / 79 // न भवति, विषयसप्तमीविज्ञानात्पूर्वमालोपः / “दरिद्रास्यामीति याति इति वाक्ये 'क्रियायां क्रियार्थायां योऽशिति // 4 / 3 / 80 // तुम्णकचभविष्यन्ती' (5 / 3 / 13) इत्यनेन णकच , म० वृ०- व्यञ्जनान्ताद्धातोः परस्य ‘यकारदरिद्रायको याति / 'तथा दरिद्रातुपर्यायो दरिद्रा | स्याशिति लुग्' स्यात् / जङ्गमिता, बेभिदाञ्चक्रे, यिका वर्तते, 'पर्यायाहोत्पत्ती०' (5 / 3 / 120) इत्य- बेभिद्यते, सोसूचिता, कुषुभिता, मगधकः / धातोनेन णकप्रत्ययः / दरिद्रातीति दरिद्रायकः, 'णक- - रित्येव-- ईयिता, पुत्रकाभ्यिता / व्यञ्जनादित्येवतृचौ' (५।१।४८।इति णकः) / अक इत्येवं वक्तव्यम् , लोलूयिता / / 80 // णकच्णकयोरुपादानं किम् ? आशिष्यकनि मा भूत् ,- दरियादित्याशास्यमानो दरिद्रकः / / 77|| अव०- 'योऽशिति' इत्यनेन 'य्' इति स्वर हीनो लुप्यते, न सस्वरो यकारः / यदि सस्वरस्य व्यञ्जनादेः सश्च दः // 4 / 3 / 78 // / यकारस्य लुक् स्यात् , तदा 'जङ्गमिता' इत्यादी Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०४ पा० 3 सू०८१-८३ 'गमहनजनखन०' (4 / 2 / 44) इत्यनेन उपान्त्यलोपः / ऽधिकाराद् / इयमवचूरिः पटायिता इत्यस्याने ज्ञातस्यात् / 'य्' इति व्यञ्जने च लुप्ते स्थानित्वाद् व्या // 81 // व्यवधायकत्वं स्यात् / * प्रत्यये परे यह तृच अतः / / 4 / 3 / 82 // सूसूनी ता 'अत' (4 / 3 / 82) इति अकारलोपः उपूर्व यङ् ततः क्यद के सोसूचिता, सोसूत्रिता, मोमू म० वृ०-अकारान्ताद्वातोर्विहितेऽशिति तस्यैव धातोलुंगन्तादेशः' स्यात् / कथयति, कुषुभ्यति, त्रिता, शाशयिता, कुषुभिता, मगधकः / सूच्यादीनां मगध्यति, प्रचिकीर्घ्य, दृषद्यिष्यते / विहितविशेषणिजलोपेशयादेशे च कृते. सर्वोदाहरणेष 'अतः * (4 / 3 / 82) इत्यनेन अकारलोपे च कृते, धातोर्व्यञ्ज णादिह न स्यात्- गतः, गतवान् / अत इति किम् ? याता // 82 // नान्तत्वं . घटितम् / कुषुभमगधशब्दो कण्ड्वादौ अकारान्तौ, 'धातोः कण्ड्वादेर्यक्' (३।४।८।इति) अव०-'कथण वाक्यप्रबन्धे' (इति) कथ यक् / / 80 // सस्वरः, णिगि सति 'अतः' इत्यनेन अकारलोपः, क्यो वा // 4 / 3 / 81 / / कथ् , अय् इत्यन्तादेशः / / / 82 // म० वृ०--धातोर्व्यञ्जनात्क्यस्याशिति 'वा णेरनिटि' // 4 / 3 / 83 / / लुक' स्यात् / समिधमिच्छति (इति) क्यन् , म. वृ०-अनिटि अशिति प्रत्यये परे ‘णेलक' समिधिष्यति, समिध्यिध्यति; समिध्यात् , समि स्यात् / अररक्षत् , आटिटत , कारणा, कारकः, ध्य्यात् ; दृषदिवाचरति (इति क्यड) दृषदि- कार्यते,प्रकार्य / इय्--य् गुण-वृद्धि-दीर्घता-ऽऽगमानां ब्यते, दृषद्यिष्यते, दृषदिषीष्ट, दृषधिषीष्ट / व्य- बाधकोऽयम् / अनिटीत्या विषयसप्तम्यपि, तेन जनादित्येव-पटमिच्छति (इति) पटीयिता, पट 'चेतन' इत्यत्र प्रागेव णेोपे 'इडितो व्यञ्जनाद्यइवाचरति (इति) पटायिता // 81 // न्तात' (5 / 2 / 44) इत्यनः सिद्धः२ / चेतयते इत्येवं शील इति वाक्ये अनः / अनिटीति किम ? कारअव०-"क्यो वा" इत्यत्र सामान्यनिर्देशात् / यिता ||83|| क्यन्क्यको'-ग्रहणम् / कयङ षस्तु व्यजनान्तात् प्राप्तिरेव नास्ति / 'क्यो वा' इति सूत्रे क्य इत्यत्र अव०-१'अररक्षत' इत्यत्र णिगः "संयोगात" . व्यञ्जनान्तात् 'क्य्' इति परतः षष्ठी अतो लुकि | (2 / 1 / 52) इतिसूत्रेण 'इय्' (आदेशे), 'आटिटत्' कृते) लुगा ज्ञातव्या, तेन, 'अतः' (4 / 3 / 82) इति (इति) अत्र च 'योऽनेकस्वरस्य' (२।१।५६)सूत्रेण 'य' सूत्रेण क्यस्य अकारे लुकि कृते....(ऽनेन 'य') इति आदेशे, 'कारणा' इत्यत्र “नाभिनो गुणोऽविङति" लुप्यते, (अन्यथा) अकारलुगपवादः क्यिस्य सस्वर- (4 / 3 / 1) इति गुणे, ‘कारकः' (इति) अत्र च 'नामिस्य लुक् विज्ञायेत इत्यर्थः / तेनेत्यादिविधेः फलमिदं नोऽकलिहले' (4 / 3 / 51) इति वृद्धौ, 'कार्यते' इत्यत्र ज्ञातव्यम् ,- 'दृषदक' इत्यत्र स्थानिवद्भावे (वृद्धय- "दीर्घश्चियङ याक्येषु च” (4 / 3 / 108) इति भाव:) फलम ,सस्वरक्यलोपेत स्थानित्वं न स्यात, दीर्घ, 'प्रकार्य' इत्यत्र "हस्वस्य तः पित्कृति" (राधा समुदायलोपत्वात् , नापि 'न वृद्धिश्चाविति०' (4 / 113) इति तोऽन्ते च प्राप्ते सति “णेरनिटि" अयं 3 / 11) इत्यनेन वद्धिनिषेधः स्यात् , तत्र नामिनो- | योगो बाधकः कृतः / अन्यथाऽनेकस्वरत्वात् चेतेः * 'प्रत्यये परे' इत्यतः प्रभृति 'ततः क्यङ' इति यावत्पाठोऽशुद्धतादिदोषग्रसितो विद्यते। . अत्रायं भावः--सोसूचितादिदृष्टान्तत्रिके सूच्यादिघातूनां चुरादित्वान्णेलोपेऽदन्तत्वाचाकारलोपे, 'शाशयिता' इत्यत्र शीङो धातोः शयादेशे कृते, 'कुषुभिता मगधक:' इत्यत्र कुषुभमगधधात्वोरदन्तत्वादकारलोपे व्यञ्जनान्तत्वम् / -- Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गेलुंगविधानम् / मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [121 “परो निन्दहिंसक्तिश०' (5 / 2 / 68) इत्यनेन ‘णकः' / अव० लघोर्यपी'-ति सूत्रे वचनसामर्थ्यादेकेन स्यात् / / 8 / / वर्णेन व्यवधानमाश्रीयते, (तेन) प्रशमः परतो णेः 'सेटक्तयोः // 4 / 3 / 84 // स्थाने 'अय्' सिद्धः // 86 // म० वृ०-सेटोः क्तयोः परतो ‘णेलुक् 'स्यात् / वाऽऽप्नोः // 4 / 3 / 87 // कारितः, कारितवान् ; गणितः // 84 // म० वृ०-आप्नोतेः परस्य णेर्यपि परे 'अय् वा' प्रव०-'सेटतयोरिति सूत्रे सेडिति किमर्थम् ? स्यात् / प्रापय्य, प्राप्य / इनुनिर्देशादिङादेशस्यापेः न 'अय',-अध्याप्य गतः // 8 // इटि कृते एव लोपो यथा स्यात् ,- शाकितः, शाकितवान् ; अन्यथाऽत्र 'एकस्वरादनुस्वारेतः' (4 / 4 / 56) अव०-१ङ्क अध्ययने (इति) अधिपूर्वः (इ), इति सूत्रेण एकस्वरत्वात् 'इट् न' स्यात् / / 84 // अधीयानं प्रयुक्त (इति) 'प्रयोक्त०' (3 / 4 / 20 / आमन्ताऽऽल्वाऽऽय्येत्नावय / / 4 / 3 / 85 / / / इति) णिग् , 'णौ क्रीजीङः' (4 / 2 / 10) इत्यनेन म० वृ०-आम्-अन्त-आलु-आय्य--इल्नुप्रत्ययेषु इकारस्य आकारः, 'अतिरीली०' (4 / 2 / 21) इति पोऽन्तः, इति आप् लाक्षणिकः // 87 // परेषु ‘णेरयादेशः' स्यात् / लुकोऽपवादः / कारयाञ्च ... मेडो वा मित् // 4 / 3 / 88 // कार, (गण्डयन्तः)२ मण्डयन्तः, (गृहयालुः) स्पृहयालुः, स्पृहयाय्यः, महयाय्यः, स्तनयित्नुः / / 5 / / म०वृ०-मेडो यपि 'मिदादेशो वा' स्यात् / अपमित्य, अपमाय याचते // 8 // अव०-१ 'गडु वदनैकदेशे' २'मडुण् भूषायाम्' 'उदितः स्वरान्नोऽन्तः' (4 / 4 / 98) इनि गण्ड् मण्ड् ; प्रव०-ॐअपमातुं याचते (इति) “निमील्या'गण्डयतात् , मण्डयतात् इत्याशास्यमानः' इति दिमेडस्तुल्यकत के" (5 / 4 / 46) इति सूत्रेण क्त्वावाक्ये 'तृजिभूवदिवहिवसिसासादिसाधिमदिगडि- प्रत्ययः / 'मे प्रतिदाने' इति मेङ धातुः // 8 // गण्डिमण्डिनन्दिरेविभ्यः' (उणा०२२१) इत्युणादि क्षेः क्षी // 4 / 3 / 89 // सूत्रेण अन्तप्रत्ययः / गृह्णाति स्पृहयति इत्येवं 'शीलः (इति) 'शीङ -श्रद्धानिद्रातन्द्रादयिपतिगृहिस्पृ म० वृ०-क्षेर्यपि 'क्षीः' स्यात् / प्रक्षीय // 89 // हेरालुः' (५।२।३७।इत्यालुः) / स्पृह, 'महण् पूजायम् अव०-'क्षिं क्षये' इत्यस्य निरनुबन्धस्य क्षी आ(इति) मह अदन्तः, स्पृह्यन्ते मह्यन्ते देवता गुरवोऽ देशः, सानुबन्धस्य 'क्षिषश् हिंसायाम्'इत्यस्य न क्षी, स्मिन् (इति) 'श्रुदक्षिगृहिस्पृहिमहेराय्यः' (उ०३७३) सानुबन्धत्वात् / / 89 // इत्युणादिसूत्रेण आय्यप्रत्ययः / 'स्तन धन ध्वन क्षय्य-जय्यौ शक्तौ // 4 / 3 / 90 // चन स्वन वन शब्दे' (इति) स्तन् , णिग्, 'हृषिपुषिघुषिगदमदिनन्दिगडिमण्डिजनिस्तनिभ्योणेरि- म० वृ०-क्षि जि इत्येतयोः शक्तौ गम्यमानुः' (उ०७९७) इत्यनेन उणादिना इनुप्रत्ययः / / 85 / / नायां 'यप्रत्ययेऽय्' 1 निपात्यते / क्षय्यो व्याधिः, लघोपि // 4 / 3 / 86 // 3 क्षय्यं बटुना; 4 जय्यः शत्रुः, 5 जय्यं राज्ञा / शताविति किम् ? अर्हे-क्षेयम् , 6 जेयम् 7 // 9 // म० वृ०-लघोः परस्य णेर्यपि परे 'अय्' स्यात् / प्रशमय्य, प्रबेभिदय्य, प्रगणय्य / लघोरिति प्रव०-१'अय' इत्यन्तादेशः। 2 क्षेतं शक्यः , * किम् ? प्रतिपाद्य / / 86 / / 'य एचातः' (5 / 1 / 28) / शक्यं क्षितुम् , (? क्षेतुम्) / * प्रतिदातुमित्यर्थः। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 4 पा० 3 सू० 91-96 शक्यो जेतुम् / 5 शक्यं जेतुम् , (सर्वत्र) 'य ए प्रव०-दीडो ङित्करणं यो लुपि दीयादेशचातः' (5 / 1 / 28 / इति येप्रत्ययः)। 6 क्षेतुं " जेतु- . | निवृत्त्यर्थम्- उपदेधितः / 'दीङ च क्षये // 13 // महः (? अहम् )-'शक्तार्हे कृत्याश्च' (5 / 4 / 35 / इति) यः॥९॥ इडेत्पुसि चातो लुक् // 4 / 3 / 94 / / ____क्रय्यः क्रयार्थे // 4 / 3 / 91 // ___म० वृ०-ङित्यशिति स्वरे, इटि, एकारे पुसि म० वृ०-क्रीणाते र्यप्रत्ययेऽय्' निपात्यते, | च परे 'आकारान्तस्य धातोरन्तस्य लुक् ' स्यात् / क्रयाय चेत् प्रसारितोऽर्थो भवति / क्रय्यो गौः / कित्,- पपुः; ङित् ,- अदधत् ; ['धेश्वेर्वा' (3 / 4 / कम्बलो वा / क्रयार्थ इति किम् ? क्रेयं नो धान्यम् , 59) इति 'ङ'] प्रपा; इट् ,- पपिथ; एत्- व्यतिरे न चास्ति प्रसारितम् // 91 // 2 पुस्,- उदगुः, अदुः, अरु:, अलुः / विङती त्येव- दानम् / अशितीत्येव- यान्ति / अक्ङिदर्थ अव०-१अन्तादेशः / २धातूनामनेकार्थत्वात् शिदर्थं च इडादिग्रहणम् // 14 // प्रसारितेऽर्थेऽत्र क्रीधातुः // 11 // सस्तः सिः // 4 / 3 / 92 // ___ अव०-१"प्रपा', अत्र प्रपीयते इति प्रपा, 'उप सर्गादातः' (5 / 3 / 110) इत्यनेनाङ, प्रत्ययः; यदा तु म. वृ०-अशितीत्यनुवर्तते / धातोः सकारान्त- | प्रपिबन्त्यस्यामिति प्रपा, 'स्थादिभ्यः कः' (5 / 3 / 82 / स्याशिति सकारादौ प्रत्यये विषयभूते 'तकारोऽन्ता इति कः,) तदा फिद्वारमध्ये ज्ञेयम् / २'रांक दाने' देशः' स्यात् / वस् ,- वत्स्यति, अवात्सीत् , एवं वर्तमाना-ए,एवं व्यतिले, 'लांक आदाने'। 3'उद्गुः' वत्सीष्ट चैत्रेण, विवत्सति; अद,- जिघत्सति; घस् , इत्यत्र 'इण्क् गतौ' 'इणिकोर्गाः' (४।४।२३।इति) घत्स्यति / स इति किम् ? यज् ,- यक्षीठ, यक्ष्यति / इणो 'गा' आदेशः, अद्यतन्यन् , सिच् 'पिबैति०' सीति किम् ? वसिष्यते / विषयसप्तमीविज्ञानात् (४।३।६६।इति), सिचो लुक् , सिविदोऽभुवः' 'भवात्ताम् , अवात्त' इत्यत्र प्रागेव सस्य तः / / 92 // (४।२।९२।इति) अनस्थाने पुस् / ४'अदुः', दा, अद्यअव०-अवात्तामित्यादिषु सिचोऽनागमने एव तन्यन , ५'अरुः, अलुः'; ह्यस्तन्यन् , 'वा द्विपातो ऽनः पुस् (४।२।९१शइत्यनो पुस्) // 94|| पूर्व सकारस्य तकारः, पश्चात् सिच् / सिचो ____ संयोगादेवाशिष्यः // 4 // 395 // लुक्यपि वृद्धिर्भवति / ननु सिचो लुक्यपि स्थानित्वात् सस्य तो भवति इति च न वाच्यम् , यतः म० ०-धातोः संयोगादेराकारन्तस्य विङति सकारे तकार उक्तः, सस्य च वर्णविधित्वात् , (वर्ण आशिषि परतोऽन्तस्य 'एकारो वा' स्यात् / ग्लेविधौ च स्थानित्वाभावाद् , वर्णविधौ) 'स्वरादेश- यात् , ग्लायात् / संयोगादेरिति किम् ? यायात् / स्य स्थानित्वं भवति (न तु व्यञ्जनादेशस्य) / / 92 / / क्तिीत्येव- ग्लासीष्ट // 95 / / दीय दीङः क्ङिति स्वरे // 4 / 3 / 93 // गा-पा-स्था-सा-दा-मा-हाकः / / 4 / 3 / 96 / / म० व०-दीको 'दीयादेशः' स्यात् , विङति म. वृ०--एषामन्तस्य विडत्याशिषि 'ए' अशिति स्वरे परे। उपदिदीये, उपदिदीयानः / स्यात् / गेयात् , पेयात् , स्थेयात् , असेयात् , क्डिन्तीति किम् ? उपदानम्। स्वर इति किम ? | देयात् , धेयात् , मयात् , हेयात् // 16 // उपदेदीयते / परोक्षायामिति सिद्धे 'क्लिति स्वरे' अव०-के - रै शब्दे' (इति गा), न तु . इत्युत्तरार्थम् // 93 / / 'गाङ् गतौ' / तथा गास्थामध्ये पाठात् भौवा* धुड्ह्रस्वा० (4 / 3 / 70) इत्यत्र लुबधिकारे लुग्ग्रहणं सिचो लुक्यपि स्थानित्वेन तत्कार्यप्रतिपत्त्यर्थम्, तेनात्र सिचोऽभावेऽपि वृद्धिः सिद्धा। लुक्यपि वृद्धि भवति इति चात् , (वर्ण Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गादीनामीत्वादिविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / . [ 123 -दिकयोरेव 'पै पा' इत्येतयोः पाशब्देन ग्रहणम् , घ्राध्मोर्यङि / / 4 / 3 / 98 // आदादिक-पांक रक्षणे' इत्यस्य पायादित्येव / 'षोंच अन्तकर्मणि' अथवा '6 मैं क्षये' उभावपि म० वृ०-घ्राध्मोर्यडि परे 'ई:' अन्तादेशः साशब्देन (ग्राह्यौ) / दासंज्ञकाः सर्वेऽपि (ग्राह्याः)। स्यात् / जेघीयते, देध्मीयते / यङि इति किम् ? माशब्देन “मांक माने, मांङ्क मानशब्दयोः, मेंङ घ्रायते, ध्मायते / यढो लुपि न ईः,- जावीतः, प्रतिदाने" इति त्रयोऽप्यत्र / 'ओहांक त्यागे' इत्यस्यैव दाध्मीतः, 'एषामीय॑ञ्जनेऽद.' (4 / 2 / 97) इत्यनेन एत्वम् , न तु 'ओहांक. गतौ' (इत्यस्य), सूत्रे 'हाक्' द्वित्वे सति ईकारः // 98 // इति पाठात् / तथा गाङ-माङ मेङ यङ --लुबन्ता अव०-'घ्राध्मोर्यडि' इति सूत्रे यहो लुपि नामपि एत्वम् , अन्यथा गाङमाङ मेङामात्मनेप जाघीतः, दाध्मीतः; अत्राचार्यमते यहो लोपे कृते दित्वात् किदाशीर्न सम्भवति, यको लुपि च परस्मै 'घ्राध्मोर्यङि' इत्यनेन न ईत्वम् / केचित् यङो पदिन एते / हाकः ककारो यढो लुपि एत्वनिषेधायजहायात् / शेषाणां गापास्थासादामानां यहो लुप्यपि लुप्यपि इच्छन्ति,- जेनीतः, देध्मीतः / / 98 // एत्वं भवतीत्यर्थः, जागेयात् , पापेयात् , तास्थेयात् , . हनो नीर्वधे 4 / 3 / 99 / / अवसासेयात् ; दादेयात् , दाधेयात् , मामेयात् म० वृ०-हन्तेर्वधेहिंसायां वर्त्तमानस्य यडि इति प्रयोगावली.॥१६॥ 'नी' आदेशः स्यात् / जेन्नीयते, द्विषो जेन्नीयिईय॑ञ्जनेऽयपि // 4 / 397 // षीष्ट वः / वध इति किम् ? गतौ- जङ्घन्यते / / 99 // म० वृ०-गादीनामन्तस्य यपवर्जिते विति ञ्चिति घात् / / 4 / 3 / 100 // अशिति व्यञ्जनादौ प्रत्यये परे 'ईः' स्यात् / गीयते, म० वृ०-णिति परे 'हन्तेर्घात्' इत्यादेशः यङ, जेगीयते, गीतः, गीतवान् ; पीयते, पेपीयते; स्यात् / घन ,- घातः, घातयति, घातकः, घातंघातम् पीतः, पीतवान् ; पीत्वा इत्यादि / व्यञ्जन इति [अभीक्ष्णं हननं पूर्वम्-'रुणम् चाभीक्ष्ण्ये' (5 / 4 / 48) किम् ? तस्थुः / अशितीत्येव- पाहि / अयपीति किम् ? | इति ख्णम्प्रत्ययः // 100 / . प्रगाय, प्रपाय, प्रस्थाय, अवसाय, प्रदाय / कथमा जिणवि घन् / / 4 / 3 / 101 पीय? पीठो भविष्यति ||97|| - म० वृ०-बौ णवि च प्रत्यये 'हन्तेर्घन्' प्रव०-१आदिशब्दात् स्थीयते, तेष्ठीयते; सो, आदेशः स्यात् / अघानि,जघान,अहं जघन // 10 // सीयते, सैं,-सीयते, सेसीयते; दासंज्ञकाः,- दीयते, देदीयते; धीयते, देधीयते; धीतः, धीतवान् ; धीत्वा अव०-'जघान' इत्यत्र 'अ हिहनो हो घः स्तनम् ;मा-माङ-मेङ त्रयाणामपि ग्रहणम् ,मीयते, | पूवात् ' (4 / 1 / 34) इत्यनेनापि सिद्धे 'बिणवि मेमीयते; हाक्-हीयते, जेहीयते; हीनः, हीनवान ; घन्' इति सूत्रे णवग्रहणं 'झिणति घात्' (4 / 3 / 100) हाङो न ईत्वम्- हायते, जाहायते; इति प्रयोगा- इत्यस्य घातादेशबाधनार्थमित्यर्थः / 'णिद्वाऽन्त्यो वली अत्र ज्ञातव्या / स्वरादौ विङति परे 'इडेत्पुसि'० णव' (4 / 3 / 58) इति विकल्पपक्षे जघान / / 101 // इत्यनेनान्तलोपविधानाद् व्यञ्जनादौ लब्धेऽपि, 'ई नशेर्नेश् वाऽङि / / 4 / 3 / 102 // य॑ञ्जनेऽयपि' इत्यत्र व्यञ्जनग्रहणं साक्षाद् व्यञ्जनप्रतिपत्त्यर्थम् , तेन विपो लुकि स्थानिवद्भावेनापि ____ म० वृ०-नशेरडि परे 'नेश्' आदेशः स्याद्वा। न ईत्वम् ,- शंस्थाः पुमान् , शं-सुखम् ,तत्र तिष्ठति, | अनेशत् , अनशत् ; अनेशन् अनशन् , अनेशम्, (इति) क्विप्- शंस्थाः // 17 // / अनशम् ' // 102 // Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 ] . श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 4 पा० 4 सू० 103-107 अव०-अनेशदित्यादी लुदिद्युतादिपुष्यादेः० / 'शय' आदेशः स्यात् / शय्यते, शाशय्यते, संशय्य, (3 / 4 / 64) इत्यनेन अङ / '( एवम् ) अनेशताम् , | शय्या // 105 / / अनशताम् // 102 // अव०-'क्ङिति यि शय्' इत्यत्र सूत्रेऽपि यङो श्वयत्यमू-बच-पतः श्वा-ऽस्थ-वोच-पप्तम् लुपि नशयादेशः-संशेशीय। शेरतेऽस्यामिति शय्या // 4 / 3 / 103 // पर्यङ्कः शब्दगुम्फो वा, ..समजनिपनिषद्शीङ - सुगविदिचरिमनीणः (5 / 3 / 99) इत्यनेन क्यप् म० वृ०-श्वयति, असू , वच, पत इत्येषां // 105 // यथासङ्घय 'श्व, अस्थ, वोच, पप्त' इत्यादेशाः अडि परे भवन्ति / 'अश्वत् , अश्वः, आस्थत् , अपास्थत, उपसर्गाहो ह्रस्वः // 4 / 3 / 106 // अवोचत् , अपप्तत् / श्वयतेस्तिनिर्देशो यहो म० वृ०-उपसर्गात्परस्योहतेरुतः =ऊकारस्य] लुपि निवृत्त्यर्थः,५ [तेन यढो लुपि श्वयतेन ‘श्व' विङति यादौ[=यकारादौ परे ‘ह्रस्वः' स्यात्। समुह्यते, आदेश:-] *अशेश्वियत , अशोशुवत् [“वा परो समुह्यात् , समुह्य; अभ्युह्यतेः, अभ्युह्य / विङतीति क्षायङि" (4 / 1190) इति यवृत् विकल्पेन] // 10 // किम् ? अभ्यूह्योऽयमर्थः। 'ऊ उह' इत्यूकारप्रश्लेअव०-'धे-श्वेर्वा (3 / 4 / 59) अङ, अश्वत् , षात् आ उद्यते-ओह्यते इत्यत्र न ह्रस्वः // 106 // ( एवम् ) अश्वन् / २'अपाम्थत'इत्यत्र 'उपसर्गादस्यो अव०-१'आ ऊह्यते' इत्यत्र आद पूर्व ऊहहो वा' (3 / 3 / 25) इत्यनेनात्मनेपदम् , 'शास्त्यसूव धातुः, ते, क्य, 'उपसर्गादूहो०' इत्यनेन फारम्य क्तिख्यातेरह' (3 / 4 / 60 / इत्यङ) / घच रूग वा। ह्रस्वः, 'अवर्णस्येवर्णादि०' (1 / 2 / 6) इत्योन ओत्वे ४'लुदिद्द्युतादि०' (३।४।६४।इति) अङ / ५श्वयतेः कृते पुनह स्वः प्राप्नोति इति "ऊ ऊह इत्यूकारे"यडो लुपि न श्वादेशः, अस्वचपतां तु यहो त्यादि उक्तम् // 106|| लुप्यपि मूलप्रयोगसदृशा एव प्रयोगा ज्ञातव्याः . // 103 // आशिषीणः // 4 / 3 / 107 // शीङ ए: शिति // 4 / 3 / 104 // ___ म०७०-उपसर्गादिण ईतः[-ईकारस्य] क्ङिति म० वृ०-शीङः शिति परे 'ए' आदेशः / यादावाशिषि 'ह्रस्वः' स्यात् / 'उदियात् , समियात्। स्यात् / शेते, शयाते, शेरते; शेताम , शयीत, अशेत, / आशिषीति किम् ? उदीयात् / उपसर्गादिति किम् ? शयानः। डिन्निर्देशाद्यको लुपि न ए:-शेशीतः, शेश्यति, ईयात् // 107 // [अन्तो नो लुक् ( 4 / 2 / 94 ) इत्यन्तो नो लुक् ] . अव-"आशिषीणः” इत्यत्रापि पूर्वसूत्रवत // 104 // 'ई इणः' इत्येवमीकारप्रश्न षात् ..... .. (“आ विङति यि शय् // 4 / 3 / 105 / / इयात्-एयात समेयात्" इत्यत्र न भवति) / ननु म० वृ०-शीङः विङति यकारादौ प्रत्यये परे / 'प्रतीयात्' इत्यत्र समानलक्षणे दीर्घ कृते कथं न 'संयोगात्' (2 / 1 / 52) इत्यनेनेकारस्येय् / / धातोरिवर्णोवर्ण० (2 / 1 / 50) इत्यनेनोकारस्यो / * अत्रेदं सूत्रमसङ्गतम्, श्विधातोः "ऋदिच्छिवस्तम्भू०" (3 / 4 / 65) इत्यनेनाङः प्राप्तेः। / इदं चिन्त्यम्, असूधातोः स्वरादित्वाद् यङप्राप्तेः। .:. तदुक्त हैमलिङ्गानुशासनविवरणे-"शय्या पर्यः शब्दगुम्फश्च"। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्त्यस्वरस्य दीर्घविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 125 ह्रस्वः? दीर्घे सति उपसर्गात्परस्य इणधातोरभावात्।। ईश्च्वाववर्णस्यानव्ययस्य // 4 / 3 / 111 // 'उत्पूर्व इण ,आशी:क्यात् , दीर्घश्च्वियङ-यक्क्येषु च' (4 / 3 / 108) इत्यनेन दीर्घ कृते 'आशिषीणः' म० वृ०-अव्ययवर्जितस्यावर्णस्य (अवर्णान्तइत्यनेन ह्रस्व इकारः कार्यः // 10 // स्य) च्वौ परे ‘ई (इति) अन्तादेशः' स्यात् ! शुक्ली करोति, शुक्लीभवति, शुक्लीस्यात् ; मालीकरोति, दीर्घश्चि-यङ्-यक्-क्येषु च // 4 / 3 / 108 // | मालीभवति / अनव्ययस्येति किम् ? दिवाभूता म० वृ०-च्वौ,यङि, यकि,क्येषु यादावाशिषि रात्रिः, एवं दोषाभूतमहः // 111 / / च परतोऽन्त्यस्वरस्य दीर्घः' स्यात् / [च्चि-] अव०--"ईश्च्यायवर्णस्यानव्ययस्य" इति शुचीकरोति, शुचीभवति, पटूकरोति; (यङ-)चेचीयते; (यक ,-) मन्तूयति; धातोः कण्ड वादेर्यक' योगो दीर्घत्वाऽपवादो भवति / (३।४।८)इति यक् ] क्येष्वत्र बहुवचनात् क्यन् क्य क्यनि // 4 / 3 / 112 // ङकयङ षु क्यानामविशेषेणग्रहणम् ,क्यन्-निधी- __म० वृ०-क्यनि परेऽवर्णान्तस्य ‘ई (इति) यति, दधीयति; क्यङ ,-श्येनायते, भृशायते; क्य- | अन्तादेशः' स्यात् / दीर्घत्वापवादः / पुत्रीयति, मालीऔषु -लोहितायते, लोहितायति; क्य-स्तूयते, आशि- यति / योगविभाग उत्तरार्थः // 11 // षि यि,- स्तूयात् ,जीयात् , ईयात् ।आशिषि यीत्येवचेषीष्ट // 108 / / क्षुत्-तृड्-गऽशनायोदन्य-धनायम् // 4 / 3 / 113 // ___म० वृ०-क्षुदादिष्वर्थेषु यथासङ्ख्यमशनादयः __ अव०-च्चिक्यानां ग्रहणात् अधातोरपि क्यन्नन्ता निपात्यन्ते / अशनायति, उदन्यति, धना'दीर्घवित्र-यन -यक क्येषु च' इति सूत्रं प्रवर्तते / | यति / भुत्तुड्गर्द्व इति किम् ? अशनीति, उदकीपकळ्यन्तात् सिः, 'अव्ययस्य' (3 / 2 / 7) इति लुक, | यति, धनीयति दानाय [दानबुद्धया] // 113 // (एवम् ) शुचीस्यात् , पटूभवति, पटूस्यात् // 108 // अव०-अशनमिच्छति अशनायति, 'अमाव्यऋतो री // 4 / 3 / 109 / / यात् क्यन् च' (3 / 4 / 23) (इति क्यन्), क्षुधि . म. वृ०-धातोरधातोर्वा ऋदन्तस्य ऋतः गम्यमानायामशनशब्दस्य आत्वम् , अशनायति इति ऋकारस्य स्थाने 'री' आदेशः स्यात् , च्चि-यक- सिद्धम् / एवमुदकमिच्छति (इति) क्यन् , तृषि यक-क्येषु / पित्रीकरोति, चेक्रीयते, पित्रीयते, गम्यमानायामुदकशब्दस्य 'उदन्' इत्यादेशः / गर्दै मात्रीयते / ऋत इति किम् ? चेकीर्यते [ कुत् बाछायां गम्यमाने धनशब्दस्य 'आत्वं' निपात्यते विक्षेपे ] // 109 // // 113 // रिः श-क्या-ऽऽशीर्ये // 4 / 3 / 110 // वृषाऽश्वान्मैथुने स्सोऽन्तः // 4 / 3 / 114 // म० वृ०-ऋदन्तधातोः ऋस्थाने शे, क्ये आशीर्ये म० वृ०-मैथुने वर्तमानाद्वषशब्दादश्वाच्च चपरे 'रिः' आदेशः स्यात् / शे-व्याप्रियते, आद्रियते, क्यनि स्सोऽन्तो' भवति / वृषस्यति गौः, अश्वस्यति क्रिया , क्रियते, क्रियात् / ह्रस्वविधानात् पूर्वेण न वडवा अश्वा। वृषाश्वशब्दौ (अत्र) मैथुने वर्त्तते / मैथुदीर्घः // 110 // नेच्छापर्यायो मनुष्यादावपि प्रयुज्यते / मैथुन इति किम् ? वृषीयति // 114 // प्रव०-१शे,' 'तुदादेः शः' (3 / 4 / 81) अथवा 'कृगः श च वा' (5 / 3 / 100) इत्ययं शो ज्ञातव्यः / अव०-'वृषाश्वान्मैथुने'० इति सूत्रे 'स्स' इति दीर्घश्च्वियङ (4 / 3 / 108) इत्यादिना // 110 // | द्विसकारनिर्देशः षत्वनिषेधार्थः, तेन उत्तरत्र 'दधि Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 4 पा० 4 सू० 115 स्यति, मधुस्यति' इत्यत्रापि त्वं न भवति / अव- | अव०-- दधि भक्षितुमिच्छति-दधिस्यति, यवो भवति / वृषस्य, अश्वस्य इत्येव / दध्यस्यति; एवं मधु भक्षितुमिच्छति मधुयति, "अनेकयुगजीविन्यायन्यास्त्रेता त्रयोदशी;" मध्वस्यति; क्यन् / २क्षी भक्षितुमिच्छति / 'लवणं “सा क्षीरकण्ठकं वत्सं वृषस्यन्ती न लज्जिता"। भक्षितुमिच्छति / तथा 'अस् च लोल्ये' इति सूत्रे इति मनुष्यजातिविषयेऽपि वृषस्यशब्दो मैथुने अस्विधानमनकारान्तार्थम् , कोऽर्थः ? अकारान्तप्रयुक्तः कविना / त्रीन अवतारानिता प्राप्ता त्रेता, वर्जितदधिमध्वादिशब्दकारणे(न) / यतः अकारान्तपृषोदरादित्वादेत्वम् , स्त्रीत्वं प्रतिपदोक्तमस्य / अल्पः शब्दे (षु)क्षीरलवणादिषु असि कृते 'लुगस्यादेत्यपदे' क्षीरकण्ठः क्षीरकण्ठकः, ह्रस्वे कप् / तथा शुनी (2 / 1 / 117) इत्यनेन प्रकृत्यकारस्य लुकि कृते विशेषः गौश्व स्वं स्वमश्वस्यति / लक्ष्मणं सा वृषस्यन्ती महोक्षं कोऽपि नास्ति / यथा लवणस्यति, क्षीरस्यति / अत्र गौरिवागमत् // 114 // असि सकारे च कृते समानरूपं भवति / येन ध्य स्यति मध्वस्यति इति प्रयोगौ सिध्यतः, एषु(? अत्र) अस् च लौल्ये // 4 / 3 / 115 // तदर्थमस् कृतः, असं विना दधिस्यति मधुस्यति' म० वृ०-भोक्तुमभिलाषाधिक्यं लौल्य- | इति सिध्यतः। क्षीरस्यति इ.....दि....."ति / सि मुच्यते / लोल्ये गम्यमाने क्यनि नाम्नः 'सोऽस् आदेशे कृतेऽपि उभयथापि सिध्यं .... चान्तः' स्यात् / दिधिस्यति, दध्यस्यति; एवं क्षीर- .....'' इत्यभिप्रायः // 115 / / / अत्र सूत्रे (? पादे) स्यति, उलवणस्यति / लोल्य इति किम् ? क्षीरीयति अवचूरिश्लोक-३२३, अक्षर-२६॥ दातुम् / / 115 / / ग्रन्थानम्-१९६।। // इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते सिद्धहेमशब्दानुशासने चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः / / .इदं चिन्त्यम्, "क्षीरः कण्ठे यस्यासौ "क्षीरकण्ठकः” इति बहुव्रीहेः कचप्रत्ययेन सिद्धेः। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अहम् // // चतुर्थोऽध्यायः // [चतुर्थः पादः] अस्ति-वो-वचावशिति // 4 / 4 / 1 // | केवलयोः अस्वोर्न प्रयोगः, आस इत्यादि परिणा म० वृ०-अस्तिब्रुवोर्यथासङ्ख्य भूवचादेशौ' / (?) / अशिति विषयेऽवश्यं बभूवेत्यायेव प्रयोगाः भवतः, अशिति विषये। [अस्तेर्वादेशः-] अभूत् , भवन्ति इति अभिप्रायः // 1 // बभूव, भविता, भूयात् , भविष्यति, बोभूयते, बुभू- अघक्यबलच्यजेवीं * // 4 / 4 / 2 // षति,भवितव्यम् ,भवितुम् ; [ब्रुषो वच-]अवोचत् , म० वृ०-घब्-क्यप्-अल्-अच् वर्जिते ‘अशिति ऊचे, उवाच, वक्ता, उच्यात् , वक्ष्यति, वावच्यते, विषयेऽजेवीं आदेशः' स्यात् / विवाय, वीयात् , विवक्षति, वक्तव्यम् , वक्तुम् / अशितीति किम् ? प्रवेता,प्रवीतः' / अघक्यबलचीति किम् ? [घञ्] अस्ति, अस्तु, स्यात् , आसीत् ; ब्रवीति, ब्रूते, समाजः, (क्यप्-) समज्या, [अल्.] २समजः, [अच्-] ब्रूयात् ,ब्रवीतु,अब्रवीत् , रुक्न रुवाणः / विषय अजः॥२॥ सप्तमीनिर्देश: किम् ? भव्यम् , वाच्यम् / धात्वन्तरेणैव सिद्धे अस्तिब्रुवोरशिति प्रयोगनिवृत्त्यर्थ .. अव०-'प्रवेयम् , प्रवयणीयम् , वायकः, प्रवीय वचनम् // 1 // इत्यपि / 'समजनं समजः, “समुदोऽजः पशौ" . (5 / 3 / 30) इत्यल,समजः पशूनाम् ,समूह इत्यर्थः / अव०-१अस्तीति निर्देशात् ‘असूच क्षेपणे' | अजतोति अजः, स्त्री चेत् अजा // 2 // (इति) अस्यतेः, 'अषी असी गत्यादानयोश्च' (इति) त्रने वा // 4 // 43 // 'असतेने भ्वादेशः / 2( एवम् ) वक्षीष्ट, अवक्ष्यत, वक्ष्यते / 'चकासामास' इत्यादायनुप्रयोगे कृभ्व- म० ३०–'तृ-अनप्रत्यययोर्विषयेऽजेवीं वा' स्तीनां पृथग्निर्देशान्न भ्वादेशः / 'भव्यम् , स्यात् / प्रवेता, प्राजिता; प्रवयणः, प्राजनो दण्डः वाच्यम्'; अत्र विषयसप्तमीबलात् पूर्वमस्ते' (इति) // 3 // आदेशः, तदनन्तरं 'य एञ्चातः' (5 / 1 / 28) इत्यनेन अव०-'प्राज्यतेऽनेनेति प्राजनः, प्रवयणः; यप्रत्ययः सिद्धः, 'वाच्यम्', अत्र बलस्थाने पूर्व वच् , 'करणाधारे' (5 / 3 / 129) इत्यनेन अनट् // 3 // तदनन्तरम् 'ऋवर्णव्यअना०' (5 / 1 / 17) इति ध्यण सिद्धः, अन्यथा 'भव्यम् , वाच्यम्' इति न सिध्येत / चक्षोवाचिकांग्-ख्यांग // 4 / 4 / 4 // ४'भू सत्तायाम् ' इत्यनेनापि अभूत्-बभूवादिप्रयोगाः, म० ०–चक्षिको वाचि वर्तमानस्याशिति 'वचं परिभाषणे' इत्यनेनावोचदित्यादिप्रयोगाः विषये 'क्शांग ख्यांग्' (इत्येतो) आदेशौ स्याताम् / सिध्यन्ति, किमर्थमस्तिब्रुवोभूवचादेशविधानम् ? | आक्शाता, 'आख्शाता, आख्याता; आक्शास्यति, सूरिराह- धात्वन्तरेणेत्यादि,यत्र अशिति प्रत्ययः तत्र ) २आखूशास्यति; आख्यास्यति,आख्यास्यते ।वाचीति * अन्यथा कृम्बोरेव द्वयोरुपादानं कुर्यात् / * वी इत्यनुस्वारेदादेश इडभावार्थः / Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०४ पा०४ सू०५-७ किम् ? बोधे-विचक्षणः (वर्जने-) सश्चक्ष्याः, परि- / पूर्व संयोगस्यादौ स्कोलक्' (2 / 1 / 88) इत्यनेन सञ्चक्ष्याः खलाः; हिंसायाम्- नृचक्षा राक्षसः / / स्लोपः, ततो 'यजसृजमृजराजभ्राजभ्रस्जवश्वपरिअशितीत्येव-आचष्टे // 4 // व्राजः शः षः (2 / 1187 इति) जस्य ष् / भ्रस्जीत् पाके (इति) भ्रस्ज् , ते, ति, 'तुदादेः शः' (3 / 4 / 81 / अव०-१'शिट्याद्यस्य द्वितीयो वा' (2 / 3 / 59) इति शः), 'ग्रहवश्वभ्रस्जप्रच्छः' (4 / 1 / 84) इति इत्यनेन (विकल्पेन) ककारस्य खकारः / एवमाक् वृत् , 'तृतीयस्तृतीयचतुर्थे' (1 / 3 / 49 / इति) सस्य शास्यते, आख्शास्यते / आख्यास्यति आख्यास्यते द्, 'तवर्गस्य०' (1 / 3 / 60) इति दस्य ज् * / 'भृज्जो इत्यस्याने 'आक्शेयात् , आक्शायात् ; आख्शेयात् , भर्ज' इति सूत्रे लुप्ततिवनिर्देशो यो लुपि आदेशप्रआख्शायात् ; आख्येयात् , आख्यायात् , एवमाचा तिषेधार्थः, (तेन) ब ज्यते, अत्र द्वित्वे कृते सपूर्वस्य कशायते, आचाख्यायते; आकशातव्यम् , आख्यात धातोः “प्रकृतिग्रहणे या लुबन्तस्यापि(ग्रहणम् )" व्यम्' इत्यपि ज्ञेयानि / विषयसप्तमीविज्ञानात् आक इति न्यायात्प्राप्त आदेशो न भवति)। ६'भृज्यात्' शेयम् , आख्येयम् / “विचष्टे (इति) विचक्षणः, इत्यादौ भर्जादेशः कथं न भवतीति पराशङ्का, सूरिराह'नन्द्यादिभ्योऽनः' (5 / 1152 / इत्यनप्रत्ययः) // 4 // परेति, यदि भर्ज कृतः तदापि स्थानिवद्भावात् नवा परोक्षायाम् // 4 / 4 / 5 // भ्रस्ज इत्यस्य य्वृता भाव्यमिति न भर्ज , य्वृत् एव व०-चक्षिको वाचि परोक्षायां परतः // 6 // 'कशांग , ख्यांग वा' भवतः / आचकशौ, आचखशौ; प्रादागस्त्त आरम्भे क्ते // 4 / 4 / 7 // आचख्यौ, आचख्ये; 'पक्षे आचचक्षे / / 5 / / म. वृ०–आरम्भार्थस्य प्रपूर्णकदागः१ स्थाने अव०-१ (एवम् ) आचक्शे, आचख्शे // 5 // क्त प्रत्यये परे' 'त्त आदेशः' स्यान्नवा / २प्रत्तः, प्रदत्तः / प्रादिति किम् ? परीत्तम् / दाग इति किम् भृजो भर्ज // 446 // ? दांव- प्रत्तम्। आरम्भ इति किम् ? अन्यत्र नित्यम० वृ०-भृज्जतेरशिति ‘भर्ज (इति) आदेशः' मेव-प्रत्तम् / 'क्त इति किम् ? प्रत्तवान् / द्वितस्यात् नवा / बभर्ज, 'बभ्रज्ज; भी, भ्रषा, अभा- कारादेशः सर्वादेशार्थः / / 7 / / क्षीत् 2, अभ्राक्षीत् , भर्जनम् , भ्रज्जनम् / अशितीत्येव-भृज्जति, भृज्जते / कथं भृज्यात्', भृज्यते, अव--१ दुदांग्क दाने' इति एकस्यैव दागः भृष्टः, बरीभृज्यते ? परत्वात् भर्जादेशेऽपि स्थानि स्थाने त्तादेशः, नान्येषां दासंज्ञकानामित्यर्थः / (त्त वद्भावेन पूर्वेण स्वरेण सह य्वृति कृते प्रयोगो इत्यत्र) अकार उच्चारणार्थः / 2 अपूर्वक-दा, दातु भविष्यति // 6 // प्रारब्धवान् प्रत्तः, 'आरम्भे' (5 / 1 / 10) इति सूत्रेण क्तः / तथा सूत्रे द्वितकारः 'त्त' इति आदेशः अव०-१'बभ्रज्ज' इत्यत्र 'तृतीयस्तृतीयचतुर्थे' प्रक्रियालाघवार्थः साधनिकाप्रयासोत्तारणाय कृतः, (1 / 3 / 49 इति) सकारस्य दः, 'तवर्गस्य श्चवर्ग' (1 / अन्यथा धात्वाकारस्य स्थाने त इत्यादेशे कृते 'अघोषे / 3 / 60) इति दस्य जः / 2 'व्यञ्जनानामनिटि' (4 / 3 - प्रथमोऽशिटः' (1350) इत्यनेन 'द्' इत्यस्य 'त', / 45) वृद्धिः / एवं भीष्ट, भ्रक्षीष्ट; बिभति, बिभ्र- इत्येवं प्रयोगाः सिध्यन्ति / परिदा', परिदीयते स्म क्षति; बिभर्जिषति, बिभ्रजिषति; भय॑म् , भ्रद्ग्यम् ; (इति) क्तः, 'स्वरादुपसर्गात्०' (4 / 4 / 9) इति उत्तभर्गः, भ्रद्गः इति प्रयोगा ज्ञेयाः / ४'भ्रष्टा' इत्यादिषु / रसूत्रेणात्र 'त्त' आदेशः, 'धुटो धुटि स्वे वा' (1 // 3 // * “सस्य शषौ (11361) इति सस्य शत्वे, 'तृतीयस्तृतीयचतुर्थे' (113 / 46) इति शस्य जत्वे भृजति" इति हेमप्रकाशादी। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दासंज्ञकधातोस्तादौ किति त्तादिविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 129 148) इत्यनेन तकारत्रयमध्यात् मध्यमतकारस्य / / 84) इति सूत्रेण त्रिम' प्रत्ययः; एवं प्रणीत्रिमम् , लुक् , 'दस्ति' (3 / 2188) इति सूत्रेण 'परि' इत्यत्र 'दस्ति'इति दीर्घः / 'अवत्तवान्',अत्र 'दों छोंच्छेदने' दीर्घः, 'परीत्त' इति सिद्धम् / ४प्रकर्षण दीयते स्म। 'आत्सन्ध्यक्षरस्य' (4 / 2 / 1) दा,अवद्यति स्म-क्तवत् , ५न क्तवति प्रत्यये / दातुं प्रारब्धवानित्यर्थः, स्व- अत्र 'दोसोमास्थ इ.' (4|4|11) इत्यस्य परत्वेऽपिस्वरादुपसर्गा० (4 / 4 / 9) इति ‘त्त्' // 7 // रादुपसर्गाः इति विशेषविधानबलात् इत्वं सामान्योनि-वि-स्व न्ववात् // 4 // 48 // क्तं बाधित्वा स्वरादुपसर्गा०' इति सूत्रेण त्तादेश एव, न इत्वम् / तथा 'अवदानम् अवत्तिः, 'उपसर्गादातः' म० वृ०-एभ्य उपसर्गेभ्यो दागः क्ते 'त्तो (5 / 3 / 110) इत्यस्य बाधकः (? बाधकेन) 'थ्रवावा' स्यात् / नीत्तम् , निदत्तम् ; वीत्तम् , विदत्तम् ; दिभ्यः' (5 / 3 / 92) इत्यनेन क्तिः / 6 दत्तं दधि, सूत्तम् , सुदत्तम् ; अनूत्तम् , अनुदत्तम् , अवत्तम् , लता (दिता) / प्रतिदाने / निदातानि भाजनानि अवदत्तम् / उत्तरेण नित्यं त्तादेशे प्राप्त विभाषे ||9|| यम् // 8 // दत् / / 4 / 4 / 10 // अव०-“दस्ति" (3 / 2 / 88) इत्यनेन दीर्घः ____म० वृ०-धावर्जितस्य दासंज्ञकस्य तादो किति सर्वत्र / / 8 / / परे 'दत्' आदेशः स्यात् / दत्तः, दत्तवान् , दत्तिः, स्वरादुपसर्गादस्ति कित्यधः // 4 / 4 / 9 / / दत्त्वा / द्यतेः परत्वादित्वमेव-दितः, दितवान् / द इत्येव-दातं बर्हिः, अवदातं मुखम् / अध इत्येवम. वृ०-पूर्वयोगारम्भान्नवेति निवृत्तम् / धीतः, धीतिः // 10 // स्वरान्ता दुपसर्गात्परस्य धावर्जितस्य दासंज्ञकस्य तकारादौ किति प्रत्यये परे सति 'त्तः' स्यात् / प्रत्तः, दो-सो-मा'-स्थ इः // 4 / 4 / 11 // प्रत्तवान् ; एवं परीत्तः, परीस्तिमम् ; तथा अव- म० वृ०-एषां तादौ किति परे 'इ (इति) त्तवान , “अवत्तिः / उपसर्गादिति किम् ? दत्तम / |. अन्तादेशः' स्यात् / दो,-निर्दितः, निर्दितवान् , स्वरादिति किम् ? निर्दितम्, निर्दत्तम्: दुर्दितम्, दित्वा, दितिः; सो,-अवसितः, अवसितवान , * 'दुर्दत्तम् / द इति किम् ? दांव लाने- प्रदाता सित्वा, सितिः; मा,-मितः, (मित्वान् ,) मित्या, ब्रीहयः, दैव विशोधने,-निदातानि। कितीति मितिः; स्थितः, स्थितवान् , स्थित्वा, स्थितिः / किम् ? प्रदाता / अध इति किम् ? धाग-निहितः, तीत्येव- दादितः // 11 // ['धागः' (4 / 4 / 15) इत्येनन तादी हिः] धेनिधीतः / / 9 / / अव०-'सूत्रे 'मा' इति शब्देन “मांक माने, मांड क मानशब्दयोः, में प्रतिदाने" इति त्रयोप्रव०-'प्रदातुमारब्धवान , अथवा प्रदीयते प्यत्र ज्ञेयाः, यतो दोसोमास्थ इः' इति सूत्रेण "लक्षस्म (इति) तक्तवतू , 'स्वरादुपसर्गाः' इति दास्थाने णप्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रहणम्" "निर'त्त' आदेशः, 'धुटो धुटि स्वे वा' (1 / 3 / 48) नुबन्धग्रहणे न सानुबन्धस्य ग्रहणम्" इति परिइति तकारत्रयमध्यात् मध्यमतकारस्य विकल्पेन | भाषाद्वयं बाध्यते इति न्यासकाराभिप्रायः। २'दोसो' लुक्-प्रत्तः, प्रत्तः / २'परीत्त' इत्यत्र 'दस्ति' इत्य- इति ओकारनिर्देशो देवादिकयोरेव परिग्रहार्थः / नेन दीर्घः। 3 परीस्त्रिमम्' इत्यत्र परिदा, परिदानेन | तथा 3'दादितः', अत्र दो, अत्यर्थ द्यति (इति) निर्वृत्तं-परीत्रिमम् ,वितस्त्रिमा तत्कृतम् (5 / 3 / / यङ्, 'बहुलं लुप्' (३।४।१४इति) यह लुप्यते, * "मादाग्रहणेष्वविशेषः" इति (न्यायेन) माङ्-मा-मेडा ग्रहणमिति बृहवृत्तौ / Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 ] * श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 4 पा० 4 सू० 12--16 द्वित्वम् , * 'आगुणा०' (4 / 1 / 48) आ, 'स्त्याद्य- | निर्देशात् 'ओहांक त्यागे' इत्यस्यैव ग्रहणम् , न शितो०' (४।४।३२॥इति) इट् , 'इडेत्पुसि चातो लुक्' / 'ओहाङ्क गतौ' इत्यस्य, तस्य हात्वा इति प्रयोगः / (४।३।९४।इति) आकारलुक् / एवं दादितवान् // 11 // १'सूयत्याद्योदितः' (4 / 2 / 7) इत्यनेन तकारस्य छाशोर्वा // 4 / 4 / 12 / / नादेशः / 2 जहित्वा' इत्यत्र 'न हाको लुपि' (4 / 1 / / 49) इत्यनेन दीर्घनिषेधः // 14 // म० वृ०-छोशो इत्येतयोस्तादी किति परे 'इ (इति) अन्तादेशः' स्यात् वा / अवच्छितः, निशितः; धागः // 4 / 4 / 15 // अवच्छातः निशातः / इयतिशिनोत्योरपि रूपद्र- ___म. वृ०-दधातेस्तादौ किति 'हिः' स्यात। यसिद्धौ श्यतेर्विकल्पवचनम् "क्तं नादिभिन्नैः" क्वीति न सम्बध्यते, पृथग्योगात् / विहितः, विहि(३।१।१०५) इति समासार्थम्- शाताशितम् // 12 // | तवान् , हितिः, हित्वा // 15 // प्रव०-१( एवम् ) अवच्छितवान , निशित- ___ अव०-धाग' इति सूत्रेगकारः धे निवृत्त्यर्थः,. . वान् ; अवच्छातवान् , निशातवान् / अन्यथा धातु- धे इत्यस्य "धीतः, धीतवान् , धीत्रा, धीतिः" / भेदात् प्रकृतिभेदे समासो न स्यात् // 12 // तीत्येव- प्रधाय / यो लुपि इट् , 'इडेत्पुसि०' शो व्रते // 4 / 4 / 13 // (5 / 3 / 94) इति आलोपे "दाधितः, दाधितवान् , दाधित्वा" इति प्रयोगाः // 15 // ___ म० वृ०-श्यतेः क्ते परे व्रतविषये प्रयोगे 'नित्यमित्वं' स्यात् / 'संशितं व्रतम् , संशितव्रतः यपि चादो जग्ध // 4 / 4 / 16 // साधुः, संशितः साधुः / संशितशब्दोऽन्यत्राप्य- म. वृ०-तादौ किति यपि च परेऽदे-'जग्धास्तीति व्रतमिति विशेषणं न दुष्यति / नित्यार्थ वच- देशः' स्यात् / जग्धः, जग्धवान , जन्या, प्रजाध्य / नम् , तेन व्रतविषये 'संशात' इति न भवति॥१३॥ तीत्येव- अद्यात् / कितीत्येव- अत्तव्यम् / कथम अव०-१'संशितं व्रतम्', कोऽर्थः ? असिधा- नम' ? अनितेरौणादिको नः, 'अदोऽनन्नात्' (5 / 1 / रातीक्ष्णं व्रतमित्यर्थः / “संशितव्रतः साधुः', कोऽर्थः? | 150) इति ज्ञापकाद्वा 'अद्यते तत्' इति अन्नम् / व्रते यत्नवान् साधुरित्यर्थः / ननु व्रते इत्वं विहि- | एकपदाश्रयत्वेनान्तरङ्गत्वाद्यपादेशात् प्रागेव जग्धादेशे तम् उक्तम् , इत्युक्तार्थत्वात् व्रतस्थाप्रयोगः प्राप्नो- | सिद्धे यबग्रहणम् “अन्तरङ्गाना विधीन् यवातीत्याह,-व्रतमिति ( ? संशितशब्द इत्यादि), देशो बाधते” इति ज्ञापनार्थम् , तेन प्रशम्य, प्रपृसंशितशब्दोऽन्यस्मिन्नर्थेऽपि संशयरूपे वर्त्तते इति च्छय, प्रदीव्य, प्रखन्य, प्रस्थाय, प्रपाय, प्रदाय, व्रतप्रयोगः कृत इत्यर्थः / व्रत इति किम् ? निशातः प्रधाय, प्रपठ्य इत्यादौ दीर्घत्वम, शत्वम् , ऊत्वम , // 13 // आत्वम् , इत्वम् , ईत्वम, त्तत्वम, हित्यमिड् च यपा हाको हिः क्त्वि // 4 / 4 / 14 // बाध्यते // 16 // म० वृ०-हाकस्तादौ किति क्त्वाप्रत्यये परे ___ अव०- 'अन , अनिति-जीवति जीवलोकोऽनेन 'हिरादेशः' स्यात्। हित्वा।क्त्वि इति किम्? 'हीनः।। इति उणादिसूत्रोण ('प्याधापन्यनि०' उणादि० तीत्येव-प्रहाय / यढो लुपि- जहित्वा // 14 // | 258) नप्रत्ययः / निपातनात सिद्धि:. 'ज्ञाने च्छा०' (5 / 2 / 92) इति क्तप्रत्ययः / 'प्रशम्य' इत्यत्र अवः-"हाको हिः क्त्वि" इत्यत्र ककार- | प्रकृत्याश्रियादिहेतोः ( ? 'प्रकृतेराश्रितं यत्स्यादि' * 'प्रात्सन्ध्यक्षरस्य' (3 / 2 / 1) इत्यनैमित्तकत्वादात्वस्य प्रागेव कृतत्वाद् 'दा' इत्यस्य द्वित्वं भवति / . Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदे-'स्लु' इत्यादेशविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [131 'त्यादिहेतोः) पूर्वम् 'अहन्पञ्चमस्य कि डिति' / स्यात् / जघास, आद; जक्षः, आदुः' / घस्यदिभ्या(४।१।१०७) इति सूत्रेण प्राप्तो दीर्घोऽन्तरङ्गोऽपि मेव सिद्धे, विकल्पवचनं घसेरसर्वविषयत्वज्ञापनायपाबाध्यते, पूर्व यप, यपि सति दी? न प्राप्नोति / र्थम् ; तेन 'घस्ता, घस्मर' इत्यादावेव घसेः प्रयोगः एवं प्रपृच्छयेत्यादिष्वपिभाषनीयम् / 'प्रपृच्छ्ये'-त्य- // 18 // त्रान्तरङ्गः 'अनुनासिके च छ्वः शूट (4 / 1 / 108) इत्यनेन छकारस्य शकारः / 'प्रदीव्य', अत्र 'अनुना प्रव०-१(एवम् ) जक्षुतुः, आदतुः // 18 // सिके.' (4 / 1 / 108) इत्यनेन वकारस्य ऊट / 'प्रख वेर्वय // 4 / 4 / 19 // न्ये -त्यत्र 'आः खनिसनिजनः' (4 / 2 / 60) इत्यनेन •आत्वं प्राप्तम् / 'प्रस्थाय', अत्र 'दोसोमास्थ इ.' (4 / म० वृ०-वेग्धातोः परोक्षायां 'वयादेशो नवा' / 4 / 11) इत्यनेन इत्वम् / 'प्रपाय' इत्यत्र 'ईर्व्यञ्ज- स्यात् / 'उवाय, ववौ; ऊयुः, ववुः // 19 // नेऽयपि' (4 / 3 / 97) इत्यनेन ईत्वम् / 'प्रदाय', . प्रव०-१'यजादिवश्वचः सस्वरान्तस्था-वृत्' प्रादा-स्त०' (4 / 4 / 7) इति त्तत्वम / 'प्रधाय', अत्र (4 / 1172 इति) उकारः। २(एवम् ) ऊयतुः, ववतुः / 'धागः' (4 / 4 / 15) इति सूत्रेण हित्वम् / 'प्रपठ्य' इत्यत्र ‘स्ता पशितो०' (4 / 4 / 32) इति सूत्रेण इट् 'ऊयतुः, ऊयुः' इत्यत्र 'न वयो य्' (4 / 1 / 76) इति सूत्रेण वयादेशसम्बन्धियकारस्य पूर्वस्वरेण सह यपा बाध्यते // 16 // खत न भवति. परं वकारस्य य्वृत उकारो भवत्येव घस्ट सनद्यतनीधप्रचलि // 4 / 4 / 17 // अभ्यासवकारस्य 'यजादिवश' (4|1172) इति म० वृ०-सनादिप्रत्ययेष्वदे-'स्लि' आदेशः यवत् उः / ववौ ववुरित्यत्र 'वेरयः' (4 / 1 / 74) इत्यस्यात् / 'जिघत्सति, अघसत् , घासः, 'प्रघसः, नेन य्वृनिषेधः // 19 // प्रघसः५ / 'घस्लु अदने इति सिद्धेऽप्यदेः सन्नादिषु ऋः श-दृप्रः॥४।४।२०॥ रूपान्तरनिवृत्त्यर्थ लुदर्थ च वचनम् // 17 // म. वृ०-एषां परोक्षायां 'नवा ऋ (इत्ययम्) अव०-१अत्तुमिच्छति। २(एवम् ) अघस- अन्तादेशः' स्यात् / 'विशशार, विशशार; विशश्रतुः, ताम् , अघसन् ; अद्, अन् , घस्लू (इति) आदेशः, विशशरतुः; विदद्रतुः, विददरतुः; निपप्रतुः, निपप'लदिद्युतादिपुष्यादेः परस्मै' (3 / 4 / 64) इतिअङ / रतुः; कसौ-विशशवान् , विशिशीर्वान् // 20 // घासः' (इत्यत्र) घन् / प्रात्तीति प्रघसः, अच् / "प्रादनं प्रघसः, 'भूयदोऽल्' (5 / 3 / 23 इत्यल्), अव०-१'विशशार', अत्र परोक्षाणव , 'ऋः अदेघस्ल आदेशः / लुदिद्युतादि० (3 / 4 / 64) सूत्रे श०' इत्यनेन ऋः, नामिनोऽकलि०' (4 / 3 / 51 ) ल अनुबन्धधातोः परोऽङ कार्यार्थः इति हेतो- वृद्धिः आर् ; पक्षे विशशार' इति रूपं भवति, नामि'र्घस्ल सन०' इति सूत्रं कृतम् ॐ // 17 // नोऽकलि०' (इति) वृद्धिः, णवि सति समानं रूपं परोक्षायां नवा // 4 / 4 / 18 // जायते / ननु"विशशरतुः, विददरतुः, निपपरतुः" म० वृ०-परोक्षायां परतोऽदे-'र्घस्ल नवा' | इत्येते प्रयोगाः शृणात्यादिधातुभिः 'स्कृच्छतोऽकि A अत्रेतादृशेन पाठेन भाव्यम्- 'घस्लु अदने' इति सिद्धेऽप्यदेः सन्नादिषुरूपान्तरनिवृत्त्यर्थं वचनम् / लुदङर्थः / * अत्र वाक्यरचना न समीचीना, अत्र "अत्र लूनुबन्धो 'लदिद्' इति सूत्रेणाडो विधानाय कृतः" एतादृशेन वाक्येन भाव्यम् / Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 4 पा०४ सू० 21-24 EE - - परोक्षायाम्' (4 / 3 / 8) इति सूत्रेण गुणे कृते सेत्स्य- | आहसाताम् , आहसत / 'अवधीत् ' इत्यादिषु वधन्ति, "विशश्रतुः, विदद्रतुः, निपप्रतुः” इति च सम्बन्ध्यकारलोपस्य स्थानिवद्भावेन 'व्यञ्जनादेवोप्रयोगा: "श्रां पाके, द्रांक कुत्सितगतो, प्रांक पूरणे' | पान्त्यस्यातः' (4 / 3 / 47) इत्यनेन वृद्धिर्न भवति इति धातुभिरेव भविष्यन्ति, किमिदं 'ऋः शदप्रः' // 22 // इति वचनम् ? इति यः शङ्कते तं प्रति कसि प्रयो इणिकोर्गा // 4 / 4 / 23 // गान् सूरिदर्शयति- कसौ "विशश्रवान् , विशिशी- म०व०-अद्यतन्यां विषये इण इकश्च धातो नि ; एवं विदवान , विदिदीर्वान ; (निपपृवान , 'र्गा आदेशः' स्यात् / अगात् ' अगुः, अगायि त्वया; निपुपूर्वान्। निपुपूर्वान्' इत्यत्र) निपूर्वः प, 'ओष्ठ- २अध्यगात् , अध्यगुः // 23 // यादुर्' (४।४।११८।इति) उर् , ‘पदान्ते' * (2 // 1 // अव-अद्यतन्यां विषये' इत्यस्यायं भावार्थः,६४।इति) दीर्घ ऊर् // 20 // विषयव्याख्यानं विना 'अगात्' (इति) अत्र सिचो हनो वध आशिष्यत्रौ // 4 / 4 / 21 // लोप कृते एव गादेशः स्यात् , न तु अगायि इत्यत्र म० वृ०-आशीविषये हन्ते- 'वध इति 'अकारा गादेशः, चिचा व्यवधानात् / ' (एवम् ) अगाताम् / न्तादेशः' स्यात् , अनौ-निविषयायां तु न स्यात् / २इधातोः प्रयोगाः, (एवम् ) अध्यगात् , अध्यगाथि अवध्यात् , ४वध्यास्ताम , आवधिषी 5 / अाविति भवता // 23 // किम् ? ६घानिषीष्ट / / 21 // __णावज्ञाने गमुः // 4 / 4 / 24 // अव०-अत्र परोक्षानिवृत्तौ वेति निवृत्तम् / म० वृ०-अज्ञाने वर्तमानयोरिणिको-गम 'वध आदेशः सस्वर इत्यर्थः / २आशिषि सत्याम् / (इत्ययम् ) आदेशः' स्यात् / उकार: ‘स्वरहनगमोः 3'अतः' (4 / 3 / 82) इत्यनेन अकारलोपः / 4 (एवं) सनि०' (4 / 1 / 104) इत्यत्र विशेषणार्थः / गमयति, वध्यामुः। एवमावधिषीयास्ताम् , आवधिषीरन / अधिगमयति, अधिगमयन्ति प्रियम / अज्ञान इति ६'घानिषीठ,' हन , आशी:सीष्ठ, “स्वरग्रहदृश किम् ? अर्थात् प्रत्याययति / 'अज्ञाने' इति इणो हन्भ्यः " स्यसिजाशीःश्वस्तन्यां बिड़ वा" (3 / 4 / 69) विशेषणम् , न इकः, असम्भवात् / कथमर्थान् गमइत्यनेन बिट् , 'मिणधि घन्' (४।३।१०१।इति) यन्ति शब्दाः ? गमिनैव सिद्धम् // 24 // घन आदेशः, किणति' (४।३।५०।इति) वृद्धिः / / 21 / / अव०-णात्रज्ञाने गमुरिति सूत्रेऽपि ‘णौ' अद्यतन्यां वात्वात्मने // 4 / 4 / 22 // इत्यत्र विषयसप्तमी व्याख्ये या, विपयव्याख्यानब म० व०-अद्यतन्यां' विषये हनो 2 वधः' | लात् 'अजीगमत्' इति सिद्धम् , अन्यथा णौ परे स्यात , आत्मनेपदे त्वस्यां 4 वा स्यात् / अव गमादेशे कृते “णी यत्कृतं कार्यम्" इति न्यायात् धीत् , अवधीषुः / वा त्वात्मने,-५ आवधिष्ठ,अवधि, इण इकारस्यैव द्वित्वं स्यात् , न तु गमः / 'गमयति', आहत, अघानि // 22 // अत्र इण् , एति कश्चित् , तमन्यः प्रयुङ्कते इति विस्तरेण 'यन्तं प्रयुङ्कते' इति संक्षेपेण, गमयति, ___ अव०-'अद्यतनीपरस्मैपदविषये / २अकारा- गमयतः. गमयन्ति ग्रामम् / 'प्रत्याययति', 'इंक स्मन्तः / उअद्यतन्यात्मनेपदविषये / ४अद्यतन्याम / | रणे' प्रतियन्तं प्रयुङ्क ते (इति) णिग् , 'नामिनोऽ- . ५'आवधिष्ठ,' ( एवम् ) आवधिषाताम , आवधिषत; | कलिहलेः' ( ४।३।५१।इति) वृद्धिः ऐः, ('एदैतोऽ * एतच्चिन्त्यम् , उस्थरकारस्य पदान्तत्वाभावाद् , अत्र 'भ्वादेर्नामिनो०' (2 / 163) इत्यनेन दीर्पण भाव्यम् / Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातोरादावड्विधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 133 याय्' इति ) आय् / गमयतीत्यादेर्धात्वन्तरेणैव / अध्यापयितुमिच्छति (इति) सन् , 'गाप्' इत्यस्य सिद्धे (? सिद्धौ) णौ सति इकः अज्ञानार्थादन्यत्र द्वित्वम् , इट् , णिगो गुणः / २'अध्यापिपयिषति' इणश्च रूपान्तरनिवृत्त्यर्थम 'णावज्ञाने गमुः' इति / इत्यत्र 'स्वरादेर्द्वितीयः' (4 / 24) इत्यनेन 'पि'इत्यस्य सूत्रं कृतम् // 24 // द्वित्वम् , इट् ,गुणः। 3 अध्यजीगपत् , अध्यापिपत्' सनीङश्च // 4 / 4 / 25 // इत्यत्र 'णिश्रिद्र०' (3 / 4 / 58) इति ङप्रत्ययः, 'उपा न्त्यस्यासमान०' (4 / 2 / 35) इति ह्रस्वः, द्वित्वम् , म० वृ०-अज्ञानार्थे इङ इणिकोश्च सनि परे 'असमानलोपे सन्वत्' (4 / 1 / 63 / इति द्वित्वे 'गमुः'स्यात् / अज्ञान इति इणो विशेषणम् , न इकि पूर्वस्येत्वम् ), 'लघोर्दीवः'० (4 / 1 / 64 / इति) ईलम् कोः, असम्भवात् / इङ ,-अधिजिगांसते विद्याम , // 27 // इण् ,-जिगमिषति ग्रामम् , इक् ,-मातुरधिजिगमिषति / अज्ञाने इत्येव- अर्थान् प्रतीषिषति // 25 // वाद्यतनी-क्रियातिपयोगीङ् // 4 / 4 / 28 // गाः परोक्षायाम् / / 4 / 4 / 26 / / म० वृ०-अद्यतनीक्रियातिपत्त्योः परतो 'वा म० ७०-इङः परोक्षाविषये 'गाः' स्यात् / इडो भीडादेशः' स्यात् / अध्यगीष्ट, अध्यगीषाताम् , अधिजगे२ // 26 // अध्यगीषत; अध्यैष्ठ, अध्यैषाताम् , अध्यैषत; अध्य गीष्यत, अध्यष्यत / कुकारो गुणनिषेधार्थः // 28 // ____ अव०-'इङः परोक्षायाम्' इत्यस्य सूत्रार्थे परोक्षाविषये इति बिषयनिर्देशः किम् ? इटो गादेशे अव०-क्रियातिपत्तिः,-अध्यगीष्यत, अध्यगीकृते एव द्विर्वचनं यथा स्यात् ,तेन 'प्राक्तु स्वरे स्व- ध्येताम् ,अध्यगीष्यन्त; पक्षे - अध्यष्यत,अध्यैष्येताम, रविधेरिति अत्र नोपतिष्ठते। गादेशः / 2 (एवम्) अध्यैष्यन्त; 'स्वरादेस्तासु' (4 / 4 / 31) इति सर्वत्र अधिजगाते, अधिजगिरे, अधिजगिषे / / 26 / / वृद्धिः / कारो गुणनिषेधार्थ एव कृतः, न च णो सन्-डे वा // 4 / 4 / 27 // वाच्यं विधानसामर्थ्याद् गुणो न भविष्यतीति, तदा हि 'अध्यगायि' इत्यत्र वृद्धिरपि न स्यात् इति भावः म. वृ०-सनपरे, उमरे, णो परत इढो 'गा' // 28 // वास्मात / 'अधिजिगापधिपति, अध्यापिपयिषति; अड धातोरादिप्रस्तन्यां चामाङा // 4 / 4 / 29 // अध्यजीगपत , अध्यापिपत / णाविति किम् ? अधिजिगांसते॥२७॥ म० वृ०-ह्यस्तन्यामद्यतनीक्रियातिपत्त्योश्च विषये 'धातोरादिरवयवोऽट्' स्यात् , अमाङा-न अव०-१ अधिजिगापयिषति' इत्यादिषु 'इङ्क माढो योगे। अकरोत् , अकार्षीत् , अकरिष्यत् / अध्ययने' अधीयानं प्रयुङ्कते (इति) णिग्, ‘णौ विषयविज्ञानात् प्रत्ययव्यवधानेऽप्यट् , २परविज्ञाने क्रीजीङः' (4 / 2 / 10) इत्यनेन आत्वप्राप्तिः, तदन- हि अहन्नित्यादावेव स्यात् / अमाढा इति किम् ? मा न्तरम् 'अतिरीठी०' (4 / 2 / 21) इत्यनेन प्यागम भवान कार्षीत् , मा स्म करोत् / धातोरिति किम् ? प्राप्तिः, उभयोरप्यन्तरङ्गयोः ‘णौ सन् ङ वा' इत्य प्राकरोत् / / 29 / / यमपवादविधिः, इति पूर्व गादेशः, पश्चात् पोन्तः, अथवा इङः स्थाने ‘णौ क्रीजीङः' इत्यात्वम् , तद- अव०-१अटोधात्ववयवत्वे सति प्रण्यमिमीत' नातरम् 'अतिः' इत्यनेन पोऽन्तः, तत आपस्थाने इत्यादौ णत्वं सिद्धम् / २यदि अड धातोरित्यस्य "णौ सन्के वा" इत्यनेन गादेशः, “यावत्सम्भव- | सूत्रार्थ ह्यस्तन्यादौ परतः अट् स्यादेवं कुर्यात् , स्तावद्विधिः" इति न्यायात् पुनः पोऽन्तः क्रियते,(ततः) | तदाऽहन इत्यादौ धातोमुस्तन्यादयः परतः सन्ति / Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०४ पा० 4 सू० 30-32 3'मग्नां द्विषच्छद्मनि पङ्कभूते, भवति", तेन “ऐयरुः, अध्ययत" इत्यादौ इयादेशे ___ सम्भावनां भूतिमिवोद्धरिष्यन् / / कृते पश्चादृद्धिः सिद्धा, अन्यथा “आररुः, अध्याआधिद्विषामा तपसां प्रसिद्धे, यत" इति रूपं स्यात् , अचीकरदित्यादौ दीर्घरस्मद्विना मा भृशमुन्मनी भूः // त्वं सिद्धम् , अत्र हि अटि कृते स्वरादित्वाद्दी? न इति किराते तृतीयसर्गे एकोनचत्वारिंशत्तमः स्यात् ; इति हेतोर्यत्वाकारलोपापवादोऽयम् “एत्यश्लोकः, ‘मा भवान कार्षीत्' इत्यप्रेऽयं प्रयोगो ज्ञात- स्तेर्वृद्धि'-रिति योगः / 'अध्यायन्' इत्यत्र च 'इको व्यः // 29 // . वा' (4 / 3 / 16) इति सूत्रेण यत्वे प्राप्त 'एत्यस्ते'एत्यस्ते द्धिः // 4 / 4 / 30 // रिति बाधकं वचनम् , यत्वाभावपक्षे तु इयि कृते स्वरादित्वादुत्तरेण वृद्धिः, 'अध्ययन्' इत्यपि सिद्धम्, म०व०-इणिकोरस्तेश्चादेः स्वरस्य ह्यस्तनी- | इति विशेषो ज्ञेयः // 30 // विषये 'वृद्धिः' स्यात् , अमाङा / आदेरिति विभक्तिपरिणामात् / इण- आयन् ; इक- अध्यायन् ; स्वरादेस्तासु // 4 / 4 / 31 // आस्ताम् , आसन् / अमाळा इत्येव-मा स्म भवन्तो म० वृ०-स्वरादेर्धातोरादेः स्वरस्य तास्वद्यतयन् , मा स्म भवन्तः सन् // 30 // नीक्रियातिपत्तिास्तनीषु विषये 'आसन्ना वृद्धिः' स्यात् , अमाङा / आटीत् , आटिष्यत् , आटत् ; अव०-१'आदेरिति०' 'अर्थवशाद्विभक्तिपरि आर्चीत् , ऐषीत् , ऐच्छत् ; ऐधिष्ठ, ऐधत, औहिष्ट णामः' इति न्यायात् 'आदित ( ? आदिः)' इति पदं औहत; इन्द्रमैच्छत् ऐन्द्रीयत् , एवमैश्वयित् , पूर्वसूत्रेप्रथमान्तम , 'एत्यस्तेर्वद्धि'-रत्रसत्रेआदेरिति २औंकारीयत् , औषधीयत् / अमाङा इत्येव- मा षष्ठयन्तं ज्ञेयम् ; इति विभक्तिपरिणाम उच्यते / भवानटीत् , मा स्म भवानटत् / , २'आयन्' इत्यादौ 'ह्विणोरड्विति व्यौ' (4 / 3 / 15) इत्यनेन यत्वे कृते, 'आस्ताम् , आसन्' इत्यत्र च प्रव०-(एवम् ) १आच्छिष्यत् , आर्त ( ? 'श्रास्त्योलुक' (4 / 2 / 90) इति सूत्रेण अस्तेः अकार- आर्छत् ) ऐषिष्यत् , ऐधिष्यत / ओंकारमैच्छत् / लोपे सति, स्वरादित्वाभावात् उत्तरेण 'स्वरादेस्तासु' औषधमैच्छत् // 31 // (4 / 4 / 31) इत्यनेन वृद्धिर्न प्रप्नोति इति 'एत्यस्तेवृद्धि'-रिति वचनं कृतम् / अत्र परः प्राह,-विषय स्तायशितोऽत्रोणादेरिट // 4 / 4 / 32 // विज्ञानात् परत्वाद्वा उत्तरेण प्रागेव वृद्धौ कृतायां म० वृ०-धातोः परस्य सकारादेस्तकारादेश्वाकुतो यत्वाकारलोपयोः प्राप्तिरिति चेत् , न, इदमेव / शीतः प्रत्ययस्यादि-'रिट' स्यात् , अत्रोणादेः, त्रस्य= वचनं ज्ञापकं कृतम् , “अन्यस्मिन धातुप्रत्ययकार्ये / त्रप्रत्ययस्य उणादेश्च नेट / अटिटिषति, अलविष्ट, कृते एव पश्चादृद्धिः कर्त्तव्या, तद्बाध्योऽट् च / लविष्यति, लविता, लवितुम्। स्तादीति किम् ? * वेदव्यासमुनिना विद्यासाधनार्थ तपोविधानाय प्रेरितोऽर्जुनस्तदर्थ शिलोच्चयं प्रति गन्तुमुत्सुक: सन् प्रस्थानप्रारम्भे द्रौपद्याः समीपे जगाम / तदानीं सा तं तपःसिद्धिपर्यन्तं मनोऽस्थैर्यपरिहारायोपदिशन्त्याह-'मग्नाम्' इत्यादि / पङ्कभूते (=पङ्कोपमिते) द्विषच्छद्भनि (-शत्रकपटे) मरनां (=पतितां) संभावनां (=गौरवं) भूतिमिव (=सम्पत्तिमिव) उद्ध रिष्यन् (त्वम्) आधिद्विषां (=दुःखच्छिदां) तपसामाप्रसिद्धः (सम्यसिद्धिपर्यन्तम्) अस्मद्धिना " (=अस्माकं विरहाद्) मा भृशमुन्मनी भूः (अत्यन्तं दुर्मना मा भूः) / सम्यक्तपोविधानेन प्रसाधितया विद्यया कपटेन शत्रुगृहीतां त्वाज्यसम्पत्तिं त्वं स्वायत्तीकर्तुं शक्ष्यति, अतस्तपःसमाप्तिं यावन्मनःस्थर्य न हेयम् , तदर्थ चास्मद्विरहो न चिन्त्यः, अन्यथा त्वन्मनःस्थैर्य न स्यास्यतीति भावः / Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इटी दीर्घत्वविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 135 * भूयात् / अशितीत्येव-- आस्ते / अत्रोणादेरिति किम् ? / द्विहितस्य मा भूत,-जरीगृहिता / लुप्ततिवनिर्देशान शस्त्रम्, पत्रम् ; उणादि, वत्सः, अंसः,हस्तः // 32 // यढो लुपि न दीर्घः- जरीगर्हिता, जरीगर्हितव्यम् / प्रव०-'शसू हिंसायाम् , शसत्यनेन इति अपरोक्षायामिति किम् ? जगृहिव / / 34 / / शस्त्रम् , पतत्यनेन (इति) पत्रम , नीदावशसू युयुजस्तुतुदसिसिचमिहपतपानहस्त्रट' (5 / 2 / 88 इति अव०-१स्ताद्यशितो०' (४।४।३३।इति) सर्वत्र ब्रट) // 32 // इट् / २“अग्रहीध्वम् , अग्रहीदवम्' इत्यत्राद्यतनी ध्वम् , सिच् , 'स्ताद्य०' (४।४।३२।इति) इट् सितेग्र हादिभ्यः // 4 / 4 / 33 // जादी कार्यः, 'गृह्णोऽपरो०' ( इति ) इटो दीर्घः, म० वृ०-ग्रहादिभ्य एव परस्य स्ताद्यशितस्ते 'सो धि वा' (4 / 3 / 72) इत्यनेन सिचो लुक् , रादिरिट् स्यात् / निगृहीतिः, अपस्निहितिः, 'हान्तस्थाबीड्भ्यां वा' (२।१।८१)इत्यनेन विकल्पेन उदितिः, भणितिः, लिखितिः, अन्दोलितिः। बहु धस्य ढः / ग्रह, अद्यतनीदि, 'सिजद्यतन्याम् ' (3 / वचनमाकृतिगणार्थम / ग्रहादिभ्य एवेति नियमात् ४॥५३॥इति सिच् ), 'सः सिजस्तेर्दिस्योः' (4 / 3 / 65) अन्यत्र नेट- शान्तिः, दीप्तिः, ज्ञप्तिः, वान्तिः; इत्यनेन ईत् , 'स्ताद्यशितो०' (४।४।३२।इति) इट् , तिकः,-- सन्तिः, तन्तिः, कण्डूतिः // 33 // 'गृलोऽपरोक्षायां दीर्घः' इति इटो दीर्घः, 'स्थानी वाऽवर्णविधौ' (7 / 4 / 109) इति न्यायात् दीर्घस्य ___ अव०-तेरिति सामान्येन क्तेः तिको वा ग्रह- स्थानिवद्भावात् ‘इट ईति' (4 / 3 / 71 ) इत्यनेन णम् / निग्रहणं निगृहीतिः, 'स्त्रियां क्तिः' (5 / 3 / सिचो लुक् / "इटो दी? मा भूत्। 'यलोपे गृल्लातेः 91 // इति क्तिः), 'ग्रहवश्वभ्रस्जप्रच्छः' (4 / 1184 / पर इट् अस्त्येव, 'रिरौ च लुपि' (४।११५६।इति इति) य्वृत्। 'उदितिः',अत्र ‘उन्दैप्क्ले दने' इति धातु- ागमः) // 34 // र्घटते / 'ष्णिहौच प्रीतौ' अपस्नेहनम् ( इति ) वृतो नवाऽनाशी:-सिच्परस्मै च // 4 / 4 / 35 // क्तिः / तथा अन्दोल् धातुश्चुरादौ केचित्पठति, स्वमते बहुलमेतन्निदर्शनमिति / यथासम्भवं 'तिक्कृ- म० वृ०-वृभ्यामकारान्तेभ्यश्च धातुभ्यः परस्य तौ नास्ति' (5 / 171) इति तिक् / 'तेरेव ग्रहादिभ्य' इटो ‘वा दीर्घः' स्यात् , परोक्षाशिषोः परस्मैपदविइति विपरीतनियमो न भवति, उत्तरत्र ग्रहः परो- षये सिचि च (दीर्घो) न भवति / 'वृग् ,- प्रावक्षायामिटो दीर्घनिषेधात् / शम्यात् (इति) शान्तिः, रीता, प्रावरिता; वृङ ,- वरीता, वरिता; ऋदन्त,'तिक्कृतौ नाम्नि' (5 / 1 / 71 / इति) आशीरर्थे तिक् / / तरीता, तरिता; तितरीषति, तितरिषति / परोक्षाज्ञपयतेः परः (क्तिः), 'सातिहेतियूतिजूतिज्ञप्तिकीर्तिः' / दिवर्जनं किम् ? ववरिथ, तेरिथ, वरिषीष्ट, प्रावा(५।३।९४) इति निपातः / / 33 / / रिटाम् ,प्रावारिपुः // 35 // गृहणोऽपरोक्षायां दीर्घः // 4 / 4 / 34 // अव:-सिचः परस्मैपदं सिच्परस्मै इति म०७०-ग्रहों विहित इट् , तस्य दीर्घः' | समासः कार्यः, सप्तमीङि, सूत्रत्वात् डिलोपः / स्यात् , अपरोक्षायाम्=स इट् परोक्षायां चेन्नहि / / यस्मिन् त्यादौ सिच विधीयते, तत् सिचः परस्मै'ग्रहीता, ग्रहीतुम् , ग्रहीष्यति, २अग्रहीत् , अग्रही- पदं, तस्मिन् / 'ऋत्' इत्यत्र तो वर्णनिर्देशार्थः / ध्वम् , अग्रहीदवम् / विहितविशेषणं किम् ? यङन्ता- | अन्यथा “समरीता, समरिता" इति ऋणातेरेव ____* सिचः परस्मैपदविशेषाणादात्मनेपदे दी| भवत्येव,- प्रवरीष्ट, अवरिष्टः; प्रावरीष्ट, प्रावरिष्ट; आस्तरीष्ट, प्रास्तरिष्ट। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 ] ' श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 4 पा० 4 सू० 36-39 विज्ञायते / 'वृग् वरणे, ( एवम् ) प्राविवरी- आदिर्वा 'इट् ' स्यात् / पृथग्योगात् 'सिजाशिषोषति, प्राविवरिषति / २'वृङश सम्भक्तौ' (एवं) रात्मने' इति निवृत्तम् / धोता, धविता; औदित् - विवरीषति, विवरिषति / सिचि परस्मै०' (इति) रद्धा, रधिता; त्रप्ता, 'तप्र्ता, तर्पिता / धूम् , औस्व, वृद्धिः, 'सिज्विदोऽभुवः' (४।२।९२।इत्यनो) पुस् / पूडौ इति त्रयाणाम् 'ऋवर्णयुर्णगः कितः' (4 / 4 / // 35 // 58) इति 'उवणोत् (4 / 4 / 578) इति च परत्वात् इट सिजाशिषोरात्मने // 4 // 4 // 36 // किति इटप्रतिषेधः,- धूत्वा, स्वृत्वा, सूत्वा // 38 / / म. वृ०-वतः परयोरात्मनेपदविषयोः सिजाशिषोरादि-रिट वा' स्यात् / 'प्रावृत, प्रावरिष्ट, प्रव०-"त्रप्ता, तप्त'; अत्र 'तृपौच प्रीती' (इति) तृप् , श्वस्तनी-ता, 'स्पृशादिसृपो वा' (4 / 4 / प्रावरीष्ठ; 2 अवृत, अरिष्ठ, अवरीष्ठ; आस्तीष्ट, 112) इति सूत्रेण धातुविचाले अकारो विकल्पेन / आस्तरिष्ट, आस्तरीठ; प्रावृषीष्ट, प्रावरिषीष्ट; वृषीष्ठ, वरिषीष्ट / आत्मने इति किम् ? प्रावारीत् , अता एवं दृपौच (इत्यस्य) द्रप्ता, दर्ता, दर्पिता / २“धूम्श. कम्पने' इत्ययं धूम् , न तु 'धून विधूनने', रीत् // 36 // गिदिति निर्देशात / तुदादिधू(धातोः) नित्यमिट् ,प्रव०-वतः०' प्राप्ते विभाषेयम् / 'प्र, वृग् / धुविता / औदित् ,- 'रधौच हिंसासंराद्धयोः', २वृङशु / आशीः-- आस्तीर्षीष्ट, आस्तरिषीष्ट। एव नशौच , नंष्टा, नशिता; मुहौ-च् ,- मोग्धा, मास्तारीत् , एषु नित्यमेव इट् // 36 // मोढा, मोहिता; दुहौच ,- द्रोग्धा, द्रोढा, द्रोहिता; ष्णुहोच् ,- स्नोग्धा, स्नोढा, स्नोहिता; ठिणसंयोगादृतः // 4 / 4 / 37 // हौच् ,- स्नग्धा; स्नेढा, स्नेहिता; गुपौम० वृ०-धातोः संयोगात्लरो य ऋकारस्तद च् ,- गोप्ता, गोपिता; जुगुप्सति, जुगोपिषति, न्तादात्मनेपदविषयसिजाशिषोरादिरिट् स्यानवा / जुगुपिषति; गुहौ,-- निगोढ, निगूहिता; गाहौ,-- अस्मृषाताम् , अस्मरिषाताम् ; स्मृषीष्ट, स्मरिषीष्ट / विगाढा, विगाहिता; औस्व,-- स्वर्ता, स्वारिता; संयोगादिति किम् ? अकृत, कृषीष्ट / आत्मने / पूडौ,--सोता, सविता इत्यादि / स्वरतेस्तु स्ये परतः इत्येव- अस्मार्षीत् // 37 // परत्वात् 'हनृतः स्यस्य' (४।४।४९।इति ) नित्य मिट् ,-- स्वरिष्यति / औदितः (इंति) अत्रानुबन्धप्रव०-'संयोगादृतः' इति सूत्रे इयं व्यावृत्तिः- निर्देशात् यढो लुपि नित्यमिट् ,-- सरीस्वरिता, धातोरिति विशेषणादिह नेट ,- मा निष्कृत, नि- जोगूहिता / अत्रोणादेरित्येव-धूसरः,अशौ,--अक्षरम् ; कृषीष्ट / 'स्कच्छतोऽकि परोक्षायाम' (4 / 3 / 8) इत्यत्र 'धूगौदितः' इति सूत्रे व्यावृत्तिरियम् // 38 / / स्कृग्रहणात् स्सट्संयोगो न गृह्यते, तेनेह नेट , निष्कुषः।।४।४।३९॥ समस्कृत, संस्कृषीष्ट // 37 // धूगौदितः // 4 / 4 / 38 // म० वृ०-निर्-निस्पूर्वात् कुषः परस्य स्ता द्यशित आदिर्वा 'इट् स्यात् / निष्कोष्टा, निष्कोम० वृ०-धूग औदिद्भ्यश्च परस्य स्ताद्यशित / षिता। निष्पूर्वनियमात्केवलादन्यपूर्वाञ्च नित्य एवेट, *.अत्र लघुन्यासकारकृतस्फुटार्थ एवम् - "तकाराभावे 'ऋ' इति निर्दिश्यमाने, 'वृ' इत्यनेन धातुना साहचर्यात् 'ऋश् गतौ' इत्यस्यैव ग्रहणं स्यात् , न ऋकारान्तधातुमात्रपरिग्रहः, ततश्च ‘समरीता, समरिता' इत्यत्रव स्यात् / * तकारे तु सति,..'ऋत्' इत्यस्य धातोरभावात् तकारस्य च वर्णनिर्देशेन प्रसिद्धत्वात् ऋकारवर्णविज्ञानात् तदन्तधातुमात्रप्रतिपत्तिर्भवतीति तकारांपादानम्।" Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तादीनामादाविविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [137 कोषिता, प्रकोषिता / योगविभाग उत्तरार्थः / / 39 // अव०-तेषाम् , कोऽर्थः ? परेषाम् , ष्ठी,आम् / क्तयोः // 4 / 4 / 40 // क्षुधंच बुभुक्षायाम्' / 'वसं निवासे' (इति) अयमेव धातुः, न तु वसिक् आच्छादने', अस्य....." [इट ] म० वृक्ष-निष्कुषः परयोः 'क्तयोरादिरिट्' अस्त्येव / वावसितः, वावसितवान् , वावसित्वा स्यात् / पृथग्योगानवेति निवृत्तम् / निष्कुषितः, इत्यत्र गणपाठनिर्देशात् 'यजादिवचेः किति' (4 / 1 / निष्कुषितवान् // 40 // 179) इत्यनेन न य्वृत् // 43 / / ज-वश्वः क्त्वः / / 4 / 4 / 41 // लुभ्यञ्चेर्विमोहाचें / / 4 / 4 / 44 / / म० वृ०-जवश्विभ्यां परस्य 'क्त्वाप्रत्ययस्यादिरिट्' स्यात् / जरित्वा, जरीत्वा; ब्रश्चित्वा / 'ज' म० वृ०-लुभ्यञ्चिभ्यां यथासङ्घय विमोहे ऽर्चायां२ चार्थे ‘क्तक्तवतुक्त्वामादिरिट्' स्यात् / इत्यस्य 'ऋवर्णयूटुंगः०' (4 / 4 / 58) इति निषेधे, विलुभितः सीमन्तः, विलुभिताः केशाः, विलुभितवश्व रौदित्वात् [धूगौदितः' (4 / 4 / 38) इत्यनेन] वान ; "लुभित्वा, लोभित्वा; अश्चिता गुरवः, अश्चिविकल्पे प्राप्ते वचनम् // 41 // तवान गुरून् , अश्चित्वा। विमोहार्च इति किम् ? "लुब्धो जाल्मः, उदक्तमुदकं कूपात् ; अक्त्वा, प्रव०-सूत्रे - 'जश वयोहानौ' इत्ययं ग्राह्यः, न भश्चित्वा // 44 // तु देवादिकः, तस्य जी; / 'श्चित्वा', अत्र 'क्त्वा' - (4 / 3 / 29) इति सूत्रेण सेट् क्त्वा 'किद्वन्न' भवति अव०-लुभेः उत्तरसूत्रेण 'सहलुभेच्छरुष०' इति न य्वृत् // 41 // (4 / 4 / 46) इत्यादिना विकल्पे, अञ्चेश्च 'उदितो वा' (4 / 4 / 32) इति विकल्पे, उभयोश्च 'वेटोऽपतः' (4 / ऊदितो वा // 4 / 4 / 42 // / 4 / 62) इति क्तयोर्नित्यं प्रतिषेधे प्राप्ते 'लुभ्यञ्चेम. वृ०-ऊदितो धातोः परस्य 'क्त्वा इत्य- बिमोहाचे' इति सूत्रं कृतम् / 'विमोहो-विमोहनम् , स्यादिरिट् स्याद्वा' / दान्त्वा, दमित्वा। यमूसिध्य- आकुलीकरणम् / २अचा-पूजा / अनाकुला आकुलाः .त्योरप्राप्ते, शेषाणां प्राप्त विकल्पोऽयम् // 42 // कृता इत्यर्थः। 'लुभच् गाये'। 'लुभित्वा, लोभित्वा' कोऽर्थः ? अनाकुलमाकुलीकृत्य इत्यर्थः, 'वौ व्यप्रव०-(अत्र) दान्त्वा, दमित्वा; शान्त्वा, शमि- | अनादेः सन्चायवः' (4 / 3 / 25) इति सेट क्त्वा वा त्या; तान्त्वा, तमित्वा, द्यूत्वा, देवित्वा; स्यूत्वा, सेवि- | किद्वत् / ५(एवम् ) लुब्धोऽजः, लुब्धवान् , लुब्ध्वा त्या इति प्रयोगावली ज्ञेया। यमूषिधूप्रयोगौ न / ||? दर्शितो, अदृष्टत्वात् / 'दान्त्वा' इत्यादिषु 'अहन्पश्चमस्य क्वि-विति' (4 / 1 / 107) इति अनिटि किति पूड-क्लिशिभ्यो नवा // 4 / 4 / 45 / / दीर्घः / द्यूत्वा स्यूत्वा' इत्यत्र 'अनुनासिके च च्छवः म. वृ०--पूछ -क्लिशिभ्यां परेषां 'क्तक्तवतुक्त्वाशूट ' (4 / 1 / 108) इति अनेन वकारस्य ऊट // 42 / / मादिरिट् स्यान्नवा' / पवितः, पूतः; पवितवान् , पूतक्षुध-वसस्तेषाम् / / 4 / 4 / 43 // वान् ; पवित्वा, पूत्वा; क्लिशितः, क्लिष्टः; क्लिशित्वा, क्लिष्ट्वा / / 45 // म० वृ०-क्षुधिवसिभ्यां परेषां 'तक्तवतुक्त्वामादिरिट्' स्यात् / क्षुधितः, क्षुधितवान् , क्षुधित्वा; अव०-सूत्रे 'पूरू, पवने' इत्ययं प्रायः, न तु उषितः, उषितवान् , उषित्वा; यो लुपि,-वावसितः, 'पूगश् पवने', अस्य “न डील-शीङ " (4 / 3 / 27) वावसित्वा / / 4 / / इत्यादिना कित्त्वप्रतिषेधाभावात् 'पुवितः' इत्यनिष्टं Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 ] - श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 4 पा०४ सू० 46--47 रूपं प्रासज्येत / 'क्लिशिभ्यो' इत्यत्र बहुवचनं "क्लि- / पति; (ऊर्ण,--) प्रोर्णनूषति, प्रोणुनुविषति, प्रोर्णनशिच् उपतापे, क्लिशौश विबाधने" (इति) द्वयो- विषति; (भर,-- ) बुभृर्षति, बिभरिषति; (ज्ञप् ,) रपि ग्रहणार्थ कृतम् / पूङः परतः ‘उवर्णात्' (4 / 4 / ज्ञीप्सति, जिज्ञपयिषति; ज्ञपीति कृतह्रस्वग्रहणात् 159) इति निषेधे प्राप्ते, क्लिश्यतेर्नित्यमिटि ज्ञापेर्जिज्ञापयिषति इत्येव, (सन् ,-) सिषासति, प्राप्ते, क्लिनातेश्च औदित्त्वात् विकल्प प्राप्ते, क्त- सिसनिषति; (तन -) तितंसति , तितांसति, तितयोश्च नित्यं निषेधे प्राप्ते 'पूर-क्लिशिभ्यो नवा' निषति; (पत् -) पित्सति५, पिपतिसति; (वृ,-) इति विभाषेयं कृता / / 45 // प्रावुवूर्षति, प्राविवरिषति; एवं वुवूषते, ऋदन्त, तितीर्षति, तितरिषति, तितरीषति; 'चिकीर्षति' सह-लुभेच्छ-रुष-रिषस्तादेः // 4 / 4 / 46 // इत्यत्र लाक्षणिकत्वान्नेट , (दरिद्रा,-) दिदरिद्रासति, म० वृ०-एभ्यः परस्य 'स्ताद्यशितस्तकारादे- दिदरिद्रिषति // 47 // रिट्' स्यान्नवा / सोढा, सहिता; सोढुम् , सहितुम् ; सोढव्यं, सहितव्यम् ; लोब्धा, लोभिता; लोब्धव्यं, अव०-१“ऋयूच् वृद्धी, ऋयूट वृद्धी" (इति) लोभितव्यम् ; एष्ठा, एषिता; एषुव्यम् , एषितव्यम् / द्वावपि ज्ञेयौ, ऋध् , अद्धितुमिच्छति (इति) सन् , "इषच गतौ, इषश् आभीक्ष्ण्ये' इत्याभ्यां नित्य 'ऋव ईत ' (4 / 1 / 17 इति) ऋधः स्थाने ईर्त , न मेवेट् , प्रेषिता, प्रेषितुम , प्रेषितव्यम् ; रुष् , रोष्टा, चद्विवचनम् / बिभ्रक्षति' इत्यादि,- 'भ्रस्जीत पाके' रोष्टुम् ; रिष् ,-रेष्ठा, रेष्टव्यम् / तादेरिति किम् ? ( इति ) भ्रस्ज , भ्रष्टुमिच्छति, सपूर्व ( ? सन ) सहिष्यते, एषिष्यति' // 46 // 'संयोगस्यादौ स्कोलक' (2 / 1 / 88 ) इत्यनेन स प्रव०-इच्छेति निर्देशात् 'ईषत् इच्छायाम्' लुप्यते, 'यजसृज०"(२।११८७) इति जस्य षः, षढोः कस्सि' (2 / 1 / 62) (इति षस्य कः), 'नाम्यन्तस्था०' इत्यस्य ग्रहणम् , न तु इषच इत्यादि (? देः) / (2 / 3 / 15) इति सकारस्य षः / दम्भ, सन् , १(एवम) लोभिष्यति / 'रुषच रोषे' अथवा 'दम्भो धिप् धीप्' (४।१।१८।इति) दम्भः स्थाने भ्वादी 'कष शिष जष झष वप मष मुष रुष रिष 'धिप् , धीप्', न च द्विवचनम् / २स्वरहनगमो: यूष जूष शष चष हिंसायाम' (इति) रुष् , रोषा, सनि धुटि' (४।१।१०४।इति) दीर्घः / यियविषति' रोष्टुम् , रोष्टव्यम् ; रोषिता, रोषितुम् , रोषितव्यम् / इत्यत्र 'ओर्जान्तस्थापवर्गेऽवणे (4 / 1 / 60) इत्यनेन रिष-रेष्टा, रेषिता; रेष्टुम्, रेषितुम् ; रेष्टव्यम् ,रेषि पूर्वस्य इत्वम् / प्रोर्णनूषतीत्यादौ पूर्व 'स्वरादेर्द्वितव्यम् ; एते प्रयोगा रुषरिषेातव्याः // 46 // तीयः' (4 / 1 / 4) इति 'नु' इत्यस्य द्वित्वम् , तत एकइवध भ्रस्ज-दम्भ-श्रि-यूणु-भर-ज्ञपि-सनि-तनि- त्रं 'स्वरहनगमोः सनि धुटि' (4 / 1 / 104) इति दीर्घः, 'वोर्णाः' (4 / 3 / 19) इत्यनेन वा सेट् सन् पति-वृद्दरिद्रः सनः // 4 / 4 / 47 // डिद्वत् , (अतः) एकत्र गुणः, अन्यत्र उव् / जानम० वृ०-इवन्तात् , ऋधभ्रस्ज न्तं प्रयुङ क्ते (इति) णिग , अतिरी०' (4 / 2 / 21 ) ज्ञपिसनितनिपतिवृभ्यः, ऋकारान्तात दरिद्रश्च परस्य इति पोऽन्तः, 'मारणतोषणनिशाने ज्ञश्च' (4 / 2 / 60) ‘सन आदिरिट स्यान्नवा' / इवन्त,--दुयूषति, दिदे. इति ह्रस्वः ज्ञप , ज्ञपवितुमिच्छति (इति) सन् , विषति; सिव ,-सुस्यूषति, सिसेविषति; ऋध् ,-- 'ज्ञप्यापो ज्ञीपीप० (4 / 1 / 16) इति ज्ञीप् , १ईहँति, अदिधिषति; (भ्रस्ज,--) बिभ्रक्षति, ज्ञीप्सति / 'जिज्ञपयिषति' इत्यत्र सेट् सन् , (अतः) बिभक्षति; एवं बिभर्जिषति, विभ्रजिषति; (दम्भ,-) ज्ञीप (आदेशः) न प्राप्नोति। 4 ‘सनि' (4 / 2 / 61) धिप्सति, धीःसति, दिदम्भिवति; (श्रि,.) शिश्री- इत्यनेन आत्वं नस्य, 'तनो वा' (4 / 1 / 195) पति, शिथिषति; (यु,--) युयूषति, यियवि- | इत्यनेन वा दीर्घः / ५“रभलभशकपतपदामिः' (4 / Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संन्नादीनामादाविविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 139 श२श इतीः ) / वृग ( इत्यस्य ) प्राविवरीषति अव०-१ एवमाहनिष्यते, आहनिष्यमाणः (इत्यपि) / 'वृङश सम्भक्तों' (इत्यस्य) वृषांत, | इयपि। (एवम् ) अकरिष्यत् , करिष्यन् / स्वरतेः विधरिषति,विवरीषति। तितीर्षति' इत्यस्याग्रे आति- परत्वात् विकल्पं बाधित्वा नित्यमिट् / / 49 / / स्तीपति, आतिस्तरिषति, आतिस्तरीषति इत्यपि / 'बुभूति' इत्यादी 'इवृधभ्रस्जदम्भश्रियूर्णभर०' कृत-चूत-नृत-छुद-तृदोऽसिचः सादेर्वा इत्यत्र शत्रा निर्देशो बिभर्तिधातोः यङ लुपो भर // 4 // 4 // 50 // स्य च इति निवृत्त्यर्थः, तेन बुभूर्षति इत्यत्र 'भृग् म० ३०-एभ्यः परस्य सिवर्जितस्य सकाभरणे' इति स्वादिको ग्राह्यः, 'ओष्ठयादुर्' (4 / 4 / रादेः स्ताद्यशित 'आदिरिट् स्याद्वा' ।कर्त्यति, कर्ति११७ इति उर् , 'भ्वादेर्नामिनो दी?' 0 (2 / 1 / 63) व्यति; चिकृत्सति,चिकतिषति; चय॑ति, चर्तिष्यति; इति दीर्घ ऊर् , पक्षे गुणः // 47 // चिचत्सति, चिचर्तिषति, नर्त्यति, नतिष्यति; ऋ-स्मि-पूजैशी-क-गृ-ह-धृ-प्रच्छः / / 4 / 4 / 4 / / निनृत्सति, निनतिषति; छर्त्यति, छर्दिष्यति; तय॑ति, तर्दिष्यति / सादेरिति किम् ? कर्त्तिता, ___म० क-पृथग्योगात् नवेति स्थितं (? निवृ नर्त्तिता / असिच इति किम् ? अकर्तीत् , अनत्तम् ) / एभ्यः परस्य 'सनः आदिरिट्' स्यात्।अरि तीत् / प्राप्ते विभाषा // 50 // रिषति, सिस्मयिषते,, 'पिपविषते, अञ्जिजिषति, २अशिशिषते, चिकरिषति, जिगरिषति, जिगरी- ___अव०-'कृतैत् छेदने कृतैप वेष्टने' वा / 'तैत् पति, आदिदरीषते, ५आदिधरिषते, पिपृच्छि- हिंसाग्रन्थयोः' (इति) चुत् / 'नृतैत् नर्त्तने' / 'उछपति / ऋस्मिपूङ प्रच्छामप्राप्ते, शेषाणां विकल्पे | दुपी दीप्ति-देवनयोः' / 'ऊतृदपी हिंसा-ऽनादरयोः' प्राप्ते वचनम् // 48 // (इति) तृद् / / 50 / / अव०-१ पूङ परने' इत्ययं ग्राह्यः, अनुबन्ध- गमोऽनात्मने // 4 / 4 / 51 // निर्देशात् , न तु 'पूग्श पवने', तस्य 'पुपूषति, पुपूपते' / २'अशं टि व्याप्तौ' इत्ययम , न तु 'अशश ___म० वृ०-गमेः परस्य सकारादेः स्ताद्यशित भोजने', तस्य इट् अस्त्येव / 'कृत् विक्षेपे' इत्ययं 'आदिरिट ' स्यात् , नत्वात्मनेपदे / गम्ल,-गमिधातुः, एवं चिकरीपति, 'वतो नवानाशी'-त्या ध्यति, अगमिष्यत् , जिगमिषति, जिगमिषिता, जिगमिषितुम् ;2 इण ,-जिगमिषति ग्रामम , दिना (4 / 4 / 35) वा दीर्घः / प्रच्छसहचरिताः कगधृ जिगमिषः: इक ,-अधिजिगमिषति मातः,४ इट - इत्येते धातवस्तौदादिका एव ग्राह्याः, तेन कृणातेः अधिजिगमिषिता शास्त्रस्य, अधिजिगमिषुः, अधिचिकीर्षति, चिकरिषति, चिकरीषति; गृणातेर्जिगी- जिगमिषितव्यम् / अनात्मने इति किम् ? गंस्यते पति, जिगरिषति, जिगरीषति; धरतेः दिधीर्षति ग्रामः, संगंस्यते वत्सो मात्रा, "गंस्यमानः, सङ्गस्यइत्येवं भवति / 'हंडन आदरे / धुंद त स्थाने मानः, सञ्जिगंसिष्यमाणः; एवमधिजिगांसते, // 48 // अधिजिगांस्यते; इणिकोर्जिगांस्यते, अधिजिगांस्यते हनृतः स्यस्य / / 4 / 4 / 49 / / माता // 51 // म० ०-हन्तेः ऋदन्ताच परस्य ‘स्यस्यादि अव०-गम' इति (आदेशस्य) अनादेशस्य च रिट' स्यात् / हनिष्यति, अहनिष्यत् , हनि- ग्रहणम् , अविशेषात्। 'गमेः परतो यदि आत्मनेपदं ध्यन् ;' करिष्यति, करिष्यमाणः२; स्वरिष्यति / न भवति इत्यर्थः, आत्मनेपदविषयस्य अविष यस्य तकारनिर्देशादर्तेः (एव) न ग्रहणम् // 49 // चात्मनेपदाभावे सति इट् भवतीत्यर्थः / (एवम् ) Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 4 पा० 4 सू० 52-55 सञ्जिगमिषिता, सञ्जिगमिषितव्यम् / इण-इक- क्रमितासि, चिक्रमिषति, चिक्रमिषिता, प्रक्रमितुम् , इधातोः 'सनीश्च' (4 / 4 / 25) इति सूत्रेण 'गम' चिक्रमिषितुम् , प्रक्रमितव्यम् / अनात्मने इत्येवआदेशः / 4 (एवम् ) अधिजिगमिषुः। 'गम्यते ग्राम प्र–स्यते, प्रक्रस्यमानः, उपक्रस्यते, उपक्रस्यमानः, इत्यादि * उदाहरणान्यारभ्य सञ्जिगंसिष्यमाण प्रक्रन्ता, उपक्रन्तासे, प्रक्रसीष्ठ, प्राक्रस्त, प्रचिक्रइति यावत् गम्लधातोरेव एतानि रूपाणि / सते / कथं चिक्रसया कुत्रिमपत्रिपङ क्तेः' (इति) तत्र निरुपसर्गस्य गमे वे कर्मणि चात्मनेपदम्, | अत्रेडभावः ? गतानुगतिक / एष पाठः, 'जिघृसमपूर्वकस्य गमेः 'समो गमृच्छि'० (3 / 3 / 84) क्षया कुत्रिमपत्रिपद क्ते'- रिति तु 4 अविगान: इत्यनेन ( कर्तरि ) आत्मनेपदम्। अगस्यत, समर्ग- पाठः / / 5 / / स्यत, गंसीष्ट, सङ्गंसीष्ट, संजिगंसते, सञ्जिगंसमानः, संजिगंसिष्यते, संगसिष्यमाणः इत्यपि अव०-'आत्मनेपदविषयात् आत्मनेपदाऽविज्ञेयानि / तथा अधिजिगांसते, अधिजिगांसमानः, पयाद्वा। "निरक्रमीत', अत्र 'व्यञ्जनादेोपान्त्य'० अधिजिगांस्यते, अधिजिगांसिष्यते, अधिजिगांसि (4 / 3 / 47) इत्यनेन न वृद्धिः, 'न श्विजागृ० ष्यमाणः इत्यपि ज्ञातव्यानि / एवं संजिगांस्यते (4 / 3 / 47) इति प्रतिषेधः। पत्रिणां पक्षिणां हंसा॥५१॥ दीनां पङक्तिः , तस्याः। न विद्यते विगान बच नीयता दोषो यत्र-सोऽविगानः पाठः // 53 / / स्नोः // 4 / 452 // म० वृ०-स्नोः परस्य स्ताद्यशित 'आदिरिट' तुः / / 4 / 4 / 54 // स्यात् , न त्वात्मनेपदे / प्रस्नविष्यति, प्रस्न- ___म० वृ०-अन्यत्मनेपदविषयात् क्रमः परस्य विता, प्रस्नवितुम् 3 / अनात्मने इति किम् ? प्रस्नो- तुः तृचः तृनश्च स्तादशित 'आदिरिट्' स्यात् / ध्यते / स्नोतेरिट सिद्ध एव, प्रतिषेधाभावात् , क्रमिता, निष्क्रमिता। अनात्मने इत्येव-व्यतिक्रआत्मनेपदे इनिवृत्त्यर्थे तु वचनम् / एवमुत्तर- न्ता, प्रकन्ता, आक्रन्ता / / 54|| योगोऽपि // 52 // अव०-आत्मनेपदविषयश्च क्रमिः कर्मव्यतिप्रव०-१'स्नोः' इति पृथग्योगात् अत्र सूत्रे हारवृत्त्यादिषु प्रोपव्याङ पूर्वकश्च आरम्भादिषु सादेरिति नानुवर्तते / यदि स्नोः परमात्मनेपदं भवति / 'तुः', कोऽर्थः ? तृचः तृनश्च / क्रमोऽनुपन भवति / (एवं) प्रस्नवितव्यम् / प्रसुस्नूषति | सर्गादिति विकल्पेनात्मनेपदविषयत्वात् 'क्रन्ता' इत्यत्र 'ग्रहगुहश्च सनः' (4 / 4 / 60) इति इट्प्रति- इत्यपि // 54|| षेधः / प्रस्नोष्यमाणः, प्रास्नोष्यत, प्रस्नोषीष्ट प्रस्नोता इत्यपि // 52 // न वृद्भ्यः // 4 / 4 / 55 // म० वृ०-वृदादिपञ्चकात्परस्य 'स्ताद्यशित क्रमः // 4 / 4 / 53 // आदिरिट् न' भवति, आत्मनेपदनिमित्तं वृताम०वृ०-क्रमः परस्य स्ताद्यशित 'आदिरिट्' / दयो यदि न भवन्ति / वृत , वर्त्यति, विवृत्सति, स्यात् , न त्वात्मनेपदे / क्रमिष्यति, निरक्रमीत् ,2 / विवृत्सिता, विवृत्सितुम् , विवृत्सितव्यम् , विवृत्सा; अत्र 'अादि उदाहरणानि' इति पाठोऽधिकः / ननु 'प्रसुस्नूषति, इत्यत्र सन: स्ताद्यशित्त्वादात्मनेपदाभावाच कयं नेट ? इत्याह-'प्रसुस्नूषति' इत्यादि / A गतस्यानुगतं गतानुगतम् , तदत्रास्तीति 'अतोऽनेकस्वरात्' (7 / 2 / 6) इत्यनेन इकः / * आदिपदाद् विपूर्वस्य स्वार्थे प्राङपूर्वस्य तु ज्योतिरुदगमे / Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्ताद्यशिहादाविउभा.विधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [141 * स्यन्द्,- स्यन्त्स्यति, सिस्यन्त्सति, सिस्यन्त्सिता; / अव०-'अनुस्वार इत-अनुबन्धो यस्य, अनुवृधेः वृतिवतरूपाणि, २शध ,- शर्त्यति; कृप् , कल्प- | स्वारानुबन्धधातुः इत्यर्थः (तस्मात ) / येषां धातूनां स्यति, चिक्लप्सति, चिकलप्सिता, कल्प्ता, अनुस्वारोऽनुबन्धो नास्ति ते धातवः सेटो भवन्ति / कल्प्तारः / स्यन्दिकृपोरौदिल्लक्षणो विकल्पः परत्वा- श्वि, श्रि, डी, शी, यु, रु, क्षु, क्ष्णु, णु, स्नु, वृग्, दनेन बाध्यते। अनात्मने इत्येव- वर्त्तिता, वर्ति- वृद्ध . ऊदन्ता ऋदन्ता इत्यादयः प्रायः सर्वेऽपि प्यते, वितिषते विवर्तिषितव्यम् ; एवं वर्द्धि- चुरादयः युजादिश्च सेटो भवन्ति / तथा चाहप्यते, विवद्धिषते; कल्प्स्यते, कल्पिस्यते अकल्पि- __'विश्रिडीशीयुरुक्षुक्ष्णु,-णुस्नुभ्यश्च वृगो वृद्धः प्यत / 52 / / उदन्त-युजादिभ्यः' इति पादत्रयम / अव०-भ्वादी द्युदिान्ते 'वृत् , स्यन्द् , | अथ अनुस्वारानुबन्धा उच्यन्ते, स्वरान्ताधातवोऽपरे'।१। वृध् , शुध् , कृप्' इति वृत्पञ्चकम् / 'आत्मनेपदनि- इति चतुर्थपादः श्लोकस्य / 'पाठ एकस्वराः मित्तमित्यादि,-अनात्मनेपदनिमित्तं वृतादयः स्य- स्युर्ये', अयमर्थः- पूर्वोत्तादपरे, 'ये' इति धातुपारायणे कारादिप्रत्ययविषये सन्प्रत्ययविषये च विकल्पेन स्वरान्ता धातवः, कीदृशाः स्वरान्ताः ? ये धातवः भवन्ति, कृपिधातुश्च श्वस्तनीविषये विकल्पेन भवति, पाठे=भ्वादिसर्वधातुगणे एकस्वरा भवन्ति ते अनुइति 'वृद्भयः स्यसनोः' (3 / 3 / 45) 'कृपः श्वस्तन्याम्' स्वारेत उच्यन्ते / तथाहि(३।३।४६) उक्तमस्ति / एकत्र परस्मैपदमेकत्र पाठ एकस्वराः स्युर्येऽनुस्वारेत इमे मताः / आत्मनेपदं च / यत्र परस्मैपदम् तत्र इट् (न) भव- द्विविधोऽपि शकिश्च वं वचिर्विचिरिची पचिः / / 2 / / त्येव, यथा- वमति, वतिष्यते इत्यादि / सिञ्चतिर्मुचिरितोऽपि पृच्छति-भ्रंस्जिमस्जि शध ,- शयति, शिशत्सति, शिशत्सिता, शिशत्सि भुजयो युजिर्यजिः / ध्वञ्जिरञ्जिरुजयो निजिर्विजतुम , शिशृत्सितव्यम् / एवं चिक्लप्सितुम् , चिक्- सञ्जिभअिभजयः सृजित्यजी // 3 // स्कन्दिविद्यलप्सितव्यम , कल्प्तासि; एषु सर्वत्र 'ऋरललं विद्लविन्तयो नुदिः स्विद्यतिः शदिसदी भिदिकृपोऽकृपीटादिषु' (2 / 3 / 99) इत्यनेन (ऋतः) च्छिदी। तुद्यदी पदिहदी खिदिक्षुदी राधिसाधिलकारः रस्य च लः / / 55|| शुधयो युधिव्यधी // 4 // बन्धिबुध्यरुधयः ऋधिएकम्बरादनुस्वारेतः' // 4 // 4 // 56 // क्षुधी सिध्यतिस्तदनु हन्तिमन्यती। आपिना तपि म० वृ०-एकस्वरादनुस्वारेतो धातोर्विहितस्य शपिक्षिपिच्छुपो लुम्पतिः सृपिलिपी वपिस्वपी॥५।। 'स्ताद्यशित आदिर्नेट्' स्यात् / पाता, आक्शाता, यभिरभिलभियमिरमिनमिगमयः क्रुशिलिशिआख्याता, जेता। एकस्वरादिति किम् ? अवधीत् , | रुशिरिशिदिशतिदशतयः / स्पृशिमृशतिविशतिदृशिशाशकिता। विहितविशेषणं किम् ? चिकीर्षति, शिष्लशुषयस्त्विषिपिषिविष्लकृषितुषिदुषिपुषयः।६। पश्चादनेकस्वरत्वेऽप्यत्र प्रतिषेधो भवत्येव / अनुस्वा- | :श्लिष्यतिर्द्विषिरतो घसिवसती रोहतिलुहिरिही रेत इति किम् ? श्वि- श्वयिता, श्रयिता / कथं 'ता, अनिगदितौ / देग्धिदोग्धिलिहयो मिहिवहती नह्यदर्ता ? औदित्त्वाद्विकल्पेनेट् // 56 // तिर्दहिरिति स्फुटमनिट: * ||7|| * अत्र श्लोकसप्तकेन धातूनां स्वरान्तव्यञ्जनान्तलक्षणद्विप्रकारमाश्रित्य सेटनिविभागः प्रदर्शितः, तत्र सार्धश्लोकेन स्वरान्तधातूनाश्रित्य सार्धपञ्चश्लोक श्च व्यञ्जनान्तधातूनाश्रित्य प्रदर्शित: / आद्यसार्घश्लोकभावार्थ एवम्श्व्यादिवपर्यन्तेभ्यः, उदन्तेभ्यः, ऋदन्तेभ्यः, (स्वरान्त)युजादिभ्यश्चान्ये ये स्वरान्ता धातवो धातुपाठे एकस्वरा अनुस्वारानुबन्धाश्च तेऽनिटो भवन्ति / तत इदं समापतितम्-श्व्यादिवृपर्यन्ता:, ऊदन्ताः, ऋदन्ता युजादयश्च स्वरान्ता धातवः सेट:, श्व्यादिभ्योऽन्ये ये धातुपाठे एकस्वरा अनुस्वारेतश्च धातवस्तऽनिटो भवन्ति / सार्धपञ्चश्लोकेषु दर्शिताः शक्यादिधातवोऽनिटः, तेभ्योऽन्ये व्यञ्जनान्तधातवः (वेटो धातूनन्तरा सर्वे) सेटो भवन्ति / Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 4 पा० 4 सू० 57-60 एते एकस्वरा अनुस्वारेतो धातवः, एषां न | पति ; इति हेतो-'ग्रहगुह'० इत्यनेन वा न.. इट / "पां पाने, धां गन्धोपादाने. एवं ध्मां. पां. ....... इति (? इट) निषेधः / 'जियश्नति', म्नां, दां, जिं, किं, यु, स्मृ, सृ, ऋ, धे, ध्य' सन् , द्वित्वम् , 'गहोर्जः' (१४१।४०।इति द्वित्वे अन्य एवमादिप्रकाराः स्वरान्ता अनुस्वारेतो धातवः, एते- जः), 'सन्यस्य' (४११।५९।इति द्वित्वे पूर्वस्येकार: षामपि न इट् भवतीत्यर्थः / एकस्वरादनुस्वारेत 'ग्रहवश्वभ्रस्जप्रच्छः' (4 / 1 / 84) इति य्वृत , 'गडइत्यस्य वृत्तौ सर्वा इयमवचूरितिव्या / 'लुहि- दबादेश्चतुर्थान्तस्यैकस्वरस्यादेश्चतुर्थः स्योश्च प्रत्यये' रिही' इति हिंसार्थों सौत्रौ / मनूयि, मनिता / कथं (2 / 1177) इति गस्य घः, 'हो धुट्दान्ते' 21 मतं ? 'वेटोऽपतः' (4 / 4 / 62) इति भविष्यति / 56 / ८२।इति) हस्य ढः, षढोः कस्सि' (२।१।६२।इति ढस्य क् // 59 // वर्णश्रयणुगः कितः // 4 / 4 / 57 // / स्वार्थे // 4 / 4 / 60|| म० वृ०-ऋवर्णान्ताद्धातोः, श्रेः ऊोश्चैकस्वराद्विहितस्य 'कितः प्रत्ययस्यादिरिट् न' स्यात् / म० वृ०-म्बार्थे कृतस्य ‘सन आदिरिट् न'' वृतः, वृतवान् , वृत्वा; तीर्णः, तीर्णधान् , ता; स्यात् / जुगुप्सति, शीशांसते, मीमांसते' / स्वार्थ 'पूर्तः, श्रितः, श्रितत्रान् ; ऊर्णतः / गित्त्वात् यङ इति किम् ? पिपठिषति / / 60 // लुपि इट् स्यादेव- ऊोनवित्वा / एकस्वरान्तादित्येव- जागरितः / कित * इत्येव- वरिता, तरिता, अव०-(एवम् ) तितिक्षते,चिकित्सति / 'शान्दा श्रयिता // 5 // न्मानबधा'० (3 / 4 / 7) इत्यनेन सन दीर्घश्च // 6 // डीयश्व्यैदितः क्तयोः // 4 / 4 / 61 / / अव०-विहितविशेषणात् 'तीर्णः, पूर्णः' इत्यत्र (अनुक्रमेण) ईर् , ऊर् (इति) आदेशे कृतेऽपि इट म० वृ०-डीयतेः, श्वयतेः ऐदिद्भ्यश्च परयोः प्रतिषेधो भवत्येव / 'पश् पालनपूरणयोः', पूर्तः, 'क्तयोरिट् न' स्यात् ; डीनः, डीनवान् ; उड्डीनः, उड्डोनवान ; सूनः / ३लग्नः, लग्नवान् ; पूर्त्तवान् , पूर्वा / 2 (एवम् ) ऊर्णत्वा, ऊणुवान ; एवं प्रोर्णतः, प्रोणुवान् / 'उवर्णान्' (4 / 4 / 58) इत्यु 4 उद्विग्नः, यत्नः, यत्नवान् 5 / 'डीय' इति श्यनित्तरसूत्रेणैव सिद्धे ऊर्गुग्रहणमने कस्वरार्थम् / / 57 / / देशात् डयतेरिडेव-- डयितः // 61 // ___उवर्णात् // 4 / 4 / 58 // अव०-डीङ च गौ,' 'सूयत्याद्योदितः' म० वृ०-उवर्णान्तादेकस्वराद्विहितस्य 'कित (4 / 2 / 70) इति नकारः / 2 (एवम् ) सूनवान् / आदिरिट् न' स्यात् / युतः, युतवान् ; लूनः, लून ओलजैङ ओलस्जैति ब्रीडे / ४ओविति भयच लनयोः / 5 (एवं) त्रस्तः, त्रस्तवान् / ६डीङ विहावान , लूत्वा / / 58 // यसां गतौ / 'डीये'-ति सूत्रे विशेषोऽयम् ,- कृतै, ग्रहगुहश्च सनः // 4 / 4 / 59 // नृतै, चतै इत्येषां 'कृतचत०' (4 / 450) इत्य म० वृ०-अहिगुहिभ्यामुवर्णान्ताच विहितस्य | नेन वेदत्वेन, उत्तरसूत्रेण 'वेटोऽपतः' (1 / 4 / 62) 'सन आदिरिट् न' स्यात् / जिघृक्षति, जुघुक्षति, इति सूत्रेणापि क्तयोरिटप्रतिषेधे सिद्धे, डीयश्व्यै[टुक्षु रु कुंक् शब्दे] रूषति, तुतूषति, पुपूषति, लुलू दित' इत्यत्र यत् ऐदित्त्वं कृतं तत् यङ लुबर्थम् ; षति // 59 // यढो लोपेऽपि इटप्रतिषेधः स्यात् / तेन चरी कृत्तः, चरिकृत्तवान ; नरीनृत्तः, नरीनृत्तवान् ; प्रव०-यौतेस्तु इवृधभ्रस्जदम्भ० (4 / 4 / 47) चरीवृत्तः, (चरिचत्तवान् ) इत्यत्रानेकस्वरत्वेऽपि इटइत्यादिना विकल्पेन इट् उक्तः,-यियविषति युयू- | प्रतिषेधो भवत्येव इत्यर्थः / / 61 / / Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्तयोरादाविडभावषिधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंघलितम् / / [143 'वेटोऽपतः // 4 / 4 / 62 // इत्यर्थः / 2 अभ्यर्णा शरत् , अभ्यणे शेते इत्यपि म० वृ०-पतिवर्जिताद् यत्र कचिद्विकल्पि ज्ञेयम् // 64 // तेटो धातोरेकस्वरात्परयोः 'क्तयोरादिरिट्न'स्यात। | वतेंवत्तं ग्रन्थे // 4 / 4 / 65 / / रिधौ-]रद्धः, [गुहौ गूढः, गूढवान् ; शान्तः, शान्त-. म० ३०-वृतेर्ण्यन्तात् क्ते परे 'वृत्तम्' इति वान ; अस्तः, अस्तवान ; सोढः, सोढवान् / अपत निपात्यते, ग्रन्थविषये / गुणाभावेनिषेधौ णिलुक् इति किम् ? परितः, पतितवान् / एवस्वरादित्येव- च निपातनात् / 'वृत्तो गुणश्छात्रेण, वृत्तं पारायणं दरिद्रितः, दरिद्रितवान् // 62 // चैत्रेण। वर्तेस्तु ग्रन्थविषये वर्त्तितमिति प्रयोग निवृत्त्यर्थे. वचनम् / ग्रन्थ इति किम् ? वर्तित अव०-१वा इट् यस्मात् धातो:=स वेट् , तस्मात् , 'एकार्थं चाने के च' (3 / 1 / 22) इति कुछ कुमम् / / 65 / / मासः / रद इत्यादिषु के / सनि वेट्त्वात् प्राप्ते अव०-'वृत् , णिग् , क्तः, अत्र निपातनात् प्रतिषेधः कृतः / / 62 // गुणाभावः, इनिषेधः, णिग्लुक् च निपात्यते। सं-नि-वेरदः // 4 / 4 / 63 // तथा उपचारात् गुणशब्देन गुणप्रकरणमुच्यते, ततो गुणः गुणप्रकरणम् , छात्रेण वृत्तः, कोऽर्थः ? म० ३०-समनिविपूर्वादर्दतेः परयोः 'क्तयो- पठितम् // 65 // रादिरिट् न' स्यान / समपर्णः, समर्णवान ; न्य धृष-शसः प्रगल्भे // 4 / 4 / 66 / / oर्णः, व्यर्णः / संनिवेरिति किम् ? अर्हितः, प्रार्दितः / / 63 / / म० वृ०-धृषिशसिभ्यां परयोः 'क्तयोरादिः प्रगल्भे एवार्थे इट् न' स्यात् / [जितसभः प्रगल्भः, प्रव०-'समपर्णः', 'अर्द गतियाचनयोः', क्तः, अविनीत इत्यन्ये ] धृष्टः, विशस्तः; प्रगल्भ तत्रत् , 'रदादमूर्छमदः क्तयोर्दस्य च' (4 / 2 / 69) इत्यर्थः / प्रगल्भ इति किम् ? धर्षितः[=पराभूतः, इत्यनेन धातुदकारस्य प्रत्ययतकारस्य च नकारः। विशसितः [=हिंसितः] // 66 // ' 'रघुवर्णा' (2 / 3 / 63) इति प्रकृतिनकारस्य णः, 'तवर्गस्य श्चवर्ग' (1 / 3 / 60 / इति) क्तनकारस्य - अव०-धषेः “आदितः" (4 / 4 / 72) इति, शसेरपि ऊदित्त्वात् वेटोऽपतः' (4 / 4 / 62) इति प्रतिणकारः // 63 / / षेधे सिद्धे, नियमार्थ वचनम् / प्रगल्भ एव (इति) 'अविरेऽभः // 4 / 4 / 65 // नियमः / बिधृषाट प्रागल्भ्ये, शसू हिंसायाम्॥६६।। म० वृ०-अभिपूर्वादः परयोः 'क्तयोरविदूरे कषः कृच्छ्र-गहने // 4 / 4 / 67 // ऽर्थे इट्न' स्यात् / अभ्यर्णम् / अविदूर इति किम् ? अभ्यर्दितो वृषलः, शीतेन बाधित इत्यर्थः // 64 / / ___ म० वृ०-कृच्छ दुःखम् तत्कारणं' च, गहनं दुरवगाहम् , तयोरर्थयोः कषेः 'क्तयोरादिरिट अव.-'बिदूरम् अतिविप्रकृष्ठम् , ततोऽन्यत् / न' स्यात् / कष्टं वर्त्तते, कष्टोऽग्निः , कष्टानि वचअविदूरम् , समीपमित्यर्थः, ( अविदूरे= ) समीपे | नानि / कृच्छगहन इति किम् ? कषितं स्वर्णन // 65 // * अत्र पाठः च्युतकियदंशः प्रतीयते / ननु वृतेरन्तर्भूतण्यर्थस्य क्ते 'वृत्तम्' इति सिद्धयतीति कमिदं सूत्रं क्रियते ? इत्याशङ्क्याह-'वर्तेस्तु' इत्यादि / Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन 1104 सू०६८-७० प्रव०-'अग्निचौरादिकं कारणमपि कष्टमु- / स्यापत्यं (स्त्री) पारिदृढी, 'अत इम्' (6 / 1 // 31 // कयते / कषिष्यतीति 'कषोऽनिटः' (5 / 3 / 3) इति इतीम् प्रत्ययः) 'नुर्जातेः' (2 / 4 / 72) इति डीः / / 69 / / सूत्रेण क्तः // 67 // क्षुब्ध-विरिन्ध-स्वान्त-ध्वान्त-लग्न-म्लिष्ट-फाण्टघुषेरविशब्दे // 4 / 4 / 68 // बाढ-परिवृढं मन्थ-स्वर-मनस्-तमः-सक्ता-ऽस्पष्टा म० वृ०-विशब्दः नानाशब्दनं प्रतिज्ञानं वा, ऽनायास-भृश-प्रभौ॥४।४७०।। ततोऽन्यत्रार्थे घुषेः परयोः 'क्तयोरादिरिट् न' स्यात् / म. वृ-'क्षुब्धादयः क्तान्ता मन्थादिष्वर्थेषु घुष्टा रज्जुः, सम्बद्धावयवेत्यर्थः, घुष्टवान् / अविशब्द यथासङ्ख्यमनिटो निपात्यन्ते' / १क्षुब्धः समुद्रः इति किम् ? अवघुषितं वाक्यमाह, नानाशब्दितं मथित इत्यर्थः, मध्यमानः क्षोभं गत इति वार्थः प्रतिज्ञातं वा वाक्यं ब्रूते इत्यर्थः // 68 // अथवा मन्थनं मन्थस्तस्मिन्नभिधेये क्षब्धं वल्लवेन, __ अव०-सूत्रे 'घुष शब्दे' इति भौवादिक आद पिलोडनं कृतमित्यर्थः, अथवा द्रवद्रव्यसम्पृत रणीयः, न चुरादिकः / * अत एव विशब्देन प्रति- - सक्तवो रूढया मन्थशब्देनोच्यन्ते, तद्र्व्याभिधाने षेधात् ज्ञाप्यते घुषेविंशब्दनार्थस्य अनित्यः चुरादि क्षुब्धशब्दो मन्थपर्यायो भवति / मन्थेऽर्थे इति णिच् , तेन अयमपि प्रयोग उपपन्नो भवति, यथा किम् ? क्षुभितं समुद्रेण, क्षुभितं मन्थेन, क्षुभितः "महीपालवचः श्रुत्वा जुघुषुः पुष्यमाणवाः" [मङ्गल समुद्रो मन्येन / “विरिब्धः स्वरः, विरिभितं विरोपाठकाः] स्वाभिप्रायं नानाशब्दैराधिष्कृतवन्त भितमन्यत् / स्वान्तं मनश्चेत् , अन्यत्र स्वनितो इत्यर्थः / अयं विशेषो 'घुषेरविशब्दे' इति सूत्रे मृदङ्गः / ध्वान्तं तमः, अन्यत्र ध्वनितम / लगेज्ञातव्यः // 68 / / धातोः लग्नमिति संक्तं चेत् , लगितमन्यत् / बलि-स्थूले दृढः॥४।४।६९॥ पम्लिष्टमस्पष्टं चेत् , म्लेच्छितमन्यत् / 'फाण्टम नायाससाध्यं चेत् , 1 बाढमिति भृशं चेत् , वाहिम. वृ०-बलिनि स्थूले चार्थे दहेई हेर्वा तमन्यत् / ११परिवृढ इति प्रभुश्चेत्, परिवृढः क्तान्तस्य 'दृढ' इति निपात्यते / दृढो बलि: प्रभुः,१२परिवढय्य गतः,१३पारिवृढी कन्या, अन्यत्र स्थूलो वारे, पारिदृढी कन्या। बलिस्थूल इति परिवृहितम् , परिवृहितम् / / 70||, किम् ? दृहितम् , दृहितम् / / 69 / / अव०-१ ('शुभच संचलने') 'शुभश संचलने' अव०-"दृह दृहु वृह वृद्धी' इति भ्वादिः, / इति दिवादिः क्रयादिर्वा / क्षुभ्यते स्म इति कर्महह हह वा, क्तः, अत्र इटोऽभावः, क्तस्य ढत्वम् , - ण्येव क्तः, क्षुभेमन्थेऽर्थे क्तान्तस्य इटोऽभावो निपाधातुसम्बन्धिनोह कारनकारयोर्लोपश्च / सर्व निपात- / त्यते; मथ्यते इति मन्थः, कर्मणि घञ् , क्तोऽपि नात् भवति / एवं परिद्रढय्य गतः इत्यपि, परि- क्षुभेः कर्मण्येव, तत्सामानाधिकरण्यात / २क्षुब्ध दृढ इति निष्पाद्य परिहढमाचः (इति) णिग, इत्यत्र अन्तभतण्यथत्वात् क्षुभ्यमानः सन् क्षोभ "त्रन्त्यस्वरादेः" (14 / 43 / इत्यन्त्याकाररस्य लुक् ), गमित इत्यर्थः / अथवा द्रवद्रव्येत्यादिके अस्मिन् “पृथुमृदुभृशकशदृढपरिवृढस्य ऋतोरः' (७।४।३९)इति / तृतीयव्याख्याने मन्थशब्दस्य कोऽर्थः ? सक्तुद्रव्यरः', परिद्रढनं पूर्व क्त्वा, 'लघोर्यपि' (4 / 3 / 86) इति / स्य क्षुब्ध इति पर्यायः / अत्र मन्थशब्देन मन्थानक णेरय]। परिदृढ इति शब्दो निष्पन्नः,ततः परिदृढ- / उच्यते / “विरिब्ध इत्यत्र विपूर्वो रिभधातुः सौत्रः, * ननु 'घुष शब्दे' इत्यस्यैव 'घुषण विशब्दने' इति विशब्दनेऽर्थे चुरादित्वाणिचि सत्यनेकस्वरत्वात् प्रतिषेधो न स्यात्, किं वर्जनेनेत्याह-'अत एव' इत्यादि / Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्तयोरादाविटो निषेधादिविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [145 . अथवा रेभृत् अभुङ रभुक लभुङ् शब्दे (इति / प्रव०-यदुपाधेरित्यक्षरस्यायमर्थः- वक्ष्यमाण रेभधातुः ), क्तः, निपातनात् इकारः, स्वरेऽर्थे / 'गमहनविद्लविशडशो वा' (4 / 4 / 83) इत्यनेन विरिब्धम् (?धः)। स्वनेर्धातोर्मनसिवाच्ये 'स्वान्तम्' | कसोरादिर्वा इट् , (तत्र) 'विद्लुती लाभे' इत्यस्यैव (इति) निपातः, 'अहन्पञ्चमस्य'० (४।१।१०७)इत्या- कसि वेट्त्वमुक्तम् , न 'विदक् ज्ञाने' इत्यस्य, त्वम् ,मनःपर्यायः स्वान्तशब्दः / स्तन धन बन इति विद्धातोनित्यमिट ; कसौ विद्वान् इत्येव / चन स्वन वन शब्दे' (इति) धन , ध्वनन्त्यत्रापश्य- तथा ['हृषेः केशलोम०' (4 / 4 / 76) इति सूत्रे हृषेः न्तः प्राहरिका इति ध्वान्तम् , 'अद्यर्थाश्चाधारे' (5 / 1 / केशलोमादिष्वर्थेष्वेव वेट्त्वमिति अन्यत्र 'तुषं 12) क्तः, तमःपर्यायो ध्वान्तशब्दः ; अन्यत्र ध्व- हृषच तुष्टौ' इत्यस्य (हृषितः, हृषितवान् इत्येव), नितं तमसा, (अत्र) हतौ करणे वार्थे तमः ; अथवा तुष्ट इत्यर्थः / / 71 // ध्वनितो मृदङ्गः / गोचरीभूतम् , म्लेच्छधातोः इत्वं नवा भावारम्भे // 4 // 4/72 // निपातनात् / साधुताया अपभ्रष्टे (?) / 'फणधातोः / यत् अश्रपितमंपिष्टमुदकसम्पर्कमात्राद्वि- म० वृ०-आदितो धातो वे आरम्भे च भक्तरसमौ ग्धं कषायादि वस्तु तत् फाण्टमुच्यते / विहितयोः क्तयोरादिरिट् 'वा न' स्यात् / २मिन्नम् , अग्निना तप्तं यत् ईषदुष्णं तत् फाण्टमित्यन्ये / मेदितमनेन; प्रमिन्नः, प्रमेदितः / आदित इति 10... (भृशेऽर्थे) वाहेबर्बाढमिति निपात्यते,...... किम् ? विदितमनेन, प्रविदितः / पूर्वेण नित्यं ( तथास्त्र )भावात् बाढमिति. क्रियाविशेषणमेव निषेधे प्राप्ते विकल्पः // 72 // भवति / तथा 'बाढविक्रमा' इति तु विस्पष्टपटुवत् समासः / "परिपूर्वस्य वृहे हेर्वा परिवृढ इति प्रव०-अकारानुबन्धाद्धातोः / “विमिदार प्रभौ वाच्ये, निपातनात् क्तस्य ढत्वम् , इडभावो स्नेहने' (इति) भ्वादिः, (बिमिदाङच स्नेहने इति) हकारतकारयोर्लोपश्च / १२पूर्व परिवृढ इति निष्पाद्य दिवादि / 3 (एवम) प्रमिन्नवान् , प्रमेदितवान् / परिवृढमाष्टे- णिग् , त्रन्त्यस्वरादेः' (4) प्रमेदितमारब्ध (इति) आरम्भे (5 / 1 / 10) क्तः। 43) इत्यन्त्यकारलुक् , 'पृथुमृदुभृशकशदृढपरिवृढ *एवम् प्रवेदितवान् / भावारम्भ इति किम् ? मिन्नः, स्य ऋतो रः' (7 / 4 / 39) इतिरः [परिवृढनं पूर्व क्त्वा, मिन्नवान् / / 72 / / लघोर्यपि (4386) इति रय]। १3परिवढस्या शकः कर्मणि // 4 / 4 / 73 // पत्यं (स्त्री) पारिवृढी कन्या / 'अत इब्' (631331 इतीम् ) 'नुर्जातेः' (२।४।७२।इति) ही // 7 // ___ म. वृ०-शकः धातोः कर्मणि विहितयोः क्त योरिड् ‘वा न' स्यात् / 'शक्तः शकितो वा घटः आदितः।।४।४७१॥ कर्तुम् / कर्मणीति किम् ? शक्तः कटं कत्तुं चैत्रः म० वृ०-अकारानुबन्धात् (धातोः) परयोः 'क्तयोरादिरिट् न' स्यात् / मिन्नः, मिन्नवान् / प्रव०-'कर्मणि क्तवतुर्नास्ति इति शक्तः आदितां धातूनां भावारम्भे वेटत्वादन्यत्र 'वेटोs- इत्यत्र क्तवतुप्रयोगो नोदाहृतः। चैत्रेण इति पतः' (4 / 4 / 62) इति नित्यमिनिषेधे सिद्ध योग- ज्ञेयम् // 73 // विभागो' “यदुपाधेर्विभाषा तदपाधेः प्रतिषेधः" इति न्यायज्ञापनार्थः, तेन विदक् ज्ञाने (इत्यस्य) णौ दान्त-शान्त-पूर्ण-दस्त-स्पष्ट-छन्न-जप्तम् विदितः, विदितवान् ; हृषितः हृषितवान इत्यादि // 4 / 474 // सिद्धम् // 7 // ___ म. वृ.-"णौ सति दमादीनां क्वान्तानां Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं ... [अ० 4 पा० 4 सू०-७५--७७ दान्तादयो वा निपात्यन्ते" / दान्नः, दमितः; श्वस' इत्यादिसूत्रे रुषग्रहणं कृतम् / तथा 'संघुशान्तः, शमितः; [पूरैचि] पूर्णः, पूरितः; [दासृग् / ठम् ,' कोऽर्थः ? नानाशब्दितं प्रतिज्ञातं वा सम्बद्धादाने] दस्तः, दासितः; स्पष्टः, स्पाशितः; छन्नः, वयवं वा वाक्यं वचनम् ब्रूते इत्याध्याहारः, कर्तृछादितः; ज्ञप्तः, ज्ञापितः // 74 // पदं वा; (एवं) संघुष्टवान् , संघुषितवान् वाक्यम् ; संघुष्टौ, संघुषितौ दम्यौ वत्सौ इति प्रयोगा ___ अव०-दमादिधातूनां इटोऽभावो निपात्यते ज्ञातव्याः / तथा संघुषास्वनिभ्यां परत्वात् विकवा / दान्तादिप्रयोगत्रये निपातनात् णेर्लोपः, णेर ल्प एवायम् , न तु 'घुषेरविशब्दे' (4 / 4 / 68) 'क्षुब्धनिटि' (4 / 3 / 83) इति सूत्रेणानिट (? टि) णिगो विरिब्धः' (4 / 4 / 70) इत्याभ्यां नित्यमिडनिषेधः; लोपः क्रियते इति इटि सति इट् ?इटोऽभावः) णेः तेन अविशब्दनेऽपि संपुष्पा रज्जुः, संघुपिता रज्जुः; (लुक् चेति) उभयोरपि निपातनम् / 'दस्त' इत्यादि- मनसि वाच्येऽपि- आस्वान्तं मनः, आस्वनितं त्रयेषु निपातनात् णि-इटलोपः ॐ ह्रस्वश्च धा / मनः इत्येव भवति / ५(वम् ) अभ्यान्तवान / / 75 / / दान्तादिषु सर्वत्र इटोऽभावः / 'ज्ञप्तः, ज्ञापित' हषः केश-लोम-विग्मयं-प्रतिघाते // 4 / 4 / 76 // इत्यत्र निपातनात् 'ह्रस्वः, 'मारणतोषण' (4 / 2 / 30) इत्यनेनाप्राप्तेः; (एव) संज्ञप्तः, संज्ञपितः / दान्तादि- म० वृ०-हृषेः केशादिष्वर्थेषु वर्तमानात् सर्वोदाहरणेषु निपातनात् इट्लोपः (? इडभावः) / 'क्तयोरिट वान' स्यात | वृषा: पिताः केशा:: पक्षे अत्र क्वचित् ह्रस्वश्च / / 74|| हष्म् , हृषितं केशैः लोमभिर्वा; हृष्टः, हृषितश्चैत्रः; श्वस-जप-बम-रुष-त्वर-संघुषा-ऽऽस्वनामः / 4 / 4 / 75 / विस्मित इत्यर्थः, हृष्टाः, हृषिता दन्ताः; प्रतिहता इत्यर्थः। केशादिष्विति किम् ? 'हो मैत्रः इत्यम० वृक-एभ्या 'क्तयोरादिरिट नवा' स्यात्। | लीकार्थस्य, रहृषितश्चैत्र इति तुष्यर्थस्य // 6 // १श्वस्तः, श्वसितः; प्रश्वस्तः, प्रश्वसितः, आश्वस्तः, आश्वस्तवान् ; आश्वसितः, आश्वसितवान् / जप्- जप्तः, ____ अव०-केशलोमकत का क्रिया उद्धषणादिका जप्तवान् ; जपितः, जपितवान् ; एवं वान्तः, केशलोमशब्देनोच्यते / 'हृष्टा' इत्यादिषु 'तुषं हपच् वमितः२; रुष्टः, रुषितः3; त्वर ,-तूर्णः, तूर्ण- तुष्टौ' अथवा 'हृषू अलीके' (इति हृषेः परः) क्तः, वान् ; त्वरितः, त्वरितवान् ; संघुष्टं 4, संघुषितं हृष्टाः, हृषिताः केशाः; हृष्णं,हृषितं केशः इति केशार्थे; वाक्यम ; [आङ पूर्वः स्वन्=] आस्वन् ,- आस्वान्तः, हष्पानि, ऋषितानि लोमानि; हृष्टं; हृषितं लोमभिः आस्वनितश्चेत्रः / अम्- अभ्यान्तः, अभ्यमितः, इति लोमार्थे / हृष्ठाः-तोषं प्राप्ताः अलीका बभुअभ्यमितवान् // 5 // वुर्वा / 'हृषू अलीके' इत्यस्य / “तुषं हृषच तुष्टौ' इत्यस्य // 6 // अव०-१'श्वस्तः' इत्यादिषु 'अन श्वसक् प्राणने (इति) श्वसधातोः केवलात् , अथवा प्रपूर्वकान अपचितः // 4 / 4 / 77 // श्वसधातोः परतोऽभिधानात कर्तरि क्त एव भवति, म० वृ०-“अपपूर्वाच्चायतेः क्तान्तस्येडभावः न (क्तवतुः, इति) क्तवतो!दाहृतम् ; एवं विश्व- 'चि' (इत्ययम् ) आदेशश्च वा निपात्यते"। अपचितः, स्तः, विश्वस्तवान ; विश्वसितः, विश्वसितवान् / अपचायितः // 7 // "वमितः', (एवं) वमितवान् / 3 'रुषितः', (एव) रुषितवान् ; रुषेदत्वात् नित्यमिनिषेधे प्राप्ते / अव०-'अपचित' इति सूत्रे 'चायग् पूजानि *अत्र 'रिण-इट्लोपः' इत्यस्य स्थाने 'रिणलोपः, इडभावः' इति पाठः साधु प्रतिभाति, बृहवृत्तौ ‘इडभावः सर्वत्र' इत्युक्तत्वात् , अत्रैवाने "दान्तादिषु सर्वत्र इटोऽभावः" इत्युक्तत्वाच्च / Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोक्षाया आदाविविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [147 शामनयोः' इत्ययमेव धातुफ़्तव्यः, न तु चिनोतिः। ऋतः // 4 / 4 / 79 // * चिनोतेः पूजार्थो नास्ति, इति (चायगधासोः) म० वृo-ऋदन्तधातोस्तृचि नित्यानिटो पूजायामपचित (इति) निपातनम् / / 7 / / विहितस्य 'थव आदिरिट् न' स्यात् / 'पृथग्योगासजि-दृशि-स्कृ-स्वरा-ऽत्वतस्तृनित्या- नवेति निवृत्तम् / जहर्थ, सस्मर्थ / तृनित्यानिट इत्येव- सस्वरिथ // 79 // निटस्थवः / / 4 / 478 // म० ०-सृजिशिभ्याम् , सस्सटः कृगः धातोः, ___ अव०-'ऋत' इति पूर्वस्यापवादोऽयम् / स्वरान्तादकारवतश्च धातोः तृचि नित्यानिटो विहि 'ऋतः' इति पृथक्सूत्रारम्भसामर्थ्यात् 'नवा' इति तस्य 'थव आदिरिट् वा न' स्यात् / [सज् ,] सस्रष्ठ, निवृत्तम् , अन्यथा स्वरान्तद्वारेण पूर्वेणैव सिद्धससर्जिथ; (दृश् ,-) दद्रष्ठ, ददर्शिथ; (स्कृ,-) सञ्च. मिति भावः / 'जजागरिथ' इत्यत्र तु अनेकस्वरस्कर्थ, सञ्चस्करिथ; [स्वर,-] ययाथ, ययिथ; निनेथ, त्वात् च इटप्रतिषेधो न भवति / न केवलं निनयिथ; [अकारवतः] शशक्थ, शेकिथ; जगन्थ, तृचि सेटत्वात् (?) // 79 // जगमिथ / तृजिति किम् ? 'किति नित्यानिटो मा ऋ-वृ-व्येद इट् // 4 / 4 / 80 // भूत,-लुलविथ / नित्येति किम् ? तृजि विकल्पेटो ___ म० वृ०-अर्तेः, वृगः, व्यगोऽदश्च धातोः 'थव मा भूत् , ररन्धिथ / अनिट इति किम् ? शिश्र आदिरिट्' स्यात् / ऋ,- आरिथ, वृग् ,- ववरिथ, थिय। स्क्रादिसूत्रेण (4 / 4 / 81) प्राप्ते विभाषा / / 78 / / व्यग् ,- संविव्ययिथ, अद् ,- आदिथ / अर्तेः पूर्वेण वृग उत्तरेण प्रतिषेधे, व्येऽदोस्तु ‘सृजिशि'० (4 / प्रव०-स्वरान्ताद्धातोः कीदृशात् ? अकारव- 4 / 78) इत्यादिना विकल्पे प्राप्ते वचनम् / / 8 / / तश्च धातोः कीदृशात् ? 'तृचि नित्यानिटः' इति विशेषणं ज्ञातव्य द्वयोरपि / सृजिशिस्कृस्वरात्वत अव०-'ऋवृव्येद इट्' इत्यत्र पुनरिट्ग्रहइति किम् ? रराधिथ, बिभेदिथ / 'किति प्रत्यये णात् नेत्यधिकारो निवृत्तः // 80 // . 'ऋवर्णयूर्णगः कितः' (4 / 4 / 57) इत्यनेन नित्यं स्क्रस-व-भृ-स्तु-द्रु-श्रु-स्रोर्व्यञ्जनादेः परोक्षायाः * इनिषेधः / इटो निषेधः (?) / अदादेशस्य घसः, वेगादेशस्य वयेर्नित्यमेव इट् भवति, // 4 / 4 / 81 // यथा- जघसिथ, उवयिथ / तृच्प्रत्ययविषये तु म० वृ०-सस्सटः कृगः सृवृभृस्तुद्रश्रनु वर्जिअदेर्घसादेशः वेगो वयादेशः 'परोक्षायां नवा' (4 / तेभ्यश्च सर्वधातुभ्यः परस्या 'व्यञ्जनादेः परोक्षाया 4 / 18) 'वेवय' (4 / 4 / 19) इति सूत्रद्वये प्रतिषि- आदिरिट ' स्यात् / 'सञ्चस्करिव, स्राद्यन्येभ्यः-ददिद्धोऽस्ति / 'घस्लु अदने' इत्यस्यापि परोक्षायां म,निन्यिवहे,जुहुविव, लुलुविढ़वे, तेरिव, तेरिम, प्रायिक एव प्रयोगो भवति, न सर्वत्र इति 'परो- शेकिव, शेकिम; पेचिषे, पेचिध्वे, पेचिवहे / स्राक्षायां नवा' (4 / 4 / 18) इत्यत्रोक्तम् / एषाऽवचूरिः दिवर्जनं किम् ? ससृव, ससृम, ससर्थ; ववृव, ववृ'सूजिशि० इति प्रान्ते द्रष्टव्या / तथा स्वरान्त- महे; बभृम, बभृव, बभर्थ; तुष्टुव, तुष्टुम, तुष्टोथ; त्वेन सिद्धे स्कृगग्रहणं यत् सूत्रे कृतं तत् वक्ष्य- दुद्रुम, शुश्रुम, शुश्रोथ; सुसु म / स्तुद्र्श्रुरूणां माणोत्तर- 'ऋतः' (4 / 4 / 79) इति प्रतिषेधबाधना- ‘सृजिदृशि'० (4 / 4 / 78 ) इत्यादिनापि थवि न र्थम् // 7 // . | विकल्पः, अनेन प्राप्ते हि स विकल्पः; एषां तु * ननु स्वादेः चिंगट् धातोरनिटत्वाद् 'अपचित:' इति सिध्यति, किमनेन सूत्रेण ? इत्याशङ्कयाह-'चिनोते.' इत्यादि / Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन - [अ० 4 पा० 4 सू० 82 निषिद्धत्वात्प्राप्तिास्ति / ववृषे (इति) अत्र तु 'स्ता- / वान्', एवं समीयिवान , उपेयिवान ; 'इंण्क् गतौ' द्यशितो'० (4 / 4 / 32) इत्यादिनापि नेट् , 'ऋवर्ण' ऐत् , इयाय, अगात् इत्यर्थे वेयिवदनाश्वदनूचानम् (4 / 4 / 57) इति निषेधात् / / 81 // (5 / 2 / 3) इत्यनेन ईयिवान इति भतकाले निपातः, परोक्षाविषये कसुकानौ विहितो, ह्यस्तन्यादिविषये अव०-"स्कृच्छतोऽकि परोक्षायाम्' (4 / 3 / 8) क्वसुकानौ न स्याताम् इति हेतोर्निपातः, कसुः इत्यनेन गुणः, (एवम् ) सञ्चस्करिम, सञ्चस्करिषे; निवचनात् (?) 'घसेकस्वरातः कसोः' इत्यनेन पूर्वददिव, ददिषे; निन्यिमहे। 'लुलुविढ्वे' इत्यत्र मिट , पश्चात् द्विवचनम् , ततः 'इणः' (2 / 151) इत्य'हान्तस्थाबीड्भ्यां वा' (221185) इत्यनेन विक- नेन धातु-इपार्श्वे इय् , ततः 'समानानां तेन दीर्घः' ल्पेन धस्य ढत्वम् , पक्षे लुलुविध्वे / 'स्कृ' इति स्स- (1 / 2 / 1 / इति दीर्घः), इत्थं ईयिवान नि........... टा निर्देशः किम् ? केवलस्य कृगो मा भूत , चकृव, (पात्यते)। नित्यो हि इट् , (अतो द्वित्या)देः पूर्वचकम, चकर्थ, चकृषे / / 81 // मिट , पश्चात् द्वित्वादि, (यदि च) पूर्व द्विवचने घसेकस्वरातः क्सोः // 4482 // (कृते) समानदीर्घः ........ (क्रियाते, एवमपि एक स्वरसद्भावात् पश्चादपि इति (? इट् / भवति / इति म० वृ०-घसेरेकस्वरादादन्ताञ्च परस्य 'कसोरा (? इटि) च................ (सति) * 'इवर्णादेरदिरिट्' स्यात् / घसि,- जक्षिवान् , एकस्वर,-- स्वे०' (1 / 2 / 21) इति यत्वम् / ततो.............. आदिवान्, ऊचित्रार, [यजादिवचेः किति' (4 / 1 / (यिवा)न इति अनिषं रूपं स्यात् / ४'आरिवान्' 79) इति धातोः य्वृत्] अनूचिवान , पेचिवान ,2 |: इत्यत्र तु 'ऋक् गती', आर इति वाक्ये आरिवान् , उपसेदिवान , एवम् ईयिवान् ,3 समीयिवान ,4 क्वस्, ‘घसेकस्वरा०' इत्यनेन पूर्वमिट , पश्चात् आरिवान ; आदन्त,- पपिवान , [यधिवान् ] तस्थि (ऋ) इत्यस्य द्वित्वम् , 'ऋतोऽन्' (4 / 1 / 38 / इत्यवान् / घसेकस्बरात इति किम् ? [विभिद्वान् ] नेन पूर्वस्य ऋकारस्यात् ), 'अस्यादेराः परोक्षायाम' बभूवान् , [ उपशुश्रुवान् ] / कसोरिति किम् ? (41 / 68) इत्यनेन आकारः, अत्र 'अवर्णस्येवर्णादिबिभिदिव, बिभिदिम / पूर्वेणैव सिद्धे नियमार्थ नै दोदरल् (1 / 16) इत्यनेन अर् प्राप्नोति, परं वचनम्। एभ्य एव कसोरादिरिट , नान्येभ्य इति परत्वात् वृद्धसंमतत्वाच्च 'इवर्णादेरस्वे स्वरे यवरलम् // 82 // इत्यनेन स्थाने (?ऋतो) रत्वमेव भवति, इत्थं 'आरिप्रव०-"जक्षिवान्,' अत्र 'घस्लु अदने' वान्' इति सिद्धम् / इहि नित्यः इति पूर्वमिट पश्चाद् अथवा अद्स्थाने 'परोक्षायां नवा' (4 / 4 / 18) इति द्वित्वादि। यदि पुनात्वादिकं पूर्व स्यात् पश्चात इट् , घसादेशः, जघास ....... .....(इति वाक्ये एवं हि आरिवान इति न सिद्धयत (किन्तु) अरिवान् 'तत्र कसुकानौ तद्वद्' इति कसुः, द्वित्वम् , 'द्विती इति अनिषं रूपस्यान। इटोहि नित्यत्वभावनार्थमित्थं यतूर्ययोः पूर्वो' (4|1142) इति द्वित्वे घकारस्य प्रक्रिया दर्शिता परं युक्त्या एवं न घटते. इति / गकारः, 'गहोः इति गस्यजः,) 'घसेक०' इति इट् / एकस्वरत्वात् घसः इट् सिद्ध एवास्ति, (तथापि) घस्'गमहनजनखनघसः०' (4 / 2 / 44) इति उपा- | ग्रहणं किमर्थ ? नहि * यत् घस्यहणं तद्विहितविन्त्याकारलोपः, 'अघोषे प्रथमो०' (1 / 3 / 50 / इति) शेषणानाश्रयणार्थम् , आग्रहणमनेकस्वरार्थम् , इटि घस्य क् , 'घस्वसः' (2 / 3 / 36) इत्यनेन षः। 'अ हि सति आकारलोप उपान्त्यलोपश्च भवति / दरिनादेशादेरेक०' (4 / 1 / 24) इति एत्वम् / 3 ईयि- | द्रातेस्तु आमा भवितव्यं-दरिद्राञ्चकृवान / / 82 / / * अत्र 'इवर्णादे०' इति सूत्रमसङ्गतम् , ईकारात् परस्य 'इकारस्य' स्वस्वरत्वात् / * अत्र 'नहि' इति पाठोऽधिकोऽसङ्गतश्र / Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिजादाविविधानम] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [149 गम-हन-विद्लू-विश-दृशो वा // 4483. अयंसीत् , 'व्यरंसीत् , अनंसीत् ; “आदन्त,म० वृ०-एभ्यः परस्य 'कसोरादिरिंट् वा' अयासीत् , अद्ररिद्रासीत् ('आलोपपक्षे' अदरिद्रीत') स्यात् / जग्मिवान् , जगन्वान ; जघनिवान् जघ परस्मै इत्येव-आयंस्त, अरंस्त // 86 / / न्वान ; [विद्लुती लाभे-] विविदिवान् , विवि अव०-यमिरमिनमीनां धातूनामादन्तानां द्वान् ; विविशिवान् विविश्वान् ; ददृशिवान् , दह- च धातूनाम् / २'अयंसीत्', (एवम्) अयंसिष्टाम , श्वान् / / 8 / / अयंसिषुः / 'व्यरंसीत्', (एवम् ) व्यरंसिष्टाम् , अव०-' (सूत्रे) 'विद्ल' इत्युक्तम् , (अत:) व्यरंसिषुः / 'व्याङ-परे रमः' (3 / 3 / 105) इति 'विद्ल ती लाभे' इत्यस्य ग्रहणम् , तेन ज्ञानार्थस्य परस्मैपदम् / 'अनंसीत्', (एवम् ) अनंसिष्टाम् , 'विक ज्ञाने' इत्यस्य 'विविद्वान्' इत्येव भवति / अनंसिषुः। इत्थं प्रयोगावली द्रष्टव्या / ननु' दिस्योः परयोः सिच आदी इविधेः वृद्धिप्रतिषेध सत्तार्थविचारणार्थयोस्तु धात्वोरात्मनेपदित्वात् कसुर्नास्त्येव इति भावः / २'जगाम', 'गमहनजन०' एव फलम् , 'व्यञ्जनानामनिटि' (4 / 3 / 45) इत्यनेन (4 / 2 / 44) इति उपान्त्यलोपः / 'मोनो म्वोश्च' वृद्धिप्राप्तिः / "आदन्तात् ,-अयासीत् , अयासिष्टाम् , अयासिषुः; अदरिद्रासीत् , अदरिद्रासिष्टाम् , अद(२।१।६७) इत्यनेन मस्य न् / / 83 / / रिद्रासिषुः; एषु सर्वत्र अद्यतनीदि-ताम्-अन् , सिचोऽजेः॥४।४।८४॥ सिच , यत्र दि तत्र 'सः सिजस्तेर्दिस्योः' (4 / 3 / . म० वृ०-अब्जेः , परस्य 'सिच आदिरिट्' / 65) इति सिचः ईत् , तदनन्तरं 'यमिरमिनाम'० स्यात् / आञ्जीत् [आशीष्टाम , आञ्जीषुः] / भौदि- इत्यनेन सिचः पश्चात् इट् , इटः पश्चात् धातोः त्त्वाद्विकल्पे प्राप्ते नित्यार्थमिदम् // 4 // परतः सोऽन्तः, 'इट ईति' (43.71) इत्यनेन सर्वत्र सिच्लोपः, यत्र च अन् तत्र 'सिविदोऽभुवः' (4 / धृग सु-स्तोः परस्मै // 4 / 4 / 85 // २।९२।इत्यनो) पुस् / ५'अदरिद्रीत्' इति, अतिद्वे (?) म० वृ०-एभ्यः 'सिच आदिरिट' स्यात् , | अदरिद्रीत् अदरिद्रासीत् इति प्रयोगद्वयम् , 'नामिनो परस्मैपदे परे। अधावीत् , [भधाविष्टाम् , अधा- गुणो'० (4 / 31) इति पादे 'दरिद्रोऽद्यतन्याम् '0 विषु।] ; असावीत् , [असाविष्टाम् , असाविषुः]; | (4 / 3:76) इति सूत्रम् ,दरिद्रातेरद्यतनीविषयेऽन्तस्य अस्तावीत् / परस्मै इति किम् ? अधोष्ट, अधविष्ट, वा लुक् इति सूत्रार्थः; दरिद्रा, अद्य० दि, सिव ; असोष. अस्तोष्ट / धूगो विकल्पे सुस्तुभ्यां च प्रतिषेधे ईत् , 'दरिद्रोऽद्य०' अनेन अन्तस्य अकारम्य लोपः, प्राप्ते वचनम् / / 85 // 'स्ताद्यशितो'० (४।४।३२॥इति) इट् , 'इट ईति' (4 / 3 / 71) इति सिचो लुप्; (एवम्) अदरिद्रिष्टाम् , प्रव०-'धूगसुस्तोः०' इति सूत्रे सु इति 'सु अदरिद्रिषुः / एषु उदाहरणेषु 'यमिरमिनमि'० प्रसवेश्वर्ययोः' इत्ययं ग्राह्यः, अस्य परस्मैपदित्वात: इत्यनेन न इट् न सोन्तश्च / यदि कदाचित् आद'ग्ट् अभिषवे' इति व्यावृत्त्युदाहरणे ज्ञातव्यः, न्तद्वारेण इट् भवति तदा सोन्तः, सर्वथा (?अन्यथा) उभयपदित्वात् // 85 // न कार्यः / / 86 / / यमि-रमि-नम्यातः सोऽन्तश्च // 4 / 4 / 86 // / ईशीडः 'से-ध्वे-स्व-ध्वमोः॥४।४।८७॥ म. वृ०-एभ्य आदन्तेभ्यश्च परस्मैपदविषय- / म० वृ०-ईश्--ईड्भ्यां परयोः 'सेध्वयोः / स्य 'सिच इट' स्यात् , 'एषां च सोऽन्तो भवति। / २स्वध्वमोश्चादिरिट ' स्यात् / ईशिषे,ईशिध्वे; ईषि ॐ अत्र 'ननु' इति पाठोऽधिकोऽसङ्गतश्च / Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०४ पा०४ सू० 88-92 ध्व,ईषिध्वम् ईडिपे,ईडिध्वे; ईडिष्व,ईडिध्वम् / / 87|| | 'स्सट्' स्यात् / संस्करोति कन्याम् ,' संस्कृतं वच नम् / तत्र नः संस्कृतम् , समुदितमित्यर्थः; परिअव०-१परोक्षासम्बन्धिनोः सेध्वयोरामा भाव्य करोति, परिष्कृतम् , परिष्कारः / पूर्व धातुरुपमिति वर्तमानासेध्वयोर्ग्रहणम्। सूत्रे समुदायद्वया- सर्गेण [सह] सम्बध्यते, पश्चात् साधनेन इति पेक्षं द्विवचनम् , तेन स्वसहचरितस्य ध्वमो ग्रहणात् द्विवचनादडागमाञ्च पूर्व स्सडेव भवति, [ यथा] : ह्यस्तनीध्वमि ‘ऐडढ्वम् ' इति *प्रयोगः / सूत्रे वच संचस्कार, समस्करोत् , समस्कार्षीत् , समचिस्कनभेदो यथासङ्ख्य निवृत्त्यर्थः / 'वत्तेमानासम्ब- | रत, एवं परिचस्कारेत्यादि / कथं संकृतिः ? न्धिनोः / पञ्चमीसत्कयोः / / 8 / / गर्गादिपाठात् / संकरः, परिकरः (इति) किरतेरला रुत्पञ्चकाच्छिदयः // 4 / 4 / 88 // भविष्यति / टकार: ‘स्सटि समः' (113 / 12) इत्यत्र म. व०-रुदादिपञ्चकात्परस्य 'व्यञ्जनादेः विशेषणार्थः / / 9 / / शितोऽयकारादेरादिरिट् 'स्यात् / रोदिति, रुदितः; अव०-'सम्परेः कृगः स्ट्' इति सूत्रे स्सट्-. स्वपिति, प्राणिति, श्वसिति,५ जक्षितिः / प्रत्यय एकसकार एव क्रियते, द्विसकारपाठस्तु शिदिति किम् ? स्वप्ता / अय इति किम् ? रुद्यात् / 'संचिस्करत्' इत्यादिषु षकारबाधनार्थः / 'न स्सः' * व्यञ्जनादेरित्येव-रुदन्ति / / 88 // (2359) इति सूत्रेऽपि द्विसकारमयस्सटप्रत्ययस्य अव०-'रुदिः, स्वपिः, अनिः, श्वसिः, जक्षिः पत्वं न भवतीत्युक्तमस्ति, इति द्विसकारः स्सट पठइति रुदादिपञ्चकम् / २यकारवर्जितादेः। स्वपितः / / यते / किं च संस्करोतीत्यादिषु सम्पूर्वः कृग , ततः ४प्राणितः / श्वसितः / 'जक्षितः / / 8 / / 'सम्परेः कृगः' इत्यनेन एकसकार एवं सट् , स्सटि समः (1 / 3 / 12) इत्यनेनानुस्वारः पूर्वस्य तथा द्वितीदिस्योरीट् // 4 / 4 / 89 // यसकारः क्रियते, कस्यादिः='कादिय॑ञ्जनम्' (1 / 1 / म० ३०-रुत्पश्चकात्परयोर्दिस्योः शितोरादि- | 10) इति व्युत्पत्त्याऽनुस्वार(स्य) व्यञ्जनसंज्ञत्वात रीट् स्यात् / अरोदीत् , अरोदीः; अस्वपीत् , अस्व- / 'धुटो धुटि स्वे वा' (1 / 3 / 48) इत्यनेन विकल्पेन पीः; प्राणीत् प्राणीः; अश्वसीत , अश्वसीः; अजक्षीत् ; पूर्वः सकारो लुप्यते / 'भूषयतीत्यर्थः / 2 (एवम् ) अजक्षीः // 89 // संस्कारो वासना / परिष्करोती'-त्यादिषु 'असोङप्रव०-'दिस्योः शितोः, कोऽर्थः ? ह्यस्तनी सिवूसहस्सटाम्' (203 / 48) इत्यनेन परिनिविभ्यः परस्य स्सटः षकारः कर्त्तव्यः / " (एवम् ) तत्र नः सम्बन्धिनोरेव दिस्योः, तेन रोदिति, रोदिषि / 89/ परिष्कृतम्।स्सट् इति द्विसकारनिर्देशात् समचिस्कअदश्वाट् // 4 / 4 / 90 // रत् इत्यादौ षकारो न भवति / आदिशब्दात् पर्यम० वृ०-अत्ते रुत्पञ्चकाच 'परयोर्दिस्योः शितो- | स्करोत् ,पर्यस्वार्षीत् ,पर्यचिस्करत् / [युवर्णवृवशरादिरट् ' स्यात् / आदत् , आदः; अरोदत् , अरोदः; / रणगमृद्ग्रहः (5 / 3 / 28) इति] अल्प्रत्ययेन / / 11 / / अस्वपत् , अस्वपः; प्राणत् , प्राणः; अश्वसत् , अश्वसः; अजक्षत् , अजक्षः // 10 // उपाद्भपा-समवाय -प्रतियत्न-विकार-वाक्यासम्परेः कृगः स्सट // 4 / 4 / 91 // ऽध्याहारे // 4 / 4 / 92 // म० वृ०-सम्परिभ्यां परस्य कृग आदिः / म० वृ०-उपात्परस्य कृगो भूषादिष्वर्थे- . ईशीडोः शस्तनीध्वमि ‘यजसृज०' इति ईशधातोः शस्य षत्वे, तृतीयस्तृतीय० (1 / 3 / 46) इति षस्य डत्वे, (उभयत्र) 'तवर्गस्य'०(१।३।६०) इति प्रत्ययस्थधकारस्य ढत्वे 'स्वरादेस्तासु' (4 / 4 / 31) इति वृद्धौ च ऐडढ़वम् / Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्सविधानम् ] . मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम्। [151 ध्वादिः ‘स्सट्' स्यात् / कन्यामुपस्करोति, भूषयती- प्रव०-अहिंसायां गम्यमानायाम् / प्रतिस्कत्यर्थः / तत्र न उपस्कृतम् समुदितमित्यर्थः; एधो- | रणं अतिकीर्णम, 'क्लीबे क्तः' (5 / 3 / 123) दकस्योपस्कुरुते, तत्र प्रतियतते इत्यर्थः; ४उपस्कृतं इति क्तः), प्रतिस्कीर्णम् , उपस्कीर्ण ह ते वृषल ! भुक्त, विकृतमित्यर्थः; उपस्कृतं "जल्पति // 12 // तस्यायमर्थः-हे वृषल ते हिंसानुबन्धी विक्षेपो भूया दित्यर्थः / उरो विदीर्य इति वाक्ये 'परिक्लेश्येन' प्रव०-'भूषा-अलङ्कारः / समवायः समु (5 / 4 / 80) इति सूत्रेण णम् / / 94 / / दायः, इत्यादि (? द्वयादि-) वस्तूनामेकत्र मेलनमिति यावत् / पुनर्यत्नः प्रतियत्नः, सतोऽसम्ब अपाचतुष्पात्-पक्षि-शुनिरहृष्टा-ऽन्नाद्धस्य अर्थस्य केशादिरूपस्य सौगन्ध्यादिसम्बन्ध- .. ऽऽश्रयार्थे // 4 / 4 / 95 // विधये, अथवा लब्धवस्तुनो लाभायकवृक्षादेः सेका ___ म० वृ०-अपात् [परस्य] किरतेश्चतुष्पदि, दिना वृद्धय =आधिक्याय,कुछ कुमादेः स्नेहनिमी पक्षिणि, शुनि च कर्तरि यथासङ्घय हृष्टे,अन्नालन(? नेन) कपू(? पं)रादेरक्षतमेलनादिनाsभिमतावस्थायोजनबुद्धिः प्रतियत्नः / प्रकृतेरन्य र्थिनि, आश्रयार्थिनि 'स्सडादिः' स्यात् / अपस्कि रते वृषलो हृष्टः, अपस्किरते कुक्कुटो भक्ष्याथी', थाभावो विकारः / गम्यमानार्थस्य वाक्यैकदेशस्य “अपस्किरते श्वा आश्रयार्थी / एध्विति किम् ? अप• स्वरूपेणोपादानं वाक्याध्याहारः / क्रमेण एषु अर्थेषु किरति बालो धूटिं हृष्टः / / 95 // उदाहरणानि ।काण्डगणस्य उपस्कुरुते इत्यपि / "उपस्कृतं जल्पति इत्यस्याने उपस्कृतमधीते, सोप प्रव०-'चत्वारः पादाः यस्य स चतुष्पात् , स्काराणि सूत्राणि, कोऽर्थः ? सवाक्याध्याहाराणी _ 'सुसङ्ख्यात् (7 / 3 / 150) इत्यनेन समासान्तपादत्यर्थः / / 12 / / शब्दस्य ‘पाद्' आदेशः / तुषं हृषच तुष्टौ' हर्षणं ___किरो लवने // 4 / 4 / 93 // हृष्टिः, हृषिरस्यास्तीति 'अभ्रादिभ्यः' (७२।४६।इति) अप्रत्ययः, 'अवर्णेवर्णस्य' (4 / 68 इति इकारस्य म. वृ०-उपात् किरतेरादिः ‘स्सट्' स्यात् , लुक्) यदि क्तः कृतः स्यात् तदा इट् अभविष्यत् / लवने लवनविषयो यद्यर्थः स्यात् / उपस्कीर्य मद्रका हर्षाद्विलिख्य तटं विक्षिपतीत्यर्थः / तथा भक्षलुनन्ति, उपस्कारं मद्रका लुनन्ति, विक्षिप्य लुनन्ती मर्थयतीत्येवं शील:-'अजातेः शीले' (५।१।१५४इति) त्यर्थः, लयन इति किम् ? उपकिरति पुष्पम् // 13 // णिन् , विलिख्यावस्करं कुक्कुटो विक्षिपतीत्यर्थः / ५अपस्किरते श्वेति, विलिख्य भस्म विक्षिपतीत्यर्थः / अव०-उपस्कीर्य=उपस्कारम् , 'उपाकिरो लव हृष्टादिष्विति किम् ? अपस्किरति हस्ती रजश्चाने' (5 / 4 / 72) इति सूत्रेण णम्प्रत्ययः // 13 // पलेन / / 95 // प्रतेश्च वधे // 4 / 4 / 94 // वौ विष्करो वा // 4 / 4 / 96 // म० वृ०-प्रतेरुपाञ्च किरतेर्वधे विषयेऽभि म. वृ०-चौ-पक्षिणि वाच्ये 'विष्किर इति धेये वा 'स्सडादिः' स्यात् / प्रतिस्कीर्णम् , उप- | वा स्सट' निपात्यते / विकिरतीति विष्किरः पक्षिस्कीर्ण ह ते वृषल ! भूयात् / अभिधेये,-उरोविदारं / विशेषः, विकिरोऽपि स एव / / 96 // प्रतिचस्करे नखैः, हत इत्यर्थः / वध इति किम् ? प्रतिकीर्णम् , उपकीर्ण बीजम् ,विक्षिप्तमित्यर्थः / 94 / प्रात्तुम्पतेर्गवि // 4 / 4 / 97 // 'अत्र 'लाभाय' इति पाठोऽधिकोऽसङ्गबथ। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 4 पा० 4 सू० 98-102 म० वृ०-प्रात्परस्य 'तुम्पधातोगवि कर्तरि / शोभार्थे / उभ उम्भत् पूरणे। इति तृफादिः / 'स्सडादिः' स्यात् / प्रस्तुम्पति गौः, प्रस्तुम्पति वत्सो | नकारोऽनुस्वारः, तेन युक्ताः, नकारोऽनुस्वारः, मातरम् / गवीति किम् ? प्रतुम्पति वनस्पतिः / तेन वर्जिताः, एवं द्विविधाः / 'नकारस्य 'नो व्य(तरुः) // 9 // अनस्य'० (4 / 4 / 45) इत्यनेन (लुक्-) विधानम् / १°नकारस्य // 19 // अव०-१'तुप तुम्प तुफ तुम्फ हिंसायाम्' / जभः स्वरे // 4 / 4 / 100 // वत्सोऽपिगौरेव, विशेषस्य सामान्यात्मकत्वात्।९७) म० वृ०-'जम्भः [धातोः] स्वरात्परः स्वरादौ उदितः स्वरानोऽन्तः॥४।४।९८॥ प्रत्यये परे 'नोऽन्तः' स्यात् / जम्भयति', जम्भकः - म० वृ०-उदितो धातोः स्वरात्परो 'नोऽन्तो- // 10 // ऽवयवः' स्यात् / नन्दति, निन्दति, हुण्डिता / नोऽन्त उपदेशकाले एव स्यादनैमित्तिकत्वात् , तेन अव०-१'यभं जभ मैथुने' अथवा 'जभुङ "कुण्डा, "हुण्डा इत्यादि सिद्धम् / / 98 // जभैङ जुभुङ गात्र विनामे' / जम्भन्तं जम्भमानं वाप्रयुङ क्ते-णिग्। (एवम् ) साधुजम्भी,जम्भंजप्रव०-'उकारानुबन्धधातोः / २'टुनदु म्भम् // 10 // समृद्धौ' / "णिदु कुत्सायाम्'। कुडुछ दाहे, 'हु- _रध इटि तु परोक्षायामेव // 4 / 4 / 101 / / डुरू पिडुङ संघाते; कुण्डनं-कुण्डा, हुण्डनं हुण्डा; 'क्तेटो गुरोर्व्यञ्जनात्' (5 / 3 / 106) इति सूत्रेण म० वृ०-रधधातोः स्वरात [परः] स्वरादौ प्रत्यये 'नोऽन्तः' स्यात् , इटि तु=इडादौ तु प्रत्यये अप्रत्ययः सिद्धः, (तत्र) गुरुमतो धातोरिति भण परोक्षायामेव / रन्धयति, रन्धकः / इटि तु परोक्षानात् // 9 // याम् ,- ररन्धिव, ररन्धिम / रेधिवान् ,' अत्र नस्य लुक् / परोक्षायामेव-रधिता / एवकारो विपमुचादि-तृफ-दृफ-गुफ-शुभोम्भः शे // 4 / 4 / 99 // रीतनियमनिरासार्थः, तेनात्र न नियमः, ररन्ध' म० वृ०-एषां स्वरानोन्तोऽवयवः स्यात् , शे // 10 // परे / मुञ्चति, सिञ्चति, तृम्फति, दृम्फति, गुम्फति, अव०-"रेधिवान्', कसुः, 'धूगौदितः' शुम्भति, उम्भति / तृफादयः "सनकारा अनका-- (४।४।३८॥इति ) इट् , 'रध इटि०' इति नोन्तः, राश्च तुदादो, तत्र तृम्फादीनां शे परे नस्य लुक, 'इन्ध्यसंयोगात्परोक्षा किद्वत्' (4 / 3 / 21) इति कसुः तृफादीनां त्वतेन नस्य विधानम् ; विधानबलाच्च किद्वत् , 'नो व्यञ्जनस्य'० (4 / 2 / 45) इति नकारो न नस्य लोप इति तृफति तृम्फति इत्यादि द्वैरू- लुप्यते, अनादेशादेरेकव्यञ्जन'० (4 / 4 / 24) इति प्यं सिद्धम् / / 99 // एत्वम् / पूर्वसूत्रात स्वराधिकारे सत्यपि यदत्र 'रध इटि तु०' (4 / 4 / 101) सूत्रे इग्रहणं करोति प्रव०-'मुच्लुती मोक्षणे / षिचीत् क्षरणे। तस्मात् इट् (ग्रहण) बलात् विपरीत (?) नियमः विद्लूती लाभे / लुप्लुती छेदने / लिपीत् उप- | सिद्धः / 'ररन्ध', (एवं) ररन्धतुः, ररन्धुः // 10 // देहे / एते उभयपदिनो विभाषिताः / कृतत् छेदने।। रभोऽपरोक्षाशवि / / 4 / 4 / 102 // खिदंत् परिघाते। पिशत् अवयवे / इति वृत् मुचादिः / 8 / अथ 'तृफ तृम्फत् तृप्तौ' यथासंख्यं नकार- म० वृ०-रभेः स्वरात्परोक्षाशववर्जिते स्व-. वर्जितः नकारयुक्तः, एवमग्रेऽपि / दृफ हम्फत् / रादौ प्रत्यये 'नोऽन्तः' स्यात् / आरम्भयति, आरउत्क्लेशे / गुफ गुम्फत् ग्रन्थने / 'शुभ शुम्भत् म्भकः // 102 / / Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकारागमविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 153 - - प्रव०-एवं साधारम्भी, आरम्भमारम्भम् , ! उपसर्गात्खल-घजोश्च // 4 / 4 / 107 / / आरम्भो वर्तते इत्याद्यपि / अपरोक्षाशवीति किम ? आरेभे, आरभते / स्वर इत्येव- आरब्धा // 102 / / म० ०-उपसर्गात्परस्य लभः स्वरात्खल्घ बिख्णमोश्च परयो-'न!ऽन्तः' स्यात् / खल,लभः // 4 / 4 / 103 / / 'ईषत्प्रलम्भम् , 'दुष्प्रलम्भम् , सुप्रलम्भम् / . म० वृ०-लभतेः स्वरात्परः परोक्षाशववर्जिते घञ्,- उपलम्भः / बि,- प्रालम्भि / रुणम् , स्वरादौ परे 'नोऽन्तः' स्यात् / लम्भयति, लम्भकः प्रलम्भंप्रलम्भम् / उपसर्गादिति किम् ? ईष[साधुलम्भी] / अपरोक्षाशवीत्येव-लेभे, लभते / लाभः, लाभः / विख्णमोर्नित्यार्थमुपसर्गादेव खल्योगविभाग उत्तरार्थः / / 103 / / घबोरिति नियमार्थ च वचनम् // 17 // अव०-लभेः परस्मैपदस्यापि अभिधानाल्ल- प्रव०-'ईषत् अनायासेन प्रकर्षेण लभ्यते= भन्ती स्त्री इति केचिदाहुः / / 103 / / ईषत्प्रलम्भम् , दुःखेन प्रलभ्यते-दुःप्रलम्भम् , आडो यि // 4 / 4 / 104 // सुखेन प्रलभ्यते-सुप्रलम्भम् , 'दुःस्वीषतः कृच्छा कृच्छाखिल (5 / 3 / 139) इत्यनेन खल् / उपसम. वृ०-आकः परस्य लभः स्वराद् परः / गनियमस्तु न भवति, 'शप उपलम्भने' (3 / 3 / 35) यि=यकारादौ प्रत्यये [परे] 'नोऽन्तः' स्यात् / / इति ज्ञापकात् / / 107 // आलम्भ्या गौः, आलम्भ्या वडवा / यीति किम् ? आलब्धा / / 104 / / सुदुर्व्यः / / 4 / 4 / 108 // ___म० वृ०-सुदुभ्यो 'व्यस्ताभ्यां समस्ताभ्यां अव०-आलभ्यते-आलम्भ्या , 'शकितकिचतियतिशसिसहियजिभजिपवर्गात् ' (5 / 1 / 29) इति / चोपसर्गात्पराभ्यां परस्य लभः स्वरात्परयोः खल् घनो--ौन्तः' स्यात् / अतिसुलम्भम् , “अतिदुयः // 104|| लम्भम् , “अतिसुदुर्लम्भम् / घम् , अतिसुलम्भः, उपात्स्तुतौ // 4 / 4 / 105 // [अतिदुर्लम्भः] अतिसुदुर्लम्भः / उपसर्गादित्येव सुलभम् ,दुर्लभम् , सुदुर्लभम् , 'सुलाभः, दुभिः / म. वृ०-उपात्परस्य लभः स्वरात्' यादौ [अतिसुलभमतिदुर्लभमित्यतेः पूजातिक्रमयोरनुप्रत्ययेर स्तुती प्रशंसायां गम्यमानायां 'नोऽन्तः' पसर्गत्वात् ] उपसर्गादेव सुदुर्घ्य इति नियमार्थ स्यात् / 3 उपलम्भ्या विद्या त्वया, उपलम्भ्यं शीलम्। वचनम् // 108 // स्तुताविति किम् ? उपलभ्या वार्ता // 105 / / प्रव०-'परः / यकारादौ प्रत्यये परे। उप प्रव०-'एकैकाभ्याम् / २मिलिताभ्याम् / लभ्यते उपलम्भ्या , 'शकि०' ( 5 / 1 / 29 ) इति अतिशयेन सुखेन लभ्यते अतिसुलम्भम् , अतियप्रत्ययः, कोऽर्थः ? ज्ञायते त्वया विद्या इत्यर्थः। शयेन दुःखेन लभ्यते= अतिदुर्लम्भम् / 'तथा अति४ (एवम्) उपलभ्यमस्मात् वृषलात् किश्चित् / 105 / शयेन सुष्ठु दुःखेन लभ्यते अतिसुदुर्लम्भम् , भत्र दुःखातिशयस्य अतिशयो ज्ञातव्यः, अतिमहादुष्प्रापजि-ख्णमोर्वा // 4 / 4 / 106 / / मित्यर्थः, 'दुःस्वीष०' (5 / 3 / 139) इति खल् / म० 30-au ख्णमि च प्रत्यये परे लभः | "सुलाभः, दुर्लाभ' इत्यस्याने 'दुःसुलाभ' इत्यपि स्वराद् 'नोऽन्तः स्यात् वा' / अलाभि, अलम्भि; | व्यावृत्त्युदाहरणं द्रष्टव्यम् / अत्र समस्तग्रहणेन लाभलाभम् , लम्भलम्भम् / / 106 / / | विपर्यस्तावपि 'दुःसु' इत्येवं गृहीतौ स्तः, इत्यपि Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०४ पा०४ सू०१०९-११३ (? इत्यत्र) विपरीतसुदुरोरुदाहरणम् / तथा 'अति- अव०-१'अकिति,' कोऽर्थः ? किति प्रत्यये सुलभम् , अतिदुर्लभम्'; अत्र नोऽन्तः किमर्थ न / अकारो न भवतीत्यर्थः / 'अः सृजि'० इति सूत्रे भवति ? सूरिराह- अतिशब्दः पूजातिकमार्थोऽत्र, विशेषो लिख्यते,- अकिति नप्रसज्याश्रयणात् पूजातिक्रमार्थस्तु अति उपसर्गसंज्ञो न भवति इति / प्रतिषेधे धुटीति नाश्रीयते, कोऽर्थः ? अकिति न नोऽन्तः, उपसर्गात्परयोः सुदुरोर्योगे नोऽन्त- | धुडादौ प्रत्यये इति नाश्रीयते, तेन सिचलुचो विधिः // 108 // धुडादिं प्रति वर्णाश्रयत्वेन स्थानिवद्भावाभावेऽपि नशो धुटि // 4 / 4 / 109 // परं कित्त्वं प्रति स्थानिवद्भावात् किदाश्रयः प्रति षेधो भवत्येव, यथा (असृष्टः, असृष्ठाः) / २'अस्राम० वृ०-नशः स्वरात् [परः] धुडादौ प्रत्यये क्षीत् , अद्राक्षीत्' इत्यत्र परत्वादकारागमे कृते एवं परे 'नोऽन्तः' स्यात् / नंष्टा, नंष्टुम् , ना क्ष्यति, वृद्धिर्भवति / 3 (एवम् ) सिसृक्षति, दिदृक्षति / 111 / निनङ क्षति / धुटीति किम् ? नशिता / / 109 / / मस्जेः सः / / 4 / 4 / 110 // स्पृशादिसृपो वा // 4|4|112 // .. म० वृ०-मस्जः स्वरात्परस्य सकारस्य स्थाने म. वृ०-स्पृशमृशकृषतृपहपां सृपश्च स्वरात् धुडादौ परे 'नोऽन्तः' स्यात् / मङक्ता, मड क्तुम् , | धुडादौ "अकारोऽन्तो वा" स्यात् , अकिति / स्प्रष्टा, मङ्क्ष्य ति, अमाङ क्षीत् / आदेशकरणं नलोपा- स्पर्धा; अस्प्राक्षीत् , अस्पाक्षीत ; एवं स्रष्टा, मर्धा; र्थम् ,- मग्नः, 3 मग्नवान , मक्त्वा , तसि- मामक्तः। क्रष्टा, का; त्रप्ता, तप्त; द्रप्ती, दर्ता; सप्ता, धुटीति किम् ? मजनम् // 110 // सप्र्ता // 112 // प्रव०-अघोषे प्रथमो० (१३५०इति गस्य कः)। प्रव०-एवं स्प्रष्टुम् , स्पष्टुंम् ; स्प्रष्टव्यम , स्पष्टुंआदेशकरणमित्यादि, 'मस्जेः स' इति सूत्रे सका व्यम् ; स्प्रक्ष्यति, स्पर्ध्यति इत्यपि / म्रष्टुम , रस्य नोऽन्त इति आदेशस्तस्य करणं विधिः, मष्टुम् ; म्रष्टव्यम् , मर्षव्यम् ; म्रक्ष्यति, मयति; आदेशकरणं नलोपार्थम् , यो नोऽन्तविधिः तस्य 'नो अम्राक्षीत् ; अमाक्षीत् / एवं क्रष्टुम् , कष्टम् ; ऋष्ठव्यञ्जनस्यानुदितः (4 / 2 / 45) इत्यनेन नो लुप्यते व्यम् , कर्टव्यम् ; क्रक्ष्यति, नीति; अक्राक्षीत् , इत्येतदर्थमादेशकरणं कृतम् , अन्यथा 'संयोगस्यादौ अकार्षीत् / त्रप्तुम् , तप्तुम् ; तव्यम् , तप्तव्यम् ; स्कोलक् (2 / 1188) इति सलुकि कृतेऽपि 'नो व्य त्रप्स्यति, तय॑ति; अत्राप्सीत् , अतार्सीत् ; द्रप्तुम् , ञ्जनस्यानुदितः' इति उपान्त्यलोपे कर्तव्ये सलुक् दप्तम् ; द्रप्तव्यम् , दप्तव्यम् ; द्रप्स्यति, दयति, असन् भवतीति नोऽन्तलोपो न प्राप्नुयात् , उपा अद्राप्सीत् , अदासीत् ; एवमुदाहरणावली / अकित्याभावात् / 'मग्नः' इत्यत्र मस्जः क्तः, सस्य तीत्येव- स्पृष्टः, पिस्पृक्षति;एवं मृष्ट इत्यादि / / 112 / / न , 'नो व्यञ्जनस्या०' (४।२।४५।इति) न लुप्यते, 'चजः कगम्' (२।११८६।इति जस्य गः) // 11 // ह्रस्वस्य तः पित्कृति // 4 / 4 / 113 / / अः सृजिदृशोऽकिति // 4 / 4 / 111 // ___म० वृ०-हस्यान्तस्य धातोः पिति कृत्प्रत्यये म० वृ०-सृजिदृशोः स्वरात्परो धुडादौ प्रत्यये परे 'तोऽन्तः' स्यात्। 'जगत् , 'सोमसुत् ,आगत्य / [परे] 'अकारोऽन्तो' भवति, 'अकिति / स्रष्टा ह्रस्वस्येति किम् ? ग्रामणीः / पिदिति किम् ?. 'अस्राक्षीत् , स्रक्ष्यति, द्रष्टा, अद्राक्षीत् , द्रक्ष्यति; | स्तुतम् / कृतीति किम् ? अजुहवुः / सुशूः, उपशूय; सरिस्रष्टि, दरिद्रष्टि / धुटीत्येव- सर्जनम् , दर्श- | अत्रान्तरङ्गत्वाद्विशेषविहितत्वाच्च य्वृत् दीर्घत्वं च नम् / अकितीत्येव- सृष्टः, दृष्टः // 111 / / // 113 // Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मकारागमविधामम् ] मध्यमवृस्वपरिसवालतम्। action m m - - - - - प्रव-हस्वस्य० इति सूत्रे धुटीति निकृत्तम् , म० वृ०-ऋदन्तधातोः किति प्रत्यये "ऋअसम्भवात् / अकितील्यपि निवृत्तम् , 'सोस्तो स्थाने इर्' आदेशः स्थति / तीर्णम् , 'किरति / बहुनवनिपि' इति सूत्राफरणात् / 'सोमं सुतवान(इति) वचनं लाक्षणिकस्यापि परिग्रहार्थम् ,- तेन चिकी. 'सोमात्सुगः' (5 / 1 / 163) इत्यनेन किम् ) / २'सुशूः, र्षति // 116 // उपशूय'; योश्वि गतिवृद्धयोः इति श्वि, अनुक्रमेण ओष्ठयादुर् // 4 / 4 / 117 // क्विप् , क्त्वा, 'यजादिवचे.' ( ४|११७९॥इति ) रवृत् , “दीर्घमवोऽन्त्यम्' (४।१।१०३॥इति) दीर्घ म० वृ०-धातोरोष्ट्याद्वर्णात्परस्य 'ऋतः स्थाने त्वम् / जगत् इति शब्दः क्रियाशब्दः संज्ञाशब्दश्च क्किति उरादेशः' स्यात् / पूर्तः, 'पू:, पोपूर्यते, इति द्वेधा, * तत्र क्रियाशब्दजगत्व्युत्पत्तिः (पोपुरति) बुभूति / दन्त्योष्ठयोऽप्योष्ठयः, तेन 'दिद्युइहजगत्'० (5 / 2 / 83) इति सूत्रे दर्शयिष्यते, धुवूर्षते / विडतीत्येव- प्रावरणम् [प्रावारकः] / 117) भत्र तु भुवनवाचकः संज्ञाशब्दः उणादिः साध्यते-- अव०-श्यको लुपि पूर्व द्वित्वम् (? उर् ) पश्चात् गम्ल, गम्छतीति 'गमेर्डिद् द्वे वा' (उ०८८५) इति उर् (? द्वित्वम् ), पुर , पोपुर , (अन्तिप्रत्ययनकारउणादिसूत्रेण कत, स डित् द्वित्वं च इति प्रक्रिया लुकि पोपुरति) / 'प, पृणासीति पू:, किप् , उर , ऽत्र न घटते, (किन्तु) अत्र किप , पश्चात् 'गमां ततः ‘पदान्ते' (2 / 1 / 64) दीर्घः / गश् 'परणे, कौं' (4 / 2 / 58) इत्यनेन मलोपः, ततोऽनेन 'ह्रस्व'० | (एवम् ) वुवूर्षति प्रावुवूर्षति // 11 // इति तोऽन्तः, अभिधानात् द्वित्वं च इति घटते, ___ इसासः शासोऽव्यञ्जने // 4 / 4 / 118 // 'दिद्युद्' - इति द्वित्वं निपात्यते वा / / 113 / / म० ३०-शास्तेरक्यवस्य भासः स्थानेऽडि अतो म आने // 4 / 4 / 114 // व्यञ्जमादौ च क्ङिति परे 'इसादेशः' स्यात् / अक्ति, म० ब०-धातोविहिते आनप्रत्यये अकार- | अशिषत् / विहति व्यञ्जने,-शिष्टः, शिष्टवान् ; स्य 'मोऽन्तः' स्यात् / पचमानः, पवमानः, विद्य- | [अनुशिष्य ] अनुशिष्टि, शिष्यते [शिष्यः / मानः / अत इति किम् ? शयानः [भुञ्जानः] / 114 // कितीत्येव-- शास्ता, शास्ति' // 118 / / .. आसीनः / / 4 / 4 / 115 // अव०-'शासः शिस्' इति सूत्रमकृत्वा यत् 'शास्तेः आसः स्थाने इस' इति कृतम् तत् यो लुपि म०३०-आस्तेः परस्य आनस्यादेः 'ई' निपा | प्रयोगसिद्धयर्थम् / पशासूक् अनुशिष्टौ' इत्यस्य त्यते / आसीनः, उदासीनः [अध्यासीनः] // 115 // 'शास्त्यसू' 0 (३।४।६०।इति) अङ / एवं शेशिष्यते, ऋतां पिङतीर् // 4 / 4 / 116 // शिष्टः, शिष्ठः, शिष्मः इत्यपि / (एवम् ) शास्त्रम्, *पत्र तत्र क्रियाशब्दजगत्व्युत्पत्तिः' इत्यादिपाठोऽशुद्धः प्रतिभाति, तद्यथा-पत्र “क्रियाशब्दजगत्व्युत्पत्ति: 'दिद्युद्दहजगत्' इति सूत्रे दर्शयिष्यते' इति यदुक्तं तदसङ्गतम्, 'दिद्युद्दहज्जगज्जुह' इति सूत्रे भुवनवाचिजगत्शब्दव्युत्पत्तेः प्रदर्शितत्वात् / एवम् "अत्र तु भुवनवाचक: संज्ञाशब्दः उणादि: साध्यते" इति यदुक्तं तदसमीचीनम्, अत्र क्रियावाचिजगत्शब्दस्य सत्त्वाद्, तदुक्तं लघुन्यासे-"जगद् इति, "दिद्युत्' इति क्रियाशब्दोऽत्र, संज्ञाशब्दस्तु 'गमेडिंद् द्वे वा' इति साधुः" / तथाऽत्र भुवनवाचिजगत्शब्दसाधनिकायां द्विधा प्रक्रिया प्रदर्शिता, तत्र प्रथमा प्रक्रिया निषिद्धा, द्वितीया स्वीकृता, परं तन्न चारु, ग्रन्थान्तरेषु प्रथमप्रक्रियया भूवनवाचिनो द्वितीयप्रक्रियया च क्रियावाचिनो जगत्शब्दस्य सावितत्वात् / अत्रायं पाठः शुद्धः प्रतिभाति- तत्र भुवनवाचकजगत्शब्दव्युत्पत्ति: 'दिद्युद्ददृज्जगज्जूह' 0 इति सूत्रे दर्शयिष्यते, अत्र तु क्रियावाचको जगत्शब्द: साध्यते- गम्, किप् , 'दिद्युइंदृज्जगज्जूहू'० इति निपातनाद् द्वित्वम्, द्वित्वेऽनादिव्यञ्जनलोपः, द्वित्वे गस्य जः, 'गमां को' (412258) इत्यनेन मलोपः, प्रस्तुतसूत्रेण तकारागमे जगत् / Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 4 पा० 4 सू० 119-122 शिष्यतेऽनेनेति शास्त्रम् , त्रट , / अङ-व्यञ्जन इति लोपः, 'वोः प्वय'० इति यो लुप्यते, (द्विवचनकिम् ? शासति, [अन्ति] शशासुः // 118 / / बहुवचनयोरनुक्रमेण) कण्डुवौ, कण्डुवः; (अनुकौ // 4 / 4 / 119 / / क्रमेण) औ, जस् , 'धातोरिवर्णो'० (२।१।५०।इति) म० ०-शास आसस्थाने 'काविस्' स्यात् / उव् / 'लूनः, पूनः; लूनमिच्छति पूनमिच्छतिमित्रशीः, आर्यशीः // 119 // क्यन् , लूनीयतीति पूनीयतीति विप् , 'अतः' (४।३।८।इति) अलोपः, 'य्वोः प्वय'० इत्यनेन यो आङः // 4 / 4 / 120 // लुप्यते, (ततः) इसि, डस् वा; 'क्तादेशोऽषि' (2 / 1 / म० वृ०-आङः परस्य शास आस्स्थाने | 61) इत्यनेन क्तस्य नत्वमसत् , असत्त्वात तीरू'कावेव इस्' स्यात् / 'आशीः, आशिषः / पूर्वेण पत्वं ज्ञातव्यम् , ततः 'खितिखीती'० (1 / 4 / 36 / सिद्धे नियमार्थो योगः, तेन आयुराशास्ते // 120|| इति ) उरादेशः // 121 / / अव०-१आशासनमाशीः, 'ऋत्सम्पदादिभ्यः कृतः कीर्तिः // 4 / 4 / 122 // .. कि ' (५।३।११४।इति विप् ) / अत्र न इस् , म० वृ०-कृतण इत्यस्य 'कीर्त आदेशः' एवमाशास्महे // 120 // स्यात् , अव्यञ्जने / कीर्तयति, कीर्तिः / इकारावोः प्वयव्यञ्जने लुक् // 4 / 4121 / / न्तनिर्देशो मङ्गलार्थः // 122 / / ग्रन्थश्लोक 24 / एव म. वृ०-पौ यकारवर्जव्यञ्जनादौ च प्रत्यये माख्यातसर्वाग्रम् 1311 / 'य्व् इत्येतयो क्' स्यात् / कोपयति' / अव्यअने,- उतम् , देदिवः, कण्डूः, लोलूः, [बोभूः] अव०-'कृतण संशब्दने' इत्यस्य / ननु "लून्युः, पून्युः / यवर्जनं किम् ? सेव्यते / व्य- चुरादों कीर्तण इति पठ्यताम् ; किमनेन “कृतः अन इति किम् ? देविता ||121 // कीर्तिः" सूत्रेण ? इत्याह- ऋकारः श्रवणार्थः, [? अव०-सूत्रे पुग्रहणमप्रत्ययार्थम् , कोऽर्थः ? कृत ऋदुपदेशोऽचीकृतदित्यत्र ऋकारश्रवणार्थः] यतः प्रत्ययसम्बन्धी पुर्न गृह्यते। 'नोपयति, एवं क्षमाप- 'ऋवर्णस्य' (4 / 2 / 37) इति सूत्रे वर्णग्रहणसामयति, अत्र 'अतिरीब्ली'० (4 / 2 / 21) इति पोऽन्तः। थात् की.देशो बाध्यते, 'ऋवर्णस्य' इत्यस्यार्थः,२'ऊतम्' इत्यत्र 'ऊयैङ तन्तुसन्ताने' (इति) ऊय् , | धातोरुपान्त्यस्य ऋवर्णस्य ङारे णौ ऋकारो वा क्तः / 3 देदिवः,' दिवूच क्रीडायाम्' (इति) दिव् , | भवति / अवीवृतत् अववर्त्तत् ; , अचीकृतत् , अचिभृशं पुनः पुनर्वा दीव्यावः- यङ, 'बहुलं लुप्' (3 / 4 / कीर्त्तत् / वचनसामर्थ्यात् कीादेशो बाध्यते इति १४ाइति यढो लुप् ), वर्तमानावस् / कण्डूमि- 'ऋवर्णस्येति सूत्रे उक्तम् / यदि कीर्त्त आदेशोऽच्छतीति कण्डूयति, क्यन , कण्डूयतीति किप, भविष्यत तदा 'अचीकृतत्' इति न सिद्धय त / अथवा कण्डूयनं कण्डूः, 'क्रुत्सम्पदा'० (5 / 3 / 114 / 'अचीकृतत्' इत्यसिद्धौ ‘ऋवर्णस्य' इत्यस्य निष्फल: इति ) किप , 'अतः' (4 / 3 / 82) इत्यनेन अकार- | प्रयासः / / 122 / अत्र सूत्रे अवचूरिश्लोक 482 / // इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते सिद्धहेमशब्दानुशासने चतुर्थाध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः // / इति चतुर्थोऽऽध्यायः समाप्तः। // श्री // श्री // शुभं भवतु // Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अहम् // // पञ्चमोऽध्यायः॥ [प्रथमः पादः] आ तुमोऽत्यादिः कृत् // 5 // 1 // 1 // | नीयः खलः, स्थानीयं नगरम् , शयनीयः पलम० वृ०-धातोः क्रियमाणस्त्यादिवर्जितो वक्ष्यमा यङ्कः, एषां क्रमेण वाक्यानि-स्नाति तेनेति स्नाणप्रत्ययस्तुमभिव्याप्य 'कृत्संज्ञो' भवति / 'घन नीयम् , यात्यनेनेति यानीयः, दीयते तस्मै इति घात्यः, २गोदायो याति / अत्यादेरिति किम् ? दानीयः, सम्प्रदीयतेऽस्मै (इति) सम्प्रदानम् , स्पृहप्रणिस्ते / कृत्प्रदेशाः 'तिकृतौ नाम्नि' (5 / 1 / 71) यत्येतां जनः (स्पृहयत्यस्य वेति) स्पृहणीया, समाइत्येवमादयः // 1 // वर्त्तते तस्मादिति समावर्त्तनीयः इति संक्षेपवाक्यम् , सं-सम्यक् आ-समन्तात् आचारेषु जना वर्त्तन्तेऽअव०-- कृत्सूत्रे चतुर्थपादप्रान्ते 'शकधृष०' स्मात् इति समावर्तनीयः, जना गुरुतः सदाचारा(५।४।१०) सूत्रोक्त तुमभिव्याप्य तुम् यावत्, न नभ्यस्यन्तीत्यर्थः, उद्वेजत्यसौ इति उद्वेजनीयः, क्रियायां क्रियार्थायाम् (5 / 3 / 13) इति तुम् , तिष्ठन्त्यस्मिन् जना इति स्थानीयम् , शेतेऽस्मिन् शकषोक्ततुमः संज्ञायां सत्यां प्रनिन्दितुम् , प्रणिं धनवानिति शयनीयः, एषु 'तत्साप्यानाप्यात्कर्मदितुमिति ['निंसनिक्षनिन्दः कृति वा' (2 / 3 / 84) भावे०' (3 / 3 / 20) इति वचनात् कर्मभावे कृत्याः इत्यनेन ] विकल्पेन णत्वं सिद्धम् , अन्यथा तव्यानीयाद्याः प्रत्यया उक्ताः, परं 'बहुलम्' इति 'अदुरुपसर्ग०' (2 / 3177) इत्यनेन नित्यं णत्वं सिद्धम् सूत्रबलात् कर्त्तर्यपि अनीयः अनट् च / / 2 / / (स्यात्) / 'कारकं कृता' (3 / 1 / 68) समासः / कर्तरि // 5 // 13 // २'टस्युक्त कृता' (3 / 1 / 49) समासः / 3'अदुरुपसर्गः' (2 / 3 / 77) णत्वम् // 1 // म० ३०-कृत्प्रत्ययोऽर्थविशेषं विना 'कर्तरि' स्यात् / कर्ता, कारकः // 3 // बहुलम् // 5 // 1 // 2 // व्याप्ये घुर-केलिम-कृष्टपच्यम् // 5 / 1 / 4 // म० वृ०--अधिकारोऽयम् / कृत्प्रत्ययो यथानिर्दिष्टादर्थादेरन्यत्रार्थे ' 'बहुलं' स्यात् / २पाद- म० वृ०-धुरकेलिम इति प्रत्ययौ कृष्पच्यहारकः, मोहनीयं कर्म इत्यादि // 2 // शब्दश्च व्याप्ये कर्त्तरि' [कर्मकर्तरीत्यर्थः,] भवतीति ज्ञेयम् / 'भङ गुरं काष्ठम् , २भिदुरः कुशूल: अव०-- 'आदिशब्दात् उपपदधातू गृह्यते / / उपचेलिमा माषाः, 'भिदेलिमास्तण्डुलाः, "कृष्ट२पादाभ्यां हियते-पादहारकः, अत्र अकर्तर्यपि णक पच्याः शालयः ||4|| प्रत्ययः / मुह्यत्यनेनात्मा मोहनीयम् , अत्र कर्त्तयपि (? करणेऽपि) अनीयः। ४आदिशब्दात स्नानीयं अव०--'व्याप्ये,' अत्र कोऽर्थः ? कर्मकर्तरि / चूर्णम् , यानीयोऽश्वः, दानीयोऽतिथिः, सम्प्रदानम्, | घुरप्रत्ययो वक्ष्यति द्वितीयपादे / 'भनक्ति काष्ठं स्पृहणीया विभूतिः, समावर्त्तनीयो गुरुः, उद्वेज- J चैत्रः, स एवं विवक्षति-नाहं भनज्मि, किन्तु Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०५ पा०१ सू०५-८ भज्यते स्वयमेव काष्ठम् , 'भजिभासिपिदो घुरः, / भव्य-गेय-जन्य-रम्या-ऽऽपात्या-ऽऽप्लाव्यं (5 / 2 / 74) इति सूत्रेण घुरप्रत्ययः; २एवं भिनत्ति नवा // 5 // 17 // कुशूलमित्यपि, वेत्तिछिदभिदः कित् (5 / 2 / 75 ) घुरः; एवं भासुरः, मेदुरः, विदुरः; परमत्र विशे म. वृ०-एते 'कर्तरि नवा' निपात्यन्ते / षोऽयम्- भासिमिदिविदां कर्त्तव घुरः, कर्मकतु भावकर्मणोः प्राप्तयोः पक्षे 'कर्तरि विधानार्थमिरसम्भवात् , भासते इत्येवं शीलः, मेद्यति, दम् / भवत्यसाविति भव्यः, पक्षे भव्यमनेन / एवं वेत्तीति / पच्यते स्वयमेव (इति) पचेलिमाः। एवं गेयो माणवकः साम्नाम्, गेयानि सामानि / जायभिद्यन्ते स्वयमेव / अत्र 'विहाविशापचिभिद्यादे: तेऽसौ इति जन्यः, "जन्यमनेन / रमयत्यसाविति केलिमः' (उणा० 354) इत्युणादिसूत्रेण केलिम रम्यः, पक्षे रम्यते (इति) रम्यः / आपतत्यसाविति प्रत्ययो नियतधातुविषय एवौणादिकः, अयं तु आपात्यः, आपात्यमनेन / [आप्लवतेऽसाविति] 'व्याप्ये घुर०' इति सूत्रेण केलिमः सर्वधातुवि आप्लाव्यः, आप्लाव्यमनेन // 7 // षयो ज्ञातव्यः / तथाह-अत एव वचनात् सर्वधातुभ्यः अव०-'भूगैरमभ्यो यो यः प्रत्ययः, यश्च परत्र ज्ञायत एव / 'कृष्टे पच्यन्ते स्वयमेव (इति) प्रत्ययो जनेः परतः आक पूर्वाभ्यां च पतिप्लुभ्यां कृष्टपच्याः , अत एव वचनात् यप्रत्ययः // 4 // ध्यण स कर्तरि नवा निपात्यते इत्यर्थः / २गायती सङ्गतेऽजयम् // 5 // 15 // ति / माणवकेन / 'जन्यमनेन,' अत्र जन्यते इति जन्यम् , 'ऋवर्णव्ब-जनाद् ध्यण' (5 / 1 / 17), ____म० वृ०--सङ्गमनं-सङ्गतम् / 'सङ्गते कर्त्तरि वाच्ये नम्पूर्वाजीर्यतेर्यप्रत्ययो' निपात्यते / अजर्य 'न जनवधः (4 / 3:54) इत्यनेन वृद्धिप्रतिषेधः / मार्यसङ्गतम, तथा "तेन सङ्गतमार्येण रामाजय कुरु ५रम्यते इति रम्यम्', 'शकितकिचतियतित्रसि' द्रुतम्" / सङ्गतमिति किम् ? अजरः पटः / कर्त्त (5 / 1 / 29) इत्यादिना यः प्रत्ययः / / 7 // अवश्यरीत्येव- अजार्य सङ्गतेन // 5 // माप्लूयते-"उधर्णादावश्यके" (5 / 1 / 19) इति अनेन ध्यप, गुणः, गुणे सति ( ? वृद्धिः, वृद्धौ सत्यां) अव०--'अजर्यम् ', अत्र 'जष्च् झष्च् जरसि' 'य्यक्ये' (१।२।२५।इति सूत्रेण) आवादेशः // 7 // इति दिवादिरेव, न तु 'जश वयोहानौ' इति क्रयादिः प्रवचनीयादयः / / 5 / 1 / 8 // इति सूत्रार्थे जीर्यते (:) इत्युक्तम् / सामान्यविशेषभा- म० वृ०-प्रवचनीयादिशब्दा. अनीयप्रत्ययान्ताः वेन च उभयोरपि विशेषणविशेष्ययोः प्रयोगो 'कर्तरि नवा' निपात्यन्ते / प्रवक्ति प्ररुते वाभवति, यथा- तेन सङ्गतमार्येणेत्यादि, हे राम तेन प्रवचनीयो गुरुः शासनस्य, / प्रवचनीयं गुरुणा सुग्रीवेण सह सङ्गतं कुरु / सङ्गतमिति सामान्य- शासनम् / एवं रमयतीति रमणीय: देशः / एवं पदम , कोऽर्थः ? विशेष्यम् ,कीदृशं सङ्गतं मैत्र्यम् ? मदयतीति मदनीया नारी। मोहनीयं कर्म / एवं अजयम=अक्षयमिति विशेषणपदमिति भावना // 5 // ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीयम् / 8 // रुच्या-ऽव्यथ्य-वास्तव्यम् // 5 / 16 / / अव०-- "प्रवचनीयं गुरुणा शासनम्' इत्यस्याप्रे म० वृ०-एते 'कर्त्तरि' निपात्यन्ते / रुच्यो उपतिष्ठते इत्युपस्थानीयः शिष्यो गुरोः, उपस्थामोदको मैत्राय, न व्यथति (इति) अव्यथ्यो मुनिः, नीयः शिष्येण गुरुः; एवं दीपयतीति दीपनीयं . वसतीति वास्तव्यः / / 6 / / चूर्णम् / मदयतीति मदनीया योषित् इत्यपि / मोहयतीति मोहनीयं कर्म, एवं ज्ञानावरणीयम् , प्रव०-रोचते इति रुच्यः / / 6 / / दर्शनावरणीयं वेदनीयम् , कर्मेत्यादि // 8 // . Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तरि क्तविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / - - श्लिष-शीङ-स्था-ऽऽस-बस-जन-रुह-ज- ____म. वृ०-'भूतादित्वेन विवक्षिते भारम्भे वर्तभजेः क्तः // 5 / 1 / 9 / / मानाद्धातोर्यः क्तः विहितः स 'कर्तरि नषा' स्यात् / प्रकृतः कटं भवान् , प्रकृतः कटो भवता, प्रकृतं म० वृ०-एभ्यः क्तप्रत्ययो यो विहितः स भवता / एवं प्रमुक्तः भोदनं चैत्रः, प्रभुक्त ओदनः 'कर्तरि नवा' स्यात् / 'आश्लिष्ठः कान्तां मैत्रः, चैत्रेण // 10 // कर्मणि,-२आश्लिष्ठा कान्ता प्रियेण / शीङ, अतिशयितो गुरु शिष्यः, कर्मणि- अतिशयितो गुरुः प्रव०--प्रकर्तुमारभत (इति) प्रकृतः, प्रक्रियते शिष्येण, अतिशयितं शिष्येण इति भावे / स्था, स्म वा / 'भादिशब्दात् वर्तमानाभविष्यत्योरपि उपस्थितो गुरु शिष्यः, उपस्थितो गुरुः शिष्येण'। परिग्रहः, यथा ज्ञातुमारभते (इति) प्रज्ञातः, कषितं उपासितो गुरु शिष्यः, उपासितो गुरुः शिष्येण / प्रारप्स्यते (इति) प्रकषितः // 10 // ५अनूषित इत्यादि / अनुजात इत्यादि / आरूढोऽश्व सः, आरूढोऽश्वस्तैः / अनुजीर्णः / 10 गत्यर्था-ऽकर्मक-पिव-भुजेः // 5 / 1 / 11 / / विभक्ता भ्रातरः स्वम् / / 9 / / म० वृ०-भूतादौ य क्तः उक्तः स गत्यर्थेभ्यो ऽकर्मकेभ्यश्च पिबभुजिभ्यां च 'कर्त्तरि नवा' स्यात् / प्रव०-अकर्मका अपि हि धातव उपसर्ग-- गतः स प्रामम् , गतो ग्रामस्तेन; गतं तेन / अकर्मकसम्बन्धात् सकर्मका भवन्ति इति शीढादिग्रहणम् / आसितः, शयितो भवान् / अविवक्षितकर्माणः सकअन्यथाऽकर्मकत्वादुत्तरेण 'गत्याकर्मक' 0 (5 / 1 / 11) / मका अप्यकर्मकाः, तेन-पठितो भवान, एवं विदितः, इत्यनेन क्तः सिद्धोऽस्ति / श्लिषभजी केवलावपि / प्रख्यातः। कालभावदेशाध्वभिश्च कर्मभिः सकसकर्मको इत्यर्थः। 'आश्लिष्यति स्म- आश्लिष्टः इति मका अप्यकर्मका उक्ताः, तेन त्रैरूप्यम् सुप्तो कतरि, २आश्लिष्यते स्म इति कर्मणि, भावे च भवान् मासम्, सुप्तो भवता मासः, सुप्तं भवान् आश्लिष्ट कामुकेन इति भवति / उपस्थितं शिष्येण मासम् ; २एवमोदनपाकं सुप्तस्त्वम् , सुप्तो भवान् इति भावे / उपासितं शिष्येण (इति भावे) / "वस् कुरून इत्यादि / पिष, पयः पीता गावः, इदं गोभिः धातुः; 'अधवस' 0 (4 / 4 / 43 इति) इट् / आदि पीतम् / भुजि,-अन्न भुक्तास्ते, इदं तैर्भुक्तम् // 11 // शब्दात् अनूषितो गुरुं भवान , अनूषितः गुरुर्भवता; भनूषितं भवता / एवमनुजातः, कोऽर्थः ? अनु- प्रव०--एवं यातास्ते प्रामम् , यातस्तैामः, जननेन प्राप्तवान् माणवको माणविकाम् ; अनुजाता यातं तैः / आसितो भवान्, आसितं भवता / शयितो माणविका माणषकेन; जन्धातुः, 'आः खनिस- भवान् , शयितं भवता एवं प्रयोगा मन्तव्याः / नि०' (4 / 2 / 60), जनधातोरिदमप्युदाहरणं ज्ञेयम्- कालभावेत्यादिना युगपत्सकर्मकत्वमकर्मकत्वं च विजाता वत्सं गौः, विजातो वत्सो गवा; विजातं उक्तम. तेन अकर्मकधातोः कर्तरि (भावे च) गवा इति वाक्यं विधेयम् / आरूढो वृक्षं भवान् , / प्रयोगः क्तस्य, सकर्मकात् धातोः कर्मणि प्रयोगः आरूढो वृक्षो भवता, आरूढं भवता / अनुजीर्णो / इति त्रैरूप्यमुपपद्यते / २भावस्योदाहरणम् / वृषली चैत्रः, वृषलीं प्राप्य जीर्ण इत्यर्थः, अनुजीर्णा उदेशोदाहरणम् / क्रोशं स्थित इत्यध्वप्रयोगः / वृषली चैत्रेण, अनुजीर्ण चैत्रेण / 'विभक्ता भ्रातरः सुप्तो भवानित्यादौ 'कालाध्वभाव०' (2 / 2 / 23) स्वम् ,धनमित्यर्थः, विभक्त भ्रातृभिः स्वम् ; विभक्त / इत्यनेन कर्मसंज्ञा अकर्मसंज्ञा च भवति, 'कालाध्य• भ्रातृभिः / एवं प्रयोगावली // 9 // नोाप्तौ' (2 / 2 / 42) इत्यनेन द्वितीया // 11 // आरम्भे // 5 // 1 // 10 // अद्यावाधारे // 5 // 1 // 12 // Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०५ पा०१ सू०१३-१६ म० वृ०--अद्यर्था आहारार्थाद् गत्यर्था- | राजेश्चानकः' ( उणा०७१ ) इत्युणादिना आनकः। दिभ्यश्च भूते यः क्तः स 'आधारे वा' स्यात् / इद- | एवं समुन्दनति आH भवन्ति वेलाकाले नद्योऽम्मामेषां जग्धम् , इदं तैर्जग्धम् , इह तैर्जग्धम्। आरम्भे | दिति समुद्रः खलतिश्च // 14 // तु कर्त्तर्यपि,-इह ते अन्न प्राशिताः / अथ गत्यर्थ, इदं तेषां यातम् / अकर्मक, इदमेषामासितम्। पिब, सम्प्रदानाचान्यत्रोणादयः // 5 / 1 / 15 // इदं गवां पीतम् / इदं तेषां भुक्तम् / पक्षे कर्तृ-कर्म- ___ म००-'सम्प्रदानापादानादन्यत्र कारके भावे भावेषु पूर्वे एव प्रयोगाः / / 12 / / च' उणादयः प्रत्यया भवन्ति / कृत्त्वाकर्त्तर्येव प्राप्ताः कर्मादिष्यप्युणादयो विधीयन्ते / करोतीति अव०-“गत्याकर्मकपिबभुजेः' (5 / 1 / 11) / कारुः, वातीति वायुः; ऋषितोऽसाविति कर्मणि अशितुमारभन्ते स्म। उएवमिदमेषां यातम् / / 12 / / ऋषिः // 15 // क्त्वातुमम् भावे // 5 // 1 // 13 // अव०--(कारुः, वायुः' इत्यत्र) 'कृवापाजी'-ति म. वृ०--नवेति निवृत्तम् / क्त्वा, तुम् , प्रथमोणादिसूत्रेण उण् / 'ऋषिः', अत्र लिशं ऋषैत् अम् इति प्रत्यया 'भावे धात्वर्थमात्रे' ज्ञेयाः / कृत्वा याति / एवं कर्तुम् / कारंकारं याति / अतिथिवेदं गतौ' (इति) ऋष् , नाम्युपान्त्यकगशपपून भ्यः कित् भोजयति // 13 // ( उणा०६०९) इति उणादिसूत्रेण कित् इप्रत्ययः / / 15 / / अव०--सूत्रे भावे इति वचनात् कारकं कादि निवृत्तम् / कारकनिवृत्तौ सत्यां नवा इत्यपि निवृ- असरूपोऽपवादे वोत्सर्गः प्राक् क्तः त्तम् / 'रूणम्णम्प्रत्ययो 'अम्' इति उच्यते / // 5 // 1 // 16 // २'कारंकारम्', अत्र अभीक्ष्णं करणं. पूर्वम्- कारं कारम् , 'ख्णम्चाभीक्ष्ण्ये' ( 5 / 4 / 48 ) इत्यनेन म. वृ०-इतः सूत्रादारभ्य 'स्त्रियां क्तिः' (5/ रुणम्। अतिथीन् विदित्वा विदित्वा इति वाक्ये 3 / 91) इत्यतः प्राक् योऽपवादः 'तद्विषयेऽपत्रा'विदृग्भ्यः कास्न्ये णम्' (5 / 4 / 54) इत्यनेन णम् देनासमानरूप. उत्सर्गः= औत्सर्गिकप्रत्ययो वा' // 13 // स्यात् / अवश्यलाव्यम् , अवश्यलवितव्यम् , अव श्यलवनीयम् / असरूप इति किम् ? यणि यो न भीमादयोऽपादाने' // 5 / 1 / 14 / / उस्यात् ,- कार्यम् / डविषयेऽण् न स्यात् ,- गोदः / म० वृ०-भीमादिशब्दा 'अपादाने' भवन्ति / प्राक्क्तेरिति किम् ? कृतिः,४ घनादिर्न भवति / ५चिकीर्षा, न क्तिः / अपवादत्यादिविषये त्वसभीमः, भीष्मः, भयानक: / एते औणादिकशब्दा रूपोप्युत्सर्गत्यादिर्न प्रवर्त्तते इति श्रसद'० (5 / 21) इति उत्तरसूत्रेण निषेधे सति निपात्यन्ते // 14 // इति सूत्रे वाग्रहणेन ज्ञापयिष्यते // 16 // . प्रव०-- ('अपादाने' इत्यत्र) 'भुजिपत्यादिभ्यः अव०-अपवादविषये उत्सर्गप्रत्ययो वा कर्मापादाने' (5 / 3 / 128) इति अनट , रबिभ्यत्यस्मा- भवतीति सम्बन्धः, / अपवादेन सह असमानरूपः; दिति भीमः; भीष्मः,भियः षोन्तश्च (वा) (उणा०३४४) सदृशो न भवतीत्यर्थः / यो विशेषानभिधानेन इत्युणादिसूत्रेण मप्रत्ययः, विकल्पेन षोऽन्तश्च / / प्रवाहतो विधीयते (स) उत्सर्गप्रत्ययः, यश्च विशेषअभियानकः', अत्रापि भीधातुवाक्यं प्राग्वत् , 'शीभी- | स्वरूपेण नियतविषयेण वा विधीयते सोऽपवाद Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यणप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्यवचूरिसंवलितम् / [161 प्रत्ययः / * ध्यण उत्सर्गप्रत्ययः / यक्यपादिकोऽ- | कर्त्तव्यमर्थप्रकरणादिना निश्चितं तत्रायं प्रत्ययः / पवादः प्रत्ययः / अवश्यलाव्यमित्यत्र 'उपर्णादा- लाव्यमवश्यम् / एवमवश्यलाव्यम् ,2 अवश्यपाश्यम्। वश्यके' (5 / 1 / 19) इत्यनेन ध्यण उत्सर्गः योऽ- तथा 'अवश्यस्तुत्य' इति परत्वात्क्यप् // 19 // पवादः इति घ्यण वा भवति, पक्षे तव्यानीयौ / २एवं ज्ञः, ज्ञाता, ज्ञायकः; नन्दनः, नन्दकः, नन्दयिता / प्रव०-अवश्यस्य भाव आवश्यकम् , अथवा उअनुबन्धोऽप्रयोगीति सारूप्यं घ्यण्यप्रत्यययोः, अवश्य भाव आवश्यकम् , अकञ् / 'अवश्यमादिडाणोरपि, तृचतनोः, एवमन्येषामपि सरूपता शब्दं विनाऽपि। यथा 'व्यतिलुनते' इत्यादौ ज्ञातव्या। * (एवम् ) रक्षणम् , रक्षितम् / “चिकीर्षा' आत्मनेपदेनापि क्रियाव्यतिहारे द्योतिते व्यतिइत्यस्याग्रे ईषत्पानः, सुपानः; अत्र न खल। अत्र शब्दप्रयोगो भवति, तथा अवश्यलाव्यभित्यत्रासत्रे कृत इति विशेषानभिधानात त्यादिरपि प्यवश्यंशब्देनापि अवश्यंभावो द्योत्यते / अवश्यप्राप्नोति इत्याह- अपवादेति // 16 // शब्दप्रयोगस्तु विशेषेण प्रकटनाथं क्रियते / मयूर व्यंसफादित्वादत्र समासः / ३'दृवृगस्तुजुषेतिशासः' ऋवर्ण-व्यञ्जनाद् ध्यण // 5 / 1 / 17 // (5 / 1 / 40) इत्यनेन // 19 // म० वृक्ष-ऋवर्णान्तात् व्यञ्जनान्ताच्च धातोः आसु-यु-वपि-रपि-लपि-त्रपि-डिपि-दभि'घ्यण् प्रत्ययः' स्यात् / कार्यम् , वाक्यम् // 17 // चम्या-ऽऽनमः / / 5 / 1 // 20 // अव०-णकारो वृद्धयर्थः / 'घकारो 'क्तेऽनिटश्चजोः कगौ विति' (4 / 1 / 111) इत्यत्र विशेष म० वृ०-आङ पूर्वसुगनमिभ्यां यु इत्यादेश्व णार्थः।ध्यणक्यप्यतव्यानीया एते पञ्च कृत्यप्रत्ययाः 'ध्यण' स्यात् / आसाव्यम् , याव्यम् , वाप्यम् , कर्मभावे विधीयन्ते (इति) 'तत्साप्यानाप्यात् कर्मभावे राप्यम् , लाप्यम् , अभिलाप्यम् , अपत्राप्यम् , डेप्यम् , दाभ्यम् , 'आचाम्यम्, आनाम्यम् / कृत्यक्त' 0 (3 / 3 / 21) इति सूत्रे उक्तमस्ति // 17 // नमिरन्तर्भतण्यर्थः सकर्मकः / अकर्मका अपि पाणि-समत्राभ्यां सृजः // 5 / 1 / 16 // हि धातवो ण्यर्थे वर्तमानाः सकर्मकाः भवन्ति इति ___ म० वृ०-पाणिपूर्वात समवपूर्वाञ्च सृजेः / योगः, यथा नेनि नमन्ति // 20 // 'ध्यण ' स्यात् / ऋदुपान्त्यक्यपोऽपवादः / पाणिसर्या रज्जुः, समवसर्यः। 'समव' इति समुदाय अव०-डिपः कुटादित्वात् ये सति गुणो न परिग्रहार्थ द्विवचनम् // 18 // लभ्यते इति ध्यण विधीयते / डेप्यम् / 'डिपत् क्षेपे' (इति) तुदादिः / दभिः सौत्रो वश्चने // 20 // प्रव०-पाणिभ्यां सृज्यते (इति) पाणिसा , वाऽऽधारेऽमावस्या // 5 / 1 / 21 // सम् , अव इत्येवं न ग्राह्यः, किन्तु समव इति ग्राह्यः // 18 // ___म० वृ०-अमापूर्वाद्वसतेराधारे ‘ध्यण' पक्षे उवर्णादावश्यके // 5 // 1 // 19 // धातोह स्वश्व'निपात्यते।अमावस्या, अमावास्या।२१। म० वृ०-आवश्यके द्योत्ये उवर्णान्तधातोः / अव०-अमाशब्दः सहार्थः / अमाऽग्रे 'वसं' 'ध्यण' स्यात् / लाव्यम् , पाव्यम् / यिन्नियोगात् / निवासे' / अमा, कोऽर्थः ? सह (वसतः) सूर्या . 'ध्यण' इत्यत प्रारभ्य 'वा भवति' इति यावत्पाठोऽशुद्धः प्रतीयते / नन्वत्र अवश्यलाव्यम् इत्यादी घ्यण प्रत्ययेनवावश्यकार्थद्योतनसंभवे उक्तार्थत्वादावश्यकशब्दप्रयोगोऽनुचित इत्याशङ्कायामाह-'यथा इत्यादि' / Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०५ पा० 1 सू० 22-26 चन्द्रमसावस्यां तिथौ सा अमावस्या अमावास्या वा, / पाय्यं मानम् , सान्नाय्यं हविः, निकाय्यो लोकरूढया तिथिविशेषः / तथा यतो * (पक्षे / निवासः // 24 // यमकृत्वा) ह्रस्वत्वनिपातनं तत 'अश्व वाऽमावास्यायाः' (6 / 3 / 104) इति तद्धिततृतीयपादसूत्रे ‘एकदेशवि प्रव०-धीयते समिदग्नावनयेति धाय्या, कृतमनन्यवत्' इति न्यायादमावास्याशब्देनाऽमाव निपातनादाय आदेशः / अन्यत्र धेया / तथा स्या इति शब्दस्यापि ग्रहणार्थ कृतम् / तेन अमाव २माङ धातुः, मीयते येन तत् मानम् , निपातनात स्यायां जातोऽमावस्यः, अमावस्यकः; अत्र 'अश्व वाs मास्थाने 'पा' आय् (च) / मेयमन्यत् / सम् , मावास्यायाः' (6 / 3 / 104) इति सूत्रेण 'अमावस्या' सन्नीयते येन तत् सानाय्यम् , समो दीर्घत्वम् / इति शब्दादपि भकारोऽकश्च प्रत्ययौ सिद्धौ // 21 // सन्नेयमन्यत् / नि, 'चिंग्ट् चयने', चिस्थाने कः / सञ्चाय्य-कुण्डपाय्य-राजसूयं क्रतौ // 5 / 1 / 22 / / निचेयमन्यत् // 24 // म० वृ०-एते क्रतौ वाच्ये ‘ध्यणन्ता' निपा परिचाय्योपचाय्या-ऽऽनाय्य-समूह्यत्यन्ते / 'सश्वाय्यः, कुण्डपाय्यः, राजसूयः चित्यमग्नौ // 5 / 1 / 25 // क्रतुः // 22 // म० वृ०-'एतेऽग्नौ' निपात्यन्ते / परिअव०-'सम्पूर्वचिंन्ट् चयने', सञ्चीयते चाय्यः अग्निः, २उपचाय्यः अग्निः, आनाय्यः सोमोऽस्मिन् क्रतौ इत्याधारे वाक्यम् , सञ्चीयतेऽ अग्निः, 'समूह्यः अग्निः, 'चित्यः अग्निः / / 25 / / साविति वा कर्मणि वाक्यम् , ध्यण , निपातनादेव आय इत्यादेशो दीर्घत्वं (च), एवमग्रेऽपि / सन्चे प्रव०-'परि, चिंग्ट् , परिचीयते (इति) परियोऽन्यः / २कुण्डैः पीयते सोमोऽस्मिन् , अथवा चाय्यः, उप, चि, उपचीयते (इति) उपचाय्यः, कुण्डैः पीयते इति कुण्डपाय्यः / कुण्डपानोऽन्यः / ध्यण , आय भादेशः; परिचेयमुपचेयमन्यत् / 'राजा सूयते यजमानतया क्रियतेऽस्मिन् , अथवा उआर, नी, ध्यण , आय् , योऽग्निर्ह त्यादाराज्ञा सोतव्यः, राजसूयः क्रतुः / अत्र सर्वत्र ध्यण , नीयते स आनाय्यो लोकरूढया आहवनीय इति यथासम्भवम् आय आदेशो दीर्घश्च / “ससोमको उच्यते / आहवनीयाग्निदक्षिणाग्निश्च निर्वाणो हि यागः क्रतुरुच्यते // 22 // गाईपत्यादेवानीयेते, अतो द्वावप्येकयोनी, गाईप त्याग्निस्तु अरणिनिर्मथनादेव उत्पद्यते इति स प्रणाय्यो निष्कामा-ऽसम्मते // 5 / 1 / 23 // गाईपत्य आनाय्य इति नोच्यते। आनेयोऽन्यः / म० वृ०-'प्रपूर्वान्नयतेय॑णायौ' निपात्येते, ४तथा सम् , वह , ध्यण , वकारस्य ऊत्वम् , समूनिष्कामेऽसम्मते चार्थे / प्रणाय्योऽन्तेवासी [= ह्यते इति समूह्यः / 'चिनोतेः क्यप् , चित्यः / शिष्यः], विषयेष्वनभिलाष इत्यर्थः / प्रणाय्य चेयोऽन्यः // 25 // श्वोरः / अन्यत्र प्रणेयः // 23 // याज्या दानर्चि // 5 // 1 // 26 // धाय्या-पाय्य-सानाय्य-निकाय्यमृङ-मान-हवि म० वृ०-यजेः करणे 'ध्यण' निपात्यते, दाननिवासे // 5 // 1 // 24 // य॑र्थे / याज्या // 26 // म० वृ०-धाय्यादिशब्दा यथासङ्ख्यम् ऋगादिध्वर्थेषु ‘ध्यणन्ता' निपात्यन्ते / 'धाय्या ऋग्, | अव०-दानकाले ऋग-दानर्ग , तस्याम् , इज्यते अस्मिन् वाक्ये 'यतः ततः' शब्दयोः प्रयोगोऽसंगतः / Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "तव्या-ऽनीय-यप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / ऽनया इति याज्या, 'त्यज्यप्रवचः' (4 / 1 / 118) / यम्यम् , मद्यम् , गद्यम् / पवर्गान्तत्वासिद्धे यमो इति गत्वाभावः // 26 // नियमार्थः पाठः, अनुपसर्गादेव यथा स्यात् / बहुतव्या-ऽनीयौ // 5 // 1 // 27 // लवचनात्करणेऽपि,-'मद्यम् ; नियम्यमिति सोप सर्गादपि // 30 // म० वृ०-धातोः परौ 'तव्यः, अनीयः' इति प्रत्ययौ स्याताम् / कर्त्तव्यम् , करणीयं त्वया; कर्त्त- प्रव०-अनुपसर्गादिति किम् ? आयाम्यम्, व्यः, करणीयः कटः // 27 // प्रमाद्यम् , निगाद्यम् / कृत्याः कर्मभावे प्रसिद्धाः / .. य एच्चातः / / 5 / 1 / 28 // 'मायन्त्यनेन प्राणिन इति मद्यम् , बहुलाधिकारात् यप्रत्ययः // 30 // म. वृ०-स्वरान्ताद्धातोः 'यः प्रत्ययः' स्यात् , धातोरन्त्याकारस्य च एत् / २दित्स्यम् , जेयम् , चरेराङस्त्वगुरौ // 5 // 1 // 31 // नेयम् , भव्यम् , लव्यम् ; एश्चातः-- देयम् , धेयम् म० वृ०-अनुपसर्गाचरेः आङ पूर्वाञ्चागुरावणे // 28 // 'यः' स्यात् / चयं त्वया, चर्यो देशः ; आचर्य त्वया, अव०-'ऋवर्णव्यञ्जनान्ताद्धातोय॑ण विहि आचर्यो देशः / अगुराविति किम् ? आचार्यो गुरुः तोऽस्ति इति हेतोः पारिशेष्यात् स्वरान्ताद्धातो // 31 // रित्युक्तम् / दातुमिच्छति (इति) सन् , 'मिमीमा अवल-आइस्त्विति किम् ? अभिचार्यम् / / 31 // दामित्स्वरस्य' (4 / 1 / 20) इति इत् , दित्स्यते इति 'दित्स्यम् // 28 // वर्योपसर्या-ऽवद्य-पण्यमुपेयतु मति-गर्थशकि-तकि-चति-यति-शसि-सहि-यजि विक्र ये // 5 // 1 // 32 // भजि-पवर्गात् / / 5 / 1 / 29 // म. वृ०-वर्यादिशब्दा उपेयाद्यर्थेषु यथासङ्ख्य . म. वृ०-शक्यादिभ्यः पवर्गान्तधातुभ्यश्च 'यान्ता' निपात्यन्ते' / श्वर्या कन्या, रउपसर्या गौः, 'यः' स्यात् , घ्यणोऽपवादः / शक्यम् , तक्यम् , अवद्यं पापम् , "पण्या गौः // 32 / / चत्यम्, यत्यम् , शस्यम् , सह्यम् , यज्यम् , भज्यम् , पवर्गान्त, तप्यम् , लभ्यम् , गम्यम् / यजे: 'त्यज् अव०-उपेयेऽर्थे वर्या इति निपातः, 'वृहशु यज प्रवचः' (4 / 1 / 118) इति निषेधात्' भजेश्व संभक्तो' वृ, वियते इति वर्या, शतेन वर्या, सह२बाहलकाद ध्यणपि,-याज्यम . भाग्यम / कथमसि स्रण वर्या, कोऽर्थः ? संभक्तव्या, संभक्तव्येत्यस्य वध्यः, मुशलवध्य इति ? 'न जनवधः' (4254) कोऽर्थः ? मैत्रीमापादनीया, मैत्री प्रापयितव्येत्यर्थः / इति वृद्धिनिषेधे ध्यणा भाव्यम् // 29 // वृत्यान्या, अत्र वृणोतेः क्यप् / तथा सूत्रे वर्या इति स्त्रीलिङ्गनिर्देशादिह न,- वार्यः ऋत्विक् , कश्चित् प्रव०-'अन्यथा वित्प्रत्ययाऽभावात् गत्व- 'सुग्रीयो नाम वर्योऽसौ भवता चारुविक्रमः' (भट्टिस्य प्राप्तिरेव नास्ति। २'बाहुलकात्', कोऽर्थः ? 'बहु- काव्यप्रयोगः) इति प्रयोगदर्शनात् पुल्लिङ्गेऽपीच्छति। लम्' इति सूत्रोक्तबहुलाधिकारबलाच घ्यणप्रत्ययो- सामान्यनिर्देशात् सूत्रे वर्या वर्य इति तदपि संगृऽपि भवतीत्यर्थः। असिना वध्यते (इति) घ्यण।२९। हीतम् / शतेन वर्यः, सहस्रण वर्यः; कोऽर्थः ? मैत्रीयमि-मदि-गदोऽनुपसर्गात् // 5 // 1 // 30 // मापादनीय इत्यर्थः / २उपपूर्वात् सर्तेः ऋतुमत्य थै यो निपात्यते, उपसर्या गौः, गर्भग्रहणे प्राप्तकाला म० वृ०-उपसर्गरहितेभ्य एभ्यो 'यः' स्यात्। / इत्यर्थः, अन्यत्र उपसार्या मथुरा शरदि / अवद्य Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०: 5.0 1 सू० 33-39 मिति नब्पूर्वाद् वदेर्यः गद्देऽर्थे, अवयं पापम् , / घ्यण , अनभिधानात् , तथा च बहुलाधिकारः अवद्या हिंसा, गा इत्यर्थः / अनुद्यमन्यत् / यस्तु // 36 // भनूामिति पठति तत्र अनुवदनम् अनूत् , अनूदि साधुः (इति) 'तत्र साधौ' (7 / 1 / 15). यः / “पणेर्यो प्रव०-स्त्रियां हन , क्यप् , तोऽन्तश्च / एवं विक्रयेऽर्थे- पण्यम् , पण्यः कम्बलः, पण्या गौः, स्त्रीहत्या,भ्रूणहत्या, गौहत्या। तथा नपुंसके भवते. विक्रया इत्यर्थः / अन्यत्र पाण्यः साधुः // 32 // र्भावे क्यप् , (एवम् ) ब्रह्मभूयं (गतः), देवत्वं ब्रह्मत्वं . स्वामि-वैश्येयः // 5 // 1 // 33 // गत इत्यर्थः / एतदर्थमेव च बहुलाधिकारोऽ नुवर्तित इत्यर्थः // 36 // म० वृ०-अर्तेः स्वामिनि वैश्ये चार्थे 'यः' स्यात् / अर्यः स्वामी, अर्यो वैश्यः / / 33 / / अग्निचित्या // 5 // 1 // 37 // वह्यं करणे // 5 // 1 // 34 // म० वृ०-अग्नेः पराचिनोतेः स्त्रीभावे 'क्यप्' म० वृ०-बहे: करणे "यः' स्यात् / स्वयं / निपात्यते / अग्निचित्या / भग्नेश्चयनमिति वाक्यम् // 37 // शकटम् , वाह्यमन्यत् // 34 // खेयमृषोये // 5 // 1 // 38 // अव०-'यो निपात्यते / वहन्ति तेन इति वह्यम् // 34 // म० वृ०-अनुपसर्गान्नाम्न इति वचनं निवृनाम्नो वदः क्या च // 5 // 1 // 35 // त्तम् / खेयमृषोद्यौ 'क्यबन्तौ' निपात्येते / खेयम् , उत्खेयम् / मृषा उद्यते-मृषोद्यम् // 38 // म० वृ०-अनुपसर्गानाम्नः पराद्वदेः 'क्यप् यश्च प्रत्ययौ' भवतः / ब्रह्मणा उद्यते (इति) ब्रह्मो- प्रव०-'निपातनस्येविषयत्वात् / खन्यते घम् , ब्रह्मवद्यम् / नाम्न इति किम् ? वायम् / अनु (इति) खेयम् , उत्खन्यते (इति उत्खेयम् ) / खनेर्व्यपसर्गादित्येव- अनुवाद्यम् // 35 / / णोऽपवादः क्यप् , अन्त्यस्परादेरेकारश्च निपात्यते / प्रव०-'नाम्नो वदेति सूत्रे क्यप्फकारः तथा मृषापूर्वाद्वदतेः (पक्षे) ये प्राप्ते नित्यं क्यप् एव' विधीयते, न तु 'नान्नो वद'० इत्यनेन क्यपकित्कार्यार्थः, पकार उत्तरसूत्रे 'हत्याभूयं भावे' यप्रत्ययो / मृषोद्यम् , मृषावद्यम् / * तो न भावेति (5 / 1 / 36) इत्यत्र नकारस्थाने तोऽन्तो भवति इति कार्यार्थः // 35 // योऽवतीत्यर्थः // 38 // हत्या-भूयं भावे // 5 // 1 // 36 // कुप्य-भिद्योद्ध्य-सिध्य-तिष्य-पुष्य-युग्याम० वृ०-अनुपसर्गानाम्नः परौ 'हत्या, भूय' ऽऽज्य-सूर्य नाम्नि // 5 // 1 // 39 // इति शब्दी 'भावे क्यबन्तौ निपात्येते, तोऽन्ता- | म० वृ०-एते संज्ञायां 'क्यबन्ताः' निपात्यदेशश्च' / ब्रह्मणो वधः ब्रह्महत्या,' तथा 'देवभूयं / न्ते। 'कुप्यं धनम् , भिद्य उध्यो नद: सिध्यः, गतः। भाव इति किम् ? श्वघात्या वृषली / नाम्न | तिष्यः, पुष्यः,५ "युग्यं वाहनम् , आज्यं घृतम्, इत्येव,- हतिः, घातः , भव्यम् , हन्तेर्भावे न | सूर्यो रविः // 39 // ॐ वृत्तिस्थस्य 'देवभूयं गतः' इत्यस्य 'देवत्वं गतः' इति, अवचूरिस्थस्य 'ब्रह्मभूयं गतः' इत्यस्य / 'बह्मत्वं गतः' इत्यर्थः। * 'तो' इत्यादिपाठोऽशुद्धः / Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यप्प्रत्यवविधानम् | मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / प्रव०-'गुपधातोः गोपाय्यते तत् इति / पुत्रं लभस्वात्मगुणानुरूपं, भवन्तमीडय भवतः कुप्यम् , धनेऽर्थे निपातनात् गस्य ककारः। गोप्यम- | पितेव' (अस्य श्लोकस्य) प्रथमं पदम्- 'आशास्यमन्यत् न्यत् / २भिदेः तथा उज्झधातोर्नदे-द्रहे वाच्ये * पुनरुक्तभूतम्। “अनिवार्य' इत्यत्र वृकश सम्भक्यप् , झकारस्य धः, भिनत्ति कूलानीति भिद्यो तावित्यस्य प्रयोगः, परं वृधातुरत्रोपसर्गबलात् नदः, उज्झत्यदकमिति उध्यः नदः / सिधिविषि- निषेधे वर्त्तते, न सम्भक्तौ // 40 // पुषिधातुभ्यो नक्षत्रे वाच्ये क्यप् , विषेर्वकारो ऋदुपान्त्यादकृपि-चुदृचः / / 5 / 1241 // लुप्यते, उसिध्यन्ति अस्मिन् कार्याणि (इति) सिध्यः, त्वेषन्त्यस्मिन् कार्याणि (इति) तिष्यः, "पुष्यन्त्य ___म० वृo-ऋकारोपान्त्याद्धातो. कृपि-चूति ऋ. स्मिन् कार्याणि इति पुष्यो नक्षत्रम् , अन्यत्र चिवर्जितात 'क्यप' स्यात / वृत्यम , वृध्यम / अकृसेधनः, त्वेषणः, पोषणः / “युग्यम्', अत्र युज् , पीत्यादि किम् ? कल्प्यम् , चय॑म् , अय॑म् / / 4 / / युजन्ति तत् इति युग्यं वाहनं गजाश्वादि, क्यप् , कृ-वृषि-मृजि-शंसि-गुहि-दुहि-जपो वा गत्वं वाहनेऽर्थे / योग्यमन्यत् / आर (-पूर्वाद्) अङ्ग्धातोः घृतेऽर्थे (क्यप् ), आञ्जन्त्यनेनेति आज्यं // 5 // 1 // 42 // घृतम् / आञ्जनमन्यत् / स गतौ (इति) सू, सरति _____ म०७०-एभ्यो ‘वा क्यप्' स्यात् / कृत्यम् , कर्मसु लोकानिति सूर्यः, क्यप् , ऋकारस्य ऊर् , कार्यम् ; वृष्यम् , वर्ण्यम् ; मृज्यम् , मार्यम् ; देवतार्थे सूर्य इति निपातः; अथवा सुवतेः सुवति शस्यम् , शंस्यम् ; गुह्यम् , गोह्यम् ; दुह्यम् , दोयम् ; कर्मसु लोकानिति सूर्यो रविः, क्यप् रोऽन्तश्च / जप्यम् , जाप्यम् // 42 // बहुलाधिकारात् निपातनसामाद्वाऽनुक्तोऽपि कारकविशेषो निपातनेषु गम्यते // 39 // अव०-'जप्यम्', अत्र क्यप् , 'जाप्यम्', अत्र क्यबभावपक्षे ध्यण एव विधीयते विकल्पबलात् / - दृ-वग्-स्तु-जुषेति-शासः // 5 // 1 // 40 // 'शकि-तकि'० (5 / 1 / 29) इत्यनेन पवर्गान्तमाश्रित्य ___म० वृ०-एभ्यः 'क्यप्' स्यात् / आइत्यः, | यप्रत्ययो न क्रियते, विशेषाभावात् / क्यपि जप्यम् प्रावृत्यः, स्तुत्यः, अवश्यस्तुत्यः, जुष्यः, 'इत्यः, | ये च जप्यम् इति विशेषो न ज्ञायते // 42 // अधीत्यः, रशिष्यः / आशास्तेस्तु- 'आशास्यमन्यत् "जि-विन्यो हलि-मुञ्ज-कन्के // 5 / 1143 // पुनरुक्तभूतम्' (रघुवंशकाव्यप्रयोगः) / कथम् ? ४'अनिवार्यो गजैरन्यैः स्वभाव इव देहिनाम् ', म. वृ०--जयतेत्रिपूर्वपूनीभ्यां च यथासङ्ख्य सम्भक्तेरन्यत्रापि वृङ // 40 // हलिमुञ्जकल्केषु कर्मसु वाच्येषु 'क्यप्' स्यात् / रजित्या जित्यो वा हलिः, विपूयो मुञ्जः, विनीयः प्रव०-१'ग्' इति सूत्रे एतीनि इणिको कल्कः // 43 // प्रहणम ,- इत्यः, अधीत्यः / इं दं , इत्ययतेः इश्च न भवति,- उपेयम् , अध्येयम् / इकोऽप्यध्ये- __ अव०-'पूश्च नीश्व-पून्यौ, विपूर्वी पून्यौ= यम् (इति) केचित् / 'इङ च गतौ' इत्यस्याः अप्यु- विपून्यौ, जिश्व विपून्यौ च-जिविनि, तस्मात् / पेयमिति भवति / २'शासूक (अनुशिष्टौ' इति) | २जीयते निपुणेन (इति) जित्या जित्यो वा हलिः , शास् , शिष्यः / उ आशास्तेस्तु', आङः शासूकि / महद्धलं हलिरुच्यते। पूर, पूग वा, विपवितव्य (इच्छायाम् ) इत्यस्य-'श्रेयांसि सर्वाण्यधिजग्मुषस्ते; / इति विपूयः, मुञ्जस्तृणविशेषः / तैलादिना का * प्राशास्यमन्यत् पुनरुक्तभूतं, श्रेयांसि सर्वाण्यधिजग्मूषस्ते। पुत्रं लभस्वात्मगुणानुरूपं, भवन्तमीडय भवतः पितेव / / इति रघुवंशे संपूर्ण श्लोकः / Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 ] . श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [भ०५ पा० 1 सृ०४४-५० आत्मनो मध्ये विनेतव्यः, कोऽर्थः ? प्रापयितव्य / / ते कृत्याः // 5 // 1 // 47 // इति विनीयः, कल्कस्त्रिफलादिचूर्णम् // 43 // म० वृ०-ते="ध्यण तव्य अनीय य क्यप्" पदाऽ-स्वैरि-बाह्या पक्ष्ये ग्रहः // 5 // 1 // 44 // इति पञ्चप्रत्ययाः कृत्यसंज्ञाः स्युः / कृत्यप्रदेशाः म० वृ०-पदाद्यर्थेषु ग्रहः 'क्यप्' स्यात् / घ्य- 'तत्साप्यानाप्य०' (3 / 3 / 21) इत्यादयः / / 47|| णोऽपवादः। 'प्रगृह्यं पदम् , . यत्स्वरेण न सन्धीयते, यथा- 'अग्नी इति' / 'अवगृह्यं पदम् / 'अस्वै ___ अव०-कृत्यप्रत्ययाः पश्चापि प्रायः कर्मभावे एव भ.............. (वन्ति, "तत्साप्यानाप्यात् कर्मरिणि,-गृह्याः कामिनः रागादिपरवशा इत्यर्थः / भावे कृत्यक्त-)खलाश्च" इति वचनात् ; बहुमिबाह्यायाम् ,-- नगरगृह्या सेना, बाह्येत्यर्थः / पक्ष्ये, ति वचनात् अन्यत्रापि कारके भवतीत्यर्थः / / 47 // त्वद्गृह्यः, 'गुणगृह्या वचने विपश्चितः'; तत्पक्षाश्रिता इत्यर्थः / एष्विति किम् ? ग्राह्यं वचः // 14 // णक-तृचौ // 5 / 1 / 48 // अव०--विभक्त्यन्तं पदम्। अस्वैरी परवशः। ___म० वृ०-धातोः परौ ‘णकतृचौ प्रत्ययौ' स्या: . ताम् / कृत्त्वात्कर्तरि भवतः / णकारो वृद्धयर्थः / बाह्या बहिर्भवा / “पक्ष्यो वर्यः सम्बन्धिजनः / "प्रगृह्यते विशेषेण ज्ञायते तत् प्रगृह्यं पदम्। 'तथा पाठकः, पठिता // 48 // अवगृह्यते नानावयवसात् क्रियते तत् अत्रगृह्यं अच् / / 5 / 1149 // पदम् , यथा पचतीति पदे पच् , शव , तिव इत्यव- म० वृ०-'धातोरच्' स्यात् , कर्तरि / करः, यवाः / तथा अस्वैरिणि,- गृह्यन्ते=ज्ञायन्ते परतन्त्र पठः॥४९॥ तया परवशतया वा इति गृह्याः कामिनः / तथा बाह्या (इति) स्त्रीलिङ्गनिर्देशो लिङ्गान्तरेऽनभि लिहादिभ्यः / / 5 / 1 // 50 // धानख्यापनार्थः / अथ पक्ष,-- तव सम्बन्धी गृह्य म० वृ०-'लिहादिधातुभ्योऽच्' स्यात्। 'पृथइति वाक्यम् , त्वद्गृह्यः // 44|| ग्योगो बाधकबाधनार्थः / लेहः, शेषः, उमेघः, सेवः, भृगोऽसंज्ञायाम् // 5 // 1 // 45 // देवः, देहः, दर्शः, एषु नाम्युपान्त्यलक्षणं कं दृशेस्तु म० वृ०--भृगोऽसंज्ञायां 'क्यप्' स्यात् / वा शं बाधते / “पारापतः, कद्वदः, कन्यावरः, रघूभृत्यः / असंज्ञायामिति किम् ? भार्यो नाम क्षत्रियः द्वहः; एष्वणं बाधते / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् // 50 // // 45 // ' अव०--भ्रियते इति भृत्यः, पोष्य इत्यर्थः / 45 / अव०-'पूर्वेण सिद्धेऽस्यारम्भादित्यर्थः / उत्स र्गतः सर्वत्राच् , तस्य बाधको नाम्युपान्त्योक्तः कप्रसमो वा // 5 // 1 // 46 // त्ययः शप्रत्ययो वा; तस्यापि 'लिहादिभ्य' इदं सूत्रं म० वृ०-सम्पूर्वाद् भृगो ‘वा क्यप्' स्यात् / बाधनं ज्ञेयम् / उमिहं सेचने, मेहतीति मेघः, लिसम्भृत्यः, सम्भायः // 46 // हादिभ्योऽच् , 'न्य कूदमेघादयः' (4 / 1 / 12) इति परेणासंधीयमानस्य पदस्य प्रगृह्यमिति संज्ञा विहिता / * किराते भारविकविप्रयोगोऽयम् / सम्पूर्णश्लोक एवम् इष्टमिष्टगुणाय रोचतां, रुचिरार्था भवतेऽपि भारती। ननु वक्तृविशेषनिःस्पृहा, गुणग्राह्या वचने विपश्चितः / / * स्त्रियामेवास्य प्रयोगो भवति नल्लिज़ादावित्यर्थः। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भन-णिन्प्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [167 निपातनात् हस्य घः। “पारमापततीति / 'कुत्सितं | दमनः, रोचनः, विरोचनः, विकर्तनः, तपनः, प्रतबदतीति 'रथवदे' (3 / 2 / 131) इति कदादेशः / बहु- र्दनः, दहनः, यवनः, पवनः, लवणः; निपातनावचनमाकृतिगणार्थम् , तेन नदी, मही, भषी, प्ल- पणत्वम् / * भर्ता, ऋषिः, चन्द्रः, अर्कः, बलि: वी, गरी, चरी, तरी, दरी, सूदी, देवी, सेवी, चोरी, पिता वा, आदित्यः, ऋषिः, अग्निः, राजा, वायुः, गोहो; एते शब्दाः अजन्ता गौरादौ द्रष्टव्याः / / 5 / / | रामसुतः क्षारो वा। समः क्रन्दि-कृषि-हषिभ्यः ब्रुवः // 5 // 1 // 51 // संज्ञायामेवानप्रत्ययः / “इन्द्रः। बलभद्रः। "ऋषिः / "सर्वदमनः', आदिशब्दात् जनार्दनः वित्तविनाम० वृ०-अधातोरचि 'ब्रुव' इति निपात्यते शनः; मधुसूदनः; के राजा, हरिः, राजा मदनश्च / ब्राह्मणबुवः / 51|| असंज्ञायामपि,--रिपुदमनः, कुलदमनः, परार्दनः, नन्द्यादिभ्योऽनः // 5 // 1 // 52 // रोगनाशनः, अरिसूदनः इति / 'नर्दि-भीषि-भूषिम० वृ०-नन्द्यादिधातुभ्यो नामगणदृष्टेभ्यः दृपि-जल्पिभ्योऽन:- नर्दयतीति नर्दनः, विभीष'अनः' प्रत्ययः स्यात् / 'नन्द्यादिभ्यो ण्यन्तेभ्यः यतीति विभीषणः, भूषयतीति भूषणः, दृप्यतीति संज्ञायाम् नन्दन इत्यादि / सह्यादिभ्यः संज्ञायामे- दर्पणः, जल्पतीति जल्पनः // 52 // वाण्यन्तेभ्यः सहनः, रमणः इत्यादि / 'समः ग्रहादिभ्यो णिन् // 5 / 1 / 53 / / क्रन्द्यादिभ्यः संज्ञायाम् 'संक्रन्दनः, सङ्कर्षणः, "संहर्षणः / कर्मणो दमि-अदि-नाशि-सूदिभ्यः स म० व०-ग्रहादिभ्यो 'णिन् प्रत्ययः' स्यात् / र्वदमनः इत्यादि / 'नादिभ्यः नर्दन इत्यादि / ग्रहादिराकृतिगणः / ग्राही, स्थायी, मन्त्री / उपावाबहुवचनमाकृति(गणार्थम् ) // 52 // भ्यां रुधः,- उपरोधी, अवरोधी।अपाद् राधः,- 'अप राधी।नपूर्वात् स्वरान्तादचित्तवत्कर्तृ कात्, भकारी प्रव०-'नन्दि-वाशि-मदि दूषि--साधि--वर्धि- धर्मस्य बालातपः, एवमहारी शीतस्य शिशिरः / शोभिरोचिभ्यो ण्यन्तेभ्यः संज्ञायामनप्रत्ययः, यथा चित्तवत्कर्तुकान्न णिन् ,-- अकर्ता कटस्य चैत्रः / नन्दनः पुत्रो देवोद्यानं वा, वाशनो नाम ऋषिः, | केचिदनम्पूर्वादपीच्छन्ति णिनम् , कारी, हारी मदनः कामः, दूषणो नाम राक्षसः, साधनो नाम // 53 / / राजा, वर्द्धनो नाम ऋषिः, शोभन ऋषिः, रोचन इति चन्द्रस्य संज्ञा / नन्द्यादयो नन्दनरमणेत्यादि- प्रव०-१'अपराधी' इत्यस्याने उदः साहिदनामगणशब्देभ्योऽपोद्धृत्य वेदितव्याः / ते च सिभासिभ्यो णिन . उत्सहते इत्यत्साही, उदासी. . नन्द्यादयः सप्रत्ययपाठाः विशिष्टविषयार्था निय- उद्भासी / तथा नेः श्रु-शी-विश-बस-वप-रक्षिभ्यो तरूपग्रहणार्था एव ग्राह्याः, तेन ये ये निरुपसर्गाः णिन् ,-निश्रणोतीति नित्राची, निशायी, निवेशी, यदुपपदाः यदुपसर्गाः पठयन्ते तेभ्यस्तथैव अन- निवासी, निवापी, निरक्षी / तथा नमो व्याहप्रत्ययो भवतीत्यर्थः / रसहि-रमि-दमि-रुचि कृति- | संव्याह-संव्यवह याचि ब्रज-बद-वसिभ्यो णिन् ,तपि-तृदि-दहि-यु-पू-लूभ्यः संज्ञायामेवाण्यन्तेभ्यः। | न व्याहरतीति अव्याहारी, एवमसंव्याहारी, असं"रमणः', आदिशब्दात् तथाहि उदाहरणानि,- | व्यवहारी, न याचते (इति) अयाची, अब्राजी, न * प्रवचूरी प्रदर्शितानां 'रमणः दमनः' इत्यादिदृष्टान्तानामुक्रमेणार्थ प्रदर्शयति / रमणो भर्ता दमन ऋषिरित्येवं योजनीयम् / * राजा इत्यादिना सर्वदमनादिदृष्टान्तानां चतुर्णामनुक्रमेणार्थ ज्ञापयति / सर्वदमनो राजा, जनार्दनो हरिरित्येवमग्रेऽपि ज्ञेयम् / Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०५ पा० 1 सू० 54-59 वदतीति अवादी, अबासी / 'हारि' इत्यस्याग्रे व्य- | तन्व्यधीणश्वसातः' (5 / 1164 ) इत्यनेन णः, भिभ्यां भुवोऽतीते णिन् ,--विभवति स्म (इति) 'आत ऐ: कृऔं' (४॥३॥५३॥इति) ऐ: / "श्यक विभावी, अभिभवति स्म (इति) अभिभावी / तथा गतौ' अश्यायतीति अवश्यायः, . तव्यधीण। विपरिभ्यां भुवो ह्रस्वश्च वा,-- विभवतीति विभात्री, (5 / 1 / 64) इतिणः,(एवं प्रतिश्यायः। गां संददातीति विभवी; परिभाषी, परिभवी / वेः शीक षिगोरो "कर्मणोऽण" (5 / 1 / 72), (एवं) वडवासन्दायः / 56 / णिन् ह्रस्वश्च,-- गुणैश्चित्ते विशेते इति विशयी, व्याघा-ऽऽघ्र प्राणि-नसोः // 51 / 57 / / . गुणैश्चित्ते विसिनोतीति विषयी देशः, निपातनात् षत्वम् / / 5 / / ____म० वृ०-'व्याघ्र आघ्रा' इति शब्दो जिघ्रतेर्य थासङ्ख्य प्राणिनि नासिकायां चार्थे 'डान्तौ' निपानाम्युपान्त्य-प्री-क ग-ज्ञः कः // 5 // 1 // 54 // त्येते / २व्याघ्रः प्राणी, आघ्रा नासिका / शप्रत्यम० वृ०-नाम्युपान्त्येभ्यः धातुभ्यः प्रीका- यापवादः / / 57 // ज्ञाभ्यश्च 'कः प्रत्ययः' स्यात् / 'विक्षिपः, विलिखः, अव०-"दन्तपादनासिका' (2 / 12101) बुधः, युधः, कृशः; २प्रियः, किरः, उत्किरः; शिल:, इत्यादिना नासिकास्थाने नस् / रविविधमाजिघ्रति निगिलः, ज्ञः / काभेद इत्यत्र परत्वादण् // 54 // इति व्याघ्रः / आजिघ्रतीति आघ्रा / / 5 / / अव०-ककारः कित्कार्यार्थः / 'विक्षिपतीति / घ्रा-ध्मा-पा-धे दृशः शः // 5 / 1158 // प्रीणातीति प्रियः / किरतीति किरः। गिरतीति ___ म० वृ०-एभ्यः ‘शः' स्यात् / जिघ्रतीति जिघ्रः, गिलः * | "जानातीति ज्ञः // 54 / / उजिघ्रः, धमः, निवः, उधयः, “पश्यः, विप॥५॥१॥५५॥ श्यः, "उत्पश्यः / धे (इति) टकारो व्यर्थः, (तेन) . म० वृ०-गेहार्थे ग्रहः 'कः' स्यात् / गृहम् , उद्धयी, विधयी // 58 // गृहाणि, गृहाः, पुंसि बहुवचनान्त एव, उपचारा अव०-शकारः प्रत्ययः शिकार्याथः / १धमदारा गृहाः / / 55 / / तीति / २पिबतीति / उधयति / ४पश्यतीति / उपसर्गादातो डोऽश्यः / / 5 / 1 // 55 // ४उर्ध्व पश्यति / / 58|| म. वृ०-उपसर्गात्परात् श्येड वर्जादाकारा- साहि-साति-वेधुदेजि-धारि-पारि-चेतेरनुपसर्गात न्ताद्धातोः 'डः प्रत्ययः' स्यात् / आह्वयतीति आह्वः, // 5 / 1159 / / प्रह्वः, प्रस्थः, सुग्लः, व्यालः, सुरः / केनैव सिद्धे डविधानं य्वृन्निषेधार्थम् / उपसर्गादिति ___ म. वृ०-एभ्य उपसारहितेभ्यो ण्यन्तेभ्यः किम् ? णे ४दायः / अश्य इति किम् ? णे अव 'शः प्रत्ययः' स्यात् / साहि,- साहयतीति साहयः; श्यायः / “पूर्वेऽपवादा अनन्तरान विधीन बावन्ते सातयः, वेदयः, उदेजयः, उधारयः, "पारयः, नोत्तरान" इति णो बाध्यते, नाण,- गोसंदायः' चेतयः / छत्रधार इति परत्वादण् / / 59|| // 56 // प्रव०-सातिः सौत्रो धातुः, सातयतीति अव०-प्रतिष्ठतीति / सुग्लायतीति / सुष्ठ | सातयः / २'एज कम्पने' इति परस्मैपदी, 'एजङ राजते। ददातीति दायः, (एवं दधातीति) धायः, / भ्रङ भ्राजि दीप्तौ' इत्यात्मनेपदी, उदेज़न्तमुदे * "नवा स्वरे" (2 // 3 // 102) इत्यत्र व्यवस्थितविभाषाश्रयणान्नित्यं लत्वम् / Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अ-णाऽकट्चक-टनणप्रत्ययविधानम् ] म सितम्।. - जमान का प्रयुक्ते / , णिम् , धात्यतीति / / अव च सा च हसौ ; अवात् हालौ सम्“पारयतीति; पार तीरण कर्मसमाप्तौ / अनुपसर्गादि- पूर्वः स्वःसंतु, माहसौ च संच तस्मात् / त्येव-प्रसाहयिता, सच / / 5 / / तन्-व्यधीण-वसा-ऽऽतः ।।५।१शक्षा लिम्प-विन्दः // 5 // 26 // ___म० ०-तन-व्यधि-इण-श्वसभ्य दन्तेभ्यश्च म० वृ०-अनुपसर्गाभ्यां लिम्पिविन्दिभ्यां 'शः 'ण' स्यात् / तान, उत्तानः, अवतानः; ब्याधः, स्यात् / लिम्पतीति लिम्पः, विन्दः / / 6 / / प्रत्यायः, अन्तरायः; श्वासः, आधासा; आदन्त,-थक नि-मवादेनाम्नि // 5 // 1 // 6 // श्यायः, प्रतिश्याय इत्यपि; ग्लायः, म्लायः / कि ददः, दयः ? ददिदध्योरचा सिद्धमः // 6 // म० वृ०-यथासङ्ख्य निपूर्वाल्लिम्पेः गवादिपूर्वाञ्च विन्देर्नाम्नि: [संज्ञायां] 'शः' स्यात् / प्रव-परैः 'दाङ -धारोवा' इति सूत्रंकृतम् , निलिम्पतीति निलिम्पा नाम देवाः . गां विन्दतीति युष्माकं तुः कथं सिद्धयति इति पस्पृच्छा, तबाहगोविन्दः, कुविन्दः, अरविन्दः, कुरुविन्दः // 61 // / ददिदथ्योरिति // 64it अव०-'निश्च गवादिश्च / अरविन्द इति नृत्-खन्रजः शिल्पिन्यकट // 5 // 1 // 65 // पुसि चक्रावयव उच्यते , अरविन्दमिति च क्लीवे - म० वृ०-एभ्यःशिल्पिनि कर्तरि. 'अकट्नकमलमुच्यते // 61 // . त्ययः' स्यात् / नर्तकः, नर्तकीर; खनकः, खनकी; . वा ज्वलादि-दु-नी-भू-ग्रहा-सोर्णः रजकः, जकी। शिल्पिनीति किम् ? नर्तिका, खानक, रखकः // 65 // // 5 // 1 // 62 // म. वृ.-'ज्वलादिगणाद्,दुनीभूप्रहि (भ्यः)आपूर्व प्रव०-'शिल्पं कर्मसु कौशलम् , शिल्पमस्या स्तीति शिल्पी, तस्मिात् / पुल्लिबगे णकप्रत्ययास्रवतेश्चानुपसर्गात् वा 'णः प्रस्वयः' स्यात् / ज्वलः, कट्प्रत्यययोर्विशेषो न लक्ष्यते, स्वीलिड गे तु ज्वाला; चलः, चालः; 'निपातः, उत्क्रोश' इति बहु अकटः टित्त्यात् जीप्रत्ययो विशेष उपलभ्यते प्रति लाधिकारात ; दधः, दाव:; नयः, नायः; भवः, रूपद्वयं (प्रयुक्तम्)। रजकः इत्यत्र 'अफपिनोश्च भावः / तथा व्यवस्थितविभाषेयम् , लेन प्राहो मक रब्जेः' (4 / 2 / 50) इत्यनेन नलोपः // 65 // रादिः, ग्रहः सूर्यादिः; आस्रवः, आलाकः / अनुपसोदित्येक, प्रज्वलः, प्रदयः, प्रणयः, प्रभवः, प्रा गस्थकः / / 5 / 66 // ह, सर्वत्र अच् / / 2 / / म. वृमायतेः शिल्पिनि 'धकः प्रत्ययाः' स्यात् / गायकः // 66 // प्रव०-१बल दीप्तौ' इत्यादयः पहि मर्षणे अब०- 'गालगती इत्यस्य प्रत्यये सति इति पर्यन्ता भ्वादौ ज्वलादयः ३१धातवः पश्यन्ते / शिल्पी न गम्यते इति 'के गैंरै शब्दे' इति गायतेंसोपसर्गादपि णप्रत्यय इत्यर्थः / / 62 / ग्रहणं 'गस्थकः' इति सूत्रे // 66 // / अबह-सा-संस्रोः / / 5 / 1 / 6 / / टनण / / 5 / 1 / 67 // म० ०-अवपूर्वाभ्यां हसाभ्यां सम्पूर्वाचा म. कृ०-गायले. शिल्पनि कतरि 'मनक स्रवतेः 'णः' स्यात् / अवहारः, अवसायः, संश्रावः।६३ / प्रत्यायः स्यात् / मायना, गायनी // 6 // * लिम्पिसाहचर्यात विन्देस्तौंदादिकस्य ग्रहणम् , न तु 'विदु अवयवे' इत्यस्य / Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं ... [अ०५ पा० 1 सू० 68-71 प्रव०-टनणप्रत्यये टकारो ज्यर्थः, णकारः / इति सूत्रेण इत्वं विधीयते, न नकारानुबन्धस्य 'आत ऐः कृऔ' (4 / 3 / 53) इति सूत्रे ऐकारार्थः / / प्रत्ययस्याऽवयवभूते कि-ककारे आपपरे। पर न योगविभाग उत्तरार्थः / / 67 // इत्यक्षराणि वृत्तौ अयमधिकारः / परं जीवका हः काल-ब्रीह्योः // 5 / 168 // इत्यादौ / 'अस्यायत्तक्षिपकादीनाम्' ( 2 / 4 / 111 ) इत्यनेन इत्वप्राप्तिः, परमनित्कीत्येव इति व्यावृत्तिम० वृ०-हाको हाडो वा कालवीयोः कत्रों: बलात् न इत्वं साध्यते, तत्रापि जीवका नन्दका 'टनण्' स्यात् / पहायनो वत्सरः, हायना नाम इति प्रयोगद्वयमिति कारणात जीवका नन्दका भवब्रीहयः // 6 // का इत्येव प्रयोगाः, न जीविका इत्यादयः, (न) अव०-ओहांक त्यागे' (इति) हाक , 'ओहांड इत्वमित्यर्थः / / 70 // क् गतौ' (इति) हाङ , उभावप्यदादौ जुहो तिक्कृतौ नाम्नि / / 5 / 1171 / / त्यादौ, वश (? यथा) क्रमं 'जहाति, जिहीते' इति म. वृ०-आशीविषये नाम्नि [संज्ञायां] धातोः / प्रयोगी; जहाति जिहीते वा भावान् इति हायनः। |. 'तिक कृतश्च सर्वे प्रत्ययाः' भवन्ति / 'शम्यान रजहत्युदकं दूरोत्थानात् इति हायना ब्रीहयः, (इति) शान्तिः / कृतः,-- २वीरो भूयादिति वीरभूः, जिहते वा द्रुतम् इति हायनाः // 6 // विप् / देवभूतिः, कुमारनीतिः, 'मित्रवृद्धिः, ग्रु-स-ज्योऽकः साधौ // 5 / 1 / 69 // क्तिः। 'देवा एनं देयासुः (इति) देवदत्तः, क्तः / गङ्गा एनं मिद्यात् (इति) गङ्गामित्रः, त्रक् / म० वृ०-एभ्यः साध्वर्थे वर्तमानेभ्यः 'अकः स्वर्द्धिषीष्ट (इति) वर्द्धमानः / / 71 / / प्रत्ययः' स्यान / प्रवकः, सरकः, लवकः / साधाविति किम ? प्रावकः, सारकः, लायकः / / 69|| - अव०-'शमू दमूच उपशमे', शम्यान इति शान्तिः, (एव) तन्यात् इति तन्तिः, सन्यात (इति) प्रव०-'न्युं ज्युं जुंङ गुरु प्लुङ् गतौ' सन्तिः, रमतामित्येवमाशंसितः रन्तिः: एषु सर्वत्र (इति) प्र, साधु प्रवते इति प्रवकः, साधु सरति तिक प्रत्ययः / अथ कृतः,- वीरो भूयादिति वीर(इति) सरकः, साधु लुनातीति लवकः // 6 // भूः, एवं मित्रभूः, किप् / अग्निरस्य भूयान (इति) आशिष्यकन् // 5 / 1170 // अग्निभूतिः, देवोऽस्य भूयाद् (इति) देवभूतिः, म० वृ०-'आशिषि गम्यमानायां धातोः 'अकन् / एवमश्वभूतिः, सोमभूतिः: एषु सर्वत्र भूधातुः (? तोः) प्रत्ययः' स्यात् / जीवतादिति आशास्यमानो जीवकः, क्तिः / “कुमारोऽस्य दुरितानि नयतामित्येवमाशं. निन्दकः, भवतादिति आशास्यमानः भवकः / सितः, कुमार, अग्रे ‘णींग प्रापणे', ततो कुमारोऽआशिषीति किम ? जीविका, नन्दिका, भाविका स्येति वाक्यम् / “ऋधूङ वृधूक वृद्धौ' (इति) [णकः] / नकारः 'इच्चापुंसोऽनित'० (2 / 4 / 107) / वृध ,मित्रमेनं वर्द्धिषीष् इति वाक्यम् ,मित्रवृद्धिरिति इत्यत्र इत्वव्युदासार्थः / तेन जीवका, नन्दका, उदाहरणम् , सर्वत्र क्तिप्रत्ययः / देवा एनं देयासुः भवका ||7|| इति वाक्यम ,देव, दा,यज्ञ एनं देयात् इति वाक्यम , | यज्ञ, दा, 'देवदत्तः यज्ञदत्त' इति प्रयोगौ, अत्र क्तप्रअव-इस्य प्रार्थनमाशीः, तस्यां गम्यमा- त्ययः, 'दत्' (4 / 4 / 10) इति सूत्रेण दास्थाने दत् / नायाम् / निन्दतादित्याशास्यमानो नन्दकः / नकार (एवं विष्णुरेनं श्रूयात् इति विष्णुश्रुतः, क्तः / गङ्गा, इच्चेत्याद्यक्षराणां भावार्थो लिख्यते,-- 'इच्चासो'. | 'निमिदाच स्नेहने-मिद्, गङ्गा एनं मिद्यात् (इति) पर न' इत्यादिपाठोऽशुद्धः / Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण-ण-टरत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [171 गङ्गामित्रः,'प्रत्ययः / वृध , वर्द्धिषीष्ट इति / 'कामि' इति ण्यन्तस्योपादानादण्यन्तादणेव,--उपयवर्द्धमानः / / 71 // | स्कामीति / ण्यन्तस्य तु णे सति पयःकामा' कर्मणोऽण' // 5 / 172 // इत्येव / अत एव ण्यन्तनिर्देशादण्यन्तनिर्देशे ‘अतः कृकमिकंसः' (2 / 3 / 5) इत्यादौ केवलस्यैव कमेग्रहम० वृ०-कर्मणः पराद्धातोः 'अण् प्रत्ययः' णम् / तेन णे सति न सादेशः // 73|| ‘स्यात् / अजाद्यपवादः / [निर्वात्-] कुम्भकारः / विकार्यात्-] शरलावः / [प्राप्यात्-] सूत्रधारः, भार- __ अव०-- स्त्रियां तु कल्याणाचारा सुखप्रतीक्षा वाहः, द्वारपालः / आदित्यं पश्यतीत्यादौ प्राप्यात्क- इत्यक्षराणां भावार्थोऽवचूरेातव्यः / अल्घनन्तैमणोऽनभिधानान्नाण् / निर्वयंविकार्याभ्यामपि रपि शीलकामादिभिर्बहुव्रीहौ सति धर्मशीलादयः क्वचिन्नाण ,-- संयोगं जनयति इत्यादि / / 72 / / ... सिद्धयन्ति, अण्वाधनार्थमेव 'शीलिकामी'ति सूत्रं कृतम् / अणि हि सति स्त्रियां की स्यात् , तथा अव०--णकारो वृद्धयर्थः / २'कर्त्ताप्यं च 'धर्मशीली धर्मकामी' इत्याद्यनिष्टं रूपं स्यात् / कर्म' (2 / 23) इति सूत्रे निवर्त्य विकार्य प्राप्यमिति एवंप्रायेषु च बहुब्रोहावाश्रीयमाणे 'अम्भोऽतिगमा त्रिधा कर्म उक्तम् / 'कर्मणोऽण' इति सूत्रे त्रिविध इत्येव स्यात् , अम्भोऽतिगामी' इति च वृद्धिरिष्यते; मपि कर्म ज्ञेयम् इति त्रिविधकर्मण पराद्धातोरण अतिगम्यते इति (अति)गमा, 'युवर्ण०' (5 / 3 / 28) यथाक्रमम्- कुम्भं करोति (इति) कुम्भकारः, शरान् / इति अलि बहुब्रीहौ च / उपयः कामयते ( इति ) . लुनाति (इति) शरलावः, सूत्रं धरति (इति) सूत्र 'कर्मणोऽण' (5 / 1 / 72) // 73 // धारः; एवं प्राप्ये भारवाहः, भारहारः, द्वारपाल इत्यादयः / आदिशब्दात् हिमवन्तं श्रृणोति, ग्राम 'गायोऽनुपसर्गाट्टक् / / 5 / 174 // गच्छति इति ज्ञेयाः / निवर्त्यकर्मधिकार्यकर्मपरा- ___म० वृ०-कर्मणः परादनुपसर्गाद्गायतेः 'टक् दपि,-- संयोगं जनयति / 'आदिशब्दात् सजं विर- प्रत्ययः' स्यात् / वक्रं गायति (इति) वक्रगः, चयति, वृक्षं छिनत्ति, कन्यां मण्डयति, इति वक्रगी; सामगः, सामगी / अनुपसर्गादिति किम् ? युक्तया इत्यपि ज्ञेयाः / तथा महान्तं घटं करोतीति वक्रसंगायः, खरुसंगायः / वक्रादयो गीतिविशेषाः।७४। सापेक्षत्वादनभिधानाच्च नाण् / तथा च बहुलाधिकारः / ननु सापेक्षत्वात् समासो मा भवतु, अण अव०-'गाय इत्युक्ते के गैंरैंशब्दे'- ऽयमेव कथं न ? सत्यम् , अणि हि सति ‘महता घटस्य गा ग्राह्यः, न तु ' गागौ / “खरुः स्यादश्वहरयोकार' इति स्यात् , तन्न इष्टम् / / 7 / / दर्प दन्तसिचेषु च / / 74 // शीलि-कामि-भक्ष्या-ऽऽचरीक्षि-क्षमो णः सुरा-शीधोः पिवः // 5 / 175 // // 5 / 173 // म. वृ०-सुराशीधुभ्यां परादनुपसर्गापि बतेः 'टक्' स्यात् / सुसं पिबति (इति) सुरापः, म० वृ०-कर्मणः परेभ्यः शील्यादिभ्यो ‘णः | शीधुपः / / 75 // प्रत्ययः' स्यात् / धर्म शीलयति (इति) धर्मशीलः, स्त्रियां तु धर्मशीला; धर्मकामः, धर्मकामा; वायु- अव०-स्त्रियां सुरापी, शीधुपी / सुराशीधोभक्षः, वायुभक्षा; आ. पूर्वश्चरिः,-कल्याणाचारः,१ / रिति किम ? क्षीरपा बाला / कथं संज्ञायां सरापा सुखप्रतीक्षः, बहुक्षमः, बहुक्षमा / २अण्वाधनार्थ / सुरापी ? अत्र डीविकल्पः कथमिति पराशका, वचनम् / अणि हि स्त्रियां ही स्यात् , तथा च / अत्राह- पातिपिबत्योभविष्यति, न च धात्वर्थभेदः, 'धर्मशीली' इत्याद्यनिष्टं रूपं स्यात् / तथा सूत्रे / संज्ञायां धात्वर्थस्य व्युत्पत्तिमात्रार्थत्वात् // 75 / / Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 5 पा० 1 सू० 76-83 आतो डोऽह्वा-वा-मः // 5 / 176 // प्रव०-कर्मणः परात् हन्तेः। पापं वध्यात् / एवं दुःखहः // 8 // - म० वृ०--कर्मणः परादनुपसर्गाद् हावामावर्जितादाकारान्ताद्धातोः 'ड: प्रत्ययः' स्यात् / गां क्लेशादिभ्योऽपात् // 5 / 1 / 81 // ददातीति गोदः' / अलावाम इति किम् ? स्वर्ग- म० वृ०-'क्लेशादिकर्मपरादपपूर्वाद्वन्तेः 'ड:' ह्वायः, तन्तुवायः, उधान्यमायः;अणेव / कथं स्यात् / क्लेशमपहन्ति (इति) क्लेशापहः, तमोपहः मित्रह्वः ? 'कचित्' (5 / 1 / 171) इति डः / अनु- दुःखापहः, दोषापहः, वातपित्तकफापहः, विषाग्निपसर्गादित्येव-- गोसंदायः , उपसगैरव्यवधान- दर्पापहः / कथं दाघाटःचार्वाघाटः ? घटतेरणो तैव इत्यण // 6 // संज्ञायां भविष्यति / / / 8 / / अव०-१ गोद' इत्यस्याग्रे वस्त्रदः, अङ्गलित्रः, अव०-क्लेशादिभ्यः कर्मभ्यः परात् / तमो............. (बह्म जि)नाति (इति) ब्रह्मज्यः, अथवा ऽपहन्ति, (एवं) रोगापहः, अरापहः, दर्पापहः / क्ले- .. ब्रह्मणि जीनवान् (इति) ब्रह्मज्यः / २'वांक गति- शादिभ्य इत्यत्र बहुवचनाद्यथादर्शनमन्येभ्योऽपि कर्मगन्धनयोः' (इति) वा, तन्तून वातीति तन्तुवायः / भ्यः पराद्धन्तेर्डप्रत्ययः। 'चार्जीवविशेषः,तमाघटते उधान्यम् , 'मांक माने' धान्यं मातीति 'कर्मणोऽण', (इति) चार्षाघाटः, 'कर्मणोऽण् / चारुमाहन्तीति 'आत ए कृचौ (4 / 3 / 53) (इति) ऐः। (एवं) वडे- हन्तेः चार्वाधातः / तर्हि दा घातोऽपिस्यादिति परावासंदायः, आत ऐ: कृत्री' (4 / 3 / 53) ऐ: 176 / शङ्का, सूरिराह-ॐअसंज्ञायां गम्यमानायां दार्वाघातः, समः ख्यः // 5 / 1 / 77 // चार्वाधात इत्यपि इक्षतव (? इष्यते एव), तथाहि एवमसंज्ञायां सम्पूर्वाभ्यां घटिहनिभ्यां वर्णसंघाटः, म० वृ०-कर्मपरात् सम्पूर्वात् ख्याधातोः 'ड:' वर्णसंघातः; पदसंघाटः, पदसंघातः इत्यादि सिद्धम् / स्यात् / गोसङ्ख्यः / उपसर्गार्थ वचनम् / / 77 / / हन्तेरेव वा एते प्रयोगा ज्ञातव्याः / पृषोदरादिअव०- गां सङ्ख्याति सञ्चष्टे वा गोसङ्ख्यः / त्वाद् वर्णविकारः कर्त्तव्यः इति भावः / / 81 // एवं पशुसङ्ख्यः ||77 // कुमार-शीर्षाण्णिन् / / 5 / 1 / 82 // दश्वाऽऽङः // 5 / 178 // म० वृ०-कुमारशीर्षकर्मपराद्धन्तेः 'णिन्' म० वृ०-कर्मपरादात् पूर्वादागः ददातेः] ख्य- | स्यान / कुमारं हन्तीति कुमारघाती, शीर्षघाती 82 / श्व 'ड' स्यात् / [उपसर्गाथै डवचनम्।] दायमादत्ते (इति) दायादः, स्त्रियमाचष्टे (इति) स्त्रयाख्यः, अव०-कुमारशीर्षाभ्यां कर्मभ्यां परात् / शीर्षप्रियाख्यः / / 78 // शब्दोऽकारान्तः / / 82 // प्रान् ज्ञश्च // 5 / 1179 // अचित्ते टक् // 5 / 1 / 83 // म० वृ०-कर्मपरात् प्रपूर्वाद् ज्ञो दारूपाश्च म० वृ०-कर्मपराद्धन्तेः अचित्तवति कर्तरि 'ड:' स्यात् / उपसर्गाथे वचनम् / पन्थानं प्रजाना- 'टक् प्रत्ययः' स्यात् / वात हन्ति (इति) 'वातघ्नं तीति पथिप्रज्ञः / प्रपां प्रदातीति प्रपाप्रदः / / 7 / / तैलम् , पित्तघ्नं घृतम् , श्लेष्मघ्नं मधु, रोगघ्नम् , आशिषि हनः / / 5 / 1480 // वातघ्नास्तिलकालकाः, सर्वकर्मव्नी, शैलेशी / . म. वृ०-आशिष्यर्थे कर्मपराद्धन्ते : 'ड: स्यात्। अचित्त इति किम् ? "पापघातो यतिः, चोरघातो शत्रु वध्यात् (इति) शत्रुहः पापहः / / 8 / / राजा // 86 // * प्रस्तुतसूत्रस्य बृहद्वृत्तिं दृष्टिपथं कुर्वन्तु Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टक्-खिप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [173 प्रव०-'वातघ्नमित्यादिषु 'अनोऽस्य' (2 / 1 / / हस्ति-बाहु-कपाटाच्छक्तौ / / 5 / 1 / 86 // 108) इति सूत्रेण अनोऽकारलोपः, ततो 'ह' म. वृ०-एभ्यः कर्मभ्यः पराद्धन्तेः शक्तावर्थे इत्यस्य 'हनो होघ्नः (2 / 11112 / इति सूत्रेण) 'घ्न' आदेशः। रोगनमौषधम्। शिलानामीशः शिलेशः, 'टक्' स्यात्' हस्तिनं हन्तुं शक्तः (इति) हस्तिनो शिलेशस्येयं शैलेशी, 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160 / इति) वीरः / बाहुं हन्तुं शक्तः (इति) बाहुघ्नो मल्लः, अण् / निष्प्रकम्पत्वाद् ध्यानविशेषोल्कर्षः शैलेशी कपाटं हन्तुं शक्तः (इति) कपाटघ्नश्चौरः / शक्ता विति किम् ? हस्तिधातो रसदः / / 8 / / इत्युच्यते / 4 णिति घात्' (4 / 3 / 100) / मत्स्यघातो बकः / / 83 // प्रव०--'हस्तिनं हन्ति विषेण इति हस्तिजायापतेश्चिह्नवति' // 5 / 1 / 84 // घातः, अण् , णिति घात्' (4 / 3 / 100) / / 6 / / म० वृ०- रजायापतिकर्मपराद्धन्तेश्चिह्नवति नगरादगजे // 5 / 1187 // कर्तरि 'टक्' स्यात् / जायाफ्नो ब्राह्मणः, पतिघ्नी कन्या // 84|| म० वृ०--'नगरात्पराद्धन्तेर्गजवर्जिते कतरि 'टक' स्यात् / नगरं हन्ति (इति) नगरघ्नो व्याघ्रः / अगज इति किम् ? नगरघातो हस्ती / / 8 / / अव०-चिह्न देहस्थं शुभाशुभसूचकं लक्षणम् , यथा तिलकाऽलकादि, कोऽर्थः ? तिलानां प्रव०-चित्तवदर्थ आरम्भः / 'कर्मणः / / 87 / तुल्यास्तिलकाः, तिलसमानाः, अलका इचालकाः, राजघः // 5 / 1 / 88 // तिलकाश्च ते अलकाश्च तिलकालकाः, जायाना म० वृ०-राजपराद्धन्तेः 'टक् घादेशश्च' निपास्तिलकालकाः, येषां लोके 'मित्र' इति प्रसिद्धिः त्यते / राजानं हन्ति (इति) राजघः / / 8 / / तेषां तिलकानां बाहुल्यं प्रायो जायाघ्नम् / रजाया पाणिघ-ताडधौ शिल्पिनि // 5 / 189 // पतिभ्यां कर्मभ्यां परात् हन्तेः / चित्तवदर्थं वचन मिदम् , (तेन) चित्तवति कर्तरि टक् भवति / ___म० वृ०-पाणिताडाभ्यां कर्मभ्याम् पराद्धन्तेः . . कुलक्षणयुक् इत्यर्थः / / 8 / / शिल्पिनि कर्तरि 'टक् घादेशश्च' निपात्यते / ब्रह्मादिभ्यः // 5 // 1185 // पाणिघः, ताडघः शिल्पी। शिल्पिनीति किम् ? पाणिघातः / / 89 // म० वृ०--ब्रह्मादिकर्मपराद्धन्तेः 'टक्' स्यात् / ब्रह्म हन्ति (इति) ब्रह्मघ्नः, कृतं हन्ति (इति) कृत- प्रव०--पाणिं हन्ति (इति) पाणिघः / ताडं घ्नः, शत्रुघ्नः, गोग्नः पापी / बहुलाधिकारात्स- हन्ति (इति) ताडघः। अथवा पाणिना हन्तीति, म्प्रदानेऽपि,-गोनोऽतिथिः // 85 / / ताडेन हन्तीति // 89 // कुक्ष्यात्मोदराद् भृगः खिः 1 / 5 / 1 / 9 / / प्रव०-चित्तवदर्थ आरम्भोऽयम् / 'ब्रह्मा म० वृ०--एभ्यः पराद् भृगः 'खिः' स्यात् / दिभ्यः कर्मभ्यः। बहुवचनाद्यथादर्शनमन्येभ्योऽपि टक् / २एषु सर्वत्र 'अनोऽस्य' (2 / 1 / 108 / इत्यनेन) कुक्षिमेव बिभर्ति (इति) कुर्शिभरिः, आत्मभरिः, ४उदरंभरिः // 9 // 'अनोऽकारलोपः, ततो हो नः / (एव) वृत्रघ्नः, भ्रूणघ्नः / शशघ्नी पक्षिजातिः। गां हन्ति इति प्रव०-- खकारो मागमार्थः / कर्मभ्यः / गोन्नः / ४गां हन्ति यस्मै अतिथये आगताय दातं उभात्मानमेव बिभर्ति / "उदरमेव बिभर्ति इति स गोनोतिथिः / / 8 / / // 9 // Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 5 पा० 1 सू० 91-96 अर्होऽच // 5 / 1 / 91 // अव०-आयुधादिगणे यथा धनुर्धर इत्यादि ___म० वृ०-कर्मणः परादहतेः 'अच् ' स्यात् / तथा शाङ्गधरः, गदाधरः, पशुधरः इत्यादयोऽप्य नुसतव्याः / एवं शूलधरः, जलधरः, खड्गधरः / अणोऽपवादः / पूजामर्हति-पूजाईः साधुः, पूजाहाँ १एवं कुण्डधारः, काण्डधारः इत्यपि / बहुवचनाप्रतिमा // 9 // द्यथादर्शनमन्येभ्योऽपि अच भवति, यथा-- यष्ट्रिधनु-दण्ड-त्सरु-लाङ्गला-ऽङ्कशर्षि-यष्टि-शक्ति धरः, फलकधरः, शङ कुधरः, शङ्खधरः, गोवर्धनतोमर-घटाद् ग्रहः / / 5 / 1 / 92 // धरः, श्रीवत्सधरः, तूणीरधरः, पाशधरः / छत्रधर इति प्रयोगे धरतीति धरः,अच् , छत्रस्य धर इति म० वृ०-एभ्यः पराद् ‘अहेरच' स्यात् / धनु सिद्धिः // 14 // हाति (इति) धनुर्ग्रहः. दण्डग्रहः, २त्सरुग्रहः, लाङ्गलग्रहः, अङ कुशग्रहः, ऋष्ग्रिहः, यष्टिग्रहः, . हगो वयोऽनुद्यमे // 5 / 1 / 95 / / शक्तिग्रहः, तोमरग्रहः, घटग्रहः, “घटीग्रहः / / 12 / / ___म० वृ०-कर्मपराद् हरतेर्वयसि अनुद्यमे च : अव०-१दण्डं गृह्णाति / २त्सरुः खड्गमुषिः। 'अच्' स्यात् / कवचहरः, क्षत्रियकुमारः, अनुद्यमे,ऋष्ठिः खड्ग उच्यते / अणपि भवति, तत्र धनु अंशहरो दायादः गोत्री, मनोहरः प्रासादः, मनोग्राहः, दण्डग्राहः इत्यादि / ४"नामग्रहणे लिङ्गवि हरा माला स्त्रियाम् / वयोऽनुद्यम इति किम् ? शिष्टस्यापि ग्रहणम्" इति न्यायात् घटीग्रहः / / 12 / / भारहारः // 95|| सूत्राद्धारणे // 5 // 1 / 93 // .. अव०-प्राणिनां कालकृतावस्था वय उच्यते / म० वृ०-२सूत्रपराद् अहेर्ग्रहणपूर्वके धारणे उद्यम उत्क्षेपणम् , चन्द्रोदयादेः आकाशस्थस्य वाधार णम् / केचित्तु उत्क्षेपणा प्रक्षेपणादिनिरपेक्षं यथाकऽर्थे 'अच्' स्यात् / सूत्रं गृह्णाति (इति) सूत्रग्रहः थश्चिदाकाशे धारणमुद्यम इति प्रतिपन्नाः / तत्रोक्त प्राज्ञः सूत्रधारो वा, सूत्रमुपादाय धारयतीत्यर्थः / धारणमिति किम् ? उसूत्रग्राहः // 93 / / आकाशस्थस्य धारणम् / उद्यमस्य अभावोऽनुद्यमः, तस्मिन , ईदृशेऽनुद्यमे गम्यमाने इत्यर्थः / तथा वयसि विषये क्रियमाणः साक्षात् प्रयुज्यमानः, अव०-सूत्रं कासादिमयम् , अथवा लक्षण अथवा सम्भाध्यमानः, कोऽथः ? अकुर्वन्नपि तत सूत्रम् , उभावपि गृह्यते, उभयोरपि उदाहरणमेक कवचधारणादिकर्म अस्मिन कर्मण्यं शक इत्येवं मेव / रसूत्रशब्दात् कर्मणः / 3 'सूत्रग्राहः', कोऽर्थः सम्भाव्यमान उद्यम उच्यमानो वयो गमयति / यो हि सूत्रं गृह्णाति, न तु धारयति (स) सूत्रग्राह प्रति (?) उद्यमार्थं च वयोग्रहणं कृतम // 95 / / उच्यते // 3 // आङः शीले // 5 / 1 / 96 // आयुधादिभ्यो धृगोऽदण्डादेः / / 5 / 1 / 94 // - म० ०-कर्मपरादाइ पूर्वहरतेः शीले गम्य- म० वृ-दण्डादीन वर्जयित्वा आयुधादिप माने 'अच् स्यात् / पुष्पाहरः, फलाहरः, सुखाराद् धृगः 'अच्' स्यात् / धनुर्धरति (इति) धनु- | हरः / शील इति किम् ? पुष्पाहारः / लिहादिप्रपञ्चः र्धरः, एवं शक्तिधरः, चक्रधरः, आदिग्रहणात् भू प्रकरणमिदम् // 96 / / / . धरः, जलधरः, विषधरः, शशधरः, विद्याधरः, श्रीधरः, जटाधरः, पयोधरः, / अदण्डादेरिति किम् ? अव०-'पुष्पाणि आहरतीत्येवं शील पुष्पाहरः, दण्डधारः, कर्णधारः, सूत्रधारः, छत्रधारः // 94 // | पुष्पकला वाद्यहरणे (=पुष्पफलसुखादि-)दौंकने Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इ-अ-टप्रत्ययविधानम... मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [175 स्वाभाविकी फलनिरपेक्षा वृत्तिरस्य मैत्रस्य इति / यत्करा; तत्करा, चौर्ये तस्करा [आप् ] बहुकरः,बहुशीलार्थः / सुखाहर इति प्रयोगोऽशीलेऽपि अनुद्य- करार / जातिरिदानी किङ्करीति हेत्वादौ टः / 101 / मेऽर्थे पूर्वेण अचा साध्यः / आइ इति किम् ? पुष्पाणि हर्ता, तृन् / / 96 // अव०-सर्वत्र ‘आत्' (2 / 4 / 18) इति सूत्रेणापु। १'तस्करा' इत्यत्र चोरवाच्ये . 'वर्चस्कादिष्बवदृति-नाथात्पशाविः / / 5 / 1 / 97 // स्कारादयः' (32 / 48) इत्यनेन दलोपं कृत्वा __म० वृ०-दृतिनाथपरात् हरतेः पशौ कर्तरि सकारो निपात्यते / चौरादन्यत्र तत्करः, तत्करा / 'इ:' प्रत्ययः स्यात् / इति हरतीति इतिहरिः ।श्वा, २कियत्तबहोरः' इति सूत्रे बहुकरः, बहुकरा इति नाथहरिः सिंहः / पशाविति किम् ? दृतिहारोव्याधः, मूलप्रयोगद्वयम् , 'बहुकरी' इति कथं ? 'सङ्ख्याहनाथहारी गन्त्री / / 17 / / दिवा०' (5 / 1 / 102) इति सूत्रे बहुशब्दः सङ्ख्यारजः-फले-मलाद् ग्रहः / / 5 / 1 / 98 // वाची इति 'सङ्ख्याहर्दिवा०' इत्यनेन टप्रत्ययः, ततो डी, बहुकरी इति सिद्धम् / तिर्कग्रन्थवाक्यमिम० वृ०-एभ्यः कर्मभ्यः पराग्रहेः 'इः' प्रत्ययः दम , तथाहि-जातिः सामान्या, इदानीं साम्प्रतम् , स्यात् / रजोग्रहिः कचुकः, 'फलेग्रहिवृक्षः, सूत्र- किङ्करी अप्राधान्यहेतुत्वात् , अत्र हेतौ गम्यमाने निर्देशादेत्वम् , मलग्रहिः // 98r 'हेतुतच्छीलानुकूले०' (6 / 1 / 103) इत्युत्तरसूत्रेण टप्रत्ययः, किं करोतीति स्त्रियां डीप्रत्ययः / / 101 // प्रव०-१फलं गृह्णाति, सूत्रनिर्देशान्निपातनात् फलस्य एकारः / 'कम्बलः // 98|| सङ्ख्या-ऽह-दिवा-विभा-निशा-प्रभा-भाश्वित्रदेव-वातादापः / / 5 / 1499 / / कत्रोद्यन्ता-ऽनन्त-कार-बाह्वरु-धनु-नान्दी-लिपि___ म वृ०-देववाताभ्यां कर्मभ्यां परादापधातोः लिवि-बलि-भक्ति-क्षेत्र-जङ्घा-क्षपा-क्षणदा-रजनि. 'इ.' स्यात् / देवापिः, वातापिः / / 99 / / ... दोषा-दिन-दिवसाट्टः / / 5 / 1 / 102 . प्रव०-देवानाप्नोति ( इति ) देवापिः / म० वृ०-एभ्यः कर्मभ्यः परात्कृगः 'टः' वातमाप्नोति // 19 // प्रत्ययः स्यात् / अहेत्वाद्यर्थ आरम्भः / सङ्घ याकरः, एककरः, द्विकरः, अहस्करः, दिवाकरः, शकृत्-स्तम्बाद् वत्स-बीही कृगः. विभाकरः, निशाकरः, प्रभाकरः, भास्करः, चित्रकरः, // 5 / 1 / 10 // क करः, आदिकरः, अन्तकरः, अनन्तकरः, कार- म० वृ०-शकृत्स्तम्बात् करोतेर्यथासङ्घय करः, बाहुकरः, अरुष्करः, धनुष्करः, नान्दीकरः, वत्से वीडी च कर्तरि 'इ:' स्यान / 'शकृत्करिवत्सः, | लिपिकरः, लिविकरः, बलिकरः, भक्तिकर इत्यादि स्तम्बकरिीहिः / / 10 / / . // 102 / / अव०-१शकृत्करिरिति वत्सनाम / २ब्रीहिनाम अव०-१'सङ्ख्याहर्दिवा०' इत्यत्र सङ्ख्या इति शब्दः सङ्ख्या इति अर्थप्रधानमपि ज्ञातव्यम् / // 10 // कोऽर्थः ? सङ्ख्यार्थे ये शब्दा एकद्विच्यादयस्ते सर्वे किम्-यत्-तद्-बहो रः / / 5 / 1 / 101 // सङ्ख्याशब्देन ग्राह्याः, तेन सङ्ख्याकरः, एककरः, म. वृ०-किम्- यद्- तद्-बहुकर्मभ्यः परा- | एवं बहुकरः, द्विकर इत्यादयः प्रयोगा दर्शिताः / करोतेः 'अः' प्रत्ययः स्यात् / किङ्करः, यत्करः, / सङ्ख्यां करोतीति (संख्याकरः), बहुकर इत्यपि। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसियमसम्मानुशासनं [भ०५ पा० 10 103-178 २"रो लुप्यरि' (221175) इति नस्य रः, "भ्रातुष्पुत्र- | * अवल-खप्रत्ययः, अणप्रल्यय इति द्वौ प्रत्ययोः। कस्कादयः” (2014) इति रस्य सफारः / आदि.-- तीर्थक्कर इति मतान्तरे, स्वमते तीर्थकर एष; शब्दात् क्षेत्रकरः; जड धाकरः, क्षपाकरः, क्षणदा- 'हेतुतच्छीलानुकूले०' (5 / 11103) इत्यनेन टः / करः, रजनिकरः, रजनीकरः, दोषाकरः, दिनकरः, उपपदविधिषु', कोऽर्थः ? कर्मरूपपूर्वपदमाश्रित्य दिवसकरः / टकारो ड्यर्थः, तेन सङ्ख्याकरी, एक- धातोर्विधिः (=उपपदविधिः), उपपदविधौ “येन करी इत्यादयो ज्ञेयाः / / 102 / / विधिस्तदन्तस्य" इति न्यायो नाश्रयणीयः, भद्र इत्युक्त सुभद्र, मद्र इत्युक्त सुमद्र इति युक्त्या हेतु-तच्छीला-अनुकूलेऽशब्द-श्लोक कलह-गाथा- धातोः परतो न प्रत्ययः, अत एव 'सङ्याहर्दिवा०' वैर-चाटु-सूत्र-मन्त्र-पदात् // 5 / 1 / 103 // ( 51102) इति पूर्घसूत्रेऽन्तग्रहणे सति अपि म० वृ०-हेत्वादिषु कर्तृषु शब्दादिवर्जकर्म अनन्तग्रहणं पृथग् कृतम् , उत्तरसूत्रे च भये सति अभय इति पुनः कृतम् ; तथा 'क्षेमप्रियः' इति परास्कृगः [करोतेः] 'टः' स्यात् / हेतौ,-यशस्करी सूत्रे क्षेमोपपदे सति योगक्षेम इति तदन्तपदमा-' विद्या, एवं कुलकरं धनम् , तच्छीले,-क्रीडाकरः, श्रित्य न खाणप्रत्ययः (? प्रत्ययौ), हेत्वादौ अत्र टः / अनुकूले,-वचनकरः / शब्दादिनिषेधः किम् ? खो वा' इत्येव सिद्धेऽपि यत् ख अण् इति प्रत्ययशब्दकारः, श्लोककारः, कलहकारः, माथाकारः, द्वयग्रहणं तत् हेत्वादिषु टप्रत्ययबाधनार्थम् , खपक्षे वैरकारः, चाटुकासः, सूत्रकारः, मन्त्रकारः, पदकारः, टो न भवति, अणेव भवति इति अण्प्रत्ययः [सर्वत्र 'कर्मणोऽण' 5 / 1 / 72] // 103 / / कृतः // 105 // अमा-हेतुः प्रतीतशक्तिकं कारणम् / मेघर्ति-भया-ऽभयात्खः / / 5 / 1 / 106 / / तम्छील: तत्स्वभावः / अनुकूल आराध्यचित्ता म. वृ०-एभ्यः कर्मभ्यः . परात्कृगः 'खः' नुवर्ती // 10 // स्यात् / मेघान् करोति (इति) मेघक्करः, 'ऋतिभृतौ कर्मणः // 5 / 1 / 104 // ङ्करः, भयङ्करः, अभयङ्करः // 106 / / म० ०-कर्मशब्दात् कर्मरूपात् परात्कृगः अव0-'ऋतिशब्दो गत्यर्थे सत्यर्थे वा, ऋर्ति 'भृतावर्थे 'टः' स्यात् / कर्म करोति (इति) कर्मकरो करोतीति ऋतिङ्करः, एवं भयम , अभयं करोति / भृतकः / भृताविति किम् ? कर्मकारः // 104 // तथा हेत्वादिविवक्षायामपि पस्त्वात् 'मेघर्तिः' इति सूत्रं टप्रत्ययं बाधत एव, ततो भयङ्करं श्मशानप्रव०-भृतिवेतनं कर्ममूल्यमित्येकार्थः / / मित्यत्र खप्रत्यय एक, न हेत्वादिसूत्रेण टः, भयएवं कर्मकरी दासी // 10 // कर इति प्रयोगो न भवति // 106 / / क्षेम-प्रिय-मद्र-भद्राखा-ऽण् // 5 / 1 / 105 / / प्रिय-वशाद्वदः // 5 / 1 / 107 // म. वृ०-आभ्यां कर्मभ्यां पराद्वदेः 'खः' म० व०-एभ्यः कर्मभ्यः परात्करोते: “ख, स्यात् / प्रियं वदति (इति) प्रियंवदः, वशं यदति अण" इति प्रत्ययौ भषातः / क्षेमकरः, क्षेमकारः; (इति) वशंवदः // 107 / / प्रियकरः, पियकारः; मद्रङ्करः, मढाकारः; भद्रकरः, भद्रकारः / एभ्या इति किम् ? 'तीर्थवरः / कथं द्विषन्तप-परन्तपौ / / 5 / 1 / 108 योगक्षेमकरी लोकस्या ? उपपदविधिषु तदन्त- ____म० वृक-एतौ ‘ण्यन्तौ स्वान्तौ निपात्येते / विधेनालयाणात // 10 // | द्विषन्तपः, परन्तपः // 108 // Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खप्रत्ययविधानम् ] .1 मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / अव०-द्विषन्तपः, परन्तप इति ण्यन्तस्यैव | ऽर्जुनः, “रथन्तरं साम, शत्रुतपो राजा, बलिंनिपातः / अपयन्तस्य तपेः खश मोन्तश्च न भवति। / दमः कृष्णः, शत्रु सहो राजा। नाम्नि इति किम् ? द्विषतस्तपति (इति) द्विषत्तापः, तथा च परांश्च / कुटुम्बं बिभर्ति (इति) कुटुम्बभारः, अण् // 112 / / नपति (इति) परताप इत्येव प्रयोगौ स्याताम् / द्विपन्तप इति निपातनात् तनः परो णिग् , खः, अव०-सिंज्ञायाम् / रविश्वं बिभर्ति / पति ह्रस्वः, तथा तकारलोपः / तथा परन्तप इत्यत्रापि वृणीते / शत्रु जयति / रथं तरति / दमिरन्ततथैव परिभाव्यम् / द्विषतस्तापयतीति द्विषन्तपः, भूतण्यर्थः अण्यन्तश्च गृह्यते, ततो बलिं दाम्यति निपातनात खः, ह्रस्वः, द्विषतः तलोपः, मोन्तः / | (इति) बलिंदमः, अथवा बलिं दमयति (इति) तथा निपातनस्येविषयत्वात स्त्रियां न निपातः, बलिंदमः , एवमरिंदमो राजा // 112 / / 'द्विषतीताप' इत्येव प्रयोगः // 18 // धारेधर च // 5 / 1 / 113 / / 'परिमाणार्थ-मित-नखात्पचः / / 5 / 1 / 109 / / म० वृ०-कर्मणः पराद्धारयते म्नि ‘खः' म० वृ०-२परिमाणार्थशब्देभ्यो मितनखा- स्यात् , धारे-'र्धर्' इत्यादेशश्च / 'वसुधरा पृथ्वी, भ्यां च परात पचेः 'खः' स्यात / प्रस्थ पचति (इति) युगंधरः जिनः, सीमंधरः जिनः / नाम्नीति किम् ? प्रस्थंपचा स्थाली, द्रोणंपचा दासी, अल्पंपचा मुनयः, छत्रधारः॥११३|| मितम्पचा ब्राह्मणी, नखम्पचा यवागूः // 109 / / प्रब०-१वसूनि-रत्नानि धारयति // 113 / / प्रव-परिः, कोऽर्थः ? सर्वतो मानं परि पुरन्दर-भगन्दरौ // 51 / 113 // माणम. परिमाणस्य अर्थाः प्रस्थद्रोणाऽऽढकादयः परिमाणार्थाः परिमाणार्थाश्च मितश्च नखश्च / प्रस्थ म० वृ०-एतौ नाम्नि ‘खान्तौ' निपात्येते / द्रोणाढव खारीवादेभ्यः कर्मभ्यः / / 109 // पुरो दारयति (इति) पुरन्दरः' इन्द्रः, भगं दारयति कूल्य-ऽभ्र-करीषात्कषः // 5 / 1 / 110 // (इति) भगन्दरो व्याधिः // 114 // ___म० वृक्ष-उभ्यः कर्मभ्यः परात्कषे: 'खः' अव०-१ दश विदारणे' दृणन्तं प्रयुक्त - स्यात् / 'कूलङ्कषा नदी , अभ्र कषो गिरिः, करीषं | णिग्, 'नामिनोऽकलि०' (4 / 3 / 51 // इति ) वृद्धिः, कषा वात्या // 110 / / दार, पुर इति शब्दः पूर्वम्, पुरो दारयति इति खः, प्रव०-'कूलं-तटं कषति घर्षति / गगनम दारयतेनिपातनात् ह्रस्वः, पुर् इत्यस्य अम् इत्यन्तश्च निपात्यते। यदि च पुर इत्यकारान्तः तदा 'पुरदार' इत्येव , न खः, (न) ह्रस्वः, न अम् / 114 / सर्वात्महश्च // 5 // 1 // 11 // म० वृ०-सर्वशब्दाकर्मणः परान सहेः कषेश्च वाचंयमो व्रते // 5 / 1 / 115 // 'खः' स्यात् / सर्वसहो मुनिः, सर्वकषः खलः / 111 // म. वृ० --प्रतार्थे वाच् इति कर्मणः पराद् यमेः 'खः वाचश्च अम्' इति निपात्यते / वाचं भू-वृ-जि-तृ-तप-दमेश्च नाम्नि // 5 / 1 / 112 / / यच्छति-नियमयति- वाचंयमो व्रती // 115 / / म० वृ०-कर्मणः परेभ्यो भृ वृ इत्यादिधातुभ्यः सहश्च खः स्यात् , नाम्नि' / २विश्वंभरा भूः, प्रव०-व्रतं शास्त्रविहितो नियमः, तस्मिन् उपर्तिवरा कन्या, “शत्रुञ्जयो गिरिः, धनञ्जयो- | व्रते गम्यमाने // 115 / / Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन - [अ० 5 पा० 1 सू० 116-120 __ मन्याण्णिन् / / 5 / 1 / 116 // त्मानं मन्यते पविंमन्या ; अत्र परतः स्त्रीपुवद्भावं बाधित्वा परत्वात् ह्रस्वो मोऽन्तश्च / यत्र दीर्घान्तं म० वृ०-कर्मणः परान्मन्यतेः 'णिन्प्रत्ययः' | पूर्वपदं तत्र सर्वत्र 'खित्यनव्यया०' (3 / 2 / 111) स्यात / पण्डितं मन्यते बन्धम-पण्डितमानी बन्धोः, इत्यनेन ह्रस्वो मोऽन्तश्च / एवं पट्वीमात्मानं मन्यतेदर्शनीयमानी भार्यायाः // 116 // पटुमानिनी, विदुषीमात्मानं मन्यते विद्वन्मानिनी, अव०-"पण्डितमानी बन्धोः", बन्धोरणे | णिन् पूर्वेण, ततः 'क्य मानिपित्तद्धिते' (3 / 250) 'कर्मणि कृतः' (2 / 2 / 83) इति सूत्रेण कर्मणि षष्ठी इति सूत्रेण 'वद्भावः / पूर्वेण णिन्नेव / / 117|| भवति / दर्शनीयां मन्यते भार्याम्-दर्शनीयमानी एजेः // 5 / 1 / 118 // भार्याया इत्यत्र 'क्यख मानिपित्तद्धिते' (3 / 2 / 50) म० वृ०-कर्मपरादेजयतेः 'खश' स्यात / इति सूत्रेण पुंषद्भावो भवति // 116 // अङ्गमेजयः, जनमेजयः // 118 // .. कत्तु खश् // 5 / 1 / 117 // प्रव०-एजेः पूर्व णिग्। अङ्गान्येजयते / म. वृ०-'प्रत्ययार्थात्कर्त्तः कर्मणः परान्म- जनमेजयते (इति जनमेजयः) राजा // 118 / / न्यते: ‘खशप्रत्ययः'स्यान / पण्डितमात्मानं मन्यते= पण्डितंमन्यः, विद्वन्मन्यः,२ विदुषिमन्या / अस शुनी-स्तन-मुञ्ज-कूला-ऽऽस्य-पुष्पात् ट्धेः रूपत्वाण्णिन्नपि, पण्डितमात्मानं मन्यते पण्डित // 5 / 1 / 119 / / मानी, विद्वन्मानी / कर्तुरिति किम् ? दर्शनीय- म. वृ०-एभ्यः पराद्धयतेः 'ख' स्यात् / . मानी चैत्रस्य // 11 // 'शुनिधयः, स्तनंधयः, मुञ्जन्धयः, कूलंधयः, आस्य धयः, पुष्पंधयः / / 119 // , अव०-प्रत्यये कृते सति यत्शब्दरूपं निष्पद्यते तेन शब्देन यः चैत्रादिरुच्यते स प्रत्ययार्थः / अव०-'शुनी धयति इति / एवं स्तनं धययदा प्रत्ययार्थश्चैत्रः कर्ता पुरुषः आत्मानमेव न परं | तीति / धे इत्यत्र टकारो ड्यर्थः, तेन शुनीं धयति दर्शनीयत्वादिना गुणेन विशिषं मन्यते तदाऽयं शुनिधयी, स्तनंधयी सर्पजातिः , अत्र क्रियावाचचैत्रः कर्म भवति, चैत्र आत्मानमेव पण्डितं मन्यते, कात् जातिद्वारा की न प्राप्नोति इति टकरणम् न परमिति परमार्थः, तत्र तादृशेऽर्यो ‘कर्तुः खश्' // 119 / / इदं सूत्रं प्रवर्तते / 'मन्याण्णिन्' (5 / 1 / 116) इति नाडी-घटी-खरी-मुष्टि-नासिका-वाताद् ध्मश्च सूत्रं तु गुणसम्पत्त( ? सम्पन्न )परविवक्षायामेव सत्यां प्रवर्तते। विद्वांसमात्मानं मन्यते विद्व // 5 / 1 / 120 // न्मानी, विद्वस्शब्दस्य स्' इत्यस्य * 'पदस्य' म. वृ०-एभ्यः कर्मभ्यः पराद्धमतेर्धयतेश्च (2 / 1189) इति सूत्रेण लुप्यते / (विद्वान् ,) स्त्री | 'खश्' स्यात् / नाडी धमति धयति वा नाडिंधमः, चेत् विदुषी, विदुषीमात्मानं मन्यते विदुषिमन्या, | नाडिंधयः; घटिंधमः, घटिंधयः; खरिंधमः, खरिं'खित्यनव्ययारुषो मोऽन्तो ह्रस्वश्च'(३।२।१११) इति धयः, मुधिंधमः, मुधियः; नासिकंधमः, नासिकंसूत्रेण पूर्वपदस्य ह्रस्वः मोऽन्तश्च ; एवं पवीमा- | धयः; वातंधमः, वातंधयः / / 120 / / / * चिन्त्यमिदम्, “स्त्रस्-ध्वंस्-क्वस्सनडुहो :" (2 / 1 / 68) इति सूशेण सस्य दः, "तृतीयस्य पञ्चमे" इति दस्य नो भवति / Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खश् विष्णु-खुक-खनविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / अव०-'नाडीघटी'० इति सूत्रे ड्यन्तनिर्देशः★ असूर्योग्राद् दृशः / / 5 / 1 / 26 // नाडीशब्दे उपपदे खश् , नाडिशब्दाद् इतोऽक्त्य म० वृ०-असूर्योग्रपराद् दृशेः 'ख' स्यात् / र्थात् (2 / 4 / 32) इति डीविकल्पः, त्यभावे खशपि न भवति,- नाडिध्मः, नाडिधः; घटध्मः, घट सूर्यमपि न पश्यन्ति=असूर्यपश्या राजदाराः, उग्रं पश्यः // 126|| धः; खरध्म, खरधः इत्यर्थे कृतः // 120 / / पाणि-करात् // 5 / 1 / 121 // अव०--दृशिना सह सम्बद्धस्य नबः सूर्येण .म. वृ०-पाणिकराभ्यां कर्मभ्यां पराद्धमतेः / सहासामर्थेऽपि गमकत्वात् , कोऽर्थः ? वाक्यार्थ'खश्' स्यात् / पाणि धमति-पाणिधमः, करंधमः।। प्रतिपादकत्वात् , समासो भवति / / 126 / / पाणिंधमाः, करंधमाः, नाडिंधमाः पन्थान इति इरंमदः / / 5 / 1 / 127 // तद्योगात् , यथा- मञ्चाः क्रोशन्ति // 121 // म० वृ०--कर्मण इति निवृत्तम् / इरापूर्वाकूलादुद्रजोद्वहः // 5 / 1 / 122 // न्मदेः 'खश श्याभावश्च' निपात्यते / इरा-सुरा, म० वृ०-कूलपराभ्यामुद्रजोद्वहाभ्यां परात् तया माद्यतीति इरंमदः / / 12 / 'खश्' स्यात् / कूलमुद्रजो गजः, कूलमुद्वहा नदी। | नग्न-पलित-प्रिया-ऽन्ध-स्थूल-सुभगा-ऽऽढय-तद॥१२२॥ . . न्ताव्यर्थेऽच्वेभुवः खिष्णु-खुकत्र वहा-ऽभ्राल्लिहः // 5 // 1 / 123 / / // 5 / 1 / 128 // म० वृ०-बहाभ्रपराल्लिहः ‘खश्' स्यात् / वहं म० वृ०-नग्नादिभ्यः केवलेभ्यस्तदन्तेभ्यश्च लेढीति वहलिहो गौः, अभ्र लिहः प्रासादः / / 123 // अळ्यन्तेभ्यः व्यर्थे भवतेः 'खिष्णुखुको प्रत्ययौ' बहु-विध्वरुस्तिलात्तुदः // 5 / 1 / 124 // भवतः / अनग्नो नग्नो भवति-नग्नंभविष्णुः, म०वृ०-एभ्यः परात्तुदेः 'ख' स्यात् / बहुं नग्नंभावुकः; 'पलितंभविष्णुः, पलितंभावुकः; तुदति (इति) बहुंतुदं युगम् , विधंतुदो राहुः, रप्रियंभविष्णुः, प्रियंभावुक ; एवमन्धंभविष्णुः,3 अरुंतुदः पीडाकरः, तिलतुदः काकः / / 124|| अन्धंभावुकः, स्थूलभविष्णुः,४ स्थूलभावुकः; तद न्तेभ्यः,- अननग्नोऽनग्नो भवति-अनग्नंभविष्णुः, __ अव०-अरुस् , तुद् , अरुस्तुदतीति खश , अनग्नंभावुकः; 'सुनग्नंभविष्णुः इत्यादि / अच्वे'खित्यनव्यया०'( 3 / 2 / 111 )इत्यनेन सपरतो रिति किम् ? आढयीभविता (तृच् ] // 128|| मोऽन्तः, 'संयोगस्यादौ स्कोलुक् ' (2 / 1 / 88) इत्यनेन स् लुप्यते / / 124 / / प्रव०-उपपदविधौ तदन्तविधिर्नाश्रित इति ललाट-वात-शर्धातपाःऽज-हाकः // 5 / 1 / 125 / / तदन्तग्रहणं पृथक् कृतम् / १अपलितः पलितो भवति / अप्रियः प्रियो भवति / अनन्धोऽन्धो म० वृ०--प्रभ्यः कर्मभ्यः परेभ्यो यथासङ्ख्य भवति / 4 अस्थूलः स्थूलो भवति-स्थूलंभविष्णुः, तपज-हाक्भ्यः 'खश' स्यात् / ललाटंतपः, वातमजा स्थूलंभावुकः / एवं सुभगंभविष्णुः, सुभगंभावुकः / मृगाः, शद्ध जहा माषाः // 125 / / एवमाढयादिष्वपि ज्ञेयम् / असुनग्नः सुनग्नो अव०--'शुधूङ शब्दकुत्सायाम'- शूध , शर्द्धनं= भवतीति सुनग्नंभविष्णुः // 128 // शर्द्धः, अल् , शद्धं जहति (इति शर्द्धजहाः) // 125 / / कृगः खनट करणे // 5 / 1 / 29 / / ★अस्य 'इत्यर्थे कृतः इत्यनेन सह सम्बन्धः / Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 5 पा० 1 सू० 130-131 म० वृ०-नग्नादिभ्योऽळ्यन्तेभ्यश्ळ्य र्थे करोतेः / म० वृ०-नाम्नः पराद्मेः “खड़ ड इति प्रत्ययौ करणे 'खनट' स्यात। अनग्नो नग्नः क्रियतेऽने- | खश्च" भवन्ति, विहायसशब्दस्य विह' आदेशः / नेति नग्नकरणं घृतम्, पलितंकरणं तैलम् , खड्,-- 'तुरो गच्छति--तुरङ्गः, भुजेन [कौटिल्येन] प्रियङ्करणं शीलम , अन्धंकरणः शोकः, स्थूल- भुज इव वा गच्छति-- २भुजङ्गः, विहायसा गच्छकरणं दधि, "सुभगंकरणं रूपम् , आढ्यंकरणं / ति-- विहङ्गः / ड,-- तुरगः, भुजगः, विहगः, वित्तम , तदन्त,-- "अनग्नंकरणः पटुः // 129 / / प्रवगः, प्लवगः, अत्यन्तगः, सर्वगः, सर्वत्रगः, अनन्तगः, ग्रामगः, परदारगः, गुरुतल्पगः / अग्राप्रव०-'अपलितः पलितः क्रियतेऽनेनेति / दिभ्यस्तदन्तेभ्योऽपि डः,-- अग्रगः, सेनाग्रगः आ२अप्रियः प्रियः क्रियतेऽनेन / उअनन्धोऽन्धः दिगः, पङ क्त्यादिगः, 'मध्यगः, अन्तगः, अध्वगः, क्रियतेऽनेन / “अस्थूलः स्थूलः क्रियतेऽनेन / / पुरावगः, दूरगः, अदूरगः, पारगः, शास्त्रपारगः, "असुभगः सुभगः क्रियतेऽनेन / अनाढयः इत्यादि / अथ संज्ञायामपि डः,-- खगः, 'अगः, .. आव्यः क्रियतेऽनेन / "अनग्नो नग्नः क्रियतेऽने- नगः, 1 उरगः, १पिन्नगः, १२पतगः, १३आपगा नेति वाक्यानि / अनग्नंकरणः पटुः, एवमपलितं- नदी इत्यादि 4 / अगो वृषल: शीतेनेत्यसंज्ञायाकरणो रमः इत्यपि / व्यर्थ इत्येव- नग्नं मपि डः / अथ खः,- १५सुतङ्गमः, १६मितङ्गमोकरोति द्यूतेन / अत्र प्रकृतिविकारभावो न विव- ऽश्वः, मितङ्गमा हस्तिनी, जनङ्गमश्चण्डालः,१७ क्ष्यते / अच्वेरित्येव- नग्नीकुर्वन्त्यनेन / अत्र तुरङ्गमः, भुजङ्गमः [=सर्पः], विहङ्गमः [-पक्षी], खनप्रतिषेधसामर्थ्यात् अनट्प्रत्ययोऽपि न भव- नभसंगमः =पक्षी] इत्यादि // 131 / / ति / नग्नीकरणमित्यत्रानटखनटो रूपे, समासे, स्त्रियां वा नहि कोऽपि विशेषः // 129 // प्रव०-'तुरिः सौत्रो धातुः, 'तुर् , तोरतीति भावे चा-ऽऽशिताद्' भुवः खः // 5 / 1 / 130 // 'नाम्युपान्त्य०' (5 / 1 / 54) इति कः / २'भुजङ्गः', अग्रे म. वृ०-आशितशब्दात्पराद् भवते वे करणे प्रवङ्गः, प्लवङ्गः इत्यपि; प्रवेण गच्छति-- प्रवङ्गः, च वाच्ये 'ख' स्तात् / आशितेन तृप्नेन भूयते प्लवेन गच्छति-- प्लवङ्गः; - पत् ,-- पतत्यनेनेति भवता (इति) आशितंभवो वर्त्तते भवतः [सूत्रस्य पतः, 'पुन्नाम्नि घः' (५।३।१३०।इति) घः, पतः= उदाहरणमिदं भावे / आशितो भवत्यनेनेति आशि पक्षः, पतैर्गच्छति (इति) पतङ्गः, पतो गच्छति वा तंभव ओदनः ( करणे वाक्यमिदम्) / ( एवम ) पतङ्गः। भुजः पाणिः, भुज इव पाणिरिव गच्छआशितं भवत्यनया-आशितंभवा पञ्चपूली / असरू तीति भुजगः / 'गुरुतल्पगः' इत्यस्याये प्रतीपगः, पत्वादनडपि, न घञ् , सरूपत्वात , आशितस्य पुरोगः, पीठगः, तीरगः, इत्यपि / गुरुतल्पः शय्या कलत्रं वा / "( एवम् ) गृहमध्यगः। (एवम् ) भवनम-आशितभवनम् // 130 // शाखान्तगः / आदिशब्दात् अगारगः, स्त्रयगारगः। प्रव०-आशित इत्यत्र अश्नातेः कर्तरि ज्ञाने खे आकाशे गच्छतीति खगः पक्षी / न गच्छच्छार्चार्थत्रीच्छील्यादिभ्यः क्तः' (5 / 2 / 92) इत्य तीति अगो वृक्षः पर्वतश्च, एवं नगशब्दोऽपि ज्ञेयः / नेन क्तः, निपातनात् दीर्घत्वं च ; यद्रा आज पूर्वा १°उरसा गच्छति-- उरगः, पृषोदरादित्वात् सकारदविवक्षितकर्मकान् ‘गत्यर्थाः' इति क्तः // 130 // लोपः / १'पद्भ्यां न गच्छति, पन्नं गच्छति वा-- . पन्नगः= सर्पः / १२पतो गच्छति-- पतगः-पत्री। नाम्नो गमः खड्डौ च विहायसस्तु विहः १३आपोऽस्य सन्ति इत्यापोऽब्धिः, 'ज्योत्भादिभ्यो।।५।१।१३१॥ ऽण्' (7 / 2 / 34), तमापमब्धि गच्छति-- आपगा, Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अं-डप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 181 (एवं) निम्नगा,समुद्रगा, सततगा इत्यपि ज्ञातव्याः / / टप्रत्ययो बाध्यते , तेन 'शङ्करा' इति सिद्धम् , अन्य "एवमाशु शीध्र गच्छति-आशुगः-शरः। १५सुतं | था 'शङ्करी' स्यात् / / 134 / / सुतेन वा गच्छति-- सुतङ्गमो नाम मुनिः, यस्य पार्थादिभ्यः शीङः / / 5 / 1 / 135 // सौतङ्गमिः पुत्रः / १६मितं गच्छति-- मितङ्गमो म०७०-अनाधारार्थ आरम्भः / पार्थादिभ्यो ऽश्वः / १७चण्डालाग्रे पूर्वगमाः पन्थानः, हृदयं नामभ्यः परात् शीक: 'अ' स्यात् / पार्वाभ्यां शेते-- गमा वाचः, प्रवङ्गमः कपिः, प्लवङ्गमो ददुरः, एते | पार्श्वशयः, पृष्ठशयः, उदरशयः, तथा दिग्धसहशयः ऽपि प्रयोगा ज्ञातव्याः // 13 // बहुवचनाद्यथादर्शनमन्येभ्योऽपि // 135 / / सुग-दुर्गमाधारे // 5 / 1 / 132 // अव०-१दिग्धेन सह शेते दिग्धसहशयः / ____ म० वृ०-सुदुभ्यां परागमेराधारे 'डः' स्यात्।। सुखेन गम्यतेऽस्मिन्निति सुगः, [दुःखेन गम्यतेऽ दिग्धेन, कोऽर्थः ? विषाक्तेन, तैलादिना खरण्टिस्मिन्निति] दुर्गः पन्थाः / असरूपत्वादनडपि,-सुग तेन वा / दिग्धसहशय इत्यत्र दिग्धसहात् तृतीया समासान् शीटोऽकारप्रत्ययः, पश्चादुपपदसमासः मनः, दुर्गमनः। सुगमः, दुर्गमः इति कर्मणि / 132 // // 135|| निर्गो देशे // 5 / 1 / 133 // ऊर्ध्वादिभ्यः कत्तुः / / 5 / 1 / 136 // म. वृ०-निपूर्वादमेराधारे देशे 'डः' स्यात् / म० वृ०-ऊर्ध्वादिनामभ्यः कर्तृवाचिभ्यः निर्गम्यते तस्मिन् देशे इति निर्गो देशः / देश | परात् शीङः 'अः' स्यात् / ऊर्ध्वः शेते=ऊर्ध्वशयः / इत्येव-निर्गमनः // 133 / / उत्तानं ( ? उत्तानः ) शेते-उत्तानशयः / बहुवचनशमो नाम्न्यः // 5 // 14134 // माकृतिगणार्थम् / / 136 / / म. वृ०- शम्नामपराद्धातोर्नाम्नि 'अः प्रत्य प्रव०-अवमुर्द्धशयः, अवगतो मुर्दा यस्य सोयः' स्यात् / २शम्भवोऽर्हन् , शं करोति शङ्करः, "शङ्गरः, शंवदः ऋषिः, 'शंवरः। तथा (अव्ययानां ऽवमुर्द्धशयः इत्यपि उदाहरणमुत्तानशय इत्यस्याग्रे ज्ञेयम् / / 136 / / कर्मत्वं दृश्यते, तेन) शङ्करा नाम शकुनिका तापसी वा परिवाजिका वा / नाम्नीति किम् ? शङ्करी आधारात् // 5 / 1 / 137 // जिनदीक्षा // 134 // म० वृ०-आधारवाचिनो नाम्नः शीङः 'अः' स्यात् / खे शेते-खशयः, गतशयः, हृदि शेते = प्रव०-शम् इत्यव्ययं सुखेऽर्थे वर्तते / शं / हृच्छयः, बिलेशयः, मनसिशयः, कुशेशयः; सप्तम्या सुखे भवतीति / शं सुखं करोतीति वा। शङ्गरो अलुप् / गिरिश इति संज्ञायां लोमादित्वात् शः, नगरमृषिश्च / 'शंवरो रुरुमगविशेषः / शंखरो क्रियार्थत्वे तु गिरौ शेते-गिरिशय इति [भवितव्यदैत्योऽपि भण्यते कु(त्र)चित् / स्वः पश्य इत्या मिति योगः] // 137 // दिषु अव्ययानां कर्मत्वं दृश्यते / एके वैयाकरणा ___ अव०-"फणगर्त्तरथाजमोद' [हेमलिङ्गानुशासने अव्ययानां कर्मत्वं न मन्यन्ते / तन्मतमाक्षिप्य पुस्त्रिलिङ्गप्रकरणे सप्तमश्लोके] इति वचनात् गत्तै'अव्ययानां कर्मत्वं दृश्यते' इति आचार्येणोक्तम् / शब्दः पुंस्त्रीलिङ्गः, ततो गर्ते शेते-गर्त्तशयः / ततः शम् इत्यव्ययेऽपि कर्मणि सति हेत्वादिष्वपि / रगिरिरस्यास्तीति लोमपिच्छादेः शेलम् (72 / 28 / टप्राप्तौ सत्यां 'शमो नाम्न्यः' इति सूत्रेण परत्वात् / इति) शः // 137 / / Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 5 पा० 1 सू० 138-144 चरेष्टः / / 5 / 1 / 138 // म० वृ०-पूर्वाकर्तृवाचिनः सर्तेः 'टः' स्यात् / पूर्वः सरति = पूर्वसरः, पूर्वो भूत्वा सरतीत्यर्थः / म० वृ०-आधारवाचिपराच्चरेः 'ट:' स्यात् / / कर्तुरिति किम् ? पूर्व देशं सरति = पूर्वसारः 141 कुरुषु चरति-कुरुचरः, एवं मद्रचरः, वनेचरः, निशाचरः / टकारो ब्यर्थः,तेन कुरुचरी, मद्रचरी / 138 / स्था-पा-स्ना-त्रः कः // 5 / 1 / 142 / / __म० व०-नाम्नः परेभ्यः स्थादिभ्यः 'कः' प्रव०-आधारादित्येव- कुरूंश्चरति, पञ्चालांश्च- स्यात् / समस्थः, विषमस्थः, कूटस्थः, कपित्थः, रति; यदि चात्र अण क्रियते तथा (? तदा) कुरुचारः, दधित्थः, महित्थः, अश्वत्थः, कूलत्थः। द्विपः, पश्चालचार इति के प्रयोगौ ज्ञातव्यौ // 138 // पादपः, कच्छपः, अनेकपः / नदीष्णः। आभिक्षा-सेना-ऽऽदायात् // 5 / 1 / 139 // तपत्रम् / परत्वादयं योगः 'शमो नाम्न्यः' (5 / 1 / म० वृ०-अनाधारार्थ आरम्भः / एभ्यः पराञ्चरेः 134) इति अम् [=अप्रत्ययं] बाधते [शंस्थो नाम कश्चिद्] / 'शंस्था' इत्यसरूपत्वात् किम् / / 142 // .. 'टः' स्यात् / भिक्षां चरति-भिक्षाचरः, भिक्षाचरी; 'सेनाचरः, २आदायचरः // 139 / / अव०-द्वौ आरोहकमात्मानं च पाति (इति) द्विपः / आतपमातपाद्वा त्रायति-आतपत्रम् / अव०-१सेनां चरति-परीक्षते, सेनया वा एवं धर्मत्रम् // 142 / / चरति (इति) सेनाचरः, कोऽर्थः ? तापसव्यञ्जनः; शोकापनुद-तुन्दपरिमृज-स्तम्बरम-कर्णेजपं * तापसस्य व्यञ्जनं चिह्न यस्य सः। आदाय= गृहीत्वा चरति-आदायचरः, आदानं ग्रहणं कृत्वा प्रिया-ऽलस-हस्ति-सूचके / 5 / 1 / 143 / चरतीत्यर्थः , किमादाय किं गृहीत्वा इति विवक्षा ___ म० वृ०-एते यथासङ्घय प्रियादिष्यर्थेषु न कत्तेव्या // 139 // 'कान्ता' निपात्यन्ते / शोकापनुदः प्रियः / तुन्दपुरो-ऽग्रतोऽग्रे सर्तेः / / 5 / 1 / 140 // परिमृजोऽलसः / स्तम्बेरमो हस्ती। कर्णेजपः खलः [सूचकः ] / एध्विति किम् ? शोकापनोदो म० वृ०-एभ्यः नामभ्यः परात् ‘सर्तेटः' धर्माचार्यः इत्यादि // 14 // स्यात् / पुरः सरति पुरःसरः, अग्रतःसरः, २अग्रेसरः, सप्तम्यलुप् , अग्रे इति शब्दः एकारान्तमव्ययं अव०-शोकापनुदादिशब्दाश्चत्वारश्चतुर्वर्थेषु वा, सूत्रनिपातनाद्वा एकारः // 140 // विज्ञयाः कप्रत्ययान्ताः / शोकमपनुदति अपहरति इति पुत्रादिरानन्दकर एवोच्यते / तुन्दमुदरं परिअव०-अग्रे अग्रतः, 'आद्यादिभ्यः' (2 / मार्षि = तुन्दपरिमृजोऽलसः / स्तम्बे रमते इति 84 / इति) तस, अग्रतः सरतीति अग्रतःसरः / वाक्यम् / कर्णे जपति इति / "आदिशब्दात् तुन्द अग्रे सरतीति अग्रेसरः, सप्तम्या न लुप् , अग्रे | परिमार्ज आतुरः, स्तम्बे रन्ता पक्षी, कर्णे जपिता शब्दो वा / अयं सरति अग्रेण वा सरति इति / एवं मन्त्री / एषु चतुर्षदाहरणेषु मध्ये आद्ययोरुदाहरणपुरःसरी, (अग्रतःसरी,) अग्रेसरी॥१४॥ योघं , उभयोस्तु तृच् / / 14 / / पूर्वात्कत्तुः // 5 / 1 / 141 / / मूलविभुजादयः / / 5 / 1 / 144 // * अत्र बहवृत्तिलघुन्यासे एवं पाठः-प्राप्यात् कर्मणः कदाचिदण भवतीति यद्यरणानीयते तदा समासोऽपि भवति, तथा च कुरुचारः पञ्चालचार इत्यपि / यो हि तापसरूपं कृत्वा प्रच्छन्नतया सेनायां परिभ्रम्य तत्र प्रवर्तमान कार्य जानाति स तापसव्यञ्जन उच्यते / Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुध-विण क्विपप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [183 म. वृ०-मूलविभुजादिशब्दाः ‘कान्ता' यथा- | इन्द्रशर्मा, सुदामा, अश्वत्थामा' ; कचिद्ग्रहणात्केदर्शनं निपात्यन्ते / मूलानि विभुजति मन्दयति / वलादपि धातोर्मन ,- शर्म, [वर्माऽपि] हेम, दामा, (इति) मूलविभुजो रथः, उर्वीरुहो वृक्षः, 'कुमु- पामा / वन ,-- भूरिदावा, घृतपावा, अग्रेगावा, दम् , महीं धरति-- महीध्रः शैलः, उषबंधोऽग्निः , विजावा; [ सर्वत्र 'वन्याङ पञ्चमस्य।४।२।६५ ] अब्ध्र मेघः, "सरसिरुहं पद्मम् , धर्मप्रदः, क्वनिप-- सुधीवा, सुपीवार / केवलादपि,-- कृत्वा, कामप्रदः, "स्वर्गप्रदः, शास्त्रप्रज्ञः, आगमप्रज्ञः कृत्वानौ; धीवा, पीवा / विच-कीलालपाः, शुभंयाः / // 144 // केवलादपि विच् ,-- रेट , रोट् , 'वेट , जागः // 147 // अव०-टिस्युक्त कृता ( 3 / 1 / 49) इति समासार्थमत्र पाठः, अन्यथा 'नाम्युपान्त्यः' (5 / 1 / ___अव०-कनिप् इत्यत्र ककारपकारौ किपित्५४) इति के सिध्यति / उया रोहति इति कार्यार्थौ / 'एवं सुशर्मा, सुतर्मा, पृषोदरादित्वात् वाक्यम् / रकौ पृथिव्यां मोदते = कुमुदं कैरवमु- सस्य तः / 2 (एवं) प्रातरित्वा,प्रातरित्वानौ; कनिप् च्यते / अपो बिभर्ति अब्भ्रम् / “सरसि रोह- भवति / 'मन्वनकनिप०' इति सूत्रे वनिप्प्रत्ययतीति / एवं नखानि मुश्चन्ति-नखमुचानि धनुषि / विषये प्रातरित्वा प्रातरित्वानौ इति प्रयोगौ ज्ञातअन्तर्भूतण्यर्थो वा / काकेभ्यो गूहनीयाः काकगुहा- व्यौ / अत्र च प्रातर , इण्क, (यद्वा) इंक, इक स्तिलाः / 'धर्मा य प्रददाति, कामाय प्रददाति, (वा), प्रातरेति- प्रातरित्वा, प्रातरितः- प्रातरि- . स्वर्गाय प्रददाति, शास्त्रेण प्रजानाति, आगमेन त्वानौ; क्वनिप् , 'हस्वस्य तः०' (4|4|113) इति प्रजानातीति वाक्यानि // 14 // तोऽन्तः / एवमनुमानतः शब्दसिद्धिलिखिता। कर्वदुहेडु घः / / 5 / 1 / 145 // निप् इत्यस्याये इयमवचूरिज्ञेया / ३'रेट्' इत्यत्र 'रुशं रिशंत् हिंसायाम्' (इति) रिश् , विच , गुणः, ___ म० वृ०-नाम्नः पराद् दुहेर्डघप्रत्ययः स्यात् / 'यजसृजः' (2 / 1187) इति शस्य षः, धुटस्तृतीयः' कामान् दुग्धे= [पूरयति] कामदुघा, एवं ध्यान (२।११७६।इति) षस्य डः, 'विरामे वा' (1 / 3 / 51 // दुघा / असरूपत्वात् किम् ,-- कामधुक् / / 145 / / इति) डस्य ट् / “रोट्', 'रुहं जन्मनि' (इति) रुह, * अव०-डुघ इति ककारो (? डकारो)ऽन्त्य विच् , 'हो धुट्पदान्ते' (2 / 1282) हस्य ढः, 'धुटस्वरादिलोपार्थः // 145 / / स्तृतीयः' (2 / 1176) डः, 'विरामे वा' (2 / 3 / 51) इति भजो विण् / / 5 / 1 / 146 // ट् / “वेट्' इत्यत्र विशंत् प्रवेशने' विश् , विच , शेषं पूर्ववत् // 14 // ___ म० वृ०-नाम्नः पराद् ‘भजेविण् स्यात् / अर्द्धभाक् , पादभाक् , दूरभाक् / वकारो विण क्विप् // 5 / 1 / 148 // किपोः सारूप्यार्थः, तेन विविषये न किप्॥१४६।। म. वृ०-[पकारः पित्कार्यार्थः, इकार उच्चारणार्थः] नाम्नः पराद्धातोः 'किप' स्यात् , कचित् / उखेनोप्रव०-'अर्द्ध भजते / पादं भजते / दूर खया वा स्रसते-- उखात्रत् , पर्णवत , शकहूः, भजते / एवं प्रभजते-- प्रभाक् / इकार उच्चारणार्थः / 4 यवलूः, खलपूः, 'अक्षयूः, मित्रभूः, प्रतिभूः' णकारो वृद्धयर्थः // 146 // 'कटचिकीः / केवलादपि,-- १०पाः ['पाः' इत्यत्र मन्-वन्-वनिप्-विच कचित् // 5 / 1 / 147 // 'ईय॑ञ्जनेऽयपि' (4 / 3 / 97) इति साक्षात् व्यञ्जन म० वृ०-"नाम्नः पराद्धातोरेते प्रत्ययाः कचि- प्रतिपत्त्या ईकारो न भवति / ११वाः, १२कीः, गीत, लत्यानुसारेण भवन्ति" / मन् ,- इन्द्रं शणाति= / ऊः, लूः, १४क्रुङ , पक् / तथा १५"सदि' इत्यादि Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं 5 पा०१सू०१४९ भ्यश्च,-- १६दिविषत् , यसत्, 1 सभासत् , | (2 / 1171) इति / १५सदि-सू-द्विष-द्रह-दुह-युज 18 / १६अण्डसः. 2 प्रसः / २१मित्रद्विट , २२प्र- | विद-भिद छिद-जि-नी-राजिभ्यश्च किप , क्रमेण द्विट् , द्विषो जेनीयिषीg२३ वः' / २४मित्रध्र क् / / प्रयोगाः / 16 ( दिवि सीदतीति ) दिविषत-देवः, २५गोधुक् , २६कामधुक् / अश्वयुक् , २प्युन , सप्तम्या अलुप् , 'भीरुष्ठानादयः' (2 / 3 / 33) इति युञ्जौ, युञ्जः / तत्त्ववित , [विदेरविशेषेण ग्रहणम् ] / षः। देवी (?) / सभ्याः सभापुरुषाः (?सभ्यः बलभित् , गोत्रभित , भित् / रज्जुन्छित , भव- =सभापुरुषः) / १८"प्रसत्', प्रसीदतीति प्रसत्च्छित् , प्रच्छित् , छित् / शत्रुजित् , प्रसेनजित् , प्रसादकरः / एवमुपसत्-पार्श्ववर्ती। अण्डं सूते / प्रजित् , अभिजित् / सेनानी:, अग्रणीः, ग्रामणीः, २०प्रसूते / मित्रं द्वेष्ट्रीति २१मित्रद्विट् / २२प्रद्वेप्रणीः, नीः, नियः / विश्वे राजते- विश्वाराट् , 'वसु- टीति / २३हन , भृशं हन्ति (इति) यङ , 'हनो राटोः' (3 / 2 / 81) इति दीर्घः, राजसु राजते--राज- नीर्वघे' (4 / 3 / 99) इत्यनेन घ्नी, ततः ‘सन्यश्च' राट् , संराजते-- सम्राट , राद / तथा अञ्चेः ,-- (4 / 1 / 3) इति द्वित्वम् , सीष्ट, 'स्वर' (3 / 4 / 69) २९दध्यङ्, ३०देवद्रय , 3१अदद्रयङ, तिर्य- इति बिट , अतः' (4 / 3 / 82) अकारलोपः / मित्रेण ह, सध्यङ, सम्यङ / कथं उदिक ? क्रुत्स- युष्माकं द्विषः= शत्रवो जेध्नीयिषीष्ट इत्यर्थः / म्पदादित्वात् किम् / / 148|| २४मित्रं द्रुह्यति,- मित्रध्रुक् / २५गां दोग्धीति अव०-उखशब्दः पुते वर्तमानः पुंस्त्रीलिङ्गः। गोधुक् / कामं दोग्धीति कामधुक ,भ्वादेर्दादेघः' स्थाल्यां तु स्त्रीलिङ्गः / उखासत् / एवं पर्णानि (2 / 1 / 83) इति हस्य घः, 'धुटस्तृतीयः' (2 / 1176) ध्वंसते पर्णध्वत् , किप , सिलोपे 'स्रसध्वंसकस्स इति गः, 'गडदबादे०' (2 / 1177) इति दस्य धः, नडुहो दः' (2 / 1 / 68) इत्यनेन सकारस्य दकारः / 'विरामे वा' (1 / 3 / 51) क् / २७अश्वं युनक्तीति शिकान् आह्वयति-- शकहू:, किप् , य्वृत , 'दीर्घम अश्वयुक् / सर्वत्र किप्', ततः सिः, 'दीर्घड्याब्व्यञ्जवोऽन्त्यम्' (४।१।१०३।इति) दीर्घः / एवं परिव्य नात्सेः (1 / 4 / 45) इति सिलोपः। २८युनक्तीति युद्ध यति-- परिवीः, विप् , 'यजादिवचेः किति' (4 / 1 / क्किप् , सिः, 'युमोऽसमासे' (1 / 4 / 71) इति नोऽ७९) इति वृत , 'दीर्घमवोऽन्त्यम्' (4 / 1 / 103 / न्तः, सिलोपः, 'युजश्चक्रञ्चो०' (2 / 1 / 71) इत्यनेन इति) दीर्घः / “यवान लुनाति-- यवलूः / "खलं नस्य ङ , अन्यत्र (युञ्जी इत्यादिषु) 'तवर्गस्य०' पुनाति - खलपूः / तथा अक्षैर्दीव्यति-- अक्षय्ः, (1 / 3 / 60) इति नोऽन्तस्य ब् / अश्वयुक् इत्यत्र समाक्किप् , 'अनुनासिके च च्छवः शूट' 4 / 1 / 108) सत्वात् नोऽन्तो न प्राप्नोति। दध्यश्चतीति विप्, इति वस्य ऊः, ततो यत्वम् / "मित्राद् भवति इति 3°देवमश्चतीति देवव्यङ, 3 अमुमश्चति, सर्वत्र मित्रभूः / प्रतिभवतीति प्रतिभूः / उत्तमर्णाधमर्ण क्विप् , 'सर्वादिविष्वग्छ' ( 3,2 / 122 ) इति योरन्तराले यः साक्षी स प्रतिभूः इच्युच्यते / 'कट, डद्रिः, 'अचः' (1 / 4 / 69) इति नोऽन्तः, 'युजश्च०' अग्रे चिकीर्ष, कटं चिकीर्यतीति विप् , 'अतः' / 4 / (2 / 1171) नोऽन्तस्य छ / प्राङ् प्रत्यक इत्यत्र 3 / 82) इत्यनेनाकारलोपे क्रियमाणे षकारोऽसन् प्राञ्चतीति प्रत्यञ्चतीति बाक्याभ्यां किप् / दिइ यते इति दिक् , किप् , 'ऋत्विदिशशम्पृशत्रजज्ञयः इति सकार परिकल्प्य रात्सः' (2 / 190) इति सपारो लुप्यते, ततो 'रः पदान्ते'० (13.53) दधृषुष्णिहो गः' (2 / 1 / 69) इति गादेशः / 148 / इति विसर्गः / १०पाति पिबति वा-- पाः / ११वा स्पृशोऽनुदकात् // 5 / 1 / 149 / / तीति वाः / १२किरतीति कीः, १३गिरतीति गीः; म. वृ०-उदकवर्जान्नाम्नः परात्स्पृशेः 'विप्' 'ऋतां विङतीर्'(४।४।११६) इतीर , ‘पदान्ते' (2 / 1 / / स्यात् / घृतस्पृक् , मर्मस्पृक् / अनुदकादिति किम ? ६४।इति दीर्घः / 14 क्रुश्चतीति क्रुङ, ‘युजश्च०' | उदकस्पर्शः / / 149 / / Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्विप् टक् सक्-णिनप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 185 अव०-अनुदकादिति पर्यु दासाश्रयणादुदक- | तादृक्षा; तादृक् / अन्य,- अन्यादृशः, अन्यादृशी: सदृशं अनुपसर्ग नाम गृह्यते, तेनेह किम् न स्यात,- अन्यादृक्षः, अन्यादृक् / समान, सदृशः, सदृशी: उपस्पृशति / / 149 / / सहक्षः, सदृक्षा; सदृक् / एभ्य इति किम् ? वृक्ष अदोऽनन्नात् // 5 / 1 / 150 // इव दृश्यते। उपमानादितिः किम् ? स दृश्यते // 152 // म० वृ०-अन्नवर्जान्नाम्नः पराददेः 'विप् ' स्यात् / आममत्ति-आमात् , सस्यात् / अनन्नादिति प्रव०-१'दृग्श दृक्षे' (3 / 2 / 151 / इति) समाकिम् ? अन्नादः / बहुलाधिकारात् कणाद: पिप्प- नस्य सभावः / / 152 // लादः / किप् सिद्धः, अन्नप्रतिषेधार्थ वचनम् / 150 / कतुर्णिन् / / 5 / 1 / 153 // क्रव्यात्-क्रव्यादावाम-पक्कादौ / / 5 / 1 / 151 / / ____ म० वृ०-कर्तृवाचिन उपमानभूतानाम्नः म. वृ०-क्रव्यात्क्रयादशब्दी यथासंख्यं पराद्धातो-णिन् प्रत्ययः' स्यात् / कृत्त्वात् कर्तरि / 'किवणन्तौ' निपात्येते, यदि आमात्पक्काच्चाभिधेयौ उप इव क्रोशति उपक्रोशी. ध्वाङ क्षरावी. सिंहस्याताम् / क्रव्यात्-आममांसभक्षः, क्रव्यादः-पक्क नर्दी / कर्तुरिति किम् ? शालीनिव कोद्रवान् मांसभक्षः // 15 // भुङ्क्ते / अशीलार्थो जात्यर्थश्चारम्भः // 153 / / अव०-क्रयादशब्दः पक्कमांसभक्षणे वर्त्तते। अव०-१ध्याक्ष इव (रौ)ति / 2 (एवं) खरतथा निपातनात क्रव्यात् , अत्र कि / क्रव्याद नादी // 153 / / इत्यत्र च निपातनात अण / तथा आममांसवाच्यपि क्रव्यात् ? क्रव्यशब्दः) क्रव्याद इति निपातनसा अजातेः शीले // 5 / 1 / 154 // मात् वृत्तौ पक्कमांसे वर्त्तते / अथवा कृत्तविकृत्त म० वृ०-अजातिवाचिनो नाम्नः पराद्धातोः शब्दस्य,विशेषेण कृत्तं-विकृत्तम् पूर्व कृत्तं द्विधा त्रिधा; | शीलेऽर्थे 'णिन्' स्यात् / उष्णं भक्त इत्येवं शील: सामान्येन पक्कमित्यर्थः, (पश्चात विकृत्तम् ,) विशेषेण उष्णभोजी, शीतभोजी। अजातेरिति प्रसज्यप्रतिईषद्वा कृत्तम् , विशिष्टमीषत् (वा) पक्कमित्यर्थः , षेधादसत्त्ववाचिनोऽप्युपसर्गाणिन्,- उदा सरतीततः कृत्तं (च) तत् विकृत्तं च कृत्तविकृत्तम्, तस्य त्येवंशील उदासारी, प्रत्यासारी, प्रस्थायी, प्रतिबोधी, कृत्तविकृत्तस्य शब्दस्य पक्कमांसार्थस्य पृषोदरादि अयायी (? प्रयायी), प्रतियायी / अजातेरिति किम्? त्वात्क्रव्यादेशः क्रियते / किवण्प्रत्ययौ सिद्धौ, ब्राह्मणानामन्त्रयिता, शालीन भोक्ता // 154 // विषयनियमार्थ वचनमिति // 15 / / त्यदायन्य-समानादुपमानाद् व्याप्ये अव०-"तृन् शीलधर्मसाधुषु' (5 / 2 / 27) दृशष्टक्सको च / / 5 / 1 / 152 / / इत्यनेन तृन् / शील इति किम ? उष्णभोज आतुरः / (इदं) शालीन भोक्ता इत्यस्याग्रे ज्ञेयानि (? ज्ञेयम् ) म. वृ०-त्यदादेः, अन्यशब्दात् समानशब्दा // 154 // चोपमानभूतात् व्याप्ये कर्मणि वर्तमानात् पराद् दृशेाप्ये एत्र 'टक् , सक् विप् च' भवन्ति / साधौ / / 5 / 1 / 155 // त्यदादि,-स्य इव दृश्यते- त्यादृशः [ टक् ], त्या- म० वृ०-नाम्नः पराद्धातोः साधावर्थे 'णिन्' दृशी [टक् ]; त्यादृक्षः [सक् ], त्यादृक्षा [ सक्]; | स्यात् / अशीलार्थ आरम्भः / 'साधुकारी, २साधुक्विप् , त्यादृक् / एवं तादृशः, तादृशी; तादृशः, / दायी, उचारुनी, "सुष्ठुगामी / 'बहुलाधिकारात् Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 5 पा० 1 सू० 156--161 साधु वादयति वादको वीणाम् , साधु गायतीत्यादौ / अव०-१अग्निष्टोमेन इवान् / करणादिति न णिन् // 155 // किम् ? गुरून इष्वान् / दरी (?) // 158 / / __ 'निन्ये व्याप्यादिन् विक्रियः // 5 / 1 / 159 / / अव०-'साधु करोतीति / साधु ददाति / उचारु नृत्यतीति / सुष्ठु-शोभनं गच्छति / 'प्र म० ३०-व्याप्यान्नाम्नः पराद्विपूर्वात् क्रीणाभोक्ता, संभोक्ता इत्यत्र बहुलाधिकारान्न णिन् / 155 / / तेभूतेऽर्थे कर्तरि निन्द्ये 'इन्' स्यात् / सोमविक्रयी, घृतविक्रयी, तैलविक्रयी विप्रः२ ।निन्द्य इति किम ? ब्रह्मणो वदः // 5 / 1 / 156 / / घृतविक्रायो' वणिक् // 159|| म० वृ०-ब्रह्मपराद्वदे-णिन्' स्यात् / ब्रह्मवादी // 156 // अव०-'कर्तरि निन्ये इति। रविप्रजाति वात्सोमघततैलादिविक्रये निन्द्यत्वम। विक्रयणम प्रव०-ब्रह्म ब्रह्माणं वा वदति-ब्रह्मवादी / / विक्रयः, 'युवर्ण०' (5 3 / 28) इत्यल् , घृतस्य विक्रअयमपि योगोऽशीलार्थ आरम्भः, जात्यर्थोऽसरूप- | यः घृतविक्रयः, घृतविक्रयोऽस्यास्तीति घृतविक्र-'' विधिः ( ? धे:) 'कर्मणोऽण' (5 / 1 / 72) इत्यादे- यी, (इत्येवं) मत्वर्थीयेनेना सिध्यति, कुत्सायामणनिवृत्त्यर्थश्च // 156 // बाधनार्थ वचनमिदम् / धान्यविक्रायः तैलवता-ऽऽभीक्ष्ण्ये / / 5 / 1 / 157 // विक्राय इत्यपि // 159 / / म० वृ०- बताभीक्ष्ण्यार्थे नाम्नः पराद्धातो हनो णिन् / / 2 / 1 / 160 // 'णिन्' स्यात् / व्रते,-२अश्राद्धभोजी, स्थण्डिलवर्ती, म० वृ०-व्याप्यान्नाम्नः परात हन्तेः भूतेऽर्थे पार्श्वशायी। आभीक्ष्ण्ये,- क्षीरपायिण उशीनराः, निन्द्य कर्तरि 'णिन् स्यात / पितृघाती,मातुलघाती। तक्रपायिणः सौराष्ट्राः / व्रतादिति किम् ? स्थ- असरूपत्वादणपि,-पितृघातः / निन्दो इति किम ? ण्डिले शेते-स्थण्डिलशयः / बहुलाधिकारादाभी- 'शत्रुघातः // 160 / / क्ष्ण्येऽपि न णिन ,-कुल्माषखादाश्चौलाः // 15 // प्रव०-घान्तान्मत्वर्थीयेनेना सिद्धेभूतकुत्सायाअव०-व्रतं शास्त्रितो नियमः, आभीक्ष्ण्यं मन्यत्र शत्रघातीत्यादौ मत्वर्थीयनिवृत्त्यर्थं हनोणिन' पौनःपुन्यम्, व्रतेऽर्थे आभीक्ष्ण्येऽर्थे च गम्यमाने इति सूत्रं कृतम् / तथा व्याप्यादिति किम् ? दण्डेन इत्यर्थः। अश्राद्धं भुक्त। (एवम् ) अलवणभोजी, हतवान् / शत्रु हतवान / / 160 / / स्थण्डिलशायी, वृक्षमूलवासी इत्यपि / अत्र सर्वत्र ___ ब्रह्म-भ्र ण-वृत्रात् किम् / / 5 / 1 / 161 / / तदन्यवस्तुवर्जनमिह व्रतं गम्यते / "पुनः पुनः म० वृ०-ब्रह्मादिभ्यः कर्मभ्यो हन्तेभूते ऽर्थे 'क्विप्' क्षीरं पिबन्ति क्षीरपायिणः / एवं कषायपायिणो म्यात / ब्रह्महा, भ्रूणहा, वृत्रहा / 'विप्' (5 / गान्धाराः, सौवीरपायिणो वाह्रीकाः। एषु सर्वत्र 1 / 148) इत्यनेनैव सिद्धे नियमार्थे वचनम् / “च'बोत्तरपदान्तनस्यादेरयुवपक्वाह्नः' (2 / 3 / 75) इत्य तुर्विधोऽत्र नियमः / / 161 / / नेन नस्य णकारः / / 157 / / प्रव०-'ब्रह्माणं हतवान् / २भ्रणं वृत्रं हतकरणाद्यजो भूते // 5 / 1 / 158 // वान् / 'चतुर्विधोऽत्र नियमः, तथाहि- धातुनि___ म० वृ० करणवाचिनो नाम्नः पराद यजेः यमः 1, उपपदनियमः 2, कालनियमः३, प्रत्ययभूते [अतीते]ऽर्थे 'णिन्' स्यात्। 'अग्निष्टोमयाजी।। नियमः४ ब्रह्मादिभ्यः एव हन्तेः क्विप् , नान्यभूत इति किम् ? अग्निष्टोमेन यजते // 158|| J स्मात् उपपदपूर्वकात् इति धातुनियमः१ / पुरुषं Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ-डप्रत्यविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 187 हतवान पुरुषघातः, तथा मधोर्हन्ता हनिष्यति वा / कृगो भूते क्विबेव भवति,नान्यः प्रत्ययः इति कालइति वाक्ये मधुहा, एवमहिहा, गोत्रहा, हिमहा, | नियमः, तेन 'कर्म कृतवान्' इति वाक्ये 'कर्मतमोपहा; एषु सर्वत्र वर्तमानभविष्यतोः कालमात्रे कृत्' इत्येतत्प्रयोगः, न कर्मकार इति 3 / तथा वा 'विप्' (5 / 1 / 148) इति सूत्रेणैव क्विम् / तथा एभ्य एव सुपुण्यादिभ्यः कृगो भूते क्विप् इति ब्रह्मादिभ्यो हन्तेरेव क्विप् ,नान्यस्माद्धातोरिति उप- धातुनियमो नेष्यते, तेन तीर्थकृत् , शास्त्रकृत् , पदनियमः२। ब्रह्माधीतवान् ब्रह्माध्याय इत्यणेव, सूत्रकृत् , वृत्तिकृत् , भाष्यकृदित्यादयः प्रयोगाः न तु क्विप् / तथा ब्रह्मादिभ्यो हन्तेः विप् , नान्यः सिद्धा भवन्ति / इति सर्व बहुलाधिकारात् विज्ञाप्रत्ययः इति कालनियमः३ / ब्रह्माणं हतवान् , अत्र यते // 162 // क्विबेव, नाणणिनी / वृत्रनादयस्त कालसामान्येन सोमात्सुगः / / 5 / 1 / 163 // 'बह्मादभ्यः' (5 / 1 / 85) इति टक्प्रत्यये साधवः / 'मध्येऽपवादाः पूर्वान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान' ___ म० वृ०-सोमत्कर्मणः परात्सुनोते: [ 'धुंग्ट इति क्विपाऽणादिरेव बाध्यते, न तक्तवतू / तथा अभिषवे'] भूतेऽर्थे 'क्विप' स्यात् / सोमं सुतवान् ब्रह्मादिभ्यो हन्तेः क्विप भूत एव काले, नान्यस्मिन् सोमसुत् // 163 // काले इति प्रत्ययनियमः 4 / ब्रह्माणं हन्ति हनियति ___ अव०-'सोमात्सुग' इति सूत्रे चतुर्विधो निवा - ब्रह्मघात इत्यणेव / तदेतत् सर्व बहुलाधिकारा यमः,-- धातुनियमः 1, उपपदनियमः 2, प्रत्ययनिल्लभ्यते // 161 / / यमः 3, कालनियमः 4 / सोमादेवेति धातुनियमः कृगः सु-पुण्य-पाप-कर्म-मन्त्र-पदात् // 5 / 1 / 162 1 / सुरां सुतवान्-- सुरासाव इत्यण् / सुरासुदिति ____म० वृ०-सुशब्दात् पुण्यादिशब्देभ्यश्च कर्म भूताविवक्षायाम् / सुग एवेति उपपदनियमः 2 / भ्यः परात्करोते तेऽर्थे 'क्विप्' स्यात्। सुष्ठु कृत सोमं पीतवान्-- सोमपा इति विच् / भूते एवेति / वान सुकृत् , पुण्यं कृतवान्- पुण्यकृत् , पापं नियमात् 3 सोमं सुनोति सोष्यति वा, (न) सोमकृतवान पापकृत , कर्मकृत् , मन्त्रकृत् , पदकृत् / सुत्, सोमासाव इत्यण् / विबेवेति नियमात् 4 इदमपि वचनं नियमार्थम् , त्रिविधश्चात्र नियमः सोमं सुतवान् इत्यण् न भवति / / 163 / / // 162 / / . अग्नेश्चेः / 5 / 1 / 164 // अव०-कृगः सुपुण्यः' इति सूत्रे त्रिविधो म० वृ०--अग्नेः कर्मणः पराच्चिनोते तेऽर्थे नियमः , तथाहि- उपपदनियमः, प्रत्ययनियमः, क्विप् स्यात् / अग्निचित् / अत्रापि चतुर्विधो कालनियमः / तथा एभ्यः सुपुण्यादिभ्यः कृगः एत्र नियमः / धातुनियमः,-- अग्नेरेवेति नियमात् भूते विप , नान्यस्माद्धातोरिति उपपदनियमः,तेन | कुडय चितवान् कुड्यचाय इत्यण / उपपदनियमः, चेरेवेति नियमात् अग्नि कृतवान् अग्निकारः। मन्त्रमधीतवान् मन्त्राध्यायः इत्यणता * एव भव न्ति,न क्विप् 1 / मन्त्रवित् पापवित् , तथा ब्रह्मवित् प्रत्ययनियमः,-- भूते एवेति नियमात् अग्नि चिनोति चेष्यति वा अग्निचायः / कालनियमः,-- इत्यादौ तु भूताविवक्षायां सामान्येन क्विपू। तथा क्विबेवेति नियमात् अग्नि चितवान् इत्यण न एभ्यः सुपुण्यादिभ्यः कृगो भूते एव क्विप् , नान्य भवति // 164 // स्मिन् काले इति प्रत्ययनियमः , तेनेह न भवति,कर्म करोति करिष्यति वा कर्मकारः, एवं मन्त्र कर्मण्यग्न्यर्थे // 5 / 1 / 165 // कारः; पदकारः 2 / एभ्यः सुपुण्यादिभ्यः परात् म. वृ०-कर्मणः पराचिनोतेः कर्मणि कारकेऽ * अण च क्तौ च = अणक्ताः / 'क्तो' इत्यनेन क्तक्तवतू गृह्यते / Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 5 पा० 1 सू० 166-171 ग्न्यर्थे वाच्ये भूतेऽर्थे 'क्विप् ' स्यात् / श्येन इव सप्तम्याः // 5 / 1 / 169 // चीयते स्म-श्येनचित् , कङ्कचित् , (रथचक्रचित् ) / म० वृ?-सप्तम्यन्ताद् नाम्नः परात् जनेभूतेअग्न्यर्थ इष्टका चय उच्यते // 165 / / ऽर्थे 'ड:' स्यात् मन्दुरजः, अप्सु जातम्- अप्सुअव०-श्येनचित् , कङ्कचित् , रथचक्रचित् जम् ,2 अब्जम् / / 169 / / इति प्रयोगा बहुलाधिकाराद् रूढिविषये एव प्रव०-मन्दुरायां मन्दुरे वा जातो मन्दुद्रष्टव्याः॥ 165 // रजः / २अप्सुजमित्यत्र 'वर्षक्षरवराप्सर०' (3 / 2 / दृशः क्वनिप् // 5 / 1 / 166 // 26) इत्यनेन अलुन् समासः / / 169 / / म० वृ-कर्मपराद् दृशे तेऽर्थे 'क्वनिप्' अजातेः पञ्चम्याः / / 5 / 1 / 170 // . स्यात् / विश्वं दृष्ट्वान्-विश्वदृश्वा, बहुदृश्वा, परलोक म० वृ०-पञ्चम्यन्तादजातिवाचिनो नाम्नः दृश्वा / सामान्यसूत्रेण क्वनिपि सिद्धे भूतकाले * [परात् ] जने तेऽर्थे 'ड:' स्यात् / बुद्धेर्जातः-. प्रत्ययान्तरबाधनार्थ वचनम् // 166 / / बुद्धिजः संस्कारः, संस्कारजा स्मृतिः, सन्तोषजं सह-राजभ्यां ग्युद्धः // 5 / 1 / 167 / / सुखम् / अजातेरिति किम् ? गजाजातः / / 170|| म. वृ०-सहराजभ्यां कर्मभ्यां पराकरोते क्वचित् / / 5 / 1 / 171 // युधेश्च भूतेऽर्थे 'क्वनिप्' स्यात् / सह कृतवान् म० वृक्ष-उक्तादन्यत्रापि क्वचिल्लक्ष्यानुसासहकृत्वा, एवं सहकृत्वानौ / सह युद्धवान्- सहयु- रेण 'ड:' स्यात् / उक्तानाम्नोऽन्यतोऽपि डः,-f ध्वा / राजानं कृतवान्- राजकृत्वा, 'राजयुध्वा। जातेन= किञ्जः, केन जातः= किञ्जः, द्विर्जातः= कर्मण इत्येव- राजा युद्धवान् / / 167 / / द्विजः, न जातः अजः, प्रजाताः प्रजाः | अकर्मणोप्रव०-राजानं युद्धवान् इति वाक्यं कार्यम् / ऽपि,- अनुपश्चाज्जातः= अनुजः / जातेरपि,युधिधातुरन्तभूतण्यर्थः सकर्मको भवति इति 'राजा ब्राह्मणाजातः ब्राह्मणजः पशुवधः, क्षत्रियजं युद्धम् , नं योधितवान्' इति परिणा (परिणाहेन) वाक्य स्त्रीजमनृतम् = अलीकम् / उक्ताद्धातोरन्यतोऽपि मस्ति, परं तत्त्वतो 'राजानं युद्धवान्' इति वाक्यं [जनिधातोरन्यत्रापि ड:]- ब्रह्मणि जीनवान ब्रह्म ज्यः, उक्तानाम्नो धातोश्चान्यतोऽपि डः,-- वराहः / कार्यम् / अयमपि ‘सहराजभ्याम्०' इत्यारम्भः प्रत्य उक्तानाम्नो धातोः कारकाच्चान्यतोऽपि डः,-- परियान्तरबाधनार्थो ज्ञातव्यः // 167 / / खाता= परिखा,आखाता= आखा [उपखा]। नामाअनोजेनेर्डः // 5 / 1 / 168 // भावे उक्त(धातु)कालान्यत्वे.-- अटति अतति वा म0 4०-कर्नपरादनुपूर्वाजने तेऽर्थे 'डप्र- / अः, "कः, भातीति भमृक्षम् [ नक्षत्रम ] तथा त्ययः' स्यात् / पुमनुजः, रेस्त्र्यनुजः (आत्मानुजः) खन्यते= खम् // 171 // // 168 // अव०-'अनितिपितृकः किञ्ज उच्यते / प्रव०-'अनुपूर्वो जनिर्जननोपसर्जनायां प्राप्तौ २एवमलं जातेन अलञ्जः, अधिजातेन= अधिजः, वर्तमानः सकर्मकः, तेन पुमांसमनुजातः इति परिजातन= परिजः / उपरिखा, आखा' इत्यस्याय वाक्यं सिद्धम् / रस्त्रियमनुजातः / आत्मानमनु- नामधातुकालान्यत्वे डः,-- मित्रं ह्वयति= मित्रह्वः / जात इति // 16 // अत्र अणोऽपवादो डः / धातुकारकान्यत्वे डः,- पटे * प्रणादिबाधनार्थम् / Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्वनिपतृ क्त क्तवतुप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 189 हन्यते= पदहः / धातुकालान्यत्वेड:,--'वार् चरति= | इति सूत्रेण दीर्घः प्रतिषिध्यते, यतोऽभ्वादे०' वा! हंसः / नामकारकान्यत्वे डः,- पुंसाऽनुजातः= | (1 / 4 / 90) इति सूत्रे 'अतु' इति उकारानुबन्धकरणात पंसानुजः / 4 'के गरे शब्दे' कायति कामयते वा / ऋदितः= ऋकारानुबन्धप्रत्ययस्य दीर्घो न भवति, कः / 'तथा नामाभावे कारकान्यत्वे च डो भवति,-- | यथा पचन , जरन् // 173 // यथा खन्यते इति खम् / एषा अवचूरितिव्या / 171 / / क्तक्तवतू // 5 / 1 / 174 / / सु-यजो निम् / / 5 / 1 / 172 / / म० वृ०-भूतार्थवृत्तेर्धातोः 'तक्तवतू प्रत्ययों' म० वृ०-सुनोतेर्यजेश्च भूतेऽर्थे वृत्ते 'ङ- भवतः / क्रियते स्म-कृतः, करोति स्म कृतवान् / वनिप्' स्यात् / सुतवान= सुत्वा, इष्टवान् -- यज्वा / [प्रकर्तुमारब्धः=] प्रकृतः, प्रकृतवान् कटं मैत्रः, अत्र क्वनिप्पनभ्या सिद्धे भूतनियमार्थ वचनम् / मन्ना- समुदायस्याभूतत्वेऽपि कटैकदेशे कटत्वोपचारात् दिसूत्रस्थक्वचिच्छब्दस्यैव प्रपञ्चः / / 172 / / तस्य कटैकदेशस्य च निर्वृत्तत्वा=निष्पन्नत्वात् भूते एव धात्वर्थे (? भूतः एव धात्वर्थः) इति गत्यादि - अव०-ढकारो गुणनिषेधार्थः / पकारः पित्का ( ? इत्यादि )कर्मण्यप्यनेनैव तक्तवतू सिद्धी र्यार्थः / इकार उच्चारणार्थः / / / 172 / / // 174|| ग्रं० 274 // जषोऽतः / / 5 / 1 / 173 / / _म० व.-जषो भूतार्थाद् ‘अतृः' स्यात् / अव०-१ आदि कर्मणि', कोऽर्थः ? आरम्भेऽजीयते स्म जरन् , ' जरती / असरूपत्वाज्जीर्णः, / प्यर्थे अनेनैव 'तक्तवतू' सूत्रेणैव क्तप्रत्ययः क्तवत्जीर्णवान् // 173 // प्रत्ययः सिद्धः। अत एव वृत्तौ प्रकृतः कटं मैत्रः, प्रव०--‘जष् झष्च् जरसि' 'ऋदुदितः' (1 / 4 / 70) प्रकृतवान् कटं मैत्रः इति प्रयोगौ आरम्भेऽर्थे दर्शितौ इति विशेषः / 'आरम्भे' (5 / 1 / 10) इति सूत्रे इति नोऽन्तः, ‘पदस्य' (2 / 1 / 89) इति'त्' लुप्यते। इत्युक्तम्,–आदिकर्मणि यो तो विहतोऽस्ति स *'जषोऽत' इति सूत्रेऽतृप्रत्यये ऋकारोऽनुवन्धो दीर्घ- | कर्त्तरि वा भवति इत्यर्थः // 174 / / अत्र सूत्रे अवत्वप्रतिषेधार्थः,कोऽर्थः ? 'अभ्वादेरत्वसः सौ' (1 / 4 / 70) / चूरिश्लोक-५११।अक्षर-२४ // * नन्वत्र प्रत्यये उकारानुबन्धे कृतेऽपि जरन्' जरती' इति सिद्धयति, अतोऽत्र 'अतुप्रत्ययः' क्रियतामित्याह'जषोऽत इति सूत्रेऽतप्रत्यये' इत्यादि, अयं भाव:-उकारानुबन्धे कृते अम्वादेरत्वस: सौ (1 / 470) इति दीर्घः स्यात्, यथा भवतुशब्दस्य भवानिति, तन्निवारणार्थमुकारानुबन्धो क्रियते, कृते तस्मिन् न नदीर्घप्राप्तिः / . // इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते सिद्धहेमशब्दानुशासने पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः / / Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अहम् // // पञ्चमोऽध्यायः // [द्वितीयः पादः] श्रु-सद-वसभ्यः परोक्षा वा // 5 // 2 // 1 // / तत्र कसु-कानौ तद्वत् // 5 / 2 / 2 // म. वृ०-भूत इत्यनुवर्त्तते / श्रु इत्यादिधातु- ___म. वृ०-तत्र, कोऽर्थः ? परोक्षामात्रविषये, भ्यो भूतार्थवृत्तिभ्यः 'परोक्षा विभक्तिर्वा' स्यात् / धातोः परौ 'क्यसुकानौ' प्रत्ययौ भवतः' / क्वसुउपशुश्राव, उपससाद, अनूवास / पक्षे-यथास्व- कानौ परोक्षावद् व्यपदिश्यते / शुश्रवान् , सेदिकालं ह्यस्तन्यद्यतन्यौ च / ह्यस्तनी,-3उपाशृणोत् ; वान् , २ऊषिवान , पेचिवान , पाचयाञ्चकृवान , ' अद्यतनी,-उपाश्रौषीत्४; उपासीदत्', उपासदत् | जग्मिवान , पपिवान , उपेचानः, चक्राणः / परोअन्ववसत् , अन्ववात्सीत् / असरूपत्वादेवाद्य- क्षावद्भाबादेव कित्त्वे सिद्धे [ क्वसुकानौ इत्यत्र ] तन्यादिसिद्धौ वा वचनं पविभक्तिष्वसरूपोत्सर्ग- किकरणं संयोगान्तधात्वर्थम् , तेन [अञ्जीप-]आजिविभक्तिसमावेशनिषेधार्थम् // 1 // वान् ,[भौप -] बभज्वान ; एषु कित्त्वान्नलोपः / ऋदन्तानां गुणप्रतिषेधार्थ च-- तितीर्वान् ,पपूर्वाअव०-१'यजादिवस्वचः' (4 / 1 / 72) इत्या- न ; कर्मणि,- 'ततिराणः , पपुराणः / बहुलादिना पूर्वधातोर्द्वित्वस्य य्वृत् / २'यथास्वकालम', धिकारात असदवसिभ्यो न कानः / भूताधिकारेकोऽर्थः ? अद्यतने कालेऽद्यतनी विभक्तिर्भवति, अन- णैवोक्तपरोक्षाविषयत्वे लब्धे तत्र ग्रहणं १०परोक्षाद्यतनकाले च ह्यस्तनी भवतीत्यर्थः / ३'उपाशृणोत', / मात्रप्रतिपत्त्यर्थम् , तेन पेचिवानित्यादि सिद्धम् 'श्रौतिकृवु०' (4 / 2 / 108) इति श / 4 उपाश्रौषीत्', // 2 // 'सिचि परस्मै समा०' (4 / 3 / 44 / इति) वृद्धिः / ५"उपासीदत्', 'श्रीति' (4 / 2 / 108) इति सदे: - अव०-'तत्र क्वसुः परस्मैपदित्वात् कर्त्तरि, सीद्। 'उपासदत्',अत्र 'लुदियतादि०' (3 / 4 / 64) / कानस्तु आत्मनेपदित्वान् भावकर्मणोरपि भवति / इति अङ / "अन्ववात्सीत्' इत्यत्र सिच , ईत् , २'ऊषिवान', ( एवम् ) अनूषिवान , अध्यूषिवान / 'व्यञ्जनानामनिटि' (4 / 3 / 45) इति वृद्धिः, 'सस्तः कानः, पेचे (इति) वाक्यम् / 'चक्र (इति) वासि' (4 / 3 / 92) इत्यनेन धातुसकारस्य त् / एवं क्यम् / “नो व्यञ्जस्यानुदितः' (4 / 2 / 45) इत्यनेन शुश्रवे, अश्रावि. अश्रयतेत्यादिरपि ज्ञेयः। विभक्ति नस्य लोप. / 'ऋदन्तानां च, इति, 'स्कच्छतोऽकि ध्वसरूप' इत्यादि, तेन विभक्तीनामेवान्योन्यम- परोक्षायाम्' (4 / 3 / 8) इति गुणप्राप्तिः / ततार / सरूपविधिर्नास्ति, प्रत्ययेन तु विभक्तीनामस्त्येव; पपार, एवं शशार- शिशीर्वान / ततिराणः', तेन 'उपश्रनवान्' इत्यादि सिद्धम् / 'श्रुसदवस्भ्यः ' / एवं एवं शशिराणः / शशिराणः / 10 परोक्षामात्र' इति, १'पराक्ष इति बहुवचनं व्याप्त्यर्थम् , तेन भूतानद्यतनेऽपि अन्यथा 'श्रुसद०' (5 / 2 / 1) इत्यनेन विहितइयं परोक्षा ह्यस्तन्या न बाध्यते इत्यक्षराणि अन्व- परोक्षाविपये एव क्वसुकानप्रत्ययः स्यात् , तेभ्य वात्सीत् इत्यस्याने ज्ञातव्यानि / तदनन्तरमस- | एत्र भूतमात्रे विधानात् ; न तु “परोक्षे" (5 / 2 / 12) रूपत्वादेवेत्याद्यक्षराणि योज्यानि // 1 // इति सूत्रविहितपरोक्षाविषये। भूताधिकारे ह्यनु Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्यतनी-शस्तनीविभक्तिविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / वर्तमाने अपरोक्ष एवातीते प्रत्ययः स्यात् / परोक्षे / व्यामिश्रणे च सति भूतेऽर्थे धातोः परतो-'ऽद्यतनी' त्वतीते परत्वान् परोक्षाविभक्तिः स्यादिति उभयो- | स्यात् / अगमाम घोषान , अपाम पयः, रामो वनरप्यर्थः संगृह्यते इति भावः, तेन पपाचेति वक्त- मगमत् ; सतोऽप्यत्र विशेषस्याविवक्षा,यथा अनुदरा व्ये पपाच इति वाक्ये पेचिवान् इति सिद्धम् / उप- | कन्यारे / व्यामिश्रे,-अद्य ह्यो वा भुक्ष्महि / विशेषासेदिवान , प्रसेदिवान , निषेदिवान् इत्यपि॥२॥ विवक्षेति किम् ? आगच्छाम घोषान , अपिबाम पयः, रामो वनं जगाम // 5 // वेयिवद-ऽनाश्वद-ऽनूचानम् // 5 // 2 // 3 // _म० वृ०-एते शब्दा भूतेऽर्थे 'कसुकानान्ताः' प्रव०-'आदिशब्दात् परोक्षपरिग्रहः / २(एकर्तरि वा निपात्यन्ते। ईयिवान् , उपेयिवान् / | वम् ) अलोमिका एडका // 5 // अनाश्वान् , अनूचानः। 'पक्षे-अगात्२, उपागात् ; उउपैत् , “उपेयाय; 'नाशीत् , नाभात् , नाश; रात्रौ वसोऽन्त्ययामास्वप्तर्यद्य / / 5 / 2 / 6 // अन्ववक् , 'अन्ववोचत् , १०अनूवाच // 3 // म० वृ०-रात्रौ भूतेऽर्थे वसतेस्तन्या एवाअव०-“पक्षे', कोऽर्थः ? वावचनात्पक्षे पवादोऽद्यतनी स्यात् , अन्त्ययामास्वप्तरि-स चेदर्थो यस्यां रात्रौ भूतः तस्या एवान्त्ययामं व्याअद्यतन्यादयोऽपि / 2 अगात् ', 'इण्क् गतौ'अद्यतनीदिः, सिच् , 'इणिकोर्गा' (44 / 23) इति सूत्रेण प्याऽस्वप्तरि कर्तरि वर्त्तते, अद्यतेनैवान्त्ययामेइणो गादेशः, 'पिबैतिदा० (4 / 3 / 66 / इति) सिचो नावच्छिन्नेऽद्यतने चेत् प्रयोगो भवति, नाद्यतनालुप् / उ उपैत् ', इण् , ह्यस्तनीदि, 'एत्यस्तेर्वृद्धिः' न्तरे / अमुत्रावात्सम् / राज्यन्त्ययामे तु मुहूर्त(४।४।३।।इति) ऐ। ४उपेयाय' (अत्र) परोक्षा / “ना मपि स्वापे ह्यस्तन्येव,-अमुत्रावसम् // 6 // शीत', अत्र 'अशश भोजने'(इति) अश् ,नम् पूर्वम्, अद्यतनी, 'स्वरादेस्तासु' (4 / 4 / 31) इति वृद्धिः प्रव०-अन्त्यश्वासौ यामश्च अन्त्ययामः, 'आ'। 'नाश्नात् ', अत्र ह्यस्तनी। "नाश' इत्यत्र पाश्चात्यप्रहर इत्यर्थः,स्वपिति इति स्वप्ता,न स्वप्ता= परोक्षा। 'अन्ववक्', ह्यस्तनी-दि 'व्यञ्जनादः अस्वप्ता, अन्त्ययामेऽस्वप्ता=अन्त्ययामाऽस्वप्ता,तस्मिदेः सश्च दः (4 / 3 / 78) इति दिलोपः / अन्वयोचत्', न अन्त्ययामाऽस्वप्तरि, पश्चिमप्रहरे चैत्रे कर्त्तरि अद्यतनी, 'शास्त्यसू०' (3 / 4 / 60 / इति ) अन, जाग्रति सतीत्यर्थः / यस्तन्यादिविषयेऽपि अद्यत'श्वयत्यसू०' (4 / 3 / 103) वोच। 10 अनूवाच' इत्यत्र नीप्राप्त्यर्थम् 'अद्यतनी' इति सूत्रं कृतम् / २अद्य, परोक्षा, 'यजादिवशवच०' (4 / 1172) इति अभ्यासे कोऽर्थः तेनैवान्त्ययामेनेत्यादि। न्याय्ये रात्रेवृत् 'उकारः' / निपातनस्य इष्टविषयत्वात कत्तु / रन्त्ययामे उत्थितम् जागरितं चैत्रं प्रति मैत्रः प्राह,रन्यत्र 'अनुक्तम' इत्याद्येव // 3 // क्ष भवानुषितः ? चैत्रो मैत्रं प्रत्याह, हे मैत्र ! अद्यतनी / / 5 / 2 / 4 // अमुत्रावात्सम् , इत्यद्यतनीप्रयोगयुक्तिः / / 6 / / म० वृ०-भूतेऽर्थे धातो-'रद्यतनीविभक्तिः' अनद्यतने ह्यस्तनी // 5 // 27 // स्यात् / अकार्षीत् // 4 // म० वृ०-'आन्याय्यादुत्थानादान्याय्याच संवेविशेषाविवक्षा-व्यामिश्रे // 5 // 25 // शनादहरुभयतः सार्द्धरात्रं वाऽद्यतनः कालः, तस्मिम० वृ०-'अनद्यतनादिविशेषस्याविवक्षायां / असति भूतेऽर्थे धातो-'यस्तनी' स्यात् / अकरोत् / / Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 5 पा०२ सू०८-११ अव०-.... ..."न कालप्रमाणेन * अव०-स्मरसि, अभिजानासि, बुध्यसे, चेततद्वयम् / तथाहि एके एवमाहुः,- आन्याय्येत्यादि, - यसे, अध्येषि- अवगच्छसि- एते स्मृत्यर्थप्रयोगाः। 9 . रावेरन्त्ययामे यदुत्थितं जागरणं तदान्याय्यमुत्था वाऽऽकाङ्क्षायाम् // 5 / 2 / 10 // नमुच्यते, आगामिन्या रात्रः प्रथमयामानन्तरं यः स्वापः तत् आन्याय्यं संवेशनम् ,पाश्चात्यरात्रियामात ___म० वृ०-अयदीति नानुवर्त्तते / स्मृत्यर्थ-- दिनसत्कयाम(मा.) 4 (चत्वारः ), आगामिनी धातूपपदे (? धातावुपपदे) सति प्रयोक्तुः क्रियारात्रि आद्ययाव यावत् (आगामिराराद्ययाम यावत न्तराकाङ क्षायां सत्यां भूतानद्यतनेऽर्थे 'भविष्यन्ती' षड यामाः)। एवं यामषदककालोऽद्यतन इत्यु स्यात् वा / स्मरसि मित्र ! कश्मीरेषु धत्स्यामः, च्यते / एकेषां मतभिदम / अथ द्वितीयमतम, तत्रौदनं भोक्ष्यामहे; पक्षे अवसाम यत्तत्रौदनमभु'उभयः (उभयतः) सार्द्धरात्रं वा' इति, गतरात्रो: महि // 10 // पाश्चात्यप्रहरद्वयम , ततो दिनयाम (मा.) 4, तदन अव०-'विवक्षातोऽधिकारः / 2 सति', यदि न्तरमागामिन्या रात्रः प्रथर(प्रथम) प्रहरद्वयम 2, अयदि वा प्रयुज्यमाने। उस्मरसि मित्रे-त्यादि, एवमष्टयामिकोऽद्यतनः कालः, एतद्विपरीतः शेषपा अत्र एवं प्रयोगावली कल्पनीया,-- स्मरसि मित्र ! श्चात्यदिवसो ह्यस्तनकालः, तस्मिन् ह्यस्तने काले कश्मीरेषु वत्स्यामः तत्रौदनं भोक्ष्यामहे, पास्यामः ह्यस्तनी भवतीत्यर्थः / ईदृशेऽद्यतनेऽविद्यमाने , पयांसि च, पक्षे-- स्मरसि मित्र ! कश्मीरेष्ववकोऽर्थः ? ह्यस्तने काले सति ||7|| साम तत्रौदनमभुज्महि / अथ यच्छन्दप्रयोगे ख्याते दृश्ये // 5 // 28 // भविष्यन्ती दर्शयति,-- स्मरसि मित्र ! यत् कश्मीरेषु म. वृ०-ख्याते लोकविज्ञाते दृश्ये प्रयो वत्स्यामः यत्तत्रौदनं भोक्ष्यामहे, पक्षे स्मरसि मित्र क्तुः शक्यदर्शने भूतेऽनद्यतनेऽर्थे वर्तमानाद्धातो-- यत् कश्मीरेष्वसाम यत्तत्रौदनमभुज्महि / अत्र 'स्तनी' स्यात् / परोक्षापवादः / अरुणत् सिद्ध प्रयोगेषु वासो लक्षणं भोजनं पानं चेति लक्ष्यराजोऽवन्तीन , अजयत् सिद्धः सौराष्ट्रान् / ख्यात मिति लक्ष्यलक्षणयोः सम्बन्धे प्रयोक्तुश्चैत्रस्य इति किम ? चकार कटं चैत्रः / दृश्य इति किम ? आकाङ्क्षा भवतीत्यर्थः // 10 // जघान कंसं किल वासुदेवः / अनद्यतने इत्येव-- कृतास्मरणा-ऽतिनिह्नवे परोक्षा / / 5 / 2 / 11 / / उदगादयादित्यः / / 8 / / म० वृ०-कृतस्यापि कार्यस्य [व्यापारस्य] चित्तप्रव०-द्रष्टुं शक्यः दृश्यः, 'शक्तार्हे कृत्याश्च' व्याक्षेपादिनाऽस्मरणेऽत्यन्तनिह्नवे वा गम्यमाने (5 / 4 / 35) / / 8 / / भूतानद्यतनेऽर्थे 'परोक्षा' स्यात् / सुनोऽहं किल विललाप', नाऽहं कलिङ्गान जगाम / 2 अतिग्रहणाअयदि स्मृत्यर्थे भविष्यन्ती // 5 / 2 / 9 // देकदेशापह्नवे ह्यस्तन्येव,- न कलिङ्गेषु ब्राह्मणमहम० वृ०-स्मृत्यर्थे धातावुपपदे सति भूतान- महनम् // 11 // द्यतनेऽर्थे 'भविष्यन्ती' भवति, अयदि यदि यत शब्दो न प्रयुज्यते / स्मरसि साधो ! स्वर्गे स्था अव०- अपरोक्षकालार्थ आरम्भोऽयम् / स्यामः / चेतयसे चैत्र ! कलिङ्गेषु गमिष्यामः / एवम् ) मत्तोऽहं किल विचचार / अतिनिह्नवे,-- अयदीति किम ? अभिजानासि मित्र ! यन कलि- नाहं कलिङ्गान जगाम इति प्रयोगः / अत्र भाजना ड्रेष्ववसाम // 9 // (? भावना) ....... (एवम्-) कश्चित् केनाप्युक्तः,* प्रत्र पाठश्च्युतोऽशुद्धश्च / Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोक्षा. पस्तन्यद्यतनी-वर्तमानाविधानम् ] मध्यमवरिसंवलितम् / T.IETC भो भो लाया कलिङ्गेषु विप्रो हतः / सातदपत्वा / “अन्वनैषीत्ततो घाली न्यक्षिपञ्चाङ्गदम् : सुग्रीवं नस्ती प्रत्याह- कस्तावत् कलिङ्गे जगाम, को विप्रोचे सद्भावमागतः” / “राक्षसेन्द्रस्ततोऽभैषीत्" ददर्श, इत्यफनचे-नाहं कलिङ्गान जगामः||१२| | [रामायणे] | "अभूवस्तापसा केचित्पाण्डुपत्रफैल्य -कोर परोक्षे / 5 / 2 / 12 // शिनः" इत्यादि [आदिनाथचरित्रे] // 14 // .म० वृ०-भूतानद्यतने परोक्षेऽथे वर्तमाना / ..वाऽद्यतनी' पुरादौ / / 5 / 2 / 15 // द्धातोः 'परोक्षा' स्यात् / जघान केस वासुदेवः, धर्म 'म० वृ०-परोक्षे इति निवृत्तम् / भूतानच्यतने दिदेश जिनः // 12 // परोक्षे चापरोक्षे चार्थे वर्तमानाद्धातोः पुरा इत्यादा ह-शश्वद्-'युगान्तःप्रच्छये यस्तनी चः | वुपपदे सति 'अद्यतनी' वा स्यात् / अवात्सुरिह पुरा [=पूर्व] छात्राः, पक्षे-- अवसन् शस्तनी], ऊषुः // 52 / 13 / / .. [परोक्षा, तदाऽभाषिष्ट राघवः [अद्यतनी], पक्षे-- - म वृ०-हे शश्वति च प्रयुज्यमाने, पञ्चवर्ष- तदाऽभाषत राघवः [ह्यस्तनी], बभाषे राघवस्तदा मध्यप्रष्टव्ये च भूतानंद्यतने परोक्षेऽर्थे यस्तनी परी- | // 15 // ..... क्षा च' स्यात् / इतिहाऽर्करोत, इतिह चकार; अवे -अपरोक्षे ह्यस्तन्याः तथा परोक्षे तु परोशश्वदकरीत् , शश्वत् चकार वाः युगान्तःप्रच्छये,किमगच्छस्त्वं मथुराम् किं जगन्थ त्यं मथुराम् / 13 क्षाया अपवादो वाऽद्यतनीति योगः / यावचनात् पझे यथाप्राप्ति ह्यस्तनीपरोक्षेऽपि भवतः,- अवसन् इहे . - अव०-पञ्चवर्षे युगमुच्यते युगस्य अन्तर्मभ्यं / पुरा छात्राः, ऊषुरिहं पुरा छात्राः // 15 / / =युगान्तः, युगान्तः पृच्छयते यः स युगान्तः- स्में च वर्तमाना // 5 / 2 / 16 - प्रच्छयः, 'तस्मिन् युगान्तःप्रच्छये इत्यस्यार्थः / ' - म० वृ०-भूतानद्यतने स्मशब्दे पुरादौ चोप२ इतिहि इतिह' इति निपातसमुदायः वृद्धप्रवादपा- पदे सति धातोः 'वर्तमाना विभक्तिर्भवति'। इति रम्पर्ये / / 13 / / स्म गुरुर्वदति / पृच्छति स्मोपाध्यायम् / वसन्तीह अविवक्षिते // 5 // 2 // 14 // पुरा पूर्व च्छात्राः / भाषते राघवस्तदा / “अथाह - म० बृ०-भूतानद्यतने परोक्षे परोक्षत्वेना वर्णी विदितो महेश्वरः यावद्भिरः खे मरुतां चरन्ति" विवक्षितेऽर्थे वर्तमानाद्धातो-'हस्तिनी' स्यात् / अभ (कुमारसंभवे) / आदिग्रहणमिह पूर्वत्र च [पुरादौ वत् सगरः / एवं च परोक्षानद्यतने विवक्षावशा इत्यत्र सूत्रे पूर्वसूत्रेऽपि] प्रयोगानुसरणार्थम् / एवं दद्यतनीह्यस्ततीपरोक्षास्तिस्रोऽपिविभक्तयः सिद्धाःर पुरादियोगेऽद्यतनीयस्तनीपरोक्षावर्त्तमानाश्चतस्त्रोऽपि // 14 // हिंभक्तयः सिद्धाः रस्म-पुरायोगे तु परत्वाद्वर्त्तमानैच, यथा- नटेन स्म पुराऽधीयते / एवं ह शश्वत्-स्मः योगेऽपि वर्तमाना,-इतिह स्माचार्यः कथयति, शश्वअव०-१ (एवम् ) अहन कंसं वासुदेवः / / दघीयते स्म // 16 // श्परोक्षत्वेन अनद्यतनत्वेन च अविवक्षिते भूतेऽर्थे 'विशेषाविवक्षा व्यामिश्रे' 5 / 2 / 5) इति सूत्रेणाद्य- प्रव०-'पपात्ते उ (?परोक्षेऽ)परोक्षे वार्थे वर्ततनी। परोक्षत्वेन त्वविवक्षिते भूतानद्यतने 'अविव- मानाद्धातोः वर्तमाना भवतीति / ननु यदा एकत्र क्षिते' इति सूत्रेण ह्यस्तनी। उभयसद्भावविवक्षायां प्रयोगः-स्मयो.......(गः पुरादियोगश्च भवति त-) तु 'परोझे' (5 / 2 / 12) इति सूत्रेण परोक्षा / एवं | दा किम् ? इत्याह- स्मपुरायोगे इत्यादि, द्विकयोगे तिस्रोऽपि विभक्तयो भवन्ति / तथा च प्रयोगा:- | त्रिकयोगे वा वर्तमाना // 16 // Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०५ पा० 2 सू० 17-20 ननौ पृष्टोक्तौ सहत् // 5 / 2 / 17 // षेधस्य अभा...........(वरूपोत्वात अभावस्य च प्रारम्भापरिसमाप्ती न घटेते, तथापि जीवमारणनिम० ०-अनद्यतने इति निवृत्तम / ननुशब्दे उपपदे सति'पृष्टोक्ती= पृष्ठप्रतिवचने भूतेऽर्थे वर्तमाना यमो मांसखादननियमः प्रारब्धोऽसमाप्तश्च प्रतीय ते इति भावः / 2 चैत्रो भुङक्ते इत्यादावपि हि द्धातोः “सद्वत् वर्तमानकाल इव वर्तमाना" स्यात् / सद्वद्वचनादत्रविषये शत्रानशावपि / ४किमकार्षीः भोजनक्रियायां भुञ्जानोऽवश्यं हसति, जल्पति, पिबति जलं बा चैत्र इत्यादिकं क्रियान्तरव्ययवधानकटं चैत्र ? 'ननु करोमि भोः, ननु कुर्वन्तं कुर्वाणं मशक्यपरिहारमिति तत्त्वतः प्रारब्धापरिसमाप्तिः मां पश्य / पृोक्ताधिति किम ? नन्वकार्षीत् चैत्रः प्रतीयते // 19 // कटम् // 17 // शत्रानशावध्यति तु सस्यौ // 5 / 2 / 20 // अव०-पृष्ठस्य धात्वर्थस्य उक्तिः प्रतिवचनं म० वृ०-सत्यर्थे धातोः १"शतृ-आनशी प्रत्यया' =पृष्ठोक्तिः,यत् प्रश्नानन्तरमुत्तरदानं सा पृष्ठोक्तिः। भवतः,२एष्यति दु-एष्यन्मात्रे भविष्यन्तीविषयेऽर्थे / ' प्रत्युत्तरदाने। वर्तमानाविभक्तिविषये / 4 हे चैत्र ! त्वं कटमकार्षीः इति पृच्छा। उत्तरमिदम् / "सस्यौ स्यप्रत्यययुक्ती"शत्रानशौ / स्योऽपि प्रत्य'इदम पि उत्तरदानम् / कुर्वन्तमित्यत्र 'करोमि'इति यत्वाद्धातोरेव परतः, न शत्रानशभ्यां परतः / यान , यान्तौ, यान्तः; शयानः, शयानाः; एवं निरस्यन् , वाक्यं कृत्वा शतृप्रत्ययः। कुर्वाणमित्यस्य'कुर्वे' इति पचन् , पचमानः / एकविषयत्वाद्वर्त्तमानापि,-याति, पाक्यं कृत्वा आनश्प्रत्ययः // 17|| यातः, यान्ति; पचति / तथा सन् ,अस्ति; अधीयानः नन्वोर्वा // 5 / 2 / 18 // अधीते; विद्यमानः, विद्यते; विदन् , वेत्ति / तथा म० वृ०-न नु इत्येतयोरुपपदयोः पृष्टोक्तौ तरादौ प्रत्यये,- पचत्तरः, पचत्तमः; पचतितभूतार्थे वर्तमानाद्धातोः 'वर्तमाना' वा स्यात् , 'स च राम , पतितमाम् ; पचद्रूपः, पचतिरूपम् ; सद्वत्'। [प्रश्नः] किमकार्षीः कटं चैत्र ? [उत्तरम्] जल्पत्कल्पः, जल्पतिकल्पम् इत्यादि / एवं पचमानन करोमि भोः ! न कुर्वन्तं न कुर्वाणं मां पश्य, तरः, पचमानतमः; पचतेतरां, पचतेतमाम इत्यादि। नाऽकार्षम् / कस्तत्रावोचत् ! अहं नु ब्रवीमि,ब्रुवन्तं तथा द्वितीयाद्यन्तपदसामानाधिकरण्य-सम्बोधनर. ब्रुवाणं नु मां पश्य, पक्षे- अहं न्वबोचम् [इदमपि तरादिवर्जित-तद्धितप्रत्ययोत्तरपद क्रियालक्षण५. पृष्टोक्तेरुदाहरणम् ] // 18 // क्रियाहेतुषु वर्तमानाया 'अन्वयायोगाच्छत्रानशामति // 5 / 2 / 19 // वेव-(द्वितीयान्त) पचन्तं पचमानं पश्य। (तृतीयान्त) म. वृ०-सन=विद्यमानः, वर्तमान इत्यर्थः; १२पचता कृतम् / (चतुर्थ्यन्त) १३पचते / (पञ्चस च प्रारब्धा रिसमाप्तः क्रियाप्रबन्धः / सत्यर्थे म्यन्त) पचतः पचमानाद्भीतः / (षष्ठयन्त) पचतः धातोः 'वर्तमाना' स्यात् / अस्ति, भवति, घट १४स्वम् / (सप्तम्यन्त) पचति गतः१५॥ अथ सम्बोकरोति, ओदनं पचति,' जी न मारयति, मांसं धने हे पचन् ! हे पचमान ! / तरादिवर्जिततद्धिते, नाऽत्ति / तथा इहाधीमहे, इह कुमाराः क्रीडन्ति कुर्वतोऽपत्यं कौर्वतः, १६पाचतः, १७पचत्पाशः, १६पचच्चरः / उत्तरपदे,-भज्यते इति भक्तिः , इत्यादी क्रियान्तरव्यवधानेऽप्यध्ययनादिक्रियायाः प्रारम्भापरिसमाप्तिरस्त्येव / एवं क्षेत्रो भुङक्ते कुर्वन् भक्तिरस्य-द्भिक्तिः, कुर्वाणो भक्तिरस्य इत्यत्रापि // 19 // कुर्वाणभक्तिः ; एवं कुर्वत्प्रियः, कुर्वाणप्रियः / क्रि- .. याया लक्षणं ज्ञापकं चिह्नम् ,- 2 तत्र तिष्ठन्तोप्रव०-7 जीवं न मारयति मांसं न खादती- ऽनुशासति गणकाः, शयाना भुञ्जते यवनाः, बहुषु त्यत्र यद्यपि जीवमारणप्रतिषेधस्य मांसखादनप्रति- | मूत्रयत्सु कः चैत्र इति पृष्टः कश्चिदाह,- यः तिष्ठन् Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत-आनश्प्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्यवचूरिसंवलितम् / [ 195 मूत्रयति, योऽधीयान आस्ते, यः पठन् पचति स | देशीयम् ; सर्वत्र अतमबादेरीषदसमाप्त कल्पप्देश्यमैत्रः, प्देशीयर' (7 / 3 / 11) / 'शत्रानशौ०' इति सूत्रे फलन्ती वर्द्धते द्राक्षा, पुष्यन्ती वर्द्धतेऽब्जिनी। पचतितराम् , पचतितमाम् पचतेतराम, पचतेतमाम्; शयाना वर्द्धते दूर्वा, आसीनं बर्द्धते बिसम् // एपूदाहरणेषु'द्वयोर्विभज्ये०' (73 / 6) इति सूत्रद्वयेन क्रियाया हेतर्जनकः, तत्र.-२२अर्जयन वसति 23 'तरप-तमप न कार्योऽप्राप्तेः, नाम्नः परौ हि एष्यति तु सस्यौ,-यास्यन , पक्ष्यन् , पक्ष्यमाण:२४ तौ विहितौ , अतोऽत्र 'किन्त्याद्येऽव्यया०' (7 / 3 / 8) यास्यति, पक्ष्यति, भविष्यन् , भविष्यति / तथा प इत्यनेन तरप , तमप् , अम् इति कार्याः / अस्मादेव क्ष्यत्तरः, पक्ष्यतितराम् / तथा २५पक्ष्यन् वज्रति, वचनात् त्याद्यन्तादपि द्वयर्थप्रकर्षे तरप बह्वर्थप्रकर्षे पक्ष्यमाणो व्रजतीति क्रियायां क्रियार्थायामेफविषय तमप् भवतीनि 'किन्त्याद्योऽव्यया०' (73 / 8) इति त्वाच्च भविष्यन्त्यादयो२६ऽपि,- पक्ष्यामीति व्रजति, सूत्रवृत्तौ उक्तोऽस्ति तरपू-तमपप्रत्ययविधाने हेतुः / पाचको व्रजति, पक्तुवति / पूर्ववदेवात्र द्विती प्रशस्तः पचन पचद्रपः, १०प्रशस्तं पचति-पचयाद्यन्तसामानाधिकरण्यादिषु भविष्यन्त्या अभावः, तिरूपम् , 'त्यादेश्च प्रशस्ते रूपप् (73 / 10 / इति समन्वयाभावात्[ योगस्य अघटनात् ], पक्ष्यन्तं रूपप् प्रत्ययः)। वर्तमानाविभक्ति(? क्ते)रन्वपश्येत्यादि / सदेष्यतोरभावे तु[वर्तमानाभवि- यस्य सम्बन्धस्य अघटनात् शत्रानशावेव भवतः, न ध्यत्कालाभावे तु]- श्वः पक्ता // 20 // वर्तमाना / 12( एवम् ) पचमानेन / उदेहीति योगः / 14 (एवम् ) पचमानस्य धनम् / १५(एवम्) अव०-१शत्रानशप्रत्यये शकारः शित्कार्यार्थः, पचमाने सति गतः / १६पचतोऽपत्यम् / १७कुत्सितः ऋकारः ड्याद्यर्थः / २'इण्क् गतौ' एष्यति पचत् / 18 पचच्चरः,' भूतपूर्वः पचन्=पचञ्चरः, आगमिष्यति इति स्वभावादयमर्थः, अथवा 'भूतपूर्वे पचरट' (7 / 2 / 78) इत्यनेन पूचरट् 'ई दु,' इति इ आङ पूर्वकः, 'उपसर्गस्यानि प्रत्ययः / 16 भज्यते इति कर्मणि क्तिप्रत्ययः, णेधे०' (122 / 19) इत्यनेन आग् लुप्यते / प्रधान भक्तिः , कोऽर्थः ? सेव्य इत्यर्थः / इह वाच्ये पुत्वात् प्रथमं धातोः परतः शत्रानशौ, पश्चात् स्यः, लिङ्गेऽपिशब्दशक्ति वाभाव्यात् क्त्यन्तस्य स्त्रीलिङ्गस्योऽपि प्रत्ययत्वात् धातोरेव परतः / तथा "तर तैव, ततश्च 'मुखं चन्द्र इव' इतिवत् अत्रापि अवितमादिप्रत्ययविषये शत्रानशौ वर्तमानापि, तथाहि रोधः / २तत्र तिष्ठन्तः' इत्यादि, अत्र प्रयोगे स्था"अयं पचन अयं पचन , अयमनयोर्मध्ये प्रकृष्ठः नेन अवस्थानेनानुशासनं देवपर्यालोचनं लक्ष्यते पचन पचत्तरः, “द्वयोर्विभज्ये च तरप् (13 / 6) / इति स्थानं लक्षणं भवति, तिष्ठन्तोऽवस्थिताः सन्तो अयं पचन ,अयमेषां मध्ये प्रकृषः पचन पचत्तमः, गणकाः दैवज्ञा अनुशासति, ग्रहणस्वरूपं वदन्ती'प्रकृष्ठे तमप्'(१३।५)। विमौ पचतः, अयममन त्यर्थः; एवं शयाना भुञ्जते यवनाः / २१एवं यो योरतिशयेन पचति= पचतितराम् , सर्वे इमे पच गच्छन् भक्षयति, यः शयानो भुक्क्ते / २२अर्जण् न्ति, अयमेषामतिशयेन पचति= पचतितमाम् ; 'कि प्रतियत्ने / २३एवमधीयानो वसति / 24 (एवं) न्स्यायेऽव्यया०' (7 / 3 / 8) इतितरप-तमप्; किन्त्या पक्ष्यमाणतमः, पक्ष्यतितराम् , पक्ष्यतितमामित्यादि घेऽव्ययादसत्त्वे तयोरन्तस्याम्' (73 / 8) इति सूत्रे सर्वेष्वेकविषयत्वाद् भविष्यन्त्यपि ।२५पक्ष्यन् ब्रजति णैव तरप-तमपग्रे अमप्रत्ययः, सिः, 'अव्ययस्य' पक्ष्यमाणो व्रजतीति, अत्र क्रियायां क्रियार्थायामिति (3 / 2 / 7) इति सिलोमः / (एवम्) ईषदसमाप्तो जल्पन् | कोऽर्थः ? क्रियायां क्रियार्थायां तुम्-णकच्-भविष्य=जल्पत्कल्पः, ईषदसमाप्त जल्पति जल्पतिकल्पम्, | न्ती' (5 / 3 / 13) इति सूत्रेण एष ( ? एक) विषयएवं पश्यद्देश्यः,पश्यतिदेश्यम् पठद्देशीयः,पठति- / त्वाच हेतोः भविष्यन्ती विभक्तिर्भवति / भादि Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 5 पा० 2 सू० 21-24 शब्दात् तुम्णकचावपि भवति, तथाहि- पक्ष्यामीति वा वेत्तेः क्वसुः // 5 / 2 / 22 // व्रजति, पक्तु व्रजति, पाचको व्रजतीत्यर्थः / २०भ म० वृ०-सत्यर्थे वर्तमानात वेत्तेः परः ''क्कसुर्वा' विष्यन्तीविभक्तेः सम्बन्धो न घटते इति भविष्य स्यात् / पक्षे यथाप्राप्तम् / विद्वान ,साधुः तत्त्वं विद्वान . न्ती न भवति, शत्रानशावेव भवत इत्यर्थः / २८आ पक्षे-- विदन् , वेत्ति विदुषा ( कृतम ), पक्षे दिशब्दात् पक्ष्यमाणं पश्य, हे पक्ष्यन् ! हे पक्ष्य शतृ- विदता कृतम् , हे विद्वन् ! कसुः]. हे माण ! पक्ष्यतोऽपत्यं पाक्ष्यतः, पाक्ष्यमाणिः, तथा विदन् ! [शतृ], वैदुषः, वैदतः; "विद्वद्भक्तिः , पक्ष्यमाणपाश:, पक्ष्यद्भक्तिः, पक्ष्यमाणभक्तिः, 5 विदद्भक्तिः , विद्वान् , विदन्नास्ते; विद्वाल्लँभते, जल्पिज्यन्तो ज्ञास्यन्ते पण्डिताः, अध्येष्यमाणा विदल्लँभते; 'लिलौ' (1 / 3 / 65) इत्यनेन सानुनावत्स्यन्तीत्यादि / तथा बहुलाधिकारात् द्रव्यगुणयोलक्षणे हेतुहेतुमद्भावद्योतकेत्यादिशब्दयोगे च सिको लकारः / अत्रापि द्वितीयाद्यन्तेति ज्ञात व्यम् / / 22 / / शत्रानशौ न भवतः,-यः कम्पते सोऽश्वत्थः, यत्तरति तल्लघु / अत्र कम्पनोत्प्लवती(? ना )भ्यां यथाक्रम- _अव०-'असरूपोऽपवादे बोत्सर्गः प्राक्तेः' (5 / 1 / मश्वत्थलघुसंज्ञको द्रव्यगुणौ लक्ष्येते, न तु क्रिया; 16) इति सूत्रेण विकल्पे सिद्धेऽपि,वाग्रहणमत्र कसु. इति शत्रानशोर्व्यावृत्तिः / अथ हेतुहेतुमद्भावः,- कानशत्रानशप्रकरणे असरूपविधिलक्ष्यानुरोधार्थ हन्ति इति पलायते, वर्पति इति जनो धावति, इति ज्ञापयति / अत एव 'वयःशक्तिशीले (5 / 2 / 24) हनिष्यति इति नश्यति, पचति अतो लभते , क्षमते अत्र सूत्रेऽ(न)भिधानान्न वाऽसरूपः शतृप्रत्यय ततः पूज्यते / क्रियाया * अपि लक्षणे चादियोगे | इति वक्ष्यते / 'ककारः कित्कार्यार्थः, उकारो ड्यान शत्रानशौ,- यः पचति च पठति च स चैत्रः, | द्यर्थः / विदुषोऽपत्यं वैदुषः / विदतोऽपत्यं वैदतः / योऽधीते च आस्ते च स मैत्रः / * न केवलं द्रव्य- *विद्वान भक्तिरस्य / विदन भक्तिरस्य / / 22 / / गुणयोर्लक्षणे चादियोगे (सति), क्रियाया अपि, पूङ्-यजः शानः // 5 / 2 / 23 / / इति अपिशब्दार्थो ज्ञातव्यः / / 20 / / म. वृ०-सत्यर्थे पूङ यजिभ्यां परः १'शान' तो माझ्याक्रोशेषु' // 5 / 2 / 21 // स्यात् / कृत्त्वात्कर्तरि / पवते, पवमानः, मलयं म० वृ०-माधि उपपदे आक्रोशे गम्यमाने पवमानः, यजमानः // 23 // "तौ शत्रानशै" भवतः / २मा पचन वृषलो अव०-आनशप्रत्ययेनापि सिद्धयति, किमिदं ज्ञास्यति, मा उपचमानोऽसौ मतकामः, "मा जीवन 'पूङ यजः शानो' विधानम ? सत्यम् , आनशा सह यः परावज्ञादुःखदग्धोऽपि जीवति / / 21 // न षष्ठीसमासः, यजेश्चाफलवति कर्त्तरि आनश् नास्ति इति वचनम् , एवमुत्तरत्रापि / 'शकारः अव०-सत्यर्थे, बहुवचनादसत्यपि अर्थे इति / शित्कार्यार्थः / अत्र सम्बन्धषष्ठीसमासः (भवितुभावः / रमा क्लेदयन्नित्यर्थान्तरेण वाक्यम् / / मर्हति) / यजते यजति वा // 23 // मा क्लेदयमान इत्यर्थान्तरेण वाक्यम् / 'मा प्राणान् धारयन इत्यर्थान्तरेण वाक्यम् / ती वयः-शक्ति-शीले // 5 / 2 / 24 // माझ्याक्रोशेष्वित्यत्र शत्रानशोरनुवृत्तावपि तौ ग्रह- म. वृ:-सत्यर्थे वर्तमानाद्धातोर्वयः --शक्तिणमवधारणार्थम् , तेनात्र माङ (? माङि) उपपदे - शीलेषु गम्यमानेषु 'शानः' स्यात / कतीह शत्रानशोः प्राप्ती सत्यामसरूपविधिनापि अद्यतनी / शिखण्ड वहमानाः, कतीह स्त्रियं गच्छमानाः / न भवति इति विशेषः / / 21 / / शक्तिः= सामर्थ्यम्-- कतीह हस्तिनं निघ्नानाः / Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतृश् तृन्-इष्णु-हणुकप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / शीलं-स्वभावः,-- कतीहात्मानं वर्णयमानाः, परा- | तृन् शील-धर्म-साधुषु // 5 / 2 / 27 // निन्दमानाः // 24 // म० वृ०-शोले, धर्मे साधौ च सत्यर्थे वर्त्त मानाद्धातोः 'तृन्' स्यात् / शीले,-- कर्ता कटम् ,' अव०--'यः प्राणिनां कालकृता बाल्याद्यव वदिता जनापवादान् / धर्मे,- वधूमूढां मुण्डयिस्था / २शक्तिः सामर्थ्यम् / शीलं-स्वभावः / तारः श्राविष्ठायनाः / साधौ,-- गन्ता खेलः, साधु वोढु बयस इति वाक्ये वहमानाः / ५गन्तुं वयसो गच्छतीत्यर्थः / शीलादिष्विति किम् ? कर्त्ता कटगच्छमानाः / एषु सर्वत्र अनभिधानान्न वाऽसरूपः स्थ / नकारः सामान्यग्रहणाविघातार्थः // 27 // शतप्रत्ययः / वर्णयमानाः इत्यत्र 'वर्णण वर्णक्रियाविस्तारगुणवचनेषु // 24 // अव०-"तृन् शीलधर्मसाधुषु" इत्यत्र बहु वचनं वक्ष्यमाणेषु 'सन्भिक्षाशंसेरुः' (5 / 233 / ) धारीडोऽकृच्छ ऽतृश् / / 5 / 2 / 25 / / इत्यादिसूत्रेषु यथासंख्यपरिहारार्थम् / 'कटकरणम् म. वृ०-अकृच्छः = सुखसाध्यः / अकृच्छे परवैभाष्यं मैत्रस्य स्वभाव इत्यर्थः / “धर्मे', कोऽसत्यर्थे वर्तमानांद्वारेरिदश्च परोऽतृश् स्यात् / धार- र्थः ? कुलाद्याचारे / नप्त-नेष्टु-विष्ट क्षत-होतृ-पोतृयन्नाचा राङ्ग, अबीयन् द्रुम पुष्पीयम् / अकृच्छ प्रशास्तृशब्दा- एते औणादिकाः पितृमातृवत् , नात्र इति किम् ? कृच्छण धारयति धर्मम् / इ आन- तृन्प्रत्ययः; अत एवैषां पूर्वमार्विधौ पृथगुपादानं शि प्राप्ते धारेरुभयप्राप्ती वचनम् / वाऽसरूपोऽपि विहितम् // 27 // नेष्यत एव // 25 // . भ्राज्यलग्-निराकृग्-भू-सहि-रुचि-धृतिप्रव०-आवारप्रतिपादकमङ्गमाचाराङ्गम् / वृधि-चरि-प्रजना-ऽपत्रप इष्णुः // 5 / 2 / 28 // २द्रमपुष्पमधिकृत्य कृतो ग्रन्थः, 'शिशुक्रन्दादिभ्य ____म० वृ०-एभ्यः शीलाद्यर्थे सत्यर्थे 'इष्णुः' ईयः' (६३।२००।इति ईयप्रत्ययः ), द्रुमपुष्पीयं स्यात् / भ्राजिष्णुः, अलङ्करिष्णुः, निराकरिष्णुः, नाम दशवै कालिकागमे आद्यमध्ययनम् // 25 // भविष्णुः, सहिष्णुः, रोचिष्णुः, वर्तिष्णुः, वर्द्धिष्णुः, सुग-द्विषा-ऽहः सत्रि-शत्रु-स्तुत्ये // 5 / 2 / 26 // चरिष्णुः, प्रजनिष्णुः, अपत्रपिष्णुः / / 28 / / . . म० वृ०-सत्यर्थे वर्तमानात् सुनोतेर्द्विषोऽईश्च धातोर्यथासंख्यं 'सत्रिणि [यजमाने], शत्रौ, प्रव०-भ्राजनशीलो भ्राजनधर्मा साधु भ्राजते * स्तुत्ये च कर्तरि 'अतृश् स्यात् / सर्वे सुन्वन्तः, इति भ्राजिष्णुः, एवं सर्वत्र // 28 // चौरं द्विषन् , चौरस्य द्विषन् ; शत्रुरित्यर्थः; पूजा उदः पचि-पति-पदि-मदेः // 5 / 2 / 29 / / मईन् , प्रशस्य इत्यर्थः / / 26 / / ___ म० वृ०-एभ्य उत्पूर्वेभ्यः शीलादौ सत्यर्थे 'इष्णुः' स्यात् / उत्पचिष्णुः, उत्पतिष्णुः, उत्पदि____अव०-'सत्रिणि', यजमानेऽर्थे, यज्ञस्वामि- | ष्णुः, उन्मदिष्णुः // 29 // नीत्यर्थः / (ननु) सर्वे सुन्वन्त इत्यादिषु अतृश्प्रत्यये | शतृप्रत्यये वा सति रूपसाम्यान्न कश्चिद्विशेषो ज्ञायते, भू-जेः ष्णुक् / / 5 / 2 / 30 // उच्यते, प्राकृतव्या करणे'शत्रानशौ' इति सूत्रे ___म० वृ०-ककारः कित्कार्यार्थः / शीलादौ विशेषोऽस्ति // 26 // / सत्यर्थे भूजिभ्यां 'ष्णुक् स्यात् / भूष्णुः,जिष्णुः / 30 / .5 प्राकृते हि 'शत्रानशः' (8 / 3 / 181) इति सूत्रेण शतृप्रत्ययस्य 'न्त' इत्यादेशो भवति, अतृश्प्रत्ययस्य तु स न भवतीति विशेषः / Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 5 पा० 2 सू० 32--37 म० वृ०-एभ्यः शीलादौ सत्य? 'स्नुः' स्यात् शृ-बन्देरारुः // 5 / 2 / 35 // स्थास्नुः, ग्लास्नुः, म्लारनुः, पक्ष्णुः, 'परिमाणुः, म० वृ०-शीलादौ सत्यर्थे शत्रन्दिभ्यां पर क्षेष्णुः // 31 // 'आरुः' स्यात् / शरारुः, विशरारुः, वन्दारुः // 35 // अव०-'धूगौदितः' (4 / 4 / 38) इति विकल्पेन इट्प्रत्यये 'परिमार्जिष्णुः' इत्यपि प्रयोगो मन्तव्यः / अव०-शणातीत्येवंशीलः शरारुः, विशीर्यते 'परिमाणुः' इत्यत्र पूर्व ( ? पूर्व) गुणः, पश्चात् | इति कर्मकर्तरि वा // 35 // 'मृजोऽस्य वृद्धिः' (4 / 3 / 42) इत्यनेन वृद्धिः / / 31 / / / दा-ट्धे-सि-शद-सदो रुः // 5 / 2 / 36 / / त्रसि-गृधि-धषि-क्षिपः कः // 5 / 2 / 32 // म० वृ०-शीलादौ सत्यर्थे दारूप वे-सि शदम० वृ०-एभ्यः शीलादौ सत्यर्थे 'क्नुः' स्यात् / | सद्धातुभ्यो 'रुः' स्यात् / दारुः, वे, धारुः, त्रस्नुः, गृध्नुः, धृष्णुः, क्षिप्नुः / / 32 / / 3 सेरुः, शद्रुः, "सद्रुः // 36 // सन्-भिक्षा-ऽऽशंसेहः // 5 / 2 / 33 // अव0-१'दाधेसी'-ति सूत्रे धेग्रहणात दारूपाः म० ०-शीलादौ सत्य; वर्तमानात् सन्प्र सर्वेऽपि धातवो गृह्यन्ते,न दासंज्ञाः / अत एव दारुः इत्यस्य ददातीत्येवंशीलः, एवं दयते, यच्छति, द्यति त्ययान्ताद्धातोमिक्षाशसिभ्यां च पर 'उः' स्यात् / दाति, दायति इत्येवंशीलो दारुः इत्यादिवाक्ये चिकीर्षुः, भिक्षुः, आशंसुः // 33 // रुप्रत्ययः कृतोऽस्ति / कथं तर्हि द्यति तत् इति दारु काष्ठम् ? उच्यते, अत्र औणादिकः कर्मणिरुप्रत्ययः / प्रव०-आशंसित्यक्त 'आङः शसह इच्छा तथा २धयति इत्येवंशीलो धारुर्वत्सो मातरम् / याम्' इत्यस्य आत्मनेपदिनः उदितो भ्वादेरेव ग्रह सिनोतीत्येवंशील: सेरुः / ४शीयते इत्येवंशीलः णम् , न तु 'शंसू स्तुतौ च' इति भ्वादेः परस्मैपदिन =शदः / 'सीदति इत्येवंशीलः सद्र: / एभ्य इति इत्यस्य, 'शंसू स्तुतौ च इत्यस्य आङ योगस्य अनि किम् ? दधातीत्येवंशीलो दधिर्गाः // 36 // यतत्वात् / / 3 / / विन्द्विच्छू / / 5 / 2 / 34 // शीङ-श्रद्धा-निद्रा-तन्द्रा--दयि-पति-गृहि--स्पहे. म० वृ०-शीलादी सत्यर्थे वेत्तेः इच्छतेश्च पर रालुः // 5 / 2 / 37|| 'उप्रत्ययः' यथासंख्यं नकारोपान्त्यछकारान्तादेशौ' म. वृ०-एभ्यः शीलादी सत्यर्थे आलुः स्यात्। (च) नित्यन्ते / विन्दुः, इच्छुः / कथमपां शेते इत्येवंशील:=शयालुः, श्रतपूर्वो धाग् , श्रद्धत्ते= विदुः ? बिन्देरौणादिक उः // 34 // श्रद्धालुः, निद्राति निद्रायति वा=निद्रालुः, तत् द्राति ' द्रायति वातन्द्रालुः, निपातनाद् दस्य न् , तन्द्रा इति सौत्रधातुर्वा; दयालुः,पतयालुः, गृप्रव०-१ विदक ज्ञाने' वेदनशीलो विन्दुः / एषणशील इच्छुः / 3 विदु अवयवे' विद्, 'उदितः हयालुः, स्पृहयालुः // 37 // स्वरान्नोऽन्तः' (4 / 4 / 98) विन्दुः, 'भृमृतत्सरितनि अव०-"द्रांक कुत्सितगतौ' ' स्वप्ने' अत्र धन्यनिमनिमस्जिशीवटिकटिपटिगडिचच्यसिव द्वयोरपि ग्रहणम् / पतण गतीच। गृहणि ग्रहणे / सित्रपिशस्वृस्निहिक्किदिकन्दीन्दिविन्द्यन्धिबन्ध्यणि- ४स्पृहण ईप्सायाम् / पतिगृहिस्पृहयो धातवश्चौरालोष्टिकुन्थिभ्य उ:' (उणा०७१६) इत्युणादिसूत्रेण / दिका अदन्ताः, अथवा पतिगृही धातू सौत्रौ इकाराउप्रत्ययः // 34 // न्तौ ज्ञातव्यौ / मृगयालुः, लज्जालुः, ईर्ष्यालुः, शला Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकण-अनप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / लुप्रभृतयस्तु औणादिकाः / तथा कृपालुहृदयालू | (म्) अपलाषुकं नीचसाङ्गत्यम् ,अभिलाषुकः, उत्पामत्वर्थीयान्तौ // 37 // तुकं ज्योतिः, उपपादुका देवाः // 41 // डौ सासहि-वावहि-चाचलि-पापतिः / / 52 / 38 // अव०-एवं प्रपातुका गर्भाः / शीलाद्यधिम० वृ०-एभ्यः शीलादौ सत्य? 'सहिवहि- कारसूत्रेषु सर्वत्र सूत्रार्थेषु “शीलादी सत्यर्थे वर्त्तमाचलिपतीनां यदन्तानां दो सति यथासंख्यमेते नाद्धातोः" इति सर्वत्र योज्यमलिखितमपि / / 4 / / निपात्यन्ते / अत एव वचनात् किरपि। सास 'भूषा-क्रोधार्थ-जु-सृ-गृधि-ज्वल-शुचश्चानः ह्यते इत्येवंशील:=सासहिः, एवं वाह्यते वावहिः, चाचल्यते चाचलिः, पापतिः // 38 // // 5/2 / 42 // म० व०-भूषार्थेभ्यः, क्रोधार्थेभ्यः, जुसगृअव०-पनीपत्यते इत्येवंशीलः पापतिः, | धिज्वलशचिभ्यो लषपतपदिभ्यश्च शीलादौ सत्यर्थे निपातनबलान्यागमाभावः / / 38 / / 'अनः' स्यात् / भूषार्थाः,- भूषणः,मण्डनः, प्रसासत्रि-चक्रि-दधि-जज्ञि-नेमिः / / 5 / 2 / 39 // धनः / क्रोधार्थाः,-क्रोवनः, कोपनः, रोषणः / जु,म. वृ०-एते शीलादौ सत्यर्थ 'कृतद्विवचना जवनः, सरणः, गर्द्धनः, ज्वलनः, शोचनः, लष,डिप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते' / सरतीत्येवं शील:= अभिलषणः, पतनः, अर्थस्य पदनः, एवं ग्रन्थस्य सनिः, चिक्रिः, दधिः, उजज्ञिः, "नेमिः / / 39 / / पदनः, पदनः क्षेत्राणाम् // 42 // अत्र०-करोतीत्येवंशीलश्चक्रिः / दधाती- अव०-'भूषा च क्रोधश्च भूषाकोधावौँ येषां त्येवंशिलो= दधिः / जायते जानाति वा= जज्ञिः। / ते च ते जुश्च सृश्चेत्यादि / भूषयतीत्येवंशीलः / *नमति= नेमिः, द्विवचनाभाव एत्वं च निपात- उजु इति सौत्रो धातुर्वेगाख्येक संस्कारे वर्तते, वेगानात् // 39 // ख्यस्तु चलनस्य हेतुरेव,न तु चलनम् ;तेन चलनार्थाशूकम-गम-हन-वृष-भू-स्थ उकण // 5 / 2 / 40 // भाषादुत्तरेण न प्राप्नोति इति इह सूत्रे जुग्रहणं कृतमित्यर्थः। *पदेरिदित्त्वात् उत्तरेण 'इडितो व्यम० वृ०-शीलादौ सत्यर्थे एभ्य 'उकण' स्यात् / ञ्जना०' (5 / 2 / 44) इत्यनेनैव सिद्धे सकर्मकार्थमत्रो. शारुकः, [एवं प्रशारुकः शरः) 'कामुकः, आगामुकः पादानं कृतम् / पद्यते इत्येवंशील:=पदनः // 42 / / निजगृहम, धातुकः, आधातको व्याधः. वर्षकः. प्रवर्षको मेघः, भावुकः, प्रभावुकः क्षत्रियः, स्था चल-शब्दार्थादकर्मकात् // 5 / 2 / 43 // युकः प्रमत्तः, 'उपस्थायुको गुरुम् , गुणानधिष्ठा- ___ म० वृ०-'चलनार्थात् शब्दार्थाच्च धातोः युकः // 40 // शीलादौ वर्तमानादकर्मकात्पर 'अनः' स्यात् / चल- अव०-'एवं कामुकी रिरंसुः, कामुका या तीत्येवंशील:=चलनः, कम्पनः, चोपनः,र चेष्टनः / इच्छां विना कामयते, कामुका अन्यस्य स्त्रियो भव शब्दनः, रवणः, आक्रोशनः / अकर्मकादिति किम् ? न्ति / २'आत ऐः कृत्री' (4 / 3 / 53) इति ऐः // 40 // पठिता विद्याम् // 43 // लष-पत-पदः / / 5 / 2 / 41 // अव०-'चलनार्थात् शब्दार्थाच कीदृशाद् ? म० वृ०--योगविभाग उत्तरार्थः / एभ्यः अकर्मकात् इति विशेषणं ज्ञातव्यम् / अकर्मकात् शीलादौ सत्यर्थे 'उकण' स्यात् / अपलषतीत्येवंशील- | इति कोऽर्थः ? अविद्यमानकर्मकात् अथवा अविव * कारिकावल्याः "संस्कारभेदो वेगोऽथ स्थितिस्थापकभावने" इति कारिकां पश्यन्तु / Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 ] श्रीसिरहेमाशब्दानुशासन : द [अ० 5 पा० 2 सू०४४-४९ - क्षितकर्मकात् / 'चुप् मन्दायाम् , चोपतीत्येवंशील- प्रव०-१'भावयिता' इत्यत्र' 'भू सत्तायाम्' श्वोपनः / शब्दयतीत्येवंशीलः-शब्दनः // 43 // . 'भूण अवकल्कने' वा, 'भूकः प्राप्तौ णिक (शा 'इङितो व्यञ्जनाद्यन्तात् / / 5 / 2 / 44 // 19) इति णिः / हस्तयिता' इत्यत्र इस्ती निरस्यति इति वाक्ये 'अङ्गान्निरसने णिक' (3 / 4 / ..म० वृ०-इदनुबन्धात् कानुबस्थाच्च व्यञ्जा. 38) इत्यनेन णिङ् / एवं पुच्छमुदस्थति उत्पुनाधन्ताद्धातोः परः शीलादौ सत्यर्थो 'अनः' स्यात् / च्छयिता, 'पुच्छादुत्परिव्यसने' (3 / 4 / 39) इति इदित्,- स्पर्धनः / हित ,-- कर्त्ततः वर्द्धतः / णिङ / भावयिता हस्तयिताअत्र णिग(णिज)नन्तरम२णेरतश्च विषय एव लोपे व्यञ्जनान्तत्वादिहापि नेकस्वरधातुत्वात् णकविषये सति णिढोलोपो विधेयः, भवति,-चितिण चेतनः, जुगुप्सनः, मीमांसनः / पश्चात् व्यञ्जनाद्यन्तत्वात् पूर्वेणानः प्राप्त इति 'न इजित इति किम् ? स्वप्ता / व्यजमाद्यन्तादिति णि 0. सूत्रेणाऽनः प्रतिषिध्यते, तद्नन्तरमिटि किम् ? एधिता, शयिता / अकर्मकादित्येव- वसिता कृते सति ‘णेरनिदि' (4 / 3 / 83) इति वचनात् पुन- . वस्त्रम् , सेविता विषयान / / 4 / / र्णिङ निवर्त्तते / मधुसूदनः, अरिसूदन , बलसू दन इति प्रयोगाः // 45 // - प्रव०-इश्व ङ च-इक, इक इत्-अनु द्रम-क्रमो यङः // 5 / 2 / 46 // बन्धो यस्य धातोः स इङित् , तस्मात् / व्यञ्जनमादिरन्तश्च यस्य इदनुबन्धम्य ङानुबन्धस्य स म००-यन्ताभ्यां द्रमिक्रमिभ्यां शोलादी सत्यर्थे व्यञ्जनाद्यन्तः,तस्मात्। इदनुबन्धात् ङानुबन्धात् की-| 'अनः' स्यात् / कुटिलं द्रमति कुटिलं क्रामतीत्येवंदृशात् ? व्यञ्जनाद्यन्तात इति विशेषणं ज्ञातव्यम् / शीलो दन्द्रमण:, चंक्रमणः। सकर्मकार्थ वचरणेरतश्चेति कोऽर्थः ? चेतन इत्यत्र अनप्रत्यय- 'नम् इति प्रतिषेधनिवृत्त्यर्थं च // 46 // विषये एव पूर्व 'णेरनिटि' (4 / 3 / 83) इत्यनेन णिगलोपः कर्त्तव्यः , जुगुप्सनः मीमांसन इत्यत्र अव०-१'दन्द्रमणः, चंक्रमणः'; अत्र'अत.' अनप्रत्ययविषये एवं पूर्वम 'अतः' (4 / 3 / 82) इति / (4 / 3 / 82) इत्यनेन अल्लोपः, योऽशिति' (4 / 3.80) सूत्रेण अतः अकारस्य लोपः, पश्चात अनप्रत्ययः इति यूलोपः // 46|| कर्त्तव्यम् (? यः), णि अती (? प्रतश्च) लोपे सति - यजि-जपि-दंशि-बदादकः / / 5 / 2 / 47 // धातोर्व्यशनाद्यन्तत्वाद प्रत्ययः प्राप्नोति / यदि णेरतो ?णेरतश्च लोपी नः क्रियते ताऽनेकस्व म० वृक्ष-एभ्यो यढन्तेभ्यः शीलादौ सत्यर्थे रस्वाद्धातोः 'निन्दहिस.' ( 5 / 2 / 68.) इति वक्ष्य 'ऊकप्रत्ययः' स्यात् / यायजूकः, जञ्जपूकः, दन्दशूकः, माणसूत्रेण णकः प्रत्ययः स्यात् / / 451/ वावदूकः / / 47 // न णिङ्-य-मूद-दीप-दीक्षः / / 5 / 2 / 45 // .. जागुः // 5 / 2 / 48 // म०व०-शीलादी जागर्तेः 'ऊकः' स्यात् / 'या' म० वृ०-णिगन्तेभ्यः, यान्तेभ्यः सूदादिभ्यश्च इति निवृत्तम् / जागतीत्येवंशीलो जागरूकः / / 4 / / शीलादौ सत्यर्थो 'अनो न भवति / णिगन्त,--भावयिता, रहस्तथिता / यान्त,- मायिता, दयिता, शमाटकाद् घिनण् / / 5 / 2 / 49 / / पूदि. क्षरणे- सूदिता, दीपिता, दीक्षिता / मधु- म-वृ०-शीलादौ सत्यर्थे शमादिभ्योऽष्टाभ्यों सूदनादयो नत्यादिषु द्रषव्याः // 45 // | धिनण' स्यात् / शमी, दमी, तमी, श्रनी, भ्रमी, .'न णिङ्-यर (51245) इति यान्तधातुमाश्रित्य कृतस्य प्रतिषेधस्य निवृत्त्यर्थम् / Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घिनणप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवधूरिसंवलितम् / [ 201 क्षमी, प्रमादी, क्लमी। ण् वृद्धयर्थः / घिरुत्तरत्र / रूढिप्रकारा यथादर्शनमुक्तोपसर्गे प्रयुज्यन्ते इत्युपकत्वगत्वार्थः / नस्य अकार उच्चारणार्थः / अभिधाना- सर्गान्तरे उपसर्गाधिक्ये वा शीलादिप्रत्यया न प्रयुदकर्मकेभ्य एव घिनण, तेनेह न घिनण, वनं ज्यन्ते / एवमुत्तरत्र सूत्रेष्वपि" // 51 // भ्रमिता / सकर्मकेभ्यस्तु यथादर्शनं दर्शयिष्यामः प्राच यम-यसः / / 5 / 2 / 52 // // 49 // म० वृ०-शीलादौ प्र-आर पराभ्यां 'घिनण' अव- शमू दमूच् उपशमे, तमूच् काङ्क्षा- स्यात् / प्रयच्छतीत्येवंशील:=प्रयामी, आयामी; * याम , श्रमूच खेदतपसोः, भ्रमूच अनवस्थाने, प्रयासी, आयासी // 52 // क्षमौच सहने, मदैच् हर्षे; क्लमूच् ग्लानौ इति __ मथ-लपः // 5 / 2 / 53 // शमाष्टकं दिवादौ पुषादिगणप्रान्ते / एतदनुक्रमेणोदाहरणावली। क्लमी इत्यत्र 'अमोऽकम्यमिचमः' म० वृ०-प्रात्पराभ्यां मथलपभ्यां 'घिनण' (4 / 2 / 26) इति ह्रस्वः / शमी इत्यादिषु क्षमीपर्यन्तेषु स्यात् / प्रमथतीत्येवंशील:=प्रमाथी, प्रलापी / / 3 / / 'मोऽकमियमिरमिनमिगमिवमाचमः' (4 / 3 / 55) वेश्च द्रोः // 5 / 2 / 54 // / इत्यनेन वृद्धिप्रतिषेधः / 'किणति' (4 / 3 / 50) इति ___ म० वृ०-वेः प्राच परात् द्रवतेः 'घिनण' स्यावृद्धिसम्भावना / शमादयो घन्तान्मत्वर्थीयेन | त्। विद्रवतीत्येवंशीलः विद्रावी, प्रदावी / / 4 / / सिद्धयन्ति, तृन्बाधनार्थ तु वचनम् // 49 // वि-परि-प्रात्सर्तेः // 5 / 2 // 55 // युज-भुज-भज-त्यज-रञ्ज-द्विष-दुष-द्रुह-दुहाऽभ्या म० वृ०-विपरिप्रात्सर्तेः शीलादौ सत्यर्थे हनः / / 5 / 2 / 50 // 'घिनण' स्यात् / विसारी, परिसारी, प्रसारी // 55 // म. वृ०-एभ्यो ‘घिनण' स्याच्छीलादौ / समः पृचैप्-ज्वरेः / / 5 / 2 / 56 // . 'योगि, भोगी, कल्याणभागी, त्यागी, रागी,द्वेषी, दोषी, द्रोही, दोही, अभ्याघाती / अकर्मकादित्येव म० वृ०-सम्पराभ्यां पृचैज्वभ्यां शीलादौ गां दोग्धा // 50 // सत्यर्थे 'घिनण' स्यात् / ['पृचैप सम्पर्के'] संपृणक्ती त्येवंशीलः सम्पर्की, संज्वरतीत्येवंशीला संज्वारी। प्रव०-'युज्यते युनक्ति वा इत्येवंशीलो= अकर्मकादित्येव-सम्पृणक्ति शाकम् // 56 // योगी। भुक्ते भुनक्ति भुजतीति वा इत्येवंशीलो सं-वेः सृजः // 5 / 2 / 57 // =भोगी। कल्याणं भजते इत्येवं(शीलः)। रागी- म० वृ०-शीलादौ संविपरात् सृजेः 'घिनण' त्यत्र 'अकदिनोश्व रजेः'(४।२।५०) इति नलोपः। स्यात् / संसृजति संसृज्यते वा इत्येवंशीलः संसर्गी, ५अभि, मार, हन् , अभ्याघातीत्यत्र 'रिणति घात्' विसर्गी // 57 // (4 / 3 / 100) इत्यनेन ‘घात्' आदेशः / / 50 // सम्-परि-व्यनु-प्रावदः / / 5 / 2 / 58 // आङः क्रीड-मुषः / / 5 / 2 / 5 / / म० वृ०-शीलादौ सम्-परि-वि-अनु-प्रेभ्यः म० वृ०-शीलादौ सत्यर्थे आङ पराभ्यां क्रीड- पराद् वदेः 'घिनण' स्यात् / संवदतीत्येवंशील:= मुषाभ्यां 'घिन' स्यात् / आक्रीडी, आमोषी // 51 // संवादी, परिवादी, विवादी, अनुवादी, प्रवादी / 58 / प्रव०-'भारः क्रीडमुष' इत्यस्य बृहद्वृत्तौ वेर्विच-कत्थ-सम्भ-कप-कस-लस-हनः / / 5 / 2 / 59 / / विशेषोऽयम् ,-"शीलादिप्रत्ययान्ताः शब्दाः प्रायेण | म० वृ०-एभ्यो विपूर्वेभ्यः शीलादौ 'घिनण' Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 5 पा० 2 सू० 60--68 स्यात् / विधिनतीत्येवंशीलो= विवेकी, [विचपी / परिदेवयति वा इत्येवंशीलः परिदेवी, परिमोही, पृथग्भावे] विकत्थी, विस्रम्भी, [सम्भृङ विश्वासे] | परिदाही // 65 // विकाषी, विकासी, [कस गतौ] विलासी, विघाती, प्रव०-देवीति देवृधातोरण्यन्तस्य ण्यन्तस्य ["णिति घात्' ( 4 / 6 / 100) इति हन्तेर्घातादेशः] च ग्रहणम् / परिपूर्वाभ्यां देविमुहिभ्यां चकाराद॥५९॥ हश्च शीलादी सत्यर्थे घिनण् स्यात् इति युक्तथा व्यपा-ऽभेलपः // 5 / 2 / 60 // सूत्रार्थो ज्ञातव्यः / सूत्राने लिखितः सूत्रार्थो म० वृ०-वि-अप-अभिपराल्लषे-'घिनण' स्यात् / नादरणीयः (?) / अयं सूत्रार्थो नादरणीयः (?) / विलषतीत्येवंशीलो विलापी,अपलाषी,अभिलाषी६० | लाक्षणिकत्वाहीव्यतेय॑न्तस्य न ग्रहणम् / तेवृद्ध सम्-पावसात् / / 5 / 2 / 61 / / देवृक्ष देवने इति भ्वादौ देव // 65 // म० वृ०-सम्प्रात पराद् वसतेः शीलादो क्षिप-रटः / / 5 / 2 / 66 // 'घिनण' स्यात् / संवसतीत्येवंशीलः संवासी, म० वृ०-परिपूर्वक्षिपरटभ्यां 'घिनण' स्यात् / प्रवासी // 6 // परिक्षिप्यति परिक्षिपति वा इत्येवंशीलः परिक्षेपी, ___ अव०-शनिर्देशात् वस्तेरादादिकस्य न परिक्षेपी अम्भसाम् ; परिराटी // 66 // घिनण् // 61 // अव०-क्षिपंच प्रेरणे' इति दिवादो, 'क्षिपीत् समत्यपा-ऽभिव्यभेश्वरः // 5 / 2 / 62 / / / प्रेरणे' इति तुदादौ, उभयोरपि ग्रहणम् / / 66 / / म० वृ०-सम अति-अप-अभि-व्यभेः पराञ्च वादेश्च णकः // 67 // रतेः शीलादौ सत्यर्थे 'घिनण' स्यात् / सञ्चारी, म० वृ०-शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानात् परिअतिचारी, अपचारी, अभिचारी, व्यभिचारी // 62 // परात् वादयतेः क्षिपरटिभ्यां च 'णकः' स्यात् / परिवादकः, परिक्षेपकः, परिराटकः / असरूप..---- अव०-शीलाद्यधिकारसूत्रेषु सर्वत्रापि “शीला त्वात् ‘णकतृची' (5 / 1 / 48) इति सिद्धे पुनरिह सूत्रे दौ सत्यर्थे वर्तमानाद्धातोः” इति योजना सर्वत्रापि णकविधानं शीलादिकृत्प्रत्ययेषु अशीलादिकृत्प्रत्यलिखिता ज्ञातव्या // 62 // योऽसरूपविधिना न भवतीति ज्ञापनार्थम् / तेन समनुव्यवाद्रुधः / / 5 / 2 / 63 // अलङ्कारक इत्यादिप्रयोगवृन्दं शीलाद्यर्थ न भवति / म. वृ०-सम-अनु वि-अवात्पराद् रुधे-'चिन बहुलाधिकारात् कचिद्भवत्यपि, यथा-"कामक्रोधी ण ,स्यात् / संरुन्धे इत्येवंशी =संरोधी, अनुरोधी, मनुष्याणां खादितारौ वृकाविव" / अत्र णकविषये विरोधी, अवरोधी // 6 // तृच // 67 // वेर्दहः / / 5 / 2 / 64 // अव०-परिवादयतीत्येवंशीलः / २उत्तरम० वृ०-विपूर्वाद् दहेर्घिनण्' स्यात् / सूत्रेण णकप्राप्तिः // 6 // विदाही // 64 // निन्द-हिंस-क्लिश-खाद-विनाशि-व्याभाषा-ऽसूपरेर्देवि-मुहश्च / / 5 / 2 / 65 / / या-ऽनेकस्वरात् // 5 / 2 / 68 // म० वृ०-देवीति देवृधातोरण्यन्तस्य ण्यन्तस्य म० वृ०-एभ्यो ‘णकः' स्यात् , शीलादौ च ग्रहणम् / परिपूर्वाभ्यां देविमुहिभ्यां चकाराह- | सत्यर्थे / 'निन्दकः, २हिंसकः, उक्लेशकः, खादकः, हश्व शीलादौ सत्यर्थे 'घिनण' स्यात् / परिदेवते | "विनाशकः, व्याभाषकः, असूयकः, अनेकस्वर, Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णक-टाक-इन्-मरक्-घुरविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [203 दरिद्रायकः, चकासकः, गणकः, चुलुम्पकः // 68 // / | अव०-'प्रात्सूजोरिन्' इत्यत्र सू इति निरनु बन्धग्रहणात् 'पूत प्रेरणे' इति तुदादेर्ग्रहणम् , अव०-"णिदु कुत्सायाम' / "हिसु तृहप् षूडौक् प्राणिगर्भविमोचने इत्यदादिकसूतेः,पूडोहिंसायाम्' / तथा 'क्लिशिच् उपतापे' 'क्लिशौश च् प्राणिप्रसवे इति दिवादेः सूयतेः उभयोरपि न विबाधने' (इति) उभयोरपि ग्रहणम् , तेन क्लिशे ग्रहणम् / अत एव वृत्तौ प्रसुवतीत्येवंशील इति देवादिकस्य इदित्त्वेऽपि अनप्रत्ययो न भवति / वाक्यम् // 71 // *विनाशयतीत्येवंशीलो विनाशकः / असूयः कण्ड्वादो अनेकस्वरत्वादेव सिद्धे ग्रहणं कण्ड्वादिनिवृ जीण-द-क्षि-विश्रि-परिभू-वमा-ऽभ्यमा-ऽव्यथः त्यर्थम् , तेन 'कण्डूयिता, मन्तूयिता; अत्र तृन्नेव / // 5 / 2 / 72 // असूयग्रहणं विनाऽनेकस्वरत्वात् कण्डूयिता इत्या- म. वृ०-एभ्य 'इन्' स्यात् / जि,-जयी, दायपिणकः प्राप्नुयात् / तथा विनाशिग्रहणं तु अन्य इण.-अत्ययी, उदयी; दृ-'आदरी, २क्षि,-क्षयी, स्य ण्यन्तस्य निवृत्त्यर्थम् , तेन कारयिता, (अन्यथा) | विश्रि,-विश्रयी,परिभू, परिभवी,वम्,-वमी,अभ्यमी, अत्रापिअनेकस्वरत्वाण्णकःप्रसज्येत। कथं तर्हिगणक अव्यथी // 72 // इत्यत्र णकः ण्यन्तत्वात् ? , उच्यते , अत्रायं विशेषः, यतो विनाशीति णिगन्तग्रहणं वृत्ति(? सूत्र)कारः प्रव०-'दृत् आदरे' आद्रियते इत्येवंशील: करोति तदिदं ज्ञापयति, अन्यस्य णिगन्तस्यैव वर्जनम् , =आदरी। "क्षि क्षये' 'क्षिषश् निवासगत्योः' णिजन्तस्य णको भवत्येव / गणक इत्यत्र 'चुरादिभ्यो द्वयोरपि इन् / उन व्यथते इत्येवंशीलः / / 72 / / णिच्' (3 / 4 / 17), न तु णिग // 68|| सृ-घस्यदो मरक् // 5 / 2 / 73 // उपसर्गाद् देव-देवि-कुशः // 5 / 2 / 69 / / म० वृ०-एभ्यो 'मरक्' स्यात् / समरः, घर म. वृ०-उपसर्गात्परेभ्य एभ्यो 'णकः'स्यात् / मरः, अमरः // 73 // आदेवते इत्येवंशील:=आदेवकः, परिदेवकः; देवी भञ्जि-भासि-मिदो घुरः / / 5 / 2 / 74 // ति दीव्यतर्देवतेर्वा ण्यन्तस्य ग्रहणम , आदेवयतीत्येवंशीलः आदेवकः, परिदेवकः, आक्रोशकः / / 69 // म. वृ-एभ्यः शीलादौ सत्यर्थे 'धुरः' स्यात् / घकारो गत्वार्थः / भज्यते स्वयमेवेत्येवंशीलंवृष-भिक्षि-लुण्टि-जल्पि-कुट्टाट्टाकः भङ्गुरं काष्ठम् , 'भासुरम् , मेदुरः // 74 / / / / 5 / 2 / 70 // प्रव०-भासते इत्ययेवंशीलं भासुरं वपुः / म० वृ०-एभ्यः 'टाकप्रत्ययः' स्यात् / टकारो रमेद्यति मेदते वा इत्येवंशीलो-मेदुरः / / 74 // म्यर्थः / ['वृश संभक्तौ'] वृणीते इत्येवंशीलो= वराकः, एवं वराकी; भिक्षाकः, भिक्षाकी; लुण्टाकः, वेत्ति-छिद-भिदः कित् // 5/275 / / लुएटाकी; जल्पाकः, जल्पाकी; [कुट्टण कुत्सने च] ___ म० वृ-एभ्यः 'कित् घुरः' स्यात् / विदुरः, कुट्टाकः, कुट्टाकी 70 // छिद्यते स्वयमेवेत्येवंशील:=छिदुरः, एवं भिदुरः 3 प्रात्सू-जोरिन् / / 5 / 271 / / 75|| म० वृ०-प्रात्पराभ्यां सुवतिजुभ्याम् ‘इन्प्र- ___ अव०'घुरस्य कित्त्वान गुणः / वेत्ति इति तिवत्ययः' स्यात् / प्रसुवतीत्येवंशील: प्रसवी, प्रजवी; | निर्देश इतरविदित्रयव्युदासार्थः / भिद्यते स्वयमेष [जुः सौत्रः] ||71 // इत्येवंशीलो भिदुरः / / 75 // Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०५ पा० 2 सू०७६-८३ भियो रुरुक-लुकम् // 5 / 276 // प्रव०-निजिङ इत्यत्र डकारो गुणनिषेम० वृ०-शीलादौ बिभेते 'रु-रुक-लक, इति / धाथः, इकार उच्चारणार्थः। तृष्यतीत्येवंशीलो-तृप्रत्ययत्रय कित्' स्यात् / भीरुः, भीरुकः, भीलुकः / ष्णक् / विषाट् प्रागल्भ्ये। धृष्णोतीत्येवंशीलो // 76 // =धृष्णक् // 8 // सू-जीग-नशष्ट्वरम् / / 5 / 2 / 77 // स्थेश-भास-पिस-कसो वरः / / 5 / 2 / 81 / / म. वृ०-एभ्यः 'किन् बरप' स्यात् / टकारों म० वृ०-एभ्यः शोलादौ 'वरःप्रत्ययः' स्यात् / व्यर्थः। पकारस्तागमार्थः / स, सृत्वरः, जि,-जित्वरः, स्थावरः, स्थावरा; ईश्वरः, ईश्वरा ; कथमीश्वरी ? इण,-इत्वरः, इत्वरी ; नश,-नश्वरः, नश्वरी / / 77 // 'अश्नोरीच्चादेः' के (उणा० 442) इत्युणादिसूत्रेण गत्वरः // 5 / 2.78 // वरटि भवति, भास्वरः, भास्वरा ; पेस्वरः, पेस्वरा ; म० वृ०-गमे 'ट्वरप्' स्यात् ,मकारस्य [धातु विकस्वरः, विकस्वरा // 8 // मकारस्य] च 'त्' निपात्यते / गत्वरः, गत्यरी // 78|| यायावरः // 5 / 2 / 82 // स्म्यजस-हिंस-दीप-कम्प-कम-नमो रः म० वृ०-याधातोः शीलादौ यहन्तात् 'वर॥५।२७९॥ प्रत्ययो' निपात्यते / कुटिलं यातीत्येवंशीलो= यायावरः / / 8 / / __म० ३०-एभ्यः शीलादौ 'रः' प्रत्ययः स्यात् / स्मि,-स्मेरं मुखम् ,अजस् , 'अजस्र श्रवणम् ,अजस्त्रा अव०-'यायावर' इत्यत्र 'ययोः प्वव्यञ्जने प्रवृत्तिः, अजस्रः पाकः, अजस्र पचति, हिंस्रः लुक्' (4 / 4 / 121) इत्यनेन यो य लुप्यते / 'अतः' व्याधः, दीप्रो दीपः, कम्प्रः, 'कम् , कामयते इत्येवं (4 / 3 / 82) इत्यनेन पूर्व यङन्तस्य अकारलोपिशीला कम्रा स्त्री, नम्रः // 79|| त्वात् ततो 'ग्योः प्वयः' इति यलोपः / 'योऽशिति' अव०-अजस्रमित्यत्र 'जसूच् मोक्षणे' (इति) (4 / 3 / 80) इति न प्रवर्तते, व्यञ्जनान्ताद्धातोर्विहिजस् नत्र पूर्वः / न जस्यति इत्येवंशीलम् अजस्र तस्य यकारस्येति वचनात् / / 82 // श्रवणम् / अजस्रशब्दोऽयं स्वभावात् नैरन्तर्यविशिष्टां दिद्युद्ददृजगज्जुहू-वाक्-प्राट-धी-श्री-द्रू-स्र ज्वायक्रियामाह.तेन अन्यस्य धातोरर्थे धात्वन्तरे कतरि | तस्तू-कटम-परिबाट भ्राजादयः विप् // 5 / 2 / 83 // सति रप्रत्ययो भवति; यथा अजस्र पचति, अजस्रः म० वृ०-एते शब्दाः 'क्विबन्ताः' शीलादौ पाकः, अजस्रा प्रवृत्तिः, तेन 'अजस्रो घट' इति न सत्यर्थे निपात्यन्ते / चोतते इत्येवंशीलः 'दिद्युत् , भवति; क्रियाभिधानानुपपत्तेः / अथवा अजस्रमित्यव्ययमपि नित्यार्थ क्रियाविशेषणमस्ति / कम्पते एवं ददृत् , उजगत् , "जुहूः, वक्तीत्येवंशीलो =चाक् , bपृच्छति इति प्राट् , तत्त्वप्राट् , शब्दइति कम्प्रः / बहुलाधिकारात् कर्मण्यपि रप्रत्ययः, प्राट् , दधाति ध्यायति वा-धी:,६ श्रीः, शतद्रः, (कम्यते-कम्रः) बहुलाधिकारादेव ‘कमिता' इत्यपि भवति, अत्र तृच् / / 79|| स्रवतीति स्र, जू, ''आयतस्तूः, १२कटप्रः, १३परिवाद , बहुलाधिकारादशीलादावपि किपवृषि-धषि-स्वपो नजिङ / / 5 / 2 / 60 // धीः, सुधीः, प्रधीः, आधीः, भ्राजादि,- विभ्राजते म. वृ०-एभ्यो ‘नजिङ' स्यात् / तृष्णक् , = विभ्राट् , भासते= भाः, १४पूः, पुरौ, पुरः," धृष्णक् , स्वप्नक् / / 80 // १५धूः, धुरौ, धुरः, १६विद्युत् , १७ऊ, ऊर्जी; अत्र 'धात्वन्तरे' इति पाठोऽधिकः प्रतीयते / * श्रीहैमप्रकाशे 'प्रश्नोतेरीच्चादेः' इति / Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दु-इत्रप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [205 % 3D . १८पक् , शक् , भित् , विन् इति भ्राजा- | शं-सं-स्वयं-वि-प्राद् भुवो दुः / / 5 / 2 / 84 // दिः / शी ठादिप्रत्ययानां पूर्णोऽवधिः // 83 / / / म. वृ०-एभ्यः भुवः सत्यर्थे वर्तमानात् 'डुः प्रव०- 'दिद्युत् इति आयुधविशेषो विद्युच्च / हिणा प्रत्ययः' स्यात् / शम्भुः शङ्करः, सम्भुर्जनिता, तीति दहत , धात्वर्थ एव निपातनात् द्विवचनं उस्वयम्भुः, विभुयापकः, प्रभुः स्वामी // 84 // ह्रस्वत्वं च / तथा गच्छतीत्येवंशीलो जगत् , क्रिया अव०-शं सुखम् , तत्र भवति इति शम्भुः शब्दोऽयम् , तेन जगतो, जगतः। विष्ठपवाचकस्तु शङ्करः / सम्भवति जनकत्वेन इति सम्भुजनिता, इत्थं साध्यते- गच्छतीति जगत् , 'गमेर्डिद् द्वे च' पिता इत्यर्थः, जनिरन्तर्भूतण्यर्थः / स्वयम्भुब्रह्मा (उणा० 885) इत्युणादिसूत्रेण कंतृ(प्रत्ययः), स // 84 // च डित् , द्विर्वचनं च, जगती जगन्ति इति द्विवचनबहुवचने सति शतृवत् क्रियते। जुहोतीति जुडूः पुत्र इत्रो दैवते // 5 / 2 / 85 // होमभाण्डम् , निपातनात् द्वित्वं दीर्घश्च / ५३वक्ती- ___ म०वृ०-सत्यर्थे वर्तमानात् ' दैवते देवतायां ति वाक्, अथवा निपातनात् कर्मण्यपि 'उच्यते' कतरि पूधातोः इत्रः' स्यात् / ['पूढ पवने' 'पूरुश इति वाक् / 'bपृच्छति प्राट् , प्राशौ। 'धीः इत्यत्र पवने' (इति) उभावपि ग्राह्यौ] पवते पुनाति वा निपातनात् दधातेराकारस्य ईकारः, ध्यायतेस्तु या पवित्रोऽर्हन् / / 8 / / इत्यस्य ईः / तथा "श्रयति= श्रीः, / शतं द्रवतीति शतद्रूरायुधविशेषः / 'स्रवति-स्रः / १०जवतीति प्रव०-देवता एव दैवतम् , 'प्रज्ञादिभ्योऽण्' जूः पिशावः / ११आयतं स्तौति= आयतस्तूः याय- (7 / 2 / 165) इत्यण् // 8 // जूकः / १२कटं प्रवते= कटप्रः , नदीतीरम् / 'परि- ऋषि-नाम्नोः करणे // 5 / 2 / 86 // ब्रजति= परिबाट् , एषु सर्वत्र दीर्घः / परिवा... | म० ३०-सत्यर्थे वर्तमानात् पूधातोः करणे स्त्री। पुंस्त्रीलिङ्गः (?) / 'पू:' 14 इत्यत्र 'पश् पालन- / 'इत्रः' स्यात् , ऋषौ संज्ञायां च [नाम्निसंज्ञापूरणयोः' पृणातीति पूः / १५धुर्वतीति धू:, किम् / / याम् ] | पूयतेऽनेनेति पवित्रोऽयं ऋषिः / नाम्नि, १६विद्योतते= विद्युत् / १७उर्जयतीति ऊर्क / १८प- दर्भः पवित्रः // 86 // चतीति पक् / 16 शक्नोतीति शक् / 2 भिनत्तीति भित् / २१वेतति वित् / सर्वत्र निपातनात् किम् / प्रव०-'दर्भः पवित्रः, (एवम् ) बर्हिः पविभ्राजादिगणे विशेषोऽयम् , तथाहि-- भुवः संज्ञाया- त्रम् , यज्ञोपवीतं पवित्रम् , ओयोपकरणं पविमेव गम्यमानायां किप् निपा-यते,-- भूः पृथ्वी, त्रम् , पवित्रा नदी; दर्भादीनां पवित्रमिति संज्ञा, शम्भूः शिवः, आत्मभूः, मनोभूः कामः, स्वयम्भूः नामविषये प्रयोगमालेयम् / ओय इत्यत्र वहति ब्रह्मा, स्वभूर्विष्णुः, मित्रभूनोम कश्चिन्नरः, प्रतिभूः प्रापयति निरवद्यां सर्वसाबद्यविरतिमिति ओघः, उत्तमर्णावमर्णयोरन्तरस्थः , द्रन्भूर्व्यसनसहायः, अच् , 'न्यङ कूदमेघा०' (4 / 1 / 112) इति साधुः कारभूः पण्यमूल्यादिनिर्णता, ददलालः वसा० (?) / / 86 // वर्षाभूः दर्दुरः औषधिश्व,पूर्नभूः पुनर्विवाहिता, धृतवा (?) ओपधिश्व संज्ञायाम ,अन्यत्रभविता। तथा शीला लू-धू-सू-खन-चर-सहार्तेः / / 5 / 2 / 87 / / दिप्रत्ययेषु असरूपविधिर्नास्ति, तेन भ्राजादिभ्यः म. वृ०-एभ्यः सत्यर्थे वर्तमानेभ्यः करणे . परः सामान्यलक्षणः किप न प्राप्नोतीति पुनरनेन 'इत्रः' स्यात् / 'लवित्रम् , धुपित्रम् , सविम्, 'दिद्युदह०' इत्यादिना कि निपात्यते // 83 // / खनित्रम् , चरित्रम् , सहित्रम् , अरित्रम् / / 87 // Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०५ पा०२ सू०८७-९२ प्रव०-'लुनात्यनेन लवित्रम् / रेलूधूसूखन०' / यत् त्रप्रत्ययविधानं तत् आप्प्रत्ययार्थमिति ज्ञापइति सूत्रे धूसू इति निरनुबन्धनिर्देशात् 'धून विधु- | यति, अन्यथा त्रटि सति दंष्टी इति स्यात् // 90 // नने' इति धू 'पूत प्रेरणे' इति षू गृह्यते अत एव धात्री / / 5 / 2 / 91 // . धुवत्यनेन धुवित्रम् धुवत्यनेन धुवित्रमित्यत्र 'कुटा म० वृ०-धेर्धागो वा कर्मणि 'वट' निपादेद्विद्' (4 / 3 / 17) इत्यादिना गुणनिषेधः, सुव त्यते / धयन्ति तामिति धात्री-स्तनदायिनी। दधति त्यनेन सवित्रम् / सानुबन्ध(योः) 'धूग्श कम्पने' तां भैषज्यार्थमिति धात्री आमलकी // 11 // 'षडौच प्राणिप्रसवे' (इति) अनयोः प्रतिषेधः / ऋच्छति इयर्ति अनेनेति अरित्रम् // 8 // ज्ञानेच्छार्थिनीच्छील्यादिभ्यः क्तः / // 5 / 2 / 92 / / नी-दाव-शसू-यु-युज-स्तु-तुद-सि-सिच-मिह म० वृ०-ज्ञानार्थेभ्यः, इच्छार्थेभ्यः, अर्घार्थपत-पा-नहस्त्रट // 5 / 2 / 88 // भ्यः, बीद्भयः शील्यादिभ्यश्च धातुभ्यः सत्यर्थे म० वृ०-एभ्यः सत्यर्थे करणे ‘त्रट्' स्यात् / वर्तमानेभ्यः 'क्तः' स्यात् / पूर्ववचास्य कर्तृ कर्माटकारो व्यर्थः / नयन्त्यनेन नेत्रम् , दात्रम् , २श- | द्यर्थनिर्देशः / ज्ञानार्थे,- राज्ञां 'ज्ञातः, राज्ञां बुद्धः; स्त्रम् , योत्रम् , योक्त्रम ; स्तोत्रम् , तोत्रम् , सेत्र- | राज्ञां विदितः, अवगतः / इच्छार्थे, राज्ञामिष्यते . म् , 'सेक्त्रम् ,मेढम् .5 पत, पत्त्रम् , पात्रम् , पात्री; =राज्ञामिष्टः, ( राज्ञां ) मन्यते-मत: / अर्थार्थ,नद्धः नद्धी // 48 // राज्ञामर्चितः, पूजितः। बीत , मिन्नः, धृष्ठः, तूर्णः, सुप्तः, भीतः, फुल्लः / शील्यादि, शीलितः, रक्षितः, प्रव०-'दात्रमित्यत्र ‘दांव लवने' दात्यनेन क्षान्त इत्यादि / बहुलाधिकाराद् यथाभिधानदात्रम् / २'शस्रम्', 'शसूड हिंसायाम्'। 'सेत्रम्', मेभ्यो भूतेऽपि क्तः, तथा च तद्योगे तृतीयासमाकिंग्ट् बन्धने' सीयतेऽनेन सेत्रं रज्जुबन्धभेदः / सोऽपि सिद्धः,-'अर्हद्भयस्त्रिभुवनराजपूजितेभ्य 4 सेक्त्रम्', 'षिचीन क्षरणे' सेक्त्रं कोऽर्थ :? पिच- इति / एवं शीलितोभिण इत्यादावपि द्रष्टयः / 92 / रिक उ (?) / 5 मेढ़ पुरुषलिङ्गम् / / 88 / / अव०-ज्ञायते इति ज्ञातः, एवं बुध्यते इति हल-क्रोडाऽऽस्य पुत्रः / / 5 / 2 / 89 / / बुद्धः, एवं सर्वत्र / राज्ञाम् / राज्ञाम् / सर्वत्र म० वृ०-पूधातोः सत्यर्थे वर्तमानात् हलास्ये 'कर्त्तरि' (2 / 2 / 86) इति सूत्रेण राज्ञामित्यत्र षष्ठी। क्रोडास्ये च करणे 'ट् स्यान / पुनाति पवते वानेन | बीत्', कोऽर्थः ? विकारानुबन्धधातुभ्यः, यथा =पोत्रं हलस्य सूकरस्य च मु वमुच्यते // 89 / / / मिन्नः, 'निमिदाङ स्नेहने' 'बिमिदाच स्नेहने' (इति) द्वावपि / 6 'फुल्लः', अत्र 'दल बिफला विशप्रव०-हलश्च क्रोडश्च हलक्रोडौ,हलक्रोडयो- रणे' ( इति ) फल, फलतीति फुल्लः, 'ति चोपारास्यं मुखं हलक्रोडास्यम् , तस्मिन् / हलेन यज्ञभूमिः न्त्या०' (4 / 1154 ) इति उत्वम् / "शील्यादिप्रयोपवित्रा क्रियते,सूकरेण कांस्यं पवित्रं क्रियते इतिपोत्रं गमालाहलमुखं क्रोडमुख च / / 89 / / शीलितो रक्षितः क्षान्त आक्रुष्टो जुष्ट उद्यतः / दंशेस्त्रः / / 5 / 2 / 90 // संयतः शयितस्तुष्टो रुष्टो रुषित आशितः // 1 // म० वृ०-दशेः करणे त्र:' स्यात् / दशत्यनया कान्तोऽभिव्याहृतो हवस्तुतः सृप्तः स्थितो भृतः। . -दंष्ट्रा // 10 // अमृतो मुदितः पूतः सक्तोऽक्तः श्रान्त-विस्मितौ // 2 // संरब्धा-ऽऽरब्ध-दयिता दिग्धः स्निग्धोऽवतीर्णकः / प्रव०-त्रट् इत्यधिकारे सति 'दशेनः' इत्यत्र / आरूढो मूढ आयस्तः क्षुधित-क्लान्त-ब्रीडिताः // 3 // Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उणादिप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्ववचूरिसंवलितम् / [200 - - * मत्तश्चैवं तथा क्रुद्धः श्लिष्ठः मुहित / इत्यपि।। अत्र उणादिसूत्राणि ज्ञातव्यानि // 93 / / ग्रं० 183 // लिप्त-दृप्तौ च विज्ञेयौ b सति : लग्नादयस्तथा // 4 // इति शील्यादिप्रयोगाः 40 वर्तमानकाले। 'षह षुहच् शक्तौ' (इति) सुह , सुह्यतीति सुहितः / अव०-१'कृवापाजी'-ति प्रथमोणादिसूत्रेण bसति वर्तमाने क्तः / 'लगे सङ्गे' (इति) लग् , 'उण' प्रत्ययः। उक्ता इत्यस्य विहिता इति व्याख्यालगतीति लग्नः / 'राज्ञां ज्ञात' इत्यादिषु 'ज्ञाने नम्। अतीतकालेऽपि / ४'भष भर्त्सने' इति हैमच्छाऽर्चार्थाधारक्तन' (3 / 1186) इति सूत्रेण षष्ठी धातौ, 'भस भर्त्सनदीप्त्योः' इति कलापके, पूर्व दीप्त तत्पुरुषसमासनिषेधः, तर्हि 'राजमहितः, राजपू सत् भसितमिति भस्म / 'संज्ञास्विति श्लोकार्थोऽ जित' इत्यादयः कथम् ? अत्राह बहुलाधिकारादि यम् ,-उणादिषु उणादिगणे बहुलाधिकारात् सर्वमिदं त्यर्थः (? दित्यादि), एभ्यो ज्ञानार्थे च्छार्थार्चार्थेभ्यो ज्ञातव्यम् , 'संज्ञासु', कोऽर्थः ? संज्ञाशब्देषु उणाधातुभ्यो भूतेऽतीतकालेऽपि तो भवति, यथा राज दिप्रत्ययान्तेषु, ६'धातुरूपाणि', धातुपारायणोक्तपूजितः, राजमहितः, राजसम्मतः / राजभिः पूज्यते धातुन (? धातवः) अथवा सूत्र धातून (? धातवः), स्मेत्यादिवाक्यं कर्तव्यम् / त्रिभुवनराजैः तथा “प्रत्ययाश्च'इति,ततो धातुपरत उणादिप्रत्ययाः / पूज्यते स्म= त्रिभुवनराजपूजितः, एवं राजमहितः ततो धातुरूपात् , तथा कार्यानुबन्धे'-ति, गुण वृद्धधादिकं कार्यमप्राप्तमनुक्तमपि निपातनात् भवराजसम्मत इत्यादि / वर्तमानक्ते सति षष्ठय व, ति, सर्वमिदं ज्ञातव्यमिति सम्बन्धः / १८'बाहुलयथा ‘कान्तो हरिश्चन्द्र इव प्रजानाम्' // 92 // कम्', इदं दोधकं नाम काव्यम् , उणादौ बाहुउणादयः / / 5 / 2 / 93 / लकंबहुलमिति पदमूह्यमिति सम्बन्धः / ११क स्याः ? प्रकृतेः, १२कीदृश्याः ? तन्वी चासौ दृष्टिश्च .. म. वृ०-बहुलमिति वर्त्तते / सत्यर्थे वर्तमा- | (तनुदृष्टिः, तस्याः) तनुदृष्टेः, तनोस्तनेवस्य वा दृष्टिः नात् धातो-'रुणादयः प्रत्यया बहुलं' भवन्ति ITAL (?) तनुदृष्टिमाश्रित्येत्यर्थः, 'गम्ययप०' (2 / 2 / 74) कारः, वायुः / सत्यर्थे २उक्ता उणादयः कचिद् इत्यनेन पञ्चमी, तथा १३प्रायेणाकृच्छण समुच्चयभूतेऽपि दृश्यन्ते,-- "भसितं तत् इति भस्म / नम्, न तु सामस्त्येन; 14 तेषामुणादिप्रत्ययानाम् , अद्भ्यः सरन्ति स्म निर्गच्छन्ति स्म= अप्सरसः / 15 कार्यसशेषे-ति, न केवलं तेषामुणादिप्रत्ययानां उक्त च प्रकृतेर्बाहुलकमूह्यम् ,किन्तु कार्यसशेषविधेश्च बाहुल कमूह्यम् , सह शेषेण वर्त्तते-सशेषः, सशेषश्चासौ "संज्ञासु धातुरूपाणि प्रत्ययाश्च ततः परे / विधिश्च ( =सशेषविधिः ), कार्याणां सशेषविधिः'कार्यानुबन्धोपपदं विज्ञातव्यमुणादिषु // 1 // (कार्यसशेषविधिः), 'तस्याः काक' इत्यादिसिद्धबाहुलकं१० १'प्रकृतेस्तनुदृष्टेः 13 यर्थ सूत्रान्तरं न कृतमस्ति, 'ककि लौल्ये' इत्यस्य १३प्रायसमुच्चयनादपि१४ तेषाम् / अचि वृद्धयभणनात् ; सशेषविधित्वमिति परिभा१५कार्यसशेषविधेश्च तदूह्यं व्यम् / तथा १६निगमो वेदः, तत्र भवं नैगमम् ,नैगमं __ . नैगमरूढिभवं हि सुसाधु' // 2 // | च रूढिभवं च[ नैगमरूढिभवम् , अथवा] निगम एव नैगमः, नैगमश्च रूढिश्च (=नैगमरूढी,) नैगमनाम च धातुजमाह निरुक्ते रूढयोर्भवम (नैगमरूढिभवम् ), यस्मात् बाहुल_____ व्याकरणे शकटस्य च तोकम् / कात् (? हिशब्दो यस्मादर्थे, यस्मादत्र बाहुलकम• प्यन्न पदार्थविशेषसमुत्थं स्ति तस्मात् ) नैगमरूढिभवं शब्दजातं सुसाधु प्रत्ययतः प्रकृतेश्व भवतीत्यर्थः / न केवलं पच, पठेत्यादिपदं धातु Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208] श्रीसिबहेमशब्दानुशासन [अ०५ पा० 2 सू० 93 - - जं-धातुसमुत्पन्नम् , किन्तु नामापि, केवलशब्द- / 82 / इति कः), पदार्थविशेषः ( ? विशेषात् ) समुमपि धातुजं धातोरेवोत्पन्नमाह =रुते निरुक्ति- त्थोऽस्य तत् , तदपि प्रत्ययात् प्रकृतेः (च) सोऽत्र कारः। यन्न पदार्थे'-ति,यञ्च पदमर्थः प्रयोजनं / धवः (?) ऊह्यम् , सम्भावनीयमित्यर्थः // 13 // यस्य असौ पदार्थः-लक्षणम् , तस्य विशेषः, समुत्ति- अत्र सूत्रे अवचूरिश्लोक-३२०।अक्षर-१६॥ एतेऽस्मात् इति समुत्थः, 'स्थादिभ्यः कः' (5 / 3 / / // इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते सिद्धहेमशब्दानुशासने पश्चमाध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अहम् // // पञ्चमोऽध्यायः // [ तृतीयः पादः] वर्त्यति गम्यादिः / / 5 / 3 / 1 // . / हेतोः सिद्धौ सत्यां 'क्तः स्यात् वा' / किं ब्रवीषि म० वृ०-गम्यादयः शब्दाः वय॑ति-भवि | वृष्टो देवः संपन्नास्तर्हि शालयः, सम्पत्स्यन्ते इति ज्यति धात्वर्थे 'इन्नादिप्रत्ययान्ताः' साधवो भवन्ति / वा। प्राप्ता नौस्तीपर्णा तर्हि नदी इत्यादि // 2 // गमिष्यतीति गमी ग्रामम , आगामी, भावी इत्यादि अव०-हेतुः = कारणम् , तस्य सिद्धिनिष्पत्ति॥१॥ हेतुसिद्धिः // 2 // अव०-'वर्त्यति' इत्यत्र 'वृद्भ्यः स्यसनो.' (3 / 3 / . कषोऽनिटः // 5 // 3 // 3 // 45) इति परस्मैपदम् , अत्र सप्तम्येकवचनं कि, म० वृ०-अनिटः कवय॑त्यर्थे वर्तमानात् सूत्रत्वात् लोपः ।वर्त्यति गम्यादिः' इति सूत्रेण 'क्त' स्यात्। कषिष्यति कष्टम् , कष्टा दिशस्तमसा उणादिप्रत्ययानां सत्यर्थे वर्तमाने काले विहिताना- अनिट इति किम् ? कषिता शत्रवः // 3 // मपि भविष्यद्धात्वर्थता, भविष्यति कालेऽप्राप्तोऽपि विधिः क्रियते इति गमिष्यति. आगमिष्यति.भवि- __अव०-कषेः कृच्छगहनयोरनिटत्वमुक्तम् , प्यति,प्रस्थास्यति इत्यादिवाक्यानि / सामान्यतः यत्र न इट् तत्र क्तः // 3 // सिद्धानां प्रत्ययानां 'वयति गम्यादि'-रित्यनेन भविष्यन्ती // 5 // 3 // 4 // भविष्यद्धात्वर्थता विधीयते / गमी, आगामी, भावी, प्रस्थायी, तथा प्रयायी,प्रतियायी, प्रबोधी,प्रतिबोधी, म. वृ०-वय॑त्यर्थे [=भविष्यति काले] प्रतिरोधी इति गम्यादयः प्रयोगाः एवं ज्ञेयाः / एषु धातोः परतो 'भविष्यन्ती विभक्तिः' स्यात् / भोक्ष्यते // 4 // यथाक्रमं 'गमेरिन्' (उ०९१९) 'आउश्च णित्' (उणा०९२०) भुवो वा' (उ०९२२) प्रात्स्थः ' (उ०९२४) अनद्यतने श्वस्तनी // 5 // 3 // 5 // 'प्रप्रतेयोबुधिभ्याम्' (उ०९२३) इति इन् णित् / म० वृ०-अनद्यतने काले २वय॑त्यर्थे धातोः कथं श्वो ग्रामं गमी ? अत्र भविष्यत्सामान्ये गमीति- | परतः 'श्वस्तनीविभक्ति': स्यात् , कर्ता श्वः, कर्ता। पदं निष्पाद्य पश्चात् श्वःशब्देन सह योगः कार्यः / / अनद्यतन इति किम् ? व्यामिश्रे मा भूत् , अद्य श्वो वा हेतुसिद्धो क्तः // 5 // 32 // वा गमिष्यति / / 5 / / म. वृ०-वय॑त्यर्थे वर्तमानाद्धातोर्धात्वर्थ- ____ अव-नि विद्यतेऽद्यतनो यत्र आगामिदिने * 'वत्स्य॑ति' इत्यत्र सूत्रत्वात् सप्तम्येकवचनलोप इति भावः, परमत्र चिन्त्यम्, 'वत्स्यति' इत्यत्र सप्त्म्ये- , कवचनङिप्रत्ययसद्भावाद् / अतो भ्रमात् 'सूत्रत्वात् लोपः' इत्युक्तमिति सम्भाव्यते, तद्यथा-प्रवचूरिकारैः 'वय॑ति' . इति पदं स्यतिप्रत्ययान्तं कल्पितम्, अत्र वय॑तिप्रकृतेरिकारान्तत्वाद् ङौ सति 'वय॑तौ' इति भवितव्यम् , परं सूत्रे तु 'वयंति' इति दृश्यते, अतो डिप्रत्ययस्य लोपो जातः इत्यभिप्रायेणोक्त 'सूत्रत्वात् लोपः: इति, परं तदसत्, 'वत्स्य॑ति, इत्यत्र स्यत्प्रत्ययान्तं 'वय॑त्' इति शब्द:, ततो डिप्रत्ययः, अतो 'वर्त्यति' इति सप्त्म्येकवचनरूपं भवति,पत्र डिप्रत्ययो विद्यते, अतः "सूत्रत्वाद् लोप:" इति वचनं नान्तिवशादुक्तमिति मामकीनी मतिः।। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 5 पा० 3 सू०६-१० सोऽनद्यतनः, तस्मिन् / भविष्यति काले / कथं | मतमपास्यन् वृत्तिकारः प्राह-'भूते तु' इत्यादि / / 8 / / श्वो गमिष्यति ? मासेन गमिष्यति ? अत्र किंवृत्ते लिप्सायाम् // 5 / 3 / 9 / / Aपदार्थेभविष्यन्ती, Aपदं गमिष्यति क्रिया, साऽर्थो म० वृ०-किंवृत्ते उपपदे प्रषुः (याचकस्य) यस्य धात्वर्थस्य (स पदार्थः), तस्मिन् / / 5 / / | लिप्सायां गम्यमानायां वय॑त्यर्थे धातोः 'वर्तमाना परिदेवने // 5 // 3 // 6 // नवा' स्यात् / को भवतां भिक्षां ददाति, [पक्षे भविम० वृ०-परिदेवने = शोचने गम्यमाने ज्यन्ती श्वस्तनी च-] दास्यति, दाता वा। कतरो वय॑त्यर्थे 'श्वस्तनीविभक्तिः' म्यान / अयं तु भवतां भिक्षां ददाति, [पक्षे-] दास्यति दाता वा / कदाऽध्येता पठिता य एवमनभियुक्तः [=नि- एवं कतमो भिक्षां ददाति दास्यति दाता वा / किंवृत्त रुद्यमः।। इयं तु कदा गन्ता यैवं पादौ निदधाति | इति किम ? भिक्षां दास्यति / लिप्सायामिति किम [=निक्षिपति] / विशेषविधानात् कदाकर्हियोग- कः पुरं यास्यति // 9 // लक्षणा विभाषा' बाध्यते / / 6 / / अव०-विभक्त्यन्तस्य डतण्डतमप्रत्ययान्तप्रव०-१'कदाकोनवा' (5 / 3 / 8) इति सूत्रो स्य च किंशब्दस्य वृत्तं = किंवृत्तमिति वैयाकरणक्तविभाषा // 6 // समयः, तेन किन्तरां किन्तमामिति किंवृत्तं नोच्यपुरा-यावतोवर्तमाना / / 5 / 3 / 7 / / ते / यत्र प्रयोगे 'कः, कतरः, कतमः' इति शब्दा उपपदा भवन्ति तत्र धातोः परतो वर्तमाना इत्यर्थः म० वृ०-पुरायावतोर्निपातयोरुपपदयोर्वय॑त्यर्थे // 9 // [=भविष्यति] वर्तमानाद्धातोः 'वर्तमाना' विभक्ति लिप्स्यसिद्धौ // 5 // 3 // 10 // र्भवति / पुरा भुनक्ते, यावद् भुङ क्ते / भविष्यदनद्यतनेऽपि परत्वाद्वर्त्तमानैव. पुरा श्वो भुक्ते, ____म. वृ०-लब्धुमिष्यमाणाद्भक्तादेः सिद्धौ = यावत् श्वो याति ||7|| स्वर्गादिप्राप्तो गम्यमानायां धातोः वर्तमाना नवा' 3 स्यात् / अकिंवृत्तार्थोऽयमारम्भः / “यो भिक्षां प्रव०-पुराशब्दोऽद्यतनकाले, यावच्छब्दः ददाति 'दास्यति दाता वा स स्वगें याति यास्यति क्रमा? वर्त्तते / पुरा श्वो भुङ क्ते इत्यादी अनद्यतने याता वा // 10 // श्वस्तनी' (5 / 3.5) प्राप्नोति / पुरायावतो (?) ||7|| अव०-भक्तादेः=* भक्तलोकात् यजमानकदा-कयोंनवा / / 5 / 38 // सकाशात् / विय॑त्यर्थे वर्तमानात् / उपक्षे भविम०वृ०-कदाकर्हि इत्युपपदयोवय॑त्यर्थे वर्तमाना ज्यन्ती श्वस्तनी (च)। "याचको यजमानं भक्त[विभक्तिः] नवा' स्याद्धातोः' / कदा भुङ क्ते,पक्षे२ लोकमेभिर्वाक्यैः प्रोत्साहयति / यो भवतां मध्यात् कदा भोक्ष्यते, कदा भोक्ता / एवं कर्हि भुङ्क्ते, भिक्षां ददाति, एकं वाक्यमिदम् , स स्वर्गलोकं इत्यादि / भूते तु नित्यं परोक्षादयः / कदा बुभुजे, याति, द्वितीयवाक्यमिदम् , इत्युभयोर्वाक्ययोकदा भुक्तवान् ;एवं कर्हि बुभुजे,कर्हि भुक्तवान् / 8 / / मिलितयोरेव लिप्स्यसिद्धिरर्थः प्रकटो ज्ञायते / प्रव०-'वर्तमानाद्धातोः इत्यध्याहारः। भविष्य- तेन यो भिक्षां ददाति स स्वर्ग याति इत्युभयत्रापि न्तीश्वस्तन्यावपि भवतः / (आदिशब्दात्) कर्हि लिप्स्यसिद्धौ इति सूत्रोण वर्तमाना भवति / 'दाभोक्ष्यते,कर्हि भोक्ता। ये धैया करणाः कदाकर्हियोगे स्यति, दाता; यास्यति, याता इति पक्षे उदाहरणानि सर्वेषु कालेषु वर्तमानाविभक्तिमिच्छन्ति तेषां // 10 // * इदं चिन्त्यम् , बृहदवृत्तौ काशिकावृत्त्यादिषु वा भक्तशब्दस्यार्थो ‘भक्तलोकः' इति न दर्शितः, किन्तु 'प्रोदनादिः' इति प्रदर्शितः / स्वर्गादिप्राप्तामार्थाऽयमारम्भः जाति यास्यति Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्-णकच-भविष्यन्तीविधानम् ] मध्यमवृत्त्यषचूरिसंवलितम् / पञ्चम्यर्थहेतौ / / 5 / 3 / 11 // क्रियायामिति किम् ? भिशिष्ये इत्यस्य जटाः / म. वृ:-पञ्चम्यर्थः प्रैषादिस्तस्य हेतुः [= क्रियार्थायामिति किम् ? धावतस्ते पतिष्यति वासः // 13 // कारणम् ] ऊपाध्यायागमनादि, तस्मिन्नर्थ वर्त्यति (वर्तमानाद् ) धातोः 'वर्तमाना नवा' स्यात् / उपा- प्रव०-'णकतृचौ' (5 / 1148) इति सामान्येन ध्यायश्चेदागच्छति आगमिष्यति आगन्ता वा, अथ सिद्धे क्रियार्योपपदभाविन्या भविष्यन्त्या बाधो त्वं स्त्रमधीव // 11 // मा भूदिति 'क्रियायां क्रियार्थाया'-मित्यनेन णकच विधानम् / ननु असरूपविधिना णकोऽपि भविष्यअव०-वक्ष्यमाणे 'सत्सामीप्ये०' (५।४।१)इति तीति चेत् , एवं तर्हि असरूपविधिना तृजादयो सूत्रे (?पादे) प्रैषानुज्ञावसरे कृत्य पञ्चम्यौ' (5 / 4 / 29) मा भूवन्निति पुनर्णकच्विधानम् , तेन 'ओदनस्य इति सूत्रेण. प्रैपार्थे, अनुज्ञार्थे, अवसरेऽर्थे पञ्चमी पाचको व्रजति, पक्ता (व्रजति), पचो व्रजति' विहिताऽस्ति / न्यत्कारपूर्व यत्प्ररणं तत्पौष इत्यु- इत्यादि न भवति / 'केवलविभक्तिविधानप्रस्तावे च्यते / अनुज्ञा कामचारानुमतिः। अवसरः प्राप्त- विकरणयोस्तुम्णकचोविधानात् वेति निवृत्तम् / कालता / अत्र च “पञ्चम्यर्थहेतौ' इति सूत्रो भवि- यस्माद्धातोस्तुमादिः, तद्वाच्या या क्रिया, साऽर्थः प्यदुपाध्यायागमनं कर्तृ पदमध्ययनादिविषयस्य =प्रयोजनं यस्याः सा क्रियार्था, तस्यां क्रियायाम् , प्रैषस्य अनुज्ञाया अवसरस्य च हेतुः कारणं भवति / कीदृश्याम् ? क्रियार्थायां बजतीत्यादिकायाम् , उप- . इति उदाहरणानां भावना एवम् / पक्षे भविष्यन्ती, पदे समीपपदे सति इत्यर्थः। उधावतस्ते पतिष्यति श्वस्तनी॥११॥ वास इति उदाहरणेऽपि धावक्रिया उपपदमस्ति, सप्तमी चोर्ध्वमोहूर्ति के // 5 / 3 / 12 // न तु असौ क्रिया पतनार्थमुपात्ता इति तुम्णकच भविष्यन्त्यो न भवन्ति // 13 / / म० वृ०-पञ्चम्यर्थहेताबू मौहूर्त्तिके वर्त्यत्यर्थे वर्तमानात् ] धातोः 'सप्तमी वर्तमाना च वा' कर्मणोऽण // 5 // 3 // 14 // स्यात् / ऊर्ध्व मुहूर्तादुपाध्यायश्चेदागच्छेत् आगच्छति __म० वृ०-क्रियायां क्रियार्थायामुपपदे [सति आगमिष्यति आगन्ता वा, अथ त्वं तर्कमधीष्व / 12 / | कर्मणः परात् वय॑त्यर्थे वर्तमानाद्धातोरण स्यात् / कुम्भकारो याति // 14 // अव०-मुहूर्तादूर्ध्वम ऊर्ध्वमुहूर्त्तम् , 'नाम नाम्ना०' ( 3 / 1 / 18) इति समासः, ऊर्ध्वमुहूर्ताद्भवः अव०-'कर्मणोऽण' (5 / 1 / 72) इति सामा=ऊर्ध्वमौहूर्तिकः, 'अध्यात्मादिभ्य इकण' (6 / 3 / 78 / न्येन विहितोऽण अनेन णकचा बाध्येत, असरूइति इकण् प्रत्ययः, अस्मादेव निर्देशादुत्तरपदवृद्धिः पविधिरपि नास्ति इति पुनकरण (? पुनरण ) // 12 // विधीयते / सोऽयमण अपवादत्वात् णकचं बाधते / तथाऽस्य सामान्यस्याणो बाधकान् टगादिप्रत्ययान् क्रियायां क्रियार्थायां तुम्-णकच भविष्यन्ती अपि अयमण बाधते, तेन बक्रगायो व्रजति, सुरा॥५॥३॥१३॥ पायो व्रजति, गोदायो ब्रजति, एषु 'गायोऽनुपसर्गाम०३०-वेति निवृत्तम् / क्रियायांरक्रियायामुप- ट्टक' (5 / 1174) 'सुरासीधोः पिबः' (5 / 1175) पदे [सति] वय॑त्यर्थे वर्तमानाद्धातोः 'तुम् णकच्- 'आतो डोऽह्वावामः' (5 / 1176) इति सूत्राणि बाधिभविष्यन्तीप्रत्यया' भवन्ति / कत याति, कारको | त्वाऽण प्रवर्तते / क्वापि अणः प्राप्ती बहुलाधिकायाति, करिष्यामीति याति / [एवं भोक्तं ब्रजति, | रात् णकचभविष्यन्त्यावपि भवतः,- कटं कारको भोजको व्रजति,भोक्ष्ये इति व्रजति इत्यपि ज्ञेयम्]। | ब्रजति, ओदनं भोजको याति, काण्डानि लविष्या Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212] श्रीसिद्धहेमशम्दानुशासन [अ०५ पा० 3 सू०१५-१८ % मीति याति, वस्त्र दास्यामीति याति / * ननु यथा | सालसारः, [ खदिरसारः] कार्यसारः, [व्याधौ णकचाऽण बाध्येत तथा तुम् प्रत्ययो हि अव्ययः, | कर्तरि-] अतीसारो व्याधिः, सारो बलम् , विसारो कूदव्ययो भावे एव भवति, अभिधानात् , अतो मत्स्यः / / 17|| भिन्नविषयत्वात्तुमा नो बाधा भवति / / 1 / / भाववचनाः // 5 / 3 / 15 / / प्रव०-स्थिरे कर्त्तरि, सरति कालान्तरमिति सारः // 17|| म० वृ०-[भावं वचन्ति-- 'रम्यादिभ्यः०' (5 / 3 / भावाकोः // 5 // 3 // 18 // 126) अनट् ] "भाववचना घक्त्यादयः", ते क्रियायां क्रियार्थायामुपपदे [ सति ] वय॑त्यर्थे म. वृ०-भाववाच्ये कर्तृवर्जिते कारके च [भविष्यति काले] धातोर्भवन्ति / पाकाय याति, धातो--'र्घ ' स्यात् / पचनम्= पाकः, एवं रागः, पक्तये, पचनाय, पाचनायै याति / बचनग्रहणाद् अकर्तृ',- प्रकुर्वन्ति तमिति प्राकारः / करणाधिकरयो यथा विहितः स तथा भवति / / 15 / / णयोरनट् तदपवादश्च व्यञ्जनान्तेभ्यो घर वक्ष्यते। दाशन्तेऽस्मै दाशः, [तालव्यशकारः दाशोऽतिथिप्रव०-क्रियार्थोपपदेन तुमा मा बाधिषतेति विशेषः ब्राह्मणश्च ] आहरन्ति तस्मादित्याहारः वचनम् , असरूपविधेरभावस्य प्राग नापितत्वात् / '(असंज्ञायामपि-) दायो दत्तः, लाभो लब्धः / यदि "भावे भावार्था" इति सूत्रं क्रियेत तदा भाव- भावाकर्बोरिति किम् ? पचः // 18 // मात्र एव ये प्रत्यया विहिताः त एव भवेयुः,न सर्वे / वचनग्रहणे तु ये केचित्प्रत्यया भाव अवन्ति तेऽत्र अव०-'भावाकों'-रेतदधिकारसूत्रम् / 'नाम्नि प्राह्याः / येन केन प्रकारेण भावं ब्रुवाणा गृह्यन्ते, पुंसि च' (5 / 3 / 121) इत्यन्तं यावद् भावाकोरयतेन पिक्षायै (? भिक्षायै) व्रजतीत्यत्र तिर्न भवति मधिकारः प्रायः / अत्राधिकारे सूत्राणि 104, मध्ये // 15 // केवले भावे, केवले कर्मणि, करणेनापि सूत्राणि / पद-रुज-विश-स्पशो पत्र // 5 // 3 // 16 // 'भावाकों'- रिति सूत्रे भावस्वरूपं किञ्चिल्लिख्यते, भावो भवत्यर्थः साध्यरूपः क्रियासामान्य क्रियाणां म० वृ०-भ्यो 'घ' स्यात , कृत्त्वात्कर्तरि / साधारणं रूपं धात्वर्थ उच्यते, स धातुनैव उच्यते, श्वर्त्यतीत्यादि निवृत्तम / उपादः, रोगः, वेशः, तत्र नैव उच्यते (?) तत्र त्यादयः क्त्वातुम्तव्यास्पर्शः // 16 // दयः (च) भवन्ति, यथा क्रियते, कृत्वा, कत्तुम् , अव०-घकारः कत्वगत्वार्थः, अकारो वृद्ध कर्त्तव्यम् , करणीयम् , कार्यमित्यादिप्रयोगाः / यर्थः / “वय॑तीत्यादि निवृत्तम्', 'पदरुज' इत्यादि यस्तु भावो धात्यर्थधर्मः सिद्धता नाम लिङ्गसंख्याप्रकृतिनियमितप्रत्ययोपादानात् , अत्र आदिशब्दात् योगी स द्रव्यवत् धात्वर्थादन्य एव, तत्र ईदृशे भावे क्रियाक्रियार्थोपपदं निवृत्तम्। उपद्यते पत्स्यते अपादि वाचकत्वेन 'घञ्-अनट-क्तिविधिः' प्रवर्तते, तेन पेदे वा इति पादः, एवं रोगादिषु त्रिकालविषय तद्योगे लिङ्गवचनभेदः सिद्धो भवति- पाकः, पाको, वाक्यका णात् वय॑तिनिवृत्तिफलम् // 16 // पाकाः; पचनं, पचने, पचनानि; पक्तिः, पक्ती, पक्तयः / 'केचित्तु, अत्र 'भावाकों'-- रिति सूत्रे सर्तेः स्थिर-व्याधि-बल-मत्स्ये // 5 // 3 // 17 // संज्ञायां घचमाहुः, तन्मतनिराकरणार्थ सूरिः असं. . म० ३०-सुधातोः 'घन स्यात् , स्थिरव्या- | ज्ञायामपि घञ् इत्याह, तेन 'दायो दत्तः, लाभो धिबलमत्स्ये कर्तरि / 'सारः स्थिरः पदार्थः, एवं | लब्धः' इत्यत्रापि घम् // 18 // * अत्र प्रश्नघटकवाक्ये कानिचिदक्षराणि च्यूतानौति प्रतिभाति / Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पम् अल्प्रत्ययविधानम् ] मन्यमपुत्ववचूरिसंपलितम् / [211 - - इडोऽपादाने तु टिद्वा / / 5 / 3 / 19 / / निरभेः पूल्वः / / 5 / 3 / 21 // म० बृ०-इको धातोर्भावाकों-'', अपा- म० ०-निरभिपूर्वाभ्यां यथासंख्यं पूलुभ्यां दाने त कारके घन वा 'टित' स्यात् / अध्यायः, भावाकों-र्घन्' स्यात् / [निष्पूयते=] निष्पावः, २उपाध्यायः; उटित्करणबलात् स्त्रियां क्तिर्बाध्यते, अभिलावः // 21 // 4 उपाध्यायी, उपाध्याया॥१९॥ रोरुपसर्गात् // 5 // 3 // 22 // प्रव०-'अध्ययनम - अध्यायः / उपेत्या-- म० वृ०-उपसर्गपूर्वरुधातो-र्घ' स्यात् / धीयतेऽस्मात् / उटित्त्वस्य हि त्रियां दीप्रत्ययः संरवणं-संरावः, विरावः, / उपसर्गादिति किम् ? फलम् , ततो यदि स्त्रियां तिर्भविष्यति तदा रवः / कथं रावः ? बहुलाधिकारात् // 22 // टित्करणेन किम् ? / स्वयं व्याख्यात्रीस्त्री उच्यते / भूश्रयदोऽल / / 5 / 3 / 23 // यदा तु धवयोगः तदा उपाध्यायानी उपध्याया इति ___म० वृ०-भू-श्रि-अद्धातुभ्यः उपसर्गपूर्वकेभ्यो भवति / / 19 // भावाकों-रलप्रत्ययः' स्यात् / [भू.] प्रभवः, श्रो वायु-वर्ण निवृते // 5 // 3 // 20 // [विभवः] सम्भवः / (श्रि,-) प्रश्रयः। अद्, प्रघसा, म० वृ०-शवातो वाकोंर्वायुवर्णनिवृतेऽर्थे संघसः / उपसर्गादित्येव-भावः, श्रायः, घासः / कथं प्रभावः, विभावः, अनुभावः ? बहुलाधिकारात , 'घ' स्यात् / शारो 'वायुर्वर्णो रवा, उनीशारो 'प्रकृष्टो भाव' इत्यादिप्रादिसमासो वा / // 23 // निवृतम् = प्रावरणम् / तथा “गौरिवाकृतनीशारः प्रायेण शिशिरे कृशः'। ★नियमेन वृता (=निवृता) प्रव०-'भूश्रयदोऽल्' इत्यत आरभ्य 'उदः श्रे:' इत्यन्वर्थात्-शारैरिव क्रीडितम् ' // 20 // ( 5 / 3 / 53) इत्यन्तमलोऽधिकारसूत्राणि 31 / 'घस्ल सनद्यतनीघबचलि' (4 / 4 / 17) इत्यनेन प्रव०-शीर्यते हिंस्यते औषधादिभिरिति शारो अदः स्थाने घसः। भश्रयदो इत्युपसर्गादेव इति वायुः / शीर्यते विनश्यते मालिन्येन इति शारो नियमार्थमिदं वचनम् / अल इत्यत्र लकारो 'मिग्मीवर्णः / निशीर्यते अपह्रियते शीताधुपद्रवो येन गोऽखलचलि' (4 / 2 / 8) इत्यत्र विशेषणार्थः // 23 // सन्नीशारो निवृतं प्रावरणम् , 'घञ्युपसर्गस्य बहु न्यादो नवा // 5 // 3 // 24 // लम्' (3 / 2 / 86) इत्यनेन इत्यस्य ( ? ह्रस्वस्य ) म. वृ०-निपूर्वाददेरलि 'घसभावोऽकारस्य दीर्घः। दीर्घत्वं च' वा निपात्यते / न्यादः, निघसः // 24 // भ्र क्षेपैः कनकस्य दीपकपिशाविश्राणिता राशयो , यादे वादिविषानां प्रविहताः शास्त्रार्थगर्भा गिरः; / सं-नि-व्युपाद् यमः // 5 / 325 / / तत्र वातप्रतिरोषितैर्नृपतिभिः शारैरिव क्रीडितं , | म. वृ०-एभ्य उपसर्गेभ्यः पराद् यमधातोकर्त्तव्यं क्रितमर्थिता यदि विधेस्तत्रापि सज्जा षयम।। र्भावाकोंः 'भल वा' स्यात् / 'संयमः, संयामः ; इति विक्रमादित्योक्तिरियम् / एग्विति किम् ? शरः, | नियमः, नियामः ; वियमः, वियामः; उपयमः, उपशरणम् शरः, 'युवर्ण.' (5 / 3 / 28) इत्यल् , शीर्यते / यामः // 25 // =हन्यतेऽनेन प्राणी इति शरः, 'पुन्नाम्नि घः' (5 / 3 / प्रव०-'संयमनं संयमः, एवं सर्वत्र अल्, 130) इति घप्रत्ययः) // 20 // पक्षे घन // 25 // * निवृता द्यूतोपकरणमिति कचिद् , नियमेन वृता................"इति बृहवृत्तौ / Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 5 पा० 3 सू० 36-31 नेद-गद-पठ-स्वन-कणः // 5 / 3 / 26 // | वर्षादयः क्लीबे // 5 // 3 // 29 // - म० वृ०-नेरुपसर्गात्पराद् (? परेभ्य) एभ्यो ___ म० वृ०-वर्षादिशब्दा 'अलन्ताः क्लीबे' यथा'याऽल' (भावाकोंः) स्यात् / निनदः, निनादः; | दर्शनं [भावाकोंः] निपात्यन्ते / 'नपुसके क्ताननिगदः, निगादः ; निपठः, निपाठः : निस्वनः, निवृत्त्यर्थं वचनम् / वर्षम् ,भयम् , धनम् , वनम , निस्वानः ; निक्कणः, निक्काणः // 26 // खलम् , पदम् , युगम् / अनपुसकस्तु क्तप्रत्ययो. "वैणे क्वणः // 5 // 3 // 27 // ऽसरूपविधिना स्यादेव,-वृष्टं मेघेन, भीतं बटुना // 29 // म० वृ०-वैणऽर्थे वर्तमानादुपसर्गपूर्वात् कणेः 'अल् वा' स्यात् / प्रक्वणः, प्रक्काणो वीणायाः२ / अव०-'यदि नपुसके तानप्रतिषेधार्थ वैण इति किम् ? प्रक्काणः शृङ्खलस्य / / 27 // 'वर्षादयः क्लीबे' इति सूत्रं कृतं तर्हि वर्षणमिति किं न भवति ? भवत्येव, 'वृषभो वर्षणम ( ? वर्ष.. ' प्रव०-१वीणायां भवो वैणः, 'भवे' (6 / 3 / 12 णाद्) इति भाष्यकारवचनाद् / युगशब्दो रथाङ्गे, 3 // इत्यनेन) अण् / २एवं निक्कणः, निकाणो वीणा- कालविशेषे, युग्मे ( इति) अर्थत्रये वर्तते, 'युजपी याः / कथं क्वणः क्वाणः ? वक्ष्यमाणेन'नवा क्वण' योगे' (इति) युज् , योजनं-युगम् , निपातनात् अल् (5 / 3 / 48) इत्यादिसूत्रेण सामान्येन विधानात गत्वगुणाभावश्च भवति / वृष्यते स्म इति वृष्म / वैणेऽप्यर्थेऽल् ज्ञातव्यः // 27 // भीयते स्म भीतम् / / 29 // युवर्ण-व-ह-वश-रण-गमृद्ग्रहः / / 5 / 3 / 28 // समुदोऽजः पशो // 5 / 3 / 30 // म० वृ०-उपसर्गान्नवा इति (च) निवृत्तम्। इव- म. वृ०-समुद्भ्यां परादज़ेः पशुविषये धार्णान्तोवर्णान्तेभ्यः, वृवशरणगमिभ्यः, ऋकारान्ते- | त्वर्थे' वर्तमानाद् 'अल' स्यात् / २समजः, उदजः भ्यो ग्रहेश्च 'भावाकोरल् स्यात् / जयः, क्रयः, / पशूनाम् / पशाविति किम् ? समाजः [सभा] साधूयवः, नवः, स्तवः, लवः, वरः, [प्रवर इत्यपि] नाम् , उदाजः खगानाम् // 30 // दरः, आदरः, वशः, रणः, गमः, ऋदन्त,-'करः, अव०-'भावाकोंः / २"समजः', कोऽर्थः ? गरः, 'तरः, दरः, "शरः, ग्रहः / कथं धारः ? बहुलाधिकाराद् घञ् / परिवार इति तु ण्यन्तादचि समूहः / 3 उज.', पशूनां प्रेरणभित्यर्थः // 30 // सिद्धम् // 28 // सृ-ग्लहः प्रजना-ऽक्षे / / 5 / 3 / 31 // प्रव०-"कृत् विक्षेपे'करः / “गत् निगरणे' म० वृ०-सृग्लहाभ्यां यथासङ्घय प्रजने [ = गर्भग्रहणे ] अक्षविषये धात्वर्थे वर्तमानाभ्यां गरः / त-तरः। 'दश् विदारणे'दरः / शश् शरः / भावाकों-रल् स्यात् / गवामुपसरः, 1 अक्षाणांग्लवारः इत्यत्र वृधातुः, अत्राल प्राप्नोति कथं घम् ? हः / प्रजनाक्ष इति किम् ? अपसारो भृत्यै राज्ञाम। इति पराशयः, वारः समूहः, वारः क्रियाऽभ्यावृत्तिः कां परिसरविषमेषुलीढमुक्ताः? घेन सिद्धम् // 31 // (वारोऽवसरः) इति वारशब्दस्य अर्थत्रयम् / युवर्णवृवशरण०' इति सूत्रेण सोपसर्गेभ्योनिरुपसर्गेभ्यो अव०- (एवं) 'बीनाम् [= पक्षिणाम] उपसरं वा उक्तधातुभ्योऽल्भवति इति पाश्चात्योपसर्गाधि- दृष्ट्वा', प्रजनो गर्भग्रहणम् , तदर्थं स्त्रीपुसां प्रथम कारो निवर्तितः इत्युक्तम् ,यतोऽतनसूत्रोषु सोपसर्ग- सरणमुपसर इत्युच्यते / तथा 'अक्षाणां ग्लहः', धातुभ्योऽल् दर्शितोऽस्ति / व्यावृत्त्युदाहरणेषु घञ् कोऽर्थः ? अक्षाणां ग्रहः, ग्रहेः सूत्रपाठे 'ग्लह' इति // 28 // निपातनात् लत्वम् , अथवा 'ग्लहौङ ग्रहणे' इति Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्प्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [215. भ्वादिधातुना ग्लहः इति प्रयोगः / उपरि-सम- | त्यन्ते। निघाः वृक्षाः शालयो बृहतिका वा, निघं न्तात् सरन्त्यस्मिन्निति परिसरः, 'पुन्नाम्नि घः' वस्त्रम् , निघातोऽन्यः / 2 उद्घः प्रशस्तः, उद्घातो(५।३।१३०) इत्यनेन घप्रत्ययः // 31 // ऽन्यः / गणः प्राणिनां समूहः, संघः, अन्यत्र पणेर्माने // 5 // 3 // 32 // संघातः / अत्याधानम्-उद्घनः कापोद्घनः, लोहो धनः, उद्घातोऽन्यः / 'अपघनोऽङ्गम् , अपघातोम० वृ०-पणेर्मानेऽर्थे 'अल् स्यात् / मूल ऽन्यः / 'उपघ्नः आसन्नः, गुरूपघ्नः, उपघातोऽन्यः कपणः, शाकपणः / मान इति किम ? पाणः // 32 / / // 36 // अव०-घअपवादो योगः / 'भावाकोः / श्पण्यते इति पणः, मूलकादीनां संव्यवहारार्थ अव०-'समन्ततो मितं तुल्यमविशेषेण वा परिमितो मुष्टिमूलकपण इत्यर्थः // 32 / / मितं परिच्छिन्नं निमितम् , तुल्यारोहपरिणाहम् , कोऽर्थः ? तुल्यदैध्य तुल्यविशालत्वम , निमितेऽर्थे संमद-प्रमदो हर्षे / / 5 / 3 / 33 / / निघ इति निपातः , निर्विशेषं निश्चयेन वा हन्यन्ते म०व०-संमदप्रमदौ 'हर्षेऽर्थेऽलन्ती' निपा- ज्ञायन्ते इति निघाः वृक्षाः, निघाः शालयः, निघा त्येते / सम्मदः पिकानाम् , प्रमदः कन्यानाम् / हर्ष बृहतिकाः, निघं वस्त्रम् / तथा उत्कर्षेण हन्यते इति किम् ? संमादः, प्रमादः / / 33 / / ज्ञायते = उद्घः प्रशस्तः / कथं 'संघातो मनुहनोऽन्तर्घना-ऽन्तर्घणों देशे // 5 // 3 // 34 // ध्याणां' ? संघातः शब्दः समुदायमात्रे / ननु संघातः प्राणिसमूहः, तत्कथं न निपातः ? सत्यम् , - म० ०-अन्तःपूर्वाद्वन्ते-‘रल घनघणौ चादेशौ' संघातशब्दं प्रसाध्य पश्चात् मनुष्यशब्देन सह निपात्येते [भावाकोंः],देशे वाच्ये / अन्तहण्यतेऽस्मिन्निति अन्तर्धनः अन्तर्घणो वा देशः, [वाहीकेषु सम्बन्धः / तथा अत्यावीयन्ते छेदनार्थ कुट्टनार्थ वा काष्ठादीनि यत्र तदत्याधानम् , तत्र अत्याधानेदेशविशेषः] अन्तर्घातोऽन्यः / / 3 / / ऽर्थे--उद्घनः, काष्ठो द्धनः, लोहोद्घनः / 'अङ्गे प्रघण-प्रघाणो गृहांशे / / 5 / 3 / 35 // देहावयवे वाच्ये अपघन इति, अपहन्यतेऽनेनेति .म० वृ०-प्रपूर्वाद्धन्तेहाशे वाच्ये 'अल् घण अपघनो देहावयवः / आसन्ने समीऽभिधेये घाणादेशौ च' निपात्येते / प्रघणः, प्रघाणः द्वारा उपध्नम् , उपहन्यते समीप इति ज्ञायते इति उपलिन्दकः, प्रघातोऽन्यः // 35 // घ्नः समीपम् // 36 // प्रव०-शुकाङ्गनीलोपनिर्मितानाम्, मूर्ति-निचिता-ऽभ्र धनः / / 5 / 3 / 37 // लिप्तेषु भासागृहदेहलीनाम् ; यस्यामलिन्देषु न चक्रुरेव, म0 4०-'मूर्त्यादिष्वर्थेषु 'हन्तेरल घनादेमुग्धाङ्गनागोमयगोमुखानि // 1 // शश्च' निपात्यते / अभ्रस्य घनः, एवं दधिघनः, इति मेघ (? माघे) // 35 // लोहघनः, निचितं= निरन्तरम् , घनाः केशाः / अभ्र मेघः, घनो मेघः / कथं घनं दधि ? गुणनिघोद्ध-सङ्घोद्धना-उपधनोपनं निमित- / शब्दोऽयं तद्योगाद् गुणिन्यपि वर्त्तते // 37 // प्रशस्त-गणा-ऽत्याधाना-ऽङ्गा-ऽऽसन्नम् // 5 // 3 // 36 // अव०-१मूर्तिः काठिन्यम्। 'अभ्रस्य घनः', म० ०-हन्तेर्निगादयः शब्दा यथासङय' | काठिन्यमित्यर्थः / इति उदाहरणम् // 37 // निमितादिषु वाच्येषु 'कृतघत्वादयोऽलन्ता' निपा- 1 व्ययो-द्रोः करणे // 5 // 3 // 38 // Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०५ पा० 3 सू०३९-४४ म. वृ०-वि--अयस्-द्रुभ्यः पराद् 'हन्तेरल् / प्राणिनोऽत्र इति समाह्वयः प्राणिद्यूतं कुक्कुटादि. घनादेशश्च करणे' स्यात् / भावस्य कारकान्तरस्य युद्धम् // 41 // चानुप्रवेशो माभूदिति करणग्रहणम् / विघनः सूर्यः न्यभ्युपवेर्वाश्चोत् // 5 // 3 // 42 // पाशश्व, अयोधनः, घनः कुठारः / स्त्रियां त्वनडेव परत्वात् ,- विहननी, अयोहननी, दुहननी।३८। म० ३०-नि-अभि-उप-विभ्यः परात् ह्वयते र्भावाकोः 'अल तद्योगे च वाशब्द उकारः' स्यात् / अव०-विहन्यतेऽनेन तिमिरमिति विघनः निहवः, अभिहवः, उपहवः, विहवः / 'हो हव' इत्य-सूर्यः, विघनेन्दुसमद्युतिः, अथवा वयः पक्षिणो निपातनं किम् ? यढो लुपि निपातनं मा भूत् , तेन हन्यतेऽनेनेति विघनः पाशः, इति सूर्ये पाशे अर्थ- 'विजोहव' इति सिद्धम् , अन्यथा 'विहय' इति द्वये विघनशब्दः / द्रुशब्दो वृक्षे पुक्लीबः, हन्यते स्यात् // 42 // अनेनेति २द्रुघनः=कुठारः। कथं द्रुघण: ? 'अरी प्रव०-वाऽग्रे प्रथमासिः, उदग्रे प्रथमासिः, हणादेरकण' (6 / 2 / 83 ) इति तद्धिते अरीहण- एवमभेदनिर्देशः सर्वादेशार्थः / ह इत्येव,द्रुघणेति गणपाठात् णत्वम् / / 38 / / निवायः। २"प्रकृतिग्रहणे या लुबन्तस्यापि ग्रहणम्" स्तम्बाद् घनश्च // 5 / 3 / 39 / / इति न्यायबलात् य लुबन्तस्यापि धातोः परतो म० वृ०-स्तम्बशब्दात् 'हन्तेरल घनघनादेशौ 'न्यभ्युपवेश्चिोत्' इति सूत्रेण अलि कृते सति 'हो च करणे निपात्येते / 'स्तम्बध्नो दण्डः, स्तम्ब हव' इति कृतद्वित्वस्यापि धातोरुकारादेशे (? 'हव' घनो यष्टिः / स्त्रियां तु परत्वादनडेत्र,- स्तम्बहननी इत्यादेशे) 'विहव' इत्येव रूपं स्यात् , न विजोहव यष्टिः // 39 // इति, इष्टं च विजोहव इति // 42 // . आङो युद्धे // 5 // 3 // 43 // प्रव०-स्तम्बो हन्यतेऽनेनेति स्तम्बघ्नः स्तम्बधनः / कथं स्तम्बनी इषीका ? करणस्यापि म० वृ०-आङ पूर्वान् ह्वयतेयुद्धेऽर्थे भावाकों: कर्तृत्वविवक्षया 'अचित्ते टक् (5 / 1183) इति 'अल् वाशब्दच उः' / आहवो युद्धम् / युद्ध इति टक्प्रत्यये सति सिद्धम / / 39 / / किम् ? आह्वायः, आह्वानम् // 43|| .. परेवः // 5 // 3 // 40 // प्रव०-आहूयन्ते योद्धारोऽस्मिन्निति आहवः म० ५०-परिपूर्वाद्धन्तेः 'अल् घादेशच करणे' | // 46 / / स्यात् / परिघोऽर्गला / लत्वे पलिघः // 40|| आहावो निपानम् / / 5 / 3 / 44 // अव०-परिहन्यतेऽऽनेनेति परिघः // 40 // म० वृ०-निपानं पशुपक्ष्यादीनां पानार्थो जलाह्वःसमाह्वया-ऽऽह्वयोधूतनाम्नोः।।५।३।४१॥ धारः / आङ् पूर्वाद् ह्वयते: 'अल आहाबादेशश्च' म० वृ०-१करणे इति निवृत्तम् / द्यूते नाम्नि निपात्यते, निपाने वाच्ये / आहावः पशुपक्षिणाम चार्थे यथासंख्यं समाङ पूर्वात् आङ पूर्वाच्च // 44 // ह्वयतेः 'अल् हयादेशश्च निपात्यते / 'समाह्वयः अव-नितरां पिबन्त्यस्मिन् स्थानके इति प्राणिद्यूतम् ; आह्वयो नाम ||4|| निपानम् , नेवाण इति लोकरूढिः // 44 // * प्रव०-१अर्थविशेषोपादानात / समाह्वयन्ते भावेऽनुपसर्गात् / / 5 / 3 / 45 // Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पप्रत्ययविधानम्] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / म० वृ०-अनुपसर्गाद् = उपसर्गरहितात् ] | प्रतिबन्ध इत्यर्थः / वर्षविघ्न इति किम् ? २अवह्वयतेः 'अल् वाशब्द उ:' स्यात् / भावे-, हवः' / / ग्रहोऽर्थस्य // 50 // भाष इति किम् ? कर्मणि ह्वायः॥४५॥ 'अव०-'विहन्यते कार्यमनेन इति विघ्नः, अ३०-ह्वानमिति वाक्यम्। भावेऽनुपसर्गाद्' / 'स्थादिभ्यः कः' (5 / 3 / 82 इति कप्रत्ययः), वर्षस्य इति, अकर्त्तरि कर्मादिकारकस्यानुप्रवेशो मा भूदिति / विघ्ने, कोऽर्थः ? वृष्टिप्रतिबन्धेऽर्थे / अर्थस्य भावग्रहणम् / / 45 / / पदार्थस्य कुम्भस्तम्भादेः सामान्यग्रहणात्मकं ज्ञानहनो वा वध् च / / 5 / 3 / 46 // मवग्रह उच्यते // 50 // म० वृ०-अनुपसर्गाद्धन्तेर्भावे 'अल वा, त- . प्रादु रश्मितुलासूत्रे // 5/6 / 51 // द्योगे हनो वध् च' / हननं वधः, पक्षे घातः // 46 // म० वृ०-प्रपूर्वाद् ग्रहे रश्मौ तुलासूत्रे चार्थे 'भल् वा' भावाकों: स्यात् / प्रगृह्यते इति प्रग्रहः प्रमाहः, सम०-अनुपसर्गादिति किम् ? संघातः // 46 // अन्यस्तु प्रग्रहः // 51 // व्यध-जप-मदभ्यः / / 5 / 3 / 47|| म० वृ०-एभ्योऽनुपसर्गेभ्यो 'भाषाकोरल' प्रव०- अश्वादेः संयमनरज्जुः बन्धनोपकस्यात् / बहुवचनाद् भावे इति ।निवृत्तम्। व्यधः, रणमथवा तुलासूत्रं प्रग्रहः प्रबाह इत्युच्यते // 51 / / जपः, मदः // 47 // . घृगो वस्त्रे // 5 // 3 // 52 // अव०-अनुपसर्गादित्येव-- आव्याधः, उपजापः, म००-अपूर्वाद् वृणोतेर्वस्त्रविशेषेऽर्थेभावा- उन्मादः // 47 // कों 'रल' वा स्यात् / (प्रवृण्वन्ति तमति) प्रवरः, प्रावारः / वस्त्र इति किम् ? प्रवरो याति // 52 // नवा क्वण यम-हस-स्वनः // 5 // 3 // 48 // प्रव०-'प्रावार' इत्यत्र यत्र , 'घन्युपर्गस्य बहुलम्' म० वृ०--एभ्योऽनुपसर्गेभ्यो 'भावाकोरल् (3 / 2 / 86) इति सूत्रेण दीर्घः कार्यः // 52 // वा' स्यात् / कणः, काणः; यमः, यामः; हसः, हासः; .. उदः श्रेः / / 5 / 3 / 53 // स्वनः, स्वानः / अनुपसर्गादित्येव- प्रकाणः,प्रयामः, प्रहासः, विष्वाणः / अप्राप्तविभाषेयम् // 48 // म० वृ०-उत्पूर्वात् श्रेः 'अल् वा' भावाकोंः स्यात् / नित्यमलि प्राप्ते विकल्पोऽयम् ]उच्छयः,उच्छायः। आडो रुप्लोः // 5 // 3 // 49 // // 53 // म० वृ०--आज पराभ्यां रुप्लुभ्यां भावाकों यु-पू-द्रोर्घन // 5 // 3 // 54 // 'रल वा' स्यात् / आरवः, आरावः ; आप्लवः, आप्लावः / आर इति किम् ? विरावः, विप्लावः // 49 // / ___म. वृ०-वेति निवृत्तं पृथग्योगात्' / उत्पूर्वप्रव०-रौतिधातोपनि प्राप्ते प्लुधातोश्चालि भ्यो युपू द्रुभ्यो भावाकोंर्घम्' स्यात् ।भलोऽपवादः। नित्यं प्राप्ते 'आलो रुप्लोः इति विकल्पार्थ वच उद्यावः, उत्पावः, उद्मावः // 54 // नम // 49 // प्रव०-'युपूद्रोर्घम्' इत्यत भारभ्य 'माने' वर्षविघ्नेऽवाद् ग्रहः // 5 // 3 // 50 // (5 / 3 / 81) इत्यन्तं यावत् द्वितीयोऽयंघमोऽधिकारः। म० वृ०--अवपूर्वात् प्रहेर्षिविघ्ने' वाच्ये / अत्र घधिकारे सूत्राणि 28 ज्ञातव्यानि / 'पूर्वसू'भाषाकों- 'वोऽल्' स्यात् / अवग्रहः,अवग्राहः वृष्टेः; / त्रेण सह (अविधानात् ) // 54 // Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 5 पा० 3 सू०५५-६७ ग्रहः // 5 / 3 / 55 / / म. वृ-उत्पूर्वान्नयतेर्वा 'घ' भावकोंः म० वृ०--उत्पूर्वाद् ग्रहे वाकत्रो घण' स्यात्। स्यात् / उन्नायः, उन्नयः // 61 // उद्ग्राहः। उद इत्येव-ग्रहः, विग्रहः ['युर्वण'० (5 // 3 // अवात् / / 5 / 3 / 62 / / 28) इति अल्] // 55 // मवृ०--अवपूर्वान्नयतेः भावाकों-' स्यात् / न्यवाच्छापे / / 5 / 3 / 56 / / अवनायः // 62 // म.वृ०-नि-आवाभ्यां पराद्ग्रहे वाकों घम्' / परेछु ते // 5 / 3 / 63 / / स्यात् , शापेऽर्थे / निग्राहो ह ते वृषल ! भूयात् , म०व०--परिपूर्वान्नयतेः द्यूतविषये भावाकों अवग्राहो ह ते वृषल ! भूयात् [हकारोऽधिक्षेपेऽ?] 'ब' स्यात् / परिणायेन शारीन् हन्ति, समन्ताशाप इति किम् ? निग्रहश्चौरस्य, अवग्रहः [=सामा- यनेनेत्यर्थः / द्यूत इति किम् ? परिणयः कन्यायाः न्यज्ञानम् ] पदस्य / / 56 // ['युवर्ण०' (5 / 3 / 28) इत्यल् ] // 63 / / प्रालिप्सायाम् / / 5 / 3 / 57 / / भुवोऽवज्ञाने / / 5 / 3 / 64 // म. वृ०-प्रपूर्वाद् ग्रहेर्लिप्सायां 'घन' भवति / ___म०व०--परिपूर्वाद् भवतेरवज्ञानेऽर्थे भावापात्रप्रप्राहेण चरति पिण्डपातार्थी [ =भिक्षार्थी] | कोर्वा घम' स्यात् / परिभावः, परिभवः / अवज्ञान भिक्षुः / / 57 // इति किम् ? परि-समन्ताद् भवनं परिभवः समो मुष्टौ / / 5 / 3 / 58 // ['युवर्ण०' (5 / 3 / 28) इत्यल् ] // 64|| म० वृ०-सम्पूर्वाद् ग्रहेष्टिविषये धात्वर्थे यज्ञे ग्रहः / / 5 / 3 / 65 / / भावाकोंर्घन्' स्यात् / संग्राहो मल्लस्य, अहो ___ म० वृ०--परिपूर्वाद् अहेर्यज्ञविषये भावाकोंमौष्टिकस्य संग्राहः, मुष्ठेर्दाढय मुच्यते / मुष्टाविति '' स्यात् / पूर्वपरिग्राहः, उत्तरपरिग्राहः / किम् ? संग्रहः शिष्यस्य / / 58 / यज्ञ इति किम् ? परिग्रहः कुटुम्बिनः // 65' / ___ अव०-मुष्टिरक गुलिसन्निवेशोऽत्र ज्ञातव्यः, अव०-पूर्वस्या उत्तरस्याः क्रियायाः परिग्राहः; न परिमाणम् / परिमाणेऽर्थे मुषिविशेषे वक्ष्यमाणेन अथवा पूर्वश्चासौ परिग्रहश्चेति कर्मधारयः / वेदे'माने' (5 / 381) इत्यनेन पत्रः सिद्धत्वात् // 58 // र्यज्ञाङ्गभूताया ग्रहणविशेष एताभ्यां पूर्वप िग्राहेयु-दु-द्रोः / / 5 / 3 / 59 / / त्यादिप्रयोगाभ्यामभिधीयते // 65 / / म० वृ०-सम्पूर्वेभ्य एभ्यो ‘भावामोंर्घम्' संस्तोः / / 5 / 3 / 66 // स्यात् / संयावः, सन्दावः, सन्द्रायः / / 59 // ___ म. वृ०-सम्पूर्वात्स्तोते यज्ञविषये 'घ' स्यात / प्रव०--सम इत्येव- विद्रवः, उपद्रवः / / 59 // / 'संस्तावः छन्दोगानाम् / यज्ञ इत्येव-उसंस्तवोनियश्चानुपसर्गाद्वा // 5 / 3 / 60 // ऽन्यदृष्टेः // 66 // ___अत्र०-'संस्तुवन्त्यत्र इति संस्तावः / यस्मिन् म. वृ--अनुपसर्गानयतेयुदुद्रोश्च 'घन स्यात् / देशे छन्दोगा=विप्राः समेत्य=मिलित्वा स्तुवन्ति स षा' / नयः, नायः ; यवः यात्रः; दवः, दावः; द्रवः, / देशः संस्ताव उच्यते। छन्दोगायनानां विप्राणाम। द्रावः / अनुपसर्गादिति किम ? प्रणयः ['युवर्ण' | उपरिचयो मिथ्यादृष्टेः // 66 // (5 / 3 / 28) इत्यल् ] // 6 // प्रात् -द्रु-स्तोः / / 5 / 3 / 67 // - वोदः / / 5 / 3 / 61 // म० वृ-प्रात्परेभ्यः नु स्तुभ्यो ‘भावाकोंर्घन' Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घञ्प्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसवलितम् / स्यात् / प्रस्रावः, प्रद्रावा, प्रस्तावः / कथं स्रावः / न्युदो ग्रः // 5 / 3 / 72 / / द्रावः ? बहुलाधिकारात् // 6 // __म० वृ०-नि-उत्परात् गधातो-'' [भावाअयज्ञे स्त्रः॥५/३।६८॥ कोंः) स्यात् / निगारः, उद्गारः / न्युद इति किम् ? म० व-प्रात् [-अपूर्वात्] स्तृधातोः ‘भावा- गरः, सङ्गरः२ // 72 // कोर्ष' स्यात् , यज्ञविषये चेन्न प्रयोगः / प्रस्तारः, विमानप्रस्तारः, नयप्रस्तारः / अयज्ञे इति किम् अव०-गीयते दुःखातैरिति गरो विषम् / बहिष्वस्तरः [ 'समासेऽसमस्तस्य' (203 / 13) इति सङ्गीतेऽभ्युपगम्यते योद्धभिरिति सङ्गरो युद्धम् , षत्वम् ] // 6 // अथवा सङ्गरण सङ्गरः,तदा सगरः प्रतिज्ञा उच्यते // 72 // . वेरशब्दे प्रथने / / 5 / 3 / 69 / / किरो धान्ये / / 5 / 3 / 73 // म० ३०-वेः परात् स्तृणातेरशब्दविषये प्रथने = विस्तीर्ण वेऽर्थे ( भावाकोंः ) 'घन' स्यात् / म० वृ०-नि-उत्परात् कधातोर्धान्यविषये विस्तारः पटस्य / प्रथन इति किम् ? तृणस्य विस्तरः 'भावाकत्रोध' स्यात् / निकारो धान्यस्य, उत्कारो [छादनमित्यर्थः] / अशब्द इति किम् ? अहो द्वाद धान्यस्य, राशिरित्यर्थः। धान्ये इति किम् ? फलशाङ्गस्य विस्तरः / / 69|| निकरः, पुष्पोत्करः // 73 // 'छन्दोनाम्नि // 53 / 70 // प्रवा-निकार इत्यत्र यदि निकारः तिरस्कारम० वृ०-विपूर्वात् स्तृणातेश्छन्दोनामविषये- | वाची तदा करोतेर्घन , अत ( ? अत्र) 'कत् [भावाकोः ] 'घन्' स्यात् / २विषारपड क्तिः / विक्षेपे' इति धातोः प्रयोगः / / 73 // .. केचिद्वेरन्यतोऽपि घत्रमाहुः,- आस्तारपक्तिः , नेयुः / / 5 / 3 / 74 / / प्रस्तारपक्तिः // 70|| ___म० वृ०-निपूर्वाद् 'वृधातोर्धान्यविशेषेऽर्थे प्रव०-'छन्दः, कोऽर्थः ? पहाः, पादैः सङ्गतः, / 'घर' स्यात् / २नीवारा वनव्रीहयः / धान्य इति * पादेषु वा साधुर्वर्णविन्यासः, छन्दसां नाम (-छन्दो- किम् ? अनिवरा कन्या ||74 // नाम ), तस्मिन। रविस्तरस्य अन्तप्रयोगस्य पक्तिरिति शब्दान्तरेण विग्रहः, विष्ठारपङक्ति- अव.-"वगट वरणे' 'वृरुश सम्भक्तौ' / रिति समुदायस्यैव छन्दोनामत्वात् , अथवा विस्त- रनिनियन्ते इति नीवाराः, 'घन्युपसर्गस्य बहुलम्' रश्चासौ पङक्तिश्चेति कर्मधारयस्तत्पुरुषसमासः , ( 3 / 2 / 86 ) इति दीर्घः / उनितरां विपते-भज्यते पद क्यन्तं छन्दोनामेदम् , अत्र 'वेः स्वः' (2 / 3 / परिणीता (सती) इति निवरा / निवरः शब्दः स्व२३) इति सूत्रेण सकारस्य षकारः / उइदमपि भावादलन्तोऽपि खियां वर्तते, येऽलन्ताः शब्दाः ते छन्दोनाम / / 70 // प्रायेण पुल्लिङ्गा एव, 5 पुल्लिङ्गे आदौ 'इमनलौ' इति पाठात ,परं पद्धैरयं स्त्रीलिङ्गः प्रवक्तः--निवरा। क्षु-श्रोः / / 5 / 3 / 71 // म. वृ०-विपूर्वक्षुश्रुधातो-र्भावाफळ' स्यात् / अत्र बहुलाधिकारात् न क्तिः // 74 // [टुक्षु रु कुंक् शब्दे / श्रृंट श्रवणे] / विक्षावः, इणोऽभ्रषे // 5 / 3 / 75 // विश्रायः / / 71 // | म०वृ०-स्थितेरचलनमभ्रषः / निपूर्वादिणोऽभ्रषजश्रीहेमलिङ्गानुशासने पुल्लिङ्गप्रकरणे,सम्पूर्णश्लोक इत्थम्-पुल्लिङ्गकटणथपभ,-मयरषसस्न्वन्तमिमनलौ किश्वित। ननडी घपनी दः कि, वे खोऽकर्तरि च कः स्यात // Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 5 पा० 3 सू० 76-79 विषये (भावाकों:) 'घन्' स्यात् / न्यायः / अभ्रष / 'हस्तप्राप्ये चेरस्तेये / / 5 / 3 / 78 // इति किम् ? न्ययं गतश्चोरः // 75 // . म. वृ०-हस्तप्राप्यविषयाञ्चिनोतेर्भावाकोंः 'घ' स्याद्, अस्तेये धात्वर्थः स्तेये-चौर्ये चेन्न / प्रव०-'स्थितेरचलनम्', कोऽर्थः ? शोभना पुष्पप्रचायः, फलावचायः, फलोच्चायः। हस्तप्राप्य .. चारात्-सन्मार्गात् न पतनम् , “कल्यानंषौ नये इति किम् ? पुष्पप्रचयं करोति वृक्षाये / अस्तेये इति न्याय्यम्" इति शब्दानुशासने * / शास्त्रलो. किम् ? स्तेयेन (चौर्येण) पुष्पप्रचयं करोति // 78 // कदेशकुलप्रसिद्धथा नियतमयनम् आचरणं न्याय इति व्युत्पत्तिः / 'न्ययं (गतः)', कोऽर्थः ? निर्गम- ___अव०-प्राप्तुं शक्यं प्राप्यम् , हस्तेन-करेण नवारं प्राप्तः // 75 / / उपायान्तरनिरपेक्षेण प्राप्तुं शक्यं हस्तप्राप्यम , परेः क्रमे / / 5 / 3 / 76 // तस्मिन् / रचिनोतर्धातोहस्तप्राप्यविषयात् इति विशेषणम् / हस्तप्राप्यशब्देन प्राप्यस्य फलादिव. म० वृ०-परिपरादिणः क्रमविषये 'घन' स्तुनः प्रत्त्यासत्तिविषये धात्वर्थे सति घविधानस्यात् / तव पर्यायो भोक्तुम् / क्रम इति किम् ? मित्यर्थः // 7 // पर्ययः स्वाध्यायस्य, अतिक्रम् इत्यर्थः, रविपर्ययो चिति-देहा-ऽऽवासोपसमाधाने कश्चादेः मतेः // 76|| व // 5 / 379 / / अव०-'क्रमेण पदार्थानां क्रियासम्बन्धः म० वृ०-चित्याद्यर्थेषु चिधातोर्भावाकोंः : पर्याय उच्यते / 'क्रमेण पर्ययणं भोजने' इति वाक्ये / 'घन् , तद्योगे चादेः ककारादेशश्च / 'चितौ,-आ'परेः क्रमे' इत्यनेन घन , तव पर्याय इति सिद्धम् / कायमग्नि चिन्वीत / देहे, कायो देहः / आवासे,भोक्तुमित्यत्र 'शाधृषज्ञारभलभसहाईग्लाघटास्ति- ऋषिनिकायः। उपसमाधाने,-गोमयनिकायः, गोसमर्थार्थे च तुम' ( 5 / 4 / 90 ) इत्यनेन तुम् , ततः मयपरिकायः / कथं काष्ठनिचयः ? बहुत्वमात्रविवसप्तमी, तस्या 'अव्ययस्य' (3 / 27) इति लप। क्षया / चेः क इत्येव सिद्धे आदिग्रहणमादेरेव [= 'अन्यथा भवनभित्यर्थः / / 76 / / धातुचकारस्यैव ] यथा स्यात् , तेन चेर्यह लुपि 'निकेचाय' इत्येव // 79 // व्युपाच्छीङः / / 5 / 377 // म० ०-वि-उपपूर्वात् शीडो भावाकोंः क्रम- प्रव०-'चीयते इति चितिः, यज्ञेऽग्निविशेषः विषये 'घन' स्यात् / तव राजविशायः, मम राजो- अग्न्यावारो वा भाजनम् , तत्र चितावर्थे / आकापशायः / क्रमप्राप्त पर्यायसाध्यं शयनमुच्यते // 77 // यमग्नि चिन्वीत' अत्र सामान्यविशेषप्रयोगास्तथा हि-अग्नि चिन्वीत-पुष्पेत इति सामान्यम् , कम् ? प्रव०-क्रमप्रात पर्यायसाध्यं यत शयनं-स्वापः / आकायम यजे अग्निविशेषमिति विशेषप्रयोगः। 33. स तव राजविशाय इत्युच्यते, अस्यायं भावार्थः,- परि उपरि कस्यापि गोमयादे राशीकरणमुपसमाधाअन्येषु बहुषु विजातीयषु कार्येषु उपस्थितेषु हे चैत्र! | नमुच्यते। कयापि स्त्रिया आद्रगोमय एकत्र मेल्यते साम्प्रतं तव शयितु प्रस्तावोऽस्ति इति परमार्थः, / =राशीक्रियते. अथवा शुष्कगोमय छाणा' उपरि. इति सर्वकार्यमध्ये शयनकार्य प्रधानमिति सूचितम् / उपरि ध्रियन्ते स गोमयनिकाय इत्युच्यते, एवं // 7 // गोमयपरिकायः // 79 // * अभिधानचिन्तामणिकोशे तृतीयकाण्डे / Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घन-क-अथु-त्रिमप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्स्यवचूरिसवलितम् / [221 . सङ्घऽनूचे // 5 / 380 // त्थः, 'प्रस्थः सानुः, "संस्था, 'व्यवस्था, "प्रस्नः, म० वृ०-अनूधै संघे प्राणिसमुदायेऽर्थे 'प्रपा, विधः, 1 विघ्नः / कथम् आव्याधः, भावाकोंश्विनोते पण , तद्योगे चादेः कश्च' / (घातः) विघातः, उपघातः ? बहुलाधिकारात् / वैयाकरणनिकायः, एवं तार्किकनिकायः / संघ १२बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम् / / 8 / / इति किम् ? सूकरनिचयः / / 80 // प्रव०- "उदः स्थास्तम्भः सः' (1 / 3 / 44) इति प्रव--सूकरनिचयः', कोऽर्थः ? सूकरा हि सलोपः / आखूनामुत्थानम आखूत्थः / एवं शिल भानामत्थानं शलभोत्थः / प्रतिष्ठन्तेऽस्मिन्निति उपरि उपरि चीयन्ते इति उपसमाधानेऽर्थे पूर्वेणापि प्रस्थः, 'प्रस्थं तीर्थ प्रोथम्' * इति नपुंसकः / न घम् , व्यावृत्तिबलात् / / 80 // "तथा सन्तिष्ठन्तेऽस्यामिति संस्था, अत्र 'उपसर्गा... माने // 5 / 3 / 81 / / दातः' (5 / 3 / 110) इत्यङ बाधित्वा * त्रियाः म० वृ०-माने गम्यमाने धातो--'म्' खलनाविति वचनात् नित्यमनट् स्यात् इत्यत्र सूत्रे [भावाकोंः] स्यात् / एको निघासः, एकस्तण्डु- पाठः कृतः / तथा व्यवतिष्ठन्तेऽनयेति व्यवस्था / लावक्षायः, एकः कारः, द्वौ सूर्यनिष्पावौ, समि- प्रस्नात्यस्मिन्निति प्रस्नः तीर्थविशेषः / प्रपिबन्त्यससंग्राहः, तन्दुलसंग्राहः, मुष्टिरित्यर्थः / मान | स्यामिति प्रपा / 'विध्यतेऽनेनेति विधः / विहइति किम् ? निश्चयः / अल एवापवादोऽयम् , न्यतेऽनेनास्मिन् वा इति विघ्नः, अत्र स्थादिगणक्त्यादिभिस्तु घबपि बाध्यते,- एका तिलो- पाठबलात् करणेऽपि कप्रत्ययः, अन्यथा 'व्ययोद्रोः'० च्छितिः, [ 'उदः श्रेः' इत्यस्य विषयः] द्वे प्रसूती (5 / 3 / 38) इत्यल एव स्यात / एवमायध्यन्तेऽ [अत्र माने] // 1 // नेन इत्यायुधम् , आध्यायन्ति तमित्यादयः,..." प्रव०-मानमियत्ता, सा च इयत्ता द्वेधा, (पृषोदरादित्वात् ) धस्य ढः / सर्वत्र कप्रत्ययः / सङ्ख्या परिमाणं च / सङ्ख्यायाम्-- एको निघासः, अयं कप्रत्ययः सर्वापवादत्वादनटमपि बाधते / द्वौ निघासौ,बहवो निघासाः। एवमेक.....(तण)डुल १२आचार्यस्येयं शैली / यत्र प्रयोगबाहुल्यं तत्र बहुनिश्चायः, के...... (त) व्यो विक्रेतव्यो वा इत्यर्थः। वचनं निर्दिश ....... (ति अतोऽत्र) सूत्रप्रान्ते बहु3एकः कारः, द्वौ कारी, त्रय काराः / तथा 'द्वौ वचनं प्रयोगानुसरणार्थम् बहुवचनमाकृतिगणासर्यनिष्पाचौ'. अत्र पवने= पाचौ. निश्चिती पावौ र्थम् (इत्युक्तम् ), यत्र प्रयोगे इयत्ता तत्र एकवचननिष्पाचौ इति परिणा वाक्यं कार्यम , न तु मेव निर्दिशति इत्यर्थः / / 82 // निष्पवने= निष्पावा, एवं कृते 'निरभेः पूल्वः' शितोऽथुः // 5 / 383 // (5 / 4 / 21) इत्यस्य विषयः स्यात् / प्रसरति जलादिकमस्या इति प्रसृतिः, 'पसइ' इति प्रसिद्धिः / म. वृ०-टिवतो धातोर्भावाकोरथुः स्यात् / ५"मध्येऽपवादाः पूर्वान् (विधीन बाधन्ते नोत्त वेपथुः, श्वयथुः, वमथुः, नन्दथुः, [क्षवथुः,] दवथुः / रान्") इति बलात् / / 81 // असरूरत्वाद् घनलावपि,-- वेपः, क्षवः / / 3 / / स्थादिभ्यः कः // 5 / 3 / 82 // वितस्त्रिमक् तत्कृतम् // 5 // 3 // 84 // म० वृ०-स्थादिधातुभ्यो 'भावाकोंः कः / म० वृ०-वितो डुकारानुबन्धाद्धातोः 'त्रिम प्रत्ययः' स्यात् / 'आखूत्थो वर्त्तते, २एवं शलभो- / प्रत्ययः' [भावाकोंः] स्यात् , तत्कृतेऽर्थे / पाकेन * श्रीहेमलिङ्गानुशासने पुनपुंसकलिङ्गप्रकरणेऽष्टादशे श्लोके / *"स्त्रीखलना मलो बाधकाः स्त्रियाः खलनौ" इति न्यायाद् / Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०५ पा०३ सू० 85-91 . निर्वृत्तं पक्तिमम् , कृत्रिमम , लाभेन निवृ- तेऽस्मिन्निति शेवधिः, शिवशब्दस्याप्यनेन (शीडात्तम्] लब्ध्रिमम् , 2 याचित्रिमम , विहित्रिमम् | पो ह्रस्वश्व इति सूत्रेण) निष्पत्तिः / / 8 / / [ककारः कित् कार्यार्थः] / / 84 // अन्तर्द्धिः // 5.3 / 89 // अव०-- करणेन निवृतं-कृत्रिमम् / २याच- _____म० वृ०-अन्तरपूर्वाद् दधातेर्भावाकोंः 'किः' नेन निवृत्त 'याचित्रिमम्' / 'विहित्रिमम्' इत्यत्र | निपात्यते / अन्तर्द्धिः // 89 // 'डुधांग्क धारणे' विपूर्वः, विधानेन निर्वृत्तं-विहि - अभिव्याप्तौ भावेऽनजिन् / / 5 / 3 / 90 / / त्रिमम् , 'धागः' (4 / 4 / 15) इति सूत्रेण धास्थाने हि (इति) आदेशः / / 84 // ___म० वृ०-अभिव्याप्तौ 'गम्यमानायां भावे यजि-स्वपि-रक्षि-यति-प्रच्छो नः // 5 // 3 // 8 // धातोः 'अन बिन्' इति प्रत्ययौ स्याताम् / समन्ता द्रावः= संरवणं सांराविणं सेनायां वर्तते / सं___ म० वृ०-एभ्यो भाषाकोः 'नः प्रत्ययः' कुटनम् , सांकोटिनम् / भावग्रहणं कर्मादिनिषेधास्यात् / 'यज्ञः, स्वप्नः, रक्ष्णः, यत्नः, प्रश्नः / / 85 // र्थम् / असरूपविधिना क्तघबादिनिवृत्त्यर्थमनग्रह णम् // 10 // प्रव०-१'तवर्गस्य श्चवर्ग' ( 1 // 360 ) इति नस्य बः // 85 / / अव०-'क्रियायाः स्वसम्बन्धिनः कारकस्य / विच्छो नङ् // 5 // 3 // 86 // सामस्त्येनाभिसम्बन्धोऽभिव्याग्निः / समन्तात - म० वृ०-विच्छे--‘र्नङ' स्यात् / विश्नः // 86 // राव-संराविणम् , 'अमिव्याप्ता'- वित्यनेन चिन् , 'णिति' (४।३।५०।इति) वृद्धिः, संराविणमेव सांराप्रव०-प्रश्नः,विश्नः उभयत्र 'अनुनासिके च०' विणम् , 'नित्यं अविनोऽण' (7.3 / 58) इति सूत्रेण (4 / 1 / 108) इति छस्य शः / / 8 / / अण , वृद्धिः / 'अनपत्ये' (7 / 4 / 55) इति प्रतिषे. धात् 'नोऽपदस्यः' (14 / 61) इत्यनेन नाऽन्त्यस्वउपसर्गादः किः / / 5 / 3 / 67 // रादिलोपः / अभिव्याप्राविति किम ? संरवणं= ___ म० ०-उपसर्गपूर्वादासंज्ञधातोर्भावाकोंः | संरावः, अत्र सम इत्यस्य समन्तादिति नार्थः / यथा 'किः प्रत्ययः' स्यात् / आदिः, आधिः, प्रधिः, ह्यनट् असरूपविधिना भवति तथा ... .. निधिः, विधिः, सन्धिः, समाधिः / कित्करणमा- (असरूपविधिनैव क्तः) घ (वाऽत्र मा भूत् इति कारलोपार्थम् / / 87 // अनप्रत्ययः.............. (ग्रहणं कृतम् / // 9 // व्याप्यादाधारे' / / 5 / 3 / 88 // स्त्रियां किः // 5 / 3 / 91 // म० वृ०-व्याप्यात्परादासंज्ञकादाधारे२ किः . म० वृ०-धातोर्भावाकोंः स्त्रीलिङ्गे 'क्तिः स्यात् / जलधिः,[वालधिः.] शाविः, शेषधिः / 88 / प्रत्ययः' स्यात् / घनादेरपवादः / कृतिः, नीतिः, भूतिः नुतिः] // 91 // अव०-'अर्थान्तरनिवृत्त्यर्थमाधारग्रहणम् / अधिकरणे। जलं धीयतेऽस्मिन्निति जलधिर्घटः अव०-स्त्रियां क्ति'- रित्यादि 'भावे' (53 . समुद्रो वा / शेते निधाविति शेवम , 'शीलापो 122) इत्यन्तं यावत् स्त्रियामित्यधिकारसूत्राणि 32 ह्रस्वश्व वा' (उणा० 506) इत्युणादिसूत्रेण वप्रत्ययः, ज्ञातव्यानि // 91 / / शेवः (? म्) कोऽर्थः ? स्थापनीयं धनम् , शेवं धीय- . वादिभ्यः // 5 / 3 / 92 // Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्तिप्रत्ययविधानम् ] . मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 223 - म० वृ०-श्रृगोत्यादिधातुभ्यः स्त्रीलिङ्गे भावा- 48), कण्डूयनं कण्डूया, 'शंसिप्रत्ययात्. ..... कोः 'क्तिः' स्यात् / वक्ष्यमाणैः पक्किवादिभिः सह / ( इत्यप्रत्ययः ) / इच्छा इत्यत्र मृगयेच्छायासमावेशार्थ वचनम् / श्रु-श्रुतिः, प्रतिश्रुत् [ =प्रति- | च्या०'(५।३।१०१) इति शप्रत्ययः, क्याभावः (च)। ज्ञा] / पद्- सम्पत्तिः, सम्पत् / संवित्तिः, संवित् / / "इज्या', अत्र 'आस्यटिब्रज' (5 / 3 / 97) इति विद्यार, वेदना।लब्धिः, लभा। प्रशस्तिः, प्रशंसा। | क्यप् / ग्रीवायाः पश्चाद्भागे शिरा मन्या। यद्यपुनः पक्तिः, “पचा। कण्डूतिः, कण्डूः, "कण्डूया। इष , | (?) / स्तूयतेऽनया इतिस्तुतिः, १°इज्यतेऽनया इति इष्टिः, इच्छा / यज्- 1 इष्टिः, इज्या' [मन्-- | इतिः, इष्यतेऽनया इति इणिः / इत्थं विवेदः वामतिः, १२मन्या ] आस् - आस्या, [ आस्यटि० श्रवणं कर्णश्च ग्राहः तदा (?) / एषां संज्ञाश(५।३।९७) इति क्यप् ] उपास्तिः, उपासना ['णिवे- ब्दत्वात् करणेऽपि क्तिरेव, नानट् , एवं सुतिः / त्यास० (5 / 3 / 111) इति अनः] / शास् -अनुशिष्टिः, अन्यत्र स्पः परत्वात् “स्त्रीप्रत्ययक्तयादिखलना आशीः // 92 // . अलोबाधकाः" / 'श्रूवादिभ्यः' इति सूत्रप्रान्तेऽवचूरिप्रव०-'किवादिभिरित्यत्र आदिशब्दात् क्य रियम् / / 92 // प्रत्यय-अप्रत्यय-यप्रत्यय-अप्रत्यय-अनप्रत्ययानां समिणा सुगः // 5 / 3 / 93 // संग्रहः / क्तिप्रत्ययस्थाने किबादीनां समावेशः= ___म. वृ०-सम्पूर्वादण आम् पूर्वाष सुनोतेप्रवेशो भवति, कोऽभिप्रायः ? वादिगणात्परतः र्भावाकोः स्त्रियां क्तिः' स्यात् / क्यपोऽपवादोऽयम् / क्तिप्रत्ययः कापि, कापि च वक्ष्यमाणसूत्रैः किप्. समितिः, आसुतिः // 93 // क्यप अ-अङ-य-अनप्रत्यया अपि प्रवर्तन्ते क्तिस्थाने / उदाहरणेषु यथासम्भवं विवादयो दर्शिताः साति-हेति-जूति-यूति-ज्ञप्ति-कीर्तिः* सन्ति / वादिराकृतिगणः,तेन श्रु, श्रुतिः,प्रतिश्रुत्; // 5/3194|| सद्,-आसत्तिः, संसत् , उपनिषत् , निषद्या, अत्र म. वृ०-एते शब्दाः भाषाकोः 'क्त्यन्ता' 'समजनिपनिषद०' ( 5 / 3 / 99) इत्यनेन क्यप् , निपात्यन्ते / सातिः, 'हेतिः, जूतिः, यूतिः, विद्, संवित्तिः, संवित्, विद्या, वेदना, 2 विद्या' ५ज्ञप्तिः, कीर्तिः / / 94|| 'इत्यत्र 'समज०' इति क्यप,3'वेदना' इत्यत्र णिवे प्रव०-'सिनोतेः सुनातेर्वा क्तिः, आत्यमित्यासश्र.' (5 / 3 / 111) इत्यनेन अनप्रत्ययः, अई, शिरोचिः, अर्दिका इत्यत्र अद्यतेऽस्या:- 'नाम्नि वाभावश्च निपात्यते, सातिः इत्थं सिध्यति / हिपुसि च' (5 / 3 / 121) इति णकः, व्युवक्रुश् ,व्यव नोतेः तिः, गुणे सति, हन्तेर्वा अन्त्यस्वरादेरत्वे क्रुष्टिः, व्यावक्रोशी इत्यत्र विनिमयेनाक्रोशनमिति कृते हेतिरिति / जु इति सूत्रधातोर्योतेः४ (च) वाक्ये 'व्यतिहारेऽनीड़ादिभ्योवः' (5 / 3 / 116) इत्य क्तिः, दीर्घत्वे जूतिः, यूतिः / 'ज्ञपयतेप्तिः, कीर्तनेन अप्रत्ययः, ततो नित्यं जानितोऽण' (7 / 3158 यतः कीर्तिः, आभ्यां परो 'णिवेत्त्यास०' ( 5 / 3 / इति ) अण् , अणो० (२।४।२०।इति की ) / शंसू, 111) इत्यनेन अनप्रत्ययो न भवति, निपातनव शात् / / 94|| 'शंसिप्रत्ययात्'(५।३।१०५ इति ) अः / "षितोऽ (5 / 3 / 107 ) / कण्डूग् * गावकषणे, कण्डूयनम् 'गा-पा-पचो भावे // 5 / 6 / 95 / / (=कण्डूः ), भ्यादिभ्यो वा ( 5 / 3 / 115) किम् / म० वृ०-एभ्यो भावे स्त्रियां 'क्तिः' स्यात् / "कण्डूग् गात्रकषणे , 'धातोः कण्ड्वादेर्यक्' (3 / | प्रगीतिः, सङ्गीतिः, प्रपीतिः, पक्तिः / माषग्रहण, * गात्रविघर्षणे इति लघुवृत्त्यादिषु / * लघुवृत्त्यादिग्रन्थेषु 'सातिहेतियूतिजूति०' इति / Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [भ०५ पा० 3 सू० 96-101 मर्थान्तरनिरासार्थम् / बाधकस्याङोऽपवादोऽयम् / एभ्यः स्त्रियां भावाकोनाम्नि 'क्यप' स्यात् / 'स॥९ // मज्या, २निपत्या, उनिपद्या, “निषद्या, शय्या, प्रव०-१'गापा०'इति सूत्रे गा इति सामान्येन / | 'मुत्या, विद्या, 'चर्या, 'मन्या, 1 इत्या / ना म्नीत्येव-संवीतिः, निपत्तिः // 19 // प्रहणम् / 'गाड गतो' 'के गैं' इति द्वयमपि गा (गृह्यते) / पचिसाहचर्यात् पा इत्युक्ते पिवतेस्र अव०-सम्पूर्वः अज् , समजति अस्यामिति हणम् / उषितोऽ' ( 5 / 3 / 107) 'उपसर्गादातः' | समज्या सभा। सूत्रे निपत् जनपद् (?निपनिषद) (5 / 3 / 110 / इति) प्रयुक्तस्याडो बाधकोऽयम् / / 95 // इति संहितानिर्देशात् पतेः पदेश्च ग्रहणम / निप तन्त्यस्यामिति निपत्या,निपद्या / यत्र स्थाने यम्मान स्थो वा / / 5 / 3 / 96 // स्थानकात् पत्यतेपद्यते च तत् निपत्या,निपद्या / को. ___ म० -स्थाधातो वे स्त्रियां क्तिर्वा स्यात् / र्थाभिरवपातः (?) / 'निषदनं निषीदन्त्यस्यामिति या प्रस्थितिः, उपस्थितिः / वावचनादकपि,-आस्था, निषद्या हट्टः पूज्यासनं च / 'शेरतेऽस्यामिति शय्या व्यवस्था, संस्था। [पूर्ववढोऽपवादोऽयम् ] // 96 / / पर्यङ्कः शब्दरचना च / 'सुगधातुः, सवनं-सुत्या, प्रव०-आस्थेत्यादिषु 'उपस दिातः' (5 / 3 / 110 / सुन्वन्त्यस्यामिति वा सुत्या। तथा विद्. वेदनं= इति ) अ // 16 // विद्या,विदन्ति तस्यां तया वाहिताहितमिति विद्या। 'चरणं चरन्त्यनया वा चर्या भ्रमणम् / 'मननं - आस्यटि-ब्रज-यजः क्यप् / / 5 / 3 / 97 // मन्यतेऽनया या मन्या प्रीवायाः पश्वा (द् भागे म. वृ०-एभ्यो भावे स्त्रियां 'क्यप्' स्यात् / सिरा)।इण,अयनम-इत्या,अथवा एति अनया [कः कित्कार्यार्थः ] आस् ,-आस्या; अट अटया; इति इत्या शिबिका / 'समजनं संवयनं वा, व्रज्या, इज्या। पित्करणमुत्तरत्र तागमार्थम् / / 97|| / 'अघक्यबल० (4 / 4 / 2 / इत्यजेः) वी॥९९॥ कृगः श च वा / / 5 / 3 / 100 // प्रव०-'आस्यटिः' इति सूत्रोतक्यप्प्रत्यय म० वृ०-करोतेः स्त्रियां भावाकोः 'शप्रत्ययो स्य न कृत्यसंज्ञा, प्रकरणविहितस्यैव क्यपो भवति वा' स्यात् , [चकारात् ] क्यप् च / 'क्रिया, कत्यसंज्ञा / / 97|| कृत्या / पक्षे कृतिः / / 100 // . . भृगो नाम्नि / / 5 / 3 / 98 // प्रव०-- यदि क्रिया इति शब्दो भावकर्मणोः म० वृ०-भृधातो वे स्त्रियां नाम्नि =संज्ञायां साध्यते तदा धातुशप्रत्ययात् 'शिति' (3 / 1 / 70 इति) 'क्यप" स्यात् / भरणं भृत्याः / ना नीति किम् ? क्यः,यदा तु क्रियतेऽस्मादित्येवमपादानादौ शप्रत्ययः भृतिः / भावे इत्येव-भ्रियते [=ोयते] इति भार्या तदा क्यो न भवति, अप्राप्तेः; तदा शे 'रिः शक्या०' [-पत्नी] ||98|| (4 / 3 / 110) रिः, 'संयोगात्' (2 / 1152) इति इय् / समज-निपनिषद-शीङ-सुग्--विदि-चरि-मनीणः 'कृत्या मारिः देवताविशेषः * // 100|| // 5 // 3399 / / मृगयेच्छा-याञा-तृष्णा-कृपा-भा-श्रद्धा-ऽन्तर्धा म०३०-योगविभागाद्भावे एव निवृत्तम् / / // 5 / 3 / 101 // *पग्यशाला निषद्याऽट्टो, हट्टो विपरिणरापणः' इत्यभिधानचिन्ताणो, 'निषद्या पापणः' इति सिद्धान्तको मुद्याम् , "निषद्या सामनम्" इति श्रीहेमलिङ्गाशासनविवरणे / ."मन्या गलपासिरा इति सिद्धान्तकौमुद्याम्"। 'कृत्याकृति: मारिदेवता च' इति श्रीहेमलिङ्गानुशासनविवरणे, 'कृत्या क्रियादेवतयोः' इत्यमरकोशे / Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ य-अ-अप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 225 - - म० वृ०-एते स्त्रियां निपात्यन्ते / तत्र इच्छा / पटत् ,अपटत् पटत् भवति(इति) अव्यक्तानुकरण' भावे एव, शेषास्तु भाषाकोंः / मृगया, इच्छा , (7 / 2 / 145) इति डाच् , अनत्र (?) द्विवचनम् , याच्या, तृष्णा, कृपा, भा, श्रद्धा, अन्तर्द्धा // 101 // 'डाच्यादौ' (7 / 2 / 149) इत्यनेनाद्यत्लोपः, 'डित्य न्त्यस्वरादेः'(२।१।११४) इत्यनेन अन्त्यस्वरादिलोपः, प्रव०-अन्तर्द्धा इत्यत्र सूत्रत्वान्न क्लीबे' (2 / 4 / पटपटा इति शब्दः, 'डाच्छोहितादिभ्यः पित्' (3 / ९७।इति) ह्रस्वः / मृगयतेः परतो मृ(ग्य )ते 4 / 30 इति....(क्या), शंसिप्रत्यया'० इति अः हिंसकैः इति........(मृगया) // 10 // / / 105 // परेः स चरेयः // 5 / 3 / 102 / / क्वेटो गुरोर्व्यञ्जनात् / / 5 / 3 / 106 // म० वृ०-परिपूर्वाभ्यां सूचरिभ्यां परतः स्त्रियां _____म. वृ०-क्तेटो गुरुमतो व्यञ्जनान्ताद्धातो'यः प्रत्ययः' स्यात् , भावाकोंः / परिसर्या, र्भावाकोः स्त्रियाम् 'अप्रत्ययः' स्यात् / ईहा, ऊहा, परिचर्या / / / 102 // ईक्षा, कुण्डा,हुण्डा,शिक्षा,भिक्षा / क्तेट इति किम् ? वा-ऽटाट्यात् / / 5 / 3 / 103 // माप्तिः, दीप्तिः, अपचितिः, स्फूर्तिः. मूर्तिः (एवं म० वृ०-अटते र्यहन्तात् स्त्रियां भावाकों-'यः ध्वस्तिः) / गुरोरिति किम् ? स्फुर, स्फुर्तिः // 106 / / स्याद्वा' / अटाट्या, पक्षे अटाटा ['शंसिप्रत्ययात्' अव०-- 'क्तस्य इट् यस्माद्धातोः स क्तेट ,तस्मात् / (5 / 3 / 105) इति अप्रत्ययः // 103 / / २स्फूर्तिः मूर्तिः इत्यत्र स्फूर्छ मुर्छ धातुः, क्तिः, जागुरश्च // 5 / 3 / 104 // 'राल्लुक्' (4 / 1 / 110) इत्यनेन छस्व लोपः, भ्वादेम० वृ०-जागर्तेः स्त्रियांः भावाकोः 'अप्र र्नामिनो दी?'० (2 / 1 / 36) इति दीर्घः // 106 // त्ययः स्यात् यश्च' / जागरा, जागर्या // 104 // पितोऽङ // 5 / 3 / 107 // शंसि-प्रत्ययात् / / 5 / 3 / 105 / / म० वृ०-षितो (षकारानुबन्धात्) धातोः म० वृ०-शंसेः प्रत्ययान्ताद्धातोश्च भावाकों: | 'स्त्रियामक' स्यात् (भावाकोंः)। पचा,क्षमा,(क्षान्ति• ' स्त्रियाम् 'अः प्रत्ययः' स्यात् / (प्रशंसनम्=) प्रशंसा, रित्ययं क्षाम्यतेः) घटा, त्वरा, प्रथा, (व्यथा, जरा, (गोपायनम्=)गोपाया, मीमांसा, कण्डूया, लोलूया जरा इत्यत्र 'ऋवर्णदशोऽडि' (4 / 3 / 7 इति गुणः) चिकीर्षा रंगवा, गल्भारे, “पटपटाया / / 105 // // 107 // भिदादयः / / 5 / 3 / 108 / / अव०-१कण्डग् गात्रकषणे, * कण्डूधातोः म. वृ०-भिदादिशब्दा भाषाकोंः स्त्रियामहकण्ड्वादेर्यक् (3 / 4 / / इति यक् प्रत्ययः), कण्डूयनं न्ता यथादर्शनं निपात्यन्ते। 'भिंदा, छिदा, उविदा, कण्डूया, 'शंसिप्रत्ययात्' (इति) अः, 'अतः' | मृजा*'क्षिपा, 'दया, रुजा, चुरा, पृच्छा; एतेऽ(४।३।८२) इत्यनेन प्रकृत्यकारस्य लोपः, एवमपि। विशेषे,अन्यत्र भित्तिः, छित्तिः, पिछिन्तिः। भिदारंगो, गौरिवाचरति / गल्भ धाष्ये, गल्भते, दिराकृतिगणः, तेन चूडा इत्यपि सिद्धम् / 'कर्तुः विप् गल्भक्लीबहोडात्त'० (3 / 4 / 25) , “अकृतस्य क्रिया चैव, प्राप्तेर्बाधनमेव च / इत्यनेन किप् , किो लोपः, ततोऽप्रत्ययः / अधिकार्थविवक्षा च, त्रयमेतन्निपातनात् " / 108 / * गात्रघर्ष गे' इति लघुवृत्त्यादिषु / * निपातनसामर्थ्यादेव "ऋतः स्वरे वा" इति वृद्धिर्न भवति / Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 5 पा० 3 सू०१०९-११२ अव०-'भिदाशब्दो विदारणेऽर्थे निपात्यते / एव- | अव०-१'भीषा' इत्यत्र 'लिभीक भये' (इति) मग्रेऽपि / 2 द्वैधीकरणे छिदा। विचारणेऽर्थे / भी, बि....(भ्यन्तं प्रयुद्ध क्ते-, णिग्, 'बिभेतेीष् विदा। शरीरसंस्कारे मृजा / 'प्रेरणे क्षिपा। अनु- च' (3 / 3 / 92) इति सूत्रेण भीस्थाने भीष् , भीषकम्पायां दया। रोगेरुजा / चौर्ये चुरा / प्रश्ने णम्=भीषा, अङ / भूष तसुण अलङ्कारे / पृच्छा / एते शब्दा अर्थविशेषे / अन्यत्र-भित्तिः | उकुबुण आच्छादने (इति) कुब् , उदितः० कुडयम् ,छित्तिः चौर्यादिकरणाद्राजापराधः,विछित्तिः (4 / 4 / 18 इति) नोऽन्तः, 'चुरादिभ्यो णिच्' प्रकारः,एवमन्येऽपि।तथा ऋकृहृधृतभ्यः संज्ञायाम (3 / 4 / 17 / इति णिच् प्रत्ययः,) कुम्बनं-कुम्बा, वृद्धिश्च- आरा शस्त्री,कारा गुप्तिः, हारा मानम् ,धारा तिरित्यर्थः / “चर्चण अध्ययने चच् / स्पृहण प्रपातः खड्गादेो, तारा ज्योतिः, अन्यत्र ऋतिः, ईप्सायाम् / 'तुलण उन्माने / दूलण उत्क्षेपे / कृतिः, हृतिः,धृतिः तीणिः / तथा गुहिकुहिवशिवषि- पीडण् गहने / 'ऊनण् परिहाणे // 109 / / तुलिक्षपिक्षिभ्यश्च संज्ञायाम , गुहा गिरिगुका, उपसर्गादातः / / 5 / 3 / 110 // औषधिश्च गूढिरन्या;कुहा नाम नदी,कुहनान्या; वशा म० वृ०-उपसर्गपूर्वान्ताद् [=आकारास्नेहनद्रव्यम् धातुविशेषश्च, उष्टिरन्या; वपा मेदोविशेषः, उप्तिरन्या; तुला उन्मानम् , क्षपा न्तात् ] धातोर्भावाकोंः 'स्त्रियामङ' स्यात् / रात्रिः,क्षिया आचारभ्रंशः। रिखिलिखिशुभिसिधि [उपदानम्=] उपदा, (उपधानम्=) उपधा, प्रदा, विधा, [एवमाधा, प्रधा, सन्धा,] [प्रमाणम्=] मिधिगुधिभ्योऽङ गुणश्च / रिखिलिखेः समानार्थः / रिखिः सौत्रो धातुः। रेखा लेखा राज्यर्थः, प्रमा, वादित्वात् क्तौ- प्रमितिः // 110 / / शोभा कान्तिः,सेधा सत्त्वम् ,मेधा बुद्धिः,गोधा प्राणि णि-वेच्यास-श्रन्थ-घट्ट-वन्देरनः // 5 / 3 / 111 / / विशेषः, दोषो=भुजस्य त्राणं वा / चूडा इत्थं म०७०-ण्यन्तात् वेत्यादिधातोश्वभावाकोंः साध्यते-‘गुदंत् प्रेरणे (इति) नुद् , णिग् , अने 'स्त्रियामनः प्रत्ययः' स्यात / कारणी (करणं कारणा प्राप्ते अङ, णेलुक निपातनात् , नुस्थाने चू नरकपीडा), कामना, लक्षणा, भावना, (भूण अबदस्य रुः(? डकारः) , चूडा गृहस्योपरि कुटी शिम्म ! कल्कने) वेदना, आसना, उपासना, श्रन्थना, घटना च (?) // 18 // वन्दना // 12 // भीषि-भूपि--चिन्ति-पूजि-कथि-कुम्बि-चर्चि अव०-ॐ विदिण चेतनाख्याननिवासनेषु' स्पहि-तोलि-दोलिभ्यः // 5 / 3 / 109 / / 'णिवेत्त्यास'० इति सूत्रे वेत्तीत्यत्र तिनिर्देशों म० वृ०-पभ्यो ण्यन्तेभ्यो भावाकोः ज्ञानार्थधातुपरिग्रहार्थः यो लुपि अनप्रतिषेधार्थश्च, 'स्त्रियामक' स्यात / ण्यन्तत्वादने प्राप्ते वचनम / तेन यह लुबन्ताद्वेत्तेः परतः 'श्रवादिभ्यः (5 / 3 / 92 इति) क्ता सत्यां 'वेवेत्ति' इति प्रयोगः / / 111 / / भीषा, भूषा, चिन्ता, पूजा, कथा, कुम्बा, *चर्चा, स्पृहा, 'तोला, दोला / बहुवचनाद् इषोऽनिच्छायाम् / / 5 / 3 / 112 // यथालक्ष्यम् [यथादर्शनम्] अन्येभ्योऽपि अह],- म० वृ०-इरनिच्छायां (वर्तमानात् ) भावापीडा, ऊना / / 109 // कोंः 'स्त्रियामनः' स्यात् / अन्वेषणा, एषणा, पिण्डै* हस्तस्योपरि जायमानस्य धनुर्जीवाघातस्य निवारणाय कृतश्चर्मणो बाहुबन्धः / / * तदुक्तममरकोशे द्वितीयकाण्डेऽष्टादशश्लोकस्यामरविवेकाभिधटीकायाम्-."योगभूमावन्त्यजादिदर्शननिवारणाय सुगहना वृतिर्वेष्टनं स्यात्" / पत्र विदिणधातुरसङ्गतः, सूत्रे 'वेत्ति' इति तिवा निर्देशस्य ज्ञानार्थधातुपरिग्रहार्थत्वात् / 'विदक ज्ञाने' इत्यादादिकधातुः ग्राह्यः / Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन-क्विप्-अप्रत्य पविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम। [ 227 षणा। अनिच्छायामिति किम् ? इष्टिः // 112 / / | भीतिः ; ह्रीः, (ह्रीतिः;) लूः लूतिः ; भूः भूतिः; कण्डूः, कण्डूया; कृत. (कृतिः;) भित् , (नित्तिः:) छित् , प्रव०-'इषोऽनिच्छायाम' सूत्रे प्रान्ते कथं (छितिः ;) तुत् , (तुत्तिः ;) हक . दृष्टिः ; 'नक, प्राणैषणा, वित्तैषणा परलोकैषणा ? बहुलाधिकारात् नष्टिः; युक् , युक्तिः ; जूः, जूतिः तूः, तूर्तिः; // 112 // 'ऊः, ऊतिः; "श्रः, श्रुतिः; 'मूः मूतिः; (एवं नौतेः पर्यधेर्वा // 5 / 3 / 113 // नुत् , नुतिः ;) शा, शक्तिः / / 115 / / म० वृ०-परि-अधिपूर्वादिषेरनिच्छायां स्त्रियामनो वा' स्यात् / पर्येषणा, परीष्टिः, अध्येषणा, अव०-१नशधातुः, नशनं-नक , क्विप् , अधीष्टिः // 113 / / प्रथमासिः, 'नशो वा' (2 / 1170 ) इति सूत्रेण शक्रुत्सम्पदादिभ्यः विप // 5 / 3 / 114 // स्य गकारः, ('विरामे बा' इति कत्वे- ) नक् / ज्वरेः जूः, जूतिः; त्वरेः तूः, अत्रते: ऊः, श्रिवेः म० वृ०-क्रुधादिभ्योऽनुपसर्गेभ्यः पदादिभ्य श्रूः, 'मवतेः मूः, एषु सर्वत्र ‘मव्यविश्रिविधरिश्व समादिपूर्वेभ्यो भावाकोः 'स्त्रियां किप्' स्यात् / वररुपान्त्येन' (4 / 1 / 109) इति ऊः / ननु ये क्विक्रुन् ,[युधेः-] युन , ( वेः-) पुत् , (तृषेः-) तृट् , बन्ताः ते क्रुधादिगणे पठयन्ताम् , ये च क्त्यन्ताः " (रुषच रोष-) रुट , रुक् , शुक्, (मुदेः-) मुत् , ते श्रवादौ पठयन्ते इति साध्यं सिद्ध ,किम् 'भ्यादि(मृदेः-) मृत् , गीः, त्राः, दिक् , (सृजेः-) स्रक , भ्य' इत्यनेन सत्यम् , कण्डू या इति तृतीयरूपार्थम् , तथा पदेः सम्पत् , विपत् , (आपत् , व्यापत् ,) (तेन) कण्डूः, कण्डू................... (तिः, प्रतिपत् , षद्लु-संसत् , ( उपसत्) परिसत् , कण्डूया इति रूपत्रयं) सिद्धम् / / 115 / / उपनिषत् , आशीः, (उपश्रुतेः-) उपश्रुत् , प्रतिश्रुत् , नहे:-२उपानत् ,प्रावृट् ,नीवृत् , 4 (यतेः-) संयत् , व्यतिहारेऽनीहादिभ्यो जः' / / 5 / 3 / 116 // इणः- समित् , इन्धेः- समित्। क्रुधादिः सम्पदा- ___ म० ३०-व्यतिहारविषयेभ्यो धातुभ्य ईहादिश्वाकृतिगणः // 114 / / दिवर्जेभ्यः 'स्त्रियां बः प्रत्ययः' स्यात् , बाहुलका द्भावे एव / परस्परमाक्रोशनम्= व्यावक्रोशी, व्यावप्रव०-१ रुचि अभिप्रीत्यां च' 'रुजोत् भङ्गे' हासी, व्यातिचारी। अनीहादिभ्य इति किम् ? द्वयस्यापि रुक् इति प्रयोगः / एवं त्विषेः विट् / व्यतीहा, व्यतीक्षा, ['क्तेटो गुरोः' ( 5 / 3 / 106 ) एवं विदेः वित् / २उपनाते-उपानत् , 'नहाहो- इत्यः ] व्यवहतिः / ( स्त्रि पामित्येव- व्यतिपाको र्धतौ' (2 / 1185) हस्य ध् ; प्रवर्षन्ति मेघा अस्या- वर्त्तते ) / 'वादिभ्यः' (5.3 / 92) इत्यत्र समावेशामिति प्रावृट् वर्षा, 'धुटस्तृतीयः' (2 / 1176) षस्य भिधानात् व्यवऋषिः, व्याक्रुष्टिरित्यपि // 116 / / ड् , 'विरामे वा' (1 / 3 / 51) प्रथमः; नितरां वियते =निवृत् ,सम्पदादित्वात् क्किप् , गतिकारकस्य नहि- __ प्रव०-"व्यतिहारेऽनीहादिभ्य' इति सूत्रं वृतिवृषिव्यधिरुचिसहितनी को' (3 / 2 / 85) इत्य- क्त्यादीनामपवादः। व्यतिहरण व्यतिहारः,घन्, नेन पूर्वपदस्य दीर्वः (उपानदादिषु त्रिषु) // 114 / / परस्परस्य कृतप्रतिकृतिय॑तिहार उच्यते / एवं भ्यादिभ्यो वा / / 5 / 3 / 115 / / व्याक्रोशी, व्यावमोषी, व्यावलेखी, व्यावचर्ची / व्यावक्रोशीत्यादिप्रयोगाः केवलअप्रत्ययान्ता नहि, म. वृ०-भी इत्यदिभ्यः स्त्रियां (भावाक!:) किन् / किन्तु तद्धिते 'नित्यं बचिनोऽण' (73 / 58)........ वा' स्यात् / [पक्षे क्तिः, 'वादिभ्यः 5 / 3 / 92) भी:, ... [इत्यणप्रत्ययसहिता एव भवन्ति] // 116 // Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 5 पा० 3 मू० 117-121 नजोऽनिः शापे // 5 / 3 / 117 // म० वृ०-एष्वर्थेषु प्रश्नाख्यानयोश्च गम्यमाम० वृ०-नपराद्धातोः शापे गम्यमाने भा नयोः स्त्रियां भावाकोः 'धातोर्णकः प्रत्ययः' स्यात् / वाकोंः 'स्त्रियामनिः प्रत्ययः' स्यात् / अजननिस्ते क्त्याद्यपवादः / भवतः आसिका, भवतः शायिका, भवतोऽग्रगामिका / अहे,. अर्हति भवानिक्षुभक्षिवृषल! भूयात् (= न जन्म भूयात् तव), अजीवनिः (=न जीवितव्यम् ), अकरणिः, ( अप्रयाणिः, ) काम् , [भक्षण अदने] ओदनभोजिकाम , पयःअगमनिः (=न गमनं भूयात् ) / नत्र इति किम् ? पायिकाम् / ऋणे,- इक्षुभक्षिकां मे धारयसि / मृतिस्ते जाल्म भूयात् / शाप इति किम् ? अकृतिः 4 उत्पत्ती,-- इक्षुभक्षिका मे उदपादि / प्रश्न,-कां त्वं कारिकामकार्षीः ? [एवं कां त्वं गणिकामजी. पटस्य // 117 // गणः] / आख्याने,- सवा कारिकामकार्षम् [सा ग्ला-हा-ज्यः // 5 / 3 / 118 / / गणिकामजीगणम् ] बहुलाधिकारात् कचिन्न णकः,म० वृ०-एभ्यः स्त्रियां भावाकोः 'अनिः' / चिकीर्षा, बुभुक्षा मे उदपादि // 120 // . . स्यात् / ग्लानिः, हानिः, ज्यानिः (म्लानिरित्यपि केचिदाहुः , // 118 // प्रव०-पर्यायः=क्रमः, परिपाटिः / अर्हमहः =योग्यता। ऋणं यत्परस्मै धार्यते / उत्पत्तिर्जन्म / प्रश्नाख्याने वेन // 5 / 3 / 119 // पर्याये "भवत आसिका इत्यादीनामयमर्थः, भवत म० वृ०-प्रश्ने आख्याने (=प्रत्युत्तरदाने) आसितु शयितुमने ग...........(न्तुच क्रमः) / च गम्यमाने 'स्त्रियां धातोरिल वा' स्यात् / (प्रश्न-) बुभुक्षा मे उदपादि' इत्यस्याग्रेऽयं विशेषः- प्रत्याकां त्वं कारिं, कारिकां, क्रियां, कां कृत्यां, कां / ख्यानयोगेऽपि पर्यायादिषु परत्वात् णक एव 'कृतिमकाषीः' ? / आख्याने,-सवो कारि,कारिका, | भवति, न इब् , यथा- कुत्र भवत आसिका ? सर्वा क्रियां, सर्वा कृत्यां सर्वां कृतिमकार्षम् / 119 / आसितु पर्याय इत्यर्थः / / 120 // अव०-इति केनापि पृष्ठम् / २कारिः, अत्र नाम्नि पुमि च // 5 / 3 / 121 // इञ्प्रत्ययो विकल्पेन, पक्षे उत्तरसूत्रेण णकः- कारि- _____ म० वृ०-गाम्नि-संज्ञायां स्त्रियां भावाकोंका, कां त्वं कारिकामकार्षीः, एवं सर्वत्र पृच्छा / र्धातो-र्णकः' स्यात, यथादर्शनं पसि च / प्रच्छ 3 क्रियाम', अत्र 'कृगःश च वा' (5 / 3 / 100 / इति) र्दनं प्रच्छद्यतेऽनयेति वा-प्रच्छर्दिका (=वमनम् ), शः / ४'कृत्याम्', अत्र क्यप् / 'कृति एवं 'प्रवाहिका, विपादिका [=पादस्फोटः], उद्दालकां क्रिया का कृत्यां कां कृतिमकार्षीः इति प्रश्न / कपुष्पाणि भज्यन्ते यस्यां [ क्रीडायां ] सा उद्दाल'अथाख्यान उत्तरदान-सवों कारिमकाम् , एवं / कपुष्पभञ्जिका, वारणपुष्पप्रचायिका, अभ्योषखासर्वा कारिकामित्यादि, सर्वा कृतिमकार्षम् / एवं दिका', 'सालभञ्जिका, एवंनामानः क्रीडाः / बहुकां त्वं गणिमजीगणः ? कां गणिकाम्, कां गणनाम् / लाधिकारादिह न णकः,-[ शिरसोऽर्दनम् ] व्याख्याने,-सर्वा गणिमजीगणम् ,सर्वां गणिका,गण- | | शिरोतिः, तथा 'चन्दनतक्षा क्रीडा / पुसि च-- नामजीगणम् / एवं कां पाठिमपाठीः ? कां त्वं "अरोचकः, अनाशकः, उत्कन्दकः, उत्कर्णकः पाठिकाम् , पठितिम् (अपाठीः) / सर्वा पाठिमपाठम् , // 121 // एवमग्रेऽपि // 119 // प्रव०-स्त्रीणामतिरक्तप्रवाहः प्रवाहिका,卐. 'पर्यायाहेोत्पत्तौ च णकः / / 5 / 3 / 120 // एवं विचर्चिका=पामा, प्रस्कन्दिका= शोषरोगः / ॐ अभिधानचिन्तामण्यमरकोशादिबहुग्रन्थेषु प्रवाहिकाया अर्थो ‘ग्रहणी' रोगः कृतः, परमत्र हैमप्रकाशे च प्रवाहिकाया अर्थः 'स्त्रीणां रजः कृतः / Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णक-क्त-अनट्प्रत्ययविधानम] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम / [ 229 - २उद्दालकपुष्पभञ्जिका इत्यत्र 'कृति' (3 / 1177) इति अव०-घअथुत्रिमकाद्यपवादोऽयं योगः / 123 / सूत्रेण षष्ठीतत्पुरुषसमासः, यतो वृत्तौ उद्दालकपुष्पा अनट् // 5 / 3 / 124 // णीति वाक्यं तदर्थकथनमात्रम् / भज्यन्ते यस्यां= भञ्जिका, उद्दालकपुष्पाणां भञ्जिका इति वाक्यं कार्यम् / / म० वृ०-भावे 'क्लीबेऽनट्' स्यात्। गमनम् , इत्थं षष्ठीतत्पुरुषसमासोऽत्र / 'अकेन क्रीडाजीवे' | भोजनम्. वचनं छात्रस्य // 124|| (3 / 1181) इत्यनेन (न)षष्ठीसमासः, कतृ विहिताs प्रव०-'टकारः उत्तरत्र यर्थः, अत्र न प्रयोकप्रत्ययान्तेन सह “अकेन क्रीडा०” (331181) इत्य- | जनम् / 2 (एवम् ) हसनम् // 14 // नेन षष्ठीसमासविधानात् , उद्दालकपुष्पभक्षिकेत्यत्र तु भावाकों:= भावे कर्तृवर्जिते कारके च णको 'यत्कर्मस्पर्शात् कर्बङ्गसुखं ततः / 5 / 3 / 125 / / विहितत्वात् / 'अभ्योषाः पोलिफाः खाद्यन्तेऽस्या- म० वृ०-येन कर्मणा संस्पृश्यमानस्य कर्तुरमिति सा अभ्योषखादिका / "साला भज्यन्ते ङ्गस्य सुखमुत्पद्यते ततः कर्मणः पराद्धातोः क्लीबे यस्यां सा सालभञ्जिका। "शिरोतिः',एवं शीर्षार्तिः, भावेऽनट्स्यात्। पूर्वेणैव सिद्धे नित्यममासार्थवचनम् शिरोऽभितप्तिः, बहुलाधिकारादेव च ( ? न णकः), / उपयःपानं सुखम् / कर्मेति किम ? अपादानादिअतिरित्यत्र अर्दतेः अर्दयतेश्च यथाक्रममप्रत्ययमन- स्पर्श मा भूत ,.. तूलिकाया उत्थान सुखम / स्पर्शाप्रत्ययं बाधित्वा क्तिप्रत्यय एव भवति / 'चन्दनास्त- दिति किम ? अग्निकुण्डस्योपासनं सुखम् / कति क्ष्यन्ते यस्यां सा चन्दनतक्षा, बाहुलकात् पुन्नाम्नि किम् ? 'शिष्येण गुरोः स्नापनं सुखम् / सुखमिति विहितोऽपि स्त्रियामपि व्यञ्जनाद् घम् / “अरोचन- किम् ? कण्टकानां मर्दनम् / / 125 / / मरोचकः, अथवा न रोचतेऽस्मिन्निति अरोचकः / न अश्यते= भुज्यतेऽस्मिन्निति अनाशकोऽशनव- प्रव०-यञ्च तत् कर्म च यत्कर्म, यत्कर्मणः तम् / 'उत्स्कन्दनमुत्स्कद्यतेऽनेनेति वा पृषोदरादि- स्पर्शो यत्कर्मस्पर्शः, तस्मात् / कर्तुरङ्ग-कङ्गम् , त्वात् सलोपः / / 121 / / कङ्गस्य सुखं= कङ्गसुखम् / अनट्प्रत्यये : स्युक्तं कृता' (3 / 1146) इत्यनेन (समासः) / ओदभावे / / 5 / 3 / 122 // नभोजनं सुखमियाप / “तूलिकाया इत्यादिव्या...म० वृ०-भावे धात्वर्थनिर्देशे स्त्रियां ‘णकः' वृत्त्युदाहरणेषु असमासः प्रत्युदाहार्यः / उपयःपानस्यात् / आसिका, शायिका, जीविका, कारिका / बहु- मित्यस्य पयसः पीतिः पयःपानमिति वाक्यं लाधिकारात् ईक्षा, ईहा ऊहा, स्मरणा / भावाकों: कार्यम् / एवं कृते हि शब्दान्तरेणार्थः कथ्यते। स्त्रियामिति च निवृत्तम / / 122 / / पयसां पानं-पयःपानमिति तु वाक्यं न कार्यम् , नित्यसमासत्वात् / 5 शिष्येण गुरोः' अत्र प्रयोगे प्रव-भावाकोः स्त्रियामिति निवृत्तम् (इति) स्नापयतेः न गुरुः कर्ता, किं तर्हि ? कर्म / ६पुत्र'भावे' इति सूत्रे लिखितमस्ति, परं 'नाम्नि पुसि स्पर्शान्न शरीरे सुखम् , किं तर्हि ? मानसी प्रीतिः, च' (5 / 3 / 121) इत्यत्रैव भावाकोंः स्त्रियामधि- अन्यथाऽपरपुत्रपरिष्वङ्गेऽपि स्यात् / / 125 / / कारः स्थितः, 'भावे' इत्यत्र केवले भावे एवाधिकारः ‘रम्यादिभ्यः कर्तरि / / 5 / 3 / 126 // // 122 / / म० वृ०-रम्यादिधातोः कर्त्तरि 'अनट्' स्यात् / क्लीबे क्तः // 5 / 3 / 123 // रम् ,- रमणी, कमनी, नन्दनी, हादनी, इध्मत्रम. वृ०-भावेऽर्थे धातोः 'क्लीबे क्तः' स्यात् / / श्वनः, पलाशशातनः / बहुवचनं प्रयोगानुसारार्थम् , नृत्तं नटस्य, हसितं छात्रस्य, गतं गजस्य // 123 / / / तेन कुट्टनी, [चितण -] चेतनः // 126 / / Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 5 पा० 3 मू० 127--131 अव०-'वृश्चतीति वश्चनः, इध्मानां वश्वनः / / म० वृ०-पुसो नाम्नि गम्यमाने [धातोः एवं पलाशशातनः // 126 / / | परतः] 'करणाधारयोर्घः प्रत्ययः' स्यात् / करणे-- कारणम् // 5 / 3 / 127 // प्रच्छदः, रउरश्छदः, दन्तच्छदः, प्लवः, "प्रणवः, करः, प्रत्ययः, शरः / आधारे-- आकरः, म० वृ०-कृगः कर्तरि 'अनट् वृद्धिश्च' निपा भवः, लयः, विषयः, प्रहरः, अवसरः, परिसरः / त्यते / करोतीति कारणम् / कर्तरीति किम् ? कर- ग्रहणं किम् ? विचयनी, प्रधानम / बहुलाधिणम् // 127 // कारात् कचिन्न घ:-- प्रसाधनः, दोहनः // 130 // भुजि-पत्यादिभ्यः कर्मा-ऽपादाने / 5 / 3 / 128 / अव०-'छदण संवरणे, 'चुरादिभ्यो णिच्' ___म० वृ०-भुज्यादिधातोः कर्मणि पत्यादिधा ( ३।४।१७।इति णिच् ), प्रच्छाद्यतेऽनेन इति तोश्चापादाने- 'ऽनट' स्यात् / [कर्मणि-] भुज्यते प्रच्छदः, 'पुन्नाम्नि घः', 'एकोपसर्गस्य च घे' (4. . इति भोजनम् , निरदन्ति तदिति निरदनमित्यादि / 2 / 34) इति सूत्रेण ह्रस्वः / एवं परिच्छदः, उपअपादाने,-- प्रपतत्यस्मादिति प्रपतनः, अपादानम् / च्छदः / तथा छाद्यतेऽनेन इति छदः, 'पुन्नाम्नि // 128 // घः', 'एकोपसगे.' (4 / 2 / 34) इति ह्रस्वः, तदनन्तर मुरसश्छदः (=उरश्छदः), उदन्तानां छदः दन्तप्रव०-'भुज्यादिभ्यः पत्यादिभ्यश्च धातुभ्यो च्छदः / ४प्लवः उडुप उच्यते। 'प्रणव ओङ्कारः / यथासङ्ख्य कर्मण्यपादाने चानड् भवति इति बृहद् एत्य कुर्वन्ति अस्मिन्निति आकरः / एवमालवः वृत्तौ सूत्रार्थः / 'निरदनमित्यादि', आदिशब्दात क्षेत्रम् , आपवः= 'तीर्थविशेषः, भरः= तृणानां आच्छादनम् , अवश्रावणम , अवसेचनम , अशनम, समूहः, प्रसरः वेगः, विसरः समूहः , प्रतिसरः पसिक- वसनम् , आभृग्-- आभरणम् , इति भुज्या =कङ्कणं हस्तसूत्रं च, एते आधारे प्रयोगाः। विचीदिप्रयोगाः / पत्यादिगणे-- प्रस्कन्दनः, प्रश्न्योतनः, यतेऽन्विष्यतेऽनया इति विचयनी, 'करणाधारे' प्रस्रवणः, निर्झरणः,..................(शङ्खोद्धरणम्) अनट् , वैद्यशलाका / सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था अपादानम् / बहुवचनं......... ( प्रयो)गानुसरणा प्रकृतिः प्रधानं साङ्ख्यमते / प्रसाधनः, दोहनः' र्थम् // 128 // इत्यत्र णिगन्तधातोरनट् / नान्नीति किम् ? प्रहकरणा-ऽऽधारे // 5 / 3 / 129 // रणो दण्ड: / घकारः ‘एकोपसर्गस्थः' इत्यत्र विशे म० व०-करणाधारयोरर्थयोरनट् स्यात् / षणार्थः / / 130 // घञायपवादः / करणे-- 'एषणी, श्लेखनी, अविच- गोचर-सञ्चर-वह-व्रज-व्यज-खला-ऽऽपण-निगमयनी, पलाशशातनः, [इध्मव्रश्चनः] आधारे-गोदोहनी, सक्तुधानी, [एवं तिलपीडनी.] शयनम् , बक-भग-कषा-ऽऽकष-निकषम् // 5 / 3 / 131 // आसनम , [एवमास्थानम् ,] अधिकरणम् // 129 / / ___म० वृ०-एते शब्दाः करणाधारे ‘पुन्नाम्नि घान्ता' निपात्यन्ते / 'गोचरो=देशः, रसश्चरः, अव०-१इष्यतेऽनया एषणी। लिख्यतेऽनया वहः, व्रजः, "व्यजः, खलः, "आपणः, निगमः, बकः, १०भगः, ११कषः, आकषः, निकषः / / 13 / / =लेखनी / उविचीयते........(ऽनया=) विचयनी= वैद्यशलाका। इध्मत्रश्चनः, पलाशशातनः, श्मश्रुक अव०-क्र........ / 'गावश्चरन्ति अस्मिन् प्रदेशे र्तनः इति करणे विशेषप्रयोगाः // 129 / / इति गोचरः, व्युत्पत्तिमात्रं चेदं दर्शितमस्ति,विषयपुन्नाम्नि घः / / 5 / 3 / 130 // स्यापि गोचर इति संज्ञा, यथा-"अनेकान्तात्मकं वस्तु Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घन प्रत्ययविधानम] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [231 गोचरः सर्वसंविदाम्" एकदेशविशिष्टोऽर्थो चान" / न्याया-ऽऽवाया-ऽध्यायोद्याव-संहारा-ऽवहारा-ऽऽ..... / सश्चरन्तेऽनेन सञ्चरः। वहन्तितेन इति वहः वृषभस्कन्धः / व्रजत्यस्मिन्निति व्रजो-मार्गः / धार-दार-जारम् / / 5 / 3 / 134 / / 5 विपूर्वोऽज, व्यजत्यनेन व्यजः, निपातनान्न 'वी' म० व०-एते शब्दाः 'पुन्नाम्नि करणाधारे आदेशः / खलन्त्यस्मिन्निति खल: दुर्जनः / एत्य घान्ता' निपात्यन्ते / [स्त्ररान्तार्थ आरम्भोऽयम् पणायन्ति अस्मिन्निति आपणः / निगच्छन्ति 'पुन्नाम्नि घः' (5 / 3 / 130) इति घे प्राप्ते] न्यायः, त........(त्रेति निगमः).... ...भदनावदावा (?) / आवायः, अध्यायः, "उद्यावः, 'संहारः, अववक्तीति बकः,अत्र बाहुलकात् कर्त्तर्यपि घप्रत्ययः / हारः, आधारः, दाराः, जारः / / 134 / / १°भज्यतेऽनेन अस्मिन् वा इति भगः / 'भगम्' इत्यत्र तु क्लीबे बाहुलकात् घः / ११कषत्यस्मिन्निति अव०-'निपूर्वस्य इणधातोः नीयतेऽनेन इति कषः, एवमाकषः, निकषः // 131 / / न्यायः पञ्चावयघं वाक्यम् / तथा एत्य वयन्ति वायन्ति वा तत्र इति आवायः= तन्तुवयशाला / व्यञ्जनाद् घन // 5 / 3 / 132 // अधीयतेऽनेन अस्मिन् वा इत्य..... (ध्यायः) / म० वृ०-व्यञ्जनान्ताद्धातोः 'पुन्नाम्नि करणा- .................4 (उदयुवन्ति तेन) तस्मिन् वा उद्यावः धारे घम्' स्यात् / घस्यापवादः / 'वेदः, [चेष्टतेऽ- जज्ञि (? यज्ञे) पात्रविशेषः / 'संहरन्ति तेन=संहारः नेन=) चेष्टो बलम , (एवमापाकः,) आरामः, लेखः, | कालः / अवहरन्ति तेन तस्मिन् वा अवहारः बन्धः, ग्नेगः, वेगः, रागः, रङ्गः, [क्त ऽनिटश्चजोः / ग्राहः / तादिव्यसनं वा आध्रियते तनेत्याधारः कगौ घिति' (4 / 11111) इति गः) क्रमः, प्रासादः, / // 134 // ४अपामार्गः, एवं विमार्गः / / 132 / / ... ___ उदकोऽतोये // 5 / 3.135 / / म० वृ०-उत्पूर्वादञ्चेः 'पुन्नाम्नि करणाधारे प्रव०-'वेद' इत्यत्र 'विदंक ज्ञाने' विदन्त्य- घब' निपात्यते, अतोये-तोयविषयो धात्वर्थो यदि नेन वेदः, अथवा 'क्लिती लाभे' विन्दति / न स्यात् / तैलोदकः, घृतोदङ्कः / अतोय इति किम् ? विन्दते वा ( अनेन ) इति वेदः, ( यद्वा ) 'विदिप् / उदकोदश्चनः / / 135 // विचारणे' विन्दतेऽनेन वेदः / २नेनेक्त्यनेन नेगः / वेवेक्त्यनेन वेगः / अपमृज्यन्ते रोगा अव०-१'अतोये' इत्यस्यायंभावार्थः-यदि तेन अनेन अपामार्गः। विमृज्यन्ते रोगाअनेन विमार्गः, भाजनेन जलं नोदच्यतेन व्यापार्यते, किन्तु अङ्गघाटकः साटडी पुनर्नवा इति लोकरूढिः, तैलघृतादिकं ततः उदच्यते / 'व्यञ्जान्ताद् घव्य' (?) 'क्तेऽनिटश्चजोः (कगौ) घिति' (4 / 1 / 111) इति (5 / 3 / 132) इत्यनेनापि सिद्धे तोयविषये प्रतिषेगकारः / / 132 // धार्थम् 'उदकोऽतोये' इति सूत्रं कृतम्। २रूपाविअवात् तृ-स्तृभ्याम् // 5 / 3 / 133 // शेषात् घप्रत्ययोऽपि न भवति / / 135 / / आनायो जालम् // 5 / 3 / 136 // म. वृ०-अवपूर्वात् तस्तभ्यां करणाधारे 'पुन्नाम्नि घञ्' स्यात् [ अवतरन्त्यनेन अवतर- ___म. वृ०-आङ पूर्वान्नियः ‘करणे पुन्नाम्नि घन न्त्यस्मिन् वा= अवतारः, अवस्तारः / बहुलाधिका- निपात्यते, जालं चेद्वाच्यं स्यात् / (आनयन्ति तेन रादसंज्ञायामपि घन ,- अवतारो नद्याः, (उत्पूर्वा- इति आनायः,) आनायो मत्स्यानाम् , आनायो मृगादपि-) नद्युत्तारः // 133 // णाम् // 136 / / Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 5 पा० 3 सू० 137-140 खनो ड-डरेकेकवक-धं च // 53 / 137 // / यस्य [अवकाशः], चितिः, स्तुतिरित्यादौ तूभयं म. वृ०-खनेः 'पुन्नाम्नि करणाधारे ड-डर [अल्क्ती] प्राप्नोति, अलो विशेषेणाभिधानात् तत्र परत्वात् स्त्रीप्रत्ययः / तथा 'दुर्भेदः, सुभेद' इत्यादौ इक-इकवक-घा घन च भवन्ति / ड,- आखः, डर,-आखरः, इक,- आखनिकः, इकवक,-आखनिक खलोऽवकाशः, अलस्तु पूर्व एव, दुशयम , सुचवकः, घ,-आखनः, घन ,-आखानः / / 137|| यम , दुर्लवम् इत्यादौ ११तूभय- [अलखल ] प्राप्तौ परत्वात् खल् इत्यादि // 139 // . अव०- 'आखायतेऽनेन अस्मिन्नथवा इति आखः, अथवा आखन्यते अनेन अस्मिन् वा इति ___ अव०-'दुःखेन शय्यते दुःशयम् / 'सुखेन आखः / एवं परि (?) आखावनिकादीनां सर्वेषां शय्यते इति सुशयम / उईषत अनायासेन शय्यते वाक्यम् // 13 // ईषच्छयं भवता इति भावार्थः। दुःखेन क्रियते कटइ-कि-श्तिव स्वरूपार्थे / / 5 / 3 / 138 // स्त्वया इति दुष्करः कटस्त्वया / "एवं सुखेन क्रियते कट इति सुकरः। 'ईषदनायासेन क्रियते कट इति' म० वृ०-धातोः स्वरूपे अर्थे च वाच्ये 'इ कि ईषत्करः कटस्त्वया इति कर्मणि प्रयोगाः / दुःस्वीषत रितव' इत्येते प्रत्यया भवन्ति / स्वरूपे,-भञ्जिः, २धिः , वेत्तिः। अर्थे, यजेरङ्गानि,भजिः क्रियते, इति किम् ? कृच्छसाव्यः, सुखसाध्यः / 'ईषल्ल भ्यं धनं कृपणाद्' इति कोऽर्थः ? अल्पलभ्यपचतिर्वर्त्तते // 138 // मित्यर्थः / 'असरूपोऽपवादे वोत्सर्गः प्राक्क्तेः' (5 / * अव०-भञ्जिः', कोऽर्थः ? भञ्जधातुः, 1 / 16) इति सूत्रे 'स्त्रियां क्तिः' इत्यारभ्य असरूप२'क्रुधिः',कोऽर्थः ? क्रुध् धातुः, वेत्तीति विद् धातुः, विधिर्न प्रवर्त्तते इत्युक्तमस्ति / 'युगपदनेकसूत्रइतिस्वरूपं (? इतिस्वरूपा) धातुशब्दाः / अथ अर्थ- प्राप्तौ सत्यां यत परं तत् प्रवर्तते इति स्पर्द्धशविषयः,-यजेः, कोऽर्थः ? यज्ञस्य, 'भजिः' = सेवा, ब्दार्थः / अतः अल् सामान्यतः प्रवाहतोऽस्ति अल. पचतिः पाकः / अत्र बाहुलकात् भावेऽप्यर्थे शव प्रत्ययात् * स्त्रिया क्तयादयः परत: स्त्रीप्रत्यवास् भवति, क्यश्च न भवति // 13 // खल अन्ट् इत्यन्ता प्रवर्त्तन्ते इति भावः / 1 स्त्रीदुःस्वीपतः कृच्छाकृच्छार्थात् खल् // 5 / 3 / 139 // प्रत्ययाः खलनाप्रत्ययाश्च (? खलनौ प्रत्ययौ च) अलो बाधकाः स्त्रीप्रत्ययस्य तु चलनी बावको इति म. वृक्ष-कृच्छ दुःखम् / अकृच्छ सुखम / परमार्थः ।११आदिशब्दात् इध्मव्रश्चनः, पलाशशातन कृच्छार्थवृत्तेदुरशब्दात् सामर्थ्यादकृच्छार्थवृत्तिभ्यां इत्यादावनटोऽवकाशः, अलस्तु पूर्वक एव, पलाशसु-ईषतशब्दाभ्यां पराद्धातोर्भात्रकर्मणोरर्थयोः 'खल् शातनः, अविलवन इत्यादी तु 'अल अनट्' इत्युभप्रत्ययः' स्यात् / [भावे,-] 'दुःशयम् , सुशयम , यप्राप्ती परत्वादनट / (एवं हृतिःकृतित्यिादी स्त्रीप्रत्यईषच्छयं भवता। [कर्मणि,-] "दुष्करः, 'सुकरः, यस्यावकाशः, दुर्भेदः सुभेद इत्यादी खलः,) दुर्भेदा ईपत्करः कटस्त्वया / [भावे,-] दुष्करं, सुकरम् , सुभेदा इत्यादौ 'स्त्रीप्रत्ययः खल्' इत्युभयप्राप्ती ईपत्करं त्वया / कृच्छादीति किम् ? "ईपल्लभ्यं धनं कृपणात् / इह [शास्त्र] स्त्रीप्रत्ययात्प्रभृत्यसरूप व्यर्थे काप्याद् भूकृगः // 5 // 3 / 140 // विवेरभावात् 'स्पर्द्ध 10 अलः स्त्रीखलना' भवन्ति, 'स्त्रियास्तु खलनौ' परत्वाद् भवतः / तत्र चयः,जयः, | म० वृ०-कृच्छाकृच्छार्थेभ्यो दुःस्त्रीषद्भ्यः परा.. लवः इत्यादावलोऽवकाशः, कृतिरित्यादौ स्त्रीप्रत्य- भ्यां व्यर्थे वर्तमानाभ्यां कर्तृ कर्मवाचिभ्यां शब्दा * अत्र 'अलप्रत्ययात्' इत्यत आरम्य 'इति भावः' इति यावत् पाठोऽशुद्धः प्रतीयते / Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खल्-अनप्रत्ययविधानम] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम। [ 233 भ्यां पराभ्यां यथासङ्ख्य भूकृग्भ्यां परः 'खल्' रनः प्रत्ययः' स्यात् / दुःखेन शिष्यते दुःशासनः, स्यात् / खानुबन्धबलात्कर्तृ कर्मणोरेवानन्तर्यम् / / एवं सुशासनः, ईषच्छासनः, एवं दुर्योधनः, दुराढ्यंभवम् , स्वादयंभवम् , ईषदाढ्यंभवं भवता *दुर्दर्शनः, "दुर्द्धर्षणः, 'दुर्मर्षणः / आदन्त,-"दुरुदुराढ्यंकरः , "स्वादयंकरः, ईषदाढ्यंकरश्चैत्र- | स्थानम् , सूत्थानम् , 'ईषदुत्थानम ; एवं ''दुष्पा,स्त्वया। सुकटंकराणि वीरणानि / सुकरः कटो | नम् , ११सुपानम् , १२ईषत्पानं पयस्त्वया / वीरणैरत्र तु करणविवक्षा | ळ्यर्थ इति किम् ? १३कथमीषदरिद्रः ? विषयेऽप्याकारलोपेनादन्तत्वा'दुराढ्येन, स्वाट्येन, ईषदाढ्येन भूयते;आढय एव भावात् खलेव / खलोऽपवादो योगः / इति पश्चमासन् (मैत्रः) किश्चिद्विशेषमापद्यते इत्यर्थः / एवं दुरा- ध्यायस्य तृतीयः पादः / ग्रन्थान-२३७ // 14 // ढयः क्रियते इत्यादि, 1 अभूतप्रादुर्भावेऽपिवा प्रकृ- प्रव०-'सुखेन शिष्यते। ईषत् शिष्यते / विशेष तेरविवक्षणात् व्यर्थो नास्ति / / 140 // दुःखस्थानं सुखावस्थानमापद्यते लभते इति भावः / उदुःखेन युध्यते दुर्योधनः / “दुःखेन दृश्यते= प्रव०-'कर्त्तरि,-दुःखेनानाढ्येन आढ्येन भूयते दुर्दर्शनः / “दुःखेन धृष्यते-दुर्द्धर्षणः / 'दुःखेन इति वाक्ये 'दुरायंभवं भवता' इति प्रयोगः / मृष्यते-दुर्मर्षणः। "दुःखेन उत्थीयते-दुरुत्थानं एवं सुखेन आढ्येन भूयते स्वादयंभवं भवता / भवता। मुखेनोत्थीयते-सूत्थानम् / ईषदनाया3ईषत्= अनायासेनानाढ्येनाढ्येन भूयते ईषदा- सेन (उत्थीयते = ईपदुत्थानम् / दुःखेन पीयते= यंभवं भवता / अथ कर्मणि-, "दुःखेनानाढयः दुष्पानं पयस्त्वया 'सुखेन पीयते-सुपानम् / आढयः क्रियते दुराढ्यंकरो मैत्रो भवता। सुखे- ईषदनायासेन पीयते= ईषत्पानं पयो भवता / नानाढय आढयः क्रियते-स्वादयंकरश्चैत्रो भवता / ईषदरिद्रायते ईषद्दरिद्रः, 'अशित्यस्सन्णकच्णका'एवमीषदादयंकरश्चैत्रो भवता / "सुखेनानायासेन नटि' (4377) इत्यनेन प्रत्ययविषये एव अन्तस्य कटः क्रियन्ते= सुकटंकराणि वीरणानि / ननु लोपः, पश्चात् पूर्वसूत्रेण खल् ,आदन्तत्वाभावादनो न सुकरः कटो वीरणैरयं लोकप्रसिद्धः प्रयोगः कथम् ? प्राप्नोति,यथा दरिद्र इत्यत्र प्रत्ययविषये एवान्तलोपः, सत्यम् , यद्यप्यत्र वोरणानि अकटः कटः क्रियन्ते पश्चादच्, नत्वाकारान्तलक्षणप्रत्ययः 'तन्व्यधीणतथाप्यत्र करणत्वेन विवक्षा। आढ्येन सता दुःखेन श्वसातः' (5 / 1163) इति / अथवा दुर्दरिद्रः अत्रापि भूयते इत्यर्थे,एवमपि। 1 अथवाऽभूतप्रादुर्भाववि- प्रत्ययविषये एव अन्ताकारलोपेऽनो न प्राप्नोति, वक्षितेऽपि प्रकृतेरनाढय इत्येवंरूपायाः (अविवक्षणात् पश्चात् खल् भवति / एवमीषदरिद्र इत्यत्रापि अनोऽव्यों नास्ति) // 140 // प्राप्तौ खल् / केचित्तु आदन्तवर्जितेभ्यः शासादिभ्यो शासू-युधि-दृशि-धषि-मृषा--ऽऽतोऽनः विकल्पेन अनमिच्छन्ति / तन्मते-दुःशासः, दुर्योधः, दुर्दर्शः, दुर्द्धर्षः, दुर्मर्ष इत्याद्यपि भवति, एषु खल् // 5 / 3 / 41 // "दुर्दों हि राजा कार्याकार्यविपर्यासमासन्नैः कार्यते" म००-कृच्छाकृच्छार्थदुःस्वीषत्पूर्वेभ्यः शा- | इति पूर्वकविप्रोगः, अन्यस्य पक्षे खल् / / 141 / / सादिधातुभ्यः आकारान्तधातुभ्यश्च 'भावकर्मणो- / अत्र सूत्रे अवचूरिश्लोक-३८०, अक्षर-२ / * 'विशेषम्' इत्यत: 'इति भावः इति यावदवचूरिः प्रस्तुतसूत्रोऽसङ्गता, गतानन्तरसूत्रे 'विशेषमापद्यते' इत्यस्य सम्भाव्यते। // इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते सिद्धहेमशब्दानुशासने पश्चमाध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः / / Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥पहम् // // पञ्चमोऽध्यायः॥ [ चतुर्थः पादः ] 'सत्सामीप्ये सदद्वा // 5 // 41 // एषोऽस्म्यलङ्करिष्णुः, अत्र उपपदविशेषेण शीलाद्यर्थोम० वृ०-सतो-वर्तमानस्य सामीप्ये भूते पाधिविशेषेण (च) प्रत्ययः सञ्जातः / एषाऽवचूरिः 'गमिष्यन्तमेव मां विद्धि' इत्यस्याग्रे ज्ञातव्या / भविष्यति चार्थे वर्तमानाद्धातो: “सद्वत् वर्त्तमानवत् प्रत्यया वा" भवन्ति / कदा चैत्र ! आग उ'यथाप्राप्तम्' इति कोऽर्थः ? भूतानद्यतने ह्यस्तन्यपि तोऽसि ? अयमागच्छामि, आगच्छन्तमेव मां विद्धि भवति, यथाऽयमागच्छम् ; एवं सामान्यभविष्यति [जानीहि]; वावचनाद् यथाप्राप्तं च- अयमाग भविष्यतीश्वस्तन्यपि भवति, (इति) यथाप्राप्तमुच्यते // 1 // मम् , एषोऽस्म्यागतः। कदा मैत्र गमिष्यसि ? एष गच्छामि, गच्छन्तमेव मां विद्धि; पक्षे- एष गमि भूतवच्चाशंस्ये वा // 5 / 4 / 2 // ज्यामि, गन्तास्मि, गमिष्यन्तमेव मां विद्धि / सामी- - म० ०-१आशंस्येऽर्थे वर्तमानाद्धातोभूतवत् प्ये इति किम् ? परुदगच्छत् / वर्षेण गमिष्यति / 1 / [चकारात् ] सद्वच्च प्रत्यया वा भवन्ति / आशंस्यस्य भविष्यत्त्वादयमतिदेशः। वाग्रहणाद्यथाप्राप्त च। प्रव०-'समीपमेव सामीप्यम् , सतो= वर्त्त उपाध्यायश्चेदागमत् एते [वयम् ] 'तर्कमध्यगीष्म. मानस्य सामीप्यं (= सत्सामीप्यम् ), तस्मिन् / हि [अद्यतनी] / उपाध्यायश्चेदागतः एतैस्तर्कोऽधीतः। २"सद्वत्' इति कोऽर्थः ?कृति द्वितीयपादे श्रसदवस०' पाठकश्चेदागच्छति एते तर्कमधीमहे / पक्षे-पाठकइति सूत्रे 'सति' (5 / 2 / 19) इति सूत्रमापादपरि श्चेदागमिष्यति एते तर्कमध्येष्यामहे / आशंस्य समाप्त्यधिकारबद्धमस्ति, 'सति' इति सूत्रादारभ्य ये इति किम ? पाठक आगमिष्यति तर्फ मध्येष्यते मैत्रः प्रत्यया विहिताः, तेऽत्र सूत्रे भूते भविष्यति काले [अत्र आशंसा नास्ति, किन्तु म्वभाबोक्तिः / / 2 / / निजं कालमतिक्रम्यापि वा=विकल्पेन अतिदिश्यन्ते। उदाहरणेषु पूर्व भूतविवक्षा, अतीतप्रत्ययाः, तत उत्त- अव०-'अनागतस्य प्रियस्यार्थस्य आशंसनम् , रप्रदाने सति वर्तमाने वर्तमानप्रत्ययाः / एवं भवि- कोऽर्थः ? प्राप्तुमिच्छा आशंसा उन्यते, आशंसाविध्यति प्रत्ययाः, तदनन्तरं सति प्रत्ययाः, एवं प्रयोग- षय आशंस्थः, तस्मिन्नीहशे आशंस्येऽथे / २'उपाध्यायुक्तिः / वनकरणस्य सादृश्यार्थत्वात् येनैव प्रक- यश्चेदागमत् एते तर्कमध्यगीष्महि',उभयत्राप्याशंस्यत्युपपदोपाधिकर्तृ विशेषेण वर्तमाने विहितास्ते- स्य विद्यमानत्वात् भविष्यन्त्याः प्राप्तौ सत्यां 'भूतनैव प्रकृत्यादिविशेषेण भूतभविष्यतोरपि प्रत्यया वच्च' इत्यनेन भूतप्रत्ययः। एते तर्कमध्यगीष्महि', भवन्ति, यथा-कदा भवान मोमं पूतवान पविष्यते अत्र 'इङ्क अध्ययने' अधिपूर्वः, अद्यतनीमहि, सिच. वा? एषोऽस्मि पवमानः: कदा भवान इष्टवान् वाऽद्यतनीक्रियातिपत्त्योर्गीङ' (4 / 4 / 28) इत्यनेन यक्ष्यते वा ? एषोऽस्मि यजमानः, अत्र 'पूछ यजेः / इडः स्थाने गी आदेशः। भूतवत्प्रययो भवति इत्युक्त शानः' (5 / 3 / 23) इत्यनेन प्रकृतिविशेषेण प्रत्ययः। ... अद्यतनी, न ह्यस्तनीपरोक्षे; इदं कथं ज्ञायते ? तत्राहकदा भवान् कन्यामलंकृतवान अलङ्करिष्यते वा ? / (बृहद्वृत्त) “सामान्यातिदेशे विशेषस्यानतिदेशात्', Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भविष्यन्ती-सप्तमीविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [235 // 5 // 43 // इति शस्तनीपरोक्षे न भवतः / एष विशेषो “व्याख्या- | नानद्यतनः प्रबन्धासच्योः // 5 / 4 / 5 // नतो विशेषार्थप्रतिपत्ति-"रिति न्यायात् ज्ञायते / म० वृ०-धात्वर्थस्य प्रबन्धे आमत्तौ च गम्य(एवम् ) पाठकश्चेदागन्ता एते तर्कमध्येतास्महे; इदं मानायां धातोरनद्यतनविहितः प्रत्ययो न स्यात् / श्वस्तनीविषये ज्ञेयम् / एषावचूरिमूलोदारणसम्ब यावज्जीवं भृशमन्नमदात् [अद्यतनी ] दत्तवान् दाघे ज्ञातव्या // 2 // स्यति वा / आसत्तौ,-येयं पौर्णमास्यतिक्रान्ता, क्षिप्रा-ऽऽशंसार्थयोर्भविष्यन्ती-सप्तम्यौ 3एतस्यां जिनमहः प्रावर्तिष प्रवृत्तः (वा) / येयं पौर्ण मासी आगामिनी, अस्यां जिनमहः प्रवर्तिष्यते / / 5 / म०३०-(क्षिप्रार्थआशंसार्थे चोपपदे आशंस्येऽर्थे) प्रव०-'भूतानद्यतने ह्यम्तनी भविष्यदनद्यवर्तमानाद्धातोर्यथासंख्यं 'भविष्यन्तीसप्तम्यो' भव तने च श्वस्तनी विहितास्ति पूर्वम् , नयोस्तिनीतः।[ “भूतवच्च०" इत्यस्याफ्यादोऽयम् ] पाठकश्चे श्वस्तन्योरत्रसूत्रे प्रतिषेधः क्रियते इति भावः / अनदागच्छति, आगमन , आगमिष्यति, आगन्ता, क्षिप्रं द्यतनविहितः प्रत्ययो न स्यादित्यस्य कोऽर्थः ? त्वरितं शीघ्रमेते [ वयम ] सिद्धान्तमध्येष्यामहे / पूर्व हि 'अनद्यतने ह्यस्तनी' (5 / 27) इति सूत्रेण क्षिप्रार्थे नेति वक्तव्ये भविष्यन्तीवचनं श्वस्तनी भूतानद्यतने ह्यस्तनी विहितास्ति [ "अनद्यतने श्वविषयेऽपि भविष्यन्ती यथास्यादित्येवमर्थम् / गुरु स्तनी" ( 5 / 3 / 5) इति सूत्रेण भविष्यदनद्यतने श्चेत् श्वः शीघ्रमागमिष्यति एते [वयम् ] श्वः क्षिप्र श्वस्तनी विहितास्ति] इति नानद्यतनः प्रबन्धासत्त्यो'मध्येष्यामहे। आशंसार्थे, पाठकश्चेदागच्छति, आग रित्यनेन ह्यस्तनीश्वस्तन्योः प्रतिषेधः क्रियते इत्य र्थः / एवं यावजीवं युक्तोऽध्यापिपत , यावमत् , आगमिष्यति, आगन्ता, आशंसे सम्भावये श्युक्तोऽधीयीय / द्वयोरुपपदयोः सप्तम्येव, शब्दतः जीवं युक्तोऽध्यापयिष्यति इत्यपि ज्ञेयम् / सर्वत्र परत्वात् , आशंसे क्षिप्रमधीयीय // 3 // .. यावज्जीवमन्नं दत्तवान् यावज्जीवं दास्यति / 'एत स्याम्' इत्यस्यायमभिप्रायः- यथा वर्तमानपूर्णिमास्यां प्रव०-१'आशंसार्थे सप्तमी' 'क्षिप्रार्थे न' इति / (? पूर्णिमायां) जिनपूजा प्रवर्त्तमानास्ति, तथा व्यवसूत्रद्वयं कत्तु युक्तमिति परप्रश्ने सूरिराह-भविष्यन्ती- | हितायां पाश्चात्त्यपूर्णिमायां प्रावर्तिष्ठेत्यर्थः // 5 // त्यादि / युक्तो मेलितः समाहितो वा। सूत्रे पूर्व एष्यत्यवधौ 2 देशस्यागभागे भविष्यन्ती ततः सप्तमी इति शब्दपरत्वम् // 3 // // 5 / 4 / 6 // सम्भावने सिद्धवत् / / 5 / 4 / 4 // __म० वृ०-देशस्य योऽवधिस्तद्राचिन्युपपदे म०३०-सम्भावनविषयेऽसिद्धेऽपि वस्तुनि देशस्यैवार्वागभागे य एष्यन्नस्तित्र वर्तमानाद्धातो'सिद्धवत् प्रत्यया' भवन्ति / समये चेत्प्रयत्नो- रनद्यतनविहितः प्रत्ययो न स्यात् / योऽयमध्वा ऽभूत् उदभूवन विभूतयः इत्यादि ||4|| गन्तव्य आ शत्रुञ्जयात , तम्य यदवरं वलभ्यास्तत्र अव०- भूण अवकल्कने' णिच् , सम्भा द्विरोदनं भोक्ष्यामहे; द्विः सक्तून पास्यामः / व्यते इति सम्भावनम् ; हेतोः शक्तिश्रद्धानं सम्भा एष्यतीति किम् ? योऽयमध्वातिक्रान्त आ शत्रुञ्जवनमुच्यते, तस्मिन् सम्भावनविषये / कोऽर्थः ? | यात , तस्य यदवर वलभ्यास्तत्र "युक्ता द्विरध्यभूतप्रत्यया भवन्तीत्यर्थः / आदिशब्दात् इषे | महि // 6 // चेन्माधवोऽवर्षीत समपत्सत शालयः, गतं च वसु- अव०-'अर्व अर्वाचीनं भावमञ्चति- अर्वाङ, देवस्य कुलं नामावशेषताम* // 4 // | अर्वाङ चासौ भागश्च / देशः प्रदेशमात्रम् ,तेनाध्य* नामवावशेषो यस्य स नामावशेषः, तस्य भावः। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०५ पा० 4 सू०७-९ नोऽपि देशता / यद्यपि अनातन इति प्रकृतमस्ति / वक्ष्यति / अथवा योऽयं त्रिंशद्रात्र आगामी तस्य तथापि इह सूत्रे एष्यतीति वचनात श्वस्तन्या एवात्र योऽवरोऽर्द्धमासस्तत्र द्विरोदनं भोक्तास्महे / अवयवाप्रतिषेधः, न ह्यस्तन्याः / अप्रबन्धार्थमनासत्त्यर्थ वयविरूपसम्बन्धः / / 7 / / (च ) वचनम् / द्वौ वारी-द्विः / “युजपी योगे' परे वा // 5 / 4 / 8 // 'युजिच् समाधौ' (इति) युज् , युज्मः स्म अथवा म. वृ०--कालम्य योऽवधिस्तद्वाचिन्युपपदे युज्यामहे स्म इति युक्ताः , 'गत्यर्थाः' ( 5 / 1111) कालस्यैव परस्मिन् भागेऽनहोरात्रसम्बन्धिनि य इति क्तः, युक्ताः, कोऽर्थः ? मिलिताःअथवा समा एष्यन्नर्थस्तत्र वर्तमानाद्धातो-'रनद्यतन: प्रत्यय: हिताः सन्तो वयमध्यमहि / द्विः सक्तून पिबाम स्यात् वा'। आगामिनो वर्षस्य आग्रहायण्याः परइत्यपि। अवधाविति किम् ? योऽयमध्वा निरवधिको स्ताद् द्विः सूत्रमध्येष्यामहे पिक्षे= अध्येतास्महे / गन्तव्यस्तस्य यदवरं वलभ्यास्तत्र द्विरोदनं भोक्ता प्रबन्धासत्तिविवक्षायामपि परत्वादयमेव विकल्पः' .. स्महे, द्विः सक्तून पातास्मः / अर्वागभाग इति ||8|| किम? योऽयमध्वा गन्तव्य आ शत्रुञ्जयात्तस्य यत् परं वलभ्यास्तत्र द्विरोदनं भोक्तास्महे, द्विः सक्तून् अव०-'परे वा' इति सूत्रे कालस्येत्येव- आ पातास्मः / सूत्रान्ते व्यावृत्तिद्वयमिदम् // 6 // शत्रुञ्जयाद् गन्तव्येऽध्वनि वलभ्याः परस्ताद् द्विरोदनं कालस्यानहोरात्राणाम् // 5 / 4 / 7 / / भोक्तास्महे / प्रबन्धासत्त्योस्तु नित्यं भविष्यन्ती, यथा-आ शत्रुञ्जयाद्गन्तव्यऽस्मिन्नध्वनि वलभ्याः परम० वृ०-कालस्य योऽवधिस्तद्वाचिन्युपपदे [सति कालस्यैवाग्भिागे य एष्यन्नर्थस्तत्र वर्तमानाद्धातो स्तादविच्छिन्नं सूत्रमध्येष्यामहे / तथा पर इत्येव'रनद्यतनविहितः प्रत्ययो न' स्यात् , अनहोरात्राणां अर्वाग्भागे पूर्वेण “कालम्यः" (5 / 4 / 7 / इत्यनेन) नित्यं प्रतिषेधः / एष्यतीत्येव अवधावित्येव इति =सोऽर्वागभागो यद्यहोरात्राणां सम्बन्धी न भवति / [यत्रप्रयोगे अहःशब्दोरात्रिशब्दोवा प्रयुज्यते तत्राहो व्यावृत्तिद्वयं पूर्ववत ज्ञातव्यम् / अनहोरात्राणामि त्येव- योऽयं त्रिंशद्रात्र आगामी तस्य यः परः पञ्चदशरात्रत्वम ईदृशः शब्दो वय॑ते]योऽयमागामी संवत्स रात्रस्तत्र युक्ता अध्येतास्महे / न तु "नाद्यतनप्रबरस्तस्य यदवरमाग्रहायण्याः, तत्र जिनपूजां करिप्यामोऽतिथिभ्यो दानं दास्यामहे / अनहोरात्राणा न्ध०" (5 / 4 / 5) इत्यनेन नित्यं निषेधः / 'अयमेव मिति किम् ? योऽयं मास आगामी, तस्य योऽवरः विकल्प'इत्यस्येदमुदाहरणम्- आगामिनो वर्षस्याग्रह यण्याः परस्तादविच्छिन्नं सूत्रमध्येष्यामहे अध्येतापञ्चदशरात्रः, [तादात्म्यरूपसम्बन्धः] तत्र युक्ता स्महे वा इति // 8 // द्विरध्येतास्महे / योगविभाग उत्तरार्थः // 7 // 'सप्तम्यर्थे क्रियातिपत्तो क्रियातिपत्तिः प्रव०- 'अहानि च रात्रयश्च-अहोरात्राणि, // 5 / 4 / 9 / / 'ऋक साम०' (7 / 3 / 97) इति साधुः / २मार्गशीर्षस्य म० वृ०-क्रियातिपत्ती सत्यामेष्यत्यर्थे वर्त्तपूर्णिमा आग्रहायणी / 'कालस्यानहोरात्राणाम्', अत्र मानाद्धातोः सप्तम्यर्थे क्रियातिपत्तिविभक्तिः' स्यात् / सूत्रे एष्यतीत्येव-योऽयं संवत्सरोऽतीतस्तत्र यदवर स यदि गुरूनुपासिष्यत शास्त्रान्तमगमिष्यत् / अभोमाग्रहायण्यास्तत्र युक्ता द्विरध्यैमहि / अवधावित्येव क्ष्यत भवान घृतेन यदि मत्समीपमागमिष्यत् // 6 // योऽयमागामी निरवधिकः कालस्तत्र यदवरमाग्रहायण्यास्तत्र युक्ता अध्येतास्महे / अर्वाग्भागे इत्येव- अव०-"कथमि सप्तमी च वा' (5 / 4 / 13) परस्मिन् भागे 'परे वा' (5 / 4 / 8) इत्यनेन विभाषा | 'वय॑ति हेतुफले' (5 / 4 / 25 ) इति वक्ष्यमाणसूत्र Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियातिपत्ति-वर्तमाना-सप्तमीविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [237 द्वयस्य सप्तमीविधानहेतोरर्थः सप्तम्यर्थः, तस्मिन् / क्षेपेऽपिजात्वोवेर्तमाना // 5 / 4 / 12 // सति गम्यमाने वा। २कुतश्चिद्वैगुण्यात् क्रियाया म० वृ०-भूते इति निवृत्तम् / क्षेपे गम्यमानेअतिपतनम् अनिष्पत्तिः क्रियातिपत्तिः, तस्याम् / 9 / ऽपिजातुशब्दायोरुपपदयोर्धातो-वर्तमाना विभक्तिभृते // 5 / 4 / 10 // भवति / अपि तत्रभवान् [=पूज्यः] जन्तून हिनस्ति, . म० वृ०-भूतेऽर्थे वर्तमानाद्धातोः क्रियाति- जातु तत्रभवान् भूतानि हिनस्ति / अपि साधुः पत्तौ सत्यां सप्तम्यर्थे 'क्रियातिपत्तिः'स्यात् / 'सप्त- [=संयतः] सन्ननागाहे [=उत्सर्गपदे ] आधायकृतं म्युताप्योर्बाढे' ( 5 / 3 / 21) इत्यारभ्य सप्तम्यर्थेऽनेन [आधार्मिकाहारम् ] सेवते, धिगर्हामहे / / 12 / / क्रियातिपतिविधानम् , ततः प्राग 'वोतात् प्राक्' (5 / 4 / 11) इति विकल्पो वक्ष्यते / दृष्टो मया तव अव०-"क्षेपेऽपिजात्वो"-रित्यनेन कालसामापुत्रोऽन्नार्थी चंक्रम्यमाणः, अपरश्चातिथ्यर्थी, यदि न्ये वर्तमानाविधानात् कालविशेषविहिता अपि “स्मे स तेन दृष्टोऽभविष्यत , उताभोक्ष्यत, अप्यभोक्ष्यत, ....... (चवल)माना" 5 / 2 / 16) इत्यादि सूत्रो........ न तु दृष्टोऽन्येन पथा स गत इति न भुक्तवान् / 10 / क्ताः “भूत.......[वच्चाशंस्ये वा" (5 / 4 / 2) इति सूत्रो] क्ताः प्रत्ययाः परत्वाद लेन बाध्यन्ते। अपिअव०-या सप्तमी विहितास्ति, तस्याः सप्त- शब्दः प्रश्न समुच्चये वा..||१२|| म्या अर्थः सप्तम्यर्थस्तस्मिन् / / 10 / / कथमि सप्तमी च वा // 5 / 4 / 13 / / वोतात् प्राक् / / 5 / 4 / 11 // म० वृ०-कथंशब्दे उपपदे क्षेपे [गम्यमाने] - म० वृ०-[वक्ष्यमाणसूत्रे] 'सप्तम्युताप्योर्बाढे' सर्वेषु कायेषु 'सप्तमी [चकारात् ] वर्तमाना च इत्यत्र यदुतशब्दसङ्कीतनं ततः प्राक् सप्तमीनिमित्ते भवतो वा' [वावचनाद् यथाप्राप्तं च] / कथं नाम क्रियातिपत्तौ सत्यां भूतेऽर्थे 'क्रियातिपतिर्वा' स्यात् / तत्रभवान् मांस भक्षयेत् [सप्तमी], मांसं भक्षयति, कथं नाम संयतः सन् 'अनागाढे तत्रभवान् आधा- गर्हामहे, अन्याय्यमेतत् , पक्षे-अबभक्षत् , अभक्षयाकृतम् [आधार्मिकाहारम् ] २असेविष्यत, धिग् यत् [शस्तनी], भक्षयिता [भक्षयाञ्चकार / भविगर्हामहे; वावचनाद्यथाप्राप्तं च- कथं उसेवेत ! ध्यति तु क्रियातिपतने नित्यमेव क्रियातिपत्तिः,कथं सेवते ! / उतात् प्रागिति किम् ? 'कालो यद- कथं नाम तत्रभवान् मांसमभक्षयिष्यत् / / 13 / / भोक्ष्यत भवान् / / 11 // . . अव०-अत्र सप्तमी कर्वी निमित्तमस्ति इति अव-आगाह्यते स्म संयतैरित्यागाढोऽप- | भूते क्रियातिपतने क्रियातिपत्तिर्वा भवति, तथाहि वादपदम् , न आगाढम् अनागाढमुत्सर्गपदं जिना- | कथं नाम भवान् मांसमभक्षयिष्यत् , अत्र 'वोतात् ज्ञामूलपदम् , अनागाढे मूलमार्गे / २'कथमि प्राक्' (5 / 4 / 11) इत्यनेन क्रियातिपत्तिा भवति; सप्तमी च वा' (5 / 4 / 13) इत्यनेनात्र प्रयोगे सप्त- पक्षे भक्षयेत् , भक्षयति, अबभक्षयत् , अभक्षयत् , म्यर्थः, सप्तम्यर्थे असेविष्यतेत्यत्र क्रियातिपत्तिः भक्षयाञ्चकार इत्यक्षराग्रे वृत्तिमध्यस्थे / भविष्यति सिद्धा। अत्रापि धिग गर्हामहे इति पदं योज्यम् / तु क्रियातिपतने नित्यमेव क्रियातिपत्तिः इति पाठो ४कालो यदभोक्ष्यत भवानित्यत्र "सप्तमी यदि" विचारणीयः चिन्तनीयः (?) / इयमवचूरिः कथमि०' (5 / 4 / 34) इति सूत्रोक्तसप्तमीविषयोऽस्ति, परं | इति सूत्रे सर्वमूलोदाहरणाग्रे ज्ञातव्या / 'अबभक्षत्', व्यावृत्तिबलान्न भवति, पश्चात् 'भूते' (5 / 4 / 10) | 'भक्षिण अदने' 'चुरादि०' (३।४।१७॥इति) णिच् , क्रियातिपत्तिः // 11 // अद्यतनीदि, 'णिश्रद्रुस कमः०' (३।४।५८।इति) Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०५ पा-४ सू० 14--17 कुप्रत्ययः / 'नित्यमेव क्रियातिपत्तिः' इत्यस्याग्रे न प्रव०-अश्रद्धा असम्भावना / अमर्षोsतु वर्तमानासप्तमीभविष्यन्तीश्वस्तन्यः / 'कथमि०' क्षमा। सर्व विभक्त्यपवादः / अश्रद्धायामकिंवृत्तोपपदे इति सूत्रान्ते क्षेपे इत्येव- कथं नाम भवान् साधून सति प्रत्ययं दर्शयति वृत्तिकृत्- न श्रद्दधे इत्यादि / अपूपुजत् / / 13 // उसप्तमी। अश्रद्धायां किंवृत्तोपपदे किंवृत्तेन श्रदधे' "किंवृत्ते सप्तमीभविष्यन्त्यौ // 5 / 4 / 14 // इत्याधुदाहरणं दर्शयति / "इनश्चातः' (4 / 2 / 96) इत्याकारलोपः / अमर्षेऽपि अकिंवृत्तोपपदे उदाहम० वृ०-किंवृत्ते उपपदे क्षेपे “सप्तमीभविष्य रणम् अमर्ष इत्यादि / अत्रापि सप्तमी की निमित्तन्त्यौ" भवतः / किं तत्र भवाननृतं ब्रूयात वक्ष्यति मस्तीति भूते क्रियातिपतने क्रियातिपत्तिर्वा भवति,वा? / को नाम ? कतरो नाम ? कतमो नाम ? न श्रदधे, न मर्षयामि तत्रभवानदत्तमग्रहीष्यत , यस्मै भवाननृतं ब्रूयात् वात वा / २अत्रापि पक्षे गृह्णीयात् ग्रहीष्यति च। भविष्यति तु क्रियासप्तमीनिमित्तमस्तीति भूते क्रियातितने क्रियाति- तिपतने नित्यं क्रियातिपत्तिः, न श्रधे, न मर्ष. . पत्तिर्वा भवति,-किं तत्रभवाननृतमवक्ष्यत, उपक्षे यामि तत्र भवानदत्तमग्रहीष्यत् / इयमवचूरिः रूयात वक्ष्यति वा / क्षेपे इत्येव-किंतत्रभवान देवा 'अश्रद्धा'० इति सूत्रान्ते ज्ञेया // 15 // नपूजत् / / 14 // किंकिलास्त्यर्थयोर्भविष्यन्ती / / 5 / 4 / 16 // प्रव०-'विभक्त्यन्तस्य डतरडतमान्तस्य च ___ म० वृ०-१किंकिलेति समुदायशब्दे अस्त्यर्थे किमशब्दस्य वृत्तं किंवृत्तमिति वैयाकरणसमयः / / च शब्दे उपपदेऽश्रद्धामर्षयोर्गम्यमानयो-भविष्यन्ती' कः, कतरः, कतम इतिशब्दाः सूत्रे ज्ञातव्याः, तेन स्यात् / सप्तम्यपवादः / न श्रदधे, न मर्पयामि किंतरां किंतमामिति किंवृत्तं नोच्यते। सर्वविभक्त किंकिलनाम तत्रभवान् परदारानुपकरिष्यते / यपवादः / अत्रापि='किंवृत्ते'इति सूत्रेऽपि कथमि'० ४अस्ति नाम तत्रभवान परदारानपकरिष्यते॥१६॥ (5 / 4 / 13) इति पूर्वसूत्रवत सप्तमीनिमित्तमस्तीत्यादिपाठो विमर्शनीयः / उक्रियातिपत्तिः / भवि- अव०-१किंफिलशब्दः किलशब्दवत् कोमलापति तु क्रियातिपतने नित्यं क्रियातिपत्तिः, किं मन्त्रणे वर्त्तते / २अस्तिभवतिविद्यतयोऽस्त्वर्थाः भवाननृतमवक्ष्यत् इत्येक एव प्रयोगः // 14|| शब्दाः / अकरिष्यते इत्यत्र 'गन्धना०' (3 / 3 / 76) 'अश्रद्धा-ऽमर्षेऽन्यत्रापि // 5 / 4 / 15 / / सूत्रेण साहसे आत्मनेपदम् / ४एवं भवति नाम, विद्यते नाम, न श्रइवे, न मर्षयाभि / किंकिलेति सूत्रे म० वृ०-क्षेप इति निवृत्तम् / अन्यत्र, कोऽर्थः ? सप्तमीनिमित्तं नास्तीति क्रियातिप......... (तने अकिंवृत्ते, अपिशब्दात किंवृत्ते चोपपदेऽश्रद्धामर्षयो क्रियातिपत्तिर्न भवतीत्यर्थः / / 16 / / गम्यमानयोः 'सप्तमीभविष्यन्त्यौ' भवतः / अश्रद्धायाम , न श्रद्दधे, न सम्भावयामि तत्र भवान्नामादत्तं जातु-यद्-यदा-यदो सप्तमी / / 5 / 4 / 17 / / गृह्णीयात ग्रहीष्यति (वा) / "किंवृत्ते, न श्रद्दधे म० वृ०-जातु-यद्-यदा-यदि इत्युपपदेषु अश्रकिं तत्रभवानदत्तम् 'आददीत (सप्तमी), अदत्तमा- द्धामर्षयोः [गम्यमानयोः धातोः परतः) 'सप्तमी' दास्यते। अमर्षे, न मर्षयामि, न क्षमे,[धिग् मिथ्या / स्यात् / भविष्यन्त्यपवादः / न श्रद्दधे, न क्षमे जातु नैतदस्ति] तत्र भवानदत्तं गृह्णीयात् ग्रहीष्यति (वा)। | तत्र भवान् सुरां पिबेत् , एवं यत् यदा यदि भवान् किंवृत्तेऽपि [अमर्षेऽपि]- न मर्षयामि धिम् मिथ्या सुरां पिबेत् [यत्तत्रभवान् सुरां पिबेत् , यदा तत्रनैतदस्ति किं तत्रभवान अदत्तं गृह्णीयात ग्रहीष्यति भवान सुरां पिबेत् , यदि तत्रभवान् सुरां पिबेत् ] // 15 // // 17 // Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमो--भविष्यन्तीविधानम् ] मण्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [239. - प्रव०-'जातुयद्यदा०'इति सूत्रे अत्रापि सप्तमी- / एवं 'चित्रे'ऽपि सूत्रे सप्तमीनिमित्तमस्तीति भूते निमित्तमस्तीति भूते क्रियातिपतने क्रियातिपत्तिा क्रियातिपनने क्रियातिपत्तिर्वा,-चित्रं यच्च यत्र वा तत्रभवति,-अश्रद्दधे, न मर्षयमि जातु तत्रभवान् सुराम- भवानकल्प्यमसेविष्यत, पक्षे सेवेत / भविष्यति तु पास्यत् , पक्षे पिबेत् / भविष्यति तु क्रियातिपतने | नित्यं प्रयोगः पूर्व एव / 'शेरेः' इति सूत्रे सप्तमी नित्यं क्रियातिपत्तिः, जातु भवान सुरामपास्यत् / ............(निमित्तं नास्तीति न क्रियातिपत्तिः / सूत्रान्ते विशेषोऽयम् // 17 // गचित्रं यदि स.' इति प्रयोगे न केवलं यदिशब्दक्षेपे च यच्च-यत्रे // 5 / 4 / 18 // प्रयोगः, अश्रद्धार्थोऽप्यस्ति इति 'जातुयद्यदा'० (5 / 4 / 17) इति सूत्रेण सप्तमी भवति // 20 // म. वृ०-यच्चयत्रशब्दयोरुपपदयोःक्षेपे [गम्यमाने] अश्रद्धामर्षयोश्च 'सप्तमी' स्यात् / धिग गर्दा- - सप्तम्युताप्योबाढे // 5 / 4 / 21 / / महे, यच्च तत्र भवानस्मानाक्रोशेत , एवं यत्र तत्र- ___म. वृ०-बाढेऽर्थे वर्तमानयोरुत-'अपिशब्दभवान् [अस्मान आक्रोशेत् ] / न श्रद्दधे, न क्षमे यच्च योरुपपदयोर्धातोः 'सप्तमी' स्यात् / (सर्वविभक्त्यभवान् परिवादं कथयेत् , एवं यत्र भवान [परिवादं पवादः) उत कुर्यात् , अपि कुर्यात् ; बाद रेकरिष्यकथयेत् ] // 18 // तीत्यर्थः / बाढ इति किम् ? उत दण्डः पतिष्यति, अपिधास्यति द्वारम् ; (अत्र) प्रश्न पिधानम[=ढंकप्रव०-अश्रद्धामर्षयोर्भविष्यन्त्याः क्षेपे तु नम्] च यथाक्रमं गम्यते। 'वोतात् प्राग' (5 / 4 / 11) सर्वविभक्तीनामपवादोऽयम् / / 18 / / इति निवृत्तम् / / 21 // चित्रे // 5 / 4 / 19 // म० वृ०-चित्रे [=आश्चर्ये] गम्यमाने यच्च- अव०-'अपिशब्दः प्रश्न समुच्चये वा / यत्रयोरुपपदयोः 'सप्तमी' स्यात् / चित्रमाश्चर्यम् यच्च अन्या अपि विभक्तयो द्रष्टव्याः, संनिहितत्वात् तत्रभवानकल्प्यं (=अकल्पनीयं) सेवेत, एवं यत्र भविष्यन्त्येव दर्शिता / 'सप्तम्युताप्यो ढे' इत्यतः (तत्रभवानकल्प्यं सेवेत) // 19 // सूत्रादारभ्य सप्तमीनिमीत्ते सति भूते भविष्यति च शेषे भविष्यन्त्ययदौ // 5 / 4 / 20 // काले क्रियातिपतने नित्यं क्रियातिपत्तिर्भवति, उताकरिष्यत्, अप्यकरिष्यत् / एषाऽवचूरिः "बोतात् . म० वृ० शेषे यच्चयत्राभ्यामन्यस्मिन्नपपदे प्राग् इति निवृत्त"-मित्यस्याग्रे द्रष्टव्या / / 21 / / चित्रे गम्यमाने भविष्यन्ती' स्यात् ,चेत् यदिशब्दोन प्रयुज्यते / सर्वविभक्त्यपवादः / चित्रम् अन्धो नाम सम्भावनेऽलमर्थे तदर्थानुक्तौ // 5 / 4 / 22 // गिरिमारोक्ष्यति ! मूको नाम धर्म कथयिष्यति ! / म. वृ०-अलमोऽर्थः सामर्थ्यम् , तद्विषये शेष इति किम् ? यच्चयत्रयोः पूर्वेण सप्तम्येव / सम्भावने श्रद्धाने गम्यमाने तदर्थस्य अलमर्थार्थस्य अयदाविति किम् ? 