Book Title: Meru Mandar Purana
Author(s): Vamanacharya, Deshbhushan Aacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुमन्दर पुराण आचार्य वामदेव विरचित हिन्दी टीका कार स्व. आचार्य देश भूषण जी महाराज प्रेरक - उपाध्याय श्री भरत सागर जी महाराज निर्देशिका - आर्यिका स्याद्वाद्मति माताजी Jain Educat प्रकाशक भारत वर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् temprary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। श्री वीतरागायनमः।। युग प्रमुख चरित्र शिरोमणी सन्मार्ग दिवाकर आचार्य श्री विमल सागर जी महाराज की हीरक जयन्ती के अवसर पर प्रकाशित पुष्य नं०४७ श्री वामनाचार्य विरचित् मेरु मंदर पुराण हिन्दी टीकाकार श्री आचार्यरत्न देशभूषण जी महाराज प्रेरक ज्ञान दिवाकर उपाध्याय श्री भरतसागर जी महाराज निर्देशिका श्री आर्यिका स्याद्वाद्मतिमाता जी अर्थ सहयोगी मुनिभक्त श्री चिरंजीलाल सुपुत्र श्री कमलचंद चिन्तामणी बज, जवाहरनगर, जयपुर (राजस्थान) 60000 200000 प्रकाशक भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्ध सम्पादक : - ब्र० श्री धर्मचंद शास्त्री प्रतिष्ठाचार्य, ज्योतिषाचार्य एवं ब्र० कु० प्रभापाटनी इन्दौर (म० प्र०) प्राप्ति स्थान : (१) आचार्य विमलसागर संघ प्रथम संस्करण- १००० IBS M 81-85836-01-9 (२) अनेकान्त सिद्धात समिति लोहारिया जि० बासबाड़ा ( राजस्थान ) (३) जैन मंदिर गुलाब वाटिका लोनी रोड दिल्ली वीर नि० सं० २५१८ सं० २०४६, सन् १६६२ प्रकाशन भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् मुद्रक : राधा प्रेस, गांधी नगर, दिल्ली - 31 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण युग-प्रमुख चारित्र शिरोमणि सन्मार्ग दिवाकर करूणा निधि वात्सल्य मूर्ति अतिशय योगीतीर्थोदारक चूडामणिअपाय विचय धर्मध्यान के ध्याता शान्ति-सुधामृत के दानी वर्तमान में धर्म-पतितों के उदारक ज्योति पुजपतितों के पालक तेजस्वी अमर पुञ्ज कल्याणकर्ता, दुःखों के हर्ता, समदृष्टा बीसवीं सदी के अमर सन्त परम तपस्वी, इस युग के महान साधक जिन भक्ति के अमर प्रेरणास्रोत पुण्य पुजगुरुदेव आचार्यवर्यश्री 108 श्रीविमलसागर जी महाराज के कर-कमलों में "ग्रन्थराज" समर्पित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुभ्यं नम: परम धर्म प्रभावकाय । तुभ्यं नम : परम तीर्थ सुवन्दकाय ।। स्यादवाद' सूक्ति सरणि प्रतिबोधकाय । तुभ्यं नम : विमल सिन्धु गुणार्णवाय ।। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमल सागर जी महाराज Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय श्री भरत सागर जी महाराज adaun studio Bondey 80. 10-56/6/45 www.jalnelibrary.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकल्प "णाणं पयासं" सम्यग्ज्ञान का प्रचार-प्रसार केवलज्ञान का बीज है। आज कलयुग में ज्ञान प्राप्ति की तो होड़ लगी है। पदवियाँ और उपाधियाँ जीवन का सर्वस्व बन चुकी हैं परन्तु सम्यग्ज्ञान की ओर मनुष्यों का लक्ष्य ही नहीं है। जीवन में मात्र लान नहीं, सम्यग्ज्ञान अपेक्षित है। आज तथाकथित अनेक विद्वान् अपनी मनगढन्त बातों की पुष्टि पूर्वोचार्यों की मोहर लगाकर कर रहे हैं ऊटपटांग लेखनियाँ सत्य की श्रेणी में स्थापित की जा रही है। कारण पूर्वाचार्य प्रणीत ग्रन्थ आज सहज सुलभ नहीं हैं और उनके प्रकाशन व पठन-पाठन की जैसी और जितनी रूचि अपेक्षित है, वैसी और उतनी दिखाई नहीं देती। असत्य को हटाने के लिए पर्चेबाजी करने या विशाल सभाओं में प्रस्ताव पारित करने मात्र से कार्यसिदि होना अशक्य है। सत्साहित्य का जितना अधिक प्रकाशन व पठन-पाठन प्रारम्भ होगा, असत् का पलायन होगा। अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए आज सत्साहित्य के प्रचुर प्रकाशन की महती आवश्यकता है: येनेते विदलन्ति वादिगिरय स्तुष्यन्ति वागीश्वस : भव्या येन विदन्ति नितिपदं मुञ्चन्ति मोहं बुधा :। यद् बन्धुमिनां यदक्षयसुखस्याधार भूतं मतं, तल्लोक जयशुदिदं जिनवचः पुष्याद् विवेकश्रियम्।। सन् १९८४ से मेरे मस्तिष्क मे यह योजना बन रही थी परन्तु तथ्य यह है कि "सकंल्प के बिना सिदि नहीं मिलती।" सन्मार्ग दिवाकर आचार्य १०८ श्री विमलसागरजी महाराज की हीरक-जयन्ती के मांगलिक अवसर पर माँ जिनवाणी की सेवा का यह संकल्प मैंने प.पू. गुरूदेव आचार्यश्री व उपाध्यायश्री के चरण-सानिध्य में लिया। आचार्य श्री व उपाध्यायश्री का मुझे भरपूर आशीर्वाद प्राप्त हुआ। फलतः इस कार्य में काफी हद तक सफलता मिली है। इस महान कार्य में विशेष सहयोगी पं. धर्मचन्द जी व प्रभाजी पाटनी रहे। इन्हें व प्रत्यक्ष-परोक्ष में कार्यरत सभी कार्यकर्ताओं के लिए मेरा आशीर्वाद है। पूज्य गुरूदेव के पावन चरण-कमलों में सिद्ध-श्रुत-आचार्य भक्तिपूर्वक नमोस्तुनमोस्तु-नमोस्तु सोनागिर, ११-७-९० -आर्यिका स्याद्वादमती Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। आशीर्वाद ।। विगत् कतिपय वर्षों से जैनागम को धूमिल करने वाला एक श्याम सितारा ऐसा चमक गया कि सत्यपर असत्य का आवरण आने लगा - एकान्तवाद - निश्चयाभास तूल पकड़ने लगा । आज के इस भौतिक युग में असत्य को अपना प्रभाव फैलाने में विशेष श्रम नहीं करना होता, यह कटु सत्य है, कारण जीव के मिथ्या संस्कार अनादिकाल से चले आ रहे हैं। विगत् ७०-८० वर्षों में एकान्तवाद ने जैनत्व का टीका लगा कर निश्चय नय की आड़ में स्याद्वाद को पीछे ढकेलने का प्रयास किया है। मिथ्या साहित्य का प्रसारप्रचार किया है। आचार्य कुन्दकुन्द की आड़ लेकर अपनी ख्याति चाही है और शास्त्रों में भावार्थ बदल दिए हैं, अर्थ का अनर्थ कर दिया है। बुधजनों ने अपनी क्षमता पर 'एकान्त' से लोहा लिया है पर वे अपनी ओर से जनता को अपेक्षित सत्साहित सुलभ नहीं करवा पाए । आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज का हीरक जयन्ती वर्ष हमारे लिए एक स्वर्णिम अवसर लेकर आया है। आर्थिका स्याद्वादमती माताजी ने आचार्य श्री एवं हमारे सान्निध्य में एक संकल्प लिया कि पूज्य आचार्य श्री की हीरक जयन्ती के अवसर पर आर्ष साहित्य का प्रचुर प्रकाशन हो और यह जन-जन को सुलभ हो । फलतः ७५ आर्ष ग्रन्थों के प्रकाशन का निश्चय किया गया है क्योंकि सत्यसूर्य के तेजस्वी होने पर असत्य अन्धकार स्वत: ही पलयन कर जाता है। आर्ष ग्रन्थों के प्रकाशन हेतु जिन भव्यात्माओं ने अपनी स्वीकृति दी है एवं प्रत्यक्षपरोक्षरूप में जिस किसी ने भी इस महदनुष्ठान में किसी भी प्रकार का सहयोग किया है, उन सबको हमारा आशीर्वाद है । - उपाध्याय भरतसागर ता. ११-७-१९९० Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार सम्प्रत्यस्ति ने केवली किल कलो त्रैलोक्यचूड़ामणिस्तद्वाचः परमासतेऽत्र भरतक्षेत्रे जगद्योतिका ।। सद्रत्नत्रयधारिणो यतिवरांस्तेषां समालम्बनं। तत्पूजा जिनवाचिपूजनमतः साक्षाज्जिनः पूजितः।। वर्तमान में इस कलिकाल में तीन लोक के पूज्य केवली भगवान इस भरतक्षेत्र में साक्षात् नहीं हैं तथापि समस्त भरतक्षेत्र में जगत्प्रकाशिनी केवली भगवान की वाणी मौजूद है तथा उस वाणी में आधारस्तम्भ श्रेष्ठ रत्नत्रयधारी मुनि भी हैं। इसीलिए उन मुनियों का पूजन तो साक्षात् केवली भगवान् का पूजन है। आर्ष परम्परा की रक्षा करते हुए आगम पथ पर चलना भव्यात्माओं का कर्तव्य है। तीर्थकर के द्वारा प्रत्यक्ष देखी गई, दिव्यध्वनि में प्रस्फुटित तथा गणधर द्वरा गुंथित वह महान आचार्यों द्वारा प्रसारित जिनवाणी की रक्षा प्रचार-प्रसार मार्ग प्रभावना नामक एक भावना तथा प्रभावना नामक सम्यग्दर्शन का अंग हैं। युगप्रमुख आचार्यश्री के हीरक जयंती वर्ष के उपलक्ष में हमें जिनवाणी के प्रसार के लिए एक अपूर्व अवसर प्राप्त हुआ। वर्तमान युग में आचार्यश्री ने समाज व देश के लिए अपना जो त्याग और दया का अनुदान दिया है वह भारत के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगा। ग्रन्थ प्रकाशनार्थ हमारे सान्निध्य या नेतृत्व प्रदाता पूज्य उपाध्यायजी भरतसागरजी महाराज व निदेशिका तथा जिन्होंने परिश्रम द्वारा ग्रन्थों की खोजकर विशेष सहयोग दिया, ऐसी पूज्या आ. स्याद्वादमती माताजी के लिए मेरा शत-शत नमोस्तुवंदामि अर्पण करती हूँ। साथ ही त्यागीवर्ग, जिन्होंने उचित निर्देशन दिया उनको शत-शत नमन करती हूँ। तथा ग्रन्थ के सम्पादक महोदय, ग्रन्थ के अनुवादकर्ता तथा ग्रन्थ प्रकाशनार्थ अनुमति प्रदाता ग्रन्थमाला एवं ग्रन्थ प्रकाशनार्थ अमूल्य निधि का सहयोग देने वाले द्रव्यदाता एवं ग्रन्थ प्रकाशनार्थ अमूल्य निधि का सहयोग देने वाले द्रव्यदाता का में आभारी हूं तथा यथासमय शुद्ध ग्रन्थ प्रकाशित करने वाले प्रेस के संचालक आदि की मैं आभारी हूँ। अन्त में प्रत्यक्षपरोक्ष में सभी सहयोगियों के लिए कृतज्ञता व्यक्त करते हुए सत्य जिनशासन की जिनागम की भविष्य में इसी प्रकार रक्षा करते रहें, ऐसी भावना करती हूँ। ब. प्रभा पाटनी संघस्थ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय इस परमाणु युग में मानव के अस्तित्व की ही नहीं अपितु प्राणिमात्र के अस्तित्व की सुरक्षा की समस्या है । इस समस्या का निदान 'अहिंसा' अमोघ अस्त्र से किया जा सकता है । अहिंसा जैनधर्म/संस्कृति की मूल बात्मा है । यही जिनवाणी का सार भी है। तीथंकरों के मुख से निकली वाणी को गणधरों ने ग्रहण किया और आचार्यों ने निबद्ध किया जो आज हमें जिनवाणी के रूप में प्राप्त है। इस जिनवाणी का प्रचार-प्रसार इस युग के लिए अत्यन्त उपयोगी है। यही कारण है कि हमारे आराध्य पूज्य आचार्य, उपाध्याय एवं साधुगण जिनवाणी के स्वाध्याय और प्रचार-प्रसार में लगे हुए हैं। __उन्हीं पूज्य आचार्यों में से एक हैं सन्मार्ग दिवाकर चारित्रचूड़ामणि परमपूज्य आचार्यवयं विमल सागर जी महाराज, जिनकी अमृतमयी वाणी प्राणिमात्र के लिए कल्याणकारी है। आचार्यवयं को हमेशा भावना रहती है कि आज के समय में प्राचीन आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रन्थों का प्रकाशन हो और मन्दिरों में स्वाध्याय हेतु रखे जाएं जिसे प्रत्येक श्रावक पढ़कर मोहरूपी अन्धकार को नष्ट कर ज्ञानज्योति जला सके। जैनधर्म की प्रभावना जिनवाणी का प्रचार-प्रसार सम्पूर्ण विश्व में हो, आर्ष परम्परा की रक्षा हो एवं अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर का शासन निरन्तर अबाधगति से चलता रहे। उक्त भावनाबों को ध्यान में रखकर परमपूज्य ज्ञानदिवाकर, वाणीभूषण उपाध्यायरल भरतसागर जी महाराज एवं आर्यिकारत्न स्याद्वादमती माता जी की प्रेरणा व निर्देशन में परम पूज्य आचार्य विमलसागर जी महाराज की 74वीं जन्म जयन्ती के अवसर पर 75वीं जन्म-जयन्ती के रूप में मनाने का संकल्प समाज के सम्मुख भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद ने लिया। इस अवसर पर 75 ग्रन्थों के प्रकाशन की योजना के साथ ही भारत के विभिन्न नगरों में 75 धार्मिक शिक्षण शिविरों का आयोजन किया जा रहा है और 75 पाठशालाओं की स्थापना भी की जा रही है। इस ज्ञान यज्ञ में पूर्ण सहयोग करने वाले 15 विद्वानों का सम्मान एवं 75 युवा विद्वानों को प्रवचन हेतु तैयार करना तथा 7775 युवा वर्ग से सप्तव्यसन का त्याग करना आदि योजनाएँ इस हीरक जयन्ती वर्ष में पूर्ण की जा रही हैं। सम्प्रति आचार्यवर्य पू० विमलसागर जी महाराज के प्रति देश एवं समाज अत्यन्त कृतज्ञता ज्ञापन करता हुआ उनके चरणों में शत-शत नमोऽस्तु करके दीर्घायु की कामना करता है। ग्रन्थों के प्रकाशन में जिनका अमूल्य निर्देशन एवं मार्गदर्शन मिला है, वे पूज्य उपाध्याय भरतसागर जी महाराज एवं माता स्याद्वादमती जी हैं । उनके लिए मेरा क्रमशः नमोऽस्तु एवं वन्दामि अर्पण है। उन विद्वानों का भी आभारी हूँ जिन्होंने ग्रन्थों के प्रकाशन में अनुवादक/सम्पादक एवं संशोधक के रूप में सहयोग दिया है। ग्रन्थों के प्रकाशन में जिन दाताओं ने अथं का सहयोग करके अपनी चंचलता लक्ष्मी का सदुपयोग करके पुण्यार्जन किया, उनको धन्यवाद ज्ञापित करता है। ये ग्रन्थ विभिन्न प्रेसों में प्रकाशित हए एतदर्थ उन प्रेस संचालकों को जिन्होंने बड़ी तत्परता से प्रकाशन का कार्य किया, धन्यवाद देता है। अन्त में उन सभी सहयोगियों का आभारी हैं जिन्होंने प्रत्यक्ष-परोक्ष में सहयोग प्रदान किया है। ७० पं० धर्मचन्द्र शास्त्री अध्यक्ष भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वतपरिषद Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विषय-सूची * १२७ १७५ २१३ १. प्रस्तावना २. अभिप्राय ३. कथासार ४. प्रथम अधिकार ५. द्वितीय अधिकार ६. ततीय अधिकार ७. चतुर्थ अधिकार ८. पंचम अधिकार ६. षष्ठम अधिकार १०. सप्तम अधिकार ११. अष्टम अधिकार १२. नवम अधिकार १३. दशम अधिकार १४. ग्यारहवां अधिकार १५. बारहवां अधिकार १६. तेरहवां अधिकार २४६ m 90. U or ४११ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना मेरु मंदर पुराण के कर्ता का नाम और समय यह ग्रन्थ मेरु मंदर पुराण श्री वामनमनि के द्वारा रचा गया है। इस ग्रंथ में जन्म-स्थान नाम आदि का परिचय उन्होंने स्वयं कुछ नहीं दिया है। प्रादि अगस्त्पर मुनि के शिष्य एक अन्य वामन मुनि हो गये हैं। और इनके शिष्य अन्य हैं । परन्तु इस ग्रंथ के कर्ता वामन मुनि अन्य मालूम पड़ते हैं। दूसरे एक वामनमुनि अलंकार शास्त्र आदि के रचयिता अन्य थे। दूसरे ग्रंथ में-एलाचार्य कंदकंद के नाम से वामन मनि उल्लेख पाया जाता है। इसलिये इस मेरु मंदर के रचयिता अन्य कोई वामन मूनि हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है । इस ग्रन्थ के कर्ता के रचित ग्रन्थ और इनकी रचना शैली के मनन करने से मालूम होता है कि ये संस्कृत के महान् प्रकाण्ड विद्वान् थे। ___ इस मेरु मंदर ग्रन्थ के पढने से मालूम होता है कि यह तामिलभाषा के भी महान् विद्वान् थे। मद्रास प्रांत में कांचीपुर नगर के समीप तिरुपरित कुन्ड्र नाम का एक गांव है। उसमें एक अच्छा पुराना जैन वृषभनाथ भगवान का मन्दिर है। इस मन्दिर में ग्रन्थकर्ता के चरण और चरित्र को शिलालेख में उत्कीर्ण किया गया है। परन्तु ठीक पढने में नहीं प्राता है। उस मन्दिर में कोरा नाम का एक वृक्ष है। उस वृक्ष के नीचे मल्लिषेण मुनि अपरनाम वामन मुनि तथा इनके शिष्य पुष्पसेन-इन दोनों की चरण पादुका वहां विराजमान है । उन चरणों के नीचे पत्थर में निम्न लिखित श्लोक लिखा हुआ है : श्रीमंत जगतामेकं मित्रसमन्वितम् । बंदेऽहं वामनाचार्ग मल्लिषेण-मुनीश्वरम् ।। इस श्लोक से वामन मुनि का अन्य नाम मल्लिषेण भी प्रतीत होता है। इन मल्लिषेण मुनिराज ने पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार, स्याद्वादमंजरी इन ग्रंथों का तामिलभाषा में अनुवाद किया है। इसके अतिरिक्त तामिलभाषा में जो नीलकेशी नाम का ग्रन्थ है, उसकी समयदिवाकर नाम की टीका लिखी है। वे यही वामन नि होने चाहिये । इससे मालूम पड़ता है कि ये वामन मुनि तामिलभाषा के तथा संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान् थे । तथा अपने समय में सर्वत्र काफी प्रसिद्ध थे। इन मल्लिषेण मूनि के लिए संस्कृत भाषा में विद्वान् होने के कारण 'उभयभाषात्मक कवि चक्रवर्ती' ऐसा विरुदावली में लिखा गया है । क्योंकि इन्होंने एक जगह ऐसा उद्धृत किया है कि मैं तामिल भाषा में एक ग्रन्थ की रचना करूंगा। इससे प्रतीत होता है कि इस ग्रन्थ की रचना के पहले कोई संस्कृत ग्रन्थ की रचना की होगी। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे एक शिलालेख में ऐसा लेख मिला है . श्री मल्लिषेण यति वामनमूरि शिष्य : भी पुष्पसेन मुनि पुंगव ....... इस प्रकार इस श्लोक से प्रतीत होता है कि मस्लिषेण और वामन मुनि ये दोनों ही एक मुनि के नाम हैं । उनके शिष्य पुष्पसेन मुनि हैं । इससे सब संदेह निवारण हो जाता है। ये दोनों कांचीपुर में आये होंगे । उनके दर्शन करते समय उनके चरण कमलों को भी वहां खुदवा दिया है। परन्तु उनके काल का निश्चय नहीं किया जा सकता है। वहां एक दीवाल पर पत्त्थर पर इतना ही लिखा है कि दुंदुभि नाम संवत्सर में कार्तिक पौरिणमा सोमवार महामंडलेश्वर हरिहर राजकुमार श्रीमत्पुष्कराज धर्म के लिये वैजप दंडनाथ पुत्र नोत्तम इन्होंने त्रैलोक्यवल्लभ ऐसे वृषभजिनेन्द्र की पूजा प्रक्षाल के लिए महामंडूर नाम का एक गांव प्रबंध के लिये समर्पण किया। उस महामंडूर से छत्र चामर आदि तथा अक्षतादि पूजा की सामग्री पाती थी। इस विषय में उस मन्दिर की दीवाल में एक श्लोक उत्कीर्ण है। श्रीमत् वैजपदंडनाथ-तनय संवत्सरे प्रभावे । संख्यावान् विरुकप्प दंडनृपति श्री पुष्पसेनाऽज्ञया । श्री कांची-जिनवर्षमान-निलयस्याने महा-मंडपम् । संगीतार्थमचोषीकरच्च शिलयावद्ध समंतात्स्थलं ।। . इस श्लोक से ऐसा मालूम होता है कि पुष्पसेन मुनि का शिष्य जिनभक्त होना चानिये ऐसा प्रतीत होता है। विजयनगर नाम के अधिपति राजा हरिहर थे। उनके मंत्री इरिगप्प दन्डनायक थे। उनके गुरु पुष्पसेन मुनि थे। उनके गुरु मल्लिषेण नाम के वामन मुनि थे। ये तीनों एक ही काल में थे ऐसा प्रतीत होता है। इस ग्रन्थ के कर्ता मल्लिषेरण वामनमुनि प्रगट प्रसिद्ध होते हैं। अन्दाज सात कम ६०० वर्ष आगे थे, ऐसा प्रतीत होता है। इस प्रकार इस ग्रन्थ के परिचय के बारे में जो हमें मालूम हुआ मो ही लिखा है। पूर्ण परिचय मालूम नहीं हो सका। यह ग्रन्थ तामिल लिपि में था । और इस ग्रन्थ का नाम मेरु मंदर ऐसा प्रसिद्ध था। इस भाषा का हमें परिचय नहीं था। परन्तु मन में इस ग्रन्थ का हिंदी भाषा में अनुवाद करने की प्रबल इच्छा बहुत दिनों से हो रही थी। परन्तु इस तामिल भाषा का Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय न होने के कारण इस ग्रन्थ का अनुवाद करने में हम असमर्थ रहे । परन्तु कतिपय दिन बाद हमें ऐसा संयोग मिला कि ब्रह्मचारी मारिणक्य नैनार संघ में सम्मिलित होकर अपने प्रात्म-कल्याण हेतु अनायास ही पधारे। तब हमने उन्हें क्षुल्लक दीक्षा देकर संघ में सम्मिलित कर लिया और उनका नाम इन्द्रभूषण रखा । तत्पश्चात् उनसे वामिल में बोलचाल अक्षराभ्यास सतत चालू रहा। - इससे हमें तामिल के अक्षर पढने का ज्ञान, बोलने की शक्ति साधारणतया प्राप्त हो गई । तत्पश्चात् इनके द्वारा कहे जाने वाले मेरु मंदर के अनुवाद कनडी मराठी और हिंदी भाषाओं में भाषांतर अनुवाद, मूलश्लोक का अर्थ भावार्थ जैसा था तदनुसार ही किया गया है । तामिल भाषा में अनभिज्ञ होने से यदि कोई किसी स्थान पर अशुद्धि रह गई हो तो तामिल भाषा के विद्वान् इसको संशोधन कर लेवें। इस ग्रन्थ के लिखने का प्रयास श्री मिलापचन्दजी गोवा बागायत वालों ने जो कि जयपुर के रहने वाले हैं निःशुल्क किया है । अतः हम उन्हें अपना हार्दिक धन्यवाद एवम् शुभाशीर्वाद देते हैं । अब इस ग्रन्थ का सार विषय लिखा जावेगा। -(प्रा.) देशभूषण Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिप्राय जैनाचार्यों की प्रशस्त भावना सदा ही रहती है। वे कभी किसी का बुरा नहीं चाहते हैं । अपने पर उपसर्ग करने वाले पर भी वे मन में समताभावों को धारण करते हैं । जगत में उनकी समता की कहीं उपमा नहीं है। वैर विरोध राग आदि कषायों का संबंध एक पक्ष से चलता है। कहीं दोनों तरफ से भी वैर चलता है। इन ही कषायों से संसार चल रहा है। जिससे सब ही जीव नरक प्रादि योनियों में कितनी ही बार जाकर वहां पाप पुण्य के फलों को भोगते हैं। कोई बिरले ही जीव संसार से वैराग्य को धारण कर प्रात्म-कल्यारण का पुरुषार्थ करते हैं। कोई जीव धर्म से अरुचि कर अपने द्वारा ही अपना अहित करता है। ऐसे जीवों की संख्या की कमी नहीं है। उनको संबोधन करके धर्म मार्ग में चलाने के लिये ही उपदेशक ग्रन्थ भी लिखे हैं। भव्य जीवों के कल्याणार्थ बहुत परिश्रम किया है। सदा से जिनवाणी चार अनुयोगों के रूप में विभक्त हो रही है । सब से पहले पुण्य पाप का निर्णय करने तथा संसार से वैराग्य उत्पन्न करने के लिये पुण्य पुरुषों की कथा के व्याख्यान रूप प्रथमानुयोग ग्रन्थ प्रथम पदवी में स्थित होने वालों के लिये बनाये गये हैं। दृष्टांतों के द्वारा मति विशद हो जाती है। इसलिये महान् प्राचार्यों ने परिश्रम करके सभी अनुयोगों के ग्रन्थों का भव्य जीवों के उपकार के लिये निर्माण किया है । अपने देश की भाषा से साधारण बुद्धिवाले जीव भी लाभ उठावें । क्योंकि संस्कृत प्राकृत भाषा तो अध्ययन करने से पाती है । अपनी लोकप्रिय भाषा में प्राचार्यों ने ग्रन्थ प्रस्तुत कर दिये हैं। परम्परा से प्राचार्य रचना करते आये हैं। जो आज तक हस्तलिखित ग्रन्थ जैन ग्रथ भण्डारों में विद्यमान हैं। मूल संघ की परम्परा तामिलदेश में सब से पाचीन है। अनेक प्राचार्यों ने अध्यात्म ग्रंथ भी निर्माण किये हैं। उसी परंपरा में श्री मल्लिषेण आचार्य अपर नाम वामन मुनि भी हो गये हैं। उन्होंने मेरु मंदर ग्रंथ की रचना की है । इस ग्रंथ में पाप पुण्य का फल अच्छी तरह दर्शाया गया है। तामिल देशवासी ही इसका मानंद ले सकते थे। श्री १०८ प्राचार्यरत्न देशभूषण महाराज ने इस ग्रंथ की उपादेयता पर ध्यान देकर इसको तामिल भाषा से कनडी भाषा में अनुवाद किया। फिर हिंदी में अनुवाद किया। श्री महाराज ने इस ग्रंथ को लिखने में गत पूरे जयपुर चातुर्मास का उपयोग किया है। मेरी यह कामना है कि इस ग्रंथ का स्वाध्याय कर सब ज्ञान पिपासु बंधु पूर्ण आत्महित का लाभ लेवें। इसके संशोधन में सहयोग मैंने भी दिया है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मेरु मंदर पुराण कथा का संक्षिप्त सार ॥ ग्रंथ परिचय प्रथम अध्याय का सार वैजयंत को मुक्ति दान इस जम्बूद्वीप के मध्य में विदेह क्षेत्र संबंधी गंधमालनी देश में वीतशोकपुर नाम का नगर था । उस नगर का राजा अत्यंत धार्मिक, शूरवीर तथा सभी शत्रु राजाओं के लिये यम के समान वैजयंत नाम का था । उस राजा की पटरानी का नाम सर्व श्री था। ये दोनों इन्द्रिय भोग व सुख से अपना काल व्यतीत करते थे । समय पर रानी को गर्भ रह् गया। नवमास पूर्ण हो जाने पर पुत्ररत्न का जन्म हुआ। उस पुत्र का नाम संजयंत रखा । कुछ समय पश्चात् दूसरे पुत्र का जन्म और हुआ। उसका नाम जयंत रखा । बडा होने पर प्रथम पुत्र संजयंत का विवाह संस्कार हो गया। तत्पश्चात् कई दिनों के बाद संजयंत के पुत्ररत्न उत्पन्न हो गया उसका नाम वैजयंत रखा गया। पौत्ररत्न के उत्पन्न होने से आनंदोत्सव मनाया गया और याचकों को अनेक प्रकार के इच्छा पूर्वक दान देकर उनको संतुष्ट किया । तब उसी समय अशोक नाम के उद्यान में भगवान स्वयंभू तीर्थंकर का समवसरण प्राया | उस उद्यान के वनपाल ने राजा को सूचना दी। राजा अपने पुरजन सहित समवसरण में गया और भगवान के तीन प्रदक्षिणा देकर रूपस्तव, वस्तुस्तव, गुरणस्तव तीन प्रकार से स्तुति की । तदनंतर भगवान की दिव्यध्वनि द्वारा जीव अजीव आदि सप्ततत्व, नव पदार्थ का स्वरूप समझा । जो भव्य जीव इन तत्त्वों पर पूर्णतया भक्तिपूर्वक श्रद्धान करता है, उसको सम्यक् दर्शन कहते हैं । उन तत्त्वों जो जानने को सम्यक्ज्ञान और तदनुसार प्राचरण करने को सम्यक् चारित्र कहते हैं। ये ही रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग हैं । इस प्रकार भगवान ने उपदेश दिया । राजा वैजयंत, संजयंत औौर जयंत ने इस उपदेश को सुना और वे तीनों संसार से विरक्त हो गये । उनने अपने पौत्र वैजयंत का राज्याभिषेक कर दिया और तीनों ने दिगम्बर जिनदीक्षा धारण की । दीक्षा के अनन्तर वे वैजयंत मुनि एकल विहारी होकर एक पर्वत की चोटी पर जाकर धर्मध्यान में लीन हुए, शुक्ल ध्यान का चिंतन किया और शुक्ल ध्यान के द्वारा घातिया कर्मों का नाश कर अहंत पद को प्राप्त किया और तत्काल केवल ज्ञान प्राप्त हो गया । तदनंतर धरणेंद्र अपने परिवार सहित पूजा के लिये आया । उस समय जयंत मुनि ने तपस्या करते समय इन धरणेंद्र को परिवार सहित पूजा करने के लिये प्राया देखकर Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण ६ 1 उन्होंने निदान बंध कर लिया कि मुझको भी इस तपश्चरण के फल से धरणेंद्र के समान फल मिले। कुछ समय बाद जयंत शरीर छोडकर धरणेंद्र हो गया। कुछ समय के पश्चात् वैजयंत केवली ने अघातिया कर्मों का नाश करके सिद्ध पद को प्राप्त किया । द्वितीय अध्याय संजयंत मुनि को मुक्ति वैजयंत मुनि को मोक्ष जाने के पश्चात् प्राये हुए धरणेंद्र आदि देव मोक्ष कल्याण की पूजा करके अपने २ स्थान को चले गये। उस समय संजयंत मुनि भी उस मोक्ष कल्याणक को पूजा आदि देखकर अरण्य में चले गये और ध्यान में निमग्न हो गये। जिस समय संजयंत मुनि ध्यान में मग्न ये उस समय मुनिराज के ऊपर से आकाश मार्ग से विद्य ुदंष्ट्र नाम का विद्याधर जा रहा था । मुनिराज के तप के प्रभाव से उस विद्याधर का विमान रुक गया। विमान को रुका देख कर वह नीचे प्राया और देखा कि संजयंत मुनि तपस्या कर रहे हैं । उन मुनि को देखकर वह अत्यंत क्रोधित हुआ । और उनको उठा कर लेजाकर विमान में बिठाया और विजयार्द्ध पर्वत के समीप में बहने वाली कुमुदवती, सुवर्णवती, हेमवती गजवती और चंडवेग इन पांचों नदियों के संगम के तटपर ऊपर से पटक दिया और अनेक प्रकार के उपसर्ग किये 1 मुनि समताभाव से विचार करने लगे कि यह मेरा पूर्वभव का उदय है। मुझे भोगना ही पडेगा । शत्रु मित्र प्रादि सभी में समता भाव रख कर ध्यान में ही मग्न रहे । उस विद्यद्दष्ट्र विद्याधर ने अपने नगर में आकर अन्य २ विद्याधरों से कहा कि अपने नगर में एक दुष्ट राक्षस ग्राया है। यदि यह यहां रहेगा तो हम सब को इस रात्रि में आकर खा जायेगा। इस कारण सब वहां चलो। ऐसा विश्वास दिलाकर विद्याधरों ने उन मुनिराज पर घोर उपसर्ग किया। उनने अनेक प्रकार के उपसर्ग सहन करते हुए धर्म ध्यान पूर्व घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञान प्राप्त किया। उस समय तीन प्रकार के देवों ने आकर पूजा की । तदनंतर ग्रघातिया कर्मों का नाश कर वे मुनि मोक्ष चले गये । तत्पश्चात् धरणेंद्र अनेक देवों सहित श्राया । यह धरणेंद्र जो पूर्व जन्म का जयंत नाम का भाई था, उसने ग्राकर मोक्ष कल्याणक की भक्तिपूर्वक पूजा स्तुति की। उस धरद्र ने वहां ग्रास पास में कई प्रकार के शस्त्र पत्थर आदि पड़े देख कर तथा विद्यद्दष्ट्र को सपरिवार पड़ा देख कर अवधिज्ञान से जान लिया कि यह उपसर्ग इस affair द्वारा किया गया है और उसको लात मारी। उसने क्रोधित होकर विद्य ुद्दष्ट्र को व अन्य विद्याधरों को नागपाश से बांध दिया। तब वे अन्य विद्याधर हाथ जोड़कर क्षमा मांगने लगे कि हमको मालूम नहीं था - -यह मुनि कौन हैं। हम इसके विश्वास पर यहां आगये । और आकर मुनिराज पर उपसर्ग किया हम को क्षमा कीजिये । तत्र धरणेंद्र को उन पर दया आ गई और अन्य विद्याधरों को छोड़ दिया, और यह कहा कि विद्यद्दष्ट्र Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण तथा इनके पुत्र परिवार को समुद्र में डालूगा। उस समय प्रादित्य नाम का देव लांतव कल्प से परिनिर्वाण पूजन करने आगया और धरणेंद्र को कोधित तथा विद्या दृष्ट को नागपाश में बंधा देखकर धरणोंद्र को दयाभाव का उपदेश देना प्रारम्भ किया कि हे धरणद्र तुम सज्जनोत्तम धरणेंद्र हो, यह नीच लोग हैं। इन पर -- इतना क्रोध करना ठीक नहीं, इन पर दया करो। इस सम्बन्ध में कुछ कहता हूं सुनो। पूर्वकाल में जब वृषभनाथ भगवान तपस्या कर रहे थे, उस समय नमि और विनमि दोनों राजपुत्र आदिनाथ भगवान के पास प्राकर कुछ मांग रहे थे कि हे भगवन् प्रापने सब का बटवारा कर दिया, हम उस समय मौजद नहीं थे। अब हम को भी हमारा हिस्सा दीजिये । इस प्रकार कहते हए संगीत रूप में गाने लगे। तब धरणद्र ने अवधिज्ञान से जाना कि ये दोनों भगवान पर उपसर्ग कर रहे हैं। उस धरणेंद्र ने भगवान के पास जाकर कान के समीप मुह लगाया और उन नमि विनमि से कहा कि भगवान ने मुझ को कान में कह दिया है मेरे साथ चलो। तदनंतर वह धरणेंद्र उनको ल गया और विनमि को विजयाद्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में साठ नगरियों का अधिपति बना दिया और कनकपल्लव नाम की नगरी को राजधानी बना दिया। और दक्षिण श्रेणी को पचास नगरियों का अधिपति नमि को बनादिया और रथनपुर चक्रवाल नगर को राजधानी बना दिया। उन दोनों विनमि और नमि को पांचसौ महा विद्या और सात सौ क्षुल्लक विद्या देकर सब द्याधरों को बुलाकर कह दिया कि आगे से इनकी आज्ञा का पालन करो। ऐसा कह कर वह धरणेंद्र अपने स्थान चला गया। और यह भी बिनमि से कहा कि यह विद्यु दंष्ट्र तुम्हारे ही पूर्ववंश का विद्याधर है । इसलिये उसको नष्ट करना ठीक नहीं है। इसलिए तुम इन पर क्रोध करना छोड दो। .. इस बात को सुनकर धरणेंद्र ने कहा कि कर्म रूपो शत्रु को नाश कर मुक्ति गया वह संजयंत पूर्वजन्म का मेरा भाई है । उस पर इसने उपसर्ग किया है। मैं इसको नहीं छोडूगा । तदनन्तर आदित्याभ देव कहने लगा कि यह संजयंत तुम्हारा एक ही जन्म का भाई था और दूसरे भवों में न मालम तुम्हारा यह कौन था। तम इन पर कषाय व क्रोध मत करो और कर्म का बंध करना ठीक नहीं है। यदि विचार किया जाय तो संसार में शत्रु मित्र कोई नहीं है, सभी समान हैं । व्यवहार में शत्रु है और मित्र है। निश्चय से इस आत्मा का कोई शत्रु व मित्र नहीं है। इसलिए ज्ञानी सज्जन लोग राग द्वेष नहीं करते हैं। एक जन्म में हुए उपसर्ग को देखकर तुम इतना क्रोध करते हो तो पहले भव में उसने कितने भवों में इसको दुःख व कष्ट दिये होंगे। उस समय तुमने क्या किया ? यह विद्य द्दष्ट्र पूर्व भवों में राजा सिंहसेन महाराज का सत्यघोष नाम का मंत्री था। राजा ने उस मंत्री के मायाचार करते समय कुछ दण्ड दिया था। उस वैर विरोध के कारण क्रोधित ग्राज तक जन्म २ उपसर्ग करता पाया है। इन महामनि ने शांत स्वभाव से उपसर्ग सहकर सद्गति प्राप्त की। और अन्त में मोक्ष पद को प्रास किया। और विद्याधरों ने उपसर्ग करके पाप व अपकीर्ति प्राप्त की। इस कारण क्रोध तथा क्षमा का फल अापने भली भांति देख लिया। इसको अपने हृदय में धारण करो। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण तदनंतर धरणेंद्र प्रादित्याभ को देखकर कहने लगा कि इस मुनि को विद्य ुद्दष्ट्र ने किस २ भव में क्या २ उपसर्ग व कष्ट दिए हैं-वे मुझे समझा दीजिये । तदनंतर प्रादित्याभ देव धरणेंद्र से कहने लगा कि सुनो ! तुम क्रोध को शांत करो और भगवान को नमस्कार करके मेरे पास श्रावो, तुम्हें सब वृत्तांत कहूंगा । 1 तदनंतर इस बात को सुनकर धरणेंद्र भगवान को नमस्कार करके आदित्याभ देव के पास आकर खड़ा हो गया । तब श्रादित्याभ देव कहने लगा कि मुक्ति को प्राप्त हुए, यह संजयंत मुनि, आप, मैं और विद्यद्दंष्ट्र इन सब की पूर्वभव से आज तक की कथा सुनाता हूं। तुम ध्यान देकर सुनो। तृतीय प्रध्याय भद्रमित्र का धर्मश्रवरण इस भरतखंड में सिंहपुर नाम का नगर है । उस नगर के राजा सिंहसेन थे । उनकी पटरानी रामदत्ता देवी थी। उनका सत्यघोष अपर नाम शिवभूति नाम का मंत्री था । वह राजा धर्मनीति द्वारा प्रजावात्सल्य पूर्वक राज्य करता था । उसी नगर के अंतर्गत पद्मशंख नाम का नगर था। वहां एक सुदत्त नाम का वैश्य था । उनकी स्त्री का नाम सुमित्रा था। सुमित्रा की कूख से भद्रमित्र नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ । भद्रमित्र के यौवनास्था प्राप्त होने पर उसका विवाह कर दिया गया। बड़ा होने पर व्यापार में कुशल व्यापारी होकर वह रत्नद्वीप में गया और वहां पर रत्नों और मोतियों का खूब संग्रह किया और कई दिनों बाद वापस लौटकर बहुत द्रव्य संग्रह करके वापस सिंहपुर नगर में आया । उस भद्रमित्र ने सिंहपुर में आकर देखा कि यहां के सारे व्यापारी लोग सज्जन हैं। यहां कोई अन्यायी नहीं मालूम होते, सभी धार्मिक लोग हैं । शहर भी सुन्दर है। ऐसा विचार करके वहीं व्यापार करने का निश्चय किया और सोचा कि हमारे सारे रत्नों को एक विश्वासी व्यक्ति के पास रख देना चाहिये और अपने नगर में वापस जाकर अपने कुटुम्ब को लाना चाहिये । यह विचार करके अपने रत्नों की पेटी वहां के सत्यघोष मंत्री के पास लेकर गया और प्रथम भेंट में एक रत्न उस मन्त्री को दिया । वणिक ने एकांत में बुलाकर उस मन्त्री से कहा कि यह रत्नों की पेटी मैं प्राप के पास रख जाता हूं। मैं अपने कुटुम्ब को पद्मशंख नगर जाकर लेकर आता हूँ। फिर यह मेरे रत्न वापस ले लूगा । तब मन्त्री ने कहा कि तुम इन रत्नों को मुझे एकांत में लाकर जब कोई भी न हो उस समय लाकर देना, इनको सब के सामने रखना कठिन है। तदनुसार भद्रमित्र वरिणक ने स्वीकार कर लिया । तब जैसा मंत्री ने कहा था, एकांत में उन रत्नों की पेटी वरिणक ने मन्त्री को दे दी और अपने नगर पद्मशंख में जाकर अपने कुटुम्ब परिवार को सिंहपुर में ले आया और एक महल में उनको ठहरा दिया। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेव मंदर पुराण तत्पश्चात् वह वणिक अपने रत्नों को वापस लेने के लिए सत्यघोप मंत्री के पास गया । वणिक को देखते ही मन्त्री के मन में ऐसी दुर्भावना उत्पन्न हुई कि इसको रत्न वापस नहीं देना चाहिये । व्यापारी ने नमस्कार किया। उसे देखकर मंत्री कहने लगा कि तुम कौन हो, कहां से आए हो, क्यों आये हो ? ऐसा पूछने पर भद्रमित्र ने उत्तर दिया कि मैं वही भद्रमित्र व्यापारी हं जो रत्नों की पेटी आपको देकर गया था। इस प्रकार सुन कर वह मंत्री कहने लगा-क्या तुमने मेरे पास रत्नों की पेटी रखी थी? भद्रमित्र ने कहा-आपका नाम सत्य घोष है, क्या चार दिन में रखी हुई पेटी को भूल गये? तब वह मंत्री कहने लगा कि क्या तू बावला है। मैंने तुमको कभी देखा ही नहीं। पागलपन की बात करते हो। यदि तुमने मुझे रत्नों की पेटी दी थी तो किमके मामने दी थी, उसकी साक्षी कराग्रो। इस प्रकार मंत्री ने कहा। तब वह भद्रमित्र कहने लगा कि मैंने आपको रत्न देने के बाद आज ही देखा है। और आपने भी प्राज ही देखा है। केवल चार दिन में ही पार भूल गये । अापने यह कहा था कि गुप्तरूप से जब कोई भी न हो उस समय लाकर रत्नों की पेटी देना । क्या आप इस बात को भूल गये ? और यह भी आपने उस समय कहा था कि चोरी करना, दूसरे की सम्पत्ति का अपहरण करना महा पाप है। मेरे रत्नों का आपने ही तो अपहरण किया और मुझे उलटा पाप चोर और पागल बताते हैं, ऐसा भद्रमित्र ने कहा । तब सत्यघोष को क्रोध उत्पन्न हो गया और उसने अपने कर्मचारी को प्राजा दी कि यह पामल है. इसको मार पीट कर बाहर निकाल दो। तत्पश्चात् वह भद्रमित्र अनेक प्रकार से दुखी होकर गलो २ में पुकारने लगा कि सत्यघोष ने मेरे रत्नों की पेटी ले ली। यह राजा का मंत्री है । ब्राह्मण है. कुलवान है। अब यह मेरे रत्नों की पेटी वापर नहीं देता है और कहता है कि बावला है और मुझे मार कर निकाल दिया। ऐसा पुकारता रहता था। तब सत्यघोष ने वहां के दुष्ट लोगों से कहा कि इस भद्रमित्र की सारी सम्पत्ति लूट लो और शहर के बाहर इसको निकाल दो। तदनुसार ऐसा हो वहां के दुष्टों ने किया। __ भद्रमित्र पुकारने लगा कि पहले ही मेरे रत्नों की पेटी ले लो, बाद में गुण्डे लोगों के द्वारा मेरी सम्पत्ति लूटली और मुझे नगर के बाहर निकाल दिया। क्या मेरा न्याय करने वाला इस नगर में कोई नहीं है ? क्या राजा भो न्याय नहीं करेगा? ऐसा कहता हुआ गली २ में घूमता रहता था। इस प्रकार की बातें राजा के कान में पड़ी तो मंत्री को बुलाकर राजा ने पूछा कि यह वणिक क्या बोल रहा है ? सत्यघोष ने उत्तर दिया कि यह तो पागल है. ऐसे हो पूकारता रहता है। इसकी बात पर कोई ध्यान न देवें। मैं तो खुद लोगों को यह कहता हूं कि चोरी अन्याय पाप वगैरह नहीं करना चाहिये. तो मैं स्वयं ऐसा काम करूंगा? उस भद्रमित्र ने कोई रत्न मुझे नहीं दिया, वह भूठा और पागल आदमी है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] मेह मंदर पुराण ____ इस बात को सिंहसेन राजा ने झूठ मानकर कोई विचार नहीं किया। तदनन्तर वह भद्रमित्र प्रतिदिन यही कहता रहा कि जिस प्रकार एक बहेलिया चिडिया को पकड़ने के लिये अपनी बगल में शस्त्र छिपाकर रखता है कि किसी को मालूम न पड़े और जब चिडिया को देखता है तो तुरत ही उस शस्त्र को बगल में से निकाल कर उसको पकड़ लेता है, इस प्रकार यह मंत्री है । वह रास्ते में दुखी होकर रोते २ ऐसा पुकारता फिरता था। पुनः उस मंत्री ने अपने कर्मचारियों को बुलाकर कहा कि इस भद्रमित्र वणिक को मारपीट कर इस नगर से बाहर कर दो। तदनुसार उसको मारपीट कर बाहर निकाल दिया। तब वह भद्रमित्र घबड़ा कर रात्रि के समय नगर के समीप एक वृक्ष था उस पर चढ़ गया और प्रातः सूर्योदय होते ही उन्हीं पिछली बातों को दुहराने लगा। इस मंशा से कि यह शब्द राजा के कान में पहुँच जाय। राजा ने वह बातें सुन ली और कहने लगा कि यह तो पागल है ऐसे पुकारता है । मन्त्री जो बात कहता है वह सत्य है। . . उस सिंहसेन राजा की पटरानी रामदत्ता देवी ने विचार किया कि यह आदमी रोज एक ही बात को बोलता रहता है दूसरी कोई बात ही नहीं बोलता, यदि पागल होता तो और २ बातें भी कहता, रत्नों की बात हो क्यों करता है । वास्तव में यह पागल नहीं मालूम होता है । इसकी खोज करना चाहिये । कदाचित् यह बात सत्य भी हो सकती है। इस कारण उस व्यक्ति को बुला कर पूछना चाहिए, ऐसा विचार किया । एक दिन रानी ने भद्रमित्र को बुलाकर सारी बातें पूदी, और सारा हाल जानकर जवाब दिया कि तुम चले जाप्रो और जो शब्द तुम गेज रटते रहते हो वही पुकारते रहो। तत्पश्चात् रामदत्ता रानी ने एक दिन सिंहसेन महाराज के पास जाकर उपरोक्त सारा हाल कहते हुए कहा कि इस भद्रमित्र की बातों पर विचार करना चाहिए। इस पर सिंहसेन राजा ने जवाब दिया कि यह तो पागल है, ऐसे ही पुकारता है। इस पर रानी ने कहा कि इस पर कुछ निर्णय करना चाहिये । राजा ने रामदत्ता रानी से कहा कि इस पर तुम खुद ही विचार करो। रानी ने उत्तर दिया कि यदि आप आज्ञा देवें तो मै इसकी यथार्थ जांच पड़ताल करूं। मुझ में ऐसी शक्ति है। यदि आप प्राज्ञा देवें तो मैं मन्त्री के साथ जुमा खेलू और आप मेरे समीप में बैठे रहें । तब राजा ने प्राज्ञा दी कि जैसी आप की इच्छा हो वही करें। तदनंतर राजा ने सत्यघोष मन्त्री को बुलवाया। मन्त्री के आने पर रानी न उन के साथ कुछ हास्य विनोद की बातें की और राजा से कहा कि आप अपने मन्त्री की धू तक्रीड़ा की प्रशंसा करते हो । मैं ऐसा कहती हूँ कि मेरे समान ध तक्रीड़ा खेलने वाला संसार में कोई नहीं है। तब राजा ने कहा कि स्त्रियां ऐसा सोचती हैं कि जैसी क्रीड़ा करने में हमारी सामर्थ्य है वैसी पुरुषों में नहीं है। क्या मंत्रीजी! द्य तक्रीड़ा में सामर्थ्य नहीं रखते Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण हो? तब मन्त्री ने जवाब दिया कि मैं रानीजी को एक ही दाव में जुया में जीत लूगा । इस बात को सुन कर रानी ने कहा कि प्रथम दाव में ही मैं इन से जीत लूगी। ऐसी मेरी शक्ति है। दोनों की बातें सुनकर राजा हंस कर चुप चाप बैठ गया। __ तदनंतर रामदत्तादेवी और सत्यघोष मन्त्री दोनों जुग्रा खेलने लगे। प्रथम दाव में ही महारानी ने उस मन्त्री की यज्ञोपवीत जीत ली। दूसरे दाव में उसकी नामांकित मुद्रिका को जीत लिया। तब मन्त्री दोनों दाव में हार कर दीर्घ श्वास लेता हुआ लज्जित होकर जुआ खेलना छोडने लगा। तत्पश्चात् रामदत्ता देवी ने अन्दर जाकर अपनी चतुर निपुणमति नाम की दासी को एकांत में बुलाकर कहा कि तुम मंत्री के महल पर जाकर इस यज्ञोपवीत व मुद्रिकां को उसके भण्डारी को जाकर बता देना और कहना कि वह रत्नों की पेटी मंत्रीजी ने मंगवाई है । तब उस दासी ने मंत्री के महल पर जाकर भण्डारी को जाकर वह यज्ञोपवीत और नामांकित मुद्रिका जाकर दिखाई और कहा कि भद्रमित्र की रत्नों की जो पेटी रखी हुई है वह मुझे शीघ्र दे दो, मंत्री जी ने मंगवाई है । और उसकी निशानी दी है । किसी को भी पता न लगे मुझे तुरन्त ही रत्नों की पेटी दे दो। तब उस भण्डारी ने मुद्रिका आदि को देखकर विश्वास करके रत्नों की पेटी उस दासी को दे दी। तत्पश्चात् उस निपुणमति ने रत्नों की पेटी लेकर वापस जाकर महारानी को दे दी और सारा बीता हुअा हाल सुना दिया। रामदत्ता देवी दासी पर अत्यंत प्रसन्न हुई और राजा के पास जाकर रत्नों की पेटी उनको दे दी। तब सिंहसेन राजा उस मन्त्री के प्रति क्रोधित होकर कहा कि यह महान कपटी व मायाचारी है। और उस.मंत्री को घर जाने की आज्ञा दे दी। राजा ने विचारा कि रत्नों की परीक्षा करना चाहिये और एक थाल मंगा कर पेटी के रत्न तथा उसमें और बढिया २ रत्न मिलाकर उस में रख दिए । और भद्रमित्र को बुलाकर कहा कि इन रत्नों में तुम्हारे कौन से रत्न हैं। वह निकाल लो । भद्रमित्र ने उन रत्नों में से अपने जो रत्न थे वह छांट कर निकाल लिये । तब राजा ने कहा कि सत्यघोष ने तुम्हारे रत्न लिये थे इसलिए इन रत्नों में जो रत्न सत्यघोष के हैं, तुम उनको भी ले लो तो भद्रमित्र ने जवाब दिया कि मुझे औरों के रत्न नहीं लेना है। मैं तो अपने ही रत्न ले रहा हूं । यदि सत्यघोष के रत्न मेरे पास आ जाय तो मुझे पाप लगेगा और नरक में जाना पडेगा और हमारे वंश का नाश हो जायगा। हमे औरों के रत्न नहीं चाहिये। मेरे पूर्व जन्म का अशुभ कर्म का उदय था। इस कारण इतने दिन तक मुझे कष्ट सहना पड़ा, अब आगे के लिये मुझे उसके प्रति कुछ करना नहीं। भद्रमित्र की यह बातें सुनकर सिंहसेन महाराज ने उसकी महान प्रशंसा की और उसको राज्यश्रेष्ठी का पद दे दिया। तत्पश्चात् राजा ने उस सत्यघोष को बुलाकर पूछा कि यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार की मायाचारी या चोरी करे तो उसको क्या दण्ड दिया जाना चाहिये ? तब मंत्री Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मदर पुराण ने कहा कि ऐसे मायाचारी चोर को एक थाली भरकर गोबर खिलाना चाहिए । अथवा दस पहलवानों को बुलाकर मुक्का घूसा लगवाना चाहिए। और उसकी सारी सम्पत्ति लेकर नगर से बाहर निकाल देना चाहिए। यह सुनकर सिंहसेन महाराज ने अपने कर्मचारियों को बुलाकर जैसा सत्यघोष ने कहा उसी प्रकार उन्हीं को दण्ड दिया और उनके सारे कुटुम्ब परिवार वालों की सारी सम्पत्ति छीन ली और नगर के बाहर निकाल दिया। इसी प्रकार सत्यघोष मन्त्री भद्रमित्र के रत्नों के अपहरण करने के कारण कुछ समय के लिए पागल हो गया । और तदनंतर राजा के प्रति अनंतानुबंधी निदान करके यह विचारा कि इसका बदला मैं राजा सिंहसेन से लूगा । और वह प्रार्तध्यान से मरकर राजा सिंहसेन के खजाने में आगंध नाम का विषधर सर्प हो गया। समय पाकर सत्यघोष मन्त्री के स्थान पर धर्मिला नाम के ब्राह्मण को मंत्री पद दिया गया। तत्पश्चात वह भद्रमित्र वणिक घमता २ एक बार विमल गांधार पर्व चला गया तो वहां देखा कि वरधर्म नाम के मुनिराज वहां तप कर रहे थे। उनका धर्मोपदेश सुना। चतुर्थ अध्याय तदनंतर वह भद्रमित्र अपने घर आया और चार प्रकार के दान प्रादि वह देने लगा। तब उसकी माता सुमित्रा ने कहा कि तुम इस प्रकार यदि दान देकर सम्पत्ति खर्च कर दोगे तो एक दिन सभी धन खत्म हो जावेगा। तब भद्रमित्र ने माता की बात नहीं मानी और वह बराबर दान देता रहा । इसको दान देता देखकर वह सुमित्रा प्रातरौद्र ध्यान करने लगी और वह मर गई । और अतिंग वन में ब्याघ्री उत्पन्न हुई। __ एक दिन वह भद्रमित्र उस अतिंग वन में चला गया। वहां वह व्याघ्री तीन रोज से भूखी बैठी थी, तो तत्काल उस भद्रमित्र को देखते ही पूर्वभव के बैर के कारण उसपर झपटी और मारकर खा गई। भद्रमित्र शुद्ध परिणामों के कारण मर कर भोगभूमि में गया और वहां से आयु पूर्ण करके पूर्वभव के स्नेह के कारण रामदत्तादेवी के गर्भ में पाया और पुत्ररत्न के रूप में उत्पन्न हुआ। उस पुत्र का नाम सिंहचन्द्र रखा गया। क्रम से वृद्धि को प्राप्त होने पर वह एक जैन उपाध्याय के पास भेजा गया। वहां धर्म व अनेक शास्त्र-शस्त्र कला आदि में निपुरण होकर घर आया और यौवनावस्था प्राप्त होने पर उसका विवाह हो गया। तदनंतर उस रामदत्ता के एक दूसरा पुत्र और उत्पन्न हुआ । उसका नाम पूर्णचंद रखा गया । एक दिन सिंहसेन महाराज अपने खजाने में चले गये। जाते ही वह अगधनाम Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण का जो सर्प बैठा हुआ था। उसने पूर्वभव के बैर के कारण महाराज को काट दाया और राजा सिंहसेन मूच्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। तब रामदत्ता देवी व उनके दोनों पुत्र वहां आये और देखकर मूच्छित हो गये । उस समय एक प्रसिद्ध मंत्रवादी गारुडी को बुलाया गया। उसने मंत्रों के द्वारा विष उतारना चाहा पर विष उतरा नहीं तो उसने एक हवन कुंड बनवाया और मारे सों को बुलाकर कहा कि इस राजा को किसने काटा है। तुम सब सर्प इस हवन कुर में कूद जाओ। यदि तुम सच्चे हो तो इसमें नहीं जलोगे। तत्काल वे सर्प कूद गये और वे उसमें नहीं जले किन्तु वह विषधर सर्प वहां से नहीं आया। तब उसको बुलाकर कहा कि तुम इस हवन कुंड में कूद जाओ। वह कूद गया और तत्काल जलकर राख हो गया। और वह मरकर काल नाम के वन में चमरी मृग हो गया । और सिंहसेन भर कर सल्लकी नाम के वन में अश्वनी कोड नाम का हाथी हो गया। तदनंदर राजा सिंहसेन के मरने के बाद उनकी पटरानी रामदत्ता देवी प्राण देने को तैयार हुई । वहां रहने वाले सत्पुरुषों ने धर्म का उपदेश देते हुए संसार की अस्थिरता बताकर धर्म में रुचि उत्पन्न कराई । तब उस महारानी ने कई दिनों के पश्चात् एक दिन अपने दोनों पुत्रों को बुलाया और बड़े पुत्र सिंहचंद्र का राज्याभिषेक कराया। और छोटे पुत्र पूर्णचंद्र को युवराज पद दिया। तदनंतर दोनों पुत्र धर्मनीति तथा न्यायनीति से राज्य को चलाने लगे। राजा सिंहसेन के मरण के समाचार सुनकर शांतिमती और हिरण्यवती नाम की दो प्रायिकाएं रामदत्ता देवी के पास आई। उन दोनों को देखते ही महारानी अत्यन्त शोक करने लगी। उन दोनों प्रायिकाओं ने रामदत्ता देवी को समझाया कि यह संमार असार है । मोह की महिमा है। जहां जन्म है। वहां मरण है अतः तुम शोक करना छोड़ दो। इससे तिर्यंच गति का बंध होता है। यथाशक्ति आप व्रत धारण करके स्त्रीपर्याय को सार्थक करो। यही आपके लिये योग्य है । उस रामदत्ता देवी ने इन प्रायिकानों से धर्मोपदेश सुनकर वैराग्य भावना में लीन होकर जिन दीक्षा लेने का विचार किया और अपने पुत्रों को बुलाकर समाचार कहे। इस बात को सुनकर सिंहचंद्र कहने लमा कि हे माताजी! आप मुझे छोड़कर जाना चाहते हैं ! मेरे द्वारा ऐसा कौनसा अपराध हो गया है ? रामदत्ता ने पुत्र को समझाया कि हे पुत्र ! मुझे आत्मकल्यारण करने की भावना जाग्रत हो गई है, इसमें तुम विघ्न मत डालो। तब पुत्र ने प्रात्मकल्याण करने हेतु स्वीकृति दे दी। तब रामदत्ता देवी अपने पुत्र की सम्मति पाते ही दोनों पार्यिकानों के पास जाकर माथिका दीक्षा देने की प्रार्थना की। उसी समय वे दोनों राजकुमार अपनी माता के पास पहुंचे और माता के मायिका दीक्षा लेने के बाद वे दोनों कुमार घर पर प्राकर सुख से समय व्यतीत करने लगे। एक दिन राजा सिंहचन्द्र को अपनी माता की याद आई और उसके मन में वैराग्य की भावना जागृत हो गई। तब एक दिन पूर्णचंद्र नाम के मुनिराज चर्या के लिये उस Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण ओर पाये तब वह सिंहचद्र उन मुनिराज को भक्ति पूर्व के पड़गाह कर अपने घर पर ले गया और नवधाभक्ति सहित उनको प्राहार दिया। पाहार के पश्चात् मुनिराज को उच्चासन पर विराजमान किया। पूजा अर्चा के बाद विनयपूर्वक प्रार्थना करने लगा कि हे भगवन् ! मुझे मोक्ष प्राप्त करने का उपाय बतलाइये। मुनि कहने लगे जा अासन्न भव्य हैं, वे मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। अभव्य जीव कभी मोक्ष नहीं जा सकते। तप दो प्रकार के हैं। एक अन्तरंग दूसरा बहिरंग । दोनों ही छह २ प्रकार के होते हैं । अंतरंग और बहिरंग तप के साथ २ अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह को त्याग कर सम्यकदर्शन सहित मुनिव्रत को धारण किया जाता है । मुनिराज का उपदेश सुनकर वह सिंहचन्द्र वैराग्ययुत होकर अपने छोटे भाई पूर्णचंद्र को राज्य भार सम्हलाकर दीक्षित हो गये। और दीक्षा लेकर वह सिंहचंद्र निरतिचार तपश्चरण करते हुए विपुलमति मनःपर्ययज्ञान को प्राप्त हुए और चारण ऋद्धि के धारक हुए। इधर वह छोटा भाई पूर्णचंद्र संसार के विषय भोगों में लिप्त हो गया और धर्म से अरुचि रखने लगा। इस प्रकार विषय भोगों में लीन हुआ देखकर वह रामदत्ता आर्यिका उनके पास आई और पूर्णचंद्र को धर्मोपदेश दिया। इस धर्मोपदेश को सुनकर ऐसा लगा जैसे बंदर को अदरक का स्वाद बुरा लगता है और इधर उधर मुह बना कर कूदने लगता है। इसी तरह वह पूर्णचंद्र भी अरुचि से मुह बनाकर इधर उधर चला गया। तब रामदत्ता प्रायिका अपने बड़े पुत्र सिंहचंद्र मुनिराज के पास गई और विनय के साथ नमस्कार किया और प्रार्थना की। हे मूनि ! पूर्णचंद्र धर्म मार्ग में लगेगा या नहीं । भव्य है या अभव्य । इसका निरूपण कोजिये। मुनिराज ने कहा कि यह भव्य है धर्म मार्ग पर लग जायगा। इस संबंध में मैं एक कथा कहता हूँ सो सुनो और यह कथा पूर्णचंद्र को भी जाकर सुनायो। चतुर्थ अध्याय समाप्त पांचवां अध्याय मुनि सिंहसेन प्रायिका रामवत्ता व मुनि सिंहचंद्र का स्वर्ग गमन तथा पूर्णचंद्र को धर्म रुचि उत्पन्न करने के लिए संबोधन तदनंतर वह सिंहचंद्र मुनिराज कहने लगे-कौशल देश से संबद्ध वृद्धनाम का ग्राम है। उसमें मृगायण नाम का एक ब्राह्मण था। उसकी स्त्री का नाम मदुरई था। उन दोनों के वारुरणी नाम की पुत्री थी। _कुछ समय पश्चात् वह ब्राह्मण मृत्यु को प्राप्त हुआ। अयोध्या नगर का अधिपति अतिबल था। उसकी पटरनी सुमति थी। उस ब्राह्मण का जीव पटरानी के Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ गर्भ में आकर हिरण्यवती नाम की पुत्री हुई । यौवनावस्था को प्राप्त होने पर पोदनपुर के राजा पूर्णचंद्र के साथ उसका विवाह हो गया । और मदुरई नाम की ब्राह्मण की स्त्री मर कर हिरण्यवती के गर्भ में प्राकर पुत्री हुई। वह पुत्री रामदत्ता तुम ही हो । और भद्रमित्र नाम के व्यापारी का जीव मरकर मैं सिंहचंद्र मुनि मैं ही हूं और पूर्वजन्म में जो वारुणी तुम्हारी पुत्री थी वह मर कर तुम्हारे गर्भ से पूर्णचंद्र हो गया । इसलिए उस पर आपका गाढ़ स्नेह है । आगे चलकर वह पूर्णचंद सम्यकदृष्टि होगा। तुम्हारे पिता पूरणचंद मुनि दीक्षा लेकर मुझको धर्मोपदेश करके मुझे दीक्षा देकर दीक्षागुरु हो गये । तुम्हारी हिरण्यवती माता ने शांतिमति प्रार्थिका के पास जाकर आर्यिका दीक्षा ली । तुम्हारे पति सिंहसेन राजा सर्पदंश से मरकर सल्लकी नाम के वन में अशनीकोड नाम का हाथी हुआ । मेह मंदर पुराण एक दिन जब हम पर्वत पर तप कर रहे थे उस समय वह अशनीकोड हाथी क्रोधित होकर मुझे मारने आया। तब मै चारण ऋद्धि के प्रभाव से आकाश में चला गया और खड़ा रह कर पूर्वभव का स्मरण उस हाथी को करा दिया। हे सिंहसेन राजा ! तुम पूर्वभव के पाप कर्म के निमित्त से हाथी होकर उत्पन्न हुए। अब उससे भी अधिक पाप कार्य कर रहे हो । जब मैं राजा था, उस वक्त भी मैंने तुम्हें देखा था और आज भी तुम्हें मैं हाथी की पर्याय में देख रहा हूं । इसलिए ग्राप इस पाप से भयभीत होकर धर्म पर रुचि रखकर सम्यक्त्व धारण करो। मैं सिंहसेन राजा का पूर्वभव का बड़ा पुत्र हूं । इस प्रकार सिंहचंद्र मुनि का उपदेश सुनकर उस हाथी को जाति स्मरण हो गया और खड़ा होकर एकदम से विनयपूर्वक नमस्कार किया । और उस हाथी को धर्म श्रवण कराया और हाथी ने पांचों पापों को त्याग कर पंच अणुव्रत धारण किये । व्रत लेकर वह हाथी मासोपवास पाक्षिकोपवास करने लगा । और सूखा तृण व पत्त आदि खाकर अपना जीवन पूरा करने लगा। एक बार पाक्षिकोपवास करने की दशा में केसरी नाम की नदी में पानी पीने गया था। वहां कीचड़ में वह फंस गया । इस कारण उस कीचड़ में से निकलने की शक्ति नहीं रही । सत्यघोष मंत्री का जीव चमरी मृग होकर मरकर कुक्कुट नाम का सर्प हुआ था, वह वहां मौजूद था । उसको पूर्वभव के बैर का स्मरण होकर उसने हाथी को डस लिया । उस विष से वह महान दुखी हुआ और धर्मध्यान में लीन होकर शांतभाव से पंच नमस्कार मंत्र का स्मरण करता हुआ प्राण त्याग कर सहस्रार कल्प में सूर्यप्रभ विमान में श्रीधर देव उत्पन्न हुआ । तब वहां के अन्य देवों ने पास में खड़े होकर जयजयकार करते हुच वाद्यध्वनि की और बहुत सन्मान किया। उस श्रीधर ने अपने मन में विकल्प किया कि मै कौन हूं कहां से आया हूँ, यह कौनसा क्षेत्र है ? उन सबका समाधान अवधिज्ञान द्वारा उसने जान लिया। मैंने पूर्वजन्म में जो व्रत ग्रहरण किया था उस का ही यह फल है कि मैं यहां देव हुआ है और यह विभूति मिली है । और यह सब परिवार के सेवक देव खड़े हैं । तदनंतर वहां के रहने वाले सामान्य देवों ने उसको नमस्कार करके कहा कि त्रिमंजिल नाम की बावड़ी में स्नान करके प्रथम जितेंद्र भगवान के दर्शन करो और यहां Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] मेद मंदर पुराण देवियां हैं उनके साथ सुखों का भोग करो। जैसे सामान्य देवों ने कहा उसी प्रकार उस श्रीधर देव ने किया । राजा का दूसरा धर्मिला नाम का मंत्री मरकर वन में बानर हुआ। और उस कुक्कुट सर्प को बैरभाव से मार दिया। समय पाकर उस पाप के कारण बानर का जीव मरकर तीसरे नरक में उत्पन्न हुआ। और कुक्कुट से काटा हुआ वह मजराज मरकर सहस्रार कल्प में देव हुआ। और कुक्कुट सर्प मरकर नरक में गया । उस गजराज के मस्तक में जो गजमुक्ता थे तथा उसकी हड्डी आदि पड़ी थी उन सबको एक भील इकट्ठा करके ले गया । और धनमित्र सेठ को बेच दिया । धनमित्र सेठ ने उनको राजा पूर्णचंद्र को अर्पण कर दिये। राजा ने उन हड्डियों का एक पलंग बनवा लिया और पलंग के पायों में गजमोती भरवा दिये और शेष मोतियों की माला बनाकर अपने गले में धाररण कर ली। इस प्रकार वह पंचेंद्रिय विषय भोगों में मग्न था । सिंहचंद्र मुनिराज ने इस प्रकार सिंहसेन मुनिराज के पूर्वभव की कथा सुनाई । और कहा कि तुम जाकर अपने छोटे पुत्र पूर्णचंद्र को यह कथा सुनायो । उसका मन धर्म ध्यान में रुचि वाला हो जायेगा । तदनंतर रामदत्ता देवी सीधी पूर्णचंद के कल्याण हेतु गई और सिहचंद्र मुनिराज द्वारा कही हुई सारी कथा उनको सुनाई। कथा सुनकर उनको दुख व पश्चाताप हुआ और मृतक गजराज की हड्डियों व मोतियों का बनाया हुआा पलंग और माला आदि सबको फेंक दिये । श्राज तक किये हुए पापों का पश्चाताप करके पंचारणुव्रत धारण करके संसार से विरक्त होकर श्रावक के षट्कर्मों में तत्पर हो गया। तब उसने निदान कर लिया कि यही पुत्र प्रगले भव में मेरे गर्भ में श्राकर उत्पन्न हो जावे । श्रौर रामदत्ता देवी शुभ परिणामों से मरकर महाशुक्र कल्प में भास्कर