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________________ [. उपोद्घात ] संयमनु लावण्य चमकारा मारी रप हतु. तेमनु / संयमथी अने विद्वत्ता भरी वाणीथी राजाने आकर्षी हेम समान देदीप्यमान अने चन्द्र समान लीधा. राजा तेमनी मेघ जेवी गम्भीर वाणीने युग कान्तिमान प्रसन्न वदन सौ कोईने आनंद आपतु युगना तृषातुर चातक पक्षीना जल पाननी जेम पी हतु. श्रावणनी जलभरी वादळी समान अने करुणा | रह्या हता. जलथी छलछलता तेमना नयनो जोतां ज जोनारन / मस्तक स्वतः झूकी जतु. तेमना परवाळा समान अमी अक वखतनी वात छे. सिद्धराज जयसिंहे झरता अधर, कमळदण्ड समान सरेख नाक.कंब जेबी मालवपति यशोवमोने जीतीने पाटणमा प्रवेश कर्यो. ग्रीवा, अने मृणालदण्ड जेवा पुरुषार्थ भर्या बाहु सर्वने | " आ वखते राजाने आशीर्वाद आपवा सर्वधर्मना अनुआर्षता हता. चन्द्र जेम शीतलताथी शोभेले तेस यायीओ अकत्रित थया हता. आ अवसरे आचार्य आ. श्रीहेमचन्द्रसूरिजी संयमथी शोभता हता. |. श्रीहेमचन्द्रसूरिजी पण पधार्या हता. तेमणे "भूमि कामगवि"; इत्यादि अर्थगम्भीर श्लोकथी राजाने आ समये हाथी उपर बेशीने स्वसवारी सहित आशीर्वाद आप्या. आ श्लोक सांभळी सिद्धराजना राजमार्ग उपर पसार थई रहेल गुर्जरनरेश सिद्धराज | हैयामां आनन्दनी अक भावना छलकी ऊठी. जयसिंहनी चोतरफ घूमती दृष्टि आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिजीने जोईने तेमनीउपर स्थिर थई गई. तेमनी | नूतन व्याकरणना निर्माण माटे विनंती आंखो कहेती, हती के आ जिन्दगीमां अनेक मनुष्यो| सिद्धराज जयसिंह अवन्तीना भंडारमाथी जोया,अनेक विद्वानो जोया,अनेक योगीओ जोया,अनेक | लावेला पुस्तकोनु निरीक्षण करी रह्या हता. निरीक्षण ब्रह्मचारीओ जोया, पण आवा नहि. आ कोई असाधा- | करतां करतां "सरस्वती कण्ठाभरण" नामन' पुस्तक रण मनुष्य छ, अनन्य विद्वान छे, योगी नहि किन्तु | दृष्टिपथमां आव्यु. राजा तेनी माहिती पूछतां योगिराज छ, परमब्रह्मचारी छे. जिंदगीमां प्रथमवार सेवको जणाव्यु के आ शब्दशास्त्र छे. आ शब्दप्राप्त थयेल आ रूप मने धराईने पीवा दे. आचार्यश्री शास्त्रनी रचना भोजराजा स्वयं करी छे. तेणे अन्य नजीक आव्या अटले सिद्धराज जयसिंहे पोताने कंईक पण शब्दालंकार वगेरे अनेक शास्त्रोन निर्माण कयु कहेवा माटे तेमने प्रार्थना करी. व्युत्पन्नमति | छे. राजा भोज जेम दानेश्वरी हतो, तेम महा विद्वान आचार्यश्री जणाव्यु के पण हतो. आ सांभळतां ज तेमना हृदयमा झणझणाट कारय प्रसरं सिद्ध ! हस्तिराजमशङ्कितम् / पेदा थयो. च्हेरा उपर श्याम रेखा उपसी आवी. मानस पट पर साहित्यन पारतन्त्र्य रमवा लाग्यु. तेमणे त्रस्यन्तु दिग्गजाः किं तैर्भू स्त्वयैवोद्धृता यतः॥ | त्यां उपस्थित थयेला विद्वानो तरफ प्रश्न भरी दृष्टि [सिद्धराज ! तारा गजने कशी शंका राख्या | नाखतां कह्यु के “शु आपणा देशमाआवा शब्दशास्त्रोन विना आगळ चलाव. दिग्गजो भलेने गभराई जाय, नव निर्माण करी शके तेवा विद्वानो नथी ? शु तेनो कोई भय नथी. कारण के पृथ्वीने तो तें ज | आ गुजरातदेश पराया शब्दशास्त्र उपर जीवीने सदाने धारण करी छे.] माटे परतन्त्रतानी जंजीरमां जकडायेलो ज रहेशे ? जे राज्य अन्यना साहित्य अने संस्कृतिन आश्रय ले आचार्यश्रीनी आ वाणीथी सिद्धराजना अन्तरमा | छे ते राज्य सत्ताथी स्वतंत्र होगा छतापरतन्त्र ज छे." प्रसन्नतानी दीपिका प्रगटी. तेमणे दररोज राजसभामा | राजाना आ वचनोथी वातावरण गम्भीर बनी गयु. आववा आचार्यश्रीने विनन्ती करी. आचार्यश्री | सौना मन शब्दशास्त्रने रचवामां समर्थ विद्वाननी दररोज राजसभामां जवा लाग्या. पोताना पवित्र | शोधमा खोवाई गया, आखरे सौनी दृष्टि आचार्ग 9 जुत्रो प्रभावकचरित पृष्ठ 300 श्लोक 72 तथा प्रबंधचिंतामणि, कुमारपालप्रबंध वगेरे.
SR No.004402
Book TitleMadhyam vrutti vachuribhyamlankrut Siddhahemshabdanushasan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshekharvijay
PublisherShrutgyan Amidhara Gyanmandir
Publication Year
Total Pages646
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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