'चित्रं यदि स भुञ्जीत, (चित्रं शब्दस्यानुक्तावप्रयोगे 'सप्तमी' स्यात् / (सर्वविभयदि) सोऽधीयीय // 20 // क्त्यापवादः) शक्यसम्भावने,-अपि मासमुपवसेत् , (उपवासं कुर्यात्) अपि पुण्डरीकाध्यायमहा(=दिव___ अव०-क्षेपे च यच्चयत्रे (5 / 4 / 18) इति सूत्रेऽ- | सेन) अधीयीत' / अशक्यसम्भावने,-अपि शिरसा त्रापि सप्तमीनिमित्तमस्तीति भूते क्रियातिपतने | पर्वतं भिन्द्यात् , अपि समुद्रं दोभ्यां तरेत् / अलमर्थ .. क्रियातिपत्तिर्वा ,-धिग् गर्हामहे, न श्रद्दधे, न | इति किम् ? २निदेशस्थायी मे मैत्रः प्रायेण यास्यति। क्षमे यच्च यत्र वा तत्रभवान परिवादानकथयिष्यत् , तदर्थानुक्ताविति किम् ? वसति चेत् सुराष्ट्रषु पक्षे कथयेत् / भविष्यति तु नित्यं प्रयोगः पूर्व एव। / वन्दिष्यतेऽलमुजयन्तम् ,शक्तश्चैत्रो धर्मकरिष्यति। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 5 पा० 4 सू० 23-26 'सम्भावनेः' इति सूत्रे अत्रापि सप्तमीनिमित्तम- | गर्हामहे / तथा भूतभविष्यतोरभावात् सत्यपि सप्तस्तीति भूते भविष्यति च क्रियातिपतने नित्यं क्रिया- | मीनिमित्ते सत्यपि च (क्रियातिपतने ) क्रियातिपतिपत्तिः इति पाठो ज्ञातव्यः, प्रयोगोऽयम् ,-अपि / त्तिर्न भवति / इयमवचूरि 'सतीच्छे'-ति सूत्रान्ते शिरसा पर्वतमभेत्स्यत् / / 22 // ज्ञातव्या // 24 // अव०-'एवं स्कन्दकोद्देशं यामेन =प्रहरमध्ये वस्य॑ति हेतुफले // 5 / 4 / 25 // अधीयीत / रनिदेशे= आज्ञायां तिष्ठतीति ‘ग्रहादि- म० वृ०-हेतुः कारणम् / फलं-कार्यम् / भ्यो णिन् ' (5 / 1 / 53) // 22 // हेतुभूते फलभूते च वय॑त्यर्थे वर्तमानाद्धातोः 'सप्तमी वा' स्यात् / पक्षे भविष्यन्ती / यदि गुरूअयदि श्रद्धाधातो नवा / / 5 / 4 / 23 // नपासीत शास्त्रान्तं गछेत : यदि गरूनपासिष्यते म. वृ०-श्रद्धार्थे धातावुपपदेऽलमर्थविषये | शास्त्रान्तं गमिष्यते / अत्र गुरूपासनं हेतुः, शास्त्रासम्भावने गम्यमाने 'सप्तमी 'नवा स्यात् , अय- न्तगमनं फलम् // 25 // दि-यच्छन्दश्चेन्न प्रयुज्यते / श्रद्दधे, सम्भात्रयामि भुञ्जीत भवान् ; पक्षे यथाप्राप्तम् ,-भोक्ष्यते, अभुक्त अव०-'वर्त्यति०' इति सत्रेऽत्रापि सप्तमी[अद्यतनी ] अभुक्त [ ह्यस्तनी ] भवान् / अय निमित्तमस्तीति भविष्यति क्रियातिपतने नित्यं दीति किम् ? सम्भावयामि यद् भुञ्जीत भवान् / क्रियातिपत्तिः- दक्षिणेन चेदयास्यत् , न शकटं पर्याश्रद्धाधाताविति किम ? अपि शिरसा पर्वतं भिन्द्यात् / भविष्यत् / तथा कथम् उभयत्र पूर्वेण सप्तमी / / 23 / / "अमाक्ष्यद् वसुधा तोये, च्युतशैलेन्द्रबन्धना; नारायण इव श्रीमान्., यदि त्वं नाधरिष्यथाः" / / अव०-पूर्वेण नित्यं प्राप्ते विकल्पोऽयम् / इति ? वय॑त्येवायं प्रयोगः / / 25 / / , २क्रियाविशेणत्वेन चेत यच्छब्दः प्रयज्यते तदा न भवति सप्तमी, हेत्वर्थे भवत्येव / अयदिश्रद्धा० इति कामोक्तावकञ्चिति // 5 / 4 / 26 // सूत्रप्रान्ते अत्रापि सप्तमीनिमित्तमस्तीत्यादिपाठो म० वृ०-नवेति निवृत्तम् / कामः इच्छा, द्रष्टव्यः / प्रयोगोऽयम ,-सम्भावयामि नाभोक्ष्यत तस्योक्तिः प्रवेदनम् , तस्यां गम्यमानायां सप्तमी भवान् // 23 // स्यात् , अकञ्चिति-यदि कञ्चिन्छन्दों न प्रयुज्यते / सतीच्छार्थात् // 5 / 4 / 24 // कामो मे भुञ्जीत भवान् , इच्छा मे अधीयीत भवा न् / अकञ्चितीति किम् ? कच्चिज्जीवति मे माता / 26 / म० वृक्ष-सति-वर्त्तमानेऽर्थे वर्तमानादिच्छार्थाद्धातोः ‘सप्तमी वा' स्यात् , पक्षे वर्तमानैव / प्रव०-काम इच्छा वाञ्छा श्रद्धा अभिलाष इच्छेत् , इच्छति; [वशक् कान्ता-] उश्यात् , वष्टि; इति कामार्थाः शब्दाः। कामो मे भुञ्जीत इत्याद्यकामयेत् , कामर्यात ; वाञ्छेत् , वाञ्छति // 24 // दाहरणेषु अर्थकामनमात्रकारणे कामेच्छादिशब्दाः प्रयुक्ताः / भुञ्जीत भवान् अधीयीत भवान् इति परिण अव०-'सतीच्छार्थात्' इति सूत्रे विशेषोऽयम्- (?) उदाहरणानि सम्यक् ज्ञेया (नि), अन्यथा उत्तर'क्षेपेऽपिजात्वोर्वर्तमाना' ( 5 / 4 / 12) इत्यादिसूत्रे- सूत्रेण पञ्चमी स्यान् , तस्मादत्र सत्रे कामोक्तौ गम्यध्वपि इच्छादिप्रयोगेषु सत्सु 'सतीच्छर्थात्' इति मानायामे..... (व सप्तमी विभक्तिः ) भवति, न सूत्रेण परत्वात् विकल्पेन सप्तमी भवति; पक्षे वर्त्त- / प्रयुक्तायां कामोक्तौ / कामप्रवेदने विभक्त्यन्तरप्रयोमाना;तथाहि- अपि संयतः सन्नकलप्यं सेवितुमि- गादर्शनात् 'वेति निवृत्तम्' इति ज्ञापितम् / एवं श्रद्धा च्छेत् , अपि संयतोऽकल्प्यं सेवितुमिच्छति, धिग् / मे कुर्वीत भवान् अभिलाषो मे वदेत् (भवान्) / Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमी-पञ्चमी-कृत्यप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / 'कामोक्ता०' इति सूत्रेऽत्रापि सप्तमीनिमित्तम- | अथ प्रेरणायामेव * यस्यां प्रत्याख्याने प्रतिषेधे स्तीति भूते भविष्यति च क्रियातिपतने नित्यं प्रत्यवायो ( ऽस्ति ) तन्निमन्त्रणम् , इच्छामन्तक्रियातिपत्तिः, कामो मेऽभोक्ष्यत भवान / / 26 / / रेणापि नियोगतः कर्त्तव्य इत्यर्थः / अत्र निमइच्छार्थे सप्तमीपञ्चम्यौ // 5 / 4 / 27 // / न्त्रणे द्विसन्ध्यमाव०, द्वे सन्ध्ये यत्र अथवा द्वयोः सन्ध्ययोःसमाहारः। यत्र प्रेरणायामेव प्रत्याख्याने . म. वृ०-'इच्छार्थे धातावुपपदे कामोक्तौ कामचारस्तदामन्त्रणम् , अत्रामन्त्रणे इहासीत, इहागम्यायां 'सप्तमीपञ्चम्यौ' भवतः / इच्छामि भु स्तां भवान् ; इह शयीत, इह शेतां भवान् इत्यस्याने जीत भवान् , इच्छामि भुङ क्तां भवान् // 27 // यदि रोचते तदा इहासीत इति वा सम्बन्धः / प्रव०-'इच्छार्थे सप्तमी०' इति सूत्रे विशेषो इतथा प्रेरणैव सत्कारपूर्विकाधीष्ठम्= अध्येषणम् , लिख्यते, अन सत्यपि सप्तमीनिमित्ते इच्छार्थे उप व्रतं रक्षेत् , रक्षतु ; एवं तत्त्वज्ञानं नः प्रसीदेयुः पदे कामोक्तौ सत्यां क्रियातिपतनस्य असा........ प्रसीदन्तु गुरुपादाः ; तत्त्वज्ञानं कर्मतापन्नमस्म.........[मर्येनासम्भवात् क्रिया] तिपत्तिर्न भव भ्यमस्माकं वा गुरुपादाः प्रसादपूर्वकं दद्युरित्यर्थः / ति / केचित्त "सप्तन्युप्यो; हे" (5 / 4 / 21) इत्यत "सम्प्रश्नः, सम्प्रधारणा, निरूपणा, विचारणा, आरभ्य यत्र स्थाने केवलायाः ... सप्तम्या निमित्त विमर्शः इत्येकार्थाः इति यावत् ||28|| मस्ति, न विभक्त्यन्तरसहि( तायास्तत्रैव क्रियातिपतने क्रियातिपत्तिर्भवति इति मन्यन्ते।। 'इच्छामि प्रैषा-ऽनुज्ञा-ऽवसरे कृत्य-पञ्चम्यो कामये प्रार्थये अभिलपामि बश्मि इति इच्छार्था // 5 / 4 / 29 // धातवः / सप्तमी। एवमधीयीत. अधीताम् // 27 // ___म० वृ०-भैषादिविशिष्टे कळदावणे धातोः विधि-निमन्त्रणा-ऽऽमन्त्रणा ऽधीष्ट-सम्प्रश्न परतः ‘कृत्यप्रत्ययाः पञ्चमी च' स्यात् / प्रैषे, त्वया खलु कटः कार्यः, कर्त्तव्यः, करणीयः, कृत्यः ; भवान् प्रार्थने // 5 / 4 / 28 / / कटं करोतु, भवान् हि प्रेषितोऽनुज्ञातः, भवतोऽव- म० वृ०-विध्यादिविशिलेषु कर्तृ कर्मभावेषु सरः कटकरणे / यद्यपि कृत्यप्रत्ययाः सामान्येन प्रत्ययार्थेषु [धातोः परतः ] 'सप्तमीपञ्चम्यौ' भव भावकर्मणोविहितास्तथापि सर्वप्रत्ययापवादभूतया तः। [ सर्वप्रत्ययापवादौ / / विधौ, कटं कुर्यात् पञ्चम्या बाध्येरनिति पुनर्विधीयन्ते // 29 // करोतु भवान् / निमन्त्रणे,- द्विसन्ध्यमावश्यक कुर्यात् करोतु / आमन्त्रण - इहासीत इहास्तां अव०-न्यत्कार-[पराभव ] पूर्विका प्रेरभवान [ यदि रोचते] / अधी,-व्रतं रक्षेत् रक्षतु णैव प्रैषः उच्यते / अनुज्ञा कामचारः / अवसरः भवान् / सम्प्रश्न,-किं नु खव्याकरणमधीयीय प्राप्तकालता / त्रिष्वपि अर्थेषु त्वया खलु कटः अध्ययै / प्रार्थने[=याश्चा याम् ],-प्रार्थना मे सिद्धा- कार्यः कर्त्तव्यः करणीयः कृत्यः , भवान् कटं करोतु न्तमधीयीय अध्ययै // 28 // इति एकमेव उदाहरणं सम्भाव्यते, भवान् हि प्रेषितोऽनुज्ञातः, भवतोऽवसरः कटकरणे इत्यर्थदर्शप्रव०-'विधिरप्राप्ते नियोगः, क्रियायां प्रेर नात् / / 29 / / णा इत्यभिप्रायः / अज्ञातज्ञापनम , इदं कर्त्तव्यम् इदं न कर्त्तव्यमित्यादिकल्पनामित्येके प्राहुः / ईदृशे ___सप्तमी चोर्ध्वभौहर्तिके // 5 / 4 / 30 // विधौ-कटं कुर्यात् , कटं करोतु, प्राणिनो न हिंस्या- म० वृ०-प्रैषादिषु गम्यमानेषु ऊर्ध्वमौहूत्, न हिनस्तु भवान् , उदाहरणानि चत्वारि / / र्तिकेऽर्थे 'सप्तमी पञ्चमी कृत्याश्च' भवन्ति / Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 5 पा० 4 सू० 31-36 ऊर्ध्व मुहूर्तात् कटं कुर्यात् भवान् , करोतु ; कार्यः, / (त्रिषूदाहरणेषु) परत्वात् तुमेव भवति / ननु सूत्रे कृत्यः, कर्त्तव्यः, करणीयः कटस्त्वया ||30|| तुम् वा भवतीत्युक्तं तत्कथं परत्वात्तुमेव भवतीत्यु क्तम् ? उच्यते, तुमेवेत्यत्र एवकारः स्वयोगव्यवस्थाप्रव०-मुहूर्तादूर्ध्वम् ऊर्ध्वमुहूर्तम् , ऊर्ध्वमु- | पने, ततः कोऽर्थः ? विकल्पेन तुमेव भवति, नानहूर्ताद् भवः ऊर्धमौहूर्तिकः, 'अध्यात्मादिभ्य इकण्' डादयः ; 'सप्तमी चोर्ध्व' (5 / 4 / 30) 'स्मे पञ्चमी' (5 / 3 / 78) इत्यनेन इकण , अस्मादेव निर्देशादुत्तर- 'अधीष्टौ' इति सूत्रत्रयस्यात्र प्राप्तिरस्ति, प्राप्तौ पदवृद्धिः / ऊर्ध्व मुहूर्तात् कटं कुर्यात् इत्याद्युदाहर- सत्यामपि परत्वात्तुमेव भवति इत्युक्तम् / न सप्तमीणप्रान्ते भवान प्रेषितोऽनज्ञातः, भवतोऽवसरः कट- पञ्चम्यौ प्रवत्तेते (?) // 33 // करणे इत्यक्षराणि द्रष्टव्यानि // 30 // सप्तमी यदि // 5 // 4 // 34 // स्मे पश्चमी // 5 // 4 // 31 // ___ म० वृ०-यदि यच्छब्दप्रयोगे सति, कालाम० वृ०-स्मे उपपदे प्रैषादिषु गम्येषु उर्ध्व- दिपपदेषु 'सप्तमी' स्यात् / तुमोऽपवादः / कालो मौहूर्तिकेऽर्थे 'पञ्चमी' स्यात् / [स्मशब्दः स्पष्टार्थः] यधीयीत भवान् , वेला यद् भुञ्जीत, समयो यच्छकृत्यानां सप्तम्याश्चापवादः / ऊर्ध्व मुहूर्ताद् भवान् यीत भवान् / बहुलाधिकारात् कालो यदध्ययनस्य, कटं करोतु स्म // 31 // वेला यद् भोजनस्य, समयो यच्छयनस्येत्याद्यपि अधीष्टौ // 5 / 4 / 32 // // 34 // म० वृ०-अधीपावध्येषणायां गम्यमानायां स्मे शक्ताह कृत्याश्च / / 5 / 4 / 35 / / उपपदे ‘पञ्चमी' स्यान / सप्तम्यपवादः / अङ्ग स्म हे म० वृ०-शक्ते अहे च कर्तरि गम्यमाने विद्वन् अणुव्रतानि रक्ष, शिक्षाः प्रतिपद्यस्व // 32 // 'सप्तमी कृत्याश्च' भवन्ति / शक्ते,-त्वया खलु भारो वाह्यः, वोढव्यः,' उह्येत२, वहेत् भारं भवान् भवान् प्रव०-'अधीणी' इत्यत्र सूत्रे ऊर्ध्वमौहूर्तिक हि शक्त इत्यर्थः / अहे,- भवता खलु कन्या वाह्या, इति निवृत्तम , पृथग्योगात् ; 'स्मे पश्चमी' इति सूत्रे वोढव्या, भवान् खलु कन्यां वहेत् , भवानेतद'स्मेऽधीयौ च पञ्चमी' इति सूत्राऽकरणात् // 32 // हति // 35 // काल-वेला-समये तुम् वाऽवसरे // 5 / 4 / 33 // म. वृ०-कालवेलासमयेषूपपदेषु अवसरे अव०-सप्तम्या बाधो मा भूदिति कृत्यग्रहणं गम्यमाने धातो-'स्तुम्' प्रत्ययो वा स्यात् / ['प्रैषा- कृतम् / सर्वत्र उह्यते इति वाक्यं कर्त्तव्यम् / (एवम) नुज्ञा' (5 / 4 / 29) इति प्राप्तविकल्पोऽयम् ] कालो वहनीयः / २'उह्येत', अत्र सप्तमी-ईत, क्य, यजादिभोक्तुम् , वेला भोक्तुम् , समयो भोक्तुम् ; पक्षे- वचेः०' (४।१।७९|इति) य्वृत् // 35 // कालो भोक्तव्यस्य' / अवसर इति किम् ? कालः णिन् चावश्यकाधमण्र्ये // 5 / 4 / 36 // पचति भूतानि, कालोऽत्र द्रव्यं नत्ववसरः // 33 // म० वृ०-१आवश्यके २आधमर्ये च गम्यअब०-१'कालो भोक्तव्यस्य' इत्यत्र 'प्रैषानु माने कर्तरि वाच्ये धातो-णिन् कृत्याश्च' स्युः / ज्ञावसरे.' इति सूत्रेण तव्यप्रत्ययः कार्यः, भुज्यता- | अवश्यं करोतीति कारी, अवश्यंकारी / अवश्यमिति भोक्तव्यमिति वाक्यं कर्त्तव्यम् / तथा ऊवं शब्दप्रयोगे तु अवश्यकारी। अकारान्तोऽपि हि अन मुहूर्तात् कालो भोक्तुम् , ऊर्ध्व मुहूर्ताद् भोक्तुं स्म | व्ययमवश्यशब्दोऽस्ति,- अवश्यं भव्यश्चैत्रः / आकालः, अङ्ग स्म राजन् ! भोक्तुं काल इत्येतेषु / धमये,- शतं दायी, सहस्र दायी; कारी मे शक Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुसम्बन्धेऽयथाकालमपि प्रत्ययानां साधुत्वविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [243 टमसि, गेयो गाथानाम् / णिना बाधो मा भूदिति . अव०-'स्वमतेऽपि अहित्माशब्दप्रयोगोकृत्यविधानम् / कृत्त्वाच्च कर्तरि णिनो विधानात् / ऽस्ति, किन्तु क्रियायोगेऽडितमाशब्दप्रयोगो नेष्यते कृत्यानामपि 'कर्त्तर्येव विधानम् / भावकर्मणोस्तु / इत्यर्थः / केवलो माशब्दोऽत्र, न माङ् इति यावत् सामान्येन विधानात् सिद्धा एव, बाधकाभावात् ! // 39 // // 36 // सस्मे ह्यस्तनी च // 5 / 4 / 40 // अव०-अवश्यं भावः= आवश्यकम् / २ऋणे म० वृ०-स्मसहिते माङि उपपदे ह्यस्तनी ऽधमोऽधमर्णस्तस्य भाव आधमय॑म् / उयदा तु | चकारादद्यतनो च भवति / मा स्म करोत् , मा स्म अवश्यम्शब्दस्यापि उदाहरणे प्रयोगः (तदा) उभा- | कार्षीत् ; मा चैत्र स्म हरः परद्रव्यम् , मा चैत्र स्म भ्यामपि द्योतनात् अवश्यंका" (रीत्यत्र मयूरव्य) हार्षीः / / 40 // सकादित्वात्समासः / दास्यतीति दायी। "ये पूर्व धातोः सम्बन्धे प्रत्ययाः / / 5 / 4 / 41 // "भव्यगेय०"इत्यादिषु कर्तरि विहिताः प्रत्ययाः त म. वृ०-धात्वर्थानां सम्बन्धे विशेषणविशेएवेह ज्ञायन्ते / अथवा भात्रकर्मणोरपि ये प्रत्यया ध्यभावे सति 'अयथाकालमपि प्रत्यया साधवो' विहितास्तेऽपि कर्तरि भवन्ति / 'बाधकाभावात्', भवन्ति / विश्वदृश्वाऽस्य पुत्रो भविता, अत्र [दृश्वा कोऽर्थः ? कर्तर्येव णिना बाध्यन्ते, न भावकर्मणोः, इत्यत्र] भूतकालप्रत्ययो भवितेति भविष्यत्कालेन भावकर्मणोस्तु स्वभावात् कृत्यानां विधेयत्वात् न प्रत्ययेनाभिसम्बध्यमानः साधुर्भवति / भाविकृत्यतत्र कस्यापि बाधाऽस्ति // 36|| मासीत् , अत्र तु भावीति भविष्यत्कालः प्रत्यय अर्हे तुच / / 5 / 4 / 37|| आसीदिति भूतप्रत्यनेन सह सम्बध्यमानः साधुः म० वृ०-अहे कर्तरि वाच्ये 'तृच्' स्यात् / / स्यात् / तथा त्याद्यन्तमपि यदाऽपरै त्याद्यन्तं प्रति भवान् कन्याया वोढा // 37 // विशेषणत्वेनोपादीयते [= गृह्यते ] तदा तस्यापि समुदायवाक्यार्थापेक्षया कालान्यत्वं भवत्येव / अव०-'अर्हे तृच' इत्यत्र सप्तम्याः उपलक्षण यथा- 'साटोपमुर्वीमनिशं नदन्तो' इत्यादि, अत्रत्वात् कर्तृ विहितैः कृत्यैरपि बाधा मा भूत् इति प्लावयिष्यन्तीति भविष्यदर्थस्य ददर्शति भूतानुअर्हे ऽर्थे तृच् विधानम् // 37 // गमः / श्तथा गोमान् आसीत् , गोमान भविता; अस्तिविवक्षायां हि मतुरुक्तः, स कालान्तरे न आशिष्याशीःपञ्चम्यौ / / 5 / 4 / 38|| स्यात् // 41 // म० वृ०-आशीविशिष्ऽर्थे वर्तमानाद्धातो-राशीःपञ्चम्यौ' स्याताम् / जीयान् , जी यासुः [आशी:]; प्रव०-१“साटोपमुर्वीमनिशं नदन्तो, जयतात् , जयन्तु [पञ्चमी]; // 38 // यैः प्लावयिष्यन्ति समन्ततोऽमी ; तान्येकदेशान्निभृतं पयोधेः, माडयद्यतनी / / 5 / 4 / 39 / / सोऽम्भांसि मेघान् पिबतो ददर्श' // 1 // म० वृ०-माङि उपपदे धातो-'रद्यतनी' इति माघे / २'धातोः सम्बन्धे प्रत्ययाः' अत्र सूत्रे स्यात् / सर्वविभक्त्यपवादः] मा कार्षीत् पापम् / प्रत्यया इति बहुवचनादधात्वधिकारविहिता अपि कथं मा भवतु तस्य पाप मा भविष्यति ? असाधु- प्रत्ययास्तद्धिता धातुसम्बन्धे सति कालभेदे साधवो रेवायं प्रयोगः , केचिदाहुरदितो 'माशब्दस्यायं | भवन्ति / तथाहि- गोमानासीत् , गोमान भविता प्रयोगः // 39 // इति॥४१॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०५ पा० 4 सू० 42 . - भृशा-ऽऽभीक्ष्ण्ये हिस्वौ यथाविधि तध्वमौ / स्मैपदिभ्य एव धातुभ्यः (भवति),स्व आत्मनेपदमिति च तयुष्मदि // 5 / 4 / 42 / / आत्मनेपदिभ्य एव धातुभ्यो भवति स्वः। भवत इति सम्बन्धः / 'लुनीहि लुनीहीत्यादौ भृशाभीक्ष्ण्ये म० वृ०-भृशाभीक्ष्ण्यविशिष्टे सर्वकालेऽर्थे द्विर्वचनं विधीयते / ननु भृशाभीक्ष्ण्ययोर्यपि क्रियवर्तमानाद्धातोः सर्वविभक्तिसर्ववचनविषये 3 माणोऽस्ति, यदि सति द्विर्वचनं क्रियते, (न तु भृशाहिस्वौ पञ्चमीसम्बन्धिनौ भवतः, यथाविधि धातोः भीक्ष्ण्ये,) इह तु भृशाभीक्ष्ण्ये द्विर्वचनं क्रियमाणसम्बन्धे, यत एव धातोर्यस्मिन्नेव कारके हिस्वौ मस्ति; नन्वत्र किं कारणम् ? उच्यते, यङ स्वार्थिक्रियेते तस्यैव धातोस्तत्कारकविशिष्टस्यैव सम्बन्धे कत्वात् प्रकृत्यर्थोपाधी भृशाभीक्ष्ण्ये द्योतयितु ऽनुप्रयोगे सति, तथा तध्वमौ हिस्वसाहचर्यात् समर्थः इति भृशाभीक्ष्ण्याभिव्यक्तये यङ द्विर्व वनं पञ्चम्या एव, तयोस्तवमोः सम्बन्धी बहुत्वविशिष्टो नापेक्षते / हिस्वादयस्तु कर्तृकर्मभावार्थत्वेन अस्वायुष्मद् (=तद्युभमद्), तस्मिन् तास्मदि वाच्ये, 4 र्थिकत्वात् प्रकृत्यर्थोपाधी भृशाभीक्ष्ण्ये द्योतयितु न चकारात् हिस्वौ च भवतः, यथाविधि धातोः समर्थाः इति तदभिव्यक्तये द्विवचनमपेक्षन्ते इति सम्बन्धे / लुनीहि लुनीहि५ ६इत्येवायं लुनाति / हेतोरत्र भृशाभीक्ष्ण्ये द्विवचन भवतीत्यर्थः। इयमअनुप्रयोगात्कालवचनभेदोऽभिव्यज्यते। लुनीहि वचूरिः ‘भृशाभीक्ष्ण्ये०' सूत्रे लुनीहीति प्रस्ता........ लुनीहि इत्येवेमौ लुनीतः / इमे लुनन्ति / त्वं (वेऽवगन्तव्या)। इतिशब्दः सम्बन्धोपादानार्थः, लुनासि, युवां लुनीथः, यूयं लुनीथ / एवं लुनीहि अन्यथाऽसत्त्वभूतयोराख्यातपदयोः परस्परेण सम्बलुनीहि इत्येवायमलावीन , लुलाव लविष्यति / न्धो नावगम्यते / भृशमयं मैत्रो लुनाति' इति प्रयोलुनीहि लुनीहि इत्येवायं लुनीयात् , लुनातु / एव गे वक्तव्ये 'भृशाभीक्ष्ण्ये हिस्वौ' इति सूत्रेण 'लुनीमधीष्व अधीष्व इत्येवायमधीते, इमावधीयाते, "इमेऽधोयते' इत्यादि / एवं भावकर्मणोरपि / हि लुनीहि इत्येवायं लुनाति' इति प्रयोगोऽपूर्वरच नया निष्पाद्यते इति परमार्थः. सर्वोदाहरणानाम् / हिस्यौ, शय्यस्व शय्यस्व इत्येव शय्यते, अशायि, अनुप्रयोगेण कालवचनभेदोऽभिव्यज्यते / 'इमेशायिष्यते भवता / लूयम्व लूयस्व इत्येव लूयते, ऽधीयते' इत्यस्याग्रे आदिशब्दान् इमे प्रयोगा द्रष्टअलावि,लविष्यते केदारः। तध्वमौ च तयस्मदि चकारात् हिस्वी च,-लुनीत लुनीतेत्येव यूयं लुनीथ लुनीहि व्याः, तथाहि अधीष्व अधीष्व इत्येव त्वमधीषे, युवामधीयाथे, यूथमधीध्वे अधीष्व अधीष्य इत्येवालुनीहि इत्येव यूयं लुनीथ;अधोवमधीधमित्येव यूय हमधीये, आत्रामवीवहे, वयमधीमहे / अथ कालमधीध्वे अधीष्व अधीष्वेत्येव यूयमधीध्वे इत्यादि। यथाविधीति किम ? लुनीहि लुनीहि इत्येवायं भेदे,-अधीष्व अधीष्व इत्येवायमध्यगीष्ट / अधीष्व लुनाति / छिनत्ति लूयते वा (इति धातोः सम्बन्धे अधीष्व इत्येव अयमध्यैत / अधीष्ध अधीमा भूत ) / एवमधीव अधीष्व इत्येवायमधीते। व (इत्येवायम् ) अधिजगे। अधीष्व अधीष्य (इपठति अधीयते वा इति धातोः सम्बन्धे मा भूत् / 42 / त्येव) अयमध्येष्यते, अध्येता। अधीष्व अधीष्ट इत्येवायम् अधीयीत / अधीष्ठ अधीष्व (इत्येव ) अव०-गुणक्रियाणामधिश्रयणादीनां क्रिया- अयमधीताम् / अधीष्व अधीष्व (इत्येव) अयमन्तरैरव्यवहितानां साकल्यं फलातिरेको वा भृशत्व- | ध्येषीष्ट / आदिशब्दात् लुनीत लुनीत इत्येव यूय-. मुच्यते / तथा प्रधानक्रियाया विक्लेदादेः क्रिया- | मलाविष्ट / लुनीहि लुनीहि (इत्येव) यूयमलाविष् / न्तरैरव्यवहितायाः पौनःपुन्यमाभीक्ष्ण्यमुच्यते / अधीष्व अधीष्व इत्येव यूयमध्येदवम / अधीष्व अधी3'सर्ववचनविषये' इति कोऽर्थः ? हिस्त्रौ वचनरूपौ / ध्व इत्येव यूयमध्यगीदवम् / एवं ह्यस्तन्यादिष्वपि इति सर्ववचनानां बाधको / हिः परस्मैपदमिति पर- / उदाहरणम् // 42 // Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्त्वाप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [245 'प्रचये नवा सामान्यार्थस्य / / 5 / 4 / 43 / / धीष्व / (एवम् ) चेष्टध्वे, समीहध्वे / (एवम् ) म० वृ०-प्रचये=समुच्चये गम्यमाने सामा चेष्टध्वे, समीहध्वे / "प्रचये.' इति सूत्रे आदिशन्यार्थस्य धातोः सम्बन्धे सति धातोः परौ “हिस्के ब्दात् ग्राममटत, बनमटत, गिरिमटते..... (त्ये)• तध्वमौ च तद्युस्मदि वा" स्याताम् / व्रीहीन बप, वाटथ, घटवे .....(पक्षे-) ग्राममटथ, वनमटथ, (गिरिमटथ) इत्येवा ....... (टथ,) घटध्वे / सूत्रमलुनीहि, पुनीहि इत्येव यतते, चेष्टते, समीहते; धीध्वम् , नियुक्तिमधीध्वम् , भाष्यमधीध्वमित्येयत्यते, चेष्टयते, समीह्यते : पक्षे त्रीहीन वपति, . लुनाति, पुनातीत्येव यतते, .यत्यते / देव ... (वाधी)ध्वे, पठथ / सूत्रमधीष्व, नियुक्ति ......"मधीष्व, भा)ध्यमधीष्व इत्येवाधीध्वे, पठथ / दत्तोऽद्धि, गुरुदत्तोऽद्धि इत्येव भुञ्जते, भुज्यते; पक्षे सूत्रमधीध्वे नियुक्तिमधीध्वे इत्येवाधीध्वे, पठथ पक्षे देवदत्तोऽत्ति, गुरुदत्तोऽत्ति इत्येव भुजते, // 43 // भुज्यते / प्राममट, वनमट, गिरिमटेत्येवाटति, घटते ; अटयते, घटयते ; पक्षे ग्राममटति० ५इत्येव निषेधेऽलंखल्वोः क्त्वा // 5 / 4 / 44 // अटति, घटते; अट्यते, घट्यते / एवं सूत्रमधीष्व, म० वृ०-निषेधे वर्तमानयोरलंखलुशब्दभाष्यमधीष्व इत्येवाधीते. पठति; अधीयते, पठ योरुपपदयोर्धातोः ‘क्त्वा वा' स्यात् / अर्ल कृत्वा, यते; पक्षे सूत्रमधीते, भाष्यमधीते नियुक्तिमधीते खलु कृत्वा, न कर्त्तव्यमित्यर्थः / पक्षे यथाप्राप्तम्इत्येवाधीते, पठति ; अधीयते, पठ्यते। तध्यमौ च अलं रोदनेन, अलं रुदितेन, अलं रुदितम् / तास्मदि,-ब्रीहीन वपत, लुनीत.पुनीत इत्येव यत- निषेधे इति किम् ? अलङ्कारः स्त्रियाः, सिद्धं ध्वे, चेष्टध्वे, समीहवे; ब्रीहीन वप, लुनीहि, पुनी खलु // 44 // हीत्येव यतध्वे, पक्षे ब्रीहीन वपथ, लुनीथ, पुनीथ इत्येव यतध्वे इत्यादि / सामान्यार्थस्येति किम् ? __ अव०-अलम् खलु (इत्येतयोः) अग्रे प्रथमाश्रीहीन वप, लुनीहि इत्येव वपति, लुनाति इति सिः, प्रधानत्वात् / अलं कृत्वा, खलु कृत्वा इत्यत्र मा भूत् / / 43 // खलु विधाय खलु कृत्वा इति धात्वन्तरेण वाक्यं कर्त्तव्यम् / 'तथा पक्षे उदाहरणेषु अलं रोदनेनेप्रव०-'स्वतः,कोर्थः ? स्वरूपेण, साधन- त्यादि उदाहरणत्रयम् / क्त्वान्तयोगे एव खलु शब्दो भेदेन (वा) भिद्यमानस्य एकस्मिन् निषेधवाची भवति इति पक्षोदाहरणेषु खलुशब्दो वाक्येऽनेकस्य धात्वर्थस्य न्यसनं प्रचयः , नोदाहृतः / २'अलं रुदितम्', कोऽर्थः ? निषिद्धम् / तस्मिन्नीदृशे प्रचये गम्यमाने / 'प्रचये नवा०' इति उ'अलङ्कारः', अत्र घन् / 'स्त्रिया' इत्यत्र कर्मणि सूत्रे भृशाभीक्ष्ण्ये यथाविधि चेति नानुवर्तते, षष्ठी // 44 // प्रचये इति भणनात् , सामान्यार्थस्येति भणनाच्च / परा-वरे // 5 / 4 / 45 // रस्वतो भिद्यमानस्योदाहरणं दर्शयति ब्रीहीन वपे- म०व०-परे अवरे च गम्यमाने धातोः 'क्त्वात्यादि / कारकभेदेन दर्शयति / एवं जिनदत्तो- वा' स्यात् / परे,- अतिक्रम्य नदी पर्वतः / अवरे,ऽद्धि, जिनदत्तोऽत्ति / ४'अट्यते घट्यते' इत्य... अप्राप्य नदी पर्वतः, नद्या अर्वा पर्वत इत्यर्थः / (स्याग्रे सक्तून् ) पिब, धानाः साद, ओदनं भुक- पक्षे-नद्यतिक्रमेण पर्वतः, नद्यप्राप्त्या पर्वतः // 45 / / श्वेत्येवाभ्यवहरति अभ्यवद्रियते: पक्षे........... (सक्तून पिबति, धानाः खाद)ति इत्यादि स्वतः प्रव०-१ अतिक्रम्य नदी पर्वतः', भत्र 'अतिकारकभेदयोरुदाहरणं ज्ञातव्यम् / इति उ...(?)। | क्रमणेन= अतिक्रम्य' इति वाक्यम् , नद्याः परं ५वनमटति, गिरिमटति / (एवम् ) नियुक्तिम-.। पर्वत इति उदाहरणार्थः ; एवं बाल्यमतिक्रम्य यौव Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 5 पा०४ सू०.४६-४९ नम् / २अतिक्रम्यतेऽनेन (इति) 'व्यञ्जनाद् घन्' / स्य स प्राक्कालस्तस्मिन् / २'आसित्वा' इति आसि(५।३।१३२), 'मोऽकमियमिरमिनमि०' (4 / 3 / 55) | क्रियाया वर्त्तमानत्वेऽपि भुजिक्रियापेक्षया प्राकालइत्यादिना वृद्धिनिषेधः, अतिक्रम इति सिद्धम् / 45 // | त्वम् , अत एव क्त्वो विकल्पपक्षे वर्तमाना उदानिमील्यादिमेङस्तुल्यकत के // 5 / 4 / 46 / / हृता // 47 / / ख्णम् चाभीक्ष्ण्ये // 5 / 4 / 48 // म० वृ०-तुल्यकर्तृ केऽर्थे वर्तमानेभ्यो निमील्यादिभ्यो मेडश्च धातोः 'क्त्वा वा'स्यात् / अक्षिणी म० वृ०-आभीक्ष्ण्यविशिष्ठे परकालेन तुल्यनिमील्प हसति, मुखं व्यादाय [-प्रसार्य] स्व कत के प्राकालेऽर्थे वर्तमानाद्धातोर्धातोः सम्बन्धे पिति, पादौ प्रसार्य पतति, दन्तान प्रकाश्य जल्पति। 'ख्णम् चकारात् क्त्वा च' स्यात् / भोज भोज याति, भक्त्वा भुक्त्वा याति: पायं पायम.पीत्वा पीत्वा यातिः मेल ,- अपमाय, अपमित्य याचते; अपमातुम , प्रतिदातुं याचते इत्यर्थः, पूर्व ह्यसौ याचते पश्चाद अग्रे भोजं भोजम , अग्रे भुक्त्वा भुक्त्वा याति / अत्र क्त्वाख्णमोहिंस्वादिवत् प्रकृत्योंपाधिद्योतने सामपमयते इति भावः / तुल्यकर्तृ के इति किम् ? चैत्रस्याक्षिनिमीलने मैत्रो हसति // 46 // यं नास्तीत्याभीक्ष्ण्याभिव्यक्तये द्विवचनं भवति / खित्त्वं चौरंकारमाक्रोशति, स्वादुकारं भुङ्क्ते इत्युअव०-१तुल्यो धात्वर्थान्तरेण कर्ता यस्य त्तरार्थम् // 48 // स तुल्यकर्तृ कस्तस्मिन / निमील्यादीनां समानका प्रव०-१शापे व्याप्यात्'(५।४।५२) स्वाद्वर्थाददीर्घात्' लार्थः मेङ स्तु परकालार्थ आरम्भः / तथास्वभावान्मेख धातुर्व्यतिहारे एव वर्त्तते, अन्ये... . (5 / 4 / 53) इत्याद्युत्तरसूत्रार्थ वचनम् (खित्त्वम् ?) / (धातवो व्यतिपूर्वा व्यतिहारे वर्तन्ते ) / निमील ननु क्त्वादिभिर्भावे विधीयमानैः कर्तुरनभिहित त्वात् ओदनं पक्त्वा भुङक्त चैत्र इत्यादिषु कर्त्तरि यादिभ्यो नित्यं क्त्वा, मेङः परतो विकल्पेन क्त्वा, तृतीया प्राप्नोति, नैवम् , भुजिप्रत्ययेनैव कर्तरभिअपमाय, अपभित्या पक्षे- याचित्वाऽपमयते, अप हितत्वान्न तृतीया। “प्रधानशक्त्यभिधाने हि गुणमातुं याचते इति सूत्रार्थे उदाहरणावली द्रष्टव्या / 'मेडो वा मित्' (4 / 3 / 88) इति विकल्पेन मित् / शक्तिरभिहितवत् प्रकाशते" इति न्यायः / प्रधानेन त्यादिपदेन शक्तयभिधानम् / गुणशक्तिः, कोऽर्थः ? याचेः परतः पूर्वकालेऽपि सति क्त्वा न भवति, मेङः परतः परकालभाविन्या क्त्वया याचिप्राक्काल अप्रधानपदशक्तिः // 48 // स्योक्तत्वात् / इयमवचूरिः पूर्व ह्यसौ याचते पश्चाद पूर्वा-ऽग्रे-प्रथमे // 5 / 4 / 49 / / पमयते इत्यस्याग्रे ज्ञातव्या / एवं चैत्रस्यापमाने म० वृ०-पूर्व अग्रे प्रथम इत्युपपदेषु परकामैत्री याचते // 46 // लेन तुल्यकत के प्राक्कालेऽर्थे धातोर्धातोः सम्बन्धे प्राकाले // 5 / 4 / 47 // 'रुणम् वा' स्यात् / अनाभीक्ष्ण्यार्थ वचनम् / पूर्व भोजं याति, पूर्व भुक्त्वा याति / अग्रे भोजम् , अग्रे म० वृ०-परकालेन धात्वर्थेन तुल्यकर्तृ के भुक्त्वा याति / प्रथमं भोजम् , प्रथमं भुक्त्वा याति / प्राक्कालार्थो वर्तमानाद् धातोः धातोः सम्बन्धे 'क्त्वा वर्तमानादयोऽपि,-पूर्व भुज्यते ततो याति, . षा' स्यात् / २आसित्वा भुङ क्ते, भुक्त्वा याति ; 'अग्रेऽपि एवम् |4|| पक्षे आस्यते भोक्तुम् / तुल्यकर्तृक इत्येव- भुक्तवति गुरौ शिष्यो व्रजति / प्राकाल इति किम् ? अव०-'पूर्वाग्रे०' इति सूत्रे पूर्वादयः शब्दा व्यापारान्तरापेक्षे प्राकालत्वे प्रवर्त्तन्ते, वजनापेक्षे भुज्यते पीयते चानेन // 4 // क्त्वाख्णमौ प्रवर्तेते इति नोक्तार्थता; ततश्च पूर्व अव०-प्राक्= पूर्वः कालो यस्य तुल्यकर्तृक- / भोजं ब्रजति, पूर्व भुक्त्वा ब्रजति इत्यादीनामुदाहर Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुणम् णम्प्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् [247 णानामिदं व्याख्यानं ज्ञातव्यम् , अन्यभोक्तृभुजि- | ऽर्थे करोतेर्धातुसम्बन्धे 'रूणम् वा' स्यात् , शापे = क्रियाभ्यः सकाशात अथवास्वेभ्यः एवाध्ययनादिभ्यः / आक्रोशे गम्यमाने / पचौरंकारमाक्रोशति / शाप क्रियान्तरेभ्यः सकाशात् पूर्व भोजनं कृत्वा तदनन्तरं इति किम् ? चौरं कृत्वा हेतुभिः कथयति / / 52 / / व्रजतीत्यर्थः / / पूर्वप्रथमसाहचर्यादग्रेशब्दः कालवाची इत्यर्थः / / 49 // __ प्रव०-'करोतिरिहोच्चारणार्थः, चौरं कृत्वा= चौरशब्दमुच्चार्य आक्रोशति, चौरोऽसि इत्याक्रोशति अन्यवेकथमित्थमः कृगोऽनर्थकात् इति भावः। एवं व्याधंकारमाक्रोशति // 52 // // 54 / 50 // स्वाद्वाददीर्घात् // 5 / 4 / 53 // म. वृ०-एभ्यः परात्तुल्यकर्तृ केऽर्थे करोते म० वृ०-स्वादोरणे वर्तमानाददीर्वान्ताद् रनर्थकात् 'धातुसम्बन्धे 'ख्गम् वा' स्यात् / अन्य व्याप्यात्परस्मात्तुल्यकर्तृ के करोतेर्धातुसम्बन्धे ख्णम् थाकारम् , एवंकारम् ,कथंकारम् ,इत्थंकारं भुक्त; पक्षे क्त्वैव,-अन्यथा कृत्वा,एवं कृत्वा, इत्थं कृत्वा मु वा' स्यात् / स्वाकारम् , सम्पन्नंकारम् , मिष्टंक्ते / एवमुत्तरत्रापि / आनर्थक्यं करोतेरन्यथा कारम् , 'लवर्णकारं भुङ्क्ते , पक्षे-स्वादु कृत्वा, दिभ्यः पृथगर्थाभावात् / अनर्थकादिति किम् ? मिष्टं (कृत्वा ),लवणं कृत्वा भुङ्क्ते / अदीर्घादिति किम् ? स्वाद्वीं कृत्वा, स्वादूकृत्य, सम्पन्नां कृत्वा अन्यथा कृत्वा शिरो भुङ क्ते // 50 / / यवागू भुक्ते // 53 // प्रव०-'नमोऽर्थान्' (7.3 / 174) इत्यनेन कच् समासान्तः // 50 // प्रव०-अस्वादोः स्वादोः करणम् , चि, एवं स्वादूकृत्य साध्यते / तथा स्वादुंकारं यवागू भुक्त, यथा-तथादीर्घोत्तरे // 5 / 4 / 51 // अस्वादु स्वादु कृत्वा स्वादुकारं यवागू मुक्त इति म० वृ०-यथातथाशब्दाभ्यां परातल्यकर्तृ के- | प्रयोगद्वये (?प्रयोगे)डीप्रत्ययच्चिप्रत्यययोर्विकल्पिऽर्थे'ऽनर्थकात् करोतेर्धातुसम्बन्धे ‘रुणम् वा' स्या- तत्वाही? न भवति,दीर्घाभावाच्च ख्णम् प्रत्ययःसिद्धः। त् , रईर्योत्तरे [ पुरुषः ] यदि ईय॑न पृच्छते तथा सम्पन्नंकारं यवागू भुखक्त इति अत्र तु सा[पृच्छकाय ] उत्तरं दत्ते / कथं भवान् भोक्ष्यते | मान्येन पूर्व सम्पन्नंकारमिति निष्पाद्य पश्चात् यवाइति पृष्ठोऽसूयया तं प्रत्याह-यथाकारमहं भोक्ष्ये, गूसम्बन्धे कृते सम्पन्नंकारं यवागू भुङ्क्ते इति तथाकारमहं भोक्ष्ये, किं तवानेन / ईर्योत्तरे इति / प्रयोगः साध्यते इत्थम् / 'लुनाति वैरस्यमिति किम् ? यथाकृत्वाऽहं भोक्ष्ये तथा द्रक्ष्यसि / अनर्थ- / लवणम् , नन्द्यादित्वादनः, गणपाठात् णत्वम् , कादित्येव- यथा कृत्याहं शिरो भोक्ष्ये तथा कृत्वाहं लवणेन संसृष्टम् ( इति) 'लवणादः' (6 / 4 / 6) इत्यशिरो भोक्ष्ये, किं तवानेन / / 51 // नेन अप्रत्ययः / / 53 / / अव०-'वर्तमानाद् / ईय॑तीति रईयः, अच् , विदृग्भ्यः कात्स्न्ये णम् // 5 / 4 / 54 // ईय॑स्य सरोषपुरुषस्य उत्तरम् ईर्योत्तरम् , तस्मि म० वृ०- कार्यविशिष्टाद् व्याप्यात परेभ्यन् / उकिं ते मया, यथाहं भोक्ष्ये, तथाई भोक्ष्ये स्तुल्यकर्तृ के प्राक्काले वर्तमानेभ्यो विदिभ्यो दृशइत्यर्थः // 51 // श्व धातुसम्बन्धे 'णम् प्रत्ययो वा' स्यात् / 'अतिथिशापे व्याप्यात् / / 5 / 4 / 52 // वेदं भोजयति, कन्यादर्श वरयति / बहुवचनात् ___म० वृ०-व्याप्यात्कर्मणः परात्तुल्यकर्त के- / त्रयाणामपि विदीनां ग्रहणम् / कास्य इति किम् * 'अन्यथा भुङ्क्ते' इत्यस्य योऽर्थः स एव 'अन्यथाकारं भुङ्क्ते' इत्यस्येति करोतेरन्यथादिभ्यः पृथगर्थाभावः / Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०५पा०४.सू० 55-58 - ? अतिथिं विदित्वा भोजयति, कन्यां दृष्ट्वा वर पूरणं न सम्पन्नं तावत आसनं शयनमध्ययनं न यति // 54 // करोति इति प्राक्कालता घटते, चर्म पूरयित्या आ स्ते इत्यर्थः // 56 // प्रव०-१अतिथीन विदित्वा वित्त्वा वा वृष्टिमान ऊलुक चास्य वा // 5 / 4 / 57 / / अतिथिवेदम इति वाक्यम / यं यमतिथिं जानाति ___ म० वृ०-व्याप्यात्परात्पूरयतेर्धातुसम्बन्धे 'णम्' लभते विचारयति वा तं सर्वं भोजयतीत्यर्थः / स्यात् , अस्य='पूर ऊकारस्य वा लुक्', समु२यां यां कन्यां पश्यति तां तां सर्वां बरयती दायेन चेत् वृष्टिमानं [वृष्टीयत्ता] गम्यते / 'गोत्यर्थः / उ‘वरण ईप्सायाम', 'चुरादिभ्यो णिच्' पदप्रम , गोष्पदपूरं वृष्टो देवः ;2 सीताप्रम , सीता(३।४।१७। इति णिच् ), 'अतः' ( 4 / 3 / 82 ) इति पूरं वृष्टो मेघः२ / गोष्पदप्रमिति प्रातेर्धातोः 'आतो अलोपः / ४'विदक ज्ञाने' 'विलती लाभे' 'विदिप डोऽहावामः' ( 5 / 176) इति डेन, गोष्पदपूरविचारणे' इति विद्वयं ग्राह्यम , न 'विदिंच सत्तायाम', अकर्मकत्वात् / सूत्रोक्त-"निरनुबन्धग्रहणे न मिति अणा च क्रियाविशेषणत्वे सिध्यति, एवं सर्वे . णमन्ताः प्रयोगाः / तत्र णमविधानमव्ययत्वेन तरासानुबन्धग्रहणम" इत्युपतिष्ठत इति हेतोर्बहुवचनात् त्रयोऽपि विदो ग्राह्याः / विद्यतेरकर्मकाच्चारुयोपि (? माद्यर्थमनुस्वारश्रवणार्थ च, तेन गोष्पदप्रंतराम् , विद्यतेरकर्मकत्वान्न ग्रहणम् ) // 54 // ग्रोष्पदपंतमाम् ; ग्रोष्पदप्ररूपमित्यादि // 57 / / अव०-गोः पदं गोष्पदम् , “वर्चस्कादिष्व." यावतो विन्द-जीवः // 5 / 4 / 55 // (3 / 2 / 48) इति षोन्तः, गोष्पदस्य पूरणं-गोष्पदप्रम् / म० वृ०-कान्यविशिष्टाद् व्याप्याद् याव-. श्यावता गोष्पदं सीता वा पूर्यते पूरणा भवति ताव च्छब्दात् पराभ्यां विन्दजीविभ्यामेककत केऽर्थे / त्प्रमाणो मेघो वृष्ट इत्यर्थः / गोष्पदप्रमित्यादयः धातोः सम्बन्धे ‘णम् वा' स्यात् / विन्देति शनिर्दे-. सर्वे / 4 गोष्पदप्ररूपमित्यादि', आदिशब्दात् गोष्पशाल्लाभार्थस्य ग्रहणम / यावद्वेदं भुक्त, यावल्ल दप्रकल्पम , गोष्पदप्रदेश्यम , गोष्पदप्रदेशीयमिभते तावद् भुङक्त इत्यर्थः / यावज्जीवमधीते, याव-. त्यादयः सिद्धाः, अन्यथा प्रातेर्डे सति, पूरेः अणि ज्जीवति तावदधीते इत्यर्थः / / 55|| सति, गोष्पदप्रतरम् , गोष्पदपूरतरमित्याद्येव स्यात् // 51 // अव०-जीवधातोः पूर्वकालासम्भवादपूर्वकाल चेलार्थात् कनोपेः // 5 / 4 / 58 / / एव णविधिः, एतच्चोपलक्षणं विन्देरप्यपूर्वकाले ___म० वृ०-चेलार्थात् परात् कोपयतेस्तुल्यकर्तृएव विधिः ; अत एव 'यावतो विन्दजीव' इत्यस्य केऽर्थे वृष्टिमाने गम्यमाने 'णम् नवा' स्यात् / सूत्रार्थे प्राकाले इति नोक्तम् / यावच्छब्दस्य काल- पचेलकोपम् , २वस्त्रकोपम् , पटिकानोपम् , कम्बलवाचित्वात 'कालाध्व०' ( 2 / 2 / 23) इति कर्मत्वम् / उक्नोपं वृष्टो मेघः // 58 // यावतो वेदनं यावद्वदमिति वाक्यम् // 55 / / अव०-“चेलार्थात् .............. (क्नोपः' इति चर्मोदरात्पूरः / / 5 / 4 / 56 // सूत्रे अर्थ )ग्रहणादत्र स्वरूपपर्यायविशेषाणां त्रयाणा.. म० वृ०-व्याप्याभ्यां चर्मोदराभ्यां परात्तु मपि ग्रहणम् / तेन पटिकानोपमित्यादी चेलविशेल्यकर्तृ केऽर्थे पूरयतेर्धातोः सम्बन्धे ‘णम् वा' षणादपि भवति / 'चेलस्य कोपनं= चेलक्नोपम् , स्यात् / चर्मपूरमास्ते, उदरपूरं शेते, उदरं पूरयि एवं सर्वत्र / २एवं वसनक्नोपम् / चेलक्नोपम; स्वा शेते इत्यर्थः // 56 // कोऽर्थः ? यावता चेलं वस्त्रं कम्बलं वा क्नूयते आर्दीभवति तावद् वृष्ट इत्यर्थः / उकम्बलंक्नोपमिप्रव०-'चर्मपूरमास्ते' इति कोऽर्थः ? यावत् / त्यत्र चेलविशेषत्वात् णम् भवति / / 58 // . Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्यैव धातोः सम्बन्धे णम्प्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / . [ 249 गात्र-पुरुषात् स्नः // 5 / 4 / 59 // त्यर्थः], २जीवग्राहं गृह्णाति [जीवं गृह्णातीत्यर्थः / 61 / म० वृ०-गात्रपुरुषाभ्यां परादन्तभूतण्यर्थात् अव०-१'अकृतकारम्', अकृतस्य करणमिति स्नातेवृष्टिमाने ‘णम् नवा' स्यात् / गात्रस्नायम् , वाक्यम् / २जीवस्य ग्रहणम् (इति) वाक्यम् / / 61 / / पुरुषस्नायं वृष्टो मेघः / [गात्रस्य स्नापनं पुरुषस्य निमूलात्कषः / / 5 / 4 / 62 // स्नापनम् (इति) वाक्यम् ] // 59 // म० वृ०-निमूलात् [व्यप्यात् ] परात्कषेः प्रव०-'यावता गात्रं-शरीरं पुरुषश्च स्नाप्यते 'तस्यैव धातोः सम्बन्धे णम् वा' स्यात् / निमूलतावत् वृष्टो मेघः / / 59 // काषं कषति, पक्षे निमूलस्य काषं कषति // 62 // शुष्क-चूर्ण-लक्षात् पिषस्तस्यैव / / 5 / 4 / 60 // ___ अव०-'निमूलमित्यत्र अत्ययेऽर्थेऽव्ययीम० वृ०-एभ्य परात् पिषे-'र्णम् नवा', भावसमासः, निर्गतानि मूलान्यस्येति बहुव्रीहिर्वा / तस्यैव पिषधातोः सम्बन्धे सति / 'शुष्कपेषम् , | निमूलस्य कषणम्= निमूलकाषम् , निमूलं कषती चूर्णपेषम् , उरूक्षपेषं पिनष्टि; एवं शुष्कपेषं पिष्टः, त्यर्थः // 62 // शुष्कपेषं पेष्टव्यः / अत्र प्रकरणे प्रयोगानुप्रयोगक्रि हनेश्च समूलात् // 5 / 4 / 63 // ययोरैक्यात्तुत्यक कत्वम् प्राक्कालत्वं नास्ति इति पक्षे क्त्वा न भवति, घनादय एव तु भवन्ति, म. वृ०-समूलशब्दात् [व्याप्यात् ] पराद् "शुष्कस्य पेषं पिनष्टि // 6 // हन्तेः कषेश्च 'तस्यैव धातोः सम्बन्धे णम्' वा स्यात् / समूलघातं हन्ति, समूलकाषं कषति // 63 / / अव०-'शुष्कं पिनष्टीत्यर्थः, एवं चूर्ण अव०-समूलस्य हननं-समूलघातम् , 'किणति पिनष्टि, रूक्षं पिनष्टीत्यर्थः / ४शुष्कपेषं पिष्ट' घात्' (4 / 3 / 100) / समूलम् (इति) अत्र साकइत्यादौ क्तप्रत्ययादिभिरुक्तेऽपि व्याप्ये तदुपपदता, ल्येऽव्ययीभावः, बहुव्रीहिर्वा / समूलं कषणमथवा कोऽर्थः ? पिषधातुसम्बन्धताऽस्त्येव इत्यक्षराणि समूलस्य कषणमिति वाक्ये समूलकापम् // 63 / / पूर्वम् , पश्चात् अत्र प्रकरणे प्रयोगेत्याद्यक्षराणि करणेभ्यः / / 5 / 4 / 64 / / पठितव्यानि / 'शुष्कचूर्ण' इत्यारभ्य ‘उपात् किरो लवने' (5 / 4 / 72) इत्यन्तं यावत् 'तस्यैव धातोः ___म० वृ०-करणात् कारकात् परा द्वन्तेः 'तस्यैव सम्बन्धे' इत्यधिकारो ज्ञातव्यः / तस्यैव धातोः धातोः सम्बन्धे णम् वा' स्यात् / पाणिघातं कुड्सम्बन्धे सति प्रायस्तत्र क्रियाविशेषणमेव भवती यम् [भित्तिम् ] आहन्ति, पादघातं शिलां हन्ति / त्यर्थः। 'तथा 'शुष्कस्य पेषं पिनष्टि', अत्र सामान्य बहुवचनं व्याप्त्यर्थम् , तेन करणपूर्वात् हिंसादपि विशेषभावविवक्षया च धातुसम्बन्धः / यदाहु: हन्तेरनेनैव णम् ,- अस्युपघातमरीन हन्ति // 64 // “सामान्यपुरवयवपुषिः कर्म भवति" इति / शुष्क अव०-पाणिना हस्तेन पादेन कुडय शिलां स्य पेषं पिनष्टि इदमुदाहरणं णम्विकल्पपक्षे घब हन्तीत्यर्थः / २एवं शरोपघातं मृगान् हन्ति // 64 / / न्तं ज्ञातव्यम् , इदं सम्भाव्यते // 60 // स्व-स्नेहनार्थात् पुष-पिषः // 5 / 4 / 65 // कृग्ग्रहोऽकृतजीवात् // 5 / 4 / 61 // म०३०-स्वार्थात् स्नेहनार्थाच्च करणात् [करम० वृ०-अकृतजीवपराभ्यां [व्याप्याभ्यां] | णवाचिनः] पराद् यथासङ्ख्य पुषः पिषश्च 'तस्यैव यथासङ्ख्य कृग्ग्रहिभ्यां 'तस्यैव धातोः सम्बन्धे / धातोः सम्बन्धे णम् वा स्यात् / स्वपोषम् , आत्मणम् वा' स्यात् / 'अकृतकारं करोति [अकृतं करोती- J पोषम् , गोपोषम् , [महिषीपोषम् ,] पितृपोषम् , Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०५ पा०४ सू०६६-७१ [मातृपोषम् , धनपोषम् , रैपोषं २पुष्णाति, पु. / म० वृ०-आधारवाचिनः पराद् बन्धेः 'तस्यैव ष्यति, पोषति वा / स्नेहनार्थात् ,- उदपेषम् , | धातो: सम्बन्धे णम् वा स्यात् / चक्रबन्धं वद्धः, घृतपेषं [तैलपेषं] पिनष्टि // 65 / / चारकबन्धं बद्धः इत्यादि // 68|| प्रव०-'स्निह्यतेऽनेनेति स्नेहनम् , स्निह्यते अव०-'चारकबन्धं बद्धः इत्यादि', आदिसिच्यते येनोदकादिना तत् स्नेहनमुच्यते, स्वश्व- शब्दात् कूटबन्धं बद्धः, गुप्तिबन्धं बद्धः / एषामुदास्नेहनं च स्वस्नेहने ; स्वस्नेहने... (ऽर्थो यस्य) हरणानां चक्रादिषु बद्ध इत्यर्थः / ग्रामे बद्धः, हस्ते स स्वस्नेहनार्थः, तस्मात् / आत्मा, आत्मीयम् , बद्धः इत्यत्र बहुलाधिकारात् ‘णम् न' भवति // 68 / / ज्ञातिः धनं च स्वमुच्यते / २'पुषश् पुष्टी', 'पुषंच् कत्तु जीव-पुरुषानश्वहः // 5 / 4 / 69 / / पुष्टौ, ४'पुष पुष्टौ', स्वादिभिः पुष्णातीत्यर्थः // 65 // म० वृ०--कर्तृवाचिभ्यां जीवपुरुषाभ्यां पराभ्यां हस्तार्थाद् ग्रह-वर्ति-वतः // 5 / 4 / 66 // यथासङ्ख्य नशिवहिभ्यां 'तस्यैव (धातोः) सम्बन्धे / ' म० वृ०-हस्तार्थात् करणात् परेभ्यो ग्रहवर्ति वा णम्' स्यात् / २जीवनाशं नश्यति, जीवनश्यवृद्भ्यः “तस्यैव धातोः सम्बन्धे वा णम्" स्यात् / / तीत्यर्थः; पुरुषवाहं वहति पुरुष: / कर्तुरिति हस्तग्राहम , करग्राहम् , पाणिग्राहं गृह्णाति / वर्ति किम् ? जीवेन नश्यति, पुरुषं वहति // 69 / / वृत इति वर्ततेय॑न्तस्याण्यन्तस्य च ग्रहणम् / __अव०-'पुरुष इति क्रियाशब्दार्थे अप्रत्ययोऽहस्तवतं वर्त्तयति, एवं करवतं वर्त्तते, तथा हस्त- नेकार्थत्वात् धातूनाम् / २जीवस्य कर्तनशनं जीवनावर्त्त वर्त्तते [हस्तेन वर्तते इत्यर्थः] // 66 // शमिति वाक्यम् / पुरुषः प्रेष्यो भूत्वा वहती त्यर्थः / / 69 // प्रव०-'हस्तेन ग्रहणमिति वाक्ये हस्तग्राहम् / __ऊर्ध्वात् पू:-शुषः / / 5 / 4 / 70 // हस्तेन वर्त्तयतीत्यर्थः // 66 / / म० वृ०-कर्तृवाचिनः ऊर्ध्वशब्दात् [परात् ] बन्धेर्नाम्नि / / 5 / 4 / 67 / / पूरः शुषश्च (तस्यैव ) धातोः सम्बन्धे णम् वा' म. वृ०-'बन्धेर्बन्धनस्य यन्नाम=संज्ञा तद् स्यात् / 'ऊर्ध्वपूरं पूर्यते, २ऊर्ध्वशोषं शुष्यति / 70 / विषयाकरणात्परात् बन्धिधातो-र्धातुसम्बन्धे णम् प्रव०-ऊर्ध्वपूरम्' इत्यत्र पूर् धातुर्दैवादिकः वा' स्यात् / क्रौश्वबन्धं बद्धः इत्यादि / क्रौञ्चा- 'पूरैचि आप्यायने' इत्ययं ग्राह्यः, न तु 'पूरण आप्यादीनि बन्धनविशेषनामानि / क्रौश्चाद्याकारो बन्धः यने' इति चुरादिः, सूत्रे 'पूरि' इति अकरणात् / क्रौञ्चादिरित्युच्यते, तेन बन्धेन बद्ध इत्यर्थः // 67 / / 'ऊर्ध्वपूरं पूर्यते', कोऽर्थः ? ऊर्ध्वः पूर्यते इत्यर्थः / २'ऊर्ध्वशोषम्', कोऽर्थः ? ऊर्ध्व एव सन् शुष्यतीअव०-'बन्धिरिति प्रकृतिर्नामविशेषणं च / त्यर्थः / / 70 // तत्र यदा प्रकृतिस्तदा स्वरूपे इप्रत्ययः / यदा नाम ___ व्याप्याच्चेवात् // 5 / / 71 // विशेषणं विवक्ष्यते तदा अर्थे इप्रत्ययः / २'क्रोश्चबन्धं बद्धः इत्यादि', आदिशब्दात् मयूरिकाबन्धं म० वृ०-व्याप्यात् चकारात् कर्तुश्च इवात्= बद्धः, महिषीबन्धं बद्धः, मर्कटबन्धं बद्धः, गोबन्धं १इवार्थात् परात् धातोः 'तस्यैव धातोः सम्बन्धे वा बद्धः, महिषीबन्ध बद्धः, अट्टालिकाबन्धं बद्धः, च णम्' स्यात् / रसुवर्णनिधायं निहितः, एवं उरत्नण्डालिकाबन्धं बद्धः इति / / 67 / / निधायम् , एवमोदनपाकं पक्कः, कर्तुश्च,- काक नाशं नष्टः, जमालिनाशं नष्टः, अभ्रविलायं आधारात् / / 5 / 4 / 68 // विलीनः / / 71 // Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भन्यस्य धातोः सम्बन्धे णम्प्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् [251 ' प्रव०-'उपमानार्थात् इत्यर्थः / 'सुवर्णमिव / पक्त्वा भुज्यते इति / 'मूलकेनोपदंश्य इति वानिहित इत्यर्थः / एवं घृतनिधायम् , शाकक्लेशं क्यम् // 73 // क्लिष्टः। “काक इव नष्ट इत्यर्थः / अभ्रमिव वि हिंसादेकाप्यात् / / 5 / 4 / 74 / / लीन इत्यर्थः // 7 // म० वृ०-१हिंसार्थाद्धातोः सम्बध्यमानेन धातु____उपात् किरो लवने // 5 / 4 / 72 / / | ना सहैकाप्यात् तृतीयान्तेन योगे 'तुल्यकत केम. वृ०-उपपूर्वात किरतेलवनेऽर्थे वर्तमानस्य | ऽर्थे वर्तमानाण्णम् वा' स्यात् / दण्डेनोपघातम् , प"अन्यस्य धातोः सम्बन्धे सति णम्वा" स्यात् / "दण्डोपघातं गाः सादयति ; पक्षे दण्डेनोपहत्य / लिवन इति वचनात्तस्यैवेति निवृत्तम् / उपस्कारं एकाप्यादिति किम् ? दण्डेनाहत्य चौरं गोपालो मद्रका लुनन्ति / लवन इति किम् ? उपकीर्य गाः खेटयति // 74 / / गच्छति // 72 // प्रव०-'प्राणिविनाशवाचिनो धातोः / “एका प्रव०-इतः “सूत्रादारभ्य अन्यस्य धातोः स प्यात्', कोऽर्थः ? एककर्मकात् / दण्डेनोपघातमिम्बन्धे" इत्यधिकारः सर्वसूत्रेषु आ पादसमाप्तेति त्यादिष्वपि 'तृतीयोक्तं वा' (3 / 1 / 50 / इति विकव्यः / रलवने इति करणात् तस्यैव धातोः सम्बन्धे ल्पेन समासः), दण्डेन उपहननम् (इति) वाक्यम् / इति निवृत्तम् / 3उपकीर्य= उपस्कारम् , सिः, 'अ 'सादयति', अत्र षद् धातुः, णिग्। किणति घात्' व्ययस्य' (3 / 2 / 7 / इति सिलोपः), 'उपस्कारं मद्र०' (4 / 3 / 100) (इति हन्तेर्घातादेशः), दण्डेनोपघातइति कोऽर्थः ? पूर्व विक्षिपन्तः पश्चात् लुनन्ती मित्युदाहरणाये एवं खड्गेन प्रहारम् , खड्गप्रहार त्यर्थः / / 72 / / शत्रून विजयते; दण्डेनाताडम् , दण्डाताडं गाः कल यति इत्यपि ज्ञेयम् / / 74 // दशेस्तृतीयया / / 5 / 4/73 // उपपीड-रुध-कर्षस्तत्सप्तम्या' / / 5 / 4/75 // म० वृ०-तृतीयान्तेन योगे तुल्यकर्तृ कार्था म० वृ०-तृतीयायुक्तसप्तम्यन्तेन योगे उपपूर्वदुपपूर्वाद् दंशे-'रन्यस्य धातोः सम्बन्धे णम् वा' भ्यः पोडरुधकर्षतिभ्यस्तुल्यकर्तृ केऽर्थे [वर्तमानेस्यात् / मूलकेनोपदंशं. भुङ क्ते, 'मूलकोपदंशं भ्यः] 'धातोः सम्बन्धे वा णम' स्यात् / [तृतीया-1 भुक्ते ; पक्षे मूलकेनोपदश्य भुक्क्ते // 73 // २पार्थोपपीडम् , [ सप्तमी-] उपार्थोपपीडं शेते / व्रजोपरोधं गाः स्थापयति / पाण्युपकर्ष धानाः पिप्रव०- मूलकेनोपदंशमित्यादिकमुदाहरण नष्टि गृह्णाति वा / / 5 / / द्वयं ज्ञातव्यम् , परमत्र 'तृतीयोक्तं वा' (3 / 1 / 50) इत्यनेन विकल्पेनान्यस्तत्पुरुषसंज्ञः समासः इति प्रव०-'उपपीड.' इति सूत्रे कर्म ( ? कर्ष) एकत्र तृतीया स्थिता, पक्षे तृतीया लुप्यते; इत्थमुदा- इत्यत्र ड ( ? नि)........................(देशस्य सौत्रहरणद्वयं भवति / एवमार्द्रकोपदंशं भुङ्क्ते / त्या)त् अकारलोपः / 'तया तृतीयया युक्ता सप्तमी उपर्दशिधावपेक्षया मूलकादि कर्मापि घटते, परं =तत्सप्तमी, तया / तृतीयान्तोपपदेन इत्यर्थः / प्रधानाया भुजिक्रियाया अपेक्षया करणमेव भवति पार्वाभ्यामुपपीडनम् , उपार्श्वयोः उपपीडनमिति इति मूलकादिशब्दात् तृतीयैव भवति / यतः त्या- तृतीयासप्तम्योर्वाक्ये कृते पार्वाभ्यामुपपीड शेते, दिप्रधानक्रियाप्रयुक्ते हि कारके गुणक्रिया कृत्प्र- | पार्बोपपीडं शेते ; सप्तमी, पार्श्वयोरुपपीडं शेते, त्ययोत्पन्ना न स्वानुरूपां विभक्तिमुत्पादयितुमलम् , | पार्बोपपीडं शेते; इत्थमुदाहरणावली ज्ञातव्या, वृत्तौ अप्रधानत्वात् ; यथा- इज्यते ग्रामो गन्तुम् , ओदनः / संक्षिप्य उदाहरणावली लिखिताऽस्ति / एवं ब्रजेनो Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 5 पा० 4 सू० 76-79. परोधम् , ब्रजोपरोधम ; व्रजे उपरोधम् , जोपरोधं / अव०-एवं नाम त्वरते यदावश्यकादिकृत्यगाः स्थापयति / पाणिना उपकर्षम् , पाण्युपकर्ष / मपि नापेक्षते इत्यर्थः / / 7 / / धानाः पिनष्टि, पाणावुपकर्ष पाण्युपकर्ष धाना / द्वितीयया // 5 / 4 / 78 // गृह्णाति / कर्ष इति शवनिर्देशात् भौवादिकस्य स्वभा- | वादाकर्षणार्थो वर्तमानस्य द्विकर्मकस्य ग्रहणम् , म. वृ०-द्वितीयान्तेन योगे त्वरायां गम्यकर्षन्ति शाखां ग्रामं कुटुम्बिनः / तौदादिकस्य विले मानायां तुल्यकर्तृ केऽर्थे धातो-र्णम वा' स्यात् / खनार्थस्य कृषेर्न ग्रहणम् , भूमावुपकृष्य तिलान् वपति लोष्टप्राहं युध्यन्ते, एवं यष्टिग्राहम [युध्यन्ते], दण्डोइत्यत्र न णम् / केचिदन्योपसर्गादपि,-बजानुरोधम्। द्यामं धावति / पक्षे लोषान , यणीहीत्वा युध्यन्ते उपेति किम् ? पार्श्वेन निपीड्य तिष्ठति / / 75 / / // 78 // 'प्रमाणसमासत्योः२ // 5 / 4 / 76 // अव०-अत्रापि लोटान ग्राहम् , लोष्टग्राहम् : एवं यष्टीर्लाहम् , यष्टिग्राहम ; दण्डमुद्यामम , दण्डोम० वृ०-प्रमाणसमासत्त्योर्गम्यमानयोस्तु द्याममित्येव / एवं नाम यो भटास्त्वरन्ते यदायुतीयान्तेन सप्तम्यन्तेन योगे धातोस्तुल्यकर्तृ केऽर्थे धग्रहणमपि नाद्रियन्ते, यत किश्चिदासन्नं हस्ते [वर्तमानात् ] 'धातुसम्बन्धे णम् वा' स्यात् / प्रमा चटितं तद् गृहीत्वा युद्धयन्ते इत्युदाहरणार्थः / णे,- द्वयन गुलोत्कर्ष गण्डिकाश्छिनत्ति / समा वर्त्तमामात् धातुसम्बन्धे / त्वरायामित्येव- खड्गं सत्तौ,-केशग्राहं युध्यन्ते, एवं हस्तग्राहम , अस्य- गृहीत्वायुद्धयन्ते / योगविभाग उत्तरार्थः / / 78 / / पनोदं युध्यन्ते // 76 / / स्वाङ्ग नाध्रुदेण' // 5 / 4 / 79 // प्रव०-प्रमाणमायाममानम् / समासत्तिः म० वृ०-अध्र वेण स्वाङ्गेन द्वितीयान्तेन संरम्भपूर्वकः सन्निकर्षः, कोऽर्थः ? सामीप्यम् / द्व- योगे धातो-र्णम वा' भवति / भ्रू विक्षेपं जल्पति, . योरङ गुल्यो; समाहारः द्वयङ गुलम् , 'संख्या- अक्षिनिकाणं हसति, पादावनुलेप नमति; पक्षे व्ययादङ गुले.' (7 / 3 / 124) इत्यनेन डसमासान्तः। भ्र वौ विक्षिप्य वक्ति (इत्यादि) ।स्वाङ्गेनेति किम् ? अत्रापि पूर्वसूत्रवत् द्वयङ गुलेनोत्कर्षम् , द्वय गु- कफमुन्मूल्य [लखित्वा] जल्लति। अध्र वेणेति किम् ? लोत्कर्षम् ; सप्तमी,-द्वयङ गुले उत्कर्षम् , द्वयन गु- शिर उक्षिप्य वक्ति / / 79 // .. लोत्कर्ष गण्डिकाश्छिनत्ति; गण्डिकाः इक्ष्वादेः पर्वसम्बन्धिनः; समासत्ती, केशैः ग्राहम् , केशग्राहम् ; अव०-१ अविकारोऽद्रवं मूर्त,प्राणिस्थं स्वाङ्गमुच्यते / केशेषु ग्राहम , केशग्राहम , एवमुदाहरणावली ज्ञात- च्युतं च प्राणिनस्तत्तन्निभं च प्रतिमादिषु' // 1 // व्या / "युद्धसंरम्भादत्यन्तं सन्निकृष्य अत्यासन्नी- इति स्वाङ्गलक्षणम / तथा यस्मिन्नङ्गे छिन्ने भूय भटा युद्धयन्ते इत्यर्थः // 76 / / भिन्ने वा प्राणी न म्रियते तद् अधु वमुच्यते / उतेन ईदृशेन स्वाङ्गेन अध्र वेण विशेषणेन युक्तेन पञ्चम्या त्वरायाम् / / 5 / 4 / 77 // द्वितीयान्तेन उपपदेन सह योगे सति तुल्यकर्तृम० वृ०-त्वरायां गम्यमानायां पञ्चम्यन्तेन | केऽर्थे वर्तमानाद् धातोः सम्बन्धे / अत्रापि भ्रुवो . योगे तुल्यकर्तृ केऽर्थे वर्तमानाद्धातो-र्धातुसम्बन्धे / विक्षेपम् , भ्रविक्षेपमिति युक्तिः / 'अक्षिणी निणम् वा' स्यात् / शय्याया उत्थायम् , शय्योत्थायं / काणम् , अक्षिनिकाणम् / (एवम् ) केशान परिधाधावति; पक्षे शय्याया उत्थाय धावति / त्वराया- यम् , केशपरिधायं नृत्यति / (एवम् ) प्रतिमाया मिति किम् ? आसनादुत्थाय याति // 77|| पादानुलेपम् / / 79 / / Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीप्साऽऽभीक्ष्ण्ये णम्प्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 253 परिक्लेश्येन // 5 / 4 / 80 // नमिदं कृ (तम् ), अन्यथा समासो....(न स्या)त् म० वृ०-'परिक्लेश्येन स्वाङ्गेन द्वितीयान्तेन // 81 // धातो-र्णम् वा' स्यात् / ध्रुवार्थोऽयमारम्भः / २उरः कालेन तृष्यस्वः क्रियान्तरे / / 5 / 4 / 82 // प्रतिपेषं युध्यन्ते, पक्षे उरांसि प्रतिपिष्य / / 8 / / / म. वृ०-क्रियान्तरे वर्तमानाभ्यां तृषि-असू भ्यां धातुभ्यां द्वितीयान्तेन कालवाचिना योगे धिाअवल-परि=समन्तात् क्लिश्यमानं पीड्य तुसम्बन्धे] 'वा णम्' स्यात् / 'यहं तर्षे द्वयहतर्षम् मानं परिक्लेश्यमुच्यते / परिक्लेश्येन पीड्यमानेन [द्वयहं तर्षित्या गावः पिबन्ति; 'द्वयहमत्यासंद्वयहाईदशेन स्वाकुन द्वितीयान्तेन योगे तल्यकत केऽर्थे त्यासम् [द्वयहमत्यस्य ] गावः पिबन्ति / कालेनेति वर्तमानाद्धातोर्धातुसम्बन्धे इत्यर्थः / अत्रापि किम् ? योजनं तर्षित्वा अत्यस्य गावः पिबन्ति / उरांसि प्रतिपेषम् , उरःप्रतिपेषम् ; एवं शिरांसि तृष्यस्व इति किम् ? द्वयहमुपोष्यभुङक्त / क्रियाछेदम् , शिरश्छेदं युध्यन्ते इत्येवं प्रयोगा द्रष्टव्याः / न्तर इति किम् ? अहरत्यस्य इषून् गतः / / 8 / / उरांसि परितो पीडयन्तो युध्यन्ते, शिरांसि छिन्दन्तो युध्यन्ते इत्यर्थः / / 8 / / अव०-द्वि, अहन , द्वयोरह्नोः समाहारः विश-पत-पद-स्कन्दो वीप्साभीक्ष्ण्ये' द्वयहम् , 'द्विगोरन्नह्रोऽट्' (7 / 3 / 99) अट् , 'नोऽपद॥५।४।८१॥ स्य तद्धिते' (74 / 61) अन् लुप्यते, 'कालाध्वनो याप्ती' (2 / 142) इति द्वितीया. यह तर्षित्वा म० वृ०-द्वितीयान्तेन योगे तुल्यकत केऽर्थे वर्त्तमानेभ्यो विश्यादिभ्यो वीप्सायामाभीक्ष्ण्ये इति वाक्यम् , द्वयहंतष द्वयहतर्षम् (इति) उदाहरणे / द्वयहमत्यस्य इति वाक्यम् / तर्षेण अत्यासेन च गम्यमाने [धातुसम्बन्धे] ‘णम् वा' स्यात् / वीप्सा गवां पानक्रिया व्यवधीयते / अद्य पीत्वा द्वयहमतियामुपपदस्य द्वित्वम् , आभीक्ष्ण्ये तु धातोत्विमिति विशेषः / वीप्सायाम् ,- गेहं गेहमनुप्रवेशम , गेहा क्रम्य पिबन्तीत्यर्थः / एवमन्तमुहूर्त्तमत्यासमन्त'नुप्रवेशमास्ते / आभीक्ष्ण्ये,- गेहमनुप्रवेशमनुप्रवे मुहूर्तात्यासं सम्यक् पश्यन्ति इदमपि उदाहरणं शम् , गेहानुप्रवेशमास्ते, एवमग्रेऽपि गेहानुप्रपातम् , ज्ञातव्यम् , अस्यार्थः- सम्यक् दृष्ट्वा अन्तर्मुहूर्त गेहानुप्रपादमास्ते, गेहावस्कन्दमास्ते / पक्षे गेहं मिथ्यात्वमनुभूय पुनः सम्यग्दृष्टयो भवन्तीत्यर्थः / अद्वितयमुपवासं कृत्वा भुङ क्ते इत्यर्थः / अहन् , गेहमनुप्रविश्यास्ते, गेहमनुप्रविश्यानुप्रविश्यास्ते द्वितीयाऽम् , 'अनतो लुप् (1 / 4 / 59 इत्यमो लुप् ), इत्यादि / / 81 // 'रो लुप्यरि' (2 / 1 / 75) इत्यनेन नस्थाने रोऽन्तः / अत्रात्यासेन अहः इषवश्च व्याप्यन्ते, न तु गतिअव०-श्रुतत्वात् 'विश्यादिक्रियानां साक क्रिया व्यवधीयते / / 82 // ल्येन उपपदार्थानां व्याप्तुमिच्छा वीप्सा / प्रकृत्यर्थस्य पौनःपुन्येनासेवनम् आसक्तिराभीक्ष्ण्यम् / नाम्ना ग्रहा-ऽऽदिशः // 5 / 4 / 83 // यदाहुः वृद्धाः,-.......(सुप् )सु स्याद्यन्तेषु वीप्सा म० वृ०-नामशब्देन द्वितीयान्तेन योगे प्रव........ ( तते ), तीति ( ? ) तिङ षु त्याद्यन्तेषु / पहिधातोः आदिशश्च धातोः [धातुसम्बन्धे] 'वा अव्ययः (कृ)त्सु च आभीक्ष्ण्यं प्रवर्त्तते" / उस्कन्द, | णम्' स्यात् / नामानि ग्राहम् , नामग्राहमाह्वयति; ( एवम् ) गेहमवस्कन्दमवस्कन्दमास्ते( 'ख्ण )म् / नाम्नी देवदत्तो ग्राहम् , नामग्राहं देवदत्त आह्वचाभीण्ये' (5 / 4 / 48) इत्यनेन णम्...( सिद्धः) | यति; नामान्यादेशम् , नामादेशं दत्ते / पक्षे नाम एव, विकल्पे...... (नोप )पदसमासा' (र्थ वच)- | गृहीत्वा, नामादिश्य दत्ते / / 83 / / . . Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 5 पा०४ मू० 85-86 . प्रव०-'तुल्यकर्तृ केऽर्थे वर्तमानात् / 2 नाम्नी / कारः 'अञ्चोऽनर्चा याम' (4 / 2 / 46 ) इत्य ]नेन देवदत्त' इत्यत्र “यस्य येन सह सम्बन्धोऽस्ति लुप्यते / (यद्यपि) 'तिरसस्तियति' (3 / 2 / 124 ) दूरस्थस्यापि तेन सह स सम्बन्धो भवति" इति इत्यनेन तिरि आदेशः, तृतीयाटा, 'अच्च् प्राग् न्यायादत्रापि प्रयोगे देवदत्त इति व्यवधाने दीर्घश्च' (२।१।१०४।इति) अच्स्थाने च आदेशः, सत्यपि णम् भवतीत्यर्थः / / 83 // 'सो रुः' (२।१७।इति) सः स्थाने र ,....... कृगोऽव्ययेनानिष्टोक्तौ क्त्वा-णमौ // 5 / 4 / 84 // ('चटते सद्विती)ये' इति..... ( अने )न श् , एवं तिरश्चा इति सिद्धयति, परं तिर्य चा इति शब्दानु___ म० वृ०-अव्ययेन योगे करोतेरनिष्टायामुक्ती करणाद् भवति / 2 तिर्यक् कृत्वा' इत्यादीनामर्थोsगम्यमानायां 'क्त्वाणमौ' स्याताम् / हे ब्राह्मण ! यम् ,- समाप्य विरम्य वा उत्सृज्य वा आस्ते पुत्रस्ते जातः, किं तर्हि [हे। वृषल ! नीचैः कृत्वा, इत्यर्थः // 85 // नीचैःकृत्य कथयसि ; किं तर्हि नीचैर्वृषिल ! कारम् स्वाङ्गतश्च्व्यर्थे' नाना-विना-धार्थेन भुवश्व वृषल ! नीचैःकारं कथयसि / उच्चै म प्रियं वाच्यम् / [हे] विप्र ! कन्या ते गर्भिणी, किं तर्हि // 5/4 / 86 / / (हे] वृषल ! उच्चैः कृत्वा, उच्चैःकृत्य कथयसि ; म० वृ०-तस्प्रत्ययान्तेन स्वाङ्गेन, व्यर्थकिं तर्हि उच्चैवृषिल ! कारं हे वृषलोच्चैःकार / वृत्तिभिर्नानाविनाभ्यां धार्थप्रत्ययान्तैश्च योगे वदसि ।नीचैर्नाम अप्रियमाख्येयम्।अनिष्टोक्ताविति भुवः कृगश्चः 'क्वाणमौ' भवतः / "मुखतो भूत्वा, किम् ? उच्चैः कृत्वाचष्टे विप्र ! पुत्रस्ते जात इति / मुखतोभय, मुखतोभाषमास्ते / मुखतः कृत्वा, अव्ययेनेति किम् ? विप्र ! पुत्रस्ते जातः, किं तर्हि / मुखतःकृत्य, मुखतःकार मास्ते / एवं पार्श्वतो भूत्वा, वृषल ! मन्दं कृत्वा वदसि / रक्त्वा चेत्यकृत्वा णम्- भूय, भावं शेते / ना. भूत्वा, नानाभूय, नाना. विधानमुत्तरत्रोभयानुवृत्त्यर्थम् // 84 // भावं गतः / एवं नाना कृत्वा. कृल्य, कारम् / एवं विना कृत्वा (इत्यादि) / धार्थः,-"द्विधाभूत्वा,द्विधाअव०-'एवं बाह्मण ! कन्या ते गर्भिणी भूय, द्विधाभावमास्ते / एवं द्विधा कृत्वा, द्विधाकृत्य, सञ्जाता इति नीचैः कृत्वाचष्टे / 'वाधिकारेणैव पक्षे द्विधाकारं गतः / स्वाङ्गति किम ? स. क्त्वाया सिद्धौ समासार्थ क्त्वाणमौ इति विधानं च्य!ति किम् ? नाना कृत्वा भक्ष्याणि भुक्ते , कृतम् ; अन्यथा हि णम एव पाक्षिकः समासः स्यात् द्विधा कृत्वा काष्ठानि गतः // 86 // न तु क्त्व इत्यक्षराने क्त्वा चेत्यकृत्वा णम्विधान अव०-१च्वेरर्थो यस्य स व्यर्थः / २धामित्यक्षराणि ज्ञातव्यानि // 84 // ऽर्थो येषां ते धार्थाः / * नानाश्च विनाश्च धार्थाश्च "तिर्यचाऽपवर्गे // 5 / 4 / 85 // नाना विनाधार्थ - गात्तस् स्वाङ्गतस् स्वाङ्गतस् म. वृ०-अपवर्गे गम्यमाने तिर्यच् इत्यनेना- स्वा-श्च ळ्यर्थ नानाविनाधाओं च स्वाङ्गतश्चाव्ययेन योगे [तुल्यकर्तृ के वर्तमानात् धातुसम्बन्धे] र्थनानाविनाधार्थः तेन ( ? ) / तुल्यकर्तृ केऽर्थे कृगः 'कत्वाणमौ' भवतः / तिर्यक् कृत्वा, तिर्यक् धातुसम्बन्धे सति / "मुखतो भवनम् (इति) कृत्य; तिर्यकारमास्ते // 85 // वाक्यम् / स्वाङ्गत उदाहरणावली। 'मुखतः करणम् (इति) वाक्यम् / 'पार्श्वतोभूय, पार्श्वतोभावं शेते / एवं पार्श्वतः कृत्वा पार्श्वतःकृत्य पार्श्वतःकारं शेते / ["तिर्यचा' इत्यत्र तिरोऽश्वतीति विप् , अब्चेन- | एते स्वागत इत्यर्को उदाहरणावली 12 / नाना * अत्र 'नानाश्च' इत्यत आरभ्य 'तेन' इति यावत् पाठोऽशुद्धः, च्युतकियदंशोऽसङ्गतश्च / प्रव...... Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्प्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [255 विनाशब्दावव्ययौ / अत्र नाना विना इति क्रिया- | मानात् / तिर्य............ (चा अन्व)चा इति सूत्रे विशेषणमिति द्वितीयाऽम् , 'अव्ययस्य' (327) / पाठे शब्दानुकरणात् तिरश्चा अनूचा इति शब्दइति अम् लुप्यते / अनाना नानाभूत्वा इति वाक्यम्। | प्रयोगे क्त्वाणमौ न भवत इत्यर्थः (?) |88 // नाना भूत्वा, नानाभूय, नानाकारं ( ?भावं ) गतः / ___ इच्छार्थे कर्मणः सप्तमी // 5 / 4 / 89 // एवमनाना (नाना)कृत्वा इति वाक्ये नाना कृत्वा,नानाकृत्य, नानाकारं गतः / एवं विना कृत्वा विनाकृत्य, म. वृ०-इच्छार्थे धातावुपपदे तुल्यकर्तृ केविनाकारं गतः इत्यपि द्रष्टव्यम् / 'द्वाभ्यां प्रकारा- अर्थ वर्तमानात कर्मभतादातो: 'सप्तमीविभक्ति'भ्यां द्विधा / एवं द्वैधं भूत्वा, भूय, भावमास्ते / द्वैधं भवति / 'भुञ्जीय इतीच्छति, भुञ्जीय इति वाकृत्वा, (द्वैध)कृत्य, द्वैधंकारं गतः। द्वेधाभूत्वा, (द्वेधा) न्छति, [अभिलषति ] कामयते / इच्छार्थे इति भूय,द्वेधाभावामास्ते / द्वेधा कृत्वा द्वेधाकृत्य द्वेधाकारं किम् ? भोजको याति / कर्मण इति किम् ? इच्छन् गतः। ...... (ऐक)ध्यं भूत्वा, भूय, भावमास्ते / एवम् करोति / तुल्यकर्तृ के इत्येव- इच्छामि भुक्ताम् ऐकध्यं कृत्वा ऐकध्यंकृत्य, ऐकध्यंकारं गतः / तथा-1 भवान् / / 8 / / ऽव्ययाधिकारादेव च मुखे तस्यति-मुखतः कृत्वा गतः इत्यत्र न भवति / / 86 / / / तूष्णीमा // 5 / 4 / 87 // प्रव०-इच्छार्थे क्रियाः पूर्व दर्शिताः सन्ति / उप-समीपे पदम् उपपदमिति व्युत्पत्तौ सत्यामपि म० वृ०-तूष्णींशब्देन योगे भूधातोः धातु- इच्छार्थे इति पदे अग्रेऽपि स्थिते भवतीत्यर्थः / सम्बन्धे ‘क्त्वाणमौ' भवतः / तूष्णीं भूत्वा, तूष्णीं कर्मत्वं तुल्यकर्तृत्वं च धातोः श्रुतत्वादुपपदापेक्षं भूय, तूष्णींभावमास्ते [ तूष्णीं भवनम् ( इति ) ज्ञातव्यम् / “भुनजोऽत्राणे' ( 3 / 3 / 37 ) इत्यनेन वाक्यम् ] 1187 // भुजेरात्मनेपदमिति सप्तमीय / २इच्छन् करोतीत्यत्र 'आनुलोम्येऽन्वचा // 5 / 4 / 88 // ....... ( करोतीच्छत्योर्लक्ष्यलक्षणभावो न तु कर्मक्रियाभावः) / / 89 // - म० वृ०-अन्वच् इत्यनेन अव्ययेन योगे आनुलोम्येऽनुकूलेऽर्थे ,गम्यमाने भूधातोः [धातु शक-धष-ज्ञा-रभ-लभ-सहा-ऽर्ह-ला-घटा-ऽस्तिसम्बन्धे ] 'क्त्वाणमा' स्याताम् / अन्वग् भूत्वा, समर्थार्थे च तुम् // 5 / 4 / 90 // अन्वग्भूय, अन्वगभावमास्ते; अनुकूलो भूत्वा तिष्ठतीत्यर्थः। आनुलोम्य इति किम् ? अन्वग् भूत्वा म० वृ०-शक्याद्यर्थेषु धातुषु समर्थार्थेषु विजयते शत्रुः, पश्चाद् भूत्वेत्यर्थः // 8 // नामसु च, चकारादिच्छार्थेषु धातुषूपपदेषु कर्मभूताद्धातोस्तुम् भवति / शक्नोति पारयति वा भोक्तुम् / एवं धृष्णोति, उजानाति, आरभते, 'लभते, प्रव०-'आनुलोम्यम् अनुकूलता, परचित्ता- सहते, अर्हति, ग्लायति म्लायति वा भोक्तुम् , राधनमित्यर्थः / 2 अन्वचा' इत्यत्र अनुपूर्वमञ्च , घटते, अस्ति, विद्यते वा भोक्तुम् / समर्थार्थ,अन्वश्वतीति क्विप् , 'अञ्चोऽनर्चायाम्' ( 4 / 2 / 46 / अलं भवति, इष्टे वा भोक्तुम् / शक्त्या भुज्यते, इति) नलोपः, तृतीयाटा, 'अञ्च प्राग दीर्घश्च' (2 / 1 / सामर्थ्येन भुज्यते इत्यादौ त्वनभिधानान्न तुम् / 104 / ) इत्यनेन अचस्थाने च , अनु इत्यस्य | इच्छार्थेषु,- इच्छति भोक्तुम् , भोक्तुं वान्छति दीर्घः नू इति, ततोऽनूचा इति सिद्धयति, परं शब्दा- | [कामयते],भोक्तुं वष्टि, भोक्तुमभिलषति। अतानुकरणात् अन्वचा इति भवति। तुल्यकर्तृ के वर्त्त- ' दार्थमक्रियोपपदार्थ चेदं वचनं प्रस्तूयते // 20 // Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 5 पा० 4 सू० 90 // इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्रा- / क्तुम् / अर्हति प्राप्नोति वा भोक्तुम् / घटते भिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ पञ्चमा- युज्यते वा भोक्तुम् / 'समर्थार्थे प्रतीतावपि तुम् ध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः // भवति,-द्रष्टुं चक्षुः, योद्धं धनुः, कोऽर्थः ? चक्षुर्द्रष्टुं / इति पश्चमाध्यायः समाप्तः। समर्थः / समर्थार्थत्वादेव सिद्धे शकग्रहणमसमर्थार्थ पादश्लोकसंख्या 256 / कृतःसर्वपादसंख्याएवम् 990 / / कृतम् / तथा कर्मण इति च सामर्थ्यात् शकादिषु / शुभं भवतु सर्ववैयाकरणलोकस्य। अर्हपर्यन्तेषु इच्छार्थेषु चोपपदेषु सत्सु सम्बन्धजयति श्रीशब्दानुशासनं श्रीहेमचन्द्राभिधानम् / नीयम् , न ग्ला इत्यादिषु ; अकर्मकत्वात् / इयमव।मङ्गलमस्तु लेखकपाठकयोः / श्री। चूरिः भोक्तुमभिलषतीत्यस्याग्रे द्रष्टव्या। 1 अताद ार्थमिति भणनात् इदं सम्भाव्यते, भोजनाय अव०-भोजनं भोक्तुम् (इति ) वाक्यम् / भोक्तुमिति वाक्यं न कार्यम् / / 90 // २धृष्णोति अध्यवसति वा भोक्तुम् / एवं जानाति / अत्र सूत्रे (? पादे) अवचूरिश्लोक- 370, अक्षर 21 // वेत्ति वा भोक्तुम् / आरभते प्रक्रमते वा भोक्तुम्। | कृत संख्या ( ? कृतः सर्वपादानाम् ) अवचूरिश्लोकपलभते विन्दते वा भोक्तुम् / सहते क्षमतेवाभो- ' ग्रन्थानम् 1581, अक्षर 22 / // इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते सिद्धहेमशब्दानुशासने पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः / / Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥महम् / / // षष्ठोऽध्यायः॥ [प्रथमः पादः] // .. तद्धितोऽणादिः // 6 / 1 / 1 // वश्य-ज्यायोभ्रानोजीवति प्रपौत्राद्यस्त्री युवा म० वृ०-इत ऊर्ध्वं योऽणादिः प्रत्ययो वक्ष्यते स तद्धितसंज्ञो' विज्ञेयः / औपगवः // 1 // // 6 / 1 / 3 / / ___ म०वृ०-वंश्यः पित्रादिरात्मन कारणम् / प्रव०-तस्मै लौकिकवैदिकशब्दसन्दर्भाय अथवा | ज्यायोभ्राता= ज्येष्ठबान्धवः [वयोऽधिक एकमातृक ताभ्यः प्रकृतिवृत्तिभ्यो हितस्तद्धितः / आद्यं मतं / (एक)पितृकः वा] / जीवति वंश्ये ज्यायोभ्रातरि च जैनेन्द्रस्य व्याकरणस्य द्वितीयमुत्पलस्य / 'हिता प्रपौत्राद्यपत्यं स्त्रीवर्जितं 'युवसंज्ञ' भवति / गार्यादिभिः' (3 / 1171) इति समासः // 1 // यणः / वंश्यज्यायोरिति किम् ? अन्यस्मिन् [उपा'पौत्रादि वृद्धम् / / 6 / 1 / 2 / / ध्यायादौ] जीवति- गार्यः [गर्गस्यापत्यं पौत्रादि] / म. वृ०-उपरमप्रकृतेर्यत् पौत्राद्यपत्यं तद् ज्यायोग्रहणं किम् ? लघौ भ्रातरि- गार्यः / जीव'वृद्धसंज्ञ' ज्ञातव्यम् / गार्ग्यः / पौत्रादीति किम् ? तीति किम् ? मृते- गार्यः / प्रपौत्रादीति किम् ? पौत्रो गार्ग्यः // 3 // अनन्तरापत्ये [=पुत्रे वाच्ये]-'गार्गिः // 2 // अव०-१पौत्रादि वृद्धम्' इत्यत्रापत्यग्रहणा- अव०-अपत्यवतः परमप्रकृतेश्चतुर्थः पुरुषः भावेऽपि आदिशब्दस्य प्रकारार्थत्वात् पौत्रस्याप- प्रपौत्र इत्युच्यते इति प्रपन्नः पौत्रं जनकत्वेन, तथा त्यत्वात् तदाद्यपत्यमेव विज्ञायेत, न भ्रात्रादिः इति स्त्रीवर्जितं प्रपौत्राद्यपत्यं प्रपन्नः कारणत्वेन प्रपौत्रः / विशेषः / पुत्रस्यापत्यमनन्तरं पौत्रः, 'पुनर्भपत्र' १वंशे भवो वंश्यः पित्रादिः / वृद्धः अयम् , अन(६।१।३९) इति अञ् प्रत्ययः, [पौत्र आदौ यस्य योरतिशयेन प्रशस्यो वृद्धो= ज्यायान, 'गुणाङ्गा०' तत्पुत्रादि.] सिः, 'अनतो लुप्' (1 / 4 / 59) / परम- (73 / 9) (इति) ईयस् , वृद्धस्य ज्या इत्यादेशः, प्रकृतेरित्यस्याग्रेऽपत्यवत इत्याध्याहार्यम , ततोऽप- ज्यायान इतीकारस्य आकारः / 3 सप्तमी चा०' (2 / 2 त्यत इति विशेष्यपदम , परमप्रकृतिरिति विशेष- १०९।इति) सप्तमी, ओस् / साक्षात् पिता पारणम् , परमा-प्रकृष्णा प्रकृतिर्यस्य सः, यस्नाद् वंश्य- म्पर्येण पितामहः तथा प्रपितामहोऽप्यात्मनः कारपुरुषादन्यः पुरुषो न ज्ञायते / यद्यपि पितामहप्रपि- णम्। 'वंश्यज्यायो०'इति सूत्रे सूत्रार्थः परेणेत्थं कृतःतामहादिनीत्या वृद्धसन्तानस्यानन्त्यम् , तथापि यन्ना- जीवति वंश्ये ज्यायोभ्रातरि च सति, परमेवं सर्वथा म्ना कुलं विख्यातं स एव परमप्रकृति के स न घटते। इत्थं च सत्यः सूत्रार्थः- वंश्ये ज्येष्ठे उच्यते / गर्गस्यापत्यं पौत्रादि गाठः, 'गर्गादेर्यन्' | भ्रातरि च जीवति सति इति / ५जीवतीति विशे(६।१।४२) / गर्गस्यापत्यं पुत्रो गार्गिः, 'अत इन्' | षणे एकवचनं पृथग्निमित्तत्वद्योतनार्थम् ; अत्र (6 / 1131) // 2 // पृच्छा- ननु 'वंश्यज्यायोभ्रात्रो'-रिति विशेष्यपढे . * अत्र “परमप्रकृतिरित्युच्यते" इति पाठेन भाव्यम् / Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०६ पा०१ सू०४-७ द्विवचनम् , जीवतीति विशेषणपदे एकवचनम् ; | कुत्सायामायां च विषये 'युवसंज्ञ' वा स्यात् / गार्ग्यकिमर्थमेवं वचनभेद: ? सूरिराह-वचनभेदं (?दः) - स्यापत्यं युवा कुत्सितो गार्यः गाायणो वा जाल्मः, पृथग्निमित्तत्वद्योतनार्थः, पृथग्=पार्थक्येन वंश्य- गुर्वायत्तो भूत्वा स्वतन्त्रो यः स एवमुच्यते / स्य ज्यायोभ्रातुश्च प्रत्येकं युवसंज्ञा प्रति यन्निमित्त- कुत्सायामन्यत्र गाायण एव / गर्गस्थापत्यं वृद्धमत्वं तस्य द्योतनार्थम् / अन्यथा उभयोरपि जीवतो- चितं तत्रभवान् (= पूज्यः) गाायणः गार्यो वा / रियं संज्ञा स्यात् / नैवं व्याख्यान ज्यायोभ्रातरि अर्चायामन्यत्र गार्ग्य एव / अस्त्रीत्येव- गार्गी / / 5 / / जीवत्येव योजनीयमेवं सत्यं व्याख्यानम् (?) / "गा-यण' इत्यत्र पूर्व गर्गशब्दः, गर्गस्यापत्यं वृद्धं प्रव०-''युववृद्धः' इति सूत्रे युवसंज्ञाविधाने गार्ग्यः, 'गर्गादेर्य' (6 / 1 / 42) गाठः, पश्चात् यूनः कुत्सायां गम्यमानायां पक्षे युवत्वं निवर्त्यते गार्यस्यापत्यं युवा जीवन गार्यायणः ; 'यभित्रः' =निवार्यते, ततो युवत्वनिवृत्ती सत्यां वृद्धप्रत्ययेन (631154) इत्यनेनायनण् / / 3 / / यनेत्यभिधानं भवति / गार्ग्यस्यापन्यं यवा कुत्सितो गार्ग्यः गाायणो वा जाल्मः / कुत्साया अन्यत्र 'सपिण्डे वयःस्थानाधिके जीवद्रा गाायण एवेत्यादि / वृद्धभ्यार्चायां पक्षे युवत्वं // 6 / 114 // प्रयुज्यते, तत्र युवप्रत्ययेनाभिधानं भवति / तथाहिम. वृ०-२वयःस्थानाभ्यां उद्वाभ्यामप्यधिके गर्गस्यापत्यं वृद्धमर्चितं तत्रभवान इति वाक्यं सूरिणा सपिण्डे= समानगोत्रे जीवति [ सति परमप्रकृति- वृत्तौ दर्शितमस्ति / 'बंश्यज्यायो' 0 (6 / 1 / 3) इत्यनेन सत्के ] प्रपौत्राद्यपत्यं स्त्रीवर्जितं [पौत्रादि] जीवदेव नित्यं प्राप्तौ सत्यां विकल्पार्थ वचनं युववृद्ध'-मिति / 'युवसंज्ञ' वा स्यात् / गाायणः गाग्र्यो वा / सपि- २कुत्सा चअर्धा च=कुत्सार्चम् ,क्लीवे (२।४।९७)ह्रस्वः। ण्डे इति किम् ? अन्यत्र मानुलादौ गार्ग्यः / अस्त्री- 3'स्वतन्त्रः', कोऽर्थः अवधीरितगुरुत्वात् स्वच्छन्दत्येव- गार्गी / / 4 / / चारीत्यर्थः // 5 // 'संज्ञा दुर्वा / / 6 / 1 / 6 // प्रव०-'समानः पिण्डः सप्तमपुरुषो यस्य म. वृ०-या संज्ञा [निमित्तनिरपेक्षा] व्यवसः, 'समानस्य धर्मादिषु' (3 / 2 / 149) इत्यनेन हाराय हठात प्रयुज्यते सा 'दुसंज्ञा' वा स्यात् / समानस्य सभावः / ययोः पुरुषयोरेकः साधारणः देवदत्तीयाः, दैवदत्ताः / दुप्रदेशाः ‘दोरीयः' पूर्वजः सप्तमः पुरुषो विद्यते तौ पुरुषावन्योन्यस्य (6 / 3 / 32) इत्यादयः / / 6 / / सपिण्डौ भवतः / २वयः यौवनादिः / उस्थानं पिता पुत्रादि इत्यादि / अस्त्रीति किम् ? स्त्री गार्गी / इयं प्रव०-१सम्यग् ज्ञायतेऽनया इति संज्ञा, व्यावृत्तिः 'वश्यज्यायो' (6 / 1 / 3) 'सपिण्डेवयः' 'स्थादिभ्यः कः' (5 / 3 / 82 / इति कप्रत्ययः), बाहुल(६।११४) इति सूत्रद्वयोरपि ज्ञेया / गर्गस्थापत्यं कात् स्त्रीत्वम् ; अथवा संज्ञानं संज्ञा, 'उपसर्गादातः' पौत्रादि गार्ग्यः, स्त्री चेत् गार्गी, ही, 'अस्य यां (5 / 3 / 110 ) इत्यनेन अङ / देवदत्तस्येमे देवलुक्' (2 / 4 / 86) इत्यनेन तद्धितप्रत्यये अकारलोपः, दत्तीयाः, अत्र दुसंज्ञत्वात् 'दोरीयः' (6 / 3 / 32 / इती'व्यञ्जनात्तद्धितस्य' (2 / 4 / 88) इत्यनेन तद्धितयस्य / यप्रत्ययः) / उपक्षे 'प्रागजितादण' (6 / 11 लुक् // 4 // भणित्वा तस्येदम्' (6 / 3 / 160) इत्यण / 6 // 'युववद्धं कुत्सार्चे वा // 6 / 1 / 5 / / त्यदादिः' // 6 / 1 / 7 / / म० वृ०-युवा च वृद्धं चापत्यं यथासङ्घय | म० वृ०-सर्वाद्यन्तर्गतास्त्यदादयो ‘दुसंज्ञा' 卐अत्र "स्थानं पिता, पुत्र इत्यादि" इति पाठेन भाव्यम् / Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसंज्ञाविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् [259 . भवन्ति / त्यदीयम , तदीयम् , यदीयमित्यादि ; | 'वाहीकेषु ग्रामात्' (6 / 3 / 36) इति सूत्रेण णिकः (तथा) यादायनिः // 7 // इकण , इकणन्तस्य 'अणबेयेकण्०' (2 / 4 / 20) इत्यनेन डी / देवान् वक्ति देववाचकः, बाहुलअव-त्यदीयम् , तदीयम , यदीयम , इद काण्णकः, देववाचकेन कृतम् दैववाचकम् , 'कृते' मीयम , अदसीयम् , एतदीयम् , एकी यम् , द्वीयम् , (6 / 3 / 192 ) इति सूत्रेण अण् / अवश्यं नन्दतीति युष्मदीयम , अस्मदीयम , किमीयम् , भवदीयम् , नन्दी, ‘णिन्चावश्यकाधमण्ये' ( 5:4 / 36) णिन् ; इति त्यदादिशब्दाः / एवं त्यादायनिः, तादायनिः, (नन्दिनोऽध्ययनम्नन्द्यध्ययनम् ) अथवा नन्दन्ति यादायनिः इत्यादि / तस्येदं तदीयमिति वाक्यम / प्राणिनोऽनया इति नन्दी, 'ग्रहादिभ्यो णिन्', अस्येदम् इदमीयम् / अमुष्येदम् अदसीयम् / / 7 / / (5 / 1153), नन्दी चासावध्ययनं च-नन्द्यध्ययनम् / वृद्धिर्यस्य स्वरेष्वादिः / / 6 / 18 // 'एदोद्देश एवः' इति सूत्रे एवकारोऽन्यत्र वृत्तिव्य 'बच्छेदार्थः तेन देशेऽन्यत्र वर्तमानस्य शब्दस्य म० वृ०-यस्य शब्दस्य स्वरेषु मध्ये आदिस्वरो वृद्धिसंज्ञः स शब्दो 'दुसंज्ञः' स्यात् / आम्र दुसंज्ञा न भवति; दुसंज्ञाभावान्न णिकेकणौ- क्रोडं गुप्तायनिः, २ऐतिकायनीयः, औपगवीयः / वृद्धि नाम उदग्ग्रामः, तत्र भवः क्रौडः ; देवदत्तं नाम रिति किम् ? दत्तस्येमे दात्ताः / आदिरिति किम् ? वाहीकग्रामः, तत्र भवो-दैवदत्तः / क्रोडशब्दः स्वासाभासंनयनः / / 8 / / ङ्गेऽपि वर्त्तते, देवदत्तशब्दः पुरुषेऽपि वर्तते; देव दत्त इति शब्दः क्रियाशब्दश्व-- देवैर्दत्त इत्येवम् अव०-आम्रगुप्तस्यापत्यमाम्रगुप्तायनिः, | // 9 // 'अवृद्धादोर्नवा' (6 / 1 / 110) इत्यनेन आयनिन् / 2 प्राग्देशे // 6 / 1 / 10 // इतकशब्दः,इतकस्यापत्यं वृद्धमैतिकायनः, 'नडादिभ्य आयनण' (6 / 1 / 53) इत्यायनण् , ऐतिकायनस्येमे म. वृ०-प्राग्देशेष [ =पूर्वदेशे ] वर्त्तमानस्य छात्रा ऐतिकायनीयाः, 'दोरीयः' ( 6 / 3 / 32 ) ईयः / यस्य शब्दस्य स्वरेष्वादिः स्वर एत् ओद्वा स ईयादौ सभायां संनयनं-सम्यग् नयनं-सभासंनयनम् , विषये 'दुसंज्ञः' स्यात् / यः शरावतीनद्याः पूर्वोसभासंनयने भवः साभासंनयनः / / 8 / / त्तरेण वहन्त्याः पूर्वतो दक्षिणतो वा स प्राग्देशः, [ पूर्वोत्तरेण, कोऽर्थः ? ईशानतो नैरितं गच्छन्त्याः - - एदोद्देश एवेयादौ / / 6 / 1 / 9 / / पूर्वदक्षिणामाश्रित्य यो देश स प्रारदेशः इत्यर्थः] म०७०-देशे एवं वर्तमानस्य यस्य शब्दस्य यस्तु पश्चिमात् उत्तरतो वा स उदग्देशः / यदाहुःस्वरेवादिः स्वर एकार ओकारो वा स ईयादौ प्रत्य- | "प्रागुदञ्चौ विभजते, हंसः क्षीरोदके यथा ; ये कर्तव्ये 'दुसंज्ञः' स्यात् / 'सैपुरिका, सैपुरिकी; | विदुषां शब्दसिद्धय या,सा वः पायाच्छरावती" // 1 // स्कौनगरिका, स्कौनगरिकी / देशे इति किम् ? रदै- एणीपचनीयः, गोनर्दीयः // 10 // ववाचकं नन्यध्ययनम् / ईयादाविति किम् ? आयनिनादौ न भवति // 9 // प्रव०-प्राचां देशः प्राग्देशः, प्राह चासौ देशश्चेति वा प्राग्देशः, शरावत्याः नद्याः पूर्वदिशि अव०-सेपुर इति स्कोनगर इति वाहीक- | देशः प्रागदेशः पूर्वदेशः / एण्यो हरिण्यः पच्यन्ते देशे ग्रामविशेषौ / सेपुरे (स्को)नगरे भवा जाता वा, / यत्र,-'अनट्' (5 / 3 / 124), एणीपचने भवः। गां 5 अत्रेदं सूत्रं चिन्त्यम्, “नन्दन्ति प्राणिनोऽनया" इति स्त्रीलिङ्ग विग्रहस्य सत्त्वाद् / “ग्रहादिभ्यो णिन्" इति' सूत्रेण नन्दिन्' इति भवति / तस्य स्त्रीत्वविवक्षायां 'नन्दिनी' इति भवति, न तु 'नन्दी' इति / Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 6 पा०१ सू०११-१३ नर्दयति इत्यण , गोनर्द इति प्राग्देशः (? देशस्य) | कातीयाः, तथा इह न भवति- जैह्वाकाताः, हारितग्रामः, गोनर्दे भवः,-'दोरीयः' ( 6 / 3 / 32), (एवं ) | काताः // 12 // भोजकटीयः, क्रोडीयः, दैवदत्तिका, दैवदत्तिकी अव०-'चर, चरस्यापत्यं वृद्धंचास्यणः, 'नडाइति / पूर्वकं (पूर्वसूत्रे) देशग्रहणमेवकारेण दिभ्य आयनण' (6 / 1153 ); २पणिन् , सम्बद्धमिति पुनर्देशग्रहणम् / देश एवेति नियम- पणिनोऽपत्यं पाणिनः, 'ङसोऽपत्ये' (6 / 1 / 28) निवृत्त्यर्थं वचनम् / / 10 // अण् , पाणिनस्यापत्यं युवा पाणिनिः, 'अत इस्' वाद्यात् // 6 / 1 / 11 // (6 / 1 / 31) इत्यनेन इञ् , यूनिलुप् '(6 / 11137) इति इञ् लुप्यते; तदनन्तरं चारायणस्येमे छात्राश्चारायम. वृ०-वा इति आद्यात् इति च द्वयमप्य णीयाः, पाणिनस्येमे छात्राः पाणिनीयाः ; 'दोरीयः' धिकृतं ज्ञेयम् / तत्र वाधिकारादित उर्ध्व वक्ष्यमाणाः (6 / 3 / 32) / अथ सूत्रभावना दर्यते-'यथा' प्रत्यया विकल्प्यन्ते, तेन पक्षे यथाप्राप्त वाक्यं इत्यादि, यथाऽत्रोदाहरणद्वये गोत्रप्रत्ययान्तात्. . समासश्च भवति- उपगोरपत्यम् [वाक्यम् ], उपन्य शब्दात् ईयप्रत्ययो वक्ष्यमाणः सम्पन्नः, तेन प्रकापत्यमिति (समास:) / आद्यादित्यधिकारात् सूत्रेयदादौ रेण कम्बलचारायणीयाः ओदनपाणिनीयाः (इति) निर्दिष्टं तस्मात् प्रत्ययो भवति,-ऐन्द्रं हविः, ऐन्द्रो अत्रापि गोत्रप्रत्ययान्तोत्तरपदादीयः प्रत्ययो वक्ष्यमन्त्रः // 11 // माणः सिद्धः / कम्बलप्रधानश्चारायणः कम्बलचाअव०- एते प्रत्ययाः तद्धितसप्तमपादे 'प्रकृते रायणः / ओदनभक्ष्योदनप्रधानो वा पाणिनः ओद नपाणिनः, 'मयूरव्यंसकेत्यादयः' (3 / 1 / 116 ) मयट्' (7 / 3 / 1) इति सूत्रपादे 'नित्यं बनिनोऽण' इति समासः / एतेन वृत्तौ गोत्रप्रत्ययोत्तर(७।३।५८) इति सूत्रं यावत् प्रत्यया विकल्पेन पदात वक्ष्यमाणतद्धिताः साध्यन्ते,। कस्मादिव ? क्रियन्ते / तस्मात् प्रत्ययो भवति इत्यक्षरा गोत्रप्रत्ययान्तादिव इति विशेषणम् / कत, कतस्यानान्यस्मात् : तेन 'साऽस्य' (6 / 2 / 98) इत्यधिकारे 'देवता' (6 / 2 / 101) इत्यादौसेति प्रकृतिरस्येति प्रत्य पत्यं वृद्ध= कात्यः, 'गर्गादेर्यम्' (6 / 1 / 42), तथा जिह्वाचपलः कात्यो जिह्वाकात्यः ; 'हरितं भक्षयार्थो व्यवस्थितो भवति इत्यक्षरावधिर्ज्ञातव्या। तद यतीति हरितभक्षः 'कर्मणोऽण' (5 / 1 / 72) इत्यस्य नन्तरम् ऐन्द्रं हविः,ऐन्द्रो मन्त्रः / इन्द्रो देवताऽस्य बाधकः 'शीलिकाभिः' (5 / 1173) इत्यादिना णः, =ऐन्द्रः, 'प्राग्जितादण' (6 / 1 / 13) इति सूत्रेण हरितभक्षः कात्यो हरितकात्यः, ततः पृषोदरादिअण् / एतेन इन्द्रशब्दादण सिद्धः / देवताशब्दाल्परो स्यात् चपलभक्षशब्दयोर्लोपः / जिह्वाकास्यस्येमे नाण् इति ज्ञेयम ||11|| छात्राः= जैह्वाकाताः,हरितकात्यस्य इमे छात्रा हारितगोत्रोत्तरपदाद् गोत्रादिवाजिह्वाकात्यहरित- काताः ; अत्र 'दोरीयः' इति ईयो न भवति, किन्तु कात्यात् / / 6 / 1 / 12 / / 'तस्येदम्' (6 / 2 / 160 ) इत्यण , 'अवर्णेवर्णस्य' म० वृ०गोत्रमपत्यम् / जिह्वाकात्यहरितकात्य (7 / 4 / 68) इत्यकारलोपः, तद्धितयस्वरेऽनाति' (2 / वर्जिताद् गोत्रप्रत्ययान्तोत्तरपदात् गोत्रप्रत्ययान्तादिव' 4 / 92) इति सूत्रेण य कारलोपः // 12 / / (गोत्रप्रत्ययान्तं यत् उत्तरपदं तस्मादिव इत्यर्थः) प्राग जितादण' // 6 / 1 / 13 / / वक्ष्यमाणस्तद्धितः स्यात् / यथा-'चारायणीयाः, म. वृ०- प्राग जितशब्दसंकीर्तनात् पादत्रयंपाणिनीयाः, तथा कम्बलचारायणीयाः, (कम्बल- यावद् येऽर्था अपत्यादयः तेष्वपवादविषयं परिहृत्य चारायणस्येमे वाक्यम्) ओदनपाणिनीयाः / अजिह्व- [औत्सर्गिकः] 'अण् प्रत्ययो वा' स्यात् / औपगवः, स्वादि किम् ? यथा इह ईयः- कात्यस्य छात्राः / माञ्जिष्ठम् [ भैक्षम्। पक्षे वाक्यमेव तिष्ठति // 13 // Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्य-टीकणप्रत्ययविधानम् ] * मण्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 261 प्रव०-१'प्राग जितादण्' इत्ययं योगः अधि- अव०-ध्यप्रत्ययो प्राजितीयमणं बाधिकारार्थः, परिभाषा विधिर्वाऽयम् / विधौ नियम- त्वा वर्तमानः सावकाश इति अणोऽपवादस्तद्विषये कारिणी परिभाषा उच्यते / अधिकारपक्षे प्रागजिते- च व्यो भवति इति सूत्रार्थे उक्तम् , अणि प्राप्तेभ्यः त्युत्तरार्थम् , अन्यथा इकणप्रत्ययादिवत् अण् इत्येव / स्यादित्यर्थः / ॐ ज्यविधानं 'बिदार्षादणियोः' (6 / सिद्धम् / ननु यद्यधिकारार्थ तर्हि इकण इत्यादिवत् / 1 / 140) इति अत्र प्रयोजनम् / रदितेरपत्यं दैत्यः / * अण् इत्येवास्तु, कि 'प्राग् जितादण, इत्यनेन ? | अदितेरपत्यं आदित्यः / ४आदित्यस्यापत्यमिति इत्याह- उत्तरार्थन , तेन 'द्विगोरनपत्ये०' (6 / 1 / वाक्ये 'अनिदमि०' इत्यनेन ज्यः, आदित्यो देवता२१) इत्यादिना प्राजितादित्यधिकारोक्तस्यैव प्रत्य- ऽस्येति पुनर्व्यः, 'अवर्णेवर्णस्य' (७।४.६८)*इ-अलोपः, यस्य लुप् भवति इत्यर्थः / २उपगोरपत्यम्, मञ्जि - तद्धितयस्वरेऽनाति' ( 2 / 4 / 92 ) इत्यनेन आदित्यष्ठया रक्तं वस्त्रम्, एवं भिक्षाणां समूहः, इत्येवं विक- सम्बन्धियलोपः, 'ततोऽस्याः, (1 / 3 / 34) इति सूत्रेण ल्पपक्षे वाक्यमेव तिष्ठति // 13 / / / यस्य द्वित्वम् , आदित्य इति लिपिः, अथवा दिति:धनादेः पत्युः / / 6 / 1 / 14 // देवताऽस्य आदित्यम् , आदित्यो देवताऽस्येति वाक्ये 'अनिदमि०' इति व्यः, 'अवर्ण०' इत्यनेन म० वृ०-धनादेणात्परो यः पतिशब्दस्तदन्ताद्वन इलोपः ( ? इकाराकारलोपः), अत्र म यलोपः, अनपतीत्यादेः प्राजितीयेऽर्थेऽण् वा' स्यात् / धनपतेर पत्यत्वात् / “प्रजापतेरपत्यं प्राजापत्यः, प्रजापतिपत्यम् तत्र भवः तत आगतो वाधानपतः / एव- देवताऽस्येति वाक्ये प्राजापत्यम् / अणपवादे चे- . माश्वपतः // 14 // त्यत्रोपरि- यमस्यापत्यं याम्यः / आदित्यस्यापत्य मिति वाक्ये 'उसोऽपत्ये' (6 / 1 / 28) इत्यौत्सर्गिप्रव०-धन, अश्व, पशु, गज, शत, गण, कुल, कोऽण् प्रथमं प्राप्नोति, तस्य बाधकः 'अत इब्' गृह, सेना, धर्म, धन्वन , सभा, क्षेत्र, अधि, राष्ट्र, ध, राष्ट्र, / (6 / 1 / 31 ), तमित्रं बाधित्वा 'अनिदम्यण' धान्य, प्राण इति धनादिगणः / केचित् गृहसेना इत्यनेन यो भवति / तथा वनस्पतीनां समूहो शब्दौ न पठन्ति / तन्मते गार्हपत्यम् ,सेनापत्यम् ; इति वाक्ये प्रथमं 'षष्ठयाः समूहे' (6 / 2 / 9) इत्यण् उत्तरेण य एव // 14 // * प्राप्नोति, तमणं बाधित्वा 'कवचिहस्त्यचित्ता०' . अनिदम्यणपवादे च दित्यदित्यादित्य (6 / 2 / 14 ) इत्यनेन इकण प्राप्नोति, तमपीकणं यमपत्युत्तरपदाच्यः / / 6 / 115 // बाधित्वा 'अनिदम्यः' इति यः क्रियते / एतेना म० वृ०-दिति अदिति आदित्य-यमशब्देभ्यः पत्यादावर्थेऽणोऽपवादस्तद्विपयेऽपि ज्यः प्रत्ययः पत्युत्तरपदाच्च "प्रागजितीयेऽर्थे इदमर्थवर्जितेऽ[य- स्यात् इति सूत्रार्थोदाहरणानि प्रदर्शितानि // 15 // त्रेदमर्थो न कथितो भवति इत्यर्थः ] पत्यादावर्थे यो- बहिषष्टीकण च // 6 / 1 / 16 / / ऽणोऽपवादः प्रत्ययस्तद्विषये च यः" स्यात् / म० वृ०-बहिस्शब्दात् 'प्रागजितीये टीकण् रदैत्यः, आदित्यः, आदित्य्यः,दैत्यम , आदित्य्यम्; चकारात् ज्यश्च' स्यात् / बहिर्जातो-बाहीकम् , याम्यः / पत्युत्तरपद,-प्राजापत्यः५ / अणपवादे बाह्यः ; [प्रायोऽव्ययम्य' ( 74 / 65 ) इत्यन्त्यस्वरा 'आदित्य्यः, वनस्पतीनां समूहो वानस्पत्यम् / | दिलोपः ] बाह्या, बाहीकी। टकारो ड्यर्थः, तेन अनिदमीति किम् ? आदितीयम् // 15 // बाहीकीति सिद्धन // 16 // * "अकारस्य वृद्धि: 'जिदा दरिणोः' (6 / 1 / 140) इति च प्रयोजनम्" इति बृहृवृत्तौ / ★दितेरपत्यमित्यादिविकारलोपः, .आदित्यस्यापत्यमित्यादिष्वकारलोपः / Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०६ पा० 1 सू० 17-20 प्रव०-'गम्भीरपञ्चजनबहिर्देवात्' ( 6 / 3 / नेन एयण , एयणोऽपि बाधकः 'पृथिव्या बाग' 135 ) इत्यनेन भवेऽर्थो परत्वात् ज्यप्रत्ययविधा इति अबेव / / 18 / / नात् टीकण न प्राप्नुयात , 'बहिषष्टीकण चे'-ति उत्सादेरा // 6 / 1 / 19 / / सूत्रकरणात् सूत्रेऽनुक्तेऽपि जाते बहिस्शब्दात् म. वृ०-उत्सादिगणात् प्राजितीयेऽनिदटीकणज्यौ द्वावपि प्रत्ययौ जातेऽर्थे भवतः इत्यर्थः म्यणपवादे च 'अब' स्यात् / उत्सस्येदमौत्सम [एव॥१६॥ मौदपानम् ] / 'अणपवादे च- उत्सस्यापत्यमौत्सः, कल्यग्नेरेयण // 6 / 1 / 17 / / एवं तारुणः, उपाञ्चालः / / 19 / / म० वृ०-कलि-अग्निभ्यां 'प्राजितीये अनि प्रव०-१अणपवादे चेति प्रयोगाः , तथाहिदम्यणपवादे च एयण' स्यात् / 'कालेयम , आ औत्सः, औदपानः / उदकः, पां पाने, उदकं पीयतेग्नेयम् / अणोऽपवादे च, कलेरागतं कालेयम् / निहेतुभ्यः' (6 / 3 / 156 / इति सूत्रेण अणं बाधित्वा ऽस्मिन्-'करणा०' ( 5 / 3 / 129 ) इत्यनट् , 'नाम्यु त्तरपदस्य च' (3 / 2 / 107) इति सूत्रेण उदकस्य उद रूप्यमयटौ, तावपि बाधित्वा एयण ] ||17|| आदेशः, उदपानमनिपानम् कूपादि, उदपानअव०-'कलिर्देवताऽस्य, २अग्निदेवताऽस्य; स्यापत्यमौदपानः / रतरुणी, तरुण्या अपत्यं= तारुणः / उपञ्चालेषु जातः पाञ्चालः / एषु प्रागजिअथवा कलौ भवम् , अग्नौ भवम् ; यद्वा कलिना ऋषिणा दृष्टं साम कालेयम् , आग्नेयम् ; कलेरियं तीयमणं बाधित्वा औत्स औदपान इत्यत्र का, अग्नेरिदं वा; इत्थं सर्वैरपि वाक्यैः कालेयम , 'अत इन्' ( 6 / 1 / 31 // इति इञ्), तारुण इत्यत्र आग्नेयमिति प्रयोगः / तथा अणोऽपवादे इदमप्यु 'ज्याप्त्यूकः' (6 / 1170 ) इति एयण, पाश्चाल दाहरणं- कलेनिमित्तमुत्पातः संयोगो वा- काले यः, इत्यत्र 'बहुविषयेभ्यः' (6 / 3 / 45) इत्यआग्नेयः ; अत्र ‘हेतौ संयोगोत्पाते' (6 / 4 / 153) इति नेन अकण , एपां प्राप्तिः, इब्-एयण-अकलं इकणप्राप्तिः, तमिकणं बाधित्वा एयण भवति / 17 / बाधित्वा उत्सादेरञ् भवतीत्यर्थः / उत्स, उद पान, विकर, विनद, महानद, महानस, महाप्राण, पृथिव्या आज / / 6 / 1 / 18 // तरुण, तलुन, धेनु, पक्ति , जगती, वृहती, त्रिष्टुप्, म. वृ०-पृथिवीशब्दात् 'प्रागजितीयेऽनिद- अनुष्टुप् , जनपद, भरत, उसीनर, ग्रीष्म, अच्छम्यणपवादे च ब अन्' भवतः / पार्थिव / बानोः न्दसि, पीलकुण, उदस्थान, वृषदंश, भल्लकीय रथस्त्रियां विशेषः- पार्थिवा,पार्थिवी ; ['अजादे' (2 / 4 / न्तर, मध्यंदिन, बृहत , महन , महिमन् , सत्वत् , 16) इत्याप् , 'अणयेकणनम्नटिताम्' कुरु, पश्चाल, इन्द्रावसान उष्णिह , ककुभ् , सुवर्ण, (2 / 4 / 20) इति दी] अणपवादे च- पृथिव्या अप- हंसपथ, वर्धमान इत्युत्सादिः // 19 // त्यं पार्थिवः, पार्थिवा; पार्थिवी। सङ्घादिष्वणिति बष्कयादसमासे // 6 / 1 / 20 / / प्रयोजनमविधानम्य / / 18 / / म० वृ०-बष्कयादसमासे वर्तमानात् 'प्राग्अव०-पृथिव्यां भव =पार्थिवः / पृथिव्यां / जितीयेऽनिदम्गणपवादे च अञ्' स्यात् / बाष्कयः / भवा-पार्थिवा, पार्थिवी / तथा अणोऽपवादोऽयं / असमास इति किम ? सौवष्कयिः // 20 // प्रयोगः / 'पार्थिव' इत्यादि, पृथिव्या अपत्यमिति अव०-बष्कयो-वत्सः, बष्कयस्यापत्यं बाष्कयः ; वाक्ये 'दसोऽपत्ये' (6 / 1 / 28 / इति ) अण्प्राप्तिः, / 'बष्कया' इति अप्रत्ययः / सुबष्कर्यस्यापत्यम् तस्याप्यणो बाधको 'ज्याप्त्यूङ' (6 / 1170) इत्य- / // 20 // Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यनादिप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [263 देवाय च // 6 / 1 / 21 // स्य सकृद् (एकवारं) लुप स्यात् , न तु द्विः (=न म० वृ०-देवात् 'प्राजितीयेऽनिदम्यणप- तु द्विधारम) / द्विरथः,' २पश्चकपालः, पञ्चेन्द्रः, वादे यञ् चकारादञ्च' स्यात् / देवस्येदं देवादागतं चतुरनुयोगः / द्विगोरिति किम् ? 'पौर्वशालः / वा=दैव्यम , दैवम् / यान्ताच्च अञन्ताच्च ड्यां दैवी अनपत्य इति किम् ? 'द्वैमातुरः / अद्विरिति किम् ? वाक् [अबि कृतेऽपि डी] // 21 // "त्रैवेदम् / प्राजितादित्येव- द्विरथ्यः / / 24 / / अव०-देवस्येयं देवादागता वा इति वाक्ये __ अव०-द्वयोरथयोोंढा-द्विरथः, अथवा द्वयो रथयोः समाहारो= द्विरथी, 'द्विगोः समाहारात्' 'देवाद्यञ् च' इति यज , 'यबो डायन् च वा' (2 / 4 / 22) ढी, द्विरथ्या वोढा= द्विरथः, 'रथात्सा( 2 / 4 / 67 ) इत्यनेन सूत्रेण डी, डायन् अन्ता देश्च वोढङ्गे (6 / 3 / 175) इत्यर्थे 'यः' (6 / 3 / 176) गमः (वा)। यत्प्रत्ययान्तात् डी, तत्र 'अस्य इति सूत्रेण यप्रत्ययः, 'द्विगोरनपत्ये' इत्यनेन म्यां लुक्' (२।४।८६।इत्यकारलुक्), 'व्यञ्जनात्तद्धितस्य' (2 / 4 / 88) इति सूत्रेण य लुप्यते, 'दैवी' इति यप्रत्ययो लुप्यते, यत्र च ही कृताऽस्ति तत्र 'ड्यादे गौणस्य०' (2 / 4 / 95) इति डीलोपः, द्विरथ इति रूपम् / 'ययो डायन च वा' इति दैव्य-डीविचाले रूपम् / २पञ्चसु कपालेषु संस्कृता, पश्चकपालानां डायन , तत्र 'दैव्यायनी' इत्यपि / इति रूपद्वयम् समाहारः, डी, पञ्चकपाल्यां वा संस्कृतः, 'संस्कृते भक्ष्ये' (6 / 2 / 140) अण् , तस्य लुप्। इन्द्रस्य भार्या - अः स्थाम्नः // 6 / 1 / 22 / / =इन्द्राणी, 'वरुणेन्द्ररुद्र०' (2 / 4 / 62) इत्यनेन डी म. वृ०-स्थामनशब्दात् ' आन् अन्तागमश्च- इन्द्राणी, पञ्च इन्द्राण्यो देवताsप्रत्ययः स्यात् / अश्वत्थामः / / 22 / / स्य पञ्चेन्द्रः, 'देवता' ( 6 / 2 / 101 ) इति सूत्रेण अण् , 'द्विगोरनपत्ये' इत्यनेनाणो लुप् , 'ख्यादे' प्रव०-अश्व इति तिष्ठतीति ‘मन्वनक्कनिप्' (2 / 4 / 95) इत्यनेन कीनिवृत्तिः, ततो 'निमित्ता(५।१।१४७) इत्यनेन मन , पृषोदरादित्वात् सस्य भावे (नैमित्तिकस्याप्य) भावः इत्यानो निवृत्तिः ; त् / अश्वत्थाम्नोऽपत्यं अश्वत्थामः, ततोऽप्रत्ययः, अथवा पश्चाना इन्द्राणीनां समाहारः पञ्चेन्द्राणि, . . 'नोऽपदस्य तद्धिते' (74.61) अन लुप्यते / / 22 / / पञ्चेन्द्राणि देवता अस्य-अण् , तस्य लुप् , ढीलो. लोम्नोऽपत्येषु // 6 // 1 // 23 // पश्च ; आनस्यापि निवृत्तिः / चतुरनुयोगानधीते, (अथवा) चतुर्णाननु योगानां समाहार:-चतुरनुयोगी, म. वृ०-लोमनशब्दात् 'प्राजितीये बह्मप 'द्विगोःसमाहारात्' (2 / 4 / 22 ) डी, चतुरनुयोगीमत्यार्थे अः' स्यात् / [उडुवत् लोमान्यस्य स उडु धीते, 'तद् वेत्त्यधीते' (6 / 2 / 117) इत्यण् , तस्य लोमा। उडुलोम्नोऽपत्यानि= उडुलोमाः / बहुव 'द्विगोरनपत्ये.' इत्यनेन लुप् ; यत्र च दी प्रत्ययस्तत्र चनं किम् ? औडुलोमिः // 23 // 'व्यादे०' (2 / 4 / 95) इत्यनेन दीनिवृत्तिः / “पूर्वप्रव०-अपत्येषु इति बहुवचनात् एकस्मिन् स्यां शालायां भवः= पौर्वशालिकः, 'दिक्पूर्वादनाअपत्ये द्वयोरपत्ययोर्वा वाच्ययोर्बाह्यादित्यादिव म्नः' (6 / 3 / 23, इति सूत्रेण णः प्रत्ययः, अत्र 'दिगऔडुलोमिना, औडुलोमिभ्याम् // 23 // धिकं संज्ञातद्धितोत्तरपदे' (3 / 1 / 98) इत्यनेन तत्पु रुषसमासः। द्वयोर्मातोरपत्यं,-सङ्ख्या सम्भद्रान्माद्विगोरनपत्ये य-स्वरादेलु बद्विः // 6 / 1 / 24 // तुर्मातुर्च' (6 / 1 / 66) इत्यनेन अण् , मातृशब्दस्य म० वृ०-अपत्यादन्यस्मिन् प्राजितीयेऽर्थे / 'मातुर्' आदेशः / 'त्रीन् वेदानधीते,- 'तद्वेत्त्यधीते' उत्पन्नस्य द्विगोः परस्य यकारादेः स्वरादेश्च प्रत्यय- / (6 / 2 / 117) इत्यनेन अण् , पश्चात् 'द्विगोरनपत्ये०' Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 6 पा० 1 सू० 25-28 D इत्यनेन अण् लुप्यते, ततः त्रिवेदस्येदं= त्रैवेदम् , | र:, पौंस्न इति सिद्धम् / स्त्रिया अहं कृत्यं-स्त्रीवत्, 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160 ) इत्यण , अणो न लोपः, | 'तस्याहे क्रियायां वन्' (71 / 51 ) इति वत् , अद्विरिति वचनात् / द्वौ रथी वहति=द्विरथ्यः, | अथवा स्त्रिया तुल्यं वर्तते इति स्त्रीवत् , 'स्यादे'वहति रथयुगप्रसङ्गात्' (7 / 1 / 2) इति यः // 24 // रिवे' (71252) इति वत् ; एवं पुंवत् , 'पदस्य' 'प्राग्वतः स्त्री-पुसान्ना-स्नत्र // 6 / 1 / 25 / / इति स्लोपः, 'तौ मुमौ व्यञ्जने स्वौ' इत्यनुस्वारः // 25 // ___ म० वृ०-“वत्प्रत्ययादगिर्थेषु अनिदम्यण त्वे वा // 6 // 1 // 26 // पवादे च स्त्रीशब्दात पुम्स्शब्दाच्च यथासङ्ख्यौं ननस्नब प्रत्ययौ भवतः" / स्त्रिया अपत्यं-स्त्रणः, पौं- म० वृ०-स्त्रीपुम्सशब्दात् त्वे तु प्रत्ययविषस्नः; उरणम् , पौंस्नम् ; स्त्रैणी, पौंस्नी; 'रणः, ये भावे यथासङ्ख्य 'नञ् स्नञ् वा' भवति / स्त्रिया पौंस्नः / प्राग्वत इति किम ? 'स्त्रीवत् , "पुंवत्।२५। भावः स्त्रणम् , स्त्रीत्वम् ,स्त्रीता; पौंस्नम् , पुंस्त्वम् , पुंस्ता // 26 // अव०-"तस्याहे क्रियायां वत्' (7 / 1151) 'स्यादेरिवे' (71252) इति वत्प्रत्ययात् प्राग=अ- प्रव०-'पुस्त्वम् , पुस्ता' इत्यत्र ‘पदस्य' (2 / कि / स्त्री च पुमांश्च-'त्रियाः पुंसो द्वन्द्वाच्च' (7 / 3 / / 1189) इति सलोपः, 'पुमोऽशिटयघोषे०' (1 / 3 / 9) 96) इति (अत्) समासान्तः, तस्मात् / उस्त्रीणां | इति अनुस्वारपूर्वः रकारः, 'चटते सद्वितीये' (1 / 3 / समूहः खणम् , पुसां समूहः-पौंस्नम् , अथवा 17 / इतिाने स् आदेशः // 26 // स्त्रीषुभवणम् , पुंसु भवं पौंस्नम्। तथा स्त्री गोः स्वरे यः // 6 / 1 / 27 // णामियंखणी, पुंसामियं पौंस्नी। स्त्रीणां निमित्तं संयोग उत्पातो वा स्त्रणः, (एवं) पौं नः; (एवं) स्त्रीभ्यो म० वृ०-गोशब्दात् स्वरादितद्धितप्रत्ययप्राहितं-रणम् , (एवं) पौस्नम्। पञ्च एतानि स्त्रिया अप प्तौ “यः प्रत्ययः" स्यात्। गव्यम् , 2 गव्यः / स्वरे त्यमिति तु षष्ठमेवं 'रणः पौंस्न' इति प्रयोगषट्कम्। | इति किम् ? [गोभ्यो हेतुभ्य आगतम् , "नृहेतुभ्यो तत्र स्त्रिया अपत्यं स्त्रीणां समूह इति वाक्यद्वयोपरि रूप्यमयटौ वा" (६।३।१५६)]गोरूप्यम् , गोमयम् प्राग्वत इति विषये "स्त्रीणः पौंस्नः" 1 "स्त्रणं // 27 // पौंस्नम्" 2 इति प्रयोगद्वयं ज्ञेयम् / अनिदम्यणपवादविषये च-स्त्रीषु भवम् ( इत्यर्थे) 'भवे' (6 / 3 / अव०-गोरिद गव्यम् , 'तस्येदम्' (6 / 3 / 123 ) इत्यनेनाणेयणोः प्राप्तौ सत्यां तदपवादौ / 160) इत्यणप्राप्तौ; गोरपत्यं गत्र्यः, 'चतुष्पाद्भय एयम्' (6 / 1183) प्राप्तौ; गवि भवं गव्यम् , अत्र नत्र स्नत्र- स्त्रणम् पौस्नम / / स्त्रीणामियं पुंसामियमिति वाक्ये 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) इत्य 'भवे' (6 / 3 / 123 ) इत्यण एयणप्राप्तौ; गौर्देवतायणप्राप्तौ नत्र स्न- स्त्रणी पौंस्नी / 2 / स्त्रीणां ऽस्य-गव्यः, अत्र 'देवता' ( 6 / 2 / 101 ) इत्यनेन निमित्तमिति वाक्ये हेतौ संयोगोत्पाते' (6 / 4 / 153) अणादिप्राप्तौ ; गवा चरति-गव्यः, 'चरति' (6 / 4 / 11) इति अनेन इकणप्राप्तौ; सर्वत्र 'गोः स्वरे यः' इति उक्तप्रत्ययं बाधित्वा नञ् स्नत्र - स्त्रणः पौंस्नः 3 / स्त्रीभ्यो हितमिति वाक्ये च तस्मै हिते' (7 / इति सूत्रेण यप्रत्यय एव भवति. नान्यः / २'य्यक्ये' 1 / 35 ) इत्युक्त बाधित्वा नन स्न: स्त्रणम् / 1 (1 / 2 / 25) इति सूत्रेण अादेशः // 27 // पौस्नम् / 4 / इत्थं प्रयोगचतुष्कं भवति / पौंस्न इत्य- | सोऽपत्ये // 6 / 1 / 28 // त्र 'पदस्य' (2 / 1189) इति सूत्रेण सलोपः, 'तौ मुमौ म. वृ०-अणादयोऽनुवर्तन्ते / सः षष्ठयव्यञ्जने स्वौ' (1 / 3 / 14) इत्यनेन 'म्' इत्यस्यानुस्वा- | न्तानाम्नोऽपत्यार्थे 'यथाभिहितमणादयो' भवन्ति / Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रत्ययविधानम् ] मध्वमपरयवचूरिसंवलितम् - - - - औपात्रः, धानपतः, दैत्यः, [प्राग जितादण' (6 / 1 / / यूनि' (6 / 1 / 30) इति वक्ष्यमाणसूत्रे वक्ष्यते / एते१३) 'धनादेः पत्युः' (6 / 115) 'अनिदमिः' इति] | नारत्यप्रत्ययोऽनुत्पन्न प्रत्ययान्ताया एव प्रकृतेर्भवती औत्सः, स्त्रणः, पौंस्नः। अपत्ये इति किम् ? भानो- / त्यर्थः / 'आद्या'दिति सूत्रे (एवं) ज्ञापितं ततः परोऽ. रयं-भानवीयः [दोरीयः' (6 / 1 / 32) ] ||28|| नन्तरवृद्धयुवप्रत्ययो भवतु मा वा भवतु परमयं विशेषः एकस्मिन् प्रत्यये कृते ततः परेऽन्यस्मिन् प्रत्यये ... अव०-'यथाभिहितम् ', कोऽर्थः ? अभिहित क्रियमाणे प्राक्तनो लुप्यते / अनन्तरादयोऽपि परमस्प-उस्यानतिक्रमेण 'प्राग जितादण' (6 / 1 / 13) प्रकृतिरूपेणैवाऽपत्येऽर्थे प्रत्ययमुत्पादयन्ति / अस्याइति सूत्रादारभ्य ये प्रत्यया उक्ता त एवापत्यार्थे र्थः- न केवलमुपगु गा इत्येवंरूपायाः परमप्रकृतेः भवन्तीत्यर्थः / 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160 ) इत्यनेन परतोऽपत्यप्रत्ययः, किन्तु अनन्तरापत्यार्थप्रत्ययः, अणादिसिद्धावपत्यविवक्षायां 'तस्येदम्' (63 // वृद्धार्थापत्यप्रत्ययः, युवार्थापत्यप्रत्ययः इत्येतेऽपत्य१६०) इत्यस्या वाद-'दोरीयः' (6 / 1 / 32) सूत्रम् , प्रत्ययाः परमप्रकृतेरेव भवन्ति इति 'आद्यात्' इति तस्य बाधनार्थ सोऽपत्ये' इदं वचनं कृतम् , सूत्रे विशेषो ज्ञेयः / / 29 // अन्यथा दुसंज्ञकादपत्यविवक्षायामपि 'ईय' एव वृद्धाद् यूनि // 6 / 1 / 30 // . स्यात् , तेन* भानोरपत्यं भानवः, अत्र 'दोरीयः' इतीयो न भवति / / 28 / / म० वृ०-यून्यपत्यविवक्षिते यः प्रत्ययः स आद्यात् / / 6 / 1 / 29 // आद्याद् वृद्धान्= परमप्रकृतेर्थो वृद्धप्रत्ययस्तदन्तात् स्यात् / आद्यादित्यस्यापवादः / वृद्धादिति यूनि प्रकृम० वृ०-अपत्ये येऽणादयः [येऽणादयः प्रत्ययाः तिर्विधीयते / गस्यिारत्वं वृद्धं= गार्ग्यः, गार्ग्यस्यापूर्व विहिताः ते आद्यात् परमप्रकृतेरेव भवन्ति / पत्यं युवा गाायणः, 'यनिनः' (6 / 1 / 54) इत्यासर्वपूर्वजानां पौत्राद्यपत्यमापरमप्रकृतेः पारम्पर्येण यनण् / यूनीति किम् ? गायः // 30 // सम्बन्धादपत्यं भवति / तत्र नेस्तैः [पुत्रपौत्राद्यपत्यैः सह पूर्वजानां] सम्बन्धवि क्षायामनन्तरवृद्धयुव- . अव०-'वृद्धाधुनि' इति सूत्रे आद्यादिति किम् ? 'भ्योऽपि' प्रत्ययः प्राप्नोति इति नियमार्थमारम्भो. उपगोरपत्यं वृद्धम्= औपगवः, औपगवस्यापत्यं युवा ऽयम् / उपगोरपत्यमनन्तरं वृद्धं वा-औपगवः, औपगविः, औपावरपत्यं युवा औपगविः; गार्यायतस्यापि औपगविः, औपगवेरपि औपगवः // 29 // णस्यापत्यं युवा गार्यायणः, अत्रायनण् इन् च न भवति इति ज्ञेयम् // 30 // अव०-१'अनन्तरवद्धयुवभ्योऽपी त्यक्षराणामयं भावार्थः- गर्गस्यापत्यमनन्तरं गार्गिः इती - अत इज // 6 / 1 / 31 // न्तात् गर्गस्यापत्यं वृद्धंगायः इति यान्तात् गार्य- __ म. वृ०-सोऽपत्ये इति वर्तते / अकारास्यापत्यं युवा गार्या पण इति आयनणन्ताच्चासत्यार्थे न्तात् उसन्तानाम्नो-'ऽपत्येऽर्थे इब्' स्यात् / अणोविहितोऽणादिः प्रत्ययो मा भूत . किन्तु मूलप्रकृतेः अपवादः / दाक्षिः, अस्यारत्यभिः (कामः).कथं 'प्रदीउअगु गर्न इत्येवंरूपादेव (इत्येवंरूपाया एत्र ?) यतां दाशरथाय' मैथिली',२ ? 'तस्येदम्' (6 / 3 / अपत्यप्रत्यय उत्पद्यते; न गार्ति-गाय-गाायणात् | 160) इति विवक्षायामण भविष्यति / अथ काकपरतोऽपत्यप्रत्ययः / तथा युवार्थापत्यप्रत्ययं प्रति च | बकशुकादेः कथं ने ? जात्यैवापत्यार्थस्य पीत्रादेरवृद्धापत्यप्रत्ययैरेव प्रकृतिराश्रीयते वृद्धापत्यप्रत्ययान्तप्र-| नन्तरस्य च उक्तत्वात् / यत्र त्वर्थप्रकरणादेर्विशेषकृतेः परतो युवार्थापत्यप्रत्यय उत्पद्यते नथैव वृद्धाद् / प्रतीतिरस्ति तत्रे स्यादेव, यथा "कुतश्वरति 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160 ) इत्यनेनाणादिसिद्धावपत्यविवक्षायां तदपवादबाधनार्थमिदं वचनं कृतं तस्मादित्यर्थः / * इत्येवमेवेत्यर्थः / Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०६ पा० १सू० 32 मायूरिः, केन कापिञ्जलिः कृशः"; एतेन / म०वृ ०-बाह्लादिभ्यो 'गोत्रेऽपत्येऽर्थे इस ' काक्यादिभ्य एयणादयोऽपि व्याख्याताः / कथं स्यात् / अनकारान्तार्थः बाधकबाधनार्थश्चायमारतर्हि क्रौञ्चः कौकिलः ['शिवादेरण' (6 / 1 / 60)] चाट- | म्भः / बाहोरपत्यं बाहविः / गोत्रे इति किम् ? कैरः ['चटकाण्णैरः०' (6 / 1179)] ? जातिशब्दा योऽद्यत्वे बाहुर्नाम तस्यापत्यं-बाहवः। सम्भएवैते, यथाकथञ्चिद् व्युत्पाद्यन्ते; यथा 'क्षत्रं- वापेक्षं च गोत्रग्रहणम् , तेन पञ्चानामपत्यं पाश्चिः, १०क्षत्रियाः; राजा- ५१राजन्यः, १२मनुः- मनुष्यः, साप्तिः आष्टिः इत्यादि सिद्धम् // 32 // मानुषः / शतसर्वयुद्धकारकराजपुरुषमाथुरकुररादिभ्योऽनभिधानान्न इब्र // 31 // प्रव०-'स्वापत्यसन्तानस्य स्वव्यपदेशकारणअव०-१मिथिलाया अयं स्वामी- 'तस्येदम' / मृषिरनृषिर्वा यः प्रथमः पुरुषस्तदपत्यं गोत्रम् , (6 / 3 / 160) अण , मैथिलस्यापत्यम् , 'ऋषिप्राण्यः' तस्मिन्नषिधे गोत्रे / न अकारान्तः अनकारान्तः, अण . ततो डी। 2 “त्यजस्व को कुलकीर्तिनाः | अकारान्तशब्दं वर्जयित्वा शेषस्वरा तेभ्य इत्र भवशनं, भजस्त्र धर्म कुलकीर्तिवर्द्धनम्; प्रसीद जीवेम | तीत्यर्थः / अखण्डमव्ययं त्वप्रत्ययान्तो वा अद्यसबान्धवा वयम्" इत्युदाहरणपादत्र्यं ज्ञेयम् / दश- शब्दः सत्रत्ययः / बाहु, उपत्राकु, निवाकु, वटाकु, रथस्यायमिति दाशरथः, अपत्यविवक्षायां तु 'दाश चाटाकु, चटाकु, उपबिन्दु, वृकला, कृकला, रथिः' इत्येव भवति / (आदिशब्दात् ) शब्दान्तर- चूडा, बलाका, जड घा, छगला, भगला, लगहा, सन्निधेः / 'नियतस्य कस्यचित् पुरुषस्य मयूर इति ध्रुवका, धुवका,भूषिका,सुमित्रा,दुर्मित्रा / वृकलादिसंज्ञा, मयूरस्यापत्यं मायूरिः / कपिञ्जलस्यापत्यं= शब्देभ्यो यथासम्भवमेयण, एरणं बाधित्वा कापिञ्जलिः, 'अत इत्र' (6 / 1 / 31) / पूर्वोक्तप्रका 'दोनदीमानुषी-'ति सूत्रेणाण , तस्याप्यपवादः रेण / विशेषप्रतीतो सत्यामेयणादयो भवन्तीत्यर्थः, 'बाह्नादिभ्य इन', इति बाधकबाधनार्थश्चायमारअन्यत्र तु जात्यभिहितत्वान्न भवति / क्षणूयी हिं- भ्भः इति घटितम् / युधिष्ठिर, अर्जुन, राम, सङ्कसायाम् (इति) क्षण : क्षणनं क्षत् , क्रुत्सम्पदादि- पेण, कृष्ण, गद, प्रद्युम्न, शाम्ब, सत्यक, शूर इत्यभ्यः किप' (५।३।११४),यमिरमिनभिगमि० ष्टौ ( ? दश ) वृष्णयो यादवाः; एषु 'ऋषिवृष्ण्य(४।२।५५) इत्यने नान्तलोपः, ततस्तोऽन्तः, क्षतस्त्रा- न्धक०' इत्यणोऽपवाद इञ् / असुर, अजीगत,मध्यंयते-क्षत्रम् , 'स्थापास्नात्रः कः' (5 / 1 / 142) इति दिन ; एते त्रय ऋषयः / सुधावत् , स्वधावत् , कः,हिंसार्थात् सौत्रछदिधातोः वा 'हुयामा०' (451) पुष्करसद्, अनुरहत् , अनडुङ्, पश्चन् , सप्तन् , इत्यौणादिकः त्रः * १'क्षत्रस्यापत्यं क्षत्रियः, अष्टन् , क्षेमधन्विन् ,माषशिराविन ,शृङ्खलकोदिन , 'क्षत्रादियः' (631193) / १'राज्ञोऽपत्य-राज- (शृङ्खलतोदिन ,) नगरमर्दिन ,इन्द्रशमन् मद्रशर्मन् , न्यः, 'जातौ राज्ञः' (6 / 1 / 92) इति सूत्रेण यः प्रत्ययः, अग्निशर्मन् , देवशर्मन् , उपदश्च, उदञ्च, कुनामन् , 'अनोऽट्ये ये' (74 / 51) इत्यन्तस्वरादिलोपनि- सुनामन् ,(सुदामन ,) शिरस् .लोमन्; एतौ तदन्तौ, षेधः / १२मनु, मनोरपत्यं-'मनोर्याणौ षश्चान्तः' हास्तिशीर्षिः, औडुलोमिः, शारलोमिः इति बाह्वादि(६।१।९४) इति सूत्रेण य-अणप्रत्ययौ षोऽन्तश्च // 31 // गणः / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् , तेन सख्युरपत्यं बाह्वादिभ्यो गोत्रे' // 6 / 132 // | साखिः,सांवशिः, उदकस्यापत्यम् औदङ्किः, औद्दाके इदं चिन्त्यम्, 'गमां वो' (4 / 2 / 58) इत्यनेनान्तलोपसद्भावात् / * अथवा क्षरणनं क्षतः, क्लीबे क्तः, 'यमिरमि०' (4 / 2 / 55) इत्यन्तलोपः, क्षतात् त्रायते इति स्थापास्नात्रः कः (5 / 1 / 142) इति कः, पृषोदरादित्वादस्य लोपः / Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इम् अप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [267 . लकिः, वाल्मिकिः, आरुणिः / इत सूत्रादारभ्य गोत्रे ___अव०-१शलङ्क शब्दः, शलङ्कोरपत्यम् , अत्रेसति इञ् , अगोत्रे + निषेधः / / 32 / / ज् , निपातनात् उकारलोपः। उदकस्यापत्यमौदिः, __वर्मणोऽचक्रात् // 6 / 1 / 33 // इञ् कलोपश्च निपात्यते / उषण्णामपत्यं षाडिः, म० वृ०-चक्रशब्दवर्जितात्परो यो वर्मन् तद इञ् , अन्तस्य च डत्वं निपात्यते / “वाचं वदति न्तादपत्येऽर्थे 'इन' स्यात / [इन्द्रवर्मणोऽपत्यम्=] वाग्वादः, 'कर्मणोऽण' (5 / 1 / 72), वाग्वादस्यापत्यं ऐन्द्रवर्भिः / अचक्रादिति किम् ? चाक्रधर्मणः / 33 / =वाड्वलिः, इज , वाचोऽन्तस्य डत्वम् , उत्तर पदस्य वादशब्दस्य बल इति च निपात्यते // 37 // अजादिभ्यो धेनोः // 6 / 1 / 34 // व्यास-वरुट-सुधातृ-निषाद-बिम्ब-चण्डालादम. वृ०-अजादिभ्यः परो यो धेनुस्तदन्तादपत्येऽर्थे 'इन' स्यात् / 'आजधेनविः, बाष्कधेनविः न्त्यस्य चाक् // 6 / 1 / 38 // [अजादयः प्रयोगगम्याः ] ||34 // ___म० वृ०-व्यासादिभ्योऽपत्ये 'इञ् तद्योगे च एषामक् इत्यन्तादेशः' स्यात् / व्यासस्यापत्यं वैयाअव०-'अजा चासो धेनुश्च, पोटायुवति०' | सकिः, वारुटकिः, सौधातकिः, नैषादकिः,बैम्बकिः, (3 / 1 / 111) इति समासः, 'पुंवत कर्मधारये' (3 / 2 / | चाण्डालकिः // 38 // 157 ) पुंवद्भावः / यदि पुनरजा धेनुर्यस्य बष्का धेनुर्यस्येति बहुव्रीहिः क्रियते तदा 'स्वाङ्गाडी- ___ अव०-१'वैयासकिः',इञि 'यवःपदान्तात् प्रागैर्जाति०' (3 / 2 / 56) इत्यनेन पुंवन्निषेधः स्यात् / 34 // दौत्' (74 / 5) इत्यनेन व्या इति विचाले ऐकारः / ब्राह्मणाद्वा // 6 / 1 / 35 // कार-व्याघ्राग्निशर्मभ्योऽपीच्छन्त्येके-कार्मारकिः, म० वृ०-ब्राह्मणशब्दपरात धेनुशब्दादपत्ये वैयाघ्रकिः, आग्निशमकिः / / 3 / / ऽर्थे 'इञ् वा' स्यात् / ब्राह्मणधेनविः, ब्राह्मणधेनवः पुनर्भू-पुत्र-दुहित-ननान्दुरनन्तरेऽञ ['उत्सादेरञ्' / 6 / 1 / 19 ] | // 35 // // 6 / 1 / 39 // भूयःसम्भूयोऽम्भोऽमितौजसः स्लुक च - म० वृ०-एभ्यो-'ऽनन्तरेऽपत्यार्थेऽञ्' स्यात् / ..... // 6 / 136 / / पुनर्वा अनन्तरमपत्यं पौनर्भवः, पौत्रः, दौहित्रः, म० वृ०-भूयस , सन्भूयस् , अम्भस् , अमि नानान्द्रः // 39 // तौजस्- एभ्यः परोऽपत्ये 'इभ सकारलोपश्च' ____ परस्त्रियाः परशुश्वासावण्ये / / 6 / 1140 // स्यात् / भूयसोऽपत्यं भौथिः, भूयोभिः सङ्गतः सम्भूयः, सम्भूयसोऽपत्यं साम्भूयिः, आम्भिः, आमि म. वृ०-परस्त्रीशब्दादनन्तरेऽपत्येऽज स्यात्, तौजिः // 36 // तद्योगे परस्त्रीशब्दस्य परशुभावश्च; असावये यदि परम्त्रीशब्दो ब्राह्मणत्वादिपुरुषेण समानवों न शालङ्क्यौदि-पाडि-वाड्वलि / / 6 / 1 / 37 // स्यात् / परा पुरुषाद्भिन्नवर्णा स्त्री-परस्त्री, तस्या ___ म० वृ०-गते शब्दा अपत्ये 'इञन्ता' निपा- अनन्तरापत्यं पारशवः। असावर्ण्य इति किम् ? त्यन्ते / 'शालङ्किः, २औदिः, षाडिः, वाड्वलिः, - परस्य स्त्री-परस्त्री, तस्या अनन्तरापत्यं पारस्त्रै॥३७॥ णेयः // 40 // अत्रायं भाव -यत्र गोत्रमगोत्रं च संभवति तत्र गोत्रादन्य प्रतिषेधः, यत्र च गोत्रं न संभवति तत्र त्वगोरोऽपीन भवति / Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०६ पा० 1 सू० 41-42 प्रव०-'परस्त्रीशब्दात् 'कल्याणादेरिन् चा- | जामदग्न्यः स पाराशर्यः'; ? पुत्रेऽपि पौत्रादिकार्यम्तस्य' (6 / 1177 ) इत्यनेन एयण , प्रकृतेरन्तस्य करणात्तथोच्यते / अनन्तरापत्यविवक्षायां 'जामद'इन्' आदेशः; 'अनुशतिकादीनाम्' (7 4 / 27) इति | ग्नः पाराशरिः' / कथं पाराशरः ? 'तस्येदम' (6 / 3 / सूत्रेण परशब्दस्य स्त्रीशब्दस्य च एवमुभयपदवृद्धिः 160) इति भविष्यति / 42 / / // 40 // विदादेवृद्धे // 6 / 1 / 41 // प्रव०-ननु मनुशब्दो गर्गादिगणमध्ये लोहि तादिगणे पठ्यते ततो 'लोहितादिशकलान्तात्' म. वृ०-'विदादिभ्यो 'वृद्धेऽपत्येऽर्थे अञ्' (2 / 4 / 68) इत्यनेन डीडायन्प्रत्यये 'मानव्यास्यात् / विदस्यापत्यं वृद्ध–वैदः, वैदी, विदाः ;2 यनी' इति प्रयोगः प्राप्नोति. (अतः) कथं "मानवी काश्यपः, काश्यपौ, कश्यपाः / वृद्ध इति किम् ? प्रजाः" इति सिद्धिः; ? उच्यते, अपत्यसामान्यविवविदस्यापत्यमनन्तरं= वैदिः // 41 // क्षायां मनोरपत्यमिति वाक्ये 'सोऽपत्ये' (6 / 1 / प्रव०-'विद, उर्व, कश्यप, कुशिक, भर 28) अण भविष्यति / गर्गादिगणे मनायीशब्दः द्वाज, उपमन्यु, किलात, कीदर्भ, विश्वानर, ऋष्टि पठ्यते, मनायीशब्दस्य मानुषीनामत्वविवक्षायाम् षेण, ऋतभाग, हर्यश्व, प्रियक, पियक, अपस्तम्भ, 'अदोर्नदीमानुषी०' (61667) इत्यनेन अण कुवाचर, कूवाचर, शरद्वत् , शुनक, धेनु, धेनुशब्द प्राप्नोति, * अन्यथा तु मनोर्भार्या मनायी, उत्सादिगणेऽपि पठ्यते, तत्र स धेनुर्नवप्रसूतग 'मनोरौ च वा' (2 / 4 / 61) इत्यनेन ढी, ऐत्वं च; व्यादिवाचकः, अत्र तु गणे धेनुः ऋषिवाचकः, अश्व, मनायी इति सिद्धम् ,मनाय्या अपत्यम्- 'क्याप्त्यूकः' शङ्ख; एतावश्वादिगणेऽपि ; तथा गोपवन, शिग्रु, (6 / 1170) इत्यनेन एयण प्राप्नोति, इत्थमणविन्दु, ताजम, अश्वावतान, श्यामाक, श्यामाकम् , एयणोः प्राप्तौ सत्यां यत्प्रत्ययार्थमत्र पाठः, सतो श्यापर्ण एवं शब्दाः 8, तथा हरित, किन्दास, वस्य 'मानाय्य' इत्येव भवति प्रयोगः / मानाय्य इत्यत्र स्क, अर्कलुश, वध्योग, विष्णुवृद्ध, प्रतिबोध, रथी 'जातिश्च णि०' (3 / 2 / 51) इत्यनेन बद्भावः कथं तर, रथन्तर, गविष्ठिर, गविष्ठिल, निषाद, शबर, न भवति ? पुंवद्भावे हि मानव्य इति स्यात् , मठर, सदाकु, पृदाकु एवं शब्द 16, इति विदादि तत्राह सूरिः,- कौण्डिन्यागस्त्ययोः०' (6 / 1127) गणः / २विदा इत्यत्र बहुत्वे उत्पन्नस्य अप्रत्ययस्य' इत्यत्र 'कौण्डिन्य' इति निर्देशा दनित्यः पुंवद्भाव 'योऽश्यापर्णान्तगोपवनादेः' (6 / 1 / 126) इत्यनेन इति न भवति / गर्ग, वत्स, वाज, अज, संकृतिः, लुप् / 3( एवम् ) स्थापत्यमनन्तरं गार्गिः, संकृतेर्गादिपाठात् सट् न भवति इत्यर्थः, व्याघ्र'बाह्वा०' (5 / 1 / 32) इञ् / / 4 / / पाद् , विदभृत् , पितृवध , प्राचीनयोग , पुलस्ति, रेभ, शङ्ख, शट, धूम, अबट, नभस, चमस, धनगर्गादेर्या // 6 / 1 / 42 // ञ्जय, तृक्ष, विश्वावसु, जरमाण, कुरकत, (बृहवृत्तौ म० वृ०-गर्गादिभ्यो 'वृद्धेऽपत्ये यर' स्यात् / कुरुकत) अनडुह, लोहित, संशित, (वक्र,) बभ्रु, गर्गस्यापत्यं वृद्ध गायः / वृद्ध इत्येव- गार्गिः / / बभ्लु, मण्डु, मङ क्षु, मक्खु, शस्थु, शङ कु, लतु, गोत्रे इत्येव गर्गो नाम कश्चित् , तस्यापत्यं वृद्धं / लिगु, गूहलु, जिगीषु, मनु, तन्तु, मनुतन्तु,xमन्तु गार्गिः (अत इन (6 / 1 / 31) / कथम् “अनन्तरोरामो मनायी, सुनु, श्रुत्र, कच्छक, ऋक्ष, रूक्ष, तरुक्ष, * मानुषीनामत्वविवक्षाभावे त्वित्यर्थः / 'अन्यथा तु' इत्यस्य 'मनाय्या अपत्यम्' इत्यादिना सह सम्बन्धः / 'मनोर्भार्या' इत्यादि तु प्रसङ्गाद् 'मनायी' शब्दसिद्धयर्थमुक्तम् / * 'मन्तु' इति बृहद्धत्यादिषु न विद्यते / .बहवृत्त्यादिषु 'रुक्ष' इत्यपि / Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . यमादिप्रत्ययविधानम् ] मण्यमवृत्यवचूरिसंवलितम् / [269 तलुक्ष, तण्डिन् , वतण्ड, कपि, कत, शकल इति / डी नित्यं डायन् चान्तो विकल्पेन, तेन माधवी लोहितादिगणः शकलान्तः, शब्दाः 31, 'लोहितादि ब्राह्मणी, माधव्यायनी च; बौधी आङ्गिरसी, बौध्याशकलान्तात्' (2 / 4 / 68) इति सूत्रे फलम् / कण्व, यनी // 44 // वामरथ, गोकक्ष, कुण्डिनी, यज्ञवल्क, पर्णवल्क, वतण्डात् // 6 / 1 / 45 // अभयजात, विरोहित, वृषगण, रहोगण, शण्डिल, म.व.-वतण्डशब्दादाङ्गिरसेऽपत्ये 'ययेव' मुद्गर, मुद्गल, मुसर, मुसल, पराशर, जतूकर्ण, स्यात् / वतण्डस्यापत्यं वृद्धमाङ्गिरस: वातण्डयः मन्द्रित, अश्मरथ, शर्कराक्ष, पूतिमाष, स्थूर, स्थूरा, // 45 // अरराका, पिङ्ग, पिङ्गल, कृष्ण, गोलुन्द, उलूक, अव०-वतण्डादाङ्गिरसे एव शिवाद्यबाध. तितिम्भ, भिष, भिषज, [भिष्णज, ] भण्डित, नार्थ वतण्डात् इति सूत्रे पाठः / आङ्गिरसादन्यत्र भडित, दल्भ, चिकित, देवहू , इन्द्रहू , यज्ञहू , गर्गादिशिवादिपाठात् यम् अण् च भवतः,- वातएकलू, पिष्पलू , पत्यलू , [वृहलू ,पकलू ,] वृहद- | ण्डयः, वातण्डः // 45 // ग्नि, जमदग्नि, शुलामिन, कुटीगु, उक्थ, कुटल, स्त्रियां लुप् // 6 / 1146 // चणक, चुलुक, कर्कट, अलापिन् , सुवर्ण, सुलाभिन् इति गर्गादिगणः // 42 // म० वृ०-वतण्डादाङ्गिरसेऽपत्ये [वृद्ध ] 'स्त्रियां यत्रो लुप्' स्यात् / वतण्डस्यापत्यं वृद्धं स्त्री मधु-बभ्रोर्बाह्मण-कौशिके / / 6 / 1 / 43 // आङ्गिरसीबतण्डी'। अनाङ्गिरसे तु शिवादिपा- . म. वृ०-मधुशब्दाद्बभ्रु शब्दाच्च यथासङ्ख्य ठाद्वातण्डी, लोहितादिपाठाद्वातण्डयायनी // 46 // 'ब्राह्मणे कौशिके च वृद्धेऽपत्ये यन्' स्यात् / माध- अव०-"वतण्डी' इत्यत्र “जातेरयान्तनित्यव्यो ब्राह्मणः, माधवोऽन्यः [ 'उसोऽपत्ये' (6 / 1 / / स्त्रीशूद्रात्' (2 / 4 / 54 ) इत्यनेन डीप्रत्ययः / वत२८] / बाभ्रव्यः कौशिकः, बाभ्रवोऽन्यः // 43 // ण्डीत्यत्र दीप्रत्यये विषये जातेरयान्त०' (2 / 4 / 54) अव.-बभ्रु कपि-वतण्डशब्दानां गर्गादिपा- इति सूत्रे कारणं ज्ञापितमस्ति ततोऽवधार्यम् // 46 // ठादेव यवि सिद्धेऽपि, 'बभ्र शब्दात् कौशिकार्थे एव' कुञ्जादेर्शायन्यः / / 6 / 1 / 47 // नियमार्थम् - 'कपिशब्दादाङ्गिरसे एवार्थे' इति निय- म० वृ०-कुञ्जादिभ्यो 'वृद्ध ऽपत्ये बायन्यः' मार्थम्, 'मधुबभ्रोर्बाह्मण०' 'कपिबोधादा०' (6 / 1 / स्यात् / कौआयन्यः / वृद्धे इत्येव- कुञ्जस्यापत्यमन।४४) इति सूत्रे बभ्र कपिपाठः कृतः ; अथवा लोहि- न्तरं कौञ्जिः // 47 // तादिकार्यार्थश्च गणपाठः, तेन 'बाभ्रव्यायणी, का प्रव०-कुञ्ज, बध्न, गण, भस्मन् , लोमन् , प्यायनी' इति सिद्धम् ; अत्र 'लोहितादिशकलान्ता- लोमायन्य, तदन्तादपि औडुलोमायन्यः, शट , शटो ताद्' (2 / 4 / 68) इति डायन , ढी // 43 // गर्गादावपि, शाक, शुण्डा,शुभा, विपाश, अयं शिवाकपि-बोधादागिरसे // 6 / 1 / 44 // दावपि, स्कन्ध, स्कम्भ, शङ्ख, शङ्खशब्दो गर्गादौ अश्वादौ विदादौ च; इति कुादिगणः / अकारो म. वृ०-कपिबोधशब्दाभ्यामाङ्गिरसे 'वृद्धे | वृद्धयाद्यर्थः // 47 // ऽपत्ये यम्' स्यात् / कपेरपत्यं वृद्धमाङ्गिरसः काप्यः, बौध्यः / अन्यः कापेयः [इतोऽनित्रः (6 / 1 / 72) ], . स्त्रीबहुध्धायनन // 6 / 1148 // बौधिः // 44 // म० वृ०-कुञ्जादिभ्यो 'बहुत्वविशिष्टे वृद्वे स्त्रियां चाबहुत्वेप्यायनन् ' स्यात् / कुञ्जस्यापत्यं स्त्री प्रव०-तथा मधुबोधयोस्तु पूर्व यन् , यत्र- कौञ्जायनी ['जातेरयान्त०' (2 / 454) इति डी]। न्ताच 'यत्रो डायन् च वा' ( 2 / 4 / 67 ) इति सूत्रेण / कुञ्जस्यापत्यानि कौञ्जायनाः // 48 // Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०६ पा०१ सू० 49-53 अश्वादेः / / 6 / 1 / 49 / / 'अत इम्' (6 / 1 / 31), 'बिदार्षा०' इत्यनेन इब्लुप् // 49 // म० वृ०-अश्वादिगणादपत्ये वृद्धे 'आयनन्' स्यात् / (अश्वस्यापत्यं वृद्धम् ] आश्वायनः, शाङ्खायनः / शप-भरद्वाजादाोये // 6 / 1 / 50 // वृद्धे इस्येव- आश्विः / / 49 / / म० वृ०-शपशब्दात् भरद्वाजशब्दादात्रेयेअव०-अश्व, शङ्ख, जन, उत्स, ग्रीष्म, अर्जु ऽपत्ये वृद्धे 'आयनन्' स्यात् / शापायनः, भारद्वा. न, वैल्य, अश्मन , विद, कुट, पुट, स्फट, (? स्फु जायनः आत्रेयः / आत्रेय इति किम् ? शापिः, भार द्वाजः // 50 // ट) रोहीण, खर्जुल, खजूल खजूर, पिञ्जर, भदिल, भटिल भडिल, भण्डिल, भटक, भडित, भण्डित, ___ भर्गात् गर्ने // 6 / 1151 // प्राहत, राम, उद, क्षान्ध, ग्रीव, रामोद, रामोदक्ष, म० वृ०-भर्गशब्दात् 'गर्ने वृद्धेऽपत्ये आय. अन्धग्रोव, काश, काण, गोल, आह्व, गोलाब, अर्क, नम्' स्यात् / भाईयणः त्रैगतः / / 5 / / स्वन, अर्कस्वन, (सुन, ) वन, पत, पद, चक्र, आत्रेयात् भारद्वाजे // 6 / 1 / 52 / / कुल, ग्रीवा, श्रविष्ठा, पावित, पावित्रा, पविन्दा, गोमिन् , श्याम, धूम, धूम्र, वस्त्र, वाग्मिन् , विश्वा म० वृ०-आत्रेयशब्दाद् वृद्धप्रत्ययान्तात् 'भारनर, विश्वतर, वत, सनख, सन, खड, जड, गद, | द्वाजे यून्यपत्ये 'आयनन्' स्यात् / आत्रेयायणो अई, वीक्ष, विशम्य, विशाल, गिरि, चपल, गिरि | भारद्वाजो युवा / / 52 / / चपल, चुप, दासक, चुपदासक, उपदासपाक, धा- नडादिभ्य आयनण् / / 6 / 1 / 53 / / य्य ( ? धाय्या), धन्य, धर्म्य, पुंसिजात, शूद्रक, म. वृ०-नादिभ्यो 'वृद्धेऽपत्ये आयनण' सुमनस् , दुर्मनस् ,आतव, उत्सातव, कितव, कित्र, स्यात् / नडस्यापत्यं वृद्धं-नाडायनः, चारायणः / शिव, खिव, खिप, खदिर, आनडुह्य इति अश्वादि वृद्धे इत्येव-नडस्यापत्यमनन्तरं नाडिः // 53 // गणः। अश्वशब्द इह सूत्रे गणे(विदादौ)च पठ्यते; तेन आश्वायनः, आश्व इति प्रयोगः। शङ्खशब्दोऽत्र अव०-नड, चर, बक, मुञ्ज, इतिक, इतिश, सूत्रगणे, विदादी, गर्गादौ, कुञ्जादौ पठ्यते; तेन उपक, लमक, सप्तल, सत्वल, बाज, व्यतिकेत्येके, यथाक्रमं शाङ्खायनः, शाङ्खः, शाङ्खयः, शाङ्खा बन्यः / प्राण, नर, सायक, दाश, मित्र, दांशमित्र, द्वीपा, इति प्रयोगाः 4 / जनशब्दोऽत्र सूत्रगणे नडादि- द्वीप, पिङ्गर, पिङ्गल, किङ्कर, किङ्कल, कातर, गणे च, तेन जानायनो युवा, जानायनिः ; अत्र काथल, काश्यप, काश्य, नाव्य, अज, अमुष्य, यनि प्रत्यये कर्तव्ये 'बिदार्षा०' (6 / 1140) इत्य- लिगु, चित्र, अमित्र, कुमार, लोह, स्तम्ब, स्तम्भ, नेन इयो लोपलक्षणो विशेषः, जानायनस्यापत्यम्,- | अग्र, शिंशपा, तृण, शकट, (मिकट) मिमत, सु. के अत्रायं भावः-प्रश्वादिगणस्थजनशब्दाद् वृद्धाऽपत्येऽर्थे 'आयनन ' नडादिगणस्थजनशब्दाद् वृद्धाऽपत्ये - ऽर्थे 'आयनण' भवति / उभयगणस्थ जनशब्दमाश्रित्य जनस्य वृद्धाऽपत्यं-जानायन इत्येकमेव रूपं भवति, अतो जनशब्दस्याश्वादिनडादिद्विगणयोः पाठे कृतेऽपि वृद्धापत्येऽर्थे नास्ति कश्चिद् विशेषः, परं यदा वृद्धाऽपत्यप्रत्ययान्तजानायनशब्दाद् युवाऽपत्यप्रत्ययः क्रियते तदाऽिस्ति विशेष:,तद्यथा- अश्वादिगणस्थजनशब्दमाश्रित्य जानायनस्यापत्यं युवा-जानायनः,अत्रायनो जित्त्वाद् 'अतइञ्'(६।१।३१) इत्यनेनोत्पन्नस्येप्रत्ययस्य 'बिदार्षा०' (6 / 1 / 140) इत्यनेन लुब्, नडादिगणस्थजनशब्दमाश्रित्य जानायनस्यापत्यं युवा-जानायनिः,अत्रायनणो जित्त्वाऽभावाद'अत इञ्' (21 / 31) इत्यनेनोत्पन्नस्येजप्रत्ययस्य जिदार्षा० (6 / 1 / 140) इत्यनेन लुब न भवति / Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायनण अण्प्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम्। - [271 मत, जन, ऋच् , इन्ध, ऋगिन्ध, मित, जनन्धर, . क्रोष्ट-शलङ्कोलक् च // 6 / 1 / 56 / / जलन्धर, युगन्धर, हंसक, दण्डिन् , हस्तिन् ,पश्चाल, म० वृ०-क्रोष्टशब्दात् शलङ कुशब्दात् वृद्धेचमसिन् , सुकृत्य, स्थिरक, ब्राह्मण, चटक, अश्वल, ऽपत्ये 'आयनण' स्यात् , तयोश्चान्तस्य लुक् च / खरप, बदर, शोण, दण्डम, छाग, दुर्ग, अलोह, क्रोष्टुरपत्यं वृद्धं क्रोष्ठायनः, शालङ्कायनः // 56 // (आलोह,) कामुक, बह्मदत्त, उदुम्बर, सण, लङ्क, केकर, नाय, आलाह, ऋग, वृषगण, अध्वर, बालि दर्भ-कृष्णा-ऽग्निशम-रण-शरदच्छुनकादाग्रायणश, दण्डप इति नडादिगणः / / 13 / / ब्राह्मण- 'वार्षगण्य-वासिष्ठ-भार्गव-वात्स्ये' यभित्रः // 6 // 1 // 54 // - // 61157 // म० वृ०-वृद्ध इति यबिओर्विशेषणम् / वृद्ध ___ म० वृ०-दर्भादिभ्यः आग्रायणादिषु यथाविहितौ यौ यत्रियौ तदन्ताद् यून्यपत्ये “आयनण्" सङ्घय 'वृद्धेऽपत्ये आयनण' स्यात् / उदार्भायणः, स्यात् / 'वृद्धाद् यूनि' (6 / 1 / 30) इति वचनाद्यूनीति / आग्रायणः, 'दार्भिरन्यः / 'कार्णायनो ब्राह्मणः, लभ्यते / गाय॑स्यापत्यं युवा=गाायणः, दाक्षे- काणिरन्य। 'आग्निशर्मायणो वार्षगण्यः, आग्निरपत्यं युवा=दाक्षायणः / / 54|| शर्मिरन्यः। रिणाद्वासिष्ठेऽर्थे-] राणायनो वासिष्ठः / [शरद्वत्शब्दात् भार्गवे-] शारद्वतायनो भार्गवः / प्रव०-गाायण' इत्थं साध्यते,- गर्गः, [ शुनकशब्दात् वात्स्ये-] शौनकायनो वात्स्यः, गर्गस्यापत्यं वृद्धं-गार्ग्यः, 'गर्गादेर्यन्' (6 / 1 / 42), शौनकोऽन्यः [विदादेव द्धे (6 / 1 / 41)] // 57 / / तदनन्तरं गार्ग्यस्थापत्यं युवा इति वाक्ये गार्यायणः, 'यबिनः' (6 / 1154) इति सूत्रेण यान्तात् परत आयनण् / २दक्षस्यापत्यं पौत्रादि-दाक्षिः, प्रव०-वृषगणशब्द-यत्सशब्दौ गर्गादिगणे। 'अत इञ्' (631 / 31), ततो दाक्षेरपत्यं युवा दाक्षा उदर्भादाग्रायणेऽर्थे आयनण , दर्भस्यापत्यमामायणः // 54 // यणो दार्भायणः, एवमग्रेऽपि / दार्भिरित्यादिभ्यो बाह्लादित्वादि सर्वत्र / "कृष्णाद् ब्राह्मणेऽर्थे / ___हरितादेरजः // 6 / 1 / 55 // ६अग्निशर्मात् वार्षगण्येऽर्थे / / 57 / / म० वृक्ष-विदाद्यन्तर्गणो हरितादिः / वृद्ध जीवन्त-पर्वताहा // 6 / 1 / 58 // विहितो योऽन् तदन्तेभ्यो हरितादिभ्यो यून्यपत्ये, 'आयनण' स्यात् / हरितस्यापत्यं युवा='हारिता म० ०-जीवन्तपर्वताभ्यां 'वृद्धेऽपत्ये आययनः // 55 // नण' वा स्यात् / जैव तायनः, जैवन्तिः ; पार्वतायनः, पार्वतिः [बाह्वा० (6 / 1 / 32) ] // 58 // प्रव०-प्रथमं हरितशब्दादप्रत्ययमानीय तदनन्तरं हारितस्यापत्यं युवा इति वाक्ये आयनण द्रोणाद्वा // 6 / 1159 // क्रियते इति सूत्रार्थाभिप्रायः / अब इति किम् ? म० ३०-योगविभागाद् वृद्ध इति निवृत्तम् / हरितस्यारत्यं वृद्धमिति वाक्ये कृते अत्र आयनण् / द्रोणाद् 'अपत्यमाने आयनण् वा स्यात् / द्राणायनः, न भवति ततोऽण् भवति, हारित इति व्यावृत्त्युदा- | द्रौणिः / / 59 / / हरणं ज्ञेयम् / हरितस्यापत्यं वृद्धं हारितः, “विदादेवृद्धे' (6 / 1 / 41) इत्यम्, ततो हारितस्यापत्यं शिवादेरण // 6 / 160 // युवा इति वाक्ये 'हरितादेरमः' (6 / 1 / 55) इत्या- म० वृ०-शिवादिभ्यो ऽपत्यमात्रेऽण' स्यात् / यनम् / / 55 // / अत इादेरपवादः / शैवः / / 60 // Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन ... [106 पा० 1 सू०११-६३ प्रव०-शिक्ष, प्रोष्ट, प्रौष्ठिक, वण (? वण्ट) | क्रियाशब्दत्वात् , [क्रियाशब्दत्वं दर्शयति-] दुःखेन जम्ब, जम्भ, ककुभ, कुथार, अनभिम्लान, ककुस्थ, योध्यते (? युध्यते) इति / एवं यौधिष्ठिरिः / / 61 // कोहड, कहूय, रोध, पिलधर, वतण्ड, तृण, कर्ण, क्षीरहद, जलद, परिषक, शिलन्द (? शिलिन्द), अव०-'ऋषयो लौकिका वसिष्ठविश्वामित्रगौ गोफिल, गोहिल, कपिलक, जटिलक, बधिरक तमाद्याः अपत्ययोगात् , तथा वृष्णयः अन्धका मञ्जिरक, वृष्णिक, सञ्जार. खञ्जाल, रेख, लेख, कुरवः एते त्रयोऽपि प्रसिद्धाः / वंश्याख्या वंशेना. . आलेखन, वर्तन, ऋक्ष, वर्त्तनर्भ, विकट, पिटाक, ख्या येषांक्षत्रियाणांते वंश्याख्याः क्षत्रियाः कथ्यन्ते। तृक्षाक, नभाक, ऊर्णनाभ, सुपिश (? सुपिए), पिy वंशमाचले, 'दश्चाङ' (5 / 1178) / अत्र्यादिशब्देभ्योकर्णक, (पर्णक, ) मसुरकर्ण, मसूरकर्ण, खडूरक, ऽपि ऋषिद्वारेण अण् प्राप्नोति इत्याह अत्र्यादिभ्य गहेरक, गडेरक, वस्क, लह्य द्रुह्य, अवस्थूण, भलन्द, इत्यादि, परत्वात् , कोऽर्थः ? इतोऽनिञः (6 / 1 / भलन्दन, विरूप, विरूपाक्ष , भूरि, सन्धि. भूमि, 72) इति सूत्रेण एयण भवति- आत्रेय इतिसिद्धम् ; . मुनि, क्रुश्चा, कोकिला, इला, सपत्नी. जरत्कारु, तथा ऋषिवाचिभ्यः शब्देभ्यः परत्वात् ‘सेनाउत्केया, काय्या, सुरोहिका, पीठीनासा, महित्री न्तकारुलक्ष्मणादि च' (6 / 1 / 102) इति सूत्रेण आर्यश्वेता, ऋषिषेग, गङ्गा, पाण्डु. विपाश , तक्षन ज्यप्रत्यय इब् प्रत्ययश्च भवति ; यथा- जातसेन्यः, इति शिवादिगणः / अत्र गणे शिवादिविरूपाक्षान्तं जातसेनिः, जातसेनो नाम ऋषिः ; औग्रसेन्यः, यावत् 'अत इज्' (6 / 1 / 31) प्राप्तौ भूर्यादीना औग्रसेनिः ; भीमसेन्यः, भीमसेनिः / 'यौधिष्ठिरिः मार्यश्वेतां यावत् 'ब्याप्सूकः' (6 / 1 / 70) इति एय आर्जुनिः' इत्यत्र तु बाह्यादित्वात् इञ् // 31 // णप्राप्तौ शिवादेरिति सूत्रं कृतम् / पाण्डुशब्दः 'कन्या-त्रिवेण्याः कनीनत्रिवणं च 'शुभ्रादिभ्यः' (6 / 1 / 73) इति एयणोऽपि प्रवृत्त्य // 6 / 1 / 62 / / र्थम् / गङ्गाशब्दपाठस्तु 'तिकादेरायनिष', (631 // 107) इति आयनिनोऽपि प्रवृत्त्यर्थमत्र पाठः / तेन म. वृ०-कन्याशब्दात् त्रिवेणीशब्दाचापाण्डोकि? हूँ)रूप्यम-पाण्डवः, पाण्डवेयः / गङ्गाया 'ऽपत्येऽऽण' स्यात् तत्संयोगे यथासय 'कनीन त्रिअपि त्रैरूप्य सिद्धम्- ङ्गः, गाङ्गायनिः, गाङ्गेयः / वण'इत्यादेशौ चभवतः / कन्याया अपत्यं कानीनो विपाश्पाटः कुञ्जादिगणमध्ये लक्षणेन मायन्येन व्यासः कर्णश्च , त्रैवणः। एयणोंऽपवादः / / 2 / / समावेशार्थः- वैपाशः, वैपाशायन्यः / इति शिवादिः अव०-'कन्यया युक्ता त्रिवेणी-कन्यात्रिवेणी, // 60 // तस्याः, पञ्चमीढसिः, 'स्त्रीदूतः' (1 / 4 / 29) इत्यनेन दास् / उपचारात् देवताप्रभावाहा कन्याया अपि 'ऋषि-वृष्ण्यन्धक-कुरुभ्यः / / 6 / 1 / 61 / / कदापि अपत्यसम्भवो घटते / ड्याप्त्यूडः' (6 / 1 / म० वृ०-ऋष्यादिवाचिभ्यः शब्देभ्यो-'sप- 70) इत्यस्य / 62 / / स्येऽण' स्यात् / इबोऽपवादः / ऋषि,- वासिष्ठः, 'शुङ्गाभ्यां भारद्वाजे // 6 / 1 / 63 / / [ वैश्वामित्रः] गौतमः / वृष्णि [यादवाः)- वासु म. वृ०-शुगशुङ्गाशब्दात् पुस्त्रीलिङ्गाद्'भारदेवः, वाजः / अन्धक,- श्वाफल्फः, चैत्रकः / कुरु, द्वाजेऽपत्येऽण' स्यात् / शुङ्गस्य शुङ्गाया वा अपत्यं नाकुलः, साहदेवः, दौर्योधनः (दौःशासनः / / =शौङ्गो भारद्वाजः / शौङ्गिः शौङ्गेयश्चान्यः // 63 / / अत्र्यादिभ्यस्तु परत्वादेयण ज्येन च भवतःमात्रेयः, जातसेन्यः , जातसेनिः; औग्रसेन्यः और- प्रव० शुङ्गश्च शुङ्गा च-शुङ्गौ, 'पुरुषः स्त्रिया सेनिः / कथं दौर्योधनिः ['अत इन' / 3 / 1 / 31] ? J (3 / 1 / 126) इति सूत्रेण पुरुषवाची शब्दः शिष्यते / Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण-एयणप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [273 .. "नामग्रहणे लिङ्गविशिष्ठस्यापि ग्रहण"-मिति सिद्ध.. श्वापत्ये-'ऽण' स्यात् / एयणोऽपवादः ['च्याप्त्यूक: ऽपि परत्वाद् 'द्विस्वरादनद्याः' (6 / 1171) इत्येयण / 6 / 1170] / यामुनः प्रणेता, नार्मदो नीलः, मानुषी,प्राप्नोति,तबाधनार्थ द्विवचनेन स्त्रीलिङ्गः शुङ्गाश- | देवदत्तः, 'सौदर्शनः, सौतारः / अदोरिति किम् ? ब्द उपादीयते इति भावः / शौङ्गेय इत्यत्र 'द्विस्व- | उचान्द्रभागेयः [एवं वासवदत्तेयः] / नदीमानुषीरादनद्या' इति एयण [शौङ्गिरित्यत्र 'अत इन' (6 / ग्रहणं किम् ? "शौभनेयः // 6 // 1 / 31 / ) इत्यनेनेज ] // 63 // ! .. . अव०-सुदर्शनाया अपत्यं सौदर्शनः / सुताविकर्ण-छगलाद्वात्स्या-ऽऽत्रेये / / 6 / 1 / 64 // राया अपत्यं सौतारः। उचन्द्रभागा चन्द्रभागी वा मि०वृ०-विकर्णात् छगलाद्यथासंख्यं 'वात्स्ये नाम नदी, 'नवा शोणादेः' (2 / 4 / 31 ) इत्यनेन आत्रेयेऽपत्येऽण् ' स्यात् / वैकर्णो वात्स्यः, छागल विकल्पेन डी, चन्द्रभागायाः चन्द्रभाग्या वा अपआत्रेयः // 64 // त्यम् ; (एवं ) सुपाः सुपर्णाया वा अपत्यं सौपणश्च विश्रवसो विश्लुक् च वा // 6 // 1 // 65 // र्णेयः / शोभनाशब्दो नद्यां मानुष्यां च वर्तते, म००-विश्रवसोऽपत्ये ऽण' स्यात् , तद्योगे (परं) न नामधेयत्वेन // 6 // णोऽन्तादेशः ; णयोगे च विश इत्यस्य वा लुक् / पीला-साल्या-मण्डूकाद्वा / / 6 / 1 / 68 // विश्रवसोऽपत्यं वैश्रवणः, रावणः,१ // 65 // म. वृ०-पीलासाल्यामण्डूकशब्देभ्यो-'ऽप त्येऽण वा' स्यात् / पैलः, पैलेयः ; [ 'द्विस्वरा०' अव० "विश्रवसशब्दस्य विश् इत्यक्षरद्वयं (6 / 1171) एयण ] साल्यः, साल्वेयः; [ 'द्विस्वरा०' लुप्यते, तदनन्तरं रावण इति प्रयोगः सिद्धः / (6 / 1 / 71) एयण] माण्डूकः, माण्डूकिः // 6 // विशत्रुकि सत्याम // 65 // सङ्ख्यासम्भद्रान्मातुर्मातुर्च // 6 / 1 / 66 // . प्रव०-पीलासाल्वाभ्यां 'द्विस्वरा०' (6 / 1171) एयणि प्राप्त मण्डूकादिनि च प्राप्ते 'पीलासाम० ३०-संख्यावाचिनः सम् भद्र इत्येताभ्यां च परो यो मातशब्दस्तदन्तादपत्येऽण स्यात् , मातृ ल्वा०' इति सूत्रं विदधे / 'पीलासाल्वा०' इति सूत्रे शब्दस्य 'मातुर्' इत्यादेशश्च स्यात् / 'द्वैमातुरः, वाशब्दग्रहणं मण्डूकात् इञः प्राप्त्यर्थम् ,अन्यथा वा शब्दग्रहणं विनापि उत्तरसूत्रेण 'दितेश्चैयण वा' पाण्मातुरः, सांमातुरः, 'भाद्रमातुरः // 66 // / (6 / 1 / 69 ) इत्यनेन मण्डूकात् एयण भवति, 'पी लासाल्वा०' इत्यनेन अण् भवति मण्डूकान , ततो अव० 'द्वयोर्मात्रोरपत्यं द्वैमातुरः / षण्णां मण्डूकात् कथमपि इञ् न स्यात् , इति इन्मातृणामपत्यं षाण्मातुरः। शतस्य माता-शत प्राप्त्यर्थं वाग्रहणमिति भावः // 68 / / माता, शतमातुरपत्यं-शातमातुरः। संगता मातासंमाता, संमातुरपत्यं-सांमातुरः / 'भद्र, भद्रस्य दितेश्चैयण वा / / 6 / 1 / 69 / / माता भद्रमाता, तस्य अपत्यं भाद्रमातुरः / 'भाद्र- म० वृ०-दितिशब्दान्मण्डूकाच्चापत्ये 'एयण मातुर' इत्यस्याग्रे संख्यासम्भद्रादिति किम् ? सौमात्रः, वा' स्यात् / दैतेयः, दैत्यः ; माण्डूकेयः, माण्डूकिः वैमात्रयः, विरुद्धा माता=विमाता, तस्यापत्यम ( ? | तस्या अपत्यम),-'शम्रादिभ्य' एयण भवति // 66 // प्रव०-'दितेश्चैः' इत्यत्र चकारो मण्डूकाक-. अदो-नंदी-मानुषीनाम्नः // 6 / 1 / 67 // र्षणार्थः / तथा पोलासाल्वाभ्यां पूर्वसूत्रेण विकल्पेन म. वृ०-अदुसंज्ञकानदीनाम्नो मानुषीनाम्न- | अण् , पक्षे 'द्विस्वरा०' (6 / 1 / 71 ) इत्यनेन एयण Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०६ पा०१ सू०७०-७४ भवतीति द्वैरूप्यम् ; मण्डूकादपि पूर्वसूत्रेण अण् , अव०-शुभ्र, विष्णुपुर, विष्पर, ब्रह्मकृत, पक्षे 'अत इस' (6 / 1 / 31 ), 'दितेश्चैः ' इत्यनेन शतद्वार शताहा, शालावल, किट, शालूक, कृकएरण् , इति मण्डूकशब्दात् त्रैरूप्यम् / / 69|| लास, प्रवाहण, भाण, भारत, भारम, कुदत्त, कपूर, त्याप्त्यङः / / 6 / 1170 // इतर, अन्यतर, आलीढ, सुदत्त, सुदक्ष, तुद, अक शाप, वादन, शतल, शकल, शबल, खडूर, कुशम्ब, म० -ड्यन्तात् , आबन्तात् , त्यन्तात् शुक्र, विन, बीज, अश्व,बीजाश्व, अजिर, मवक्र,मखऊहन्ताच्चापत्ये 'एयण' स्यात् / [ड्यन्तात् , ] सौप ण्डू , मका, मघा, सृकण्ड, मृकण्ड, जिह्माशिन् , र्णेयः, [आवन्तात् ,- वैनतेयः [त्यन्तात् , यौव अजवस्ति, शकन्धि, परिधि, अणीचि, कणीचि, तेयः, [उडन्तात् ,-] कामण्डलेयः // 70 // शकुनि, अतिथि, अनुहाधि, शलाकाभ्र , लेखाभ्र , 'द्विस्वरादनद्याः // 6 / 171 // रोहिणी, रुक्मिणी, किवशा, विवशा, गन्धपिङ्गला, म० ०-द्विस्वराद् व्याप्त्यूङन्तादनदीवा खडोन्मत्ता, कुमारिका, कुबेरिका, अम्बिका, अशोका, चिनोऽपत्ये 'एयण' स्यात् / दात्तेयः [गौप्तेयः / श्वन , गङ्गा, पाण्डु, विमातृ, विधवा, कद्रू , गोधा, अनद्या इति किम् ? सीतादयो नद्यः, सीताया अप- सुदामन इति शुभ्रादयः / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् / त्यसैतः, वैण्णः, सैप्रः, रैवः (सर्वेषु एषु 'अदो- एवमन्यत्रापि / शुभ्रादिमवक्र शब्दान्तानामित्रो. नदी०' (6 / 1167) इत्यण् ] // 71 / / ऽपवादे च एयण भवति / मखण्ड्वादिविमात्र न्तानां च शिवादेरण'ङसोऽपत्ये (इति) अणो बाधक प्रव०-१ अदोनदी०' (6 / 1 / 67) इत्यस्यापवा- | एयण भवति / विधवाशब्दात् एरणबाधक एयण / दोऽयं 'द्विस्वरादनद्याः' (6 / 1171) इति योगः कृतः। / कद्गोधयोः एययोऽपवाद एयण् / सुदामनसुना'ह्याप्त्यूछ:' (6 / 1170) इत्येयणो बाधकस्य 'अदो. म्नो ह्वादित्वादिया, शुभ्रस्य 'कुर्वादेर्व्यः' (6 / 1 / नदीमानुषी०' इत्युक्तस्य 'अण्' इत्येतस्य द्विस्वरा- 190) इति ज्येन सह समावेशार्थः पाठोऽत्र गणे। दनद्या' इति एयण प्रत्ययोऽयं बाधको ज्ञातव्यः / रोहिण्याद्यशोधान्तानां दशानां मानुषीद्वारेण अणोवेण्णाया अपत्यं चण्णः // 71 // ऽपवादः / पाण्डुधिमातृविधवाशब्दानां त्रयाणामौइतोऽनित्रः // 6 / 1 / 72 // त्सर्गिकोऽणोऽपवादः / यस्तु पाण्डव इत्यत्राण स म० वृ०-इअन्तवर्जिताद् द्विस्वरादिकारान्ता शिवादित्वात् स्यादेव / गङ्गाशब्दात्तु 'ड्याप्यूकः दपत्ये 'एयण' स्यात् / नाभेरपत्यं नाभेयः, आत्रेयः, (6 / 1 / 70 ) इत्येयणोऽपवादः 'अदोनदीमानुपी०' बलेरपत्यं बालेयः, निधे धेयः / कथमातिथेयः, (61167) इत्यण अस्ति, तस्याप्यणोऽपवादः 'ति[शकुनेरपत्यं] शाकुनेयः , पारिधेयः; ? शुभ्रादित्वा कादेरायनिम्' ( 6 / 1 / 107 ) इत्यस्ति, ततो गङ्गाशविष्यति // 72 // ब्दोऽणः प्रतिप्रसवार्थ 'शिपादो' पठितः, इति यु क्त्या च 'शुभ्रादिभ्यः' (6 / 1173) इत्यनेन विना) प्रव०-'इतोऽनित्र' इति सूत्रे इत इति किम ? एयण न प्राप्नुयात् इति शुभ्रादिगणे गङ्गाशब्दः दाक्षिः। भनिन इति किम् ? दाक्षायणः, द्विस्वरादि- पठितः येन ए त्येव-मरीचेरपत्यं मारीच इति व्यावृत्त्युदाहरणानि श्याम-लक्षणाद्वाशिष्ठ / / 6 / 174 / / / / 72 // म० वृ०-श्यामलक्षणाभ्यां वाशिष्ठऽपत्ये . . शुभ्रादिभ्यः // 6 / 1173 // | [ अपत्यविशे] 'एयण' स्यात् / श्यामेयो लाक्षणेम. वृ०-शुभ्रादिभ्योऽपत्ये 'एयण' स्यात्।। यो वाशिष्ठः / 'श्यामायनोऽन्यः / २अवृद्धे तुं श्यायथायोगमिबादीनामपवादः / शीघ्रयः // 73 // | भिः लाक्षणिरन्यः // 74 // Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एयण एरणप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [275 प्रव०-'अवृद्धादोर्नवा' (6 / 1 / 110) इत्याय- अव०-इनादेशस्यैव विकल्पः, अत एत्र निम्, अथवा अश्वादित्वात् वृद्धेऽर्थे 'अश्वादेः' (6 / 1 / वृत्तौ इन् अन्तादेशो वा भवतीत्यर्थः इत्युक्तम् / 49) इत्यनेन आयनम् / अवृद्धे तु श्यामिरित्यत्र | कुलानि स्वैरमटति भ्रमति सा कुलटा दुश्चा'बाहादि०' (6 / 1 / 32) इन // 74 / / रिणी, या हि नारी कुलान्यटन्ती शीलं भिनत्ति, विकर्ण-कुशीतकात् काश्यपे / / 6 / 1 / 75 / / / ईविधलक्षणात् कुलटाशब्दात् वक्ष्यमाणः 'क्षुद्रा भ्य एरण वा' (6 / 1180) इत्यनेन एरणप्रत्ययः, म० वृ०-आभ्यां काश्यपेऽपत्ये [अपत्यविशेषे] तत: कौलटेरः इत्यपि सिद्धं (? सिद्धः)क्षुद्रस्त्रीविषये 'एयण' स्यात् ।वैकर्णेयः, कौषीतकेयः काश्यपः / 75 / / | प्रयोगः ; अन्यत्र द्वयमेव भवतीति भावः // 78|| भ्रुवो भ्रुव च / / 6 / 1 / 76 // चटकाणैरः स्त्रियां तु लुप / / 6 / 1 / 79|| म० वृ०-भ्र शब्दादपत्ये 'एयण' स्यात् , ___म० वृ०-चटकात् अपत्यमाने 'गैरः प्रत्ययः' भ्र शब्दस्य 'ध्रुव्' इत्यादेशश्च / भ्रौवेयः / / 76|| स्यात् , 'स्त्रियां त्वपत्ये विहितस्य गैरप्रत्ययस्य लुप्' स्यात् / चाटकैरः / स्त्रियां तु लुप्- चटकार प्रव०-भ्रुवोऽपत्यं ध्रौवेयः। यथा चुलुक- // 79 // स्य अपत्यं सम्भवः (? अपत्यसम्भवः), चौलुक्यः इति लोकापवादः, तथा भ्र वोऽपत्यसम्भवः / / 6 / / / __ अव०-'नामग्रहणे लिङ्गविशिष्स्यापि ग्रहणम्' कल्याग्यादेरिन् चान्तस्य // 6 / 1 / 77 // इति न्यायात् चटका इति शब्दस्यापि चटकाया म. वृ०-कल्याणी इत्यादिभ्योऽपत्ये 'एयण' अपत्यं चाटकर इति प्रयोगः / श्चटकस्य चटकाया स्यात् , 'इन्' इत्ययं चान्तस्यादेशः / काल्याणिनेयः वाऽपत्यं स्त्री-चटका, अत्र अपत्यस्त्रीवाच्ये प्रयोगः / (एवं सुभगाया अपत्यं सौभागिनेयः, 'हृद्भगसि चटकेति जातिशब्दोऽस्त्येव, स्यपत्यवाच्ये प्रत्ययान्धोः' (74 / 25 ) इति उभयपदस्य वृद्धिर्भवति ] श्रवणार्थ सूत्रे लुप्वचनं कृतम् / अस्नियामित्येव ||7|| सिद्धे प्रत्ययान्तरबाधनार्थ णैरप्रत्ययविधानं ज्ञात व्यम् / / 79 // - अव०-कल्याणी, सुभगा, दुर्भगा, बन्धकी, क्षुद्राभ्य एरण वा // 6 / 180 // जरती, बलीवर्दी, ज्येष्ठा, कनिष्ठा, मध्यमा, परस्त्री, अनुदृष्टि, अनुसृषि इति कल्याण्यादिगणः / कल्या म. वृ०-क्षुद्रा अङ्गहीनाः, अनियतपस्फा वा ण्यादिपरस्त्र्यन्तानां 'ड्याप्त्यूकः' (6 / 1170) इत्य त्रियः क्षुद्राः / बहुवचनं क्षुद्रार्थपरिग्रहार्थम् / क्षुद्रनेन अनुदृष्टेः 'शुभ्रादिभ्यः' ( 6 / 1173 ) इत्यनेन वाचिशब्देभ्यो स्त्रीलिङ्गेभ्य ‘एरण वा' स्यात् / एयण सिद्ध एव, इनादेशार्थ वचनम् / अनुसृष्ई. अगेयणोरपवादः / काणाया - अपत्य= काणेरः, यमपि साध्यम् / / 7 / / काणेयः; ['ड्याप्त्यूदः' / 6 / 1 / 70] दासेरः, दासेयः; नटी,- नाटेरः, नाटेयः // 8 // कुलटाया वा / / 6 / 1 / 78|| म० वृ०-कुलटाशब्दादपत्ये 'एयण' स्यात् , | अव०- अनियता अनिश्चिता वा पुमांसो यस्या तत्संयोगे इनन्तादेशो वा। आवन्तादेयण सिद्धः, सा अनियतपुंस्का, बहुपुरुषसेवनशीला असतीत्यर्थः / आदेशार्थ वचनम् , अत एवादेशस्यैव विकल्पः, क्षुद्राभ्य इति वचनम् / 'अदोर्नदी०' (6 / 1 / 67) नत्वेयणः / कौलटिनेयः, कौलटेयः, कोलटेरः इत्य- (इति) अणः 'द्विस्वरादे०' (6 / 1171 ) 'ड्यापि // 78 // प्त्यूकः' (६।१।७०।इति) एयणः इत्यणेयणोरपवादः। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 6 पा० 1 सू० 81-86 *नाटेय इत्यस्याने कार्दनेरः, कार्दनेयः इति / श्चतुष्पाद गोविशेषवचनः तस्य 'चतुष्पादभ्यः०' प्रयोगौ। कर्दना वंशोपरि नर्तिका, तदपत्यं काई- इति पूर्वेण सिद्धयति / अत्र तु अचतुष्पादर्थ ग्रहनेयः / / 80 // णम् / गृष्टि, हृष्टि, हलि, वालि, विनि, कुद्रि, अज बस्ति, मित्रयः इति गण्यादिगणः / कारस्य गोधाया दुष्टे णारश्च // 6 / 1 / 81 // / मितकार्यार्थत्वात् मैत्रेयः पिता, मैत्रेयः पुत्रः : (अत्र) म० वृ०-गोधाशब्दाद् दुष्टेऽपत्ये ‘णारः प्रत्ययः' मित्रयुशब्दः, मित्रयोरपत्यम्- 'गृष्यादेः' एया , स्यात् , चकाराद् एरण च / गोधाया अपत्यं दुष्टं 'सारवाकमैत्रेयभ्रीणहत्यधैवत्यहिरण्मयम' (74 / =गौधारः, गौधेरः / योऽहिना गोधायां जन्यते 30) इति सूत्रेण यु इति लुप्यते, इति प्रथममैत्रेय[स गौधारः] / गौधेयोऽन्यः / / 81|| शब्दसिद्धिरयम् ; मैत्रेयस्यापत्यं मैत्रेयः, 'अत इन' अव०-१“गौधेयः', 'शुभ्रादिभ्यः (6 / 1 / 73) (6 / 1 / 31), 'जिदार्गदणियोः' (6 / 1 / 140) इत्यनेन एयण ||8|| इन लुप्यते / ऋष्यणबाधकः ‘इतोऽनिः ' (6 / 1 / जण्ट-पण्टात् // 6 / 1 / 82 / / ७२।इति) एयण , तस्य बाधको गृष्यादिः / / 84|| वाडवेयो वृषे // 6 / 1185 / / म० वृ०-आभ्यामपत्ये 'णारः' स्यात् / जाएटारः, पाण्टारः / / 8 / / म० वृ० --बडवाशब्दात् वृषेऽर्थे 'एया एयण वा' निपात्यते। वृषो यो गर्भ बीजं निषिञ्चति स चतुष्पाद्य एयत्र // 6 / 1183 / / वाडवेयः / अपत्येऽणेव- वाडवः / / 5 / / म. वृ०-'चतुष्पाद्वाचिशब्देभ्योऽपत्ये 'एय' अव०-१बडवाया वृष इति वाक्यम् , वाडवेयः स्यात् / अणादीनामपवादः / २कामण्डलेयः, माद्र इति प्रयोगः // 85 // बाहेयः, शाबलेयः, "बाहुलेयः, सौरभेयः / / 8 / / रेवत्यादेरिकण / / 6 / 186 / / प्रव०-'चत्वारः पादा यासां स्त्रीणामिति स्त्री- __म० वृ०-रेवती इत्यादिभ्योऽपत्ये 'इकण्' लिङ्गे एव वाक्यं कार्यम् , न तु चत्वारः पादा येषा- स्यात् / एयणादीनामपवादः / श्रवतिकः // 86 / / मिति पंलिङ्गे / स्त्रीलिङ्गशब्दानामेव एयज्ञ क्रियते / अव०-रेवती,अश्वपाली, (मणिपाली,द्वरपाली,) 'सुसङ्ख्यात्' (13 / 150) इति पादस्य पाद्भावः / वृकवञ्चिन , वृकग्राह, कर्णग्राह, दण्डंग्राह, कुक्कुटाक्ष २कमण्डलू , कमण्डल्या अपत्यम् / मद्रबाह्वा अप इति रेवत्यादिगणः। द्वारपाल्यन्तानामेयणोऽपवादोत्यम् / शम् , शाम्यति वर्णेकत्वमस्यामिति शवला, ऽत्र इकण। 'रेवती, रेवत्या चन्द्रयुक्तयाऽहो रेवती, शबलायाः अपत्यम् / 'बहुलायाः अपत्यम् / 'सुर 'चन्द्रयुक्तात् काले लुप्त्वप्रयुक्ते' (6 / 2 / 6) इति सूत्रेण भेरपत्यं सौरभेयः / / 83 / / अण् लुप् च, 'दयादेर्गोणस्थाकिस्तद्धित०' (2 / 4 / गृष्टयादेः // 6 / 1 / 84 / / 95) इत्यनेन डीनिवृत्तिर्भयति, पुनः 'रेवतरोम० वृ०-गृष्टयादिभ्योऽपत्ये 'एयब् ' स्यात् / हिणाद् भे' (2 / 4 / 26) इत्यनेन दी, रेवत्यां जाता गायः / / 84 // रेवती, 'भत्तसन्ध्यादेरण' (63189), 'चित्रारेव तौरोहिण्याः स्त्रियाम् ' (6 / 3 / 108) इति अण् प्रव०-'गृष्ठयादेः' इत्यपि सूत्रमणादीनामप- लुप्यते, ‘ड्यादेगौणस्या०' (इति) डीनिवृत्तिः, पुनः वादकम् / तथाहि-'ऋषिवृष्ण्यन्धक०' (6 / 1 / 61) रेवतरोहिणाद् भे' इति ढी, रेवत्या अत्यं-रैवतिकः, . इत्यनेन अण् प्राप्नोति, अस्य अणो बाधकेन 'इतोऽ- | 'रेवत्यादेरिफण', 'जातिश्च णितद्वितयस्वरे (3 / 2 / निमः' (631172) इत्यनेन एयणप्रातिः, अण् एयण / 51) इति पुंवद्भावः, रेवत इति शब्दः, अवर्णवर्णस्य' इति द्वयोर्बाधको गृष्ट्यादिरिति / यो गृष्टिशब्द- J (74 / 68) / / 6 / / Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * णादिप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यषचूरिसंघलितम् [ 277 Ramanuman - 'वृद्धस्त्रियाः क्षेपे णश्च / / 6 / 1 / 87 / / / म०व०-मातृपितृशब्दावादी अवयवौ यस्य म० वृ०-वृद्धप्रत्ययान्तात् स्त्रीवाचिनः शब्दाद स्वसुः स्वसन्तस्य तस्मात् मातृष्वसृशब्दात पितृष्वपत्ये ‘णः प्रत्ययः स्यात् , चकारादिकण च' क्षेपे | सृशब्दात् चापत्ये 'डेयण-ईयणौ' भवतः / वचनगम्यमाने / २पितुरसंविज्ञाने मात्रा व्यपदेशोऽपत्य भेदात् अत्र न यथासङ्ख्यम् / मातृष्वसेयः, मातृष्वस्य क्षेपः [निन्दा] / गार्या अपत्यं युवा=गार्गः स्रीयः ; ['मातृपितुः स्वसुः' (2 / 3 / 18) इति षकारः] गार्गिको वा जाल्मः / 'वृद्धाद् यूनि' (6 / 1 / 30) इति पैतृष्यसेयः, पैतृष्वतीयः // 10 // यून्यर्थे इमौ प्रत्ययौ [णेकणौ] / वृद्धग्रहणं किम् ? अव०-माता च पिता च-मातृपितरौ, मातृकारिकेयो जाल्मः / क्षेप इति किम् ? गार्गेयो पितरावादी यस्य स मातृपित्रादिः, शब्दप्रधानत्वात् माणवकः / / 87|| " निर्देशस्य अत्र आ द्वन्द्वे' (3 / 2 / 39) इत्यनेन मातृ शब्दस्य न आकारः, मातापितरौ इति प्रयोगो न अव-वृद्धं चासौ स्त्री च वृद्धस्त्री, तस्याः / श्लोके पिता प्रकटो न ज्ञायते, माता प्रसिद्धा भवति, विद्यायोनियोगाभावः (?योगाभावाद्)।।९।। लोके भवति, यः पुरुषो मात्री कृत्वा भाष्यते मातृ श्वशुरायः॥६।१।९१॥ नाम्ना लोके प्रसिद्धो भवति स एवं निन्द्यो लोके म० वृ०-श्वशुरशदात् अपत्ये 'यः' स्यात् / भवतीत्यर्थः / गर्ग, गर्गस्यापत्यं वृद्धं गार्ग्यः, श्वशुर्यः // 11 // 'गदेर्यञ्' (6 / 1 / 42), 'यत्रो डायन् च वा' (2 / 4 / 67), इत्यनेन ढी- गार्गी, गार्या अपत्यं युवा इति, प्रव०-'सम्बन्धिनां सम्बन्धे' (74 / 121 ) वाक्ये 'वृद्धस्त्रियाः क्षेपे णश्च' (6 / 287) इत्यनेन' इति न्यायादिह न प्रत्ययः, श्वशुरो नाम कश्चित् , एकत्र णः प्रत्ययः,अन्यत्र इकण ; 'जातिश्च णितद्धि- तस्यापत्यं श्वाशुरिः, 'अत इञ्' (6 / 1 / 31) ॥९शा तयस्वरे' (3 / 2 / 51) इत्यनेन पुबद्भावः, गाय जातौ राज्ञः / / 6 / 1 / 92 // इति शब्दः, 'तद्धितयस्वरेऽनाति' (2 / 4 / 92) इत्यनेन तद्धितयकारो लुप्यते, ततो 'गार्गः, गार्गिक' म० वृ०-राजनशब्दात् अपत्ये जातौ गम्यइति सिद्धम् / कारिका, कारिकाया अपत्यम् , मानायां 'यः प्रत्ययः' स्यात् / [राज्ञोऽपत्यम्-) राज'ड्यात्यूङः' (6 / 1170) एयण , 'तद्धिताककोपान्त्य- | न्यः क्षत्रियो जातिश्चेत् / जाताविति किम् ? पूरण्याख्याः' (3 / 2 / 54) इति पुंवद्भावनिषेधः / 87 / राजनोऽन्यः // 12 // ... भ्रातुयः / / 6 / 1 / 88 / / अव०-१'राजन्य' इत्यत्र 'अनोऽन्ये ये' (7) म० ००-भ्रातृशब्दादपत्ये 'व्यः प्रत्ययः' | 4 / 51) इति प्रतिषेधात् 'नोऽपदस्य तद्धिते' (74 / स्यात् / 'भ्रातृव्यः / / 88 // 61) इत्यनेन नस्य न लोपः / राजन् इति नाम कश्चित्तस्यापत्यं राजनः, 'ङसोऽपत्ये' ( 6 / 128) अव०-'शत्रुरपि भ्रातृव्या य उच्यते स उप अण् , 'अगि' (74 / 52) इति सूत्रेण नान्त्यस्वरादेचारात् / एकद्रव्याभिलापश्चोपचारहेतुः / / 88 // लोपो.भवति / / 92 // ईयः स्वसुश्च / / 6 / 1 / 89 / / क्षत्रादियः // 6 / 1 / 93 // म. वृ०-भ्रातुः स्वसृशब्दाचापत्ये 'ईयः प्रत्य म० वृ०-क्षत्रशब्दादपत्ये 'इयः' स्यात् जाती। यः' स्यात् / भ्रात्रीयः, स्वस्रीयः / / 89 // क्षत्रस्यापत्य क्षत्रियो जातिश्चेत् / 'क्षात्रिरन्यः 'मात-पित्रादेर्डेयणीयणौ // 6 / 1 / 90 // / // 93 / / - Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 6 पा० 1 सू० 94-100 - प्रव०-क्षत्रो नाम कश्चित् , तदपत्यम् , 'अत | प्रव.-"नाम्नः प्रागबहुर्वा' (73 / 12) इत्यनेन इन्' (6 / 1 / 31 // 13 // बहुः पूर्व कार्यः, बहुकुलीनः, क्षत्रियकुलीनः, मनोर्याणौ पश्चान्तः / / 6 / 1 / 94 // राजकुलीनः, एषु 'अत इब्' (6 / 1 / 31) 'अदोरा यनिः०' (6 / 1 / 113) इति सूत्रद्वयबाधक ईनो म. वृ०-मनुशब्दादपत्ये 'यः प्रत्ययः अण दपत्यं यः प्रत्ययः अण् / भवति इत्यर्थः // 16 // प्रत्ययश्च' स्यात् , तद्योगे मनुशब्दस्य 'षकारोऽन्तश्च' जातौ गम्यमानायाम् / मनोरपत्यानि यैयकत्रावसमासे वा // 6 / 1 / 97 // मनुष्याः, मानुषाः [अण्; मानुषी / जातावित्येव- म. वृ.-कुलशब्दान्तात् केवलाच्च कुलादमनोरपत्य-मानवः, [ 'ङसोऽपत्ये' (6 / 1 / 28) पत्ये 'यः प्रत्यय एयकञ् प्रत्ययश्च वा' भवतः, ताभ्यां अण्] मानवाः, मानवीः प्रजाः पश्य / वृद्धापत्य- मुक्त [पक्षे] ईनश्च, कुलशब्दो यदि समासे न विवक्षायां तु लोहितादिपाठाद् यत्र- 'मानव्यः, वर्त्तते / कुल्यः, [यः), कोलेयकः [एयकम् ], कुलीनः मानव्यौ, मनवः ; मानव्यायनी / 'मनुष्यमानु- [ईनः]; बहुकुल्यः, बाहुकुलेयकः, बहुकुलीनः / / ' षशब्दाभ्यां सत्यसति चापत्येऽर्थेऽनभिधानादप- असमास इति किम् ? आठ्यकुलीनः / / 9 / / त्ये पुनरन्यः प्रत्ययो न भवति // 14 // प्रव०-'ईषदरिसमाप्तं कुलं-बहुकुल. प्रव०-यदि मानुषीनाम तदा 'अहोनही०' | मिति नायं समासः, किन्तु नद्वितवृत्तिरियम् , ईष(६।१।६७ ) इत्यणोऽपि बाधकः / वृद्धापत्येत्यक्षरो- / दपरिसमाप्तं कुलम् , 'नाम्नः प्राग् बहुर्वा' (73 / परि मानव्यः इत्यादयो ज्ञेयाः / 'मन् , मनोरपत्यं / 12), बहुकुलस्यापत्यम // 9 // वृद्धं-मानव्यः, मनोरपत्ये वृद्धे मानव्यौ; मनोर दुष्कुलादेयण वा / / 6 / 1 / 98 // पत्यानि वृद्धानि मनवः ; सर्वत्र 'गर्गादेर्य' (6 / 1 / 42), वृद्धिः, मनव इत्यत्र 'यवनोऽश्यापर्णान्त ___म० वृ०-दुष्कुलादपत्ये 'एयण वा' स्यात् / गोपवनादेः' ( 6 / 1 / 126 ) इत्यनेन यञ् लुप्यते, दौष्कुलेयः, दुष्कुलीनः / / 9 / / ततो जस् / 'मानव्यायनी', अत्र मनोरपत्यम्- महाकुलाद्वाऽजीना // 6 / 1 / 99 // 'गर्गादेर्य', ततो 'लोहितादिशकलान्तात्' (2 / 4 / म० वृ०-महाकुलादपत्ये 'अञ्-ईनम्प्रत्ययौ 68) अनेन नित्यं की, डायनन्तादेशः / 'मनुष्यमा- वा' भवतः, पक्षे [ताभ्यां मुक्तपक्षे] ईनश्च / 'माहानुषशब्दाभ्यामुणादिप्रत्ययनिष्पन्नाभ्यां परतः पुन- | कुलः [अञ् ], माहाकुलीनः [ईनञ् ], महाकुलीनः रन्यस्तद्धितप्रत्ययोऽनभिधानान्न भवतीत्यर्थः // 9 // | [ईन] // 99 / / माणवः कुत्सायाम् // 6 / 1 / 95 // प्रव०-"माहाकुल' इत्यत्र महच्च तत् कुलं म. वृ०-'माणव' इति मनुशब्दस्याणप्रत्यये च= महाकुलम् , 'जातीयैकार्थे.' (3 / 2 / 70) इति कुत्सायां [गम्यमानायां] नस्य णादेशो निपात्यते / सूत्रेण डान्तादेशः। सूत्रे महाकुलेति आकारनिर्देशात् मनोरपत्यं कुत्सितं मूढं माणवः // 95 / / महतां कुलं महत्कुलम् , महत्कुलस्यारत्यं महत्कुकुलादीनः // 6 / 1 / 96 // लीन इति ईन एव भवति, अत्र हि 'जातीय कार्थे. ऽच्वेः' इत्यनेन डा न प्राप्नोति, एकार्थवृत्तेरभाम. वृ०-कुलशब्दान्तात् केवलाच कुलशब्दा वात् / / 99 // दपत्ये 'ईनः' स्यात् / कुलीनः , ईषदपरिसमाप्त कुलं बहुकुलम् ,तस्यारत्यं 'बहुकुलीनः, क्षत्रियकु कुर्यादेयंः // 6 / 1 / 100 // . लीनः, राजकुलीनः / / 96|| म. वृ०-कुरु इत्यादिभ्योऽपत्ये 'व्यः' स्यात / Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्य-इन प्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंपलितम् / [279 [कुरोर्ब्राह्मणस्यापत्यं-] कौरव्यः / अक्षत्रियवचन- / हन्तिपिण्डीनामेयण, एवमन्येपामपि यथादर्शनं स्येह [सूत्रे कुरुशब्दस्य ग्रहणम् / क्षत्रियवचनात्तु सर्वप्रत्ययबाधको यो विहितः / / 10 / / कुरुशब्दात् 'दुनादिकुर्वित्' (6 / 1 / 118) इत्यनेन ___सम्राजः क्षत्रिये // 6 / 1 / 1.1 // ज्यो विधात्यते 'अयं च विशेषः // 10 // म. वृ०-'सम्राज' इति शब्दात् क्षत्रियेऽप.. प्रव०-कुरुशब्दस्य क्षत्रियवचनस्य "दुनादि- त्ये 'ज्य' स्यात / सम्राजोऽपत्यं साम्राज्यः क्षत्रिकुर्विन्०" (6 / 11118) इति व्यः, विप्रविशेषवाचि- यश्चेत् / अन्यत्र अणेव-'साम्राजः // 101 / / नश्च कुतोः 'कुर्वा देयः' (6 / 1 / 100) इति व्यः, उभ अव०-'साम्राजः क उच्यते ? वाराङ्गनावेयथापि कौरव्य इति प्रयोगः / अयं चानयो; क्षत्रि श्यादीनां यो जातक. स साम्राजः, परं स नोभययवाचिब्राह्मणादिविशेषयाचिकुरुशब्दयोर्विशेषो द पक्षविशुद्धः क्षत्रियः // 101|| येते, तथाहि- क्षत्रियवाची कुरुः, कुरूणामपत्यानि= कुरवः, 'दुनादिकुर्वित्' (6 / 1 / 118) व्यः सेनान्त-कारु-लक्ष्मणादिन च / / 6 / 1 / 102 // प्रत्ययः, स च द्रिसंज्ञः , 'बहुष्वखियाम्' (6 // 1 // म. वृ०-सेनान्तशब्देभ्यः, कारुवाचिशब्दे१२४) इत्यनेन ज्यो लुप्यते, 'कुरवः' इति प्रयोगः, भ्यो लक्ष्मणाचापत्ये 'इन् चकारात् ज्यश्च' भवति / यदि च (बहुत्वविवक्षाभावे ज्योनलुप्यते तदा कौरव्य सेनान्त,-'हारिषेणि , हारिषेण्यः; एवं वारिषेणिः, इति प्रकृतिः,कौरव्यस्यापत्यम् ,'तिकादेरायनिञ् (6 / वारिषेण्यः। कारु,-"तान्तुवायिः, तान्तुवाय्यः; [वर्द्ध१११०७) इति आयनिन् ,कौरव्यायणिः। विप्रादिधि- / केरपत्यम् =] वार्द्धकिः,वार्द्धक्यः : कोम्भकारिः, कोशेषवाची कुरुशब्दः, तस्य कुरोरपत्यम् , 'कुर्वादेर्व्यः, | म्भकार्यः / रथकारनापिततक्षभ्यो भ्य एव, ने, कौरव्यः, कौरव्यस्यारत्यम् , 'अत इन्' (6 / 1 / 31), कुोंदियाठात् / लक्ष्मणः, लाक्ष्मणिः, लाक्षमण्यः / 'जिदा दणि०' (6 / 1 / 140) इति इब् लुप्यते, 'ऋषिवृष्ण्यन्धक०' (6 / 1 / 61 ) इति अण्, 'न्या'कौरव्य' इति प्रयोगः; अथवा कुरोरपत्यम् , प्यूट' (6 / 1173) इति एयण ,इमौ द्वावपि आभ्या'उत्सादेरज्' ( 6 / 1 / 19) इति अञ् तु ज्या मियाभ्यां परत्वात् बाध्येते। जातसेनिः, जातनिभ्यां बावितः, ततः 'तिकादेरायनिन', 'कौर सेन्यः ; [एवं वैष्वक्सेनिः, वैष्वक्सेन्यः ; ] औग्रवायणिः' इति प्रयोगः / कुरु, शङ कु, शकन्धु, सेनिः, औग्रसेन्यः; भैमसेनिः, भैमसेन्यः / तन्तुशाकभू, पथिकारिन् , मतिमत् , पितृमत् , पितृम वाय्या अपत्यं तान्तुयायिः, तान्तुबाय्य इत्यादि न्तु, वाच , हन्तु, हृदिक, शलाका, कालाका, एरका, // 102 / / पदका, खदाका, केशिनी,मति, कवि, हन्ति, पिण्डी, अव०-'हारषनो वारिषेना राजाना, एत्यऐन्द्रजाली, धानुजि, वैराजकि, दामोष्णीषि, गाण- कः' (2 / 3 / 26) इति सूत्रेण सस्य षः, हरिषेणस्याकारि, कैशोरि, कापिञ्जलादि, गर्गर, हन्त (बृहक पत्यम् , बारिषेणस्यापत्यम् ; हरयः सेनायां यस्य हनू), मञ्जूष, अविमारक, अजमारक, चफटक, स हरिसेनः / कारको विकृतिजातयः। "तन्तून कुट, कुटल, मुर, दभ्र, सूर्पणाय, श्यावनाय, श्या- वयतीति 'कर्मणोऽण् (5 / 1 / 72), तन्तुवा यस्यापत्यम्; वरथ, श्याप्रथ, श्यावप्रथ, श्यापत्र, श्यापुत्र, सत्य- एवं तौन्नवायिः, तोन्नवाय्यः / 'कुर्वादिगणप्रान्ते कार, वलभीकार, कर्णकार, पथिकार, बृहतीकार, रथकारादयः शब्दाः सन्ति / 'जातसेन्यादिषु 'ऋषिवान्तवृक्ष, आवृक्ष, मूढ, शाक, इन, रथकार, ना- वृष्ण्यः' इति अण्प्राप्तौ सत्याम् ‘इजो' विहितौ / पित, तक्षन् , शुभ्र इति कुर्वादिगणः / अत्र कुर्बादि- "तन्तु बाथी इत्यत्र व्याप्त्यूङ इति एयणप्राप्तौ इञ्हन्त्रन्तानां सामान्याणः, हृदिकशब्दस्य 'ऋषिवृ- ज्यौ विहिनौ / 'तान्तुवायिः' इत्यत्र 'जातिश्च ण्यणः,शलाकादीनां केशिन्यन्तानामेयणः,मतिकवि- / णि०' (3 / 2 / 51) इति पुंवद्भावः // 102 / / Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०६ पा० 1 सू० 103-107 सुयाम्नः सौवीरेघायनिन // 6 / 1 / 103 // / वित्तिकः,एकत्र सूत्रेण इकण पक्षे 'यमिञः' (6 / 1 / 54) म० वृ०-सुयामनशब्दात 'सौवीरदेशेषु वर्त्त इति सूत्रेण आयनण् / तृणे विन्दवः पेया अस्य-तृण विन्दः (? तृणविन्दुः),तृणविन्दोरसत्यं वृद्धम् , सोमानादपत्ये 'आयनिम्' स्यात् / २सौयामायनिः / ऽपत्ये' (6 / 1 / 28) (इत्यणि तार्णविन्दवः), तार्णविसौवीरेभ्योऽन्यत्र सौयामः // 10 // न्दवस्यापत्यं युवा निन्दित इति वाक्ये 'भागअव०–'सौवीरदेशेषु वर्तमानात्', कोऽर्थः ? वित्ति०' (6 / 1 / 105) इत्यनेन इकण , पक्षे इत्र / सौवीरदेशस्थितपुरुषाद्यर्थवाचकात् शब्दात् / 'सुया उअकं दुःखं शपति आक्रोशति,- 'कर्मणोऽण्' (5 / म्नः सौवीरदेशवासिनो नरस्यापत्यं सौयामायनिः। 1172) इति अण् , अकशापः, तस्यापत्यं वृद्धम् ,उसुयामा कश्चिन्नरः,तस्यापत्यम् ,'सोऽपत्ये' (6 / 1 / 'शुभ्रादिभ्यः' (6 / 1173) एयण ,(आकशापेयः,) आक२८) अण् , 'अवर्मणो मनोऽपत्ये' (4 / 59) इति शापेयस्यापत्यमाकशापेयिकः / / 105 / / सूत्रेणान्त्यस्वरादिलोपः / / 103 / / सौयामायनि-यामुन्दायनि-वाायणेपाण्टाहृति-मिमताण्णश्च // 6 / 1 / 104 // रीयश्च वा // 6 / 1 / 106 // म० व०-पाण्टाहतेरिबन्तात् मिमताच्च म. वृ०-एभ्य आयनिबन्तेभ्यः सौवीरवृद्धसौवीरार्थवृत्तेरपत्ये 'णः चकारादायनिञ्' स्यात् / वृत्तिभ्यो यून्यपत्ये 'निन्दायामीयः प्रत्ययश्चकारापाण्टाहृतेरपत्यं युवा सौवीरगोत्र:=पाण्टाहृतः, दिकण वा' स्यात् / 'पक्षेऽणप्रत्ययोऽपि / सुयापाण्टाहृतायनिः ; २मैमतः, मैमतायनिः // 104 / / म्नोऽपत्यं-सौयामायनिः, तस्यापत्यं युवा निन्दितः सौयामायनीयः, सौयामायनिकः, सौयामायनिर्वा / __ अव०-१पण्टेन आह्रियते स्म-पण्टाहृतः, यामुन्दायनीयः, यामुन्दायनिकः, यामुन्दायनिः / (पण्टाहतस्यापत्यं पाण्टाहतिः, ) अथवा पाण्टेन "बाायणीयः, वार्ष्यायणिकः, वार्ष्यायणिर्वा 106 अनायाससाध्येन आह्रियते स्म, पाण्टाहृतशब्द:, पाण्टाहतस्यापत्यं पाण्टाहतिः, 'अत इब' प्रव०-'ताभ्यां मुक्तपक्षे। सुष्ठ यातीति (6 / 1 / 31), इत्थमिचन्तात पाण्टाहतिशब्दात् णः, मन्प्रत्ययः, सुयाम्नोऽपत्यम , 'सुयाम्नः सौवीरेआयनिञ् / रमिमतस्यापत्यं युवा सौवीरगोत्र:= प्वायनिन ' (6 / 1 / 103), सोयामाग्रनिः इति शब्दः मैमतः // 104 // सौयामायनेरपत्यम ,'उसोऽपत्ये' (6 / 1 / 28) अण् , भागवित्ति-तार्णविन्द-बाकशापेयानिन्दायमि 'बिदा दणि.' (6 / 1 / 140) इत्यनेन अण् लुप्यते। यामुन्दस्यापत्यं -यामुन्दायनिः, 'तिकादेरायनित्र' कण् वा / / 6 / 1 / 105 / / (६।१।१०७),यामुन्दायनेरपत्यं युवा निन्दितः यामुम० वृ०-भागवित्तितार्णविन्दवाकशापेयशब्दे न्दायनीयः ; यामुन्दायनेरपत्यम् , ढसोऽपत्ये' (इति) भ्यः सौवीरवृत्तिभ्यो यून्यपत्ये 'निन्दायामिकण वा' अण, 'जिदा०' इति अणलोपः / वृषस्यापत्य= स्यात् / भागवित्तिकः, भागवित्तायनो जाल्मः ; वार्ष्यायणिः, 'दगुकोशलकार०' (6 / 1 / 108) इत्य'तार्णविन्दविकः, तार्णविन्दविः ; आकशापेयिकः, नेन यायनिन , तस्यापत्यम // 106 / / आकशापेयिः // 105 / / तिकादेरायनित्र // 6 / 1 / 107 // प्रव०-भगेन वित्तो भगवित्तः, भगवित्त- म. वृत्-तिकादिशब्देभ्योऽपत्ये 'आयनिज' . स्यापत्यं भागवित्तिः, 'अत इत्र' (6 / 1 / 31), भाग- स्यात् / इबादेरपवादः / तिक,-तैकायनिः // 107|| वित्तिशब्दः, भागवित्तेरपत्यं युवा निन्दितो भाग- | प्रव०-तिक, कितव, संज्ञा, वाल, शिखा, Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयनिज ..क्यविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 281 पाल और ( बालशिव, ) उरश, शाठ्य, सैन्धव, यमुन्द, रूप्य, | शब्दात् 'दुनादि०' (6 / 1 / 118) इत्यनेन ज्यः पूर्णिक, ग्राम्य, नील, अमित्र, गोकक्ष्य, कुरु, देवर, | प्रत्ययोऽपि भवति, कौशल्य इत्यपि प्रयोगो मन्त | व्यः / उकारस्यापत्यं कार्मार्यायणिः / “छागश, कौरव्य, भौरिकि, (भौलिकि,) चौपयत,चैतयत, स्यापत्यम् / वृषस्यापत्यं = वार्ष्यायणिः // 108 // चैटयत,शैकयत,क्षेतयत,ध्वाज,वत,(ध्वाजवत,)चन्द्रम- 'द्विस्वरादणः // 6 / 1 / 109 / / स् ,शुभ, श्रुभ, स्र भ, गङ्गा,वरेण्य, बन्ध्या, बिम्बा, अरद्ध, अरद्धा, आरद्ध, वह्यका, खल्य, लोमका, उद म० वृ०-द्विस्वरादणन्तादपत्ये 'आयनिज' न्य, यज्ञ, नीड, आरथ्य, लङ्कव, भीत, उतथ्य, सु स्यात् / काायणिः, उपौत्रायणिः / द्विस्वरादिति यामन , उरवा, खल्वका, शल्यका, जाजल, वसु, किम् ? औपगविः ('अत इज' (6 / 1 / 31) / अण उरस् इति तिकादिगणः / उरिः सौत्रो धातुर्गत्यर्थः, इति किम् ? दाक्षायणः / वृद्धादेवाय विधिः उरति प्रतिष्ठामिति औरशः, 'उरेरशक्' (उ०५३१) // 109 // इति सूत्रेण अशक् , उरशस्यापत्यम्- 'राष्ट्रक्षत्रिया०' प्रव०-१'द्विस्वरः' इति सूत्रोदाहरणेषु पूर्व (6 / 12114) इति अञ् / औरशशब्देन क्षत्रियप्रत्य 'ढसोऽपत्ये' (6 / 1 / 28) इत्यौत्सर्गिकोऽण् , ततोऽणयान्तेन साहचर्यात कौरव्यशब्द इहगणे क्षत्रिय न्तात् 'द्विस्वरादण' इत्यनेन आयनिन् विधीयते प्रत्ययान्त एवं गृह्यते, अन्यस्मात् ब्राह्मणवाचिनः इति विधिः / कर्तृ शब्दः, कर्तुरपत्यं कात्रः, कौरव्यात् इत्र एव, तस्य 'बिदार्षा०' (6 / 1 / 140) 'लोऽपत्ये' (इति) अण् , कार्बस्यापत्यं= कार्ताइति लुप् ; तथाहि- कुरोर्ब्राह्मणस्यापत्यं 'कुर्वादे यणिः ; एवं हत',- हा यणिः / पोतुरपत्यं वृद्धं यः' (6 / 1 / 100) कौरव्यः, कौरव्यस्यापत्यम्- 'अत पौत्रायणिः / “दक्ष, दक्षस्यापत्यम् , 'अत इब्' (6 / इन्' (6 / 1 / 31), तत इब् लुप्यते, कौरव्यः पिता, 1 / 31), दाक्षेरपत्यम् , 'यजिनः' (6 / 1 / 54) आयकौरव्यः पुत्रः / कुरूणां राजा कुरुः, कुरो राज्ञोऽप. नण् / 'वृद्धादेवायं विधिः', अयं भावः,- यत्र वृद्धत्यम्- 'दुनादि०' (6 / 1 / 118) इति व्यः, कौरव्यः, प्रत्ययः तदन्तात् द्विस्वरादण इति प्रवत्तते, यत्र कौरव्यस्यापत्यं युवा- 'तिकादेरानिच', कौरव्या च अवृद्धार्थप्रत्ययस्तत्रोत्तरसूत्रेण विकल्प एव, यथायणिः पुत्रः ; अत्रापि 'अब्राह्मणात्' (6 / 1 / 141) इत्य अङ्गानां राजा आङ्गः, 'पुरुमगधः' (6312116) नेन आयनिबो लुप् प्राप्तोऽपि न भवति, विधान इति अण् , आङ्गस्यापत्यम्- 'अत इञ्', आङ्गरपसामर्थ्यात् ; न हि इत्र आयनियो वा लुपि कृतायां त्यम्-'अवृद्धाद् दोर्नवा' (6 / 1 / 110) इति आयनि , कश्चिद्विशेषः क्षत्रियब्राह्मणवाचिनोः कौरव्यशब्दयोः आङ्गायनिः // 109 // // 107 // अवद्धादोनवा / / 6 / 1 / 110 // दकु-कोशल-कार-च्छाग-वृषाद् यादिः म० वृ०-अवृद्धवाचिनो दुसंज्ञकाद् [दुसंज्ञ॥६।१।१०८॥ कात् कीदृशात् ? अवृद्धवाचिनः] अपत्ये 'आयनि' म० वृ०-एभ्योऽपत्ये 'यकारादिरायनिञ्' (वा) स्यात् / आम्रगुप्तायनिः, ['वृद्धिर्यस्य स्वरे' स्यात् / दागव्यायनिः, २कौशल्यायनिः, उकार्मा (6 / 1 / 8) इति दुसंज्ञा आम्रगुप्तिः ; ['अस इञ्' / र्यायणिः, छाग्यायनिः, स्वार्ष्यायणिः // 108 // पाञ्चालायनिः, [ पञ्चालानां राजा, राष्ट्रक्षत्रिया०' अव०-१दगोरपत्यम् / २कोशलस्यापत्यम् , | (6 / 1 / 114) इति अञ् , तस्यापत्यम् ] पाञ्चालिः ; तथा एकेनैव शब्देन देशा राजानोऽप्युच्यन्ते, तत नापितायनिः , नापित्यः / अवृद्धादिति किम् ? ईदृशात् जनपदसमानशब्दात् क्षत्रियात् कोशल- / २दाक्षायणः / / 110 // Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०६ पा० 1 सू० 111-114 प्रव०-'नापितस्यापत्यं नापितायनिः, पक्षे | काकिः ['बाह्व० (6 / 1 / 32); लाङ्काकायनिः, लानापित्य इति, नापितस्यापत्यं = नापित्यः. 'कर्वा- केयः; 'द्विस्वरादनद्याः' (6 / 1 / 71) एयण , ऋषिदेर्व्यः' (6 / 11100), 'सेनान्तकारु०' (6 / 1 / 102) विशेषः ] वाकिन,-वाकिनकायनिः, वाफिनिः ; अथ इत्यनेन नापितशब्दात इञ् न भवति, यत इन- पुत्रान्ताद्दोः, गार्गीपुत्रकायणिः, गार्गीपुत्रिः [गार्गीप्रत्ययबाधनार्थमेव कुर्वादिगणे नापितशब्दः पतितो- | पुत्रायणिः इति तृतीयं रूपं ज्ञातव्यम् ] // 112 / / ऽस्ति इति नापितात् व्यः कार्यः, न इन् / दक्षस्यापत्यम् , 'अत इब्', दाक्षेरपत्यम् , 'यनिञः' प्रव०-'चर्म २वर्म अस्यास्ति, 'शिवादि(६।१।५४) आयनण् / / 110 // भ्यः०' (72 / 4) इति सूत्रेण इन , चर्मिन् , वर्मिन् ; चर्मिणो वर्मिणोऽपत्यम् , 'चर्मिवर्मिगारेट०' इत्यपुत्रान्तात् // 6 / 1 / 111 // नेन आयनिन् , प्रकृतिप्रत्ययविचाले ककारो नकाम० वृ०-पुत्रान्ताद् दुसंज्ञकादपत्ये 'आयनिञ् रात् पूर्व क्रियते, पश्चात् 'नोऽपदस्य०' (74 / 61) वा' स्यात् / 'गार्गीपुत्रायणिः, गार्गीपुत्रिः ; २गार्गीपु- इति अन्त्यस्वरादिलोपः, चार्मिका यणिः, बार्मिका- ' त्रकायणिरित्यपि // 111 // यणिः इति सिद्धम् / ३'गारेट' इति, 'कर्मणोऽण' ( 5 / 1 / 72 ), पृषोदरादित्वान्निपात्यते, गारेटस्याअव०-गर्ग, गर्गस्यापत्यं वृद्धम् ,-'गर्गादे पत्यम् , आयनिञ् , पक्षे 'अत इञ्' (6 / 1 / 31 ) / यज्' (6 / 1 / 42), 'यत्रो डायन् च वा' (2 / 4 / 67) कर्कटस्यापत्यम् , 'गर्गादेर्यम्' ( 6 / 1 / 42), यदा इत्यनेन की, 'व्यञ्जनात्तद्धितस्य' (2 / 4 / 88) इत्य तु कार्कट्यशब्दोऽव्युत्पन्नस्तदा पक्षे इव, यथानेन तद्धितयन् लुप्यते, गार्गी इति शब्दः सम्पन्नः, कार्कटियः। तथाकेचिल्लङ्कशब्दमकारान्तमिच्छन्ति, गाग्र्याः पुत्रो गार्गीपुत्रः, गार्गीपुत्रस्यापत्यम् , 'पुत्रा तन्मते लाङ्ककायनिः, लाङ्किः, 'अत इञ्' (6 / 1 / 31) न्तात् (इति) आयनिय , गागीपुत्रायणिरिति // 112 // सिद्धम। पूर्वेणा यनिधि सिद्धेऽपि 'पुत्रान्ता'-दिति ___ अदोरायनिः प्रायः / / 6 / 1 / 113 / / वचनमुत्तरसूत्रप्राप्तककारागमाभावार्थम / भव म० वृ०-अदुसंज्ञकादपत्ये 'आयनिर्वा प्रायः' त्यपि उत्तरेण ककारागमः, तत्र 'गार्गीपुत्रकायणिः' स्यात् / ग्लुचुकायनिः, ग्लौचुकिः ; [एवमहिचुम्बइति तृतीयरूपमपि ज्ञेयम् // 111 / / कायनिः, आहिचुम्बकिः; ] त्रिपृषायनि:, पृष्ठिः ; चर्मि-वर्मि-गारेट-कार्कटय-काक लङ्का-वाकिनाच्च श्रीविजयायनिः, श्रेविजयिः / अदोरिति किम् ? १औपगविः [उपगवस्यापत्यं युवा] / प्रायोग्रहणात् कश्चान्तोऽन्त्यस्वरात् / / 6 / 1 / 112 / / कचिन्न भवति- दाक्षिः // 113 / / म. ३०-एभ्यः पुत्रान्ताच्च दुसंज्ञकादपत्ये 'आयनि वा स्यात् , तद्योगे चैषामन्त्यस्यरात्परः प्रव०- औपगविः' इत्यस्याग्रे रामदत्तिः, ककारोऽन्तः स्यात् / [ककारस्यान्त्यस्वरात्परतो वि- रामदत्तायनिः पिता, रामदत्तायनिः पुत्रः ; अत्र आधानं चर्मिवर्मिणोः नकारस्य लोपार्थम् ] चर्मिन् ,- यनियन्तात् अणो लुप् / / 113 / / चार्मिकायणिः, चामिणः ['उसोऽपत्ये' (6 / 1 / 28) अण्], २वर्मिन , वार्मिकायणिः, वार्मिणः / 'कसो राष्ट्र-क्षत्रियात् सरूपाद्राजापत्ये द्रिरत्र ऽपत्ये']; 3गारेट,-गारेटकायनिः; कार्कट्यायनिः, // 6 / 1 / 114 // कार्कट्यायनः [यभिवः' (6 / 1 / 54) इति आयनण], ___ म० वृ०-क्षत्रियवाचिसरूपान् राष्ट्रगचिनो "कार्कटियरित्यपि ; काककायनिः [ ऋषिविशेषः ], | राष्ट्रवाचिसरूपाच्च क्षत्रियवाचिनो यथासङ्घय राज Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भण्-प्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [283 नि रक्षत्रियेऽपत्ये च 'अण' स्यात् , स च द्रिसंज्ञः। __गान्धारि-साल्वेयाभ्याम् // 6 / 1 / 115 // नवेति निवृत्तम् [ अपत्ये इत्यनुवर्तमाने राजनि ___म० वृ०-गान्धारिसाल्वेयौ इयणन्तौ सरूपौ इत्यधिकारार्थस्य भणनान्नवेति निवृत्तम् ] / विदे राष्ट्रक्षत्रियवचनौ / ताभ्यां राष्ट्राद्राजनि क्षत्रियादपत्येहानां राष्ट्रस्य राजा वैदेहः, वैदेहौ, विदेहाः / 'न' स्यात् , स च द्रिः / उदुलक्षणस्य व्यविदेहस्य राज्ञोऽपत्यम् वैदेहः, वैदेही, विदेहाः / स्यापवादः / गान्धारीणां राजा गान्धारे राज्ञोऽप. 'ऐश्वाकः, 'ऐश्वाको, इक्ष्वाकवः / राष्ट्रक्षत्रिया त्यं च-गान्धारः, "गान्धारौ, 'गान्धारयः। "सादिति किम् ? पाञ्चालः, पाश्चालि: / सरूपादिति ल्वेयः, साल्वेयौ, साल्वेयाः / / 115 / / किम्? सुराष्ट्राणां राजा सौराष्ट्रकः' ['बहुविषयेभ्यः' (6 / 3 / 45) इति अकन ], दशरथस्य क्षत्रियस्या- __अव०-'वचनभेदो यथासङ्घयनिवृत्त्यर्थः / पत्यं दाशरथिः, त्रिपृष्टत्य त्रैदृष्टिः / द्रिप्रदेशा 'द्रेर गान्धारिः (इति) इनन्तशब्दात् साल्वेय (इति) बणोऽप्राच्य०' (6 / 1 / 123) इत्यादयः // 114 // / एयणन्तशब्दात् परोऽप्रत्ययो भवतीति सम्बन्धः। उ'दुनादिकुर्वित्कोशल' (6 / 1 / 118) इति सूत्रविअव०-'राष्ट्रक्षत्रिययोरयं भावार्थः- यदि स हितस्य व्यप्रत्ययस्यापवादोऽयम् / अयमन् इत्यर्थः। एव देशनाम राष्ट्रनाम, यदि स एव राजनाम क्षत्रि- राष्ट्रक्षत्रियवचनो गन्धार इति शब्दोऽप्यस्ति, ततः यनाम भवति तत्र अबादिप्रत्ययो भवति इति पर- परो ने , 'राष्ट्रक्षत्रिया०'(६।१।११४) इति अबमार्थः / क्षत्रिये इति विशेषणम् / उ-विदेहा' इत्यत्र बाधितत्वात्, इति गन्धमियति गन्धार इति व्युविदेहानां राष्ट्रस्य राजानो विदेहाः, 'राष्ट्रक्षत्रिया०' त्पत्तिप्रधानादेवापत्येऽर्थे गन्धारस्यापत्यम् (इति) इत्यनेन अण् , 'बहुष्वत्रि याम्' ( 6 / 1 / 124 ) इति / 'अत इन्' (6 / 1 / 31) भवति, उपचारान्निवासेऽपि सूत्रेण अब लुप्यते, ततो जस्, विदेहाः सिद्धम् / / गान्धारिः इत्यु.................." (च्यते, तेनाप४एवमग्रेऽपि विदेहस्य राज्ञोऽपत्यानि=विदेहाः / त्यप्रत्ययान्ता गान्धारि इति) मूलप्रकृतिः, गान्धा"इक्ष्वाकूणां राष्ट्रस्य राजा अथवा इक्ष्वाकोरपत्यम् | रीणां राजा अथवा गान्धारे राज्ञोऽपत्यं गान्धारः / ऐक्ष्वाकः / 'इक्ष्वाकूणां राष्ट्रस्य राजानौ इक्ष्वाकूणा- | 'गान्धारीणां राजानौ / गान्धारीणां राजानोऽपमपत्ये इति द्वित्वे वाक्यम् / इक्ष्वाकूणां राष्ट्रस्य त्यानि(वा)इति बहुत्वे वाक्यम् , तत्र 'बहुष्वस्त्रियाम्' राजानः इक्ष्वाकोरपत्यानि इति बहुत्वे वाक्यम् / / (6 / 1 / 124) इति अञ् लुप्यते, गान्धार इति वाक'ऐश्वाक' इत्याद्युदाहरणेषु राष्ट्रक्षत्रिया०' इत्यनेन यम्(?)बहुत्वे प्रयोगोऽयम् , इति द्रिसंज्ञाफलं यल्लोभन्न् , 'सारवैश्वाक०' (74 / 30) इत्यनेन उकार- पोऽयः। साल्वा नाम जनपदः, साल्वाया अपत्यं लोपः, बहुत्वे 'बहुधस्त्रियाम्' इत्यनेन अब् लुप्यते, 'द्विस्वरादनः' (6 / 171) इति एयण, साल्वेइति द्रिसंज्ञाक (? द्रिसंज्ञाया) इदं फलं यत् अञ् यानां राजा साल्वेयस्यापत्यं युवा वा / // 115 // लुप्यते / पञ्चालस्य ब्राह्मणस्य राजा-पाश्चालः, पुरु-मगध-कलिङ्ग-शूरमस-द्विस्वरादण 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) इत्यण् / 'पश्चालस्य ब्राह्मणस्यापत्यं पाञ्चालिः, 'अत इन' (6 / 1 / 31) / // 61 / 116 // •एवमादर्शकः, आदृश्यते श्रीमद्भिः , 'भावा०' | म. वृ०-एभ्यो द्विस्वरेभ्यश्च राष्ट्रक्षत्रियार्थे(६।३।१८) घन - आदर्शः, आदर्शस्य राष्ट्रस्य राजा= | भ्यः सरूपेभ्यो यथासङ्खयं राजन्यपत्ये-'s' भादर्शकः / सुराष्ट्राऽऽदर्शशब्दौ देश एवं वर्तते / / स्यात् स च द्रिः। अनोऽपवादः / पुरोरपत्यं पौरवः, दशरथत्रिपृष्टशब्दौ तु राजन्येव बर्तेते, न देशे / पौरवौ, पुरवः / मगधस्यापत्यं मगधानां राजा (वा)= // 114 // मागधः, मागधौ, मगधाः [ बहुषु अण्लोपः ]; Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 6 पा० 1 सू० 117-119 कालिङ्गः, कलिङ्गाः ; शौरमसः, शूरमसाः / द्विस्वर, / उदुम्बरा इत्यस्याग्रे एवं / तैलखलिः, तिलखलाः ;] भङ्गानां राजा अङ्गस्यापत्यं वा=आङ्गः, अङ्गाः; माद्रकारिः, मद्रकाराः ; यौगन्धरिः, युगन्धराः; शारवाङ्गः, वङ्गाः ;दारदः, दरदः [दरदो राजा दरदोऽप- दण्डिः, शरदण्डाः ; आजमीढिः, अजमीढाः ; आजत्यं वा] / 'साल्वः, सल्वाः / पुरुग्रहणमराष्ट्रसरूपा- कुन्दिः, अजकुन्दाः ; बौधिः, बुधाः इति साल्वांशर्थम् / अस्ति राजा पुरुर्नाम / / 116 / / विषया उदाहरणावली। उदुम्बराणां राजानः उदु. म्बरस्यापत्यानि (वा) 'साल्वांश०' इत्यनेन इब् , 'बहुष्वस्त्रियाम्' (6 / 1 / 124 ) इत्यनेन इञ् लुप्यते, प्रव०-१'साल्वः, साल्वाः' इत्यत्र साल्वानां उदुम्बरा इति सिद्धम् // 117 // राजा साल्वस्य राज्ञोऽपत्यं वा साल्वः, साल्वाः / अस्ति राजा पुरुर्नाम, न तु राष्ट्रम , अत्र विशेषो दुनादि-कुर्वित्-कोशला-ऽजादाभ्यः लिख्यते- यः पुरुशब्दो राजवाची तस्य 'सोऽप // 6 / 1 / 118 // त्ये' (6 / 1228) इति सामान्याणा सिद्धेऽपि बहुषु लु म० वृ०-दुसंज्ञकेभ्यः, नकारादिभ्यः, कुरुशबर्थ 'पुरुमगधः' इत्यनेन अणविधानं कृतम् , किं ब्दात् ,इकारान्तेभ्यः कोशलाजादाभ्यां च राष्ट्रक्षत्रियच अधिकारायातेन अप्रत्ययेनैव सिद्धौ सत्यामपि वाचिभ्यः सरूपेभ्यो राजन्यपत्ये 'यः' स्यात् , यत् पुरुमगधादिशब्देभ्योऽविधानम् , तत् 'संघ स च द्रिः / दु,-आम्बष्ठानां राजाऽपत्यं वा आम्बघोषाङ्कलक्षणेऽव्यभित्रः' (6 / 3 / 172) इति सूत्रोक्ता ष्ठयः, आम्बष्ठाः, [बहुत्वे लुप् ; सौवीराणां राजा णो बाघनार्थम् , तेन संघघोषोक्तमणं बाधित्वा गो सौवीरस्यापत्यं वा-सौवीर्यः, सौवीराः / नादि, नैत्राददण्डमाणवशिष्ये' (6 / 3 / 169) इति सूत्रण षध्यः, निषधाः, कुरूणां राजा कुरोरपत्यं (वा) कौरअकञ् भवति, तथाहि एषु 'गोत्राददण्ड०' इति व्यः, कुरवः / इत् , आवन्त्यः, अवन्तयः ; कौअकन , एवं प्रयोगाः सिद्धयन्ति / / 116 / / न्त्यः, “कुन्तयः ; चैद्यः, चेदयः ; काश्यः, काशयः / 'साल्वांश-प्रत्यग्रथ-कलकूटा-ऽश्मकादिन 'कौशल्यः, कोशलाः ; आजाद्यः, अजादाः // 118 / / // 6 / 1 / 117 // अव०-'अवन्तीनां राजा अवन्तेरपत्यम् अपम० वृ०-साल्वा नाम देशस्तदंशास्तदवयवा त्यानि वा। कुन्तिशब्दः, कुन्तीनां राजा अपत्याउदुम्बरादयः, तेभ्यः प्रत्यप्रथादिभ्यः (च) राष्ट्रक्षत्रियवा नि वा; एवं चेदि, काशि ; सर्वत्र बहुत्ववाक्ये 'बहुचिभ्यः सरूपेभ्यो [ यथासङ्खय] राजन्यपत्ये इन् ध्वस्त्रियाम्' (6 / 1 / 124 / इति) प्रत्ययलोपः / 'कोस्यात् , स च द्रिसंज्ञः / उदुम्बराणां राजा उदुम्बर शलानां कोशलस्य वा राजा अपत्यं वा / अजादानां स्यापत्यं वा औदुम्बरिः, उदुम्बराः / प्रात्यप्रथिः, अजादस्य वा (राजा अपत्यं वा) // 118 / / प्रत्यप्रथाः / कालकूटिः, कलकूटाः [बहुषु लुप्]। आश्मकिः, अश्मकाः ['बहुष्वस्त्रियाम्' (6 / 1 / 124] पाण्डोर्डयण // 6 / 1 / 119 // // 117 // म० ३०-पाण्डुशब्दात् क्षत्रियवाचिनः सरूपा द्राजन्यपत्ये चार्थे 'ड्यण , स च द्रिसंज्ञः' / 'पाप्रव०-१“उदुम्बरास्तिलखला मद्रकारा युगन्धराः।। ण्ड्यः, पाण्ड्यौ, पाण्डवः // 119|| भुलिङ्गाः शरदण्डाश्च साल्वांशा इति कीत्तिताः"॥१॥ अजमीढ, अजकुन्द, बुध इति उदुम्बरादिविशेषाः, प्रव०-'पाण्डूनां राजा पाण्डोरपत्यं वा। तेऽपि साल्वांशा एव / तिला एव खला यत्र | कथं पाण्डवा यस्य दासाः ? अत्र पाण्डोः परतो प्रचुरत्वात् , यद्वा तिला खल्यन्तेऽत्र गौचरे / ड्यण कथं न भवतीति पृच्छा; उच्यते, तस्य प्रसि Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रिसंज्ञप्रत्ययम्य लुम्विधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् [285 द्धस्य क्षत्रियस्य राष्ट्रसरूपस्य य ईश्यो स्वेच्छया / अव०-...['कुन्ती] अवन्ती इत्य... नियोक्तव्यो जनपद: यश्च तस्य क्षत्रियसरूपस्य [त्र कुन्तेरपत्यं ] स्त्री अ[व]तेरपत्यं स्त्री, दुनाराष्ट्रस्य ईशिता स्वेच्छया विनियोक्ता क्षत्रियः स दिकुर्वित्० (6311118) व्यः, तस्यानेन लुप् , एव गृह्यते प्रत्यासत्तेः; कोऽभिप्रायः ? यदि स देशः | 'नुजतिः' (2 / 4 / 72) डी। उकुन्तीनां राजापत्यं वा स एव राजा भवति तदैव डयण प्रत्ययो भवति, 'दुनादि०' (6311118) व्यः, एवमावन्त्यः // 121 / / अत्र तु कुरवो जनपदः, तस्य कुरो राजा पाण्डुरिति कुरोर्वा // 6 / 1 / 122 // शिवायण अत्र भवति / णकारो वृद्धिनिमित्तबद्भावप्रतिषेधार्थः, यथा- पाण्डु, पाण्डोरपत्यं स्त्री म. वृ०-कुरुशब्दात् परस्य 'नेय॑स्य स्त्रियां राज्ञी वा' (पाण्ड्या, पाण्ड्या भार्या यस्यासौ पाण्ड्या वा लुप्' स्यात् / कुरोरपत्यं स्त्री-कुरुः, कौरव्यायभार्यः) // 119 / / णी // 122 // शकादिभ्यो ट्रेलुप् // 6 / 1 / 120 // द्रेरणोप्राच्यभर्गादेः / / 6 / 1 / 123 / / म. वृ०-शकादेः परस्य "द्रिसंज्ञप्रत्ययस्य लुप्.' म. वृ०-'प्राच्यान् भर्गादींश्च वर्जयित्वास्यात् / शकानां राजा शकस्यापत्यं वा='शकः, एवं ऽन्यस्मात्परस्या-'sोऽणश्च द्रेः स्त्रियां लुप्' स्यात् / यवनः, जातः, कम्बोजः, चोल:, केरल: इत्या- अनः- शूरासनस्यापत्यं स्त्री-शूरासनी / अणः, मद्री, दयः / / 12 / / *दरद्, 'मत्सी। द्रेरिति किम् ? औत्सी / द्रावनु वर्तमाने पुनर्दिग्रहणं भिन्नप्रकरणस्यापि ट्रेलु प्रव० राष्ट्रक्षत्रियेत्यादिसूत्रपञ्चकेन अन् , बर्थम् , ' तेन "पशू:, रक्षाः, असुरी / अषण अण् , इन , व्य, ड्यण् इति प्रत्ययपञ्चकं दिसंज्ञकमु इति किम् / ? औदुम्बरी। अप्राच्यभर्गादेरिति तम् / तेषां दिसंज्ञप्रत्ययानां 'शकादिभ्यो द्रेलुप्' किम् ? 'पाञ्चाली, १२वैदेही, उपप्पली, ४माइत्यादिसूत्रे लोपः / २'शक' इत्यत्र 'पुरुमगध०' गधी, कालिङ्गी, वैदर्भी,आङ्गी, वाङ्गी, पौण्ड्री, शौर(६।१।११६) इत्य.. .(नेन सूत्रेणा)। उ'य मसी। पाञ्चालादयः प्राच्या राष्ट्रसरूपाः क्षत्रियाः / वन' इत्यादिषु 'राष्ट्रक्षत्रिया०' (6 / 1 / 114) इत्यनेन भर्गादि,-"भार्गी // 123 / / भन् , 'शकादिभ्यो.' इत्यनेन लोपः / 'केरल' इत्यस्याने आधारयः, विधारयः, उपधारयः, अप ___ "राष्ट्रक्षत्रियात् सरूपाद्' (6 / 12114) इत्या धारयः, मुरलः, खस इति शकादयः प्रयोगगम्याः / रभ्य ये प्रत्यया पूर्वमुक्तास्ते प्राच्या उच्यन्ते, प्राच्य आचार्यस्य इयं शौली- यत्र गणे शब्दबाहुल्यं तत्र बहु सूत्रेष्वपि अत्रणप्रत्ययान्तविषयो निषेधः / भर्ग, वचनं निर्दिशति, यथा-'शकादिभ्य'इत्यत्र, 'बहुवचन- करुष, करूश, केकय, कश्मीर, सल्व, सुस्थाल, माकृतिगणार्थम्' इत्यक्षराणि गणप्रान्ते आचार्यो उरश, यौधेय, शौक्रय, शौभ्रे य, घार्तेय, धार्तेय, निर्दिशति ; यत्र च गणे शब्दतावत्त्वं नियतत्वं तत्र ज्यावानेय, त्रिगत, भरत, उशीनर इति भादिगणः। भाचार्यः सूत्रे एकवचनं प्ररूपयति, यथा 'भर्गादेः' मद्राणामपत्यं स्त्री। 'दरदोऽपत्यं स्त्री / “मत्स्यः , 'गर्गादेः' 'विदादेः' इत्यत्र // 120 // मत्स्यस्यापत्यम् , 'पुरुमगध' (6 / 1 / 116) इति कुन्त्यवन्तेः स्त्रियाम् // 6 / 1 / 121 // अण् , 'द्रेरण' (इति) लोपः / मद्र इत्यत्र 'जाते.' . म० वृक्ष-कुन्ति-अवन्तिशब्दाभ्यां परस्य / (2 / 4 / 54) मत्स्य इत्यत्र 'गौरा० ' (2 / 4 / 19) की, 'द्रिसंज्ञस्य व्यस्य लुप्' स्यात् , स्त्रियां वाच्यायाम्। | 'मत्स्यस्य यः' (2 / 4 / 87) इति यलोपः / “राष्ट्र कुन्तेरपत्यं स्त्री='कुन्ती, अवन्ती / स्त्रियामिति | क्षत्रिया०' (6 / 1 / 114) इत्यादिसूत्रैरस्मिन्नेव प्रथमकिम् ? कौन्त्यः, आवन्त्यः / / 12 / / पादे अत्रणादिप्रत्ययपञ्चकं दिसंज्ञकमुक्तम् , प्रक Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [भ० 6 पा०१ सू०१२४-१२५ रणान्तरे 'प्रकृते मयट' (73 / 1) इति सप्तमपादे . (अतः) 'बहुषु' इति न लुप् / अस्त्रियामिति किम् ? 'पूगादमुख्यकाबन्यो द्रिः' (7 / 3 / 60) इत्यादिसूत्रःज्यः, | 'पाश्चाल्यः स्त्रियः / तथा पञ्चभिः पाञ्चालीभिः यट , टेण्यण , अब् , अण . अन् , ईय एते प्रत्यया | क्रीतः पञ्चपाञ्चालः, अत्र इकणो लुपः पित्वात् द्रिसंज्ञका पक्ष्यन्ते, ततो 'द्रेषणो०' इत्यत्र पुन- | पुवद्भावेन स्त्रीत्वनिवृत्तेलुप स्यादेव // 124 / / र्द्रिग्रहणात् प्रथमपादे सप्तमपादोक्तद्रिसंज्ञकप्रत्यया अपि लुप्यन्ते; एवं 'बहुध्वस्त्रियाम्' (6 / 1 / 124) प्रव० 'लोहध्वजा एव लोध्वजाः, 'पूगादइत्यनेनापि अत्रपादोक्तसप्तमपादोक्तद्रिसंज्ञप्रत्यया मुख्यकाङ्ग्यो द्रिः' (7 / 3.60) इति सामपादसूत्रेभ्यः लुप्यन्ते, तेन पशु,राक्षस ,असुर, पशेरपत्यं बहवो प्रत्ययः, स च द्रिसंज्ञः, 'बहुध्वस्त्रियाम् ' ज्यो लुप्यते / २पञ्चालस्यारत्यानि स्त्रियः- 'राप्रक्षमाणवका इति वाक्ये 'पुरुमगध०' (6 / 1 / 116) इति अण , 'शकादिभ्यो नेर्तुप' (6 / 1 / 120) इति त्रिया०' (6 / 1 / 114) इति अब् , 'अणजे ये०' (2 / अण लुप्यते, इति पुंल्लिङ्गे ; स्त्रियां तु पर्शवः) ते 4 / 20) (इति डी), एकत्व द्वित्व बहुत्वे वा उत्पन्नः प्रत्यय इति समान्येन उक्तम् (?) / पञ्चभिः3 / ' माणवकाः शनजीविसंघः स्त्रीत्वविशिष्टोऽथो विवक्षितः, पर्शोरपत्यं स्त्रीसंघ इति वाक्ये 'पर्धा पाञ्चालीभिरित्यत्र पूर्व 'पुरुमगध०' (6 / 1 / 116) देरण' (7366) इति अण , 'दूरबणोऽप्राच्य०' इत्यण , ततो पञ्चभिः पञ्चालीमिः क्रीतः इत्येवं इत्यनेन अण् लुप्यते, ततः 'उनोऽप्राणिन०' वाक्ये कृते 'मूल्यै :क्रीते' (6 / 4 / 150) इति इकण, (2 / 4 / 73) ऊम् . एवं रक्षाः, असुरी (इति) एत 'अनाम्न्यद्वि०' (इत्यनेन इकण लुप्यते, इकणो योरपि वाक्यानि पूर्ववत् कर्त्तव्यानि, प्रत्ययश्च लो-. लोपस्य पित्त्वात् 'क्यामानिमित्तद्धिते (3 / 2 / ' पश्च / पशू, रक्षाः, असुरी (इति) एषां सिद्धिः पर्वादे 50) इत्यनेन पुंवद्भावः, तदनन्तरं पुस्त्वात् रण' (7 / 3 / 66) अस्मिन् सूत्रेऽस्ति, ततो ज्ञातव्या / | 'बहुष्वस्त्रियाम्' इत्यनेनाण्लुप्यते,ततः 'अत्र इकणो' ''उदुम्बरम् , उदुम्बराणां राज्ञी अपत्यं स्त्री 'साल इत्याद्यक्षरार्थो युक्त्या मेलनीयः / / 124 / / वांशत्वाद्' इब् ,इब , इतः' (2 / 1171) इति की / अब यस्कादेगोत्रे / / 6 / 1 / 125 / / ............ 'नुर्जाते'(२।४।७२) की (?) / पाञ्चाली, म० वृ०-'यस्कादिभ्यो यः प्रत्ययो विहितः, १२वैदेही १३पैप्पली-एषु त्रिषु 'राष्टक्षत्रिया०' (6 / तदन्तस्य बहुत्वविशिष्ठ गोत्रेऽर्थे वर्तमानस्य यस्का: 12114) इति अञ् / १४माग्धीत्यादिषु सर्वत्र 'पुरु देर्यः स प्रत्ययः तस्य 'लुप्' स्यादस्त्रियाम् / यास्कः, मगध०' (6 / 1 / 116) इति अण् , 'अणबे ये' (2 / 4 / यास्को, यस्काः // 125 // 20), 'अस्य ड्यां लुक्' (2 / 4 / 86) / 1 भर्गाणां राज्ञी अपत्यं स्त्री वा 'पुरुमगधः' इति अण् // 123 / / अव० यस्कादेरिति किम् ? उपगोरपत्यानि बहुष्वस्त्रियाम् // 6 / 1 / 124 // औपगवाः / यस्कस्यापत्यं वृद्धं यास्कः, 'शिवादेरण' (6 / 1 / 60), यास्कस्यारत्यानि युवानः-'द्विस्वरा'०(६। म. वृ०-यन्तशब्दस्य बहुषु वर्तमानस्य यो 1 / 109) इत्यनेन आयनित्र , यास्का यनयः इति द्रिः प्रत्ययस्तस्य 'लुप्' स्यात् , अखियाम् / पश्चा- व्यावृत्तिर्ज्ञातव्या / अण् वा, आयनण् वा, आयन लानां राजानः पश्चालस्यापत्यानि वा पश्चालाः, वा, एयण (वा) यः कोऽपि बहुत्वे उत्पन्नः स प्रत्ययो एवं पुरवः, अङ्गाः, 'लोहध्वजाः / द्रेरिति पूर्ववदेव | लुप्यते इति सूत्रार्थः / 'यस्क, लय, द्रुह्य, अयस्थूण, . भिन्नप्रकरणस्यापि परिग्रहः / बहुध्विति किम् ? | तृणकणे, भलन्दन, तलन्द, खरप, भडिल, पाश्चालः, लौहध्वज्यः, प्रियो वाङ्गो येषां ते प्रिय- | भण्डिल, भडित, भण्डित, सदानत्त, कम्बलहार, वाङ्गा इत्यत्र पन्तं न बहषु वर्तते किन्तु समासे| पांढक, कोंढक, पिण्डीज, बकसक्थ, रक्षो Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत्वेऽस्त्रियां प्रत्ययलुविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [287 ... मुख, जङ्घारथ, उत्काश, कदुमन्थ, विषपुट, निकष, | लुप्यते / गर्गस्यापत्यानि गर्गाः, 'गर्गादेर्यञ् ' (6 / कषक, उपरिमेखल, कडम, कृश, पटाक, क्रोष्टु- 1 / 42), अत्र बहुत्वे 'यात्रोऽश्यामः' इत्यनेन यन् पाद, क्रोष्टुमाय, शीपमाय, स्थगल, पदक, वर्मक, लुप्यते / एवं विदाः इत्यत्रापि विदादे' (6 / 1141) पुष्करसद्, विश्रि, कुद्रि, अजबस्ति, मित्रयु इति अञ् , 'यत्रयो०' अन् लुप्यते। उअस्त्रियामित्येवयस्कादिगणः / यस्कादिभलन्द यावत् एषु शिवादि- गार्ग्यः स्त्रियः इत्येव बेयम् / पञ्चभिः गार्गीभिः गणपाठात् अण् , तस्य अणो लोगोऽनेन / खरपो क्रीतः पञ्चगर्गः पटः, अत्रा 'मूल्यैः क्रीते' (6 / 4 / नडादिगणे इति अत्र स आयनण् लुप्यते / भडि- 150) इकण , अनाम्न्य०'(६।४।१४१) इकणो लोपः, लादिचतुर्व्यः (अश्वादौ) पाठात् आयनन / सदा- स च पित् , 'क्य मानि०' (3 / 2 / 50) इति पुंवत् , मत्तादिवर्मकान्तेभ्यः 'अत इत्र' (6 / 1 / 31), . स्त्रीत्वं निवृत्तम् इति हेतोः पञ्चगर्ग इत्यत्र यबो 'यस्कादेोत्रे' इत्यनेन स इज लुप्यते / पुष्कर- | लोपो भवत्येव / अयं विशेषः यसको० इति सूत्रे सद् (इति) अत्र 'बाह्वादि०' इञ , स इब लुप्यते। // 126 / / विश्रि, कुद्रि,अजबस्ति, मित्रयु-एते चत्वारो गृष्टया कौण्डिन्यागस्त्ययोः कुण्डिनागस्ती च दिगणे, एभ्य एयत्र , 'यस्कादेः' इत्यनेन स एयञ लुप्यते // 125 // // 61 / 127 / / याओऽश्यापर्णान्तगोपवनादेः म० वृ०-कौण्डिन्यागस्त्ययोर्बहुत्वगोत्रेऽर्थे 'यमोऽ णच लुप्' स्यादस्त्रियाम् , कुण्डिन्यगस्त्यशब्दयोः // 6 / 1 / 126 / / 'कुण्डिन् अगस्ति' इत्यादेशौ भवतः / आगस्त्यम.वृ०-यजन्तस्य अनन्तस्य च बहत्वरिशिष्टे - शब्दस्य ऋष्यणन्तत्वाद् यनबो न सम्भवतः / गोोऽर्थे वर्तमानस्य यः स प्रत्ययस्तस्य लुप् , [अगस्त्यो नाम ऋषिः, ऋषित्वात् 'ऋषिवृष्ण्यअस्त्रियाम् , गोपवनादिभ्यः श्यापर्णान्तेभ्यो विहितं | न्धक०' (6 / 1 / 61) इत्यनेनाण् एव भवति, न वर्जयित्वा / गोपवनादिगणो विदादिगणे ज्ञेयः / / यत्र ] कुण्डिन्या अपत्यं गर्गादित्वात् यब, अत गार्ग्यः, पाग्यौँ, गर्गाः / वैदः, वैदौ, रविदाः / गर्ग- | एव निर्देशान्न पंवद्भावः, कौण्डिन्यः, कौण्डिन्यौ, मयम् ,गर्गरूप्यम् गिर्ग इति प्रकृतिः, गर्गेभ्य आगतः | कुण्डिनाः / अगस्तस्यापत्यम् आगस्त्यः, आगस्त्यौ, 'नृहेतुभ्यो' (6 / 3 / 156)] / अश्यापर्णान्तगोपवना- | अगस्तयः / प्रत्ययलुपं कृत्वा आदेशकरणमगस्तीदेरिति किम ? गोपवनाः, इयापर्णाः / उअस्त्रियामि- नामिमे आगस्तीया इत्येवमर्थम् / अस्त्रियामित्येवत्येव-गार्ग्यः [गर्गस्यापत्यानि स्त्रियः गार्ग्यः स्त्रियः] / कौण्डिन्यः, 'आगस्त्यः स्त्रियः // 127 // गोत्रे इत्येव-औत्साइछात्राः [उत्सस्येमे-'उत्सादेरज' ____ अव० 'सति हि बद्भावे 'नोऽपदस्य तद्धिते' 6 / 1 / 19)] एवं पौत्रः पुत्रस्यावन्तराण्यपत्यानि ], (74 / 61) इत्पन्तस्वरादिलोपे कौण्ड्य इति प्रयोगः दौहित्राः, एवं नानान्द्राः [ननान्दुरनन्तराण्यप० स्यात् / आगस्तीया' इत्यत्र 'दोरीयः' (6 / 3 / 32) 'पुनभू पुत्रः' (6 / 1 / 39) इति अञ ] // 126 // ईयः, 'सूर्या गस्त्ययोरीये च' (2 / 4 / 89) इत्यनेन यकारो लुप्यते / “कुण्डिनी, कुण्डिन्या अपत्यम्, अव०-'योऽश्याप०' इति सूत्रे विशेषोऽयं | 'गर्गादेर्यञ्' (6 / 1 / 42), 'यत्रो डायन्' (2 / 4 / 67) लिख्यते,-कश्यप, कश्यपस्यापत्यानि काश्यपाः, ! ङी, 'व्यञ्जनात्तद्धितस्य' (2 / 4 / 88) इति यलोपः ; विदाद्यन् / काश्यपप्रतिकृतयः काश्यमा इत्यत्र यद्यपि | अगस्तस्यापत्यम्-ऋष्यण, 'अणचेये०' (2 / 4 / 20) अन प्रत्ययो गोत्रो उत्पन्नः तथापि अअन्तं न इदानीं | इति की, 'सूर्यागस्त्ययोरीये च' (2 / 4 / 89) इति गोत्रबहुत्वे किं तर्हि प्रतिकृतिषु विषये इति अन्य न / यलोपः, तदनन्तरं जस् / प्रत्ययान्तादेशे, कोऽर्थः ? Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 6 पा० 1 सू० 128-130 सप्रत्ययस्यादेशे हि कृते अगस्तिशब्दस्य आदेराका- अव०-'प्राग्भरते इति सूत्रे भरताः प्राच्या रस्य वृद्धिरूपस्याभावात् ‘वृद्धिर्यस्य स्वरे०' (6 / 1 / / एव, तेषां सूत्रे यत् पृथगुपादानं तदन्यत्र 'प्राच्येतो. 8) इत्यनेन दुसंज्ञा न स्यात् , दुसंज्ञाभावेन | ऽतौल्व०' (6 / 1 / 143) इति वक्ष्यमाणसूत्रे प्रागग्रह'दोरीयः' इति ईयः प्रत्ययोऽपि न स्यात् , यदा तु णेन अग्रहणार्थम् , तेन “यौधिष्ठिरिः पिता युधिअगस्त्यशब्दात अणप्रत्ययस्य पूर्व लोपः क्रियते, ष्ठिरायणः पुत्रः" इत्यत्र प्राच्येयोऽतोल्व०' इत्यनेन तदा भाविनि ईयप्रत्ययविपये 'न प्रागजितीये स्वरे' आयनण न लप्यते, 'प्राच्येबो०' इति सूत्रो प्राच्य(६।१।१३५) इति सूत्रेण प्रत्ययलोपप्रतिषेधात् प्रत्यय- शब्देन ब्राह्मणगोत्रं गृह्यते, न भरतगोत्रमिति लुप न भवति, तथा च सति दुसंज्ञत्वात् ईयः प्रतिषेधः इति विशेषः / २क्षीरमिश्रं कंजलं लम्भसिद्धो भवति इति एषा अवचूरिः अग्यारमी यति-क्षीरकलम्भः , 'कर्मणोऽण' (5 / 1172), ओलिका ( ? आगस्तीया ) इत्येवमर्थम इत्यक्षराने क्षीरकलम्भस्यापत्यम् , अपत्ये, अपत्यानि; 'अत इञ्' ज्ञातव्या // 127| (6 / 1 / 31), एकत्वे क्षैरकलम्भिः , द्वित्वे क्षैरकलम्भी, भृग्वङ्गिरस-कुत्स-वसिष्ठ-गोतमा-ऽत्रेः अत्र इञ् न लुप्यते, बहुत्वे तु क्षीरकलम्भाः , अत्र बहुत्वे 'प्राग्भरते.' इत्यनेन इज लुप्यते; एवं // 6 / 1 / 128 उपान्नागारिः पानागारी पन्नागाराः / युधिष्ठिर. म-वृ०-एभ्यो यः प्रत्ययस्तदन्तस्य बहुत्वे स्यापत्यम् , अपत्ये, अपत्यानि- यौधिष्ठिरिः, यौधिगोत्रेऽर्थे वर्तमानस्य यः स प्रत्ययस्तस्यास्त्रियां 'लुप्' / ष्ठिरी, युधिष्ठिराः ; ५एवमार्जुनिः, आर्जुनी, स्यात्। भार्गवः,भार्गवी, उभृगवः, "एवमङ्गिरसः, (अर्जुनाः) 'बाह्वादि०' (6 / 1 / 32) इन / बलाका५कुत्साः, वसिष्ठाः, गोतमाः, अत्रयः / अस्त्रि- शब्दः, बलाकाया अमत्यम् , ................."" (अपत्ये, यामित्येव- भार्गव्यः, १°आत्रेय्यः स्त्रियः // 128 // अपत्यानि- बालाकिः, बालाकी, बालाकयः ; बाह्वा दित्वात् इञ // 12 // अव० 'भृगोरपत्यम् , २अपत्ये, अपत्यानि, वोपकादेः // 6 / 1 / 130 // एवमङ्गिरसः, "कुत्सस्य, वसिष्ठस्य, गोतमस्य, म० वृ०-'उपकादिभ्यो यः स प्रत्ययस्तदन्तस्य अत्रेरपत्यम् ,अपत्ये, अपत्यानि, भृग्वादिभ्यो गोतमं बहुत्वे गोत्रे वर्तमानस्य यः स प्रत्ययस्तस्यास्त्रियां यावत् 'ऋषि०' (6 / 1 / 61) इत्यण , अत्रेः परतः 'इतोऽ 'लुब् वा' स्यात् / उपकाः, २औपकायनाः // 130 / / निञः' (6 / 1 / 72) एयण , बहुत्वे सर्वत्र 'भृग्वङ्गि अव०-'उपक, लमक, भ्रष्टक, कपिष्ठल, रस०' इत्यनेन अण एयण लुप्यते, भृगवः, अङ्गिरसः, कुत्सा., वसिष्ठाः, गोतमाः, अत्रय इति उदा कृष्णाजिन, कृष्णसुन्दर, पिङ्गलक, कृष्णपिङ्गल, हरणानि / भृगोरपत्यानि स्त्रियः 'ऋषिवृष्ण्य०' कलशी, कण्ठ, दामकण्ठ, जतुक, कनक, मदाघ, (६।११६१)अण, १०अत्रेरपत्यानि स्त्रियः 'इतोऽ- अपजग्ध, अडारक, वटारक, प्रतिलोम, (अनुलोम,) निमः' एयण ; अणये०' (2 / 4 / 20), जस् // 128 / / प्रतान, अनुपद, अभिहित, अनभिहित, खारीजङ्घ, कशकृत्स्न, शलाथल, कमन्दक, कमन्तक, कवन्तक, 'प्राग्भरते बहुस्वरादिनः // 6 / 1 / 129 // पिञ्जलक, अडडक, अवव्वक, पतञ्जल, पदञ्जल, म० वृ०-बहुस्वरान्नाम्नो य इत्र तदन्तस्य पर्णक, वर्णक, कठेरित, कुषीतक, लेखाभ्र , पिष्ट, बहुत्वे प्राग्गोत्रे भरतगोत्रे च वर्त्तमानस्य यः स सुपिष्ट, मसुरकर्ण, पर्णक, जटिलक, बधिरक, कठेप्रत्ययस्तस्यास्त्रियां 'लुप्' स्यात् / क्षीरकलम्भाः, लिति, पतञ्जलि, खरीखन इति उपकादिगणः / उपन्नागाराः, भरत, युधिष्ठिराः, "अर्जुनाः / प्रार- २'उपकाः उपकायनाः', अत्र नडाद्यायनण् , तस्य भरत इति किम् ? बालाकयः // 129 / / लुप् // 130 // Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत्वेऽस्त्रियां प्रत्ययलुम्विधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [289 तिककितवादी द्वन्द्वे // 6 / 1 / 131 // (73664), ४'पूगादमुख्य'० 7 / 3 / 60) इति व्यः, म०वृ०-'तिककितवादिषु द्वन्द्ववृत्तिषु बहषु / वाहकिष्वब्राह्मण'० (713.63) इति ब्यट् , 'त्रयवर्त्तमानेषु तकायनिकैतवायनीत्यादीनां यः स स्यापि अत्र लोपः / "पुरुमगध' (6 / 1 / 116) प्रत्ययस्तस्यास्त्रियां 'लुप्' स्यात् / तैकायनयश्च कैत- इत्यण , तस्य लोपः। (एवम्) गर्गवत्सवाजाः।१३२। वायन यश्च तिकफितवाः / / 13 / / वाऽन्येन // 6 / 1 / 133 // म०व०-द्रयादेरन्येन 'सह द्रयादीनां द्वन्द्वेऽप्रव०-'तिक-कितव, उब्ज ककुभ, उश बहुत्वेऽर्थे यः स द्रयादिः प्रत्ययः तस्य लुप् वा लङ्कट,अग्निवेश-दशेरक,शण्डिल-कशकृत्स्न,उपक [भवति], तथा यथापूर्वम् / अङ्ग वङ्गन्दाक्षयः, आङ्गलमक, भ्रष्क-कपिष्ठल, कृष्णाजिन-कृष्णसुन्दर, बङ्खर-भण्डीरथ,पहक-नरक,वकनख-स्वगुदपरिणद्ध, वाङ्गदाक्षयः / गर्गवत्सौपगवाः, गार्यवात्स्यौपगवाः // 133 // लङ्क-शान्तमुख इति शब्दद्वयद्वययोगे तिककितवादिगणः / रतिकस्यापत्यं तैकायनिः, कितवस्यापत्यं= कैतवायनिः,तैकायनयश्व कैतवायनयश्च, 'तिकादेरा प्रव.- अन्येन सह, कोऽर्थः ? द्रिसंज्ञवर्जितयनिम्' (6 / 1 / 107), तस्य लोपः // 131 / / प्रत्ययान्तरेण उत्तरेण सह / पूर्वेण नित्यं लोपे प्राप्त विकल्पार्थ 'वाऽन्येन' इति सूत्रम् // 133 // द्रयादेस्तथा // 61 / 132 // ___मवृ०-'द्रयादिप्रत्ययान्तानां द्वन्द्वेऽबह्वर्थे वर्त 'द्वय केषु षष्ठयास्तत्पुरुषे यादेर्वा माने यः स द्रयादिः प्रत्ययस्तस्य 'लुप्' स्यात् / तथा // 6 / 1 / 134 // =श्यथापूर्वम् / वार्केण्यश्च 'लौहध्वज्यश्च कौण्डी. म०व०-षष्ठीतत्पुरुषे यत्पदं तस्याः षष्ठया वृश्यश्च वृफलोहध्वजकुण्डीवृशाः / एवमानश्च" विषये द्वयोरेकस्मिंश्च वर्त्तते तस्य यः स यबादि"वाङ्गश्च="सौह्मश्च अङ्गवङ्गसुराः / अबह्वर्थ प्रत्ययस्तस्य 'लुप् वा' तथा यथापूर्वम् / गाय॑स्य वचनम् / / 132 // गाययोर्वा कुलंगर्गकुलम् ,गार्यकुलम् ;विदकुलम् , वैदकुलम् ; अगस्तिकुलम् , आगस्त्यकुलम् ; भृगुप्रव०-"बहुष्यस्त्रियाम्' (6 / 1 / 124) इत्यादि- कुलम् ,भागर्वकुलम्। दुधे केष्विति किम् ? गर्गाणां सूत्रादारभ्य ये केचित्लोपनीयाः प्रत्ययाः ते द्रयादयो कुलं गर्गकुलम् / षष्ठया इत्येव- गार्ग्यहितम् / तत्पुविज्ञेयाः, 'देरमणोऽप्राच्य'० (6 / 1 / 123) इत्यनेन रुषे इति किम् ? ५उपगाय॑म् / / 134 / / तु एकत्वद्वित्वबहुत्यसामान्ये लुप् उक्ता, 'द्रयादेस्तथा' अनेनापि तथैव इति तत्र 'द्रेषणो०' (6 / 1 / 123) अव०-द्वौ च एकश्च-द्वय के, तेषु / अगइति सूत्रे अस्य 'द्रयादेः' सूत्रस्य न कोऽपि उपयोगः त्यस्यापत्यमपत्ये वा, 'ऋषिः ' (6 / 1 / 61 ) अण् , इति* बहुष्वस्त्रियाम् ' (6 / 1 / 124) इत्यारभ्योक्तम् आगस्न्यस्य कुलमागस्त्ययोर्या कुलमिति समासे सति (इति) विशेषः / यथापूर्वम् , कोऽर्थः ? पूर्वप्रत्य- 'कौण्डिन्या-स्त्ययो:०' (6 / 1 / 127) इति अगयान्तबहुत्वे यस्य लुप् भवति द्वन्द्वे अबहुत्वेऽपि स्त्यादेशः / भृगोरपत्यमपत्ये वा, ऋष्यण , तस्यैव भवति, यस्य न भवति तस्य न भवत्येव, भावस्य भार्गवयोर्वा कुलम् / गाा..... (ययस्यादेशेन सह तस्यादेशेनैव सह, यस्य विकल्पः गार्याभ्यां) वा हितम् / 'गाय॑स्य समीपमुपनाउक्तः तस्यात्रापि विकल्प एवेत्यर्थः / वृकाट्टेण्यण' | ग्य॑म् / / 134 // * उदाहरणेष्विति गम्यते। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 6 पा० 1 सू० 135-138 न प्रागजितीये स्वरे // 6 / 1 / 135 // प्रव०-गाभाविका', अत्र गर्गस्यापत्यानि म. वृ०-गोत्रे इति वर्तते / गोत्रे उत्पन्नस्य 'गर्गादेर्यन' (6 / 1142), 'यबोऽश्यापी०'(६।१। प्रत्ययस्य या लुबुक्ता 'सा 'प्राग्जितीयेऽर्थे यः स्व 126 इति यत्र लुप्यते, पुनर्गर्गशब्दः / भृगोरपरादिस्तद्धितः क्रियते तस्मिन् विषयभूते न' स्यात / त्यानि वृद्धानि, ऋष्यण , भार्गव इति शब्दः सञ्जारंगार्गीयाः, उआगस्तीयाः / प्राग्जितीये इति किम ? तः, भार्गवस्यापत्यानि युवानः 'अत इन ' (6 / 1 / 31), 'त्रिदार्षादणिोः ' (6 / 1 / 140) इत्यनेन इन अत्रीयः, "अगस्तीयः / स्वरे इत्येव- गर्नेभ्य आगतम्] गर्गमयम् ,गर्गरूप्यम / गोत्रे इत्येव-कौवलम् लुप्यते, यथा इन लुप्रः तथा 'जिदार्षा०' इत्यनेन अण लोपोऽपि प्राप्नोति, परं'गर्गभार्गविका' इत्यनेन // 135 // अणलोपः प्रतिषिध्यते, अकल्प्रत्ययस्य विधास्यमा नत्वात , तथाहि- गर्गाणां वृद्धानां भृगूणां वृद्धानां अव०-'जितात् प्राक्-प्राग्जितम , पर्यपाङ.' यूनां च विवाह इति वाक्ये 'विवाहे द्वन्द्वादकल्' (6 / 1 / 32 ) इति समासः, प्रागजिते भवः प्राग्जि (६।१।१६३।इति) अकल् / भृगोरपत्यं ऋष्य......" 'तीयः, 'दोरीयः' (6 / 3 / 32) / गर्ग, गर्गस्यापत्यानि भार्गवयो लुब् न भवति (?) / / 136 / / गर्गाः, गर्माणामिमे छात्राः गार्गीयाः, 'दोरीयः' (6 / 3 / 32), 'बहुध्वस्त्रियाम्' ( 6 / 1 / 124 ) इति लोप- - यूनि लुप् / / 6 / 1 / 137 / / प्राप्तिः / (एवम् ) अत्रेरपत्यानि अत्रयः, इतोऽनियः' म० वृ०-यून्यपत्ये विहितप्रत्ययस्य प्राग्जि(६।११७२) एयण , अत्रीणामिमे छात्राः, 'भृग्वङ्गि०' / तीये स्वरादी विषये भूतेऽनुत्पन्न एव 'लुप्' स्यात् / ( 6 / 1 / 128 ) इति लोपप्राप्तिः / अगस्तेरपत्यानि लुपि सत्यां यो यतः प्राप्नोति स तत उत्पद्यते। अगस्तयः, अगस्तीनामिमे छात्राः, 'दोरीयः' (6 / 3 / पाण्टाहताः // 13 // 31), 'सूर्यागस्त्ययोरीये च' (2 / 4 / 89) इति यकारो लुप्यते, 'कौण्डिन्या०' (6 / 1 / 127) इति लोपप्राप्तिः / अव०-पाण्टाहृतः, पाण्टाहृतस्यापत्यं वृद्धम , ४'अत्रीयः', अत्रेरपत्यानि अत्रयः,'ऋषि०' (6 / 1 / 61) 'अत इञ (6 / 1 / 31), पाण्टाहृतेरपत्यं युवा पाण्टाअण् , 'भृग्व०' (6 / 1 / 228) इति अण्लोपः, पुनः हतः, पाण्टाहृतिमिमता० (6 / 1 / 104) इत्यनेन यन्यअत्रिशब्द उत्पन्नः,"अगस्तीयः', गस्तस्यापत्यानि, पत्येऽर्थे णप्रत्ययः, पाण्टाहतस्य छात्रा इति वाक्याऋष्यण , 'कौण्डिन्या०'(६।१।१२७) इति अण् लोपः, नन्तरं 'वृद्वेषः (6 / 3 / 28) इति सूत्रोक्तप्राजितीये अगस्त्यादेशः, अत्रिभ्यो हितः, अगस्तिभ्यो हितः, स्वगदी अन्न प्रत्यये चिकीर्षिते एष 'यूनि लुप्' 'तस्मै हिते' (71 / 35) ईयः / गाश्च भार्गवाश्चेति इत्यनेन पूर्व यून्यपत्यार्थ कृतस्य णप्रत्ययस्य लोपः द्वन्द्वः पश्चाद्र्गाणां०' (?) / "कुवली, कुवल्या फलं क्रियते, णप्रत्यये लुप्त सति पाण्टाहृति इति इअन्तं =कुवलम् , 'हेमादिभ्योऽन्न ' ( 6 / 2 / 45 ), 'फले' प्रकृतिरूपं सम्पन्नम् , पश्चात् लुपि सत्यां यो यतः (6 / 1 / 58 ) लुप् , 'ल्यादेौण०' (2 / 4 / 95 ) इति प्राप्नोतीत्यक्षरयुक्त्या 'वृद्धवः' (6 / 3 / 28) इति डीनिवृत्तिः, कुवलम् , तस्येदम् कौवलम् , 'तस्ये अब कार्यः, ततो जस् / / 137 / / दम्' (6 / 3 / 160) अण् / / 135 // वाऽऽयनणायनिजोः // 6 / 1 / 138 // गर्गभार्गविका // 6 / 1 / 136 // म.वृ०-आयनण आयनित्रश्च यून्यपत्ये - म० वृ०-गर्गभार्गविकेति द्वन्द्वात् प्रागजितीये कृतस्य प्राजितीये स्वरादौ च [तद्धिते] विषयभूते विवाहे योऽकल तस्मिन् विषये 'अणो लुपप्रति- 'वा लुप' स्यात् / गार्गीया गाायणीया वा / षेधो' निपात्यते / गर्गभार्गविका // 136 / / आयनिषः- हौत्रीयाः २होत्रायणीया वा // 138 / / Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यन्यपत्ये प्रत्ययलुम्विधानम] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [291 प्रव०-'गर्गस्यापत्यम् , 'गार्गादेर्यब '(6 / 1 / 42), / वैदस्यापत्यं युवा, 'अत इन' (6 / 1 / 31), तस्य गार्ग्यस्यापत्यं युवा गाायणः, 'यबिनः' (6 / 1 / / लोपः / उकुरोरपत्यम् , 'कुर्वादेयः' (6 / 1 / 100), 54) इति यून्यपत्येऽर्थे आयनण ; गाायणस्य / कौरव्यस्यापत्यम्(युवा), अत इञ ,' (प्रकृत-)सूत्रेण इन् छात्रा इति वाक्ये पूर्व 'वायनणा०' (6 / 1 / 138) इति लुप्यते। वसिष्ठस्यापत्यम् , 'ऋषि०' (६।१।६१)अण, विकल्पेन आयनण लुप्यते, ततो 'दोरीयः' (6 // 3 // वासिष्ठस्यापत्यं युवा, 'अत इज्', (प्रकृत-)सूत्रेण 32), यत्र आयनण् लुप्तः तत्र गार्गीया इति प्रयोगः, | (इब) लुप्यते / “एवं वैश्वामित्रः पिता, वैश्वामित्रः पक्षे गाायणीयाः / होतुरपत्यं वृद्धम् , 'डसोऽपत्ये' | पुत्रः / / 140 // (6 / 1 / 28) अण् , हौत्र इति शब्दः, हौत्रस्यापत्यं . अब्राह्मणात् // 6.1 / 141 // युवा, 'द्विस्वरादणः' (6 / 1 / 109) इति आयनिन / म० वृ०-अब्राह्मणवाचिनो वृद्धप्रत्ययान्ताद् हौत्रायणस्य छात्राः, अत्रापि पूर्वमायनियो लोपः, यूनि विहितप्रत्ययस्य 'लुप्' स्यात् / 'माङ्गः पिता, पश्चात् 'दोरोयः' (6 / 3 / 32) / एवमात्रेयीयाः // 138 // आङ्गः पुत्रः / रमागधः पिता पुत्रश्च / एवं कालिद्रीलो वा // 6 / 1 / 139 // ङ्गादिः / "साहदेवः पिता पुत्रो वा / 'वासुदेवः म. वृ०-[द्रिश्वासाविन च] / प्राजितीये पिता पुत्रो वा / / 14 / / स्वरे इति निवृत्तम् / द्रिसंज्ञो य इत्र तदन्तात्परस्य अव०-अङ्गस्यापत्यम् , मगधस्यापत्यम् , युवप्रत्ययस्य 'लुब् वा' स्यात् / 'औदुम्बरिः औदुम्ब उकलिङ्गस्यापत्यम् , सर्वत्र 'पुरुमगध०'(६।१।११६) रायणो वा / द्रिग्रहणं किम् ? [दाक्षेररपत्यं] दाक्षा इत्यण , तस्यापत्यं युवा, 'द्विस्वरादणः' (6 / 1 / 109) यणः / / 139 / / इत्यायनिञ् , 'अब्राह्मणात्' (6 / 1 / 141) इत्यनेन आयनिय लुप्यते / नाकुलः पिता पुत्रश्च, "साहप्रव०१-उदम्बर,उदम्बरस्यापत्यम .'साल्वांश०' देवः पिता पुत्रश्च, वासुदेव इत्यादिषु 'ऋषि(६।१।१११) इत्यनेन इत्र, औदुम्बरेरपत्यं युवा, पुण्यन्ध०' (6.1 / 61) इति अण् , तत इन , तस्य 'यविनः' (6 / 1 / 54) इति आयनण् , ततो 'द्रीमो वा' लोपः // 141 / / इति सूत्रेण विकल्पेन आयनण् लुप्यते, यत्र लोपः पैलादेः // 6 / 1 / 142 // तत्र औदुम्बरिः // 139 / / म० वृ०-पैलादिभ्यो यून्यर्थे प्रत्ययस्य 'लुप्' जिदार्षादणिोः // 6 / 1 / 140 // स्यात् / ब्राह्मणार्थमप्राच्यार्थ च वचनम् / पीलाया म० वृ०-बित् आर्पश्च योऽपत्यप्रत्ययस्तदन्ता- अपत्यं= पैलः, 'पीलासाल्या०' (6 / 1 / 68) इत्यण , त्परस्य युवप्रत्ययस्य 'अण इबश्व लुप' स्यात्।वचन पैलस्यारत्यं युवा [ 'द्विस्वरादणः' (6 / 1 / 109).J भेदात् यथासङ्ख्याभावः / बित:- तैकायनिः पिता, | इत्यायनिन , तस्य लोपः ; पैलः पिता, पैलः पुत्रः तेकायनिः पुत्रः वैदः पिता, वैदः पुत्रः, कौरव्यः पिता, // 142 // कौरव्यः पुत्रः / आर्षात् , वासिष्ठः पिता पुत्रश्च प्रव०-पैल, शालङ्कि, सात्यकि, सात्यकामि, // 140 // औदन्यि, औदश्चि, औदमन्जि, औदवजि, औदभृज्जि, | औदमेधि, औदशुद्धि, दैवस्थानि, पैङ्गलोदयनि, प्रव०-१तिक, तिकस्यापत्यं तैकायनिः, तिकादे राणि, राहक्षिति, भौलिङ्गि, औद्गाहमानि, औजरायनिन ' (6 / 1 / 107), तैकायनेरपत्यं युवा, 'सोऽपत्ये' (3 / 1 / 28) अण् , ततो 'जिदा०' इत्यनेन हानि, औजिहानि इति पैलादिगणः / / 142 / / भण लुप्यते / एवं विदस्यापत्यम् , विदाद्या , / प्राच्येजोऽतोल्बल्यादेः // 6 / 1 / 143 // Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०६ पा० 1 सू० 143 - म.वृ०-[प्राच्यात् इभ , तस्मात् ] / प्राच्य | आनुराहति, आनुति, नैमिश्रि, नैमिश्लि, नैमिशि, गोत्रे य इन तदन्तात्तौल्वल्यादिवर्जिताद् यून्यर्थे आशि, बान्धकि, यासि, बाद्धकि, चैकि, पौष्पि, प्रत्ययस्य 'लुप्' स्यात् / ब्राह्मणार्थ वचनम् / पान्ना- आहिंसि, वैरकि, वैलकि, वैशीति, वैहति, वैकणि, गारिः पिता, पानागारिः पत्रः / औरकलम्भिः पिता वार्कोलि, कारेणुपालि इति तौल्वल्यादिगणः / पुत्रश्च / प्राच्यग्रहणं किम् ? दाक्षिः पिता, दाक्षा- सर्वत्र 'अत इन' (6 / 1 / 31), ततो, 'यविमः' (6 / 1 / यणः पुत्रः / तौल्वल्यादिवर्जनं किम् ? तौल्बलिः 54) इत्यायनण् , तस्य लोपः / पपन्नं पतितमपिता, तौल्वलायनः पुत्रः ; (उतैल्वलिः पिता, तैल्व- गारं यस्य स पन्नागारस्तस्यापत्यम् , 'श्रत इब' / लायनः पुत्रः,) दालीपिः पिता, दालीपायनः पुत्रः; तौल्वल, उतैल्वल, तौल्वस्यापत्यम् , एवं तैल्वलअत एव निपातनादिलीपम्येमि वृद्धिराकारः / स्यापत्यम् , 'अत इन्' इति इन , तदनन्तरं तौल्वप्रन्थानम्- 278 // 143 // लेरपत्यं युवा तौल्वलायनिः, (तैल्वलेरपत्यं युवा तैल्वलायनिः, 'यवित्रः' (6 / 1 / 54) इत्यायनण् / .. प्रव०-तौल्वलि, तैल्वलि, तैल्यकि, धारणि, दिलीपस्यापत्यम् , 'अत इन' / केचित् दलीप रामणि, दालीपि, देवाति, दैवमति, दैवयज्ञि, प्राटा- | इति प्रकृत्यन्तरमाहुः / / 143 // हति, प्रादाइति, चाफट्टकि, आसुरि, पौष्करसादि, / तद्धितप्रथमसूत्रे अवचूरिश्लोक 681, अक्षर 18 // // इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते सिद्धहेमशब्दानुशासने षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः / / CER Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अहम् // // षष्ठोऽध्यायः॥ [द्वितीयः पादः ] - रागाट्टो रक्तं / / 6 / 2 / 1 / / लाक्षा-रोचनादिकम् / / 6 / 2 / 2 // म० वृ०-रज्यतेऽनेनेति रागः कुसुम्भादिः / म० वृ०-लाक्षारोचनाशब्दाभ्यां तृतीयान्ताः रागविशेषवाचिनो नाम्नः ट इति २'तृतीयान्ताद्रक्त- भ्यां रक्तमित्यर्थे 'इकण' स्यात् / अणोऽपवादः / मित्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययः' स्यात् / कुसुम्भेन लाक्षिकम् , रौचनिकम् / / 2 / / रक्तं वस्त्रं कौसुम्भम् , एवं काषायम् , कौल कुमम् , माञ्जिष्ठम् , हारिद्रम् / “वाधिकारात्पक्षे वाक्यं प्रव०-लाक्षया रक्तं-लाक्षिकम् / रोचनया समासश्च भवति,- कुसुम्भेन रक्तम् [वाक्यमिदम् ], रक्तं रौचनिकम् // 2 // कुसुम्भरक्तमित्यादि [समासोऽयम् ] / रागादिति शकल-कर्दमाद्वार // 6 / 2 / 3 / / किम् ? चैत्रेण रक्तम् / रागशब्देन प्रसिद्धा एव ___म० वृ०-आभ्यां तृतीयान्ताभ्यां रागविशेषकुसुम्भादयो रागा गृह्यन्ते, तेनेह न भवति,- कृष्णेन | * वाचिभ्यां 'रक्तार्थे इकण वा' स्यात् / शकलेन रक्तम् , लोहितेन रक्तम् , पीतेन रक्तम् / एते | रक्तं शाकलिकम् , शाकलम् ; [शाकलमित्यत्र हि वर्णा द्रव्यवृत्तयः, न तु रागाख्याः / कथं | 'रागाट्टो रक्ते' (6 / 2 / 1) अण्] कादमिकम् , काषायौ गर्दभस्य कर्णी, हारिद्रौ कुक्कुटस्य पादौ ; ? कार्दमम् // 3 // काषायाविव काषायौ, हारिद्राविव हारिद्रावित्युपमानोपमेयभावेन तद्गुणारोपाद् भविष्यति // 1 // / अव०-'शकलं रक्तचन्दनं चित्रवर्णो वा / रकर्दमं मदविकार: स चपाण्डदेशे प्रसिद्धः। 'पक्षे प्रव०-१शुक्लस्य वर्णान्तरापादनमिह रब्जेरर्थः, ततो रज्यतेऽनेनेति रागः कुसुम्भादिः, अन्येषामपि 'रागाट्टो' (6 / 2 / 1) अण् // 3 // उपलक्षणम् / रेट इति एकदेशेन समुदायोऽत्र लक्ष- नील-पीतादकम् // 6 / 2 / 4 // णात् / यथा पूर्व प्रागजिते अणादयः प्रोक्ताः त एवं - म० वृ०-नीलपीतशब्दाभ्यां तृतीयान्ताभ्यां अणादयोऽत्र विधीयन्ते इत्यर्थः / तद्धितोऽणादिः' रागबिशेषवाचिभ्या रक्तार्थे यथासङ्ख्यमप्रत्ययक(६।१।१) इति प्रथमपादे 'वाद्यात्' (6 / 1 / 11) इति प्रत्ययौ भवतः / नीलेन लिङ्गविशिष्टग्रहणान्नील्यारे सूत्रम् , तत्रेदमुक्तम्- “वा इति भाद्यादिति च वा रक्तं= नीलम् / पीतेन रक्तं पीतकम् / / 4 / / द्वयमप्यधिकृतं सर्वत्र वेदितव्यम्", इति 'रागाट्टो रक्ते' इति सूत्रे स एव वाधिकारो ज्ञातव्यः / अव०-'अश्व कश्च अकम् / नीलशब्दः, "द्रव्येषु कुसुम्भमञ्जिष्ठादिषु वस्तुषु वृत्तिः प्रवर्त्तनं ताच नाम्नि वा' (2 / 4 / 28) इति डी, नीलीशब्दः, / / येषां वर्णानां ते द्रव्यवृत्तयः / 'द्रव्याश्रयी गुण' इति * गुणवचनत्वात् स्वार्थे कुत्सितार्थे वा इति कप्रत्ययेवृद्धाः प्राहुः / 'अन्यथा रज्यतेऽनेनेति रागशब्दव्यु- | नापि सिद्धे 'रागाट्टो रक्ते' (6 / 2 / 1) इत्युक्ताऽणो. सत्तिर्म घटते // 1 // पवादार्थ 'नीलपीता०' इति सूत्रं कृतम् // 4 // Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०६ पा०२ सू० 5-8 उदितगुरोर्भाद् युक्तेऽन्दे // 6 / 2 / 5 / / / स एव इह कालो गाह्यः, यथा पौषमह इत्यादि / | अद्यशब्देनानेन च स्पष्टःकालो न ज्ञायते, अद्यशब्द__म० वृ०-उदितो गुरुब हस्पतियस्मिन् भे स्याधिकरणक................................. ( त्वमेवात्र, नक्षत्रे तद्वाचिनस्तृतीयान्ताद् ‘युक्तेऽर्थे यथाविहितं प्रत्यया' भवन्ति, यदि युक्तोऽर्थोऽब्दः= संव न समानाधिकरणकत्वम् ) / अद्यपुष्यः इत्यादिषु वाक्यं पूर्ववदेव, परं वाक्यप्रान्ते .......... (दिन)त्सरः स्यात् / पुष्येण उदितगुरुणा युक्तं वर्ष= रात्रिकालशब्दा न प्रयुज्यन्ते / ५फाल्गुन्य' इत्यत्र २पौषं वर्षम् , उफाल्गुनः संवत्सरः / उदितगुरोरित्येव- उदितशनिना पुष्येण युक्तं वर्षम् , अत्र ‘फल्गुनीप्रोष्ठपदस्य भे' (2 / 2 / 123) इत्यनेन बहु बद्भावः, ततो बहुवचनम् / / 6 / / नाण् / भादिति किम् ? उदितगुरुणा पूर्वरात्रेण युक्तं वर्षम् // 5 // द्वन्द्वादीयः // 6 / 2 / 7 // म० वृ०-चन्द्रयुक्तं यन्नक्षत्रं तद्वन्द्वात् तृती-.. ___ अव०-"प्राजिता०' (6 / 1 / 13) अण् उक्तः, यान्तात युक्ते 'कालेऽर्थे ईयः' स्यात् / 'राधानुरासोऽत्रापीत्यर्थः / पौषमित्यत्र तिष्यपुष्ययो णि' धाभिश्चन्द्रयुक्ताभिर्युक्तमहः = राधानुराधीयमहः , ( 2 / 4 / 90) इत्यनेन यलोपः / फिल्गुनशब्दः, 'गौरादि०' (2 / 4 / 11) डी, फल्गुनी, फल्गुनीभिरु अद्य राधानुराधीयम् // 7 // दितगुरुभियुक्तः फाल्गुनः / पूर्वो रात्रेः, 'पूर्वा पराधरो०' (3 / 1 / 52) इति समासः, 'सङ्ख्यातैक प्रव०-राधाश्च अनुराधाश्चराधानुराधाः , पुण्यवर्षादीर्घाञ्च रात्रेरत्' (7 / 3 / 119) // 5 // ततो राधानुराधाभिरित्यादि, 'चन्द्रयुक्तात्काले०' (6 / 2 / 6 / इत्यण ), राधाविशेषो अनुराधा, अनुचन्द्रयुक्तात्काले लुप् त्वप्रयुक्ते // 6 / 2 / 6 // राध (? धा) नक्षत्रम् / राधानुराधीयमित्यस्यारो म. वृ०-'चन्द्रेण युक्तं यन्नक्षत्रं तद्वाचिन- एवं तिष्यपुनर्वसवीया रत्रिः, अद्य तिष्यपुनर्वसवीस्तृतीयान्तात् युक्तेऽर्थे' यथाविहितं प्रत्यया भवन्ति; यम , तिष्यश्च पुनर्वसू च तिष्यपुनर्वसू, 'पुष्यार्था'यदि युक्तोऽर्थः कालः' स्यात् ; 'अप्रयुक्ते तु काल- द् भे पुनर्वसुः' (3 / 1 / 129 ) इति पुनर्वसुशब्दस्य वाचके शब्दे 'लुप्' स्यात् / पुष्येण चन्द्रयुक्तेन एकत्वम् , तिष्यपुनर्वसुभ्यां चन्द्रयुक्ताभ्यां युक्ता युक्तमहः पौषमहः ; एवं पौषः कालः, पौषी रात्रिः, रात्रिः तिष्यपुनर्वसवीया रात्रिः, तिष्यपुर्नवसुभ्यां पौषोऽहोरात्रः,२ माघमहः,3 माघी रात्रिः, माघः युक्तं मुहूर्त तिष्यपुनर्वसवीयम , 'क्लीबे' (2 / 4 / 97) काल: / लुप्त्वप्रयुक्ते,- 'अद्य पृष्यः, अद्य मघाः, ह्रस्वः // 7 // . दिवा कृत्तिकाः, रात्री फल्गुन्यः / चन्द्रयुक्तादिति किम् ? शुक्रयुक्तेन पुष्येण युक्तः कालः | काले श्रवणा-ऽश्वत्थानाम्न्यः / / 6 / 2 / 8 // इति किम् ? चन्द्रयुक्तेन पुष्येण युक्तो ग्रहः म. वृ०-चन्द्रयुक्तनक्षत्रवाचिनः श्रवणशब्दात् [मङ्गलादिः // 6 // अश्वत्थशब्दाच्च [ तृतीयान्तात् ] युक्त काले 'अः प्रत्ययो' भवति, नाम्नि प्रत्ययान्तं चेत् कस्यचित् अव०-अणप्रत्ययस्य लोपो भवति / २अहश्च कालविशेषस्य नाम भवति / श्रवणेन चन्द्रयुक्तेन रात्रिश्च= अहोरात्रः, 'ऋक्सामय॑जुष०' (73 / 97) / युक्ता-श्रवणा रात्रिः, श्रवणा पौर्णमासी, श्रवणो इत्यादिना अत् / अहन् , प्रथमासिः, 'अनतो लुप्' / मुहूर्तः। अश्वत्थेन चन्द्रयुक्तेन युक्ता='अश्वत्था (1 / 4 / 59) सिलोपः, ‘रो लुप्यरि' (2 / 175) इति रात्रिः, अश्वत्था पौर्णमासी, अश्वत्थो मुहूर्तः / नानस्य र / यद्यपि 'अद्य पुष्य' इत्यत्रापि कालोऽस्ति, म्नीति किम् ? श्रावणमहः, श्रावणी रात्रिः ; आश्वतथापि प्रत्यासत्तेः प्रत्ययवाच्यो यो मुहूर्तादिः / त्थमहः, आश्वत्थी रात्रिः // 8 // Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समूहार्थप्रत्ययाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [295 प्रव०-'अश्वत्था अश्विनिरुच्यते / अश्वत्था | मूहः / प्रेष्यम्=आज्ञाकारी। तस्य यौवनम् ,यूनोभावो= आश्विनी पौर्णमासीति, आश्वयुजपूर्णिमा, आश्विनमा- | यौवनम् , 'युवादेरण' (71 / 67) / औलुक्यस्य गोसस्य पूर्णिमा तिथिरित्यर्थः / / 8 / / त्रोक्ष०' (6 / 2 / 12) इत्युत्तरेणाकर प्राप्नोति तद्वा धनार्थमत्र पाठः / "भिक्षि याचनायाम्' भिक्षणं ___षष्ठयाः समूहे // 6 / 2 / 9 // भिक्षा, ‘क्तेटो गुरो०' (2 / 3 / 106) इत्या , आप् ; म. वृ०-'षष्ठयन्तानाम्नः 'समूहेऽर्थे' २यथा भिक्षाणां समूहः / ३तथा गर्भोऽस्त्यासाम् , 'अतोविहितं प्रत्ययाः स्युः / गोत्रादकञ् , अचित्तादि- ऽनेकस्वरात' (72 / 6 ) इन , गर्भिणीनां समूहः / कण, केदाराण्ण्यश्चेत्येवमादयः। ततोऽन्यदिहो गर्भिणीशब्दो मेघमालाशालिपङ क्त्यादिषु * अर्थेषु दाहरणं द्रष्टव्यम् / चाषाणां समूहश्चाषम् ,एवं का वर्त्तते, (अतः) अचित्तविशेषवाचित्वात् इकण उत्तरकम् , बाकम् , "शोकम् , भैक्षुकम् , वानस्प सूत्रेण प्राप्नोति इत्यत्र पाठोऽणर्थः, 'जा....... त्यम् , प्रणम् , 'पौंस्नम् / / 9 / / ..... (तिश्च णितद्धितयस्वरे' इति पुवद्भावे सति, 'संयोगादिनः' इत्यन्तलोपप्रतिषेधः। गर्भवतीस्त्रीवअव०-१'षष्ठयाः समूहे' (6 / 2 / 9) इत्यारभ्य 'पुरुषात् कृतहित०' ( 6 / 2 / 29) इत्यन्तं यावत् सूत्र चनात्तु इकणोऽप्राप्तेरौत्सर्गिक एवाण) // 10 // 21 समूहार्थप्रत्ययाधिकारः / यथा 'प्राजिता०' क्षुद्रकमालवात्सेनानाम्नि // 6 // 2 // 11 // (6 / 1 / 13) सूत्रेणादय उक्तास्त एवात्राणादयो ज्ञेयाः। म० वृ०-क्षुद्रकमालवशब्दात् समूहे 'यथाविएवं काकानाम , ४बकानाम, शुकानाम, भिक्ष हितमण' स्यान , सेनाया नाम्नि / क्षौद्रकमालवी, णाम् , वनस्पतीनाम् , स्त्रीणाम् , 'पुंसां समूहः। एवंनामा काचित्सेना // 11 // 'वानस्पत्यम्', 'अनिदम्यण' (6 / 1 / 15) इति व्यः / 8. 'प्राग्वतः स्त्रीमा०' (6 / 1 / 25) इति नत्र -स्नन् . प्रव०-क्षुद्रकाः शस्त्रजीविसङ्घः, क्षुद्रकाणां // 9 // राजानः, क्षुद्रकस्यापत्यानि वा-राष्ट्रक्षत्रिया०' (6 / 1 / भिक्षादेः / / 6 / 2 / 10 // 114) इति अज , अथवा 'शस्त्रजीविसङ्घा०' (7 // 3 // म० वृ०-भिक्षादिभ्यः ‘समूहेऽर्थे यथाविहितं 62) न्यट् , 'बहुष्वस्त्रियाम्' (6 / 1 / 124) लुप् , एवं माल................(वानांराजानोऽथवामाल)वस्यापप्रत्ययः' स्यान / 'भिक्षाणां समूहो भैक्षम् , रंगाभिणम् / अचित्तेकणो बाधनार्थ वचनम् // 10 // त्यानि- 'दुनादि०' (6 / 1 / 118) इति व्यः, 'बहुष्व०' इति लुप, क्षुद्रकाश्च मालवाश्च ते ..." (क्षुद्रकमालवास्तेषांस अव०-भिक्षा.भिक्षशब्दोऽकारान्तोऽप्येके प्रा // 11 // हुः, गर्भिणी, युवति, क्षेत्र, करीष, अङ्गार, चर्मन् , गोत्रोक्ष-वत्सोष्ट-वृद्धाजोरभ्र-मनुष्य-राजवर्मन् , चर्मिन , वर्मिन , पद्धति, सहस्र, अथर्वन् , दक्षिणा, खण्डिक, युग, त्रस्रा. युगवस्रा, हल,बन्ध, राजन्य-राजपुत्रादका // 6 / 2 / 12 / / हलबन्ध, औलुक्य इति भिक्षादिः / युवतेरण सिद्ध म० वृ०-स्वापत्यसन्तानस्य स्वव्यपदेशकारिणः एव, पुंवद्भावबाधनार्थस्तु अत्र गणे पाठः / अन्ये तु प्रथमपुरुषस्यापत्यं गोत्रम / गोत्रप्रत्ययान्तेभ्यः उक्षाअत्र गणे युवतिशब्दं न पठन्ति, तन्मते पुवद्भावे दिभ्यश्च ‘समूहेऽकञ्' स्यात् / अणोऽपवादः / सति युवतीनां समूहो यौवनमित्येव प्रयोगः / गोत्र,- औपगवानां समूहः औपगवकम् , 'गार्गकम्, 'सुरूपमतिनेपथ्य, कलावु शलयविनम्। गाायणकम् ; उक्षन् ;-औक्षकम् , वात्सकम् , औष्ट्रयस्य पुण्यकृतः प्रेष्यं, सफलं तस्य यौवनम् // 1 // कम् , वार्द्धकम् , आजकम् , औरभ्रकम् , 'मानुष्यकम्, अतिनेपथ्यम्=अतिशायिवेषं सालङ्कारम् / युवतीनांस | राजकम् , राजन्यकम , राजपुत्रकम् // 12 // Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 6 पा०२ सू०-१३-१७ प्रव०-गर्गस्यापत्यानि, 'गर्गादेर्यम्' (6 / 1 / | 'केदाराण्ण्यश्च' (6 / 2 / 13) इत्यनेन एयाकञ्भ्यां 42), 'यषयोऽश्यापर्णा०' (6 / 1 / 126) इति यञ् / बाधो मा भूदिति (केदारात् ) 'कवचिहस्त्यः' इति लुप्यते, ततो गर्गाणां समूहो गार्गकमिति लघुवृत्त्य- सूत्रे इकविधानम् , अतः केदारस्य त्रैरूप्यं सिद्धम् भिप्रायः / बृहद्वृत्तौ त्वेवम् ,- गाग्र्याणां समूहो // 14 // गार्गकम् , 'गोत्रोक्षः' इति अकय् , 'न प्राग्जितीये.' धेनोरनाः // 6 / 2 / 15 / / (6 / 1 / 135) इति प्रतिषेधाद् यत्रो न लुप् , ततः __म० वृ-धेनुशब्दात् समूहे 'इकण्' स्यात् , यदि 'तद्धितयस्वरेऽनाति' (2 / 4 / 92) इत्यनेन यकारो धेनुर्नपरो न भवति / धेनूनां समूही-धैनुकम् / लुप्यते / मनुष्य राजन्यशब्दावौणादिकावेव ज्ञेयो, अगर इति किम् ? अधेनूनां समूहः आधैनवम्, अन्यथा गोत्रद्वारेण सिद्धम् / २'बुधि मनिं च ज्ञाने' उत्सादित्वादञ् / धेनोरना इति प्रतिषेधो लिङ्गम् (इति) मन् , मन्यते-जानाति हेयोपादेयविभागमिति ज्ञापकम]- "समूहे तदन्तस्यापि भवति प्रत्ययः", मनुष्यः, 'शिक्यास्या०' (उ.३६५) इति उणादिसूत्रेण तेन [ब्राह्मणाश्च राजन्याश्व ब्राह्मणराजन्याः, ब्राह्मणनिपातः, निपातनात यः प्रत्ययः, उप अन्तः। 3 हिर- राजन्यानां समूहः=] ब्राह्मणराजन्यकम् , वानहस्तिण्यपर्जन्यादयः' ( उ.३८० / इत्युणादिना निपातः / कम , गौधेनुकम् / / 15 / / अत्राकभि सति 'न राजन्यमनुष्ययोरके' (2 / 4 / 94) इति यलोपप्रतिषेधः / "नोऽपदस्य०' (7 / 4 / 61) अव०-ऋवर्णोवर्णदोसि०' (7 / 4 / 71) इत्याइति अनो लुप्यते // 12 // दिना इकस्य इलप्यते। न धेनवोऽधेनवः, ततोऽधेनूकेदाराण्ण्यश्च // 6 // 2 // 13 // नां समूह इति / 'अनुशतिकादीनाम्' (7 / 4 / 27) उभयपदवृद्धिः // 15 // म. वृ०-केदारशब्दात् समूहे ‘ण्योऽकञ्च' ब्राह्मण-माणव-वाडवाद्यः / 6 / 2 / 16 / / स्यात् / अचित्तेकणोऽपवादः / कैदायम् , केदारकम् म० वृ०-एभ्यः समूहे 'यः' स्यात् / ब्राह्मण्यम , // 13 // माणव्यम् , वाडव्यम् // 16 / / कवचि-हस्त्यचित्ताच्चेकण् // 6 / 2 / 14 // अव-ब्रह्मणोऽपत्यं ब्राह्मणः, 'सोऽपत्ये' म०७०-कवचिन्हस्तिनशब्दाभ्यामचित्तवाचि- (6 / 1 / 28); तथा मनु, मनोरपत्यं कुत्सितं मूढंभ्यश्च [शब्देभ्यः चकारात् ] केदाराच्च समूहे 'इकण' 'माणवः कुत्सायाम्' इति अण् , नकारस्य णः, अस्वस्यात् / 'कावचिकम् / हस्तिनां लिङ्गविशिष्स्यापि यम्भुवोऽव्' (74 / 70) इत्यव ; उबडवाया अपत्यं= ग्रहणात् हस्तिनीनां वा समूहो हास्तिकम् / अचि- वाडवोऽश्वो विप्रो वा; ततो ब्राह्मणानां समूह इत्यादि त्तात् ,- आपूपिकम , "शाष्कुलिकम् / केदारात्,- // 16 // कैदारिकम् // 14 // गणिकाया ण्यः / / 6 / 2 / 17|| म० वृ०-गणिकाशब्दात् समूहे 'ण्यः' स्यात् / अव०-कवचान्येषां सन्ति, 'अतोऽनेकस्वरात' (72 / 6 ) इन , कवचिनां समूहः / गाणिक्यम् / / 17 / / २"जातिश्च णि०' (3 / 2.51) इति पुंवद्भावः, 'नोऽ- | अव०-ब्राह्मणादीनां यप्रत्ययविधानं बद्भावार्थम् , पदस्य तद्धिते' (7 4 / 61) इन्लोपः / 'उआपूपिकम्', / तथाहिं- ब्राह्मणाः प्रकृता अस्यां यात्रायाम्- 'तयोः भत्र 'अशश भोजने' अश्यते जनै:-'अश ऊपः पश्च' | समूहवञ्च बहुषु' (7:363) इति सूत्रेण यः प्रत्ययः, (उ. 312) इत्युणादिना ऊपप्रत्ययः, शस्थाने पः, बाह्मण्या यात्रा यस्य स ब्राह्मण्ययात्रः, एषु 'परतः अपूपानां समूहः आपूपिकम् / 'शष्कुलीनां समूहः। / स्त्री पुवत्०' (3 / 2 / 49) इत्यनेन पुवद्भावो भवति, Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [299 समूहाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / ब्राह्मणादीनां ण्यप्रत्यये हि सति तद्धितः स्वरवृद्धिः' / म०७०-पृष्ठात्समूहे ऋतौ" हातिश्च णितद्धित०' (3 / 2 / 55) इत्यनेन पुवद्भावो न स्यात् , यथा | ठानां समूहः-पृष्ठयः क्रतुः / [क्रतादि गाणिक्यायात्रः, अयं विशेषो 'गणिकाया ण्य' इति | कम्] पृष्ठशब्दोऽहःपर्यायः // 22 // सूत्रे ज्ञातव्यः। गणयति धनागममिति गणिका, चरणाद्धर्मवत् / / 6 / 2 / 23 // 'कारेणकः, गणिकानां समूहोगाणिक्यम् // 1 // म. वृ०- चरणं कठकलापादि, तस्माद् यथा केशाद्वा // 6 / 2 / 18 // धर्मे प्रत्यया भवन्ति तथा समूहेऽपि / वत् सर्वम. वृ०-केशात् समूहे ‘ण्यः' - स्यात् वा / / सादृश्यार्थः, तेन यकाभ्यः प्रकृतिभ्यो यः प्रत्ययो कैश्यम् , कैशिकम् // 18 // यथा धर्मे भवति, ताभ्य एवं प्रकृतिभ्यः स एव अव०-'कैशिकम् ', भत्र अचित्तलक्षण इकण प्रत्ययः तथैवेह भवति ; यथा कठानां धर्मः काठ॥