श्रम नाम का देव हुआ । और वहां स्वर्गीय सुखों का अनुभव किया। और वह पूर्णचंद्र अपनी आयु पूर्ण करके इसी महाशुक्र कल्प में वैडूर्यप्रभ नाम का देव हुआ । तदनंतर सिहचंद्र मुनि घोर तपश्चरण करते हुए अन्त में सल्लेखना विधि से शरीर छोड़कर उपरिम २ नवें ग्रैवेथिक में ग्रहमिंद्र उत्पन्न हुप्रा । वहां इसकी आयु ३१ सागर की हुई । उसको वहां शारीरिक मानसिक भोग नहीं है । सब देव प्रवीचार रहित हैं। मुक्त हुए जीव के समान सुख शांति से रहते हैं और तत्व चर्चा किया करते हैं । सिंहसेन, सिंहचंद्र, रामदत्ता देवी व पूर्णचंद्र आयु पूर्ण करके अपने २ शुभ परिरणामों से देवपर्याय धारण को । उस सत्यघोष का जीव घोर दुख पाता हुआ नरकों में गया । श्रार्तराद्रध्यान के परिणामों से यह जीव नरक गति, तियंचगति को प्राप्त होता है और शुभ परिणामों से मनुष्यगति व देवगति को प्राप्त होता है । इसीलिए सभी लोगों Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण को चाहिये कि वे आर्त रौद्र ध्यान छोड़कर धर्मध्यान में लीन होवें। यही परंपरा मोक्ष का मार्ग है और यही कथा का सार है। पांचवा अध्याय समाप्त छठा अध्याय पुन: मध्यलोक में प्राकर सिंहसेन, रामदत्ता व पूर्णचंद द्वारा पूर्वभव के पुण्य के कारण देवगति को प्राप्त होना । तदनंतर देव सुख को भोगते हुए उस रामदत्ता का जीव भास्करप्रभ देव के जब आयु के १५ दिन शेष रह गये तब शरीर की व नेत्रों की कांति मलिन हो गई। इससे वह देव डर गया। तब वहां के अन्य २ सांथी देवों ने प्राकर उस जीव को अनित्यादि रूप से संसार का स्वरूप समझाया और इस संबोधन से वह देव अपने हित करने के लिए उद्यत हुआ और धर्मध्यान पूर्वक प्राणों का त्याग किया और मध्य लोक में पाया । जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र के विजयाद्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में धरणी तिलक नाम का नगर था। उस नगर का अधिपति अतिवेग था। उसकी पटरानी का नाम सुलक्षणा था। रामदत्ता का जीव इन दोनों दम्पतियों के गर्भ में प्राकर श्रीधरा नाम की पुत्री हो गई। जब वह पुत्री युवावस्था को प्राप्त हुई तब अलकापुरी के राजा दर्शक के साथ उसका विवाह हो गया था। थोड़े समय बाद वह वैडूर्यप्रभ देव आयु के अवसान पर वहीं से चल कर श्रीधरा के गर्भ में आकर यशोधग नाम की पुत्री हुई। यौवनावस्था प्राप्त होने पर भास्करपुर के सूर्यावर्त्त नाम के विद्याधर अधिपति के साथ उस यशोधरा का विवाह हो गया। तब पूर्वभव में सिंहसेन राजा का जीव श्रीधर देव धर्म ध्यान से आयु पूर्ण करके इस यशोधरा से गर्भ में आ गया। नवमास पूर्ण होने पर किरण वेग नाम का पुत्र हुआ। वह किरणवेग यौवनावस्था को प्राप्त करके अनेक राज कन्यायों के साथ विवाह करके सुख से भोग भोगने लगा। एक दिन राजा सूर्यावर्त ने अपने मन में संसार का स्वरूप विचारा। वे उस विजयाद्ध पर्वत को छोड़कर वहां से नीचे भूमि पर आये तब वहां एक मुनि चन्द्र नाम के तपस्वी तप कर रहे थे । सूर्यावर्त ने इन्हें नमस्कार करके उनका उपदेश सुना। तत्पश्चात् से विरक्त होकर अपने स्थान को गये और वहां जाकर अपने पुत्र को राज्य देकर उनने मुनिराज के पास आकर विधिपूर्वक जिन दीक्षा ले ली। इस बात को सुनकर सूर्यावर्त की पुत्री तथा, उसकी पटरानी दोनों ने गुणवती आर्यिका के पास जाकर आर्यिका दीक्षा धारण की। तदनंतर किरण वेग (सूर्यावर्त के पुत्र) ने वैराग्य प्राप्त किया और जिनेन्द्र भगवान के दर्शनों के लिए विजयाद्ध पर्वत पर स्थित सिद्धायतन कूट के अकृत्रिम चैत्यालय में गया। और वहां सब जिन बिम्बों के Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] मेरु मंत्र पुराल दर्शन करके भक्तिपूर्वक स्तुति की। उस समय उस चैत्यालय में हरिचंद्र नाम के चारण ऋद्धि धारी मुनि विराजते थे। उनको देखकर नमस्कार करके उनके पास बैठ गया। और कहा कि हे भगवन् ! धर्म का स्वरूप क्या है ? यह मुझको बताइये । हरिचंद्र मुनिराज ने कहा कि सप्त तत्त्व, षद्रव्य, सप्तभंगी, नय आदि के स्वरूप समझने से तम्हारे कर्मों का क्षय होकर मक्ति प्राप्त हो जायगी। इस धर्म को सुनने के पश्चात् उसने संसार से विरक्त होकर जिन दीक्षा लेकर निरतिचार पूर्वक तपश्चरण करते हुए चारण ऋद्धि को प्राप्त कर लिया। __ वह किरणवेग तपस्या करते हुए कांचनप्रभ नाम की गुफा में रहते थे। तब श्रीधरा व यशोधरा दोनों ने उन महाराज के पास जाकर धर्म का स्वरूप समझा और वापस अपने घर लौट आई। तदनंतर वह महामुनि उस गुफा में आ गये और वहां जाते ही देखा कि सत्यघोष का जीव अजगर जो वहां रहता था पूर्वभव के बैर के कारण इन मुनिराज को उसने निगलना शुरू कर दिया। मुनि महाराज ने अपने ऊपर घोर उपसर्ग आया समझ कर ॐ नमः सिद्धेभ्यः ऐसा बोलने लगे। तब इनकी आवाज़ को सुनकर वे दोनों प्रायिकाएं वापस लौटकर शीघ्र आ गई और मुनिराज के आधे शरीर को अजगर द्वारा निगला हुआ देखकर अवशिष्ट दोनों भुजात्रों को दोनों ने खींचना शुरू किया। परन्तु उस अजगर ने अपने बल से मुनिराज के साथ इन दोनों प्रायिकाओं को खा डाला। ये तीनों मरकर कापिष्ठ नाम के स्वर्ग में उत्पन्न होकर चौदह सागर की आयुष्य वाले देव हो गये । और वह अजगर मरकर चौथे नरक में गया। इसका सारांश यह है कि पाप कार्य को छोड़कर पुण्य कार्य को शक्ति अनुसार पालन करना चाहिए जिससे यह आत्मा संसार में अधिक समय तक भ्रमण न करता रहे । छठा अध्याय समाप्त सप्तम अध्याय जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र सम्बन्धी चक्रपुर नाम का नगर है। उस नगर का राजा अपराजित है। उसकी रानी का नाम वसुन्धरा है। अहमिन्द्र नाम के देव ने स्वर्ग से चलकर अपराजित राजा की रानी वसुन्धरा के गर्भ में जन्म लिया। जन्म लेने के पश्चात् उसका नाम चक्रायुध रखा गया। वह कुमार शस्त्र-शास्त्र आदि अनेक कलाओं में पारंगत हो गया। यौवनावस्था को प्राप्त होने पर उनके पिता ने चित्र माला नाम की राजकन्या के साथ विवाह कर दिया। वह कुमार अपनी स्त्री चित्रमाला सहित विषय भोगों में खूब Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेद मंदर पुराण | १९ मग्न रहने लगा । कापिष्ठ कल्प में रहने वाला देव किरणवेग का जोव चित्रमाला के गर्भ में प्राया । उसने पुत्ररत्न को जन्म दिया। उसका नाम वज्रायुध रखा गया । क्रम से वह यौवनावस्था में प्रवेश किया तब पृथ्वी तिलक नाम के नगर का राजा अतिवेग राज्य करता था । उनके प्रियकारिणी नाम की पटरानी थी । रत्नमाला का जीव श्रीधरा था । वह श्रीधर का जीव प्रियकारिणी के गर्भ में आया । और उसके रत्नमाला नाम की पुत्री हुई। रत्नमाला कुमारी की यौवनावस्था होने पर वज्रायुध से साथ उसका विवाह हो गया । तदनंतर रत्नमाला के गर्भ में यशोधरा का जीव स्वर्ग से प्राया और नवमास पूर्ण होने पर उसके पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ। जिसका नाम रत्नायुध रखा गया । रत्नायुध के taarवस्था को प्राप्त होने पर राजकन्या के साथ लग्न कर दिया। इस प्रकार अपराजित महाराज अपने पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र आदि सभी परिवार को देखकर अत्यन्त आनन्दित हुए । कई दिनों के बाद एक दिन पिहिताश्रव नाम के मुनिराज उस नगर में आये । राजा अपराजित ने मुनिराज के पास जाकर भक्ति पूर्वक नमस्कार करके धर्मोपदेश सुना और सुनकर संसार से विरक्त होकर अपने पुत्र को राज्य पद देकर जिन दीक्षा धारण की। तदनंतर वह चक्रायुध राज्य का परिपालन करता हुआ धर्म ध्यान पूर्वक संसार से विरक्त होकर अपने पुत्र वज्रायुध को राज्य भार सम्हलाकर अपने पिता अपराजित के पास मुनि दीक्षा धारण की। चक्रायुध मुनि अत्यन्त उम्र बारह प्रकार के निरतिचार तप करते हुए बाईस प्रकार की परीषहों को सहन करते हुए तप में लीन रहने लगे । एक दिन वज्रायुध भी संसार से विरक्त होकर अपने पुत्र रत्नायुध को राज्य भार सम्हला कर अपने पिता चक्रायुध मुनि से जिन दीक्षा ले ली । तदनंतर चक्रायुध ने घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया । केवलज्ञान प्राप्त होते ही चतुरिंगकाय के देवों ने ग्राकर केवलज्ञान की पूजा की और तत्काल ही मोक्ष पद को प्राप्त कर लिया । तब वज्रायुध मुनि ने आकर नमस्कार किया और अपने धर्म ध्यान हेतु वापस चले गये । वह चक्रायुध केवली पूर्णभव में भद्रमित्र नाम का व्यापारी था । और सिंहचंद्र राजकुमार हुआ और तप करके ग्रहमिंद्र स्वर्ग में देव हुआ । तदनंतर मध्यलोक में कर्म भूमि में आकर चक्रायुध राजा हो गया । और तप करके केवल ज्ञान को प्राप्त करके मोक्ष पद प्राप्त किया । सप्तम अध्याय समाप्त भ्रष्टम अध्याय वह राजा रत्नायुध पंचेंद्रिय विषयों में सदैव रत रहता था। इस प्रकार रत रहते हुए उस नगर के बाहर के मनोहर नामक उद्यान में चतुसंघ सहित वज्रदंत नाम के Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० । मेरु मंदर पुराण मुनि मा गए। उस समय वह मुनिराज त्रैलोक्य प्रज्ञप्ति के ग्रन्थ का उपदेश कर रहे थे। उस रत्नायूध का हाथी उस उद्यान में प्रा गया और उस ग्रन्थ का उपदेश सुनने लगा। उस हाथी का महावत नित्य प्रति मांस मिश्रित पाहार उसको खिलाता था। किन्तु उस उपदेश को सुनकर उसने उस दिन वह पाहार नहीं खाया। तब महावत ने राजा रत्नायुध से जाकर प्रार्थना की कि राजन् ! आज वह हाथी खाना नहीं खा रहा है । तब राजा ने एक चिकित्सक को उसके इलाज के लिए बुलाया। वह वैद्य महान चतुर था उसने कहा कि इसको कोई रोग तो नहीं है। पूर्वभव का इसको जाति स्मरण हो गया है। यदि परीक्षा करना है तो इसके सामने मांस रहित आहार लाकर रखो। तब उसके लिए मांस रहित पाहार मंगवाया गया। उस पाहार को रुचि पूर्वक उस हाथी ने खा लिया। वह रत्नायुध पहले से नास्तिक था किन्तु भगवान के वचनों पर श्रद्धा रखकर उस वज्रदंत मुनि महाराज को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके अपने हाथी के सम्बन्ध में पूछा कि हाथी ने मांस मिश्रित पाहार किस कारण से ग्रहण नहीं किया। तदनंतर मुनि अपने अवधिज्ञान के द्वारा हाथी के पूर्वभव का हाल समझाने लगे। हे रत्नायुध सुनो इस भरत क्षेत्र सम्बन्धी हस्तिनापुर नाम का नगर है। उस नगर का राजा प्रीतिभद्र था। उसकी पटरानी वसुन्धरा थी। उसके प्रीतिकर नाम का पुत्र था। वह राजपुत्र व मन्त्री का लड़का सदैव एक साथ मित्रता पूर्वक रहते थे। एक दिन प्रीतिकर व विचित्रमति ने धर्मरुचि मुनिराज के पास जाकर भक्तिपूर्वक नमस्कार करके धर्मामृत सुनकर जिनदीक्षा ग्रहण करली। इन दोनों में प्रीतिकर मुनि निरतिचार पूर्वक तप करते थे। तप करते २ क्षीरावी ऋद्धि प्राप्त हो गई। एक दिन ये दोनों मुनि विहार करते २ अयोध्या नगर के उद्यान में प्राकर विराजे। वे प्रीतिकर मुनि एक दिन चर्या के लिए नगर में गये । जाते समय जिस रास्ते से वे जा रहे थे उस जगह, एक सुन्दर बुद्धिसेना नाम की वेश्या का घर था। उसके घर के बाहर से जाते समय वह वेश्या उनके सामने जाकर खड़ी हो गई और नमस्कार करके पूछने लगी कि हे मुनिराज! उत्तम कुल, उत्तम जाति, सत्पात्र दान देने की योग्यता किस धर्म से प्राप्त होती है। मुनिराज ने कहा कि सभी जीवों पर दया करना, म्वनिदा और दूसरों की प्रशंसा करने, शील व्रत पालने, सप्त व्यसनों का त्याग करने आदि व्रतों से उनम कुल उत्तम धर्म मिलता है। तदनंतर उस वेश्या ने मुनिराज से अणुव्रत ग्रहमा किये और पांचों पापों ग्रादि का त्याग कर दिया। तदनतर वह मुनि पाहार को आगे न जाकर वापस उद्यान में उन मुनिराज के पाम पा गए। तब उस विचित्रमति मुनि ने कहा कि आज आपको इतना समय कैसे लग गया? तब प्रीतिकर मुनि ने सारे समाचार उस वेश्या सम्बन्धी कह दिये। और यही देर होने का कान्ग बतलाय।। तव विचित्रमति मुनि ने वेश्या का हाल सुनकर उसके प्रति मोह उत्पन्न हो गया। उन्होंने पूछा कि वेश्या का घर कहां किस ओर है। इस बात को सुनकर उन्होंने अमुक मुहल्ले में उसका घर है ऐसा बतला दिया। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ तब वह मुनि चर्या के लिए नगर में उसी वेश्या के मकान के बाहर होकर गये तो उस वेश्या ने पहले के अनुसार विचित्रमति मुनि को भक्ति पूर्वक नमस्कार करके पूछा कि हे मुनिवर ! कल जो मैंने अणुव्रत एक मुनिराज से लिए थे उसका फल क्या है ? तब मुनिराज ने उसका फल विपरीत बतलाया । इस बात को सुनकर उस वेश्या ने विचारा कि कल जो मुनिराज पधारे थे उनसे श्राज यह मुनि विपरीत मालूम होते हैं । मुनिराज ने उसको विपरीत कथाएं सुनाई । मेरा मंदर पुराण कामातुराणां भयं न लज्जा तदनंतर उस वेश्या को क्रोध आ गया और अधिक देर तक बात न करके अपने घर वापस चली गई । वे मुनि उस वेश्या से समागम करने का उपाय सोचने लगे । उस नगर का राजा गंधमित्र था । वह मांस भक्षण करने का लोलुपी था । वह मुनि उनके रसोइया के साथ जाकर मिला और उससे मिलकर मित्रता करली । वह धूर्त मुनि नित्य स्वादिष्ट मांस लाकर उस रसोइया को देता था और उस मांस को खाकर वह राजा उस पर प्रसन्न हो गया और कहने लगा कि मैं तुमसे प्रसन्न हूं । तुम जो चाहो सो मांगो। उसने कहा कि मुझे और कुछ नहीं चाहिए केवल आपके नगर में जो बुद्धिसेना वेश्या है उससे मैं विषय भोग करना चाहता हूँ । तब राजा ने तथास्तु कह कर उस वेश्या को बुलाया और उस धूर्त मुनि के सुपुर्द कर दिया। वह धूर्त विषय भोग में रत हो गया और अन्त में मरकर वह हाथी की पर्याय में प्राया है। अब उसको उस मुनि महाराज के प्रभाव से जाति स्मरण हो गया और इसने मांस भक्षरण करना छोड़ दिया । इसीलिए मांस मिश्रित आहार नहीं किया । तब रत्नायुध को मुनिराज से उपदेश सुनकर संसार से वैराग्य हो गया और जिन दीक्षा धारण करली और उनकी माता रत्नमाला ने भी अपने पुत्र से साथ २ उन मुनिराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली । धर्म ध्यान करते २ समाधिपूर्वक मरण करके ये दोनों अच्युत कल्प में देव हो गए। तदनंतर उस कुक्कुट सर्प का जीव पाप कर्म के उदय से चौथे नरक में गया । और वह जीव चार सागर काल तक त्रस पर्याय में भ्रमरण करता रहा। वहां से आयु पूर्ण करके ग्राकर कच्छपुर नगर में तारण तरण नाम का भील उत्पन्न हुआ । उसकी स्त्री का नाम मंगी था । उनके प्रतिदारुरण नाम का पुत्र हुआ । वह भील एक दिन अपने हाथ में धनुष बाण आदि लेकर वहां के पर्वत पर गया । वहां देखा कि वज्रायुध नाम के मुनि तपश्चरण कर रहे हैं। उन पर उस भील ने अनेक प्रकार के घोर उपसर्ग किये । इस उपसर्ग को सहन करते हुए ध्यान में लीन होकर प्राण छोड़ सर्वार्थसिद्धि में जाकर प्रहमिंद्र नाम के देव हुए। और पाप के उदय से आयु पूर्ण करके वह भील सातवें नरक में गया । अष्टम अध्याय समाप्त Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंबर पुराल नवां अध्याय पूर्णचंद्र व रामदत्ता देवी की कथा धातकीखंड द्वीप के पूर्व भाग में महा मेरु पर्वत के पश्चिम भाग में सीतोदा नदी के उत्तरी तट पर गांधिल नाम का देश है। उस देश सम्बन्धी अयोध्या नगर है। उसका अधिपति अर्हदास है। उसकी दो पटरानी थी। जिनका नाम सुव्रता और जिनदत्ता था। वह रत्नमाला का जीव जो अच्युत कल्प में रहता था, सुव्रता रानी के गर्भ में माया। नवमास पूर्ण होने पर पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ। उसका नाम वीतभय रखा गया। और जिनदत्ता के गर्भ में रत्नायुध का जीव पाया वह विभीषण नाम का पुत्र उत्पन्न हुमा। वीतभय बलभद्र तथा विभीषण वासुदेव थे, वासुदेव को देखकर प्रतिवासुदेव क्रोधित हो गये और परस्पर में युद्ध छिड़ गया। तब प्रतिवासुदेव ने वासुदेव की सेना को पीछे हटा दिया। तदनंतर वासुदेव ने प्रतिवासुदेव की सेना को युद्ध में जीत लिया। तब प्रतिवासुदेव ने अपने पास रखे हुऐ चक्ररत्न को चलाया। वह चक्ररत्न वासुदेव के तीन प्रदक्षिणा देकर बाई ओर खड़ा हो गया। वासुदेव ने वही रत्नचक्र वापस उन पर छोड़ दिया। तब उस चक्ररत्न ने प्रतिवासुदेव को ही मार दिया। तदनंतर वीतभय और विभीषण दोनों ने उस तीन खंड में रहने वाले सब राजामों को जीतकर वापस अपने नगर से आकर वे सुख से समय व्यतीत करने लगे। कुछ दिन पश्चात् वह विभीषण मर गया । और वीतभय संसार से विरक्त होकर वैराग्य भाव रखते हुए जिनदीक्षा धारण करके समाधिपूर्वक मरण करके लांतवनाम के कल्प में देव हुआ। वहां जाकर अवधिज्ञान से जान लिया कि विभीषण दूसरे नरक में गया है। तब वह वीतभय विभीषण के जीव को सम्बोधन के लिए दूसरे नरक में गया। नवम अध्याय समाप्त । दशम अध्याय मरक में वासुदेव द्वारा नारकी को धर्मोपदेश उस लांतव देव ने दूसरे नरक में जाकर विभीषण के जीव (नारकी) को धर्मोपदेश दिया और पूछा कि हे नारकी जीव ? तुम जानते हो मैं कौन है ? मैं पूर्व जन्म में मादुरी नाम की ब्राह्मण को स्त्री थी उसके तू वारुणो नाम की पुत्री थी। मैं दूसरे जन्म में रामदत्ता देवी हुई और तुम मेरे गर्भ से पूर्णचन्द्र पुत्र हुए और हम दोनों तपश्चरण करके देव हो गये। तदनंतर मैं वहां से चयकर श्रीधर नाम की पुत्री हुई। दोनों ने कापिष्ठ नाम के कल्प में देव होकर वहां से प्रायु पूर्ण करके इस कर्मभूमि में रत्नमाला नाम की Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेस मंदर पुराण [ २३ मै स्त्री हुई। मेरे गर्भ से रत्नायुद्ध का जन्म हुआ। हम दोनों ने तप करके अच्युतकल्प में देव पद प्राप्त किया। तदनंतर मैं गंधिला नाम के देश के अयोध्या नाम के नगर में वीतभय नाम का राजा हुप्रा और तुम विभीषण नाम का केशव पुत्र हुप्रा । तुमको अधिक परिग्रहों की सा से इस नरक में पाना पड़ा और में तप करके लातव कल्प से प्रादित्याभ देव प्रा। मैने अपने अवधिज्ञान से जाना कि तुम इस नरक में हो, इस कारण तुमको धर्मोपदेश सुनाने आया हूँ। तुमको इस नरक के दुखों से डरना नहीं चाहिये। तुम्हारे इस नरक से अधिक दुःख तुम्हारे से नीचे के नरक में रहने वाले नारकियों को है। मैं पूर्वजन्म में राजा था, इतना वैभव वाला था, ऐसा विचार मन में मत लामो और जो अन्य नारकी तुम को कुछ दुख देते हों तो उन पर क्रोध मत करो और यह विचार करो कि यह मेरे अशुभ कर्म का उदय है और सदैव अहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु इन पांच परमेष्ठियों का स्मरण रखो। इसीसे तुम्हारा दुख दूर होगा । इस नरक से मैं कब निकलू ऐसा भी विचार मत करो। यदि इस प्रकार तुम शुभ भावनाएं रखोगे तो अगले भव में उच्चकुल में जन्म लेकर कर्मक्षय करके मोक्ष को प्राप्त करोगे। इस प्रकार जिस तरह तुमको धर्मोपदेश दिया है उसी प्रकार समझ कर उसके अनुसार चलो और यह जिनधर्म ही सुख और शांति देने वाला दयामयी धर्म है। इस प्रकार जो मैंने कहा है उस बात पर विश्वास रखो। तत्पश्चात् उस नारकी जीव ने उस देव को नमस्कार करके कहा कि जैसा आपने कहा है उसी प्रकार मैं चलूगा और इस प्रकार व देव उसको समझा कर स्वर्ग में चला गया। बशवां अध्याय समाप्त ग्यारहवां अध्याय मेरु मोर मंदर का जन्म वर्णन तदनंतर पूर्णचंद्र के जीव ने नरकों के सम्पूर्ण दुःखों को उपशम भाव से सहन किया। जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में अयोध्या का अधिपति श्रीवर्मा राजा था। उसके गर्भ से पूर्णचंद्र के जीव ने नरक से माकर जन्म लिया। युवावस्था होने पर अनेक २ कन्यामों के साथ विवाह हो गया और विषय सुखों को भोगने लगा। इस प्रकार सुख से समय बीतते हुए एक दिन अनंत नाम मुनि नगर में पाए । मुनि को नगर में पाया सुनकर उनके दर्शनार्थ गया और भक्ति पूर्वक नमस्कार करके Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] मेह मंदर पुराण बैठ गया। मुनिराज के धर्मोपदेश को सुनकर उनको वैराग्य उत्पन्न हो गया। तदनंतर जिन दीक्षा लेकर निरतिनार तप करके अंत में सल्लेखना की विधि से मरणकर ब्रह्मकल्प नाम के पांचवें स्वर्ग में गया । हे धरणेंद्र सुनो! पंचानुत्तरों में सर्वार्थसिद्धि नाम के अहमिंद्र लोक में रहा हुआ वजायुध का जीव आकर संजयंत हुमा । ब्रह्मकल्प गया हुमा जीव आकर जयंत हो गया। जयंत ने दीक्षा लेकर एक दिन धरणेंद्र को और उसके पूरे परिवार को देखकर निदान बंध किया कि तप के प्रभाव से मैं धरणेंद्र होऊ । सो मरकर वह धरणेंद्र के जीव प्रापही हैं । सत्यघोष का जीव अतिदारुण है । अतिदारुण का जीव सातवें नरक में गया। मरकर अजगर हुग्रा। अजगर की पर्याय से मरकर तीसरे नरक में गया। वहां से आकर पशु पर्यायों में जन्म लिया। अनंतर जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र के भूतरमण वन में मिथ्या तापसी सब मिथ्यादृष्टियों का अधिपति गोशृग नाम का था। उसकी स्त्री का नाम संगी था। उन दोनों के (सत्यघोष का पुराना जीव) मृग शृंग नाम का पुत्र हुप्रा । वह भी मिथ्या तपस्वी हो गया। तब अतिसुंदर विद्याधर आकाश में एक दिन जा रहा था। देखकर उसने निदान किया कि मैं भी अगले जन्म में ऐसा ही विद्याधर हो जाऊं, तब वह मृगशृगे तापसी मरकर विजयापर्वत की उत्तर श्रेणी में कनकपुर के अधिपति वज्रदंत को पटरानी विद्य त्प्रभा से पूत्र हया और एक दिन उसने संजयंत मुनि को देखकर पूर्वभव के बर से उपसर्ग किया। मृग शृग का जीव पूर्वभव में सत्यघोष था। क्रोध व मायाचार के कारण अनेक कुगतियों में दुख भोगत हुआ यहां आया। संजयंत मुनि पूर्वभव में सिंहसेन थे। अब संजयंत हैं। संजयंत मनि उपसर्ग सहनकर मोक्ष में चले गये। सत्यघोष मंत्री का जीव अगंध सर्प हुआ, तत्पश्चात् चमरी मृग होकर कुक्कुट सर्प हुआ और तीसरे नरक में गया। वहां से प्रायुपुर्ण करके चयकर अजगर पर्याय धारण की और चौथे नरक में गया। वहां से भील को पर्याय में गया। तत्पश्चात् भील का जीव सातवें नरक में गया। और सर्प हो गया। वहां से तीसरे नरक मे गया। अनंतर मध्यलोक में आकर मृगसिंह नाम का तापसी हुा । तदनंतर अंत में विद्य इंष्ट्र विद्याधर होकर धरणेंद्र के पास आया । वह सिंहसेन राजा हाथी की पर्याय धारण कर आयु पूर्ण करके सहस्रार कल्प में देव हुअा। तदनंतर मध्यलोक में किरणवेग राजा हुआ। आयु पूर्ण करके कापिष्ठ कल्प में देव हमा। तत्पश्चात् मध्यलोक में आकर वज्रायुध नाम का राजा हा। तदनंतर पंचारगुत्तर कल्पातीत में देव हृया। वहां से चयकर संजयंत नाम का राजा होकर तपश्चरण करके मोक्ष चले गये। इसलिये हे धरणेंद्र इस विद्यु दंष्ट्र को नागपाश से मुक्त कगे। इस प्रकार आदित्याभ देव ने कहा। तब धरणेंद्र ने आदित्याभ देव को देखकर कहा कि आपने नरक में आकर मुझे धर्मोपदेश दिया। उसके अनुसार चलने से मैंने धरणेंद्र पद को प्राप्त किया। तब धरणेंद्र ने कहा कि मैं इस विद्याधर को ऐसे नहीं छोडूगा। इसकी मब विद्याओं को छेद करूंगा तव छोडूंगा। इस बात को सुनकर ग्रादित्याभ देव ने कहा कि मैंने जो कहा है कि इसको छोड़ दो इसमें तुमको तर्क नहीं करना चाहिये । इनके अपराध को क्षमा कर दीजिये और आगे ऐसी विद्याओं को पुरुषवर्ग Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण २५ ] साधन न करें और केवल स्त्रियां ही ऐसी विद्याओं को प्राप्त करे। यदि संजयंत मुनि के मोक्ष स्थान पर स्त्रियां आकर मंत्र की साधना करें तो अवश्य मंत्र सिद्ध हो जावेगा। वहां जाकर उनका मंदिर बनाना चाहिये। यदि ऐसा नहीं करोगे तो सभी विद्याधः को कष्ट देगा और इस ह्रीमंत नाम के पर्वत पर संजयंत नाम की प्रतिमा की स्थापना करके पंच कल्याणक प्रतिष्ठा करायो। तदनंतर वह धरगोंद्र देव अपने भवन लोक में चला गया। आदित्याभ देव उस विद्यु इंष्ट्र विद्याधर को देखकर कहने लगा कि अव तुम पूर्वभव के बैर को छोड़कर उनके चरणों में भक्ति पूर्वक नमस्कार करो। एक भव में बैर करने से तुमको अनेक जन्मांतर में भ्रमण करना पड़ा। इस कारण तुम इस संजयंत मुनि सिद्ध भगवान की पूजा स्तुति करके अपने द्वारा किये हुए अपराधों को क्षमा मांगो और कहो कि मैंने अविवेक से जो प्राज तक अपराध किए हैं वह क्षमा करिये। इस प्रकार वह विद्यु इंष्ट्र विद्याधर क्षमा मांग कर नमस्कार करके अपने स्थान को चला गया और प्रादित्याभ देव अपने लांतवस्वर्ग में चला गया। ग्यारहवां अध्याय समाप्त बारहवां अध्याय आगे रामदत्ता का जीव आदित्याभ देव हुआ। पूर्णचंद्र का जीव धरणेंद्र हुआ। इन दोनों के भावी भावों की कथा कहता हूं। इस भरत क्षेत्र में उत्तर मथुरा नगर का अधिपति राजा अनंतवीर्य था। उनके दो पटरानी थीं। एक रानी का नाम मेरु मालिनी तथा दूसरी पटरानी का नाम अमृतमति था। मेरुमालिनी रानी के गर्भ में आदित्याभ देव का जीव चयकर आया। उसका नाम मेह रखा गया। अमृतमति रानी के गर्भ में धरण्द्र देव ने पाकर जन्म लिया । इसका नाम मंदर रख दिया। ये दोनों राजकुमार सभी कलाओं में व विद्याओं में प्रवीण होकर यौबन को प्राप्त भए। परन्तु इन दोनों ने संसार को असार समझ कर द्वादशानुप्रेक्षा का चितवन किया। एक दिन श्री विमलनाथ तीर्थंकर भगवान विहार करते २ उत्तर मथुरा के निकट उद्यान में पधारे। चतुणिकाय देव से निर्मित स्थान पर समवसरण सहित वहां भगवान पाकर विराजमान हुए। इसको देखकर वहां के रहने वाले वनपाल ने नगर में जाकर दोनों राज को निवेदन किया। तब दोनों राजकुमारों ने अपने शरीर पर धारण किये हए ग्राभरणों को वनपाल को देकर सात पंड आगे जाकर नमस्कार किया। पूजा करने के लिये प्रष्ट द्रव्यों को लेकर अपने हाथी पर बैठकर समवसरण देखने को अपने उद्यान में चले गये। बारहवां अध्याय समाप्त Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ । मेक मंदर पुराण तेरहवां अध्याय समवसरण वर्णन मेरु और मंदर दोनों ने जब अपने नेत्रों से दूर से ही समवसरण को देखा तब वे दोनों हाथी से उतर कर पैरों से चलकर द्वादश योजन विस्तार वाले उस समवसरण में पहुंचे। समवसरण का उत्सेध पांच हजार धनुष था। बीस हजार सोपान (सीढियां) थे। समवसरण की प्रथम भूमि प्रासाद चत्य भूमि में चलकर चारों महा दिशाओं में चार मार्ग थे। उनमें से प्रथम मार्ग में स्थित मानस्तंभ को प्रणाम पूर्वक प्रदक्षिणा देकर चले । इसी प्रकार अन्य तीन मानस्तंभों को प्रणाम पूर्वक प्रदक्षिणा देकर मान कषाय को छोड़कर समवसरण के अन्दर प्रवेश कर वहाँ रही हुई खातिका का घुटन प्रमाण जल समुद्र की तरह देखा। उस खातिका में समभूमि थी। और उस खातिका में फूल लता आदि बहुत चीजें थी। इस प्रकार द्वितीय भूमि को देखने के अनंतर गोपुर द्वार के अन्दर जाकर तीसरे कोट को देख लिया। वह लताभूमि थी। वहां उदेतरवेदी और गोपुर द्वार में प्रवेश कर आगे भीतर रहने वाली वनभूमि, रहा हुया चैत्य वृक्ष और स्तूप आदि और मार्ग में मिलने वाली नाटकशाला आदि देखकर उसके अन्दर रहा हुआ प्रीतिकर गोपुर और वेदी को देखकर और भीतर जाकर पांचवीं ध्वजभमि देखी। जिसमें दस । चिन्हों सहित ध्वजाएं थीं। ध्वजभूमि देखकर अन्त में रहे हुए कल्याणतर वेदी और गोपुर के दर्शन कर उसके अन्दर छठा प्राकार कल्पवृक्ष भूमि और वहां के रहने वाले मुनि मादि महाराजों को प्रानन्द से नमस्कार कर आगे चला । फिर मध्य में आने वाली गृहांगरण भूमि में रहने वाले स्तूपों को देख कर नमस्कार कर और भी वहां विद्यमान जयास्त्र व मंडप व महोदय मंडप देखा । इस प्रकार देखकर सप्त प्राकारों को क्रम से देखकर इसके आगे रहने वाले लक्ष्मीवर मंडप में गोपुर द्वार से घुसकर यहां रहने वाले द्वादश सभा के गणों को देखकर अनंतर मध्य में स्थित चक्रपीठ, त्रिमेखलापीठ के प्रथम पीठ में चढ़कर प्रदक्षिणा करके अनन्तर द्वितीय पीठ ध्वजपीठ के दर्शन करके अनंतर तृतीय पीठ गंधकुटी मंडप में सिंहपीठ ऊपर चतुर्मुख धारण किये हुए अष्टप्रातिहार्य (छत्रत्रय, अशोक वृक्ष, कुंदुभि, प्रभामंडल, पुष्प वृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, सिंहासन) छत्रत्रय विभूषित चामर आदि ढोरते हुए कोटि सूर्यचंद्र प्रकाश को भी जीतकर प्रकाशित हुए । अनंत ज्ञानादि चतुष्टय मंडित विमलनाथ तीर्थंकरके दिव्य रूप को देखकर आनंद से उनकी स्तुति गुणस्तुति, वस्तुस्तुति करके गणधर कोष्ठ में जाकर दीक्षा देने की प्रार्थना की। सर्वसंघ का परित्याग कर जिन दीक्षा लेकर निरतिचार सम्यक् चारित्र को पालन करके सप्त ऋद्धि से युक्त श्रुत केवली हुआ। तत्पश्चात् लोक स्वरूप, ज्ञान प्रमाण, मिथ्यात्वस्वरूप, कर्मास्रव के कारण बने हुए संसार स्वरूप और मोक्षस्वरूप प्रादि को अपने श्रु तज्ञान के बल से बियालीस परमागम को बनाकर अपने मुख से सब लोगों को उपदेश दिया। श्री विमलनाथ तीर्थंकर के मेरु मंदर आदि गणधर पचपन थे। पूर्वधारी मुनि एक हजार सौ थे। अवधिज्ञानी मुनि चार हजार नव्वे थे। विक्रियाऋद्धि प्राप्त मुनि Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेक मंबर पुराण [ २७ नो सौ थे। संपूर्ण सम्यक् दृष्टि श्रावक छह हजार आठ सौ थे। नव सम्यक् दृष्टि पुरुष तीन लाख चौसठ हजार थे। सब श्रावक दो लाख थे। श्राविका चार लाख थी । आर्यिका एक लाख तीन हजार थीं। श्री विमलनाथ भगवान के गण में श्रेष्ठ रहे हुए मेरु मंदर दोनों अपने कर्मों को नाश करने के लिये सोच कर उस गण को छोड़कर एक पर्वत शिखर पर गये। तदनंतर दशधर्मों मे लीन होकर, पंच समिति, त्रिगुप्ति बाईस परीषहों को को निरतिचार पालन करते हुए आत्म-भावना में लवलीन होकर अप्रमत्त गुणस्थल में बढकर सप्त प्रवृत्तियों को नाशकर क्रम से प्रथम द्वितीय शुक्ल ध्यान से घातिया कर्मों को नाशकर केवली होकर अनंत चतुष्टय को प्राप्त हुए । तब तुरंत ही चतुर्णिकाय के देवों ने आकर केवलज्ञान की पूजा की। तब मेरु और मंदर दोनों ने अद्यातियां कर्मों को नाश करके मोक्ष पधार गये। चतुरिणकाय देव निर्वाण कल्याण की पूजा करके अपने २ स्थान चले गये। इस प्रकार मेरु और मंदर पुराण समाप्त हुआ। जो भव्य प्राणी इस पुराण को पढता है व सुनता है वह क्रम से संसार से विमुक्त होकर शीघ्र मुक्ति को प्राप्त होता है । श्रीपतिर्भगवान् पुष्पाद् भक्तानां वः समीहितम् । यद्भक्तिः शुल्कतामेति भुक्तिकन्याकर गृहे ॥ शुभं भवतु शंभवतु Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री जिनाय नमः ॥ श्री वामनाचार्य विरचित तामिल भाषा का मूल ग्रन्थ मेरु मंदर पुराण हिन्दी टीकाकार (श्री आचार्य देशभूषण महाराज ) मंगलाचरण कुटुंगलिल्लान् गुणत्ता निरैदान गुणत्तान् । महिद वैयमळं दान वय निड़ पेट्रि॥ मुद्र, मुरत्तानुरईरोंब दाय दोंडार । सेट्रगंडी पनि विमलन शरण शैन्नि वैत्तेन ॥१॥ मेदक्क ज्योति विमलन् गणत्त क्कु नामर् । मादक्क कीति युयर् मंदर मेरु नामर् ।। पोदक्कडलार् पुराणघोरुळान् मनत्तं च । सोदिक्क लुटेन तमिलाळोंड, सोल्ल लुट्रेन् ॥२॥ पंच परम पद कू प्रणमि श्रत को नमि हितकार । मंदर मेरु पुराण की भाषा लिखिहूँ सार । विमलनाथ श्री विमल ज्ञान से, हने घाति अघात । पाए महा अष्ट गुण तुमने, सिद्धन के सुख नाथ ॥ श्री 'देशभूषण' त्रियोगकर, वन्दे विमल महान । करे भाषा तामिल की, मंदर मेरु पुरान । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदिर पुरारण २ ] ग्रंथकार ने ग्रंथ के निर्मारण की आदि में श्री १००८ विमलनाथ तीर्थंकर को नमस्कार किया है । वह विमलनाथ तीर्थंकर कैसे हैं सो कहते हैं-विभाव परिणति से उत्पन्न हुए राग-द्वेष मलिनता से रहित और स्वभाव गुरण से युक्त, अनन्त गुरणों से परिपूर्ण हैं, लोकालोक को जानने वाले हैं और देखने वाले हैं। तीनों कालकी चराचर वस्तु को भी एक ही समय में जानने वाले तथा देखने वाले हैं। ऐसे श्री विमलनाथ तीर्थंकर के चरण कमलों में मस्तक झुकाकर नमस्कार करता है कि मेरे द्वारा निर्माण किये जाने वाले ग्रंथ को समाप्ति निर्विघ्नता पूर्वक हो । भावार्थ - श्री वामनमुनि ने इस श्लोक में प्रथम मंगलाचरण द्वारा भक्ति पूर्वक श्री १००८ विमलनाथ तीर्थंकर को नमस्कार किया है कि ग्रंथ की समाप्ति निर्विघ्नता पूर्वक हो । श्री विमलनाथ कैसे हैं ? वे विमलनाथ तीर्थंकर, अनादि काल से जो आत्मा के साथ शत्रु के समान लगते पा रहे हैं, मात्मगुणों को तथा उनके बलको दबाकर नरकादि चार गतियों में भ्रमण कराने में अत्यंत बलवान हैं और हमेशा प्रात्माको दुख उत्पन्न कराने वाले हैं, ऐसे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन चार घातिया कर्मों को नाश करके केवलज्ञान कर युक्त है, जो अंतरंग और बहिरंग लक्ष्मी से सुशोभित हैं और जो इद्रों के द्वारा पूजनीय हैं; भूत भविष्यत प्रोर वर्तमान इन तीनों काल की चराचर वस्तुओं के एक ही समय में एक साथ जानने वाले तथा समझने वाले हैं, तथा केवलज्ञान रूपी अंतरंग लक्ष्मी और देवों द्वारा निर्मित समवसरण रूप बहिरंग लक्ष्मी इन दोनों लक्ष्मी से सहित हैं अर्थात् अठारह दोषों से रहित हैं । समस्त बारह सभा में स्थित मनुष्य देव तियंच (पशु पक्षी ) श्रादि सर्व जीवों को अपने दिव्य-ध्वनि के द्वारा सातसौ अठारह भाषाओं में सुनाते हैं । वे सर्व जीव अपनी भाषाओं में सुनकर अपने जीवन को सुधार लेते हैं । मौर कैसे हैं विमलनाथ भगवान ! जन्म मरण से रहित हैं। पुनः संसार में भाने वाले नहीं हैं, अतः सच्चे देव होने से इनके उपदेश से जीवों का उद्धार होता है। जो पुनः पुनः संसार में श्राकर जन्म मरण के श्राधीन होते हैं वे ऐसे सच्चे देव कैसे हो सकते हैं ? ऐसे विमलनाथ भगवान को मैं साष्टांग नत मस्तक होकर नमस्कार करता हूँ । प्रश्न - वामन मुनि ने कौन से धर्म का उपदेश किया ? संसार में ३६३ मत हैं श्रथवा ३६३ धर्म वाले हैं उन्होंने भी धर्म का उपदेश अपने २ शिष्यों को व अनुयायियों को दिया और देते आए हैं और वे भी इसी धर्म के द्वारा संसारी जीवों का उद्धार हो ऐसी कामना करते हैं और इसी प्रकार जैन धर्म और जैनाचार्य भी भव्य जीवों के हित के लिए धर्मोपदेश देते हैं; क्योंकि भिन्न भिन्न मतों वाले अपने माने हुए मत के अनुसार उपदेश देते श्रा रहे हैं । वे भी कहते हैं कि हमारे देवों ने भी सम्पूर्ण प्राणियों को उपदेश देने का मार्ग बलाया है । अब कौनसे धर्म से हमारा श्रात्म-कल्याण हो और कौनसा धर्म ग्रहण करना है ? इसका स्पष्टीकरण किया जाय ताकि वही धर्म में ग्रहरण करूं । उत्तर - सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्री समन्त भद्र ने धर्म का स्वरूप इस प्रकार बतालाया है Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदिर पुराण देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हरणम् । संसारदुःखतः सत्त्वान्यो धरत्युत्तमे सुखे ॥ (र० श्रा० ) अर्थ संसार के दुःखों से बचाने वाले आत्मा के परिणाम अथवा पाचरण को धर्म कहते हैं। इस प्रकार श्री विमलनाथ तीर्थकर भगवान ने अपनी दिव्य ध्वनि के द्वारा उपदेश दिया है। प्रश्न-जैन धर्म में ही ऐसी क्या महत्ता व विशेषता है कि वही धर्म सच्चा है और माननीय है ? ऐसा प्रतीत होता है कि यह अपने जैन धर्म की महानता तथा अपने मत की पुष्टि करते हैं और अन्य धर्म की लघुता बतलाने के लिए ही इस प्रकार तुमने प्रयत्न किया है। उत्तर-हमारे जैन धर्म में किसी भी प्रकार का आक्षेप व पक्षपात नहीं है। प्राचार्यों ने जो सच्चा धर्म बतलाया है उसका मैं प्रतिपादन करूंगा। क्योंकि जिस धर्म में अहिंसा का सर्वोपरिस्थान हो, समस्त जीवों का जिस धर्म के द्वारा कल्याण होता हो, और जो धर्म दया से युक्त हो, जिस धर्म के धारण करने से प्राणी मात्र का कल्याण होता हो, वही धर्म दयामई धर्म है। "अहिंसा ही परम धर्म है।" जैनाचार्य पक्षपात रहित धर्मोपदेश करते हैं । "गुण" निम्न प्रकार होना चाहिए कहा है कि: यो विश्वं वेद-वेद्यं जनन जलनिधे गिनः पारदृश्वा । पौर्वाषर्याविरुद्ध वचनमनुपमं निष्कलंकं यदीयम् ।। तं वंदे साधुवंद्यं निखिलगुणनिधिं ध्वस्तदोषद्विषतं । बुद्ध वा वर्धमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा ।। अर्थ-जो जानने योग्य, जगत को जानता है और जो नाना प्रकार के शोक भय, पीडा, चिन्ता, अरति, खेद आदि रूप तरंगों वाले संसार रूप समुद्र के पार को देख चुका है और जिसका पूर्वापर विरोध रहित है, निर्दोष उपमा रहित वचन है। रागादि दोष रूपी शत्रु के नाशक समस्त गुणों के प्रकाशक, बडे बडे मुनीश्वरों द्वारा बन्दनीय हैं उस महान परमात्मा को मैं वंदना, नमस्कार तथा स्तुति करता हूँ। चाहे वह बुद्ध हो, वर्द्धमान या ब्रह्मा हो अथवा विष्णु, महादेव कोई भी हो । तात्पर्य यह है कि जिसमें सर्वज्ञता हो, सर्वदर्शिता हो. हितोपदेशिता हो, वीतरागता हो, वही हमारा इष्ट है, और उसे ही हम नमस्कार करते हैं। वह नाम से बुद्ध वर्द्ध मान ब्रह्मा, विष्णु और महेश कोई भी हो, हमें नाम से कोई विवाद नहीं है । जो रागी हो द्वषी हो मोही हो भय से युक्त हो, आशावान हो वह देव नहीं कहलाता है:-कहा भी है आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञनागमेशिना। भवितव्यं नियोगेन, नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ।। (र० श्रा० ) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arram मेरु मंदर पुराण अर्थ-निश्चय से अठारह दोष रहित, वीतराग, सर्वज्ञ और हेयोपादेय का विश्वास उत्पन्न कराने वाले शास्त्र का प्रतिपादक प्राप्त होना चाहिए, क्योंकि इससे विपरीत प्रकार अर्थात् १८ दोष रहित बिना सत्य प्राप्तता नहीं आ सकती। क्षुत्पिपासा-जरातंक-जन्मान्तक भयस्मयाः । न रागद्वेषमोहाश्व यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते ॥ ( र० श्रा० ) अर्थ-जिस देव में क्षुधा, तृषा, जरा, रोग जन्म मरण भय मद राग द्वेष मोह और चिन्ता, अरति निद्रा, आश्चर्य, विषाद, स्वेद और खेद यह अठारह दोष नहीं होते हैं वह प्राप्त कहा जाता है। परमेष्ठी परं ज्योतिविरागो विमलः कृति । सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्तः सार्वः शास्तोपलाल्यते ॥ ( र० श्रा० ) अर्थ-इन्द्रादि द्वारा बन्दनीय, परम पद में स्थित, ज्ञान का धारक भाव कर्म रहित, मूल और उत्तर कर्म प्रकृति रूप मल रहित. सम्पूर्ण हेय तथा उपादेय तत्त्वका ज्ञानी, समस्त पदार्थो का यथार्थ ज्ञाता, उक्त प्राप्त के प्रवाह की अपेक्षा आदि मध्य और अन्त रहित, सबके हित के लिये इस लोक और पर लोक के उपकार मार्ग का व्याख्यान करने वाला, पूर्वापर विरोधादि दोष रहित, समस्त पदार्थों का यथार्थ स्वरूप का वक्ता, हितोपदेशी कहा जाता है । इस प्रकार इन प्राप्त या वीतराग भगवान के द्वारा कहा हुआ धर्मका मार्ग सदैव जीवों का कल्याण करने वाला है । इसलिये इनके द्वारा कहा हुअा धर्म संसारी प्राणी को संसार रूपी समुद्र से निकाल कर सुखमय स्थान में रखने वाला है। इसलिये इन श्री विमलनाथ तीर्थंकर ने आत्मा को घात करने वाले ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय मोहनीय और अंतराय ऐसे चार घातिया कर्मों का नाश कर जीवन मुक्त अवस्था अर्थात् केवलज्ञान को प्राप्त किया है। इस कारण इनको प्राप्त, सर्वज्ञ, वीतराग तथा हितोपदेशी कहते हैं। और तीन विशेषण अहत श्री विमलनाथ भगवान में पाये जाने से ये सच्चे देव हैं। इसलिये प्रथम ग्रंथ के प्रारम्भ में इनको नमस्कार किया गया है। इस सम्बन्ध में पात्रकेशरी स्तोत्र में भी अहंत भगवान की महिमा बताई है: परिक्षपित कर्मणस्तव न जातु रागादयो। न चेन्द्रिय विवृत्तयो न च मनस्कृता व्यावृतिः॥ तथापि सकलं जगद् युगपदअसावेत्सि च। प्रपश्यसि च केवलाभ्युदित दिव्य सच्चक्षुषा । भावार्थ-हे जिनेन्द्र आपने मोहनीय आदि कर्मों का नाश कर दिया है इसलिये आपके कभी भी रागादिक दोष नहीं होते हैं। केवलज्ञान का प्रकाश हो जाने से आपके मतिज्ञान व श्रुतज्ञान नहीं रहा है। इसी से न इन्द्रियों का व्यापार है न मन की संकल्प विकल्प रूप चंचल क्रिया है; तथापि आप केवल ज्ञान मई दिव्य चक्षु से सर्व विश्व को एक साथ जानते व देखते हो । आपकी महिमा अपार है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण प्रश्न-ग्रन्थकार ने प्रथम तीर्थंकर या अन्य तीर्थंकरों को नमस्कार न करके इन्हीं श्री विमलनाथ तीर्थंकर को क्यों नमस्कार किया है ? उत्तर-हमको ऐसा भाव भासित होता है कि ग्रन्थ-कर्ता को इन भगवान का इष्ट विशेष रूप से था तथा जिनका वे पराण लिख रहे हैं वे दोनों मेरु और मन्द भगवान के गणधर थे। इसलिए इन भगवान को नमस्कार किया है । तथा सामान्य रूप में यदि विचार किया जाय तो ग्रंथकार ने जिन गुणों को नमस्कार किया है वे गुण सभी भगवानों में विराजित हैं अतः उन्होंने इन गुणों को कहते हुए सभी तीर्थंकरों को नमस्कार किया है। अब यह मेरु और मंदर कौन थे इनका आगे चलकर विवेचन होगा। ग्रंथकार ने इस श्लोक में अपना लघुत्व प्रकट करते हुए कहा है कि इस ग्रंथ की रचना करने से मुझे कोई इसके प्रतिफल की, संसार की तथा अन्य वस्तु की कामना नहीं है; किन्तु जिस प्रकार श्रीविमलनाथ तीर्थङ्कर ने अपने तप के द्वारा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय व अन्तराय इन चारों कर्मों का नाश कर केवल ज्ञान ज्योति अर्थात् आत्मज्योति को प्राप्त की तथा जगत् की सर्व प्रात्मा को जगा कर सच्चा मार्ग दिखाया है उसी प्रकार मैं "वामन" मुनि उन्हीं के समान उन्हीं महानुभावों की पुनीत कथा की रचना करने से इस वाणी रूपी स्तुति के द्वारा मेरे अन्दर अनादिकाल से मोह अविद्या अज्ञान रूपी अन्धकार में छुपो हुई आत्म-ज्योति प्रकट होकर इस संसार रूपी अटवी से मुक्त हो जावे, इस हेतु से श्री विमलनाथजी तीर्थङ्कर के समवसरण सभा में जो मुख्य प्रसिद्धि को प्राप्त हो चुके हैं, सुखी हैं और तीन लोक के भव्य जीवों के द्वारा पूजा के योग्य हुए ऐसे मेरु और मन्दर के नाम के जो गणधर शास्त्र समुद्र के पारगामी होकर भव्य जीवों को कल्याण का मार्ग बता दिया है ऐसे महान पवित्र पुराण पुरुषों की कथा लिखने के लिये मेरे मन को अत्यन्त परिशुद्ध कर के मन वचन काय के द्वारा इस तमिल भाषा ग्रन्थ की रचना का प्रारम्भ करता हूँ। विशेष विवेचन-ग्रंथकार ने भव्य प्राणियों के लिए संसार की विचित्रता और संसार शरीर भोग सम्बंधी वस्तुओं का परिचय करने के लिये सबसे पहले पंचेन्द्रिय विषय में मग्न हुए अज्ञानी जीवों को महान पुरुषों का कथन करके इन संसारी विषयों (पंचेन्द्रिय भोगों) से विरक्त करके वास्तविक पात्म तत्त्व के सन्मुख करने का प्रयास किया है। क्योंकि संसार, शरीर एवं भोगों को इन संसारी जीवों ने अनेक बार प्राप्त करके उनको छोडते आए हैं । इसके बारे में श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार में कहा है कि एयत्तरिणच्छयगमो समग्रो सम्वत्थ सुदरो लोए । बंधकहाएयत्ते तेण विसंवादिणी होई ।। ३ ।। भावार्थ-बंध होने का कारण यह है कि अन्य पदार्थ से बद्ध होने वाला एक पदार्थ स्वस्वभाव त्याग पूर्वक पर स्वभाव को स्वीकार करने वाला न होने से दो विजायतीय पदार्थों का वस्तुतः एकीभाव अभिन्नत्व होना असंभव होने से वास्तव बंध होता ही नहीं। बंध का अर्थ एकीभवन है। पदार्थ और उसके गुण पर्याय में जिस प्रकार एकीभवन तादारम्य होता है उसी प्रकार दो भिन्न स्वभाव वाले अतएव विजातीय पदार्थों में एकीभवन Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 मेरु मंदर पुराण तादात्म्य नहीं होता । अशुद्ध प्रज्ञानी जीव और पुद्गल कर्म इनमें जो बंध होता है वह वास्तव बंध न होने से स्वस्वरूप स्थित वे दोनों पदार्थ किसी समय अलग हो जाते हैं। यदि वह बंध वास्तव होता उनका मोक्ष पृथग्भाव होना ही असंभव हो जाता क्योंकि बंध से उन दोनों में तादात्म्य हो जाता है । जिनमें वास्तव बंध- एकीभाव तादात्म्य होता है उनमें एक का प्रभाव हो जाने पर दूसरे का भी प्रभाव हो जाता है, जैसे गुरणी का अभाव होने पर गुणों का अभाव और गुरणों का प्रभाव होने पर गुरणी का प्रभाव । एकीभाव स्तोत्र "एकी भावगतं इव मया यः स्वयं कर्मबन्धः " इस प्रथम चरण में प्राचार्य श्री वादिराज सूरि ने "एकी भाव गतं इव" इन पदों के द्वारा इसी प्राशय को पुष्ट किया है। क्योंकि “इव" शब्द के द्वारा जीव के साथ वास्तव कर्म बंध के एकीभाव का प्रभेद का तादात्म्य का प्रतिषेध किया है। इस प्रकार समयसार में कुन्दकुन्दाचार्य ने बंध कथा को गौरण करके निश्चय कथन को मुख्य बताया है क्योंकि व्यवहार नय का परिचय जीव को अनेक बार हो चुका है किन्तु एकत्व आत्म स्वरूप व शुद्ध चैतन्य स्वरूप का निश्चय अनुभव में नहीं आया । सो यह बात ठीक ही है । परन्तु निश्चय नय श्रात्म स्वरूप की अनुभूति के लिये व्यवहार नय गृहस्थाश्रम में मुख्य माना गया है । क्योंकि जब तक वस्तु स्वरूप का ज्ञान हो, तब तक उसके साधन भूत व्यवहार नय का श्राश्रय अत्यन्त आवश्यक है। जिस प्रकार सोने का पत्थर मिल जाय और यह सोने का पत्थर ही है ऐसी प्रतीति होती है तब मनुष्य उस पत्थर जैसे सोने को अलग करने हेतु जुटाने की सामग्री करने का प्रयत्न करता है । यदि सामग्री ठीक मिल जाय कृति भी मिल जाय और फिर सोने को भी मुस (प्याला) में गला दे तो उस मुस में रहने वाला कचरा व सोना भिन्न हो जाता है । तब उसमें जो साधन होता है वह अपने आप छूट जाता है । तत्पश्चात् जो पहले सामग्री साधन जुटाई थी साधक उस तरफ कभी भी दृष्टि नहीं डालता । इस प्रकार अनादिकाल से सोना व पत्थर जैसे एक रूप में उसके सम्पूर्ण पत्थर के श्रवयव में पूर्ण रूप से छिपे हुए हैं उसी प्रकार आत्मा अनादि काल से इस सर्वाङ्ग शरीर में एक क्षेत्रावगाह रूप में धारण किये हुए है। अब इन दोनों को भिन्न भिन्न रूप में करने के लिये भेद ज्ञान की आवश्यकता है । इसलिये आचार्यों ने सर्व प्रथम भोगों का परिचय होने से उसी को अपने से शुभ की ओर जाने को कहा है। संसारी जीवों को अनादिकाल से पंचेन्द्रिय विषय सुख का मार्ग मान रखा है. अतः उन्हीं में अशुभ आचार्य ने इस अज्ञानी जीव को इसका परिचय या भोगों की लालसा हटाने के लिये सब से पहले संसार और भोग विषय का तथा उससे भिन्न परमार्थ का पृथक् २ प्रतिपादन किया है। दुःख से छुड़ा कर पुण्य में तथा शुभ राग में परिणमन कर पुण्य का बंघ होने वाली कथाओं का विवेचन किया है। जैसे छोटे बालक की माता उसकी खोटी प्रदत छुड़ाने के लिए किसी मीठी वस्तु का लालच देकर बुरी आदत छुड़ाने का प्रयत्न करती है । तब वह बच्चा एक बार मीठी चीज को चाटने पर बुरी चीज को छोड़ देता है तब उस बुरी वस्तु पर उसकी इच्छा नहीं होती है। इसी तरह प्राचार्यों ने संसार की विषय वासनाओं को कम करने के लिए सर्व प्रथम प्रथमानुयोग की कथाओं का विवेचन किया है । श्री समन्त Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा मंदर पुरारण [ पुण्य भद्राचार्य ने भी अज्ञानी गृहस्थ को 'की ओर परिणमन करने के लिये प्रथमानुयोग का ही कथन किया है । यह प्रथमानुयोग सम्यक्ज्ञान को उत्पन्न करने वाला है । यह प्रथमानुयोग कैसा है : - इस सम्बन्ध में श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में भी लोक नं० ४३ में कहा है प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् । बोधिसमाधि-निधानं बोधति बोधः समीचीनः ॥ इसकी टीका करते हुए प० सदासुखजी लिखते हैं अर्थ - " सम्यक् ज्ञान है सो प्रथमानुगोग नै जाने है। कैसा है प्रथमानुयोग ? अर्थ जे धर्म अर्थ काम मोक्ष रूप चार पुरुषार्थ जिनका है कथन जार्म, बहुरि चरित कहिये एक पुरुष के श्राश्रय कथा जामे, बहुरि त्रिपष्ठिशलाका पुरुपनि की कथनी का सम्बन्ध का प्ररूपक यातें पुराण है । बहुरि बोधि समाधि को निधान है जो सम्यग्दर्शनादिक नाहीं प्राप्त भये तिनकी प्राप्ति होना सो वोधि है और प्राप्त भये जिन सम्यक् दर्शनादिकनि की जो परिपूर्णता सो समाधि 1. वही प्रथमानुयोग रत्नत्रय की प्राप्ति को र परिपूर्णता को निधान है, उत्पत्ति को स्थान है, र पुण्य होने का काररण है, नाते पुण्य है । ऐसा प्रथमानुयोग कृतं सम्यक् ज्ञान ही जाने है ।" इस कारण यह प्रथमानुयोग पुण्य बंध का कारण है और प्रथम अवस्था में यह कारण रूप साधन है । इसलिए श्री वामन मुनि ने अज्ञानी जीवों को पुण्य रूप में परिरणत करने के लिये पुण्य पुरुषों की पुनीत कथाओं का विवेचन किया है । मलै पोल निड् वैयिल्-वन् परिण मारि वंदाल् । निल पे लिल्ला निलयिन् मुन्नन्नादु निड्रेन् ॥ कलैया निरैदार कडंदं कवि मा कडलिन् । निर्लयाटु मिन्ना दिदु नींदुदर्कु मेळ देन् ॥३॥ अर्थ - प्रीष्मकाल, वर्षाकाल, शीतकाल ऐसे ये तीन काल प्रपने को प्राप्त होने पर भी पर्वत के समान अचल रह कर अपने आत्म स्वरूप में स्थिर रहने वाले, उसी स्थान को छोड़ कर अन्य स्थान में नहीं जाने वाले, अथवा संघ के समूह का अनुभव न करने वाले मनुष्य अत्यंत दुर्लभ हैं। इसके द्वारा ग्रात्म साधन के लिये तपश्चरण करके श्रात्मानुभव अभी तक नहीं करने वाले, दुर्द्धर तपस्या का अनुभव न करने वाले, तपश्चरण के द्वारा अत्यंत दुर्लभ ऐसे आत्म स्वरूप का अनुभव न करने वाले मैं वामन मुनि नवीन दीक्षित होकर सम्पूर्ण शास्त्र समुद्र के पारंगत, ऐसे श्रुत केवली के द्वारा ही उसका भन्त न लगने वाले ऐसे शास्त्र समुद्र को मैं पूर्ण विचार न करके शास्त्र रूपी समुद्र से तिरकर पार होंगे ऐसा मन में विचार करके इस काव्य रचना को करने के लिये कटिबद्ध हुआ हूँ । भावार्थ- - इसका सारांश यह है कि वामन मुनि के नवीन दीक्षित होते ही इस काव्य की रचना करने की भावना उत्पन्न हुई। ऐसा इसका प्राशय है । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] मेरु मंदर पुराण विशेष विवेचन- गर्मी, वर्षा तथा शीतकाल में किसी भी बाधा के उत्पन्न होने पर अपने अचल ध्यान में स्थित रहने वाले तथा घबरा कर एक स्थान को छोड कर दूसरे स्थान में न जाने वाले ऐसे मुनियों के समुदाय के सामने मैं नवीन दीक्षित वामन मुनि हू । वे सम्यग्दृष्टि मुनि अपने अंदर क्या विचार करते हैं सो रत्नकरंड श्रावकाचार में कहा है कि "दुक्खक्खयक्रम्मक्खय समाहि-मरणं च बोहिला हो य । एयं पत्थेदव्वं रण पत्थरणीय तदो अण्ण" || 11 • अर्थ – “हमारे शरीर धारणादिक जन्म मरण क्षुधा तृषादिक दुःखनि को क्षय होहु, श्रात्म गुण कू नष्ट करने वाला मोहनीय ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्म को क्षय होहु, तथा इस पर्याय में चार आराधना का धारण सहित समाधि मरण होहु, बोधि जो रत्न - यता का लाभ होहु । सम्यक् दृष्टि के ऐसी ही प्रार्थना करने योग्य है । इनतै अन्य इस भव में परभव में प्रार्थना करने योग्य नहीं है । संसार में परिभ्रमण करता जीव उच्चकुल नीचकुल, राज्य, ऐश्वर्य, धनाढ्यता, निर्धनता, दीनता, रोगीपना, नीरोगपना, रूपवानपना विरूपपना, बलवानपना, पण्डितपना, मूर्खपना, स्वामीपना, सेवकपना, राजापना, रङ्कपना, गुणवानपना, निर्गुणपना, अनन्तानन्त बार पाया है, पर छोडया है । तातें इस क्लेश रूप संयोग-वियोग - रूप संसार में सम्यग् दृष्टि निदान कैसे करें ? इस संसार में अनन्तपर्याय दुःख रूप पावे तदि एक पर्याय इन्द्रिय जनित सुख को पावे, फिर अनन्त बार दुःख को पावे । सो ऐसे परिवर्तन करते इन्द्रिय जनित सुख हूं अनन्त बार पाया । अब सम्यग्दृष्टि इन्द्रियनि के सुखकी कैसे बांछा करे है ? इस संसार में स्वयंभूरमरण. समुद्र का समस्त जल प्रमारण तो दुःख है, अर एक बालकी प्ररणी ताका अनन्त . भाग करिये तिनमें एक भाग प्रमाण इन्द्रियजनित सुख है । इसतें कैसे तृप्ति होय ? अर भोगनिका त्याग तथा इष्ट सम्पदाका संयोगका जेता सुख है तिसतें असंख्यातगुणा वियोग काल में दुःख है । अर संयोग होय ताका वियोग नियम से होयगा । जैसे शहदकरि लिप्त खड्गकी धाराकू जो जिह्वाकरि चाटे, ढाके स्पर्शमात्र मिष्टताका सुख अर जिह्वा कटि पड़े ताका महादु ख । तैसे विषयनिकें संयोग का सुख जाने । तथा जैसे किपाकफल दीखने में सुन्दर, खावनेमें मिष्ट हैं पीछे प्रारणनिका नाश करे हैं। तथा जहरते मिल्या मोदक खाने में मीठा, परन्तु परिपाक काल में प्रारणनिका नाश करने वाला है । तैसे भोग-जनित सुख | बहुरि जैसे कोऊ पुरुष कने बहुत घन होय । अल्पमोल लीया चाहें तो बहुत धनके साटे थोरा धन मिल जाय । र श्राप कने अल्प धन होय र वाका मोल बहुत चाहै तो नहीं मिलें । तैसे जो स्वयं की सम्पदा पाके योग्य पुण्यबन्ध किया होय र पीछे निदान करने अपना अधिक पुण्य होय ताकू घाति तुच्छ सम्पदा जाय पावे है, पाछे संसार परिभ्रमरण याका फल है । जैसे सुतकी लंबी डोरीकरि बंधा पक्षी दूर उडि गया हुआ उसी स्थानकू प्राप्त होय है । जातें दूरि उडि चल्या तो कहा ? पग तो सूत की डोरीतें बांधा . है, जाय नाहीं सकेगा । तैसें निदान करने वाला प्रति दूरि स्वर्गादिकमें महद्धिकदेव हुआ हू संसार ही में परिभ्रमण करेगा : देव लोक जाय करके हू निदानके प्रभावतें एकेंद्रिय तिर्यंचनि में तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंचनिमें तथा मनुष्य में श्राय, पापसंचय करि दीर्घकाल परिभ्रमरण करे है । अथवा जैसे ऋण सहित पुरुष करार करि बन्दीगृहते टिकरि अपने घर में सुख आय Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण बस्या, तो हू करार पूर्ण भये फिर बंदीगृहमें जाय बसे । तैसे निदानकरि सहित पुरुष हू तप संयमते पुण्य उपजाय, स्वर्गलोक जाय करके ह प्राय पूर्ण भये स्वर्गते चय, संसारहीमें परिभ्रमण करै है। यहां ऐसा जानना जो मुनिपनामें व श्रावकपनामें मन्द-कषायके प्रभावते वा तपश्चरणके प्रभावते अहमिंद्रनिमें तथा स्वर्गमें उपजनेका पुष्यसंचय किया होय अर पाछे भोगनिकी बांछादिकरूप निदान करे तो भवनत्रिकादिक अशुभ देवनिमें जाय उपजे । पर जाके पुण्य अधिक होय अर अल्प पुण्य का फलके योग्य निदान करे तो अल्प पुण्यवाला देव मनुष्य जाय उपजै, अधिक पुण्यवाला देव मनुष्यनिमें नाहीं उपजे । जो निर्वाणका तथा स्वर्गादिकनिके सुखका देनेवाला मुनि श्रावकका उत्तमधर्म धारणकरि निदानतें बिगाडै है सो ईधनकें अथि कल्पवृक्षकू छेदे हैं । ऐसे निदानशल्यका दोष वर्णन किया । अब मायाशल्य का दोष कौन वर्णन करि सके ?