________________ सिन्प्रत्ययस्य कित्त्वविधानम् ] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंवलितम् / [111 'एकधातौ कर्मक्रिययैका०' (3 / 4 / 86) इत्यनेन कर्म- | भयं सीताम् , नोपायंस्त दशाननः" // 40 // कर्तरि आत्मनेपदं भवति / आत्मनेपदसम्बन्धित इश्च स्था-दः // 4 / 3 / 41 // प्रत्यये सति 'स्वरदुहो वा' (3 / 4 / 90) इति सूत्रेण विकल्पेन बिच् , विकल्पत्वादत्र न बिच् , कर्म म०व०--स्थादासंज्ञकात्पर आत्मनेपदविषयः विवक्षायां सत्यां तु नित्यं घिच् प्राप्नोति // 36 // सिच् ‘किद्वत्' स्यात् , तद्योगे च स्थादोरन्तस्य इका रादेशः / उपास्थित, दाम् , व्यत्यदित, व्यत्यदिषातां गमो वा // 4 // 3 // 37 // वस्त्रे, देङ,-अदित पुत्रम् , डुदांगक् , अदित धनम् , ____ म० वृ०-गमेरात्मनेपदविषये सिजाशिषौ दोंच ,-व्यत्यदित दण्डौ, धे, व्यत्यधित स्तनौ, 'किद्वद्वा' स्याताम् / समगत, समगंस्त चैत्रः; संग- | डुधांग्क ,-अधित भारम् / स्थाद इति किम् ? सीष्ट, संगंसीष्ट // 37 // दांवक् दैव, व्यत्यदास्त ' // 41 // अव०-(एवम ) अगसाताम् , अगंसाताम् ग्रामौ अव०--व्यत्यदितेत्यत्र ‘क्रियाव्यतिहारेऽगतिचैत्रेण; गसीष्ट, गंसीष्ट चैत्रेण चैत्रः / (? ग्रामः)। | हिंसाशब्दार्थहसोहृवहश्चानन्योन्यार्थे' (3 / 3 / 23) समगतेत्यादौ 'समो गच्छ०' (2 / 3 / 84) इति / इत्यनेनात्मनेपदम् / (एवं) 'व्यत्यदासाताम् , व्यत्यआत्मनेपदम् // 37 // दासत // 41 // हनेः सिच / / 4 / 3 / 38 // मजोऽस्य वृद्धिः / / 4 / 3 / 42 // म० व०-हनेः पर आत्मनेपदविषयः सिच् म० वृ०--मृजेर्गणे सत्यकारस्य वृद्धिर्भवति' / 'किद्वत्' स्यात्। आहत,आहसाताम् , आहसत॥३८।। मार्टि, मार्टी, माष्टव्यम् ; मार्जिता, मार्जकः,संमायमः सूचने / / 4 / 3 / 39 // जनम् , ' सम्मार्गः / अत इति किम् ? मृज्यते, म०व०--सूचने वर्तमानाद् यमेः पर आत्म- | मृष्ठः 2 // 42 // नेपदविषयः सिच् 'किद्वत्' स्यात् / उदायत / सूचन इति किम् ? आयस्त कूपाद्रज्जुम् // 39|| अव०--१क्त ऽनिटश्चजोः कगौ घिति' (4 / 1 / 111) इति गत्वम् / एवं मरीमृज्यते, मृष्टवान् // 42 // अव०-उदायत, उदायसाताम् , उदायसत, अत्र __ ऋतः स्वरे वा // 4 / 3 / 43 // 'आडो यमहनः स्वेङ्गे च' (3 / 386) इत्यात्मनेपदम् / सकर्मकात् 'समुदाडो यमेरग्रन्थे' (3 / 3 / 98) - म० वृ०--मृजेः ऋकारस्य स्वरादौ प्रत्यये परे इत्यात्मनेपदम् / परदोषाविष्करणं सूचनमुच्यते / 'वृद्धिा' स्यात् / परिमार्जन्ति, परिमृजन्ति / ऋत 'उद्धृतवानित्यर्थः / / 39 // इति किम् ? 'ममार्ज, मार्जयति / स्वर इति किम् ? वा स्वीकृतौ // 4 // 3 // 40 // मृष्टः, मृष्ठः [थस् ] // 43 // म० वृ०-स्वीकारार्थाद् यमेरात्मनेपदविषयः अव०-परिमार्जन्तुः, परिमृजन्तु; पर्यमार्जन , सिच् 'किद्वद्वा' स्यात् / उपायत, उपायंस्त महा- पर्यमृजन ; परिममा तुः, परिममृजतुः; परिमार्जन , स्त्राणि / स्वीकृताविति किम् ? आयंस्तपाणिम् / / 40 // परिमृजन् इत्यपि ज्ञेयानि / 'ममार्ज,' अत्र गुणे कृते 'मृजोऽस्य वृद्धिः' (4 / 3 / 42) इत्यनेन नित्यं अव०-(एवम् ) उपायत, उपायंस्त कन्याम् ; 'यमः वृद्धिः, न त्वनेन विकल्पः // 43 // स्वीकारे' (3 / 3 / 59) इत्यात्मनेपदम् / उपायत उपायंस्त इत्युदाहरणविषये पूर्वकविप्रयोगाविमौ-"मोपयध्वं / सिचि परस्मै समानस्याङिति / / 4 / 3 / 44 //