१८॥ कम् . कालापकम् , तथा समूहेऽपि- काठकम् , ___ वाऽश्वादीयः / / 6 / 2 / 19 // कालापकम् / / 23 / / म. वृ०-अश्वात्समूहे 'ईयो वा' स्यात् / अश्वी- प्रव०-कठाः, कटेन प्रोक्तं वेदं विदन्त्यधीयते य, आश्वम् / / 19 / ) वा कठाः इति वाक्यं पूर्व 'तेन प्रोक्त' (6 / 3 / 181) प्रव.-'आवम् ,' अत्र 'पठ्याः इत्यनेन अण् , अस्याप्यणोऽने 'तद्वेत्त्यधीते' (6 / 2 / समूहे' (6 / / 117) इत्यनेन अण क्रियते, एवमण लुप्यते, इति 2 / 9) अण् // 19 // कठः प्रकृतिः, ततः कठानां धर्म आम्नायः सद्धो वा पर्धा ड्वण // 6 / 2 / 20 // काठकः, 'चरणादकम' (631168) इति सूत्रेण म० वृक्ष-पशू शब्दात् समूहे 'ड्वण' स्यात् / अफा , काठक इति निष्पन्नः, तथा समूहेऽप्यर्थे इकणोऽपवादः / 'पशूनां समूहः पार्श्वम् / / 20 / / काठकः, साम्प्रतं कठानां सम्हे 'चरणाद्धर्मवत्' इति अकञ् // 23 // . प्रव-पार्थास्थिवाचकात् पशुशब्दात् ऊह, गो-रथ-वातात् त्रल-कट्यलूलम् // 6 / 2 / 24 // पशू, पशूनां राजानोऽपत्यानि वा- 'पुरुमगध' (6 / 1 / 116) इत्यण् , 'देरवणो०' (6 / 1 / 123) इति म० वृ०-गोरथवातशब्देभ्यः समूहे यथासअणो लोपः, ततः 'उतोऽप्राणिनश्चा०' (2 / 4 / 73) य'त्रल् , 'कटयल , ऊल' इति प्रत्यया भवन्ति / इति ऊस, ततः पशूनां समूह इति कार्यम् / / 20 / / [गवां समूहः= गोत्रा, रथकटया, वातूलः / लका रौ स्त्रीत्वार्थी // 24 // ईनोऽह्नः क्रतौ // 6 / 2 / 21 // पाशादेश्च न्यः // 6 / 2 / 25 / / - म० वृ०-अइन्शब्दात् समूहे क्रतौ वाच्ये म०व०-'पाशादिभ्यो गोरथवातेभ्यश्च सम्'ईनः' स्यात् / अहां समूहोऽहीनः क्रतुः। क्रताविति हे 'ल्यः' स्यात् / 'इकणादेरपवादः / पाश्या, "त. किम् ? आमन्यत् // 21 // ण्या, रथ्या, वात्या लकारः खीत्यार्थः / / 25 / / प्रव०-'अह्रां समूहः आह्वम् , 'श्वादिभ्योऽन्' प्रव-पाश, तृण, खल, धूम, वात, गो, (6 / 2 / 26), अनीनाऽदव्यहोऽतः' (7 / 4 / 66) इति अङ्गार, पोटगल, पिटक, पिटाक, शकट, हल, नल, सूत्रेणाहनशब्दस्य हस्य अकारो लुप्यते // 21 // वन इति पाशादिगणः / भिक्षादिपाठादङ्गारहलाभ्यां पृष्ठाद् यः // 62 / 22 // परतोऽणपि- आङ्गारम् , हालम् / 'कवचिहस्त्य०' Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०६ पा० 2 सू० 26-31 (6 / 2 / 14) इत्युक्तेकणः भिक्षादेरित्युक्ताऽणः द्वयो- त्ययाः स्युः / द्रव्यस्यावस्थान्तरं विकारः / अश्मनो रप्ययं योगो बाधकः / पाश्यते बध्यते एभिः प्रा- | विकारः= आश्मनः, २आश्मः; भास्मनः, मातिणिनः इति पाशः, पाशानां समूहः पाश्या। तृणा- कः, "आर्द्धः, हालः, गतः // 30 // नाम् , 'रथानाम् , वातानां समूहः / ( एवं ) खल्या, गव्या॥२५॥ अव०-'प्रत्यया इत्यत्र बहुवचनात् कलेर्वि कारः कालेयः, 'कल्यग्नेरेयण' (6 / 1 / 17); उत्सस्य श्वादिभ्योऽञ् // 62 / 26 / / विकारः औत्सः, 'उत्सादेर' (6 / 1 / 19); स्त्रीणां म० वृ०-श्वनप्रकारेभ्यः समूहे 'अब ' स्यात्। विकारः-खणः, पुंसां विकारः पौंस्नः, 'प्राग्वतः शूनां समूहः-शौवम् ,अह्नां समूहः आह्नम् , [दण्डि- स्त्रीपुंसा'० (6 / 125 ) इत्यादयोऽपि वेदितव्याः / नां समूहः= ] दाण्डम् , चाक्रम् / श्वादयः प्रयोग- २'वाऽश्मनो विकारे'(७।४।६३) इति विकल्पेनान्त्यगम्याः // 26 // स्वरादिलोपः / उभास्मन' इत्यत्र 'अणि' (74 / 52) / इति निषेधः। 'अर्द्धस्य विकारः। “त्रिगर्त्तानां प्रव०-अणैव सिद्ध 'नोऽपदस्य तद्धिते' (7 | विकारः, 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160 ) इत्येव इकणादि४६१) इत्यन्त्यस्वरादिलोपार्थ श्वादिभ्यो वचनम् , सिद्धौ अर्द्धादिशब्देषु विकारेऽर्थे सति अणपवादअणपवादबाधनार्थ च / अन्यथा 'अणि' (74 / 52) | बाधनार्थ विकारे इति वचनं कृतम् // 30 // इत्यादिसूत्रैरन्त्यस्वरादिलोपप्रतिषेधः स्यात् // 26 // प्राण्यौषधिवृक्षेभ्योऽवयवे च // 6 / 2 / 31 / / 'खलादिभ्यो लिन् // 6 / 2 / 27 // ___म० वृक्ष-प्राणिन-औषधि-वृक्षवाचिभ्योम० वृ०-खलप्रकारेभ्यः समूहे 'लिन्' स्यात्। ऽवयवे विकारे चार्थे 'यथाविहितं प्रत्ययाः' स्युः / लः स्त्रीत्वार्थः / खलानां समूहः-खलिनी। पाशा- कापोतं सक्थि , कापोतं मांसम् / औषधि,- दीव दित्वाल्लयोऽपि- खल्या / खलादयः प्रयोगगम्याः।२७। काण्डम् , दौर्व भस्म / वृक्ष,- कारीरं काण्डम् , ग्राम-जन-बन्धु-गज-सहायात्तल् // 6 / 2 / 28 // कारीरं भस्म / प्राण्यौषधिवृक्षेभ्य इति किम् ? _म० वृ०-एभ्यः समूहे 'तल्' स्यात् / लः स्त्री. पाटलिपुत्रकः प्राकारः,- पाटलिपुत्रकाः प्रासादाः / त्वार्थः / प्रामाणां समूहो-ग्रामता,जनता, बन्धुता, ग इतः परं 'विकारे' 'प्राण्यौषधिवृक्षेभ्योऽवयवे च'जता, सहायता // 28 // इति द्वयमप्यधिक्रियते, तेनोत्तरे प्रत्ययाः प्राण्यौ षधिवृक्षेभ्योऽवयवविकारयोः [ अर्थयोः ] अन्येभ्यपुरुषात् कृत-हित-वध-विकारे चैयत्र स्तु विकारमात्रे [अर्थे भवन्तीति ज्ञेयम् / / 31 / / / 6 / 2 / 29 / / म. वृ०-पुरुषशब्दात् कृते हिते वधे विका- अव०-प्राणिनामौषधिवृक्षाणां मिथो विशेषो रेऽर्थे चकारात् समूहेऽर्थे 'एयन्' स्यात् / कृतादौ लिख्यते,- प्राणिनश्चेतनावन्तः, औषधयः फलपायथाविधानं विभक्तियोगः। पुरुषेण कृतः पौरु- कान्ताः, वृक्षाः पुष्पवन्तः फलवन्तश्च / कोऽर्थः ? ये यो ग्रन्थः। पुरुषाय हितं-पौरुषेयमाई शास- पुष्पित्वा फलति (फलन्ति ?) ते वृक्षाः वृक्षविशेषनम् / पुरुषस्य वधः-पौरुषेयः / पुरुषस्य विकारः= स्वात् , एकदेशेन फलवत्तया .... .. ( ऐक्यम् , पौरुषेयो विकारः / पुरुषाणां समूहः-पौरुषेयम् / 29 / न तु पुष्पवत्तया अतो वनस्पतिवीरुधामपि ) वृक्षणविकारे // 6 // 2 // 30 // हणेन ग्रहणं भवति / पुष्पैर्विना फलवान वृक्षो वन स्पतिरुदुम्बरादितिव्यः / वीरुधो लता गुल्माश्च / म० वृ०-पष्ठयन्ताद्विकारे 'यथाविहितं' 'प्र- | तत्र लताः केतकाद्याः, गुल्माश्च सस्तूपाः वंशेक्षु Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारार्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [299 प्रभृतयः / प्राणिग्रहणेनैव चेतनावत्त्वेन वृक्षौषधि- अव०–'औष्ट्रिका' इत्यत्र 'जातिश्च णितद्धित०' ग्रहणे सिद्धे तदुपादानमिह"........... शास्र (3 / 2 / 51) इत्यादिना पु वद्भावः / / 36 / / प्राणिग्रहणेन वसा एव) प्राणिन: गृह्यन्ते, न च उमोर्णाद्वा / / 6 / 1 / 37 // स्थावराः इति ज्ञापनार्थम् / पाटलिपुत्रस्यावयवः= पाटलिपुत्रकः, पाटलिपुत्रस्यावयवाः पाटलिपुत्रकाः म० वृ० -उमा-उर्णाशब्दाभ्यां यथासम्भवं विकारेप्रासादाः; अस्मिन् वाक्येऽवयवोऽपि इदमर्थो विव ऽवयवे वा- 'ऽकम 'स्यात् वा / औमकम् , औमम्।। क्षितः कल्पनीयः, ततः 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) इति और्ण म , 'और्णः कम्बलः // 37 // सूत्रप्रत्ययप्राप्तावपि 'रोपान्त्यात्' (6 / 3 / 42) इति सूत्रस्य विशेषविधिप्रत्ययविध- 'रोपान्त्यात्' इत्य प्रव०-उमा अतसी, तस्या विकारोऽवयवो नेनैव अकन् प्रत्ययो भवति अत्रोदाहरणे. वा औमकम् , औमम् / उर्णा या विकार और्णः इत्यर्थः ( ? ) // 31 / / इत्यत्र 'विकारे' (6 / 2 / 30) इत्यनेन अण् // 37 // तालाद्धनुषि // 6 / 2 / 32 // एण्या एयञ् / / 6 / 2 / 38 // म० वृक्ष-तालशब्दानुषि विकारे-'ऽण् स्यात् / म० वृ०-'एणीशब्दाद्विकारेऽवयवे (वा) 'एयन्' दुलक्षणस्य [‘दोरप्राणिनः' (6 / 2 / 49) इत्युक्तस्य] स्यात् / 'अणोऽपवादः / ऐणेयं मांसम् , ऐणेयी मयटोऽपवादः / तालस्य विकारः नालं धनुः / जङ्घा / // 38 // धनुषीति किम् ? तालमयं काण्डम् ['दोरप्राणिनः' __ अव-प्राण्योषधिवृक्ष'० (6 / 2 / 31) इत्युइति मयट] // 32 // |. क्तस्याणः / 'एण्या एयन्त्र' इति सूत्रे स्त्रीलिङ्ग एणी * पुजतोः पोऽन्तश्च / / 6 / 2 / 33 / / इति निर्देशात् पुल्लिङ्गणशब्दादणेव भवति, यथाम. वृ०-त्रपुजतुशब्दाभ्यां विकारे-'ऽण' | ऐणं मांसम् , ऐणी जङ्घा ; अत्र 'प्राण्यौषधि'० इत्यण स्यात् / तयोश्च षोऽन्तः / त्रापुषम् , जातुषम् // 33 / / // 38 // - शम्या लः // 6 / 2 / 34 // कोशेयम् / / 6 / 2 / 39 // म. वृ०-शमीशब्दाद्विकारेऽवयवे चा- 'ऽण्' | ___ म० ०-कोशाद्विकारे 'एयरा' निपात्यते / स्यात् , तद्योगे च लोन्तः / शम्या विकारोऽवयवो कोशस्य विकारः कौशेयं वस्त्र सूत्रं (वा) // 39 / / षा-शामीलं भस्म / शामीली शाखा // 34 // प्रव०-निपातनं रूढयर्थम् , तेन वस्त्रसूत्रयोपयो-द्रोर्यः / / 6 / 2 / 35 / / र्वाच्ययोः कोशा देयन, अन्यत्र भस्मादौ न एयत्र // 39 // म० वृ०-पयस्- दुशब्दाभ्यां विकारे 'यः' स्यात् / पयसोऽणोऽपवादः,द्रोरेकस्वरमयटः / पयसो विकारः परशव्याद् यलुक् च / / 6 / 2 / 40 // =पयस्यम् / द्रोर्दारुणो विकारो द्रव्यम् [ 'अस्वय- म०व०-परशव्याद् विकारे 'यथाविहितमण' म्भुवोऽव्' / 7 / 4 / 70 / ] // 35 // स्यात् , यकारस्य च लुक् / परशव्यस्यायसो विकारः उष्ट्रादका // 6 / 2 / 36 // पारशवम् / अण् सिद्ध एव, यलुगर्थे वचनम् // 40 // म० वृ०-उष्ट्राद्विकारेऽवयवे चा'-ऽकन्' स्यात् / अव०-परशु, परशवे इदं-परशव्यम् , उवर्णउष्ट्रस्य उष्ट्रया वा विकारोऽवयवो वा औष्ट्रकं मांसम् / युगादेर्यः' (71 / 3 ) इति यः, 'अस्वयंभुवोऽव्' भौष्ट्रिका जङ्घा // 36 // (74/70) इति अव् // 40 // Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [भ० 6 पा० 2 सू० 41-45 कंसीयाभ्यः / / 6 / 2 / 41 // म. वृक्ष-'मानवाधिनः शब्दाद्विकारे 'क्रीत वत् प्रत्ययविधि'-भवति / शतेन क्रीतं शत्यम् , म. वृ०-कंसीयाद्विकारे 'भ्यः' स्यात् , तद्योगे शतिकम् ; शतस्य विकारः शत्यः, शतिकः; [अनुक्र'यकारस्य लुक्' च / कांस्यम् / / 4 / / मेण यप्रत्यय इकप्रत्ययः] एवं 'साहस्रः / वत् अव०-कंस, कंसाय इदं कांसीयम् , 'परिणा सर्वविधिसादृश्यार्थः, तेन लुबादिकस्याप्यतिदेशो मिनि तदर्थे' (7 / 1 / 44) इति सूत्रेण ईयः, कंसीय- भवति-द्विशतः, द्विसहस्रः // 44 // स्य विकारः कांस्यम् / / 41 // 'हेमार्थान्माने // 6 / 2 / 42 // अव०-'मीयते-परिच्छिद्यते वस्तु येन तन्मा नम् / पदार्थस्य इयत्तापरिन्छित्तिहेतुः सङ्ख म. वृ०-हेमवाचिनः शब्दान्माने विकारे वाच्ये यादिरुच्यते / यथा क्रीतेऽर्थे 'शतात्केवलादत'यथाविहितमण्' स्यात् / दोरप्राणिनः' (6 / 2 / 49) | स्मिन् येकौ' (6 / 4 / 131) इति सूत्रेण य-इकौ, यथा इति] दुमयटोऽपवादः / हाटकस्य विकारो हाटको च सहस्रशब्दात् 'सहस्रशतमानादण' (6 / 4 / 136) रनिष्कः, हाटकं कार्षापणम् ; हेमो निष्कः, हैमं इति अण् , यथा च निष्काशब्दात् 'मूल्यैः क्रीते' (6 / "कार्षापणमत्र परत्वाद् ['हेमादिभ्योऽन्' (6 / 2 / 45) 4 / 150) इतीकण , तथा 'मानाक्रीतवत्' इत्यपि इति] हेमादिलक्षणोऽव्येव / मान इति किम् ? हाट- विकारे प्रत्ययविधौ प्रवर्त्तते इत्यर्थः / शतेन क्रीतकमयी यष्टिः [दोरपाणिनः' (6 / 2 / 49) इति मस्मिन् वाक्ये 'शतात्केवला'० इत्यनेन यप्रत्यय मयट ] // 42 // इकप्रत्ययश्च / 'सहस्रण क्रीतः सहस्रस्य विकारो प्रव०-हेमं हेमो हेम वाऽर्थो यस्य स हेमार्थः / वा साहस्रः, 'सहस्रशतमानादण', एवं नैकिकः / भष्टोत्तरपलशतं निष्कः / हेमन् शब्दः, हेम्नो द्विशतः, त्रिशतः , द्विसहस्रः,द्विसाहस्रः; द्विनिष्कः, विकारो हैमो निष्कः, हैमं कार्षापणम् ; हेमादियो द्विनैष्किकः; एषु उदाहरणेषु लुपोऽतिदेशो दयते द्वाभ्यांशताभ्यां क्रीत:- 'शताद्यः' (6 / 4 / 245) इति ऽञ्' इति सूत्रेण अब् , 'नोऽपदस्य तद्धिते' (74 / 61) इति अन् लुप्यते, यदि च 'हेमार्थान्माने' इति सूत्रेण विकल्पेन यः क्रियते, एकत्र यः, परं तस्य सूत्रेण अण् स्यात् तदा 'अणि' (74 / 52) इति यप्रत्ययस्य विधानबलात् लुप् न भवति इति हेतोः सूत्रेण अन्त्यस्वरादिलोपप्रतिषेधः स्यात् , हैममिति 'संङ्ख्याडते'० (6 / 4 / 130) इत्यनेन कप्रत्ययः, न सिद्धयत इति अव / एवं जातरूपो निष्कः, एव कार्यः, 'संख्याडतेश्चाश०' इत्यनेन कप्रत्ययः 'अनाम्न्यदिः प्लुप्' (6 / 4 / 141) इति सूत्रेण कप्रजातरूपं कार्षापणम् / / 42 // त्ययो लुप्यते, ततो द्विशतः, त्रिशत इति सिद्धम् ; द्रोर्वयः // 6 / 2 / 43 / / तथा द्वाभ्यां सहस्राभ्यां क्रीतः- 'सहस्रशतमानाम. वृ०-द्रशब्दान्माने विकारे 'वयः' स्यात् / दण्' (6 / 4 / 136) इत्यनेन अण् , 'नत्राणः' (6 / 4 / यस्यापवादः / दुवयं मानम् // 43 / / 142) इति सूत्रेण विकल्पेन अण् लुप्यते, यत्राणो लोपः तत्र द्विसहस्रः इति भवति, यत्र अण् स्थितः प्रव०-द्रोविकारो दुवयम् / पयोद्रोर्यः' (6 / 2 / तत्र 'मानसंवत्सरस्याशाणकुलिजस्यानाम्नि' (74 / 35) इत्यनेन धिकारे यः प्रत्ययः, 'द्रोय' इत्यनेन 19) इति सूत्रेण उत्तरपदवृद्धिः ; एवं द्विनिष्कः, च माने विकारे वयः प्रत्ययः, माने विकारे 'द्रोय' द्विनैष्किकः // 44 // इदमेव प्रवर्त्तते // 43 // हेमादिभ्योऽज // 6 / 2 / 45 // मानात् क्रीतवत् / / 6 / 2 / 44 // म० वृ०-हेमादिशब्देभ्यो यथारों विकारेऽ. Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभक्ष्याच्छादनाधिकारः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [301 "षयवे चार्थे 'नित्यमय' स्यात् / हेम्नो विकारो= म० वृ०-शरादिभ्यो यथायोगं भक्ष्याच्छादनहैमं धनुः, हैमी यधिः, राजतः / / 45 / / वर्जिते विकारेऽवयवे च नित्यं 'मयट 'स्याद् / अणो ऽपवादः / शरमयम् , दर्भमयम् , कूदीमयम् , तृणप्रव०-हेमन् , रजत, उदुम्बर, नीवुदार, रोही मयम् , सोममयम् , वल्बजमयम् // 47 // तक, विभीतक, कण्डकार, गवीधुका, पाटली, श्यामाफ, वार्हिण इति हेमादिगणः / बहुवचनमाकृति एकस्वरात् // 6 / 2 / 48 // गणार्थम् / हेमनशस्य विकारेऽनाधनार्थमञ्- म० वृ०-एकस्वरान्नाम्नो भक्ष्याच्छादनवर्जिते वचनम् / अणि हि सति 'अणि' (74 / 52) इति विकारेऽवयवे च नित्यं 'मयट्' स्यात् / वाङमअन्त्यस्वरादिलुग न स्यात् / पाटलीश्यामाकाहि- यम् , मृन्मयम् , गीर्मयम् धूर्मयम् / / 48 // णानां दुलक्षणस्य शेषाणां तु विकल्पमयटो बाधनार्थपत्र गणे पाठः / 'हेमादिभ्योऽञ्' इति सूत्रे अव-वावां विकारोऽवयवो वा वामयम् , हेमनशब्दो नकारान्तो ग्राह्यः, अकारान्तहेमशब्दात्तु एवं सर्वत्र वाक्यम् , 'प्रत्यये च' (1 / 3 / 2) इति यथाप्रातप्रत्ययो भवतीत्यर्थः / / 45 // सूत्रेण पञ्चमः / २'गीर्म यम् , धूर्मयम्'; अत्र गिरां विकारो=गीर्मयम् , धुरां विकारो-धूर्मयम् , ‘पदाअभक्ष्याच्छादने वा मयट / / 6 / 2 / 46 / / न्ते' (2 / 1 / 64) इत्यनेन दीर्घः // 48 // म. वृ०-षष्उयन्ताद् भक्ष्याच्छादनवर्जिते यथा दोरप्राणिनः // 6 / 2 / 49 // योगं विकारेऽत्रयवे च 'मयट् वा' भवति / भस्मनो म. वृ०-दुसंज्ञकादप्राणिवाचिनो यथायोगं विकारो भस्ममयम् , भास्मनः [विकारे' (6 / 2 / 30) भक्ष्यादिवर्जिते विकारेऽवयवे 'मयट्' स्यात् / आम्रअण् ]; कपोतस्य विकारोऽवयवो वा कपोतमयम् , मयम् , शालमयम् , 'यन्मयम् , तन्मयम् / अप्राकापोतम् 'प्राण्यो०' (6 / 2 / 31) इति अण; एवं णिन इति किम् ? २चाषम् , 'चाषमयम् ; चासम् , दूर्वामयम् , दीर्वम् / अभक्ष्याच्छादन इति किम् ? चासमयम् // 49 // मौद्गः सूपः, कार्यासः पटः / भक्ष्याच्छादनयोर्मयडभावपक्षे च 'तालाद्धनुषि' (6 / 2 / 32) इत्यादिको प्रव०-यस्य विकारो यन्मयम् , 'प्रत्यये च' विधिः साप्रकाशः अयं च विधिः (=इदं च सूत्रं] (1 / 322) इति पञ्चमः / “चाषम्', अत्र प्राण्यौभस्ममयमित्यादौ [ सावकाशम् ]; तत्रोभयप्राप्ती परत्वादनेन मयड् भवति- तालमयम्, त्रपु षधि०' (6 / 2 / 31) इति अण् / 'चाषमयम्', अभमयमित्यादि / / 46 / / क्ष्याच्छादने' (6 / 2 / 46) इति मयट् / एवं चासम् , चासमयम् // 49 // प्रव०-'तालमयम् , त्रपुमयम् , जतुमयम् , गोः पुरीषे // 6 / 2 / 50 // शमीमयम् , पयोमयम् , द्रुमयम् , उष्ट्रमयम् , उमाम- म० वृ०-गोशब्दात् पुरीषेऽर्थे 'मयट् ' स्यात् / यम् , ऊणामयम् , एणीमयम् , काशमयम् , परश- | गोः पुरीषं गोमयम् / परीष इति किम ? गव्यं पयः व्यमयम् , कंसी यमयम् , शतमयम् ; एषु 'तालाद्ध का // 50 // . नुम' इत्यादीनामनुक्रमेण प्राप्तौ सत्यां परत्वात् 'अभक्ष्यच्छादनेः' इत्यनेनैव मयट् भवति // 46 / / अव०-'एकस्वरात्' (6 / 2 / 48) इत्येव सिद्धे, पपीषे नियमार्थ 'गोः पुराणे' इति वचनम् / गोरि. शर-दर्भ-कूदी-तृण-सोम-बल्बजात् दमथवा गोर्विकारोऽवयवो वा गव्यम् , 'गोः स्वरे // 6 / 2 / 47 // यः' (6 / 1 / 27), 'य्यक्ये' (1 / 2 / 25) इति अव् // 50 // Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०६ पा०२ सू० 51-57 म. वृ०-अपशब्दाद्विकारे 'यम् वा' स्यात् / अपां विकारः आप्यम्, अम्मयम् / / 56|| वीहेः पुरोडाशे // 6251 // म. वृ०-व्रीहिशब्दात् पुरोडाशे विकारे नित्यं 'मयट्' स्यात् / अणोऽपवादः / ब्रीहिमयः 'पुरोडाशः / पुरोडाश इति किम् ? ब्रहः ओदनः // 51 / / प्रव०-'पुरो दाश्यते इति परोडाशः, 'दाशग दाने' 'भावाकोंः ' (5 / 3.18) घञ् , दाश: 'पृषो-- दरा०' (3 / 2 / 155) दस्य डः // 51 // तिल-यवादनाम्नि // 6 / 2 / 52 / / म०वृ०- तिलयवाभ्यां विकारेऽवयवे 'मयट्' स्यात् ; अनाम्नि [ अणोऽपवादः] / तिलमयम् , यवमयम् / अनाम्नि इति किम् ? तैलम् / यवानां विकारो= यावः, स एव यावकः // 52 // पिष्टात् // 6 / 2 / 53 / / म० वृ०-पिष्टाद्विकारे 'मयट्' स्यात् , अनाम्नि / अणोऽपवादः / पिष्टमयम् // 53 // नाम्नि कः / / 6 / 2 / 54 // ... म० वृ०-पिष्टान्नाम्नि विकारे 'कः प्रत्ययः' स्यात् / पिष्टस्य विकारः पिष्टिका / / 5 / / योगोदोहादीन हियङगश्चास्य // 6 / 2 / 55 / / म. वृ०-योगोदोहशब्दाद्विकारे नाम्नि 'ईनम्' स्यात् , तत्संयोगे च 'प्रकृते-हियङ्ग' इत्यादेशः / 'हैयङ्गवीनं नवनीतं घृतं वा // 55 // अव०-१एकस्वरमयटोऽपवादः / एकस्वरात' (6 / 2 / 48) मयट् , 'प्रत्यये च' (1 / 3 / 2) इति पञ्चमः // 56 // लुब् बहुलं पुष्पमूठे / / 6 / 2 / 57 / / म. वृ०-विकारावयवयोर्धिहितस्य / [अणो वा मपटो वा अञो वा ] प्रत्ययस्य पुष्पे मूले वा वाच्ये 'लुप स्याद्बहुलम् / मल्लिकाया विकारोऽवयवो वा पुष्पं 'मल्लिका, मालती, जातेर्जातिः, ' *पाटलं पाटला वा, पाटलीत्यपि, “कुन्दम् , कदम्बम् , अशोकम् , चम्पकम् , विदार्या मूलं विदारी, हरिद्रा, मुस्ता / क्वचिन्न लुप्-- वरणस्य पुष्पाणि वारणानि, एरण्डस्य मूलानि ऐरण्डानि / कचिद्विकल्पः- "शिरीवाणि, शैरीषाणि ; हीबेराणि, है बेराणि। क्वचित पुष्पमलाभ्यामन्यत्रापि लप - आमलकस्य विकारो वृक्ष आमलकी, बदरी , व्रीहेर्विकारः स्तम्बः व्रीहिः // 5 // प्रव०-नाम्नीत्येव- ह्योगोदोहस्य विकार इदमुदश्वित् तक्रं योगोदोहम् , अत्र 'विकारे' (6 / 2 / 30) इत्यणेव / 'योगोदोहस्य प्रकृतेः स्थाने हिय-गु / दुह्यते इति दोहः, गवां दोहः (गोदोहः), यो गतदिने गोदोह = ह्योगोदोहः, ह्योगोदोहस्य विकारो=हैयङ्गवीनम , 'अस्वयम्भुवोऽव्' (74/70) // 55 // - 'अपो यत्र वा // 6 / 2 / 56 / / प्रव०-'मल्लिकाया विकारो०', एवं मालत्या विकारोऽवयवो या पुष्पं मालती, एवं नवमालिका ; एषु उदाहरणेषु 'प्राण्यौषधिः' (62 / 31) इत्यण , अभक्ष्याच्छादने०' (6 / 2 / 46) अनेन मय ; उभयस्यापि प्रत्ययस्य 'लुप् बहुउम्' इति सूत्रेण लोपः कार्यः, तदनन्तरं यादेौणस्यः' (2 / 4 / 95) इत्यनेन स्त्रीप्रत्ययापहीनिवृत्तिः क्रियते, लुबन्तस्य स्त्रीत्वात् पुनः स्त्रीप्रत्यय आप की क्रियेते, मल्लिका, मालती, नवमलिका, यूथिका इति सिद्धम् / जातेर्विकारोऽवयवो वा पुन जातिः / *पाटल, 'नवा शो गादेः' ( 2 / 4 / 31) को-पाटली, अथवा पाटलाशब्दः, पाटल्याः पाटला या वा विकारोऽवयवो पुष्पम्- 'दोरप्राणिनः' (6 / 2 / 49) मयट, 'लुब् बहुलम्०' (6 / 2 / 57) इति मयट लुप्यते-पाटलं पाटला वा, पुष्प क्लीवेऽपि, पाटला न केवलं पुष्प(? पुष्पे वर्तमानः स्त्रीलिङः); "एवं कुन्दादि Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारावयत्रार्थयोः प्रत्ययलुध्विधानम् ] मण्यमवृत्त्वाचूरिसंवलितम् / [303 - - शब्दनिष्पत्तिरपि / नवरं कुन्दकदम्बाशोकादिभ्यः / शब्दानां च इत्थं निष्पत्तिः कर्त्तव्या। आदिशब्नात् 'प्राण्यौषधि०' (6 / 2 / 31) इत्यण , तस्य 'लुब् बहु- पथ्या, अम्लिका, चिञ्चा, द्राक्षा, मृद्वीका, कणाला, लम्' इति लोपः / कुन्दकदम्बादयो मूलप्रकृतिरूपाः एला, कण्टकारिका, शेफालिका, ओषधिः, शष्कण्डी, सम्पन्नाः पुष्प वर्त्तन्ते, पूर्व प्रत्ययात् वृक्षे कुन्दादि- नखरञ्जनी। हरीतक्यादिशब्देभ्यः परतो यथाशब्दाः प्रवर्त्तिता आसन् / 'विदार्यादयः मूले वर्त- प्राप्तमण्मयडादिप्रत्ययं कृत्वा 'फले' लुप् कृत्वा न्ते / तथा "शिरीषस्य पुष्पाणि विकारोऽवयवो वा- स्त्रीप्रत्ययनिवृत्तिं च कृत्वा पुनः स एव स्त्रीप्रत्ययः, 'प्राण्यौ०' (6 / 2 / 31 ) अण्। ह्रीबेरस्य वालकस्य लुबन्तस्त्रीलिङ्गमेव इति स्त्रीप्रत्ययः / / 58 / / मूलानि- 'प्राण्यो०' अण। आमलकी बदरी' इत्यत्र प्लक्षादेरण / / 6 / 2 / 59 // 'गोरादि०' की, 'दोरपाणिनः' (6 / 2 / 49) मयट् , 'प्राण्यौष०' अण् / / 57 // म० वृ०-प्लक्ष इत्येवमादिभ्यो विकारेऽवय वे वा फले विवक्षिते-'ऽण' स्यात् / मयटोऽपवादः / फले // 6 / 2 / 58 // विधानसामर्थ्याच्चास्याणो न लुप् / 'प्लाक्षम् // 59 / / म० वृ०-विकारेऽवयवे वा फले विवक्षिते प्रत्ययस्य 'लुप' स्यात् / आमलक्या विकारोऽवयवो अव०-प्लक्ष, न्यग्रोध, अश्वत्थ, इङ्गदी, वेणु, वा. फलमामलकम् , एवं बदरम्, कुवलम् , . वृहती, सगु, सकु, कक्रतु इति प्लक्षादिगणः / एवं ब्रीहिः, यवः, मुद्गः,माषः, गोधूमः, निष्पावः 'प्लक्षस्य विकारोऽवयवो वा फलं--प्लाक्षम् / एवं [वल्लकः, तिलः, " हरीतकी, "पिप्पली,। कर्कटी, नैयग्रोधम् / / 59 // दण्डी, दोडी, दाडी इत्यादि // 58 // जम्ब्बा वा // 6 / 2 / 60 // प्रव०-'आमलक, रबदर, कुवल ; स्त्री चेत् म० वृ०-जम्बूशब्दाद्विकारेऽवयवे फले विव- . गौरादित्वात की-आमलकी. बदरी. कवली : आम- क्षिते- 'ण' वा स्यातं / पक्षे यथाप्राप्तं प्रत्ययस्तस्य / लक्याः बदर्याः कुवल्या विकारोऽवयवो वा फल- | च हुप् / 'जाम्बवम् / पक्षे जम्बु, जम्बूः।।६०।। - मामलम् , बदरम् , कुवलम् ; 'दोरप्राणिनः' (6 / 2 / प्रव०-'जम्ब्या विकारोऽवय० फलं जा४९) इति मयट्, 'बदरकुवलयोहेमादिभ्योऽण्' / म्बवम् , अत्राण / २पक्षे जम्बु, जम्बूः; अत्र 'अभक्ष्या (6 / 2 / 45), अथवा 'प्राण्यौषधि० (6 / 2 / 31) इत्यण, च्छाद०' (6 / 2 / 46 ) इति.मयट् , अथवा 'प्राण्यौ'फले' ( 6 / 2 / 58 ) इति सूत्रेण मयटरणां लुप्, षधि०' (62 / 31 ) अण् , 'फले' (6 / 2 / 58) इति तद्धितलुपि 'यादेर्गौणस्य०' ( 2 / 4 / 95) इत्यनेन लुप् , ततो-'sलाबुजम्बू'* इति पाठात् स्त्री नपं.. डीनिवृत्तिः ; आमलकम् , बदरम् , कुवलमिति सक-वं च, 'क्ली वाफ (2 / 1193) इति सूत्रेण ह्रस्वः सिद्धम् / एवमनया युक्त्या ब्रीहे: "यवस्य 'मुद्गादे जम्बु इति नपुंसकः, जम्बू इति स्त्री लिङ्गः) // 60 // विकारोऽवयवो वा-कापि 'प्राण्यौषधि०' इत्यण, (कापि) 'तिलयवादनाम्नि' (6 / 2 / 52) मयट् / न द्विरद्रुवय-गोमय-फलात् / / 6 / 2 / 61 / / हरीतकी, पिप्पली ; हरीतक्याः पिप्पल्या फलं म. वृ०-द्रवयं- गोमयं फलवाचि च शब्द विकारोऽवयवो वा 'प्राण्यौ०' (6 / 2 / 31) अण, फले' . वर्जयित्वाऽन्यस्मान्नाम्नो विकारावयवयोर्द्विः'प्रत्ययो लुप् / हरीतकीपिप्पल्यादिशब्दाः फले वाच्ये नि- | न स्यात् / कपोतस्य विकारोऽवय० कामोतः, फापो. त्यस्त्रीलिङ्गा एव, वृक्षे तु त्रिलिङ्गाः / ब्रीह्यादिसर्व- | तस्य विकारोऽवयवो वेति [ 'दोर०' / / 6 / 2 / 49) धान्यवाचकशब्दानां हरीतक्यादिसर्वफलवाचि- / इत्यनेन] पुनर्मयट न भवति, एवणेयः, शा ॐ पश्यन्तु श्रीहैमलिङ्गानुशासनविवरणे स्त्रीनपुंसकलिङ्गप्रकरणे षष्ठं श्लोकम् / 卐 चिन्त्यमिदम्, “क्लीबे' (2 / 4197) इति सूत्रेण ह्रस्वसद्भावात् / Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०६ पा० 2 सू० 62-67 // 65 // मील इत्यादि / अवयगोमयफलादिति किम् ? [षष्ठयन्तात् ] नाम्नो [=शब्दात् / राष्ट्र वाच्ये 'द्रौवयं खण्डम् , गोमयं भस्म, कापित्थोरसः / 611 / देशे वाच्ये 'यथाविहितमण' स्यात् / 'शिबीनां राष्ट्र =शैवम् , गान्धारम / अनङ्गेति किम ? प्रव०-द्विः प्रत्ययः', कोऽर्थः ? द्वितीयवारं अङ्गानां राष्ट्र वङ्गानां राष्ट्रमिति वाक्यमेव भवति / पुनः प्रत्ययो न भवतीत्यर्थः / आदिशब्दात् औष्ट्र अङ्ग, वङ्ग, कलिङ्ग, सुह्म, पुण्ड इत्यङ्गादयः प्रयोगकः, कांस्य इति / द्रोविकारो मानं वयम् , 'द्रोर्व गम्याः // 65 // यः' (6 / 2.43 ) इति वयः प्रत्ययः, द्रवयस्यापि प्रव०-शिबिराजा, शिवे राज्ञोऽपत्यानिविकारो द्रौवयम् , 'विकारे'(६।२।३०) इत्यण , तथा गोः पुरीषं गोमयम् , 'गोः पुरीपे' (6 / 2 / 50) इति 'दुनादिकुर्वित्'० (6 / 1 / 118) इति भ्यः प्रत्ययः, मयट्, गोमयस्य विकारो- 'विकारे' इत्यण , 'बहुष्वस्त्रियाम्' (6 / 1 / 124) इत्यनेन यो लुप्यते, वृद्धिः / तथा 'कपित्थस्य विकारोऽवयवो वा फलं ततः शिबीनां शिव्यपत्यजनानां राष्ट्र शैवम् / तथा -'प्राण्यौ०' (6 / 2 / 31) अण् , 'फले' (6 / 2 / 58) लुप्, गन्धारस्यापत्यम्- 'अत इब्' (6 / 1 / 31), ततों कपित्थस्य विकारो- “विकारे' अण् // 61 // गान्धारे राज्ञोऽपत्यानि गान्धारि (? गान्धारयः), 'साल्वां० (6 / 1 / 117) इत्यनेन इन , 'अब्राह्मणान्' पितृ-मातुर्व्य-डुलं भ्रातरि / / 6 / 2 / 62 // / (6 / 1241) इत्यनेन इञ् लुप्यते, ततो गान्धारीणां म०व०-पितृमातृशब्दाभ्यां षष्ठयन्ताभ्यां भ्रातार पाच्ये यथासङ्घय 'व्यप्रत्ययो डुलप्रत्ययश्च स्यात्। राजन्यादिभ्योऽकत्र / / 6 / 2 / 66 // पितुर्धाता-पितृव्यः, मातुओता=मातुलः // 62 // म० वृ०-राजन्य इत्यादिभ्यो राष्ट्रवाच्ये-- पित्रोर्डामहट / / 6 / 2 / 63 / / 'इकल' स्यात् / अणोऽपवादः / राजन्यानां राष्ट्र म० वृ-पितृमातृभ्यां [षष्ठ्यन्ताभ्यां] माता- राजन्यकम् // 66 / / पित्रोर्वाच्ययो-'मिहट्' स्यात् / [टकारो ढ्यर्थः] प्रव०--राजन्य, दैवयातव, देवयात, आवृत, पितुः पिता-पिामहः, पितुः माता-पितामही, मातुः आजीतक, आबीतक, वात्रव, शालङ्कायन, बाभ्रव्य, पिता-मातामहः, मातुर्माता-मातामही // 63 // जालन्धरायण कोन्ताल, आत्मकामेय, अम्बरीपुत्र, आम्बरीपुत्र, अम्बरीषपुत्र,बैल्ववन, शैलूषज, उदुम्बर, प्रव०-'पित्रो महट्' अत्र पिता च माता औदुम्बर, तैतल, सन्प्रिय, दाक्षि, ऊर्णनाभ, ऊर्णच- 'पिता मात्रा वा' (3 / 11122) इत्यनेन एकशेषः, नाभि, आर्जुनायन, विराट, मालव, त्रिगर्त्त इनि वतो द्विवचनम् , ओस् / / 63 // राजन्यादिगणः / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् / राजन्, अवेदुग्धे सोढ-दर-मरीसम् / / 6 / 2 / 64 // राज्ञोऽपत्यानि राजन्याः, 'जाती राज्ञः' (6 / 1 / 92) इति यः प्रत्ययः, राजन्यशब्दः, राजन्यानां राष्ट्र म० वृ०-अविशब्दाद् [षष्ठ्यन्तान् / दुग्धे- राजन्यकम् , 'राजन्यादिभ्योऽकब', 'न राजन्यमऽर्थे 'सोढ दूस मरीमस' इति प्रत्ययाः स्युः / अवे- नुष्ययोरके' (2 / 4 / 94) इति यकारस्य न लोपः / 66 / दुग्धम्-अविसोढम् , अविदूसम् , अविमरीसम् // 64 // | वसातेर्वा // 6 / 67|| राष्ट्रऽनङ्गादिभ्यः / / 6 / 2 / 65 // म. वृ०--बसातिशब्दादा--'ऽकर वा' म. वृ०-[राष्ट्रो देशः ] अङ्गदिवार्जितात् / स्यात् / वसातीनां राष्ट्रवासातकम् , वासातम् / / 67 / / बृहदवृत्तौ 'जानंधरायणः' इत्यपि / Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निषासादूरभषार्थयोः प्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्ववचूरिसंवलितम् / [305 भौरिक्येपुकार्यादेविधभक्तम् // 6 / 2 / 68 // | पुत्रप त्रादिपरम्परया आयाते, अत एव व्यवहारमनुम० वृ०-- भौरिकि इत्यादिभ्यः एषुकारि | | पतिते, एवंविधे नाम्नि प्रत्ययो ज्ञेयः, न सङ्गीते, इत्यादिभ्यश्च राष्ट्रऽर्थे यथासंख्यं विधभक्तौ / कोऽर्थः ? कतिपयजनव्यवहृते / शिवेरपत्यानिप्रत्ययौ' भवतः / भौरिकीणां राष्ट्र भौरिकिविधम् , 'दुनादि' (6 / 1 / 118) इति व्यः, 'बहुष्वस्त्रियाम्' ( 6 / 1 / 124) इति म्यो लुप्यते, ततः शिबीनां एषुकारीणां राष्ट्रम्=एषुकारिभक्तम् // 6 // निवासः शैवम् / तथा विदिशा या अदूरभवं वैदिशं अव०-- 'भौरिकि, भौलिकि, चौपयत, चौद- | नगरम् , एवं वैदिशो देशः, एवं वाराणसी, वरणा यत, चैटयत, चैकयत, सैकयत, क्षैतयत, काणेय, च असिश्च, वरणास्योत्दूरभवा वाराणसी, पृषोदरावालिकाज्य, वाणिजक इति भौरिक्यादिगणः / दित्वात रस्य दीर्घः, णकारस्य तु ह्रस्वः, अण् , डी। एषुकारि,सारसायन, चान्द्रायण,-चन्द्रस्यायनं चन्द्रा- अङ्ग, वङ्ग, वरणा, मथुरा, उज्जयनी, तक्षशिला, णम् ,तेन निवृत्तं तपः चान्द्रायणम् ताायण,द्रया- खलतिकादीनां क्षत्रियवृक्षादिवद् देशनगरादौ स्वत क्षायण, त्रयामायण, द्वयक्ष्यायण,त्यक्ष्यायण, भोला एव प्रवृत्तिर्भवति, न प्रत्यययोगात् , अङ्गादिशब्दा य, सौवीर, सुवीरो देवताऽस्य स सौवीरः, दास देशनगरादौ वर्तमाना अपि लिङ्गसंख्या स्वभावात् मित्रि, दासमित्रायण, शौद्रकायण, शयण्ड, शाय लोकरूढया वा भजन्ते इत्यर्थः / निवसन्त्यस्मिन् इति निवासः, निवासोदाहरणम् ,-शैवम् ,एवं शकण्ड, शायाण्ड, शायण्डायन, खादायन, गौलुकायन, विश्व, वैश्वधेनव, वैश्वमाणव, वैश्वदेव, तुण्ड, लायाः शाकलम् , अथादूरभवोदाहरणम् ,-- वैदिशो देव, तुण्डदेव, शायाण्डि, शायण्डि, वायौविद इति देशः, एवं वारागसी, ब्रीहिमत्या अदूरभवं बैहिमएषुकार्यादिगणः / // 6 // तम् , यवमत्या यावमतम् / इह केचित् भङ्गानां निवास इति वाक्ये अङ्गा., एवं वङ्गाः, कलिङ्गाः, निवासादूरभवे इति देशे नाम्नि / / 6 / 2 / 69 / / मगधाः, पुण्डाः, कुरवः,पश्चालाः;वरणानामदूरभवं%3D म० वृ०-नाम्नो (षष्ठ्यन्तात् इत्यर्थः] निवा- वरणा नगरम,गोदोहदयोगोदो ग्रामः,जालपदाया सादूरभवयोरर्थयो-'यथाविहितं' प्रत्ययः' स्यात् , जालपदा,मथुराया मथुरा,उज्जयिन्या उज्जयिनी,गयानां देशे नाम्नि प्रत्ययान्तं यदि देशस्य नाम भवति / गया, तक्षशिलायाः तक्षशिला, खलतिकं वनानीत्या इतिकरणो विवक्षार्थः / शैबम् , वैदिर्श पुरम् , दिषु प्रत्ययमुत्पाद्य लुपमारभन्ते, सत्यां च लुपि *वैदिशो देशः // 69 // प्रकृतिवत् लिङ्गवचने च मन्यन्ते; तत्सर्वमयुक्तम् , अत्र हि प्रकृतिमात्रमेव देशनाम लोकरूढम् , न प्रव०-'निवासा'० इत्यारभ्य 'अश्वत्थादेरि- प्रत्ययान्तम् / तस्य निवास इत्यादिविषक्षायां तु कण' (6 / 2 / 97|| इत्यन्तं यावत् चातुरर्थिकप्रत्यया वाक्यमेव भवति, न प्रत्ययः // 69 // धिकारसूत्राणि 28 ज्ञातव्यानि / अण् प्रत्यय .. तदत्रास्ति / / 6 / 2 / 70 // इत्यर्थः / क्रियतेऽसौ इति करणः शब्दः इत्यर्थः, विवक्षा च कुलवधूरिव न लौकिकी मर्यादामति- म. वृ०-तदिति प्रथमान्तानाम्नोऽत्रेति सप्तकामति, कोऽर्थः ? देशनाम प्रसिद्धं लोकरूढं | म्यर्थे 'यथाविहितम [अण् ]' प्रत्ययः स्यात् , यत्तत् ग्राह्यम् , न गूढम् , इतिकरणो विवक्षार्थः इत्यक्ष- | प्रथमान्तं तच्चेदस्तीति भवति, देशे 'नाम्नि / उदुराने 'तेनानुवृत्ते व्यवहारमनुपतिते नाम्नि विशे- | म्बरा अस्मिन् देशे सन्ति औदुम्बरं नगरम् , औदुयम्' न सङ्गीते / अस्य भावार्थोऽयम्- सर्वलोकस्य / म्बरो देशः पर्वतो वा / / 70 // * इदं चिन्त्यम् , “नद्यां मतुः" (6 / 2 / 72) इत्यत आरम्य चातुरर्थिकप्रत्ययाधिकारप्रारम्भात् / Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं . [अ० 6 पा० 2 सू० 71-75 अव०-''देशे नाम्नि', प्रत्ययान्तं चेद् देशस्य | मानि इति मतुर्न भवति [किन्तु अणेव भवति / 72 / नाम भवति, इति सर्वत्रोत्तरसूत्रेषु व्याख्येयम् / तदत्रास्तो'- ति, अत्रापि इतिशब्दो विवक्षार्थोऽनुवर्तते, अव०-'निवासादुरभवे इत्युक्तागः / उतेन लोकरूढो नास्ति वक्ष्यमाणो भूमिनिन्दाप्रशं. म्बरावतीपुष्करावतीमशफावतीशरावतीषु 'अनजिरासादौ चार्थेऽण् , अत एव अणमतोरुभयप्राप्ती, 'तद दिबहुस्वरशर०' (3 / 2 / 76 ) इत्यादीना दी| ‘स्यास्ति' (7 / 2 / 1) इति विहितः परोऽपि मत्वर्थी भवति / पुष्कराण्यत्र सन्ति / मशका अत्र सन्ति / यप्रत्ययः 'तदत्रास्ति' इत्यनेन बाध्यते इत्यण , न 5 इक्षवः सन्ति अस्याम् , 'नोादिभ्यः' (21199) मतुः // 7 // इत्यनेन मकारस्य वकारो न भवति / जह्न ना निर्वृत्ता=जाह्नवी, 'तेन निवृत्ते च' इत्यण / / 72 / / तेन निवृत्ते च // 6 / 2 / 71 // मध्वादेः // 6 / 2 / 73 / / म. वृ०-तेनेति तृतीयान्तात् [नाम्नः] नियुत्तमित्यर्थे 'यथाविहितम्' [अण् / प्रत्ययः स्यात् , ___ म० वृ०-मध्वादिभ्यश्चातुरर्थिको मतुः स्याद्, देशे नाम्नि / कुशाम्बेन निर्वृत्ता-कौशाम्बी, कक. देशे नाम्नि / [अणोऽपवादः] अनद्यर्थ वारम्भः / न्देन निवृत्ता-काकन्दी, माकन्दी, सगरनिवृत्त मधुमान् , [बिसवान् ] ३स्था गुमान् / / 73 / / =सागरः [सहस्रण निर्वृत्ता-साहस्री परिखा। अव०-'चतुर्वर्थेषु भवश्चातुरर्थिकः, 'अध्याचकारश्चतुर्णा 'योगानामुत्तरत्र [उत्तर सूत्रेषु] अनु त्मादिभ्य इकण' (6 / 378) / मधूनि सन्त्यत्र वृत्त्यर्थः, तेनोत्तरे वक्ष्यमाणाः] प्रत्यया यथायोग मधुमान्। एवं रबिसानि स्थागूनि अत्र सन्ति / चतुर्वर्थेषु भवन्ति / / 71 / / मधु, बिस, स्थागु, ऋषि, इक्षु, वेणु, कर्कन्धु, कर्क न्धू, शमी, करीर, हिम, किसर, सार्पण, रुवत् , अव०-'युज्यन्ते प्रत्ययेन सह इति योगाः पार्दा, कीशरु, इष्टका, पाकी, शरु, शुक्ति, आसुति, अर्थाः सूत्राणि वा, अत्र अर्थापेक्षया योगानामिति सुत्या, आसंदी, शकली, वेट, पीडा, अक्षशिल, अक्षज्ञातव्यम् , कोऽर्थः चतुर्णा योगानां चतुर्णामर्थानां शिला, तक्षशिला, आभिषी इति मध्वादिसणः / / 73|| निवासः 1 अदूरभवः 2 अस्मिन् सन्ति 3 तेन निर्वत्तम् 4 इतिरूपाणामित्यर्थः / यथायोगम् , कोऽर्थः ? नड-कुमुद-वेतस-महिषाडित् // 6 / 2 / 74 // चतुरर्थमध्यात् यः कश्चिदर्थो घटते तेनार्थेन वाक्यं म० वृ०-नडादिभ्यो ‘मतुः' स्यात् , स च कृत्वा प्रत्ययाः कर्त्तव्याः // 71 / / डित् , चातुरर्थिकः, देशे / नड्वान् , कुमुद्रा , वेतनद्यां मतुः / / 6 / 2 / 72 / / स्वान् , महिष्मान् देशः, तत्र भवा-माहिष्मती नगरी // 74|| म० वृ०-तस्य निवासः, 1 तस्यादूरभवः,२ तदत्रास्ति 3 तेन निर्वृत्तं 4 चेति चतुरर्थेषु यथायोगं प्रव०-'निवासा०' (6 / 2 / 69) इत्यण , 'नड'मतुः' प्रत्ययः स्यात् , नद्यां देशे नाम्नि प्रत्ययान्तं शादा०' (6 / 2 / 75 ) इति वलः , 'कुमुदादेरिकः' चेन्नदीविषयं A[नदीनाम्ना] देशस्य नाम भवति।। (6 / 2 / 96), इति अण- वल- इकबाधको 'नडकुमुAनदीनामेत्यर्थः। अणोऽपवादः / उदुम्बरा अस्यां दवेतसः' इति योगः // 74|| सन्ति='उदुम्बरावती नदी, पुष्करावती, मशकावती, | नड-शादालः // 62/75 // "इक्षुमती, शरावती, [इरावती,] भगीरथेन निर्वृत्ता =भागीरथी ['तेन निवृत्ते' अण् ], 'जाह्नवी [सोवा- म० वृ०-नडशादाभ्यां 'वलः' स्यात् , सच स्तवी] / अमत्वन्तान्येव भागीरथ्यादीनि नदीना- | डित् , चातुरर्थिकः / नड्वलम् , शादलम् / / 75|| Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातुराधिकारः] मध्यमत्रीपरिसंवलितम् / - -- * शिखायाः // 6 / 276 // म० वृ०-नृणादिभ्यः 'सल्' चातुरर्थिकः - म० वृ०-शिखाशब्दाद् 'वलः' स्याचातुर स्यात् , देशे। 'तृणसा / / 8 / / र्थिकः, देशे नाम्नि / पृथग्योगाडिदिति निवृत्तम् / प्रव-तृण, नद, जन, पर्ण, वर्ण, अर्णस् , शिखावलं नाम पुरम् // 76 / / अर्णशब्दोऽकारान्तोऽप्यस्ति, वरण, विल, तुस, वन, . शिरीषादिक-कणौ // 6 / 2 / 77 // पुल इति तृणादिगणः / 'तृणान्यत्र सन्ति तृणसा, म० ३०-शिरीषादिकप्रत्ययः कण् प्रत्ययश्च आप् // 8 // स्याचा तुरथिकः, देशे नाम्नि / शिरीषिकः [इक], काशादेरिलः // 6 / 2 / 82 // शैरीपकः [कण् ] ||7|| म००-काशादिभ्यश्चातुरर्थिकः ‘इलः' स्यात् , प्रव०-शिरीपवृक्षाणामदूरभवो ग्रामः शिरी | देशे / काशिलम्' |2 पिकः, शैरीषकः ||77| प्रव०-काश, वाश, अश्वत्थ, पलाश, पीयुक्षा, शर्कराया इकणीयाण च / / 6 / 2 / 78 // पाश, विश, तृण, नल, वन, नलवन, कर्दम, कपूर, म० वृ०-शर्कराशब्दान 'इकण , ईय, अण् , वर्वर, वर्तुल शीपाल, कण्टक, गुहा, कपित्थ इंति चकागत् इक ‘कण' भवन्ति, चातुरर्थिकः. देशे काशादिगणः / 'काशाः सन्त्यत्र काशिलम् / (एवम् ) नाम्नि / शर्करा अस्मिन् देशे सन्ति शार्करिकः, वाशाः सन्त्यत्र वाशिलम् // 82 // शहरीयः, शारः, शर्करिकः, शारकः [व्यादीदूतः अरीहणादेरकण् // 6 / 2 / 83 / / के' (2 / 4 / 104) इति ह्रस्वत्वम् ] ||78|| म०३०-अरीहणादिभ्योऽकण स्याचातुरोऽश्मादेः // 6 / 279 // रर्थिकः, देशनाम्नि / आरोहणकम् // 3 // म. वृक्ष-अश्मादिभ्यो 'रः' प्रत्ययश्चातुर- अव०-अरीणामी (?अरीणां) हनः, 'पूर्वर्थिकः स्याद् देशे / २अश्मरः / / 79|| पदस्था०' (2 / 3 / 64) इति णत्वम् , भरीहणा पत्र सन्ति अरोहणैर्निवृत्तम् आरोहणकम् / अरोहण, प्रव०- अश्मन् , यूष, ऊष, यूथ, मीन, खण्डु, खण्डू, द्रवण,किरण, खदिर,भगल,भलन्दन, गुद, दर्भ, कूट. गुहा, वृन्द, नग, कण्ड, गह्न, कन्द, उलुन्द, खाबरायण, खापुरायण, खानुरायण, कौष्ठापामन् इत्यस्मादिगणः / २अश्मनां निवासः // 79|| यन, कौद्रायण, भास्त्रायण, त्रैग यन, रैवत, रायप्रेक्षादेरिन् // 6 / 2 / 80 // स्पोष, विपथ, विपाश, उद्दण्ड, उदश्वन, ऐडायन, म० वृ०-प्रेक्षादिभ्य 'इन्' स्यात् , चातुरर्थिको जाम्बवत, जाम्बवत् , शिंशपा, वीरण, (धौमतायन) देशे। 'प्रेक्षी, फलकी // 8 // यज्ञदत्त, सुयज्ञ, बधिर, बिल्व,जम्यू ,(साम्बुरायण, सौशायन, सौमायन, शाण्डिल्यायन, श्वित्रायणि, प्रव०-प्रेक्षया निवृत्तम् , २फलकैर्फलवाभिः साम्बरायण,) कश, सुशर्मन् इति भरीइणादि(वा) निवृत्तमिति वाक्यम्, तत इन् / प्रेक्षा, फलका, गणः / / 83 // बन्धुका, ध्रुवका, धुवका, क्षिपका, कूप, सुक, सुपन्थ्यादेयः // 6 / 2 / 84 // [धुक, पुक, इकट, कङ्कट, सङ्कट, मह, गत्ते, न्य- म० वृ०-सुपन्थिन इत्यादिभ्यो 'व्यः' स्यात्, प्रोध, परिवार, हिरण्य इति प्रेक्षादि / / 8 / / चातुरर्थिकः, देशे नाम्नि। सौपन्थ्यम् , साला तृणादेः सल / / 6 / 2 / 81 // श्यम् , काम्पील्यम् / / 84 // Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308] ....... श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०६ पा०२ सू० 85-90 प्रव०-सुपन्थिन् , सुवन्थिन् , सङ्काश, | स्यात् देशे / आह्नम ' / अहन , लोमन् , वेमन् , कम्पील, सुपरि, यूप, अश्मन् , अश्व, अङ्ग, नाथ, गङ्गा इत्यहरादिराकृतिगणः // 8 // (कुण्ट,) कुट, कूट, मादित, मृष्टि, आगस्त्य A, शूर, विरन्त, विकर, नासिका, प्रगदिन् , मगदिन , ____ अव० 'अहन , अह्ना निवृत्तम्= आह्रम , 'अह रादिभ्योऽत्र','अनीनादट्यह्रो०'(जा४।६६) इत्यनेन कटिद, कटिप, कटिव, चूदार,मदार, मजार, कोवि. हकारस्य अकारलोपः / अत्र 'इकण्'-पादोक्तेन दार, कश्मीर, शूरसेन, कुम्भ, सीर, सर. कसमल, 'निवृत्ते (64105) इति सूत्रेणापि इकण प्राप्नोति, अंस, नासा, रोमन् , लोमन्, तीर्थ, पुलीन, मलिन, 'अहरादिभ्यो० इत्युक्तोऽयमन चातुरथिको देशे भगस्ति, सुपथिन् , दश, नल, सकर्ण, कलिव इति सुपन्ध्यादिगणः / A 'अगपुलाभ्याम् [स्तम्भेडित् ' नाम्नि विहित इति अनेन अन्या सामान्यकाले विहितो 'निर्वृत्ते' (6 / 4 / 105) इति इकण बा(उ०३६३) इति डिद्यः] अगस्त्यः, अगम्त्यस्या ध्यते // 8 // पत्यम् 'ऋषि०'(६।१।६१) अण् / 'सुपथिन , सुपपथोऽदूरभवं-सौपन्ध्यम् , सौवन्थ्यम् , 'सुपन्ध्या सख्यादेरेयण // 6 / 2 / 88 // .. देर्व्यः', सुपथिनशब्दस्य अत एव निपातनात् म०वृ०-[सखि आदिर्यस्य]सखि इत्यादिभ्यपकारात् परो नोऽन्तः, पकारस्य विकल्पेन वकारः श्चातुरर्थिको देशे 'एयण' स्यात् / साखेयः / / 88 / / इति प्रयोगद्वयम्- सौपन्थ्यम् , सौवन्थ्यम् / / 84 // अव०- सखि, सखिदत्त, दत्त, (अग्नि) सुतङ्गमादरिन / / 6 / 2 / 85 // अग्निदत्त, (वादस्त) वायदत्त.गोफिल. भल्ल. भल्लि पाल, चक्र, चक्रवाक, छगल, अशोक, सीरक, म० वृ०-सुतङ्गमादिम्यश्चातुरर्थिक 'इन' सरक, वीर, वीरसरस, समल, रोह, तमाल, कदल, स्यात् देशे। सौतङ्गमिः, मौनिचित्तिः // 85 // करवीर, सुरस, सरम, सपूल इति सख्यादिगण: 1188 // प्रव-सुतङ्गम, मुनिचित्त, विप्रचित्त, महा पन्थ्यादेरायनण्॥६।२८९॥ चित्त, महापुत्र, शुक्र, श्वेत, विग्र, श्वन , विग्रश्वन , अर्जुन, आजिर, गदिक, बीज, वाप, बीजवाप, कर्ण म. वृ०-पन्थ्यादिभ्यश्चातुरर्थिक 'आयनण्' इति सुतङ्गमादिगणः / / 5 / / स्याद् देशनाम्नि / पान्थायनः ['नोऽपदस्य तद्धिते' (74 / 61 ) इत्यन्त्यस्वरादेर्लुक ] पथिनशब्दस्य बलादेयः / / 6 / 2 / 86 / / प्रत्यययोगे पकारात्परो नागमोऽत एव निपातनात् / / 89 // . म० वृ०-बलादिभ्यश्चातुरर्थिको 'यः' स्याद् देशे नाम्नि। [बलेन निवृत्त=]वल्यम् / / 86 / / अव०-पथिन् , पक्ष, तुष, अण्डक, वलिक, पाक, चित्र, चित्रा, (अतिश्व) कुम्भ, सीरक, लोमन् , प्रव०-बल, पुल, मुल, उल, कुल, दुल, रोमन , लोमक, हंसक, सकर्ण, (सकर्णक) सरक, नल, दल, उरल,लकुल, वन इति बलादिः ।कच्छ सहक, सरस, समल, अंशुक, कुण्ड, यमल, हस्त, प तृण खण्ड वनं जलं काननं वा (?) // 86 // हस्तिन् , सिंहक इति पन्थ्यादि / / 89 / / कणोदरायनिञ // 6 / 2 / 90 // अहरादिभ्योऽन // 6 / 2 / 87 // म. वृत्-कर्णादिभ्यश्चातुरर्थिक 'आयनिक म०७०-अहन्' इत्यादिभ्यश्चातुरर्थिकः 'अन्' / स्याद् देशे। कार्णायनिः // 10 // . . * 'कच्छ' इत्याद्यवचूरिः वृत्तिस्थं के शब्दमाश्रित्य प्रदर्शितेति न ज्ञायते / Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चातुराधिकारः] मण्यमवृत्यवचूरिसंवलितम् / प्रव०-कर्ण, वसिष्ठ, अर्क, लुस, अर्कलुस, , इर, आस, मुद्गल, मौद्गल्य, सुवर्चल, प्रतर, द्रुपद, आनदुध, पाञ्चजन्य, (स्फिग् , स्फिज,) | अजिन, अभिजन, अवनत, विकुटयाङ कुश, पराशर कुलिश, आकनीकुम्भ, जित्वन् , जित्य, जैत्र, आण्डी- | इति कृशाश्वादिगणः / / 93 / / षत् , जोवन्त इति कर्णादि / 'अस्त्यर्थे, निवासे, ऋश्यादेः कः॥६।२।९४।। निवृते वार्थे वाक्ये कार्णायनिः साध्यते // 10 // म. वृ०-ऋश्यादिभ्यः 'कः' स्याचातुरर्थिको उत्करादेरीयः // 6 / 2 / 91 // देशे नाम्नि / ऋश्यकः, न्यग्रोधकः / / 94 / / म० वृ०-उत्करादिभ्य 'ईयः' स्याचातुरर्थिको देशे / उत्करीयः, सङ्करीयः // 11 // प्रव०-ऋश्य, न्यग्रोध, शर, निलीन, निवात, सित, नेद्ध, निनद्ध, (परिगूढ,) उपगूढ, उत्तर, प्रव०-उत्कर, सङ्कर,सम्पर, सम्पल, संफर, | अश्मन् , स्थूल, बाहु, स्थूलबाहु, खदिर, अनडुह, संफल, (संफुल) पिप्पल, मूल, पिप्पलमूल, अर्क, खण्डु, वीरण, कर्दम, शर्करा, निबन्ध, अशनि, भश्मन् , सुवर्ण, सुपर्ण, हिरण्यपर्ण, इडा, अजिर, खण्ड, दण्ड, वेणु, परिवृत, वेश्मन , अंशु इति इडाजिर,अग्नि, तिक, कितव, आतप, अनेक, पलाश, ऋश्यादिगणः / / 94 // एकपलाश, अनेकपलाश, अंशक, पिचुक, अश्वत्थ, वराहादेः कण् // 6 / 2 / 95 // काश, भला विशाल, शाला अरण्य, अजिन, जन्यजनक, नितान्त, वृक्ष, नितान्तंवृक्ष, आईवक्ष, इन्द्र- / म. वृ०-वराहादिभ्यश्चातुरर्थिकः 'कण' स्याद् वृक्ष, अग्निवृक्ष, मन्त्रणाई, अरीहण, वातागर, देशे। वाराहकम् , पालाशकम् / / 5 / / विजिगीषा, (संस्रव, रोहिद्गर्त, नीवापक,) अणक, अव०-वराह, पलाश, विनद्ध, निबद्ध, स्थूल, बाहु, निशात, खल, जिन, वैराणक, (अवरोहित) Aजन्य, स्थूलबाहु,................ (खदिर, विदग्ध, विजग्ध, (इन्द्रवर्म) गर्त इत्युत्करादि। Aजनीं वधू वहति-- विभग्न, विभक्त, पिनद्ध, निमग्न इति वराहादिः 'इधपद्य'० (7 / 1 / 11) इति यः ||1|| // 95 / / नडादेः कीयः // 6 / 2 / 92 / / कुमुदादेरिकः / / 6 / 2 / 96 // म० वृ०-नडादिभ्यः 'कीयः' स्याचातुरर्थिकः __ म० वृ०-कुमुदादिभ्य ‘इकः' स्याचातुरर्थिकः देशे नाम्नि / नडकीयः // 92 / / देशे / कुमुदिकम् // 16 // प्रव०-नड, प्लक्ष, बिल्व, वेणु, वेत्र, वेतस, त्रि, तक्षन , इक्षुकाष्ठ, कपोत, क्रुश्च इति नडादिगणः अव०-कुमुदान्यत्र सन्ति / एवमिक्कटिकम, // 12 // कुमुद, इक्कट, कङ्कट, सङ्कट, गर्त, निर्यास, परिकृशाश्वादेरीयण // 6 / 2 / 93 // वाप, कूप, अश्वत्थ, न्यग्रोध, बीज, दशा, शाल्मलि, म० वृ०-कृशाश्वादिभ्यश्चातुरर्थिक 'ईयण' मुनि, (स्थल,) ग्राम इति कुमुदादिगणः / / 96 / / स्याद् देशे / काश्विीयः, आरिष्टीयः / / 13 / / ' अश्वत्थादेरिकम् // 6 / 2 / 97 // म० वृ०-अश्वत्थादिभ्यश्चातुरर्थिक 'इकण' प्रव०-कृशाश्व, अरिष्ट, विशाल, रोमक, लोमक, | स्याद् देशे। आश्वस्थिकम्, कौमुदिकम् / इति चातुरोमश, शवल, कूट, पूगर, शूकर, धूकर, पूकर, | रर्थिकाधिकारः सम्पूर्णः // 9 // सन्दृश, सदृश,............ (पूरगा, पूरवा,) धून, धूम्र, विनत,अयस् ,उरस् ,सायस् , इरस् ,भरुष्य, ऐरास, | प्रव.-अश्वत्थ, कुमुद, गोमठ, रथकार, दान, Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .310 मीसिद्धहेमशानुशासन [10 6 पा०२ सू०९८१०१ - ग्राम, शाल्मलि, मुनि, स्थल, मुनिम्थल, कूट, / पर्थे 'इकण ' स्यात् / प्रथमान्तं चेत्पौर्णमासी / मुचुकर्ण, मुचुकूणि, कुण्डल, शुचिकर्ण इति अश्व- | [नाम्नि, कोऽर्थः ? प्रत्ययान्तं यदि नाम भवति स्थादिगणः / 'उभयोरपि अन्त्यर्थे बहुत्वे वाक्यं / इत्यर्थः] आग्रहायणी पौर्णमासी अस्य आग्रहाकर्त्तव्यम् // 17 // यणिको मासाद्धः मासो वा। एवमाश्वत्थिको मासोसाऽस्य पौर्णमासी // 6 / 2 / 98 // ऽर्द्धमासो वा // 19 // म० वृ०-सेति प्रथमान्ताइस्येति षष्ठ्यर्थे अव०-स, पञ्चमीङसि, अस्य, सप्रमी ङ, 'यथाविहितं' ['प्राग जितादण' (6 / 1 / 13] प्रत्ययः सूत्रत्वात् सिङि ठोपः / जहाति जिहीने वा स्यात , यत्तत प्रथमान्तं तच्चेत् पौर्णमासी भवति / भावान् इति हायनो वत्सरः, 'हः का नत्रीह्योः' (5 / पौषी पौर्णमासी अस्य-पोपो मासः, पौषोऽर्द्धमासः, 268) इति टनण् , 'आत ऐः कृत्री ' (4 / 3153) एवं माघः इति / नाम्नीत्येव- पोपी पौर्णमासी ऐः, अग्रं हायनस्य, 'पूर्वपदस्था०' (2.3 65) इत्य॥ 98 // नेन नस्य णः,............ (अग्रहायण एव इति) वाक्ये 'प्रज्ञादिभ्योऽण' (7 / 2 / 165), ढो, आग्रहायणीअव०-'माति मिमीते वा इति मास् , 'अस्' शब्दः / तथा अश्वत्थमश्विनीनक्षत्रन , अश्वत्थेन% (उ० 952) इत्युणादिसूत्रेण अस् , मास् शब्दः, अश्विनीनक्षत्रेण चन्द्रयुक्तेन युक्ता रात्रिः अश्व. पूर्णश्चासौ माश्च पूर्णमाः, पूर्णमाश्चन्द्रोऽस्यामस्ति स्था, 'श्रवणाश्वत्थान्नाम्न्यः, (6 / 2 / 8) इति अप्रत्ययः, इति वाक्ये 'पूर्णमासोऽण' (2 / 55) इत्यण् , अश्वत्था पौर्णमासी अस्य आश्वस्थिकः / आग्रहायणी पौर्णमासः, की- पौर्णमासी, अथवा पूर्णमास इयं मार्गशीर्षमासपूर्णिमा उच्यते / आश्निमासस्य पौर्णमासी, 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) इत्यण , यद्वा पूर्णिमा अश्वत्था इत्युच्यते इत्यर्थः / / 19 / / पूर्णो मा मासो वा अस्याम, पूर्णमासा वा युक्ता, चैत्री-कार्तिकी-फाल्गुनी-श्रवणाद्वा // 6 / 2 / 100 // 'साऽस्य पौर्णमासी' (6 / 2 / 98) इति पाठबलात् अण् ,डी। 'साऽस्य०'(६।२।९८) इति सूत्रे इतिशब्दो ___ म० वृ०-एभ्य ‘इकण' वा स्यात , 'मास्य नाम्नि इति च द्वयमनुवर्त्तते / देशे इति निवृत्तम् / पोर्णमासी' (6 / 2 / 98) इति विषये, नान्नि / चैत्री भत्रापि इतिशब्दो विवक्षार्थः / तेन मासे अर्द्ध पौर्णमासी अस्य चैत्रिकः चैत्रो मामोऽर्द्धमासो वा / मासे वा संवत्सरपर्वणो वाऽर्थेऽण् प्रत्ययः / तथा एवं कार्तिकिकः,कार्तिकः / उफाल्गुनिकः,फाल्गुनः / नाम्नि, कोऽर्थः ? प्रत्ययान्तं चेन्नाम भवति / तथा श्रवणा प.र्णमासी अस्य= श्रावणिकः,श्रावणः / 100 / २"पुषंच पुटी', पुष्यन्त्यस्मिन् कार्वाणीति पुष्यम् , अव०-'चित्राभिश्चन्द्रयुक्ताभियुक्ता पौर्ण'कुप्यभिद्य०' (5 / 1 / 39) इति क्रप , पुष्येण चन्द्र 'मासी चैत्री, एवं २कृत्तिकाभिः उफाल्गुनीभिः युक्तेन युक्ता पौर्णमासी पौषी, 'चन्द्रयुक्तात्काले०' श्रवणेन चन्द्रयुक्ताभिर्युक्ता पौर्णमासी- 'चन्द्रयु(६।२।६) इति अण् , तिष्यपुष्ययो णि' (2 / 4 / 90) तात् काले' (6 / 2 / 6) इत्यण , की, पश्चात् मैत्री इत्यनेन यकारलोपः, ततो डी, तदनन्तरं पौषी कार्तिकी फाल्गुनी श्रवणा पौर्णमासी अस्य इति पौर्णमासी अस्य स पौषो मासः, अण् , प्रथमासिः, वाक्ये 'चैत्रीकार्तिकी०' (6 / 2 / 100) इति इकण , पौषो मासः ; एवं माववैशाखाषाढादिसिद्धिः / 98 / पक्षे सा-ऽस्य पौर्णमासी (6 / 2 / 98) इति अण् / 100 / / आग्रहायण्यश्वत्थादिकम् / / 6 / 2 / 99 / / / देवता // 6 / 2 / 10 / / म० ३०-आग्रहायणी-अश्वत्थाभ्यां [शब्दा- म. वृ०-सेति प्रथमान्ताइस्येति षष्ठयर्थे भ्यां परतः] 'सेति प्रथमान्ताभ्यां अस्येति षष्ठः / 'यथाविहितं' प्रत्ययः [अण् स्यात् , चेत्प्रथमान्तं Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘साऽस्य देवताऽर्थाधिकारः] मण्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [311 देवता भवति / अर्हन देवता अस्य आईतः, [जिनो | चानयोराकारस्य ( ? आच्छब्दस्य) 'तृ' इत्यादेवता अस्य=] जैनः, आग्नेयो विप्रः, ऐन्द्रो | देशः / अपोनपाद् देवता अस्य अपोनप्त्रीयम् , मन्त्रः // 1.1 // अपोनप्त्रियम् / अपानप्त्रीयम ,अपानस्त्रियम् / 105/ अव० 'देवता' इति सूत्रे सास्येत्यनुवर्त्तते, ततः अव०-अपकृतमूनं यस्य अपोनम् , अपोनं सेति प्रथमान्तात् नाम्नः परात् अस्येति षष्ठयर्थ पातयति अपोनपात् ,किप , ‘णेरनिटि'(४।३।८३) / इति सूत्रार्थ उपपन्नः // 101 // तथा न पानीति नखादित्वान्नकारलोपाभावः, ततोपैङ्गाक्षीपुत्रादेरीयः // 6 / 2 / 102 // अपां नपात् , षष्ठयलुप् समासः (अपानपात्), भत एव निर्देशात् याजकादित्वाद्वा समासः, 'षष्ठयाः म०वृ०-पैङ्गाक्षीपुत्रादिभ्य 'ईयः' स्यात् / क्षेपे' (3 / 2 / 30) इति आमो न लुप् / अपोनपात् अपासास्य देवता इति विषये नाम्नि / पैङ्गाक्षीपुत्रो अपात्शब्दयोः पात्सम्बन्ध्याकारस्य (? आच्छब्ददेवता अस्य पैङ्गाक्षीपुत्रीयं हविः पैङ्गाक्षीपुत्रादि स्य) / / 105 // गणः प्रयोगतो ज्ञातव्यः // 102 / / महेन्द्राद्वा // 6 / 2 / 106 // अव०-१पिङ्गे अक्षिणी यस्य=पिङ्गाक्षः, 'सक् म० वृ०-महेन्द्रात सास्य देवतार्थे- 'ईय- इयौं' ध्यक्ष्णः स्वाङ्गे' (7 / 3 / 126) इत्यनेन ट: प्रत्ययः भवतः वा। महेन्द्रीयम् , महेन्द्रियम् ; पक्षे माहेसमासान्तः, पिङ्गाक्षस्यामत्यं वृद्धं स्त्री-'अत इन्' न्द्रम् / / 106|| (6 / 1 / 31), 'अनार्वे०' (2 / 4.78) इत्यनेन ष्य आप् , क-सोमायण / / 6 / 2 / 107 / / / पैङ्गाक्ष्यायाः पुत्रः-'च्या पुत्रपत्योः केवलयोरीच तत्पु. ___ म० वृ०-'कशब्दात् सोमाञ्च सास्य देवतेति रुषे' (2 / 4 / 83) इत्यनेन ईच् , अन्तरापत्ये वा विषये 'ट्यण' स्यात् / अणोऽपवादः / को-ब्रह्मा इम , 'नुर्जातेः' (2 / 4 / 72) की, पेङ्गाक्ष्याः पुत्रः= देवता अस्य कायं हविः, कायी इष्टिः ; सौम्यं पैङ्गाक्षीपुत्रः / / 102 / / सूक्तम् , सौमी ऋक् // 18 // शुक्रादियः // 6 / 2 / 103 प्रव०-'कायति इति कः, कचित् डः / मवृ०-शुक्रात् ‘इयः' स्यात् , सास्य देवता २कशब्दं प्रति णित्त्वस्य वैयर्थ्यात् अलोपोन भवति / विषये। शुक्रियोऽध्यायः / / 103 // सोमो देवता अस्य-सौम्यम् / / 107 / / शतरुद्रात्तौ / / 6 / 2 / 104 // धावापृथिवीशुनासीरा--ऽग्नीषोम-मरुत्वद्म००-शतरुद्रात् 'तौ ईय-इयौ' भवतः, वास्तोष्पति-गृहमेधादीययो // 6 / 2 / 108 / / सास्य देवतार्थे / 'शतरुद्रीयम् , शतरुद्रियम् / 104 // म० वृ०-एम्यः साऽस्य देवतेति विषये 'ईय प्रत्यय-यप्रत्ययौ भवतः / द्यावापृथिवीयम् , द्यावाप्रव०-'शतं संख्या येषाम्- 'मयूरव्यंसके.' पृथिव्यम् ; शुनासीरीयम ,शुनासीर्यम् ; उभग्नीषो(३।१।११६) इति समासः, शतसङ्ख्या रुद्राः शत मीयम , अग्नीषोम्यम् ; "मरुत्वतीयम् , मरुत्वत्यम् ; रुद्राः, शतरुद्रा देवता अस्य-शतरुद्रीयम् // 104 // “वास्तोपतीयम् , वास्तो पत्यम् ; हमधीयम् , अपोनपादपानपातस्तु चातः // 6 / 2 / 105 // | गृहमेध्यम् // 108 / / मवृ०- अपोनपात्- अपान्नपातशब्दाभ्याम् प्रव०-[प्राग जितादण् (6 / 2 / 13) ] 'अनि'ईय-इयो' भवतः, सा ऽस्य देवताविषये, तद्योगे | दम्य'० (6 / 1 / 15) इति औत्सर्गिकाणज्ययोर्बाधक Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 6 पा० 2 सू० 108-113 - 'द्यावापृथिवी०' इति वचनम् / द्यौश्च पृथिवी च- / प्रव०-'कालाद्भववत्' अत्र सूत्रे वन् प्रत्ययः 'दिवो द्यावा' (3 / 2 / 44) इति सूत्रेण द्यावादेशः, | सर्वसादृश्यार्थः / तेन यकाभ्यः प्रकृतिभ्यो येन विशेद्यावापृथिव्यौ देवता अस्य द्यावापृथिवीयम् / शुन- | षणेन ये प्रत्यया भवेऽर्थे भवन्ति ताभ्य एव प्रकृतिश्च वायः सीरश्चादित्यः-शनासीरौ, 'वेदसहश्रत'० | भ्यस्तेनैव विशेषणेन त एव प्रत्यया इह भवन्ति / - (3 / 2 / 41) इत्यनेन आत्वम् , तौ देवता अस्य= यथा मासेभवं मासिकमित्यादि। 'माले भवं मासि शुनासीरीयम् / अग्निश्च सोमश्च-अग्निषोमो कम् , 'वर्षाकालेभ्य': (6 / 3 / 80) इत्यनेन इकण् / देवता अस्य / मरुत्वान देवता अस्य मरुत्वतीयम्। | संवत्सरे भवम्- 'वर्षा'० इकण् / हेमन्त, हेमन्ते "वास्तोष्पतिः शक्रो देवता अस्य / गृहमेधते- 'कर्म- | भवं=हैमनम् , 'हेमन्ताद् वा तलुक च' (63 / 91) णोऽण' (5 / 1 / 72), गृहमेधो देवता उभ्य / / 108 // इत्यण , तकारस्य लोपः / वसन्ते भवं वासन्तम् / ५प्रावृषि भवम्- 'प्रावृष एण्यः ' (6 / 3 / 92) // 11 / / वायवृतुपित्रुपसो यः / / 6 / 2 / 108 // आदेश्छन्दसः 'प्रगाथे / / 6 / 2 / 112 // . म० ०-वायु-ऋतु-पितृ-उपस्भ्यः साऽस्य देवतेति विषये 'यः' स्यात। अणोऽपवादः] वाय म. वृ०-२प्रथमान्ता आदेश्छन्दसः अस्येति षष्ठ्यर्थे प्रगाथे वाच्ये 'यथाविहितं' प्रत्ययः स्यात् / देवता अस्य वायव्यम् , 'ऋतव्यम् , पित्र्यम् , पर क्तिरादिरस्य गाथस्य पादतः प्रगाथः ।आदे'उषस्यम् // 109 // रिति किम् ? अनुष्टुब् मध्यमस्य प्रगाथस्य / / 112 // प्रव०-'ऋतवो देवता अस्य / २पितरो देवता प्रव०-यत्र द्वे ऋचौ प्रग्रन्थनेन प्रकृष्रच-- मस्य=पित्र्यम् , 'ऋतो रस्तद्धिते' (1 / 2 / 26) रः / नाविशेषेण प्रकर्षानेन या, प्रकर्षगानेन (इति) उषो (? उष) उषा वा देवता अस्य, सन्ध्यावाचकः कोऽर्थः ? उच्चारविशेषेण, तिस्रः क्रियते स मन्त्र- . बीलीवः प्रभातवाचकस्तु नपुंसकः // 10 // विशेषः प्रगाथ इत्युच्यते / आदेश्छन्दसः' इति सूत्रे महाराज-प्रोष्ठपदादिकम् // 6 / 2 / 110 // सेति प्रकृतिः अस्येति प्रत्ययार्थश्चानुवर्तते, तयो म. वृ०-आभ्यां साऽस्य देवतेति विषये यथाक्रमं विशेषणी आदेश्छन्दस इति प्रगाथ इति 'इकण' स्यात् / माहाराजिकः, माहाराजिकी; च, ततोऽयं सूत्रार्थः- सेति प्रथमान्तादादेरित्यादि। प्रोष्ठपदिकः, प्रोष्ठपदिकी // 110 // उआदिभूतात् , प्रकृतिविशेषणम् / एवमानुष्टुभः, जागतः // 112| प्रव०-'महाराजो देवविशेषो न तु राजा, ___ योद्धप्रयोजनाद् युद्धे // 6 / 2 / 113 // (महाराजो) देवता अस्य-माहाराजिकः / प्रोष्ठो गौः, तस्येव पादौ यस्य- 'सुप्रात'० (73 / 129) म० वृ०-सेति प्रथमान्ताद् योग्राचिनः प्रयोजन वाचिनश्च अस्येति षष्ठ्यर्थे युद्धे वाच्ये 'यथाविहितं' इति डे (प्रोष्ठपदः) // 110 // ['प्राग जितादण' (6 / 1 / 13)] प्रत्ययः स्यात् / विद्याकालाद्भववत् // 6 / 2 / 111 / / धरा योद्धार अस्य युद्धस्य वैद्याधरं युद्धम् , भारतं म०व०-कालविशेषवाचिभ्यो नामभ्यो यथा भवे युद्धम् / प्रयोजनं प्रवृत्तिसाध्यं फलम् / सुभद्रा प्रयोऽर्थे प्रत्यया वक्ष्यन्ते तथा सास्य देवतेऽर्थे (?देवतार्थे) जनमस्य युद्धस्य सोभद्रं युद्धम् / सौतारम् / / 113|| भवन्ति / यथा मासे भव='मासिकम् , रसांवत्सरिकम ,(हैमनम् ,') वासन्तम्", "प्रावृषेण्यम् ,तथा प्रव०-योद्धप्रयोजनादिति किम् ? मासोऽस्य मासो देषता अस्य-मासिकम् , सांवत्सरिकम् , युद्धस्य / युद्ध इति किम् ? सुभद्रा प्रयोजनमस्य वैरहैमनम् , वासन्तम् , प्रावृषेण्यम् / / 111 / / स्य // 113 / / Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्यधीतेऽर्थे प्रत्ययविधानम्] मध्यमवृत्त्वषचूरिसंवलितम् / [313 भावघोऽस्यां णः // 6 / 2 / 114 // व्याकरणं वेत्त्यधीते वा वैयाकरणः' / घटं वेत्ती__ म० वृ०-सेति प्रकृतिविशेषमनुवर्तते / भावे त्यादावनभिधानान्नाण् // 11 // यो घञ् तदन्तात्प्रथमान्ताद् 'अस्यामित्यर्थे [अस्या प्रव०-१'प्वः पदान्तात् प्रागैदौत्' (74 / 5) मिति स्त्रीलिङ्गे सप्तम्यर्थे] ‘णः' स्यात् / प्रपातोऽ. इति सूत्रेण ऐत आगमः / / 117 / / स्यां तिथौ वर्तते प्रापाता, एवं दाण्डाघाता। भावग्रहणं किम् ? २प्राकारोऽस्याम् // 114 / / न्यायादेरिकण // 6 / 2 / 118 // म० वृ-न्यायादिभ्यो वेत्त्यधीतेऽर्थे 'इकण' प्रव.-'अस्यामित्यत्र स्त्रीलिङ्गग्रहणादिह स्यात् / न्यायं वेत्त्यधीते वा-नैयायिकः, एवं मौहूप्रत्ययो न भवति,- दण्डपातोऽस्मिन दिवसे इति र्तिकः, नैमित्तिकः // 118 // वाक्यमेव / प्रकुर्वन्ति तमिति प्राकारः, प्रक्रियते वा- 'भावाकोः' (5 / 3 / 18) घञ् / एवं प्रासादो प्रव०-न्याय, मुहूर्त, निमित्त, न्यास, पुनऽस्याम् , प्रसीदत्यनेन प्रासादः, 'व्यञ्जनाद् घर' रुक्त, लोकायत, परिषद् , चर्चा, क्रमेतर, श्लक्ष्ण, (5 / 3 / 132) / कचिन्न भवति-द्रोणपाकोऽस्यां स्था संहिता, पदे, पद, क्रम, संघट,सघटा, वृत्ति, संग्रह, ल्याम् // 114 // आयुर्वेद, गण, गुण, स्वागम, इतिहास,पुराण,भारत, ब्रह्माण्ड, आख्यात, द्विपदा, ज्योतिष, गणित, अनश्यैनम्पाता-तैलम्पाता // 6 / 2 / 115 // स्त, लक्ष्य, लक्षण, अनुलक्ष्य, सुलक्ष्य, वसन्त, म. वृ०-श्येनतिलयोर्भावघबन्ते पाते परे वर्षा, शरद् , हेमन्त, शिशिर, प्रथम, चरम, प्रथममोऽन्तो निपात्यते / प्रत्ययः पूर्वेणैव सिद्धः / श्ये- गुण, चरमगुण, अनुगुण, अथर्वन , आथर्वण इति नपातोऽस्यां वर्त्तते-श्यैनम्पाता। तैलम्पाता तिथि: न्यायादिगणः / 'मुहूर्त वेत्ति अधीते वार निमित्तं क्रियाभूमिः, क्रीडा वा // 115 // . वेत्त्यधीते वा, 'न्यायादेरिकण' (6 / 2 / 118) / 118 // 'पद-कल्प-लक्षणान्त-क्रत्वाख्यानाख्यायिकात् अव०-'तिलपातोऽस्यां वर्त्तते // 115 / / // 6 / 2 / 119 // .. प्रहरणात् क्रीडायां णः // 6 / 2 / 116 // म० ०-पदकल्पलक्षणशब्दान्तेभ्यः क्रत्वाम० ३०-प्रहरणवाचिनः प्रथमान्तादस्यामि- ख्यानाख्यायिकावाचिभ्यश्च वेत्त्यधीतेऽर्थे 'इकण्' त्यर्थे त्रिीलिङ्गसप्तम्यर्थे] क्रीडायां 'णः' स्यात् / / स्यात् / पदान्त,- पौर्वपदिकः, औत्तरपदिकः / 'दण्ड: प्रहरणमस्यां क्रीडायां-दाण्डा / यत्राद्रो- बहुप्रत्ययपूर्वात् पदशब्दान्नेकण अनभिधानात् / हेण घातिप्रतघातौ स्यातां सा क्रीडा / क्रीडायामिति कल्पान्त,- "मातृकल्पिकः, पैतृकल्पिकः / लक्षणाकिम् ? खड्गः प्रहरणमस्यां सेनायाम् / / 116 // न्त,- आश्वलक्षणिकः, गौलक्षणिकः / लाक्षणिक इति न्यायादिकण् / क्रतु,- आग्निष्टोमिकः, राजप्रव०-दाम्यति जनोऽनेनेति दण्डः, 'पञ्च सूथिकः / आख्यान,- प्यावक्रीतिकः, यावक्रिकः / माहः' (उ. 168) इत्युणादिसूत्रेण डप्रत्ययः / / 116 / / आख्यायिका [बहत्कथा],-वासवदत्तिकः / / 119 / / तद्वत्त्यधीते // 6 / 2 / 117 // प्रव०-पदादिशब्दसाहचर्यात् कल्पस्यापि म० ०-तदिति द्वितीयान्तात् वेत्ति अधीते नाम्न एव ग्रहणम्, न प्रत्ययस्य / पदं कल्पश्च इत्यर्थयो-'यथापिहितम् (अण् )' प्रत्ययः स्यात् / / लक्षणं च-पदकल्पलक्षणानि, तानि अन्ते यस्य मुहूर्त वेत्ति-मौहूर्त्तः / छन्दोऽधीते छान्दसः / / शब्दस्य, ते (? स) च क्रतवश्च आख्यानं च आख्या Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशम्दानुशासन [भ० 6 पा० 2 सू० 120-123 यिका च / पूर्व च तत् पाई-पूर्वपदं वेत्त्यधीते वा। | त्रिविद्यां वेत्तीति तद्वेत्त्य०' अण् , अथवा अनेन (एवम् ) भानुपदिकः / 'मातुः कल्पं माकल्पं | इकण , अत्र हि द्विगोरनपत्ये०' (6:1924) इत्यवेत्त्यधीते वा / "एवं श्राद्धकल्पिकः / अश्वानां गवां | नेन अणो लुपि अथवा इकणो लुपि सत्यां विशेषालक्षणमश्वलक्षणं, गोलक्षणम् तं वेत्ति / एवं हास्ति- भावात् त्रिविद्यः इति प्रयोः स्यात् / / 121 / / लक्षणिकः, सौलक्षणिकः / अग्नीनां स्तोमः, याज्ञिकोक्थिक ले.कायितिकम् / / 6 / 2 / 122 / / अग्ट्रिोमं वेत्यधीते, इकण, 'ज्योतिरायुभ्यां च स्तोमस्य' '2 / 3 / 17) इति सस्य ष: / यवैः क्रीतं म. वृ०-याज्ञिकाया इकणन्ता निपात्यन्ते / यवाः क्रीता अस्मिन्निति वा इति यवक्रीम् , यत्र 'याज्ञिकः / २औक्थिकः / लोकायितिकन / / 12 / / क्रीतं नामाख्यातम् , तद्वेत्त्यधीते। 'यक्रिय नधि अव०-'याज्ञिक क्थिक०' इति सूत्रे उदाहकृत्य कृतमाख्यानम् , 'अमोऽधिकृत्य प्रन्थे' (6 / 3 / रणानामियं सिद्धिः,- यज्ञ, यज्ञं वेत्त्य०, अनेन 198) इत्यण , यावक्रम्, तद्वेत्तीति / / 119 // इकणि सति याज्ञिक इति शब्दः, तदनन्तरं याज्ञि"अकल्पात्सूत्रात् // 6 / 2 / 120 // कानां धर्म आम्नायः सङ्घो वा, याज्ञिक्यः, 'छन्दोगौ- म० वृ०-कल्पवर्जात्परो यः सूत्रशब्दस्तद- क्थिक०' (6 / 3.166) इति व्यः प्रत्ययः, यज्ञं न्ताद्वेत्त्यधीतेऽर्थे 'इकण' स्यात् / वार्त्ति सूत्रिकः' / / याज्ञिक्यं वा वेत्त्यधीते वा, 'याज्ञिकोक्थिक०' (6 / अकल्पादिति किम् ? काल्पसौत्रः // 120 / / 22122) इत्यनेन इकण , इक्य इति लुप्यते निपा तनात् / उक्थशब्द: केषुचित् सामसु प्रसिद्धः, प्रव०-'वृत्तिश्च सूत्रं च वृत्तिसूत्रे वेत्त्यधीते उक्थमधीते, इकण ,औस्थिकानामयं धर्मः आम्नायः था। अकल्पादित्यत्र पर्यदासेन पूर्वपदाभावे इकण सङ्घो वा, छन्दोगौक्थिक०' (6 / 3 / 166) इति व्यः, न भवति, यथा सूत्रं वेत्त्यधीते 'तद्वेत्त्यधीते' औक्थिक्यमधीते, अनेन इकण इक्यलोपश्च / लोके (6 / 2 / 117) इत्यण् / तथा कल्पसूत्रं वेत्त्यधीते आयतं लोकायतम् , लोकायतं वेत्ति, 'याज्ञिको. 'तद्वेत्त्यः ' अण; 'अनुशतिकादीनाम' (14.27) विथ 50' (62 / 122) इत्यनेन इकण , निपातनात् इत्यनेन उभयपदवृद्धिः / / 120 // यकाराऽकारस्य इकारो निपात्यते,लौकाथितिकभिति निष्पन्नम् / लौका यतिकमिति 'न्यायादेरिकण' अधर्मक्षत्रिसंसर्गाङ्गाद्विद्यायाः // 6 / 2 / 121 / / (6 / 2 / 118) इत्यनेन साध्यते // 122 // म. ०-धर्म-क्षत्र-त्रिसंसर्गा--ऽङ्गवर्जिता अनुब्राह्मणादिन् // 6 / 2 / 123 // परो यो विद्याशब्दस्तदन्ताद्वेत्त्यधीतेऽर्थे ‘इकण्' स्यात् / वायसविधिकः / अधर्मादिति किम् ? म. वृ०-अनुब्रामणशब्दाद्वेत्त्यधीतेऽर्थे इन् वैद्यः, धार्मविद्यः, क्षात्रविद्यः, विद्यः, सांसर्ग स्यात्। 'मनुब्राह्मणी, अनुब्रामणिनौ, अनुब्राझ. विद्यः, आङ्गविद्यः // 12 // णिनः / मत्वर्थीयेनैव इना सिद्धेऽनभिधानाच [ मत्वर्थीयस्यैव ] इकस्याप्रवृत्तावण्वायनामिनो प्रव०-वायंगतिं चटकादिपक्षिणां स्यति विधानम् // 12 // हन्ति (इति) वायसः, वायसस्य विद्या, तां वेत्त्यधी। प्रव०-'ब्रह्मणा प्रोतो ग्रन्थो ब्राह्मणम् , तेन, ध्यवयवा विद्या त्रिविद्याः, तां वेत्त्यधीते, 'तद्वे- प्रोत' (63 / 181) इत्यण , अनु साश्ये, ब्राह्मणत्यधीते' (62 / 117) अण , अत्र स्थाने त्रिविद्या- | सहशो प्रन्थोऽनुब्राह्मणम्, सहगर्थेऽव्ययीभावः, शब्दस्य कर्मधारयसमाससम्बन्धिन एव ग्रहणम्, / अनुब्राह्मणं वेत्त्यधीते-अनुब्राह्मणी, इन् , सि, औ,' नरियोः , तिम्रो विद्या(:)=त्रिविद्या(:),भयं द्विगुः, / जस् / / 12 / / Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्वत्त्यधीतेऽर्थे प्रत्ययलुविधानम् ] मध्यमवृत्त्परिसंवलितम् / [315 शतपष्टेः पथ इकट् // 6 / 2 / 124 // | गुरोर्व्यञ्जनात् ' ( 5.3 / 106 ) इति अः प्रत्ययः, म० वृ०-शतषष्टिशब्दाभ्यां परो यः पथिन | शिक्षा वेत्ति शिक्षकः / / 126 // तदन्ताद्वेत्त्यधीतेऽर्थे 'इकट' स्यात् / 'शतपथिकः, ससर्वपूर्वाल्लुप् / / 6 / 2 / 127 / / शतपथिकी, उपष्टिपथिकः // 124|| ____ म०वृ०-सपूर्वात् सर्वपूर्वाञ्च वेत्यधीतेऽर्थे प्रव०-शतं पन्थानो अस्य-'ऋक्पू:पथ्यपोऽत्' विहितस्य प्रत्ययस्य 'लुप्' स्यात् / सवार्तिकमधीते (73 / 76) अत् , 'नोऽपदस्य तद्धिते' (7 / 4 / 61), सवार्तिकः,अणो लुप्; उसकल्पः,अत्रेकणः (लुप्) / सर्ववेदः, "सर्वविद्यः / कथं द्विवेदः ? 'द्विगोरनशतपथं वेत्ति-शतपथिकः / २अणये' (2 / 4 / 20) इति की। उपष्टिः पन्थानो अस्य / (एवम् ) पत्ये यस्वर०' (6 / 1 / 24) इति लुपि भविष्यति षष्टिपथिकी // 14 // // 127 // 'पदोत्तरपदेभ्य इकः // 6 / 2 / 125 // अव-सश्च सर्वश्च ससर्वो, ससर्वो पूर्वी म० वृ०-पदोत्तरात् पदशब्दात् पदोत्तरपद यस्य शब्दस्य स (ससर्वपूर्वः), तस्मात् / वृत्तिरेव शब्दाच्च वेत्त्यधीते 'इकः' स्यात् / पदोत्तर,- पूर्व वार्त्तिकम् , 'विनयादिभ्यः' (7 / 2 / 169) इकण् , सह वार्तिकेन वर्त्तते, 'सहस्य सोऽन्यार्थे' (3 / 2 / पदिकः, पूर्वपदिका, उत्तरपदिकः / पद,- पदिकः, 143) सहस्य सः, सवार्त्तिकमधीते- 'तद्वेत्त्यधीते' पदिका / पदोत्तरपद,- पदोत्तरपदिकः // 125 / / , (6 / 2 / 117) इत्यण , अस्य अणः 'ससर्वपूर्वा०' प्रव०-पदशब्द उत्तरपदं यस्य, पदोत्तर- इत्यनेन लोपः / सह कल्पेन, सकल्पं वेत्तिपदश्च पदश्च पदोत्तरपदश्च, सूत्रत्वादेकशेषः, अत्र 'पदकल्प०' (6 / 2 / 119) इत्यनेन इकण , 'ससर्व०' बहुवचनं सर्वभङ्गपरिग्रहार्थम् / पूर्व च तत् पदं इत्यनेन लुप्यते / 'सर्वे च ते वेदाश्व-सर्ववेदाः, च-पूर्वपदं वेत्ति। (एवम् ) उत्तरपदिका। * (एवम् ) सर्ववेदान् अधीते-'तद्वत्त्य०' (6 / 2 / 117) इत्यनेन पदोत्तरपदिका // 125 // अण : "सर्वविद्यां वेत्त्यधीते- 'अधर्मक्षत्र०' (62 / पद-क्रम--शिक्षा-मीमांसा--साम्नोऽकः' . 121) इत्यनेन इकण , 'ससर्व'० इत्यनेन अणि कण्लोपः / / 127 // // 6 // 2.126 // सङ्ख्याकात्सूत्रे // 62 / 128 / / म० वृ०-एभ्यो वेत्त्यधीतेऽकः' स्यात् / पदकः, म०वृ०-सङ्ख्यायाः परो यः कः प्रत्ययो विहिक्रमकः, शिक्षकः, मीमांसकः, सामकः // 126 / / तस्तदन्तात् सूत्रे वर्तमानान्नाम्नो वेत्त्यधीते उत्पन्नप्रव०-'अत्र अकस्थाने यदि कप्रत्ययं स्य प्रत्ययस्य 'लुप्' स्यात्। अष्टकाः पाणिनीयाः, कुर्यात् , अकमपनीय क इति कृते इत्यर्थः, तदा उदशका उमास्वातीयाः, द्वादशका 'आर्हताः / शिक्षाका, शिक्षिका,शिक्षका, मीमांसाका, मीमांसिका, | संख्येति किम् ? कालापकाः। कादिति किम् ? मीमांसका इति * रूपत्रयमनिष्टं स्यात् , शिक्षिका चातुष्टयाः // 128 / / मीमांसिका इत्येव एकं रूपं वृद्धसम्मतमिष्यते इति अव०-अप्रोक्तार्थ आरम्भोऽयं योगः। सूत्रो. अकप्रत्ययविधानम् / 'अस्यायत्तत्क्षिप०' (2 / 4 / 111) | दाहरणान्येवम्- 'अष्टावध्यायाः परिमाणमस्य= इति नित्यमिकारः / 2 शिक्ष्यते इति शिक्षा, 'क्तटो / अष्टकम् , 'सङ्ख्यायाः सङ्घसूत्रपाठे' (6 / 4 / 171) * * इच्चापु सोऽनित्क्याप्परे" (2 / 4 / 107) इत्यनेन / - Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [म०६ पा०२ सू० 129-130 इति सूत्रेण कप्रत्ययः, अष्टकं सूत्रं विदन्त्यधीयते . प्रत्ययस्य 'लुप् ' स्यात् / 'गौतमः, एवं रसौधर्मः, वा, 'तद्वेत्त्यधीते' वा अण् / २पणनं-पणः, पणेाने' | उभाद्रबाहवः, "पाणिनीयः / 'स्त्रियां विशेष:(५।३।३२) अल् , पणोऽस्यास्ति- मत्वर्थीय इन् , | गौतमा, सौधर्मा [सौधर्मणा स्त्री इत्यादि] // 129 / / पणिनोऽपत्यं पाणिनः, 'सोऽपत्ये' (6 / 1 / 28) अण, पाणिनस्यापत्यम्- 'अत इच्' (6 / 1 / 31), प्रव-गास्ताम्यति इति गोतमः, 'कर्मणोपाणिनिः, पाणिनिना प्रोक्तम्- 'यूनि लुप्' ऽण' (5 / 1 / 72), गोतमेन प्रोक्त गौतमम्, गौतम (6 / 1 / 137) इति इञ् लुप्यते, ततो तेन प्रोक्तम् वेत्त्यधीते 'तद्वेत्त्य'० (6 / 2 / 117) अण् / शोभनो 'दोरीयः' (6 / 3 / 32) ईयः, पाणिनीयं विदन्त्यधीयते धर्मोऽस्य, 'द्विपदाद्धर्मादन्'; (7 / 3 / 141) इत्येकेषां वा 'तद्वेत्त्य०' (64 / 117) अण् / तथा दशाध्यायाः मते विकल्पः, सुधर्मेण सुधर्मणा वा प्रोक्त सौधर्म परिमाणमस्य-दशकं तत्त्वार्थशास्त्रम् , 'सङ्ख्यायाः सौधर्मणं वां वेत्त्यधीते; भद्रबाहुणा प्रोक्तं भाद्रसङ्घः' (6 / 4 / 171) इति कः, दशकं विदन्त्यधीयते. बाहवं वेत्त्यधीते, सर्वत्राण , अस्याणो लोपः सूत्रेण / भण् / उमास्वातेरिमे छात्राः उमास्वातीयाः। द्वादश "पाणिनिना प्रोक्तम्- 'दोरीय'- (6 / 3 / 32) विषये अङ्गानि आईतमूलग्रन्थविशेषाः, ते परिमाणमस्य एव 'यूनि लुप्' (6 / 1 / 137) इत्यनेन पूर्वमियो 'संख्यायाः सङ्घ' (6 / 4 / 271) इति कः, द्वादशकं लोपः, पश्चात् ‘दोरीयः' / “स्त्रियां विशेष' इत्ययं विदन्त्यधीयते (वा) अण् / सर्वत्र अणो लुप् भावार्थः- अणो लोपानन्तरमणन्तत्वाभावात् डीप्र'सङ्ख्याकात् सूत्रे' (6 / 2 / 128) इत्यनेन / अर्हन् त्ययो न भवति // 129 // देवता एषाम्- 'देवता' (6 / 2 / 101) इत्यण् / "बृहत्तन्त्रेभ्यः कलामापिबन्ति, 'कीचकपेचक०' (उ० वेदेन्ब्राह्मणमत्रैव // 6 // 2 // 130 // 33) इत्याधुणादिनिपातः, कलापकाः शास्त्राणि, तानि विदन्त्यधीयते वा;( अथवा ) कल् , पदा म. वृ०-प्रोक्तमिहानुवर्त्तते / तच्च प्रथमान्तं विपकल्यन्ते विविधवर्णा अत्र-'कलेरापः' (उणा०३०८), रिणम्यते / प्रोक्तप्रत्ययान्तं वेदवाचि, प्रोक्तप्रत्यकलापोऽस्याऽस्ति,इन् ,कलापिना प्रोक्त कालापम् , यान्तमिन्नन्त च ब्राह्मणवाचि अत्रैव वेत्त्यधीते इति भण् , 'कलापि-कुथुमि०' (74 / 62) इत्यनेन इनो विषये एव प्रयुज्यते / वेद,- कठाः, कालापाः / लोपः, अल्पं कालापं कालापकम् , 'कुत्सित'० (73 / इन्ब्राह्मणं खल्वपि,- ताण्डिनः / आरम्भसा३३) इति कः, तद्विदन्त्यधीयते वा; इत्थमपि शब्द- | मादवधारणे सिद्धे उभयावधारणाथमेवकारः / सिद्धिः, परं लुप्यलुपि सत्यां विशेषो नोपलभ्यते।। प्रोक्तप्रत्ययान्तस्यात्रैव वृत्तिर्नान्यत्र / तथात्र वृत्ति चतुर्, चत्वारोऽध्याया मानमस्य, अत्र "अपवादात् / रेव, न केवलस्य प्रोक्तप्रत्ययान्तस्यावस्थानम् / क्वचिदुत्सर्गोऽपि" इति ‘सङ्ख्यायाः सङ्घ०' इत्यस्य अन्यत्र त्वनियमात् कचित्स्वातन्त्र्यं भवति,- अर्हता कप्रसङ्गेऽपि अवयवात्तयट् '(7 / 1 / 151) इति तयट, प्रोक्तमाईतं शास्त्रम् ; कचिदुपाध्यन्तरयोगः,तत्र चत्वारोऽवयवा अस्य इति वाक्यम् , 'ह्रस्वान्ना आईतं महत्सुविहितमिति; कचिद्वाक्यम्-आईतमम्नस्ति' (2 / 3 / 34) षकारः,चतुष्टयं विदन्त्यधीयते धीते; कचिद् वृत्तिः-आर्हत इति / / 130 // वा-अण् / / 128 // प्रोक्तात् // 6 / 2 / 129 // अव०-१'अत्रैव', कोऽर्थः ? वेत्त्यधीते इत्यर्थे एवं इति प्रकृतिनियमः, अन्ययोगव्यवच्छेदात, ब्रह्मणा म० वृ०-प्रोक्तार्थविहितः प्रत्यय उपचारात् / प्रोक्तो प्रन्थो वेदरूपो ब्राह्मणम् , 'तेन प्रोक्ते' (6 / 3 / प्रोक्त इत्युच्यते, तदन्तानाम्नो वेत्त्यधीते उत्पन्नस्य / 181 ) इत्यण् , “धर्म दानाधिके तुल्यभागेऽर्द्ध Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तेन छन्ने रथे' इत्याद्यांधिकारः] मध्यमवयवचरिसवेलितम्। ब्राह्मणं श्रुतौ" इति नपुंसकत्वम् / 'प्रयुज्यते', / चर्मणा छन्नो रथश्चार्मणः, 'अणि' (4 / 53) कोऽर्थः ? वेत्त्यधीते इत्यर्थे एव प्रोक्तप्रत्ययान्तं नाम इत्यनेनान्त्यस्वरादिलोपप्रतिषेधः // 131 / / कर्तृपदं व्यापार्यते इत्यर्थः / प्रोक्तं वेत्त्यधीते इति पाण्डुकम्बलादिन् // 6 / 2 / 132 // मिभं वाक्यं क्रियते इति परमार्थः / तेम स्वातन्त्र्यम् , उपाध्यन्तरयोगो वाक्यं च निवर्त्तते / कठेन प्रोक्तो म. वृ०-पाण्डुकम्बलात् तृतीयान्तात् 'छन्ने वेदोऽपि कठ इति स्वातन्त्र्यमुच्यते इति युक्त्या रथेऽर्थे इन्' स्यात् / अणोऽपवादः / [पाण्डुश्वासी वाक्यं निवर्तितम् / उपाध्यन्तरं विशेषणान्तरं कठो कम्बलश्च, पाण्डुकम्बलेन छन्नः=] पाण्डुकम्बली महानिति / तथा परमपि वाक्यं कठं वेत्त्यधीते इत्थ रथः // 132 // मपि वाक्यं निवर्तितमित्यर्थः / इत्यस्याग्रे स्वातन्त्र्य- ___ दृष्टे साम्नि नाम्नि / / 6 / 2 / 133 मुपाध्यन्तरयोगो वाक्यं च निवत्तते इत्यक्षराणि म० वृ०-तेनेति तृतीयान्तात् ‘दृष्टं साम इस्ज्ञातव्यानि / कठेन प्रोक्त वेदं विदन्त्यधीयते वा यर्थे यथाविहितमण (एयण वा.)' स्यात् , नाम्नि= कठाः, 'तद्वत्त्यधीते' (6 / 2 / 117) अण् / 'कला संज्ञायाम् / मायूरम् , तैत्तिरम् , वासिष्ठम् , वैश्वापिना प्रोक्त वेदं विदन्त्यधीयते वा अण् , 'कठा मित्रम् , "कालेयम् , 'आग्नेयम् ; एवं नामानि दिभ्यो वेदे लुप्' (6 / 3 / 183) इत्यनेन अण् लुप्यते सामानि // 133 / / कठपरात् / : इन्ब्राह्मणं खल्वपि', कोऽर्थः प्रोक्तप्रत्ययान्तमिन्नन्तं च ब्राह्मणवाचि यत् सूत्राथें उक्त __ अव०-'मयूरेण दृष्टं साम मायूरम् / एवं तेचिरम्। तदर्शयति इत्यर्थः / तण्डते इति तण्डी, 'ग्रहादि- उ वसिष्टेन ऋषिणा दृष्टं सामवासिष्ठम् / कलिना भ्यो णिन्' (5 / 1 / 53), तण्डिनोऽपत्यं ताण्ड्यः , दृष्टं साम- 'दृष्टे साम्नि' इत्यणो बाधकः 'कल्यग्ने'गर्गादेर्यम्' (6 / 1 / 42), ताण्डयन प्रोक्त ब्राह्मणं रेयण (6 / 1 / 17) इत्येयण् / 'अग्निना दृष्टं सामविदन्त्यधीयते वा इति वाक्ये शौनकादिभ्यो णिन्' 'कल्यग्नेरेयण' // 133 // (6 / 3 / 186) इति णिन् , 'व्यञ्जनात्तद्धितस्य' (2 / 4 / 88) इति यलोपः, ततो जस् / 'अर्हता प्रोक्तं-- गोत्रादकवत् // 6 / 2 / 134 // 'तेन प्रोक्ते (6 / 3 / 181) अण् , आर्हतं वेत्त्य- म० वृ०-गोत्रवाचिनस्तृतीयान्तात् 'दृष्टे (? दृष्ट) धीते वा-मण ,प्रोक्तात् ' (6 / 2 / 129) इत्यनेन साम" इत्यर्थेऽङ्कवत् प्रत्ययः' स्यात् / / यथा तस्याभणो लोपः / / 130 // यमक इत्यत्र इदमर्थे प्रत्ययः तथा दृष्टं सामेत्यर्थेतेन' छन्ने रथे // 6 / 2 / 131 // ऽपि / औपगवं (? औपगवकम्) साम // 134 // म०० तेन इति तृतीयान्तात् 'छन्ने रथेऽर्थे ___ अव०-'अङ्कऽर्थे विशेषप्रत्ययाभावात् / यथा यथाविहितं [भण] प्रत्ययः' स्यात् / वस्त्रेण छन्नो अङ्के गोत्राददण्ड'० (6 / 3 / 169) इत्यनेन अकम् रथः वास्त्रः / [कम्बलेन छन्नो रथः%] काम्बलः, तथात्रापि इत्यर्थः / औपगव इति प्रकृतिः, ओप२चार्मणः / रथ इति किम् ? यस्त्रेण छन्नः कायः गवस्येदं औपगवकम् , 'गोत्राददण्डमाणवशिष्ये // 131 / / इति सूत्रेण अकबप्रत्ययः, भोपगवेन दृष्टं साम प्रव०-छन्नशब्देन समन्ताद् वेथितं व्या औपगवकमित्यर्थेऽपि अत्र भकञ् भवति // 134 // च्यते, तेनेह न भवति-पुत्रैः परिवतो रथः / / वामदेवाद् यः // 6 / 2 / 135 // ★श्रीमलिङ्गानुशासनविवरणे नपुंसकलिङ्गप्रकरणे सप्तमश्लोके / Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०६ पा० 2 सू० 136-143 म० अ०-वामदेवाद् ‘दृष्टे साम्नि यः' स्यात्।। 'स्थण्डिलाच्छेते व्रती // 6 / 2 / 139 // [वामदेवेन दृष्टं साम=] वामदेव्यम् // 135 // ___म०व०-स्थण्डिलात सप्तम्यन्तात् 'शेते व्रतीडिद्वाऽण् // 6 / 2 / 136 // त्यर्थे यथाविहितमण' स्यात् / स्थण्डिले एव शेते= म. व०-दृष्टे सामेऽर्थे योऽण विहितः स / स्थाण्डिलोभिक्षुः / व्रतीति किम् ? स्थण्डिले 'हत् वा' स्यात् / औशनम् , औशनसम् // 136 / / | शेते बालः // 139 // ____ अव०-नवशक् कान्तौ' वर , वष्टि दानवाभिमुखं- 'वष्टेः कनस् ' उ. 985), 'वशेरयहि' (4 / अव०-स्थण्डिलशब्दात् शेते इयस्मिन्नर्थे 1283) य्वृत् , उशनसा दृष्टं साम=औशनम् / 136 // यथाविहितं प्रत्ययो भवति, योऽसौ शेते स यदि व्रती भवति / तत्र शयनव्रतोऽन्यत्र शयनात् मञ्चवा जाते द्विः // 6 / 2 / 137 // पर्यङ्कादेनिवृत्त इत्यर्थः / स्थण्डिल एव शेते इति म० वृ०-जातेऽर्थे योऽण् द्विर्विहितः स 'वा स्थाण्डिलः // 139 / / डित्' स्यात् / 'शातभिषः, शातभिषजः। द्विरिति किम् हैमवतः // 137 // संस्कृते भक्ष्ये // 6 / 2 / 140 // ..म० वृ०-सप्तम्यन्तात् 'संस्कृते भक्ष्येऽर्थेऽण' प्रव०-१शतं भिषजोऽस्याः सा शतभिषग, | स्यात् / सत उत्कर्षाधानं संस्कारः / भ्राष्ट्र संस्कृताः शतभिषजा चन्द्रयुक्तया युक्तः कालः- 'चन्द्रयुक्ता. =भ्राष्ट्रा अपूपाः, एवं कैलासाः, पात्राः // 140 // काले०' (6 / 2 / 5) इत्यण लुप् च, शतभिषजि जातः अत्र वाक्ये प्रागजितीयोऽण् प्राप्नोति, तमणं बाधि प्रव०-यथाविहितं प्रत्यय इति / २किलासी%3D त्वा 'वर्षाकालेभ्यः' (6 / 3 / 80) इत्यनेन इकण घटकर्परी, तस्यां संस्कृताः / पात्रे संस्कृताः / / 140 / / प्राप्नोति, तमपि इकणं बाधित्वा ‘भर्तुसन्ध्यादेरण' शूलोखाद् यः / / 6 / 2 / 141 // (6389) भवति, एवं द्विवारमण कृतः, स विक म० वृ०-शूल-उखाभ्यां 'संस्कृते भक्ष्ये यः' ल्पेन डित् भवति / केचित्त द्वितीयवारमपि डित्त्व स्यात् / 'शूल्यं मांसम् उख्यम् // 141 / / मिच्छन्ति, तन्मते द्विर्डित्त्वात् द्वितीयवारमप्यन्त्य प्रव०-'शूले संस्कृतं-शूल्यम् / २उखायां स्वरादिलोपे शातभ इत्यपि भवति / एवं पूर्वसूत्रेऽपि / संस्कृतम-उख्यम् // 141 / / आशं साम इति प्रयोगः / इत्थं योगद्वयेऽपि त्रैरूप्यं सिद्धम् // 137 // क्षीरादेयण / / 6 / 2 / 142 / / तत्रोद्धते पात्रेभ्यः' // 6 / 2 / 138 / / म० वृ०-क्षीरात् 'संस्कृते भक्ष्ये एयण ' स्यात् / क्षरेयम् , क्षैरेयी यवागूः / / 142 / / म० वृ०-तत्रेति सप्तम्यन्तात्पात्रवाचिन 'उद्धृतेऽर्थे यथाविहितमण' स्यात् / शरावेषु उद्धृत अव०-'क्षीरे संस्कृतं भक्ष्यम् / / 142 / / मोदनः शारावः, माल्लकः२ / पात्रेभ्य इति किम् ? दन इकण // 6 / 2 / 143 // पाणावुद्धृत ओदनः // 138 / / म० वृ०-दधिशब्दात् संस्कृते 'इकण 'स्यात् / दधिन संस्कृतं भक्ष्यं-दाधिकम् / / 143 / / प्रव०-'पात्रेभ्यः इत्यत्र बहुवचनं पात्रविशेषपरिग्रहार्थम् / २प्रत्ययो भवतीत्यर्थः / मल्लकेषु अव०-ननु 'संस्कृते' (6 / 4 / 3) इत्यनेन संस्कृमल्लकासु वा उद्धृत ओदनः माल्लकः / एवं कार्परः, | तार्थे इकण वक्ष्यते, तेनैव सिद्धम् , किमनेन ? कल्पते यवादिकं भ्रष्टुमिति कर्परः // 138 // सत्यम् , दधना हि तत् संस्कृतं यस्य दधिकृतमेव Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोकापत्यादिभ्योऽन्यत्राप्यर्थे तद्धितप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यपरिसंवलितम् / - ऊत्कर्षाधानं भपति, अत्र च दधि केवलमाधार कचित् // 6 / 2 / 145 // भूतम् , द्रव्यान्तरेण तु लवणादिना संस्कारः क्रियते इत्यर्थः / अयं भारः दध्न इकण ' इति सूत्रे ज्ञात म. वृ०-अपत्यादिभ्योऽन्यत्राप्यर्थे कचित् व्यः / / 143 // 'यथाविहितं प्रत्ययः' स्थान / चक्षुषा गृह्यतेचाभुषं बोइश्विाः // 6 / 2 / 144 // रूपम् , एवं [श्रषणाभ्यां गृह्यते श्रावणः शब्दः, म० ०-उदधितशब्दात संस्कृते भक्ष्ये 'इकण / [दृषदि पिः=] दादाः सक्तवः, 'चातुर्दशं रक्षः, वा स्यात् / औदश्वितम् , औदश्वित्कम् // 144 // चातुरं शकटम् , आश्वो रथः / सम्प्रति युज्यते%3D साम्प्रतम् , साम्प्रतः // 145 // ग्रन्थाप्र-२२७ * अव०- 'उदकेन श्वयति-उदश्चित् , 'उदका. / षष्ठस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः। च्छोर्डि' (उ गा० 888) इत्युणादिसूत्रेण इत्प्रत्ययः, स च डिन् , नाम्न्युत्तरपदस्य च' (3 / 2 / 107) इति उदकस्य उद आदेशः, अत एव सूत्रनिर्देशान्न प्रब:-चतुर्दश्यां दृश्यतेचातुर्दशम् चतुर्मिवृत् . उदश्विति संस्कृतं भक्ष्यम् औदश्वितम् , अत्र रुह्यतेचातुरम्। अधैरुह्यते। "साम्प्रति (?साम्प्रती) 'संस्कृते भक्ष्ये' (6 / 2 / 140) इत्यण ; औदश्विकम् , इत्यपि वाच्यलिङ्गत्वात् / यस्तु 'स्वयं छेत्तुमसाम्प्रभत्र तु इकण्, 'ऋवर्णोवर्ण' (471) इति तम् , इति मन्यते तत् सामान्यभावेन / / 145 / / इलोपः / / 144 // ___ भव० श्लोक-३९६, अक्षर-६॥ // इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते सिद्धहेमशब्दानुशासने षष्टाध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः / / Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // महम् // // षष्ठोऽध्यायः॥ [तृतीयः पादः ] शेषे // 6 // 3 // 1 // - म० ०-दूराच्छेषेऽर्थे 'एत्यः' स्यात् / दूरे भवो-दूरेत्यः // 4 // ____म० पृ०-अधिकारोऽयम् / उपयुक्ताद् [प्रागुतात् ] अन्यः शेषः / यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामः उत्तरादाहा // 6 / 3 / 5 / / [विधास्यामः] तत् 'शेषेऽर्थे' वेदितव्यम् / अपत्या- म० वृ०-उत्तराच्छेषेऽर्थे 'आहम्' स्यात् / भ्यः संस्कृतभक्ष्यान्तेभ्यो योऽन्योऽर्थ स शेषः / 1 / / औत्तराहः,' औत्तराहा स्त्री / / 5 / / प्रव०- ‘स शेष' इत्यक्षराप्रे- तस्येदं विशेषा अव०-कथम् औत्तराही ? उत्तरा दिग् देशो अपत्यसमूहादयः, तेषु वक्ष्यमाणा एयणादयो मा वा रमणीयः- 'वोत्तरात्' (72 / 121) इत्यनेन भूवन्निति शेषाधिकारः क्रियते, किं च सर्वेषु प्राग. आहिप्रत्ययः, तत 'उत्तराहि भवा' इति वाक्ये 'भवे' जितात् कृतादिषु वक्ष्यमाणाः प्रत्यया यथा स्युः, अन (6 / 3 / 123) इत्यण , ततो डी, औत्तराही इति न्तरेणैवार्थनिर्देशेन कृतार्थता मा विज्ञायि इति सिद्धम् / 'उत्तरे कुशलः, "नामग्रहणे लिङ्गविशिसाकल्यार्थ शेषवचनम् // 1 // ष्टस्यापि ग्रहणम्" इति न्यायात्......." (उत्तरस्यां) नद्यादेरेयण // 6 / 3 / 2 // दिशि कुशलः (वा) औत्तराहः / / 5 / / म. वृ०-नद्यादिभ्यो यथासम्भवं प्रागजितीये | पारावारादीनः // 6 / 3 / 6 / / शेषेऽर्थे 'एयण' स्यात् / नद्यां जातो भवो वा= म० वृ०-पारावारात् शेषेऽर्थे 'ईनः' स्यात् / नादेयः, वानेयः / वन्य इति तु साधौ यः / पारावारीणः // 6 // शेष इति किम् ? नदीनां समूहो-नादिकम् ['कवचिहस्ति०' (6 / 14) इतीकण् ||2|| प्रव०- अवारः समुद्रस्तस्य पारम् ,राजदन्ताप्रव०-विशेषमाह- 'नद्यादेरेयण' इतः सूत्रा दित्वात् पारावारः, पारावारे भवो जातो वा पारादारभ्य प्रकृतिविशेषोपादानमात्रेण प्रत्यया विधा- वारीणः // 6 // स्यन्ते / तेषां तु कृतादयोऽर्था विभक्तयश्च परस्ताद् ___ व्यस्त-व्यत्यस्तात् / / 6 / 3 / 7 / / वक्ष्यन्ते / 'बने भवः / श्वने साधुः / / 2 / / म. वृ-पारावाराद् व्यस्ताद् विपर्यस्ताच 'ईनः' राष्ट्रादियः // 6 // 3 // 3 // स्यात् / पारीणः, अवारीणः, [अवारस्य पारम् , तत्र म. वृ०-राष्ट्रात् प्राजितीये शेषेऽर्थे 'इयः' | भवः=] अवारपारीणः // 7 // स्यात् / राष्ट्र क्रीतः कुशलो जातो भवो वा-राष्ट्रियः / द्यु-प्रागपागुदक्-प्रतीवो यः / / 6 / 3 / 8 // शेषे इत्येव- राष्ट्रस्यापत्यं राष्ट्रिः / / 3 / / म० वृ०-दिवशब्दात् प्राच-अपाच- उदच् (प्रत्यच्)दूरादेत्यः // 6 // 3 // 4 // शब्देभ्य अव्ययानव्ययेभ्यः शेषेऽर्थे 'यः' स्यात् / Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेषाधिकारः ]. मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [321 दिवि भवं =दिव्यम् , प्राचि प्राग्वा भवं-प्राच्यम् ,1 | 696) इत्युणादिसूत्रेण त्रिः / 'पूर्वयोगेन ग्रामीणः, अपाच्यम् , उदीच्यम् , प्रतीच्यम् / / 8 / / ग्राम्यौ; अनेन ग्रामेयकः, इति ग्रामशब्दस्य रूपत्र- . यम् / / 10 / / अव०-१प्राचीशब्दः, प्राची दिग रमणीया प्राग्देशः प्राकालो वा रमणीयः इति वाक्ये 'दिग् ___ कुण्डयादिभ्यो यलुक् च // 6 / 3 / 11 / / शब्दादिग्देशकाले.' (7 / 2 / 113) इति सूत्रेण धा म० वृ०-कुण्डयादिभ्यः शेषेऽर्थे 'एयकम्' प्रत्ययः, तस्य 'लुबञ्चेः' (7 / 2 / 123) इति सूत्रेण स्यात् , तद्योगे चैषां 'यलुक् च' / कौण्डेयकः // 11 // लुप् , धालुपि डीप्रत्ययस्यापि .'ड्यादेौणस्याकिप०' (2 / 4 / 95) इत्यादिनालुप् , इत्थं प्राच् इत्य अव०-कुण्डया, कुण्या, उक्ष्या, भाण्डया, ग्रामव्ययम् , प्राग्भवं प्राच्यम् / प्राच विवन्तोऽनव्य कुड्या, 'तृण्या, रेवन्या, पल्या, पुल्या, मुल्या यम् , तत्र प्राचि भवं प्राच्यम् / एवमपाच्यादि. इति कुड्यादिगणः / बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम् / सिद्धिः / दिगदेशवृत्तेः प्रागादेरयं यः प्रत्ययः / काल सर्वत्र 'तत्र साधी (1 / 15) यः / तृणानां वृत्तेस्त्वव्ययंत्वात्परत्वात् 'सायम्' (6 / 3 / 88) इत्या श्वनानां समूहः,- 'पाशादेश्च ल्यः' (6 / 2 / 25) / दिना तनट, अनव्ययात्त 'वर्षाकालेभ्यः' (6 / 3 / मूल (? मूले) सा................ (धुः, “तत्र साधौ" 80) इतीकण , प्राक्तनं प्राचिकमित्यादि / / 8 / / इति यः, ऊकारस्य) पृषोदरादित्वात् ह्रस्वः // 11 // ग्रामादीना च.॥६।३।९॥ कुल-कुक्षि-ग्रीवाच्छ्वास्यलङ्कारे // 6 // 3 // 12 // म० वृ०-ग्रामाच्छेषेऽर्थे 'ईनम्' चकाराद् 'यः' म० वृ०-कुलकुक्षिग्रीवाभ्यो यथासङ्घय श्वन्प्रत्ययः स्यात् / ग्रामीणः, ग्राम्यः / बकारः पुंवद्भा असि-अलङ्कारविशिष्ट प्राग्जितीये शेषेऽर्थे 'एयकम्' वप्रतिषेधार्थः- ग्रामीणाभार्यः / / 9 / / स्यात् / अणोऽपवादः / 'कौलेयकः श्वा, कौलोऽ न्यः / कौक्षेयकोऽसिः / अवेयकोऽलङ्कारः, प्रैवोअव०-ग्रामीणा भार्या अस्य ग्रामीणाभार्यः, ऽन्यः // 12 // अत्र 'तद्धितः स्वरवृद्धिहेतुः०' (3 / 2 / 55) इत्यादिना * * पुंवद्भावप्रतिषेधः // 9 // प्रव०-'कुले शुद्धान्वये भवति (? भवः) ....... (जातो वा) कौलेयकः / कुक्षौ भवः कौक्षेयकः, कन्यादेश्चैयकत्र / / 6 / 3 / 10 // यः खड्गः कङ्कप्राणिविशेषकुक्षिनिर्जिणेन अयसा म० वृ०-कत्रि इत्यादिभ्यो ग्रामशब्दाच्च शेषे- / कृतः / ......... (कौक्षोऽन्यः) / ..............."यकः ऽर्थे 'एयकम्' स्यात् / कात्रेयकः, ग्रामेयकः // 10 // / असिः (?) / ग्रीवायां जातो त्रैवेयकः / भवेऽर्थे प्रव०-कत्रि, पुष्कर, पुष्कल, उम्पि, उम्भि, तु वाच्ये “ग्रीवातोऽण् च” (6 / 3 / 132) // 12 // औम्भि, कुम्भी, कुण्डिना, नगर, महिष्मती, वर्म- दक्षिणा-पश्चात्-पुरसस्त्यण // 6 // 3 // 13 // वती, चर्मण्वती इति कत्र्यादिगणः / महिष्मत्यादि- म० वृ०-एभ्यः शेषेऽर्थे 'त्यण' स्यात् / साहचर्यात् नगरशब्दात् संज्ञायामेव एयक भवति, [अणोऽपवादः] दाक्षिणात्यः, पाश्चात्त्यः, पौरअन्यत्र अणेव- नागरो ब्राह्मण इति / नगर इति स्त्यः // 13 // स्थानकविशेषवाची ज्ञातव्यः, न सामान्यनगरवाची / कुत्सिताः के वा त्रयोऽस्य–कत्रिः, अत एव प्रव०-दक्षिणा दिक् , तस्यां भवो दाक्षिनिर्देशात् ‘कत्रि' इति निपात्यते / अथवा कद् इति णात्यः, अथवा दक्षिणस्यां दिशि वसति इति वाक्ये सौत्रो धातुः, 'राशदिशकिकद्यदिभ्यस्त्रिः' (उणा० ) “वा दक्षिणात् प्रथमासप्तम्या आः" (7 / 2 / 119) Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०६ पा०३ सू० 14-19 - इति सूत्रेण आप्रत्ययः, ततो दक्षिणायां भवो दाक्षि- / राङ्कवः कम्बलः // 15 // णात्यः, 'दक्षिणापश्चात्' इति त्यण् / तथा अपरा प्रव०-मनुष्ये तु प्राणिन्यपि कच्छादिपाठात् दिग् देशः कालो वा रमणीय इति वाक्ये 'अधराप 'कच्छादे नृस्थे' (6 / 3 / 55) इति परत्वाद् अकबेव, राश्चात्' (7 / 2 / 118) इति सूत्रेण आत् प्रत्ययः, 'पश्चोऽपरस्य दिक्पूर्वस्य चाति (7 / 2 / 124) इति रावको मनुष्यः॥१५॥ सूत्रेण 'पश्च' इत्यादेशः, पश्चाद् भवः, ततोऽनेन कहा-ऽमा-ऽत्र-तसस्त्यच // 6 / 3 / 16 // त्यण् / पूर्वा पूर्वो वा दिग् देशः कालो वा रम- म. वृ०-क-इह-अमा इत्येतेभ्यः व्रतस्णीयः, 'पूर्वापराधरेभ्योऽसस्तातो परवधश्चैषाम' प्रत्ययान्तेभ्यश्च शेषेऽर्थे 'त्यच' स्यात / क भवः=] (7 / 2 / 115) इति सूत्रेण अस्प्रत्ययः, पूर्वशब्दस्य 'कत्यः, २इहत्यः, अमात्यः, तत्रत्यः, यत्रत्यः, च 'पुर्' इत्यादेशः ; पुरो भव इति वाक्ये 'दक्षिणा | ततस्त्यः, “यतस्त्यः, कुतस्त्यः / चकारस्त्यणपश्चा०' इति त्यण् / पश्चात्पुरस्शब्दसाहचर्याद् / त्यचोः सामान्यग्रहणाविघातार्थः // 16 // दक्षिणा इति दिगशब्दोऽव्ययं वा गृह्यते / तेनेह न भवति- दक्षिणायां भवानि दुग्धादीनि दाक्षिणानि अव०- कस्मिन् क, अस्मिन् इह, 'ककुत्राजुहोति इति प्रयोगः / अत्र दक्षिणाशब्दो यज्ञादिषु बेह' (72 / 93) निपातः, निपातनात किम: स्थाने देयवस्तुगोहेन(? हेम)धनादिवस्तुवाची / दाक्षि- क , त्रप्रस्थाने अकार आदेशः ; इह (इति) अत्रापि णात्यः, अत्र सर्वादित्वाभावात पंवदभावप्राप्तिरेव इदमः स्थाने इ, तपस्थाने ह / उअमा, कोऽर्थः सह नास्ति, सर्वादौ हि दक्षिण इति शब्दः, न दक्षिणा भूपालेन एकान्ते भवतीत्यमात्यः / तत आगतः= // 13 // ततस्त्यः। यत. आगतो यतस्त्यः / किम् , कस्मात् , वहल्यर्दि-पर्दि-कापिश्याष्टायनण कुतः, 'किमद्वयादि०' (7 / 2 / 89) इत्यादिना तस् , 'इतोऽतः कुतः' / / 7 / 2 / 90) इति सूत्रेण किमस्थाने // 6 / 6 / 14 // कुनिपातः, कुत आगतः कुतस्त्यः / 'स्त्रज्ञाजभस्त्राम० वृ०-वह्नि-ऊर्दि-पर्दि-कापिशीभ्यः शेषे- | धातु 2 / 4 / 108) इत्यादिषु // 16 // ऽर्थे 'टायनण' स्यात् / 'बाह्रायनः, वाह्नायनी; एव नेध्रुवे // 6 // 17 // मौर्दायनः, पार्दायनः, 'कापिशायनं मधु, कापिशायनी द्राक्षा // 14 // म० वृ०-निशब्दात् ध्रु वे 'त्यच्' स्यात् / नित्यं ध्र वम् // 17 // अव०-'वह्निर्देशविशेषः, वह्निषु भवो वाह्ना- प्रव०-निश्चिते काले भवं नित्यम् // 17 // यनः, एवमप्रेऽपि / ऊर्दिः क्रीडा। उपर्दिः पर्दनम् / निसो गते // 6 // 3 // 18 // कपिशाः मर्कटाः, कपिशा अत्र सन्ति, 'तदत्रास्ति' म० वृ०-निस्शब्दाद् गतेऽर्थे 'त्यच्' स्यात् / (6 / 2 / 70 ) इति अण् , डी, कापिशी अटवी, निष्ट्यश्वण्डालः // 18 // कापिश्यां भवो भवा वा // 14 // रङ्कोः प्राणिनि वा // 6 // 3 // 15 // प्रव०-निर्गतो वर्णाश्रमेभ्य इति 'ह्रस्वान्नाम० वृ०- कुशब्दात् प्राणिनि विशिष्टे शेषे- / म्नस्ति' (2 / 3 / 34) इत्यनेन सकारस्य षकारः // 18 // ऽर्थे 'टायनण' स्यात् / [रक कुषु भवः=राङ्कवा का भव: 7 राडवा- ऐषमो-यः-श्वसो वा // 6 / 319 / / यणः / पक्षेऽण- राङ्कयो गौः। प्राणिनीति किम् ? / म० वृ०-ऐषमस् ह्यस् श्वस् इत्येतेभ्यः Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘शेषार्थाथिकारः ] मध्यमारकापरिसंपतितम्। शेषेऽर्थे 'त्यच् वा' स्यात् / ऐषमस्त्यम् , पस्त्यम्, / शिवे राशोऽपत्यानि- 'दुनादि.' (6 / 1 / 118) इति श्वस्त्यम् / पक्षे ऐषमस्तनम , ह्यस्तनम् , श्वस्तनम् / व्यः, 'बहु०' ( 6 / 1 / 124) यलोपः, सिपिभी 'श्वसस्तादिः' (6 / 3184) इतीकणपि- शौवस्ति- रूप्यते शैविलप्यम् , शिवेन रूप्यतेवेलपम् / कम् // 19 // बहप्रत्ययेति उपलभणम. सायप्रत्ययान्तस्यापि निषेधः / ईषदूनो रूप्यो-बहुरूप्यः, 'नाम्न: अव०-'इदम् , अस्मिन् संवत्सरे-'ऐषमः परु प्राग्बहुर्वा' (7 / 3 / 12) इति बहु पूर्व क्रियते, बारूप्ये त्परारि वर्षे' (7 / 2 / 100) इति निपातः, निपातनात् भवा, भण, मे // 22 // समसिण प्रत्ययः, इदमस्थाने ऐः, ऐषमो भवम्ऐषमस्त्यम, एवमग्रेऽपि / श्वस. श्वो भवंशीव- दिएर्वपदादनाम्नः // 6 // 323 // स्तिकम् , 'श्वसस्तादिः' इति इकण , विचाले त् , म० वृ०-दिक्पूर्वपदादनाम्नः शेषेऽर्थे 'ण' 'द्वारादेः' (74 / 6) इति औ भागमः // 19 // स्यात् / भणोऽपवादः / पौर्वशालः, पौर्वशला; कन्याया इकण् // 6 // 3 // 20 // आपरशाल: [आपरशाला] / अनाम्न इति किम् ? पूर्वेषुकामशमः // 23 // म. वृ०-कन्था नाम ग्रामविशेषः / कन्थायाः शेषेऽर्थे 'इकण्' स्यात् / कान्धिकः // 20 // प्रव०-'न विद्यते नाम यस्य मसौ भनामा, तस्मात् / पूर्वश्व शालय-पूर्वशालः / यदा पूर्व प्रब.-'प्रावरणविशेषश्च // 20 // शब्दो देशकालवाची तदा पूर्णशालायां भवा- मण, वर्णावकम् // 6 // 3 // 21 // मी; तदा पौर्वशाली इत्येव भवति / भत्र तु दिग्याम. वृ०-वर्णनाम हृदः, तत्समीपो देशोऽपि च्येव पूर्वशब्दः, तड़िते द्विगुसमासनियमात् / वर्ण, तत्र या कन्था ततः शेषे-'sकम्' स्यात् / इक पूर्वस्यां शालायां भवः- 'दिग्पूर्वपदादनाम्नः' इति - णोऽपवादः / कान्थकः / / 21 // प्रत्ययः इति भावः, 'पुंवत्कर्मधारये' (3257) इति बदभावः / प्राच्ये देशे इषुकामशमी इति नाम प्रव०-काम्यते परातैः इति कन्धः, कमिप्र प्रामः, ततः पूर्वा चासौ इषुकामशमी प, भपरा गार्सिभ्यस्थः' ( उ० 225), कन्थायां भवः%3D पासौ इषु०, पूर्वेषुकामशम्यां भवः पूर्वपुकामशमः, कान्थिकः कान्यकश्च // 21 // एषमपरैपुकामशमः, 'भवे' (6 / 3 / 123) भण् , रूप्योत्तरपदारण्याण्णः / / 6 / 3 / 22 / / 'माग्नामाणाम्' (7 / 4 / 17) इति उत्तरपतिः / 23 // मद्रादम् // 6 // 3 // 24 // म० वृ०-रूप्योत्तरपदात् अरण्यशब्दाच शेषे. ऽर्थे 'णः प्रत्ययः' स्यात् / 'वार्करूप्यः, वारूप्या / म०३०-मद्रान्तारिकपूर्वपदारेऽऽम्' भारण्याः सुमनसः पशवश्च / अन्तग्रहणेनैव सिद्धे स्यात् / पौर्वमद्रः, पौर्वमद्री // 24 // उत्तरपदग्रहणं बहुप्रत्ययपूर्वनिवृत्त्यर्थम- 'बाहुरूप्यी // 22 // प्रबल-पूर्वेषु मद्रेषु भवः पौर्यमद्रा, मनावं विशेषः,- बक्ष्यमाणेन 'बहुविषयेभ्यः' (IN), अव०-'वृकै रूप्यते ( वृकरूप्यः) / केचिदेव- इत्यनेन भकम् प्राप्नोति, तं बाधित्वा 'एजिमदार माहुः- वृकाः प्रकृता अस्मिन् (वृकरूप्यः), 'नृहेतु- देशात्कः' (6 / 3 / 38) इत्यनेन कः प्रत्ययः प्रवर्तते, भ्यो रूप्यमयटौ वा' (६।३।१५६।इति) रूप्यप्रत्ययः।। उभयस्यापि बाधकं 'मद्रादम् ' इति सूत्रं विहितम् / अरण्ये भवाः सुमनसः पशवो वा भारण्याः / एवं / ननु केवलादेव मद्रशब्दात् भकमकविधिरिति Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [भ०६ पा० 3 सू० 25-29 चेत् , सर्हि इदमेव 'मद्रादम्' सूत्र झापकं "सुसर्वा- शकलादेर्यजः // 6 / 3 / 27 // वैदिकशब्देभ्यो जनपदस्य" इति न्यायस्य / भनेन म०व० [गर्गाद्यन्तर्गणः शकलादिः / शकन्यायेन तदन्तविधिऑप्यते, तेन सुपाञ्चालकः, सर्व- लादिभ्यो यमन्तेभ्यः शेषेऽर्थे 'इम् ' स्यात् / ईयपाबालकः, अर्द्धपाश्चालकः, पूर्वपाश्चालकः, सुमाग- स्यापवादः / 'शाकलाः / यत्र इति किम् ? शाकधकः, सुवृजिकः, सुमद्रकः इत्यादि सिद्धम् / यत्र लीयम // 27 // दिक्पूर्षपदो मद्रशब्दः तत्र 'मद्रादम्' इति सूत्रं प्रवर्तते, यत्र तु शेषे पूर्वपदं सुसर्वादिकं मद्रस्य प्र०व०-शकल, शकलस्यापत्यम , 'गर्गाभवति तत्र 'जिमद्राद् देशात् कः" (6 / 3 / 38 इति दे' (6 / 142), शाकल्यस्य इमे च्छात्राः शाकलाः, सूत्रप्रवर्तते, यथा- पौर्वमद्रः, आपरमद्रः, सुमद्रकः, "शकलादेर्यमः' इत्या , 'तद्धितयस्वर०' (2 / 4 / 92) सर्वमद्रक इति // 24 // इति यजो लोपः / तथा शकलो देवता अस्य उदग्ग्रामाद् यकृलोम्नः // 6 / 3 / 25 / / शाकलः, तस्येदं शाकलीयम् // 27 // म००-उदग्प्रामवाचिनो यकृल्लोमनशब्दा. वृद्धत्रः // 6 // 3 // 28 // पछेषे-'ऽम् ' स्यात् / 'याकृल्लोमः // 25 // म०वृ०-वृद्धे य इम् विहितः तदन्तात् शेषेप्रव.-'यकृत् कालोजम् (? कालेयम् ), तदा ऽर्थे-'ऽम ' स्यात् / ईयस्यापवादः / 'दाक्षाः / वृद्ध काराणि लोमानि यस्य, यकृल्लोमनि भवः // 25 // इति किम् ? सौतङ्गमीयः // 28 // गौष्टी-की-नकेती-गोमती-शूरासेन-बाहीक-रोमक- ___ अव० दिक्षस्यापत्यं वृद्धं दाक्षिः, दाक्षेः इमे पटचरात् // 6 // 3 // 26 // च्छात्रा दाक्षाः / सुतं गच्छति, 'नाम्नो गमः०'(५। २००-गौष्ट्यादिभ्यः शेषेऽर्थेऽम् ' स्यात् / 13131) खः, सुनङ्गमेन निवृता, 'सुतङ्गमादेरिम्' गोष्टः, 'तेकः, नैकेतः, गौमतः, शौरसेनः, [बहि (6 / 2 / 85) इव , इन इतः'(२।४।७१) ढी, सौतङ्गमी र्भवः इति 'बहिषष्टीकण ' (6 / 1 / 16), 'प्रायोऽव्यय नगरी, तस्यां भवः सौतङ्गमीयः, 'दोरीयः' (6 / 3 / 32) // 28 // स्य' (74 / 65) इति भन्स्यस्वरादिलोपः, वाहीके भवः= वाहीकः, रोमकः, पाटबरः // 26 // न द्विस्वरात् प्राग्भरतात् / / 6 / 3 / 29 / / म०वृ०-प्राच्यगोत्रवाचिनोभरतगोत्रवाचिनश्च प्रव०-गौष्टः, तेकः, नैकेतः; एषु “वाहीकेषु नाम्नो वृद्धेबन्ताद् द्विस्वराद् 'अन्न न स्यात् / पूर्वेण प्रामात्" (6 / 3 / 36) इति णिक-इकणेः प्राप्तिः, तैकी, प्राप्तस्य प्रतिषेधः / प्राचः,-चैङ्कीयाः,' पौष्पीयाः / इह 'कखोपान्त्यकन्थापलद०' (6 / 3 / 59) इत्यनेन भरतात,-'काशीयाः, वाशीयाः / द्विस्वरादिति ईयस्य (च प्राप्तिः), गौमत इत्यत्र 'ईतोऽकन ' (6 / किम् ? "पानागाराः // 29 // 3141) इति प्राप्तिश्च, शौरसेनः' भत्र 'बहुविषयेभ्यः' (6 / 245) इत्यकमः (प्राप्तिः), 'बाहीकः रोमकः' प्रव० चिङ्क, 'पुष्प ; चिङ्कस्य पुष्पस्यापत्यं इत्यत्र 'दोरीयः(१।३।३२) इत्यस्य प्राप्तिः, 'पाटचरः' / वृद्धं- बाह्लादित्वादिव , चैङ्करिमे छात्राः (पौष्पेरिमे भत्र 'रोपान्त्यात्' (6342) इत्यस्य (प्राप्तिः); | छात्राः) / काश, वाश ; काशस्य वाशस्य वृद्धमएषां सर्वेषां बाधको 'गौष्टिः' इत्यादिको योगः / पत्यम्-भत इत्र' (6 / 1 / 31), काशिषु भवा वाशिषु गोष्टः 'तिको ग्नकेतो देवता भस्याः, 'देवता' भवा / “पन्नं पतितमगारं येषां ते पन्नागाराः, तस्या(६।२।१०१) इत्यण, की, गौष्टयां तेक्यां नैकेत्यां पत्यम्-'अत इन ', पानागारेरिमे च्छात्राः वृद्धेमः' भवः // 26 // भव // 29 // Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेषार्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / 325 ] भवतोरिकणीयसौ / / 6 / 3 / 30 // / यत्र, उष्णकाले जातो भवो वा (उष्णकालीयम्) / म०वृ०-भवतुशब्दाच्छेषेऽर्थे 'इकण ईयस् एवं शीतकालीयम् / / 33 // भवतः / ईयापवादः / भवतो भवत्या वा इदं भाव- व्यादिभ्यो णिकेकणौ // 6 // 34 // कम् ,2 भावत्की ; भवदीयः, भवदीया। [ईयसः] म.००-वि इत्यादिभ्यः परो यः कालस्तसकारो 'नाम सिदय' (1 / 1 / 21) इत्यत्र कार्यार्थः / दन्ताच्छेषे 'णिक इकणौ' भवतः। उभयोः स्त्रियां उउकारान्तग्रहणात् शत्रन्तान भवति,-[भवतीति | २विशेषः / ज्वैकालिकः, बैकालिका, वैकालिकी। भवन् ] भवत इदं भावतम् // 30 // "आनुकालिकः, [आनुकालिका, आनुकालिकी] / "ए दंकालिका / व्यादयः प्रयोगगम्याः // 34 // प्रव० भवतुशब्दः / भावकम्', अत्र इकण् , 'ऋत्रोवर्ण०' (74/71) इकारलोपः / भावत्कम् भव० 'णिकश्च इकण् च / इकणि सति की (इति) अत्र स्त्रीत्वविवक्षायां 'जातिश्च णितद्धित०' भवति, न णिके (इति) अयं विशेषः / वैकालिकः, (3 / 2 / 51) इति पंवद्भावः / सूत्रे भवतु इति पाठात् | कालिका, बैकालिकी। आनुकालिकः, भानुकालिका उणादिनिष्पन्नो भवतु सूत्रेऽस्ति // 30 // भानुकालिकी। भतः पराप्रयोगद्वयमेव- ऐदंकालिका, पर-जन-राज्ञोऽकीयः // 6 // 3 // 31 // ऐकालिकी / धौमकालिका, धौमकालिकी / आपत्कालिका, आपत्कालिकी / साम्पत्कालिका, म०वृ०-एभ्यः शेषे-'ऽकीयः' स्यात् / परस्यायं साम्पत्कालिकी / कौपकालिका, कौपकालिकी / / परकीयः, जनकीयः, राजकीयः / अकारः पुंवद्भा क्रोधकालिका, क्रौधकालिकी। मौर्श्वकालिका, भौपार्थः,-राझ्या इदं राजकीयम् ['जातिश्च णि०' (3 // र्घकालिकी। पौर्वकालिका, पौर्वकालिकी / ताव२।५१) इति पुत्रद्भावः / स्वकीयम् , देवकीयमिति कालिका, तावत्कालिकी / क्रौरकालिका, क्रौरकातु स्वकदेवकयोर्गहादित्वात् सिद्धम् // 31 // . लिकी / इति व्यादिप्रयोगमाला विरुदो __अवल- स्विकदेवकशब्दौ गहादिगणे स्तः विगतो वा विशिष्टो वा कालः (=विकालः), विकाले इति गहादित्वात् ईयः // 31 // भवः / “कालमनुगतः कालस्यानुरूपः कालस्य सादृश्यं वा अनुकालम्, तत्र भवः / 'भयं चासो दोरीयः / / 6 / 3 // 32 // कालश्च इदंकालः, इदंकाले मवम्(? भवा) // 34 // __म००-दुसंज्ञकाच्छेषेऽर्थे 'ईयः' स्यात् / काश्यादेः // 6 // 3 // 35 // [ देवदत्तस्यायं] देवदत्तीयः, जिनदत्तीयः / [तस्यायं तदीयः, यदीयः, गार्गीयः / भणपवादो ___म. वृ०-दोरिति वर्त्तते / पूर्वयोगयोस्तु न योगः। [दोरिति किम् ? सभासन्नयने भवः=,सा सम्बध्यते, असम्भवात् [फलाभावात् ] ' | कारभासन्नयनः // 32 // यादिभ्यो दुसंज्ञकेभ्यः शेषेऽर्थे 'णिक-इकणौ' स्तः। काशिषु भवः काशिकः, काशिका, काशिकी / देवउष्णादिभ्यः कालात् / / 6 / 3 / 33 / / दत्तिका, दैवदत्तिकी // 35 // म. वृ०-उष्णादिपूर्वपदात् कालान्ताच्छेषेऽर्थे 'ईयः' / उष्णकालीयम् , शीतकालीयम् // 33 // प्रव०-पूर्वयोगयोणपाठबलात् दुसंज्ञाs दुसंज्ञकानां प्रवृतिर्भवति, काश्यादेः (6 // 3 // 35) भव० उष्णश्च कालश्च अथवा उष्णः कालो / अनेन दुसंज्ञानामेव / काशि, देवदत्त, चेदि, सां 9 भवत्या इदमिति स्त्रीत्वविवक्षायाम् / Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०६ पा० 3 सू० 3640 याति, सांवाह, अच्युत, मोदमान, श्वकुलाल, शकु- | तत्र दिक्पूर्वपदाच्च मद्रादा भवति ['मद्रादव' लाद, (हस्तिकपू) कौनाम, हिरण्य, करण, हैहि- ( 6 / 3 / 24 ) इत्यनेन अञ् भवतीति सम्बन्धः ] / रण्य, करणे, अरिंदम, सधमित्र, दाशमित्र, दास- शेषपूर्वपदान्मदात् अयमेव कः प्रत्ययो भवति / सुमित्र, दासग्राम, गौवाशन, गौवासन, तारङ्गि, मद्रकः, सर्वमद्रकः, अर्द्धमद्रकः / सुवृजिकः, पूर्वभारगि, युवराज, उपराज, देवराज इति काश्या- जिक, अपरवृजिकः // 38|| दिगणः / 'देवदत्त इति नामा प्रामः प्राग्देशे वाहीकदेशेऽपि उभयत्रास्ति, प्राग्ग्रामे देवदत्तस्य प्रव०-"बहुविषये०' ( 6 / 3 / 45 ) इति सूत्रदुसंज्ञा, न वाहीके देवदत्तग्रामस्य दुसंज्ञा इत्युदा विहिताकञः // 38 // हरणानि तथा दर्शितानि सन्ति / देवदत्तशब्दस्य प्राग्देशे एव दुसंज्ञा भवति, न वाहीकदेशे। अत उवर्णादिकण / / 6 / 3 / 39 // एव 'वाहीकेषु प्रामा'-दिति (6 / 3 / 36, सूत्रप्रान्ते म. वृ०-उवर्णान्ताद् देशवाचिनः शेषे 'इकण', . दोरित्येव- देवदत्त इति व्यावृत्त्युदाहरणं दर्शितम , स्यात / अणोऽपवादः / परत्यादयं योग ईय-णिकपाहीकेषु दुसंज्ञाभावात् देवदत्तग्रामस्य // 35 // इकणोऽपि ['दोरीयः' (6 / 3 / 32) 'वाहीकेषु प्रामात्' वाहीकेषु ग्रामात् // 6 / 3 / 36 / / (6 / 3 / 36) इति विहितान् ] बाधते / 'शावरज म्बुकः // 39 // म० पृ.-बाहीकदेशे ग्रामवाचिभ्यो दुसंज्ञकेभ्यः शेषे 'णिक-इकणौ' स्तः / सैपुरिकः, सैपुरिका, सैपुरिकी; स्कौनगरिकः, 'आरात्कः, आरात्का, आरा ____ प्रव०-'जायन्ते मधुरफलानि यस्यां सा स्की / दोरित्येव-देवदत्तं नाम वाहीकग्रामः, तत्र जम्बू:, 'कमिजनिभ्या बूः' (उ० 857), शवरोपलजातो देवदत्तः // 36 // क्षिता जम्बू:-शवरजम्बूः, तत्र भवः, उवर्णादिकण', 'ऋवणोवणे०' (74 / 71 ) इति इकण इकारलोपः, प्रव०-'अरीणां समूहः आरम् , आरमतति पश्चात 'त्यादीदतः के' (2 / 4 / 104 ) इति ह्रस्वः / अत्ति वा विप् , आराति भवः आरात्कः, 'ऋवर्णो एक्ष्वाकः, इक्ष्वाकोरपत्यम् ,. 'राष्ट्रक्षत्रियाः' (6 / 1 / वर्ण०' (74/71) इति इकस्य इलोपः // 36 // 114 ) इत्यन्न / अथ इक्ष्वाकोरिदमैक्ष्वाकः, वोशीनरेषु // 6 // 3 // 37 // 'कोपान्त्याचाण'- ( 6 / 3 / 56 ), मारवैश्वाफम. वृ०-उशीनरामशब्देभ्यो दुसंज्ञकेभ्यो मैत्रेय' (74 / 30) इत्यादिना उकारलोपः / ऐक्ष्वाक 'णिक-इकणौ वा' स्तः, शेषे / सौदर्शनिकः, सौदर्श- इत्यत्र अणेव, नेकण्। देशादित्यव- पटोइछात्राः= निका, सौदर्शनिकी / / पक्षे सौदर्शनीयः // 37 // पाटवाः, तस्येदमण // 39 // प्रव०- सुदर्शना देवता अस्य- अण् , तत्र दोरेव प्राचः // 6 / 3 / 40 // भवः // 37 // म० वृ०-शरावत्याः [ शरयू नदी ] प्राच्या दिशि देशः प्राग्देशः, तद्वाचिन उवर्णान्ताद् दुसंज्ञकावृजिमद्राद् देशात्कः // 6 / 3 / 38 // देव शेषे 'इकण' स्यात् / 'आषाढजम्बुकः / एवम. वृ०-वृजिमद्रशब्दाभ्यां देशवाचिभ्यां / | कार इष्टावधारणार्थः / दो: प्राच एव नियमो मा .शेषेऽर्थे 'कः' स्यात् / 'राष्ट्राकयोऽपवादः। दोरिति / भूत् // 40 // निवृत्तम् / [वृजिषु भवः=] वृजिकः, केवलमद्रात (केवलमद्रशब्दात्- मद्रेषु भवः= ] मद्रकः, सुसर्वा- ....... प्र०व-आषाढजम्ब्बां भवः, शेष शावर- . र्धदिगशब्देभ्यो जनपदवाचिनः प्रत्ययो भवति।। जम्बुक इतिवत् साध्यम् // 40 // Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेषार्थाधिकारः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 327 ईतोऽका // 6 // 3 // 41 // 'राष्ट्रभ्यः // 6 // 3 // 44 // मः वः-दोः प्राच इति च वर्त्तते / ईकारा- म० वृ०-दोर्देशादिति च वर्तते / राष्ट्रेभ्यो न्तात् प्रान्देशवाचिनो दुसंज्ञकात् शेषेऽर्थे-'ऽकर' | देशेभ्यो दुसंज्ञकेभ्यः शेषे-'ऽका' स्यात् / ईयापस्यात् / काकन्द्यां भवः काकन्दकः, माकन्दकः // 41 // वादः। २आभिसारकः, आदर्शकः / राष्ट्रसमुदायो रोपान्त्यात् / / 6 / 3 / 42 // राष्ट्रप्रहणेन न गृह्यते / तेनेह नाकम ,- काशिकोश लीयाः / / 44 // म० वृ०-रेफोपान्त्यात् प्राग्देशवाचिनो दुसज्ञकाच्छेषे-'sका' स्यात् / ईयस्यापवादः / पाट- अव०-'राष्ट्रभ्य इत्यत्र बहुवचनं अकबलीपुत्रकः, ऐकचक्रकः [ एक चक्र इति प्राग्देशे दुस- प्रत्ययस्य प्रकृतिबहुत्वं द्योतयत् अपवादविषयेऽपि ज्ञः] // 42 // प्रापणार्थम / तेनेहापि अकब ..- अभिसारगर्तकः. प्रस्थ-पुर-वहान्त-योपान्त्य-धन्वार्थात् अत्र गतॊत्तरपदलक्षण ईयो न भवति इति विशेषः / अभिसारस्यादूरभवः- अण् , आभिसारे भवः। . // 6 // 3 // 43 // आदर्श भवः // 44 // म० वृ०-दोर्देशादिति च वर्तते / प्रस्थ, पुर, वह इत्यन्ताद्, यकारोपान्त्याद् धन्ववाचिनश्च देश बहुविषयेभ्यः // 6 // 45 // वाचिन दुसंज्ञकाच्छेषे-ऽकत्र' स्यात् / धन्वन् ___म० वृ०-दोरिति निवृत्तम् , योगविभागात् / शब्दो मरुदेशवाची / देशवाचित्वात् पुल्लिङ्गः ] / अतः परं दोरदोश्च विधानम् / देशादिति तु वर्तते / प्रस्थान्त,- मालाप्रस्थकः, बाणप्रस्थकः [मालाप्रस्थः राष्ट्रभ्यो [ =देशेभ्यः ] 'बहुत्वविषयेभ्यः शेषेबाणप्रस्थो देवता अस्य- अण् , तत्र भवः ] / पुराम्त,- नान्दीपुरकः, [नान्द्याः पुरम् तत्र भवः] / वहा 'ऽका ' स्यात् / अणाद्यपवादः / अङ्गेषु जातः-आङ्ग कः, वाङ्गकः, कालञ्जरकः, त्रैगर्तकः // 45 / / न्त, कोकटीवहकः / योपान्त्य,- साङ्काश्यकः, काम्पील्यकः, माणिरूप्यकः [माणिरूप्ये जातः ।धन्त्र अव०.''बहुत्वविषयेभ्य' इत्यत्र बहुवचनमपवादवाचि,- पारेधन्वकः, उऐरावतकः // 43 // विषयेऽपि प्रापणार्थम / तेन त्रिगर्तेषु ( जातः=) गर्तकः, अत्र 'गोत्तर०' (63157 ) इति ईयो प्रव०-कामप्रस्थीय इत्यत्र गहादित्वादीयः / बाध्यते / एवं कम्बुर्देवता एषां- 'देवता' (6 / 2 / 'कुकुटी वहति=कुक्कुटीवहः; लिहाद्यच् , एवं कुत्सितौ कुचौ यस्याः सा कुकुची, 'असहनबविद्य 101) इति अणः, काम्बवेषु जातः काम्बवकः / / 45 // मान०' (2 / 4 / 38) इति डी, कुकुची वहति- लिहा धूमादेः / / 6 / 3 / 46 // द्यच, कुक्कुटीवहे कुकुचीवहे भवा- अकन / सूत्रे म० व०-देशादिति वर्त्तते / धूमादिभ्यो देशपुरग्रहणमप्राच्यार्थम् / प्रान्यपुरशब्दात् पुनः रोपा वाचिभ्यः शेष--'ऽकम' स्यात् / अणाधपवादः / न्त्यादित्यनेनैव सिद्धम् / अत एव इह 'प्रस्थपुरवहा०' धूमे भवो-धौमकः // 46 / / इति सूत्रे प्राच इति नानुवर्तते। ईयबाधनार्थ प्रस्थपुरेति वचनं कृतम् / २धन्वनि पारेपारधन्वा, प्रव०-धूम, ( षडण्ड, षडाण्ड,) अवतण्ड, "नाम्नि" ( 3 / 1 / 94 ) इति समासः, पारधन्वनि त्वण्डक, वतण्डव, शशादन, अर्जुन, भार्जुनाव, भवः पारेधन्वकः / 'इरावत्या नद्या अदूरे भवः- दाण्डायन, स्थली, दाण्डायनस्थली, मानकस्थली, अण, तत्र भवः // 43 // आनकस्थली, माहकस्थली, मद्रकस्थली, घोषस्थली, Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०६ पा० 3 सू० 47-52 - राजस्थली, अट्टस्थली, मानस्थली, माणवकस्थली, | कुत्सादाक्ष्यादन्यत्र संज्ञाशब्दानगरात्तु कत्र्यादिपाठा- . राजगृह, सत्रासाह, सात्रासाह, भक्ष्यादी, भक्ष्यली, देयकञ् ,- नागरेयकः / / 49 / / भक्ष्याली, भद्राली, मद्रकुल, अञ्जीकुल, द्वयाहाव, कच्छा-ऽग्नि-वक्त्र-वतॊत्तरपदात् // 6 / 3 / 50 / / उयाहाव, द्वियाहाव, त्रियाहाव, (सस्फीय, बर्बड,) ___म० वृ०-कच्छ, अग्नि, वक्त्र, वर्त्त इत्येतदुगत, वर्ण्य, शकुन्ति, विनाद, ( इमकान्त, विदेह, त्तरपदाद् देशार्थात [देशवाचिनः] 'अकम्' स्यात् / आमते, वादूर ,) खाडूर, माठर, पाठेय, पाथेय, घोष, घोषमित्र, शिष्य, वणिय, पल्ली, अराज्ञी, ईयाणोरपवादः' / भरुकच्छे भवो भारुकच्छकः, पैष्पलीयकच्छकः, काण्डाग्नकः, ऐन्दुवक्त्रकः, आराज्ञी, धार्तराज्ञी, धार्तराष्ट्री, धार्तराष्ट्र, तीर्थकुक्षि, ५बाहुवर्त्तकः, 'चाक्रवर्तकः / उत्तरपदग्रहणमबहु. समुद्रकुक्षि, द्वीप, अन्तरीप, अरुण, उञ्जयिनी, दक्षि प्रत्ययपूर्वार्थम् ,- 'बहुकच्छो देशः / / 50 // णापथ, साकेत, अवया इति धूमादिगणः // 46 // अवै-पूर्वपदस्य दुसंज्ञकत्वे ईयस्य प्राप्तस्य सौवीरेषु कूलात् // 6 / 3 / 47 // अन्यत्र तु अणः प्राप्तस्यापवादोऽयं योगः / 'भरुम० वृ०-सौवीरदेशवाचिनः कूलशब्दाच्छेषे- नामा ऋषिविशेषस्तस्य कच्छं वनं भरुकच्छम् , ऽर्थे-'ऽकञ्' स्यात् / कौलपः सौवीरेषु / कौलोs- भरुकच्छे भवः / पिष्पलानामदूरभवः- 'उत्करादेन्यत्र / / 47 // रीयः' (6 / 2 / 91) / इन्दुवत् वक्त्रं यस्य / 'बाहुसमुद्रान्नृ-नावोः / / 6 / 3 / 48 // कृतो वर्तो यस्य, बाहुवर्ते भवः / चक्रवत् भ्रास्यन् वर्तो वृत्तिर्यस्य / ईषदसमाप्तः कच्छो बहुकच्छो म० वृ०-समुद्रशब्दाद् देशवाचिनः शेषेऽर्थे- / देशः, 'नाम्नः प्राक०' (73 / 12) इति बहु पूर्वम।५०। 'ऽकम्' स्यात् , प्रत्ययान्तवाच्यो यदि ना=मनुष्यो ___अरण्यात्पथि-न्याया-ऽध्यायेभ नर-विहारे नौर्वा भवति / [समुद्रे भवः= सामुद्रको मनुष्यः, सामुद्रिका नौः। नृनावोरिति किम् ? सामुद्रं लव // 6 / 3 / 51 // . णम् [भवे (6 / 3 / 123) अण् ] // 48 // म०वृ०-अरण्याद् देशवाचिनः पथ्यादिपु शेपे ऽर्थे-'ऽकम्' स्यात् / [अरण्ये भवः=] आरण्यकः नगरात्कुत्सा-दाक्ष्ये // 6 / 3 / 49 // पन्थाः, 'न्यायः, अध्यायः, इभः, नरो विहारो वा। पथ्यादाविति किम् ? ४आरण्याः सुमनसः म०७०-नगर शब्दाद् देचवाचिनः शेषे-'ऽकन्' पशवो वा // 5 // स्यात् , कुत्सायां दाक्ष्ये च गम्यमाने / केनाय मुषित इह नगरे मनुष्येण सम्भाव्यते [एतत्सूत्रो- अव०-आरण्यको न्यायः / एवमग्रेऽपि / दाहरणम् ] / एतन्नागरके चौरा हि नागरका भवन्ति / आरण्यक इभो गजः / आरण्यको नरो-मनु केनेदं चित्रं लिखितमिह नगरे मनुष्येण सम्भा- | यः / ४'रूप्योत्तरपदारण्याण्णः' (6 / 3 / 22) इत्यव्यते / एतन्नागरके दाक्षा हि नागरका भवन्ति / नेन णः- आरण्याः पशवोऽमी // 51 / / कुत्सादाक्ष्ये इति किम् ? नागरः पुरुषः / / 49 // गोमये वा / / 6 / 3 / 52 // . अव०-'कुत्सनं कुत्सा, 'भीषिभूषिचिन्ति०' म० वृ०-आरण्यागोमये वाच्ये शेषे- 'क' (5:3 / 109) इति बहुवचनादङ, कुत्सनमिति च वा स्यात् / आरण्यका [अकय ] गोमयाः / आरबाहुलकात् भवति, कुत्सा=निन्दा, तस्यां गम्यमाना- ण्यानि गोमयानि' / रूप्योत्तर०' (६॥शं२२) इति याम् / दाक्ष्य नैपुण्यम् , तस्मिन् गम्यमाने / / णः / / 52 / / .. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेषार्थाधिकारः ] . मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिप्तम्। - प्रव०-गोमयशब्दः पुनपुंसकः 6 इति लिङ्ग- | ऽपवादः [कोपान्त्याचाण' (6 / 3 / 56 ) इति विहितद्वये प्रयोगोऽयम् // 52 // स्याणः] / काच्छको मनुष्यः / काच्छकमस्य [मनुकुरु युगन्धराद्वा // 6 / 3 / 53 / / प्यस्य] हसितम् , जल्पितम् , ईक्षितम् / काच्छिका चूला [चूला चूडा शिखा] / एवं सैन्धवको मनुम० वृ०-कुरुयुगन्धरशब्दाभ्यां देशवाचिभ्यां शेषे- 'ऽकञ् (वा।' स्यात् / [कुरुषु भवः=] कौर व्यः / सैन्धषकमस्य [मनुष्यस्य जल्पितम् / नृनृषकः अकब , कौरव [कोपान्त्याचाण' / 63.56] / स्थ इति किम् ? काच्छो गौः, सैन्धवं लवणम् // 55 // यौगन्धरकः, यौगन्धरः [भवे (6:3 / 123) अण्] प्रव०-सिन्धुदेशे भवः- सैन्धयकः मनुष्यः / . // 53 // कच्छ, सिन्ध, वर्ण, मधुमत , कम्बोज, साल्व, कुरु, भनुषण्ड, अनूषण्ड, कश्मीर, विजापक, द्वीप, अव०-कुरुयुगन्धर शब्दावेतौ राष्ट्रबहुविषयौ भनूप, अजवाह, (कुलूत,) र कु, गन्धार, साल्वेय, च। तत्र युगन्धरशब्दात् 'बहुविषयेभ्यः' (6 / 3 / 45) यौधेय, सस्थाल, सिन्ध्वन्त इति कच्छादिगणः / इत्यनेन नित्यमकत्रि प्राप्ते विकल्पोऽयं कृतः / कच्छादयो राष्ट्रशब्दाः ये बहुविषयास्तेभ्यो 'बहुवि०' कुरुशब्दस्य 'बहुविषयेभ्य' इत्यकाबः कच्छाद्यणा (6 / 3 / 45) अकत्र सिद्ध एव, उत्तरेण तु भणा बाधितस्य पुनरकरः प्रसवार्थमत्र 'कुरुयुग०' (6 / 3 / बाधो मा भूदिति पुनरक क्रियते / वर्णसिन्धुभ्यां 53) इति सूत्रे पाठः, एवं सति 'कुरुयुग०' (6 / 3 / 'उवर्णादिकण्' (६।३।३९।इति) प्रातिस्तदपवादे च 53) इत्यनेन विकल्पः सिद्ध एव / युनन्धरात्तु कच्छादणि प्रवर्त्तमाने,कुरोस्तु 'कुरुयुग०' (6 / 3 / 53) विभाषा / नृनृस्थयोस्तु कुरोः परत्वादकोव, इत्यनेन विकल्पे, विजापकस्य 'कोपान्त्याचाण' (6 / कौरवको मनुष्यः, कौरवकमस्य मनुष्यस्य जल्पि 3 / 56) इत्यणि, कच्छस्यौस्सर्गिकाणि प्राप्तौ, भयमतम् , कच्छादे 0 (6 / 3 / 55) अकञ् / 'कुरुयुग०' को विधिः / / 55 / / (6 / 3.53) इति सूत्रे अयं विशेषो मन्तव्यः / / 53 // कोपान्त्याचाण // 6 / 3 / 56 / / साल्वादोयवाग्वपत्तौ // 6 / 3 / 54 // म००-देशादित्येव वर्तते, न नृनृस्थ इति / म० वृ०-साल्वाद देशवाचिनो गधि यवाग्वां कोपान्त्यात् चकारात् कच्छादेश्च शेषेऽर्थे-'ऽण्' पत्तिवर्जिते च मनुष्ये शेषेऽर्थे-'ऽकत्र वा' स्यात् / साल्वको गौः / साल्विका यवागूः / साल्वको मनु स्यात् / इकणकबोरपवादः / आर्षिकः, रऐक्ष्वाकः / कच्छादेः,- कान्छः, सैन्धवः // 56 // प्यो वा / गोयवाग्वपत्ताविति किम् ? साल्वा बीहयः, साल्वः पत्तिः [ 'कोपान्त्याच्चाण' (6 / 3 / प्रव० 'ऋषिभिस्तुल्या ऋषिका, 'तस्य तुल्ये 56) // 54 // कः०' (7 / 1 / 108), ऋषिका जनपदः, तेषु जातः आर्षिकः / इक्ष्वाको जातः इक्ष्वाकोरयं (वा)- 'कोप्रव०-अपत्तीति पत्तिप्रतिषेधात् तत्सरशे | पान्त्या०' (6 / 3 / 56) इत्यण, 'सारवैश्वाकमैत्रेय.' मनुष्ये विधिः प्रवर्त्तते / / 54 / / (7 / 4 / 30) इति उकारलोपः // 56 // कच्छादे-नृस्थे / / 6 / 3 / 55 / / गर्नोत्तरसदादीयः // 6 / 3 / 57 // म० वृक्ष-कच्छादिभ्यो देशवाचिभ्यो नरि-मनु- म००-गर्मोत्तरपदाद् देशवाचिनः शेषेऽर्थे प्ये नृस्थे मनुष्यस्थे शेषेऽर्थे- 'ऽकन ' स्याद्। भणो- / 'ईयः' स्यात् / अणोऽपवादः / वृकगीयः, शगाल * हैमलिङ्गानुशासने पुन्नपुसकलिङ्गप्रकरणे चतुर्विशतितमं श्लोकं यदा भमरकोशे द्वितीयकाण्डे वैश्यवर्ग पञ्चाशत्तमं श्लोकं पश्यन्तु / Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०६ पा० 3 सू०५८-१३ गीयः / उत्तरपदग्रहणं बहुप्रत्ययपूर्वनिरासार्थम् ,- / सन्ति। कन्थापलदोत्तरपदादपि णिकेकणोर्बाधनार्थ बाहुगतः // 7 // योगोऽयम् / ''महतीति माहकः, माहकस्यापत्यम्कटपूर्वात् प्राचः // 6 / 3 / 58 // 'अत इम्' (6 / 1 / 31), माहकीनां कन्था, एवं पलदं नगरं ग्रामः ह्रदो वा, माहकिकन्थायां (भवः माहम००-कटपूर्वपदात् प्रान्देशवाचिनो नाम्नः किकन्थीयः, एवं) माहकिपलदीयः, माहकिनगरीयः, शेषे 'ईयः' स्यात्' / कटनगरीयः, 'कटप्रामीयः, माहकिग्रामीयः / ऋषिकेषु भवः 'कोपान्त्या०' कटघोषीयः [आभीरपल्ली] // 5 // अण् / '२मडनगरे भयो माडनगरः / / 59 / / प्रब० मिणोऽपवादः / कटस्य नगरम् , (कटस्य) पर्वतात् / / 6 / 3 / 60 // प्रामः, कटनगरे भवः (कटप्रामे भवः) / आभीर- म. वृ०-पर्वतात् देशार्थात् [=देशवाचिनः ] पल्ली // 5 // शेषे 'ईयः' स्यात् / अणोऽपवादः। पर्वतीयो राजा पु. . क-खोपान्त्य-कन्या-पलद-नगर-ग्राम-ह्रदोत्तर मान् वा // 6 // पदाहोः // 6 / 3 / 59 / ___अनरे वा // 6 / 3 / 61 // म. वृ०-ककारखकारोपान्त्यात् कन्यापलद म० वृ०-पर्वताद् देशवाचिनो नरवर्जिते शेषेनगरपामहद इत्येतदुत्तरपदाच देशार्थात् दुसंज्ञ ऽर्थे 'ईयः' स्याद्वा। पर्वतीयानि पार्वतानि फलानि, काच्छेथे 'ईयः' स्यात् / 'बाधकबाधनार्थ आरम्भः / [एवं पर्वतीयं पार्वतं जलम् / अनर इति किम् ? पर्व[कोपान्त्यात्-] भारीहणकीयः, "भाश्वस्थिकीयः, तीयो मनुष्यः ] // 61 // ५माष्टकीयः, ब्राह्मणकीयः / खोपान्त्यात्,- पर्ण-कृकणाद्भारद्वाजात् // 6 / 3 / 62 // कौटशिखीयः / 'कन्थापलदेति-, दाक्षिकन्थीयः, म. वृ०-पर्णकृकणाभ्यां भारद्वाजवाचिभ्यां "माहकिकन्थीयः; दाक्षिपलदीयः, दाक्षिनगरीयः, [=भारद्वाजदेशवाचिभ्यां ] शेषे 'ईयः' स्यात् / पदाक्षिप्रामीयः, दाक्षिदीयः,माहकिह्रदीयः / दोरिति णीयः, कृकणीयः // 62 / / किम् ? "भार्षिक:, 'माडनगरः // 59 // गहादिभ्यः / / 6 / 3 / 6.3 // प्रव० 'दोरीयः' (6 / 3 / 32) इत्यस्य ये बाध- म० वृ०-गहादिभ्यो देशवाचिभ्यः शेषेऽर्थे काः प्रत्ययाः तद्वाधनार्थम् ।कोपान्त्यात्परतः 'कोपा- 'ईयः' स्यात् / अणाद्यपवादः / गहीयः [बहुवचनन्त्याचाण' (6 / 3 / 56) प्राप्तौ वचनम् / भारीहणा- माकृतिगणार्थम् ] // 63 / / बातुरर्थिकः 'भरीहणादेरकण '(6 / 2 / 83), तत ईयः / "भश्वत्थादेरिकण' (6 / 2 / 97) / एवं शाल्मलिकीयः। प्रव०-ाह, अन्तस्थ, अन्तस्था, सम, विषम, 'भष्टन् , 'के गैरै शब्दे', अष्टौ कायन्ति, 'आतो | उत्तम,अजमगध, शुक्लपक्ष, पूर्वपक्ष, अपरपक्ष, कृष्णहोऽहावामः (5 / 176) इति डे अष्टकाः, अष्टका शकुन, अधमशाख, उत्तमशाख, समानशाव, एकभत्र सन्ति-अण् / ब्राह्मण, ब्राह्मणेभ्योऽचिरोद्घतो शाख, समानग्राम, एकग्राम, एकवृक्ष, एकपलाश, देशः, "ब्राह्मणान्नाम्नि" (7 / 1 / 184) कः, ब्राह्मण- (इध्वग्र, दन्तान, इष्वनीक, अवस्यन्द, कामप्रस्थ, कीयः / एवं बालकीयः, बालः एव बालकः, यावादि- (सौप्रख्यः, खाडायनि.) काठेरणि,लावेरणि, (लावे.. त्वात्कः,बालके नगरे भवो बालकीयः / "खोपान्त्य- . रिणि,) लावीरणि, शैशिरि, शौङ्गि, (शौङ्गिशैशरि,) शब्दभ्यो वाहीकग्रामलक्षणयोर्णिकेकणोर्बाधनार्थ- | भासुरि, आहिंसि, आमित्रि, व्याडि, (भौङ्गि,) भौमीयो पिहित इति सम्बन्धः / कूटानां शिखा भत्र जि, भाश्वस्थि, औद्गाहमानि, औपविन्दवि, भाग्नि Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेषाधिकारः ] मपनवृत्ववचूरिसंवलितम् / [331 शर्मि, देवशर्मि, श्रौति, वाटारकि, वाल्मिकी, मधु- | कीयः इति वेणुकादिगणे प्रयोगाली / बहुवचनं त्वि, उत्तर, अन्तर, मुखतस् , पार्वतस् , एकतस्, प्रयोगानुसरणार्थम् / / 66 / / अनन्तर, (आनृशंसि,) साटि, सौमित्रि, परपक्ष, वा युष्मदस्मदोऽजीनत्रौ युष्माकास्माको स्वक, देवक इति गहादिगणः // 63 / / चास्यैकत्वे तु तवक-ममकम् // 6 / 3 / 67 / / पृथिवीमध्यान्मध्यमश्चास्य // 6 / 364 / / / ___म० वृ०-'देशादिति निवृत्तम् / युष्मद्-भ. म०वृ०-पृथिवीमध्यशब्दाद् देशवाचिनः शेषे स्मशब्दाभ्यां शेषेऽर्थे 'अन्न-ईनश्प्रत्ययो' 'ईयः' स्यात् , मध्यमादेशश्वास्य [ पृथिवीमध्यश भवतः वा, तद्योगे तु यथासङ्घय युष्मदस्मदोःर ब्दस्य भवति / पृथिवीमध्ये जातो भवो वा-मध्य स्थाने ] 'युष्माक अस्माक' (इति) आदेशौ भवतः, मीयः / / 64 // एकत्वे वर्तमानयोस्तु युष्मदस्मदोः तवकममकादेशो। निवासाचरणेऽण् // 6 / 3 / 65 // युष्माकमयं युवयोर्वा=यौष्माकः [भत्र ], यौष्माम०७०-पृथिवीमध्यान्निवासभूताद् देशवाचि कीणः; एवमास्माकः, आस्माकीन:; पक्षे- युष्मनश्चरणे निवस्तरि [निवासकर्तरि ] शेषेऽर्थे दीयः, अस्मदीयः / एकत्वे तु तवायं-तावकः [भ'ऽण' स्यात् , मध्यमादेशश्च / पृथिवीमध्यं निवास न्], तावकीनः [ईनन ]; ममाय-मामकः, मामएषां चरणानां माध्यमाश्चरणाः / निवासादिति कीनः / पक्षे ['दोरीयः' / 6 / 3 / 32]- त्वदीयः, मदो. किम् ? पृथिवीमध्यादागतो मध्यमीयः कठः / 65 / यः // 67 // अव०-तथा चोकम् ,-त्रयः प्राच्याः, त्रय प्रव०- 'युष्मदस्मदोर्देशवृत्तिरसम्भवात् / उदीच्या, त्रयो माध्यमाः। 'पृथिवीमध्यान्मध्यमश्चा- रस्थाने इत्यच्याहार्यम् / उईनम / 'भस्माकमयस्य' ( 6 / 3 / 64) इति ईयः, मध्यमादेशश्च / चरणे मवियोरयं वा-भम / ईनम् / "दोरीयः' (6 / इति किम् ? पृथिवीमध्यं निवासोऽस्य मध्यमीयः 3132) // 67 // शूद्रः॥६५॥ द्वीपादनुसमुद्र' ण्यः // 6 // 3 // 6 // वेणुकादिभ्य ईयण / / 6 / 3166 // - म० वृ०-समुद्रसमीपे यो द्वीपस्तद्वाचिनः ___म० वृ०-वेणुकादिभ्यो देशार्थेभ्यः शेषेऽर्थे | शेषे ‘ण्यः' स्यात् / कच्छाद्यकषणोरसवादः / [द्वीपे 'ईयण' स्यात् / 'वैणुकीयः // 66 // भवः=] द्वैप्यो मनुष्यः, द्वैप्यं वासः [ =वस्त्रम् ] / अनुसमुद्रमिति किम् ? अनुनदि यो द्वीपस्तस्मात् प्रव०- 'वेणु, वेणयोऽत्र सन्ति इति चातुर- | उद्वैपको व्यासः, द्वैपक' वसनम् [ 'कच्छादेर्नु.' र्थिकः 'ऋश्यादेः कः' (6 / 2 / 94) इति सूत्रेण कः प्र- | (6 / 3 / 55) अकन ] // 6 // त्ययः,... (वेणुके भवः=) वैणुकीयः / (एवम् ) वैत्रकीयः, 'वींक प्रजनकान्ति०' (इति) वीधातुः, वेति अव०- 'समुद्रस्य समीपम्=अनुसमुद्रम् , =प्रजायते समुद्रमध्ये इति वैत्रम् , 'हुयामाश्रवसि- तस्मिन् , सप्तम्येकवचनम् कि, 'सप्तम्या वा' (3 / 2 / भसिगुवी' (उणा० 451) इत्यादिसूत्रेण त्रः प्रत्ययः, ! 4) इति सूत्रेण हिस्थाने अम् आदेशः विकल्पेन, ततोऽत्र चातुरर्थिकः 'ऋश्यादेः कः' (6 / 2 / 94), पक्षे अनुसमुद्रे / निद्याः समीपम् , 'क्लीबे' (2 / 4 / 97) (वैत्रके भवः=) वैत्रकीय इति सिद्धिः / (एवम्) ह्रस्वः, कोऽर्थः ? नदीमनुलक्षीकृत्य / 'कच्छाऔत्तरपदीयः, औत्तरीयः, औत्तरकीयः, प्रास्थीयः, - दे नृस्थ०' (6 / 3155 ) इति अकन् / एवं द्वैपप्रास्थकीयः, माध्यमकीयः, माध्यमिकीयः, नैपुण- ) मित्यपि प्रयोगः, 'कोपान्त्याचाण' (6 / 3156) / / 68|| Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [भ० 6 पा० 3 सू०६९-७८ अर्द्धाद् यः // 6 / 3 / 69 // 'अमः' स्यात् / 'अन्तमः, अवमः, अधमः / रअका रादित्वमवोऽधसोरन्त्यस्वरादिलोपार्थम् // 74 // म० व.-अाच्छेषे 'यः' स्यात् / अर्द्धयम प्रव०-'अन्ते जातः अन्तमः / अन्ते भष सपूर्वादिकम् // 3 / 3 / 70 // इति वाक्ये दिगादित्वात् य एव, अन्त्य इति प्रयोगः / अम इति प्रत्ययस्य / 'प्रायोऽव्ययस्य' . म० वृ०-सपूर्वपदादांच्छेषेऽर्थे 'इकण्' (७।४।६५।इत्यनेन) ||74 / / स्यात् / 'पौष्करार्द्धिकः, वैजयाचिकः // 7 // पश्चादायन्ताग्रादिमः / / 6 / 375 / / मव०-'पुष्करद्वीपस्याद्ध-पुष्करार्द्धम , पुष्क- म. वृ-पश्चात्-आदि-अन्त-अग्रेभ्यः शेषेराद्ध भवः, एवमग्रेऽपि / 2 (एवम् ) क्षेत्रार्द्धिकः / 70 / ऽर्थे 'इमः' स्यात् / 'पश्चिमः, आदिमः, अन्तिदिकपूर्वात्तौ // 6 / 371 // मः, अग्रिमः // 75|| म. वृ०-दिक्पूर्वपदादीत्तौ 'य-इकणौ' शेषे अव०-'पश्चात् , पश्चात् जातः,- 'पश्चास्याताम् / पूर्वाय॑म् , पौर्वार्चिकम् ; पश्वाय॑म् दाद्य०' इति इमः, 'प्रायोऽव्ययस्य' (74 / 65) इत्यपाश्चार्द्धिकम् // 71 // न्त्यस्वरादिलोपः / आदौ जातः / अन्ते जातः / ४अग्रे भवः / आद्यन्तात् जाते एवार्थे इमो भवति, प्रव०-१एवं दक्षिणाय॑म् , दाक्षिणार्द्धिकम् / / भवेऽर्थे तु दिगादित्वात्परत्वात् यः प्राप्नुयात् / 75 / भपर, अपरस्याः भवः,- 'वोत्तरपदेऽर्द्ध' (72 / 125) इति सूत्रेण अपरस्य पश्च आदेशः / / 71 // मध्यान्मः / / 6 / 3 / 76 / / ग्रामराष्ट्रांशादणिकणौ // 3 / 3 / 72 / / . म. व०-मध्यात शेपे 'मः" स्यात् / मध्यमः / / 76 // म० वृ०-ग्रामराष्ट्र कदेशवाचिनो दिक अव०-'मध्ये जात इत्येवं वाक्यम् , न तु पूर्वाच्छेषे 'अण्-इकणौ' भवतः / यापवादौ। पौ मध्ये भवः, भवे मध्याद् दिनण' (6 / 3 / 126) इति द्धिः, पौर्द्धिकः; दाक्षिणार्द्धः, दाक्षिणार्द्धिक. // 72 // वक्ष्यते / / 76 // परावराधमोत्तमादेयः / / 6 / 3 / 73 // मध्ये उत्कर्षापकर्षयो रः / / 6 / 3 / 77 / / म० ५०-पर, अवर, अधम, उत्तम इत्येतत्पू- म० ब०-उत्कर्षापकर्षयोर्मध्ये वर्तमानान्मवादाच्छेषे 'यः' स्यात् / इकणोऽपवादः / परा- ध्यशब्दाच्छेषे 'अः प्रत्ययः' स्यात् / मापवादः / यम , अवराय॑म् , अधमाध्यम् , उत्तमाय॑म् / / 73 / / नात्युत्कृष्टो नात्यपकृष्टो मध्यपरिणामो' मध्यो विद्वान , मध्या गुणाः, मध्या स्त्री ||7|| प्रव०-"सपूर्वादिकण' (6 / 3 / 70) 'दिक्पूत्तिौ' (6 / 3 / 71) इति विहितस्य इकणः / २परस्मि- प्रव०-'परिणामोऽवस्थाविशेषः / उत्कर्षाभर्वे भवं परार्घ्यम , एवमग्रेऽपि। परावरयोर्दिकशब्द पर्षयोर्मध्ये जातो-मध्यो विद्वान् / (एवं) नातित्वेऽपि परत्वात 'परावराधमः' (63173) इत्यने दीर्घ नातिह्रस्वं मध्यप्रमाणं मध्यं काष्ठम् , नातिनैष यप्रत्ययः, न तु 'दिक्पूर्वात्तौ' इति // 73 // स्थूलो नातिकृशो मध्यः कायः / / 77|| अमोऽन्ता-वो-ऽधसः // 6 / 3 / 74 // अध्यात्मादिभ्य इकण / / 6 / 3 / 78 // म० वृ०-अन्त, भवस् , अधस् इत्येभ्यः शेषे / म० वृ०-अध्यात्म इत्यादिभ्यः शेषे 'इकण' Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेषार्थाधिकारः ] मण्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / स्यात् / आध्यात्मिकम् , २ऊर्बमौहूर्त्तिकः, आक- | अव०-'समानग्रामे कृतो भवो वा=सामानस्मिकम् , अमुष्मिन् परलोके भवम= मुष्मि- प्रामिकः, २इहलोके कृतो भवो वा=ऐहलौकिकः, कम् , 'आमुत्रिकम् , [परवि भवम्=] पारत्रिकम् , एवम् पारलौकिकः, सार्वलौकिकः ; 'अनुशतिकादीइह भवमैहिकम् , शैषिकम् / अध्यात्मादयः प्रयोग- नाम्' (7 / 4 / 27) इति उभयपदवृद्धिः // 79 // गम्याः // 78|| वर्षाकालेभ्यः // 6 // 3 // 8 // अव०-'आत्मन्यधि अध्यात्मम् , 'अनः' (7) ____ म. वृ०-'वर्षाशब्दात् कालविशेषवाचिभ्यश्च 3 / 88) इति सूत्रेण अत् समासान्तः, 'नोऽपदस्य | नामभ्यः शेोऽर्थे 'इकण' स्यात् / अणपवादः।वर्षासु तद्धिते' (7 / 4 / 61) इति न लुप्यते, 'भवर्णेवर्णस्य' भयो बार्षिकः / तथा "ऋतोर्वृद्धिमद्विधाववयवे(७४।६८), अध्यात्म भवम-आध्यात्मिकम . एवमा- भ्यः' इति न्यायवशात् ऋतोर्णित्प्रत्ययस्तदवयधिदैविकम् ,आधिभौतिकम् ; देवेऽप्यधि=अधिदेवम् , पादेः ४ऋत्वन्तादप्यभिधानादिकण भवति,- 'पूर्वभूतेष्वधि अधिभूतम् ,अधिदेवं भवमधिभूतंभवम् , वार्षिकः, अपरवार्षिकः, एवमुत्तरत्रापि / कालवा'अध्यात्मादिभ्य इकण', 'अनुशतिकादीनाम्' (74 / चिनः- [मासे भवः=] मासिकः, "भर्द्धमासिकः, 27) इति उभयपदस्यापि वृद्धिः / एवमौर्ध्वदमिकः, सांवत्सरिकः, आह्निकः, देवसिकः / वर्षाग्रहणमृ. भौध्वदमिकः; भौर्ध्वदेहिकः, और्ध्वदेहिकः / अत एव त्वबाधनार्थम् / कालशब्दः 'कालविशेषवाची, पाठादूर्ध्वशब्दस्य दमदेहयोः परयोः वा मोऽन्तः / "भतुसन्ध्यादेरण' (63189) इत्यत्र सन्ध्यादितथा ऊर्ध्व मुहूर्तात् ऊर्ध्वमुहूर्तम् , ऊर्ध्वमुहूर्त ग्रहणात् / बहुवचनं तु यथाकथश्चित् [=गौणवृभवः ऊर्ध्वमौहूर्तिकः, इकण , 'सप्तमी चोर्ध्वमौहू- त्या मुख्यवृत्त्या वा] कालवृत्तिभ्यः प्रत्ययप्रापणार्तिके' (5 / 3 / 12) इति ज्ञापकात इति निर्देशात् र्थम् ,- ''नेशिकः, प्रादोषिकः, कादम्बपुष्पिउत्तरपदस्यैव वृद्धिः, अथवा ऊर्ध्व मुहूर्ताद् भव कम् , बैहिपलालिकम् / कालशब्दाच कालाऊर्ध्वमौहूर्तिकः, इयःण् / ऊर्ध्व दमात् ऊर्ध्व देहात् र्थादकालार्थाच कालतः, अकालादपि कालार्थात् 'नाम नाम्नै०' (3 / 1 / 18) इति समासः / ऊर्ध्वदमे 'कालेभ्य' इति यो विधिः / / 80 // भवः ऊर्ध्वदेहे भवः- और्ध्वदमिकः, और्ध्वदेहिकः ; औवंदमिकः, और्ध्वदेहिकः / अकस्मात् , कोऽर्थः अव०-वर्षन्ति मेघा अस्मिन् ऋतौ इति हेतुशून्यः कालः, अकस्माद् भवमाकस्मिकम् / वर्षा, * 'वर्षादयः क्लीबे (5 / 3 / 29) / कल किल अमुष्मिन्-परलोके भवम् आमुष्किम् , 'नोऽपद पिलण् क्षेपे, कल्यते क्षिप्यते आयुरिति कालः, स्य तद्धिते' (461) इति अन् लुप्यते / “अमुत्र 'भावाकोः ' (5 / 3 / 18) / उ'वर्षाकालेभ्य' इदं सूत्र परलोके भवम् आमुत्रिकम् / इह लोके भवमैहि अणोऽपवादकं दोरीयमपि परत्वात् बाधते इत्यर्थः / कम् / पाठसामर्थ्यात् सर्वत्र सप्तम्या अलुप् / / 7 / / ४ऋतुवाची शब्दो अन्ते यस्य शब्दस्य, तस्मात् / ५पूर्वासु वर्षासु भवः पूर्ववार्षिकः, 'एवमपरवा.. समानपूर्वलोकोत्तरपदात् // 6 / 3 / 79 / / र्षिकः ; अत्र 'अंशाहतोः' (74 / 14) इत्यनेन उत्तरम. वृ०-समानशब्दपूर्वपदेभ्यो नामभ्यः लोक- पदवृद्धिः / 'अर्द्ध मासस्य अर्द्धमासः, अर्द्धमासे शब्दोत्तरपदेभ्यश्च शेषे 'इकण' स्यात् / सामान- भवः / अहि भवमाह्निकम् , इकण , अनीनादठ्यहोप्रामिकः, सामानदेशिका, २ऐहलौकिकः, पार- | ऽतः' (74.66) इति अकारो लुप्यते / 'कालशब्दोलौकिकः // 79|| ऽपि मासाद्यपेक्षया कालविशेषवाची इति कालिक * अत्र 'वर्षादयः क्लीबे' इति सूत्रमसङ्गतम् , तस्य नपुंसकलिङ्ग प्रवर्तनात्, वर्षाशब्दस्य स्त्रीलिङ्ग सत्त्वाद् / अत्र 'भिदादयः' (5 / 3 / 108) इति सूत्रेण वर्षाशब्दः सिध्यति / Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334] श्रीसिद्धेहेमशब्दानुसानं ... [अ०६ पा० 3 सू० 81-85 इत्यपि प्रयोगः / “भर्तुसन्ध्यादेः' (6 / 3 / 89) / शिरदि भव= ] शारदिकं 'श्राद्ध कर्म / कर्मणीति इत्यत्र सन्ध्यादिप्रहणात् इत्यक्षराने- काल इति किम् ? शारदः [‘भर्तुसं०' (6 / 3 / 89) अण् ) श्राद्धः, स्वरूपग्रहणे हि काललक्षणेकणबाधकं सन्ध्यादि- श्रद्धावानित्यर्थः / श्राद्ध इति किम् ? शारदं ('भर्तुग्रहणं 'भर्तुसन्ध्यादेरण' (6 / 3 / 89) अत्र सूत्रे निर- मं०' (6 / 3 / 89 अण) विरेचनम् / / 81 // र्थकं स्यात् इति हेतोः काल इत्युक्त कालविशेषवा- अव०- श्रद्धा प्रयोजनमस्य श्राद्धम् , चूडाचिनः शब्दात् ज्ञातव्यः,न तु केवलकालशब्दात् इति दिभ्योऽण् (6 / 4 / 119) / / 8 / / विशेषाक्षरा* ज्ञातव्याः / निशा सह चरितमध्ययनमपि निशा उच्यते उपचारात्,प्रदोषसह नवा रोगा-ऽऽतपे // 6 / 3 / 82 / / चरितमध्ययनं प्रदोषम् ; निशायां जयी साभ्यासः म० वृ०-शरदः शेषे रोगे आतपे च 'इकण प्रदोषे जयी साभ्यास इति वाक्ये 'वर्षाकालेभ्यः' नवा' स्यात् / शारदिकः / (पक्षे भतु 0 ( 6 / 3 / 89 ) (63680) इत्यनेनापि इकण क्रियते / बहुवचनं अण-] शारदो रोगः आतपो वा। रोगातप इति . तु यथाकथञ्चिदित्याद्यक्षरबलात इकण क्रियते / किम् ? शारदं (भर्तु 0 (6 / 3 / 89) अण् ) दधि / 82 // तथा 'कदम्बपुष्पसहचरितः कालः कदम्बपुष्पम् , निशा-प्रदोषात् / / 6 / 3 / 83 // ब्रीहिपलालसहचरितः काल: ब्रीहिपलालम् , कदम्बपुष्पे ब्रीहिपलाले देयमृणं कदम्बपुष्पिकम् - म० वृ०-निशाप्रदोषाभ्यां ( कालवाचिभ्यां ) श्रीहिपलालिकम् ; अत्रापि 'वर्षाकालेभ्य' (6 / 3 / 80) शेषे 'इकण नवा' स्यात् / 'वर्षाकालेभ्य' (6 / 3 / 80) इति नित्यं प्राप्ते वचनम्। ( निशि निशायां वा इति इकण अथवा 'कालादू देये ऋणे' (631113) हरति=) नैशिकः, नैशः ('भर्तु' (६।३।८९।अण्); इत्यनेन इकण् / 15 वर्षाकालेभ्य' (6 / 3680) इति सूत्रे कालविशेषवाचिभ्य इत्युक्तं सूत्रार्थे तत्र काल प्रादोषिकः, प्रादोषः (अण् ) / / 83 // विशेषविषयेषु(? पू)क्तित्रयं श्लोकेन दर्शयति- 'काल- ___ श्वसस्तादिः // 6 / 3 / 84 // शब्दात' इत्यादि,शब्दोऽपि फालयाची,प्रत्ययार्थोऽपि __म० ०-श्वसशब्दाच्छेषे 'इकण नवा' स्यात् , कालवाची; अत्र मासिक इति प्रयोगः / 1 / यत्र च स च तादिः / 'शौवस्तिकः, २पक्षे श्वस्त्यम् , श्वस्शब्दः कालवाची, प्रत्ययार्थस्तु भकालवाची ; तत्र तनम् // 84 // नैशिकः प्रादोषिक इति प्रयोगद्यम् / 2 / यत्र पुनः प्रव०-श्वो भवः शीवस्तिकः, इकण तकाशब्दोऽकालः भकालवाची, प्रत्ययार्थो हि कालार्थः= रादिः, 'द्वारादेः' (7 / 4 / 6) इति औ आगमः / पक्षे कालवाची; तत्रकादम्बपुष्पिकं ब्रैहिपलालिकम् इति 'ऐषमोशःश्वसो वा' (6 / 3 / 19) इत्यनेन त्यच् / प्रयोगद्वयम् / / इति प्रकारत्रयेण 'कालेभ्य' इति / उपक्षे 'सायंचिरं०' (6 / 3 / 88) इत्यनेन तनट् // 84 / यो विधिः='वर्षाकालेभ्य' इति सूत्रे यो विधिःप इकण उक्तः, स इकविधिरित्यं प्रयोज्य इति वा चिरपरुत्परारेस्त्नः / / 6 / 3 / 85 // . क्यसम्बन्धः / / 80 // म० वृ०-चिरपरुत्परारिभ्यः शेषे 'न: नवा' शरदः श्राद्धे कर्मणि // 6 / 3 / 81 // स्यात् / चिरे भय=चिरत्नम् , परुत्नम् ,परारित्नम् / पक्षेचिरन्तनम, परुत्तनम, परारितनम ||85 / / म० वृ०-शरच्छब्दात्कालवाचिनः श्राद्ध कर्मणि [पितृकार्ये शेषेऽर्थे 'इकण' स्यात् / ऋत्वणोऽप प्रव०-"सायंचिरं' (6388) इत्यनेन . बादः [भतुसन्ध्यादे०' (6 / 3 / 89) उक्तस्याणः]। / तनट , निपातनात् मोऽन्तः ||85 // *अत्र 'अक्षरा' इति चिन्त्यम् , वर्णवाचिनोऽक्षरशब्दस्य क्लीवलिङ्गत्वात् / Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेषाधिकारः].. मन्यमवृस्यापूरिसंपलितम् / __ 'पुरो नः // 6 // 3 // 86 // 'सांश.' (7 / 3 / 118) इति अट् , सप्तमीकि, भत्र म. वृ०-२पुराशब्दादव्ययाच्छेषे 'नः स्यान्नवा' | 'कालात्तनतर०' ( 3 / 2 / 24) इत्यनेन विकल्पेन पुराभवं=पुराणम् , पुरातनम् / / 86 / / सप्तमीलोपः प्राप्नोति, पर सूत्रे निर्देशान्नित्यमेव प्रव०-१पुरा, पञ्चमीढसिः, 'लुगातोऽनापः' एत्वम् / स्वर्भवं सौवम् , 'भवे' (6 / 3 / 123) अण, ( 2 / 1 / 17) इति आकारलोपः / कालवाचिनः। 'प्रायोऽव्ययस्य' (74 / 65) इति अन्त्यस्वरादिलुप् 'सायंचिरं०' (6 / 3 / 88) तनट् // 86 // / / 88 / / पूर्वाणापराह्णात्तनट् // 6 / 3 / 87 // भतु सन्ध्यादेरण // 6 / 3 / 89 // म०३०-'आभ्यां शेषे 'तनट् वा स्यात्। 'वर्षा म० वृ०-भं नक्षत्रम् , तद्वाचिभ्यः, ऋतुषाचिकालेभ्यः' (6 / 3 / 88) इति नित्यमिकणि प्राप्त भ्यः सन्ध्यादिभ्यश्च कालवाचिभ्यः शेषे-'अण्' विकल्पोऽयम् / पक्षे सोऽपि। पूर्वाहणेतनः, पूर्वा स्यात् / 'इकणोऽपवादः / २पौषः, तेषः, आश्विनः, हणतनः; अपराहणेतनः, अपराहणतनः / पक्षे ['वर्षा सौवातः / ऋतु,- 'ग्रैष्मः, वासन्तः, पूर्वप्रैष्मः, कालेभ्यः' इकण-] पौर्वाहिणकः, आपराहिणकः / 'अपरशैशिरः / 'सन्ध्यादि,- 'सान्ध्यः, आमाटकारो व्यर्थः,-पूर्वाहणतनी, अपराहणेतती // 87 // वास्यः, १°आमावस्यः / कालेभ्य इति किम् ? "स्वातीयम् / / 89 // प्रव०-कालवाचिभ्याम् / 'सोऽपि', कोऽर्थः 'वर्षाकालेभ्य' इत्यनेन इकणपि भवतीत्यर्थः। 'पूर्व प्रव०-'इकणोऽपवादः',कोऽभिप्रायः ? 'वर्षामह्न इति वाक्ये 'सांशसङ्घयाव्ययात्' (73 / कालेभ्यः' इत्यनेन य इकण कालद्वारेण उक्तोऽस्ति तस्येकणो बाधकोऽयं योगः / 'पुष्येण चन्द्रयुक्तेन 118) इत्यनेन अट् समासान्तः, अह्न इत्यादेशश्च; युक्तः कालः,-- 'चन्द्रयुक्तात्काले.' (6 / 2 / 6) इत्यण, 'अतोऽहस्य' (2 / 3 / 73) इति णत्वम् , तदनन्तरं सप्तमीकि / एवमपराहणे इत्यपि साध्यम् / पूर्वाह्न तस्य लुप् , ततः पुष्ये भवः पौषः, एवं तैषः / अश्व, जातो भवो वा इति वाक्यं कृत्वा तनट् , 'कालात्तन अश्वाः सन्त्यस्याम्-- मत्वर्थीय इन् , 'गौरादि:'(२।४। 19), अश्विन्या चन्द्रयुक्तया युक्तः कालः,-- 'चन्द्र०' तरतम०' (3 / 2 / 24) झत सप्तम्या वा लोपः / / 87 / / (६ारा६) इत्यण , लुप् च; 'व्यादेर्गोणस्य०' (2 / 4 / सायं-चिरं-प्राणे-प्रगेऽव्ययात् // 6 / 3 / 88 // 95) इति डीनिवृत्तिः, अश्विन्यां भवः, ततो 'भत०' म. वृ०-योगविभागान्नवेति निवृत्तम् / सायं- अण् / 'शोभना आतिः स्वातिः, स्वात्या चन्द्रयुक्तया चिरं प्राण प्रमे (इत्येतेभ्यः) अव्ययेभ्यश्च [काल- युक्तः कालः,-'चन्द्र० (६।२।६)मण , लुप् च,स्वातौ पाचिभ्यः] शेषे 'तनट्' स्यात् / सायं भवसाय भवः,-- 'भर्तः' अण , 'य्वः पदान्तात्०' (74 / 5) न्तनम् , चिरन्तनम् , अत एव निर्देशान्मान्तत्वं औः / “तथा असते रसो रसान् इति ग्रीष्मः, अथवा निपात्यते, प्राणैतनम् , प्रगेतनम् ; अनयोरेकारा सिञ्चन्ति जना अङ्गानस्मिन् काले इति ग्रीष्मः ऋतुः, न्तत्वम् / भव्यय,- दिवातनम् , दोषातनम् , 'रुक्मग्रीष्म०' (उ०३४६) इति निपातः,ग्रीष्मे वसन्ते भवः तथा ऋतोर्णित् (प्रत्ययः) इति तदवयवादेनक्तंतनम् , प्रातस्तनम्, प्राक्तनम् / काल इत्येवस्वर्भवं सौवम् ॐ // 8 // रपि इति युक्त्या पूर्वग्रीष्मे भवोऽत्रापि 'भर्तुः'अण् / एवमपरगृष्मः। अपरो भागः शिशिरस्य,(अपरशिशिरे प्रव०-'पाहणे इत्यत्र प्रगतमहः प्राणम् , | भवः=) अपरशैशिरः,अत्राप्यण् / सन्ध्या,सन्धिवेला, ॐ सायंचिरप्राहे प्रगे इत्यव्ययेभ्योऽव्यादित्येव सिद्धेऽपि तेषां पृथगुपादानं कालेकण बाधनार्थम् / Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन 0 6 पा० 3 सू० 90-94 - प्रावृष एण्यः / / 6 / 3 / 92 // म. वृ०-प्रावृष्शब्दाच्छेथे 'एण्यः' स्यात् / अणोऽपवादः। प्रावृषि भवः-प्रावृषेण्यः / जाते तु परत्वादिक एव 'प्रावृष इक:' (6 / 3 / 99) इत्यनेन], प्रावृषिकः // 12 // स्थामाजिनान्ताल्लुप् // 6 / 3 / 93 / / म. वृ०-स्था जनशब्दान्तान अजिनान्ताच्च परस्य शैषिकस्य प्रत्ययस्य 'लुप्' स्यात् / अश्वत्थामा, सिंहाजिनः // 9 // अमावास्या, त्रयोदशी, चतुर्दशी, पञ्चदशी,पौर्णमासी, प्रतिपद्,शश्वत् इति सन्ध्यादिगणः। सन्धौ साध्वी,'सत्र साधौं' (712 / 15) / 'अमावास्याशब्दः, अमावास्यायांभवः,-- सन्ध्यादिद्वारेण 'भर्तुः' इत्यने. नाण् / '"एकदेशविकृतम् ( अनन्यवत् )' इति न्यायात् अमावस्याशब्दादपि अण् ,तत्र अमावस्य इति प्रयोगोभवति। 'ऋत्रोवर्णदोसिसुसशश्वदकस्मादि०' (74 / 71) इति सूत्रे अशश्वत् इति प्रतिषेधात् , कोऽर्थः ? अशश्वत् इति वर्जनबलात् , 'वर्षाकालेभ्यः' (6 / 3180) इत्यनेन इकणपि भवति, ‘भर्तुः' इत्यनेनाण् इति रूपद्वयम्- शाश्वतम् , शाश्वतिकम् / 'भर्तुसन्ध्यादेरण' इति सूत्रे यत् यथाविहितं प्रत्यय इति नोक्तम् , अण भवति इत्युक्तम् , तत् स्वातिराधाऽऽापौर्णमासीभ्य ईयबाधनार्थम् , * किं च यथाविहितमित्युच्यमाने हि 'दोरीयः' (6 / 3 / 32) इत्यनेन ईयोऽपि प्राप्नुयात् इति अण् इत्यु. क्तम् / व्यावृत्त्युदाहरणेषु स्वातीयम्, राधीयम् , आर्दीयम् इत्यत्र ईयः प्रातः / 'सातेरिदमुदयस्थानम् स्वातीयम् / / 89 // संवत्सरात्फलपर्वणोः // 6 / 3 / 90 // म० वृ०-संवत्सरात् फले पर्वणि शेषेऽर्थे'ऽण' स्यात् / सांवत्सरं फलम् , सांवत्सरं पर्व / फलपर्वणोरिति किम् ? सांवत्सरिकं श्राद्धम् / / 90 / / हेमन्ताद्वा तलुक् च // 6 / 3 / 91 // म० वृ०-हेमन्ताद् ऋतुविशेषवाचिनः शेषे'ऽण वा' स्यात् , तद्योगे च तकारस्य वा लुक् / हैमनम् , हैमन्तम् , हैमन्तिकम्, 'पूर्वहैमनम् // 11 // अव०-'भ' (6 / 3 / 89) इत्यनेन नित्यमणि प्राप्ते विभाषेयम् / तथा च त्रैरूप्यं-हैमनम् , हैमन्तम् , हैमन्तिकम् / तथा तदन्तविधिना पूर्व हैमनमित्यपि सिद्धम् / / 91 // प्रव. 'अश्व इव तिष्ठतीति अश्वत्थामा, 'मन्वक्वनिप्र' (5 / 1 / 149) मन , अश्वस्येव स्थाम बलं यस्य (इति) वा, 'पृषोदरादयः' (3:2 / 155) इत्यनेन सस्य तकारः ; अश्वत्थाम्नोऽपत्यम् , 'अः स्थाम्नः' (6 / 1 / 22) इति अः प्रत्ययः,' 'मः स्थाम्न' इति सूत्रे इत्थं प्रत्ययः (?) भत्र तु सूत्रे अश्वत्थामनि भवो जातो वा- 'अः स्थाम्नः' (6 / 1 / 122) अः, 'स्थामाजिन' इति अप्रत्ययो लुप्यते, प्रथमासिः, 'निदीर्घः (1 / 4 / 22) / सिंहाजिने भवो जातो वा, भवे' (6 / 3 / 1222) भण् // :3 / / तत्र कृत-लब्ध-क्रीत-सम्भते // 6 / 3 / 94 // म.वृ०-अणादयः एयणादयश्च सविशेषणा अत्रानुवर्त्तन्ते / तत्रेति सप्तम्यन्तात् कृते, 'लब्धे, *क्रीते, "सम्भूते चार्थे 'यथायोगमणादय' एयणादयश्च' स्युः / "माथुरः, "औत्सः, 'नादेयः, राष्ट्रियः१० ( 'राष्ट्रादियः' ( 6 / 3 / 3 ) / तत्रेति किम् ? मैत्रेण क्रीतः / / 94 // अव०-सूत्रार्थेषु सप्तम्यन्तात् इति सर्वत्र ज्ञातव्यम् / तथा यत् अन्येनोत्पादितं तत्कृतम् / उयच उदकपूर्वकदानेन लाभः प्रतिग्रहः अनुग्रहः प्रतिग्रह अनुग्रहेण प्राप्तं तत् लब्धम् (?) / यत्त मूल्येन गृहीतं तत्क्रीतम् / यत् 'सम्भाव्यते घटते संमाति ना तत् / * पत्र 'किञ्च' इति पाठोऽधिकः प्रतिभति / प्रपत्र "मः स्थाम्न: इति सूत्रे इत्थं प्रत्ययः अत्र तु सूत्रे" इति पाठोऽधिकः प्रतिभाति / Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुशल-जातााधिकाः ] मण्यमपृत्ववपूरिसंवलितम् / [237 सम्भूतम् / 'तद्धितोऽणादिः' ( 6 / 1 / 1 ) 'रागाहो / विहितमणादय एयणादयश्च स्युः। 'माथुरः, बाह्यः, रक्त' (6 / 2 / 1) इति द्वयोढियोर्मध्ये 'प्रागजिता- | बाहीकः, कालेयः, "आग्नेयः, 'नादेयः, ग्राम्यः, दण' (6 / 1 / 13) इत्यादिसूत्रैर्विहिता अणादय | ग्रामीणः / तत्रेत्येव-चैत्राज्जातः / स्वयमुत्पत्तिर्जाएयणादयश्च / मथुरायां कृतो लब्धः क्रीतः सम्भूतो तस्यार्थ इति कृतादिभ्यो भेदः // 98|| या माथुरः, भत्रण।भोत्सः, 'उत्सादेरष.'(६।। 19) / एवं बाह्यः, बाहीकः; बहिः कृतो लब्धः क्रोतः प्रव०-'मथुगयां जातः / बहिर्जातः। 'कलो सम्भूतो वा,- 'बहिषष्टीकण च' ( 6 / 1 / 16 ) इति जातः, 'अग्नौ जातः; 'कल्यग्नेरेयण' (6 / 1 / 17) / व्यः, टीकण् / 'नद्यां कृतो लब्धः अथवा नद्यां "नद्यां जातः, 'नद्यादेरेयण'(६।३।२) / 'ग्रामे जातः भवो जातो वा,- 'नद्यादेरेयण' / 6 / 3 / 2) / •एवं प्राम्यः, ग्रामीणः, 'प्रामादीनञ् च' (6 / 3 / 9) // 98 // पारावारीणः // 94|| प्रावृष इकः / / 6 / 3 / 99 // * कुशले // 6 / 3 / 95 // म० वृ०-सप्तम्यन्तात् प्रावृष्शब्दात् जातेऽर्षे म० वृ०-तत्रेति सप्तम्यन्तात्कुशलेऽर्थे 'यथा- | 'इकः' स्यात् / एण्यापवादः / प्रावृषि जातः प्रावृविहितमणादय एयणादयश्च' स्युः / (मथुरायां कुश षिकः / / 99 / / लः) माथुरः, नादेयः / योगविभाग उत्तरार्थः / / 15 / / नाम्नि शरदोऽका // 6 / 3 / 100 // प्रव०-'तत्र' इति कोऽर्थः ? सप्तम्यन्तात् / म०वृ०-[सत्रेति सप्तम्यम्तात् ] शरदशब्दात् भयमधिकारः 'शिक्षादेश्वाण' (6 / 3 / 148) इति सूत्रं जातेऽर्थे- 'ऽकम् ' स्यात् , नाम्नि=संज्ञायाम् / यावत् / / 95 // ऋत्वणोऽपवादः / [शरदि जाताः=] शारदका वर्भा पथोऽकः // 6 / 3 / 96 // मुद्रा वा, दर्भविशेषाणां मुद्गविशेषाणां चेयं संज्ञा / म०वृ०-तत्रेति सप्तम्यन्तात् ] पथिनशब्दा- नाम्नीति किम् ? शारदं सस्यम् // 10 // त्कुशलेऽर्थे-'ऽक': स्यात् / अणोऽपवादः / पथकः [पथि कुशल:=पथकः, 'नोऽपदस्य०' (74 / 61) प्रव.-"नाम्नि', कोऽर्थः ? प्रकृतित्रत्ययसमुइति अन्लोपः] // 96 / / दायश्चेत कस्यचिन्नाम भवति / नाम्नीत्यधिकारः 'कालाद्देये ऋणे (6 / 3 / 113) इति सूत्रं यावत् ज्ञेयः / कोऽश्मादेः // 6 / 3 / 97 // शरदिभवं शारदम् , 'भर्तुः (६।३।८९)अण॥१००॥ ___म० वृ०-अश्मन् इत्यादिभ्यः कुशलेऽर्थे 'कः' स्याद् / अणादेरपवादः / [अश्मनि कुशलः] सिन्ध्वपकरात्काणौ // 6 // 3 // 1.1 // अश्मकः // 97|| म० वृ०-[तत्रेति सप्तम्यन्ताभ्यां] सिन्धु अपकराभ्यां जातेऽर्थे 'क-अणौ' भवतः, नाम्नि / प्रव०-भश्मन् , भशनि, Aआकर्ष,त्सरु, पिशाच, वचनभेदाद् यथासङ्ख्याभावः / सिन्धौ जातः= पिचण्ड, पाद, शकुनि, निचय, जय, नय, हाद | सिन्धुकः, सैन्धकः / [अपकरे कवघरे जातः=] इति अश्मादिगणः / तत्रेति सप्तम्यतेभ्यः / / अपकरकः, आपकरः / नाम्नीत्येव- सैन्धवको २(एवम् ) अशनी (वन) कुशलः अशनिकः / / मनुष्यः // 1.1 / / Aभाकर्षः कुतुपादि / / 97 // प्रव०-कच्छादेर्नु नृस्थे' (6 / 355) इत्यजाते // 6 / 3 / 98 // नेन भकञ् , 'कोपान्त्याचाण' (6 / 3 / 56 ) इत्यनेन म.वृ०-(तत्रेति] सप्तम्यन्ताज्जातेऽर्थे यथा- | भण् , सिन्धुपरतोऽकमणोर्बाधकोऽयम् / भपकरा Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०६ पा० 3 सू० 102-107 च औत्सर्गिकाणो बाधकोऽयं योगः। 3 'कच्छादेन - म० वृ०-[ सप्तम्यन्तात् ] अमावास्या इति नृस्थे' (6 / 3 / 55) अकम् // 101 // . शब्दाज्जाते “अकारः [ अप्रत्ययः ] अकश्च वा" पूर्वाणा-ऽपराहणा-ऽऽर्द्रा-मूल-प्रदोषा स्यात् / सन्ध्याद्यणोऽपवादः / अमावास्यायां जातः= अमावास्यः [अप्रत्ययः ] अमावास्यकः [अकप्रत्ययः] / ऽवस्करादकः // 6 / 3 / 102 // पक्षे सन्ध्याधण- आमावास्यः / 'एकदेशविकृतमन___ म० वृ०-तत्रेति सप्तम्यन्तेभ्यः ] पूर्वाहणा- न्यवत्' इति न्यायात् [ एकदेशविकृतस्यानन्यदिभ्यो जातेऽर्थे 'अकः' स्यान्नाम्नि / इकणादेरप- | त्वात् ] अमावस्याशब्दादपि अ-अकौ भवतः,- अमावादः / 'पूर्वाहणकः,अपराहणकः,आईकः,२ मूलकः, वस्यः, अमावस्यकः [पक्षे आमावस्यः // 104 // प्रदोषकः,अवस्करकः / नाम्नीति किम् ? पौर्वाहिण श्रविष्ठापाढादीयण च / / 6 / 3 / 105 / / कम् ['वर्षाकालेभ्यः' ( 6 / 3 / 80)], पूर्वाहणेतनमि म० वृ०- सप्तम्यन्ताभ्यां] श्रविष्ठा-अषाढात्यादि / केनैव सिद्धेऽकविधानमाद्रिका' इत्येवमर्थ- भ्यां जातेऽर्थे 'ईयण चकारादश्च' नाम्नि / भाणोम् / अन्यथा खट्वाका,खट्वका,खट्विका इतिवत् ऽपवादः / श्राविष्ठीयः, श्रविष्ठः ; आषाढीयः, के -कप्रत्यये सति ] रूपत्रयं स्यात् / / 102 / / अषाढः // 105 // प्रव०-'वर्षाकालेभ्य' (6 / 3 / 80) इतीकण , अव०-१श्रविष्ठा धनिष्ठा नक्षत्रमुच्यते / श्रधि'पूर्वाणापराहणात्तनट' (6 / 3 / 87) इति तनट् , ष्ठाभिः २अषाढाभिः चन्द्रयुक्ताभियुक्तः कालः,(इति) इकणतनटोऽपवादोऽकः प्रत्ययः सिद्धः / 'चन्द्रयुक्तात्०' (6 / 2 / 6) इत्यण , लोपश्च ; श्रविष्ठासु 'पूर्वाहणे जातः, एवमग्रेपि वाक्यम् / २आर्द्रया मू. अषाढासु जातः इति वाक्ये ईयण / / 105 / / लेन चन्द्रयुक्तेन युक्तः कालः,- 'चन्द्रयुक्तात्काले०' फल्गुन्याष्टः / / 6 / 31106 / / (6 / 2 / 6) अण, लोपश्च ; 'ड्यादेर्गौण' (2 / 4,95) इति आपग्निवृत्तिः, पुनराप् , आर्द्रायां जातः मूले म० वृ०-सप्तम्यन्तात् फल्गुनीशब्दाज्जाते ‘ट:' जातः, अत्र ‘भर्तु' (6 / 3 / 89) इत्यणोऽपवादोऽकः / स्यात् नाम्नि / [ फल्गुन्योर्जातः= ] फल्गुनः, उ'प्रदोषकः', अत्र 'निशाप्रदोषात्' (6 / 3 / 83 इकणः फल्गुनी स्त्री / टकारे। न्यर्थः / / 106 / / (तथा)औत्सर्गिकाणोऽपवादोऽकः / इत्थमिकणादेरप- बहुलानुराधापुष्यार्थपुनर्वसुहस्तिविशाखास्वातेवादोऽयं योगः इति उपपन्नम् / ४'अस्यायत्ततक्षिपका लुप् // 6 / 3 / 107 // दीनाम्' (2 / 4 / 111) इत्यनेन इकारः। “यदि कः प्र म० वृ०-[सप्तम्यन्तेभ्यः] बहुलादिभ्यः परस्य त्ययः स्यात् तदा 'इच्चापुंसोऽनित्०' (2 / 4 / 187 ) भाणो जातेऽर्थे 'लुप्' स्यान्नाम्नि। 'बहुलः, २अनुइति ककारे आप्परे इत्वं विकल्पेन ह्रस्वत्वं च)स्यात् , राधः, अनुराधः, पुष्यः, तिष्यः, सिद्धयः, पुनर्वसुः, आर्दिका आर्द्रका आाका इति रूपत्रयं स्यात् / तच्चा हस्तः, विशाखः, स्वातिः / / 107 / / निष्ठम् / अकि सति आर्द्रिका इत्येकमेव रूपम् / 102 / पथः पन्थ च // 6 / 3 / 103 // प्रव०-'बहुला कृत्तिका, बहुलाभिश्चन्द्रयुम० वृ०-[ सप्तम्यन्तात् ] पथिनशब्दाजाते ताभिः युक्तः कालो बहुला, 'चन्द्र०' (6 / 2 / 6 ) अण् , लोपश्च; बहुलासु जातो बहुलः, 'भतुसन्ध्या. 'कः' स्यात् , पथिनशब्दस्य च' 'पन्थ' इत्यादेशः, देरण' (6 / 3 / 89), तदनन्तरं 'बहुलानुराधा०' इति नाम्नि / (पथि जातः=) पन्थकः // 103 / / सूत्रेण 'भतुसं०' (इत्यनेन) कृतस्य अणो लोपः अश्च वाऽमावास्यायाः // 6 / 3 / 104 // कार्यः, अणो लुपि सत्यां 'व्यादेर्गौणस्य.' (2 / 4 / Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जातेऽर्थे प्रत्ययलुब्विधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 339 95) इत्यनेन आप लुप्यते, ततो बहुल इति प्रयोगो / माघः, आश्वत्थः, प्रोष्ठपादः, भद्रपादः // 109 // निष्पन्नः / एवमनुराध इत्यादयोऽपि साध्याः / अव०-बहुर महुरू वृद्धौ, बह्वा 'उदित०' उ'अनुराध' इत्यत्र 'घन्युपसर्गस्य बहुलम्' (3 / 2 / (4 / 4 / 98) नोऽन्तः, बहन्तेऽस्मात्कार्यजातमिति 86) इति दीर्घः / तथा "मघा अपत्तिका बही" बहुलम् ,'स्थावतिबंहिविन्दिभ्यः किन्नलुक् च'(उणा० इति लिङ्गपाटात् बहुलशब्दः स्त्री बहुत्वविष 486) इत्युणादिसूत्रेण उलः प्रत्ययः, नोऽन्तो लुप्यते यश्च // 107 // च / अभिजयतीति अभिजित्, क्विप् , तोऽन्तः, चित्रारेवती-रोहिण्याः स्त्रियाम् // 6 / 3 / 108 // नपुंसकलिङ्गः, अभिजिता चन्द्रयुक्तेन युक्तः काल:म० वृ०-सप्तम्यन्तेभ्यः चित्रादिभ्यः परस्य 'चन्द्र०' (6 / 2.6) अण् , लुप् , अभिजिति जातः, भाणो जातेऽर्थे स्त्रियां 'लुप्' स्यात् , नाम्नि / 'जाते' (6 / 3 / 98) अण् , 'बहुलमन्येभ्यः' (6 / 3 / चित्रा, रेवती, रोहिणी स्त्री / स्त्रियामिति किम् ? 109) इति विकल्पेन अणो लोपः। आश्वयुक्= चैत्रः, रैवतः, रोहिणः / / 108 // आश्विनी, अश्वयुजा चन्द्रयुक्तेन युक्तः कालः अश्व युक् , 'चन्द्रयुक्तात् 0' (6 / 26) अण्, लोपश्च, प्रव०-चित्रा, रेवती, रोहिणी.; एषु पूर्वमण , ततोऽश्वयुजि जातोऽश्वयुक् , भते (6 / 3 / 89) अण, लोपः, ततोऽत्र चित्रायां जात इत्यादिवाक्ये 'भर्तु' 'बहुलमन्येभ्यः' इत्यनेन अण् लुप्यते विकल्पेन / (6 / 3 / 89) अण् , 'चित्रा०' (6 / 3 / 108) इति सूत्रण “शतं भिषजो वैद्या यस्यां सा, शतभिषजा (चन्द्रअणो लोपः, 'न्यादेर्गौण.' (2 / 4 / 95) इति आप्- युक्तेन युक्तः कालः,-) चन्द्रयुक्ता०' (6 / 2 / 6) अण, डीनिवृत्तिः, पुनराप् डी चं, 'रेवतरोहिणाद् भे' (2) लुप् च; शतभिषजि जातः,-'भतु' (6 / 3189) 4 / 26) इत्यनेन की / यत्र कापि सूत्रे नक्षत्रनाम | अण् , 'बहुलम०' (6 / 3 / 109) विकल्पेनाणो लोपः, उद्दिश्य जातार्थविहितस्य तद्धितप्रत्ययस्य लुप् उक्तो- अत्र वा जाते द्विः' (6 / 2 / 137) इत्यनेन 'भतुऽस्ति, तत्र प्रायेण पूर्व नक्षत्रनाम संस्थाप्य, एतेन सन्ध्या०' इति विहितोऽण् वा डित् भवति, तेन एतया वा चन्द्रयुक्तेन युक्तः काल इति वाक्यं विकल्पेनान्त्यस्वरादिलोपः, एवं रूपत्रयम्-शतकृत्वा, 'चन्द्रयुक्तात्' (6 / 2 / 6) इति अणादिप्रत्ययः, भिषक् , शातभिषजः, शतभिषः / एवं मृगशितल्लुप् , पश्चात् जातेऽर्थे 'भत्तुसन्ध्यादे०' (6 / 3 / रसि जातो मृगशिराः, मार्गशीर्षः, 'शीर्षः स्वरे 89) अण् , तस्य प्राप्तौ सत्यां यथोक्तसूत्रेण यथा- तद्धिते' (3 / 2 / 103) इत्यनेन शिरसः शीर्षादेशः / योगं लोपः कर्त्तव्य इति सिद्धिः तव ( ? सर्व )- 'अश्वाः सन्त्यस्याः- इन , अथवा 'विपिनाजिनादयः' सूत्रेषु ज्ञातव्या // 108 // (उ० 284) इत्युणादिना अश्विन इति निपातः, बहुलमन्येभ्यः // 6 / 3 / 109 // 'गौरा०' (24 / 19) डी, अश्विनीषु जाता,-'भतु०' (6 / 3 / 89) अण , 'जातिश्च णि०' (3 / 2 / 51) इति म० वृ०-बहुलादिभ्यो येऽन्ये नक्षत्रशब्दा- पुंवद्भावः / अभ्यन्तरचन्द्रमसा इति अश्विन (?) स्तेभ्यः [सप्तम्यन्तेभ्यः ] परस्य भाणो जातेऽर्थे एवं श्रवणः, श्रवणा ; उत्तरः, उत्तरा। आश्विनी'लुप्' स्याद् बहुलम् ,' नाम्नि / अभिजित् ,आभि- नक्षत्रमश्वत्थः अश्वत्थमुच्यते, अश्वत्थे जातः आश्वजितः / अश्वयुक् , आश्वयुजः / शतभिषक , शात- त्थः / अथका अश्वत्थो मुहूर्तः। प्रोष्ठो गौः, तस्येव भिषजः, शातभिषः / कृत्तिकः, कार्तिकः / एषु वा पादौ यासां ताः प्रोष्ठपदाः / 'भद्राणि पदानि या [अणः ] लोपः / क्वचिन्नित्यम्- अश्विनः, अश्वि- .................... (सांता भद्रपदाः) / प्रोष्ठपदा भद्रनी, राधः, राधा; / कचिन्न भवति- [मघासु जातः] | पदा इति निष्पाद्य, तदनन्तरं प्रोष्ठपदाभिर्भद्र श्रीहैमलिङ्गानुशासनविवरणे स्त्रीलिङ्गप्रकरणे नवमश्लोके / Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [भ० 6 पा० 3 सू० 110 116 पदाभिश्चन्द्रयुक्ताभिः युक्तः कालः,- 'चन्द्र०' / देये ऋणे-'sकः'स्याद् / 'इकणादेरपत्रादः / कला(६।२।६) इत्यण , लोपश्च, 'ब्यादेगोण०' (2 / | पकम् , अश्वत्थकम , यवबुसकम् , 'उमाव्यास४।९५) इति आपनिवृत्तिः, पुनराप , प्रोष्ठपदासु कम् , ऐषमकम् 6 // 114 / / भद्रपदासु जातो माणवकः,-भतुः' अण , 'प्रोष्ठ अव०-वर्षाकालेभ्यः' (6 / 3 / 80), ऐषमस्त्यच्, भद्राजाते' (7 / 4 / 13) इत्युत्तरपदवृद्धिः // 109 // 'सायंचिरं०' (63.88) इति उक्तानामिकणादीनाम् / स्थानान्त-गोशाल-खरशालात् / / 6 / 3 / 110 // २'कलि शब्दसङ्ख्यानयोः' कल्यते शब्दायते मयूर म.वृ०-स्थानान्तशब्दात् गोशालखरशालाभ्यां पिच्छतया,- 'कलेरापः' / उणा० 308 ) इत्युणादिच परस्य जातेऽर्थे प्रत्ययस्य 'लुप्' स्यात् , सूत्रेण आपः, कलापोऽस्यास्ति,- 'अतोऽनेक०' (712 / नाम्नि गोस्थाने जातः गोस्थानः, गोशाल:, ख- 6) इति इन् , यस्मिन् काले मयूराः केदाः इक्षयः रशालः // 110 // कलापिनो भवन्ति स कालस्तत्साहचर्यात् कलापी इत्युच्यते, कलापिनि देयमणं कलापकम , अकः प्रव०-गोस्थानः,' एवमश्वस्थानः / रंगो- प्रत्ययः, 'कलापिकुथुमि०' (74 / 62) इत्यादिसूत्रेण शाले जातः / 'खरशाले जातः // 110 // इन लुप्यते / यस्मिन् काले अश्वत्थाः फलन्ति स कालोऽश्वत्थः, तत्र देयमृणमश्वत्थकम् / यत्र काले बत्स-शालाद्वा // 6 / 3 / 111 // . यवानां बुसं भवति स कालो यवबुसम् , तत्र देय म००-[ सप्तम्यन्तात् / वत्सशालाज्जाते मृणं यवबुसकम् / 'उमाः अतस्यो व्यवस्यन्ते विप्रत्ययस्य 'या लुप्' स्यात् , नाम्नि / वत्सशालः, क्षिप्यन्ते यत्र काले स कालः उमाव्यासः, 'व्यञ्जनाद् वात्सशालः // 11 // घन' (5 / 3 / 132), तत्र देयमृणमुमाभ्यासकम् / सोदर्य-समानोदयौँ / 6 / 3 / 112 / / 'ऐषमोऽस्मिन् संवत्सरे देयमृणमैषमकम् / सर्वत्र 'कलाप्यः' इति अकः / / 114 / / . म० ३०-एतौ यप्रत्ययान्तौ निपात्येते / समानोदरे जातः सोदर्यः, समानोदर्यः [ =भ्राता] / ग्रीष्मा-ऽवरसमादका // 6 / 3 / 115 / / निपातनात् पक्षे समानस्य सभावः / / 112 // म० वृ०-ग्रीष्म- अवरसमाभ्यां ( सप्तम्यन्ताकालाद्देये ऋणे // 6 / 3 / 113 / / भ्या) कालवाचिभ्यां देये ऋणे- 'ऽकञ्' स्यात् / अणिकणोरपवादः। (भर्तु' (6 / 3 / 89 ) अण् , म. वृ०-सप्तम्यन्तात्कालवाचिनो 'यथा- | 'वर्षाका० (63480) इकण ), ग्रीष्मे देयमणं ग्रैष्मविहित' प्रत्ययः स्याद् देये ऋणार्थे / नाम्नीति निवृ. कम्, अवरा' समा-अबरसमा, अथवा २समाया सम् / मासे देयमृणं-मासिकम् , सांवत्सरिकम- अवरत्वमित्यवरसमम् ; अवरसमा यामवरसमे वा णम , मासादिके गते सति देयमित्यर्थः / [ऋणे देयमृणमावरसमकम् / आपरसमकमित्यपि केचि इति किम् ? मासदेया भिक्षा,स्वाती देयं स्वातिवाच- त् // 115 // नम् ] // 113 // अव०-उपचारादत्र कालत्वम् / "विशेषणं कलाप्यश्वत्थयवबुसोमाव्यासैपमसोऽकः विशेष्ये' (331096) इति समासः / रउत्तरपदार्थ॥ 6 // 3 / 114 // प्राधान्ये तत्पुरुषसमासोऽयम् / अपरसम इति शब्दः // 115 / / म. वृ०-कलापिन्--अश्वत्थ-यवबुस--उमाव्यास-ऐषमसभ्यः [सप्तम्यन्तेभ्यः] कालवाचिभ्यो / संवत्सरा-ऽऽग्रहायण्या इकण च // 6 / 3 / 116 // Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'साधु-पुष्यत्-पच्यमानाद्यर्थे तद्धितविधानम] मण्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [341 म० वृक्ष-संवत्सर-आग्रहायणीभ्यां देये ऋणे / अव०-'अश्विनीपर्यायः अश्वयुज् शब्दः, ततोइकण चकारादकञ् च स्याद् / अणिकणोरपवादः / ऽश्वयुजा चन्द्रयुक्तया इति वाक्यं कर्तुं युक्तम् , परसंवत्सरे देयमणं फलं पर्ववा सांवत्सरिकम् , सांव- मर्थसुखावबोधार्थ पर्यायान्तरेण अश्विनीभिश्चन्द्रयुसरकम् ; आग्रहायणिकम् , आग्रहायणकम् // 116 / / ताभिर्युक्ता या पौर्णमासी सा आश्वयुजी इत्युच्यते इति वाक्यं कृत्वा चन्द्रयुक्ता०' (6 / 2 / 6) इति अण, अव०- 'संवत्सरात फलपर्वणोः' / 6 / 3 / 90) ततो ढी,आश्वयुज्यां पूर्णिमास्याम्? पूर्णिमायाम् ) उप्ता इत्यण प्राप्नोति, 'वर्षाकालेभ्यः' (6 / 3180 ) इति आश्वयुजका माषाः, 'भाश्वयुज्या०' इति अकम् इकण प्राप्नोति, उभयोरपि बाधकमिदं संवत्सरा- // 119|| ग्रहायण्या०' इति वचनम / ऋणे वाच्ये 'कालाद् ग्रीष्म-वसन्ताद्वा / / 6 / 3 / 120 // देये०' (६।३।११३)अण्प्राप्तिः // 116 / / म०व०-आभ्यां सप्तम्यन्ताभ्यामुप्ते 'वाडकसाधु-पुष्यत्-पच्यमाने / / 6 / 3 / 117 // ' स्यात् / ऋत्वणोऽपवादः / [ग्रीष्मे उप्त=] }म० वृ०- सप्तम्यन्तात कालविशेषवाचिनः मकम् , त्रैष्मं सस्यम् / [ वसन्ते उप्त=] वासन्तसाधौ पुष्यति पच्यमाने चार्थे 'यथाविहितं' प्रत्यया | कम् , वासन्तम् // 120 // भवन्ति / साधौ,- 'हैमनमनुलेपनम , हैमन्तम् , ___ व्याहरति मृगे // 6 / 3 / 121 // हैमन्तिकम् ; पुष्यति,-श्वासन्त्यः भर्तुः (6 / 3 / 89) अण् ] कुन्दलताः, ग्रेष्म्यः पाटलाः / पच्यमाने, म० व:-कालवाचिनो व्याहरति 'मृगेऽर्थे शारदाः शालयः [भर्तु 0' (6 / 3 / 89) अण] / 117) 'यथाविहितं' प्रत्ययः स्यात् / निशायां व्याहरति [भाषते]=नैशिकः नैशो वा शृगालः / मृग इति प्रव०-'हेमन्ते साधु,- 'हेमन्ताद्वा तलुक्च' किम् ? वसन्ते व्याहरति कोकिलः / / 121 // . (6 / 3 / 91) इति अण तलोपश्च, हेमन्ते साधु-हैम नम् / वसन्ते पुष्यन्ति वासन्त्यः, 'भर्तुः' (6 / 3 / प्रव०-'आरण्याः पशवो मृगा इत्युच्यन्ते / 89) अण / ग्रीष्मे पुष्यन्ति=ष्म्यः / शरदि एवं प्रदोषे व्याहरति प्रादोषिकः प्रादोषो वा, पच्यन्ते शारदाः, भर्तुः' (6.3 89) अण // 117|| 'निशाप्रदोषात् ' ( 6 / 3 / 83 ) इत्यनेन विकल्पेन इकण , पक्षे औत्सर्गिकोऽण // 121 / / उपते // 6 / 3 / 118 // जयिनि च // 6 / 3 / 122 // म० वृ०-सप्तम्यन्तात् कालबाचिन उप्तेऽर्थे 'यथाविहितं' प्रत्ययाः स्युः / शराप्ताः शारदाः ___म० ०-कालवाचिनः सप्तम्यन्तात् 'जयिनि यवाः / योगविभाग उत्तरार्थः // 118 // पाच्ये 'यथाविहितं' प्रत्ययः स्यात् / निशासह चरितमध्ययनं रनिशा, तत्र जयी साभ्यासः नैशिकः, प्रव०-एवं हेमन्ते ( उप्ताः) हैमनाः, ग्रैष्माः, 'नैशः; 'प्रादोषिकः, प्रादोषः ; 'वासन्तः, 'वार्षिकः // 122 // नैदाघाः, भर्तु 0 (6 / 3 / 89) अण // 118 // आश्वयुज्या अका / / 6 / 3 / 119 / / अव०-'जयः प्रसहनमभ्यासः, जयोऽस्याम० वृ०-सप्तम्यन्तात् आश्वयुजीशब्दादुप्तेऽर्थे- / स्तीति जयी, तस्मिन् / 'जयो हि क्रिया, सा च 'ऽकम्' स्यात् / इकणोऽपवादः / 'आश्वयुजकाः केवलकालस्य न घटते / केवलकालविषयस्य जयमाषाः // 119|| स्यायोगात् निशासहचरिताध्ययनादिवृत्तयो नि Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342] .. श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं - [अ०६ पा० 3 सू०१२३-१२९ शादयः शब्दाःप्रत्ययमुत्पादयन्ति / 'भर्तु०'(६।३।८९) / तूर्याङ्गाणाम्' (3 / 1 / 137) इति समाहारः, कण्ठताअण् / 'प्रदोषसहचरितमध्ययनं प्रदोषः, तत्र जयी | लुनि भवः / एवं 'दन्तोष्ठे भवः दन्तोष्ठयः / 124 / साभ्यासः प्रादोषिकः / 'वसन्ते जयी / 'वर्षा . नाम्न्युदकात् / / 6 / 3 / 125 / / कालेभ्यः' (6 / 3 / 80) // 122 / / म० वृ०-[सप्तम्यन्तात् ] उदकाद् भवेऽर्थे भवे // 6 / 3 / 123 // 'यः' स्यान्नाम्नि / 'उदक्या रजस्वला [=ऋतुमती म. वृ०-तत्रेति सप्तम्यन्ताद् भवेऽर्थे 'यथा नारी] // 125 // विहितमणादय एयणादयो' भवन्ति / सत्ता भव- अव०-'उदक्या इति कोऽर्थः ? (उदकः) त्यर्थो गृह्यते, न जन्म, जाते इत्यनेनैव गतार्थत्वात् / नैमित्तिकः आधारः,उदकनिमित्तात् जलाधार शुचिना [मथुरायां भवः=] माथुरः, औत्सः, नादेयः, ग्राम्यः रजस्वला ऋतुमती स्त्री पवित्रीभवतीत्यर्थः / 125 / ग्रामीणः // 123 // __ मध्यादिनण्णेया मोऽन्तश्च / / 6 / 3 / 126 / / दिगादि-देहांशाद् यः / / 6 / 3 / 124 // .. म० वृ०-[सप्तम्यन्तात् ] मध्यशब्दाद् भवे म. वृ०-दिगादिभ्यो देहावयववाचिनश्च ऽर्थे 'दिनण- ण- ईयप्रत्यया' भवन्ति, तद्योगे च सप्तम्यन्ताद्भवेऽर्थे 'यः प्रत्ययः' स्यात् / अणीया मागमः स्यात् / मध्ये भवा= माध्यंदिनाः, माध्यमः, देरपवादः / दिशि भवो= दिश्यः. विर्गे भवः=] व- मध्यमीयः / / 126 / / र्यः, अप्सव्यः / देहांशः, मूर्द्धन्यः, उदन्त्यः, ता- अव.-'माध्यंदिनाः शाखाविशेषा उद्गायन्ति लव्यः, औष्ठयः, मुख्यः, पद्यः, जघन्यः, 'कण्ठ- // 126 // तालव्यः, दन्तोष्ठ्यः॥१२४।। _ जिह्वामलाङ्गुलेश्चेयः // 6 / 3 / 127 // म० वृ०-जिह्वामूल- अङ्ग लिभ्यां मध्यशब्दाच्च अव०-दिगादिगणः- दिश् , वर्ग, पूग, गण, भवे 'ईयः' स्यात् / [दिगादि]यापवादः / [जिह्वायूथ, पक्ष, धाय्या, मित्र, धाय्यमित्र, मेघा, न्याय, अन्तर, अन्तर् , पथिन् , रहस् , अलीक, उख, उखा, मूले भवः=] जिह्वामूलीयः, (अङ्गलौ भवः=) अङ्गुसाक्षिन् , आदि, अन्त, मुख, जघन, मेघ, वंश, अनु लीयः,मध्यीयः / चकारो मध्यशब्दानुकर्षणार्थः मोऽवंश, देश, काल, वेश, आकाश, अप्। मुखजघन न्ताभावार्थश्च // 127 / / वंशानुवंशशब्दानामदेहांशार्थ इह पाठः, तथाहि वर्गान्तात् / / 6 / 3 / 128 // सेनाया यन्मुखं तत्र भवो-मुख्यः, सेनाया यज्जघनं म० वृ०-वर्गशब्दान्तात्सप्तम्यन्ताद् भवेऽर्थे तत्र भवो जघन्यः, वंशोऽन्वयः, तत्र भवो वंश्यः, 'ईयः' स्यात् / (अणोऽपवादः) कवर्गीयः वर्णः / 128 // अनुरूपो वंशोऽनुवंशस्तत्र भवोऽनुवंश्यः / इति / दिगादिगणः / 'अप्सु भवः अप्सव्यः, यः प्रत्ययः, | ईनयो चाशब्दे // 6 / 3 / 129 / / 'अस्वयंभुवोऽव' (74 / 70) अव, 'अपो ययोनि ___म० वृ०-[सप्तम्यन्तात् ] वर्गान्ताद्भवे 'ईनयौ मतिचरे' (3 / 2 / 28) इति सप्तम्या अलुप् / चकारादीयश्च स्यात् ,न शब्दे वाच्ये / भरतवर्गीणः मूर्द्धनि भवः,-'अनोऽध्ये थे'(७।४।५१) इति अनो / | [ईनः],भरतवर्यः [ यप्रत्ययः ), भरतवर्गीयः (ईलोपाभावः / एवंदन्ते भवः / एवं सर्वत्र / पादयो यः) / एवं २बाहुबलिवर्गीणः, युष्मद्वर्यः / अशर्भवः पद्यः, 'हिमहतिकाषिये पद्' (3 / 2 / 96) ब्द इति किम् ? कवर्गीयः ('वर्गान्तात्' (6 / 3 / 128) इति पत् / “देहांशात्तदन्तादपि इच्छन्त्येके, तन्मते ईयः ) // 129 / / कण्ठतालव्य इत्यादेयः / कण्ठश्च तालु च, 'प्राणि- अव०-वर्गशब्दः पक्षवाची, भरतस्य वर्गः, Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवार्थाधिकारः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 343 भरतवर्गे भवो भरतवर्गीणः / एवं 'बाहुबलिवर्गीण / शिरोनाडीवाचकस्तदातासां बहुत्वाद् बहुवचनम् 132 इत्यादीनापि एवं वाक्यानि कार्याणि / बाहुबलि चतुर्मासान्नाम्नि // 6 / 3 / 133 // वर्यः, बाहुबलिवर्गीयः / बाहुबलिनो बाहुबलेर्वा वर्गः / युष्मद्वर्गीणः, युष्मद्वर्यः, युष्मद्वर्गीयः / ____म० वृ०-चतुर्मासशब्दाद् भवेऽण् स्यान्ना अस्मद्वर्गीणः, अस्मद्वर्य :, अस्मद्वर्गीयः / / 129 / / म्नि / चतुर्ष मासेषु भवा-चातुर्मासी' आषाढी कार्तिकी, फाल्गुनी पौर्णमासी भण्यते / नाम्नीति दृति-कुक्षि-कलशि-वस्त्यहेरेयण / / 6 / 3 / 130 / / / किम् ? चतुर्यु मासेषु भवश्चतुर्मासः२ // 133 // म० वृ०-[सप्तम्यन्तेभ्यः] एभ्यो भवे 'एयण' स्याद् / अणाद्यपवादः / 'दार्तेयं जलम् , रकौक्षेयो अव०-१ चातुर्मासी इत्यत्र अविधानसामव्याधिः, कालशेयं तक्रम् , "वास्तेयं पुरीषम् , र्थ्यात् 'द्विगोरनपत्ये' (6 / 1 / 24) इत्यनेन अणो न ५आहेयं विषम् // 130 लोपः / 2 वर्षाकालेभ्यः' ( 6 / 3 / 80) इकण् , तस्य द्विगोरनपत्ये लोपः // 133 / / | अव०-'हतौ चर्मखल्बायां भवं दाति॑यम् / . यज्ञे ञ्यः // 6 / 3 / 134 // कुक्षौ देहांशे भवः कौक्षेयः, 'दृतिकुक्षि'० इत्यनेन म० वृ०-चतुर्मासाद्भवे यज्ञे वाच्ये 'व्यः' एयण एव भवति परत्वात् , कौक्षेय इत्येव भवे- / स्यात् / [चतुर्यु मासेषु भवाः= ] चातुर्मास्या यज्ञाः ऽर्थे प्रयोगः, 'धूमादेः' (6 / 3 / 46) इत्यनेन अकम् // 134 / / न भवति, अथवा खङ्गे वाक्ये 'कुलकुक्षि०' (6 / 3 / 12) इत्यनेन एयकञ् प्रत्ययोऽपि न भवति, “असिं कौक्षे गम्भीर-पञ्चजन-बहि-र्देवात् / / 6 / 3 / 135 / / यामुद्यम्य" इति पाठात / कलश्यां मन्थन्यां भवम् / म० वृ०-गम्भीर, पञ्चजन, बहिस , देव * ध्वस्तौ पुरीषनिर्गमद्वारे भवम् / “अहौ भवम् / इत्येभ्यो [सप्तम्यन्तेभ्यः] भवे 'ज्यः' स्यात् / अणा* // 130 // द्यपवादः / गाम्भीर्यः, पाञ्चजन्यः, बाह्यः, “दे व्यः / / 135 / / आस्तेयम् / / 6 / 3 / 131 / / ___म० ०-अस्तिशब्दात्तिवन्तप्रतिरूपकात् अव्य- अव०-गम्भीरे भवो गाम्भीर्यः / रथकारयात् धनविद्यमानपर्यायाद् भवे 'एयण' निपात्यते, पञ्चमस्य चातुर्वर्णस्य पातालस्य वा (वाचकः) पञ्चजन असृजशदस्य वा अस्त्यादेशश्च / आस्तेयम् / / 131 // इति लोकोक्तिः / पञ्च च तेजनाश्च पञ्चजनाः, अथवा पञ्च जना अस्य , पञ्चजनेषु भवः पाञ्चजन्यः, अत्र अव०-धने वा विद्यमाने वा अस्तौ असृजि वा न द्विगुः, अनाम्नि हि द्विगुविधानात 'यत एव न भवम् आस्ते यम् / / 131 // द्विगुः तत एव ब (? ज्य) इति तद्धितलुप् न भवति / ग्रीवातोऽण् च / / 6 / 3 / 132 // उबहिर्भवः बाह्यः / देवेषु भवो दैव्यः / तथा म.वृ०-ग्रीवाशब्दाद् भवे-'ऽण चकारायण ' भवादन्यत्र गम्भीरे जातः गाम्भीरः, पञ्चजने जातः स्यात् / देहांश याबाद. / ग्रीवा भवं प्रैवम् , =पाञ्चजन इति भवति, तथा पञ्चसु जनेषु भवः= प्रैवेयम् / / 132 // पञ्चजन इति द्विगौ तु कृतेऽण् , अणो लुपि च सत्यां पञ्चजन इति, प्रयोगः, बहिर्जातो-बाहीकः, अव०१-ग्रावाभ्यो ग्रीवातः, 'अहीयरुहोऽपादाने' | 'बहिषष्ठीकण च' (6 / 1 / 16) इति टीकण , देवस्येद(७२।८८) इति तस्। 'ग्रीवासु भवं अवम् , प्रैवे- मथवा देवादागतो-दैवः, 'देवाद् यय् च' (6 / 1 / यम् / अत्र ग्रीवाशब्दो यदा शिरोधमनीवचनः / 21) इति अञ् , दैव इति प्रयोगः सिध्यति / बाह्यः Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [106 पा० 3 सू० 136-139 बाहीक इत्यत्र 'प्रायोऽव्ययस्य' (7 / 4 / 65 ) इति / इति अत्समासान्तः, 'नोऽपदम्य'० (7 / 4 / 61), अन्तअन्त्यस्वरादिलोपः // 135 // वेश्मे भवः अन्तर्वेश्मनि वा भवः / पुर्शब्दः पुरपरिमुखादेरव्ययीभावात् // 6 / 3 / 136 // शब्दश्च, ततः पुरोऽन्तः पुरस्यान्तर्वा इत्यव्ययीभावः, अन्त पुरे भवः आन्तःपुरिक इति / अन्तर्गतमगाम० वृ०-परिमुखादिभ्यः [सप्तम्यन्तेभ्यः | रस्य, अत्र 'प्रात्यवपरि'० (31147) इत्यनेन यद्यपि अव्ययीभावेभ्यो भवे 'व्यः' स्यात् / [अणोऽपवादः] पञ्चम्यन्तेन समासः तथापि बाहुलकादत्र षष्ठ्यन्तेपारिमुख्यः' / परिमुखादेरिति किम् ? २औपकूलम् नापि समासः, यदि वा अन्तस्थं वा अगारं तदा औपमूलम् , औपकुम्भम् , आनुकूलम् , आनुमूलम् / 'विशेषणं विशेष्येण'० (3 / 1 / 96) इति समासः, भव्ययीभावादिति किम् ? पारिमुखः / / 136 / / / भन्तरगारे भवम् / पुरोऽन्तर्गतम् , तत्र भवम् / // 137 // प्रव०-'परितः-सर्वतो मुखं परिमुखम् , पर्यनोामात् // 6 / 3 / 138 // अत एव वचनादव्ययीभावः; अथवा परिशब्दो वर्ज .. नार्थः, मुखात्परि-परिमुखम् , 'पर्यपाङ्' (3 / 1 / 32) म० वृ०-परि-अनुभ्यां परो यो ग्रामशब्दस्तइत्यादिना अव्ययीभावः,परिमुखे भवः पारिमुख्यः / दन्तादव्ययीभावाद् भवे 'इकण' स्याद् / अणोऽपरिमुख, परिहनु, पर्योष्ट, पर्यलूखल, परिरथ, परि- | पवादः / पारिग्रामिकः, आनुपामिकः // 138 / / सिर, परिसीर, उपसीर, अनुसीर, उपस्थूण, उपस्थूल, उपकलाप, उपकपाल, अनुपथ, अनुगङ्ग, अनु- अव०-ग्रामात्परि-परिग्रामम् , ग्रामस्य समीतिल, अनुसीत, अनुमाष, अनुयव, अनुयूप, अनुवंश, पमित्यर्थः, एवमनुप्रामम् , परिग्रामे अनुप्रामे भवः अनुपद इति परिमुखादिगणः / २कूलस्य समीपम्= / / 138 // . उपकूलम् , उपकूले भवम् औपकूलम् / एवं मूलस्य उपाजानु-नीवि-कर्णात् प्रायेण / / 6 / 3 / 139 / / समीपमित्यादि परिणा वाक्यानि / सर्वत्र विभक्तिसमीप' ( 3 // 139) इत्यादिना अव्ययीभावः / म००-उपात् परे ये जानुनीविकर्णशब्दास्तपरिग्लानो मुखाय परिमखः, 'प्रात्यवपरिनिराक' दन्तादव्ययीभावा- दिकण' स्यात. प्रायण तत्र (3 / 1 / 47 ) इति समासः, परिमुखे भवः पारिमुखः भवे-यस्तत्र बाहुल्येन भवति, अन्यत्र कदाचित् // 136 / / स्यात् , तस्मिन्नित्यर्थः / औपजा तुफः से धकः, २औपनीविकं ग्रोबादाम, औपकर्णिकः सूचकः अन्तःपूर्वादिकम् / / 6 / 3 / 137 // | [दुर्जनः] / प्रायेणेति किम् ? नित्यं भवे मा भून् ,म०पू०-अन्तःशब्दपूर्वपदादव्ययीभावाद् भवे औपजानवं 'मांसम् // 139|| 'इकण' स्यात् / अणोऽपवादः / 'आन्तरगारिकः, आन्त हिकः, आन्तःपुरिकः / अव्ययीभावादिति अव०-'जानुनः समीपम् उपजानु, प्रायेणोकिम् ? आन्तरगारम् , 'आन्तःपुरम्। आन्तः- पजानु भवति अथवा उपजानौ भवः इति वाक्ये करणम् // 13 // भोपजानुकः इति प्रयोगः, अथवा औपजानुकं शाट कम् वस्त्रमित्यपि भवति / उपनीवि भवम् / माला प्रव०-'अगारस्यान्तः अन्तरगारम् ,पारेमध्ये- इत्यर्थः / 'कर्णयोः समीपम , उपकर्णे भवः / 5 उपऽग्रेऽन्तः'० (3 // 1 // 30) इति समासः, अन्तरगारे जानुनि भवम् औपजानवम् / केवलो जानुशब्दो भवः आन्तरगारिकः / एवमान्त हिकः तथा आन्त- | देहावयवो नायमुपजानुशब्दः इति दिगादिदेहां. बेमिकः, वेश्मनोऽन्तः, 'नपुंसकाढा' (7 / 3 / 89) / (6 / 3 / 124) इत्यनेन यः प्रत्ययो न भवति // 139 / / Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्यानार्थाधिकारः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / रूढावन्तःपुरादिकः / / 6 / 3 / 140 // माणः पूर्ववाक्यार्थमेव समुचिनोति"। 'कृतां व्याम० वृ०-अन्तःपुरात् तत्र भवे 'इकः' स्यात् , ख्यानं कृत्सु भवं वा कार्तम् / प्रतीतं पदं प्रतिरूढौ सचेदन्तःपुरशब्दः 'क्वचिद् रूढो भवति। अन्तः | पदम् , तत् प्रयोजनमस्य,- इकण् , प्रातिपदिकस्य पुरिका स्त्री। रूढाविति किम् ? आन्तःपुरः // 140 // व्यख्यानं तत्र भवं वा // 142 // प्रायो बहुस्वरादिकण् // 6 / 3 / 143 // . अव०-'रूढावन्तःपुरा'० इति सूत्रे रूढौ इति म. वृ०-बहुस्वराद् ग्रन्थवाचिनस्तस्य व्यावचनादव्ययीभावादिति निवृत्तमसम्भवात्। 'क्वचि ख्याने तत्र भवे चार्थे 'प्राय इकण' स्यात् / अणीगुढो भवति इत्यस्याने क चायमन्तःपुरशब्दो रूढः ? एकपुरुषपरिग्रहे स्त्रीसमुदाये, उपचारात्तन्निवासे यापवादः / षात्वणत्विकम् , नातानतिकम् , आ ख्यातिकम् , प्राथमिकम् , ५ब्राह्मणिकम् / प्रायो(अपि) अन्तःपुरशब्दो रूढ इत्यर्थः इत्यक्षराणि ज्ञेयानि / अन्तर्मध्ये पुरः (=अन्तःपरः) / अन्तःपरे वचनात् कचिन्नेकण ,- 'साहितम् // 143 / / भवा अन्तःपुरिका / पुरस्यान्तर्गतमन्तःपुरम् ,यथा अव०-'प्रायस् इत्यत्र क्रियाविशेषणात् भम् , अन्तरङ्गलो नखः, तत्र भवः (=आन्तःपुरः) / 'अव्ययस्य' (3 / 2 / 7 ) लुप् / षत्वं च णत्वं च-षपुरस्यान्तः अन्तःपुरम् , अन्तःपुरे भवा (=आन्तः त्वणत्वे, षत्वणत्वयोर्व्याख्यानं तत्र भवं वा षात्वणपुरिकी), ('अन्तःपूर्व० इति सूत्रेण) इकण , अव्ययी त्विकम् / ३उदात्तस्य नत इति संज्ञा, अनुदात्तस्य भावोऽत्र // 140 // . अनत इति संज्ञा पाणिनेः / अथवा नतस्यानुदात्त कर्ण-ललाटात् कल' // 6 / 3 / 141 // इति, अनतस्य उदात्त इति संज्ञा, अल्पस्वरत्वान्न म० वृ०-रूढाविति वर्त्तते / कर्णललाटाभ्यां तस्य पूर्वनिपातः / एवमात्मनेपदपरस्मैपदिकम् , भवे 'कल्' स्यात् , रूढी-प्रकृतिप्रत्ययसमुदायश्चेत् आव्ययीभावतत्पुरुषिकम् , नामाख्यातिकम् , आकचिमूढः / २कर्णिका कर्णाभरणविशेषः पद्माद्यवय ख्यातिकम् / 'प्रथमाया व्याख्यानं प्रथमायां भवं वश्व / ललाटिका ललाटमण्डनम् // 141 // (वा) प्राथमिकम् / ब्रह्मणा प्रोक्तं- 'तेन प्रोक्त' (6 / 3 / 181) अण , ब्राह्मणस्य व्याख्यानं ब्राह्मणे भवं प्रव०-'कल्प्रत्यये लकारः स्त्रीलिङ्गार्थः / कर्णे- वा / 'संहिताया व्याख्यानं संहितायां भवम् (वा)।। भवा कर्णिका इति भवार्थस्तु व्युत्पत्तिमात्रमेव, पद्मा- (एवम् ) प्रातिपदिकीयम् / / 143 / / द्यवयवस्य कर्णेऽभावात् // 141 / ऋगृद्-द्विस्वर-यागेभ्यः / / 6 / 3 / 144 // तस्य व्याख्याने च ग्रन्थात् / / 6 / 3 / 142 / / म. वृ०-ऋच्शब्दात् , ऋकारान्तात् , द्विस्व___म०३०-तस्येति षष्ठयन्तात् 'व्याख्यानेऽर्थे रात् , यागशब्देभ्यश्च प्रन्थवाचिभ्यस्तस्य व्याख्याने तत्रेति सप्तम्यन्ताव भवेऽर्थे ग्रन्थवाचिनो 'यथा तत्र भवे चार्थे 'इकण' स्यात् / आर्चिकम् , चाविहितं प्रत्ययः' स्यात् / चकारस्तत्र भव इत्यस्या तुझैतृकम् / द्विस्वर,- 'आङ्गिकम् , 'पौर्विकम् , नुकर्षणार्थः / कार्त्तम् , "प्रातिपदिकीयः / / 142 // तार्किकम् , "नामिकम् / याग- राजसूयिकम् 144 प्रव०-पश्चमीडसिसूत्रत्वात् (?) / 'ग्रन्थः शब्दानां सन्दर्भः रचना, स शब्दसन्दर्भो व्याख्यायते अव०-अणादेरपवादः / ऋचां व्याख्यानअवयवशः कथ्यते येन तत् व्याख्यानम् / इयमव- मृक्षु भवं वा आर्चिकम् / ऋकारान्त,- चतुर्यु होतृचूरिः सूत्राने एव योजनीया, न सूत्रार्थतः / अनु- | षु भवः, 'भवे' (6 / 3 / 123) अण् , 'द्विगोरनपत्ये.' कर्षणार्थ इत्यस्याग्रे- “वाक्यार्थसमीपे चकारः श्रूय- J (6 / 1 / 24 ) इत्यनेन अण् लुप्यते, चतुर्होता नाम Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भौसिद्धहेमशब्दानुशासनं ..[म०६ पा० 3 सू० 145-149 - अन्धः, चतुहौंतुयाख्यानं चतु:तरि भवं वा चातु:- / ख्याने तत्र भवे चार्थे 'यः' स्यात् / द्विस्वरेकणोऽसकम् / भङ्गानां व्याख्यानमङ्गेषु भवम् (वा) आङ्गि- पवादः / 'छन्दस्यः / / 147 / / कम् / एवं पूर्वाणां व्याख्यानं पूर्वेषु भवं वा / (एव) सूत्राणां व्याख्यानं सूत्रेषु भवं (वा) सौत्रिकम् / 'त प्रव० -'छन्दसो व्याख्यानस्तत्र भवो वा आणां व्याख्यानं तत्र भवं (वा) तार्किकम् / 'नाम्नां छन्दस्यः // 14 // व्याख्यानं तत्र भवं वा नामिकम् / राजा सूयते- शिक्षादेवाण // 6 / 1 / 148 // ऽस्मिन् राजा वा सूयते, 'संचाय्यकुण्डपाय्य०' (5 / म००-'शिक्षादिभ्यो ग्रन्थार्थेभ्यस्तस्य व्या१।२२) इति निपातः॥१४४।। ख्याने तत्र भवे चा-'ऽण्' स्यात् / २इकणोऽप___ ऋषेरध्याये // 6 / 3 / 145 / / वादः / शैक्षः // 148|| म० वृ०-ऋषिशब्देभ्यो प्रन्थवाचिभ्यस्तस्य प्रवक- 'शिक्षा, (ऋगयन,) पद, व्याख्यान, व्याख्याने तत्र भवे चाध्याये 'इकण' स्यात् / वा- पदव्याख्यान, छन्दस् , छन्दोव्याख्यान, छन्दोमान, सिष्ठिकोऽध्यायः // 145 // छन्दोभाष, (छन्दोविचिति, छन्दोविजिति,) न्याय, पुनरुक्त, निरुक्त, व्याकरण, निगम, वास्तुविद्या, अव.-'वसिष्ठस्य प्रन्थस्य व्याख्यानस्तत्र अङ्गविद्या, क्षत्रविद्या, त्रिविद्या, विद्या, उत्पात, भवो वा वासिष्ठिकः // 145 / / उत्पाद,संवत्सर, मुहूर्त, निमित्त, उपनिषत् , ऋचि, पुरोडाश-पौरोडाशादिकेकटौ // 6 / 3 / 146 // यज्ञ, चर्चा, क्रमेतर, लक्ष्ण इति शिक्षादिः / २इकण ____ म० वृ०-आभ्यां प्रन्थवाचिभ्यां तस्य व्या (इति) उपलक्षणमीयस्य (अपि) अपवादः। शिक्ष्यते ख्याने तत्र भवे चार्थे 'इक-इकटौ' भवतः / इकेक अभ्यस्यते इति...... . (शिक्षा, 'क्तेटो गुरो०' टोः स्त्रियां विशेषः / 'पुरोडाशिकः, पुरोडाशिका, (5 / 3 / 106) इति खियामप्रत्ययः, शिक्षायाः) व्या ख्यानस्तत्र भवो वा शैक्षः / एवं छान्दसः, नैयायः / पुरोडाशिकी; पौरोडाशिकः // 146 / / 'शिक्षा..." (देश्वाण'(६३१४८) इति) सूत्रं यावत् प्रव०-'पुरो दास्यते (इति) अच् , पृषो सप्तम्यन्तात् इति अधिकारः सम्पूर्णः // 148 / / दरादित्वात् पुरोडाश इति निपातः, पुरोडाशः __तत आगते // 6 / 3 / 149 / / पिष्टपिण्डः, तैः सहचरितो मन्त्रः पुरोडाश उच्यते / म० वृ०-तत इति पञ्चम्यन्तादागतेऽर्थे 'यथापुरोडाशस्य व्याख्यानं तत्र भवो वा पुरोडाशिकः, विहितमणादय एयणादयश्च' स्युः / [मथुराया भत्र इकः / पुरोडाश इत्ययं शब्दः, पुरोडाशानामयं भागतः=] माथुरः, औत्सः, 'गव्यः, दैत्यः, बाह्यः, पौरोडाशः, तस्येदम्' (6 / 3 / 160) अण् , अथवा पुरो- * कालेयः, नादेयः, ग्राम्यः, प्रामीणः / / 149 / / डाशेषु भवो वा पौरडाशः, तत्संस्कारको मन्त्रोऽपि पौरडाशः, तस्य व्याख्यानम् तत्र भवो वा पौर प्रव०-तत इति पञ्चम्यन्तात् इत्यधिकारः डाशिकः, (एषम् ) पौरोडाशिका, पौरोडाशिकी / 'ऋ- 'त्यदादेर्मयट्' ( 6 / 3 / 159) इति सूत्रं 11 यावत् गृद्धि०' (6 / 3 / 144) प्रायो०' (6 / 3 / 143) इत्युक्त - सर्वसूत्रार्थेषु ज्ञातव्यः / सूत्रे मुख्यापादानपरिप्रहात कणः 'दोरीयः' (6 / 3 / 32) इत्यस्य (?) // 146 // मथुराया मागच्छन् वृक्षमूलादागत इत्यत्र वृक्षमूला प्रासङ्गिकापादान भवति इत्यर्थः / गोभ्यः आगतःछन्दसो यः // 6 / 3 / 147 // 'गोः स्वरे यः' (6 / 1 / 27 ) यः प्रत्ययः, 'व्यक्ये' म.वृ०-छन्दसूशब्दात् प्रन्थवाचिनस्तस्य व्या- | (1 / 2 / 25) अव् // 149 / / Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगताांधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम्। [347 'विद्यायोनिसम्बन्वादकत्र // 6 / 3 / 150 // -- आरस्थानाद् / / 6 / 3 / 153 / / म. वृ०-विद्यासम्बन्धवाचिभ्यः योनिसम्ब- म. वृ०-स्वामिग्राह्य भाग आयः, स यस्मिन्नुन्धवाचिभ्यः पञ्चम्यन्तेभ्य आगते-'ऽकम्' स्यात् / | त्पद्यते तद् आयस्थानम् , तद्वाचिन आते 'इकण' २विद्यासम्बन्ध- आचार्यकम् , “औपाध्यायकम् , स्यात् / 'आतरिकम् , "शोल्कशालिकम् , आपणिशैष्यकम् / योनिसम्बन्ध-पैतामहकम् , पैतृव्य- कम् , दौवारिकम् / / 153 / / कम् , मातुलकम् // 150 // , प्रव०-एति स्वामिनमिति आयः, 'तन्व्यधीण' अव०-'विद्याकृतो योनिकृतश्च सम्बन्धो यस्य / (5 / 1 / 64) इति णः / पञ्चम्यन्तात् / अणो सः, तस्मात् / अणोऽपवादः / ईयं तु प्रत्ययं पर- | ऽपवादः / ईयं तु परत्वाद् बाधते / एत्य आगत्य स्वादेव बाधते न तु अपवादत्वेन बावत इति भावः। तरन्त्यस्मिन् इति आतरः, आङ पूर्वः तधातुः, युवर्ण०' उआचार्यादागतम् / एवमुपाध्यायादागतम् / (एवम् ) (5 / 3 / 28) इत्यल , नदीतीर्थ घाटः, आतरादागत"आन्तेवासकम् // 150 // मातरिकम् / शुल्कशाला मण्डपिका // 153 / / पितुर्यों वा // 63 / 151 // शुण्डिकादेरण // 6 / 3 / 154 // म. वृ०-[पञ्चम्यन्तात् ] पितृशब्दादागते म० वृ०-शुण्डिकादिभ्य'आगते-'ऽण' स्यात् / 'यः' स्यात् वा / इकणोऽपवादः / ['ऋत इकण'(६। / इकणादेरपवादः [आदिशब्दात् अकबू ईयः / 3 / 262) इत्यस्य] पितुरागतं 'फियम् , पैतृकम् | 'शौण्डिकम् , औदपानम् // 15 // // 151 // प्रव०-'पञ्चम्यन्तेभ्यः / शुण्डिका, उदपान, प्रव०-पित्र्यम , अत्र 'ऋतो रस्तद्धिते'(१।२। / पर्ण, कृकण, उलप, तृण, तीर्थ, स्थण्डिल, उपल, 26) इति रत्वम / 2 पैतृकम्', अत्र पक्षे इकणपि | उदक, भूमि, पिप्पल इति शुण्डिकादिः / शुण्डो सिद्धः, 'ऋवर्णोवर्ण'० (74 / 71) इति इकण मदनिर्भरे इत्यनेकार्थे / शुण्डो मदपूरितः, शुण्डा इलोपः // 151 / / वा सुरा। 'शुण्डोऽत्रास्ति-'अतोऽने कस्वरात्' (7 / 2 / 6) इत्यनेन इकः, शुण्डास्यास्ति- 'ब्रीह्यादिभ्यस्तौ' ऋत इकण // 6 / 3 / 152 // (72 / / 5) इकः, शुण्डिकः शुण्डिका (वा) सुरापणः म. वृ०-ऋदन्तादागते 'इकण' स्याद् / अक सुराविक्रयी वा उच्यते, शुण्डिकादागतं शोण्डिकम् / योऽपवादः२ / होतुरागतं हौतृकम् , शास्तृकम् / २उदकं पीयतेऽस्मिन्-'करणाधारे' (5 / 3 / 129) योनिसम्बन्ध-, [पैतृकम् ,] मातृकम् , भ्रातृकम् , अनट् , 'नाम्न्युत्तपदस्य च' (3 / 2 / 107) इति उदस्वासूकम् , जामातृकम् ,[दौहितकम् , नानान्टकम् ] कस्य उदभावः, उदपानादागतम् / / 154 / / मातुरागता मातृकी विद्या // 152 / / गोत्रादयत् // 6 / 3 / 155 / / प्रव०-विद्यायोनिसम्बन्धवाचिन ऋदन्तात् म. वृ०-गोत्रवाचिनः पञ्चम्यन्तादागतेऽर्थेपञ्चम्यन्तादिति सूत्रार्थः / विद्यायोन्युक्ताकमोऽप- | 'ऽङ्क इव प्रत्ययः' स्यात् / विदेभ्य आगतं 'वैदम्, बादः // 152 // गार्गम् // 155 / / O"शुण्डापि जलहस्तिन्यां मदिराकरिहस्तयोः / नलिन्यां वारयोषायां शुण्डस्तु, मदनिर्भरे" // (श्रीहैमलिङ्गानुशासनविवरणान्तर्गतश्लोकोऽयम्) Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०६ पा० 3 सू०१५६-१५८ दासार्थम् // 156 // प्रव०-विदस्यापत्यानि, 'विदादेवृद्ध' (6 // | पापमयम् , पापीयम् , ['दोरीयः' (6 / 3 / 32)] / 1 / 41) अम् , 'बहुव्यस्त्रियाम् ' (6 / 1 / 124) अन्- टकारो ड्यर्थः,-चैत्रमयी, सममयी // 156 / / लुप्, ततो विदानामयं सङ्घो घोषो वा अङ्को वा, प्रव०-हेतुः कारणम्। नृग्रहणमहेत्वर्थम् / 'सङ्घघोषाङ्क'० (6333172) इत्यनेन सङ्घादी अर्थे वचनभेदाद्यथासङ्ख्याभावः / बहुवचनं स्वरूपव्युअण, यथा वेद इत्यादिषु सङ्घघोषाङ्काद्यर्थेषु अण् भवति तथा विदेभ्य आगतमिति वाक्ये ततः भागतेऽर्थे गोत्रादकवत्' (6 / 1 / 155) इति सूत्रेणापि प्रभवति // 6 / 3 / 157|| भण् सिद्धः / गोत्रादकवत्' (6 / 3 / 155) इत्यस्यायं म.वृ०-पञ्चम्यन्ताच्छब्दात् प्रभवति-प्रथम भावार्थो दर्शितः / एवं गाये दाक्ष्यम् (?गार्ग दाक्षम्) | | प्रकाशमानेऽर्थे 'यथाविहितं प्रत्ययः' स्यात् / हिमइत्यादयोऽपि साध्याः। तथा 'गोत्रादक०' (6 / 3 / वतः प्रभवति हैमवती गङ्गा, दारदी सिन्धुः [दरत् 155) इत्यत्र अङ्कग्रहणेन तस्येदमित्यर्थसामान्यं पर्वतः ) // 157 // लक्ष्यते, तेन अकञ् प्रत्ययो 'गोत्राददण्ड'० (6 // 3 // 169) इत्युक्तोऽतिदिश्यते / अन्यथा 'सङ्घघोष०' प्रव०-प्रथममुपलभ्यमानता दृश्यमानता प्रभव (6 / 3.172) इत्युक्तोऽणेव स्यात् / तेन उपगवा उच्यते / अन्ये तु प्रभवति, कोऽर्थः ? जायमाने नामयमौपगवकः, एवं मार्गायणकः इत्यत्र 'गोत्राद- इत्याहुः / तन्मते, 'जाते'(६।३।९८) इत्यनेन भूते दण्ड'० (6312169) इत्यनेन अक भवति, तथा काले सप्तम्यन्तात् प्रत्ययः, हिमवति जाता इति औपगवेभ्य आगत इत्यर्थेऽपि अकबू साध्यते / एवं वाक्यम् , स्वमते पश्चम्यन्ताद्वर्त्तमाने काले प्रत्यय 'रैषतिकादेरीयः' (6 / 3 / 170) *रैवतिकेभ्यः इति विशेषः // 157|| आगतं Aरैवतिकीयम्, Bगौरग्रीवीयम् / A रेवत्या वैडूर्यः / / 6 / 3 / 158 // चन्द्रयुक्तया युक्तः कालः-'चन्द्र'० (6 / 2 / 6) अण, म०वृ०-विडूरशब्दात्पञ्चम्यन्तात् प्रभवत्यर्थे लुप् च, डीनिवृत्तिः, पुनर्जी, रेवत्यां जातः, ‘भर्त० 'ब्यो' निपात्यते / विडूरात् प्रभवति वैडूर्यो मणिः, (6 / 3 / 89) अण, 'चित्रारेवती (63 / 108) लुप् , विडूरपामे ह्ययं संस्क्रियमाणो मणितया ततः प्रथम रेवत्या अपत्यानि, 'रेवत्यादेरिकण' (6 / 1186), ततो रेवतिकेभ्य आगतम् / B गौरी ग्रीवाऽस्य, प्रभवति / यदा तु जायमानार्थः प्रभवशब्दस्तदा वालवायशब्दस्य व्यः, तद्योगे वालवायस्य विडूगौरग्रीवाद् 'अत इम्' (6 / 1 / 31), तस्याङ्कः // 155 / / रादेशो निपात्यते / वालवाय पर्याय एव वा विडूरनृ-हेतुभ्यो रूप्य-मयटौ वा // 6 // 3 // 156 / / शब्दः॥१५८॥ म० वृ०-नृवाचिभ्यो हेतुवाचिभ्यश्च पञ्चम्यन्तेभ्य भागतेऽर्थे 'रूप्य मयट्' इति प्रत्ययौ वा भवतः / चैत्रादागतं-चैत्ररूप्यम् , चैत्रमयम् , चैत्रीयम् / हेतु,- समादागतं समरूप्यम् , सममयम् ; विषमरूप्यम् , विषममयम् ; पक्षे ['गहादिभ्यः' (6 / 3 / 63) ईयः]समीयम् , विषमीयम् ; पापरूप्यम् , प्रव०-'विडूरग्रामे मणीनामाकरः / श्वालवायनामा पर्वतः / तस्मादपि किश्चित् किञ्चित् उत्पद्यते परं स मणिर्जात्यो न भवति, किन्तु पाषाण एवेति लोकोक्तिः / वालवायशब्दात्तु ईयप्रत्ययो न भवत्यनभिधानात् इति / प्रतिनियतविषयाश्च रूढ्य इति वैयाकरणानामेव प्रसिद्धिः / यथा जित्वरीशब्दस्य वाराणस्यां वणिजामेव प्रसिद्धिः। ★'साध्यते' इत्यध्याहारः। ॐ अत्र 'तन्मते स्वमते' इति पाठोऽधिकः प्रतिभाति / Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदमर्थाधिकारः] मध्यमवृत्स्यवचूरिसंवलितम् / [349 // 159 // एतान्यक्षराणि विदूरशब्दस्य इत्यस्याये पठित- | 'अकल्' स्यात् / लः स्त्रीत्वार्थः / गर्गभार्गत्रिका व्यानि // 15 // // 163 // त्यदादेर्मयट् // 6 / 3 / 159 // प्रव.-'गर्गस्यापत्यानि, 'गर्गादेर्यन् (6 // 1 // म० वृ०-त्यदादिभ्यः पञ्चम्यन्तेभ्यः प्रभव- 42), 'यामोऽश्यापर्णाo' (6 / 1 / 126) इति यन् त्यर्थे 'मयट्' स्यात् / तन्मयम् , तन्मयी; भवन्मयम् लुप्यते, पुनर्गर्गशब्दः / भृगोरपत्यानि वृद्धानि, 'ऋ. [भवन्मयी] // 159 // षिवृष्ण्य०' (6 / 1 / 61 ) इति अण् , भार्गव इति शब्दः सञ्जातः , भार्गवस्यापत्यानि युवानः, 'अत प्रव०- पञ्चम्यन्तादित्यधिकारः सम्पूर्णः इन' (6 / 1 / 31), जिदार्षा०' (6 / 1 / 140) इति इम् लुप्यते, यथा इब् लुमः तथा 'बिदार्षा०' (6 / 1 / 140) इति भण्लोपोऽपि प्राप्नोति, परं 'गर्गभार्गतस्येदम् / / 6 / 3 / 160 // विका' (6 / 1 / 136) इत्यनेनाण्लोपः प्रतिषिध्यते। तदनन्तरं गर्गाश्च भागश्चि गर्गभार्गवम् (? वाः); म०व-तस्येति षष्ठयन्तात् इदमित्यर्थे 'यथा गर्गभार्गवाणां विवाहो गर्गभार्गविका, विवाहे द्वन्द्वाविहितमणादयश्च' भवन्ति / उपगोरिदमौपगवम्, दकल्' (6 / 3 / 163) // 163 // [ मथुराया इदं ] माथुर दैत्यम् , कालेयम् , आग्नेयम , गव्यम् , नादेषम् , भानवीयः / / 160 // अदेवासुरादिभ्यो वैरे / / 6 / 3 / 16 / / म० वृ०-द्वन्द्वात् देवासुरादिवर्जितात्तस्येदप्रव०-'तस्येदम्' इति अधिकारो 'पहेस्तुरि- / मर्थे वैरे-ऽकल' स्यात् / 'काकोलूकस्येदं वैरं का. श्वादिः' (6 / 3 / 180) इति सूत्रं 21 यावत् ज्ञातव्यः। कोलूकिका, २श्वावराहिका, अहिनकुलिका / अदेवासर्वसूत्रार्थषु तस्य इति कोऽर्थः षठ्यन्तान्नाम्नः इद- | सुरेति किम् ? दैवासुरम् , 'राक्षोऽसुरम् // 164 / / मोऽर्थः // 160 // प्रब०-देवासुरादिगणः प्रयोगगम्यः / 'काहल-सीरादिकम् // 6 / 3 / 161 / / काश्च उलूकाश्चेति पूर्व द्वन्दः, पश्चात्तस्येदमर्थे म० वृ०-आभ्यां षष्ठ्यन्ताभ्यामिदमर्थे 'इकण' वाक्यम्। श्वाच वराहश्च(श्वांवराही), शुनः'(३।२।९०) स्यात् / अणोऽपवादः / हालिकम् , सैरिकम् / 161 / / इति आत्वम् , श्वावराहयोरिदं वैरम् / देवाश्च समिध आधाने टेन्यण // 6 / / 162 // असुराश्च (देवासुराः), तेषामिदं वरम्। 'रक्षांसि चासुराश्च (रक्षोऽसुराः), तेषामिदं वैरम् / / 164 // म० वृ०-समिधशब्दात्तस्येदमर्थे 'टेन्यण' / नटान्नृत्तं यः॥६।३।१६५।। स्यात् , तच्चेदिदमाधानं' भवति / टकारोब्यर्थः / सामिधेन्यो मन्त्रः // 162 / / म० वृ०-नटशब्दात्तस्येदमर्थे नृत्ते 'न्यः' स्यात् / नटानामिदं नृत्तं नाट्यम् / / 165 / / प्रव०-'आधीयते येन समित् तदाधानम् / / . प्रव.-नृत्त इति किम् ? नटानामिदं गृहम् समिधामाधानो मन्त्रः सामिधेन्यः / / 162 / / // 165 // . विवाहे द्वन्द्वादकल् // 6 / 163 // छन्दोगौकिथक-याज्ञिक-बबूचाच्च धर्मा म० ब०-द्वन्द्वात्तस्येदमर्थे विवाहे वाच्ये / / ऽऽम्नाय-सङ्ग्रे // 6 / 3 / 166 // Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 6 पा० 3 सू० 167-170 3 म. वृ०-छन्दोगादिभ्यश्चरणेभ्यो नटाच्च / वेदं विदन्त्यधीयते वा कठाः, तद् वेत्त्यधीते'(६।२। तस्येदमर्थे धर्मादौ 'व्यः' स्यात् / 'छन्दोगानां धर्म | 117) इत्यण , 'प्रोक्तान्' (6 / 2 / 129) इत्यनेन वेभाम्नायः सङ्घो वा छान्दोग्यम् , औकिथक्यम् , | त्यधीतेऽर्थे विहितोऽण् लुप्यते, तदनन्तरं कठानां याज्ञिक्यम् , बाहच्यम् , नाट्यम् // 166 / / धर्मः आम्नायः सङ्घो वा काठकः / इत्थं चारककः, कालापकः, मौदकः- एतेऽपि साध्याः / / 168 / / प्रव०-'छन्दो गायन्तीति छन्दोगाः, 'गायो गोत्राददण्डमाणव-शिष्ये / / 6 / 3 / 169 / / ऽनुपसर्गाट्टक्' (5 / 1174) / एवम् उकथं (यज्ञ) विदन्त्यधीयते (वा), याज्ञिकौथिकलौकायितिकम्' म. १०-गोत्रवाचिनस्तस्येदमर्थे दण्डमाण(६।२।१२२) इत्यनेन औक्थिकयाज्ञिको निपात्येते, | वशिष्यवजिते-'ऽकन्' स्यात् / औपगवकम् , २दानिपातनात डकण . औकिथकानां यानिकानां धर्मा- क्षकम्, गार्गकम् , “गाायणकम / अदण्डमाणवदिः / बह्वयः ऋचो यस्य, तत्र 'नब बहोऋचो / शिष्ये इति किम् ? दण्डप्रधाना माणवाः दण्डमामाणवचरणे' (73 / 135 ) इति अप् समासान्तः, णवाः, आश्रमिणां रक्षापरिचरणार्थाः काण्वा द-. ' बहर्चानां धर्म इत्यादि वाक्यम् / / 166 / / ण्डमाणवाः "शिष्या वा // 169 / / आथर्वणिकादणिकलुक च / / 6 / 3 / 167|| अव०-गोत्राददण्ड०' (6 / 3 / 169) इति अणो म० वृ०-आथर्वणिकशब्दात्तस्येदमर्थे धर्मा- ऽपवादः / गोत्रेतिवचनं परत्वादीय-अप्रत्ययौ दावण स्यात् , 'इकलोपश्च / आथर्वणः / / 167 / / बाधते / 'औपगवस्येदमौपगवकम , अत्र ईय प्राप्तिः। दाक्षेरिदं दाक्षकम् / गार्यस्येदं गार्गकम् / प्रव०-चरणादकधि प्राप्ते वचनमिदम् / गर्गस्यापत्यं वृद्धं.गार्यः, 'गर्गादेर्यम्' (6 / 1 / 42), आथर्वणिकशब्दस्य / अथर्वणा प्रोक्तं वेदं वेत्त्य गाय॑स्यापत्यं 'यबिनः' (6 / 1 / 54) इत्यायनण् , धीते वा आथर्वणिकः, न्यायादेरिकण' (6 / 2 / 118), गाायणस्येदं 'गोत्रा०' (6.3 / 169) इत्यका / अत एव निपातनात् न्यायादिगणपाठसामर्थ्याद्वा रक्षाकर्मणि सेवाकर्मणि नियुक्ताः पुरुषाः / 'का'प्रोक्तात' (6 / 2 / 129) इति सूत्रेण इकण न लुप्यते ण्वस्यापत्यं काण्व्यः, 'गर्मादेर्यञ् (६।१।४२),काण्वस्य लोपः प्राप्तोऽपि, आथर्वणिकानां धर्मादिः // 16 // इमे दण्डमाणवाः शिष्याः काण्याः, 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) इत्यण ; 'ययोऽश्यापर्णा.' (6 / 1 / 126) चरणादका // 6 / 3 / 168 / / इत्यनेन यञ् लुप्यते / तथा शिष्या अन्तेवासिनः म० वृ०-चरणशब्दो वेदशाखावचनस्तद्योगा- अध्ययनपठनकर्मणि आवृताः // 169 / / त्तदध्यायिषु वर्त्तते / चरणवाचिनस्तस्येदमर्थे 'धर्मादावकम्' स्यात् / कठानां धर्म आम्नाय सङ्घो रैवतिकादेरीयः / / 6 / 3 / 170 // वा-काठकः, चारककः, कालापकः, मौदकः / 168 / म० वृ०-रेवतिकादेर्गोत्रवाचिनस्तस्येदमर्थे 'ईयः' स्याद् / 'अकादेरपवादः / २रैवतिकीयः प्रव०-'चरणादकम्' इत्ययं योगोऽणोऽपवादः। सङ्घादिः, रैवतिकीया दण्डमाणवशिष्याः, 'गौरईपरत्वादु बाधतेऽयं योगः। 'वेदशाखाध्ययनपाठ ग्रीवीयं शकटम् , गौरग्रीवीयः सङ्घादिः दण्डेति केषु ब्राह्मणेषु / रकठो वेदशाखाध्ययनविशेषः, // 17 // कठेन प्रोक्तो वेदः कठः, 'तेन प्रोक्त' (6 / 3 / 181 ) इत्यनेन अण् , 'कठादिभ्यो वेदे लुप्' (6 / 3 / 183 ) अव०-गोत्राददण्ड०' (6 / 3 / 169) अकम् , इत्यनेन प्रोक्तविहितोऽण् लुप्यते, ततः कठप्रोक्त आदिशब्दात् अन् / रेवत, रेवतरोहिणाद् भे' Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदमर्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवपूरिसंवलितम् / (2 / 4 / 26) इति की, रेवती, रेवत्या चन्द्रयुक्तया० / धादिः, 'गोत्राददण्ड०' (6 / 3 / 169) इति / गोत्रवाअण् , लुप् च, रेवत्यां जातः, 'भत०' (6 / 3 / 89) / चिन इति किम् ? सौतङ्गमीयः, सुतङ्गमेन निवृत्ता, भण् , 'चित्रारेवतीरोहिण्याः स्त्रियाम्' (63 / 108) / चातुरर्थिकः 'सुतङ्गमादेरिब्' (6 / 2 / 85), 'इत्र इतः' इत्यणो लुप . रेवत्या अपत्यम . 'रेवत्यादेरिकण' (22471) ही , सौतङ्गम्या अयं सवादिः, (6 / 1 / 86), रेवतिकशब्दः, रेवतिकस्यायं सङ्घयो- 'दोरीयः' (6 / 3 / 32) / विदस्यापत्यानि वैदाः, पादि, रैवतिकस्येमे दण्डमाणवाः शिष्याः (वा), 'विदादेवरे' (6 / 1141) इति अन् , 'यबमोऽश्या'स्वतिकादेरीयः' (6 / 3 / 170) / गौरा ग्रीवा अस्य, पर्णाः' (6 / 1 / 126) इति भन् लुप्यते, ततो विदा'गोश्चान्ते.' (2 // 4 // 96) ह्रस्वः, 'परतः स्त्री पुंवत्' नामयं सयघोषाकोवा विदानामिदं लक्षणमितिया (3 / 2 / 49), गौरग्रीवस्यापत्यम् , 'अत इन' (6311 वाक्ये 'सयघोषाः' इत्यनेन अण / एवं गर्ग३१), 'प्राग भरते.' (6 / 1 / 129) लुप , गौरग्रीव- स्यापत्यम् , 'गर्गादेर्यम्' (631142), 'यनमोऽश्यास्येदं शकटं संवादिर्वा दण्डमाणवः (वा) / रैव- पर्णाः इति यन् लुप्यते, गर्गाणामयं सवादिः, तिक, गौरग्रीव, स्वापिशिष्य. क्षेमधृति, औदमेधि, गर्गाणामिदं लक्षणम् / दक्षस्यापत्यानि, 'मत औदवाहि, वैजवापि इति रैवतिकादिगणः // 170 // इन् ' (6 / 1 / 31), दाक्षयः, दाक्षीणामयं सवादिः / कौपिञ्जल-हास्तिपदादण् // 6 / 3 / 171 / / ४दाक्षीणामिदं लक्षणं दासं लक्षणम् / 'यथा शिखया परिव्राजकमद्राक्षीत् , जटाभिस्तापसमम० ०-आभ्यां गोत्राभ्यां तस्येदमर्थे द्राक्षीत् , शिखालक्षणं स्वं लक्ष्यस्य परिव्राज'ऽण' स्यात् / कौपिञ्जला दण्डमाणवशिष्याः, एवं / कस्यैव, नान्यस्य / 'यथा गवादीनां न स्वं भवति रहास्तिपदाः // 17 // तथा स्वामिनोऽपि न स्वमिति भावः। स्वामिनो ऽभिज्ञानमात्रमस्ति // 172 / / प्रव०-'कुपिञ्जलायापत्यम, रहस्तिपादस्यापत्यम् , अतो निपातनादेवाण , अन्यथा 'अत इम्' शाकलादकन च // 6 / 3 / 17 / / (6 / 1 / 31). स्यात् , निपातनात् पादस्य पदभावः, म०३०-शाकलात्तस्येदमर्थे 'सङ्घारावण अकम् कौपिञ्जलस्येमे, हास्तिपदस्येमे // 171 / / च' स्यात् / शाकलः, 'शाकलकः // 17 // सङ्क-घोषा-ऽङ्क-लक्षणेऽज-यनि-जः।६।३।१७२। म० वृ०-अनन्तात् यान्तात् इसन्तात् ष प्रव०-शकल, शकलस्यापत्यं शाकल्यः, गोत्रवाचिनस्तस्येदमर्थे सादी वाच्ये-'ण''गर्गादेर्यम्' (6 / 1 / 42), शाकल्येन प्रोक्तम् , तेन स्यात् / अकबोऽपवादः / अञ् ,- वैदः सङ्घादिः / प्रोक्त' (6 / 3 / 181) भण, 'यममोऽश्यापर्णा०' यन् ,- रंगार्गम् / इञ् ,- उदाशः सङ्घादिः, / (6 / 1 / 126) यलोपः, शाकलेन प्रोक्तं वेदं विद. दाक्षं लक्षणम् / अथाङ्कलक्षणयोः को विशेषः ? न्त्य०, 'तद्वेत्त्यधीते' (6 / 2 / 117), 'प्रोक्तात्' (6 / लक्षणं लक्ष्यस्यैव स्वम् , यथा शिखादि,' अङ्कस्तु 2 / 129) इति अणो लोपः, शाकलानां सङ्गादिः, स्वामिविशेषज्ञापकः / स्वस्तिकादिर्गवादिस्थो न / 'शाकलादकञ्च' (6 / 3 / 173) इत्यनेनाण भकम् गवादीनामेव स्वं भवति // 172 / / च,-शाकलः, शाकलकः // 173 / / गृहेऽग्नीधो रण धश्च // 6 / 3 / 174 // प्रव०-'सङ्घ०' (6 / 3.172) इति सूत्रे सङ. घादिष्विति किम् ? विदानां गृहम् / अव्यविन. म. वृ०-[भग्नीद् ऋविग्विशेषः] अग्निध्इति किम् ? भोपगवकम् , औपगवानामयं . सङ्: / शब्दात्तस्येदमर्थे गृहे रण' स्यात् ,भन्तस्य च तृतीय Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [भ० 6 पा० 3 सू० 175-180 बाधनार्थ धादेशः / अग्नीध इदं गृहमाग्नीध्रम् / पत्रपूर्वादन // 6 / 3 / 177 // // 174 // म. ३०-पत्रं पाहनम् , तत्पूर्वात् रथात्तस्येरथात्सादेश्च वोढुङ्ग' // 6 / 3 / 175 // दमर्थे-'ऽम्' स्यात् / यापवादः / [ अश्वरथस्येम००-नियमसूत्रमेतत् / रथात् केवलात् / दम्=] आश्वरथं चक्रम् // 177 // . सपूर्वाच तस्येदमर्थे यः प्रत्ययः, स रथस्य वोढरि वाहनात् // 6 / 3 / 178 / / रथाङ्गे एव च भवति / रथस्यायं वोढा रथ्योऽश्वः / रथस्येदं रथ्यं चक्रम् / सादि-द्वयो रथयोर्वोढा म००-वाहनवाचिनस्तस्येदमर्थे-'ऽम्' "द्विरथोऽश्वः, [उत्तमरथस्येदम्=] उत्तमरथ्यम् , स्यात् / औष्ट्रः, "रासभो रथः // 178 / / पाश्वरथं चक्रम् // 175 // अव०-'उह्यतेऽनेनेति वहनम् , वहनमेव वाहप्रव०-'योढङ्गे एव इति नियमादन्यत्र नम् , प्रज्ञादिभ्योऽण' (712 / 165) / अणादेरपवावाक्यमेव भवति, न प्रत्ययः,-रथस्येदं स्थानम् , वादः। आदिशब्दात् ईयब्ययोः। उष्ट्रस्यायं रथ अश्वरथस्य स्वामी / यदि सूत्रेण सह 'रथात्सादेश्च औष्ट्रः / रासभस्यायं रथः // 178 / / वोढङ्गे यः' इति परिणा एकयोगं कुर्यात् तदाऽणादिबाधनार्थमेव सूत्रं स्यात् , न नियमार्थम् / पृथक् वाद्यपथ्युपकरणे // 6 / 3 / 179 / / कृते तु सूत्रेऽणादिबाधनार्थ नियमार्थ च 'रथा- म० वृ०-नियमसूत्रमिदम् / वाहनाद् योऽयं त्सादे' (6 / 3 / 175) इति सूत्रं सिद्धम् / / प्रत्यय उक्तः स वाह्ये पथि उपकरणे एव च इद सादेः, कोऽर्थः ? अन्यशब्दात् रथशब्दात् / यः / मर्थे भवति, नान्यत्रं / अश्वस्यायमाश्वो रथः , प्रत्ययस्तु उत्तरसूत्रेण यः' (6 / 3 / 176) इत्यनेनैव आश्वः पन्थाः, आश्वं पल्ययनम् / वाह्यपथ्युपभवति, न 'रथात्सादेश्व०' इत्यनेन इति नियम- करण एव नियमादन्यत्र वाक्यमेव, न प्रत्ययः,सूत्रभावार्थः एव / अयं यश्च यः' (6 / 3 / 176) अश्वानां घासः // 179 // इत्यनेन यः प्रत्ययः सर्वत्र / एवम् त्रिरथः, द्विरथः त्रिरथ इत्यत्र यः' इत्यनेन यः प्रत्ययः, 'द्विगोरनपत्ये अव०-अश्वस्यायं पन्थाः आश्वः / एवमाश्वी यस्वर०' (6 / 1 / 24) इत्यनेन यस्य लुप् / अश्वै- कशा, अश्वस्येयं कशा आश्वी, ताजणो* // 179 / / येतो रथोऽश्वरथः, अश्वरथस्येदमाश्वरथम् , अत्र 'बहेस्तुरिश्चादिः // 6 / 3 / 180 // उत्तरसूत्रेण 'पत्रपूर्वाद' (6 / 3 / 177 ) इत्यनेन म० वृ०-वहेः परो यः तृचस्तनो वा तशब्दअम् / / 175 // स्तदन्तानाम्नस्तस्येदमित्यर्थे ऽ ,तशब्दस्य चादि.यः // 6 / 1 / 176 // रिकारः स्यात् / २सांवहित्रम् // 18 // म०३०-रथात्केवलात्सादेश्चतस्येदमर्थे यः प्रत्ययः' स्यात् / अणाद्यपवादः [आदिशब्दात् ईयः]। रथस्यायं प्रव०-'वहि, त, इ, च, आदि इति रचना / वोढा रथ्यः / द्वयो रथयोर्वोढा=द्विरथः, परथ्य वहेः पञ्चमीकसिः / तृ, पञ्चमीङसिः, 'ऋतो डुर्' चक्रम् , 'परमरथ्यं चक्रम् / / 176 / / (1 / 4 / 37) / इ, प्रथमासिः / सं-सम्यग् वहतिअव०-'रथस्येदं चक्रं रथ्यम् / परमरथस्येदं / ‘णकतृचौ' (5 / 1 / 48), संवह त इति शब्दः, संवोढुः परमरथ्यं चक्रम् // 176|| सारथेरिदं वाक्यं कृत्वा तृ (इत्यस्य) अग्रे अप्रत्य*प्राचीनकाले लौकिकभाषायां 'कशा' इत्यस्य 'ताजणो' इति प्रसिद्धिः / तदुक्तं श्रीहैमलिङ्गानुशासनविवरणस्य दुर्गपदप्रबोधवृत्ती-"प्रश्वादिताडनचर्मदण्ड इति लोके ताजणग्रो"। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोक्तार्थाधिकारः ] - 'मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [353 - - * यः, ततो वह त विचाले अकारः (? इकारः), वृद्धिः, / वाऽच , मुदस्य मोदस्य वाऽपत्यम् , 'ऋषिवृष्ण्य०' सांवाहित्रमिति सिद्धम / सावाहित्रमित्यत्र परे / (6 / 1 / 61) इति अण् , मौदेन प्रोक्तम् ,'मौदादिभ्यः' इकारागमे कर्त्तव्ये ढत्वादिकार्यमसत् भवति / इका- (6 / 3 / 182) इत्यण , पुनमौदेन प्रोक्तं वेदं विदन्त्यरागमे कृते तु ढत्वं न प्राप्नोति / / 180 / / धीयते वा, 'तद्वेत्त्यधाते' (6 / 2 / 117) अण् , तेन प्रोक्त // 6 / 1 / 181 // 'प्रोक्तात्' (6 / 2 / 129) इत्यणो लुप् / उपिष्पलम त्तीति 'कर्मणोऽण'(५।११७२), पिप्पलादस्यापत्यम् , म० वृ०-तेन इति तृतीयान्तान्नाम्नः 'ऋषि'. अण, पैष्पलादेन प्रोक्तम् , 'मौदादि'. प्रोक्तार्थे 'यथाविहितं' प्रत्यया' भवन्ति / भद्रबाहुना अण् / जजलेन प्रोक्तम् , मौदादि'० अण् , जाजप्रोक्तानि भाद्रबाहवानि उत्तराध्ययनानि, गण लमस्यास्ति, इन् , जाजलिना प्रोक्तं वेदं विद० धरप्रत्येकबुद्धादिभिः कृतानि तेन व्याख्यतानीत्यर्थः / जाजलाः / मथुरायां भवः, माथुरेण प्रोक्ता // 182 // ५पाणिनीयम् / 'आपिशालम् / औशनसम् / 'बाहस्पत्यम् // 181 // . कठादिभ्यो वेदे लुप् // 6 / 3 / 183 // म० व०-कठादिभ्यः प्रोक्तेऽर्थे यः प्रत्ययः अवल-तेन, पञ्चमीङसि, सूत्रस्वात् लोपः / तस्य 'लुप्' स्यात् , स चेत् प्रोक्तो वेदो भवति / रप्रकर्षेण व्याख्यातमध्यापितं वा प्रोक्तमित्यर्थः, कठाः, चरकाः, गोगडाः / 'वेदेन्ब्राह्मणमत्रैव (6 / 2 / न तु कृतं प्रोक्तमुच्यते, प्रोक्ते कृते इत्यर्थे हि 130) इति नियमाद्वेदित्रध्येत्रोरेव विषये प्रत्ययस्य वक्ष्यमाणेन ‘कृते'।६।३।१९२) इति सूत्रेण अणादि लुप् / वेद इति किम् ? [चरकेण प्रोक्ताः=] चारकाः प्रत्ययस्य विधास्यमानत्वात् , इति 'तेन प्रोक्ते'ऽत्र श्लोकाः / कठादयः प्रयोगगम्याः॥१८३।। सूत्रे प्रोक्तं व्याख्यातमध्यापिमिति व्याख्येयम् / उत्तरे उत्कृष्कालेऽधीयम् (?)इति उत्तराध्ययनम् / प्रव०-वेदेन्ब्राह्मणमित्याद्यक्षराणां भावार्थोगणधरप्रत्येकबुद्धादिभिः सूत्रतः (कृतानि) भद्र- ऽयम्- यत्र अमुकेन प्रोक्तं वेदं विदन्त्यधीयते वा बाहुनाऽर्थतो व्याख्यातानि इत्यर्थः / “पणनं पणः, इति परिणा वाक्यं कृत्वा 'तेन प्रोक्ते' (6 / 3 / 181) 'पणेर्माने' (5 / 3 / 32) इत्यल् , पणोऽस्यातीति अण कृतो भवति तस्यैव अणः 'कठादिभ्यो'. 'भतोऽनेक'० (7 / 26) इति इन् , पणिनोऽपत्यं इत्यनेन लोपः क्रियते, न वेत्त्यधीते विहिपाणिनः, 'डसोऽपत्ये' (6 / 1 / 28), पाणिनेन प्रोक्तम्। तस्य / तस्य वेत्त्यधीते (विहितस्य) अणः 'प्रोक्तात्' अपिशलस्यापत्यम्- 'अत इञ्' (6 / 1 / 31), भापि (6 / 2 / 129) इति लोप उक्तोऽस्ति / अतः कठेन शलिना प्रोक्तमापिशलम् , 'वृद्धेऽन्यः' (6 / 3 / 28) प्रोक्तं वेदं विदन्त्यधीयते वा-तेन प्रोक्ते'(६।३।१८१) इतिसूत्रेण भञ् , आपिशलस्यापत्यम् , 'भत इञ्' / अण् , 'कठादिभ्यो वेदे'० इत्यनेनाण लुप्यते,पुनर्वेत्त्य"उशनसा प्रोक्तम् / बृहतां पतिः बृहस्पतिः, धीतेऽर्थेऽण, तस्य 'प्रोक्तात्' (6 / 2 / 129) इत्यनेन पर्चस्कादिषु निपातः / / 181 / / लोपः / एवं चरकाः / गोरिव गडोऽस्य गोगडः, मौदादिभ्यः // 6 / 3 / 182 // गोगडेन प्रोक्तं वेदं विदन्त्यधीयते वा, तेन प्रोक्ते म० वृ०-मौदादिभ्यस्तेन प्रोक्ते 'यथाविहितं' | (6 / 3 / 181) अण् ,(अनेन तस्य लुप् ,पुनः) वेत्त्यधी[अणेव] प्रत्ययः स्यात् / रमौदाः, उपप्पलादाः, तेऽण, प्रोक्तात् (6 / 2 / 129) भणो लोपः / 183 / जाजलाः, "माथुरी वृत्तिः // 182 // तित्तिरि-वरतन्तु-खण्डिकोखादीयण प्रव०-'मौदादयः प्रयोगगम्याः / मोदते // 63 / 184 // (इति) 'नाम्युपान्त्य'० (5 / 1 / 54) कः, मोदयतीति / म. वृ०- तित्तिरि-वरतन्तु-खण्डिका-उख Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4] मीसिद्धहेमशब्दानुशासन [भ० 6 पा० 3 सू० 185-189 - शब्देभ्यस्तेन प्रोक्तार्थे 'ईयण' स्यात् , चेत् प्रोक्तो म० ०-आभ्यां तेन प्रोक्ते पुराणे कल्पे वेदः / तैत्तिरीयाः, वारतन्तषीयाः, खाण्डिकीयाः, 'णिन्' स्यात् , ['दोरीयः' (6 / 3 / 32) इति ईयापमौखीयाः / / 18 / / षादः ] वेदवञ्चास्मिन् कल्प कार्य भवति / 'काश्यछगलिनो यिन् / / 6 / 3 / 185 // पिनः, कौशिकिनः / वेदवच्चेत्यतिदेशाद् “वेदेन ब्राह्मण." इति नियमाद्वेदित्रध्येतृविषयता 'चरणा म. वृ०-गलिन्शब्दात्तेन प्रोक्ते वेदे ‘णे दकम्' (6 / 3 / 168 ) च भवति,- 'काश्यपकः, यिन्' स्यात् / छागलेयिनः / / 185 / / 'कौशिककः / वेदवच्चेत्यांतदेशार्थ वचनम / 188 / शौनकादिभ्यो णिन् / / 6 / 3 / 186 / / / म. पृ०-शौनक इत्यादिभ्यस्तेन प्रोक्त वेदे प्रव०-कश्यं- मद्यं पिबन्ति, 'आतो डो'णिन्'यात् / शौनकिनः / भाल्लविना प्रोक्तं ब्राह्मणं ऽह्वा०' ( 5 / 1176) इति डः, कश्यपस्यापत्यं वृद्धम् , विदन्त्यधीयते वाभाल्लविनः / * ब्राह्मणमपि 'विदादेव ढे' ( 6 / 1 / 41 ) अन् , काश्यपः, काश्यः / पेन प्रोक्तं पुराणं कल्पं विदन्त्यधीयते (वा) का वेद एव' / मन्त्रब्राह्मणं हि वेद उच्यते // 186 / / श्यपिनः / रकुशिकस्यापत्यं वृद्धम- 'विदादे.' प्रव०-शौनक, शाङ्गरव, वाजसनेय, शापेय, (6 / 1 / 41) अन् , कौशिकेन प्रोक्त पुराणं कल्पं विशाफेय, शाष्पेय, स्कन्ध, स्कम्भ, देवदर्श, रज्जुभार, दन्त्य० / 'अतिदेशात् ', कोऽर्थः ? भणनात् / विषयता भवतीतिहेतोः 'चरणादक / 6 / 3 / रज्जुकण्ठ, दामकण्ठ, कठ, शाठ, कुशाठ, कुशाप, कुशायन, तलवकार, पुरुषांसक, परुषांसक, तुम्बुरु, 168) इति अकपि भवति इति परमार्थः / “काउपलप, आलम्बि, पलिङ्ग, कमल, आरुणि, ताण्ड्य, श्यपिनां धर्म आम्नाय सयो वा काश्यपकः / श्यामायन, खादायन, कषायतल, स्तम्भ इति शौन 'कौशिकिनां (धर्म आम्नायः सघो या) कौशिकिकः कादिगणः / आकृतिगणोऽयम् / तेन भाल्लविना // 188 // प्रोक्तं ब्राह्मणं विदन्यधीयते वा भाल्लविनः शिलालि-पाराशर्यान्नट भिक्षुसूत्रे इत्यादयः सिद्धाः / 'ब्राह्मणमपि वेद एव, मन्त्रबा // 6 / 3 / 189 // झणं हि वेदः ; अयमर्थः- मन्त्रश्च ब्राह्मणं च तयोः समुदायो वेद उच्यते / ब्रह्मणा प्रोक्तो ग्रन्थो वेद म० वृ०-शिलालिन् पाराशर्य इत्याभ्यां तेन रूपो ब्राह्मणम् ; 'तेन प्रोक्ते' (6 / 3 / 181 ) अण् / प्रोक्त यथासङ्ख्य नटसूत्रे भिक्षुसूत्रे च 'णिन्' "धर्म दानाधिके तुल्यभागेऽद्ध ब्राह्मणं श्रुतौ' * स्यात् , वेदवच्चास्मिन् कार्यम् / शैलालिनो नटाः / इति लिङ्गपाठात् नपुंसकत्वम् / / 186 / / पाराशरिणो. भिक्षवः / शैलालकम् , पाराशरकम् / // 189 // पुराणे कल्पे / / 6 / 3 / 187 // ___म० वृक्ष-तेन प्रोक्ते पुराणे कल्पे वाच्ये ___अव०-निटभिक्षोः (? वोः ) सूत्रम् / अण मोरपवादं 'शिलालि०' सूत्रम् / शिलालिशब्दात् 'णिन्' स्यात् ।भणाद्यपवादः / पिङ्गेन प्रोक्तः कल्पः 'तेन प्रोक्त' ( 6 / 3 / 181) इत्यणो विषयः / पराश पुराणः पैङ्गी कल्पः / येऽपि पैङ्गिनं कल्पं विदन्त्य रात्तु 'शकलादेर्थवः' ( 6 / 327 ) इत्यत्रः प्राप्तिः / धीयते षा तेऽपि पैङ्गिनः॥१८७।। भली भूषणेतिअल्धातुः,शिलामलति, 'कर्मणोऽण्' काश्यप-कौशिकाद् वेदवच्च / / 6 / 3 / 188 / / (5 / 1 / 72), शिलालोऽस्यास्ति, 'अतो०' ( 7.2.6 ) के नन्वनेन वेदे प्रत्ययोऽभ्यधायि तत्कथं भाल्लविना प्रोक्तं बाह्मणमित्याह- बाह्मणमपीत्यादि। *श्रीहेमलिङ्गानुशासनविवरणे नपुंसकलिङ्गप्रकरणे सप्तमश्लोकस्य पूर्वाद्धमिदम् / Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतार्थाधिकारः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [355 इन् , शिलालिना प्रोक्तं नटसूत्रं विदन्त्यधीयते वा शिलालिपराश०' इत्यनेन णिन् , 'नोऽपदस्य०' (7) 461) इति ततः, “कृशाश्वी शैलाली" इति नाममालापाठात् / उपराशरस्यापत्यम्- 'गर्गादेर्यम्' (6 / 1 / 42), पाराशर्येण प्रोक्त भिक्षुसूत्रं विदन्त्यधीयते वा- 'शिलालि०' इत्यनेन णिन् , 'यवनोऽश्यापर्ण०' (6 / 1 / 126) इति यम् लुप्यते // 189|| कृशाश्व-कर्मन्दादिन् // 6 / 3 / 190 // म० वृ०-आभ्यां तेन प्रोक्त यथासङ्ख्य नटसूत्रे ( भिक्षुसूत्रे ) इन् स्याद्वेदवञ्चास्मिन् कार्यम् / [अणोऽपवादः, 'तेन प्रोक्ते' (6 / 3 / 181) अणो विषयः] 'कृशाश्विनो नटाः / कर्मन्दिनो भिक्षवः / अतिदेशादकम् च- काश्विकम् , 'कामन्दकम् // 190 // ___ कृते // 6 / 3 / 192 // म. वृ०-तेनेति तृतीयान्तात्कृते-उत्पादितेऽर्थे 'यथाविहितमणादयः' स्युः [आदिशब्दात् ईयः] शिवेन कृतो ग्रन्थः शैवः, [वररुचिना कृतानि ] वाररुचानि वाक्यानि, सिद्धसेनीयः स्तवः, मनसा कृता मानसी कन्या // 192 / / नाम्नि मक्षिकादिभ्यः // 6 / 3 / 193 // म० वृ०-मक्षिकादिभ्यः [तृतीयान्तेभ्यः] कृतेऽर्थे यथाविहितं प्रत्ययो नाम्नि भवति / मक्षिकाभिः कृतं माक्षिकं मधु, [सरघाभिः कृतं ] सारघम् / नाम्नीति किम् ? मक्षिकाभिः कृतं शकृत् // 193 // प्रव०-'कृशा अश्वा यस्य, कृशाश्वेन प्रोक्तं नटसूत्र .......... ( विदन्त्यधीयते वा कृशाश्विनो नटाः) / कर्म द्यति=कर्मदः, 'आतो डो०' (5 / 1 / 76), कर्मन्द इति सूत्रनिर्देशादेव मोऽन्तः, अथवा 'नवाऽखित्कृदन्ते' (3 / 2 / 117 ) इत्यत्र योगविभागबलात् मोऽन्तः, कर्मन्देन प्रोक्तं भिक्षुसूत्रं विदन्त्यधीयते वा कर्मन्दिनो भिक्षवः, अथवा 'अदु बन्धने',कर्माण्यन्दति बध्नाति इति ‘कर्मणोऽण्' (5 / 1 / 72), पृषोदरादित्वात् अलोपः, कर्मन्देन प्रोक्तं भिक्षसूत्रं विदन्त्यधीयते वा कमेन्दिनो भिक्षवः। कृशाश्वोऽस्यास्ति, 'कर्मन्दमस्यास्ति, इन् , कृशाश्विनो कर्मन्दिनो धर्मसयादिः, 'चरणादकन्' ( 6 / 3 / 168 ) / बाहुलकात् धर्मादावपि क्लीबत्वम् // 19 // उपज्ञाते // 6 / 3 / 191 // म०७०-तेनेति वर्त्तते, न प्रोक्तम् / तेनेति तृतीयान्तादुपज्ञातेऽर्थे 'यथाविहितं' [ईय एव] प्रत्ययः स्यात् / पाणिनीयम् // 19 // प्रव०-मक्षिका, सरघा, गर्मुत् , नर्मका, पुत्तिका, क्षुद्रा, भ्रमर, वटर, वातप इति मक्षिकादिगणः / वातपैः कृतं वातपम् , अत्रापि अण एव भवति, न ईयः, स्वभावात् / इदमपि व्यावृत्त्युदाहरणं ज्ञातव्यम् / / 193 // कुलालादेरका // 6 / 3 / 194 // म० वृ०-कुलालादिभ्यस्तेन कृते-'ऽकम्' स्यान्नाम्नि / [ कुलालेन कृतं ] कौलालकम् , [वरुटेन कृतं] वारुटकम् / नाम्नीत्यभिधेयनियमार्थम् / तेन घटघटीशरावोदश्चनाद्येव भाण्डं कलालकम् , न यत् किञ्चित् कुलालकृतम् / शुर्पपिटकपटलिकापच्छिकायेव भाण्डं वारुटकम्, नान्यद् / एवमन्यत्राप्यभिधेयनियमः // 194 // प्रव०-कुलाल, वरुट, कार, निषाद, चण्डाल, सेना, सिरन्ध्र, देवराजन् , देवराज, परिषद्, वधू, भद्र, अनडुङ्, ब्रह्मन् , कुम्भकार, अश्वपाक, रुरु इति कुलालादिगणः / / 194 // सर्वचर्मण ईनेनौ // 6 // 3 / 195 / / * अभिधानचिन्तामणिकोशस्य ३२९तमे श्लोके / Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 6 पा० 3 सू०१९६-२०१ म० वृ०-सर्वचर्मनशब्दात्तेन कृते 'ईन-ईनबो' | म. वृ०-अम् इति द्वितीयान्तादधिकृत्य' भवतः / सर्वश्चर्मणा कृतः सर्वचर्मीणः, सार्वच कृते ग्रन्थेऽर्थे 'यथाविहितं' प्रत्यय: स्यात् / र्मीणः ['नोऽपदस्य तद्धिते' (7 / 4 / 61) इति अनो सौभद्रः / ग्रन्थ इति किम् ? सुभद्रामधिकृत्य कृतः लोपः] // 195 // प्रासादः / कथं वासवदत्ता, 'सीताहरणम् ; ? उपचाराद् ग्रन्थे ताच्छब्द्यं 'भविष्यति // 198 / / अव०-'सर्वः कृतः, केन ? इति यो सर्वश्वमणा कृतः / अत्र सर्वशब्दस्य कृतापेक्षस्य चर्मशब्देन अव०-प्रस्तुत्य उद्दिश्य इत्यर्थः, आश्रित्य सहायोगेऽपि 'नाम नाम्ना'० (3 / 1 / 18) इत्यादिना इत्यपि, तदपेक्षयाद्वितीया। 'सुभद्रामधिकृत्य-उदिसमासः। ........ // 195|| श्य कृतो ग्रन्थः सौभद्रः। एवं सौतारः / वासवदत्ता मधिकृत्य कृताख्यायिका वासवदत्ता / एवं सीताउरसो याणौ // 6 / 3 / 196 // हरणमधिकृत्य-उद्दिश्य कृतमुपाख्यानं सीताहरणम्। म. वृ०-उरस्शब्दात्तेन कृते 'य-आणी' भवतः, एवं बलिबन्धनम् / तच्छब्दता, तेन वासवदत्तानाम्नि / [उरसा कृतः=] उरस्यः, औरसः / / 196 // दिशब्देन व्यपदेशात् वासवदत्तासीताद्युपचारादाछन्दस्यः // 6 / 3 / 197|| ख्यायिकापि वासवदत्तेत्युच्यते (? इत्याधुच्यते) // 198 // म. वृ०-छन्दस्शब्दात्तेन कृते यो निपात्यते, नाम्नि / छन्दसा इच्छया कृतः='छन्दस्यः, न तु ___ ज्योतिषम् // 6 / 3 / 199 // वेदेन गायत्र्यादिना वा / नाम्नीत्यधिकारादभिधेय मवृ०-ज्योतिस्शब्दादमोऽधिकृत्य कृते व्यवस्था। कचिदन्यत्रापि भवति [निपातनवशात]- ग्रन्थे- 'ऽण वृद्धयभावश्च' निपात्यते / 'ज्योतिषम् एष वै सप्तदशाक्षरश्छन्दस्यो [छन्द एव] यज्ञ // 199 // मनुविहितः, अत्र स्वार्थे यः [न तु तेन कृते // 19 // अव०-१ज्योतींषि अधिकृत्य कृतो ग्रन्थः / प्रव- निजवाञ्छया यः सखादिः कृतः स 'द्युति दोप्सौ'द्योतन्ते इति ज्योतिषः, 'तेरादेश्च जः' छन्दस्य उच्यते / छन्दःशब्देन वेदोऽप्युच्यते, गाय (उणा० 991) इत्युणादिसूत्रेण इस्प्रत्ययः, दस्य व्यादिमन्त्रोऽपि, परं वेदादिवाची छन्दःशब्दो न | जः, गुणः // 199 // ग्राह्यः / २ॐ श्रावय इति चतुरक्षरम् , अस्तु श्रौषट् शिशुक्रन्दादिभ्य ईयः // 6 / 3 / 200 // इति चतुरक्षरम् , ये यजामहे इति पञ्चाक्षरम् , यज म. वृ०-शिशुक्रन्दादिभ्योऽमोऽधिकृत्य कृते इति द्वयक्षरम् , द्वयक्षरो वषट्कारः, इति प्रकारेण ग्रन्थे 'ईयः' स्यात् / शिशुक्रन्दीयः इत्यादि / / 200 / / भयम् एष सप्तदशाक्षरो मन्त्रः छन्दस्यः यज्ञमनु, कोऽर्थः ? लक्षीकृत्य, विहितो-रचितवान् / वै इति अव०-१शिशुक्रन्द, यमसभ, इन्द्रजनन, भाषायां वाक्यालङ्कारे स्फुटे वा वर्त्तते / अत्र छन्द- प्रद्युम्नप्रत्यागमन, प्रद्युम्नोदयन, सीताहरण, सीतास्यशब्दे निपातनात् स्वार्थ यः प्रत्ययो भवति, न न्वेषण इति शिशुक्रन्दादिगणः। बहुवचनमाकृतितु तेन कृतेऽर्थे / छन्द एवं छन्दस्य इति वाक्यं गणार्थम् / शिशून् क्रन्दयति, 'कर्मणोऽण' (5 / 1 / कर्त्तव्यम् / ततो यः / यथा अनुष्टबादिरक्षरसमू 72), शिशुक्रन्दमधिकृत्य कृतो ग्रन्थः शिशुक्रन्दीयः हश्च्छन्दः, तथा एषां सप्तदशानामक्षराणां समूहः / / / 200 // छन्दस्य इत्युच्यते // 197|| / द्वन्द्वात् प्रायः / / 6 / 3 / 201 / / अमोऽधिकृत्य ग्रन्थे / / 6 / 3 / 198 / / म.वृ०-द्वन्द्वसमासादमोऽधिकृत्य कृते ग्रन्थे)प्राय Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भजत्यर्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [357 - 'ईयः' स्यादणोऽपवादः / वाक्यपदीयम् ,द्रव्यपर्या- | पन्थाः दूतो वा, अत्र पथः कथं कर्तृत्वम् अचेतनयीयम् / प्राय इति किम् ? दैवासुरम् ,राक्षोऽसुरम् , त्वात् ? तत्राह-पथिस्थेषु-पथि वर्तमानेषु पथि गौणमुख्यम् [गौणमुख्यमधिकृत्य] // 201 // प्रचलत्सु चैत्रादिषु तद्धेतुः पन्थाः अभिगच्छतीत्यु च्यते / मथुरादिप्राप्तिर्वा पथो गमनम्। मथुरां अव०-'प्रायस इति क्रियाविशेषणम् , अम् , गच्छति प्राप्नोति सम्बध्नातीति भावना कार्या 'अव्य'० (3 / 3 / 7) / वाक्यं च पदं च वाक्यपदे इत्यर्थः / / 203 / / ऽधिकृत्य कृतो ग्रन्थः / उएवं द्रव्यं................ (च पर्यायश्च द्रव्यर्यायौ, द्रव्यपर्यायावधिकृत्य कृतो : भजति // 6 / 3 / 204 // ग्रन्थः / देवाश्चासुराश्च देवासुरम् ,देवासुरमधिकृत्य) म०वृ०-द्वितीयान्तात् भजत्यर्थे' यथाविहितं' कृतो ग्रन्थो दैवासुरम् , अण् // 201 // प्रत्ययः स्यात् / मथुरां भजति माथुरो विप्रः / एवं अभिनिष्क्रामति द्वारे // 6 / 3 / 202 // नादेयः॥२०४॥ म० वृ०-द्वितीयान्तादभिनिष्क्रामत्यभिनिर्ग महाराजादिकण // 6 / 3 / 205 // च्छत्यर्थे 'यथाविहितं' प्रत्ययः स्यात् , चेदभिनि- ___ . वृ०-द्वितीयान्तात् महाराजशब्दात् भजक्रामत् द्वारं भवति / २माथुरम् , नादेयम् , राष्ट्रिय . दारं भवति / रमाथरम . नादेयम राश्रियं / त्यर्थे 'इकण' स्यात् 'माहाराजिकः // 205 / / द्वारम् // 202 // अव०-'महत् , राजन् , महांश्चासौ राजा च, 'राजनसखेः' (73 / 106) इति अत समासान्तः; अव०-आभिमुख्येन गच्छतीत्यर्थः। रमथुरा 'जातीयैकार्थेऽच्येः' (32 / 70) इत्यनेन महत भन्ते मभिनिष्क्रामति आभिमुख्येन गच्छति सौर्यपुर डादेशः, महाराजं भजति-माहाराजिकः // 20 // द्वारम् / सर्वत्र अभिना योगे द्वितीया / 'अभिनिक्रामति द्वारे' इति सूत्रे बृहद्वृत्तौ स्रुघ्नमभिनिष्का अचित्ताददेशकालात् // 6 / 3 / 206 // मति कन्यकुब्जद्वारमिदं वाक्यम् , सौनमिति उदा- म० वृ०-देशकालवर्जितं यदचित्तमचेतनं हरणम् / एवं माथुरं सौर्यपुरद्वारमित्यादि / एषु तद्वाचिनो [द्वितीयान्तात् ] भजत्यर्थे इकण्' स्यात् / उदाहरणेषु द्वारस्य करणभूतस्यापि अभिनिष्क्रमण [अणादेर्बाधकः] / 'आपूपिकः, रमौदकिकः, क्रियायां स्वातन्त्र्यविवक्षा, यथा साध्वसिश्छिनत्ति, उपायसिकः / अचित्तादिति किम् ? देवदत्तः / अदेअत्र रचनाबहिर्भावे वाऽर्थे निष्क्रमिधातुर्वर्त्तते, शकालादिति किम् ? 'आङ्गः, 'हैमन्तः // 206 / / यथा गृहकोणो निष्क्रान्तः // 202 / / __ अव०-'अपूपान् भजति / २मोदकान् पयो गच्छति पथिदृते // 6 / 3 / 203 // भजति / ४देवदत्तं भजति। ५अङ्गम-अजन्देशं ___म० वृ०-द्वितीयान्तात् गच्छति पथि दूते भजति / हेमन्तं भजति, भजत्यर्थेऽपि 'हेमन्ताद्वा ऽर्थे 'यथाविहितं' प्रत्ययः स्यात् / मथुरां गच्छति तलुक् च' (6 / 3 / 91) // 206 / / रमाथुरः पन्था दूतो वा। [एवं नादेयः पन्था दूतो 'वासुदेवाणुनादकः // 6 / 3 / 207 // वा] पथिदूत इति किम् ? पाटलिपुत्रं गच्छति नौः म० वृ०-आभ्यां भजत्यर्थे-'sकः' स्यात् पण्यं वणिग् वा // 203 / / ईयाकबोरपवादः / वासुदेवकः, अर्जुनकः // 207 / / प्रव०-'योऽसौ गच्छति स यदि पन्था दूतो प्रव०-अर्च्यत्वात् वासुदेवस्य पूर्वनिपातः / वा भवति इति भावः इति परमार्थः / माथुरः / यदा वासुदेवः संज्ञाशब्दः कस्यापि पुरुषस्य नाम भव Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 6 पा० 3 सू० 208-209 ति, तदाक्षत्रियवचनोऽयं वासुदेवशब्दः इत्युत्तरसूत्रे- | किम् ? पाञ्चालः [उत्साद्यन् ] / सर्वग्रहणं णाकम् न प्राप्नोति,किन्तु 'दोरीयः' (6 / 3 / 32) स्या-- | प्रकृत्यतिदेशार्थम् ' / तच्च वाय॑माद्रपाण्डयकौरदिति 'वासुदेवार्जुना'० इति सूत्रे वासुदेवग्रहणम्।। व्याः प्रयोजयन्ति / अन्यत्र हि नास्ति विशेषः 12 अर्जुनशब्दः क्षत्रियवाची इत्युत्तरेणाकम् स्यात् // 209 / इत्यर्जुनग्रहणम् / तथा केनैव सिद्धे यत् णकविधानं अव०-राष्ट्रस्येव राष्ट्रवत् , 'स्यादेरिवे' (7) Aवासुदेवीं भजति Aअर्जुनी भजति वासुदेवकः 1152) इति वत् / राष्ट्रक्षत्रियात्सरूपाद्राजापत्ये० अर्जुनक इति प्रयोगसिद्धयर्थ तत् / अन्यथा के सति (6 / 12114) इति अधिकृत्य इत्यारभ्य / दिप्रत्यवासुदेवका इत्यादिरूपत्रयं स्यात् ( ? वासुदेविकः, यान्तस्य / 'राष्ट्रवत् स्यात्' इत्यक्षराणामयं भावाअर्जुनिक इत्यनिष्टः प्रयोगः स्यात् ) | A धवा- र्थः, तथाहि राष्ट्रवाचिनी या प्रकृतिः वृजि इत्यादिका, द्योगा० (2 / 4 / 59) इति ङी // 207|| ततश्च यः प्रत्ययो 'वृजिमद्राद् देशात्कः' ( 6 / 3 / 38) गोत्रक्षत्रियेभ्योऽकन प्रायः // 6 / 3 / 208 / / इत्यादिसूत्रैर्विहितः, तदुभयं प्रकृतिः प्रत्ययश्च, इदं .. म. वृ०-गोत्रवाचिभ्यः क्षत्रियवाचिभ्यो द्वयमपि राष्ट्रसम्बन्धिवार्य इत्येवमादेः सरूपस्य द्रिप्रभजत्यर्थे ऽकम्' स्यात् प्रायः / अणाद्यपवादः' / त्ययान्तस्य भजति इत्यस्मिन् विषये भजत्यर्थेऽपि भवतीत्यर्थः। वृजीनां राजा राजानौ राजानः,अथवा औपगवकः, गार्गकः, गाायणकः / क्षत्रिय, वृजेरपत्यमपत्ये अपत्यानि वा, 'दुनादिकुवित्' नाकुलकः, साहदेवकः (नकुलं सहदेवं भजति] / (6 / 1 / 118) इत्यनेन यः, वाय॑ इति शब्दः, "बहुवचनं क्षत्रियविशेषपरिग्रहार्थम् / तेन क्षत्रिय मद्राणां राजा इत्यादि, मद्रस्यापत्यमित्यादि, 'पुरुकमित्यपि / प्राय इति किम् ? पाणिनीयः // 208 / / मगध०' इत्यण ,माद्र इति शब्दः ; पाण्डूनां राजा, प्रव०-'आदिशब्दात् ईय-अबोरपवादः / पाण्डोरपत्यमपत्ये अपत्यानि वा,, 'पाण्डोर्डयण' ..औपगवं भजति / गाग्यं भजति,अन् , 'यसमो०' (6 / 1 / 119), पाण्ड्य इति शब्दः, सर्वत्र बहुत्वे 'ब(६।१।१२६) यक्लोपः / गाायणं भजति / हुष्वस्त्रियाम्' (6 / 1 / 124) इत्यनेन व्य अण-ड्यणो "क्षत्रियाः क्षत्रियाणां ये विशेषाः उभयोरपि ग्रहणार्थ लुप्यन्ते, वृजि, मद्र, पाण्डु इति शब्दा लुप्ते सति बहुवचनं कृतम् / तेन।क्षत्रियकमित्यपि भवति / जाताः ; वृजीन मद्रान भजति इति वाक्ये 'सरूपाद् पणिनोऽपत्यं पाणिनस्तं भजति, 'दोरीयः' (6 / द्रेः सर्व०' इति सूत्रबलात् 'वृजिमद्राद् देशात्कः' (6 / 3 // 32), अकप्रतिषेधः प्रायोग्रहणात् , ततो | 3 // 38) इत्यनेन कः प्रत्ययोऽनुक्तोऽपि भजत्यर्थे 'दोरीय' इति प्रवृत्तम् / एवं पौरवीयः,पुरोरपत्यं पुरु भवति, पाण्डोः परतो 'बहुविषयेभ्यः' (6 / 3 / 45) मगध'० (6 / 1 / 116) इत्यण , पौरवं भजति,- इत्यनेन अकम् / एवमाङ्गकः, वाङ्गकः, पाञ्चालकः, 'दोरीयः' // 208 / / वैदेहकः / अङ्गानां वङ्गानां पाञ्चालानां विदेहानां राजा, अङ्गस्यापत्यानि वा इत्यादि वाक्यं कृत्वा असरूपाद् द्रेः सर्व राष्ट्रवत् // 6 / 3 / 209 / / ङ्गवङ्गात् 'पुरुमगध०' (6 / 1 / 116) इत्यण , पाश्चाम००-'राष्ट्रक्षत्रियात्सरूपाद्राजापत्ये दिर- लविदेहपरतो 'राष्ट्रः' (6 / 1 / 114) इत्यम् , 'बहुष्व'(६१।११४) इति प्रस्तुत्यसरूपाद् यो द्रिः प्रत्यष | स्त्रियाम् '(6 / 1 / 124) अञ्-अणलोपः, अङ्गान् बङ्गान् उक्तस्तदन्तस्य द्वितीयान्तस्य भजत्यर्थे सर्व प्रकृतिः | विदेहान् पञ्चालान भजति इति वाक्ये 'सरूपाद् द्रेः. प्रत्ययश्च 'राष्ट्रवत्' "स्यात् / वाज्ये वाज्यौँ वृजीन् / सर्व'० ( 6 / 31209 ) इति सूत्रबलात् 'बहुविषयेवा भजति= वृजिकः, 'मद्रकः, पाण्डवकः, आ- | भ्यः' ( 6 / 1 / 114 ) इति अकम् / एवमैक्ष्वाकः / गकः / सरूपादिति किम् ? 'पौरवीयम् / द्रेरिति / 'पुरु नाम राजा , पुरोरपत्यमपत्ये अपत्यानि , Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशसार्थाधिकारः] 'मण्यमत्यवचूरिसंवलितम् / - - 'पुरुमगध० (6 / 1 / 116)' इत्यण , पौरवस्येदं- 'दो- / यते / 'सुदाम्ना एकदिक् सुदामतः / एवं सूर्येण रीयः' (6332), राष्ट्रवाची न पुरुः, पुरुराज्ञोऽनु- एकदिक् इति परिणा सर्वत्र वाक्यं कार्यम् / / 211 // खण्डनामदेशः इति सारूप्यं नास्ति / अत एव पुरु यश्चोरसः // 6 / 3 / 212 // मगध०' (6 / 1 / 116 ) इति सूत्रे द्विस्वरत्वेन सिद्धे पुरुग्रहणमसरूपार्थ कृतम् / बृहवृत्तौ तु पौरवान् म० वृ०-उरसशब्दात् तुल्यदिश्यर्थे 'यः भजति इति वाक्यं कृतमस्ति / राष्ट्रक्षत्रियबाम प्रत्ययः चकारात्तसिश्च'। [अणोऽपवादः ] उरसा णवचनः पश्चालशब्दः, पञ्चालान बाह्मणान् भजति, एकदिग-उरस्यः, उरस्तः / / 212 / / अत्र 'बहुविष०' ( 63 / 45) न अकम् / (तेन ) सेर्निवासादस्य // 6 / 3 / 213 // वृजिकः,मद्रकः,पाण्डवकः इति (सिद्धम् ) / पाङ्ग म. वृ०-सेरिति प्रथमान्ताद्' निवासार्थात् कः, वाङ्गकः, वैदेहक इत्यादिप्रयोगापेक्षया / / 209 // [देशवाच्यात् ] अस्येति षष्ठयर्थे 'यथाविहितं' प्रटस्तुल्यंदिशि // 6 / 3 / 210 // त्ययः स्यात् / 'माथुरः, नादेयः / / 21 / / म० वृ०-ट इति सहायंतृतीयान्तात्तुल्य'. दिश्यर्थे [एकदिश्यर्थे ] 'यथाविहितं' प्रत्ययः स्यात् / प्रव०-'निवसन्त्यस्मिन् इति निवासो देश रसुदाम्ना एकदिक्-सौदामनी विद्युत् / हैमवती उच्यते / मथुरा निवासो देशोऽस्य स माथुरः गङ्गा // 210 // / / 213 / / 'आभिजनात् / / 6 / 3 / 214 // प्रव०-'तुल्या-समाना दिग् यस्य सः तुल्य म. वृ०-सेः प्रथमान्तादाभिजनानिवासाददिग, एकदिगित्यर्थः / 'सुदामा नाम पर्वतोऽस्यां / स्य इति षष्ठयर्थे 'यथाविहितं' प्रत्ययः स्यात् / दिशि तस्यामेव दिशि विद्युदियं विद्यते, तेन कार माथुरः।।२१४॥ णेन सा सुदाम्ना सबकदिगुच्यते (एवं ) सूर्येण सह एकदिग् सौरी बलाका, भण् , डी, 'सूर्यागस्त्य प्रव०-'अभिजनः पूर्वबान्धवाः, तेषामयमायोरीये च' ( 2 / 4 / 89 ) यकारलोपः / हिमवतः भिजनः, पूर्वजपुरुषभूमिरित्यर्थः / 'मथुराऽस्याभिएकदिक् हैमवती गङ्गा। "एवं ककुदी लङ्का, त्रिक जनो निवासो माथुरः // 214 // कुदा एकदिक् // 210 / / 'शण्डिकादेयः // 63 / 215 // तसिः // 6 / 3 / 211 / / म० वृ०-शण्डिक इत्यादिभ्य [प्रथमान्तेभ्यः] म० वृ०-तृतीयान्तात्तुल्यदिश्यर्थे 'तसिः' प्र- आभिजननिवासबाचिभ्योऽस्यार्थे 'ण्यः' स्यात / त्ययः स्यात् / 'सुदामतः, सूर्यतः, हिमवतः, पा- अणाद्यपवादः / शाण्डिक्यः / / 215 // श्रुतः, पृष्ठतः / इकारो 'वत्तस्याम्' (1 / 1 / 34) इत्यत्र विशेषणार्थः // 21 // प्रव०-'शण्डिक, कूचवार, सर्वसेन, सर्वकेश, शङ्ख, शक, शट, रफ, (चरण,) चणक, शङ्कर, बोध अव०-'तसिः' (6 / 3 / 211) इति सूत्रेऽयं वि इति शण्डिकादिगणः / २'कोपान्त्याचाण' (6 / 315) शेषो लिख्यते,-'टस्तुल्य०' (6 / 3 / 210)' इति पूर्व 'बहुविषयेभ्यः' (6 / 3 / 44) इत्यादेः / / 215 / / सूत्रेण यथास्वं स्वस्याः स्वस्याः प्रकृतेरनतिक्रमेणा सिन्ध्वादेरा // 6 / 3 / 216 / / णादय एयणादयश्च विहिताः सन्ति / इदं तु तसिः म. वृ०-सिन्ध्वादिभ्योऽस्यार्थे 'ऽम्' स्यात् / (6 / 2211) इति प्रत्ययान्तरं सर्वप्रकृतिविषयं विधी- सैन्धवः, वार्णवः / / 216 / / Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [म. 6 पा०३: सू० 217219 प्रव०-सिन्धु, वर्ण, मधुमत् , कम्बोज,(कुलूज,) / प्रव०-तावानायामो यस्याः तावदायामा, पृषो० गन्धार, कश्मीर, सल्व, किष्किन्ध, गब्दिक, उरस्, | तूद इत्यादेशः, 'गौरादि०' (2 / 4 / 19)..... ... दरद्, ग्रामणी, काण्डवरक इति सिन्ध्वादिगणः / ..........( इति दी, तूदी। वर्म तनोति, 'कचित्' साल्वन्तेभ्यः 'कच्छादे०' ( 6 / 3 / 55 ) इत्यकबः, (5 / 1 / 171) इति डः, 'गौरादि०' डी,) वर्मती। शेषेभ्यो बहुविषय. . (राष्ट्रलक्षणस्याक- तूदी आभिजनो नियासोऽस्य। वर्मती आभिजनो घः), ग्रामणीकाण्डवरकयोरीयस्य एतेषामपवादोऽन् निवासोऽस्य / / 218 // भवति / . .. ( तक्षशिलादिभ्यस्तु अन् नो. गिरेरीयोऽस्त्राजीवे // 6 / 3 / 219 // च्यते, उत्सर्गेणैव सिद्धत्वाद् / सिन्धुराभिजनो ) - म०वृ०-गिरिर्य आभिजनो निवासस्तद्वाचिनः निवासोऽस्य / वर्गुराभिजनो निवासोऽस्य / 216 / प्रथमान्तादस्येति षष्ठयर्थे ईयः स्यात् ,अस्त्राजीवे'। ___ 'सलातुरादीयण // 6 / 3 / 217 // रोहितगिरीयः उभोजकटीयः। गिरेरिति किमी साझाश्यकोऽत्राजीवः / अत्राजीव इति किम ? म० वृ०-सलातुरादस्यार्थे 'ईयण' स्यात् / [सलातुर आभिजनो निवासोऽस्य=] सालातुरीयः पृथुः पर्वतः आभिजनो निवासोऽस्य पार्थवो विप्रः पाणिनिः / / 217 // [अण्] // 219 // षष्ठाध्यायस्य तृतीयपादः समाप्तः। ग्रन्थाग्र-३२०॥ अव०-'सालैस्ततं-सालततम् , सालततं च प्रव०-"अस्त्राजीवे', कोऽर्थः ? अस्त्रं शस्त्रमातत् पुरं च, पृषोदरादित्वात् सलातुर इत्यादेशः जीवो जीविका यस्य पुंसस्तस्मिन् अनाजीवे वाच्ये // 21 // ईयो भवतीत्यर्थः। रोहितगिरिराभिजनो निवासोतूदीवर्मत्या एयण् // 6 / 3 / 218 // ऽस्य अखाजीविनः परुषस्य स रोहितगिरीयः / एवं भोजकटीयः। साङ्काश्यनगरे भव:-'प्रस्थम० वृ०-'तूदी-२वर्मतीभ्यामस्यार्थे 'एयण' पुरवहान्त' (6 / 3 / 43) इति अकञ् // 219 // स्यात् / तौदेयः, वार्मतेयः // 218 // अवचूरिश्लोक- 589, अक्षर-१० / / // इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते सिद्धहेमशब्दानुशासने षष्टाध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः // Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // षष्ठोऽध्यायः॥ [ चतुर्थः पादः ] इकण // 6 / 4 / 1 // म०३०-अणः पूर्णोऽवधिः / अधिकारोऽयमापादपरिसमाप्तेः. // 1 // संस्कृते // 6 / 4 / 3 // म००-तेनेति तृतीयान्तात् 'संस्कृतेऽर्थे 'इकण' स्यात् / दध्ना संस्कृतं-दाधिकम् , मारिचकम् ,भोपाध्यायिकः शिष्यः, विद्यया संस्कृतः वैधिकः / योगविभाग उत्तरार्थः / / 3 / / अव०-इतः सूत्रादारभ्य येषु सूत्रेषु विशेषप्रत्यय उक्तोऽस्ति तेषु स एव प्रत्ययः / येषु सूत्रेषु प्रत्ययो न विहितः तत्र सामान्यत इकण एव भवतीत्ययमधिकारभावार्थः / डसि सूत्रत्वाल्लोपः (?) / 1 / 'तेन जित-जयद्दीव्यत्-खनत्सु // 6 / 4 / 2 / / म० वृ०-तेनेति तृतीयान्तानाम्नो जिते, जयति, दीव्यति, खनति चार्थे 'इकण' स्यात् / आक्षिकम् , आक्षिकः, आक्षिकः, शालाकिकः, आधिकः, कौद्दालिकः / इह तेनेति करणे तृतीया ज्ञेया, न हेती, न कर्तरि / अनभिधानात् तेन धनेन जितम् , चैत्रेण जितम् , अत्र नेकण् / / 2 / / प्रव०-तेनेत्ययमधिकार 'ओजःसहोऽम्भसो'. (64 / 27) इति यावत् सूत्रेषु 26 मध्ये प्रवर्त्तते / ("ओजःसहोऽम्भसो." इति सूत्रं यावत् ) सर्वसूत्रार्थेषु “तेनेति तृतीयान्तात्" इति व्याख्येयम्। 2 अर्जितमाक्षिकम , (एवम्) शालाकिकम् / अक्षेजयति / अक्षैर्दीव्यति। "अभ्री काष्ठमयी तीक्ष्णाग्रा कुद्दालिका, अभ्र या खनति आभ्रिकः / अभ्र या खनन् भङ्गल्या खनंतीति प्रयोगे सत्यप्यङ्गले: करणत्वे मुख्यकरणभावोऽभ्र या एव नाङ्गुलेरित्यङ्गलिशब्दा या एव नाजुलारत्यङ्गालशब्दा- नेकण् / यथा मथुराया आगच्छन् वृक्षमूलादागतः / तथा जयन्, दीव्यत्, खनदिति त्रिषु कालो न विवक्षितः, जिते त्वतीतकालो विवक्षितः // 2 // प्रव०-'सतो विद्यमानस्य उत्कर्षाधानं संस्कार उच्यते // 3 // कुलत्थ-कोपान्त्यादण् // 6 / 4 / 4 / / म० वृ०-कुलत्थात् ककारोपान्त्याच शब्दात् संस्कृतेऽर्थे-'ऽण'स्यात् / कौलत्थम् , तैत्तिडीकम् / 4 / प्रव०-पतित्तिडीकमम्लवेतसः। तित्तिडीकेन अथवा तित्तिडीकाभिरम्लिकाभिः संस्कृतम् / एवं मारण्डूकम् , दादुरूकम् ; इमौ (मरण्डूकददुरूकशब्दौ) वेशवारविशेषवाचिनौ // 4 // संसृष्टे // 6 / 4 / 5 // 0 वृ०-तृतीयान्तात् संसृष्टेऽर्थे 'इकण' स्यात् / मिश्रणमात्रं संसर्ग इति पूर्वोक्तात् संस्कृताद् भेदः / दध्ना संसृष्टं दाधिकम् , [पिप्पलीभिः संसृष्टं] पैप्पलिकम् , वैषिका भक्ष्याः / / 5 / / अव०-'विषेण संसृष्टाः। एवमशुचिना संसष्टम्= आशुचिकमन्नम् / / 5 / / लवणादः // 6 / 4 / 6 // म०३०-लवणात् संसष्टे 'भकारः प्रत्ययः' / Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 6 पा० 4 सू० 7-13 स्यात् / लवणेन संसृष्टो लवणः सूपः, लवणः शाकः, / तरति // 6 / 4 / 9 // [लवणा] यवागू // 6 // म. वृ०-तृतीयान्तात्तरत्यर्थे 'इकण' स्यात् / औडुपिकः, काण्डप्लविकः, शारप्लविकः, गौपु. प्रव०-लुनाप्ति वैरस्यमिति लवणम् , 'नन्द्या- / च्छिकः // 9 // दिभ्योऽनः' (5 / 1 / 52), गणपाठाण्णत्वम् , लवणशब्दो द्रव्यशब्दो गुणशब्दश्च, गुणंशब्दो लावण्य- अव०-उडूनि पाति- 'आतो डोऽहावामः'. पाची, तत्र द्रव्यवाची लवणशब्दः प्रत्ययं प्रयोज- (5 / 1 / 76 ), उडुपेन तरति औडुपिकः / बृहद्वत्ती यति, द्रव्यवाचिलवणशब्दात् अप्रत्ययो भवती- तु उडुवेन तरति औडुविकः इति / एवं काण्डप्लत्यर्थः, न गुणवाची, गुणन विश्लेषपूर्वकस्य संस- वेन तरतीत्यादि / औडपिकः, काण्डप्लविकः, शारर्गस्याभावात् , अप्राप्तयोः प्राप्तिः संयोगः संसर्ग प्लविकः- इमे त्रयोऽपि तरणभेदाः // 9 // . उच्यते // 6 // नो-द्विस्वरादिकः // 6 / 4 / 10 // .. चूर्णमुद्गाभ्यामिनणौ // 6 / 4 / 7 // ___ म० वृ०-नौशब्दात् द्विस्वराच्च नाम्नस्तरम०वृ०-आभ्यां संसृष्टे 'यथासङ्ख्यमिन् अण' | त्यर्थे 'इकः' स्यात् / नाचा तगति नाविकः [ना. भवतः / 'चूर्णिनोऽपूपाः, मौद् ओदनः [मौद्गी विका इत्यपि] / द्विस्वर,- [घटेन तरति=] घटिकः, यवागूः // 7 // प्लविकः, [ दृतिना तरति] दृतिकः, बाहुकः, बाहुका [ 'ऋवर्णोवर्ण०' (7 / 471 ) इति इकस्य प्रव०-'चूर्णैः संसृष्टाः चूर्णिनः / एवं चूर्णिन्यो इलोपः ] ||10| धानाः // 7 // चरति / / 6 / 4 / 11 // व्यञ्जनेभ्य उपसिक्ते // 6 // 48 // म० ०-तृतीयान्ताञ्चरत्यर्थे 'इकण' स्यात् / चरतिर्गत्यर्थोभक्ष्यर्थश्च गृह्यते / गत्यर्थ,- 'हास्तिकः, म०७०-व्यञ्जनवाचिनः [तृतीयान्तात् ] उप [शकटेन चरति=] शाकटिकः, आकषिकः, / भक्ष्यसिक्तेऽर्थे 'इकण' स्यात् / सूपेनोपसिक्तः सौपिक र्थ,- [दना चरति=] दाधिकः / / 11 / / भोदनः, दाधिक भौदनः, [घृतेन उपसिक्तः=] घार्त्तिकः सूपः, / [तैलेनोपसिक्तं ] तैलिकं शाकम् / प्रव०-'हस्तिना चरति। आकषः सुवर्णव्यञ्जनशब्दो रूढ़ितः सूपादौ वर्त्तते // 8 // निकषोपलः औषधपेषणपाषाणश्च, उधरस उच्यते (?) लोके 'ओहरस' इति प्रसिद्धिः // 11 // प्रव०-'यद् भोजनार्थ भोज्यं भक्ष्यादिकं गृह्यते पर्यादेरिकट् // 6 / 4 / 12 / / सदुपसिक्तमुच्यते, न स्थाल्यादिभाजनकटोरादिकम् / उपसिक्तमपि परमार्थतः संसृष्टमेवो म० वृ०-पर्पादिभ्यश्वरत्यर्थे 'इकट्' स्यात् / च्यते, तर्हि संसृष्टे' (6 / 4 / 5) इत्यनेनैव सिद्धम् , [पर्पण चरति=] पर्पिकः, पपिकी, अश्विकः // 12 // किमिदं सूत्रम् ? उच्यते, नियमार्थम्। व्यञ्जनैः संसृष्टे उपसिक्त एव, अत्र व्यतिरेकप्रयोगः- सूपेन अव०-पर्पशब्दः शङ्ख, समुद्रे, प्रहरणविशेषे, उडुपे च वर्तते / पर्प, अश्व, अश्वत्थ, रथ, अर्घ्य, संसृष्टा स्थाली, तथा उपसिक्त च व्यञ्जनैरव, भत्रापि व्यतिरेकोदाहरणमिदम्- उदकेनोपसिक्त व्याल, व्यासः इति पर्पादिगणः // 12 // मोदन इति // 8 // पदिकः / / 6 / 4 / 13 / / Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चरत्याद्यर्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [365 . म० वृ०-पादशब्दाच्चरत्यर्थे 'इकट्' पद्भावश्चा- / प्रव०- क्रयविक्रयेण जीवति / 'क्रयेण जीस्य निपात्यते / पदिकः // 13 // यति // 16 // प्रव०-पादाभ्यां चरति-पदिकः , 'पदिक' वस्नात् / / 6 / 4 / 17 / / (6 / 4 / 13) इत्यनेन इकट् , पादस्य पद् इत्यादेशश्च / म० वृ०-तृतीयान्तात् ] वस्नाजीवत्यर्थे 'इकः' 'यस्वरे पादः पदणिक्यः ' (2 / 1 / 102) इत्यनेमात्र स्यात् / [वस्नं मूल्यम् , तेन-जीवति=] वस्निकः।१७। पद् आदेशो न प्राप्नोति, 'स्वरस्य परे प्राग्विधौ' आयुधादीयश्च // 6 / 4 / 18 // (7 / 4 / 110) इति सूत्रबलात् अकारस्य स्थानिवद्भायात् पाद् इति शब्दो नहि इति न प्राप्नोतीति 'पदि म. वृ०-आयुधाजीवत्यर्थे 'ईयः चकारादिक' इति सूत्रं कृतम् // 13 // कश्च' स्यात् / आयुधीयः. आयुधिकः, आयुधिका / भायुधादिकेकणोः स्त्रियां विशेषः // 18 // ___श्वगणाद्वा // 6 / 4 / 14 // वातादीनन // 6 / 4 / 19 // म. वृ०-तृतीयान्तात् श्वगणाच्चरत्यर्थे 'इक म० वृ०-'वाताज्जीवत्यर्थे 'ईनम्' स्यात् / ट्' स्यात् वा / [ टः व्यर्थः ] 'श्वगणिकः, श्वग वातीनः / बो वृद्धयर्थः / तेन तद्धितः स्वरवृद्धि०' णिकी / पक्षे [इकण] श्वागणिकः // 14 // (3 / 2 / 55) इत्यनेन पुंबद्भावो न भवति,- राती नाभायः / / 19 / / प्रव०-१श्वगणेन-श्वानवृन्देन चरति, श्वादेः' (7 / 4 / 10 ) इत्यनेन औनिषेधः / २एवं श्वागणिकी प्रव०-'नानाजातीया अनियतवृत्तयः, प्रति॥१४॥ दिन प्रतिदिनं गवेष्यमाणवृत्तयोऽनियतवृत्तय इत्यवेतनादेर्जीवति / / 6 / 4.15 // र्थः, शरीरायासजीविनः, शरीरमायास्य जीवन्तो म० ३०-[तृतीयान्तेभ्यः] वेतनादिभ्यो जीव- | भृतकाः भारवाहकाः इत्यर्थः,..." (संघा वाता) त्यर्थे 'इकट् ' स्यात् / वेतनेन जीवति-वैतनिकः उच्यन्ते, तत्साहचर्यात् तत्कर्माऽपि बातमुच्यते। // 15 // श्वातीना भार्या यस्य // 19 // निवृत्तेऽक्षयूतादेः / / 6 / 4 / 20 // अव०-वेतन, वाह, Aअर्द्धवाह, धनुस् , दण्ड, धनुर्दण्ड, जाल, वेश, उपवेश, प्रेषण, भृति, Bउप __म० वृ०-[तृतीयान्तेभ्यः ] अक्षयूतादिभ्यो निर्वृत्तेऽर्थे ‘इकण' स्यात् / आक्षयूतिकं वैरम् // 20 // वेष, उपस्था, उपास्ति, उपस्थान, आराधनार्थ द्वयम् ; सुख, शय्या, सुखशय्या, शक्ति, उपनिषद्, उप अव०-अक्षयूत, जङ्घाप्रहत, जङ्घाप्रहृत, जङ्घानिजस्त, (उपरिजन,) स्फिज, स्फिग, पाल, पुतचाल, प्रहार, पादस्वेद, पादस्वेदन, कण्टकमर्द, कण्टकउपदेश, पाद, उपहस्त इति वेतनादिगणः / Aअर्द्ध मर्दन, शर्करामदेन, गत, आगत, गतागत, यात, वाहस्य अर्द्धस्य वहनं वा / Bउपपन्नो वेष उपवेषः उपयात, यातोपयात, गतानुगत, अनुगत इति भक्ष॥१५।। घृतादिगणः // 20 // व्यस्ताच्च क्रय-विक्रयादिकः // 6 / 4 / 16 / / भावादिमः // 6 / 4 / 21 // म. वृ०-क्रयविक्रयात्समस्ताद् व्यस्ताच्च ___म० वृ०-तृतीयान्तात् भाववाचिनः शब्दान्निजीवत्यर्थे 'इकः' स्यात् / 'क्रयविक्रयिकः, क्रियिकः, | वृत्तेऽर्थे 'इमः' स्यात् / पाकेन निवृत्तं पाकिमम् , विक्रयिकः // 16 // प्रत्यागिमम् , कुट्टिमम् , संमूछिमम् // 21 // . Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [म० 6 पा० 4 सू० 22-27 प्रब०-त्यागेन निवृत्तम। एवं रोगिमम् / 21 / प्रव०-विवधेन हरति=विवधिका इत्यपि / याचिता-ऽपमित्यात्कण // 6 / 4 / 22 // इकण ,-वैवधिको / विवध्यते दौस्थामनेन (?)'व्य अनाद् घम् ' (5 / 3 / 132), 'न जनवधः' (4 / 3 / 54) म० ०-तृतीयान्ताभ्यां याचित-अपमित्या- इति वृद्धयभावः, 'घञ्युपसर्ग.' ( 3 / 2 / 86 ) इति भ्यां निवृत्ते 'कण' स्यात् / याचितेन याञ्चया नि- दीर्घः, वीवध इति सिद्धम् / विवधवीवधशब्दौ वृत्तं-याचितकम् / 'अपमित्य प्रतिदानेन निर्वृत्तम् द्वावपि समानार्थों पथि पर्याहारे च वर्चते / राज्ञां . =आपमित्यकम् // 22 // महाकटके कोटी इति प्रसिद्धिः (?) // 25 // प्रव०-'मेड प्रतिदाने', अपमानमिति वा कुटिलिकाया अण् / / 6 / 4 / 26 // क्ये 'निमील्यादिमेङस्तुल्यकर्तृ के' (5 / 4 / 46) भ- म० वृ०-कुटिलिकाशब्दात् हरत्यर्थे 'अण्' नेन क्त्वा प्रत्ययः, क्त्वाया स्थाने यप् , 'मेलो वा | स्यात् / [ कुटिलिकया हरत्यङ्गारान=] कौटिलिकः मित्' (4 / 3 / 88) इति सूत्रेण मेहो विकल्पेन मित् 'कारः [लोहकारः], मृगो वा, कर्षको वा, [हाभादेशः, अपमित्य अपमाय वा प्रतिदानेन निवृत्त- लिकः] "तापसो वा, चौरश्च 5 // 26 // मापमित्यकम् // 22 // प्रव०-कुटिलमग्रमस्त्यस्या 'भतोऽनेक०' (.. हरत्युत्सङ्गादेः // 6 / 4 / 23 // 2 / 6) इति इकः / कुटिलिकाशब्दः पश्चार्थेषु वर्त्तते, म. वृ०-[तृतीयान्तेभ्यः] उत्सङ्गादिभ्यो हर- | तथाहि-अप्रभागे वक्रा लोहादिमयी अङ्गाराकर्षणी त्यर्थे 'इकण्' स्यात् / औत्सङ्गिकः // 23 // यष्टिः कुटिलिका उच्यते, कौटिलिकः कर्मारः 1 / रकुटिलागतिर्वा कुटिलिका, कुटिलिकया वक्रगत्या प्रव०-उत्सङ्ग, उत्रुप, उडुष, उडुप, उत्पुत, मृगो व्या देशान्तरं प्रापयति कौटिलिको मृगः 2 / उत्पुट, पिटक, पिटाक इति उत्सङ्गादिगणः / 'उ- / उपलालोत्क्षेपणोऽग्रे वक्रो दण्डः कुटिलिका, कुटिलित्सङ्गेन हरति // 23 // कया हरति पलालं कौटिलिकः कर्षकः 3 / तापसो. भनादेरिकट // 6 / 4 / 24 // पकरणविशेषो वा कुटिलिका, लोके आंकुटी इति रूढिः, कुटिलिकया हरति पुष्पाणिं कौटिलिकस्ताम. वृ०-[तृतीयान्तेभ्यः] भस्रादिभ्यो हर पसः 4 / “चौराणां नौगृहकोटाद्यारोहणार्थ दामाग्रत्यर्थे 'इकट्' स्यात् [भत्रया हरति=] भस्त्रिकः, भ प्रतिबद्ध आयसोऽर्धाङकुशो वा कुटिलिका, कुटिलिखिकी। [ भरटेन हरति= ] भरटिकः, भरटिकी कया हरति नावं कौटिलिकश्चौरः 5 / / 26 / / ||24|| ओजःसहोऽम्भसो वर्तते // 6 / 4 / 27 // प्रव०-भस्रा भरट, भरण, शीर्षभार, शीर्षे- म० वृ-तृतीयान्तेभ्यः] ओजस्-सहस् भभार, मङ्गभार, भङ्गेभार, अंसभार, अंसेभार इति म्भसभ्यो 'वर्त्ततेऽर्थे 'इकण' स्यात् / ओजसा बलेन भनादिगणः // 24 // वर्त्तते औजसिकः, साहसिकः, आम्भसिकः / 27 // विवध-वीवधाद्वा // 6 / 4 / 25 // प्रव०-'वृत्तिरात्मयापना आत्मनिर्वाहः चेष्टा - म. वृ०-विषधवीबधाभ्यां हरत्यर्थे 'इकट् वा' वा। सहसा प्रसहनेन, कोऽर्थः ! परेणापराजस्यात् / [टो व्यर्थः] / विषधिकः, वीवधिकः; पक्षे येन अथवा पराभिभवेन वर्तते / अम्भसा जलेन वधिकः // 25 // वर्त्तते // 27 // Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तत इत्याद्यर्थाधिकारः] मण्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 365 .' तं प्रत्यनोर्लोमेपकूलात् // 6 / 4 / 28 // | ति / ततः परिमुखं वर्त्तते इति वाक्ये कृते 'परे म० वृ०-तेनेति निवृत्तम् / तमिति द्विती- मुख०' इति इकण् / / 29 // यान्तात् प्रति-अनुभ्यां परो यो लोम-ईप कूलशब्द- रक्षदुञ्छतोः // 6 / 4 / 30 // स्तदन्ताद्वर्त्ततेऽर्थे 'इकण्' स्यात् / 'प्रातिलोमिकः, ___म० वृ०-द्वितीयान्ताद् रक्षति उञ्छति चार्थे आनुलोमिकः; प्रातीपिकः, आन्वीपिकः, "प्राति 'इकण' स्यात् / समाज रक्षति-सामाजिकः, सामकूलिकः / / 28|| वायिकः, [नगरं रक्षति] नागरिकः / बदराण्यु म्छति उच्चिनोति वा=बादरिकः, [नीवारान् उम्छप्रव०-प्रतिगतं लोमानि, अनुगतं लोमा- | ति=] नैवारिकः // 30 // नि, 'प्रत्यन्ववात् सामलोम्नः' (73 / 82) इति सूत्रे पक्षि-मत्स्य-मृगार्थाद् ध्नति // 6 / 4 / 31 // ण लोमनशब्दात् अत् , 'नोऽपदस्य तद्धिते' (74 / 61) अन् लुप्यते, प्रतिलोमं वर्त्तते, अनुलोमं वर्तते। म० वृ०-[द्वितीयान्तेभ्यः ] पक्ष्यार्थमत्स्यार्थ'प्रतिगता आपो यत्र, "अनुगता आपो यत्र, 'इथ मृगार्थेभ्यो [ आरण्यपशवो मृगाः ] घ्नत्यर्थे 'इकण्' न्तरनवर्णोपसर्गादप ईप्' (3 / 2 / 109) अपस्थाने स्यात् / पक्षिणो हन्ति–पाक्षिकः, मात्सिकः, मार्गिकः, ईप आदेशः, प्रतीपं वर्त्तते अन्वीपं च वर्त्तते, सर्वत्र सौकरिकः // 31 // 'तं प्रत्यनो०' (6 / 4 / 28) इति इकण् / तथा अकर्मकस्यापि वृतिधातोर्योगे प्रतिलोमं वर्त्तते इत्यादिषु ___ अव०-पक्षि०' इति सूत्रे अर्थग्रहणात् पक्षिमप्रतिलोमादेः परतो क्रियाविशेषत्वात् '(क्रिया) विशे स्यमृगाणां पर्यायशब्देभ्यः पक्ष्यादीनां विशेषशब्देषणाद्' इत्यनेन द्वितीया। प्रतिगतं कूलं प्रतिकूलम्, भ्यश्च परत इकण भवतीत्यर्थः,- शाकुनिकः, मायूप्रतिकूलं वर्तते; ( एवम् ) अनुगतं कूलं अनुकूलम् , रिकः, तैत्तिरिकः, मैनिकः, शाफरिकः, शाकुलिकः, (अनुकूलं वर्तते इति अनुकूलिकः ), भत्रापि प्रति हारिणिकः, सौकरिकः, नैयकुकः / 'पक्षिमत्स्य०' कूलानुकूलपरान् क्रियाविशेषणे द्वितीया // 28 / / इति सूत्रान्तेऽयं विशेषः / अथ अजिह्मान् भनिमि षान हन्तीत्यत्र कथं नेकण ? नैतन्मत्स्येत्यस्य स्व. . परेमुखपार्थात् // 6 / 4 / 29 / / रूपम् , मत्स्यशब्दोऽयं न भवति, न विशेषः / न म० वृ०-परिपूर्वाभ्यां मुखपार्वाभ्यां द्वितीया- च पर्यायः, यः पर्यायः स व्युत्पत्तिं विनापि तावन्तन्ताभ्यां वर्त्ततेऽर्थे 'इकण्' स्यात् / परिमुखं वर्तते मर्थ गमयत्ययं तु व्युत्पत्तिसापेक्ष एव / असाधारणं =पारिमुखिकः / परिपार्श्व वर्त्तते पारिपार्श्विकः / हि विशेषणमिदम् / यथा जिह्मगाः सर्पाः, अनिमिपरिवर्जने सर्वतो भावे वा। स्वामिनो मुखं वर्जयि- षास्तु देवाः // 31 // त्या वर्तमानः अथवा यतोयतः स्वामिमुखं ततस्ततो परिपन्थात्तिष्ठति च // 6 // 4 // 32 // वर्तमानः पारिमुखिकः सेवकः / [एवं पारिपार्श्विकः] म० व०-परिपन्थशब्दात्तिष्ठति घ्नति चार्थे // 29 'इकण' स्यात् / परिपन्थं तिष्ठति हन्ति वा पारि पन्धिकश्चौरः // 32 // ___ अव०-'यदा परिवर्जने तदा मुखात् परिपरिमु वम् , 'पर्यपावहिरच् पञ्चम्या' ( 3 / 1 / 32) प्रव०-'पारिपन्थिक' इति, सूत्रेण 'परिपन्था'इत्यनेनाव्ययीभावो भवति / यदा च परितः सर्वतो दिति निर्देशात् परिपन्थशब्दस्य इकणो विषये मुखं परिमुखं (तदा) परिमुखादेरव्ययीभावात् (6 / | इकणोऽन्यत्रापि परिपन्यादेशः / तेन परिपन्थं 33136) इति पाठसामर्थ्यादेवात्राव्ययीभावो भव- / गच्छति पश्यति वा इत्याद्यपि भवति / परिशन्दो Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 6 पा० 4 सू० 3 -37 वर्जनार्थे सर्वतो भावे वा वर्त्तते / तत्र यदा परि- कुसीदादिकट / / 6 / 4 / 35 / / पर्जनार्थस्तदा पथः परि परिपथमिति ‘पर्यपाभ्यां वये' (222171 ) इत्यनेन समासे ( ? असमासे ) ___म० वृ०-कुसीदाद्ये गृहणत्यर्थे 'इकट्' स्यात् / [टो ड्यर्थः] 'कुसीदिकः // 35 / / पश्चमी भवति, समासश्च 'पर्यपाबहिरच् पञ्चम्या' / (3 / 1 / 32) इत्यनेन भवति। पश्चात परिपन्थं परिपथं प्रव०-'कुसीद वृद्धि कालान्तरं द्रव्यं तदर्थपा तिष्ठति पारिपन्थिकः पारिपथिकः इति द्वितीया- | मपि द्रव्यं कुसीदमुच्यते / कुसीदं गृह्णाति / एवं न्तात् 'परिपन्थात्तिष्ठति च' (6 / 4 / 32) 'परिपथात्' कुसीदिकी // 35 // (6 / 4 / 33) इत्यनेन वा इकण कार्यः / यदा च परिः सर्वतो भावे व्याप्तौ अर्थे तदा परितः पन्थानं परि- दशैकादशादिकश्च / / 6 / 4 / 36 // पथः(?म्)इति'सर्वोभयाभिपरिणा तसा'( 2 / 2 / 35 ) ___ म०वृ०-द्वितीयान्तादशैकादशशब्दाद्र्ये गृहणइत्यनेन द्वितीया भवति, सूत्रसामर्थ्यादत्राव्ययी त्यर्थे 'इक' चकारादिकट् च स्यात् / दशैकादशिकः / ' भावसमासः / उभयत्रापि परिपथ इति शब्दसिद्धी [इकः], दशैकादशिका [इक], दशैकादशिकी [इकट्] (?सिद्धिः) / समासे कृते'ऋक्तःपथ्यपोऽत्' (7 / 3 / 76) // 36 // इत्यनेन पथिन्शब्दात् अत् समासान्तः, परिपथ इति सिद्धम् / तदनन्तरं परिपन्थं परिपथं पा प्रव०-'सूत्रे निपातनबलात् अकारान्तत्वम् / तिष्ठतीति वाक्ये इकण कर्त्तव्यः / / 32 / / दशभिरेकादश दशैकादश, दश च एकादश च वा, ___ परिपथात् // 6 / 4 / 3 // 'नाम नाम्ना'० (3 / 1118) इति समासः, अत एव / म. वृ०-तिष्ठतीति वर्त्तते / परिपथशब्दा- निपातनात् अकारान्तत्वम् / तच्च वाक्ये प्रयोगार्थम् / त्तिष्ठत्यर्थे 'इकण' स्यात् / पारिपथिकः, पन्थानं वर्ज- दशैकादशान गृहणाति इतिवाक्यम् ,तत इक इकट् यित्वा व्याप्य वा तिष्ठतीत्यर्थः // 33 // // 36 // ' प्रव०-'परिवर्जने सर्वतो भावे वा। पथः ___ अर्थ-पद-पदोत्तरपद-ललाम-प्रतिकण्ठाद् परि परिपथः [?म्) , सर्वतः पन्थानं वा परिपथम्, परिपथं तिष्ठति // 33 // // 6 / 4 / 37 // अवृद्धावति गये / / 6 / 4 / 34 / / म. व०-गह इति निवृत्तम् / अर्थात् , पदान् , म० ०-द्वितीयान्ताद् वृद्धिशब्दवर्जिताद् गृह्ण पदशब्द उत्तरपदं यस्य तस्मात् , ललामात् प्रतित्यर्थे 'इकण्' स्यात् योऽसौ गृह्णाति स चेदन्यायेन कण्ठाच्च गृहणत्यर्थे 'इकण' स्यात् / अर्थ गृहणाति आर्थिकः,पादिकः,पदोत्तरपद,-'पौर्वपदिकः, २औप्तप्रहणाद् गर्यो निन्द्यो भवति / द्विगुणं गृह णाति= द्वैगुणिकः, त्रैगुणिकः, वार्द्धषिकः / अल्पं दत्त्वा रपदिकः,आदिपदिकः, आन्तपदिकः, लालामिकः, 'प्रातिकण्ठिकः // 37 // प्रभूतं गृहणन् अपन्यायकारी सद्भिनिन्द्यते / अवृद्धेरिति किम् ? वृद्धिं गृह्णातीति वाक्यमेव / गये इति किम् ? दत्तं गृह्णाति // 34 // अव०-पूर्व च तत् पदं च पूर्वपदं गृहणाति / एवम् उत्तरपदम् आदिपदम् 'अन्तपदं गृहाति। प्रव०-'प्रयुक्त धनं पुष्णातीति प्रयुक्तधन- "ललामशब्दः प्रधानार्थे / 'कण्ठं कण्ठं प्रति= . पोषी, पृषोदरादित्वात् वृधुषी इत्यादेशः, वृधुषीं / प्रतिकण्ठम्, 'लक्षणेनाभिप्रत्याभि'० (31 / 33) कोऽर्थः ? वृद्धि कालान्तरं द्रव्यं गृह्णाति वाधु- इत्यव्ययीभावः, प्रतिकण्ठं गृहणाति / “व्याख्याषिकः // 34 // नतो विशेषार्थप्रतिपत्ति"रिति न्यायात अव्ययीभाव Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छत्याद्यर्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 367 ... समासाश्रयणादिह नेकण ,-प्रतिगतः कण्ठं प्रति- | मानं सामान्यैः' (3 / 1 / 101) इति नियमादप्राप्तोकण्ठस्तं गृहणाति / तथा उत्तरपदग्रहणाद् बहु / ऽपि 'मयूरव्यंसक' (3 / 1 / 116) इत्यनेन 'नाम प्रत्ययपूर्वान्न भवति,- बहुपदं गृह्णाति // 37 // नाम्ना' (6 / 1 / 18) इत्यनेन समासः। पदवीं धावति / आक्रन्दन्ति यत्र स देश आक्रन्दः, 'व्यञ्जपरदारादिभ्यो गच्छति // 6 / 4 / 38 // नाद् घम्' (5 / 3 / 132), आक्रन्द्यते वा इत्युम० वृ०-परदारादिभ्यो गच्छत्यर्थे 'इकण' क्ते................( 'भावाकोंः ' / 5 / 3 / 18 )घम् / स्यात् / परदारान गच्छति पारदारिकः, गौरुदा. (आक्रन्दः) भार्तायनं शरणमुच्यते, कोऽर्थः ? आतैरिकः, गौरुतल्पिकः // 38 // रय्यते आश्रीयते- 'भुजिपत्यादि'० (5 / 3 / 128) अनट् , तदेव आर्त्तायनं निर्वक्ति नितरां व्रते; अव०-परदारादिगणः प्रयोगगम्यः / पिरेषां दाराः परे च ते दाराश्च (वा), ततः परदारान आक्रन्दं धावति / उत्तरपदग्रहणाद् बहुप्रत्ययपूर्वान्न गच्छनि / गुरूणां दाराः, तान् गच्छति / तल्प भवति,- बहुमाथं धावति // 40 // शब्दः पल्यङ्क कलत्रे च वत्तते, तत्र पल्यङ्क तल्पः 'पश्चात्यनुपदात् / / 6 / 4 / 51 // पुक्लीवः, कलत्रे तु नपुंसकरेव, ततो गुरुणां तल्पं म० वृ०-पश्चादर्थे वर्तमानाअनुपदाद्धागुरुतल्पं गच्छति / एवं साभर्तृ किक ,भ्रातृजायिकः / वत्यर्थे 'इकण' स्यात् / पदस्य पश्चादनुपदम् , उअनुसह भ; वर्त्तते, 'ऋन्नित्यदितः' (7 / 3 / 171) इत्य- पदं धापति-आनुपदिकः प्रित्यासत्त्या धावतीत्यर्थः] नेन कच् समासान्तः, सभर्तृ कां गच्छति / भ्रातरि / पश्चातीति किम् ? अनुपदं धावति / / 41 / / : भ्रातुर्वा जाया भ्रातृजाया, तो गच्छति // 38 // प्रव०-'पश्चाति इति प्रकृतिविशेषणम् / प्रतिपथादिकश्च // 6 / 4 / 39 // पश्चादः पश्चात् , तस्मिन् , सप्तमीकि / द्वितीया.. म००-द्वितीयान्तात् ] प्रतिपथाद्गच्छत्यर्थे न्तात् / उ'अनुपदं धावति', पदमन्वायतम् अथवा 'इकः चकाराद्यथाप्राप्तमिकण्' स्यात् / प्रतिपथिकः पदस्य समीपं यद्वा अनुगतं पदम-अनुपदम् , अत्र प्रातिपथिको वा // 39|| यथाक्रमं 'दैर्येऽनुः' (3 / 1 / 34) 'समीपे' (331135) 'प्रात्यवपरि'० (3 / 1 / 47) इत्यादिभिरव्ययीभावप्रव०-१पन्थानं पन्थानं प्रति प्रतिपथम् ,'ऋक्पू:- समासः / / 4 / / पथ्यपोऽत्' (73 / 76) इत्यनेन अत् समासान्तः, सुस्नातादिभ्यः पच्छति // 6 / 4 / 42 / / अथवा पथोऽभिमुखं प्रतिपथम् , 'लक्षणेनाभि'० (3 / 1 / 33) इत्यव्ययीभावः, प्रतिपथं गच्छति // 39 // म० वृ०-[ द्वितीयान्तेभ्यः ] सुस्नातादिभ्यः पृच्छत्यर्थे 'इकण्' स्यात् / 'सौस्नातिकः, सौखमाथोतरपदपदव्याक्रन्दाद्धावति // 6 / 4 / 40 // रात्रिकः / / 42 / / म० वृ०-द्वितीयान्तात् माथोत्तरपदात् , पदवी प्रव०-'शोभनं स्नातं-सुस्नातम् , सुस्नातं शब्दात् , आक्रन्दशब्दाद्धावत्यर्थे 'इकण' स्यात् / पृच्छति सौस्नातिकः / 'सुखा चासो रात्रिश्च सुखपदाण्डमाथिकः, पादविकः, आक्रन्दिकः // 40 // रात्रः, 'सङ्ख्यातेकपुण्यवर्ष.' (7 / 3 / 119) इत्यनेन प्रव०-मथ्यतेऽवगाह्यते पादैरिति माथः, घम् , अत् समासान्तः, सुखरात्रं पृच्छति सौखरात्रिकः / माथशब्दः पथिपर्यायः, दण्ड इव माथो दण्डमाथः एवं सुखशयनं सुखशय्यां पृच्छति सौखशायनिकः ऋजुमार्ग उच्यते, ततो दण्डमाथं धावति दाण्ड सौखशाय्यिकः / सुस्नातादयः प्रयोगगम्याः // 42 // माथिकः / एवं शोक्लमाथिकः / दण्ड इवेत्यत्र 'उप- प्रभूतादिभ्यो ब्रुवति // 6 / 4 / 43 / / Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०६ पा० 4 सू० 44-48 म० वृ०-प्रभूतादिभ्यो 'बत्यर्थे 'इकण' / अव०-'यः कश्चिच्छब्दं करोति स शाब्दिको स्यात् / प्रभूतं ब्रूते प्राभूतिकः, स्वागतिकः, सौव- नोच्यते किं तर्हि ? यः सम्यक् शब्दं जानाति स्तिकः // 43 // ज्ञात्वा च निर्दोषं शब्दमुच्चरति वैयाकरणः स एवं अव०-'ब्रूते इत्यर्थप्रधानोऽयं निर्देशः, तेन शाब्दिक इत्युच्यते / तथा दर्दरो घटो वादित्रं च, क्वापि वदति इत्यपि प्रयुज्यते, प्रभूतं वदति तयोर्मध्ये वादित्रं कुर्वन् दारिक उच्यते / तथा इत्यपि / एवं पर्याप्तं निषिद्धं ब्रूते पार्याप्तिकः, वैपु ललांट पश्यति, कोऽर्थः ललाटदर्शनेन दूरावस्थानं लिकः, वैचित्रिकः, नैपुणिकः / सर्वत्र क्रियाविशे लक्ष्यते, तेन च कार्येष्वनुपस्थानमढौकनम् , यः षणादेव 'प्रभूतादिभ्यो ब्रुवति' (6 / 4 / 43) इत्यनेन सेवकः स्वामिनो ललाटं दृष्ट्वा दूरतो याति न स्वाइकण इष्यते / तेनेह न भवति,- प्रभूतमर्थ ब्रूते, मिकार्येषु उपतिष्ठते-न ढौकते, परं कोपप्रसादपरिएवं विपुलं विचित्रं निपुणमर्थ ब्रूते इत्यत्र वाक्य ज्ञानायैव स्वामिनो ललाटं पश्यति स एव लालामेव स्थितम् / कचित्तु अक्रियाविशेषणादपि इकण् टिकः / "कुकटीं पश्यति कौकुटिकः। कुकुटीशब्देन भवति,- स्वर्गमनं ब्रूते सौवर्गमनिकः, 'द्वारादेः' कुक्कुटीपातो लक्ष्यते, तेन च देशस्याल्पता ज्ञाप्यते / (7 / 4 / 6) इत्यनेन औः / २स्वागतं ब्रूते स्वागतिकः, तथाहि-यो हि भिक्षुरविक्षिपदृषिः पादविक्षेपदेशे 'न बस्वाङ्ग' (49) इति वृद्धयोगनिषेधः / चक्षुः संयम्य पुरो युगमात्रदेशप्रेक्षी गच्छति स स्वस्तीति ब्रूते, 'यवः पदान्ता०' (7 / 4 / 5) वृद्धयागम कौकुटिक उच्यते / अथवा यस्तथाविधम् [तथा विधा औः / 43|| =प्रकारोऽस्य] आत्मानं अतथाविधोऽपि सन्दर्शयति सोऽपि कौकुटिकः / दाम्भिकचेष्टा वा मिथ्या___ माशब्द इत्यादिभ्यः // 6 / 4 / 44 / / शौचादिः कुक्कटी, तामाचरन कौकुटिकः / हृदयाम. वृ०-माशब्दादिभ्यो ब्रुवत्यर्थे 'इकण्' | वयवो वा कुक्कुटी, तां पश्यति कौकुटिको भिक्षुः, स्यात् / माशब्द इति ब्रूते माशब्दिकः, माशब्दः निभृत इत्यर्थः / तदेतत्सर्व निपातनाल्लभ्यते / / 45 / / क्रियतामिति ब्रूते इत्यर्थः / कार्यशब्दिकः / / 44 // समूहार्थात्समवेते // 6 / 4 / 46 // प्रव०-'माशब्द इत्या०' इत्यत्र इतिशब्दो म० वृ०-समूहवाचिभ्यो द्वितीयान्तेभ्यः समषाक्यपरामर्शार्थः / तेनोदाहरणेषु माशब्द इति वेते तादात्म्यात् (स समूह आत्मा स्वभावो यस्य ब्रूते माशब्दिकः (इति) वाक्यमध्ये सर्वत्र इति अर्थस्य स तदात्मा, तस्य भावः, तस्मात् ] तदैकशब्दोऽवश्यं योजनीयः / कार्यशब्द इति ब्रूते इति देशेऽर्थे [समूहैकदेशीभूते] 'इकण' स्यात् / समूह वाक्यम् , कार्यशब्दिकः / एवं नैत्यशब्दिकः / मा समवेति सिमायाति =सामूहिकः, [समाज सभां शब्द इत्यादयः प्रयोगगम्याः / 'प्रभूतादि' (6 / 4 / समवेति= सामाजिकः, सासदिकः, [समवायं 43) इत्यनेन हि पदात् प्रत्ययो विधीयते, 'माशब्द.' मेलापर्क समवेति= सामवायिकः, गोष्ठी समवे. इत्यनेन तु वाक्यैकदेशात्परतः प्रत्ययः क्रियते ति=] गौष्ठिकः // 46 // इति पृथगयोगः // 44 // शाब्दिक-दारिक-लालाटिक-कौक्कुटिकम् पर्षदो ण्यः / / 6 / 4 / 47 // // 6 / 4 / 45 // म. वृ०-पर्षद्शब्दात द्वितीयान्तात्समवेतेऽर्थे 'ण्यः' स्यात् / पर्षदं समवेति पार्षद्यः / परिषद म. वृ०-एते शब्दा यथास्वं प्रसिद्धेऽर्थविशेषे समवेति समायाति पारिषद्य इत्यपि केचित् // 47 // 'इकणन्ता' निपात्यन्ते / शब्दं करोति शाब्दिकः, दादरिकः, लालाटिकः, कोक्कुटिकः / / 45 / / सेनाया वा / / 6 / 4 / 48 // Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरत्याद्यर्थाधिकारः ] मध्यमवृत्त्यषचूरिसंवलितम् / [361 ... म०३-सेनाशब्दात् द्वितीयान्तात्समवेतेऽर्थे'ण्यः' म०३०-आभ्यां षष्ठ्यन्ताभ्यां धर्म्यऽर्थे भण' स्यात् वा / सेनां समवेति सैन्यः, पक्षे इकण्- | स्यात् , तद्योगे च विभाजयितुर्णिलुक् , विशसितुश्च सैनिकः / सेनैव सैन्यमिति तु भेषजादित्वात्स्वार्थे इलुक् / वैभाजित्रम् , वैशस्त्रम् // 52 // ट्यण // 48 // धर्मा-ऽधर्माच्चरति // 6 / 4 / 49 // अव०-'णिग् , इट् , तयोलुक् / / विपूर्वो 'भजण विश्राणने', 'चुरादिभ्यो णिच् (3 / 4 / 17), म.-धर्माधर्माभ्यां द्वितीयान्ताभ्यां चर विभाजयतीति तृच् , विभाजयितुर्धर्म्यम् , अण् , त्यर्थो ‘इकण्' स्यात् / चरतिरत्र तात्पर्येणानुष्ठाने णिच्लोपश्च / विशसन्ति इति तृच् ,'स्ताद्यशितो'. वर्त्तते / धर्म चरति धार्मिकः, [ अधर्म चरति ] (4 / 4 / 32) इट् , विशसितुर्धर्म्यमिति वाक्ये भण् , आधर्मिकः // 49 // इटलोपश्च // 52 / / ___षष्ठ्या धर्म्य // 6 / 4 / 50 // अवक्रये' / / 6 / 4 / 53 // म. वृ०-षष्ठ्यन्ताद्धर्थेऽर्थे 'इकण्' स्यात् / म० वृ०-षष्ठ्यन्तानाम्नोऽवक्रयेऽर्थे 'इकण' धर्मो न्यायोऽनुवृत्त आचारस्तस्मादनपेतं-धर्म्यम् / स्यात् / आपणस्यावक्रय आपणिकः, शौल्कशालिकः, शुल्कशाला या धर्म्यम्=शौल्कशालिकम् , [ आपणस्य आतरिकः // 53 // धर्म्यम्=] आपणिकम् , आतरिकम् // 50 // अव०-'भयकीयते स्वीक्रियते येन इच्छाप्रव.- आपत्य तरन्त्यस्मिन् स्यनके (?स्थानकेनरा नियमितेन द्रव्येण कियन्तमपि कालं गृहं हटें वा इति आतरो नद्यवतारः, 'पुन्नाम्नि घः' (5 / 3 / 130), क्षेत्रं वा सोऽवक्रयः, 'पुन्नाम्नि घः' (5 / 3 / 130), भो. आतरस्य धर्म्यम् // 50 // गनिवेशो भाटकमिति यावत् , भुज्यते इति भोगो ऋन्नरादेरण् // 6 / 4 / 51 // गृहहहादिकम् , निविंश्यते अनेन इति निवेश उपम. वृ०-ऋकारान्तेभ्यो नरादिभ्यश्च षष्ठ्य भोगः / लोकपीडया धर्मातिक्रमेणापि अवक्रयो .न्तेभ्यो धर्म्यऽ 'अण' स्यात् / नुर्धय॑=नारम्,स्त्रियां भवति इत्ययमवक्रयो धान भिद्यते / अत एव नारी; मातुर्धम्यं मात्रम् , 'पैत्रम् ,शास्त्रम् 2 वैकत्रम् / / कारणात् 'षष्ठ्या धर्ये' (6 / 4 / 50) इत्यनेन इकण् न सिद्धयति इति 'अवक्रये' (6 / 4 / 53) इति पृथग् नरादि,-नरस्य धर्ना=नारम् , नारी, माहिषम् / 51 / योगः कृत इत्यर्थः। 'शुल्कशालाया अवक्रयः / आतप्रव०-नर, महिष, प्रजावती, प्रजापति, विले. रस्यावक्रयः // 53 // पिका, प्रलेपिका, अनुलेपिका, वर्णक, पेषिका, मणि तदस्य पण्यम् / / 6 / 4 / 54 // पाली, पुरोहित, अनुचारक, अनुवाक, यजमान, म० वृ०-तदिति प्रथमान्तादस्येतिषष्ठ्यर्थे 'इकण्' होतयजमान इति नरादिगणः / नशब्देनैव नार स्यात् , तत् प्रथमान्तं यदि पण्यं पणितव्यं विक्रेयं नारी (इति) नृसम्बन्धिनरसम्बन्धिरूपद्वये सिद्धे भवति / आपूपिकः, शाष्कुलिकः, "मौदकिकः, ऽपि, केवलनरशब्दात 'षष्ठ्या धर्ये' इति पूर्वेण लावणिकः // 54 // इकण मा भूत् इति नरग्रहणं कृतम् / 'पितुर्धर्म्य = पैत्रम् / शास्तुर्गुरोधयं शास्त्रम् / विकर्तुर्विकाराप- अव०-तद्, पश्चमीडसि, भस्य इत्यत्र मस्य धर्म्य वैकत्रम् // 51 // सप्तमीडि, सूत्रत्वाल्लोपः। 'अशश् भोजने' अश्यन्ते विभाजथित-विशसितुर्णीड्लुक्'च // 6 / 4 / 52 // / श्रीमद्भिः ‘अश ऊपः पश्च' (उणा० 312) इत्युणा Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370 ] श्रीसिद्धेहेमशब्दानुसानं [अ०६ पा० 4 सू० 55-60 दिसूत्रेण ऊपप्रत्ययः, शम्थाने प् इत्यादेशः, अपूपाः / कोऽर्थः ? तद्धितवृत्तावन्तभूत इति शिल्पशब्दस्यापण्यमस्य / "शष्कुली "मोदकं 'लवणं पण्यमस्य। प्रयोगः / उत्पादनार्थवृत्तिभ्यस्तुअनभिधानान्न भवति। भत्र वाक्ये पण्यार्थस्तद्धितवृत्तावन्तर्भूत इति पण्य- अत एव कुम्भकारादौ वान्ये मृदङ्गकरणादिशब्दस्याऽप्रयोगः / एवमग्रेऽपि // 54 // शब्देभ्य एव प्रत्ययो भवति, न तु मृदङ्गादिशब्देकिशरादेरिकट // 6 / 4 / 55|| भ्यः / तथा च वृत्ती-"मृदङ्गकरणं शिल्पमस्य कुम्भ कारस्य" मवायस्य(?) / यतः केषुचिद् देशेषु ग्रामेषु म. वृ०-किशरादिभ्यस्तदस्य पण्यमित्य मृन्मया मृदङ्गा भवन्ति, तेषां कुम्भकारादुत्पत्तिस्मिन् विषये 'इकट्' स्यात् / [टो ङ्यर्थः] किशरं भवति / न द्रव्यवृत्तयः इत्यक्षराने द्रव्यस्य शिल्पेकिशरो वा पण्यमस्य किशरिकः, किशरिकी [तग त्याद्यक्षराऽवचूरिरथवा उत्पादनार्थवृत्ता (?वृत्त्याद्य)रिकः, तगरिकी] ||55|| क्षरावचूरिज्ञेया // 57|| प्रव०-किशर. तगर, स्थगर, उशीर, हरिद्रा, मड्डुक-झर्झराद्वाऽण् / / 6 / 4 / 58 // (हरिद्र, हरिद्रपर्णी, गुग्गुलु, गुग्गुल, नलद इति म० वृ०-आभ्यां तदस्य शिल्पमिति विषयेकिशरादिगणः / किशरादयो गन्धद्रव्यविशेषवचनाः 'ऽण् वा' स्यात् / माड्डुकः, रझाझरः / पक्षे // 55 // माइ डुकिकः // 58|| शलालुनो वा // 6 / 456 // प्रव०-'मड्डुकवादनं झर्झरवादनं शिल्पमस्य म० वृ०-शलालशब्दात्तदस्य पण्यमिति विषये // 58 // 'इकट्' स्यात् वा। शलालुकः, शलालुकी; पक्षे 'तदस्य पण्यम्' (6 / 4 / 54) इकण-] शालालुकी // 56 // शीलम् / / 6 / 4 / 59 // प्रव०-'शलालु गन्धद्रव्यविशेषं पण्यमस्य / 56 / म० वृ०-तदिति प्रथमान्तांदस्येत्यर्थ 'इकण' स्यात् , यत्प्रथमान्तं तच्चेन्छीलं भवति / शीलं शिल्पम् // 6 / 4 / 57|| जीवानां स्वभावः / फलनिरपेक्षा वृत्तिरिति यावत् / म०- वृ०-तद् इति प्रथमान्तादस्येत्यर्थो ‘इकण्' | 'आपूपिकः, २मौदकिकः, ताम्बूलिकः, पारुषिकः, स्यात् ,यत्प्रथमान्तं तच्चेत् शिल्पं भवति / नार्तिकः, "आक्रोशिकः / / 59 // गैतिकः, वादनिकः, "मार्दङ्गिकः, पाणविकः,मौरजिकः, वणिकः, तथा मृदङ्गकरणं शिल्पमस्य-मार्द- प्रव०- अपूपः पोली, अपूपभक्षणं शीलम करणिकः, एवं [वीणाकरणं शिल्पमस्य=] वैणा- स्य आपूपिकः / एवं शष्कुलीभक्षणं शीलमस्य / करणिकः // 57 // रमोदकभक्षणं उताम्बूलचर्वणं शीलमस्य / तथा परुषवचनं कठोरभाषणं शीलमस्य / आक्रोशवप्रव०-'शिल्पं कौशलं विज्ञानप्रकर्षः / अनेन चनं शीलमस्य / अत्रापि उदाहरणेषु पूर्ववत् अपूविज्ञानप्रकर्षेण तन्निवर्त्यः क्रियाविशेषो लक्ष्यते। पादयः शब्दा मृदङ्गवादनादिवत् क्रियावृत्तय एव मृदङ्ग-पणव-मुरज-वीणा-वेणुपटहादिशब्दाः वादना प्रत्ययमुत्पादयन्ति / शीलार्थस्तद्धितवृत्तावन्तर्भूत इति र्थवृत्तयः प्रत्ययमुत्पादयन्ति न द्रव्यवृत्तयः / द्रव्यस्य न शीलशब्दप्रयोगः // 59 // शिल्पायोगात्तद्विषयायाः क्रियायाः शिल्पत्वं ज्ञायते इति भावः / 'नृत्तं शिल्पमस्य नार्तिकः ।एवं गीतं 'अङ स्थाच्छत्रादेरज // 6 / 4 / 60 // "बादनं वा (शिल्पमस्य) / तथा मृदङ्गो मृदङ्गवादनं | म० वृ०-अप्रत्ययान्तात्तिष्ठतेः छत्र इत्यादिशिल्पमस्य / एवमग्रेऽपि / अत्रापि शिल्पार्थो वाक्ये | भ्यश्च तदस्य शीलमर्थे-'ऽब्' स्यात् / आस्था शील Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रहरणार्थाधिकारः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम्। मस्य-आस्थः, सांस्थः, ( अवस्था शीलमस्य=] आव- / प्रत्ययः क्रियते, यथा अश्वेन चरति आश्विकः / स्थः, सामास्थः,[व्यवस्था शीलमस्य=] वैयवस्थः। / 'शिल्पम्' ( 6 / 4 / 57 ) अत्र तु सूत्रे विज्ञानातिशये छत्रादि,- छत्रं शी उमस्य छात्रः, "चुरा शीलमस्य सति प्रत्ययो भवति,- नृत्तं शिल्पमस्य नार्तिकः / चोरः, तपःशीलस्तापसः,५ कामः / त्रियां तु छात्री, 'प्रहरणम्' इति सूत्रेण तु व्यापारसाधनाभावेऽपि, चौ, नापसी // 60|| परिज्ञानमात्रेऽपि, प्रत्ययो विधीयते,- असिः प्रह रणमस्य=आसिकः, अत्र न कादित ( ? परप्रहरणअव०-१अङ् चासो स्था च अथा। २एवं रूप )व्यापारापेक्षा, नापि शिल्पादिपरिज्ञानापेक्षानैष्ठः, अन्तस्था, भिदादित्वादङ्, आन्तस्थः / 'छत्रं स्ति / प्रासः प्रहरणमस्य / २एवं मौष्टिकः, मौसशीलमस्य-छात्रः, अस्यायं भावार्थः,- छत्रशब्देन / लिकः / / 6 / / गुरु षु सावधानस्य शिष्यस्य छत्रक्रियातुल्या परश्वधाताऽण् / / 6 / 4 / 63 / / गुरुछिद्राच्छादनाऽपायरक्षणादिका क्रिया उच्यते / उपचारात् शिष्यो हि छत्रबद् गुरुछिद्रावरणादि म०७०-परश्वधात्तदस्य प्रहरणेऽर्थे-'ऽण् वा' प्रवृत्तः छात्र इत्युच्यते / अभ्यासापेक्षाऽपि क्रिया स्यात् / पारश्वधः / पक्षे पारश्वधिकः // 63 / / शीलमित्युच्यते, यथा शीलिता विद्या, 'ज्ञानेच्छा०' प्रव०-'परश्वधःप्रहरणमस्य। पूर्वेण इकण् // 63 / / ( 5 / 2 / 92 ) इति क्तः / छत्र, चुरा, तपस् , कर्मन् , शक्ति-यष्टेष्टीकण // 6 / 4 / 64 // शिक्षा, चुक्षा, (भुक्षा, दिक्षा,) चिक्षा, भिक्षा, भक्षा, म० वृ०- शक्तियष्टिभ्यां तदस्य प्रहरणे तितिक्षा, बुभुक्षा, विश्श्या, उदस्थान, उपस्थान, 'टीकण' स्यात् [ शक्तिः प्रहरणमस्य= ] शाक्तीकः, पुरोडा, कृषि,मन्द्र,सत्य, अनृत, विशिका, विशिखा, शाक्तीकी ; याष्टिकः , याठिकी। कथं शाक्तिकः ? प्ररोह इति छत्रादिगणः / 4 अनित्यो णिच् इति / शक्त्या जीवति, वेतनादीकणा भविष्यति / / 64 / / चुरः परो न णिच् , भिदाद्यङ्। 'कर्म शीलमस्य, वेष्टयादिभ्यः // 6 / 4 / 65 / / 'नोऽपदस्य०' ( 74 / 61) इति // 6 // म० वृ०-इष्टयादिभ्यस्तदस्य प्रहरणे 'टीकण' तूगीकः // 6 / 4 / 61 // वा स्यात् / इष्टिः प्रहरणमस्य=ऐष्टिकः, ऐष्टिकी; - म. वृ.-तूष्णीनशब्दात्तदस्य शीलविषये 'कः / [पक्षे इकण ] ऐष्टिकः इत्यादि // 65 // प्रत्ययो' मलोपश्च निपात्यते / 'तूष्णीकः // 61 / / / नास्तिका-ऽऽस्तिक-दैष्टिकम् / / 6 / 4 / 66 // अव०-'तूष्णीभाव शीलमस्य। 'तूष तुष्षौ' म० वृ०-एते शब्दा इकणन्ता निपात्यन्ते / तूषन्ति देवा अनेन-'तूषेरोम् णोन्तश्च' (उ० 940) नास्तिकः, आस्तिकः, दैष्टिकः // 66 // // 61 / / अव०-'नास्ति परलोकः पुण्यं पापं वा इति प्रहरणम् / / 6 / 4 / 62 // मतिरस्य नास्तिकः / अस्ति परलोकः पुण्यं पापं वा म. वृ०-तदिति प्रहरणादस्येत्यर्थे 'इकण' इति मतिरस्य आस्तिकः / ३दिष्टं दैवम् ,तत्प्रमाणयत्प्रथमान्तं तच्चेत्प्रहरणं भवति / असिः प्रहरणम मिति मतिरस्य दैष्टिकः, अथवा दिष्टा प्रमाणानुस्य आसिकः, 'प्रासिकः,धानुष्कः, चाक्रिकः // 62 // पातिनी, कोऽर्थः ? प्रत्यक्षादिप्रमाणमार्गानुया थिनी मतिरस्य / तथा नास्त्यस्तिशब्दौ तिवादिअव-प्रहरणेऽयं विशेषो लिख्यते,- चरति प्रतिरूपको अव्यये, निपातनादेव वा तदिति प्रथमा(६।४।११) इत्यत्र सूत्रे व्यापारसाधनशब्दात् , | धिकारेऽपि अस्त्याख्यातात् नास्ति इति पदसमु. व्यापारः साध्यते येन स व्याारसाधनः, तस्मान्, | दायाच्च प्रत्ययो भवतीत्यर्थः // 66 // Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [भ० 6 पा० 4 सू०६७-७१ - - वृत्तोऽपपाठोऽनुयोगे // 6 / 4 / 67 // __ प्रव०-'बहुस्वरं पूर्वम , कोऽर्थः ? पूर्व पदं यस्य, / (तस्मात) प्रथमान्तानाम्नः / २स्त्री इति शब्दाने म० वृ०-तदिति प्रथमान्तादस्येति षष्ठयर्थे द्वादशान्यिकः, द्वादशान्यिका स्त्री ; एवं त्रयोदशा'इकण्' स्यात् , यत्प्रथमान्तं तच्चेदनुयोगविषये [प न्यिकः, चतुर्दशान्यिकः, चतुर्दशान्यिका स्त्री / अन्ये रीक्षाविषये ] वृत्तोऽपपाठो भवति / एकमन्य वैयाकरणा अपपाठादन्यत्राप्यध्ययनमात्रे इकणप्रत्ययदपपाठोऽनुयोगे वृत्तमस्य ऐकान्यिकः, द्वैयन्यिकः / मिच्छन्ति / यथा द्वादश रूपाण्यध्ययने वृत्तान्यवृत्त इति किम् ? वर्तमाने वर्त्यति च न भवति / अपपाठ इति किम् ? एकमन्यदस्य दुःखमनुयोगे स्येति वाक्ये द्वादशरूपिकः / अन्यत्वं चापपाठस्य सम्यक्पाठापेक्षं ज्ञातव्यम् / / 68|| वृत्तम् , जयोऽनुयोगे वृत्तः [एकोऽन्योजयोऽस्य वृत्तः इति वाक्यम् ] // 67|| ___ भक्ष्यं हितमस्मै // 6 / 4 / 69 // म. वृ०-तदिति प्रथमान्तादत्मै इति चतुर्थ्यर्थे प्रव०-एकमन्यदित्यस्यार्थः,- एकमन्यत् , 'इकण' स्यात् , प्रथमान्तं चेद् भक्ष्यं हितं भवति / कोऽर्थः ? सत्पाठात् सम्यक्पाटादपर अपपाठः अपूपा भक्ष्यं हितमस्मै आपूपिकः, एवं 'मौदकिकः कूटपाठोऽलीकपठनं गुणनं चिन्तनं वृत्तं सञ्जातम .गौडधानिकः // 69 // स्य मैत्रस्य अनुयोगे शास्त्रप्रकरणगणने चिन्तने शाखादिसम्यगपरीक्षाविषये। अस्य शास्त्रगुणनादिकं अव०-एवं शाष्कुलिकः / शष्कुलयो 'मोदकाः कुर्वतोऽन्यत् कूटमेकमपरं सञ्जातमस्तीत्यर्थः / एवं गुडधानाः भक्ष्यं हितमस्मै चैत्राय इति वाक्यानि / द्वे अन्येऽपपाठावनुयोगे वृत्ते अस्य , त्रीण्यन्यान्य- भक्षणक्रिया हितार्थश्च तद्धितवृत्तावान्तर्भूत इत्यपपाठा०; द्वैयन्यिकः, त्रैयन्यिकः ; 'यवः पदान्ता०' प्रयोगः // 69 // (74 / 5) ऐवृद्धिरागमः / तथा सङ्ख्याशब्दान्यशब्दयोस्तद्धिते विषयभूते समासो जातः / ततः परात्त नियुक्तं दीयते // 6 / 470 // द्वितप्रत्यय इकण विधीयते / 'वृत्तोऽपपाठोऽनुयोगे' __ म० वृ०-तदिति प्रथमान्तादस्मै अर्थे 'इकण' इति शब्दस्य तु तद्धितवृत्तावन्तर्भावादप्रयोगः / अत : स्यात् , प्रथमान्तं चेन्नियुक्त प्रतिपन्नमव्यभिचारेण एव 'वृत्तोऽपपाठ' इत्याधने तद्धितप्रत्ययोऽपि न नित्यं वा दीयते / अग्रभोजनमस्मै नियुक्त दीयते= कृतः। वृत्तोऽपपाठो० (6 / 4 / 67) इति सूत्रे केचिद्वैया- आग्रभोजनिकः, एवमाग्रफलिकः [अग्रं फलमस्मै करणाः अपपाठादन्यत्राप्यध्ययनमात्रेऽप्यर्थे प्रत्ययमि- | नियुक्त दीयते], आपूपिकः, शाष्कुलिकः, मौदच्छन्ति / यथा एकं रूपमध्ययने वृत्तमस्य ऐकरू | किकः; अपूपाः शष्कुलयः मोदकाः अस्मै नियक्त पिकः, एको ग्रन्थोऽध्ययने वृत्तोऽस्य ऐकग्रन्थिकः, दोयते] ग्रामिकः / अस्मै इत्येव- रजकस्य वस्त्र भनेन एक एव ग्रन्थोऽधीतः इत्यर्थः / अनुयोगे इति नित्यं दीयते [=अयते | ||7|| किम् ? स्वैराध्ययने मा भूत् // 6 // प्रव०-'ग्रामोऽस्मै नियुक्त दीयते / एवम'बहुस्वरपूर्वादिकः // 6 / 4 / 68 प्रहारो ब्राह्मणदत्ता भूमिरस्मै नियुक्त दीयते-आग्रम. वृ०-बहुस्वरपूर्वात्प्रथमान्तादस्यार्थे 'इकः' हारिकः // 70|| स्यात् , प्रथमान्तं (चेत्)वृत्तोऽपपाठोऽनुयोगे [परी- श्राणा-मांसौदनादिको वा // 6 / 4 / 71 / / / क्षावसरे) सति। एकादशान्यान्यपपाठरूपाण्यनुयोगे म० वृ०-श्राणामांसौदनाभ्यां तदस्मै नियुक्त ऽस्य वृत्तानि एकादशान्यिकः, एकादशान्यिका खीर दीयते इति विषये 'इको वा' स्यात् / श्राणा [=य॥६८॥ वागूः] नियुक्तमस्मै दीयते श्राणिकः पथ्याशी / Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ताद्यांधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / मांसौदनिकः / पक्षे [पूर्वेण इकण-] श्राणिकी, मांसौ- | अदेशकालादध्यायिनि // 6 / 4 / 76 // दनिकी / इकेकणोः स्त्रियाँ विशेषः [इकणि सति की म० वृ०-अध्ययनस्य [सिद्धान्ताध्ययनस्य] यौ भवति // 7 // निषिद्धी देशकालौ तावदेशकालौ, तद्वाचिनः सप्तभक्तौदनाता णिकट / / 6 / 4 / 72 / / म्यन्तादध्याथिन्यर्थे 'इकण्' स्यात् / अदेश,-अशुचा म० वृ-भक्त-ओदनाभ्यां यथासङ्खयम् 'अण. वध्यायी आशुचिकः, [श्मशानेऽध्यायी=] इमाशाइकटौ वा भवतः, तदस्मै नियुक्त दीयते इति निकः' / अकाल,-२सानिध्यकः,औल्कापातिकः, आनविषये। भक्तमस्मै नियुक्त दीयते भाक्तः, ओद. ध्यायिकः / अदेशकालादिति किम् नमस्मै नियुक्त दीयते औदनिकः, ओदनिकी। ऽध्यायी // 76|| पक्षे भाक्तिकः, औदनिकः / / 72 / / प्रव०-'(एवं) श्मशानस्याभ्यासो नैकट्य (श्मनवयज्ञादयोऽस्मिन् वर्तन्ते // 6 / 4 / 73 / शानाभ्यासः),श्मशानाभ्यासेऽध्यायी श्मशानाभ्या___ म० वृ-प्रथमान्तेभ्यः नवयज्ञादिभ्यो वर्तन्ते सिकः। सन्ध्यायामध्यायी। अनध्यायेऽध्यायी।७६। इत्येवमुपाधिभ्य [विशेषणेभ्यः] अस्मिन्निति सप्त निकटादिषु वसति // 6 / 477 // म्यर्थे ‘इकण्' स्यात् / नवयज्ञा अस्मिन् वर्तन्ते= नावयज्ञिकः // 73 // म. वृ०-निकटादिभ्यः सप्तम्यन्तेभ्यो वसतत्र नियुक्ते // 6 / 4 / 74 // त्यर्थे 'इकण' स्यात् / निकटे वसति नैकटिकः, आरण्यिकः, वार्भमूलिकः, इमाशानिकः ||7|| म. वृ०-तत्रेति सप्तम्यन्तानियुक्तेऽर्थे 'इकण्' स्यात्। नियुक्तोऽधिकृतोव्यापारित इत्यर्थः / शुल्क __ अव०- 'अरण्ये वसति आरण्यिकः, अत्रायं शालायां नियुक्तः शौल्कशालिकः, आतरिकः, प्रयोगः, आरण्यकेन भिक्षुणा ग्रामात् क्रोशे वस्तव्यदौवारिकः / / 7 / / मिति यस्य शास्त्रितः शास्तुगेरोः सकाशादितः प्राप्तः अव०-पूर्वकस्य नियुक्तं दीयते' (6 / 4 / 70) शास्त्रितो वास स एव परमर्षिरारण्यक उच्यते / इति सूत्रोक्तनियुक्तशब्दस्य क्रियाविशेषणरूपस्य वार्भमूलिकादयस्तापसादयः सामान्याः / वृक्षमूले अव्यभिचारो नित्यमिति चार्थः / स पूर्वसूत्रोक्तो वसति-वाक्षमूलिकः। श्मशाने वसति / एवमाभ्यनियुक्तशब्दःप्रकृत्यर्थोपाधिः / अयं च तत्र नियुक्ते' वकाशिकः, अभिमतोऽवकाशो मुत्कलप्रदेशो यत्र सूत्रोक्तनियुक्तशब्दः प्रत्ययार्थो ज्ञातव्यः। 'आतरे सोऽभ्यवकाशः, तत्र वसति / आवसथिकः, आवसथे नियुक्तः / द्वारे नियुक्तो दौवारिकः / एवमाक्षपट गृहे वसति / निकटादयः प्रयोगगम्याः // 77 / / लिकः, अक्षाणां व्यवहाराणां पटलं समूहस्तत्र नियु सतीर्थ्यः / / 6 / 4 / 78 // क्तः आक्षपटलिकः, आखण्डलिउ इत्यस्य लोक- म० वृ०-समानतीर्थशब्दाद्वसत्यर्थे 'यः' प्रत्ययो रूढिः // 74 / / निपात्यते, समानस्य च सभावः। समानतीर्थे ___ अगारान्तादिकः // 6 / 4 / 75 // वसति-सतीर्यः / तीर्थमिह गुरुरुच्यते // 7 // म० वृ०-'अगारान्तात्तत्र नियुक्तेऽर्थे 'इकः' / प्रस्तार-संस्थान-तदन्त-काठिनान्तेभ्यो व्यवहरति स्यात् / देवागारिकः, देवागारिका, भाण्डगारिकः, // 6 / 4 / 79 // उकोष्टागारिकः / / 7 / / म० वृ०-प्रस्तारसंस्थानाभ्यां प्रस्तारान्तात् अव०-बहुप्रत्ययपूर्वादपिअगारशब्दात इको भव- | संस्थानान्तात् कठिनान्ताच्च व्यवहरत्यर्थे 'इकण' तीत्यर्थः / भाण्डागारिका स्त्री। कोष्ठा गारिका / 75 / स्यात् / 'व्यवहरतिरिह क्रियातत्त्वे क्रियाया अवि Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 ] * श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 6 पा० 4 सू० 80-83 ' Thu Hill परीते स्वभावे / यथा लौकिको व्यवहार इत्यत्र / मथवा द्वयधिक सहस्र द्विसहस्र वाऽर्हति,अथवा द्वे प्रास्तारिकः, सांस्थानिकः / तदन्त,-कांस्यप्रस्तारिकः, सहस्रऽहति, 'मानसंवत्सरस्याशाणकुलिजस्याना[लोहप्रस्तारिकः, ] गौसंस्थानिकः / वांशकठि- म्नि' (7 / 4 / 19) इत्यनेन उत्तरपदस्य वृद्धिः, 'सहनिकः / कठिनं तापसभाजनं पीठं वा / / 79 // स्रशतमानादण' (6 / 4 / 136 ) इत्यण् , 'नवाणः' (6 / 4 / 142) इति भणनाद् 'अनाम्न्यः ' (6 / 4 / 141) प्रव०-'व्यवहरतिरत्र विनिमयेऽर्थे, विवादेऽर्थे, इति लुपः प्राप्तिः / द्वाभ्यां सूर्याभ्यां क्रीतम् , 'सूर्पाविक्षेपेऽर्थे, क्रियातत्त्वेऽर्थे, एवं चतुर्वर्थोषु वर्त्तते / द्वान्' (6 / 4 / 137) इत्यनेन अब् , 'अनाम्न्यः ' (6 / विनिमये यथा-शतं व्यवहरति / विवादे यथा-व्य ४।१४१।इति अन् ) लुप्यते। तथा द्विसूर्पण क्रीतं वहारे पराजितः / विक्षेपे यथा- शलाकां व्यवहरति / द्विापिकम् , 'मूल्यैः क्रीते' (5 / 4 / 150) इत्यनेन क्रियातत्त्वे यथा-लौकिकोऽयं व्यवहारः / तत्रेह इकण् , 'मानसंवत्सरस्याशाणकुलिजस्यानाम्नि' (7/ क्रियातत्त्वे वर्तमानो गृह्यते / एवमाश्वसंस्थानिकः / 4 / 19) उत्तरपदवृद्धिः / / 80 // कठिनान्तोदाहरणम् // 79 // गोदानादीनां ब्रह्मचर्ये // 6 / 4 / 81 // सङ्ख्यादेश्वार्हदलचः // 6 / 4 / 80 // ___म. वृ०-गोदानादिभ्यो निर्देशात् ' षष्टयन्तेम. वृ०-अईदर्थमभिव्याप्येत ऊर्ध्व या प्रकृति भ्यो बह्मचर्येऽर्थे 'इकण् स्यात् / गोदानस्य व्रतविशे षस्य ब्रह्मचर्य गौदानिकः / गोदानादयः प्रयोगगपक्ष्यते तस्याः [प्रकृतेः] केवलायाः तदन्तायाश्च सङ्घ म्याः / येभ्यो ब्रह्मचर्येऽर्थे इकण दृश्यते ते गोदापापूर्वाया वक्ष्यमाणः प्रत्ययः स्यादिति ज्ञेयम् , चेत्सा प्रक्रतिः लगन्तान भवति / चन्द्रायणं चरति नादयः / / 81 // . चान्द्रायणिकः, द्वे चन्द्रायणे चरति ५=द्वैचन्द्रायणिकः, पारायणमधीते-पारायणिकः / सङ्ख्यादे अव०-सूत्रे 'गोदानादीना'- मित्यत्र षष्ठय. रिति किम् ? महापारायणमधीते / आईन् इत्यत्र न्तप्रयोगस्तस्मानिर्देशादेव इत्यर्थः / एवमादित्यआकारोऽभिविधौ / तेनाईदर्थोऽपि भवति, द्वे सहस्र व्रतिकम् , आदित्यव्रत इति नाम ऋचः, तासाद्विसहस्र वाईतिद्विसाहस्रः / अलुच इति मृचामध्ययनं ब्रह्मचर्यम् , तेन ब्रह्मव्रतेन ता ऋचोकिम् ? द्विशूर्पम् द्विशौर्पिकम् // 8 // ऽधीयन्ते, आदित्यव्रतानां ब्रह्मचर्यमिति वाक्ये आदित्यवतिकम् / / 81 // प्रव०-'अईत मा आईन् , तस्मात् , पञ्चमी चन्द्रायणं च चरति / / 6 / 4 / 82 // कसि, अनतो लुप्' (1 / 4 / 59) इति डसिलोपः,आईत् म० वृ०-चन्द्रायणाद् [सूत्रे द्वितीयान्तनिर्देइति शब्दः, आ अहंदर्थात् (इत्यर्थः) / चकारः केव- शात् द्वितीयान्तात् चन्द्रायणात् ] गोदानादिभ्यश्च लार्थः। न लुक्=अलुक् ,तस्याः / चन्द्रेण कृत्वाय्यते चरत्यर्थे 'इकण' स्यात् / चन्द्रायणं चरति चान्द्राज्ञायते चन्द्रायणम् , 'पूर्वपदस्था०' (2 / 3 / 64) इति यणिकः, गोदानं चरति गौदानिकः, आदित्यव्रणत्वम् / "द्वैचन्द्रायणिक' इत्यत्र 'द्विगोरनपत्ये.' तिकः / / 82 // (6 / 1 / 24) इत्यनेन इकणो लुप् न भवति, प्राग्जि देवव्रतादीन् डिन्' / / 6 / 4 / 83 // तीयेऽर्थे उत्पन्नतद्धितस्य लुम्विधानात् / 'अनाम्न्यद्वि:०' (6 / 4 / 141) इत्यनेनापि लुप् न भवति, म० वृ०-रदेवव्रतादिभ्यश्चरत्यर्थे 'डिन्' स्यात् / आईदर्थाभावात् / 'तुरायणपारायणं.' (6 / 4 / 92) देवव्रतं चरति=देवव्रती, तिलव्रती, अवाटतरदीक्षी, * इति इकण् / एवं द्वैपारायणिकः / "द्वयोः सहस्र- | महाव्रती / देवव्रतादयो वृद्धप्रयोगगम्याः / / 83 / / . HD Hikill Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरत्याधर्थाधिकारः ] मध्यमवृत्यवचूरिसंवलितम् / [375 अव०-'डिन् इत्यत्र डित्करणमुत्तरत्रान्त्या | अव०-क्रोशश्च योजनं च-क्रोश योजने पूर्वे स्वरादिलोपार्थम् , अत्र न प्रयोजनम् / निर्देशात् / यस्य सः, तस्मात् / अझैऽच्' (5 / 1191) इत्यच् / द्वितीयान्तेभ्यः / अवगतमन्तरं यस्या सा अवान्तरा, | क्रोशशतादभिगमनमर्हति क्रौशशतिकः / 'योजन. सा चासो दीक्षा च, तां चरति अवान्तरदीक्षी, शतादभिगमनमर्हति यौजनशतिकः / / 86 // . सम्यक्त्वदीक्षा इत्यर्थः / / 8 / / तद् यात्येभ्यः // 6 / 4 / 87 / / डकश्चाष्टाचत्वारिंशतं' वर्षाणाम् // 6 / 4 / 84 / / म०वृ०-तदिति द्वितीयान्तेभ्यः एभ्यः क्रोशम० वृ०-वर्षाणां सम्बन्धिनोऽष्टाचत्वारि शत योजनशन योजन इत्येतेभ्यो याति गच्छत्यर्थे शच्छब्दात् व्रतवृत्तेश्चरत्यर्थे 'डकः प्रत्ययो [चका 'इकण' स्यात् / क्रोशशतं याति=] क्रौशशतिकः, रात् ] डिन् ' च भवति / अष्टाचत्वारिंशकः [डक] यौजनशतिकः, यौजनिको दूतः / / 87 / / उअष्टाचत्वारिंशी [डिन् ] // 84|| पथ इकट् // 6 / 4 / 88 // प्रव०-'अभिरधिका चत्वारिंशत् अष्टाचत्वा- म० वृ०-[तदिति द्वितीयान्ताद्] पथिनशब्दारिंशत्, द्वित्यष्ठानां द्वात्रयोऽष्टा'०(३।२।९२)इत्यनेन / द्यात्यर्थे 'इकट्' भवति / पन्थानं याति-पथिकः अपनशब्दस्य 'अष्टा' आदेशः। अष्टाचत्वारिंशद्वर्षस ['नोऽपदस्य'० (4 / 61) अन् लोपः], पथिकी, हितं व्रतमष्टाचत्वारिंशत् उच्यते, तत अष्टाचत्वारिं. द्विपथिकः // 88 // शद् व्रतं चरति इति वाक्यम् / व्याख्यानतो विशेषार्थप्रतिपत्तिरिति न्यायवंशात् व्रतवृत्तेरिति विशे- प्रव०-कट् इति प्रत्यये कृतेऽपि पथिक इति षार्थो वृत्तावुक्तः। सूत्रे अष्टाचत्वारिंशतमिति द्विती. सिद्धयति (तथापि) यद् इकट् इति प्रत्ययविधानं यान्तनिर्देशात् परतो डिन् इत्यर्थः / / 84 / / तत् 'द्विपथिकः द्विपथिकी इति सिद्धयर्थम् / अत्र हि चातुर्मास्यं तो यलुक् च // 6 / 4 / 85|| परत्वात् पूर्वमत् समासान्तः,पश्चात् इकट् / कटे हि कते द्विपथक इति स्यात / द्वौ पन्थानौ याति इति म-वृ० [निर्देशात् द्वितीयान्तात ] चातुर्मा वाक्ये कृते पूर्वम् 'ऋपःपथ्यपोऽत् ,(7 / 3 / 76) स्यशब्दाद् व्रतवृत्तेश्चरत्यर्थे तो 'डकडिनौ' भवतः, य लोपश्च / 'चातुर्मासकः [डक] / चातुर्मासी इत्यनेन अत् समासान्तः, पश्चात् पथ इकट् / / 88 / / [डिन ||85|| नित्यं णः पन्थश्च / / 6 / 4 / 89 / / म.३०-पथिन्शब्दान्नित्यं [नित्यमिति प्रत्यप्रय०-'चतुर्यु मासेषु भवानि, 'यज्ञे ञ्यः' / यार्थविशेषणं] यात्यर्थे ‘णः' स्यात् , पथिनशब्दस्य (6 / 3 / 134) इत्यनेन भ्यः, चातुर्मास्यानि नाम च पन्थ इत्यादेशः / पन्थानं नित्यं याति-पान्थः, यज्ञाः, तत्सहचरितानि व्रतानि चातुर्मास्यानि, तानि पान्था स्त्री; द्वैपन्थः, द्वैपन्था स्त्री। नित्यमिति किम् चरति इति वाक्यम् / / 85 // ? पथिकः / / 89 // 'क्रोशयोजनपूर्वाच्छताद् योजनाचाभिगमाहे अव०-'द्वैपन्थ' इत्यत्रापि द्वौ पन्थानौ नित्यं // 6 / 4 / 86 // याति इति वाक्ये 'ऋक्पः' (7 / 3 / 76) अत् , पश्चात् ___म० वृ०-क्रोशपूर्वात् योजनपूर्वाच्च शतशब्दात् णः प्रत्ययः.......(ज्ञातव्यः) // 89|| योजनशब्दाचाभिगमाहेऽर्थे 'इकण' स्यात् / क्रौशशतिको मुनिः, यौजनशतिको मुनिः, यौजनिकः शङ्कत्तर-कान्तारा-ऽज-वारि-स्थल-जङ्गलादेस्तेना ऽऽहते च // 6 / 4 / 90 // साधुः // 86 // Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 6 पा० 4 सू० 91-97 म. पृ०-शङ्क-उत्तर-कान्तार-अज-वारि-स्थल- यिकः / अथ ज्ञेयभावना, सांशयिकोऽयमूर्हो न जङ्गल इति पूर्वपदात् पथिनशब्दान्तात्तेनेति जाने स्थाणुः उत पुरुषः, सांशयिकश्चैत्रः न जाने तृतीयान्तादाहृतेऽर्थे यात्यर्थे च 'इकण्' स्यात् / जीवति उत मृतः / जाने इत्यत्र 'ज्ञोऽनुपसर्गात्' 'शाङकुपथिकः, २ौत्तरपथिकः, कान्तारपथिकः, / (3 / 3 / 96) इत्यात्मनेपदम् / / 9 / / भाजपथिकः, वारिपथिकः, उस्थालपथिकः, "जाङ्ग तस्मै योगादेः शक्त // 6 / 4 / 94 // लपथिकः // 10 // म. वृ०-योगादिभ्यस्तस्मै इति चतुर्थ्यन्तेभ्य प्रव०-शकूनां पन्थाः शकुपथः, 'ऋकपू: शक्त ऽर्थे 'इकण' स्यात् / योगाय शक्तो यौगिकः, पथ्यपोऽत्' (7 / 3 / 76) अत् ; शङकुपथेनाहृतो याति सान्तापिकः // 14 // वा शाङकुपथिकः / एवमौत्तरपथिकः इत्यादौ अग्रे. तनोदाहरणवृन्दे इत्थमेव साधनिका कर्त्तव्या। अव०-तस्मै इत्यत्र शक्तार्थलक्षणा चतुर्थी, अथवा स्थलं चासौ पन्थाश्च, जङ्गलश्चासौ पन्थाश्च, ततः पञ्चमी, सूत्रत्वात् लोपः। योग, सन्ताप, 'अक्पःपथ्य'० (73 / 76) अत् , तत इकण् // 10 // सन्नाह, समाम,संयोग, सम्पराय,सङ्घात, सम्पाद, सम्पादन, सङक्रम, सम्पेष, संवेश, सम्मोदन, स्थलादेमधुक-मरिचेऽण् // 6 / 4 / 91 // निष्पेष, निसर्ग, निःसर्ग, विसर्ग, उपसर्ग, प्रवास, म० वृ०-स्थलपूर्वपदात् पथिन्नन्तादाहृतेऽर्थे उपवास, सक्तु, निघोष, मांस, ओदन, मांसौदन, 'भण्' स्यात् ,तच्चेदाहृतं मधुकं मरिचं वा भवति / सक्तुमांसौदन इति योगादिगणः / अत्र केचित् 'स्थालपथम् // 9 // योगादिमाकृतिगणमाहुः / तेन वैषयिकमिति सिद्धम प्रव०-स्थलपथ इति पूर्ववत् , स्थलपथेना // 94 // हृतं मधुकं मरिचं वा स्थालपथम् // 11 // योगकर्मभ्यां योको // 6 / 4 / 95 // 'तुरायण-पारायणं यजमाना-ऽधीयाने म० वृ०-योगकर्मशब्दाभ्यां शक्तंऽर्थे यथा॥६४९२॥ क्रम 'योको' भवतः / 'योग्यः, कामुकम् / 95 / / म० वृ०-तुरायणपारायणाभ्यां यथासङ्ख्य प्रव०-योगाय शक्तो योग्यः / एवं योगशब्दयजमानेऽधीयाने चार्थे 'इकण' स्यात् / सौराय | स्य द्वैरूप्यम् ,- यौगिकः, योग्यः / कर्मणे शक्त'= णिकः / पारायणिकः / / 12 / / कार्मुकम् // 15 // प्रव०-'तुराः सन्तोऽयन्तेऽस्मिन् , तुरैरय्यते यज्ञानां दक्षिणायाम् // 6 / 4 / 96 / / स्वर्गोऽनेन पा र निर्देशादेव द्वितीयान्ताभ्याम् / म० वृ०-यज्ञवाचिभ्यो 2 दक्षिणार्थे 'इकण' तुरायणं नाम यज्ञस्तं यजते तौरायणिकः / *पारा स्यात् / आग्निष्टोमिकी // 16 // यणमधीते // 12 // संशयं प्राप्ते ज्ञेये // 6 / 4 / 93 // प्रव०-यज्ञकर्मकृतां वेतनादानं दक्षिणा / निर्देशात् षष्ठयन्तेभ्यः / अग्नीनां स्तोमः, 'ज्योम० ०-संशयमिति द्वितीयान्ताप्राप्तेऽर्थे तिरायुभ्यां च स्तोमस्य' ( 2 / 3 / 17 ) इति षत्वम् , 'इकण्', स चेत्प्राप्तोऽर्थो ज्ञेयो भवति / 'सांशयि अग्निष्टोमस्य दक्षिणा-आग्निष्टोमिकी। (एवं) राजकोऽर्थः // 13 // सूयिकी॥९६॥ प्रव०-संशयं प्राप्त इति वाक्यम्, सांश तेषु देये // 6 / 4 / 97|| Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देय-कार्यार्थाधिकारः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 377 म० वृ०-यज्ञराचिभ्यः तेष्धिति सप्तम्यन्तेभ्यो / (इति) उष् , व्युष्यते स्म अस्मिन्- 'अद्यर्था०' (5 / देयेऽर्थे 'इकण' म्यान / आग्निोमिकम।९७। / / 1 / 12) इति क्तः / साम्यन्तेभ्यः / व्युष्ट, नित्य, निष्क्रमण, प्रवेशन, तीर्थ, साम, सङ्घात, प्रव०- अग्नीनां स्तोमः, 'ज्योतिरायुभ्यां च अग्निपद, पीलुमूल, प्रयास, उपवास इति व्युषास्तोमस्य' (2 / 3 / 17) इति षत्वम् , अग्निष्टोमे देयं दिगण: / बहुवचनादाकृतिगणोऽयम / व्युषसाहभक्तम् / / 9 // चर्यान्नित्यशब्दोऽत्र कालवाची गृह्यते / ततः सप्तकाले कार्ये च भववत् / / 6 / 4 / 98 // म्यपवादेन 'कालाध्वनोप्तौ ' ( 2 / 2 / 42) इत्यनेन म० वृ०-१कालवाचिशमाद् देये कार्ये चार्थे / द्वितीयाविधानान्नित्यं देयमिति द्वितीयान्तादेव 'भववत्' प्रत्यया भवन्ति / यकाभ्यः प्रकृतिभ्यो येन प्रत्ययः / अन्ये तु सप्तम्यन्तादपीच्छन्ति,- नित्ये विशेषेण ये प्रत्यया भवेऽर्थे भवन्ति ताभ्यः प्रकृति- विषुवति षडिभश्चराचरैमहत्तैरनाक्रम्यमाणे देयं भ्यम्तेन विशेषेण कार्ये देये चार्थे ते / प्रत्ययाः] कार्य वा नैत्यम् / विषुमि मुहूर्त्तः, सोऽस्यास्ति भवन्तीत्यर्थः / यथा २वर्षासु भवं वार्षिकम , तथा विषुवत् , समरात्रिंदिवः कालो विषुवत् उकयते, वर्षासु देयं कार्य वा वार्षिकम् // 98 // विषुवत् शब्दः पुनपुंसकः,यद् वैजयन्ती- “परीतत् महिमा हेम विषुवत् कर्म लोम दोः" ||99 // प्रव०-१निर्देशात् सप्तम्यन्तात् / २'वर्षासु भवं यथाकथाचाण्णः / / 6 / 4 / 100 // वार्षिकम', अत्र 'वर्षाकालेभ्यः' ( 6 / 3 / 80 ) इति भवेऽर्थ इकण ,यथाऽत्र भवेऽर्थे इकण , तथा वर्षा- म० वृ०-यथाकथाचशब्दाद देये कार्ये चार्थे सु देयं वासु कार्य वार्षिकम् , अत्र देये कार्येऽप्यर्थे / 'णः' स्यात् / 'यथाकथाच दीयते याथाकथाचा इकण। एवं मासिकम् , शारदिकं श्राद्ध कर्म, शार दक्षिणा // 10 // दिकः, नैशम् , नैशिकम् , प्रादोषम् , प्रादोषिकम् , शौवस्तिकम् , चिरत्नम् , पुराणम् , सायंतनम् , प्रव०-यथाकथाच इति शब्दोऽखण्डोऽव्ययपौषम् , शैशिरम् , सान्ध्यम् , सांवत्सरं फलं पर्व वा, समुदायोऽनादरेणेत्यर्थे वर्तते // 100 / / हैमन्तम् , हैमनम् , प्रावृषेण्यम् / एषु उदाहरणे- तेन हस्ताद्यः // 64 / 101 // ध्वपि(यथा)शेषे भवेऽर्थे इकणादयो भवन्ति तथा म. वृ०-तेनेति तृतीयान्नाद् हस्ताद् देये कार्ये शरदि देयं शरदि कार्यमित्याद्यर्थेऽपि (इकणादयः) चार्थे 'यः प्रत्ययः' स्यात् / हस्तेन देयं कार्ये वा प्रत्यया भवन्ति इत्यर्थ:। 'काले कार्ये (64 / 98) इति सूत्रे प्रत्ययसद्भावोऽतिदिश्यते, न अभावः, हस्त्यम् // 101 / / कोऽर्थः ? लुप् के / तथा ( ? तेन ) द्विगुसमासात् शोभमाने / / 6 / 4 / 102 // परस्य तद्धितस्य लुप् न भवति,- द्वयोर्मासयोर्देयं म० वृ०-तेन तृतीयान्ताच्छब्दाच्छोभमानेकार्य या द्वैमासिकम् , त्रैमासिकम् / / 98 / / ऽर्थे 'इकण' स्यात् / 'कर्णवेष्टकाभ्यां शोभते 'व्युष्टादिश्वण / / 6 / 4 / 99 // कार्णवेष्टकिकं मुखम् , २वास्त्र पुगिकं शरीरम् , म. वृ०-२व्युपादिभ्यो देये कार्ये चार्थे-'ऽण्' उौपानहिको पादौ // 102 // स्यात् / व्युष्टे देयं कार्य वा वैयुष्टम् , नैत्यम् / / 99 / / | अव०-'कौँ वेष्टते- कर्मणोऽण (5 / 1672), * अव०-'विपूर्वः 'उषू श्रिषू श्लिषू प्रषू प्लुषू दाहे'. | तावेव कर्णवेष्टको, ताभ्याम् , अथवा वेष्टते * 'लुप् नातिदिश्यते' इत्यर्थः / Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०६ पा० 4 सू० 103-107 (इति) 'णकतृचौ' (5 / 1 / 48), कर्णयोर्वेष्टको कुण्ड- / (5 / 4 / 35) इत्यनेन ‘शकितकिचति०' (5 / 1 / 29) लौ, ताभ्याम् / श्वस्त्रयुगेण शोभते / * 'कवर्गक- इति यः प्रत्ययः, कार्य इत्यत्र 'ऋवर्णव्यञ्जना०' स्वरवति' ( 2 / 3 / 76 ) इति णत्वम् / उउपानद्भयां (5 / 1 / 17) इति ध्यण / अकृच्छ्रेण क्रियते यत् शोभते / शोभते इति क्रियासम्बद्धत्वेन असमर्थन- तत् सुकरम् , 'दुःस्वीषतः कृच्छाकृच्छ्रा०' (5 / 3 / मसमासोऽप्यस्मिन् विषये भवति,- कर्णवेष्टकाभ्यां / 139) इति खल / एवमा मासिकः / 'संवत्सरेण न शोभते अकार्णवेष्टकिकम् / कर्णवेष्टकशब्देन परिजय्यः-जेतुं शक्यः / "स्वार्थे 'प्रज्ञादिभ्योऽण' सह नबोऽसम्बद्धत्वान्नमोऽकारस्य न वृद्धिः / (7 / 2 / 165) // 104 // एवमग्रेऽपि // 10 // निवृत्ते // 6 / 4 / 105 // कर्म-वेषाद् यः // 6 / 4 / 103 // म० वृ०-कालवाचिनस्तृतीयान्तानिवृत्तेऽर्थे ___म० वृ०-कर्मन्-वेषशब्दाभ्यां शोभमानेऽर्थे / 'इकण्' स्यात् / अह्रा निवृत्तमाह्निकम् , ' २मासि'यः' स्यात् / कर्मणा शोभते कर्मण्ये शौर्यम् / वेषे कम् , सांवत्सरिकम् // 105|| ण शोभते वेष्यो नटः / केचिद् वेषस्थाने वेशं पठन्ति / वेश्या नर्तकी // 10 // - प्रव०-'आह्निकमित्यत्र 'अनीनादष्ट्यह्रोऽतः' (7 / 4 / 66) इत्यनेन 'अहन्' इत्यस्य उपान्त्याऽकार___ अव०-'वेश्याश्रयः पुरं वेशः' इति (अभि० स्य लोपः / मासेन निवृत्तम् / संवत्सरेण श्लो० 1003) नाममालायाम् ,वेशेन शोभते वेश्या। निर्वृत्तम् / 'निर्वृत्ते' (6 / 4 / 14) इति पृथग्योग उत्ततथा अत्रापि सूत्रे प्रागवन्नन्समासः,- कर्मणा न | रसूत्रेषु निर्वृत्ते इत्यस्य अनुवृत्त्यर्थः / / 105 / / शोभते अकर्मण्यः, एवमवेष्यः // 103 / / तं भावि-भूते // 6 / 4 / 106 / / कालात्परिजय्य-लम्य-कार्य-सुकरे // 6 / 4 / 104 // म. वृ०-तमिति द्वितीयान्तात्कालवाचिनो म० वृ०-कालविशेषवाचिनः [तृतीयान्तात् ] भाविनि २भूते चार्थे इकण'स्यात् / मासं भावो= 3 4 शब्दात् परिजय्ये, लभ्ये, कार्ये, सुकरे चार्थे 'इकण' | मासिकः, मासं भूतो मासिकः उत्सवः / / 506 // स्यात् / मासेन परिजय्यः मासिको व्याधिः,५ सांवत्सरिकः / मासेन लभ्यः मासिकः पटः / प्रव०-'स्वसत्तया व्याप्स्यमानः कालो येन मासेन कार्यमासिकं चान्द्रायणम् / मासेन सु- | भाविना उत्सवादिना स व्याप्स्यमानकालो भावी करो-मासिकः प्रासादः॥१०४|| उच्यते / च्याप्तकालस्तु भूत उच्यते / स्वसत्तया इत्यत्रापि योज्यम् / / 106 / / प्रव-परितो जेतुं शक्यं परिजय्यम् , 'य एचातः' (5 / 1 / 28) इति यः, तदनन्तरं 'क्षय्यजय्यौ | तस्मै 'भृताऽधीष्टे' च // 6 / 4 / 107 / / शक्ती' (4 / 3 / 90) इति सूत्रेण अय् इत्यन्तादेशो म० वृ०-तस्मै तादर्थ्यचतुर्थ्यन्तात्कालवाचिनो निपात्यते / लभ्य-कार्ययोस्तु शक्तेऽहे चार्थे भृतेऽधीष्टे चार्थे 'इकण' स्यात् / मासाय भृतो= कृत्यः, लब्धुं शक्यः, लब्धुमर्हति ; 'शक्तार्हे कृत्याश्च' | मासिको भृत्यः, मासं [मासं यावत् ] कर्मणे भृत * 'वस्त्रयुगेण' इत्यत्र / 卐 'क्रियासंबद्धत्वेन' इति हेतुर्नसमासस्यासमर्थत्वे बोध्यः, न त्वसमर्थनसमासभवनविषये / असमर्थनसमासभवनविषये हेतुः ‘गमकत्वादभिधानाद्' इति ज्ञेयः / Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेन निर्वृत्त इत्याद्यर्थपञ्चकाधिकारः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 379 इत्यर्थः / मासायाधीयो-मासिक उपाध्यायः, मास- सरीणः, द्विसमीनः / ५पक्षे द्वैरात्रिकः,द्वैयन्हिकः,' मध्यापनाय [मासं यावत् पाठनार्थम् ] अधीष्ट / द्विसांवत्सरिकः, जैसमिकः // 110 / / इत्यर्थः / एवं वार्षिकः, सांवत्सरिकः / चकारः 'तेन निर्वृत्ते' 'तं भाविभूते' 'तस्मै भृताधीष्टे च' इति प्रव०-रात्रिश्च अहश्च संवत्सरश्च / समाशब्दासूत्रत्रयस्याप्युत्तरत्रानुवृत्त्यर्थः / / 107 // न्तात् 'समाया ईनः' (64 / 109) इति पूर्वेण नित्यं प्राप्त शेषेभ्योऽप्राप्त विकल्पोऽयं विधीयते। द्विराअव०- 'वेतनेन मूल्येन यः कर्मकरः क्रीतः त्रीणः द्वयहीनः ;अत्र समासान्ताभावविषये लिख्यतेस भृत इत्युच्यते। यः सत्कृत्य-बहुमान्य अध्यय राज्यन्तात् अहरन्ताच परमपि समासान्तं बाधित्वा नादिकार्य उपाध्यायादिापारितः सः अधीष्ट अनवकाशत्वादीन एव भवति / तथा च समासान्तउच्यते / गृहकार्यायावस्थापित इत्यर्थः / अभिल- नियोगे उच्यमानः 'साशसंख्याव्ययात' (73 / षित इत्यर्थः // 10 // 118) इति अह्नादेशोऽपि न भवति, समासान्तयोगाषण्मासादवयसि भयेको / / 6 / 4 / 108 / / भावात् / 'द्वाभ्यां रात्रिभ्यां निवृत्तः द्वे रात्री भूतो भात्री वा द्वाभ्यां रात्रिभ्यां भृतोऽधीष्टो वा - म. वृ०-षण्मासात् [कालवाचिनः शब्दात् ] द्विरात्रीणः / एवं त्रिरात्रीणः,तिसभी रात्रिभिनिवृत्तः तेन निवृत्ते, त भाविभूते,तस्मै भृताधीष्टे चेति विष तिस्रो रात्रीभूतो भावी या तिसृभ्यो रात्रिभ्यो भृतोयेऽवयसि गम्यमाने ण्य-इकौ' भवतः / 'पाण्मा ऽधीष्टो वा त्रिरात्रीणः / द्वाभ्यामहोभ्यां निवृत्तः, स्यः, पाण्मासिकः / अवयसीति किम् ? २षण्मा द्वेऽही भूतो भावी वा द्वाभ्यामहोभ्यां भृतोऽधीष्टो स्यः / / 108 // वा द्वघहीनः / एवं द्वाभ्यां संवत्सराभ्यां निर्वृतः ___ प्रव०-'षड्भिर्मासैनिवृत्तः द्वौ संवत्सरौ भूतो भावी वा द्वाभ्यां संवत्सराभ्यां षण्मासान भृतोऽधीष्टो वा द्विसंवत्सरीणः / द्वाभ्यां भावी भूतो वा षड्भ्यो मासेभ्यो भृतोऽधीष्टो वा. समाभ्यां निवृतः द्वे समे भूतो भावी वा द्वाभ्यां पाण्मास्यः, षण्मासिकः / षण्मासान् भूतः शिशुः समाभ्यां भृतोऽधीष्टो वा द्विसमीनः / “पक्षे .पण्मास्यः, षण्मासाद् य-यणिकण' (6 / 4 / 115) द्वैरात्रिकः, द्वैयह्निकः; अनयोरपि वाक्यानि मूलोदाइत्यनेन यः प्रत्ययः // 108 // हरणवत् कर्त्तव्यानि, परं विशेषोऽयम् ,-द्वैरात्रिक समाया ईनः // 6 / 4 / 109 // इत्यत्र पूर्व संख्यातैकपुण्यवर्षादीर्घाच रात्ररत्' (7 // 3 // म० ०-समाशब्दात्तेन निवृत्त 'इत्याद्यर्थे 119) इत्यनेन अत् समासान्तः,ततः पूर्वसूत्रैः (तेन) 'इनः' स्यात् / समीनः / / 109 / / निर्वृत्ते' (6 / 4 / 107) तंभावि भूते (6 / 4 / 106) तस्मै भृताऽधीष्टे' (6 / 4 / 105) इत्येभिरिकण , द्वैयक्लिक प्रव०-"तेन निवृत्ते' इत्याद्यर्थपञ्चकविषये। (इति) अत्रापि द्वाभ्यामहोभ्यां निर्वृत्त इत्यादिवाक्ये समया निवृत्तः समां भूतो भावी वा समायै कृते सर्वाशसङ्ख्याव्ययात्'(७।३।११८) इत्यनेन भट् भृतोऽधीष्टो वा समीनः // 109 // समासान्तः अह्न इत्यादेशश्च, ततः पूर्वसूत्रैरिकण् / 'द्वैयह्निक इत्यात्याने द्वैयहिक इति प्रयोगो ज्ञातव्यः / राज्यहःसंवत्सराच द्विगोर्वा / / 6 / 4 / 110 // द्वैयहिकमिति तु कथम् ? सत्राह- द्वयोरहोः . म० ब०-रात्रि-अहन्-संवत्सरान्तात् समा- | समाहारः, द्विगोरन्नहनोऽट्' (7 / 3 / 99) इत्यनेन भट्, शब्दान्ताच द्विगोस्तेन निवृत्तत्यादिपञ्चकविषये नोऽपदस्य'० (74 / 61) इति नलोपः, पहेन 'ईनो' वा स्यात् / 'द्विरात्रीणः, द्वषहीनः, दिसंब- निवृत्तमिति वाक्येन समाहारद्विगोरिकण / Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 / श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०६ पा० 4 सू० 111-116 भवति / "द्विसांवत्सरिक इत्यत्र 'मानसंवत्सरस्या०' / गम्यमाने / द्वौ मासौ भूतो द्विमास्यो दारकः / 113 / (7 / 4 / 19) इत्यनेनोत्तरपदवृद्धिः / / 110 / / अव०-'मासाद्वयसि यः' / 6 / 4 / 113) इति वर्षादश्च वा // 6 / 4 / 111 // सूत्रे वयसीति किम् ? द्वैमासिको व्याधिः, द्वैमाम. पृ०-वर्षशब्दान्तात्कालवाचिनो द्विगोस्तेन | सिको नायकः / भते इति किम ? द्रौ मासौ भावी निवृत्तेत्यादिपञ्चकार्थे 'अः प्रत्ययश्चकारादीनश्च' | =द्वैमासिको युवा / / 113|| वा स्यात् / पक्षे इकण् / एवं च ौरूप्यम् / 'द्विवपः [भः], द्विवर्षीणः [ईनः], २द्विवार्षिकः [इकण्], ईनञ्च // 6 / 4 / 114 // द्वैवर्षिकः, औवर्षिकः // 111 / / म० वृ०-द्विगोरिति निवृत्तम , योगविभागात। मासशब्दाद भतेऽर्थे 'ईनब चकराद्यश्च प्रत्ययः' प्रव०-द्वाभ्यां वर्षाभ्यां निवृत्तः द्वौ वर्षों द्वे / स्यात् , वयसि / मासं भूतो-मासीनः, [ईनञ्].. वा वर्षे भूतो भावी वा द्वाभ्यां वर्षाभ्यां भृतोऽधीष्टो / मास्यः [यः] पुत्रः / वयसीत्येव-मासिको नायकः वा-द्विवर्षः, द्विवर्षीणः, द्विवार्षिकः / एवं त्रिवर्षः, // 14 // त्रिवर्षीणः, त्रिवार्षिकः / अत्र 'सङ्ख्याधिकाभ्यां वर्षस्याभाविनि' (7 / 4 / 18) इत्यनेन उत्तरपदवृद्धिः / अव०-'ईन च' ( 6 / 4 / 114 )' इति सूत्रे भाविन्यर्थे तु उत्तरपदवृद्धिप्रतिषेधो भवति, तत्र सकारः 'तद्धितः स्वरवृद्धि०' ( 3 / 2 / 55 ) इति सूत्रे दैवर्षिकः त्रैवर्षिकः इत्येव प्रयोगौ // 111 / / वृद्धिहेतुप्रत्यये परे पुबद्भावप्रतिषेधार्थः / तेन : प्राणिनि भूते // 6 / 4 / 112 / / मासीना स्वसाऽस्य मासोनास्त्रसृकः, 'ऋमित्यदितः' (7 / 3 / 171) कः // 114 // / ___म० वृ०-कालवाचिवर्षशब्दान्तात् द्विगोभूते. ऽर्थे 'अः प्रत्ययः' स्यात् ,स चेद् भूतः प्राणी भवति / षण्मासाद् य-यणिकण / / 6 / 4 / 115 // द्वे वर्षे भूतो-द्विवर्षो दारकः, त्रिवर्षी वत्सः / प्राणि- म० वृ०-षण्मासशब्दात् भूतेऽर्थे यः, यण , नीति किम् ? द्विवर्षः, द्विवर्षीणः, द्विवार्षिकः . इकण भवन्ति, वयसि गम्यमाने / षण्मासान भूतः सरकः / / 112|| =षण्मास्यः [यः], पाण्मास्यः [यण ], पाण्मासिफः [इकण] // 115 // प्रव०-'प्राणिनि भूते' इति सूत्रे भूते इति किम् ? निवृत्तभाविभृताधीष्ट इति अर्थचतुष्टये प्रव०-'षण्मासाद् ययः' (6 / 4 / 115 ) इति वर्षात् 'निवृते' (6 / 4 / 105) 'तं भाविभूते' (6 / 4 / सूत्रे भूते इति किम् ? षण्मासान् भाषी इति वाक्य१०६) 'तस्मै भृताधीष्टे' (6 / 4 / 107) इति सूऔः मेव, अत्र भाविभूते इकण प्राप्तोऽपि भूते इति व्याप्रत्यया भवन्ति / यथा द्विवर्ष:, ................." वृत्तिबलानिषिध्यते / वयसीति किम् ? पाण्मास्यः, (द्विवर्षीणः द्विवार्षिकः, द्वैवर्षि)को नरः / एषमुत्त- षण्मासिको नायकः, 'षण्मासादवर्यास ण्येकौ' (6 / .. . (रेषु त्रिषु सूत्रेष्वपीय) भावना कार्या। / 4 / 108) // 115 / / पूर्वेण विकल्पे प्राप्ते “प्राणिनि भूते" इति नित्यार्थ / __'सोऽस्य ब्रह्मचर्य-तद्वतोः // 6 / 4 / 116 / / . विधिः कृतः // 112 // म० वृ०-स इति प्रथमान्तात्कालवाचिनोमासाद्वयसि यः // 6 / 4 / 113 // २ऽस्येति षष्ठयर्थे 'इकण' स्यात् , ब्रह्मचर्ये तद्वति म. वृ०-मासान्तादिगोभूते 'यः' स्यात्, वयसि | चार्थे, यत्तदस्येति निर्दिष्टं तच्चेद् ब्रह्मचर्य ब्रह्मचारी Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोजनार्थाधिकारः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [281 -- - ‘वा भवतीत्यर्थः / मासोऽस्य बह्मचर्यस्य मासिकं / कस्य मुञ्जीकर्म उपनयनम् , उपनयनं प्रयोजनमस्य। ब्रह्मचर्यम् , एवं सांवत्सरिकम् / मासोऽस्य ब्रह्मचा- 'श्रद्धा प्रयोजनमस्य-श्राद्धम् // 119 / / रिणो मासिको ब्रह्मचारी, मासं ब्रह्मचर्यमस्येत्यर्थः विशाखा-ऽऽषाहान्मन्थ-दण्डे // 6 / 4 / 120 / / सिांवत्सरिकः) / / 116 / / म० ७०-विशाखा आषाढा इति (एता)भ्यां तद.. अव०–स इत्यत्र पञ्चमीदसि, सूत्रत्वात् स्य प्रयोजनार्थे- ऽण्' स्याद्यथासङ्घय मन्थे दण्डे लोपः / अस्य, सप्तमीटि। मासमित्यत्र 'काला- चाभिधेये। वैशाखा मन्थः, आषाढो दण्डः / 120 / ध्वनोव्याती' (2 / 2 / 42) इति द्वितीया // 116 / / अव०-'मन्थो विलोडनं दण्डो वा / रविशाखा प्रयोजनम् // 6 / 4 / 117 // प्रयोजनमस्य वैशाखः। 'भाषाढा आषाढे आषाढाः ___ म० वृ०-स इति प्रथमान्तादस्येति षष्ठयर्थे / प्रयोजनमस्य // 120 // 'इकण 'स्यान यत्प्रथमान्तं तच्चेत्प्रयोजनं स्यान / उत्थापनादेरीयः / / 6 / 4 / 121 / / जिनमहः प्रयोजनमस्य जैनमहिकम , उऐन्द्रम म. वृ०-उत्थापनादिभ्यस्तदस्य प्रयोजने हिकम् , दैपोत्सविकम् // 117|| .'ईयः स्यात् / 'उत्थापनीयः, उपस्थापनीयः / 121 // ____ प्रव-प्रयुङ्क्त प्रयोजयति इति वा, -- प्रव०-'उत्थाप्यते (इत्युत्थापनम ), उत्थापनं 'नन्द्यादिभ्योऽनः' / 5 / 152) प्रयोजनम . प्रयो प्रयोजनमस्य / उपस्थापनं प्रयोजनमस्य। उत्थापन, ज कम , प्रवर्तकम् ,जनकम् ,उत्पादकम् इति पर्यायाः उपस्थापन,अनुप्रवचन, अनुवाचन, अनुवादन, अनुप्रयोजनशब्दस्य / जैनमहिकं देवागमनम् / ऐन्द्रमहिक जनमेलनम् / दीपप्रधान उत्सवो= पान, अनुवासन, आरम्भण, समारम्भण इत्युत्थादीपोत्सवः, स प्रयोजनमस्य दैपोत्सविकं गृहमण्ड पनादिगणः // 121 // नादिकम् // 11 // विशि-रुहि-पदि-पूरि-समापेरनात् सपूर्वपदात् ___ एकागाराचौरे / / 6 / 4 / 118 // // 6 / 4 / 122 / / म. वृ०-एकागारशब्दात्तदस्य प्रयोजनार्थ ___ म० वृ०-विश्यादिभ्योऽनप्रत्ययान्तेभ्यः सपूर्व'इकण' स्यात् , चौरे यत्तदस्येति निर्दिष्टं स पदेभ्यस्तदस्य प्रयोजनार्थे 'ईयः' स्यात् / विशि,चेच्चौरः / 'एकागारिकश्चौरः // 118 // 'गृहप्रवेशनीयं दानम संवेशनीयं रतिः। रुहि. उप्रासादारोहणीयम, प्ररोहणीयम् / पदि,- गोप्रपदअव०-एकमसहायमगारं प्रयोजनमस्य= नीयम् / पूरि,- प्रपापूरणीयम् / समापि,- भऐकागारिकः, ऐकागारिकी। चौरे नियमार्थ वचनम्, ङ्गसमापनीयम , "श्रुतस्कन्धसमापनीयम् , व्यातेनान्यत्र न भवति,- एकागारं प्रयोजनमस्य भिक्षो करणसमापनीयम् // 122 // रिति वाक्यमेव // 118|| चूडादिभ्योऽण् / / 6 / 4 / 119 // प्रव०-गृहप्रवेशनं प्रयोजनमस्य / संवेशनं सम्भोगः प्रयोजनमस्य / प्रासादस्य भारोहणं प्रयोम० वृ०-चूडादिभ्यस्तदस्य प्रयोजनार्थे-'ऽण्' / | जनमस्य / प्रपदनं प्रकृष्टगतिः,(गोः प्रपदनीयंगोप्र. स्यात् / चूडा प्रयोजनमस्य='चौडम् , चौलम् , | पदनीयम) तत्प्रयोजनमस्य। एवम अश्वप्रपदनीयम् / औपनयनम् , श्राद्धम्। चूडादयः प्रयोगगम्याः 119 (एवं) महश्च तत्पूरणं च महापूरणम् , (महापूरणं प्रव०-'मुण्डनम् / वेदपाठाचारार्थ माणव- / प्रयोजनमस्य=) महापूरणीयम् / अङ्गस्य समापन Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [म० 6 पा० 4 सू० 132-128 परिपूर्णीकरणम् ,तत्प्रयोजनमस्य / एवं श्रुतस्कन्ध- / प्रत्ययः' स्यात् / कालः प्राप्तोऽस्य काल्यस्तापसः, स्य समापनं व्याकरणस्य समापनं-परिपूर्णीकरणं / कालः प्राप्त एषाम् =] काल्याः मेघाः // 126 / / प्रयोजनमस्य // 122 // दीर्घः // 6 / 4 / 127 // स्वर्ग-स्वस्तिवाचनादिभ्यो' य-लुपो म० व-कालात्सोऽस्य प्राप्ते 'इकण ' स्यात् // 6 / 4 / 123 // योऽसौ प्रथमान्तः स चेही? भवति / दीर्घः कालोम० वृ०-स्वर्गादिभ्यः स्वस्तिवाचनादिभ्यश्च / ऽस्य-कालिकमृणम् , कालिकं वैरम् / / 127 / / यथासङ्घयं तदस्य प्रयोजनार्थे 'यः प्रत्ययो लुप् च' प्रव०-१(एवम्)कालिकी सम्पत् / दीर्घः इति पृथग् भवतः / स्वर्गादिभ्यो यः- स्वर्ग्यम् , आयुष्यम् , योगविभागात् इकण विधीयते, अधिकाराग....... काम्यम् ,धन्यम / स्वस्तिवाचनादिभ्य इकणो लप- ... (तत्वात्तस्य, अन्यथा) यविधाने हि 'कालाद्यो स्वस्तिवाचन प्रयोजनमस्य-स्वस्तिवाचनम् , पुण्या दीर्घश्च' इत्यकेमेव सूत्रं क्रियेत // 127 // .. हवाचनम् // 123 // आकालिकमिकश्चाद्यन्ते // 6 / 4 / 128 // प्रव०-स्वर्गादयः शब्दाः स्वस्तिवाचनादयश्च __म० वृ-आकालिकमिति इकान्तमिकणन्तंशब्दा वृद्धप्रयोगगम्याः / 'स्वर्गश्च स्वस्तिवाचनं च, च निपात्यते, आद्यन्ते आदिरेव यद्यन्तो ते आदी यस्य गणस्य, तेभ्यः / स्वर्गेति सूत्रे गम्यते / आकालिकोऽनध्यायः, [ अस्यार्थोऽयम्-] वचनभेदेऽपि यथासंख्यं ज्ञातव्यम् , गणद्वयो पूर्वेधुर्यस्मिन् काले तृतीये चतुर्थे वा. [यामे] प्रवृत्तः पादानात् / 3................. (यशस्यमित्यपि) / पुनरपरेधुरपि आ तस्मात् कालाद् भवन आकालिकोऽ शांतिवाचनम् , शुभवाचनमित्यपि // 123 / / नध्याय उच्यते / [स्त्रियामिकेकणोविशेषः-] आका लिका आकालिकी वा वृष्टिः, तथा आकालिका समयात्प्राप्तः // 6 / 4 / 124 // आकालिकी वा विद्युत् / उएवं द्वेधाप्यादिरेवान्तो म० वृ०-समयात्प्रथमान्तादस्येत्यर्थे 'इकण्' / भवति / आद्यन्ते इति किम् ? सर्वकालभाविनि स्यात् , प्रथमान्तः स चेत्प्राप्तो भवति / समयः मा भूत् // 128 / / प्राप्तोऽस्य-सामयिक कार्यम् // 124|| अव०-आकालशब्दात् इकप्रत्ययः इकण च प्रव०-'उपनतकालं प्राप्तकालमित्यर्थः / 124 / भवतीत्यर्थः / विद्युत्पातरक्तश्रावादिकं (?) / आदि 'ऋत्वादिभ्योऽण् / / 6 / 4 / 125 / / श्वासावन्तश्च आद्यन्तः, तस्मिन / आदिश्वासावन्तश्च म०वृ०-ऋतु इत्यादिभ्यः सोऽस्य प्राप्तेऽर्थे आद्यन्त इति कर्मधारय एव कर्त्तव्यः, न तु आदि'ऽण' स्यात् / आर्तवं पुष्पफलम् , 2 उपवस्ता प्राप्तो | शान्तश्च इति द्वन्द्वः / द्वन्द्वनिवृत्त्यर्थमेव निपातनं ऽस्य औपवस्त्रम्, प्राशित्रम् // 125 / / विहितमस्ति इत्यर्थः / 'आकालिकमिक०' (6 / 4 / 128) इति सूत्रे विशेषोऽयं लिख्यते,-निपातनअव०-ऋत्वादयः प्रयोगगम्याः / २उपवस्ता स्येष्ठविषयत्वात् समानकाल इति शब्दस्य आकाल उपोषित उच्यते / उउपोषितपारणके यद् भक्ष्यं इति आदेशो विधीयते, आद्यन्त इत्यत्र आदिश्चाद्रव्यं तद् भौपवनम् // 125 // न्तश्च इति द्वन्द्वसमासः कर्त्तव्यः, स च द्वन्द्वप्रकृति विशेषणं भवति,तथाहि-आद्यन्तयोर्वर्त्तमानात समा. कालाद् यः // 6 / 4 / 126 / / नकालशब्दात् प्रथमान्तात् अस्येति षष्टयर्थे इकेकणी म० वृ०-कालात् सोऽस्य प्राप्तेऽर्थे 'यः / निपात्येते,समानकालशब्दस्य चाकालदेशः / समानः / Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आईदर्थे प्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [383 कालो ययोराद्यन्तयोस्तौ ( समानकालावाद्यन्तौ), | कम् , बहुकम् , 'गणकम् , यावत्कम , [तावत्कम्] समानकालावाद्यन्तावस्य इति वाक्ये आकालिकोऽन- अध्यर्द्धकम् / डति,- कतिभिः क्रीतं कतिकम, ध्यायः / समानकालता च आद्यन्तयोः पूर्ववत् ज्ञात- [त्रिंशता क्रीतं] त्रिंशत्कम, विंशतिकम् / अशव्या / एवमाकालिका आकालिकी वा विद्युत् / / त्तिष्ठेरिति किम् ? चात्वारिंशत्कम , पाश्चाशत्कम् , कालाद् आ-आकालम् , 'पर्यपाङ' (3 / 132) इति | साप्ततिकम् , षाष्टिकम् , [ नावतिकम् , आशीतिसमासः, ततः प्रथमा, अथवा क्रियाविशेषणमिदम् / कम् ] // 130 / / आकालं भवति इति वाक्यम् , आकालिकोऽनध्याय इत्युदाहरणम् / कथमादिरेवान्तो भवति ? उच्यते, प्रव०-१'बहुगणं भेदे' (1 / 1 / 40) इति सूत्रे यस्मिन् काले यत् प्रवृत्तमनाभ्यायादि तस्मिन्नेव बहुगणशब्दो सङ्ख्यासंज्ञौ, बहुभिः गणैः क्रीतम् / काले प्रत्यावृत्ते यदि तत् उपरमेत / यदि वा यस्मि-२ यावत्कम्', 'यत्तदेतदो डावादिः' (7 / 1 / 149) नेव काले क्षणादौ विद्यदादेर्जन्म यदि तस्मिन्नेव इति अतुः, स च डावादिः / यावत्कम्' काले विनश्येत, आत्मलाभकालादूर्ध्व न तिष्ठेदि इत्यत्र 'डत्यतु सङ्ख्यावत्' (1 / 1139 ) इत्यनेन त्यर्थः / आजन्मकालमेव भवन्ती जन्मान्तरविना- | संख्या संज्ञा / 'अध्यर्द्धकम्', अत्र 'कसमासेशिनी-अव्यवधाने विनश्वरा ऊर्ध्वमननुवर्तमाना ऽध्यर्द्धः' (11141) इति सङ्ख्या संज्ञा, अध्यर्द्धन आकालिका आकालिकी वा विदियमुच्यते इत्य- क्रीतम् / त्रिंशन्मानमस्य त्रिंशत्कम् , विंशतिर्मानम- . क्षराने एवं द्वधाप्यादिरेवान्त इति सम्बन्धनीयम् स्य विंशतिकम् , 'सङ्ख्याडते.' इति कप्रत्ययः, वैद्य।। 128 / / शास्त्रयोः कयोश्चित् त्रिंशत्कं विंशतिकं नाम विद्यते / त्रिंशद्विशतेर्डकोऽसंज्ञायामाहदर्थे' // 6 / 4 / 129 // अशत्तिष्टेरिति प्रतिषेधे प्राप्त सूत्रमध्ये डतित्रिंशम. वृ०-त्रिंशविंशतिभ्यामा अईदर्थात् योऽर्थो द्विशतीनां ग्रहणं कृतम् / / 130 / / वक्ष्यते तस्मिन् 'डकः' स्यादसंज्ञाविषये चेत् प्रत्य- शतात्केवलादतस्मिन्येकौ // 6 / 4 / 131 // यान्तं कस्यचित् संज्ञा न भवति / त्रिंशता क्रीतं= ___म० वृ०-आईदर्थे केवलाच्छतशब्दाद् 'यत्रिंशकम् , [विंशत्या क्रीतं=] विंशकम् ,2 त्रिंशतम- इको' [कप्रत्ययापवादौ] भवतः, अतस्मिन्स ईति-त्रिंशकः, [विंशतिमर्हति=] विंशकः / असंज्ञा- चेदर्थः प्रकृत्यर्थाद्वस्तुतः [परमार्थवृत्त्या] अभिन्नो न यामिति किम् ? त्रिंशत्कम् / / 129 / / स्यात् / शतेन क्रीतं शत्यम् [य], शतिकम् [इक] / शतमर्हति-शत्यः [य],शतिकः [इकः] / शतं वर्षाणि प्रव०- 'अहंश्चासौ अर्थश्व अर्हदर्थः, अर्हद- मानमस्य पुरुषस्य शत्यः, शतिकः [पुरुष इत्यर्थः] / र्थात् आ आईदर्थम् , तस्मिन् , 'तमर्हति' (6 / 4 / / केवलादिति किम् ? द्विशतकम् / अतस्मिन्निति 177) इति सूत्रं यावत् / वक्ष्यमाण-'सङ्ख्याडते.' किम् ? शतं मानमस्य-शतकं स्तोत्रम् , शतकं इति विहितकप्रत्ययापवादोऽयं डकः / २विंशतेस्ते- निदानम् / / 131 / / डिंति' (74 / 67) इति सूत्रेण तिकारस्य लोपः / 129 / सङ्ख्याडतेश्चाशत्तिष्टेः कः // 6 / 4 / 130 // अव०-'द्विशतकम् ', अत्र द्वाभ्यामुत्तरं धुत्त रम् , द्युत्तरं शतं द्विशतम् , द्विशतेन क्रीतं द्विशतम. वृ०-शदन्त- त्यन्त-ष्टयन्तवर्जितसङ्ख्या- कम, 'सङ्ख्याडते.' (6 / 4 / 80) इत्यस्य प्राप्तिः, परं शब्दात् डतिप्रत्ययान्ताच शब्दात् त्रिंशद्विंशतिभ्यां च परत्वात्कप्रत्यय एव / शतकं निदानं वैद्यकशास्त्रविआईदर्थे 'कः' स्यात् / इकणोऽपवादः / सङ्ख्या,- शेषः / शतमध्याया मानमस्य निदानस्य वैद्यशास्त्रद्वाभ्यां क्रीतं-द्विकम् ,[त्रिभिः क्रीतं=] त्रिकम् ,पञ्च- / विशेषस्य-'सङ्ख्याडते.'(६।४।१३०) इति कः / अत्रो Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 6 पा० 4 सू० 132-139 दाहरणे प्रकृत्यर्थ एव श्लोकाध्यायशतं प्रत्ययान्तेन | कंसा-र्धात् / / 6 / 4 / 135 // उच्यते / अन्यस्मिंस्तु शते भवत्येव,- शतेन क्रीतं म० वृ०-कंस-अर्द्धाभ्यामाईद; 'इकट्' शाकटशत-शत्यम् , शतिकम् / / 131 // स्यात् / कंसिकम , आर्टिकम् | कंसिकी, आर्द्विकी बातोरिकः // 6 / 4 / 132 // // 135 / / म० वृ०-अत्वन्तसङ्खयाया आईदर्थे 'इक- सहस्र-शतमानादण् / / 6 / 4 / 136 / / प्रत्ययो वा स्यात् / 'यावतिकम् , यावत्कम् / 132 // - म० वृ०-सहस्र-शतमानाभ्यामाईदर्थे-'ऽण्' प्रव०-'यावद्भिः क्रीतं-यावतिकम् , अत्र | स्यात् / 'केकणोरपवादः / सहस्रण क्रीतं-साहस्रः, इकः, 'ऋवर्णोवर्ण' ((74/71) इति इक इकार शतमानेन क्रीतं शातमानः // 136 / / लोपः प्राप्नोति, परमिकविधानसामर्थ्यात् न अव०-१'सङ्ख्याडते.' (6 / 4 / 130) इति कस्य, ' लोपः / यावत्कम् ', अत्र तु 'सङ्ख्याडते.' (6 / 4 / 'मूल्यैः क्रीते' (6 / 4 / 150) इतीकणः / वक्ष्यमाण१३०) इति कः // 132|| 'वसनात्' (6 / 4 / 138) इति सूत्रे सहस्रशतमानग्रकार्षापणादिकट प्रतिश्चास्य वा // 6 / 4 / 133 // हणे कृतेऽविधाने साहस्र शातमानमिति सिद्ध___ म० वृ०-कार्षापणादाईदर्थे 'इकट्' स्यात् , चंति, (तथापि) यद् 'वसनात्' (6 / 4 / 138) इत्यत्र अस्य च कार्षापणस्य 'प्रति' इत्यादेशो वा स्यात् / सहस्रशतमानग्रहणं न कृतं (किन्तु) 'सहस्रशतमा. कार्षापणिकम् , कार्षापणिकी ; प्रतिकम् , प्रतिकी / नादण' (6 / 4 / 136) इति सूत्रे अग्विधानं कृतम् चकार आदेशस्य प्रत्ययसंनियोगशिष्त्वार्थः / अत - तत् वक्ष्यमाण-'नवाणः' (6 4 / 142) इति सूत्रे एव द्विगोलपि न प्रत्यादेशः,- 'द्विकार्षापणम् , कार्यार्थम् / 'नवाणः' इति सूत्रेण विकल्पेन अणो अध्यर्द्धकार्षापणम् / / 133 // . लोपः / द्विशातमानं द्विशतमानम् इति प्रयोगो 'नवाण.' (6 / 4 / 142) सूत्रे साधितौ स्तः / अत्रि कृते अव०-कर्षापण एव कार्षापणम् , स्वार्थेऽण् , हि 'अनाम् यद्विः' (क्ष४।१४१) इत्यनेन अञो लोपो द्वाभ्यां कार्षापणाभ्यां क्रीतं- 'कार्षापणादिकट' नित्यं भवति, द्विशातमानमिति न सिद्धयति इति इत्यनेन इकट् , [सुवर्णकार्षापणाद्' (6 / 4 / 143) कारणे 'सहस्रशत०' (6 / 4 / 126) इति पृथग् योगः इत्यनेन इकट् ] लुप्यते / लुपि कृतायां न प्रति कृतः // 136 / / आदेशः // 133 // शूर्पाद्वाऽञ // 6 / 4 / 137 // अर्द्धात्पल-कंस-कर्षात् // 6 / 4 / 134 // म. वृ०-शूर्पादाईदर्थे-'ऽन् वा' स्यात् / शौ म० वृ०-अर्द्धशब्दपूर्वात् पलाद्यन्तादाईदर्थे / पम् , शौपिकम् // 137 // 'इकट्' स्यात् / भर्द्धपलिकम् , भर्द्धकंसिकम् , भर्द्धकर्षिकम् // 134 // प्रव०-इकणोऽपवादः / 'मूल्यैः क्रीते' (6 / 4. 150) इतीकण् // 137 // अव०-'भद्ध पलस्य अलपलम् , अर्द्ध कंस वसनात् // 6 / 4 / 136 / / स्य उअर्द्ध कर्षस्य, ‘समेंऽशेऽर्द्ध नवा' (3 / 1 / 54) म० वृ०-वसनादार्हदर्थे-'ऽन्' स्यात् / वसइत्यनेन अत्र समासोऽयम् , ततोऽर्द्धपलेन क्रीतमई | नेन क्रीतं बासनम् / / 138 // पलिकम् / एवमप्रेऽपि / अर्द्धपलिकी, भड़कंसिकी, अर्द्धकर्षिकी इति सियाम् / / 134 // विंशतिकात् / / 6 / 4 / 139 / / Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विगोराईदथे प्रत्ययलुविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 385 म० वृ०-विंशतिकशब्दादाईदर्थे-'ऽम्' स्यात् / / 'अध्यर्द्धकंसम्', अत्र 'कसमासेऽध्यर्द्धः' (1 / 1 / 41) वैशतिकम् // 139 // इत्यनेन अध्यर्द्धशब्दः सङ्घयावद्भवति, तत: सङ्ख्या बद्भावान ‘सङ्ख्यासमाहारे द्विगुश्चानाम्न्ययम्' (3 / अव०-१विंशतिर्मानमस्य=विंशतिकम् , 'सङ्क 199) इत्यनेन द्विगुसमासो भवति, अध्यकंसेन पाडते.' ( 6 / 4 / 130 ) इति कप्रत्ययः, विंशतिकेन क्रीतं- 'कंसाात्' (6 / 4 / 135) इकट् , 'अनाम्न्यः ' क्री बैंशतिकम् / 'विंशतिकात् ' (6 / 4 / 139) इति इति इकट्लुप / एवमर्द्धपञ्चमकंसम्, अत्र 'अर्द्धयोगविभाग उत्तरार्थः // 139 // पूर्वपदः पूरणः' (1 / 1242) इत्यनेन सङ्ख्यासंझा। द्विगोरीनः / / 6 / 4 / 140 // 4 द्विसूर्पम'. 'सूर्पाद्वान्' ( 6 / 4 / 37 ), 'अनाम्न्य.' म० वृ-विंशतिकाद् द्विगोराईदर्थे 'ईनः' इति लुप् / 'तथा अध्यर्द्धसूर्पम् , अर्द्धपश्चमसूर्पम् ; स्यात् / द्विविंशतिकीनम् // 140|| अत्र अध्यर्द्धसूर्पण क्रीतम पश्चमसूर्पण क्रीतम् , 'सू द्विान्' इत्यनेन विकल्पेन अम् , पक्षे 'मूल्यैः प्रव०-१विंशतिर्मानमस्य- 'सङ्ख्याडते.' (6 / क्रीते' ( 6 / 4 / 150 ) इत्यनेन इकण , अमिकणोः 4 / 130 / इति कः, द्वाभ्यां विंशतिकाभ्यां क्रीतं= 'अनाम्न्यः' इति लुप् कर्त्तव्यः / 'द्वाभ्यां सूर्पाभ्यां द्विविंशतिकीनम् , 'द्विगोरीनः' ( 6 / 4 / 140), अत्र वक्ष्यमाण-'अनास्न्य०' ( 6 / 4 / 141 ) इति ईनस्य क्रीत=द्रिसूर्पम ,'सूर्पाद्वाम् (6 / 4 / 137), 'अनाम्न्य'० लोपः प्राप्नोति, परमीनविधानसामर्थ्यान्न लुप् इति अम् लुप्यते, द्विसूर्पण क्रीतं- 'मूल्यैः क्रीते' (6 // क्रियते / एवं त्रिविंशतिकीनम् , अध्यर्द्धविंशतिकी- 4 / 150) इकण , अस्य इकणो लुप् न भवति, भद्विनम् , अर्द्धपञ्चमविंशतिकीनम् / त्रिभिर्विशतिकैः रिति वचनात् , 'मानसंवत्सर०' ( // 4 / 19 ) इति क्रीतम् , अध्यर्द्धन विंशतिकेन क्रीतम् , अर्द्धपञ्चमै वृद्धिः / "रोहितशब्दः, श्येतैतहरितभरतरोहिणाविंशतिकैः क्रीतमिति वाक्यानि // 140 // द्वात्तो नश्च' (2 / 4 / 36) इत्यनेन सीप्रत्ययः, तकाअनाम्न्यद्विः प्लुप्' / / 6 / 4 / 141 // रस्य नकारः, 'ऋरलुलं कृपो०' (2 / 3 / 99) रकारस्य म० वृ०-द्विगोः समासादाईदर्थे उत्पन्नस्य लः, लोहिनी इति शब्दो निष्पन्नः, ततः पश्चलोहि- . .' प्रत्ययस्य 'पित् लुप् सकृन' [एकवारं] स्यात् , न न्यो मानमस्य इति वाक्ये 'मानम्' (6 / 4 / 169) तु द्विः, अनाम्नि प्रत्ययान्तं चेत् कस्यचिन्नाम न भवति / २द्विकसम , अध्यकंसम् द्विसूर्पम् , इति सूत्रेण इकण , 'जातिश्च णितद्धितयस्वरे' (3 // ५अर्द्धपश्चमसूर्पम / अद्विरिति किम् ? द्विशौर्पिकम् / 2 / 51) इत्यनेन पुवद्भावः, छीनकारी निवृत्ती, लोअनाम्नीति किम् ? पाञ्चलोहितिकम् , "पाञ्चक हित इति शब्दो जातः, ततो वृद्धिः, पाश्चलोहितिलायिकम् / लुपः पित्त्वात् पञ्चगर्गः // 141 // कम इति सिद्धम / कलाया नाम मालवदेशे धान्यप्रव०-'पचासौ लुप् च, प्-पकारानुबन्धो परिमाणभेदः, पञ्चकलायाः परिमाणमस्य- 'मानम्' लुप वा प्लुप् / द्वाभ्यां कंसाभ्यां क्रीतं द्विकंसम् , ( 6 / 4 / 169 ) इकण, पश्चकलायानां यावत्परिअथवा द्वयोः कंसयोः समाहारः द्विकंसी, 'द्विगोः माणं तन्मात्रस्य परिमाणविशेषस्य इदं नाम पाश्चसमाहारात्' (2 / 4 / 22) ङी, द्विकंस्या क्रीतं = द्विकं कलायिकमिति / एवं पाश्चलोहितिकमपि परिमाणसम् , 'कंसार्द्धात्' (6 / 4 / 135) इकट् , 'ख्यादेहूंणस्य०' ( 2 / 4 / 95 ) इत्यनेन डीनिवृत्तिः, 'अना विशेषो मालवे। अत एव संज्ञात्वादेव 'मानसंवम्न्यः' इति इकट् लुप्यते / एवं त्रिकंसम् / तथा / त्सर०' इत्यनेन लोहितकलाययोर्न वृद्धिर्जाता / Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 6 पा० 4 सू० 142-145 'पञ्चभिगार्गीभिः ॐ क्रीतः- 'मूल्यैः क्रीते' इकण , | सुवर्ण-कार्षापणात् // 6 / 4 / 143 // 'अनाम्न्यः' इति लुप् , गर्गस्यापत्यं वृद्धं स्त्री-'गर्गा म० वृ०-सुवर्णान्तात् कार्षापणान्ताञ्च द्विगोः देर्यम्' (631142), 'ययो डायन्' (2 / 4 / 67) इति परस्य प्रत्ययस्य 'लुप्' स्यान्नवाईदर्थे, न तु द्विः / डी, 'व्यञ्जनात्तद्धित०' (24 / 88 ) यम लुप्यते, [द्वाभ्यां सुवर्णाभ्यां क्रीतम्=] द्विसुवर्णम् , द्विसौगार्गी, ततो की, गार्या अपत्यानि 'यबिमः' (6 / 1 / वर्णिकम् ; द्विकार्षापणम् , द्विकार्षापणिकम् , द्वि५४) गाायणी / ततः पञ्चभिः गार्गीभिः पञ्च प्रतिकम् // 143 // भिर्गार्गायणीभिः क्रीतः 'मूल्यैः०'इकण , 'अनाम्न्य०' इति इकण लुप्यते, लुप् पित् भवति, लुपः पित्त्वात् अव०-द्वाभ्यां सुवर्णाभ्यां क्रीतम् , 'मूल्यैः क्रीते' 'क्यङ्मानिपित्तद्धिते' (32 / 50) इति सूत्रेण पुंव- (6 / 4 / 150) इकण् / कर्षापण एव कार्षापणम ,स्वार्थेद्भावः, डी निवृत्तः यः ततो 'यबमोऽश्यापर्ण०'(६। ऽण् , द्वाभ्यां कार्षापणाभ्यां क्रीतम् , 'कार्षापणादिकट 1126) इत्यनेन यम् लुप्यते, यमि निवृत्ते आयन प्रति०' (6 / 4 / 133) इति इकट् प्रत्यादेशश्च // 143||. णपि निवृत्तम् पश्चगर्ग इति सिद्धम् / 'अनाम्न्य०' इति सूत्रेऽयं विशेषः-सङ्घयान्तद्विगोलुपं नेच्छन्त्ये द्वि-त्रि-बहोर्निष्क-विस्तात् // 6 / 4 / 144 // के। द्वाभ्यां षष्टिभ्यां क्रीतं =द्विषाष्टिकम ,त्रिभिस्ति- ___- म० वृ०-द्वित्रिबहुभ्यः परौ यौ निष्कविस्तसृभिर्वा षष्टिभिः क्रीतं त्रिषाष्टिकम , इकण् / 141 // शब्दौ तदन्ताद् द्विगोर्विहितस्य प्रत्ययस्य नवा लुप्', ' नवाऽणः // 6 / 4 / 142 / / न तु द्विः / द्विनिष्कम ,द्विनैष्किकम् ; त्रिनिष्कम् , त्रिनैष्किकम् ; बहुनिष्कम् , बहुनैष्किकम् ; एवं द्विम. वृ०-द्विगोविहितस्याणः ‘पिल्लुप् वा' विस्तम् , द्विवैस्तिकम् इत्यादि त्रिधिम्तम , त्रिवैस्यादाईदर्थे, न तु द्विः / द्विसहस्रम ,' द्विसाहस्रम् : स्तिकम् ; बहुविस्तम , बहुवैस्तिकम ] // 144 / / [अध्यद्धेण सहस्रण क्रीतम् ] अध्यर्द्धसहस्रम् अध्यर्द्धसाहस्रम् 2; द्विशतमानम् , 3 द्विशातमानम / अण शताद् यः / / 6 / 4 / 145 / / इति किम् ? 'द्विद्रोणः / / 142 / / म० वृ०-शतान्ताद् द्विगोराई दर्थे 'यः' स्या त्पक्षे सङ्खयालक्षणः कः ['सङ्ख्याडते.' (6 / 4 / 130) प्रव०-द्वाभ्यां सहस्राभ्यां क्रीतम् , 'सहस्र इत्यनेन कप्रत्ययः ], तस्य लुप, यप्रत्ययस्य तु शतमानादण' (6 / 4 / 136) / एवमर्द्धषष्ठसाहस्रम् / विधानसामर्थ्यान्न लुप | यप्रत्ययकरणबलान्न लुप्]। उद्वाभ्यां शतमानाभ्यां क्रीतम , 'सहस्रशतमानादण् 'द्विशत्यम् , द्विशतम् / / 145 / / (6 / 4 / 136) / सर्वोदाहरणेषु 'मानसंवत्सर०' (7 / 4 / अव०-द्वाभ्यां शताभ्यां प्रीतम , यः / अ१९) इत्युत्तरपदवृद्धिः / ही द्रोणौ पचति चैत्रः, न्यत्र 'सङ्ख्याड०' (6 / 4 / 130) कः, 'अनाम्न्यः ' 'तं पचति द्रोणाद्वाम्' ( 6 / 4 / 161) इति अम्, (6 / 4 / 141) इति को लुप्यते / ‘शताद्यः' इति सूत्रे 'अनाम्न्यः ' (6 / 4 / 141) इति अलुप्यते // 142 // / (एवम् ) अध्यर्द्धशत्यम् , अध्यर्द्धशतम् // 145 / / * अत्र 'पञ्चभिर्गार्गीभिः क्रीतः' इत्यतः प्रारभ्य “पञ्चगर्ग इति सिद्धम्" इति यावत् वृत्तिस्थस्य 'पञ्चगर्ग' इत्यस्य सिद्धिः प्रदर्शिता, परमत्र. पाठाशुद्धिः विद्यते / 'पञ्चगर्ग' इत्यस्य सिद्धिरेवम् - 'गर्गस्यापत्यं वृद्धं स्त्री' इति वाक्ये ‘गर्गादेर्य' (6 / 1142) इति यत्र , 'यत्रो डायन्' (2 / 4 / 67) इति डी, व्यञ्जनात्तद्धितस्य' (2 / 4 / 88) इत्यनेन यत्रो लुषि- गार्गी, डायन्पक्षे- गाायणी, ततः 'पञ्चभिर्गार्गीभिर्याणीभिर्वा क्रीतः' इति वाक्ये 'मूल्यः क्रीते' (6 / 4 / 150) इत्यनेन इकण, 'अनाम्न्यः ' इति प्रकृतसूत्रण इकरण लुप्यते, लुपः पित्त्वात् 'क्यङ्मानि०' (3 / 2 / 50) इति पुवद्भावः, डीनिवृत्तिः, डीनिवृत्तौ 'डायन्' इत्यस्यापि निवृत्तिः, एवं 'यनमो०' (6 / 1 / 126) इत्यनेन यमो लूपि पञ्चगर्ग इति / / Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रीतार्थाधिकारः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम / [3] 'शाणात् / / 6 / 4 / 146 // क्रीतं द्विपाद्यम् , त्रिपाद्यम् / माषपणसाहचर्यात् म० वृ०-शाणान्ताद् द्विगोराहदर्थे 'यः' स्या ! पादशब्दोऽत्र परिमाणार्थः, न प्राण्यङ्गवाची। तेन | हिमहतिकाषिये पद्' (३।२।९६)इत्यनेन पद् इत्यानवा, पक्षे इकण , तस्य [ इकणः] लुप्, यस्य न / देशो न भवति / 'हिमहति०' (3 / 2 / 96) इति सूत्रे लुप् / पञ्चशाण्यम्', पञ्चशाणम् // 146 // प्राण्यङ्गस्यैव पादशब्दस्य पद्भाव उक्तोऽस्ति / . अव०-शाणः कषे * मानभेदे (च) / श्यप्र- अथवा 'हिमहति०' (3 / 2 / 96) इति सूत्रे केवलपादत्ययस्य न लुप् , विधानसामर्थ्यात्। उयः / मूल्यैः सम्बन्धिन्येव यप्रत्यये परे पद्भावोऽस्ति, अत्र तु क्रीते' (6 / 4 / 150 इकण , 'अनाम्न्यः ' (6 / 4 / 141) द्विगुसमाससम्बन्धी यप्रत्ययः (इति) न पद्भावः / लुप् / पञ्चशाणम् इत्यस्याग्रे अध्यर्द्धशाण्यम् , एतत्सर्व हिमहति०'इति सूत्रे प्रागुक्तम् / पणः कार्षाअध्यर्द्धशाणम , अर्द्धपञ्चमशाण्यम , अर्धपश्चम- पणे लोहे, पादो मूलोऽश्वतुर्याशाद्रिषुप्रत्यन्तपर्वते शाणम् ; सर्वत्र 'मूल्यैः' ( 6 / 4 / 150 ) इकण , माषो माने धान्यभेदे मूर्षे (?) // 148 / / लोपश्च / योगविभाग उत्तरार्थः / / 146 // 'खारी-काकणीभ्यः कच् // 6 / 4 / 149 // पवित्र्यादेर्या-ऽण् वा // 6 / 4 / 147 // म० वृ०-खारी काकणी इत्यन्ताद् द्विगोर्बहुम० वृ०-द्वि त्रि इत्येतत्पूर्वो यः शाणशब्दस्त वचनात् केवलाभ्यां च खारीकाकणीभ्यामाईदर्थे दन्तात् द्विगोराहदर्थे 'य-अणौ' भवतः वा, पक्षे / 'कच् स्याद् / विधानबलान्न लुप् / द्विखारीकम् ,2 इकण , तस्य लुप् , याणोर्न लुप् | विधानबलात् / / | द्विकाकणीकम् / केवलाभ्यां- खारीकम् , काकणी२द्विशाण्यम् ,वैशाणम [अण् ], द्विशाणम् [इकण्]|| कम् / चकारो 'न कचि' (2 / 4 / 105) इति वाग्रहणमुत्तरत्र नवानिवृत्त्यर्थम् / / 147 // . [ह्रस्वस्य] निषेधार्थः / / 149 / / प्रव०-द्विश्च त्रिश्च द्वित्री, द्वित्री आदी यस्य अव०-१खार्यश्च काकण्यश्च, ताभ्यः / काकणी* शब्दस्य स द्विव्यादिः, तस्मात् / द्वाभ्यां शाणाभ्यां मानदण्डस्य पणस्य च तुरीयांशे / 2 द्वाभ्यां खारीक्रीतं द्विशाण्यम , देशाणम् ; यः, अण्। द्विशाण- भ्यां क्रीतं द्विखारीकम् , एवं) त्रिखारीकम् , अध्यमित्यत्र 'मूल्यैः०' (6 / 4 / 150) इकण् , 'अनाम्न्य०' र्धखारीकम् , अध्यर्धया खार्या क्रीतम् / (एवम्) ( 6 / 4 / 141 ) इति इकण्लोपः। सर्वत्र सङ्ख्यान्त अधिकमधैं यस्यां साऽध्यर्धा, अध्यर्धया काकण्या द्विगोः परतः प्रत्ययस्य 'अनाम्न्यः' (6 / 4 / 141 ) क्रीतम्- के अध्यधंकाकणीकम् // 149 / / इत्यनेनैव लुप कर्त्तव्यः / एवं त्रिशाण्यम् , त्रैशाणम् , मूल्यैः क्रीते / / 6 / 4 / 150 // त्रिशामिति रूपत्रयं भवति // 147 // ___म० वृ०-मूल्यवाचिनो निर्देशादेव तृतीयान्तापण-पाद-माषाद् यः / / 6 / 4 / 148 // क्रीतेऽर्थे 'यथाविहितमिकणादयः' स्युः / प्रस्थेन म० वृ०-पणान्तपादान्तमाषान्ताद् द्विगोराह- | क्रीतं प्रास्थिकम , 'साप्ततिकम् इत्यादि / मूल्यैदर्थे 'यः' स्याद् / विधानसामर्थ्यान्न लुप्। 'द्विप- रिति किम् ? मैत्रेण क्रीतम् / वृत्तौ सङ्घयाविशेषाण्यम् , २द्विपाद्यम, द्विमाष्यम // 148 // नवगमाद् द्विवचनबहुवचनान्तान्न भवति,- प्रस्थाअव०-द्वाभ्यां पणाभ्यां क्रीतं-द्विपण्यम् , भ्यां प्रस्थैर्वा क्रीतम् / यत्र तु सङ्ख्याविशेषावगमे प्रमाएवं त्रिपण्यम् , अध्यर्धपण्यम् / द्वाभ्यां पादाभ्यां | णमस्ति तत्र भवत्येव,- द्वाभ्यां क्रीतं द्विकम् ['सङ्ख * तदुक्त श्रीहैमलिङ्गानुशासनविवरणे- "शाणः कर्षचतुर्भागः, निकषे तु स्त्रीपुसलिङ्गो वक्ष्यते"। * तदुक्त श्रीहैमलिङ्गानुशासनविवरणे- “काकणि: मानदण्डपणयोस्तुर्यांशः" / Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 6 पा० 4 सू० 151-155 - पाडते'० (6 / 4 / 130) कः] द्वाभ्यां प्रस्थाभ्यां क्रीतं= | म० वृ०-षष्ठचन्तानाम्नो हेतापर्थे यथाविहितं द्विप्रस्थम् / तथा मुद्गैः क्रीतं मौगिकम् // 150 // प्रत्ययः स्यात् , योऽसौ 'हेतुः स संयोग उउत्पातो या भवति / 'शत्यः, शतिकः, साहस्रः / उत्पातः,प्रव०-'सप्तत्या क्रीतम् / अशीत्या क्रीतमाशी "सोमग्रहणिको भूकम्पः, सौभिक्षिकः परिवेषः / तिकम् , एवं नैष्किकम् , पाणिकम् / तथा त्रिंशता 'शत्यम् , शतिकम्। संयोगोत्पात इति किम् ? शतस्य क्रीतं त्रिंशकम् ,विंशत्या क्रीतम् (विंशतिकम् ), 'त्रिंश हेतुश्चैत्रः // 153 / / द-विंशतेर्डकोऽसंज्ञा०'(६।४।१२९) इति डकः / द्विकं त्रिकमित्यत्र 'सङ्ख्याडते.' (6 / 4 / 130) इति कः / प्रव०-हेतुर्निमित्तम् / संयोगः सम्बन्धः / शत्यम्., शतिकम् ; अत्र 'शतात्केवलात्'(६।४।१३१) उ उत्पातः प्राणिनां शुभाशुभसूचकः पृथिव्यप्ते. इत्यनेन येकौ / भादिशब्दस्येमे प्रयोगाः / 'मूल्यः०' जोवाय्वाकाशरूपपञ्चमहाभूतपरिणाम उच्यते / इकण , 'अनाम्न्यः ' (6 / 4 / 141) इति लोपः / एवं *शतस्य हेतुरीश्वरसंयोगः शत्यः, शतिकः, ( एवम् ) माषैः क्रीतं-माषिकम् / नोकेन मुद्गेन माषेण वा साहनः / सोमग्रहणस्य हेतुरुत्पातः सोमग्रहणिकः। क्रयः सम्भवति // 150 // शतस्य हेतुर्दक्षिणाक्षिस्पन्दनमिति वाक्ये शत्यम् , तस्य वापे // 6 / 4 / 151 // शतिकम् , (एवं) साहस्रम् , 'सहस्रशतमानादण' म००-तस्येति षष्ठयन्ताद् यापेऽर्थे 'यथाविधि (6 / 4 / 136) // 153 // इकणादयः' स्युः / प्रस्थस्य वापः प्रास्थिकम् 1151 // पुत्राद् येयौ // 6 / 4 / 154 // प्रव०-'उप्यतेऽस्मिन्निति वापः क्षेत्रमुच्यते / एवं म. वृ०-[षष्ठयन्तान ] पुत्रान्तात हेतौ 'य. द्रौणिकम् मौद्रिकम् ,शतस्य वापः शत्यम् ,शतिकम् , | ईयौ' भवतः / हेतुश्वसंयोग उत्पातो वा भवति / खारीकम , खारीकाकणी०' (6 / 4 / 149) इति / 151 / पुत्र्यः, पुत्रीयः // 154 / / वात-पित्त-श्लेष्म-संनिताच्छमनकोपने / अव०-'पुत्रस्य हेतुः संयोग उत्पातो वा इति // 6 / 4 / 152 // वाक्ये पुत्र्यः, पुत्रीयः // 154 / / म० वृ०-षष्ठयन्तेभ्यः वातादिभ्यः शमने / कोपने चार्थे 'यथाविहितमिकण' स्यात् / बातस्य 'द्विस्वरब्रह्मवर्चसाद् योऽसङ्खयापरिमाणावादेः शमनं कोपनं वा वातिकम् , पैत्तिकम् , श्लैष्मिकम , // 64 / 155|| सान्निपातिकम् // 152 / / म०३०-सङ्ख्यापरिमाणाश्वादिवर्जितात् द्विस्वप्रव०-शाम्यति येन तच्छमनम / कुप्यति रान्नाम्नोब्रह्मवर्चसात् [ब्रह्मवर्चसशब्दाच्च] षष्ठयन्ताद् येन तत् कोपनम् / ततो वातस्य शमनमित्यर्थे हेतावर्थे यः स्यात् / उइकणादीनामपवादः / इकण / पित्तस्य शमनं कोपनं था / एवमन्यत्रापि / धन्यः, “आयुष्यः, वाल्या विद्युत् , ब्रह्मवर्चस्य. / कथं गोर्हेतुः संयोग उत्पातो वा गव्यः ? गोः स्वरे पथ्यमपध्यं च द्रव्यादि बातिकपैत्तिकाद्यमिधेयमुच्यते वैद्यकशास्त्र। प्रकरणात प्रस्तावात् शमने यः' (6 / 1 / 27) इति भविष्यति / द्विस्वरेति किम् ? वैजयिकः, आभ्युदयिकः / अमंख्यापरिमाणाश्वादेकोपने औषधादिविशेषप्रत्ययो मन्तव्यः // 152 / / रिति किम् ? सङ्ख्या, पञ्चकः, 'परिमाण,-प्रस्थिकः, . हेतौ संयोगोत्पाते // 6 / 4 / 153 / / खारीकः // 155 / / गोशब्दस्य द्विस्वरत्वाभावादाह-'कथ'-मित्यादि। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्धपाय-लाभोपदा शुल्कार्थाधिकारः] मण्यमवृत्यवचूरिसंवलितम् / - "ऊर्ध्व मानं किलोमानं परिमाणं तु सर्वसः। / म. वृ०-लोकसर्वलोकाभ्यां षष्ठयन्ताभ्यां आयामस्तु प्रमाणं स्यात् संख्या बाह्या तु सर्वतः // 1 // ज्ञातेऽर्थे 'इकण' [ यथाविहितं] स्यात् / लोकस्य ____ इति संख्यापरिमाणयोर्विशेषः / 5 अश्वादि, [कर्तरि षष्ठीयं सम्बन्धे वा] ज्ञातो लौकिकः, आश्विकः // 155 // सार्वलौकिकः // 157 // तदत्रास्मै वा वृद्धयाय-लाभोपदा-शल्कं देयम् अव-द्वौ स्वरौ यत्र स द्विस्वरः, ब्रह्मणो व! ब्रह्मवर्चः, 'ब्रह्महस्तिराजपल्याद् वर्चसः' (72 / // 6 / 4 / 158 // 83) इत्यत्, बह्मवर्चसः, द्विस्वरश्च ब्रह्मवर्चसश्च / ___ म. वृ०-तदिति प्रथमान्तादत्रेति सप्तम्यर्थे इस चेद् हेतुः संयोग उत्पातो वा भवति / आदि- | अस्मै इति चतुर्थ्यर्थे वा 'यथोक्तः [ यथाविहितं ] शब्दात् 'कंसाात् ' (6 / 4 / 135) / धनस्य हेतुः प्रत्ययः' स्यात् , यत्प्रथमान्तं तच्चेत् 'वृद्धिरायो' संयोग उत्पातो वा धन्यः / एवं यशसो हेतुः संयोग उलाभ उपदा शुल्कं वा देयं स्यात् / पञ्चकं शतं उत्पातो वा यशस्यः / 'आयुषो. हेतुः संयोग उत्पातो ( पञ्चको ) ग्रामो वेत्यादि / / एवं शत्यमित्याद्यपि वा आयुष्यः / वातस्य हेतुः संयोग उत्पातो वा // 158 // वात्या। "ब्रह्मवर्चसस्य हेतुः संयोग उत्पातो वा / विजयस्य हेतुः संयोग उत्पातो वा, 'हेतौ संयोगो. अव०-'अधमर्णेन ऋणदात्रा उत्तमर्णाय त्पाते' (6 / 4 / 153) इतीकण् / एवमाभ्युदयिकः / द्रव्यपतये गृहीतधनातिरिक्त देयं वृद्धिः, व्याजः 'पञ्चानां हेतुः संयोग उत्पातो वा पञ्चकः, एवं कलान्तरमिति लोकरूढिः। ग्रामादिषु स्वामिग्रारो सप्तकः, 'संख्याडते. (6 / 4 / 130) इंति कप्रत्ययः / भाग आय उच्यते / एति स्वामिगृहमित्यायः, 'अश्व, गण, वसु, वस्त्र, ऊर्णा, उमा, भङ्गा, वर्षा, 'तन्व्यघीण' (5 / 1164) / पटादिवस्तूनां गृहीतअश्मन इत्यश्वादिगणः // 155 / / मूल्यातिरिक्त प्राप्तं द्रव्यं लाभः / 'उपदालश्वः। श्वणिजां रक्षानिर्वेशः (राजभागः शुल्कम् ) / पृथिवी-सर्वभूमेरीशज्ञातयोश्वान // 6 / 6 / 156 / / ( निर्विश्यते) उपभुज्यतेऽनेन वणिग्भिम० वृ०-पृथिवीसर्पभूमिभ्यामीशज्ञातार्थयोः रिति निर्वेशो भाटकम् / भूम्यादीनां व्यवहारिभिपृथिवीसर्वभूमिविषयहेतौ संयोगोत्पाते चार्थे- 'ऽम्' मण्डपिकायां वस्तुदाणं नृपाय यहीयते तत् शुल्कस्यात् / पृथिव्या ईश-पार्थिवः, सर्वभूमेरीशः= मुच्यते / पञ्चास्मिन शते वृद्धिाजः पञ्चकं शतम् / सार्वभौमः; पृथिव्या ज्ञातः पार्थिवः, एवं सा- पश्चास्मिन् प्रामे आयः पञ्चको ग्रामः / पञ्चास्मिन् र्वभौमः / तथा पृथिव्या हेतुः संयोग उत्पातो वा पटे लाभः पञ्चकः पटः / पञ्चास्मिन् व्यहारे ऊवापार्थिवः, एवं सार्वभौमः / / 156 / / / टकरूपे उपदा लञ्चः पञ्चको व्यवहारः / पञ्चाप्रव०-'सर्वा चासो भूमिश्च सर्वभूमिः, 'अनु स्मिन् शते शुल्कं दाणद्रव्यं पञ्चकं शतम् / एवं शतिकादीनाम्' (74:27) इति उभयपदवृद्धिः / शतमस्मिन् वृद्धिरायो लाभ उपदा शुल्कं वा देयपृथिव्या इत्यत्र कतरि षष्ठी, सम्बन्धविषक्षायां वा। मिति वाक्ये शत्यम् , शतिकम् / एवं साहस्रम् , प्रा. ज्ञायते इति ज्ञातः, 'ज्ञानेच्छार्चा०' ( 5 / 2 / 92) स्थिकम् / त्यात्र आचि..."त्रयोपि..."शतात् इति क्तः // 156 / / केवल०' (6 / 4 / 131) इति येको, 'सहस्रशत०' (6 / 4 / 136 ) इत्यण (?) / अथ अस्मै अर्थे इत्थं प्रयोगो लोक-सर्वलोकाद् ज्ञाते // 6 / 4 / 157 // | लिख्यते,- पञ्चास्मै चैत्राय वृद्धिरायो लाभ उपदा * तदुक्तं धीहैमलिङ्गानुशासनविवरणे-"वृद्धिरानन्दवर्धने। स्त्रियां कलान्तरेऽपि स्याद वृद्धिनामनि चौषधे"। पदीयदुर्गपदप्रबोध एवम्-"कलान्तरे इति लोके 'ब्याज' इति प्रसिद्ध" / Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39.] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ० 6 पा० 4 सू० 159-164 - शुल्क वा देयमिति वाक्ये पञ्चकश्चैत्रः, एवं शत्यः, / / सम्भवदवहरतोश्च / / 6 / 4 / 162 / / शतिकः, साहस्रः, प्रास्थिकः, द्रोणिकः / / 158 // म. वृ०-द्वितीयान्तानाम्नः 'पचतिसम्भव'पूरणार्धादिकः // 6 / 4 / 159 // | दवहरतोश्वार्थयोर्यथोक्तमिकणादयो भवन्ति / आधे म० वृ०-पूरणप्रत्ययान्तादर्द्धशब्दाच्च तदिति | यस्य [शाल्योदनादेः] प्रमाणानतिरेकेण [प्रमाणानुप्रथमान्तादस्मिन्नस्मे वादीयते इत्यर्थयोरिकः स्यात् , सारेण] संभवः, अतिरेकेणावहारः / उप्रास्थिकः प्रथमान्तं चेद् वृद्धयादि भवति। पुरणप्रत्ययान्तेभ्यः कटाहः, प्रास्थिकी स्थाली // 162 / / पूर्वेण इकण अर्द्धशब्दाच्च 'कंसार्धात्' (6 / 4 / 135) इतीकट प्राप्त इत्ययं योगः ] इकणिकटोरपवादः / प्रव०-'सम्भवति धातुः अकर्मकः सकर्मकश्च द्वितीयिकः, पञ्चमिकः, अर्द्धिकः, अद्धिका / / 159 / सम्भवति / तत्र इह सूत्रे सकर्मक एव ग्राह्यः / तथा हि-स्थाल्यादिकं प्रमाणानतिरेकेण प्रस्थं द्रोणं वा __अब०-'पूरणं चार्द्धश्च-पूरणार्द्धः / अर्द्धः सम्भवति,कोऽर्थः ? धारयतीत्यर्थः / 2 'अतिरेकेणाखण्डे अर्द्ध समांशे इति..........(?) / अर्थशब्दो वहारः',कोऽर्थः ? स्थालयां धान्यमुत्कलसत अनिकम् ऽत्र रूपकार्द्ध रूढः / रद्वितीयमस्मिन्नस्मै वा वृद्धि (?) उत्तार्यते अवह्रियते इति अवहार उच्यते / रायो लाभ उपदा शुल्कं वा देयं द्वितीयिकः / एवं प्रस्थं पचति सम्भवति-धारयति अवहरति वा तृतीयिकः पञ्चमिकः षष्ठिकः / / 159 / / कटाहः प्रास्थिकः, स्थाली वा, एवं खारीकः // 162 / / भागायेकौ // 6 / 4 / 16 / / पात्रा-ऽऽचिता-ऽऽढकादीनो वा / / 6 / 4 / 163 / / म० वृ०-भागशब्दात्तदस्मिन्नस्मै वा वृद्धयाद्य ____म० वृ-पात्र आचित आढकेभ्यः [द्वितीयान्तेन्यतमं देयमिति विषये 'य-इको भवतः / इकणो- भ्यः] पचत्सम्भवदवहरदर्थेषु ईनो वा' स्यात् [पक्षे ऽपवादौ। 'भाग्यः, भागिका स्त्री // 160|| इकण ] / [ईन:-] 'पात्रीणः, पात्रीणा, [ इकण -1 पात्रिकी स्थाली, आचितीना ईनः], आचितिकी प्रव०-भागोऽस्मिन्नस्मै वा वृद्धयादीनामन्य- [इकण ], आढकीना, आढकिकी // 163 / / तमं देयमिति भाग्यः, भागिकः। भागशब्दोऽपि रूपकार्द्धस्य वाचकः / “भागो रूपार्धकभाग्यैक अव०-पात्रं पचति सम्भवति अवहरति वा देशयोः" // 160 // पात्रीणः, पात्रीणा, पात्रिकी // 163 / / तं पचति द्रोणाद्वान / / 6 / 4 / 161 / / द्विगोरीनेकटो वा / / 6 / 4 / 164 / / म० वृ०-तमिति द्वितीयान्ताद् द्रोणशब्दात् मवृ०-पात्राचिताढकान्ताद् द्विगोः पचत्यापचत्यर्थे-'ऽब्वा ' स्यात् / द्रोणं पचति द्रौणः,२ द्यर्थे 'ईन-इकटौ वा' भवतः, पक्षे इकण , तस्य द्रौणिकः ; द्रोणी, द्रौणिकी स्थाली गृहिणी वा / [इकणप्रत्ययस्य ] च 'अनाम्न्यद्वि०' (6 / 4 / 141) द्वौ द्रोणौ पचति द्विद्रोणी // 161 / / इति लुप, विधानबलान्न ईनेकटोर्लोपः / द्वे पात्रे पचति सम्भवत्यवहरति वा द्विपात्रीणः [ईन], प्रव०-'पक्षे अनेनैव इकण कार्यः / अञ् / द्विपात्रिकः [ इकट् ], 'द्विपात्रः, एवं द्वघाचितीना, इकण् / 'द्वौ द्रोणौ पचति-'तं पति द्रोणा०' (6 / द्वयाचितिकी,द्वयाचिता, उद्वथाढकीना,द्वथाढकिकी, .. 4 / 161 ) इत्यनेन इकण् , 'अनाम्न्यद्विः टुप् (6 / द्वयाढकी // 164 // 4 / 141) इत्यनेन इकण लुप्यते, 'परिमाणात्तद्धितलुक्यविस्त०' (2 / 4 / 23) इत्यनेन की // 161 / / प्रव०-१द्विपात्र इत्यत्र इकण , 'अनामन्य'० Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानार्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम। [ 391 %3 ..(6 / 4 / 141) इति इकण लुप्यते द्विपात्र इति रूपं जात- द्रव्य-वस्नात्केकम् // 6 / 4 / 167 / / म्। एवं द्विपात्रीणा,द्विपात्रिकी,द्विपात्री / (द्विपात्रीति) म० वृ०-द्रव्यवस्नशब्दाभ्यां यथासंख्यं कअत्र इकण , 'अनाम्न्य०' (6 / 4 / 143) इति लोपः,ततः इको हरत्याद्यर्थेषु भवतः। 'द्रव्यकः,२वस्निकः।१६७। 'परिमाणात्तद्धितलुक्य०' (2 / 4 / 23) इत्यनेन की। २'द्वयाचिता' इत्यत्र इकणो लोपेऽपि न ङी, 'परि प्रव०-'द्रव्यं हरति वहति आवहति वा / माणात्तद्धितः' (2 / 4 / 23) इति सूत्रे आचितात् परो एवं वस्नं हरति (इत्यादि) // 167|| डीप्रतिषेध उक्तोऽस्ति / उतारकाढकपिटक' (हैम- सोऽस्य भृतिवस्नांशम् // 6 / 4 / 168 / / लिङ्गा०) इति त्रिलिङ्गपाठात् आढकशब्दः त्रिलिङ्गो. म. वृ०-स इति प्रथमान्तादस्येति षष्ठयर्थे यथोक्तम् ऽस्ति, परमत्र इकट्प्रत्यये टो ड्यर्थः इत्येकमेव [ यथाविहितम] इकणादयो भवन्ति, यत्प्रथमान्तं रूपम् / / 164 // तच्चेत् 'भृतिर्वस्नम् अंशो वा भवति / पञ्चको कुलिजाद्वा लुप् च // 6 / 4 / 165 // . भृत्यः, पञ्चकः पटः, पञ्चकं 'नगरम् ,एवं सप्तकः, _म० वृ०-कुलिजान्ताद् द्विगोः पचत्यर्थे 'ईन शत्यः, साहस्रः, प्रास्थिकः / / 168 // इकटौ' वा, पक्षे इकण , तस्य वा लुप् स्यात् / प्रव०-भृतिवेतनम् / २वस्नो नियतकालक्रतेन चातूरूप्यम् / रद्विकुलिजीना, द्विकुलिजिकी; पले उद्विकुलिजी, द्वैकुलिजिकी // 165 / / यमूल्यम् / उअंशो भागः / पञ्चास्य भृतिः= पञ्चकः; 'संख्याडते.' (6 / 4 / 130) इति कः / प्रव०-'इकणप्रत्ययस्य / द्वे कुलिजे पचति / पञ्चास्य वस्नपरुचकः पटः / पञ्चास्यांशाः सम्भवत्यवहरति वा द्विकुलिजीना / उद्विकुलिजी // 168 / / इत्यत्र 'परिमाणात्तद्धित०' (2 / 4 / 23) इति की / 165: मानम् / / 6 / 4 / 169 // * 'वंशादेभोराद्धरद्वहदावहत्सु // 6 / 4 / 166 / / / म. वृ०-स इति प्रथमान्तादस्येति म० वृ०-वंशादिभ्यः परो यो भारशब्दस्तद षष्टयर्थे 'यथोक्तः' (यथाभिहितम् ] प्रत्ययः स्यात् , न्तात् हरति वहति आवहति चार्थे यथोक्तः / प्रथमान्तं चेन्मानं' भवति / प्रस्थो मानमस्य= [यथाविहितं] प्रत्ययः स्यात् / वंशभारं हरति वहति प्रास्थिको राशिः, द्रौणिकः, खारीकः,२ वर्षशतं मानआवहति वा वांशभारिकः / 'अथापरोऽर्थः- भार मस्य वार्षशतिकश्चैत्रः, पाञ्चलोहितिकम् , भूतेभ्यो वंशादिभ्यो द्वितीयान्तेभ्यो हरदा-1 पाञ्चकलायिकम् // 169 // . द्यर्थेषु प्रत्ययो भवति / भारभूतान वंशान् हरति वहति आवहति किरोति वा वांशिकः, कौटिकः / अव०-'मीयते येन तन्मानम् / र खारीकः', भारादिति किम् ? एकं वंशं हरति // 166 / / एवं खारीशतिकः,खारीसाहसिकः / उ 'पाञ्चलोहिति कम्, 'पाञ्चकलायिकम्'; अनयोः सिद्धिः 'अनाप्रव०-'वंश, कुट, कुटज, वल्वज, मूल, म्न्यद्विः लुप्' (6 / 4 / 141) इति सू विस्तरा स्थूणा, अक्ष, अश्मन् , इक्षु, खट्वा, श्लक्ष्ण इति ......[दर्शिता / तथाहिवंशादिगणः / २बहुवचनमर्थत्रयसूचनार्थम् / हर- | रोहितशब्दः, 'श्येतैत०' (2 / 4 / 36) इत्यनेन की, तिरत्र देशान्तरप्रापणे चौर्ये वा / वहति, कोऽ- तकारस्य नंकारश्च,'ऋरललम्' (2 / 3 / 99) इति रका र्थः ? उत्क्षिप्य धारणे। आवहतिधातुरुत्पादने करो- रस्य लत्वे 'लोहिनी' इति शब्दः, पञ्चलोहिन्यो त्यर्थो वा। 'वृत्तिकृता 'वंशादेर्भारा' (6 / 4 / 166) | मानमस्य-मानम्' इत्यनेन इकण , 'जातिश्च णि.' इत्यस्य सूत्रस्य प्रोक्तादादपरोऽप्यर्थो व्याख्यायते- (3 / 2 / 51) इति वद्भाषः, डीनकारौ निवृत्ती, 'अथापरोऽर्थ' इति // 166 / / लोहित इति शब्दः पुनर्निष्पन्नः, ततो वृद्धिः, पाच Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 6 पा० 4 सू० 170-173 लोहितिकम् / “पञ्च कलायाः परिमाणमस्य, 'मानम्' | बर्बाधकमिदम् [सूत्रम], भेदरूपापन्ने [बहुत्वरूपा(६।४।१६९) इतीकण् / लोहिनीकलाये इति माल- पन्ने सङ्घादौ] तु तयडेव,-चतुष्टये ब्राह्मणक्षत्रियवदेशे परिमाणविशेषौ। अ एव नामत्वात 'अना- विशुद्राः / स्याद्वादाश्रयणाच्चैवात्र भेदाभेदयोः म्न्यः' इति इकणो न लोपः। अथ मासो मान- सम्भवः / / 171 / / मस्य वर्ष मानमस्येति वाक्ये 'मानम् ' (6 / 4 / 169) इत्यनेन कथं न प्रत्ययः ? सूरिराह- कालवाची __अव०-'सङ्घः प्राणिनां समूहः / सूत्रं शास्त्र शब्दो मानग्रहणेन न गृह्यते, 'मानसंवत्सर०' ग्रन्थः। उपाठोऽध्ययनं पठनम / शतमध्याया माने (7 / 4 / 19) इत्यादौ मानग्रहणे सत्यपि संवत्सर- मस्य वैद्यकशास्त्रस्य चिकित्सारूपस्य तत शतकम् / ग्रहणात् // 169 // . 5 पञ्चतयं पदम्', अत्र पदं न सङ्घो न सूत्रं न जीवितस्य सन् // 6 / 4 / 170 // पाठ इति ‘सङ्ख्यायाः सय०' (6 / 4 / 172) इत्यनेन न कप्रत्ययः, अपि तु तयडेव / तथा चत्वारोऽम० वृ०-जीवितस्य यन्मानं ततः प्रथमान्ता वयवा मानमस्या जातिगुणक्रियाद्रव्यभेदात् , दस्येति षष्ठ्यर्थे 'यथोक्त प्रत्ययो' भवति, स च तयट , 'चटते सद्वितीये (1 / 3 / 7) रस्य सः, 'हस्वासन् , तस्य 'अनाम्न्य०' (6 / 4 / 141) इति लुप् नाम्नस्ति' (2 / 3 / 34) ति सस्य षः। ' एकत्वरूपापन्ने प्राप्तोऽपि न भवतीत्यर्थः। षष्टिर्जीवितमानमस्य अवयवावयवि(वि)शेषे / (एवं) द्वये देवमनुष्याः 171 षाष्टिकः, 'साप्ततिकः, श्वार्षशतिकः / द्वे षष्टी जीवितमानमत्य=3द्विषाष्टिकः // 170|| नाम्नि // 6 / 4 / 172 // म० वृ०-सङ्ख्यावाचिनस्तदस्य मानमित्यर्थे 'यथोक्तं प्रत्ययः' स्यात् नाम्नि / पञ्च इति सङ्ख्या प्रव०-'सप्ततिर्जीवितमानमस्य / वर्षाणां शतं वर्षशतं जीवितमस्य / 3'मानसंवत्सर०' (74 / मानमेषां पञ्चकाः शकुनयः, अणुका राजर्षयः / योगविभागकरणात्संज्ञायां पञ्चैव पञ्चका इति 19) इत्यनेन उत्तरपदवृद्धिः / / 170 / / स्वार्थे एव वा प्रत्ययः [इदं भाष्यकारमतम ] 1172 / सङ्ख्यायाः सङ्घ-सूत्र-पाठे / / 6 / 4 / 171 / / म. वृ०-सङ्ख्यायाचिनः प्रथमान्ताइस्य मानमित्यर्थे प्रव०-१(एवम् ) त्रिकाः शालकायनाः, सप्त'यथोक्तः प्रत्ययः' कः प्रत्ययः] स्थात, यत्तदस्येति का ब्रह्मवृक्षाः, एकोऽपि सप्तको ब्रह्मवृक्ष उच्यते निर्दिष्टं तच्चेत्सङ्घ: सूत्रं पाठो वा भवति / // 172 / / पञ्च गावो मानमस्य [सङ्घस्य] पञ्चकः सङ्घः , विंशत्यादयः // 6 / 4 / 173 // अष्टावध्याया मानमस्य [पाणिनीयग्रन्थस्य] अष्टकं म० वृ -विंशत्यादयः शब्दा नाम्नि विषये पाणिनीयम् , "शतकं निदानम् [वैद्यकशास्त्रम् ] , तदस्य मानार्थे 'साधवो' भवन्ति / 'विंशतिः, त्रिअष्टौ रूपाणि वारा मानमस्य अष्टकः पाठः / सङ्क शत् , उचत्वारिंशत् , “पञ्चाशत् , ५षष्टिः, सप्ततिः सूत्रपाठ इति किम् ? पञ्च वर्णा मानमस्य ५पञ्च- ७अशीतिः नवतिः, शतम,१°सहस्रम,१'लक्षतयं पदम् ['अवयवात्तयट' (71 / 151)], एवं मित्यादि // 173 // चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिः / पञ्चादीनां संख्येयानामवयवतया सङ्घादेर्मानत्वाद् 'मानम् ' (6 / 4 / अव०-दश इति सङ्ख्यामानमनयोः सङ्ख्ययोः, . 169) इत्यनेनैव ['मानम् ' सूत्रेणेव] सिध्यति, पर- 'पञ्चद्दशद्वर्गे वा' (6 / 4 / 175) इति सूत्रेण दशस्थाने त्वात्त तयट प्राप्नोति (इति) सद्वाधनाओं वचनम् / दशत् इत्यादेशः, ततो द्वौ दशती मानमेषां संख्येन चातिप्रसङ्गः, अभेदरूपापन्ने सङ्घादौ तयायटो- यानां घटादीनामस्य वा संख्यानस्य इति विंशतिः, Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानार्थाधिकारः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम। [393 निपातनात् द्विदशस्थाने विम्भावः शतिश्च प्रत्य- | न्त्यानि मध्यम् , दशमध्यानि परायमिति उच्यते / यः, इत्थं विंशतिशब्दः सिद्धः / २त्रयो दशतो मान- इति...."भयन्ति (?) / एवं लौकिका (?) / तथा मेषां संख्येयानामस्य च संख्यानस्य = त्रिंशत् , | विंशत्यादिशब्देषु यदत्र लक्षणेनानुपपन्नं तत्सर्व निपातनात् त्रिदशतस्थाने त्रिम्भावः,शत् इति प्रत्य- निपातनात् सिद्धम। विंशत्यादिशब्दानां लिङ्गसंयश्च, त्रिंशन्शदनिष्पत्तिः / चतुर, दशन, ख्यानियमश्च “विंशत्याद्याशताद् द्वन्द्वे' * इति चत्वारो दशतो मानमेषां संख्येयानामस्य वा मं लिङ्गानुशासनात् ज्ञातव्यः // 173 / / ख्यानस्य, निपातनात चतुर्दशत्शब्दस्य चत्वारिम् वैश-चात्वारिंशम् / / 6 / 4 / 174 // भाषः , शत् प्रत्ययश्च, चत्वारिंशतशब्दसिद्धिः / पञ्चत् , दशत् , पञ्चदशतो मानमेषां संख्येया म. ०-त्रिंशञ्चत्वारिंशद्भ्यां तदस्य मानमि त्यर्थे डण निपात्यते, नाम्नि' / शानि, उचात्वानामस्य वा संख्यानस्य, निपातनात् पञ्चभावः, पञ्चशब्दस्य आत्वम् , शन प्रत्ययश्च, पञ्चा रिंशानि ब्राह्मणानि / / 574 / / शत् / षष . दशन , पड दशनो मानमेषां संख्ये. प्रव०-प्रत्ययान्तं कांचन्नाम भवतीत्यर्थः / यानामस्य वा संख्यानस्य, निपातनात् षष्भावः, २त्रिंशदध्याया मानमेषां त्रैशानि / उएवं चात्वारिंतिप्रत्ययश्च, तवर्गस्य श्चवर्ग' (1 / 3 / 60) इत्यनेन शानि ब्राह्मणानि / वेदवाक्यानि कानिचिच्चात्वारिंतस्य टः, षष्टिः / सप्त दशतो मानमेषां संख्येयाना ,शानि उच्यन्ते // 174 / / मस्य वा संख्यानस्य, निपातनात् सप्तभावः, तिप्रत्ययः, सप्ततिः / अठन् , दशत् , अष्टौ दशतो - पञ्चदशद्वर्गे वा // 6 / 4 / 175 // मानमेषां संख्येयानामस्य वा संख्यानस्य, निपात- म०वृ०-पञ्चत्-दशत्शब्दौ तदस्य मानार्थे वर्गे नात अष्टन्दशतस्थाने अशीभावः तिश्च / नव दश- वाच्ये अत्प्रत्ययान्तौ निपात्येते वा,पक्षे का प्रत्ययोतो मानमेषां सख्येयानामस्थ वा संख्यानस्य , ऽपि स्यात् / पञ्च मानमस्य वर्गस्य [राशेः]-पञ्चद् निपातनात् नवभावः तिश्च / 'दश,दशत् ,दशदशतो / वर्गः, पञ्चको वर्गः; एवं [दश मानमस्य वर्गस्य] मानमेषां संख्येयानामस्य वा संख्यानस्य, निपात- दशद्वर्गः, दशको वर्गः // 17 // नाद् दशदशस्थाने श इप्ति भावः,त इति प्रत्ययश्च, स्तोमे डट् // 6 / 4 / 176 // शत इति शब्दः / 10 दश शतानि मानमेषां संख्येयानामस्य वा संख्यानस्य, निपातनात् सहस्र इति ___ म० वृ०-संख्यावाचिप्रथमान्तात्तदस्य मानेशब्दः / ' एवं दशसहस्राणि अयुतमित्युच्यते , ऽर्थे 'स्तोमे [समूहे ] वाच्ये डट्' स्यात् / पञ्च. दश अयुतानि, कोऽर्थः ? दशसहस्राणि नियुतम् , | दशः स्तोमः, विंशः, पञ्चविंशः, त्रिंशः, [पञ्चलक्षमिति संज्ञान्तरम् / दशनियुतानि प्रयुतम् , दश दश ऋचो मानमस्याः पङ्क्तेः] पञ्चदशी पङ्लक्षमित्यर्थः / दशप्रयुतानि अर्बुदम् , कोटिः क्तिः // 176 / / (इति संज्ञान्तरम् ) / दशार्बुदानि न्यर्बुदम् , अब्जमिति संज्ञान्तरम् / तथा पाठविशेषोऽयम्- दशायु अव०- 'ऋगादीनां समूहः स्तोम उच्यते / २पञ्चदश ऋचो मानमस्य स्तोमस्य / एवं विंश तानि लक्षम् , दशप्रयुतानि कोटिः, दशाब्जानि खर्वम् , दशखर्वाणि निखर्वम् , दशनिखर्वाणि महा इत्यादीनां वाक्यानि // 176 // म्बुजम् , दशमहाम्बुजानि शङकुः, दशशङ्कवो वार्द्धिः, तमर्हति // 6 / 4 / 177 / / समुद्र इति संज्ञान्तरम् , दश वार्द्धयोऽन्त्यम् , दशा- ___म० वृ०-तमिति द्वितीयान्तादर्हदर्थे 'यथा- / * श्रीहेमलिङ्गानुशासने स्त्रीलिङ्गप्रकरणे षष्ठे श्लोके / Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिडहेमशब्दानुशासनं [म०६ पा० 4 सू० 178-185 विधि' प्रत्ययो भवति। श्वेतच्छत्रमर्हति-श्वेतच्छ- अव०-"दक्षिः शीघ्र च' इति दक्ष, दक्षन्तेत्रिकः, ['इकण '(64 / 1) इत्यनेन इकण ,] वैषिकः / ऽस्यामिति दक्षिणा, 'दुहवृहिदक्षिभ्य इणः' ( उ० विषात् वैषाद्वा], वानिकः, वास्नयुगिकः, [आभिसे- | 194) / कडङ्गरं माषादिकाष्ठम्। उपाकाहा॑ इत्यर्थः चनिकः] बालीवर्दिकः, चामारिकः, 'शत्यः, रेसा- // 181 // हस्रः। भोजनमहतीत्यादौ न स्यादनभिधानात् / 177 / छेदादेर्नित्यम् / / 6 / 4 / 182 // अव०-शतमर्हति, 'शतात्केवला०' (6 / 4 / म० ३०-छेदादिभ्यो नित्यमईति इत्यर्थे 131) इत्यनेन येकौ- शत्यः, शतिकः / 2 सहस्र- 'यथाविहितं' प्रत्ययः [इकण ] स्यात् / छेदं नित्यशतमानादण्' (6 / 4 / 136) // 177 // महति छैदिकः, भैदिकः // 182 // दण्डादेयः // 6 / 4 / 178 // . प्रव०-'नित्यमिति अर्हतीत्यस्य विशेषणम् / म. वृ०-दण्डादिभ्योऽहंदर्थे 'यः' स्यात , छेद, भेद, द्रोह, दोह, नर्त्त, कर्ष, विकर्ष, प्रकर्ष, इकणोऽपवादः / दण्डमर्हति दण्ड्यः // 178 / / विप्रकर्ष, प्रयोग, विप्रयोग, सम्प्रयोग, प्रेक्षण, सम्प्रश्न, विप्रश्न इति छेदादिगणः / / 182 / / अव०-दण्ड, मुसल, मेधा, वध, मधुपर्क, अर्ध, मेघ, उदक, इभ, कश, युग इति दण्डादि. विरागाद्विरङ्गश्च // 6 / 4 / 183 / / गणः // 178 // म. वृ०-विरागान्नित्यमईत्यर्थे 'यथाविधि' यज्ञादियः॥६।४।१७९।। |. प्रत्ययः [इकण ,] तद्योगे च विरागस्य विरङ्गादेशः / म० वृ०-यज्ञादईत्यर्थे 'इयः' स्यात् / यज्ञियो | नित्यं विरागमईति-वैरङ्गिकः // 183 // देशो यजमानो वा // 179 // शीर्षच्छेदाद् यो वा // 3 / 4 / 184 / / म. वृ०-शीर्षच्छेदान्नित्यमईत्यर्थे 'यो वाग्यात् / अव०-यज्ञमर्हति यज्ञियः / यज्ञो नाम 'शीर्षच्छेद्यः, शैर्षच्छेदिकश्चौरः // 184|| कश्चित् क्रियासमुदायः क्रियासमुदायाभिव्यङ्ग्यं प्रकाश्यं वाऽपूर्व धर्माधर्मों इत्याहुः / / 179 / / ___प्रव०-शीर्षच्छेदं नित्यमर्हति / २पक्षे इकण पात्रात्तौ // 6 / 4 / 180 // // 184 // म० वृ०-पात्रादहत्यर्थे तो 'य-इयौ' भवतः / शालीनकोपीनाविजीनम् / / 6 / 4 / 185 / / 'पात्र्यः, पात्रियः // 180 // म० वृ०-'शालीन कौपीन आविजीन इति शब्दा अर्हत्यर्थे 2 ईनबन्ता' निपात्यन्ते / नित्यमिति प्रव०-'पात्रमर्हति-पात्र्यः ओदनादिः / 180 निवृत्तम् , निपातनस्येष्टविषयत्वात् / शालीनोदक्षिणा-कडङ्गर-स्थालीविलादीय-यो ऽधृषपर्यायः [सलजः, शान्तः, कौपीनः, आवि. // 6 / 4 / 181 // जीनो यजमानः ऋत्विग्वा // 185 / / म० वृ०-दक्षिणा-कडङ्गर-स्थालीविल- प्रव०-'शालाप्रवेशनशब्दः, शालायां प्रवेशनं शब्देभ्योऽहत्यर्थे 'ईय-यौ' भवतः / दक्षिणामर्हति= =शालाप्रवेशनम् , शालाप्रवेशनमईति इति वाक्ये दक्षिणीयः, दक्षिण्यो गुरुः ; कडङ्गरीयः, कडङ्गर्यो / निपातनात् प्रवेशनशब्दस्य लोपः कार्यः,शालोन इति गौ:: उस्थालीविलीयाः, स्थालीविल्यास्तण्डुलाः सिद्धम / ईनन् इत्यत्र बकारस्य वृद्धिनिमित्तत्वात् // 181 // पुवद्भावो न भवति, तथाहि- शालीनाभार्या इत्यत्र Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानार्थाधिकारः मध्यमवृत्त्यवचूरिसंपलितम् / शालीना भार्या यस्य, 'तद्धितः स्वरवृद्धिहेतु'० (3 / / ऋत्विज् शब्दः, अथवा ऋत्विक्कर्मशब्दः, ऋत्वि२।५५) इत्यादिसूत्रेण पुंवद्भावो न भवति / कूप- जमर्हति-निपातनात् इनम् , वृद्धिः, सर्व निपातप्रवेशनमईति, निपातनात् ईनन् , प्रवेशनलोपः / नात् / आविजीनो यजमानः / ऋत्विकर्माईति, कौपीनशब्दः पापकर्मणि वर्त्तते, गोपनीयपायूपस्थे तदावरणे च चीवरखण्डे वा कौपीनशब्दो वर्तते। इनम् , कमशब्दलापः, ऋत्विगेव उच्यते // 185 / / // इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिसंपलिते सिद्धहेमशब्दानुशासने षष्ठाभ्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः // . TAI K Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अहम् // // सप्तमोऽध्यायः॥ [प्रथमः पादः] यः // 71 / 1 // सिध्यतिष्यपुष्ययुग्याज्यसूर्य नाम्नि' (5 / 1 / 39) म० वृ०-अधिकारोऽयम् / यदित उर्ध्व भणि- इति सूत्रनिपातनादेव युग्ये सिद्धे इदमर्थविवक्षायां ज्यामः तत्र ईयादर्वाग् :य' इत्यधिकृतं ज्ञेयम्' // 1 // सत्यामणबाधनार्थमत्र युगग्रहणं कृतम् , तथाहि यो हि युगं वहति स युगस्य सम्बन्धी भवति, युगप्रव०-परिहृत्य अपवादविषयम् / यः प्रत्यय स्यायमिति वाक्ये 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) इत्यण उत्सर्गेण प्रवर्त्तते इत्यर्थः // 1 // प्राप्नोतीति भावः / "प्रासज्यते इति प्रासङ्गः, प्रासङ्गं वहति रथ-युग-प्रासङ्गात् / / 7 / 1 / 2 // वहति प्रासङमयः, यत्काष्ठं वत्सानां दमनकाले स्क न्धे आसज्यते-योज्यते तत्काष्ठं यो वत्सो वहति म० वृ०-तमित्यनुवर्त्तते / तमिति द्विती स प्रासङ्ग्यो वत्स उच्यते इत्यस्याने प्रसङ्गादागतयान्तेभ्यो रथयगप्रासक्रेभ्यो वहत्यर्थे 'यः प्रत्ययः' मित्याद्यक्षरयोजना कार्या // 2|| स्यात् / रथ्यः, द्विरथ्यः, युग्यः, "प्रासङ्ग्यः / कालसंज्ञकं युगं वहति राजा, युगं वहति मनुष्यः ; धुरो ,यैयण // 71 / 3 // अत्रानभिधानान स्यात् / 'यत्त्वन्यत् प्रसङ्गात म० वृ०-धुशब्दाद् वहत्यर्थे 'य-एयणौ' =गोणात् ] आगतं प्रासङ्गमिति तद्वहति तत्रान- भवतः / धुर्यः, धौरेयः // 3 // भिधानान्न भवति // 2 // __ अव०-'धुरं वहति धुर्यः।धूः शब्दः।अधूर्याअव०-१'तमर्हति' इति सूत्रात् / रथं वहति / / नमुखभारयोः / भारं शकटं वा (?) / 'धुरा थैयण' द्वौ रथौ वहति / "युगं 'वहति / 'वहति', कोऽर्थः ? | इति सूत्रे यट-एयकणप्रत्ययौ कश्चिदिच्छति, तन्मते पालयति। .................(ननु यो रथं वहति स - धुर्यः, धौरेयक इति प्रयोगौ, स्त्रियां तु धुरी, धुरं रथ)स्य वोढा, ततः 'रथात्सादेश्च वोढङ्गे (6 / 3 / 175) - वहति-धुर्य, डी, 'व्यञ्जनात्तद्धित'० (२।४।८८)इति इति ये कृते सिद्धम् , 'वहति रथः' (12) इत्यत्र / यलोपः, 'धुरो' इति सिद्धम् // 3 // . किं रथस्य ग्रहणम् ? सत्यम् , अलुबर्थ तु रथस्य 'वामाद्यादेरीनः / / 7 / 1 / 4 / / ग्रहणम् , 'रथात्सादे० (6 / 3 / 175) इति अनेन हि ये क्रियमाणे 'द्विगोरनपत्ये०' (6 / 1 / 24) इत्यनेन म. वृ-बामादिपूर्वाद् धुर शब्दात् [द्वितीया-] न्तान ] वहत्यर्थे 'ईनः' स्यात् / वामधुरीणः, सर्वतस्य प्रत्ययस्य लुप्यते (? लुप् भवति)-,दयो रथयो। धुरीणः, उत्ताधुरीणः, दक्षिणधुरीणः। वामादयः वोढा द्विरथः, अत्र यः, यलोपश्च, अनेन वहति रथ' प्रयोगगम्याः / / 4 / / (7 / 1 / 2) इत्यादिना ये विधीयमाने लोपान प्राप्नोति, अप्राग्जितीयत्वात् , एवं च द्विगुसमासे रूपद्वयं अव०-वामशब्द आदिर्येषां तेवामादयः, वामांसिध्यति,-द्विरथ्यः द्विरथ इति / कुप्यभिद्योद्ध्य- | दय आदयो यस्य स यामाद्यादिः, तस्मात् / ........ मतदुक्त श्रीहैमलिङ्गानुशासनविवर गे- "धूः शकटाङ्ग यानमुखं भारश्च" / Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहत्याधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / सैरिकः, // 6 // ..........(वामधुरा, सर्वधुरा, उत्तर)धुरा इत्यादौ विध्यत्यनन्येन // 7 // 18 // सर्वत्र 'धुरोऽनक्षस्य' (7 / 3 / 77) इति अत् समासान्तः, म० वृ०-[न अन्यत् अनन्यत् , तेन अनन्येन] आप , वामधुरां वहति एवं सर्वधुरां वहतीत्यादौ इति तमिति वर्त्तते। तमिति द्वितीयान्ताद् विध्यत्यर्थे वाक्ये इनप्रत्ययः // 4 // 'यः' स्यात् , स चेद्विध्यन्नात्मनोऽन्येन करणेन न अश्चैकादेः // 7 / 1 / 5 // विध्यति / पादौ विन्ति पद्याः शर्कराः [ऊरू 'म० वृ०-एकशब्दादेधुरन्ताद्वहत्यर्थे 'अ: प्रत्ययः | विन्ति=] ऊरव्याः कण्टकाः, [उरो विध्यन्ति=] चकारादीनश्च' स्यात् / एकधुरः, एकधुरीणः // 5 // उरस्याः वाताः / अनन्येनेति किम् ? रचौरं विध्यति चैत्रः / / 8 / / अव०-'एका एकस्य वा धू: एकधुरा, 'धुरोऽनक्षस्य' (73 / 77) अत् (समासान्तः), (आप् ,) अव०-पादौ विध्यन्ति पद्याः, अत्र 'हिमहति०' एकधूरस्मिंश्चक्रे=एकधुरम् , एकधुरां वहति एकधुरं (6 / 2 / 95) इत्यनेन पादस्य पद् / तथा चौरं विध्यति वा वहति / / 5 // . चैत्रः, अत्र हि चैत्रश्चौरं विध्यन धनुषा पाषाणेन वा विध्यति। शर्करादयस्तु न करणेन विध्यन्ति, यच्च हल-सीरादिकण / / 7 / 1 / 6 // मुखतैक्ष्ण्यादि करणं तत्तेषामात्मीयमेव // 8 // म० वृ०-हलसीराभ्यां [द्वितीयान्ताभ्यां] वह धनगणाल्लब्धरि / / 7 / 1 / 9 // त्यर्थे 'इकण' स्यात् / [हलं वहति=] हालिकः, म० वृ०-धनगणाभ्यां द्वितीयान्ताभ्यां लब्ध र्यर्थे 'यः' स्यात् / धनं 'लब्धा धन्यः, गणं लब्धा शकटादण् / / 7 / 1 / 7 / / =गण्यः / / 9 / / म० वृ-द्वितीयान्तात् शफटाहत्यर्थे 'अण्' स्यात् / शाकटो गौः // 7 // अव०-१'लब्धा ' इत्यत्र तृन् प्रत्यय एव, न 'णकतृचौ' (5 / 1 / 48 इति) तृच् , तृचि हि सति प्रव०-'शकटादण्' इति सूत्रे शकटशब्दात् / धनगणयोः वाक्ये षष्ठी स्यात् इति तृन् विधीयते 'तस्येदम् (6 / 3 / 160) इत्यनेनाण : हलसीरशब्दाभ्यां | च तृतीयपादोक्तेन 'हलसीरादिकण' (6 / 3 / 161) | णोऽन्नात् / / 7 / 1 / 10 // इत्यनेन इकण भविष्यति, एवं प्रयोगसिद्धिः, यो हि म० वृ०-[द्वितीयान्तात् ] अन्नाल्लब्धरि ‘णः यद्वहति स तस्य सम्बन्धीभवति, (इति) हलसीरा०' | 'शकटादण्' इति सूत्रद्वयं किमर्थम् ? सत्यम् , 'वह स्यात् / अन्नं लब्धा=आन्नः // 10 // तिरथ०' (12) इति सूत्रबदलुबर्थम् , तेनात्रापि हृद्य-पद्य-तुल्य-मूल्य-वश्य-पथ्य-वयस्य-धेनुष्या द्वैरूप्यं द्विगौ, तथाहि द्वयोः शकटयोः हलयोः सीर- गार्हपत्य-जन्य-धम्र्यम् / / 7 / 1 / 11 / / योर्वा वोढा द्विशकटः, द्विहलः, द्विशीरः, अत्र ___म० वृ०-हृद्यादिशब्दा यथास्वमर्थविशेषेषु 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) अण् ,न तुहलसीरादिकण्', यप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते / पद्यमौषधम. हद्यो केवलाभ्यामेव तस्य विधानात् , 'द्विगोरन'० (6 / देशः, हृद्यो वशीकरणमन्त्रः, निपातनं रूढ्यर्थम् / 1 / 24) अण् लुप्यते, प्रागजितीयत्वात् , द्वे शकटे तेनेह न स्यात् ,-हृदयस्य प्रियः पुत्रः / पद्यः हले सीरे वा वहति द्वैशकटः, द्वैहलिकः, द्वैसीरिकः, | कर्दमः / 'तुल्यं भाण्डम् , तुल्यः सदृशः / “मूल्या अत्र 'शटकादण' 'हलसीरादिकण' अनयोन लोपः, / मुद्राः / “वश्यो गौः / पथ्यमोदनम् ,निपातनादिह अप्राग्जितीयत्वात् / / 7 / / न भवति,- पथोऽनपेतं शकटादि / वयस्यः Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398 ] श्रीसिद्धाहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 1 सू० 12-16 सखा / धेनुष्या पीतदुग्धा इति यस्याः प्रसिद्धिः। / त्यर्थे तथा जनशब्दाच्च जल्पेऽर्थे यः / जनीं वहन्ति गाईपत्य इति नामाग्निः। १°जन्या जामातुर्वय- जन्याः जामातुर्वयस्याः, जनस्य जल्पो जन्यः / स्याः, जन्यः / १'धर्म्यम् // 11 // 'धर्मशब्दात्तृतीयान्तात् प्राप्येऽर्थे धर्मशब्दात्पञ्च म्यन्ताच्चानपेतेऽर्थे यः / धर्मेण प्राप्यं धर्म्यम , अथअव०-'हृदयशब्दात षष्ठयन्तात प्रियेऽर्थे वा धर्मादनपेतमरहितं धर्म्यम् , यद्धर्ममनुवर्त्तते बन्धने च वशीकरणमन्त्रे यो निपात्यते। तथाहि- तद्धर्म्यमित्युच्यते // 11 // हृदयस्य प्रियमौषधं देशो वा हृद्यमौषधम् , हृद्यो / नौ-विषेण तार्य-वध्ये / / 7 / 1 / 12 // देशः, अथ बन्धने- हृदयस्य बन्धनो-हृद्यो वशीकरणमन्त्रः, 'हृदयस्य हल्लासलेखाण्ये' ( 32 / 94) म० वृ०-नौविषाभ्यां निर्देशात्तृतीयान्ताभ्यां इत्यनेन हृदयस्य हुन आदेशः / २पद्येति पदशब्दात् यथासंख्यं तार्ये वध्ये चार्थे 'यः' स्यात् / नावा प्रथमान्तात् दृश्यत्वोपाधिकात् अस्मिन्निति सप्तम्यर्थे तार्य = नाव्यं जलम् ,नाव्या नदी / विषेण बध्योयः ,पदमस्मिन् दृश्यमिति वाक्यम् ,पद्यः कर्दमः,यो विष्यः [वध्यः, कोऽर्थः ? वधार्हः] // 12 // हि कर्दमो नातिद्रवः, नातिशुष्कः, यत्र च कर्दमे न्यायार्थादनपेते / / 7 / 1 / 13 // प्रतिमुद्रोत्पादनेन, कोऽर्थः ? प्रतिबिम्बोत्पादनेन, म० वृ०-[निर्देशादेव पञ्चम्यन्ताभ्यां ) न्यायापदं द्रष्टुं शक्यते स पद्यः कर्दमः / 'तुलाशब्दात् र्थाभ्यामनपेतेऽर्थे [अरहिते] 'यः' स्यात् / न्यायातुल्यया संमितं तुल्यं भाण्डम् , निपातनं रूड्यर्थम् , दनपेतम् [अरहितं) =न्याय्यम् , अर्यम् / / 13 / / तेन न तुलासंमिते एवोच्यते, किन्तु सदृशार्थेऽपि तुल्यशब्दो ग्राह्यः, गिरिणा तुल्यो हस्ती। "मूल- 'मत-मदस्य करणे / / 7 / 1 / 14 / / शब्दात् षष्ठ्यर्थे यः, तच्च मूलं यद्युत्पाटनयोग्य म० वृ०-[निर्देशात् षष्ठयन्ताभ्यां ] मतमदाभवति / मूलमेषामुत्पाट्यमुत्खननीयं मूल्या मुद्गाः। भ्यां करणेऽर्थे 'यः' स्यात् / इष्टं साम्यं ज्ञातं मतितथा मलात्तृतीयान्तादानाम्येऽर्थे समे चार्थे यः। मतशब्देनोच्यते / मतस्य करणं-मत्यम् [मदमूलेनानाम्यं मूल्यम् , मूलं पटाद्यूत्पत्तिकारणम , / स्य करणं = ] मद्यम् // 14 // तेनानाम्यं यत् पटादेविक्रयात् स्वर्णादिकं प्राप्यते तन्मूल्यम् / समेऽर्थे,- मूलेन समो मूल्यः--पटः, अव०-मननं मतम् , धातूनामनेकार्थत्वात् पटग्राह्यवित्तेन समानफल इत्यर्थः / “वशशब्दात् मतशब्दः साम्येऽपि वर्त्तते, यथा मतीकृताः, समीगतेऽर्थे यः। वशं गतो वश्यो गौः विधेयः, इच्छा. कृता इत्यर्थः // 14 // नुवर्ती इत्यर्थः / 'पथिन्शब्दादनपेतेऽर्थे यः / तत्र साधौ / / 7 / 1 / 15 // पथोऽनपेतं पथ्यमोदनादि। वयस्शब्दात्तुल्येऽर्थे म० वृ०-तत्रेति सप्तम्यन्तात्साधावणे यः स्यायः / वयसा तुल्यो वयस्यः सखा / निपातनादिह त्। साधुः प्रवीणो योग्य उपकारको वा / शरणे साधुः न,- वयसा तुल्यः शत्रुः / धेनुशब्दात् प्रधानधेना =शरण्यः, [ सह भया-दीप्त्या वर्तते इति सभा] वर्थो यः षोऽन्तश्च / प्रधाना धेनुरेव धेनुष्या। या सभायां साधुः-सभ्यः, कर्मणि साधुः कर्मण्यः गोमता-आभीरजनेनगोपालाय-धनस्वामिने अध // 15 // मणेन च उत्तमर्णाय आ ऋणप्रदानादोहार्थं धेनुर्दी पथ्यतिथि-वसति-स्वपतेरेयण // 7 / 1 / 16 / / - यते सा धेनुरेव धेनुष्या,पीतदुग्धा इति यस्या लोके प्रसिद्धिः / 'गृहपतेः संयुक्तऽर्थो व्यः / गृहपतिना म० वृ०-पथिन्-अतिथि-वसति-स्वपतिभ्यसंयुक्तो गाईपत्यः। 'जनीशब्दाद् वधूवाचिनो वह | स्तत्र साधावेयण स्यात् / पथि साधु-पाथेयम् , Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वर्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम्। आतिथेयम् , यासतेयम् , स्वस्य-द्रव्यस्य पतिः / गुल्मास, इक्षु, सक्तु, वेणु, अपूप, मांसौदन, मांस, = स्वपतिः, स्वपतौ साधुः] स्वपतेयम् / / 16 / / ओदन, सझाम, सङ्घात, संवाह, प्रवास, निवास, भक्ताण्णः // 71 / 17 // उपवास इति कथादिगणः // 21 / / म० वृ०-भक्तात्तत्र साधौ ‘णः' स्यात् / भक्त देवतान्तात्तदर्थे / / 7 / 1 / 22 / / साधुर्भाक्तः शालिः, भाक्तास्तण्डुलाः // 17 // म० वृ०-२देवतान्तात् शब्दादाश्चतुर्थ्यन्तात्तपर्षदो ण्य-णौ // 7 / 1 / 18 // दर्थेऽर्थे 'यः' स्यात् / अग्निदेवतायै इदम् अग्निम० वृ०-पर्षत् इति शब्दात्तत्र साधौ ‘ण्यणौ' देवत्यम् , पितृदेवत्यम् , देवदेवत्यम् , / / 22 / / भवतः / पर्षदि साधुः= पार्षद्यः, पार्षदः // 18 // प्रव०-'तस्याश्चतुर्थ्या अर्थो यस्य स तदर्थः, अव०-परिषद्शब्दादपीच्छन्त्येके- परिषदि किश्चिद्वस्तु सम्पादयितु यत् प्रवृत्तं तत्तदर्थमुच्यते, साधुः=पारिषद्यः, पारिषदः // 18 // तस्मिन् / देवताशब्देन देयस्य हविरादेः प्रतिग्रहीता स्वामी सम्प्रदानमुच्यते // 22 // सर्वजनाण्ण्येनौ / / 7 / 1 / 19 // पाया-ऽर्थे / / 7 / 1 / 23 // म० वृ०-सर्वजनात्तत्र साधौ ‘ण्य- ईननौ' भवतः / सार्वजन्यः, सार्वजनीनः / / 19 / / म० वृ०-पाद्य अर्घ्य इति शब्दौ तदर्थे 'यान्तौ' [यप्रत्ययान्तौ] निपात्येते। पादार्थमुदकं पाद्यम् / प्रतिजनादेरीनञ् / / 7 / 1 / 20 // निपातनादेव पदादेशो' न भवति / अर्को मूलं म. वृ०-प्रतिजनादिभ्यस्तत्र साधावीनम् पूजनं वा / अर्घार्थ रत्नमय॑म् / / 23 // स्यात् / प्रातिजनीनः,आनुजनीनः, ऐदंयुगीनः।२० प्रव०-"हिमहतिकाषि०' (3 / 2 / 96 ) इत्य नेन प्राप्तः / / 23 // प्रव०-प्रतिजन, अनुजन, विश्वजन, पञ्च- | ण्योऽतिथेः // 7 / 1 / 24 // जन, महाजन, इदंयुग, संयुग, समयुग, परयुग, परस्यकुल, अमुष्यकुल इति प्रतिजनोदिः / परस्य म. वृ०-अतिथेस्तदर्थे ‘ण्यः' स्यात् / अतिकुलामुष्यकुलशब्दयोर्गणपाठसामर्थ्यात् षष्ठयाभलुप्। थ्यर्थम् आतिथ्यम् // 24 // 'प्रतिः प्रतिकूलो जनः प्रतिजनः, प्रतीतो वा सादेचा तदः / / 7 / 125 // जनः प्रतिजनः, (तत्र ) साधुः / अनुकूलोऽनु म० वृ०-अधिकारोऽयम् / इत ऊर्ध्व यदनुरूपो वा जनः= अनुजनः, अनुजने साधुः / इदं च क्रमिष्यामः तत्र आ तदः तदिति सूत्रं यावत्केबतत् युगं च = इदंयुगम् , इदंयुगे साधुः =ऐदं स्यरसादेश्च विधिदितव्यः / / 25 / / युगीनः / / 21 // ___कथादेरिकण / / 7 / 1 / 21 // प्रव-केवलस्य शब्दस्य / 'सादेश्व, कोऽर्थः? म. वृ०-कथादिभ्यस्तत्र साधाविकण् स्यात् / | तदन्तात् शब्दाच विधिर्वक्ष्यमाणप्रत्ययविधानम्॥२५॥ कथायां साधुः काथिकः, वैकथिकः // 21 // हलस्य कर्षे // 7 / 1 / 26 // प्रव०-कथा, विकथा, विश्वकथा, सङ्कथा, म० वृ०-हलास्केवलात्सादेश्च 'कर्षेऽर्थे 'य: वितण्डा, जनेवाद, जनवाद, जनोबाद, भृशोवाद, | स्यात् / हलस्य कर्षः=२हल्या हल्यो वा, विहल्या, वृत्ति, सङ्ग्रह, गुण, गण, आयुर्वेद, गुड, कुल्माष, / 'त्रिहल्या, "परमहल्या // 26 / / Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 1 सू० 27-30 अव०-१कर्ष इत्यत्राधिकरण घच / यत्र मार्गे / यवापूप्यम् . यवापूपीयम् : त्रीहिताण्डुल्यम , व्रीहिहलं कृष्टम् , गतमित्यर्थः, स मार्गः कर्ष उच्यते।। तण्डुलीयम् / / 29 / / कृष्यते इति कर्षः क्षेत्रमित्यन्ये आहुः / २"ररुयान्तं नपुंसकम्” [ हैमलिङ्गानु० नपुंसकलिङ्गप्रकरणे अव०-अपूप, तण्डुल, ओदन, पृथुक. अभ्यूष, प्रथमश्लोके ] इति पाठात् यान्तस्य नपुंसकत्वेऽपि अभ्योष, अवोष, किण्व, मुसल, कटक, शकट, बाहुलकात् हल्यः हल्या इति पुंस्त्रीलिङ्गः / द्वयो. कर्णवेषक, ईर्गल, इलाल, स्थूणा, यूप, सूप, दीप, हलयोः कर्षः द्विहल्या / त्रयाणां हलानां कर्षः= | प्रदीप, अश्वपत्र इत्यपूपादिः / “ते क्षीरे दधि त्रिहल्या / 'परमश्चासौ हलच, परमहलस्य कर्षः / क्षिप्तमामिक्षा कथ्यते बुधैः" / आमिक्षायै इदं दधि (एवम ) उत्तमहलस्य कर्षः उत्तमहल्या तथा ईषदपरि इति वाक्यम् / 'हविस्शब्दात्तु परत्वानुगादिपाठासमाप्तं हलं-बहुहलम , नाम्नः प्राग्बहुर्वा' (7 / 3 / 12) नित्यमेव यः प्रत्ययः, हविष्य इत्येकमेव रूपम / इत्यनेन बहु पूर्वम् , बहुहलस्य कर्षः बहुहल्यः / / 26 / / पुरोडाशाय इमे पुरोडाश्याः तण्डुला इत्यस्याग्रे एवं मूगयै इमे सूर्याः, सूरीयाम्तण्डुलाः / सादेश्च इत्यसीतया सङ्गते // 7 / 1 / 27 // धिकरात तदन्तादपि प्रत्ययो भवति,- यत्रापूप्यम , म० वृ०-सीताशब्दात्केवलात्सादेश्व निर्देशा- यबापूपीयम् / यवानामापूपाः. अथवा यवाश्च त्ततीयान्तात 'सङ्गतेऽर्थे 'यः' स्यात / सीतया | अपूपाश्च इति द्वन्द्वः, यापेभ्य इदं यत्रापप्यम, सङ्गतं-सीत्यम् , द्विसीत्यम , परममीत्यम। यस्य यवापूपीयम। // 29 // पूर्णोऽवधिः // 27 // उवर्ण-युगादेयः / / 7 / 1 / 30 // प्रव०-१सङ्गच्छते इति सङ्गनः, 'गत्यर्थ' म० वृ०- उवर्णान्तशब्दात युगादिभ्यश्चा (5 / 111) इति क्तः / द्वाभ्यां सीताभ्यां सङ्गतं तदोऽर्थे यः स्यात। ईयापादः / शङ्कवे इदंशङ्कद्विसीत्यम् / श्यप्रत्ययस्य,यो यप्रत्ययः 'यः' इत्यधि- व्यं दारु, पिचव्यः कर्पासः, परशयमयः, [चरवे कारसूत्रेण आदिसूत्रेण उपात्त आसीत् // 27 // इमे=] चरव्यास्तण्डुलाः[सक्तुभ्यः इमाः=] सक्तव्या ईयः / / 7 / 1 / 28 // धानाः / युगादि,-'युग्यम् , हविष्यम् , सुयुग्यम / उगोः स्वरे यः' (6 / 1 / 27) इत्यनेनैव सिद्धे गोम० ३०-इत ऊवं यद् भणिष्यामः नत्र आ ग्रहणं तदन्तार्थम , तेन सुव्यम . अतिगांमत्यपि तदोऽर्थेषु 2 ईय' इत्यधिकृतं ज्ञेयम् // 28 // सिद्वम / इह यग्रहणं बाधकबाधनार्थम् / / 30|| प्रव०-१'ईयः (7 / 1 / 28) इति सूत्रे 'आ तद' प्रव०-'युगाय हितमथवा युगार्थ युगोऽस्य इत्यनुवर्तते / वक्ष्यमाणार्थेषु / / 28 / / स्यादिति वा युग्यम् / हविषे इदं हितम्। हधिहविरन्नभेदापूपादेयों वा / / 7 / 1 / 29 // ष्यप्रान्ते सादेश्चेत्यधिकारात सुयुग्यमिति / चुग, म०वृ०-हविर्भदवाचिभ्यः अन्नभेदवाचिभ्यः हविस् , अष्टका, बर्हिस् , मेधा, सच ,बीज कूप, अपूपादिभ्यश्च आ तदोऽर्थे 'यः प्रत्ययो वाऽधिक्रियते क्षर, अक्षर, खद, स्वद, विष, दाश, खर, असुर, [सम्बध्यते / ईयाऽपवाद / 'हविर्भेद.-आमि- दर, अध्वन , गो इति युगादि ।णः / इह युगादिक्ष्यम् , आमिक्षीयम् दधि ; पुरोडाश्याः, पुरोडाशीया- गणप्रान्ते गोशब्दोऽस्ति तमुद्दिश्य गो: स्वरे यः'. स्तण्डुलाः / अन्नभेद,-[ओदनाय इमे] ओदन्याः, (6 / 1 / 27) इत्यक्षराणि ज्ञेयानि / हविरन्नभदा.' ओदनीयास्ताण्डुलाः / अपूपादि, [अपूपाय इदम्=] (7 / 1 / 29) इत्यनेन यप्रत्ययानुवृत्तौ ‘सत्यामपि अपूप्यम् , अपूपीयम् ; तण्डुल्यम , तण्डुलीयम् ; उवर्णयुगादे० (7.1 / 30 ) इत्यत्र पुनर्यग्रहणं Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितार्थाधिकारः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 401 किमर्थमिति पराशयः मूरिराइ,-"इह यग्रहण' मिति, , शुनो वचोदत [उच्च ऊच्च-उदूत् / / 7 / 1 / 33 // हविरन्नभेदशब्दमध्ये उवर्णान्तशब्दानां विकल्पेन 'हविरन्न' ( 7 / 5 / 29) इत्यनेन यः, तं विकल्पं ___म० वृ०-शुनः शब्दादा तदोऽर्थे 'यः' शत् , बाधित्वा 'उव०' (7 / 1 / 30) इत्यनेन नित्यो यः, तं / वकारश्च उकार ऊकाररूपो भवति / शुने हितं= नित्ययं बाधित्वा 'चर्मण्य' (7 / 1 / 45 ) इति शुन्यम् , शून्यम् / / 33 / / प्राप्नोति, तमपि चर्मण्यनं बाधित्वा उवर्णान्तानाम् ___ कम्बलान्नाम्नि // 7 / 1 / 34 / / 'उवर्णयुगादेर्यः' इत्ययमेव प्रवर्त्तते इति बाधकबाधनार्थमित्यभिप्रायोऽयम् // 30 // म० वृ०-कम्बलादा तदोऽर्थे 'यः' स्यात् , नाम्निसंज्ञाविषये [ईयापवादः] / कम्बलोऽस्य नाभेनन् चादेहांशात् / / 7 / 1 / 31 // स्यात् काम्बल्यं परिमाणमूर्णापलशतमुच्यते / 'म० वृ०-नाभिशब्दात् देहांशवाचिन आ नाम्नीति किम् ? कम्बलीया ऊर्णा / / 34 // तदोऽर्थे 'यः' स्यात् , नाभिशब्दस्य च 'नम्' इत्या तस्मै हिते // 7 / 1 / 35 // देशः / 'नाभ्यै नाभये वा हितं = नभ्यमञ्जनम् , नभ्योऽक्षः, [नाभये इदं=नभ्यं दारु, [नभ्यो ____म० वृ--तस्मै इति चतुर्थ्यन्तानाम्नो हितेवृक्षः,] नभ्या शिंशा / [ इति नभ्यार्थे वृक्षादौ ऽर्थे [हित उपकारक इत्यर्थे] 'यथाधिकृतं' प्रत्ययो ताच्छब्द्यान्नभ्यत्वम् इन्द्रायां स्थूणायामिन्द्रवत् / ] भवति / वत्सेभ्यो हितोवत्सीयो गोधुक् / [पित्रे अदेहांशादिति किम् ? 'नाभये हितं नाभ्यं मात्रे हितः पित्रीयः, मात्रीयः, ओदन्यः, ओदनीयः, तैलम् // 31 // अपूप्यः, अपूपी यः इत्यादि // 35 / / अव०-१अरकमध्यवर्ती अक्षधारणः चक्रा- अव०-'आदिशब्दात् हविष्यः,युग्यः, शुन्यः, शून्यः, वयवः काष्ठविशेषो नाभिरुन्यते, तस्यै नाभ्यै तस्मै ऊधन्यः, वत्सेभ्यो न हितमनवत्सीयमिति // 35 / / बा नाभये हितं -नभ्यमञ्जनम घृतम्रक्षणम् , घृत- न राजा-ऽऽचार्य-ब्राह्मण-वृष्णः // 7 / 1 / 36 / / चोपटनेन नाभिः सबलो भवति इति नभ्यमञ्जनम् / म. वृ०-राजन्-आचार्य-ब्राह्मण-वृषन् शब्देनभ्योऽक्ष इति भावनाप्रयोगयोः ( ? ) / यत्तु अर भ्यस्तस्मै हितेऽधिकृतः प्रत्ययो 'न' स्यात् / राज्ञे कगण्डरहितं चक्रमेककाष्ठम् पाषाणानयनार्थम् , हितः, आचार्याय हितः, ब्राह्मणाय हितः, वृष्णे रहडू इति लोके प्रसिद्धम् ,तत्र न नाभिर्भवति (इति) तदर्थे यो नभ्यशब्दः स उपचारादेव प्रवर्तते। [वृषभाय] हितः इति वाक्यमेव // 36 // २शाखायेव नाभये हितं न समस्तो वृक्ष इति प्रश्ना- प्राण्याङ्ग-रथ-खल-तिल-यव-वृष-ब्रह्म-माषाद् यः र्थः, [तत्राह- नभ्यो वृक्षः, नभ्या शिंशपा इति // 7 // 1 // 37 // ताच्छब्द्यान्नभ्यत्वम् , इन्द्रार्थायां स्थूणायामिन्द्रवत् / उ'नाभ्यं तैलम्', अत्र वक्ष्यमाणेन 'प्राण्यङ्गरथखल- ___म. वृ०-प्राण्यङ्गवाचिशब्देभ्यः रथादिभ्यश्च तिल' (7 / 1 / 37) इत्यनेन यः प्रत्ययः // 31 // तस्मै हिते यः'स्यात्। दन्तेभ्यो हितं दन्त्यम ,कर्ण्यम् , [ चक्षुषे हितं] चक्षुष्यम् , कण्ठ्यम् ओष्ठ्यम् , न चोधसः // 7 // 1 // 32 // नाभ्यम् , रथाय हिता-रथ्या भूमिः, 'खल्यम् , म० वृ०-ऊधसशब्दादा तदोऽर्थे 'यः' स्यात्, / तिल्यो वायुः, यव्यः तुषारः, वृष्यम् , "ब्रह्मण्यः, 'न्'इत्यन्तादेशश्च / ईयापवादो योगः। ऊधसे हितं / माष्यः वातः / सादेश्चेत्यधिकारात् 'राजदन्त्यम् , ऊधन्यम् // 32 // शङ्खनाभ्यम् / / 37 // Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 7 पा० 1 सू० 38-42 प्रव०-१खलाय हितं खल्यम / २तिलेभ्यो आचार्यभोगीनः / आत्मन ,- आत्मनीनः, 'अनाहितः / वृषाय सण्डाय हितं वृष्यं क्षीरपाणम। त्मनीनः / / 40 // ब्रह्मणे हितो ब्रह्मण्यो देशेः / 'दन्तानां राजानौ राजदन्तं (?राजदन्तौ), राजदन्ताभ्यां हितम् / अव०-'मातुर्भोगः (मातृभोगः), मातृभोगाय शङ्खो नाभिश्च देहांशी, ततः शङ्खश्च नाभिश्च, हितः / एवं पितुर्भोगः पितृभोगः, पितृभोगाय 'प्राणितूर्याङ्गाणाम्' (3 / 1 / 137) इति समाहारः, हितः / एवं ग्रामण्यो भोगः (सामणिभोगः), ग्रामशङ्खनाभिने हितं शङ्खनाभ्यम् / एवमश्वस्थ्या भूमिः, णिभोगाय हितः, सेनान्यो भोगः (सेनानीभोगः), कृष्णतिल्यः, राजमाष्यः, राजमायो बल्लः, राजमा सेनानीभोगाय हितः, 'वेदूतोऽनव्यय'० (2 / 4 / 98) षाय हितं-राजमाष्यम् // 37 // इत्यनेन ह्रस्वः। आचार्यस्य भोगः (आचार्यभोगः), आचार्यभोगाय हितः / ग्रामणिभोगीनाद्युदाहरण अव्यजात् थ्यप् / / 7 / 1138 / / त्रये शुभ्नादित्वान्नत्वम् / 'आत्मनीनः, अनात्म- . . म० वृक्ष-अवि-अजाभ्यां तस्मै हिते 'थ्यप' नीनः ; अत्रोदाहरणद्वये 'ईनेऽध्यात्मनोः' (7 / 4 / 48) स्यात् / अविभ्यो हितमविश्यम् , अजयम , तथा इत्यनेनान्त्यस्वरादिलोपाभावः , आत्मने हितः , 'अजथ्या यूतिः // 38 // न आत्मने हितः / / 40 // पञ्च-सर्व-विश्वाजनात् कर्मधारये // 71 / 41 // अव०-अजाभ्यो हिना अजथ्या, अत्र थ्यपप्रत्ययपकारः पुवभावार्थः / पित्करणसामर्थ्यात् ___म० वृ०-पञ्चसर्वविश्वेभ्यः पराजनात्कर्मधारये 'स्वाङ्गान्दीर्जाति०' (3 / 2 / 56) इत्यनेन बद्भावो वर्तमानात्तस्मै हिते 'ईनः' स्यात् / 'पञ्चजनीनः। : निषिद्धोऽपि, 'क्यङमानिपित्तद्धिते' (32 / 50) रथकारपञ्चमस्य चातुर्वर्णस्य पञ्चजन इति संज्ञा / इत्यनेन अजाशब्दस्य पुंवद्भावः क्रियते, अजथ्या सर्वजनीनः, विश्वजनीनः / कर्मधारये इति किम ? इति सिद्धम् // 38 // २पञ्चजनीयः, सर्वजनीयः [विश्वजनीयः] // 41 // चरक-माणवादीनन // 7 / 1 / 39 / / अव०- 'पञ्च च ते जनाश्च पञ्चजनाः, पश्चम० वृ०-आभ्यां तस्मै हिते ‘ईनय' स्यात् / जनेभ्यः पञ्चजनाय वा हितः / पञ्चानां जनः पञ्चपचारकीणः, माणवीनः // 39 // जन इति तत्पुरुषः, तस्मै हितः, 'तस्मै हिते' (7 / 1 / 35) इति ईयः, पञ्चजनीयः / सर्वो जनोऽस्य अव०-'चरकेण प्रोक्तं वेदं विदन्त्यधीयते वा.तेन इति बहुव्रीहिः, सर्वेषां वा जनः इति तत्पुरुषः, प्रोक्त' (6 / 3 / 181) अण, 'तद्वत्त्य'० (6 / 2 / 117) तस्मै हितः, 'तस्मै हिते' इति ईयः / / 4 / / अण , 'प्रोक्तात' (6 / 2 / 129) इत्यणो लप , 'कठा महत्सादिकण / / 7 / 1 / 42 / / दिभ्यो वेदे लुप्' (6 / 3 / 183), चरकेभ्यो हितश्चार म० वृक्ष-महतः परात् सर्वाच्च यो जनशब्दस्तकीणः // 3 // दन्तात् कर्मधारये तस्मै हिते इकण् स्यात् / 'माहाजभोगोत्तरपदा-ऽऽत्मभ्यामीनः // 7 / 1 / 40 // निकः, सार्वजनिकः / कर्मधारये इत्येव-महा__ म. वृ०-भोगोत्तरपदाच्छब्दात् आत्मनशब्दाच जनीयः, सर्वजनीयम् // 42 // तस्मै हिते 'ईनः' स्यात् / मातृभोगाय हितो-मातृ- अव०-महते जनाय हितः =माहाजनिकः / भोगीणः, ' [पितृभोगाय हितः=] 3पितृभोगीणः, / सर्वस्मै जनाय हितः= सार्वजनिकः / एवं च सर्व * इदं चिन्त्यम् , ग्रामणिभोगीनसेनानीभोगीनयोर्णत्वाप्राप्तेः / Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदर्थार्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 403 - जनशब्दात् पूर्वेण ईनः अनेन च इकण इति / यवागू : इत्यादिषु यवाग्वादिद्रव्यं मूत्रादितया परिण द्वैरूप्यं सर्वजनीयः सर्वजनिक इति / महान् / मति, न तु तदर्थम् / अथवा तदर्थ इति चतुर्थीविजनोऽस्य, तस्मै हितः / 'सर्वेषां जनाय हितम् , शेषणं ज्ञेयम् ,परिणामिनि इत्यध्याहार्यः,पूर्व हि तदर्थे 'तस्मै हिते (7 / 1 / 35) ईयः // 42 // इति परिणामिशब्दस्य विशेषणमासीदित्यभिप्रायः / साण्णो वा / / 7 / 1 / 43 / / / तदर्थो या चतुर्थी तदन्तात्प्रत्ययो भवति इति व्याख्यानं सूत्रार्थस्य कर्त्तव्यम् / मूत्राय यवागूः सम्पद्यते इत्यम. वृ०-जनादिति कर्मधारय इति च निवृ थे चतुर्थी अत्रास्ति, न तु तदर्थे; इति हेतोमत्राय त्तम् / सर्वशब्दात्तस्मै हिते ‘णो वा' स्यात् / [सवे सम्पद्यते यवागू : इत्यादिषु प्रत्ययो न सञ्जातः / स्मै हितं=] सार्वः, [पक्षे ईयः] सर्वीयः // 43 // / *सक्तूनां धाना इत्यादिषु तादर्थे सत्यपि सम्ब... 'परिणामिनि तदर्थे / / 7 / 1 / 44 / / न्धमात्रविवक्षायां षष्ठी भवति, यथा- गुरोरिदं गुर्वर्थमिति / भवति च सतोऽपि अविवक्षा, यथा___म० वृ०-हिते इति निवृत्तम् / तस्मै इति चतुर्थ्यन्तशब्दात्तदर्थे चतुर्थ्यन्तार्थार्थे परिणामिनि नुदरा कन्या, तथाऽत्रापि // 44 // कारणद्रव्ये वाच्ये 'यथाधिकृतं' प्रत्ययः स्यात् / चमण्या / / 7 / 145 / / अङ्गारीयाणि' काष्ठानि, अङ्गारार्थानीत्यर्थः, [शङ्कवे ___म० वृ०-तस्मै इति चतुर्थ्यन्तात्परिणामिनि इदम् ] शङ्कव्यं दारु,पिचव्यः कासः, ओदन्याः ओ तदर्थे चर्मणि वाच्ये-'ऽम्' स्यात् / 'वा, चर्म, दनीयास्तण्डुलाः / परिणामिनीति किम् ? 'जला वारत्रं चर्म / उसनङ्गव्यं चर्म, 'उवर्णयुगादेर्यः' य कूपः, असये कोशी / तदर्थे इति किम् ? मूत्राय (71 / 30 / इति) य एव स्यात् / / 45 // यवागूः, उच्चाराय यवान्नम् , पादरोगाय नड्वलोद अव०-वर्धाय रवरत्राय इदम् / 'सनङ्गुकम् / यवाग्वादिमूत्रादितया परिणमति, न तु तद श्चधिकारः // 45 // थम् / तस्मै इत्येव- "सक्तूनां धानाः, धानानां 'ऋषभोपानहायः / / 7 / 1 / 46 / / यवाः // 44 // म. वृ०-आभ्यां परिणामिनि तदर्थे 'व्यः' प्रव०-'तेनाङ्गारादिरूपेण भवनं तद्भावः, स्यात् / ऋषभाय अयमार्षभ्यो वत्सः, पाना तद्भावः परिणामः , सोऽत्यास्ति परिणामी, काष्ठं चर्म वा / / 46 // तस्मिन् परिणामिनि / परिणामि कोऽर्थः ? द्रव्यं अव०-ऋषभश्च उपानच्च-ऋषभोपानहम् , 'चपरिणामिद्रव्यमुच्यते कारणेन सामग्रीवशतः कार्य वर्गदपहः समाहारे' (7 / 3 / 98) इत्यनेन अत्समारूपपरिणमनमित्यर्थः ( ? ) / चतुर्थ्यन्तस्य शब्द सान्तः,तस्मात् ऋषभोपानहात् / श्चतुर्थ्यन्ताभ्याम् / स्यार्थोऽभिधेयोऽङ्गारादिः, तस्मै अयं स चतुर्थ्य औपानां चर्म, अत्र चर्मण्यपि परिणामिनि वाच्ये तार्थार्थः. तस्मिन.कोऽभिप्रायः ? चतर्यन्तं यत परत्वात् अयमेव='ऋषभोपानहा०' इत्यनेन भ्य एव पदं तस्य योऽर्थः तस्मिन् काष्ठादिके घाच्ये, भर्थाच विकृतिवाचिनोऽङ्गारादिशब्दात् परतः प्रत्ययो भव- / भवति, न तु 'चर्मण्यम् ' (7 / 1 / 45) // 46 // तीत्यर्थः / अङ्गारेभ्य इमानि / (एवम् ) अपूप्य छदिबलेरेयण / / 7 / 1 / 47 // म् , अपूपीयम् पिष्टम् / 'जलाय कूपः, असये कोशी; म० वृ०-छदिस-बलिभ्याम् [चतुर्थ्यन्ताभ्याम् ] कोशशब्दः खड्गप्रत्याकारवाचकत्रिलिङ्गः, 'जातेर- | परिणामिनि तदर्थे 'एयण' स्यात् / छदिषे इमायान्त०' ( 2 / 4 / 54 ) इति डी, अत्र हि न कूपो न | नि-छादिषेयाणि तृणानि, बलये इमे बालेयास्तकोशी जलासिभावेन परिणमेते / 'तथा मूत्राय | ण्डुलाः // 47 // Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 1 सू० 48-52 प्रव०-चमर्ण्यपि वान्ये परत्वादयमेव एयण / व्यते। प्राकार आसामिष्टकानां स्यात् प्राकारीया भवति, न तु 'चर्मण्यम्' ( 1145 ); छादिषेयं / इष्टकाः, [प्रासादोऽस्य दारुणः स्यात्=] प्रासादीयं चर्म // 47 // दारु, प्रासादोऽस्मिन् देशे स्यात् प्रासादीयो देशः, परिखाऽस्य स्यात् / / 7 / 1 / 48 // प्रासादीया भूमिः / एवं परशुरस्याऽयसः स्यात्= पारशव्यमयः। ईयस्य पूर्णोऽवधिः / / 50 / / म. वृ०-परिखाशब्दानिर्देशादेव प्रथमान्तादस्येति षष्ठयर्थे 'एयण' स्यात् : या परिखा सा तस्याहे क्रियायां वत् / / 7 / 1151 / / चेत् स्यादिति योग्यतया सम्भाव्यते / परिखा आसा- म. वृ०-तस्येति षष्ठयन्तादर्हेऽर्थे 'यत्' स्यात् , मिष्टकानां स्यादिति पारिखेय्य इष्टकाः / स्यादिति यदहें तच्चेत् क्रिया भवति ।राज्ञोऽहं-राजवद् वृत्तकिम् ? परिखा इष्टकानाम / परिणामिनीत्येव-परि मस्य राज्ञः, राजत्वस्य युक्तमस्य राज्ञो वृत्तमित्यर्थः, खाऽस्य नगरस्य स्यात् / / 48 // [साधोरहम्=] साधुवत् , [कुलीनस्याईम्=] कुली नवत् . “स शिरांसि द्विषामाजी चिच्छेद कृतहस्त- ' प्रव०-'स्यात्' इत्यत्र 'सम्भावनेऽलमर्थे तद- वत" / कृतहस्तस्य शिक्षितास्त्रत्याईम् / क्रियार्थानुक्तौ' (5 / 4 / 22) इत्यनेन सम्भावनेऽर्थो सप्तमी / यामिति किम् ? शतस्या) मैत्रः, राज्ञोऽ) मणिः / तथाहि इष्टकानां बहुत्वेन सम्भाव्यते एतत परिखा स्यादेरिवे / / 7 / 152 / / आसामिष्ठकानां स्यात् / वक्ष्यमाणेन तद्' (71.50) म० वृ०-स्याद्यन्तादिवार्थे 'वत्' स्यात् ; इवइति सूत्रेण यथाधिकृतस्य प्रत्ययस्य विधास्यमान शब्दः सादृश्यं द्योतयति, तच्चेत्सादृश्यं क्रियायां त्वात् इह परिखाऽस्य०' इति सूत्रे उत्तरत्र 'अत्र च' बियाविषयं भवति / [ अश्व इव= ] अश्ववद्धावति इति सूत्रेऽपि एयणेव प्रत्ययोऽनुवर्तते, पृथग्योग चैत्रः, (देवमिव=] देववत्पश्यन्ति मुनिम्' / स्याद्वयकरणात् , अन्यथा वक्ष्यमाणेन तद्' (7 / 1 / 50) देरिति किम् ? गच्छन्नास्त इत्र, अधीयानो नृत्यइति सूत्रेण यथाधिकृतप्रत्ययस्य सिद्धत्वात इदं तीव / क्रियायामित्येव- गौरिव गवयः, मैत्र इव 'परिखा०' ['अत्र च'] इति सूत्रद्वयमपि व्यर्थ गोमान , हस्तीत्र स्थूलः५। चैत्रबगोमानिनि अत्र स्यात् // 48 // तुल्यायामस्तौ भवतौ च क्रियायामध्याह्रियमाणायां अत्र च / / 7 / 1 / 49 / / प्रत्ययो भविष्यति // 52 // म० वृ०-परिखाशब्दादत्रेति सप्तम्यर्थे 'एयण' प्रव०- 'देववत्पश्यन्ति मुनिम इत्यस्याने स्यात् , सा चेत् परिखा स्यादिति सम्भाव्यते / माधुनेव साधुवदाचरितं मैत्रेण, ब्राह्मणा येव ब्राह्मणपरिख। अस्यां स्यात् पारिखेयी भूमिः / चकार उत्तर वदत्तं क्षत्रियाय, पवतादि। पर्वतबदवरोहति आससूत्रेऽस्य स्यादिति परिणामिनि अत्र स्यादिति च नान इति पञ्चम्यविभक्ति यावत उपमानोपमेयउभयस्याप्यनुवृत्त्यर्थः // 49 // साहश्यार्थे 'स्यादेरिवे' इत्यनेन बत् क्रियते / षष्ठी सप्तम्यर्थे उत्तरसूत्रद्वयेन वन भवतीत्यर्थः / रमन्दअव०-'अत्र च' (1 / 49) इति पृथग्योग वादभिमतदेशस्याऽप्राप्तेः इत्यर्थः / उअधीयानो करणं परिणामिनीत्यस्य इह असम्बन्धार्थम् / / 4 / / नृत्यतीव, अस्याएं भावः- अङ्गविकारप्रायत्वात् , तद् // 7 / 1150 // अङ्गविकारैः प्रायः (=अधिकारप्रायः), तस्य भावः . म० व.-तदिति प्रथमान्तादस्येति षष्ठयर्थे (अङ्गविकार)प्रायत्वम् , तस्मात् / ४क्रियाविषयपरिणामिनि अत्रेति सप्तम्यर्थे च 'यथाधिकृतं / साढश्ये। एषु द्रव्यगुणविषये सादृश्ये वत् प्रत्ययो प्रत्ययः स्यात् ,यत्प्रथमान्तं तच्चेत् स्यादिति सम्भा- | न भवति / / 52 / / Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थाधिकारः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंबलितम् / [105 तत्र / / 7 / 1 / 53 / / गवत्वम् , दण्डित्वम ।२०डित्थादेः स्वरूपे-डित्थस्य म० वृ०-तत्रेति सप्रम्यन्तादिवाणे 'वत्' स्यात् भावः स्वरूपत्वम् (डित्थत्वम् ,)डवित्थत्यम / 'एवं मथुरायामिव मथुरायन पाटलिपुत्रे प्रासादाः / गुरु गोजाते वो गोत्वम, २२शुक्लत्वम् , २३देवदत्तवद् गुरुपुत्रे वर्तितव्यमित्यादिषु क्रियासादृश्ये पूर्वे- त्वम् , 24 चन्द्रत्वम् , २५दिक्त्वम्. २५आकाशत्वम् , णैव सिद्धम् / अक्रियार्थस्त्वारम्भोऽयम् // 53 // २६अभावत्वम् / तथा सतो भावः सत्त्वम् सत्ता, विद्यमानत्वम् ; २७अत्र हि जातावेव भावप्रत्ययः / प्रव०-तत्र,पञ्चमीङसिः सूत्रत्वात् (लोपः)। एवं तस्य २८त्वे वा' (6 / 11.6) इति वचनात् स्त्रीपुसाभ्यां ॐइत्यत्रापि पञ्चमीङसिः, सूत्रत्वात् लोपः // 53 / / पक्षे नत्रस्नबावपि भवतः, स्त्रीत्वम् , स्त्रीता, रणम : तस्य / / 7 / 1 / 54 // पुंस्त्वम् , पुंस्ता, पौंस्नम् / लकारः स्त्रीत्वार्थः / त्वान्तं च *आत्वात्त्वादि'-रिति नपुंसकम् / / 54|| म० वृक्ष-तस्येति षष्ठ्यन्तादिवार्थे 'वत'स्यात् / चैत्रस्येव मैत्रस्य गावः चैत्रवत् , विप्रस्येव क्षत्रियस्य प्रव०-यत् भवतोऽस्मादित्याद्यक्षरैर्भावस्वदन्ता विप्रवत / अक्रियाविषयसादृश्यार्थ आरम्भः / रूपं दर्शितम् ,तदेव सुव्यक्तदर्शयति- शब्दस्य प्रवृ. योगविभाग उत्तरार्थः / / 54 // त्तीत्यादि, देशकालस्वभावभिन्नेषु नानाविधगवा दिपिण्डेषु इयं गौः इयं गौः (इति) या एका शब्दस्य भावे त्व-तल / / 7 / 1 / 55 // प्रवृत्तिलॊके भवति तत्र शब्दप्रवृत्ती निमित्तं कारम० वृ०-तस्येति षष्ठ्यन्ताद् भावेऽर्थे 'स्वतलौ' णम् , तथा द्रव्यसंसर्गी , कोऽर्थः ? द्रव्ये गोव्यक्ती भवतः / 'भवतोऽस्मादभिधान-२ प्रत्ययाविति भावः क्लयादिगोपिण्डादौ विशेष्यरूप संसर्गी समवेतः शब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तं द्रव्यसंसर्गी भेदको गुणः / सम्बद्धः, तथा भेदकोऽन्येभ्योऽश्वादिविजातीयेभ्यो यदाहुः,-“यस्य गुणस्य हि भावाद् द्रव्ये शब्दनि- भेदको व्यवच्छेदकः, यतो विशेषणं व्यवच्छेदकं "वेशस्तदभिधाने त्वतलौ" / तत्र- . भवति, यतोऽश्वादिभ्यो गोत्वविशेषेणैव गौाव "जातिगुणाज्जातिगुणे,समासकृत्तद्धितात्तु सम्बन्धे; य॑ते, तथा गुण इति द्रव्यादिवशतयाऽमुख्यः, एवंडित्थादेः स्वे रूपे, त्वतलादीनां विधिर्भवति"। विधो यो गुणः विशेषणं शब्दप्रवृत्तिनिमित्तं द्रव्यतत्र जातिवचनेभ्यो जातौ वाच्य ?वाच्यायां)- गोशब्द मंसर्गी भेदकः स एव भाव उच्यते इति परमार्थः / स्य भावो गोत्वम् , गोता ; अत्र गोशब्दजातिर्भावः / यद्यपि पूर्व ज्ञानं भवति पश्चात् शब्दः प्रवर्त्तते गोरर्थस्य भावो-गोत्यम् , गोता ; अत्र गवार्थजाति इति प्रक्रमः, यतोऽभिधानं कोऽर्थः ? शब्दः, प्रत्ययः र्भावः / [शुक्लस्य गुणस्य भावः] शुक्लत्वम् , शुक्लता; / कोऽर्थः ?गवानुकारानुगतं ज्ञानमुत्पद्यते, तथापि स्व(अत्र) शक्लगुणजातिः। एवं रूपत्वम् , रसत्वम् ; अत्र / राद्यन्तत्वादभिधानशब्दस्य 'लध्वक्षरासखीदुत्०' रूपादिगुणजातिः / कत्वम् / कवर्गत्वम् ।गुणशब्दे / (3 / 1 / 160 ) इत्यादिसूत्रेण प्रत्ययशब्दात् पूर्व भ्यो गुणे [ त्वतलौ भवतः ]- 1 शुक्लस्य पटस्य निपातः / द्रव्ये कोऽर्थः ? गवादौ विशेष्यरूपे / 'स भावः शुक्लत्वम् ,शुक्लतरत्वम् ,अणुत्वम्,१२महत्त्वम् , | भाव उच्यते इति सम्बन्धः / तदभिधाने तस्य १3एकत्वम् , द्वित्वम् ,पृथक्त्वम् ,14 नानात्वम् ,उच्चै- गुणस्याभिधाने, तस्मिन् गुणे वाच्ये / ६'जातिम्त्वम् 15 / पटवादयोऽपि गुणा एव,-पटुत्वम् , गुणाद्' इति, यथासंख्यं जातिनिमित्तात् शब्दात् मृदुत्वम् / समासात्सम्बन्धे-राजपुरुषत्वम् , अत्र / जातौ वाच्यायां गुणनिमित्तात् शब्दात् गुणे वाच्येत्वस्वस्वामिसम्बन्धः / कृतः सम्बन्धे- १८पाचकत्वम्, तलो भवत इति वाक्यसम्बन्धः / रूपादिगुणजातिकार्यत्वम ,साधनत्वम / तद्धितात सम्बन्धे-औप- | र्भावोऽस्ति इति योगः। कत्वम् , खत्वम् , गत्वम् : ''तस्य' (7 / 1 / 54) इत्युत्तरसूत्रे / * श्रीहैमलिङ्गानुशासने क्लीबलिङ्गप्रकरणे नवमे श्लोके / Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 1 सू० 56-57 अत्र भिन्नवर्णव्यक्तिसमवेता जातिर्भावोऽस्तीति [ रूपम् (भावः)। ४चन्द्रत्वम् ,सूर्यत्वम् अत्र एककलादियोज्यम् / 'कवर्गत्वम् ,चवर्गत्वम् अत्र हि ककारचका- | षोडशान्तकलाविशेषप्रकाशनस्वरूपम् ,अभ्रच्छन्नादिरादिवर्गव्यक्तिसमवेता कत्वखत्वादिजातिसंहतिर्भावो- विशेषस्वरूपम् (भावः)। २५आकाशदिशोर्नित्यव्यापकऽस्ति / 'शक्लस्य पटस्य भावः शक्लत्वम , अत्र | स्वरूपं भावः। २६अभावत्वम ,अत्र निषेधात्मकं भावशुक्लो गुणो भावो ज्ञेयः / 1 शुक्लतरत्वम् शुक्लतम- स्वरूपं भावो ज्ञेयः / २७अत्र हि जातादेव भावत्वम् ; अत्र तु स एव गुणः प्रकृष्टो भावः / १२अणु- प्रत्यय इत्यस्याये नहि सद्वस्तु सत्तासम्बन्धं व्यभित्वम् , महत्त्वम् ; अत्र परिमाणलक्षणो भावो मन्त- चरति इति सत्तासम्बन्धानपेक्षणात् जातावेव त्वव्यः / १3एकत्वम् , अत्र तु संख्यालक्षणो भावः। तल्प्रत्ययो भवति, न सम्बन्धे, सत्सु विद्यमानेषु १४पृथक्त्वम् , नानात्वम् ; अत्र भेदलक्षणो भावः। च पदार्थेषु नित्यसमवायिनी .......... ... 15 उच्चस्त्वम् , नीचैस्त्वम् अत्रोन्नतादिलक्षणो भायो (शब्दप्रवृत्तिहेतुः सत्तैव भावप्रत्ययवाच्या, न तु) विचार्यः / ननु पृथगादिशब्दानामव्ययानामसत्त्व- सत्सत्त्वयोः सम्बन्धः कोऽप्यस्ति इति भावः / २८"त्वे .. वाचित्वात्कथं पृथक्त्वम् , नानात्वम , उन्चैस्त्व- वा' (6 / 1 / 26 ) इति सूत्रं प्रथमपादेऽस्ति, तत्र मित्यादिषु भावप्रत्ययः ? नहि असत्त्वादसत्त्वे | भावेऽर्थे त्वप्रत्ययविषये नन स्नत्री भवतः, वावप्रत्ययः, भावो ह्यसत्त्वरूपः, सत्यम् , पृथक्त्वमस्य चनात् त्वतलावपि भवत इति सूत्रार्थः / / 55 / / इति वृत्ती पृथगादिशब्दाः पृथग्भूतायर्थे सत्त्वे वर्तन्ते प्राक् त्वादगडुलादेः / / 71 / 56 / / इति त्वतलौ प्रत्ययौ जाती। समाम ? विग्रहः) इत्थं म० वृ०-त्वतलित्यनुवर्तते / वक्ष्यमाणं पृथग्भूतस्य भावः-पृथक्त्वमित्यादि / / इति पटु 'ब्रह्मणस्त्वः ' (7 / 1 / 77) इति सूत्रं यावत् त्वतत्वमित्यादिषु च गुणो भावः / त्वतलमिति योगः(?)। लावधिकृतौ ज्ञातव्यौ, गडुलादीन वर्जयित्वा / अप "राज्ञः पुरुष इति वाक्ये षष्ठीविभक्त्या पुरुषो वादसूत्रैः सह समावेशार्थः कर्मण्यर्थेऽपि विधानाधर्मी अभिवीयते, त्वप्रत्ययेन तु तयो राजपुरुषयोः र्थश्च त्वतलोरधिकार आरभ्यते / अगडुलादेरिति पृथगभूतः सम्बन्धः / १८पाचकत्वमित्यादिषु किम ? गाडुल्यम / गडुलादेरपि केचित्त्वतला. पचनक्रियातकोंः समवायः सम्बन्धोऽभिधी- विच्छन्ति,-गडुलत्वम् , गडुलता / / 56 / / यते इत्यर्थः / तद्धितवृत्तावपि औपगवत्वमित्यादौ उपगुतदपत्ययोः दण्डपुरुषयोः पृथग्भूत प्रव०-गडुल, विशस्त,दायाद, बालिश,संवादिन , सम्बन्धः।२."डित्थादेः स्वे रूपे' इत्यादि.डित्थादेस्त बहुभाषिन् , शीर्षघातिन , शीर्षाघातिन , कमण्डलु यहच्छाशब्दादन्यस्य प्रवृत्तिनिमित्तस्याऽसम्भवात्त इति गडुलादिगणः / गडुलादिभ्यो राजादित्वात् स्मिन्नेवासाधारणेस्वरूपे वाच्ये डित्थशब्दवाच्यतया यण भवति / कमण्डलुपरात् 'य्वृवर्णाल्लघ्वादेः' ऽध्यवसितभेदेऽव्यतिरिक्त ऽभिन्नेऽपि व्यतिरिक्ते (7 / 169) इत्यण् / अत्र भावाधिकारे अग्रे 'ब्रह्मणइव अस्य डित्थ इति नाम इति कल्पिते इव, स्त्वः' (71177) इति सूत्रं वक्ष्यते, तत्र सूत्रे त्वप्रशब्दप्रत्ययबलात् बुद्धयावगृहीते धर्मे त्वतलप्रत्ययो त्यय , तस्मात् त्वप्रत्ययात् प्राक् अर्वाक् प्रोक्तम् / भवतीत्यर्थः / एवं गोजाते वो गोत्वम् अत्र गोश- प्राक्त्वशब्दस्यार्थो वृत्तिमध्ये वक्ष्यमाणं 'ब्रह्मणस्त्वः' ब्दस्य कोऽर्थः? गोजातेःस्वरूपम् / तथागोशब्देन कथं (7 / 1 / 77) इत्यक्षररचनया प्रकटो लिखितोऽस्ति / गोजातिरुच्यते ? सत्यम् ,उपचारात्, यो गोजातिः स / अपवादसूत्रेषु प्रवर्तमानेषु इदमपि 'भावे त्वतल्' एवं गोशब्द इति / २२शुक्लस्य जातेः भावः शुक्ल- | सूत्रमुत्सर्गसूत्रं प्रवर्तते इत्यर्थः। 'गडुलस्य भावः / त्वम् ,अत्र शुक्लशब्दस्य स्वरूपं भावो ज्ञेयः / २३देव- / एवं कामण्डलवम् / / 56 / / दत्तत्वम् , अत्र वयोऽवस्थादिभेदभिन्नव्यक्तिस्व- / 'नत्र तत्पुरुषादबुधादेः / / 7 / 1157 // . Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [407 म.वृ०-२ ब्रह्मणस्त्वः' (7 / 1 / 77) इत्यतोऽर्वाग्म वृ०-पृथु इत्यादिभ्योभावेऽर्थे इमन् वा स्यात् / नपूर्वात्तत्पुरुषात् बुधाद्यन्तवर्जितात्त्वतलौ स्याता- अधिकारवशात् त्वतलौ च / यश्चाणादिः प्राप्नोति मित्यधिकारो वेदितव्यः / ट्यणादिबाधनार्थम् / [वृवर्णाद् (7 / 2 / 69) इत्यादिविहितः] सोऽपि(वा.) न शुक्लोऽशुक़स्तस्य भावः अशुक्लत्वम् . अशुक्लता; वचनाद् भवति / प्रथिमा,पृथुत्वम् ,पृथुता,पार्थवम् ; अत्र ट्यणबाधया स्वतलावेव दियणप्रत्ययं बाधित्वा एवं रम्रदिमा, मृदुत्वम् , मृदुता, मार्दवम् ['य्यत्वतलौ प्रवृत्तावित्यर्थः] अशोक्लयम् ,अत्र ट्यणन्तेन वर्णा' (71 / 61) इत्यण ]: उबंहिमा, बहुलत्वम् , सह समासः / एवमपतेर्भावः कर्म वा अपतित्वम , बहुलता, बाहुल्यम [ 'वर्णः' ( ७।१।५९)ट्यण ] अपतिता। अनाधिपत्यम् ,अगाणपत्यम् अत्रापि ट्यण / / / 58 // न्तेन समास: / इत्यादिप्रयोगाः / नजिति किम् ? प्राजापत्यम / तत्पुरुषादिति किम् ? आपत्यम् , आरा- अव०-पृथु, मृदु, पटु, महि, तनु, लघु, बहु, ज्यम् / अबुधादेरिति किम् ? [न बुधः अबुधस्तस्य साधु आशु, उरु, गुरु, खण्डु, पाण्डु, बहुल, चण्ड, भावः कर्म वा] आबुध्यम / / 57|| खण्ड, अकिञ्चन, बाल, होड, पाक, वत्स, मन्द, स्वादु, ऋजु, वृष, कटु, ह्रस्व, दीर्व, क्षिप्र, क्षुद्र, अव०-'नपूर्वस्तत्पुरुषः नञ्तत्पुरुषः, तस् प्रिय, महत् , अणु, चारु, वक्र, वृद्ध, काल, तृप्त मात् / प्राक् त्वात् इत्यस्यार्थोऽयम / बुध, चतुर. इति पृथ्वादिगणः / पृथोर्भावः प्रथिमा, मृदोसङ्गत, लवण, वड, कत, स, लस, यथा, तथा, र्भावो-म्रदिया. 'पृथ्वादेरिमन्वा (71258), पश्चात यथातथ, यथापुर, ईश्वर, क्षेत्रज्ञ, संवादिन , संवे- 'पृथुमृदुभृशकृशदृढपरिवृढस्य ऋतो रः' (7 / 4 / 39) शिन , सम्भाषिन् , बहुभाषिन , शीर्षघातिन , सम- इति सूत्रेण ऋकारस्य र आदेशः / उ'बंहिमा', अत्र स्थ, विषमस्थ, पुरस्थ, परस्थ, मध्यमस्थ, मध्यस्थ, बहुलशब्दः, बहुलस्य भावो बंहिमा, 'पृथ्वादेरिमदुष्पुरुष, कापुरुष, विशाल इति बुधादिगणः / एभ्यो न्या', ततः 'प्रियस्थिरस्फिरोरु'० (7 / 4 / 38) इत्याराजादित्वात घ्यण / “शुक्लस्य भावः कर्म वा शो- दिना बहुलस्य बंह आदेशः / / 58 / / क्ल्यम , 'वर्णबढा०' (751159) इति ट्यण ,पश्चात वर्णदृढादिभ्यष्टयण च वा / / 7 / 1159 // * 'ट्यणन्तशौक्लयशब्देन सह नब्समासः, न शौक्ल्य म० वृ-वर्णविशेषवाचिभ्यः 'दृढादिभ्यश्च मशौक्लयमिति युक्त्या त्वतलौ न प्राप्तौ, समासा भावे ट्याणमनी वा स्याताम् , त्वतलौ च / अणात्पुनर्यदि ट्यण स्यात् तदा नयोऽकारस्य वृद्धिः दिप्रत्ययोऽपि वाघचनाद् भवति / शौक्लचम, प्रसज्येत / अराजता, अमूर्खता, अमूर्खत्वम् ; एषु 'पतिराजन्त०' (7 / 1 / 60) इति ट्यणं बाधित्वात्वतली शुक्तिमा, शुक्लत्वम् , शुक्लता। शैत्यम , शितिमा, शितित्वम् , शितिता, शैतम् ['य्ववर्णा'० (7 / 1 / जाती / अस्थविरत्वम् , अत्र 'युवादेरण ' (71 / 67) 69) इत्यण ] / दृढादि, दाय॑म् , द्रढिमा, दृढइत्यणो बाधया त्वतली / अकिशोरत्वम् ,अत्र प्राणिजातिवयोऽर्थादब्' (7 / 1 / 66) इत्यनं बाधित्वा त्वम , दृढता' / बहुवचनादाकृतिगणोऽयम् / तेन स्थैर्य स्थेमेत्याद्यपि सिद्धम् // 59 / / त्वतलौ / अहायनत्वम् , अत्र 'हायनान्तात्' ( 7 / 1 / 68) इत्यणं वाधित्वा त्वतलौ। अपटुत्वम् , ___ अवा- 'दृढ, वृढ, परिवृढ, कृश, भृश, चुक्र, अत्र 'वृवर्णा'० (71 / 69) इत्यणं बाधित्वा, अरम शुक्र, अम्र ताम्र, अम्ल, लवण, शीत, उष्ण, तृष्णा, णीयकत्वम् ,(अत्र) 'योपान्त्याद् ' (7 / 1 / 72 इनि) जड, बधिर, मूक, मूर्ख, पण्डित, मधुर, वियात, अकम्नं बाधित्वा त्वतलौ प्रवृत्तौ / / 57|| विलात, विमनस्, विशारद, विमति, सम्मति, पृथ्वादेरिमन् वा // 7 / 1 / 58 // / संमनस् इति दृढादिगणः / वहुवचनमाकृतिगणा Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 ] श्रीसिद्धहमशब्दानुशासन [भ०७ पा० 1 सू० 60-63 र्थम्। तेन स्थैर्यम् , स्थिरता, स्थेमा इत्याद्यपि / न्ताश्च गुणाङ्गाश्च राजादयश्च,तेभ्यः / गुणाङ्ग इति सिद्धम् / 2 (एवं) कार्ण्यम् , कृष्णत्वम् , कृष्णिमा। किमुच्यते ? अत्राह- द्रव्याश्रयी गुणः, एवंविधो उशितेर्भावः / कथं पाञ्चरूप्यम् ? पञ्चरूपाण्येव / गुणोऽङ्गो निमित्तं येषां प्रवृत्तौ ते गुंणाङ्गाः, गुणपाश्चरूप्यम् , भेषजादिभ्यष्यण (7 / 2 / 164) / शैत- द्वारेण ये गुणिनि वर्तन्ते न तु गुणवचना एव मित्यस्याये पाश्चरूप्यम् ज्ञेयम् / एवं वाढयम, . (ते गुणाङ्गा उच्यन्ते) // 60 / / वढिमा, वृढत्वम् , पारिवृढयम , वैमत्यम् , विमति _अहंतस्तोऽन्त च / / 7 / 1 / 61 // ता, विमतित्वम् , वैमता , सांमत्यम् , संमातमा, सांमतम् / टकारो ड्यर्थः- अर्हतो भावः कर्म वा= म० वृ०-अर्हतशब्दाद्भावे कर्मणि वार्थे 'टयण स्यात, तत्संनियोगे च तकारस्य 'त' इत्यादेशः आर्हन्त्यम् , स्त्री चेत् आईन्ती, अत्र ङी। तथा औचिती, यथाकामी, सामग्री, शैली, पारिख्याती, स्यात् / 'आर्हन्त्यम् , आर्हन्ती / त्वतलौ- अर्हत्त्वम् अर्हता ॥६शा आनुपूर्वी; एते षड्प्रयोगा राजादि ( गणे) द्रष्टव्याः अव०-'अरिहननात् अर्हन , अथवा रजोहपतिराजान्त-गुणाङ्ग-राजादिभ्यः ननात् अर्हन , यदि वा रहस्याभावान् अर्हन् , कर्मणि च / / 7 / 1 / 60 // सर्वत्र पृषोदरादित्वात् साध्यसिद्धिः, अथवा चतुस्लिं. म. वृ०-पत्यन्तेभ्यः, राजान्तेभ्यः, गुणाङ्ग शतमतिशयान् सुरेन्द्रादिकृतां पूजां वा अर्हति इति भ्यो राजादिभ्यश्च षष्ठयन्तेभ्यो भावे कर्मणि च अर्हन् , अर्हतो भावः कर्म वा आईन्त्यम , स्त्री चेत् क्रियायां 'ट्यण' स्यात., त्वतलौ च / पत्यन्त, आर्हन्ती। अर्हत इदमाईत शासनम् , अर्हत इयं अधिपतेर्भावः कर्म वा=आधिपत्यम् , अधिपतित्वम, आहेती मूर्तिः दीक्षा पूजा वा, अत्र तु 'तस्येदम्' अधिपतिता;नारपत्यम् , बार्हस्पत्यम् , प्राजापत्यम् , ( 6 / 3 / 160 ) अनेन अण् प्रत्यय एत्र, न तु ट्यण सैनापत्यम् / राजान्त,- आधिराज्यम , सौराज्यम् , // 61 / / / सहायाद्वा / / 7 / 1 / 62 // यौवराज्यम् / गुणाङ्ग,- मौट्यम् , मूढता, मूढत्वम् , मौखर्यम् ; वैदुष्यम् / राजादि,- राज्यम् , राजत्वम् , म. वृ०-सहायाद्भावे कर्मणि च 'ट्यण वा' राजता ; काव्यम् , कवित्वम् , कविता / / 6 / / स्यात् / वावचनात् पक्षेऽका त्वंतलौ च / साहा य्यम् , 'साहायकम , सहायत्वम // 62 / / प्रव०-राजन् , कवि, ब्राह्मणदण्ड, माणव, दण्डमाणव, वाडव, चोर, धूर्त, आराधय, विराधय, अव०-सहायस्य भावः कर्म वा- 'योपान्त्याद् उपराधय, अपिराधय , अनशंस, कुशल, चपल, / गुरूयोतमा०' ( 71 / 72 ) इति वक्ष्यमाणसूत्रेण निपुण, पिशुन, चौक्ष, स्वस्थ, विश्वम्त, विफल, अकञ् // 62 // विशस्य, पुरोहित, ग्रामिक, खण्डिक, दण्डिक, सखि-वणिग्-दूताद्यः / / 7 / 1 / 63 // . कर्मिक, चर्मिक, बर्मिक, शिलिक, सुतक, अजनिक, ... म०७०-एभ्यो भावे कर्मणि च यः स्यात्त्वअञ्जनिक, अञ्जलिक, छत्रिक, सुचक. सुहित, बाल, तलौ च' / [सख्युर्भावः कर्म वा] सख्यम , सखिमन्द, होड इति राजादिराकृतिगणः। बहुवचन त्वम्, वणिज्या, वांणज्यम, वणिक्त्वम , वणिक्ता, माकृतिगणाथेम। तेन औचिती, यथाकामा, सामग्री, शैली, पारिख्याती, आनुपूर्वी इत्यपि राजादिगणे दून्यम् , दूतत्वम् / राजादेराकृतिगणत्वात् टयद्रव्याः / १पतिश्च राजा च-पतिराजानौ, पतिरा प- वाणिज्यम , दौत्यम् // 63 / / .. जानावन्ते यस्य शब्दस्य स पतिरांजान्तः, पतिराजा अव०-वणिजो भावः कर्म वा वणिज्या, Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकर्मार्थाधिकार: मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम। [ 409 * वणिज्यम् , * "मृगव्यचव्ये च बणिज्यवीर्यनासी / भावः कर्म वा, उहस्तिनो भावः, 'नोऽपदस्य तद्धिते' रगोत्रे"-ति पाठात् स्त्रीनपुंसकत्वम् / 2( एवम्) | (7 / 4 / 61) इत्यन्त्यस्वरादिलोपः // 66 // दूतता। उ पतिराजान्तगुणाङ्गराजादिभ्यः' (7.1 // युवादेरण / / 7 / 1 / 67 // 60) इति टयण // 63 / / म. वृ०-युवादिभ्यो भावे कर्मणि 'अण' ___स्तेनान्नलुक् च / / 7 / 1 / 64 // स्यात्त्वतलौ च / 'यौवनम् ,युवत्वम् , चौरादिपाठाद् म. वृ०-स्तेनाद्भावे कर्मणि च 'यः' स्यान यौवनिका इत्यपि; स्थाधिरम् , स्थविरत्वम् / स्थतद्योगे नकारस्य 'लुक' स्यात् / त्वतलौ च / 'स्ते. विर, श्रमण, पिशुन, निपुण, कुशल, चपल, अनयम् , स्तेनत्वम् , स्तेनता / राजादि (गणे)दर्शनात् शंस एभ्यो राजादिदर्शनात टयणपि- स्थाषिर्यम् , स्तेन्यमित्यपि // 64 // श्रामण्यम् इत्यादि // 67 // अव०-'स्तेनस्य भावः कर्म वा // 64 / / ___ प्रव०-'युवन् , युनो भावः कर्म वा यौवनम् , कपि-ज्ञातेरेयण / / 7 / 1 / 65 // अथवा “लिङ्गग्रहण लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहण"मिति न्यायात् युवतेर्भावः कर्म वा यौवनम् , अत्र 'जातिम. वृ०-कपिज्ञातिभ्यां भावे कर्मणि 'एयण श्च णितद्धितः' (3 / 2 / 51) इत्यनेन पुंवद्भावः, पुनः स्वतल च' स्यात् / [कपेर्भावः कर्म वा=] कापेयम् , युवन् शब्दः, 'अणि' (74 / 52) इति सूत्रेण अन्त्यकपित्वम् : ज्ञातेयम् , ज्ञातित्वम ; ज्ञातिता // 65 / / स्वरादिलोपप्रतिषेधः / युवन् , स्थविर, यजमान, कुप्रव०-कपेरिकारान्तत्वात् 'प्राणिजातिवयो०' तुक, श्रमण, श्रमणक, श्रवण, कमण्डलुक, कुत्री, (71 / 66) इत्यषं बाधित्वा परत्वात्य्वृवी०' (1 दुस्त्री,सुस्त्री. सुहृदय, दुहृदय, सुहृद्, दुहृद्, सुभ्रा११६९) इति वक्ष्यमाणे अणि प्राप्ते (तथा ज्ञाते: तृ, दुर्धात, वृषल, परिव्राजक, सब्रह्मचारिन् , अनृ शंस, चपल, कुशल, निपुण, पिशुन, कुतुहल,क्षेत्रज्ञ, प्राणिजातित्वात् 'प्राणिजातिवयो०' (7 / 1 / 66) इति उद्गात, उन्नेत, प्रशास्त, प्रतिह, होत, पोत,भ्रातृ, अधि प्राप्ते) 'कपिज्ञाते.' (1865) इदं सूत्रं कृत भर्तृ, रथगणक, पत्तिगणक, सुष्ठ , दुष्ठ, अध्वर्यु, .म् / अण् अय् (इति) द्वयमपि बाधित्वा एयणेव कर्तृ, मिथुन, कुलीन, सहस् , कण्डुक, कितव इति प्रवर्तते इत्यर्थः // 65 // युवादिगणः / २'यूनोऽके' (74 / 50 ) इति सूत्रेण 'प्राणिजातिवयोऽर्थादा / / 7 / 1 / 66 // अन्त्यस्वरादिलोपाभावः / राजादिटयणा 'वयोऽर्था म. वृ०-प्राणिजातिवाचिनो वयोवचनाच दम्' इत्यस्य बाधनादत्र युवादिगणे स्थविरशब्दस्य भावे कर्मणि 'अम् त्व-तल्' स्यात् / [अश्वस्य भावः पाठः कृतः // 6 // कर्म वा=] आश्वम् , माहिषम, द्वेपम् , उहास्तम् / हापनान्तात् / / 7 / 1 / 68 // वयोऽर्थ,- कौमारम् , कुमारत्वम् ; कैशोरम् , शावम् , म. वृ०-हायनान्तशब्देभ्यो भावे कर्मणि वा कालभम् / प्राणिग्रहणं किम् ? तृणत्वम्। जाति 'भण्' स्यात् / त्वतलौ च / 'द्वैहायनम् , द्विहायनप्रहणं किम् ? देवदत्तता // 66 // स्वम् ; २त्रैहायनम् , त्रिहायनता, चातुर्हायनम् / प्रव०-प्राणी चासौ जातिश्च प्राणिजातिः, | वयसि तु वाच्ये पूर्वेणाब्-त्रैहायणम् , चातुर्हायप्राणिजातिश्च वयश्च-प्राणिजातिवयसी,प्राणिजाति णम् // 68 // वयसी अर्थो यस्य शब्दस्य सः, तस्मात् / द्विपिनो ) भव०-द्वे हायने यस्य असौ द्विहायनः, विहा * श्रीहैमलिङ्गानुशासने स्त्रीनपुसकलिङ्गप्रकरणे पञ्चमे श्लोके / Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मीसिद्धहेमशब्दानुशासन [ भ०७ पा० 1 सू० 69-72 यनस्य भावः कर्म वा द्वैहायनम् / एवं त्रैहायनम्, / या वाधवम् / "पितुर्भावः कर्म वा पैञ्यम् / / 69 / / अत्र हायनस्य अवयोवचनत्वात् 'चतुखोयनस्य पुरुष-हृदयादसमासे / / 7 / 1 / 70 // ययसि' (2 / 3 / 74) इत्यनेन णत्वं न भवति / 'प्रा णिजाति०' ( 7 / 1 / 66 ) इत्यनेन अन् / ४'चतुले म० वृ०-पुरुषहृदयाभ्यां भावे कर्मणि 'अण' यिन० (2 / 3 / 74)' इति णत्वम् / / 68 // स्यात् , त्वतलौ च, 'असमासे / पौरुषम् , पुरुष त्वम् ; हार्दम् . हृदयत्वम् / असमास इति किम् ? य्बृवर्णाल्लवादेः / / 7 / 1 / 69 // परमपुरुषत्वम्, 'परमहृदयत्वम् , 'सत्पुरुषत्वम् , म० वृ०-लघुरादिः समीपे यस्य इवर्णस्य *सौहृदय्यम् / परमपौरुषम् , परमहादमित्यादि मा भूत् ||70 // उवर्णस्य ऋवर्णस्य च तदन्तानाम्नी भावे कर्मण्यण स्वतलौ च / 'शौचम् , शुचित्यम , शुचिता, शाकु- प्रव०-'यदि पुरुषहृदयशव्दौ समासविषयौ नम् , मौनम् , "साम्मतम् / [कवेर्भावः कर्म वा=] न भवतः / पुरुषस्य भावः कर्म या पौरुषमिति काव्यमिति तु राजादित्वात् / 'नाखरजनम , 'हा- 'प्राणिजाति०'(७।१६६) अयोऽपि सिध्यति, समारीतकम , "पार्थवम , पाटवम् , लाघवम् , बाध- सविषये प्रतिषेधार्थ पुरुषोपादानं कृतमिति भावः / वम , ११पैत्रम् / वृवर्णादिति किम ? घटत्वम् / हृदयस्य भावः कर्म वा हार्दमित्यत्र अणि कृते लध्वादेरिति किम् ? पाण्डुत्वम [एवं कण्डुत्वम्] सति 'हृदयस्य हृलासलेखाण्ये' (3 / 2 / 94) इत्य॥६९।। नेन हृदयस्य हृद् आदेशः / परमपुरुषस्य भावः कर्म वा। “परमहदयस्य भावः / 'सतः पुरुषस्य भावः प्रव०-लघ्वादेरित्यत्र आदिग्रहणं समीपमात्रा- .............[कर्म वा-सत्पुरुषत्वम् ] 'शोभनस्य र्थम् , तेन तितउनो भाषः कर्म वा तैत पम् , अत्र हृदयम्य भावः सौहृदयम् / / 77 / / अव्यवहिते अकारे लघी शुच्यादौ च एकवर्णव्यव- श्रोत्रियाद् यलुक् च / / 7 / 1 / 71 / / हिते लघुनि अणप्रत्ययो भवति / तथा केचित्त म० ०-श्रोत्रियाद्भावे कर्मणि चाण् स्यात् , कृशानोर्भावः कर्म वा कार्शानवम् , अरत्नेर्भावः तद्योगे च यकारस्य लोपः, त्वतलौ च / श्रोत्रम् , कर्म वा आरत्नम् , अरातेर्भावः कर्म वा रातम् श्रोत्रियत्वम् / चौरादिपाटादकबंपि- श्रीत्रियकम् / 71 / इत्यादिष्वपि अण्प्रत्ययमिच्छन्ति, तन्मतसम. हार्थ लघ्वादेरिति प्रकृतेर्विशेषणं कर्त्तव्यम् , न ग्व योपान्त्याद् 'गुरूपोतमादसुप्रख्याइका वर्णस्य / तन्मते साम्मतमिति न सिध्यति इति // 71 / 72 / / भावः / इवर्णान्तोवर्णान्तर्वर्णान्तशब्देभ्यः कीड- म. वृ०-यादीनामन्त्यमुत्तमम् , तत्समीपशेभ्यः ? आदिलघ्वक्षरेभ्य इत्यर्थः / 'शुर्भाव: मुपोत्तमम् गुरुर्यस्य, तस्माद् यकारोपान्त्यात् सुप्रकर्म वा शौचम् / शकुनेर्भावः कर्म वा शाकुनम् / ख्यवर्जिताद्भावे कर्मणि वा-'ऽकम् 'स्यात्त्वतलौ च / मुनेर्भावः कर्म वा मौनम् / 'सती मतिर्यस्य (?) रामणीयकम् , रमणीयत्वम् , कामनीयकम् , औपासम्मतेर्भावः कर्म वा साम्मतम / 'नखरजनी मीती, ध्यायकम् , पानीयकम / गुरुग्रहणादनेकव्यञ्जन* नखरजन्या भावः कर्म वा=नाखरजनम्। 'हरी- व्यवधानेऽपि [अकम् भवति]- आचार्यकम् / योपातक्या भावः कर्म वा हारीतकम / "पृथोर्भावः कर्म न्त्यादिति किम् ? विमानत्यम् / गुरूपोत्तमादिति वा-पाश्वम् / पटोर्भावः कर्म वा पाटवम् / एवं किम् ? रक्षत्रियत्वम् , 'कायत्वम् / असुप्रख्यादिति लघोर्भावः कर्म वा लाघवम् / 50 ६८वा भावः कर्म / किम् ? 'सुप्रख्यत्वम् / / 72 / / * अत्र नखरजनीशब्दस्य.प्राचीनलौकिकभाषायां 'भीती' इत्यर्थ इति प्रतिभाति / Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकर्मार्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [411 - अव० 'उत्तमस्य समीपे उपोत्तमम् , उपोत्तमं / म०वृ०- द्वन्द्वसमासाद् भावे कर्मणि 'अकम्' गुरुर्यस्य स गुरूपोत्तमः, विशेषणसर्वादिसंख्यं स्यात् , स च लित् , [लित्करणं स्त्रीत्वार्थम् ] स्वतलौ बहुव्रीही (3 / 1 / 150) इत्यनेन गुरुशब्दस्य पूर्वनि- च / गोपालपशुपालिका,शैष्योपाध्यायिका,भारपानः / अक्षराणां पङती तृतीयमक्षरमारभ्य उत्तम तबाहुबलिका / / 74 / / इति संज्ञा। शब्दात् परतोऽका स्यात् , कीदृशात् अव०-गोपालाश्च पशुपालाश्च-गोपालपशुशब्दान् ? योपान्त्यात् प्रान्तयकारात् (?) , पुनः पालाः,गोपालपशुपालानां भावः गोपालपशुपालिका, कीदृशान् ? गरूपोत्तमात् , कोऽर्थः ? यकारात् पूर्व 'अस्यायत्तत्' (2 / 4 / 111) इत्यनेन इकारः / एवं गर्वक्षरात् , एवंविधात् शब्दात् अग्रेऽकञ् भवती रशैष्योपाध्यायका / भरतश्च बाहुबलिश्च, (बाहुत्यर्थः / गुरुग्रहणं हि दीर्घपरिग्रहार्थं संयोगपरपरिण बलिः) इकारान्तो ग्राह्यः, भरतबाहुबल्योर्भावः हार्थ च / तेन आचार्यकमित्याद्यनेकव्यञ्जनव्यवधाने // 74 // ऽपि सिद्धम् / प्रथमे क्षत्रियत्वमित्युदाहरणे गुरु - गोत्र-चरणाच्छलाघा-'ऽत्याकार - प्राप्त्यवगमे स्ति / द्वितीये कायत्वमित्युदाहरणे तु उपोत्तमत्वं नास्ति / गुणाङ्गत्वात ट्यणपि, सौप्रख्यम् / सुप्रचष्टे // 71 / 75 // इति सुप्रख्यः, 'उपसर्गादातो डोऽश्यः' (5 / 1 / 56) म००-गोत्रवाधिनः चरणवाचिनश्च शब्दाद् इति डः / / 72 / / भावे कर्मणि श्लाघादी विषयभूते-'sकम' स्यात् , स च लित्, त्वतलो च। गार्गिका, काठिका; ताभ्यां चौरादेः / / 7 / 1 / 73 // श्लाघते विकत्थते अत्याकुरुते पराभवति वा, 'गाम० वृ०-चौरादिभ्यो भावकर्मण्यकम् त्वतली र्गिकां काठिकां प्राप्तवान् =अधिगतवान् ] अवग(च) भवन्ति [ चोरस्य भावः कर्म वा ] चौरिका, तवान वा इत्यर्थः / गार्यत्वेन कठतया वा श्लाघते / चौरकम् , मनोज्ञकम् // 73 // श्लाघादीति किम् ? गार्गम् , काठम् [प्राणिजाति वयोऽर्था० (7.1 / 66) इत्यम् ] ||75|| अव०-चौर, धूर्त, युवन , ग्रामपुत्र, ग्राम प्रव०-गोत्रमपत्यं प्रवराध्यायपठितं च / सण्ड, प्रामसाण्ड, ग्रामकुमार, ग्रामकुल, प्राम प्रवरा गोत्रादिषु भवाः, तत्र पठितमपि गोत्रमभिधीकुलाल, अमुष्यपत्र, अमुध्यकुल, शरपत्र, मनोज्ञ, यते। प्रवराध्यायो गोत्रप्रतिपादकं शास्त्रम्। इदं प्रियरूप, अदोरूप, अभिरूप, बहुल, मेधाविन , चानपत्यप्रत्ययान्तमपि प्रत्ययं प्रयोजयति. यथा कल्याण, आध्य, सुकुमार, छन्दस, छात्र, श्रोत्रिय, मित्रयोर्भावः मैत्रेयिकया श्लाघते इति / रचरणं विश्वदेव, प्रामिक, कुलपुत्र, सारपुत्र, वृद्ध, अवश्यम् शाखानिमित्तं कठादि / इलाघा प्रशंसा / अत्याइति चौरादिगणः / मनाज्ञादिशब्दानामकघन्तानां कारः परपराभवः / प्रापिर्लाभः / अवगमो ज्ञानम् / 'आत्वात्वादिः' इति लिङ्गपाठान्नपंसकत्वमेव / गार्गिकया श्लाघते, काठिकया श्लाघते इत्यर्थः / पूर्वेषां तु चौरादिशब्दाना “चौराद्यमनोशाधकम्" गार्ग्य इति शब्दः, गाय॑स्य भावः कर्म वा गार्गिका, इति लिङ्गपाठात् * स्त्रीनपुंसकता / अत एव वृत्तौ गोत्रद्वारेण 'गोत्रचरणा'०(७११७५) इत्यनेनाकम् , 'चौरिका चौरकम्' इति प्रयोगद्वयं दर्शितम् / एवं 'तद्धितयस्वर'० (2 / 4 / 92) इत्यनेन यकारलोपः, धौर्तिका धौर्तकम् इत्यपि / तथा चौर्यम् धौर्त्यम् 'अस्यायत्तत०' (2 / 4 / 111) इति इः। कठस्य भावः ग्रामिक्यमित्यत्र राजादित्वात् ट्यणपि // 7 // कर्म वा काठिका. / गार्णिकया इलाघते. काठिकया द्वन्द्वाल्लित् // 71 / 74 // श्लाघते, गार्गिकया अत्याकुरुते, काठिकया भत्याजश्रीहैमलिङ्गा० नपुंसकलिङ्गप्रकरणे नवमश्नोके / * श्रीहेमलिङ्गा० नोनपुसकलिङ्गप्रकरणे तृतीयश्लोके / Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 1 सू० 76-83 कुरुते, अधिक्षिपति, पराभवति / तथा गार्गिकां / भ्यः क्षेत्रेऽर्थे 'ईनम्' स्यात् [कुलत्थानां क्षेत्रम्] काठिकां प्राप्तवान् , गार्गिकां काठिकामवगतवान् | कौलत्थीनम् , मौद्गीनम् , नैवारीणम् [निवारा वनविज्ञातवान् / ' एवं गार्यत्वेन कठत्वेन श्लाघते | ब्रीहयः] // 79 // अत्याकुरुते / एवमुदाहरणार्थो ज्ञातव्यः / / 75 // व्रीहि-शालेरेया / / 7 / 1 / 80 // होत्राभ्य ईयः // 71176 // म० वृ०-बीहिशालिभ्यां क्षेत्रे 'एयप' स्यात् / म० वृ०-होत्राशब्द ऋत्विगविशेषवचनः / / [बीहेः क्षेत्रम् ] श्रेहेयम् , शालेयम् / / 80 // ऋत्विविशेषवाचिभ्यो भावे कर्मणि 'ईयः' स्यात् / यव-यवक-पष्टिकाद् यः / / 7 / 1 / 8 / / त्वतलौ च / मैत्रावरुणोयम , मैत्रावरुणत्वम् , पोत्रीयम् // 76 // म० वृ०-षष्ठयन्तेभ्यः] यवयवकषष्टिकेभ्यः क्षेत्रे 'यः' स्यात् / ईनमोऽपवादः / 'यव्यम् , यवप्रव०-'मित्रश्च वरुणश्च, वेदसहश्रुत'०(३।२।४१) | क्यम , उषष्टिक्यम् / / 8 / / इत्यनेन आत्वम् , मित्रावरुणे देवते अस्य, 'देवता' (6 / 2 / 101) इत्यण , मैत्रावरुणस्य भावः कर्म वा प्रव०-'यवानां क्षेत्र-यव्यम / श्यवानां मैत्रावरुणीयम् // 76 / / तुल्याः= यवकाः, 'तस्य तुल्ये कः संज्ञाप्रतिकृत्योः' (71 / 108 ) इत्यनेन कः प्रत्ययः, यवकानां क्षेत्रं ब्रह्मणस्त्वः / / 7 / 1177|| यवक्यम / उपष्टिरात्रिशब्दः, षष्ठिरात्रेण पच्यमाना म० वृ०-होत्राभ्य इति वर्त्तते / ब्रह्मन इति बीहयः षष्टिकाः, 'यवयवकपष्टिकाद् यः' इति सूत्रशब्दात् ऋत्विविशेषवाचिनः षष्ठयन्ताद् भावे कर्मणि पाठवलात कप्रत्ययः, रात्रिशब्दलोपश्च, षष्टिकानां च 'त्वः प्रत्ययः' स्यात् / 'ईयापवादः / ब्रह्मत्वम् / क्षेत्र पष्टिक्यम् , 'यवयवकषष्टिकाद् यः'इत्यनेन यः होत्राधिकाराद ब्रह्मणपर्यायाज्जातिवाचिनो ब्रह्मन प्रत्ययः / / 8 / / शब्दात्तलपि स्यात्-ब्रह्मत्वम् , ब्रह्मता / त्वतलोऽ. धिकारः सम्पूर्णः / / 77 // वाऽणु-मापात् / / 7 / 1 / 82 // म० वृ०-अणुमाषाभ्यां क्षेत्रे 'यो वा' स्यात् / प्रव०-१'ईयापवादः', ईय इत्युपलक्षणम , अणव्यम् , आणवीनम् ; माष्यम्', माषीणम्।८२॥ तलप्रत्ययस्याप्ययमपवादः / / 77| अव०-'रालकादिधान्यभेदा अणवः, अणूनां शाकट-शाकिनी क्षेत्रे ' / / 7 / 1 / 78 / / क्षेत्रम् // 82 // म० वृ०-तस्येति वर्तते / तस्येति षष्ठयन्तान वोमा-भङ्गा-तिलात् / / 7 / 1 / 83 / / क्षेत्रार्थे शाकटशाकिनौ भवतः / 2 इक्षुशाकटम् , इक्षु शाकिनम ; उशाकशाकटम , शाकशाकिनम ||8|| ___म० वृ०-[षष्ठन्यतेभ्यः] 'उमा-भङ्गा-तिले भ्यः क्षेत्रे 'यो वा' स्यात् / उम्यम् , औमीनम् ; प्रव०-क्षेत्रं धान्यादीनामुत्पत्त्याधारभूमिः, भङ्गयम् , भाङ्गीनम् ; तिल्यम् , तैलीनम्। योगन शरीरादिः, अनिष्टत्वात् / इक्षणां क्षेत्रं इक्षुशाक विभाग उत्तरार्थः / / 83 // टम् / एवं शाकशाकटम् / / 8 / / अव०-'उत्पूर्वमाधातुः, उन्मीयते इति उमा धान्येभ्य ईनन / / 7 / 1 / 79 / / अतसी, 'उपसर्गादातः' ( 5 / 3 / 110), पृषोंदरादिम. व०-[तस्येति षष्ठयन्तेभ्यः ]धान्यवाचिः / त्वात द् लुप्यते / भञ्जनं भङ्गः, सोऽस्य अस्ति, Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजसाधर्थाधिकारः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंचलितम। [ 413 'अभ्रादिभ्यः' ( 7 / 2 / 46 ) इति अः, भङ्गा शणधा हिमादेलुः सहे / / 7 / 1 / 90 // न्यम् , 'वोमाभङ्गा०' (71183 ) इति यः, पक्षे म. वृ०-हिमात्सहे=सहमानेऽर्थे 'एलुः' 'धान्येभ्य ईनन्' (71 / 79) भवति / / 83 // स्यात् / 'हिमेलुः // 10 // अलाब्धाश्च कटो रजसि / / 7 / 1 / 84 // ___ म० वृ०-अलाबूशब्दाञ्चकारादुमाभङ्गातिले प्रव.-'हिमस्य सहः-हिमं सहमानो=हिमेलुः॥९० भ्यश्च रजस्यर्थे 'कटः'स्यात् / अलाबूनां रजः अला. बल-वातादूलः / / 7 / 2 / 91 // बूकटम् , उमाकटम् , भङ्गाकटम् , तिलकटम् / 84 / म० वृ०-[षष्ठयन्ताभ्यां] बलवाताभ्यां सहे. अह्ना गम्येऽश्वादीनञ् / / 7 / 1 / 85 ऽर्थे 'ऊलः' स्यात् / बलूलः. श्वातूलः // 91 // म. वृ०-[षष्ठयन्तात् ] अश्वादेकेनाहा गम्ये- प्रव.-'बलस्य सहः-बलं सहमानो-बलूलः / ऽर्थे 'ईन' स्यात् / अश्वस्यैकेनाहा गम्यः आश्वी- एवं वातस्य सहः-वातं सहमानो यातूलः // 91 / / नोऽध्या। अह्नति किम् ? अश्वस्य मासेन गम्यः शीतोष्णत्प्रादालुरसहे / / 7 / 1 / 92 // // 85 // म० वृ०-'षष्ठयन्तेभ्यः ] शीतोष्ण-तृप्रेभ्योकुलाजल्पे / / 7 / 1 / 86 / / ऽसहे असहमानेऽर्थे 'भालुः' स्यात् / 'शीतालुः, म० वृ०-[षष्ठयन्तात् ] कुलाजल्पेऽर्थे ईनम्' 2 उष्णालुः, तृप्रालुः / / 92 // स्यात् / [कुलस्य जल्पः=] कौलीनम् // 86 // प्रव.-शीतस्यासहः-शीतमसहमानः शीतापील्वादेः कुणः पाके / / 7 / 1 / 87 // लुः। २एवमुष्णम्यासहः-उष्णमसहमानः= उष्णाल: म. वृ०-षष्ठयन्तेभ्यः1 पील इत्यादिभ्यः 1. तृपंदुःखम् , तृप्रस्यासहः-तृप्रमसहमानः // 92 // पाकेऽर्थे 'कुणः' स्यात् / पीलूनां पाकः पीलुकुणः, यथामुख-संमुखादीनस्तद् दृश्यतेऽस्मिन् एवं कर्कन्धूनां पाकः कर्कन्धुकुणः / / 87|| // 71193 / / प्रव०-पीलु, कर्कन्धु, शमी, (करीर) बदर, ___म. वृ०-यथामुखसंमुखाभ्यां तदिति प्रथमाकुवल, अश्वत्थ, खदिर, इति पील्वादिगणः / / 87 // न्ताभ्यामस्मिन्निति सप्तम्यर्थे 'ईनः' स्यात् , यत्प्रथ मान्तं तच्चेत् दृश्यते इति भवति / यथामुखं दृश्यते कर्णादेम ले जाहः / / 7 / 1 / 88 // ऽम्मिन् यथामुखीन भादर्शादिः / एवं संमुखीनः / म. वृ०-कर्णादिभ्यो मूलेऽर्थे 'जाहः' स्यात् / कर्णजाहम् / / 88 // प्रव०-'मुखस्य सदृशोऽर्थो यथामुखं प्रतिबि म्ब उच्यते, अत एव निपातनात् 'यथाऽथा' (3 / 1 / प्रव०-कर्णस्य मूलं-कर्णजाहम् / २एव- 41) इति प्रतिषेधेऽप्यत्राव्ययीभावसमासः, पश्चात् मक्ष्णो मूलम् अक्षिजाहम् / कर्ण,अक्षि,आस्थ,वक्त्र, / यथामुखं दृश्यतेऽस्मिन् इति यथामुखीनः इति नख, मुख, केश, इन्त, ओष्ठ, ध्र , शृङ्ग, पाद, वाक्ये यथामुखसंमुखा०'इत्यनेन ईनः प्रत्ययः कागुल्फ, पुष्प, फल इति कर्णादिगणः // 8 // यः / अथ यथामुखोन इत्युदाहरणभावार्थः एवम, तथाहि- आदर्शो हि अभि...................... तया पक्षात्तिः / / 7 / 1 / 89 // यथामुखीनो भवति, (?) एवमन्योऽपि यः कश्चित् म० वृ०-[षष्ठपन्तात् ] पक्षान्मूलेऽर्थे 'तिः' | यस्याऽभिमुखो भवति स तं प्रति यथामुखीन इत्युस्यात् [पक्षमूलम=] पक्षतिः / / 89 // च्यते / एवं संमुखीन इत्यपि इति तात्पर्यम् / 'समं Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० १सू० 94-97 मुखं संमुखम् , समं मुखमस्य अथवा समं मुखम- / अथवा प्रवृद्धं पदं प्रपदम् , पदस्योपरिष्टात् इत्यर्थः / नेन=संमुखम् , अत्र तुल्यार्थे तृतीया / संमुख इति संस्था खुलुको गुल्फ इति पर्यायाः प्रपदस्य / संखोबिम्बमेव उच्यते, अत एव निपातनात् समशब्दस्य डउ इति लोकरूढिगुल्फस्य / आङशब्दो मर्यादाभन्तलोपः, सम् इति शब्दो जातः, संमुखं दृश्यते यामभिविधौ वा, प्रपदात् आ आप्रपदम , 'पर्यऽस्मिन् इति संमुखीन इति वाक्ये 'यथामुख०' इत्य पाङ्' ( 33232) इत्यव्ययीभावः, तत आप्रपद नेन ईनः कार्यः / अथ संमुखीनः इत्युदाहरणस्य द्वितीयान्तं पदमिदम् / श्यः पदः आप्रपदं व्याप्नाति भावार्थः शास्त्रान्तरदृष्टान्तेन दयते, तथाहि- यथा ततः आप्रपदं नातिवर्त्तते-नातिक्रामति स एव आप्रमुखीन सीतायाः, अत्र हि अग्रे भवनमात्रमेव साह- पदीन उच्यते // 95 // / श्यम् , आदर्शो सप्रे भवत्येवं हनूमानपि सीताया अनुपदं बद्धा / / 7 / 1 / 96 / / अग्रे भवति, सीताप्रे तिष्ठति इत्यर्थः / म. वृ०-[निर्देशादेव द्वितीयान्तात् ] अनुप___ 'अपशूलं तमसाद्य, लवणं लक्ष्मणानुजः ; रुरोध संमुखीनो हि, जयो रन्ध्रप्रहारिणाम्।। दशब्दाद् बद्धा (इति) अर्थे 'ईनः' स्थान / अनुपदं बद्धा='अनुपदीना उपानत् // 96|| इति रघौ। अ"नसिद्धिः संमुखतयोपमानात् / / 93 / / सर्वादेः पथ्यङ्ग-कर्म-पत्र-पात्र-शरावं व्याप्नोति अव०-१ अनुपदीना उपानत् ' इत्युदाहरणस्याय॥७११९४॥ मर्थः- पदप्रमाणा उपानत् इत्यर्थः / २'अनुपदम्', अत्र 'दैध्येऽनुः' ( 3 / 1 / 34 ) - इत्यव्ययीभावः. ___म० वृ०-सर्वशब्दपूर्वेभ्यः पथिन् , अङ्ग, पदमन्वायतमनुपदमिति सूत्रस्य वाक्यम् , अनुपदं कर्मन् , पत्र, पात्र, शराव इत्यन्तेभ्यो निर्देशादेव बद्धा इति वाक्यमध्ये पंदमनु लक्ष्यीकृत्यायतं बन्धद्वितोयान्तेभ्यो व्याप्नोतीत्यर्थे ईनः स्यात् / 'सर्व नमिति क्रियाविशेषणत्वात द्वितीयाऽभेदोपचारात् पथीनो रथः, सर्वपथीनमुदकम् , सर्वाङ्गीणस्तापः, बद्धा इत्युच्यते // 16 // सर्वकर्मीणः पुरुषः, सर्वपत्रीणः सारथिः, सर्व ____ अयानयं नेयः / / 7 / 1 / 97 / / पात्रीण ओदनः, सर्वशरावीण ओदनः // 9 // म० वृ०-[निर्देशादेव द्वितीयान्तात] अया__ अव०-सूत्रे द्वितीयान्तपदपाठात् / सर्वश्चासौं नयशब्दान्नेय इत्यर्थे 'ईनः' स्यात् / / अयानयीन: पन्थानश्च सर्वपथः, 'ऋक्पू:पथ्यपोऽन्' (7 // 376) शार: फलकशिासि स्थित उच्यते / अथवा अयः इत्यनेन अत समासान्तः, सर्वपथ इति शब्दः, सर्व- शुभं देवम , अनयोऽशुभम् , शुभाद् दैवादपवर्त्तते पथं व्याप्नोति सर्वपथीनो रथः / सर्वपथान व्या [निवर्तते ] अशुभं देवं यस्मिन कर्मणि तदयानयं प्नोति सर्वपथमुदकम् / एवं सर्वाङ्ग व्याप्नोति शान्तिकर्म चतुःशरणप्रतिपत्तिरनाघातघोपणं देव. सर्वाङ्गीणः इत्यादि / सर्वाणि च तानि अङ्गानि च गुरुपूजा तपो दानं ब्रह्मचर्यादिनियमः, तद् यो // 94|| नेयः कारयितव्यः सोऽयानयीन ईश्वर इति // 97 / / 'आप्रपदम् / / 7 / 1 / 95 // प्रव०-अयानयीन शार इत्युदाहरणस्य भावाम० वृ०-आप्रपदाद् (निर्देशादेव द्वितीया र्थोऽयम् , तथाहि-अयः प्रदक्षिणं गमनम , अनयः न्ताद् व्याप्नोत्यर्थे 'ईनः' स्यात् / आत्रपदीनः पटः, प्रसव्यं वाम गमनम, शारिद्यते हि केऽपि शाराः अनेन पटस्य प्रमाणमाख्यायते // 95 / / प्रदक्षिणं यान्ति, केचित् वामम् / तेषां शाराणां गतिरयसहितोऽनयो भवति इति अयानय इत्युप्रव०-प्रगतं पदं प्रपदम् , पदानमित्यर्थः, / च्यते / यस्मिन् दक्षिणगमने वामगमने वा परशाराः Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्त्याधर्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [415 स्वशारैः बाधिता भवन्ति, बाधिताः सन्तः पदानां परतरांश्चानुभवति इति वाक्ये ईनः, निपातनात् कोऽर्थः ? गृहकाणां कर्मभूतानां स्वशारैः परशाराणां परम्पर आदेशश्च, परम्परीण इति सिद्धम् / मन्त्रिबद्धत्वात् स्वगृहे अप्रवेशो भवति, तदुभयं दक्षिणं परम्परा मन्त्रं भिनत्ति इति वाक्यम् , तत्र परम्परावामगमनं च नेयः इति अयानयीन लोके प्रसिद्धिः, शब्द आवन्तो बाहुल्यार्थः प्रकृत्यन्तरम् / उपुत्रांश्च प्रदक्षिण(गामी) वामगामी च शारो नीयमान एव पौत्रांश्चानुभवति = पुत्रपौत्रीणः / / 19 / / अयानयोन इति लोके प्रसिद्धिरिति परमार्थः, न यथाकामा-ऽनुकामा-ऽत्यन्तं गामिनि सर्वो लोकव्यवहारोऽथानयीन उच्यते / अथवा अयानयीनप्रयोगस्य विशेषमान्तरं दयते,- अयः // 7 / 1 / 100 // शुभं देवम् , अनयोऽशुभं दैवम् , यस्मिन् कर्म म. वृ०-यथाकामानुकामात्यन्तेभ्यो णि क्रियमाणे सति अयात् शुभदैवबलात् अनयोऽ- गामिन्यर्थे ‘ईनः' स्यात् / 'यथाकामीनः, अनुशुभं दैवं निवर्त्तते-उपशाम्यति तत अयानयं शान्ति- कामीनः,यथेच्छंगामीत्यर्थः, अत्यन्तीनः,भृशंगामी. कर्म उच्यते,शान्निकर्म किंरूपम ? चतुःशरणम् अर्ह- | त्यर्थः // 10 // सिद्धसाधुधर्माङ्गीकरणम् , अनाघातघोषणम्-अमारिप्रवर्तनम् देवगुरुपूजा-अष्टाह्निकासङ्घपूजादिकम् , प्रव०-'यो यः कामो यथाकामः (? यथाकातपो ह्याचाम्लादि, दानम् अन्नधनादीनां परं प्रति मम् ), यथाकामं गामी-यथाकामीनः / 'कामस्यानुकल्पनम् , ब्रह्मचर्य भूमिशयनमित्याद्युत्तमधर्म रूपम् अनुकामम् , अनुकामं गामी अनुकामीनः / व्यापारः शान्तिकर्म सूरिभिः प्रोच्यते, तदेवंविधं अत्यन्तं गामी अत्यन्तीनः // 100 / / शान्तिकर्म यो धनवान् श्रीमान् पुरुषो नेयः तदेवं- पारावारं व्यस्त-व्यत्यस्तं च / / 7 / 1 / 101 / / विधं शान्तिकर्म यस्य श्रीमतः पुरुषस्य पार्थात् कारा , म०वृ०-'पारावारशब्दात्समस्तात् व्यस्ताव्यप्यते स अयानयीन ईश्वर इत्यर्थः / / 97 // त्यस्ताच्च गामिन्यर्थे 'ईनः' स्यात् / रपारावारीणः, सर्वान्नमत्ति / / 7 / 1 / 98 // पारीणः, उअवारीणः, “अवारपारीणः // 11 // म० वृ.-सर्वान्नशब्दादत्ति इत्यर्थे ईनः' स्यात् / ___ अव०-२-उव्यस्तस्योदाहरणद्वयम् / 'व्यत्य'सर्वान्नीनो भिक्षुः नियमरहितः / / 18 / / स्न उदाहरणमिदम् / 'अवारः समुद्रः, अवारस्य पारं-परावारः, राजदन्तादित्वात् पूर्वनिपातः, पाराप्रव०-'सर्वशब्दः प्रकारे कास्न्ये चार्थे वर्त्तते, सर्व- वारं गामी पारावारीणः। एवं पारंगामी-पारीणः / प्रकारमन्नं सर्वान्नम् ,सर्वान्नमत्ति इति वाक्यम् / 98 / अवारं गामी अवारीणः / अवारपारं गामी%3D परोवरीण-परम्परीण-पुत्रपौत्रीणम् / / 7 / 1 / 99 / / अवारपारीणः // 101 / / म० वृ०-एते शब्दा अनुभवत्यर्थे ईनन्ता' निपात्य- ___ अनुग्वलम्' / / 7 / 1 / 102 // न्ते। परोवरीणः, परम्परीणः,'पुत्रपौत्रीणः।।९९।। म० वृ०-अनुगुशब्दादलंगामिन्यर्थे 'ईनः' स्यात् / २अनुगवीनो गोपालकः / / 102 // प्रब०-'पर-अवरशब्दः,परांश्च अवरांश्चानुभवतीति वाक्ये ईनः, निपातनादवरशब्दाकारस्य उत्वम्, अव०- अलम् शब्दः पर्याप्त भृशेऽर्थे वर्त्तते / परोवरीण इति सिद्धम् / यत्र च परोवरमिति शब्दा- गो-अनुशब्दः, गवामनु-पश्चात् अनुगु, विभक्तिन्तरमतीतक्रमवाचि तत्र परोवरस्य भावः-ट्यण , समीप'. (3 / 1 / 39) इत्यव्ययीभावः, 'क्लीबे' (2 / परोपर्यमिति सिध्यति / पर-परतरशब्दः, परान् / 4 / 97) ह्रस्वः, ततः अनुगु अलंगामी अनुगवीनः / / Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 1 सू० 103-106 अध्वानं येनौ // 7 / 1 / 103 // मीनः, अद्य श्वो वा विजनिष्यमाणा इति वाक्यम् , अश्वीना गौः, एवं नाम प्रत्यासन्नप्रसवेत्यर्थः / म० वृ०-अध्वनशब्दादलंगामिन्यर्थे 'य अन्ये तु प्रत्यासत्तौ गम्यमानायां भविष्यत्यर्थ ईन. ईनौ' भवतः / 'अध्वन्यः, अध्वनीनः // 10 // माहुः- अद्य श्वो वा भविष्यति इति वाक्यम् ,अद्यश्वीनो प्रव०-अध्वानमलंगामी-अध्वन्यः,अध्वनीनः। लाभः, अद्यश्वीनं मरणम् / अद्यप्रातीना गौः, अद्य ५'अध्वन्य' इत्यत्र 'अनोऽट्ये ये' (7 / 4 / 51) इति प्रातःशब्दाद् ईनः, वाक्यानि पूर्ववत , एवमद्यसूत्रेण २'अध्वनीन' इत्यत्र 'ईनेऽध्वात्मनोः' (7 / 4 / / प्रातीनो लाभः, अद्यप्रातीनं कार्यम , अद्य प्रातर्वा 48) इति सूत्रेणान्त्यस्वरादिलोपाभावः / / 203 / / भविष्यतीति वाक्यम् / आगोप्रतिदानशब्दात कारि ण्यर्थे ईनः स्यात् , प्रतिदानशब्दस्य लुक् च / गोः अभ्यमित्रमीयश्च / / 7 / 1 / 104 // प्रतिदानात आ आगोप्रतिदानम् , 'पर्यपाङ'० (3 / म० वृ०-अभ्यमित्रादलंगामिन्यर्थे 'ईयः'चका- 1 / 32) इति समासः, ततः आगोप्रतिदानं कारी रादु'य ईनौ' च। अभ्यमित्रीयः,अभ्यमित्र्य ,अभ्य- इति वाक्ये आगवीनः कर्मकर इत्युदाहरणम् , मित्रीणः, अमित्राभिमुखं भृशं गन्तेत्यर्थः / / 104 / / ईनः, प्रतिदानशब्दस्य लोपः ।आ गोप्राप्तेः कर्मकारी आगवीन उच्यते (इत्येके) / ५सप्तभिः पदैरवाप्यं प्रव०-'अमित्रः शत्रः , अमित्र-अभिशब्द , साप्तपदीनं सख्यम् , साप्तपदीनः सखा, साप्तपदीनं अमित्रस्य अभि संमुखम् अभ्यमित्रः (अभ्यमित्रम ?), मित्रम , निपातनात् ईनम् / / 105 / / अभ्यमित्रमलंगामी इति वाक्ये अभ्यमित्रीयः , अभ्यमिव्यः, अभ्यमित्रीणः // 104 // अषडक्षाशितंग्वलंकालंपुरुषादीनः समांसमीनाथश्वीनाद्यप्रातीनागवीनसाप्तपदीनम् // 71 / 106 / / 7 / 1 / 105 // म. वृ०-अषडक्ष, आशितङ्ग, अलङ्कर्मन , अलंपुरुप इति शब्देभ्यः स्वार्थे 'ईनः' स्यात् / अषम. वृ०-एते शब्दा ईनन्ता निपात्यन्ते, साप्त- डक्षीणो मन्त्रः, अषडक्षीणा क्रीडा,या द्वाभ्यां साध्यते पदीनस्तु ईनबन्तः [निपात्यते] / 'समांसभीना गौः, इत्यर्थः, आशितङ्गवीनमरण्यम , अलङ्कीणः, २अद्यश्वीना गौः, एवं नाम प्रत्यासन्नप्रसवेत्यर्थः / ४अलंपुरुषीणः / राजाधीनमिति त्यधीनशब्देन।१०६। उअद्यप्रातीना गौः , लाभो बा। आगवीनः कर्मकरः। 'साप्तपदीनं सख्यम् ,साप्तपदीनः सखा / 105 अव-अविद्यमानानि षडक्षीणि अस्मिन इति अपडक्षीणः इति बहुव्रीही पूर्व 'सकथ्यक्ष्णः स्वाङ्गे' प्रवा-'समां समामिति वीप्साद्वितायान्ता- | (73 / 126) इत्यनेन टसमासान्तः, पश्चात ईनः, समुदायागर्भ धारयतीत्यर्थे ईनो भवति, पूर्वपदवि- अथवा इन्द्रियपर्यायोऽक्षशब्दोऽकारान्तः, अविद्यमाभक्तेश्च न लोप , समां समां गर्भ धारयतीति नानि षडक्षाणि- पञ्च इन्द्रियाणि षष्ठं मनोऽस्य वाक्ये ईनः , समामित्यत्र 'कालाधनोर्याप्ती' षडक्षीणोऽमनस्कः, यो विचारेण विना प्रवर्त्तते (2 / 2 / 42) इति द्वितीया। ननु समायाः कथं व्यातिरेक इत्यर्थः। आशिता गायोऽस्मिन्निति आशितङ्ग,अम्मादेशे एव गर्भग्रहणात् ? सत्यम , अवयवे समुदायो- देव निपातात् पाठबलात् पूर्वपदस्य मोऽन्तः, तत पचारात् / समां समां कोऽर्थः ? वर्ष प्रति / २अद्य- ईनः / अलङ्कर्मणे इति वाक्यम् , अलङ्कर्मीणः / श्वःशब्दयोर्वाऽर्थे 'नाम नाम्ना०' (3 / 1 / 18) 4 अलं पुरुषाय अलंपुरुषीणः, प्रात्यवपरिनिरादयः०' इति समासः, तदनन्तरं विजनिष्यमाणेऽर्थे विज- (3 / 1147) इत्यनेनात्र समासः / तथा अधीनशब्दः, नस्य कोऽर्थः ? प्रसवस्य प्रत्यासत्तौ गम्यमानाया- | राज्ञि अधीनं-राजाधीनम् , 'सप्तमी शौण्डाद्यैः' (3 / Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्य तुल्ये कः संज्ञाप्रतिकृत्योः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम। .. 