________________ 164] श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनं [अ०: 5.0 1 सू० 33-39 मिति नब्पूर्वाद् वदेर्यः गद्देऽर्थे, अवयं पापम् , / घ्यण , अनभिधानात् , तथा च बहुलाधिकारः अवद्या हिंसा, गा इत्यर्थः / अनुद्यमन्यत् / यस्तु // 36 // भनूामिति पठति तत्र अनुवदनम् अनूत् , अनूदि साधुः (इति) 'तत्र साधौ' (7 / 1 / 15). यः / “पणेर्यो प्रव०-स्त्रियां हन , क्यप् , तोऽन्तश्च / एवं विक्रयेऽर्थे- पण्यम् , पण्यः कम्बलः, पण्या गौः, स्त्रीहत्या,भ्रूणहत्या, गौहत्या। तथा नपुंसके भवते. विक्रया इत्यर्थः / अन्यत्र पाण्यः साधुः // 32 // र्भावे क्यप् , (एवम् ) ब्रह्मभूयं (गतः), देवत्वं ब्रह्मत्वं . स्वामि-वैश्येयः // 5 // 1 // 33 // गत इत्यर्थः / एतदर्थमेव च बहुलाधिकारोऽ नुवर्तित इत्यर्थः // 36 // म० वृ०-अर्तेः स्वामिनि वैश्ये चार्थे 'यः' स्यात् / अर्यः स्वामी, अर्यो वैश्यः / / 33 / / अग्निचित्या // 5 // 1 // 37 // वह्यं करणे // 5 // 1 // 34 // म० वृ०-अग्नेः पराचिनोतेः स्त्रीभावे 'क्यप्' म० वृ०-बहे: करणे "यः' स्यात् / स्वयं / निपात्यते / अग्निचित्या / भग्नेश्चयनमिति वाक्यम् // 37 // शकटम् , वाह्यमन्यत् // 34 // खेयमृषोये // 5 // 1 // 38 // अव०-'यो निपात्यते / वहन्ति तेन इति वह्यम् // 34 // म० वृ०-अनुपसर्गान्नाम्न इति वचनं निवृनाम्नो वदः क्या च // 5 // 1 // 35 // त्तम् / खेयमृषोद्यौ 'क्यबन्तौ' निपात्येते / खेयम् , उत्खेयम् / मृषा उद्यते-मृषोद्यम् // 38 // म० वृ०-अनुपसर्गानाम्नः पराद्वदेः 'क्यप् यश्च प्रत्ययौ' भवतः / ब्रह्मणा उद्यते (इति) ब्रह्मो- प्रव०-'निपातनस्येविषयत्वात् / खन्यते घम् , ब्रह्मवद्यम् / नाम्न इति किम् ? वायम् / अनु (इति) खेयम् , उत्खन्यते (इति उत्खेयम् ) / खनेर्व्यपसर्गादित्येव- अनुवाद्यम् // 35 / / णोऽपवादः क्यप् , अन्त्यस्परादेरेकारश्च निपात्यते / प्रव०-'नाम्नो वदेति सूत्रे क्यप्फकारः तथा मृषापूर्वाद्वदतेः (पक्षे) ये प्राप्ते नित्यं क्यप् एव' विधीयते, न तु 'नान्नो वद'० इत्यनेन क्यपकित्कार्यार्थः, पकार उत्तरसूत्रे 'हत्याभूयं भावे' यप्रत्ययो / मृषोद्यम् , मृषावद्यम् / * तो न भावेति (5 / 1 / 36) इत्यत्र नकारस्थाने तोऽन्तो भवति इति कार्यार्थः // 35 // योऽवतीत्यर्थः // 38 // हत्या-भूयं भावे // 5 // 1 // 36 // कुप्य-भिद्योद्ध्य-सिध्य-तिष्य-पुष्य-युग्याम० वृ०-अनुपसर्गानाम्नः परौ 'हत्या, भूय' ऽऽज्य-सूर्य नाम्नि // 5 // 1 // 39 // इति शब्दी 'भावे क्यबन्तौ निपात्येते, तोऽन्ता- | म० वृ०-एते संज्ञायां 'क्यबन्ताः' निपात्यदेशश्च' / ब्रह्मणो वधः ब्रह्महत्या,' तथा 'देवभूयं / न्ते। 'कुप्यं धनम् , भिद्य उध्यो नद: सिध्यः, गतः। भाव इति किम् ? श्वघात्या वृषली / नाम्न | तिष्यः, पुष्यः,५ "युग्यं वाहनम् , आज्यं घृतम्, इत्येव,- हतिः, घातः , भव्यम् , हन्तेर्भावे न | सूर्यो रविः // 39 // ॐ वृत्तिस्थस्य 'देवभूयं गतः' इत्यस्य 'देवत्वं गतः' इति, अवचूरिस्थस्य 'ब्रह्मभूयं गतः' इत्यस्य / 'बह्मत्वं गतः' इत्यर्थः। * 'तो' इत्यादिपाठोऽशुद्धः /