मायाचारके अनेक दोष कहे ही हैं। मायाचारी का व्रत शील संयम समस्त भ्रष्ट है। जो भगवान जिनेन्द्र का प्ररूप्या धर्म धारण करि पर आत्माकू दुर्गतिनिके दुखतें रक्षा करी चाहो हो तो कोटि उपदेशनिका सार एक उपदेश यह है जो मायाशल्यकू हृदय में से निकास द्यो, यश पर धर्म दौऊनिका नाश करने वाला मायाचार त्याग, सरलता अंगीकार करो। बहुरि मिथ्यात्व है सो इस समस्त संसार परिभ्रमण का बीज है । मिथ्यात्व के प्रभाव ते अनन्तानन्त परिवर्तन किया। मिथ्यात्व विषकू उगल्यां बिना सत्य धर्म प्रवेशही नाहीं करै। मिथ्यात्वशल्य शीघ्र ही त्यागो । माया मिथ्यात्व निदान- इन तीन शल्य का अभाव हुआ बिना मुनि श्रावक का धर्म कदाचित् नाहीं होय, निःशल्य ही व्रती होय है । बहुरि दुष्ट मनुष्यनिका संगम मति करो। जिन की संगतितें पाप में ग्लानि जाति रहे, पाप में प्रवृत्ति होय तिनका प्रसंग कदाचित् मति करो । जुआरी चोर छली परस्त्री-लंपट जिह्वा-इन्द्रिय का लोलुपी, कुल के प्राचारत भ्रष्ट, विश्वासघाती. मित्रद्रोही,गुरुद्रोही अपयशके भय रहित, निर्लज्ज, पाप क्रिया में निपुण, व्यसनी, असत्यवादी असन्तोषी, अतिलोभी, अतिनिर्दयी, कर्कश परिणामी, कलहप्रिय, विसंवादी वा कुचाल प्रचण्ड परिणामी,प्रति क्रोधी, परलोक का अभाव कहने वाला नास्तिक. पाप के भयरहित, तीव मूर्छा का धारक, अभक्ष्य का भक्षक, वेश्यासक्त, मद्यपायी, नीच कर्मी इत्यादिकनि की संगति मति करो। जो श्रावक धर्म की रक्षा किया चाहो हो, जो अपना हित चाहो हो, तो अग्नि समान विनाशमान कुसंग जानि दूरत ही छांडो। जातं जैसा का संग करोगे तिस में ही प्रीति होयगी, अर प्रीति जामें होय ताका विश्वास होय । विश्वासते तन्मयता होय है । तातै जैसी संगति करोगे तैसा हो जावोगे । जाते अचेतन मृत्तिका हू संसर्गतें:सुगन्ध दुर्गन्ध होय है तो चेतन मनुष्य की संगति करि परके गुण अवगुण रूप कैसे नाहीं परिणमेगा ? जो जैसे की मित्रता करे है सो तैसा ही होय है । दुर्जन की संगति करि सज्जन हू अपनी सज्जनता छांडि दुर्जन हो जाय है । जैसे शीतल जल अग्नि की संगति से अपना शीतल स्वभाव छांडि तप्तपने में प्राप्त होय है। उत्तम पुरुष ह प्रधम की संगति पाय अधमताप्राप्त होय हैं । जैसे देवता के मस्तक चढ़नेवाली सुगध पुष्पनि की माला हू मृतक का हृदय का संसर्गकरि स्पर्शने योग्य नाहीं रहैहै । दुष्टकी संगतिते त्यागी संयमी पुरुष हू दोष सहित शंका करिये है । लोक तो परके छिद्र देखने वाले हैं, पर के दोष कहने में आसक्त हैं, जो तुम दुष्टनिकी दुराचारीनि की संगति करोगे तो तुम लोकनिदान प्राप्त होय धर्म का अपवाद करावोगे । ताते कसंग मति करो। खोटे मनुष्य की संगति ते निर्दोष ह दोषसहित मिथ्या Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] मेरु मंदर पुराण मार्गी शीघ्र होय है । जातें मिथ्यात्व कषायनिका परिचय तो अनादि काल का है और वीतरागभाव. कदाचित् कोई महा कष्टतै उपज्या सो कुसंग पाय क्षण मात्र में जाता रहेगा " __ इस प्रकार दीर्घकाल से दीक्षा लेकर व मुनि तपस्या कर के शास्त्र समुद्र के पारंगत ऐसे मुनि का जैसा ज्ञान मेरे में कहां? इस कारण मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार उनके चरण कमल के प्रसाद से छोटा बालक जिस प्रकार महा समुद्र की उपमा अपने हाथ फैला कर बताता है उसी प्रकार मैं अपनी तुच्छ बुद्धि के अनुसार इस ग्रन्थ की रचना करता है। नल्लोरगळ पोय वळिनाल डिपोयिनालु। पोल्लांगु नीगि पुगळाइ पुण्यमुमागु॥ सोल्ला निरदं श्रुतकेवलि सेंड्र मार्ग । सोल्वा नेळ देर् कोरुतीमै युडाग बट्रो ॥४॥ ग्रन्थकार निर्विघ्नता से ग्रन्थ की समाप्ति की कामना करता है। श्रेष्ठ ज्ञान से युक्त जाने वाले मार्ग से यदि अज्ञानी उनके साथ चार कदम भी चला जावे तो वह अपने दुःखों को समाप्त करके पुण्य प्राप्त करने वाली कीर्ति को प्राप्त करता है। उत्तम वचनों से युक्त परिपूर्ण ऐसे मेरु और मंदर नाम के जो दो श्रुत केवली हैं यह दोनों जिस मार्ग पर गये हैं उसी मार्ग से जाने वाले अज्ञानी भी श्रेष्ठ चारित्र मार्ग को प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार मैं अपने मन में ऐसा विचार कर के मेरु और मंदर गणधर श्रुत केवली हैं जो उनके चारित्र लिखने से मैं भी उनके समान कीर्ति को प्राप्त होकर प्रात्म कल्याण का श्रेष्ठ मार्ग आगे चल कर प्राप्त करू इस हेतु से मैं ग्रंथ की रचना प्रारम्भ कर रहा हूं। इसके प्रारम्भ करने में कोई विघ्न नहीं आएगा। क्या ऐसे महान पुरुषों के चरित्र लिखने में कभी विघ्न आयेगा? कदापि नहीं पायेगा । भावार्थ-ग्रन्थकार ने अपनी लघुता प्रकट करते हुए इस श्लोक में प्रतिपादित किया है कि महान गुणों से युक्त चारित्रवान ज्ञानी लोगों के साथ चार. कदम भी अज्ञानी चले तो पुण्य व कीर्ति को प्राप्त होता है और उसके सम्पूर्ण कष्ट दूर हो जाते हैं-सत्पुरुषों को संगति से क्या २ नहीं होता है । चरित्रवान पुरुष की संगति से यमपाल चाण्डाल, जम्बूकुमार प्रादि अपने कुकृत्य को छोड़कर सच्चारित्र को धारण करते हुए महान तपस्वी हो गये। महान पापी जीव भी श्रेष्ठ पुरुषों की संगति से तिर गये तो मैं भी ऐसे महान तपस्वी मेरु व मंदर नामक श्रुतकेवलियों के चरित्र का वर्णन करूंगा तो क्या मेरी भी संसार की स्थिति नहीं छूटेगी ? अवश्य छूट जावेगी। इस निमित्त से ऐसे चारित्रवान पुरुषों के चरित्र को भव्य जीवों के प्रात्म कल्याण के हेतु कहने के लिये मेरे द्वारा प्रारंभ करने वाले पुण्य के के मार्ग में क्या कभी विघ्न उपस्थित हो सकता है ? कदापि नहीं । ऐसे महान पुरुषों के चरित्र वर्णन करने से कभी कोई विघ्न हो ही नहीं सकता है। श्री पूज्यपाद प्राचार्य ने अपनी समाधि भक्ति में इस प्रकार भावना की है कि Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण [११ "शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुतिः संगतिः सर्वदायैः। सवृत्तानां गुणगणकथा दोषवादे च मौनम् ।। सर्वस्यापि प्रिय-हितवचो भावना चात्मतत्त्वे । सपाता मम भव-भवे यावदेतेऽपवर्गः ।। अर्थात्-मेरे अन्दर भगवान की जो वाणी है वह सदैव भरी रहे। उनके गुण गान की स्तुति, महान पुरुषों की संगति, सदाचारवृत्ति, हमेशा साधु की संगति में रहने को भावना, गुणीजनों की कथा, दोषी जनों से मौन, सभी के साथ हित मित वचन, प्रात्म-तत्त्व में रुचि इतनी बातें हे भगवन् ! मेरे हृदय में सदैव बनी रहे। इस प्रकार मैं भी यही भावना भाता हूँ कि उन्हीं के समान मेरे अंदर भी इस पुण्य नायक मेरु और मंदर श्रुतकेवली के वर्णन करने में मेरी भावना बनी रहे। इसलिये भव्य जीव पूण्य पुरुषों की कथा का मनन करके अपने जीवन को कल्याणमय बना लेवें। ऐसी मैं इच्छा करता हूँ। मैं छद्मस्थ है, परन्तु मैं पुण्य पुरुषों की कथा काव्य रूप लिखने के लिये कटिबद्ध हूँ। ज्ञानी लोग इस कविता को पढ़ते समय इस काव्य में, लघु गुरू शब्द, तर्क, व्याकरण प्रादि की दृष्टि से काव्य को देखेंगे । इसमें कदाचित् व्याकरण की शुद्धि अंक शुद्धि, गुरू लघु आदि २ दोषों को देखकर के मेरी अवहेलना न करें। मैं मन्दबुद्धि हूँ। तर्क व्याकरण प्रादि शास्त्रों का ज्ञान मुझे न होने पर भी केवल मैं पुण्य पुरुषों के पुण्य चरित्र को लिखना प्रारम्भ कर रहा हूँ। इसलिये इसमें दोषों को न देखकर जिन महान पुरुषों का चरित्र मैं लिख रहा हूँ, उन्हीं की तरफ दृष्टि डालकर, उसमें महान पुरुषों के जो गुण हैं वह ग्रहण करें और ज्ञानी लोग मेरी भूल को न देखें। पुण्णे पोविंद किलिपोपोडिरद पोळ दिर् । पोन पोविंद किळि तन्न युं पोन्निन् वैपर् ।। पुण्मै सोल्ले पुराण पुरुळ पोदिंदाल । नन्मकन् वैकिणीनामिरंगु पडित्तो ॥५॥ अर्थ-लोक में पुराने फटे हुए मलिन कपड़े में जिस प्रकार सोने को लपेट कर रखने से कपड़ा भी सोने के साथ पूज्य हो जाता है, उसी प्रकार के पुराण पुरुषों के चरित्र को मेरी मल्प बुद्धि द्वारा कहने पर ही मेरे जैसे श्रेष्ठ तथा पवित्र हो जाते हैं। इसलिये पवित्र भाव से लिखे हुए इस चरित्र को ग्रहण करके मेरी भूल पर ध्यान न देकर इसे क्षमा करें। इस कृति को मन, वच, काय व उपयोग द्वारा जो सुनेगा उनको क्या कभी कष्ट मायेगा? कभी नहीं। भावार्थ-कवि इस श्लोक में अपनी लघुता को प्रकट करता है। जिस प्रकार पुराने मलिन कपड़े में लिपटे हुए होने के साथ कपड़ा भी पूज्य हो जाता है उसी प्रकार सज्जन चरित्रवान पुरुषों के साथ अल्पज्ञानी भी महा ज्ञानी बन जाता है। यह संगति का प्रभाव है। इसी तरह मेरे में अल्प बुद्धि होने पर भी जिस महान् पवित्र चरित्रंशाली उत्तम पुरुषों Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण का चरित्र निर्माण करने में मेरी बुद्धि लीन हो जाय तो मेरा ज्ञान उन्हीं के समान होने में कोई आश्चर्य नहीं है । इसलिये भव्य सज्जन ज्ञानी पुरुषों को अल्प बुद्धि के द्वारा कविता के रूप में स्मरण कर रहा हूँ, अतः इसके पवित्र सार को ग्रहण करके इह लोक और परलोक में सुख भाव रखकर मैं इस कृति को प्रारम्भ करता हूँ। इसके अलावा मुझे अन्य कोई भी प्रयोजन को कामना नहीं है। चन्द्रमा में थोड़ा सा काला दाग रहने पर भी चन्द्रमा के प्रकाश में क्या कभी न्यूनता आती है ? कदापि नहीं। उसी तरह महान पुरुषों की कथा का वर्णन करते समय कहीं शब्द दोष भी आ जाये तो सत्पुरुषों के महान चरित्र को कहने में कभी मलिनता नहीं पायेगी। विदेह क्षेत्र का वर्णन:मरिण मुडि कवित्त ववन् मन्नबर् तन्नं चूळ । वरिणइ नोडिरुंद वे पो लयंकियं कडलु ती ॥ तनिविळ सूळ मेरु बेन्नु तडमुडि कवित्त, जंबु । वनियि नोडिरुव दीप सरसन तगल तोबन ॥६॥ अर्थ-अत्यन्त माणिक्य और मोती की मंणियों के द्वारा सुसज्जित मणियों का हार धारण कर सभा के बीच में बैठे हुए एक चक्रवर्ती को जिस प्रकार उनके चारों ओर मुकुट बंध राजा महाराजा घेरे हुए के समान असंख्यात द्वीप और समुद्र से घेरे उसमें कहीं अधिकता और न्यूनता रहित महान मेरू रूपी मुकुट को धारण कर अत्यन्त सुन्दर, उसके बीच में विराजित होकर जम्बू द्वीप नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुया जम्बू नाम के राजा के हृदय के बीच में अर्थात जम्बू द्वीप के मध्य में अत्यन्त सुन्दर लक्ष्मी के समान प्रकाशमान होने वाले पीले सोने के पर्वत के समान चमकने वाले महामेरू पर्वत से सम्बन्धित होकर धर्म तीर्थ जैसे नदी के समान बहा कर जाने वाले परम्परा के रूप में गन्ध मालिनी नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ देश है । ऐसा देश इस संसार में अत्यन्त दुर्लभ है । और ऐसे देश में भव्य जीव जन्म लेकर मानव जीवन को सार्थक बनाने की भावना रखने वाले भी अत्यन्त दुर्लभ होते हैं। और उसे वैराग्य भावना से युक्त जिनेन्द्र भगवान के तत्त्व के प्रति उपासक के अनुसार धर्म का पालन, व्रत, शील का नियम पालन करने वाले भव्य श्रावकों का देश में मिलना दर्लभ है। उत्तम श्रावक धर्म की प्राप्ति होने पर भी श्रावक धर्म का पालन कर अपने मनुष्य के द्वारा मोक्ष और स्वर्ग प्राप्त करने वाले तपश्चर्य की भावना करके इस शरीर को तप के द्वारा कर्म निर्जरा कर मोक्ष को प्राप्त करने की इच्छा करने वाले जीवों के लिये यह क्षेत्र हमेशा जीवों का साधन और मोक्ष स्थान है ऐसे मोक्ष स्थान को जिसमें मोक्ष की परिपाटी हमेशा चलती रहती है क्षेत्र को सार्थक नाम प्राप्त हुआ, विदेह क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध है । वह विदेह क्षेत्र सीतोदा नदो के पास उत्तर में है ।।६।। भावार्थ-कवि ने इस श्लोक में जम्बू द्वीपका वर्णन किया है । यह जम्बू द्वीप अत्यंत मुन्दर, उत्तम मणि और मुकुट को धारण कर बैठा हुमा षटखंडाधिपति चक्रवर्ती के पारों मोर अनेक मण्डलिक महामण्डलिक राजा-महाराजा घेरे हुए बैठे हुए के समान Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १३ प्रतीत होते हैं। इस तरह असंख्यात समुद्र द्वीपों से घेरा हुमा उसमें तिलमात्र भी कम ज्यादा नहीं और मानो महा मेरू के समान महान पर्वत को मकट के रूपमें धारण कर बैठा हो, ऐसे प्रसिद्ध जम्बू द्वीप के राजा के हृदय में अत्यन्त सुन्दर महालक्ष्मी के समान युक्त होने वाले सोने के माफिक लाल रंग वाले मेरू पर्वत से सम्बन्ध रखने वाले व मालिनी नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ देश है । वह देश संसार में अत्यंत दुर्लभ है। और उसमें रहने वाले जीव वैराग्य भावना बल से संसार के भव्य जीवों को विरक्त कराके, उस धारण किये हुए मानव शरीर के बल से, तप धारण कर सम्पूर्ण कर्मको जड़को उखाड़कर इन भव्य जीवों को संसार से उठाकर मोक्ष रूपी स्थान में रखने की सामर्थ्य को रखता है। ऐसे सामर्थ्य रखने वाले प्रसिद्धि को प्राप्त हुअा क्षेत्र है । यह विदेह क्षेत्र सीतोदा नदी के उत्तर में है ।। ।। गंध मालिनी देशका वर्णन तिरुवेनतिगळदु शंबोन् मलइनच् सेर्दु तीर्थ । मरुविये सेल्नु गंध मालिनि एन्नु नाडु ॥ विरविला विदेह केंद्र,मुरै युळाय विदेगनामम् । मरुविय नाटुच्चियोवगै वड तडत्ति लुडे ॥७॥ ऐजिर पयरु देवर नाल्वगै कुळ प्रोडंबो। निजि सूळ दिलंगुमेळ निलत्तिर यिरुक्क वट्ट । मंजिलं पार्गळार लरिवन देळ च्चियादि । एंजिडा वंद नाटिन् पेरुमया रियंब वल्लार् ॥८॥ इस पवित्र गंध मालिनी देश में सदैव भगवान के पांचों कल्याण होते रहते हैं। पंच कल्याण पूजा के लिये पाने वाले भवनवासो, व्यंतर, ज्योतिषी, कल्पेन्द्र तथा स्वर्ण मयी शरीर तीनों भित्तियों से घेरा हुआ सात भूमियों से युक्त त्रिलोकीनाथ ऐसे अहंत परमेष्ठी विराजमान होने वाले रत्नाकार उस समवसरण भूमि में सुन्दर पांवों में पंजनी पहनने वाली स्त्रियां आदि उत्सव में अधिक से अधिक पाती हैं । ऐसे धर्म हमेशा मोक्ष के साधन रूप में रहने वाले गंध मालिनी देशका वर्णन कौन कर सकता है कोई नहीं। भगवान के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण इस प्रकार पांच कल्याण होते हैं । तीर्थङ्कर भगवान स्वर्ग अथवा नरक गति से च्युत होकर उत्पन्न होते हैं। भरत, ऐरावत और विदेह क्षेत्र में उनका आगमन होता है । अर्थात् स्वर्ग या नरक से च्युत होकर इन क्षेत्रों में उत्पन्न होते हैं। उनके गर्भावतरण के छह मास पूर्व लगातार माता के प्रांगण में स्वर्ण व रत्नों की वर्षा होती है । तथा.गर्भावतरण हो चुकने के बाद नौ मास पर्यन्त माता के आगन में सौधर्म इन्द्र की प्राज्ञा से कुवेर स्वर्ण और रत्नों की वर्षा करता है । तथा उनका नगर स्वर्णमय हो जाता है । अर्हन्त की इस समस्त संपत्ति का वर्णन महा पुराण से जानना चाहिये । इन नौ बातों का प्राश्रय लेकर प्रत्यन्त निकट श्रेष्ठ भध्य जीव महन्त भगवान की Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] मेरु मंदर पुराण भावना करते हैं । अर्थात् उन्हें अपने हृदय कमल में निश्चल रूप से धारण करते हैं । जैसा कि कुन्द-कुन्दाचार्य ने प्रष्ट पाहुड़ ( बोध पाहुड ) में गाथा सं० ३० में कहा है जरवाहिजम्म मरणं चउगइगमरणं च पुण्यपावं च । हंतूरण दोसकम्मे हुउ गाणमयं च अरहतो॥ ___ महन्त भगवान के जो नाम हैं वे नाम जिन हैं । उनकी प्रतिमाएं स्थापना जिन है। महन्त भगवान का जीव द्रव्य जिन है । और समवशरण में भगवान भाव जिन हैं । बोध पाहुड में यही कहा है गामे ठवणे हि य संदव्वे भावे हि सगुणपज्जाया । चउणगदि संपदिमे भावा भावति अग्हतं ॥२८॥ इस श्लोक में नामादि चार निक्षेपों की अपेक्षा अर्हन्त का वर्णन किया है। मरंहतों का वर्णन करते हुए बोध पाहुड में और भी लिखा है दंसरण प्रणंत गाणे मोक्खो गट्ठट्ठकम्मबंधेण । रिणरुवमगुणमारूढो अरहत एरिसो होई ॥२६॥ गाथार्थ-जिनके अनंत दर्शन और अनंत ज्ञान विद्यमान है । आठों कर्मों का बंध नष्ट हो जाने से जिन्हें भाव मोक्ष प्राप्त हुआ है तथा जो अनुपम गुणों को प्राप्त हैं ऐसे अर्हन्त होते हैं। विशेषार्थ-पदार्थ की सत्ता मात्र का पालोचक न होना दर्शन है और विशेषता के लये विकल्प सहित जानना ज्ञान कहलाता है । ज्ञानावरण के क्षय से अनन्त ज्ञान और दर्शनावरण के क्षय से अनन्त दर्शन अर्हन्त भगवान के प्रकट होते हैं । इन दोनों गुणों के रहते हुए उनके पाठों कर्मों का बंध नष्ट हो जाने से मोक्ष भाव मोक्ष होता है। प्रश्न-मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तराय-क्षयाच्च केवलम्, मोहनीय तथा जानावरण और अन्तराय के क्षय से केवल ज्ञान होता है। उमास्वामी के इस वचन से सिद्ध है कि अरहन्त भगवान के चार कर्म ही नष्ट हुए हैं जन्हें "नष्टानष्ट कर्म बन्धे" क्यों कहा जाता है ? उत्तर-आपने ठीक कहा है, परन्तु जिस प्रकार सेनापति के नष्ट हो जाने पर शत्रु समूह के जीवित रहते हुए भी वह मृत के समान जान पड़ता है, उसी प्रकार सब कर्मों के मुख्य भूत मोहनीय कर्म के नष्ट हो जाने पर यद्यपि प्रहन्त भगवान के वेदनीय आयु नाम और गोत्र ये चार प्रघाति कर्म विद्यमान रहते हैं तथापि नाना प्रकार के फलोदय का प्रभाव होने से वे भी नष्ट हो गये, ऐसा कहा जाता है । क्योंकि विकार उत्पन्न करने वाले भाव का प्रभाव हो जाता है । उपमा-रहित अनन्त चतुष्टय रूप गुणों को प्राप्त हुये अर्हन्त प्रष्ट कर्म से रहित कहे जाते हैं । ऊपर कही विशेषतामों से युक्त पुरुष होता है तथा उपचार से उसे मुक्त ही कहते हैं। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nArran मेरु मंदर पुराण [ १५ विवेचन-x “अर्हन्त के गणनि में अनुराग सो अर्हन्त भक्ति है। जो पूर्व जन्म में षोडश कारण भावना भायी है सो तीर्थङ्कर होय, अर्हन्त होय है । ताके तो षोड़श कारण नाम भावना ते उपजाया अद्भुत पुण्य ताके प्रभाव ते गर्भ में प्रावने के छह माह के पहले इन्द्र की आज्ञा ते कुवेर बारह योजन लम्बी, नव योजन चौड़ी रत्नमयी नगरी रचे हैं । तिसके मध्य राजा के रहने के महल, नगरी की रचना बड़े-बड़े द्वार कोट खाई परकोटे इत्यादिक रत्नमयी कुवेर रचना करे, ताकी महिमा कोऊ हजार जिह्वानि करि वर्णन करने कू समर्थ नाहीं है । तथा तीर्थङ्कर की माता का गर्भ का शोधना अरु रुचक द्वीपादिक में निवास करने वाली छप्पन कुमारिका देवी माता की नाना प्रकार की सेवा करने में सावधान होय है । और गर्भ के प्रावने के छह मास पूर्व प्रभात मध्याह्न और अपराह्न एक एक-काल में आकाश ते साड़े तीन कोटि रत्ननि की वर्षा कुवेर करे है। अर पाछे गर्भ में आवते ही इन्द्रादिक चार निकाय के देवनिका आसन कम्पायमान होने ते च्यार प्रकार के देव आय नगर की प्रदिक्षिणा देय माता पिता की पूजा सत्कारादि करि अपने स्थान जाय हैं। भगवान तीर्थङ्कर स्फटिक मणि का पिटारा समान मलादि रहित माता के गर्भ में तिष्ठे हैं । पर कमल वासिनी छह देवी पर छप्पन रुचिक द्वीप में बसने वाली और अनेक देवी माता की सेवा करे हैं । और नव महीना पूर्ण होते उचित अवसर में जन्म होते ही चारों निकाय के देवनिका आसन कम्पायमान होना पर वादित्रनि का अकस्मात् बाजने ते जिनेन्द्र का जन्म जानि, बड़ा हष से सौ धर्म नामा इन्द्र लक्ष योजन प्रमाण ऐरावत हस्ती ऊपरि चढ़ि, अपना सौधर्म स्वर्ग का इकतीसवां पटल में अठारवां श्रेणी बद्ध नाम विमान ते असंख्यात देव अपने परिवार सहित साढ़े बारह जाति के वादित्रनि की मिष्ट ध्वनि पर असंख्यात देवनि का जयजयकार शब्द, अनेक ध्वजा उत्सव सामग्री पर कोटयाँ अप्सरानि का नत्यादि कर उत्सव पर कोटयाँ गन्धर्व देवनि का गावने करि सहित असंख्यात योजन ऊँचा इन्द्र का रहने का पटल, अर असंख्यात योजन ऊँचा इहांते तिर्यक् दक्षिण दिशा में है। तहां ते जम्बूद्वीप पर्यन्त असंख्यात योजन उत्सव करते आय नगर की प्रदक्षिणा देय इन्द्राणी प्रसूति गृह में जाय माता कू माया निद्रा के वश करि, वियोग के दुःख के भय ते अपनी देवत्व शक्ति ते तहां बालक और रचि, तीर्थङ्कर कूबड़ी भक्ति से ल्याय इन्द्र कू सौपे हैं। तिस काल में देखता इन्द्र तृप्ततांकू नाहीं प्राप्त होता हजार नेत्र रचि करि देखे हैं। फिर ईशान स्वर्ग के देव, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषीनिके इन्द्रादिक असंख्यात देव अपनी-अपनी सेना वाहन परिवार सहित प्रावे हैं । तहां सौधर्म ऐरावत हस्ती ऊपरि चढ्या भगवान कू गोद में लेय चालें। तहां ईशान इन्द्र छत्र धारण करें, पर सनत्कुमार महेन्द्र चंवर ढारते अन्य असंख्यात देव अपने अपने नियोग में सावधान बड़ा उत्सव ते मेरु गिरि का पाडुकवन में पांडुक शिला ऊपरि अकृत्रिम सिंहासन है तिस ऊपरि जिनेन्द्र कूपधराय है । अर पांडुक वन ते समुद्र पर्यन्त दोऊ तरफ देवों की पंक्ति बंध जाय है। क्षीर समुद्र मेरु की भूमि ते पांच कोड़ दस लाख साढ़ा गरगचास हजार योजन परे है । तिस अवसर में मेरु की चूलिकात दोऊ तरफ मुकुट कुण्डल हार कंकणादि अद्भुत रत्ननि के प्राभरण पहरे देवनिकी पंक्ति मेरु की चूलिकाते क्षीर समुद्र पर्यन्त श्रेणी बंधे हैं । पर हाथू हाथ कलश सौंपे हैं, तहां दोऊ तरफ इन्द्र के खड़े रहने के अन्य दोय छोटे सिंहासन ऊपरि सोधर्म ईशान इन्द्र कलश लेय अभिषेक x पं. सदासुखजी कृत रलकरंर श्रावकाचार से । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण एक हजार आठ कलशनिकरि करै है । तिन कलशनिका मुख एक योजन का, उदर चारि योजन चौड़ा, पाठ योजन ऊंचा, तिन कलश निते निकसी धारा भगवान के वज्रमय शरीर ऊपरि पुष्पनि की वर्षा समान बाधा नाहीं करै है । अर पाछे इन्द्राणि कोमल वस्त्र ते पोंछकर अपना जन्म को कृतार्थ मानती स्वर्गतै ल्याये रत्नमय समस्त प्राभरण वस्त्र पहरावे है। तहां अनेक देव अनेक उत्सव विस्तारे है तिनकूलिखने कोऊ समर्थ नांहीं। मेरु गिरतें पूर्ववत् उत्सव करते जिनेन्द्र कूल्याय माता कू समर्पण कर इन्द्र वहां तांडव नृत्यादिक जो उत्सव करे है तिन समस्त उत्सवनिकू कोऊ असंख्यातकाल पर्यन्त कोटि जिह्वानि करि वर्णन करने कूसमर्थ नाहीं है। - जिनेन्द्र भगवान जन्मते ही तीथङ्कर प्रकृति के प्रभाव से दस प्रतिशय ज.म के साथ उत्पन्न होते हैं, पसीना रहित शरीर के मल, मूत्र, कफ आदि से रहित और शरीर में दूध के समान रुधिर, समचतुरस्र संस्थान व्रजऋषभनाराच न व्रजऋषभनाराच संहनन, अद्भुत अप्रमाण रूप, महा सुगंध शरीर, अप्रमाण बल, एक हजार आठ लक्षण, प्रिय हित मधुर वचन, ये समस्त पूर्व जन्म में षोड़श कारण भावना भायी हुई के कारण है। और इन्द्र द्वारा अंग ष्ठ में स्थापना किया हुआ अमृत का पान करते हैं । माता के स्तन में पाया हुआ दूध नहीं पीते हैं । पुनः अपनी अवस्था के समान देवकुमार के साथ क्रीड़ा करते हुने वृद्धि को प्राप्त होते हैं। और स्वर्गलोक तें आया हुअा अाभरण वस्त्र, भोजन आदि मनोवांछित देव द्वारा लाये हुये भोजन से तृप्त होते है और वह देव रात दिन उनकी सेवामें हाज़िर रहते हैं । पृथ्वी लोक का भोजन, वस्त्रादिक, आभरण को अंगीकार नहीं करते हैं। स्वर्ग से आये हुए भोगों को भोगते हैं। पुनः कुमारकाल व्यतीत कर इन्द्र के द्वारा अद्भुत उत्साह करके भक्ति पूर्वक पिता के द्वारा समर्पण कियाहुना राजभोग को भोग कर तत्पश्चात् अवसर पाकर संसार, देह और भोगों से विरक्त होते हुए बारह भावना भाते हुए वंदन श्रवण करते हुए भगवान को सम्बोधन करते हैं। और जिनेन्द्र वैराग्य भाव होते ही चार निकाय इन्द्रादिकनि के देव अपने आसन कम्मायमान होते ही जिनेन्द्र का जन्म अवधि ज्ञान से जानकर बड़े उत्सव के साथ आकर अभिषेक करके देवलोक से लाये हुए वस्त्राभरण भक्ति से अलंकार भगवान को कराते हैं। तत्पश्चात् रत्नमयी पालकी की रचना करके जिनेन्द्र भगवान को विराजमान करते हैं.। अनेक प्रकार के उत्सव करके जयजयकार करते हुए तप करने योग्य वन में ले जाकर उतार देते हैं। वहां आभरण:समस्त त्यागकर-देव अधर नतमस्तक होकर नमस्कार करते हैं। तब भगवान एक शिला पर बैठकर सिद्ध भगवान को नमस्कार करके पर मुटठी केश लोंच करते हैं। उस केश लोंच को जो भगवान ने उसको अत्यन्त भक्ति के साथ · नमस्कार करते हुए रत्नों की पेटी में रख कर उसको क्षीर समुद्र में ले जाकर के क्षेपण करते हैं। जिनेन्द्र केतेककाल में तप तथा शुक्ल ध्यान के प्रभाव से क्षपक श्रणी में घातिया कर्म का नाश कर केवल ज्ञान प्राप्त करै हैं । तब ही परहंत पना प्रकट होता है । तद् केवल ज्ञान भूत, भविष्य, वर्तमान त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों की अनंतानंत परिणति कर सहित अनुक्रमते एक समय में सब को जान लेता है और देख लेता है । तथा चारों प्रकार के देव ज्ञान कल्याण की पूजा स्तवन कर भगवान के उपदेश के लिये समवसरण रचते हैं । वह समवसरण महान विभूति वाला, पांच हजार धनुष ऊँचा, जिसके बीच हजार पेढी, जिस पर इन्द्र नील मणि मय गोल भूमि बारह योजन प्रमाण समवसरण की रचना है । जह Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण समवसरण रचना होय मीर भगवान का विहार होय वहां ग्रंधों को दीखने लग जाय, बहरे श्रवण करने लग जाय, लंगड़े चलने लग बाय, नूगे बोलने लग जांय । इस प्रकार वीतराग की अद्भुत महिमा है । उस समवसरण धूलि शालादिक रत्नमयी कोट मानस्तम्भ बावड़ी जल को खातिका, पुष्पवाड़ी फिर रत्नमय कोट दरवाजे, नाटयशाला, उपवन, वेदी-भूमि, फिर कोट, फिर कल्पवृक्षनि का जिसमें देवच्छद नाम का एक योजन का मंडप सब तरफ बारह सभा अंतरिक्ष विराजमान भगवान प्ररहंत है। जिनकी अनन्त ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य, अनंत सुखमयी, अंतरंग विभूति की महिमा कहने के लिये चार ज्ञान का वारक गणधर भी समर्थ नहीं हैं। अन्य कौन कह सकता है ? उस समवसरण की विभूनि ही वचन के अगोचर है । तीसरी कटनी पर गंध कुटी है जहां चौसठ चँवर बतीस युगल देवन के मुकुट; कुडल हार, कड़ा, भुजबंधादिक, सर्व प्राभरण पहने ढ़ाल रहे हैं। तीन छत्र अद्भुत कांति के धारक जिनकी कान्ति से सूर्य चन्द्रमा भी मंद ज्योति भासे हैं और जिनकी देह का प्रभा मंडल का चक्र बंध रहा । जिसके कारण उस समवसरण में रात दिन का कोई भेद भाव नहीं है । सदैव दिन ही प्रवर्ते हैं । और वहां की सुगंध ऐसी है जैसी सुगन्ध त्रैलोक्य में भी नहीं है । ऐसी गंध कुटी के ऊपर देवारा रचित अशोक वृक्ष को देखते ही समस्त लोकनि का शोक नष्ट हो जाता है। और प्राकाश ते कल्प वृक्षों की पुष्प वर्षा होती है तथा साढे बारह करोड जाति के वादित्रों की ऐसी मधुरी ध्वनि होती है जिनके सुनने मात्र मे क्षुधा तृषा प्रादि सर्व रोग, बेदना नष्ट हो जाती है मौर रत्न जड़ित सिंहासन सूर्य की कांति को जीतता है। जिनेन्द्र भगवान की दिव्य ध्वनि की अद्भुत महिमा है। वह ध्वनि त्रैलोक्य के जीवों की परम उपकार करने वाली और मोह अंधकार का नाश करने वाली है तथा समस्त जीव अपनी-अपनी भाषा में उन शब्दों का प्रर्य ग्रहण करें हैं। दिव्य ध्वनि की महिमा गणधर तथा इन्द्र भी अपने वचनों के द्वारा कहने को समर्थ नहीं हैं। उस समवसरण में सिह और हाथी, व्याघ्र और गाय, बिल्ली और हंस इत्यादिक सर्व जाति विरोधी मोव वैर बुद्धि छोड़ कर परस्पर मित्रता करने लगे हैं। बोतरागता की अद्भुत महिमा को असंख्यात देव जय जयकार करें हैं और देवनिकर रचित काश. झारी, दर्पण. ध्वजा. ढोल छत्र, चवंर, बीजना ये अटूट प्रचेनने द्रव्य भी लोक में मंगलता को प्राप्त होते हैं। भगवान को केवल ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् दस अतिशय प्रकट होते हैं । चारों ओर सौ-मी योजन सुभिक्षिता और प्राकाश गमन, भूमि का म्पर्शन तथा किसी भी प्राणी का वध नहीं होता और भोजन तथा उपसर्ग का प्रभाव चतर्मख दीखे, समस्त विद्या का ईश्वरना. छाया रहितपना तथा नेत्रों का टिमकारना व केश व नख नहीं बढ़ते हैं । इस प्रकार दस अतिशय घातिया कर्मों के नाश करने से स्वयं प्रकट हो जाते तीर्थंकर प्रकृति के प्रभाव से चौदह अतिशय देवों द्वारा होते हैं । प्रर्ध मागधी भाषा, सर्व जनों में मैत्री भाव, समस्त ऋतु के फल फूल, पत्रादिक सहित वृक्ष होय । पृथ्वी दर्पण समान रत्नमयी, तृण-कंटक-रजरहित, शीतल मंद. सुगन्ध, हवा चले। सब प्राणियों को मानन्द प्रकट हो, अनुकूल पवन सुगन्ध जल की वृष्टि होती है । भगवान जहां चरण धरते हैं Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ man. १८] मेरु मंदर पुराण वहां सात पैंड मागे और सात पीचे मोर एक बीच में ऐसे पन्द्रह पन्द्रह कर दो सौ पच्चीस कमलों की रचना करते हैं। माकाश तथा दिशायें चार प्रकार के देवों द्वारा जय-जयकार का शब्द । एक हजार सूर्य मंडल का पारा सहित किरणिनिकाधारक अपना उद्योत कर सूर्य मंडल का तिरस्कार करता हा धर्म चक्र आगे चले । अष्ट मंडल द्रव्य । इस प्रकार चौदह अतिशय प्रकट होते हैं । भगवान के अठारह दोष, क्षधा, तष्णा, जन्म, जरा, मृत्य, रोग, शोक, भय, विस्मय, राग, द्वेष, मोह, अरति, चिंता, स्वेद । खेद, मद, निन्दा नहीं होते । इस कारण सदैव उनकी वेदना व स्तवन करना चाहिये । ये अरहंत सुख का करने वाला है। इनके अनन्त नाम है और इन्द्र भक्ति के वशमय भगवान का एक हजार आठ नाम का स्तवन करते हैं, तथा अल्प सामर्थ्य के धारक अपनी शक्ति प्रमाण, अरहंत भगवान की पूजन स्तवन तथा नस्कार करते हैं । इस प्रकार संक्षेप में भगवान के पांचों कल्याणों का विवेचन किया गया इस प्रकार समवशरण का वर्णन किया है । उस समवशरण में भगवान के बिहार में भवनवासी,ज्योतिषी, व्यंतर, कल्पेन्द्र इस प्रकार चारों प्रकार के देवेन्द्र त्रायस्त्रिपरिषद प्रात्म रक्ष लोकपाल, पार्णव, प्रकीर्णक, अवयोग, किलविष, ऐसे दस प्रकार के देव रहते हैं । इसमें व्यंतर और ज्योतिषी देवों में प्रायस्त्रिश और लोकपाल देव नहीं रहते बाकी चार प्रकार के देव भगवान के बिहार काल में पाते हैं । मरिणइला मलयुमिन बनप्पिला वनमुमिले। करिणइला निलमु मिल कर बिला काडमिन्ने । येनिइलामगलिरिल्ल येळगिला मैंद रि। तुनिविला तुरवुमिल्ने तूतिला बोळक्क मिल्लं ॥६॥ अर्थ-वहां नव रत्न मणि केसिवाय पर्वत नहीं रहते हैं। सुन्दरता रहित उपवन नहीं रहता है-धन्य-धान रहित खेत नहीं रहता, गन्ना रहित देश नहीं है, रूप रहित स्त्रियां नहीं है । रूप रहित पुरुष नहीं है, सम्यक दर्शन रहित तपस्वी नहीं है. हमेशा परिशुद्ध चारित्र बाले व्यक्ति रहते हैं। भावार्थ:-प्रन्थकार ने इस श्लोक में गन्ध मालिनी देश के स्त्री और पुरुषों का और वहां स्थित पर्वत-भूमि उद्यान आदि का भी वर्णन किया है । उस देश में रत्न मरिणमय पर्वत है, अत्यन्त रूपवती स्त्रियां रहती हैं । उसो प्रकार अत्यन्त. सुन्दर कामदेव के समान पुरुष रहते हैं, तथा धन्य धान्य से समृद्धि शाली वहां की भूमि है .सुन्दर फल और पुष्पों से भरे हुए हरे-भरे अनेक प्रकार के उद्यान हैं, कामदेव के धारण करने वाले अत्यन्त सुन्दर पुरुष और सम्यक दर्शन से युक्त श्रावक हमेशा रहते हैं । चारित्र से रहित वहां कोई साधु नहीं रहते । कारण इसका यह है कि जहां सदैव चतुर्थ काल बरतते हैं वहां अधिक से अधिक पुण्यवान स्त्रियां और पुरुष रहते हैं और उस स्थान में नहानतीर्थकर व श्रेषठ शलाका पुरुषों का जन्म होता रहता है क्योंकि वहां भूमि पुण्यमय होने के कारण सदैव पुण्य पुरुष ही उत्पन्न होते हैं जिस जीव ने पूर्व जन्म में अतिशय पुण्य किया हो और जिसने अतिशय निरतिचार पुण्य को पालन कर अत्यन्त घोर तपश्चरण किया हो ऐसा पुग्यशाली जीव उस भूमि में उत्पन्न होकर पूर्व जन्म के पुण्योदय से मन पूर्वक सुख भोगकर Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A .A m r . .. ... . . ... .. .. . मेरु मंदर पुराण [ १६ अन्त में संसार के भोगों से विरक्त होकर तप धारण करके उस तप के द्वारा मोक्ष को प्राप्त होता है । अतः ऐसी पुण्य भूमि में उत्पन्न होना यह पूर्व जन्म में किया हमा तप और निरितिचार पूर्वक श्रावक व्रत को पालन किया हुआ पुण्य का फल है । कपिला मगळिरिल्ले करण इल्लारु मिल्ल । पोपिला वरमुमिल्लं पोद मिल्लारु मिल्लै । तर्क मिल्लारु मिल्ल दानमिल्लार मिल्ने । सोर्कन् मै लाद मिल्लं तूयरल्लारु मिल्ल ॥१०॥ अर्थ-गंधमालिनी देश में पतिव्रतारहित स्त्रियां नहीं हैं। दया धर्म रहित पुरुष नहीं हैं । उस देश में अधिक से अधिक धर्माचरण वाले मनुष्य मिलेंगे। ज्ञान तथा स्वाध्याय रहित वहां कोई भी श्रावक नहीं मिल सकता । उस देश में प्रतिदिन आहार, औषधि, शास्त्र अभय इन चार प्रकार के दान देने वाले तथा अपने कर्तव्य को समझने वाले श्रावक मिलेंगे। वहां असत्य बोलने वाले कोई भी स्त्री या पुरुष नहीं मिल सकते । उस देश में शुद्ध परिणामी तथा सद्भावना रखने वाले मनुष्य मिलेंगे ॥१०॥ भावार्थ-प्राचार्य ने इस श्लोक में विदेह क्षेत्र के श्रावक श्राविकाओं का वर्णन किया है। उस गंधमालिनी देश में स्त्रियां पतिव्रता सुधीर, संतोषी पुरुष अधिक धर्म में रुचि रखने वाले, अत्यन्त ज्ञान से युक्त-न्याय तर्क व्याकरण आदि के ज्ञाता तथा चार प्रकार के दान देने वाले श्रावक सदैव मिलेंगे। वहां के मानव प्राणी सदा सत्य वचन का पालन करने वाले होते हैं । सत्य के अतिरिक्त झूठ वचन उनके मुख से कभी भूलकर भी नहीं सुनने में पाते। ऐसे शुद्धभाव सहित धर्मात्मा पुरुष दुर्द्ध र तप करने में रुचि रखने वाले सम्यग्दर्शन ज्ञान सहित पुरुष सदैव यहां विचरते रहते हैं . जहां पर भक्ति नहीं है वहां पर मोक्ष मार्ग का ख्याल भी नहीं है। भावार्थ-इस सम्बन्ध में श्री कुन्द कुन्दाचार्य ने रयणसार के गाथा नं० ७७ में इस प्रकार लिखा है वत्थुसमग्गोमूढो लोहियलहिए फलंजहा पच्छा। भणणाणो जो विसय परिचतो लहइ तहा चेवा ।।७७।। भावार्थ-समस्त सामग्री और भोगोपभोग साधनों का समागम प्राप्त होने पर लोभी मनुष्य उनका भोग नहीं करता है, बल्कि लोभवश वह पापों का ही संग्रह करता रहता है । ठीक इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव व्रत तपश्चारणादि करके उसके फल से संसार को वृद्धि ही करता है । मिथ्यादृष्टि जीवों का तपश्चरण भी पाप का ही कारण है। वत्यु समग्गो गाणी सुपत्तदाणी फलं जज्ञ लहइ । गाण समग्गो विसय परिचितो लहइ तहा चेव ॥७॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] मेरु मंदर पुराण भावार्थ - सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष धन संपत्ति और भव को सत्पात्रों को दान देकर उसके प्रभाव से चक्रवर्ती तीर्थंकर, इन्द्र, नागेन्द्र पद तथा मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त कर लेते हैं । अर्थात् ज्ञानी जीव विषय कषायों से विरक्त होकर चारित्र को धारण करके उसी भव से मोक्षपद प्राप्त कर लेते हैं । भू महिला कण्णाइ लोहाहि विसहरं कपि हवे | सम्मत्तरगाण वेरग्गो सहमतेण जिरणुद्दिट्ठ ७६॥ भावार्थ- स्वरर्णादि अलंकारों से अलंकृत राजमहल और स्त्री आदि पदार्थों के लोभ रूपी सर्प के विष का निवारण करने के लिये सम्यग्दर्शन सहित ज्ञान तथा वैराग्य रूपी अमोघ मंत्र ही फलदायक है, ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है । पुव्व पचें दिय तर मरणुवचि हत्थायमु डाउ | पच्छा सिर मुंडाउ फिवगइ पहरणायगा होइ ||८०|| भावार्थ - सर्वप्रथम अपने पांचों इन्द्रियों को निग्रह करना चाहिये । तत्पश्चात् क्रम से मन वचन काय द्वारा अपने शरीर को वश में करना चाहिये । फिर सिर का मुंडन करना चाहिये, इससे भव्य जीवों को मोक्ष की प्राप्ति होती है || ८० ॥ पतिभत्ति विहीण सदी भिच्चोय जिरण समय भत्ति हीरण जई । गुरुभत्ति बिहीण सिस्सो दुग्गइ मग्गाणु लग्गणोरियमा ॥८१॥ भावार्थ - पति की भक्ति से रहित स्त्री, स्वामी की भक्ति से रहित सेवक, शास्त्र की भक्ति से रहित साधु तथा गुरू की भक्ति से रहित शिष्य महान् निन्द्य और दुर्गति का पात्र होता है । इस प्रकार उस गंधमालिनी देश में श्रावक और श्राविकायें कर्म निर्जरा करने के लिये सदैव दान धर्म में मग्न रहती हैं ॥ १० ॥ मारिण नल वरं बोन् वरंड्रिमा तिर सेंदुम् । तुनिनल बैळ कोंबुस तोगयु मयिरुमेदि ।। बनिग नल्लोरु बन् पोल बयलग मत्तवारु । पनिविला पळकोडंगि निर्लयन परदंदंड्रे ॥। ११॥ गंध मालिनी देश की नदियों का वर्णन अर्थ - जिस प्रकार रत्न, हीरे, मोती, पन्ना वैडूर्य मरिण, माणिक्य स्वर्णादि के आभूषण सदा जगमगाते रहते हैं उसी प्रकार बड़े वेग से बहने वाली वहां की नदियों का अत्यन्त निर्मल नीर निरन्तर कल-कल ध्वनि करता रहता है। जिस प्रकार एक व्यापारी अनेक प्रकार के स्वर्ण, चांदी, चन्दन, हाथी दांत, मोरपंख, चमरी गाय के बाल आदि सामग्री Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २१ एक देश से दूसरे देश में भेजते रहते हैं । उसी प्रकार वहां से वहने वाली नदियां अपने स्वच्छ शोतल जल को एक देश से दूसरे देश में प्रवाहित करती रहती हैं। इन नदियों के किनारे किसी प्रकार के फल-फूल की कमी नहीं रहती । अर्थात् कदली, ताड़, नारियल, बिजनौर, सुपारी, ग्राम, नींबू, नारंगी, अनार, संतरा आदि अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम वृक्ष उस नदी के दोनों तट पर स्थित हैं, जिनमें कि सदा उत्तमोत्तम फल लगे रहते हैं । उनके आकर्षण से पथिक गरण सदैव फलों का आस्वादन करते हुये वृक्षों के नीचे विश्राम करते रहते हैं । भावार्थ - ग्रन्थकार ने इस श्लोक में नदियों का वर्णन किया है । जिस प्रकार वैडूर्य मणि, माणिक्य मोती आदि सूर्य के प्रकाश के समान जगमगाते रहते हैं उसी प्रकार बहता हुआ नदी का अत्यन्त निर्मल, स्वच्छ तथा चमकता हुआ जल कल-कल ध्वनि करना हुआ बहता रहता है। जिस प्रकार एक बड़ा व्यापारी सुगंधित चंदन, मारणक मोती, हाथी दांत तथा चंवर बनाने के लिए चंवरी गाय के बालों के व्यापार करने के लिये एक देश से दूसरे देश में ले जाता है उसी प्रकार विदेह क्षेत्र की नदियां दोनों तट पर चंदन, कदली, जम्भीर, नींबू, नारगी, ग्राम, खजूर, ताड़, श्रीफल तथा श्रमरूद यादि अनेक वनस्पतियों से सुशोभित होती हैं । इनमें अनेक प्रकार के फूल-फल बराबर लगे रहते हैं । इस सघन उपवन की शोभा को देखकर पथगमन करने वाले पथिकों का श्रम दूर हो जाता है, और वे आकर इसी उपवन में फल-फूल खाकर विश्राम करते हैं तथा नदी के निर्मल जल में स्नान-पान आदि करके आनन्द मनाते हैं । कुळ गळम् मल रुक् सेट्रिन् कुयिलगळ, मयिलुमा । मळं येन मदुक्कळ दुदु वंडोड तुरंबि पाडि ॥ विले युरुन् तर्गय बागि वेंडि नार् वेंडिट्रियु । मळगुडं मरंगळ पोंडू वम्मल सोलं येल्लाम् ॥१२॥ अर्थ – नाना प्रकार के सुन्दर एवं सुगन्धित पुष्पों के बीच बैठकर सुगन्धित तथा स्वादिष्ट पुष्परस को पान करके प्रसन्न होकर कोयल, भ्रमर तथा मयूरादि की पंक्तियां परम सुहावनी लगती थीं, तथा गान करती हुई इन पक्षियों की ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती थी कि मानों कोई किन्नर किंपुरुष आदि देव देवियां स्वर्ग से नीचे उतरकर वीणा वादन के माथ प्रत्यन्त मधुर स्वर में गान कर रही हों। उन भ्रमर, कोयल और मयूरादि पक्षियों की मधुर ध्वनि पथिक जनों के कानों को अत्यन्त मानन्द उत्पन्न करती थी। उस वन में उत्पन्न सभी वृक्ष पथिक जनों को इच्छित फल देकर कल्पवृक्ष के समान प्रतीत होते थे ।।१२।। भावार्थं - इस श्लोक में ग्रंथकार ने विदेह क्षेत्र में स्थित वनभूमि का वर्णन किया है । उस वनप्रदेश में उत्पन्न सुगन्धित लता, वेली, वृक्ष, केतकी, चंपा, चमेली मंदार, पुष्प, मालती, जुही, मुक्ताफल आदि पुष्पों के बीच बैठकर उस करिणका के मध्य रहने वाले भ्रमर समूह मधुर रस को पान करके अत्यन्त मधुर स्वर वीणा वादन के समान गुजार करते थे । कदली आदि अनेक वृक्षों में बैठकर सुपक्व मिष्ट मधुर फल को खाकर कोयल और मयूर पक्षी इस प्रकार मधुर स्वर करते थे कि मानों स्वर्गीय अप्सरायें या किन्नर देव-देवियां एकत्रित होकर वीणा वादन पूर्वक गान कर रही हो । उस बन में उत्तम फल और फूलों से Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुरारण २२ ] भरे हुये वृक्ष पथिक जनों को इच्छानुसार कल्पवृक्ष के समान तृप्त करते थे । इस प्रकार विदेह क्षेत्र के पवित्र भूमि का वर्णन हुआ ।। १२ ।। मदियोड मोंग नील मरिणतळत्तिरुंद वेपोर् । पोदिय विळ कमल मबल पूत्तन पौयगेएल्लाम् ॥ मदमिस करुपिन बेंडा मरेमिसे वंडिन् पाडल् । मदियन्न मुगत्ति नल्लार् बाय् पनि नेळ विधदोङ्रे ॥ १३ ॥ अर्थ - चन्द्रमा को नक्षत्र इस प्रकार घेर लेते हैं कि जैसे इन्द्र नील मरिण रत्नों के द्वारा निर्माण किया हुआ यह भूभाग ही हैं । उस भूमि में रहने वाले सरोवर के सभी कमल ऐसे दीखते थे कि चन्द्रमा में रहने वाले कालेपन के समान श्वेत वर्णके सफेद पुष्पों पर भ्रमरों के अत्यन्त सुन्दर और सरस मंकार शब्द हो रहे हों । और चन्द्रमा के समान स्त्रियों के मुख कमलों से “सा रे ग म प " ऐसे शब्द निकल रहे हों। इस प्रकार भ्रमर के शब्द सुनाई दे रहे थे। भावार्थ - चन्द्रमा के समान नक्षत्र ऐसे प्रतीत होते हैं कि जैसे इन्द्र नीलमणि के समान भूमि में खिलने वाले नील व श्वेत कमल खिले हुये हों । वह ऐसा प्रतीत हो रहा था कि चन्द्रमा में रहने वाले काले-पन कमल में अन्दर रहने वाले उड़ने वाले भ्रमर हों और अत्यन्त सुन्दर व सरस भंकार शब्द चन्द्रमुखी स्त्रियों के मुखकमल से अत्यन्त मधुर शब्द निकल रहे हों ।। १३॥ अनमेन कुरुगुतारानारेवंडानङ कोळि । तुन्निन पेडंगलोडम् तुरंदवु मळंत तोटू ।। मिन्नरि शिलंवि नल्लार सिल्लरि शिलंबवाडि । कण्याळ, पैलुम शालै पोंडून कयंगळ ल्लाम् ॥ १४ ॥ || विदेह क्षेत्र की उपजाऊ भूमि का वर्णन || अर्थ - अत्यन्त सुन्दर पुष्प बगीचों, वृक्षों, और कोमल लताओं में थोड़ा भा अन्तर न होता हुआ एक में एक सभी पल्लवों पर बैठे हुये कोयल पक्षी के अत्यन्त मधुर शब्द और वर्षा को बुन्दे पड़ने तथा मधुमक्खी के शहद के छत से बून्द पड़ने के समान ऊपर से गिरते हुये ऐसे मालूम होते हैं कि जैसे प्राकाश में मेघ की वृन्दे पड़ रही हों और उसके बीच अत्यन्त मधुर शब्द के समान भ्रमर गुंजार कर रहे हों। ऐसी सुन्दर वहां की भूमि है । भावार्थ-सभी तालावों और सरोवरों में हंस पक्षी, प्रत्यन्त मधुर ध्वनि करने बाले सारस पक्षी तारा नामक पक्षी, सफेद बक पक्षी, जलमुर्गी अपने २ मादियों के साथ परस्पर में प्रेम पूर्वक उस पानी में जल क्रीड़ा करते हुये कल्लोल के साथ श्रानन्द मनाते हैं । क्षरण मात्र भी यदि दोनों में से किसी का विरह हो जाय तो दोनों प्रत्यन्त दुःखी हो जाते हैं और विरहातुर होकर चारों ओर देखने लगते हैं । इसके अतिरिक्त अत्यन्त प्रकाशमान व मधुर ध्वनि करने वाली पैंजनियां अपने पावों में बांधकर स्त्रियां और अल्पवय की बाल Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २३ कन्यायें इस प्रकार सुशोभित हो रही थीं कि मानों वीणा वादन व नृत्यकला आदि का शिक्षण केन्द्र ही इस सरोवर में स्थापित किया गया हो ।।१४।। सालिगळ करु बिर् सेट्रि शाक्तवु मुयर्दु तम्मिन् । मेलळ वोत्त शंबोन विरिदुड नींड्र, मेलोर् ॥ कालुर बनेगु वारिर कमलत्ति निरैजिकायत्त । नीलनर पवळ मुत्तिन कळत्त वाय निरँद पूगम् ॥१५॥ अर्थ-तालाब व सरोवर में रहने वाले सभी पक्षी अपने २ बाल बच्चों के साथ बड़े हर्ष पूर्वक जल क्रीड़ा करते हुये प्रानन्दपूर्वक अपने समय को व्यतीत कर रहे थे। वहां पर उत्तमोत्तम नथा सुगन्धित धान, चावल, गेहू गन्ना आदि की फसलें परस्पर में मिलकर एक साथ अधिक से अधिक वृद्धि को प्राप्त करने नीचे झुक जाती हैं। इनकी बालियां एक समान होती हैं और दर्शकों को देखने से ऐसी प्रतीत होती हैं कि मानों वे सभी स्वर्ण की बनी हुई हों, कुशल शिल्पियों द्वारा हाथों से तैयार की गई हों। भव्य जीव जिस प्रकार पूज्य पूरुषों के चरणों में विनीत भाव से नत मस्तक होकर प्रणाम करते हैं उसी प्रकार कम पुष्पों को नमस्कार करते थे और उस समय ऐसा प्रतीत होता था मानो सुपारी के वृक्षों में इन्द्र नील मरिण या पन्ना की मरिण ही लगकर फल रूप में परिपक्व हो गई हों। उसकी शोभा दर्शकों को इस प्रकार प्रतीत हो रही थी कि मानों परम सुन्दर स्त्रियां नीलमणि व मोती मरिण के हार को पहिन कर आई हों। भावार्थ-सुन्दर धान, चावल तथा गन्ने की फसलें अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त होकर उसकी बालियां एक समान झुकी हुई थी और वह देखने में इस प्रकार प्रतीत होती थीं कि मानों पीत वर्ण के सोने के तार बढ़कर नीचे को झुक गये हों। जिस प्रकार सत्पुरुषों के चरणों में भव्य जीव भक्ति भाव पूर्वक नमस्कार करते हैं उसी प्रकार कमल तथा सुपारी के सुन्दर पुष्प झुककर सुशोभित हो रहे थे। जिस प्रकार स्त्रियां अपने कंठ में पुखराज, मोती माणक आदि के सुन्दर हार को धारण किए रहती हैं उसी प्रकार वहां की सुन्दर सुगंधित हरे रंग की सुपारी झुकी हुई सुशोभित हो रही थी ॥१५॥ सूर्पळि इलाम यानुतूय नल्लोळ विक नानु । मिपिरप्पोंब लानु मेल्लर् पाडिन्मयानु। नद्रवर गीत लानु नादन शीरोदलांनु। कर्प. कामर वल्लियागळे पोलु मूर्गळ ॥१६॥ गंधमालिनी देश तथा तत्सम्बन्धी नगर में जितने भी प्राणी रहते हैं उनके मुह से कभी कटु वचन नहीं निकलते। वे अत्यन्त परिशुद्धभाव वाले, श्रेष्ठ चारित्र को धारण करनेवाले, संसार के समस्त प्राणियों पर करुणाभाव रखने वाले. महातपस्वी मनि आहारदान देनेवाले, सदैव जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति व गुणगान करने वाले, पतिव्रता स्त्रियों से युक्त पुष्पलता के समान अत्यन्त सुन्दर शरीर से सुशोभित स्त्रियों से युक्त उस नगर में उत्तम धावक धर्म में रत रहा करते थे। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] मेरु मंदर पुराण भावार्थ-उस देश के प्रत्येक ग्राम और नगर ऐसे सुशोभित हैं कि वहां के निवासियों के मुख से कभी कटु वचन नहीं निकलते हैं । संसार से भयभीत, शुभकामना वाले, चारों प्रकार के दानों में सदैव तल्लीन, उत्तमसत्पात्रों में प्रेम, शास्त्र-स्वाध्याय में लीन रहने वाले, जिनेन्द्र भगवान् का गुणगान करने वाले तथा सुन्दर पुष्पों को धारण करने वाले वहां के नगरनिवासी होते थे ।।१६। पारिलुळ ळ वलाम पडुपयन् पोदुउमाय्। एमलिन दिडंगळेगु मिबमे पयंदु नल् । वेरिशांद मूडु पोगि मेवि याडल् पाडलोडु। वार मादर पोंड्र माड ऊगडोर साडलाम् ॥१७॥ अर्थ-वहां की जनता विशाल नगर में ऊंचे २ महलों में निवास करती हुई विपुल वैभव से सम्पन्न थी । अर्थात् वहां पर चारों ओर से सर्व प्रकार का सुख ही सुख भरा हुआ था। वहां के स्त्री-पुरुष अत्यन्त सुन्दर शरीर को धारण करने वाले होते थे। चन्दन का शरीर में लेप करके उत्तमोत्तम अलंकारों से अलंकृत होकर नृत्यमंडप में जाते समय उनके शरीर की सुगंध चारों ओर फैलती जाती थी। और वेश्या स्त्रियों के द्वारा संगीत तथा नृत्यादि करते समय इस प्रकार नगर में महल सुशोभित हो रहे थे कि मानों स्वर्ग लोक में देवांगनायें नृत्य कर रही हों। भावार्थ-- वहां के महल तथा गोपुर अत्यन्त रमणीक, सम्पन्न तथा शोभायमान दीखते थे। उस नगर के निवासी सुख-शांति सम्पन्न होते थे । अर्थात् वहां पर सामान्य रीति से सर्वथा सख ही सुख था। उस नगर में अत्यन्त सगंध से भरी हई वस्त तथा चन्द के तेल को शरीर पर लेप करके नर्तन मंडप में प्रवेश करने वाले मनुष्यों की सुगन्ध चारों ओर फैल जाती थी और नृत्य संगीत आदि खेल को खेलने वाली देवांगनाओं के समान प्रतीत होती थी। उस समय ऐसा मालूम होता था कि मानों देवगण देवलोक से नीचे नृत्य करते हुये आ रहे हों। ऊचे २ महलों से नीचे उतरते समय उनके शरीर के आभरण देदीप्यमान होकर देवांगनाओं के समान सुशोभित हो रहे थे। . सुदरत्तलं मणि सुवर् पाळगु शंबोन । लंदर तडक्क मायनेग माल नांदगम् ।। मैंदरु मैलनारु मल्गुमाड माळिगे । इंदिर विमान मिगिलि गिरुव नीरवे ॥१८॥ अर्थ-अत्यन्त सुन्दर भूमि में वहां की बनी हुई दीवारें अनेक रत्नों तथा स्फटिक मरिणयों से निर्मित थीं। उस दीवार पर पीले रंग का लेप करके सुनहरे रंग से रत्न व सोने की मालाओं के समान चित्राम बना दिये गये थे। मयूर के समान चाल वाले पुरुष व स्त्रियों के महल ऐसे सुन्दर व रमणीय बने हुये थे कि मानों देवों के सुन्दर २ विमान ही स्वर्ग से उतर कर भूमि पर पा रहे हों। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २५ भावार्थ-अत्यन्त रमणीय उस भूमि पर बने हुये मकान व महलों की दीवारों पर स्फटिकमणिमय रत्न व सोना से लेप किया हुआ था, जिन पर मुन्दर मालायें लटकी हुई थीं। सुन्दर मयूर के समान चाल वाले स्त्री-पुरुषों के लिये ऐसे महल बना दिये गये थे कि मानों देवों के विमान ही स्वर्ग से उतर कर भूतल पर पा रहे हों। इस प्रकार वे महल और मकान सुशोभित हो रहे थे ॥१८॥ चातुर्य मिल्लवर मिळं मैंदर् तन्सोलु । माधुर्य मिल्लवैय मिल मद्रवर्शयळ ।। पोदुर्य मिल्लवय मिल्ल पोन्नेइ लिरै। कादरमु मिल्लवर मिल्ल यंदनाडेलाम् ॥१६॥ अर्थ-उस देश में रहने वाले पुरुषों में से कोई भी ऐसा पुरुष नहीं था जो कि शास्त्र आदि कलामों से रहित हो । अर्थात सभी स्त्री-पुरुष संपूर्ण कलात्रों सहित थे । उनकी मधुर वाणी थी, सदैव उनकी बुद्धि सत्कार करने में लगी रहती थी। वे स्वर्णमयी मन्दिर में भगवद् भजन, प्रहंत की भक्ति तथा पूजा में सदैव ठीक रहा करते थे। कोई भी प्राणी भगवान की पूजा आदि के बिना नहीं रहता था । अर्थात् उस देश में भगवान् की भक्ति से रहित कोई भी मनुष्य नहीं था। भावार्थ-उस देश में रहने वाले स्त्री-पुरुष सम्पूर्ण कलानों के जानकार थे। कोई भी कला से रहित नहीं था । सभी सुमधुर वाणी बोलते थे, सत्कार करने से कोई भी रिक्त नहीं था । वहां भगवान् की वेदी स्वर्ण से युक्त है । उसमें विराजमान भगवान् महन्त की भक्ति व पूजा करने वाले मनुष्य रहते थे। पूजा से रहित कोई मनुष्य नहीं रहता था। इसका सारांश यह है कि उस देश के निवासी पुरुष अत्यन्त वैभवशाली बलवान, धर्मात्मा, सकल शास्त्र-कला, तर्क, व्याकरण तथा छन्द शास्त्र प्रादि में परम प्रवीण, सर्वजन हितकारी तथा आनन्द को उत्पन्न करने वाले थे । वहां के रहने वाले भव्य प्राणी भगवान की पूजा में सदैव लीन रहते थे। यह सभी सौभाग्य मनुष्य को सम्यग्दर्शन सहित दान के कारण से होता है। धर्म रहित मनुष्य को यह सौभाग्य कभी प्राप्त नहीं हो सकता। आगे चलकर यही पुण्यानुपुण्य मोक्ष को देनेवाला हो जाता है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने रयणासार में कहा है कि : कामदुहिं कप्पतरु चिंतारयण रसायणं य समं । लदो भुजइ सोक्खं जहच्छियं जाण तह सम्म ॥५४।। . जिस प्रकार भाग्यशाली मनुष्य कामधेनु, कल्पवृक्ष, चिंतामणि रत्न और रसायन को प्राप्त कर मनवांछित उत्तम सुख को प्राप्त होता है, उसी प्रकार सम्यग-दर्शन से भव्य जीवों को सभी प्रकार के सर्वोत्कृष्ट सुख और समस्त प्रकार के भोगोपभोग स्वयमेव प्राप्त हो जाते हैं। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुमंदर पुराण २६ ] पद्मनन्दी प्राचार्य ने इस मानव प्राणो को सम्बोधन के साथ पद्मनंदिपंचविशतिका में कहा है कि : -- लब्धे कथं कथमपीह मनुष्यजन्मन्यङ्गप्रसंगवशतो हि कुरु स्वकार्यम् । प्राप्तं तु कामपि गति कुमते तिरश्चां कस्त्वां भविष्यति विबोधयितुं समर्थः । १६८ । जन्म प्राप्य नरेषु निर्मलकुले क्लेशान्मतेः पाटवं । भक्ति जैनमते कथं कथमपि प्रागजित यसः ॥ संसारार्णवतारकं सुखकरं धर्म न ये कुर्वते । हस्तप्राप्तमनर्घ्यरत्नमपि ते मुञ्चन्ति दुर्बुद्धयः ॥ १६६ ॥ अर्थ - हे दुर्बुद्धि प्रारणी ! यदि किसी भी प्रकार से तुम्हें मनुष्य जन्म प्राप्त हुग्रा तो फिर प्रसंग पाकर अपना कार्य ( ग्रात्महित ) कर ले । श्रन्यथा यदि तू मरकर किसी तिर्यंच पर्याय को प्राप्त हुआ तो फिर तुझे समझाने के लिये कौन समर्थ होगा ? अर्थात् कोई नहीं समर्थ हो सकेगा । जो लोग मनुष्य पर्याय के भीतर उत्तम कुल में जन्म लेकर कष्टपूर्वक बुद्धि की चतुरता को प्राप्त हुये हैं तथा जिन्होंने पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के उदय से जिस किसी भी प्रकार से जैन मत में भक्ति भी प्राप्त कर ली है, फिर यदि वह संसार सागर से पार कराकर सुख को उत्पन्न करने वाले धर्म को नहीं करता तो समझना चाहिये कि वह दुर्बुद्धि जन हाथ में प्राप्त हुये अमूल्य रत्न को स्वयमेव छोड़ रहा है ।। ४६ ।। शीलं वदंगळ, शेरवु मिल्लवरिले । का माल नीदियोडु कल्वि इल्लवरिले || वेले 'बु नल्लदान मिड्रियु ववरिले । माले काले मादवरं वंदियारु मिल्लये ॥२०॥ अर्थ - वहां के श्रावक शीलाचार व व्रत मर्यादा से रहित नहीं होते । प्रात काल सायंकाल क्रम से शास्त्र स्वाध्याय से रहित लोग नहीं हैं। भोजन करने के पहले वे दिगम्बर जैन मुनियों को आहार दान देते हैं। सत्पात्रों को दान दिये बिना वे कभी भोजन नहीं करते। प्रातः सायंकाल महान् तपश्चरण करने वाले साधु पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करते हैं तथा वहां पर णमोकार मंत्र के जाप से रहित कोई भी श्रावक नहीं होता । भावार्थ - वहां पर शीलाचार सहित व्रती श्रावक सदैव रहते हैं। सभी प्रातः सायंकाल शास्त्र स्वाध्याय करते हैं, दिगम्बर मुनियों तथा सत्पात्रों को श्राहार दान देते हैं । प्रातः सायंकाल सभी श्रावक पंचपरमेष्ठियों व साधुओं को नमस्कार करते हैं तथा जाप करते हैं । पद्मनन्दिपंचविंशति में पद्मनन्दी प्राचार्य कहते हैं कि : ये गुरु ं नैव मन्यन्ते तदुपास्ति न कुर्वते । अन्धकारो भवेत्तषामुदितेऽपि दिवाकरे ॥ १६॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M A -. ... .. . .. . . ~ ~ मेर मेवर पुराण [ २७ ये पठन्ति न सम्छास्त्र सद्गुरुप्रकटीकृतम् । तेऽन्धाः सचक्षुषोऽपीह संभाष्यन्ते मनीषिभिः ॥२०॥ मन्ये न प्रायशस्तेषां कर्णाश्च हृदयानि च । यैरम्यासे गुरोः शास्त्रं न श्रत नावधारितम् ॥२१॥ देशव्रतानुसारेण संयमोऽपि निषेव्यते । गृहस्थर्येन तेनैव जायते फलवद्वतम् ।।२२।. त्याज्यं मांस च मद्यं च मधूदुम्बरपंचकम् । अष्टो मूलगुणाः प्रोक्ताः गृहिणो दृष्टिपूर्वकाः ॥२३॥ अर्थ-जो अज्ञानी जन न तो गुरु को मानते हैं और न उसकी उपासना ही करते हैं उनके लिये सूर्य का उदय होने पर भी अन्धकार जैसा ही है । ज्ञान की प्राप्ति गुरु के प्रसाद से ही है । अतएव जो मनुष्य प्रादर पूर्वक गुरु को सेवा सुश्रूषा नहीं करते वे अत्मज्ञानी ही रहते हैं। उनके अज्ञान को सूर्य का प्रकाश भी दूर नहीं कर सकता। कारण यह है कि वह तो केवल सीमित वाह्य पदार्थों के अवलोकन में सहायक हो सकता है, न कि प्रात्मावलोकन में। आत्मावलोकन में तो केवल गुरु के निमित्त से प्राप्त हुअा अध्यात्मज्ञान ही सहायक होता है। जो जन उत्तम गुरु के द्वारा प्ररूपित समीचीन शास्त्र को नहीं पढ़ते उन्हें बुद्धिमान मनुष्य दोनों नेत्रों से युक्त होने पर भी अंधा समझते हैं। जिस व्यक्ति ने गुरु के समीप जाकर न तो शास्त्र ही सुना और उनके उपदेश को ही हृदय में धारण किया उसके पास कान मोर हृदय होते हुये भी नहीं के समान समझना चाहिये । क्योंकि कानों का सदुपयोग इसी में है कि उनसे शास्त्रों का श्रवण किया जाय तथा सदुपदेश सुना माय और मन का भी यही सदुपयोग है कि उसके द्वारा सुने हुये शास्त्र का चिन्तन, मनन किया जाय तथा उसके रहस्य को धारण किया जाय । इसलिये जो प्राणी कान और मन को पाकर के भी उन्हें शास्त्र के विषय में प्रयुक्त नहीं करते उनके कान और मन दोनों निष्कल ही हैं। श्रावक यदि देशव्रत के अनुसार इन्द्रियों के निग्रह और प्राणिदया रूप संयम का सेवन करते हैं तो इससे उनके व्रत (देशव्रत) के परिपालन की सफलता इसी में है कि पूर्ण संयम को प्रशारण किया जाय । मद्य, मांस मधु और पांच उदुम्बर फलों ऊमर, कठमर, बड़, पाकर मी पोपल) का त्याग करना चाहिये । सम्यग्दर्शन के साथ ये पाठ श्रावक के मूलगुण कहे गये हैं । मूल शब्द का अर्थ जड़ होता है । जिस वृक्ष को जड़ें जितनो अधिक गहरी और बलिष्ठ होती हैं उसकी स्थिति बहुत समय तक रहती है, किन्तु जिसकी जड़ें अधिक गहरी और बलिष्ठ नहीं होती उसकी स्थिति बहुत काल तक नहीं रह सकती । वह एक छोटी सी मांधी में ही उखड़ जाता है । ठोक इसी प्रकार से इन गुणों के बिना श्रावक के उत्तर गुणों (अणुव्रतादि) को स्थिति भी सहढ नहीं रह सकती। इसलिये श्रावक के ये आठ मलगरण कहे जाते हैं। इनके भी प्रारम्भ में सम्यग्दर्शन अवश्य होना चाहिये, क्योंकि उसके बिना प्रायः सभी व्रतादि निरर्थक ही रहते हैं ॥२०॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] मेरु मंदर पुराण ऐंगनैकिळवन कंडंद मैत्तवरेनु । पुंगवर किरवनर शिरप्यु मुविलादन ॥ मंगलत्त ळिलगळिल्लै मानमायमंदना। डेंगुमिल्ले यावरु मिरेजि मैयोळ गलाल ॥२१॥ अर्थ-पंचबाण पंचेन्द्रिय सहित कामदेव को अर्थात् मन्मथ को जीतकर, निज धर्म रूप प्रात्मस्वरूप को जानकर दुर्द्ध र तपस्या करने वाले श्रेष्ठ मुनियों की और तीन लोक के अधिपति भगवान् जिनेश्वर की पूजा आदि नित्य-क्रिया किये बिना वहां के भव्य जीव कोई भी कार्य नहीं करते । उस देश में सभी भव्य जीव सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व पूर्वक नमस्कार करने चारित्र के धारी तथा शुभ आचरण करने वाले होते हैं। वे मान माया कपटादि से रहित होते हैं । अर्थात् वहां मायाचारी नहीं रहते । इस प्रकार उस देश में लोग रहते हैं। भावार्थ-पंचेन्द्रिय विषय में पंचवाणों को जीतकर सच्चे प्रात्मधर्म को समझकर श्रेष्ठ तपश्चरण करने वाले मुनि जनों की भक्ति और त्रिलोकीनाथ जिनेन्द्र भगवान् की पूजा, अभिषेक आदि षट्कर्म क्रिया नित्य आवश्यक कर्म समझकर उसके किये बिना भव्य प्राणी अन्य संसारी कोई कार्य नहीं करते थे। उस विदेह क्षेत्र में रहने वाले भव्य श्रावक देववंदना सच्चारित्र पालन करने वाले, माया मिथ्या निदान आदि से रहित होते हैं। उनके अन्दर लेश मात्र भी कपटाचार नहीं रहता। इसका सारांश यह है कि वहां के निवासी नित्य निरन्तर जिनेन्द्र भगवान् की पूजा, अभिषेक तथा नित्य के षट् आवश्यक कार्य करते रहते हैं । बे कभो असत्य वचन नहीं बोलते तथा धर्म अर्थ, काम और मोक्ष के साधनार्थ सदैव तत्पर रहते हैं ॥२१॥ नडु कडर पिरंदु संगि नुळिळ रुंद पालिनर । कुडिप्पिरंद मैंदतम कुळ मुंग पिरर् मनै ॥ इडकनवत्तलिल्ले कांद लार्गळ मैलुमावमूर् । कडैक्कु नोकिलाद मादर् कर्पयादर् सेप्पुवार् ॥२२॥ अर्थ-समुद्र के मध्य रहने वाले शंख के अन्दर उत्पन्न होने वाले धवल शंख के समान उच्च कुल में उत्पन्न होकर कानों में कुडल को धारण किये हुये श्रेष्ठ पुरुष अपनी प्रांखों से कभी भी परस्त्री पर कटाक्ष नहीं करते थे और स्त्रियां भी पतिपरायणा होकर पतिव्रत धर्म का पूर्ण रूपेण पालन करती हुई अपने पति की सेवा में रहकर समय व्यतीत करती थीं । ऐसी गुणी स्त्रियों के वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता है ? अर्थात् कोई नहीं । वे धर्मपरायणा पतिव्रता स्त्रियां कभी अपने मन में पर पुरुष का स्मरण तक नहीं करती तथा अपने इष्ट देव, गुरु शास्त्र के अतिरिक्त अन्य किसी देव को नमस्कार नहीं करती थीं। भावार्थ-समुद्र के बीच में उत्पन्न होनेवाले धवलशंख के समान उच्च कुल में जन्म लेने वाले पुरुष कानों में कुण्डलादि प्राभरणों से आभूषित होकर अत्यन्त सुन्दर लगते थे, Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २६ किन्तु उनके मुख कमल की शोभा प्रद्भुत् होते हुये भी उनकी दृष्टि कभी पर स्त्री पर नहीं जाती थी । उस देश के स्त्री पुरुष सभी सच्चरित्र होकर धर्म ध्यान में लगे रहते थे। ऐसे स्त्री-पुरुषों का वर्णन कौन कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ||२२| प्रणिनुक्क नियनार् कळाडु मामयिलनार् । मणियैमनि वेतनर्गळ वंजमिन् मनत्तिनार् ॥ पनिविला ओळ विक नर्गळ पनवर् पळिच्चवार् । कनिर्गमादर् शीलमिन्न कामरु तगयवे ॥२३॥ अर्थ - उस देश में रहने वाली वेश्या स्त्रियां उत्तम अलंकारों से प्रांकृत होकर अत्यन्त सुन्दर रूपको धारण करने वाली, मयूर के समान सुन्दर नृत्य करने वाली, रत्नाभरणों को धारण करने वाली, सारंग के समान गति वाली होती हैं । वे सभी कपटाचार मिथ्या, निदान आदि छलों से रहित, दुश्चरित्र से वर्जित सत्य शील पालने वाली, अर्हन्त भगवान् की भक्ति में परायण होती हैं । उस देशकी स्त्रियां वेश्या होने पर भी सच्चरित्र पालन करने वाली होती हैं । और सभी के साथ प्र ेम करने वाले गुणों को धारण करने वाली होती हैं । माया, भावार्थ- - इस विदेह क्षेत्र में रहने वाली वेश्या स्त्रियां प्रत्यन्त सुन्दर और अलंकार सहित होती हैं । उनका शरीर रत्न के समान अथवा बिजली के समान चमकता है। जाति से वेश्या होने हर भी वे एक ही पुरुष पर दृष्टि रखने वाली होती हैं । उनकी चाल मयूर के समान, आंखें मृग के समान, कमर सिंह के समान अत्यन्त सुन्दर होती है । वे कपट तथा दुश्चरित्रता से रहित शील धर्म को पालन करने वाली भगवान् की भक्ति में मग्न रहती हैं । इस प्रकार उस देश की वेश्या स्त्रियां भी उत्तम शील धर्म का पालन करती हुई सभी के परम प्रिय होती हैं ||२३|| डेरा तरि श्रोळि इरवियन् केळ दलाल् कडे पिळावरी विरैव नालयंग ळल्लदु ॥ पडरोळि विमानत्तोडु पाइरुळ तिन्मय पोल् । बिडेयुलाबि यादियाय वेट्रिलिंग मिल्लनये ॥ २४॥ दूर अर्थ - विशाल प्रकाश से युक्त सूर्य के समान सदैव अज्ञान रूपी अन्धकार को करने वाले अथवा रात-दिन को एक समान कर देने वाले अनन्तज्ञान रूपी प्रकाश को प्राप्त हुये जिनेन्द्र भगवान् रूपी सूर्य उस देश में प्रकाश फैलाते रहते थे तथा केवली भगवान् के मन्दिर के अतिरिक्त और कोई अनायतन का स्थान ही वहां नहीं होता । श्रर्थात् वहां पर अन्य देवों के स्थान ही नहीं होते हैं । भावार्थ - उस देश में विशाल सूर्य प्रकाश के समान रात-दिन एक समान करने वाले अनन्त ज्ञान को प्राप्त हुये भगवान् जिनेन्द्रदेव के मन्दिर के अतिरिक्त वहां अन्य-मतियों Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण का कोई स्थान नहीं है । वहां पर सभी सम्यग्दृष्टि जीव रहते हैं । सम्यग्दृष्टि के ६३ गुण इस प्रकार होते हैं : १ संवेग, २ निर्वेद, ३ निन्दा, ४ गर्दा, ५ उपशम, ६ भक्ति, ७ अनुकम्पा, ८ वात्सल्य ये आठ गुण, शंका आदि पांच अतिचारो का छूटना रूप ५ गुण, सात भयों का छूटना रूप ७ गुण, तीन शल्यों का छूटना रूप ३ गुण, पचीस दोषों का छूटना रूप २५ गुण, आठ मूल गुण पालन रूप ८ गुण, सात व्यसनों का त्यागना रूप ७ गुण, इस प्रकार ६३ गुण होते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव इन गुणों को प्राप्त करता है और करना भी अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त सम्यग्दृष्टि जीव के सम्यग्दर्शन आदि ८ अंग भी होते हैं, जिनके बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता, और फल स्वरूप वह सम्यग्दर्शन जीव को मोक्ष में नहीं पहुँचा सकता। ऐसी स्थिति में उनका संचय करना अनिवार्य है। परन्तु वे पाठों अंग निश्चय और व्यवहार नय के भेद दो प्रकार होते हैं। १, सरागी जीव और दूसरा वीतरागी जीव । सरागी जीव, व्यवहाररूप आठ अंगों को पालता है और वीतरागी जीव निश्चयरूप से पाठ अंग का पालन करता है ॥२४॥ कुरैयिला कुडिगळार कुळिइयऊर् कोडवळर् । तिरैयिडु मिवदिना लियलविनाय नाडेलिन् निरैमदि नडुवनंद निड्रमीन कुळांगळ पो। लिरवन दिरके सूळद नाळे पण नाईरंगळे ॥२५॥ अर्थ-वहां पर धन्य धान्यादि सम्पत्ति से परिपूर्ण गृहस्थों के निवास करने वाले ग्राम थे और वे लोग प्रचुर मात्रा में धन्य-धान्य उत्पन्न करके बिना मांगे ही स्वयमेव राजा को कर देने वाले स्वाभाविक गरण के घारी थे। उस देश में दश प्रकार की कलात्रों से रहने वाले थे। इनके बीच में चन्द्रमा के समान परम तेजस्वी धर्म से युक्त शान्त स्वभावी वहाँ के राजा थे । और चन्द्र मंडल में तारागणों के समान वहां की प्रजा भी उत्तम गुणों से युक्त प्रकाशमान थी। राजाओं के रहने तथा देशों को धेरै हुये नगरों की संख्या ३२००० है । ये सभी नगर चक्रवर्ती के अधीन हैं । और यहां पर सभी लोग चक्रवर्ती की प्राज्ञानुसार चलते हैं। भावार्थ-वहां की जमीन धन धान्यादि से सर्वथा सुसम्पन्न थी। और सर्वथा सम्पन्न होने के कारण वे सद्गृहस्थ धान्य की मात्रा अधिक उत्पन्न होने के प्रमाणानुसार अपनी इच्छा से स्वयमेव ही राजा को कर देने वाले होते हैं। और वे स्वभाव से ही धार्मिक वृत्ति वाले होते हैं तथा उस देश में सभी १. कलाओं से परिपूर्ण रहते हैं। आकाश में स्थित चन्द्रमा को चारों ओर रहने वाले तारागण जिस प्रकार घेरे रहते हैं उसी प्रकार उस नगर के मध्य में राजा की राजधानी को घेर कर रहने वाली ३२००० नगरों की प्रजा चक्रवर्ती की प्राज्ञा का पालन तथा अनुसरण करती थी ॥२५॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण अरे कळ लरसर् कोमानिरु कैय दयदि सेघिर । कुरविला दोतशोगं कुवेरन दिरुक्कै पोलु ॥ निरंनार पुगैईरंडा रोबोंदु नॉडगंडू । मरुगु मानदिगळ पोंडू वळं गु माइरुत्तदामे ॥ २६ ॥ अर्थ - मधुर स्वर को उत्पन्न करने वाले कंठों से युक्त शूरवीर राजाधिराज चक्रवर्ती की राजधानी का वर्णन कहां तक करू ? वहां पर धन धान्य से परिपूर्ण कुवेर के नगर व अल्कापुरी के समान अत्यन्त सुशोभित वीतशोक नाम का नगर है । क्रम से इस सुन्दर नाम को प्राप्त हुआ। यह वीतशोक नगर १२ योजन लम्बा व ६ योजन चौड़ा है। वहां पर सदैव जल से परिपूर्ण नदी के प्रवाह के समान जलधारा बहती रहती है और प्रजाजनों के आवागमन के लिये एक हजार मार्ग व गलियां निर्मित हैं । भावार्थ--सुन्दर सुमधुर शब्दों से उत्पन्न होनेवाले वीर-कंठों से युक्त राधाधिराज चक्रवर्ती की राजधानी का वर्णन कहां तक करें ? उसका वर्णन करना मेरे द्वारा अशक्य है । फिर भी यथाशक्ति उसका वर्णन करता हूँ । धन-धान्य से परिपूर्ण कुवेरपुरी अथवा अल्कापुरी के समान वीतशोक नगर की शोभा अत्यन्त सुहावनी प्रतीत होती है । यह नगर १२ योजन लम्बा व & योजन चौड़ा है। पानी से भरी हुई छोटी २ नदियाँ सदैव बहतो रहती हैं। और सभी प्रजाजनों के आने-जाने के लिये १००० एक हजार मार्ग व गलियां बनी हुई हैं। रुव तलेवंतीह मूंड्र नूररिकन कोई । सेरिमलर् सौ कुड्रम वावियु सेप्पिनन्न । safer गुणिपट्ट वायिरम् सेरिपारि । श्रवदोडिसँद पातार गुरिणत्त् वाधिरंगडामे ॥ २७॥ अर्थ -- भगवान् सर्वज्ञदेव के ३६० मन्दिर हैं । उस नगर के चारों ओर परकोटे बने हुये हैं और दरवाजों पर तोपें लगी रहती हैं। नगर के चारों और छोटी छोटी पहाड़ियां तथा कुइयां हैं, जिनकी गणना करना असंभव है । उस कोट के चारों ओर ३६० कुयें हैं । वहां पर गड़रियां आदि जातियों के रहनेवालों के ६८००० साठ हजार घर हैं । इन सभी स्थानों को मिलाकर साठ हजार तथा छोटे २ ग्रामों व पाड़ी नाम के प्रसिद्ध देहात ७०००० सत्तर हजार हैं । भावार्थ-उस वीतशोक नामक नगर में ३६० मन्दिर हैं। तोपें लगी हुई हैं। वहां पर छोटे २ तालाब, पहाड़, उपवन और कुयें की संख्या लगभग ३६० है ।। २७ ।। [ ३१ जुनूरिट्टि वायळ, नूरागु पूळं । तु जिला वलिपपीठ माइसबुक्क मन्न ।। नगर के चारों और बने हुये हैं। उन कूपों Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] मेरु मंदर पुराण कुञ्जरं कडावि वाळकुडिंग नू कोडि । ईजि मानगर मिव्वारियर् कैयालियेड़ दोंड़े ॥२८॥ अर्थ-उस नगर के गोपुर द्वार १००० एक हजार तथा छोटे २ द्वार ७०० सात सौ हैं। वहां पर चिरस्थायी बलिपूजा करने के लिये एक हजार बलिपीठ हैं । चारों कोनों में बड़े २ हाथी हैं, जिनकी रक्षा करने वाले महावत तथा अपनी आजीविका उपाजित करने वाले अन्य २ सौ करोड़ मनुष्य हैं । इस प्रकार विशाल कोट से घिरा हुमा वीतशोक नाम का नगर महान् शोभा से सम्पन्न है । भावार्थ-उस वीतशोक नामक नगर के गोपुर द्वार एक हजार हैं । और छोटे द्वार ७०० हैं । वहां पर निरंतर बलि पूजा करने के लिये एक हजार बलिपीठ हैं । उस गोपुर के चारों कोनों में हाथियों तथा उनकी रक्षा करने वाले महावत और जीविका द्वारा पेट भरने वाले नौकर व अन्य मनुष्यों की संख्या सौ करोड़ है । इस प्रकार सु दर दीवारों से घिरा हुअा वीतशोक नामक सुन्दर नगर स्वर्ग की अल्कापुरी नामक नगरी के समान शोभायमान प्रतीत होता है ॥२८॥ सुदरं मलगळे न्ने सुन्नतादु कुकुमम् । सेंदन कुबंबु मेरपरंदु पाडिसूळ दग ॥ ळंदर तरुक्कन येनिंदुसूळ किडंद दो। रिदिर तनुविन बन्न मेन्न दन्न दागुमे ॥२६॥ अर्थ-उस नगर के चारों ओर खाई बनी हुई है और उसके किनारे अत्यन्त मुगन्धित फूलदार वृक्ष हैं तथा तेल, चूना, पुष्प, धातु, रोली आदि अनेक प्रकार के द्रव्य उस खाई में भरे हुये पानी के ऊपर तैरते हुये चमकते हैं । रंग वगैरह से सुशोभित उस नगर की शोभा इस प्रकार दीखती है कि मानों सूर्य ने उसे चारों ओर घेर रक्खा हो । उपमा से रहित इन्द्र धनुष वर्ण के समान वीतशोक नामक नगर अत्यन्त शोभायमान दृष्टिगोचर होता है । भावार्थ-उस नगर के चारों ओर खाई घिरी हुई है जिसके किनारे फूलदार वृक्ष लगे हुए हैं। उसके अन्दर सुगन्धित तेल, चूना, पुष्प घातु, रोली कुकुम आदि द्रव्यों से मिश्रित वस्तुयें पानी पर चमकती रहती हैं । स्त्री और पुरुष अपने शरीर में उसका लेप करके उस खाई के जल से स्नान करते हैं, जिससे उस जल की चमक के अनसार उनका शरीर चमकने लगता है । इस कारण वह वीतशोक नामक नगर पथिकों को ऐसा दीखता था कि मानों इन्द्रधनुष सूर्य को घेर कर सुभोभित हो रहा हो । चारों ओर खाई से घिरे होने के कारण वीतशोक नामक नगर अत्यन्त शोभायमान दीखता था ॥२६॥ किडकिडतडंगळ सूळ 'दु केडुतोमड़िये । मडंगन् मोयिविन् वानवकुं मोदु पोगना मविळ, ॥ तरंगळ मरतल तरयु सूळ मान वर्। कंदिडा वगई निड़ नागन् सन्नी काटुमे ॥३०॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ३३ अर्थ-उस खाई के मध्य फैला हुमा विशाल मैदान है । उस उन्नत भूमि को लांघ कर सिंह के समान अत्यन्त पराक्रमी शक्तिशाली देव भी उस नगर से पार जाने में समर्थ नहीं थे। उस नगर के चारों ओर दीवार (कोट) है । और पृष्कर नामक एक विशाल समुद्र है। मनुष्य के द्वारा उसका उल्लघन करना सर्वथा अशक्य है । अर्थात् मनुष्य के अन्दर उसके उल्लंघन करने की शक्ति नहीं है । जैसे मानुषोत्तर पर्वत को लांघकर मनुष्य नहीं जा सकता । वह इतना विशाल वीतशोक नामक नगर है। भावार्थ-वीतशोक नगर के चारों ओर खाई के मध्य एक विशाल मैदान है। उसके चारों ओर रक्षार्थ सिंह के समान कोट हैं, जिसे महान् पराक्रमी देवता भी लांघकर नही जा सकते । अर्थात् जिस प्रकार कोई मनुष्य मानुषोत्तर पर्वत को लांघकर नहीं जा सकता उसी प्रकार इस वीतशोक नामक नगर को उलंघन करने में कोई भी समर्थ नहीं था। इस प्रकार अत्यन्त सुन्दर व शोभायमान वीतशोक नाम का नगर है ।।३०।। दिक्कयं मलंगळ पोर् सिरदुनिड गोपुरंग । लोक्कुमाळीग निरकुलमलै गळोत्तन ॥ मिक्कमासनम् शक्त वीदि सीदेयादि यारन । चक्करंड्रन माळिगैयु मेरुवेन्नख्न्नदे ॥३१॥ अर्थ-वहां के गोपुर तथा उस वीतशोक नगर के चारों ओर रहने वाले हाथी ऐसे दीखते हैं कि जैसे छोटे २ पहाड़ तथा छोटे २ गोपुर ही हों। उस नगर में बने हुये कई मंजिल के ऊचे २ मकान व महल इस प्रकार प्रतीत होते थे कि मानों कुलपर्वत हों। उस नगरी की बड़ो २ गलियों से आने जाने वाले मनुष्य ऐसे प्रतीत हो रहे थे कि मानों सीता नदी को निर्मल धारा नित्य निरन्तर कलकल ध्वनि करती हुई.बह रही हो । अर्थात् उस गली से लोग नदी के समान नित्य निरतर गमन करते हये दिखाई दे रहे थे। यानी वे रात दिन चलते रहते थे । राजा के राजमहल सुमेरु पर्वत के समान विशाल व सुन्दर प्रतीत हो रहे थे ।।३१॥ मुगिरकरणंगळ पोन्मलय मोयत्तयान पोन्मोयप्प । पगर्किडे कोडादसेंबोन् मालिगप्पडिदन ।। वगिरपुगय ळायनीर मदत्तरुवि पोंडून । तुगिर्करणंगळनगर् मदिमरुत्त डेक्कमे ॥३२॥ अर्थ-महा मेरु पर्वत को किसी बहुत बड़े हाथी ने घेर लिया हो और उससे सूर्य के चलने का मार्ग अवरुद्ध हो गया हो, इसी प्रकार अत्यन्त उन्नत और स्वर्णनिर्मित उस राज महल को मेघों के समूह ने घेर लिया था । चन्दन व धूप का धुप्रां स्वाभाविक रूप से जिस प्रकार फैल जाता है उसी प्रकार राजमहल के ऊपर मेघ उमड़ रहे थे। उन मेघों से जो जल की बून्दें नीचे गिर रही थीं वह ऐसी मालूम पड़ रही थी कि मानों मतवाले हाथी का मद झर रहा हो । उस नगर में ध्वजा के समूह ऐसे प्रतीत हो रहे थे कि मानों चन्द्रमा के अन्दर रहने वाले कलंक को साफ कर रहे हों । ध्वजा की उन्नत ऊंचाई इतनी अधिक हो गई थी कि मानों वह चन्द्रमंडल तक पहुँच रही हो ॥३२॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- -- - - - ३४ ] मेरु मंदर पुराण पलिक्करत्तलत्तिण्डु पन्दोडांडु पावैयर् । कलिक्कय लनयकरणगळ कामपंबिन्ने.न्य ।। वळ त्तनर पुरुवबिल मसक्करिणतोऽत्त वित् । लिळप्पनीङ्ग मारमन् पिलपिकलेयददोक्कुमे ॥३३॥ अर्थ-स्फटिक निर्मित प्रांगण में गेन्द के खेल को वहां की कुमारी स्त्रियां खेलती थीं। उन स्त्रियों की आंखें मछली की सुन्दर प्रांखों के समान परम सुशोभित हो रही थीं। स्त्रियों के चलते समय कटि की शोभा इस प्रकार प्रतीत हो रही थी कि मानों कामदेव मन्मथ वारण छोड़ रहा हो। भावार्थ-वीतशोक नगर की सारी कुमारी स्त्रियों की चोटियां अत्यन्त सुन्दर प्रतीत हो रही थी। उनके भौंहें धनुष के समान झुकी हुई थीं। उन स्त्रियों की शोभा जब वे परस्पर में एक दूसरी को देखती थीं तब ऐसी मालूम पड़ती थी कि मानों कामदेव एकाग्रचित्त से टकटकी लगाकर देख रहा हो ।।३३।। माले सांदेनं सुन्न के शवा मरुदु मैंदर । पोक्तवार कुळलिनार पोलिरुवन वनिसैवीदि । मालि मा मारिणयुमुवीळ द वे किंडदे तोट्र। मेलुलाम् वान यार वोळ दि बट् किडंद दोंड्रे ॥३४॥ अर्थ-पूष्पों के हार, चन्दन, सुगन्धित तेल. चूना आदि से युक्त गलियों में व्यापारियों की दूकानें थीं। और तरुण पुरुष मस्त होकर जब उस गली से निकलते थे तब ऐसा मालूम होता था कि मानों सुन्दर स्त्रियों के केश ही लहलहा रहे हों। माला बनाने वालों के हाथ से माला बनाते समय यदि कोई पुष्प भूल से नीचे गिर जाता तो उसे कोई पुरुष नहीं उठाता था। दुकानों में जो माला व फूलों के गजरे टंगे हुये थे उनमें से जब कोई पुष्प गिरता था तो वह ऐसा प्रतीत होता था कि मानों आकाश से पुष्पवृष्टि हो रही हो ।।३४।। भावार्थ-उस गली में फूलों के हार, चंदन, कपूर, चूना, तेल इत्यादि सुगन्धित वस्तुयें तैयार होती थीं। वहां से आने-जाने वाले नवयुवक पुरुषों के सिर के केश इस प्रकार सुशोभित होते थे कि मानों सुन्दर स्त्रियों के लम्बे बाल हों। फूलों की बड़ी २ दुकानों में मीला गूंथने वालों के पास से जब फूल की कोई छोटी कली नीचे गिर जाती थी तो उसे कोई नहीं उठा सकता था और गिरते हुये पुष्प ऐसे मालूम हो रहे थे कि मानों प्राकाश से फूलों की वर्षा हो रही हो ॥३४॥ कुळे मुगं कुरळवांगि कोड जिलैकुरवं कोलि । एळलुमि दिल गुवेर्कलंबु कोताड वारै ॥ युळयिन मेनोक्क दैदित् डळ ळतं परित्त कोळ ळ । मळलयाळ मोळिपिन बाळ के या हरेक वल्वर ॥३५॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण अर्थ-वहां की स्त्रियां कानों में कर्णाभरण को धारण किये हुये कंधों को स्पर्श करती हुयी अत्यन्त सुन्दर मालूम होती थी। उनकी भृकुटि धनुष के समान टेढ़ी श्री तथा अांखें ऐसी प्रतीत हो रही थीं कि जैसे विरहाग्नि से दग्ध कोई अपने मुख से स्वसोच्छवास निकाल रहा हो । मृगनयनी सुन्दर स्त्रियां अपने चक्षु रूपी कटाक्ष को फेंककर कामो पुरुषों को अत्यन्त चचंल व मद नेत्रों से देखती हुई उनके मनको आकर्षण करने में प्रत्यन्त निपुण थीं। उनके मुख से बीणा के समान अत्यन्त मधुर वचन निकलते थे, जिसका कि वर्णन करने में मैं असमर्थ हूँ। भावार्थ-कर्णकुण्डल को धारण किये हुये वे स्त्रियां अत्यन्त सुन्दर मालूम होती थी। उनकी भृकुटि धनुष के समान ऊपर उठी हुई थी । विरहाग्नि से दग्ध अत्यन्त प्रकाशमान भास के समान कटाक्ष बाण को छोड़कर हरिणी के समान अत्यन्त मृदुभांखों से मुख बुमा २ कर देखती हुई कामी पुरुषों के मन को आकर्षण करती थीं। ऐसी धर्मपरावरणा स्त्रियों का वर्णन कौन कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥३५॥ कळलु मिबिलंगुम पास कमलवान् मुक्त्त काम । बळ ळमुकरण टोरन् सुळ्डार बारि॥ तेळ्ळे लि याकुपातिदव मारपेलु साल। पुळेलि तळिगळ पाटुंतामरै पैनै पोलु॥३६॥ अर्थ-प्रत्यन्त प्रिय व मधुर सम्म बोलने वाली, सुगन्धित द्रव्यों से युक्तचारों भोर सुगन्ध फैलाने वाली, कमल के फूल के समान ते मुख सुन्दर नेत्रों से युक्त स्त्रियां अमर के समान चारों ओर नाट्यशाला में नृत्य करती थीं। नृत्य करते समय उनके पावों की पैजनिया तथा उनके सुन्दर संगीत से स्त्रियां लक्ष्मी के समान अत्यन्त सुन्दर प्रतीत होती थीं उस समय की शोभा ऐसी मालूम होती थी कि मानों मंडपाला में पक्षियों को कसलाहट हो रही हो अथवा अमर गुजार कर रहे हों। भावार्थ-उस बोतलोक देश की निवासिनी पुण्यवासी स्त्रियां अत्यन्त मधुर बन्द बोसने वाली, कमल के समान विशाल नेत्र व सुन्दर मुख कमल वाली प्रमर-नार के समान मनुष्यों को पाकर्षण करने वाली थीं। उस नाट्यशाला में नृत्य करने वाली स्त्रियों के पावों में बंधी हुई पैजनियों की प्वनि मनुष्यों के मन को लुभाने वाली थी। नत्व करने वाली स्थिको मद्भुत सोभा दे रही थी। उस नाट्यशाला में भरे हये लोग संगीत करने वाली स्त्रियों के मधुर गायनों से मुग्ध होकर मानन्द से प्रत्यन्त प्रफुलित हो रहे थे ॥३॥ मारणेतेरे कुदुरेनिर्वामि या साले । शेणमादर देम्बर तकदिर का साले ॥ मारणवेनमार कोमार मंदिर शाले यादि। एलब पिर निम्बा रिपंदुबर् करिव ॥३७॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] मेह मंदर पुराण अथ-उस राजा के राज्य में हाथियों के रथ, घोड़ों की घुड़शाला, मायुधशाला तथा बड़े २ सैन्यादि थे। उन्हें शत्रु राजा अनेक प्रकार की नजर (भेंट) करते रहते थे, जिससे कि कोषागार सदा परिपूर्ण रहा करता था। अभिमानी राजानों से परामर्श करने के लिये अनेक मंडपशाला मादि निर्मित किये गये थे जिसका वर्णन अल्पबुद्धि के द्वारा वर्णन किया जाना शक्य नहीं हे ॥३७॥ कामवेवनयर मैंदर कावियन काणि नारुम् । पूमगळिलंगु वीरर् पोर् कुलि कुळागल् पोल्वार् ॥ तामवेन्कुडे नातुं शक्करन् दन्न योक्कु। वामम सूळ कमलं संगिन् वन्कयर् वनिगरेल्लाम् ॥३८॥ अर्थ-वीतशोक नामक नगर में रहने वाले पुरुष कामदेव के समान अत्यन्त सुन्दर थे और नील कमल के समान नेत्रधारिणी स्त्रियां लक्ष्मी के समान शोभायमान होती थीं। प्रकाशपुज से युक्त वीर पुरुष नगरी में सिंह के समान महा पराक्रमी थे। वे गले में सदैव फूलों का हार धारण किये हुये रहते थे । धवल छत्र को धारण किये हुये चक्रवर्ती सभा के मध्य में देवों की भांति सुशोभित हो रहे थे। व्यापार करने में वैश्य लोग अत्यन्त निपुण होते थे तथा उनके हाथ में शंख पद्म आदि मांगलिक चिन्ह बने हुये थे। उनके हाथों की रेखा ऐसो सुन्दर व सुलक्षणा थी, जिससे कि वे महान् पुण्यवान् प्रतीत हो रहे थे। भावार्थ-उस विदेहक्षेत्र में उत्पन्न होने वाले मनुष्य पुण्यशाली होते थे। उनका निरोग शरीर, उत्तम कुल तया इच्छानुसार सुखसामग्री पुण्यानुबन्धी पुण्य के प्रभाव से ही उनको प्राप्त हुई थी। वहां के पुरुष महान् पुण्यवान तथा शक्तिशाली थे। और सदा भोगोपभोग से परिपूर्ण रहा करते थे । वहां के स्त्री, पुरुष तथा बालक स्वभाव से ही सुन्दर तथा मधुर वचन बोलते थे। वे सदा सत्पात्र दान देने व अस्त भगवान की पूजा करने में श्रद्धा भक्ति पूर्वक संलग्न रहते थे । वे परम दयालु, धर्मात्मा शीलधर्म परायण रहते थे। शील पालन करने में वे इतने सावधान रहते थे कि अपनी सभी शक्तियों का सदुपयोग करके वे पूर्ण रूप से उसमें दत्तचित हो जाया करते थे । प्रोषधोपवास धारण करने में सदा रुचि रखते थे और सत्पात्रों को दान देकर पुण्यानबंधी पुण्य के प्रभाव से विदेह क्षेत्र में जाकर जन्म धारण करते थे । अत्यन्त पुण्यशाली होने के कारण वहां के स्त्री-पुरुष सदा शोभा को प्राप्त करते रहते थे। प्रकाश से युक्त वीर पुरुष सिंह के समान पराक्रमी मालूम होते थे, तथा गले में पुष्पों का हार धारण किये रहते थे। श्वेत छत्र को धारण किये हुये चक्रवर्ती इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानों देवों की सभा लगो हुई हो । उनकी हथेली में शंख चक्र आदि शुभलक्षण अंकित थे, जिससे उनकी शोभा अत्यधिक दृष्टिगोचर होती थी ॥३८।। माले यु सांटु पंच वासमुम् वलगुंवारुम् ।। शालोई नडिसिलुबार तमर्गळ कूटु वारुम् ॥ वेले नल्लुलगं विकुं विकुप्णोरुल वांगु वारु। मालयन् तोर मे मै यमरंदु शैवार मानार् ॥३६॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ३७ अर्थ – वहां पर भांति २ के फूलों की माला, चंदन तथा अनेक प्रकार की सुगंधित वस्तुओं का आदान-प्रदान निरन्तर लगा रहता है तथा भांति २ के स्वादिष्ट पकवान बनाकर परस्पर में एक दूसरे को भोजन कराते रहते हैं। जिस प्रकार समुद्र से घिरी हुई जमीन में द्रव्य पड़ा रहता है उसी प्रकार न्याय पूर्वक खरीदना, बेचना, न्याय पूर्वक चलना, अन्याय से सर्वथा दूर रहना तथा भगवान् का पंचामृताभिषेक पूजा आदि शुद्धि पूर्वक करना वहां के पुण्यवान् पुरुषों की निधि के समान सुरक्षित रहती है । भावार्थ - उस महान् वीतशोक नगर में रहनेवाले भव्य जीव पुण्यानुबंधी पुण्य के संचय के कारण खाने-पीने में कभी अभक्ष्य वस्तु काम में नहीं लेते। उनका खान-पान परम पवित्र होता है । वहां न तो अकाल ही पड़ता है और न प्रतिवृष्टि ही होती है । वहां का धान पुष्टिकारक, सुगंधित तथा उत्तम प्रकार का होता है। वहां पर मद्य, मांस मधु का सेवन करने वाले पैदा ही नहीं होते। केवल तीन वर्ण वाले लोग वहां पर होते हैं । वे महान् पुण्यशाली हैं। एक देशव्रत को धारण करने वाले भव्य पुरुष ही वहां उत्पन्न होते हैं । यह सभी उनके पूर्वजन्म में किये हुये पुण्य का ही प्रभाव है। अहंत भगवान् की पूजा, अभिषेक सत्पात्रों को दान आदि पुण्य करने से वे विदेह क्षेत्र में जन्म धारण करते हैं । वे न्यायपूर्वक धनोपार्जित करके दया धर्म के पालक तथा सत्पात्र को दान देने में सदा दत्तचित रहते हैं. । इस प्रकार वीतशोक नगर निवासी भव्य जीवों का वर्णन किया गया ॥ ३६॥ मुळवमा मुरसंन् संग कडलन मुळं गवं पोर् । कुळलियाल वीर येंग कोंबनार कुलावियाड ॥ निळलुला मदियं कोलु कुडैमुम्मै नीळल् वेदन् । विवरा मूदूर् वीत शोक माइ विळंगु निड्रं ॥४०॥ अर्थ-उस वीतशोक नगर के भव्य श्रावक और श्राविका परस्पर में मिलकर अनेक प्रकार शंख, भेरी आदि वाद्य यन्त्रों से नाद करते रहते हैं । जैसे समुद्र में लहरों के आवागमन से निरंतर कलकल ध्वनि होती रहती है उसी प्रकार विविध भांति के नक्कारे वाद्यों, स्वर्णमयी शहनाई, बांसुरी वीरणा इत्यादि के शब्द सुनाई देते रहते हैं । फूलों की लता के समान नाना प्रकार के नृत्य करने वाली स्त्रियां जैसे चन्द्रमा अपने शीतल किररणों से सभी को शान्ति पहुँचाता रहता है उसी प्रकार छत्र चंवर सहित वेदी में विराजमान भगवान् अर्हत परमेश्वर का उत्सव करते समय सभी को शान्ति का अनुभव कराती रहती हैं । उस नगर का नाम वीतशोक इसलिये पड़ा कि वहां की जनता शोक से सर्वथा रहित रहकर सदा सुख शान्ति का अनुभव करती रहती है ॥४०॥ पोलगु लाय् पोंदु पूमि शै । मन्तु मन्नविम् मानगर् किरं ॥ एन मेनर्ड या कनगरा । मन्नर् मन्न वन्न वैजयंतने ॥४१॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. ] मेरु मंदर पुराण मर्च-मानों देवलोक से हो यह भूमि उतर कर पाई हो, ऐसा अत्यन्त सुन्दर कुवेर की नगरी के.समान वीतशोक नामक नगर सुशोभित हो रहा था और इसका अधिपति हस पक्षी के समान मन्द-मन्द चाल से मन्मय के समान वैजयन्त नाम का राजा था। भावार्ष-देवलोक ही यहां उतरकर पाया हो, ऐसा वह बीतशोक नग सुशोभित हो रहा था और मन्मथ के समान अत्यन्त सुन्दर वैजयन्त नाम का वहां का राजा चक्रवर्ती के समान था। वह राजा कैसा था? इसका वर्णन इस प्रकार है : वक्त्राग्रे भाग्यलक्ष्मी करतलकमले सर्वतो दानलक्ष्मीः । दोर्दडे बोरलक्ष्मो हृदये सरस्वती भूतकारुण्यलक्ष्मी ।। सर्वाग सौम्यलक्ष्मीनिखिलगुणगणा बरे कीतिलक्ष्मीः । खड्गाग्रे शत्रुलक्ष्मीजयतु विजयते. सर्वसाम्राज्य लक्ष्मीः ।। ई-मख्य में भाग्य लक्ष्मी. हाथरूपी कमल में दानलक्ष्मी. भजा में वीर लक्ष्मी इदय में सरस्वती रूपी लक्ष्मी, सम्पूर्ण जीवों पर करुणा रूप लक्ष्मो, अंगों में सौम्य रूपी लक्ष्मी, सम्पूर्ण जगत् में गुण (कीति रूपी) लक्ष्मी, शत्रुओं को जीतने के लिये खड़ग रूपी लक्ष्मी और समस्त साम्राज्य को जीतने वाली विजय भादि लक्ष्मियां चक्रवर्ती राज्य में विद्यमान वीं और वह राजा जगते में सदैव जय जयकार को प्राप्त होता था। इस प्रकार अत्यन्त पराक्रमी, गुणवान् सर्व सुलक्षणयुक्त धर्मनीति आदि जानने वाला शूरवोर वह वैजयन्त नाम का राजावा ॥४१॥ प्रारती नयमग कालिया। मार मन्मय ममरं दमालिया ॥ नार तोल्पगै येउत्तं सूक्षिया। नारिमोंडकोंड गड वेळ कयान् ॥४२॥ अर्थ-वह राजा कैसा था? छह प्रकार मिथ्यानय को त्याग कर सम्यग्दर्शन को प्राप्त, छह प्रकार के नयोंसे युक्त और सत्कीर्ति को प्राप्त था। वह अनादि काल से जीव के माग चले पाये क्रोध, मान, माया, लोभ मद मादि को जीतने में चतुर था। वह विविध प्रकार के अच्छे उपायों को जानने वाला था। प्रजाजनों से छह भाग में से एक कर लेने वाला और परिग्रह में अधिक इच्छा न रखने वाला अर्थात् परिमित परिग्रही था। भावार्थ-इस भांति छह प्रकार के मिथ्या नय को त्यागकर छह प्रकार के सच्चे नय से युक्त अनेक प्रकार के जीव के साथ चले आये क्रोध, मान, माया लोभ मदादि को जीतने वाला, अच्छे उपायों को जानने वाला. छह प्रकार के करों में केवल एक भाग कर लेने वाला परिमित परिग्रहवारी, ऐसा वह वैजयन्त नामक राजा था। नय का स्वरूप छठे अध्याय में विशेष रूप से विवेचन किया जायगा।॥४२॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण कर्पग मवन् करुदिदि दलाल । सोर पोरुळरि सुरवि माकडल् ॥ मर्पयसिनान् मालवरैमले । कोट वर्कलाम कूद्र नोक्कुमे ॥४३॥ अर्थ वह वैजयन्त राजा याचक जनों की इच्छा पूर्ति करने के लिये कल्पवृक्ष के समान था तथा छहों प्रकार के द्रव्यों का भली प्रकार से ज्ञाता था। इसके साथ हो साथ वह मनन करने में सदैव दत्तचित्तं रहता था। सम्पूर्ण पागम को समझकर उनमें सागर के अपार ज्ञानभडार था। वहां का राजा युद्धकला एवं बाहुबल में पर्वत के समान महाबलशाली एवं शत्रुजनों के लिए यमराज के समान था। भावार्थ-वह राजा याचक जनों के लिये कल्पवृक्ष के समान था। अर्हन्त भगवान् द्वारा प्रतिपादित छहों द्रव्यों को अच्छी तरह से जानता था तथा परिपूर्ण रूप से पालने वाला था। युद्ध में शत्रुवर्ग को जीतने के लिये उनके भुजबल पर्वत के समान प्रतीत होते थे। और वह शत्रु को जीतने के लिये यमराज के समान प्रजेय था । धार्मिकजनों में बन्धु के समान, साधुओं के लिये सेवक और विनम्रभावी तथा जिनेन्द्र भगवान की पूजा करने में वह सर्वदा भ्रमर की भांति लवलीन रहा करता था। सत्पात्रदान करने में रामा श्रेयांस के समान और प्रजा में वात्सल्यभावी तथा धर्मानुरागी था । उत्तम श्रावक के सम्बन्ध में एक कवि ने कहा भी है कि : श्रोसवंज्ञ-पदाब्जसेवनमतिः शास्त्रागमे चिंतना । तत्त्वातत्त्व-विचारणे निपुणता ससंयमो भावना ।। सम्यक्त्वे रचता अघोपसमता जीवादिके रक्षणा । सत्सागरोगुणा जिनेन्द्रकथिता येषां प्रसादाच्छिवम् ।। अर्थ-सदैव श्री जिनेन्द्र भगवाम् के चरणों में सेवन की बुद्धि, शास्त्र का चितवन तत्वों का विचार उसमें निपुणता, सत्संग की भावना, सम्यक्त्व में रुचि, समता, जीवों पर दया नथा जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित धर्म में सदैव रुचि रखने वाला था ॥४॥ सूक्षि यार पर्ग सुरुक्क वल्लदु । बाळशे पोरिलन बन सो लिडिमन् । नाक्षियालिस केट बसुनमा । ताक्षिपोल वैयंदा निरंजुमें ॥४४॥ ' अर्थ-शत्र राजामों के बल को किस प्रकार से कम करें, इसका वह प्रयत्न भली भांति जानने वाला था । युद्ध न हो ऐसे कठोर वचनों को त्यागकर मधुर बचनों द्वारा प्रीति से काम लें, ऐसा वह वैजयंत राजा न्याय नीति से राज्य करता था। वह साम दाम दण्ड भेदारि से प्रजा पर शासन करने वाला था। जिस प्रकार प्रातः उठकर जिनेन्द्र भगवान् का Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] मेरु मंदर पुराण स्मरण किया जाता है उसी प्रकार वीतशोक नगर की सारी प्रजा उस राजा की स्तुति करती रहती थी ॥४४॥ नल्ल तोल्कुल तरस नादलार । सोल्लसंगयु सोर वैदामैयारं ॥ पुल्लिनार् पुगळ मादु पूमगळ । सोल्लिन् सेल्वियु सुलिवुनेंगिये ॥४५॥ अर्थ-परम्परा से श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न हुये चक्रवर्ती का वचन और उनके द्वारा होने वाले सत्कर्म अत्यन्त सुदृढ़ थे और कीर्ति देवी, सरस्वती तथा लक्ष्मी देवी प्रेम से युक्त होकर उनका आश्रय ग्रहण किये हुये थीं। भावार्थ-वह राजा परम्परा से चले आवे उत्तम कुल में जन्म धारण किये हुये था मौर शीलवंत तथा चक्रवर्ती था। पांचों पापों से रहित, सत्यवादी व निश्चल मति वाला था। उसके द्वारा किये जाने वाले सभी कार्य अनुकूल हो जाते थे । उनकी कीर्ति चारों ओर फैली हुई थी। इस कारण उस गुणवान् सत्यवान् राजा के पास सरस्वती, कीति तथा लक्ष्मी दवी माश्रय में थी ॥४५॥ कर्पगं तनयनै कामर्वल्लि पोल् । वेट्रि वेल वेदने वेळ विनीमै यार् ॥ पोर्प मैंदे दिय कोडियनार् पुनरन् । तर्पुनीर कडलिडे येळ दुनाळिदे ॥४६॥ अर्थ-कल्पवृक्षों से सम्बन्धित कामलता के समान जय को प्राप्त हुये प्रायुध को धारण करने वाला राजा वैजयन्त सुन्दर शरीर को धारण किये हुये था। उनका शरीर ऐसा मालूम होता था कि चित्रकार द्वारा चित्रित किया गया मानों कोई पुतला ही हो। इस प्रकार उनका शरीर अत्यन्त शोभायमान था । और पुष्पलता के समान शोभने वाली स्त्रियों के साथ पाणिग्रहण करके भोग-विलास में स्नेह पूर्वक प्रानन्द मनाता था अर्थात् देवों के समान इन्द्रिय सुखों के भोगने में मग्न था। भावार्थ-कल्पवृक्ष में कामलता के समान जय को प्राप्त किये हुये और हाथ में मायुध धारण किये पुष्पलता के समान सुन्दर शोभनेवाली स्त्रियों के साथ भोग विलास में होने वाले प्रानन्द में मग्न तथा जनता की दृष्टि को कामदेव के समान शोभने वाली प्रजा के अत्यन्त प्रिय थे ।।४६।। पूविर् कोंबु पुगळं पडिनल वडिविन मा। देसिष्पट्टम् पेट्रनलिल्लां तिरुबेंबाल । काविक्कण्णाळ वरनक्कमळ तळियायिमन् । कावर् कोमा नियनुनाळार कविन् पेट्टाळ ॥४७॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४१ अर्थ - लक्ष्मी देवी को देखकर कीर्ति देवी प्रसन्न होकर उसकी प्रशंसा करने वाली के समान सुन्दर रूप को धारण करने वाली सर्व श्री नाम की उनकी पटरानी थी । उसकी आंखें नील कमल के समान तथा शरीर स्वर्ण के समान गौर वर्ण था । जिस प्रकार नील कमल में भ्रमर लीन रहता है उसी प्रकार राजा वैजयन्त महारानी सर्वश्री के साथ भोगों में मग्न रहता था । इस प्रकार सुख भोगते २ कुछ दिनों के पश्चात् रानी सर्व श्री गर्भवती हो गई ।। ४७ ।। मुल्ल निकोडिन बे पयंदार पोर् । सेल्वस्सिरुवर् पयंदा ळंद तिरुवन्नाळ " मलिर् पोलितोन् मन्नन् मुन्नान् मदिकाना | प्रोल्लेन कडल् पोलु बंदिट्ट लग तिडतन् ॥४८ || अर्थ - जिस प्रकार जुही गुलाब आदि पुष्पों में अत्यन्त सुंगधित कलियां उत्पन्न होती हैं उसी प्रकार नव मास पूर्ण हो जाने के पश्चात् उस सर्वश्री रानी ने पुत्ररत्न को उत्पन्न किया। जिस प्रकार शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा को देखकर समुद्र उमड़ पड़ता है उसी प्रकार पुत्र जन्म होने पर महा प्रतापी मल्लयुद्ध में प्रचंड बलशाली राजा वैजयन्त को अत्यन्त सन्तोष प्रद आनन्द प्राप्त हुआ । पुत्ररत्न प्राप्त होने के हर्ष में देश के याचकों को इच्छा पूर्वक दान देकर उनके मन को तृप्त किया । भावार्थ - जुही चमेली के पुष्प तथा लक्ष्मी के समान राजा वैजयन्त की पटरानी सर्वश्री के प्रत्यन्त सुलक्षण से सम्पन्न पुत्र रत्न पैदा हुआ। जिस प्रकार शुक्ल पक्ष के चन्द्रम देखकर समुद्र उमड़ पड़ता है उसी प्रकार महान् प्रतापी बलशाली तथा मल्लयुद्ध में परम प्रवीण उस राजा को पुत्रोत्पत्ति के हर्ष में अपार आनन्द प्राप्त हुआ । पुत्र जन्म के हर्ष में प्रसन्न होकर राजा ने सभी प्रजाजन व याचकों को बुलाकर उनके दुख को दूर किया तथा इच्छापूर्वक दान देकर उन्हें भली-भांति सन्तुष्ट किया । ४८ ।। सुन मेन्ने सोरिद तुरियम् । विन्नैविम्मि मुळ गिन वेण्कोडि || एरोड्रलु गनु माडिन । पुण्येनगर पोषण गरायदे ||४६ || अर्थ-उस राजा वैजयंत के परिवार वालों ने प्रत्यन्त सुगन्धित द्रव्यों से युक्त सुगन्धित चूर्ण तथा तैल आदि लाकर उनको दिया। तत्पश्चात् राजा ने अठारह प्रकार के वाद्य बजवाये, जिसकी ध्वनि देवलोक तक चली गयी और उससे सारा नगर गुंज उठा । जहां तहां रास्ते तथा गलियों में श्वेत पताकायें बंधी हुई थीं। इस प्रकार श्रेष्ठ व सुन्दर पुत्र जन्म के समाचार को सुनते ही सम्पूर्ण देश में आनन्द छा गया । और राजा वैजयन्त की कीर्ति सारे वीतशोक नगर में फैल गई। उस समय वह वीतशोक नगर ऐसा सुन्दर मालूम होता था कि मानों यह सब देवलोक ही हो । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] मेह मंदर पुराण भावार्थ-सुगन्धित द्रव्यों से मिश्रित तेल आदि वस्तुयें राजा के परिवार वाले उनको लाकर देते थे। अठारह प्रकार के वाद्यों की ध्वनि से सारा नगर गूज उठा। नगर के सभी गोपुर तथा प्रजा के घरों में धवल पताकायें फहरा रही थीं। पुत्र के उत्पन्न होते ही उसकी कीर्ति सर्व देशों में फैलने से वह नगर देवमय सा प्रतीत होता था ।४६॥ संजयंदनेनुं पेयरानव । नंजुबायर् तं केवळ शिवाय ॥ मंजिलामदि पोल वळद पि । नंजिलोदियर किन्नमिर्द पाईनगन् ॥५०॥ अर्थ-राजा वैजयन्त ने विधिपूर्वक नामकरण संस्कार करके उस पुत्र का नाम संजयत रक्खा । अनेक प्रकार के वस्त्राभूषणों से उसको प्रलंकृत किया । शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान वह पुत्र शीघ्र ही वृद्धि को प्राप्त होकर अत्यन्त सुन्दर दीखने लगा। सभी स्त्रियों को उसका वचन मधुर लगने लगा और वह क्रमशः यौवनवास्था को प्राप्त हुआ। भाथार्थ-सकल सम्पत्ति, भोग सामग्री, अनुकूल स्त्री तथा शुभलक्षण युक्त पुत्र यह सब पुण्योदय से पुण्यवान् पुरुष को ही प्राप्त होते हैं । एक कवि ने कहा भी है कि: चित्रानुवर्तिनी भार्या पुत्रा विनयतत्पराः । वैरमुक्त च यदाज्यं सफलं तस्य जीवनम् ।। अर्थ-अपने मन के अनुकूल स्त्री, विनयवान पुत्र तथा इसे रहित राज्य जिस भाग्यशाली पुरुष को प्राप्त हो उसी सत्पुरुष का जीवन सफल होता है ॥५०॥ पुजि करिणळन् मणिकदिर् कुळामुग। मंजिलामदि पुयमणि येळक कनमार ॥ बजिमृधि मनराट् किदुई। पभोमार् मनक्कळिरण पोर्टबमे ॥५१॥ अक्ष-उस संजयंत राजकुमार के सिर के केश सूर्य की किरण के समान प्रकाशमान हो रहे थे। उनका मुखमण्डल निष्कलंक चन्द्रमा के समान चमक रहा था और भुजदंड हाथी की सूड के समान अत्यन्त सुन्दर प्रतीत हो रहा था। उनका हृदय अत्यन्त विशाल तथा लक्ष्मी के भवन के समान अत्यन्त मृदुलता तुल्य प्रतीत हो रहा था । उस बालक के दोनों जांध कदली स्तम्भ के समान अत्यन्त कोमल तथा चमकीले होकर स्त्रियों के मन को प्राकर्षित करने वाले थे॥५१॥ मरिणयि ने करवारिकम बानविर । कर्म निगळा करणे कालति Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मार पुराण पिनिय बीळद सेंदामर पोडिमा । बरिणयिनुक्कनि युर मवनाईनान् ॥५२॥ अर्थ-उनके पैरों को हही तैयार किये हुये स्वर्ण के मोले की भांति सुशोभित हो रही थी। घुटने के नीचे का भाग पिंडली वा नसों से भरी हुई वत्तल के समान था । उनका परणतल रक्त कमल के समान था। इस प्रकार वह पुत्र अनेक प्रकार के अलंकारों से अलंकत. होकर मत्यन्त शोभा को प्राप्त हो रहा था ॥१२॥ दु विन्नुवरि लंघुम् दिसई। बंद तारणे पोलमडं पाळ ।। मैंदन बंदु पिरंदु जयंदनन् । रिद यम मेरा वळं नाळ ॥५३॥ अर्थ-चन्द्रोदय से प्रकाशमान पूर्वाचल को उदय पाकर पानेवाले नक्षत्र के समान उस राजा की पटरानी के गर्भ में द्वितीय पुत्र माया । और नवमास पूर्ण हो जाने के बाद उसके पुत्र रस्त उत्पन्न हुप्रा । उसका नामकरण संस्कार करके जयन्त नाम रक्खा गया। वह बालक पूर्ण चन्द्र के समान दिनोंदिन वृद्धि को प्राप्त हुवा मौर परम तेजस्वी व गुणों से सम्पन्न होकर प्रजाजन को मुग्ध कर लिया, जिससे सभी उसका गुणगान करने लगे ॥५३॥ पुग्णिय मुषिस कि तुळिग मैयदु मा । लागल संजयंद नहुँमर नायुळि ॥ विण्णर तिरुवनाळ वेळ वि नीर्मयार । पण मुळ्यिवोर् पाच पदिनाळ ॥१४॥ अर्थ-पूर्व जन्म में संचय किये हुये पुण्योदय से भोगोपभोग सुख तथा अनुकूल सामग्री अधिक से अधिक प्राप्त होती है। उसी प्रकार पुण्योदय से ख्याति को प्राप्त हुए जयंत कुमार ने क्रम से पौवनावस्था को प्राप्त किया । तत्पश्चात् उपासकाध्ययन. तर्क, व्याकरण, न्यायशास्त्र, नीतिशास्त्र तथा धर्मशास्त्र माद का भली भांति अध्ययन कर लिया। इस प्रकार वह सकल श.स्त्रों में पारंगत हो गया। राजकुमार के समान ही सर्वगुस्सों से सम्पन्न, संगीत कला में प्रवीण लक्ष्मी, सरस्वती को तिरस्कार करने वाली मधुर वचन बोनने बाली सुन्दरी कन्या के साथ जयन्त का विवाह संस्कार सम्पन्न हो गया। भावार्थ-शास्त्रों में लिखा है कि पूर्वजन्म के पुण्योदय से प्राणी को सारी विभूति प्राप्त होती है । धनपाल मादि ७ भाई थे। उन्होंने सभी अनेकों प्रकार के धन्धे व्यापार मादि किये किन्तु पूर्वजन्म में किये गये पाप कर्म के उदय होने से उनकी दरिद्रता दूर न हो सकी पर जब पाठवें भाई धन्यकुमार का जन्म हुमा तब उसकी मोलनाल भूमि में गाड़ते समय ही पुण्योदय से जमीन के अन्दर से धन से भरा हुमा एक बहुत बड़ा हंडा मिल गया। इस 'प्रकार पुण्य के प्रताप से उस जयन्त कुमार का बल तेज कीतिमादि चारों दिमामों में फैल Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण गयो। और पुण्य के प्रभाव से अनेक स्थानों से उनकी सगाई के लिये लोग अपनी पुत्रियों को देने के कहलावे भेजने लगे। यौवनावस्था को प्राप्त हुये उपाध्याय के समान अनेक शास्त्र, तर्क, व्याकरण आदि सर्वागम का ज्ञाता हो जाने पर शुभ मुहूर्त में एक सुन्दर सुयोग्य राज कन्या के साथ राजकुमार का पाणिग्रहण संस्कार हो गया ।।५।। वंडु पूमलंदुळि मदुवैयु बदिर् । ट्रोंढवा यवनलम् परगुनाळवन् । वंडिरै वलं पुरि मणियईड्रवा । पुंडवळ वेर्करणाळ पुदल्वर पेट्रनळ ॥५५॥ अर्थ-जब पुष्प खिल जाता है तब भ्रमर उसमें रसास्वाद लेता हुआ उसमें मग्न हो जाता है । इसी प्रकार कदली फल के समान अत्यन्त सुन्दर मुख तथा रक्त वर्णावली सर्वगरण सम्पन्न स्त्रीसूख अथवा रतिसुख का अनुभव करते समय लहरों से सुशोभित समुद्र के अन्दर तरंगों के समान मोती को धारण करने वाला तथा विरोधी जनों के वक्षःस्थल में भाले के समान प्रवेश करने वाले पुत्र रत्न को उस राजकन्या ने जन्म दिया। भावार्थ-जिस प्रकार कमलपुष्प के मध्य में बैठा हा भ्रमर फल के रसास्वाद में मग्न हो जाता है उसी प्रकार कदली फल के समान अत्यन्त लाल अधर व चमकदार मुख बाली स्त्री के साथ भोग करने लगा। विविध भांति के शंख व मोतो को धारण कर विरोधी शत्रु के हृदय में प्रवेश होने वाले तेज अस्त्र के समान परम तेजस्वी पुत्र रत्न को उस स्त्री ने जन्म दिया ।।५।। मदि दलै पट्ट पोळ दिन मगिळ दुवै जयंद नेरे। निधियर तिरंदु वीसि नीदियार् सेल्लु नालुट ।। दुवैमलरशोंक मेन्नु वनत्तिडै स्वयंभुनाम । तदिशय मडयक्कंडररसनुक्करवितिट्टार् । ५६॥ अर्थ-जिस प्रकार सकलकला सम्पन्न पूर्ण चन्द्रमा को देखकर समुद्र उमड़ने लगता है उसी प्रकार होनहार उस राजकुमार को देखकर राजा के मन में अपार हर्ष हुआ। पत्रोत्पत्ति के हर्ष में राजा ने बड़े हर्षोल्लास के साथ बच्चे का नामकरण संस्कार किया तथा याचकों को भिन्न २ प्रकार के वस्त्रादि का दान देकर सन्तुष्ट किया। इस प्रकार प्रानन्दपूर्वक क्रमण. समय व्यतीत होने लगा। विविध भांति के फूलों से सुसज्जित राजा का एक उद्यान बड़ा रम्य था। उसका नाम अशोक था । उस उद्यान में भगवान श्री स्वयम्भू स्वामी का समवसरण आया। भगवान का पदापरण देखकर उद्यान का वनमाली परमानन्दित हुआ। भगवान् का समयसरण आते ही उस उद्यान के जितने भी फल-फूल थे वे सभी हरे भरे हो गये। उस उद्यान में असमय में ही फूले-फले सामग्रियों को वनमाली बड़े हर्ष के साथ राजा के पास ले जाकर Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५ मेरु मंदर पुराण उपस्थित किया और कहने लगा कि भगवन् उद्यान में भगवान् का समवसरण आया हुआ है ॥५६॥ विळ नि दियेळिदिर् पेट्र परियवनपोलवेद । नेळ तरु विशोदितन्ना लेळ सेंडिरिरेजि वाळ ति ॥ मुळ दुड नवर्गट्कींदु मुनिवर्तकों सिरप्यु। केळ गण वीदिरोरु यियबिन मुरस निरे ॥५७॥ अर्थ-जिस प्रकार किसी दरिद्र को अमूल्य निधि प्राप्त हो जाने से उसे बड़ा हर्ष होता है उसी प्रकार उस वैजयन्त राजा को अपार आनन्द प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् शुद्ध परिणामों के साथ सिंहासन से नीचे उतरकर अपने मन में इस प्रकार का विचार किया कि जिससे सात प्रकार के संसार का नाश हो और सात प्रकार के परम स्याम की प्राप्ति हो, ऐसी सद्भावना करके सात पग आगे चलकर परोक्ष रूप से नमस्कार किया और अपने शरीर पर से बहुमूल्य वस्त्राभूषणों को उतारकर उस वनमाली को पुरस्कार रूप में दे दिया। तदनन्तर सभी लोगों को स्वयम्भू भगवान् के दर्शनों के लिये चलने के लिये नगर में प्रानन्द भेरी बजवाई ॥५७॥ इडिमुरसियेंबु मेल्लईदिर नगरन तन्नं । पडिमिस यनिदु पडंगळ दिट्ट वष्णम् ॥ कोडि नगररिंगदु पूरण मारमं पुळयु मिन्न । कडिमलर् कळब मेंदि कनत्तिडे येळंव दंई ॥१८॥ अर्थ-जिस प्रकार आकाश में बादल गरजते हैं उसी प्रकार के वाद्य बजने लगे। उस समय की शोभा ऐसी लगती थी मानों देवेन्द्र देवलोक से अमरपुरी को अलंकृत करके इस कर्मभूमि में लाकर स्थापना करदी हो अथवा समुद्र में तरंगों की सुन्दर ध्वनि निकल रहो हो । उस वीतशोक नगर में रहने वाली प्रजा अनेक प्रकार के प्राभरणों से सजधजकर नील मणि, माणक प्रादि के हार पहनकर तथा कानों में कुण्डल सुगंधित पुष्पमाला आदि धारण करके इस प्रकार सुशोभित हो रही थी कि मानों हाथ में अष्ट-द्रव्य लेकर स्वयम्भू भगवान् की पूजा करने के लिये जाने को तैयार हो । भावार्थ-जिस प्रकार आकाश में बादल गरजते हैं उसी प्रकार भेरी मृदंगादि विविध प्रकार के बाजे उस वीतशोक नगर में बज रहे थे। उस समय ऐसा प्रतीत होता था कि मानों देवलोक से देवता अमरपुरी को प्रांकृत करके लाये हों। जिस प्रकार समुद्र में तरंगें उठती हैं उसी प्रकार अनेक ध्वजामों से सुशोभित उस वीतशोक नगर में रहने वाले प्रजाजन अनेक प्रकार के मोती मरिणयों से सुशोभित होकर भगवान् स्वयंभू की अष्टद्रव्य से पूजा करने के लिये जाने को तैयार हो गये ॥५॥ काल पोर कलिर् पोंगिक करिनग रयु मेछ। माल सांदुर्मबि मैइस नार् सूळपोगि । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण कालने कवि वेदन करि नगर् कुरुगि कमा। मेलिळिनिरंजि पुक्कान विषबर किरंग नोत्तात् ॥५६॥ मर्थ-प्रचण्ड वायु के वेग से जिस प्रकार समुद्र तरंगें कलकलाहट करती रहती हैं उसी प्रकार उस नगर के सारे स्त्री पुरुष चंदन केशर पुष्प मादि प्रष्ट द्रव्य की सामग्री हाथ में लेकर अत्यन्त मानन्द से चलने लगे और राजा वैजयन्त मपनी पटरानी सहित हाथी पर सवार होकर कर्मरूपी यमराज को तप द्वारा नष्ट करके प्रात्मरूपी साम्राज्य को प्राप्त किये हुने भगवान स्वयम्भू को देखकर हाथी से नीचे उतरा और भगवान के दर्शनार्थ समवसरण में क्या । जाते समय बह ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे देवलोक से साक्षात् देवेन्द्र ही माया हो। यह सब पूर्वभव में किये हुये पुण्य का ही प्रभाव था। पुण्यहीन पुरुष को ऐसा वैभव नहीं प्राप्त हो सकता ।।५।। वानविर् कडंदु मान पोउत्तं वनगि बाळ ति । मानत्त बत्तं यदि बलंकोंडु पनि पोगि । मारणमेल्ला' मोत्तुमलर् मली किंडंगु पित्रा। मानमिल्लाद वल्लिवनत्ति मलर् के यदि ॥६॥ मर्य-इन्द्र धनुष के समान धूलि नाम की शाला की वेदी का उल्लंघन करके रहने वाले बलिपीठ को नमस्कार व स्तुति करके मानस्तम्भ के पास आकर तीन प्रदक्षिणा दी। तत्पश्चात् सुगंधित पुष्पों से भरे हुये लतावन में जाकर उसमें रहनेवाले मर्यादा रहित पुष्पों को तोड़कर अपने हाथों में लेने पर भी कुछ लोग फल व पुष्पों को भगवान की पूजा में नहीं लगाते, बल्कि मर्यादित फल-फूलों को ही लगाते हैं। इस विषय में मष्टपाड ग्रन्थ में प्राचार्य कुन्द-कुन्द ने कहा भी है कि: यावन्ति जिनचैत्यानि विद्यन्ते भुवनत्रये । तावन्ति सततं भक्त्या त्रिःपरीत्य नयाम्यहम् ॥ फुल्ल पुकारइ वागियहि कहियो जिणहं चंडोसि । धम्मो को वि न प्रावियउ कंपिय धरणि पडेसि । केणय वाडीवाईया केणय वीणिय फुल्ल । केणव जिगह चडाविया ए तिष्णि व समतुल्ल ॥ जिन मन्दिर व जिनागम में षट्कायिक जीवों का हितकारक स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त कराने वाला कहा है । चैत्यगृह के निर्माण के लिये जो मिट्टी खोदी जाती है वह काय योग के द्वारा चैत्यगृह का उपकार करके पुण्यकर्म का उपार्जन करती है और उस पुण्यकर्म द्वारा परम्परा से स्वर्ग तथा मोक्ष को प्राप्त होता है । जो जल चैत्यगृह के काम में आता है वह भी मिट्टी की तरह पुण्य को प्राप्त होता है । जो अग्नि चैत्य गृह के निमित्त जलाई जाती है वह थी उसी तरह पुण्य को प्राप्त होती है । जो वायु चैत्यगृह के निमित्त प्रग्नि को प्रदीप्त Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण करने के लिये होती है अथवा धूप के अंगार और नैवेद्य के पाक के लिये उत्क्षेप निक्षेप को प्राप्त होती है, अची नोची की जाती है वह भी उसी तरह पुण्य को प्राप्त होती है । जो पुष्प आदि वनस्पति चैत्यगृह की पूजा के लिये छेदे जाते हैं वे भी काय योग के द्वारा पुण्यो. पार्जन करते हैं। अतः उसका भी भला होता है । बागवान फूल से कहता है कि हे फूल ! तुम जिनेन्द्र भगवान् के ऊपर कैसे चढ़ाये जानोगे ? क्योंकि कोई धर्मात्मा जीव नहीं पा रहा है। तुम यहीं पर कम्पित होकर पृथ्वी पर गिर जानोगे। किसी ने कहा भी है कि किसी व्यक्ति ने वाटिका लगवाई किसी ने फूल चुने और किसी ने जिनेन्द्र भगवान् के चरणों में पुष्प चढ़ाये । ये तीनों ही पुरुष एक समान हैं और एक ही समान पुण्य को प्राप्त होते हैं ।६०॥ गोपुरं सुरुवुन सोले गोपुरं कोडियिन् पदि । गोपुरं काऊं शंबोन् माळिगै कुळ कुण्ड्रा। मापुरि येनय तूवै मरिणमुत्त मनलि मुद्र। नपुरत्तरव मार्प नुवलिय कंडंदु पुक्कान् ॥११॥ अर्थ-उदय गिरि नामक कोट (दीवार) और गोपुर के भीतरी भाग में भ्रमर के द्वारा मधुर रस को खीचने के समान दीखनेवाले तोप से युक्त वर्णभूमि और गोपुरों को ध्वजा से युक्त ध्वजा भूमि को, छोड़कर भागे कल्याणकर नामक कोट और गोपुरों को उल्लघंन कर उसमें रहने वाले कल्पवृक्ष की भूमि को, इससे आगे स्वर्ण द्वारा निर्मित गोपुर के समूह से युक्त गुहांगण भूमि को, तथा किसी भी प्रकार की न्यूनता से रहित नगर के स्तूप और मरिणयों से सुशोभित होनेवाली मोती और स्त्रियों के पैरों में बंधे हुये नूपुर प्रादि मधुर शब्दों से युक्त सातवीं भूमि को उल्लघंन कर भीतर प्रवेश किया ॥११॥ पत्तो पदनाराय बीमन् मरिणय दिर। चित्तिरत्ति यद पट्टतिनिलयतं येदि। मत्तमाल कळिर शंबोन मलैइन बलं बार पोल । ट्रोसोळिर् मलगडूवि पल मुरै बलं बंचिट्टान् ॥२॥ अर्थ-शुद्ध स्वर्ण तथा श्रेष्ठ रत्नों से निर्मित प्रत्यन्त शोभायमान श्री निलय में नाकर जिस प्रकार मन्दोन्मत हाथी महा मेरु पर्वत को प्रदक्षिणा करता है उसी प्रकार राजा वैजयन्त गन्दा के फूल को लेकर भगवान् की प्रदक्षिणा करता हुमा पुष्पवृष्टि की। भावार्ष-शुख स्वर्ण तथा रत्नों से निर्मित सुन्दर निलय को जिस प्रकार महा मदोन्मत्त हाथी महा मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करता है उसी प्रकार राजा वैजयन्त ने पुष्पवृष्टि करते हुए प्रदक्षिणा की ।।६२॥ निरमादिकंड नीलमा कडल् पोल नोग। बिरवन दुरुवन् काना वेळ बर विशोरि तसार ।। शिरं यळिपुनलिर शेल्ल कावळ नामि शीर साल । वरचिनु किरवन दृम्मे इ.वि वर्गलोगिनाने ॥३॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] मेरु मंदर पुराण ___अर्थ -पूर्ण चन्द्रमा को देखकर महासागर के समान अत्यन्त शीघ्रता से स्वयम्भू भगवान् का दर्शन करते हुये उसके अन्दर उत्पन्न हुये शुद्ध परिणामों से कर्माश्रव से बंधे हुये बांध रूपी कर्म का नाश करके आगे जाने वाले के समान अत्यन्त तीव्र भक्ति के द्वारा अपेक्षा करते हुये भगवान् की पूजा तथा समस्त मुनिजनों की भक्ति करते हुये अत्यन्त आनन्दित होकर जिनेन्द्र भगवान् की इस प्रकार स्तुति करने लगा : अहो ! जगत गुरुदेव, सुनियो अरज हमारी । तुम हो दीनदयाल, मैं दुखिया ससारी ॥१॥ इस भव वन में वादि, काल अनादि गंवायो। भ्रमत चतुर्गति मांहि, सुख नहिं दुःख बहु पायो ॥२॥ कर्म महारिपु जोर, एक ना कान करें जी। मन मान्या दुख देहिं, काहू सों नाहिं डरै जी ।।३।। कबहूँ इतर निगोद, कबहुँ नर्क दिखावै ।। सुरनर पशुगति मांहि, बहुविधि नाच नचावें ॥४॥ प्रभु इनके परसंग, भव भव मांहि बुरे जी। जे दुख देखे देव ! तुमसो नांहिं दुरे जी ॥५॥ एक जनम की बात, कहि न सकों सुन स्वामी । तुम अनन्त परजाय, जानत अन्तरयामी ॥६॥ मैं तो एक अनाथ, ये मिलि दुष्ट घनेरे। कियो बहुत बेहाल, सुनियो साहिब मेरे ॥७॥ ज्ञान महानिधि लूट, रंक निबल करि डारयो। इनहीं तुम मुझ मांहि, हे जिन ! अन्त र पारयो ॥६॥ पाप पुण्य मिलि दोइ, पायनि बेड़ी डारी। तन कारागृह मांहि, मोहि दिये दुःख भारी ।।६।। इनको नेक बिगार, मैं कुछ नांहि कियो जी। बिन कारन जगबंधु ! बहुविधि बैर लियो जी ॥१०॥ अब पायो तुम पास, सुनि कर सुजस तिहारो। नीति निपुन महाराज, कीजे न्याय हमारो॥११॥ दुष्टन देहु निकार, साधुन को रख लीजै। बिन भूधरदास' हे प्रभू ! ढोल न कीजै ॥१२॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण . [४६ पूमाले मोदलाय पुनयाद तिरुमुर्ति । कामादि वेंड यरंद कडवु ळे रमे ।। कामादि वेंड यदं कडवळे.. रैदानु। कोमानिन् तिरुवरुवन् कोंडु वप्पाररियरे ॥६४॥ अर्थ-तत्पश्चात् पुष्पों के हार इत्यादि अलंकारों से अलकृत परमौदारिक शरीर काम क्रोध मद आदि दोषों को जीतकर प्रकाशमान करने वाले ये ही देव हैं, ऐसा कोई दूसरा देव नहीं, ये ही भगवंत हैं, रागदि दोष को जीतकर स्वभावगुण सहित ये ही. जिनेन्द्रदेव हैं, ऐसा भक्तिभाव पूर्वक उच्चारण करते हुये बोले कि हे भगवन् ! आपके सुन्दर रूप को मनमें धारण कर संतोष के साथ जो स्मरण व ध्यान करता है वह प्राणी शीघ्र संसार सागर से पार हो जाता है । ऐसा ध्यान व स्मरण करने वाला भव्य जीव संसार में महादुर्लभ है। निराभरणभासुरं विगतरागवेग दयात् । निरंबरमनोहर प्रकृतिरूपनिर्दोषतः॥ निरायुधसुनिर्भयं विगतहिंस्यहिंसाक्रमात् । निरामिषसुतृप्तिमद्विविधवेदनानांक्षमात् ॥ चत्यति॥ श्री भगवान् का रूप अलंकार अत्यन्त सुन्दर दिखाई देता है । भगवान् अपने शरीर का शृङ्गार बस्त्राभूषणों से क्यों नहीं करते ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जिन्होंने सम्पूर्ण रूप से राग भाव का नाश किया हैं कदाचित् मन में राग द्वेष अथाव विषय भोग की इच्छा रहे तो शृङ्गार आदि करने की भावना मनमें होती है और तभी शरीर का शृङ्गार करते हैं तथा तभी अपने पास सुन्दर २ पदार्थ रखने की इच्छा उत्पन्न होती है परन्तु भगवान ने सम्पूर्ण रूप से विषय वासना का नाश कर दिया है, इस कारण उनके मन में शृङ्गार आदि की भावना उत्पन्न ही नहीं होती। भगवान का शरीर राग-द्वेषादि नष्ट हो जाने के कारण अत्यन्त सुन्दर दीखता है । तीन लोक के जीव भी उनके दिब्य शरीर को देखकर प्रसन्न होते हैं। राग-द्वेषादि विकारों से सर्वथा रहित होने कारण भगवान् निर्विकारी होते हैं, इसलिये समस्त विकारों को छिपाने के लिये उनको वस्त्रादि की आवश्यकता नहीं होती। भगवान ने सम्पूर्ण पापों का नाश कर दिया है। मोह कर्म से उत्पन्न लज्जा ही एक भेद है. इस कारण भेद का नाश अथवा मोह कर्म का नाश होने से भेद ज्ञान उत्पन्न होता है । भगवान् सदैव निर्विकारी हैं। वे अपने पास एक भी वस्त्र नहीं रखते । वे निर्भय हैं, जीव की हिंसा वगैरह नहीं करते और न वैसा उपदेश ही देते। भगवान् परम दयालु हैं-भव्य जीवों को सदा दयामय ही उपदेश देते हैं, इसलिये उनको अस्त्र-शस्त्रादि पास में रखने की अावश्यकता नहीं होती। -भगवान् आहार नहीं करते-आहार न होने पर भी ज्ञानामृत भोजन से वे सदा तृप्त रहते हैं। ऐसी विलक्षण तृप्ति उनके समान अन्य किसी को नहीं होती। इस प्रकार भगवान् के स्मरण व ध्यान करने वाले विरले ही भव्य जीव होते हैं ।।६४॥ विळक्कस पळिगे पोल विरिंदोलि मूनड ई मेनि । पळप्परिय योळि ग्गत्तळ लिरुप्प वेंड रैयुमे । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण पळप्परिय मोळि यगत लळिरप्परेंद्र बालु। तुळक्कर बेन रुयरं दोये तोळवेळ वा ररियरे ॥६॥ अर्थ-हे भगवन् ! दीपक के प्रकाश, स्फटिक मरिण की ज्योति युक्त मन, वचन, काय ऐसी तीनों ज्योति सहित परमोदारिक शरीर की तुलना अन्य मनुष्य के शरीर की तुलना करने में मशक्य है । ऐसा प्रापके शरीर का प्रकाश है। ऐसा देखने में मानेवाला परम प्रकाश माप में रहता है । ऐसा कहते हुये चलन रहित विभावों को नाश कर स्वभाव गुणों को जानकर भक्ति करने वाले जीव इस संसार में महान् दुर्लभ है। भावार्थ-जैसे दीपक स्फटिक मरिण में अत्यन्त प्रकाशमान होकर चारों भोर उसका प्रकाश फैल जाता है उसी प्रकार मापकी मन, वचन काय इन तीनों ज्योतियों से युक्त मापके परमोदारिक शरीर की उपमा किसी अन्य के शरीर से देने में नहीं पाती, इसलिये प्रापका शरीर भनुपम है। भात्मप्रकाश इस शरीर में मौजूद है, ऐसा जानने पर भी विभाव परिणति में मग्न होनेवाला जीव विभाव को छोड़कर स्वभाव परिणति में मग्न होकर अपने निज स्वरूप को जानने वाले जीव संसार में महान् दुर्लभ है ॥६॥ अमलमा यरुळ सुरदिट्टरिवरिये तिरमती। विमल माय विरिद नार् गुगलमै विरिपकुमे ॥ विमल माय विरिंद नाल गुरणराल मै विरिवालु। कमल नीदुल मुने कावलिप्पा ररियरे ॥६६॥ अर्थ-विभाव से रहित सम्पूर्ण प्राणियों में दया रखने वाले आपके समान गुण किसी अन्य देव में मिलना अत्यन्त दुर्लभ है । प्रतः त्रिमूर्ति भगवम् ! प्रापका परमौदारिक भरीर अठारह दोषों से रहित होने के कारण अनन्त दर्शन, अनन्त चतुष्टय तथा अनन्त वीर्य ये चार चतुष्टय प्रापके अन्दर विशाल रूप में होते हैं । इस कारण श्रेष्ठ अनन्त चतुष्टय को प्राप्त किये भगवान् को जानने वाले १०८ कमलों पर विहार करने वाले तथा आपकी इच्छा व भक्ति करने वाले जीव बहुत दुर्लभ है। भावार्थ-प्राचार्य ने प्रवचनसार में कहा है कि यह प्रात्मा शुद्धोपयोग के प्रभाव से स्वयम्भ तो हमा परन्त इन्द्रियों के विना ज्ञान और प्रानन्द इस प्रात्मा के किस तरह होता है? इसकी शंका दूर करते हैं कि यह अज्ञानी जीव इन्द्रिय विषयों के भोग में ही ज्ञान और भानन्द मान बैठा है । उनको चैतन्य करने के लिये निज स्वभाव से उत्पन्न हुये शान तथा सुख को दिखाते हैं । वह स्वयम्भू भगवान् प्रात्मा इन्द्रिय ज्ञान से रहित होता हुआ निज पर प्रकाशक तथा प्राकुलता रहित अपना सुख इन दोनों स्वभाव रूप परिणमता है । भगवान् कैसे हैं ? चार घातिया कर्मों को नाश किया है जिसने अर्थात् जब तक घातिया कर्म सहित बा तब तक बायोपशमिक मत्यादिज्ञान तथा चक्षुरादि दर्शन सहित था । धातिया कर्मों के नाश होते ही प्रतीन्द्रिय हमा । फिर कैसा है? मर्यादा रहित है। जिसके उत्कृष्ट बल है पति अन्तराय के दूर होने से जो अनन्त वल सहित है। फिर कैसा है ? अनन्त है ज्ञान दर्षन रूप प्रकाश जिसके अर्थात मानावरण दर्शनावरण कर्म के जाने से अनन्तशान अनन्त Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंबर पुरीरंग [ दर्शनमय है और समस्त मोहनीय कर्मों के नाश होने से स्थिर होकर प्रपने स्वभाव को प्राप्त हो गये हैं । इस प्रकार भगवान् के वचन व गुणों पर भक्ति व श्रद्धा रखने वाले जीव संसार दुर्लभ हैं ।। ६६ ।। पेंड्र निड्रिरे वने एसि मादव । तोंद्रिय यनत्तना लग नावनै ॥ निड्र तब नोम पेन । कुनार करुळिनान् कुट्रमटू कोन् ॥ ६७॥ अथ - इस प्रकार भक्ति सहित भगवान् के सन्मुख खड़ा होकर पूजा भक्ति तथा उनके गुणों का स्मरण किया और ऐसा करने से मन में वैराग्य तथा तपश्चरण की भावना उत्पन्न हुई। राजा वैजयन्त भगवान् से इस प्रकार प्रार्थना करता है कि हे त्रिलोकीनाथ ! इस लोक में सदैव रहने वाले चराचर जीव किस प्रकार के हैं तथा उनका क्या स्वरूप है ? इस प्रश्न को सुनकर स्वयम्भू तीर्थंकर ने सकल चराचर वस्तु तथा जीवाजीव पदार्थ के स्वरूप को समझाने लगे । भावार्थ- नाम कर्म के उदय से उसे जितना छोटा-बड़ा शरीर प्राप्त होता है वह उतना ही संकोच विस्तार रूप हो जाता है। उस जीव का अन्वेषण करने के लिये गति प्रादि site मार्गणात्रों का निरूपण किया गया है । इसी प्रकार चौदह गुणस्थान और सत्संख्या भादि अनुयोगों के द्वारा भी वह जीव-तत्व अन्वेषरण करने के योग्य है । भावार्थ - भागरणाओं, गुणस्थानों, सत्संख्या और अनुयोगों द्वारा जीव का स्वरूप समझा जाता है । गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, woयत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और श्राहारक ये चौदह मार्गणा स्थान हैं। इन मागंणा स्थानों में सत्संख्या श्रादि विशेष रूप से जीव का अन्वेषण करना चाहिये । और उसका स्वरूप जानना चाहिये । सिद्धान्त शास्त्र रूपी नेत्र को धारण करने वाले भव्य जीवों को सत्संख्या, क्षेत्र स्पर्शन काल भाव, अन्तर, अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगों के द्वारा जीवतत्त्व का प्रन्वेषण करना चाहिये । इस प्रकार जीवतत्त्व के ये उपाय हैं। इनके सिवाय विद्वानों को नय और निक्षेपों के द्वारा भी जीवतत्व की जानकारी कर लेनी चाहिये। उसका स्वरूप जानकर दृढ़ प्रतीति करनी चाहिये । श्रपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, प्रौदायिक प्रौर पारिणामिक ये पांच भाव जीव के निज तत्त्व कहलाते हैं । इन गुणों का जिसके द्वारा निश्चय किया जावे वे जीव कहलाते हैं। उस जीव का उपयोग ज्ञान प्रौर दर्शन भेद से दो प्रकार का होता है इन दोनों प्रकार के उपयोगों में से ज्ञानोपयोग प्राठ प्रकार का और दर्शनोपयोग चार प्रकार जानना चाहिये । जो उपयोग साकार है अर्थात् विकल्प सहित पदार्थ को जानता है उसे दर्शनोपयोग कहते हैं और जो प्रनाकार है, विकल्प रहित पदार्थ को जानता है उसे दर्शनोपयोग कहते हैं। घट-पट आदि की व्यवस्था लिये किसी के भेदकरण करने को प्रकार कहते हैं । और सामान्य रूप से ग्रहण करने को अनाकार कहते हैं । ज्ञानोपयोग वस्तु को भेदपूर्वक ग्रहण करते हैं । इसलिये वह साकार सविकल्प उपयोग कहलाता है और दर्शनोपयोग वस्तु को सामान्य रूप से ग्रहण करता है, इसलिये वह Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण ५२ ] अनाकार प्रविकल्प उपयोग कहलाता है। जीव, प्राणी, जन्तु, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान्, आत्मा. अन्तरात्मा और ज्ञानी ये सब जीव के पर्यायवाची शब्द हैं । चूंकि यह जीव वर्तमान काल में जीवित है, भूतकाल में भी जीवित था और अनागत काल में भी अनेक जन्मों में जीवित रहेगा । इसलिये इसे जीव कहते हैं । सिद्ध भगवान् अपनी पूर्व पर्यायों में जीवित थे इसीलिये वे भी जीव कहलाते हैं। पांच इन्द्रिय, तीन बल आयु और श्वासोच्छवास ये दश प्रारण इस जीव के पास विद्यमान रहते हैं इसलिये प्राणी कहलाता है । यह बारम्बार अनेक जन्म धारण करता है, इसलिये जन्तु कहलाता है । इसके स्वरूप को क्षेत्र कहते हैं और यह उसे जानता है, इसलिये क्षेत्रज्ञ कहलाता है । पुरु अर्थात् श्रच्छे-अच्छे भोगों में ज्ञान प्राप्त करने से यह पुरुष कहलाता है । अपने आत्मा को पवित्र करने के कारण पुमान कहलाता है । यह जीव नर-नारकादि आठ कर्मों के अन्तर्वर्ती होने से अन्तरात्मा भी कहलाता है । यह जीव ज्ञान गुण से सहित होने से ज्ञेय अथवा ज्ञानी कहलाता है । इस प्रकार यह जीव उपरोक्त पर्यायवाची शब्दों के समान अन्य अनेक शब्दों से जानने य.ग्य है । यह जांव नित्य है, परन्तु उसकी नर-नरकादि पर्याय पृथक् पृथक् है । जिस प्रकार नित्य होने पर भी पर्यायों की अपेक्षा उसका उत्पाद और विनाश होता रहता है उसी प्रकार यह जीव नित्य है, परन्तु पर्यायों की अपेक्षा उसमें भी उत्पाद और विनाश होता रहता है । 1 भावार्थ - द्रव्यत्व सामान्य की अपेक्षा जीव द्रव्य नित्य है और पर्यायों की अपेक्षा अनित्य है । एक साथ दोनों अपेक्षाओं से यह जीव उत्पाद व्यय और ध्रौव्यरूप है । जो पर्याय पहले नहीं थी उसका उत्पन्न होना उत्पाद कहलाता है, किसी पर्याय का उत्पाद होकर नष्ट हो जाना व्यय कहलाता है और दोनों पर्यायों में तद्वस्तु होकर रहना धौव्य कहलाता है । इस प्रकार यह आत्मा उत्पाद ब्यय तथा ध्रौव्य इन तीनों लक्षणों सहित है ऊपर कहे हुये स्वभाव से युक्त श्रात्मा को नहीं जानते हुये मिथ्या दृष्टि पुरुष उसका स्वरूप अनेक प्रकार से मानते हैं और परस्पर में विवाद करते हैं । कुछ मिथ्यादृष्टि कहते हैं कि आत्मा नाम का पदार्थ ही नहीं है, कोई कहता है कि वह अनित्य है, कोई कहता है कि वह कर्ता भोक्ता नहीं है कोई कहता है कि प्रात्मा नामक पदार्थ है तो सही, परन्तु उसका मोक्ष नहीं हैं और कोई कहता है कि मोक्ष भी होता है, परन्तु मोक्ष प्राप्ति का कुछ उपाय नहीं है । इसलिये आयुष्मन्. हे वैजयन्त ! ऊपर कहे हुये इन अनेक मिथ्या नयों को छोड़कर समीचीन नय के अनुसार जिसका लक्षण कहा गया है ऐसे जीव तत्व का तुम निश्चय करो। जीव की दो अवस्था मानी गयी है । एक संसारी और दूसरा मुक्त (मोक्ष) । नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चार भेदों से युक्त संसार रूपी भवर में परिभ्रमण करना संसार कहलाता है और समस्त कर्मों का बिल्कुल क्षय हो जाना मोक्ष कहलाता है । वह मोक्ष अनन्त सुख स्वरूप हैं तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप साधन से प्राप्त होता है । सच्चे देव, शास्त्र और समीचीन पदार्थ का बड़ीं प्रसन्नता पूर्वक श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन माना गया है। यह सम्यग्दर्शन मोक्ष प्राप्ति का प्रथम साधन है । जीव, अजीव आदि पदार्थो के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करने वाला तथा अज्ञान रूपी अन्धकार को परम्परा से नष्ट हो जाने के बाद उत्पन्न होने वाला जो ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है । इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में समता भाव धारण करने को सम्यक्चारित्र कहते हैं । वह सम्यक्चारित्र यथार्थ रूप से तृष्णा रहित मोक्ष की इच्छा करने वाले, वस्त्र रहित और हिंसा का सर्वथा त्याग करने वाले मुनिराज को ही होता है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान भौर सम्यक्चारित्र ये तीनों Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ५३ मिलकर ही मोक्ष के कारण कहे गये हैं। यदि इनमें से एक भी अंग की कमी हुई हो तो कार्य सिद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकते । सम्यग्दर्शन के होने से ही ज्ञान और चारित्र फल को देने वाले होते हैं । इसी प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के रहते हुये ही सम्यग्ज्ञान मोक्ष का कारण है । सम्यग्दशन और सम्यग्ज्ञान से रहित चारित्र कुछ भी कार्यकारी नहीं होता, किन्तु जिस प्रकार अंधे पुरुष का दौड़ना उसके पतन का कारण होता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान से शून्य पुरुष का चारित्र भी उसके पतन अर्थात् नरकादि गतियों में परिभ्रमण का कारण है। इन तीनों में से कोई तो अलग-अलग एक-एक से मोक्ष मानता है और कोई दो से मोक्ष मानता है। इस प्रकार अज्ञानी लोगोंने मोक्षमार्ग के विषय में छह प्रकार के मिथ्या नयों को कल्पना को है, परन्तु उपर्युक्त कथन से उन सभी का खंडन हो जाता है । भावार्थ – कोई केवल दर्शन से, कोई केवल ज्ञान से, कोई केवल चारित्र से, कोई दर्शन और ज्ञान दो से, कोई दर्शन और चारित्र इन दो से और कोई ज्ञान तथा चारित्र इन दो से मोक्ष मानते हैं । इस प्रकार मोक्ष मार्ग के विषय में छह प्रकार के मिथ्या नय की कल्पना करते हैं, परन्तु उनकी यह कल्पना ठीक नहीं है, क्योंकि तीनों की एकता से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है । जैन धर्म में प्राप्त, आगम तथा पदार्थ का जो स्वरूप कहा गया है उससे अधिक वा कम न तो है, न था और न आगे ही होगा। इस प्रकार प्राप्त आदि तीनों के विषय में श्रद्धान की दृढ़ता होने से सम्यग्दर्शन में विशुद्धता उत्पन्न होती है । जो अनन्त ज्ञान आदि गुणों से सहित हो, घातिया कर्म रूपी कलंक से रहित हो, निर्मल आशय का धारक हो, कृतकृत्य हो और सबका भला करने वाला हो वह प्राप्त कहलाता है। इसके सिवाय अन्य देव प्राप्ताभास कहलाते हैं । जो प्राप्त का कहा हुआ हो, समस्त पुरुषार्थों का वर्णन करने वाला हो और नय तथा प्रमारणों से गंभीर हो उसे आगम कहते हैं। इसके अतिरिक्त असत्य पुरुषों के वचन श्रागमाभास कहलाते हैं । जीव और अजीव के भेद से पदार्थ के दो भेद जानना चाहिये । उसमें से जिसका चेतना रूप लक्षण ऊपर कहा जा चुका है और जो उत्पाद, ब्यय तथा ध्रौव्य रूप तीन प्रकार के परिरणमन से युक्त है वह जीव कहलाता है । भव्य-अभव्य और मुक्त इस प्रकार जीव के तीन भेद कहे गये हैं। जिसे प्रागामी काल में सिद्धि प्राप्त हो सके उसे भव्य कहते हैं । भव्य जीव स्वर्ण पाषारण के समान होता है अर्थात् जिस प्रकार निमित्त मिलने पर सुवर्ण पाषाण प्रागे चलकर शुद्ध सुवर्ण रूप हो जाता है उसी प्रकार भव्य जीव भी निमित्त मिलने पर शुद्ध सिद्धस्वरूप हो जाता है । जो भव्य जीव से विपरीत है अर्थात् जिसे कभी सिद्धि की प्राप्ति न होसके उसे अभव्य कहते हैं । प्रभव्य जीव अन्ध पाषाण के समान होता है अर्थात् जिस प्रकार अन्धपाषारण कभी सुबर्ण रूप नहीं हो सकता। उसी कार अभव्य जीव कभी सिद्ध स्वरूप नहीं हा सकता । प्रभव्य जीव को मोक्ष प्राप्त होने की सामग्री कभी प्राप्त नहीं होती । और जो कर्मबंधन से छूट चुके हैं, तीनों लोकों का शिखर ही जिनका स्थान है, जो कर्म कालिमा से रहित हैं और जिन्हें अनन्त सुख प्रभ्युदय प्राप्त हुआा है ऐसे सिद्ध परमेष्ठी मुक्क्त जीव कहलाते हैं । इस प्रकार हे बुद्धिरूपी धन को धारण करने वाले वैजयन्त ! मैने तुम्हारे लिये संक्षेप से जीव तत्व का निरूपण किया है। अब इसी तरह अजीव तत्व का भी निश्चय कर; धर्म अधर्म श्राकाश और पुद्गल इस प्रकार प्रजीव तत्व का पांच भेदों द्वारा सविस्तार निरूपण किया जाता है। जो जीव भोर पुद्गलों के गमन में सहायक कारण हो उसे धर्म कहते हैं और जो उन्हीं के स्थित होने में सहकारी कारण हो उसे प्रधर्म कहते हैं । धर्म धौर मधर्म ये दोनों ही पदार्थ अपनी इच्छा से गमन करते और Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] मेरु मंदर पुराण ठहरते हुये जीव तथा पुद्गलों के गमन करने और ठहरने में सहायक होकर प्रवृत्त होते हैं स्वयं किसी को प्रेरित नहीं करते। जिस प्रकार जल के बिना मछली का गमन नहीं हो सकता फिर भी जल मछली को प्रेरित नहीं करता उसी प्रकार जीव और पुद्गल धर्म द्रब्य के बिना नहीं चल सकते; फिर भी धर्म द्रव्य उन्हें चलने के लिये प्रेरित नहीं करता, किन्तु जिसप्रकार जल चलते समय मछली को सहारा दिया करता है उसी प्रकार धर्म पदार्थ भी जीव और पुद्गलों को चलते समय सहारा दिया करता है। जिस प्रकार वृक्ष की छाया स्वयं ठहरने की इच्छा करनेवाले पुरुष को उहरा देती है- उसके ठहरने में सहायता करती है, परन्तु वह स्वयं उस पुरुष को प्रेरित नही करती तथा इतना होने पर भी वह उस पुरुष के ठहरने का कारण कहलाती है, उसी प्रकार पधर्मास्तिकाय भी उदासीन होकर जीव और पुद्गलों को स्थित कर देता है-उन्हें ठहरने में सहायता पहुचाता है, परन्तु स्वयं ठहरने की प्रेरणा नहीं करता। जो जीव प्रादि पदार्थों को ठहरने के लिये स्थान दे उसे आकाश कहते हैं। वह आकाश स्पर्श रहित, प्रमूर्तिक, सब जगह व्याप्त और क्रिया रहित है। जिसका वर्तना लक्षण है उसे काल कहते हैं। वह वर्तना काल तथा काल से भिन्न जीव आदि पदार्थों के आश्रय रहती है और सब पदार्थों का जो अपने-अपने गुरण तथा पर्याय रूप परिणमन होता है उसमें सहकारी कारण होती है। जिस प्रकार कुम्हार के चक्र के फिरने में उसके नीचे लगो हुई शिला कारण होती है उसी प्रकार काल द्रव्य भी सब पदार्थों के परिवतन में कारण होता है।। ६७ ॥ उयिरु उयिरल्ल पुन्नियं पावमूट। सैइर् तीर सेरिप्पु मुदिरपुं कट्ट, वीडुमुद्र ।। तुयतीकुतूयनेरियुसुरुक्कायुरप्पन् । मयतीरंद काक्ष युडयो इदुक्केन मदित्ते ॥६॥ अर्थ-• से रहित होकर सम्यग्दर्शन प्राप्त हे वैजयन्त राजा सुनो। जीव पदार्थ, अजीव पदार्थ, पुण्य तथा पाप पदार्थ, पाश्रव पदार्थ, दोषों को रोकने बाला संवर पदार्थ, निर्जरा पदार्थ, तथा मोक्ष पदार्थ इनका अनादि काल से संसार में रहने वाले जीव के दुःख को नाश करके मोक्ष के दाता ऐसे अत्यन्त निर्मल रत्नत्रय मार्ग का संक्षेप में वर्णन करूंगा। भावार्थ-हे राजन् ! मूर्खा रहित सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुये तुम सावधानी पूर्वक मुनों। जीव अजीव पुण्य तथा पाप पदार्थों को तथा प्रात्मा में सर्वदा कर्म को लानेवाले माश्रव पदार्थ है। पाप और पुण्य को रोकनेवाला सवर पदार्थ है। कर्म की निर्जरा करने वाला निर्जरा पदार्थ है। प्रात्मा के साथ कर्मबंध को करनेवाले बंध पदार्थ हैं। आत्मा को मंसार से मुक्त कर सम्पूर्ण कर्मों को नाश करनेवाले ये मोक्ष पदार्थ हैं। इस प्रकार अनादि काल से मात्मा को संमार का कारण होनेवाले मोक्ष देनेवाले रत्नत्रय मार्ग का संक्षेप में निरूपण करेंगे। इसको हे राजन्! ध्यान पूर्वक सुनो। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण अरिवु काक्षिय दायें मूंडू मं । पोरियो कररणत. हर पायुविन् ॥ नेरियिन् बाळ पोरुळबु जोवना । मरियिन् बोटदुमादु मामें ॥ ६६ ॥ अर्थ - ज्ञान दर्शन आत्मा का स्वाभाविक लक्षण है। पांच इन्द्रिय, आयु, श्वासोच्छवास मनबल, वचन बल और काय बल इन दश प्रारणों से जीवित प्राये हुये और वर्तमान में जी रहा है तथा भविष्य में भी जीवेगा, ऐसे दश प्रारण हैं। जो जीता मा रहा है उसको जीव कहते हैं । जीव के दो भेद हैं-जीव और प्रजीव । कहा भी है : तिक्काले चदुपारणा इन्द्रिय बलमा उश्रारणपाणी य । ववहारा सो जोवो पिच्छयरणयदो दुचेदरणा जस्स ।। अर्थ - तीन काल में इन्द्रिय, बल, आयु, श्वास, निःश्वास इन चारों प्रारणों को जो धारण करता है वह व्यवहार नय से जीव है और निश्चय नय से जिसके चेतना है वही जीव है ।। ६६ ।। ate free वेव्विने येन्मइन् । केटिलेन्गुरण मेदियोर् केडिला ॥ माक्षि यालुलगं तोळ माटूर । प्रोट्टि वैयुत शंबोन् नोत्तोळिरुमें ॥७०॥ [ ५५ अर्थ - मोक्ष की प्राप्ति करने वाले सम्यग्दृष्टि जीव श्रात्मा को दुःख उत्पन्न करने वाले ज्ञानावरणादि श्राठ कर्मों को नाश करने से अनन्त ज्ञानादि आठ गुरणों को प्राप्त कर इसी काल में नाश न होने वाले व दुःख को न देने वाले मोक्ष पद को प्राप्त होते हैं। इस कारण हे राजन् ! तुझ को यदि संसार के दुःखों का नाश करना है तो सम्पूर्ण परिग्रहों को छोड़कर जिनदीक्षा धारण करो । क्योंकि जिनदीक्षा धारण किये बिना अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति व अनन्त सुख आदि देनेवाले मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती । आठों कर्मों से रहित शुद्ध स्वर्ण के समान कलंक रहित यह जीव सदैव प्रकाशमान होता है ।। ७० ।। माट्रिनिड्रड वैयग मूड्रिनु । माबु परियट्ट मोरंदिनार ॥ रोट्र बीब ट्रोडदिउँ इल्बिने । काट्रि नार् गति नांगीर् सुळलु ॥७१॥ अर्थ - मोक्ष की इच्छा करनेवाले जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं । आत्मा को दुःख देने वाले ज्ञानावरणादि म्राठ कर्मों को नाश करने से अनन्त ज्ञानादि को प्राप्त कर अविनाशी Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ navran هر م حیح में मंदर पुराण व दुःख न देनेवाली कीर्ति से सिद्धगति को प्राप्त हुये सिद्धजीव को इस लोक में रहनेवाले भव्य जीव नमस्कार करके कलक रहित तीन लोक में प्रकाशमान होता है। भावार्थ-मोक्ष की इच्छा करनेवाले सम्यग्दृष्टि जीव आत्मा को दुःख देनेवाले ज्ञानावरणीय, दशनावरणीय, मोहनीय,वेदनीय,प्रतराय,गोत्र,प्रायु नाम इन आठ कर्मों के नाश करनेसे अनन्त ज्ञानयुक्त क्षायिक सम्यक्त्व, समस्त लोकालोक विषयों को जाननेवाला क्षायिक ज्ञान, समस्त लोक को जाननेवाला क्षायिक दर्शन, अनन्त पदार्थों का जाननेवाला ज्ञानमय भेदाभावरूप क्षायिक वीर्य शक्ति, केवल ज्ञान को जाननेवाला क्षायिक सक्ष्मत्व एक दीपक में अनेक दीप प्रकाशमान होनेवाले के समान एक शुद्ध परमेष्ठी रहने के क्षेत्र में शंका कांक्षादि दोष रहित अनन्त शुद्धात्मा को अवकाश दान देने के सामर्थ्य युक्त क्षायिक अवगाहन, लोक के पिंड समान गुरुत्व, रूई के समान अगरुलघुत्व अर्थात् क्षायिक अगुरुलधुत्व अनन्त सुख क्षायिक अव्यावाध और अनन्त गुणरूप क्षायिक अव्यायाध ऐसे आठों गुणों से युक्त सिद्ध भगवान होते हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, प्रायु, नाम, वेदनीय, गोत्र अंतराय रूपी मल से कर्मों से रहित होने से यथाक्रम क्षायिक ज्ञान, दर्शन, अव्याबाव, सम्यक्त्व प्रवगाहन, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व और वोर्य ऐसे विशेष गुणों से युक्त रहते हैं। ये गुण कभी भी नाश नहीं होते और वे सिद्ध भगवान् दुख से रहित तीन लोक के पात्र होते रहते हैं । भव्य जीव ऐसे गुणों की आराधना तथा नमस्कार करने से कर्मकलंक से रहित होकर जैसे १६ (सोलह) ताव देने से स्वर्ण शुद्ध होता है उसी प्रकार शुद्ध कर्मकलंक से रहित सिद्ध भगवान् सिद्धावस्था को प्राप्त होते हैं। प्रश्न-सिद्ध भगवान का क्या स्वरूप है ? उत्तर-चौदहवें गुणस्थान के प्रत समय में शरीर अंगोपांग के नाश होने से अंतिम के शरीर से वे सिद्ध भगवान् छोटे शरीरवाले होते हैं। मनुष्य के हाथ में रहनेवाले वस्त्र कुम्हार के हाथ में रहनेवाले शकोरे मटके आदि का. जैसे संकोच-विस्तार होता है और छोड़ते ही जिस प्रकार में वह पहले था उसी आकार में आ जाता है उसी प्रकार प्रात्मा सम्पूर्ण कर्मों के नाश होने से वह अपने स्वरूप में रहता है।। ७१ ।। मारण डंबु मिडागति नान् गेदु । मोन मिल विलंगिलु मोर् नानगै॥ वारिगन् बंदु क्लिंगु मरिणदना। मीन मिल्लवं यैदिडु नारगन् ।॥७२॥ अर्थ-पीछे कहे हुये मुक्त जीव से विपरीत जीव अधोलोक, मध्यलोक तथा पाताल लोक और द्रव्य क्षेत्र काल भाव इन क्षेत्रों में हमेशा जन्म-मरण प्राप्त करते रहते हैं। कर्म रूपी वायु के वेग से चारों गतियों में सर्वदा भ्रमण करते रहते हैं। भावार्थ-प्राचार्य ने इस श्लोक में पंचपरिवर्तन स्वरूप का वर्णन किया है । प्रश्न-परिवर्तन किसे कहते हैं ? Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद मंदर पुराण [ ५७ उत्तर - संसरणं संमार: प्रर्थात् द्रव्य क्षेत्र काल और भाव इनको संसार कहते हैं । ये चार प्रकार के होते हैं । १- द्रव्य परिवर्तन - इसका पुद्गल परिवर्तन नाम है । इसके भी २ भेद हैं । पहले का नाम नव कर्म परिवर्तन है । यह नौ कर्म परिवर्तन प्रौदारिक वैक्रियिक, प्राहारक इन तीन शरीर से सम्बन्धित छह पर्याप्ति होने से योग्य पुद्गल वर्गरणा ऐसे २ इनके मौ नाम हैं। कर्म परिवर्तन - ज्ञानावरस्गादि श्राठ कर्मों के रूप होने से पुद्गल वर्गरणाओं को कर्मवर्गरणा कहते हैं । एक जीव एक समय में आठ प्रकार के कर्म होने से योग्य कमवर्गरणा को ग्रहण किया हुआ अन्योन्य समय श्रादिक ग्रवली मात्र प्रबाधा काल बीतने के बाद उसका नाश होने से श्ररणी चढ़ता है। उसके बाद मोह कर्म परिवर्तन में क्रमबद्ध होकर पूर्वोक्त कथनानुसार प्रग्रहीत मिश्र और ग्रहीत मिश्र के समय को प्रनन्तानन्त बार प्रहरण कर छोड़ता है । इसी प्रकार ग्रहरण करते २ वह जीव प्रथम समय में ग्रहरण किये हुये कर्मवर्गरणा के 'अनुसार समय के पश्चात् कर्मत्व भाव परिणामों को प्राप्त होता है । उसके बीच में सम्पूर्ण कार्य को एक कर्मवर्तन का काल समझना चाहिये । २- क्षेत्र परिवर्तन - कोई जीव एक समय में जघन्य अवगाहन से युक्त सूक्ष्म forर्याप्त निगोदी जीव के शरीर को धारण कर उससे अन्योन्य एक २ प्रदेश बृद्धि. प्राप्त हुये श्रवगाहन को धारण करता है, इसी प्रकार एक २ प्रदेश बढ़ते २ महामच्छ के उत्कृष्ट श्रवगाहन के बाहर शरीर को धारण करने में जितना समय लगता है उस काल को क्षेत्र परिवर्तन काल कहते हैं। 1 ३- काल परिवर्तन - एक जीव उत्सर्पिणी काल के प्रथम समय में जन्म धारण करके अन्योन्य जन्म-मरण को प्राप्त कर संसार में परिभ्रमण करनेवाला होकर पुमः चह जीव उत्सर्पिरगी काल में दूसरे समय में उत्पन्न होता है । इसी प्रकार तीसरे समय में क्रमसे जन्म-मरण को बार २ प्राप्त होते हुये उत्सर्पिरंगी काल तथा प्रवसविणी काल के दश कोड़ाकोड़ी सागर अर्थात् बीस कोड़ा-कोड़ी सागर समय को क्रम से जन्म-मरण को बार २ पूर्ण करता है । ऐसा करने से जितना समय होता है उस समय को काल परिवर्तन कहते हैं । ४ - भावपरिवर्तन -- यहां का जीव प्रथम नरक की दश हजार वर्ष की आयु प्राप्त कर वहां की प्रायु को पूर्ण कर वहां से चयकर संसार में प्राता है और पुनः २ भ्रमण कर किसी एक काल में उतना ही आयुष्य को धारण करता है । इसी प्रकार दश हजार वर्ष का जितना समय है उतना समय तक एक हजार वर्ष की आयु प्राप्त करके क्रम से एक २ समय अधिक आयु प्राप्त कर नर्क प्रायु की उत्कृष्ट स्थिति बाईस सागर काल को पूर्ण करता है । इसी प्रकार देव श्रायु की जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष की आयु से लेकर उत्कृष्ट स्थिति ३१ सागर की होती है। मनुष्य व तिर्यंच प्रायु की वस्तु स्थिति जघन्य ग्रन्तर्मुहूर्त से उत्कृष्ट स्थिति कर्मपल्य से क्रम २ से एक २ समय वृद्धि होकर पूर्ण करता है । इस तरह चार प्रकार प्रायुष को पूर्ण करने में जितना समय लगता है वह सब भाव परिवर्तन है । देव भ्रायुष में ३१ सागर से अधिक प्रायु को प्राप्त हुआ जीवं नियम से सम्यक्त्व को प्राप्त करने 1 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ oeKKowarkarrao ५८ ] मेरु मंदर पुराण बाला होकर मोक्षमार्गी होता है। उनकी आयु ३१ सागर की ही है, इससे अधिक नहीं। ५-क्षेत्र परिवर्तन-योग स्थान, अनुभाग-अध्यवसाय, सासादन कषाय, अध्यवस्थान स्थिति स्थान ये चार स्थान के परिवर्तन क्रम पूर्वक पूर्ण होना भाव परिवर्तन काल है। इनके विशेष स्वरूप को गोम्मटसार से समझ लेना चाहिये । द्रव्य परिवर्तन का काल मनन्त है। उससे अधिक काल क्षेत्र परिवर्तन है, उससे अधिक अनन्तकाल परिवर्तन, और उससे अधिक अनन्त गुरणा परिवर्तन है। इस प्रकार परिवर्तन के काल समूह को एक परिवर्तन काल कहते हैं ।। ७ ।। नालरिईरु नांगुनरगर देवर् ताम। मालुरु भोग भूमि मक्कळ विलगु मागार ॥ मेलुर् वानवादि देवर् गळ विलंगिन् वारार् । शाल वोशानन मेलाई रैवर् सेन्नि यावार ॥७३॥ अर्थ-मनुष्य पर्याय को धारण किया हुआ जीव अपने शरीर को छोड़कर अपने २ परिणाम के अनुसार चारों गतियों को प्राप्त करता है। न्यूनाधिक परिणामों के अनुसार पंचेन्द्रिय पर्याय तथा तिर्यच गति को प्राप्त हुये जीव अपने २ परिणामानुसार पूर्वोक्त कथन के समान अनेक गतियों में जन्म लेते हैं। देव गति में जन्म धारण किया हुश्रा जीव देव पर्याय को छोड़कर मनुष्य व तिर्यंच गति को प्राप्त होता है। पीछे कहे अनुसार नारकी जीक मनुष्य व तिर्यच मति में जन्म लेता है। भावार्थ-मनुष्य पर्याय को प्राप्त हुप्रा जीव अपने धारण किये हुये शरीर को छोड़कर परिणामानुसार चारों गतियों में जन्म लेता है। अर्थात् कम व अधिक परिणामों के अनुसार पर्याय को धारण करता है। तियंच गति को प्राप्त हुश्रा जीव अपने परिणाम के अनुसार पीछे के कथन के समान तिथंच गति में जन्म लेता है। देवमति में उत्पन्न हुआ जीव अपने परिणामों के अनुसार मनुष्य व तियंच मति में पैदा होता हैं। नारकीय जीव भी. इसी प्रकार अपने २ परिणामों के अनुसार मनुष्य व तिथंच गति में पैदा होता है ।। ७३ ।। नीर् मर निलंगळावर निड नाल्वर्गयवेवर् । नीमर निलंगळ सेल्लु विलंगोडु मक्क उम्मिर ।। शीमइल विलंगु मक्कळ ती योडु वळियुमावर् । नीर्मयिन् निरिपिर् कादि नियनविलंगि दौडम् ॥७४॥ मर्थ-एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय जीव और नर्क गति के जीव तथा देवगति के जीवों में से राग रहित भोग भूमि में मनुष्य और तिथंच गति के जीव उत्पन्न नहीं होते। प्रशन-भोग भूमि में उत्पन्न होनेवाले जीव कौन से हैं ? उत्तर-कर्मभूमि तथा तिथंच गति के जीव जो उत्तम मध्यम और जघन्य पात्र Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rammamimarawwwwwwwwwww--- मेर मंदर पुराण है उनके द्वारा उत्तम मध्यम व जघन्य पात्र को दान देने व अनुमोदना करने से जो पुण्य संपादन होता है उसके कारण से उत्तम, मध्यम व जघन्य भोगभूमि में जन्म लेते हैं। प्राणत, प्राणत, पारण और अच्युत ऐसे चार प्रकार के श्रेष्ठ देव तथा अहमिन्द्र देव तिर्य'च गति में जन्म नहीं लेते। मनुष्य गति में ही जन्म लेते हैं। शेष सौधर्म-ईशान कल्प के रहने वाले सनत्कुमार प्रादि सहस्रार; कल्प के ऊपर रहनेवाले देव वहां से सैनी जीव माकर उत्पन्न होते होते हैं, प्रसनी नहीं। भावार्थ-एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय, चार इन्द्रिय जीत नर्क व देव गति के जीव राग रहित भोगभूमि में जन्म नहीं लेते। कर्म भूमि में उत्पन्न हये मनष्य व तिर्यच जीव उत्तम मध्यम और जघन्य पात्रों को दान देने से पुण्य संचय करके उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि में जन्म लेते हैं । पारगत प्राणत पारण व अच्युत ये चार प्रकार के कल्पवासी देव और महमिन्द्र देव ऐसे पांच प्रकार के देव तिर्यच गति में जन्म नहीं लेते, बल्कि मनुष्य गति में ही जन्म लेते हैं । शेष सौधर्म ईशान कल्प में रहनेवाले सनत्कुमार आदि सहस्रार कल्प के ऊपर रहने वाले जीव वहां से पाकर सैनी जीव उत्पन्न होंगे, मसैनी नहीं। 1 ७४॥ प्ररुगण दुरुवनिल्ला रामवि रतुद्दोंडा। ररुमहर शासरांद मडेवरा जीवरंडि । पिरमरण येदंमाग परिभ्राजगरु शेल्वर् । मरुबर् ज्योति ढांतम् मट्र तापवर्कडामे ॥७॥ अर्थ-तपस्वी दिगम्बर साधु अहमिन्द्र नामक नवें ग्रेवेयिक तथा पंचानुत्तर में जन्म नहीं लेते। जो साधु अच्छे चारित्रवान हैं पर वस्त्र धारण करने के कारण सहस्रार कल्प तक जाते हैं, उससे आगे नहीं। परिव्राजक सन्यासी ब्रह्म कल्प तक जाते हैं, इससे प्रागे नहीं जाते । पंचाग्नि तपनेवाले साधु ज्योतिष कल्प तक जाते हैं। भावार्थ-जिनेन्द्र भगवान् के रूप को धारण किये हुये तपस्वी मुनि जिनलिंग धारण करनेवाले साधु अहमिन्द्र नाम के नवें वेयिक तक पंचानुत्तर में जन्म नहीं लेते। वस्त्रधारी साधु तपश्चरण करने पर भी सहस्रार कल्प तक ही जाते हैं। परिव्राजक साधु ब्रह्मकल्प से आगे नहीं जाते। पंचाग्नि तपनेवाले साधु ज्योतिषकल्प तक हो जाते हैं ।। ७५।। नरकाक्षि पुर्डबिलंगुम् मानिडरु बदन सेरिंदु । कादि मुदलाग कपाद मुरच्चल्वर् ॥ नल व सरिद नरर बिलंगु भवनादि । कपातम् सासरांतम् कान्बर् मुरै युळिये ॥७६।। अर्थ--सम्यग्दर्शन धारण करनेवाले तिर्यंच प्राणी पांच अणुव्रत को धारण करने पाले सौधर्म प्रादि अच्युत कल्प तक जाते हैं। निरतिचार पंचारणुव्रत को धारण करनेवाले Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० । मेरु मंदर पुराण साधु भवनवासी कल्प तक जाते हैं। तिर्यंच गति के जीव भवन लोक आदि में सहस्रार कल्प तक क्रम से स्वपरिणामों के अनुसार उत्तम गति में जाते हैं । भावार्थ -- सम्यग्दर्शन धारण किया हुआ मनुष्य तथा तिर्यंच व्रत धारण करके सौधर्म आदि अच्युत स्वर्ग तक जाते हैं। और निरतिचार मरणुव्रतों को धारण करके मनुष्य भवनवासी कल्प तक जाते हैं और तिर्यंच जोव भवनवासी सहस्रार कल्प तक अपने परिणाके अनुसार जाते हैं ।। ७६ ।। भोगनिल बिलंगु नरर् पोरु दिय नरकाक्षियरेल् । नागमोदलाम् सोदनीशान् नभिडुवर् ॥ मोग मिच्छार् भवनर् व्यंतरर् ज्योतिडराबा । रागु भवरति शानुत्तरत्तं य मरतेळिवांर् ॥७७॥ अर्थ - भोग भूमि में रहनेवाले तिर्यंच व मनुष्य सम्यग्दृष्टि जोव पहले सौधर्म स्वर्ग में जाते हैं । तीव्र मोहनीय कर्म से युक्त मिथ्यादृष्टि जीव भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी देवों में जाते हैं । क्षायिक सम्यग्दृष्टि महामुनि तपश्चरण के प्रभाव से नवानुदिश व पंचानुत्तर में उत्पन्न होते हैं ।। ७७ ।। मीना पेण नार्कालु कालिलबुं । बानू मेल वरुव तवळ व कुरिलवु ॥ मेन मेल वेळ नरगिन् कीळ, शेल्ला मेर्चे । मेनांगु वीडु तवं विरदं विलंगा सुरये ॥७८॥ अर्थ- स्वयम्भू रमरण समुद्र में रहनेवाले महामच्छ, मनुष्याकार रहनेवाले जीव, सर्प इत्यादि और आकाश में संसर्ग करने वाले पक्षी आदि भूमि गोचरी, मन सहित गिरगिट वगैरह जीव सातवें नर्क तक जाते हैं । स्त्री छठवें नर्क तक जाती है, इससे ग्रामे नहीं । चतुष्पाद जीव. पांचवें नरक तक जाते हैं । सप आदि जीव चौथे नरक तक जाते हैं । पक्षी आदि जीव तीसरे नर्क तक जाते हैं। कछुवा आदि जीव दूसरे नर्क तक जाते हैं । इस प्रकार ऊपर कहे अनुसार जीव अपने २ परिणामों के अनुसार नर्कों में जाते हैं। पहले नर्क से चौथे नर्क तक के जीव इस मनुष्य लोक में आकर मनुष्य पर्याय प्राप्त कर जिन दीक्षा लेकर दुर्द्धर तपश्चरण के द्वारा कर्म क्षय करके मोक्ष जाते हैं। क्षायिक सम्यग्दृष्टि पांचवें नक से आये हुये जीव तपश्चरण के द्वारा मोक्ष नहीं जा सकते छठे• नर्क से आया हुआ जीव अणुव्रत धारण कर एकदेश व्रत को धारण करता है। सातवें नर्क से आया हुआ जीव तियंच गति में उत्पन्न होता है ।। ७८ ॥ । इंदिय मुड्रिना लुलगुर्मेगुमा । बिना नाळिगे एगत्त बाळ मे " Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण एंदिनोडिरंडर दीप माळिमून् । डिदिय नांगु मडिरंडि नेल्लये ॥७९॥ अर्थ-एकेन्द्रिय जीव ३४३ धनराजू प्रमाण लोक में भरे हुये हैं। पंचेन्द्रिय जीवों से त्रस नाडी भरी है । प्राधा स्वयंभूरमणद्वीप, अढ़ाई द्वीप, महालवणोदधि, कालोदधि और स्वयंभूरमण समुद्र ऐसे तीनों समुद्रों में दो इन्द्रिय आदि जीव जन्म लेते हैं। भावार्थ-एकेन्द्रिय जीव से पंचेन्द्रिय जीव तक ३४३ धन राजू प्रमाण लोक में भरे हवे हैं । पंचेन्द्रिय जीव सनाडी में भरे हैं । आधा स्वयम्भूरमण द्वीप,पढाई द्वीप,लवण समुद्र कालोदधि समुद्र, स्वयम्भूरमण समुद्र इन तीनों समुद्रों में एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चौइन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं ।।७६॥ इरंडर तीबिनुन मरिणव नान ककंड । तिरंड नू टिळुवरत्तना ट्रिरुवरत्तना ॥ मुरंकड कुलगळोर् मूडि ट्रोंडिनार् । ट्रिरंड तीविन येडा सिद्धि यदुमे ।।८०॥ अर्थ-ढाई द्वीप के जम्बू द्वीप, धातकीखण्डद्वीप, पुष्कराद्ध द्वीप में मनुष्य उत्पन्न होते हैं और उसमें भिन्न २ एक सौ सत्तर आर्यखण्डों में श्री जैन धर्म को प्राप्त करने वाले जीव उत्पन्न होते हैं । ये जीव पाप को नाश करने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीन वर्णो में तथा उत्तम कुल में जन्म लेकर अनादि काल से आत्मा के साथ लगे हुये शत्रुनों को जीतकर मोक्षपद प्राप्त कर लेते हैं । भावार्थ - जम्बू, धातकी, पुष्करार्द्ध ऐसे ढाई द्वीप के मनुष्य और उसके अन्तर्गत रहने वाले १७० आर्य खण्डों में श्री जैन धर्म को प्राप्त करने वाले जीव उत्पन्न होते हैं । वे जीव पाप को नाश करने के निमित्त ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों वर्गों में जन्म लेकर मन.दि काल से सम्बद्ध कर्म शत्रुओं को नाश करके दुर्द्धर तपश्चरण करके मुनिदीक्षा धारण कर मोक्ष को चले जाते हैं ।।८।। कुडंगइल विळक्केन कोंडकोंडदन् । नुडंपिन दळव मामुलगमेंगु मा । मोडुगुळि पुरै तरंगि लै योंगिय । विडंकोलिर् पिळत्तलु मिडमूर्तियाल ॥१॥ । अर्थ-जीव प्रमूर्तिक स्वभाव वाले हैं। जिस प्रकार एक दीपक को दोनों हाथों की अंजली में रखकर यदि बंद किया जावे तो वह प्रकाश मंद २ प्रतीत होता है उसी प्रकार प्रनादि काल से रहने वाले शरीर में मात्मा शरीर रूपी मावरण को प्राप्त हुमा है । नामकर्म द्वारा जितना शरीर का परिमाण होता है उतना ही प्रात्मा छोटे-बड़े शरीर Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] मेद मंदर पुराण प्रमाण धारण किये हुये है । केवली समुदुघात के चार भेद हैं । दण्ड, कपाट, प्रतर, लोकपूर्ण । लोकपूर्ण समुद्घात के समय इस प्रकेले जीव में तीन लोक को व्याप्त करने की शक्ति है । यह जीव प्रत्यन्त सूक्ष्म तथा मोटे रूप को धारण करता है, परन्तु मात्मा शरीर के निमित्त कारण छोटा-बड़ा कहलाता है। यदि निश्चय नय की दृष्टि से देखा जाय तो मात्मा न छोटा है प्रौर न बडा है; लोक प्रमारण है । यह प्रात्मा शरीर का निमित्त पाकर छोटा-बड़ा शरीर धारण करता है । प्रात्मा छोटा-बड़ा नहीं है । इसका अधिक विवेचन पदार्थसार ग्रन्थ समझ लेना चाहिये ॥ ६१ ॥ पोरिगळा पुलतेळ भोगं तुइप्पुळि । इरुगिय विनैगळु किरैव नाय पिन् । पिरिडोरु पिरप्पिनोविनं पर्यात्तिनु । किर बना मिटु उहरिय के वर्ष मे ॥८२॥ अर्थ-जीव पदार्थ इन्द्रिय विषय के भोगों को भोगता है । राग-द्वेष मोह से धनुभव के समय में उस राग परिणति के द्वारा आकर ग्राश्रय करने वाले कर्मों का कर्त्ता होकर भाप ही उन कर्मों के बंध का कारण होकर भागे चलकर उस कर्म के फल का अनुभव करने बाला होता है । भावार्थ - जीव इन्द्रिय विषयक भोगों को राग द्वेष मोह से अनुभव के समय में उस राग परिणति के द्वारा ग्राकर श्राश्रय करने वाले कर्मों का कर्त्ता होकर आप ही उन कर्मों के बंध का कारण होकर श्रागे चलकर उस कर्म के फल का अनुभव करने वाला होता है । इस प्रकार जीव भोर पुद्गल का सम्बन्ध समझना चाहिये । द्रव्य संग्रह में कहा हैः पुग्गलकम्मादीणं, कत्ता ववहारदो दु रिणच्चयदो । चेदरणकम्मारगादा, सुद्धरणया सुद्धभावारणं ॥ ववहारा सुहदुक्खं, पुग्गलकम्मप्फलं पभु जेदि । आदा रिणच्चययदो, चेदरणभावं खु प्रादस्स ॥ जीव व्यहार नय से पुद्गल कर्म आदि का कर्त्ता है । अशुद्ध निश्चय नय से चेतन रागादि भाव कर्मों का कर्त्ता है। शुद्ध निश्चय नय से शुद्ध भावों का कर्ता है । इसी तरह जीव व्यवहार नय से पुद्गल कर्मों का फल सुख दुःखों को भोगता है । निश्चय नय से आत्मा अपने शुद्ध भावों को भोगता है ॥८२॥ नाट्र मुं सुवयु मूरुं वन्नमुं तन्मैदागि । पोट्रोल् पूरित्तल बार लुडया पुर्गसंदान् ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण । ६३ माद्रिड उईरै पट्रि विनै मोवलागि तुंब । मादयु शैदु गंद मनुवुमा निर्पयामे ॥३॥ अर्थ-पुद्गल, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण इनसे युक्त होते हुये पूरण और गलन सहित होने के कारण व्यवहार नय से संसार में वर्तनावाले संसारी जीवों में संबद्ध होकर ज्ञानावरणीय पादि पाठ कर्मों के कारण सुख दुःख को उत्पन्न कर कर्मस्कंध को उत्पन्न करनेवाले होते हैंकर्म स्कंध रूप होने के कारण होते हैं। भावार्थ-स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि से युक्त यह पुद्गल राग द्वष मोह के पाश्रव से ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, वेदनीय, अन्तराय, मोहनीय, नाम, गौत्र और प्रायु ऐसे पाठ कर्म रूप परिणत होता। उनके निमित्त से अनेक दुःखों को सहते हुये जीव संसार में परिभ्रमण करता है । सारांश यह है कि यह प्रात्मा शुभाशुभ भावों से उत्पन्न होने वाले पाठ कर्मों को बांधकर संसार में परिभ्रमण करता है ।।३।। नुन्मयु नुन्मयु नल्ल नुन्मयु । नुन्माइर् परुमैयुं परमै नुन्मयुं । मेनर परमै युमिर परमै यु। कण्णरु मनुविना रागुं गंध मे ॥४॥ अर्थ-स्कन्ध छह प्रकार के हैं। स्थूल-स्थूल, स्थूल, स्थूल-सूक्ष्म, सूक्ष्म-स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्म-सूक्ष्म ।।२४॥ करमत्तिन् कोळन करम नोगमम् । पेरिय वा नोगमम् पोरिकोळावन । भोर पोरि पुलत्तन पलपुलत्तन । करुदिय वरुवगै कंद मागुमे ॥॥ अर्थ-छह प्रकार के स्कंधों का स्वरूप इस प्रकार है-जो छूट जाने पर फिर न मिलें उन्हें स्थूल-स्थूल स्कंध कहते हैं । जैसे पृथ्वी पत्थर प्रादि । जो टूट कर फिर मिल जाय उन्हें स्थूल स्कंध कहते हैं। जैसे दूध जल आदि । जो देखने में प्रावे, पकड़ने में न आवे उन्हें स्थूल-सूक्ष्म स्कंध कहते हैं । जैसे तम, छाया, धूप प्रादि । यह नेत्रेन्द्रिय के विषय होते हैं। रस गंध स्पर्श शब्द रूप चार इन्द्रियों के विषयों को सूक्ष्म-स्थूल स्कंध कहते हैं। जैसे गंव रस स्पर्श तथा शब्द परिणति स्कंध । कर्म वर्गणाओं को सूक्ष्म-सूक्ष्म स्कंध कहते हैं । इस प्रकार ये छह प्रकार के स्कंध सर्व लोक में भरे हुवे हैं ।।५॥ अरि रंडागि नाम वण, सुवैयुमंडाय । गिरि रंडाकू लागा नुन्मत्ता येळवैक्कयाम् ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] मेरु मंदर पुराण पेरुदन वळिय दागि पिरंगि मु वलग मुद्र। मारु कंदगटकादि त्यागिय दनुवदामे ॥८६॥ अर्थ-स्निग्ध परमाणु और रूक्ष परमाणु ऐसे दो प्रकार हैं। स्निग्ध परमाणु को स्निग्ध स्पर्श और रूक्ष परमारण को रूक्ष स्पर्श कहते हैं। उष्ण स्पर्श और रूक्ष स्पर्श ये दो प्रकार हैं । सुगंध दुर्गध में, पंचवणों में और पंच रसों में इन अणुओं को भिन्न २ जानने की शक्ति केवल अहंत भगवान् में ही है, अन्य में नहीं। इस प्रकार इस जगत में छह प्रकार के स्कंध अनादि काल से सदैव भरे हुये हैं। भावार्थ-सफेद, पीला, नीला, लाल और काला ये पांच वर्ण, चरपरा, कडुपा, कषैला, खट्टा और मीठा ये पांच रस, सुगंध और दुर्गंध ये दो गध तथा ठंडा, गरम, नरम, चिकना, रूखा, कठोर, भारी और हल्का, ये पाठ प्रकार के स्पर्श शुद्ध निश्चय से शुद्ध-बुद्ध स्वभाव धारक शुद्ध जीव में नहीं हैं। इस कारण यह जीव प्रमूर्तिक अर्थात् मूर्ति रहित है। शंका-यदि जीव अमूर्तिक है तो इसके कर्म का बंध कैसे होता है ? समाधान- अनुपरित असद्भूत व्यवहार नय से जोव मूर्तिक है । इस कारण कर्म का बंध होता है। शंका-जीव मूर्तिक किस कारण से है ? । समाधान-अनन्त ज्ञान प्रादि की प्राप्ति रूप जो मोक्ष है उसके विपरीत अनेक अनादि बंधन के कारण जीव मूर्तिक है। कथंचित् मूर्तिक और कथंचित् अमूर्तिक जीव का लक्षण है। कहा भी है कि "कर्म बंध के प्रति जीव की एकता है. और लक्षण से उस कर्मबंध की तथा जीव की भिन्नता है । इसलिए एकांत से जीव के अमूर्तिक भाव नहीं हैं। इसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रमूर्तिक प्रात्मा की प्राप्ति के प्रभाव से इस जीव ने अनादि संसार में भ्रमण किया है। उसी प्रमूर्तिक शुद्ध स्वरूप प्रात्मा को मूर्त पांचों इन्द्रियों के विषयों का त्याग करना चाहिये ।।६।। करुमा नलपशय कायनोगमं । मरुविय पुलस वत्त भोगङ्कारण । मिरुळ वेत्योकि योलि निळनार मूतमाय । तिरिवुडै पुद्गलंदान जीयने ॥७॥ अर्थ-शानावरणादि जो पाठ कर्म हैं तथा धातु उपधातु प्रादि से युक्त यह पाच प्रकार का शरीर, नो कर्म वर्गणा से पांच इन्द्रिय मिश्रित होकरं नो इन्द्रिय आदि विषय को उत्पन्न करने वाली और भोगोपभोग वस्तु का कारण होने वाली तम, छाया, प्राताप, प्रकाश शब्द, पृथ्वो, आग्न, तेज, वायु प्रादि परिणाम को उत्पन्न करने वाली पुद्गल वर्गणा है। अथात् जितना भी पोछे वर्णन कर चुके हैं वे सभी पुद्गल के भेद हैं, प्रात्मा के नहीं। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ६५ भावार्थ-शब्द, बध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, उद्योत और आताप, ये सभी पुद्गल की पर्याय हैं। अब इसको विस्तार के साथ बतलाते हैं। भाषात्मक और प्रभाषात्मक ऐसे शब्द दो प्रकार हैं। उसमें भाषात्मक शब्द प्रक्षरात्मक तथा अनक्षरात्मक रूप से दो प्रकार का है। उसमें भी अक्षरात्मक भाषा संस्कृत प्राकृत और उनक अपभ्रंश तथा पेशाची प्रादि भाषा के भेद से प्राय व म्लेच्छ मनुष्यों के व्यवहार के कारण अनेक प्रकार की है । अनक्षरात्मक भाषा द्वीन्द्रियादि त्रस जीवों में तथा सर्वज्ञ की दिव्यध्वनि में है। प्रभाषात्मक शब्द भी प्रायोगिक और वैशेषिक भेद से दो प्रकार के हैं। उनमें बोरणा आदि के शब्द को तत और ढोल आदि के शब्द को वितत कहते हैं । मंजीरे और तार आदि के शब्द को धन और बांसुरी आदि के शब्द को सुषिर कहते हैं । कहा भी है कि: तत बोणादिकं ज्ञेयं विततं पटहादिकम् । घनं तु कांस्थतालादि मुषिरं वंशादिकं विदुः ।।१।। इस श्लोक में कहे हुये क्रम,से प्रायोगिक शब्द चार प्रकार के हैं। विश्रुसा अर्थात् स्वभाव से होने वाला वैश्रसिक शब्द बादल आदि से होता है वह अनेक प्रकार का है। विशेष-शब्द से रहित निज प्रात्मा को भावना से छूटे हुये तथा शब्द प्रादि मनोज्ञ अनमोज पंच इन्द्रियों के विषयों में आसक्त जीवों के दुस्वर तथा सुस्वर नामकर्म का जो बंध किया है उस कर्मबंध के अनुसार यद्यपि जीव में शब्द दीखता है तो भी वह जीव के संयोग के निमित्त से व्यवहार नय की अपेक्षा जीव का शब्द कहा जाता है, पर निश्चय नय से वह शब्द पुद्गलमय ही है। मिट्टी आदि के पिडरूप जो अनेक प्रकार का बंध है वह तो केवल पुद्गल बंध है और जो कर्मरूप कर्मबंध है वह जीव और पुद्गल के संयोग से होने वाला बंध है । विशेष यह है कि कर्मबंध से उत्पन्न निजशुद्ध भावना से रहित जीव के अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से द्रव्य बंध है और इसी तरह अशुद्ध निश्चय नय से रागादि रूप भावबंध कहा जाता है । यह भी शुद्ध निश्चयनय से पुद्गल का ही बंध है । बेल आदि की अपेक्षा बेर आदि फलों में सूक्ष्मता है और परमाणु में साक्षात् सूक्ष्मता है। बेर प्रादि की अपेक्षा बेल आदि में स्थूलता है । तीन लोक में व्याप्त महास्कंध में सबसे अधिक स्थूलता है। समचतुरस्र संस्थान, न्यग्रोधपरिमंडल, स्वाति, कुब्जक, वामन और हुण्डक ये छह प्रकार के संस्थान ब्यवहार नय से जीव के होते हैं, किन्तु संस्थान शुन्य चित् चमत्कार प्रमाण मात्र जीव से भिन्न होने के कारण निश्चय नय की अपेक्षा संस्थान पुद्गल के ही होते हैं। जो जीव से भिन्न गोल त्रिकोण चौकोर आदि प्रकट अप्रकट अनेक प्रकार के संस्थान हैं वे भी पुद्गल ही हैं । गेहूं आदि के चूर्ण रूप से तथा दाल खण्ड प्रादि रूप से अनेक प्रकार का भेद जानना चाहिये । दृष्टि को रोकने वाला अंधकार है उसको तम कहते हैं। पेड़ प्राधि की अपेक्षा से होने वाली तथा मनुष्य प्रादि की परछाई को छाया जानना चाहिये । चन्द्रमा के विमान तथा जुगुन (खद्योत) आदि तियंच जीवों में उद्योत होता है। सूर्य के विमान में Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६६ ] मेरु मंदर पुराण तथा अन्यत्र भी सूर्यकान्त मरिण आदि पृथ्वीकाय में होने वाले को प्राताप जानना चाहिये । सारांश यह है कि जिस प्रकार शुद्ध निश्चय नय से निजात्मा की उपलब्धि रूप सिद्धस्वरूप श्राकार में स्वभाव व्यजन पर्याय विद्यमान है, फिर भी अनादि कर्म बंधन के कारण पुद्गल के स्निग्ध तथा रूक्ष गुगा के स्थान रूप रागद्वेष के परिणाम होने पर स्वाभाविक परमानन्द रूप एक स्वास्थ्य भाव से भ्रष्ट हुये जीव के मनुष्य नारक आदि विभाव व्यंजन पर्याय होती है उसी प्रकार पुद्गल में निश्चय नय की अपेक्षा शुद्ध परमाणु दशा रूप स्वभाव व्यंजन पर्याय के विद्यमान होते हुये भी स्निग्ध तथा रूक्ष से बंध होता है । इस वचन से राग और द्व ेष के स्थानीय, बंध योग स्निग्ध तथा रूक्ष परिणाम के होने पर पहले बताये गये शब्द प्रादि के सिवाय अन्य भी शास्त्रोक्त सिकुड़ना, फैलना, दही दूध आदि विभाव व्यंजन पर्याय आदि को जानना चाहिये || ८७ श्रत्तिया यमुर्तिया येळविरेशिया । यात्तळ उलगि नोडुलग लोगमम् ॥ तत्त बंदने सेवु लन्म तन्ममा । मसिगळ् शेल वोडु निलयिर् केदुवाम् ||८८ ॥ अर्थ - अस्ति स्वरूप से युक्त प्रभूतं तथा असंख्यात प्रदेश से युक्त यह प्रात्मा लोक जितना प्रमाण है उतने लोक में उतने प्रमाण भरे हुये धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय इस जीव और पुद्गल के गति-स्थिति में सहायक रूप होते हैं । भावार्थ - प्राचार्य ने इस श्लोक में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का स्वरूप बतलाया है कि जीव तथा पुद्गल को चलने में सहकारी धर्म द्रव्य होता है । इसका दृष्टांत यह है कि जैसे मछलियों के गमन में जल सहायक है, परन्तु स्वयं ठहरे हुये जीव पुद्गलों को धर्मद्रव्य गमन नहीं कराता तथापि जैसे सिद्ध भगवान श्रमूर्त्त हैं क्रिया रहित हैं, तथा किसी को प्रेरणा भी नहीं करते, तो भी, "मैं सिद्ध के समान अनन्त ज्ञानादि गुणरूप हूँ" इत्यादि व्यवहार से सविकल्प सिद्ध भक्ति के धारक और निश्चय से निर्विकल्प ध्यान रूप श्रपने उपादान कारण से परिरात भव्य जीवों को वे सिद्ध भगवान् सिद्ध गति में सहकारी कारण होते हैं । ऐसे ही क्रिया रहित, अमूर्त, प्रेरणा रहित धर्म द्रव्य भी अपने अपने उपादान कारणों से गमन करते हुये जीव तथा पुद्गलों को गमन में सहकारी कारण होता है । जैसे मत्स्य श्रादि के गमन में जल प्रादि सहायक कारण होने का लोक प्रसिद्ध दृष्टांत है । इस तरह धर्म द्रव्य के व्याख्यान के साथ यह गाथा समाप्त हुई । सारांश यह है कि - पुद्गल तथा जीवों को ठहरने में सहकारी कारण प्रधर्म द्रव्य है जिसका दृष्टांत इस प्रकार है कि जैसे छाया पथिकों के ठहरने में सहकारी कारण है, परन्तु स्वयं गमन करते हुये जीव व पुद्गलों को प्रधमं द्रव्य नहीं ठहराता । ऐसे ही निश्चय नय से प्रात्म-अनुभव से उत्पन्न सुखामृत रूप जो परम स्थास्थ्य है वह निज रूप में स्थिति का कारण है परन्तु "मैं सिद्ध हूं, शुद्ध हैं, अनन्त ज्ञान आदि गुणों का धारक हूं, शरीर प्रमाण हूँ, नित्य हूँ, प्रसंख्यात प्रदेशी हूं, तथा प्रमूर्तिक है। इस गाथा में कही हुई सिद्ध भक्ति के रूप से पहले Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ६७ सविकल्प अवस्था में सिद्ध भी जैसे भव्य जीवों के लिये बहिरंग सहकारी कारण होते हैं उसी तरह अपने २ उपादान कारण से अपने प्राप ठहरते हुये जीव पुद्गलों को अधर्म द्रव्य ठहरने का सहकारी कारण होता है । लोक व्यवहार से जैसे छाया अथवा पृथ्वी ठहरते हुये यात्रियों आदि को ठहरने में सहकारी होते हैं उसी तरह स्वयं ठहरते हुये जीव पुद्गलों के ठहराने में धर्म द्रव्य सहकारी होता है । इस प्रकार अधर्म द्रव्य के कथन द्वारा यह गाथा समाप्त हुई । 115511 श्ररुवदाम् पोरुलुलगत्त विल्लये । लळविला कायेत्ति लनु क्कळोडइ ॥ रळवला विड़िये येiडू पोप पिन् । तुळवल कसु वीडुलग तोडमे ॥८६॥ अर्थ-धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय न होने से अनंत रूप श्राकाश में तथा प्ररगुरूप में रहने वाली कर्मवर्गणा उस प्रकाश में प्र गुरूप होने वाले कर्म परमाणु के साथ जीव परस्पर न मिलने से इस जगत में लोक, बंध, मोक्ष सभी का प्रभाव हो जायगा ॥८९॥ अच्चु नीर् तेरोडु मीनं ईर्तिडुं । अच्चु नीर् इंड्रिये तेरुमीनुसेला ॥ बच्चु नीर् पोल तन्मत्ति शेरलं । इच्चे युं मुपच्चि यु मिड्रि याकुमे ॥६०॥ अर्थ - जिस तरह गाडी चलाने के लिये रथ में लोहे की धुरी सहायक होती है उसी प्रकार जीव और पुद्गल के गमन के लिये धर्मास्तिकाय सहायक होता है। इसके अतिरिक्त कोई अन्य सहायक नहीं होता । भगवान् स्वम्भू राजा वैजयन्त को यह बतला रहे हैं कि हे भव्य शिरोमणि ! जीवादि द्रव्यों को अवकाश देने की योग्यता जिस द्रव्य में है उसको श्री जिनेन्द्र भगवान् ने प्रकाश द्रव्य कहा है । वह श्राकाश लोकाकाश और अलोकाकाश इन दो भागों में है । अब इसको विस्तार के साथ कहेंगे । स्वभाविक शुद्ध सुखरूप प्रमृतरस के प्रास्वाद रूप परम समरसी भाव से परिपूर्ण तथा ज्ञान प्रादि अनन्त गुणों के प्राधारभूत जो लोकाकाश प्रमारण प्रसंख्यात प्रदेश अपनी आत्मा के हैं उन प्रदेशों में यद्यपि विश्ववन्द्य सिद्ध जीव रहते हैं तो भी sौपचारिक प्रसद्भूत व्यवहार नय की अपेक्षा से सिद्ध मोक्ष शिला में रहते हैं, ऐसा कहा जाता है। इस प्रकार पूर्व में कहा जा चुका है । ऐसा मोक्ष वहीं है और कहीं नहीं होता। ध्यान करने के स्थान में कर्म पुद्गलों को छोड़कर तथा ऊर्ध्वगमन स्वभाव से गमन कर मुक्त जीव ही लोक के प्रग्रभाग में जाकर Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] मेरु मंदर पुराण निवास करते हैं। इस कारण लोक का अग्रभाग भी उपचार से मोक्ष कहलाता है। जैसे कि तीर्यभूत पुरुषों के द्वारा सेवित भूमि पर्वत आदि स्थान उपचार से तीर्थ होते हैं। यह वर्णन सुगमता से समझाने के लिये किया गया है। जैसे सिद्ध अपने प्रदेश में रहते हैं उसी प्रकार निश्चय नय से सभी द्रव्य अपने-अपने प्रदेशों में हैं तो भी उपचरित असद्भूत व्यवहार नय से लोकाकाश में सब द्रब्य रहते हैं ।।.॥ अंदर दरवत्त मूदागिय । विंदर पडलमुं निरैय मेळ्गळुम् ॥ मंदर मलै मण्णुमत्त निड्डा ।, वंद मिनिलय तन्मत्ति इल्ल येल् ॥६॥ अर्थ-अन्त रहित अधर्मास्तिकाय यदि नहीं रहेगा तो प्राकाश में रहने वाले स्वर्ग अर्थात् १६ स्वर्ग, ७ नरक मेरु पर्वत, कुल गिरि पर्वत तथा पृथ्वी आदि सभी वस्तुओं का अभाव हो जाएगा। यदि यह अधर्म द्रव्य नहीं होगा तो यह कभी स्थिर नहीं रह सकेंगे । परवे इन सिर गीड पाद निड लि। नेरियि नार शेलवोडु निलय याकुमा । लुरवि पुर्कल मिवैयोड निट्रले । शेरिवरि तम्म तम्मतुत्ति सेय्युमें ॥२॥ अर्थ-पक्षी के उड़ने के लिये.जैसे पंख आदि तथा खड़े होने के लिये पांव निमित्त होते हैं उसी प्रकार जीव के गमन स्थिरता के लिये धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय सहायक हैं ॥२॥ अविडि येत्ति याय मूर्ति यादिया । गुळवेंड पोरुटकेळा मिडङ कोडुत्त उन् ।। ट्रलर विडि निर्पदा कामं साविना। लळविला कालत्तोड जीवनेंदुमे ॥३॥ अर्थ-असंख्यात अस्ति स्वरूप रहने वाले प्रमूर्तिक तत्व, अति सूक्ष्मत्व, अगुरु लधुत्व, अवगाहन, लघुत्व इन गुणों को प्राप्त करके इस लोक में रहने वाले सभी जीवों को अवगाहन शक्ति देने वाला आकाश द्रव्य है। पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पांच प्रजोव द्रव्य हैं ||३|| Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ६६ -~~~- ~ करणं वळिवुइ' तोव मिलवमे नाळि मूळ त । मिनइ नाळ पक्कं तिगं लिरदु वे ययन मांडु ॥ पने युगं पूर्व पल्ल पव्वमे येनंद मीरा। करण मुदर् काल भेदम् सोल्लरिर् काल मिल्लै ॥१४॥ अर्थ-कालद्रव्य-एक निश्चय और एक व्यवहार ऐसे काल के दो भेद हैं। जो द्रव्य परिवर्तन रूप है वह व्यवहार रूप काल है । ऐसा कैसे है ? सो वतलाते हैं । परिणाम, क्रिया, परत्व अपरत्व से जाना जाता है । इसलिये परिणाम आदि से लक्ष्य है। निश्चय काल-जो वर्तना लक्षण वाला है वह परमार्थ काल है। विशेषार्थ-जीव तथा पुद्गल का परिवर्तन रूप नूतन तथा जीर्ण जो पर्याय है उस पर्याय का समय घड़ी आदि रूप स्थिति है स्वरूप जिसका वह द्रव्य पर्याय रूप व्यवहार काल है । अर्थात् जो स्थिति है वह काल संज्ञा है, द्रव्य की पर्याय को सम्बन्ध रखने वाली जो यह समय धड़ी आदि रूप स्थिति है वही व्यवहार काल है । पर्याय व्यवहार काल नहीं है, क्योंकि पर्याय सम्बन्धी स्थिति व्यवहार काल है । इसी कारण जीव और पुद्गल के परिणमन रूप पर्याय से तथा देशांतर में आने जाने रूप अथवा गाय दुहने व रसोई करने आदि हलन चलन रूप क्रिया से तथा दूर या समोप देश में चलन रूप काल कृत परत्व तथा अपरत्व से एक काल जाना जाता है । इसलिये यह व्यवहार काल परिणाम क्रिया परत्व तथा अपरत्व लक्षणवाला कहा जाता है। अब द्रव्य रूप निश्चय काल को कहते हैं: अपने २ रूप उपादान कारण से स्वयं परिमणन करते हुये पदार्थों को जैसे कुभकार . के चाक के भ्रमण में उसके नीचे की कील सहकारिणी है तथा जैसे शीतकाल में पढ़ने के लिये अग्नि सहकारिणी है उसी प्रकार पदार्थों के परिणमन में भी काल सहकारी है । उसको वर्तना कहते हैं। वर्तना ही लक्षण है, जिसका-वह वर्तना लक्षण कालानूद्रव्य रूप निश्चय काल है । इस तरह व्यवहार तथा निश्चय काल का स्वरूप समझना चाहिये। यहां कोई ऐसा कहता है कि समय रूप ही निश्चयकाल है। उस समय से भिन्न कोई कालानुद्रव्य रूप निश्चयकाल नहीं है, क्योंकि वह देखने में नहीं पाता। इसका उत्तर यह है कि समय तो काल ही की पर्याय है। प्रश्न-समय काल की पर्याय कैसे है ? उत्तर-पर्याय का लक्षण उत्पन्न व नाश होता है। समय का भी उत्पन्न व नाश होता है, इसलिये पर्याय है । पर्याय द्रव्य के बिना नहीं होती। उस समयरूप पर्याय कान का उपादान कारणरूप द्रव्य भी कालरूप ही होना चाहिये। जैसे ईधन पग्नि मादि सहकारिणी है तथा भात का सहकारी कारण चावल ही होता है, अथवा कुभकार चाक चीवर मादि निमित्त कारण से उत्पन्न जो मिट्टी का बहिरंग घट पर्याय है उसका उपादान कारण Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा ७० ] मेर मंदर पुराण मिट्टी का पिंड हो है। अथवा जो नर नारक आदि जीव की पर्याय है उसका उपादान कारण जीव ही है। इसी प्रकार घड़ी प्रादि का समय भी उपादान कारण काल ही होना चाहिये । यह नियम भी इसलिये है कि अपने उपादान कारण के समान ही कार्य होता है। कदाचित् कोई ऐसा कहे कि समय प्रादि काल पर्याय का कारण काल द्रव्य नहीं है, किन्तु समय रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में मंदगति से परिणमनशील पुद्गल परमारणु उपादान कारण है तथा निमेष काल पर्याय की उत्पत्ति में नेत्रों के पुटों को अर्थात् पलक का गिरना व उठना उपादान कारण है। ऐसे ही घड़ी रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में सामूहिक रूप जल का कटोरा और पुरुष के हाथ आदि का व्यवहार उपादान कारण है। दिनरूप काल पर्याय की उत्पत्ति में सर्य का बिंब उपादान कारण है । ऐसा नहीं कि जिस प्रकार चावल रूप उपादान कारण से उत्पन्न भात पर्याय के उपादान कारण में प्राप्त गुणों के समान ही सफेद काला आदि वर्ण, अच्छी या बुरी गंध, चिकना अथवा रूखा आदि स्पर्श, मीठा आदि विशेष गुरण दीख पड़ते हैं वैसे ही पुद्गल परमाणु नेत्र पलक विघटन, जल कटोरा, पुरुष व्यापार आदि र्य का विब इन रूप जो उपादान भत पदगल पर्याय है उनसे उत्पन्न हये निमेष घड़ी प्रादि में यह गुण नहीं दीख पड़ते, क्योंकि उपादान कारण के समान कार्य होता है, ऐसा समझना चाहिये। विशेषार्थ-अधिक कहने से क्या लाभ? जो आदि तथा अन्त से अमूर्त है, रहित है, नित्य है, समय आदि का उपादान कारणभूत है तो भी समय आदि भेदों से रहित है और कालानुद्रव्य रूप है वह निश्चय काल है, और जो आदि तथा अन्त से सहित है समय घड़ी आदि व्यवहार के विकल्पों से युक्त है वह उसी द्रव्यकाल का रूप व्यवहारकाल है। सारांश यह है कि यद्यपि यह जीव काललब्धि के वश से विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव का धारक जो निज परम तत्व का सम्यक श्रद्धान, ज्ञान, प्राचरण और सम्पूर्ण भाव द्रव्य की इच्छा को दूर करने रूप लक्षण वाला, तपश्चरण रूप, दर्शन ज्ञान चरित्र तप रूप निश्चय चार पाराधना है, वह आराधना ही उस जीव को अनन्त सुख की प्राप्ति में उपादान कारण ही जानना चाहिये । उसमें काल उपादान कारण नहीं है। इसलिये वह उपादान कारणः हेय है । आचार्यों ने व्यवहार कालका विवेचन इस प्रकार किया है कि काल द्रव्य एक स्थान को छोड़ कर दूसरे स्थान में जाने को समय कहते हैं । वह समय असंख्यात समय मिलकर एक प्रावली होता है । असंख्यात प्रावली मिलकर उच्छवास होता है। सात उच्छवास मिलकर एक स्तोक होता है । सात स्तोक मिलकर एक लव होता है, ३८ लव मिलकर एक घड़ी होती है, दो घडी मिलकर एक मुहूर्त होता है, तीस मुहर्त मिलकर एक दिन होता है, १५ दिन मिलकर एक पक्ष तथा दो पक्ष मिलकर एक मास होता है। दो मास मिलकर एक ऋतु होती है, तीन ऋतु मिलकर एक अयन होता है। दो अयन मिलकर एकवर्ष होता है। पांच वर्ष मिलकर एक युग होता है। ८४ हजार वर्ष मिलकर एक पूर्व होता है। असंख्यात पूर्व मिलकर एक पल्य होता है । दश कोडाकोड़ी पल्य मिलकर एक सागर होता है। इस प्रकार काल के अनन्त भेद हैं । समय कम होने वाला कोई काल भेद नहीं है ।।१४।। अरुडेळि वार्वम् सिदै येळगिय निगळ चिज्ञानं । पोस्वरु तवत्ति नालु पुरिणदना मुइरै पुक्कु ।। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ७१ मरुविय विनगळ माट्रा मासिमे कळ वि वीट। तरु दलार् पुरिणद मागु तन्मे यार् पुरिणय मामे ॥६५॥ अर्थ- करुणा और समता भाव से युक्त रत्नत्रय में श्रद्धा सहित ध्यान के प्रभाव तथा प्रशस्त परिवर्तन और सम्यग्ज्ञान की वृद्धि से उपमा रहित पवित्र परिणाम भाव के द्वारा पुण्योपार्जन किया हुआ भव्य जीव के आत्म स्वरूप को प्राप्त कर पहले जन्म के प्रात्मा के साथ लगे हये कर्म समूह को नाश कर मोक्ष को देने वाला दो प्रकार का पूण्य है। एक भाव पुण्य और दूसरा द्रव्य पुण्य । भावार्थ-प्राचार्य ने इस श्लोक में द्रव्य पुण्य और भाव पुण्य का वर्णन किया है। दया और करुणा से युक्त रत्नत्रय सहित रुचि पूर्वक ध्यान करने वाला तथा उस परिणाम से होने वाले सम्यक्ज्ञान की वृद्धि से पवित्र पुण्यबंध के कारण से अनादि काल से प्रात्मा के साथ लगे हुये कर्म समूह को नाशकर मोक्ष को देने वाला है । यह भाव पुण्य है । द्रव्य पुण्य:-दर्शन अधिकार में श्री समन्त भद्राचार्य ने इस प्रकार कहा है कि: देवेन्द्र-चक्रमहिमानममेयमानम्, राजेन्द्रचक्रमवनीन्द्रशिरोर्चनीयम् । धर्मेन्द्र चक्रमधरीकृतसर्वलोकम, लब्ध्वा शिवं च जिन भक्तिरुपति भव्यः ।। अर्थात्-श्री जिनेन्द्र भगवान का भव्य भक्त, अपरिमित देवेन्द्रों के समूह में महत्, राजाओं के मस्तक से पूजनीय, राजाओं के इन्द्र चक्रवर्ती के चक्ररत्न तथा तीन लोक को दास बना लेने वाले रत्नत्रय अथवा उत्तम क्षमादि धर्म के इन्द्र अर्थात् प्रणयन करने वाले तीर्थंकरों के चक्र को प्राप्त कर मुक्ति को प्राप्त करता है। ऐसा निदान रहित पुण्य अन्त में क्रम से मोक्ष को देने वाला है। इसको द्रव्य पूण्य कहते हैं ||५|| सादमे पुरुषवेदं सम्मत्तं तक्क नाम । कोदमे लाय देवर् मानव रायु वाळ ॥ पोदमे पोस्कोडिनवम पुगळ चि मीकूट्र मन्नर् । घाति या तन्मै नल्गि यरवर शाकु मन्ना ॥६६॥ अर्थ-हे राजा वैजयन्त! यह पुण्य साता वेदनीय कर्म, पुरुष वेद, सम्यक्त्व, शुभ नाम कर्म, उच्च गोत्र, देवायु, सम्यग्ज्ञान, यश, कीर्ति तथा सुख को देने वाला चक्रवर्ती पद का आधिपत्य सापद को देता है । भावार्थ-कुछ लोग केवल निश्चय नय को लेकर व्यवहार नय को बिल्कुल गौरण करके मोक्ष प्राप्ति का साधन बतलाते हैं तथा अध्यात्मप्राप्ति करना चाहते हैं । परन्तु जैन धर्म में निश्चय और व्यवहार दोनों नयों के अवलम्बन से मोक्ष की प्राप्ति माना है। व्यवहार Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] मेरु मंदर पुराण -~-~~-~~~-~~-~~ ~-~ ~-w w w.tarun नय कारण है और निश्चय नय कार्य है। कारण व कार्य के बिना किसी वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती। कुछ लोग धावक की षट्कर्म की क्रिया को श्रावक अवस्था में प्राडम्बर समझकर उसका लोप करके केवल अध्यात्मवाद की ही चर्चा करते हैं। कहा भी है कि: गृहकर्मणापि निचितं कर्म विमाष्टि खलु गृहविमुक्तानाम । अतिथीनाम प्रतिपूजा रुधिरमल धावते वारि ॥रत्नकरण्ड०।। अर्थ-सावध व्यापार से रहित, अतिथियों मुनियों को दान, निश्चय ही साधक व्यापार से उपार्जन किये हुये पाप रूप कर्म को नष्ट कर देता है । जैसे अपवित्र पानी भी खून को धोकर साफ कर देता है उसी प्रकार मुनियों अथवा उत्तम पात्रों को दान देने से गृहस्थ सम्बन्धी संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं। भावार्थ-तपस्वियों को प्रणाम करने से उच्च गोत्र, दर्शन शुद्धि स्वरूप यथा विधि दान देने से भोग सामग्री, प्रतिग्रहण पड़गाहने आदि से प्रतिष्ठा, गुणानुरूप से उत्पन्न अन्तरंग श्रद्धा से सुन्दर रूप और भक्तामर स्तोत्र सकल ज्ञेय इत्यादि स्तुति करने से सर्वत्र कीति प्राप्त होती है ।।६६॥ घाति यु करुण इन्मै यादि यार् कट्टिनि। वेदन मुदलवेल्लाम् वेंतुयर् विळे क्कु पाव ॥ मोदिय विरंडम योगि नुपिरिने युरुदलुट्रां । दादुर काईदू पोळ दिर रानुरु नीर यो ॥१७॥ अर्थ-घाति कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले अकारण अप्रसन्नत्व अगुरुनाम राग अर्थात् दुर्ध्यान प्रवृत्ति, अत्रशस्त प्रवृति,अज्ञानवृद्धि, कुतप प्रयोग आदि से पिछले जन्म में बंधे हुये अशुभ कर्मों के योग से असाता वेदनीय आदि कर्म घोर नरक के दुःख को उत्पन्न करने वाले हैं, इसलिये इसको पाप पदार्थ कहते हैं। उपरोक्त पुण्य पदार्थ और पाप पदार्थ दोनों मिलकर संसारी जीवों को शुभाशुभ संसार के बंधन करने वाले हैं। जिस प्रकार लोहे के गोले को तपाकर पानी में डाला जाय तो वह पानी को भस्म कर देता है उसी प्रकार प्रात्मा रागी द्वेषी परिणामों को अपने में खींचकर कर्म बन्ध को प्राप्त हो जाता है। भावार्थ-ग्रन्थकार ने यहां पुण्य और पाप का विवेचन किया है। पुण्य अनेक प्रकार के साता वेदनीय कर्म को प्राप्त कर लेता है और पाप अनेक प्रकार के संसार को प्राप्त करने वाले पाप को प्राप्त करता है । ये दोनों मिलकर संसारी जीव को पाप और पुण्य में परिणत करके दीर्घकाल तक भ्रमण के लिये कारण बना देते हैं। जिस प्रकार लोहे के गोले को अग्नि में तपाकर पानी डालने पर वह पानी को सुखा देता है उसी प्रकार यह आत्मा अशुभ परिणामों से शुभाशुभ संसार बंधन में बंधकर दीर्घकाल तक संसार में भ्रमण करता रहता है ।।१७॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ७३ ईनमे यदिग मीरा पदगमे सांपरायं । ज्ञानमिन्मै नल्लवाम् पुणिय पावं ॥ तेनुला मलंगल वेंदे तविय में पावमेंड्र । तानेला वुइकु मागुमुट्वैि तामपत्तागु ॥६८।। अर्थ-कंठ में अत्यन्त सुगन्धित पुष्पों का हार धारण किये हुये भव्य जिरोमगि हे राजा वैजयन्त ! सुनो। प्रास्रव के दशं भेद होते हैं । अशुभ मास्रव, हीन पानव, अधिक तथा ईपिथ, कषाय प्रास्रव, प्रज्ञान आस्रव, पुण्य प्रास्रव, पाप प्रास्रव, द्रव्य मानव और परिणाम प्राश्रव । ये सभी संसारी जीवों के लिये होते हैं। भावार्थ-हे भव्य शिरोमणि राजा वैजयन्त! हीन आस्रव, कषाय पासूत्र, अशुभ प्रास्रव, पाप तथा पुण्य प्रास्रव द्रव्य प्रास्रव आदि १० प्रकार के प्रास्रव सभी जीवों के होते हैं। ये अशुभ प्रास्रव क्रोध कषाय के हीन, मंदतर अथवा कषाय के परिणाम नीव हों ता कषाय प्रास्रव होता है। ईर्यापथ आस्रव मुनियों को होता है। सर्वदा ईयापय सहित यत्नाचार पूर्वक चलते समय कदाचित् जीव मर भी जाय तो उससे लगनेवाले पाप का निवारण भी ईर्यापथ साधन ही है। अर्थात् उसमें यत्नाचार पूर्वक क्रिया होने के कारण कदाचित् उनके द्वारा होनेवाले प्रास्रव ईर्यापथ प्रास्रव हैं और कपाय युत होने वाले प्रास्रव कषाय प्रास्रव होते हैं। ज्ञान प्रास्रव, अज्ञान प्रास्त्र व, पुण्य प्रास्रव. पाप के द्वारा होनेवाला पाप प्रास्रव, द्रव्य के द्वारा होनेबाला द्रव्यास्रव परिणाम के द्वारा होनेवाला परिणामानव होता है। प्राचार्य ने इस श्लोक में यह बतलाया है कि इन प्रानेवाले प्रास्रबों को रोकने के लिये तीन गुप्ति, पांच समिति, दशधर्म, बारह मनुप्रेक्षा, वारह संयम, बाईम परीषह, आदि का पालन करना आवश्यक है। इनको जीतनेवाले महावती मुनि शुद्धोपयोग में लवलीन होकर निश्चल ध्यान में आने वाले प्रास्रव के मार्ग को रोकने से जिस प्रकार दीपक के रहने से अन्धकार नहीं पाता उसी प्रकार ऐसे महा तपस्वियों को ही संवर पदार्थ प्राप्त होता है ।। ६८। कोपन समिति तम्मं सिवैईरारडक्कं । तापनं परिष वेल्ल तन्म यान मुनिव निड्राल । वेप मोंड्रिलाद सिंदै विनै बळि विलक्कि निकुं। दीप निडुगत्ते सेरु मिरुकु दो सेरिपि दामे ||६ इन प्रास्रवों के द्वार को बन्द करने का मार्ग: अर्थ-तीन गुप्ति, पांच समिति, दशधर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बारह संयम, बाईस परीषह आदि को जीतनेवाले वीतराग युक्त महामुनि को शुद्धोपयोग में लीन होने से हलन Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ । मेरु मंदर पुराण चलन रहित ध्यान कर्मास्रव आने के मार्ग को रोककर जिस प्रकार दीपक के प्रकाश होते ही मन्धकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार महाव्रतियों को उक्न प्रकार संहनन करने से संवर की प्राप्ति हो जाती है ।। १६ ॥ निड्वंदातन मूड, निनप्पुणर् उदिप्पै याकु । मुंबु से ड्र इर्क निड विनयिन कन् मूळ त मादि । निवत्तिदिनोडु पयन सेय्युमादलुइक्कु । मोंड्रिय वगैनाले करणंदोरु मुरुवत्तारोय ।। १०० ॥ अर्थ-हे राजा वैजयन्त ! ऊपर कहे श्लोक में बारह प्रकार का संयम, बारह प्रकार की अनुरक्षा, बाईस प्रकार का परीषहधर्मध्यान, शुक्लध्यान ये सब उत्कृष्ट सम्यग्ज्ञान से उत्पन्न होते हैं। पहले आत्मा से मिले हुये ज्ञानावरणादि पाठ कर्म एक महर्त्ता से अधिक रहनेवाली कर्मस्थिति से कर्मफल को देता है। यह कर्म तत्त्वज्ञान ध्यान में मिश्रित होकर एक-एक समय में उदय में आता है ।। १००।। अनंतमा मनुक्कळ कूडियेंगुलि ययंगं पागिर् । गुणंगळार शेरिय कट्टि गुरणंगळोडाटन् मड्रिर् ॥ ट्ररणंदिडादेयंग लोक पेदर्शमाम् समय काल । मनंतमा लोगयेल्लाम् वर्गण रूपत्ताले ॥ १०१ ॥ अर्थ अनेक परमाणु मिलकर अंगुल के एक भाग क्षेत्र में स्निग्ध रूक्ष गुणों से बंधा हा वर्णादि गुणों से स्वभाव उपलब्धि संस्कार नाम की त्रिशक्ति में स्थिर होकर उत्कृष्ट स्थिति से असंख्यात लोक प्रमाण समय कार्य और जघन्य स्थिति से एक समय को प्राप्त होना काल सम्पत्ति है। सम्पूर्ण लोक में कार्माण वर्गणा है और एमे कार्माण अनन्त योगमेपांव तानु मुडनिड डइरिरण योगिन् । वेगंदान मूलमागिविगर्पमाविरिद गंदम् ।। योगतालुइर्ष देशतोळिविडि योप्प सेंड्रार। पाग मुदिदियु पावत्तार बंधमामे ॥ १०२॥ अर्थ-मन वचन काय के द्वारा भाव परिणामों से मिले हुये आत्मा के मन वचन काय की तीव्रता के कारण नाना विकल्पों से विशाल प्रकृतिबंध प्रात्मप्रदेश में सदैब परस्पर में मिले हुये हैं अर्थात दूध और पानी मिलकर एक होने के समान कर्मास्रव मिलकर प्रात्मा और शरीर दोनों एक रूप में प्रतीत होते हैं। मोहनीय कर्म के परिणाम से अनुभागबंध और स्थिति बंध होते हैं ।। १०२ ।। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण एक मड्रिड पत्ताक्तरिदंन कोडाकोडि | याळिगळागुमांडू निलयेल्ल तंद मूळतं ॥ मोळं मोवात्तिनुक्कु मुदल मुम्मे ईट्रिनुक्कु । माळिय नामगोद तायुमुत्पत्त मं ।। १०३ । अर्थ - प्रज्ञान रूपी मोहनीय कर्म का काल सत्तर कोड़ाफोड़ी सागर, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय व अन्तराय का तीस कोड़ाकोड़ी सागर, नाम, कर्म व गोत्र का उत्कृष्ट Para बीस कोड़ाफोड़ी सागर, प्रायु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर होती है । मध्यम स्थिति अनेक प्रकार है ।। १०३ ॥ नंजन उक्कं पावं नल विनै नाविलियट्ट । वंजुवेयमिदम् पोल विन्वतं याकुमार ।। पुंजिय पंद संद उदय मोडुनि बाकि । एंजिना लुदयं चैपिय नाकुमण्णा ।। १०४ ॥ अर्थ- हे राजा वैजयन्त ! पापानुबन्धी पाप जीव को विष के समान परिणामों के अनुसार सदैव उत्पन्न होता रहता है । जीव के अग्र भाग में रखे हुये अमृत के समान अधिक सुख देनेवाले ये पुण्य कर्म हैं, और पुण्यानुबंधी पुण्य कर्म से इस बंधे हुये कर्म की निर्जरा करके द्रव्य क्षेत्र काल भाव और भव ऐसे पांचों के उदय में आकर उस स्थिति के अनुसार कर्मफल को उत्पन्न करता है ।। १०४ ।। योगमे पावंतम्म लुइरिने यात कम्मं । योगमे पायंताम् बंदुइरिनै युट्र पोळ निन् || योगमे पांच तमु मुइरिन् कन् विडदल् वीडाम् । योगमे पांच तम्मु लुबंदेळ मरस बेंड्रान् ।। १०५. ॥ अर्थ - हे भव्य शिरोमणि राजा वैजयत ! यह शुभाशुभ श्रास्रव मन वचन काय से आत्मा के बंधे हुये कर्मों को शुद्ध निश्चय नय से तथा शुद्ध परिणामों का श्रात्मा में प्रवेश करने एवं शुभाशुभ मन वचन के परिणाम का आत्मा से छूट जाने को भावमोक्ष कहते हैं । इस प्रकार से शुद्ध निश्चयरूप मन वचन काय रूप परिणामों में श्रानन्दित होकर इस मार्ग से चलने से संसार से पार हो सकेगा । इस प्रकार स्वयम्भू तीर्थकर ने राजा वैजयन्त को उपदेश दिया ।। १०५ ।। [ ७५ विनयर बिट्ट, पोळ दिन बेडित वेरंडम् पोल । निनैव गुणंगलेट्ट, निरेंदुनी रोविक श्रोडि || 9 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण -~~~-~~-~-- मुनिवरु मुळग मूंड निरैज मूवुलग नुच्चि । कनैकळलरस निट्रल चैवलमाणु कंडाय ॥ १०६ ।। हे धीरवीर राजन् वैजयंत! ज्ञानावरणीय,दर्शनावरणीय मोहनीय और अंतराय इन कर्मों का प्रात्मा से छूटते समय जिस प्रकार एरण्ड का बीज सूखने पर उछलते समय ऊपर जाता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण घातिया व अघातिया कर्मों का नाश होते ही अनन्त ज्ञानादि गुणों से युक्त यह आत्मा उद्धवगमन करता है अर्थात् सिद्ध लोक में विराजमान होता है। इस संसार में घोर तपश्चरण करने वाले भव्य तपस्वियों के कर्मों की निर्जरा होते ही तीन लोक के ऊपर रहने वाले सिद्धक्षेत्र के शिखर पर जाकर विराजमान होता है । इसको द्रव्य मोक्ष कहते हैं। भावार्थ-ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन चार कर्मों का नाश होने से केवल ज्ञान उत्पन्न होता है। पाठों कर्म तथा शरीर के नाश होने से जो सम्पूर्ण गुणों का विकास होता है वह भाव मोक्ष है । तथा पाठों कर्मों के छूटने को द्रव्य मोक्ष कहते उरेत्तविप्पोरूळिन् मै मै युनर्वदु नल्लज्ञानं । पुरैप्पर तेळिदल काक्षि पोरु दिय विरंडु मोंडिर। ट्ररित्तनल लोळ ळ मागु साट्रियमंड. मोंडिन् । विर पोलि तारोय वीटिन् मैनेरि यावद मे ।। १०७ ।। स्वयम्भू भगवान फिर कहते हैं कि हे राजा वैजयंत ! पीछे कहे जीवादि तत्त्वों का भली प्रकार श्रद्धान करना सच्चा सम्यक् दर्शन है । जीवादि तत्त्वों को संशय रहित ठीक तौर पर समझना सम्यक् ज्ञान है तथा उसी को अच्छी तरह समझ कर आचरण करना यह सम्यक्-चारित्र है। इन तीनों की एकता होना ही आत्मा का स्वरूप है और ये ही मोक्ष मार्ग है। व्यवहार नय की दृष्टि से इस हो के तीन मार्ग बतलाये हैं और वे तीन मार्ग हैं सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक्चारित्र। इन तीनों को भिन्न २ समझना यह व्यवहार मार्ग है और निश्चय रूप से इन तीनों में एक-प्रात्म-रूप परिणत होना निश्चय मोक्ष मार्ग है ।। १०७ ।। येळ तरु परुदि मुन्न रिजिय कमलं पोल। तोळ देदिर मुळ दूं केटु पोइनगर तुन्मी सोट् ॥ मुळवयु मळे त मुत्ति करसनाय मुयल्व नॅड.। पळ दिला पुवल्वन ट्रन्मेर् पार वैत्तिनय सोन्नान् ॥ १०८॥ जिस प्रकार सूर्योदय होते ही अंधकार नष्ट हो जाता है और अंधकार नष्ट होने पर कमलों की कली खिल जाती है उसी प्रकार भगवान की वाणी रूपी किरण ने वैजयंत Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ७७ राजा के हृदय में प्रवेश किया और उनका अज्ञान रूपी अंधकार नष्ट हो गया। अर्थात् आत्मकली खिल गई । आत्म-ज्ञान की कली खिलते ही वह राजा वैजयंत स्वयम्भू तीर्थंकर के चरणों में नत मस्तक होकर उनके द्वारा कहे हुए जीवादि पदार्थों का स्वरूप भली प्रकार समझकर उनको बार २ नमस्कार करने लगा । वह राजा वैराग्य युक्त होकर वहां से लौटकर अपने राज महल में आया और इष्ट मित्र बन्धु जन स्त्री पुत्रादि को बुलाकर इस प्रकार कहने लगा वैरागी मनुष्य के द्वारा अपने कुटुम्ब को उपदेश किस प्रकार दिया जाता है इसके सम्बन्ध में प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचन सार में बतलाया है कि जो मनुष्य विरागता धारण करके मुनि होना चाहता है वह पहले अपने कुटुम्ब के लोगों से पूछकर अपने को मुक्त करावे, जिसकी रीति इस प्रकार है। भो कुटम्बी जनो! आप अनेक क्षेत्रों में कई २ बार भाई बन्धु माता पिता बहन भानजा आदि होते आए हो। मेरी प्रात्मा अलग है, आपकी आत्मा भिन्न है। ऐसा प्राप निश्चय समझे। मेरी आत्मा में ज्ञान-ज्योति प्रकट हुई है। आप जन्म देने वाले मेरे शरीर के माता पिता हो । मेरी आत्मा को आपने उत्पन्न नहीं किया, इसलिये अब आप मेरे से ममत्व भाव छोड दो । मेरे मन को हरने वाली ऐ मेरी स्त्री ! तू मेरी आत्मा के साथ, रमणं नहीं करती अर्थात् प्रसन्न नहीं करती, यह निश्चय से जान । अब इस आत्मा में ममत्व भाव छोड दे ! आत्म-ज्ञान ज्योतिरूपी रमणी प्रकट हो गई है इसलिए अपनी अनुभूति रूपी स्त्री के साथ रमण करना स्वाभाविक बात है । हे मेरे शरीर के पुत्र ! तू मेरी आत्मा से उत्पन्न नहीं हुवा, यह तू निश्चय से समझ ले। इस कारण तू अब मुझसे स्नेह करना छोड दे । आत्मा में ज्ञान की झलक उत्पन्न हो गई है, और वही प्रात्म-झलक पुत्र हैं । इस कारण हे कुटुम्ब के लोगों, मित्रों, परिवार जनों मेरे से समत्व भाव छोड दो। इस प्रकार कहकर प्राणी माता पिता स्त्री पुत्र आदि कुटुम्बी जनों से अपना पीछा छुडावे । अथवा जो कोई जीव, मुनि दीक्षा लेना चाहता है तो वह तो जगत से विरक्त ही है। उनको कुटुम्ब से पूछने का कोई कार्य ही नहीं रहा । परन्तु यदि कुटुम्ब से विरक्त होवे और जब कुछ कहना ही पड़े तब वैराग्य के कारण कुटुम्ब को समझाने को वचन निकालते हैं। यहां पर यह न समझना कि जो विरक्त होवे वह कुटुम्ब को राजी करके छूटे, यदि कुटुम्ब राजी न होवे तो न सही, अर्थात ऐसा न होवे तो वह कुटुम्ब से कभी विरक्त हो ही नहीं सकता। इस सम्बन्ध में कुटुम्ब से पूछने का नियम नहीं है परन्तु यदि कभी किसी जीव को मुनि दीक्षा धारण करते समय कहना ही होवे तो पूर्वोक्त उपदेश वचन निकलते हैं । इस प्रकार वैराग्य होने पर विरक्तता का उपदेश देकर ऊपर कहे अनुसार संसार से निकलने का प्रयत्न करो। इसी प्रकार उपदेश के अनुसार वैजयंत राजा कहने लगे कि हे स्त्री, पुत्र, बन्धु व अन्य कुटुम्बी जनों! सुनो-मैं प्रनादि काल से अभी तक मेरे निज मात्म-स्वरूप को न जानते हुए क्षणिक पंचेद्रिय भोगों में सुख मानकर अभी तक अनेक प्रकार के दुख मैंने सहे, संसार में भ्रमण किया। अब मेरे अन्दर मात्मजागृति उत्पन्न हो गई है इस कारण इस क्षणिक संसार रूपी इन्द्रिय सुख को छोड कर अब मैं प्रात्म-साधना के मार्ग को अपनागा। अब मोक्षमार्ग के धारण करने की भावना मेरी मात्मा में जग चुकी है। ऐसा कहकर वह राजा वैजयंत Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] मेद मंदर पुराण अपने ज्येष्ठ पुत्र संजयंत को बुलाकर और उसका राज्याभिषेक करके राजगद्दी पर बिठाय । और कुछ धर्मोपदेश करना प्रारंभ किया ॥ १०८ ॥ इळमयु मेळिलं वारणत्ति विलिनींड मायुं । वळमयं किळं युं वारिष्युबिय वन् बरबु पोलुं ॥ वेoिss विळविकन बीयु मायुर मॅड वोदु । कुळ पग लूकं शैवारुनर् विनार पेरिय नीरा ॥ १०६ ॥ हे संजयंत ! सद्गुण सहित प्राप्त किया हुवा ज्ञान, मनुष्य जन्म, बाल अवस्था, सुन्दरता ! यह सब दीखने में पहले पहल बड़े सुन्दर लगते हैं, सब को श्राकर्षित करते हैं । जब इसकी मर्यादा पूर्ण हो जाती है तब आकाश में इन्द्र धनुष के समान क्षणिक यह राज वैभव, पुत्र, कलत्र, बन्धु वर्ग इत्यादि सब अलग हो जाते हैं। जिस प्रकार जोर से वर्षा होने के बाद कूड़ा कर्कट सभी उसके साथ पानी के बेग से बह कर चले जाते हैं उसी प्रकार तीव्र पुण्य द्वारा प्राप्त हुवा यह क्षणिक वैभव तथा सभी मिली हुई सम्पत्ति प्रादि सर्व नष्ट हो हो जाती है । इस प्रकार मेरी प्रायु के नाश होने के पूर्व, मोक्ष मार्ग के साधन के लिये संघ का परित्याग करके मैंने मेरी प्रात्मा के कल्याण करने का सुविचार किया है ।। १०६ ।। कडगळ मलैयुं कारण वानयुं कडलगळ सूळ व fas fasगळ. कयमुमारु नाळिगे पुरुषंतीरा । पत्त यर् नरग मेळ. निगोदमुं पदेरामुन । डल्किदवि डाव बिडमिल्ने युनरि निद्वान् ॥ ११० ॥ भली प्रकार से ज्ञानी जीव यदि उपरोक्त सभी वस्तुनों को यथार्थ ज्ञान द्वारा पूर्णतथा विचार करके देख लेवे तो असंख्यात समुद्र महां मेरु पर्वत देवारण्य, भूतारण्य आदि और अरण्य, देवलोक, समुद्र से घेरे हुए प्रसंख्यात द्वीप, पद्मादि सरोवर, गंगादि नदी, त्रस नाली बाहुल क्षेत्र में भ्रमण करते प्राए हैं । यह सभी असह्य दुख देने वाले हैं। सात नरक निगोद रूप होने वाली भूमि के प्रदेश में हम पूर्व में कितनी बार जन्म और मरण करते आए हैं । हमने कभी जहां जन्म न लिया हो ऐसा कोई क्षेत्र नहीं रहा, न ऐसा कोई पुद्गल परमाणु रहा जो न ग्रहण किया हो । बाल के समान कोई ऐसा स्थान नहीं रहा है, जहां जन्म न धारण किया हो। हमारी आत्मा अनादि काल से इसी प्रकार लोक में भ्रमरण करती आई है ।। ११० । वेरु गुरु तुयंर लुइत तिलगि नुन्मयंगुं पोट । Refari करुविन् मक्कळ यार्कन्द इन् वरु दुम् पोळ, बुं ॥ एरियन नरगिन् मूळगि येळवु बीळ दलरु पोळबुं । श्ररुगरण शरणमल्ला लरन् पिरिविले कंडाय् ।। १११ ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंवर पुराण [ ७६ हमेशा भय को उत्पन्न करने वाली. पशु व मनुष्य गतियों में स्त्री के गर्भ में नौ महिने दुःख को सहन करते समय और अग्नि के समान घोर नरक जैसे कूप में से जन्म लेते समय सर नीचा और पांव ऊपर इस प्रकार होने वाले दुख से रुदन करते समय इस जीव को अर्हत परमेश्वर के चरण कमल के सिवाय और कोई शरण नहीं होता है। भावार्थ- इस समय सत्य भावना के विरारों से ही मेरी आत्मा को लाभ होगा। मैंने मनादि काल से इस पंचेद्रिय क्षणिक सुख के पीछे कितनी बार चौरासी लाख योनियों में जन्म-मरण किया, अनेक पर्यायें धारण की, परन्तु उस पर्याय तथा योनि की जब मुझे याद आती है तो मेरी आत्मा कंपायमान हो जाती है। इस कारण इस परिग्रह पिशाच को देखकर मेर। प्रात्मा में भयानक भय सा मालूम होता है। हे कुमार ! जब पृथ्वी रूप मेरा जन्म था उस समय खोदना, विदीर्ण करना, कूटना, फोडना, पीसना, चूर्ण करना, इत्यादि बाधा देकर लोग मुझे सताते थे, अर्थात् पृथ्वीकाय अवस्था में मैंने दीर्घकाल तक अवर्णनीय दुख सहे। जब मैंने जलकायिक शरीर धारण किया तब सूर्य की प्रचंड किरणों तथा अग्नि की ज्वालानों में मेरा शरीर अत्यंत गर्म होने से मैंने घोर वेदनाएं सहीं । पर्वत की दरारें आदि ऊंचे स्थान से प्रति वेग से नीचे मेरा पतन होते समय, कठिन शिलानों पर टकराते समय मैंने घोर दुख सहन किया। खट्टा, मीठा, क्षार आदि पदार्थों का मेरे साथ जब मिश्रण करके अग्नि में मुझे झोंकते थे तो घोर दुख होता था। ऊंची शिलाओं पर ऊचे २ वृक्षों पर से गिरने से, पांव और हाथों के सहारे नदी में तिरने वाले मनुष्यों के हाथों से ताड़ते समय और बडे २ हाथी मेरे (जलकाय में) अन्दर प्रवेश करने से स्नान करते समय और सून्ड से जल क्षोभ करते समय मुझे समान दुःख होता था। वायूकाय-जब जल अवस्था का त्याग कर मैंने वायू रूप शरीर धारण किया तब वृक्ष आदि के हिलने, चीरने तथा उनके धक्का लगने से मैंने असह्य दुःखों का अनुभव किया। जिसका शरीर अति कठिन है ऐसे प्राणियों के घात से तथा मेरे से भिन्न वायु से टकराने पर मेरा शरीर चूर चूर होकर बहुत दुःखों को सहन किया । अग्नि ज्वालाओं से जब मेरा शरीर स्पर्श हुवा तब तो मेरे प्राण ही निकल गये । . अग्निकाय-जब वायु शरीर को छोडकर अग्नि रूप शरीर को धारण किया तब मेरे ऊपर लोगों ने मिट्टी धूल डालकर मुझे बुझाया, घनघोर वर्षा पडने पर मूसल काष्ठादि से ठोक कर मेरा चूर्ण करके कष्टों का सामना करना पडा, मिट्टी के ढेले, पत्थर तथा वायु के झकोरों से मुझे असह्य दुख उठाना पड़ा। वनस्पतिकाय-जब अग्निकाय शरीर छोडकर मैंने पत्र पुष्प फल कोमल अंकुर वाले शरीर को धारण किया तो लोगों ने ताडना, मर्दन करना, दांतों से चबाना, अग्नि में डालना इत्यादि दुख देना शुरू किया जिसको मैंने सहन किया । झाड लता पौधे, इत्यादि रूप में जब मैंने जन्म लिया तब दुष्ट लोगों के द्वारा मैं छेदन भेदन किया गया जिससे मुझे घोर दुख सहना पडा । इस प्रकार के उन सभी दुखों को कहने में तथा उनका वर्णन करने में मैं मसमर्थ हूँ। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ] मेरु मंदर पुराण जब मैंने कुन्थु जीव आदि पर्यायों में शरीर धारण कर दो इन्द्रिय से इन्द्रिय आदि में जन्म लिया तब अत्यन्त वेग से चलने वालो गाडियां मोटर आदि वाहनों के नीचे प्राकर दबने से प्रारणों का विसर्जन किया । इसके अतिरिक्त घोडे बैल आदि के खुरों के नीचे आने तथा प्रग्नि पानी का वेग मेरे पर गिरने व मनुष्यों के द्वारा कुचले जाने आदि २ स मुझे असह्य दुख भोगना पड़ा। उक्त पर्याय को छोड़कर पंचेन्द्रिय में घोडा हाथी बैल प्रादि २ पर्याय में जन्म लिया तब मनुष्यों द्वारा मेरे पर बोझा लादकर, मेरे ऊपर चढकर असह्य दुख दिया, मुझे लाठी चाबुक आदि से मारकर घोर कष्ट दिया। घास, दारणा, चारा आदि का न मिलना, सरदी गरमी वर्षा का सहना, कान, नाक छिदाना, नुकीली वस्तु से प्रहार करना इस प्रकार नीच व दुष्ट प्राणियों के द्वारा मैंने अत्यन्त वेदनाएँ सहन कीं। इसके अतिरिक्त पांव टूट जाने पर लंगडा कर चलना, गिर पडना, तडपना क्रूर पशुत्रों द्वारा भक्षण होना, hoवे गीध आदि नीच पक्षियों द्वारा नोंच नोंच खाया जाना, ऐसे घोरातिघोर कष्टों के समय मेरी रक्षा करने वाला भी कोई नहीं था। मेरी पीठ पर अधिक बोझा लादने से मैं जख्मी हो गया, जिसमें कीट लटें श्रादि पड़ जाने से विषैले जानवर मांस नोंच २ कर खाते थे । अब पापों का उपशम होने अथवा पूर्व जन्म के पुण्य संचय से मैंने मनुष्य पर्याय धारण की है। परन्तु इन्द्रियों की न्यूनता या दरिद्रता आदि असाध्य रोगों से मैंने महान दुख पाया अर्थात् दरिद्रता का अनुभव किया। प्रिय पदार्थ न मिलना, कांटे, कीले आदि पदार्थों का संयोग होना, दूसरों की नोकरी करना, शत्रु से पराजय होना आदि २ दुखों से मैं बहुत ही व्याकुल बन गया था । धन कमाने को इच्छा से असह्य दुखदायक कर्माश्रव के कारण असि मसि आदि षट् कर्मों में मैंने रात दिन प्रयत्न किया। ऐसे नाना प्रकार की विपत्तियां मुझे सता रही थी । कुछ शुभोदय से देवगति में जन्म हुवा तो वहां भी मैंने यही दुख देखा कि यहां से दूर हटो, शीघ्र चले जावो, प्रभु के आने का समय है. उनके प्रस्थान की सूचना देने का नक्कारा बजावो । और यह ध्वजा हाथ में पकड़ कर खड़े हो जावो । अरे दीन ! इन देवाङ्गनाओं की रक्षा कर, स्वामी की आज्ञानुसार वाहन रूप धारण कर ! अत्यन्त पुण्य रूपी धन जिसके पास है क्या तू ऐसे इन्द्र का दास है ? जिसके पास अतिशय रूप सामग्री है । क्या भूल गया है ? क्यों व्यर्थ खड़ा हुआ है। इन्द्र के आगे २ क्यों नहीं भागता ? इस प्रकार देवगति में अधिकारियों के वचन सुन कर मुझे घोर अपमान सहना पड़ा। इन्द्र की अप्सराम्रों के समान सुन्दर सुन्दर देवाङ्गनाएँ मुझे कब मिलेंगी, यह अभिलाषा रही। मैंने देव पर्याय में रहकर ऐसा ही मानसिक दुख का अनुभव किया। इस प्रकार घोर दुख सहन करते २ मेरा दीर्घ काल चला गया । अतः परीषह उपसर्ग श्रादि दुख प्राने पर विषाद करने से कुछ भी लाभ नहीं होगा । खिन्न हुए पुरुषों को क्या कोई दुख छोड देगा ? यह दुख तो अपने ही काररण तथा निमित्त से हुआ है। ऐसा विचार कर उत्तम २ भावनाओं से उपसर्ग सहन करना चाहिये । यदि इस शरीर को देखकर भय उत्पन्न होता है तो ऐसा कहना भी उचित नहीं है; क्योंकि मैंने स्वयं ही अशुभ शरीर असंख्यात बार धारण किया है। देखा भी है। सारी पर्यायें मेरे परिचय में हैं। अब इस समय उत्कृष्ट प्रार्य क्षेत्र कर्म भूमि में, उत्तम मनुष्य कुल में मेरा जन्म हुआ है और मुझे पंचेद्रियों के अनुकूल सम्पूर्ण भोग सामग्री प्राप्त हुई है इसलिये अब इस शरीर के द्वारा कुछ आत्म-हित करने की भावना मुझ में जागृत हो गई है । जितने भी 1 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . net ..' Wwwwww KANNADA LEVE: Si TOR AVAVAVAVAVA SE राजा बैजयंत दरबार में राज्यसिंहासन पर बैठे हुए अपने दोनों पुत्र संजयंत मौर जयंत को उपदेश दे रहे हैं। , Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [८१ संसार में पुत्र मित्र बन्धु बांधव हैं सब स्वार्थी हैं, पुण्य के उदय से यह सब सामग्री मुझे प्राप्त हुई है । पाप के उदय में कोई साथ नहीं देते । केवल भगवन ही शरण हैं और कोई शरण नहीं है । इस प्रकार राजा वैजयंत ने कुमार संजयंत को उपदेश दिया ।।१११।। इरंदनपिरवि मेना ळे न्नुदर् करियतम्मुट । करंदु कोंडइरै युन्नु कालन् वाय पट्ट पोळ दुं ।। पिरंदु नान् गति कनागिर् पेरंदुय रुळक्कुं पोळ दुं । तुरंदिडा विनेगळं डि तुनै पिरिदिल्ले कंडाय ।। ११२ ॥ इस प्रकार अनादि काल से अनेक योनियों में जन्म मरण करते आए हैं उनकी गिनती मैं कहने में असमर्थ हूं। इस संसार में यमराज़ नामक कर्म रूपी शत्रु द्वारा इस आत्मा को खींचकर चारों गति में डालते समय वहां होने वाले असह्य दुखों से छुड़ाने वाला कोई स्नेही व बन्धु नहीं है। केवल एक धर्म ही सखा है। ऐसे समय में और कोई मखा सहायक नहीं है । कहा भी है "धर्मः सखा परमः परलोकगमने" अर्थात् परलोक में जाते समय धर्म ही एक बन्धु है और कोई सहाई नहीं है ।। ११२ ।। घातिग नान्गुं वींद कनत्त ळे कानळ पाडि । लादियाय पिरि दिनाय बंडिडु मनंद नानमै ।। योदिनोर वगैनाद लुइरिनान् मुडिंद मुन्ने । घातियामेघं सूळद कविरेन निड़ कड़ाय ॥ ११३ ॥ विभाव परणति द्वारा होने वाले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन घातिया कर्मों को अपने शुद्ध प्रात्म स्वभाव के एकान्त ध्यान से नाश करते ही आत्मा में अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति होती है । यह अनन्त चतुष्टय प्रात्म शक्ति से प्रात्मा में उत्पन्न होते हैं । मेघ पटल जिस प्रकार सूर्य पर छा जाता है उसी प्रकार अनादि काल से प्रात्म रूपी सूर्य के ऊपर यह चार घातिया कर्म आच्छादित हुए हैं। अब इन घातिया कर्मों का उपशम होने से प्रात्म रूपी सूर्य जागृत होकर अपने प्रकाश से अपने निज स्वरूप को अनुभव करने लगा है ।। ११३ ।। कुद्र मोर मंड, नान्गु गतिगळिर पोरिगळ दिर् । पट्रिय कायमारिर् पळविन तिरिपोरेळिर् ॥ सुट्रिय विनयंगलिट्टीर ट्रोट्रिय सुत्ति कडाय । कटवर् कडक्क वेन्नु माटिदु कडिको डारोय ।। ११४ ।। हे संजयंत कुमार ! उत्तम सम्यकदष्टि ज्ञानी लोग उत्तम नारित्र को धारण करने को भावना भाते हैं। और मिथ्यादृष्टि जीव राग द्वष मोह से पंचेद्रिय विषयों में मग्न होकर चारों गतियों में भ्रमण करते हैं । तथा इन पंचेद्रिय विषय में मग्न हुवा जीव पृथ्वी, अप, Jain' Education International Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ] मेरु मंदर पुरारग तेज, वायु, वनस्पति और त्रस ऐसे षड्काय जीवों में जन्म लेकर सात प्रकार के संसार के परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले आठों कर्मों के बंधन से संसार में परिभ्रमण करते हैं । प्रश्न - सप्त परिवर्तन कौन से हैं ? उत्तर - स्थापना और नाम यह दोनों मिल कर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव यह परिवर्तन होते हैं ।। ११४ ।। एळ. क्कयरगंडू. मोरेळ, कयर् रुयरं बिडैई लोंड्राय् । मुळवेन विडंलेदाय मुडिवंड्रा डिई लेळा || एळिविला उलगिट्रोट्र मनंतमाम् पडित्पदेश । मेळ वेन तिरंडतोळा इरंडनाळ, पिरंद वेंड्रान् ।। ११५ ।। हे बलिष्ठ राजकुमार ! सुनो, उत्तर दक्षिरण का व्यास ७ राजू और उच्छेद १४ राज् है । सात राज उच्छेद के मध्य में १ राजू मध्य भाग है। मध्य भाग के ऊपर मृदंगाकार अर्थात् मध्य लोक के साढ़े तीन उच्छेद के ऊपर ब्रह्म कल्प के शिखर में पांच राजू होकर कम से कम होकर शिखर पर एक राजू प्रमाण रह गया है। अधोलोक में ७ राजू है । इस प्रकार यह पूर्वापर व्यास है । इस लोक की ऊंचाई, 'लम्बाई और चौड़ाई इन सब को नापने से ३४३ घन राजु होता है । यह अनादि निधन है । यह किसी के द्वारा बनाया हुआ नहीं है, और कभी भी नाश होने वाला नहीं है । इस प्रकार इस तीन लोक में संम्पूर्ण जीव जन्म मरण के आधीन होकर अनेक दुख को पाकर इस संसार में भ्रमण करते हैं ।। ११५ ।। बिनं नरंबिर् पनि युविरं तोय् दिरैच्चि मत्ति । पुनपुर तोलिन् मूडि यळ क्कोड कुळ, क्कळ, सोरु | बंबदुवायिट्राय वून पईल कुरु बं तन्मेल । लंबरा मान्दर् कंडा यरिविनार् शिरियनीरा ॥ ११६ ॥ नस को रक्त में भिगोकर उस नस से हड्डी को भली प्रकार बांध कर उसको मांस रूपी कीचड से लेप कर के उसके ऊपर चाम की चादर लपेट कर कृमि कीटक आदि अनेक मलों से भरता हुआ नत्र द्वारों से युक्त, ऐसे यह अशुचि अपावन कच्चे दुर्गंधित मल के भरे शरीर पर प्रेम करने वाला ग्रात्म ज्ञान से रहित होकर संसार रूपी वन में भ्रमण करता है । भावार्थ - जो जीव धर्म में अनुराग रखते हैं वे इन्द्रिय रूपी सुख को साधते हुए शुभोपयोगी रूपी भूमि में विचरण करते हैं । शुभयोग सहित उत्तम तिर्यंच, उत्तम मनुष्य अथवा उत्तम देव होता हुआ उतने काल तक अर्थात् तिर्यंच आदि की स्थिति तक नाना प्रकार के इन्द्रिय सुख को पाता है । सब मांसारिक सुखों में मग्न होकर जीव देवगति में जाता है, वहाँ प्रणिमा गरिमा आदि २ आठ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - RAMMA १०.. NAATAAN APLVM MEANIMAL ------- - - - पी । WWW.NNNN -- -- 2 VODA राजा वैजयंत अपने पौत्र वैजयंत का राज्याभिषेक कर Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ८३ ऋद्धि सहित सुख देवों में प्रधान है। परन्तु यथार्थ में वह पात्मिक तथा स्वाभाविक सुख नहीं हैं क्योंकि जब पंचेद्रिय पिशाच उनके शरीर में पीडा उत्पन्न करता है तब ही वे देव मनोग्य विषयों में गिर पड़ते हैं अर्थात् जिस प्रकार कोई मनुष्य किसी वस्तु से पीडित होकर पर्वत से गिरता है उस ही प्रकार इन्द्रिय जनित दुःखों से पीडित होकर उन विषयों में यह आत्मा पीडित होता है। इसलिये यह इन्द्रिय सुख दुःखरूपी ही है । अज्ञान बुद्धि से सुखरूप मालूम पड़ता है । दुख के भी दो भेद हैं, सुख और दुःख । मनुष्य चारों गतियों में उत्पन्न होकर शरीर की पीड़ा को भोगते हैं तो जीवों का चेतन रूप परिणाम अच्छा बुरा कैसे हो सकता है, ऐसा कभी नहीं हो सकता। इसलिये हे कुमार संजयंत ! पाप और पृण्य यह दोनों दुख के कारण हैं। और ये ही दुख चारों गति के कारण हैं। प्रात्मा के सुख के भागे कोई । शाश्वत सुख नहीं है ।।११६।। तोड्रि माइंदुलग मुंडि ट्रयरैदु मुइगडमै। ईड्रताय पोल बोंबि बत्त ळिरुत्ति नादन् । मूंड लगिक्कु माक्कि मुडिविला तन्म नळ गु । मांड नल्लरत्तै पोलु मरिय दोड्रिल्लै येंड्रान् ॥ ११७ ॥ हे कुमार संजयंत ! जन्म-मरण रूप से युक्रा इस तीन लोक में दुख भोगने वाले जीवों को जिस प्रकार माता अपने बच्चे का रक्षण करती है उसी प्रकार माता के रूप में धर्म, देवलोक, चक्रवर्ती आदि इन्द्रिय सुख इस जीव को देकर अन्त में मोक्ष फल को दिला देती है। ऐसे जैन धर्म के सिवाय और कोई परम रक्षक नहीं है ।।११७॥ अरियदु तिरुवरमल्ल दिल्लैयेत् । मरुविय तिरुवर मोरुवि मन्नना ॥ युरुगळ मुडिग कवित्त लग माळ बदु । पेरुयिल मरिणइन पिडिक्कीवदे ।। ११८ ।। इस प्रकार संजयत धर्म के स्वरूप को अपने पिता के मुख से सुनकर इस लोक, में जैन धर्म के अतिरिक्त और कोई धर्म नहीं है ऐसा निश्चय करके कहने लगा कि-हे पिताजी! मैं फिर ऐसे सख शान्ति के देने वाले पवित्र जैन धर्म को छोड कर अनेक दुखों से भरे हुए संसार के कारणभूत होने वाले शरीर तथा क्षणिक राज भोगों को भोग कर नरक गली की ओर खींचने वाले ऐसे क्षणिक राज सुख को मैं क्यों ग्रहण करू? मैं इसे ग्रहण नही करूगा ; क्योंकि जिस प्रकार तिल को घाणी में पेल कर उसका तेल निकालने के बाद केवल खल भाग रहता है उसी प्रकार अनादि काल से राजा महाराजा इस क्षणिक संसार सुख को छोड़ कर चले गये। अब ऐसे संसार के सुख को भोगने वाला क्या मूर्ख नहीं है ? अतः मैं मूर्ख नहीं हूं। जस मोक्षरूपी राज की आप इच्छा कर रहे हैं वह सुख मुझे भी चाहिये, ऐसे क्षणिक सुख की मुझे चाह नहीं है ।। ११८ ।। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण प्रादला लळिय दुरुदि युंडन । पोदुला मुडियनान् पुगळ दु भूमिक्कु ॥ नादनाय सपंदनेनाट्ट उट्रनन् । दादुला मलगंलान् ट्रानु नेर्दिन् ॥ ११९ ॥ इसलिये हे पिताजी ! प्राप इस क्षणिक राज्य के परिपालन करने की आज्ञा मत दीजिए। यह राज्य संपदा मुझे भी इष्ट नहीं है। इस बात को सुनकर राजा वैजयंत मन में अति आनंदित होकर ज्येष्ठ कुमार संजयंत की महान प्रशंसा करता है और लाचार होकर उस राज्य भार को सोंपने के लिये अपने छोटे राजकुमार जयंत को बुलवाता है । कुमार जयंत ने प्राकर पिताजी को नमस्कार किया और कहा कि पिताजी! क्या प्राज्ञा है? राजा ने कहा कि पुत्र! तुम इस राज्य भार को सम्हालो ।। ११६ ।। परिविनार शिरिय नीरा रांडवर तांगळ सेंड। नेरिपिन पिळं क्क पोगिन् माट्रिड सुळल्वर नीड । मरुविला गुरणत्ति नोर्गळ माट्रिय वरसु मेविन् । नेरियिनार् गतिंगनागि निड़ यान् सुळल्व नेडान् ॥१२०॥ कुमार जयंत ने निवेदन किया कि पिताजी ! मैं अल्प ज्ञानी हूं, मुझ में ज्ञान नहीं है। और न इस राज्य की मुझे लालसा है । इस राज वैभव को दुखदाई मान कर उससे मुक्त होकर अनन्त सुख की प्राप्ति के लिए आप मुनि दीक्षा लेकर तपश्चरण के द्वारा प्रखण्ड मोक्षलक्ष्मी रूपी राजपद पाने की इच्छा कर रहे हैं और यह क्षणिक राज वैभव नरक में ले जाने वाला मुझे सौंप रहे हैं! क्या यह बात उचित है ? नहीं। आप जिस मार्ग को स्वीकार कर रहे हैं वही मार्ग मुझको भी इष्ट है । इस प्रकार कुमार जयंत ने पिता से कहा ॥१२०।। - इस प्रकार वैजयंत,संजयंत और जयंत के वैराग्य भावना का विवेचन समाप्त हुआ। वानतिन् । ळि ळ एल्लाल ब दिनु विरंबल सेल्ला। मानसैयुडय पुळि ळन् मैवेगळ मरुत्त मिर्प ।। कारण पोरेट्रिन पारम् कंडिन् मेलिट्टदेपोल । ट्रेणत्त मुडियै मन्नन् शिरुवन् दन् शिरवर् कीदान् ॥१२१॥ तदनंतर राजा वैजयंत ने अपने दोनों पुत्र संजयत और जयंत सहित राज्य भार को त्याग कर के अपने पौत्र वैजयंत का राज्याभिषेक किया और जिन दीक्षा के लिये तीनों चल पड़े। जिस प्रकार चातक पक्षी मेघ की बून्द द्वारा अपनी प्यास बुझाने के लिये बादल की ओर ऊपर देखता है उसी प्रकार राजा वैजयंत और उनके दोनों पुत्र मोक्ष-प्राप्ति की इच्छा करके स्वयम्भू भगवान के समवसरण में जाने के लिये प्रातुर हुए ॥१२१॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAPAN E --- । - CHANBPS RA - CO राजा वैजयंत मय अपने दोनों पुत्र संजयंत व जयंत सहित जिन दीक्षा लेने के लिये रत्नाभूषण-मुकुट आदि को उतार रहे हैं। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [८५ मचिनुकिर में पूंडान् मन्नन् बैजयंत मॅड़े। तिन्मुर शरद पिन्न सिरप्पोडु सेंड, पुक्कु । पुष्णिय किळवन दृन्नि पुगंदडि परिणदु पौत्तीर् । पन्नावर पडिमम् कोंडार पार्थिवर् कुळात्तिनोडे ।। १२२॥ गिस समय राजा वैजयंत अपने पौत्र को राज्य भार देकर चलने लगे तो यह चर्चा सम्पूर्ण देश के राजा महाराजा तथा प्रजा में फैल गई। तत्पश्चात् वैजयंत, संजयंत और जयंत ने जिनेन्द्र भगवान की पूजा के लिये प्रष्ट द्रव्य हाथ में लेकर भक्ति सहित समवसरण में प्रवेश किया, और स्वयम्भू तीर्थकर की तीन प्रदक्षिणा देकर उनकी स्तुति को और बडी विनय भक्ति के साथ भगवान की पूजा की और.खड़े होकर जिनेन्द्र देव से प्रार्थना की कि हे भगवन् ! हमने अज्ञान अथवा मिथ्यात्व के कारण अनादि काल से इस कर्म के निमित्त से संसार में निजात्म स्वरूप की प्राप्ति न होने के कारण अथवा इसका स्वरूप न समझने के कारण आज तक संसार में परिभ्रमण किया। अब हमारी प्रात्मा में इस संसार से विरक्ति उत्पन्न हो गई है और संसार दुःखों से छूट कर हम मुक्त होना चाहते हैं । आप नौका के समान हैं । हमको जिनेश्वरी दीक्षा दीजिए । तब मुनिराज ने तथाऽस्तु कहा और दिगम्बरी दीक्षा की अनुमति दे दी ॥१२२॥ मरिण मुडि कलिंग माल मरिहत्त न रणयकुंजि । परिणयोड़ परिनिडार पोरुमद याने योत्तार् ॥ गुणमरिण यरिणदु कंडा पण्णव कुळातक्कु पुक्का । रिणइला सित्ति नन्नाळ डिळवरसि मॅड़ दोत्तार् ॥१२३॥ तदनन्तर उन तीनों को नव रत्न जडित मुकुट-हार तथा सर्व प्राभरणों का त्याग कराया अर्थात् स बहिरंग परिग्रहों स्याग कराया, अट्ठाइस मूलगुणों का पालन कराया और संक्षेप में मुनि धर्म पालने का उपदेश दिया। पांच समिति, पंच महाव्रत, एक भूक्त, विविक्त शय्यासन, स्थित भोजन मादि २.क्रियानों को समझाया। तीन गुप्ति, पांच समिति और पांच महाव्रत इन तेरह प्रकार से चारित्र पालन करने तथा केश सोंच और दन्त न धोने मादि का विवेचन किया। कहा भी हैं: वद समिदिदियरोधो लोचावासयमचेलमण्हाणं । खिदिसमणमदतवरणं ठिदिभोयरणमेयभत्तं च ।। - इस प्रकार संक्षिप्त में उनको पंच महाव्रत प्रादि २ का स्वरूप समझाया और तीनों ने केवलो भगवान स्वयंम्भू तोकर के समक्ष जिन दीक्षा धारण की। जिन दीक्षा धारण करने के पश्चात् वे तीनों मुनि ऐसे प्रतीत होने लगे जैसे मद से युक्त हाथी इधर उधर विचरते हैं। जिस प्रकार हाथी का महावत हाथी को खाना पीना देकर हाथी को वश में करता है उसी प्रकार यह तीनों मुनिराज अपने मदोन्मत्त मन को Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण - वश में करके पंच महाव्रत आदि को निरतिचार पालन करते हुए अर्हत स्वयम्भू तीर्थकर के अतरङ्ग व बहिरङ्ग तप के द्वारा पंचेन्द्रिय विषयों को जर्जरित करके अपने वश में कर लिया। अंतरङ्ग व बहिरंग तप के साथ २ दुर्द्ध र तपस्या के द्वारा उत्तरोत्तर मूलगुण व उत्तर गुणों के साथ कर्म की निर्जरा करने लगे। और रत्नत्रय (सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) की वृद्धि करने लगे । छोटे राजकुमार वैजयंत को राज्य भार सोंपने के पश्चात् जैसे वह राजकुमार शनै २ राज्य की वृद्धि करता है उसी प्रकार यह वैजयंत, संजयंत और जयंत तीनों मुनि धर्म की वृद्धि करते हुए मोक्ष रूपी लक्ष्मी पद की प्राप्ति की ओर बढ़ने लग ॥ १३ ॥ प्रांगवरंग पूर्व कादि नूलोदि या' । तान् गरु कोळ गै तांगि तामुडन् सेंड, पिन्ना ।। लोंगिय उलग मूंड. मोरुवळी. पडुक्क लुट । पांबिनाल वैजयंतन परुप्पद शिगरं सेंदान् ।।१२४॥ तदनंतर वैजयंत, संजयंत और जयंत तीनों मुनि अङ्ग निमित्त और और अंग पूर्व परमागम का पूर्ण रूप से अध्ययन करते हुए निरतिचार चारित्र का पालन करने लगे। वैजयंत मुनि अपने घोर तपश्चरण द्वारा घातिया कर्मों की निर्जरा करके एक समय में लोक प्रलोक को जानने की इच्छा करने वाले होकर सर्व संघ को त्याग करके एक विशाल पर्वत पर जाकर तपश्चरण करने लगे ।। १२४ ।। मळ पनिवेळ गडांगि मलैमिस मलयपोल । वेळिल पेरलिंड्र पोळ दिनेदं सुक्लध्यानं ॥ पळविनै मुळ दुं पारप्परंदन वरंग नान्म । मुळे इई पोळगिटेन विळ क्किन मुनिराळ्डामो ॥१२५॥ कहा है कि:गिरि-कंदर-दुर्गेषु ये वसंति दिगम्बराः । पाणिपात्र पुटाहारास्ते यांति परमां गतिम् ॥ इस प्रकार गिरि कंदर वन दुर्ग पर्वत की चोटी पर ये वैजयंत मुनि तपस्या करते हुए ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानो इस पर्वत पर एक छोटा और पर्वत ही हो। इस तरह दुर्द्धर तप करते हुए आत्म-योग में मग्न हुए । प्रथम व द्वितीय शुक्ल ध्यान से प्रात्मा को घात करने वाले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चारों घातिया कर्मों को जीत कर केवल ज्ञान को प्राप्त होकर अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्तसुख आदि चार चतुष्टय से युक्त हुए । तब जिस प्रकार एक दीपक से सारा अन्धकार क्षण में नष्ट हो जाता है उसी प्रकार अनादि काल से कर्मरूपी अंधकार से ढके हुवे प्रात्मा को केवल ज्ञान दीप प्रकट होते ही ज्ञानावरणादि चारों घातिया कर्म नष्ट हो गये ।। १२५ ।। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ८७ सिद्धनल्लिरदं से धातु कळ पोलधातु । वोत्तर वगैयदागि योळि युमिदिलंगु मेनि ।। चित्तिरत्ति यट्पट्ट पडयेन देवर सेंड्रार । मुत्ति पेट्रिंद कोऊ मदन मुन्नर विळक्कै वेत्तान् ॥१२६।। जिस प्रकार सिद्ध रस में लोहा डुबाने से वह लोहा तत्काल स्वर्णमयी हो जाता है उसी प्रकार अहंत भट्टारक वैजयंत मुनि के शरीर के धातु उपधातु प्रात्म ज्योति से प्रकट होके प्रकाशमान होने लगे। तब चतुणिकाय देव जैसे चित्रकार चित्र लिखता है उसी प्रकार अनेक रंगों से सुशोभित होकर अत्यन्त सुन्दर शरीर को नाना वर्णों से तथा अनेक प्राभरण व सुन्दर २ वस्त्रों सहित आकाश से पुष्प वृष्टि करते हुए वैजयन्त मुनि के सन्मुख वे देवगण नीचे उतर कर आ गए और केवलज्ञानी वैजयंत भगवान से प्रानन्दपूर्वक कहने लगे "अद्य मे सफलं जन्म, नेत्रे च विमले कृते। स्तातोऽहं धर्मतोर्थेषु जिनेन्द्र तव दर्शनात् ।। हे भगवन् ! आज आपके दर्शनों से हमारा जन्म सफल हो गया, नेत्र सफल हो गये गात्र सफल हुअा इसलिए हे प्रभु ! हम आपके तीर्थ में उतर कर कर्म रूपी मल को दूर करने के लिये स्नान कर चुके हैं ।।१२६।।। तेमलर मारि सुन्न सिदारिनर् दिशैकनमूड । धूममूमेळ दं दीप सडरंदन मिडेंद देवर् ॥ ताममुं सांदु मोंदिताम् पनिळदु नोंड्र.। कामनै कडंद कोमान् कळलडि पर्व लुद्रार् ।। १२७ ॥ तत्पश्चात् केवली वैजयंत भगवान के पास आए हुए चतुर्णिकाय देवों ने स्वर्ग से नाए हुए अत्यन्त सुगंधित पुष्पों की वृष्टि को। परिमल चूर्ण की आकाश से वृष्टि की, तथा महान सुगन्धित धूप खेई। केवल ज्ञान के निमित्त रत्न दोपक जलाए और अष्ट प्रकार से भगवान की पूजा करके स्तुति करने लगे कि भगवन् दुर्नयध्वान्तौराकीर्णे पथि मे सति । सज्ज्ञान-दीपिका भूयात् संसारावधि-वर्धनी ।। जन्म जोर्णाटवी मध्ये जनुषान्धस्य मे सति । सन्मार्गे भगवन भक्तिर्भवतान्मुक्ति-दायिनी ।। स्वान्त-शान्तिं ममैकान्तामनेकान्तक-नायकः । शान्तिनाथो जिनः कुर्यात् संसृति क्लेश-शांतये ।। कर्णधार भवार्णोधेमध्यतो मज्जता मया । कृच्छ्रेण बोधिनौलब्धा. भूयान्निर्वाण-पारगा। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] मेद मंबर पुराण अर्थ- हे भगवन् ! मेरा मार्ग दुर्नयरूपी अंधकार से व्याप्त है, मुझे आपके द्वारा प्राप्त सम्यक्ज्ञान रूपी दीपक संसार की मर्यादा को छेदने वाला हो । हे भगवन् ! जन्म-मरण रूपी इस अत्यन्त पुराने जंगल में मैं जन्म से ही अन्धा हूं। इससे मुक्ति दिलाने वाली आपकी भक्ति सन्मार्ग में ले जाये । स्याद्वाद मत के एक नायक श्री शान्तिनाथ भगवान् संसार के - दुःखों की शान्ति के लिये मेरे हृदय में सदा स्थिर रहने वाली शान्ति को करें । हे खेवटिया ! संसार रूपी समुद्र के मध्य में डूबते हुए मैंने बड़ी कठिनाई से ज्ञान रूपी नौका पाई है। यह मुझे मोक्ष रूपी पार पर पहुँचाने वाली होवे ।। १२७ ।। हे भगवन् ! प्रापको जो कोई देखता है उसको महान् श्रानन्द हो जाता है और जो प्रापको नहीं देखता उसके प्रति श्राप रागद्वेष नहीं करते । जो पूजा नहीं करता उससे आप अप्रसन्न नहीं होते क्योंकि आप अठारह दोषों से रहित हैं और इन दोनों से प्रसन्न अप्रसन्न की भावना का श्रापको कोई मतलब नहीं है । आप पर वस्तु से भिन्न हो । परन्तु एक बात है कि आपके दर्शन, पूजा व स्तुति करने करने वालों को देवगति प्राप्त होती है और जो प्रापसे राग द्वेष आदि करता है उसको पाप तथा नरक गति प्राप्त होती है और पाप पुण्य के अनुसार फल मिलता है - ऐसा आगम का कथन है ।।१२८ ॥ उवत्तल काय्दला लुंट्रिय बडिसल बेळंदोर । कुवत्तल् काय्दलु ट्रिरुन् बोंडू नीहलेयेर् ॥ सुर्गमानर गंदवर् तुन्नुब दुनबु । तर्वासन टून्मयो तबिने तन्मयो बरुळ ।। १२८ ।। हे भगवन् ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों का नाश होते ही जब चार चतुष्टय प्राप्त होते हैं तब उसी समय देवों के आसन कम्पायमान होते हैं- यह आपके तत्पचरण व बल का ही महात्म्य है, और किसी की शक्ति नहीं हैं। ऐसा ही आपके महान धर्मोपदेश का फल है । ।। १२६ ।। हरंद धातिग नान्मंयु मळिव कनरो । निरेंद नान्मे युं बानबर निलेयुडन् तळरा ॥ परंतु वंदु निद्रिरुवडि परबुबदिदु उन् । सिरंद तन्मयो तिरुबरदि यक्कयो बरुळ ॥ १२६ ॥ • कुटु मड्रिले निर् कुटु मूंड नीपुरताय । पटू नोइले एनिलु लोगमुं पट्टाम् ॥ सुट् नोईला एनि लोब्बिरु मुम् सुद्रा । मटू नीइल्लाय मुनिबर् कोनायबोर् मायम् ॥ १३० ॥ [ आपके अन्दर कोई दोष नहीं है-ऐसा कहते हैं ? यदि राग द्वेष नहीं Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण है तो आपने कर्मों का नाश कैसे किया? इस लोक में संसारी जीवों में रहते हुए प्रापको निष्परिग्रही कैसे कहते हैं? मिट्टी में से निकला हुवा सोना भट्टी के द्वारा तपाने पर भी मिट्टी रूप नहीं होता. उसी प्रकार ज्ञानावरणादि पाठ कर्मों का नाश होने के बाद पुन: संसार का बंध नहीं होता, इस कारण आप प्रबंध हैं । कोई यह कहता है कि आप बंधु नहीं है ? आपकी भावना सम्पूर्ण जीवों पर रक्षा करने की है और जगत के सारी प्राणी मात्र को बंधु की दृष्टि से देखते हैं इसलिये आप बन्धु हैं । इस प्रकार तपश्चरण करने वाले पाप ही सच्चे तपस्वी हो, यह पाश्चर्य को बात है ।। १३०॥ परिवु नीइले योंड्रल तेमक्कवै यनेगं। पिरबिनी इलै यानगळो पिरविइर् पेरियोम् ॥ सेरिबवोर् गति युनविकल्ले घमक्कु नागि व ट्राल । बरियनी येम्म यान्ट्कोंडं वशिइदु पेरिदे ॥ १३१॥ हे भगवान् ! मापको केवल ज्ञान के प्रतिरिक्त विकल्प को उत्पन्न करने वाला और कोई ज्ञान नहीं है । दूसरे जोवों के मतिज्ञान व अवधिज्ञान है। परन्तु केवलज्ञान नहीं है । पाप जन्म-मरण से रहित हैं, मागे आपका जन्म-मरण नहीं है, परन्तु संसारी सम्पूर्ण जीवों के जन्म मरण होता है । पाप गति में रहित हैं अर्थात् प्रगति हैं । हमको चारों गतियों के दुख हैं। इस कारण सभी जीव प्रापकी स्तुति करते हैं तथा प्रापका माश्रय लेते हैं ।। १३१ ।। येड, वानव रिरवन मरंजु इप्पोळ दे । येंद्र, मबुलगळ वयररु वियप्प ॥ निदोर् पडिनिरुमिया वारिबैय्यर् सूळ । शंडनन् धरणेदिरन् शिरप्पाडु विरंदे ॥१३२॥ ___ इस प्रकार वैजयंत केवली भगवान की स्तुति पाठ करते हुऐ सम्पूर्ण देवों को आश्चर्य करने वाले ऐसे उपमा रहित रूप को धारण कर अपनी देवियों सहित भवनलोक के अधिपति इन्द्र अपने हाथ में पूजा द्रव्य लेकर उन केवली भगवान की पूजा करने पाए ॥१३२॥ निळलुमिळ दिलंगु मेनि निरैयदि मुणमं शंवर् । कळलरिणदि लंगुम पादंगकमलंगळ कामने युम् ।। पुळलळिदिलंगु नल्लार बडिबिनार कुळं य वांगुम् । तळलुरु तन्म तंद तरणनन दूरुव पाने ॥१३३॥ उस परणेन्द्र के मन्मथ के समान सुशोभित शरीर का प्रकाश चारों मोर फैला हवा था। उनका मुखकमल सम्पूर्ण कलापों के समान प्रकाशमान था। उनका शरीर स्वर्ण के समान चमकता था। उनके चरण लाल बमल के समान तथा केश नील मरिण के समान चमक रहे थे। उनके देखते ही सम्पूर्ण स्त्रियां चंचल हो जाती बो॥ १३३ ॥ . Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण प्रांगव नुरुवंकाना वरुंदवन शेयंदनदो। वीगिय तवत्तिनान मेलिव्वरुवाग देना ॥ नोंगिय काक्षिदाय निदानत्तै निरैय निडान् । प्रोगियवुलगं वेडा दुमिकोंडा प्रोरुव नोत्तान् ॥१३४॥ उस समय धरणेन्द्र का वैभव परिग्रह, वहां के देवों की सुन्दरता, स्वरूप व ऐश्वर्य मादि को देखकर उन संजयंत मुनि ने सम्यक् दर्शन से रहित होकर निदान बंध कर लिया कि मैंने इस तपश्चरण के भार से जो तप किया है उस तप का फल अगले भव में मुझे ऐसा मिले कि इस धरणेन्द्र के समान ऐश्वर्य वैभव, तथा चन्द्रकांति वाला मै भी हो आऊँ । जैसे बंदर के गले में रत्नों का कंठा बांध दिया जावे तो वह मूर्ख उसका मूल्य न समझ कर तोड़कर फेंक देता है, उसी प्रकार संजयंत मुनि ने अब तक सारे वैभव को छोड़ कर अंतरंग व बहिरंग से सारे शरीर को कृश किया था, वही आज अपनी पचइन्द्रियों के लालच में पाकर तपस्या से धरणेन्द्र के समान फल की प्राप्ति की कामना करके अब तक के समस्त तपश्चरण के फल को ससार का कारण बना लिया, मोक्ष के देने वाले मार्ग से च्युत हो गया और मोक्ष मिलने वाले सुख को छोड़कर पचेन्द्रिय भोगों में लिप्त होकर दीर्घ संसार में फंसने का कारण बना लिया ।। १३४ ।। प्ररुतवं तागि मेरुवन पवर्केलु मास तुरुं विडे तोंड्र मेनुम् । तुरु बिड तोंड, मेनुम् लुगळिनिन् चिरियरव ॥ ररुतव निवनिकंडा मास इल्लामै पेंड्रो। पेरुतव मावबंडर पिरवि वित्त तल लंडो ॥१३५॥ श्रेष्ठ तप ऐसे चारित्र भार को धारण कर उसके फल को तथा महान् मेरु पर्वत के समान कीर्ति को न पाकर तिल मात्र परिग्रह के मोह से वह अल्प गुरणी बना और वह संजयंत मुनि संसार रूपी कीचड में फंस गया। जैसे कोई किसान बीज का रक्षण करता है और उसका उपयोग नहीं करता उसी प्रकार संजयन्त मुनि ने कर्म रूपी बीज को नष्ट न करके उसे संसार का कारण बना लिया।। १३५ ।। कनिदन कवळ कइल वैलुडन कळर वारै। मुनिदिधु कळिरु कोल्वार् मुत्तियै विळ कन्दु नीरार् ॥ मनन्दोळत्त रंदिडादे वाल कुळ तेच्चिर कोडं । सुनंगनै पोलु नीरार् माट्रिडै सुलुलु नोरार ॥१३६॥ जिस प्रकार महावत हाथी को अनेक प्रकार के पकवान बनाकर खिलाता है परन्तु हाथी सहज ही आकर उसको नहीं खाता है, अपितु महावत उसको पुचकार २ कर खुशामद कर २ के खिलाता है किन्तु वह अपने मन से नहीं खाता है और उसी हाथी की झूठन को Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ६१ कुत्ता अपनी पूछ को हिला हिला कर भोजन खिलाने वाले उस महावत की खुशामद करता है और तब वह झूठन को प्रसन्नता से खा लेता है। उसी प्रकार मनपूर्वक संयम को न धारण करने वाले जीव परिग्रह को न त्याग करके पुनः उसका अंश व उसकी लालसा उत्पन्न होने से उसकी ओर चला जाता है । उस समय वह मोक्ष को उत्पन्न करने वाले श्रेष्ठ तपश्चरण मार्ग को त्याग करके जिस प्रकार खाए हुए झूठन को फेंक देते हैं या वमन की हुई वस्तु को पुनः ग्रहण करने की जो इच्छा करता है उसी प्रकार त्यागे हुए पंचेन्द्रिय विषय की पुनः इच्छा करके संसार में भ्रमण करके अत्यन्त दुख को भोगता है ।। १३६ ।। नंजिने यामर्दमंड़े यंडवनयंदु पिन्न । तुंजुव दंजिन्दांड्र नांजय तुपित्तल पोलुं । पुंजिय पोरिइन् भोगम मांटिंडै सुळट, मेना । वंजिमुन्द्र रर्द भोग तरुंद व नाशैताने ॥१३७॥ पंचेन्द्रिय विषयों से युक्त भोगोपभोग वस्तु तीन लोक के सम्पूर्ण जीवों को घेरने के लिये कारण होती है । इस संसार दुख के कारणों से भयभीत होकर उन विषयादि राज्य पद को छोडकर तथा मुनि पद को धारण किए हुए संजयंत मुनि ने पुनः इस परिग्रह को धारण किया। जिस प्रकार एक मनुष्य ने विष को अमृत समझकर ग्रहण किया और उससे वह अनन्त दुख को प्राप्त होकर फिर उसका त्याग कर देता है तथा उस दुख को भूलकर फिर मूर्ख के समान उसी विष का ग्रहण करता है, ऐसी दशा उस संजयंत मुनि की हो गई ।।१३७।। ऐंदले येखं तन वायें दुडन कलंदनंजिर् । ट्र बं मोर् कडिगयेल्लर जिनार ट्रोडरंदिडावा ।। मैवोरि यरवन तन वायू योंड्रिनालाय लोंजु । तुंजिना लनेग कालं तोडरदुं निड्रडुन गळ कंडिर् ।।१३८॥ । अत्यन्त जहरीलापांच फण वाला विषधर सर्प अपने पांचों मुखों से मनुष्य को काटता है और वह विष मनुष्य को अनेक प्रकार के असह्य दुःख देकर उसके प्राणों को नष्ट कर देता है, उस विष से वह प्राणी एक भव में नष्ट हो जाता है, पुनः उसको दुःख उत्पन्न नहीं होता है। किन्तु यह पंचेद्रिय नाम के विषय विषधर मनुष्य को भव भव में दुःख देने वाले हैं। श्री प्राचार्य गुण भद्रस्वामी ने आत्मानुशासन में कहा है - राज्यं सौजन्ययुक्त श्रु तवदुरुतपः पूज्यमत्रापि यस्मात्, त्यक्त्वा राज्यं तपस्यन्नलघुरति लघुः स्यात्तपः प्रोह्य राज्यं ।। राज्यात्तस्मात् प्रपूज्यं तप इति मनसाऽऽलोच्य धीमानुद ग्रं, कुर्यादार्यः समग्रं प्रभवभयहरं सत्तपः पापभीरुः ।। राज्य के हाथ से दुष्टों का निग्रह होकर शिष्टों का पालन होता है । इसलिये राज्य . Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] मेरु मंदर पुराण करना बडा धर्म है । और राजा पूज्य भी होता है जिस प्रकार तपस्वी को शास्त्र का अच्छा ज्ञान होता है तो उसका तप भी पूज्य होता है । इसं.अपेक्षा से यदि देखा जाय तो पूज्य राज्य भी है । उससे भी पूज्य तप है। परन्तु राज्य को छोडकर यदि कोई तप करे तो और भी पूज्य समझा जाता है । किन्तु तपस्वी होकर फिर राजा बनना चाहे या राज्यपद पर बैठ जाय तो वह पूज्य से भी अपूज्य हो जाता है। उसे वह भ्रष्ट हुवा निकृष्ट समझते हैं। तपस्वी को राजा भी शिर नमाते हैं। राज्यपद से इतना बड़ा पुण्य कर्म संचित नहीं हो पाता है; जिस से कि आगामी फिर भी राजानों को विभूति नियम से मिल जाय । क्योंकि राज्यपद के साथ मदमत्सर आदि दोष भी लगे रहते हैं, जिससे प्रात्मा अति पवित्र न रहकर मलिन हो जाता है। तप में यह बात नहीं है। जिस तप में कर्मों का निर्मूल नाश करके मोक्ष पद पाने की शक्ति विद्यमान है तो राज्यपद प्राप्त होना कौनसी बड़ी बात है ? तप से आत्मा परम पूज्य बन जाता है। भावार्थ-विषय भोग तुच्छ हैं, दुःखों को पैदा करने वाले हैं। राजभोग सबसे बड़ा विषयभोग है। इसकी इच्छा भी उन्ही को होती है जो धन दौलत को अपने प्राणों से भी बडा समझते हैं, कामक्रोध अंधकार के जो प्राधीन हो रहे हैं। किंतु जो जितेन्द्रिय हैं, प्रात्मा का कल्याण करना चाहते हैं, वे उस पर लात मारते हैं। इसी प्रकार राज्य को भी प्रात्मकल्याण करने वालों को हेय समझना चाहिये । इस राज्य के मूल में ही विषय भोग छिपा हुआ है व परंपरा से नरकादि चारों गतियों का कारण है। सदैव पाप का संचय करने का कारण है । विषय भोग की प्राप्ति के लिये यदि राज संपदा भी मिली तो उसको छोडकर बुद्धिमानों को तप ही करना चाहिये। तप ही सुख का का कारण है। तप से साक्षात् सुख को प्राप्ति होती है। राज से सुख व शांति नहीं मिलती है। परन्तु जैसे कोई व्यक्ति हाथी पर बैठा है तो सभी उसकी प्रशंसा करते हैं, यदि वही व्यक्ति हाथी पर से उतर कर गधे पर बैठ जाय तो लोग उसी को हीन दृष्टि से देखेंगे। उसी प्रकार पूज्य पद प्राप्त करने वाले संयम पद को प्राप्त कर तीन लोक के पूज्य बन जाते हैं, और यदि उसे त्याग कर पंचेन्द्रिय विषय में पड जायें तो लोग घृणा की दृष्टि से देखते हैं ! उसी प्रकार संजयंत मुनि की दशा हो गई थी ।। १३८ ।। काक्षिय कलक्लि ज्ञान कविपिन पिरित्त पुक्कान् । मोलिई लुलग मेट्र, मळ बकुत्तै पेळित वैय् ॥ माक्षि पेट्रवन वै मदनक्के येडिमै याकु । मोक्षित्ता निदानतन्नं मनं कोलार मविइन् यिक्कार् ॥१३६॥ सम्यकदर्शन को नाश करके, सम्यक्ज्ञान रूपी प्रकाश को मिटा कर तथा सम्यक्चारित्र को गंवा कर इस चतुर्गति में भ्रमण कराने वाले दुःख को नाश करके सिद्ध लोक में रहने वाले सिद्धों के समान सुख को प्राप्त करने वाले सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राराधना से संजयंत मुनि च्युत होकर निदान शल्यसे मृत्यु को प्राप्त होकर धरणेन्द्र पद को प्राप्त हुए। यह ठीक है, क्योंकि जिस जीव के जिस समय जो परिणाम होते हैं उसी Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण के अनुसार उस को गति मिलती है-ऐसा समझना चाहिये । इसलिये भव्य सम्यक् दृष्टि जोव यदि इस संसार दुःख से पार होना चाहता है तो भगवान जिनेन्द्र देव के कहे मार्ग में तिल मात्र भी शंका नहीं करनी चाहिये । सारांश यह है कि वेदनीय,नाम,प्रायु और गोत्र ऐसे चारों अघातिया कर्मों को नाम करके तीन लोक के भव्य जीवों के पूज्य होकर वैजयंत राजा ने सिद्ध लोक को प्राप्त किया। ॥ १३६॥ इस प्रकार वैजयंत का मोक्ष प्राप्ति नाम प्रथम अधिकार समाप्त हुआ। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वितीय अधिकार ॥ मोळिवं नाल विनयं वट्टि लगोरु मून्ड, मेत्त । वेळटु सेंड लग दुच्चि यदनान् वैजयंत ॥ नविय निदानत्तोल जयंत नौवमर नाय कोळ । विळदन नोळिद वीरन् चरिते यान् विळव लुट्न् ।।१४०॥ अर्थ-वैजयंत मुनि के मोक्ष जाने के बाद उनके शरीर के पडे हुए नख, केश, मादि को केवल नमस्कार कर पुतला बना करके अग्नि कुमार देवों ने मुकटानल से दाह संस्कार किया, और उसकी भस्मी को अपने मस्तक पर लगा करके परिनिर्वाण पूजा करके चतुर्णिकाय देव अपने-अपने स्थान को चले गये। निर्दोष तपश्चरण करने वाले वैजयंत मुनि के निर्वाण कल्याणक के पश्चात उस स्थान को नमस्कार करके एकल बिहारी होकर निरतिचार प्रतों को पालन करते हुए सजयंत मुनि कायोत्सर्ग पूर्वक आत्म-ध्यान करने लगे ।।१४०।। पंचगति गेटच परमन् ट्रन् चरम मूर्ति । कजलि शैदु वाळ ति शिरपयर्द मररपोनार् ॥ बंजमिरवत्तिनान् संजयंदनु वनंगि पोगि । यंजलिल कोळगे तांगि इरा पगल पडियनिडान् ।। १४१ ।। पर्थ-महातपस्वी संजयंत मुनि श्रेष्ठ गुण से युक्त थे। महातपस्वी मुनि जिस वन में तपश्चर्या करते थे उनकी तपश्चर्या के प्रभाव से उस वन के क्रूर व्याघ्र, सर्प व जंगली पशु अपने बैर भाव को छोड़ कर उन संजयंत मुनि के पास प्रेम से परस्पर खेला करते थे ।।१४१।। मानकंड.न पुलिइन् कड़, मारिये मुलये युन्नुम् । मान् कंड.भारणे कंद्रम सिंगत्तिन् कंडोडाडुं ॥ ॐडिड, वाळं जाति यतोळि लोळिदं वुळ ळं। तान् सेंड्र शांति माकुंवादमान ट्रन्म याले ।। १४२ ।। अर्थ-दोष रहित संजयंत मुनि के तप के प्रभाव से नेवला, सर्प, चूहा, मार्जार मादि प्राणी अपने बैर विवाद को छोडकर परस्पर प्रेम से रहने लगे। भील लोग जो शिकार के लिये इधर उधर घूमते थे उनके मन में भी दया के भाव पैदा हो गये और शिकार करने का त्याग कर दिया। वह सभी मुनि के तप का प्रभाव था। क्योंकि तपस्वी मुनि जहां २ विचरते हैं वहां २ क्रूर प्राणी भो अपनी क्रूरता को छोड कर विशुद्ध परिणामों को धारण करते हैं। शास्त्रों में ऐसे अनेक उदाहरण हैं। भगवान नेमिनाथ पूर्वभव में भील की पर्याय Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण में थे। उस समय एक महामुनि दिगम्बर साधु जंगल में विराजमान थे। उस भील राजा ने उनको जंगली मृग समझकर जब बाण उठाया तब उसकी स्त्री ने उसे समझाया कि यह वन देवता हैं, इनको मारना उचित नहीं है। तव भील ने आकर देखा और नमस्कार करके पूछा कि तुम कौन हो? उन्होंने कहाकि मैं साधु हूं। तत्पश्चात् मुनि ने पुण्य, पाप, पुनर्जन्म, मरण, राग-द्वेष आदि के सबन्ध में भील को समझाया। मुनि का उपदेश सुनकर उस भील को धर्म पर पूर्ण श्रद्धा हो गई और उस भील ने मांस, मदिरा प्रादि न खाने तथा शिकार न ग्वेलने की प्रतिज्ञा की और स्थूल रूप से पांच अणुव्रत को पालन करने का नियम लिया । उसी भील राजा ने क्रम से अपनी पर्याय से मनुष्य जन्म में आकर सोलह कारण भावना भाई और तीर्थकर प्रकृति का बंध कर लिया और आज वही भील का जीव नेमिनाथ तीर्थकर हमारे लिये पूज्य हो गये । साधु के उपदेश से अवश्य जीव का कल्याण हो जाता है। इसी प्रकार संजयंत मुनि के प्रभाव से जंगल में क्रूर हिंसक पशु परस्पर प्रेम से किलोलें करते हुए रहने लगे ।।१४२।। येलिशेंड्र, नागं नन्मेलिडं नागम् कीरि। नलियु मेंड्रज लिल्नं मानमा बालिन् मुळळं ॥ पुलिसेंड. वांगुं पुलवाय किडंदुळि नडुंगु मेंड.। नलिव शेवेडर् सेल्लार सेट मिनट्र वत्ताल ॥१४॥ अर्थ-एकाग्र मन से बाह्य और प्राभ्यंतर परिग्रहों को त्याग कर मन, वचन, काय ऐमे त्रिगप्ति से चार प्रकार के प्रहार भय, मैथन और परिग्रह को त्याग करके विषयों में जाने वाले मन के उपयोग को प्रात्म-ध्यान में एकाग्र करके छह आवश्यक क्रियाओं में मग्न होकर पुण्य और पाप तथा अशुभ व शुभ क्रिया को त्याग कर वे मुनि शुक्ल ध्यान में मन्न हो गये ॥१४३॥ ओरु वर्ग पट्ट उळ ळं तिरुवर्ग तुरतु तन्नान् । मरुविय कुत्ति मंदिर सन्नैगमाट्रि॥ पोरुविलंबोरि सेरित पोरुदि या वास मारिन् । इरुवर्ग सविलिसाय रेळ वर शेरिय वैत्तान् ।।१४४॥ अर्थ-आठ प्रकार की शुद्धि से युक्त संजयंत मुनि नव विध योग के द्वारा दस प्रकार के आस्रव को रोकने के कारण ऐसे एकादशांग शास्त्र पठन पाठन में लीन होकर श्रुत ज्ञान से युक्त मन के द्वारा बारह अनुप्रेक्षात्रों को भाते हुए त्रयोदश चारित्र को निरतिचार पूर्वक पालन करने में मग्न थे। आठ प्रकार की शुद्धिः १. परिणाम शुद्धि २. विनय शुद्धि ३. ईर्यापथ शुद्धि ४. प्रतिष्ठापन शुद्धि ५. शय्यासन शुद्धि ६. वाक्य शुद्धि ७. भिक्षा शुद्धि ८. काय शुद्धि । ऐसे पाठ प्रकार की मृद्धि से काय को शुद्ध कर मात्म ध्यान में लवलीन थे। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ] मेरु मंदर पुराण शुद्धि पोरेट्टिर टू यानोन्क्यायो पियोगी लूटू पत्तयुं तडुक्क बंगम् पदिनोंड्रिर् पथिड्रज्ञानं ॥ सिस पाणि रडिर से सिंवयं मुरुषिकइट्ठ । पतु मूंड्रारि निड़ किरिये पंइड्रिट्टा || १४५ ॥ 9 अर्थ- मन, वचन, काय, कृत कारित अनुमोदना, आरंभ, समारंभ आदि को त्याग कर एकादशांग पाठी ( द्वादशांग में दृष्टिवाद को छोड कर कुल ग्यारह अंग होते हैं) पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति इन तेरह प्रकार के चारित्र मग्न होकर संजयंत मुनि श्रात्मध्यान में लीन थे ॥१४२॥ कायमा मरिण पेतै कडंदपिद मडंगळ पोलुं । वाम माविलंगु माड मनोगर पुश्तैशेंदे || भमिमा मराळि येत्तिर् पेरियव निडूं पोळ दिर । शाम माविलंगु मेरितानब नोरुवन् वंदान् ॥१४६॥ अर्थ - प्रत्यंत विकट जंगल से दूर महान् सुन्दर राजधानी थी । उससे संबंधित उसी के निकट भीमारण्य नामका एक वन था। उस वन में सिंह के समान तेजस्वी शूरवीर निःसंग वृत्ति को धारण करने वाले संजयंत मुनि ध्यान योग में मग्न थे । वहां कृष्णवर्ण वारण किये हुए एक विद्याधर रहता था ।। १४६॥ वि दंत नेवनन् विद्याधर वेदन् । मत्त दि पोल्वन् वानवडियाग || मुत्ततंदि मुइकुळर् शामं योड शेल्वान् । सित्तत्वं मिड़ि वन् मेड्रान् ॥१४७॥ अर्थ - उस विद्याधर का नाम विद्युद्दष्ट्र था । वह विद्याधरों का राजा था जो महान् क्रूर था । उसके दांत तीक्ष्ण तथा लबे होकर प्रकाशमान थे । इस कारण उसका नाम विद्युद्दष्ट्र था । उसका शरीर अति सुन्दर तथा केश बड़े लंबे और सुशोभित थे । एक दिन उसने अपनी विद्याधरी शामदेवी के साथ विमान में बैठकर श्राकाश मार्ग से आते समय जिस जंगल में संजयत मुनि ध्यान में खड़े थे, वहां उनके ऊपर से जाने लगा तो वह विमान वहीं प्रकाश में कीलित हो गया ।। १४७ ॥ मन्मे निड़ मादवर कोन्मी दोडादाई । विम्मेल विमानं कंडु वियपैति ।। पुण्मेल वेला रेडान पोपु गेंदाट्रान । कन्मेर् कंडान् कंबल शल्यि करिण याने ।। १४८ ।। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RPIAH Pradha H संजयंत मुनि वन में तपस्या कर रहे हैं और उनकी तपस्या के प्रभाव से उनके ऊपर विद्युद्दष्ट्र विद्याधर का आकाश में जाता हुआ विमान कीलित हो जाता है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मह मंदर पुराण [६७ अर्थ-उस समय संजयंत मुनि के ऊपर जब वह विमान कोलित हो गया तो वह विद्यापर विचारता है कि यह विमान कैसे रुक गया ? आश्चर्य चकित होकर नीचे पाकर देखा तो संजयंत मुनि ध्यानारूढ बैठे हैं, उनको देखते ही जैसे किसी को भाला धुसते हो अत्यंत वेदना होती है, उसी प्रकार उस विद्याधर के हृदय में पूर्वजन्म के बैर से महा कोष उत्पन्न हो गया ॥१४८॥ कानानिड़ बेरम् कनट्र कडिदोडि । मारणानोंदि माधवर् कोरणक्कुडवंदु ।। सेना रोडुं इमान मेट्रि शेलगेंडान् । वेनार् वेळि ळमले इनिवट्कीळ परदत्ते ॥१४॥ अर्थ-तब उस विद्युद्दष्ट्र विद्याधर ने पूर्वजन्म में किये हुए पाप कर्म के उदय से शीघ्र ही उस मुनि को जबरदस्ती से खींचकर विमान में बिठा लिया। वहां बांस का बड़ा भारी जंगल था। उस जंगल में विजयाद्ध नाम का पर्वत था। उन संजयंत मुनिको वहां लाकर बिठा दिया। पापो दुष्ट लोग क्या २ नहीं करते हैं। अर्थात् सभी कुछ कर सकते हैं। पूर्व जन्म में जैसा २ जिसने किया वैसा २ उसको भोगना पडता है। तब उस समय . वह मुनि मन में विचार करते हैं कि मैं इस समय प्रात्मा और शरीर को भिन्न रूप में समझ गया हूं, इस में मेरी कोई हानि नहीं है । मैंने पूर्व जन्म में इसके साथ अपकार किया था, वह कर्मरूपी ऋण है, उसका बदला चुकाना है, और उस ऋण को यह विद्याधर यहीं पूर्ण कर ले तो ठीक है। इस प्रकार वह मुनि बारह भावना आदि का चितवन करते हुए एकत्व भावना का विचार करने लगे। अरि मित्र महल मसान कचन काच निंदन थुति करन। अर्धावतारन असि-प्रहारन में सदा समता धरन । इसी प्रकार वह संजयंत मुनि भावना भाने लगे। उत्कृष्ट साधु के तप की महिमा: इहव सहजान् रिपून विजयते प्रकोपादिकान् । गुणाः परिणमति यानसुमिरप्यय वाञ्च्छति ।। पुरश्च पुरुषार्थसिविरचिरात्स्वययायिनी । नरो न रमते कथं तपसि तापसंहारिणि ।। अर्थ-अनादि काल से साथ लगे हुए तीव्र कषायादि का इस तप के धारण करने से हो नाश होता है। यह कषायें जीव को संसार के दुख भुगताने में मूल कारण है। इस कारण यह शत्रु के तुल्य हैं। इनको वश करना या इनका दमन करना तप द्वारा ही हो सकता है, क्योंकि तप करने वालों को इंद्रियां वशीभूत हो जाती हैं। जिससे कि विषय Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण वासना छूट जाने से कोषादि तथा राग द्वषादि कषायों का बीज धीरे २ नष्ट हो जाता है । विषय वासना हटने से ज्ञानाभ्यास विषय, याकुलता हटने से शांति तथा तप रूपी श्रेष्ठ कार्य होने से पूजा सत्कार आदि मिलता है। जिन उत्तम गुणों के प्राप्त होने की अभिलाषा प्राण जाने पर भी मनुष्य उत्कंठा से रखता है, यह सभी गुरण तपस्वो को प्राप्त होते हैं। यह सभा लाभ साक्षात् जिसको प्राप्त हुए उसके लिए देखने व सुनने में यही पाता है कि कालांतर में इससे मोक्षपद की प्राप्ति भी होती है-जो जीव का सर्वोत्कृष्ट तथा अंतिम साधन हो सकता है । इस मोक्ष पद से अधिक जीव को और क्या साध्य हो सकता है, कि जहां पहुँचने से संसार संबंधी खेद, जन्म, मरगण, भय, रोग आदि २ सर्व क्लेश समूल नष्ट हो जाते हैं और संसार के दुखों का हमेशा के लिये नाश हो जाता है। जहां कर्मक्षय हो जाने के कारण प्रज्ञान तथा मोह वश होने वाले कर्मजन्य दुःखों से छुटकारा मिलता है, फिर उस जीव को दुःख कहां से हो सकता है ? मोक्ष प्राप्त होने के बाद दुख का निर्मूल नाश हो जाता है, इससे अधिक सुख संसार में कहीं नहीं है । दुख सब पराधीनता या विजातीय वस्तु के मेल से ही होता है। यह पराधीनता कर्म जन्य है । वह पराधीनता मोक्ष में नहीं रहती है फिर वहां दुख किस बात का होगा? ऐसो अत्रित्य मोक्षधाम की प्राप्ति इस तप से ही हो जाती है। बुद्धिमान् मनुस्य को चाहे प्रत्यक्ष फल न मिलने वाला हो परन्तु परिपाक में उत्तम फल मिलता दीखता हो तो ज्ञानो उसको अवश्य करता है, किन्तु अज्ञानी मनुष्य की इसकी विपरीत चाल होती है। चाहे परोक्ष में उसका फल मिलना सभव हो या न हो, परन्तु प्रत्यक्ष फल यदि मिलता हो तो मनुष्य उसे अवश्य करता है। यह तपश्चरण ऐसी वस्तु है, कि इसका फल परोक्ष भी है और प्रत्यक्ष भी है और वह इतना उत्कृष्ट है कि जिससे सर्व प्रकार के क्लेश नष्ट होकर सर्व शाश्वत आनन्द प्राप्त हो जाता है। अधिक क्या कहें, जिस मनुष्य ने तप के आनन्द का भोग नहीं किया, न जिसको इसका आनन्द है वे इसका लाभ नहीं ससझ सकते। जैसे भीलनी ने सच्चे मोतियों की कदर नहीं समझी । वह गजमोती बिखरे हुए जंगल में देखने पर भी उनकी कदर नहीं करती, न उनको छूती है । परंतु गुंजाफल को समेट २ कर उनके अनेक प्राभूषण बनाती है और उन को पहनकर अपने को धन्य मानती है। जो मोतियों की कदर करता है, वह ऐसा नहीं करेगा । अर्थात् गुंजाफल को नहीं पहनेगा। इस प्रकार जो मनुष्य इस तप के प्रानन्द को लुट चुके हैं, देख चुके हैं वे किसो प्रकार भी इद्रिय सुख तथा पर वस्तु में मग्न नहीं होते। यदि तप करते हुए शरीर नष्ट भी हो जाय तो कोइ परवाह नहीं करते। इस प्रकार दुर्धर तप करने वाले संजयंत मुनि सिह के समान शूरवीर एवं पराक्रमी थे। कर्म रूपी शत्रु उनसे दूर भागते थे ।।१४६।। वंदान् कुमदा वदी युमरीनर् सुवनं पर । कंदार् कयम बलिपिन् वैत्तनदिमूंड ॥ शंदार् शंड वेगेयु मायनायत्तिन् । ऐंदार सेंड़ोंडा तडात्तिनडुवाग ।।१५०।। अर्थ-तत्पश्चात् उस दुष्ट विद्युद्दष्ट्र ने उस संजयंत मुनि को हरिवती, स्वर्णवती, Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HARMA 'F''RANAGAN'S VICA MORA HTRAINITIHAS HOM . . /M A . विद्य द्दष्ट्र विद्याधर मुनि को घसीट कर विमान में बिठाकर आकाश में लेजाकर ऊपर से पांच नदियों के संगम के पास नदी के किनारे पर डाल रहा है । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ~ AATM मेर मैदर पुराण गजावती मोर चण्डवती नाम की नदियों के पास लेजाकर विकट जंगल में पटक दिया। ।।१५० ।। सिंगै मुरुषिक विमानं शेल्लावगै नोक्कि । अंबसडात्ति नडुवे मुनिये यवनिट्ट.॥ मुन्स विनया लवनं मुनिय मुरुक्किनान । मुसि बिन इन मेले मुनियु मुरुक्किंडान् ॥१५१॥ अर्थ-तदनंतर वह विमान तो वहीं रह गया, और विद्युद्दष्ट्र विद्याधर ने संजयंत मुनि को देखा और देखते ही मन में क्रोधाग्नि उत्पन्न हो गई तथा उपसर्ग करने के अनेक प्रकार के षड्यंत्र रचने के भाव उत्पन्न होकर उपसर्ग करना चालू कर दिया। उस समय संजयंत मुनि अपने पूर्वजन्म में किये हुए कर्म का उदय समझकर ध्यान में स्थिर रहे ।।१५१।। मत्तत्रादि वडिवाइ वीरन् मर्वत्त । कुंसकुरुगा मरिया प्रोडि कोनमावा ।। शशि तंडु तारै वाळ वेल तडियेदि । येशा बेरियाविळिया देळिया विडवोड़म ॥१५२॥ अर्थ-उस विद्यष्ट्र ने अपने विद्या के बल से दो रूप को धारण कर संयंत मुनि के वक्षस्थल में अपने तीनों दांतों से काट खाया और अनेक घाव कर दिये, और वहां से लौटकर आयुध दंड मुग्दल मादि शस्त्रों को लाकर उस मुनि को अनेक प्रकार के कष्ट दिये । तत्पश्चात् पुनः क्रूर व्याघ्र रूप धारण कर उनको डराने का प्रयत्न किया ।।१५।। चाळोई रिलंग बंकादंरव माइ बंदु तोंड । कोळरि येरुमार्ग कुक्कुद्र. कुलंगरोंड,॥ नीळेरि कोळ मंसुटुं निलं पिळददिर वारकुं। तोळिन तुनिष्पनेड.वाळिनै सुदि तोंड ॥१५३॥ अर्थ-प्रत्यंत तीक्ष्ण व प्रकाशमान दांतों को धारण करने वाले विद्युद्दष्ट्र ने उस मूनि को डराने के लिये सिंह सर्प आदि अनेक विकराल रूप धारण किये शूल, मुग्दल. दंड प्रादि शस्त्रों से प्रहार किया। तुम को मार डालेंगे, चीर डालेंगे ऐसे भयंकर शब्द बोलता हुआ वह विद्याधर मुनि के समीप गया ।।१५३।। पळलु मिळ विलंगु वेवा योरिया येळं त कत्रो । सुळलं वेन् कन्नवाय वेरुवं याय सुळल प्रोडुं । मळं यन तुरुगर पंग्या मलयडुत्तिड बंदु । मुळ्यवर् नपुंगुबेल्ला ऊनमु मोरंगु सैय्युं ॥१५४ । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] मेरु मंदर पुराण अर्थ-सिंह आदि भयानक क्रूर पशुओं के रूप को धारण करता हुआ वह दुष्ट गर्जना करने लगा। जिस प्रकार बादलों से मूसलाधार मेध वर्षता है, बिजली चमकती है उसी प्रकार मुनि पर पत्थरों की वर्षा करके उपद्रव करने लगा ॥१५४॥ इनैयन् पलवूशय्य विरैवनु मिवैयलामेन् । विनइन पयगळे वेगुंडिलन विनकनमेले ॥ निनविन निरुत्ति निद्रा नोचनु नीगि पोगि । तनदिड कुरुगि यार सलिरोळंबडियर् सोन्नान् ॥१५॥ अर्थ-इस प्रकार उन . ने अत्यंत घोर उपसर्ग अपने पर होते देख उस समय विचार किया कि मेरे ऊपर होने वाले जो उपसर्ग है यह सब पूर्व जन्म के पापों का फल है। यह अशुभ कर्म स्थिति पूरी होने पर अब उदय में आए हैं। ऐसा विचार करके विद्युद्दष्ट्र द्वारा किए गये उपसर्गों पर कोई विचार न करके वह मुनि आत्मध्यान में मग्न हो गये। मेरे अकेले से यह काम नहीं बनेगा यह विचार कर वह विद्युद्दष्ट्र विद्याधर अपने नगर में गया और नगर के लोगों को डराने के लिये मायाचारी बातें कहकर उन लोगों को अपने साथ चलने को तैयार किया ॥१५५।। बिलमेन पेरिय वाइन् पिनयलोंड न तिन्नान् । . मलैपळ विळ 'गि नालं वैरोंड निरैदल सेल्लान् । पल पगल परिइन् वाडि पपिडि येत्तपेट्रा । ललै पलशैदु नम्मै विळंग वंदरक्क निडान ॥१५६॥ अर्थ-वह दृष्ट विद्याधर उन सभी लोगों से कहने लगा कि हमारे नगर के पास वाले जंगल में एक बडा राक्षस मनुष्याकार पाया है । उसका मुख पर्वत की गुफा के समान बहत बडा भयंकर है। वह राक्षस केवल मुर्दे को खाता है और कोई वस्तु नहीं खाता है। नगर के सभी मुर्दे खाने पर भी उस राक्षस का पेट नहीं भरता है। सूर्य अस्त होने पर वह राक्षस हमारे नगर में आयेगा ओर सब को खाजायेगा। इसमें संदेह नहीं है। ऐसा वह राक्षस हमारे नगर के पास के जंगल में है ।।१५६।। इंडिरा नम्म एल्लां पिडित्तव नयतिन्न। इंडिरा वारा मुन्न ईडुनामडय कूडि ॥ इडिरा वण्णं शैय्या तोळिदुमे ळिळ, वाळ नाळ । एंडिडा वेवक सोन्ना नेरि नरगत्त वीळ वान् ।।१५७॥ अर्थ-वह राक्षस आज रात्रि को नगर में आकर हमको मारकर खाजायेगा इस लिये हम सब लोगों को जंगल में जाकर उसका नाश करना अत्यंत आवश्यक है। यदि उस का नाश नहीं करेंगे तो हम सभी मर जायेंगे। ऐसे तीव्र नरक के बंध होने वाले कृत्य करने Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Iride स HAH C - - SUM विद्युद्दष्ट्र तथा उसके अन्य बिद्याधर संजयत मुनि पर अनेक प्रकार के शस्त्रों से उपसर्ग कर रहे हैं । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण, को उन सभी के सामने क्रोधपूर्वक विद्युद्दष्ट्र ने कहा ।।१५७।। एमक्किवन शैव कुटुमिन ए डिगळ वेंडाम् । उयक्क मानुरुदि सोन्ने नुरत्तदुम् पिन्न मैयाम् ।। सुमक्कला मलंगळेडि शोरिंद वन ट्रन्ने कोमिन् । एमक्कि वन् शैव वेन्ना पिन्न यु मरिंदु कोमिन् ॥१५८॥ अर्थ-वह विद्युद्दष्ट्र पुनः उन लोगों से कहने लगा कि वह राक्षस महान दुष्ट है, उसका नाश करना है। मेरे पर विश्वास रखो। अब तुम सभी लोग मिलकर मेरे साथ चलो। ॥१५॥ प्ररक्क नेंड्रोरत्त माद सेविप्पुर तुररु मंजा। तिरत्तडि देळ , शेंड, शरोदवन पेरुमैकाना। अरक्कने इवनेंजा वरुत्तव मरिविलादार । वरैतिरळेदि सूळदार वानवर नथुगि इट्टार् ॥१५॥ अर्थ -उस महान दुष्ट विद्युद्दष्ट्र की मायाचारी बात को सत्य समझकर अज्ञानी सभी लोग विद्याधर से डर कर समद्र की कलकलाहट के समान अत्यंत तीव्र ध्वनि तथा महान कर व्याघ्र के समान गर्जना करते हए जहां महा तपस्वी संजयंत मनि तपस्या कर रहे थे वहां पहुँच गये । तत्पश्चात् पर्वत के बड़े र पत्थरों को उठा २ कर उन सजयंत मुनि पर बरसाने लगे। उन मुनिराज पर होने वाले उपसर्ग को देखकर वन के सभी देवों ने अपनी अपनी आँखें बंद कर ली ॥१५॥ मिन्नोड़ तोडरंदु मेगं वेडिपड विडित तोंडि। पोन्मले तन्ने सूळंदु पुलिनै पोळिवदे पोन् । मिन्नु वेळ ळे इट्टर मेलिस्करियवर वेडिप्पवातुं । कन्मळ पोळिय वोरन कनगमा मलनिडान् ॥१६०॥ अर्थ-जिस प्रकार आकाश में बिजली होती है, मूसलाधार वर्षा होती है, उसी प्रकार अत्यंत कर दांत वाले विद्याधर ने उन मुनि पर घोर उपसगं करना प्रारंभ कर दिया। ने संजयंत मुनि उस उपसर्ग को प्राया देख अपने धर्म ध्यान में तल्लीन हो गये ॥१०॥ वंद तानवर वरैयेड तेरिय मादल शलियो । निड तन्मय पोरक्क लावान् शंव वेरुप्प यादल नोक्कि । ईडिवन शैवलेविन कळिद यावर्कु मरिदागुम् । मॅड. सुश्किल ध्यानवाळे डुत्तिरल विनपगै युडकुद्रान्।१६१। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] मेरु मंदर पुराण अर्थ - इस प्रकार नगर के सभी विद्याधर विद्युद्दष्ट्र के साथ मुनिराज पर उपसर्ग करने लगे । वह उपसर्ग सहन करना मुनि के लिये भ्राठों कर्मों की निर्जरा का कारण बन गया और उपसर्ग को सहते हुए संजयंत मुनि प्रपने धर्मध्यान में लवलीन होकर चार घातिया कर्मों का शुक्ल ध्यान नाम के प्रायुष के द्वारा नाश करके कर्मों की निर्जरा करने लगे ।। १६१ ।। वीरन्येर्सेलुं वेगुळि बॅतोइनन् विरेंदे । मारि पोर् पल मलं येडुरोरिदन नेरिय || वीरन् मेर्सेलुं वेगुळिये विलविक पोम्नोर । वार सेंड्रपिम् पमासने परिदेरितिट्टान् ॥ १६२ ॥ अर्थ- - वह संजयंत मुनि अपने शुक्लध्यान में मचल रहे तो भी वह दुष्ट विद्याधर उनपर अनेक उपसर्ग करने लगा, किन्तु इतना होने पर भी उस मुनि पर उपसर्गों का कोई प्रभाव नहीं पडा । उन मुनि महाराज ने क्षमा रूपी खड्ग से ध्यान द्वारा कर्मों का क्षय करके The गुणस्थान को नाश करके प्रप्रमत्त गुरणस्थान को प्राप्त कर लिया ।।१६२ ।। विपुर्वक्क विन्चयर वन् पोळिवनन् विनोर् । कन् पुवैत मयंगिनार सुरिवन् ॥ पम्बु मंतबर् तन्मयु नलयं पाकु । कपर्दककुमो रेळ वरं एक्करण गळितान् ॥ १६३॥ अर्थ-वे दुष्ट विद्याधर लोग मूसलाधार वर्षा के समान बारणों की वर्षा उन मुनि महाराज पर करने लगे । जिससे उस वन के सभी देवी देवतानों ने भी अपनी २ प्रांखें बंद करलीं । उस समय उन संजयंत मुनि ने देव, शास्त्र, गुरु पर सच्चा श्रद्धान रखा और श्रद्धा पूर्वक सप्त प्रकृतियों का नाश किया || १६३॥ • कव्वं नूद्र नेरि कनल् कडुगिनन् कडुग । वेवंतिर् मुनि विनंगळं येळिप्प ने शा । पव्वतूर नूरांबिनं पगं निलं तळरतान् । पुव्वि योनिडूनि येट्टि तनयं पुनर्दान् ॥ १६४ । । धर्व-तत्पश्चात् उस दुष्ट विद्युद्दष्ट्र ने मौर भी प्रत्यंत तेजी से उन संजयंत मुनि को उपसर्ग देना प्रारंभ किया। परन्तु उन मुनि ने अपने धैर्य तथा दृढता से प्रारमा के बल द्वारा सम्पूर्ण अपूर्वकरण गुणस्थान से प्राप्त होकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान को प्राप्त किया ||१६४|| कारमेरिग यांतु कंडव वन । प्रोरिट्ट बिशंगळ गेलुमुरुमेन तोंड़ वीरन् ॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ १०३ प्रारट्टियोंडु कूडा यिनै पड तलव राय । बोरेट्ट. विनयर् तम्मै येडुत्तेरिविट्ट, निडान् ॥१६॥ अर्थ-काले मेघ के समान शरीर वाला वह विद्युद्दष्ट्र चारों ओर से उनपर घोर उपसर्ग कर रहा था। बड़े २ वृक्षों को उखाड कर उनपर फेंक रहा था। उस समय संजयंत मुनि अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रस्सी समय शेष रहने पर सोलह कर्म प्रकृति को नाश करके पृथक्त्ववितर्क वीचार नाम के प्रथम शुक्लध्यान में प्रारूढ हो गये। भावार्थ-सोलह प्रकृति इस प्रकार हैं: प्रकृतियों के नामः-नाम कर्म में नरकगति, नरक गत्यानुपूर्वी, तिर्यक्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, एकेंद्रिय, दो इद्रिय, ते इद्रिय, चतुरिंद्रिय, पातप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण ऐसे यह १३ तथा दर्शनावरणीय कर्म में तीन-निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि ऐसे १६ प्रकृति को नाश किया ॥१६॥ मयक्क पोररसन मक्कळ दंदेनमरतम्मुळोंडि । कयक्कर पोरदुमाय कायदलि मायं व पिन्न ।। बीयक्क नोंदोत्ति बोळ दाळ मेल्लियररुव रोड । मुयप्पिळ दोरवनिडा नोरु वुपोर् तोडगि मायं दान॥१६॥ अर्थ-तत्पश्चात् मोहनीय कर्म के संतानरूप में रहने वाले पाठ कषायों को द्वितीय समय में नाश करके नपुंसक वेद तीसरे समय में नाश किया। क्रम से चौथे समय में स्त्रावेद. पांचवे समय में हास्यादि नोकषायों को नाश करके पुरुषवेद का छठे समय में नाश किया। ॥१६॥ कळ मल कवदिर् पेयदु कनमळ यिल्लिर पेयदुं । एल्लंई लिडुवै शंकलिरवन्मे लुराम नोकि ॥ पुल्लियर् पोरादनाल्वर पोर् मुरै मूवर वीळवार् । मेल्लिया नोरुवन् वोळदु कडदु पिन मायं दु पोनान् ॥१६७। अर्थ-इतना होने पर भी वह महापापो विद्युद्दष्ट्र असाध्य बाण तथा पत्थर मादि के द्वारा महान दुःख देने के लिए अनेक प्रकार के उपसर्ग करता ही रहा। इतना उपसर्ग करने पर भी संजयंत मुनि को एक भी उपसर्ग मालूम नहीं पड़ा; क्योंकि स्वपरभेद ज्ञानी लोगों को जहां शरीर और आत्मा पृथक २ दीखते हैं, वे अपने निज स्वरूप में मग्न रहते हैं। उनको बाहर में होने वाले उपसर्गों का ज्ञान नही होता। जैसे किवाड बन्द करके अपने मकान में सोने वाले मनुष्य को बाहर की ओर होने वाले पत्थर पोलों को वर्षा का कुछ मालूम नहीं होता उसी प्रकार भेदज्ञान वाला मनुष्य अपने प्रात्मध्यान में लीन हो जाता है उसको बाहर का हाल मालूम नहीं होता। तदनुसार संजयत मुनि ने उपसर्ग की ओर लक्ष्य न देते हुए संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ ऐसे चार कषायों को क्रम पूवक सातवें समय में, और Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] मेरु मंदर पुराण anwr पाठवें समय में संज्वलन मान का और नवें समय में माया का नाश किया, अर्थात् अनिवृत्ति गुरणस्थान में कर्मों का नाश किया और सूक्ष्मसांपराय नाम के गुणस्थान के अंतिम समय में संज्वलन लोभ का भी नाश कर दिया ॥१६७॥ विळंगु वाळे इरिलगं नक्कुरुमेन तेरिया। पुळकोळ कामुंगिलेन विळिया पोडितेदान् ॥ तुळगु शुक्किल ध्यान वाळक्कर पिडिया। कळकोळ शिदैयन् पसलै निद्दि रेगळं कडिनान् ॥१६॥ अर्थ-अत्यंत तीक्ष्ण दांतों से विद्युदंष्ट्र उपसर्ग करते समय हंसता हा महान क्रोध के आवेश में मेघ के समान गर्जना करते हुए उनके ऊपर और भी अधिक उपसर्ग करने से नहीं रुका। उस समय संजयंत मुनि एकत्व वितर्क वीचार नाम के दूसरे शुक्लध्यान से चलन रहित होकर प्रात्म बल के द्वारा क्षीण कषाय गुरणस्थान के अत में दो समय शेष रहने के बाद प्रचला, निद्रा ऐसे दो कर्मों का नाश किया ॥१६८।। करणं कडंद पिन करणमिस नाळ वरी काना। पिणंगु मिल्ल युळरिविन शेरिवरशैवर् ।। इन वंदै वरिड युरुमबरोडु येदितार् । मनंदु मौवीरेळ वरु कत्तिले मडिदौर् ॥१६॥ अर्थ-तदनंतर दूसरे समय में दर्शनावरणीय के चार, ज्ञानावरणीय के पांच, अंतराय के पांच इस प्रकार चौदह कर्मों की स्थिति में अन्त समय में और नाश किया। दर्शानावरणीय चार प्रकृति हैं-चक्षुदर्शानावरणीय, प्रचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवल दर्शनावरणीय ऐसे चार भेद हैं । ज्ञानवरणीय के पांच भेद हैं-मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय,अवधिज्ञानावरणीय,मनःपर्यय ज्ञानावरणीय,केवलज्ञानावरणीय । अंतराय कर्म के पांच भेद हैं- लाभांतराय, दानांतराय, भोगांतराय, उपभोग अंतराय और वीर्यान्तराय ।।१६६।। घाति नालर सेळिदन वळिदखें कैवल प्रोरुनान्मै । पोदि पादिगळ पुरणरंदन पुर्णदलु पुगंदु लकोरु मूंड म् ॥ ज्वोति मामलर शोरिंदु वंदडैदंन रडैदलं तुयदि । तीदु शदवन् ट्रिगत्तनन् ट्रिगट्टिडा निलत्तिड पोइवीळ दान् । १७० अर्थ-ज्ञानावरणीय,दर्शनावरणीय,मोहनीय व अंतराय ऐसे चार प्रकार के कर्मों का नाश होते ही केवल ज्ञान रूपी प्रकाश शीघ्र प्रकट होकर अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्य से चार चतुष्टय प्रात्मा में प्रकट होते ही स्वर्गों के देव आकाश से पुष्प वृष्टि करते हुए संजयंत मुनि के पास आये। तत्पश्चात् वह विद्युद्दष्ट्र विद्याधर उन देवों के प्रभाव से दूर जाकर गिर पड़ा ॥१७०।। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण पगलव नेळाच्यइर् भवनर् तोंड्रिनार् । इगलड तवर्गळे डिसेयुं मींडिनार् ॥ मुर्ग मलर् सोंरिदु लवर् कन् मूडिनार् । इगलुत्तवन् सेप्पिन् मनिये योत्तनन् ॥ १७१ ॥ अर्थ - जिस प्रकार सूर्य उदय होकर शीघ्र ही एकदम ऊपर आजाता है उसी प्रकार भवनलोक के देव प्रत्यंत कांतिमान शरीर वाले ऊपर प्राये । व्यंतर ज्योतिषी देव तुरंत हो प्राकर आठों दिशाओं में रह गये । कल्पवासी देव पुष्प वृष्टि करते हुए आये । उस समय वह संजयंत मुनि ऐसे दीखते थे जैसे शीशे में दीपक रखने से प्रकाश होता है । उसी प्रकार मुनि का परमोदारिक शरीर प्रकाशमान होता था ।। १७१ ।। [ १०५ ताम नांडून शंदन मेळ गिंन चरु फलत्तान् वंद । धूम भार्तन सुडर् विळक्केरिंदन सोरिवन मलर् मारी ॥ वाय वारिइन् वा वळं ये रिसिइन् मंगयर् नडमुन्ना ।। काम वेळ वेड्रिरुदवन् ट्रिरुदंड पळवुडन टू दिशैदार् । १७९ · अर्थ- वह संयंत मुनि जिस स्थान पर विराजमान थे उस स्थान की भूमि को देवगण ऊपर से ही पुष्पों की औौर चंदन की वर्षा करके सींचते थे । दीप, धूप, चरु, फल आदि को थालों में भरकर मुनि के सामने ला लाकर रख रहे थे। साथ ही रत्नमयी दीपकों का प्रकाश किया । अत्यंत परिशुद्ध शालि ( चांवलों) से पूजन किया। सभी देवांगनाओं ने आकर नृत्य किया। इस प्रकार घातिया कर्मों के नाश करने वाले केवली भगवान् संजयंत की पूजा और स्तुति करने लगे ।। १७२ ।। विदिग नान्गेयुं कडंदनं यडंदने विकल मीलोरुनान्मै । म दिगनान्गेयं कडदंने यडंदनं युलगला मदि योंड्रिर् ॥ गतिनान्युं कडंदने यडदंनं यगदिये गतिइ ड्रि । तुदिगनान्गेयं कडंदवोर् तुर उडे सुगत बॅपरुमाने ॥ १७३॥ अर्थ - हे नाथ ! आप चार प्रकार के घातिया कर्मों का नाश करके अनंत चतुष्टय को प्राप्त हो गये हैं । आपने मति, श्रुत, अवधि ज्ञान को छोड़कर तीन लोक में चराचर वस्तु को एक समय में जा ने वाले केवल ज्ञान दीपक को प्राप्त किया है। नरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति और देवगति इन चारों गतियों को नाश कर पंचमगति नाम की मोक्षगति को प्राप्त करनेवाले हैं अहंत, सिद्ध, साधु ऐसे धर्म को छोड कर शुद्ध परमात्म पद को प्राप्त होने बाले हैं। स्वामी आप ही हमारे रक्षक हो, आप ही सब प्राणियों को शरण देनेवाले हैं । १७३१ उलग मूंड्रयु मेंविडु माटुले योरुकरण दुलगत्तिन् ॥ अलगि नीळयु मगलमु मुयलमु मनुविन लळक्किकं ।। ง Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] मेह मंदर पुराण इलगु तन्मय इयल्वि लेब्बार्गळ मीयट्र. मरा दिल सेदु । दिलगि निदिई विचितिर किरियै नलवीर्य विरलवेंदे ।१७४ अर्थ-एक समय में तीन लोक को चराचर वस्तु को आपने जान लिया तथा उसकी लम्बाई, चौडाईमौर ऊंचाई प्रादि परमाण से नाप करने वाले ज्ञान को प्र लिया। पाप स्वभाव गुरणों से युक्त अनंत ज्ञान वृद्धि से समस्त जीवों के प्रति हिताहित क्रियामों को परमानंद के द्वारा प्रतिपादन करने वाले हैं। इतना करने पर भी प्राप परवस्तु से भिन्न है। तिलमात्र भो उसका संबंध न होने से प्राप परिग्रही रूप नहीं हैं। उसमे राग परिणति नहीं है, उसमें रहते हुए भी आप सदैव उससे भिन्न हैं। इस प्रकार जगत को प्राश्चर्य करने वाले केवल ज्ञान को प्राप्त किये हुए पाप भगवान हो ॥१७४।। मरंगळ_मायं दिर वान पोरि पॅवयु माट्रिमट बट्टालाम् । मुरयु नींग मूउलगिनोर लोगिन् मुक्कालत्ति निगळ विल्लाम।। उरलु मेलु मिड्रिये योर्गन तोट मैमुदलाय । परियुनिभरि परिवदों ररिवेम तरुळ से यंपेल्याने ॥१७५।। अर्थ-स्वभाव गुणों में प्राकर चिपकनेवाले कर्मों को तथा पंचेंद्रिय विषयों को नाश करके मिश्रित होने वाले कर्माश्रव को रोकने के लिये पंचेंद्रिय विषयों को नाश कर तीन लोक और भूत, भविष्यत्, वर्तमान इस प्रकार तीनों काल में परिवर्तन करने वाले चराचर वस्तु को एक ही समय में जानने का उपमारहित ऐसा केवल ज्ञान प्राप्त हुमा है। उस केवन पान के द्वारा प्राप की सभा में रहने वाले सम्पूर्ण भव्य जीवों को हिताहित का मापने उपदेश दिया ।।१७५॥ पोरिगळारी लेवुलत्तिमार् गतिइन मुबकालतिरुभोग। तुरवि यावयु मुद्र विवत्तिनोड नदिन बंधन योप्पि ॥ दरिइन् मददै यनुवुमा कायम मनय उन् पेरिब । तुरवि युन्नं नो मुन्नुळ ळो यनुवित्त लग उत्तमनीये ।१७६। अर्थ-पंचेंद्रिय विषयों में षड्-इंद्रियों में तथा चार गतियों में तीन ही कालों में भोगोपभोग वस्तुओं को अनुभव करने वाले जीवों के सुखों को अपने सुख के बराबर तुलना करके देखा जाय तो इन संसारी जीवों के सुख अणु प्रमाण भी प्रापके मुख के बराबर नहीं हैं। प्रापका अनंत मुख प्राकाश के समान प्रमयादित है । ऐसे तीन लोक में जो श्रेष्ठ सुख है ऐसे सुख को प्राप्त किये भगवान तीन लोक के नाथ पाप ही हैं। चक्को फरणो सुरेंदजं सुखालयं, तत्तो अनंत गुरिणदो सिदाणं खणं होदि । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17M. MEIN HAOVEMS .....5.MARA - - - This N RA : PROMP4 FASTER राजा वैजयंत को तपश्चरण द्वारा केवलज्ञान को प्राप्ति होने पर, केवलज्ञान की पूजा के लिये धरणेन्द्र परिवार सहित पा रहे हैं। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा मंदर पुराण [ १०७ चक्रवर्ती, धरणेंद्र, सुरेंद्र इनको तीनकाल में प्राप्त होने वाले सुख इंद्रिय सुल ही हैं । परंतु यह सुख सिद्ध भगवान को एक ही क्षरण में हो जाता है। देवाधिदेव को प्रतींद्रिय सुख उत्पन्न होता है। ऐसे महान् सुख को प्राप्त करने वाले भगवान् भाप ही हैं औौर संसारी जीवों को भी सुख प्राप्त कराने वाले प्राप ही हैं ।। १७६ ।। शेfरद माघवन् तिरुवडि तल शिलिप्पोडि शिलतु बिसोन्नार् । afra घातिनेनगुण नाइन नैयूबिन तुलगुविच ॥ परंतु बंदु नपळ मर परवइन् पन्नगर् मुदलानोर् । निरस्कोळ मामलर् सोरियन रेलिन बेर्तन बिनं येक्लाम् ॥ १७७॥ प्रर्थ -- इसी प्रकार संजयंत मुनि को केवल ज्ञान होते समय सभी केवली भगवान् की स्तुति कर रहे थे । स्तुति करते समय संजयंत केवली भगवान् ने प्रघातिया कर्मों को नाश करके सिद्ध लोक में गमन किया। तत्पश्चात् भवनवासी, ज्योतिष्क तथा व्यंतर प्रादि देव अनेक फलों से भरे हुए जिस प्रकार वृक्ष में पक्षी इधर उधर से प्राकर उस झाड को घेर लेते हैं उसी प्रकार जहां भगवान के कर्मों का क्षय किया था, उसी स्थान पर सभी देवों. ने सुगंध वृष्टि प्रौर पुष्प वृष्टि करके स्तुति की। इस प्रकार उनकी भक्ति करने से देवों की कर्म स्थिति घट गई ।। १७७ ।। प्रमिति नंजु कण्ण कळगि बेंड्रड बन् पोल ! तिमिर माम् विनयें नीबिक सितिशं तबशिर काकुं ॥ भ्रमररण बुरुवन् कोंड मुनिवनाय् कुमरन् ट्रातुम् । तमरण मगिळं तु नजिर शालवं परिंग निङ्गान् ॥ १७८ ॥ अर्थ - प्रत्यंत विष से भरा हुआ जैसा किपाक फल देखने में सुन्दर लगता है, खाने में मीठा, ऐसे फल को खाते ही मनुष्य का जैसे प्रारण निकल जाता है, इसी प्रकार यह संसारी मिथ्यादृष्टि जीव इस विषय कलाप के मोह से तपश्चर्या करके भुवन लोक में देव पर्याय को प्राप्त हुआ वह धरणेंद्र अपने परिवार सहित वहां प्राया और संजयंत मुनि को अपने पूर्व भव का बंधु समझकर भक्ति सहित नत मस्तक होकर नमस्कार करके वहां खड़ा हो गया । १७८ बिल्लोड केनैगळ वेल्कोल बिट्टरि पिडि पालं । कल्लोड मरमुं बाबितिडपड किडंबकाना ।। वे सब बदियार पातिवन् शयलो बीदेशा । पल्लवर् नडुंग प्रोड पावशा लुबंप्य बोळवान् ॥ १७६ ॥ अर्थ-तत्पश्चात् वह धरणेंद्र इधर उधर देखता है कि वहां बारण पत्थर शस्त्र आदि का ढेर लगा हुआ है तथा प्रायुध मुद्गल आदि अनेक प्रकार के शस्त्र पड़े हुए हैं। उस वे अपनी अवधि द्वारा यह सब देख कर जाना कि यह सभी विद्युद्दष्ट्र दुष्ट का कार्य है । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -~~ ~~~~~~rnmom १०८ ] मेरु मंदर पुराण ऐसा समझकर सभी विद्याधरों को भय उत्पन्न हो ऐसे उन्होंने एकदम दौड़कर विद्युद्दष्ट्र को मोर से लात मारो। लात मारने से वह विद्याधर उसी समय नोचे गिर गया ॥१७॥ मेघ वासत्तिर् ट्रोंड़, मिन्नन दंदत्ताने । भोग पासत्तिन् वंदु पोरदिय सुट्रत्तोंडु॥ नाग पासत्तिर कट्टा नडु कडलिडुबनेन । सोग पासत्तिनावा युडदवर तुयर मुद्रार् ॥१८०॥ अर्थ-जैसे बादल की गर्जना होते समय बिजली चमकती है. उसी समय दांतों से युक्त विद्युद्दष्ट्र को तथा उनके बंधुनों को उस धरणेंद्र ने ललकार कहा कि मैं नाग फांस से बांध करके तुम सभी को समुद्र में फेंक दूंगा। उस समय विद्युद्दष्ट्र के बन्धु लोग जिस प्रकार • समुद्र में जाने वाले जहाजों के टूटने पर जो उनकी दशा होती है वही दशा उन विद्याधरों की हुई। वे दुखी होकर भय से अनेक प्रकार से रुदन करने लगे ।।१८०।। दरगन ट्रन कोवन् काना दानवर् तलैबरिल्लाम् । मरणमेंड्र दिर् ट्रोन्नामयंगिय मनत्तरागि । शरणमुन् शरणमेन्ना शारं दनर् पलरु सोंदा । करणनंनम पुलंगळ् कानार् कंदोळु विरंजि मादों॥१८॥ अर्थ-धरणेंद्र के इस प्रकार क्रोध को देखकर सभी विद्याधर पश्चात्ताप करने बगे कि हम इस नाग फांस से किसी भी हालत में नहीं बच सकते। निश्चय से हमारा मरण ही होगा। इस प्रकार भयभीत होकर विद्युद्दष्ट्र के अनेक विद्याधर व बंधु लोग उस धरणेंद्र के चरणों में गिर गये, और गिर कर हाथ जोड़ कर कहने लगे कि हे धरणेंद्र ! हम सभी विद्याधरों पर प्रापको क्षमा करना चाहिये । आपके विना अब हमारा अन्य कोई शरण नहीं है । इस प्रकार प्रत्यंत रुदन करके वे प्रार्थना करने लगे ।।१८१।। मिन्नोत्त वत्तिद पाविदान् विदेहत्तिड़ । मुन्न तन् पावत्ताले मुनिवने कोंडुवंदु ॥ कनमोयित्त तिनि तिडोळाय् कतिडेइट्ट. नम्मै । तिमत्तान नरक्क बदांनिडन शप्पलोडं ॥१८२॥ अर्थ-हे प्रभु सुनो! अत्यंत तेजमान शरीर से प्रकाशमान यह विद्युद्दष्ट्र महापापी पूर्वजन्म में किये हुए तीव्र पाप कर्म के उदय से विमान में बैठकर इस विदहे क्षेत्र में रहनेवाने संजयंत मुनि को जंगल में तप करते समय पर्वत के शिखर पर बैठ कर तपश्चरण करते समय उन पर होकर आकाश मार्ग से जा रहा था, वह विमान उन मुनि के तप के प्रभाव से रुक गया। विमान रुकने का कारण देखने को जब नीचे उतरा तो देखता है कि संजयंत महामुनि ध्यान में बैठे हुए है । उनको देखते ही विद्युद्दष्ट्र के मन में अत्यंत क्रोध Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -STAN views ANAMITRA COM - ...' जयंत मुनि धरणेन्द्र को पर्याय को धारण करके उन उपसर्ग करने वाले विद्याधरों को नाम पाश से बांध रहे हैं । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १०६ उत्पन्न हुआ और विचारा कि पूर्व जन्म का यह मेरा बैरी है, इसको ऐसे ही नहीं छोडना चाहिये । तदनंतर उनसे बदला लेने की इच्छा से जबरदस्ती से बलपूर्वक मुनि को घसीटकर विमान में बैठाकर लाया और लाकर उसने क्या किया सो प्रव बतलायेंगे। हे बलशाली धरणेंद्र ! सुनो। पांच नदियों के किनारे पर अर्थात् गजावती, कुमुदवती, हरितवती, स्वर्णवती और चडवेग इन नदियों के किनारे पर उन को छोडकर वह विद्युद्दष्ट्र वापस लौटकर अपने नगर में पाया और पाकर वहां की प्रजा से कहा कि हमारे पट्टन के नजदीक एक भयंकर काला राक्षस आया है । वह बहुत विकराल है, मनुष्याकार है और सदैव वह मुरदे को ही खाता है और कोई दूसरी वस्तु नहीं खाता और इतना खाने पर भी उसका पेट नहीं भरत। । इसलिये आज वह राक्षस हमारे नगर में आकर भक्षण करने वाला है, इस कारण हम सब लोगों को मिलकर उस राक्षस को मार डालना ही उचित है। ऐसा हम लोगों को उस विद्यद्दष्ट्र ने कहा । पूनः यह और कहने लगा कि यह विचार मत करो कि वह हमारा क्या नहीं करेगा? वह तो आठ दिन में हम सबको खा जावेगा - इसमें कोई शंका व संदेह नहीं है । इस प्रकार उस दुष्ट विद्युद्दष्ट्र ने हमसे कहा ।।१८२।। अरिविलान् शोल्ल मयंजिनो मडैयक्कूडि । मरुविलान् द्रवत्तिन् ट्रन्मै पयत्तै नामदिक्क माटा। शिरियर् याम सैदतीमै पेरियैनी पोरुक्कल वेंडु । मिरवने येडुत्त काटा मेंडूवर पनिटु निड्रार् ।।१८३।। अर्थ - उस दुष्ट विद्युद्दष्ट्र के इन वचनों से हमारे मन में अत्यंत भय उत्पन्न हुआ। सम्पूर्ण दोषों से रहित निर्मोही निरारंभी, निस्संग, निर्दोष, सर्वसंघ परित्यागी, विषय आशा से रहित, धर्म ध्यान सहित, प्रात्मध्यान में लग्न, सद्गुणी ऐसे महामुनि के तपश्चरण के महत्व व गुणों को न जानकर अज्ञान से मूढ हुए हम विद्याधरों के द्वारा किये हुए अपराधों करना चाहिये । हमारे द्वारा किये गये घोर उपसर्ग को सहन करके संजयंत मुनि ने कर्मों का क्षय करके मोक्ष पद को प्राप्त किया। वे धन्य हैं किन्तु हम पापी लोग इस कुकृत्य से कौन सी गति में जाकर पडेंगे, यह नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार नत मस्तक होकर सारे विद्याधर धरणेंद्र से क्षमा याचना करने लगे ।।१८३॥ पुलिइनै कंडु पोक ट्रॉद पुलवायगळ पोल । मेलियव रुरैक नेंज कुळे दु पासत्तैनीकि । पलरयुं पोगविट्टि पावियें सुत्तोडु। मोलि कडलिडुव नेन्ना उडंडवनेद पोळ दिल ॥१८४।। अर्थ-जिस प्रकार व्याघ्र को देखकर हरिण आदि पशु भयभीत हो जाते हैं, कोई भी उसके सामने नहीं ठहर सकता, उसी प्रकार धरणेंद्र से भयभीत होकर सभी विद्याधर घबराने लगे और सभी ने मिलकर क्षमायाचना की। उसी समय धरणेंद्र के मन में दया मा गई और विद्युद्दष्ट्र के सभी बंधुओं को नाग फांस से छुडा दिया। किन्तु विद्यु ६ष्ट्र व Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. ] मेर मंदर पुराण मनेक विद्याधरों को नहीं छोडा और क्रोध से गर्जना करते हुए कहा कि इन सब विद्याधरों को मैं समुद्र में उठाकर फेंकूगा । १८४।। नीदि दानत्तिनालेन विनेगळं वड़ वीरन् । पादत्तामरंगळे दि परिविन्न किरिये मुद्रि। प्रादि दावत्त नामत्तमर निद्रवन नोक्कि । कोपतापत्तै नोकि गुएंकोळ कूर लुट्रान् ॥१८५।। अर्थ-देवों ने क्रम पूर्वक पाठों कर्मों को नाश करने वाले उन संजयंत मुनि की स्तुति को। तदनंतर परिनिर्वाण कल्याण को पूर्ण करके आदित्य नाम के कल्पवासी देवने धरणेंद्र द्वारा अत्यंत क्रोध भरे भाव से उन किए जाने वाले कृत्यों को देखकर मनमें विचार किया कि इस घरवंद्र की क्रोधाग्नि को शांत करने का उपाय करना चाहिये और इस प्रकार उसने कहना प्रारंभ किया:- ॥१८॥ इवन शैव कुटुमेन कोलेरेदे पोलिरुवं वेळ । इवनशद पोळ दिर् शाल वरुळ शय वेडंमंद्रि ।। इवन ट्रन्नै यनैयार इन कोवत्त किडमु मल्लर् । उदिन्न मौड़, केळा उरैक्किड़े नुरगर् कोवे ॥१८६॥ अर्थ-हे धरणेंद्र! आप मेरी बात पर लक्ष्य देकर सुनो। इन विद्याधरों अथवा विद्युदंष्ट्र द्वारा की हुई गलती की कौन सी बात है। पशु के समान रहनेवाले इन विद्याधरों ने क्या अपराध किया है, सो कहो। इस समय आपने जो इनपर क्रोध किया है यह योग्य नहीं है । प्रापको मैं इसका सभी हाल विस्तार पूर्वक सुनाता हूं, संतोष के साथ सुनो।१८६ प्रादि वेदत्त नादन पुरुविद उलगमेत्त । नीदि माववत्तै तांगि निरंद योगतिनिड्र॥ पोदिनादरत्तीन वंदार भोगवातारत्ति नार्गळ । तीदिला गुणात्ति नार्गल विनमियु नवियु वार् ॥१८७॥ प्रर्थ-प्रथम तीर्थकर भगवान वृषभदेव के दीक्षा लेने के बाद उनके साथ ही घटी हुई घटना के सम्बन्ध में थोड़ा सा विवेचन करूगा श्री आदिपुराण में प्रथमानुयोग विषय में आये हुए विवेचन को सुनो। कच्छ और और महाकच्छ के नमि और विनमि यह दो राजकुमार थे। जहां भगवान वृषभदेव तपस्या कर रहे थे, वहां वे दोनों राजकुमार पाये और अनन्य भक्ति करते हुए उनके सन्मुख खड़े हो गये ॥१७॥ वंदवरिरेवन् पावम् वलंकोंडु वनंगि वाळ ति । मंद मिनिदियु नाडु मरसरुक्कीव वन्नाळ ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १११ दिल मडिगाळ वंदन मन्ने मुक्कु । तंवपिन नंडि पोगोयें. ताळ तोत्तिनारे ॥१८॥ अर्थ -ये राजकुमार वृषभदेव भगवान को तीन बार नमस्कार करके उनकी स्तुति करने लगे। तत्पश्चात् वे दोनों राजकुमार वृषभदेव भगवान् से जो तपश्चरण में लीन थे अनेक देशों को मांगने लगे और मांगते २ कहने लगे कि हे प्रभु! आपने अन्य सभी राजकुमारों को देश, राज्य, ऐश्वर्य प्रादि बांट दिये । हम उस समय प्राये नहीं थे। इसलिये स्वामिन् ! हम अभी पाये हैं, दया करके कुछ ऐश्वर्य, देश आदि हमको भी दीजिये। इस प्रकार योग में मग्न हुए प्रादिनाथ भगवान के चरण पकड कर ये दोनों राजकुमार मांग रहे थे कि देश और ऐश्वर्य हमको भी मिलना चाहिये-हम दूर से आये हैं, और जब तक आप हमें नहीं देंगे हम यहां से नहीं जायेंगे ।।१८।। मूंड लुगमुत्तवर मुत्तिक्किळवरसा। यांड वनुत्तरत्त लंड्रमरं वाय नीये ॥ यांड वनुत्तर लंडमरंदु वंवाये । मूड लग मोतिय वार शोल्ल मुडियादे ॥१६॥ अर्थ-इस तीन लोक के समस्त प्राणी आपकी स्तुति करने आते हैं और मोक्षरूपी युवराज पद को प्राप्त करने के लिए पूर्व जन्म में पंचानुत्तर नाम के अहमिंद्र स्वर्ग में प्रापने जन्म लिया था। वहां के वैभव भोग प्रादि को भोग कर वहां से चयकर इस मध्यलोक में आकर वृषभनाथ तीर्थकर हुए। इस तीन लोक में रहने वाले सभी जीव प्रापकी जो स्तुति करते हैं उसके वर्णन करने में हम समर्थ नहीं हैं। वह स्तोत्र स्वर्गावतरण जन्माभिषेक के समय में किया हुआ है ।।१८६॥ अंतरमुडिवर मुसि किळवरसा । मंदरसिन माउशिरप्पमरं वाय नीये॥ मंदरसिन मांडशिरप्पमरंदु मन्नुलग। संदरत्तै नोक्कु मरसळिसय नीये ॥१०॥ अर्थ-शाश्वत मोक्षपुरी के अधिपति होने वाले हे स्वामी ! पापका महामेरू पर्वत पर जन्माभिषेक देवों के द्वारा किया गया। हे स्वामी! इस भूमि पर अवतार लेकर माप निर्विघ्नता से और दोषरहित राज्य का प्रतिपालन करने वाले हुए हैं ।।१०।। मारियोउंद मिला मुशिकिळ बरसाय । मावबनाय मशिद मिशेयमरं वाय नीये। मावबनाय मनिन् मिशेयरं बोय वान पुगळे । योबिय मूकलगु मेत्तवारंडो ॥