1188) इति समानः / “अस्मास्वधीनं किमु नःम्प- | तुल्योऽश्वकः, उष्ट्रकः, अश्वादिसदृशस्य [प्राणिविशेहाणाम्" / तथा बाक्यं हि वक्तर्यधीनं भवति इति षस्य] संज्ञा एताः / प्रतिकृती,-अश्वकं रूपम् , प्रयोगौ प्राक्तनौ // 106 / / अश्वका प्रतिमा। तुल्य इति किम् ? २इन्द्रदेवः / अदिक स्त्रियां वाचः / / 7 / 1 / 107 / / संज्ञाप्रतिकृत्योरिति किम् ? गोस्तुल्यो गवयः / 108 / म० वृक्ष-अञ्चत्यन्तानाम्नः स्वार्थे / 'ईनः' प्रव०-'प्रतिकृतिः काष्ठादिमयं प्रतिच्छन्दस्यात् वा, यदि सोऽश्च दिशि स्त्रियां न वर्त्तते / कम् / इन्द्रदेवस्य सम्बन्धी उपचारात् इन्द्रदेवः, प्राक् , प्राचीनम् ; प्रत्यक् , प्रतीचीनम् ; उदक , एवं नामा कश्चित्पुरुषः, नात्र सादृश्यम् / / 108 / / उदोचीनम ; अवाक् , अवाचीनम : सम्यङ, समीचीनम / अदितियाभिति किम् ? प्राची, न नृ-पूजार्थ-ध्वज-चित्रे / / 7 / 1 / 109 / / उदीची दिक् [अञ्चः (2 / 4 / 3) की]। दिग्ग्रहणं ___ म० वृ०-नरि-मनुष्ये, पूजार्थे, ध्वने, चित्रे किम् ? "प्राचीना शाखा / स्त्रीग्रहणं किम् ? | चित्रकर्मणि वाच्ये 'को न' स्यात् / 'तत्र सोऽयमिप्राक् 'प्राचीनं रमणीयम् / / 107|| त्येवाभिसम्बन्धः / न,- ३चश्चा तृणमयः पुरुषः, चर्चिका,खरकुटी / पूजार्थ,- "अर्हन् , शिवः ; पूजप्रव०-दिक चासौ स्त्री च=दिकस्त्री. न नार्थाः प्रतिकृतयः उच्यन्ते / ध्वज,- 'गरुडः, दिक स्त्री अदिकस्री, तस्याम् / नपुंसके प्राचशब्दः, / सिंहः, ध्वजः / चित्रो भीमः रावणः // 109 / / प्रागेव इति वाक्यम् . प्राचीनम् उदाहरणम / एवं सर्वत्र / प्राक प्रत्यक उदक् इति शब्दत्रयं नपुंसके अव०-कप्रत्यये प्रतिषेधे सति तत्र सोऽयमित्यभवति / सम्र ङ् इति पुंलिङ्गे। 'सहसमः सध्रिसमि' क्षरार्था ज्ञातव्याः / संज्ञाप्रतिकृत्यर्थयोरपि 'न (3 / 2 / 123) इत्यनेन सम्यङ् इति साध्यते- समञ्च | नृपूजार्थे ' सूत्रे गम्यमानयो यथासम्भषं कप्रत्यये तीति सम्यङ् / प्राग् एव इत्यादिवाक्यानि / सम्यव प्राप्तेऽपि प्रतिषेधोऽयं 'न नृपूजार्थः' इति समीचीनम् (?समीचीनः)। लिङ्गे प्राङ् प्रत्यङ् उदङ् योगः इत्यर्थः / श्वर्द्धिकावद् जुगुप्स्यः पुरुषोऽपि अबाङ् भवन्ति / प्रान्येव प्राचीना, 'अदिस्त्रियान्०' | वर्द्धिका / ग्यःक्षेत्ररक्षणाय क्रियते,चश्चातुल्यः पुरुष (7 1 / 107. इत्यनेनैवात्र ईनः, जातिश्च०' (3 / 2 / 51) इति वाक्यम् , चश्वा इत्युदाहरणम् / “पूजनार्थाः इति पंपद्भावः / 'प्राची दिग् रमणीया अथवा पूजनयोग्याअपि प्रतिकृतयः प्रतिमा अर्हन इति अयं प्राग्देशो रमणीयः प्राक्कालो रमणीय इत्यर्थ शिव इत्यभिधीयन्ते / 'गरुडस्य प्रतिकृतिर्गरुडः / त्रयम् / दिगशब्दाद् दिग्देशकाल'(७।२।११३) इत्या एवं सिंहादीनामपि (वाक्यं विधेयम् ) // 109 / / दिना सूत्रेण धा, लुबञ्चः' (72 / 123) इत्यनेन धा अपण्ये जीवने / / 7 / 1 / 110 // प्रत्ययो लुप्यते, लुपि सत्यां 'ड्यादे'० (2 / 4 / 95) इत्यनेन डी लुक / दिश्यपि वाच्यायां लुबन्तः शब्दः म० वृ०-१पण्यवर्जितं यज्जीवनं रतस्मिन् 'को स्वभावान्नपंसक एव / अथ प्राच्येव इति वाक्ये न' स्यात् / वासुदेवसदृशः वासुदेवः, शिवस्य सदृशः प्राचीनं रमणीयमिति प्रयोगः / 'अदिस्त्रियां' / शिवः [विष्णु]; देवलकानां जीविकार्थाः प्रतिकृ(७।१।१०७) इत्यनेन ईनः // 107 / / तय उच्यन्ते। अपण्य इति किम् ? हस्तिकान् विक्रीणीते // 110 // तस्य तुल्ये कः संज्ञा-प्रतिकृत्योः // 7 / 1 / 108 // म० वृ०-तस्येति षष्ठयन्तात्तुल्ये सदृशेऽर्थे 'कः' प्रव०-'पण्यं विक्रेतव्यं वस्तु / रजीवन्त्यनेनेति स्यात् , संज्ञायां 'प्रतिकृतौ च विषये। अश्वस्य / जीवनम् / देवान् (लक्षणया तत्स्वं) लान्ति- 'भातो Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 1 सू० 111-117 डो' (5 / 1 / 76) इति देवलाः, (देवला एव देव- शाखादेर्यः // 7 / 1 / 114 // लकाः ) / हस्तिनः प्रतिकृतयो हस्तिकाः,रामेकडा इति लोकरूढिः, 'तस्य तुल्ये' (7 / 1 / 108) इत्य म० वृ०-शाखादिभ्यस्तुल्ये ‘यः' स्यात् / नेन कः, तान् / जीवने इति किम् ? क्रीडने निषेधो | [शाखायास्तुल्यः=] शाख्यः, मुख्यः // 114 / / मा भूत् ,- हस्तिनः तुल्यो-हस्तिकः // 110 // देवपथादिभ्यः / / 7 / 1 / 111 // अव०-'पुरुषस्कन्धस्य वृक्षस्कन्धस्य वा तिर्य क् प्रसृतमङ्ग शाखा इत्युच्यते, तद्यथा शाखा पार्धाम० वृ०-देवपथादिभ्यस्तुल्ये संज्ञाप्रतिकृ- यता तथा कुलस्य यः पार्थायतोऽङ्गभूतः स शाखात्योः 'को न' स्यात् / देवपथतुल्यो-देवपथः / 111 // यान्तुल्यः। शाखा, मुख, जघन, स्कन्ध, स्कन्द, मेघ, शङ्ग, चरण, शरण, उरस् , शिरस् , अग्र इति अव०-'देवानां पन्थाः देवपथः, 'ऋक्तः- शाखादिगणः // 114 // पथ्यपोऽत्' (73 / 76 ) इत्यत्समासान्तः, देवपथ द्रोभव्ये / / 7 / 1 / 115 / / तुल्यो देवपथः / देवपथ, हंसपथ, अजपथ,राजपथ, शतपथ, शकुपथ, स्थलपथ, सिन्धुपथ, उष्ट्रग्रीवा, ___ म० वृ०-द्रशब्दात् षष्ठ्यन्तात्तुल्ये 'भव्ये वामरज्जु, हस्त, इन्द्र, दण्ड, पुष्प, मत्स्य इति देव वाच्ये 'यः' स्यात् / द्रतुल्यो 'द्रव्यं माणवकोऽयम् , पथादिगणः / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् / पूर्वयोगा द्रव्यं स्वर्णादिकार्षापणं वा / भव्य इति किम् ? वस्यैव प्रपश्चः // 11 // द्रुतुल्योऽयं न चेतयते // 115 // वस्तरेया // 7 / 1 / 112 // अव०-विशिष्टेष्टपरिणामेन भवतीति भव्यम. वृ०-तस्य तुल्ये इति वर्त्तते, न संज्ञाप्र- म् ,कोऽर्थः ? अभिप्रेतानामर्थानां पात्रम् / दु-दारु, तिकृत्योः / वस्तेः षष्ठयन्तात्तुल्ये 'एयम् स्यात् / तत्तुल्यो द्रव्यमिति विस्तरवाक्यम् , यथा द्र अग्रन्थि यस्तेस्तुल्यं वास्तेयम् ' // 112 / / अजिह्ममवक्रं दारु संस्क्रियमाणं विशिष्टेष्टरूपं भवति तथा माणवकः शिष्टयः पुत्रो विनीयमानः साधु प्रव०-'एवं वास्तेयी प्रणालिका // 112 / / शिक्षमाणो विद्यालक्ष्मीकीर्तिमहिमादिभाजनं भव तीति द्रव्यं माणवकोऽयमित्युच्यते / तथा कार्पाशिलाया एयच्च' / / 7 / 1 / 113 / / पणमपि व्याणर्यमाणं विशिष्टेटमाल्याद्युपभोगफलं म० वृ:-शिलाशब्दात् षष्ठयन्तात्तुल्ये 'एयच भवति इति तदपि द्रव्यमुच्यते / राजपुत्रोऽपि द्रव्यं चकारादेयम् च स्यात् / शिलायास्तुल्यं शिलेयं दुरिव, यथा द्रमः पुष्पफलादिभिरर्थिनः कृतार्थयति दधि, शिलेयी इष्टकाः [एयच्]। शैलेयं दधि, एवं राजपुत्रादिकोऽन्योऽपि यः कश्चिदुपकारी स शैलेयी इष्टका [एयर] // 113 / / द्रव्यमुच्यते // 115 // कुशाग्रादीयः / / 7 / 1 / 116 / / प्रव०-शिलाया एयञ्च' इत्यत्र चकारः'अण म० वृ०-कुशाग्रात्तुल्येऽर्थे 'ईयः' स्यात् / बेयेकणनबस्नटिताम्' (2 / 4 / 20) इति सूत्रे एय. कुशाग्रस्य तुल्यं कुशाग्रीयं शस्त्रम् , तदाकारत्वात् / स्य सामान्यग्रहणाविघातार्थः, एय इत्युक्त एयण , कुशाग्रीया बुद्धिस्तीक्ष्णत्वात् // 116 // एयन , एयच् इति त्रयोऽपि प्रत्यया ग्राह्या इति डीसिद्धिः // 11 // काकतालीयादयः / / 7 / 1 / 117 // . Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुल्यार्थाधिकारः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [419 म० वृ०-काकतालोयादिशब्दा 'ईयन्ताः साध- / गोलोमन् , पुण्डरीक, शत्रपत्र, नराची, नकुल, वो' भवन्ति। तुल्यार्थे,- काकश्च तालश्च काकता- सिकता, कपाटिका इति शर्करादिगणः / / 118 // लम् , काकतालस्य तुल्यं= 'काकतालीयम् , एवम अः सपत्न्याः // 7 / 1 / 119 // न्धकवतिकीयम , अजाकपाणीयम , अर्द्धजरतीयम् , 'घुणाक्षरीयमित्यादय आश्चर्यविषयाः काक म० वृ०-सपत्नीशब्दात् षष्ठयन्तात्तुल्ये 'अः' तालीयादयः प्रयोगा लोकरूढ्या गम्याः // 117 / / स्यात् / सपन्यास्तुल्यः सपत्नः // 119 // एकशालाया इकः // 7 / 1 / 120 // प्रव०-'काकश्च तालश्च काकतालम् , कोऽभि म००-एकशालाशब्दात् षष्ठयन्तात्तुल्ये 'इकः' प्रायः कस्मिन्नपकालक"तदर्थी व्रजत........."तता स्यात् / [एकशालायास्तुल्यम्=] एकशालिकम् / / 120 ...अनकेवामन""त्रीयमाणः संयोगो लक्षणया उच्यते .....कतालतुत् काकतालीय निगद्यते / गोण्यादेश्चेकण् // 7 / 1 / 121 // एवं खलतिबिल्वी यम् इत्यपि उदाहरणम्, खल्वाटस्य म० वृ०-गोण्यादिभ्यश्चकारादेकशालाशब्दाटाटरि ( ? ) उपरि बिल्वफलनिपातः इत्यर्थः / त्तस्य तुल्ये 'इकण्' स्यात् / 'गौणिकम् , ऐकशालि तथा अन्धकवतिकीयम् , अन्धजनस्य वर्तिकाया कम् / / 121 / / उपरि अकस्मात् पादन्यासः, अथवा अन्धजनहस्ते बाहूत्क्षेपे सति वर्तिका तिष्ठति, तत्तुल्यमन्यदपि प्रव०-गोणी, अङ्गली, भरुजा, वभ्रु, बभ्रु, अचिन्तितं कर्म अन्धकवतिकीयमुच्यते / अजा वल्गु, मण्डर, मण्डल, शकुलि, हरि, मण्डु, कपि, च कृपाणं च, कृपाणमुपलक्षणम् , छुरिकादिकम् भर, खल, उदश्वित् , तरस् , कुलिश, मुनि, रुरु (अपि) ज्ञेयम् , अजया पादेनावकिरत्या भूमि खन- इति गोण्यादिगणः / गोण, 'भाजगोण'० (2 / 4 / न्त्याऽकस्मात् 'अधः छुरिकया स्वपादविदारणं | 30) इति डी, गोण्यास्तुल्यं गौणिकम् / एवमङ्गक्रियते / अझै जरत्याः, यथा जरती वृद्धाऽर्द्ध कार्य / लेरङ्गुल्या वा तुल्यम आङ्गुलिकम् / / 121 // करोति अर्द्ध न करोति तत्तुल्यमईजरतीयम् / 'तथा कर्क-लोहिताट्टीकण च // 7 / 1 / 122 // घुणस्याक्षराणि घुणाक्षराणि, यथा घुणो जीवविशेषः काष्ठमुत्किरन् कदाचित्कालपर्यायवशादक्षर म. वृ०-कर्कलोहिताभ्यां षष्ठयन्ताभ्यां तुल्ये लिप्याकारं करोति, एवं कोऽपि मूर्योऽपि सन् 'टीकण' स्यात् , 'चकारादिकण' च / शुक्लोऽश्वः किमपि तत्त्वं वेत्ति, विद्वज्जनोचितं स्वभावं कदा. कर्कः, तस्य तुल्यः कार्कीकः, कार्किकः; रेलौहितीकः, चित् प्रथयति, तेन घुणाक्षरीयमुच्यते // 117|| लौहितिकः ; कार्कीकी // 122 / / शर्करादेरण // 7 / 1 / 118 // अव०-'टीकण (इत्यत्र) टकारो ड्यर्थः, तत्र म. वृ०-शर्करादिभ्यः षष्ठयन्तेभ्यस्तुल्ये कार्कीकी। श्यः स्फटिकादिः अलोहितवर्णोऽपि उपा'अण' स्यात् / शर्करायास्तुल्यं शार्करं दधि मधुर- | श्रयवशात् लोहित इवावभासते स स्फटिकादिः त्वात् / शार्करी मृत्तिका कठिनत्वात् / / 118 // लौहितिकः, लौहितीकः इत्युच्यते॥१२२॥ अव०-शर्करा, कपालिका, कम्याष्टिका, गोपुच्छ, | वेर्विस्तृते शाल-शङ्कटौ // 71 / 123 // * अत्र बुहवृत्तिपाठ एवम्- काकश्च तालश्च काकतालम् , यथाकथंचिद् व्रजतः काकस्य निपतता तालेनातर्कितोपनतश्चित्रीयमाणः संयोगो लक्षणयोच्यते, तत्तुल्यं काकतालीयम् / Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 1 सू० 124-130 म० वृ०-विशब्दाद्विस्तृतेऽर्थे 'शालशङ्कटौ' / नतिमती इति वाक्यम् , नासिका नतिमती (इति) भवतः / विशालः, विशङ्कटः ; विस्तृत इत्यर्थः / 123 / / वाक्येऽवटीटा इत्यादिप्रयोगाः / / 127 / / नेरिनपिटकाश्चिकचिचिकश्चाऽस्य / / 7 / 1 / 128 / / अव०-"विस्तृते', अत्र स्तृन्ट , क्तः / 'वेर्वि. म. वृ०-निशब्दानासानतौ तद्वति चार्थे 'इन, स्तृत'० इति सूत्रे विशेषोऽयम् ,-विनानानाशब्दौ पिट, क' इति प्रत्ययाः स्युः तद्योगे चास्य निशब्दभव्ययौ पृथग्भावे वर्तेते..........................(तेन स्य यथासंख्यं 'चिक , चि, चिक्' इत्यादेशाः / विनब्भ्यां नानानौ प्रत्ययौ न वक्तव्यौ) / / 123 / / 'चिकिनम् , चिपिटम् , चिकम् नासिकानमनम / कटः // 7 / 1 / 124 // २चिकिना, चिपिटा, चिक्का नासिका। चिकिनः म० वृ०-वेः परः 'कटः' स्याद्विस्तृतेऽर्थे / विकटः॥ पुरुषः // 128 // सम्प्रोन्नः सङ्कीर्णप्रकाशाधिकसमीपे / 7 / 1 / 125/ अव०-नासिकाया नमनामिति वाक्यम् , म० वृ०-सम् , प्र, उद्, नि इत्येतेभ्यो यथा चिकिनमित्यादिप्रयोगाः, शब्दान्तरेण निशब्दस्यासंख्यं सङ्कीर्णादिष्वर्थेषु 'कट:' स्यात् / 'सङ्कटः, र्थकथनमत्रास्ति / नासिका नतिमती इति वाक्यम् / प्रकटः, उत्कटः, 'निकटः // 125 / / [एवम ] चिपिटः, चिकः पुरुषः / सूत्रे वहुवचनं प्रव०-'सम्परात् सङ्कीर्णेऽर्थे कटः / प्रशब्दात् रूढ्यर्थम् // 128|| प्रकाशेऽर्थे / उउत्परादधिके कटः / निशब्दात्समीपे / / विड-बिरीसौ नीरन्ध्रे च / / 7 / 1 / 129 / / अवात्कुटारश्चावनते / / 7 / 1 / 126 / / म० वृ०-निशब्दान्नीरन्ध्रऽर्थे नासानतितद्वतोश्च म.वृ०-अवादवनतेऽर्थे कुटार:'चकारात् कटश्च' 'बिडबिरीसी' भवतः / निबिडाः,निबिरीसाः केशाः; स्यात् / अवकुटारः,अवकटः [अवनत इत्यर्थः / / 126 / / निबिडम् , निबिरीसं वस्त्रम् ; नासिकानमनं निबिनासानति-तद्वतोष्टीट-नाट-भ्रटम् / / 7 / 1 / 127 / / डम , निबिरीसम ; निबिडा, निबिरीसा नासिका; म. वृ०-अवान्नासानतौ तद्वति च वाच्ये 'निबिडो मैत्रः / ऋविधानसामर्थ्यान्न पत्वम्॥१२९ 'टिट नाट-भ्रटा' भवन्ति / नासानती [नासाया अव०-१नासानतिमान निबिड इति वाक्यं नमनमित्यर्थे ]- अवटीटम , अवनाटम , अवभ्रटम् / तद्वति, नासा, पुरुषः, अपकृष्टो वाऽथः, कार्यम् , निबिडः, निबिरीसो मैत्रः / 'नाम्यन्ततत्र- २अवटीटा, अवनाटा, अवभ्रटा नासिका ; स्था' (2 / 3 / 15) इत्यनेन [प्राप्तम् // 129 / / अवनाटः, अवभ्रटः पुरुषः / अवटीटम ,अवनाटम् , क्लिन्नालश्चक्षुषि चिल-पिल-चुल चास्य / 7 / 1 / 130 / अवभ्रटं ब्रह्मदेयम् [ब्रह्मभ्यो देयम् ] / ' अपकृष्टमपि __म० वृ०-'क्लिन्नाचक्षुषि वाच्ये 'लः' स्यात् , हि वस्तु दृष्ट्वा लोको नासिका नामयति // 127 / / तद्योगे चास्य क्लिन्नस्य 'चिल्-पिल-चुल' आदेशाः / चिल्लम् , पिल्लम् , चुल्ल चक्षुः। तद्योगात्पुरुषोऽपि . प्रव०-सा नासानतिर्विद्यते यस्मिन् पुरुषे / चिल्लः, पिल्लः, चुल्लः // 130 / / स तद्वान् नासानतिमान् पुरुषः, तस्मिन् अभिधेये / मासापि नतिमत्त्वात् तद्वती कथ्यते, ततो नासा. | अव०-१क्लिद्यति स्म, गत्यर्थेति कुः (?क्तः) // 130 * 'निबिरीसम् ' इत्यादिषु / Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तारकादिभ्य इतप्रत्ययः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [421 उपत्यका-ऽधित्यके / / 7 / 1 / 131 / / / यमपि 'पशुभ्यः स्थानेः' इति योगोऽपवादः / 133 // म० वृ०-'उपत्यका अधित्यका' इति निपा द्वित्वे गोयुगः / / 7 / 1 / 134 // त्येते। 'उपत्यका पर्वतस्य तलहट्टिका भूः / २अधि- म० ०-पशुनामभ्यो द्वित्वेऽर्थे 'गोयुगः'स्यात्' / त्यका पर्वतोपरि भूमिः // 131 / / गवोद्वित्वं गोगोयुगम् ,अश्वगोयुगम् / / 134 / / अव०-१इदमर्थानामपवादोऽयमपि / अश्वयोअव०-उपशब्दात् , अधिशब्दात् यथासंख्यं द्वित्वम् // 134 // पर्वतस्याध आसन्नायान , पर्वतस्योपरितनायां भुवि षट्त्वे षड्गवः / / 7 / 1 / 135 / / वाच्यायां त्यकः प्रत्ययो निपात्यते, यतो निपातनं म० वृ०-पशुनामभ्यः षट्त्वे वाच्ये 'षड्गवः रुव्यर्थम् / स्वभावतः स्त्रीलिङ्गावेतौ शब्दो इति प्रत्ययः' स्यात् / [इदमर्थानामपवादोऽयम् ] 'अजादेः' (2 / 4 / 16 ) इत्यनेन आप् / 'अस्यायत्तत् अश्वानां षट्त्वम् अश्वषड्गवम् / / 135 / / क्षिपकादीनाम्' (2 / 4 / 111) इति सूत्रे क्षिपकादिग तिलादिभ्यः स्नेहे तैलः // 7 / 1 / 136 / / णपाठादत्र इत्वाभावः / / 131 / / म० ३०-तिलादिभ्यः स्नेहेऽर्थे 'तैलः' प्रत्ययः अवेः सङ्घात-विस्तारे कट-पटम् // 7 / 1 / 132 / स्यात् [विकारप्रत्ययापवादोऽयम् ] तिलानां स्नेहो म. वृ०-अविशब्दात्सामर्थ्यात्षष्ठयन्तात् विकारस्तिलतैलम् ,सर्षपतैलम् ,एरण्डतैलम् // 136 सङ्घाते विस्तारे चार्थे यथासंख्यं 'कटपटौं' भवतः तत्र घटते कर्मणष्ठः / / 7.1 / 137 / / अविकटः, अविपटः // 132 // म. वृ०-कर्मन्शब्दात् तत्रेति सप्तम्यन्तात् प्रव०-सङ्घातेऽर्थे 'षष्ठयाः समूहे' (6 / 29) घटतेऽर्थे 'ठः' म्यात् / कर्मणि घटते-कर्मठः।। इत्यादिसूत्राणां प्राप्तौ सत्यां विस्तारे चार्थे / अव० कर्मणि कार्ये ऽतिदक्षः कर्मठः कर्मशूरः / / 137 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) 'दोरीयः' (6 / 3 / 32) तदस्य सञ्जातं 'तारकादिभ्य इतः।।७।१।१३८।। इत्यादिसूत्राणां संज्ञाविवक्षायां प्राप्तौ सत्याम् 'अवेः ___ म० वृ०-तदिति प्रथमान्तेभ्यस्तारका इत्यादि. संङ्घात०' इति सूत्रमपवादं कृतमित्यर्थः। 'अवीनाम ग्योऽस्येति षष्ठ्यर्थे 'इतः' [इतः प्रत्ययः] स्यात् , जानां सङ्घातोऽविकट: / अविपट इत्युदाहरणाग्रे यत्प्रथमान्तं तत् सातं चेत् स्यात् / तारकितं बृहद्वृत्तौ “सङ्घाते सामूहिकानां विस्तारे ऐदमर्थि नभः, पुष्पितस्तरुः // 138 / / काणां चापवादो योगः" इत्यक्षराणि सन्ति / सामूहिकानां कोऽर्थः ? 'षष्ठयाः समूहे ( 6 / 2 / 9) इत्या- अव०-'तारका इति शब्द आदिर्येषाम् (ते . दीनां सूत्राणाम् / ऐदमर्थिकानां कोऽर्थः ? 'तस्ये / तारकादयः, तेभ्यः) / तारका, पुष्प, कर्णक, ऋजीष, दम् '(6 / 3 / 160 ) इत्यादीनाम् , 'दोरीयः' (6 / 3 / 32) | मूत्र, पुरीष, निष्क्रमण, उच्चार, विचार, प्रचार, इति (अस्य च)संज्ञाविवक्षायाम् / / 132 // __ आराल, कुडमल, कुसुम, मुकुल, वकुल, स्तबक, पशुभ्यः स्थाने गोष्ठः // 7 / 1 / 133 // पिल्लव, किशलय, वेश, वेग, निद्रा, तन्द्रा, श्रद्धा, म० वृ०-[षष्ठयन्तेभ्यः] पशुनामभ्यः स्थाने- बुभुक्षा, पिपासा, अभ्र, श्वभ्र, रोग, अङ्गारक, ऽर्थे 'गोष्ठः' स्यात् / गवां स्थानं-गोगोष्ठम् , अश्व अङ्गार,पर्णक, द्रोह, सुख, दुःख, उत्कण्ठा, भर, गोष्ठम् , महिषीगोष्ठम् // 133 // तरङ्ग, व्याधि, व्रण, कण्डूक, कण्टक, मञ्जरी, कोरक, अङ्कर, हस्तक, पुलक, रोमाश्च, हर्ष, ___ अव०-तस्येदम्' (6 / 3 / 160 ) इत्यादीनाम- / उत्कर्ष, गर्व, कल्लोल, शृङ्गार, अन्धकार, कन्दल, Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 1 139-143 शेवल, कुतूहल, कुवलय, कलङ्क, कज्जल, कर्दम, प्रमाणमस्य हास्तिनम् ,पक्षे पहस्तिमात्रम् , हस्तिसीमन्त, राग, क्षुध् , तृष् , ज्वर, गर, द्रोह, शास्त्र, | दध्नम् , रहस्तिद्वयसम् जलम् ; उहास्तिनी, हस्तिपण्डा, मुकुर, मुद्रा, गड़, फल, तिलक, चन्द्रक इति मात्री ;पौरुषम्,पुरुषमात्रमित्यादि.४; उपौरुषी, पुरुपतारकादिगणः / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् / आचार्य- 3मात्री छाया // 14 // स्येयं शैली- यत्र गणशब्दानां नैयत्यं नास्ति, लोकेऽन्येऽपि ये केचित् शब्दाः सन्ति,तत्र सूत्रे बहुवचन प्रव०-'पूर्वेण मात्रट् / २उत्तरेण दध्नट् द्वयमाचार्यो निर्दिशति, अत एव बहुवचनमाकृतिगणा सट / उ'अणबेये'. (2 / 4 / 20) इति की। ४पुरुषर्थमित्यक्षराणि / यत्र शब्दनैयत्यमेव तत्रैकवचन- दध्नम् , पुरुषद्वयसम् जलमित्यर्थः // 141 // मेव सूरिः पठति / तारका सञ्जाता अस्य नभसः वोचं दध्नट-द्धयसट // 7 / 1 / 142 // तत् तारकितम् / पुष्पाणि सञ्जातान्यस्य तरोः म० वृ०-[ऊर्ध्वमिति क्रियाविशेषणम् , ततो. स पुष्पितस्तरुः / / 138 / / ऽम् ) ऊर्ध्वं यत्प्रमाणं तद्वाचिनाम्नः प्रथमान्तात् गर्भादप्राणिनि // 7 / 1 / 139 / / षष्ठयर्थे 'दध्नट्-द्वयसट्' भवतः वा / पक्षे मात्रट / म० वृ०-गर्भात्तदस्य सञ्जातमित्यर्थे 'इत.' १ऊरुदनम् , ऊरुद्वयसम् , ऊरुमात्रम् जलम् , स्यात् , अप्राणिनि-षष्ठयर्थश्चेन्न प्राणी। [गर्भः ऊरुदनी खाता, तद्दनी, तावद्दनी, तावन्मात्री सञ्जातोऽस्य=] गर्भितो ब्रीहिः [व्रीहिवनम् ], गर्भि- (खाता) / वाग्रहणमण्मात्रटोरबाधनाथम / तेन ताः शालयः / अप्राणिनीति किम् ? गर्भः सञ्जातो- पुरुषदनं पुरुषद्वयसं पुरुषमात्रं पौरुषं जलम् / ऽस्या दास्या इति वाक्यमेव // 139 / / एवं हस्तिप्रयोगाः / एवं चातूरूप्यम [पुरुषशब्दस्य हस्तिशब्दस्य च] / ऊर्ध्वमिति किम् ? रज्जुमात्री प्रमाणान्मात्रट् // 7 / 1 / 140 / / भूमिः // 142 / / म० वृ०-तदस्येति वर्तते / तदिति प्रथमान्तात् प्रमाणवाचिनो नाम्नोऽस्येति षष्ठयर्थे मात्रट्' प्रव०-'तदस्य सातम्' (1138) इति स्यात् / 1 आयाममानं प्रमाणम् , तद् द्विधा-, सूत्रादारभ्य 'अधिकं तत्संख्यमस्मिन् शतसहस्र'० ऊर्ध्वमानं तिर्यग्मानं च, तत्रोव॑मानात् जानुमात्रं (7 / 1 / 154) इति सूत्रं यावत् सर्वसूत्रार्थेषु "तदिति जलम् , तिर्यग्मानात रज्जुमात्री, तन्मात्री भूः // प्रथमान्तान अस्येति षष्ठ्यर्थे' इत्यधिकारः सूत्रेषु १६मध्ये उत.ोऽनुतोऽपि ज्ञातव्यः / १ऊरुः प्रमा- अव०-टकारो ड्यर्थः / आयाममानभित्यत्र, णमस्य-ऊरुदध्नं जलम् / एवं सर्वत्र वाक्यम् / / 142 * “दनदिनशतमाना हायनस्थानमानाः" इति पुन्न मानादसंशये लुप् / / 7 / 1 / 143 / / पुसकलिङ्गपाठात् पुनपुसकत्वम् / २जानुप्रमाणमस्य जलस्य। उरज्जुप्रमाणमस्या भुवः / एवं म० वृक्ष-प्रमाणादिति वर्त्तते / मानवाच्येत्र *तावन्मात्री भूमिः / / 140 // साक्षाद् यः प्रमाणशब्दो हस्तवितस्त्यादिः प्रसिद्धो न तु रज्वादिः 'तस्मात्प्रस्तुतस्य 'मात्रडालुप' हस्ति-पुरुषाद्वाऽण् / / 7 / 1 / 141 / स्यादसंशये गम्यमाने / हस्तः, वितस्तिः, दिष्टिः, म० वृ०-तदिति प्रथमान्ताभ्यां प्रमाणार्थाभ्यां शमश्चतुर्विशतिरङ्गलानि / मानादिति किम् ? हस्तिपुरुषाभ्यां षष्ठयर्थे ऽ'ण वा' स्यात् / हस्ती , ऊरुमात्रं जलम् [रज्जुमात्री भूमिः // 143 / / * श्रीहैमलिङ्गानुशासने पुन्नपुसकलिङ्गप्रकरणे विशतितमे श्लोके। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानार्थाधिकारः] ' मध्यमवृत्त्यवचूरिसंघलितम् / [423 प्रव०-१कोऽर्थः ? यो लक्षणया प्रमागे वर्तते, / लुप्यते, 'पुरुषाद्वा' (2 / 4 / 25) इत्यनेन विकल्पेन तस्मादेवंविधान प्रमाणवाचिनो नाम्नः परस्य कृत- की। एवं द्विहस्तिनौ,अत्र 'स्त्रियां नृतो'० (2 / 4 / 1) स्य मात्रडादेरित्यर्थः / हस्तः प्रमाणमम्य हस्तः / की / 'द्रौ प्रस्थौ मानमस्य स्यादित्यादियुक्त्या हस्तविशेषो दिठिः, मुण्डहथु इति लोके प्रसिद्धिः, वाक्यानि // 144 / / दिष्टिः प्रमाणमस्य दिष्ठिः / संशय इनि किम् ? शमः मात्रट / / 7 / 1 / 145 // / प्रमाणमस्य स्यात-शममात्रम / केचिन्मानमात्रान्मात्रट , तस्यासंशये वा लुपं कुर्वन्ति / यथा प्रम्थं म. वृ०-मानात्संशये इति वर्तते / तदिति प्रस्थमात्रो वा व्रीहिः, हस्तः हस्तमात्रं वा काष्ठम् , प्रथमान्तान्मानबाचिनो नाम्नः षष्ठ्यर्थे संशये शतं शतमात्रा वा गावः / शतं मानमेषां गवाम् / 'मात्रट्' स्यात् / 'प्रस्थमात्रं धान्यम् , २पलमात्रम् , गोशब्दोऽत्र पुलिङ्गः / 'मानादमंशये ' (11143) उपञ्चमात्राः, “शतमात्राः // 145|| इति सूत्रप्रान्ते विशेषोऽयम् // 143 / / प्रव०- प्रस्थो मानमस्य स्यात् प्रस्थमात्रम् / द्विगोः संशये च / / 7 / 1 / 144 / / २पलो मानमस्य स्यात / उपञ्च मानमेषां स्यात / म. वृद-मानादिति वर्त्तते / प्रमाणादिति पञ्चमात्राः। शतं मानमेषां स्यात्-शतमात्राः // 145 / / निवृत्तम / मानान्तात् द्विगो: संशये प्रस्तुतस्य शन्-शद्-विंशतेः / / 7 / 1 / 146 / / मात्रडादेलुप" स्यात् / रद्विशमः, द्विदिष्टिः, द्विवितस्तिः, द्विकाण्डा क्षेत्रभक्तिः, द्विकाण्डी रज्जुः, म० वृ०-शनन्तात् शदन्ताञ्च संख्याशब्दात् द्विपुरुषी द्विपुरुषाः खाना, 5 'द्विप्रस्थः, द्विप विंशतिशब्दान्मानवृत्तेः प्रथमान्तात् षष्ठ्यर्थे संशये लम् , द्विशतः // 144|| गम्यमाने 'मात्रट ' स्यात् / डिनोऽपवादः / दश मानमेषां स्यान-दशमात्राः, त्रिंशन्मात्राः, विंशति मात्राः / / 146 // अव०-'चतुष्के 'पुरुषाद्वा' (2 / 4 / 25) इति की प्रत्ययाधिका........... पुरुषशब्दस्य प्रमाणत्वमु डिन् / / 7 / 1 / 147 // . ....चरित............नकाक्षात्प्रमाणत्वम् इति हेतोः / म. वृ.-संशये इति निवृत्तम् / शनन्तात् प्रमाणानुवृत्तौ सत्यां हि 'पुरुषाद्वा' इत्यनेन तद्धित- | शदन्ताच्च संख्याशब्दात् विंशतिशब्दाच्च मानवृत्तेलुपि सत्यां डी स्यात् इति प्रमाणादिति निवृत्तम् / 'डिन्' स्यात् / २पश्चदशी अर्द्धमासः, उपञ्चदशिनौ, रद्वौ शमी प्रमाणमस्य इति असंशयवाक्यम् , “पञ्चदशिनः / 'त्रिंशी,त्रिंशिनौ, त्रिंशिनो मासाः / द्वौ शमी प्रमाणमस्य स्याद्वा इति संशयवाक्यम् / एवं त्रयस्त्रिंशिनो देवविशेषाः। विशिनो भवनेन्द्राः 147 द्विदिष्टिः द्विवितस्तिः इत्यादिषुसंशयेऽसंशये वाक्यम् / सर्वत्र 'प्रमाणान्मात्रट्' (7 / 1 / 140) इति मात्रट् , अव०-'योगविभागात् / पञ्चदश अहोरात्राः तस्य 'द्विगोः संशये च' इत्यनेन लोपः / द्विकाण्डी परिमाणमस्य, एवम् अनयोः एषाम् / पञ्चदशी रज्जुरत्र ‘काण्डात् प्रमाणादक्षेत्रे' (2 / 4 / 24) इत्यनेन अर्द्धमासः, एवं द्वित्वबहुत्वयोरपि। ५त्रिंशतोऽहोरात्राः डी / द्वौ पुरुषौ प्रमाणमस्याः द्विपुरुषी, प्रमाणा- | परिमाणमस्य अनयोः एषां वा। त्रि, त्रिंशत्न्मात्रट् इति मात्रट , द्विगोः संशये च' इति मात्रट / शब्दः, त्रयश्च त्रिंशच, त्रयस्त्रिंशन्मानमेषां देवानां * अत्र पाठश्च्युतकियदंशोऽशुद्धश्च / अत्रायं भाव:--'पुरुषाद्वा' (2 / 4 / 25) इत्यत्रोपचरितप्रमाणात्पुरुषाल्लुपि डीविधानात् प्रमाणादिति निवृत्तम् / अस्मिन् सूत्रे प्रमाणानुवृत्तौ सत्यां तु प्रमाणस्य मानेन विशेषणात् प्रसिद्धादेव हस्तादितो लुब् स्यात्; नोपचरितात् पुरुषादेः, तदभावे च पुरुषाद्वा' इत्यनेन छीन स्यादित्यत्र प्रमाणादिति निवत्तम। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 1 148-151 त्रयस्त्रिंशिनः, 'द्वित्र्यष्टानां द्वात्रयोऽष्टाः प्राकशतादन- / एतत्प्रमाणमस्य / ननु इदमकिमयत्तदेतद्भयः शीतिबहुव्रीहौ' ( 3 / 2 / 92) इति सूत्रेण त्रिस्थाने परतो मात्रडादयोऽपि प्रत्ययाः पुराणप्रयोगेषु दृश्यत्रयस इत्यादेशः, ततो डिन , त्रयस्त्रिंशीन इति न्ते, यथा इदं प्रमाणमस्य-दृदंमात्रम् ,एवं किंमात्रम्, सिद्धम् / 'विंशतिशब्दस्य 'विंशतेस्ते'० (7 / 4 / 67) यन्मात्रम् , तन्मात्रम् , एतन्मात्रम् ; यत् उर्ध्व मानइत्यनेन तिकारस्य लोपः // 147 // मस्य यद्दध्नम् , यवयसम् इत्यादि / सत्यम् ,स्व विषये मानविशेषे प्रमाणवाच्ये सति मात्रडादयोइदं-किमोऽतुरिय-किय चास्य // 7 / 1 / 148 // ऽपि भवन्त्येव, को दोषः ? परं मानसामान्ये तु म० वृ०-तदस्य मानादिति वर्त्तते / तदिति वाच्ये अतुरेव भवति,न मात्रडादयः इति विभागः। प्रथमान्तादिदम्शब्दात् किम्शब्दाच्च मानवृत्तेर इयं विशेषाऽवचूरिः 'यत्तदेतदो०' इति सूत्रप्रान्ते स्येति षष्ठयर्थे मेये 'अतुः' स्यात् , तद्योगे च इदं. ज्ञेया॥१४९॥ किमोः [ यथासंख्यम् ] ‘इय् किय् ' इत्यादेशौ च / चतुर्धा' मानम् , तत्र प्रमाणात ,- इदं मानमस्य= यत्तत्किमः सङ्ख्याया तिर्वा / / 7 / 1 / 150 // इयान ,एवं [ किं मानमस्य=] कियान पटः ;परिमा- __म० वृ०-संख्यारूपं यन्मानं तद्वृत्तिभ्यो यद्णात् ,- इयद्धान्यम् , कियद्धान्यम् , उन्मानात् , तमिभ्यः प्रथमान्तेभ्यः षष्ठयर्थे संख्येये मेये इयद्धेम, कियद्धेम; सङ्ख्यायाः,- इयन्तः, कियन्तः, 'डतिर्वा स्यात् / या संख्या मानमेषां यति [डति], सन्तः, इयती, कियती / उदित्करणं दीर्घत्वाद्यर्थम् यावन्तः [अतुः]; एवं तति.तावन्तः; कति कियन्तः / ['भभ्वादे०' (1 / 4 / 90) इत्यत्र दार्घविधये] // 14 // *एतौ च अतुडती स्वभावाद् बहुवचनविषयावेव भवतः / / 150 // प्रव०-'ऊर्ध्व मानं किलोन्मानं,परिमाणं तु सर्वतः / यामस्तु प्रमाणं स्यात् संख्या बाह्या तु सर्वतः' / 1 / अव०- "यत्तत्किमः सङ्ख्याया डतिर्वा' इति इति चतुर्विधं मानम् / 'इदं किमोऽतुरिकिय सूत्रादारभ्य सङ्घयायाः कोऽर्थः सङ्ख्याशब्दात् इत्यचास्य' इति सूत्रे अतुप्रत्यये यत् उदित्करणं तद्दी धिकारः 'अतोरिथट्' (7 / 11161) इति सूत्रं यावत् र्घत्वाद्यर्थम् / 'अभ्यादेरत्वसः सौ' (1 / 4 / 90) अन्तरालसूत्रेषु सूत्रवृत्ती ज्ञातव्यः उत्तोऽनुक्तोऽपि / इत्यनेन अत्वन्तशब्दस्य दीर्घविधानमेकफलम् / २पक्षे यथाविहितोऽतुप्रत्ययोऽपि भवतीत्यर्थः / आदिशब्दात् 'ऋदुदितः' (1 / 4 / 70 )इति सूत्रे उडतिप्रत्ययान्तः अतुप्रत्ययान्तश्च शब्दो 'डत्यतु उदित्प्रत्ययान्तस्य नोऽन्तो भवतीति द्वितीयफलम् / सङ्ख्यात्' (1 / 1 / 39 ) इति सूत्रेण सङ्ख्यासंज्ञं यथा- इयान , इयन्तौ, इयन्तः / 148 / भवति। सङ्ख्यासंज्ञलात कति-यति-ततिशब्देभ्यो जस् एव भवति। तस्य जसो 'डतिष्णः सङ्ख्याया यत्तदेतदो डावादिः / / 7 / 1 / 149 // लुप्' (1 / 4 / 54) इति यति तति कति इति सिद्धम् / म० वृ०-यद्-तद् एतद्भ्यः प्रथमान्तेभ्यो सा सङ्कथा मानमेषां तति / का सङ्ख्या मानमानवृत्तिभ्यः षष्ठयर्थे मेये-'sतुः' स्यात् , सच मेषां कति / सङ्ख्यावाचिशब्देभ्यो विहितौ / डावादिः। 'यावान् , तावान , एतावान् पटः / सड़याया इति किम् ? किं मानमस्य=कियान , यावत् , तावत् , एतावद्धान्यम् / यावत् , तावत्, | यावान् पटः // 15 // एतावत् हेम / यावन्तीत्यादयोऽध्ययनानि (?) / अवयवात्तयत् / / 7 / 1 / 151 / / यावती तावती, एतावती // 149 / / म० वृ०-[तस्येति संख्याया इति च वर्चते ] प्रव०-'यत्प्रमाणमस्य / तत्प्रमाणमस्य / / मानादिति निवृत्तम् , अवयवादिति विशेषणान्तरो Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवयवार्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 425 पादानात् / अवयवे वर्तमानात्सङ्ख्यावाचिनो / उभयट् इति युक्त्या पठ्यमानः शब्दान्तरमेव विशेनाम्नः प्रथमान्तात् षष्ठयर्थेऽवयविनि 'तयट् 'स्यात्। यम्, न अयट्प्रत्ययान्तम् / अत एव 'नेमार्धप्रथमचत्वारोऽवयवा अस्याः='चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिः।। चरमतयायाल्प०' (1 / 4 / 10) इति सूत्रेण उभयट सप्ततयी नयवृत्तिः / दशतयो धर्मः // 15 // शब्दात्परतो जसः स्थाने विकल्पेन इकारो न भवति, 'जस इ.' (1 / 4 / 9 ) इत्यनेन उभये इत्येप्रव०-'जाप्तिगुणक्रियायदच्छाशब्दलक्षणा / कमेव रूपं भवति, न तु उभया इति (3) / 'द्वित्रि. एवं पञ्चतयो यमः, यमो नियमः अहिंसादिमयः, भ्यामयड् वा' (7.1 / 152 ) इति सूत्रे इदं विशेषद्वादशतयः सिद्धान्तः // 151 // त्रयं ज्ञातव्यम् // 152 // द्वि-त्रिभ्यामयड वा // 71 / 152 / / / द्वथादेगुणान्मूल्य-क ये मयट / / 7 / 1 / 153 / / म० वृ०-द्वित्रिशब्दाभ्यामवयवार्थाभ्यां प्रथ म. वृ०-सङ्ख्याया इति वर्तते। द्वयादेः संख्यामान्ताभ्याम्''अयट वा स्यात्। द्वाववयवावस्य-द्वय शब्दाद् गुणवृत्तेः प्रथमान्तात्षष्ठयर्थे 'मयट्' स्यात, म् , द्वितयं तपः : त्रयं जगत् , रत्रितयो मोक्षमार्गः, चेत्सङ्ख्याशब्दो मूल्ये क्रेये वा वर्तते / यवानां दी द्वयी, त्रयो। [टकारो ड्यर्थः] // 152 // गुणो मूल्यमस्योदश्वित: क्रेयस्य-द्विमयमुदश्विद् यवानाम्', एवं त्रिमयम् , चतुर्मयम् / अव०-'षष्ठ्यर्थे अवयविनि वाये / 'सम्यग्. उदश्वितो द्वौ गुणौ क्रेयावेषां यवानां द्विमयाः उयवा उदश्वितः, एवं त्रिमयाः। द्वथादेरिति किम् ? ज्ञानदर्शनचारित्ररूपः। “रोदोऽर्चिषी दाम गुणे त्वयट् यवानामेको गुणो मूल्यमस्योदश्वितः , उदश्वित तयट्" इति स्त्रीलीबलिङ्गपाठात् तयटयट्प्रत्ययान्तः एको गुणः क्रेय एषां यवानाम् / गुणादिति किम् ? स्त्रीक्लीबलिङ्गः / अवयवास्तावदवयविनि सम्बद्धा द्वौ ब्रीहियवौ मूल्यमस्योदश्वितः // 153 / / भवन्ति इति सामर्थ्यादवयवी प्रत्ययार्थ एकत्वविषय इति विज्ञायते, (अतः) त्रयोऽवयवा अस्येति विग्रहे एकत्वमेव प्राप्नोति इति पराशयः, तत्कथं प्रव०-एको भाग उदश्वितः , द्विगुणा यवा इत्यर्थः। वाक्यमिदम / उउदाहरणमिदम। हो"प्रयश्च दिव्यं शुचि मेघसंभवम्, * स्वतिप्रसन्नां परमां च वारुणीम् ; दाहरणे तु द्विगुणत्वमुदश्वितः, एको भागो यवाना- . ममातुलं वारि च वक्त्रसम्भवम् , मित्यर्थः / / 153 / / त्रयाणि पानानि यथातथा पिबेत्" // 1 // अधिकं तत्सङ्ख्यमस्मिन् शतसहस्र शतिशद्दशा(इति) त्रयाणि (इति ) अत्र बहुवचनम् ? सत्यम् , न्तायाः डः // 7 / 1 / 154 // अत्र तु देशकालादिभेदेन समुदायोऽभिधानात् बहुपचनं भवति (1) / तथा दूये पदार्थाः जीवा अजी- म. वृ०-'प्रथमान्तात् शति शत् दशन इत्येवाश्च / पदार्थानां बहुत्वात् द्वावषयवावस्येति न प्रा- वमन्तात् सङ्ख्याशब्दादस्मिन् सप्तम्यर्थे शते सहस्र प्नोति इत्याशङ्कयाह,- द्वये पदार्थाः जीवा अजीवा- च 'ड:' स्यात् , यत्प्रथमान्तं तच्चेदधिक तत्सस्श्चेत्यत्र तु जीवाजीवतया द्वैराश्योपादानात् ख्य च भवति / विशं योजनशतम् , "विशं शतं बहनामपि पदार्थानां द्वाववयवौ भवतः। द्वाववयवौ | योजनानि / एवं विशं योजनसहस्रम् , विशं सहस्र इति कल्पनीयौ (2) तथा द्वित्रिभ्यामेव अयट योजनानि / विशं कार्षापणशतम् , विशं शतं कार्षाउक्तः तत्कथमुभयो मणिः, उभये देवमनुष्याः, | पणानि। सङ्ख्यासमुदायोऽपि सङ्ख्यैव, सङ्ख्याउभयी दृष्टिः ; ? सत्यम् , उभयशब्दः सर्वादिगणे - यतेऽनयेति कृत्वेत्यत्रापि ड:- एकविंशं द्वाविंशं Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा०११५५-१५८ शतम् / शत् ,-त्रिंशं शतं सहस्रच, 'एकत्रिंशम् / / म. वृ०-'संख्यापूरणे 'डट' स्यात् / २एकाददशन ,- एकादशं शतं सहस्रबा, एवं द्वादशं शानां पूरणः एकादशः, एकादशसंख्यापूरण इत्यर्थः, प्रयोदशं शतम् / योजनादीनामिव शतानामपि एवं द्वादशः ; त्रयोदशः, [एकादशानां पूरणी=] सहस्र भवति,- विंशतिः शतान्यधिकान्यस्मिन् एकादशी स्त्री। संख्याग्रहणं किम् ? एकादशानाशतानां सहस्रविशं शतसहस्रम् , एवं त्रिंशं शत- | मुष्ट्रिकाणां पूरणो घटः // 155 // सहस्रम् / एवं सहस्राणामपि शते भवति, तथाहिविंशतिः सहस्राण्यधिकान्यस्मिन् सहस्राणां शते __ अव०-संख्या पूर्यते येन तत् संख्यापूरणम्, विंशं शतसहस्रम् , एकादशं शतसहस्रम् / 'राज तस्मिन् / 'संख्यापूरणे' इति सूत्रसामर्थ्यात् संख्यादन्तादिषु पाठात् शतशब्दस्य पूर्वनिपातः। अधिक शब्दात षष्ठ्यन्तादेव डट् प्रत्ययो विज्ञायते / मिति किम् ? विंशतिः त्रिंशत् एकादश वा ऊना अत एव तदिति प्रथमान्तादिति निवृत्तम् / अस्मिन शते। तत्सङख्यमिति किम? विंशतिर्दण्डा २एकोत्तरा दश अथवा एकं च दश च एकादश, अधिका अस्मिन् योजनशते / अस्मिन्निति किम् ? 'एकादशषोडशषोडत्योढाषड्ढा' (3 / 2 / 111) भनेन विंशतिरधिकाऽस्माच्छतात् / शतसहस्र इति किम् ? एकादशनिपातः / / 155 / / एकादशाधिका अस्यां त्रिंशति // 154|| विंशत्यादेर्वा तमट / / 7 / 1 / 156 / / म० वृ०-विंशत्यादिसंख्यायाः संख्यापूरणे वा प्रव०-'संख्याया इत्यनुवर्त्तते, तदिति च।। 'तमट्' स्यात् / विंशतः पूरणोविंशतितमः, विंशः, ततः सन्त्रार्थ इत्येवम ,-तदिति प्रथमान्तादित्यादि २विंशतितमी, विंशी स्त्री, एकविंशतितमः, एकविंशः / / ज्ञेयः / २यत्प्रथमान्तमित्याद्यक्षराणां भावार्थोऽयं प्रव०-पक्षे डट् भवति। रटकारो ड्यर्थः।१५६। लिख्यते,-सा शतसहस्रलक्षणा संख्या यस्य योजनादेः तत् तत्संख्यं शतं सहस्रमिति च यत् संख्या- शतादि-मासा-ऽर्धमास-संवत्सरात् // 7 / 1 / 157 // यते परिगण्यते तदेव यद्यधिकमपि भवतीत्यर्थः / म० वृ०-शतादिसंख्याशब्देभ्यः, मास, अर्द्धशतादिसंख्यमेव / 'चकार एवकारार्थे / योजनानां मास, संवत्सर इति शब्देभ्यश्च संख्यापूरणे 'तमट्' विंशतिः (अधिकाऽस्मिन् योजनशते शते वा योज स्यात् / [शतस्य पूरणः] शततमः, शनतमी, सहस्रनेषु) इति संख्याने व्युत्पत्तिवाक्यम् , अथवा योज तमः, लक्षतमः, संवत्सरतमः / / 157 / / नानि विंशतिरधिकान्यस्मिन योजनशते शते वा योजनेषु इति संख्येये व्युत्पत्तिवाक्यम् ;विशं योजनशत षष्ठ्यादेरसङ्ख्यादेः / / 7 / 1 / 158 // मिति सूत्रोदाहरणम् , अथवा विशं शतं योजनानि म. वृ०-'संख्या आदिरवचवो यस्य [स इत्युदाहरणम / (विंशमित्यत्र) शितेस्तेडिति (ज संख्यादिः], तद्वर्जितात् षष्ठ्यादेः संख्याशन्देभ्यः 4 // 67) इति तिकारस्य लोपः। 'एकत्रिंशम',एवं चत्वा / संख्यापूरणे 'तमट् स्यात् / विकल्पापवादः / रिंशम् , पञ्चाशम् ,अधिका भवतीति शेषः / वाक्य- षष्टितमः, सप्ततितमः / असंख्यादेरिति किम ? मिदम् / सहस्राणां शतमिति कृते 'षष्ठ्ययत्ना- एकषषितमः, एकषष्टः; एकसप्ततितमः, एकच्छेषे' (3 / 1176) इति समासे प्रथमोक्तत्वात् सह- सप्ततः; विंशत्यादेरिति विकल्प एव // 158 / / स्रस्य पूर्वनिपाते प्राप्त राजदन्तादिषु इत्याद्युक्तम् / / 154 / / प्रव०-'एक द्वि त्रि इत्यादयः संख्याशब्दाः, एवंविधैकादिसंख्यापरतो यः षष्टिसप्तत्यादिसंख्यासंख्यापूरणे डट् // 7 / 1 / 155 / / | शब्दाः तत्र तमट् न भवति,किन्तु केवलषष्टिसप्तत्य Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्यापरणार्थाधिकारः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 427 शीतीत्यादिसंख्यापरत एव तमट् इति सूत्र- भावार्थः / 3 विंशत्यादेर्वा तमट' (7 / 1 / 156) / उ संख्यापूरणे डट' (7 / 1 / 155) // 158 / / नो मट् // 7 / 1 / 159 // म०व०-असंख्यादेः संख्याशब्दान्न कारान्तात् संख्यापूरणे 'मट्' स्यात् / डटोऽपवादः / [पञ्चानां पूरणः] पञ्चमः, पञ्चमी, अष्टमः, नवमः, नवमो। न इति किम् ? विंशः / असंख्यादेरित्येव- द्वादशः, एकादशः / / 159 // पित्तिथट बहु-गण-पूग-सङ्घात् // 7 / 1 / 160 // _____म० वृ०-बहु गण-पूग-सङ्घशब्देभ्यः संख्यापूरणे 'तिथट' म्यात , स च पित् [वद्भाषः फलम् ] / बहूनां पूरणो=बहुतिथः, 'बह्वीनां पूरणी=बहुतिथी, गणतिथः, पूगतिथः, सङ्घतिथः, सङ्घतिथी // 160 // इदमः स्थाने इय, इयत्शब्दोऽत्वन्तः / २'इदंकिमोऽतु'० (इति) कियत् / यत्तदेतदो०'(७।१।१४९) इत्यनेन यावत् तावत् / एते सर्वेऽपि अत्वन्ताः / 4 (एवम् ) कियतिथी, यावतिथी इत्यादि // 161 / / पट-कति-कतिपयात् थट् / / 7 / 1 / 162 / / म. वृ०-षष्-कति–कतिपयशब्देभ्यः संख्यापूरणे 'थट् ' स च पित् स्यात् / षष्ठः, षष्ठी, कतिथः, कतिपयथः, कतिपयथी // 162 / / अव०-''तवर्गस्य श्चवर्ग'० (1 / 3 / 60) इति थस्य ठकारः / २(एवम् ) कतिथी / कतीनां पूरणः= कतिथः / कतीनां पूरणी-कतिथी // 162 / / चतुरः / / 7 / 1 / 163 / / म० वृ०-चतुशब्दात् 'थट्' स्यात् / 'चतुर्थः, रचतुर्थी / योगविभाग उत्तरार्थः // 163 / / प्रव०-१बह्वीनां पूरणी=बहुतिथी, अत्र तिथट - अव०-१चतुर्णां पूरण:-चतुर्थः / चतसृणां प्रत्ययः स च पित् , पित्तिथट इदं फलम्- पिति पूरणी-चतुर्थी // 163 / / तद्धितप्रत्यये परे 'क्यङ्मानिपित्तद्धिते' (6 / 2 / 50) येयो चलुक् च / / 7 / 1 / 164 // इति सूत्रेण पुवद्भावः सिद्धः / एवं गणतिथी, ..पूगतिथी,सङ्घतिथी अत्रापि क्यङ्मानि'(३।२।५०) म० वृ०-चतुशब्दात् 'य-ईयो' भवतः, च इति पुवत् / टो व्यर्थः, ततो ङी। 'स्वरादुतो इत्यस्य लुक् च। 'तुर्यः, तुरीयः, तुर्या,तुरीया / 164 / गुणादखरोः' (2 / 4 / 35) इति ङी भवति / रंगणानां पूरणः, 'बहुगणं भेदे' (1 / 1 / 40 इति) संख्याव- प्रव०-'चतुर्णा पूरणः-तुर्यः, तुरीयः / एवं स्वम् // 16 // चतुर्थः, तुर्यः, तुरीयः इति त्रैरूप्यम् / / 164 // अतोरिथट् / / 7 / 1 / 161 // द्वे स्तीयः // 7 / 1 / 165 // म० वृ०-अत्यन्तात्संख्याशब्दात्संख्यापूरणे ___म० वृ०-द्विशब्दात्तीयः स्यात् / द्वितीयः, 'इथट्' स्यात् , स च पित् / डटोऽपवादः / 'इयतां द्वितीया // 16 // पूरणः इयतिथः,इयतीनां, पूरणी इयतिथी ; क्यि स्त च // 71 / 166 // ङ्मानि' (3 / 2 / 50) इति पुवत् एवं कियतिथः, यावतिथः, एतावतिथः, एतावतिथी // 161 / / __म० ०-त्रिशब्दात्तीयः तद्योगे च त्रेः 'तृ' इत्यादेशः स्यात् / तृतीयः, [तिसृणां पूरणी=] अव०-इदम् शब्दः, इदं मानमस्येति वाक्ये तृतीया // 166 / / 'इदंकिमोऽतुरिय०' (7 / 1 / 148) इत्यनेन अतुप्रत्ययः, | पूर्वमनेन' सादेश्चेन् // 71 / 167 / / Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 7 पा० 1 सू० 168-171 म० वृ०-पूर्वमिति क्रियाविशेषणान्निर्देशादेव / अव०-'इष्ट, पूर्स, उपपादित, उपसादित, द्वितीयान्तात् केवलात् सादेः सपूर्वाच्चानेनेति उपासित, निगदित, परिगदित, निकटित, संकतृतीयार्थे कर्तरि ‘इन्' स्यात् / केवलात् ,-पूर्वमनेन / लित, परिकलित, संरक्षित, परिरक्षित, अर्चित, 'पूर्वी, 'पूर्विणौ, उपूर्षिणः; पूर्वी कटम् , पूर्वी अगणित, (अवगणित), अवकीर्ण, अवमुक्त, आयुक्त, ओदनम् , पूर्वी पयः / सादेः,-कृतं पूर्वमनेन=कृत- गृहीत, अधीत, आम्नात, श्रुत, आसेवित, अवधारित, पूर्वी कटम् , भुक्त पूर्वमनेन भुक्तपूर्वी ओदनम् , अवकल्पित, कृत, निराकृत, उपकृत, (उपाकृत,) एवं [पीतं पूर्वमनेन] पीतपूर्वीपयः। कृतपूर्वादिसमा- अनुयुक्त, (अनुगुणित,) अनुगणित, गणित, परिसात्प्रत्ययः [नाम नाम्ना'० (3 / 1 / 18) इति समासः, गणित, अनुपठित, निपठित, पठित, व्याकुलित, तत इन् प्रत्ययो भवतीति / / 167|| उद्गृहीत, कथित, निकथित, निषादित, इति इष्टादिगणः / “यज्ञे श्राद्धे' इत्यत्र 'व्याप्ये क्तेन' प्रव०- पूर्वमनेन कृतं-पूर्वी पूर्वमाभ्यां (2 / 2 / 99) इत्यनेन कर्मणि सप्तमी भवति // 168|| कृतं पूर्विणी, पूर्वमेभिः कृतं पूर्विणः इति युक्त्या श्राद्धमद्य मुक्त मिकेनौ // 7 / 1 / 169 // उदाहरणवाक्यानि कर्त्तव्यानि / अनेनेति सूत्रे म० वृ०-श्राद्धात्प्रथमान्तादद्यभुक्तमित्येवमुपाकर्तृपदं ज्ञेयम् , कर्ता च क्रियां विना न भवति / धिकादनेनेति तृतीयार्थे [कर्त्तरि] 'इकेनौ' भवतः।। इति कृतं भुक्त वा पितं चा इप्ति काश्चित् क्रियाम- श्राद्धमनेनाद्य मुक्त श्राद्धिकः, श्राद्धी.॥१६९।। पेक्षते / पूर्वमनेन भुक्त वा पितं वा इति परिणा अनुपद्यन्वेष्टा // 7 / 1 / 170 // क्रियासापेक्षत्वम् / विशेषपरिज्ञानं तु अर्थात , कोऽर्थः ? सामर्थ्यात् , प्रकरणात् ,कोऽर्थः ? प्रस्ता. म. वृ०-अनुपदी इन्नन्तं निपात्यते, अन्वेष्टा वात् , शब्दान्तरसंनिधेर्वा, कोऽर्थः ? कट ओदनं चेद्भवति / अनुपदमन्वेष्टा=अनुपदी गवाम् // 170 पयः इति शब्दसामीप्यात् भवति, यथा-पूर्वी कटम्, __अव०-अन्विच्छति गवेषयति (इति)तृच् / पूर्वी ओदनम् ; पूर्वी पयः इति / तथा सादेः “कृत २पदानां समीपम् // 170 / / . पूर्वमनेन" इति सामान्येन वाक्यमिदं कृत्वा पश्चात् दाण्डाजिनिकायःशूलिकपार्श्वकम् / / 7 / 1 / 171 // कटेन ओदनेन पयसा सह सम्बन्धः कार्यः / देवदत्तः कृतपूर्वी, कम् ? कर्मतापन्नं कटम् : मैत्रो म० वृ०- दाण्डाजिनिकायःशूलिकाविकभुक्तपूर्वी, किम् ? ओदनम् ; चैत्रः पीतपूर्वी, किम् ? णन्तौ पार्श्वक इति कप्रत्ययान्तश्च निपात्यन्ते, अन्वेपयः / इत्थं कटादिना सह योगः। तान्तं येनैव ट्रर्थे / दाण्डाजिनिको दाम्भिकः, २आयःशूलिकः, उपार्श्वकः // 171 / / सह समानाधिकरणं तस्यैव कर्मतां वदति वृत्तौ / समासे तु तान्तं कटादिना सह न समानाधिकरणमिति कटौदनपयःसम्बन्धिकर्म अनुक्तमिति कट अव०-'दण्डाजिनं दम्भ उच्यते, दण्डाओदन पय इत्यप्रे द्वितीया विभक्तिर्भवती- लिनेनान्वेष्टा वाञ्छकः दाण्डाजिनिफः,यो मिथ्यात्यर्थः // 16 // व्रती परप्रसादार्थ दण्डाजिनमुपादाय अर्थान अन्त्रिइष्टादेः / / 7 / 1 / 168 // कळति वाञ्छति स दाम्भिको दाण्डाजिन इत्यु च्यते। निपातनं हि रूढयर्थम् ,तेन भगवान् विष्णुम. वृ०-१इष्टादिभ्यः सामर्थ्यान्' प्रथमा- | देवता येषां ते भागवताः, भागवतशैवादौ न भवति / न्तेभ्योऽनेनेति तृतीयार्थे कर्तरि 'इन्' स्यात् / / तथा आयःशूलिकः, तीक्ष्ण उपायः अयःशूलसाइष्टमनेन=इष्टी यज्ञे, श्राद्धे // 168 / / म्यात् अयःशूलमुच्यते, अयःशूलेन अन्वेष्टा वाञ् Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वित्तेऽर्थ चञ्चुचणप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम / [429 ' छकः आयःशूलिकः, यो मृदुना उपायेनान्वेष्टव्या- शब्दस्य श्रोत्र इत्यादेशः / श्रोत्रियः, छान्दसः / / नर्थान तीक्ष्णोपायेनान्विच्छति राभसिकः स आय:शूलिक उच्यते तथा पार्श्वमनृजुरुपायः लञ्चादिः, अव०-'छन्दोऽधीते इति वाक्यम , श्रोत्रियः तेन पार्श्वनान्वेष्टा वान्छकः- पावकः, ऋजुनोपाये- इत्यत्र इयः / २छान्दस इत्यत्र 'तद्वेत्त्यवीते' (6 / नान्वेष्ट...........(व्यानर्थाननृजुनोपायेन योऽ-) 2 / 11.7) अण् / / 1731 // विच्छति....... ( स पार्श्वक उच्यते ) / यस्तु राज्ञः इन्द्रियम् / / 7 / 1 / 174 / / पार्श्वन समीपेन अर्थान् अन्विच्छति स राजपुरुषः, तत्र प्रत्ययो न भवतीत्यर्थः / / 17 / / म० वृ०-इन्द्रशब्दादियो निपात्यते / निपा तनं हि रुख्यर्थम् , तेन यथायोगमर्थकल्पना / क्षेत्रेऽन्यस्मिन्नाश्य इयः / / 7 / 1 / 172 / / इद्रियम् // 17 // म० वृत क्षेत्रशब्दान्निर्देशादेव सप्तम्यन्तादन्योपाधिकान्नाश्येऽर्थे ‘इयः' स्यात् / क्षेत्रियो अव०-इन्द्र आत्मा उच्यते, इन्द्रस्य आत्मनो व्याधिः, रक्षेत्रियं विषम् , क्षेत्रियाणि तृणानि, लिङ्ग लक्षणमिन्द्रियं चक्षुरादि उच्यते, तेन हि *क्षेत्रियः पारदारिकः // 171 / / इन्द्रियकरणेन आत्मा निश्चीयते- अनुमीयते "नाक तुक करण"मिति पाठात् इत्येकोऽर्थः // 1 / / तथा ___अव०-१अन्यस्मिन क्षेत्रे नाश्य इति वाक्यम्, इन्द्रेण आत्मना दृष्टमितीन्द्रियम् , आत्मा हि चक्षु. क्षेत्रियो व्याधिः इत्युदाहरणम् , क्षेत्रं शरीरमुच्यते, रादीनि दृष्ट्वा विचिन्ता (?) स्वविषये व्यापारयअन्यस्मिन् , कोऽर्थः ? जन्मान्तरशरीरे, तत्र जन्मा तीति द्वितीयोऽर्थः / 2 / इन्द्रण आत्मना सृष्टभिन्तरशरीरेऽयं व्याधिर्यदि साध्यो भवति तदा (इयः) न्द्रियम् , आत्मकृतेन हि शुभाशुभकर्मणा तथाभवति, इह जन्मनि अस्मिन् क्षेत्रे शरीरे न साध्यः, विधविषयोपभोगाय अस्य आत्मनश्चक्षुरादीनि असाध्यो व्याधिरयमित्यर्थः / 1 / तथा क्षेत्रियं भवन्तीति तृतीयोऽर्थः / 3 / इन्द्रण जुष्टं धीति विषम् इत्यस्यायमर्थः,- स्वशरीरात् अन्यस्मिन् पर (?) सेवितमितीन्द्रियम् ,तद्वारेणास्यात्मनो विज्ञाकीयशरीरे मन्त्रादिबलेन तद्विषं सक्रमय्य नोत्पादात् इति चतुर्थोऽयम् (अर्थः)।४। इन्द्रेण दत्तकिम्चिन्नाश्यम् , कोऽर्थः ? चिकित्स्यं भवति / 2 / मिन्द्रियम् ,विषयग्रहणाय विषयेभ्यः समर्पणात् न्यातथा क्षेत्रियाणि तृणानि, तानि हि तृणानि सस्य सात् इति पञ्चमोऽर्थः / 5 / इन्द्रस्य आत्मनः आवरणक्षेत्रे अन्यस्मिन् अन्यप्रदेशापेक्षयान्यत्र स्थाने उत्प क्षयोपशमसाधनं कारणमिन्द्रियम् , एवं षष्ठोऽर्थः नानि नाश्यानि, कोऽर्थः ? उत्पाटनीयानि भवन्ती / 6 / एवं सति सम्भवेऽन्यापि व्युत्पत्तिरिन्द्रियशब्दत्यर्थः / 3 / तथा क्षेत्रियः पारदारिकः, 'दाराः' क्षेत्रं स्य कर्त्तव्या // 174 // इति नाममालापाठात् दारा भार्या,स हि कामी पारदारिकः स्वक्षेत्रात् स्वकलत्रादन्यस्मिन् क्षेत्रे पर तेन वित्ते चञ्च-चणौ।।७।१।१७५॥ दाररूपे प्रवर्त्तमानस्तत्र नाश्यो-राजादीनां निग्राह्यो ___ म०वृ०-तेनेति तृतीयान्तशब्दाद्वित्तेऽर्थे 'चञ्च - भवतीत्यर्थः / / 172 / / चणौ' भवतः / [वित्तः, ज्ञातः, विदितः, विख्यातः, छन्दोऽधीते श्रोत्रश्च वा // 7 / 1 / 173 // प्रसिद्धः] विद्यया वित्तो विद्याचञ्च :, विद्याचणः / / म० वृ०-छन्दस्शब्दान्निर्देशादेव द्वितीया- पूरणाद् ग्रन्थस्य ग्राहके को लुक चास्य।।७।१।१७६ . न्तादधीतेऽर्थे 'वा इयः' स्यात् , तद्योगे च छन्दस्- | म० वृ०-तेनेति तृतीयान्तात् पूरणप्रत्यया. ॐ अभिधानचिन्तामणिपाठात् / Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं / अ०७ पा० 1177-181 न्ताच्छब्दात् ग्रन्थस्य ग्राहकेऽर्थे 'कः' [कप्रत्ययः] | ण्यं नास्ति स सस्यको शालिरुच्यते। एवं सस्यको स्यात् , तद्योगे च पूरणप्रत्ययस्य लुक् / द्वितीयेन | देशः', यो हि ऋद्धिसौष्ठव्यादिगुणैः सर्वतः 'रूपेण ग्रन्थस्य 'ग्राहकः द्विकः, एवं त्रिकः,४ सम्पन्नः यत्र च रोगशोकभयादिवैगुण्यं किमपि न षट्कः शिष्यः / ग्रन्थस्येति किम् ? द्वितीयेन न विद्यते स सस्यको देश उच्यते / एवं वत्सदिनेन शत्रूणां ग्राहकः / / 176 / / भावना कार्या, सस्यको वत्सः / “तथा रूढि शब्दश्चायं मणिविषये, अस्य मणेर्यथोक्ता गुणा प्रव०-रूपेण कोऽर्थः ? वारेण,द्वितीयेन वारेण / भवन्तु मा (वा) भुवन्नित्यर्थः (? तथापि) समुदायइति वाक्यम् / उदाहरणम् / 4 (एवम् ) चतु प्रसिद्धया मणिविशेषस्य संज्ञा इति हेतोः सस्यको मणि: इति प्रयोगः। “सस्यकः खगः', यो हि सर्वतः ष्कः, पञ्चकः // 176|| सारलोहेन निवृत्तो निष्पन्नः स सस्यकः खड्ग ग्रहणाद्वा / / 7 / 1 / 177 // उच्यते // 178 // म० वृ०-गृह्यतेऽनेनेति ग्रहणं रूपादि, ग्रन्थ धन-हिरण्ये कामे // 71 / 179 // स्य ग्रहणाद् ग्रहणे वर्तमानात्पूरणप्रत्ययान्तात् 'कः' ___म० वृ०-धनहिरण्याभ्यां निर्देशात्सप्तम्यन्ताभ्यां स्यात्, 'स्वार्थे एत्र, तद्योगे च पूरणस्य 'लुग्वा' कामेऽभिलाषेऽर्थे 'कः' स्यात् / धने कामोधनकः, स्यात् / वेति लुका एव सह सम्बन्धः न प्रत्ययेन। द्वितीयमेव द्विकं ग्रन्थग्रहणमस्य [मैत्रस्य], पक्षे हिरण्ये कामो हिरण्यकः मैत्रस्य / / 179 / / द्वितीयकम् // 277|| स्वाङ्गषु सक्ते / / 7 / 1 / 180 // म० वृ०-स्वाङ्गवाचिनामभ्यः [निर्देशादेव] अव०-१स्वार्थे एव-प्रकृत्यर्थे एव,अर्थान्तरस्या- सप्तम्यन्तेभ्यः सक्ते तत्परेऽर्थे 'कः' स्यात् / निर्देशात् / सूत्रे यो वा शब्दः स एवं ज्ञापयति पूरण- केशेषु सक्तः केशकः, दन्तक., नखकः / केशादिरचप्रत्यय एव वा विकल्पेन लुप्यते न कप्रत्यय इत्य- नायां प्रसक्त उच्यते / बहुवचनात्स्वाङ्गसमुदायादपि क्षराणामयं भावार्थः। उद्वितीयकमित्यस्याग्रे एवं कः-दन्तौष्ठकः / / 180 / / त्रिकम् , चतुष्कम , पञ्चकम // 177 / / उदरे विकणाधूने // 7 / 1 / 181 / / सस्याद् गुणात्परिजाते॥७।१।१७८।। म० वृ०-उदरात् [निर्देशादेव] सप्तम्यन्तात् सक्ते आयुनेऽर्थे इकण' स्यात्' / उदरे सक्तः= म. वृ०-सम्यशब्दाद् गुणवाचिनस्तृतीयान्तात परिजातेऽर्थे'क'स्यान / सम्येन परिजातः सस्यकः औदरिकः, उदरे सक्ता औदरिकी // 18 // शालिः, एवं सस्यको देशः, वत्सो वा, मणिर्वा, "खड्गो वा ; सस्यकं सीधु / गुणादिति किम् ? अव०-'सक्तेऽर्थे इकण् स्यात् , यदि सक्त धान्यवचनान्मा भूत-मस्येन परिजातं क्षेत्रम् / 178 // आधुनो भवति इति सूत्रार्थो विज्ञेयः / औदरिकः आद्यूनः, अविजिगीषुरित्यर्थः, यो बुभुक्षयाऽत्यन्तं प्रव०-१'सस्येन परिजातः' इत्यादि,परिशब्दः / पीड्यते स औदरिकः / आयून इति किम् ? सर्वतो भावे वर्त्तते, जनिधातुः सम्पत्तावर्थे वर्त्तते, / उदरे सक्तः उदरकः, 'स्वाङ्गेषु सक्ते' (7 / 1 / 180) सम्यशब्दो धान्यवन गुणेऽपि वर्तते. ततः सस्येन- इत्यनेन कप्रत्ययः, उदरकोऽन्यः इत्युदाहरणम् / गुणसमूहेन परिजातः-सम्पन्नः सस्यकः शालिः, यः 'उदरेत्विक०' (इति) अत्र तुशब्दः ! पूर्वयोगशेषतामस्य सर्वतो गुणैः सम्पन्नः अथवा यस्य किश्चिदपि वैगु- कथयति] पूर्वयोगस्यैवायमवयवः, न पृथग योगः, Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचिरोद्धृतार्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [431 व्यावृत्तौ पूर्वेण कः इति पूर्वयोगशेषतामस्य सूत्रम्य / पृथक् कृतः स ब्राह्मणको नाम देश उच्यते / यत्र तु शब्दः कथयति, तेन कप्रत्ययाधिकारो न बाध्यते, ब्राह्मणकनामदेशे ब्राह्मणा आचारक्रियाबाह्याः शस्त्रउत्तरयोगेषु कप्रत्यय एवाधिकृतः प्रवर्त्तते // 181 / / जीविनः काण्डस्पृष्ठा नाम च सन्ति / आयुधजीवी अंशं हारिणि / / 7 / 1 / 182 / / ब्राह्मण एव ब्राह्मणक इत्यन्ये आहुः / / 18 / / म० ३०-अंशानिर्देशाद् द्वितीयान्तात् हारि उष्णात् / / 7 / 1 / 185 / / ण्यर्थे कः'स्यात् / अंशं 'हारी अंशको दायादः / 182 म० वृ०-उष्णात् [निर्देशादेव] पञ्चम्यन्तादचिरो द्धृते 'कः'स्यात् नाम्नि / उष्णिका यवागूः॥१८५। अव०-'अवश्यमंशं हरिष्यति इति हारी, 'णिन् चावश्यकाधमर्ये' (5 / 4 / 36) इति णिन् / / 182 // अव०-१ नेरचिरोद्ध इति तन्त्रादचिसेद्धृते / / 7 / 1 / 183 / / वाक्यम् / २अथवा अल्पान्ना पेया, विलेपिका इति यावत् / उष्णकुण्डान्निःसृता नदी उष्णिका इति म० ०-तन्त्रानिर्देशादेव पञ्चम्यन्तादचिरो. द्धृतेऽचिरादुत्तीर्णेऽर्थे 'कः' स्यात् / 'तन्त्रकः पटः, केचिदाहुः / / 185 // प्रत्यप्रः [नवीनः] इत्यर्थः / / 183|| 'शीताच कारिणि / / 7 / 1 / 186 / / म० वृ०-शीतादुष्णाच [सामर्थ्यात् ] द्वितीयाप्रव०-'तन्त्रात् पटवानोपकरणादचिरादुत्तीर्ण न्तात् कारिण्यर्थे 'कः' स्यानाम्नि / शीतं मन्दं इति वाक्यम , तन्त्रकः पट इत्युदाहरणम् / तन्त्रं [क्रियाविशेषणं] करोति शीतकोऽलसः / उष्णं सिद्धान्ते राष्ट्र स्वराष्ट्रचिन्तायां च / परच्छन्द क्षिप्रं करोति-उष्णको दक्षः // 186 / / पधा" अदैकुटं वकृत्ये तन्तुवाने परिच्छदे / 1 // - "श्रुतिशाखान्तरे शास्त्रे, करणे द्वषर्थसाधके ; अव०-'शीताञ्च कारिणि' इति सूत्रे शीतोष्णइति कर्त्तव्यता तन्त्वोः,तन्त्री स्याद्वल्लकी गुग" // 2 // शब्दो मान्यशीघ्रवचनौ गृह्येते,न स्पर्शवचनौ। रभवइत्यनेकार्थनाममालायाम् / इति तन्त्रशब्दश्चतु श्यं करोति इति कारी, अत्रापि 'णिन् चावश्यक'० देशार्थे वर्त्तते // 18 // (5 / 4 / 36) इति णिन् / नाम्नीत्यधिकारानुवृत्तेः / वाक्यमध्ये शीतं मन्दमुष्णं क्षिप्रमित्यत्र क्रियाब्राह्मणान्नाम्नि / / 7 / 1 / 184 // विशेषणत्वात् द्वितीया // 186 / / म० ०-बाह्मणात् [निर्देशादेव] पञ्चम्यताद | चिरोद्धृतेऽर्थे नाम्नि संज्ञायां 'कः' स्यात् / ब्राह्मणको' अधेरारूढे / / 7 / 1 / 187 / / नामदेशः / / 184 // म० वृ०-अधिशब्दात् रूढेऽर्थे वर्तमानात् - स्वार्थे 'कः' स्यात् / अध्यारूढोऽधिको द्रोणः खार्याः प्रव०-'सदाचारब्राह्मणेभ्यस्तदानीमेवोद्धृत्य खायर्या (वा), अधिका खारी द्रोणेन // 187 / / * अत्र 'तन्त्र सिद्धान्ते' इत्यादिना श्लोकढिकेन तन्त्रशब्दस्य चतुर्दशार्थाः प्रतिपादिताः / परमत्र प्रथमश्लोके पाठोऽशुद्धश्च्युतकियदंशश्च विद्यते ।श्रीहैम लिङ्गानुशासनविवरणे तन्त्रशब्दस्यानेकार्थप्रतिपादकं सपादश्लोकद्विकमेवम् "तन्त्रं कुटुम्बकृत्ये स्यात् , करणे च परिच्छदे। शास्त्र प्रधाने सिद्धान्ते, तन्तुवाने गदोत्तमे" // 1 // "तथा द्विसाधकोपाये, श्रतिशाखान्तरेऽपि च / इति कर्तव्यतायां च, तन्वीवीणागुणे तनोः" // 2 // "सिग़याममृतायां " / Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [म० 7 पा० 1 सू० 188-194 प्रव०-आरूढशब्दः कर्तरि कर्मणि च क्तप्रत्यये उदुत्सोरुन्मनसि // 7 / 1 / 192 // सिद्धः / 'तत्र यदा कर्तरि तदा अधिको द्रोणः म० वृ०-उद्-उत्सुभ्यां [ अस्येति षष्ठयर्थे ] खार्याः अधिको द्रोणः खार्यामिति प्रयोगद्वयं उन्मनस्यर्थे 'कः'स्यात / उत्कः, उउत्सुकः ; उन्मना भवति / अत्र 'अधिकेन भूयसस्ते' (2 / 2 / 111) इत्यर्थः॥१९२।। इत्यनेन पञ्चमीसप्तम्यौ भवतः / 'अधिकेन'० (2 / 2 / 111) इति सूत्रेऽधिकार्थः सुव्यक्तं प्रकटितो. ऽस्ति / यदा तु आरूढः इति कर्मणि क्तः तदा १०-'उच्च उत्सुश्च, तस्मात् / उद्गतं मनो ऽस्य=उत्कः / उत्सुगतं मनोऽस्य-उत्सुकः // 192 / / अधिका खारी द्रोणेन इत्येव भवति / उदाहरणत्रयस्याप्यर्थः 'अधिकेन भूयस'० (2 / 2 / 111) काल-हेतु-फलाद्रोगे // 7 / 1 / 193 // इत्यत्र प्रकटं विवृतोऽस्ति / / 187 // म० वृ०-स इति वर्त्तते / [प्रथमान्तेभ्यः ] अनोः कमितरि / / 7 / 1 / 188 // कालविशेषवाचिभ्यः हेतुवाचिभ्यः फलवाचिभ्यश्च रोगे वाच्ये [अस्येति षष्ठ्यर्थे ] 'कः' स्यात् / द्वि- . ' म० वृ०-अनुशब्दात् 'कः' स्यात् समुदायेन तीयकः, उतृतीयको ज्वरः, सततको ज्वरः। हेतु. यदि कमिता [कामुकः कामी] गम्यते / अनुकाम वाचि,- [विषस्य पुष्पं] विषपुष्पं हेतुः कारणमस्य यते अनुकः // 18 // [रोगस्य] विषपुष्पकः, पर्वतको रोगः / फल,- 'शीअभेरीश्च वा / / 7 / 1 / 189 // तकः, उष्णको ज्वरः // 193 // ___ म० वृ०-अभिशब्दात् 'कः' स्यात् ईकारश्चा-- स्य [अभिशब्दस्य] वा स्यात् , कमितरि वाच्ये।। प्रव०-'अत एव कारणात् कालहेतुफलात् इति अभिकामयते-अभिकः,अभीकः कामुकः कामी]। 189 पश्चम्यन्तनिर्देशात् पञ्चम्यन्तेभ्य इति न व्याख्ये थम् , स इति प्रथमान्तेश्य इति व्याख्येयम् / द्विसोऽस्य मुख्यः / / 7 / 1 / 190 // तीयो दिवसोऽस्य ज्वरादिरोगस्य प्रकटीभावस्य म० वृ०-स इति प्रथमान्तादस्येति षष्ठ्यर्थे इति वाक्यम् , द्वितीयकः / एवं तृतीयो दिवसो. 'कः' स्यात, चेत्प्रथामान्तं मख्यः प्रधानं भवति। / ऽस्य ज्वरादिरोगस्याविर्भावाय-तृतीयकः, तादर्य देवदत्तो मुख्योऽस्य= देवदत्तकः सङ्घः, [देवदत्तो चतुर्थीयम् / एवं सततो निरन्तरः कालोऽस्य ज्यमुख्यो वर्त्तते सङ्घस्य एवं जिनदत्तकः, (देवदत्तो रस्य-सततको ज्वरः / “पर्वतो हेतु: कारणमस्य मुख्यो एषां जनानां ] देवदत्तका, जिनदस्तकाः। रोगस्य / शीतं फलं कार्यमस्य ज्वरस्य-शीतकः मुख्य इति किम् ? चैत्रः शत्रुरेषाम् / / 190|| शीतज्वरः / "उष्णको दाहज्वरः / / 193 / / शङ्खलकः करमे // 7 / 1 / 191 // प्रायोऽन्नमस्मिन्नाम्नि / / 7 / 1 / 194 / / म० वृ०-शृङ्खलक इति ‘कान्तो' निपात्यते, म. वृ०–स इति प्रथमान्तादस्मिन्निति सप्तकरभे=उष्शिशौ वाच्ये / गृङ्खलं बन्धनमस्य-श- म्यर्थे नाम्नि संज्ञायां 'कः' स्यात्, यत्प्रथमान्तं ङ्खलकः करम उच्यते // 191 / / तच्चेत् अन्नं प्रायः प्रायेण भवति / गुडापपिकार पौर्णमासी, तिलापूपिका // 194 / / प्रव०-'करभाणां काष्ठमयं पादबन्धनं शृङ्खलमुच्यते। २वयःशब्दश्चायम..(अतः) शङ्गलंबन्धनं अव०-'प्रायस् इति सकारान्तोऽव्ययम् , भवतु, मा भून वा, तथापि शृङ्खलं बन्धनमस्य / प्रायेण इति तृतीयान्तो वाऽस्ति, अथवा प्रायशब्दोशडालकः करभः इति वाक्ये कप्रत्ययो भवति // 191 | ऽनव्ययमन्त्रसमानाधिकरणे नियतलिङ्गसङ्ख्यः, Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोऽन्नमस्मिन्नित्यर्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / -कोऽर्थः ? पुलिङ्ग एकवचनान्तोऽप्यस्ति / प्रायो- / वटकादिन // 7 / 1 / 196 / / ऽकृत्स्नबहुत्वम् , अकृत्स्नस्य सतो बहुत्वमित्यर्थः / म० वृ०-वटकात्प्रायोऽन्नमस्मिन्नित्यर्थे 'इन्' ततः गुडाश्च अपपाश्च-गुडापूपाः प्रायः प्रायेण वा स्यात् , नाम्नि / वटकिनी // 196 / / अन्नमस्यां पूर्णिमायां सा गुडापूपिका / नाम्नीति किम् ? अपपोः प्रायः प्रायेण वा अन्नमवन्तिषु इति प्रव०-'वटकानि प्रायेण प्रायो वा अन्नमस्यां व्यावृत्तिः प्रान्ते ज्ञेया // 19 // पौर्णमास्यां सा बटकिनी पौर्णमासी // 196 / / कुल्मासादण् / / 7 / 1 / 195 // साक्षाद् द्रष्टा / / 7 / 1 / 197 / / ___म० वृ०-कुल्मासात् प्रायोऽन्नमस्मिन्नित्यर्थे- ऽण' म. वृ०-साक्षाच्छब्दात् द्रष्टा इत्यर्थे 'इन्' स्यात् , नाम्नि / 'कौल्मासी पौर्णमासी // 195 // स्यात् / साक्षात् द्रष्टा-साक्षी,' [साक्षिणौ] साक्षि णः // 197 / / ग्रन्थान-३२८ प्रव०-'कुल्माष इति मुर्धन्योऽप्यस्ति,(अतः) कुल्माष कुल्मास इति शब्दद्वयम् / कुल्माषाः कुल्मा- प्रव०-"प्रायोऽव्ययस्य' (74 / 65) इत्यन्त्यसाः (वा) प्रायेण प्रायो वाऽन्नमस्यां पौर्णमास्यां सा | स्वरादिलोपः // 197 / / मत्र सूत्रे अवचूरिश्लोक-५४६, (कौल्माषी) कौल्मासी (वा) पौर्णमासी // 195 // / अक्षर-२६॥ // इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते सिद्धहेमशब्दानुशासने सप्तमाध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः / / Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // महंम् // // सप्तमोऽध्यायः॥ [ प्रथमः पादः ] तदस्यास्त्यस्मिमिति मतुः / / 7 / 2 / 1 // / वाक्यम् अस्तिमान् उदाहरणम् / एवं स्वस्ति आरो ग्यमस्यास्ति-स्वस्तिमान् / ननु अस्तिशब्दो यदि म० वृ०-तदिति प्रथमान्तात् अस्येति षष्ठ्यर्थे धनवाची तदा अस्तिमान् इति युक्त सिद्धयति, अस्मिन्निति सप्तम्यर्थे च 'मतुः' स्यात् , प्रथमान्तं यदा च अस्तिशब्दो विद्यमानार्थवाची तदा कथमचेदस्तीति भवति [प्रथमान्तशब्दस्य अस्तिना सह स्तिमानिति प्रयोगः द्वयोरेकार्थत्वात् ? इत्याहसामानाधिकरण्यं भवतीत्यर्थः] / गावोऽस्य सन्ति= | अस्तीति च सामान्याभिधायि, विशेषास्तिपदस्य च गोमान , वृक्षा अस्मिन् सन्ति-वृक्षवान् पर्वतः, सामान्यास्तिना सह सामानाधिकरण्यमुपपद्यत एव, 'अस्तिमान , स्वस्तिमान् , अत्रास्तिस्वस्ती अव्ययौ कोऽभिप्रायः ? अस्तीति क्रियापदं सामान्याभि[यथाक्रम] धनारोग्यवचनौ [अस्तीति च सामा- धायि, सामान्येन अस्तिमात्राभिधानात् , प्रकृतिन्याभिधायि,विशेषास्तेश्च सामान्यास्तिना सामाना- भूतस्य तु अव्ययस्य विशेषाभिधायित्वम् , विद्यमाधिकरण्यमुपपद्यत एव / ] तथा अस्तीति वर्तमा- नरूपविशेषस्याभिधानात् / शं सुखं खादनकालोपादानाद् वर्तमानसत्तायां मतुप्रत्ययो भवति, तीत्येवंशीलः शङ्खादकः, निन्दहिंस०(५।२।६४) इति न भूतभविष्यत्सत्तायाम् ,-गावोऽस्यासन् , गावो. णकः, शङ्खादक आवर्तविशेषोऽस्यास्ति, 'प्राणिस्थाऽस्य भवितार इति वाक्यमेव / [सूत्रे इति शब्दो दस्वाङ्गाद् द्वन्द्वरुग्निन्द्यात्' (72 / 60) इति वक्ष्यविवक्षार्थः / तेन माणसूत्रेण इन् / ' एवं ककुदावर्ती। 'अस्तिविवक्षा"भूमनिन्दाप्रशंसासु. नित्ययोगेऽतिशायने ; यामित्यस्यार्थोऽयम् / तदस्यः' इति सूत्रे विशेषा संसर्गेऽस्तिविवक्षायां,प्रायोमत्वादयो मताः"||१|| | लिख्यन्ते, मत्वर्थीयप्रत्ययः सरूपः सदृशो न भवति, भूम्नि,-गोमान् / निन्दायाम ,-शङ्खोदकी, ककुदा- तथाहि- गाव एषां सन्तीति गोमन्तः, गोमन्तोऽत्र वर्ती / प्रशंसायाम ,- रूपवती,शीलवती कन्या। सन्तीति वाक्ये पुनर्मतुर्न भवति / दण्ड एषामस्तीति नित्ययोगे,-क्षीरिणो वृक्षाः, कण्टकिनः / अति- दण्डिकाः, दण्डिका अत्र सन्ति इति वाक्ये 'अतोशायने,-उदरिणी कन्या, बलवान् मल्लः / संमो.- | ऽनेकस्वरात' (7.2.6 ) इत्यनेन पुनर्न इकः / दण्डी / 'प्रायिकमेतद् भूमादिदर्शनम , सत्तामात्रे विरूपस्तु असदृशो मत्वर्थी यप्रत्ययो भवत्येव,प्रायः प्रत्ययः सर्वत्र दृश्यते, यथा-व्याघ्रधान गिरिः, दण्डिमतीशाला हस्तिमती उपत्यका / विरूप्येऽपि "स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः" परमाणवः],रूप- असदृशो मवर्थीयः समानायां वृत्तौ न भवति, यथा रसगन्धम्पर्शवती पृथ्वी, रूपरसस्पर्शवत्य आपः, दण्डमेषामस्तीति दण्डिकाः, दण्डिनः : अतोऽनेक' रूपम्पर्शवत तेजः, स्पर्शवान वायुः // 1 // (72 / 6) इति इकेनौ, दण्डिका दण्डिनोऽस्य सन्ति इति उभयत्रापि वाक्ये पष्ठ्याः सदभावान प्रव.-'अस्ति, कोऽर्थः ? धनमस्यास्ति इति / समाना वृत्तिरेवं भवति, समानायां वृत्ती पुनरत्र // तत्त्वार्थाधिगमसूत्र पञ्चमाध्याय त्रयोविंशतितम सूत्रम् / 'भूमनिन्दाप्रशंसासु' इति श्लोकस्थस्य 'मस्तिविवक्षायाम्' इत्यस्यार्थः 'प्रायिकमेतद् भूमादिदर्शनम्' इत्यादिना दर्शयतीति भावः / Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्वर्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंघलितम् / [435 वाक्ये इनमतू न भवतः / इतिशब्दविवक्षार्थ- | रीमान् / एवं सर्वोदाहरणेषु / 'ब्रीह्यादिभ्यः०' (7) करणबलादसंज्ञाभूतात् कर्मधारयात् न मत्वर्थीयः, / 2 / 5) इत्यादिसूत्रेषु प्रवर्त्तमानेषु मतुरपि एषु यथा वीराश्च ते पुरुषाश्चेति कर्मधारयः,वीराःपुरुषा भवति / व्रीहिमानित्यत्र 'नीह्यादिभ्यः' ( 7 / 2 / 5) अस्मिन् प्रामे सन्ति, अत्र बहुव्रीहिरेव, न मतुः, इति विषये, दण्डवान् 'अतोऽनेक०' (7.2 / 6) परं शेषाद्वा' (73 / 175) इति सूत्रेण कच् भवति, इति, वातवान् 'बलवात०' (7/2019) इति, चूडाततो वीरपुरुषको ग्राम इति प्रयोगः / संज्ञायास्तु बान 'प्राण्य०' (72 / 20) इति, गोमान् 'गो.' (7) कर्मधारयान्मत्वर्थीयो भवत्येव,-गौरश्वासौ खर- 2 / 50 ) इति, सिध्मवान् 'सिध्मादिक्षुद्रजन्तु०' (7 // श्चेति कर्मधारये गौरखरोऽत्र वनेऽस्ति-गौरखर- 2 / 21) इति,गुणवान् ‘गुणादिभ्यो यः' (7 / 2 / 53) / वद् वनम , कृष्णसर्पवान वाल्मीकः, लोहितशालि- उयथाभिधानमिति कोऽर्थः ? वक्ष्यमाणैः 'कालामान ग्रामः / कथमेकाधिका सर्वधनी इति ? जटा०' (7 / 2 / 23 ) इत्यादिसूत्रैः क्षेपेऽविशेषे 'एकादेः कर्मधारयात्' (72 / 57) 'सर्वादेरिन्' लेलादिप्रत्यया उक्ताः सन्ति ते च प्रत्यया ( ? स (7 / 2 / 50) इति वक्ष्यमाणसूत्रसामर्थ्यादिमौ प्रयोगौ च) मतुप्रत्ययेन न गम्यन्ते (? गम्यते) इति तदभविष्यतः / तथा तत्रैवैतयोः सिद्धिरस्ति / गुणे र्थप्रतिपादनाय, कोऽर्थः ? क्षेपार्थप्रकटनाय 'कालाकोऽर्थः ?गुणे गुणिनि च ये गुणशब्दा वर्तन्ते तेभ्यो जटा०' इत्यादिसूत्रोक्त एव तत्र प्रत्ययो भवति, न मत्वर्थीयो न भवति, शुक्लो वर्णोऽयास्ति इति तिक्तो तु मतुः इत्यभिप्रायः // 2 // रसोऽस्यास्ति इति,प्रत्ययमन्तरेणापि एषां शुक्लादीनां नावादेरिकः / / 7 / 2 / 3 // तदभिधाने-गुण्यादीनां (? गुणिनां) भाषणे साम •त। ये तु गुणमा एव वर्तन्ते तेभ्यो मत्वर्थीयो म. वृ०-नौ इत्यादिभ्यो मत्वर्थे 'इकः' स्याभवत्येव,-यथा रूपवान् , रसवान् , शौक्लयवान , . न्मतुश्च / नौरस्यास्मिन्वाऽस्तीति नाविकः, नौमान् , कार्यवान इति / एते विशेषाः सूत्रान्ते ज्ञेयाः // 1 // कुमारिकः, कुमारीमान् // 3 // . 'आ यात् // 7 / 2 / 2 // शिखादिभ्य इन् / / 7 / 2 / 4 // म. वृ०-शिखा इत्यादिभ्यो मत्वर्थे 'इन् मतुश्च' म. वृ०-'गुणादिभ्यो यः' (7 / 2 / 53) 'रूपा स्यात् / शिखी, शिखावान ; माली, मालावान् // 4 // प्रशस्ताहतात्' (12 / 54) इति आ एतस्माद् प्रत्ययाद् याः प्रकृतयो निर्देश्यन्ते [भणिष्यन्ते] ताभ्यो अव०-शिखा, माला, शाला, मेखला, शाखा, मतुः स्यात् , तदस्यास्ति तदस्मिन्नस्तीति विषये। वीणा, संज्ञा. वडवा, अष्टका,बलाका,पताका, कमन् : कुमारीमान् , व्रीहिमान, दण्डवान , अशीर्षवान् , चर्मन् , वर्मन् , बल, उत्साह, उदास, उभ्दास, उल, वातवान , चूडावान् , गोमान् , गुणवान् / अपवाद मुल, मूल, आयाम, व्यायाम, प्रयाम, आरोह, सूत्रैर्बाधा मा भूदिति वचनम् / तेन यथाभिधान अवरोह. परिणाह, शङ्ग, वृन्द, गदा, निचल, मुकुल, मुत्तरत्र [कुत्रापि कुत्रापि] मतुरपि भवति / / 2 / / कूल, फल, अल, मान, मनीषा, व्रत, धन्वन् , चूडा, केका, दंष्ट्रा, सूना, घृणा, करुणा, जरा, आयास, प्रव.-"आयात्' इति सूत्रे आङशब्दोऽभि स्तबक,उपयाम,उद्यम इति शिखादिराकृतिगणः।।४।। विधौ अर्थे वर्त्तते, इति सूत्रं यावत् इत्यर्थः / २'ना व्रीह्यादिभ्यस्तौ // 7 // 2 // 5 // वादेरिकः' ( 7 / 2 / 3 ) इत्यादिषु सूत्रेषु प्रवर्त्तमानेषु तत्र मतुः प्रत्ययोऽपि भवतीत्यर्थः / 'नावादेरिकः' म० वृ०-[ब्रीह्यादयः प्रयोगगम्याः] ब्रीह्या(७।२।३) इति इकः,कुमारिकः, अत्र मतुरपि- कुमा- | दिभ्यो मत्वर्थे 'तौ इकेनौ' भवतः 'मतुश्च' / Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 436 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 2 सू०६-७ [ब्रीहयोऽस्यास्मिन् वा सन्ति=| श्रीहिकः, ब्रीही, / मस्य वकारः / ५ऋवर्णव्यञ्जनाद् ध्यण' (5 / 1 / 17), व्रीहिमान् / मायिकः, मायी, मायावान् / मायावीति / तत इक इनश्च / 6 गेहे ग्रहः' (५।११५५)कः / *पूङ पवने विन् // 5 // अथवा पूगश् पवने, पूयतेऽनेनेति पात्रम् , 'हलक्रोअतोऽनेकस्वरात् / / 7 / 2 / 6 // डास्ये पुवः' (5 / 2 / 89) इत्यनेन त्रट ,पौत्रं हलसूकर योर्मुखमुच्यते / भोगी', इत्यस्याने तरिकः, तरी, म०७०-अतोऽकारान्तादनेकस्वरान्मत्वर्थे इके- तत्र तरणं तरः, 'युवर्णवृह' (5 / 3 / 28) इत्यनेनाल्, न्-मतवो' भवन्ति / दण्डिकः, दण्डी, दण्डवान् / तरोऽस्यास्ति / 'संयमिक'इत्यत्र संनिव्यपाद यमः' अत इति किम् ? मालावान् / भनेकस्वरादिति (5 / 3 / 25 ) इत्यनेनाल, तत इकेनौ / तथा, किम् ? खवान , एवं स्ववान् / अभिधानार्थस्येति कोऽर्थः ? व्याघ्रादयो लोके प्रसिद्धा जातिशब्दाः करणस्यानुवृत्तेः कृदन्तान्नेकेनौ,-'राप्यवान , कृत्य- द्रव्यादयस्तु शास्त्रप्रसिद्धा जातिशब्दा इति दर्शयितु वान् , कारकवान् , उकुम्भकारवान , ईश्वरवान् / तथेत्युक्तम्-तथा द्रव्यवान्। 11 क्वचित् जातिशब्देकचिद् भवतः, कार्यिकः, 'कार्थी, गृहिकः, गृही, भ्योऽपि अभिधानात् इकेनौ . भवत इत्यर्थः / पौत्रिकः, पौत्री, भोगिकः, भोगी, विजयिकः, 13 धनिकः धनी' इत्यस्याग्रे एते विशेषा ज्ञातव्याः, विजयी, संयमकः, संयमी, स्थानिकः, स्थानी / तथाहि- सप्तम्यर्थे क्वचिन्न इकेनौ,-दण्डोऽस्मिजातिशब्देभ्यो नेकेनौ,-व्याघ्रधान , [सिंहवान , नस्ति दण्डवत् गृहम् , वीरवान् ग्रामोऽयम् / वृक्षवान . 1 तथा द्रव्यवान , सस्यवान ,धान्यवान चित सप्तम्यर्थेऽपि इन् भवति,-खलान्यस्यां [माल्यवान् ] पुण्यवान , सत्यवान , अपत्यवान , सन्ति-खलिनी भूमिः, शादलमत्रास्ति-शालिनी धनवान् / पक्वचिद् भवतः,-तण्डुलिकः, तण्डुली; भूमिः / रसरूपवर्णगन्धस्पर्शशब्दस्नेहेभ्यो गुणकर्पटिकः, कर्पटी। धनादुत्तमणे इकेनौ, धनिकः, वाचिभ्यो न इकेनौ / यदा तु कस्यचिद्रूपं रस धनी१२ // 6 // इत्यादि नाम भवति तदा इकेनौ भवत्येव / कचिच्च भवत्तः -रसिको नटः, रसी इक्षुः, रूपिको प्रव०-"राप्यवान्' इत्यत्र 'आसुयुवपिरपि. दारकः, रूपिणी कन्या,. रूपिध्ववधिः, अस्यार्थीलपि'० (5 / 1 / 20) इत्यनेन ध्यण कृत्प्रत्ययः / एवं ऽयम ,-रूपिषु - द्रव्येषु अवधिज्ञानस्य प्रवृत्तिः, रूपिद्रव्यविषये एवावधिज्ञानं प्रवर्तते , न अरूलव्यवान ,अत्र य एश्चातः' (5 / 1128) / २'कृत्यवान्' इत्यत्र 'कृवृषिमृजिशंसिगुहिदुहिजपो वा' (5 // 1 // पिषु; रूपिसमवायाञ्चाक्षुषाणि, अस्यार्थः,-सङ्ख्या, परिमाणानि, पृथकत्वम् , संयोगविभागौ कर्म च एते 42) इत्यनेन क्यप / एवं भृत्यवान , भ्रियते= भाषा रूपिसमवाया इति हेतोः चानुपाणि-चक्षुषा पुष्यते इति भृत्य', 'भृगोऽसंज्ञायाम' (5 / 1145) ग्राह्या भवन्तीत्यर्थः ; स्पर्शिको वायुः गन्धिकः, गन्धी। क्यप् / तथा हिंस्रवान , हिनस्तीत्येवं शील: तदेवं प्रवृत्तौ निवृत्तौ वा (? च)सूत्रकरणादभिधानमेव 'स्म्यजसहिंसदीपकम्पकमनमो रः' (5 / 2179) इति श्रेयः // 6 // रः। 'कुम्भकारवान् ' इत्यस्याने धान्यमायवान इत्यपि प्रयोगो मन्तव्यः, थान्यं माति मिमीते वा अशिरसोऽशीर्षश्च // 7 // 27 // मयते वा,-'कर्मणोऽण' (5 / 1 / 72 ) धान्यमाय ___ म० वृ०-अशिरस्शब्दा-दिकेन मतवो भवन्ति, इति शब्दः, धान्यमायोऽस्यास्मिन्वास्ति धान्यमाय तद्योगेऽशिरसो-'ऽशीर्ष' इत्यादेशश्च / 'अशीर्षिकः, वान / 'ईश्वर' इत्यत्र 'स्थेशभासपिसकसो वरः' (5 // अशीी , अशीर्षवान् ||7|| . 28) / एवं स्नेहपान / अत्र सर्वत्र औत्सर्गिकमतः, . * 'मावर्णान्तोपान्त्यापश्चम'० (2 / 1 / 94) इत्यनेन मतो- / अव०-'न विद्यते शिरोऽस्य अशीर्षिकः / इके Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्वर्थाधिकारः] मध्यमवयवचूरिसंवलितम् / [437 न्प्रत्यये परे ‘शीर्षः स्वरे तद्धिते' (3 / 2 / 103) इत्य- | ततः तावपि इकेनौ भवत इति सूत्रार्थो व्यानेनापि शीदेशोऽस्त्येव, यथा-हस्तिशिरसोऽपत्यं / ख्येयः / श्कलमा व्रीहिविशेषो अस्यास्मिन्धा हास्तिशीर्षः, बाह्लादित्वात् इन् , शीर्ष : म्बरे०' (3 / / सन्ति कलमिलः, कलमी, कलमवान् / एवं शालिल 2 / 103) इत्यनेन शिरसस्थाने शीर्षादेशः, शीर्षा- इत्याद्या अपि / बीयर्थतुन्दादे०'इति सूत्रे विशेषोऽयं देशश्च तदन्तस्यापि भवति, तथात्रापि शीर्षः स्वरे०' / लिख्यते,-व्रीहिशब्दोऽपि ब्रीह्यर्थो भवति, किन्तु (3 / 2 / 103) इत्यनेनापि शीर्षादेशा भविष्यति, / पूर्वसूत्रे 'ब्रीद्यादिभ्यस्तौ' (72 / 5) इत्यत्र व्रीहिकिमनेन ? सत्यम् , मतुप्रत्ययेऽपि परे अशिरसो शब्दोपादानात व्रीहिशब्दादनेन इलो न भवति / शीर्षादेशो यथा स्यात् इत्येवमर्थम् // 7 // इलस्य भावे हिइलोत्पत्तौ हि सत्यां 'ब्रीह्यादिअर्था-ऽर्थान्ताद् भावात् / / 7 / 2 / 8 / / भ्यस्तो' (7 / 2 / 5) इत्यनर्थकं स्यात् / भवतीत्येके, व्रीहिलः / तुन्दमस्यास्ति / तुन्द, उदर, पिचण्ड, म० वृ०-अर्थशब्दात अर्थान्तशब्दाच्च भाव यव, ग्रह, पङ्क, गुहा, कला, काफ इति तुन्दादिवाचिनो मत्वर्थे 'इकेनौ' भवतः / नियमार्थमिदम् / गणः // 9 // उभयथा चायं नियमो वाक्यभेदेन क्रियते,- भावबाचिन एवैताविकेनौ भवत., भाववाचिनश्च एता. स्वाङ्गाद्विवृद्धात्ते / / 7 / 2 / 10 // वेवेकेनौ; न मतुः / अर्थिकः, अर्थी; प्रत्यर्थिकः, म० वृ०-स्वाङ्गाद् विवृद्धोपाधिकान्मत्वर्थे प्रत्यर्थी / भावादेवेति नियमादतो द्रव्यवाचिन 'ते इलेकेनो' भवन्ति , 'मतुश्च' / कर्णिकः , इकेनौ न भवतः-अर्थवान् / / 8 / / कर्णी, कर्णवान् ; ओष्टिलः,ओष्ठिकः, ओष्ठी,ओष्ठ वान् // 10 // - प्रव०-'इकेनावेव भवत इति नियमादेषु प्रयोगेषु मतुर्न भवतीत्यर्थः / 'अर्थणि उपयाचने', प्रव०-१धिवृद्धौ महान्तौ कर्णावस्य स्तः अर्थनमर्थः, अर्थोऽस्यास्तीति अर्थिकः, अर्थी / उप्रती- इति कर्णिलः, कर्णिकः / विशेषेण वृद्धौ वर्द्धितौ, पमर्थनं प्रत्यर्थः,प्रत्यर्थोऽस्यास्तीति प्रत्यर्थिकः,प्रत्य- कोऽर्थः महान्तौ इति पर्यायान्तरेणार्थप्रकटनम् / थीं। तथा अर्थवान्'इत्यत्र अर्थ्यतेऽसौ जनैरित्यर्थः, विवृद्धौ महान्तौ ओष्ठावस्य स्तः ओष्ठिलः, विशे'युवर्णः' इति अल [?'भावाकोः ' (5 / 3 / 18) इति / षेण वर्द्धितौ इत्यर्थः / विवृद्धादिति किम् ? अन्यत्र घन], अथवा अतिधातुः, अर्त्यते इत्यर्थः, 'कमि | =विवृद्धादन्यत्र इलो न भवति, 'अतोऽनेकस्वरा०' पुगार्त्तिभ्यस्थः' (उ० 225) इत्युणादिसूत्रेण थप्रत्ययः, | (73 / 6) इत्यनेन इकेन्मतव एव भवन्ति // 10 // अर्थो हिरण्यादिरस्यास्तीति अर्थवान इति धनार्थाद वृन्दादारकः / / 7 / 2 / 12 // र्थशब्दात मतुरेव / / 8 / / म० वृ०-वृन्दान्मत्वर्थे 'आरकः' स्यान्मतश्च / व्रीह्यर्थतन्दादेरिलश्च / / 7 / 2 / 9 // 'वृन्दारकः, वृन्दवान् // 11 // म० वृ०-व्रीहिवाचिभ्यः तुन्दादिभ्यश्च मत्वर्थे 'इलः चकारात्तौ चेकेनौ मतुश्च' / ब्रीद्यर्थ, - २कल- | अव०-'वृन्दमस्यास्ति / शिखादित्वात् वृन्दी // 11 // मिलः, कलमिकः, कलमी, कलमवान् / [ शालिलः] शृङ्गात् // 7 / 2 / 12 // शालिकः,शाली,शालिमान्। तुन्दिलः, तुन्दिकः,तुन्दी, ___म० वृ०-शृङ्गान्मत्वर्थे 'भारको मतुश्च' स्यात् / तुन्दवान ; उदरिलः, उदरिकः, उदरी,उदरवान् / 9 / | शृङ्गारकः,शृङ्गवान् शिखादित्वात् शृङ्गी इत्यपि]॥१२ अव०-१'इलश्च' इत्यत्र चशब्दोऽप्यर्थे ज्ञातव्यः, .. . फल-वहांचेनः // 7 / 2 / 13 // Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 ] भीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [म०७ पा० 2 सू० 14-21 म० वृ०-फलबाभ्यां शङ्गाच मत्वर्थे 'इनो | शन्तिः; कंयः, शंयः ; कन्तुः, शन्तुः; कन्तः, शन्तः; मतुश्च' स्यात् [फलमस्यास्ति=] फलिनः, फलवान् कंवः, शंवः ; कम्भः, शम्भः // 18 // [शिखादित्वात् फली ; 'बर्हिणः,बईवान् शृङ्गिणः, अव०-युस्यस्प्रत्यये सकारो 'नामसिदशृङ्गवान् // 13 // यव्यञ्जने' (111 / 21) इति पदत्वार्थः कृतः, तेन प्रव०-'बर्हशब्दः पुनपुंसकः / बर्हो बईमस्या ऊर्णायुः इत्यत्र 'अवर्णेवर्णस्य' (7.468) इत्यनेन स्ति / शिखादित्वात् बी इत्यपि // 13 // अकारलोपो न सञ्जात इति पदसंज्ञाफलम् / अहंयुः शुभंयुः,कंयुः,शंयुः ;कयः,शंयः, कंवः,शंघः, एषु मलादीमसश्च / / 7 / 2 / 14 // 'तोमुमो व्यञ्जने०'(१।३।१४) इत्यनेन पदान्तेऽनुस्वा__ म० वृ०-मलान्मत्वर्थे 'ईमसेन-मतवो' भवन्ति। रानुनासिको सिद्धौ,-अहंयुः, अहम् युः शुभंयुः, [मलशब्दः पुनपुंसकः] मलीमसः, मलिनः, मल- शुभर युः कंयुः, कम्युः शंयु, शययुः, कयः, कर यः वान् / / 14 // कंवः कवः; शंवः,शवः इति अनुस्वारानुनासिकौ, मरुत्पर्वणस्तः // 7 / 2 / 15 // लिपिरचना एवं भवति // 18 // म० वृ०-मरुत्पनिशब्दाभ्यां 'तः' स्यात् , बल-बात-दन्त-ललाटादूलः / / 7 / 2 / 19 / / 'मतुश्च' / मरुत्तः, मरुत्वान् ; पर्वतः,पर्ववान् // 15 // म० वृ०-एभ्यो मत्वर्थे 'ऊलः स्यात् , मतुश्च'। बलि-'वटि-'तुण्डेर्भः // 7 / 2 / 16 // बलूलः, वातूलः, दन्तूलः, ललाटूलः ; बलवान , बातवान् , दन्तवान् , ललाटवान् / / 19 / / म० वृ०-बलि-वटि-तुण्डिभ्यो मत्वर्थे 'भ' स्यात् / बलिभः, बलिनः ; [नोऽङ्गादेः' इत्य प्राण्यङ्गादातो लः / / 7 / 2 / 20 // नेन नः,] वटिभः, तुण्डिभः, तुण्डिलः, मतुश्च, म. वृ०-प्राण्यङ्गवाचिन आकारान्तान्मत्वर्थे बलिमान // 16 / / 'लः' स्यान्मतश्च / चडालः, जङ्गाल:, शिखालः : चूडावान् [जवावान् , शिख़ावान ] / प्राण्यङ्गादिति अव०-उनना नाभिर्वटिः / प्रवृद्धा नाभिः किम् ? शिखावान प्रदीपः [जङ्घापान प्रासादः] / तुण्डि: / 'तुण्डिल.', 'सिध्मादिक्षुद्रजन्तुरुग्भ्यः' अङ्गग्रहणं किम् ? इच्छावान , भावनावान' (7 / 2 / 21) इत्यनेन लः // 16 // [वासनावान् ] // 20 // ऊर्णा-ऽहं-शुभमो युस् / / 7 / 2 / 17 / / प्रव०-प्राण्यङ्गा'० इति सूत्रे भावनावान म. वृ०-ऊर्णा-हं शुभम्शब्देभ्यो मत्वर्थे इत्यस्याग्रे कर्णिकाल इत्यपि प्रयोग: साध्यः, तथाहि 'युस्' स्यात् / ऊर्णायुः, अहंयुः, शुभंयुः // 17 // कर्णसमीपोऽपि देशः कर्णिका उच्यते इति कर्णिका शब्दः प्राण्यङ्गस्यैव वाचकः, न तु कर्णाभरणस्य, प्रव०-ऊणायः मेष उरभ्रः। अहंयः अह- इति वृद्धा आहुः, ततो लः प्रत्ययः सिद्धः / / 20 / / कारी / शुभं भद्रेऽर्थे , परं शुभंशब्दोऽव्ययः , सिध्मादि-क्षुद्रजन्तु-रुग्भ्यः // 7 / 2 / 21 / / शुभंयुः कल्याणबुद्धिः कल्याणवान् // 17 // म. वृ०-सिध्मादिगणात् , क्षुद्रजन्तुवाचिभ्यः, कंशंभ्यां युस्तियस्तुतवभम् // 7 / 2 / 18 // रुग्वाचिभ्यश्च 'ल' स्यान्मतश्च / सिध्मलः, म० वृ०-कम्-शम्भ्यां मत्वर्थे 'युस्-ति-यस्- | सिध्मवान्। क्षुद्रजन्तु,-यूकालः,यूकावान् / आतु-त-व-भा[प्रत्ययाः] भवन्ति / कंयुः,शंयुः; कन्तिः, | नकुलात् क्षुद्रजन्तव उच्यन्ते / रुक , मूर्छावान् / Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्वर्थाधिकारः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 439 - कथं वत्सलः स्नेहवान , अंसलो बलवान् ; ? / इति हस्वः / कालाशब्दः पादस्नसाविशेषे वर्त्तते / पेशलकुशलादिवदेतौ यथाकथंचित् व्युत्पादनीयौ, | लोकवञ्चनाय जटा अस्य सन्ति जटालः / / 23 / / सिध्मादिषु वा पठनीयौ॥२१॥ __ वाच आलाटौ // 7 / 2 / 24 // म० वृ०-वाकशब्दान् क्षेपे 'आला-ऽऽटौ' भवप्रव०-सिध्म दुर्भूतकोढादिरोगः, सिध्मा- तः / वक्ष्यमाणग्मिनोऽपवादः / वाचालः, वाचाटः। न्यस्य सन्ति / एवं मक्षिकालः, मक्षिकावान् / यो बहु निःसारं भाषते स एवं क्षिप्यते। क्षेपो सिध्म, वर्धन् , गडु, तुण्डि, मणि, नाभि, बीज, मतुना न गम्यते इति न मतुः / क्षेपे इत्येवनिष्पाद्, निष्पद्, निष्प, पांशु. हनु, पशु, पाणी, वाग्मी,' वाग्वान् // 24 // धमनी, सक्तु. मांस, पत्र, वात, पित्त, श्लेष्मन् , पार्श्व, कर्ण, सक्थि, स्नेह, शीत, कृष्ण, श्याम, प्रव०-प्रशस्ता वागऽस्यास्तीति वाग्मी, वाग्वान् / पिङ्ग, पक्ष्मन् , पृथु, मृदु , मञ्जु, बटु, कण्डू, ग्मिन् / / 7 / 2 / 25 // इति सिध्मादिगणः / अत्र सिध्मादिगणे गडुशब्दो म० वृक्ष-वाचो मत्वर्थे 'ग्मिन् मतुश्च'स्यात् / गडुलत्वे वर्तते, न गडुरोगः / पाीधमनी. वाग्मी, वाग्वान् // 25 // शब्दो दीर्घान्तावेव गणे पठ्येते , न ह्रस्वान्तौ प्रव०-'ग्मिन्' इति पृथगयोगविधानादेव पाणि धमनि इति, ततो दीर्घान्ताभ्यामेव लः, क्षेपे इति निवृत्तम् इति करणानुवृत्तेश्च / प्रशंसायां पाणीलः, धमनीलः ; ह्रस्वान्ताभ्यां मतुरेव पाणि गम्यमानायां 'ग्मिन' इति सूत्र प्रवर्तते न स्वरूपमान , धमनिमान् / उयथा पेशं लाति-पेशलः, मात्रे // 25 // कुशं लाति-कुशलः इत्येवं व्युत्पत्तिः, तथा वत्सलां मध्वादिभ्यो रः / / 7 / 2 / 26 // सलयोरपि / पेशल कुशलशब्दी रूढिशब्दो ( अनुक्रमेण) मनोहरविद्वद्वाचिनौ औणादिको वा / 21 / म० वृ०-मध्वादिभ्यो मत्वर्थे रः' स्यात् / 'मधुरो रसः, 'मधुरं मधु, मधुरं क्षीरम् , एवं प्रज्ञा-पर्णोदक-फेनाल्लेलौ / / 7 / 2 / 22 / / "खरो गर्दभः, खवानन्यः; "मुखरो वाचालः, मुख'म० वृ०-एभ्यो मत्वर्थे लेलौ भवतः मतुव। वानन्यः; कुञ्जरो इस्ती, नगरं पुरम् ,नगवदन्यत्; प्रज्ञालः, प्रज्ञिलः, प्रज्ञावान ; पर्णलः, पर्णिलः, "कण्डुरः , कण्डूमान् ; पाण्डुरः , पाण्डुमान् , पर्णवान् :उदकलः,उदकिलः, [उदकवान् ]; फेनलः, पांसुरः, पांसुमान् / मध्वादयः प्रयोगगम्याः // 26 // फेनिलः, [फेनवान् ] // 22 // प्रव०-'मधु स्वादुस्वरूपं गुणत्वमस्यास्तीति मधुरो रसः, अत्र मधुशब्दः स्वादुत्वे, कोऽर्थः ? 'काला-जटा-'घाटात्क्षेपे॥७।२।२३॥ पर्यायद्वये गुणत्वे गुणसामान्ये चार्थे वर्तते / म. वृ०-कालाजटाघाटाशब्देभ्यो मत्वर्थे 'ले- २मधुरं मधु इत्यत्र मधुशब्दो माधुर्येऽर्थे, गुणे च लौ' भवतः.क्षेपे निन्दायां गम्यमानायाम् / का- पुंल्लिङ्गः, क्षौद्राद्यर्थेषु वर्तमानो मधुशब्दो नपुसकः, लालः, कालिलः ; जटालः, जटिलः ; घाटालः, ततो मधुः माधुर्यमत्रास्तीति पुंल्लिङ्गे एव वाक्यं घाटिल: [ कृकाटिका ] | मतुना क्षेपो न गम्यते / कार्यम / उ'भधरं क्षीरम', अत्र गुणे / क्षौद्रादिद्रव्ये इति क्षेपे न मतुः / क्षेपे इति किम् ? कालावान् , वर्तमानात् मधुशब्दात् मतुरेव भवति, अभिधाना र्थविवक्षार्थविषयस्य इतिकरणस्यानुवृत्तेः, मधुमान् घटः / "खं महत् कण्ठविवरमस्यास्ति खरो प्रव०-घाटात्' इत्यत्र 'क्लीबे' (2 / 4 / 97) | गर्दभः / सर्वस्मिन् वक्तव्ये मुखमस्यास्तीति Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 2 सू० 27-31 मुखरः / 'कुञ्जशब्दो हनुपर्यायः, कुञ्जावस्य स्तः / अव०-लोमन् , रोमन , बभ्रु, वल्गु, हरि, =कुञ्जरः, कुञ्जवानन्यः / एवम् ऊषः क्षारोऽत्रा- | कपि, मुनि, गिरि, भुरु, कर्क इति लोमादिगणः / स्तीति ऊपरं क्षेत्रम् , ऊषवदन्यः ; मुष्करः पशुः, | पिच्छ, उरस् ,धुवका, ध्र वका,पर्स,चूर्ण इति पिच्छामुष्कवानन्यः / शुषिरं शुषिमत्काष्ठम् / शुषिः छिः | दिगणः / पिच्छं चिक्कणत्वमस्यास्तीति पिच्छिलः, द्रम् / पाण्डुशब्दः पाण्डुत्वरूपे गुणे वर्त्तते // 26 // | अथवा उपमानत्वेन पिच्छं मयूरादिसत्कमस्यास्ति पिच्छिलः // 28 // कृष्यादिभ्यो वलच // 7 / 2 / 27 // नोऽङ्गादेः / / 7 / 2 / 29 // म. वृ०-कृष्यादिभ्यो मत्वर्थे 'वलच् मतुश्च' स्यात् / 'कृषीवलः कुटुम्बी, कृषिमत् क्षेत्रम् म० वृ०-अङ्गादिभ्यो मत्वर्थे 'नः' प्रत्ययो इत्यादि / कृष्यादयः प्रयोगगम्याः // 27 // मतुश्च स्यात् / अङ्गान्यस्याः सन्तीति अङ्गना, रूढिशब्दोऽयम् , कल्याणाकी स्त्री उच्यते, अन्यत्रा ङ्गवती / पामनः,पामवान् ; वामनः,वामवान् / 29 / प्रव०- कृषिरस्यास्तीति कृषीवलः, 'वलच्यपित्रादेः' (3 / 2 / 82) इत्यनेन कृषी दीर्घः / एवमासु अव०-अङ्ग, पामन् , वामन् , हेमन् , तिर्मद्यमस्य(अस्ति) आसुतीवलः कल्यपालः,आसुति- श्लेष्मन् , सामन , वर्मन् , (वर्मन् ), शाकिन , मान् / परिषद्यते प्राप्यते न्यायार्थिभिः परिषत् , पलालिन् , पलाशिन , ऊष्मन् , कद्रू , वलि इत्य'कत्सम्पदा०' (5 / 3 / 114), 'सदोऽप्रतेः परोक्षायां ङ्गादिगणः / 'कल्याणाङ्गी स्त्री उच्यते इत्यस्याने त्वादेः' (2 / 3 / 44) इति षत्वम् , परिषदस्यास्ति इतिकरणात् ( इति ), अयं हेतः / श्वामानि नीपरिषदलः, परिषद्वान् ; पर्षद्वलः,पर्षद्वान् / परिष- | चानि अर्थादङ्गानि अस्य सन्ति // 29 // धते प्राप्नोति सूकरादिकं परिषत् , परिषद्वलं / 'शाकी-पलाली-दाह्रस्वश्च / / 7 / 2 / 30 / / तीर्थम् , पङ्किलमित्यर्थः, परिषद्वत् / रजस्वला स्त्री, रजस्वान प्रामः / केचित्तु रजस्वलो देशः, रज ___ म० वृ०-शाकी-पलाली दभ्यों मत्वर्थे 'नः' स्वला भूमिः, रजस्वान् , रजस्वतीत्याहुः / दन्तावलो स्यान्मतुश्च, नप्रत्यययोगे एषां ह्रस्वोऽन्तादेशश्च / नाम राजा हस्ती च / शिखाशब्दः शाखार्थः प्राणि ४शाकिनः, शाकीमान् ; पलालिनः, पलालीमान , जातिवाचकः, यथा कस्यां शाखायामुत्पन्नस्त्वमिति, दगुणः दर्दू मान // 30 // शिखावलं नगरम् , शिखावलो मयूरः, अत्र तु इति प्रव०-'शाकशब्दः, महत् कूष्माण्डादिशाकं करणात् प्राण्यङ्गार्थादपि शिखाशब्दात् वलच , न शाकी उच्यते, अथवा शाकसमूहो वा शाकी, महत्त्वे तु 'प्राण्यङ्गादातो लः' (7 / 2 / 20) / दन्तवान् समूहेऽपि वाच्ये शाकस्य तद् बहुल"मिति ( हैमशिखावानन्यः / मातृवलः, मातृमान् ; एवं पितृ लिङ्गा०) लिङ्गपाठात् स्त्रीत्वम् , ततो 'गौरादिभ्यो।' बलः, पुत्रवलः, उत्साहवलः, उत्सङ्गवलः। एषु (2 / 4 / 19) इत्यनेन की, शाकी इति सिद्धम् / एवं सर्वत्र इतिकरणात् विशेषः सिद्धः // 27 / / महत्पलालं पलालक्षोदोषा पलाली, “तद् बहुल"मिति लोमपिच्छादेः शेलम् // 7 / 2 / 28 // (हैमलिङ्गा०) पाठात् स्त्रीत्वम् , 'गौरा०' ( 2 / 4 / 19) डी। दर्नाम व्याधिः / शाकी अस्यास्ति-शाकिनः म० वृ०-लोमादिभ्यः पिच्छादिभ्यश्च यथासंख्यं शेलौ' भवतः, मतुश्च / लोमशः, रोमशः, एवं सर्वत्र // 30 // लोमवान ; पिच्छिलः, पिच्छवान् ; उरसिलः, उर विष्वचो विषुश्च / / 7 / 2 / 31 / / स्वान् / / 28 // म. वृ०-विष्वच् इति शब्दानः [ मत्वर्थे ] Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्वर्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [441 .. स्यात्तद्योगे च विष्वचो 'विषु' इत्यादेशः, मतुश्च / / ऽत्रास्ति तमिस्रा ,तमिस्रात्रास्ति तामिस्रः , तामिविषुणः सूर्यः वायुर्वा / विषुशब्दो निपातो नानात्वे | स्राणि गुहामुखानि / वैसो व्याधिः, विविधं सर्पणं वर्त्तते / विष्वच् इत्यखण्डमव्ययं वा / कथं विषु- प्रसरणं विसर्पः, विसर्पोऽत्रास्ति वैसो व्याधिः / मान अहोरात्रप्रतिभागः ? विषुर्नाम मुहूर्तस्तस्माद् कौतुपं गृहम् , कुतुपा भागिनेयाः / कौण्डलो युवा / भविष्यति // 3 // तापसः पाखण्डी। साहस्रो देवदत्तः / मतौ तु ज्यो नावान् , तमिस्रावान् इत्यादि / तथा तापस इति प्रव०-'विषु, अम्च् ,विषु अश्वतीति विष्वक् , रूढिशब्दः, रूढिविषये च मतुर्न भवति / कुण्डली अत्र शब्दरूपमित्याध्याहारात् क्लीबत्वे से पि नाग सहस्री चेति शिखादित्वात् / ज्योत्स्नादयः प्रयोगमाभावः / विष्वश्चो रश्मयः (अस्य सन्ति), अथवा गम्याः // 34 // विष्वग् गतानि कोऽर्थः तिर्यग्गमनानि भ्रमणाय अस्य वायाः (? वायोः) सन्ति इति विषुणः / न सिकता-शर्करात् / / 7 / 2 / 35 // प्रत्यययोगे एव विषु' आदेशविधानात् मतौ सति ____ म० वृ०-सिकता शर्करा इति शब्दाभ्यां मत्वर्थे] विष्वग्वान् इत्येव / / 31 / / 'अण् मतुश्च' स्यात् / सैकतः, सिकतावान् [शर्करालक्ष्या अनः // 7 / 2 / 32 / / ऽत्रास्ति=] शार्करः, शर्कराधानोदनः // 35 // म. वृ०-लक्ष्मीशब्दान्मत्वर्थे भनो मतुश्च' स्यात् / इलश्च देशे // 7 / 2 / 36 // [लक्ष्मीरस्यास्ति=] लक्ष्मणः, लक्ष्मीवान् // 32 // म० वृ०-सिकताशर्कराभ्यां देशे मत्यर्थे 'इलः' प्रज्ञा-श्रद्धा-ऽर्चा-वृत्तर्णः / / 7 / 2 // 33 // चकारादण् स्यान्मतुश्च [सिकतात्रास्ति=] सिक तिलः, सैकतः, सिकतावान् देशः / शर्करिलः, म० ०-प्रज्ञा-श्रद्धा-ऽर्चा-वृत्तिशब्देभ्यो 'णो शार्करः, शर्करावान् देशः // 36 / / मतुश्च' स्यात् / [प्रज्ञाऽस्यास्ति=] प्राज्ञः, प्रज्ञावान , [श्रद्धाऽस्यास्ति=] श्राद्धः, श्रद्धावान् ; [अर्चाs- अव०-'सिकता देशः शर्करा देशः इत्यभेदोस्यास्ति=] आश्च:, अर्चापान , [वृत्तिरस्यास्ति=] पचारात् / / 36 / / . ' वार्तः, वृत्तिमान् / श्री तु प्राज्ञा, श्राद्धा, भार्चा, धुद्रोर्मः // 7 / 2 / 37 // वार्ता / 'प्राज्ञी इति स्वार्थिकाणन्तात् // 33 // म० वृ०-यु द्रु इति शब्दाभ्यां मत्वर्थे 'मः' प्रव०-'प्राज्ञी' इति, प्रजानातीति प्रजः, सप- स्यात् / 'घुमः, द्रुमः / रूढिशब्दाविमौ रूढिविषये सर्गादातो डोऽश्यः (5 / 1156), प्रज्ञ एष प्राज्ञ इति चन मतुः / भन्यत्र तुमतुरेष-पुमान् ,दुमान् // 37 // स्वार्थे 'प्रज्ञादिभ्योऽण' (712 / 165) इति अण् , स्त्री प्रव०-धु इति दिवशब्दस्य 'उः पदान्तेऽनूत्' चेत् प्राज्ञी कन्या, 'अणव्येये०' (2 / 4 / 20) इति की // 33 // (2 / 1 / 118) इत्यनेन कृनोकारस्य निर्देशः, अथवा युशब्द उकारान्तो दिवसपर्यायः प्रकृत्यन्तरमस्ति, ज्योत्स्नादिभ्योऽण् // 7 / 2 / 34 // पौः युवा अस्यास्मिन्वास्तीति घुमः। 'द्रणि दारूणि ____म० वृ०-ज्योत्स्ना इत्यादिभ्यो-'ऽण्' स्यात् / / अस्यास्मिन्या सन्तीति द्रुमो वृक्षः // 37 // 'ज्योत्स्नः पक्षः, ज्योत्स्नी रात्रिरित्यादि // 34 // काण्डा-ऽऽण्ड-भाण्डादीरः॥१२॥३८॥ प्रव०-ज्योत्स्ना अस्मिन्नस्ति-ज्योत्स्नः / म. वृ०-काण्डा-15ऽण्ड-भाण्डेभ्यो मत्वर्थे भादिशब्दात् तामिस्रः पक्षः, तामिनी रात्रिः; तमो- | 'ईरो मतुश्च' स्यात् [काण्डानि अत्र सन्ति=] Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442] श्रीसिद्धहेमशब्दामुशासनं [अ० 7 पा० 2 सू० 39-45 काण्डीरः , काण्डवान् ; आण्डोरः , आण्डवान् ; भाण्डीरः, भाण्डवान् // 38 // प्रव०-आण्डौ मुष्कौ वृषणावित्यर्थः // 38 // कच्छवा डुरः // 72 // 39 // म० वृ०-कच्छूशब्दात् 'डुरमतू' भवतः / कच्छरः, कच्छूमान् [कच्छू पामा] // 39 / / दन्तादुन्नतात् // 7 / 2 / 40 // म० वृ०-उन्नतत्वोपाधिकाद् [विशेषणात् ] दन्तशब्दात् 'डुरः' स्यात् / दन्तुरः' / उन्नतादिति किम् ? दन्तवान् // 40 // अव०-'उन्नता दन्ता अस्य सन्तीति दन्तुरः / दन्तुर इति प्रयोगोपरि इमे विशेषा ज्ञातव्या भवन्ति, निर्गतत्वमुन्नतत्वम् , प्रमाणातिरेकः प्रमाणाधिक्यं विवृद्धत्वम् इति (उन्नतत्वविवृद्धत्वयोः) भिन्नत्वम् / तत्रोन्नतार्थे दन्तुर इति भवति / विवृद्वार्थविवक्षायां तु 'स्वाङ्गाद्विवृद्धात्ते' (7 / 2 / 10) इति सूत्रेण 'आयात् , (7 / 2 / 2) इति सूत्रेण च इलेकेनप्रत्ययाः मतुश्च भवन्ति / दन्तिलः, दन्तिकः, दन्ती, दन्तवान् इति प्रयोगाः / दन्तशब्दस्य मत्वर्थे प्रयोगपश्चकं भवति / उन्नतार्थो हि मतुना न गम्यते इति मतुर्न भवति इति भावः // 40 // मेधा-रथानवेरः // 7 / 2 / 4 // म. वृ०-मेधारथशब्दाभ्यां मत्वर्थे 'इरः' स्यात् नवा / विकल्पवशाद्यथाप्राप्तमिकेनौ मतुश्च / मेधिरः, मेधावान् ; उत्तरसूत्रेण ['अस्तपो'० (7 / 2 / 47) इत्यनेन] विन्नपि,-मेधावी। रथिरः, रथिकः, रथी, रथवान् // 41 // कृपा-हृदयादालुः // 7 / 2 / 42 / / म०वृ०-कृपाहृदयाभ्यां मत्व तुश्च' स्यात् / कृपालुः, कृपावान् ; हृदयालुः, हृदयिकः, हृदयी, हृदयवान् // 42 // केशाद्वः / / 7 / 2 / 43 // म० वृ०-केशान्मत्वर्थे 'वः स्याद्वा 'मतुश्च' / केशवः,केशिकः,केशी,केशवान् / 'केशव इति रूढिशब्दोऽपि विष्णुवाची // 43 // प्रव०-'न केवलं यस्य केशा सन्ति स केशव ' उच्यते, किन्तु विष्णुवाची केशवशब्दो रूढिशब्दो ऽप्यस्तीत्यर्थः // 43 // मण्यादिभ्यः // 7 / 2 / 44 // म० वृ०-मण्यादिभ्यो मत्वर्थे 'वः स्यान्म-. तुश्च' / योगविभागाद्वेति निवृत्तम् / मणिवः, 'मणिलः; रबिम्बावम् , उकुररावम् , कुरवावम् , श्राजीवम् // 44 // अव०-'सिध्मादिगणपाठात् 'सिध्मादिक्षुद्रजन्तुरुग्भ्यः '(221) इत्यनेनलः। बिम्बावमित्यादयत्रयोऽपि शब्दाः सरोवाचकाः। बिम्बानि अत्र सन्ति / कुरराः पक्षिविशेषाः अत्र सन्ति / कुत्सितो रवः शब्दो येषाम् (ते कुरवाः ),कुरवा अत्र सन्ति / यथाक्रमं प्रयोगाः। 'मण्यादिभ्यः' इति वः / ( कुरवावम् इत्यत्र ) 'घच्युपसर्गस्य बहुलम्' ( 3 / 2 / 86) इति बाहुलकादीर्घः / 'राजीवमिति प्रयोगः, राजिशब्दः, 'इतोऽक्त्यर्थात्' (2 / 4 / 32) डी, राजी अत्रास्ति, वः प्रत्ययः / एवमिष्टकावम , गाण्डिवम , गाण्डीवम् , अर्जुनधनुर्नाम, गाण्डिर्गाण्डी अत्रास्ति, वप्रत्ययः / तथा अजकावम् , माहेश्वरधनुः पिनाकनाम, तत्पर्यायोऽजकावम् , अजका अस्थिविकारोऽत्रास्ति अजकावम् / बिम्बावमित्यादयो रूढिशब्दाः / रूढिविषये च मतुर्न भवति / विषयान्तरे तु मतुभवत्येव,-बिम्बवानित्यादि। मणि, हिरण्य, बिम्ब, कुरर, कुरव, राजी, इष्टका. गाण्डि, गाण्डी, अजका इति मण्यादयः प्रयोगगम्याः // 44|| हीनात्स्वाङ्गादः // 7 / 2 / 45 // . ___म० ३०-हीनोपाधिकात् स्वाङ्गान्मत्वर्थे 'म:' *"मुष्के स्यादाण्डः पेलकोऽपि च" इति हैमनाममालाशिलोञ्छ। Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्वर्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंपलितम् / [443 * प्रत्ययः स्यात् / खण्डः कर्णोऽस्यास्ति कर्णः, नासि- कः / हीनादिति किम् ? कर्णवान् // 45 / / प्रव०-छिन्ना नासिका अस्यास्ति नासिकः // 45 / / अभ्रादिभ्यः // 7 / 2 / 46 // म०३०-अभ्र इत्यादिभ्यो मत्वर्थे 'अ' स्यान्मतुश्च' / अभ्राण्यस्मिन् सन्ति अभ्रनमः, उरसः, उरस्वान् // 46 // प्रव०-'यथादर्शनं मतुश्च / अभ्र, अशस् , उरस् , तुन्द, चतुर, पलित, जटा, घाटा, कर्दम, काम,वल,घटा,अम्ल,लवण इतिअभ्रादिराकृतिगणः। 2 (एवम् ) अास्यस्य सन्ति अर्शसो देवदत्तः / / 46 / अस्-तपो-माया-मेधा-स्रजो विन् // 7 / 2 / 47 // म. वृ०-असन्तेभ्यः, तपस् , माया, मेधा, सज् इति शब्देभ्यो मत्वर्थे 'विन् मतुश्च' स्यात् , असन्त,-यशस्वी, यशस्थान : सरस्वी, सरस्वान . 'सरस्वती; तेजस्वी, तपस्वी, [तपस्वान् ;] मायाथी, [ मायावान , ] मायी, मायिकः ; मेधावी, / मेधावान् ,] स्रग्वी, स्रग्वान् // 47 // प्रव०-'सरस्वती' इत्यत्र यदा नदीपर्यायः सरस्वतीशब्दः तदा सरः सरणं गमनमस्या अस्तीति सरस्वतीति वाक्ये मतु, 'मावर्णान्तोपान्त्य०' (2 / 194) इति मस्य वः, ततो डी, यदा तु भारतीवाचकः सरस्वतीशब्दः तदा सरो मानसाख्यादि अस्या अस्ति इति वाक्ये मतुः / तपसोऽसन्तत्वेन सिद्धेऽपि यदत्र पृथग् तपःशब्दप्रहणं तत् ज्योत्स्नाद्यणा बाधो मा भूदित्येवमर्थम् / उ'मायिकः', भत्र ब्रह्मादिपाठात् इकप्रत्ययः // 47 // आमयादीर्घश्च // 7 / 2 / 48 // म० वृ०-आमयात् 'विन् मतुश्च' स्यादामयस्य [विन्संयोगे] दीर्घश्च / आमयावी,आमयवान् // 48 // स्वान्मिन्नीशे // 72 // 49 // म० वृ०-स्वशब्दान्मत्वर्थे ईशे वाच्ये 'मिन्' स्यात , दीर्घश्चास्य [ शब्दस्य ] / स्वमस्यास्ति= स्वामी। ईशे इति किम् ? 'स्ववान् // 49 / / प्रव०-१.. ............"न तु भोग्यतया इति मिन् न भवति, मतुः भौत्सर्गिकः सिद्धः // 49 / / गोः / / 7 / 2 / 50 // म. वृ०-गोशब्दात् 'मिन् मतुश्च' स्यात् / गोमी, गोमान् // 50 // ऊों विनवलावस् चान्तः / / 7 / 2 / 51 / / ___म० वृ०-ऊशब्दात् विनवलप्रत्ययौ, 'तद्योगेऽस्य अस् इत्यन्तादेशश्च स्यात् / 'ऊर्जस्वी, ऊर्जस्वलः / मतुश्च- ऊर्वान् / कथमूर्जस्वान् ? ऊर्जयतेरस्प्रत्ययः मतुश्च // 51 // मव०-विनवलयोगे ऊशब्दस्य। ऊर्जनमू, 'ऋत्सम्पदादिभ्यः किप्' (5 / 3 / 114), ऊर्गस्यास्ति-ऊर्जस्वी // 51 // तमिस्रा-ऽऽर्णव-ज्योत्स्ना / / 7 / 2 / 52 / / म० ३०-तमिस्र अर्णव ज्योत्स्ना इति शब्दा निपात्यन्ते / 'तमिस्रा रात्रिः, तमिस्र तमःसमूहः, तमिस्राणि गुहामुखानि, तमस्थान [भत्र मतुश्च] / अर्णवः समुद्रः / उज्योत्स्ना चन्द्रप्रभा, अन्यत्र ज्योतिष्मती रात्रिः; निपातनस्येष्टविषयत्वात् / 52 / - प्रव०-'तमस्शब्दः, तमोऽत्रास्तीति तमिसा, निपातनात् रः प्रत्ययः उपान्त्यस्य च इत्वम् , तमिस्रः, आप, तमिस्रा रात्रिः, एवं तमिस्रम् / भर्णसशब्दो जलवाची, अर्णो जलमत्रास्ति भर्णवः, निपातनात् वः प्रत्ययः भन्तस्य चलोपः-मर्णवः। उज्योतिस्शब्दो दीप्तिवाचकः, ज्योतिर्दीप्तिरत्रास्ति, निपातनात् ज्योतिस्परतो नः प्रत्ययः, उपान्त्य'इ'इतिलुप्यते,त् तिष्ठति- ज्योत्स्ना। 'तमिस्रार्णवज्योत्स्ना' इति सूत्रे तमिस्र इति अकारान्त एव निपातः / "ज्योतिष्मती' इत्यत्र ज्योतिसशब्दो नक्षत्रवाचकः / // 52 // गुणादिभ्यो यः // 7 // 2 // 53 // Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा०२ सू०५४-५९ म० वृ०-गुणादिभ्यो मत्वर्थे 'यः'स्यान्मतुश्च। / अव०-"अतः' कोऽर्थः ? अकारान्तादिति सर्वगुण्यः पुरुषः, हिम्यः पर्वतः; गुणवान् , हिमवान् / सूत्रेज्ञेयम् / आदिशब्दादिकेनोः। गोशतमस्यास्तीगुणादयः प्रयोगगम्याः // 53 // ति गौशतिकः / एवं गौसहस्रिकः / केचित्तु गवादेर नकारान्तादपि इकणमिच्छन्ति,- गवां समूहो गोत्रा, प्रव०-कथं को नाम गुणिनो नार्चयेत् ? 'गोरथयाता'० (62 / 24) इति बल् , आप , सा शिखादिगणपाठात् इन् भविष्यति // 53 / / गोत्रा विद्यते यस्य स गौत्रिकः. 'गोपर्वादत इकण' रूपात्प्रशस्ताहतात् // 7 / 2 / 54 // इत्यनेन आकारान्तादपि मतान्तरे इकण् भवति / 56 / म० वृ०-प्रशस्तोपाधिकात् [विशेषणात् ] 'निष्कादेः शतसहस्रात् / / 7 / 2 / 57 // आहतोपाधिकाच्च रूपान्मत्वर्थे 'यः' स्यात् / प्रशस्तं म० वृ०-निष्को य आदिस्ततः परं यच्छतं रूपमस्यास्ति रूप्यो गौः, रूप्यः पुरुषः / 'आहतं सहस्र च तदन्तान्मत्वर्थे 'इकण' स्यात् / नैष्कशरूपमस्यास्ति रूप्यः कार्षापणः / प्रशंसायां मतुरपि तिकः, नैष्कसहनिकः / निष्कादेरिति किम् ? शती, भवति,-रूपवती कन्या / आहते मतुर्नभवति, इति 'सहस्री // 57 // करणबलात् / प्रशस्ताहतादिति किम् ? रूपवान् / कथं रूपिणी कन्या, रूपिको दारकः ; ? ब्रीह्यादित्वाद्भविष्यति / 'आयात्' (7 / 2 / 2) इति पूर्णो प्रव०-'निष्कश्चासावादिश्व=निष्कादिः,तस्माऽवधिः / अत परं मतुर्नास्ति // 54 // निष्कादेः / रनिष्कं स्वर्णम् , निष्कानां शतं निष्क शतमस्य अस्ति / 'शिखादिभ्य इन्' (2 / 4) इति अव०-निघातिकाताडनात् कोऽर्थः ? हस्ति- इन् / / 57 // . पुटिकाताडनात् दीनारादिषु यद् रूपमुत्पद्यते तत्भाह "एकादेः कर्मधारयात् / / 752 / 58 // तं रूपमुच्यते // 54 // म० वृ०-एकादेः कर्मधारयादकारान्तान्मत्वर्थे पूर्णमासोऽण् // 7 / 2 / 55 / / 'इकण' स्यात् / 2 ऐकगविकः, ऐकशतिकः / कर्मधारया' म० वृ०-पूर्णमास् इति शब्दान्मत्वर्थ-'ऽण' दिति किम् ? एकस्य गौरेकगव., सोऽस्यास्तीति न स्यात् / पौर्णमासी // 55 / / भवति / कथमेकद्रव्यवत्त्वादिति ? एकेन द्रव्यव त्वमिति "समासे भविष्यति // 58|| अव०-माति मिमीते या इति मास् , 'अस्' (उ० 952) इत्युणादिसूत्रेण अस् ,मास् इति शब्दः, __अव०- 'एकश्चासावादिश्च (=एकादिः,तस्मात् ) पूर्णश्चासौ माश्च पूर्णमाः, ततः पूर्णो माश्चन्द्रोऽस्या- | एकादेः।एका गौरेकगवः, गोस्तत्पुरुषात्' (7 / 3 / 105) मस्ति इति मत्वर्थीये वाक्ये 'पूर्णमासोऽण्', ततो | इत्यनेन अट् समासान्तः,एकगवोऽस्यास्ति ऐकगविकः। ङी / / 55 / / 3'गोस्तत्पुरुषात्' अट् / द्रव्यमस्यास्ति,मतुः, द्रव्यगोपूर्वादत'इकण / / 7 / 2 / 56 // वतोभावो द्रव्यवत्त्वम् ,एकेन द्रव्यवत्त्वम् एकद्रव्य वत्त्वम् , तस्मात् / 'ऊनार्थपूरणाद्यैः' ( 3 / 1 / 67 ) ___ म० वृ०-गोशब्दपूर्वादकारान्ताच्छब्दान्मत्वर्थे इति समासः // 58 // इकण स्याद् / मत्वादीनामपवादः / गौशतिकः / अत इति किम् ? गोविंशतिमान् / कथं गौशकटिकः ? 'सर्वादेरिन् // 7 / 2 / 59 // शकटीशब्देन समानार्थः शकटशब्दोऽस्ति / शकटी- म० वृ०-सर्वादेरकारान्तात् कर्मधारयान्मत्वर्थे 'इन्' शब्दात्तु न मतुरनभिधानात् // 56 / / स्यात् / सर्वधनी, सर्वबीजी, सर्वकेशी नटः // 59 // Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्वर्थाधिकारः ] . मध्यमवृत्त्यवचूरिसवलितम् / [ 445 प्रव०-सर्वश्वासावादिश्च सर्वादिः,न तुसर्वादिगणः।। सुखादेः / / 7 / 2 / 63 // सर्वे धनं सर्वधनम् , सर्वधनमस्यास्ति / / 59 / / म० वृ०-सुखादिभ्यो मत्वर्थे ‘इन्नेत्र' स्यात् / प्राणिस्थादस्वाङ्गाद् द्वन्द्वरुनिन्द्यात् सुखी, दुःखी॥६३॥ // 7 / 2 / 60 // - म० वृ०-प्राणिस्थोऽस्वाङ्गवाची अकारान्तो यो अव०-सुख, दुःख, तृप्र, कृच्छ , अस्र, अलीक, द्वन्द्वः यश्च रुग्वाची [रोगवाचकः] यश्च निन्द्यवाची | कृपण, सोढ, प्रतीप, प्रणय, हल, आम्र, कक्ष, तेभ्यो मत्वर्थे'इन' स्यात् / द्वन्द्व,-'कटकवलयिनी। शील इति सुखादिगणः // 63 // रुक ,-कुष्ठो / निन्द्य,-रकाकतालुको। प्राणिस्था 'मालायाः क्षेपे // 7 / 2 / 64 // दिति किम् ? पुष्पफलवान वृक्षः / अम्बाङ्गादिति ___म० वृ०-मालाशब्दात्क्षेपे वाच्ये 'इन्नेब' स्यात्। किम् ? स्तनकेशवतो। अत इत्येव-विपादिकावती, माली / क्षेप इति किम् ? मालावान् // 64 // *काकतालुमती / 'अतोऽनेक०' (72 / 6) इति सिद्धे इकादिबाधनार्थ वचनम् // 60 // प्रव०-'मालाशब्दः शिखादिगणे, ततः क्षेपे गम्यमाने मतुनिवृत्त्यर्थं वचनम् =मालायाः क्षेपे' अव०-'कटकानि (च) वलयानि च, 'अप्रा इति सूत्रं कृतम् // 64 // णिपश्वादेः' (3 / 1 / 136) इत्यनेन एकत्वम् ,कटकवलयमस्या अस्ति / काकस्य तालुनस्तुल्यं काकतालुकम् , धर्म-शील-वर्णान्तात् // 7 / 2 / 65 / / 'तस्य तुल्ये कः' (7 / 1 / 108) इति कः, काकतालुकं म० वृ०-धर्म शील वर्ण इत्यन्तान्मत्वर्थे' 'इन्नेव' लाञ्छनविशेषोऽस्या अस्ति-काकतालुकी। पुष्पाणि 'स्यात् / मुनिधर्मी, यतिशीली, ब्राह्मणवर्णी // 65 // च फलानि च पुष्पफलान्यस्य सन्ति / काकताल्विव अशुभं लाछनम् तदस्या अस्तीति काकतालुमती।६०। अव-ब्राह्मणस्य वर्णो जातिरस्यास्ति ब्राह्मणवाता-ऽतीसार-पिशाचात् कश्चान्तः !7 / 2 / 61!! वर्णी / / 65 / / म० वृ०-एभ्यो मत्वर्थे 'इन् कश्चान्तः' स्यात् / ____ बाहूर्वादेर्बलात् / / 7 / 2 / 66 // वातकी, अतीसारकी, अतिसारकीत्यपि, पिशाचकी मवृ०-बाहूरुपूर्वाद् बलान्तानाम्नो मत्वर्थे धनदः // 6 // 'इन्नेव' स्यात् / बाहुबली, ऊरुबली // 66 // अव०-१अतीसारकी, अतिसारकी; अत्र 'घन्यु- मन्माब्जादेर्नाम्नि // 7 // 2.67 // पसर्गस्य बहुलम् ' (3 / 2 / 86) इति विकल्पेन दीर्घः, म. वृ०-मन्नन्तेभ्यो मान्तेभ्योऽब्जादिभ्यश्च अथ "एकदेशविकृतमनन्यवद्" इति न्यायात् अति मत्वर्थे 'इन्नेव' स्यात् , नाम्नि' / मन्नन्त, दामिनी, सारकीत्यपि, अत्रापीन् // 61 // सामिनी, प्रथिमिनी, महिमिनी। मान्त,-कर्मिणी ___ पूरणाद्वयसि // 7 / 2 / 62 // "प्रथमिनी, कामिनी, भामिनी, सोमिनी / म० वृ०-पूरणप्रत्ययान्ताद्वयसि गम्यमाने अब्जादि,-अब्जिनी, कमलिनी,१० सरोजिनी, मत्वर्थे'इन्नेव'स्यात् ,न तु कः / पञ्चमी बालकः // 62 // अम्भोजिनी, ११राजीविनी, अरविन्दिनी, पङ्कजिनी, पुटकिनी, १२मृणालिनी, विसिनी, यवासिनी / प्रव०-'पञ्चमो मासः संवत्सरो वाऽस्यास्ति नाम्नीति किम् ? सोमवान् , सामवान् , अजवान इति पञ्चमी // 2 // // 67 // Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446 ] श्रीसिअहेमशब्दानुशासनं [म० 7 पा० 2 सू० 68-72 प्रव०-'समुदायश्चेत्कश्चिद् (? कस्यचिद् ) | शूद्रो ब्रह्म चरति इति अभिप्रायः। त्रिषु वर्णेषु नाम भवति इत्यर्थः / २दामास्यास्तीति दामिनी। | भवः त्रैवर्णिकः, अध्यात्मादिभ्य इकण'(६।३।७८), पृथोर्भावः प्रथिमा, 'पृथ्वादेरिमन्या' (7158) | विधानसामर्थ्यात् [द्विगोरनपत्ये'० (6 / 1 / 24) इमन् , 'पृथुमृदुभृशकृशदृढपरिवृढस्य भृतो रः' (7 / / इत्यनेनेकणो] न लुप् , 'प्रयोजनम्' (6 / 4 / 117) 439) / "महतो भावो महिमिनी (? महिमन ), | इति वा इकण , अस्य च प्राग्जितीयत्वाभावात् पृथ्वादिभ्य इमन् , महिमास्यास्तीति महिमिनी , | न 'द्विगोरनपत्ये'० (6 / 1 / 24) इति लुप् // 69 / / इन् / 'प्रथमं वयोऽस्या अस्ति-प्रथमिनी। 'कामो- 'पुष्करादेर्देशे // 7 / 270 // ऽस्या अस्तीति कामिनी। भामः क्रोधोऽस्या अस्ति म.वृ०-पुष्करादिभ्य'इन्'स्यात् देशेऽभिधेये। भामिनी / म्यामोऽस्यामस्तीति यामिनीत्यपि / पुष्करिणी, पद्मिनी। देश इति किम् ? पुष्करवान् 'अब्जिनी इत्यादयः शब्दाः सर्वेऽपि कमलिनीवा हस्ती / “कथं कुमुद्रती सरसी, कुमुद्वान् ह्रदः; चकाः, यवासिनीशब्दस्तु औषधिविशेषे वर्तते / नड्वान् , 'नवलमिति ?'नडकुमुद'० (6 / 2 / 74) / सरोरुहिणोत्यपि। 'राजोऽस्यास्तीति राजीवम् , इत्यादिना चातुरर्थिकेन मतुना भविष्यत्ति |70|| 'मण्यादिभ्यः' (72 / 44) इति सूत्रेण वप्रत्ययः, राजीवमस्या अस्ति-राजीविनी। १२नालीकिनी , प्रव०-पुष्कर आदिर्यस्य / पुष्कर, पद्म, तामरसिनीत्यपि / यवासशब्दोऽब्जादौ पुष्करादौ उत्पल, तमाल, कुमुद, कैरव, नड, नल, कपित्थ, चाधीतस्तत्र देशे वाच्ये 'पुष्करादेः'० ( 7 / 2 / 70 ) बिस, मृणाल, कर्दम, शालूक, विवई, करीष, इति सूत्रं प्रवर्त्तते, औषधत्वे तु 'मन्माब्जादे'० (7) शिरीष, यवास, यवाष, यव, मास, हिरण्य, तट, तरङ्ग, कल्लोल इति पुष्करादिगणः / 'पुष्करपद्मो 2 / 67) इदं प्रवर्तते // 6 // देशविशेषौ / करिकराग्रं पुष्करः। 'कुमुद नड इति हस्त-दन्त-कराजातौ // 7 / 2 / 68 // देशी, अत्रापि इन् प्राप्नोति इति पराशयः / 'नडम. वृ०-एभ्य ‘इन्नेव' स्यात् , 'जातावर्थे / कुमुद'० (6 / 2 / 74) इत्यनेन मतुः / 'नड्वलरहस्ती, उदन्ती, करी / जाताविति किम् ? हस्त मित्यत्र 'नडशादाद्वलः' (6 / 2275) // 70 // वान् , दन्तवान् करवान्नरः // 68 / / सूक्त-साम्नोरीयः / / 7 / 2 / 71 / / प्रव०-'समुदायेनचेज्जातिरभिधीयते। हस्तो- म० वृ०-सूक्त साम्नि चाभिधेये मत्वर्थे ऽस्यास्ति हस्ती। उदन्तावस्य स्तः दन्ती। करोऽ- | 'ईयः' स्यात् / मत्वादीनामपवादः / सूक्तसाम्नी स्यास्ति=करी // 68 / / ग्रन्थविशेषौ / सूक्ते,-'मैत्रावरुणीयम् / साम्नि,वर्णाद् ब्रह्मचारिणि / / 7 / 2 / 69 // वारतन्तवीयम् // 71 / / म० वृ०-वर्णशब्दान्मत्वर्थे 'इन्' स्यात् , प्रव०-'मैत्रावरुणशब्दोऽत्र सूक्तेऽस्ति इति ब्रह्मचारी चेदभिधेयो भवति / वर्णशब्दो ब्रह्मचर्य मैत्रावरुणीयम् / / 71 / / पर्यायः। वर्णो ब्रह्मचर्यमस्यास्तीति वर्णी, ब्रह्मचा लुब्वा-ऽध्याया-ऽनुवाके // 7 / 2 / 72 // रीत्यर्थः / ब्रह्मचारिणीति किम् ? वर्णवान् // 69 // म०७०-अध्यायानुवाकौ ग्रन्थविशेषौ / अध्या येऽनुवाके चाभिधेये मत्वर्थे य ईयस्तस्य 'वा अव०-अन्ये तु वदन्ति वर्णशब्दो ब्राह्मणादि- लुप्' स्यात् / अत एव लुब्वचनादध्यायानुवाकयोवर्णवचनः, तत्र ब्रह्मचारीत्यनेन शू द्रव्यवच्छेदः / रीयोऽनुमीयते / उद्रमपुष्पः,द्रुमपुष्पीयः ,स्तम्भः, क्रियते इति मन्यन्ते, तेन त्रैवर्णिको वर्णीत्युच्यते / / स्तम्भीयः ; पलितः, पलितीयः; पलितस्तम्भः,पलि. स हि वर्णी विद्याग्रहणार्थमुपनीतो ब्रह्म आचरति, न | तस्तम्भीयः; दीर्घजीवितः, दीर्घजीवितीयः // 72 // Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकारााधिकारः] ___ मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम्। [447 ___ अव०-'अध्यायानुवाकयोरर्थान्तरत्वात पूर्वेण | स चेत् प्रकारो भवति / सामान्यस्य [पुरुषरूपस्य] ईयो न प्राप्नोतीत्याह- अत एव लुब्बचनादिति / भिद्यमानस्य [पटुजडादिभेदेन विशिष्यमाणस्य] दुमपुष्पशब्दोऽस्मिन्नध्यायेऽनुवाके वा शास्त्रऽस्या- | यो विशेषोर विशेषान्तरानुप्रवृत्तः स प्रकार उच्यते / स्तीति दुमपुष्पीयः / यत्र ईयलोपन्तत्र द्रुमपुष्पः / / पटुः प्रकारोऽस्य-पटुजातीयः, उमृदुजातीयः / इति प्रयोगः / एवं स्तम्भः, स्तम्भीयः; पलितः, 4 यज्जातीयः , नानाजातीयः , एवंजातीयः / पलितीयः ; दीर्घजीवितः,दीर्घजीवितीयः इति सर्वत्र अस्येति षष्ठ्यर्थे विधानात् प्रकारवति शब्देऽपि वाक्यरचना कर्त्तव्या / तथा अनुवाक इत्यत्र जातीयर विज्ञायते / ततः प्रकारमात्रभाविथाथअनुब्रवीतीति अनुवाकः, अच् , 'न्यङ्गमेघादयः' / मन्तशब्दादपि जातीयर् भवति,-"यथाजातीयः, (४।१।११२)इति निपातः,अनुवाक इति सिद्धिः / 72 / कथंजातीयः, 'इत्थंजातीयः / रित्करणं 'रिति' विमुक्तादेरण / / 7 / 2 / 73 // (3 / 2 / 58) इत्यत्र विशेषणार्थम् // 7 // म. वृ०-विमुक्तादिभ्यो मत्वर्थेऽध्यायानुवा- ___ अव०-तदस्य'० (7 / 2 / 1) इति सूत्रात्तदस्य कार्थे ऽण्' स्यात् / 'वैमुक्तः दैवासुरः, // 73 / / इत्येवानुवर्तते, नास्मिन्नस्तीति / सोऽपि विशेषान्तरानुप्रवृत्तः पटुतरादिविशेषानुयायी इत्यप्रव०-'विमुक्तः शब्दोऽस्मिन्नध्यायेऽनुवा नेन पृथ्व्यादेः प्रकारत्वनिषेधः / तत्र हि विशे. केऽस्ति इति वैर्मुक्तः / देवासुरः शब्दोऽस्मिन्न षान्तरानुप्रवृत्तत्वं नास्ति / तथाहि सामान्यस्य ध्याये अनुवाके वास्तीति दैवासुरः। विमुक्त,देवासुर, द्रव्यस्य पृथ्व्यादिभिर्नवभिर्भदैर्भिद्यमानस्य यो रक्षोसुर, उपमद, परिसारक, वसु, मरुत , सत्वत् ; विशेषः पृथ्व्यादिः स विशेषान्तरानुप्रवृत्तो सत्वन्तु, दर्शाह (? दशाह),वयस् ,हविर्धान,महित्री, नास्तीति / मृदुः प्रकारोऽस्य-मृदुजातीयः / सोमापूषन , इडा, इला, अग्नाविष्णु, उर्वशी, यत्प्रकारोऽस्य-यजातीयः नानाभूतः५ प्रकादशार्ण, वसुमन्तु, पत्नीवन्तु, वर्हवन्तु, वृत्रहन , गेऽस्य-नानाजातीयः एवं प्रकारोऽस्य एवंजातीयः। पतत्रिन , सुपर्ण इति विमुक्तादिगणः // 73 / / "यथाभूतः प्रकारोऽस्य यथाजातीयः / (एवम् ) तथा. घोषदादेरकः // 7 / 2 / 74 // भूतः प्रकारोऽस्य तथाजातीयः / कथं भूतः प्रका. म० ०-घोषत् इत्यादिभ्यो मत्वर्थेऽध्याया रोऽस्प-कथंजातीयः / 'इत्थंभूतः प्रकारोऽस्यनुवाकार्थे 'ऽकः' स्यात् / घोषदकः / इति मत्वर्थे इत्थंजातीयः / / 75 / / . मत्यादयः प्रत्ययाः सम्पूर्णाः // 74 // कोऽण्वादेः / / 7 / 2 / 76 / / म० वृ०-अणु इत्यादिभ्यस्तदस्य प्रकारेऽर्थे प्रव०-घोषद्, गोषद्, इत्वेषा, इषेत्वा, मात | 'कः' स्यात् / जातीयरोऽपवादः / अणुकः पटः, रिश्वन , देवस्यत्वा, पत्ता, देवीराप, कृष्णोस्य, स्थूलकः पटः / / 6 / / खरेष्ठा, देविंधीया, रक्षोहण, अञ्जन, प्रतूत, उशान, कृशानु, सहस्रशीर्षन् , वाचस्पति, स्वाहा, प्राण इति घोषदादिगणः / 'घोषत् इति शब्दोऽत्रा प्रव०-अणुः प्रकारोऽस्य पटस्य अणुकः / ध्यायानुवाके इति घोषदकः // 4 // स्थूलः प्रकारोऽस्य-स्थूलकः / एवमणुका माषाः, अणुः प्रकार एषां माषाणामिति वाक्यम् / माषकं प्रकारे जातीयर् // 7 / 275 / / हिरण्यम् , पश्चगुञ्जा माष इत्युच्यते, माषः प्रकाम० वृ०-'तदस्येति वर्तते, तदिति प्रथमा- | रोऽस्य-माषकं हिरण्यम् / इषुः प्रकारो यस्याः सा न्तादस्येति षष्ठ्यर्थे 'जातीयर्' स्यात् , यत्प्रथमान्तं / इषुका गोलिका,इषुवत्-शरवत् धनुषा या क्षिप्यते। Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०७ पा० 2 सू० 77-81 अणु, स्थूल, माष, इषु, इक्षु, वाद्य, तिल, काल, | नेन पुंवद्भावः / भूतपूर्वा दर्शनीया / 'भूतपूर्वे तिलकाल, पत्र, मूल, कुमारीपुत्र, कुमारी, श्वशुर, प्चरट्' इति सूत्रेऽयं विशेषो लिख्यते,-भूतशब्दो मणि, वृहत् , चश्चत् , चन्द्र, परण्ड, पुण्ड्र इति न केवलमतीते, वर्तमानेऽप्यस्ति ; पूर्वशब्दो दिगाअण्वादिगणः / / 76 // दावपि वर्त्तते इति अतिक्रान्तकालप्रतिपत्त्यर्थमुभ योर्भतशब्दपूर्वशब्दयोरुपादानं कृतम। प्रत्यासत्तेः जीर्ण-गोमुत्रा-ऽवदात-सुरायव-कृष्णाच्छाल्याच्छा शब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्य भूतपूर्वत्वेऽयं प्रत्ययो भवति दन-सुरा-हि-बीहि-तिले / / 7 / 2 / 77 / / / इति इह न पचरट , अर्जुनो महिष्मत्यां भूतपूर्व म० वृ०-जीर्णादिभ्यो यथासंख्यं शाल्यादिषु इति / अत्र हि अर्जुनत्वस्याऽर्जुनशब्दाभिधेयस्य न वाच्येषु तदस्य प्रकारविषये 'कः' स्यात् / जीर्णाच्छा- भूतपूर्वत्वम् , नहि अर्जुनो माहिष्मत्यामर्जुनत्वेन लिषु, जीर्णः प्रकार एषां जीर्णकाः शालयः / गोमु- भूतपूर्वः, किन्तु राजत्वेन इत्यर्थः / / 7 / / त्रादाच्छादने,-'गोमुत्रकम् , गोमुत्रवर्णमाच्छाद गोष्ठादीनञ् // 7 / 279 // नमित्यर्थः / अवदातात्सुरायाम् ,-अवदातिकासुरा। सुराया अहौ,- [सुरा प्रकारोऽस्य=] सुरकोऽहिः, म० वृ०-गोष्ठाद् भूतपूर्वत्वे 'ईनन्' स्यात् / सुरावर्णः इत्यर्थः / यवात् ब्रीहिषु.-यवाः प्रकारा / गोष्ठो भूतपूर्वो गोष्ठीनो देशः // 79 // येषां=] यवका ब्रीहयः। कृष्णात्तिलेषु,-[कृष्णाः षष्ठ्या रूप्य-प्चरट / / 7 / 2 / 80 // प्रकारा एषाम्=] कृष्णकास्तिलाः / / 77|| म००-षष्ठ्यन्तानाम्नो भूतपूर्वे 'रूप्यप्चरटौं' प्रव०-गोमुत्रं प्रकारोऽस्य / अबदातः / भवतः / मैत्रस्य भूतपूर्वो-मैत्ररूप्यः,[देवदत्तरूप्यः] : प्रकारोऽस्य ||77 // मैत्रचरो गौः, मैत्रचरी [देवदत्तचरी // 8 // भूतपूर्वे प्चरट / / 7 / 2 / 78|| 'व्याश्रये तसुः / / 7 / 2181 // म० वृ०-अतः परं प्रायः स्वार्थिकाः प्रत्ययाः। म० वृ०-नानापक्षाश्रयो व्याश्रयः / [नाम्नः] षष्ठ्यतत्र [स्वार्थिकेषु प्रत्ययेषु] 'उपाधिः प्रकृतेर्विज्ञा न्तात् व्याश्रये गम्यमाने 'तसुः' स्यात् / देवा यते, स (उपाधिः) प्रत्ययस्य द्योत्यो भवति / अर्जुनतोऽभवन् , आदित्यः कर्णतोऽभवत् , यत्तोभूतपूर्वेऽर्थे वर्तमानान्नाम्नः स्वार्थे प्चरट्' स्यात् / ऽभवत् [यस्य पक्षे इत्यर्थः], 'तत्तोऽभवत् [तस्य भूतपूर्व आढ्यः आठ्यचरः / टकारो ड्यर्थः / पक्षे इत्यर्थः], त्वत्तः [तव पक्षे], मत्तोऽभवत् [मम *पकारः पुंवद्भावार्थः / भूतपूर्वा आठ्या आठ्य पक्षे] / / 81 // ५चरी, दर्शनीयचरी |7|| प्रव०-'व्याश्रयणं व्याश्रयः, 'युवर्ण' (5/ अव०-'उपाधिर्विशेषणं भूतपूर्वादि प्रकृतेरेव 3 / 28) इत्यल् / २तसु इत्यत्र उकारः 'अधणतस्वासकाशादवसीयते, केवलं स उपाधिः प्रत्ययेन द्यो- द्याशसः' (1 / 1 / 32) इत्यत्र विशेषणार्थः / अर्जुनत्यते, न तु उच्यते। पूर्व भूतो-भूतपूर्वः, ततो कर्णयोर्विवदमानयोः कोऽर्थः ? युध्यमानयोः देवा भूतपूर्व आढ्य इति वाक्यम् / / एवं दर्शनीयचरः, अर्जुनतोऽभवन् कोऽर्थः ? देवा अर्जुनस्य पक्षे बभूवुः / भूतपूर्वो दर्शनीयो=दर्शनीयचरः / “चरट् इत्यत्र ४आदित्यः कर्णतः, कोऽर्थः ? कर्णस्य पक्षे सूर्योऽ- . पकारः क्यङमानिपित्तद्धिते' (3 / 2 / 50) इत्यत्र भवत् इति व्याश्रयत्वं भावनीयम् / 'यत्तः, 'तत्तः; विशेषणार्थः पुंवद्भावे कर्तव्ये / 'आठ्यचरी दर्शनी- | अत्र तसुप्रत्ययस्य उकारानुबन्धत्वात् आद्वेरः' यचरी, इत्यत्र 'क्यङ्मानिपित्तद्धिते' इत्य-- ] (2 / 1 / 41) इत्यनेन अकारो न प्राप्नोति, 'आवरः' Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तसुप्रत्ययाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / इति सूत्रस्य) वृत्तौ हि तसादौ प्रत्यये इत्युक्तम् , | नादयं पञ्चम्यर्थोऽन्य एव मन्तव्यः, अपादाने न तस्वादौ / चतुष्क( वृत्ति )सूत्रेषु आये | वाक्ये हि 'अहीयरुहो' (7 / 2 / 88) इत्यनेन पादे अधणनम्वाद्या शसः' (1 / 1 / 32) इति सूत्रमस्ति, सिध्यति प्रत्ययः / प्रमाणेन प्रमाणाद्वा=प्रमाणतः / तत्रायमर्थः- तस्याद्याः शस्पर्यन्ताः धण्यर्जिताः ये एवं पूर्वतः, इतः, अस्मात् अस्मिन् वा इतः ; पृष्ठेन तद्धितप्रत्ययाः तेऽव्ययसंज्ञा भवन्ति, इति 'व्याश्रये पृष्ठतोऽक सेवेत / एवं पार्श्वतः, * अनेन इतः, तसुः' (7 / 2 / 81) इति सूत्रात् तस्वाद्याः प्रत्यया दुष्टः शब्दः स्वरतो वर्णतो वा, स्वरेण स्वरतः, दश्यन्ते / 'व्याश्रये तसुः इति सूत्रादारभ्य ये तस्वा वर्णेन वर्णतः, तथा शब्दतः, अर्थतः, अभिधानतः, दयः प्रत्ययाः शस्पर्यन्ता विधास्यन्ते तेषु प्रत्ययेषु येन यस्मिन् वा यतः, तेन तस्मिन् वा ततः, पृषोविहितेषु सर्वत्र स्यादयो विभक्तयोऽने दीयन्ते , दरादित्वात् दकारलोपः / इति आद्यादिगणे इमे 'अव्ययस्य' (3217) इत्यनेन स्यादिविभक्त - विशेषप्रयोगा ज्ञेयाः // 84 // र्लोपः कार्यः इति ज्ञातव्यम् / / 8 / / क्षेपातिग्रहाव्यथेष्वकर्तुस्तृतीयाया:।।७।२।८५।। रोगात्प्रतीकारे / / 7 / 2 / 82 // म० वृ०-तृतीयान्तादकर्तृवाचिनः क्षेपातिप्र- ' म० वृ०-रोगवाचिनः षष्ठ्यन्तात्प्रतीकारे गम्य. .हाव्यथाविषये 'तसुः' स्यात् / प्रवृत्ततः क्षिप्तः / माने 'तसुः' स्यात् / 'प्रवाहिकातः कुरु, अस्य / वृत्ततोऽतिगृह्यते। वृत्ततो न व्यथते / अकर्तरिति रोगस्य चिकित्सां कुर्वित्यर्थः / / 82 // किम् ? चैत्रेण क्षिप्तः / तृतीयाया इति किम् ? चैत्र क्षिपति / / 85 // प्रव-प्रवहणं प्रवाहिका, अथवा प्रौद्यतेऽनया इति प्रवाहिका, 'नाम्नि पुंसि च'(५।३।१२१) णकः प्रव०-क्षेपो निन्दा, क्षेपेऽर्थे तसुर्भवति, यथा // 82 // वृत्तेन क्षिप्तः इति वाक्यं (? वाक्ये) वृत्ततः क्षिप्तः, वृत्तेन आचारेण निन्दित इत्यर्थः 1 / भतिक्रम्य पर्यभेः सर्वोभये // 7 / 2 / 83 // ग्रहणमतिग्रहः, वृत्तेनातिगृह्यते वृत्ततः गृह्यते, साधु- . म. वृ०-पर्यभिभ्यां यथाक्रमं सर्वोभयार्थे | वृत्तोऽन्यानतिक्रम्य वृत्तेन गृह्यते, साध्वाचार इति * वर्तमानाभ्यां 'तसुः' स्यात् / परितः, सर्वत इत्यर्थः।। सम्भाव्यते इत्यर्थः ; अथवा अतिशयेन ग्रहणमति अभितः, उभयत इत्यर्थः [परित इत्यत्र सर्वस्मात् / ग्रह उच्यते, वृत्ततोऽतिगृह्यते, अतिशयेन गृह्यते परित इति वाक्यम् ,अभित इत्यत्र उभयस्मात् अभित इत्यर्थः 2 / अचलनमक्षोभणं वा अभीतिर्वा इति वाक्यं कर्तव्यम् ] सर्वोभय इति किम् ? वृक्षं अव्यथा उच्यते, वृत्तेन न व्यथते वृत्ततो न परि, वृक्षमभि // 8 // व्यथते, कोऽर्थः ? वृत्तेन न चलति न क्षोभते न आधादिभ्यः / / 7 / 2 / 84 // बिभेतीत्यर्थः 3 / / 85 / / म० वृ०-आद्यादिभ्यः सम्भवद्विभक्त्यन्तेभ्यः पाप-हीयमानेन // 7 / 2 / 86 // 'तसुः' स्यात् / आदौ आदेर्वा आदितः, एवं म० वृ०-अकर्तृवाचिनस्तृतीयान्तात् पापही. [मध्ये मध्याद्वा] मध्यतः, अन्ततः, अग्रतः पार्वतः, यमानाभ्यां योगे 'तसुः' स्यात् / वृत्तेन पापः= पृष्ठतः, मुखतः, सर्वतः, उभयतः, अन्यतः, एकतः, वृत्ततः पापः / वृत्तेन हीयते-वृत्ततो हीयते, एवं प्रमाणतः / आद्यादयः प्रयोगगम्याः / / 84|| [स्वरेण=] स्वरतो 'वर्णतः शब्दतो वा हीनः / पापहीयमानेनेति किम् ? चारित्रेण शुद्धः / अकते. प्रव०-'आदेर्वा आदितः इति वाक्येऽपादा- | रित्येव- चैत्रेण हीयते // 86 // Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०७ पा० 2 सू० 87-89 प्रव०-वर्णेन-जात्या / 'शब्देन / * क्षेपार्थः / गतौ' इत्यस्य व्युदासार्थः निराकरणार्थः कृतः / स्याविवक्षायां तत्त्वाख्याने, कोऽर्थः ? स्वरूपमात्रक- | तेन तत्र भोहाक् इति धातुप्रयोगे निषेधो न थने यथास्यात्तसुरिति 'पापहीयमानेन' इति वचनं / भवति, भूमित उज्जिहीते, उत्तिष्ठतीत्यर्थः / हाक कृतम् // 86 // इति निर्देशेनैव हांडो निवृत्तिसिद्धौ हीयतेनिर्देशो प्रतिना पञ्चम्याः // 7 / 2 / 87 // यत्रैव भावे वा कर्मणि वा कर्मकर्तरि च जहातेः म० वृ०-प्रतिना योगे या पञ्चमी' विहिता प्रयोगः तत्रैवाऽपायविवक्षा, तत्रैव तसुर्भवति, नान्यतदन्तात् 'तसुर्वा' स्यात् / अभिमन्युरर्जुनात्प्रति= त्रेत्येवमर्थम् / तेन सार्थो जहाति इति वक्तव्ये अभिरर्जुनतः प्रति, अर्जुनस्य प्रतिनिधिरित्यर्थः सार्थाज्जहातीति प्रयोगो न भवतीत्यर्थः / “सार्था द्धीयते' इत्यादि, सार्थादिति कतरपाये सति, [सदृश इत्यर्थः] / पञ्चम्या इति किम् ? घृक्षं प्रति विद्योतते // 8 // *अपाये कोऽर्थः ? य एव कर्ता स एवापायविषयः, तस्मिन्नपाये सति अवधिविवक्षा भवति, सार्थेन हीयते देवदत्त इत्यर्थः / हीयते इति कर्मकर्तरीत्यप्रव०-'यतः प्रतिनिधि प्रतिदाने प्रतिना' न्ये / सार्थात् स्वयमेव हीयते देवदत्तः / जहाति (2 / 2 / 72) इति सूत्रेण प्रतिना योगे पञ्चमी सार्थो देवदत्तम् , स एवं विवक्षात नाहं जहामि भवति / तद्धितप्रथमपादे 'वाद्यात् ' (6 / 1 / 11) किन्तु सार्थात् स्वयमेव देवदत्तो हीयते इत्यर्थः / इति सूत्रमुक्तम् , तस्मादधिकारवशात् 'प्रतिना ४ऋते धर्मादित्यत्र 'ऋते द्वितीया च' (2 / 2 / 114) पञ्चम्या' अत्र सूत्रे वा इत्युक्त सूत्रार्थे / एवं इति पञ्चमी / / 88|| माषानस्मै तिलेभ्यः प्रतियच्छति=तिलतः प्रतियच्छति, तिलान् गृहीत्वा माषान् ददातीत्यर्थः / किमद्वयादिसर्वाद्यवैपुल्यबहोः पित्तस् / / 7 / 2 / 89 // अत्रापि 'यतः प्रतिनिधि० (2 / 2 / 72) इत्यनेन म०७०-पश्चम्या इति वर्तते / किम्शब्दात् द्वयापञ्चमी / / 87 // दिवर्जितेभ्यः सर्वादिभ्यश्च अवैपुल्यवाचिनो बहुअहीयरुहोऽपादाने // 7 / 2 / 88 // शब्दाच्च पञ्चम्यन्तात् 'तस्' स्यात् , स च पित् / म० वृ०-['पञ्चम्यपादाने' (2 / 2 / 69) किम् ,-कस्मात्=कुतः ['इतोऽतः कुतः' (72 / 90) इति सूत्रेण] अपादाने या पञ्चमी तदन्तात्'तसुर्वा'' इति कुतः]। सर्वादि, सर्वतः, विश्वतः, यतः, ततः स्यात् , तच्चेदपादानंहीयरुहोः सम्बधि न भवति। ['आद्वेरः' (2 / 1 / 41) इति अकारः] / बहु,प्रामादायाति प्रामतः आयाति, चौरात्-चौरतो बहुभ्यो बहुतः / किमः सर्वादित्वेऽपि द्वयादिवर्ज बिभेति / अहीयरुह इति किम् ? सार्थाद्धीयते, नान्न [तस्, प्राप्नुयादिति पृथगुपादानम / द्रया दिवर्जनं किम? द्वाभ्याम, वन, मन, युष्मत, सार्थाद्धीनः, गिरेरवरोहति। अपादान इति किम् ? ऋते धर्मात् कुतः सुखम् , आ पाटलिपुत्रात् वृष्टो अस्मत् , भवत् / कथं द्वितः, त्वत्तः, मत्तः, युष्मत्तः, देवः / / 88 // अस्मत्तः ? 'अहीयरुहोऽपादाने' (7 / 2688) इति [तस् भविष्यति] / बहोर्वैपुल्यप्रतिषेधः किम् ? प्रव०-"वाऽऽद्यात्' (6 / 1 / 11) इतोऽयं वा बहोः सूपात् / किम्सर्वादिबहोश्च तसुप्रत्ययविषयेइत्यधिकारः / तथा 2 'हीय' इति क्यान्तस्य जहातेः / ऽपि परत्वादयमेव तस् भवति, यतः प्रति, यत 'ओहांक त्यागे' इत्यस्य निर्देशो जिहीतेः 'ओहांङ्क / आयाति / निरनुबन्धप्रत्ययान्तरकरणमत्वार्थम् / . * पापहीयमानाम्यां क्षेपस्य प्रतीयमानत्वात् पूर्वेणैव सिद्धयतीत्याह-क्षेपार्थस्याविवक्षयामित्यादि / *'अपाये' इत्ययं पाठोऽधिक: प्रतिभाति / Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्प्रत्ययार्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [451 .पित्करणम पुंवद्भावार्थम् / बह्वीभ्यो="बहुतः। / आद्यादितसौ-"इत आस्यतामिति भवति // 10 // पञ्चम्यन्तमात्रादयं विधिः,- 'सर्वतो हेतोः, ५°सर्वतः पूर्वम् // 89|| अव०-'इदम , अस्मात् (=इतः), किमद्वयादिना' (७।२।८९)तस् ,निपातनात इदमःस्थाने इस्सर्वादेशः, इमकम्मात् इतः, सर्व पूर्ववत् / २एतद्, एतस्मात् प्रव०-'बहुशब्दो नाममालायां "प्राज्यं प्रभूतं (अतः), अकि तु एतकस्मात् अतः, तस् , निपातप्रचुरं बहुलं बहु पुष्कलम्" इति बहुलार्थवाची, नात् एतद्स्थाने अः / किम् , कस्मात् कुतः, तस् , "पृथूरु पृथुलं व्यूढं. विकटं विपुलं बृहत् / / निपातनात किमः स्थाने कुः / इह 'पञ्चम्या' इति स्फारं वरिष्ठं विस्तीर्ण, तत बहु महद् गुरु // 1 // / नानुवर्तते / ४'भवत्वायुष्मत्०' (72 / 91) इत्यइति विपुलार्थवाची। अनेकार्थे तु बहु भूयसि व्यादि - नेनापि तस्प्रत्यये कृते इतः अतः इति प्रयोगा कासु च सङ्ख्यासु' इति / किमद्वयादि०' (7 / 2 / 89) / भवन्ति / अयं भवान् इति वाक्यम् , इतो भवान् इति सूत्रे बहुलार्थवाची व्यादिसङ्ख्यावाची च बहुर्ता- | उदाहरणम् / एष भवान् इति वाक्यम् , अतो तव्यः, ततस्तस् , विपुलार्थवाची बहुज्यते इति / भवान् उदाहरणम् / " तथा इदम् , अस्मिन् इतः, भावः / न पूर्वोक्ततसुः / प्रतिना पञ्चम्याः' (7 / 2 / 87) इति तसोः प्राप्तिः / अपादानपञ्चमी, अत्र / 'आद्यादिभ्यः' (72 / 84) इति तसुप्रत्ययेऽपि कृते 'किमद्वयादि' इति सूत्रं प्रवर्त्तते इत्यर्थः, 'अहीयरुहो | इतः इति सिद्धम् / / 90 // ऽपादने' (72 / 88) इति तसोः प्राप्तिः / ५प्राक्तन- भवत्वायुष्मद्दीघायुर्देवानांप्रियैकार्थात् // 7 / 2 / 91 // म्तसु: उकारानुबन्धः सानुबन्धोऽस्ति, अस्य पुन- म. वृ०-भवत्वाधैस्तुल्याधिकरणात्२ किमस्तस् इति निरनुबन्धस्य प्रत्ययान्तरस्य करण- | द्वयादिसवाद्यवैपुल्यबहोः सवविभक्त्यन्तात् पित्तस् मत्वार्थम् / अस्मिन् तस्प्रत्यये 'आद्वेरः' (2 / 1141) वा स्यात् / [वाऽऽद्यात्(६।१।११) इत्यतो वाऽनुवृत्तिः] इत्यनेन 'अत्' भवति; न तसुप्रत्यये / तत्र हि स भवान् , ततो भवान् [अत्र तस् ]; तौ भवन्तौ, 'आद्वेरः' (2 / 1141) इति सूत्रे तसादौ इत्युक्तम् / ततो भवन्तौ ; ते भवन्तः, ततो भवन्तः ; एवं तं ६'क्यङ्मानिपित्तद्धिते' (3 / 2 / 50) इत्यत्र विशेष- भवन्तम् , ततो भवन्तम् ; तेन भवता, ततो भवता; •णार्थः / ? र्थम् ) / क्यङ्मानि०'(३।२।५०) इत्य- एवमयं भवान् , इतो भवान् ; को भवान् कुतो नेन पुंवद्भावः / न तु अपादान एव विहितात् भवान् इत्याधुदाहार्यम् / स आयुष्मान् , तत पञ्चम्यन्तात् शब्दात् / 'सर्वतो हेतोः' इत्यत्र 'सर्वादेः आयुष्मान् ; स दीर्घायुः, ततो दीर्घायुः ; स देवानांसर्वाः' (2 / 2 / 119) इति पञ्चमी। 10 सर्वतः पूर्वम्', प्रियः, ततो देवानांप्रियः / भवतु (इति)अत्र उकारः अत्र तु 'प्रभृत्यन्यार्थदिकशब्दबहिरारादितरैः' (2 / 2 / सर्वादिपरिग्रहार्थम् [सर्वादिगणवर्ती भवतु इति 75) इति सूत्रेण पञ्चम्यां सत्यां तस् भवती- ग्राह्यः] / तेन मतु-'शत्रन्तव्युदासः / / 11 / / त्यर्थः / / 89 / / अव०- एकार्थान् इति कोऽर्थः ? तुल्याधिइतो-ऽतः-कुतः // 7 / 2 / 90 // करणात् ,समानाधिकरणात् पर्यायो (?इति यावत्)। म. वृ०-इतस् अतस् कुतस् एते शब्दा | भवतु, आयुष्मत् , दीर्घायुस, देवानांप्रिय इति निपात्यन्ते / 'इतः, अतः, उकुतः / लक्षणान्तरेण | शब्दैः सह समानाधिकरणात् इत्यर्थः / (एवम्) तसि तसौ वा सिद्धे आदेशमात्रं विधीयते / तेनो- तस्मै भवते, ततो भवते; तस्मात् भवतः, ततो त्तरसूत्रेण तसि- ५इतो भवान् , अतो भवान् , | भवतः ; तस्य भवतः, ततो भवतः इति प्रयोगाः / अभि0 चिन्ता० श्लो० 1425 / अभि0 चिन्ता0 श्लो० 1430 / Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452 ] श्रीसिद्धहेमशब्दामुशासनं [अ०७ पा० 2 सू० 92-96 सप्तमीति तामत्र त्रपकरणात् (?) / भं नक्षत्र- | ऽकारः, अत्र इति सिद्धम् / उइदम् , अस्मिन्-इह, मत्रास्ति-भवत् , मतुः, 'मावर्णान्त'० (2 / 1 / 94) त्रप , निपातनात् इदमः इकारः, त्रपः स्थाने हः, तथा इति मस्य वः / 5 भातीति भवत् , शतृः / / 91 // इदमकस्मिनिह / एषु 'सप्तम्या.' (7 / 2 / 94) प् / त्रप च // 7 / 2 / 92 // त्रपमात्रे चैते क कु इत्यादय आदेशा विधीयन्ते / तेन भवदादियोगेऽपि कादय आदेशा भवन्ति, म० वृ०-भवत्वाद्यैरेकार्थेभ्यः किमद्वयादिभ्य- | तथाहि-क भवान् , कुत्र भवान् , अत्र भवान , इह श्च सर्वविभक्त्यन्तेभ्यः 'त्रप्' वा स्यात् / ['वाद्यात्' / भवान् ; क्कायुष्मान् , कुत्रायुष्मान, अत्रायुष्मान् , इत्यतो वा अनुवृतिः] स भवान् , तत्र भवान् ; तौ इहायुष्मान् , क दीर्घायुः, कुत्र दीर्घायुः,अत्र दीर्घायुः, भवन्तौ, तत्र भवन्तौ; ते भवन्तः, तत्र भवन्तः / इह दीर्घायुः / एषु 'त्रप च' (7 / 2 / 92) इति सूत्रेण इत्यादि / एवं स आयुष्मान् , तत्रायुष्मान इत्या- सर्वविभक्तिद्वारकेणापि त्रपा योगे काद्यादेशाः सिद्धाः द्यपि / योगविभागश्चकारेण पुनस्तस्विधानार्थम् / // 93 / / तेन सप्तम्यन्तादपि तस् भवति,-ततो भवति, तत्र सप्तम्याः // 7 / 2 / 94 // भवति। अन्यथा हि तत ★इति सप्तम्यन्तात् ‘सप्त म. वृ०-सप्तम्यन्तात् किमद्वयादिभ्यः 'त्रप' म्याः' (72 / 94) इत्यनेन परत्वात् त्रबेव स्यात् / स्यात् / [पकारः पुंवद्भावार्थः] [कस्मिन् =] कुत्र, रूढिशब्दाश्चैते ततोभवदादयः शब्दाः पूजावचनाः ['ककुत्रात्रेह' (7 / 2 / 93) इति कु: सर्वत्र, तत्र, बहुत्र, कथञ्चिद् व्युत्पाद्यन्ते / अत एव पुनस्त्यदादिरनु बह्वीषु बहुत्र [क्यङ्मानि'० (3 / 2 / 50) इति पुंवत् ] प्रयुज्यते / [तथाहि-] स तत्रभवान् , तं तत्र / / 94 // भवन्तम् // 12 // किंयत्तत्सर्वैकान्यात्काले दा // 7 / 2 / 95 // अव०-'आदिशब्दात् तं भवन्तम् , तत्र भव- म. वृ०-किम्-यद्-तद्-सर्वैकान्येभ्यः सप्तन्तम् ; तेन भवता, तत्र भवता; तस्मै भवते, तत्र म्यन्तेभ्यः काले वाच्ये 'दा' स्यात् / कस्मिभवते; तस्माद् भवतः, तत्र भवतः; (तस्य भवतः,) न्कालेकदा, [ यस्मिन्काले= ] यदा, तदा, (सर्व तत्र भवतः ; तस्मिन् भवति, तत्र भवति स दीर्घायुः, / स्मिन् काले=] सर्वदा, एकदा, २अन्यदा। काल तत्र दीर्घायुः ; स देवानांप्रियः, तत्र देवानांप्रियः / इति किम् ? क देशे / / 95 / / न तस् / ततः सप्तम्यर्थे तत इति न सिध्येत / / 92 / / अव०-'एकस्मिन् काले। अन्यस्मिन् काले // 95 / / क्क-कुत्रा-ऽत्रेह // 7 / 2 / 93 // सदा-ऽधुनेदानीं-तदानीमेतर्हि // 7 / 2 / 96 / / म० वृ०-एते 'त्रबन्ता' निपात्यन्ते / 'क्क, कुत्र, म० वृ०-सदाद्याः शब्दाः काले निपा-यन्ते / 'सदा, अत्र, उइह / तथा क भवान् , कुत्र भवान् / अत्र अधुना, इदानीम् , तदानीन , "एतर्हि // 96|| भवान , इह भवान , कायष्मानित्याद्यपि // 9 // अव०-सर्व, सर्वस्मिन् काले सदा, निपातअव०-१किम् , कस्मिन् क्व, 'सप्तम्याः' (7) नात् दाप्रत्ययः, सर्वस्थाने स इत्यादेशश्च, सर्वदा 2 / 94) इति त्रप , निपातनात् किमस्थाने क, त्रप- इत्यपि, पूर्वेण दा। २इदम् , अस्मिन् काले अधुना, स्थाने अकारः, 'क' इति सिद्धम् / किम् , कस्मिन्= | निपातनात् धुनाप्रत्ययः, इदमोऽकारादेशः अधुना। कुत्र, 'सप्तम्याः' (12 / 94) त्रप , निपातनात् एतदो- | ('इदम् , अस्मिन् काले-इदानीम् ,.निपातनात् ★इति सप्तम्यन्तात्' इत्यनेन 'ततः' इत्यस्यैवार्थः प्रदर्शितः / Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकारार्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [453 दानीम्प्रत्ययः, इदम इकारादेशश्च ) "तद्, तस्मिन् / तरे परतरे वा संवत्सरे परारि, निपातनात् आरिकाले तदानीम् , निपातनात् दानीम्प्रत्ययः / 'इद- प्रत्ययः, पूर्वस्य ( ? पूर्वतरस्य परतरस्य वा ) पराम् , अस्मिन काले एतर्हि, निपातनात् हिप्रत्ययः, देशः // 100|| इदम एतादेशश्च, एतर्हि सिद्धम / / 96 / / अनद्यतने हि // 7 / 2:101 / / सद्यो-ऽद्य-परेद्यव्यहि // 7 / 2 / 97 // म० वृ०-अनद्यतने काले यथासम्भवं किमम० वृ०-सद्य इत्याद्या 'अह्नि काले निपात्य | द्वयादिसर्बाद्यवैपुल्यबहोः 'हिप्रत्ययः' स्यात् / कस्मिन्ते' / 'सद्यः, अद्य, परेद्ययि / / 9 / / ननद्यतने काले-कर्हि, यहि, तर्हि, अन्यर्हि, ए. तर्हि, बहुर्हि / अनद्यतने इति किम् ? यस्मिन् काले प्रव०-१समान, समानेऽह्नि (=सद्यः), =यदा। अनद्यतनेऽपि काले कालमात्रविवक्षायां निपातनाद् द्यस्प्रत्ययः , समानस्य सभावः / उदादिः प्रत्ययो भवति,-कदा, यदा। सप्तम्यर्थमाइदम् , अस्मिन्नहान अद्य, निपातनाद् द्यप्रत्ययः, त्रविवक्षायां त्रबपि- अमुत्र काले // 101 // इदमः स्थाने अकारः। पर, परस्मिन्नहनि-परेद्यवि, निपातनाद् एद्यविप्रत्ययः / सद्य इति प्रव०-'एतस्मिन् काले एतर्हि / एतदः साको केचित् कालमात्रे निपातयन्ति / / 97 // नेष्यते / ['सदाऽधुनेदानी०' (7 / 2 / 96) इति] पूर्वपूर्वा-ऽपरा-ऽधरोत्तरा-ऽन्या-ऽन्यतरेतरादेधुस् सूत्रे एतर्हि इति प्रयोगः स सामान्यकाले इदम् | शब्देन साध्यते / अमुष्मिन् काले अमुर्हि। बहुकाले // 72 / 98 // बहुर्हि / उदा, आदिशब्दात् तदानीम् , तदा, अन्यम० वृ०-एभ्यः सप्तम्यन्तेभ्योऽह्नि कालार्थे दा / 'अमुत्र काले' इत्यत्र पूर्वममुत्र इति पदं 'एद्युस्' स्यात् / [ पूर्वाद्याः शब्दाः सर्वनामगणे ] निष्पाद्य पश्चात काले इति पदेन सह सम्बन्धः पूर्वस्मिन्नहनि-पूर्वेद्यः, अपरेयुः, अधरेयुः, उत्तरेयुः, / कर्त्तव्यः / / 101 // अन्येद्युः, अन्यतरेयुः, इतरेयुः // 98 // प्रकारे था // 7 / 2 / 102 // उभयाद् घुश्च // 7 / 2 / 99 / / ___म० वृ०-सप्तम्या इति निवृत्तम् / यथासम्भवं म० वृ०-उभयादह्नि काले 'द्युस् चकारादेद्युस्' विभक्तिः / प्रकारेऽर्थे वर्तमानात् किमद्वयादिसर्वास्यात् / उभयस्मिन्नहनि-उभयद्युः, उभयेधुः / / 19 / / द्यवैपुल्यबहोः था'स्यात् / सर्वेण प्रकारेण सर्वथा / येन प्रकारेण यथा, तथा, उभयथा, अन्यथा, [इतऐषमः-परत-परारि वर्षे / / 7 / 2 / 10 // रथा,] अपरथा / बहोस्तु परत्वाद् धा भवति / 102 म० वृक्ष-एते वर्षे संवत्सरे काले निपात्यन्ते / प्रव०-'सामान्यस्य भिद्यमानस्य भेदान्तरा'ऐषमः, परुत् , परारि // 10 // ' नुप्रवृत्तो भेदः प्रकार उच्यते // 102 // ___अव०-१इदम् , अस्मिन् संवत्सरे-ऐषमः, कथमित्थम् / / 7 / 2 / 103 // इमकस्मिन् संवत्सरे-ऐषमः,निपातनात् समसिण, . म. वृ०-'कथम् इत्थम्' इप्ति प्रकारे निपाइदमश्च इकारादेशः, ततो वृद्धिः, सस्य षत्वम् , | त्येते। 'कथम् , २इत्थम् // 103 / / ऐषमः / पूर्वः परो वा शब्दः, पूर्वस्मिन् परस्मिन् (वा)संवत्सरे परुत् निपातनात् उत्प्रत्ययः, पूर्वस्य | प्रव०-'किमः "प्रकारे था"(७२।१०२) इति पर इत्यादेशः, परुत् / पूर्वतर अथवा परतर, पूर्व थाप्रत्ययप्राप्तिः,....." (थाप्रत्ययस्यायवादोऽयं थम् Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 2 सू० 104-108 प्रत्ययः,) केन प्रकारेण..........[कथम् ,"किमः कस् / अव०-'अनेकस्य चैकीभावः'इत्यस्यायं भावार्थः-एक तसादौ च" (2 / 1140 ) इति] किमः क आदेशः / / शब्देन च स्तोकत्वं लक्ष्यते, तेन तु एकीभाव इत्यर्थः / इदम् , एतद् वा, अनेन प्रकारेण, एतेन प्रकारेण विचलनं विचालः। एको राशिस्त्रयः क्रियते। वा इत्थम् , थम् , इत् भादेशः, इत्थम् // 103 / / 4( एवम् ) एक राशिं त्रीन करोति=विधा करोति / सङ्ख्याया था // 72 / 104 // 'यदि मे यतमानाय, वचनं न करिष्यसि / उन्मत्त शतधा मूर्धा तवैषोऽद्य फलिष्यति' // 1 // म० ०-सङ्घयावाचिनो नाम्नः प्रकारेऽर्थे ___इत्यपि उदाहरणं ज्ञेयम , उदाहरणं तु 'धा' स्यात् / एकेन प्रकारेण एकधा, [ द्वाभ्यां शतधा इति , शतेन भागैः क्रियते शतधा इति प्रकाराभ्यां=] 'द्विधा, त्रिधा, चतुर्धा, शतधा, [बहुः | वाक्यम् / इयमवचूरिर्द्विधा करोतीति अस्याये / भिः प्रकार:= बहुधा, रंगणधा, कतिधा, "ताव "आदिशब्दात् अनेक एको भवति एकधा भवति, द्धा // 104 // भनेकमेकं करोति एकधा करोति , एवं पञ्च . राशयस्त्रयः द्वौ एको वा क्रियते त्रिधा द्विधा प्रव०-१'सङ्घयाया-धा' (7 / 2 / 104) इति सूत्रे एकधा वा क्रियते / एवं त्रिधा, द्विधा,एकधा भवति; द्विधा इत्यत्र 'आद्वेरः' (2 / 1141 ) इत्यनेन अकारो विधा, द्विधा, एकधा वा करोतीति प्रयोगा ज्ञेयाः / न भवति, अप्राप्तेः, यतः 'किमः कस्तसादौ च' | प्रकारोऽवस्थितस्य धर्मिणो भवति, विचाले तु (2 / 1 / 40 ) इति सूत्रे आदिशब्दो व्यवस्थावाची, अवस्थित एव धर्मी पृथक् क्रियते इत्यर्थः // 105 // व्यवस्था चेयं- तसादयः थमन्ता एव ग्राह्याः, वैकाद् ध्यमज // 7 / 2 / 106 // 'किमद्वघादि०'(१२।८९ इत्यतः) आरभ्य 'कथमि म० वृ०-एकशब्दात्सङ्ख्यावाचिनः प्रकारे स्थम्' (72 / 103) इति पर्यन्तास्तसादयः, धाप्र विचाले च गम्यमाने 'ध्यम वा' स्यात् / एकेन त्ययश्चायं थमः परतः इति आद्वेरः' (2 / 1141 इत्य प्रकारेण ऐकध्यम् , एकधा भुङ्क्त / 'अनेकमेकं नेन ) अत्वं न प्राप्नोति, तसाद्यभावात् / 'ग करोति ऐकध्यम ,एकधा करोति [ विचालेच' (7) णधा', 'बहुगणं भेदे' (121140) इत्यनेन सङ्ख्या 2 / 105) इति धा] वाग्रहणं धाऽर्थम् // 106 / / संज्ञा / उ'कतिधा तावद्धा'; अत्र तु 'डत्यतु सङ्ख्यावत्' (11 / 39 इति संख्यासंज्ञा) // 104 / / द्विर्धमत्रं धो वा // 7 / 2 / 107 // विचाले च // 7 / 2 / 105 // म० वृ०-द्वित्रिभ्यां प्रकारेऽर्थे विचाले च | गम्ये 'धमञ् एधा भवतो वा। द्वैधम् , त्रैधम् ; म० वृ०-द्रव्यस्य पूर्वसङ्घयायाः प्रच्युतिः | द्वेधा, त्रेधा भुङ्क्त / वावचनाद् / 'सङ्ख्याया धा' सङ्ख्यान्तरापत्तिः एकस्यानेकीभावः 'अनेकस्य चैः कीभायो विचालः / तस्मिन् विचाले गम्यमाने 7 / 2 / 104] द्विधा, त्रिधा / एक राशिं द्वौ त्रीन वा करोति द्वैधम् , त्रैधम् ; द्वेधा, त्रेधा; द्विधा, विधा नाम्नो 'धा' या स्यात् / एको राशि द्वौ क्रियते // 10 // द्विधा क्रियते, अत्रिधा क्रियते; एवमेको राशिौं भवति द्विधा, त्रिधा भवति; एक राशि द्वौ करोति तद्वति धण / / 7 / 2 / 108 // द्विधा 'करोति / एवमनेकः एकः क्रियते एकधा म० वृ०-द्वित्रिभ्यां तद्वति [कोऽर्थः ?] प्रकाक्रियते इत्यादि / एवं बहुधा, गणधा [ कतिधा रवति विचालवति चार्थे [अभिधेये] 'धण' स्यात् / तावद्धा] / चकार उत्तरत्र [अग्रेतनसूत्रेषु ] प्रकारे द्वौ प्रकारौ विभागौ वा एषां द्वैधानि, २त्रैधानि; विचाले चेत्युभयोः समुच्चयार्थः / / 105 // ___ राजद्वैधानि, राजत्रैधानि, द्वैधीभावः // 108 / / Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारााधिकारः / मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 455 प्रव०-तौ प्रकारविचालौ विद्यतेऽस्य, मतुः, / अव०-१"इह तु द्विस्तावान प्रासादः" इत्यत्र तस्मिन् / 'अधण्तस्त्राद्या शसः' (111 / 32) इत्यत्र / प्रयोगे द्वौ वारावस्य प्रासादभवनस्य द्विः इति धण्वर्जिताः तस्त्राद्याः शसन्ता इति यदुक्तम् तत्र | वाक्यम् ,इह भवनक्रिया गम्यमानाऽस्ति, द्विस्तावान् विषये इदं सूत्रम , अयं स धण् प्रत्ययः इति भावः / भवति इति भवत्यर्थो गम्यते,क इति तद्गतो वारो त्रयः प्रकारा विभागा वा एषां त्रैधानि / उ'राजद्वै. ऽपि गम्यमानः / उदाहरणार्थोऽयम्- यावान् एकः धानि,' कोऽर्थः ? राज्ञा करणभूतेन द्वैधानीति। / प्रासादः तावाद( ? न )न्यो द्विगुणो भवतीत्यर्थः / / "एवं राजौधानि, राज्ञा करणभूतेन त्रैधानि / एकात्सकृञ्चास्य // 7 / 2 / 111 // अद्वैधानां द्वैधानां भवनम् , भावाकोंः ' (5 / 3 / 18), 'कृभ्वस्तिभ्यां कर्मकर्तृभ्यां प्रागतत्तत्त्वे किवः' (7) म० वृ०-एकशब्दाद्वारेऽर्थे तद्वत्यभिधेये 'सुच्' 2 / 126) इति च्विः / एवं ौधीभावः, अौधानां | एकस्य ‘सकृत्' इत्यादेशश्च स्यात् / एकवारं भुङ्क्ते औधानां भवनम् , घन् , ततो विचाले च्विः // 10 // =सकृत् भुङ्क्ते' // 111 // 'वारे कृत्वस् / / 7 / 2 / 109 / / अव०-"सकृत् भुङ्क्ते ' इत्यत्र यदा एक शब्दस्य सुच्प्रत्यये परे सकृत् आदेशः, प्रथमासिः, म० वृ०-सङ्ख्याया इति वर्त्तते / वारे वर्तमा 'अव्ययस्य' (3 / 2 / 7) इति सिलोपः कृतः, तदा नात्सङ्ख्याशब्दात् तद्वति-वारवति धात्वर्थे क्रियाया 'पदस्य' (2 / 1 / 89) इति सूत्रेण संयोगान्तलोपः मर्थे 'कृत्वस्' स्यात् / पञ्च वारा अस्य पञ्चकृत्यो इति सुच लुप्यते,सकृद् भुङ्क्ते इति सिद्धम् / एको भुत, [शतं वारा अस्य=]. शतकृत्तः [अधीते वारो यथा भवत्येवं 'मुक्ते इति क्रियाविशेषण इत्यर्थः], बहुकृत्वः / तद्वतीत्येष- भोजनस्य पञ्च ज्ञेयम् / एवं सर्वत्र क्रियाविशेषणम् // 111 / / वाराः // 10 // बहोर्धाऽऽसन्ने // 7 / 2 / 112 // प्रव०-'वारो भोजनादिधात्वर्थस्य अयोगप ___म० वृ-बहुशब्दात्सङ्ख्यावाचिन आसन्ने अवियेन भिन्नकालतया प्रवृत्तिः अथवा तस्य धात्वर्थस्य | दूरे वारे क्रियाप्रवृत्तौ 'धा' स्यात् / बहव आसन्ना क्रियाभ्यावर्तिः (? वृत्तेः ) समयः कालस्तत्कालो वारा अस्य बहुधा भुङ्क्ते। आसन्ने इति किम् ? वार उच्यते, तस्मिन्नीडशे वारे / भुज्यर्थो वारवान् 'बहुकृत्वो मासस्य भुङ्क्ते // 112 / / इति भुज्यर्थस्येदं विशेषणम् , पञ्चकृत्व इत्यादिकं प्रव०-'बहोर्धासन्ने' इति सूत्रे विशेषोऽयम् ,क्रियाविशेषणमिदमित्यभिप्रायः / एवं गणकृत्वः, आसन्नवारेऽपि वारमात्रे द्योत्ये कृत्वस् प्रत्ययो कतिकृत्वः, तावत्कृत्वः इत्यपि / “पश्चवारा' इत्यत्र भवत्येव, यथा- बहुकृत्वोऽह्रो भुङ्क्ते / आसन्नता वाराणां प्राधान्यम् , भोजनस्य तु सम्बन्धमात्रम् तु प्रकरणादिना गम्यते / तथा गणधा भुङ्क्ते, // 109 // कतिधा भुङ्क्ते, तावद्धा भुङ्क्ते, अत्राप केचिदाद्वि-त्रि-चतुरः सुच् / / 7 / 2 / 110 // चार्या धाप्रत्ययमिच्छन्ति / १"बहुकृत्वो मासस्य म० वृ०-द्वित्रिचतुर्यो वारे वर्तमानेभ्यस्त- | भुक्ते" इत्यत्र 'नवा सुजथैः काले' (2 / 2 / 96) द्वति ‘सुच्' स्यात् / कृत्वसोऽपवादः / द्वौ वारावस्य इत्यनेन विकल्पेन सप्तमी विहिताऽस्ति इति मासे, =द्विर्भुङ्क्ते,त्रिभुङ्क्ते चतुर्भङ्क्ते / इह तु द्विस्ता मासस्य ; पक्षे षष्ठी अपि भवति शेषेऽर्थे / / 112 / / वान् प्रासादः, द्विदेशेति गम्यमानेऽपि वारे सुच् / ___'दिक्शब्दादिर-देश-कालेषु प्रथमा-पञ्चमीभवति // 11 // सप्तम्याः / / 7 / 2 / 113 // Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 456 ] भीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [भ० 7 पा० 2 सू० 114-117 - म. वृ०-*[दिक्शब्दाहिशि प्रसिद्धाच्छब्दाद् / म० वृ०-पूर्वा-ऽवरा ऽधरेभ्यः प्रत्येक दिग्देदिशि देशे काले च वर्तमानात् प्रथमापश्चमीसप्तम्य. शकालवृत्तिभ्यः प्रथमापश्चमीसप्तम्यन्तेभ्यो ऽस् , न्तात् स्वार्थेधाप्रत्ययो भवति / प्राची दिग् रम- अस्तात्' स्याताम् , पूर्वा-वरा-धरशब्दानां यथाणीया=] प्राग् रमणीयम् , प्राग् देशो रम्यः प्राग संख्यं पुर् अव अध् इत्यादेशाश्च / 'पुरो रम्यम , रम्यम् , प्राङ् कालोरम्यः प्रागम्यम् / [पञ्चम्याः पुरस्ताद्रम्यम् ; पुर भागतः, पुरस्तादागतः ; पुरो उदाहरणम् ] प्राच्या दिशः आगतः प्रागागतः, वसति, पुरस्ताद्वसति / एवमवः अवस्ताद्रस्यम् , प्राचो देशादागतः प्रागागतः, प्राचः कालादागतः= अवः अवस्तादागतः, अवः अवस्ताद्वसति' / अधः प्रागागतः, एवं प्राग वसति / दिकशब्दादिति अधस्तात् रम्यम् , आगतो या वसति (वा) // 115 / / किम् ? ऐन्द्री दिक् / दिग्देशकाध्विति बहुवचनं प्रथमादिभिः सह यथासङ्ख्यनिवृत्त्यर्थम् / / 113 / / प्रव०-पूर्वा दिग रमणीया, पूर्वो देशो रम्यः, पूर्वः कालो रम्यः इति वाक्यत्रयेऽपि पुरो रम्यम् , प्रव०-दिशि प्रसिद्धः शब्दः (दिक्शब्दः), पुरस्तादम्यम् / एवं पूर्वस्यां दिशि वसति इत्यादि. तस्मात् / प्राची दिग् रमणीया,प्राग देशो रमणीयः, वाक्यानि / एवमवरा दिग् रम्या, अवरात् अवप्राङ् कालो रमणीय इति वाक्यत्रयेऽपि त्राग् रम रस्माद्वा आगतः, अवरायां अवरस्यां (वा) दिशि णीयमित्येव उदाहरणत्रयं भवति, प्राग रम्यं वा / वसति इति वाक्यानि // 115 / / एषु सर्वत्र धाप्रत्ययः, पश्चात् तस्य धाप्रत्ययस्य परा-ऽवरात्स्तात् / / 7 / 2 / 116 // 'लुबञ्चेः' (7 / 2 / 123) इति सूत्रेण लोपः, ततः म० वृ०-पराइवराभ्यां दिग्देशकालवृत्तिभ्यां प्राची दिग् रमणीया प्राग रमणीयम् , अत्र 'ड्या प्रथमापञ्चमीसप्तम्यन्ताभ्यां स्वार्थे 'स्तात' स्यात् / देौणस्याक्किप' (2 / 4 / 95) इत्यनेन डीप्रत्ययस्य पिरस्तादम्यम् , आगतो वा वसति वा / अवरलुक् कार्या, प्राग् इति सिद्धम् / एवं पञ्चमीसप्तम्योक्येि कृते / दिगुदाहरणेऽपि 'लुबञ्चेः' धालोपः, स्ताद्रम्यम् , आगतो वसति वा // 116 / / ब्यादेौणस्य'० इति डीलोपः। धालोपस्तु सर्वत्र ___प्रव०-'परा दिग् रमणीया, 'सर्वादयोऽकार्यः / प्राच्यां दिशि वसति, प्राचि देशे वसति, स्यादौ' (3 / 2 / 61) इत्यनेन पुवद्भावः / एवमवप्राचि काले वसति इति वाक्यानि, प्राग्वसति इति रस्तात् (इति)अत्रापि / / 116 / / ' सर्वत्रोदाहरणं ज्ञेयम् // 113 / / दक्षिणोत्तराचातस् // 7 / 2 / 117 // ऊर्ध्वाद् रि-रिष्टातावुपश्चास्य / / 7 / 2 / 114 // म० ०-दक्षिण उत्तर इति शब्दाभ्यां चका म०.३०-ऊर्ध्वशब्दादिग्देशकालेषु वर्तमानात् रात् परावराभ्यां दिग्देशकालवृत्तिभ्यां प्रथमाद्यन्ताप्रथमापश्चमीसप्तम्यन्तात् 'रि-रिष्ठात्प्रत्ययौ' धाप भ्यां स्वार्थे 'अतस्' स्यात् / 'दक्षिणशब्दः काले न बादौ' भवतः, ऊर्ध्वस्य उप इत्यादेशश्च / ऊर्जा दिग् सम्भवतीति दिग्देशवृत्तिर्दक्षिणो ग्राह्यः / दक्षिणतो देशः कालो वा रम्यः-उपरि रम्यम् , उपरिष्ठादा- रम्यमागतो वसति वा / र उत्तरतो रम्यम् [उत्तरतः] गतः ; उपरि वसति, उपरिष्टाद्वसति // 11 // आगतो [उत्तरतः वसनि वा / एवं परतो रम्यमा गतो वसति / अकारस्तसतसो दार्थः, तेन पूर्वा-ऽवरा-ऽधरेभ्योऽसस्तातौ पुरवधश्चैषाम् अतस्परतः 'क्वेहामात्र०' (6 / 3 / 16) इत्यनेन त्यच् 72 / 115 // न भवति, परतो भव-पारतमित्यणेव // 117 / / [ ] इति चिह्नान्तर्गत: पाठः मूलप्रतौ न विद्यते इति बृहद्वृत्तित उद्धृतः / Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिग्देशकालार्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [457 अव०-दक्षिणशब्द: कालार्थे न सम्भवत्येव / 'पश्चोऽपरस्य दिक्पूर्वस्य चाति' (7 2 124) इत्यइति 'दक्षिणोत्तराच्चातस्' (7 / 2 / 117) इति सूत्रे नेन पश्च इत्यादेशः, अपरशब्दस्य 'अवर्णेवर्णस्य' अग्रेतनसूत्रेषु वा यो दक्षिणशब्दः तत्र कालमुद्दिश्य | (74 / 68) अलोपः, पश्चात् इति सिद्धम् / तथा वाक्यं न कार्यम् , दिशं देशं वा उदिश्य वाक्यं 'पश्चोऽपरस्य दिकपूर्व०' (72 / 124) इत्यनेन अपकार्यमित्यर्थः / दक्षिणा दिग् रमणीया दक्षिणतो रस्य केवलस्य तदन्तस्यापि पश्चादेशविधानात् रम्यम . दक्षिणशब्दोऽकारान्तः सर्वनामसंज्ञः, अत्र अपरशब्दात्तदन्तादपि 'अधरापराच्चात् '(7 / 2 / 118) स दक्षिण इति ग्राह्यः, न दक्षिणा, 'सर्वादयोऽ- इति सूत्रेण आत्प्रत्ययो भवत्येव, अतो दक्षिणपश्चास्यादौ' ( 3 / 2.61 ) इत्यनेन पुंवद्भावः / एवं स्त्री- द्रम्यमित्यादि उदाहरति वृत्तिकारः, दक्षिणा च लिङ्गानामुत्तर-परा ऽवरशब्दानामपि 'सर्वादयोऽ- सापरा च-दक्षिणापरा, दक्षिणापरा दिग् रम्या स्यादौ / 32 / 62 )' इत्यनेन पुंवद्भावः / उत्तरा दक्षिणपश्चाद्रम्यम् , एवं दक्षिणापरो देशो रम्यः दिग , उत्तरो देशः, उत्तरः कालो रम्यः / एवं परा- इत्याद्यपि वाक्यम् / “दक्षिणा दिग् रम्या। उत्तवरशब्दयोरपि वाक्यानि / पञ्चमीसप्तमी वाक्यानि रा दिग् रम्या // 118|| बुद्धया उपयुज्य कार्याणि। अवरशब्दात् 'पूर्वावराधरे .वा दक्षिणात् प्रथमासप्तम्या आः 7 / 2 / 119 // भ्यो०' (72 / 115) अस अस्तात; 'परावरात्स्तात (72 / 116). स्तात् दक्षिणोतराच्चातस (12 / 117) म० वृ०-दक्षिणान् दिग्देशवृत्तेः प्रथमान्तात् अतस् ; इति प्रत्ययचतुष्टयं भवति / अवः, अव सप्तम्यन्ताच्च 'आः' स्यात् वा / 'दक्षिणा रम्यं वसम्तात् , अवरस्तात् अवरत इति अवरशब्दस्य चातु ति वा / पक्षे अतसातौ, दक्षिणतो रम्यम् , दक्षिणात् रूप्यं सिद्धम् / उपूर्वोक्ततस्प्रत्ययात् अस्य अतस् रम्यम् , दक्षिणाद्वसति / पञ्चम्यां सावकाशौ अतप्रत्ययस्य भेदो विशेषो ज्ञायेत इत्येवमर्थम, तेन / सातौ आकारो [आप्रत्ययः] बाधेत इति वाग्रहणम् / / अस्मात् अतस्प्रत्ययात् परतः 'क्वेहामात्रतसस्त्यच्' प्रव०-१'दक्षिणा रम्यम', दक्षिणा दिग रम्या (6 / 3 / 16) इत्यनेन त्यच् न भवति इति विशेषः / / इति वाक्ये दक्षिणा रम्यम् / दक्षिणदेशे वसति= अधरा-ऽपराच्चात् / / 7 / 2 / 118 // दक्षिणा वसति // 119 // म० वृ०-अधराऽपराभ्यां चकारादक्षिणोत्तरा आही दूरे // 7 / 2 / 120 // भ्यां च दिगादिवृत्तिभ्यां प्रथमाद्यन्ताभ्यां [प्रथमापञ्चमीसप्तम्यन्ताभ्याम् ] 'आत्' स्यात् / 'अधरा ___म० वृ०-दूरे दिशि देशे वा वर्तमानात् द्रम्यम् , आगतो वसति / २पश्चाद्रम्यम् ,पश्चादागतः, प्रथमासप्तम्यन्ताइक्षिणाद् ‘आ आहि'इति [प्रत्ययौ / पश्चाद्वसति / दक्षिणपश्चादम्यम् , आगतो वसति / भवतः / प्रामाद् दूरे दक्षिणा दिक् देशो "दक्षिणात् , उत्तरात रम्यमागतो वसति // 118 / / वा रम्यम् अामादक्षिणा रम्यम् , दक्षिणाहि रम्यं वसति वा / / 120 // अव०-'अधरा दिग् रम्या, सर्वादयोऽस्यादौ' (3 / 261) पुंवद्भावः / एवमधरशब्दस्य अधः, अध अव०-'दिक्शब्दा अवध्यपेक्षाः, तत्रावधेर्दूरे स्तात् , अधरात् इति त्रैरूप्यम् / 'पश्चाद्रम्यं पश्चा दिशि देशे वा इति सूत्रार्थो ज्ञातव्यः / 'आही दूरे' द्रमणीयं वा इत्यादीनामित्थं सिद्धिः,-अपरशब्दः, इति सूत्रे व्यावृत्तिरियम्-दूरे इति किम् ? दक्षिणतः आप , अपरा इति शब्द:, अपरा दिग् रम्या- पश्चा- दक्षिणात् , दक्षिणा रमणीयम् ; एषु आहिर्न द्रम्यं पश्चाद्रमणीयम् , अपरो देशः कालो वा रम्यः, भवति , पूर्वसूत्रः अतस् , आत् , आ एते प्रत्यया 'अधरापराच्चात्' (7 / 2 / 118) इत्यनेन आत् प्रत्ययः, | भवन्ति // 120 / / Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 2 सू० 121-125 / वोत्तरात् / / 7 / 2 / 121 // एनौ' विहितौतियो-लप्' स्यात् / प्रारम्यम् , प्रागागतः, प्राग्वसति / प्रत्यक् =प्रतीची], अवाक् म० वृ०-उत्तरात् प्रथमासप्तम्यन्तात् 'आ आहि' वा भवतः। योगविभागाद् दूरे इति नानु [=दक्षिणा], उदक् [=उत्तरा] // 123] वर्तते / उत्तरा, उत्तराहि रम्यं वसति वा; पक्षे अत - अव०-"दिकशब्दादिग्देश'० (72 / 113) सातौ,-उत्तरतः, उत्तरात् // 121 / / इत्यादिना धा, 'अदूरे एनः' (72 / 122) इति एनः, अदूरे एनः // 7 / 2 / 122 // द्वयोरपि लुप् / प्राचशब्दः, स्त्री चेत् प्राची दिग् ___ म० वृ०-वोत्तरादिति नानुवर्तते / दिक् अदूरा दूरा वा रमणीया कालो वा रम्यः, 'दिकशब्दाशब्दाहिरदेशकालवृत्तः प्रथमासप्तम्यन्तादवधेरदूरे दिग्देशकालेषु प्रथमापञ्चमीसप्तम्याः' (7 / 2 / 113) वर्त्तमानादेनः स्यात् / पूर्वेणास्य रम्यं वसति अनेन धाप्रत्ययो दूरे, अदूरेऽर्थे 'अदूरे एनः' (7 / 2 / वा, 'अपरेण, दक्षिणेन, उत्तरेण, अधरेण / अदूर 122) इत्यनेन एनः, द्वयोरपि लुप् , लुपि कृतायां .. इति किम् ? "पुरोरम्यं वसति वा। दिग्देशकालमात्र 'ब्यादेर्गौणस्य'० (2 / 4 / 95) इत्यनेन डीलोपश्च द्योत्ये ये सामान्यप्रत्यया [अस् अस्तात् इत्याद्याः] भवति, प्राक् इति सिद्धम् / / 123 / / उक्ताः अदूरेऽपि सामान्यविवक्षायां ते भवन्त्येय, पश्चोऽपरस्य दिकपूर्वस्य चाति // 7 / 2 / 124 // प्रकरणादेश्चादूरता गम्यते इति नार्थो वाग्रहणेन // म० वृ०-अपरशब्दस्य केवलस्य दिकपूर्वपदस्य च आति परे "पश्च' इत्यादेशः [अकारान्तः] स्यात् / प्रव०-वोत्तरादिति नानुवर्त्तते, कुतः ? द्वितीया २पश्चाद्रम्यमागतोवसति वा / दिक्पूर्वात-,दक्षिणषष्ठ्यावेनेनानश्च :'(2 / 2 / 117) इत्यत्र अञ्चवर्जनात् / पश्चादस्यमागतो वसति वा, 4 उत्तरपश्चाद्रम्यम् // अदूरे आसन्ने। उ अस्मात् स्थानकात प्रामाद्वा पूर्वा अदूरा दिगरमणीया इति वाक्यम् ,पूर्वेणास्य रम्यम् , प्रव०-१'पश्च' इति अकारान्त एव आदेशः (इत्युदाहरणम्) / अस्य इत्यत्र 'द्वितीयाषष्ठ्यावेनेना पश्चार्द्धमित्यादिसिद्धये / २अपरा दिक् देशः कालो नश्च:'(२।२।११७) इत्यनेन द्वितीयाषष्ठयो- इममस्य वा रम्यः पश्चात् (रम्यम् , एवं पञ्चम्यन्तसप्तइति प्रयोगद्वयम / एवमस्मात्पूर्वोऽदूरो देशो वा कालो म्यन्तवाक्यम् , 'अवरापराच्चात् (7 / 2 / 118) इत्यनेन वा रम्यः-पूर्वेणास्य रम्यम् , अस्मात् पूर्वस्मिन्नदूरे आत्प्रत्ययः। उदक्षिणा चासावपरांच-दक्षिणापरा, देशे काले वा वसति-पूर्वेणास्य वसति / एवमपर- | दक्षिणापरा दिग् देशः कालो वा रम्यः / एवमुदक्षिणोत्तराधरसम्बन्धीन्यपि वाक्यानि कार्याणि / त्तराच साऽपरा चउत्तरापरा दिग्देशः कालो वा ५'पुरोरम्यम्'इत्यत्र पूर्वाशब्दः, पर्वा दिगरम्या परो / (रम्यः) उत्तरपश्चाद्रम्यम् / / 124 // . रम्यम् , पूर्वशब्दः, पूर्वो देशः कालो वा रम्यः, पूर्व वोत्तरपदेऽद्धे // 7 / 2 / 125 // स्यां दिशि वसति, 'पूर्वावराधरेभ्यो'० (7 / 2 / 115) म. वृ०-अपरस्य केवलस्य दिकपूर्वपदस्य च इत्यनेन अस् प्रत्ययः, पूर्वस्य पुर् आदेशः / इति अर्द्धशब्दे उत्तरपदे ‘पश्च' इत्यादेशो वा स्यात् / वाग्रहणेन नार्थः=न किमपि प्रयोजनम् , अतो वाधि 'पश्चार्द्धम् , अपरार्द्धम् ,२दक्षिणपश्चार्द्धः, दक्षिणापकारो निषेधितः // 122 / / राद्धः, उत्तरपश्चार्द्धः, उत्तरापरार्द्धः // 125 / / . लुबञ्चः // 7 / 2 / 123 // __ अव०-अपरमर्द्धमिति वाक्यम् , पश्चार्द्धमुम० वृ०-अञ्चत्यन्तादिकशब्दादिग्देशकालेषु दाहरणम् , पक्षेऽपरार्द्धम् / दक्षिणाऽपरस्या अर्द्धः= वर्तमानात् प्रथमापञ्चमीसप्तम्यन्तात् यो 'धा- | दक्षिणपश्चाईः। उत्तरापरस्या अर्द्ध: उत्तरपश्चार्द्धः / Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्चिप्रत्ययविधानम् / मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [459 'वोत्तरपदेऽर्धे' इति मूत्रान्ते इयं व्यावृत्तिः,- उत्तर- कर्मण इत्यादि / 4 करोति कर्मण' इत्याद्यक्षराणां रपदे इति किम् ? अपरा अझै शोभते, असमासो. भावार्थोऽयम् ,- करोतिधातोर्यन कर्मपदं तस्मात् ऽयम् , समासे हि पूर्वपदमिदम् (उत्तरपदमिदम् ) परतः निवः प्रत्ययो भवतीति वाक्यसम्बन्धः, एवं इति रचना // 125 // भवस्तिधात्वोर्यत् कर्तृ पदं तस्मात् परतः चिर्भवति इति वाक्यसम्बन्धः कर्त्तव्यः / द्रव्यस्य गुणक्रिये.. कृम्वस्तिम्यां' कर्मकतृभ्यां प्राग त्यादि यदुक्तं तत्र क्रमेणोदाहरणानि- शुक्लीतत्तवे चिः / / 7 / 2 / 126 // करोति पटम , प्रागऽशक्लं सन्तं पटं लुक्लीकम० वृ०-'द्विवचनं कर्मकर्तृभ्यां सह यथा रोति चैत्रः इत्यर्थः, एवं शुक्लीक्रियते पटः इति संख्यार्थम् / ४करोतिकर्मणः भवस्तिकर्तश्च प्राक् उक्तकर्मणि, शुक्लीकरणमिति भावे, शुक्लीभवतीपूर्वमनस्य तत्त्वेऽभूततद्भावे गम्यमाने कृभ्वस्तिभ्यां त्यस्यार्थोऽयम्- प्रागऽशुक्ल: पटः इदानीं शक्लीच योगे 'च्विः' स्यात् / 'द्रव्यस्य गुण-क्रिया. भवतीत्यर्थः, एवं शक्लीभवनम , शुक्लीस्यात्पटः, द्रव्यसम्बन्ध- समूह-विकारयोगे' प्राणतत्तत्त्वमु एषु गुणयोजना / कारकीकरोति चैत्रम् , कारकी भवति, अत्र चैत्रस्य करणक्रियाव्यापारः / दण्डीदाहायम। शुक्लीकरोति पटम, शुक्लीक्रियते पट:, शक्तीकरणम, शक्तीभवति पटः, शक्लीभवनम , करोति चैत्रम् , दण्डिन्शब्दः, अदण्डिनं दण्डिनं शुक्लीस्यात् पटः / एवं कारकीकरोति चैत्रम् , कार करोति दण्डीकरोति, एवं दण्डीभवति, अत्र विकीभवति , कारकीस्यात् चैत्रः / दण्डीकरोनि प्रत्ययः, 'नाम्नो नोऽनह्नः' (2 / 1 / 91) इति नचैत्रः, दण्डीभवति, दण्डोस्याच्चैत्रः / सङ्घो लोपः, 'दीर्घश्च्विय' (4 / 3 / 108) इत्यादिना करोति गाः, सवीभवन्ति, सवीस्युर्गावः / घटी. दीर्घः ई:. एष दण्डलक्षणद्रव्यसंयोगः / एवं राजकरोति मृदम् , घटीभवति मृत् ," घटी पुरुषी भवति चैत्रः, अयमपि सम्बन्धोदाहरणम् / स्यान्मृत् 11 / कृभ्वस्तिभ्यामिति किम् ? अशुक्लः 'सङ्घीकरोति गाः, सङ्घीभवन्ति गावः, अत्र शक्लः सम्पद्यते / प्रागतत्तत्त्वे इति किम् ? शुक्लं समूहः एकत्रीभावः / १°घटीकरोति मृदम् , करोति, शुक्लो भवति / / 126 / / घटीभवति मृद् ; अत्र विकारयोगः। ''एवं भस्मी करोति काष्ठम् , भस्मीभवति काष्ठम् , पटीकरोति प्रव०-'भूश्च अस्तिश्च स्वस्ति, कृ च भ्व तन्तून् , पटीभवन्ति तन्तवः / सर्वोदाहरणेषु स्ति च कृम्वस्तिनी,ताभ्यां कृभ्वस्तिभ्याम् / तथा 'अप्रयोगीत् ' (1 / 1 / 37) इति सूत्रेण विलोपः / तस्य भावस्तत्त्वम् , न स: असः, प्राग् पूर्वमसः= कथं समीपीभवति, दूरीभवति ? अत्रापि उपचा रात् तत्स्थे द्रव्ये समीपादीनां कर्तृत्वं भावनीयम् / प्रागसः,'अव्ययं प्रवृद्धादिभिः' (3 / 1148) इति समा एषावचूरिः 'कृभ्वस्ति०' इति सूत्रप्रान्ते ज्ञातव्या / सः,प्रागतस्य तत्त्वं प्रागतत्तत्त्वम , कोऽर्थः ?अभूततद्भावः,तस्मिन् / 'कृभ्वस्तिभ्यां प्रागतत्तत्त्वे'इत्यधि- अरुमनश्चक्षुश्चेतोरहोरजसां लुक् च्वौ कारो 'जातेः सम्पदा च' (7 / 2 / 131) इति सूत्रं // 7 / 2 / 127 // यावत् प्रवर्त्तते / कृभ्वस्तीनां त्रयाणामधिकारो 'देये त्रा च' (7 / 2 / 133) इति सूत्रं यावत् प्रवृत्तोऽ- म० वृ०-अरुस् , मनस् , चक्षुस् , चेतस् , स्ति / कर्मकर्तृभ्यां प्रागतत्तत्त्वे चेति द्वयं | रहस , रजस् एषामन्तस्य 'लुक् ' स्यात् च्वौ परे। 'तत्राधीने' (7 / 2 / 132 ) इति यावत् / अत्र यत् / 'अरूकरोति,अरूभवति, अरूस्यात् ; एवं महारूद्विवचनम् तत् कर्मकर्तृभ्यां सह यथासंख्यार्थम् , | करोति, भवति, स्यात् ; मनीकरोति, मनीभवति, यथासंख्यं च सूत्रार्थे वृत्ति(कार आह-) करोति- | मनीस्यात् ; उन्मनीकरोति, उन्मनीभवति, स्यात् ; Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०७ पा०२ सू० 128-131 - - चक्षुकरोति, भवति, स्यात् ; उच्चक्षकरोति, उच्च- | एतस्मिन्विषये 'सकारादिः सात्',[व्याप्तौ=] प्रागतशूभवति, स्यात् ; चेतीकरोति, चेतीभवति, स्यात् ; त्तत्त्वस्य चेद् व्याप्तिः सर्वात्मना द्रव्येणाभिसम्बन्धो "विचेतीकरोति,भवति, स्यात् ; रहीकरोति, रही- गम्यते / द्विसकारपाठः षत्वनिषेधार्थः' / २अग्निभवति. स्यात परजीकरोति.रजीभवति. रजीस्यात : सात् करोति काष्ठम् , अग्मिसाद् भवति, अग्निविरजीकरोति, विरजीभवति, स्यात् / बहुवचनं / सात् स्यात् / उदकसात् करोति लवणम् / ५सत्यातदन्तानामपि परिग्रहार्थम् , भन्यथा “ग्रहणवता मपि वस्तुनि व्याप्तौ प्रागतत्तत्त्वमात्रे चिर्भवत्येव, (नाम्ना) न तदन्तविधिः" इत्युपतिष्ठेत // 127 // | नार्थो वावचनेन / अग्नीकरोति, अग्नीभवति, स्यात् काष्ठम् / उदकीकरोति, भवति, स्याद् लवअव०-'अनरुः अरुः करोति अरूकरोति / णम् / व्याप्तिस्तु प्रकरणादेर्गम्यते // 130 // अनरुः अरुर्भवति / महदर्यस्य स महारुः, अमहारुषं महारुषं-करोनि महारूकरोति / तथा अत्र०-१'न स्स' (2 / 3 / 69) इति सूत्रे षत्व- . . किश्चिद्धर्मिणमपेक्षते, यथा शुक्लीकरोति पटम् , प्रतिषेध उक्तोऽस्ति / २सर्व काष्ठं प्रागनग्निइति हेतोः अमनस्विनं (मनस्विन) करोतीति वाक्यं मग्नि करोति अग्निसात्करोति काष्टं मैत्रः / सर्व साभिप्रायं कर्त्तव्यम् / 'उद्गतं मनोऽस्य स उन्मना:, काष्ठं प्रागनग्निगग्निर्भवति अग्निसाद् भवति / सर्व अनुन्मनसमुन्मनसं करोति उन्मनीकरोति / उद्गतं लवणं प्रागनुदकमुदकं करोति देवदत्तः / व्याप्ती चक्षुर्यस्य, अनुच्चक्षुषमुच्चक्षुषं करोति / विगतं विरुद्धं सत्यां विरपि दृश्यते, यथा- अग्नीभवति वा चेतोऽस्य विचेता, अविचेतसं विचेतसं करोति= काष्ठम् , उदकीकरोति, उदकीभवति लवणम् इति विचेतीकरोति / (एवम् ) विगतं रहोऽस्य,अविरहसं सात् वा भवति पक्षे च्चि इत्येवं कथं न व्याख्यानं विरहसं करोति विरहीकरोति / 'विगतं रजोऽस्य, कृतमिति पराशयः, सूरिराह- अग्नीकरोति काष्ठअविरजसं विरजसं करोति=विरजीकरोति / / 127 / / मित्यादी काष्ठस्याम्तिना सर्वथाऽव्यापनात् एकइसुसोर्बहुलम् / / 7 / 2 / 128 // देशेनैवाग्निसदभावः, न सामस्त्येन. इति सम्पर्णा म. वृ०-इस् उस् इत्यन्तस्य बहुलं 'लुक्' व्याप्तिरिह नहि. इति वावचनेन 'सात् वा' इत्यनेन स्यात् , च्चौ परे / सीकरोति नवनीतम् , धनू किं फलम् // 130 // भवति वंशः / न च भवति,- धनुर्भवति / बहु. जातेः सम्पदा च // 7 / 2 / 131 // लग्रहणं प्रयोगानुसरणार्थम् / / 128|| म० वृ०-कृभ्वस्तिभिः सम्पदा च योगे कृग् प्रव०-'बहुलवशात् अन्तस्य लुक् न भवती कर्मणः भ्वस्तिसम्पत्कर्तश्च प्रागतत्तत्त्वेन जातेः त्यर्थः // 128 // सामान्यस्य व्यातौ ‘स्सात्' स्यात् / अस्यां सेनायां सर्व शस्त्रमग्निसात्करोति दैवम् , अग्निसाद् भवति, व्यञ्जनस्यान्त ईः // 7 / 2 / 129 // अग्निसात् स्यात् / अस्यां सेनायां सर्व शस्त्रमग्निम० वृ०-व्यञ्जनान्तस्य बहुलम् 'ईकारोऽन्तो' सात् सम्पद्यते / वर्षासु सर्व लवणमुदकसात् भवति यौ। दृषदीभवति शिला [समिधि भवति करोति मेघः, उदकसाद्भवति,उदकसात् सम्पद्यते। काष्ठम् ] / न च भवति,-दृषद्भवति // 129 // चकार उत्तरत्रोभयोः समुच्चयार्थः // 131 // व्याप्तौ स्सात् // 7 / 2 / 130 // मवृ०-कृभ्वस्तिभ्यां कर्मकर्तृभ्यां प्रागतत्तत्त्वे / अव०- 'सम्पदा इति कोऽर्थः ? सम्पद्यते इति वर्तते [अग्रे 'अधीने' इत्यभिनवार्थोपादानात्]|| इति धातुप्रयोगे कर्तृपदात् स्सात् भवतीत्यर्थः / Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात्प्रत्ययार्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंघलितम्। 2 जातेः सम्पदा च' इति सूत्रे सर्वोदाहरणानामग्रे | वाक्यम् , देवत्रा करोति द्रव्यम् 'इत्युदाहरणम् / इयमवचूरिः,-यथैव हि एकस्य द्रव्यस्य सर्वावयवा- | देवाय दातव्यमिदमिति बुद्धया यत् स्थापितं तदिभिसम्बन्धे प्रागतत्तत्त्वेन व्याप्तिर्भवति तथा जातेः / दानी देवाय ददातीत्यत्युदाहरणानामर्थः / (आदिसामान्यस्यापि सर्वव्यक्तिसम्बन्ध प्रागतत्तत्त्वे व्याग्नि- शब्दात् ) गुरुत्रा भवति, गुरुत्रा सम्पद्यते // 133 / / भवति / एवं च सूत्रे व्याप्ताविति सामान्योपादानात् सप्तमी-द्वितीयाद्देवादिभ्यः / / 7 / 2 / 134 // कृभ्वस्तियोगे पूर्वेणैव स्सात् सिद्धः / सम्पद्यते इति प्रयोगार्थे तु 'जातेः सम्पदा च' इति वचनं म० वृ०-सप्तम्यन्तेभ्यो द्वितीयान्तेभ्यश्च कृतम् / / उ उभयोः', कोऽर्थः ? कृभ्वस्तिसम्पद्योः देवादिभ्यः 'त्रा' स्याद्वा स्वार्थे / देवेषु वसतिप्रवृत्त्यर्थम् // 131 / / . देवत्रा वसति, देवेषु भवति देवत्रा भवति, देवत्रा स्यात् / देवान् करोति देवत्रा करोति, तत्राधीने // 7 / 2 / 132 / / देवान् गच्छति-देवत्रा गच्छति / एवं मनुष्यत्रा म० वृ०-कृभ्वस्तिभ्यां सम्पदा चेत्यनु. वसति इत्यादि // 134 / / वर्त्तते / कर्मकर्तृभ्यां प्रागतत्तत्त्वे इति च निवृत्तम् / तत्रेति सप्तम्यन्तादधीने आयत्तेऽर्थे कृभ्वस्तिसम्प अव०-आदिशब्दात् मनुष्यत्रा गच्छति, द्भिोगे 'स्सात्' स्यात् / 'राजसात् करोति, राज- पुरुषत्रा वसति, पुरुषत्रा गच्छति, पुरत्रा वसति, साद्भवति, राजसान् स्यात् / गुरुसात्करोति, बहुत्रा वसति, बहुत्रा गच्छति / देवादयः शिष्टगुरुसात्सम्पद्यते / / 132 / / . प्रयोगगम्याः / / 134 // तीय-शम्ब-बीजात् कृगा कृषो डाच प्रव०-१राजन्यधीनं राजायत्तं करोति, राजस्वामिकं करोतीत्यर्थः / आचार्यस्वामिकमाचार्या // 7 / 2 / 135 // यत्तं करोतीत्यर्थः // 132 / / म. वृ०-तीयप्रत्ययान्तात् शम्बबीजाभ्यां च - देये त्रा च // 7 / 2 / 133 / / करोतिना योगे कृषिविषये 'डाच'" स्यात् / द्वितीयं वारं करोति क्षेत्रम् द्वितीया करोति म० वृ०-तत्रेति सप्तम्यन्ताद् देयोपाधिकेऽ. क्षेत्रम् , द्वितीयं वारं कृषतीत्यर्थः / तृतीया करोति धीनेऽर्थे कम्वस्तिसम्पद्धिोंगे 'त्रा' स्यात / देवत्रा क्षेत्रम् , “शम्बा करोनि क्षेत्रम् ,अनुलोम कृष्टं [सरलं करोति द्रव्यम् , देवत्रा भवति [ देवेऽधीनं देयं कृष्ट] पुनस्तिर्यक् कृषतीत्यर्थः / बीजा करोति क्षेत्रम् , भवति ), देवत्रा स्यात् , देवत्रा सम्पद्यते / गुरुत्रा उप्ते पश्चाद् बीजैः सह कृषतीत्यर्थः / कृगेति करोति इत्यादि / / 133 / / किम् ? द्वितीयं वारं कृषति / कृषाविति किम् ? द्वितीयं पटं करोति // 135 // ___ अव०-१ देये त्रा च'(७।२।१३३) इत्यत्र चकारो न स्सात्प्रत्ययस्यानुकर्षणार्थः, तस्य स्सात्प्रत्यय- अव०-चकारो 'डाच्यादौ' (72 / 149) स्याधीनतामात्रविवक्षायां पूर्वेणैव सिद्धत्वात् , किन्तु इत्यत्र विशेषणार्थः / वाक्यमिदम् / तृतीयं वारं कृम्वस्तिसम्पद्यते इत्येषामनुकर्षणार्थश्चकारोऽयम् / करोति क्षेत्रम् , तृतीयं वारं कृषतीत्यर्थः / शम्ब(अतः) 'देये त्रा च' (72 / 133) इति यावत् | शब्दस्तिर्यकवाची. शम्बं करोति // 23 // कृभ्वस्तिसम्पद्यते इत्यधिकारः / तेनोत्तरत्र कृभ्वस्तिसम्पद्यते इति नानुवर्तते इति भावः / देवे सङ्ख्यादेगुणात् // 7 / 2 / 136 // ऽधीनं देवायत्तं देयं दातव्यं द्रव्यं करोति इति / म०वृ०-[सङ्ख्या चासावादिश्च] सङ्घयाया भाद्यवय Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 7 पा० 2 सू० 137-143 वात् परो यो गुणशब्दस्तदन्तात् कृग्योगे कृषिविषये तथा अन्तरवयवानां बहिर्निष्कासनं निष्कोषण'डाच्' स्यात् / द्विगुणा करोति क्षेत्रम् [द्विगुणं मुच्यते / निष्कुलं करोति निष्कुला करोति / कर्षणं करोति क्षेत्रस्य], त्रिगुणा करोति; क्षेत्रस्य निष्कोषणे इति किम् ? निष्कुलं करोति शत्रुम् / 139 / द्विगुणं त्रिगुणं विलेखनं करोतीत्यर्थः // 136 // ___ प्रिय-सुखादानुकूल्ये // 7 / 2 / 140 // समयाद् यापनायाम् // 7 / 2 / 137 // म० वृ०-प्रियसुखाभ्यां कृगा योगे आनुकूल्ये म० वृ०-समयशब्दात् यापनायां कालविलम्बे / गम्यमाने 'डाच्' स्यात् / प्रिया करोति, सुखा करोति [कालक्षेपे] गम्यमाने कृगा योगे 'डाच्' स्यात् / गुरुम् ; गुरोरानुकूल्यं करोति, गुरुमाराधयतीत्यर्थः।। [समयं करोति= समया करोति, अद्य श्वो वा ते पटं दास्यामि इति कालक्षेपं करोतीत्यर्थः / यापना- अव०-आनुकूल्ये इति किम् ? प्रियं करोति यामिति किम् ? समयं [सङ्कतें। करोति // 137 / / / सामवचनम् , सुखं करोति ओषधपानम / सचेतनस्य, सपत्र-निष्पत्रादतिव्यथने // 7 / 2 / 136 // धर्म आनुकूल्यम् , अत्राऽचेतनानामियं प्रकृतिः / 140 __ म००-सपत्रनिष्पत्राभ्यां कृगा योगेऽतिव्य दुःखात् प्रातिकूल्ये // 7 / 2 / 141 / / थने अतिपीडने गम्यमाने 'डाच्' स्यात् / म० वृ०-दुःखात् प्रातिकूल्ये गम्ये कृग्योगे 'सपत्रा करोति मृगम् , शरमस्य मृगत्य शरीरे प्रवेश 'डाच' स्यात् / दुःखा करोति शत्रुम् , शत्रोः प्रतिकूल यतीत्यर्थः / निष्पत्रा करोति, शरमस्य [ मृगस्य ] माचरतीत्यर्थः / प्रातिकून्य इति किम ? दुःखं करोति अपरपार्श्वन निष्क्रमयतीत्यर्थः / सपत्रा करोति रोगः।। 141 // . वृक्षं वायुः, निष्पत्रा करोति वृक्षं वायुः / अत्र पत्र शूलापाके / / 7 / 2 / 142 // शातनम् [ पत्रयातनम् ] एवातिव्यथनम् / सपत्रा म. वृ०-शूलाल्पाके गम्यमाने कृगा योगे करोतीत्यपि मङ्गलाभिप्रायेण वृक्षस्य निष्पत्राकरण- 'डाच' स्यात् / 'शूला करोति मांसम, शूले पचती. मेवोच्यते / यथा दीपो नन्दतीति विध्वंसः सूच्यते। त्यर्थः / पाक इति किम ? शूलं करोति कदन्नम् / 142 / अतिव्यथनमिति किम् ? सपत्रं करोति वृक्षं जलसेकः, निष्पत्रं करोति वृक्षतलं भूमिशोधकः / / 138 / / प्रव०-शूला करोति, अत्र पचत्यर्थो ज्ञातव्यः, धातूनामनेकार्थत्वात् / कुत्सितमन्नं कदन्नम् , कदन्नं अव०-पत्रं शरो बाणः, सहपत्रमनेनेति स कत पदम् , कोः कत्तत्पुरुषे'(३।२।१३०) इति कत्।१४२ पत्रः, सपत्रं करोति इति वाक्यम , सपत्रा करोति मृगम् (इति) उदाहरणम् ।निर्गतं पत्रमस्मात इति सत्यादशपथे / / 7 / 2 / 143 // निष्पत्रः, निष्पत्रं करोति-निष्पत्रा करोति // 138 // म० वृ०-लत्यशब्दात् शपथादन्यत्र वर्तमा नात् कृग्योगे 'डाच स्यात् / सत्या करोति निष्कुलानिष्कोषणे // 7 / 2 / 139 // वणिग भाण्डम् / अशपथ इति किम् ? २सत्यं म० वृ०-निष्कुलात् कृग्योगे निष्कोषणेऽर्थे | करोति // 143 / / ‘डाच् ' स्यात् / निष्कुला करोति दाडिमम् // 139 / / अव०-१ कोऽर्थः ? सत्यं कारः कार्षापणादिद्रव्यस्य अव०-निष्कृष्टं कुलमवयवसवातः कोऽर्थ.? | दानेन मयाऽवश्यमेव इयं वस्तु क्रेतव्यं गृहीतव्यमिति दाडिमकुलिकादि अस्मात् फलादिति निष्कुलम् / | विक्रेतारं प्रत्या ययति इत्यर्थः। यदीदमेनं न भवति *अयं विग्रहश्चिन्त्यः / “सह पत्रेण" इति विग्रहेण भाव्यम् / Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डाचप्रत्ययार्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [463 मे इष्ट मा भूत् अनिष्टं वा भवतु इति शपथयन् / व्यक्तवर्ण भवति इत्यर्थः / अत्र व्यक्तवर्ण..... (शपथयति?) शपथं वा करोतीत्यर्थः / / 143 / / ....................अवचूरिरियम् (?) तदस्येदमनुमद्र-भद्राद्वपने / / 7 / 2 / 144 // करणमिति न अव्यक्तवर्णस्यानुकरणम् (?) अव्यय त्वादमो लुप् / यदाह भोज:- अनुकरणं क्रियायोगे म० वृ०-मद्रभद्राभ्यां वपने [मुण्डने कर्मणि] निपातसंज्ञमिति // 145 // गम्यमाने कृपयोगे 'डाच्' स्यात् / [मद्रं वपनं करोति=], मद्रा करोति, [भद्र वपनं करोति=] इतावतो लुक् / / 7 / 2 / 146 // भद्रा करोति नापितः शिशोर्माङ्गल्यं केशच्छेदनं करो. म. वृ०-अव्यक्तानुकरणस्यानेकस्वरस्य योऽत् तीत्यर्थः [बालकादीनां मङ्गलभूतं मुण्डनं करोती. | इत्ययं शब्दस्तस्य इति शब्दे परे 'लुक' स्यात् / त्यर्थः] / वपन इति किम् ? मद्रं करोति, भद्रं करोति | पटत् इति='पटिति, झटत् इति झटिति / अव्यसाधुः / अत्र मद्रभद्रशब्दो माङ्गल्यवचनौ / / 144 / / / तानुकरणस्येत्येव- जगदिति, शरदिति / इताविति अव्यक्तानुकरणादनेकस्त्ररात् कृम्वस्तिनानितौ किम् ? पटदत्र / कथं घटदिति गम्भीरमम्बुदै नंदितम् , चकदिति तडिताऽपि कृतमिति ? द्विश्च // 7 / 2 / 145 // दकारान्तावेतौ द्रष्टव्यौ // 146|| म० वृ०-अव्यक्तानुकरणादनेकस्वरादनितिपरात् [इतिवर्जितात् ] कृ भू अस्ति इति धातुभिर्योगे 'डाच' स्यात, द्विश्चास्य प्रकृतिः / पटत् करोति= अव०-'पटिति इत्यादिषु 'असिद्धं बहिरउपटपटा करोति, पटपटा भवति, पटपटा स्यात् ङ्गमन्तरङ्गे' इति न्यायवशात् लुकि सति टकारस्य [वीप्सायाम्' (7 / 4 / 80) इत्यनेन द्विवचनम्] / तृतीयत्वं डकारो न भवति / एवं घटत् इति= घटिति // 146 // अव्यक्तानुकरणादिति किम् ? दृशत्करोति, अत्र व्यक्तवर्णमनुकार्यम् / अनेकस्वरादिति किम् ? खाट न द्वित्वे // 7 / 2 / 147 // करोति / कृभ्वस्तीति किम् ? पटज्जायते / अनिता म. वृ०-अव्यक्तानुकरणस्यानेकस्वरस्य द्विविति किम् ? पटिति करोति // 145 / / त्वे द्विवंचने कृते इतिशब्दे परे 'अत् इत्यस्य लुग् प्रव०-व्यज्यते स्म व्यक्तः, न व्यक्तः= न' स्यात् / पटत्पटदिति, घटत्घटदिति / द्वित्वे इति किम् ? पटिति / कथं चटच्चटिति, धगअव्यक्तः, यस्मिन् ध्वनौ-शब्देऽकारादयो वर्णविशेषरूपेण नाभिव्यजन्ते-न सम्यग् ज्ञातुं शक्यन्ते द्धगिति, पटत्पटिति ; ? नात्र द्वित्वम् , अपि तु [च. सोऽव्यक्तः, तस्य अव्यक्तशब्दस्य अनुकरणमव्य टच्चटत् इत्येवं] समुदायानुकरणमिति भवति / 1471 तानुकरणम् , तस्मात् / २द्विश्चास्येति कोऽर्थः ? प्रव०-'वीप्सायाम्' (7 / 4 / 80) इत्यनेन द्विअव्यक्तानुकरणशब्दस्य प्रकृतेः पटत् इति शब्दस्य वचनम् / 2 (एवम् ) झटत्झटदिति // 147 // द्विः द्विवचनं भवति, न डासहितस्य प्रकृतेः पटा तो वा / / 7 / 2 / 148 // इति शब्दस्य / 'डाच्यादौ' (12 / 149) इति सूत्रेण अभ्यासे पूर्वपटत्शब्दस्य त् लुप्यते पटपटा म० वृ०-अव्यक्तानुकरणस्यानेकस्वरस्य द्वित्वे करोति / एवं दमदमा करोति, मसत् ,-मसमसा सति योऽत् शब्दस्तस्य सम्बन्धिनस्तकारस्य इतौ करोति, खरटत् ,-खरटखरटा करोति इत्यव्यक्ता परे 'लुग् वा' स्यात् / पटत्पटेति, पटत्पटदिति नुकरणशब्दानामुदाहरणावलीयम् / अव्यक्तवर्ण- [एवं घटद्घटेति घटद्घटदिति करोति] // 148 / / स्यापि कथञ्चित् ध्वनिमात्रे सादृश्यादनुकरणमपि डाच्यादौ / / 7 / 2 / 149 // णा / Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 2 सू० 150-151 म. वृ०-अव्यक्तानुकरणस्यानेकस्वरस्य अत्- | दिति किम् ? गां ददाति। ५“क्यङमानिपित्तद्धितें' शब्दान्तस्य द्वित्वे सति आदौ पूर्वपदे योऽतः [ अत् (3 / 2 / 50 ) इत्यादौ / / 150 // इत्येवंरूपस्य] तकारः तस्य [ तकारस्य ] डाचि परे ___ संख्यैकार्थाद्वीप्सायां शस् // 7 / 2 / 151 / / 'लुक्' स्यात् / पटपटा करोति / आदाविति किम् ? पतपता करोति , अत्र डाचि अन्त्यस्वरादिलोपे म. वृ०-सङ्ख्यावाचिन एकत्वविशिष्टाऽर्थवा मूलप्रकृतेस्तकारम्य लुग् न भवति / / 149 / / चिनश्च कारकार्थान्नाम्नो वीप्सायां द्योत्यायां 'शस्' बह्वल्पार्थात् कारकादिष्टानिष्टे प्रशस् स्यात् वा / वीप्सायां द्विवचनप्राप्तौ तदपवादोऽयं योगः / पक्षे द्वित्वमपि / एकैकं ददाति-एकशोर // 7.26150 // ददाति [ द्वौ द्वौ द्विशः ] / द्वाभ्यां द्वाभ्यां दीयते= म० वृ०-बह्वर्थात् अल्पार्थाच्च कारकवाचिनो अद्विशः,त्रिशः,तावच्छः, कनिशः, गणशः / एकार्थ, नाम्नः 'प्रशस् वा' स्यात् , यथासङ्ख्यमिष्टेऽ'निष्टेर मापं मापं देहि-माषशो देहि, एवं कार्षापणशः, च विषये / ग्रामे बहवो ददाति-बहुशो ददाति, बहु पादशः, पलशः, प्रस्थशः, “तिलशः , सङ्गशः, धनं ददाति बहुशो धनं ददाति / बहुशो भुक्तमति. "वृन्दशः, पङ्क्तिशः, वनशः प्रविशति, 1 कूपीशः थिभिरित्यादि [विवाहे बहुभिर्भुक्तमिति वाक्य खनति, १'कुम्भीशः, १२कलशीशो दत्ते १३क्रमश म् ], एवं भूरिशः, प्रभूतशः, गणशः / अल्पार्थ, इत्यत्र क्रमवतां भेदात् क्रमेण क्रमेणेति वीप्सा [कर्तृ कारके अल्प आयाति अल्पश आयाति, [क- भवति, ततः शस्। ५४तानेकैकशः पृच्छेत् , एकैकमणि कारके ] अल्पं धनं दत्ते अल्पशो दत्ते, श्राद्धे शोऽपि निघ्नन्ति, एकैफशो दत्ते इति वी:सायां अल्पैर्भुक्तम्-अल्पशो भुक्तमित्यादि अपि; एवं | द्विरुक्तात् पूर्वेणाल्पार्थादिति शस् , १५योप्सितस्तोकशः [कतिपयशः] / कारकादिति किम् ? बहूना धीप्सायां वाऽनेनैव शस् , एकैकमेकैकमिति पृच्छे. स्वामी / इष्टानिष्ट इति किम ? बह दत्ते श्राद्धे, अल्पं / दित्यर्थः / कारकादित्येव-द्वयोर्द्वयोः स्वामी [मासस्य दत्ते प्राशित्रादौ / श्पकारः पित्कार्यार्थः // 150|| मामाये ॥१५शा अव०-१'वाद्यात्' (631111) इत्यतोऽयं वाधि__ अव०-इष्टं प्राशिवादि, प्रपूर्वः 'अशश् भोज- कारः / उत्तरसूत्रेषु स एव वाऽधिकारो ज्ञातव्योऽनुने', प्राश्नातीति प्राशिता, तृच् , प्राशिता प्राप्तोऽस्य तोऽपि / तेन वाधिकारबलात् पक्षे द्विवचनादिकप्राशित्रम् , 'ऋत्वादिभ्योऽण्' (6 / 4 / 125), प्राशित्रं मपि भवति इत्यर्थः / वाधिकारबलात् पक्षे द्विर्वचबोटनम् , बालकेन यत् प्रथमं भुज्यते तत् लोक- नमपि क्वापि क्वापि भवतीत्यर्थो व्याख्यायते / रूढया बोटितमन्नं प्राशित्रं बोटनमुच्यते इति इष्टं 2 एकैकं ददाति इति कर्तरि वाक्यम , एकैकेन प्राशिवादि / अनिष्टं श्राद्धादि / आदिशब्दाच्चतु- दीयते (इति) भावकर्मणि वाक्यम , उभयत्रापि र्थीविभक्त्यादिवाक्यान्येवं ज्ञातव्यानि-बहुभ्योऽति- | एकशो ददाति दीयते वा इति प्रयोगः / एवं थिभ्यो ददाति बहुशोऽतिथिभ्यो ददाति, बहुभ्यो द्वौ द्वौ दत्तः,द्वाभ्यां द्वाभ्यां दीयते,द्विशः,त्रिश इत्यामामेभ्य आयाति-बहुशो ग्रामेभ्य आयाति, बहुषु दयः प्रयोगा ज्ञातव्याः। एतेऽपि प्रयोगाः संख्याग्रामेषु जनेषु वा वसति-बहुशो ग्रामेषु जनेषु वस- वाचिनः / 'तिलश इत्यादीनां तिले तिले प्रविशति तीत्यं षटकारकविषयता / (आदिशब्दात् ) अल्पे- तिलशः, एवं सङ्घ सङ्घ "वृन्दे वृन्दे पङ्क्तौ भ्यो ददाति अल्प.............. ( शो पतौ (प्रविशतीत्यादिवाक्यप्रयोगाः) / वने वने ददाति, अल्पेश्य आगतम्-अल्पश आगतम् , अल्पेषु प्रविशति-वनशः प्रविशति। तथा कूपी कूपी खनति= बसति अल्पशो वसति) इति प्रयोगाः / बह्वल्पार्था- कृपीशः (खनति)।'कुम्भी कुम्भी ददाति कुम्भीशो Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [465 ददाति / १२कलशी कलशी ददाति कलशीशो / इति वीप्सायाम् , सर्वत्र द्विशति कां त्रिशतिकां दत्ते ददाति / १३तथा 'क्रमश' इत्यत्र कथं शस् भवति? दण्डितः भुङ्क्ते इति दाने दण्डे वीप्सार्थे यथासंख्यं वीप्साया अभावादिति पराशयः / यद्यपि दानादौ / प्रयोगाः / एवं द्विमोदकिकाम् , त्रिमोदकिकाम् इति अनुज्येष्ठ प्रवर्त्तमाने एक एव क्रमो भवति, तथापि प्रयोगौ // 152 // सम्प्रदानभूतानां दानयोग्यानां क्रमवतां भेदात तीपाट्टीकण , न विद्या चेत् / / 7 / 2 / 153 // क्रमोऽप्यने रूपो भवति इति वीप्सा भवति / वीप्सायां सत्यां तु शस् प्राप्नोति / 14 तानेकैकश मवृत्तीयान्तात्स्वार्थे 2 टीकण्' स्यात् वा, इत्यादि, तान् पुरुषान् एकैकशः एकमेकं पृच्छेन तीयान्तश्चेद्विद्याविषयो न भवति / द्वितीयम् इत्यादिप्रयोगेषु वीप्सायामेकस्य द्विवचनं भवति, द्वतीयीकम् , तृतीयम तार्तीयीकम / द्वैतीयोकी द्विवंचने कृते पूर्वस्य एकमिति शब्दस्य 'प्लुप् चादा शाटी। न विद्या चेदिति किम् ? द्वितीया विद्या / वेकम्य स्यादेः' (14 / 81) इति सूत्रेण द्विवचने प्रमुखतीयः पार्श्वतीयः इति तीयस्यानर्थक्यान्न आदिविभक्त्यम् लुप्यते / १५वीप्सिनवीप्सायाभिति टीकण // 153 / / कोऽर्थः ? एक वारमेकमेकं पृच्छेदित्यादिवाक्ये एकैकं निष्पन्नम् ,पुनर्वीप्सार्थे वाक्यम्- एकैकमेक प्रव०-न विद्या चेत् इति प्रसज्यनमः मिति पृच्छेत्। यद्येवं वीप्सानन्तरं पुनर्वीप्सार्थे वाक्यं प्रकटनार्थमेव एवं निर्देशः कृत इत्यर्थः / २टकार क्रियते तदा ‘संख्यैकार्थात्' इत्यनेनैव शस् भवती स्वीकार्थः / द्वितीयमिति. त्यर्थः / / 151 // ( वाक्यम् , द्वैतीयीकमि )त्युदाहरणम् / एवम ग्रेऽपि / एवं तार्तीयीकी शाटी। मुखे-मुखतः, सङ्ख्यादेः पादादिभ्यो दानदण्डे चाकल् ६पार्श्व पार्श्वतः ; 'आद्यादिभ्यः' (7:2 / 84) इति तस्, लुक् च / / 7 / 2 / 152 // मुखतो भवो-मुखतीयः; पार्श्वतो भवः पार्श्वतीयः; 'गहादिभ्यः' (6 / 3 / 63) इत्यनेन ईयः, 'प्रायोऽव्यम० ७०-'सङ्खथायाः प्रकृत्याद्यवयवात्परे ये यस्य' (7 / 4 / 65) इत्यनेनान्त्यस्वरादिलोपः। अत्र पादादयस्तदन्तानाम्नो दाने दण्डे चकराद्वीप्सा 'तीय' इति रूपं गौणमिति न टीकण् // 153 / / विषये च 'अकल' 2 स्यात , तद्योगे च प्रकृतेरन्तस्य लुक् / द्वौ पादौ ददाति= द्विपदिकाम् निष्फले तिलात् पिञ्ज-पेजौ // 7 / 2 / 154 // (ददाति), त्रीन पादान ददाति-त्रिपदिकां ददाति / म. वृ०-तिलात् निष्फले वर्तमानात् 'पिञ्जएवं दण्डे, द्वौ पादौ दण्डित. द्विपदिकां(दण्डितः), पेजौ' भवतः / निष्फलस्तिलः तिलपिञ्जः, तिलत्रिपदिकां दण्डितः / वीप्सायाम,- द्वौ द्वौपादौ भुङ् पेजः // 154|| क्ते-द्विपदिकाम् ( भुङ्क्ते ), त्रिपदिकां भुके। प्रायोऽतोयसट मात्रट् // 7 / 2 / 155 / / पादादयः प्रयोगतोऽनुसतव्याः / / 152 / / अव०-१ सङ्ख्या चासावादिश्च / २अकल् म. वृ०-अतुप्रत्ययान्तात्स्वार्थे 'द्वयसमात्रटौं' इत्यत्र लकार: स्त्रीत्वार्थः / द्विपदिकां त्रिपदिकामि भवतः प्रायः / यावदेव-यावद्द्वयसम् , यावन्मात्यायुदाहरणेषु सर्वत्र पादशब्दस्य अन्ताकारलोपे / त्रम् ; तावदेव-तावद्वयसम् , तावन्मात्रम ; [एताकृते 'यस्वरे पादः पदणिक्य'० (2 / 1 / 102) इत्यनेन वदेव=] एतावद्वयसम् , एतावन्मात्रम् ,कियद्वयपाद् इति शब्दस्य पद् इत्यादेशः कर्त्तव्यः। / सम् , कियन्मात्रम् / [प्रायोग्रहणं प्रयोगानुसरणाद्वे शते व्यवसृजतीति दानेऽर्थे वाक्यम् , द्वे शते र्थम् ] // 155 // दण्डित इति दण्डेऽर्थे, द्वे द्वे शते लभते भुङ्क्ते वा / वर्णा-ऽव्ययात्स्वरूपे कारः // 7 / 2 / 156 / / Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466 / श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 7 पा० 2 सू० 157-164 म० वृ०-वर्णेभ्योऽव्ययेभ्यश्च स्वरूपार्थ- / अव०-[भाग्यम्] इत्यस्याग्रे क्षेभ्यः, [यविष एव] वृत्तिभ्यः स्वार्थे 'कारः' स्याद्वा / अकारः, ककारः।। यविष्यः, अपराध्यम , रव्यम् , लव्यम / मर्त्तादयः [ककारादिष्वकारः उच्चारणार्थः ] अव्यय, ओंकारः, प्रयोगगम्याः // 159 / / स्वाहाकारः, हन्तकारः, 'नमस्कारः, इतिकारः, एवं. नवादीन-तन-त्नं च न चास्य / / 7 / 2 / 160 // कारः, हकारः, पुत्कारः, सीत्कारः / नन यथा हुकृतिः, पूत्कृतिः, सीत्कृतमिति भवन्ति तथा कार म० वृ०-नवशब्दात्स्वार्थे 'ईन, तन,त्न,चकाशब्देन घबन्तेन समासे ओंकारादयो भविष्यन्ति ? राद् यश्च' प्रत्यया भवन्ति वा, तद्योगे नवशब्दस्य सत्यम् , किन्तु ओंकारमुच्चारयति, हुकारं करोति नू इत्यादेशश्च / नवमेव-नवीनम् , नूतनम् ,नूत्नम् , इत्यादि न सिध्यति / स्वरूपे इति किम् ? अः वि नव्यम् / / 160 // ष्णुः, इ: कामः, कः ब्रह्मा, खमाकाशम् , ओं ब्रह्म प्रात्पुराणे नश्च / / 7 / 2 / 161 // [ज्ञानम् ], स्वाहा अग्नये | स्वधा पितृभ्यः ] इत्यर्थपरतायां न भवति / प्रायोऽनुवृत्तेरन्यत्रापिभवति, म वृ०-प्रात्पुराणेऽर्थे 'नः' स्यात , चकारा. . . दीन-तन-नाश्च / 'प्रणम , प्रोणम, प्रतनम , _ मन एव=3मनस्कारः, अहमेवाहंकारः // 156 // प्रत्नम् / / 16 / / प्रव०-"नमस्कार'इत्यत्र भ्रातुष्पुत्रकस्कादयः' (2 / 3 / 14) इत्यनेन रकारस्य सकारः, न तु 'प्रत्यये' प्रव०-१ प्रगतं कालेन इति वाक्यम ; प्रणम् , ( 2 / 3 / 6 ) इत्यनेन ; अव्ययत्वान्नमसशब्दस्य, प्रीणम् ,प्रत्नम् ,प्रतनमिति उदाहरणानि / प्रशब्देन अनव्ययशब्दस्य हि 'प्रत्यये' ( 2 / 3 / 6) इति सूत्रेण पुराणमुच्यते // 161 / / . सः क्रियते। शब्दार्णवे तालव्यः शकारः शीत्कार देवात्तल // 7 / 2 / 162 // इति / मनसशब्दः स्वरादिगणे पाठादव्ययश्चित्ता भोगे वर्तते, चित्ताभिप्राय इत्यर्थः, 'भ्रातुष्पुत्र ___म० वृ०-देवात्स्वार्थे 'तल्' स्यात् वा। देव कस्कादयः' (2 / 3 / 14) इत्यनेन रकारस्य सकारः, एव-देवता / (तल् इति लकारः स्यर्थः] // 162|| मनसोऽव्ययत्वेऽप्यर्थस्वरूपत्वात कारः प्रत्ययो न होत्राया ईयः // 7.20163 // प्राप्नोति, प्रायोऽनुवर्त्तनबलादत्र कारः सिद्धः / 156 / म० वृ०-होत्राशब्दादीयः स्यात् [वा] / [ होरादेफः // 7 / 2 / 157 // त्रैव] होत्रीयम् / / 163 // म० वृ०-रकारात 'एफः' स्यात् वा। रेफः // 157 / / भेषजादिष्टयण / / 7 / 2 / 164 // प्रव०-र एव-रेफः। प्रायोवचनात र एक म. वृ०-भेषजादिभ्यः स्वार्थे 'ट्यण' स्यात् रकार इत्यपि प्रयोगः / / 157 / / वा / भेषजमेव भैषज्यम् , 'आनन्त्यम् , २ऐतिनाम-रूप-भागाद्धयः // 7 / 2 / 158 // ह्यम् , उचातुर्वर्ण्यम् , “चातुर्वेद्यम् ,त्रैवैद्यम् , त्रैलोम० वृ०-एभ्यः स्वार्थे 'धेयः'स्यात् / नामैव= क्यम् , 'षाड्गुण्यम् , शैलीयमाचार्यस्य / / 164|| नामधेयम् , रूपमेव रूपधेयम् , भाग एव भाग प्रव०-१अनन्त एवः-आनन्त्यम् / २इतिह धेयम् // 158 // इत्येव ऐतिह्यम् / इतिह इति निपातसमुदायः उप-. मादिभ्यो यः // 7 / 2 / 159 // देशपारम्पर्ये वर्त्तते। चत्वारः एव वर्णाः=चातुर्वम० वृ०-मादिभ्यः स्वार्थे 'यः' स्यात् / मर्त्त एव= | र्ण्यम् / एवं चातुराश्रम्यम् / चत्वारो वेदाः अथवा मर्त्यः, सूर एव-सूर्यः, भाग एव=भाग्यम् // 159 // / पतस्रो विद्याः-चातुर्वैद्यम् , एवं त्रैवैद्यम् ; उभयत्र Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्थाधिकारः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् [ 467 'अनुशतिकादित्वादुभयपदवृद्धिः / एकत्वम , ऐकभा- , ङी, आप् / 'प्रजानातीति प्रज्ञः, 'उपसर्गादातो व्यम् द्वित्वम् ,द्वैभाव्यम् ,त्रित्वम् ,त्रैभाव्यम् आन्य- डोऽश्यः' (5 / 1156 ) इति डः, प्रज्ञ एव प्राज्ञः. भाव्यम् , सार्ववैद्यम् , सावलौकम् ; अत्रापि अनु- स्त्री चेत् प्राज्ञी / प्रज्ञाऽस्या अस्तीति प्राज्ञा, प्रज्ञा शतिकादित्वादुभयपदवृद्धिर्भवति / 'षड्गुणा एत्र श्रद्धार्चावृत्तेर्ण.' (72 / 33) इत्यनेन णः प्रत्ययः, पाडगुण्यम् / शीलमेव शैल्यम् , 'अणये०' / 2 / तत आप , प्राज्ञा कन्या इत्यपि प्रयोगः / वणिगेव= 400 ) इति डी, 'व्यञ्जनात्तद्धितस्य' (2 / 4 / 88 / वाणिजः / / 165 // इति यकारो लुप्यतेशैली इति सिद्धम् , शैली इयम् / श्रोत्रौषधि-कृष्णाच्छरीर-भेषज-मृगे।७।२।१६६॥ भेषजादयः शिष्ठप्रयोगगम्याः / भैषज्यानन्त्यावसथ्यैतिह्यशब्दा यदि स्त्रियां भवन्ति तदा अजादिषु म0 वृ०-श्रोत्रौषधिकृष्णेभ्यो यथासङ्घय द्रष्टव्याः // 164 // शरीरे भेषजे मृगेऽर्थे स्वार्थे-'ऽण'स्यात् वा। श्रोत्रं प्रज्ञादिभ्योऽण् / / 7 / 2 / 165 / / शरीरम् , श्रोत्रमन्यत् ; औषधं भेषजम् , ओषधि रन्यत् ; काष्र्णो मृगः, // 166 / / म० वृ०-प्रज्ञादिभ्यः स्वार्थे ऽण् स्यात् वा / प्राज्ञः, प्राज्ञी / / 165 / / अव०-'श्रोत्रशब्दात् शरीरेऽर्थे श्रोत्रमेव श्रौत्रम्। २ओषधिशब्दात् भेषजेऽर्थेऽण , ओषधिरेव औषअव०- प्रज्ञ, वणिज , उशिज, प्रत्यक्ष, विद्वस् , | धम् / कृष्णात् मृगे कृष्ण एव कार्णः मृगः, विदन्त, द्विदत , षोडत् , विद्या, मनस् जुह्वत् , कालियारहरिण इत्यर्थः, कृष्ण एवान्यः // 166 / / चिकीर्षन , (चिकीर्षति। चिकीर्षित, वसु, मरुत् , कर्मणः सन्दिष्टे // 7 / 2 / 167 // सत्वस् , सत्वन्तु, सर्व, दशाई, कुश्च, वयस् , म० वृ०-'सन्दिष्टेऽर्थे वर्तमानात् कर्मन्शब्दारक्षस् , असुर, शत्र, चोर, योध, चक्षुस् , पिशाच, | स्वार्थे-'ऽण' स्यात् / कार्मणं करोति, सन्दिष्टं अनि, कर्षापण, देवता, बन्धु, अनुजा, वर, / कर्म करोतीत्यर्थः। वशीकरणमपि वृद्धपरम्परोपदेशात् (अनुषुक् ) चतुष्पास्य, रक्षोघ्न, वियात, विकृत, | क्रियते इति कार्मणमुच्यते / सत्यपि महावाधिकारे विकृति, व्याकृत, वरिवस्कृत, अग्रायण, अग्रहायण, विशिष्टोऽर्थः प्रत्ययं विना म प्रतीयते इत्यस्मिन् सन्तपन , मधुप, द्विता , चण्डाल , गायत्री , विषये नित्य एव प्रत्ययः // 167 / / उष्णिह, अनुष्ट्रब, बहती. पङक्ति. त्रिष्टभ . जगती इति / प्रज्ञादिराकृतिगणः / तेन आग्नीध्री * अव०-अन्येन केनापि पुरुषेण अन्योऽन्यआग्नीध्रा वा शाला, साधारणी साधारणा वा भूमि स्मै यदाह त्वयेदं कर्त्तव्यमिति तत् सन्दिष्टं कर्म रित्यादि सिद्धम् / अग्निमीधे अग्नीध , विप् , उच्यते / २कमैव इति वाक्यम् , कार्मणमिति आग्नीध इदं गृहमाग्नीध्रम् ,'गृहेऽग्नीधोरणधश्च' प्रयोगः / सन्दिष्ट इति किम् ? कमें करोति / (73 / 174) इत्यनेन रण्प्रत्ययः तृतीयबाधनाथे / उ अस्मिन', कोऽर्थः ? 'कर्मणः सन्दिष्टे' इति धादेशः च, (स्त्रीत्वविवक्षायाम् ) 'आत्' (2 / 4 / 18) सूत्रोक्ताविषये // 167 // आप , आग्नीध्रा एव-आग्नीध्री, 'प्रज्ञादिभ्योऽण्' वाच इकण // 72 / 168 // (712 / 165) ङी, सहाधारेण वर्तते साधारः, साधारं करोति साधारयति, णिज्बहु०' (3 / 4 / 42), म० वृ०-सन्दिष्टेऽर्थे वाचशब्दात् 'इकण' साधारणः, 'नन्द्यादिभ्योऽनः' (5 / 1152) इति अनः, | स्यात् / वागेव वाचिकम् , सन्दिष्टं वाचं कथयसाधारण एव'प्रज्ञादिभ्योऽण',एवं (स्त्रीत्वविवक्षायाम्) | तीत्यर्थः / अत्रापि पूर्ववन्नित्यो विधिः / / 168 / / Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 2 सू० 169-172 प्रव०-अन्येनान्योऽन्यस्मै यां वाचमाह उपायाद् ह्रस्वश्च / / 7 / 2 / 170 // (सा) सन्दिष्टा वाक् / वागेव इति वाक्यम् / म० वृ०-उपायात् स्वार्थे 'इकण' वा स्यात् / उवाचिकं कथयति / सन्दिष्टे इति किम् ? चित्रा तद्योगे च ह्रस्वः / उपाय एव–औपयिकम् // 170 / / वाक् चैत्रस्य // 168 // मृदस्तिकः // 7 / 2 / 171 // विनयादिभ्यः // 7 / 2 / 169 // ___म० वृ०-मृद् इति शब्दात 'तिको' वा स्यात् / म० वृ०-विनयादिभ्यः स्वार्थे 'इकण' वा | मृदेव=मृत्तिका / / 171 // स्यात् / वैनयिकम् , रसामयिकम् / / 169 // सस्नो प्रशस्ते // 7 / 2 / 172 // प्रवo-'विनय एव-वैनयिकम्। समय एव= म० वृ०-मृदः प्रशस्तेऽर्थे 'सस्नौ' भवतः वा। सामयिकम् / विनय, समय, समाय, कथश्चित् , रूपापवादः ['त्यादेश्च प्रशस्ते रूपप्' (7 / 3 / 10) इति अकस्मात् , उपचार, व्यवहार, समाचार,सम्प्रदाय, रूपप्रत्ययस्य बाधकोऽयं योगः] / प्रशस्ता मृद्= समुत्कर्ष, सङ्गति, सङ्ग्राम, समूह, विशेष, अव्यय, | मृत्सा, मत्स्ना। केचित्त रूपमपीच्छन्ति,-प्रशस्ता अत्यय, अनुगादिन् इति विनयादिराकृतिगणः / मृद्-मृद्रपा / / 172 / / ग्रन्थान-३२१॥ अवचूरिश्लोक-५०९, अक्षर-१६ अत्र सूत्रे // 169 // ] . // इति सप्तमाध्याये द्वितीयः पादः // // इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते सिद्धहेमशब्दानुशासने सप्तमाध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः / / Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / / अहम् / / // सप्तमोऽध्यायः॥ [ तृतीय पादः] प्रकृते मयट् // 7 / 3 / 1 // फिकम् ,मोदकमयम् धैनुकम् , 'धेनुमयम् : अपूपाः म. वृ०-प्राचुर्येण प्राधान्येन वा कृतं प्रकृ. / प्रकृताः अस्मिन् आपूपिकम ,अपूपमयं पर्व;मौदकिकी, तम् , तस्मिन् ] प्रकृतेऽर्थे वर्तमानान्नाम्नः स्वार्थे / मोदकमयी पूजा ; गणिकाः प्रकृता अस्यां=गाणि. 'मयट्' स्यात् / अन्नं प्रकृतम् अन्नमयम , घृतम क्या, गणिकामयी यात्रा // 3 // यम् , दधिमयम् / [ टकारो ड्यर्थः- यवागूमयी] अतिवर्तन्तेऽपि स्वार्थिकाः प्रकृतिलिङ्गवचनानीति अव०-धेनवः प्रकृताः धैनुकम् , धेनुमयम् ; यवागूः प्रकृता=यवागूमयम् / एवमुत्तरत्रापि - अपू- 'धेनोरनत्रः' (6 / 2 / 15) इति इकण् , ऋवर्णो० (7 / पाः प्रकृताः आपूपिकम् , [ 'कवचिहस्त्यचित्ता- 471 ) इति इकण इलोपः / २'अस्मिन्' इत्यर्थे च्चेकण्' (6 / 2 / 14) अपूपमयम् // 1 // . वाक्यम् / उ गणिकाया ण्यः' (6 / 2 / 17. इति ण्यः, आप // 3 // - प्रव०-''अन्नमयम्', कोऽर्थः ? अन्नं प्रचुरं प्रधानं वा इत्यर्थः / एवं घृतमयादि / ननु यवा निन्द्ये पाशप् / / 7 / 3 / 4 / / ग्वर्थस्य स्त्रीत्वात् स्वार्थिकप्रत्ययस्यापि तत्रैव स्त्रियां म. वृ०-निन्द्येऽर्थे नाम्नः स्वार्थे 'पाशप्' वृत्तेः ततो यवागूमयमित्यत्र कथं नपुंसकत्वमित्या- . स्यात् / 'छान्दसपाशः / प्रत्यासत्तेः शब्दप्रवृत्तिनिशङ्कयाह सूरिः- अतिवर्त्तन्तेऽपि स्वार्थिका इत्यादि, मित्तकुत्सायामयम् [पाशप्]इष्यते,तेनेह न पाशप् ,"प्रकृतेर्लिङ्गवचने बाधन्ते स्वार्थिकाः क्वचित्" इति | वैयाकरणश्चौरः, नक्षत्र चौर्येण वैयाकरणत्वं कुत्स्यते, (हैम)लिङ्गानुशासनपाठात् / ३'तयोः समूह०' (7) किं तर्हि ? शीलम् / पकारः पुंवद्भावार्थः ['क्या३३ ) इति सूत्रे / तयोः समूह० (7 / 3 / 3) इत्यत्र मानिपित्तद्धिते' ( 3 / 2 / 50) इत्यनेन पुंवद्भावः],चकारान्मयः / एवं शाष्कुलिकम् // 1 // कुत्सिता कुमारी कुमारपाशा // 4 // अस्मिन् // 73 // 2 // म० वृ०-प्रकृतेऽर्थे नाम्नोऽस्मिन् सप्तम्यर्थे प्रव०-छन्दो वेत्त्यधीते वा-'तद्वेत्त्यधीते' वर्तमानात् ] 'मयट' स्यात् / अन्न प्रकृतमस्मिन्= (6 / 2 / 117) अण् , निन्द्यश्छान्दसः छान्दसपाशः / अन्नमयं भोजनम् / [अपूपः प्रकृतोऽस्मिन् ] अपूप- एवं निन्द्यो वैयाकरणो वैयाकरणपाशः / ननु मयं पर्व [एवं वटकमयो यात्रा] // 2 // कुमारपाशा इत्यत्र वयोवचनत्वात् पुनर्जीः कथं न भवति ? आचार्यः प्राह- कुमार इत्यादयो तयोः समूहवच्च बहुषु // 7 / 3 / 3 / / हि शब्दा वयोवाचकाः, न कुमारपाशादयः / यत्रैवम० वृ०-तयोः प्रकृतेऽस्मिन्नित्येतयोविषययो- | केवलवयोवाचित्वं तत्रैव डीर्भवति, "गौणमुख्ययोबहुषु वर्त्तमानान्नाम्नः 'समूहवत्' प्रत्ययः स्यात् , - मुख्य कार्यसंप्रत्ययः" इति न्यायात् / कुमारपाशाचकारा मयट्'च / अपूपाः प्रकृताः आपूपिकम् ['क | दयस्तु शब्दा निन्दाविशिष्टवयोवाचकाः इति कीन बचि०' (6 / 2 / 14) इति इकण ],अपूपमयम् ; मौद- | भवति // 4 // Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा०३ सू०५ प्रकृष्टे तमप् // 7 // 35 // / 6) इति सूत्रे / 'प्रकृले तमप्सू त्रे। 'प्रकृले तमप्' इति सूत्रेण तमप् भवतीत्यर्थः / 'जातिवाचकम० वृ०-प्रकृष्ट प्रकर्षेऽर्थे वर्तमानान्नाम्नः'तम'स्यात्। शब्दात् द्रव्यवाचकशब्दाच्च परतोऽपि गुणक्रियाप्रकर्षोऽतिशयः / स च गुणक्रिययोरेव, न जाति- प्रकर्षस्य विवक्षायां तमपप्रत्ययो भवति, यथाद्रव्ययोः / उत्तरत्र द्वयोः प्रकर्षे तरप्विधानादत्र' गौरयमित्यादि, गौरयं यः सुसनहनः शकटं वहति बहूनां प्रकर्षे 'तमपविधिः / सर्वे इमे शुक्लाः, अय- एतत्प्रयोगापेक्षया ज्ञातव्यम् / गोतमोऽयं यः सुलमेषां प्रकृष्टः शुक्लः-शुक्लतमः, एवमान्यतमः, क्रिया- क्षणः शकटं सीरं च वहति, गोतमेयं या समां समां कारकतमः, साधकतमः, प्रकृष्टतमः। “जातिद्रव्य विजायते इति प्रयोगद्वय एवं प्रकर्षार्थप्रतीतिः, वचनेभ्योऽपि गुणक्रियाप्रकर्षविवक्षायां तमब् भव ततो गोशब्दात्तमप् / 'समां समां-वर्ष वर्षम् , अत्र ति,- गौरयं यः सुसन्नहनः शकटं वहति-गोतमोऽयं 'कालाध्वभावदेशं ( 2 / 2 / 23 ) इत्यनेनाधारस्य यः सुलक्षणः शकटं सीरं / हलम् ] च वहति कर्मत्वे द्वितीयान्तस्य समामित्यस्य वीप्सायां द्वित्वम्। ' गोतमेयं या समां समां विजायते [ =प्रसौति ] तथा स्त्री वत्सा यस्याः सा स्त्रीवत्सा / सवत्सेत्युक्त स्त्रीवत्सा" च। प्रद्रव्यान्तरसमवायिना च प्रकृष्टेन तु सह वत्सेन वत्सया वा वर्त्तते इति संशयः गुणेन प्रकृष्ट द्रव्ये तद्वतः प्रत्ययो भवति,-अति स्यात् , अतः स्त्रीवत्सा इत्युक्तम् / पचैत्ररूपद्रव्याशयेन सूक्ष्माणि वस्त्राण्यस्य [ चैत्रस्य -सूक्ष्मवस्त्र- पेक्षया वस्त्रादि द्रव्यान्तरम , तत्समवायिना-तत्संतमः / प्रकर्षप्रत्ययान्ताच प्रकर्षस्यापि प्रकर्षविवक्षायां बद्धेन सूक्ष्मेत्यादिना / तद्वतः', कोऽर्थः ? प्रकृष्तमप् भवति, यथा-युधिष्ठिरः श्रेष्ठतमः१० गुणवद्र्व्यवतश्चैत्रादेः, परमार्थतोऽस्यैव चैत्रादेः "कुरूणाम् / ॐ १२तरबन्तात्तु तरप् पुनर्न स्यात् , प्रकर्षः इत्यर्थः / 10 सर्वे इमे प्रशस्याः,अयमेषा नतिअनभिधानात् / १३तथा यथा पूर्वपदातिशये पूर्व शयेन प्रशस्यः =श्रेष्ठः,प्रशस्यस्य श्रः' (7 / 4 / 34) इत्य. पदा बहुव्रीहेरातिशायिकः प्रत्ययो' वा भवति,- नेन प्रशस्यस्थाने 'श्र' इति आदेशः , गुणाङ्गासूक्ष्मतमवस्त्रः , सूक्ष्मवत्रतमो वा, न तथोत्तरपदा द्वेष्ठ यसू'(७।३।९) इति इष्ठप्रत्ययः, ततः परस्तमप् / तिशये सति बहुव्रीहेः [प्रत्ययो भवति ]; बह्वाट्य ११कुरोरपत्यानि-दुनादि'० (6 / 11118) इति ज्यः, कतमः इति. किन्तूत्तरपदादेव,- बहव आढयतमा 'बहुस्वस्त्रियाम्' (6 / 1 / 124) त्र्यलोपः / २तरयत्र बह्वाट्यतमकः / प्रकृष्ठे इति किम् ? १६महत्स बन्तादिति उपलक्षणम्, तमपप्रत्ययान्तशब्दादपि र्षपम् , महान हिमवानिति। पकारः पुंवद्भावार्थः, पुनस्तमप न भवतीत्यर्थः / तथा', कोऽर्थः ? शुक्लतमा शाटी // 5 // अनभिधानात् / १४भाविसमासापेक्षया सूक्ष्मस्य पूर्वपदत्वम् / १५तमादिकः / 16 महत्तर्षरम्',अत्राअव०-१स्पर्द्ध प्रकर्षः, स द्विव्यादिनामेव न्यापेक्षया प्रकृष्टत्वं नास्ति, बाहुलकादत्र नपुंसकत्वं भवति, जातिश्चैकैव, जात्यन्तरेणापि नासौ प्रकर्षः. भवति / तथा सर्षपापेक्षया हिमवतो महत्त्वात् महतनित्यव्यापकत्वाज्जातीनाम् ; नाप्यसौ प्रकर्षो द्रव्या- | शब्दात् तरप प्राप्नोति तर्हि उत्तरसूत्रे तर प्राप्तिविषयं णाम् , नहि सिंहः शौर्यादिविकलेन केवलस्वपिण्ड- वक्तु युक्तम् ,अग्रेतनसूत्रे एव तरविधानात् ;सत्यम् , मात्रेण गजैः सह स्पर्द्धते। गुणक्रिययोस्तु प्रकर्षः प्रकर्षप्रस्तावादत्रोक्तमिदमित्यदोषः / यदि बहूनां सम्भवति, द्रव्यरूपस्वाश्रयभेदेन एकैकशोऽप्यनेक- | प्रकर्षे सति तमप् भवति तर्हि ग्रामपुरुषयोर्द्वयोः विधत्वात् प्रकर्षस्य / २द्वयोर्विभज्ये तरप्' (73 / J प्रकर्षे तमप् न प्राप्नोति इत्याह-प्रधानमयं ग्रामः, * 'द्वयोः शुक्लतरयोर्मध्येऽयं प्रकृष्टः शुक्लतरः' इति विग्रहे सति / * सर्वे इमे शुतमाः, तेषां मध्येऽयं प्रकृष्टः शुक्लतमः' इति विग्रहे सति / Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तमप्-तरप्यत्ययविधानम ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम। (471 प्रधानतमोऽयं ग्रामः, अढयं नगरम् आढयतमोऽयं / पाटलिः पुत्रो यस्य मः पाटलिपुत्रः, पाटलिपुत्रे नगरे इति उदाहरणद्वयम ,रिराह उत्तरम्-एकस्मिन्नपि भवाः पाटलिपुत्रकाः, रोपात्यात्' (6 / 3 42) इति ग्रामे नगरे वा निर्दिधे समुदाये तदन्तर्गतावयवान्त- अकञ् / द्वये इमे आढयाः,एभ्यः मध्ये इमे प्रकृष्ठा रापेक्षया प्रकर्षे तमा भविष्यात / अयं विशेषः आढयतरा इति वाक्ये आढयात् परतो द्वयोविभज्ये 'प्रकृष्ठ तमप' ( 735 )' इति सूत्रे ज्ञातव्यः / तथा च०' इति तरप् / एवं परिणा अभिरूपतराः अहिंसक श्रेयान ,पापीयान् प्राणिनां हन्ता इत्यत्र सुकुमारतरा अनयोरपि वाक्यानि कार्याणि / श्रेयःपापीयसोर्विषमगुणत्वात् स्पर्द्धाभावे प्रकर्षा- साङ्काश्यकेभ्यः पाटलिपुत्रकेभ्यश्च माथुरा आढयतराः, भावस्तत् कथं तरबर्थेयस् प्रत्ययः ? सत्यम् , नैतयोः अभिरूपतराः, सुकुमारतराः इत्यपि / ननु प्राप्तिपरम्परं म्पा किं तर्हि ? अन्यापेक्षा A म्पर्द्धाऽस्ति। पूर्विकाऽप्राप्ति... विभागः, यथा म्थागुश्येनयोः, A अन्य महिंसकान्तरं पुरुषमपेक्षते अन्यापेक्षा, 'शी- न चात्र साङ्काश्य कपाटलिपुत्रकाणां कदाचित प्राप्तिलिकामि०' (5 / 1673) इति णः / अयमपि विशेषः / रस्ति इत्याह- साङ्काश्यकादिष्वित्यादि / 1 ननु १७'क्यङ्नानिपि०' ( 3 / 2 / 50 ) इत्यनेन पुंवद्भावः इत्थं पुरुषाणामेव विभागे कथं तद्विशेषणस्याढया||५|| देविभज्यत्वम् ? अत्राह-विभज्यस्य चेति / ११'प्रद्वयोविभज्ये च तरप / / 7 / 3 / 6 / / कृष्म' इति, यतः साङ्काश्यकाढयत्वात् पाटलिपुत्रम० वृ०-द्वयोस्तद्गुणयो-रर्थयोर्मध्ये यः प्रकृ काढयत्वमतिशायि वर्तते, अतो विशेषणमपि तद्विप्टस्तस्मिन् प्रकृष्णे विभक्तव्ये च प्रकृष्ऽर्थे वर्तमाना भज्यं स्यादेव / 12 गवां कृष्ण'-त्यादि, अत्र द्वयोः नाम्नस्तरप' स्यात् / तमोऽपवादः / द्वाविमौ पटू, प्रकर्षो नहि, गवां बाहुल्यात् / नापि विभागः, अयमनयोः प्रकृषः पटुः-पटुतरः, गोतरो यः शकटं कृष्णगवीनामितरगवीषु अन्तर्भावेनाऽप्रवेशाभावात् , सीरं [हलं च वहति, गोतरा या समां समां [ वर्षे धर्मिणश्च कृष्णायाः गोरविभागेन धर्मस्य क्षीरसवर्ष] विजायते / प्रसौति] स्त्रीवत्सा च। विभज्ये म्पन्नत्वस्यापि न विभागः // 6 // च,-"साङ्काश्यकेभ्यः पाटलिपुत्रका आढयतराः, क्वचित् / / 7 / 3 / 7 / / "अभिरूपतराः, [सुकुमारतराः] / साङ्काश्यका म० वृ०-क्वचित् [लक्ष्यानुसारेण] स्वार्थेऽपि दिषु पाटलिपुत्रकादीनामप्रवेशाद्विभागः [विभ 'तरप्' स्यात् / प्रकृष्ठे सिद्ध एव / 'अभिन्नमेव जनं पृथक्करणम] / १°विभज्यस्य च विशेषणमप्या अभिन्नतरकम् , उच्चस्तराम् / / 7 / / ढयाद्यर्थः / 1 प्रकृष्ठं विभज्यं भवति (इति) ततः * प्रत्ययः / द्वयोर्विभज्ये चेति किम् ? १२गवां कृष्णा अव०-अभिन्नतरमेव (अभिन्नतरकम् ), 'यावा[गौः] सम्पन्नक्षीरतमा // 6 // दिभ्यः कः' (73 / 15) / एवमुपपन्नतरकम् / / 7 / / अव०-१स विवक्षितः समानो गुणो ययोः / किन्त्यायेऽव्ययादसत्वे तयोरन्तस्याम् २पकारः पंवद्भावार्थः, शुक्लतरा शाटी / द्वयोर्मध्ये // 7 // 38 // गुणोदाहरणम् ,-पटुतरः पुमान् , पटुतरा स्त्री, इयं म० वृ०-किंशब्दात् , त्याद्यन्तात् , एकारापटवी इयं पट्वी, इयमनयोः प्रकृष्टा पद्वीपटु- न्तात् अव्ययेभ्यश्च परयोस्तमप्तरपोरन्तस्य 'आम्' तरा, 'क्यङ्मानिपित्तद्धिते' (3 / 2 / 50) इति पुंव- इत्यादेशः भवति, असत्त्वे-तौ तरप्तमबन्तौ यदि द्भावः / सङ्काशेन निवृत्तः साङ्काश्यः, 'सुपन्ध्या- सत्त्वे द्रव्ये इदं तदिति परामर्शयोग्ये प्रकृष्टे न देर्व्यः' (6 / 2 / 84), साङ्काश्ये भवाः पुरुषाः साङ्का- | वर्त्तते / इदमनयोरतिशयेन किं पचति=किंतराम् , श्यकाः, 'प्रस्थपुरवहान्त०' (6 / 3 / 43) इति अकञ्। | इदमेषामतिशयेन किं पचति=किंतमां पचति / * विशेषणादाढयाद्यर्थात् Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०७ पा० 3 मू०९-१० त्यादि,-पचतितराम् ,' पचतितमाम् / अस्मादेव / (इत्येतौ) प्रत्ययौ भवतः / पक्षे यथाप्राप्तं तमप्तरपी वचनात् त्याद्यन्तादपि द्वयर्थप्रकर्षे तरप , बह्वर्थ प्रकर्षे च / तमबर्थे इष्ठो भवति / तरबर्थे ईयसुः / एषां तमप् भवति / एकारान्त,- पूर्वाह्नतराम् , पूर्वा- मध्ये ऽयमतिशयेन पटुः पटिष्ठः, पटुतमः ; लघिष्ठः, ह्णतमा भुङ्क्ते; प्रालेतराम् ,प्राहणेतमाम् ; 'प्रगे- लघुतमः ; गरिष्ठः [गुरुतमः] / अनयोर्मध्येऽयमतितराम् ,प्रगतमाम् ; अग्रतराम् , अग्रेतमाम् ;अव्यय,- शयेन पटुः पटीयान् ,पटुतरः; गरीयान् , गुरुतरः ; "नितराम् , 'सुतराम् , अतितराम् , १०अतितमाम् , लघीयान् , लघुतरः; म्रदीयान् , मृदुतरः ; परुद् वनतराम् ,उच्चस्तराम् ['कचित्स्वार्थे' (73 / 7) त- भवान् पटुरासीत् पटीयानैषमः- पटुतरः / गुणग्रहणं रप् ,उच्चैस्तमाम् / असत्त्वे इति किम् ? किंतरंदारु, किम् ? गोतरः, गोतमः ; [जातिशब्दः] पाचकतमः, उच्चस्तरः, उच्चैस्तमो वृक्षः; १२उत्तरः, उउत्तमः।८। [क्रियाशब्दः] अत्र जातिक्रियाङ्गत्वान्न भवति / अङ्ग ग्रहणं किम् ? शुक्लतमं रूपम् / अत्र हि गुण एव अव०-'द्वाविमौ पचतः, अनयोर्मध्येऽयम- प्रवृत्तिर्न तदुपसर्जने द्रव्ये[स गुण उपसर्जनं-गौणं तिशयेन पचति / सर्वे इमे पचन्ति, एषां मध्येऽय- यत्र द्रव्ये] इति न भवति / ईयसोरुकारः उदित्का. मतिशयेन पचति-पचतितमाम / नामप्रस्तावात यार्थः- पटीयसी // 9 // 'त्यादेश्च प्रशस्ते०' (७३।१०)इति वचनाच्च नाम्न एव प्राप्नुत इति पराशयः / पूर्वाह्न, अग्रे सप्तमीङि / अव-'गुणोऽङ्ग-प्रवृत्तिनिमित्तं यस्य स गुणाङ्गः, "प्रगेशब्दा.ऽग्रेशव्दावव्ययौ सप्तम्यन्तौ,अत्र 'काला तस्मात् / यः शब्दो गुणमभिधाय द्रव्ये वर्त्तते स त्तनतर'० (3 / 2 / 24) इत्यनेन सप्तम्या अलुप्। द्वयो गुणाङ्गः / तथा अर्थवशात् विभक्तिपरिणामः' इति मध्ये प्रकृष्ट प्रगे अग्र वा / एकारग्रहणसामर्थ्यात् न्यायात् पूर्वसूत्रे तयोरिति पष्ठयन्तभिह सूत्रेषु काले सत्त्वेऽपि आम् भवति, नान्यस्मिन् ,एदन्ता तयोरिति सप्तम्यन्तं व्याख्येयम् / तयोस्तमप्तरपोः भावात् / अग्रे शब्दोऽपि कालवाची / अथवा प्राप्तौ सत्यामित्यर्थः / प्रियस्थिरस्फिरोरु०' विभक्त्यर्थो न द्रव्यम् , तत्प्रकर्षेऽत्र तरप्तमपी (7 / 4 / 38) इत्यादिना गुरुशब्दस्य गर / एवं मृदु,भवतः / सु, कोऽर्थः ? शोभनो हेशब्दो यत्य स म्रदिष्ठः, मृदुतमः / पृथुमृदुभशकृशदृढपरिवृढस्य सुहेतरः, अत्र एकारान्तत्वे सत्यपि अनभिधानात् ऋतो रः(४३९) इति ऋकारस्यरः। 'पटीयसी', आम न भवति / तथा जयतीति विच प्रत्ययः, गुणः, अत्र उकारस्य उदित्त्वात् 'अधातूहदितः' (2 / 4 / 2) जे इति क्रियाशब्दः, अत्र तरप , अनभिधानादत्रापि इति ङीः, 'त्रन्त्यस्वरादेः' (74|43 इति उलोपः।९। क्रियाशब्दे आम् न भवति / एवमन्यत्रापि क्रिया शब्दे प्रायेण / नितराम , सुतराम् , 'अतितराम् ; त्यादेश्च प्रशस्ते रूपप् / / 73 / 10 / / एषु ‘कचित्स्वार्थे' (73 / 7) तरप् / ५°बहूनां मध्ये प्रकृष्टमति अतितमाम् / १'नतराम', अत्र नत्रः म० वृ०-त्याद्यन्तान्नान्नश्च प्रशस्तेऽर्थे 'रूपप्' परतः 'क्वचित्स्वार्थे' (737) तर, तत आम् / स्यात् / प्रशस्तं पचति -पचतिरूपम प्रशस्तं पचतः= १२अनयोर्मध्ये १३एषां मध्ये वा अयं प्रकृष उत्कृष्ट पचतोरूपम् ,पचन्तिरूपम् [प्रशस्तः पण्डितः']पण्डिऊों वा-उत्तरः, उत्तमः ||8|| तरूपः / 'पः' पुवद्भावार्थः, शोभनरूपा / / 10 / / 'गुणागाद्वेष्ठ यसू // 7 / 3 / 9 // अव०-'त्यादेश्च'० इति सूत्रे विशेषोऽयम्म० वृ०-गुणप्रवृत्तिहेतोः [शब्दात् ] परस्त- प्रकृतेः प्रवृत्तिनिमित्तस्य वैस्पष्यम्=परिपूर्णता योस्तमप्तरयोर्विषये यथासङ्खयम् 'इष्ठ ईयसु' / प्रशस्यत्वम् / तेनात्रापि भवति,-वृषलरूपोऽयमपि Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पबादिप्रत्ययविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / -* पलाण्डुना-लसनेन सह सुरां पिबेत ,दस्युरू- / न्ते तदा कल्पवाद्यन्तेभ्यस्तमवादयो भवन्त्येव, पोऽयमपि अक्षणोरञ्जनं हरेत् / 'त्यादेश्व०' इत्यत्र यथा-पटुकल्पतरः, एवं पटुकल्परूपः // 11 // सूत्रे पचतिरूपमित्यादिषु त्याद्यन्तानां क्रियाप्रधानत्वात् तस्याश्च क्रियायाः साध्यत्वेन लिङ्गसङ्ख्या प्रव०-'कल्पप् देश्यप्' इत्यत्र पू पुत्रद्भाभ्यामयोगात् रूपप्प्रत्ययान्तस्य औत्सर्गिकमेकवचनं वार्थः, तेन-दर्शनीयकल्पा, दर्शनीयदेश्या। 2 समानपुसकलिङ्गं च भवति / नाम्नस्तु परतो रूपब- प्तिरुच्यते इत्यर्थः। 3 देशोयर' इत्यत्र रकारो 'रिति न्तस्य पुल्लिङ्गत्वं प्रायो भवति,कचित्तु क्लीबत्वमपि / (3 / 2 / 58) इत्यत्र विशेषणार्थः / ईषदसमाप्ता पञ्चपण्डितरूपः,एवं प्रशस्तो वैयाकरण: चैयाकरणरूपः, मी-पञ्चमदेशीया, भत्र तद्धितः स्वरवृद्धि०' ( 3 / 2 / पटुतमरूपः, पटुतररूपः / पः पुवभावार्थः,-अतिश 55) इत्यादिना बद्धावो निषिद्धोऽपि रिति' (3 // येन शोभना=शोभनरूपा, एवं दर्शनीयरूपा // 10 // | 2 / 58 ) इति सूत्रेण पुंवद्भावो भवति इत्यर्थः / अतमवादेरीषदसमाप्त 'कल्पप्-देश्यप-देशीयर् ईषदसमाप्तं पचतः = पचतःकल्पमित्यत्र प्रत्यये' ( 2 / 3 / 6 )- इत्यनेन 'सकारो न भवति, अव्यय॥७।३।११॥ पर्युदासेन नाम्लो ग्रहणात् / ईषदसमाप्तं पचम. वृ०-त्यादेश्चेति वर्त्तते / सम्पूर्णता न्ति। त्याद्यन्तानां क्रियाप्रधानत्वात् तस्याः क्रिपदार्थानां समातिः, सा किश्चिदूना ईषदसमाप्तिः / यायाः साध्यत्वेन लिङ्गसङ्ख्याभ्यामयोगात् कल्पतद्विशिष्टेऽर्थे वर्तमानात्त्याद्यन्तात् नाम्नश्च तम- बादिप्रत्ययान्तस्य औत्सर्गिकमेकवचनं नपुंसकलिङ्ग बाद्यन्तवर्जितात् , 'कल्पप देश्यप् , देशीयर्' भव- | च भवति इत्यक्षरबलात् पचतिकल्पम् पचतःकल्पन्ति / ईषदसमाप्तं पचति पचतिकल्पम् , पचतिदे- | मित्यादिषु एकवचनमेव नपुसकत्वमेव (च) श्यम् , पचतिदेशीयम् / एवं पचतःकल्पम् , "पच- भवति / नाम्नोऽनाम्नो वा परतस्तद्धितो भवन्तिकल्पम् ,पक्ष्यतिकल्पम् , अपाक्षीत्कल्पम् / इद- तीति कुत्रापि न व्याख्यातमस्ति, अतो नाम्नस्त्यामेव त्यादिग्रहणं ज्ञापकं शेषस्तद्धितप्रत्ययो नाम्न एव देश्च तद्धितो भविष्यति; किं पूर्वत्र अत्र च सूत्रे भवति / ईषदसमाप्तः पटुः पटुकल्पः, पटुदेश्यः त्यादिग्रहणेन ? इत्याह- इदमेवेत्यादि / द्राक्षामुखा[पटुदेशीय:]; कारककल्पः [कारकदेश्यः]; [ईषद- ग्रुपमेये वर्तमानम् / उपमेयस्य द्राक्षामुखादेर्लिङ्गसमाप्तं कृतम्] कृतकल्पम् भुक्तदेश्यम् , ईषदस- | सङ्खयां कल्पबाद्यन्तः शब्द आश्रयतीत्यर्थः / उपमाप्तो गुडो-गुडकल्पा द्राक्षा, गुडदेश्या [गुडदे | मेयलिङ्गसङ्घयमित्यस्याग्रे- बहुप्रत्ययपूर्व तु प्रकृतिशीया]; चन्द्रकल्पं मुखम् [वं तैलकल्पा प्रसन्ना] / लिङ्गसङ्ख्यौं भवति स्वभावात् / शब्दशक्तिरेषा यदुत गुडादिधर्माणां माधुर्यादीनां द्राक्षादिध्वीषदसमान स्वार्थिकाः प्रत्ययाः केचित् प्रकृतिलिङ्गान्यतिवर्त्तत्वाद् गुडादित्वेनेषदसमाप्ता द्राक्षादय एवमुच्यन्ते। न्ते-मुञ्चन्ति, यथा- Aकुटीरः, Bशुण्डारः, Cशकल्पबाद्यन्तम् ( नाम ) उपमेये वर्तमानमुपमेय- मीरुः, Dशमीरः, दैवतम् , Fऔपयिकम् , Gऔ'लिङ्गसङ्खयम् / बहुप्रत्ययपूर्व तु प्रकृतिलिङ्ग- षधम् , Hवाचिकम् / केचित्तु नातिवर्तन्तेन सङ्ख्यौं भवति स्वभावात् / अतमबादेरिति किम् ? / मुश्चन्ति,-यावकः, मणिकः,वृहतिका,मृत्तिका,गोणीयदा प्रकर्षादिविशिष्टस्येषदसमाप्तिविवक्षा भवति / तरी, व्यावक्रोशी / Aह्रस्वा कुटी कुटीरः, Bह्रस्वा तदा तमबादिभ्यः कल्पबादयः प्राप्नुवन्त्यतस्ते / शुण्डा-शुण्डारः ; 'कुटीशुण्डाद्रः' (73 / 47) इति मा भूवन्। यदा त्वोषदसमाप्तस्य प्रकर्षादयो विवक्ष्य- / रः। C-Dह्रस्वा शमी-शम्या रुरौं' (73 / 48) इति *"पलाण्डुः सुकन्दकः द्वे पलाण्डो:, 'कान्दा' इति प्रसिद्धस्य' इत्यमरकोशस्यामरविवेकाभिधवृत्तौ / 'पलाण्डुः कन्दविशेषः' इति हैमलिङ्गानुशासने, तदीयदुर्गपदप्रबोधवृत्तौ-'कन्दविशेष इति लोके 'इंगली' इति प्रसिद्धिः" इति / Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 3 सू० 12-16 रुः, रः। Eदेव एव-देवता, देवात्तल' (12 / 162), / रकः / प्रशस्तः पटुः-रूपप , कुत्सितः पटुरूपः= ततो देवतैव-दैवतम् , 'प्रज्ञादिभ्योऽण' (7 / 2 / 165) / पटुरूपकः / छिन्नभिन्नादयः / / 13 / / Fउपाय एव–औपयिकम् , 'उपायाद् ह्रस्वश्च'७।२।१७०) अनत्यन्ते // 7 / 3 / 14 // इकण , ह्रस्वश्च / Gओषधिरेव-श्रोत्रौषधि०' (7) 2 / 166 ) इत्यण् / Hसन्दिष्टा वाक्-वाचिकम् , म० वृ०-[न अत्यन्तमनत्यन्तम् , तस्मिन् | 'वाच इकण्' ( 7 / 2 / 168 ) / १°एवं पटुदेश्यतमः, अनत्यन्तेऽर्थे यः कप् तदन्तात् 'तमबादिन' स्यात् / / पटुदेश्यतरः, पटुदेश्यरूपः // 11 // छिन्नाद्यर्थ वचनम् / अनत्यन्तं छिन्नं 'छिन्नकम् , नाम्नः प्राग्बहुवा / / 7 / 3 / 12 // भिन्नकम , इदमेषां प्रकृष्टं छिन्नकम् , अनयोः प्रकृष्टं म० वृ०-ईषदसमाप्तेऽर्थे वर्तमानान्नाम्नो छिन्नकम् , भिन्नकम् / यदा तु प्रकर्षवतोऽनत्यन्त'बहुः' प्रत्ययो वा स्यात् , स च प्राक् पूर्वमेव [प्र विशिष्ठविवक्षा भवति तदा तमबाद्यन्तात् 'तात्तकृतेः पूर्वमेव, प्रकृतेर्न परस्तात् ] / ईषदसमातः मबादेश्चानत्यन्ते' (7 / 3 / 56 ) इति कप् भवत्येव,- . पटुः बहुपटुः, बहुभुक्तम् , बहुपीतम् , 'बहुगुडो छिन्नतमकम् , छिन्नतरकम् // 14 // द्राक्षा, बहुचन्द्रो मुखम् / नामग्रहणं त्याद्यन्तनिवृत्यर्थम् / त्याद्यन्तेषु सावकाशाः कल्पबादयो बहुना प्रव०-अनत्यन्तं छिन्नं छिन्नकमिति वाक्ये मा बाधिषत इति वावचनम् / तेन पक्षे तेऽपि 'क्तात्तमबादेश्चानत्यन्ते (73 / 56)' इत्यनेन कप , भवन्ति // 12 // तत इदमेषामित्यादि प्रत्ययकारणे वाक्यं ज्ञातव्यम्। अव०-'ईषदसमाप्तो गुडो-बहुगुडो द्राक्षा / प्रथममिदमेषां प्रकृष्टं छिन्नं छिन्नतमम् / इति ) एवं बहुतैलं प्रसन्ना मदिरा / इत्यादिरित्यधिकार- तमप , पश्चात् अनत्यन्तं छिन्नतमं छिन्नतमकम् / निवृत्त्यर्थम् // 12 // एवं छिन्नतरकम , भिन्नतमकम् , भिन्नतरकम् / / 14 / / न तमबादिः कपोऽच्छिन्नादिभ्यः / 7 / 3 / 13 / यावादिभ्यः कः // 7 / 3 / 15 // म० वृ०-छिन्नादीन् वर्जयित्वाऽन्यस्मान्नाम्नो यः कप् तदन्तात् [कप्प्रत्ययान्तात् ] "तमबादिर्न' | म० वृ०-याव इत्यादिभ्यः म० वृ०-याव इत्यादिभ्यः स्वार्थे'कः'प्रत्ययः स्यात् / भवति [ किंतु वाक्यमेव ] / एषां मध्येऽयं प्रकृष्टः / याव एव-यावकः, [ मणिरेव ] मणिकः // 15 // पटुकः, अनयोर्मध्ये प्रकृष्टः पटुकः / [प्रकर्षादिमतः] कुत्सितादिविवक्षायां तमबाद्यन्तेभ्यः कप् भवत्येव,- प्रव०-याव, मणि, अवि, अस्थि, लात्र, पात्र, एषां मध्येऽयमतिशयेन पटुः=पटुतमः,कुत्सितः पीत, स्तब्ध, ज्ञात, अज्ञात, पुण्य, नित्य, सत्वत् , पटुतमः= २पटुतमकः, पटुरूपकः, पटुकल्पकः, दशाई, वयस् , चन्द्र, जानु, भूत, भिक्षु इति यावा,पटुदेश्यकः / कप इति किम ? कुटीरतमः / अच्छिन्ना दिराकृतिगणः / तेन अभिन्नतरकं बहुतरकमित्यादि दिभ्य इति किम् ? कुत्सितोऽल्पोऽज्ञातो वा छिन्नः= सिद्धम् // 15 // छिन्नकः, एषामयमतिशयेन छिन्नकः छिन्नकतमः, छिन्नकतरः, छिन्नकरूपः, छिन्नककल्पः / छिन्नादयः कुमारीक्रीडनेयसोः // 7 / 3 / 16 / / प्रयोगगम्याः / 13 / म० वृ०-कुमारीणां यानि क्रीडनानि तद्वा.. प्रव०-१तमप् , तरप, रूप, कल्पप् , | चिभ्य ईयस्प्रत्ययान्तेभ्यश्च, स्वार्थे 'कः' स्यात् / देश्यप ,देशीयर् एते तमबादयः प्रत्ययाः / २'कुत्सि | कन्दुरेव कन्दुकः, उत्कण्ठकः इत्यादि / ईयसु,ताल्पाज्ञाते' (73.33 ) इति कप। (एवं) पटुत- / श्रेयानेत्र-श्रेयस्कः, ज्यायस्कः // 16 // Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [475 प्रव०-'कन्दुकः दडओ. * उत्कण्ठकः, कुल्ह / वर्णे, लोहितकमक्ष्णो रूपं कोपेन, लोहितकमक्षि डकः, गिरिकः दडओ, समुद्कः सउंाडो, - कोपेन' / वाधिकाराद् [महागाधिकाराद् न भवदोलैव दोलिका, हिण्डोलकः, भ्रमरकः, शङ्गकम् / त्यपि,-लोहिता लोहिनी वा कोपेन / अनित्यग्रहणं (इनि। आदिशब्दान प्रयोगाः / अयं प्रशस्यः, अय- किम् ? लोहित इन्द्रगोपकः // 18 // मनयोर्मध्ये ( प्रकृष्टः) प्रशस्य -श्रेयान् , 'गुणगा०' अव-रक्तानित्यवर्णयोः' इति सूत्रेऽपि पूर्व७।३।९) इति ईयस् , 'प्रशम्यस्य श्र.' (74 / 34 ) | सूत्रवत लिङ्गविशिष्स्यापि ग्रहणात A लोहिनिका 'श्र' इत्यादेशः / 'वृद्धः, अनयोर्मध्ये प्रकृष्टो वृद्धः शाटी, B लोहितिका पटी इति प्रयोगद्वयं ज्ञेयम् / ईयस् , वृद्धस्य च ज्यः' ( 74 / 35 ) इत्यनेन वृद्ध. Aलोहिनिका इत्यत्र के कृते आपि कृते 'ह्यादीदूतः शब्दस्य 'ज्य' इत्यादेशः, 'ज्यायान्' (7 / 4 / 36) इति के' ( 2 / 4 / 104 ) इति ह्रस्व इकारः / Bलोहितिका सत्रेण ई यसप्रत्ययस्य ईकारस्य आकार आदेशः, इत्यत्र तु 'इच्चापुसोऽनित०' / 2 / 4 / 107 ) इत्यनेन ज्यायाने व ज्यायस्कः // 16 // आकारस्य इकारः। अत्रापि लोहिनिका, लोहितिका लोहितान्मणौ // 7 / 3 / 17 // कन्या कोपेन इत्यपि प्रयोगद्वयं ज्ञातव्यम् / साध___म० वृ०-लोहितात् मणौ वर्तमानात् स्वार्थे निका पूर्ववत्कर्त्तव्याऽनयोः / ननु रक्ते वस्तुनि 'कः' म्यात् वा.। लोहितको मणिः / लिङ्गविशि अनित्य एव वर्णो भवति, यथा हरिद्रादौ, तस्मात् प्रस्यापि ग्रहणात लोहिन्येव. लोहिनिका मणिः, अनित्यवर्णे एव प्रत्ययः सिध्यति, किमर्थ रक्तानिलोहितैव लोहितिका मणिः / वाधिकारात् महा त्यवर्णयोरित्यत्र रक्तग्रहणमित्याह-नित्योऽपि रक्को वाधिकारात् ] न भवत्यपि,लोहितो मणिः / / 17 / / वर्णोऽस्ति / नित्योऽपि इति कोऽर्थः ? यावदाश्रयः तावत्स्थायीत्यर्थः / अयं विशेषो 'रक्तानित्यः' इति ___ अब०-'सूत्रोदाहरणे लोहित इत्येव शब्दः, सूत्रे बोद्धव्यः / तथा सत्येवाश्रयद्रव्ये अपयन् अपगलोहित एव लोहितको मणिः / “लिङ्गग्रहणे लिङ्ग च्छन् विनश्यन् इहानित्य उच्यते, अन्यथा रक्तग्रहविशिष्टस्यापि ग्रहण"मिति न्यायात् लोहिनीलोहिता णस्याऽऽनर्थक्यात् // 18 // इति शब्दद्वयं गृह्यते, ततो लोहिनिका लोहितिका कालात् // 73 // 19 // मणिः इति प्रयोगद्वयं सिद्धम् / रोहित इति शब्दो म० वृ०-कालशब्दात्कजलादिना रक्ते अनिरक्तेऽर्थे वर्त्तते, रोहितः, लत्वे तु लोहितः, 'श्ये | त्यवर्णे चार्थे [वर्त्तमानात् ] 'कः' स्यात् वा / रक्ते,तैतहरितभरतरोहिताद्वर्णात्तो नश्च' 2 / 4 / 36 ) काल एव कालकः पटः, अनित्यवणे,- कालकं मुखं इत्यनेन डी वा भवति, यत्र ङी तत्र रोहिततकार- विषादेन [चिन्तया विलक्ष्येण वा ] / वाधिकारान्न स्य नकारः, लोहिनी इति शब्दो निष्पन्नः / "पक्षे / भवत्यपि,-कालः पटः, कालं मुखम् / / 19 / / लोहिता,आप् / मणाविति किम् ? लोहिता गौः // 17 // शीतोष्णातौ // 7 // 3 // 20 // रक्तानित्यवर्णयोः // 7 // 3 // 18 // __म० वृ०-शीतोष्णाभ्यामृतौ वर्तमानाभ्यां 'कः' म० वृ०-रक्ते लाक्षादिद्रव्यान्तरेण वर्णान्तर- | स्याद्वा / [शीत एव=] शीतकः ऋतुः, [उष्ण एव= ] मापादिते अनित्ये च वर्णे वर्तमानाल्लोहितान् ‘को' | उष्णक ऋतुः / ऋताविति किम् ? शीतो वायुः, वा स्यात् / रक्ते,-लोहित एव लोहितकः / अनित्य- | उष्णः स्पर्शः / / 20 / / * तदुक्तं श्रीहैमलिङ्गानुशासनम्य दुर्गपदप्रबोधाख्यवृत्तौ-'कन्दुक इति दडयो"। साम्प्रतं तु 'दडो' इति लोकभाषा / *"गिरिरिति इह गिरिशब्देन 'दडो' इत्युच्यते" इति हैमलिङ्गा० दुर्गपदप्रबोधवृत्तौ / // इदानीं 'दाबडो' इति लोकभाषा। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०७ पा० 3 सू० 21-27 लून-वियातात् पशौ / / 7 / 3 / 21 // बृहतिका इत्यत्र 'ड्यादीदूतः के' ( 2 / 4 / 104 ) इति म० वृ०-लूनवियातशब्दाभ्यां पशौ वर्तमाना- हस्त्रः। बृहतिका इत्यत्र कप्रत्ययं विनाऽर्थानवगमात् भ्यां स्वार्थे वा 'क:' स्यात् / [लून एव= ] लूनकः, [अर्थापरिज्ञानात् ] नित्य एव कप्रत्ययविधिः, न वियातकः पशुः / पशाविति किम् ? लूनो यवः, विकल्पेन। तथा सूत्रादयोऽर्थाः प्रत्ययमन्तरेण न वियातो बटुः // 21 // प्रतीयन्ते इति तद्विषये तन्वादि( सर्व )शब्देभ्यो नित्य एव कप्रत्ययविधिः इति केचिदाहुः / एवं प्रव०-'लूनवियात०' इति सूत्रे केचित् विहा पूर्वसूत्रेऽपि ज्ञातव्यम् / शून्यशब्दात रिक्तेऽर्थे कः नशब्दादपि कप्रत्ययमिच्छन्ति,-विगतं हानं गमनं स्यात् / रिक्तः प्रज्ञासमृद्धिकलादिभिः, तस्मिन् अस्य (इति विहानः, विहान एव= विहानकः पशुः, रिक्ते / (शून्य इत्यत्र) 'शुनो वश्वोदून्' (7 / 1 / 33 ) क्षीणरेता इत्यर्थः / अयं विशेषो ज्ञेयः // 21 // इत्यनेन यः, वकारस्य ऊत् // 23 // .. भागेष्टमाञः // 73 // 24 // ___ स्नाताद्वेदसमाप्तौ / / 7 / 3 / 22 // म० वृ०-स्नातशब्दावेदसमाप्तौ गम्यमानायां म० वृ०-अष्टमशब्दाद्भागेऽशे वर्तमानात् स्वार्थे 'यो वा' स्यात् / अष्टम एव आष्टमो भागः / भाग 'कः' स्यात् / वेदं समाप्य स्नातः स्नातकः / वेदसमाप्ताविति किम् ? तीर्थस्नातः / / 22 / / इति किम् ? अष्ठमो जिनश्चन्द्रप्रभः // 24 // षष्ठात् // 7 // 3 // 25 // तनु-पुत्रा-ऽणु-बृहती-शून्यात् सूत्र-कृत्रिमनिपुणा-ऽऽच्छादन-रिक्ते // 7 // 3 // 23 // म००-षष्ठाद्भागे स्वार्थे 'यो वा' स्यात् [षष्ठ एव= पाष्ठो भागः / भाग इति किम् ? षष्ठो म० वृ०-तनु,पुत्र, अणु, बृहती, शून्य एभ्यो | जिनः पद्मप्रभः / [योगविभाग उत्तरार्थः] // 25 // यथासङ्ख्यसूत्र,कृत्रिम,निपुण,आच्छादन,रिक्त इत्यर्थेषु स्वार्थे 'कः' स्यात् / 'तनु सुत्रम्=तनुकं भङ्गादिमयं माने कश्च // 73 / 26 // कल्पादि च / रकृत्रिमः पुत्रः पुत्रकः / कृत्रिम इति म. वृ०-'माने भागेऽर्थे षष्ठात् 'कः चकाकिम् ? औरसः / अणुकः / निपुण इति किम् ? रात् पश्च' वा स्यात् / [षष्ठ एव=] षष्ठकः, षाष्ठो अणुर्कीहिः / 'बृहतिका आच्छादनविशेषः / आच्छा- भागः मानं चेत् / मान इति किम् ? षाष्ठः / 26 / दन इति किम् ? बृहती छन्दः, बृहती ओषधिः / प्रव०-'मोयते येन तन्मानम् , तस्मिन् मान'शून्य एव शून्यकः / रिक्ते इति किम् ? शुने हितं-शून्यम् // 23|| रूपे भागेऽणे षष्ठशब्दात 'कः ( चकाराद् बश्व )' प्रत्ययः स्यात् इति सूत्रार्थो व्याख्येयः / षष्ठ एव प्रवo-तनुशब्दात्सूत्रेऽर्थे को भवतीति सर्वत्र षाष्ठो भागोऽन्यः / इत्यु ( ? इति प्रत्यु )दाहरणं सम्बन्धः कार्यः / तन्वेव-तनुकम् , भङ्गो धान्यभेदः, ज्ञेयम् , 'षष्ठात्' (7 / 3 / 25) इति बः // 26 // तदादिमयं भण( ? तृण )सूत्रादि अथवा कल्पव्यव एकादाकिन् चासहाये / / 7 / 3 / 27 / / हारनिशीथादि / सूत्रे इति किम् ? तनुर्वशः / पुत्रशब्दात्कृत्रिमेऽर्थे / तक्षादिव्यापारनिष्पादितो घटित म० वृ०-एकशब्दाद् असहायार्थवाचिन आकिन रूपः कृत्रिमः पुत्रो ज्ञातव्यः / उरसा कृतः औरसः, चकारात् कश्च' स्यात् / एक एव एकाकी, [एक. 'उरसों याणी' (6 / 3 / 169) / अणुशब्दानिपुणेऽर्थे / एव=Jएककः / असहाय इति किम् ? एके ( अन्ये ) अणुरेव अणुकम् ,निपुणो निष्णातोऽणुः अणुकः इत्थ आचार्याः, रएको द्वौ बहवः / / 27|| मेव वाक्यं कार्यम् / बहतीशब्दात् आच्छादनेऽर्थे / / प्रव०-१सह एतीति सहायः, 'तन्व्यधीण' Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कप्प्रत्ययाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम [477 (5 / 1 / 64) इति णप्रत्ययः / २"एको द्वौ बहव' इत्यत्र / सर्वके, परमविश्वके / तदन्तस्यापि सर्वादित्वमएकत्वसङ्खयाया द्वित्वादिप्रतियोगिता एव Aविव- स्तीत्यत्राप्यक् / / 29 / / क्षितास्ति, न त्वसहायता / B अत एव 'एको' इत्यस्याग्रे द्वौ बहव इति दर्शितम् / A प्रतियोगी प्रति प्रव०-एवं कुत्सितमल्पमज्ञातं वा (पचतः=) पक्षी। Bद्वित्वादिसङ्ख्याप्रतियोगिताज्ञापनाय // 27 // पचतकः,पचन्ति=पचन्तकि। यदने पितृ,यकश्चासौ पिता चअथवा कुत्सितादिविशिष्ठस्य यस्य पिता=यकप्राग नित्यात् कम् // 7 / 3 / 28 // पिता, अथवा यकस्य पिता=यकपिता, 'त्यादिम. वृ-नित्यशब्दसंकीर्तनात् 'प्राग सर्वादे' रित्यनेन अक् / स्वरेष्वन्त्यादिति किम् ? येऽर्थान्तेषु द्योत्येषु कप्प्रत्ययोऽधिकृतो ज्ञेयः / / त्याद्यन्तात् सर्वादेश्व पूर्वमको मा भूत / स्वरेष्वन्त्यात् अश्वकः 3 / प्र.पंवद्भावार्थ:-उदारदिका ! एके आ- | इत्यस्य हि अभावे 'त्यादिसर्वादेः पूर्वोऽक्' इति चार्याः, एको द्वौ बहवः / प्राग नित्यादित्यवध्यर्थम्। सूत्रं भवेत्ततोऽयमेवार्थः स्यादित्यर्थः / पूर्व इति अन्यथापवादबाधितो नोत्तरत्रानुवर्तेत, परतोऽपि किम् ? परो मा भून् / उत्वकल्पिता 4 मकत्पिता अनुवर्तेत // 28 // इत्यत्र युष्मद्, अस्मद् ; अग्रे पितृशब्दः, तवकः पिता-त्वकतपिता, ममकः पिता-मकत्पिता, अथवा कत्सितस्य तव पिता त्वकतपिता, कुत्सितादिविअव०-'अग्रतो वक्ष्यमाणं 'नित्यं बबिनोऽण्' (73 / 58) इति सूत्रं यावदित्यर्थः / रकु शिष्टस्य मम पिता मकपिता / बहुव्रीहिव|ऽन्यः त्सितोऽल्पोऽज्ञातो वा अश्वः / 'दरद्. दरदां राज्ञी= समासः कार्यः, बहुव्रीहौ तु 'ऋन्नित्यदितः' (7 / 3 / दारदी. 'पुरुमगधकलिङ्ग' (6 / 1 / 116) इत्यण , 171) इत्यनेन कच् स्यात् / 'त्वमौ प्रत्ययोत्तर'रषणोऽप्राच्य०' (6 / 1 / 123) खियामणो लुप् , पदे०' (2 / 1 / 11) इत्यनेन युष्मदस्मत्स्थाने [यथापुनर्दरद् इति शब्दो जातः, कुत्सिता दरद् इति संख्यं] त्व म इत्यादेशौ / / 29 // वाक्ये दारदिका, 'प्राग नित्यात्कप्' (7 / 3 / 28) युष्मदस्मदोऽसोभादिस्यादेः // 73 // 30 // इति कप् , 'क्यङ्मानिपित्तद्धिते' (3 / 2 / 50) इत्य ___म० वृ०-युष्मद् अस्मद् इत्येतयोः सकाराद्यो'नेन अणलोपनिवृत्तिरूप एव पुंबद्भावः कल्पनीयः, कारादिभकारादिवजितस्याद्यन्तयोः स्वरेष्वन्त्यात् तदनन्तरम 'आत' (.2 / 4 / 18) इत्यनेन आप, पूर्वो-'sक्' स्यात् / युष्मदस्मदोः स्वरेष्वन्त्यात् 'अस्यायत्तत्०' (2 / 4 / 111) इति इत्वम् / यदा त्व पूर्वस्य [ पूर्वसूत्रस्य ] अपवादः / त्वयका, मयका ; पत्यऽण् क्रियेत तदा गोत्रं च चरणैः सह' इति त्वयकि, [मयकि] युष्माककम् , [ अस्माककम् ] जातित्वे 'स्वाङ्गान्दीर्जातिश्च०' (3 / 2 / 56) इत्य "परमत्वयका / युष्मदस्मद इति किम् ? तकया, नेन पुंवद्भावनिषेधः स्यात् / अकादिभिरपवाद- यकया, सर्वकेण, [ विश्वकेन ] इमकेन, [अमुसूत्रः // 28 // केन, इमकैः] भवकन्तौ, 5 भवकन्तः / असोभादित्यादिसर्वादेः स्वरेष्वन्त्यात्पूर्वोऽक् / / 7 / 3 / 29 / / स्यादेरिति किम् ? युष्मकासु, [अस्मकासु ] युव कयोः, [आवकयोः] युवकाभ्याम् , [ आवकाभ्याम् ] म० वृ०-त्याद्यन्तस्य सर्वादीनां च स्वरेषु स्वराणां युष्मकाभिः [अस्मकाभिः // 30 // मध्ये योऽन्त्यः स्वरस्तस्मात् पूर्वोऽ'क्' स्यात् / प्राग नित्यात्कपोऽपवादः / कुत्सितमल्पमज्ञातं वा पचति= प्रव०-पूर्व त्वया रमया इति पदं प्रसाध्य पचतकि' / सर्वादि,- सर्वके, [विश्वके] सर्वकस्मै, | ततः कुत्सितादिविशिष्टेन त्वया त्वयका, कुत्सिताश्यकपिता, उत्वकपिता, "मकत्पिता, परम- | दिविशिष्टेन मया मयका इति वाक्ये कृते, 'युष्म Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन | अ०७ पा०३ सू०३१-३३ दस्मदो०'इति सूत्रेण अक् टाविभक्तेः पूर्वम् / एवं | निपात्यते / प्राग नित्यादकोऽपवादः / तूष्णीकामास्ते त्वयकीत्यापि साध्यम। तथा “परमश्चासौ त्वं तूष्णीकां तिष्ठति // 32 // च परमत्वम् , एवं) परमश्चासावहं च परमाहम् , तेन परमत्वया, परममया; कुत्सितादिविशिष्टेन पर- अव०-कुत्सितमल्पमज्ञातं वा तूष्णीम् // 32 / / मत्वया परमत्वयका, एवं कुत्सितादिविशिष्टेन 'कुत्सित-ऽल्पा-ज्ञाते // 73 // 33 // परममया परममयका / अत्रापिप्राग्वत् तदन्तस्यापि सर्वादित्वमिति योजनीयम् , ततोऽक् / ५'भवकन्तौ, म० वृ०-कुत्सिताल्पाज्ञातोपाधिकेऽर्थे यथाभवकन्तः'; अत्र 'ऋदुदितः' (1 / 4.70) इति नोऽ. यो कबादयः प्रत्यया भवन्ति / कुत्सितोऽल्पोन्तः / भवकन्तौ भवकन्त इत्युदाहरणाने विशेषोऽ- | ऽज्ञातो वा अश्वोऽश्वकः,४ खरकः, घृतकम् , यं ज्ञातव्यः, केचित् भवत्शब्दस्यापि स्याद्यन्त- तैलकम् / पचतकि, भिन्धकि / सर्वके, विश्वके, स्यान्त्यस्वरादेः पूर्वमकमिच्छन्ति, तन्मते कुत्सितेन उच्चकैः, (नीचकैः) तूष्णीकाम् / कथं कुत्सितकः, . . भवता-भवतका, कुत्सिताय भवते भवतके कुत्सि- अल्पकः, अज्ञातकः ? कुत्सादीनां भेदोपपत्तेः कुत्सातात् भवतः भवतकः, कुत्सिते भवति-भवतकि दिशब्देभ्योऽपि कुत्सिताद्यर्थे प्रत्ययो भवति, प्रकृ. इत्यपि उदाहरणावली वृद्धसम्मताऽस्ति // 30 // ष्टतर इत्यादौ प्रकर्षभेदे तरबादिवत् / राधकः, पूर्णकः, शूद्रक इत्यादौ सत्यामपि संज्ञायां कुत्सायोअव्ययस्य को द् च // 73 // 31 // गात् कुत्सिते इत्येव कप् / व्याकरणकेन नाम त्वं म० वृ०-प्राग नित्याद् येऽर्थास्तेषु द्योत्येष्वव्य- | गर्वितः इत्यादाववक्षेपणमपि [आक्रोशनमपि ] यशब्दस्य स्वरेष्वन्त्यात् स्वरात् पूर्वमक, तद्योगे | कुत्सितमेव / १"नह्यकुंत्सितेनावक्षिप्यते // 33 // यत्ककारान्तमव्ययं [अव्ययशब्दः] तस्य द् इत्यन्तादेशश्च स्यात् / कपोऽपवादः / कुत्सितमल्पमज्ञातं वा अव०-कुत्सितया तया-तकया, कुत्सितया उच्चैरुच्चकैः, [नीचैस् ] नीचकैः, धिक् धकिद्, | यया यकया ; सर्वत्र पूर्वेणाक् / 'कुत्सितं निन्दितमुपृथक पृथकद् / चकारोऽन्वाचये, तेन सर्वस्याव्यय- च्यते। अल्पं महत्प्रतियोगि, महत्प्रतिपक्षमित्यर्थः। स्याक् स्यात् , 'ककारान्तस्य तु अक् द् अन्तादेशश्च / अज्ञातं प्रकृत्युपात्तधर्मव्यतिरेकेण केनचिन्नरेण योगविभागः'त्यादेःद् इत्यादेशाभावार्थ: अशाशक् , स्वकीयत्वेन धर्मेण अनिश्चितम् , सर्वथा त्वज्ञाते हि अकि,-अशाशकक् // 31 // प्रयोगाऽयोगात् / अश्वकः, खरकः, घृतकम् , तैल कम् ; एषु चतुर्ष 'प्राग मित्याल्कप् '(7 / 3 / 28) इत्यअव०-अक् द् द्वयमपि भवति / 2 'त्यादे'रिति, नेन कप भवति / 'पचतकि, भिन्धकि, सर्वके, त्यादेः सर्वादेश्वं पूर्वसूत्रेण 'त्यादिसर्वादेः स्वरेष्व- विश्वके ; एषु चतुर्यु 'त्यादिसर्वादेः'० (73 / 29) न्त्यात्'० (7 / 3 / 29) इत्यनेमाक् भवत्येव / उ'शक्ल- इत्यनेन अक् / उच्चकैः (नीचकैः) द्वयोः 'अव्ययस्य ट शक्ती' यङ, द्वित्वम, ततो यको लप ह्यस्तनीदिव . को द् च' (7 / 3 / 31) इति अक् / "कुत्सित, अल्प, 'व्यञ्जनाद् देः सश्च दः' (4 / 3 / 78 इत्यनेन दिव लुप्यते, अज्ञात इत्यादिनामप्रसिद्धकुत्सिताल्पाज्ञात पुरुषादिअशाशक इति सिद्धम , अकि तु क्रियमाणे अशाशका / शब्देभ्यः। कुत्सिते इत्येव इत्यस्था यम्भाष:- अन्यैः इति भवति // 31 // कैश्चिद् "अज्ञाते कुत्सिते चैत्र, संज्ञा यामनुकम्पने ; " तूष्णीकाम् // 73 // 32 // नयुक्तनीतावप्यल्पे, वाच्ये ह्रस्वे च कः स्मृतः // 1 / / इत्युक्तं तदिह न वक्तव्यम् / कुत्सिते एवार्थे कप् , म० वृ-तूष्णीमो मकारात्पूर्व 'का' इत्यागमो - कुत्सायोगान , न संज्ञावर्थे / व्याकरणं कुत्सनं वैया Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पा-तद्यक्तनीत्योः कवादयः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / करणस्तु कुत्सित इति व्याकरणात् कथं कप् प्रत्यय | रात्पूर्वमक्। “त्वकम्' इत्यत्र त्वम्, 'युष्मदस्मदो इत्याशङ्कयाह-इत्यादाववक्षेपणमपीत्यादि / १°अकु- ऽसोभा०' ( 7 / 3 / 30) इत्यनेन अक् / पश्यसि त्सितः अनिन्दितः पुरुषो जनैर्न अवक्षिप्यतेन इत्यत्र 'त्यादिसर्वादे:०' / 7 / 3 / 29 ) इति अक् , पराभूयते / / 33 // पश्यसकि इति प्रयोगः / हे पुत्रक त्वकं त्वम् नक पश्यसकि, न पश्यसीत्यर्थः / 'प्रणिलीयते' इत्यत्र अनुकम्पा-तयुक्तनीयोः // 73 // 34 // 'अकखाद्यषान्ते पाठे वा' (2 / 3 / 80) इत्यनेन णकारः म० वृ०-अनुकम्पायां तयुक्तायां च नीतौ गम्य // 34 // माना यां यथायोगं 'कबादयः' स्युः / पुत्रकः, वत्सकः, बालकः, बुभुक्षितकः, शनकैः, स्वपिकि, अजातेन॒नाम्नो बहुस्वरादियेकेलं वा स्वपिषकि जल्पतकि, एहकि, अनुकम्पमान एवं / / 7 / 3 / 35 // प्रयुङ्क्ते.-पुत्रक, एहकि, उत्सङ्ग के उपविश. कण्ट म० वृ०-तद्युक्तनीताविति नानुवर्त्तते / २मकस्ते लग्नकः, हन्त ते गुडकाः, रहन्त ते धानकाः नुष्यनाम्नो बहुस्वरादनुकम्पायाम 'इयेकेला' [अद्धकि] / अत्र उपविश, असि, तिष्ठ, ओदनं भवन्ति वा, यदि मनुष्यनाम जातिशब्दो न भवति / भोक्ष्यसे (हन्त ते) एवनभिधानान्न भवति / अनुकम्पितो देवदत्तो= देवियः, देविकः, देविलः / 'नक त्वकं पुत्रक पश्यसकि, असको [अक] वावचनात् 'कबपि,-देवदत्तकः , जिनदत्तकः / कासको कच्] वृक्षके कप्]. उच्चकैः [अक ] अजातेरिति किम् ? महिषकः, वराहकः, गर्दभकः / प्रणिलीयते; अत्राभिधानाद् भवति // 34 / / एते जातिशब्दा मनष्यनामानि च / अजातेरिति अवल-अनुकम्पा कारुण्येन परस्यानुग्रह उच्यते / प्रायिको निषेध इत्यन्ये, व्याघ्रिलः, "सिंहिलः / तथा तयाऽनुकम्पया युक्ता नीतिः तद्यक्तनीतिः / नृग्रहणं किम् ? [अनुकम्पितो देवदत्तः=] देवदत्तकः, नीतिः सामदामभेददण्डानां प्रयोगः / तत्रानुकम्पायां देवदत्त इति नामा हस्ती कश्चित् / / 35 / / सामदाने एव. न भेददण्डौ ; तयोर्भेददण्डयोग्नुकम्पाया अप्रयोगात् इत्यक्षराने अनुकम्पायां तद्युक्ता अव०-"नानुवर्तते' किमिति ? अनुकम्प्यायामित्यादिसत्रार्थव्याख्यान मन्तव्यम। तथा अन देव प्रत्ययविधानात् , सूत्रे नृनाम्न इत्युक्ते सति नृनाम्न हि अनुकम्पैव घटते,न नन्नीतिः / निनाम्न कम्पा तन्नीतिश्चप्रयोक्तृधर्मी ज्ञातव्यौ / अनुकम्पितो वत्सो-वत्सकः / एवमग्रेऽपि / अत्र कबन्तात् विभ इत्यस्यार्थः / उगम्यमानायाम् / 'अनुकम्पितो देवक्तिः / हन्त ते गुडकाः, 'हन्त ते धानकाः अद्धकि दत्तो देवियः, देविकः,देविलः ; एवमनुकम्पितो भक्षय ; अद् धातु , पञ्चमीहि, 'हुधुटो हेर्धिः'(४।२। जिनदत्तो-जिनियः, जिनिकः, जिनिलः ; 'अजा८३) इति हिस्थाने धि ; अत्र उदाहरणद्वये गुडेन तेनु नाम्नो०' इत्यनेन इयादिप्रत्यये कृते 'द्वितीमिश्रा धाना इति विग्रहे ते लुग्वा' (3 / 2 / 108) इति यात्स्वरादूर्ध्वम्' (7 / 3 / 41) इत्यनेन दत्त इति शब्दो सूत्रेण उत्तरपदलोपे गुडका इति प्रयोगः, पूर्वपद- लुप्यते / 'अनुकम्पातयुक्त०' ( 7 / 3 / 34 ) इत्यनेन लोपे तु धानका इति प्रयोगः,धानागुडशब्दलोपे कृते कप् / 'च्याघ्रिल:, "सिंहिल ; अत्र व्याघ्र सिंह इत्येवं'अनुकम्पातधुक्तनीत्योः' ( 7 / 3 / 34)' इत्यनेन कप् विधा द्विस्वरैव प्रकृतिर्विज्ञेया, न तु व्याघ्रदत्त सिंहभवति. धानका इत्यत्र तु धानाशब्दः, कपि सति दत्त इत्यनेकस्वरा ; द्विस्वरयोरेव व्याघ्रसिंहयोरन'इच्चापुंसोऽनित्०' (2 / 4 / 107) इत्यादिसूत्रेण ह्रस्वः, योर्जातिवाचित्वात् // 35 // धानका इति सिद्धम् / निशब्दः न इति लिख्यते, वोपादेरडाको च // 73 // 36 // 'अव्ययस्य को द् च' (13131) इत्यनेनान्त्यस्व- म० वृ०-उपपूर्वादजातिरूपान्ननाम्नो बहुम्व Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०७ पा० 3 सू०३७-३९ रादनुकम्पायाम् ' अडाको ' चकारात् 'इयेकेला' | आशिस् लुप्यते / A 'धुटस्तृतीयः' ( 2 / 1 / 76 ) इति वा भवन्ति। अनुकम्पित उपेन्द्रदत्तः='उपडः,उपकः, गकारः // 37 // उपियः, उपिकः, उपिलः / पक्षे कबपि- उपेन्द्रदत्तकः लुक्युत्तरपदस्य कप्न् / / 7 / 3 / 38 / / // 36 // म० वृ०-'ननाम्नो यदुत्तरपदं तस्य 'ते अव०-उपपन्न इन्द्रदत्तः उपेन्द्रदत्तः, ततो- लुग्वा' ( 22 / 108) इति लुकि सति ततः 'कपन्' ऽनुकम्पित उपेन्द्रदत्तः उपडः, 'वोपादे.' इत्यनेन स्यात् , अनुकम्पायाम् / कबादीनामपवादः / देवअडाकादिप्रत्ययाः, तदनन्तरम् 'आतोऽनेन्द्रवरुणस्य' कः / प् पुंवद्भावार्थः / न इति 'इच्चापुंसोऽनि०' (2 / (74 / 29) इति ज्ञापकात् अकृतसन्धेरेव द्वितीया- 4 / 107) इत्यत्र पर्युदासार्थः,-अनुकम्पिता देवी= स्वरादूर्ध्वम्' (73 / 41 ) इत्यनेन इन्द्रदत्त इति देवका, अत्र कप्नि सति पित्त्वात्पु वद्भावे नित्त्वात् शब्दो लुप्यते // 36 // आप्परेऽपि ककारे न इत्वम् / उत्तरपदस्येति किम् ? ऋवर्णोवर्णात्स्वरादेरादेलु प्रकृत्या च "दत्तिका // 38 // // 73 // 37 // अव०-मण्डकप्लुतिन्यायेनात्र 'ननाम्न' म० वृ०-ऋवर्णान्तात् उवर्णान्ताच्च परस्यानु इत्यनुवर्तते / गम्यमानायाम् / देवदत्त इति कम्पायां विहितस्य स्वरादेस्तद्धितप्रत्ययस्यादेलुक शब्दः, देवदत्तो-देवः, 'ते लुग्वा' (3 / 2 / 108) स्यात् / तच्च ऋवर्णोवर्णान्तं लुकि सति प्रकृत्या इत्यनेन उत्तरपदस्य दत्त इति शब्दस्य लोपः, तदतिष्ठति, न विकारमापद्यते इत्यर्थः / 'मातृयः,मातृ नन्तरमनुकम्पितो देवो देवकः इति वाक्यं कृत्वा कः, मातृलः ; पितृयः, वायुयः, वायुकः, वायुलः; 'लुक्युत्तरपदस्य कपन्' इत्यनेन कपन् क्रियते / भानुयः, भानुकः, भानुलः / प्रकृतिभावाद्रेफा-५ "परि-समन्तात् उदासः-पर्युदासः, कोऽर्थः ? निषेवादेशौ न भवतः / ऋवर्णोवर्णादिति किम् ? धार्थः / 'देवदत्ता-दत्ता, 'ते लुग्वा' (3 / 2 / 108 ) देवियः, अनुकम्पितो वागाशी=वाचियः, वाचि इत्यनेन पूर्वपदस्य देव इति शब्दस्य लोपः, ततोऽनुककः,वाचिलः। आदेरिति किम् ? सर्वस्य मा भूत् / 37) म्पिता दत्ता-दत्तिका, सूत्रे उत्तरपदलोपे कपन विदितः, अत्र तु पूर्वपदलोपः इति पूर्वसूत्रेण 'अनु. प्रव०-'अनुकम्पितो मातृदत्तो मातृयः, मा. कम्पातयुक्त०' / 7.3 / 34 इत्यनेन कप भवति, तृकः, मातृलः / २अनुकम्पितः पितृदत्तः पितृयः, 'अस्यायत्तत्०' 2 / 4 / 111) इति इत्वम् // 38 / / पितृकः, पितृलः / अनुकम्पितो वायदत्तो वायय लुक् चाजिनान्तात् / / 7 / 3 / 39 / / इत्यादि / अनुकम्पितो भानुदत्तो भानुयः / एषु म० वृ०-अजिनशब्दान्तानृनाम्नोऽनुकम्पायां सर्वत्र 'अजाते नाम्नो०' (7 / 3 / 35) इत्यनेन इया [गम्यमानायां ] 'कप्न्' तद्योगे उत्तरपदस्य 'लुक' दिप्रत्ययः, ततो 'द्वितीयात्स्वरा०'(७३।४१) इत्यनेन च स्यात् / 'व्याघ्रकः, २सिंहकः, कृष्णकः, व्यादत्तशब्दस्य लोपः / 'ऋतो रस्तद्धिते' ( 1 / 2 / 26 ) घ्रका., हिका // 39 // इत्यनेन रेफयाप्तिः। 'अस्वयंभुषोऽव्' ( 7.4 / 70 ) इति अवाप्तिः / अनुकम्पितो देवदत्तः / वाच् , अव०-१व्याघ्राजिनो व्याघ्रमहाजिनो वा आशिस् : आशासनमाशीः. 'क्रमम्पदा०' (5 / 3 / नाम मनुष्यः, सोऽनुकम्पितो व्याघ्रकः / २सिंहकः। 114) विप . 'आङः' ( 4.5 120 ) इति इस्, एवं शरभाजिनः, कृष्णाजिन इत्यादि। शरभकः, वाचामाशोर्यत्र, अनुकम्पितो Aवागाशी: बाचियः, - कृष्णकः / तथा अनुम्धिता व्याघ्राजिनाः, एवं 'षड्व कस्वर पूर्वपदस्य त्वरे' ( 7 / 3 / 40 ) इत्यनेन | 'निहाजिना, दुक चा०' इत्यनेन कपन , उत्तरपदस्य Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पायामुत्तरपदादीनां लुगविधानम्] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंबलितम् / [481 लुक् च / 'आतो नेन्द्रवरुणस्य' 7 / 4 / 29) इति ज्ञाप- [ [अकः ], उपियः [इय ], उपिकः [इकः ], उपिलः कादकृतसन्धेरेवोत्तरपदस्व लोपविधिः // 39 // [इलः], उपितृयः, वायुयः / / 41 / / षड्वजॅकवरपूर्वपदस खरे // 7 // 3 // 40 // प्रव०-१ऊर्ध्वग्रहणं सर्वलोपार्थम् / २उपड म० वृ०-षड्वर्जमेकस्वरं पूर्वपदं यस्य तत्स इत्यादिषु उप, इन्द्रदत्त ; अनुकम्पित उपेन्द्रदत्त इति म्बन्धिन उत्तरपदस्यानुकम्पायां विहिते स्वरादौ वाक्ये अडाकादिप्रत्ययेषु सर्वेषु अकृतसन्धेरेव इन्द्रप्रत्यये परे 'लुक्' स्यात् / २उत्तरसूत्रापवादः / दत्तस्य 'द्वितीयात्स्वरा०' इत्यनेन लुक् क्रियते, एवं हि कृते 'सन्ध्यक्षरात्तेन' (712 / 42) इत्यस्य अप्राप्तिः, अवाचियः, वाचिकः, वाचिलः / षड्वर्जेत्यादीति किम् ? ४उपडः, उपकः , उपलः; षडियः, षडिकः, 'अवर्णवर्णस्य' (74 / 68) इति अकारलोपः, 'स्वरस्य षडिलः // 40 // परे प्राग्विधौ' (7 / 4 / 110) इति न्यायादकारलोपस्थानिवद्भावात् पकारस्य न तृतीयत्वम् / उअनुक म्पितः पितृदत्तः, 'ऋत्रोवर्णा०' ( 7 / 3 / 37 / इति अव०-उत्तरपदं लुप्यते इत्यर्थः / 2 द्विती इयः) // 41 // . . यात स्वरा०' (7.3 / 41) इत्यस्य / वाच् , आशिस् ; अनुकम्पितो वागाशी: अथवा अनुकम्पितो वाग्दत्तो सन्ध्यक्षरात्तेन / / 7 / 3 // 42 // वाचियः, 'अजातेनु नाम्न०' (7 / 3 / 35 ) इयेकेलाः, म० वृ०-अनुकम्पायां कृते स्वरादौ प्रत्यये ततः 'षड्वर्जेक०' इत्यनेन आशिस्दत्तयोर्लोपः / प्रकृतेर्द्वितीयात् सन्ध्यक्षररूपात्स्वरादूर्ध्व शब्दरूपस्य 4 उपेन्द्रेण दत्तः उपेन्द्रदत्तः, उपेन्द्रदत्तोऽनुक- तेन द्वितीयेन सन्ध्यक्षरेण सह 'लुक्' स्यात् / अनुम्पितः उपडः, उपकः, उपलः : एषु द्वितीयात कम्पितः कुबेरदत्तः कुबियः, कुबिकः, कुबिलः ; स्वरा०' (7 / 3 / 41) इत्यनेन लुप् / 'षड् अङ्गलयो / एवममियः,' अमिकः, अमिलः / सन्ध्यक्षरादिति यस्य, अनुकम्पितः षडङ्गलिः / अत्राप्युत्तरेण लुप्। किम् ? गुरुयः, गुरुकः, गुरुलः // 42 / / (अथ विस्तरेण-) षडिय इत्यादौ षष् , अङगुलि; षडगुलयो यस्य स षडङ्गुलिः,'धुटस्तृतीयः' (2 / 1176) प्रव०-अमोघशब्दः, अथवा अमोघदत्तः, इति ड् ; अनुकम्पितः षडङ्गुलिः षडियः, अत्रोत्त यद्वा अमोघजिह्वः, अनुकम्पितोऽमोघः अमोघदत्तः रेण 'द्वितीयात्स्वरा०' ( 7 / 3 / 41) इत्यनेन सूत्रेण अमोघजिह्वः अमियः / / 42 // 'डगुलि' इत्यक्षरद्वयं लुप्यते, तथा च अवर्णेवर्णस्य' शेवलाद्यादेस्तृतीयात् // 7 // 3 // 43 // (74 / 68 ) इति षड् इति शब्दस्य अकारलोपस्य ____म० वृ०-[शेवलाद्या आदयो यस्य] शेवलादेः 'स्वरस्य परे प्राग्विधौ ( 7 / 4 / 110 ) इति न्यायात पूर्वपदस्य नाम्नोऽनुकम्पाविहिते स्वरादौ प्रत्यये स्थानिवद्भावात् पदत्वस्याऽनिवृत्तेस्तृतीयत्वं डकारो तृतीयात्स्वरादूर्ध्व 'लुक' स्यात् / शेवलियः, शेवन निवर्त्तते / तथा षडवर्जनादेव च पदत्वे सन्धि लिकः, शेवलिलः ; एवं 'सुपरियः, सुपरिकः, सुपविधावपि अकारलुकः स्थानित्वनिषेधो न भवती रिल:३; "वरुणियः, वणिकः / तथा' शेवलिक त्यर्थः / / 40 // इत्येव, शेवलयिक इति न भवति। सुपरिक इत्येव, द्वितीयात्स्वरादूर्ध्वम्' // 73 // 41 // न तु सुपर्यिकः / शेवल, सुपरि, विशाल, वरुण, अर्यमन् इति शेवलादिगणः॥४३॥ म० वृ०-अनुकम्पायां कृते स्वरादौ प्रत्यये परे प्रकृतेर्द्वितीयात्स्वरादूर्ध्व शब्दरूपस्य लुक् स्यात् / प्रव०-'अनुकम्पितः शेवलदत्तः शेवलियः / भनुकम्पित उपेन्द्रदत्तः परः [भड], उपकः / अनुकम्पितः सुपरिदत्तः सुपरियः / (एवम् ) अ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 482] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [म०७ पा० 3 सू० 44-50 नुकम्पितो विशालदत्तो विशालियः / अनुकम्पितो / म० वृ०-हम्वेऽर्थे वर्तमानाच्छब्दाद्यथायोगं वरुणदत्तो वरुणियः / तथा ५शेवलिक इत्यत्र / 'कबादयः स्युः / ह्रस्वः पटः पटकः, शाटकः / शेवल, इन्द्रदत्त ; अनुकम्पितः शेवलेन्द्रदत्तः, इकप्र- ह्रस्वं पचति पचतकि,ह्रस्वाः सर्वेसर्वके, उच्चकैः / त्ययः, अत्र अकृतसन्धेरेव इन्द्रदत्त इत्यक्षरचतुष्टयं | संज्ञायामपि ह्रस्वत्वयोगात् कप , स 'ह्रस्वे' इत्येव लुप्यते, तेन शेवलिक इत्येव प्रयोगोऽभीष्टः, न तु सिद्धः- वंशकः, वेणुकः, नडकः, चरकः / / 46 // शेवलयिकः, अत्र सन्धौ कृते शेवलयिक इत्यनिष्टं रूपं स्यात् / एवं 'सुपरिक इत्येव प्रयोग इष्टः, न तु अव०-१येऽपि केचित् संज्ञायां कपप्रत्ययं सुपर्यिकः / सुपरिश्वासावाशीर्दत्तश्च / सुष्ठु पिपर्तीति विदधति तेऽपि ह्रस्वत्वोपाधिकायां संज्ञायामिति सुपरि, सुपरि इति पूर्वपदं नामस्य // 43 // व्याख्यान्ति / तस्मात्संज्ञायामप्यनेनैव 'ह्रस्वे' इति सूत्रेण का सिद्ध इत्यर्थः // 46 // क्वचित्तुर्यात् / / 7 / 3 / 44 // कुटीशुण्डाद्रः // 73 // 47 // म. वृ०-अनुकम्पायां स्वरादौ प्रत्यये कचि म. वृ०-आभ्यां ह्रस्वेऽर्थे 'र:' स्यात् / कपोलक्ष्यानुसारेण तुर्याञ्चतुर्थात् स्वरादूर्ध्व 'लुक' स्यात्। ऽपवादः / ह्रस्वः कुटी-कुटीरः, शुण्डारः / / 47) बृहस्पतियः, एवं प्रजापतियः, प्रजापतिकः, प्रजापतिलः / अकृतसन्धेरित्येव पूर्ववत् / तेन प्रजा प्रव०-केचित्तु कुटीस्थाने कुदी पठन्ति-कुदीरः / / 47 / / पतिक इत्येव, नतु प्रजापत्यिकः कचिद्ग्रहणादिह शम्या रु-रौ॥७३।४८॥ नहि, अनुकम्पित उपेन्द्रदत्तः उपडः, उपकः,उपियः, म० वृ०-शमीशब्दात् ह्रस्वेऽर्थे 'रुरौं' भवतः / उपिकः, उपिलः // 44|| शमीरुः, शमीरः / / 48 प्रव०-'अनुकम्पितः बृहस्पतिदत्तः / २अनु- अव०-हस्वा शमीति वाक्यम् / / 48 // कम्पितः प्रजापतिदत्तः, (अथवा) अनुकम्पितः प्रजा कुत्वा डुपः॥७।३।४९॥ पत्याशीर्दत्तः // 44 // म० वृ०-कुतूशब्दाद् ह्रस्वे 'डुपः' स्यात् / पूर्वपदस्थ वा // 73 // 45 // ह्रस्वा कुतू:=कुतुपः // 49 // म. वृ०-अनुकम्पाविहिते स्वरादौ परे पूर्व अव-कुतूरिति चर्ममयं तैलाद्यावपनम् ,* पदस्य 'लुग्वा' स्यात् / 'दत्तियः,दत्तिकः, दत्तिलः / कोऽर्थः ? तैलादिभाजनमुच्यते // 49 // वावचनाद्यथाप्राप्तम्-'देवियः // 45 // कासूगोणीभ्यां तरट // 73 // 50 // ___अव०-'अनुकम्पितो देवदत्तः, 'अजाते ना म० वृ०-आभ्यां ह्रस्वेऽर्थे 'तरट्' स्यात् [ टो म्नो०' (73 / 35) इति इयादिप्रत्ययः। ते 'लुग्या' ड्यर्थः] / 'कासूतरी, गोणीतरी / पुंल्लिङ्गमपि इति पूर्व लुकि बहुस्वरत्वाभावात् इयादिप्रत्ययो न दृश्यते इत्येके- कासूतरः, गोणीतरः // 50 // स्यादिति वचनं-'पूर्वपदस्य वा' इति सूत्रं कृतम् / 'द्वितीयात्स्वरा०' ( 7341 ) इत्यनेन दत्तशब्द- प्रव०-ह्रस्वा कासू: कासूतरी, कासूः शक्तिलोपः // 45 // नामायुधम् / रह्रस्वा गोणी, गोणी धान्यावपनम् , ह्रस्वे // 73 // 46 // लोके छाटी इति रूढिः // 50 // * प्रावपनं भाजनमित्येकार्थः / "गोणी धान्य भाजनविशेषः" इति हैमलिङ्गानुशासनविवरणे, "धान्यभाजनविशेष इति लोके गणि ___ छाटी इति वा प्रसिद्धिः" इति तदीयदुर्गपदप्रबोधवृत्तौ / Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्यऽर्थे डतर-टतमप्रत्ययविधानम ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् [483 - वत्सोक्षावर्षभाद्धासे पित् / / 7 / 3 / 51 // निर्धार्य इति किम् ? एकोऽनयोमियोः स्वामी, म० वृ०-वत्स उक्षन् अश्व ऋषभ( इति )एभ्यः सम्बन्धेऽत्र षष्ठी, न तु निर्धारणे / / 52 / / शब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्य स्वार्थस्यह्रासे गम्यमाने तरट्' यत्तकिमन्यात् // 73 // 53 // स्यात् , स च पित् / ह्रसितो वत्सो='वत्सतरः, ___म0 वृ०-यद् तद्-किमन्येभ्यो द्वयोरेकस्मि२ एवमुक्षतरः, अश्वतरः [ वेसरः ], "ऋषभतरः / निद्धार्येऽर्थे 'डतरः' स्यात् / यतरो भवतोः कठः पटुप्रत्यासत्तेः शब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्य ह्रासे भवति / इह गन्ता वा ततर आगच्छतु, कतरोऽन्यतरो भवतोः मा भूत- कृशो वत्सो= वत्सतरः / पित्करणं पुंवद्भा- कठः पटुर्वा / महावाधिकारान्न भवत्यपि,- यो भववार्थम्-ह्रसिता वत्सा-वत्सतरी. अश्वतरी // 51 / / / तोः पटुः स आयातु, एवं कः [भवतोः पटुः], अन्यो भवतोः पटुः / / 53 / / प्रव०-'वत्सः प्रथमवयस्को गौः , तस्य हासो द्वितीयवयःप्राप्तिः। तथा रउला द्वितीयवया प्रव०-द्वयोरित्येव- योऽत्र ग्राम प्रधानं स्तरुणः , तस्य हासस्तृतीयवयःप्राप्तिः / अश्वेन स आगच्छतु / / 53|| अश्वायां जातोऽश्वः जात्यतुरङ्गमः, तस्य ह्रासो बहूनां प्रश्न डतमश्च वा // 73 // 54 // गर्दभपितृकता / आशुगमनाद्वा अश्वः, तस्य हासो गमने मन्दता / सर्वथाऽपि प्रकारद्वयेऽपि अश्वतर म००-यद्-तद्-किमन्येभ्यो बहूनां मध्ये शब्दो जातिशब्दः, कोऽर्थः ? वेसर इत्यर्थः / तथा निीर्येऽर्थे वर्तमानेभ्यः] प्रश्नविषये 'डतमो वा' "ऋषभोऽनड्वान् बलीयान् , तस्य ह्रासो भारवहने स्यात् / चकाराद् इतरश्च / यतमो यतरो वा भवतां मन्दशक्तिता // 51 // कठः ततमस्ततरो वा आगच्छतु / कतमः कतरो वा भवतां कठः / 'प्रमाणान्तरात् प्रतिपत्तौ [ ज्ञाने वैकाद् द्वयोर्निर्ये डतरः // 7 // 3 // 52 // सति] बहूनामप्रयोगे (अपि) प्रत्ययो भवति, यथा- म० वृ०-एकशब्दाद् द्वयोर्मध्ये 'निर्भीर्ये वर्त बहुष्वासीनेषु कश्चित् कश्चित् पृच्छति कतमो मैवः, मानाद् 'डतरो वा' स्यात् / २एकतरो भवतोः कठः, कतरो मैत्रः; अन्यतमोऽन्यतरो वा भवतां कठः / पटुः, गन्ता, चैत्रो दण्डी वा / वावचनमगर्थम् / वावचनमगर्थम् ,-यको भवतां कठः सक आयातु, एकको भवतोः कठः पटुर्वा / महावाधिकारान्न भव- | __ अन्यक एषां कालापः / किमस्तु साकः उकादेश उक्तः त्यपि [डतरः],-एको भवतोः पटुः / द्वयोरिति किम् ? - इति किमः प्रयोगो न दर्शितः / महावाधिकारान्न एकोऽत्र ग्रामे प्रधानम् / / 52 // भवत्यपि,-यो भवतां कठः स आयातु / प्रश्न इति किम् ? क्षेपे मा भूत् ,-को भवतां कठः, कुत्सित प्रव०-समुदायादेकदेशो जातिगुणक्रिया इत्यर्थः / प्रश्नग्रहणं किमो विशेषणम् , नान्यस्यासंज्ञाद्रव्यैर्निष्कृष्य-वस्तुवृत्त्या निष्कास्य बुद्धया सम्भवात् // 54 // पृथक् क्रियमाण एकदेशो निर्धर्य उच्यते, न तु सर्वथा समुदायादेकदेशस्य पृथक्करणम् / निर्धारण- प्रव०-'वाक्ये उपात्ताच्छब्दरूपात्प्रमाणादमिति अपरपर्यायः / अयमनयोर्मध्ये एक एकतरः / न्यत् प्रकरणप्र....."(त्यक्षा)दिकं प्रमाणं प्रमाणा एकतरो भवतोः कठः / अत्र हि कठो जात्या कठः न्तरम् , तस्मात् / अन्यतरो वा भवतां कठः इत्यतदितररूपात् समुदायाद्वस्तुवृत्त्या निष्कास्य बुद्धय व स्याने "शुचिवल्कवीतवपुरन्यतमस्तिमिरच्छिदामिव पृथक्कृतोऽस्ति, न तु सर्वथा ,साक्षात् ; समुदायस्य गिरौ भवतः" (किराते) / वृद्धस्तु व्याधितो वा राजा भङ्गप्रसङ्गत् / 'सप्तमी चाविभागे' / 2 / 2 / 109) | मातृबन्धुकुल्यगुणवत्सामन्तानामन्यतमेन क्षेत्रे बीजइति सप्तमी। अगर्थम अककारणम् / पक्षेऽकोऽपि। | मुत्पादयेत् / 'किमः कस्तादौ च' (2 / 1 / 40) इति सूत्रे।। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 3 सू० 55-60 वैकाद् // 7 / 3 / 55 // नम्', खण्डमनत्यन्तं भिन्नमिति पर्यायोदाहरणानि। सामिकृतमित्थमेव समासः, सामि कृतमित्येवोदा_म० वृ०-एकशब्दाद् बहूनामेकस्मिन्निीर्येऽर्थे 'डतमो वा' स्यात् / एकतमो भवतां कठः पटुर्वा / हरणम् / अर्धं च तत् कृतम्-अर्द्धकृतम् , 'विशेषणं वावचनादगपि-एककः / महावाधिकारान्न भवत्यपि विशेष्येणैकार्थ कर्मधारयश्च'(३।११.६) इति समासः // 57|| एको भवताम् / पृथग्योगो डतरनिवृत्त्यर्थः / / 55 / / नित्यं अजिनोऽण् // 7 / 3 / 58 // तात्तमबादेश्वानत्यन्ते / / 7 / 3 / 56 // म० ०-ब बिन् इति प्रत्ययान्तात् 'स्वार्थे म० वृ०-तान्तात्केवलात् तमबाद्यन्ताच्चानत्य- नित्यमण' स्यात् / नित्यग्रहणान्महाविभाषा न्तेऽर्थे [क्तान्तात् ] 'कप्' स्यात् / 'क्रियायाः स्वे. निवृत्ता। व्यावक्रोशी, उव्यावहासी वर्त्तते / बिन,नाश्रयेण २साकल्येनानभिसम्बन्धोऽनत्यन्तता / ४साङ्कोटिनम् , 'सांराविणम् // 58|| ... अनत्यन्तं भिन्न-भिन्नकम् , भिन्निका घटी। तमबाद्यन्तात् ,-भिन्नतमकम् , भिन्नकल्पकम् // 56 // अव०-वाद्यात्' (6 / 1 / 11) इत्यतो यो बाधि कारः स नित्यग्रहणात् निवृत्तः / च्याङबपूर्वक: अव०-पक्रियायाः स्वाश्रयो नाम यत्रासौ क्रिया क्रुशधातुः, परस्परमाक्रोशनं व्यावक्रोशः, 'व्यतिसमवेता मिलिता उत्पद्यते। साकल्यं क्रियासमवा- हारेऽनीहादिभ्यो बः' ( 5 / 3 / 116 ) इत्यनेन बः, यिकारणस्य काष्ठादेरवयवबाहुल्येन निःशेषता व्यावक्रोशः एव व्यावक्रोशी, 'नित्यं ब०७३।५८) सम्पूर्णता / तयाऽभिमतः सम्बन्धोऽभिसम्बन्धः, अण, 'वृद्धिः स्वरे०: (7 / 4 / 1) इति वृद्धिः / एवं न अभिसम्बन्ध: अनभिसम्बन्धोऽव्याप्तिः / एवम- व्यवहसनं = व्यवहासः,व्यवहास एव (व्यवहासी) / नत्यन्तं छिन्नं = छिन्नकम / अनत्यन्तं भिन्नाभिन्नि- ४सम्पूर्वकुटः, समन्तात कोट:- "अभिव्याप्तौ भावेका ।(एवं) छिन्निका रज्जुः। एवं भिन्नतरकम् / तम- ऽनबिन' (5 / 3 / 9) इत्यनेन चिन् तदनन्तरं नित्यं बाद्यन्तेषु क्तान्तता नास्तीति तमबादिग्रहणम् / तथा बबिनोऽण्' ( 7 / 3 / 58 ) इत्यण , वृद्धिः / एवं सूत्रे"क्तात् तमबादेश्चे"त्यत्र असमासः तमबादेरित्य- सांराविणमित्यपि / / 58|| त्रापि तात् इत्यस्य सम्बन्धार्थः / तेनेह न भवति, विसारिणो मत्स्ये // 73 / 59 // अनत्यन्तं शुक्लतमम् , अनत्यन्तं भिन्नतमम् / / 56 / / न सामिवचने // 7 / 3 / 57 // म0 वृo-विसारिनशब्दान्मत्स्ये वर्तमाना स्वार्थे ऽण' स्यात् / वैसारिणो मत्स्यः // 59|| म० वृ०-[सामि अव्ययशब्दः ] सामि अर्द्धः / सामिवचने उपपदेऽनत्यन्तेऽर्थे तात्तात् केवलात् प्रव0-'विसरतीति विसारी , ग्रहादित्वाकेवलात्तमबाद्यन्ताच्च 'कप न' स्यात् / सामि अन- पिणन , मत्स्यश्चेत् वैसारिणः, विसार्येव वैसारिणो त्यन्तं भिन्नम् , एवं कृतम् , भुक्तम् , पीतम् / भिन्न- मत्स्यः / / 59 // तमम् , भिन्नतरम् / वचनग्रहणं 'पर्यायार्थम् / अर्द्ध, नेम, शकल, खण्डमित्यादि / अन्ये तु समासे एवो- पूगादमुख्यकाळ्यो द्रिः // 7 / 3 / 60 // दाहरन्ति,-सामिकृतम् , अर्द्धकृतम् // 57|| म0 वृo-नानाजातीया अनियतवृत्तयोऽर्थकामअव०-१'पर्यायार्थम्', तथाहि- अर्द्धमनत्यन्तं प्रधानाः सङ्घाः पूगाः / पूगवाचिनो नाम्नः ‘स्वार्थे भिन्नम् ,नेममनत्यन्तं भिन्नम् , शकलमनत्यन्तं भि- / ज्यः' स्यात् , स च द्रिसंज्ञः, यदि पूगवाचि नाम Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्थाधिकार ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 485 'सोऽस्य मुख्यः' (7 / 1 / 190) इति विहितकप्रत्यया- | लुप्यते / कुन्तेरपत्यं बहवो माणवकाः-'दुनादिकुन्तं न भवति / 'लौहध्वज्यः, लौहध्वज्यौ, लोह- विन्'० (6 / 1 / 118) इति न्यः, 'बहुष्वस्त्रियाम् ध्वजाः / शैब्यः, शैव्यौ, शिबयः५ / अमुख्यका- (6 / 1 / 124) व्यलुप् , पुनः कुनिशब्दः, कुन्तयः दिति किम् ? देवदत्तकः६ पूगः // 60 // शस्त्रजीविसङ्घः, कुन्तिरेव कौन्त्यः), कुन्ती एव (कौन्त्यौ), कुन्तय एव (कुन्तयः), 'शस्त्रजीवि०' (7/ ___ अव०-'मुख्येऽर्थे कः-मुख्यकः, न मुख्यकः= 362) इति ब्यट् ,पुनः बहुप्रस्त्रियाम् ' (6 / 1124) अमुख्यक, तस्मात् / लोहध्वज एव = लौहध्वज्यः, ब्यट् लुप्यते / 'मल्लाः सङ्घः / शयण्डा नाम लोहध्वजावेव लौहध्वज्यौ, लोहध्वजा एव लोह- योद्धधिशेषाः, लोके चउकडिया इति प्रसिद्धिः / ध्वजाः / अलौकिकं वाक्यमन्यथा न प्राप्नोति. महा- वागुराऽस्यास्तीति 'अभ्रादिभ्यः' (7 / 2 / 46) इति अः वाधिकारस्य निवृत्तत्वात् / उ पूगादमुख्या०' (7 / 3 / प्रत्ययः / कुन्तेरपत्यं बहवो माणवकाः, ते शस्त्रजी६०) इत्यनेन व्यः, स च द्रिसंज्ञः, दिसंज्ञत्वात् विसङ्घः, संहतिरूपतया स्त्रीत्वविशिष्ठोऽपि अत्र बहुत्ववाक्ये 'बहुष्व स्त्रियाम' ( 6 / 1 / 124 ) इत्यनेन सङ्घो विवक्षितः, 'दुनादिकुर्वित्० (6 / 1 / 118) यो लुप्यते / शिवस्यापत्यं शैबिः, 'अत इब्' ज्यः, 'कुन्त्यवन्तेः स्त्रियाम्' (6 / 1 / 121) इत्यनेन (6 / 1 / 31), शैबिरेव शैब्यः, शैबी एव शैब्यौ, शैबय ज्यो लुप्यते, 'नुर्जातेः' (2 / 4 / 72) इति की,तदनन्तरं एष शिबयः / अत्र ज्यो लुप्यते / देवदत्तो 'शस्त्रजीविसङ्घा०' (7 / 3 / 62) इत्यनेन ब्यट् , 'अवमुख्योऽस्य- ‘सोऽस्य मुख्यः' (71 / 190 ) इत्यनेन र्णवर्णस्य' (7 / 4 / 68) ई लुप्यते, पुनः 'अणबेये'० कः प्रत्ययः // 60|| (2 / 4 / 20) इति ङी, 'व्यञ्जनात्तद्धितस्य' (2 / 4 / 88) वातादस्त्रियाम् / / 7 / 3 / 61 // इति तद्धितयकारस्य ब्यां परे लोपः क्रियते // 62 / / म० वृ०-नानाजातीपा अनियतवृत्तयः शरीरा- | वाहीकेष्वब्राह्मणराजन्येभ्यः // 7 / 3 / 63 // यासजीविनः सङ्घा वाताः। ब्रातवाचिनो नाम्नो- ___ म० वृ०-वाहीकेषु यः शस्त्रजीविसङ्घः ब्राह्मऽस्त्रियां [वर्तमानात् ] स्वार्थे ऽयः स च दिसंज्ञः णराजन्यवर्जितस्तद्वाचिनः स्वार्थे 'ञ्यट्' नित्यं स्यात् / ब्रहिमत्या, हिमत्यौ, व्रीहिमताः / अस्त्रिया स्यात् , स च दिसंज्ञः / 'कुण्डीविशाः, क्षुद्रकाः, मिति किम् ? ब्रीहिमता स्त्री' ||61 / / / मालव्यः, मालव्यौ, मालवाः / अब्राह्मणराजन्येभ्य इति किम् ? गौपालिः, गौपाली ; राजन्यः, अव०-एवं' कपोनपाका, अत्र 'अजादेः इत्यापा६१॥ राजन्यौ / स्त्रियां राजन्या / ब्राह्मणप्रतिषेधे ब्राह्मशस्त्रजीविसङ्घाञ्चड् वा // 7 / 3 / 62 // णविशेषप्रतिषेधः, न हि ब्राह्मणशब्दवाच्यो वाही म. वृ०-शस्त्रजीविनां यः सङ्घस्तद्वाचिनः केषु शस्त्रजोविसङ्घोऽस्ति / राजन्ये तु स्वरूपस्य स्वार्थे वा ज्यट्' स्यात् , स च द्रिसंज्ञः / 'शाबर्यः, विशेषस्य च प्रतिषेधः / तदर्थमेव [वाहीकेषु २शाबौँ, शबराः, पुलिन्दाः, कुन्तयः / पक्षे शबरः, इत्यत्र] बहुवचनम् // 63 / / पुलिन्दः। शस्त्रजीवीति किम् ? ' मल्लः,मल्लौ,मल्लाः ;5 प्रव०-१कुण्डयां विशन्ति-'नाम्यपान्त्य०'(५। शयण्ड., शयण्डाः / सङ्घादिति किम् ? सम्राट् , "पागुरः, [वागुरौ] वागुराः ; नेते श्रेणिबद्धा इति न / 1 / 54) इति कः, कुण्डीविशाः शस्त्रजीविसङ्घो सङ्घाः / टोड्यर्थः-शाबरी,पौलिन्दी,कौन्ती // 2 // वाहीकदेशे, कुण्डीविश एव कौण्डीविश्यः, कुण्डी विशावेव कौण्डीविश्यौ, कुण्डीविशा एव कुण्डी. अव०-शबराः शस्त्रजीविसवः / 'शबर एव। विशाः / 'वाहीके०' (7 / 3 / 63) इति सर्वत्र ब्यट् / शबरौ एव / शबरा एव / अत्रापि बहुत्वे ब्यो / बहुत्वे तु 'बहुष्वस्त्रियाम्' (6 / 1 / 124) इति ब्यट Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०७ पा० 3 सू० 64-66 लुप्यते / एवं २मालव्य इत्यादिष्वपि पूर्ववत् सर्व / नेन एयण , यौधेय इति शब्दो निष्पन्नः / शुक्रस्य कर्त्तव्यम् / गां पालयतीति गोपालः, 'कर्मणो- शुभ्रस्यापत्यम्-'शुभ्रादिभ्यः' (6 / 1 / 73) इत्यनेन ऽण'(५।११७२),गोपालस्यापत्यं गौपालिः,'अत इब्' | एयण, शौक़यः शौभ्र यः इति शब्दौ / 'घृतायाः (६।१।३१',गौपालिः(इति)अत्र प्रथमासिः, गौपाली धृताया अपत्यं बहवः कुमारा:-'द्विस्वरा०' 6 / 1 / 71) (इति) अत्र औ, इदुतोऽस्त्रेरीदूत्'(१९४।२१) ईत् / रा- इत्यनेन एयण , ज्यावनायाः अपत्यम्-'त्याप्त्यूकः' ज्ञोऽपत्यम्- 'जातौ राज्ञः' (631092) इत्यनेन यः / (6 / 170) इत्यनेन एयण् / तदनन्तरं यौधेय एव प्रत्ययः, 'अनोऽध्ये ये' (7 / 4 / 51) प्रतिषेधात् 'नोs- यौधेयः, यौधेयावेव यौधेयौ; यौधेया एव ‘यौधेयाः / पदस्य तद्धिते' (7 / 4 / 61) इति न भवति / यटि एवं शौक्रेय इत्यादिष्वपि वाक्यानि / यौधेयातु सति ङी स्यात् / वाहीकेष्विति किम् ? शबराः | देरन् ' (7 / 3 / 65) इत्यनेन अप्रत्ययः / एषु ‘देरशस्त्रजीविसङ्घः, शबरः, शबरौ; पुलिन्दः, पुलि- बणोऽप्राच्यभर्गादेः' (6 / 1 / 123) इति अब्लोपन्दौ / / 63 // प्रतिषेधः, ततः पुनरपि यौधेयानामयं सवादिः इति वृकाट्टेण्यण् // 7 / 3 / 64 // वाक्ये 'सङ्घघोषाङ्कलक्षणेऽञ्यविनः' (6 / 3 / 172) इत्यनेन अबन्तात् अण् क्रियते / अत्र पर आहम० वृ०-वृकात शस्त्रजीविसङ्घवाचिनः ननु अणेव विधीयताम् , किमन्विधानेन ? इत्याहस्वार्थे 'टेण्यण' स्यात् ,सच द्रिः। वार्केण्यः,वार्केण्यौ, अञ्चचनमित्यादि, अअप्रत्ययानन्तरं 'सङ्घघोवृकाः / वार्केणी स्त्री / शस्त्रजीविसङ्घादित्येव षाङ्क०' (6 / 3 / 172 / इत्यादिना यथा अण् भवति कामक्रोधौ मनुष्याणां खादितारौ वृकाविव // 64 // एतदर्थमत्र सूत्रे अन्न विहितः, अन्यथा 'गोत्राददण्ड माणव०' ( 6 / 3 / 169) इत्यादिना अकञ् स्यात् / अव०-'वृकाट्टे'० इति सूत्रेऽयं विशेषो लिख्य- पुनः परः प्राह-ननु यौधेयादयः सङ्घवचनाः कथं ते,-उदाहरणेषु वाहीकत्वे नित्यमवाहीकत्वे तु विक- गोत्रं भवन्ति ? उच्यते, भर्गाद्यन्तर्गणो यौधेयादिल्पेन व्यटि प्राप्ते वचनमिदम् / एवं ‘यौधेयादेर' गणः, तत्र 'द्रेरक्षणोऽप्राच्यभर्गादेः' (6 / 1 / 123) इति (7 / 3 / 65) इत्यादिकमुत्तरसूत्रत्रयमपि // 64 // सूत्रे येऽपत्यप्रत्ययान्ताः शब्दास्ते गोत्रं भवन्ति, औपयौधेयादरम् // 7 // 3 // 65 // गवादिशब्दवत् / अपत्यं हि गोत्रम् / अपत्यप्रत्य यान्ताच्च "प्रकृतिग्रहणे स्वार्थिकप्रत्ययान्तानां ग्रहण"म० वृ०-'यौधेयादिभ्यः शस्त्रजीविसघ- | मिति न्यायात् स्वार्थिकोऽपि प्रत्ययोऽपत्यग्रहणेन वाचिभ्यो-'ऽ'स्यात्स च द्रिः यौधेयः। श्यौधेयौ, गृह्यते / अत्र च इदमेव अब्वचनं लिङ्गम् // 65 / / यौधेयाः; उशौक्रेयः, घातयः / अवचनं 'सयघोषाङ्कलक्षण'० 6 / 1 / 171) इति अणर्थम् / पर्धादेरण् / / 7 / 3 / 66 // तेन यौधेयस्य सवादियौधेय इति भवति // 65 / / मवृ०-पर्श इत्यादिभ्यः शस्त्रजीविसङ्घार्थे भ्यः ‘स्वार्थेऽण् ' स्यात्स च द्रिः। पार्शवः, पार्शवी, अव०-"दूरवणोऽप्राच्यभर्गादेः' (6 / 1 / 123) रंपर्शवः; राक्षसः,[राक्षसौ] रक्षांसि / त्रियां "पर्शः / . इति तद्धितप्रथमपादे सूत्रे भर्गादिगणोऽस्ति, भर्गा [पशु, रक्षस् , असुर, वह्निक, वयस् , वसु, मरुत्, दिगणप्रान्ते च यौधादिगणः उक्तः, तथाहि-यौधेयः, सत्वन , सत्वन्तु, दशाई, पिशाच, अशनि, कार्षापण शौक्रयः, शौभ्रयः, घार्तेयः, धार्तेयः, ज्यावनेयः इति पर्वादिगणः // 66 / / इति यौधादिगणः / 'युधाशब्दः, युधाया अपत्यं बहवः कुमाराः, ते शस्त्रजीविसवः स्त्रीत्वबहुत्ववि- ___ प्रव०- 'पर्शोरपत्यं बहवो माणवका इति शिष्टो विवक्षितः, 'द्विस्वरादनद्याः' (6 / 1171) इत्य- | वाक्ये 'पुरुमगधकलिङ्ग' (6 / 1 / 116 ) इत्यण, Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्थाधिकारः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [487 'शकादिभ्यो ट्रेलुप्' (6 / 1 / 120 ) इत्यनेन अण | श्रमच्छमीवच्छिखावच्छालावदुर्णावद्विदभृदभिलुप्यते, ते शस्त्रजीविसङ्घः पशुरेव पार्शवः, पशू / जितो गोत्रेऽणो या // 7 / 3 / 68 // एव पार्शयौ इति वाक्ये 'पर्धादेरण' इत्यनेन अण् , 'अस्वयंभुवोऽव् ' ( 7 / 4 / 70 ) इत्यवादेशः, पार्शवः __म०वृ०-शस्त्रजीविसङ्घति निवृत्तम् / श्रमत् , पार्शवौ इति सिद्वौ / अथ बहुत्वे पर्शोरपत्यानि शमीवत् , शिखावत् , शालावत् , ऊर्णावत् , विदबहवो माणवकाः, ते शस्त्रजीवी स्त्रीत्वविशिष्टः सङयो भृत् , अभिजित् इत्येतेभ्यो गोत्रे योऽण् तदन्तेभ्यः विवक्षितः, 'पुरुमगध०' (6 / 1 / 116) इत्यण , 'द्रेर [अणन्तान् परतः ] स्वार्थे यत्र' स्यात् , स च द्रिबणोऽप्राच्य०' (6 / 1 / 123) इति अणो लोपः, ततः संज्ञः / श्रीमत्यः, [श्रीमत्यौ] श्रीमताः / श्रीमच्छ'पर्वादेरण', 'बहुध्वस्त्रियाम्' (6 / 1 / 124 ) अणो ब्दादपि केचिदिच्छन्ति,-२ौमत्यः,त्रैमत्यौ,त्रैमताः / लोपः / रक्षांसि शस्त्रजीविसङ्घः, स्वार्थे अनेन शामीवत्यः, [शामीवत्यौ शामीवताः / शैखावत्यः, 'पर्वादेरण' इति सूत्रेण अण् , प्रथमं रक्षसोऽ शैिखावत्यौ] शैखावताः / शालावत्यः, [शालावत्यौ] पत्यमिति वाक्ये 'सोऽपत्ये' (6 / 1 / 28) अण् , ततः शालावताः / ऊर्णावत्यः, [ ऊर्णावत्यौ ] ऊर्णावताः / स्वार्थे इत्यादिकं ज्ञेयम् / पर्श इत्यत्र पर्शोरपत्यं वैदभृत्यः, वैदभृत्यौ, वैदभृताः / आभिजित्यः, बहवो माणवकाः, अत्र स्त्रीत्वविशिष्ट सङ्घो विव आभिजित्यौ, आभिजिताः / गोत्रग्रहणं किम् ? श्रीमतम् , आमिजितो मुहूर्त्तः, आभिजितः स्थालीक्षितः, 'पुरुमगंध०' (6 / 1 / 116) इत्यण , 'शकादिभ्यो ट्रेलुप्' (6 / 1 / 120 ). इत्यनेनाणलोपः, ततः पाकः [अभिजिद् देवता अस्य- 'देवता'६।२।१०१) स्वार्थे 'पर्वादेरण', 'द्रेषणो०' इत्यनेनाणो लुप, इत्यण ] / अपत्यप्रत्ययान्तात्स्वार्थिकोऽयं या 'उतोऽप्राणिनश्च 0'(2 / 4 / 73) इत्यादिना उङ्, पशः अपत्ये एव वर्तते इति तदाश्रयः आयनणादिकोऽपि इति सिद्धम् // 66 // प्रत्ययो भवति, यथा-श्रीमत्यायनः, आभिजित्या यनः, श्रीमतकः, 'आभिजितकः, श्रीमतकम् , 'दामन्यादेरीयः // 7 / 3 / 67 // श्रीमतम् , आभिजितम् / / 6 / / म००-दामनि इत्यादिभ्यः शस्त्रजीविसब्थे. भ्यः स्वार्थे 'ईयः' स्यात् , स च द्रिः / २दामनीयः, अव०-श्रमतोऽपत्यं श्रीमतः, सोऽपत्ये' 6 / दामनयः // 67 // 1 / 28), श्रीमत एव=ौमत्यः, अत्रापि प्राग्वत् एक त्वद्वित्वबहुत्वेषु वाक्यं कृत्वा 'श्रमच्छमी०' इत्याप्रव०-दामनि, औलपि, औपलि, वैजवापि, दिना यत् , बहुत्वे तु 'यममोऽश्यापणान्त०' (631 // औदकि, आच्युतन्ति, काकन्दि, काकन्दकि, ककुन्दि, 126) इत्यादिना या लुप्यते, तत्र श्रीमत इति ककुन्दकि, शाक्रन्तपि, सार्वसेनि, बिन्दु, तुलभा, भवति प्रयोगः / एवं त्रैमत्यः,ौमत्यौ,त्रैमताः (इति) मौञ्जायन, औदमेघि भोपविन्दवि, सावित्रीपुत्र, अत्रापि ज्ञातव्यम्। एवं शमीवतोऽपत्यम्-'टसोऽकोण्ठोपरथ, कौण्ठारथ, दाण्डकि, कौष्टकि, जाल- पत्ये' (6 / 1 / 28) अण् , तदनन्तरं स्वार्थे यम / मानि, जारमाणि, ब्रह्मगुप्त, ब्राह्मगुप्त, जानकि इति एवं सर्वेषु उदाहरणेषु शब्दसिद्धिः कर्त्तव्या / दामन्यादिगणः / दमनशब्दः, दमनस्यापत्यं बहवः ४अभिजिता चन्द्रयुक्तो मुहूर्तः= आभिजितः; 'चन्द्रकुमाराः, ते शस्त्रजीविसङ्घः इति वाक्ये 'भत इम्' युक्तात्काले०' (6 / 2 / 6) इति अण् / ५"प्रकृतिग्रहणे (6 / 1 / 31), दामनिशब्दः, दामनिरेव, दामनीयः, स्वार्थिकप्रत्ययान्तानां ग्रहणं भवती"ति न्यायात् दामनी एव दामनीयौ, दामनय एव दामनयः ; दाम- स्वार्थिकप्रत्ययोऽपि अपत्यार्थसम्बन्धे भवति न्यादेरीयः' / सर्वत्र बहुत्वे तु 'बहुध्वस्त्रियाम् '(6 / इत्यर्थः / 'स्वार्थिकप्रत्ययात् परत इत्यर्थः / श्रुमतो१११५४) इति ईयो लुप्यते // 6 // ऽपत्यम् , अण् , ततः श्रीमत एव=ौमत्यः, यन, Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [भ०७ पा० 3 सू०६९-७१ (1) / ''श्रीमत्यस्य संघादि श्रीम योऽनन्तरं श्रीमत्यस्यापत्यं युवा=ौमत्यायनः, बहुव्रीहिसमासग्रहणेन ग्रहणात् 'ताभ्यां वाप डित्' 'यवियः' (631154) इति सूत्रेण आफ्नण कार्यः।। इत्यनेन डापडीप्रत्ययविकल्पः सिद्धः, एवं च त्रैरूश्रीमत्यस्यायं श्रीमतकः, गोत्राददण्डमाणव०' (6 / प्यम्- सुजम्भे, अत्र डाप् ; सुजम्भ्यौ , अत्र ङी; पक्षे 3 / 169) इति अकर। सुजम्भानौ; सुजम्भे, सुजम्भ्यौ, सुजम्भानौ स्त्रियो (अभिजितस्यायमाभिजितकः) / 1deg श्रुमत इदम्- इति त्रैरूप्यम् / 'धुरः समीपमुपधुरम् , 'धुरोऽनक्ष'तस्येदम् ' . (इति श्रीमतम् ), श्रीम. स्य' ( 7 / 377 ) इति अत् समासान्तः / "शरदः (तानां समूहः) श्रीमतकम् , आभिजितकम् , 'गोत्रो- समीपम्-उपशरदम् , 'शरदादेः' (7 / 3 / 92) अत् , (उपक्षवत्स०' (6 / 2 / 12) इत्यनेन अकत्र / .............. शरदम् ) इत्यत्र प्रथमासिः, 'अमव्ययीभावस्यातो.' (3 / 2 / 2) इत्यनेन सिस्थाने अम् / 'योधुरोः समातम् , 'संघघोषाङ्क०' (6 / 3 / 172 ) इत्यनेन अण् , हारः-द्विधुरी, 'धुरोऽनक्षस्य' (7 / 3 / 77) इति अत् , 'शकादिभ्यो द्रेलेप्' (6 / 1 / 120) इत्यनेन यो 'द्विगोः समाहारात०' ( 2 / 4 / 22 ) इत्यनेम डी। . लोपः // 68 // "वाक् च दृषच्च- 'चवर्गदषह:0' (7 / 3 / 98) इति अत् , वाग्दृषदमस्यास्ति-'प्राणिस्थादस्वाङ्गा०' (72 / 60) समासान्तः // 73 // 69 // इति इन् / / / 69|| म. वृ०-अधिकारोऽयमापादपरिसमाप्तेः। न किमः क्षेपे / / 73 / 70 // अतः परं ये प्रत्ययास्ते समासस्यान्ता अवयवा भवन्ति (इति)तद्ग्रहणेन गृह्यन्ते / ' प्रयोजन बहुव्रीह्यव्ययी- म0 वृ०-क्षेपे निन्दायां यः किम्शब्दस्तस्मात् भावद्विगुद्वन्द्वसंज्ञाः / सुजम्भे सुजम्मानौ स्त्रियौ। परे ये ऋगादयः यानुपादाय समासान्तो विधास्यते *उपधुरम् , उपशरदम् ; द्विधुरी, वाग्दृषदिनी।६९। तदन्तात्समासाद्वक्ष्यमाणः 'समासान्तो न' भवति / पकिंधूः, या न तथा गुर्वी; किंराजा, यो न रक्षति; प्रव०-'प्रयोजनं बहुव्रीहीत्यादि यदुक्तम् तत्र ! किंसखा, योऽभिद्रह्मति [द्रोहं कुरुते]; किंधूः शकयथाक्रमं सुजम्भे इत्याद्युदाहरणानि / सुजम्भे टम् , किमक्षिर्विप्रः / किम इति किम् ? कुराजः इति बहुव्रीहिग्रहणेन ग्रहणमिति प्रयोजनम् / उप [कुत्सितो राजा-राजन्सखेः' ( 7:3:106 ] / क्षेप धुरम् , उपशरदम् ; अत्र अत्समासान्तस्याव्ययी इति किम् ? केषां राजा=किंराजः, किंसखः [ किंगभावग्रहणेन ग्रहणात् विभक्तीनाममभावः सिद्धः / वः] ||7|| द्विधुरी,अत्र अत्समासान्तस्य द्विगुग्रहणेन ग्रहणात् डी सिद्धः। वाग्हषदिनी, अत्रात्समासान्तस्य द्वन्द्वग्रहणेन अव०-'का कुत्सिता धूरस्य=किंधूः, किंधूरिग्रहणात् इन् सिद्धः / उपलक्षणं चेदम् ,तत्पुरुषकर्मधा त्यत्र 'धुरोऽनक्षस्य' (7 / 3 / 77) इत्यस्य प्राप्तिः / (एवं) रयादिसंज्ञा अपि प्रयोजनमित्यर्थः। जम्भशब्दोऽभ्य किंगोर्यो न वहति, अत्र 'गोस्तत्पुरुषाद्' (7 / 3 / 105) वहार्थवचनो दंष्ट्रावचनो वा, उभयत्रापि पुस्त्रीलिङ्गः, इत्यस्य विषयेऽट् न भवति / के-कुत्सिते अक्षिणी जम्भः, जम्भा वा / रचना इयम्-सु, जम्भः,जम्मा ; अस्य=किमक्षिः, अत्र 'सक्थ्यक्ष्णः स्वाङ्गे' (7 / 3 / शोभनो जम्भो जम्भा वा ययोः ते सुजम्भे, सुज 126) इत्यनेन प्राप्तोऽपि टो न भवति // 70|| म्भानौ; सुहरिततृणसोमाज्जम्भात्' (7 / 3 / 142) इति सूत्रेण अन् समासान्तः, ततः 'ताभ्यां वाप डित्'(२। 'नञ्तत्पुरुषात् / / 7 / 3 / 71 // 4 / 15) इति सूत्रेण (विकल्पेन) डाप कर्त्तव्यः, प्रथ- म. वृ०-नतत्पुरुषाद्वक्ष्यमाणः 'समासामाद्विवचनमौः, 'औरीः' (श४।५६ इति) औस्थाने | न्तो न' स्यात् / न ऋक् अनृक् , [ 'ऋक्तःपथ्यई, सुजम्भे, सुजम्मानौ ; अत्र अनः समासान्तस्य / पोऽत्' (7 / 3 / 76) इति प्राप्तिः] अराजा, अपन्थाः। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समासान्तविधानम ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [489 अपथमिति पथशब्दस्य, यथा-उकुपथम् / तत्पुरुषा- | इति डः] ड: 'कच्च न स्यात् / [आसन्ना बहवो येषां दिति किम् ? ४अधुरं शकटम , अराजं वर्त्तते // 71 ते] २आसन्नबहवः, उपबहवः / बहोरिति किम् ? रद्वित्राः / / 73|| अव०-'तामुत्तरपदप्रधानतां पृणाति इति तत्पुरुषः, 'विदिपृभ्यां कित् ' (उ० 558) इत्युणादि प्रव०-कचोऽपवादस्य 'प्रमाणीसङ्कया'(७) 3 / 128) इति डप्रत्ययस्य निषेधे कच मा प्रासासूत्रेण कित् उषप्रत्ययः, नया तत्पुरुषः नतत्पु डाझीदिति आशयेन आह कच्चेति / आसन्नबहवः, रुषः, तस्मात् / न पथ: अपथम् , *'पथः सङ्ख्याव्ययोत्तरः'इति नपुसकत्वम्। उकुपथमित्यत्र पथिन् उपबहवः ; अत्र 'बहुगणं भेदे' (1 / 1140) इत्यनेन शब्दपर्यायः पथ इति शब्दोऽप्यस्ति / कुत्सितः पथः बहुशब्दस्य सङ्घयावद्भावात 'प्रमाणीसङ्ख्याड्डः' (7 / 3 / 128) इत्यनेन डप्राप्तिः। उप समीपे बहु कुपथम् , 'पथः सङ्ख्याव्ययोत्तरः' इति लिङ्गपाठात् येषां ते उपबहवः, 'अव्ययम् ' ( 3 / 121 ) इति नपुसकत्वमेव भवति / यदि च कुपथमित्यत्र पथि समासः / द्वौ वा त्रयो वा प्रमागमेषाम् 'प्रमाणीनशब्दः स्यात; तदा कुत्सितः पन्थाः इति वाक्ये सङ्ख्या०' (73 / 128) इति डः। द्वित्रा इत्यस्थाने 'काऽक्षपथोः' (3 / 2 / 134) इति सूत्रेण कुशब्दस्य का इत्यादेशः प्रवर्तेत / न विद्यते धूरस्य शकटस्य= ड इति किम् ? प्रिया बहवोऽस्य=प्रियबहुकः, शेषाद् अधुरं शकटम् / अपथोऽयमुद्दे श इत्यपि (प्रत्युदाहरणं) वा' (7 / 3 / 175) इत्यनेन कच् / / 73 / / ज्ञेयम् , न विद्यते पन्था यत्र-अपथः, 'ऋक्पू:०' (7) इच् युद्धे / / 7 / 3 / 74 // 3176 ) अत् / 'राज्ञामभावः अराजम् , 'विभक्ति- __मवृ०-युद्धे यः समासो विहितस्तस्मादुर समीप०' ( 3 / 1 / 39) इत्यनेनाव्ययीभावः, 'अनः' 'इच' समासान्तः स्यात् / केशाकेशि, "दण्डा(७।३।८८) इत्यनेन अत् / / 71 // दण्डि, 'मुष्टामुष्टि, अस्यसि // 74 // पूजास्वतेः प्राक टात् / / 7 / 3 / 72 / / / प्रव०-अव्ययीभावः / तस्मादव्ययीभावसम० वृ०-पूजायां यौ स्वती ताभ्यां परे ये ऋगा- | मासात् परत इच् / 3 चकारः 'इच्यस्वरे दीर्घ०'(३॥ दयस्तदन्तात्समासा'बहुव्रीहेः काष्ठे टः' (7 / 3 / 125 2 / 72) इत्यत्र विशेषणार्थः / 'केशेषु च केशेषु च इति दप्रत्ययात् प्राग यः समासान्तो वक्ष्यते स मिथो गृहीत्वा कृतं युद्ध केशाकेशि / दण्डैश्च दण्डैन भवति / 'सुधूः, अतिधूः, सुराजा, अति श्च मिथः प्रहृत्य कृतं युद्ध दण्डादण्डि / 'मुष्टया राजा ; सुसखा, अतिसखा ; सुगौः, अतिगौः / पूजा च मुष्टया च मिथः प्रहृत्य कृतं युद्धम् / असिना ग्रहणं किम् ? अतिक्रान्तो राजानमतिराजः। प्राक् च असिना च मिथः प्रहृत्य कृतं युद्धम् / सर्वत्र टादिति किम् ? स्वङ्गुलं काष्ठम् / / 72 // 'तत्रादाय मिथ०' ( 3 / 1 / 26) इच् समासान्तः , अव०-१शोभना धु:। २५जिता धू: अतिधूः / 'इच्यस्वरे दीर्घ0' (3272) इत्यनेन पूर्वपदस्य आकारः / / 74|| शोभनो राजा / "अतिशयितो राजा / 'शोभना अङ्गुलयो यस्य, 'बहुव्रीहे:०' (7 / 3 / 125 इति टः॥७२ 'द्विदण्डयादिः // 7 / 375 // म०वृ०-द्विदण्डि इत्यादयः समासा 'इजन्ताः बहोडें // 73 // 73 // साधवो' भवन्ति / द्वौ दण्डावस्मिन् प्रहरणे २द्विम. वृ०-डे-डप्रत्ययविषये प्रसङ्गो यत्र ततो | दण्डि प्रहरति, उभाबाहु, उभयाबाहु, उभौ हस्ताबह्वन्तात् समासान्तो [प्रमाणीसङ्ख्या०'(७।३।१२८) ] वस्मिन् पाने उभाहस्ति पिबन्ति, एवमुभयाहस्ति, * श्रीहैमलिङ्गानुशासने नपुंसकलिङ्गप्रकरणेऽष्टमश्लोके। Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 490 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 7 पा० 3 सू० 76-78 ५उभाकर्णि शृणोति, उभयाकर्णि, अन्ते वासोऽ- | पम्-उपर्चम् , 'राजदन्तादिषु' (3 / 1 / 149 ) इति स्मिन् स्थाने अन्तेवासि तिष्ठति, अन्तेवासी गुरो- | पूर्वनिपातः / एवमुच्चारितचः / श्रियाः पूः अथवा रिति ताच्छीलिकान्तोऽन्य एव शब्दः, संहितानि श्रीश्चासौ पूश्च श्रीपुरम् / एवं पिष्टपुरम , पिष्टस्य पू: पुच्छान्यस्मिन् सरणे संहितपुच्छि धावन्ति, एकः पिष्ठश्चासौ पूश्चेति वा / तिसृणां पुरां समाहारपादोऽस्मिन् गमने एकपदि गच्छति, समानौ त्रिपुरम् / पथः समीपम्-उपपथम् / पन्थानं पादावस्मिन् सपदि गच्छति / क्रियाविशेषणाच्चा- प्रति प्रतिपथम् / पुरपथशब्दाभ्यां सिद्ध पुर् पाथन न्यत्र न भवति,-डी दण्डावस्यां शालायां द्विद इत्येतयोरुपादानमेतद्विपये प्रयोगनिवृत्त्यर्थम् / ण्डा॥ 75 // द्विधा गता आपोअस्मिन्निति द्वीपम्,'द्वयन्तरनवर्णो पसर्ग०' (3 / 2 / 109) इत्यनेन अपस्थाने ईप इत्याप्रव०-'द्विदण्डयादिसूत्रोक्तोदाहरणेषु' तिष्ठ देशः / 8 एवं समीपादिषु / / 76|| ग्वि०' ( 3 / 1 / 36 ) इत्यनेन अव्ययीभावसमासः / २द्विदण्डि इत्यत्र निपातनात् 'इच्यस्वरे दीर्घ आच' धुरोऽनक्षस्य / / 7 / 3 / 77 // (3 / 2 / 72) इत्यनेन आत्व-दीर्घत्वे अपि न भवतः / म०वृ०-धुरन्तात्समासात् 'अन् समासान्तः' उउभौ बाहू ४उभये बाहू अस्मिन् , निपातनात् स्यात् , 'सा चेद् धूरक्षसम्बन्धिनी न भवति / इच्लोपः / एवमुभापाणि, उभयापाणि; उभाञ्जलि, . राज्यस्य धू :] राज्यधुरा,द्विधुरी, त्रिधुरी, उपउभयाञ्जलि ; उभावञ्जली अस्मिन् , उभयेऽञ्जली | धुरम् , महाधुरं शकटम् / अनक्षस्येति किम् ? अस्मिन् / उभौ कर्णी, उभये कर्णौ अस्मिन् श्रवणे।। अक्षधूः // 7 // "एकपदि सपदि इत्यत्र निपातनादेव विभक्ति अव०-'सा चेद् धूरित्यस्यायं भावः,-अक्षस्य लुचि पादस्य पद्भावो भवति, सपदीत्यत्र च चक्रस्य सम्बन्धिनी, शब्दद्वारकमेतत् ; नार्थद्वारसमानशब्दस्य निपातनादेव सभावो भवति / सदि कम् ; तेन महाधुरं शकटमिति सिद्धम् / द्वयोधरोः इत्यस्याने आच्य पादौ आच्यपदि शेते आचनपूर्वम्आच्य, कोऽर्थः ? प्रसार्य, पादौ प्रसार्य शेते; एवं समाहारः, तिसृणां धुरां समाहार: ; तद् बहुल'-मिति प्रोद्यपदि अश्वं हस्तिनं वाहयति,प्रोह्य कोऽर्थः ? विव वचनात् स्त्रीत्वे सति द्विगोः समाहारात्' (2 / 4 / 22) डीः / / 77|| क्षितस्थानं प्रापप्य / / 75 // सङ्ख्यापाण्डूदकृष्णाद् भूमेः / / 7 / 3 / 78 / / ऋक्पू :पथ्यपोऽत् // 73 / 76 / / म. वृ०-सङ्ख्यावाचिभ्यः पाण्डूदक कृष्ण. म०वृ0-ऋक् , पुर् ,पथिन् ,अप् इत्येतदन्तात् शब्देभ्यश्च परो यो भूमिशब्दस्तदन्तात् समासात् समासात् 'अत् समासान्तः' स्यात् / अर्धर्चः, 'अत्' स्यात् / 'द्विभूमम् , 2 त्रिभूमम् , द्विभूमः 2 उपच॑म् , सप्तच्च सूक्तम् / पुर् , श्रीपुरम , त्रि प्रासादः / पाण्डुभूमम् , “पाण्डुभूमो देशः, उदपुरम् / पथिन् , [जलस्य पन्थाः] जलपथः, 'उपपथम् , प्रतिपथम् , विशालपथं नगरम् / अप्, ग्भूमः, "कृष्णभूमो देशः / / 78 // "द्वीपम्, 'समीपम् , प्रतीपम् ,बह्वपं तडागम् / / 76 / / अव०-'द्वयोः भूम्योः समाहारः द्विभूमम् / तिसृणां भूमीनां समाहार: त्रिभूमम् / द्वे भूमी अस्य प्रव०-'ऋचोऽर्द्धम् अर्द्धर्चः / २ऋचः समी- | =द्विभूमः प्रासादः / ४"भूमोऽसङ्ख्यात एकार्थः". *चिन्त्यमिदम् , 'प्रथमोक्तं प्राक़' (3 / 11948) इत्यनेन निर्वाहात् / ॐ श्रीहैमलिङ्गानुशासनविवरणे उपान्त्यश्लोके / .श्रीहैमलिङ्गानुशासने नपुंसकलिङ्गप्रकरणेऽष्टमश्लोके / Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समासान्तविधानम] -मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् इति लिङ्गपाठात् पाण्डुभूमम , उदग्भूमम् , कृष्ण- प्रव०-'तप्तं कोऽर्थः ? तप्ताऽत्र इवाऽनधिभूममित्यत्र नपुसकत्वं सिद्धम् / पाण्डुः भूमिरस्य / गम्यं रहः-तप्तरहसम् / 'तप्तं रहोऽस्येति तप्त एवमुदिची भूमिः उदग्भूमम् / कृष्णा भूमि- रहसः / अनुगत रहोऽनुगतं रहसा.वा-अनरहसम्। रस्य-कृष्णभूमो देशः / ( एवम् ) कृष्णा भूमिः | अनुगतं रहोऽस्येति अनुरहसः। 5 अवहीनं रहोऽ. कृष्णभूमम् / / 78|| वहीनं रहसा वा अवरहसम् , 'प्रात्यवपरि'० (3 / 1 / उपसर्गादध्वनः / / 7 / 3 / 79 / / 43) इति समासः / अवहीनं रहोऽस्येत्यव रहसः ॥८शा म0 वृo-धातुयोगे य: प्रादिरुपसर्गः, तस्मा प्रत्यन्ववात् सामलोम्नः / / 7 / 3 / 82 // त्परादध्वन्शब्दाद् ‘अत्' स्यात् / 'प्राध्वं शकटम् , उपाध्वम् , निरध्वम् ' // 79|| म० धृ०-प्रति अनु अब इत्येतत्पूर्वी यौ सामन्लोमनशब्दो तदन्ताद् 'अत्' स्यात् / 'प्रतिसामम् , प्रतिसामः ; एवमनुसामम् , अनुसामः ; अवसामम् प्रव-प्रगतमध्वानं-प्राध्वं शकटम् / (एवम् ) प्रगतोऽध्यानम्-प्राध्वो रथः। 2 उपक्रान्तमध्धानम् = अवसामः। प्रतिलोमम् प्रतिलोमः [प्रतिगतं लोमोउपाध्वम् / एवमत्यध्वम् / / 79 // . ऽस्य] [अनुलोमम ] अनुलोमः [अक्लोमम् ] अव लोमः / / 82 // समवान्धात्तमसः / / 7 / 3 / 80 // प्रव०-'प्रतिगतं साम प्रतिसामम् / प्रतिम. वृ०-समवान्धेभ्यः परो यस्तमस् तद गतं सामास्य-प्रतिसामः / एवमनुसामम् , अनुन्तान 'अन्' [ समासान्तः ] स्यात् / 'सन्तमसम् सामः ; अवसामम , अवसामः / लोम,-प्रतिलोमम् , २अवतमसम् , अन्धतमसम् / / 8 / / प्रतिलोमः; अनुलोमम , अनुलोमः ; अवलोमम् , अवलोमः इति परिणा उदाहरणानि ज्ञेयानि / तथाअव०-'सततं तमः-संतमसम् , अथवा सततं ऽव्ययीभावसमासे तु परत्वाद्विकल्पः- साम साम तमसा-संतमसम्, 'प्रात्यवपरि०' (3 / 1 / 47) प्रति, योग्यतावीप्सा'० (3 / 1 / 40) इत्यनेन समासः इत्यादिना तत्पुरुषः, यदि वा सततं तमोऽस्मिन्= संतमसम। एवमग्रेऽपि। २अवहीनं तमोऽवहीनं तम अथवा साम्नोऽभिमुश्वम्,- 'लक्षणेनाभि'० (3 / 1 / 33) इत्यनेन समासः , प्रतिसाम, प्रतिसामम् ; सामानु, सा वा, अवही तमोऽस्मिन्निति वा अवतमसम् / अथवा साम्नः समीपम् , 'समीपे' (3 / 1135) इति अन्धशतः, अन्धं करोति इति अन्धयति, 'णिज समासः, यदि वा साम्ना तुल्यायामम् , 'दैर्येऽनुः' बहुलम्०' (3 / 4 / 42) इति णिच् , अन्धयतीति अच् प्रत्ययः, अन्धं च तत्तमश्च अन्धतमसम् , अन्धं (3 / 1 / 34) इति समासः वा, अनुसाम, अनुसामम् / एवं प्रतिलोम,प्रतिलोमम् अनुलोम,अनुलोमम्।प्रत्य-. तमोऽस्मिन्निति वा अन्धतमसम्, अन्धश्च तमश्च% न्वेति किम् ? निर्गतं निष्क्रान्तं वा साम्नः निःषाम अन्धतमसमन्धतमसे वा इति प्रयोगद्वयं समा वचनम् , निर्दस्सोः (2 / 3 / 31) इति षत्वम् , निर्लोमा हारे इतरेतरे च // 8 // पुरुषः / / 82 // तप्तान्ववाद्रहसः // 73 / 81 // ब्रह्मास्तिराजपल्यावर्चसः // 7 / 3 / 83 // म०वृ०-रह इत्यप्रकाश्यं विजनंवा / तप्त, अनु, म. वृ०-ब्रह्म-हस्ति-राज-पल्येभ्यः परो अव इत्येतत्पूर्वो यो रहःशब्दस्तदन्तात् 'अत् ' [समा. / (यो) वर्चस् तदन्ताद् 'मत्स्यात् / वर्चस्तेजो बलंवा, सान्तः] स्यात् / 'तप्तरहसम् , तप्तरहसः, अनु / [ब्रह्मणो वर्चः= ब्रह्मवर्चसम् , हस्तिवर्चसम् , राजरहसम् , अनुरहसः, अवरहसम् अवरहसः / / 81 // | वर्चसम् , पल्यवर्चसम् / ब्रह्मादिभ्य इति किम् ? Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 492] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०७ पा०३ सू० 84-89 नृपाः २सोमार्कवर्चसः / कथं त्विषिमान राजव- / "रुद्रस्याक्षीव-रुद्राक्षम् / 'महिषस्याक्षीव महिर्चस्वी ? समासान्तविधेरनित्यत्वात् / एतच्च 'ऋक्पू:- षाक्षः / 'कबरमक्षीव-कबराक्षम् , अश्वानां मुखप्रपथ्यपोऽत्' (7 / 3 / 76) इति निर्देशात् सिद्धम् // 83 / च्छादनं बहुछिद्रकम् / / 85 // सङ्कटाभ्याम् // 7 // 386 // प्रव०-'कटकृतं स्थानकं पल्यमुच्यते, अथवा पलालवर्त्तिकृतं वा धान्यभाजनं खूरकरूपं पल्यम् , म० वृ०-सम् कट इतिपूर्वादक्षिशब्दाद् अत् स्यात् / हस्तिविधा वा पिण्डः सोमार्कवत् वर्ची येषां ते। प्राण्यङ्गार्थ वचनम् / 'समक्षम् , कटाक्षः / / 86 / / उत्विषिरस्यास्ति / राजवर्थोऽस्यास्तीति / अन्यथा अव०-सङ्गतमक्ष्णा समक्षम् , समीपमक्ष्णो अत्रापि अपशब्दाद् अत् प्रत्ययः स्यात् / / 83 / / वा समक्षम् / कटस्याक्षि = कटाक्षः // 86|| प्रतेरुरसः सप्तम्याः // 7 / 3 / 84 // प्रतिपरोऽनोरव्ययीभावात् // 7 / 3 / 87 / / म० वृ०-प्रतिशब्दात् परो य उरस् सप्तम्यन्तः म० वृ०-प्रति, परस् , अनु इतिपूर्वो योऽक्षि. तदन्ताद् 'अत्' समासान्तः] स्यात् / 'प्रत्युरसम् / शब्दस्तदन्तादव्ययीभावसमासाद 'अन' स्यात् / सप्तम्या इति किम् ? २प्रत्युरः / / 84|| 'प्रत्यक्षम् ,२परोक्षन, अन्वक्षम्। कथं प्रत्यक्षोऽथः अव०-'उरसि वर्त्तते प्रत्युरसम् , अत्र विभ- परोक्षः कालः इत्यादेरव्ययीभावस्य सत्त्ववचनता ? क्त्यर्थेऽव्ययीभावः ; उरसि प्रतिष्ठितं वा प्रत्युरसम् , उच्यते, अभ्रादेराकृतिगणवादप्रत्ययेन भविष्यति / अत्र तु 'प्रात्यवपरि'० (3 / 1 / 47) इति तत्पुरुषः, अक्षशब्देनेन्द्रियपर्यायेण सिद्ध प्रत्यादिभ्यः परस्यापरं बाहुलकात् / प्रतिगतं उरः प्रत्युरः, उरः प्रति क्षशब्दस्याव्ययीभावे प्रयोगो मा भूदिति वचनम् / 87) वा प्रत्युरः ; 'लक्षणेनाभि'० 321133) इति अव०-१अक्षिणी प्रति प्रत्यक्षम् / परससमासः // 84 // मानार्थ: परस्शब्दोऽव्ययम् , अक्ष्णोः परंपरोक्षम् , अक्ष्णोऽप्राण्यङ्गे' / 7 / 3 / 85 / / अत्ययेऽव्ययीभावः। अक्ष्णः समीपम। प्रत्यक्षम म० वृ०-[अक्षिशब्दान्तात समासात् 'अत' | त्रास्ति इति परिणा / / 87 / / समासान्तो भवति ; अप्राण्यङ्गे] चेदक्षिशब्दः प्राण अनः // 7 / 3 / 88 / / यङ्गे न वत्तते / रेलवणाक्षम् , पुष्कराक्षम् , म. वृ०-अन् इत्यन्तादव्ययीभावाद् 'अन्' गवाक्षः, रुद्राक्षम्, 'महिषाक्षो गुग्गुलः, कब- स्यात् / उपराजम् , [अतक्षम् , आत्मन्यधि=] राक्षम् / अप्राण्यङ्ग इति किम् ? अजस्याक्षि=] अध्यात्मम् , 'प्रत्यात्मम् / / 88|| अजाक्षि, वामाक्षि / / 85 / / अव०-'आत्मानं प्रति, 'लक्षणे'० (3 / 1 / 33) ___ अव०-'प्राणा विद्यन्ते यस्य स प्राणी, 'अतो- अव्ययीभावः / / 88 // नेक०' (72 / 6) इति इन , प्राणिनोऽङ्गम् (=प्राण्य नपुंसकाद्वा // 7 / 3 / 89 // ङ्गम् ), न प्राण्यङ्गमप्राण्यङ्गम् , तस्मिन् / ......." म०७०-अन्नन्तं यन्नपुंसकं तदन्तादव्ययीभावाद् ................ | 2 लवणस्याक्षि-लवणाक्षम , 'अत्' स्याद्वा प्रतीतं कर्म=| प्रतिकर्मम् , प्रतिअथवा लवणमक्षीवलवणाक्षम् , 'उपमेयं व्याघ्रा'० | कर्म , प्रतिसामम् , प्रतिसाम ; अनुलोमम् , अनु.. (3 / 11102) इति समासः / गोरक्षीव गवाक्षः / / लोम / पूर्वेण नित्ये प्राप्ते विकल्पः / / 8 / / के हस्त्याहार इत्यर्थः / तदुक्त श्रीहैमलिङ्गानुशासनविवरणे- “विधा गजान्नमृद्धिः विधानं वेतनं च" / 'ऋक्पूःपथ्यपोत्' (7 / 3 / 76) इति सूत्रेऽपीत्यर्थः / Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समासान्तविधानम ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [413 गिरि-नदी-पूर्णमास्याग्रहायण्यपञ्चमवाद्वा' / / कियन् ,हिरुक् हिमवन् ,उपसद्, सदस् , अदस् , // 7 / 3 / 90 // अतस्, मनस् , विपाश , दृश् , विश ,उपानह, अनडुङ्, चतुर् , दिव् इति शरदादिगणः / / 12 / / . अव०-गिरि, नदी, पौर्णमासी, आग्रहायणी जराया जरस् च / / 7 / 3 / 93 / / इत्येतच्छब्दान्तान् पञ्चमरहिता ये वास्तदन्ताचाव्ययीभावाद् अन् ' स्यात् वा / अन्तगिरि, अन्त म००-जराशब्दादव्ययीभावाद् अत् 'स्यात् तद्योगे गिरम ; उपगिरि, उपगिरम् ; उपनदम् ,4 उपनदि ; जराशब्दस्य 'जरस्'इत्यादेशश्च। 'उपजरसम् / / 13 / / उपपूर्णमासम् , उपपूर्णमासि ; उपाग्राहायणम् , उपा अब०-'जराया उप समीपम् / प्रतिजरसमित्यपि // ग्राहायणि / 'अपञ्चमवर्य,- उपनु चम् , उपस्र क् // 9 // सरजसोपशनानुगवम् / / 7 / 3 / 94 / / म. वृ०-सरजस उपशुन अनुगव इत्यदन्ता अव०–पञ्चमवर्य, वर्गेभवाः-'दिगादिदेहाशाद्यः' [अव्ययीभावसमासाः] निपात्यन्ते / 'सरजसमभ्य(६।३।१२४) इति यः प्रत्ययः, पञ्चमाश्च ते वाश्च वहरति२, उपशुनं तिष्ठति, अनुगवम् ; दैादपञ्चमवाः / रगिरेरन्तः अन्तर्गिरम् , पारेमध्ये न्यत्र नात् ,- 'अनुगु यानम् / / 14 / / ग्रेऽन्तः षष्ठया वा' (3 / 1 / 30) / गिरेः समीपम् / नद्याः समीपम् , 'क्लीबे' (2 / 4 / 97) ह्रस्व / ५उप- अव०-'सह रजसा सरजसम् , साकल्येऽ चम् , उपस क् ; अधिस्रजम् , अधिस्रक् ; मरुतं व्ययीभावः। अभ्यवहरति',भुक्ते इत्यर्थः। शुनः प्रति प्रतिमरुतम् , प्रतिमरुत् ; उपहषदम् ,उपदृशत्; . समीपम् उपशुनम् , अत् , निपातनाद् वकारस्य उपसमिधम् , उपसमिद् ,उपककुभम् ,उपककुब् :एता उत्वम् / तथा गामन्वायतम् अनुगवम् , 'देयेऽनः' न्युदाहरणानि अपश्चमवर्ग्यविषये ज्ञातव्यानि // 90 / (3 / 1 / 34) इत्यव्ययीभावः / “गवां पश्चात् अनुगु / 94 / सङ्ख्याया नदी-गोदावरीभ्याम् / / 7 / 3 / 91 // जातमहवृद्धादुक्ष्णः कर्मधारयात् / / 7 / 3 / 95 / / ... म0 वृ०–सङ्ख्यावाचिशब्दात्परौ यौ नदीगोदा- ___म० वृ०-जात-महद्- वृद्धभ्यः परो य उक्षन् तदवरीशब्दौ तदन्तादव्ययीभावाद्'अत्' स्यात् / (पञ्च न्तात् कर्मधारयाद्'अत्' स्यात् / जातोक्षः,महोक्षः, नद्यः समाहृताः] 'पश्चनदम् ; द्विगोदावरम् [द्वयो- | वृद्धोक्षः // 15 // र्गोदावर्योः समाहारः, 'सङ्ख्या समाहारे' (3 / 1 / 28) इति समासः / इह नदीग्रहणं नित्यार्थम् / / 91 / / / .. प्रव०-उक्षन् , पञ्चमीडसिः, 'अनोऽस्य' (2 / 9 / 108) इति अकारलोपः। रजातश्वासावुक्षा प्रव०-'पञ्चानां नदीनां समाहारः इति वाक्ये | च-जातोक्षः। एवमग्रेऽपि / कर्मधारयादिति किम् ? पञ्चनदम् / / 9 / / जातस्योक्षा-जातोक्षा, एवं महोक्षा, वृद्धोक्षा // 15 // शरदादेः // 7 / 3 / 92 // स्त्रियाः पुंसो द्वन्द्वाच्च / / 7 / 3 / 96 // म. वृ०-शरदाद्यन्तादव्ययीभावाद् अत्' स्यात् / म० वृ०-स्त्रीशब्दात्परो यः पुम्सशब्दस्तद'उपशरदम् , 'उपत्यदम् / अत्रापश्चमधान्तपाठो न्ताद् द्वन्द्वात्कर्मधारयाच 'अत् 'स्यात् / स्त्रीपुंसम् , नित्यार्थः / / 12 / / स्त्रीपुसौ ; कर्मधारयात् ,- २स्त्रीपुसः शिखण्डी, स्त्रीपुसं विद्धि राक्षसम् // 96 // अव०-शरदः समीपम् / (एवम् ) प्रतित्यदम् / त्यस्य समीपम् उपत्यदम् / शरद्,त्यद्, तद्, यद् , , प्रव०-'स्त्री च पुमांश्चेति द्वन्द्वसमासः ।(एवम्) Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 494 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा०३ सू० 97-99 स्त्रीपुसौ / स्त्री चासौ पुमांश्च स्त्रीपुस इति कर्म- | वाक्समुच्छम् , श्रीस्रजम् , सम्पद्विपदम , वाक्धारयः / कौरवपक्षीयः कश्चिदेवनामा द्रुपदः पुत्रः / विषम् , छत्रोपानहम् , गोगोदुहम् / छत्रोपानशिखण्डी। द्वन्द्वादिति किम् ? स्त्रियाः पुमान-स्त्री. | हिनी इति द्वन्द्वलक्षणो मत्वर्थीय इन् / समाहारे पुमान् // 96 // इति किम् ? प्रावृदशरद्भ्याम् / द्वन्द्वादित्येव- पञ्च वाक् // 98 // ऋक्सामय॑जुष-धेन्वनडुह-वाङ्मनसा-ऽहोरात्र-रात्रिदिव-नक्तंदिवा-ऽहर्दिवोर्वष्ठीव-पदष्ठीवा-ऽक्षिध्रुव- अव०-'वाक् च त्वक् च / २'उच्छैन् विवासे' दारगवम् // 73 // 9 // उछ, विच प्रत्ययः, न किप् , क्विपि सति 'अनुना सिके च'० (4 / 1 / 108) इति छस्य शप्राप्तिः स्यात् , म० वृ०-ऋक्सामादयो द्वन्द्वा 'अदन्ता' निपा वाक् च समुच्च / 'छत्रं चोपानच्च-छत्रोपानहम , त्यन्ते' / 'ऋक्सामे, २ऋग्यजुषम् , धेन्वनडुहौ, 'चवर्ग'० इति अत् समासान्तः, छत्रोपानहमस्यास्ति, [वाक् च मनश्च=] वाङ्मनसे, अिहश्च रात्रिश्च] 'प्राणिस्थादस्वाङ्गा'०७२।६०) इति इन् ,ततो ङी। ४अहोरात्रः, पुण्याविमावहोरात्रौ, रात्रिंदिवम् , अप्रत्ययस्य समासान्तत्वेन द्वन्द्वसमासावयवारात्रिंदिवानि पश्यति, नक्तंदिवम् , अहर्दिवम् , त्वात् इन् भवतीत्यर्थः। पञ्च वाच: समाहृताः, ऊर्वष्ठीवम् ,पदष्ठीवम् , अक्षिभ्रु वम, दारगवम्॥९७ 'सङ्ख्या समाहारे' 3128) इति सूत्रेण सङ्ख्याप्रव०-१ऋक् च साम च। २ऋग् च यजुश्च / पूर्वो द्विगुरयम् / / 9 / / धनुश्च अनड्वांश्च / 'ऋक्साम०' इति सूत्रे धेन्वनडु- 1 द्विगोरनहोऽट् // 7 / 3 / 99 // हग्रहणमसमाहारार्थम् , तेन धेन्वनडुहौ धेन्वन ____ म० वृ०-अन्नन्तात् अहनशब्दान्ताच्च द्विगोः डुहाः इति भवति,न धेन्वनडुहम् / समाहारे तु उत्तर- | समाहारे वर्तमानात् 'अट् ' समासान्तो भवति / सूत्रेणैव सिद्धम् / ४'अहोरात्रम्',अत्र अह्नः' (2 / 1174) 'पञ्चतक्षी, २पञ्चतक्षम् ; शतराजी, "शतराजम् ; इत्यनेन 'न्' इत्यस्य सः, घोषवति' (11321) "यहः, यहः / द्विगोरिति किम् ? "सन्तक्षाणः, इत्यनेन रकारस्थाने उः। रात्रिश्च दिवा च-रात्रिं 'समह्नः / समाहारे इत्येव- द्वथु क्षा, १०त्र्युक्षा, दिवम् , नक्तं च दिवा च-नक्तंदिवम् ; निपात ११द्यतः, १२य ह्रः ||99|| नादुभयप्रयोगे पूर्वपदस्य मोऽन्तः / अहश्च दिवा च-अहर्दिवम् / ननु अहनशब्ददिवाशब्दौ तुल्यार्थों, अव०-पञ्च तक्षाणः समाहृताः पञ्चतक्षी, तयोश्च “उक्तार्थानामप्रयोग' इति न्यायात् “समा रेपश्चतक्षम् ; द्विगोरन्न'० (73,99) इति नामर्थेनैकशेषः" इत्यनेनैकशेषारम्भाद्वा द्वन्द्वो नोप अट् , "द्विगुरन्नाबन्तान्तो" * इति लिङ्गपाठात् पद्यते. सत्यम . पर्यायशब्दयोरपि वीप्सायां निपात- विकल्पेन स्त्रीत्वं भवति / एवं शतस्य राज्ञां समाहारः नात् द्वन्द्वो भवति / अहर्दिवम् (इति) कोऽर्थः ? =शतराजी, शतराजम् / 'द्वयोरह्रोः समाहारो द्वथहः, अहरहरित्यर्थः / / / 7 // 'त्रयाणामह्नां समाहार:=ज्यहः, द्विगोरन्न'० इति अट। सर्वत्र 'नोऽपदस्य तद्धिते' (74 / 61) इत्यनेनान्त्यचवर्ग-द-प-हः समाहारे // 7 / 3 / 98 // स्वरादिलोपः / समाहृतास्तक्षाण: संतक्षाणः, म. वृ०-चवर्गदकारषकारहकान्तान् द्वन्द्वात् समाहृतान्यहान्यस्य-समह्नः इत्यत्र 'सर्वाशससमाहारे वर्तमानाद् 'अन्' स्यात् / वाक्त्वचम, I वया' 0 ( 7 / 3 / 118 ) इत्यनेन अट् , तथा अन् *श्री हैमलिङ्गानुशासने स्त्रीलिङ्गप्रकरणे पञ्चमश्लोके। ' Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समामान्तविधानमा मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम। [495 इत्यस्य अह्न आदेशः / 'द्वाभ्यामुक्षाभ्यां क्रीतो= खार्या वा // 7 / 3 / 102 // धु क्षा, एवं त्र्युक्षा. अत्र 'मूल्यैः क्रीते' (6 / 4 / 150) इति इकण , 'अनामन्य'० (614,141) इति म० वृ०-पृथग्योपाद् द्विवेरिति निवृत्तम् / प्लप। ११द्वयोरबोर्भयो-दृघत, एवं २त्र्यह्नः, अत्र खारीशब्दान्तात् द्विगोरलुकोर-'ऽट म्यादा / भवे अविषये 'सर्वांशसङ्ख्या 0 (13 / 118) इत्य- उद्विखारम, पक्षे द्विखारि ; एवं 'पञ्चखारम् , पञ्चनेननाट् अहन इत्यस्य अह्न आदेशश्च, अणि हि खारि ; द्विवाग्मयम् , द्विखारीमयम , पञ्चखाररूकृते 'द्विगोरनपत्ये'८ (6 / 1 / 24) इति अणो लोपः।१९। प्यम . पञ्चखारीरूप्पम ; [द्वे खा? प्रिये अस्य= .... द्वि-रायुषः // 7 / 3100 // द्विखारप्रियः, द्विखारीप्रियः, द्वे खायौँ धनमस्य] म० वृ०-द्वित्रिभ्यां परो यो आयुःशब्दस्तद द्विखारधनः, द्विखारीधनः, / द्विगोरित्येव- उपन्ताद् द्विगो: समाहारे-'ऽट्' स्यात् / ' द्वथायुपम .. खारि, अधिखारि // 102 / / त्र्यायुपम२ // 10 // अव०-'द्वयोरायुषोः समाहारः / समाहारे अव०-खन्यते इति खारी, 'द्वारशङ्गारभृङ्गारइत्येव-द्वे आयुषी प्रिये यस्य (स) द्वयायुःप्रियः, कह्नारकान्तारकेदारखारडादयः' ( उणा० 411 ) त्रीण्यायू षि प्रियाणि यस्य (स)व्यायुःप्रियः ; उत्तर- इत्युणादिसूत्रेण आरटप्रत्ययः, स च डिन् / टकारो पदे द्विगुग्यम् / “घ्यायुपं जमदग्नेः कश्यपस्य या ब्यर्थः / २'खार्या वा' इति सत्रेऽर्थे 'द्विगोरलको' युषंयद् देवेषु व्यायुषं तन्नोऽस्तु व्यायुष'मिति यजु इत्युक्तं यत् तत्र अलुक् इत्यस्य प्रत्युदाहरणं न - वैदे ऋगियम् // 10 // भवति, विशेषाभावान / तथाहि- यतः तद्धितलुकि वाञ्जलेरलुकः // 7 / 3 / 101 // कृतायां अप्रत्ययाभावेऽपि 'डयादेर्गौणस्य०' __म० वृ०-द्वित्रिभ्यां परो योऽञ्जलिस्तदन्ताद् (2 / 4 / 64) इति ङीप्रत्ययस्य लुकि मत्यां द्विखारः द्विगो-रट्' वा स्यात् , यदि स द्विगुस्त- द्विखारमिति प्रयोगद्वयं पुनपुंसकयोः / स्त्रियां तु शितलुगन्तो न भवति / 'द्वयञ्जलम् , द्वयञ्जलिः ; 'परिमाणात्तद्धितलुकि०' (2 / 4 / 23) इत्यादिना डीव्यञ्जलम , व्यञ्जलिः ; द्वयञ्जलमयम् ,द्वयञ्ज प्रत्यये कृते द्विखारी इति स्त्रीलिङ्ग भवति / द्वे लिमयम् . यालरूप्यम , द्वयञ्जलिरूप्यम् ; खार्यों मानमस्याः स्यादिति वाक्ये 'मात्रट' (71 / ४द्वयञ्जलप्रियः, द्वयञ्जलिप्रियः / अलुक इति 145) इत्यनेन मात्रट प्रत्ययः, 'द्विगो: संशये च' किम् ? "द्वयञ्जलिर्घटः, व्यञ्जलिर्घटः / द्विगो- | (7 / 1 / 145 ) इत्यनेन मात्रट लुप्यते, तदनन्तरं रित्येव-द्वयञ्जलिः, द्वयञ्जलिकः / / 101 / / 'परिमाणात्तद्धित०' इत्यनेन ङी, द्विखारी इति प्रयोग सिद्धिः / एतच्च त्रैरूप्यमटि कृतेऽकृतेऽपि भवति प्रव०-द्वयोरञ्जल्योः समाहारो द्वयञ्जलम् , / इति भावः / इदन्तात् खारि इति शब्दात् ङीप्रत्यये एवं यजलम् ; अत्राट् / उद्वाभ्यामञ्जलिभ्यामा- | खारी इत्येके / तदा त्वस्त्येव विशेषः / यतः तद्धि. गतम् , 'नृहेतुभ्यो रूप्यमयटौ वा' 6 / 3 / 156) इति / लुकि इदन्ता प्रकृतिरवतिष्ठते खन्यते-'कुन्द्रिरूप्यमयटौ। द्वावञ्जली प्रियौ यस्य स द्वयज- कुद्रयादयः' (उणा०६९५) इत्युणादिसूत्रेण निपातनात् लप्रियः / 'द्वाभ्यामञ्जलिभ्यां क्रीतम् , 'मूल्यैः आरिप्रत्ययः, स चडित् , खारि इति शब्दसिद्धिः, क्रीते'।६।४।१५०) इकण , 'अनाम्न्य'०६४१४१) उद्वयोःखार्योःसमाहारो-द्विखारम् अत्र अट् ,पक्षे द्विइति लुप् / द्वयोरञ्जलि:=द्वयञ्जलि: / द्वावञ्जली खारि, अत्र 'क्लीबे' (2 / 4 / 97 ) इत्यनेन ह्रस्वः, अस्यद्वयञ्जलिकः // 101 // द्विखारि इति सिद्धम् , मतान्तरे द्विखारि इति Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 496 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 3 सू० 103-106 पुंल्लिङ्गे, * अत्र च 'गोश्चान्तेo' ( 2 / 4 / 95 ) इति / अव०-'अर्धनावम् अर्द्धनावी इत्यत्र "अर्द्धपूर्वहस्वः, द्विखारी इति स्त्रीलिङ्गे, अत्र च गोश्चान्ते' / पदनाव" इति वचनात् // स्त्रीक्लीबत्वम् / योइति ह्रस्वः, 'इतोऽक्तयर्थात् ' (2 / 4 / 32) इति ङीः, वोः समाहारो=द्विनावम् / उपञ्चानां नावां द्विखारी इति सिद्धम् / एवं 'पश्चखारम्', पश्चानां समाहारः / द्वाभ्यां नौभ्यामागतम् , 'नृहेतु०' (6 / खारीणां समाहारः, अत्राट् , पक्षे पञ्चखारि, 3 / 156) मयट्प्यौ / द्वे नावौ प्रियेऽस्य / 'द्वे 'क्लीबे' (2 / 4 / 97. ह्रस्वः / अत्रापि मतान्तरे रूप- नावौ धनमस्य / द्वाभ्यां नौभ्यां क्रीतः, 'मूल्यैः द्वयं ज्ञेयं पूर्ववत् / पञ्चखारिः इति पुस्त्वे पश्च- क्रीते' (6 / 4 / 150) इकण ; अनाम्न्यo' (6 / 4 / 141) खारी इति स्त्रीत्वे द्रष्टव्यम् / / 102 / / इकणलोपः // 104 // वार्धाच // 7 / 3 / 103 // गोस्तत्पुरुषात् // 7 / 3 / 105 // म०वृ०-अर्द्धशब्दात्परो यः खारीशब्दस्तदन्ताच्च म० वृ०-गोशब्दान्तात्तत्पुरुषादलुको-'ऽट्' . समासादलुको-'ऽट्' स्याद्वा / ‘समेंऽशेऽद्ध नवा' (3 / स्यात् / [राज्ञो गौः=] राजगवः, [राज्ञो गौः= ] 1154) इत्यर्द्धशब्दे (यः) प्रतिपदं समासः ["लक्षण- राजगवी; 'पुङ्गवः, स्त्रीगवी ; [ गामतिक्रान्तः ] प्रतिपदोक्तयो"-रिति न्यायात् ] उक्तस्तत्रायं विधिः अतिगवः, अतिगवी, पञ्चगवम् , “पञ्चगवमयम् , [अप्रत्ययो भवतीत्यर्थः] / अर्द्ध खार्या = 'अर्द्धखा ४पञ्चगवरूप्यम् , पञ्चगवधनः / अलुक इत्येवरम , अर्द्धखारी / चकारो द्विगोरनुकर्षणार्थः, तेनो ५पञ्चगुः / / 105 // त्तरत्र द्वयमप्यनुवर्तते // 1.3 // अवल-पुमांश्चासौ गौश्च-पुङ्गवः / स्त्री चाअव०-१'अर्धखारम्' इत्यत्र "परलिङ्गो द्वन्द्वोंऽशी" | सौ गौश्च-स्त्रीगवी / 'पञ्च च ते गावश्व-पञ्चगवइति लिङ्गपाठवचनात् स्त्रीत्वं किं न भवतीत्याह / म् / पञ्चभ्यो गोभ्य आगतम् / ५पञ्चभिर्गोभिः सूरिः,-अडन्तस्य विधानसामर्थ्यात् न स्त्रियां वृत्तिः। / क्रीतः, 'मूल्यैः क्रीते' (6 / 4 / 150 ) इकण , 'अनाअर्धखारी इत्यत्र तु अंशिसमासवर्जनात् 'गोश्चा- | म्न्यः' (6 / 4 / 141) इति // 10 // न्त०' 2 / 4 / 96) इत्यनेन न ह्रस्वः। उत्तरत्र-उत्तर राजन्सखेः // 7 / 3 / 106 // सूत्रे 'नावः' (7 / 3 / 104) इत्यत्र 'अर्द्धात्' इति 'द्विगोः' इति च द्वयमनुवर्तते // 10 // म० वृ०-पृथग्योगादलुक इति निवृत्तम् / राजन सखि इत्येतदन्तात्तत्परुपाद 'अट' स्यात / नावः // 7 / 3 / 104 // देवराजः, महाराजः, अतिराजः, अतिराजी, म.वृ०-अर्द्धात्परो यो नौशब्दस्तदन्ताद् द्वि- . "पञ्चराजी, पञ्चराजः, पञ्चराजी, पञ्चराजगोश्च नौशब्दान्तात् लुकोऽट्' स्यात् / अद्ध नावः / प्रिय:। राजसखः, महासखः, अतिसखः, अति=(अर्धनावम् ) 'अर्धनावी / द्विगोः,-द्विनावम् , | सखी, पञ्चसखम् , पञ्चसखः, पञ्चसखी, उपञ्चनावम् ; द्विनावमयम , द्विनावरूप्यम् , द्विनाव- पञ्चसखप्रियः / राजनिति नान्तनिर्देशादनकाप्रियः, 'द्विनावधनः / अलुक इत्येव- द्विनौः / द्वि- रान्ते नाट् , [मद्राणां राज्ञी=} मद्रराज्ञी, [महतीगोरित्येव- द्वयोनौः द्विनौः // 10 // चासौ राज्ञी च=] महाराज्ञी // 106 / / * ये केचित् द्विगुसमाहारे पुस्त्वमपीच्छन्ति, सन्मतमाश्रित्येदं ज्ञेयम् / स्दमते तु "अन्यस्तु सर्वो नपुसकः" इति नपुसकत्वमेव / एवमेवाने "द्विखारी इति स्त्रीलिङ्ग" इत्यत्रापि बोध्यम् / *श्रीहैमलिङ्गानुशासने परलिङ्गप्रकरणे प्रथमश्लोके / 卐श्रीहैमलिङ्गानुशासने स्त्रीक्लीबलिङ्गप्रकरणे तृतीयश्लोके / Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समासान्तविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [497 - प्रव०-देवानां राजा-देवराजः / रमहां- | कु-महद्भ्यां वा // 7 / 3 / 108 / / श्चासौ राजा च-महाराजः। अतिक्रान्तो राजान म० वृ०-कु महत् इत्येताभ्यां परो यो ब्रह्मन् मतिराजः / “अतिक्रान्ता राजानम् अतिराजी / तदन्तात् तत्पुरुषाद्'अट्' वा स्यात् / 'कुब्रह्मः, 'पञ्चानां राज्ञां समाहारः पन्चराजी। पञ्चभी कुब्रह्मा ; महाब्रह्मः, महाब्रह्मा; पापो महांश्च ब्राह्मण राजभिः क्रीतः पञ्चराजः, 'मूल्यैः'० (6 / 4 / 150 ) एवमुच्यते / / 108 / / इकण , अनाम्न्य'०(६।४।१४१) इति / एवं पश्चसखिशब्देन सह समासः। पञ्चभिः सखीभिः क्रीतः= अव.-महान् ब्रह्मा, महांश्चासौ ब्रह्मा च पञ्चसखः, इकण , 'अनाम्न्य'० इति लुप् / 'राज- इति वा // 108 // न्सखेः' इति सूत्रे विशेषोऽयं लिख्यते-सखीशब्दादी- ग्रामकोटात्तक्ष्णः // 7 / 3 / 109 / / कारान्तात् अटि सत्यसति वा न रूपभेदः / तथाहि म. वृ०-ग्रामकौटाभ्यां परो यस्तक्षनशब्दपश्चानां सखीनां समाहार इति वाक्ये 'क्लीबे' स्तदन्तात्तत्पुरुषाद्'अट्' स्यात् / 'ग्रामतक्षः, कौट(२।४।९७) इत्यनेन ह्रस्वे कृते ततः सखिशब्दादि तक्षः॥१०९॥ दन्तादेव 'राजन्सखेः' इत्यनेनाटि कृते पञ्चसख इति रूपं सिद्धम् / तथा सखीमतिक्रान्त इति वाक्ये कृते अव०-ग्रामश्च तक्षा च-ग्रामतक्षः, ग्रामसाधासखीशब्दात् 'राजन्सखेः' इत्यनेनाटः प्राप्त्यभावे रण इत्यर्थः / कुटी-शाला, तस्यां भवः कौटः,कौट'गोश्चान्ते'० (2 / 4 / 96) इति ह्रस्वे कृते सखि इति / स्तक्षा-कौटतक्षः,यः स्वगृहे एव कर्म करोति स्वतन्त्रः इदन्तात् अट प्राप्नोत्येव / तथा पञ्चानां सखी | न कस्यचिदायत्तः स कौटतक्षः / / 109 / / इत्यपि वाक्ये कृतेऽटि अडभावेऽपि तत्पुरुषस्योत्त . गोष्ठातेः शुनः // 7 / 3 / 110 // रपदप्रधानत्वात् पञ्चसखी इत्येष रूपम् / तथा पञ्च सख्यः प्रिया यस्येति वाक्ये 'गोश्वान्ते'० (2 / 4 / 96) म० वृ०-गोष्ठातिभ्यां परो यः श्वन् तदन्तात् ह्रस्वे 'राजन्सखेः' इत्यनेनाटि कृते 'अवर्णेवर्णस्य' तत्पुरुषाद्‘अट्'स्यात् / गोष्ठश्वः, अतिश्वो वराहः (7 / 4 / 68) इति इकारलोपे पुनरपि 'अणनेये'० अतिजवनः, अतिश्वः सेवकः सुष्ठु स्वामिभक्तः, . (2 / 4 / 20) इत्यनेन ङी शकटाभिप्रायेण, यतः तेन भतिश्वी सेवा, अतिनीचेत्यर्थः / / 110 // शकटेन वाक्यस्यापि नामत्वं विहितमस्ति, अतः अव०-गोष्ठे श्वा=गोष्ठश्वः / अतिक्रान्तः पञ्चसखीप्रिय इति रूपं बभूव / यदा तु अट नानी श्वानम्-अतिश्वः // 110 // यते तदापि पश्चसखीप्रिय इत्येव रूपम् / एवमन्यदपि रूपाभेदहेतुकमूह्यम् / / 106 / / प्राणिन उपमानात् // 7 / 3 / 111 // म० वृ०-प्राणिवाचिन उपमानात् परो य राष्ट्राख्याद् ब्रह्मणः // 7 / 3 / 107 // श्वन तदन्तात्तत्पुरुषाद् 'अट्' स्यात् / 'व्याघ्रश्वः, म. वृ०-राष्ट्रवाचिनः परो यो ब्रह्मन् तदन्तात् २सिंहश्वः / प्राणिन उपमानादिति पूर्वपदविज्ञानाबत्पुरुषाद्'भट्' स्यात् / 'सुराष्ट्रब्रह्मः, काशिब्रह्मः / दिह नाट् [वानरः श्वेव=] वानरश्वा / प्राणिन इति राष्ट्राख्यादिति किम् ? देवब्रह्मा नारदः // 107 // किम् ? [फलकमिव श्वा] फलकश्वा / उपमानग्रहणं किम् ? मैत्रश्वा // 11 // अव०-'मुराष्ट्रषु ब्रह्मा-सुराष्ट्रब्रह्मः / २काशिषु ब्रह्मा काशिब्रह्मः / यः सुराष्ट्रषु वसति स सौ- अव०-'व्याघ्र इव व्याघ्रः, व्याघ्रश्चासौ श्वा च राष्ट्रिको ब्राह्मणः, सुराष्ट्रब्रह्म इत्यर्थः / एवं काशिब्रह्मः, व्याघ्रश्वः,२सिंह इव सिंह:,सिंहश्वासोश्वाच सिंहश्वः, अवन्तिब्रह्मः / आख्यग्रहणं राष्ट्रवाच्यर्थम् / / 107 // / 'उपमेयं व्याघ्रायः साम्यानुक्तौ' (3 / 1 / 102) इति Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 3 सू० 112-116 - समासः, (अथवा) मयूरव्यंसकादित्वात् समासः. | उरसोऽग्रे // 7 / 3 / 114 // प्रथमोक्तत्वेन उपमेयशब्दस्य श्वन इत्यस्य पूर्वनिपाते म० वृ०-अग्रं मुखं प्रधानं वा। तत्र वर्तमानो प्राप्ते प्राणिन उपमानात्'इति वचनात् श्वनशब्दस्य य उरस्शब्दस्तदन्ताद्‘अट्' स्यात् / 'अश्वोरसं दृश्परनिपातो भवति / मैत्रस्य श्वा. मैत्रश्चासौ श्वा चेति यते, सेनायाः अश्वा मुखमित्यर्थः / २अश्वोरसं वा। प्राणो उपमानभूतो यः श्वा (शब्दः) तदन्तात्तत्पुरु वर्जयेत् , अश्वानां मुखमग्रदेशमित्यर्थः / अश्वोरषादिच्छन्त्येके, व्याघ्रः श्वेव-व्याघ्रश्वः, एवं सिंह सम् , अश्वानां प्रधानमित्यर्थः / एवं हस्त्युरसम् / श्वः, पुरुषश्वः / तन्मते वानरश्वा इत्यत्र समासान्त अग्रे इति किम् ? अश्वोरसि आवतः // 114 / / विधेरनित्यत्वादट् समासान्तो न भवति // 111 / / अप्राणिनि // 7 / 3 / 112 // प्रव०-अश्वाश्च ते उरश्च=अश्वोरसम् / अश्वाम० वृ०-अप्राण्यर्थ उपमानवाची यः इवा नामुरः / अश्वानामुरः // 114 / / तदन्तात्तत्पुरुषाद्'अट्' स्यात्। 'आकर्षश्वः, फल- सरोऽनोऽश्मायसो जाति-नाम्नोः // 7 / 3 / 115 / / कश्वः / अपाणिनीति किम् ? [वानरः श्वेव=] म० वृ०-सरस् अनस् अश्मन् अयस इत्यवानरश्वा / उपमानादिति किम् ? आकर्षश्वा / 112 / न्तात्तत्पुरुषाद्'अट्'म्यात ,जातो वाच्यायां नाम्नि च अव०-'श्वेव इवा, आकर्षश्चासौ श्वा च= विषये। इदं च यथासम्भवं विशेषणम्। 'जालसरसम् , आकर्षश्वा, द्यूतकारोपकरणविशेष आकर्ष इत्युच्यते, २मण्डूकसरसम ; एवं नाम्नी सरसी / [उपगतमनः] आकर्ण्यते शारा अस्मिन् इत्याकर्षः, 'व्यञ्जनाद् घन' उपानसमित्यन्नविशेषस्य संज्ञा जातिवा। महान (5 / 3 / 132) / 'प्राणिन उपमानात्' (7 / 3 / 111) इति समिति पाकस्थानस्य संज्ञा / गोनसम् जातिः / पूर्वसूत्रे उपमानादिति पूर्वपदस्य विशेषणम् , इह तु स्थूलाश्मः, अमृताश्मः, कनकाश्मः; "एतेऽश्मजा'अप्राणिनि' इति सूत्रे शुन इत्यस्य / श्वेव श्वा, तिविशेषाः। कालायसम् , लोहितायसम् ; अयोजाफलकश्चासौ श्वा च फलकश्वः / आकर्षे श्वा,(एवं) तिविशेषौ। जातिनाम्नोरिति किम् ? परमसरः, फलके श्वा, कोऽर्थः ? शारिः / कुक्करवच्छारेऽपि सदनः, सदश्मा। कथं "बिन्दुसरः, बकसरः ; ? श्वनशब्दो रूढो नोपमानम // 112 // नैषा संज्ञा, रूड्यात्र संज्ञाविज्ञानं सूर्पनखीवत् / 115/ पूर्वोत्तरमृगाच सक्थ्नः // 7 / 3 / 113 // अव०-'जालप्रधानं सरो जालसरसम् / मण्डूम० वृ०-पूर्वोत्तरमृगेभ्यः उपमानधाचिभ्यश्च कप्रधानं सरः / अथवा महानसमिति राज्ञ उपपरो यः सक्थिशब्दस्तदन्तात्तत्परुषाद् 'अट् स्यात् / स्थितं-ढौकनं तस्य संज्ञा इत्येके। गवामनः (इव= 'पूर्वसक्थम् , उत्तरसक्थम् , उमृगसक्थम् ; उपमा- गोनसम् ), सर्पजातिविशेषः / एपिण्डाश्म इत्यपि नात् ,-फलकसक्थम् // 113 / / संज्ञा जातिर्वा / लोहितायसमिति नाम इत्येके प्राहः / प्रसिद्धिवशादेव बिन्दुसर एवमुच्यते, न अव०-'पूर्व सक्थि, अथवा सक्थ्नः पूर्व त एतदेव नाम-अभिधानं तडागस्य // 115 / / =पूर्वसस्थम् , 'पूर्वापरप्रथम'० (3 / 1 / 103) इत्य अह्नः // 73 / 116 // नेन तत्पुरुषकर्मधारयसमासः / रउत्तरं सक्थि सक्थ्नः उत्तरं वा-उत्तरसक्थम् , 'पूर्वापराधरो. | म० वृ०-अहनशब्दात्तत्पुरुषाद् ‘अट्' स्यात् / . त्तर'० (33152) इति समासः / मृगस्य सक्थि।। परमाहः, उत्तमाहः, एकाहम् , 'पुण्याहम् , सुदि४फलकमिव फलकम् , फलकं च तत् सक्थि च%3D नाहम् // 11 // फलकसक्थम् , व्याघ्रश्वादिवत् समासः॥११३।। प्रव०-'पुण्यं च तदहश्व-पुण्याहम् / “पुण्या Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समासान्तविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [499 हदेहौ" * इति लिङ्गपाठात् पुन्नपुसकत्वं पुण्याह- | रहोर्भवः / द्वे अहनी प्रिये यस्य / द्वे अहनी जातशब्दस्य / तथा शोभनं निर्दोषकल्याणगुणोपेतं स्य-द्वयह्नजातः, 'कालो द्विगौ च' (3 / 1157) इति दिनं दिनकरश्चन्द्रो वा अभ्राद्यनुपहतोऽस्मि- तत्पुरुषः / अतिक्रान्तमहोऽत्यह्नः / अहरतिनहनि इति सुदिनम् , सुदिनमहः-सुदिनाहम् , क्रान्ताः अत्यही कथा। (एवं निष्क्रान्तोऽह्रो-निरह्नः / "खलं भुवि तथा लक्ष वेध्येऽहः सुदिनैकतः" इति "निष्क्रान्ताऽहो-निरह्री वेला / १२विगतमहो= लिङ्गपाठात् सुदिनाहशब्दस्य नपुसकत्वम् // 116 / / व्यह्नः / १३विगताऽहो-व्यहो // 118 / / सङ्ख्यातादह्नश्च वा // 7 / 3 / 117 // सङ्गयातैक-पुण्य-वर्षा-दीर्घाच्च रात्ररत् / / 7 / 3 / 119 // म००-सङ्ख्यातशब्दात्परो योऽहन् तदन्ता- ____म० वृ०-सङ्ख्यात एक पुण्य वर्षा दीर्घ इति त्तत्पुरुषाद् 'अट्',तस्य चाहनशब्दस्य अह्न इत्यादेशो शब्देभ्यश्चकारात् सर्वाशादिभ्यश्च परो यो रात्रिशब्दवा स्यात् / [सङ्ख्यातमहः ] सङ्ख्याताह्नः, सङ्ख्या- स्तदन्तात्तत्पुरुषाद् 'अत्' प्रत्ययः समासान्तः स्यात् / ताहः / चकार उत्तरत्राह्लादेशस्याट्सन्नियोगशिष्ठ- [सङ्ख्याता रात्रिः=] संख्यातरात्रः, एकरात्रः,पुण्यरात्रः, त्वार्थः। अन्यथा ह्यटोऽपवादोऽह्लादेशो विज्ञायेत / [वर्षाणां रात्रिः वर्षारात्रः, दीर्घरात्रः, [सर्वा रात्रिः=] तथा च स्त्रियां डीन स्यात् // 117 / / सर्वरात्रः, अंशरात्रः,अपररात्रः, द्वितीयरात्रः, संख्या, द्विरात्रः, द्वे रात्री प्रियेऽस्य=] द्विरात्रप्रियः,द्विरात्रप्रव०-अह्नादेशार्थ 'सङ्ख्यातादहश्च' इति जातः / अव्यय,-[ अतिक्रान्ता रात्रिः ] अतिरात्रः, वचनं कृतम् ,अट् च (? तु) पूर्वेणापि सिद्धोऽस्ति / [निष्क्रान्तो रात्रेः= ] नीरात्रः, नीरात्रा / अटि चकार इत्यादि (?) // 117 // प्रकृते सत्यपि यत् अत् विधानं तत् स्त्रियां सवा-ऽशसङ्ख्याऽ-व्ययात् // 7 / 3 / 118 // ड्यभावार्थम् // 119 // म००-सर्वशब्दादश एकदेशस्तद्वाचिभ्यः सङ्ख्यावाचिभ्यः अव्ययेभ्यश्च परो योऽहन तदन्ताद्'अट्' प्रव०-१“एकाद्रात्रः समाहारे"इति [हैमलि०]पाठात् अहनशब्दस्य नित्यमहादेशश्च स्यात् / [ सर्वमहः=] पुनपसकत्वम्- एकरात्रमपि / द्वयो रात्र्योः समासर्वाहणः, अंश,-'पूर्वाल, अपराहणः, सर्वाह्नः। हारो द्विरात्रः,एवं त्रिरात्रः / (एवम् ) द्वयो राज्योर्भवो द्विरात्रः, एवं त्रिरात्रः ; द्विरात्रा,त्रिरात्रा; 'भवे'(६।३। ४मध्याह्नः, 'सायाह्नः / सङ्ख्या,-द्वयह्नः पटः,द्वयही 123) अण् , 'द्विगोरनपत्ये'० (6 / 1 / 24) अणलोपः। अष्टका, व्यह्नः, व्यह्री, "यह्नप्रियः, यह्नजातः / 'सङ्ख्यातैक०' सूत्रे यत् एकग्रहणं कृतं तत् सङ्ख्याग्रअव्यय,-'अत्यह्नः, अत्यही कथा,'निरह्रो वेला, हणेन अनेन एकस्याग्रहणार्थम् / तेन 'सर्वाशसङ्ख्या१२व्यतः, व्यही // 118 // ऽव्ययात्' (7 / 3 / 118) इति पूर्वसूत्रे सङ्ख्याशब्देन प्रव०-'पूर्वमहः पूर्वाहणः , २अपरमहोऽप एकशब्दस्याग्रहणं भवति / अन्यथा 'सर्वाशसङ्ख्याराहणः, अट् , अहन इत्यस्य अह्न इत्यादेशः, 'अतो व्ययात् ' (73 / 118) इत्यत्र सङ्घयाग्रहणेन एकऽहस्य' (2 / 3 / 73) इति अहन इत्यस्य नकारस्य शब्दस्य ग्रहणे सति 'एकाह्नः' इति प्रयोगः स्यात् / णत्वम्। सर्वाणः इत्यत्रापि णत्वम् / मध्यम वैयाकरणानां तु 'एकाह मिति इष्टमस्ति, एकमहः, ह्रः मध्याह्नः / 'सायमहः-सायाह्नः, साशसङ्घया० एकाहम् ; 'अह्नः' (73 / 116) इति सूत्रेण अट (7 / 3 / 118, इत्यनेन (अट् ), 'सायाह्लादयः' (3 / 1153) प्रत्ययः // 119|| इत्यनेन निपातः सायम्शब्दस्य साय इति / द्वयो- | पुरुषायुष-द्विस्ताव-त्रिस्तावम् // 7 / 3 / 120 // * श्रीहैमलिङ्गा० पुक्लीबलिङ्गप्रकरणे पञ्चविंशत्तमश्लोके।* श्रीहैमलिङ्गा० नपुंसकलिङ्गप्रकरणेऽष्टमश्लोके / Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०७ पा० 3 सू० 121-165 म० वृ०-एतेऽप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते / पुरु- | त्रिंशः खड्गः, निस्त्रिंशानि वर्षाणि, उनिस्त्रिंशान्यषस्यायुः] पुरुषायुषम् , 'द्विस्तावा, त्रिस्तावा वेदिः; | हानि, 'निःपश्चाशानि / नमव्ययादिति किम् ? वेद्यामनयोः प्रयोगः // 120 / / गोत्रिंशत् / [अव्ययद्वारेण सिद्धेऽपि ] नवग्रहणं [पूर्वोक्तेन सूत्रेण] 'नन्तत्पुरुषात्' (7 / 3 / 71) इति प्रवo-द्वौ वारौ द्विः, 'द्वित्रिचतुरः सुच्' प्रतिषेधे प्राप्ते प्रतिप्रसवार्थम् / / 123 / / (72 / 110), द्विस् , तावती, द्विस्तावती इति वाक्ये द्विस्तावा, एवं २त्रिस्तावती त्रिस्तावा ; निपातनात् प्रव-निर्गतस्त्रिंशतोऽङगुलिभ्यो निस्त्रिंशः अती इति लुप्यते / प्रकृतिविकृती इति नाम्ना | खड्गः, निस्त्रिंश इव क्रूरकर्मा निविंशः खलः / यागविशेषौ, ततः प्रकृतौ यज्ञविशेषे यावती वेदिः २त्रिंशतो निर्गतानि निखिशानि वर्षाणि / एवं तावती द्विगुणा विकृतिनामयज्ञविशेषे / (एवं प्रकृतौ) निस्त्रिंशान्यहानि, निःपञ्चाशानि / तत्पुरुषायावती वेदिः तावती त्रिगुणा भवति (विकृतौ) यज्ञे। दिति किम् ? न विद्यन्ते त्रयो यस्य सोऽत्रिः, . अन्यत्रापि दृश्यते,- द्विस्तावोऽग्निः, त्रिस्तावो- शोभनास्त्रयोऽस्य सुत्रिः, निर्गतास्त्रिंशदस्य=निस्त्रिऽग्निः // 20 // शत् / अत्र तत्पुरुषाधिकाराभावे पूजास्वतः०' श्वसोऽवसीयसः // 7 / 3 / 121 // (7372) इत्यनेन प्रतिषेधे सत्यपि विशेषविधिम. वृ०-श्वस् इति शब्दात्परो यो वसीयस्. त्वादेष्वपि उदाहरणेषु डः प्रत्ययः स्यात् / / 123 // शब्दस्तदन्तात्तत्पुरुषाद् ‘अत्' स्यात् / 'श्वोवसीयसं सङ्ख्या-ऽव्ययादगुलेः / / 7 / 3 / 124 // कल्याणम् // 12 // म० वृ०-सङ्ख्याया अव्ययाञ्च परो योऽगु लिस्तदन्तात्तत्पुरुषाद् 'डः' स्यात् / द्वयङ्गुलम् , अव०- 'वसुमत् शब्दः, अयमेषां प्रकृष्टः द्वयङ्गुलप्रियः / अव्यय, निरगुलम् , अत्यङ्गुलम् / (वसुमान् ), 'गुणाङ्गा०' (7 / 3 / 9) इति ईयस्प्रत्ययः, तत्पुरुषादित्येव- उपाङ्गुलिः, पञ्चाङ्गुलिहस्तः / कथ'विन्मतोर्णीष्ठेयसौ लुप्' (7 / 4 / 32 ) इत्यनेनान्त्यस्वरादेमतोश्च लोपे वसीयस् इति शब्दः, शोभनं मात्माङ्गलम् , प्रमाणाङ्गलम् ; उत्सेधागुलम् ; ? अगुलशब्दः प्रमाणवाची प्रकृत्यन्तरम् / यथा स्वेवसीयः=श्वोवसीयसम् // 121 / / नाङ्गुलप्रमाणेनागुलानां शतं पुमान् // 124 // निसश्च श्रेयसः // 7 / 3 / 122 // म0 वृo-निस्शब्दात् श्वस्शब्दाच परो यः अव०-'द्वयोरङ्गल्योः समाहारो द्वयगुलम् / श्रेयसशब्दस्तदन्तात्तत्पुरुषाद'अत्' स्यात् / निश्चित एवं व्यङ्गुलम् , 'सङ्ख्याव्यया०' इसि डः ; अथवा द्वे अङ्गली प्रमाणमस्य इति वाक्ये 'प्रमाणाम्मात्रट' श्रेयो=निःश्रेयसं निर्वाणम् , [शोभनं श्रेयः=] श्वःश्रेयसम् / / 122 // (7140 ) इत्यनेन मात्रट् , 'द्विगोः संशये च' (712144 ) इत्यनेन मात्रट लुप्यते, ततः समानअव्ययात्सङ्ख्याया डः // 7 / 3 / 123 // सान्तो डः, एवमपि द्वयङ्गुलम् व्यङगुलं प्रयोगः / म० वृ०-नबोऽव्ययाच परो यः सङ्ख्या- निर्गतमङ्गुलेः / अङ्गुलमतिक्रान्तम् / “हस्तोशब्दस्तदन्तात्तत्पुरुषात् 'ड' समासान्तः स्यात् / ऽङ्गुलचतुर्विंशत्या इत्यपि पुराणप्रयोगः // 124 // . [न दश इति वाक्ये] अदशाः, [न नव= अनवाः, न्यूना दश न्यूना नव इत्यर्थः / नपूर्वः सङ्ख्या बहुव्रीहेः काष्ठे टः / / 7 / 3 / 125 / / शब्दः स्वभावात् हीनतायां दृश्यते / अव्यय,-'नि / म० वृ०-अगुल्यन्ताद् बहुव्रीहेः काष्ठे वर्त्त Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समासान्तविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [501 मानात् ‘टः'समासान्तः स्यात्। द्वयङ्गलम् , चतु- 'प्रमाणी-सङ्ख्याड्डः // 7 / 3 / 128 // रगुलम् , पञ्चाङ्गुलम् , 2 अङ्गलसदृशावयवं म० वृ०-प्रमाणीशब्दान्तात् सङ्ख्यावाचिधान्यकण्टकादीनां विक्षेपणकाष्ठमेवमुच्यते / बहु- शब्दान्ताच बहुव्रीहे-'ई' स्यात् / स्त्री प्रमाणी येषां व्रीहेरिति किम् ? [उपालि] अत्यङ्गुला यष्टिः / ते स्त्रीप्रमाणाः कुटुम्बिनः, भार्याप्रमाणाः श्रेणयः, काष्ठे इति किम् ? पञ्चाङ्गुलिहस्तः / / 125 // कल्याणप्रमाणः / सङ्ग्रथा,-द्वित्राः,पश्चषाः,द्विदशाः, प्रव०-द्वे अङ्गली यस्य द्वयङ्गुलम् / एवं त्र्य त्रिदशाः, “आसन्नदशाः, 'अदूरदशाः, उपदशाः, उपगणाः / सङ्घयान्तस्य प्रतिपदोक्तस्य बहुव्रीहेगुलम् , चतुरङ्गुलम् , पञ्चाङ्गलम् / एवं दीर्घा ग्रहणादिह डो न भवति,- अत्रिः, सुत्रिः, प्रियगुली।यष्टिः, तीक्ष्णाङ्गुली यष्टिः / अयं विशेषो 'बहु पश्चानः, प्रियषषः / / 128 // बीहे:०' इति सूत्रे / उअङ्गुलमतिक्रान्ता अत्यङ्गुली, प्रव०-प्रमाणशब्देन सिढे प्रमाणीशब्दा'सङ्ख्याव्ययादगुले' (7 / 3 / 124) इति डः / अङ्गलि न्तात् कजभावार्थम् 'प्रमाणीसङ्ख्याड्डः' (7 / 3 / 128) इति इकारान्तनिर्देशादङ्गुली इति ईकारान्तशब्दात् इति वचनं कृतम्। 'ऋन्नित्यदितः' (7 / 3 / 171) टो न भवति, यथा द्वावङ्गलीसदृशाववयवौ यस्य इत्यनेन कच्प्राप्तिः / २श्रेणयः प्रकृतिलोका * तत् व्यङ्गलीकम् / 'ऋन्नित्यदितः' (7 / 3 / 171) इत्य- उच्यन्ते / 'कल्याणी प्रमाणमस्य / आसन्ना दश नेन कच, द्वयङ्गलीकं दारु इत्यत्र 'न कचि' (2 / येषां येभ्यो वा ते आसन्नदशाः, नव वा एकादश वा 4 / 105) इत्यनेन ह्रस्वाभावः / // 125 // इत्यर्थः; "अदूरदशा इत्यपि ; 'आसन्नादूराधिक'० (3 / 1 / 20) इत्यनेन बहुव्रीहिः। उप समीपे दश सक्थ्यक्ष्णः स्वाङ्ग / / 7 / 3 / 126 / / येषां ते उपदशाः, नव एकादश वा, एवमुपगणाः, म० वृ०-स्वाङ्गवाची यः सक्थिशब्दोऽक्षिः | 'अव्ययम्' (3 / 1 / 21) इत्यनेन बहुव्रीहिः / न शब्दश्च तदन्ताद् बहुव्रीहौ 'ट' स्यात् / दीर्घ- | विद्यन्ते त्रयोऽस्य // 128 / / सक्थ, गौरसक्थः ; गौरसक्थी। विशालाक्षः, बि- ! सुप्रात-सुश्व-सुदिव-शारिकुक्ष-चतुरश्रेणीपदा-जपदशालाक्षी ; कमलाक्षः, कमलाक्षी; २स्वक्षः / स्वाङ्ग | प्रोष्ठपद-भद्रपदम् / / 7 / 3 / 129 // इति किम् ? दीर्घसक्थि शकटम् , स्थूलाक्षिरिक्षुः / बहुव्रीहेरित्येव- सदक्षि // 126 // . म०३०-सुप्राताद्या बहुव्रीहौ 'डान्ता' निपा त्यन्ते। 'सुप्रातः पुमान् , 'सुश्वः,सुदिवः, शारिअव0-'दीर्घ सक्थि अस्य दीर्घसक्थः / कुक्षः, 'चतुरस्रः, एणीपदः, अजपदः, प्रोष्ठपदः, एवमन्येऽपि। शोभनमक्षि अस्य / (एवम् ) स्वक्षी। भद्रपदः / / 129 / / अप्राणिस्थत्वादस्वाङ्गताऽत्र॥१२६॥ ___ अव०-'शोभनं कर्म प्रातरस्य-सुप्रातः / शोभद्वि-मनों वा // 7 / 3 / 127 / / नं कर्म श्वोऽस्य-सुश्वः / शोभनं कर्म दिवा म० वृ०-द्वित्रिभ्यां परो यो मूर्द्धन् तदन्ताद् | अस्य सुदिवः। “शारेरिव कुक्षिरस्य शारिकुक्षः / बहुव्रीहे: 'ट'स्यात् वा। द्विमूर्खः, द्विमूर्द्धा ; त्रिमूर्द्धः, ५चतस्रोऽस्रयः यस्य चतुरस्रः / एण्या इव पादौ त्रिमूर्खा ; द्विमूर्धी स्त्री // 127 / / यस्य // 129 // प्रव०-बहुव्रीहेरित्येव-द्वयोर्मूर्द्धा द्विमूर्द्धा / 127 / पूरणीम्यस्तत्प्राधान्येऽप् // 73 / 130 // * प्रकृतिशब्दः शिल्पिवाची, शिल्पिना गणः श्रेणिरुच्यते / तदुक्तमभिधानचिन्तामणिकोशे-“कारुस्तु' कारीर प्रकृतिः, शिल्पी श्रेणिस्तु तद्गणः"। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 502 ) श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं / अ०७ पा० 3 सू० 131-134 म०वृ०-पूरणप्रत्ययान्तः स्त्रीलिङ्गशब्दः पूरणी। समीपे येषां संख्येयानां ते उपचतुराः / 'त्रयो वा तदन्ताद् बहुव्रीहे-रप्' प्रत्ययः समासान्तः स्यात् , चत्वारो वा-त्रिचतुराः / त्रयश्चत्वारो यस्य स तत्प्राधान्ये तस्याः पूरण्याः प्राधान्ये, (यदि)समासे- | त्रिचत्वाः उन्मुग्धः / उपगताश्चत्वारो येन स नोच्यमानोऽर्थः प्रधानं भवति / 'कल्याणीपञ्चमा उपचत्वाः // 131 // रात्रयः, एवं कल्याणीदशमाः, कल्याणीतुर्याः,कल्या अन्तर्बहियां लोम्नः // 7 / 3 / 132 / / णीतुरीयाः / पूरणीभ्य इति किम् ? द्वितीयाकल्याणीकाः। स्त्रीत्वनिर्देश इति किम ? कल्याणपश्चमका म० वृ०-अन्तरबहिस्भ्यां परो यो लोमन् दिवसाः। तत्प्राधान्य इति किम् ? कल्याणपश्चमकः तदन्ताद् [बहुव्रीहे:] 'अप' स्यात् / 'अन्तर्लोमः, पक्षः / पकारो 'नाप्प्रियादौ' ( 3 / 2 / 53 ) इति बहिर्लोमः प्रावारः // 132 / / पर्यु दासार्थः // 130 // प्रव०'अन्तर्लोमान्यस्य / प्रावार इत्यत्र "वृगो वस्त्रे' (5 / 3 / 52) इति विकल्पसामर्थ्यात् अव०-'कल्याणी पञ्चमी रात्रिर्यासां रात्रीणां 'भावाकोः ' (5 / 3 / 18) इति घम् भवति / / 132 / / ताः कल्याणीपञ्चमा रात्रयः / एवं कल्याणीदशमा रात्रयः, कल्याणीतुर्याः, कल्याणीतुरीयाः, कल्या- ___ भान्नेतुः // 7 / 3 / 133 // णीद्वितीया रात्रयः / अत्र रात्रयः समासार्थः, तासु म० वृ०-भान्नक्षत्रवाचिशब्दात्परो यो नेतृरात्रिषु पञ्चमीदशम्यादितिथयोऽपि रात्रित्वेनानु- | शब्दः तदन्ताद् बहुव्रीहे-रप' स्यात् / 'मृगनेत्राः, प्रविष्टा इति प्रधानम् / २द्वितीया भार्या कल्याणी पुष्यनेत्रा रात्रयः / नेत्रशब्देनैव सिद्धे नेतृशब्दात् कच् यासां भार्याणां ताः द्वितीयाकल्याणीकाः / अत्र मा भूदिति वचनम् / / 133 / / पूरणीप्रत्ययत्वात् 'तद्धिताककोपान्त्य'० (32154 ) इति वद्भावप्रतिषेधः, 'शेषाद्वा' (7 / 3 / 175) इति अवo-मृगो नेता आसां रात्रीणां ताः मृगकच् / कल्याणः पञ्चमो येषु / एवं कल्याणद्वि- नेत्राः / एवं पुष्यनेत्राः // 133 // तीयकान्यहानि इत्यपि ज्ञेयम् / 'पूरणीभ्यः' इत्यत्र नाभेनाम्नि / / 7 / 3 / 134|| बहवचनं व्याप्त्यर्थम् / तेन कल्याणीपञ्चमा रात्रय इत्यादिषु 'ऋन्नित्यदितः' (73 / 171) इति परोऽपि म० वृ०-नाभ्यन्ताद् बहुव्रीहे-'रस्यान्नाम्नि / कच् न भवति / / 130 // 'पद्मनाभः, हेमनाभः, उवज्रनाभः, हिरण्यनाभः। नाम्नीति किम् ? विकसितवारिजनाभिः / [नाभेनज-सु-व्युप-त्रेश्चतुरः // 7 / 3 / 131 / / रधः=] अधोनाभं प्रहतवानित्यव्ययीभावेऽपि तिष्ठ म० वृ०-नञ्-सु-व्युपत्रिभ्यः परो यश्चतुशब्द- / द्ग्वादिषु तथा पाठात सिद्धम् / / 134 // स्तदन्ताद् बहुव्रीहे 'रप' स्यात् / 'अचतुरः, सुचतुरः, विचतुरः, ४उपचतुराः, 'त्रिचतुराः / समा. अव०-'अबन्तेन शब्देन चेत् संज्ञा गम्यते / सान्तविधेरनित्यत्वादिह नाप,- त्रिचत्वाः, उप पद्मं नाभावस्य पद्मनाभः / एवमूर्णनाभः, ऊर्णा चत्वाः // 13 // नाभी यस्य स ऊर्णनाभः, 'डयापो बहुलम्'० (2 / 4 / 99) इति ह्रस्वः / उवज्रनाभः इत्यत्र यदि प्रव०-'अविद्यमानानि अदृश्यानि वा चत्वारि 'पूर्वपदस्थान्ना०'(२।३।६४) इति णत्वं स्यात् तदा संज्ञा यस्य स अचतुरः / सुदृश्यानि शोभनानि वा न प्रतीयेत इति न णत्वम् / क्षुभ्नादित्वाद् णत्वचत्वारि यस्य स सुचतुरः / उविसहशानि विग- निषेधः। विकसितं च तत वारिजं च, विकसिततानि वा चत्वारि यस्य स विचतुरः / ४चत्वारः | वारिजवन्नाभिरस्य // 134 // Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समासान्तविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 503 "नञ्चहोचो माणवचरणे // 73 / 135 // सान्तः स्यात् , सामान्यवति सामान्याश्रयेऽन्यपम० वृ०-नम्बहुभ्यां परत ऋचशब्दा-'दप्' दार्थे वाच्ये / ब्राह्मणो जातिरस्य ब्राह्मणजातीयः, स्याद्यथासंख्यं माणवे चरणे च वाच्ये। अनृचो एवंर क्षत्रियजातीयः, दुर्जातीयः, नानाजातीयः, किञ्जातीयः / सामान्यवतीति किम् ? बहुजातिमः माणवः, बचश्चरणः // 135 / / अजातीय इत्यत्र तु सामान्यवानेवान्यपदार्थः / प्रतिषेअवo-'ऋक्तःपथ्यपोऽत्' (7 / 3 / 76) इत्येव धस्तु नबर्थः / कथं पितृस्थानीयः , गुरुस्थानीयः ; ? सिद्धे नियमार्थमिदं नषबहो.' इति वचनम् / 135 / / स्थानीयं दुर्गमितिवत् स्थीयतेऽस्मिन्निति स्थानीय मधिकरणप्रधानेन स्थानीयशब्देन भविष्यति // 139 नत्र -सु-दुर्व्यः सक्ति-सक्थि-हलेर्वा / / 7 / 3 / 136 // ___म० वृ०-नम्सुदुर्व्यः परे ये सक्तिसक्थि अव०-'सामान्यं ब्राह्मणत्वादिः जातिरेव ब्राहलिशब्दास्तदन्ताद् बहुव्रीहे-रप्' वा स्यात् / ह्मणजातीय इत्यत्रोदाहरणे ब्राह्मणशब्देन ब्राह्मणअसक्तः, असक्तिः, सुसक्तिः, दुःसक्तः, दुसक्तिः / जातिः कोऽर्थः ? ब्राह्मणत्वमुच्यते / एवं क्षत्रियएवमसक्थः, असक्थिः इत्यादि। अहलः, अहलिः, जातीय इत्यादिष्वपि भावना कार्या / उबहुजातिसुइलः, सुहालिः, दुईलः / नसुदुर्घ्य इति किम् ? ग्रामः, अत्र ग्रामो न सामान्यवान् , किन्तु तत्स्था गौरसक्थी स्त्री, बहुहलिः पुरुषः / हलसक्तशब्दा- ग्रामस्थाः पुरुषा उच्यन्ते / बहुलमिति सूत्रेणाधिभ्यां सिद्धे कजभावार्थ वचनम् / तेन अहलक करणेऽपि अनीयः प्रत्ययः, स्थानीयमित्येवं निष्पाद्य इत्यादि न भवति // 136 // पितेव स्थानीयः पितृस्थानीयः,एवं गुरुरिव स्थानीयो प्रव0-'षजं सङ्गे सञ्जनं सक्तिः,अविद्यमाना गुरुस्थानीयः // 139 // सक्तिरस्य असक्तः / अहल इति हलशब्देनापि भृतिप्रत्ययान्मासादिकः / / 7 / 3 / 140 // सिद्धे यत् सूत्रे हलि इत्युपादानं तदेवं ज्ञापयति ___म० वृ०-भृतौ वर्तमानात् शब्दात् यः प्रत्ययः अहल इत्यत्र न केवलं समासान्तहलिशब्दान्न कच्, कृतस्तदन्तात्परो यो मासशब्दस्तदन्ताद 'इकः' समाहलशब्दादपि कच् न भवति। गौरं सक्थि अस्याः, सान्तः स्यात् / 'पञ्चकमासिकः, सप्तकमासिकः, ‘सक्थ्यक्ष्णः स्वाङ्गे' (7 / 3 / 126) इति टः // 136 / / विंशकमासिकः,[४त्रिंशकमासिकः] 'शत्यमासिकः, प्रजाया अस् // 7 / 3 / 137 // 'शतिकमासिको भृत्यः / / 140 / / म. वृ०-नबादिभ्यः परो यः प्रजाशब्दस्तद- अव०-भृतिग्रहणं किम् ? वर्षासु भयो वार्षिकः, न्ताद् बहुव्रीहे: 'अस्प्रत्ययः' समासान्तः स्यात् / वार्षिकमासकः, 'शेषाद्वा' (73 / 175) कच् / प्रत्यअप्रजाः, अप्रजसो, अप्रजसः, एवं सुप्रजसौ, दुःप्र- यग्रहणं किम् ? भृतिर्मासोऽस्य भृतिमासकः / जसौ // 137 // 'पश्चन्शब्दः, पश्च द्रम्मादि भृतिरस्य पञ्चकः,'सोऽमन्दा-ऽल्पाच मेधायाः // 7 / 3 / 138 // स्य भृतिर्वस्नांशम्' (6 / 4 / 168) इति सूत्रोक्त-यथाविम0 वृ०-मन्दाल्पाभ्यां परतो मेधाशब्दाद् हितमिकणादयो भवन्तीत्यक्षरबलात् 'सङ्ख्याड तेश्च'० (64 / 130) इत्यनेन कप्रत्ययः, एवं [बहुव्रीहे:] 'अस्' स्यात् / मन्दमेधाः, मन्दमेधसः ; अल्पमेधाः, अमेधाः, सुमेधाः, दुर्मेधाः // 138 // सप्तकः, ततः पञ्चको मासोऽस्य कर्मकरस्य पश्च कमासिकः, एवं सप्तकमासिको मृत्यः कर्मकरः / जातेरीयः सामान्यवति / / 7 / 3 / 139 // एवं सर्वत्र / विंशत्या क्रीतं विंशकम् , "एवं त्रिंशम० वृ०-जातिशब्दान्ताद् बहुव्रीहे-'रीयः' समा- | ता क्रीतं त्रिंशकम् ;'त्रिंशद्विशतेर्डकोऽसंज्ञायामाईदर्थे' Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 7 पा० 3 सू० 141-145 (6 / 4 / 129) इत्यनेन डकः,ततो विंशको मासोऽस्ये- | अभ्यवहार्ये- उहरितं जम्भो जम्भा वाऽस्य , दंष्ट्रार्थे त्यादि / शतेन क्रीतं शत्यम् , शतेन क्रीतं शति- तु हरितवत् जम्भो जम्भा वाऽस्य / एवं तृणं कम् ; अथवा शतमर्हति शत्यः, शतिकः ; 'शता- जम्भो जम्भा वाऽस्य,तृणवत् जम्भो जम्भा वाऽस्य। केवलादतस्मिन्येकौ'(६।४।१३१)इत्यनेन यः, इकः ; सोमो जम्भो जम्भा वाऽस्य,सोम इव जम्भो जम्मा शत्यः शतिको मासोऽस्य शत्यमासिकः [ शतिकमा- वाऽस्य / स्वादिभ्यः इति किम् ? चारुजम्भः,पतितसिको मृत्यः // 140 // जम्भः // 142 // ___द्विपदाद्धर्मादन् // 7 / 3 / 141 // दक्षिणेर्मा 'व्याधयोगे / / 7 / 3 / 143 // म० वृo-धर्मशब्दान्ताद् द्विपदाद् बहुव्रीहे-'रन्' म. वृ०-दक्षिणेर्मा इति शब्दोऽनन्तो निपासमासान्तः स्यात् / २साधुधा, क्षत्रियधर्मा, त्यते, व्याघन योगे सति / दक्षिणेर्मा मृगः / ४अनन्तधर्मा, विनाशधर्मा, 'साक्षात्कृतधर्माणः / व्याधयोग इति किम् ? दक्षिणेम शकटम् , उदक्षि- . द्विपदादिति किम् ? परमस्वधर्मः // 141 / / णेमः पशुः // 14 // अवल-द्वे पदे यत्र बहुव्रीहौ स तथा,तस्मात् / प्रव०-१व्याधेन मृगमारकेन योगः / ईम साधूनामिव धर्मोऽस्य-साधुधर्मा। क्षत्रिय इव बहु व्रणं वा उच्यते, दक्षिणमङ्गमीर्ममस्य, अथवा धर्मोऽस्य / अनन्तो धर्मोऽस्य / असाक्षात्कृतः दक्षिणेऽङ्गे ईर्ममस्य / दक्षिणमीम बहु व्रणं वा साक्षात्कृतः , अत्र 'साक्षादादिश्छ्य र्थे ' (3 // 1 // यस्य / / 143 // 14) इत्यनेन गतिसंज्ञोऽयं शब्दः, 'गतिक्वन्यस्तत्पु सुपूत्युत्सुरभेर्गन्धादिद् गुणे / / 7 / 3 / 144 // रुषः' (3 / 1142) इत्यनेन तत्पुरुषसमासः, ततः साक्षात्कृतो धर्मो येषां ते साक्षात्कृतधर्माणः / म. वृ०-सु-पूत्युत्-सुरभिभ्यः परो यो केचिद् 'द्विपदाद्धर्मा'-दिति सूत्रे विकल्पमिच्छन्ति / गन्धशब्दो गुणे वर्त्तते तदन्ताद् बहुव्रीहे-'रित्'समातन्मते कल्याणधमा,कल्याणधर्मकः ; तद्धर्मा,तद्धर्मकः ; सान्तः स्यात् / शोभनो गन्धो गुणोऽस्य सुगन्धि विपरीतधर्मा, विपरीतधर्मकः इति प्रयोगा भवन्ति / चन्दनम् , पूतिगन्धि करञ्जम् , [वृक्षविशेषः] उद्इह कस्मान्न भवति परमः स्वधर्मोऽस्य परमस्वधर्मः? गन्धि कमलम् , सुरभिगन्धि द्रव्यम् / स्वादिभ्य तत्राह-प्रत्यासत्तेर्द्विपदस्य बहुव्रीहेः (इत्यादि), सूत्रे इति किम् ? तीव्रगन्धं हिङ्ग, उद्गन्धा वचा / गुण धर्मादिति भणनात् यदि धर्मशब्द एवोत्तरपदं / इति किम् ? [शोभना गन्धा कुष्ठादयोऽस्य=] भवति तदा अन् स्यात् / अत्र तु स्वधर्म इत्येवोत्तर सुगन्ध आपणिकः / इन इत्यत्र तकार उच्चारणार्थः पदमिति न भवति / परमः स्वो धर्मोऽस्य-परमस्व // 144 / / धर्मः // 14 // अव०-उत्तरत्र वागन्तौ' (7 / 3 / 145) इति सूत्रे सु-हरित-तृण-सोमाजम्भात्' // 7 / 3 / 142 // [आगन्तोः ] वावचनादिह 'सुपूत्युत्०' सूत्रे स्वामवृ०-सु-हरित-तृण-सोमेभ्यः परो योजम्भ भाविकशब्दात् प्रत्ययो भवतीत्यर्थः // 144 // स्तदन्ताद् बहुव्रीहे-रन्' स्यात् / सुजम्भा, हरितज वागन्तौ // 7 / 3 / 145 / / म्भा, तृणजम्भा, 'सोमजम्भा // 142 / / म० वृ०-स्वादिभ्यः पर आगन्तावाहार्ये गुणे वर्त्तते यो गन्धशब्दस्तदन्ताद् बहुव्रीहेर्वा 'इत्' स्यात् अवo-जम्भशब्दोऽभ्यवहार्यवचनो दंष्ट्रावचनो वा, | सुगन्धि, सुगन्धं वा शरीरम् , [ पूतिर्गन्धोऽस्य= उभयत्र पुत्रीलिङ्गः / शोभनो जम्भो जम्भा वाऽस्य। पूतिगन्धि, पूतिगन्धं जलम् , उद्गन्धिः, उद्गन्ध Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समासान्तविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / आपणः, सुरभिगन्धि सुरभिगन्धो वा पवनः / 145 / / अव०-'कुम्भाविव पादावस्याः कुम्भपदी, वाऽल्पे // 7 / 3 / 146 // एवं जालपदी, एकपदी, शतपदो, सूत्रपदी, स्थूणा पदी, मुनिपदी, शितिपदी, आर्द्रपदी, गोधापदी, म. वृ०-अल्पेऽर्थे यो गन्धशब्दस्तदन्ताद् बहु कलसीपदी, दासीपदी, विष्णुपदी, कृष्णपदी, कुणिव्रीहेर्वा 'इत्' स्यात् / सूपस्य गन्धो मात्राऽस्मिन् पदी,गुणिपदी, द्रोणपदी,सकृत्पदी, सूकरपदी, शुचिसूपगन्धि, सूपगन्धं भोजनम् , अल्पसूपमित्यर्थः / पदी, सूचिपदी, विपदी, अपदी, निष्पदी, अष्टापदी, एवं दधिगन्धि, दधिगन्धं या भोजनम् // 146 / / अशीतिपदी इति कुम्भपद्यादिगणः / शतं पादा यस्याः प्रव०-दध्नो गन्धो मात्राऽस्मिन् भोजने सा शतपदी। सूत्रवत् पादौ यस्याः सा सूत्रपदी। करम्बलक्षणे ।(एवम् ) माल्यगन्धिः माल्यगन्धो वा स्थूणावत् पादौ यस्याः सा / एवं गोधावत् पादौ यस्याः। उत्सवः / 'वाल्पे' (7 / 3 / 146) इति सूत्रे सूपगन्धी कलसीवत् पादौ यस्याः। दासीवत् पादौ यस्याः। विष्णु वत् पादौ यस्याः / अष्टौ पादा यस्याः अष्टापदी। अत्र त्याधु दाहरणेषु सर्वेषु असामानाधिकरण्येऽपि उष्ट्र संज्ञायां गम्यमानायां'नाम्नि'(३।२।७५)सूत्रेण दीर्घः। मुखादित्वाद् बहुव्रीहिः // 146 // असंज्ञायां तु निपातनाद्दी| भवति / २विकल्पो न वोपमानात् // 7 / 3 / 147 // भवतीत्यस्याने कथमेकपादिति ? केचिदिहैकपदीमवृ०-उपमानात्परो यो गन्धस्तदन्ताद् 'इत्' शब्दं न पठन्ति, तत उत्तरसूत्रेण 'सुसङ्ख्यात्' (7/ स्याद्वा / 'उत्पलगन्धि, उत्पलगन्धं वा मुखम् / 147 31150) इत्यनेन भविष्यति // 149 / / अव०-'उत्पलस्येव गन्धोऽस्य / एवं करीष सुसङ्ख्यात् / / 7 / 3 / 150 // गन्धि करीषगन्ध वा शरीरम् / / 147| म० वृ०-सुपूर्वस्य सङ्ख्यापूर्वस्य ( च ) पादपात्पादस्याहस्त्यादेः // 7 / 3 / 148 // शब्दस्य बहुव्रीहौ 'पाद्' आदेशः स्यात् / 'सुपात् , म० वृ०-हस्त्यादिवर्जितादुपमानात्परस्य पाद- द्विपात्२ , चतुष्पात् / स्त्रियां तु 'वा पादः' (2 / 4 / 6) शब्दस्य बहुव्रीही 'पाद्' इत्यादेशः समासान्तः स्या इति पक्षे डी-सुपदी, सुपात् ; द्विपदी, द्विपात् ; त्। व्याघ्रस्येव पादावस्य-व्याघ्रपाद / अहस्त्यादे- त्रिपदी, त्रिपाद् / / 150 // रिति किम् ? हस्तिन इव पादावस्य-हस्तिपादः, अश्वपादः // 148 // अव०-'शोभनौ पादावस्य / 2 (एवम्) त्रि पात् / शोभनौ पादावस्याः / द्वौ पादावस्याः / अव०-हस्तिन , अश्व, कटोल, कटोलक, / "त्रयः पादा अस्याः / 'सुसङ्ख्यात्'(७।३।१५०) पाद कण्डोल, कण्डोलक, गण्डोल, गण्डोलक, गण्ड, / इत्यस्य पाद् आदेशः / ज्यां परे 'यस्वरे पादः पद०' महेला, दासी, गणिका, कुसूल, कपोत, जाल, जल (2 / 1 / 112) इत्यनेन पद् इत्यादेशः // 150 / / इति हस्त्यादिगणः / / 148 // - कुम्भपद्यादिः // 7 / 3 / 149 // ___ वयसि दन्तस्य दत् // 73 / 151 // म० वृ०-कुम्भपद्यादिशब्दाः कृतपात्समा- म००-सुपूर्वस्य संख्यापूर्वस्य च दन्तशब्दस्य * सान्ताः [ बहुव्रीहयः] ड्यन्ता एव निपात्यन्ते / बहुव्रीही वयसि गम्यमाने 'दत' इत्यादेशः समासा'कुम्भपदी, शतपदी / येऽत्रोपमानपूर्वास्तेषां पूर्वेण, | न्तः स्यात् / 'सुदन कुमारः,'मुदती कुमारी, द्विदन सङ्खयापूर्वाश्च ये तेषामुत्तरेण सिद्धे, यदिह वचनं | बालः, षोडन् / वयसीति किम् ? सुदन्तो 'दाक्षिणातेन वा पादः'(२।४।६) इति डीविकल्पो न भवतिर त्यः, द्विदन्तः कुञ्जरः / ऋकारो की-नोऽन्तार्थः // 149 / / // 15 // Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 3 सू० 152-157 प्रव०-'शोभनाः सुसंस्थानाः सुजाताः समः / दन्तः ; अहिदन् , अहिदन्तः ; मूषिकदन , मूषिकस्ता वा दन्ता अस्य सुदन / 2 एवं सुदती। द्वौ दन्ता- दन्तः ; शिखरदन , शिखरदन्तः // 154 / / वस्य द्विदन् / एवं त्रिदन। षड् दन्ता अस्य षोडन् , 'एकादशषोडशषोड०' ( 3 / 2 / 91) इति सूत्रेण ष अव०-अत्र सूत्रे योगविभागात् नाम्नीति निवृ. इत्यस्य उत्वं दकारस्य डकारश्च, षोडत् इति सि- | त्तम् / 'कुडमलस्यान कुडमलाग्रम् , कुड्मलाग्रद्धम् / 'दक्षिणा, दक्षिणस्यां भवो दाक्षिणात्यः, मिव दन्ता अस्य-कुडमलाग्रदन् / २शिखरस्याग्रं= 'दक्षिणापश्चात्पुरसस्त्यण' (63613) इति त्यण , शिखराग्रम् , शिखरामा दन्ता अस्य शिखरापदन् / 'कौण्डिन्यागस्त्ययो:0' (6 / 1 / 127) इति निर्देशात शुद्धा दन्ता अस्य। ४"पक्कदाडिमबीजाभं माणिक्यपुवद्भावस्य अभावः / 'अधातूदृदितः' ( 2 / 4 / 2) शिखरं विदुः" // 1 // शिखरवत्-रक्तमाणिक्यवत् इति की। "ऋदुदितः' (2470 ) इति नोऽन्तः दन्ता अस्य // 154|| // 151 // सम्प्राजानो झौ // 7 // 3 // 155 // स्त्रियां नाम्नि / / 7 / 3 / 152 // म० वृ०-सम्प्राभ्यां परस्य जानुशब्दस्य म० वृ०-बहुव्रीही स्त्रियां स्त्रीलिङ्ग नाम्नि | ज्ञ ज्ञ' इत्यादेशौ समासान्तौ भवतः / 'संज्ञः,संज्ञः ; विषये दन्तशब्दस्य 'दतृ' आदेशः स्यात् / [अय इत्र | प्रक्षुः, प्रज्ञः / वचनभेदाद्यथासङ्ख्याभावः // 155 // दन्ता अस्याः अयोदती, फालदती. परशुदती ; एवं नामा काचित् / स्त्रियामिति किम् ? चक्रदन्तः, नाग- अव०-'सङ्गते जानुनी अस्य-संजः, संज्ञः / दन्तः / नाम्नीति किम् ? समदन्ती, स्निग्धदन्ती | २प्रगते प्रवृद्धे प्रणते प्रकृष्ट वा जानुनी अस्य प्रज्ञः ['नासिकोदरौष्ठ०' (2 / 4 / 39) इति डी] // 152 // | प्रज्ञः // 155 / / श्यावा-रोकाद्वा // 7 / 3 / 153 // वोर्ध्वात् / / 7 / 3 / 156 / / म० वृ०-श्यावा-ऽरोकाभ्यां परो यो दन्त- म० वृo-ऊर्ध्वशब्दात् परस्य जानुशब्दस्य बहुशब्दस्तस्य 'दत' आदेशो वा स्यात् , नाम्नि / | ब्रीही 'ज्ञज्ञौ' भवतो वा / ऊर्ध्वक्षुः, ऊर्ध्वज्ञः, ऊर्ध्व'श्यावदन् , श्यावदन्तः ; अरोकदन् , अरोकदन्तः | जानुः / / 156 // // 153 // अव०-'ऊधै जानुनी अस्य=ऊर्ध्वजः, ऊर्ध्वप्रव-श्यावाः कपिशा दन्ता अस्य / २अरो- ज्ञः, ऊर्ध्वजानुः / / 156 / / का निर्दीप्तयो निश्छिद्रा वा दन्ता अस्य // 153 // सुहृद्-दुह न्मित्रा-मित्रे / / 7 / 3 / 157 / / वाऽग्रान्त-शुद्ध-शुभ्र-वृष-वराहा-हि-मूषिक-शिख- ! ___म० वृ०-सु-दुभ्यां परस्य हृदयस्य यथारात् // 7 / 3 / 154 // संख्यं मित्रे-सख्यौ अमित्रे-शत्रौ चाभिधेये [षाच्ये] म० वृo-अप्रान्तेभ्यः शुद्धादिशब्देभ्यश्च परो | 'हृद्' इत्यादेशः समासान्तोऽयं निपात्यते। 'सुहृत् यो दन्तशब्दस्तस्य 'दत' आदेशो वा स्यात् / / मित्रम् , 'दुई दमित्रः / मित्रामित्र इति किम् ? कुडमलाप्रदन् , कुड्मलापदन्तः ; शिखरापदन् , सुहृदयो मुनिः, दुहृदयो व्याधः // 15 // शिखरापदन्तः ; शुद्धदन , शुद्धदन्तः; शुभ्रदन् , शुभ्रदन्तः ; [वृषस्येव दन्ता अस्य=] वृषदन् , वृष- प्रव०-शोभनं हृदयं यस्य-सुहृत् / 'दुष्टं दन्तः ; [वराहस्येव दन्ता अस्य=] वराहदन् ,वराह- ) हृदयं यस्य दुर्ह त् // 157 / / Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समासान्तविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [507 धनुषो धन्वन् / / 7 / 1 / 158|| / (च) परस्य नासिकाशब्दस्य बहुव्रीहौ नस्'इत्यादेशः स्यानाम्नि / द्रणसः, श्वाीणसः , उगोनसः, म० वृ०-धनुसशब्दस्य 'धन्वन्' इत्यादेशः ४कुम्भीनसः, "खरणसः, खुरणसः / अस्थूलादिति समासान्तः स्यात् / 'शार्ङ्गधन्वा, २पिनाकधन्वा किम् ? स्थूलनासिकः / नाम्नीत्येव-तुङ्गनासिकः [रुद्रः), अजकावधन्वा [रुद्रः ], गाण्डीवधन्वा कथं गोनासः ? नासाशब्देन भविष्यति // 161 / / (अर्जुनः] // 158 / / प्रव०-'द्ररिव नासिकाऽस्य द्रणसः। वर्धअव०-'शङ्गस्येदं शाङ्गम् , शाङ्ग धनुरस्य स्येयं वाी, 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) अण , 'अणशार्ङ्गधन्वा / २पिनष्टीति पिनाकः, पिषेः पिन्-पिण्यौ बेये.' ( 2 / 4 / 20) इति ङी, वार्धीव नासिकाऽस्य, च' (उणा० 36) इत्युणादिसूत्रेण आकप्रत्ययः, पिषः 'पूर्वपदस्था०' (2 / 364) इति णत्वम् , 'तद्धितः स्वपिन च, पिनाकं धनुर्यस्य / अजा एवाजकाः,अजका रवृद्धि०' (3 / 2 / 55 ) इत्यादिना पुंवद्भावाभावः / अस्य सन्ति-'मण्यादिभ्यः' (7 / 2 / 44 ) इति वः, 'घञ्युपसर्गः' (3 / 2 / 86) इति दीर्घः अजकावं धनु उगोरिव नासिकाऽस्य-गोनसः / कुम्भीव नासिका. ऽस्य-कुम्भीनसः / “खरणसः, खुरणसः ; एतरस्यास्ति, रुद्रः / ४"गाण्डीवधनुषः [ अर्जुनस्य ] योः पूर्ववद् वाक्यम् / स्थूला नासिका यस्य स स्थूखेभ्यो [इन्द्रियेभ्यः ] निश्चचार हुताशनः" कथ लनासिकः, 'गोश्चान्ते.' ( 2 / 4 / 96) इति ह्रस्वः, मत्र धन्वन आदेशोन भवतीत्याह-संज्ञात्वविवक्षायां स्थूला इत्यत्र 'परतः स्त्री पुंवत्' ( 3 / 2 / 49) इति 'था नाम्नि' (7 / 3 / 159 / इत्युत्तरसूत्रेण विकल्पो पुकद्भावः / तुङ्गा नासिकाऽस्य / गोरिव नासाभविष्यति // 158 // . ऽस्य / अस्थूलाञ्च इत्यत्र चकारः पूर्वसूत्रेण खरखुरा०' __वा नाम्नि // 73 // 159 // इत्यनेन अस्य अस्थूला०' इत्यस्य बाधानिवृत्त्यर्थः।।१६१।। म० वृ०-धनुःशब्दस्य 'धन्वनादेशो' बहुव्रीहौ उपसर्गात् / / 7 / 3 / 162 // स्यान्नाम्नि विषये वा। [शतं धषि यस्य स] म० वृ०-उपसर्गात्परस्या नासिकाया बहुशतधन्वा, शतधनुः / [पुष्पाण्येव धनुर्यस्य स] पुष्प ब्रीहौ 'नसः' स्यात् / प्रणसम् , उउन्नसं मुखम् / धन्वा, पुष्पधनुः / / 159 // असंज्ञार्थे वचनम् // 162 // खर-खुरानासिकाया नस् / / 7 / 3 / 160 // म0 वृ०-खरखुराभ्यां परस्य नासिकाशब्द अव०-'धातुयोगे यः प्रादिरुपसर्गसंज्ञः तस्मात् स्य 'नस' इत्यादेशः समासान्तः स्यात नाम्नि [सं उपसर्गात् / प्रगता अथवा प्रवृद्धा नासिकाऽस्य= ज्ञाविषये ] पखरणाः, खरणसौ ; खुरणाः, खुर प्रणसम् / उन्नता उद्गता वा नासिकाऽस्य-उन्नसं णसौ // 160 // मुखम् / प्रणसमित्यत्र 'नसस्य' (2 / 3 / 65) इत्यनेन णत्वम् / / 162 / / __ प्रव0-'खरा नासिका अस्य अथवा खरस्येव वेः खु-न-ग्रम् / / 7 / 3 / 163 // नासिकाऽस्य खरणाः / रेखरा नासिकाऽनयोः= खरणसौ। 'खुर इव नासिकाऽस्य खुरणाः, 'पूर्व म.वृ०-वेरुपसर्गात्परस्या नासिकायाः खुन न पदस्थानाम्न्यगः' ( 2 / 3 / 64 ) इत्यनेन नकारस्य इत्यादेशाः समासान्ता भवन्ति विखुः, रविनः, णत्वम् / / 160 / / अविनः / उपसर्गादित्येव-'विनासिकः॥१६३।। अस्थूलाच नसः // 7 / 3 / 16 / / प्रव-विगता नासिकाऽस्य(यस्य ?)स विखुः। म० ३०-स्थूलवर्जितात् पूर्वपदात् खरखुराभ्यां / विगता नासिका यस्य स विनः। विगता नासिका Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508 / श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०७ पा० 3 सू० 164-170 यस्य स विग्रः / वेः पक्षण इब नासिकाऽस्य / एवं पूर्ण ककुदमस्य-पूर्णककुद् / ४एवं यष्टिवत् // 163 / / ककुदमस्य यष्फिकद्, नातिस्थूलो नातिकृशो यस्य जायाया जानिः // 7 / 3 / 164 // ककुदः स यष्टिककुद् ; तथा सन्नं जीर्ण ककुदमस्य= म० वृo-जायाशब्दस्य 'जानि'-रित्यादेशः सन्नककुद् कृशः, पन्नककुद् वृद्धः इति विशेषप्रयोगाः // 167|| समासान्तो बहुव्रीहौ स्यात् / 'युवजानिः, रप्रियजानिः, अनन्यजानिः // 164|| त्रिककुद्गिरौ // 7 / 3 / 168 // म० वृ०-त्रिशब्दात्परस्य ककुदस्य गिरौ प्रव०-'युवतिर्जाया यस्य स युवजानिः, वाच्ये बहुव्रीहौ 'ककुत्' इत्यादेशो निपात्यते / 'परतः स्त्री पुंवत्' (32 / 49) इत्यनेन पुवद्भावः, 'त्रिककुत् पर्वतः / / 168 / / तिप्रत्ययलोपः / एवं प्रिया जायाऽस्य=प्रियजानिः / (एव) शोभना जायाऽस्य शोभनजानिः, वधूर्जाया __ अव०- त्रीणि ककुदानि ककुदाकाराणि शिखऽस्य वधूजानिः। नान्या जायाऽस्य। सर्वत्र ‘परतः राण्यस्य पर्वतस्य / 'वेगिरा'विति सिद्धे निपातनं स्त्री पुंवत्०' (३।२।४९)इत्यनेन पुंवद्भावः // 164 // पर्वतविशेषप्रतिपत्त्यर्थम्। तेनान्यस्मिन् विषये त्रिक कुद इत्येव भवति // 168 / / व्युदः काकुदस्य लुक् / / 7 / 3 / 165 // स्त्रियामूधसो न // 7 / 3 / 169 // म० वृ०-व्युद्भ्यां परस्य काकुदस्य [ तालु] बहुव्रीहौ 'लुक्' समासान्तः स्यात् / 'विकाकुन , म० वृ०-त्रियां वर्तमानस्य ऊधसशब्दस्य उत्काकुत् // 165 // 'न्' इत्यादेशः समासान्तः स्याद् बहुव्रीही / 'कुण्डो ध्नी, रघटोध्नी, महोनी गोः / त्रिवामिति किम् अव०-'विगतं काकुदं तालु अस्य विकाकुत् / महोधाः मेघः // 169|| २दकारमध्यस्थ अकारो लुप्यते इति लुगादेशः समासान्त इत्यस्य व्याख्यानम् / / 165 // प्रव०- 'कुण्डमिवोधोऽस्याः-कुण्डोनी / पूर्णाद्वा // 7 / 3 / 166 // २घट इव ऊधोऽस्या घटोनी। (एवम् ) पीवरमूधो ऽस्याः पीवरोध्नी // 169 / / .. म० वृ०-पूर्णात्परस्य काकुदस्य 'लुक्' समासान्तो वा स्यात् / [पूर्ण काकुदमस्य=] पूर्णकाकुत, इनः कच् // 7 / 3 / 170 // पूर्णकाकुदः // 166 / / म००-इन्नन्ताद् बहुव्रीहेः स्त्रियां वर्तमानान् 'कच्' समासान्तः स्यात् / बहुदण्डिका सेना / ककुदस्यावस्थायाम् // 7 / 3 / 167|| २"अमिनस्मनग्रहणान्यर्थवतानर्थ केन च तदन्तविधि म० वृ०-अवस्थायां [वयसि गम्यमानायां | प्रयोजयन्ति" / बहस्वामिका.४बहवाग्मिका परी। 'ककुदस्य 'लुक्' समासान्तः स्याद् बहुव्रीहौ / अस- | स्त्रियामित्येव- बहुदण्डी,बहुदण्डिको राजा। चकारो जातककुद् बालः [ वत्सो वा], पूर्णककुद् युवा, / 'न कचि' (2 / 4 / 104. इत्यत्र विशेषणार्थः / / 170 / / स्थूलककुद् बलवान् / अवस्थायामिति किम् ? श्वेतककुदः / ककुच्छब्देनैव सिद्धे ककुदशब्दस्या अव०-'बडवो दण्डिनोऽस्यां सेनायां सा स्मिन् विषये प्रयोगनिवृत्त्यर्थ वचनम् // 167|| | बहुदण्डिका / "अनि'-नित्यादेरयमर्थः, यत्र क्वापि सूत्रे अनिनस्मन्प्रत्ययानुद्दिश्य कार्य प्रोक्तप्रव०-१ स्कन्धः शृङ्ग वृषभस्य कुहटि(:) इत्यपि। मस्ति, तत्र ते अनिनस्मन्प्रत्ययाः कर्तारः तदरन सञ्जातं ककुदं शृङ्गं स्कन्धः शृङ्गं कुहटिस्य। / न्तविधि प्रयोजयन्ति, कोऽर्थः ? ग्राहयन्ति / भा Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समासान्तविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंपलितम् / [ 509 - - वार्थोऽयम् , तथाहि- अन् इन् अस् मन् इति स्व- | पुमनडुन्नौपयोलक्ष्म्या एकत्वे / / 7 / 3 / 173 // रूपेण सार्थका मुख्याः। कनप्रत्ययेऽन् निरर्थको गीणः। | विग्मिन्प्रत्यये (प्रत्यययोः?) इन् अनर्थको गौणः / | म००-एकत्वविषये पुम्स् अनडुह नौ पयस् लक्ष्मी एवं नसाधादेशेऽस् अनर्थको गौणः / इति यत्राऽना (इति) शब्दास्तदन्ताद् बहुव्रीहेः 'कच्' स्यात् ।'प्रियदिप्रत्ययानाश्रित्य कार्य सूत्रे उक्तमपि तत्र अनादि पुस्कः, प्रियानडुत्कः, प्रियनौकः, प्रियपयस्कः, प्रिय(प्रत्ययाः ) सार्थका अपि निरर्थका गौणा अपि लक्ष्मीकः / एकत्वे इति किम् ? द्विपुमान् , द्विपुस्कः; ग्राह्याः / अनादिप्रत्ययेषु केवलेषु तदन्तेष्वपि प्रत्य एवं बह्वनड्वान् , बह्वनडुत्कः , बहुनौः, बहुनौकः ; याश्रितं सर्व कार्य प्रवर्तते इत्यक्षरबलात् बहु बहुपयाः, बहुपयस्कः ; बहुलक्ष्मीः , बहुलक्ष्मीकः ; स्वामिका, बहुवाग्मिका ; अत्र गौणेनन्तादपि कच् 'शेषाद्वा' (73 / 175) इति विकल्पः॥१७३॥ सिद्धः // 17 // अव०-१प्रियः पुमानस्य=प्रियपुस्कः, अत्र ऋन्नित्यदितः // 7 / 3 / 171 / / 'पदस्य' (2 / 1189) इति सूत्रेण पुम्सशब्दस्य स् म० वृ०-ऋकारान्तान्नित्यं दिदादेशो यस्मा- लुप्यते ; ततः पुम् इति शब्दः, 'पुमोऽशिट्यघोषे०' त्तदन्ताच्च 'कच्' समासान्तो बहुव्रीहौ स्यात् / ऋत ,- (1 / 3 / 9) इति सूत्रेण अनुस्वारपूर्वो रकारो म् इत्यबहुकर्तृकः / नित्यं दित्,-बहुकुमारीकः' / नित्य- स्य स्थाने, 'पुसः' (2 / 3 / 3 / ) इति सूत्रेण रकारस्य ग्रहणं किम् ? पृथुश्रीः, पृथुश्रीकः ; लम्बभ्र: / सकारः / सर्वेषु उदाहरणेषु / केचिल्लक्ष्मीशब्दाद् पूर्वसूत्र स्त्रियां विधिरिति योगविभागः // 171 / / द्वित्वबहुत्वयोपि नित्यं कचमिच्छन्ति / अपरे तु तुल्ययोगेऽपि, यथा सलक्ष्मीको विनाशितः / स्वअव०-१एवं बहुब्रह्मबन्धूको ग्रामः। शेषाद्वा' मते तु 'सहात्तुल्ययोगे' (7 / 3 / 178) इति निषेधात् (7 / 3 / 175) इति कः-लम्बभ्र कः / केचिन्नित्यदितां कच् न भवति // 173 / / यदन्तानामेव कचमिच्छन्ति / तन्मते बहतन्त्रीः _ नमोऽर्थात् // 73 / 174 // बहुतन्त्रीकः इति शेषाद्वा' (7 / 3 / 175) इति विक ___ म०वृo-नपरो योऽर्थशब्दस्तदन्ताद् बहुव्रीहे: ल्पः // 171 / / 'कच्' स्यात् / न विद्यतेऽर्थोऽस्य अनर्थकं वचः / दध्युरःसर्पिमधूपानच्छालेः' // 7 / 3 / 172 // नब इति किम् ? [ अपगतोऽर्थो यस्मात् तत् म० वृ०-दधि उरस् सर्पिस् मधु उपानह् अपार्थम् , 'शेषाद्वा' (7 / 3 / 175] अपार्थम् , अपार्थशालि इत्यन्ताच्छब्दाद् बहुव्रीहेः 'कच् 'स्यात् / प्रिय कम् // 174 // दधिकः, प्रियोरस्कः, उप्रियसर्पिष्कः, प्रियमधुकः, शेषाद्वा // 7 / 3 / 175 // प्रियोपानत्कम् , [ 'नहाहोर्धतौ' (2 / 1 / 85) ] प्रिय. ___ म०वृ०-यस्माद् बहुव्रीहेः समासान्तः प्रत्यय शालिकः // 172 / / आदेशो वा न विहितः तस्माच्छेषात् 'कच्' वा स्यात् / 'बहुखट्वकः , बहुखट्वः ; बहुमालकः, बहु. अवo-'उपानच्छालेरित्यत्र 'नहाहोर्धतौ' मालः ; बहुवीणकः, बहुवीणः / शेषादिति किम् ? इति हस्य त् , 'प्रथमादधुटि०' (1 / 3 / 4) इति शस्य प्रियपथः, व्याघ्रपात् / असति शेषग्रहणे पक्षे छः, 'तवर्गस्यः' (1 / 3 / 60) इति तस्य च / प्रिय परत्वात् कच् स्यात् // 175 // मुररस्य=प्रियोरस्कः, 'प्रत्यये' (2 / 3 / 6) इति सूत्रेण रस्य सकारः। बहूनि (? प्रियाणि) सपीषि अस्य, प्रव०-'बयः खट्वा अस्मिन्बहुखट्वकः, 'सो सः' (2 / 172) सस्य रुः, 'नामिनस्तयोः षः' 'परतः स्त्री पुंवत्'(३।२।४९) इत्यत्र पंव(२।३।८) इत्यने रकारस्य षः // 172 / / | द्भावः-बहु, 'नवापः' (2 / 4 / 106) इति सूत्रेण Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 510] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०७ पा० 3 सू० 176-18 खट्वा इत्यत्र ह्रस्वः / एवं सर्वोदाहरणेषु / २'ऋक् / ____ अव०-सहात्तुल्य०' इति सूत्रे किश्चिपू पथ्यपोऽत् ' (7 / 3 / 76) / / 175 / / ल्लिख्यते- वर्तन्ते पूर्णोत्तरपदानि अस्मिन् समासे न नाम्नि / / 7 / 3 / 176 / / इति वर्त्तिः, 'विदिवृतेर्वा' ( उ०६१० ) इत्युणादि सूत्रेण इप्रत्ययः, वर्तिः समास उच्यते, तस्य पदानाम. वृ०-नाम्नि संज्ञाविषये 'कच् न' स्यात्। मर्थः पदार्थः, वर्तिपदार्थस्य पुत्रादेवृत्त्यर्थेन पित्रा'बहुदेवदत्तो नाम ग्रामः, विश्वदेवो नाम नरः, दिना सह क्रियागणजातिव्यैः साधारणसम्बपद्मश्री, एवंनामा स्त्री // 176 / / न्धस्तुल्ययोग उच्यते / यद्यपि 'विशेषणमन्तः' अव०-'बहवो देवदत्ता अस्मिन् ग्रामे / एवं (7 / 4 / 113) इति न्यायात् सहान्ताद् इति व्याख्यानामा स्त्री इन्यस्याने श्वेताश्वतरिः स्त्री पुरुषो वा नं युक्तम् , तथापि 'सहस्तेन' (3 / 1 / 24) इति सत्रे इत्युदाहरणं ज्ञेयम् / ह्रसिताऽश्वा अश्वतरी, 'वत्सो सहशब्दः प्रथमान्त , प्रथमान्तत्वात् 'प्रथमोक्त क्षाश्वर्षभाद्धासे पित्'(७३।५१) इति तरट ततोडी, प्राक् ' ( 3 / 1 / 148 ) इत्यनेन प्राग निपातभावात् सहान्तत्वं न सम्भवत्येव इति सामर्थ्यात्तदादेरिति 'क्यङ्मानि०' ( 32 / 50 ) इति पुंवद्भावः, श्वेताऽश्वतरी यस्य यस्या वा, गोश्वान्ते' (2 / 4 / 96) इति व्याख्यानं सूत्रार्थे कृतमिति भावः। सह पुत्रेण सपुत्रः, 'सहस्तेन' (3 / 1 / 24 ) इत्यनेन बहुव्रीहिह्रस्वः // 176 // समासः / सह विद्यमानानि लोमान्यस्य सलो. ईयसोः / / 7 / 3 / 177 // मकः / 'सह विद्यमानेन पक्षण वर्त्तते / सह म० वृत-ईयस्वन्तात समासात् 'कच् न' विद्यमानेन कर्मणा वर्तते / अत्र सहशब्दो विद्यस्यात् / 'बहुश्रेयान् / लिङ्गविशिष्ठस्यापि ग्रहणात् / मानार्थो न तु तुल्ययोगे। ‘शेषाद्वा' ( 7 / 3 / 175 ) बहुश्रेयसी, बहुप्रयसी पुरुषः / / 177|| इति कः // 18 // अव०१-प्रशस्य,अयं प्रशस्यः,अयं प्रशस्यः, अयमन- | भ्रातुः स्तुतौ / / 7 / 3 / 179 / / योर्मध्ये प्रकृष्टः प्रशस्यः श्रेयान् , 'गुणाङ्गाद्वेष्ठेयसू' म० वृ०-भ्रात्रन्तात्समासात कच न' स्यात् , (7 / 3 / 9) इति ईयस् ,'प्रशस्यस्य श्रः' (७।४।३४)इति श्र ! स्तुतौ प्रशंसायां गम्यमानायाम्' ।सुभ्राता / इत्यादेशः, बहूनि श्रेयांसि यस्य / एवं प्रेयान् , बहवो | (कल्याण भ्राता) प्रियभ्राता, बहुभ्राता // 179 / / प्रेयांसो यस्य स बहुप्रेयान् बहुमित्रः। बहुश्रेयसी इत्यत्र 'अधातूदितः' 12 / 4 / 2 ङी, बह्वयः श्रेयस्यो अब०-'भ्रातुः समासार्थस्य वा प्रशंसायां यस्य,एवं बह्वयः प्रेयस्यो यस्य,स बहुश्रेयसी पुरुषः, वाच्यायाम् / शोभनो भ्राता। कल्याण: प्रियो वा भ्राता अस्य / / 179|| वहुप्रयसी पुरुषः ; अत्र 'गोश्चान्ते' (2 / 4 / 96) इत्यनेन ह्रस्यो न प्राप्नोति, अंशिसमासान्तस्य ईयस्थ नाडीतन्त्रीभ्यां स्वाङ्गे // 7 / 3 / 180 / / न्तस्य बहुव्रीहौ ड्यन्तस्य ह्रस्वप्रतिषेधकरणात् , इति म०७०- स्वाङ्गे यौ नाडीतन्त्रीशब्दौ तदन्तात् 'गोश्चान्ते.' (2 / 4 / 96) इत्यत्र प्रोक्तम् / / 177 / / / समासात् 'कच् न' स्यात् / बहुनाडिः कायः, सहात्तल्ययोगे' // 73 / 178 // बहुतन्त्रीीवा। स्वाङ्ग इति किम् ? बहुनाडीकः ___ म० वृ०-तुल्ययोगे यः सहशब्दः रसामर्थ्या स्तम्बः, बहुतन्त्रीका वीणा // 18 // त्तदादेवहुव्रीहेः 'कच् न' स्यात् / सपुत्र आगम:, प्रव०-'नाडी नडि इति शब्दद्वयम्, तत्र सुपुत्रः स्थूलः, सपुत्रो गोमान् / सहादिति किम् ? नाडि इत्यत्र 'इतोऽक्त्यर्थात् ' (2 / 4 / 32) इति डी:, श्वेताश्वको मैत्र आगतः / तुल्ययोग इति किम् ? | बयो नाडयोऽस्मिन् काये स बहुनाडिः, 'गोश्चा४सलोमकः, "सपक्षकः, सकर्मकः // 178 // | न्ते' (2 / 4 / 96) ह्रस्वः / "तस्ततन्द्रितन्त्र्यविभ्य EE Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समासान्तनिषेधः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / * ई.' ( उणा० 711 ) उणादिसूत्रेण तन्त्रीशब्दो / न्ताने' वा,ऊयते अस्यामिति वानिः, वीयुसुवह्यगिभ्यो धमन्यर्थे , बह्वयः तन्त्र्योऽस्यां ग्रीवायाम् , अत्र ड्या- | निः'(उ०६७७) इत्यस्यादि।?इत्युणादि)-सूत्रेण निः द्यन्ताभावान्न ह्रस्वः / 'नाडीतन्त्रीभ्यां स्वाङ्गे' (73 / / प्रत्ययः," दिर्दा उच्यते(?)प्रभृता वानिःप्रवाणिः, 180) इति सूत्रे पारिभाषिकं न स्वाङ्गम् , किन्तु स्व- / 'पूर्वपदस्था०' (2 / 3 / 64) इति णत्वम् , निर्गता मात्मीयमङ्गं स्वाङ्गमिह गृह्यते, आत्मा चेहान्य- | प्रवाणिस्तन्तुभ्योऽस्य पटस्येति निष्प्रवाणिः सदश पदार्थः, तस्याङ्गमवयवः,तस्मिन् , ईदृशे स्वाङ्गे वाच्ये | इत्येके // 18 // इति व्याख्यान्ति केचित् / तन्मते बहुनाडि: (स्त- सुभ्र वादिभ्यः // 7 / 3 / 182 // म्बः), बहुतन्त्रीर्वीणा इति, प्रत्युदाहरणं तु एवं ज्ञेयम्-बहुनाडीकः कुविन्दः, बहुतन्त्रीको नट इति। म० वृ०-मुभ्र इत्यादिभ्यः 'कच् समासान्तो नाही नालिका / स्वमते (?) // 181 / / न' भवति / 'सु भ्र:, लेखाभ्रः कोमलोरूः, वरोरूः पीवरोरूः। जातिवचनेत्वादूङन्ता एते। एवं ह्यामन्व्ये निष्प्रवाणिः // 7 / 3 / 181 // सौ ह्रस्वो भवति-, हे सुध्र ! हे वरोरु ! बहुवचनम०वृ०-निष्प्रवाणिरिति 'कजभावो' निपा- | माकृतिगणार्थम् / तेन करभोरूः, संहितोरूः इत्यात्यते। निष्प्रवाणि: पट: कम्बलो वा, तन्त्रादचि- दयो भवन्ति / / 182 // सप्तमाध्यायतृतीयपादः / रोद्धृत इत्यर्थः / निर्गतः प्रवाण्या निष्प्रवाणिरिति ग्रन्थान-३७९॥ तत्पुरुषेण सिद्धे बहुव्रीही कज् मा भूदिति वचनम् // 181 // अव०-भ्र शब्दवत् भ्रु शब्दोऽप्यस्ति / 'शोभने भ्र भ्रमणे यस्याः सा सुभ्र :, लेखावत् भ्रर्यस्याः सा अव०-वेंग् तन्तुसन्ताने' 'आत्सन्ध्यक्षरस्य' | लेखाभ्र, जातिवचनत्वात् स्वभावात् ऊङन्तावेव / (4 / 2 / 1) वा प्रपूर्वम् , प्रोयतेऽस्यामिति प्रवाणी, अत्र हि ऊःप्राक् शेषाद्वा(७३।१७५) इति कचि अनट् , 'स्वरात्' (2 / 3 / 85) इति णत्वम् , ततो डी, प्राप्त प्रतिषेधोऽयम् / ननु ऊङयपि कृते नित्यदिदु'प्रवाणी इति शब्दः, तन्तुवायशलाका प्रवाणी, निर्गता | द्वारण कचः प्रसङ्गः, न, 'नित्यदित' इत्यत्रोप्रवाणिरस्मात् (?प्रवाण्यस्मात्) इति निष्प्रवाणिः, | त्तरपदत्वस्यैव नित्यदितो ग्रहणात् / कोमलौ वा . 'निर्बहिरा०' (2 / 3 / 9) इत्यनेन रस्य षत्वम् , | उरू यस्याः // 182 // अवचूरिश्लोक-६४६, अक्षर 'गोश्चान्ते'(२।४।९६) ह्रस्वः / अथवा 'वेग तन्तुस- ' 3 ऊणा। // इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते सिद्धहेमशब्दानुशासने सप्तमाध्यायस्य तृतीयः पादः॥ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अहम् / / // सप्तमोऽध्यायः॥ [ चतुर्थः पादः] * वृद्धिः स्वरेष्वादेणिति तद्धिते // 7 / 4 / 1 // / म० वृ०-देविका शिंशपा दीर्घसत्र श्रेयस् इत्ये म. वृ०-पिति णिति च तद्धिते प्रत्यये परे / षां स्वरेष्वादेः स्वरस्य किणति परे तत्प्राप्तौ-वृद्धिपूर्वो यः प्रकृतिभागस्तस्य स्वरेषु-स्वराणां मध्ये य / प्रसङ्गे 'आकारः आदेशः' स्यात् / उदाविकं जलम् , आदिस्वरस्तस्य [आदिस्वरस्य] 'वृद्धिरादेशः' स्यात् / "शांशपः स्तम्भः, दार्थसत्रम् ,श्रायसं द्वादशाङ्गम्। [बिति-] दाक्षिः, 'काणिः, चौलिः / [णिति-] तत्प्राप्ताविति किमर्थम् ? [सुदेविकायां भवः=] ४शैवः, "भार्गवः,औपगवः, श्रायः स्थालीपाकः // 1 // सौदेविक इत्यत्र निषेधार्थम् , पूर्वोत्तरदेविकादि- प्रव-कृष्णस्यापत्यं काणिः, एवं निचाको पदानामपि [आकारः] यथा स्यादित्येवमर्थ च / अन्यथा हि देविकादीनां केवलानामेव स्यात् / / रपत्यं नैचाकविः, 'ऋषिवृष्ण्य०' (6 / 1 / 61) इति बाधको बाहादीन् / 'चूलाया अपत्यम् , बाह्वा __ अवo-'आ इत्यस्याने प्रथमासिः / रतस्या वृद्धेः दीन् / अथ णिति,- (एवम् / कपटोरपत्यं-काप प्राप्तिः=तत्प्राप्तिः,. तस्याम् / दीव्यन्ति देवा टवः, 'ङसोऽपत्ये' (6 / 1 / 28) अण् / शिवस्या अस्यामिति देवका, 'नाम्नि पुसि च' (5 / 3 / 121) पत्यं शैवः, 'शिवादेरण' (6 / 1 / 60) / 'भृगोरपत्यं इति णकः, आप् , 'अस्यायत् '0 (2 / 4 / 111) इति =भार्गवः, ऋष्यण् / श्रीदेवताअस्य श्रायः, 'देवता' इत्वम् , देविकायां भवं दाविकम् , 'भवे (6 / 3 / 123) (6 / 2 / 101) इत्यण // 1 // अण् / तथा देविकाकुले भवाः दाविकाकुलाः शालयः / केकय मित्रयु-प्रलयस्य यादेरिय च / / 7 / 4 / 2 / / पूर्वदेविका नाम प्राच्यग्रामस्तत्र भवः पूर्वदाविकः, म० वृ०-केकय मित्रयु प्रलय इत्येषां णिति अत्र प्राग्ग्रामाणाम् ' (७।४।१७)इत्युत्तरपदवृद्धिप्राप्तिः / तद्धिते परे स्वरेष्वादेः स्वरस्य ‘वृद्धिः' यादेश्च ४शिशपाया विकारः-शांशपः, विकारे'(६।२।३०)इत्यण। शब्दस्य ‘इय्' इत्यादेशः स्यात्। 'कैकेयः, २मैत्रेयि- (एवं) शिंशपास्थले भवाः शांशपास्थलाः शालयः / कया श्लाघते, प्रालेयं हिमम् / / 2 / / पूर्वशिंशपा नाम प्राच्यग्रामस्तत्रभवः पूर्वशांशपः / अव०-'केकयस्यापत्यं कैकेयः, 'राष्ट्रक्षत्रिया०' / ५[दीर्घसत्रे भवम्=] दार्घसत्रम् / श्रेयोऽधिकृत्य (6 / 1 / 114) इत्यादिनाऽब् / २मित्रयोर्भावो मैत्रेयि- . कृतं श्रायसम् , 'अमोऽधिकृत्य ग्रन्थे' (6 / 3 / 198) का, गोत्रचरणात् श्लाघात्याकारप्राप्त्यवगमे (7 / 1 / 75) | इत्यण् / “ग्रहणवता नाम्ना०" इति न्यायात् / / 3 / / इति अकम् , तत आप् , 'अस्या' 0 (2 / 4 / 111) इति वहीनरस्यैत् / / 7 / 4 / 4 // इत्वम / उप्रलयादागतं प्रालेयम ,'तत आगते' (6 / 3 म०वृ०-१वहीनरस्य णिति स्वरेष्वादेः स्वरस्य 149) इत्यण् ,आदौ स्वराणां वृद्धिः,शब्दमध्ये यकारस्य एकादेशस्य (? यकारादेः) अंशस्य स्थाने इय् 'ऐकारः आदेशः'स्यात् / 'वैहीनरिः, वैहीनरम् // 4 इत्यादेशश्चाभूत् // 2 // अव०-वहीनरस्यापत्यं वैहीनरिः, 'अत इन्' देविका-शिंशपा-दीर्घमत्र-श्रेयसस्तत्प्राप्तावाः (631231) / वहीनरस्येदं वैहीनरम्। विहीनर इति // 7 // 4 // 3 // शब्दस्य आदिस्वरेकारस्य वृद्धौ ऐत्वे कृते सिद्धयति, Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिणति एदौद्विधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [513 वहीनरस्य वाहीनरिर्मा भूदिति वचनम् / वही- | इमे याता इति वाक्यकाले यद्यपि यत्वं दृश्यते, नरशब्देन कञ्चुकी उच्यते / / 4 / / तथापि इ, अत् , डस् , अण् इत्येव दृश्यम् , यतः वः पदान्तात्प्रागैदौत् / / 7 / 4 / 5 // "अन्तरङ्गानपि विधीन बहिरङ्गा लुब् बाधते" इति हेतोः 'ह्विणोरब 0 (4 / 3 / 15) इति यत्वम् 'ऐकायें' म० वृ-णिति परे इवोवर्णयोस्तत्प्राप्तौ (3 / 2 / 8) इति सूत्रेण क्रियमाणया ङन्सो लुपा वृद्धिप्रसङ्गे तयोरेव यौ यकारवकारौ पदान्तौ ताभ्यां बाध्यते इति याता इत्यत्र ‘ऐकार्ये' (3 / 2 / 8) इत्यप्राग यथासंख्यम् “ऐत् औत् इत्यागमौ" भवतः / नेन ङसो लुप् , लुपि कृतायां च णिति'(४।३।५०) यकारात्प्रागैकारः, वकारात्प्राग औकार इत्यर्थः / इत्यनेन वृद्धिप्राप्तिः / ततोऽन्तरङ्गत्वात् वृद्धिं बाधिवैयाकरणः, नैयायिकः, नैयासिकः, वैयासनम् , त्वा यत्वमभूत् / एषा युक्तिवैयाकरण इत्यादिषूदाहरणेसौवागमिकः, सौवश्वः / परत्वान्नित्यत्वाच्च वृद्धः ध्वपि ज्ञातव्या ।''दधिप्रियोऽश्वः दध्यश्वः, मयूरप्रा.गेव सर्वत्रानेनैदौतौ / य्व इति किम ? सौपर्णेयः / व्यंसकादित्वात्समासः // 5 // पदान्तात् इति किप ? १°याताश्छात्राः / तत्प्राप्तावित्येव-११दाध्यश्विः; माध्यश्विः / / 5 / / द्वारादेः / / 7 / 4 / 6 // म० वृ०-द्वारादीनां यौ यकारवकारौ तयोः प्रव०-१इ, उ , इश्च उश्च-यु, पञ्चमीङसिः , समीपस्य स्वरेष्वादेः स्वरस्य वृद्धिप्राप्तौ ताभ्यामेव सन्धौ सति यवः ति रूपं भवति / यद्यपि स्वरमा- प्राग “ऐत् औत् "(इत्येतौ)आगमौ भवतः णिति / त्रस्थानिका वृद्धिः, तथापीह सूत्रे यव इति ग्रहणा- 'दीवारिकः, सौवरः, सौवः, सौवस्तिकः, सौवम् , दिवर्णोवर्णयोस्तत्प्राप्तौ इत्यादि। व्याकरणं न्यायं 'सौवाध्यायिकः, सौवग्रामिकः, दीवारपालिकः, 'न्यासं वेत्त्यधीते वा,-'तद्वेत्त्य'० (6 / 2 / 117 ) सौवर्गमनिकः // 6 // 'न्यायादेरिकण' (6 / 2 / 118) / व्यसनशब्दः, व्यसने भवम् , 'भवे' (6 / 3 / 123) अण् / "स्वागम- अव०-'द्वारे नियुक्तो-दौवारिकः, 'तत्र निशब्दः, स्वागमं वेत्त्यधीते वा, 'न्यायादेरिकण'। युक्ते' (6 / 4 / 74) इति इकण् / २स्वरमधिकृत्य शोभनोऽश्व: स्वश्वः शब्दः, स्वश्वस्यायं सौवश्वः, कृतो ग्रन्थः सौवरः, 'अमोऽधिकृत्य'० (6 / 3 / 198) 'तस्येदम् '(6 / 3 / 160) इत्यण् / (एवम् ) स्वश्वस्या- इत्यण् / स्वर्भवः सौवः, 'भवे' (6 / 3 / 123) अंण् , पत्यं सौवश्विः, 'अत इञ्' (6 / 1 / 31) / ननु वैया- 'प्रायोऽव्ययस्य' (7 / 4 / 65) इत्यन्त्यस्वरादिलोपः / करणाद्युदाहरणेषु सर्वेषु शब्दसिद्धिकाले एव यत्व- "स्वस्तीत्याह-सौवस्तिकः, 'प्रभूतादिभ्यो ब्रुवति' वत्वभावात् इवोवो न स्तः, (तत्) कथं वृद्धि- (6 / 4 / 43) इतीकण , अव्युत्पन्नोऽयं स्वस्तिशब्दः / प्राप्तिः ?सत्यम् ,'आतो नेन्द्रवरुणस्य' (7 / 4 / 29) इत्यत्र 5 स्वस्येदं सौवम् / स्वश्चासावध्यायश्च स्वाज्ञापयिष्यते-“पूर्वोत्तरपदकार्ये कृते पश्चात् सन्धिः ध्यायः, स्वाध्यायेन जयति-सौवाध्यायिकः, 'तेन कार्या" इति वृद्धिरूपे पर्वपदकार्ये कृते यत्वमिति जितजय'० (6 / 4 / 2) इति इकण् / 'स्वग्रामे भवः= वृद्धिप्राप्तिः / तत्प्राप्तौ च सत्यामेतत्सूत्रसामर्थ्याद् सौवग्रामिकः, 'अध्यात्मा'० (6 / 3 / 78) इकण् / वृद्धिं बाधित्वा यत्ववत्वे भवतः / तदनन्तरमैदौताऽs- तथा विशेषोऽयम्-'श्वादे' (7 / 4 / 10) इति वक्ष्यगमौ भवतः। 'सुपाः सुपर्णाया वा अपत्यं सौप- माणसूत्रोक्तप्रतिषेधात् द्वारादिपूर्वाणामपि शब्दानां र्णेयः, 'डन्यात्यूङः' (6 / 1170) एयण / १°याता इति, “ऐदौत्" भवतः- द्वारपालशब्दः, द्वारपालस्यापत्यं 'इंण्क गतौ' (इति) इ, एतीति यन् , शत, "द्विणो- =दौवारपालिः, 'अत इञ् ' (6 / 1 / 31), ततः द्वारपारब् '0 (4 / 3 / 15) इत्यादिना इणो यत्वम् , यत इमे ल्या अपत्यं दौवारपालिकः, रेवत्यादित्वादिकम् / इति वाक्यम् , 'तस्येदम् ' (6 / 3 / 160) अण् ,यत / (एवं) स्वराध्याये भवः सौवराध्यायः , 'भवे' (6 / 3 Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०७ पा० 4 सू०७-११ १२३)अण् / 'स्वर्गमनमाह-सौवर्गमनिकः, प्रभूता- | न्यझोरिदं नैयङ्कवम् / व्युत्पत्तिपक्षे पूर्वेण प्राप्ते दित्वादिकण् / (एवं)श्वदंष्ट्रायां भवः शीवादंष्ट्रोमणिः। विभाषा, अव्युत्पत्तिपक्षे त्वप्राप्त / / 8 / / द्वार, स्वर, स्वर् , स्वस्ति, स्वादुमृद् ,व्यल्कस, श्वस् , न अ-स्वङ्गादेः / / 7 / 4 / 9 / / श्वन ,स्फयकृत, स्त्र, स्वाध्याय, स्वग्राम इति द्वारादिगणः। अत्र गणे स्वशब्द इति पाठेनैव सिद्धे स्वा म० वृ०-बप्रत्ययान्तस्य स्वङ्गादेश्च य्वः ध्यायस्वग्रामपाठात् स्वापतेयं स्वाजन्यं स्वार्थिक प्राग “ऐत् औत् णिति न" भवतः / 'व्यावइत्यत्र न भवति / स्वपतौ साधु,-'पथ्यतिथिवसति क्रोशी , व्यावलेखी , व्यावहासी / स्वङ्गादि,स्वपतेरेयण' (7 / 1 / 16) / स्वजनस्य भावः कर्म वा, उस्वाङ्गि , व्याडिः, ५स्वागतिकः, व्यावहारिकः, 'पतिराजान्त०'(७॥११६० इति ट्यण ) / स्वार्थः प्रयो ७व्यायामिकी विद्या // 9 // मस्य-स्वार्थिकः // 6 // अव०-'व्य(? व्या)वक्रोशनं व्यावक्रोशी, व्यन्यग्रोधस्य केवलस्य / / 7 / 4 / 7 // तिहारेऽनीहादि०' (5 / 3 / 116) बः, व्यावक्रोशते(? . . म० वृ०-न्यग्रोधशब्दस्य केवलस्य(यो)यकार- परस्परमाक्रोशन)व्यावक्रोशी, नित्यं अधिनोऽण'(७) म्तस्य सम्बन्धिनः स्वरेष्वादेः स्वरस्य वृद्धिप्राप्तौ, 3158) / एवं व्यावलेखीत्यादयोऽपि साध्याः / तथा तस्मादेव यकारात्(प्रागऐ इत्यागमः स्यात् ,ठिणति / शोभनान्यङ्गानि यस्य,ततः स्वङ्गस्यापत्यं स्वाङ्गिः। नैयग्रोधो दण्डः, कषायो वा। केवलस्येति किम ? ४व्यडस्यापत्यं व्याडिः / “स्वागतमित्याह-स्वान्यायोधमूलाः शालयः, न्यायोधकः / / 7 / / गतिकः, 'प्रभूतादि०' (6 / 4 / 43 ) इकण् / व्यव हारेण चरति / व्यायामः प्रयोजनमस्याः व्यायाअव०-'न्यग्रोधस्य विकारो नैयग्रोधो दण्डः, - मिकी विद्या / स्वङ्ग, व्यङ्ग, व्यड, स्वागत, स्वध्वर, नैयग्रोधः कषायः ; प्राण्यौषधिo' (6 / 2 / 31) इत्यण् / व्यवहार, व्यायाम इति स्वङ्गादिगणः // 9 // न्यग्रोधमूले भवाः न्याग्रोधमलाः शालयः। उन्य श्वादेरिति // 7 / 4 / 10 // ग्रोधाः सन्त्यस्मिन् , ऋश्यादित्वाच्चातुरर्थिकः कः , न्यग्रोधकम् , न्यग्रोधके भवो न्यानोधकः / अत्राह म० वृ०-श्वनशब्द आदिरवयवो यस्य शब्दपर:- ननु 'सप्तम्या निर्दिष्टे०'(७।४।१०४) इति न्या स्य तस्य श्वादेर्नाम्नो वकारात्प्राग् ‘और्न' स्यात् , यात् न्यग्रोधमूल न्यग्रोधक इत्यनयोमलशब्द इति=इकारादौ किणति तद्धिते / १श्वाभस्त्रिः, कप्रत्ययाभ्यां न्यग्रोधशब्दस्य व्यवधानात् प्राप्तिरेव २श्वाशीर्षिः, उश्वागणिकः, ४३वायूथिकः / आदिग्रनास्तीत्याह सूरिः- इदमपि सूत्रं द्वारादीनां तदादि हणं किम् ? श्वभिश्चरति-शौविकः / इतीति किम्? विधिज्ञापकम् / तथाहि-न्यग् रोहतीति न्यग्रोध इति [श्वहानस्येदं=] शौवहानम् / / 10|| व्युत्पत्तिपक्षे केवलस्यैव इति नियमार्थम् , अञ्युत्पत्तिपक्षे तु विध्यर्थं वचनम् // 7 // प्रव०- 'श्वेव भनाऽस्य, श्वभत्रस्यापत्यम् , 'अत इज्' (6 / 1 / 31) / २३वेव शिरोऽस्य, श्वशिरन्यङ्कोवा / / 7 / 4 / 8 // सोऽपत्यम् , बाह्वादी , 'शीर: स्वरे.' (3 / 2 / 103) म० वृ०-न्यकुशब्दस्य यात् प्राग् वा 'ऐ:' इति शीर्षादेशः / (एवं) शुन इव दंष्ट्राऽस्य, श्वादंष्ट्रस्यात् , किणति / नैयङ्कवम् , न्याङ्कवम् / / 8 / / स्यापत्यम् (श्वादंष्ट्रिः)। श्वगणेन चरति / ४श्वयूथेन चरति / सर्वत्र 'शुनः' ( 3 / 2 / 90 ) इत्यनेन दीर्घः " प्रव०-न्यञ्चतीति 'नेरञ्चः' (उ० 724) इति // 10 // उः, 'न्यकूदमेघा०' ( 4 / 1 / 112) इति कत्वम् , हजः // 7 / 4 / 11 // Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्धिविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [515 म. वृ०-वादेरिञ्प्रत्ययान्तस्य णिति त- | इत्युक्तम् / प्रोष्ठो गौस्तस्येव पादावस्य-प्रोष्ठद्विते वात् (? वकारात्) प्रागौन भवति / 'श्वाभस्त्रम् पदः, 'सुप्रातसुश्वसुदिव०' (73 / 129) इत्या॥११॥ दिना डप्रत्ययः, पदभावश्च, आप , प्रोष्ठपदाभिश्च न्द्रयुक्ताभियुक्तः 'चन्द्रयुक्तात्काले लुप्त्व०' (6 / 2 / 6) प्रव०-१श्वेष भत्राऽस्य, श्वाभस्त्रस्यापत्यम् ,'अत इत्यादिना अण् लुप च, त्यादेगौणस्य०' (2 / 4 / 95) इब्' (6 / 1 / 31), श्वाभत्र रिदं श्वाभस्त्रम् / इका इत्यनेन आप्निवृत्तिः,पुनराप् ,प्रोष्ठपदासु जात:-प्रोष्ठरादा निमित्ते उच्यमानः पूर्वेण प्रतिषेधः इत्र पादः। एवं भद्रौ पादावस्य भद्रपदः, सुप्रात०' (7 / 3 / न्तस्य प्रत्ययान्तरैः ( ? प्रत्ययान्तरे) न प्राप्नोतीति १२९)इति डः, वापादः' (२।४।६)आप ,भद्रपदाभिश्चन्द्र'इत्र' इति सूत्रं कृतम् // 11 // युक्ताभिर्युक्तः काल इति वाक्ये चन्द्रयुक्तात्' (6 / 2 / पदस्यानिति वा / / 7 / 4 / 12 // 6) इत्यण लोपश्च, 'ह्यादे.' ( 2 / 4 / 95 ) आग्निम० वृ०-पदशब्दान्तस्य श्वादेर्वकारात्प्राग | वृत्तिः, पुनराप ,भद्रपदासु जातोभद्रपादः, ‘भर्त' 'औः' स्यात् वा, इकारादिवर्जिते णिति परे / ( 6 / 3 / 89 ) अण् , ततो वृद्धिः / पूर्वभद्रपदा 'श्वापदम् , शौवापदम् // 12 // उत्तरभद्रपदा' इति नक्षत्रद्वयम् / 'प्रोष्ठपदासु भवः,-'भत्तु' (6 / 3 / 89) अण् / ननु ऊर्ध्वमौअव०-इवनशब्दस्य द्वारादिषु पाठात् हूर्तिकेत्याधुदाहरणत्रये सूत्राभावे उत्तरपदतत्र तदादिविधेओपितत्वान्नित्यमौकारागमे प्राप्ते वृद्धिः कथमिति पराशयः / सूरिराह,-निपातनादी'पदस्यानिति वा' इति विकल्पोऽयं कृतः इत्यर्थः / त्यादि, 'सप्तमी चोर्ध्वमौहूर्त्तिके' ( 5 / 3 / 12 ) इति अनितीति किम ? श्वापदेन चरतिः-श्वापदिकः, ज्ञापकान्निपातनाद्वा उत्तरपदस्यैव वृद्धिः; गुरोर्लाघअत्र 'वादे०' (7 / 4 / 10) इत्यनेन इति औकारनि- वमथवा गुरुश्च गुरुत्वं लाघवं चेति, पाठबलात् षेधः / 'शुन इव पदमस्य-श्वापदम् , 'शुनः' 3 / उत्तरपदवृद्धिः; संहते पारायं संहतपारार्थ्यमिति 2 / 90 ) इत्यनेन दीर्घः, बाहुलकात् पुनपुंसकः, प्रमाणग्रन्थवचनबलादुत्तरपदवृद्धिः सिद्धा ; इति उत्तश्वापदस्य विकार. श्वापदम् , शौवापदम् // 12 // रपदवृद्धिकारणे सूत्रान्तरं न कृतमिति तत्त्वम् / प्रोष्ठ-भद्राजाते / / 7 / 4 / 13 / / ऊर्ध्व मुहूर्त्तादूर्ध्वमुहूर्त्तमिति 'नाम नाम्नैकार्ये' (3 / 1 / 18) इत्यनेन समासः, ऊर्ध्व मुहूर्ताद् भवम्= म० वृ०-'वृद्धिरत्रानुवर्त्तते / प्रोष्ठभद्रशब्दा ऊर्ध्वमौहूर्तिकम् , अध्यात्मादिभ्य इकण'(६।३।७८)। भ्यां परस्य पदशब्दस्य स्वरेष्वादेः स्वरस्य स्थाने लघोर्भावः कर्म वा,-'प्वाल्लघ्वादेः' (7 / 1 / 69) जातेऽर्थे विहिते किणति 'वृद्धिः' स्यात् / २प्रोष्ठ इत्यण / संहतश्चासौ परश्च, संहतपरस्मै इमानि पादः, भद्रपादो माणवकः / जाते इति किम् ? इन्द्रियाणि, संहतपरार्थस्य भावः, ट्यण , संहतप्रौष्ठपदो मेघः। कथमूर्ध्वमौहूर्तिकः,गुरुलाघवम् , पारार्थ्यम् , आत्मसिद्धिवादिनामिदं वचनम् / संहतपारार्थ्यमिति ? निपातनादिबलात् सिद्धम् , अत्र संहते पारार्थ्य संहतपारार्थ्यमिति वाक्यम् / 6 अतो नार्थ उत्तरपदवृद्धिविधानेन // 13 / / परस्मै इदं परार्थम् , तस्य भावः पारार्थ्यम् , प___ अव०-'नात्र देविकाशिंशपा'० (7 / 4 / 3) इत्यत | श्चात् संहते पारायं संहतपारार्थ्यमित्यपिसिद्धिः / आकारोऽनुवर्तते, नापि 'वहीनरस्यैत्' (74 / 4) इति कारणात् उत्तर(पद)वृद्धयर्थे विधानेन नवीन' इत्यत ऐकारोऽनुवर्तते, ऐदौद्भ्यां बाधात् ; नाप्यै- सूत्रेण, कोऽथेः ? किं प्रयोजनम् ? किं फलमित्यर्थः। दौतौ , यवोरत्रासम्भवेन तत्सम्बन्धयोस्तयो // 13 // रपि निवृत्तेः , इति कारणात् वृद्धिरत्रानुवर्तते अंशाहतोः // 74 / 14 // Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 4 सू० 15-18 म० वृक्ष-अंशवाचिनः शब्दात्परस्य ऋतुवा प्राग्ग्रामाणाम् / / 7 / 4 / 17 // चिन उत्तरपदस्यादिस्वरस्य स्थाने पिति ‘वृद्धिः' म० वृ०-१प्राग्देशग्रामवाचिनां योऽवयवो स्यात् / 'पूर्ववार्षिकः, अपरवार्षिकः / एवं पूर्व दिगवाची ततः परस्यावयवस्य दिशः परेषां च प्रानैदाघ इत्यादि // 14 // ग्ग्रामवाचिशब्दानामादिस्वरस्य 'वृद्धिः' स्यात णिअव०-१पूर्वा चासौ वर्षा च-पूर्ववर्षा, पूर्व ति / पूर्वेषुकामशमः, अपरेषुकामशमः / बहुवचनाद् वर्षासु भवः पूर्ववार्षिकः, 'वर्षाकालेभ्यः' (6 / 3 / 79) ग्रामग्रहणेन नगरमपि गृह्यते,- पूर्वकान्यकुब्जः, इतीकण् / एवमपरवार्षिकः, पूर्वशारदः, अपर- | पूर्वपाटलिपुत्रकः / प्राग्ग्रहणं किम् ? पौर्वदेवशारदः ; पूर्वनैदाघः, अपरनैदाघः ; पूर्व हैमनः / पू. दत्तः // 17 // भागान्तरं........। पूर्व निदाघस्य, 'पूर्वापराधर0' अव०-'प्राग्ग्रामाणामिति सूत्रस्य सूत्रार्थाक्षरव्या-. (3 / 1 / 52) इत्यादिनांऽशिसमासः // 14 // ख्यानं द्विखण्डशः कृत्वा कर्त्तव्यं ज्ञातव्यम् / प्राग्देसुसर्वा'द्राष्ट्रस्य / / 7 / 4 / 15 // शग्रामवाचिनामित्याद्यारभ्य परस्यावयवस्य इत्यन्तं म० वृ०-सु-सर्वा-ऽद्धेभ्यः परस्य राष्ट्रवाचिन प्रथमं व्याख्यानम् / दिशः परेषामित्याद्यारभ्य च उत्तरपदस्यादिस्वरस्य णिति 'वृद्धिः' स्यात् / वृद्धिः स्यादित्यन्तं द्वितीयं व्याख्यानं ज्ञातव्यम् / 'सुपाश्चालकः , सर्वपाञ्चालकः , अर्द्धपाश्चालकः , प्रथमव्याख्यानापेक्षया पूर्वकार्णमृत्तिकः, अपरकासुमागधकः, सर्वमागधकः, अर्द्धमागधकः // 15 // र्णमृत्तिकः, पूर्वेषुकामशमः,अपरेषुकामशमः इत्युदा हरणचतुष्टयं ज्ञातव्यम् / यतः पूर्वकृष्णमृत्तिकादीनि अब०-१शोभनाः पश्चालाः सुपश्चालाः, सुप- अखण्डानि प्राग्देशग्रामनामानि / अत्रोदाहरणञ्चालेषु भव =सुपाञ्चालकः, 'बहुविषयेभ्यः' ( 6 / 3 / चतुष्ये 'कोपान्त्याच्चाण' (633.56 इंति) भवे वाऽण् / 45) इति अकब / एवं सर्वपाचालकः. अर्द्धपाश्चा- द्वितीयव्याख्याने तु पूर्वकान्यकुब्जः, पूर्वपालि. लकः समागधक इत्यादीनां वाक्यप्रत्ययाः कर्त्तव्याः / पुत्रकः, अपरपाटलिपुत्रकः इत्युदाहरणत्रयम / 'भवे' २अर्ध पञ्चालानाम , अर्द्धपश्चालेषु भवः अर्धपाञ्चा (6 / 3 / 123) अण, अगन्ताच स्वार्थे कः / [संज्ञा लकः // 15 // दुर्वा' (6 / 1 / 6 इत्यनेन] दुसंज्ञायां तु 'रोपान्त्याअमद्रस्य दिशः // 7 / 4 / 16 / / न' ( 6 / 3 / 42 इत्यकञ् / पूर्वकृष्णमृत्तिका नाम प्राक्षु ग्रामः, पूर्वा चासौ कृष्णमृत्तिका च, तत्र भवः= म० वृ०-दिग्वाचिशब्दात्परस्य मद्रवर्जितस्य पूर्वकाष्र्णमृत्तिकः / पूर्वेपुकामशमी नाम प्राग्ग्रामः, राष्ट्रवाचिशब्दस्यादिस्वरस्य णिति 'वृद्धिः' स्यात् / पूर्वा चासाविषुकामशमी च , तत्र भव:'पवेपाञ्चालकः,दक्षिणपाञ्चालकः, उत्तरपाञ्चालकः / पूर्वेषुकामशमः / पूर्वस्मिन कन्यकुब्जे भवः / एवं अमद्रस्येति किम ? २पौर्वमद्रः / दिश इति किम् ? पर्वपाटलिपुत्रकः / देवदत्त इति नाम बाहीकग्रामः,पूर्व उपौर्वपञ्चालकः // 16 // स्मिन् देवदत्ते भवः पौर्व देवदत्तः / (एवम् ) आपर___ अव०-१पूर्वेषु पञ्चालेषु भवः, 'बहुविषयेभ्यः' देवदत्तः // 17 // ( 6 / 3 / 45) इत्यकञ् , 'दिगधिकं संज्ञातद्धित०' (3 / सङ्ख्याधिकाभ्यां वर्षस्याभाविनि // 7 / 4 / 18 / / 198) इति समासः / एवं दक्षिणपाञ्चालका- म. वृ०-सङ्ख्यावाचिशब्दादधिकशब्दाच्च परदिषु / 'मद्राद' (6 / 3 / 24) / पूर्वे पञ्चालानां= स्य वर्षशब्दस्यादिस्वरस्य वृद्धिणिति स्याच्चेत् स पूर्वपञ्चाला इत्यंशिसमासः, पूर्वपञ्चालेषुः भवः= णित् तद्धितो भावि इत्यर्थे विहितो न भवति / पौर्वपञ्चालकः,'बहुविषयेभ्यः' अकञ् // 16 // | द्विवार्षिकः, २त्रिवार्षिकः, अधिकवार्षिकः / अभा Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्धिविधानम् / मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 517 - - विनीति किम् ? "द्वैवर्षिकम् , त्रैवर्षिकं धान्यम् // 18 // | क्रीतं द्विसोवर्णिकम् , एवं त्रिसौवर्णिकम् , अधिक सौवर्णिकम् / द्वाभ्यां षष्टिभ्यां निवृत्तः द्वाभ्यां अव०-१द्वाभ्यां वर्षाभ्यां निवृत्तो-द्विवार्षिकः, षष्टिभ्यां भृतोऽधीष्टो वा अथवा द्वे षष्टी भूतो भावी 'निर्वृत्ते' (6 / 4 / 105) इति सूत्रेण इकण , अथवा वा द्विषाष्टिकः / अधिकया षष्ट्या निवृत्तः अधिद्वाभ्यां वर्षाभ्यां भृतोऽधीष्टो वा-द्विवार्षिकः, 'तस्मै कायै षष्य भृतोऽधीष्टो वा / एवं सर्वत्राग्रेऽपि भृताधीले च' (६।४।१०७)इकण , यद्वा द्वे वर्षे भूतो= वाक्यानि / द्विषष्ट्यादिशब्दाः संख्येये काले वर्तन्त द्विवार्षिकः, 'तं भाविभूते (6 / 4:106) इतीकण / एवं इति कालाधिकारविहितं प्रत्ययमुत्पादयन्ति। तथाहित्रिवार्षिकः, अधिकवार्षिकः एतयोरपि वाक्यादिकं द्वे पष्टी द्वे सप्तती ग दिनानां मासानामर्द्धमासर्व ज्ञेयम् / द्वे वर्षे भावि इति वाक्यम् / द्वाभ्यां सानामिति कालवर्त्तित्वं ज्ञेयम् / 'कालात्परिजय्य०' वर्षाभ्यां भतोऽधीष्ठो वा कर्म करिष्यति- द्विवा (6 / 4 / 104) इत्यस्मिन् कालाधिकारे विहितम् र्षिको मनुष्यः, कथमत्र वृद्धिः ? आह- भृताधीष्ठयोः 'निवृत्ते' (6 / 4 / 105) इत्यादिसूत्रैरिकणरूपं प्रत्ययप्रत्ययः, न भाविन्यर्थे, इति वृद्धिनिषेधो न भवति, मुत्पादयन्तीत्यर्थः / 'द्वाभ्यां नवतिभ्यां क्रीतम्= गम्यते हि अत्र भविष्यत्ता, न तु प्रत्ययार्थः, भृता द्विनावतिकम् , 'मूल्यैः क्रीते'(६।४।१५०) इतीकण , धीष्टार्थे प्रत्ययोत्पत्तावपि किं करिष्यतीति सम्बन्धात तत्र 'अनाम्न्यद्विः'० (6 / 4 / 141) इति सूत्रेण इकण यद्यपि भविष्यत्ताऽवगम्यते,तथाप्यभाविनीति प्रत्य लुप्यते,द्विनवति द्रव्यम् ,तेन द्विनवतिद्रव्येण क्रीयविशेषणत्वात प्रत्ययवाच्ये एव भाविन्यर्थे प्रति तम् ; अथवा द्वौ च नवतिश्च द्विनवती,ताभ्यां क्रीतम् ; पेधो भवति, न गम्यमानेऽर्थे इति परमार्थः / / 18 / / द्वाभ्यामधिका नवतिः (द्विनवतिः)तया वा क्रीतं द्विनामानसंवत्सरस्याशाणकुलिजस्यानाम्नि वतिकम् / एवं त्रिनावतिकम् / द्वाभ्यां संवत्सरा॥७४।१९॥ भ्यां भृतोऽधीष्टो वा यद्वा द्वौ संवत्सरौ भूतो भावी वा द्विसांवत्सरिकः, रात्र्यहःसंवत्सर'० (6 / 4 / 110) म. वृ०-मीयते परिच्छिद्यते येन तन्मानं इत्यनेन वा ईनः, पक्षे 'निवृत्ते' (6 / 4 / 105) इत्यापरिमाणादि] सङ्ख्याया अधिकाच्च परस्य शाणकुलि दिनाऽत्र इकण भवति / (एवम् ) त्रिसांवत्सरिकः / . 'जशब्दवजितस्य मानवाचिनः शब्दस्य संवत्सरशब्द मीयते इति व्युत्पत्त्या मानग्रहणेन कालस्यापि ग्रह स्य चादिस्वरस्य णिति 'वृद्धिः' स्यादनाम्नि असं इति प्राप्तिरस्ति अत उक्तम्-संवत्सरग्रहणेति / द्वाज्ञायाम् / सङ्ख्याधिकाभ्यां सह मानसंवत्सरस्य न भ्यां समाभ्यां निर्वृत्तः इत्यादिपूर्ववद्वाक्यानि / यथासंख्यं वचनभेदात् / 'द्रिकौडविकः, अधिकको. तथा द्वयो रात्र्योः समाहारो द्विरात्रः, द्विरात्रेण डविकः,२द्विसौवर्णिकम् , अधिकसौवर्णिकम् / तथा निवृत्त इत्यादिवाक्यानि ; अथवा द्वयो रात्र्योर्भवो उद्विषाष्टिकः, अधिकषाष्टिकः ; द्विसाप्ततिकः, तथा द्विरात्रः, सङ्ख्यातैकपुण्य०' (7 / 3 / 119) इति अत् / ५द्विनावतिकम : अथ संवत्सर, द्विसांवत्सरिकः / १°तद्धितान्तमिदं परिमाणविशेषस्य नाम / कलायो संवत्सरग्रहणात्कालो मानशब्देन न गृह्यते,तेन द्वैस मालवप्रसिद्धो धान्यभेदः,तत्कणानां पञ्चानां यावत्परिमिकः, (द्वैरात्रिकः) त्रैरात्रिकः / अशाणकुलिजस्येति माणं भवति तन्मात्रस्य परिमाणविशेषस्येदं (कलाया किम् ? वैशाणम् , द्वैकुलिजिकः / अनाम्नीति किम् ? इति) नाम, अत एव 'अनाम्न्य'० (6 / 4 / 141) इति पाश्चलोहितिकम् , १०पाञ्चकलायिकम् / / 19 / / न लुप , पाञ्चलोहितिकम् पाञ्चकलायिकमिति पूर्वेअव०-द्वौ कुडवौ प्रयोजनमस्य=द्विकौड पादेषु साधितमस्ति // 19 // विकः, एवं त्रिकौडविकः, अधिककौडविकः : 'प्रयोः | अद्धोत्परिमाणस्यानतो वा त्वादेः 7420 / जनम्' (6 / 4 / 117) इतीकण / द्वाभ्यां सुवर्णाभ्यां | म० वृo-अर्द्धशब्दात्परस्य परिमाणवाचिनः Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 518 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 4 सू० 21-23 'कुडवादेर्णिति आदिस्वरस्य अनतोऽकाररहितस्य / भ्योऽनः' (5 / 1152), 'णेळ' (2 / 3 / 88) इति ण'वृद्धिः' स्यात् , वा त्वादे: परिमाणात्पूर्वस्य आदे- त्वम् , ततः प्रवाहणस्यापत्यं प्रवाहणेयः, 'शुभ्रादिस्तु अर्द्धशब्दस्य वृद्धिर्वा भवति / २अर्द्धकौडविकम् , भ्यः' (6 / 1 / 73 ) इति एयण / तथेति कोऽर्थः ? आर्द्धकौडविकम् ; अर्द्धद्रौणिकम् , आर्द्धद्रौणिकम् / पूर्वोक्तसूत्रयुक्तिवत् ,अत्रापि उत्तरपदवृद्धः पूर्वोक्तमेव अनत इति किम् ? अर्द्धप्रस्थिकम् , आर्द्धप्रस्थिकम् , प्रयोजनम् ,तेन प्रवाहणेयी भार्या यस्य स प्रवाहणेयी. अर्द्धकंसिकम् , आर्द्धकंसिकम् ; उअर्द्धचमसिकम् , भार्यः , अत्रापि पुंवद्भावप्रतिषेधो भवति / / 21 / / आर्द्धचमसिकम् / आदिविकल्प उत्तरवृद्धयनपेक्ष इति एयस्य // 7 / 4 / 22 // वृद्धिविकल्पो भवत्येव / तथा अकारस्य वृद्धिनिषेधादाकारस्य वृद्धिर्भवत्येव- अर्द्धखारीभार्यः , यद्यत्र म० वृ०-प्रात्परस्य एयप्रत्ययान्तस्य वाहणवृद्धिनिषेधः स्यात् (तर्हि) अयं तद्धितो न वृद्धिहेतु शब्दस्य वृद्धिर्णिति' स्यात् , प्रशब्दस्य तु वृद्धिर्वा / रिति पुंवद्भावप्रतिषेधो न स्यात् , यथा अर्धप्रस्थ. प्रवाहणेयिः, प्रावाहणेयिः प्रवाहणेयकम् , प्रावा. ' भार्य इति // 20 // हणेयकम्। बाह्यतद्धितनिमित्ता वृद्धिः ४एयाश्रयेण विकल्पेनाऽशक्या बाधितुमिति सूत्रारम्भः / / 22 / / अव०-'शब्दरूपस्य / अर्धकुडवेन क्रीतम् / उचमसः पात्रविशेषः / 'अर्धखारीभार्यः' इत्यत्र अव०-पूर्वेणादिविमुक्तः पक्षोऽस्य सूत्रस्य वि. पूर्वमर्धखार्या भवा=अर्धखारी, 'भवे' (6 / 3 / 123 ) षयः(?)। 'प्रवाहणेय इति शब्द एयणप्रत्ययान्तः प्रकृअण् , 'अवर्णेवर्णस्य' (74 / 68) इति ईलोपः, आ तिः, प्रवाहणेयस्यापत्यं युवा प्रवाहणेयिः, प्रावाहकारस्यापि वृद्धयाकारः, ततः 'अणबेये०' (2 / 4 / 20) णेयिः ; 'अत इञ् (६।१।३१),अत्र 'अब्राह्मणात्' (6 इति ङी, पुनः अर्धवारी इति शब्दः सञ्जातः / अत्र 1 / 141) इत्यनेन इञो न लोपः,ब्राह्मणत्वात् / तथा पराह, कः पुनरत्र विशेष:- सत्यामसत्यां वा वृद्धौ? २प्रवाहणेयस्येदं सवादि-प्रवाहणेयकम् , प्रावाउच्यते, अर्धखारी भार्या यस्य सोऽर्धवारीभार्य हणेयकम् ; 'गोत्राददण्डमाणव०' (6 / 3 / 169) इत्यइति, यद्यत्र वृद्धिनिषेधः स्यात् (तर्हि) अयं तद्धितो नेन अकञ् ; अथवा प्रवाहणेयस्य भावः प्रवाहणेयन वृद्धिहेतुरिति पुवद्भावप्रतिषेधो न स्यात् , यथा कम् ,प्रावाहणेयकम् : योपान्त्याद् गुरूपोत्तमा०' (7 / 1 / अर्धप्रस्थे भवा (अर्धप्रस्थी), अर्धप्रस्थी भाषा 72) इति अकञ् / बाह्यस्तद्धित एयव्यतिरिक्तः, अस्य सोऽर्धप्रस्थभार्यः , अत्रानत इति भणनानो. तन्निमित्ता वृद्धिः स्वरेष्वादेः०'(१४।१) इति नित्यं त्तरपदवृद्धिः, पूर्वपदस्यापि 'वा त्वादे'रिति भणनान्न विहिता। एयाश्रयेण विकल्पेन कोऽर्थः? 'प्राद्वाहण भवति, ततस्तद्धितस्य स्वरवृद्धि हेतुत्वाभावान्न पुव स्यैये' (7 / 4 / 21) इति पूर्वोक्तसूत्रेण विहितेन / / 22 / / निषेधः,अत्रापि वृद्धिपक्षे पुवन्निषेधो भवत्येव,यथा नत्रः क्षेत्रज्ञेश्वर-कुशल-चपल-निपुणआर्धप्रस्थीभार्यः इति // 20 // शुचेः // 7 / 4 / 23 // प्राद् वाहणस्यैये // 7 / 4 / 21 // म० वृ०-ननः परेषां क्षेत्रज्ञेश्वरादीनामादिम० वृ०-वा त्वादेरिति वर्त्तते / प्रात् परस्य स्वरस्य णिति 'वृद्धिः' स्यात् , आदेस्तु नबो 'वृवाहण इति शब्दस्य एये णिति 'वृद्धिः' स्यात् , द्धिर्वा' भवति / 'अक्षैत्रज्ञम् , आक्षेत्रज्ञम् ; अक्षैत्रश्यआदेः पूर्वस्य तु प्रशब्दस्य वा वृद्धिः / 'प्रवाहणेयः, म् , २आक्षेत्रज्ञ्यम , अनैश्वरम् , आनैश्वरम् ; प्रावाहणेयः / २तथा प्रवाहणेयीभार्य इति पूर्ववत् अनैश्वर्यम् , आनैश्वर्यम् ; [अकुशलस्येदम्] अकौ॥२१॥ शलम् , आकौशलम् ; अचापलम् , आचापलम् ; अनैप्रव०-'प्रवाहयतीति प्रवाहणः, 'नन्द्यादि- | पुणम् ; आनैपुणम् ; २अशौचम् , आशौचम् / / 23 / / Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूवोत्तरपदादिस्वरवृद्धिविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [519 .. अव०-१अक्षेत्रश्यम् , आक्षेत्रक्ष्यमित्यादिषु | शब्दः तत्र 'हृदयस्य हृल्लासलेखाण्ये' (3 / 2 / 94) ट्यण प्रत्ययो 'नक्तत्पुरुषा०' (7 / 1157 ) इत्यनेन / इति सूत्रेण हृदयशब्दस्य हृद् इत्यादेशः, सौहार्दन बाध्यते,ज्ञेत्रज्ञेश्वरयोर्बुधादिपाठात् / २न शुचिर- मिति सिद्धम् , एवं दौहार्दम् (दौर्दिम् ?]; उदाहशुचिः, अशुचेरिदम् अशौचम् , अथवा न विद्यते / रणद्वये विशेषोऽयम्,- सुदुरपूर्वकं हृदय इति शब्द शुचिरस्यासी अशुचिः, अशुचेर्भाव. कर्म वा अशी- | धृत्वा शोभनं दुष्टं वा हृदयं यस्य इति बहुव्रीहौ चम् , 'यवृवर्णाल्लवादेः' (7 / 1 / 69) इत्यण / / 23 / / / 'सुहृद्-दुहृन्मित्रामित्रे' (7 / 3 / 157 ) इति सूत्रेण जङ्गल-धेनु-बलजस्योत्तरपदस्य तु वा हृदयशब्दस्य हृत् इत्यादेशो न कर्त्तव्यः, मित्रामि॥७।४।२४॥ त्रार्थाभावान्। सौहार्यम् दौहार्यम् ' [दौहार्यम् ?] इति प्रयोगद्वये तु सुहृद् दुहृद् इत्येव शब्दस्थितिः, म० वृ०-आदेरित्यनुवर्त्तते / वेति तु निवृत्तम , सुहदो भावः कर्म वा सोहार्यम, 'पतिराजान्तउत्तरपदस्य वेत्यकरणात् / जङ्गल धेनु वलज इत्ये गुणाङ्गराजादिभ्यः'० (71660) इत्यनेन ट्यण, तदुत्तरपदानां शब्दानामादेः पूर्वपदस्य स्वरेष्वादेः उभयशब्दस्यापि वृद्धिः, सौहार्यम् , एवं दौहार्य स्वरस्य ठिणति नित्यं वृद्धिः स्यात् , जङ्गलाद्युत्तरप (दौहार्यम?)मित्यपि / यद्यत्र हृदय इति शब्दः कल्प्यते दानां पुनर्वा वृद्धिः / [जङ्गलो निर्जलप्रदेशः / कुरुषुम् तदासौ हृदय्यमित्येव भवति, 'हृदयस्य हुल्लास.' जङ्गलाः-कुरुजङ्गलाः,कुरुजङ्गलेषुभवः=] कौरुजङ्गलः, इत्यनेन हि यप्रत्ययेऽण्प्रत्यये च हृदयस्य हृद् कौरुजाङ्गल: ; [विश्वधेनोरिदमथवा विश्वधेनोरपत्यं आदेशो विहितोऽस्ति, न ट्यणि / 'सक्तुप्रधानाः विश्वधेनोरागतं वा, 'उत्सादेरञ्' (६।१।१९)]वैश्व सिन्धवः सक्तुसिन्धवः,सक्तुसिन्धुषु भवः साक्तुधेनवः, वैश्वधैनवः ; [सुवर्णस्य वलजं द्वारं क्षेत्रं वा, / सैन्धवः / एवं पानसैन्धवः, 'लावणसैन्धवः / तथा तत्र भवः] सौवर्णवलजः, सौवर्णवालजः // 24 // "महान्तश्च ते सिन्धवश्च / सुराणां सिन्धवः सुर... हृद्-भग-सिन्धोः // 7 / 4 / 25 // सिन्धवः / सर्वत्र 'कोपान्त्याचाण' (6 / 3 / 56) इति म०१०-आदेरुत्तरपदस्येति च द्वयमनुवर्त्तते / सूत्रेणाण // 25 // हृद् भग सिन्धु इत्येवमन्तानामादेः पूर्वपदस्योत्तर प्राचां नगरस्य // 7 / 4 / 26 / / पदस्य चादिस्वरस्य णिति'वृद्धिः'स्यात्। 'सौहार्दम् , म०७०-प्राचां देशे वर्तमानस्य नगरान्तस्य शब्दस्यादेः दौहार्दम् दौर्हार्दम् ?]; सौहार्यम् , "दौहार्यम् पूर्वपदस्योत्तरपदस्य(च)आदिस्वरस्य णिति 'वृद्धिः' [दौहार्यम?]। बहुलाधिकारामित्रामित्रार्थयोः सुहृद् स्यात् / पौण्डनागरः, वैराटनागरः, गैरिनागरः / 26 / दुईच्छब्दयोः सौहृदम , दौह दमित्यपि भवति अव०-'पुण्डाः पुरुषविशेषास्तेषां नगरम् ,तत्र भवः= ['इसुसोर्बहुलम् ' (7 / 2 / 128) इत्यतो बहुलाधिकारा पौण्डनागरः, 'भवे'(६।३।१२३) / एवमग्रेऽपि // 26 / / नुवर्तनात् 'युवादेरण '(7 / 167) इत्येव भवति, नात्रोत्तरपदवृद्धि: / सौभाग्यम् , दौर्भाग्यम् ; सौभा. अनुशतिकादीनाम् // 7 / 4 / 27 // गिनेयः, साक्तुसैन्धवः, 'लावणसैन्धवः, "माहा म० वृ०-अनुशतिक इत्यादिशब्दानां पूर्वोसैन्धवः, सौरसैन्धवः // 25 // त्तरपदयोरादिस्वरस्य वृद्धिर्णिति'स्यात् / अनुशति कस्येदमानुशातिकम् ,[अनुशतिकस्यापत्यम् ,'अत इम्' प्रव०-१सौहार्दम् दौहार्दम् [दौर्दिम् ?]इति, आद्यो-। (6 / 1 / 31)] आनुशातिकिः, राजपौरुष्यम् , 'पारिदाहरणे सुहृद् अथवा सुहृदयशब्दः,सुहृद इदं सुहृद- | माण्डल्यम् , प्रातिभाव्यम् , उसार्ववैद्यम् // 27 // यस्य वा इदम् , 'तस्येदम् ' (6 / 3 / 160) इत्यण, अथवा सुहृदः सुहृदयस्य वा भावः कर्म चा सौहार्दम् , अव०-अनुशतिक, अनुहोड, अनुसंवत्सर, अत्र 'युवादेरण' (7 / 167) इत्यण , यत्र हृदय- | अनुसंवरण, अनुरहत् ,अगारवेणु, असिहत्या, अस्य Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 520 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 4 सू० 28-30 हत्या, अस्याहेति, अस्यहेतु, अनिषाद, अधेनु, | आतो नेन्द्र-वरुणस्य // 7 / 4 / 29 // कुरुकत, कुरुपश्चाल, अधिदेव, अधिभूत, इहलोक, म० वृ०-आकारान्तात्पूर्वपदात्परस्य इन्द्रशब्दपरलोक, सर्वलोक, सर्वपुरुष, सर्वभूमि, वध्योग, स्य वरुणशब्दस्य चोत्तरपदस्यादिस्वरस्य वृद्धिप्रयोग, अभिगम, परस्त्री, पुष्करसद्, उदकशुद्ध, न' भवति / 'आग्नेन्द्र सूक्तम ,ऐन्द्रावरुणम / ननु सूत्रनड, चतुर्विद्या, शातकुम्भ, सुखशयन इति इन्द्रशब्दस्य द्वौ स्वरौ, तत्राद्यः सन्धिकार्येण ह्रियते, अनुशतिकादिगणः। बहुवचनमाकृतिगणार्थम् / तेन अपरश्च 'अवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68) इति, अतोऽस्वर राजपौरुष्यादयष्ट्यणन्ता अत्र गणे पठ्यन्ते,-राज एवेन्द्रशब्दः, तस्य किं वृद्धिप्रतिषेधेन ? सत्यम् , पौरुष्यम् , पारिमाण्डल्यम , प्रातिभाव्यम् , सार्व किन्तु अनेनैतत् ज्ञाप्यते-बहिरङ्गमपि 'पूर्व पूर्वोत्तरवैद्यम् ; प्रत्ययान्तरे तु आदेरेव वृद्धिः,यथा-राजपुरु पदयोः कार्य भवति पश्चात् सन्धिकार्यम्" / तेन षस्यापत्यं राजपुरुषायणिः , अत्र 'अवृद्धाहोर्नवा' पूर्वेषुकामशम इत्यादि सिद्धम् / इति वृद्धयधिकारः (6 / 1 / 110) इति आयनि / 'पारिमाण्डल्यमिति सम्पूर्णः // 29 // परिमण्डलमणूनां परिमाणम् , तद्योगात्परमाणवोऽपि परिमण्डलास्तेषां भावः पारिमाण्डल्यम् / प्रव०-'अग्निश्च इन्द्रश्च, तौ देवताऽस्य, प्रतिभुवो भावः कर्म वा, ट्यण ,नत उभयपदवृद्धिः, | 'वेदसह०'(३।२।४१) इति आत्वम् / इन्द्रश्च वरुणश्च, 'ययक्ये' (1 / 2 / 25) इत्यावादेशः / सर्ववेद सर्व- तौ देवता अस्य ऐन्द्रवरुणम् / एवं मैत्रावरुणम् / विद्या वा शब्द:, भेषजादिभ्यः' (7 / 2 / 164) ट्यण, 3बहिरङ्गकार्य पूर्व भवति पर्वोत्तरपदयोः कार्ये 'अवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68), 'व्यञ्जनात्पञ्चमान्तस्था'. कर्त्तव्ये,पश्चात् अन्तरङ्ग सन्धिकार्य भवतीत्यर्थः।२९। (1 / 3 / 47) एकयकारलोपः // 27 // सारवेक्ष्वाक-मैत्रेय-भ्रौणहत्य-वैवत्व-हिरण्मयम् देवतानामात्वादौ // 7 / 4 / 28 // म०वृ०-देवतार्थानां शब्दानामात्वादी आका // 74 / 30 // . राद्यन्तादेशविषये पूर्वोत्तरपदयोरादिस्वरस्य णिति म. वृ०-सारवादयोऽणाद्यताः कृतायलोपा'वृद्धिः' स्यात् / 'आग्नावैष्णवं सूक्तम् , २आग्नि- दयो निपात्यन्ते / 'सारवमुदकम , / २ऐक्ष्वाकः, मारुतं कर्म / आत्धादाविति किम् ? [ स्कन्दविशा उमैत्रेयः, भ्रौणहत्यम् , . "धैवत्यम् , हिरण्मखयोरिदं=]स्कान्दविशाखम् , ब्राह्मप्रजापत्यम् / 28 / यम् // 30 // . _ अव०-'अग्निश्च विष्णुश्च देवता अस्य सूक्त अव०-'सरयूशब्दः, सरय्या नद्यां भवं सारस्येति आग्नावैष्णवम् , 'देवता' (6 / 2 / 101) इति वम् , 'भवे' (6 / 3 / 123) अण् , निपातनात् अय् सूत्रेण अण् , 'वेदसहश्रुतावायु'० (3 / 2 / 41) इति इति लुप्यते, 'अस्वयंभुवोऽव्' (74 / 70) / 2 इक्ष्वाकु, सूत्रेण पूर्वपदस्य अग्नि इत्यस्य आकार अन्तादेशः, इक्ष्वाकोरपत्यम् ऐक्ष्वाकः, 'राष्ट्रक्षत्रिया'० (6 / 1 / अयमात्वादी इत्युच्यते / एवमग्निश्च मरुच्च देवता 114) इत्यादिना अच् , अथवा इक्ष्वाकोरिदम = ऽस्य कर्मणः, 'इर्वृद्धिमत्यविष्णौ' (3 / 43) इत्य ऐक्ष्वाकम् , 'कोपान्त्या'० (6 / 3 / 56) इत्यण , निपानेन इकारोऽन्तादेशः। एवमाग्निवारुणीमनड्वाही तनात् उकारलोपः। मित्रयु, मित्रयोरपत्यं मैत्रेयः, मालभेत / एवम् ( आग्नि ) सौमं कर्म इत्यपि / / 'गृष्ट्यादेः' (631184) इत्यनेन एयब् , निपातनात् 3'आत्वादौ', आत्वम्-आकारादेशत्वमादिर्यत्र, आदि- | यु इति लुप्यते / भ्रूणपूर्वो हन् ,भ्रणं हतवान्= शब्दात ईत्वमित्वं च ज्ञेयम् / वेदसहश्रुतावायुदेवता- | भ्रूणहा, 'बह्मभ्र णवृत्रा'० (5 / 1 / 161) इति क्विप् , नाम्' (3 / 2 / 41) इत्यारभ्य 'उषासोषः' (32 / 46) | भ्र णध्नो भावः कर्म वा, ट्यण् / ५'ध्ये चिन्तायाम्' इति यावत् आत्वादयो विज्ञेयाः // 28 // | ध्यायतीति धीवा, 'मन्वनकनिप्'० (5 / 1 / 147) इति Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विन्मतोमष्ठेयसुषु लुब्विधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम / [521 कनिप् , 'यजादिवचे' (4 / 1 / 79) इति य्वृत् इः, | लुप्यते, अन्तम इति सिद्धम्। अन्तम इति उदाहरणे 'दीर्घमवोऽन्त्यम्' (4 / 1 / 103) इत्यनेन दीघः,धीवन तिकलोपे कृते अन् इति अत्र 'नोऽप्रशानोऽनुस्वारा०' इति शब्दः, धीनो भावः कर्म वा, ट्यण , निपात- (1 / 3 / 8) इत्यनेन सकाराभावश्च निपात्यते / २अयनात् उभयत्रापि नकारस्य तकारः / 'हिरण्यस्य मेषामतिशयेन अन्तिकः अन्तितमः, तमप , निपाविकारः, 'अभक्ष्याच्छादने वा मयट्' (6 / 2 / 46), | तनात् ककार एव लुप्यते, अन्तितम इति सिद्धम् , निपातनात् यकारलोपः, 'हिरण्मयम्' इति सिद्धम् / पक्षे अन्तिकतमः / अन्तिकशब्दः, अन्तिकादाग'सारवैश्वाकमैत्रेय'० इति सूत्रे विशेषोऽयम् ,-ननु च्छति इति वाक्ये 'अहीयरुहो०' ( 7 / 2 / 88) इति मित्रयुशब्दो बिदादिगणे किं न पठ्यते ? तथा च तस् , निपातनात् ककार एव लुप्यते, अन्तित आग'केकयमित्रयु'० (7 / 4 / 2) इति सूत्रेण इयादेशेनैव / च्छति सिद्धम् / अन्तिक,अन्तिके साधुः अन्तियः, मैत्रेय इति सिद्धयति, किमर्थ मैत्रेय इति निपातः ? | 'तत्र साधौ' ( 71 / 15 ) यप्रत्ययः, निपातनात् को तथा यस्कादिषु मित्रयुशब्दो लुबर्थ पठितव्यो न | लुप्यते / “भवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68) / अन्तिक, षद् भवति, मित्रयोरपत्यानि, 'गृष्टयादेः' (6 / 1184) इति | धातुः, अन्तिके सीदति, किप् , निपातनात् कलोपः, यब् , 'यस्कादेोत्रे' (6 / 1 / 125) इति सूत्रेण यञ् सस्य षत्वं च // 31 // लुप्यते इति प्रक्रिया परिहता भवति, याबो० (6 / 1 / 126) इत्यादिनैव सिद्धत्वात् ,'विदादेवृद्ध' (6 / 1 / विन्मतोर्णीष्ठेयसौ लुप् // 7 / 4 / 32 // 41) इति कृताब्लोपस्य इति भावः, अथ सूरिराह- म० वृ०-विन्मतुप्रत्यययोणि इष्ठ ईयसु इति युक्तमुक्तम् , अनि सति मित्रप्रूणां सो मैत्रेयक- | प्रत्ययेषु परेषु 'लुप्' स्यात् / 'सजयति, स्रजिष्ठः, मित्यत्र 'गोत्राददण्ड'० (6 / 3 / 169) इति कृतमक उसजीयान् / मतु, त्वचयति, त्वचिष्ठः, त्वचीबाधित्वा 'सङ्घघोषाङ्क'० (6 / 3 / 172) इत्यनेनाण यान ,[कुमुदान्यत्र सन्ति, नडकुमुद '6 / 2 / 74) इति स्यादिति बिदादिगणे न पठ्यते // 30 // चातुरर्थिको मतुः, स चडित् ,कुमुदन्तमाचष्टे,णिच्] वाऽन्तमा-ऽन्तितमा-ऽन्तितो-ऽन्तिया-ऽन्तिषद् कुमुदयति, कुमुदिष्ठः, कुमुदीयान् / अत एव वच नादगुणाङ्गादपीष्ठेयसू // 32 // // 7 / 4 / 31 // म० वृ०-अन्तमादयस्तमबादिप्रत्ययान्ताः कृत ___अव०-णि इत्युक्ते णिच्-णिग्प्रत्ययौ ग्राह्यौ / तिकादिलोपादयो वा निपात्याः / अन्तमः, पक्षे 'स्रग् अस्यास्तीति स्रग्वी, 'अस्तपोमा०' (72 / 47) अन्तिकतमः; २अन्तितमः, अन्तिकतमः; अन्तितः, इति विन्प्रत्ययः, स्रग्विणमाचष्टे, 'णिज् बहुलं नाआयाति अन्तिकत आयाति ; अन्तियः, अन्तिक्यः ; म्नः०' / 3 / 4 / 42) इत्यनेन णिच्प्रत्ययः , ततो अन्तिषद्, पक्षे अन्तिकसद् // 31 / / 'विन्मतो'-रित्यादिना विन्प्रत्ययो लुप्यते, पुनः स्रज् इति शब्दः, तिव, शव , गुणः / २अयमेषां प्रव०-अन्तति बध्नाति समीपत्वमिति अन्ति- स्रग्विणां मध्येऽतिशयेन स्रग्वी [ स्रजिष्ठः, उभयकः, 'कुशिकहदिकमक्षिकेतिकपिपीलिकादयः' (उ० मनयोः स्रग्विणोर्मध्येऽतिशयेन स्रग्वी] स्रजीयान् , 45) इकप्रत्ययः, अथवा अन्तोऽस्यास्तीति अन्तिकः, 'गुणाङ्गाद्वेष्ठेयसू' (73 / 9) इत्यनेन इष्ठेयसु'अतोऽनेकस्वरात्' (7 / 2 / 6 ) इत्यनेन इकप्रत्ययः / प्रत्ययौ कार्यो / एवमग्रेऽपि सर्वत्र णीष्ठेयसूनां वाअन्तमः, अन्तिमतमः, अन्तितः, अन्तियः, अन्तिषद् क्यानि कार्याणि प्रत्ययाश्च कार्याः / त्वच विद्यतेइति प्रयोगपञ्चक अन्तिकशब्देन निपात्यते / तथा- ऽस्मिन् त्वग्वान् , मतुः, ‘मावर्ण' (2 / 1 / 94) इति हि-अन्तिक इति शब्दः,अयमेषामतिशयेनान्तिकः, / मस्य वः, त्वग्वन्तमाचष्टे / 'अयमेषामतिशयेन त्व'प्रकृष्ठे तमप्' ( 73 / 5 ), निपातनात् तिक इति / ग्वान्=त्वचिष्ठः / अयमनयोरतिशयेन त्वग्वान् : Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 522 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं 107 पा०४ सू० 33-38 त्वचीयान् / 'अत एव वचने'-त्यादि, विन्नन्ताच्च / 'नैकस्वरस्य' (आ४।४४ ) इति निषेधात् , इति ज्य मन्नन्ताच्च अगुणाङ्गत्वादिष्ठेयसू न प्राप्नुतः, सर- श्र (इति)आदेशौ सस्परावेव,ज्येष्ठः श्रेष्ठः एती सिध्यतः, व्यादयो हि सम्बन्धप्रवृत्तिनिमित्ता एव, न गुण- यतः श्रः ज्य इत्यादेशौ सस्वरावेव, तेन श्रेष्ठः, प्रवृत्तिनिमित्ता इति स्रग्व्यादिभ्योऽपि इष्ठेयसू श्रेयान् , ज्येष्ठः इति सिद्धम् ;एषु हि 'अवर्णेवर्णस्य' न प्राप्नुतः ( इत्याह-) अत एव वचनेति / निर्दि (7 / 4 / 68) 'त्रन्त्यस्वरादेः' (74 / 43 ) इति सूत्र. श्यमानत्वात् प्रत्ययमात्रस्य लुप् इत्यक्षराणि अत्र द्वयमपि न प्रवर्तते / नैकस्वरस्य' (74|44) इति ज्ञातव्यानि ||32| सूत्रे सर्व कारणं वक्ष्यते इति // 35 / / अल्पयूनोः कन्वा // 7 / 4 / 33 // ज्यापान् / / 7 / 4 / 36 / / म० वृO-अल्प युवनशब्दयोः 'कन्' इत्यादेशो म० वृ०-ज्यादेशात्परस्य ईयसोरीकारस्य आवा णि इष्ठ ईयसु (इत्येतेषु)परेषु स्यात् / कनयति, कारादेशो निपात्यते / १ज्यायान , ज्यायसी // 36 / / कनिष्ठः, कनीयान् ; पक्षे १अल्पयति २अल्पिष्ठः, अल्पीयान ; 'यवयति, “यविष्ठः, “यत्रीयान् // 33 / / प्रव०-१अयमनयोरतिशयेन प्रशस्यो वृद्धो वा-ज्यायान् // 36 / / अव०-'अल्पमाचष्टे, णिच् / अयमेषामतिशयेनाल्पः अल्पिष्ठः / युवन शब्दः, युवानमाचले, बाढा-ऽन्तिकयोः साध नेदौ / / 7 / 4 / 37|| णिच् , 'स्थूलदूर०'(७।४।४२) इति वक्ष्यमाणसूत्रेण म0 वृ०-बाढान्तिकशब्दयोर्णीष्ठेयसुषु परतो वन् इति लुप्यते, यु इत्यस्य गुणश्च ; यवयति / यथासङ्घय साध नेद इत्यादेशौ भवतः / 'साध४अयमेषामतिशयेन युवा-यविष्ठः / यविष्ठः 'यवी- यति, साधिष्ठः, साधीयान् ; नेदयति, नेदिष्ठः, यान इत्यत्र वचनसामर्थ्यात् अगुणाङ्गादपि इष्ठेयसू नेदीयान् ||37|| भवतः , अन्यथा 'स्थूलदूर०' (7 / 4 / 42) इत्यनेना अवा-१बाढमाचले, णिच / २साधिष्ठः, न्तस्थादेरवयवस्य लुबपि न स्यात् , इष्ठेयसोर इष्ठप्रत्ययः, साधीयान् ; उभयत्रापि 'त्र त्यस्वभावात् / एवमुत्तरत्रापि दृश्यम् // 33 // रादेः' ( 74|43 ) इति अकारलोपः / साध नेद प्रशस्यस्य श्रः // 7 / 4 / 34 // (इति)आदेशौ अकारान्तावेव,समानलोपित्वात् ऊपरे म० वृ०-प्रशस्य इति शब्दस्य णीष्ठेयसुषु णौ सन्यदादिकार्याभावफलार्थम् // 37 // परतः 'श्री' इत्यादेशः [सस्वरः श्रः आदेशः] स्यात् / प्रिय-स्थिर-स्फिरोरु-गुरु-बहुल-तृप्र-दीर्घ-वृद्धश्रयति, श्रेष्ठः, श्रेयान् // 34 // वृन्दारकस्येमनि च प्रा-स्था-स्फावृद्धस्य च ज्यः / / 7 / 4 / 35 / / म. वृ०-वृद्धशब्दस्य प्रशस्यशब्दस्य च णीष्ठे- वर-गर-बह-त्रप-द्राघ-वर्ष-वृन्दम् / / 7 / 4 / 38 // यसुषु परतो 'ज्यः' इत्यादेश: स्यात् / ज्ययति, __म० वृ०-प्रियादीनां यथासम्भवमिमनि ज्येष्ठः // 35 // णीष्ठेयसुषु च परेषु यथासङ्घय प्रा इत्यदयः अव0-सस्वर एव ज्य आदेशः, सस्वरत्वे ज्येष्ठ आदेशा भवन्ति / प्रियस्य प्रा,-'प्रेमा, प्रापयति, इत्यत्र फलम् / वृद्धशब्दः, प्रशस्यशब्दश्च ; उप्रेष्ठः, प्रेयान / स्थिरस्य स्था,स्थेमा, स्थापयति, वृद्धमाचष्टे , प्रशस्यमाचष्टे ; प्रशस्यं करोति वा; स्थेष्ठः, स्थेयान् / स्फिरस्य स्फा,- स्फापयति,स्फेष्ठः, णिच , वृद्धस्य ज्य आदेशः, प्रशस्यापि ज्यः, पश्चात् स्फेयान् / उरोवर् ,- वरिमा,वरयति, वरिष्ठः,.वरी'अवर्णेवर्णस्य'(७४।६८) इति सूत्रेण न अकारलोपः, / यान् / गुरोर्गर ,गरिमा,गरयति, गरिष्ठः, गरीयान् / 'त्रन्त्यस्वरादेः' (7 / 4 / 43) इति (अपि) न प्रवर्तते, / बहुलस्य बंड् , बंहिमा,बंहयति, बंहिष्ठः,बहीयान् / Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___णीष्ठेयसुषु आदेशादयः ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [523 "तृप्रस्य त्रप् , त्रपिमा, पयति, पिष्ठः पीयान् / अव०-'बहोराख्यानमिति वाक्यं णिचप्रत्यदीर्घस्य द्राघ,- द्राघिमा, द्राघिष्ठः,द्राधीयान् / वृद्ध- / यस्य अनटप्रत्ययस्यापि सम्भवति / अथवा बहुमास्य वर्ष , वर्षिमा, वर्षयति, वर्षिष्ठः, वर्षीयान् / चष्टे इति वाक्ये णिचं कृत्वा ततो 'बहोर्गीष्ठे भूय' वृन्दारकस्य वृन्द्,- वृन्दिमा, वृन्दति, वृन्दिष्ठः इत्यनेन भूय इत्यादेशः, ततो भूय्यते इति भूयनम् , वृन्दीयान् // 38 // अनट् / / 40 // अव०-१प्रियस्य भावः=प्रेमा, प्रियशब्दस्थाने ___ भूलक चेवर्णस्य // 7 / 4 / 41 // प्रा इत्यादेशः / एवमग्रेऽपि व्याख्येयम् / प्रियमा. म०७०-बहुशब्दस्य 'ईयसौ' इमनि च परे 'भू' चष्टे, णिच् / उअयमेषामतिशयेन प्रियः प्रेष्ठः, इत्यादेशः स्यात् , ईयस्विमनोरिवर्णस्य च 'लुक' ४अयमनयोरतिशयेन प्रियः प्रेयान् ; 'गुणाङ्गाद्वे०' स्यात् / भूयान् , भूयांसौ, भूयांसः, [ 'पृथ्वादेरि. (7 / 3 / 9) इति इष्ठः, ईयस् / एवमग्रेऽपि वाक्या मन्वा' (71 / 58] भूमा। 'भू ऊ इत्यूकारप्रश्लेनि / कश्चित् करोत्यर्थे णौ सति प्रा स्था(इति)आदेशं षादवादेशो न भवति // 41 // नेच्छति / तन्मते प्रिययति, स्थिरयति / स्फिरशब्दस्य पृथ्व्यादिगणपाठाभावात् वर्णदृढादेरपि अव०-"प्रियस्थिर०' (4 / 38) इति सूत्राप्राप्त्यभावाच्च न इमन् / वरादिशब्दानां सर्वेषामकार उच्चारणार्थ एव सूत्रे पठ्यते // 38 // [7 / 4 / 39 / दिमन् ,णि, इष्ठ, ईयस् च एते चत्वारोऽनुवर्त्तन्ते, पृथु मृदु-भृश-कृश-दृढ-परिवृढस्य ऋतो रः / तेषु च णीष्ठयोः पूर्वसूत्रे गृहीतत्वात् पारिशेष्यात् अत्र इमनीयस्प्रत्यययोरेव ‘भूलुक् च०' इति सूत्रं म. वृ०-पृथ्वादीनमृकारस्य इमनि णीष्ठे प्रवर्त्तते इत्यत्र 'ईयसौ ईमनि चे'-ति व्याख्यातम् / त्यादिषु च 'र' इत्यादेशः स्यात् / प्रथिमा, प्रथयति, ननु ‘भूलुक च०' इत्यनेन भू इत्यादेशविधानाप्रथिष्ठः, प्रथीयान् / म्रदिमा, मृदयति, म्रदिष्ठः, देव 'अस्वयं भुवोऽव्' ( 74 / 70 ) इत्यनेनाव् न म्रदीयान् / भ्रशिमा, भ्रशयति, भ्रशिष्ठः, भ्रशी भविष्यति, भूमा (इति) अत्र च पदत्वात् , अपदे च यान् / क्रशिमा क्रशयति, क्रशिष्ठः, क्रशीयान् / उक्तोऽवादेश इत्यत्रापि अव न भविष्यति, उच्यते, द्रढिमा, द्रढयति, द्रढिष्ठः, द्रढीयान् / परिवढिमा, भ्वादेशस्य चरितार्थत्वात् भूयान् ,भूयांसौ, भूयांसः, परिवढयति' // 39 // एषु आवादेशः स्यादेव इति भूश्चासौ ऊश्च इति ___ अव०-पृथुमदुभ्यां 'पृथ्वादेरिमन्वा' (7 / 1 / - ऊकारप्रश्लेषेण व्याख्यानं कर्त्तव्यम् / / 41 // 58) इमन् , शेषेभ्यस्तु 'वर्णदृढाभ्य०' ( 7 / 1159 ) स्थूल-दूर-युव-हस्व-क्षिप्र-क्षुद्रस्यान्तस्थाइत्यनेन इमन् / केचित् वृढशब्दस्यापि रत्वमिच्छन्ति,-बढिमा, बढयति, वढिष्ठः, ढीयान् / देगुणश्च नामिनः / / 7 / 4 / 42 / / पृथ्वादीनामिति किम् ? ऋजिमा, ऋजयति, म. वृ०-स्थूलादीनां यथासम्भवमिमनि ऋजिष्ठः, ऋजीयान ; कृष्णिमा, कृष्णयति, कृष्णि णीष्ठेयसुषु च परेषु 'अन्तस्थादेरवयवस्य लुक् ष्ठः, कृष्णीयान् / ऋत इति किम ? सर्वस्य मा नामिनश्च गुणः' स्यात् / स्थूल,-स्थवयति, स्थविष्ठः, भूत् / ' एवम् ) परिबढिष्ठः, परिवढीयान् // 39 // स्थवीयान् / दूर, दवयति, दविष्ठः, दवीयान् / बहोर्णीष्ठ भूय / / 7 / 4 / 40 // युवन ,-यवयति, यविष्ठः, यवीयान् / ह्रस्व, हसिमा ___म० वृo-बहुशब्दस्य णीष्ठयोः परयो भूय' ह्रसयति, ह्रसिष्ठः, ह्रसीयान् / क्षिप्र, क्षेपिमा, क्षेपइत्यादेशः स्यात् / भूभावापवादः / [बहुमाचष्टे=] यति, क्षेपिष्ठः, क्षेपीयान् / क्षुद्र,-क्षोदिमा, क्षोदभूययति, भूयिष्ठः, बहोराख्यानं भूयनम् // 40 // | यति, क्षोदिष्ठः, क्षोदीयान् / केचित् स्थूलदूरयूनां Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 524 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 4 सू० 43-44 करोत्यर्थे णौ अन्तस्थालोपं गुणं च नेच्छन्ति, स्थूलं / तन्निमित्तको गुणोऽर् इति न निवर्त्तते, 'स्थानीकरोति स्थूलयति, दूरयति, युवयति / / 42 / / वावर्णविधौ' (74.109) इति स्थानित्वात् / तथा रकर्तृ शब्दः, करिमाचष्टे, णिज् , अत्रापि तृप्र अव०-ह्रस्वादिशब्देभ्य एव परतः पृथ्वादि त्ययो लुप्यते, ततः कर् इति रूपं जातम् , तिव् , त्वादिमन् भवति, न स्थूलदूरयुवनशब्देभ्यः, अप्रा शव , गुणः, करयति इति सिद्धम् / उपटु, पटोप्तेः / 'स्थूलदूर०' इति सूत्रे विशेषोऽयम्- नामिन इति किम् ? ह्रस्वक्षिप्रक्षुद्राणां सकारपकारदकाराणां र्भावः, पृथ्वादिभ्य इमन् , अत्र 'त्रन्त्यस्वरादेः' इत्यनेनान्त्यस्वरादिलोपः पटिमा इति सिद्धम् / गुणो मा भूत् , तथाहि-“सर्वमुन्वस्थानमवर्ण". पटुमाचष्ठे–पटयति, णिज् ,अत्र पूर्व वृद्धिः क्रियते, मित्येकदेशेन अवयवेन प्रत्यासत्त्या सकारदकारयो उकारस्य औः, ततः 'त्रन्त्यस्वरादेः' इति औः लुप्यते, गुणोऽर् प्राप्नोति, अथवा सकारदकारयोः "लवर्ण यद्वा औ ( इत्यस्य ) आवि कृतेऽपि अन्त्यस्वरादेः तवर्गलसा दन्त्याः" इति न्यायादल् इति गुणः प्राप्नो आव इत्यस्य लोपः / 'विमनस् , सन्मनस् ; वि. ति, रश्रुतेर्लअतिरिति भावात् , पकारस्य तु "उवर्ण मनसो भावो विमनिमा, सन्मनसो भावः सन्मपवर्ग०" इति न्यायात् उकारो गुणः स्यादिति नामिन निमा ; 'वर्णदृढा०' (7 / 1 / 59) इमन् , ततोऽन्त्यस्वइति कृतम् / 'त्रन्त्यस्वरादेः' (74 / 43 ) इत्युत्तरे रादिलोपः / केचित्तु अनेकस्वरशब्दस्यान्त्यम्वरादि. णान्त्यस्वरादेः 'स्थूलदूर०' (7 / 4 / 42) इत्यनेनार्था लोपं विकल्पेन इच्छन्ति, लुबभावपक्षे णौ यथादन्तस्थाया लोपे सिद्धे अन्तस्थादेरिति किमर्थम् ? सम्भवं नामिनश्च गुणं चेच्छन्ति / पयस्विनमाच अत्रोच्यते, 'येन नाप्राप्ति' * न्यायेनान्त्यस्वरा -पययति, णिज, विन्मतो..' (4.32) इत्यदिलोपं बाधित्वा 'स्थूलदूर०' (7 / 4 / 42) इत्यनेना नेन विन्लोपः,पक्षे पयसयति ; पयिष्ठः,पयसिष्ठः; न्तस्थाया एव लोपो मा भूदित्येवमर्थमन्तस्थादे पयीयान् , पयसीयान् ; तथा वसुमत्शब्दः, वसुरिति कृतमिति भावः // 42 // मन्तमाचष्टे, णिज् , 'विन्मतो०' (7.4 / 32 ) मतुः अन्त्यस्वरादेः / / 7 / 4 / 43 // लुप्यते, वसयति, पक्षे गुणः- वसवयति, वसिष्ठः, म0 वृo-तृप्रत्ययस्य अन्त्यस्वरादेश्चावयव वसविष्ठः ; वसीयान् , वसवीयान् इति मतान्तरे स्य इमनि ण्यादौ च परे 'लुक्' स्यात् / कर्तुम // 43|| न्तमाचष्टे='करयति, करिष्ठः, करीयान् / कर्त्तार नैकस्वरस्य / / 7 / 4 / 44 // माचष्टे करयति / तथा मातयति भ्रातयतीत्यत्र त्वनर्थकत्वात् तृशब्दस्य न लुक् / 'पटिमा, पट म. वृ०-एकस्वरशब्दस्य योऽन्त्यस्वरादिरयति, पटिष्ठः, पटीयान् / 'विमनिमा, सन्मनिमा वयवस्तस्य इमनादौ परे 'लुग न' भवति / स्रज॥४३॥ यति, स्रजिष्ठः, स चयति / एकस्वरस्येति किम्? अव०-'कर्ताऽस्यास्ति , कतृ मत् शब्दः, | वसति, वसिष्ठः, वसीयान् / इमनि चेत्येवकर्तृ मन्तमाचष्टे, णिज्, 'विन्मतोर्णीष्ठ०' (74 / / अस्यापत्यम्=] इ., [ज्ञो देवताऽस्य= ज्ञः, [श्रिये 32) इत्यनेन मतुलृप्यते, तदनन्तरं 'चन्त्यस्वरादेः' | हितः=] श्रीयः / 'योगविभागाद् 'अवर्णेवर्णस्य' (- (7 / 4 / 43) इत्यनेन तृप्रत्ययस्य लोपः / एवं वसव- 4 / 68) इति लोपस्यापि प्रतिषेधः, तेन श्रेष्ठः, यतीत्यत्रापि / करयतीत्यत्र तृप्रत्ययस्य लोपे कृते / श्रेयान् // 44|| * अन्त्यस्वरस्य तावत् 'त्रन्त्यस्वरादेः' इत्यनेन लुपि सत्यामन्तस्थामात्रमेवावशिष्यते, ततोऽत्रादिग्रहणं निरर्थकमिति अन्तस्थादेरित्यस्य स्थाने 'अन्तस्थाया' इति वक्तव्यमिति प्रश्नाशयः / 2 "येन नाऽप्राप्ते यो विधिरारम्यते स तस्यैव बाधकः" इति न्यायेन / Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्त्यस्वरादेर्लुग्विधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 525 अव०-'स्रग्विणमाचष्टे, विन्मतो.' (74 / 32) | आत्मनोनः, 'भोगोत्तरपदात्मभ्यामीनः' (7 / 1 / 40) विन्लोपः / २(एवं) स्रजीयान् , अयमनयोरतिशयेन / इति ईनः // 48 // स्रग्बी। उस ग्वन्तमाचष्टे, णिच् / एवं स चिष्ठः, 'इकण्यथर्वणः // 7 / 4 / 49 // स्रुचीयान्। वसुमन्तमाचष्टे णिच् ,वसयति / "श्री म० वृ०-अथर्वनशब्दस्यान्त्यस्वरादेरिकणि यः', 'तस्मै हिते' ( 71135 ) ईयः / 'त्रन्त्यस्वरादे३कस्वरस्य' इत्येकमेव वचनं किमर्थ न परे ‘लुग् न' स्यात् / 'आथर्वणिकः ||49 / / कृतमिति पराशयः , सूरिराह-योगविभागेत्यादि , अव०-१अथर्वाणं वेत्त्यघीते वा आथर्वणिकः, योऽयं योगविभागः 'त्रन्त्यस्वरादेः' (आ४।४३) 'नै न्यायादित्वादिकण् / / 49 // कस्वरस्य' (7 / 4 / 44) इति पथक पथक सूत्रं कृतम् यूनोऽके // 74 / 50 // तेन श्रेष्ठः, श्रेयान् , ज्येष्ठः इति सिद्धम् / अत्र हि योगविभागबलात् 'अवर्णवर्णस्य' (7 / 4 / 68) इति म००-युवनशब्दस्यान्त्यस्वरादेरकाब प्रत्यये 'लुक् न' स्यात् / 'यौवनिका / अक इति किम् ? प्रवृत्तिप्रतिषेधः (अपि) सञ्जातः / / 44 / / यौविकम् / / 50 // दण्डिहस्तिनोरायने / / 7 / 4 / 45 / / ___ अव०-'यूनो भावो-यौवनिका, चौरादित्वादम० वृ०-दण्डिन्-हस्तिनशब्दयोरन्त्यस्वरादे कब् , वृद्धिः, ततः आप् , 'इच्चाउँसो' (2 / 4 / 107) रायन' इति प्रत्यये परे 'न लुक'स्यात् / 'नोऽपद इति इः। तथा युवा प्रयोजनमस्य यौविकम् , म्य०' (7 / 4 / 61) इति प्राप्तौ प्रतिषेधोऽयम् / दा. 'प्रयोजनम्' (6 / 4 / 117 ) इति इकण्, 'नोऽपदस्य ण्डिनायनः, हास्तिनायनः / / 45 // तद्धिते' (74 / 61) न लुप्यते // 50 // ___ अव०-१आयनण / दण्डिनोहस्तिनोऽपत्यम्, अनोष्टय' ये॥७।४।५१॥ नडाद्यायनण् / मायने इति किम् ? दण्डिनां ___म० वृ०-अन् इत्यन्तस्य शब्दस्यान्त्यस्वरादेः समूहो-दाण्डम् , 'श्वादिभ्योऽम्' (6 / 2 / 26) / 45 / ट्यवर्जे यप्रत्यये परे 'लुग् न' स्यात् / सामन्यः, वाशिन आयनौ / / 7 / 4 / 46 // मूर्द्धन्यः, ताक्षण्यः / अट्य इति वचनात् सानु. . म० वृ०-वाशिन्शब्दस्यान्त्यस्वरादेराबनिन्- | बन्धोऽपि प्रत्ययो गृह्यते / अट्य इति किम् ? "राज्यप्रत्यये परे 'न लुक्' स्यात् ! [ वाशिनोऽपत्यम् , | म् , दौरात्म्यम् / / 51 // 'अवृद्धाहोर्नवा' (6 / 1 / 110 ) इत्यायनिन् ] वाशि प्रव०-'न ट्योऽटयः / सामनि साधुः / नायनिः / / 4 / / मूर्द्धनि भवः, 'दिगादिदेहांशाद् यः' (6 / 3 / 124) / एये जिह्माशिनः / / 7 / 4 / 47 // तक्ष्णोऽपत्यं ताक्षण्यः, 'कुर्वादेर्व्यः' (6 / 1 / 100) / म. व-जिह्माशिनशब्दस्यान्त्यस्वरादेरेयप्र "राज्ञो भावः कर्म वा, पतिराज०' (7 / 1 / 60) इति त्यये परे ‘लुग् न' स्यात् / जैह्माशिनेयः // 47 // ट्यण् // 51 // अव०-जिलाशिनोऽपत्यम् , शुभ्रादित्वादेयण् / 47 // ___ अणि // 7 / 4 / 52 // ईनेऽध्वात्मनोः // 7 // 4 // 48 // ___म० वृ०-अन् इत्यन्तस्य शब्दस्यान्त्यस्वरादेम. वृ०-अध्वन् आत्मन् (इति) शब्दयोरन्त्य- रणि परे 'लुग्न' स्यात् / 'सामनः, कार्मणम् , स्वरादेरीनप्रत्यये परे'लुग् न'स्यात् / 'अध्वनीनः, उपार्वणः // 52 // २आत्मनीनः / / 48 // . प्रव०-१साम देवताऽस्य-सामनः / २सन्दिप्रव०-'अध्वानमलङ्गामी अध्वनीनः, ' अ ष्टं कर्म= कार्मणम् , 'कर्मणः सन्दिष्टे (712 / 167) . ध्यानं येनौ' (71 / 103 ) ईनः / आत्मने हितः= | इत्यण् / पर्वणि भवः= पार्वणः // 52 // Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 526 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 4 सृ०५३-६१ - - - - संयोगादिनः // 7 / 4 / 53 // ब्रह्मणः / / 7 / 4 / 57|| म० वृ-संयोगात्परो य इन् तदन्तस्यान्त्य- म० वृ०-ब्रह्मनशब्दस्यानपत्येऽणि परेऽन्त्यस्त्ररादेरणि परे ‘लुग् न' स्यात् / 'शाङ्खिनः, २चा- स्वरादे- 'लुक' स्यात् / ब्रह्मण इदं बाह्ममस्त्रम् ,[ब्रह्मा क्रिणः, वाघ्रिणः, भाद्रिणः / अनपत्येऽणि उत्त- देवताऽस्य=] ब्राह्मो मन्त्रः / योगविभाग उत्तरार्थः।५७। रेण सिद्धत्वादपत्यार्थोऽयमारम्भः / / 53 / / जातौ / / 7 / 4 / 58 / / अव०-१शङ्खोऽस्यास्तीति इन् . शङ्खिनोऽ- म0 वृ०-ब्रह्मनशब्दस्य जातौ वाच्यायामनपत्यम् / एवं चक्रिणो वज्रिणोऽपत्यम / / 53|| पत्ये एवाणि परेऽन्त्यस्वरादेर्लक् स्यात् / ब्राह्मी गाथि-विदथि केशि-पणि-गणिनः // 7 / 4 / 54 // ओषधिः / पूर्वेण ['ब्रह्मण' इति सूत्रेण सिद्धे 'जाता म. वृ०- गाथ्यादीनामिन्नन्तानामन्त्यस्वरा- वनपत्ये एवेति नियमार्थं वचनम् , 2 तेनोत्तरसूत्रेणादेरणि परे 'लुग् न' स्यात् / 'गाथिनः, वैदथिनः, पत्येऽन्त्यस्वरादेर्न लुक् .-ब्राह्मणः / जाताविति कैशिनः, पाणिनः, गाणिनः / / 54 / / किम ? ब्राझो नारदः / / 58 / प्रव०-गाथाऽस्यास्तीति गाथी, 'शिखादिभ्य प्रव०-१"जातावनपत्ये एवे'-त्यादि, व्यक्तिवाइन्' (7 / 2 / 4), गाथिनोऽपत्यं गाथिनः / विदथ- चिनस्तु ब्रह्मनशब्दादपत्येऽणि परे ब्राह्म इत्येव श्छन्दविशेषोऽस्यास्तीति / केशा अस्य सन्ति, अतोऽ. भवति, उत्तरेण 'अवर्मणो मनोऽपत्ये' (74 / 59 ) नेक०' (72 / 6) इन् / / 54|| इत्यनेनान्त्यस्वरादेर्लोपात / 'जातौ' इति सूत्रा___ अनपत्ये // 7 // 4 // 55 // करणे तु ब्राह्मण इति न सिध्येत इत्यभिप्रायः / ननु म० वृ० इन्नन्तस्यापत्यादन्यत्रार्थे योऽण तस्मिन् ब्रह्मणा प्रोक्तो ग्रन्थो ब्राह्मणम् , 'तेन प्रोक्त' (6 / 3 / परेऽन्त्यम्बरादेः 'लुग् न' स्यात् / 'साङ्कोटिनम् , 181) इति सूत्रेणं अण, ततोऽणि' (74 / 52 / सांराविणम , गामिणम्। (अणीत्येव) दाण्डम् इति सूत्रेणान्त्यस्वरादिलोपनिषेधेऽपि ब्राह्ममस्त्र"चाक्रम् // 55 / / मितिवत् ‘ब्रह्मण' (7 / 4 / 57) इति सूत्रेणान्त्यस्वरा दिलोपो (कथं) न भवति ? (उच्यते) ब्राह्मणाच्छंसी' प्रव०-'सम्पूर्वः कुटत् कुटण वा धातुः, सम (3 / 2 / 11) 'वेदेन्ब्राह्मणमत्रैव' ( 6 / 2 / 130 इति ) न्तात् कोटः सङ्कोटः, संकूटः ; 'अभिव्याप्तौ भावेऽ निर्देशबलात् / २'अवर्मणो मनोऽपत्ये' (7 / 4 / 59) नबिन्' (53190) इत्यनेन बिन . वृद्धिः, साङ्को इत्युत्तरसूत्रेण / ब्रह्मणोऽपत्यम् // 58 / / टिनं साङकूटिनं वर्त्तते इति वाक्ये नित्यं सबिनोऽण' (7 3 / 58) इति सूत्रेण अण् , 'अनपत्ये' इत्य अवर्मणो मनोऽपन्ये / / 7 / 4 / 59 / / नेनान्त्यस्वरादिलोपनिषेधः / एवं २सांराविण म० वृ०-वमन्वर्जितम्य मन इत्यन्तस्य शब्दस्यामित्यपि, समन्ताद्रावः / गर्भिणी, गर्भिणीनां पत्यार्थेऽणि परेऽन्त्यस्वरादेलुक स्यात् / 'सौपामः, समूहः गाभिणम् , 'भिक्षादेः' (6 / 2 / 10) इत्यण , माद्रसामः / अवर्मण इति किम् ? चाक्रवमणः / / 59 / / 'जातिश्च णि.' (3 / 2 / 51) इति पुंवद्भावः / (एवम् ) अव०-शोभनं सामाऽस्य-सुषामा, निर्दस्सोः गुणिन इदं गौणिनम् / दण्डिनां समूहो= सेधसन्धिसाम्नाम्' (2 / 3 / 31) इति सूत्रेण सस्य दाण्डम् , 'चक्रिणां समूहः, श्वादिभ्योऽञ् ' (6 / 2 / षः, ततः सुषामणोऽपत्यं-सौषामः / / 59 / / 26) इत्यन् / / 55 // हितनाम्नो वा // 7 / 4 / 60 // उक्ष्णो लुक् // 74 / 56 // म. वृ०-हितनामनशब्दस्यापत्येऽणि अन्त्यम० वृ०-उक्षनशब्दस्यानपत्येऽणि परे-ऽन्त्य- | स्वरादेः 'लुग् वा' स्यात् ।[हितनाम्नोऽपत्यं=] स्वरादेर्लुक्' स्यात् / उक्ष्ण इदम्=औक्षं पदम् / / 56 / / / हैतनामः, हैतनामनः // 60. / Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्त्यस्वरादेलविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [527 नोऽपदस्य तद्धिते // 74 / 61 // | इत्यण् / शिखण्डिन इमे। अथवा शिखण्डिनोऽम० वृ०-नकारान्तशब्दानामपदसंज्ञकानां तद्धिते / पत्यानि / शिलालिनोऽपत्यानि / एवं सब्रह्मचारिण परेऽन्त्यस्वरादे-'लग्' स्यात् / 'मैधावः, २मायावः, / इमेऽपत्यानि वा / पीठसर्पिणः १°सूकरसद्मनः / आग्निशर्मिः, द्वयहः, यहः, हास्तिकम् / अपद. ११सुपर्वण इमेऽपत्यानि वा // 62 / / स्येति किम् ? मेधाविरूप्यम् // 61 / / वाऽश्मनो विकारे // 74 / 63 // ___ अव०-'मेधाविनोऽपत्यम् / मायाविनोऽपत्यम। म० वृ०-अश्मनशब्दस्यापदस्य विकारार्थे तद्धि 'बाह्वादिभ्यो गोत्रे' ( 6 / 1 / 32 ) इत्र / द्वयोरहोः / तेऽन्त्यस्वरादे-'लग्' वा स्यात् / 'आश्मः, आश्समाहार, त्रयाणामह्नां समाहारः), द्विगोरन्नोऽट्' मनः / / 63 // (73 / 99 ) इत्यत् , ततो 'नोऽपदस्य तद्धिते' इत्यन्त्यस्वरादिलोपः / हस्तिनां समूहः, 'कवचि'० अव०-'अश्मनो विकारः, 'विकारे' (6 / 2 / (6 / 2 / 14) इति इकण। मेधाविन आगतम् , 'नृहेतु 30) इति अन् / / 63 // भ्यो रूप्य'० (6 / 3 / 156) // 61 / / चर्म-शुनः कोश-सङ्कोचे // 7 / 4 / 64 // कलापि कुथुमि-ततलि-जाजलि-लाङ्गलि-शिखण्डि- म० वृ०-चर्मन्शुनोरपदभूतयोर्यथासंख्य शिलालि-सब्रह्मचारि-पीठसर्पि सूकरसद्म-सुपवर्णः कोशे सङ्कोचे चार्थे तद्धितेऽन्त्यस्वरादे-लुक' स्यात् / 'चार्मः कोशः, कोशादन्यत्र चार्मणः / शुनोऽ॥७।४।६२।। यम्=] शौवः सङ्कोचः, सङ्कोचादन्यत्र शौवनः।।६४॥ म० वृ०-कलाप्यादीनां नान्तानामपदसंज्ञकानां तद्भिते परेऽन्त्यस्वरादे-'लक' स्यात् / 'कालापाः, . प्रव०-१चर्मणो विकारः,'विकारे'(६।२।३०)। कौथुमाः, तैतलाः, जाजलाः, 'लाङ्गलाः, शैख- कथं शुनो विकारोऽवयवो वा शौवं मांसं पुच्छं वा ? ण्डाः, शैलालाः,साब्रह्मचाराः, पैठसाः,१°सौक- अत्र 'हेमादिभ्योऽन्'(६।२।४५), नोऽपदस्य तद्धिते' रसद्माः, ''सौपर्वाः / / 62 / / (7 / 4 / 61) इति अन्लुप् , एवं सिद्धिः // 64 // __ अव०-'कलापि'० इति सूत्रे किञ्चिल्लिख्यते, प्रायोऽव्ययस्य // 7 // 4 // 65 // अत्र सूत्रे ये कलाप्यादय इन्नन्ताः शब्दास्तेषाम् म० वृ०-अव्ययस्यापदसंज्ञकस्यान्त्यस्वरादेस्त'अनपत्ये' (7 / 4 / 55) इत्यनेनान्त्यस्वरादिलोपनिषेधे द्विते परे प्रायेण'लुक स्यात् / स्वर्भवः 'सौवः,बहिप्राप्ते, तथा शिखण्डिपीठसर्पिशब्दयोरपत्येऽपि र्जातोबाह्यः, बाहीकः, सायंप्रातिकः, “पौनः'संयोगादीनः' (74 / 53) इत्यन्त्यस्वरलोपे प्राप्ते, / पुनिकः, पौनःपुन्यम् , औपरिष्टः, पारतः, 'एकैतथा सूकरसद्मसुपर्वनशब्दयोस्तु 'अणि' (7 / 4 / 52) कश्यम् / प्रायोग्रहणं प्रयोगानुसरणार्थम् , तेनेह 10 इत्यनेनान्त्यस्वरादिलोपे प्राप्ते 'कलापि'. इति न स्यात् ,- 1 आरातीयः, '२शाश्वतिकः,उशाश्वतः, सूत्रं कृतमित्यर्थः। 'कलापिना प्रोक्तं वेदमधीयते= पार्थक्यम् // 65 // कालापाः / २कुथुमं मृगाजिनमस्यातीति कुथुमी, कुथुमिना प्रोक्तम् (अधीयते) / एवं तेतलं जजलं अव०-"द्वारादे:'(७।४।६) इति औः आगमः / "लाङ्गलमस्यास्ति, इन् , तेतलिना जजलिना २बहिर्जातो बाह्यः,बाहीकः ; 'बहिषष्टीकण च' (6 / लाङ्गलिना प्रोक्तमधीयते, तैतली जाजली लागली 1 / 16) इति व्यः टीकण च। “सायंप्रातर्भवः सायंइति नाम्ना आचार्याः,तत्कृतो ग्रन्थोऽप्युपचारात्तच्छ- / प्रातिकः,५ (पुनः)पुनर्भवः पौनःपुनिकः, वर्षाकालेभ्यः' ब्देनोच्यते, तमधीयते इति तेन प्रोक्ते (6 / 3 / 181) / (६३१८०)इकण , अनभिधानादव्ययलक्षणस्तनट्न Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 528] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 4 सू० 66-68 भवति। पुनःपुनरित्येतस्य भावः-पौन.पुन्यम् ट्यण। | इत्यनेनाव्ययीभावसमासः, 'नपुसकाद्वा' (73 / "ऊर्ध्व,ऊर्ध्वा दिक् ऊो देशः ऊर्ध्वकालोवा रमणीयः, | 89) इत्यनेन अत् समासान्तः / अटि कोऽर्थः ? . 'ऊर्ध्वादिरिष्ठात्'० (7 / 2 / 114) इति रिष्ठात्प्रत्ययः, | अट्प्रत्यये / 'द्वयोरहोः समाहारो द्वयहः , एवं ऊर्ध्वशब्दस्य च'उ' इत्यादेशः,उपरिष्टात् इतिशब्दः, - व्यहः, 'द्विगोर'० (7 / 3 / 99 ) अट्। १'उत्तमं च उपरिष्टादागतः औपरिष्ट इति वाक्यम् , 'तत आगते' तदहश्च / १२एवं परमं च तदहश्च / १३पुण्यं च (6 / 3 / 149) इत्यण / परत आगतः पारतः, तदहश्च / १४एवं सुदिनाहम् / एषु चतुर्वपि 'अह्नः' 'तत आगते' अण् / एकं ददाति, वीप्सायाम्'(७४। ( 7 / 3 / 116 ) इति अट् , 'नोऽपदस्य तद्धिते' 80) इत्यनेन द्वित्वम् , एकमेकम् , एकमेकं ददाति, (7 / 4 / 61) इत्यन्त्यस्वरादिलोपः // 66 / / 'प्लुप् चादावेकस्य स्यादेः' (7 / 4 / 81) इत्यनेन पूर्व विंशतेस्तेर्डिति / / 7 / 4 / 67 // कशब्दे अमो लुप् , एकैकशब्दः, 'बह्वल्पार्था o (7) 2 / 150) इति शस् , एकैकशो भावः एकैकश्यम् / म००-विंशतेरपदस्य यस्तिकारस्तस्य 'लुक्'. १°अन्त्यस्वरादेर्लोपो न भवति / 1 'आरात्शब्दः, स्यात्तद्धिते डिति परे / विंशकः, २विंशं शतम् , आराते भवः, 'दोरीयः' (6 / 3 / 32) / १२शश्वत् शब्दः, 3एकविंशम् , 'विंशः, 'एकविंशः // 67|| शश्वत् भवः, 'वर्षाकालेभ्यः' 6 / 380 ) इतीकण् / अव०-विंशत्या क्रीतो विंशकः, 'त्रिंशद्विशते१३शाश्वत इत्यत्र ‘भत्तुसन्ध्यादेरण' (6 / 3 / 89) / अपदस्येत्येव-शंयुः, शुभंयुः // 65 // र्डकोऽसंज्ञायामाईदर्थे' (6 / 4 / 129 ) डकः / विंश तिरधिकाऽस्मिन् विशं शतम् , एकविंशतिरधिका'अनीनादट्यह्नोऽतः // 74 / 66 // स्मिन् एकविंशम् , अधिकं तत्सङ्घयमस्मिन् शतस म० वृ०-ईनाइट्वर्जिते तद्धिते परेऽपद- हस्र, शतिशदशान्ताया डः' (7 / 1 / 154) इत्यनेन स्याह्नो योऽकारस्तस्य 'लुक' स्यात् / २आह्नम् , | ड: / विंशतेः पूरणो = विंशः, "एवमेकविंशः , आह्निकम् / अनीनादटीति किम् ? "द्वचहीनः, | 'सङ्खयापूरणे डट' (71 / 155) // 67 / / त्र्यहीणः, अति:-, अन्वहम् , प्रत्यहम् / अटि, अवर्णेवर्णस्य // 74 / 68 // १.द्वयहः, 11 उत्तमाहः, 12[ परमाहः, ] 3पुण्याहम् , १४सुदिनाहम् // 66 // म.वृ०-अवर्णान्तस्य इवन्तिस्य चापदस्य तद्धिते परे 'लुक् स्यात् / निर्दिश्यमानत्वादवर्णेवअव० ईन , अत् , अट् , नपूर्वम् , र्णयोरेव। दाक्षिः, १चौडिः, २बालाकिः / इवर्ण,ईनश्च अच्च अट् च ईनादट, न विद्यन्ते ईनादट्- | उनाभेयः, रौहिणयः, 'वात्सप्रेयः / अपदस्येत्येवप्रत्यया यत्र सोऽनीनादट् , तस्मिन् अनीनादटि / / शुक्लतमः, ऊर्णायुः, शुचितरः // 68 / / २अह्नां समूहः आह्नम् , 'श्वादिम्योऽन्' (6 / 2 / 26) / अह्ना निवृत्तमाह्निकम् , 'निर्वृत्ते' (6 / 4 / 105) अव० 'चूडाया अपत्यम् , बाह्वादित्वात् इन् / इति इकण् / द्वाभ्यामहोभ्यां भृतोऽधीष्टो वा २बलाकायाः अपत्यम् / नाभेरपत्यं =नाभेयः, द्वयहीनः,अथवा द्वे अहनी भूतो भावी द्वषहीनः / एवं 'इतोऽनिमः' (6 / 1 / 72) एयण् / रोहिणी, 'ड्या"त्र्यहीणवाक्यम् / 'राज्यहःसंवत्सर०' ( 6 / 4 / प्ल्यूडः' (6 / 1 / 70) एयण् / 'वत्सं प्रीणातीति वत्स११०) इत्यादिना ईनप्रत्यय एव, न 'सर्वाशस- | प्रीः, तस्या अपत्यं वात्सप्रेयः, 'चतुष्पाद्भय एय' ङ्ख्या'०(७।३।११८) इति अट् समासान्तः / अति को- (6 / 1183) वात्सप्रेयः / 'संयोगात्' (2 / 1152) इत्यऽर्थः ? अप्रत्यये / अहरहरनु अन्वहम् / अह- | नेन इयुवादेशौ न भवतः, परत्वात् अनयोः सूत्रयोः रहः प्रति प्रत्यहम् , 'योग्यतावीप्सार्थ'० (3 / 1140) | (? अनेन सूत्रेण) लोप एव भवति // 68|| Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदादीनामसकृत्प्रयोगविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [529 - अकद्रूपाण्डवोरुवर्णस्यैये / / 7 / 4 / 69 // 1 आशिषिकः, ११औषिकः / १२माथितिकः, अत्रापि ___म० वृ०-कद्रपाण्डूवर्जितस्य उवर्णान्तस्य एये तान्तत्वस्य लाक्षणिकत्वान्न भवति // 71 / / तद्धिते 'लुक' स्यात् / कामण्डलेयः, जाम्बेयः / अव०-१शश्वञ्च अकस्माच्च-शश्वदकस्मात् , न अकद्रपाण्डवोरिति किम् ? काद्रवेयः , पाण्ड शश्वदकस्मात् अशश्वदकस्मात् , अशश्वदकस्माच्च तत् वेयः / उवर्णान्तस्येत्येव-वैमात्रेयः / / 69 / / त च-अशश्वदकस्मात्त, पश्चात् ऋवर्णादिभिः सह द्वन्द्वसमासः, तस्मात् / २मातुरागतम, अपितुरागप्रव०-'कमण्डल्वा अपत्यम् , जम्ब्वा अप तम् ; 'ऋत इकण (6 / 3 / 152) / शावरजम्ब्वा भव:त्यम् , 'व्याप्त्यूङः' (6 / 1170) एयण ,कामण्डलेयः, शावरजम्बुकः, 'उवर्णादिकण' (63139) इकण, जाम्बेय. / कद्रोरपत्यम् , 'पाण्डोरपत्यम् , 'शुभ्रा 'गोश्चान्ते'० (2 / 4 / 96) इत्यनेन ह्रस्वः / दोभ्यां दिभ्यः' (6 / 1173) / “विमातुरपत्यम् , शुभ्रादिभ्यः' तरति, इकण , 'नामिनस्तयोः षः' (2 / 38) इति (इत्ययण ] // 69 / / सस्य षत्वम् / 'सर्पिः पण्यमस्य-सार्पिष्कः, 'नामिन'० अस्वयंभुवोऽव / / 7 / 4 / 70 // (2 / 3 / 8) ष / (एवम् ) धनुः प्रहरणमस्य-धानुष्कः / म० वृ०-स्वयम्भूवर्जितस्योवर्णान्तस्यापदस्य "उदश्विता घोलतक्रेण संस्कृत ओदन औदश्वित्कः, तद्धिते 'अव' इत्यादेशः स्यात् / औपगवः, माण्ड 'संस्कृते' (6 / 4 / 3) इकण् / शश्वत् , शश्वद् भवं= व्यः, पिचव्यः कर्पासः, बाहविः / अस्वयम्भुव शाश्वतिकम् , 'भतुसन्ध्यादेरण' (6 / 3 / 89) इत्यण इति किम् स्वायम्भुवः / / 70|| प्राप्तोऽपि अत एव वर्जनबलात् 'वर्षाकालेभ्यः' (6 / 3 / 80) इतीकण ; अकस्माद् भवम् आकस्मिअव०-मण्डोरपत्यं वृद्ध माण्डव्यः, 'गर्गा कम् , अध्यात्मादित्वादिकण , उभयत्रापि 'प्रायोऽदेर्यञ् (6 / 1 / 42) / २पिचुभ्यो हितः, 'उवर्णयुगा व्ययस्य' (7 / 4 / 65) इत्यत्र प्रायोग्रहणान्नान्त्यस्वरादेर्यः' (71 / 30 / उस्वयं भवतीति स्वयम्भूः, दिलोपः / १°आङपूर्वः शास्धातुः, आशासनमाशीः, 'क्रुत्सम्पदादिभ्यः किप' (5 / 3 / 114), 'आकः' (4| स्वयम्भुवोऽपत्यं स्वायम्भुवः, 'उसोऽपत्ये' (6 / 1 / 4 / 120) इति सूत्रेण आसः स्थाने इस् इत्यादेशः, .28) अण् , 'धातोरिवर्णोवर्ण'० (2 / 1150) इत्य ततः सस्य षत्वम् , आशिष् इति शब्दः, आशिषा नेन उवादेशः, अथवा स्वयम्भुवोऽयम्-स्वायम्भुवः, चरति आशिषिकः, अत्र धातुस्थाने इस् ,न प्रत्ययः / 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) इत्यण् / / 70|| ११तथा वसधातुः, किप , 'यजादिवचेः किति' 'ऋवर्णोवर्ण दोसिसुसशश्वदकस्मात्त इकस्येतो (4 / 1 / 72) इति य्वृत् , उस् इति निष्पन्नः, सस्य लुक / / 7 / 4 / 71 / / षत्वम् , उषा चरति औषिकः, 'चरति' (64 / 11) इति इकण / १२मथितं पण्यमस्य माथितिकः, म. वृ०-ऋवर्णान्तात , उवर्णान्तात , दोस् 'तदस्य पण्यम्' (6 / 4 / 54) इकण् // 7 // शब्दात,, इसन्तात् , उसन्तात् शश्वदकम्मात्शब्दवर्जितात तकारा ताच्च परस्य इकप्रत्ययस्य सम्ब असकृत् सम्भ्रमे // 7/472 / / न्धिन 'इतः इकारस्य लुक' स्यात / २मातृकम , म० वृ०-भयादिभिश्चित्तव्याक्षेपात् प्रयोक्तुः पैतृकम , शावरजम्बुकः, दौष्कः / [इसन्त-] त्वरणं सम्भ्रमः / तस्मिन् सम्भ्रमे द्योत्ये यत्प्रवर्तते 6 सार्पिष्कः / त (तकारान्त]- औदश्वित्कः / शश्व पदं वाक्यं वा तदसकृदनेकवारं प्रयुज्यते / अहिदकस्माद्वर्जन किम् ? शाश्वतिकम , आकस्मि- रहिः , अहिरहिरहिः , बुध्यस्व बुध्यस्व, बुध्यस्व कम् / इसमोः प्रत्यय योर्ग्रहणादिह न भवति,- | बुध्यस्व बुध्यत्व / सम्भ्रमे वीप्सायां वा पदं वाक्यं Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 530] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 4 सू०७३-७४ वाऽसकृत् प्रवर्त्तते न पदावयवः इति नासावस- / धर्मा इति क्रियापदमेवात्र द्विर्भवति / क्रिया१कृत् द्विर्वा भवति / तच्च पदं वाक्यं परिनिष्पन्नं विशेषणस्यापि क्रियात्वेनाध्यवसायाद् [अभेदोपचासत्तत्र प्रवर्त्तते नापरिनिष्पन्नमिति कृतेषु यत्वादि- रात् ] भृशादियोगे द्विर्वचनं भवति, यथा-पुनः पुनः कार्येषु तदसकृत् द्विर्वा भवति नाकृतेषु। तथा कृतद्विर्व- पचति, भूयो भूयः पचति, वारं वारं भुङ्क्ते, मुहुचनानामपिरूपार्थयोरभेदेन स्थानिवद्भावेनचैकप- मुहुः पिबति, स्तोकं स्तोकं चलति / यदा तु क्रियादत्वात् 'कौतस्कुतः, 'पौनःपुन्यम् , पौन:पुनिकः रूपता न विवक्ष्यते तदा 'नवा गुणः सदृशे रित्' इत्यादिषु तद्धितः सिद्धः // 72 / / (7 / 4 / 86) इति सादृश्ये द्विवचनं भवति,-मन्दं मन्दं तुदति, स्तोकं स्तोकमस्तमयते / भृशाभीक्ष्ण्याअव०-अनेन सूत्रेणासकृत् , रवक्ष्यमाणसत्रै- र्थयोर्यङिति यान्तमुक्तार्थत्वान्न द्विरुच्यते, यदा स्तु द्विवचनम् / विभक्तिप्रत्ययादिभिः परिनिष्पन्नं तु भृशार्थे यङ् तदाभीक्ष्ण्यार्थाभिव्यक्तये 'द्विर्वसिद्धं सत् तत्र सम्भ्रमे वीप्सायां(वा)प्रवर्त्तते,कोऽर्थः? वचनं भवति-पापच्यते पापच्यते इति / प्राक् प्रयुज्यते इत्यर्थः / “कुतः, पूर्वम् 'असकृत्सम्भ्रमे' तमबादेरिति किम् ? पचतिपचतितमाम् , तराम् / ' इत्यनेन द्विवचनं क्रियते, कुतस् कुतस् इति, ततः अत्र तमबादेरातिशायिकात् पूर्वमेव द्विवचनम् , कुतः कुत आगत इति तद्धितवाक्ये 'भ्रातुष्पुत्रकस्का'० पश्चात्तमबादिः, अन्यथा ह्यनियमः स्यात् / / 73 / / (2 / 3 / 14) इति गणपाठसामर्थ्यात् निपातनादागतेऽर्थे 'तत आगते'(६।३।१४९) इत्यनेन अणेव भवति, ___ अवo-'क्रियाया इत्यत्र जात्यपेक्षया एकवचनम् / न तु 'क्वेहामात्रतस'० (6 / 3 / 16) इत्यनेन त्यच् , साकल्यमेव प्रकटयति, साकल्यामति कोऽर्थः ? कुतः कुत आगतः कुतःकुतस्त्यः ; अणि वृद्धिः, ततः अवयवेत्यादि / अभीक्ष्णं भोजनं पूर्व भोजम् , 'भ्रातुष्पुत्र' इत्यनेन रेफस्य स्थाने सकारः कौतस्कुत 'ख्णम् चाभीक्ष्ण्ये' (54 / 48) इति ख्णम् / बृहद्इति सिद्धम्। 'पुनर् शब्दः, 'असकृद्' इति द्विवचनम् , वृत्तौ “क्रियापदमेवात्र सम्बध्यते', (इति) पाठः, पुनर पुनर, पुनःपुनरित्यस्य भावः-पौनःपुन्यम् सम्बध्यते कोऽर्थः ? द्विवचनेन सह क्रियापदस्य ट्यण ; "पुनःपुनर्भवः-पौनःपुनिकः, 'वर्षाकालेभ्यः' सम्बन्धः / शनैः शनैः गच्छति, मन्दं मन्दं वदति (6 / 3 / 80) इकण , 'प्रायोऽव्ययस्य' (7 / 4 / 65) इति इत्याद्यपि / मन्दं मन्दमिति नेदं क्रियाविशेषणम् , अन्त्यस्वरादिलोपः / / 72 // किन्तु मन्दं मन्दमिति कोऽर्थः ? मन्दसदृशमित्यर्थः / भृशा-ऽऽभीक्ष्ण्या-विच्छेदे द्विः प्राक् तमबादेः यदा तु आभीक्ष्ण्ये यङ् तदा भृशाभिव्यक्तये द्विर्व चनं न भवति, शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् / पापच्यते // 7473 // पापच्यते इत्यक्षराग्रे यदा पुनस्तत्प्रतिपादनाय कोऽर्थः? म० वृ०-१क्रियायाः साकल्यम्= अवयव भृशार्थे यङ तस्याभीक्ष्ण्यार्थप्रतिपादनाय पञ्चमी क्रियाणां कात्स्न्य [सामस्त्यं] भृशार्थः / [प्रधान विधीयते तदा तस्याः पञ्चम्या द्विवचनसहायाया क्रियाया] पौनःपुन्यमाभीक्ष्ण्यम् / क्रियान्तरैरव्यव एवाभीक्ष्ण्यार्थप्रतिपादने सामर्थ्य भवति,क्त्वाख्णमोधानमविच्छेदः / एषु [भृशादिषु] द्योत्येषु यत्पदं रिव- भुक्त्वा भुक्त्वा भोज भोजं गच्छतीत्यादिवत् , वाक्यं वा तत् तमबादिप्रत्ययेभ्यः प्रागेव द्विरुच्यते। इति द्विवेचनपि भवति, यथा पापच्यस्त्र पारभृशे,-लुनीहि लुनीहि इत्येवायं लुनाति, अधीष्या च्यस्वेति / पचतिपचतितराम् / / 73 / / धीष्वेत्येवायमधीते।आभीक्ष्मये,-उभोज भोज याति, भुक्त्वामुक्त्वा गच्छति। अविच्छेदे,-पचति पचति, नानावधारणे / / 7 / 4 / 74 // अधीते अधीते, प्रपचति प्रपचति, सत्करोति सत्क- म० वृ०-नानाभूतानां भेदेनेयत्तापरिच्छेदो रोति, अलङ्करोति अलङ्करोति / मृशादयश्च क्रिया- नानावधारणम् / तस्मिन् यत् पदरूपं तद् द्विरुच्यते Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विरुक्सिविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 531 योगविभागात्तमबादेरिति नानुवर्तते / अस्मात्का- म० वृ०-समानां केनचिद् गुणेन तुल्यतया र्षापणादिह भवद्भ्यां माषं 'माषं देहि, द्वौ द्वौ, सम्प्रधारितानां स्त्रीलिङ्गस्य भावस्य प्रश्ने यत् डत- / त्रीन् त्रीन् देहि / एषु कार्षापणसम्बन्धिनो माषा न रान्तं डतमान्तं च शब्दरूपं तद् द्विरुच्यते / उभासाकल्येन दित्सिताः [दातुमिष्टाः], किं तर्हि ? विमावाढ्यौ, कतरा कतराऽनयोराव्यता' ? कतमाप्रत्येकं माषमात्रमेव द्वावेव त्रय एव वा इति न कतमाऽनयोराढयता ? सर्वे इमे आढ्याः , यतरा वीप्साऽस्ति ||74|| यतरा एषां विभूतिः ततरा ततरा कथ्यताम् , यतमा एषां सम्पत् ततमा ततमा कथ्यताम् / डतरडतमाप्रव०-'माषं माषं देहीति कोऽर्थः ? प्रत्येकं विति किम् ? उभाविमावाल्यौ, काऽनयोराव्यता ? माषमात्रं देहि, नाधिकमित्यर्थः / / 74 / / स्त्रीग्रहणं किम् ? उभाविमावाढ्यौ, कतरदनयोराआधिक्या-ऽऽनुपूर्ये / / 7 / 4 / 75 / / / ढयत्वम् ? कतमोऽनयोर्विभवः ? / भावग्रहणं किम् ? म० वृ०-आधिक्यं प्रकर्षः / आनुपूर्य क्रमा उभाविमौ लक्ष्मीवन्तौ,कतराऽनयोर्लक्ष्मीः ? / लक्ष्यनुल्लङ्घनम् / एतयोर्यच्छब्दरूपं तद् द्विरुच्यते / तेऽनया पुण्यकर्म इति लक्ष्मीः , इयं स्त्री भवति, न आधिक्ये,- 'नमो नमः, कन्या दर्शनीया कन्या | भाव इति / प्रश्न इति किम् ? उभाविमावाढयौ, यतदर्शनीया,२ उमह्यं रोचतेतराम मह्यं रोचतेतराम् / राऽनयोराढयता ततरा श्रूयताम् // 6 // आनुपू],-"मूले मूले स्थूलाः, अग्रे अग्रे सूक्ष्माः , ___अव०-१किं दैवकृता उत पौरुषकृता आढ्यता ज्येष्ठ ज्येष्ठमनुप्रवेशय, कनिष्ठ कनिष्ठमानय / / 75 / / इत्यर्थः / २किं साधनसम्बन्धकृता उतान्यसम्बअव०-१अधिकं नम इत्यस्यार्थो मन्तव्यः / (एवम् ) न्धकृता आहोस्विदुभयसम्बन्धकृता आढ्यता, कतमा अहोदर्शनीया अहो दर्शनीया, मह्यं रोचते मह्यं रोचते, कतमा अनयोराठ्यतेत्यस्यायमर्थः / एवं सर्वे इमे एष तवाञ्जलिः एष तवाञ्जलिः / उ'मह्यं रोचतेतराम्', | आढयाः, कतरा कतरा एषामाढयता ? कतमा कतमा अत्र पूर्वमातिशायिकस्तरप् , पश्चाद् द्विवचनं भवति। एषामाढयता इत्यपि // 76 / / "मूलाद्यानुपूर्येण एषामुदाहरणानां स्थौल्यादय इ- पूर्वप्रथमावन्यतोऽतिशये / / 7 / 4 / 77 // त्यर्थः। अग्रमध्यमूलानि त्रयो भागाः, तत्रैकमेव म० वृ०-अन्यतोऽतिशये-तदर्थस्य प्रकर्षे द्योत्ये मुख्यमग्रं मूलं च ; अन्येषां भागानामपेक्षाकृतोऽग्र पूर्वप्रथमशब्दौ द्विरुच्येते / 'तमादेरपवादः / पूर्व मूलव्यपदेशः / अधोसंनिविष्टमपेक्ष्य अग्रव्यपदेशः / उपरिसंनिविष्ठमपेक्ष्य मूलव्यपदेशः / न चैकरूपं पूर्व पुष्प्यन्ति, प्रथमं प्रथमं पच्यन्ते ; अन्येभ्यः भागानां स्थौल्यं सौक्ष्म्यं वा, किं तर्हि ? यथामूल उपूर्वतरं पुष्प्यन्ति, प्रथमतरं पच्यन्ते इत्यर्थः / / मुपचीयते स्थौल्यम् , यथा अग्रं सौक्षयोपचय इति __ अव०-'तमप (इति) तमादेः। २जम्बीरादेः वीप्सा नास्ति / एवं ज्येष्ठत्वकनिष्ठत्वयोरप्यापेक्षिक सकाशात् आम्रादयः पूर्व पूर्व पुष्प्यन्ति / पूर्व पूर्व त्वाद् वीप्सा नास्तीति वचनम् / एवं पूर्वसूत्रमपि पुष्प्यन्ति इत्यादीनामयं भावार्थः, एषूदाहरणेषु स्व॥७५ // व्यापारोपेक्षो(अन्यव्यापाराऽपेक्षया?)