________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [म० 6 पा० 4 सू० 22-27 प्रब०-त्यागेन निवृत्तम। एवं रोगिमम् / 21 / प्रव०-विवधेन हरति=विवधिका इत्यपि / याचिता-ऽपमित्यात्कण // 6 / 4 / 22 // इकण ,-वैवधिको / विवध्यते दौस्थामनेन (?)'व्य अनाद् घम् ' (5 / 3 / 132), 'न जनवधः' (4 / 3 / 54) म० ०-तृतीयान्ताभ्यां याचित-अपमित्या- इति वृद्धयभावः, 'घञ्युपसर्ग.' ( 3 / 2 / 86 ) इति भ्यां निवृत्ते 'कण' स्यात् / याचितेन याञ्चया नि- दीर्घः, वीवध इति सिद्धम् / विवधवीवधशब्दौ वृत्तं-याचितकम् / 'अपमित्य प्रतिदानेन निर्वृत्तम् द्वावपि समानार्थों पथि पर्याहारे च वर्चते / राज्ञां . =आपमित्यकम् // 22 // महाकटके कोटी इति प्रसिद्धिः (?) // 25 // प्रव०-'मेड प्रतिदाने', अपमानमिति वा कुटिलिकाया अण् / / 6 / 4 / 26 // क्ये 'निमील्यादिमेङस्तुल्यकर्तृ के' (5 / 4 / 46) भ- म० वृ०-कुटिलिकाशब्दात् हरत्यर्थे 'अण्' नेन क्त्वा प्रत्ययः, क्त्वाया स्थाने यप् , 'मेलो वा | स्यात् / [ कुटिलिकया हरत्यङ्गारान=] कौटिलिकः मित्' (4 / 3 / 88) इति सूत्रेण मेहो विकल्पेन मित् 'कारः [लोहकारः], मृगो वा, कर्षको वा, [हाभादेशः, अपमित्य अपमाय वा प्रतिदानेन निवृत्त- लिकः] "तापसो वा, चौरश्च 5 // 26 // मापमित्यकम् // 22 // प्रव०-कुटिलमग्रमस्त्यस्या 'भतोऽनेक०' (.. हरत्युत्सङ्गादेः // 6 / 4 / 23 // 2 / 6) इति इकः / कुटिलिकाशब्दः पश्चार्थेषु वर्त्तते, म. वृ०-[तृतीयान्तेभ्यः] उत्सङ्गादिभ्यो हर- | तथाहि-अप्रभागे वक्रा लोहादिमयी अङ्गाराकर्षणी त्यर्थे 'इकण्' स्यात् / औत्सङ्गिकः // 23 // यष्टिः कुटिलिका उच्यते, कौटिलिकः कर्मारः 1 / रकुटिलागतिर्वा कुटिलिका, कुटिलिकया वक्रगत्या प्रव०-उत्सङ्ग, उत्रुप, उडुष, उडुप, उत्पुत, मृगो व्या देशान्तरं प्रापयति कौटिलिको मृगः 2 / उत्पुट, पिटक, पिटाक इति उत्सङ्गादिगणः / 'उ- / उपलालोत्क्षेपणोऽग्रे वक्रो दण्डः कुटिलिका, कुटिलित्सङ्गेन हरति // 23 // कया हरति पलालं कौटिलिकः कर्षकः 3 / तापसो. भनादेरिकट // 6 / 4 / 24 // पकरणविशेषो वा कुटिलिका, लोके आंकुटी इति रूढिः, कुटिलिकया हरति पुष्पाणिं कौटिलिकस्ताम. वृ०-[तृतीयान्तेभ्यः] भस्रादिभ्यो हर पसः 4 / “चौराणां नौगृहकोटाद्यारोहणार्थ दामाग्रत्यर्थे 'इकट्' स्यात् [भत्रया हरति=] भस्त्रिकः, भ प्रतिबद्ध आयसोऽर्धाङकुशो वा कुटिलिका, कुटिलिखिकी। [ भरटेन हरति= ] भरटिकः, भरटिकी कया हरति नावं कौटिलिकश्चौरः 5 / / 26 / / ||24|| ओजःसहोऽम्भसो वर्तते // 6 / 4 / 27 // प्रव०-भस्रा भरट, भरण, शीर्षभार, शीर्षे- म० वृ-तृतीयान्तेभ्यः] ओजस्-सहस् भभार, मङ्गभार, भङ्गेभार, अंसभार, अंसेभार इति म्भसभ्यो 'वर्त्ततेऽर्थे 'इकण' स्यात् / ओजसा बलेन भनादिगणः // 24 // वर्त्तते औजसिकः, साहसिकः, आम्भसिकः / 27 // विवध-वीवधाद्वा // 6 / 4 / 25 // प्रव०-'वृत्तिरात्मयापना आत्मनिर्वाहः चेष्टा - म. वृ०-विषधवीबधाभ्यां हरत्यर्थे 'इकट् वा' वा। सहसा प्रसहनेन, कोऽर्थः ! परेणापराजस्यात् / [टो व्यर्थः] / विषधिकः, वीवधिकः; पक्षे येन अथवा पराभिभवेन वर्तते / अम्भसा जलेन वधिकः // 25 // वर्त्तते // 27 //