ऽतिशयोगम्यडतर-डतमो समानां स्त्रीभावप्रश्ने // 7 / 4 / 76 // | ते, तथाहि- न तावदिमे जम्बीराद्याः किशलयिताः ॐ अस्य सूत्रस्य वृत्तौ तदवचूरौ वा कथमप्यलिखितं प्रत्युदाहरणं तदर्थश्च बहवृत्तित उल्लिख्यते-अन्यत इति किम् ? पूर्वतरं पुष्टयन्ति, पूर्वतरं पच्यन्ते / अत्र स्वव्यापारापेक्षयाऽतिशयो गम्यते, न तावदिमे किशलयिता यावत्पुष्पिताः, न तावदिमे पुष्पिता यावत्पक्वा इति / अतिशय इति किम् ? पूर्वम्, प्रथमम् / Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 532 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०७ पा०४ सू०७८-८० यावदाम्रादयः पुष्पिता इति / न तावदिमे जम्बीराद्याः | रुच्यते। वीप्सा च स्याद्यन्तेष्वेव भवतीति श्तेषामेव पष्पिताः यावदिमे आम्रादयो हि पक्का इति / अन्ये- | द्विवचनम् / वृक्ष वृक्षं सिञ्चति, "ग्रामो ग्रामो भ्यः पर्वतरं पष्प्यन्तीत्यत्र मतान्तरेण तरप भवति, / रमणीयः, गृहे गृहे अश्वाः, योद्धा योद्धा क्षत्रियः / अलौकिकमर्थकथनमात्रं वा / 'पुष्पच् विकसने' | तथा रूपं रूपं पश्यति, शुक्लं शुक्लमानयति, इति देवादिकः पुष्प्यन्ति इति प्रयोगः // 7 // 'क्रियां क्रियामारभते / व्यापकधर्मस्यापि व्याप्येप्रोपोत्सं पादपूरणे // 7 / 4 / 78 // नाभेदोपचारात् भेदे सति १°व्यापकान्तरापेक्षायां वीप्सा भवति,-स एवान्योऽन्यः सम्पद्यते, नवो म० वृ०-प्र उप उत् सम् इत्युपसर्गा द्विरुच्य- नवो भवति जायमानः / आढयतरमाढयतरमानय, न्ते, यदि पादः पूर्यते। अत्र द्विर्वचनात् प्रागातिशायिकः // 8 // १"प्रप्रशान्त कषायाग्ने,-रुपोपप्लववर्जितम् ; . उदुज्ज्वलं तपो यस्य, संसंश्रयत तं जिनम्" / __ अव०-'वीप्सायाम्' इति प्रवाहसूत्रम् , प्रायः पादपूरण इति किम् ? प्रणम्य सच्छासनवर्धमानम् सर्वत्र 'बीप्सायाम्' इति सूत्रेणैव द्विर्वचनं क्रियते / // 78|| ननु वृक्षं वृक्षं सिञ्चतीत्यादौ वीप्सायां बहवोऽर्थाः प्रतीयन्ते, तत्र बहुषु बहुवचनं प्राप्नोति / उच्यते, अव०-प्रशम्यते स्म-प्रशान्तम् / कषायाग्ने पृथक्सङ्ख्यायुक्तानामिति सूत्रार्थवचनात् परिगृहीरिति पञ्चमीङसिः // 78 // तैकत्वादिसङ्ख्यानां पदार्थानां वीप्सया योगः इति सामीप्येऽधोऽध्युपरि / / 7 / 4 / 79 // तस्याः ( एकत्वादि सङ्ख्यायाः परित्यागो न भवम. वृ०-'सामीप्ये विवक्षिते अधस् अधि / तीति पुनः समुदायात् वृक्षं वृक्षमितिरूपात् बहुउपरि इति द्विरुच्यन्ते / अधोऽधो ग्रामम् , अध्यधि / वचनं न भवतीत्यर्थः। 'वीप्सा भवतीति सम्बन्धः / ग्रामम् , उपर्यपरि दुःखानि / सामीप्ये इति किम् ? भृशत्वाऽऽभीक्ष्ण्ये तु धातोरेव द्विवचनं भवति / अधः पन्नगाः, अधिब्रह्मदत्ते पश्चालाः,उपरि चन्द्रः / उस्याद्यन्तशब्दानामेव / वृक्षमिति क्रियोदाहरणम / // 79 // "ग्राम इति गुणोदाहरणम् / गृहे इति द्रव्योदाहर णम्। "योद्धेति जातेरुदाहरणम् / पक्रियया गुणो अब०-'सामीप्यं देशकृता कालकृता प्रत्या व्याप्यते, अत्रोदाहरणद्वयमिदम् / अत्र क्रियया सत्तिः / ब्रह्मदत्तस्वामिनः पश्चालाः स्वा इत्यर्थः, क्रिया व्याप्यते / १°सम्पद्यते इत्यादि क्रियायापे'स्वेशेऽधिना' (2 / 2 / 104) सप्तमी / उउपरि चन्द्र क्षम [ ? क्रियापेक्षायाम् ] / 'वीप्सायाम्' इति सूत्रे स्याये कथमुपशिरसो घटः ? अत्रौत्तराधर्यमानं विशेषोऽयम् , जात्येकशेषेतरेतरयोगक्रमाभिधानेषु विवक्षितम् , सदपि सामीप्यं न विवक्षितमिति सत्यामपि व्याप्तौ यथोक्तलक्षणवीप्साया अभावान्न द्विवचनं न भवति / यथायथमिति मकारान्तमव्य द्विक्तिः / तथाहि सम्पन्नो यवः, सम्पन्ना यवाः / यं यथास्वमित्यर्थे आश्रीयते इति // 79|| जातेरेकत्वात् बह्वर्थाभिधानं नास्ति / अस्मिन् वने वीप्सायाम् // 74 / 80 // वृक्षाः शोभनाः, अत्र 'स्यादाव०' (3 / 1 / 119) इत्येकम०वृ०-द्रिव्येण] पृथक्सङ्ख्यायुक्तानां बहूनां शेये साकल्येन व्याप्तिास्ति / तथाहि-कतिपयेष्वपि सजातीयानामर्थानां साकल्येन प्रत्येकं क्रियया / वृक्षेषु शोभनेष्वयं प्रयोगो भवति। एवमितरेतरयोगुणेन द्रव्येण जात्या वा युगपत् प्रयोक्तुाप्तुमि- | गेऽपि / अस्मिन् वने धवखदिरपलाशाः शोभना च्छा 'वीप्सा / वीप्सायां यच्छब्दरूपं तद् द्वि- | इति न वीप्सा विजातीयत्वात् साकल्याभावाच.... *अत्र 'इति' इत्यस्याग्ने “यथास्वे यथायथमिति नारम्यते" इति योजनीयम् / Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्लुपविधानम मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम। [533 . ( इति न द्विः ) / तथा अत्र वनेऽयं वृक्षः शोभनः | प्रयोगः / 4 एकएका', अत्र एका इति मूलपदम् / अयं वृक्षः शोभन इति क्रमाभिधाने साकल्येनापि "एकएकस्याः', अत्र एकस्या इति पदस्य द्वित्वम् , व्याप्तौ यौगपद्याभावान्न वीप्सा। अत्र वने तु सर्वे 'क्यङमानि'० (3 / 2 / 50) इति पुवद्भावः.. वृक्षाः शोभनाः, अत्र तु सर्वशब्देन वीप्सार्थाभिधा- ....... (?)एकएका एकएकस्या इत्युदाहरणद्वये / नान्न द्विरुक्तिः, यथा तद्धितसमासाभ्यां वीप्सार्था- 6 अग्रे इत्यत्र 'आधिक्यानुपूर्ये' (74 / 75) इति भिधानाद् द्विरुक्तिन भवति / तद्धित,-द्वौ द्वौ पादौ द्वित्वम् , ऋक् इत्यत्र 'आबाधे'(७।४।८५) इत्यनेन ददाति=द्विपदिकां ददातीत्यत्र 'सङ्ख्यादेः पादा- द्वित्वम्। यथाऽत्र न अकारलोपः गकारश्च (न) दिभ्यो दानदण्डे चाकल लुक च' ( 7 / 2 / 152) / भवतीत्यर्थः / ऋक् ऋगिति'इत्यस्याये (इदं ज्ञेयम्-) इत्यनेनाकल तथाऽकारस्य लुक् / एकैकं ददाति इति / आदिपदस्य स्यादेः प्लुप्युत्तरेणाभेदाश्रयणे स्याएकशो ददाति, अत्र संख्यैकार्थाद्वीप्सायां शस्' (7) द्यन्तत्वात् 'सर्वादयोऽस्यादौ' (3 / 2 / 61) इति पुंव२।१५१) इत्यनेन शस् , महावाधिकारबलाच्च शस् द्भावो न प्राप्नोति इति लुपः पित्त्वं विधीयते / 81 / द्विवचनं च भवति / तत्र एकैकशो ददातीति प्रयोगः द्वन्द्व वा // 7 / 4 / 82 // सिद्धः / वीप्सार्थद्विरुक्तिबाधकः शस् इति 'संख्यैकार्था०' (७।२।१५१)इत्यत्र उक्तमस्ति, इति(तथापि?) म. वृ०-द्वन्द्वमिति श्रीप्सायां द्विरुक्तस्य द्विशवाधिकारबलात् शस् द्विरुक्तिश्च भवति / तथा ब्दस्यादौ स्यादेः प्लुप्, 'इकारस्याम्भावः, 2 उत्तरत्र समासः,-अर्थमर्थ प्रति प्रत्यर्थम् ,अत्र 'योग्यतावी इकारस्यात्वं स्यादेश्वामभावो वा निपात्यते / द्वन्द्वं प्सा०' (3 / 1 / 40) इति अव्ययीभावः समासः, समा तिष्ठतः, द्वौ द्वौ तिष्ठतः, द्वन्द्वं युद्धं वर्तते, द्वयोयोसेन वीप्साया उक्तत्वान्न द्विरुक्तिः / एवं पङ्क्ती युद्धं वर्त्तते, द्वन्द्वं कृतम् , द्वाभ्यां द्वाभ्यां [कर्तरि पतौ अष्टौ पदान्यस्य= अष्टापदः / / 80 // तृतीया] कृतम् / / 82 // प्लुप् चादावेकस्य स्यादेः / / 7 / 4 / 81 // अव०-'द्वन्द्वं वा' अत्र प्रथमासिः, 'दीर्घङम० वृ०-एकशब्दस्य वीप्सायां द्विरुक्तस्यादौ याब' (1 / 4 / 45) सिलोपः / 'पूर्वस्य द्विशब्दस्य / य एकशब्दस्तत्सम्बन्धिनः स्यादेः 'प्लुप्' स्यात् / अग्रेतनद्विशब्दस्य तु अकारः / द्वन्द्वं तिष्ठतः पित्करणं पुवद्भावार्थम् / अत एवातद्धिते लुपि इत्यादौ सर्वोदाहरणेषु यथासम्भवं द्वौ द्वयोः द्वाभ्याम् इति विभक्त्या निष्पाद्य ततो द्वौ द्वाभ्यां द्वयोः पुवद्भावः / 'एकैकः, २एकैका, एकैकस्याः / द्वाभ्यामिति पदानां द्विर्वचनं 'द्वन्द्वं वा' इति सूत्रेण ४एकएका, एकएकस्याः अत्र विरामस्य विवक्षितत्वात् क्रियते, निपातनबलात् उभयस्यापि द्विशब्दस्य स्यापवद्भावे सति सन्धिकार्य न भवति, यथा- अग्रे दिलोपः, इकारस्य तु अम्भावो निपात्यते, पक्षे अग्रे सूक्ष्माः ,ऋक् ऋगिति / चकार उत्तरत्र प्लुप् द्वौ द्वौ, द्वयोः द्वयोः, द्वाभ्यां द्वाभ्यामिति भवति इति द्विवचनयोः समुच्चयार्थः / इह तु द्विवचनं पूर्वेणैव सम्भाव्यते // 8 // सिद्धम् , प्लुपमात्रं विधीयते // 8 // रहस्य-मर्यादोक्ति-व्युत्क्रान्ति-यज्ञपात्रप्रयोगे अव0-'एकैः, अत्र एक इति प्रकृतिः, // 74 / 83 / / द्वित्वे एकैक इति प्रयोगः / “एकैका', अत्र एका म. वृ०-१वीप्सायामिति निवृत्तम् / द्वन्द्वइति प्रकृतिः, द्वित्वे एकैका इति प्रयोगः / “एकैकः / मिति द्विशब्दस्य द्विवचनम् , शेषं पूर्ववत् रहस्यादिषु स्याः', अत्र एकस्या इति पदस्य द्वित्वम् , पूर्वस्य एक- गम्यमानेषु निपात्यते / रहस्ये,-द्वन्द्वं मन्त्रयते, स्या इति शब्दस्य विभक्तिलोपे एकैकस्या इति | रहस्यं मन्त्रयते इत्यर्थः / २मर्यादोक्ती,-पशवो Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 534 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 7 पा० 4 सू० 84-86 - द्वन्द्व मिथुनायन्ते। व्युत्क्रान्ती, द्वन्द्वं व्युत्क्रान्ताः।। अव०-१अत्यन्तं साहचर्यम्=अत्यन्तसाहचर्यम् , यज्ञपात्रप्रयोगे,-द्वन्द्वं यज्ञपात्राणि प्रयुनक्ति / 'नाम नाम्ना०' (3 / 1 / 18 ) इति समासः। द्वन्द्वद्वन्द्वः समासः, (द्वन्द्वः) कलहः, द्वन्द्वं युद्धम् , द्वन्द्वं मिति च सूत्रत्रयेऽपि' इत्यादि, निपातनात् प्रयोगो युग्मम् , द्वन्द्वानि [दुःखानीत्यर्थः] सहते; एषु द्वन्द्व यथा- द्वन्द्वं शोभते / उ'अनुप्रयोगस्य' इत्यादि, द्वन्द्वं इति शब्दान्तरम् / / 3 / / नारदपर्वतौ रमणीये इत्यादिकस्यानुप्रयोगस्य / / 84 // आवाधे // 7 / 485 // अव०-१'रहस्य'० इति सूत्रे वीप्सायामिति म० वृo-आबाधो मनःपीडा [प्रयोक्तृधर्मः]। निवृत्तमित्युक्तम् , परमुदाहरणेषु द्वन्द्वं मन्त्रयते आबाधे वर्तमानं शब्दरूपं द्विरुच्यते, तत्र चादौ इत्यादीनामर्थोऽयम् ,-इमे जना द्वौ द्वौ भूत्वा मन्त्र- पूर्वपदे स्यादेलूप् स्यात् / ऋक् ऋक् , [ पू: पू: ] यते इति अर्थो विवक्षितोऽस्ति, अतो वीप्सा गम्य- गतगतः, नष्नष्टः, गतगता, नष्टनष्टा, नन करोमि मानास्ति, वीप्सां विना अर्थो न सङ्गतः इति तत्त्वं न करोमीत्यर्थः] / ऋगादेर्दरुच्चारणादिना पीडय-. . वृद्धा विदन्ति / रम्रियते इति मरः, अल , मरे मानः प्रयोक्ता एवं प्रयुङ्क्ते / अष्टमी अष्टमी, साधवो मर्याः, मर्यैरादीयते इति मर्यादा, मर्यादा- कालिका कालिका इत्यत्र तु पूरणप्रत्ययान्तत्वात यामुक्तिः, तस्याम् / बृहद्वृत्ती- आचतुरं हि कोपान्त्यत्वाच्च [तद्धिताककोपान्त्य०' ( 3 / 2 / 54 ) इमे पशवो द्वन्द्वं मिथुनायन्ते इति युक्त्या उदाहर- इत्यनेन न पुवद्भावः // 85 // णम् , चतुर्ध्यामा आचतुरम् , 'शरदादेः' (7 / 3.92) अव०-काल एव कालकालकः, काल, गौरादि'० इत्यत् , 'पर्यपावहिरच् पञ्चम्याः ' (3 / 1 / 32) इति (2 / 4 / 19) इति डी, काल्येव-कालिका?] 'कालात्' समासः, मिथुनामवाचरन्ति-मिथुनायन्ते, क्यङ / ( 73 / 19) इति. कः, (अ)गुणवृत्तिरसौ शब्दः, माता पुत्रेण सह अथवा माता पौत्रेण यदि वा माता गुणवृत्तित्वे तु परत: स्त्रीत्वाऽभावात् पुवद्भावो प्रपौत्रेण तत्पुत्रेण च, एवमिमे पशव आचतुरं यथा न स्यात् / अथवा कालशब्दात् 'भाजगोणनागभवति एवं मैथुनं कुर्वन्तीत्यर्थः / द्वौ द्वौ भूत्वा स्थलकुण्डकाल' (2 // 4 // 30) इत्यादिना डी, द्वन्द्वं व्युत्क्रान्ताः, द्वौ राशी येषां ते द्विराशयः, कालीशब्दः, काल्येव-कालिका, 'कालात्' (73 / द्विराशीनां भावो द्वैराश्यम् , द्वैराश्येन व्युत्क्रान्ताः, | 19) कः / / 85 / / कोऽर्थः ? भिन्ना इत्यर्थः / द्वन्द्वम् 'अत्र द्वितीयाद्विव नवा गुणः सदृशे रित् // 7 // 4 / 86 // चनम् , द्वे द्वे प्रयुनक्तीत्यर्थः / मर्यादाक्तापित्यत्र उक्तिग्रहणं शब्दोपात्तायां मर्यादायां यथा स्यात् , म० वृ०-गुणशब्दो मुख्यसदृशे गुणे गुणिनि प्रकरणादिगम्यमानायां मर्यादायां मा भूदित्येवम | च वर्तमानो नवा द्विरुच्यते, तत्र चादी वर्तमानर्थम् / रहस्यादिष्विति किम् ? द्वौ तिष्ठतः / / 83 / / / स्य स्यादेः प्लुप् , सा च रित् / रित्करणं प्रतिषि द्धस्यापि पुंवद्भावस्य 'रिति' (3 / 2 / 58) इति लोकज्ञातेऽत्यन्तसाहचर्ये' // 7 / 4 / 84 // विधानार्थम् / 'शुक्लशुक्लं रूपम् , शुक्लशुक्ल: पटः, म. वृ०-लोकज्ञातेऽत्यन्तसाहचर्ये द्योत्ये कालककालिका / वाग्रहणात् पक्षे जातीयरपि, द्विशब्दस्य पूर्ववद् द्वन्द्वमिति निपात्यते / द्वन्द्वं राम- | शक्लजातीयः, पटजातीयः। गण इति किम ? लक्ष्मणौ, द्वन्द्व बलदेववासुदेवौ। लोकज्ञाते इति / अग्निर्माणवकः, गौर्वाहीकः / यः सदा गुणवाची स किम् ? द्वौ चैत्रमैत्रौ / अत्यन्तसाहचर्य इति किम् ? | इह गुणशब्दो गृह्यते, अयं तूपमानात् प्राक् [प्रथमं] द्वौ युधिष्ठिरार्जुनौ / द्वन्द्वमिति च सूत्रत्रयेऽपि द्रव्यवाची, पश्चात्तु तैक्षण्यजाडयादिगुणवाचीति न नपुंसकं ज्ञातव्यम् , अनुप्रयोगस्य नपुंसकार्थम्।८४।द्विरुक्तिः / / 86 / / Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विरुक्तिविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [535 - - अव०-१शुक्लादिसदृशं वस्तु अपरिपूर्णगुण- | माणवक !, अविनीतक 3 अविनीतक !, अविनीमेवं शुक्लशुक्लं रूपमित्यादि उच्यते / २कालकका- | तक अविनीतक ! इदानीं ज्ञास्यसि जाल्म ! / लिका,अत्र रिति'(३२।५८) इति सूत्रेण पुंवद्भावः। | कुत्सने,-शक्तिके 3 शक्तिके !, शक्तिके शक्तिके ! शुक्लप्रकारोऽस्य, 'प्रकारे जातीयर' (72 / 75) / 86 / रिक्ता ते शक्तिः / आदीति किम् ? १०भव्यः प्रियसुखं 'चाकृच्छ // 7 / 4 / 87 // खल्वसि माणवक ! // 89 // म० वृ०-प्रियसुखशब्दावकृच्छ [क्लेशाभावे] प्रव०-'आदि च तत् आमन्त्र्यं च / कार्यअर्थे नवा द्विरुच्येते, तत्र च आदौ शब्द(रूपस्य) वाभिमत्यं संमतिः पूजनं वा / उपरगुणासहनस्यादेः प्लुप् / प्रियप्रियेण ददाति, प्रियेण ददाति ; मसूया / कोपः क्रोधः / 'कुत्सनं निन्दा / एते सुखसुखेन, सुखेन अधीते ; अक्लेशेनेत्यर्थः / / 8 / / प्रयोक्ता(यो) देवदत्तः तस्यैव धर्माः नाभिधेयधर्माः / एवमभिरूपक३ अभिरूपक!अभिरूपक अभिरूपक! प्रव०-१चकारः 'प्लुप चादौ स्यादेः' (74 | इत्यपि / स्वरेष्विति किम् ? व्यञ्जनान्तस्यापि 81) इत्यस्यानुकर्षणार्थः, तथा च चकारानुकृष्ठत्वा- यथा स्यात् ,कोऽर्थः?व्यञ्जनान्तस्य शब्दस्य स्वरेष्वदुत्तरत्र नानुवृत्तिः // 87|| न्त्यः स्वरः प्लुतो भवति इत्यर्थः / शक्नोति स्म= वाक्यस्य परिर्वजने // 7488 // शक्तः, तत आप, शक्ता इति शब्दः, कुत्सिता शक्ता-शक्तिका, 'प्राग् नित्यात् कप्' (73 / 28), म0 वृ०-वाक्यस्यावयवो यः परिशब्दो न 'अस्यायत्त'० (2 / 4 / 111) इति इत्वम् / एवं यष्टिके पदस्य, स वर्जने वर्तमानो भवा द्विरुच्यते / 3 यष्टिके !,पक्षे यष्टिके यष्टिके! रिक्ता ते शक्तिः / परिपरि त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो मेघः / वाक्यस्येति किम्? यष्टस्तुल्या यष्टिका, 'तस्य तुल्ये कः संज्ञाप्रतिकृत्योः' परित्रिगर्त वृष्टो मेघः / वर्जन इति किम् ? साधु (7 / 1 / 108) इति कः / 10 भव्यः खल्वसी'-त्यत्र देवदत्तो मातरं परि / / 8 / / माणवक इत्यामन्त्र्यं पदमस्ति, परं न आदौ, किन्तु भव्य इति आदौ पदम् / तथा ११अन्त्यश्च इत्यत्र प्रव०-१ परित्रिगतम्', अत्र 'पर्यपाहि '0 चकारो द्विवचनानुकर्षणार्थः / तथा च चानुकृष्त्वा(३।१।३२). इत्यव्ययीभावः / / 88| दुत्तरसूत्रेषु द्विर्वचनं नानुवर्तते // 89 / / संमत्यसूया कोप-'कुत्सनेष्वा द्यामन्त्र्यमादौ भर्त्सने पर्यायेण / / 7 / 4 / 90 // स्वरेष्वन्त्यश्च' प्लुतः // 7 / 4 / 89 / / म० वृ०-भर्त्सनं कोपेन दण्डाविष्करणम् / म० वृ०-संमत्याद्यर्थेषु वर्तमानस्य वाक्य- | तत्र द्विवचनं सिद्धमेव, प्लुतार्थ आरम्भः। भर्सने स्यादिभूतमामन्त्र्यमामन्त्रणीयार्थं पदं द्विरुच्यते,तत्र | वर्तमानस्य वाक्यस्य यदामन्त्र्यं पदं तद् द्विरुच्यते। द्विरुक्ती आदौ पूर्वोक्तौ स्वरेषु स्वराणांमध्ये योऽन्त्यः तत्र पर्यायेण पूर्वस्यामुत्तरस्यां चोक्तौ स्वरेष्वन्त्यः स्वरः स प्लुतो नवा भवति / संमत्यादिषु बहुवच- | प्लुतो वा स्यात् / चौर 3 चौर !, चौर चौर 3 !; नाद् द्विवचने विकल्पो न सम्बध्यते / संमतौ, चौर चौर ! 'घातयिष्यामि त्वाम् / / 90 // माणवक ३माणवक! ,पक्षेमाणवकमाणवक!शोभन: अव०-'हन् , घ्नन्तं प्रयुङ्क्ते, णिग्, खल्वसि / असूयायाम् ,-माणवक ३माणवक !, / किणति घात्' (4 / 3 / 100) / / 90 // माणवक माणवक !, अभिरूपक 3 अभिरूपक !, | अभिरूपक अभिरूपक! रिक्तं ते आभिरूप्यम् / त्यादेः साकाङ्क्षस्याङ्गन / / 7 / 4 / 91 / / कोपे,-माणवक३ माणवक !, [ पक्षे] माणवक | म० वृ०-भर्त्सनेऽर्थे वाक्यस्य सारेवन्त्यः Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 536 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 4 सू० 92-95 . स्वरः त्याद्यन्तस्य पदस्य वाक्यान्तराकाङ्क्षस्य अङ्ग / तात, आमन्त्रणे सिः, अदेतः स्यमोलुक्' (1 / 4 / 44) इति निपातयुक्तस्य सम्बन्धी प्लुतो वा स्यात् / // 92 // 'अङ्ग कूज३ ! अङ्ग कूज! इदानीं ज्ञास्यसि चितीवार्थे // 7 / 4 / 93 // जाल्म // 9 // म०वृ०-इवार्थे उपमायां वर्तमाने चित् इति निपाते प्रयुज्यमाने वाक्यस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वरः अव०-'अङ्ग इति कोमलामन्त्रणे सम्बोधने, 'प्लुतो'वा स्यात् / अग्निश्चिद्भाया३त् , 'भायाद्वा; (तदने) सिः, 'अव्ययस्य'(३।२।७) इति लुप् / 'क्षीज कूज गुज गुजु अव्यक्ते शब्दे” इति धातुः, पश्चमी राजाचिद् भूया३त् ,राजाचिद् भूयात् ; अग्निरिव हि, 'अतः प्रत्ययाल्लुक्' (4 / 2 / 85) / 'त्यादे:०'(७।४! राजेवत्यर्थः / इवार्थे इति किम् ? कथञ्चिदाहुः, 91) इति सूत्रे व्यावृत्त्युदाहरणानि, त्यादेरिति कृच्छणाहुरित्यर्थः / / 13 / / किम ? अङ्ग मैत्र !मिथ्या वदसि / साकाङक्षस्येति अव०-'भांक दीप्तौ', सप्तमीयात् / / 93 / / किम् ? अङ्ग ! पच, अत्र 'सम्मत्यसूया'० (74 / 89) इति सूत्रद्वयेन प्लुतो द्वित्वं च न भवति, यतो 'प्रतिश्रवण-निगृह्यानुयोगे // 7 / 4 / 94 // ऽनयोः सूत्रयोरामन्त्र्ये आमन्त्रणीयेऽर्थे यत्पदं वर्तते ____ म० वृ०-प्रतिश्रवणे निगृह्यानुयोगे च वर्त्ततद् गृह्यते, तस्य द्वित्वादिकम् ,अङ्गेति पदमामन्त्रण- मानस्य वाक्यस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वरः'प्लुतो' वास्यात् / मेव द्योतर्यात, नत्वामन्त्र्यम् , अङ्ग पच इति च परं अभ्युपगमे,-गां मे देहि भोः, हन्त ते ददामि 33 / न काङ्क्षति / अङ्गेनेति किम् ? मैत्र कूज! इदानी स्वयं प्रतिज्ञाने,-नित्यः शब्दो. भवितुमर्हति 3 , ज्ञास्यसि जाल्म / भर्त्सने इत्येव- अङ्गाधीष्व,मोदकं नित्यः शब्दो भवितुमईति / श्रवणाभिमुख्ये,-भो ते दास्ये // 11 // चैत्र! किं मार्ष 3, किं मार्ष। निगृह्यानुयोगे,-'अद्य क्षिया-२ऽऽशी:-प्रेषे // 7 / 4 / 92 // श्राद्धमित्यात्थ३, अद्य श्राद्धमित्यात्थ // 14 // म० वृ०-क्षियादौ वर्तमानस्य वाक्यस्य स्वरे- ____ अव०-'प्रतिश्रवणं परोक्तस्याभ्युपगमः, अथवा ध्वन्त्यः स्वरः त्याद्यन्तस्य पदस्य वाक्यान्तराकार- | प्रतिश्रवणं स्वयं प्रतिज्ञानम् , श्रवणाभिमुख्यं वा / स्य सम्बन्धी प्लुतो वा स्यात् / क्षियायाम् , स्वयं ह निगृह्य स्वमतात् प्रच्याव्यानुयोगो ,निग्रहपदस्यारथेन याति 3, उपाध्यायं पदातिं गमयति, [पक्षे विष्करणं निगृह्यानुयोगः, उपालम्भ इति यावत् / स्वयं ह रथेन याति, उपाध्यायं पदातिं गमयति / उपक्षे हन्त ते ददामि / 'मार्ष इति श्रवणाभिमुख्यआशिषि,-सिद्धान्तमध्येषीष्टाः३५ तक च तात ! पक्षे द्योतको निपातः / अद्य श्राद्धेति कोऽर्थः ? अद्य अध्येषीष्ठाः; पुत्रांश्च लप्सीष्ठाः३धनंच तात! प्रेषे,- श्राद्धमिति वादी युक्त्या स्वमतात् प्रच्याव्य एव कटं च कुरु३ कुरु वा,ग्रामं च गच्छ 3 गच्छ वा / 92 / उपालभ्यते / आत्थ', व , वर्तमानाति, 'रूगः पञ्चानां पञ्चाहश्च' (4 / 2 / 118) सिस्थाने थव , अव०-१क्षिया आचारभ्रंशः / आशीः प्रार्थ- रूस्थाने आह, 'नहाहोर्धतौ' (2 / 1 / 85) हस्य त् / / 9 / / नाविशेषः।। प्रैषोऽसत्कारपूर्विका व्यापारणा, दर्पा- | विचारे पूर्वस्य // 7 / 4 / 95 / / दिपरवशेन भृत्यप्रेरणमित्यर्थः / ह' इति आचारा- | म० वृo-'विचारविषये संशय्यमानस्य यत्पूर्व तिक्रमेऽर्थे। मध्येषीष्टाः',इक अध्ययने अधिपूर्वः, तस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वरः 'प्लुतो' वा स्यात् / अहिने 3 आशीःसिष्ठास्। हे तात ! त्वं सिद्धान्तं तर्क वा रज्जुर्नु [अहिर्नु रज्जुन] // 95||, . व्याकरणं वा मामध्येषीष्ठाः, अध्यापयेत्यर्थः / हे तात ! त्वं पुत्रान धनं च लप्तीष्ठाः, लभस्वेत्यर्थः / अव०-१किमिदमस्ति ? किमिदमिति निरू Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्लुतविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [537 पणं विचारः, संशय इति यावत् , तस्मिन् विचार- ( पदं प्रति योऽन्त्यः स्वरः स प्लुतसंज्ञो भवति इत्यर्थः / विषये / २एवं स्थाणुर्नु 3 पुरुषो नु, स्थाणुर्नु पुरुषो २अगम इत्यत्र गम्, अद्यतनीसिः, 'लुदिद्नु / / 95 / / धुतादि'० (3 / 4 / 64) अङ्। प्रतिपदमिति किम् ? ओमः प्रारम्भे / / 7 / 4196 / / वाक्यस्यैवान्त्यः स्वरः प्लुतो मा भूत् किन्तु पदस्य म० वृ०-प्रारम्भे प्रणामादे रभ्यादाने वर्त- / पदस्यान्त्यः स्वरो प्लुतो भवति / / 98 // मानस्य ओमशब्दस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वर: 'प्लुतो' वा 'दूरादामन्यस्य गुरुर्वैकोऽनन्त्योऽपि स्यात / ओ३म् ऋषभं पवित्रम् , ओम् ऋषभं लनृत् // 7 / 4 / 99 // पवित्रम् , एवम् ओ३म ऋषभमृषभगामिनं प्रणमत। म. वृ०-वाक्यस्य यः स्वरेष्वन्त्यः स्वरोदूराप्रारम्भ इति किम ? ४ओम ददामि // 96|| दामन्यस्य पदस्य सम्बन्धी गुरुर्वाऽनन्त्योऽपि [पदमध्यवर्ती] ऋकारवर्जितः स्वर लकारश्च एको अव०-आदिशब्दात् स्तुतेर्ग्रहः / २अभ्या दूरादामन्त्र्यस्यैव सम्बन्धी स 'प्लुतो' वा स्यात् / दाने अङ्गीकारे / (एवम् ) 3ओ३म् अग्निमीले पुरो- आगच्छ भो देवदत्त३!, देवदत्त ! वा [आगच्छ भो हितम अग्निम ईले-स्तौमि, किम्भूतं ? पुरोहितम्, | इन्द्रभूते ३!,इन्द्रभूते !वा ]; गुरुवैकोऽनन्त्योऽपि पुरोऽग्रतो धीयते भाः पुरोहितः, अथवा पुरोहितं लनृत् ,-सक्तून् पिब दे३वदत्त! ,सक्तून् पिब देवब्राह्मणं पुरोधसम् ईले स्तौमि, कीदृशं पुरोहितं ? द३त्त!; आगच्छ भो न३षभ,नषभ! ,आगच्छ भोः अग्निम ; अग्निं प्रायं कोपादिना / इदमप्युदाहरणं क्ल३तशिख! ,क्लप्तशिख ! | लकारग्रहणमनृदिति ज्ञातव्यम् / ओम् ददामि,अत्र ओंशब्दोऽभ्युपगमे / / प्रतिषेधनिवृत्त्यर्थम् / अथ ऋतः प्रतिषेधे लकारस्य हेः प्रश्नाख्याने // 7 / 4 / 97 // कः प्रसङ्गः ? उच्यते, इदमेव ज्ञापकम् "ऋवर्णम० वृ०-प्रश्नस्याख्याने पृष्ठप्रतिवचने वर्त्त ग्रहणे लवर्णस्यापि ग्रहणं" भवतीति, तेन अचीक्मानस्य वाक्यस्य स्वरेन्त्यः स्वरो 'हिशब्दसम्बन्धी लपदित्यादौ ऋवणकार्य लवर्णस्यापि सिद्धम् / अनृ'प्लुतो'वा स्यात् / अकार्षीः कटं मैत्र ! ? अकार्ष हि३, | दिति किम् ? कृष्णमित्र! ,कृष्णमित्र 3! / अनृअका हि। उत्तरेण सिद्ध नियमार्थ वचनम / हे: दिति गुरुर्विशेष्यते,न स्वरेष्वन्त्यः,तेनेहापि- आगप्रश्नाख्याने एव, हेः प्रश्नाख्याने वाक्यस्य स्वरेष्व च्छ भोः कर्तृ 3! १°कर्त ! वा / / 19 / / न्त्यः एव प्लुत इति च / / 97 / / अव० यत्र प्राकृतात् कोऽर्थः ? स्वाभावि कात् प्रयत्नात् प्रयत्नविशेष आश्रीयमाणे सन्देहो अव०-'आख्याने उत्तरदाने द्योतकोऽयं हिशब्दः / / भवति किमयं श्रोति नवा इति दूरमुच्यते / . प्रश्न च प्रतिपदम् / / 7 / 4.98 / / २'नवागुणः०' (७।४।८६)इत्यतोमहाविभाषयैवप्लुत_म. वृ०-[पदं पदं प्रति प्रतिपदम् | प्रश्ने विकल्पे सिद्धे यत्सुन-दुरादामन्त्र्य०'(७।४।९९) इति प्रश्नाख्याने च वर्तमानस्य वाक्यसम्बन्धिनः 'पद सूत्रे वाग्रहणं कृतं तन्न विकल्पार्थ किन्तु अन्त्यप्लुस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वरः 'प्लुतो वा' स्यात् / २अगमः तेन सह गुरोरसमावेशार्थम् , कोऽभिप्रायः ? यत्र पूर्वा३न् प्रामा३न् मैत्र३! ? पक्षे अगमः पूर्वान् अन्त्यस्वरस्य प्लुतत्वं भवति तदा तत्र पदेऽन्त्यस्यैव, ग्रामान मैत्र ! ? प्रश्नाख्याने,-अगम३म् पूर्वा३न न तु गुरोः प्लुतत्वम् , यत्र च स्थाने गुरोः प्लुतग्रामा३न चैत्र३! अगमं पूर्वान् ग्रामान चैत्र! // 28 // त्वम् तदा तत्र गुरोरेव, न तु अन्त्यस्य स्वरस्य, तेन क्ल ३प्तशिख३ ! इति परिणा प्रयोगो न भवति / अव०-१विभक्त्यन्तं पदम् इति वचनात् पदं / उ'लनृत्' इति , लनृत् कोऽर्थः ? ऋकारवर्जितः Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 538 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 4 सू० 100-101 स्वरः प्रस्तावात् ऋकारः लूकारश्च प्लुतो भवती- देशार्थम् , ह इ=हे, ह ए है इति लाक्षणिकयोरपि त्यर्थः / गुरुर्वाऽनन्त्योऽपि , गुरोरेव विशेषण- परिग्रहार्थे बहुवचनम् / २एवकारोऽन्यस्य प्लुतस्य मिदम् / (एवम् ) माणव कपिलक३!,माणव कपि- - व्युदासार्थः // 100 / / लक! / आगच्छ भो इ३न्द्रभूते!,आगच्छ भो इन्द्र- अस्त्रीशूद्रे प्रत्यभिवादे भोगोत्रनाम्नो भू३ते ! इत्यपि। नृ, ऋषभ, ना चासौ ऋषभश्च, वा / / 7 / 4 / 101 // सन्धौ सत्यां न ३षभ ! इति प्रयोगः / 'ऋतोऽत्' (4 / 1 / 38) इत्येव सिद्ध ऋवर्णकार्यम् / अचीकलप म० ३०-अभिवाद्यमानोगुरुः 'कुशलानुयोगेदित्यत्र कृपो धातोः “ऋरलं कृपोऽकृपीटादिषु" नाशिषा वा यद् युक्त वाक्यं प्रयुङ्क्ते स प्रत्यभि(२।३।९९) इति सूत्रेण ऋकारस्य लुकारो भवति, वाद उच्यते / तस्मिन् अस्त्रीशूद्रविषये वर्तमानस्य 'ऋहवणेस्य' (4 / 2.37) इत्यनेन लकारस्य गुणबाध वाक्यस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वरो भोःशब्दस्य गोत्रस्य नार्थ पुनर्ल कारः। कृष्णमित्र ! कृष्णमित्र३! नाम्नो वा आमन्त्र्यस्य सम्बन्धी 'प्लुतो वा' स्यात् / इत्यत्र कृ इत्यस्य ऋकारस्य प्लुतत्वं मा भूत व्याव अभिवादये मैत्रोऽहं भोः३ (भोः वा ), "आयुष्मा- . त्तिबलात् / १°कर्तृ शब्दात् सम्बोधने सिः, 'अनतो नेधि' भोः३ भोः वा / गोत्रे,-अभिवादये गार्योलुप्' (1 / 4 / 59) // 19 // ऽहं भोः , कुशल्यसि गार्ग्य३ ! गाये ! वा / नाम, हेहैप्वेषामेव / / 7 / 4 / 100 // अभिवादये चैत्रोऽहम् ,आयुष्मानेधिचैत्र३ चैत्र! वा। स्त्रीशू द्रवर्जनं किम् ? अभिवादये गार्म्यहं भोः,आयुम०व०-दूरादामन्त्र्यस्य सम्बन्धिनौ यौ हे है ष्मती भव गार्गि ! / पुनर्वाग्रहणमुत्तरत्र वाऽधिशब्दौ [दूगर्थद्योतको तयोः प्रयुज्यमानयोः तयोरेव कारनिवृत्त्यर्थम् // 10 // बाक्ये यत्रतत्रस्थयोरन्त्यः स्वरः 'प्लुतो वा' स्यात् / हे३ चैत्र ! आगच्छ,आगच्छ हे३ चैत्र! ,आगच्छ ___ अव०-'अस्त्रीशू द्र०' (74 / 101) इति सूत्रे चैत्र! हे३ / है३ मैत्र! आगच्छ,आगच्छ है३ मैत्र!. गोत्रविषये विशेषोऽयम् ,-राजन्यविशोः क्षत्रियवैआगच्छ मैत्र ! है३ // 100 / / श्ययोरपि गोत्रत्वमेव,-अभिवादयेऽहमिन्द्रवर्मा भोः, अव०-'ह इ-हे ,ह ए है इति पदमण्डनिका आयुष्मानेधि इन्द्रवर्मन्!इन्द्रवर्मन्! ,इन्द्रवर्माराजन्यसूत्रे,ततो हश्च इश्व हे,हश्च एश्च है इति लाक्षणिक- विशेषः,अभिवादये इन्द्रपालितोऽहं भोः,आयुष्मानेधि पदं हे है इति व्यस्तम् ,अथ समस्तं स्वाभाविक इन्द्रपालित३! इन्द्रपालित! ;(इन्द्रपालितः)वैश्यः / हे है। सूत्रे ह इ=हे , ह ए है, एवं शब्दरचना , अकुशलप्रश्नेन। प्रत्यभिवादे। “वदण्स्तुत्यभिवादसन्धौ सत्यां हे हे है है इति पदानि जातानि, तद- नयोः' वर्तमाना-ए,भोतु रे(?)अहमभिवादये,प्रणमा. नन्तरं हेश्च हेश्च एवं विगृह्य एकशेषे हे, द्विवचनम् , मीत्यर्थः। आयुरस्यास्ति, हे औ=हयौ इति सिद्धम् , हैच हैश्च, अत्रापि पूर्व- ___ भूमनिन्दाप्रशंसासु, नित्ययोगेऽतिशायने ; वत् एकशेषे हायौ, है औ=हायौ इति निष्पन्नम् ,ततः संसर्गेतिविवक्षायां,प्रायः मत्वादयो मताः / / 1 / / पुनः हयौ च हायौ च हेहायः, जस् , तेषु हेहैषु, इति अतिशायने मतुः। 'असक् भुवि' अस् , पञ्चतदेवं हेहै इति शब्दानां बहुत्वेऽपि स्वरूपापेक्षया मीहि , 'शाससहनः शाध्यधिजहि' (4 / 2 / 84 ) द्वित्वमेवाश्रित्य वृत्तिकार आह-दूरादामन्त्र्यस्य सम्ब- | इति एधि आदेशः , भव इत्यर्थः / आयुष्मानेधि धिनी यौ हे है इति शब्दौ इत्यादि / * हे है इत्य- | भोः, गुरुराह• भो मैत्र त्वमायुष्मान् एधि भव / त्रावधारणस्य विषयार्थम एषामित्यत्र * स्थानिनि- गर्गस्यापत्यं स्त्री, गर्गादेर्यन्' (6 / 1 / 42), * अयं पाठोऽशुद्धः / हेहैष्वित्यवधारणस्य विषयार्थम्" इति शुद्धः पाठः / *अयं पाठोऽशुद्धः / “एषामिति स्थानिनिर्देशार्थम्" इति शुद्धः पाठः / / Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्लुते सति सन्धिविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 539 * गार्ग्यः, 'यबो डायन् च वा (2 / 4 / 67) डी, 'व्य- / प्लुतः। १निर्ग्रन्थस्य इत्यत्र 'कृत्यस्य वा'(२।२।८८) अनात्तद्धितस्य' ( 2 / 4 / 88) इति यकारो लुप्यते, इत्यनेन कर्तरि षष्ठी अस्ति, तेन निर्मन्थेन किं गार्गी, सिः, 'दीर्घच्याब्०' (1 / 4 / 45) इति सिलोपः, | वस्तव्यं ? सागारिके स्थाने उत अनागारिके स्थाने 'नित्यदिद्विस्वराम्बार्थस्य ह्रस्वः' (1 / 4 / 43 ) इति निम्रन्थेन वस्तव्यम् / १२अगारं गृहमस्यास्तीति ह्रस्वः // 10 // अगारिकः, 'अतोऽनेकस्वरात्' (7 / 2 / 6 ) इत्यनेन 'प्रश्ना-ऽर्चा-विचारे च 'सन्धेयसन्ध्य इकः, सह अगारिकेण वर्तते सागारिकः, तस्मिन् सागारिके लोकवासे / १३तथा अगारेण चरति, क्षरस्यादिदुत्परः // 7 / 4 / 102 // ['चरति' // 6 / 4 / 11 // इति ] इकण , आगारिकः, न म० ब०-उसन्धेयः सन्धियोग्यो यः कचित् / विद्यते आगारिकोऽस्मिन् प्रदेशे तस्मिन् अनास्वरे परे विकारमापद्यते / प्रश्नोऽर्चायां विचारे- गारिके, वनपर्वतवासे इत्यर्थः / १४कन्या, औ, प्रत्यभिवादे च वर्तमानस्य वाक्यस्य सम्बन्धिनः 'औता' (1 / 4 / 20) इति ए, 'ईदूदेद् द्विवचनम्' (1 / स्वरेष्वन्त्यस्वरस्य सन्धेयसन्ध्यक्षरस्य प्लुतो भवन 2 / 34) इति सन्धिनिषेधविषयम् / 'दूरादामन्त्र्य०' इदुत्पर आत= आकारः स्यात् , स च प्रत्यासत्त्या (74 / 99) इति प्लुतः // 102 // एकारैकारयोरिकारपरः५ ओकारौकारयोरुकारपरो तयोय्यौं स्वरे संहितायाम् // 7 / 4 / 103 // भवति / प्रश्न - अगमः पूर्वाश्न प्रामाश्न अग्निभूता३इ , पटा३३ / १°अर्चायाम् ,-शो ___ म० वृ०-तयोः प्लुताकारात्परयोरिदुतोः स्थाने भनः खल्वसि अग्निभूता३३ , पटा३उ / ['दूरा स्वरे परे संहितायां' विषये यथासंख्यं यकारदामन्यस्यo' (7 / 4 / 99) इति प्लुतः] / १°विचारे, वकारादेशौ भवतः / अविरामः संहिता / अगमः३ वस्तव्यं किं ११निर्ग्रन्थस्य १२सागारिका३इ उता अग्निभूता३ यत्रागच्छ, अगमः३ अग्निभूता३३ नागरिके। प्रत्यभिवादे,-आयुष्मानेधि अग्नि यिहागच्छ, अगमः३ पटा३४ वत्रागच्छ / स्वर भूता३इ [ 'अस्त्री०' (74 / 101 ) इति प्लुतः]। इति किम् ? अग्ना३'इ, पटाश्उ / संहितायासन्धेयग्रहणं किम् ? कच्चि३त् कुशल३म् भव मिति किम् ? 'अग्ना३इ इन्द्रम् , पटा३उ उदत्यो३: कन्ये३१४ / सन्ध्यक्षरस्येति किम् ? भद्रि कम् / इति प्लुताधिकारः // 103|| कासि कुमारि३ // 102il - प्रव०-'संहितायां विषये कोऽर्थः? सन्धिकार्यअव०-१सन्धेयं च तत् सन्ध्यक्षरं च / २इच्च | प्राप्तिविषये / विरामः परमो वर्णोऽभावः, विरामाउच्च=इदुतौ, इदुतौ परौ यस्मात् आत आकारात् / / दन्यत्र संहिता / विरामे सन्धिनिषेधः, संहितायां उसन्धियोग्यः कः ? यस्य 'ईदूदेद्' (12 / 34) चसन्धिर्भवति।वर्णानां परःसंनिकर्षःसंहिता उच्यते। इत्यादिभिः प्रतिषेधो नास्ति / ४आकारो भवति विसर्ग(विराम ?)सद्भावात् सन्ध्यभावः (?) / "दूरा-इति कर्तृ पदमाकारः प्लुतः / “ए-ऐस्थाने आकारः। दामन्त्र्यः ' (7 / 4 / 99), इकारस्थाने यः। 'दूरादाओ-औस्थाने आकारः / प्रश्ने च प्रतिपदम् (7) मन्त्र्यo' (7 / 4 / 99) इति प्लुतः / "दूरादामन्त्र्यस्य 4 / 98) इति प्लुतः। अग्निभूति, पटु ; सम्बोधने (74 / 99)' इति प्लुतत्वम् , 'प्रश्नार्चाविचारे०' (1 सिः, 'हस्वस्य गुणः' (1 / 4 / 41) ए, ओ; ततः एका- | 4 / 102) इति आत्वम् / "प्रश्नच प्रतिपदम्' (7 // रस्य ओकारस्य आकारो भवति, स च प्लुतः / / 4 / 98) प्लुतः / 'अग्ना३इ इन्द्रमित्यादौ 'प्रश्न पटा३उ इत्यस्याने अदा३स्तस्मा३इ , अपठः३ च प्रतिपदम्' (7 / 4 / 98) इत्यनेन प्लुतत्वम् ,'प्रश्नापटा३उ ; एषु 'प्रश्न च प्रतिपदम्' (74 / 98) इत्य- | _विचारे' (74 / 102) इति आत्वम् / तथा विनेन प्लुतसंज्ञा / 10 विचारे पूर्वस्य' (7 / 4 / 95) इति / रामविवक्षायां च सन्ध्यभावः / अग्ना३इ अत्र , Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 540] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०७ पा० 4 सू० 104 109 पटा३उ अत्र इत्यति अत्र ज्ञेयम् / स्वे दीर्घत्वस्य / तदन्तस्य षष्ठीनिर्दिष्टस्यैव 'योऽन्त्यो वर्णस्तस्य अस्वे परे 'हस्योऽपदे वा' ( 1 / 2 / 22 / इत्युक्तहस्व- स्थाने भवति,नतु समस्तस्य। अष्टाभिः,अष्टासु॥१०६।। त्वस्य वा बाधनार्थ 'तयोझे०' (74 / 103) इति सूत्रं कृतम् / / 103|| अव०-१'योऽन्त्यो वर्ण' इत्यादि यदुक्तं तत्र पञ्चम्या निर्दिष्टे परस्य // 74 / 104 // 'वाष्टन आः स्यादौ (1 / 4 / 52) इति ज्ञातव्यम् , (तत्र) म० वृ०-[सूत्रमध्ये) पञ्चमीविभक्त्या निर्दिष्टे अष्टनशब्दस्य आत्वमुक्तमस्ति, परमन्त्यस्य 'न्'इत्ययत् कार्यमुच्यते तत् परस्य स्थाने स्यात् / अतो क्षरस्यैव आत्वम् , न तु सर्वस्य अष्टन्शब्दस्य / 106 / 'भिस् ऐस्' (1 / 4 / 2)- वृक्षैः / इह न भवति,-'मा- अनेकवर्णः सर्वस्य // 7 / 4 / 107 // लाभिरत्र / निर्दिष्टग्रहणस्यानन्तर्यार्थत्वाद् इह न म० वृ०-अनेकवर्ण आदेशः षष्ठया निर्दिष्टस्य भवति- दृषद्भिः // 104 // 'सर्वस्यैव स्थाने स्यात् / तिसृभिः, चतसृभिः / सर्वअव०-१'मालाभिः', अत्र अकारात् पूर्व भिस् स्येति निर्दिश्यमानापेक्षम् , तेन व्याघ्रपादित्यत्र अस्ति / २अव्यवहितार्थत्वात् / लोके हि व्यव 'पात्पादस्याहस्त्यादेः' ( 7 / 3 / 148 ) इति निर्दिष्टस्य हितेऽपि परशब्दो दृश्यते , यथा- महोदयात्परं पादशब्दस्य [ पाद् इत्यादेशः ] भवति, न तु समुसाकेतभिति / अतो 'भिम०' (श४।२) इत्यादौ दिग् दायस्य / 'ऋतांकिङतीर्'(४।४।११६) किरति।१०७/ योगलक्षणा 'प्रभृत्यन्यार्थदिगशब्द०' (2 / 2 / 75 ) अव०-१अनेकवर्णः सर्वस्य स्थाने भवतीत्यस्य इति सूत्रेण पञ्चमी विहितास्ति, तत्र पूर्वस्य परस्य 'त्रि-चतुरस्तिसृ-चतसृ स्यादौ' (2 / 1 / 1 ) इत्यादीनि च कार्य स्यात् इति परमेव कार्य ग्राह्यमिति निय सूत्राणि ज्ञातव्यानि। पूर्चस्यापवादोऽयम् अनेकवर्णः०' मार्थ 'पञ्चम्या निर्दिष्टेः' इति वचनं कृतम् // 104 / / इति योगः एवमुत्तरोऽपि प्रत्ययस्य'इति योगः // 107 सप्तम्या पूर्वस्य // 74 / 105 / / प्रत्ययस्य / / 7 / 4 / 108|| म० व० [सूत्रमध्ये] सप्तम्या निर्दिष्टे यत्का- ____म० वृ०-प्रत्ययस्य स्थाने विधीयमान आदेशः यमुच्यते तत्पूर्वस्यानन्तरस्य स्थाने स्यात् / दध्य- | सर्वस्य स्यात् / सर्वे, अष्टौ, कति // 108 / / त्र, मध्वत्र / निर्दिष्टाधिकारादिह न भवति [व्य स्थानीवावर्णविधौ / / 7 / 4 / 109 / / वहितत्वात् -समिदन // 105 / / म० ०-स्थानं प्रसङ्गः, सोऽस्यास्तीति स्थानी अव०-पूर्वस्यानन्तरस्य स्थाने, कोऽर्थः? पूर्व- आदेशी / आदेशस्थानिनोः पृथकत्वात् स्थानिकार्यस्याव्यवहितस्य स्थाने। 'इवर्णादेरस्वेस्वरे यवरलम्' / मादेशे न प्राप्नोतीत्यतिदिश्यते / आदेशः स्थानिवत् (1 / 2 / 21) / पूर्ववत् व्यवहितेऽप्यर्थे पूर्वशब्दो दृश्यते, स्यात् ,स्थान्याश्रयाणि कायोणि आदेशः प्रतिपद्यते; यथा मथुरावाः पूर्व पाटलिपुत्रम्। अस्वे स्वरे इत्यादौतु अवर्णविधी-यदि तानि वर्णाश्रयाणि न भवन्ति / औपश्लेषिकमधिकरणम् , उपश्लेषस्य पूर्वत्र परत्रच तत्र धातुप्रकृतिविभक्तिकृदव्ययपदादेशा उदाहरसम्भवादीपश्लेषिकं पूर्व चपरं च सम्भवति, तत्र णम् / तथाहि-'धात्वादेशो धातुवद्भवति, भविता, परमेव ग्राह्यमिति नियमार्थ सप्तम्याः पूर्व०' (74 / भवितुम् , भाव्यम् , वक्ता, वक्तव्यम् / प्रकृत्यादेशः 105) इति सूत्रं कृतम् / / 105 / / / प्रकृतिवत् , कस्मै, के, केषाम् / उविभक्त्यादेशो विभक्तिवत् ,-वृक्षाय, राजा , पचेयम् , पचेयुः / षष्ठयाऽन्त्यस्य / / 7 / 4 / 106 // ४कृदादेशः कृद्वत् , प्रकृत्य। 'अव्ययादेशोऽव्ययंवत् , म० वृ०-षष्ठया निर्दिष्टे [सूत्रे यत्कार्यमुच्यते / प्रस्तुत्य / पदादेशः पदवत् ,-धर्मो वो रक्षतु / अव Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिभाषासूत्राणि ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [541 विधाविति किम् ? वर्णाश्रयो विधिवर्णविधिरिति / रक्षतु, पदत्वात् सो रुत्वादि 6 / ननु अग्निर्माणवक समासाश्रयणात् वर्णात्परस्य विधिः, अथवा वर्णे | इत्यादिवदिवग्रहणं विनापि इवार्थानुमानं भविपरतो विधिः, वर्णस्य स्थाने विधिः, वर्णेन विधिः, प्यति (किमिव ग्रहणेन) इत्याह,- इवग्रहणं स्वाअप्रधानवर्णाश्रयो विधिर्वर्णविधिरिति सर्वत्र प्रति- श्रयार्थम , स्वस्य स्थानिस्वरूपस्य हन् इत्यस्य आश्रयषेधो भवति / तत्र वर्णा परस्य विधिः,- द्यौः , णम् स्वाश्रयः, तदर्थम् ,अन्यथा स्थानीति आदेशस्य पन्थाः, 'सः / अथ वर्णे परतो विधिः,-१°क संज्ञा विज्ञायेत / * तेन आहत आवधिष्ट इत्यादी इष्ठः . स उप्तः / वर्णस्य स्थाने विधिः,- 'आढो यमहनः०' ( 3 / 386 ) इत्यनेन उभयत्रापि श्रायं हविः / वर्णे व्यवधानेन विधिः,- 13 उर:- आत्मनेपदं भवति / अन्यथा कोऽर्थः ? इवं विना केण,उर) (केण: १'उर:पेण, उर) पेण ; तथा १४व्यू- आदेशस्य स्थानित्वे सति आवधिष्ट इत्यत्रैव वधाढोरस्केन। अप्रधानवर्णाश्रयो विधिः, १६प्रदीव्य / / देशे कृते आत्मनेपदं स्यात् , न आहत इत्यत्र / तथा स्थानिवर्णाश्रयकार्यप्रतिषेधाच्च आदेशवर्णाश्र- ७'यो। (इति) अत्र दिव औः सौ(२।११११७) इत्ययाणि स्थान्यनुबन्धाश्रयाणि च कार्याणि भव- नेन व् इत्यस्य औत्वे, पन्थाः' (इति) अत्र 'पथिन्त्येव / आदेशवर्णाश्रयाणि,-१७सर्वेषाम् / स्थान्य- न्मथिनृभुक्षः सौ' (11476) इति न इत्यस्य नुबन्धाश्रयाणि,-१८प्रभिद्य , प्रणीय, प्रलूय / अथ स्थाने आत्वे, 'स:' (इति) अत्र तु 'आवरः' (2 / 1 / कथमग्रहीत् इत्यत्र इटो दीर्घत्वे स्थानिवद्भावाद् ।४१)इति द् इत्यस्य अत्वे कृते सति स्थानिवद्भावात् 'इट ईति' (4 / 3 / 71) इति सिचोलोपोभवति? वर्ण- 'दीर्घङयाब' (1 / 4 / 45 ) इत्यनेन सेर्लोपः प्राप्नुविधिोष.३० / २१उच्यते,-२२नार्य वर्णविधिः, | यात् , परमवर्णविधाविति व्यावृत्तिबलान्न भवति विशिष्टं ह्येष समुदायमवर्णमाश्रयते इटं नाम / / 109 / / सेर्लोपः / १०'क इष्टः', यज्धातुः, क्तः, 'यजादि अव०-' धात्वादेशो धातु'-रित्यादि, धात्वादेशः= वचे:०' ( 41179) इति वृत् इः / ११'उप्तः', धातोः स्थाने य आदेशः स मूलधातुरिव ज्ञातव्यः / / अत्रापि य्वृत् उ ( इति ) कृते सति स्थानिवद्भावात् यथा-भविता, भवितुम , बक्ता, वक्तामत्यादिषु / 'घोषवति' ( 1 / 3 / 21 ) इति सूत्रेण रु इति स्थाने असरूग्धातुस्थाने 'अस्तिब्रुवोभूवचा०' (4 / 4 / 1) / उत्वं प्राप्नुयात् , 'स' इत्यत्र तु 'एतदश्च व्यञ्जने०' इत्यनन भू वच् इत्यादेशौ धातुवत्भवतः,ततः 'स्थानी- (1 / 3 / 46) इत्यनेन सेर्लोपश्च प्राप्नुयात् , परं वर्णे वावर्ण'इत्यनेन न्यायेन तृच , तुम् , ध्यण् , तव्या- | परतो विधिरिति वचनात् उत्वं सेर्लोपश्च न भवति / नीयादयः प्रत्ययाः सिद्धा.१। तथा प्रकृत्यादेशे'-ति, | १२श्रीर्देवताऽस्य-श्रायं हविः, अत्र ईकारस्य वृद्धो मूलप्रकृतिस्थाने य आदेशः सोऽपि मूलप्रकृतिवत् / कृतायां स्थानिवद्भावात् 'अवर्णेवर्णस्य' (74 / 68 ) ज्ञेयः। यथा कस्मै इत्यादिषु किमः कादेशेऽपि कृते स्था- | इति लोपः प्राप्तो न भवति / उउरस् , 'के गैं रें नीवा०' (7 / 4 / 109) इति सूत्रेण स्मायादय आदेशा | शब्दे' उरः कायतीति उरःकः ; १४उरस् , “मैं ओवै भवन्ति 2 / 'विभक्त्यादेशे'-ति, वृक्षायेत्यादिषु शोषणे', उरः पायतीति उर:पः, 'आतो डोऽहावामः' स्यादित्वादीर्घत्वम् , राजेत्यादिपदत्वम् , पचेयम् / (5 / 1 / 76) इति डः, 'सो रुः' (2 / 1 / 72) इति सस्य पचेयुरत्र त्याद्यन्तत्वात् पदत्वम् 3 / कृदादेशः स्थाने रः, उरःकेण, उर) (केण ; उर:पेण, उर)(पेण ; कृद्वत् , यथा प्रकृत्य, अत्र क्त्वो यबादेशे कृते 'हस्व- - एषु सकारादेशानां विसर्जनीयजिह्वामूलीयोपध्मानीस्य तः पित्कृति'(४।४।११३) इति तोऽन्तः सिद्धः४।। यानां स्थानिवद्भावप्रतिषेधात् अलचटतवर्गशसान्तरे' "अव्ययादेशोऽव्ययवत् , प्रस्तुत्य, अत्र 'अव्ययस्य' | इति णत्वप्रतिषेधो न भवति / तथा १५व्यूढ,उरस् , (3 / 27) इति सेलुप्५ / पदादेशः पदवत् ,-धर्मोवो | महत् , उरस्; व्यूढमुरो यस्य, महदुरो यस्य ; * स्वाश्रयार्थमिवग्रहणाद् / Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 542 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [म०७ पा०४ सू० 110 'दध्युरःसर्पिमधूपानच्छालेः' (73 / 172) इत्यनेन / 'पातनी, रावणिः, "स्रस्यते, याज्यते, 'निराद्य, कच् समासान्तः, 'सो रुः' (2 / 1 / 72), 'प्रत्यये' (2 / | १°घाल्यात् , ११निगार्यते, २निगाल्यते, उचातु।३।६ ) इति सूत्रेण रकारस्थाने सः, व्यूढोरस्केन | रौ। स्वरस्येति किम् ? १४अद्राष्टाम् , १५आगत्य / इत्यत्र 'प्रत्यये' (2 / 3 / 6) इत्यनेन यः कृतः सकारः | पर इति किम् ? द्विपदिकां ददाति / प्राविधाविति तदाश्रयो णत्वनिषेधः , न तु मूलभूतसकारांश्रयो किम् ? नैधेयः, निधिकः / निधानं निधिः, निधेणत्वनिषेधः, तस्य वर्णत्वात् , वर्णाश्रये च स्थानि- रपत्यम् , 'इतोऽनियः' (6 / 1 / 72) एयण ; निधिना त्वप्रतिषेधात् / 16 प्रदीव्य प्रसीव्य' इत्यादौ ऊदितो तरति, नौ द्विस्वरादिकः'(६।४।१०), इडेत्पुसि'०(४।३। वा' (4|4|42) इत्यनेन इट प्राप्तः सकारतकाररूपा 94) इति आकारलोपो द्विस्वरलक्षणैयेकविधी ऽप्रधानवर्णाश्रयत्वात् स्थानित्वाभावे इट् न भवती परस्मिन् स्थानी न भवति] पूर्वस्माद्विधिः प्राग्वित्यर्थः। स्ताद्यशितोo'(४।४।३२)इति सूत्रेस्तादीति अन्य- | धिरित्यप्याश्रीयते, तेन १६अधुक्षन्त / पूर्वसूत्रेऽवर्णपदार्थस्याशितःप्राधान्यात्स्तोरप्राधान्यम्। १७सर्वेषाम् , विधाविति प्रतिषेधाद्वर्णविध्यर्थं वचनमिदम् / 110 / / अत्र आमस्थाने सामादेशे कृते सकाराश्रयं कोऽर्थः? आदेशवर्णाश्रयमेत्वम्'एद् बहुस्भोसि'(१।४।२२)इत्येवं भवति। अत्रायं विशेषः,-विभक्तयादेशो विभक्तिवदिति वच अव०- 'कथण वाक्यप्रबन्धे' (इति) कथ नात सामो विभक्तित्वं स्थानिवद्भावः, यदि स्थानि अदन्तः, णिच् , 'अतः' (4 / 3 / 82) इत्यनेन धातोरवर्णाश्र पस्यैव कार्यस्य प्रतिषेधो न स्यात् तदा आदेश न्त्यस्य अकारस्य लोपः। अथ 'अवधीत्', हन् , वर्णाश्रयस्यापि कार्यस्य प्रतिषेधे सामो विभक्तित्वा दिव , 'अद्यतन्यां वा त्वात्मने' (4 / 4 / 22) हन्स्थाने भावात् स्यादिसकाराश्रयमेत्वं न स्यादिति भावः / वध इति अकारान्तादेशः, 'अन्नः' (4 / 3 / 82) अलोपः, १८प्रभिद्येत्यादौ क्त्वो यबादेशे कृते स्थानिवद्भावात् अत्र अकारलोपस्य स्थानिवद्भावात् 'व्यञ्जनादेो. किन्तीति गुणप्रतिषेधो भवति / यतः अनुबन्धा हि पान्स्यरातः' (4 / 3 / 47) इति वृद्धिने 'भवति / क इत्यादयोऽसन्त एवाविद्यमाना एव गुणा स्पृहयतीत्यत्रापि अकारलोपस्य स्थानिवद्भावादुभावादिकं कार्य कुर्वन्तीत्यर्थः / 16 'अग्रहीत्', अद्, पान्त्यलघोगुणो न भवति / पादाभ्यां तरति= अद्यतनीदिव् , 'सिजद्यतन्याम्' (3 / 4 / 53) सिच् , पादिकः, 'अवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68) इति अकारलोपः, 'सः सिजस्तेर्दिस्योः' ( 4 / 3 / 65 ) सिचः ईत् , 'ते अस्य स्थानिवद्भावात् 'यस्वरे पादः पद'० (2 // 1 // 102) इत्यनेन पदभावो न प्राप्नोति, पाद् इत्यस्य प्रहादिभ्यः' (4 / 4 / 33 ) इट् , 'गृह्णोऽपरोक्षायां पद् इत्यादेश उक्तोऽस्ति, तत्र न पाद इति अकारादीर्घः'(४।४।३४ इत्यनेन)इट ईट् भवति,दीर्घस्य ईट् इत्यस्य स्थानिवद्भावात् 'इट ईति' (4 / 3 / 71) इति न्तस्य / 'पात्यतेऽनया, 'करणाधारे' (5 / 3 / 129) सिज्लोपः कार्यः। न चायं वर्णाद्विधिः, इट इति अनट् , अत्र 'अनोऽस्य' (2 / 1 / 108) इति लुग्न रूपाश्रयत्वात् / २°सिचलोपः / २'सूरिराह / भवति / श्रवणस्यापत्यं-रावणिः , 'अत इन्' (631 // २२सिचो लोपः // 109 // 31), अत्र 'नोऽपदस्य'० (7 / 4 / 61) इत्यन्त्यस्वरादि लोपो न भवति / "नस्यते', स्रस् , णिग् ,वर्त्तस्वरस्य परे प्राग्विधौ / / 7 / 4 / 110 // मानाते , क्यः , अत्र ‘णेरनिटि' (4 / 3 / 83 ) म. वृ०-स्वरस्यादेशः परे परनिमित्तके व्य- | इति णिगलोपः, णिलुकः स्थानिवद्भावादुपान्त्यवहितेऽव्यवहिते वा पूर्वस्य विधौ कर्त्तव्ये स्थानीव / नलोपो न भवति , उपान्त्याभावात् / “याज्यते', भवति। 'कथयति. २अवधीत् , स्पृहयति, पादिकः, / यज् , णिग् , अत्रापि णिग्लोपे णिगः स्थानिव अत्राल्लुकः स्थानिवद्भावाद् ‘ब्णिति' इत्यनेन उपान्त्यलक्षणा वृद्धिर्न भवति / Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिभाषासूत्राणि ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम्। [543 - भावात् य्वृन्न भवति, नित्याऽणिगन्तयजादेह- | अन्त्याकारस्य लोपः, आप , 'अस्यायत्तत्'० (2 / णात् / निराद्य, समाद्य ; अत्र अद् धातुः, निर्- | 4|111) इति, अत्र अकारलोपस्य परनिमित्तकत्वात् संपूर्वम् , णिग् , क्त्वा, अत्रापि णिग्लोपस्य स्था- स्थानित्वाभावे 'यस्वरे पादः पद'० (2 / 1 / 102) निवद्भावात् 'यपि चादो जग्ध्' (4 / 4 / 16) इति इत्यनेन पादस्य पद् इत्यादेशो भवति / १६दुइ , जग्धादेशो न भवति, णिगा धातुप्रत्यययोर्व्यवहित- अद्यतन्यन्त, अट् , 'हशिटो नाम्युपान्त्याददृशोऽत्वात् / 10 घात्यात्', हन् , णिग्, आशीःक्यात् , निटः सक्' (3 / 4 / 55), 'स्वरेऽतः' (4 / 3 / 75) अत्रापि णिगि सति 'हनो वध आशि०' (4 / 4 / 21) इत्यनेन सकोऽकारलोपः, 'भ्वादेर्दादेर्घः' (2 / 1 / 83) इत्यनेन वधादेशो न भवति, 'रिणति घात् ' (4 / हस्य घः, 'गडदबादेः'० (2 / 1177) इत्यनेन दस्य 3 / 100) इति घात् भवति / 'निगार्यते, १२निगा- धः, 'अघोषे प्रथमो'० (1350) इति घस्य कः, ल्यते ; ग. णिग् , वृद्धिः आर् , ते, क्य, णिग्लोपः, 'नाम्यम्तस्थाकवर्ग'० (2 / 3 / 15) इति सस्य षः, स्थानिवद्भावात् णिगि सति 'नवा स्वरे' (2 / 3 / अधुक्षन्तेत्यत्र 'स्वरेऽत' (4 / 3175) इति अलोपस्य 102) इति पक्षे लत्वं सिद्धम् / १३चातुरौ, आन- परमपि 'अनतोऽन्तोऽदात्मने' (4 / 2 / 114) इत्युक्तडुहौ ; चतुर , अनडुङ् ; चतुर्णामिमौ चातुरौ,अन- | मदादेशं प्रति स्थानिवद्भावः प्राप्तोऽपि न डुहामिमी आनडुहो; 'तस्येदम् '(6 / 3 / 160), वृद्धिः / भवति // 11 // आः. अकारविश्लेषः, 'ऐदौत्सन्ध्यक्षरैः' (1 / 2 / 12 / न सन्धि-की-य-कि-द्वि-दीर्घा-ऽसद्विधावस्कलुकि इति औत्वम , औत्वस्य स्थानिवद्भावात् 'वाः शेषे' // 7 / 4 / 111 // (1 / 4 / 82) इत्यनेन 'वा' इति न भवति / तथा पादे इत्यत्र अकारविशेषे 'अवर्णस्येवर्णादि'० (1 / 2 / 6) म० वृक्ष-पूर्वेणातिप्रसक्तःस्थानिवद्भावः प्रतिइति एत्वम् , एत्वस्य स्थानिवद्भावात् पद् इत्या षिध्यते / सन्धिविधौ, डीविधौ, यविधौ, विविधौ, देशो न भवति / उभयजन्यत्वेऽपि अन्यतरव्यपदे- द्वित्वविधौ, दीर्घविधौ स्क्लुग्वर्जितेऽसद्विधौ च शान औत्वैत्वयोः परनिमित्तत्वं ज्ञातव्यम् / अवीवद- स्वरस्यादेशः स्थानीव न भवति / 'लि लौ' (1 / 3 / द्वीणाम् अत्र णिग्द्वयम्, णिजात्याश्रयणादुपान्त्यस्य 65) इति यावत्सन्धिविधिः [तृतीयपादे 'लिलौ' 'ह्रस्वो न भवति / द्वाभ्यामित्यत्र तु निमित्तापेक्षया इति सूत्रं यावत्सन्धिकार्याणि ज्ञातव्यानि, तत्र प्रागविधौ आत्वे क्रियमाणेऽत्वस्य न स्थानित्वम् , सन्धिकार्ये स्वरादेश: स्थानी न भवति-स्थानिव'वैकत्र द्वयोः' (2 / 2185) इति निर्देशात् / १४'अद्रा- भावो न भवतीत्येवं सर्वत्र ज्ञेयम् ] / तत्र 'वियष्टाम्', दृश् , अद्यतनीताम , सिच् , अट् , 'स्पृशादि- न्ति, रतानि सन्ति, तौ स्तः, वैयाकरणः / सृपो वा' (4|4|112) इति अकारागमः, 'व्यञ्जना- निमित्तापेक्षया प्राविधिरिष्यते,तेन नयनम् , लवनामनिटि' (4345) इति वृद्धिः आ, 'धुदह्रस्वा'. नम् / [सन्धिकार्ये उदाहरणे- नयनं लवनम् , अत्र ( 4 / 3 / 70 ) इति सिचो लोपः, 'यजसृजमृज०' गुणस्य स्वरस्यादेशस्य स्थानित्वनिषेधात् अयवा( 2 / 1187 ) इति शस्य षः, 'तवर्ग'० ( 1 / 3 / 60) देशौ सिद्धौ, स्थानित्वे हि सति इयुवादेशौ स्याइति तस्य टः, सिच्लोपो न स्वरादेशः इति षढोः ताम् ] / डीविधौ,-'विम्बम् / यविधौ,-कण्डूतिः / कस्सि' (2 / 1162) इति कत्वे स्थानी न भवति / विविधौ,-"दयूः, लौः। द्वित्वविधौ,-दध्यत्र, मध्१५आगत्येत्यत्र पञ्चमलोपः तोऽन्ते......'कर्तव्ये वत्र / दीर्घविधौ,-शामंशामम् , [शमंशमम् ] स्थानी न भवति / द्वौ पादौ ददाति=द्विप- अशामि, [अशमि] शंशामशंशामम् , [ शंशमंशंशदिकां ददाति, 'सङ्ख्यादेः पादादिभ्यो दानदण्डे मम् ] अशंशामि [अशंशमि / असदधिकारे विधिःचाकल लुक् च' (12 / 152) इति अकल्प्रत्ययः, | असद्विधिः, तत्र- यायष्टिः, पापक्तिः, याष्टिः,पाक्तिः। Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 544 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [अ०७ पा० 4 सू० 112 [यज् . भृशं यजते, यङ् , यायजिषीष्ठ इत्याशास्य- | (४।४।१२१)इति यलोपे कर्त्तव्ये। देवं लवमाचष्टे, मानः एवं पापचिषीष्ठ इत्याशास्यमानः तिक्कृतीनाम्नि' | णिज् , 'अतः' (4 / 3 / 82), देवयतीति लवयतीति (5 / 1 / 71) तिक , यज् , पच् , णिग् , याज्यते / विप , ततो णिग्लोपः, कौ कर्त्तव्ये 'अनुनासिके पाच्यते इति तिक् , अकारणिगलोपयोः स्थानित्व- च० (4 / 1 / 108) इति वस्य ऊट, ऊटि कर्त्तव्ये निषेधात् पत्वं कत्वंच सिद्धम् ]स्क्लुग्विधेः प्रतिषेधः ण्यकारलोपौ न स्थानिवद् भवतः; लौ इत्यत्र 'ऊटा' किम् ? सुकूः, काष्ठतक् [काष्ठं तक्षयति, क्विप् , (1 / 2 / 13) इति औत्वम् / 'कुस्मण , णिच् , णिलुकः स्थानित्वनिषेधाभावात् स्कोलग् न भवति, किप // 111 / / संयोगान्तलोपस्तु भवत्येव, असद्विधौ स्थानित्य- लुप्यावृल्लेनत् / / 7 / 4 / 112 // प्रतिषेधात् ] // 111 / / म० वृ०-परस्य प्रत्ययस्य लुपि सत्यां लुब्अव०-१'वियन्ति', एवमपयन्ति, इण , वि | भूतपरनिमित्तकं पूर्व कार्य न भवति, अय्वृल्लेनत्= अप पर्वम, अन्ति. इणश्च य . इणो यत्वं स्वरादेशः वृत लत्वमेनच्च वर्जयित्वा / तद् , सिः, 'अनतो .. परनिमित्तकः पूर्वविधौ ‘समानानां तेन'० (1 / 2 / 1) | लुप्' (1 / 4 / 51) इति सिलोपः] अत्र स्थानिवद्भाइति दीर्घत्वे, अपयन्ति ( इति ) अत्र 'अवर्ण- | वप्रतिवेधात् त्युदाद्यत्वसत्वे [आवरः' (2 / 1 / 41) स्येवर्णादि'० (1 / 2 / 6) एत्वे च कर्त्तव्ये स्थानी न इति अत्वं 'तः सौ सः' (2 / 1142) इति सत्वम् ] भवति / तानि सन्ति, तौ स्तः ; तानि , अग्रे न भवतः / गर्गाः, कुवलम् / तथा प्लुप्यपि लुप्पसन्ति ; तौ, अग्रे स्तः ; 'असक भुवि' अन्ति, तस्; तास्त्येव, तेन पञ्चगोणिः, अत्रेकणः प्लुपि न वृद्धिः 'इनास्त्योलुक' (4 / 2 / 90) अस्तेरकारलोपः, अत्र [अत्र इकणो 'नाम्नि' (6 / 4 / 172) इति लुपि सति अकारलोपः स्वरादेशः तानि इत्यन्तेकारस्य 'इवर्णा- न वृद्धिः] / लुपीति वचनाल्लुकि सत्यां भवत्येव दे'० (111 / 21 ) इत्यनेन यकारे, तौ इति औका- परनिमित्तकं पूर्व कार्यम् ,-गोमान , अत्र सिलुकि रस्य ओदौतोऽवाव्' (1 / 2 / 24) इति आव् इति तन्निमित्तं दीर्घत्यं भवति / लुपीति सप्तमीनिर्देशात् कर्तव्ये स्थानी न भवति / 4 वैयाकरणः', एवं पूर्वस्य यत्कार्य प्राप्तं तन्निषिध्यते, समुदायस्य तु सौवश्वः, इत्यत्र व्याकरण इति शब्दसिद्धिप्रस्तावे वि. भवत्येव / पयः, साम, पञ्च ; अब पदसंज्ञा, तथा च आ, करण ; सु , अश्व ; अत्र इकारस्य यत्वम् तन्निबन्धानि रुत्वलोपादीनि भवन्ति / , कथं पापक्ति उकारस्य वत्वं स्वरादेशः, तस्य स्थानित्वाभावात पापचीतीत्यत्र द्वित्वं ? नेदं यङि' निमित्ते, किन्तु ऐकारागमस्य आय औकारागमस्य आव न भवतः / यङन्तस्य / अय्वृल्लेनदिति किम् ? वृत् , वेवेद्धि, "बिम्ब, 'गौरादि'० (2 / 4 / 19) ङी, 'अस्य वां शोशवीति, जरीगृहीति / निजागलीति / एतद्,लुक ' (2 / 4 / 86) बिम्बी इति शब्दः, बिम्ब्याः फलं एनत् पश्य, एनच्छितकः / 'स्थानीवावर्णविधौ' बिम्बम् , 'हेमादिभ्योऽञ् (6 / 2 / 45), 'फले' (6 / (7 / 4 / 100) इति लुपः स्थानिवद्भावेन प्राप्तानां 2 / 58) इति सूत्रेण अय् लुप्यते, ‘डयादेर्गोणस्या- कार्याणां प्रतिषेधार्थ वचनम् // 112 // किप० (2 / 4 / 95) इत्यनेन डी लुप्यते , अत्र ङीलुपः परनिमित्तत्वेऽपि 'न सन्धि'० (7 / 4 / 111) ___ अव०-'यङि परे निमित्ते / 2 सन्यडश्च' इति सूत्रेण ङी इत्यस्य स्थानित्वप्रतिषेधात् 'अस्य | (4 / 1 / 3) इति निमित्तं विनैव सन्नन्तयङन्तयोरेव ड्यां लुक् (2 / 4 / 86) इति अकारस्य लुक् न भवति।। द्वित्वं धातोराद्य एकस्वराऽवयवस्य भवति / व्यध्, एवमामलकम् ,पञ्च बारः, पञ्चेन्द्रादयः। 'कण्डूतिः', यङ्, 'ज्याव्यधः क्ङिति' (4 / 1181) द्वित्वम् , कण्डूयते:क्ति , अतः' (4 / 3 / 82) इत्यकारलोपः,परनि- 'आगुणावन्यादेः' (4 / 1 / 48), 'बहुलं लुप्' (3 / 4 / मित्तकोऽकारलोपो न स्थानी, य्वोः प्वय् व्यञ्जने'० / 14) / शोशनीति', योश्वि गतिवृद्धयोः श्वि, यङ्, Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिभाषासूत्राणि ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [545 'वा परोक्षायङि' (4 / 1 / 90), शु,द्वित्वम् ,यङो लुप्, / एवं सर्वत्र यत्र शब्दात् शब्दस्य(वा)अथवा धातोः परतः 'आगुणा०'(४।१।४८), तिव , यङतुरु'०(४।३।६४) | धातोर्वा प्रत्ययादिकार्य क्रियते तत्र तदन्तविधिईत् , गुणः / "जरीगृहीति', ग्रह, यङ् , ग्रहवश्च' | ज्ञेयः। बहुव्रीहिसूचितः बहुव्रीहिसमासेन प्रकटी(४।११८४) इति गृह ,द्वित्वम् , 'ऋतोऽत्'(४।१।३८), | क्रियते। 'इण्धातोः परतोऽल्प्रत्यये सति अय 'ऋमतां रीः' (4 / 1155) / "निजागलीति', गु, इति सिद्धम् / अत्र इकार एवास्ति न इवर्णान्तत्वं गर्हितं गिलति, यङ् , 'बहुलं लुप्' (३।४।१४),गुणः, | तत्कथमल् भवति ? (इत्याह-) व्यपदेशीति, इकाद्वित्वम् , 'आगुणा' 0 (4|1148) इति,तिव , 'यङतु- रात्पूर्वमेकोऽक्षर आदौ कल्पनीयः, (तेन) यः सिद्धः रुस्तो'० (4 / 3 / 64) ईत् , 'यो यदि' (2 / 3 / 101) / ['आद्यवन्तवदेकस्मिन्' इति न्यायेन एक एवेकार रस्य लत्वम् / एतद्, द्वितीयाऽम् , 'अनतो लुप्' अन्तत्वेन कल्पनीयः] // 113 / / (श४५९), 'त्यदामेनदेतदो द्वितीया'० (2 / 1 / 33) सप्तम्या आदिः // 7 / 4 / 114 // इत्यनेन एतदः स्थाने एनत् इत्यादेशः / एनमेनां वाश्रितः एनच्छितकः / वेवेद्धीत्यादिषु यदादिलोपे म० वृ०-सप्तम्यन्तस्य विशेष्यस्य यद्विशेषणं गुणः, आ, री, एनदादयः सिद्धाः // 112 / / तत्तस्यादिरवयवो ज्ञातव्यः / 'इन् ङीस्वरे लुक्' (1 / 479)- 'पथः, २पथाम् / इह न स्यात् , पथिषु / विशेषणमन्तः // 7 / 4 / 113 // नेनिजानि , अनेनिजम् / इह न, नेनेक्ति / म० वृ०-विशेषणं विशेष्यस्य समुदायस्या रौति / इह न स्यात् ,-अस्तवीत् पथा // 114|| न्तोऽवयवो भवति / इहं शास्त्र [इह व्याकरणे] अब०-पूर्वस्याऽपवादोऽयं 'सप्तम्या आदिः' धात्वादिः समुदायोऽभेदेनावयव विशेषणक उपादी- | इति योगः / सप्तम्यन्तविशेष्यपदस्य यत् विशेषणयते तत्र सोऽवयवस्तत्समुदायस्यान्तत्वेन नियम्यते / पदं क्रियते तत् तस्य विशेषणपदस्य आदिरवयवो 'अत: स्यमोऽम्' (1 / 4 / 57)- कुण्डं तिष्ठति, कुण्डं ज्ञेयः / यथा स्यादौ प्रत्यये परे, कीदृशे ? स्वरे पश्य / इह (विशेषणमन्तः] न भवति,-तद् / ['यु- व्यञ्जने वा, कोऽर्थः ? स्वरादौ व्यञ्जनादौ च इति वर्णवृह० ( 5 / 3 / 28) इति अल-जयः, स्तवः। | व्याख्येयम्, न तु स्वरान्ते व्यञ्जनान्ते / 'इन् कीइह न भवति,-योगः, सेकः / इणोऽलि अय इत्यादौ स्वरे लुक्' (1 / 4 / 79), अत्र स्वर इत्युक्ते स्वरादौ व्यपंदेशिवद्भावाद्भवति // 11 // इति व्याख्येयम् / 'उत और्विति व्यञ्जनेऽद्वे: (4 / अव०-'विशेषणमन्तः' इदं सूत्रम् 'येन विधि 1159), अत्र व्यञ्जनादौ इति व्याख्येयम् / पथिन् , स्तदन्तस्य' इति सूत्रवत् ज्ञातव्यम् / तथाहि-'अतः शस् ,कसि,ङस् वा; पथाम्(इत्यत्र) आम् ,'इन् कीस्यमोऽम्' (१।४।५७),अतः कोऽर्थः ? अकारान्तस्य / स्वरे लुक' (श४४९ ) इत्यनेन इनो लोपः / “व्युक्तोपान्त्यस्य शिति०'(४।३।१४)इति गुणप्रतिअथवा 'अदेतः स्यमोलु क्' (1 / 4 / 44) अत एतः षेधः / गुणप्रतिषेधो न भवति / रौति यौति अत्र कोऽर्थः ? अकारान्तात् एकारान्ताच्चेति,अकारोऽन्ते 'उत और्विति०'(४।३।५९) इत्यनेन औत्वम् / औत्वं ऽवयवो यस्य (सोऽकारान्तः),एकारोऽन्तेऽवयवोयस्य न भवति / 'पथा अयौत्', अत्र व्यपदेशिवद्भावाद् स एकारान्तः / सर्वत्र अन्तशब्दन्यासेन बहुव्रीहिसमा एकाक्षर आदौ अन्ते च कल्पनीयः / अयौत् (इति) सेन सूत्रार्थो व्याख्यायते / अथवा 'युवर्णवृदृवश०' ( 5 / 3 / 28 ) इति सूत्रे इ उ ऋत इत्येव अस्ति, परं व्यपदेशिवद्भावाद्भवति / / 114 // 'विशेषणमन्त' इति सूत्रबलात् 'इ'कोऽर्थः ? इवर्णा- प्रत्ययः प्रकृत्यादेः // 7 / 4 / 115 // न्तेभ्यः,'उ''कोऽर्थः ? उवर्णान्तेभ्यः,'ऋत' कोऽर्थः ? म० वृ०-यस्माद् यः प्रत्ययः [ क्रियते ] सा ऋकारान्तेभ्य इति सूत्रार्थव्याख्यानं विहितमस्ति। / तस्य प्रकृतिः / प्रत्ययः 'प्रकृत्यादेः समुदायस्य Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ० 7 पा० 4 सू० 116-118 विशेषणं ज्ञातव्यम् , न ऊनाधिकस्य / मातृभो- | "बन्धौ बहुव्रीहौ” (2 / 4 / 84) इत्यनेन ष्यस्थाने इच् गीणः, राजपुरुषः / अधिकस्य न भवति, ऋद्धस्य / न भवति,बन्धौ बहवीही' (2 / 4 / 84) अत्र सूत्रेमुख्याराज्ञः पुरुष. / पुत्रमिच्छति पुत्रकाम्यति / अधि- बन्तष्यप्रत्ययग्रहणात् गौणस्य ष्यस्य नेच् अत्रोदाहकान्न भवति-महान्तं पुत्रमिच्छति / न्यूनाधिकव्य- रणे तु गौण एव ष्योऽस्ति / मुख्यध्यप्रत्ययान्तशब्दोवच्छेदार्थ वचनम् / / 115 / / ऽपि,-परमाचासौ कारीषगन्ध्या च-परमकारीषगन्ध्या, अव०-शब्दस्य आदिशब्दप्रकृतिमारभ्य परमकारीषगन्ध्या बन्धुरस्य परमकारीषगन्धीबन्धुः, शब्दसमुदायस्य प्रत्ययो विशेषणं भवतीति सम्ब अत्र मुख्यस्य ष्यप्रत्ययस्य भावात् 'बन्धौ बहुव्रीहौ' न्धः। तदन्तत्वं च 'विशेषणमन्तः' (7 / 4 / 113 ) (2 / 4 / 85) इति ईच् सिद्धः // 116 / / इत्यनेनैव सिद्धम् / मातृभोगः, मातुर्भोगो मातृ- कृत्सगतिकारकस्यापि / / 7 / 4 / 117 / / भोगः, मातृभोगाय=हितो मातृभोगीणः, 'भोगो- म. वृ०-कृत्प्रत्ययः प्रकृत्यादेः समुदायस्य त्तरपदात्मभ्यामीनः' (7 / 1 / 40), अत्र 'तदन्तं पदम्' गतिकारकपूर्वस्य अपिशब्दात्केवलस्यापि विशेषणं (1 / 020) इति वचनात समुदायस्य पदसंज्ञा भवति, भवति। यथेह समासो भवति,-'भस्मनिहुतम् , न तु भोगीण इति क्रमस्य पदस्य, तेन एकपदत्वा- प्रवाहेमूत्रितम , (तथा)उदकेविशोर्णम [गति],अवतप्तेण्णत्वं सिद्धम् / एवं राज्ञः पुरुषो-राजपुरुषः,षष्ठय नकुलस्थितम् [कारकोदाहरणमिदम् ]इति सगतिकेन यत्नाच्छेषे' (3 / 1176) इति समास: सिद्धः / 115 / / सकारकेण च तान्तेन सह ‘क्तेन' (3 / 1 / 92) इति गोणो ड्यादिः // 74 / 116 // सूत्रेण समासः सिद्धो भवति / तथा व्यावक्रोशी म० वृ०-ङीमारभ्य व्यं यावत् ङ्यादिः उसांराविणमिति ‘नित्यं बचिनोऽण' (7 / 3 / 58) प्रत्ययः। स गौणः सन् प्रकृत्यादेः समुदायस्य विशेषणं / इति अण् सिद्धः / 'प्रत्ययः प्रकृत्यादेः' (7 / 4 / 115) भवति, नोनाधिकस्य / 'अतिकारीषगन्ध्यबन्धुः / इत्यतोऽप्राप्ते वचनम् / / 117|| . गौण इति किम् ? मुख्योऽधिकस्यापि समुदायस्य ___ अव0-'भस्मनिहुतम् , प्रवाहेमूत्रितम् ; अत्र विशेषणं भवति,-२परमकारीषगन्धीबन्धुः / / 116 / / 'तत्पुरुषे कृति' (3 / 2 / 20) इति अलुप्समासः / पर___ अव०-पूर्वेणैव सिद्धे अगौणस्याधिकपरिग्रहार्थ स्परमाक्रोशनं= व्यावक्रोशः, * ( एवं ) परस्परं वचनम् 'गौणो ब्यादिः' इति सूत्रं कृतम् / 'करीष, हसनं व्यावहासः ; व्यतिहारेऽनीहा' 8 (5 / 3 / 116) गन्ध, करीषस्येव गन्धोऽस्य करीषगन्धिः, 'वोपमा- इति बप्रत्ययः ; 'समन्ताद्राव: संरावी, समन्तात् नात्' (73 / 147 ) इति इच् , करीषगन्धेरपत्यं कोटः सङ्कोटी; ततो नित्यं अविनोऽण् (7.3158) पौत्रादि वृद्धम ,-'ड-सोऽपत्ये' (6 / 1 / 28 ) अण् , इति बान्तात् जिन्नन्ताच्च परतोऽण , वृद्धिः, 'अनवृद्धिः, 'अवर्णेवर्णस्य' ( 7.4 / 68) इलोपः, कारीष- पत्ये' (7 / 4 / 55) इत्यन्त्यस्वरादिलोपाभावः / इमानि गन्ध इति शब्दः, 'अनार्षे वृद्धेऽणि ' (24 / 78) (इदम् ?) केवलोदाहरणम् / / 117 / / इति सूत्रेण अणः स्थाने 'त्य' इत्यादेशः, तत आप् , परः // 7 / 4 / 118 // कारीषगन्ध्या इति शब्दः, कारीषगन्ध्यामतिक्रान्तोऽतिकारीषगन्ध्यः, 'गोश्चान्ते' (2 / 4 / 96) इति म० वृo-यः प्रत्ययः स प्रकृतेः पर एव स्यात् / हस्वः, अतिकारीषगन्ध्यो बन्धुरस्य स अतिकारीष वृक्षः, अजा, मीमांसते, कार्यम् // 118 / / गन्ध्यबन्धुः , अत्र ध्यप्रत्ययेणाधिकस्याऽग्रहणात् / अव०-'पर' इति सूत्रं विना स्यादि-त्यादि * “लिन्मिन्यनिण्वस्त्र्युक्ताः' इति (हैमलिङ्गा०) पाठा अप्रत्ययान्ताः शब्दाः स्त्रिलिङ्गे एव, तथा "कृत्याः क्तानाः खल् जिन्” इति पाठात् जिन्प्रत्ययान्ताः शब्दा नपुंसकलिङ्गे एव प्रयुज्यन्ते इत्यत्र व्यावक्रोशः, व्यावहासः, संकोटी, संरावी इति पुल्लिङ्ग प्रयोगाश्चिन्त्याः / Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिभाषासूत्राणि ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / कृदादिप्रत्ययः प्रकृतेः पूर्वे वा विचाले वा स्यात्, / सूत्रबलात् 'मादुवर्णोऽनु' (2 / 1 / 47) इति सूत्रेण सूत्रकरणाच्च प्रकृतेः पर एव भवति // 11 // | एकमात्रिकस्य अकारस्य स्थाने एकमात्रिक उकार स्पर्द्ध // 74 / 119 / / एव भवति, न तु ऊकारः,'अमूभ्याम्', अत्र द्विमात्रस्य म0 वृ०-द्वयोर्विध्योरन्यत्र सावकाशयोस्तुल्यब आकारस्य स्थाने ऊ इति द्विमात्रो भवति इति लयोरेकत्रानेकत्र चोपनिपातः [प्राप्तिः] 'स्पर्द्धः / आसन्न इत्यर्थ उच्यते // 120 // तत्र यः सूत्रपाठे परः स विधिः स्यात् / वृक्षान् , सम्बन्धिनां सम्बन्धे / / 7 / 4 / 121 // मुनीन् , यशांसि, वनानि / परस्परप्रतिबन्धेनाप्रवृ- म० वृ०-सम्बन्धिशब्दानां यत्कार्यमुक्तं तत्सत्तौ पर्याये वा प्राप्ते वचनम् // 119 // म्बन्धे एव सति भवति, नान्यथा / श्वशुर्यः, प्रव०-१विधिसूत्रयोयुगपत् प्राप्ति: स्पर्द्धः [संज्ञाशब्दात्तु इबेव-] २श्वाशुरिः,मातृष्वसा / धान्यउच्यते / 'वृक्षान् मूनीन्' इत्यत्र 'शसोऽता सश्च'० मातुस्तु न भवति, मातृस्वसा // 12 // (1 / 4 / 49) इति सत्रस्यावकाशः, 'यशांसि' इत्यत्र अव०-१श्वसुर, श्वशुरस्यापत्यं श्वशुर्यः, श्वशु'नपुसकस्य शिः' 21 / 4 / 55) इत्यस्यावकाशः / राद्य.' (631291) इति यः, लोके हि श्वशुरः सम्ब'वनानि मधूनि' अत्र तु 'शसोऽता'० (7 / 4 / 41) / न्धी वर्त्तते इति यः सिद्धः / यत्र च श्वशुर नपुंसकस्य'०.(१।४।५५) इति उभयमपि प्राप्नोति, | इति कश्चित् नरः तत्र नाम्नि इबेव,यथा श्वाशुरिः / / अतः परत्वात् शिरेव, न तु 'शसोऽता'० (1 / 4 / 49) समर्थः पदविधिः / / 7 / 4 / 122 / / इति सत्रं प्रवर्त्तते / 'शसोऽता' (1 / 4 / 49) इत्यनेन 'नपुंसक'० (1 / 4 / 55) इति दीर्घत्वप्राप्तिरस्त्येव, म० वृ०-समर्थपदाश्रयत्वात्समर्थः। [सङ्गतोपरं नकारः पुस्येव उक्तोऽस्ति, शसः स्थाने शिरपि ऽर्थो यस्य स समर्थः, अथवा सङ्गतोऽर्थेन, सङ्गतप्राप्नोति (?) / / 119 // श्वासावर्थश्च समर्थः]पदसम्बन्धी विधिः(पदविधिः), तेन यः 'पदाद्विधिः श्यश्च पदे यश्च पदस्य यश्च आसन्नः // 7 / 4 / 120 // पदयोः ‘पदानां वा [ विधिः ] स सर्वःपदविधिम० वृ०-इहासन्नानासन्नप्रसङ्गे यथास्वं स्था रेव / सर्वपदविधिः समर्थो ज्ञातव्यः / तच्च नार्थप्रमाणादिभिरासन्न एवं विधि: स्यात् / तत्र सामर्थ्य व्यपेक्षा एकार्थीभावश्च / अत्र व्यपेक्षायां स्थानेन-दण्डाग्रम् / अर्थेन-२वातण्ड्ययुवतिः / 'सम्बद्धार्थः १°सम्प्रेक्षितार्थो वा पदविधिः साधुप्रमाणेन-अमुष्मै, अमूभ्याम् // 120 / / भवति / एकार्थीभावे तु विग्रहवाक्यार्थाभिधाने यः अव०-'कण्ठ्ययोरकारयोः कण्ठ्य एव आकारो शक्तः सङ्गतार्थः संसृष्टार्थो वा पदविधिः (सः) साधुदीर्घो भवति, न तु ईकारोकारादिकः / श्वतण्ड, भवति / पदविधिश्च समासनामधातुकृत्तद्धितोपपवतण्डस्यापत्यं वृद्धं स्त्री आङ्गिरसी,-'वतण्डात्' (6 / दविभक्तियुष्मदस्मदादेशप्लुतरूपो भवति / तत्र श४५) इत्यनेन यन् , वृद्धिः, वातण्ड्य इति शब्दः, समासः-द्वितीया 'श्रितादिभिः' (3 / 1162) इत्यादि, :स्त्रियां लुप्' (6 / 1146) इति सूत्रेण यत्र लुप्यते, नीलोत्पलम् / तदेतत् सामर्थ्यमविशेषोक्तमपि लोक'जातेरयान्त'० (2 / 4 / 54) इति डी, वतण्डी चासौ व्यपेक्षया [लोकव्यवहारेण] वृत्त्यवृत्त्योः (समासेयुवतिश्च, पुनः स्थानिवद्भावे वातण्ड्यशब्दः, अत्र ऽसमासे] स्वभावेन विभक्तमवतिष्ठते / यत्र त्ववतण्डीशब्दस्य 'पुंवत्कर्मधारये' (3 / 2 / 57) इति सामर्थ्य न तत्र समासः -पश्य धर्मम् , श्रितो मैत्रो वद्भावे कत्र्तव्ये अर्थत आसन्नो वातण्ड्यभावो गुरुकुलमित्यादि / अथ नामधातु- पुत्रीयति। समर्थ भवति, (यतः) वातण्ड्य एव शब्दो भवति वतण्डी इति किम् ? पश्यति पुत्रमिच्छति सुखम्। कृत् ,शब्दः / अमुष्मै, अमूभ्याम् ; अत्र 'आसन्नः' इति / कुम्भकारः / समर्थ इति किम् ? पश्य कुम्भम् , Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 548] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनम्। [अ०७ पा०४ सू. 122 करोति कटम् / तद्धित,-औपगवः / उपपदविभक्ति- , स पदस्य विधिरुच्यते / यश्च पदयो: "पदानां नमो देवेभ्यः,उपाध्यायश्चेदागच्छेदाशंसे युक्तोऽधी- वा विधिरित्यक्षरयोजना ज्ञातव्या / यथा नीलोयीय / समर्थ इति किम् ? इदं नमः, देवाः शृणुत। | त्पलम , अत्र द्वयोः पदयोः 'नाम नाम्ना'०(३।१।१८) युष्मदस्मदादेशः,-धर्मस्तेस्वम्। समर्थ इति किम् ? इति समासः। मत्तबहुमातङ्गं वनम् , अत्र बहुपओदनं पचति, तव भविष्यति [मम भविष्यति / दानाम् ‘एकार्थ चानेकं च' (3 / 1 / 22) इत्यनेन प्लुतः,-अङ्गकूज३ इदानीं ज्ञास्यसि जाल्म! ['त्यादेः बहुव्रीहिः / सोऽयं पदयोर्विधिः पदानां विधिरित्युसाकाङ्क्षस्याङ्गन'. (491) इति प्लुतः] / पदग्र- च्यते / समर्थानां पदानां विधिर्वेदितव्यः इत्यर्थः / हणाद्वर्णविधिरसामर्थेऽपि स्यात् ,-तिष्ठतु दध्यशान अपेक्षका भावयोर्विशेषो लिख्यते ,- प्रयुज्यत्वं शाकेन, तिष्ठतु कुमारीच्छत्रं हर मैत्र!; (अत्र) यत्वं मानानां शब्दानामन्योन्याऽविनाभावलक्षणा परद्वित्वं च भवति।समासनामधातुकृत्तद्धितेषु वाक्ये व्य- स्पराकाक्षा अपेक्षा उच्यते / एकार्थीभावः ऐकापेक्षा वृत्तावेकार्थीभावः / शेषेषु पुनर्व्यपेक्षेत्र [पदयोः य॑म् , अनेकानामर्थानामेकार्थानां भवनमेकार्थीपरस्परापेक्षव] सामर्थ्य भवति / यदि समर्थः पद- | भाव उच्यते, वाक्ये स्वस्वाभिधेयवाचिभिरपि शब्दैः विधिः कथमसामर्थे असूर्यपश्या राजदाराः, न समुदितैः सह विशिष्टस्यैकस्यार्थस्य प्रतिपादनपुनर्गीयन्ते अपुनर्गेयाः श्लोकाः , श्राद्धं न भुङके मित्यर्थः / 'सम्बद्धार्थः', कोऽर्थः ? सम्बद्धोऽर्थो अश्राद्धभोजी, एवमलवणभोजी,सर्वश्चर्मणा कृतः सार्व- यस्य स सम्बद्धार्थः, यत्र शीघ्रमेव पदानामन्वयोऽर्थः चर्मीणो रथः, कृतः पूर्व कटोऽनेनेति कृतपूर्वी प्रतीयते, यथा- राज्ञः पुरुषः इत्यादी, स सम्बद्धार्थः कटमित्याद्या वृत्तयो भवन्ति ? असामर्थेऽपि / पदविधिज्ञेयः / तथा 1 सम्प्रेक्षितार्थः कष्टकल्पनया बहुलाधिकाराद् ‘नम्' (3 / 1 / 51) इति सूत्रेण समासः। यत्र अर्थः प्रतीयते , यथा इदं क्लिष्टकाव्यंअत्र न्यायाः पठनीयाः / / 122 / / इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्र- राजोत्पले हरिभुजामिह के शक्स्य, विरचितायां श्रीसिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशा- यस्योरसीन्दुरदनं च जटाकलापे; सनलघुवृत्तौ सप्तमाध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः / शंखाम्बरोऽपि पवनादरिनाथसूनुः, ___ इति सप्तमोऽध्यायः / ग्रन्थाग्र-३३६। तद्धित कान्ता स वोऽगतनया विपुलं ददातु // 1 // व्या करणे अध्यायद्वयम् 2 अष्टौ 8 पादाः / अष्टपादस अस्यार्थोऽयम- यस्य रुद्रस्य उरसि-हृदये हरिभुजांवाङ्कमेलने एवं ग्रन्थानम्- 2674 / इति श्रीहैम सपाणाम वाताशिनां राजा शेषोऽस्ति, यस्य रुद्रस्य याकरणलघुवृत्तिरियम्। संवत् 14........ जटाकलापे इन्दुः यस्य च रुद्रस्य अदनं भक्षणं भोजनं . अव०-१'यः पदाद्विधिः इति को विषयः ? वर्त्तते क ? के-मस्तके कपाले,कोदृशे ? उत्पले,पलमांयथा ‘पदाधुगविभक्त्या' 0 (2 / 1 / 21) इत्यादिभिर्ये सरहिते, कस्य ? शवस्य मृतकस्य,यस्य च कान्ता वस्नसाद्यादेशाः पदात्परतो विधीयन्ते स पदाद्वि- / अगतनया गौरी, पवनात् सर्पस्तस्यारिः मयूरस्तस्य धिरुच्यते / २'यश्च पदे' इति, यथा 'शक्तार्थवषड्' | नाथः कार्तिको यः स सनः पत्रो यस्य रुदस्य. ( 2 / 2 / 68) इत्यादिनाऽलं मल्लो मल्लाय इत्यत्र एवंविधो रुद्रो खाम्बरोऽपि-दिगम्बरोऽपि शं सुखं या चतुर्थी विहिता सा पदे विधिरित्युच्यते। 'यश्च / विपुलं ददातु इति क्लिष्टकाव्ये इत्थं पदविधिः पदस्य' इति, यथा अङ्ग कूज३ इत्यादी 'त्यादेः / सम्प्रेक्षितार्थ इत्युच्यते // 122 / / साकाङ्क्षस्याङ्गेन' (14 / 91) इत्यनेन प्लुतः क्रियते / अत्र सूत्रे अवचूरिश्लोक-६२७ अक्षर 3 ऊणा . // इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलिते सिद्धहेमशब्दानुशासने सतमाध्यायस्य चतुर्थः पादः समातः // 卐 इति सप्तमोऽध्यायः समाप्तः // Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका * सूत्रम् सूत्राङ्कः। सूत्रम् सूत्राङ्कः। सूत्रम् सूत्राङ्कः / अइउवर्ण-देः। 1 / 2 / 41 // | अच्च प्रा-श्च / 2 / 1104 // / अदसोऽकवायनणोः / / अं अः-सौ / 1 / 1 / 9 // अजातेः पञ्चम्याः / 5 / 1 / 170 // अदसो दः सेस्तु डौ / 2 / 1 // 4 // अं अः-शिट् / 1 / 1 / 16 / अजातेः शीले / 5 / 1 / 154 // अदिकस्त्रियां०७१।१०७॥ अंशं हारिणि / 7 / 1 / 182 / / अजातेगे-वा / 7 / 3 / 35 // अदीर्घात्-ने / 1 / 3 / 32 // अंशाहतोः / 7 / 4 / 14 // अजादिभ्यो धेनोः / 6 / 1234|| अदुरुपसर्गा-नेः। 2 / 3 / 77 // अः सपत्न्याः / 7 / 1 / 119 // अजादेः / 2 / 4 / 16 // अदूरे एनः / 7 / 2 / 122 / / अः सृजिशो०।४।४।१११ // अज्ञाने ज्ञः षष्ठी / 2 / 280 // अदृश्याधिके / 3 / 2 / 145 // अः स्थाम्नः / 6 / 1 / 22 // अश्वः / 2 / 4 / 3 // अदेतः-क।१।४।४४॥ अकखाद्य-वा / 2 / 3 / 80 / / अञ्चोऽनर्चायाम् / 4 / 2 / 46|| अदेवासुरादिभ्यो०।६।३।१६४॥ अकविनोश्च रजेः / 4 / 2 / 50 // अञ्जनादीनां गिरौ / 3 / 277 // अदेशकालादध्या०।६४।७६॥ अकद्र -ये।७।४।६९ // अवर्ग-तः / 1 / 3 / 33 // अदोऽनन्नात् / 5 / 11150|| अकमेरुकस्य / 2 / 2 / 93 // अब्वर्गात्-न् / 1 / 2 / 40 / अदो मुमी। 12 / 35 // अकल्पात् सूत्रात् / 62 / 120 / / भट्यर्तिसू-र्णोः / 3 / 4 / 10 // अदोरायनिः०।६।१११३।। अकालेऽव्ययीभावे / 3 / 2 / 146 / / अड्धातोरा-डा / 4 / 4 / 29 // अदोनदीमा-म्नः / 6 / 16 // अकेन क्रीडाजीवे / 3 / 1 / 81 / / अणबेयेक-ताम् / / 4 / 20 // अद्यतनी। 5 / 2 / 4 // अक्लीबेऽध्वर्यक्रतोः / 3 / 1 / 139 / / अणि / 7 / 4 / 52 // अद्यतनी-महि / 3 / 3 / 11 / / अक्ष्णोऽप्राण्यङ्गे / 7 / 3 / 85 / / अणिक्कर्म णिक-तौ / 3 / 3 / 88 // अद्यतन्यां वा-ने।४।४।२२।। अगारान्तादिकः / 6 / 4 / 75 / / अणिगि प्राणिक० // 3 / 3 / 107 / / अद्यर्थाच्चाधारे / 5 / 1 / 12 // अगिलागिलगिल०३।२।११५ // अतः / 4 / 3 / 82 // अदु व्यञ्जने / 2 / 1 / 35 / / 'अग्निचित्या / 5 / 1 / 37 / / अतः कृतमि-स्य / / 3 / 5 / / अव्यञ्जनात् स-लम् / 3 / 2 / 18 // अग्नेश्चेः / 5 / 1 / 164 // अतः प्रत्ययाल्लुक।४।२।८५।। अधण-सः।१।१। 32 // अग्रहानुपदेशे / 3 / 1 / 5 / / अतः शित्युत् / 42189 / / अधरापराच्चात् 72 / 118 // अघक्यबल-वीं।४।४।२॥ अतः स्यमोऽम् / 1 / 4 / 57 / / अधर्मक्षत्रत्रि-याः / 6 / 2 / 12 / / अघोषे प्र-टः। 1 / 3 / 50 // अत आ:-ये।१।४।१॥ अधश्चतुर्थात् तथोधः / 2 / 1179 // अघोष शिटः / 4 / 1 / 45 // | अन इ / 6 / 1 / 31 // अधातुवि-म / 1 / 1 / 27 // अप्रतिस्त-म्भः / 2 / 3 / 4 / / अतमबादे-यर् / 7 / 3 / 11 / / अधातूदितः।२।४।२॥ अड़े हिहनो-र्वात् / 4 / 1 // 34 // अतिरतिक्रमे च / 3 / 1145 // अधिकं तत्सं-डः 71 / 154|| अङ्गानिरसने णिङ् / 3 / 4 / 38 / / अतोऽति रोरुः / 1 / 3 / 20 / / अधिकेन भूयसस्ते / / 2 / 111 / / अस्थाच्छत्रादेरब् / 6 / 4 / 60 // अतोऽनेकस्वरात् / / 2 / 6 / / . अधीष्टौ / 5 / 4 / 32 // अच / 5 / 1 / 49 // अतो म आने / 4 / 4 / 114 // अधेः प्रसहने / 3 / 3 / 77 / / अचः / 1 / 4 / 69 // अतोरिथट / 7 / 1 / 161 // अधेः शीङ्स्थास०।२।२।२०॥ अचि / 3 / 4 / 15 // अनोऽहस्य / 2 / 3 / 73 // अधेरारूढे / 7 / 1 / 187 // अचित्ताददेशकालात् / 6 / 3 / 206 / / अत्र च / 7 / 1 / 49 // अध्यात्मादिभ्य इकण् / 6 / 378 // अचित्ते टक / 5 / 1 / 83 / / / भदश्वाट् / 4 / 4 / 90 // अध्वानं येनौ 71 / 10 / / Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 550 ) श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं णामकाराद्यनुक्रमणिका अनः।७।३। 88 // अनेकवर्णः सर्वस्य / 7 / 4 / 107 // / अभिनिष्क्रामति०। 6 / 3 / 202 / / अनक / 2 / 1 // 36 // अनोः कमितरि / 7 / 1 / 188 // अभिनिष्ठानः 2 / 3 // 24 // अनजिरादि-तौ / 3 / 2 / 78|| अनोः कर्मण्यसति / 3 // 3 // 8 // अभिव्याप्ती-बिन् / 5 / 3 / 90 // अनयः क्त्वो यप् / 3 / 2 / 154 / / / अनोऽटये ये।७।४। 51 // अभेरीश्च वा। 7 / 1 / 189 // अनबो मूलात् / 2 / 4 / 58 // | अनोर्जनेर्डः / 5 / 1 / 168 // अभ्यमित्रमीयश्च / 7 / 1 / 104 / / अनट् / 5 / 3 / 124 / / अनोर्देशे उप / 3 / 2 / 110 // अभ्यम्भ्य सः / 2 / 1 / 18 // अनडुहः सौ। 1 / 4 / 72 // अनोवा।२।४।११॥ अभ्रादिभ्यः / 7 / 2 / 46 // अनतोऽन्तोऽदात्मने।४।२।११४॥ अनोऽस्य / 2 / 1 / 108 // अभ्वादे-सौ / 1 / 4 / 90 / / अनतो लुप / 1 / 4 / 59 // अन्तःपूर्वादिकण् / 6 / 3 / 137 // अमद्रस्य दिशः / 7 / 4 / 16 // अनतोलुप / 3 / 2 / 6 // अन्तद्धिः / 5 / 3 / 89 // अमव्ययीभाव-म्याः / 3 / 2 / 2 / / अनत्यन्ते / 7 / 3 / 14 / / अन्तर्बहि-म्नः। 7 / 3 / 132 / / अमा त्वामा / 2 / 1 / 24 // .. अनद्यतने श्वस्तनी / 5 / 3 / 5 / / अन्तो नो लुक् / 4 / 2 / 94 // अमाव्ययात् क्यन् च.।३।४।२३।। अनद्यतने र्हिः / 7 / 2 / 101 // अन्यत्यदादेराः।३।२।१५२॥ अमूर्धमस्तका-मे / 3 / 2 / 22 / / अनद्यतने हस्तनी। 5 / 2 / 7 // अन्यथैवंकथ-कात् / 5 / 4 / 50 // अमोऽकम्यमिचमः / 4 / 2 / 26 // अननोः सनः। 3 / 3 / 70 // अन्यस्य / 4 / 1 / 8 // अमोऽधिकृत्य ग्रन्थे / 6 / 3 / 198 / / अनन्तः प-यः / 1 / 1 / 38 // अन्यो घोषवान् / 1 / 1 / 14 // अमोऽन्तावोधसः / 6 / 3174 / / अनपत्ये / 7 / 4 / 55 / / अन्वापरेः / 3 / 3 // 34 // अमौ मः / 2 / 1 / 16 // अनरे वा।६।३।६१ // अन् स्वरे / 3 / 2 / 129 / / अयज्ञे स्त्रः / 5 / 3 / 68 // अनवर्णा नामी। 1 / 1 / 6 // अपः / 1 / 4 / 88 // अयदि श्रद्धा-नवा / 5 / 4 / 23 / / अनाङमाङो-छः। 1 / 3 / 28 // अपचितः।४।४। 77 // अयदि स्मृ-न्ती।५।२।९।। अनाच्छादजा-वा।२।४।४७॥ अपश्चमा-ट्१।११११॥ अयमियं पु- सौ / 2 / 1 / 38 // अनातो नश्चान्त-स्व / 4 / 1169 / / अपण्ये जीवने / 7 / 1 / 110 / / अयि रः / 4 / 1 / 6 // अनादेशादे-तः / 4 / 1 / 24 // अपस्किरः।३।३ / 30 // अरण्यात् पथि-रे / 6 / 351 / / अनाम्न्यद्विः प्लुप।६।४।१४१।।। अपाच्चतुष्पा-थे। 4 / 4 / 95 // अरीहणादेरकण् / 6 / 2183 / / अनामस्वरे नोऽन्तः / / 4 / 64 // अपाञ्चायश्चिः क्तौ।४।२।६६ अर्मनश्च-यौ / 7 / 2 / 127 // अनार्षे वृद्धे-ध्यः // 2 / 4 / 78 // अपायेऽवधिरपादा० / 2 / 2 / 29 // अरोः सुपि रः / 1 / 3 / 57 // अनिदम्यणपवादे०।६।१।१५।। | अपील्वादेवहे / 3 / 2 / 89 // / अडौँ च।१।४।३९ / / अनियो-वे / 1 / 2 / 16 / / अपोऽद् भे॥१४॥ अतिरीव्लीह्री-पुः / 4 / 2 / 21 / / अनीनाद-तः।७।४।६६ / / अपोनपादपा-तः / 6 / 2 / 10 / / अर्थपदपदोत्तर-ण्ठात् / 6 / 4 / 37|| अनुकम्पा-त्योः। 7 / 3 / 34 // अपो यञ् वा।६।२।५६॥ अर्थार्थान्ता त् / 7 / 2 / 8 // अनुग्वलम् / 7 / 1 / 102 // अपो ययोनिमतिचरे / 3 / 2 / 28 / / अर्धपूर्वपदः पूरणः / 1 / 1 / 42 // अनुनासिके च-ट् / 4 / 11 / 108 // अप्रत्यादावसाधुना ।२।२।१०शा ! अर्धात् पर-देः / / 4 / 20 // अनुपदं बद्धा / 7 / 1 / 96 // अप्रयोगीन् / 1 / 1 / 37 // अर्धात् पल-त् / 6 / 4 / 134 // अनुपद्यन्वेष्टा / 7 / 1 / 170 // अप्राणिनि।७।३।११२॥ अर्धाद् यः / 6 / 3 / 69 // अनुपसर्गाः क्षीबो० / 4 / 2 / 80 // | अप्राणिपश्वाः / 3 / 1 / 136 / / अर्हतस्तो न्त् च 7 / 1361 // अनुब्राह्मणादिन् / 6 / 2 / 12 / / अब्राह्मणात् / 6 / 1 / 141 // | अहम् / 1 / 1 / 1 // अनुशतिकादीनाम् / 7 / 4 / 27 // अभक्ष्याच्छादने वा०। 6 / 2 / 46 / / / अहे तृच् / 5 / 4 / 37 // Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [ 551 अर्होऽच् / 5 / 1 / 91 // अलाब्बाश्च-सि / / 1 / 84|| अलुपि वा।२।३ / 19 // अल्पयूनोः कन वा। 4 / 33 / / अल्पे / 3 / 2 / 136 / / अवः स्वपः / 2 / 3 / 57|| अवक्रये / 6 / 4 / 53 // अवयवात् तयट् / 7 / 1 / 151 // अवर्णभो-धिः।१।३।२२॥ अवर्णस्या-साम् / 1 / 4 / 15 / / अवर्णस्ये-रल। 1 / 2 / 6 // अवर्णादश्नो-ड्योः / 2 / 12115 / / अवर्णेवणस्य / 7 / 4 / 68 // अवर्मणो-त्ये।७।४।५९ // अवहसासंस्रोः / 5 / 1163 // अवाच्चाश्रयो-रे / 2 / 3 / 42 / / अवात् / 3 / 3 / 67 // अगत् / 5 / 3 / 62 // अवात् कुटा-ते 7 / 1 / 126|| अवात् तस्तभ्याम् / 5 / 3 / 133 / / अविति वा / 4 / 1 / 75 / / अवित्परोक्षा-रेः / 4 / / 23 / / अविदूरेऽभेः / 4 / 4 / 64 // अविवक्षिते / 5 / 2 / 14 // अविशेषणे-दः / 2 / 2 / 122 // अवृद्धादोर्नवा / 6 / 1 / 110 // अवृद्धेति गर्यो / 6 / 4 / 34 // अवेः संघा-टम् / 71 / 132 // अवेदुग्धे-सम् / 6 / 2 / 6 / / अवौ दाधी दा / 3 / 3 / 5 // अव्यक्तानु-श्व / 2 / 145 // अव्यजात् थ्यप् / 7 / 1 / 3 / / अव्ययम् / 3 / 1 / 21 // अव्ययं प्रवृद्धादिभिः / 3 / 1 // 48 // अव्ययस्य / 3 / 2 / 7 // अव्ययस्य कोऽद् च 73 / 31 / / अव्याप्यस्य मुचे०।४।१।१९॥ अशवि ते वा / 3 / 4 / 4 // / अस्वयंभुवोऽव् / 7 / 4 / 70 / / अशित्वस्सन्-टि।४।३७७॥ अस्वस्थगुणैः / 3 / 1 / 87 // अशिरसोऽशीर्षश्च / 7 / 2 / 7 // अहन्पञ्चमस्य-ति / 4 / 1 / 107 // अशिशोः / 2 / 4 / 8 // अहरादिभ्योऽन् / 62 / 87 // अश्व वाऽमावा० / 6 / 3 / 104 / / अहीयरुहो-ने।७।२।८८॥ अश्चैकादेः / 7 / 1 / 5 // अह्नः। 2 / श७४॥ अश्वत्थादेरिकण् / 6 / 297 // अह्नः / 7 / 3 / 116 / / अश्रद्धामर्षे-पि / 5 / 4 / 15 // अह्ना ग-नन् / 7 / 1 / 85 // अश्ववडवपू-राः / 3 / 11131 // आ अम्शसोऽता / 1 / 4 / 75|| अश्वादेः / 6 / 1 / 49 // आः खनिसनिजनः / 4 / 2 / 60|| अषडक्षा-नः 71 / 106| आकालिक-न्ते / 6 / 4 / 128 // अषष्ठीतृती-र्थे / 3 / 2 / 119 / / आख्यातयुपयोगे / 2 / 2 / 73 // अष्ट और्ज-सोः / 1 / 4 / 53 / . आगुणावन्यादेः।४।११४८॥ असंभस्राजिनक० 2 / 4 / 57 / / आग्रहायण्यश्व-कण् / 6 / 2 / 99|| असंयोगादोः / 4 / 2 / 86 / / आङः / 4 / 4 / 120 // असकृत् संभ्रमे 74/72 // आङः क्रीडमुषः / 5 / 2 / 5 / / असत्काण्ड-त् / / 4 / 56 / / आङः शीले / 5 / 1 / 96 / / असत्त्वाराद०।२।२।१२०।। आढल्पे / 3 / 1 / 46 // असत्त्वे उसेः / 3 / 2 / 10 // आढावधौ / 2 / 2 / 70|| असदिवा-म् / / 1 / 25 // आङो ज्योतिरुद्गमे / / 3 / 52 / / असमानलोपे-डे।४।१।६३। आढोऽन्धूधसोः / 4 / 1193| असरूपोप-क्तेः / 5 / 1 / 16 / / आङो यमहनः-च / 3 / 3 / 86 / / असहनवि -भ्यः / / 4 / 38 // आढो यि / 4 / 4 / 104 / / असुको वाऽकि / 2 / 1 / 44 / / आडो युद्धे / 5 / 3 / 43 // असूर्योग्राद् दृशः / 5 / 11126 // आङोरुप्लोः / 5 / 3 / 49 / / असोङ-सिवू-टाम् / 2 / 3 / 48 // आ च हौ। 4 / 2 / 101 // अस् च लौल्ये / 4 / 3 / 115 // आत् / 2 / 4 / 18 // अस्तपोमाया-बिन् / 7 / 2 / 47|| आत ऐः कृौ / 4 / 3 / 53 / / अस्तिबुवोभूवचाव०।४।४।१।। आतामाते-दिः / 4 / 2 / 121 // .. अस्तेः सि-ति / 4 / 3173 / आ तुमोऽन्या-त् / / 1 / 1 / / अस्त्रीशूद्रे-वा 7 / 4 / 101 // आतो डोऽहावामः / 5 / 1176 / / अस्थूलाच नसः / 73 / 161 // आतो नेन्द्र-स्य / / 4 / 29 // अस्पष्टाव-वा / 1 / 3 / 25 / / आतो णव औः / 4 / 2 / 12 / / अस्मिन् / 7 / 3 / 2 // आत्मनः पूरणे / 3 / 2 / 14 / / अस्य ड्यां लुक् / / 4 / 86|| आत्रेयाद् भारद्वाजे / 6 / 152 / / अस्यादेराः परोक्षायाम्।४।१।६८।। | आत्संध्यक्षरस्य / 4 / 2 / 1 // / अस्याऽयत्त-नाम् / 2 / 4 / 111 // | आथर्वेणिका-च / 6 / 3 / 167 // Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 552 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [ सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका आदितः। 4 / 4 / 71 // आशिष्यकन् / 5 / 1170 // आदेश्छन्दसः प्र०।६।२।११२॥ आशिष्याशी:पश्च०५।४।३८|| आद्यद्वितीय-पाः / / 1 / 13 / / आशीः क्यात्-हि / 3 / 3 / 13 / / आद्यात् / 6 / 1 / 29 // आशीराशा-णे / 3 / 2 / 120 // आद्यादिभ्यः / 7 / 2 / 84 // आश्वयुज्या अकम् / 63 / 119 // आद्योऽश एकस्वरः / 4 / 1 / 2 // आसन्नः / 7 / 4 / 120 / / आ द्वन्द्वे / 2 / 2 / 39 // आसन्नादूरा-र्थे / 3 / 1 / 20 / / आ द्वरः / 2 / 1 / 41 // आसीनः / 4 / 4 / 115 // आधाराच्चोप-रे / 3 / 4 / 24 // आसुयु-मः / 5 / 1 / 20 // आधारात् / 5 / 1 / 137 / / आस्तेयम् / 6 / 3 / 131 // आधारात् / 5 / 4 / 68 // आस्यटिव्रज्यजः क्यप् / 5 / 3 / 97 // आधिक्यानुपूर्थे / 74 / 75 / / आहावो निपानम् / 5 / 3 // 44 // आनायो जालम् / 5 / 3 / 136 / / आहिताग्न्यादिषु / 3 / 11153 // आनुलोम्येऽन्वचा / 5 / 4 / 88 / / आही-दूरे / 7 / 2 / 120 // आपत्यस्य क्यव्योः / / 4 / 9 / / इकण् / 6 / 4 / 1 // आपो हितां-याम् / 1 / 4 / 17 // इकण्यथर्वणः / 7 / 4 / 49 // आप्रपदम् / 7 / 1 / 95 / / इकिश्तिव स्वरूपार्थे / 5 / 3 / 138|| आबाधे। 7 / 4 / 85 // इको वा।४।३।१६ // आभिजनात् / 6 / 3 / 214 // इडिन्तः कर्तरि / 3 / 3 / 22 // आमः आकम् / / 1 / 20 / / इडितो व्यञ्जना-त् / 5 / 2 / 44 // आमः कृगः / 3 / 3 / 75 // इडोऽपादाने-द्वा। 5 / 3 / 19 / / आमन्ताल्वाय्येत्नावय / 4 / 385 / / इच्चापुंसो-रे / 2 / 4 / 107 // आमन्त्र्ये / 2 / 2 / 32 // इच्छार्थे कर्मणः सप्तमी / 5 / 4 / 89 // आमयादीर्घश्च / 7 / 2 / 48 // | इच्छार्थे सप्तमीपश्च० / 5 / 4 / 27|| आमो नाम वा।१।४।३१॥ इच्यस्वरे दी-छ / 3 / 2 / 72 // आयस्थानात् / 6 / 3 / 153 / / / 7 / 3 / 74 // आ यात् / 7 / 2 / 2 // इत्र इतः / 2 / 4 / 71 // आयुधादिभ्यो-देः / 5 / 1 / 94|| इनः / 7 / 4 / 11 // आयुधादीयश्च / 6 / 4 / 1 / इट ईति / 4 / 3 / 71 // आरम्भे / 5 / 1 / 10 // इट् सिजाशिषो-ने / 4 / 4 / 36 // आरादर्थैः / 2 / 2 / 78 // इडेत्पुसि-लुक् / 4 / 3 / 94 // आ रायो व्यञ्जने / 2 / 115 // इणः।२।१। 51 // आर्यक्षत्रियाद्वा / 2 / 4 / 66 / / इणिकोर्गाः।४।४।२३॥ आशिषि तु-ता४।२।११९॥ इणोऽभ्र / 5 / 3 / 75 // आशिषि नाथः / 3 / 3 / 36 // इतावतो लुक् / 7 / 2 / 146 / / आशिषि हनः / 5 / 1180 // इतोऽक्त्य र्थात् / 2 / 4 / 32 // आशिषीणः / 4 / 3 / 107 // | इतोऽतःकुतः / 7 / 2 / 90 // इतोऽनिबः / 6 / 1 / 72 // इदंकिमीत्कीः / 3 / 2 / 153 / / इदंकिमो-स्य / 7 / 1 / 148 // इदमः / 2 / 1 / 34 // इदमदसोऽक्येव / 1 / 4 / 3 // इदुतोऽस्त्र-त् / 1 / 4 / 21 // . इनः कच् / 7 / 3 / 170 / / इन्डीस्वरे लुक् / 1 / 4 / 79 // इन्द्रियम् / 7 / 1 / 174 // इन्द्रे / 1 / 2 / 30 // इन्ध्यसंयोगा-द्वत् / 4 / 3 / 21| इन्हन्-स्योः / 1 / 4 / 87 / / इरंमदः / 5 / 1 / 127 / / इर्दरिद्रः / 4 / 2 / 98 // इवृद्धिमत्यविष्णौ। 3 / 2 / 43 / / इलश्च देशे / 7 / 2 / 36 // इवर्णादे-लम् / 1 / 2 / 21 // इवृध-सनः / 4 / 4 / 47 // इश्च स्थादः / 4 / 3 / 41 / इषोऽनिच्छायाम् / 5 / 3 / 112 / / इष्टादेः / 7 / 1 / 168 // इसासः शासोऽब्य०।४।४।११८|| इसुसोबहुलम् / 7 / 2 / 128 // ईः षोमवरुणेऽग्नेः / 3 / 2 // 42 // ईगितः / 3 / 3 / 95 // ईडी वा।२।१।१०९॥ ई च गणः / 4 / 1 / 67 // ईतोऽकञ् / 6 / 3 / 41 / / ईदूदे-नम् / 1 / 2 / 34 // ईनन् च / 6 / 4 / 114 // ईनयौ चाशब्दे / 6 / 3 / 129 // ईनेऽध्वात्मनोः / 7 / 4 / 48 // ईनोऽह्नः क्रतो / 6 / 2 / 21 // ईयः / 7 / 1 / 28 // ईयः स्वसुश्च / 6 / 189 // ईयकारके / 3 / 2 / 121 // ईयसोः / 7 / 3 / 177 // Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [553 ईय॑ञ्जनेऽयपि / 4 / 3 / 97 // / उपमानं सामान्यौः / 3 / 1 / 101 // / उषासोषसः / 3 / 2 / 46 / / ईशीड:-मोः। 4 / 4 / 87 // उपमानसहित-रोः। 2 / 4 / 75 / / / उष्ट्रमुखादयः / 3 / 1 / 23 / / ईश्च्वाववर्ण-स्य / 4 / 3 / 111 // उपमेयं व्याघ्रा-क्तौ / 3 / 1 / 102 // | उष्ट्रादकम् / 6 / 2 / 36 // ईषद्गुणवचनैः। 3 / 1 / 64 // उपसर्गस्यानि-ति / 1 / 2 / 19 // उष्णात् / 7 / 1 / 185 / / ईश्वा / 1 / 2 / 33 // उपसर्गस्यायौ / 2 / 3 / 100 // उष्णादिभ्यः कालात् / 6 / 3 / 33 / / उ: पदान्तेऽनूत् / 2 / 1 / 118 // उपसर्गात् / 7 / 3 / 162 // ऊङः / 3 / 2 / 67 // उक्ष्णो लुक् / 7 / 4 / 56 // / उपसर्गात् खल्ब०।४।४।१०७।। | ऊँचो / 1 / 2 // 39 // उणादयः / 5 / 2 / 93 // उपसर्गात् सुग-त्वे / 2 / 3 / 39 / / ऊटा / 1 / 2 / 13 / / उत और्विति व्य०।४।३ / 59 // उपसर्गादध्वनः / 7 / 3 / 79 // ऊढायाम् / 2 / 4 / 51 // उति शवों-भे।४ / 3 / 26 / उपसर्गादस्योहो वा / 3 / 3 / 25 // अदितो वा / 4 / 4 / 42 // उतोऽनडुच्चतुरो वः / 1 / 4 / 81 // उपसर्गादातः / 5 / 3 / 110 // उद् दुषो णौ / 4 / 2 / 40 // उतोऽप्राणिन-उङ / / 4 / 73 / / उपसर्गादातो-श्यः / 5 / 1 / 56 / / ऊनः / 2 / 4 / 7 // उत्करादेरीयः / 6 / 2 / 91 // / उपसर्गादूहो ह्रस्वः / 4 / 3 / 106 / / ऊनार्थपूर्वाद्यैः / 3 / 1 / 67 // उत्कृष्टऽनूपेन / 2 / 2 / 39 // उपसर्गादः किः / 5 / 3 / 87 // ऊर्जा विन्वन्तः / 7 / 2 / 51 / / उत्तरादाहञ् / 6 / 3 / 5 // उपसर्गाद्दिवः / 2 / 2 / 17 // ऊर्णाशुभमो युस् / 7 / 2 / 17 / / उत्थापनादेरीयः / 6 / 4 / 121 / / उपसर्गाद् देव-शः / 5 / 2 / 69 // | | ऊर्ध्वात् पूरशुषः / 5 / 4 / 70 / / उत्पातेन ज्ञाप्ये / 2 / 2 / 59 // उपाजेऽन्वाजे / 3 / 1 / 12 // ऊर्धादिभ्यः कर्तुः / 5 / / 136 / / उत्सादेरञ्। 6 / 1 / 19 // उपाज्जाननीवि-ण / 6 / 3 / 139 // ऊर्वादिरिष्टा-स्य / 7 / 2 / 114 // उत्स्वराद्-।। 3 / 3 / 26 // उपात् / 3 / 3 / 58 // ऊर्याद्यनु-तिः / 3 / 1 / 2 // उदः पचि-रेः / 5 / 2 / 29 // उपात् किरो लवने / 5 / 4 72 / / | ऋलति-वा।१।२।२॥ उदः श्रेः / 5 / 3 / 53 // उपात् स्तुतौ / 4 / 4 / 105 // ऋशवप्रः / 4 / 4 / 20 // उदः स्थास्तम्भः सः / 1 / 3 / 44 // उपात् स्थः / 3 / 3 / 83 // ऋकपूःपथ्यपोऽत् / 7 / 376 / / * 'उदकस्योदः पेपंधि० / 3 / 2 / 104 / / उपाद् भूषासमवाय-रे / 4 / 4 / 92 // | ऋक्सामर्दी-वम् / 7 / 3 / 97 / / उदग्ग्रामाद्य-स्नः। 6 / 3 / 25 // उपान्त्यस्यासमा-।४।२।३५।। | गृद्विस्वरया०६।३३१४४॥ उदङकोऽतोये।५।३।१३५॥ उपान्वध्याङवसः। 2 / 2 / 21 // ऋचः शसि / 3 / 2 / उदच उदीच् / 2 / 1 / 103 / उपायाद् ह्रस्वश्च / 7 / 2 / 170|| ऋचि पाद:-दे। 2 / 4 / 17 / / उदन्वानब्धौ च / 2 / 1 / 97 // उपेनाधिकिनि / 2 / 2 / 105 // ऋणाद्धेतोः / 2 / 2 / 76 / / उदरे विकणाधूने / 7 / 1 / 181 / / उप्ते / 6 / 3 / 118 // ऋणे प्र-।१।२॥ 7 // उदश्वरः साप्यात् / 3 / 3 / 31 // उभयाद् धुस् च / 7 / 2 / 99 / / ऋत इकण् / 6 / 3 / 152 / / उदितः स्वरान्नोऽन्तः / 4 / 4 / 98 // उमोर्णाद्वा / 6 / 2 / 37 // ऋतः / 4 / 4 / 79 // उदितगुरोर्भा-दे / 6 / 2 / 5 // उरसोऽ / 7 / 3 / 114 // . ऋतः स्वरे वा / 4 / 3 / 43 // उदुत्सोरुन्मनसि / 7 / 1 / 192 / / उरसो याणौ। 6 / 3 / 196 // - तां विद्यायो-न्धे / 3 / 3 / 37 / / उदोऽनूर्वे हे / 3 / 3 / 62 // / / 7 / 1 / 30 // ऋते तृ-से / 1 / 2 / 8 // उद्यमोपरमौ / 4 / 3 / 57 // उवर्णात् / 4 / 4 / 58 // ऋते द्वितीया च / 2 / 2 / 114 / / उपज्ञाते।६।३।१९१ / / उवर्णादावश्यके / 5 / 1 / 19 // ऋतेमयः / 3 / 4 / 3 // उपत्यकाधित्यके / 7 / 1 / 131 // उवर्णादिकण / 6 / 3 / 39 / / ऋतो डुर।१।४।३७ / / .उपपीडरुध-म्या / 5 / 4 / 75 // उनोः / 4 / 3 / 2 // ऋतोऽत् / 4 / 1 / 38 // Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 554 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [ सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका ऋतो र:-नि / 2 / 1 / 2 // / ऋल्वादेरे-प्रः / 4 / 2 / 68 // | एष्यत्यवधौ-गे।५।४।६॥ ऋतोर-ते।१।२।२६ // ऋस्तयोः।१।२।५ // एष्यहणेनः / / 2 / 94 // ऋतो रीः। 4 / 3 / 109 / / | लूंत-वा / 1 / 2 / 3 // ऐकायें / 3 / 2 // 8 // ऋतो वा तौ च / 1 / 2 / 4 // | लुत्याल वा / 1 / 2 / 11 // ऐदौत-रैः। 1 / 2 / 12 // ऋत्तृषमृषकृश-सेट् / 4 / 3 / 24 // | लुदियतादि / 3 / 4 / 64 // ऐषमापरुर्षे 72 / 10 / / ऋत्यारु-स्य / 12 / 9 // लृदन्ताः -नाः / 1 / 1 / 7 // ऐषमोह्यःश्वसो वा / 6 / 3 / 19 / / ऋत्वादिभ्योऽण् / 6 / 4 / 125 / / | ए ऐ ओ औ-रम् / 1 / 1 / 8 // ओजःसहो-ते / 6 / 4 / 27 // ऋत्विदिश-गः / 2 / 1 / 69 // एः। 1 / 4 / 77 // ओजोञ्जःस-टः / 3 / 2 / 12 / / ऋदुदितः / 1 / 4 / 70 // एकद्वित्रि-ताः / 1 / 1 / 5 // ओजोऽप्सरसः / 3 / 4 / 28 // ऋदित्तरतम-श्व / 3 / 2 / 63 / / एकद्विबहुषु / 3 / 3 / 18 // ओत औः।१।४।७४|| ऋदुपान्त्याद-चः। 5 / 1 / 41 // एकधातौ कर्म-ये / 3 / 4 / 86|| ओतः श्ये / 4 / 2 / 103 // दुशनस्पु-हः / 1 / 4 / 84 // | एकशालाया इकः / 7 / 1 / 120 / / ओदन्तः / 1 / 2 / 37 // ऋडवर्णस्य।४।२।३७ / / एकस्वरात् / 6 / 2 / 48 // ओदौतोऽवाव् / 12 / 24 // ऋद्धनदीवंश्यस्य।३।२।५॥ एकस्वरादनु-तः / 4 / 4/56|| ओमः प्रारम्भे / 7 / 4 / 96 // ऋध ईत् / 4 / 1 / 17 // एकागाराचौरे / 6 / 4 / 118 // ओमाङि।१।२।१८॥ ऋन्नरादेरण।६।४।५१॥ एकात्-स्य |72 / 111 // ओर्जान्तस्था-णे / 4 / 1 / 60 // ऋन्नित्यदितः / 7 / 3 / 171 // एकादशषोडश० 3 / 2 / 9 / / ओष्ठयादुर् / 4 / 4 / 117 // ऋफिडादीनां / 2 / 3 / 104 // एकादाकि-ये / / 3 / 27 // औता / 1 / 4 / 20 // ऋमतांरीः / 4 / 455 // एकादेः कर्मधारयात् / 7 / 2 / 58|| औदन्ता स्वराः / 1 / 1 / 4 / / ऋर लुलं-षु। 2 / 3 / 99 // एकार्थ चानेकं च 331022 // औरोः।१।४।५६॥ ऋवर्णदृशोऽहि / 4 / 3 / 7 // | एकोपसर्गस्य च घे / 4 / 2 / 34 // कंशंभ्यां-भम् / 7 / 2 / 18 // ऋवर्णव्यञ्ज-ध्यण् / 5 / 1 / 17 // | एजेः। 5 / 1 / 118 / / कंसार्धात् / 6 / 4 / 135 // ऋवर्ण,यूणुगः कितः / 4 / 4 / 57 / / एण्या एयब् / 6 / 2 // 38 // कंसीयात् ञ्यः / 6 / / 4 / / ऋवर्णात् / 4 / 3 / 36 // एतदश्च से। 1 / 3 // 46 // | ककुदस्या-म् / 73 / 167|| ऋवर्णोवर्ण-लुक् / 7 / 4 / 71 / / | एताः शितः / 3 / 3 / 10 / / कखोपान्त्य-दोः / 63 / 59 / / ऋवर्णोवर्णा-च / 7 / 3 / 37 // / एत्यकः / 2 / 3 / 26 // कगेवनूजनै-रञ्जः / 4 / 2 / 25 / / ऋवृव्येद इट।४।४। 80|| एत्यस्तेर्वृद्धिः / 4 / 4 / 30 // काश्च / 4 / 1 / 46 / / ऋश्यादेः कः।६।२।९४|| एदापः / 1 / 4 / 42 // कच्छाग्निवस्त्र-दात् / 6 / 3 / 60 / / ऋषभोपा-व्यः।७।१।४६|| / 1 / 1 / 23 // कच्छादेर्नू नृस्थे / 63 / 55 // ऋषिनाम्नोः करणे / 5 / 2 / 86 / / ) एदोतः-लुक् / 1 / 2 / 27 // कच्छवा डुरः / 7 / 2 / 59 // ऋषिवृष्ण्यन्धककुरु० ६श६॥ / एदोद् देश एवेयादौ / 6 / 19 // कटः / 7 / 1 / 124 // ऋषेरध्याये / 6 / 3 / 145 // | एदोद्भ्यां -रः।१।४।३५।। कटपूर्वात्प्राचः / 6 / 3 / 58 // ऋषौ विश्वस्य मित्रे / 3 / 2 / 79|| | एद् बहुस्भोसि / 1 ! 4 / 4 // कठादिभ्यो वेदे लुप् / 6 / 3 / 183 / / ऋस्मिपूजशौ-च्छः / 4 / 4 / 48 // | एयस्य / 7 / 4 / 22 / / कडारादयः कर्म 3211158 / / ऋहीघ्राधा-ौ / 4 / 2 / 76 / / | एयेऽग्नायी / 3 / 2 / 52 // कणेमनस्तृप्तौ / 3 / 1 // 6 // ऋतां विडतीर् / 4 / 4 / 116 // | एये जिलाशिनः / 7 / 4 / 47 // कण्डवादेस्तृतोयः / 4 / 9 / / ऋदिच्छिवस्तम्भू-वा // 3 // 4 // 65 // / एषामीय॑ञ्जनेऽदः / 4 / 2 / 97 // / कतरकतमौ- 3312109 // itin Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [555 कत्रिः / 3 / 2 / 133 // कत्र्यादेश्चैयकम् / 6 / 3 / 10 // कथमित्थम् / 7 / 2 / 103 // कथमि सप्तमी च वा / 5 / 4 / 13 / / कथादेरिकण् / 7 / 1 / 21 // कदाकोर्नवा / 5 / 3 // 8 // कन्थाया इकण् / 6 / 3 / 20 // कन्यात्रिवेण्याः-चाश६२॥ कपिज्ञातेरेयण / 7 / 1165 // कपिबोधा-से।६।११४४॥ कपेर्गोत्रे / 2 / 3 / 29 // कबरमणि-देः।।४।४२॥ कमेणिङ् / 3 / 4 / 2 // कम्बलान्नाम्नि / 7 / 1 / 34 // / करणक्रियया कचित् / 3 / 4 / 94 // / करणं च / 2 / 2 / 19 // . करणाद्यजो भूते / 5 / 1 / 158 / / करणाधारे।५।३। 129 / / करणेभ्यः / 5 / 4 / 64 // कर्कलोहि-च 71122 // कर्णललाटात्कल् / 6 / 314 // कर्णादेरायनिन् / 6 / 2 / 90 // * कर्णादेमले जाहः 71188 // कर्तरि / 2 / 2 / 86 // कर्तरि / 5 / 1 // 3 // कतर्यनद्भ्यः शव / 3 / 4 / 71 // कर्तुः क्विप-ङित् / 3 / 4 / 25 / / कर्तुः खश् / 5 / 1 / 117 / / कर्तुजीवपुरुषा-हः / 5 / 4 / 69|| कर्तुणिन् / 5 / 1 / 153 // कर्तुाप्यं कर्म / 2 / 2 / 3 // कर्तृ स्थामूर्ताप्यात् / 3 / 3 / 40 // कमजा तृचा च।३।१।८३॥ कर्मणः संदिष्टे / 7 / 2 / 167 // कर्मणि / 2 / 2 / 40 // कर्मणि कृतः / 2 / 2 / 83 // कर्मणोऽण / 5 / 1 / 72 // कर्मणोऽण / 5 / 3 / 14 // | कालाद् यः / 6 / 4 / 126 / / कर्मण्यग्न्यर्थे / 5 / 1 / 165 / / कालाध्वनोव्याप्तौ / / 2 / 42 / / कर्मवेषाद् यः / 6 / 4 / 103 // कालाध्वभा-णाम् / 2 / 2 / 23 / / कर्माभिप्रेयः संप्रदा० / 2 / 2 / 25 // काले कार्ये-वत् / 6 / 4 / 98 / कलापिकुथु-णः 7 / 4 / 62 // कालेन तृष्य-रे / 5 / 4 / 82 // कलाप्यश्वत्थ-कः।६।३१११४॥ काले भान्नवाऽऽधारे / 2 / 2 / 48|| कल्यग्नेरेयण / 6 / 1 / 17 // कालो द्विगौ च मेयैः / 3 / 1157|| कल्याण्यादेरिन् चा०।६।११७७|| काशादेरिलः / 6 / 2 / 82 // कवचिह-कण् / 6 / 2 / 14 // काश्यपको-च।६।३। 188 // कवर्गकस्वरवति / 2 / 3 / 76 // काश्यादेः। 6 / 3 / 35 // कषः कृच्छगहने / 4 / 4 / 67 // कासूगोणीभ्यो तरट् / 7 / 3 / 50 / / कषोऽनिटः / 5 / 3 / 3 / / किंयत्तत्सर्व-दा 7 / 2 / 95 // कष्टकक्षकृच्छ्र-णे।३।४।४१॥ . किंवृत्ते लिप्सायाम् // 5 // 3 // 9 // कसमा-धः / / 1 / 41 // किंवृत्ते सप्तमी-न्त्यौ / 5 / 4 / 14 / / कसोमात् ट्यण् / 6 / 2 / 107 // किंयत्तद्बहोरः / 5 / 1 // 10 // काकतालीयादयः / 7 / 1 / 117 / / किंकिलास्त्यर्थ-न्ती / 5 / 4 / 16 / / काकवौ वोष्णे / 3 / 2 / 137 // कि क्षेपे / 3 / 1 / 110 // काकाद्यैः क्षेपे / 3 / 1 / 90 // किंत्याद्य-स्याम् / 7 / 3 / 8 // काक्षपथोः / 3 / 2 / 134 // कितः संशयप्रतीकारे। 3 / 4 / 6 / / काण्डाऽऽण्डभाण्डा०७२।३८|| किमः क-च / 2 / 1140 // काण्डात् प्रमा-त्रे। 2 / 4 / 24 // किमद्वयादि-तस् / 7 / 2 / 89 // कादिर्व्यञ्जनम् / 1 / 1 / 10 // | किरो धान्ये / 5 / 3 / 73 / / कामोक्तावकञ्चिति / 5 / 4 / 26 / / किरो लवने।४।४।९३॥ कारकं कृता / 3 / 1 / 68 // किशरादेरिकट / 6 / 4 / 55 // कारणम् / 5 / 3 / 127 / / कुक्ष्यात्मोदरा-खिः / 5 / 1190 // कारिका स्थित्यादौ / 3 // 1 // 3 // कुजादे यन्यः / 6 / 147 // कार्षापणा-वा।६।४। 133 // कुटादेर्डिद्वदणित् / 4 / 3 / 17 / / कालः / 3 / 1 / 60 // कुटिलिकाया अण् / 6 / 4 / 26 / / कालवेलासमये-रे / 5 / 4 / 33 / / / कुटीशुण्डाद् रः / 7 / 3 / 47 // कालस्यानहोरात्राणाम् / 5 / 4 / 7 // | कुण्ड्यादिभ्यो यलु०६।३।११।। कालहेतु-गे।७।१।१९३ // कुत्वा डुपः / 7 / 3 / 49 / / कालाजटाधा-पे।७।२।२३ // | कुत्सिताल्पाज्ञाते / 7 / 3 / 33 // कालात् / 7 / 3 / 19 // कुन्त्यवन्तेः स्त्रियाम् / 6 / 1 / 12 / / कालात् तनतरतम०।३।२।२४॥ कुप्यभिद्यो-म्निा५।२३९|| कालात् परि-रे।६।४।१०४|| कुमहद्भ्यां वा / 7 / 3 / 108 // कालाद् देये ऋणे // 3 // 3 // 113 // | कुमारः श्रमणादिना / 3 / 1 / 115 // कालाद् भववत् / 6 / 2 / 111 // कुमारशीर्षाण्णिन् / 5 / 1 / 28 / / Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 556] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं (सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका कुमारीक्रीड-सोः / 7 / 3 / 16 // / कृत्येऽवश्यमो लुक् / 3 / 2 / 138 // / तादल्पे / 2 / 4 / 45 // कुमुदादेरिकः / 6 / 2 / 96 // कृत्यस्य वा।२।२।८८॥ तादेशोऽपि / 2 / 1 / 61 // कुरुच्छरः / 2 / 1 / 66 // कृत्संगति-पि / 7 / 4 / 117 // क्तेटो गुरोर्व्यञ्जनात् / 5 / 3 / 106|| कुरुयुगंधराद्वा / 6 / 3 / 53 // कोनावश्यके / 3 / 1 / 95 // क्तेन / 3 / 1 / 92 // कुरोर्वा / 6 / 1 / 122 // कृपः श्वस्तन्याम् / 3 / 3 / 46 // क्तेनासत्त्वे / 3 / 1 / 74 // कुर्बादेयः / 6 / 1 / 100 // कृपाहृदयादालुः / 7 / 2 / 42 // क्तेऽनिटश्वजो:-ति / 4 / 1 / 111 // . कुलकुक्षि-रे / 6 / 3 / 12 // कृभ्वस्तिभ्यां-च्चिः 7 / 2 / 126 / / क्त्वा / 4 / 3 / 29 // कुलटाया वा / 6 / 1 / 78 // कृवृषिमृजि-वा / 5 / 1 / 42 // क्त्वातुमम् / 1 / 1 // 35 // कुलत्थकोपान्त्यादण / 6 / 4 // 4 // कृशाश्वक-दिन / 6 / 3 / 190 / / क्त्वातुमम्-वे / 5 / 1 / 13 / / कुलाख्यानाम्। 2 / 4 / 79 / / कृशाश्वादेरीयण / 6 / 2 / 93 / / क्नः पलितासितात् / / 4 / 37|| कुलान्जल्प।७।११८६॥ कृष्यादिभ्यो वलच् / 12 / 27 // क्यः शिनि / 3 / 4170 // कुलादीनः / 3 / 1 / 96 // कृतः कीर्तिः / 4 / 4 / 123 // क्यङ् / 3 / 4 / 26 // कुलालादेरकञ्। 6 / 3 / 194 / / केकयमित्रयु-च / 7 / 4 / 2 // ब्यङमानिपित-ते / 32 / 50|| कुलिजाद्वा लुप च / 6 / 4 / 165 / / केदाराण्ण्यश्च / 6 / 2 / 13 // क्यसो नगा।३।३।४३ // कुल्मासादण् / 4 / 1 / 195 // केवलमामक-जात् / 2 / 4 / 29 / / क्यनि।४।३।११२ // .. कुशलायु-याम् / 2 / 3 / 97 केवलस-रौः / 1 / 4 / 26 // क्ययङाशीयें। 4 / 3 / 10 // कुशले।६।३।९५॥ केशाद्वः / 7 / 2 / 43 // क्यो वा / 4 / 3 / 81 // कुशाग्रादीयः।७।१।११६ / / केशाद्वा।६।२।२८॥ क्रमः / 4 / 4 / 54 // कुषिरजेाप्ये-च / 3 / 4 74 // केशे वा।३।२।१०२।। क्रमः क्त्वि वा / 4 / 1 / 106 / / कुसीदादिकट / 6 / 4 / 35 // - कोः कत् तत्पुरुषे / 3 / 2 / 130 // क्रमो दीर्घः परस्मै / 4 / 2 / 109 / / कूलादुद्र जोद्वहः / 5 / 11122 // कोटरमिश्रक-णे।३।२।७६॥ क्रमोऽनुपसर्गात् / 3 / 3 / 47 // कूलाभ्रकरी-षः / 5 / 1 / 110 // | कोऽण्वादेः / 7 / 2 / 76 // क्रय्यः क्रयार्थ / 4 / 3 / 9 / / कृगः खनट-णे।५।१।१२९।। कोपान्त्याच्चाण / 6 / 3 / 56 / / क्रव्यात् क्रव्या-दौ ।५।१।१५शा कृगः प्रतियले। 2 / 2 / 12 // कोऽश्मादेः / 6 / 4 / 97 // क्रियातिपत्तिः-महि / 3 / 3 / 16 / / कृगः श च वा / 5 / 3 // 10 // कौण्डिन्याग-च।६।१।१२७|| क्रियामध्येऽध्व-च / 2 / 2 / 110 // कृगः सुपुण्य-त् / 5 / 1 / 162 / / कौपिजलहास्तिप०।६।३।१७१।। क्रियायो क्रियाथो० / 5 / 3 / 13 / / कृगो नवा।३।१।१०॥ कौरव्यमाण्डूकासुरेः / 2 / 4/70|| क्रियार्थो धातुः / 3 / 3 / 3 // कृगो यि च / 4 / 2 / 88 // कौशेयम् / 6 / 2 / 39 // क्रियाविशेषणात् / 2 / 2 / 4 / / कृगोऽव्ययेना-मौ। 5 / 4 84 / / विकति यि शय / 4 / 3 / 105 // क्रियाव्यतिहा-र्थे / 3 / 3 / 23 / / कृग्ग्रहो-यात् / 5 / 4 / 61 // क्तं नबादिभिन्नैः।३।१।१०५।। क्रियाश्रयस्या-णम् / 2 / 2 / 30 / / कृगतनादेरुः / 3 / 4 / 83 // तक्तवतू / 5 / 1 / 174 // क्रियाहेतुः कारकम् / 2 / 2 / 1 / / कृतचूतनृत-वा / 4 / 4 / 50 // क्तयोः / 4 / 4 / 40 // क्रीडोऽकूजने / 3 / 3 / 33 // कृताद्यैः / 2 / 2 / 47 // क्तयोरनुपसर्गस्य / 4 / 1192 // | क्रीतात् करणादेः / / 4 / 44|| कृतास्मरणा-क्षा / 5 / 2 / 11 // तयोरसदाधारे। 2 / 2 / 91 // क्रुत्संपदादिभ्यःक्किप् / 5 / 3 / 114 // कृते।३।१।७७ // ताः। 3 / 1 / 151 // क्रुगृहे-पः / 2 / 2 / 27|| कृते / 6 / 3 / 192 // ताच नाम्नि वा / / 4 / 28|| क्रुशस्तुनः-सि / / 4 / 91 // कृत्यतुल्या-त्या / 3 / 1114|| तात्तमबादे-न्ते / 7 / 3 / 56 / / / क्रोशयोजन-माहे / 6 / 4 / 86 / / Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रांणामकाराधनुक्रमणिका ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [557 - क्रोष्दृशलकोलक् च / 6 / 1156 // / क्षेपे च यच्चयत्रे / 5 / 4 / 18 // / गम्भीर-वात् / 6 / 3 / 135 / / क्रौडयादीनाम् / 2 / 4 / 79 // | | क्षेपेऽपिजात्वो-ना। 5 / 412 // गम्ययपः कमांधारे / 2 / 274 // क्रयादेः / 3 / 4 / 79 // क्षेमप्रिय-खाण / 5 / 1105 // गम्यस्याप्ये / 2 / 2 / 62 // क्लिन्नाल्ल-स्य / 7 / 1 / 130 // क्षैशुषिपचो-वम् / 4 / 2 / 78 // गर्गभार्गविका / 6 / 1 / 136 / / क्लीबमन्ये-या। 3 / 1 / 128 / / खनो डडरेकेकव०।५।३।१३७॥ गर्गादेर्यम् / 6 / 1 / 42 // क्लीवे / 2 / 4 / 97 / / खलादिभ्यो लिन् / 6 / 2 / 27|| गर्वोत्तरपदादीयः / 6 / 31 57 / / क्लोबे क्तः। 5 / 3 / 123 // खारीकाक-कच / 6 / 4 / 149 / / गर्भादप्राणिनि / 7 / 1 / 139 / / क्लीबे वा / 2 / 1 / 93 // खार्या वा / 7 / 3 / 102 // गवाश्वादिः। 3 / 1 / 144 // क्लेशादिभ्योऽपात् / 5 / 1181 // खितिखीती- / 1 / 4 / 36 // गवि युक्त / 3 / 2 / 74 // ककुत्रात्रेह / 7 / 2 / 93 // खित्यनव्यया-श्च / 3 / 2 / 11 / / / गवियुधेः स्थिरस्य / 2 / 3 / 25 / / कचित् / 5 / 1 / 171 // खेयमृषोद्ये / 5 / 1 / 38 // गस्थकः / 5 / 1 / 66 // कचित् / 6 / 2 / 145 // ख्णम् चाभीक्ष्ण्ये / 5 / 4 / 48 // | गहादिभ्यः / 6 / 3 / 63 // क्वचित्तुर्यात् / 7 / 3 / 44 // ख्यागि / 1 / 3 // 54 // . गहोजेः।४।१।४०॥ क्वचित् स्वार्थे / 7 / 3 / 7 // ख्याते दृश्ये।५।२।८॥ गाः परोक्षायाम् / 4 / 4 / 26 / / कसुष्मतौ च / 2 / 1 / 105 // गच्छति पथिते / 6 / 3 / 203 // गात्रपुरुषात् स्नः / 5 / 4 / 59|| कि / 5 / 1 / 148 // गडदबादे-ये / 2 / 1 / 77 // गाथिविद-नः / 7 / 4 / 54 / / किवृत्तेरसुधियस्तौ / 2 / 1158 // गड्वादिभ्यः / 3 / 1 / 56 // / गान्धारिसाल्वेया०।६।१११५|| क्वेहामात्रतसस्त्यच् / 6 / 3 / 16 / / गणिकाया ण्यः / 6 / 2 / 17 // / गापापचो भावे / 5 / 3 / 95 / / कौ / 4 / 4 / 120 // गतिः / 1 / 1 / 36 // गापास्थासादा-कः / 4 / 3 / 96 / / क्षत्रादियः / 6 / 1 / 93 // गतिकारक-क्वौ / 3 / 2 / 85 // गायोऽनुपसगाट्टक् / 5 / 174 // क्षय्यजय्यौ शक्तौ।४।३। 90 // गतिक्वन्य-षः।३।१।४२॥ गिरिनदी-द्वा / 7 / 3 / 90 // क्षिपरटः / 5 / 2 / 66 / / गतिबोधा-दाम् / 2 / 2 / 5 // गिरिनद्यादीनाम् / 2 / 3 / 68 // क्षिप्राशंसार्थ-म्यौ / 5 / 4 / 3 // गते गम्येऽध्व-वा / 2 / 2 / 107 / / गिरेरीयोऽस्त्राजीवे / 6 / 3 / 219 / / क्षियाशी प्रेषे।७।४।९२॥ गते वाऽनाप्त / 2 / 2 / 63 // गुणाङ्गाद् वेष्ठेयसू / 7 / 3 / 9 // क्षीरादेयण / 6 / 2 / 142 // गतौ सेधः / 2 / 3 / 61 // गुणाद-नवा / 2 / 2 / 77 // क्षुत्तृड्गर्धेऽशाना-यम् / 4 / 3 / 113 // गत्यर्थवदोऽच्छः / 3 / 1 // 8 // गुणादिभ्यो यः / 7 / 2 / 53 // क्षुद्रकमालवा-म्नि / 6 / 2 / 11 / / गत्यर्थाकर्मक-जेः / 5 / 1 / 11 / / गुणोऽरेदोत् / 3 / 3 / 2 // क्षुद्राभ्य एरण वा / 6 / 18 // गत्यर्थात् कुटिले / 3 / 4 / 11 / / पौधूपवि-यः।३।४।१॥ क्षुधक्लिशकुष-सः / 4 / 3 / 31 // गत्वरः / 5 / 2 / 78 // गुपतिजो-सन् / 3 / 4 / 5 // क्षुधवसस्तेषाम् / 4 / 4 / 43 // गन्धनावक्षे-गे। 3 / 2 / 76 // गुरावेकश्च / 2 / 2 / 124 // क्षुब्धविरिब्ध-भौ / 4 / 4 / 0 // गमहनजन-लुक् / 4 / 2 / 44 // गुरुनाम्यादे-र्णोः / 3 / 4 / 48 // क्षुभ्नादीनाम् / 2 / 3 / 96 // गमहनविदल-वा।४।४। 83 / / गृष्टयादेः / 6 / 1 / 84 // क्षुश्रोः / 5 / 3 / 71 // गमां कौ / 4 / 2 / 58 // गृहेऽग्नीधो रणधश्च / 6 / 3 / 174 // क्षेः क्षीः / 4 / 3 / 89 // गमिषद्यमश्छः / 4 / 2 / 106 / / गृहोऽपरोक्षायां दीर्घः।४|४|३४|| क्षेः क्षी चाध्यार्थे / 4 / 2 / 74 // गमेः क्षान्तौ।३।३। 55 // गलुपसद-हर्ये / 3 / 4 / 12 / / क्षेत्रेऽन्य-यः / 7 / 1 / 172 // गमोऽनात्मने।४।४।५१॥ गेहे ग्रहः। 5 / 1 / 55 // क्षेपातिग्र-याः / 7 / 2 / 85 // / गमो वा / 4 / 3 / 37 / / | गोः / 7 / 2 / 50 // Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 558 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [ सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका गोः पुरीषे / 6 / 2 / 50 // | ग्रामराष्ट्रांशाद्-णौ। 6 / 3 / 72 / / / ब्याप्त्यूङः / 6 / 1 / 70 // गोः स्वरे यः / 6 / 27 // ग्रामामान्नियः।२।३।७१॥ - चक्षो वाचि-ख्यांग।४।४।४|| गोचरसंचर-षम् / 5 / 3 / / 13 / / ग्रामादीन च।६।३।९॥ चजः कगम् / 2 / 1 / 86 // गोण्यादेचेकण 71 / 121 // ग्राम्याशिशुद्वि-यः। 3 / 1 / 127 / चटकाण्णर:-प् / 6 / 1 / 79 // गोण्या मेये / 2 / 4 / 103 // ग्रीवातोऽण् च / 6 / 3 / 132 // चटते-स-ये / 1 / 3 / 7 // गोत्रक्षत्रिये-यः।६।३ / 208 // ग्रीष्मवसन्ताद् वा।६।३।१२०॥ चतस्रार्द्धम् / 3 / 1 / 66 / / गोत्रचरणा-मे / 7 / 1 / 75 // प्रीष्मावर-कञ्। 6 / 3 / 115|| चतुरः / 7 / 1 / 163 / / गोत्रादळूवत् / 6 / 2 / 134 // यो यडि।२।३।१०१॥ चतुर्थी / 2 / 2 / 53 // गोत्रादङ्कवत् / 63 / 155 // ग्लाहाज्यः / 5 / 3 / 118 // चतुर्थी प्रकृत्या। 3 / 1 / 70 // गोत्राददण्ड-ध्ये / 6 / 3 / 169 // घवि भावकरण / 4 / 2 // 52 // चतुर्मासान्नाम्नि / 6 / 33133 // गोत्रोक्षवत्सो-कब् / 6 / 2 12 // घञ्युपसर्ग-लम् / 3 / 2 / 86 / / चतुष्पाद् गर्भिण्या / 3 / 1 / 112 // . गोत्रोत्तरपदात्-त्यात् / 6 / / 12 / / घटादेह्र स्वो-रे।४।२।२४॥ चतुष्पाद्भय एयञ् / 6 / 18 / / गोदानादीनां-र्थे / 6 / 4 / 81 // घसेकस्वरा-सोः / 4 / 4 / 82 // चतुर हा-सि / 2 / 3 / 74 // गोधाया दुष्टे णारश्च / 6 / 1 / 8 / / घस्लु सन-लि / 4 / 4 / 17 // चत्वारिंशदादौ वा। 3 / 2 / 9 / / गोपूर्वादत इकण् / 7 / 2 / 56 / / घस्वसः / 2 / 3 / 36 // चन्द्रयुक्तात्-क्ते / 6 / 2 / 6 // गोमये वा।६।३।५२॥ घुटि / 1 / 4 / 68 / / चन्द्रायणं च चरति / 6 / 482 // गोऽम्बाम्ब-स्य / 2 / 3 // 30 // घुषेरविशब्दे / 4 / 4 / 68 / चरकमा-नञ्।७।१।३९ // गोरथवातात्-लम् / 6 / 2 / 24 // घोषदादेरकः / 7 / 2 / 74 // चरणस्य स्थेणो-दे / 3 / 11138 // गोर्नाम्न्यवोऽक्षे। 1 / 2 / 28 // घोषवति / 1 / 3 / 21 // चरणादकम् / 6 / 3 / 168 // गोश्चान्ते-हो / 24 / 96 // घ्राध्मापा -शः / 5 / 158 // चरणाद्धर्मवत् / 6 / 2 / 23 / / गोष्ठातेः शुनः / 7 / 3 / 110 // घ्राध्मोङि / 4 / 3 / 98 // चरति / 6 / 4 / 11 // गोष्ठादीनब / 7 / 2 / 79 // ध्यण्यावश्यके / 4 / 1 / 115 / / चरफलाम् / 4 / 1 / 53 / / गोस्तत्पुरुषात् / 7 / 3 / 105 // ङसेश्चाद् / 2 / 1 / 19 // चराचरचला-वा / 4 / 1 / 13 // गोहः स्वरे।४।२।४२॥ सोऽपत्ये / 6 / 1 / 28 // चरेराडस्त्वगुरौ / 5 / 1 / 31 / / गौणात् सम-या। 2 / 2 / 33 / / ङस्युक्तं कृता / 3 / 1 / 49 / / चरेष्टः / 5 / 1 / 138 // गौणो ब्यादिः / 7 / 4 / 116 // डिडौः। 1 / 4 / 25 // चर्मण्यम् / 7 / 1 / 45 / / गौरादिभ्यो मुख्यान्डी।।४।१९।। - डिदिति / 1 / 4 / 23 / / चर्मण्वत्य-त् / 2 / 1 / 96 // गौष्टीतेकी-च्चरात् / 6 / 3 / 26 / / स्मिन् / 1 / 4 / 8 // चर्मशुनः-चे। 7 / 4 / 64 // ग्मिन् / 7 / 2 / 25 // उदसा ते मे / 2 / 1 / 23 / / चमिवर्मि-रात् / 6 / 1 / 112 / / ग्रन्थान्ते।३।२।१४७ // डेदस्योर्यातौ / 1 / 4 / 6 / / चर्मोदरात्पूरेः / 5 / 4 / 56 // ग्रहः / 5 / 3 / 55 // पिबः पीप्य / 4 / 1 / 33 / / चलशब्दार्था-त् / 5 / 2 / 43 / / ग्रहगुहश्च सनः।४।४। 59 // ड सासहिवाव-ति / 5 // 2 // 38 // चल्याहारार्थेड्-नः / 3 / 3 / 108 / / ग्रहणाद्वा / 7.1 / 177 // हुणोः कटा-बा। 1 / 3 / 17 // चवर्गद-रे / 7 / 3 / 98 // ग्रहवश्वभ्रस्जप्रच्छः / 4 / श८४॥ यः / 3 / 2 / 64 // चहणः शाठ्य / 4 / 2 / 31 // ग्रहादिम्यो णिन् / 5 / 1 // 53 // यादीदूतः के / 2 / 4 / 104 / / चातुर्मास्य-च / 6 / 4. / 85 / / ग्रामकौटात् तक्ष्णः / 7 / 3 / 109 / / | ज्यादेौण-च्योः / 2 / 4 / 95 / / चादयोऽसत्त्वे / 1 / 1 / 31 // ग्रामजनबन्धु-तल्। 6 / 2 / 28 // | ड्यापो बहुलं नाम्नि / 2 / 4 / 99 // ] चादिः-नाङ / 1 / 2 / 36 // Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंबलितम्। चायः कीः / 4 / 1 / 86 // जपजभदहदश-शः / 4 / 1 / 52 // चार्थे द्वन्द्वः सहोक्तौ / / 1 / 117 // | जपादीनां पोवः / 2 / 3 / 105 // चाहहवैवयोगे।२।१। 29 // | जभः स्वरे / 4 / 4 / 100 // चिक्लिदचक्नसम् / 4 / 1 / 14|| जम्ब्वा वा / 6 / 2 / 60 // चितिदेहा-देः / 5 / 3 / 79 // जयिनि च / 6 / 3 / 122 // चितीवार्थो / 7 / 4 / 93 // जरत्यादिभिः / 3 / 1155|| चितेः कचि / 3 / 2 / 83 // जरसो वा / / 4 / 60 // चित्ते वा / 4 / 2 / 41 // जराया ज-च 7 / 3 / 93 // चित्रारेवती-याम् / 6 / 3 / 108 // जराया ज-वा / / 13 / / चित्रे / 5 / 4 / 19 // जस इः / 1 / 4 / 9 // चिरपरुत्प-स्त्नः / 6 / 3 / 85 / / जस्येदोत् / 1 / 4 / 22 / / चिस्फुरोर्नवा / 4 / 2 / 12 // जस्विशे-न्ये।२।१।२६ // चीवरात्परि-जने / 3 / 4 / 41 // जागुः / 5 / 2 // 48 // चुरादिभ्यो णिच् / 3 / 4 / 17 // जागुः किति / 4 / 3 / 6 // चूडादिभ्योऽण् / 6 / 4 / 119 // जागुरश्च / 5 / 3 / 104 // चूर्णमुद्रा-गौ।६।४७॥ जागुर्बिणवि / 4 / 3 / 52 // चेः किर्वा / 4 / 1 / 36 / / जाग्रुषसमिन्धेर्नवा / 3 / 4 / 49 // चेलार्थात् क्नोपेः / 5 / 4 / 58 // जाज्ञाजनोऽत्यादौ / 4 / 2 / 104 // चैत्रीकार्तिकी-द्वा / 6 / 2 / 10 / / जातमहद्-यात् / 73 / 95 // चौरादेः / 7 / 1 / 73 // जातिकालसुखा-वा / 3 / 12152 // च्वौ क्वचित् / 3 / 2 / 60 // जातिश्च णितद्धि-रे / 3 / 2 / 5 / / कव्यर्थे काप्या-गः / 5 / 3 / 140 / / जातीयैकार्थेऽच्वेः / 3 / 270|| व्यर्थे भृशादेः स्तोः / 3 / 4 / 29 // जातुयद्यदायदौ स०।५।४।१७॥ छगलिनोलेयिन् / 6 / 3 / 185 / / जाते / 6 / 3 / 98 // छदिर्बलेरे यण् / 7 / 1 / 47 // जातेः सम्पदा च 7 / 2 / 131 // छदेरिस्मन्त्रट कौ / 4 / 2 / 33 / / जातेरयान्त-त् / / 4 / 54 // छन्दसो यः। 6 / 3 / 147 // जातेरीयः सामान्य०७३।१३९|| छन्दस्यः / 6 / 3 / 197 / / जातौ / 7 / 4 / 58 // छन्दोगौ-घे।६।३। 166 // जातौ राज्ञः / 6 / 1 / 92 / / छन्दोऽधीते वा 72173 / / जात्याख्यायां-वत् / / 2 / 12 / / छन्दोनाम्नि / 5 / 3 / 70|| जायापतेश्चि-ति / 5 / 1184 / / छाशोर्वा / 4 / 4 / 12 / / जायाया जानिः / 73 / 164 / / छेदादेर्नित्यम् / 6 / 4 / 182 / / जासनाट-याम् / / 2 / 14|| जिघ्रतेरिः / 4 / 2 / 38 // जङ्गल-वा / 7 / 4 / 24 // जिविपून्यो-ल्के / 5 / 1143 // जण्टपण्टात् / 6 / 1 / 82 / / जिह्वामूला-यः / 6 / 3 / 127 // जनशो न्युपान्त्ये०।४।३।२३॥ / जीक्षि -थः / 5 / 2 / 72 / / जीर्णगोमूत्रा-ले 7 / 2 / 77 // जीवन्तपर्वताद्वा।६।१ / 58 // जीविकोपनि-म्ये 317| जीवितस्य सन् / 6 / 4 / 170 // जभ्रमवम-वा।४।१। 26 // जनश्चः क्त्वः ।४।४।४शा "जषोऽतः / 5 / 1 / 173 / / जेर्गिः सन्परोक्षयोः / 4 / 1 // 35 // ज्ञः / 3 / 3 / 82 // ज्ञप्यापो ज्ञीपीप० / 4 / 1 / 16 / / ज्ञानेच्छार्चार्था-न / 3 / 1 / 86 / / ज्ञानेच्छाईर्थवी-तः / 5 / 2 / 92 // ज्ञीप्सास्थेये / 3 / 3 / 64 // ज्ञोऽनुपसर्गात् / 3 / 3 / 96 // ज्यश्च यपि।४।१।७६ // ज्यायान् / 7 / 4 / 36 / / ज्याव्यधः क्ङिति / 4 / 1 / 8 / / ज्याव्येव्यधिव्यचि०।४।१७१॥ ज्योतिरायु-स्य / 2 / 3 / 17 // ज्योतिषम् / 6 / 3 / 199 // ज्योत्स्नादिभ्योऽण् / / 2 / 34 // ज्वलह्वलमल-बा। 4 / 2 / 32 / / HIRDETI विख्णमोर्वा / 4 / 4 / 106 // बिच ते पद-च।३।४। 66 / / बिणवि घन् / 4 / 3 / 101 // बिदार्षादणियोः / / 1 / 140 // ठिणति / 4 / 3 / 50 // ब्णिति घात्।४।३।१००॥ ट: पुसि ना / 1 / 4 / 24 // टनण् / 5 / 1 / 67 // टस्तुल्यदिशि / 6 / 3 / 210 // टाटसोरिनस्यौ।१।४।५।। टाइयोसि यः / 2 / 1 / 7 // टादौ स्वरे वा।१।४।९२।। टौस्यनः / 2 / 1 / 37 / / WITH Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 560 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [ सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका टोस्येत् / 1 / 4 / 19 // धेघ्राशाछासो वा / 4 / 3 / 67 // टधेश्वेर्वा / 3 / 4 / 59 // वितोऽथुः। 5 / 3 / 83 // . डकश्चाष्टाच-णाम् / 6 / 4 / 84|| डनरडतमौ-श्न।७।४।७६॥ डतिष्णः-प् / 1 / 4 / 54 // डत्यतु संख्यावत् / 1 / 1 // 39 // डाच्यादौ / 7 / 2 / 149 // डाचलोहिता-षित् / 3 / 4 // 30 // डित्यन्त्यस्वरादेः / 2 / 1 / 114|| डिद्वाण / 6 / 2 / 136 // डिन् / 7 / 1 / 147 // डीयश्व्यैदितः क्तयोः / 44 // 6 // ड्नः सः त्सोऽश्वः / 1 / 3 // 18 // ड्वितस्त्रिमक-तम्। 5 / 3 184 // ढस्तड्ढे / 1 / 3 / 42 // णौ दान्तशान्त-सम् / 4 / 4 / 74 // / तद्यात्येभ्यः / 6 / 4 / 87 // णौ मृगरमणे / 4 / 2 / 51 // तद्वति धण / 7 / 2 / 108 // णौ सन्डे वा। 4 / 4 / 27 // तद्वत्त्यधीते।६।२।११७ // ण्योऽतिथेः / 7 / 1 / 24 // तद्युक्ते हेतौ / 2 / 2 / 100 // तनः क्ये / 4 / 2 / 63 // तः सौ सः।२।१।४२।। तनुपुत्राणु-क्ते / 7 / 3 / 23 / / तक्षः स्वार्थे वा / 3 / 4 / 77 // तनो वा / 4 / 1 / 105 // ततः शिटः / 1 / 3 / 36 // तन्त्रादचि-ते।७।१।१८३॥ तत आगते / 6 / 3 / 149 // तन्भ्यो वा-श्च / 4 / 3 / 68 // ततोऽस्याः / 1 / 3 / 34 // तन्व्य धीण-तः / 5 / 1 / 64 // ततो ह-र्थः। 1 / 3 / 3 // तपः कर्चनुतापे च / 3 / 4 / 91 / / तत्पुरुषे कृति / 3 / 2 / 20 // तपसः क्यन् / 3 / 4 / 36 // तत्र / 7 / 1 / 53 // तपेस्तपःकर्मकात् / 3 / 4 / 85 / / तत्र कृतलब्ध-ते। 6 / 3 / 94 // / तप्तान्ववाद्रहसः / 7 / 3 / 81 // तत्र कसुकानौ-त् / 5 / 2 / 2 / / तमर्हति / 6 / 4 / 177 / / तत्र घटते-ष्ठः / 7 / 1 / 137 / / तमिस्रार्णवज्योत्स्नाः 7252 / / तत्र नियुक्ते।६।४।७४॥ तं पचति द्रोणाद्वान् / 6 / 4 / 16 / / तत्र साधौ। 7 / 1 / 15 // तं प्रत्यनो-लात् / 6 / 4 / 28 / / तत्रादामि-वः / 3 / 1 / 26 / / तं भाविभूते / 6 / 4 / 106 // तत्राधीने / 7 / 2 / 132 // तयोर्वो-याम् / / 4 / 103 / / तत्राहोरात्रांशम् / 3 / / 93 / / तयोः समू-षु / 7 / 3 / 3 // त्रोद्धते पात्रेभ्यः / 6 / 2 / 138 / / | तरति / 6 / 4 / 9 // तत्साप्यानाप्या-श्व / 3 / 32221 तरुतृणधान्य-त्वे।३।१।१३३।। तद् / 7 / 1 / 50 / / तव मम इंसा।२।१।१५॥ तदः सेः-ऑ। 1 / 3 // 45 // तवर्गस्य श्च-ौ / 1 / 3 / 60 // तदन्तं पदम् / 1 / 1 / 20 // तव्यानीयौ / 5 / 1 / 27 // तदत्रास्ति / 6 / 2 / 70 / / तसिः / 6 / 3 / 211 / / तदत्रास्मै वा-यम् / 6 / 4 / 158 // तस्मै भृता-च / 6 / 4 / 107 // तदर्थार्थन।३।१।७२॥ तस्मै योगादेः शक्ते / 6 / 4 / 94|| तदस्य पण्यम् / 6 / 4 / 54 // तस्मै हिते।७।१॥ 35 // तदस्य सं-तः / 7 / 1 / 138 // तस्य / 7 / 1 // 54 // तदस्यास्त्य-तुः / 7 / 2 / 1 // तस्य तुल्ये कः०७१।१०८॥ तद्धितः स्वर-रे। 3 / 2 / 55 // तस्य वापे / 6 / 4 / 151 // तद्धितयस्वरेऽनाति / 2 / 4 / 92 // / तस्य व्याख्या-त् / 6 / 3 / 142 // तद्धिताकको-ख्याः / 3 / 2 / 54 // तस्येदम् / 6 / 3 / 160 / / तद्धितोऽणादिः / 6 / 1 / 1 // तस्याहे-वत् / 7 / 1 / 51 // तद्भद्रायुष्य-षि / 2 / 2 / 66 // / तादर्थ्ये / 2 / 2 / 54 / / णकतृचौ / 5 / 1 / 48 // णश्च विश्रवसो-वा। 6 // 1 // 65 // णषमसत्परे स्यादि० २।श६०|| णस्वराघोषा-श्च / 2 / 4 / 4 / / णावज्ञाने गमुः। 4 / 4 / 24 // णिज् बहुलं-षु। 3 / 4 / 42 // णिद्वान्त्यो णव / 4 / 3 / 58 // णिन् चावश्य-ये / 5 / 4 // 36 // णिवेत्त्यास-नः / 5 / 3 / ११शा णिश्रि-कर्तरि ङः / 3 / 4 / 58|| णिस्तोरेवाऽणि / 2 / 3 / 37 // णिस्नुयात्मने-त् / 3 / 4 / 92 // णेरनिटि / 4 / 3 / 83 // णेर्वा / 2 / 3 / 88 // णोऽन्नात् / 7 / 1 / 10 // णौ क्रीजीङः / 4 / 2 / 10 // / / 188 // Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / ताभ्यां वा-न / 2 / 4 / 15 / / / तृतीस्य तृतीयचतुर्थे / 1 / 3 / 49 // | त्यादौ क्षेपे / 3 / 2 / 126 // तारकावर्णका-त्ये / 2 / 4 / 11 // तृतीयस्य पञ्चमे / 1 / 3 / 1 // / त्रने वा। 4 / 4 / 3 // तालाद्धनुषि / 6 / 2 / 32 // तृतीया तत्कृतैः / 3 / 1 / 65 // त्रन्त्यस्वरादेः / 7 / 4 / 43 / / तिककितवादी द्वन्द्वे / 6 / / 131 / / / तृतीयान्तात्-गे / 1 / 4 / 13 // पुजतोः षोऽन्तश्च / 6 / 2 / 33 / / तिकादेरायनित्र / 6 / 1 / 107 // तृतीयायाम् / 3 / 1 / 84 // त्रप् च / 7 / 2 / 92 // तिक्कृती नाम्नि / 5 / 1 / 71 / / तृतीयाल्पीयसः / 2 / 2 / 112 // त्रसिगृधि-नुः / 5 / 3 / 32 / / ति चोपान्त्या दुः / 4 / 1154|| तृतीयोक्तं वा।३।१।५०॥ त्रिककुद् गिरौ / 7 / 3 / 168 // तित्तिरिवर--यण / 6 / 3 // 184 / / तृन्नुदन्ता-स्य / 2 / 2 / 90 // त्रिचतुरस्-दौ / 2 / 1 / 1 // तिरसस्तियति / 3 / 2 / 124 // / तृन् शीलधर्मसाधुषु / 5 / 2 / 27 // त्रिंशद्विशते-र्थ / 6 / 4 / 129 / / तिरसो वा / 2 / 3 / 2 // तृप्तार्थपूरणा-शा / 3 / 1 / 85 // | त्रीणि त्रीण्यन्य-दि / 3 / 3 // 17 // तिरोऽन्तौ / 3 / 1 // 9 // . तृषिधृषिस्वपो नजिङ् / 5 / 2 / 80 // त्रेस्तु च।७।१।१६६॥ तिर्यचापवर्गे। 5 / 4 / 85 // तृम्वसृ-।१।४।३८ // खयः।१।४। 34 // तिर्वा ष्ठिवः / 4 / 1 / 43 / / तृहः इनादीत् / 4 / 3 / 62 // त्रैशचात्वारिंशम् / 6 / 4 / 174 // तिलयवादनाम्नि / 6 / 2 / 52 / / तत्रपफलभजाम् / 4 / 1 / 25 // / स्वते गुणः / 3 / 2 / 59 / / तिवां णवः परस्मै।४।२११७|| ते कृत्याः / 5 / 1 / 47 // स्वमहं-कः / 2 / 1 / 12 // तिलादिभ्यः-लः / 7 / 1 / 136 / / तेन च्छन्ने रथे।६।२।१३१ / / त्वमौ प्र-न् / 2 / 1 / 11 / / तिष्ठतेः / 4 / 2 / 39 // तेन जित-त्सु।६।४।२॥ | त्वे / 2 / 4 / 100 // तिष्ठदग्वि-यः।३।१३६॥ | तेन निवृत्ते च / 6 / 2 / 71 // / त्वे वा।६।१। 26 // तिष्यपुष्ययोर्भाणि / 2 / 4 / 9 / / तेन प्रोक्त।६।३। 181 / / तीयं हित-वा / 1 / 4 / 14 / / तेन वित्ते-णौ। 7 / 1 / 175 // थे वा।४।१।२९ // तीयशम्ब-डाच / 7 / 2 // 135 / / तेन हस्ताद्यः / 6 / 4 / 101 / / थोन्थ / 1 / 4 / 78 // तीयाट्टीकम-चेत / 7 / 2 / 153 / / / तेहादिभ्यः। 4 / 4 / 33 // तुः / 4 / 4 / 54 // ते लुग्वा / 3 / 2 / 108 / / दंशसब्जः शवि।४।२।४९ // तुदादेःशः / 3 / 4 / 81 // तेषु देये।६।४। 97 // दंशेस्तृतीयया / 5 / 4 / 73 // तुभ्यं मह्यं डसा / 2 / 1 / 14 // | तो वा / 7 / 2 ! 148 // दशेनः / 5 / 2 / 90 // तुमर्हादिच्छायां-नः / 3 / 4 / 21 // | तो माझ्याक्रोशेषु / 5 / 2 / 21 / / / दक्षिणाकडङ्गर-यौ / 6 / 4 / 181 / / तुमश्च मनःकामे / 3 / 2 / 140 // तो मुमो-स्वो। 1 / 3 / 14 // दक्षिणापश्चा-त्यण / 6 / 3 / 13 / / तुमोऽर्थे भा-त्। 2 / 2 / 61 // तौ सनस्तिकि / 4 / 2 / 64 // दक्षिणेर्मा व्याधयोगे / 73 / 143 // तुरायणपा-ने।६।४। 92 // त्यजयजप्रवचः। 4 / 1 / 118 // दक्षिणोत्तराच्चातस् / / 2 / 117 / / तुल्यस्थाना-स्वः / 1 / 1 / 17 / / त्यदादिः / 3 / 1 / 120 / / दगुकोशल-दिः / 6 / 1 / 108|| तुल्यार्थस्तृतीयाष०।२।२।११६।। त्यदादिः / 6 / 1 / 7 // दण्डादेयः / 6 / 4 / 178 / / तूदीवर्मत्या एयण / 6 / 3 / 218 // त्यदादेमयट / 6 / 3 / 159 // दण्डिहस्ति-ने / 7 / 4 / 45 / / तूष्णीकः / 6 / 4 / 61 // त्यदाद्यन्यसमा-च / 5 / 1 / 152 // दत् / 4 / 4 / 10 // तूष्णीकाम् / 7 / 3 / 32 // त्यदामेन-ते / 2 / 1 / 33 // दध्न इकण / 6 / 2 / 143 / / तूष्णीमा। 5 / 4 / 87 // त्यादिसर्वादेः-ऽक् / 7 / 3 / 29 / / दध्यस्थि -न् / 1 / 4 / 63 / / तृणादेः सल् / 6 / 2 / 81 // त्यादेः सा-न / 7 / 4 / 91 // दध्युरःस-लेः / 7 / 3 / 172 / / तृणे जातौ / 3 / 2 / 132 // / त्यादेश्च प्र-पप् / 7 / 3 / 10 / / | दन्तपादना-बा।२।१।१०१॥ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 562] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं ( सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका दन्तादुन्नतात / 7 / 2 / 40 // .. दीर्घमवोऽन्त्यम् / 4 / 1 / 103 / / / दैर्येऽनुः / 3 / 1 / 34 // दम्भः / 4 / 1 / 28 // दीर्घश्च्वियङ-च / 4 / 3 / 108 / / दैवर्याज्ञशौचिव-र्वा / 2 / 4 / 82 / / दम्भो धिप्धीप् / 4 / 1 / 18 // दीर्घो नाम्य-पः / 1 / 4 / 47 / / दो मः स्यादौ / 2 / 1 / 39 / / दयायास्कासः / 3 / 4 / 47 // दुःखात्प्रातिकूल्ये / 7 / 2 / 141 / / दोरप्राणिनः / 6 / 2 / 49 // दरिद्रोऽद्यतन्यां वा / 4 / 376 / / दु.स्त्रीषतः-खल् / 5 / 3 / 139 // दोरीयः / 6 / 3 / 32 // दर्भकृष्णाग्निशर्म-त्स्ये / 6 / 1 / 157 // दुगोरू च / 4 / 2 / 77 // दोरेव प्राचः / 6 / 3 / 40 // दशनावोदै-थम। 4 / 2 / 54 // दुनादिकुर्वि-व्यः / 6 / 1 / 118 // दोसोमास्थ इः / 4 / 4 / 11 / / दशैकादशादिकश्च / 6 / 4 / 36 / / दुर्निन्दाकृच्छ् / 3 / 1 / 43 / / द्यावापृथिवी-यौ। 6 / 2 / 108|| दश्वाङः / 5 / 1 / 78 // दुष्कुलादेयण्वा / 6 / 1 / 98|| द्यतेरिः / 4 / 1 / 41 // दस्ति / 3 / 2 / 88 // दुहदिहलिहकः / 4 / 3 / 74 / / द्यद्भयोऽद्यतन्याम् / 3 / 3 / 44 / / दागोऽस्वास्यप्रसार०।३।३.५३।। / दुहेडुघः / 5 / 1 / 145 / / / द्यद्रोमः / 7 / 2 / 37 // दाधेसिशदसदो रुः।५।२।३६॥ दूरादामन्त्र्य-नृत् / 7 / 4 / 99|| द्युप्रागपागु-यः / 6 / 3 / 8 // दाण्डाजिनि-कम् / 7 / 1 / 171 // दूरादेत्यः / 6 / 3 / 4 / / घप्रावृवर्षा-त् / 3 / 2 / 27 // दामः संप्रदा-च / 2 / 2 / 52 // दृग्दृशदक्षे / 3 / 2 / 151 / / द्रमक्रमो यङः / 5 / 2 / 46 // दामन्यादेरीयः / 7 / 3 / 67 // दृतिकुक्षि-यण् / 6 / 3 / 130 / / / द्रव्यवस्नात्केकम / 6 / 4 / 167 / दाम्नः / 2 / 4 / 10 / / दृतिनाथात्पशाविः / 5 / 1 / 97 // | द्रीयो वा।६।१ / 139 / / दाश्वत्सा -बत्।४।१। 15 / / इन्पुनर्वर्षाकारैर्भुवः। 2 / 1 / 59|| द्रेररणोऽप्राच्य।६।१।१२३।। दिक पूर्वपदादनाम्नः / 6 / 3 / 23 / / / वृगस्तुजुषे-सः / 5 / 1 / 40 // द्रोणाद्वा / 6 / 159 // दिक्पूर्वात्तो। 6 / 3 / 71 / / दशः क्वनिप्।५।१।१६६ // द्रोभव्ये / 7 / 1 / 115 / / दिकशब्दात्तीर-रः।३।२।१४२।। दृश्यभिवदोरात्मने / 2 / 2 / 9 / / द्रोर्वयः / 6 / 2 / 43 // दिकशब्दा-म्याः / 7 / 2 / 113 / / दृश्यर्थैश्चिन्तायाम्। 2 / 1 / 30 / / द्रयादेस्तथा।६।१ / 132 / / दिगधिकं संज्ञा-दे।३।११९८| दो साम्नि नाम्नि / 62 / 133 / / द्वन्द्वं वा / 7 / 4 / 82 // दिगादिदेहांशाद्यः।६।३।१२४|| देये त्राच / 7 / 2 / 133 // द्वन्द्वात प्रायः / 6 / 3 / 201 / / वितेश्चैयण वा / 6 / 1 / 69 / / देदिगिः परोक्षायाम् / 4 / / 32 / / द्वन्द्वादीयः / 6 / 2 / 7 // दिद्युइहज्ज-पः / 5 / 2 / 83 // देवता / 6 / 2 / 101 // द्वन्द्वाल्लित् / 7 / 1 / 74 // दिव औः सौ।२।१।११७ // - देवतानामात्वादौ / 7 / 4 / 28 / / द्वन्द्वे वा। 1 / 4 / 11 // दिवस दिवः-बा / 3 / 2 / 45 / / देवतान्तात्तदर्थे / 7 / 1 / 22 // / द्वयोर्विभज्ये च तरप / 73 / 6 / / दिवादेः श्यः / 3 / 4 / 72 / / देवपथादिभ्यः / 7 / 1 / 111 // द्वारादेः। 7 / 4 / 6 // दिवो द्यावा।३।२।४४॥ देववातादापः / 5 / 1 / 99 / / द्विः कान:-सः / 1 / 3 / 11 / / दिशो रूढया-ले। 3 / 1 / 25 // देवव्रतादोन डिन् / 6 / 4 / 8 / / द्विगोः संशये च / 7 / 1 / 144 // दिस्योरीट् / 4 / 4 / 89 / / देवात् तल / 7 / 2 / 162 / / द्विगोः समाहारात् / 2 / 4 / 22 / / दीङः सनि वा / 4 / 2 / 6 // देवाद्यञ् च / 6 / 1 / 21 / / द्विगोरनपत्ये-द्विः / 6 / 1 / 24 // दीपजनबुधि-वा।३।४।६७|| देवानांप्रियः।३।२।३४॥ द्विगोरनहोऽट / 7 / 3 / 99 // दीप्तिज्ञानयत्न-दः / 3 / 3 78 // देवार्चामैत्री-स्थः / 3 / 3 / 60 // द्विगोरीनः / 6 / 4 / 140 // दीय दीङः-रे / 4 / 3 / 93 // / देविकाशि-वाः। 7 / 4 / 3 // / द्विगोरीनेकटौ वा।६। 4,164|| दीर्घः। 6 / 4 / 127 // देशे। 2 / 3 / 70 // द्वितीयतुर्य-चौं। 4 / 1 / 42 // याब-सेः। 1 / 4 / 45 // देशेऽन्तरो नः / 2 / 3 / 91 / / द्वितीयया।५।४।७८ // Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्राणामकारायनुक्रमणिका ] मध्यमवृत्यवचूरिसंवलितम् / [563 -द्वितीया खट्वा क्षेपे / 3 / 1159 // / धनगणाल्लब्धरि / 7 / 1 // 9 // द्वितीयात् स्वरादूर्ध्वम् / 7 / 3 / 41 / / धनहिरण्ये कामे / 7 / 1 / 179 / / द्वितीयायाः काम्यः / 3 / 4 / 22 / / धनादेः पत्युः / 6 / 1 / 14 // द्वितीयाषष्ठयावे०।२।२।११७॥ धनुर्दण्डत्सरु-हः / 5 / 1 / 92 / / द्वित्रिचतुरः सुच् / 7 / 2 / 110 / / धनुषो धन्वन् / 7 / 3 / 158 / / द्वित्रिचतुष्पू--यः / 3 / 1 / 56 // धर्मशील-त् / 7 / 2 / 65 / / द्वित्रिबहो--स्तात् / 6 / 4 / 144 // धर्माधर्माच्चरति / 6 / 4 / 49 / / द्वित्रिभ्यामयद वा / 711152 // | धर्मार्थादिषु द्वन्द्वे / 3 / 1 / 159 / / द्वित्रिस्वरौ--भ्यः / 2 / 3 / 67 // धवाद्योगा-त् / 2 / 4 / 59 // द्विवेरायुषः / 7 / 3 / 100 // | धागः / 4 / 4 / 15 / / द्विवेर्धमबेधौ वा / 7 / 2 / 107 / / | धागस्तथोश्च / 2 / 1 / 78 // द्वित्रेमधनों वा / 7 / 3 / 127 // | धातोः कण्ड्वादेयेक् / देयक / 3 / 4aa द्विव्यधानां-हौ।३।२। 92 // | धातोः पू-च / 3 / 1 / 1 // द्विव्यादेर्याण वा। 6 / 4 // 14 // धातोः सम्बन्धे / 5 / 4 / / 1 / / द्वित्वे गोयुगः / 7 / 1 / 134 // / धातोरनेकस्वरादा० // 3 / 4 / 46 / / द्वित्वेऽधोऽध्युपरिभिः / 2 / 2 // 34 // | धातोरिवर्णो-ये / 2 / 1 / 50|| द्वित्वेऽप्यन्ते-वा। 2 / 3 / 81 // धात्री / 5 / 2 / 91 / / द्वित्वे वां नौ।२।१ / 22 // | धान्येभ्य ईनन् / 7 / 1 / 79 // द्वित्वे ह्वः / 4 / 1 / 87 // धाय्यापाय्यसा-से / 5 / / 20 // द्विदण्ड्यादिः / 7 / 3 / 75 // | धारीङोऽकृच्छे ऽतृश् / 5 / 2 / 25 / / द्विपदाद् धर्मादन् / 7 / 3 / 141 // धारेर्धर् च / 5 / 1 / 113 // द्विर्धातुः परोक्षा-धेः / 4 / 1 / 1 / / / धुटस्तृतीयः / 2 / 1 / 76 / / द्विषन्तपपरन्तपौ। 5 / 1 / 108 / / / धुटां प्राक् / 1 / 4 / 66 // द्विषो वातृशः / 2 / 2 / 84 // :-वा।१।३।४८॥ द्विस्वरब्रह्म-देः / 6 / 4 / 155 / / / 4 / 3 / 70 // द्विस्वरादणः / 6 / 1 / 109 / / / धुरोऽनक्षस्य / 7 / 3 / 77 // द्विस्वरादनद्याः / 6 / 1 / 71 // / धुरो यैयण / 7 / 1 / 3 // द्विहेतो-वा। 2 / 2 / 87 / / - धूगौदितः / 4 / 4 / 38 // द्वीपादनुसमद्रं ण्यः / 6 / 3 / 68 // धूगप्रीगोनः / 4 / 2 / 18 // .. द्वेस्तीयः / 7 / 1 / 165 // धूगसुस्तोः परस्मै। 4 / 4 / 85 / / द्वयन्तरनव-ईप / 3 / 2 / 109 // धूमादेः / 6 / 3 / 46 / / द्वयादेर्गुणान्-यत् / 7 / 1 / 153 / / धृषशसः प्रगल्भे / 4 / 4 / 66 / / द्वय क्तजक्षपञ्चतः।४।२।९३॥ धेनोरनबः।६।२।१५ // द्वय क्तोपान्त्यस्य-रे। 4314 // धेनो व्यायाम / 3 / 2 / 118 / / द्वय केषु-र्वा / 6 / 1 / 134 // द्वय षसूत-स्य / 2 / 4 / 109 // | न / 2 / 2 / 18 // | नं क्ये। 1 / 1 // 22 // नः शि ञ्च / 1 / 3 / 19 // न कचि / 2 / 4 / 105 // न कर्तरि / 3 / 1 / 82 // न कर्मणा बिच / 3 / 4 / न कवतेर्यकः।४।१ / 47 // न किमः क्षपे।७।३ / 70 // नखमुखाइनाम्नि / 2 / 4 / 40 // नखादयः।३।२।१२८ // न ख्यापूग-श्व / 2 / 3 / 90 // नगरात्कुत्सादाक्ष्ये / 6 / 3149 / / नगरादगजे।५।१।८७॥ न गृणाशुभरुचः / 3 / 4 / 13 / / नगोऽप्राणिनि वा / 3 / 2 / 127 // नग्नपलित-कबौ / 5 / 1128 / / न जनवधः / 4 / 3 / 54 // न / 3 / 1 / 51 // नबः क्षेत्रज्ञे-चेः / 7 / 4 / 23 // नबत् / 3 / 2 / 125 // नत्रव्यया-डः / 7 / 3 / 123 / / न बस्वाङ्गादेः। 7 / 4 / 9 // नयोऽनिः शापे / 5 / 3 / 117 // नमोऽर्थात् / 7 / 3 / 174 / / नञ्तत्पुरुषात् / 7 / 3 / 71 / / नत्तत्पुरु-देः / 7 / 1 / 57 / / नबहो-णे / 7 / 3 / 135 // नसुदुर्व्यः- 7 / 3 / 136 / / नसुव्युप-रः / / 3 / 131 // नटान्नृत्ते व्यः / 6 / 3 / 165 / / नडकुमुदवेतस-डित् / 6 / 2 / 74 / / नडशादाद् वलः / 6 / 2 / 75 / / नडादिभ्य आयनणाश५३॥ नडादेः कीयः / 6 / 2 / 92 // न डीशीङ-दः / 4 / 3 / 27 // न णिङ्यसूद-क्षः / 5 / 2 / 45 / / न तमबादिः-भ्यः / 7 / 3 / 13 / / न तिकि दीर्घश्च / 4 / 2 / 59 / / न दधिपयादिः / 3 / 1 / 145 / / Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 564) श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [सूत्राणामकाराधनुक्रमणिका न दिस्योः / 4 / 3 / 61 // नवाणः / 6 / 4 / 142 // नदीदेशपुरां-नाम् / 3 / 1142 / / नवादीन-स्य / 7 / 2 / 160 // नदीभिर्नाम्नि।३।१।२७ // नवाद्यानि शतृ-पदम् / 3 / 3 / 19 / / नद्यादेरेयण। 6 / 3 / 2 // नवापः / 24 / 106 // नद्यां मतुः / 6 / 2 / 72 // नवा परोक्षायाम् / 4 / 4 / 5 / / न द्वित्वे / 7 / 2 / 147 / / नवा भावारम्भे / 4 / 4/72 / / न द्विरद्वय-त् / 6 / 2 / 6 // नवा रोगातपे / 6 / 3 / 82 // . न द्विस्वरा-तात् / 6 / 3 / 29 // नवा शोणादेः / 2 / 4 / 31 / / न नाडिन्देत् / 1 / 4 / 27 // नवा सुजथैः काले 2 / 2 / 9 / / न नाम्नि / 7 / 3 / 176 // नवा स्वरे / 2 / 3 / 102 // न नाम्येक-ऽमः।३।२।९॥ न विंशत्यादि-न्तः / 3 / 169 // न नृपूजार्थध्वज०७१।१०९॥ / न वृद्धिश्चा-पे।४।३।१।। ननौ पृष्टोक्ती-त् / 5 / 2 / 17 // न वृद्भयः / 4 / 4 / 55 // चन्द्यादिभ्योऽनः / 5 / 1 / 52|| नवैकस्वराणाम् / 3 / 2 / 66 / / नन्वोर्वा / 5 / 2 / 18 // - नशः शः / 2 / 3 / 78 // नपुसकस्य शिः / 1 / 4 / 55|| न शसदद-नः।४।१।३०॥ नयुसका बा। 7 / 3 / 89 // न शात् / 1 / 3 / 62 // न पुंवनिषेधे / 3 / 2 / 71 // न शिति / 4 / 2 / 2 // न प्राग्जितीये स्वरे / 6 / / 35 // नशेर्नेश वाडि / 4 / 3 / 102 / / न प्रादिरप्रत्ययः / 3 / 3 / 4 // | नशो धुटि / 4 / 4 / 109 // न बदनं संयोगादिः / 4 / 15 / / नशो वा / 2 / 1 / 70 // नमस्पुरसो-सः / 2 / 3 / 1 // | न श्विजागृशस-तः / 4 / 3 / 49|| नमोवरिवश्चित्रको-ये ।शष्टा३॥ न संधिः / 1 / 3 / 52 // न यि तद्धिते / 2 / 1 / 65 // न संधिकीय-लुकि / 7 / 4 / 111 // न राजन्य-के / 2 / 4 / 94 // न सप्तमीन्द्वादि० श१५५।। न राजाचार्य-रुणः / 7 // 1 // 36 // न सवोदिः / 1 / 4 / 12 // न रात् स्वरे। 1 / 3 / 37 // नसस्य / 2 / 3 / 65 / / नरिकामामिका / 2 / 4 / 112 / / न सामिवचने / 7 / 3 / 57 // नरे।३।२।८०॥ न स्तं-र्थे / 1 / 1 / 23 // नवम्चेर्गती।४।१।११३॥ नसनासिका-द्रे / 3299 // नत्रभ्या -वाः।१।४।१६॥ न स्सः / 2 / 3 / 59 // न वमन्तसंयोगात् / 2 / 11111 // न हाको लुपि / 4 / 249|| नक्यज्ञादयोऽन्ते। 6 / 4 / 73|| नहाहोर्धतौ।२।१।८५ // न वयो य / 4 / 1 / 73 // नाडीघटीखरी-श्च / 5 / 1 / 120 / / नवा कणयमहसस्वनः / 5 / 3 / 48 // नाडीतन्त्रीभ्यां स्वाङ्गे / 7 / 3 / 180 // नवाऽखित्कृद-त्रेः। 3 / 2 / 117|| नाथः / 2 / 2 / 10 // नषा गणः-रित् 714 / 86 // / नानद्यतन-त्योः / 5 / 4 / 5 / / नानावधारणे / 7 / 4 / 74|| नान्यत् / 2 / 1 / 27 // नाप्रियादौ / 3 / 2 / 53 // नाभेर्नभ-शात् / 7 / 1 // 31 // नाभेर्नाम्नि। 7 / 3 / 134 // नामन्ये / 2 / 1 / 92 // नाम नाम्नकार्य० // 3 // 1 // 18 // नामरूप-य: [72 / 58|| नाम सिद-ने / 1 / 1 / 21 // नामिनः काशे / 3 / 2187 // नाभिनस्तयोः षः / 2 / 3 / 8 / / नामिनोऽकलिहलेः / 4 / 3 / 5 / / नामिनो गुणो-ति ।४।३।शा नामिनोऽनिट / 4 / 3 / 33 / / नामिनो लुग्वा / 1 / 4 / 61 / / नाम्नः प्रथम-हौ / / 2 / 31 // नाम्नः प्राग- 73 // 12 // नान्ना ग्रहादिशः / 5 / 4 / 83 / / नाम्नि।२।१।९५ // नाम्नि।२।४।१२॥ नाम्नि / 3 / 1 / 94 / / नाम्नि / 3 / 2 / 16 // नाम्नि / 3 / 2 / 75 // नाम्नि / 3 / 2 / 1944 / / नाम्नि। 6 / 4 / 172 // नाम्नि कः / 6 / 2 / 54 // नाम्नि पंसि च / 5 / 3 / 12 / / नाम्नि मक्षिकादि० / 6 / 3 / 193 / / नाम्नि वा / 1 / 2 / 10 / / नाम्नि शरदोऽकम् / 6 / 3 / 100 // नाम्नो गमः-हः / 5 / 3 / 13 / / नाम्नो द्विती-म / 4 / 117 // नाम्नो नोऽनह्नः / 2 / 1 / 9 / / नाम्नो वदः क्यप् च / 5 / 135 / / नाम्न्युत्तरपदस्य च / 32 / 107|| नाम्न्युदकात् / 6 / 3 / 125 / / नाम्यन्तस्था-पि / 2 / 3 / 15 / / . नत Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्राणामकाराधनुक्रमणिका ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / - - - नाम्यादेरेव ने / 2 / 3 / 8 / / निरभेः पूल्वः / 5 / 3 / 21 // | नृनः-वा। 1 / 3 / 10 // नाम्युपान्त्य-कः / 5 / 1154|| निरभ्यनोश्व-नि / 2 / 3 / 50 // | नेसिद्धस्थे / 3 / 2 / 29 // नारीसखी-श्र / 476|| निर्दु देशे / 5 / 1 / 133 // नेमार्थ-वा / 1 / 4 / 10 // नावः / 7 / 3 / 104 // निदुःसुवेः-तेः।२ / 3 / 56 // नेरिनपिट-स्य / 7 / 1 / 128 // नावादेरिकः / 7 // 23 // निदुर्बहि-राम् / 2 / 3 / 9 // नेआदापत-ग्धौ। 2 / 3 / 79 // नाशिष्यगोवत्सहले / 32 / 148 // निदु:सो:-म्नाम् / 2 / 3 // 31 // | नेध्रुवे / 6 / 3 / 17 // नासत्त्वालथे। 3 / 4 / 57 // निर्नेः स्फुरस्फुलोः / 2 / 3 / 53 / / ने दगदपठ-णः / 5 // 3 // 26 // नासानति-टम् / 71 / 127 // निर्वाणमवाते / 4 / 2 / 79 // नेवः। 5 / 3 / 74 // नासिकदरौ-ण्ठाद् / 2 / 4 / 39 // निर्विण्णः / 2 / 3 / 89 / / नेकस्वरस्य। 7 / 4 / 44 // नास्तिका-कम् / 6 / 4 // 66 // निवृत्तेऽक्षद्यतादेः।६।४।२०।। नैकार्येऽक्रिये / 2 / 3 / 12 // निसनिक्ष-वा / 2 / 3 / 84 // निर्वृत्ते।६।४।१०५॥ मोङ्गादेः। // 2 // 29 // निकटपाठस्य / 3 / 1 / 140 / / नि वा।१।४ / 89 // नोतः / 3 / 4 / 16 // निकटादिषु वसति / 6 / 4 / 77 // निवासाचरणेऽण / 6 / 3 / 65 / / नोऽपदस्य तद्धिते / 74 / 6 / / निगवादेर्नाम्नि / 5 / 1 / 61 // निवासादूरभवे-म्नि / 6 / 2 / 69 / / नोपसर्गात्-हा / 2 / 2 / 28 // निघोघसंघो-नम् / 5 / 3 // 36 // निविशः।३।३।२४ // नोपान्त्यवतः / 2 / 4 / 13 / / निजां शित्येत् / 4 / 1 / 57 // . निविस्वन्ववात् / 4 / 4 / 8 // नोऽप्रशानो-रे / 1 / 3 / 8 // नित्यदि-स्वः / 1 / 4 / 43 // निशाप्रदोषात् / 6 / 3 / 83 / / नोभयोर्हेतोः / 2 / 289 // नित्यमन्वादेशे / 2 / / 3 / / निषेधेऽलंखल्वोः क्त्वा / 5 / 4 / 44 // नो मट् / 7 / 1 / 159 // नित्यवरस्य / 3 / 11141 // निष्कादेः-सात् / 7 / 2 / 57 // नोादिभ्यः / 2 / 1 / 99 // नित्यं जबिनोऽण 7358 // निष्कुलान्नि-णे।७२।१३९॥ नो व्यञ्जनस्या-तः।४।।४५।। नित्यं णः पन्थश्च / 6 / 4 / 89 // निष्कुषः / 4 / 4 / 39 // नौद्विस्वरादिकः।६।४।१०।। नित्यं प्रतिनाल्पे // 3 // 1 // 37 // निष्प्रवाणि: / 7 / 3 / 181 // नौविषेण-ध्ये / 7 / 1 / 12 / / नित्यं हस्ते हे / 3 / 1115 // निष्फले तिला-जौ 7 / 2 / 154|| न चोधसः / 7 / 1 / 32 // नि दीर्घः / 1 / 4 / 85 // निष्प्रा-नस्य। 2 / 6 / 66 // न्यग्रोधस्य-स्य / 7 / 4 / 7 // निनद्याः-ले। 2 / 3 / 20 // निसस्तपेऽनासेवा०।२३१३५।। न्यङकूद्ग-यः।४।१।११२।। निन्दहिंस-रात् / 5 / 2 / 68 // निसश्च श्रेयसः / 7 / 3 / 122 // न्यकोर्वा / 7 / 4 / 8 // निन्द्यं कुत्सनै धैः / 3 / 110 / / निसो गते / 6 / 3 / 18 // न्यायुपश्चिोत् / 5 / 3 / 42 // निन्द्ये पाशप् / 7 / 3 / 4 // निहवे ज्ञः।३।३।६८॥ न्यवाच्छापे / 5 / 3 / 56 // निन्द्ये व्याप्या-यः / 5 / 1159 / / निदावशस्-त्रट् / 5 / 2 / 88 // न्यादो नवा / 5 / 3 / 24 // निपुणेन चार्चायाम् / / 2 / 103 / / नीलपीतादकम् / 6 / 2 / 4 // न्यायादेरिकण् / 6 / 2 / 118 // निप्राधुजः शक्ये / 4 / 1 / 116 // नीलात्प्राण्यौषध्योः / 2 / 4 / 27 / / न्यायार्थादनपेते।७।१।१३ / / निप्रेभ्यो नः / 2 / 2 / 15 // नुप्रच्छः / 3 / 3 / 54 // न्यायावाया-रम् / 5 / 3134 // निमील्यादिमेङ-के / 5 / 4 / 46 // नुजोतेः / 2 / 4 / 72 / / न्युदो ग्रः / 5 / 3 / 72 / / निमूलात्कषः / 5 / 4 / 62 // नुर्वा / 1 / 4 / 48 // न्स्महतोः / 1 / 4 / 86 / / निय आम् / 1 / 4 / 51 // नृतेर्यछि / 2 / 3 / 95 / / नियश्चानुपसर्गाद्वा / 5 / 3 / 60 // | नृत्खनञ्जः -ट् / 5 / 1 // 65 // पक्षाचोपमादेः / 2 / 4 / 43 / / नियुक्तं दीयते / 6 / 4 / 70 // | नृहेतुभ्यो-वा। 6 / 3 / 156 // / पक्षात्तिः / 7 / 1 / 89 // HIMALAIMER प Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मीसिद्धहेमशब्दानुशासन [ सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका . पक्षिमत्स्य-ति / 6 / 4 / 31 // पदेऽन्तरेऽना-ते। 2 / 3 / 63 / / परेः सृचरेर्यः / 5 / 3 / 102 // पचिदुहेः / 3 / 4 / 87 // पदोत्तरपदेभ्य इकः / 6 / 2 / 125 // | परेघः / 5 / 3 / 40 / / पञ्चको वर्गः। 1 / 1 / 12 // | पद्धतेः / 2 / 4 / 33 / परे_योगे।२।३।१०३॥ पञ्चतोऽन्यादे-दः / 1 / 4 / 58 // पन्ध्यादेरायनण् / 6 / 2 / 89 // परेदेविमुहश्च / 5 / 2 / 65 // पञ्चदशद्वर्गे-वा / 6 / 4 175 / / पयोद्रोर्यः / 6 / 2 / 35 // परेछूते / 5 / 3 / 63 / / पञ्चमी-आमहैव / 3 / 3 / 8 // परः / 7 / 4 / 118 // वपाति / 6 / 4 / 29 // पश्चमी भयाद्यः।३।१।७३ / / परःशतादि / 3 / 1 / 75 // परेमृ षश्च / 3 / 3 / 104 // पञ्चम्यपादाने / 2 / 2 / 69 // परजनराज्ञोऽकीयः / 6 / 3 / 31 / / परे वा। 5 / 4 / 8 // पञ्चम्यर्थहेतौ / 5 / 3 / 11 // परतः स्त्री पुंवत्-।३।२।४९।। परोक्षा-महे / 3 / 3 / 12 // पञ्चम्याः कृग् / 3 / 4 / 52 // परदारादिभ्यो गच्छति / 6 / 4 / 38 परोक्षायां नवा।४।४।१८ / / पञ्चम्या त्वरायाम् / 5 / 4 / 77 // परशव्याघलुक् च / 6 / 2 / 40 / / परोक्षे।५।२।१२।। पश्चम्या नि-स्य / / 4 / 104 // परश्वधाद्वाऽण् / 6 / 4 / 63 // परोपात् / 3 / 3 / 49 // पश्वसर्व-ये / 7 / 1 / 41 // परस्त्रियाः प-यें।६।१।४०॥ / परावरीण-णम् / / 1 / 99 // पणपादमाषाद्यः / 6 / 4 / 148 // / परस्परान्योन्येत-सि / 3 / 2 / 1 / / पर्णकृकणात्-जात् / 6 / 3 / 62 / / पणेर्माने / 5 / 3 / 32 // पराणि कानान-दम् / 3 / 3 / 20 / / | पोदेरिकट / 6 / 4 / 12 // पतिराजान्त-च / 7 / 1 / 60 // परात्मभ्यां H / 3 / 2 / 17 // पर्यधेर्वा / 5 / 3 / 113 / पतिवल्यन्त-ण्योः / / 4 / 5 / / परानोः कृगः / 3 / 3 / 101 / / पर्यनोामात् / 6 / 3 / 138 / पत्तिरथौ गणकेन / 3 / 1179 // परावरात्स्तात् / 7 / 3 / 116 / / पर्यपाङ-क्या / 3 / 1 / 32 // पत्युनः / 2 / 4 / 48 // परावराधमो-यः / 6 / 3 / 76 / / पर्यपात् स्खदः / 4 / 2 / 27 / / पत्रपूर्वाद / 6 / 3 / 177 // परावरे / 5 // 4 // 45 // पर्यपाभ्यां वये। 2 / 2 / 71 // पथ इकट् / 6 / 4 / 88 // परावेर्जेः / 3 / 3 / 28 // पर्यभेः सर्वोभये / 7 / 2 / 83 / / पथः पन्थ च / 6 / 3 / 103 / / परिक्रयणे।।२।६७॥ पर्यायाईणोत्पत्तौ०। 5 / 3 / 120 // पथिन्मथिन्-सौ।१।४।७३|| परिक्लेश्येन / 5 / 4 / 80 // पर्वतात् / 6 / 3 / 60 // पथोऽकः / 6 / 3 / 96 // परिखाऽस्य स्यात् / 7 / 1 / 48 // पर्वा ड्वण / 6 / 2 / 20 // पथ्यतिथि-यण / 7 / 1 / 16 // परिचाय्योप-ग्नौ।५।१।२५। पोदेरण / 7 / 3 / 66 // पदः पादस्याज्या-ते।३।२।९५|| परिणामि-र्थे / 7 / 1 / 44 // पर्षदो ण्यः / 6 / 4 / 47 // पदकल्पल-कात् / 6 / 2 / 119 / परिदेवने / 5 / 3 / 6 // पर्षदो ण्यणौ / 7 / 1 / 18 // पदक्रमशिक्षा-कः / 6 / 2 / 126 / / परनिवेः सेवः। 2 / 3 / 46 // पशुभ्यः-ष्ठः / 7 / 1 / 133 / पदरुजविश-घ / 5 / 3 / 16 // परिपथात् / 6 / 4 / 33 / / पशुव्यञ्जनानाम् / 3 / 1 / 13 // पदस्य।२।१।८९ // परिपन्थात्तिष्ठति च।६।४।३२॥ पश्चात्यनुपदात् / 6 / 4 / 41 // पदस्यानिति बा।७।४।१२॥ परिमाणा-ल्यात् / 2 / 4 / 23 // पश्चादाद्यन्तौ-मः / 6 / 3 / 75 // पदाद्य त्वे / 2 / 1 / 21 // परिमाणार्थ-चः। 5 / 1 / 109 / पश्चोऽपरस्य-ति / 7 / 2 / 124|| पदान्तरगम्ये वा। 3 / 3 / 99 // परिमुखादे-वात् / 6 / 3 / 136 / / / पश्यद्वाग्दि-ण्डे / 3 / 2 / 32 / / पदान्ताट्ट-तेः / 1 / 3 / 63 // | परिमुहायमा-ति / 3 / 3 / 94 // | पाककर्णपर्ण-त् / 2 / 4 / 55 / / पदान्ते। 2 / 1 / 64 / परिव्यवात् क्रियः / 3 / 3 / 27 / / पाठे धात्वादेो नः / 2 / 3 / 97 / / पदास्वैरिबा-हः / 5 / 1 // 44 // | परेः। 2 / 3 / 52 // पाणिकरात् / 5 / 1 / 121 // पदिकः / 6 / 4 / 13 // परेः क्रमे / 5 / 3 / 76 / / / पाणिगृहीतीति / 2 / 4 / 52 // Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्राणामकारायनुक्रमणिका ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / द पाणिघताडघी-नि / 5 / 189 // | पुञ्जनुषोऽनुजान्धे / 3 / 2 / 13 // / पूरणा दिकः / 6 / 4 // 159 / / पाणिसमवाभ्यां सृजः / 5 / 1118 // पुत्रस्यादि-शे / 1 / 3 / 38 // पूरणीभ्यस्तत्-प् / 7 / 3 / 130 / / पाण्टाहृति-णश्च / 6 / 1 / 104 / / / पुत्राद्येयौ / 6 / 4 / 154 // पूर्णमासोऽण् / 7 / 2 / 55 // पाण्डुकम्बलादिन् / 6 / 2 / 132 // पुत्रान्तात् / 6 / 1 / 111 // पूर्णाद्वा / 7 / 3 / 166 // पाण्डोड्यण / 6 / 1 / 119 // पुत्रे।३।२॥४०॥ पूर्वकालैक-लम् / 3 / 1 / 97 / / पातेः / 4 / 2 / 17 // पुत्रे वा / 3 / 2 / 31 // T--TH / 2 / 3 / 64 // पात्पादस्याह-देः / 7 / 31.138 // पुनरेकेषाम / 4 / 1 / 10 // पूर्वपदस्य वा / 7 / 3 / 45 // पात्राचिता-वा।६।४। 163 / / . पुनभू पुत्र ञ् / 6 / 1 / 39 // पूर्वप्रथमा--ये / 7 / 4 / 77 / / पात्रात्तौ।६।४।१८० // पुमनडु-त्वे / 7 / 3 / 173 / / पूर्वमनेनन् / 7 / 1 / 167 // पात्रेसमि-यः / 3 / 1 / 91 // . पुमोऽशि-रः।१।३।९॥ पूर्वस्याऽस्वे स्वरे० / 4 / 1137 / / पाच्यशूद्रस्य / 3 / 1 / 143 / / पुरंदरभगंदरौ। 5 / 1 / 114 // पूर्वाग्रेप्रथमे / 5 / 4 / 49 // पादाद्योः / 2 / 1 / 28 // पुराणे कल्पे / 6 / 3 / 187 // पूर्वात् कर्तुः / 5 / 1 / 141 // पाद्याये / 7 / 1 / 23 // पुरायावतवित्तमाना। 5 / 3 7 // / पूर्वापरप्र--रम् / 3 / 1 / 103 // पानस्य भावकरणे।२।३।६९॥ पुरुमगधकलिङ्ग-दण / 6 / 2116 / / ना।३।१ / 52 // पापहीयमानेन। 7 / 2 / 86 // पुरुषः स्त्रिया / 3 / 1 / 126 // / पूर्वापरा-द्युस् / 7 / 2 / 98 // पारावारं-च। 7 / 1 / 101 // पुरुषहृदयादसमासे / 7 / 1 / 70 // पूर्वावराध--पाम् / 7 / 2 / 115 / / पारावारादीनः / 6 / 3 / 6 // पुरुषात् कृत-या / 6 / 2 / 29 / / पूर्वाला-नट् / 6 / 3 / 87 // पारेमध्ये-बा।३।१।३० / / पुरुषाद्वा / 2 / 4 / 25 / / पूर्वाह्न-कः / 6 / 3 / 102 // पार्थादिभ्यः-कः / 5 / 1 / 135|| पुरुषायु-बम् / 7 / 3 / 120 // पूर्वोत्तर--क्थ्नः / 7 / 3 / 113 / / पाशाच्छासा-यः / 4 / 2 / 20 // 3 / 2 / 135 // पृथग्नाना--च / 2 / 2 / 113 / / पाशादेश्च ल्यः।६।२।२५ // - पुरोऽग्रतोऽग्रे सर्तेः / 5 / 11140|| पृथिवीमध्यान्-स्य / 6 / 3 / 64 / / पिता मात्रा वा।३।१।१२२।। पुरोडाश-टौ / 6 / 3 / 146 // पृथिव्या बाऽञ्।६।१।१८॥ पितुर्यो वा।६।३। 151 // पुरो नः / 6 / 3 / 86 // पृथिवीसर्व-श्वाञ्। 6 / 4 / 156 / / पितृमातुर्य-र।६।२। 62 // पुरोऽस्तमव्ययम् / 3 / 1 / 7 // पृथुमृदु--रः / 7 / 4 / 39 / / पित्तिथट्-घात् / 7 / 1 / 160 / / पुव इत्रो दैवते / 5 / 2 / 85 // पृथ्वादेरिमन्वा / 7 / 1 / 58 // पित्रोर्डामहट् / 6 / 2 / 63 / / पुष्करादेर्देशे। 7 / 2 / 70 // पृपोइरादयः / 3 / 2 / 155 / / पिबैतिदाभूस्थः-ट् / 4 / 3 // 66 // पुष्यार्थाद् भे पुनर्वसुः / 3 / 1 / 129 / / पृष्ठाद्यः / 6 / 2 / 2 // पिठात् / 6 / 2 / 53 / / पुस्पौ / 4 / 3 / 3 // पभमाहाकामिः / 4 / 1 / 58 / / पीलासाल्वा-द्वा।६।१।६८ // पूगादमुख्य-द्रिः / 7 / 3 / 60 // पैङ्गाक्षीपुत्रादेरीयः / 6 / 2 / 102 / / पील्वादे:-के।७।१८७॥ पूक्लिशिभ्यो नवा / 4 / 4 / 45 // / पैलादेः / 6 / 1 / 142 // पुनाम्नि घः।५ / 3 / 130 // पूयजेः शानः / 5 / 2 / 23 // पोटायुवति--ति / 3 / 1 / 111 // पुवत् कर्मधारये / 3 / 2 / 57 // पूजाचार्यक-यः / 3 / 3 / 39 // पौत्रादि वृद्धम् / 6 / 1 / 2 // पुसः / 2 / 3 / 3 // पूजास्वतेः प्राक् टात् / 7 / 3 / 72 / / प्यायः पीः / 4 / 1 / 91 // पुसोः पुमन्स् / 1 / 4 / 73 / / पूतक्रतुवृषा- च / 2 / 4 / 60 // प्रकारे जातीयर / 7 / 275 / / पुत्रियोः -स् / 1 / 1 / 29 // पदिव्यञ्चे-ने।४।२ / 72 // प्रकारे था। 7 / 2 / 102 // पुच्छात् / 2 / 4 / 41 / / पूरणाद् ग्रन्थ-स्य / 7 / 1 / 176 / / प्रकृते मयट् / 7 / 3 / 1 // पुच्छादुत्परिव्यसने / 3 / 4 / 39 / पूरणाद्वयसि / 7 / 2 / 62 // / प्रकृले तमप् / 7 / 3 / 5 // Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 568 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [सूत्राणामकाराधनुक्रमणिका प्रघणप्रघाणौ गृहांशे / 5 / 335 / / / प्रशस्यस्य श्रः / 7 / 4 / 34 // प्रात्तुम्पतेर्गवि / 4 / 4 / 97 // प्रचये नवा--स्य / 5 / 4 / 43 // प्रश्नाख्याने वेञ् / 5 / 33119 // प्रात्पुराणे नश्च / 7 / 2 / 161 // प्रजाया अस्।७।३।१३७ // प्रश्ना_विचा-रः। 7 / 4 / 102 // प्रात्यवपरि-न्तैः / 3 / 1 / 47 // प्रज्ञादिभ्योऽण / 7 / 2 / 165 / / प्रश्न च प्रतिपदम् / 74 / 98 // प्रात्सूजोरिन् / 5 / 2 / 71 // प्रज्ञापर्णोद-लो। 7 / 2 / 22 // प्रष्टोऽग्रगे।२।३।३२॥ प्रात् नु द्रस्तोः / 5 / 3 / 67 // प्रज्ञाश्रद्धा--र्णः / 7 / 2 / 33 // प्रसमः स्त्यः स्ती।४।१।९५|| प्रादुरुपसर्गा-स्तेः / 2 / 3 / 58 // प्रणाय्यो नि--ते।५।१२३ // प्रसितोत्सु-द्धैः / 2 / 2 / 49 / / प्रादागस्त्त आ–क्ते / 4 / 4 / 7 // प्रतिजनादेरीन / 7 / 1 / 20 / / प्रस्तारसंस्थान-ति / 6 / 479 / / प्रादश्मितुलासूत्रे / 5 / 3 / 51 / / प्रतिज्ञायाम् / 3 / 3 / 65 // प्रस्थपुरवहान्त-त् / 6 / 3 / 43|| प्राद्रहः / 3 / 3 / 103 // प्रतिना पञ्चम्याः / 7 / 2 / 87 / / प्रस्यैषे-ण / 1 / 2 / 14 // प्राद्वाहणस्यैये। 7 / 4 / 21 // प्रतिपन्थादिकश्च / 6 / 4 / 39 // प्रहरणम् / 6 / 4 / 62 // प्राध्वं बन्धे / 3 / 1 / 16 / / .. प्रतिपरोऽनो--वात् / 7 / 3 / 87 // प्रहरणात् / 3 / 1 / 154 // प्राप्तापन्नौ-च।३।१ / 63 / / प्रतिश्रवण-गे।७।४।९४॥ प्रहरणात क्रीडायां० / 62 / 116 / / प्रायोऽतोय-त्रट् / 7 / 2 / 155 / / प्रतेः / 4 / 1 / 98 // प्राकारस्य व्यञ्जने। 3 / 2 / 19 / / प्रायोऽन्नम-म्नि / 7 / 1 / 194 // प्रतेः स्नातस्य सूत्रे / 2 / 3 / 21 // प्राक्काले / 5 / 4 / 47 // प्रायो बहुस्वरादि० / 6 / 31143 / / प्रतेरुरसः सप्तम्याः / 7 / 384 / / प्राक् त्वादगडुलादेः / / 1 / 56 / / | प्रायोऽव्ययस्य / 7 / 4 / 65 / / प्रतेश्च वधे। 4 / 4 / 94 // प्राग् नित्यात्कप् / 7 / 3 / 28 / / | प्राल्लिप्सायाम् / 5 / 3 / 57 / / / प्रत्यनोगुणा-रि / 2 / 2 / 57 // प्रागिनात् / 2 / 1 / 48 // प्रावृष इकः / 6 / 3 / 99 / / प्रत्यन्ववात्सामलोम्नः 7 / 3 / 82 / / प्रागग्रामाणाम् / 7 / 4 / 17 / / प्रावृष एण्यः / 6 / 3 / 92 // प्रत्यभ्यतेः क्षिपः। 3 / 3 / 102 / / प्राग्जितादण् / 6 / 1 / 13 / / प्रियः / 3 / 1 / 157 / / प्रत्ययः-देः / 7 / 4 / 115 / / प्राग्देशे।६।१।१०।। प्रियवशाद्वदः / 5 / 1 / 107 / / प्रत्ययस्य। 7 / 4 / 108 // प्राग्भरते-बः / 6 / 1 / 129 // प्रियसुखं-न्छ / 7 / 4 / 87 // प्रत्यये / 2 / 3 / 6 // प्राग्वत् / 3 / 3 / 74 / / / / / प्रियसुखादा-ल्ये / 7 / 2 / 140 / / प्रत्यये च / 1 / 3 / 2 // प्राग्वतः-स्नञ्।६।१ / 25 // प्रियस्थिर-वृन्दम् / 7 / 4 / 38 // प्रत्याङ: श्रु-नि। 2 / 2 / 56 // प्राचां नगरस्य / / 4 / 26 // प्रसृल्योऽकः साधौ / 5 / 1 / 69 / / प्रथमाद-छः। 1 / 3 / 4 // प्राच्च यमयस.। 5 / 2 / 52 // . प्रेक्षादेरिन् / 6 / 2 / 80 // प्रथमोक्त प्राक।३।१।१४८॥ प्राच्योऽतौल्व०।६।१११४३।। प्रैषानुज्ञावसरे-म्यौ 15 / 4 / 29|| प्रभवति / 6 / 3 / 157 // प्राज्ज्ञश्च / 5 / 1 / 79 / / प्रोक्तात् / 6 / 2 / 129 // प्रभूतादि-ति / 6 / 4 / 43 // | प्राणिजाति-द / 7 / 1 / 66 // प्रोपादारम्भे।३।३। 51 / / प्रभृत्यन्यार्थ-रः / 2 / 2 / 75 // प्राणितूर्याङ्गाणाम् / 3 / 1 / 137 // प्रोपोत्सं-णे।७।४ / 78 // प्रमाणसमासत्त्योः / 5 / 476|| प्राणिन उपमानात् / 7 // 3 / 11 / / प्रोष्ठभद्राज्जाते / 7 / 4 / 13 // प्रमाणान्मात्रट् / 7 / 1 / 140 / / प्राणिनि भूते / 6 / 4 / 112 // / प्लक्षादेरण् / 6 / 2 / 59 // प्रमाणीसंख्याड्डः / 7 / 3 / 128 // प्राणिस्थादस्वा-त् / 7 / 2 / 60 // प्लुताद्वा / 1 / 3 / 29 // प्रयोक्तृव्यापारे णिग / 3 / 4 / 20 // प्राण्यङ्गरथखल-द्यः अश३७॥ प्लुतोऽनितौ / 1 / 2 / 32 // प्रयोजनम् / 6 / 4 / 117 // प्राण्यङ्गादातो लः।७।२।२०।। प्लुप् चादा-देः। 7 / 4 / 81 / / प्रलम्भे गृधिवञ्चेः 13 / 3189 // प्राण्योधिवृ-च / 6 / 2 / 31 / / प्वादेह्रस्वः / 4 / 2 / 105 // प्रवचनीयादयः / 5 / 1 / 8 // | प्रात्तश्च मो वा / 4 / 1 / 96 / / / फलबहाच्चेनः / 7 / 2 / 13 / / Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका ] . मध्यमवृत्स्यवचूरिसंवलितम्। [569 फलस्य जातौ / 3 / 1 / 135 // / बिल्वकीयादेरी यस्य / 2 / 4 / 93 / / भागिनि च-भिः / 2 / 2 / 37|| फले / 6 / 2 / 58 // ब्रह्मणः / 7 / 4 / 57 / / भागेऽषमाठयः / 7 / 3 / 24 / / फल्गनीप्रो-भे।२।२। 123 / / ब्रह्मणस्त्वः / 7 / 1 / 7 // भाजगोण-शे / 2 / 4 / 30 // फल्गुन्याष्टः / 6 / 3 / 106 // ब्रह्मणो वदः / 5 / 1 / 156 / / भाण्डात्समाचितौ। 3 / 4 / 40 // फेनोष्मबाष्प-ने / 3 / 4 / 33|| ब्रह्म-क्विप। 5 / 1 / 161 / / भादितो वा / 2 / 3 / 27 // बन्धे घबि नवा / 3 / 2 / 23 / / ब्रह्महस्ति-सः / 7 / 3 / 83 // भान्नेतुः / 7 / 3 / 133 // बन्धेर्नाम्नि / 5 / 4 / 67 // ब्रह्मादिभ्यः / 5 / 1 / 85 // भाकर्मणोः / 3 / 4 / 68 // बन्धौ बहुव्रीहौ / 2 / 4 / 84 // ब्राह्मणमाण-द्यः / 6 / 2 / 16 // भावघयो णः / 6 / 2 / 114 / / बलवातदन्त-लः / 7 / 2 / 19 // ब्राह्मणाच्छंसी।३।२।११॥ भाववचनाः। 5 / 3 / 15 // बलवातादूलः / 7 / 1 / 91 // ब्राह्मणाद्वा।६।१।३५ // भावाकोः / 5 / 3 / 18 // बलादेर्यः / 6 / 2. / 86 // ब्राह्मणान्नाम्नि / 7 / 1 / 184 // भावादिमः / 6 / 4 / 21 // बालस्थूले दृढः।४।४।६९ // ब्रुवः / 5 / 1 / 51 / / भावे / 5 / 3 / 122 // बष्कयादसमासे / 6 / 1 / 20 / / ब्रगः पञ्चानां-श्च / 4 / 2 / 118 // | भावे चाशि-खः / 5 / 1 / 130 // बहिषधीकण च / 6 / 1 / 16 // . ब्रतः परादिः / 4 / 3 / 63 // भावे त्वतल / 7 / 1 / 55 // बहुग-दे / 1 / 1 / 40 // भक्ताण्णः / 7 / 1 / 17 // भावेऽनुपसर्गात् / 5 / 4 / 45 / / बहुलं लुप / 3 / 4 / 14 // भक्तौदनाद्वा णिकट / 6 / 4 / 72 / / / भिक्षादेः / 6 / 2 / 10 / / बहुलम् / 5 / 1 / 2 // . भक्षेहिमायाम् / 2 / 2 / 6 // भिक्षासेनाऽऽदायात् / 5 / 1 / 136 / / बहलमन्येभ्यः / 6 / 3 / 109 / / भक्ष्यं हितमस्मै / 6 / 4 / 69 / / भित्तं शकलम् / 2 / 2 / 81 // बहुलानुराधा-लुप् / 6 / 3 / 107 // भजति / 6 / 3 / 204 // भिदादयः / 5 / 3 / 108 // बहुविध्वरु-दः / 5 / 1 / 124 / / भजो विण / 5 / 1 / 146 / / भियो नवा / 4 / 2 / 99 // बहुविषयेभ्यः / 6 / 3 / 45 / / भञ्जिभासिमिदो घुरः / 5 / 2 / 74 // | भियो रुरुकलुकम् / 5 / 276 // बहुव्रीहेः-टः / 7 / 3 / 125 / / भजेबौं वा। 4 / 2 / 48 // | भिस ऐस् / 1 / 4 / 2 // बहुध्वस्त्रियाम् / 6 / 1 / 124 / भद्रोष्णात्करणे।३।२।११६॥ भीमादयोऽपादाने / 5 / 1 // 14 // बहुष्वेरीः / 2 / 1 / 49 // भर्गात् त्रैगर्ते / 6 / 1 / 51 // भीरुष्ठानादयः।२।३। 33 / / बहुस्वरपूर्वादिकः / 6 / 4 / 68 // भतु तुल्यस्वरम् / 3 / 1 / 162 / / | भीषिभूषि-भ्यः / 5 / 3 / 109 / / बहूनां प्रश्न-वा। 7 / 3 / 54 // भर्तुसंन्ध्यादेरण / 6 / 3 / 89 // | भीह्रीभृहोस्तिव्वत् / 3 / 4 / 50 // बहोर्डे / 7 / 3 / 73 // भर्त्सने पर्यायेण / 7 / 4 / 90 // भुजन्युजं-गे। 4 / 1 / 120 // बहोर्णीष्ठे भूय / 7 / 4 / 40 // भवतेः सिजलपि / 4 / 3 / 12 / / भुजिपत्या-ने / 5 / 3 / 128 // बहोर्धासन्ने / 7 / 2 / 112 / / भवतोरिकणीयसौ / 6 / 3 // 30 // | भुजो-भक्ष्ये / 4 / 1 / 117 // बह्वल्पार्था-शस् / 12 / 150 / / भवत्वायु-र्थात् / 7 / 2 / 91 // भुनजोऽत्राणे / 3 / 3 / 37 // बाढान्तिक-दौ / 7 / 4 / 37 // भविष्यन्ती। 5 / 3 / 4 // न्योः / 4 / 2 / 43 / / बाहूर्वादेर्बलात् / 0 / 2 / 66 / / भविष्यन्ती-हे / 3 / 3 / 15 / / | भुवोऽवज्ञाने वा / 5 / 3 / 64 // बाह्वन्तक-म्नि / 2 / 4 / 74 / / भवे / 6 / 3 / 123 // भूकः प्राप्तौ णिङ् / 3 / 4 / 19 / / बाह्वादिभ्यो गोत्रे / 6 / 1 / 32 // भव्यगेयजन्य-नवा। 5 / 1 / 7| भूजेः ष्णुक् / 5 / 2 / 30 // बिडबिरी-च / 7 / 1 / 129 / / भस्रादेरिकट / 6 / 4 / 24 // | भूतपूर्व पचरट / 7 / 2 / 78 // बिदादेवृद्धे / 6 / 1 / 41 // | भागवित्तिता-वा / 6 / 1 / 105 / / | भूतवञ्चाशंस्ये वा / 5 / 4 / 2 // बिभेतीषु च / 3 / 3 / 92 // भागाद्येकौ / 6 / 4 / 160 // | भूते / 5 / 4 / 10 // Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 570 ] प्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [ सूत्राणामकाराधनुक्रमणिका भूयःसंभूयो-च।६।१।३६॥ / मतमदस्य करणे।७।१।१४।। महाराजादिकण।६।३।१०५।। भूलक चेवर्णस्य / 7 / 4 / 41 / / मत्स्यस्य यः / 2 / 4 / 87 / / महेन्द्राद्वा।६।२।१०६॥ भूयदोऽल् / 5 / 3 / 23 // मथलपः। 5 / 2 / 53 // मांसस्थानड्-त्रा / 3 / 2 / 141 / / भूषाक्रोधार्थ-नः / 5 / 2 / 42 // | मद्रभद्राद्वपने / 7 / 2 / 144 // मास्यद्यतनी। 5 / 4 / 39 // भूषादरक्षेपे-त् / 3 / 1 // 4 // मद्राद।६।३। 24 // माणवः कुत्सायाम् / 6 / 195 / / भूषार्थसन्-क्यौ। 3 / 4 / 93 / / / मधुबभ्रोर्बाह्म-के / 6 / 1 / 43 / / मातमातृमातृके वा। 2 / 4 / 85 / / भूस्वपोरदुतौ / 4 / 1 / 70 // मध्य उत्क-रः / 6 / 3 / 77 // मातरपितरं वा / 3 / 2 / 47 / / भृगो नाम्नि / 5 / 3 / 98 // मध्यादिनण्णेया०।६। 3 / 126 मातुर्मातः-लये / 1 // 4 // 40 // भृगोऽसंज्ञायाम् / 5 / 1 / 45 // मध्यान्ताद् गुरौ।३।२।२।। मातुलाचार्यो-द्वा / / 4 / 63 / / भृग्वङ्गिरस्कु-त्रेः / 6 / 1 / 128 / / मध्यान्मः / 6 / 3 / 76 // | मातृपितुः स्वसुः / 2 / 3 / 18 / / भृजो भ / 4 / 4 / 6 / / मध्ये पदे नि-ने / 3 / 1 / 11 // मातृपित्रादेर्डे यणीयणो।६।१९०॥ भृतिप्रत्य-कः / 7 / 3 / 140 // मध्वादिभ्यो रः / 7 / 2 / 26 / / मात्रट / 7 / 1 / 145 // भृतौ कर्मणः / 5 / 1 / 104 // मध्वादेः।६।२।७३ // माथोत्तरपद-ति / 6 / 4:40 // भृवृजित-म्नि / 5 / 1 / 112 // | मनः / 2 / 4 / 14 // मादुवर्णोऽनु / 2 / 1 / 47 // भशामीक्ष्ण्या -देः।७।४। 73 // मनयवलपरे हे। 1 / 3 / 15 / / मानम् / 3 / 4 / 169 // भृशाभीक्ष्ण्ये हि-दि / 5 / 44 // | मनसश्चाज्ञायिनि / 3 / 2 / 15 / / | मानसंव-म्नि।७।४।१९॥ भेषजादिभ्यष्यण् / 7 / 2 / 164 / / मनुर्नभो-ति / 1 / 1 / 24 // / मानात् क्रीतवत् / 6 / 2 / 44 / / भोगवद्गौरिमतो 0 3 / 2 / 65 / / / मनोरौ च वा / 2 / 4 / 61 / / मानादसंशये लुप्॥१११४३ / / भोगोत्तर-नः / 7 // 1 // 40 // मनोर्याणौ पश्चान्तः / 6 / 1194||| माने।५।३ / 81 // भोजसूतयोः-त्योः।२।४।८।। मन्तस्य युवा-योः / 2 / 1 / 10 / / माने कश्च / 7 / 3 / 26 // भौरिक्यैषु-क्तम् / 6 / 2 / 68 // मन्थौदनसक्तु-बा / 3 / 2 / 106|| मारणतोषण-ज्ञश्च / 4 / 2 / 30 / / भ्यादिभ्यो वा।५।३।११५ / / मन्दाल्पाच्च मेधा०७३।१३८ // मालायाःक्षेपं / 2 / 64|| भ्राजभासभाष-नवा / 4 / 2 / 36 / / मन्माजादेर्नाम्नि / 7 / 2067 / / मालेषीके-ते।।४।१०२॥ भ्राज्यलंकृग-अणुः / 5 / 2 / 28|| मन्यस्यानावा-ने / 2 / 2 / 64 // मावर्णान्तो-वः।२।२९४ / / भ्रातुर्व्यः / 6 / 1 / 88 // मन्याण्णिन् / 5 / 1 / 516 // माशब्दइत्यादिभ्यः / 6 / 4 / 44|| भ्रातुः स्तुतौ / 7 / 3 / 179 // मनवनक्कनि-चित् / 51147 // मासनिशा-वा।२।१।१००॥ भ्रातुष्पुत्र-यः / 2 / 3 / 14 // मयूरव्यंसकेत्यादयः / 3 / 1 / 116 / / मासवर्णभ्रात्रनुपूर्वम् / 3 / 11161 / / भ्रातृपुत्राः स्वसृ-भिः / 3 / 1121 // मरुत्पर्वणस्तः / 7 / 2 / 15 / / मासाद्वयसि यः / 6 / 4 / 113 // भ्राष्ट्राग्नेरिन्धे। 3 / 2 / 114 // मादिभ्यो यः / 7 / 2 / 159 / / मिगमीगोऽखलचलि / 4 / 2 / 8 // भ्रासभ्लासभ्रमर्वा / 3 / 4 / 73 // मलादीमसश्च / 7 / 2 / 14 // मिथ्याकृगोऽभ्यासे / 3 / 3 / 93 / / भ्रवोच्च-ट्योः / 2 / 4 / 101 / / मव्यविधिवि-न। 4 / 1 / 109|| मिदः श्ये / 4 / 3 / 5 // [च।६।१।७६ // मव्यस्याः / 4 / 2 / 113 / / मिमीमादामित्स्वरस्य / 4 / 1 // 20 // भ्रश्नोः / 2 / 1 / 53 // मस्जेः सः। 4 / 4 / 110 / / मुचादितृफरफ-शे।४।४।९९।। भ्वादेर्दादेर्घः / 2 / 1 / 83 // महतः-डाः / 3 / 2 / 68 // मुरतोऽनुनासिकस्य ।४।११५१शा . भ्वादे मिनो-ने / 21 // 63 // महत्सर्वादिकण् / 7 / 1 / 42 // मुहद्रहष्णुहष्णिहो वा / 2 / 1184|| मड्डुकझर्झराद्वाण / 6 / 4 / 58 // महाकुलाद्वाबीनौ। 6 / 199 // मूर्तिनिचिताभ्रे घनः 15 // 3 // 37 // मण्यादिभ्यः / 7 / 2 / 44 // ' महाराजप्रो-कण् / 6 / 2 / 110 / / मूलविभुजादयः। 5 / 1 / 144 / / Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / मूल्यैः क्रीते / 6 / 4 / 150 // / यत्तत्किमन्यात् / 7 / 3 / 53 // | युजभुजभज-नः / 5 / 2 / 50 // मृगक्षीरादिषु वा / 3 / 2 / 62 // यत्तदेतदो डावादिः / 7 / 1 / 149 / / | युजादेवा / 3 / 4 / 18 // मृगयेच्छायाच्या०५३।१०।। यथाकथाचाण्णः / 6 / 4 / 100 / युनोऽसमासे / 1 / 4 / 71 // मृजोऽस्य वृद्धिः / 4 / 3 / 42 // यथाकामा-नि।७।१।१००॥ युदुद्रोः / 5 / 3 / 59 // मृदस्तिकः / 7 / 2 / 171 / / यथातथादीर्योत्तरे / 5 / 4 // 51 // 5 / 3 / 54 // मृषः क्षान्तौ। 4 / 3 / 28 // यथाऽथा / 3 / 1 / 41 // युवर्णवृदृवश-हः / 5 / 3 / 28 / / मेघर्तिभया-खः / 5 / 1 / 106 / / | यथामुख-स्मिन् / 7 / 1.93 // युववृद्वं कुत्सार्च वा / 6 / 1 / / मेको वा मित। 4 / 3 / 88 // . यद्भावो भावलक्षणम् / 2 / 2 / 106 / / / युवा खलति-नैः / 3 / 1 / 113 / / मेधारथान्नवेरः / 7 / 2 / 41 // यभेदेस्तद्वदाख्या / 2 / 2 / 46 / / युवादेरण।७।१।६७ // मोऽकमियमिरमि०।४।३।५५।। . यद्वीक्ष्ये राधीक्षी / 2 / 2 / 58 // युष्मदस्मदोः / 2 / 1 / 6 // मो नोम्बोश्च 12 / 1 / 67 // यपि / 4 / 2 / 56 // युष्मदस्मदो-देः / 7 / 3 // 30 // मोर्वा / 2 / 1 / 9 // यपि चादो जग्ध् / 4 / 4 / 16 // यूनस्तिः / 2 / 4 / 77 // मोऽवर्णस्य / 2 / 1 / 45 // यबक्छिति / 4 / 2 / 7 // यूनि लुप् / 6 / 1 / 137 // मौदादिभ्यः / 6 / 3 / 182 . यमः सूचने / 4 / 3 / 39 / / यूनोऽके / 7 / 4 / 50 // म्नां धुड-न्ते। 1 / 3 / 69 // यमः स्वीकारे / 3 / 3 / 59 // - यूयं वयं जसा / 2 / 1 / 13 / / म्रियतेरद्यत-च।३।३।४२॥ यममदगदोऽनुपस० / 5 / 1 / 30 / / ये नवा / 4 / 2 / 62 / / य एश्चातः / 5 / 1 / 28 / / यमिरमिनमिगमि० / 4 / 2 / 55 / / येयौ च लक च 7 / 1 / 164 // यः।६।३। 176 // यमिरमिनम्या-श्व / 4 / 4 / 86|| येऽवणे / 3 / 2 / 100 / / यः। 7 / 1 / 1 // यमोऽपरिवे-च।४।२।२९ // यैयकमावसमासे वा / 6 / 1 / 97 // यः सप्तम्याः / 4 / 2 / 122 // यरलवा अन्तस्थाः / 1 / 1 / 1 / / योगकर्मभ्यां योको 64 / 9 / / यतुरुस्तोर्बहुलम् / 4 / 3 / 64 // यवयवक-द्यः।७।१।८१॥ योग्यतावीप्सा-श्ये / 3 / / 40 // यजसृज-षः / 2 / 1 / 87 // / यवयवनार-त्वे / 2 / 4 / 65 / / / योद्धृप्रयोजनाद् युद्धे।६।।११।। यजादिवचेः किति।४।१७९|| यश्चोरसः।६।३। 212 / / योऽनेकस्वरस्य / 2 / 1 / 56 / / यजादिवश-यवृत् / 4 / 1 / 72 / / यस्कादेर्गोत्रे / 6 / 1 / 125 // योपान्त्या-नन् / 7 / 1 / 72 / / यजिजपिदंशि-कः / 5 / 2 / 47 // यस्वर पा-टि।२।१ / 102 // / योऽशिति / 4 / 3 / 80 // यजिस्वपिरक्षि-नः।५।३८५।। याचितापमित्यात्कण् / 6 / 4 / 22 / / यौधेयादेब।७।३।६५॥ यजेर्यज्ञाङ्गे / 4 / 1 / 114 // | याजकादिभिः / 3 / 1 / 78 // व्यक्ये।१।२।२५ // यज्ञादियः।६।४। 179 / / / याज्ञिकौक्थिक-कम् / 62 / 122 // यवः पदान्तात्-दौत् / 7 / 4 / 5 // यज्ञानां दक्षिणायाम् / 6496 / / याज्या दानर्चि / 5 / 1 / 26 / / / यवृत सकृत् / 4 / 1 / 102 / / यज्ञे ग्रहः / 5 / 3 / 65 // याम्युसोरियमियुसौ / 4 / 2 / 123 / / वृवर्णाल्लघ्वादेः / 7 / 1 / 69 / / यज्ञे ञ्यः / 6 / 3 / 134 // यायावरः / 5 / 2 / 82 // ययोः प्य यञ्जने० / 4 / 4 / 121 / / यवञोऽश्या-देः।।१।१२६।। यावतो विन्दजीवः / 5 / 4 / 55 // र. कखप-पौ / 1 / 3 / 5 // यविनः।६।१।५४॥ यावदियत्त्वे / 3 / 1 / 31 // रः पदान्ते / 1 / 3 / 53 / / यत्रो डायन च वा / 2 / 4 / 67|| यावादिभ्यः कः / 7 / 3 / 15 // रक्तानित्यवर्णयोः / 7 / 3 / 18 / / यतः प्रतिनि-ना। 2 / 2 / 72 / / / यिः सन्वेयः / 4 / 1 / 11 // | रक्षञ्छतोः। 6 / 4 / 30 / / यत्कर्मस्पर्शात्-तः / 5 / 3 // 125 / / | यि लुक् / 4 / 2 / 102 // रङ्कोः प्राणिनि वा / 6 / 3 / 15 / / यत्तत्किमःा 17 / 1 / 150 // / युजनकञ्चो नो छः / 2 / 1171 / / ' रजःफलेमलाद् ग्रहः / / 1 / 9 / / HEARTHRELHI Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 572 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका रथवदे। 3 / 2 / 131 // रुहः पः। 4 / 2 / 14 // लीडलिनो-पि। 3 / 3 / 90 / / रथात्सादेश्च वोढने / 6 / 3 / 17 / / रूढावन्तःपुरादिकः।६।३।१४०॥ लीलिनोर्वा / 4 / 2 / 9 // रदादमूर्छम-च / 4 / 2 / 69 / / रूपात्प्रशस्ताहतात् / / 2 / 54 // लुक् / 1 / 3 / 13 // रध इटि तु-व / 4 / 4 / 101 / / रूप्योत्तरपदारण्याण्णः / 6 / 3 / 22 / / लुक्चाजिनान्तात् / 7 / 3 / 39|| रभलभशक-मिः।४।१।२१॥ रेवतरोहिणाद् भे / 2 / 4 / 26 / / लुक्युत्तरपदस्य कप्न् 7338 // रभोऽपरोक्षाशवि / 4 / 4 / 102 // रेवत्यादेरिकण / 6 / 1 / 86 / / लुगस्यादेत्यपदे / 2 / 1 / 113 // रम्यादिम्यः -रि।५।३।१२६।। रैवतिकादेरीयः।६।३। 170 // लुगातोऽनापः / 2 / 1 / 107 / / रवर्णान्नो-रे / 2 / 3 / 63 // रोः काम्ये / 2 / 3 / 7 // लुप्यय्वृल्लेनत् / 7 / 4 / 112 / / रहस्यमर्या-गे / 7 / 4 / 83 / / रोगात्प्रतीकारे।७।२।८२॥ लुबञ्चेः / 7 / 2 / 123 // रागाट्टो रक्ते / 6 / 2 / 1 // रोपान्त्यात् / 6 / 3 / 42 // लुब् बहुलं पुष्पमूले / 6 / 2057 / / राजघः / 5 / 1 / 88 // रोमन्थाद् व्याप्या-णे / 3 / 4 / 32 // लुब्वाध्यायानुवाके। 72 72 // राजदन्तादिषु / 3 / 1 / 149 // रोरुपसर्गात् / 5 / 3 // 22 // / लुभ्यञ्चेर्विमोहाचें / 4 / 4 / 44 // / ' राजन्यादिभ्योऽकत्र 62 / 66|| रो रे लुग्-तः / 1 / 3 / 41 // | लूधूसू-र्तेः / 5 / 2 / 87 / / राजन्वान् सुराज्ञि।२।१। 98 // रोयः / 1 / 3 / 26 // . लूनवियातात् पशी / 7 / 3 / 21 / / राजन्सखेः / 7 / 3 / 106 // रो लुप्यरि।२।१।७५ // लोकंपृणम-त्नम् / 3 / 2 / 113 // रात्रौ वसो-द्य।५।२।६॥ रोऽश्मादेः।६।२। 79 // लोकज्ञाते-र्थे / 7 / 4 / 84 // राज्यहःसं-वा।६।४।११०॥ नाम्यन्तात्-ढः / 2 / 2 / 80 // लोकसर्व-ते / 6 / 4 / 157 / / रात्सः / 2 / 1 / 90 // लो वा / 1 / 4 / 67 // लोकान् / 1 / 1 / 3 / / रादेफः / 7 / 2 / 157 / / हादर्हस्व-वा। 1 / 3 / 31 // लोमपिच्छादेः शेलम् / 7 / 2 / 28 / / राधेर्वधे / 4 / 1 / 22 // लक्षणवीप्स्येना।२।२।३६।। लोम्नोऽपत्येषु। 6 / 1 / 23 // राल्लुक / 4 / 1 / 11 / / लक्षणेनाभि-ख्ये।३।१३३॥ लोलः / 4 / 2 / 16 // राष्ट्रक्षत्रियात्-रब् / 6 / 1114|| लक्ष्म्या अनः / 7 / 2 / 32 / लोहितादिश-त् / 2 / 4 / 68|| राष्ट्राख्यात् ब्रह्मणः / 13 / 107 // लघोभोऽस्वरादेः।४। श६४॥ लोहितान्मणौ / 7 / 3 / 17 / / राष्ट्रादियः / 6 / 3 / 3 // लघोरुपान्त्यस्य / 4 / 3 / 4 // वंशादेर्भा-त्सु / 6 / 4 / 166 / / राष्ट्रऽनङ्गादिभ्यः / 6 / 2 / 65 / / लघोर्यपि।४।३।८६॥ वंश्यज्यायो-वा।६।१।३।। राष्ट्रभ्यः / 6 / 3 / 44 // लव्वक्षरास-कम् / 3 / 1 / 160 / / / वंश्येन पूर्वार्थे / 3 / 1 / 29 // रिः शक्याशीर्ये / 4 / 3 / 110 // लङ्गिकम्प्यो -त्योः / 4 / 2 / 47 / / वचोऽशब्दनाम्नि / 4 / 1 / 119 / / रिति / 3 / 2 / 58 // लभः / .4 / 4 / 103 / / वश्वस्रसध्वंस-नीः।४।११५०॥ रिरिष्टात्-ता। 2 / 2 / 82 // ललाटवात-कः।५।१।१२५॥ वटकादिन् / 7 / 1 / 196 / / रिरौ च लुपि / 4 / 1 / 56 // लवणादः / 6 / 4 / 6 // वतण्डात् / 6 / 1 / 45 // रुचिकृप्य-षु / 2 / 2 / 55 // लषपतपदः।५।२४१॥ बत्तस्याम् / 1 / 1 / 34 // रुच्याव्यथ्यवास्तव्यम् ।५।१शक्षा लाक्षारोचनादिकण / 6 / 2 / 2 / / वत्सशालाद्वा।६।३।१११ // रुजार्थस्या-रि।२।२।१३ // लिप्स्यसिद्धौ। 5 / 3 / 10 // वत्सोक्षाश्व-पित् / 7 / 3 / 511 // रुत्पश्चकाच्छिदयः / 4 / 4 / 88 // लिम्पविन्दः / 5 / 1 / 60 // वदव्रजलः।४।३।४८॥ . रुदविदमुष-च / 4 / 3 / 32 // लियो नोऽन्तः-वे / 4 / 2 // 15 // बदोऽपात् / 3 / 3 / 97 // रुधः / 3 / 4 / 89 // लि लौ। 1 / 3 / 65 // वन्यापश्चमस्य / 4 / 2 / 65 / / रुधां स्वराच्छनो-च / / 4 / 82 // | लिहादिभ्यः / 5 / 1 / 50 // / वमि वा / 2 / 3 / 83 // Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम्। [573 वम्यविति वा / 4 / 2 / 87 // / वहल्यूपिदि-नण् / 6 / 314 // | वाऽन्तमाऽन्ति-षद् / 7 / 4 / 31 // वयःशक्तिशीले / 5 / 2 / 24 / / वाः शेषे / 1 / 4 / 82 // वान्यतः पुमान्-रे / 1 / 4 / 6 / / षयसि दन्त-तृ। 7 / 3 / 151 / / | वाऽकर्मणा-णौ। 2 / 2 / 4 // | वान्येन / 6 / 1133 // वयस्यनन्त्ये / 2 / 4 / 21 // वाकाङ्क्षायाम् / 5 / 2 / 10 // वापगुरो णमि। 4 / 2 / 5 // वराहादेः कण् / 6 / 2 / 95 // वाक्यस्य परिर्वर्जने / 71488 वा परोक्षायक्छि। 4 / 1 / 90 / / वरुणेन्द्र-न्तः / 2 / 4 / 62 / / वाऽऽक्रोशदेन्ये / 4 / 2 / 75 // वा पादः / 2 / 4 / 6 // वर्गान्तात् / 6 / 3 / 128 // वा क्लीबे।२।२।९२॥ वाऽऽप्नोः / 4 / 3 / 87 // वर्चस्कादिष्व-यः। 3 / 2 / 48 // वाऽक्षः / 3 / 4 / 76 / / था बहुव्रीहेः / 2 / 4 / 5 // वणेढा -वा।७।१५९॥ वाऽऽगन्तौ / 7 / 3 / 145 // वाभिनिविशः।२।२।२२।। वर्णाद्-णि / 7 / 2 / 69 // / वाग्रान्त-रात् / 7 / 3 / 154 // वाऽभ्यवाभ्याम् / 4 / 1 / 99 // वर्णावकब् / 6 / 3 / 21 // वाच आलाटौ। 7 / 2 / 24 // वामः / 4 / 2 / 57 // वर्णाव्ययात्-रः / 7 / 2 / 156 // | वाच इकण् / 7 / 2 / 168 // वामदेवाद्यः / 6 / 2 / 135 // वर्तमाना-महे / 3 / 3 / 6 / / वाचंयमो व्रते / 5 / 1 / 115 // घामाद्यादेरीनः / 7 / 1 / 4 // वर्तेर्वृत्तं ग्रन्थे / 4 / 4 / 65 / / वाचस्पति-सम् / 3 / 2 / 36 / / / वामशसि / 2 / 1 / 55 // वस्य॑ति गम्यादिः / 5 / 3 / 1 // वा जाते द्विः। 6 / 2 / 137 / / वायनणायनियोः। 6 / 1 / 138 // वय॑ति-ले। 5 / 4 / 25 // वा ज्वलादि-र्णः / 5 / 1 / 62 // वा यष्मद-कम्।६।३।६७|| वर्मणोऽचक्रात् / 6 / 1 / 33 / / | वाञ्जलेरलुकः / 7 / 3 / 101 // वायवृतुपित्रुषसो यः / 62 / 109 / / वर्योपसर्या-ये / 5 / 1 / 32 // वाटाट्यात् / 5 / 3 / 103 / / वारे कृत्वस् / 7 / 2 / 109 / / वर्षक्षर-जे / 3 / 2 / 26 // बाडवेयो वृषे।६।१।८५॥ वार्धाच / 7 / 3 / 103 // वर्षविघ्नेऽवाद् ग्रहः / 5 / 3 / 50 // वाणुमाषात् / 7 / 1 / 82 // वा लिप्सायाम् / 3 / 3 / 61 / / वर्षाकालेभ्यः / 6 / 3 / 80 // वातपित्त-ने।६।४।१५२॥ वाऽल्पे / 7 / 3 / 146 / / वर्षादयः क्लीबे / 5 / 3 / 29 // वातातीसार-न्तः।७।२।६१॥ वावाप्यो-पी।३।२।१५६ / / वर्षादश्च वा।६।४। 111 // वा तृतीयायाः।३।२।३॥ वा वेत्तेः क्वसुः / 5 / 2 / 22 // 'पलच्यपित्रादेः / 3 / 2 / 82 // वातोरिकः।६।४। 132 // वा वेष्टचेष्टः / 4 / 1 / 66 // वलिवटि-भैः / 7 // 2 // 16 // वाऽऽत्मने।३।४। 63 / / वाशिन आयनौ / 7 / 4 / 46 / / पशेरयक्ति / 4 / 1 / 83 // वात्यसंधिः / 1 / 2 / 31 // वाश्मनो विकार।७।४।६३॥ वसातेर्वा / 6 / 2 / 67 // वा दक्षिणात्-आः 7 / 2 / 119 // वा श्रन्थग्रन्थो नलुक् च / 4 / 1 / 27|| वसनात् / 6 / 4 / 138 / वादेश्च णकः / 5 / 2 / 67 // वाश्‍वादीयः / 6 / 2 // 19 // वसुराटोः / 3 / 2 / 81 // वाद्यतनीक्रिया-र्गीङ्।४।४।२८। / वाष्टन आः स्यादौ / 1 / 4 52 / / वस्तेरेयम् / 7 / 1 / 112 // वाद्यतनी पुरादौ / 5 / 2 / 15 / / वासुदेवाणुनादकः / / 6 / 3 / 207 / / वस्नात् / 6 / 4 / 17 // वाद्यात् / 6 / 1 / 11 // वा स्वीकृतौ। 4 / 3 / 40 // . वहति रथयु-त् / 7 / 1 / 2 // वाद्रौ।२।१।४६॥ वाहनात् / 6 / 3 / 178 // वहाभ्राल्लिहः / 5 / 1 / 123 // वा द्विषातोऽनः पुस / 4 / 2 / 91 / वाहर्पत्यादयः / 1 / 3 / 58 // वहीनरस्यैत् / 7 / 4 / 4 // वाधारेऽमावास्या / 5 / 1 / 21 // वाहीकेषु ग्रामात् / 6 / 3 / 36 / / वहेः प्रवेयः / 2 / 2 / 7 // वा नाम्नि / 1 / 2 / 20 // वाहीकेष्वब्राह्म-भ्यः / 7 / 3 / 63 / / वहेस्तुरिश्चादिः।६।३।१८०॥ वा नाम्नि / 7 / 3 / 159 / / वा हेतुसिद्धौ क्तः / 5 / 3 / 2 // वह्यं करणे।५।१।३४॥ वान्तिके।३।१।१४७॥ . वाह्यपथ्युपकरणे / 6 / 3 / 179 // Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "574 / श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [सूत्राणामकाराधनुक्रमणिका - वाह्याद्वाहनस्य / 2 / 3 / 72 // / विशिरुहि-दात / 6 / 4 / 122 // वेगे सर्तेर्धाव / 4 / 2 / 107 // विंशतिकात् / 6 / 4 / 139 / / विशेषणे वि-श्व / 3 / 1 / 96 // वेटोऽपतः / 4 / 4 / 62 / / विशते-ति / 7 / 4 / 67 // विशेषणमन्तः / 7 / 4 / 113 // | वेणुकादिभ्य ईयण / 6 / 3 / 66 / / विंशत्यादयः / 6 / 4 / 173 // विशेषणस-हौ।३।१।१५०॥ वेतनादेर्जीवति / 6 / 4 / 15 // विंशत्यादेर्वा तमट् / 7111156 // विशेषाविव-श्रे। 5 / 2 / 5 // | वेत्तिच्छिदभिदः कित् / 5 / 2 / 7 / / विकर्णकुषीत-पे।६।१।७५ // विश्रमेवा / 4 / 3 / 56 / / वेत्तेः कित् / 3 / 4 / 51 // विकर्णच्छगला-ये। 6 / 164 // विष्वचो विषुश्च / 7 / 2 / 31 // / वेत्तेर्नवा / 4 / 2 / 116 / / विचारे / 6 / 2 / 30 // विसारिणो मत्स्ये / 7 / 3 / 59|| -नाम् / 3 / 2 / 41 // . विकुशमिपरे:-स्य / 2 / 3 / 28 // वीप्सायाम् / 7 / 4 / 80 // वेदूतोऽनव्य-दे।२।४ / 98 // विचारे पूर्वस्य / 7 / 4 / 95 // वीरुन्न्यग्रोधौ / 4 / 1 / 121 // वेदेन्ब्राह्मणमत्रैव / 6 / 2 / 130 // विचाले च / 7 / 2 / 105 // / वृकाटेण्यण / 7 / 3 / 64 // वेयिवदनाश्व-नमः।५।२।३।। विच्छो नङ / 5 / 3 / 18 // वृगो वने / 5 / 3 / 52 // वेयुवोऽस्त्रियाः। 1 / 4 / 30 / / विजेरिट् / 4 / 3 / 18 // वृजिमद्रादे शात्कः / 6 / 3 / 38 // वेरयः / 4 / 1 / 74 // वित्तं धनप्रतीतम् / 4 / 2 / 82 // वृत्तिसर्गतायने / 3 / 3 / 48 // वेरशब्दे प्रथने / 5 / 3 / 69 // विदुदृग्भ्यः -णम् / 5 / 4 // 54 // वृत्तोऽपपाठोऽनुयोगे।६।४।६७॥ येर्दहः / 5 / 2 / 64 // विद्यायोनिसम्बन्धे।३। 3.150 // वृत्त्यन्तोऽसषे। 1 / 1 / 25 // | वेर्वय / 4 / 4 / 19 / / विधिनिमन्त्रणा-ने / 5 / 4 / 28 // वृद्धस्त्रियाः-णश्च / 6 / 1 / 87 // वेर्विचकत्थ-नः।५।२। 59 // विध्यत्यनन्येन / 7 / 1 / 8 // / वृद्धस्य च ज्यः / 7 / 4 / 35 / / विस्तृते-टौ।७।१।१२३ // विनयादिभ्यः / 7 / 2 / 169 / / | वृद्धाधुनि / 6 / 1 / 30 // वेश्च द्रोः / 5 / 2 / 54 // विना ते तृतीया च / 1 / 2 / 115 / / वृद्धिः स्वरेष्वा-ते / 7 / 4 / 1 // वेष्टयादिभ्यः। 6 / 4 / 65 / / विनिमेयधूतपणं-ह्रोः / 2 / 2 / 16 // वृद्धिरारदौत् / 3 / 3 / 1 // | वेसुसोऽपेक्षायाम् / 2 / 3 / 11 / / विन्द्विच्छू।५।२।३४॥ वृद्धिर्यस्य स्व-दिः।६।१।८॥ वैकत्र द्वयोः / 2 / 2 / 85 // विन्मतोर्णीष्ठ --लुप् / 7 / 4 / 30 // वृद्धवः / 6 / 3 / 28 // वैकव्यञ्जने पर्ये / 3 / 2 / 105 / / विपरिप्रात्सर्तेः।५।२। 55 // . वृद्धो यूना तन्मात्रभेदे / 3 / 1 / 124 // वैकान् / 7 // 3 // 55 // . . किभक्तिथ-भाः। 1 / 1 / 33 / / वृभिक्षिलुण्टि-कः / 5 / 2 / 70 / / / वैकात्-रः / 7 / 3 / 52 // विभक्तिसमीप-यम् / 3 / 1 / 39|| वृद्भयः स्यसनोः / 3 / 3 / 45 // वैकाद् ध्यमञ्। 7 / 2 / 106 / / विभाजयित-च।६।४।५२॥ वृन्दादारकः / 7 / 2 / 11 // वैडूर्यः / 6 / 3 / 158 // विमुक्तादेरण् / 7 / 2 / 73 // वृन्दारकनागकुञ्जरैः / 3 / 1 / 108 // वैणे क्वणः / 5 / 3 / 27 // वियः प्रजने / 4 / 2 / 13 // वृषाश्वान्मैथुने स्सो० // 4 / 3114 // वोतात् प्राक / 5 / 4 / 11 // विरागाद्विरङ्गश्च / 6 / 4 / 18 / / / वृष्णिमान-या। 5 / 4 / 57 / / / बोत्तरपद-ह्नः।२।३ / 75 / / विरामे वा।१।३। 51 // वतो नवाऽना-च / 4 / 4 / 35 / / वोत्तरपदेऽर्धे / 7 / 2 / 125 / / विरोधिनाम-स्वैः / 3 / 1130 // वेः।२।३।५४ / / वोत्तरात् / 7 / 2 / 121 // विवधवीवधाद्वा।६।४ / 25 // वेः कृगः-शे / 3 / 3 / 85 / / बोदः। 5 / 3 / 61 / / विवादे वा।३।३। 80 // वेः खुखग्रम / 7 / 3 / 163 // वोदश्वितः।६।२।१४४॥ विवाहे द्वन्द्वादकल / 6 / 3 / 163|| वेः स्कन्दोऽक्तयोः।२।३।५॥ वोपकादेः।६।१।१३०॥ विशपतपद-क्ष्ण्ये / 5 / 4 / 8 / / वेः स्त्रः / 2 / 3 / 23 / / वोपमानात् / 7 / 3 / 147 // .विशाखाषा-ण्डे / 6 / 4 / 120 // वेः स्वार्थे / 3 / 3 / 50 // वोपात् / 3 / 3 / 106 / / Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्राणामकाराधनुक्रमणिका ] मध्यमवृत्त्यत्रचूरिसंवलितम् / वोपादेरडाकौ च / 7 // 3 // 36 // | व्यस्ताच क्र-कः / 6 / 4 / 16 // | शकितकिचति-त् / 5 / 1 / 29 // वोमाभङ्गातिलात् / 7 / / 1 / 83 // व्यस्थवणवि।४।२।३॥ शकृत्स्तम्बाद्-गः / 5 / 1 / 100 // वोर्णगः सेटि / 4 / 3 / 46 // व्याघ्राघ्र प्रा-सोः। 5 / 1157 // शकोऽजिज्ञासायाम् / 3 / 373 // पोर्णोः।४।३।१९॥ व्यापरे रमः / 3 / 3 / 105 / / शक्तार्थवषट्नमः-भिः / / 2 / 68|| वोर्णोः / 4 / 3 / 60 // व्यादिभ्यो णिकेकणौ / 6 / 3 / 34 // शक्तार्हे कृत्याश्च / 5 / 4 / 35 / / वोर्ध्व द-सट् / 7 / 1 / 142 // व्याप्तौ / 3 / 1 / 61 // शक्तियष्टेटीकण / 6 / 4 / 64 // वोर्ध्वान् / 7 / 3 / 156 // व्याप्तौ स्सात् / 7 / 2 / 130 // शक्तेः शस्त्र / 2 / 4 / 34 // वो विधूनने जः / 4 / 2 / 19 / / व्याप्याच्चेवात् / 5 / 4 / 71 / / शकूत्तर-च।६।४। 90 // वोशनसो-सौ / 1 / 4 / 80 // व्याप्यादाधार / 5 / 3 / 88 // | शण्डिकादेयः। 6 / 3 / 215 / / बोशीनरेषु / 6 / 3 / 37 // व्याप्ये क्तेनः / 2 / 2 / 99 // शतरुद्रात्तौ।६।२।१०४ // वो वर्तिका / 2 / 4 / 110 // व्याप्ये घुरके-च्यम् / 5 / 1 / 4 / / शतषष्ठः पथ इकण / 6 / 2 / 124|| वौ विष्करो वा / 4 / 4 / 96 // | व्याप्ये द्विद्रो-याम् / 2 / 2 / 50||| शतात्केव-की।६।४ / 131 / / वौ व्यञ्जनादे:-य्वः। 4 / 3 / 25 / / व्याश्रये तसुः / 7 / 2 / 81 // / शतादिमासा-रात् / जाश१५७|| बौठौतौ-से। 1 / 2 / 17 // व्यासवरुट-चाक् / 6 / 1138|| शताद्यः।६।४। 145 // व्यः / 4 / 1 / 77 // व्याहरति मृगे।६।३। 121 // शत्रानशावे-स्यौ / 5 / 2 / 20 // व्यक्तवाचां सहोती।३३७९| व्युदः काकु-लुक् / 7 / 3 / 165 / / शदिरगतौ शात् / 4 / 2 / 23 // व्यचोऽनसि / 4 / 1 / 82 // व्युदस्तपः / 3 / 3 / 87 // शदेः शिति।३।३।४१ / / व्यञ्जनस्या-लुक् / 4 / 1 / 44 // व्युपाच्छीकः / 5 / 3 / 77 // शनशद्विशतेः / 7 / 1 / 146 / / व्यञ्जनस्यान्त ई / 7 / 2 / 129 / / व्युष्टादिष्वण / 6 / 4 / 99 // शप उपलम्भने।३।३।३५ / / व्यञ्जनान्छनाहेरानः / 3 / 4 / 80 // व्यस्यमोर्यकि / 4 / 1 / 85 / / शपभरद्वाजादात्रेये।६। 1150|| व्यञ्जनात्तद्धितस्य / 2 / 4 / 88 // व्योः / 1 / 3 / 23 / / शब्दनिष्कघोषमि०।३।२।९८॥ व्यञ्जनात्प-वा / 1 / 3 / 47 // व्रताद् भुजितन्निवृत्त्योः / 3 / 4 / 4 / / शब्दादेः कृतौ वा / 3 / 4 / 35 // व्यञ्जनादेरेक-वा।३।४।९॥ व्रताभीक्षाये / 5 / 1 / 157 // शमकान-ण / 5 / 2 / 49 // व्यसनादन म्युपा० / 2 / 3 / 87 // वातादस्त्रियाम् / 7 / 3 / 61 // / शमो दर्शने / 4 / 2 / 28 // व्यञ्जनादेवो-तः / 4 / 3 / 4 // बातादीनन् / 6 / 4 / 19 // शमो नाम्न्यः / 5 / 1 / 134 / / व्यञ्जनाद् घञ् / 5 / 3 / 132 // व्रीहिशालेरेयण / 7 / 1 / 80 // शम्या रुरो।७।३।४८॥ व्यञ्जनाद् देः सश्च दः / 4 / 3178 // ब्रीहेः पुरोडाशे / 6 / 2 / 51 // शम्या लः / 6 / 2 / 34 // व्यञ्जनानामनिटि / 4 / 3 / 45|| ब्रीह्यर्थतुन्दा-श्व / 7 / 2 / 9 // शम्सप्तकस्य श्ये / 4 / 2 / 11 / / व्यञ्जनान्तस्था-ध्यः ।४।२।७शा ब्रीह्यादिभ्यस्तौ / 7 // 25 // शयवासिषासे-त् / 3 / 2 / 25|| व्यञ्जनेभ्य उपसिक्ते / 6 / 4 // 8 // शंसंस्वयं-दुः। 5 / 2 / 84 // शरदः श्राद्ध कर्मणि / 6 / 3 / 8 / / व्यतिहारेऽनीहा-नः / 5 / 3 / 116 / / शंसिप्रत्ययात् / 5 / 3 / 10 / / शरदर्भकूदी-जात् / 6 / 2 / 47|| व्यत्यये लुग्वा / 1 / 3 / 56 // शकः कर्मणि / 4 / 4 / 73 // शरदादेः / 7 / 3 / 92 / / व्यधजपमद्भयः / 5 / 3 / 47 // शकषज्ञारभू-तुम् / 5 / 4 / 90 // शर्करादेरण् / 7 / 1 / 118 / / व्यपाभेर्लषः / 5 / 2 / 60 // शकटादण् / 7 / 1 / 7 // शर्कराया इक-एच / 6 / 2178|| व्ययोद्रोः करणे / 5 / 3 / 38 // शकलकर्दमाद्वा / 6 / 2 / 3 / / शलालु वा / 6 / 4 / 56 // व्यवात्स्वनो-शने / 2 / 3 / 43 / / शकलादेर्यम् / 6 / 3 / 27 // | शबसे श-वा / 1 / 3 // 6 // व्यस्तव्यत्यस्तात्। 6 / 3 / 7 // / शकादिभ्यो ट्रेलु।६।१।१२०॥ शसोऽता-सि / 1 / 4 / 49 // Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 576 ) मीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [ सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका शसो नः।२।१। 17 // शीतोष्णादतौ। 7 / 3 / 20 / / श्यामलक्षणा-ष्टे / 6 / 1 / 74|| शस्त्रजीवि-वा / 7 / 3 / 62 / / शीर्षः स्वरे तद्धिते / 3 / 2 / 10 / / श्यावारोकाद्वा / 7 / 3 / 153 // शाकटशा-।।७।१।७८॥ शीर्षच्छेदाद्यो वा / 6 / 4 / 184 // | श्येतैतहरित-नश्च / 2 / 4 / 36 // शाकलादकञ् च 6330173 // शीलम् / 6 / 4 / 59 // श्यैनंपाता-ता।६।२।११५ // शाकीप-श्च / 7 / 2 / 30 / / शीलिकामि-णः / 5 / 1 / 73 / / श्रः शतं हविःक्षीरे / 4 / 1 / 100 / . शाखादेयः / 7 / 1 / 114 / / शुक्रादियः। 6 / 2 / 103 / / श्रन्थग्रन्थे नलुक् च / 4 / 1 / 27 // शाणात् / 6 / 4 / 146 // शङ्गाभ्यां भारद्वाजे।६।०६३ / / श्रपेः प्रयोक्त्रैक्ये / 4 / 1 / 101 / / शान्दान्मान्बधा-तः / 3 / 47 // | शुण्डिकादेरण् / 6 / 3 / 154 / / श्रवणाश्वत्थान्नाम्न्यः / 6 / 2 8 / / शार्प व्याप्यात् / 5 / 4 / 52 // | शुनः / 3 / 2 / 90 // श्रविष्ठाषाढादीयण / 6 / 3 / 105 // शाब्दिकदाद-कम् / 6 / 4 / 45 // शुनीस्तन-धेः / 5 / 3 / 119 / / श्राणामांसौ-वा।६।४।७१ // शालङक्यौदिषा-लि / 6 / 137 // शुनो वश्चोत् / 7 / 1 // 33 // श्राद्धमद्य-नौ / 7 / 1 / 169 / / शालीनको-नम् 6 / 4 / 185 // शुभ्रादिभ्यः।६।१।७३ // श्रितादिभिः / 3 / 1 / 62 / / .. शाससहन:-हि। 4 / 2 / 84 // शुष्कचूर्ण-व / 5 / 4 / 60 // श्रुमच्छमी-यञ् / 7 / 3 / 68 // शासूयुधिशि-नः / 5 / 3 / 14 / / / शूर्पाद्वाञ् / 6 / 4 / 137 // श्रुवोऽनाप्रतेः। 3 / 3 / 71 // शास्त्यसूवक्ति-रङ् / 3 / 1 / 60 / / शूलात्पाके / 7 / 2 / 142 // श्रुसदवसभ्यः -वा / 5 / 2 / // शिक्षादेश्वाण / 6 / 3 / 148 // शूलोखाद्यः / 6 / 2 / 141 / / श्रस्र द्रप्र-र्वा / 4 / 1 / 61 // शिखादिभ्य इन् / 7 / 2 / 4 / शङखल-भे। 7 / 1 / 191 // श्रेण्यादिकृता-र्थे / 3 / 1 / 104 / / शिखायाः / 6 / 276 // शङ्गात् / 7 / 2 / 12 // श्रोत्रियादलुक च / 7 / 1 / 71 // शिटः प्रथ-स्य / 1 / 3 / 35 // शकमगम-कण / 5 / 2 / 40 // श्रोत्रीषधि-गे। 7 / 2 / 166 / / शिट्यघोषात् / 1 / 3 / 55 / / शंवन्देरारुः / 5 / 2 / 35 // श्रो वायुवर्णनिवृत्ते / 5 / 3 / 20 / / शिट्याद्यस्य द्विती०१।३।५९॥ शेपपुच्छला-नः / 3 / 2 / 35 // श्रौतिकृवुधिवु-दम्. / 4 / 2 / 188 / / शिडढेऽनुस्वारः / 1 / 3 / 40 // शेवलाद्यादे-यात् / 7 / 3 / 43 / / वादिभ्यः / 5 / 3 / 92 // शिदवित् / 4 / 3 / 20 // शेषात्परस्मै।३।३।१००॥ श्लाघह्न स्था-ज्ये / 2 / 2 / 60 // शिरसः शीर्षन् / 3 / 2 / 101 // शेषाद्वा / 7 / 3 / 175 // श्लिषः / 3 / 4 / 56 // शिरीषादिककणौ। 6 / 277 // शेषे / 2 / 2 / 81 // श्लिषशीङ्-क्तः। 5 / 1 / 9 // शिरोऽधसः-क्ये / 2 / 3 / 4 // शेपे।६।३।१॥ श्वगणाद्वा / 6 / 4 / 14 // शिघुट।१।१।२८॥ शेधे भविष्यन्त्ययही 54.20 // श्वन्युवन्म-उः / 2 / 1 / 103 / / शिलाया एयञ्च / 7 / 1 / 113 / / शेषे लुक / 2 / 1 / 8 / / श्वयत्यसूबच-सम् / 4 / 3 / 106|| शिलालिपात्रे।६।३। 189 / / शोकापनुद-के / 5 / 1 / 143 / / / श्वशुरः श्रभ्यां वा / 3 / 1 / 123 / / शिल्पे।६।४। 57 // शोभमाने / 6 / 4 / 102 // श्वशुराद्यः / 6 / 1 / 91 / / शिवादेरण। 6 / 1 / 60 // शो व्रते / 4 / / 4 / 13 / / श्वसजपवम-मः / 4 / 4 / 75 / / शिशुक्रन्दा-यः / 6 / 3 / 200 // शौनकादिभ्यो णिन् / 5 / 3 / 186 / / श्वसस्तादिः / 6 / 3 / 84 // शीङ ए: शिति / 4 / 3 / 104 // शौ वा / 4 / 2 / 95 // श्वसो वसीयसः 7 / 3 / 12 / / शीडो रत् / 4 / 2 / 115 / / अश्चातः / 4 / 2 / 96 // श्वस्तनी ता-तास्महे // 33 // 14 // शीशद्धानिद्रा-लुः / 5 / 2 / 37 // / भास्त्योर्लक् / 4 / 2 / 90 // श्वादिभ्योऽञ् / 6 / 2 / 26 / / शीताञ्च कारिणि / 7 / 1 / 186 / / | श्यः शीद्रवमूर्ति-शें / 4 / 1197 // श्वादेरिति / 7 / 4 / 10 // शीतोष्णत-हे। 7 / 1 / 92 // .श्य-शवः / 2 / 1 / 116 / / | श्वेताश्वाश्वतर-लुक / 3.4 / 45| Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / / 577 श्वेर्वा / 4 / 1 / 89 / / षः सोऽष्टय -कः / 2 / 3 / 9 / / षट्कति-थट् / 7 / 1 / 162 / / षट्त्वे षड्गवः / 7 / 1 / 135 // षड्वर्जेक-रे / 73 / 40 // षढोः कः सि / 2 / 1 / 62 / / षण्मासादवयसि-कौ।६।४।१०८। षण्मासाद्य-कण / 6 / 4 / 115 // षटयादेर-देः / / 1 / 158|| षष्ठात् / 7 / 3 / 25 // षष्ठी वानादरे।२।२।१०८॥ षष्ठययत्नान्छेषे / 3 / 11.06|| षष्टयाः क्षेपे / 3 / 2 / 30 // षष्ठ्याः समूहे / 6 / 2 / 9 / / षष्ठया धर्थे / 6 / 4 / 50 // षष्ठयान्त्यस्य 74 / 106 / / षष्ठया रूप्य-ट् / 7 / 2 / 80 // षात्पदे।२।३। 92 // षादिहन-णि / 2 / 1 / 110 // पावटाद्वा / 2 / 4 / 69 // षि तवर्गस्य / 1 / 3 / 64 // षितोऽङ् / 5 / 3 / 107 / / ष्ठिवूलम्बाचमः / 4 / 2 / 110 // ष्ठिन्सिवोऽ-वा / 4 / 2 / 112 / / ध्या पुत्रपत्योः -थे / 2 / 4 / 83 // संख्यानां म / 1 / 4 / 33 / / संमदप्रमदी हर्षे / 5 / 3 / 33 / / संख्याने। 3 / 1 / 146 / / संयोगस्या-क / 2 / 1188 // संख्यापाण्डू-मेः / 7 / 3 / 78 // संयोगात् / 2 / 1 / 52 // संख्यापूरणे डट / 7 / 1 / 155 // संयोगादिनः / 7 / 4 / 13 // संख्या या: संघ-ठे।६।४।१७१।। मंयोगाद् ऋतः। 4 / 4 / 37 // संख्याया धा। 7 / 2 / 104 // संयोगाददर्तेः / 4 / 3 / 9 // सख्याया नदी-म् / 7 / 3 / 9 / / संयोगादेर्वा-ध्येः / 4 / 3 / 95 / / संख्याव्ययादङ्गलेः / 7 / 3 / 124 // संवत्सरान-च।६।३।११६।। सख्या समासे / 3 / 1 / 163 // मंवत्सरात्-णोः / 6 / 3 / 90 // संख्या समाहारे।३।१२८॥ संविप्रात् / 3 / 3 / 63 / / संख्या समाहारे-यम् / 3 / 1199 // संवेः सृजः / 5 / 2 / 57 / / संख्या-साय-वा / 1 / 4 / 50|| संशयं प्राप्त ज्ञेये।६।४।९३।। , संख्यासंभ-र्च।६।१। 66 / / संसृष्ठे। 6 / 4 / 5 // संख्याहर्दिवा-टः / 5 / 1 / 102 / / मंस्कृते।६।४।३॥ संख्यैकार्था-शस् / 7 / 2 / 151 / / संस्कृते भक्ष्ये / 6 / 2 / 140 // संगतेऽजयम् / 5 / 1 // 5 // संस्तोः / 5 / 3 / 66 / / संघघोषा-बः / 6 / 3 / 172 / / सः सिजस्तेर्दिस्योः / 4 / 3 / 65 / / संघेऽनू / 5 / 3 / 80 // सक्थ्यक्ष्णः स्वाङ्गे / 3 / 126 / / मंचाय्यकुण्ड-तौ / 5 / 1 / 22 / / सखिणिग्दूताद्यः श६३।। संज्ञा दुर्वा / 6 / 1 / 6 // सख्यादेरेयण / 6 / 2 / 88 / / संध्यक्षरात्तेन / 7 / 3 / 42 / / सख्युरितोऽशात् / 1 / 4 / 83 / संनिवेः / 3 / 3 / 57 / / सजुषः / 2 / 1 / 73 // संनिवेरर्दः / 4 / 4 / 63 // सजेर्वा / 2 / 3 / 38 // संनिव्युपाद्यमः / 5 / 3 / 25 // सति / 5 / 2 / 19 // संपरिव्यनुप्रादः / 5 / 2 / 58 / / सती छार्था / / 5 / 4 / 24 / / संपरेः कृगः स्सट् / 4 / 4 / 9 / / सतीर्थ्यः / 6 / 4 / 78 / / संपरेर्वा / 4 / 1 / 78 / / सत्यागदास्तोः कारे / 3 / 2.112 / / संप्रतेरस्मृतौ / 3 / 3 / 69|| सत्यादशपथे / 12 / 143 / / संप्रदानाचन्य-यः / 5:1215|| सत्यार्थवेदस्याः / 3 / 4 / 44|| संप्राज्जा-ज्ञौ / 7 / 3 / 155 / / सत्सामीप्ये सद्वद्वा / 5 / 4 / 1 / / संप्राद्वसात् / 5 / 2 / 61 / / सदाधुने-हिं / 7 / 2 / 96 / / संप्रोन्नेः सं-पे 71 / 125 / / सदोऽप्रते:-देः / 2 / 3 / 44 संबन्धिनां संबन्धे / 7 / 4 / 121 / / सद्योऽद्य-ह्नि।७।२।१७॥ संभवदवहरतोश्च / 6 / 4 / 162 // सनस्तत्रावा।४।३।६९ // संभावनेऽलमर्थे-क्तौ / 5 / 4 / 22 / / सनि / 4 / 2 / 61 // संभावने सिद्धवत् / 5 / 4 / 4 // सनीश्च / 4 / 4 / 25 // संमत्यसू-तः / 7 / 4 / 89 // / सन्मिशाशंसेरुः / 5 / 2 / 33 / / संकटाभ्याम् / 7 / 3 / 86 // संख्याक्ष-त्तौ। 3 / 1 / 38 // संख्याकात् सूत्रे / 6 / 2 / 128 // संख्याडते-कः / 6 / 4 / 130 / / संख्याता-वा।७।३।११७ // संख्यातैक-रत् / 7 / 3 / 119 // संख्यादेः पादा-च / 12 / 152 / / संख्यादेगुणात् / 7 / 2 / 136 // संख्यादेहाय-सि / 2 / 4 / 9 // संख्यादेश्चा-चः / 6 / 4 / 80 // संख्याधि-नि।७।४।१८॥ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 578 ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन [ सूत्राणामकाराधनुक्रमणिका सन्महत्परमो-याम् / / 1 / 107 // / समानपूर्व-त्। 6 / 3 / 79 // | सर्वादेः प-ति / 7 / 1 / 94 // सन्यश्च / 4 / 1 / 3 // ममानस्य धर्मादिष / 3 / 2 / 149 // | सर्वादेः सर्वाः।२।२।११९॥ सन्यस्य।४।१॥ 59 // समानादमोतः / 1 / 4 / 46 / / सर्वादेः स्मैस्मातौ।१।४।७॥ सपल्यादौ / 2 / 4 / 50 // समानानां-र्घः / 1 / 2 / 1 // सर्वादेर्डस्पूर्वाः / 1 / 4 / 18 // सपत्रनिष्पत्रा-ने 7 / 2 / 138 // समानामर्थेनैकशेषः / 311118 // सर्वादेरिन् / 7 / 2 / 59 // सपिण्डे वयःस्थाना-द्वादश४|| समाया नः। 6 / 4 / 109 // सर्वान्नमत्ति / 7 / 1 / 98 // सपूर्वात्-द्वा / 2 / 1 / 32 // समासान्तः / 7 / 3 / 69 // सांश-यात् / 7 / 3 / 118 // सपूर्वादिकण्।६।३।७०॥ | समासेऽग्नेः स्तुतः / 2 / 3 / 16 / / सर्वोभया-सा। 2 / 2 / 35 // . सप्तमी-ईमहि / 3 / 3 / 7 // समासेऽसमस्तस्य / 2 / 3 / 13 / / सलातुरादीयण् / 6 / 3 / 127 // सप्तमी चा-णे।२।२।१०९ // समिण सुगः / 5 / 3 / 93 // सविशेषण -क्यम् / 1 / 1 / 26 // सप्तमी चोर्ध्व-के / 5 / 3 / 12 // समिध आ-न्यण / 6 / 3 / 162 // ससर्वपूर्वाल्लुप् / 6 / 2 / 127 / / सप्तमी चो-के। 5 / 4 / 30 // समीपे / 3 / 1 / 35 // सस्तः सि।४।३। 92 // . ' सप्तमी द्विती-भ्यः / 7 / 2 / 134|| समुदाङो यमेरग्रन्थे / 3 / 3 / 98 // सस्नौ प्रशस्ते / 7 / 2 / 172 // सप्तमी यदि।५।४।३४ // समुदोऽजः पशौ / 5 / 3 / 30 // | सस्मे ह्यस्तनी च / 5 / 4 / 40 // सप्तमी शौण्डाद्यैः / 3 / 188 / समुद्रान्नृनावोः / 6 / 3 / 48|| सस्य शषो। / 3 / 611 / / सप्तम्यधिकरण।२।२।९५ // समूहार्थात्समवेते 6 // 4 // 46 // सस्याद् गुणात्-ते 711178|| सप्तम्यर्थे क्रि-त्तिः।५।४।९॥ समेंऽशेऽध नवा / 3 / 054|| सनिचक्रिदधि-मिः / 5 / 2 / 39 / / सप्तम्याः / 5 / 1 / 169 // समो गमृ-शः / 3 / 3 / 84 // | सहराजभ्यां-धेः / 5 / 1167 // . सप्तम्याः / 7 / 2 / 94 // समो गिरः / 3 / 3 / 66 // . सहलुभेच्छ-देः / 4 / 4 / 46 / / सप्तम्या आदिः / 7 / 4 / 114 / / समो ज्ञोऽ-वा। 2 / 2 / 51 // सहसमः सधिसमि / 3 / 2 / 123 / / सप्तम्या पूर्वस्य / 7 / 4 / 105 / / समो मुष्टौ। 5 / 3 / 58 // सहस्तेन / 3 / 1 / 24 // सप्तम्या वा।३।२।४॥ समो वा / 5 / 1 / 43 // सहस्रशत-दण् / 6 / 4 / 136 // सप्तम्यताप्योबोढे / / 4 / 21 // सम्राजः क्षत्रिये।६।१।१०१॥ सहस्य सोऽन्यार्थे / 3 / 2 / 143 / / सब्रह्मचारी।३।२।१५० // सम्रा / 1 / 3 / 16 // सहात्तुल्ययोगे / 7 / 3 / 178 // समःक्ष्णोः / 3 / 3 / 29 / / सयसितस्य / 2 / 3 / 47 // सहायाद्वा।७।१।६२ // समः ख्यः।५।१।७७॥ सरजसोप-वम / 7 / 3 / 94 // सहार्थे / 2 / 2 / 45 // समः पृचैपज्वरेः। 5 / 2 / 56 // सरूपाद् द्रेः-वत् / 6 / 3 / 209|| सहिवहे-स्य / 1 / 3 / 43 / / समजनिपनिषद-णः / 5 / 3 / 99 / / सरोऽनो-म्नोः / 7 / 3 / 115 / / | साक्षादादिश्व्य र्थे / 3 / 1 / 14 / / समत्यपाभि-रः / 5 / 2 / 62 / / सर्तेः स्थिर-स्ये / 5 / 3 / 17 / / साक्षाद् द्रष्टा / 7 / 1 / 197 / / समनुव्यवाद् रुधः / 5 / 2 / 63 // सर्त्यर्तेर्वा / 3 / 4 / 61 // सातिहेतियूति-र्तिः / 5 / 3 / 94 / / समयात् प्राप्तः / 6 / 4 / 124 // सर्वचर्मण ईनेनौ / 6 / 3 / 195 / / सादेः / 2 / 4 / 49 // समयाद्या-याम् / 7 / 2 / 137 / / सर्वजनाण्ण्ये नौ / 7 / 1 / 19 / / सादेश्चातदः / 7 / 1 / 25 // समर्थः पदविधिः 74|122 / / सर्वपश्चादादयः। 3 / 1 / 80 // साधकतमं करणम् / 2 / 2 / 24 / / समवान्धात्तमसः / 7 / 3 / 8 / / सर्वाणो वा / 7 / 1 / 43 / / साधुना / 2 / 2 / 102 // . समस्ततहिते वा / 3 / 2 / 139 // सर्वात् सहश्च / 5 / 1 / 111 // | साधुपुष्यत्पच्यमाने / 6 / 3 / 117|| समस्तृतीयया / 3 / 3 / 32 // सर्वादयोऽस्यादौ / 3 / 2 / 16 / / साधौ। 5 / 1 / 155 // समांसमीनम् / 7 / 1 / 105 // / सर्वादिविष्वग-श्वौ / 3 / 2 / 122 / / ' सामीप्येऽधो-रि 74 / 79 // Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [579 सायंचिरंपा-यात् / 6 / 3 / 88 / / सायाह्नादयः / 3 / 1153|| सारवैश्वा-यम् / 74|30|| साल्वात् तौ / 6 / 3 / 54 // साल्वांशप्रत्य-दिबू / 6 / 1117 / / सास्य पौर्णमासी।६।२।९८|| साहिसातिवे-त् / 5 / 1159 // सिकताशर्करात् / 7 / 2 / 35 // सिचि परस्मै-ति / 4 / 3 / 44 सिचोऽब्जेः / 4 / 4 / 84 // सिचो यकि। 2 / 3 / 60 // सिजद्यतन्याम् / 3 / 4 / 53 / / सिजाशिषावात्मने / 4 / 3 / 3 / / . सिविदोऽभुवः / 4 / 2 / 92 // सिद्धिः-त् / 1 / 1 / 2 // : सिद्धौ तृतीया / 2 / 2 / 43 / / . सिध्मादि-ग्भ्यः 7 / 221 // सिध्यतेरज्ञाने। 4 / 2 / 11 // सिन्ध्वपकरात्काणौ / 6 / 3 / 101 / / सिन्ध्वादेरन् / 6 / 3 / 216 // सिंहाद्यैः पूजायाम् / 3 / 1189 / / सीतया संगते / 7 / 1 / 27 / / सुः पूजायाम् / 3 / 1 / 44 // सुखादेः / 7 / 2 / 63 // सुखादेरनुभवे / 3 / 4 / 34 // सुगदुर्गमाधारे / 5 / 1 / 132 // सुगः स्यसनि / 2 / 3 / 62 // . सुगद्विषाहः-त्ये / 5 / 2 / 26 // सुचो वा / 2 / 3 // 10 // सुज्वार्थे सं-हिः / 3 / 1 / 19 // सुतंगमादेरिम् / 6 / 2 / 85 / / सुदुर्व्यः / 4 / 4 / 108 // सुपन्ध्यादेयः / 6 / 284 // सुपूत्युत्सु-णे / 7 / 3 / 144 // सुप्रातसुश्व-दम् / 7 // 3 // 129 // सुभ्र वादिभ्यः / 7 / 3 / 182 // सुयजो-प् / 5 / 1 / 172 // सुयाम्नः सौवी-निम् / 6 / 1 / 102 / / सौवीरेषु कूलात् / 6 / 3 / 47 // सुरासीधोः पिबः / 5 / 1175 / / स्कन्दस्यन्दः।४।३। 30 / / सुवर्णकार्षापणात् / 6 / 4 / 14 // स्कभ्नः / 2 / 3 / 55 // सुसर्वा द्राष्ट्रस्य / 7 / 4 / 15 // स्कृच्छतो-याम् / 4 / 3 / 8 // सुसंख्यात् / 7 / 3 / 150 // स्क्रसृवृभृ-याः / 4 / 4/81 // सुस्नातादि-ति / 6 / 4 / 42 // स्तम्बात् घनश्च / 5 / 3 / 39 // सुहरिततृण-त् / 733142 / / स्तम्भूस्तुम्भू-च / 3 / 478 // सुहृदु-मित्रे / 7 / 3 / 157 / / स्ताद्यशितो-रिट् / 4 / 4 / 32 // सूक्त साम्नोरीयः / / 2 / 71 / / स्तुस्वजश्चा-वा / 2 / 3 / 49 / / सूतेः पञ्चम्याम् / 4 / 3 / 13 // स्तेनान्न लुक् च 71164 // सूत्राद्धारणे / 5 / 1 / 93 / / स्तोकाल्प-णे / 2 / 2179|| सूयत्याद्योदितः / 4 / 2 / 70 // स्तोमे डट् / 6 / 4 / 176 // : सूर्यागस्त्ययोरीये च / / 4 / 89 // स्त्यादिर्विभक्तिः ।शश१९।। सूर्याद् देवतायां वा / / 4 / 64 // स्त्रियाः।२।१।५४॥ सृग्लहः प्रजनाक्षे / 5 / 3 / 31 // स्त्रियाः पुंसो-च७३।९६॥ . सृघस्यदो मरक् / 5 / 2 / 73 // स्त्रिया हिता-दाम् / 1 / 4 / 28 / / सृजः श्राद्धे-तथा / 3 / 4 / 84|| स्त्रियां क्तिः / 5 / 3 / 91 // सृजिशिस्कृ-वः / 4 / 4 / 78| स्त्रियां नाम्नि 7 / 3 / 152 // सृजीणनशष्ट्वरप्।५।२।७७॥ स्त्रियां-ढी / 2 / 4 / 1 // सेः रद्धां च रुर्वा / 4 / 379|| स्त्रियां लुप।६।१।४६॥ सेटक्तयोः / 4 / 384 // स्त्रियाम् / 1 / 4 / 93 // सेड् नानिटा।३ / 1 / 106 / / स्त्रियाम् / 3 / 1 / 69 // सेनाङ्गक्षुद्र-नाम् / 3 / 1 / 134 // स्त्रियामूधसो न् / 7 / 3 / 169 / / सेनान्तका-चक्ष११०२॥ स्त्रीदूतः / 1 / 4 / 29 / / सेनाया वा।६।४ / 48 // स्त्री पुवश्च / 3 / 1 / 125 // सेसे कर्मकर्तरि / 4 / 2 / 7 / / स्त्री बहुष्वायनम् / 6 / 2 / 48 // सेर्निवासादस्य / 6 / 3 / 213 // स्थण्डिलात्-ती।६।२।१३९ // सोदर्यसमानोदयौँ / 6 / 3 / 112 // स्थलादेमधुक-ण।६।४ / 91 // सो धि वा / 4 / 3 / 72 / / - स्थाग्लाम्लापचि-स्नुः / 5 / 2 / 3 / / सोमात सुगः / 5 / 1 / 163 / / स्थादिभ्यः कः / 5 / 3 / 82 / / सो रुः / 2 / 1 / 72 // . . स्थानान्तगो-लात् / 6 / 3 / 110 // सो वा लुक् च / 3 / 4 / 27 // स्थानीवाऽवर्णविधौ।।४।१०९।। सोऽस्य ब्रह्म-तोः / 6 / 4 / 116 / / स्थापास्नात्रः कः / 5 / 1 / 142 // सोऽस्य भृति-शम् / 6 / 4 / 168 / / स्थामाजिना-प् / 6 / 3 / 93 / / सोऽस्य मुख्यः / 7 / 1 / 190 / / स्थासेनिसेध-पि // 2 // 3 // 40 // | सौ नवेतौ। 1 / 2 / 38 // स्थूलदूर-नः // 4 // 42 // | सौयामायनि-या।६ / 11 106 / / / स्थेशभास-रः / 5 / 2 / 81 // Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका ] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनम्। [580 स्थो वा / 5 / 3 / 96|| स्वराच्छौ ।श४६शा हनृतः०।४।४।४९॥ | हक्रोर्नवा / 2 / 28 // स्नाताद् / 7 / 3 / 22 / / / स्वरात् / 2 / 3 / 85 / / हनो घि / 2 / 3 / 94 // हृगो गत 33 // 38 // स्नानस्य० // 2 / 3 / 22 स्वरादयो० // 1 // 1 // 30 // हनोध्नी०।४।३।९९॥ हगो वयो० / / 1 / 9 / / स्नोः / 4 / 4 / 52 / / स्वरादुतो०।२।४॥३५॥ हनो णिन् / / 1 / 160 हृदयस्य०।३।२।९४|| स्पर्द्ध / 7 / 4 / 119 / / / स्वरादुप० // 414 / 9 / / हनोऽन्त० // 5 // 3 // 34 / / हृद्भग०७४१२५।। स्पृशमृश० 3 / 4 / 54 // | स्वरादेर्द्वि०।४।१।४॥ हनो वध।४।४।२१।। हृद्य-पद्य०७।१।११॥ स्पृशादि० / 4 / 4 / 112 / / स्वरादेस्तासु।४।४।३२॥ हनो वा०५३४६।। हृषे:०।४।४१७६|| स्पृशोऽ० / 5 / 1 / 149 // स्वरेऽतः / 4 / 3 / 75|| हनो इनो०।२।१।११२। हेः प्रश्ना०1७।४।९७॥ स्पृहेा / 2 / 2 / 26 // स्वरेभ्यः / 113 // 30 // हरत्यु०।६।४।२३॥ हेतु-कर्तृ / / 2 / 44 // स्फाय स्फाव।४।२।२२॥ स्वरे वा / 11324 // हरितादे०।६१५५॥ हेतुतच्छी०।५।११०३॥ स्फायः स्फी०।४।१९४|| स्वरे बा० श२।२९॥ हलक्रोडा० / 5 / 289 // हेतु-सहा०।२।२।३८|| स्फुरस्फु०।४।२।४॥ | स्वर्ग०६४१२३।। हलसीरादिकण।७.१।६।। हेतौ संयो०।६।४।१५३ . स्मिकः / 3391 // / स्वस०।३।२।३८|| हलसीरा०॥६॥३॥१६॥ | हेत्वर्थे० / 2 / 2 / 118 // स्मृत्यर्थ / 2 / 2 / 11 // स्वस्नेहा० // 14 // 6 // हलस्य० 171126 // हेमन्ताद्वा०६।३।९।। स्मृह० 4 / 2 / 65 / / स्वाङ्गत०५।४।८६|| हवः शिति / 4 / 1 / 12 / / हेमादि०।६।२।४५।। स्मृदृशः / 3 / 3 / 72 / / स्वाङ्गात्०३।२।५६॥ हविरन्न०७१२९॥ हेमार्थात्६।२।४२॥ स्मे च० / 5 / 2 / 16 / / स्वाङ्गादे०।२।४॥४६॥ हविष्य० / / 2 / 73 // हेहैष्वे०७४।१००। स्मे पश्चमी।५।४।३।। स्वाङ्गाद्वि०७२।१०॥ हशश्व० / / 2 / 12 // * होत्राभ्य०७११७६।। स्म्यजस०५।२।७९॥ स्त्राङ्गना०४४७९॥ हशिटो०।३।४।५५| होत्राया०७२।१६३॥ स्यदो जवे / 4 / 2 / 53 // स्वाङ्गेषु०७१।१८०॥ हस्त-दन्त०७२।६८॥ हो धु०।२।११८२॥ स्यादाव०३।१।११९॥ स्वादे:०।३।४।७५|| . हस्तप्राप्ये / / 3 / 78|| हौ दः / 451 // 31 // स्यादेरिवे / 7 / 1152 / / स्वाद्वा०॥५॥४५३॥ हस्तात् / / 4 / 66 / / ह्रस्वः / 4 / 039 // स्यादौ वः / 2 / 1157 // स्वान्मि० 2 / 49|| हस्तिपु०७।१११४१।। ह्रस्वस्य गुणः।१।४।४१ स्यौजस० 121 // 18 // स्वामिचि 312184|| हस्ति-बा० / / 1186 / / ह्रस्व-स:०।४।४।११३।। स्त्रंसध्वंस्०।२।१।६८।। स्वामिवै० / 5 / 1 // 33 // हाकः / 4 / 2 / 10 // ह्रस्वात्।।१।३।२७॥ स्वञ्जश्च / 2 / 3 / 45 // स्वामीश्व०१२।२।९८॥ हाको हिः०१४॥४॥१४॥ ह्रस्वान्ना० 2 / 334|| स्व जे०।४।३।२२।। स्वाम्येऽधिः / / 1113 // हान्तस्था० // 2 // 28 // ह्रस्वापश्च / 1 / 4 / 32 / / स्वज्ञाऽज०।२।४।१०८॥ स्वार्थे / 4 / 4160 // हायना०७१।६८|| ह्रस्व // 3 // 46|| स्वतन्त्रः कर्ता / / 2 / 2 / स्वेशेऽ०।२।२।१०४॥ हितनाम्नो०१७।४।६०॥ ह्रस्वोऽ०।१२।२२।। स्वपेर्यङ् च / 4 / 1 / 8 / / स्वैर० / 1 / 2 / 15|| हित-सुखा०।२।२।६५॥ ह्यस्तनी०।३।३।९॥ स्वपो णावुः / 4 1 / 62 / / स्सटि समः।१।३।१२।। हितादिभिः।३।११७१॥ ह्योगोदो०।६।२।५५॥ स्वयंसामी०।३।११५८॥ हः काल०1शश६८|| हिम-हति०।३।२।९६॥ ह्लादो०।४।२।६७।। स्वरग्रह० // 3 // 4 // 6 // हत्याभूयं० / 5 / 1 // 36 // हिमादे० 7160 // हः समा० ।।३।४शा स्वरदुहो० // 3 / 4 / 90 // हनः / 2 / 3 / 82 // हिंसा० // 4474 // हः स्पर्धे।३।३।५६॥ स्वरस्य०७४।११०॥ हनः सिच् / 4 / 3 / 38 // हीनात्० 7 / 2 / 4 / / ह्वा-लिप०३।४।६२॥ स्वर-हन०।४।१।१०४।। हनश्च० / 5 / 4 / 63 // / हुधुटो० / 4 / 2 / 83|| / ह्विणोर०।४।३।१५॥ इति सूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका समाप्ता Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जश् है * शुद्धिपत्रक * पृष्ठ कोलम पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ कोलम पंक्ति अशुद्ध 11 12 यस्स यस्य 2 2 25 मस्तनी इत्यर्थो .40 1 ह्यस्तनी 1 इत्यर्थों 4 2 31 इपोच 42 2 कजने 6 हपौ च कथने 6 2 3 श्नाआकारस्य श्नाऽऽकारस्य 43 2 18 वचन वचनम् 6 2 5 अन्योपसर्गायाम् अन्योपसर्गाभ्याम् 44 1 10 (यदा क्र) (यदा क) 11 1 6 वृयत्तदि वृत्त्यादि 45 2 18 जऋश् 12 1 16 विधिः विधिः 45 2 19 जुऋष् ऋष्च् जष् झषच् 12 टीप्पण-१ - ममिधान . मभिधान / 46 2 4 प्रत्ययो. प्रत्यययो 13 1 1 स्वीकार शब्दरस्य स्वीकारशब्दस्य | 48 1 4 भ्रमूवलमू भ्रमूक्लमू 13 टी.१ कन्यामुपच्छते कन्यामुपयच्छते 48 1 16 च्छेदने छेदने 13 2 3 गम्यामानायाम् गम्यमानायाम् . 50 1 11 मिथुसृनम् , जति मिथुनम् , सृजति 14 1 12. तिस्ठते तिष्ठते / 50 1 29 सिछिनत्ति सिश्छिनत्ति संगरिति . संगिरति : 51 2 2 दुग्घे ... दुग्धे 17 2 6 अस्यार्थोऽयम् अस्यार्थोऽयम् :51 2 3 अधुक्षत अधुक्षत .. 18 टीप्पण-१ . अत्र 51 2 8 प्रतिषेधं प्रतिषेधं 19 1 7 परिणा (हेन) परिणा 53 1 . 4 प्रत्ययो प्रत्यययों 53 1 6 परिस्करिष्यते परिष्करिष्यते 21 2 5. श्योनो श्येनो 53 1 6 परिस्कुरुते परिष्कुरुते 21 2 27 जटाघटा जटाघाटा ध्रां ध्रां 22 2 27 बन्धेत बन्धेत 55 2 14 स्वरविघे स्वरविधे / 23 2. 2 दापन्तर पदान्तर 56 1, 29 मच्छिति मिच्छति / 24 1 29 / गन्धनादावर्थे गन्धनादावर्थे 58 1 18 ऋधंच ऋधूच . 27 1 2 स्वस्तनीता श्वस्तनीता 58 119 ऋधंट ऋधूट् 29.1 6 त्भू भूत् 61. 2 . ऋगतौ ऋक् गतौ 29 2 6 देनामिनो दे मिनो 61 2 22 वस्वचः वश्वचः . 29 2 22 'लोलूया लोलूया 62 2 2 तूष्ट्य षति / तुष्ट्य पति . 31 टीप्पण-२ विधेया विधेया 62 2 . 20 षत्वं 31 टीप्पण-२ सूत्रं सूत्रात् सूत्रात् . 32 1 17 प्रयुक्ते प्रयुङ्क्ते : 63 1. 26 वच्यते . .वच्यते 32 2 8. शकघृष शकधृष 63 1 30 वञ्च्य ते वच्यते / 32 2 13 मुमूर्षत “मुमूर्षति .... | 63 2 25 वच्यते वच्यते : . 33 1 6 दुखं दुःखं 64 2 16 तकारदौ तकारादौ 33 1 9 सम्बन्धे सम्बन्धे . , 64 2 18 ओत् / चञ्चूर्यते ओत् / 'चञ्चूर्यते 34 2 23 मत्वथीय मत्वीय * / 66 1 29 टुक्षु टुक्षु सत्वं roror Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 582] दिव oro.orr or न्वङ्कुः धूगण दीर्थों or [शुद्धिपत्रक पृष्ठ कोलम पंक्ति अशुद्ध शुद्ध | पृष्ठ कोलम पंक्ति अशुद्ध शुद्ध 66 2 8 लिलावयिषवि लिलावयिषति | 115 2 27 ब्रिवीमि ब्रवीमि 66 2 28 घातौ धातौ 116 2 3 दिव 69 1 2 न्ययात् न्यायात् | 118 2 5 दुहदिह० 'दुइदिह० 69 ? 21 इत्यनने इत्यनेन 118 2 20 प्रथमो प्रथमो 1/4/49 119 2 20 हिनत्सि हिनस्ति 72 1 7 3/4/68 3/4/58 120 0 टी.२ . घातूनां धातूनां न्यकुः | 124 1 12 यवृत.. वृत् 77 1 9 निपानात् निपातनात् / 124 2 11 तेः प्यते ध्यते 126 2 8 2/1/112 2/1/113 81 1 24 4/3/64 4/3/54 | 128 1 4 2/3/59 1/3/59 82 1 16 धूण | 128 1 140 म० 83 2 22 दीर्थों 131 2 11 4/1/76 4/1/73 4/3/41 4/3/49 132 1 9 4/4/118 4/4/117 84 1 22 दिवादियं दिवादिर्वा / 134 0 टी.३ द्विषच्छद्भनि द्विषच्छमनि 84 1 26 4/2/61 4/2/51 | 135 2 4 4/4/33 4/4/32 अवीववणत् अवीवणत् 135 0 टी.१ "विशेषाणा .."विशेषणा 87 2 2 अंर् अर् 136 2 5 4/4/58 - 4/4/57 89 2 28 5/3/81 , 5/3/18 136 2 5 .4/4/57/8 4/4/58 92 2 5 . व्याप्ती व्याप्तौ च 137 1 9 4/4/58 4/4/57 93 2 25 ओवश्वौत् ओब्रस्चीत् 137 2 17 4/4/32 4/4/42 93 2 25 ब्रस्च 138 1 4 4/4/59 4/4/58 ज्यव्याने प्वयव्यञ्जने 140 1 25 4/4/60 4/4/59 100 1.17 140 2 12 4/4/47 4/4/49 101 टी.५ घात्वकारस्य धात्वकारस्य 152 2 4 . 4/4/45 4/2/45 102 2 20 ब्रवन्ति 152 2 26 4/4/24 4/1/24 106 टी.४ दधीवा दधीवा 156 1 13 4/41/21 4/4/121 106 टी.५ दधीवा दधीवा 157 1 8 5/4/10 5/4/90 109 2 11 मृषीच 158 2 8 रम्यते 4/4/32 4/3/32 159 1 5 कर्मणि कर्मणि 114 1 12 अबधि अबधि 159 2 4 प्रमुक्तः प्रभुक्तः 114 टी.२ यति याति 160 2 2 ऽम्मा ऽस्मा प्रतिषेधात् प्रतिषेधात् 166 2 27 4/1/12 4/1/112 115 1 11 3/3/52 4/3/52 178 0 टी.१ स्त्रंस् स्रस् 115 1 20 बीतीति वितीति 183 1 15 "धर्मा य धर्माय 115 2 9 4/4/61 4/4/31 184 1 2 18 १८प्रसत् 115 2 20 1/6/60 / 187 1 10 ब्रह्मादभ्यः ब्रह्मादिभ्यः of n 22 ब्रुवन्ति मृषीत् Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रक ] पृष्ठ कोलम पंक्ति 187 2 10 189 1 20 189 टी.२ 189 टी.३ 193 2 29 195 1 27 196 1 1 202 1 4 211 1 3 217 2 3 217 2 16 218 1 3 220 1 12 224 2 25. 227 1 31 229 2 14 अबू [583 अशुद्ध शुद्ध / पृष्ठ कोलम पंक्ति अशुद्ध शुद्ध सोमत् सोमात् 270 1 4 इस्येव इत्येव 1/4/70 1/4/90 273 1 30 शुम्रादिश्य शुभ्रादिभ्य 1/4/70 1/4/90 275 2 32 द्विस्वरादे० द्विस्वराद० नदीर्घप्राप्तिः दीर्घप्राप्तिः 276 2 22 द्वरपाली द्वारपाली दघीयते दधीयते 277 1 17 6-2-87 6-1-87 अयममन अयमन 277 1 23 ड्यात्यूकः व्यापत्यू: भवति भवतः 279 2 32 इनौ इब्यौ 4/6/100 4/3/100 283 1 1 अण अबू ऊपाध्या . उपाध्या 283 1 अण अञ् 5/6/51 . 5/3/51 291 1 1 गार्गादे० गादे० तमति तमिति 304 1 20 पिामहः पितामहः युर्वण युवर्ण 304 1 . 30 अङ्गदिवार्जितात् अङ्गादिवर्जितात् अतिक्रम् अतिक्रम 313 1 24 घातिप्रत घातप्रति 'शिति' 'क्यः शिति' | 321 1 6 लुबञ्चेः लुबञ्चः इत्यदिभ्यः इत्यादिभ्यः 324 2 3 इञ् सुखमिति अङ्गग्रहणं किम् ? | 326 1 19 देवदत्तः देवदत्तः पुत्रस्य परिष्वञ्जनं | 331 1 1 प्रयोगाली प्रयोगावली सुखम् / सुखमिति | 333 1 आमुष्किम् आमुष्मिकम् विदंक विदक्. 336 टी०२ प्रतिभति प्रतिभाति वय वय(?वाय) 337 1 22 अन् कविप्रोगः कविप्रयोगः 340 1 9 'गोशाल पूङयजेः पूड्यजः 342 2 "दन्तोष्ठे दन्तोष्ठे 5/3/23 5/2/23 345 24 व्यख्यानं व्याख्यानं न्घे ज्ञातव्या न्धे ज्ञातव्या 349 2 12 भागाश्च भार्गवाश्च नाद्यतन नानद्यतन 352 2 19 अश्वस्यायं अश्वस्यायं मर्षयमि मर्षयामि 353 1 9 व्याख्यता व्याख्याता अन्घो अन्धो 353 1 21 स्यातीति स्यास्तीति सप्तम्युप्यो सप्तम्युताप्यो 355 1 2 पराश० पाराश० 5/3/78 6/3/78 356 1 10 आणौ अणौ मेस्तु मेडस्तु 358 15 णक अक व्यप्यात् व्याप्यात् 358 1. 17 पाणिनीयं ६पाणिनीयं वर्त्तमामात् वर्तमानात् 369 2 14 अवकीयते अबक्रीयते वाधिका __२वाधिका 373 1 33 भाण्डगारिक भाण्डागारिक इलोपः इलोप:* 385 2 समाहारे समाहारे च प्रसङ्गात् प्रासङ्गात् 389 2 25 व्यहारे व्याहारे 5/1/32 6/1/32 | 399 1 2 स्वपतेयम् स्वापतेयम् गोशाल 231 1 19 231 2 10 233 2 30 . .234 -1 26 234 1 235 1 5 236 2 21 236 1 3 239 1 24 241 1 12 242 1 5 246 1 15 249 2 5 252 2 14 254 1 261 س 268 1 26 Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 584 ] पृष्ठ कोलम पंक्ति अशुद्ध 407 2 15 म्रद्रिमा म्रदिमा 429 2 8 इद्रियम् इन्द्रियम् 432 1 21 प्रथामान्तम् प्रथमान्तम् 442 1 3 मुष्को *मुष्को 447 1 14 , केऽस्ति / के वाऽस्ति 450 1 23 सम्बधि सम्बन्धि 459 2 7 लुकली शुक्ली 465 1 चकरात् चकारात् 470 1 32 विभज्ये विभज्ये च 470 टी०२ शुतमाः शुक्लतमाः 483 1 33 प्रसङ्गत् प्रसङ्गात् 483 2 19 मैवः 487 2 14 आमिजितो आभिजितो 490 1 18 लुचि ___" , 23 प्रापप्य प्राप्य. 496 टी०१ सन्मत तन्मत पृष्ठ कोलम पंक्ति 553 1 32 514 , 22 520 , 522 2 27 523 1 17 523 1 25 523 2 22 525 2 6 528 , 29 531 टी.२ 534 2 9 542 , 18 543 , 10 545 , 8 561 2 565 1 9 [ शुद्धिपत्रक अशुद्ध शुद्ध ख्यात्यूरः ब्याप्त्यूङः सप्तम्या पश्चम्या उषासोषः उषासोषसः इत्यदयः इत्यादयः पृथ्वादीनमृ' पृथ्वादीनामृ.. वर्णदृढाभ्य वर्णदृढादिभ्य . आवादेशः अवादेशः वेत्त्यघीते वेत्त्यधीते प्त्यूडः प्त्यूङः पुष्टयन्ति पुष्प्यन्ति लुप् पान्स्यस्यातः पान्त्यस्यातः नाम्यम्तस्था नाम्यन्तस्था आद्यवन्त आद्यन्त तृतीस्य तृतीयस्य नासिकदरौ नासिकोदरौ मैत्रः लुपि ***************** **** / समाप्तम् समाप्तम् Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रुतज्ञान अमीधारा ज्ञानमन्दिर तरफथी प्रगट थयेल जन्य रत्नो 1 श्री श्र तज्ञान अमीधारा 2 बारव्रत कथा सहित हिन्दी 3 श्री जिनगुण अमीधारा गुजराती 4 हैमप्रकाश पूर्वार्ध 5 हैमप्रकाश उत्तरार्ध 6 मध्यमवृत्ति प्रथम विभाग 7 जनज्योतिष ग्रन्थसंग्रह = हैमलिङ्गानुशासन-दुर्गाचार्यवृत्ति 6 हैमलिङ्गानुशासन-केशरसूरिकृत टीप्पण 10 प्रमाणनयतत्त्वालोक सावचूरिक 11 अनंतनाथ चरित्र उद्धृत पूजानी कथाओ 12 हैमचंद्रिका 13 ऋषिमंडलस्तव प्रकरण 14 विभक्ति विचार प्रकरण 15 महाबल मलयासुन्दरी 16 चौमासी व्याख्यान 17 मंगल कलश 18 श्रीश्र तज्ञान अमीधारा (बीजी आवृति) 16 श्री जिनगुण अमीधारा (हिन्दी) 20 गिरिराज स्पर्शना 21 वे प्रतिक्रमण सूत्र (हिन्दी) 22 भक्तामर सौरभ 23 देवकी छ पुत्रनो गस Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र में दो विभाग हैं। उसमें प्रथम विभाग में, व्याकरण सिर्फ भाषा के व्यवहार के लिये ही नहीं है, किन्तु मुख्यतया तत्त्वज्ञान की प्राप्ति द्वारा आत्मा को लगी हुई कर्म-जंजीर को तोड़कर मुक्ति प्राप्त करने के लिये है। अतः व्याकरणअध्ययन का मुख्य ध्येय मुक्ति प्राप्त करना ही है, यह बतलाया गया है। दूसरे विभाग में श्रीसिद्धहेम व्याकरण शुद्ध होने के कारण कसोटी में सफल हुआ, यह बतलाया गया है। श्रीसिद्धहेम व्याकरण की परीक्षा का वृत्तान्त कुमारपाल प्रबंध ग्रन्थ में निम्नोक्त बतलाया है: गुर्जर नरेश सिद्धराज जयसिंह की प्रार्थना से कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्र सूरिजी ने एक ही वर्ष में पंचांग परिपूर्ण श्रीसिद्धहेम व्याकरण का प्रणयन किया। व्याकरण का प्रणयन होने के बाद सर्व प्रथम राजा की आज्ञा से व्याकरण को स्वर्णाक्षर से लिखाकर राजा के हस्ती की अंबाड़ी पर स्थापित करके उसके उपर श्वेत छत्र धारण करके, दोनों बाजु चँवर डोलते डोलते राजसभा में लाकर समग्र विद्वानों के समक्ष उसका साद्यंत वांचन किया गया। बाद उस व्याकरण को राजा के ज्ञान भंडार में स्थापित किया। कलिकाल सर्वज्ञ भगवंत की इस महिमा को ब्राह्मण वर्ग सहन न कर सका। उसने राजा के पास आकर कहा कि-राजन् ! यह व्याकरण शुद्ध है या अशुद्ध यह परीक्षा किये बिना राजा के ज्ञान भण्डार में रखना ठीक नहीं है। व्याकरण की परीक्षा के लिये उसको काश्मीर देश में सरस्वती माता की मूर्ति की समक्ष जलकुण्ड में डालना चाहिये / यदि वह व्याकरण जलकुण्ड में से बिना भिगे बाहर निकले तो शुद्ध है, अन्यथा अशुद्ध है। यह सुनकर राजा का मन शंकित हो गया। अतः राजा ने अपने प्रधानों को और विद्वानों को व्याकरण की पुस्तक देकर काश्मीर देश में भेजे। उन्होंने वहां जाकर काश्मीर देश के राजा, प्रधान मण्डल और विद्वानों के समक्ष व्याकरण को जलकुण्ड में डाला। व्याकरण दो घड़ी तक कुण्ड में रहा। बाद सरस्वती के प्रभाव से और कलिकाल सर्वज्ञ भगवंत प्रणीत होने की वजह से अत्यन्त शुद्ध होने से बिल्कुल भिगे बिना जैसा था वैसा ही बाहर आया। अत: उस देश के राजा, प्रधान मण्डल, पंडित वर्ग और सब लोग विस्मित हो गये। [चित्र में श्रीसिद्धहेम व्याकरण जलकुण्ड में भिगे विना उपर आया हुआ दिखाई पड़ता है। बायीं ओर काश्मीर देश के राजा, प्रधान मण्डल और पंडित वर्ग वगैरह लोग तथा दाहिनी ओर सिद्धगज जयसिंह के प्रधान और पंडित लोग जलकुण्ड में भिगे बिना उपर आया हुआ व्याकरण का सविस्मय निरीक्षण करते हमालूम पड़ते हैं। बाद में सिद्धराज के प्रधान और पंडित स्वदेश में आकर राजा को सारा वृत्तान्त सुनाया। राजा की इस व्याकरण पर भक्ति और आस्था थी ही, यह वृतान्त सुनकर श्रीसिद्धहेम व्याकरण के प्रति उसकी श्रद्धा तथा भक्ति और बढ़ गई। अतः राजा ने तीन सौ लेखकों के पास तीन वर्ष तक इस व्याकरण की प्रतियां लिखाई और अध्ययन-अध्यापन के लिये अढार देशो में भेजी गई। राजा की आज्ञा से सर्व लोग इस व्याकरण को पढ़ने लगे और पढ़ाने लगे। मनोहर प्रिंटिंग प्रेस, ब्यावर