१६॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] -- - - - - - मेरु मंदर पुराण अर्थ-आदि अत रहित ऐसे मोक्ष सुख को प्राप्त करने के लिए युवराज पद को प्राप्त होने वाले हे प्रभू ! आप तपश्चर्या करके घातिया कर्मों का नाश करके केवल ज्ञान को प्राप्त करने वाले हैं, इसलिये तीन लोक के समस्त जीव आपकी स्तुति करते हैं ।।१६१।। पाडिनार् पखयेल्लाम् तलइन् मेल् वीळदमन्मे । लोडुवार तामळेला मुरुगु निड़, वंदु केटार ।। पीडिनलिरव नीडान पिरंगुदार निरंकोळ शेन्नि। याडुमा नागराजनवदिया लदनै क्कंडान् ॥१२॥ अर्थ-इस प्रकार नमि व विनमि राजकुमारों ने नम्रता व भक्तिपूर्वक संगीत के साथ अनेक प्रकार की स्तुति की। इस प्रकार भक्ति व संगीत करते समय इनके राग से मुग्ध होकर आकाश में उडने वाले सभी पक्षी नीचे उतर आये। रास्ते से आने जाने वाले पथिक भी इनके संगीत को सुनकर मुग्ध होकर वहीं स्तब्ध रह गये। उस समय श्री वृषभनाथ तीर्थकर ध्यान में मग्न होकर खडे थे। इन सब विषयों को धरणेंद्र ने अपने अवधिज्ञान द्वारा जान लिया ॥१६२।। कंडवन कलैगळेलाङ कडन्दुप शांति सेड़। पंडित नोरुव नागिप्पादंवाय कैमुगात्तार् ॥ पुण्डरी गौवेन्क पोल मैयै नडिप्पान पोलक् । कोण्डदोर लेडन्तन्नालिरै वनैकुरुग वंदान् ॥१६३ ॥ अर्थ-उस धरणेंद्र ने ऐसा वेषधारण किया कि यह महान विद्वान शास्त्री हैं, उसने गले में हार-माला आदि धारण कर जहां भगवान वृषभदेव ध्यानारूढ थे उस स्थान पर वह आ गया ।।१६३॥ वंदवन् मैन्दर् सँगै वडिवुकण्डु वन्दुवानिर् । सुन्दर मलर्ग डूविइरै वने वनंगिच्चोन्ना ॥ निन्दिरकिवर्क रैवन सेन्दामरै यडिक्कि सैविलाद । वंदरं पलवू सैदोररोविलीर् पोगवेडान ॥१९४॥ __ अर्थ-वह धरणेंद्र वहां पाया और नमि, विनमि को भगवान आदिनाथ की स्तुति करते देखा । उस स्तुति व स्तोत्र को देखते हुए अत्यंत मानंदित व संतोषप्रद हुआ। तत्पश्चात् धरणेंद्र भी स्तुति करने लगा, पुष्प वृष्टि की, बाद में वह धरणेंद्र इन दोनों कुमारों को देखकर कहने लगा कि दे अज्ञानी बालकुमारों! भगवान के ध्यान में इस प्रकार विघ्न डालना, यह कार्य तुम्हारा ठीक नहीं। इस स्थान को छोडकर आप अन्य स्थान पर चले जाप्रो ।।१६४।। एन्एलुङ कुभरर सुन्ना रीरैवन्द्रन पेरुमैयामे । योन्रिमदारिदुनी पोमुङ करमत्तमेले ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ११३ यरनिलरिवि लामै युमैवन्दडेयु मेन्ड्रार् । किन्ड नी रिर्रवन्ट्रन्नयिर क्किर देन्फोकोलेरान् ॥१६॥ अर्थ-इस प्रकार धरणेंद्र के वचन सुनकर दोनों कुमार कहने लगे कि आप ही पंडित हो जो हमें शिक्षा देने आये हैं । हम आप से अच्छा जानते हैं, आपको हमें इस विषय में विशेष कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। आप जिस काम को आये हैं वही कार्य करो और जिस रास्ते से आये हो उसी रास्ते से चले जाओ। हमारे संबन्ध में और कुछ कहने को आवश्यता नहीं । यदि नहीं मानोगे तो आपका अपमान होगा। इस कारण शीघ्र यहां से चले जाओ । इस पर धरणेंद्र ने कहा कि आप भगवान के चरण पकडकर क्या मांग रहे हैं? ॥१९॥ अरसरायचिलर नाट्टियरु पोरुळोंदुमन्ने । विरमिनार कण्डं सैंदुवेन्डु वार्कोन्दुपोन्दा ॥ नरसरे नांगळेलिंग नकवणिक्कु वन्दो मेन्न । उरैसैदपोरु लिंगुण्डो वुरुवना यिरैवमिराल् ॥१९६॥ अर्थ-इन वृषभनाथ तीर्थकर ने सभी राज्य ऐश्वर्य आदि तो दे दिया और अब यहां तपश्चरण कर रहे हैं । हम दोनों राजकुमार वृषभनाथ भगवान् के पास राज्य मांगने के लिये आये हैं। इस प्रकार दोनों बालकुमारों ने कहा! इस पर धरणेंद्र ने उत्तर दिया कि तुम जिस राज्य संपदा की भगवान् से मांग कर रहे हो वह उनके पास नहीं है, वे कहां से देंगे ।।१६६॥ उलगड, रुडय्य कोमार कोंड, मट्रिल्ल येंडोर् । पलदरुदंड तीरा पळं पित्तर् नीविरेन्न । निलमेलाम् भरतनलि येवनुळं सेल्लमेंड्रा। नुलगिनुक्कुरुदि सोल्लउम्मयो विडुत्त देड्रार् ॥१७॥ अर्थ-तीन लोक के नाथ होने वाले वृषभनाथ स्वामी के पास कौनसी संपत्ति नहीं है? इनके पास सारी संपत्ति व द्रव्य भरा हुआ है। इसलिये धरणेंद्र तुम कुछ समझते नहीं हो पागल के समान दीख रहे हो। क्या वृषभनाथ स्वामी के पास संपत्ति को कमी है? कोई कमी नहीं है। तुमको कुछ मालुम नहीं है। किसी भी प्रकार की गडबड मत करो। तब धरणेंद्र ने दोनों कुमारों से कहा कि इस समय षट्खंड का स्वामी भरत चक्रवर्ती है। जो कुछ मांगना हो उनके पास जाकर मांगो। तब राजकुमार कहने लगे कि क्या संसार में तुमही विद्वान हो? हमें तुम ज्ञान सिखलाने को आये हो। जिस तरह पौरों को ज्ञान सिखाते फिरते हो वैसे ही क्या हमें भी ज्ञान सिखाने आये हो? ॥१९७॥ मरुविला गुणति नीगळ वडिप्रोडु वाक्कुंडेनु । मरिविनार शिरिईरशाळ वप्पनोरेलुम् केमिन् ।। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] मेरा नंबर पुराण पिरविन बामर् शेप्पल पेर् बुळि शेरियल पिन्सेन् । ट्रिरं बरं पिरिविडानं एळेगळियक काडर् ॥ १६८ ॥ अर्थ-तब धरणेंद्र ममि विनमि कुमारों को कहने लगा कि बेशक तुम सुन्दर व शक्तिशाली हो । परन्तु तुम्हारे में कुछ ज्ञान की कमी है ऐसा मुझे दीखता है । हे उच्च वंश में जन्मे हुए राजकुमारो ! इस संबंध में कुछ कहना चाहता हूँ ध्यान पूर्वक सुनो ! तुम लोग हमारे उपदेश को न समझते हुए भीख मांगते हुए निर्धन भिखारी के समान मालुम पडते हो ॥ १६८ ॥ • नावन पानगळ. पेटू पोदमोडुक्कु मीवि भूमि बादलार भरतनंदि देवर् कोनळित बेनुं । मेलवगळे । वरंगळ पेट्राल || यानाम् बेंडल सेग्रो मिनिउरं योळिग वेंडार् ॥ १६६ ॥ अर्थ- दोनों राजकुमार धरणेंद्र के इस प्रकार के वचन सुनकर कहने लगे कि यह भगवान् हमको अपने हाथ से कुछ भी देदें तो हमको समाधान है; परन्तु यदि अन्य कोई चक्रबर्ती पद भी दे दे, भरत चक्रवर्ती कितना भी हमको देदे, हमें कोइ समाधान नहीं है । इस प्रकार गर्जना करते हुए दोनों राजकुमारों ने धरणेंद्र से कहा ॥१६६॥ एंड मेने मन्नर् मेंदर् तं पेरुमं येन्नार् । शेंड्रबन शेशि शाबिट्टिरंजन ट्रान् शेप्पक्केट || तोंडून बंबबन पोलुबु कोंडबनि मोंगि । निनन् मुडियं पूनमामं कुळयु मित्र ||२००॥ अर्थ- - इस प्रकार नमि और विनमि की बातें सुनकर घरणेंद्र ने अपने मन में उन कामनाओं को जानकर वह भगवान् के पास गयो और कान के पास कान लगाकर खडा हो गया। यह दिखाने के लिए कि भगवान् धरणेंद्र से कुछ कह रहे हैं । घरणेंद्र से कुछ ही समय वहां ऐसा करके नमि विनमि कुमारों के पास प्राकर खडा हो गया || २०० || सुन्नतन्तुरुवं काटि मुनिवनीर्नेडिट्रिय । बेनं रुळि सेवा नेऴगनी रोन्नोडेंड ॥ मिन्दुमोर विमानमेट्रि बेदंड मबरोदि । मनराइ नाटिइट्टान् मलेनिशं यरसर विकल्लाम् ॥ २०१ ॥ अर्थ-तदनंतर वह धरणेंद्र कहने लगा कि हे राजकुमारो ! वृषभनाथ भगवान् ने मुझसे यह कहा है कि हे घरणेंद्र ! यह राजकुमार जो कुछ मांग रहे हैं उनको देदों, सो यदि तुम मेरे साथ विमान में बैठकर चलोगे तो जो भगवान् ने कहा है वह साम्राज्य मैं तुमको दे दूंगा । इस बात को सुन कर वे दोनों राजकुमार विमान में बैठकर चलने को राजी हो गए। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ११५ तत्पश्चात् वह धरणेंद्र उन दोनों कुमारों को अपने विमान में बिठा कर विजयाद्ध पर्वत पर ले गया ।।२०१॥ मलमलि वडगिर् शेडि येरुबदु करसनाग । विनमि नाट्टि पूरम् कनक पल्लवईदा । ननय्यले तेरकिर् सोडि यैवदु नमिक्कु मींदु । पुरणेवरु शक्कवाळ् मिरदन पुरते वैत्तान् ॥२०२॥ अर्थ-विजयाद्ध पर्वत पर उत्तर श्रेणी में रहने वाले सात नगरों के राजाओं पर नमि कुमार को अधिपति बनाया और विनमिकुमार को कनकपुर नगर में लेजाकर दक्षिण · श्रेणी के पचास नगरों का अधिपति बनाया। इस प्रकार दोनों को चक्रवर्ती बना दिया ।२०२। विजेगळंजुनूरु शिरयन वेळुन्नर। तंजमा ववर्गटकोंदु तानवर तम्मै येल्ला ।। मंजिनीरिवर् गळानै केटु वदिरैजिरागिर् । जिनीरेंड, कोन्मिन् मलैयुमोर् तुगळदाम् ॥२०॥ अर्थ-कुमारों ने चक्रवर्ती बनने के बाद उन दोनों को धरणेंद्र ने ५०० महाद्यिा और ७०० क्षुल्लक विद्या देकर पर्वत पर रहने वाले सभी विद्याधर राजाओं से कहा कि तुम्हारे नगर के ये दोनों कुमार अधिपति हैं। ये दोनों जैसा कहेंगे उसी प्रकार तुमको इनकी प्राज्ञा में रहना पडेगा । यदि तुम लोगों ने इनकी आज्ञा का उल्लंघन किया तो तुम्हारी संपत्ति आदि छीन ली जायेगी ।।२०३।। एंड वर्करसु नाटि इलंगु पन्नगर्क नादन् । सेंड तन् भवनम् पुकान सेळुमरिण मुडिविव् वीश । वंड तोटिंड, कार मरुळु मिर्पेट, वंद। मिद्रिगळ् तंदनंद विननि तन कुलत्ति नुळ्ळान् ॥२०४॥ अर्थ-इस प्रकार उन विद्याधरों को कहकर दोनों राजकुमारों को चक्रवर्ती पद पर राज्याभिषेक करके वह धरणेंद्र अपने स्थान को चला गया और जाते समय यह और कह गया कि यहां की परंपरा से चले आये विद्याधरों में यह ही विद्युद्दष्ट्र विद्याधर है ।।२०४।। नंजुडै मरतेयेनुनट्ट. नीरट्रियाकि । बिजिय ववनैत्राये वीट्ट द लरिदिया ॥ मेंवदि उलगिनिड़ दरिदिये नीविर् नाट। विजयर् कुलत्त मेनिबेगुळ् वदन् विडुगर्नेडान् ॥२०॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ] मेरु मंदर पुराण - अर्थ-आदित्य देव ने धरणेंद्र से कहा कि विषवृक्ष के लगाने तथा बडा हो जाने के बाद उसको काटना सत्पुरुषों के लिये उचित नहीं है, ऐसा विद्वानों का कहना है। एक कवि ने कहा है: जल न डुबोवत काठ को कहो कहां को प्रीति । अपनो सोंचो जान के यही बडों की राति ॥ इस बात को भली प्रकार मनन करना चाहिये । यह सभी को मालुम है । परम्परा से विद्याधरों में ऐसा कथन चला आया है कि किसी को किसी प्रकार का भी कष्ट देना उचित नहीं है। इसका भावार्थ यह है:- धरणेंद्र को प्रादित्य देव समझाने लगा। उस समय भगवान् के ध्यान से इन्द्र का आसन भी कंपायमान हो गया था। महापुरुषों का धर्य भी जगत के कंपन का कारण हो जाता है । इस प्रकार छै महीने में समाप्त होनेवाले प्रतिमा योग को प्राप्त हुए धैर्य से शोभायमान रहने वाले भगवान् का वह लम्बा समय भी क्षणभर में व्यतीत हो गया। इसी के मध्य कच्छ महाकच्छ के पुत्र वे दोनों राजकुमार जो आये थे वे महान तरुण व सुकुमार थे। नमि और विनमि उनका नाम था, और दोनों ही भक्ति से निर्मल होकर भगवान् की चरणों की सेवा करना चाहत थे । वे दोनों ही भोगोपभोग विषयक तृष्णा से सहित थे। इसलिये हे भगवन् ! आप प्रसन्न होइये। इस प्रकार कहते हुए वे भगवान् को नमस्कार कर उनके चरणों से लिपट गये और उनके ध्यान में विघ्न. करने लगे और कहने लगे कि हे स्वामी! आपने अपने इस साम्राज्य को पुत्र तथा पौत्रों को बांट दिया है । बांटते समय हम दोनों कुमारों को भूल ही गये । इसलिए अब हमको भी भोग सामग्री दीजिए। इस प्रकार वे भगवान् से बार-बार आग्रह कर रहे थे। उन दोनों कुमारों में उचित अनुचित का कुछ भी ज्ञान नहीं था और वे दोनों उस समय जल, पुष्प तथा अर्घ से भगवान् की उपासना कर रहे थे। तदनंतर धरणेद्र नाम को धारण करनेवाले भवनवासियों के अंतर्गत नाग कुमार देवों के इन्द्र ने अपना आसन कंपायमान होने से नमि विनमि के समस्त वृत्तांत को जान लिया। अवधिज्ञान से इस सारे वृत्तांत को जानकर वह धरणेंद्र बडे ही समारंभ ठाठ के साथ उठा और भगवान् के समीप आया। वह उसी समय पूजा की सामग्री लेते हुए पृथ्वी काछेदन करते हुए भगवान् के पास पहुंचा और दूर से ही मेरु पर्वत के समान खडे हुए मुनिराज वृषभदेव को देखा। उस समय भगवान् ध्यान में लवलीन थे और उनका देदीप्यमान शरीर तप के कारण प्रकाशमान हो रहा था। इसलिए वे ऐसे मालुम होते थे मानों वायुरहित प्रदेश में दीपक ही हो, अथवां वे भगवान् किसी उत्तम यज्ञ करने वाले के समान शोभायमान हो रहे थे, क्योंकि जिस प्रकार यज्ञ करने वाले अग्नि में माहुति करने में तत्पर रहते हैं, उसी प्रकार भगवान् भी महान ध्यान रूपी अग्नि में कर्मरूपी पाहुति जलाने के लिए उद्यत थे, और जिस प्रकार यज्ञ करने वाला अपनी पत्नि सहित यज्ञ करता है उसी प्रकार भगवान् भी कभी नहीं छोडनेवाले दया रूपी पत्नि के सहित थे । अथवा वे मुनिराज एक कुजर अथवा हाथी के समान मालुम होते थे क्योंकि जिस प्रकार हाथी महोदय अर्थात् भाग्यशाली होता है उसी प्रकार भगवान् भी महान् भाग्यशाली व महोदय थे। जिस प्रकार हाथी का शरीर ऊंचा होता है उसी प्रकार भगवान् का शरीर भी ऊंचा था। हाथी जिस प्रकार सुअंश अथवा पीठ की उत्तम रीढ सहित होता है, उसी प्रकार वे भी सुग्रंश तथा उच्च कुल. में सुशोभित थे। हाथी जिस प्रकार रस्से के द्वारा खंभे के बंधा रहता Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ११७ है। उसी प्रकार भगवान भी उत्तम व्रत रूपी रस्सियों द्वारा तपरूपी बड़े भारी खमे से बंधे हुए थे । वे भगवान् सुमेरु पर्वत के समान उत्तम शरीर धारण किए हुए थे। क्योंकि जिस प्रकार सुमेरु पर्वत प्रकपायमान रूप से खडा है उसी प्रकार उनका शरीर भी अंकपायमान रूप से खड़ा था। सुमेरु पर्वत जिस प्रकार ऊंचा होता है उसी प्रकार उनका शरीर भी ऊंचा था। सिंह, व्याघ्र आदि बड़े-बड़े क्रूर जीव जिस प्रकार सुमेरु पर्वत की उपासना करते हैं अर्थात् वे वहां रहते हैं उसी प्रकार बड़े-बड़े क्रूर जीव भो शांत होकर भगवान् की उपासना करते थे अर्थात् उनके समीप में रहते थे। जिस प्रकार सुमेरु पर्वत इदु तथा. महापुरुषों से उपासित होता है उसी प्रकार भगवान् का शरीर भी इंदु आदि महान् सत्वों से उपासित था । सुमेरु पर्वत जिस प्रकार क्षमा रूपी पृथ्वी के भार को धारण करने में समर्थ होता है उसी प्रकार भगवान का शरीर भी क्षमा धारण करने में समर्थ था। उस समय भगवान ने अपने अंतःकरण को ध्यान में निश्चल कर लिया था तथा उनकी चेष्टा अत्यत गंभार थी इसलिए वे वायु के न चलने से निश्चल हुए समुद्र की गंभीरता को भी तिरस्कृत कर रहे थे अथवा भगवान् किसी अनोखे समुद्र के समान जान पड़ते थे। क्योंकि उपलब्ध समुद्र तो वायु से क्षुभित हो जाता है परन्तु भगवान् परिग्रह रूपी महान वायु से कभी क्षुभित नहीं होते थे । उपलब्ध समुद्र तो जलाशय तथा जल है, तथा महान् जंतुओं प्रादि से भरा रहता है परन्तु भगवान् तो दोष रूपी जल जंतुओं से छुए भो नहीं गये थे। इस प्रकार वृषभदेव भगवान् के समीप धरणेंद्र बड़े आदर से पहुँचा और अतिशय तपरूपी लक्ष्मी से अलंकृत उनके शरीर को देखता हुआ आश्चर्य करने लगा और प्रणाम किया। उनकी स्तुति की और फिर अपना तेज छुपा कर दोनों कुमारों से इस प्रकार सयुक्तिक वचन कहने लगा। हे तरुण पुरुषो ! ये हथियार धारण किये तुम दोनों मुझे विकृत आकार वाले दिखाई दे रहे हो। कहां तो यह शांत तपोवन और कहां यह भयंकर आकार वाले तुम दोनों? प्रकाश और अंधकार के समान तुम्हारा समागम क्या अनुचित नहीं है ? अहो ये भोग बड़े ही निंदनीय हैं। जहां याचना नहीं करना चाहिये वहां भी याचना कराते हैं, सो ठीक ही है क्योकि याचना करने वालों को योग्य और अयोग्य का विचार ही कहां रहता है। यह भगवान् तो भोगों से निस्पृह हैं और तुम दोनों उनसे भोगों की इच्छा कर रहे हो सो यह तुम्हारी शिलातल से कमल की इच्छा आज हम लोगों को प्राश्चर्ययुक्त कर रही है। जो मनुष्य स्वयं भोगों की इच्छा सहित होता है वह दूसरों को भी वैसा ही मानता है । अरे ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो अंत में संताप देने वाले भोगों की इच्छा करता हो? प्रारम्भ मात्र में ही मनोहर दिखाई देनेवाले भोगों के वश हुमा पुरुष चाहे जितना बड़ा होने पर भी लघु हो जाता है। यदि तुम दोनों इन संसारिक भोगों को चाहते हो तो भरत के समीर जाग्रो क्योंकि इस समय वे ही साम्राज्य का भार धारण करने वाले हैं। वे ही श्रेष्ठ राजा हैं। भगवान् तो अंतरंग व बहिरंग परिग्रह का त्याग करके अपने शरीर से निस्पृह हो रहे हैं। अब यह भोगों की इच्छा करने वाले तुम दोनों को भोग कैसे दे सकते हैं? इसलिये जो केवल मोक्ष जाने के लिए उद्योग कर रहा है ऐसे इन भगवान के पास धरणा देना व्यर्थ है। तुम दोनों भोगों के इच्छुक हो। इसलिये भरत की उपासना करने के लिए उनके पास जाम्रो। इस प्रकार जब धरणेंद्र कह चुका तब वे दोनों नमि विन म कुमार उसे इस प्रकार उत्तर देने लगे कि दूसरे के कार्यों में माप को यह क्या प्रास्था है ? प्राप महा बुद्धिमान हैं प्रतः आप यहां से चुपचाप चले जाइये। क्योंकि इस सम्बंध में जो योग्य अथवा भयोम्ब है Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण ११८ ] उन दोनों को हम लोग जानते हैं, परन्तु प्राप इस विषय में अनभिज्ञ हैं इसलिए जहां भी प्राप को जाना है जाईये | यह वृद्ध हैं यह तरुण हैं यह मात्र अवस्था का ही विचार है । बृद्धावस्था में न तो ज्ञान की वृद्धि होती है और न तरुण भवस्था में बुद्धि का ह्रास ही होता है बल्कि ऐसा देखा जाता है कि अवस्था के पक जाने से वृद्धावस्था में प्रायः बुद्धि की मंदता हो जाती है । और प्रथ । अवस्था में प्राय: बुद्धिमानों की बुद्धि बढती रहती है। न तो नवीन अवस्था दोष उत्पन्न करने वाली है और न वृद्धावस्था गुण उत्पन्न करने वाली है । क्योंकि चंद्रमा नवीन होनेपर भी मनुष्यों को प्रल्हाद करता है और अग्नि जीर्ण होने पर भी जलाती है । हम होनों ही इस प्रकार के कार्य प्राप से पूछना नहीं चाहते फिर श्राप व्यर्थ ही बीच में क्यों बोलते हो ? आप जैसे निद्य श्राचाररण वाले दुष्ट पुरुष बिना पूछे कार्यों का निर्देश कर तथा अत्यंत प्रसत्य व चापलूसी के वचन कह कर लोगों को टगा करते हैं । बुद्धिमान पुरुषों की वाणी कभी स्वप्न में भी असत्य भाषण नहीं करती। उनकी चेष्टा कभी दूसरों की बुराई करने को नहीं चाहती, न दूसरों के लिये कठोर वारणी होती है । जिन्होंने जानने योग्य सम्पूर्ण तत्वों को जान लिया है ऐसे आप सरीखे बुद्धिमान पुरुषों के लिये हम बालकों के द्वारा न्याय मार्ग का उपदेश देना योग्य नहीं है । क्योकि जो सज्जन पुरुष होते हैं वे न्यायपूर्वक जीविका से प्रसन्न रहते हैं । वे कुमार श्रागे कहने लगे कि आयु के अनुकूल धारण किया हुआ यह आपका वेष बहुत ही शांत है, आपकी प्रकृति भी सौम्य है और आपके वचन भी प्रसाद गुरण सहित तथा तेजस्वी हैं, और आपकी बुद्धि इतनी विलक्षण है जो अन्य साधारण पुरुषों में नहीं पाई जाती । ऐसा यह आपका भीतर छिपा हुआ अनिर्वचनीय तेज तथा अद्भुत शरीर प्रापकी महानुभावना को कह रहा है । इस प्रकार आपका विशिष्ट विवेक भी आयु की विशेषता को प्रकट कर रहा है । ऐसे पुरुष महान भद्र होते हैं फिर भी आप हमारे कार्यों में मोह उत्पन्न कर रहे हैं, इसका क्या कारण है, यह हम नहीं जानते । भगवान् वृषभदेव को प्रसन्न करना सब के प्रशंसा करने योग्य है । यही हम दोनों का इच्छित फल है अर्थात् हम लोग भगवान् को ही प्रसन्न करना चाहते हैं । परन्तु आप उस में विघ्न डाल रहे हो इसलिए जान पडता है कि दूसरों के कार्य करने में आप उद्योगशील नही हैं । आप दूसरों का भला नहीं होना देना चाहते। दूसरों की वृद्धि देख कर दुर्जन मनुष्य ईर्ष्या करते हैं । प्राप जैसे सज्जन श्रौर महापुरुषों को दूसरों की वृद्धि से ही प्रसन्न होना चाहिये । भगवान् के वन में निवास करने से क्या उनका प्रभुत्व नष्ट हो गया ? देखो भगवान् के चरण कमलों में यह चराचर विश्व विद्यमान है । आप जो हम लोगों को भरत के पास जाने की सलाह दे रहे हो, यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो बड़े २ फलों की इच्छा करनेवाला पुरुष कल्पवृक्ष को छोडकर अन्य पेडों की सेवा करेगा, अथवा रत्नों की इच्छा करने वाला पुरुष महास ुद्र को छोडकर शिवाल (कीचड ) में होने वाले समुद्र की सेवा करेगा अथवा धान की इच्छा करने वाला पुनाल (भूसों) की इच्छा करगा ? भगवान् वृषभदेव और भरत में क्या बड़ा भारी अंतर नहीं है ? क्या मोक्ष पद की समुद्र के साथ बराबरी हो सकती है? क्या लोक में स्वच्छ जल से भरे हुऐ जलाशय नहीं हैं जो चातक पक्षी हमेशा मेघ से ही जल की याचना करता क्या उसको ग्रनिर्वचनीय हठ नहीं है ? अभिमानी पुरुष उदार हृदय वाले का प्राश्रय लेकर बड़े भारी फल की वांछा करते हैं । सो श्राप इसको उन्नति का ही आधार समझो । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ११६ इस प्रकार उन नमि विनमि कुमार के अभिमान भरे वचन सुन कर वह धरणेंद्र मन में बहुत संतुष्ट हुमा। सो ठीक ही है, क्योंकि अभिमानी पुरुषों का धैर्य प्रशंसा करने योग्य होता है । वह धरणेद्र मन ही मन विचार करने लगा कि अहा ! इन दोनों तरुण कुमारों की इच्छा कितनी बडी है, इनकी गंभीरता भी आश्चर्य-कारक है। भगवान् पादिनाथ में इनकी श्रेष्ठ भक्ति भी आश्चर्य जनक है। इनकी निस्पृहता भी प्रशंसा करने योग्य है। इस प्रकार वह धरणेंद्र अपना दिव्य रूप प्रकट करता हुआ, उनसे प्रीतिरूपी लता के समान बचन कहने लगा कि तुम दोनों तरुण होने पर भी वृद्ध के समान हो, मैं तुम दोनों को घोर वीर चेष्टानों से बहुत ही प्रसन्न हुग्रा हूं. मेरा नाम धरणेंद्र है। मैं नागकुमार पातियों के देवों का इद्र हूँ। मुझे आप पाताल व स्वर्ग में रहने वाले देवों का किंकर समझो तथा मैं आप की यहां की भोगोपभोग सामग्रो को जुटाने पाया हूँ। “ये दोनों कुमार महान क्त हैं। इन दोनों की इच्छा भोगों से पूर्ण करो" इस प्रकार भगवान ने मुझे प्राज्ञा दो है और इसी कारण मैं शोघ्र यहां पाया हूँ । विश्व को रक्षा करने वाले भगवान से पूछ कर प्राज मै तुम दोनों की बताई हुई भोग सामग्रो दूगा। इस प्रकार धरणेंद्र के वचनों से वे दोनों राजकुमार अत्यंत प्रसन्न हुए और कहने लगे कि सचमुच ही गुरुदेव हमपर प्रसन्न हुए हैं और हमको मनवांछित फल देना चाहते हैं। इस विषय में जो सच्चा मत हो वह हम से कहिये; क्योंकि भगवान् को सम्मति बिना भोगोपभोग सामग्री इष्ट नहीं है। तब उन दोनों कुमारों की बात सुनकर युक्ति पूर्वक विश्वास दिलाकर धरणेंद्र भगवान् को नमस्कार करके उन दोनों कुमारों को अपने साथ लेगया। महान् ऐश्वर्य युक्त वह धरणेंद्र दोनों कुमारों के साथ विमान में बैठकर आकाश में जाता हुआ ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो ताप और प्रकाश के समान उदित हुअा सूर्य ही है। अथवा जिस प्रकार विनय पोर प्रशम गुणों से युक्त कोई योगीराज सुशोभित होता है। इसी प्रकार नागकुमार के समान वह धरणेंद्र भी अत्यंत सुशोभित हो रहा था । वह दोनों राजकुमारों को बिठाकर तथा प्राकाश मागं का उल्लघन कर शीघ्र ही विजयार्द्ध पर्वत पर प्रा पहुँचा। उस समय बह पर्वत पृथ्वी रूपी देवी के हास का उपमा दे रहा था। यह विजयाद्ध पर्वत अपनी पूर्व और पश्चिम की चोटियों से लवण समुद्र में प्रवेश कर रहा था और भरत क्षेत्र के बोच में इस प्रकार स्थित था कि मानों उसके नापने का वह दंड ही हो। वह पर्वत ऊंचे-ऊंचे रत्नों से नाना प्रकार से विचित्रताओं के लिए हुए था और अपनो इच्छानुसार आकाश गंगा को घेरे हुए अपने शिखरों से ऐसा जान पड़ता था मानों मुकटों से ही शोभायमान हो रहा हो । पडते हुए झरनों के शब्दों से उसकी गुफाओं के मुख मापूरित हो रहे थे और ऐसा मालुम होता था कि मानो अतिशय विश्राम करनेवालों के लिये देव देवियों को बुला ही रहा हो। उसको मेखला अर्थात् बीच का किनारा पर्वत के समान ऊंचा बहां नहीं चलते हुए तथा गम्भीर गर्जना करते हुए बड़े-बड़े मेघों द्वारा चारों मोर से ढका हुमा था। देदीप्यमान स्वर्णों से युक्त और सूर्य की किरणों से सुशोभित अपनी किरणों के द्वारा वह पर्वत देव और विद्याधरों को जलते हुए दावानल की शंका कर रहा था। उन पर्वत के शिखरों के समीप लंबी धारा वाले जो बड़े-बड़े झरने पडते थे, उनसे मेघ वर्षरित हो जाते थे, और उनसे उस पर्वत के समान ही बड़े-बड़े झरने बनकर निकल रहे रहे थे। उस पर्वत के बनों में अनेक लताएं फैली हुई थीं और उन पर भ्रमर बैठे हुए थे। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] मेरु मंदर पुराण उनसे वह पर्वत ऐमा मालूम होता था मानों सुगन्ध के लोभ से वह उन वनलताओं को चारों ओर से काले वस्त्रों के द्वारा ढक ही रहा हो। वह पर्वत अपनी उपत्यका अर्थात् समीप को भूमि में देवियों तथा देवों को धारण करता था। जो परस्पर प्रेम से युक्त थे और संभोग करने के अनंतर वीणा आदि बाजों को बजाकर विनोद किया करते थे। उस पर्वत के उत्तर और दक्षिण की ओर दो श्रेणियाँ थीं जो दो पंखों के समान बहुत ही लबी थी और उन श्रेणियों में विद्याधरों के शिखरों पर जो झरने बह रहे थे उनसे वे शिखर ऐसे जान पडते थे मानों ऊपरी भाग पर पताकाएं फहरा रही हों। ऐसे ऊंचे-ऊंचे शिखरों से वह पर्वत ऐसा मालुम होता था मानो आकाश के अग्रभाग का उल्लघन ही कर रहा हो। ऐसे वह धरणेंद्र उस विजयाद्ध पर्वत की प्रथम मेखला पर उतरा और वहां उसने दोनों राजकुमारों को वहां के विद्याधरों के लोक दिखलाए। इन्हीं दक्षिण और उत्तर श्रेणियों में क्रम से पचास और साठ नगर सुशोभित हैं। नगर अपनी शोभा से स्वर्ग के नगरों को भी मात करते हैं। इस प्रकार धरणेंद्र ने उन का परिचय राजकुमारों को करा दिया और कहा कि तुमही इन विद्याधरों के नगरों के राजा बनकर इनकी रक्षा करो। इस प्रकार युक्ति सहित धरणेंद्र के वचन सुनकर राजकुमारों ने विजयाद्ध पर्वत की प्रशंसा की और फिर उस धरणेंद्र के साथ-साथ नीचे उतर कर अतिशय श्रेष्ठ और ऊंची-ऊंची ध्वजाओं से सुशोभित रत्नपुर चक्रवाल नाम के नगर में प्रवेश किया। धरणेंद्र ने दोनों कुमारों को सिहासन पर बिठाकर सब विद्याधरों के हाथों से उठाये हुए स्वर्णों के बड़े-बड़े कलशों से राजकुमारों का राज्याभिषेक कराया और विद्याधरों से कहा कि जिस प्रकार इंद्र स्वर्ग का अधिपति है उसी प्रकार ये नमि विनमि राजकुमार उत्तर व दक्षिण श्रेणियों के अधिपति हैं। अनेक सावधान विद्याधरों के द्वारा नमस्कार किये गये ये दोनों राजकुमार चिरकाल तक अधिपति रहेंगे। कर्मभूमि रूपी जगत को उत्पन्न करने वाले भगवान् वृषभदेव ने अपनी सम्मति से इन दोनों को यहां भेजा है। इसलिये सब विद्याधर राजा लोग प्रेम से मस्तक झुकाकर इनकी प्राज्ञा शिरोधार्य करें।" मादित्य देव धरणेंद्र से कहता है कि कुल परंपरा से चले हुए यह विद्युद्दष्ट्र हैं ॥२०॥ विनयर वेरिदवीरन् विदेगत्त बीत शोगम् । तनयुड वैजयंदन दुनमगनिन मुन्द्रमै ॥ किनयव नेव' मेद मनत्तिनु निनत्तिादान् । ट्रनइव शेवान वावनाइनुतडिवन फंडाय ॥२०६॥ अर्थ-जिसने कर्मों का नाश कर दिया ऐसे वह संजयंत मुनि थे। विदेह क्षेत्र के संबंधित हुए वीतशोक नाम के नगर के अधिपति राजा वैजयंन थे। उस राजा का बह जेष्ठ पुत्र है, और मैं पूर्व जन्मका उनका छोटा भाई हूं। यह संजयंत सुनि सम्पूर्ण जीवों के हित करनेवाले तपश्चरण का भार ग्रहण करने वाले हैं और विद्युद्दष्ट्र ने इनपर घोर उपसर्ग किया। इसलिए मैं विद्युद्दष्ट्र से बदला लिये बिना नहीं छोडूंगा। इस प्रकार धरणेंद्र ने मादित्य देव से कहा ॥२०६ । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण उनक्किवन् ट्रमयनाय पिरप्पु नोर्यारद दोंड़े । उनक्कु मुनिवनु माय पिरप्पेनि लुरंक्कलाट्रा ॥ विनंक्कु वित्तिट्टवेंडा वेगुळिवं पर्य पेरुक्कि मे मं । निनैतिडेर सुटुमंडि निडवरिल्ल कंडाय् ॥२०७॥ अर्थ - इस प्रकार सुनकर श्रादित्य देव कहने लगा कि हे धरणेंद्र यह संजयंत मुनि एक ही भवका मेरा भाई है। तुम जानते हो, परन्तु यह पूर्व में कितने भव धारण करते हुए यहां आया है, यह कहना असाध्य है । इस प्रकार बिना समझे विद्युद्दष्ट्र पर क्रोध करना उचित नहीं । श्राप शांति रखें और क्रोध भाव को शमन करें। वास्तविक दृष्टि से विचार करके देखा जाय तो संसार में सभी अपने बंधु हैं, सभी मित्र हैं, शत्रु कोई नहीं है। दुख दायक यह विषय भोग हैं। प्रत: विचार व भावना से किसी को कष्ट नहीं देना चाहिये || २०७ ।। वर तिरं मनलिनुं बळिई नाट्रिरन् । शरुगिलं पोलवं शायं पोलबुं ॥ मरुवियनेि वसं वरुवदल्लदङ् । कोवर, कनुर प्रोरुनाळु मिल्लये ॥२०८॥ अर्थ - जिस प्रकार समुद्र में तरंगें उठती बैठती हैं और जोर से तूफान आने पर वृक्ष पर से पत्ते उड जाते हैं, अर्थात् पतझड हो जाता है, तथा ग्रांधी से सारे सूखे पत्ते उड़कर 'इकट्ठे हो जाते हैं, उसी प्रकार अपनी छाया भी अपने को छोड कर दूसरी ओर नहीं जाती अपने साथ ही आगे पीछे चलती है और इसी प्रकार कर्म भी अपने साथ ही रहेंगे। एक दूसरे के साथ नहीं रहेंगे। प्रपने द्वारा उपार्जित शुभाशुभ कर्मों के निमित्त से उत्पन्न होनेवाले सुख स्थिर नहीं रहते सभी क्षणिक रहते हैं ।। २०८|| मिन्निनु मिगं ननि तोंड्री बदिलिन । मन्निय उमिदं मिन् मदविलादन ॥ [ १२१ सुन्नं मूलगिनु ळिले यायितु । पिक्षिय उरविदु पेरितु मिल्लये ॥ २०६ ॥ अर्थ - प्रकाश में बिजली की चमक के समान समस्त जीव जन्म मरण करते थावे । इस तीन लोक में सर्वजीव परस्पर बंधु के रूप में भी हैं, नाती तथा मित्र भी है । परन्तु वे कभी भी स्थिर होकर अपने साथ नहीं रहते, सदैव उनका संयोग वियोग होता ही रहता ।।२०६।। उबरे युरुपगंड रागुबर् । सेटूबरे शिरंवार मागुबर् ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] मेरु मंदर पुराण मद्रवरे मरित्तिरंडु मागुवर् । अटव रोरुरिमारु मिल्लये ॥२१०॥ अर्थ-इस जन्म में अपने बंधु के रूप में रहने वाले जीव परभव में अपने बंधु रूप में होकर जन्मते हैं । इस जन्म में रहने वाले विरोधी जीव अगले जन्म में विरोधी होकर जन्मते हैं। इस प्रकार प्रत्येक भव में जन्मते आए हैं। अर्थात कई भव भवांतरों में मित्र होकर जन्म लेता है, कई भवों में शत्रु होकर जन्म लेता है । अतः इस प्रकार शत्रु व मित्र इस जन्म में एक भी जीव नहीं है ॥२१०।। अरसगळे यरुनरग नागुवर् । नरकर्गळे नलवरस लागुवर् ॥ सुररवरे तोळु पुलय रागुवर् । नररवरे करु नायु रागुवर् । २११॥ अर्थ-बड़े-बड़े चक्रवर्ती जितने सुखी देखने में आते हैं, वे प्रायः अत्यंत दुख देने वाले नरक में जाते हैं। संसारी जोव इस मनुष्य जन्म में चकवर्ती राजा होकर जन्मते हैं। स्वर्ग के देव भी वहां अपनी-अपनी आयु की समाप्ति पर अथवा व्याधि आदि कष्टों को पाकर भी जन्म लेते हैं और मनुष्य पाप के उदय से कहीं काले कुत्ते भी होकर जन्म लेते हैं ।।२११॥ मंगैयरे वाळ रागुवर् । तंगयरे मरुत्तायु मागुपर् ॥ अंगवरे येडियारु मागुवर् । इगिंदु पिरविय दियल्विन वण्णमे ॥२१२॥ अर्थ-कभी स्त्री पुरुष पर्याय में जन्म लेती है, कभी भगिनी माता होती है। माता भमिनी होती है, पत्र माता के रूप में, माता पुत्र के रूप में जन्म लेता है। इसी प्रकार पिता, पुष होता है, पुत्र पिता होता है। ये सब पूर्व भव में किए गये पाप पुण्य का फल समझना चाहिये ।।२१२॥ सुद्रम पगयुमेडि रडु मेल्लया। मदिव वळक्किनान् मदिइन मांदळ् । पैट्रिय पार्कोडा पेट्र दोड्रिले। सेदम मार्वमुं शेड. निपरे ॥२१३॥ अर्थ-बंधु मित्र शत्रु विरोधी यह कभी भी शाश्वत रूप में नहीं होते। इस विषय । को भली प्रकार से जाने हुए ज्ञानी लोग अनंत सुख को प्राप्त करने के लिये सुख और दुस को समान भाव से सहन करते हैं। जैसा कि: Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंबर पुराण [ १२३ सुख दुःखे वैरिणि बधु वर्ग, योगे वियोगे भुवने वने वा। निराकृताशेष-ममत्व बुद्धः, समं मनो मेऽस्तु सदापि नाथ ॥ सुख पदुख में बैरी व बंधुनों में योग में वियोग में महल में ब बन में इस प्रकार समस्त ममत्व बुद्धि रहित होकर मेरा मन समस्त वस्तुमों में सम भावनासमान होकर रहे ऐसी भावना योगी लोग सपा भाते हैं ।।२१३॥ अनंतमाम पिरवियु लरुदव लुन । पुनरं र पगैवना यनंदं पोलुमा । लनंदमे इवनुर बागि वदवू। निनत पिन् निदु मगै युरवि नीमये ॥२१४॥ मर्थ-प्रनंत भव भवांतर में इस संजयंत मुनि के तुम अनेक समय में शत्रु और मित्रस्प से विरोधी होते पाये हो। यह संजयंत मुनि तथा विद्युद्दष्ट्र मनेक जन्मों में शत्रु पौर मित्र के रूप में संबंध करते पाये हैं । सर्व विषयों पर विचार करके देखा जाय तो यह संसार शत्रुपौर मित्रों से प्रनादि काल से परिवर्तनशील होकर चला मा रहा है। इस कारण बह दोनों ही शाश्वत नहीं हैं ॥२१४॥ येप्पिरप्पिन पगै युनक्किव नलन मुनियु मोरुरवल्लन् । एप्पि रप्पिन पगै युवर कुंडुमटर धुन किवनल्लन् । इप्पि रप्पिलिप्पग युर बुक्कु नीइप्पडि येळुवायेर । शेप्पिरंदुळि पर्ग युरखुषकु नोशंवदेन् निरु बाळा ॥२१॥ मर्थ-अनेक जन्म को धारण करने वाला यह विद्युद्दष्ट्र शत्रु के रूप में तुम्हारे लिए नहीं पाया और संजयंत मुनि के लिए मित्रता का रूप भी धारण करके नहीं पाया। इस संजयंत मुनि को पौर विधुद्दष्ट्र को पूर्व जन्म में किए हुए कर्म से यह उपसर्ग उत्पन्न हमा है। इसी जन्म में किया हुमा यह उपसर्ग हो, ऐसा समझकर उस द्वेष से उनपर तम्हारेदाराकोष करने से संजयंत मनि ने पिछले जन्म में तम्हारे पर उपसर्ग किया हो ऐसा समझना उचित नहीं। इसलिए अब मागे तुम क्या करोगे इस सम्बंध में विचार करके कहो। इसलिए हे धरणेंद्र इन पर कोष तथा उपसर्ग करना मुर्खता है, अत: उपसर्ग न करके डांति धारण करो ॥२१॥ ऐबरि बट्टन येगत्तिल वाळयिर । पस सोलि हाई बने नी विडु ।। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] मेरु मंदर पुराण मुदिन ट्रनक्क मुनिक्कनायो । रेनबुरु वेरतालिवर्षी दायदे ॥ २१६ ॥ अर्थ- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पांच प्रकार के परिवर्तनों का वर्णन कितना भी किया जावे परन्तु पूरा नहीं हो सकता । यह सब शुभाशुभ कर्मों के निमित्त से होता है, इसलिए हे धरणेंद्र ! तुम इस विद्युद्दष्ट्र को छोड दो । क्योंकि संजयंत मुनि व विद्युद्दष्ट्र के पूर्व जन्म में किए हुए द्वेष या उपसर्ग के कारण इन दोनों के बीच उपसर्ग किया गया है। इसलिए तुम इस चर्चा को छोड़ कर शांतभाव धारण करो ।।२१६ || प्रादलाल बेगुळिये पगं नमक्केलाम् । तीर लाम् विनेनार, ट्रीगति पयुम् ॥ कावलार, तन्मयु मोरु कतुत ळे । दिलाराकुमी विगळतबक दे ।। २१७ ।। 1 अर्थ - क्रोध करना शत्रु के समान है । क्रोध करने से अनेक प्रकार के दुख उत्पन्न होते हैं, बंधु व मित्र सब साथ छोड देते हैं, क्रोध से सदैव विरोध उत्पन्न होता है । क्रोध से अनेक प्रकार की हानि होती है । श्रात्मा की दुर्गति भी इसी क्रोध से होती है। सभी मित्र बांधव माता, पिता अलग हो जाते हैं, कोई साथ नहीं देता है । यह आत्मा के लिये श्रहित करने वाला है । क्रोध नरक का कारण है। इसलिए हे धरणेंद्र इस क्रोध को त्यागना ही श्रेष्ठ है; क्योंकि क्रोधी लोगों का कोई विश्वास नहीं करता न कोई उनके समीप रहना चाहता है । इसलिए तुम क्रोध को मूल से छोड दो । किसी कवि ने कहा भी है: क्रोध तें मरे और मारे ताहि फांसी होय, किंचित् हु मारे तो जाय जेलखाने में । जो कछु निबल भये, हाथ पैर टूट गये, ठौर २ पट्टो बंधी, पडें शफाखाने में । पीछे तें कुटुम्बी जन हाय हाय करत फिरें, जाय २ पांव पडे तहसील और थाने में । किंचित् हू किए तें क्रोध ऐते दुख होत भ्रात, होते हैं अनेक गुरण एक ग़म खाने में || ॥२१७॥ मट्रिवन् शेद तीमै केतुमा मुनिबने मुन् । कोद्रव नागि संव कोडुमं शैकोपत्तियाल ॥ बेट्रिवेलुंड नीर, पोलि वेरत्तिन् वीडि । इविपिरप्पिन् वेरतिवनिवं शंदवेंड्रान् ॥ २१६ ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १२५ ___अर्थ-उन संजयत मुनि पर उपसर्ग होने का कारण स्वयं सजयंत मुनि ही हैं। इस महामुनि के पूर्वजन्म में ये सिंहसेन राजा थे। इस सिंहसेन राना को दुख उत्पन्न करनेवाले, क्रोधाग्नि से जिस प्रकार गर्म लोहे के ऊपर पानी डालने से वह सभा पानो को सुखा लेता है, उसी प्रकार इस विद्युद्दष्ट्र ने अपने अंदर उस द्वेष को रख लिया था। उस देषके कारण अनेक नीच गतियों में भ्रमण करते हुए भवांतर तक संजयत मुनि को पूर्वजन्म के बैर भाव का स्मरण होने से इस मुनि को उन्होंने उपसर्ग किया। इस प्रकार मादित्य देव ने धरणेंद्र से कहा ॥ १८॥ इवर्क मुन पोन ननगु पिरप्पि लिव्विरन शंगे। मदित्तवन् पिरवि बोरुम् वैरत्ताल बानत्त इत्तान् ॥ प्रदर्केलाम् शंवदेन कोलरु दवन् ट्रिरिदु वारा। कविकनिन् ट्रानिवन ट्रन ट्रोमयार् कडएंगे ॥२१॥ अर्थ-यह संजयत मनि इस जन्म से पहले चौथे भव में विद्युद्दष्ट्र नाम का जीव द्वारा किये हुए उपसर्ग को अत्यंत क्षमा-भाव से सहन कर देवगति को प्राप्त हुमा बा। उस भव में उपसर्ग करते समय तुमने क्या किया? इस समय दीक्षा धारण करके घोर परा संजयत मूनि ने विद्युदंष्ट्र द्वारा किया गया धोर, उपसर्ग सहन करके मोक्ष प्राप्त किया। इस प्रकार मेरे द्वारा कहे गए विषय को भली प्रकार समझना होगा ॥२१॥ इंडियन् शंददेल्ला मुरुदिये इरैवर् केंड.।। निडि पुगळे वित्ति नॅड. पळि विळत्त कोंड न् । मंडियु मिवन् शैतुंबम् पोरुत्ता लगदि पुक्कान् । मोडि इम्बिरडिन् मिक्क दोंड डो उरगर कोबे ॥२२०॥ अर्थ-हे धरणेंद्र! विद्युद्दष्ट्र द्वारा किए गये उपसर्ग में संजयंत मुनि ने शाश्वत मोन को प्राप्त किया। उनकी कीर्ति तीन लोक में फैलकर शाश्वत रह गई। मोर इस संजयंत मूनि पर उपसर्ग किये गये निमित्त से विधुद्दष्ट्र काल के निमित्त से अपकीर्ति को प्राप्त हमा अर्थात् सदैव अपकोति रह गई। इसलिये अच्छे कार्य करने से अच्छा व दुरे कार्य करने से बुरा फल होता है । यह भली प्रकार समझ लो। इससे अधिक और मैं क्या कई ॥२२०॥ मॅडलु मुरग राज निरंद नाळ पिरविदोर। शेडियन् शदवेल्लाम शेप्पर देवराजन् ॥ निड़ निन्वेगुळि वेपं करुणेया ललित निड़,। बेडवर परिणतु वा नोबिनविय दुरैप्प नडान ॥२२१॥ अर्थ-इस प्रकार प्रादित्य देव के बचन सुनकर धरणेंद्र ने कहा कि पूर्वजन्म में इस वियुष्ट्र ने कौन-कौन से उपसर्ग किये सो मुझसे कहो। तब सांतव कल्प में रहने वाला Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] मेरु मंदर पुराण मादित्य नाम का देव कहने लगा कि हे धरणेद ! मैं प्रादि से प्रत तक इस विषय को कहूंगा। माप ध्यान पूर्वक सुनो। इसको सुनकर आप कोधित मत होना। इस आपके अग्निमय क्रोध को क्षमा रूपी जल से भली प्रकार से धोकर संजयंत मुनि को नमस्कार करो और मेरे पास स्थिरता के साथ प्राकर बैठ जायो। तब मैं अपने उक्तविषय को प्रापसे प्राद्योपांत कहूंगा। एडलुनिड़ कोपरि मळे इडस्ट्राल पोल् । अंडवन सोन्नविन सोन् मारिया लविंदतान् कन् । शेंड्दुतेळिवु शिद जिनवरन् शरण मूळगि । निड़नन् कमलमादि तापने पट्ट दोत्ते ॥२२२॥ मर्थ-वह धरणेंद्र प्रादित्य देव के वचनामृत से मन को शांत करके भगवान् को नमस्कार करके एकाग्रचित्त से सुनने को इच्छुक हो और जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश होतेही कमल प्रफुल्लित होते हैं उसी प्रकार धरणेंद्र अपने हृदय कमल को प्रफुल्लित करके ग्रादिन्य देव के पास खडा हो गया ।।२२२॥ निड़वन तन्नै नोकि मुनिवनु नीनु नानु । मिडिगळ दंतनोडु विलंबिय मनत्तरागि । शेंडव पिरवि तोट्ट.वंदन मिड, कारु। वंड मेंजामै केरिण युरक्किंड़ नुरगर कोवे ॥२२३॥ अर्थ-उस धरणेंद्र को प्रादित्य देव देखकर कहने लगा कि यह संजयंत मुनि, में, प्राप और विद्युद्दष्ट्र हम सब लोग पूर्व जन्म में उस भव से इस भव तक क्रम से सिहसेन पादि राजा हुए थे। विशेषतया उनका चरित्र में प्राप से कहूंगा, पाप ध्यानपूर्वक सुनो।२२३! इति संजयंत को मोक्ष प्राप्ति का विवेचन करने वाला द्वितीय अधिकार समाप्त हुअा : Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीय अधिकार ॥ मंदर नडुबदाग कुल मलैयारिनवंद । प्रदरतेळ नाडा मारु मोरे दागि । सुंदर तडंगळारिर् सूळ्दवे तिगत मागि। नंदिय मदिइ निड़ नावलं तीविनुळ्ळाल ।।२२४॥ अर्थ-प्रादित्य देव ने उस धरणेंद्र से कहा कि इस सुमेरु पर्वत के चारों ओर छह कुलगिरी पवत होने के कारण भरत क्षेत्रादि सात देश हैं और चौदह नदियाँ तथा छह सरी. वर हैं। इस महान लवण समुद्र से घिरा हुआ जम्बूद्वीप है। यह जम्बूद्वीप वृत्ताकार है, अर्थात् गोल है ॥२२४।। पाग तंडत्तै पोलुं भरत खंडत्त शंबोन । नागतुंड योक्कुं धर्म खंडरा नल्ल ॥ भोग तुंड पोलुं शीयमा पुरत्तै सूळं दु । मेग तुंडगळ् मेयुं सोल नाडुदु तिगळ् ॥२२॥ अर्थ--इस जम्बूद्वीप क्षेत्र के दो विभाग हैं, एक भरत दूसरा ऐरावत । भरत क्षेत्र में देवलोक के समान सुशोभित - इस धम खंड में उत्तम भूमि के समान अत्यंत सुन्दर और शोभायमान सिंहपुर नाम का नगर है। उस नगर के चारों ओर अत्यंत शोभायमान अनेक ग्राम हैं ।।२२५।। शियमारगरसिन् ट्रन्म सेण्ण शिरिदु केन्मो। काय माराग शेलवोर कंडपिन कउंदु पोगार ॥ तूय वान तलंश कुंड शोले कन् मांड तम्मार । शेइळे मडनल्लार पोल शित्तनु किनिय दोंडे ॥२२६॥ अथं -वह सिहपुर नगर किस प्रकार है उस विषय को मै प्रतिपादन करूंगा। प्राप ध्यान पूर्वक सुनो। उस सिंहपुर नगर में जाने वाले विद्याधर देवों की भावना उस पदन को छोडकर जाने को नहीं होती, वह ऐसा ही सुन्दर नगर है। वहां की भूमि अत्यंत निर्मल कृत्रिम पर्वत तथा राजमहल आदि के देखने से, जिस प्रकार सुन्दर स्त्री वस्त्राभरण से अलकार सहित अलंकृत होकर खडे होने से देखकर मन आकर्षित होता है, अथवा काम विकार उत्पन्न होता है, उसी प्रकार सिंहपुर नगर को देखकर देवो तथा विद्याधरों का मन मोहित होता है ॥२२६।। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] मेरु मंदर पुराण शेप्पिय नगकुं नवन शीय माशेन् नेवान् । बेप्प निडराद वेलान वेबर बैंड पेट्रि।। कोप्पुमै इडि निडानुव बिकर पगत्तै योप्पान् । तुप्पुरळ तोंडवायार सोळ वेळु कामन कंडाय ॥२२७॥ अर्थ-पीछे कहा हुआ वह सिंहमेन महाराज, उसी सिंहपुर नगर के राजा थे । जिन्होंने सम्पूर्ण शत्रु राजाओं को जीत लिया था जिससे चारों ओर उनकी कीर्ति फैल गई थी। वे उपमा रहित अपने राज्य का परिपालन करते थे। कल्पवृक्ष के समान सम्पूर्ण जीवों पर करुणा भाव रखते थे। अनेक प्रकार धन धान्य दान प्रादि से प्रजा की सहायता करते थे। सभी स्त्रियों को मुग्ध करने वाले मन्मथ के समान थे। इस प्रकार प्रादित्य देव धरणेंद्र को कह रहे हैं ।।२२७॥ वुरण मिदिलंगु वै वेल मन्नव नुळ्ळस ळळाळ । तेनुमिदिलंगु मैं पार दृविया निरामाय दत्ते॥ वानुमिळ दिलंगु मिन् पोलवरम् नुननिडयाळ पारि । तानुमिळ तमिळ्दु पद कलसं पोट्रनत्ति नाळे ॥२२८॥ अर्थ-अत्यंत प्रकाश से युक्त हाथ में प्रायुध को धारण करने वाला सिंहसेन राजा पा। मेघ के रंग के समान उनके शिर के केश थे जो बिजली के समान चमकते थे। उनकी पटरानी अत्यंत सुन्दर शरोरवाली तथा वस्त्राभरण से प्रकाशमान थी। जिस प्रकार क्षीर समुद्र के रस को सोने के कलशों में भरकर रखा हो उसी प्रकार उनके स्तन भरपूर थे। ऐसी सुन्दर उन सिंहसेन महाराज के रामदत्ता नाम की पटरानी थी।॥२२८॥ वेद नान्गगं मारु पुराण, विरिक्कू सल्लिर् । ट्रीदिला सत्तियगोडनामं श्री भूतियेबान् ॥ पोदुला मुडिनानू कमैचनाय पुनरंदु पिन्न । तीदिला मगट्रि वैयं शेध्विपार काकुनाळाल ॥२२६।। अर्थ-चार वेद, छह पुराण, द्वादशांगादि शास्त्र, अठारह पुराण और उपपुराण को कंठगत करके निर्दोष वचन से सभी को उपदेश करने की सामर्थ्य से युक्त सत्यघोष नाम का ब्राह्मण उनका मंत्री था। उनका अपर नाम शिवभूति था। वह सिंहसेन राजा. मंत्री सहित प्रजा का परिपालन करता था। ।।२२।। पनशंख निधिक्किड मायदु । पाषंड मेनप्पगर्मा नगर । मद्र तन् कन् वनिगरुवन् नुळन । सोर कडंद कोडक्क सुबत्तने ॥२३०॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मदर पुराण [ १२६ अर्थ-उस सिहपुरी नगरी में पद्मशख नाम का एक छोटा नगर था। जिसमें पमनिषि, शंखनिधि प्रादि नव प्रकार की निधि सहित कल्पवृक्ष के समान दान में दूर सुदक्ष नाम का एक वैश्य रहता था ॥२३॥ मद्रवन् दन मनक्कु विळक्क नाळ । सुद्र नम्मे नामम् सुमितिर । विकुणि पुर्व तोळिर् वेकनाळ । कपलंद मोर कामह वल्लिये ॥२३॥ अर्थ-उस सुदत्त वैश्य के घर में दीपक के समान प्रकाशमान, धनुष के समान भृकुटी बाली, लता के समान नेत्र, फूल के समान प्रत्यंत कोमल शरीर वाली सुमित्रा नाम की उसकी स्त्री थी। वह स्त्री महान चतुर गुणवान थी। कहा भी है: उच्च कुलीन स्त्रियों के लक्षण:साध्वी, शीलवती दया, सुमति दाक्षिण्य लज्जावती । तन्वो पापपराड्.मुखी स्थिरमतिमुग्धा प्रियालापिनी। देवे सद्गुरु-शास्त्र-बंधु-सज्जनरता यस्यास्ति भार्या गृहे । तस्यार्थागमं काम-मोक्ष-फलदाः कुर्वीत पुण्याप्रियाः ।। साध्वी, शीलवती, दयावती, वसुमती, चतुर, लज्जावती, तन्वी, पाप से पराङ्मुख मुग्धा, कम बोलने वाली, देव, शास्त्र, गुरु में भक्ति रखने वाली, बन्धु बांधवों से मित्रता रखने वाली ऐसी स्त्री जिसके घर में होती है उसको चारों पुरुषार्थ सहज ही में प्राप्त हो जाते हैं और सभी मंगलमय करने वाली होती है । ऐसी सुयोग्य वह सुमित्रा नाम की स्त्री उस वैश्य की थी।॥२३॥ अंपियु मगल वानु मुन्नाळिनाल । ईदुवे पयंवानगी विरुवरुन् । मैंदन पयंदार मदिपोल वळर । वंत मिनुवमै किड मागिनान् ॥२३२।। सुरैदकार मुगिल पोल सुदत्तनेन । दिव वडिल तोर बळित्तवन् । परंदुलाम पेयर् भद्रमित्रने । मरंदै तीर्थ लिनामेन प्रोदिनान् ॥२३३।। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] मेरु मंदर पुराण अर्थ-जिस प्रकार पूर्णमामी के चद्रमा का प्रकाश सदेव शांति को देता है उसी प्रकार जगत में प्रकाश करने वाले उन दोनों दम्पति के एक पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ। वह पुत्र पूर्णिमा के चंद्रमा के समान शनैः २ वृद्धि का प्राप्त हुआ। वह महान तेजस्वी तथा बडा माशकारी, माता-पिता को अत्यंत संतुष्ट करने वाला था। उस पुत्र का नाम भद्रमित्र रखा गया। तदनन्तर नाम कर्म संस्कार के निमित्त से उन्होंने अनेक याजक जनों को दान देकर उनकी कामनाएं पूर्ण की ।। २३२ ॥ ३३ ॥ कलरनिबं कामरु कनियर । मलेवि निवमु मुत्तेंडु मामरिण । विलइनिबमुं वेंडिनर कीमतुम् । तले बमुं तानव नैदिनान् ॥२३४॥ अर्थ-तदनन्तर उस बच्चे को विद्याध्ययन हेतु एक ज्ञानी प्रोहित-ब्राह्मण के पास भेजा और अनेक प्रकार की विद्या व कला, व्याकरण निघंटु, न्याय, प्राप्त-पागम आदि शास्त्रों का अध्ययन कराके ज्ञानी पंडित बनाया। तत्पश्चात् पूर्णतया विद्या सीखकर वह लडका अपने घर पाता है । सयाना होने पर एक योग्य धर्मात्मा की सुशील कन्या के साथ उस पुत्र का विवाह कर दिया। विवाह के पश्चात् थोड़े दिनों में संसारी भोगों को तथा विषय सुखों का अनुभव करता हुआ वह भद्रमित्र अनेक प्रकार के रत्न मोतो माणक प्रादि के ज्ञान में भलीप्रकार निपुण हो गया; और एक महान् श्रेष्ठी, व्यापारी हो गया। अनुकूल सम्पत्ति ऐश्वर्य । प्रादि इस जीव को प्राप्त होना तथा उत्तम सत्पात्र उच्च कुल आदि मिलना पूर्व जन्म में उपाजित पुण्य के फल से प्राप्त होता है, ऐसा ममझना चाहिये । इसी पुण्यफल से उसको यह संपत्ति और संतति प्राप्त हुई थी ।।२३४॥ पडंकडंदनि तंगिव वलगुलुम् । कुडंग ये यळवळ ळ कोळ गर्नु । बडंसुभंबळ कोंगयु मंगयर । नुडंगु नुन्निड युन्नुगर वैदिनान् ॥२३॥ अर्थ-वह भद्रदत्त स्त्रियों के अनुकूल जो भी प्राभूषण जेवर प्रादि चाहिये था यह सभी घर में तिजोरी में भरा हुआ रखता था । अर्थात् रत्नादि प्राभूषणों से घर भरा पूरा था और वे दम्पति संसार सुख को पुण्य के प्रभाव से भोगते थे। लक्ष्मी उनके चरणों में लौटती थी ।।२३।। वळ सुरु गिडिन मानिधियं पलो। रळंदु कोंडुण कापडि तानेळ ॥ ळलं शैदिप मुळ पोळ, कोंडु पोय । विळंगु मा मरिण तीवदु मेदिनान् ॥२३६॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरु मवर पुगरण [ १३१ अर्थ-वह भद्रमित्र मन में बैठे २ विचार करता है कि व्यापार करके धन की वृद्धि करना चाहिये। न्याय पूवक यदि धन नहीं कमाया जावेगा तो पेट कैसे भरेगा, तथा बन्धु बांधव से प्रेम भाव कैसे रहेगा? उनका भोजन सत्कार कैसे करेंगे? यदि न्यायपूर्वक धनोपार्जन दान न करेंगे तो परपरा से चला आया गहस्थ धर्म व मनि धर्म कैसे चलेगा? और प्रागे चलकर बडा कष्ट सहन करना पडेगा। इस प्रकार वह वरिणक पुत्र व्यापार संबंधी अनेक सामग्री द्रव्य मादि लेकर रत्न नामक द्वीप में गया ।। २३६ ।। शेंड, शात्तेड तोविन शेंद वन् । बंड़, वारिणवत्सार पेट्र रुवियम् ॥ मंड मादवर कैपिट्ट वसि याल । नि भोग निलं पेट बोक्कुमे ॥२३॥ मर्थ-जिस प्रकार एक सद् गृहस्थ महातपस्वी मुनि के माहार दान के फल से उत्तम भोग भूमि में जाकर उत्तम भोग भोगता है उसी प्रकार उस बद्रमित्र ने खूब व्यापार करके दान धर्म के द्वारा अधिक संपत्ति को प्राप्त किया ॥२३॥ पुग्गिय मुदयंशव जोळ दि निल। एणिलाद पोरकुर्व याययं ॥ नन्नु मेंडळ नाव नरहनु । कन्नले येडुत्तिन्दु बाइनान् ॥२३॥ अर्थ-बिना पुण्य के संपत्ति नहीं मिल सकती। महंत भगवान की यह वारणी है कि बो जीव माहार, औषध, शास्त्र और प्रभय ये चार प्रकार के दान उत्तम, मध्यम. जघन्य पात्रों को देता है, वह क्रम से उत्तम गति को प्राप्त होता है। प्रौद दूसरे भव में अपने मन के अनुकूल सर्व प्रकार की भोग सामग्री पाता है । इस उदाहरण के लिए भद्रमिक सेठ ही है । क्योंकि इन्होंने पूर्व भव में उदार चित्त से चार प्रकार के दान को विधि पूर्वक सत्पात्रों को देकर उनकी सेवा की थी, जिससे ऐसी निधि माज इनको प्राप्त हुई है । ऐसे अन्य कई उदाहरण मिलते हैं । पाहार दान से श्रीसेन राजा तीर्थकर पद को प्राप्त हुमा है । शास्त्र दान से ग्वाला का जीव कुदकुदाचार्य का पद प्राप्त कर श्रुत-केवली हुमा है । मभयदान में शुकर का जीव मुनि को अभयदान देकर देव पद प्राप्त करके वहां स चयकर भगवान कृष्ण को पट मरणी का जीव पाया है। और प्रौषधदान से रोग की चिकित्सा करके श्रोकुष्प का जीव तीर्थक र पद को प्राप्त हुआ है । यह सब पूर्व जन्म के पुण्य का फल है ।।२८। मरिणयुमुत्त वरमुं शेंदन । तुनियु नल्लगिनु तुगिरपिर ॥ मरिणयुतूरियु कोंडु वरुवमं । इनयिल शीय पुरमदै मेदिनान ।।२३।। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] मेरु मंदर पुराण अर्थ-वह भदमित्र श्रेष्ठी रत्न, मोती, अमूल्य द्रव्य तथा चंदन मादि अनेक सुगंपित वस्तुमों का संपादन करके रत्नद्वीप से जहाज में भरकर रवाना हुमा और अपने पट्टन में वापस पाते समय रास्ते में सिंहपुर नगर में गया ॥२३६ । मिक्क लाभत्तिन् मेविन सिंदयान । शक्कर बान मेनत्तिाळ मोरिणयान ॥ दिक्कनर तिगळद दोर देशिनार् । पुक्कनन् पुरं वंदेदिर् कोळ ळवे ॥२४०॥ प्रर्थ-उस नगर में रहने वाले व्यापारी लोग उम भद्रमित्र को देखकर विचार करने लगे कि यह तो हमसे भी वा व्यापारो है, और उसका भली प्रकार सम्मान पूर्वक स्वागत करके नगर में ले गये ॥२४०।। अन्नगरिनळगुपेरुमयु। मन्नन मयु वारिणवत्त ताकमु॥ सोन्न वैतिर ळामयुम सोरर्दा । मिन्मयुं कंडिरिक्कयु मेविनन् ॥२४१॥ मर्थ-उन भद्रमित्र ने उस नगर में प्रवेश करने के बाद चारों ओर नगर में जाकर देखा कि वहां बडी २ हवेलियां हैं, लबी गलियां और रास्ते हैं, उनको देखता हमा. उस नगर में राज करने वाले राजा का गुणानुवाद करते हुए मन में यह विचार करता है कि यह नगर व्यापार के लिये बडा योग्य है, और नगर की प्रजा राजा की आज्ञा के अनुसार चलती है। इस प्रकार उसने राजा व प्रजा को प्रशंसा की। इस नगर में कोई दृष्ट चोर डाकू लुटेरा, परस्त्री लंपटी, व्यसनी व दुराचारी लोग नहीं हैं। ऐसी मन में भावना करके अत्यंत आनंदित होकर व्यापार करने के लिए इसी नगर में रहकर अपना व्यवहार बढाना चाहिये। ऐसा मन में निश्चित किया ॥२४॥ मट्रिम् मानग रत्तिलिव वान पोरळ । प्रभाग नल्लार् कैयित् वैत्त्परिण। पद्मशंडम यदैदियोर पागिले । सुटमुमळं तेन्वळि तोक्क पिन् ॥२४२॥ पोडिनार् पेयर्विंगु वदोगिय । माडमानगरत्तिड वाळ कमेल् ॥ प्रोडुमुळ ळत्तनोन् पोरुळ वैपिडम् । तेडुवान् शिरिभूतियै नन्निनान् ।।२४३॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ १३३ अर्थ-तत्पश्चात् वह भद्रमित्र वणिक विचारता है कि सिंहपुर नगर में अपने द्वारा संपादन करके लाये हुए अनेक प्रकार के रत्न मोती, माणक आदि को वहां के किसी सत्पुरुष के पास रखकर के अपने जन्म क्षेत्र पद्म शंख नाम के नगर में जाकर अपने बंधु बांधवों को वहां से लाकर एक सुन्दर विशाल भवन बनाकर रहूंगा। यह सोचकर वह अनमोल मोती, माणक, रत्न को रखने के लिए वहां के राजा के सद्गुणी शिवभूति अपरनाम सत्यघोष नाम के मंत्री के पास गया ।।२४२।।२४३।। मिक्क शोति यन् वेवियन् वेद' । तक्क मदिरि शत्तिय कोडनेन् । ट्रेक्कदै पुराणं सुरुदि पोरुळ । वक्कनिप्पवन मानव नल्लने ॥२४४॥ अर्थ-वह भद्रमित्र उस मंत्री को देखकर विचार करता है कि यह जाति से उत्तम ब्राह्मण है और सिंहसेन राजा का मुख्य मंत्री है। सदैव सत्य बोलता है । धर्म शास्त्र का भली प्रकार मनन किया है और संपूर्ण धर्म शास्त्र को सुना है-शास्त्री है। यदि इनकी ओर देखा जावे तो यह मनुष्य नहीं है, बल्कि इन्द्र के समान देवता है ।।२४४ । तक्क दोड्रिवन् के पोरुळ वैत्तलेन । ट्रक्कनत्तोरु पाउडमींद पिन् । मिक्न मासनम् वींद दोळ पोदिनिर । ट्रोक्ल तन् करुमम् सोल मद्र वन ॥२४॥ अर्थ-इस प्रकार मन में विचार करके भद्रमित्र ने अपने पास के संपूर्ण रत्नों के भरे हुए संदूक में से एक रत्न मंत्री को भेंट करके नमस्कार किया। तत्पश्चात् मंत्री की सभा के रहने वाले सभी लोगों के उठकर चले जाने के बाद अपनी चरचा के बारे में प्रार्थना की। सत्यघोष ने बणिक की बात सुनकर विचारा कि बिना मांगे ऐसा मनोज्ञ सुन्दर एक रत्न मुझको मिल गया बड़े भाग्य की बात है। और रत्न पाकर वह मंत्री अत्यन्त प्रसन्न हसा । ॥२४५। वैत्तल कोडल वळंगिडन मायत्तिडल् । तुइत्तल माट्र लिरुद विडसोलल ॥ इत्तिरत्त पिरन् पोरुळ मेर् सेल । सित्तं वैत्तलुं तीविन केदुवे ॥२४६॥ अर्थ-वह मंत्री सभी बातों को सुनकर कहने लगा कि हे भद्रमित्र! दूसरे की संपत्ति को अपहरण करना, रखी हुई संपत्ति को वापस देने से इनकार करना, अन्य की अमानता संपत्ति को स्वतः उपयोग में लेना, रुपया लेकर मांगने पर मना आदि २ ये सब पाप के कारण हैं । यह समझ लो ।।२४६।। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] dhajamisint s मेरुमंदर पुराण परिंदा यावरु । निड्रडा पोळदेन कैई नोटेन ॥ अंड्र वन् कैयरुम् पोरुळ वंत्तपिन् । सुंदर् पुग मोई' बनो मोर्व नाम् ॥ २४७॥ अर्थ- - इस प्रकार मंत्री की बात सुनकर उस भद्रमित्र ने मंत्री को नमस्कार किया । पुनः वह मंत्री भद्रमित्र से कहने लगा कि हे वणिक यदि तुम अपने रत्न ग्राभूषण आदि मेरे पास रखना चाहते हो तो ऐसे समय में लाकर रखना, जिस समय में मैं एकांत में रहू, और कोई भी देखता न हो । तब उस भद्रमित्र ने मंत्री की बात मानकर अपने पास जितने भी रत्न, प्राभूषरण वगैरह थे वे सब सत्यघोष मंत्री को दे दिए। और कहने लगा कि अब मैं अपनी जन्मभूमि पद्मशंख नगर में जाकर अपने बंधुत्रों को लेकर आता हूँ ।।२४७|| वेगळ, वेंदु वेडित्ति मोसैयुं । पाय कळ्ळि परर पोडि योशयुं ॥ श्रायतन कुळलोसेयु माले गळ् । पायु मोसेयु पाश्विरि योसैयुं ॥ २४८ ॥ नगर की ओर गया तो रास्ते में बांस के वृक्ष थे । आपस में उन अनेक गडरिये उस हरे भरे वन अर्थ- वहां से प्रयारण करके जब वह पद्मशंख अनेक प्रकार के भयानक जंगल आदि मिले । उन जंगलों में बांसों के टकराने से भयानक अग्नि प्रज्वलित हो रही थी । में बकरियां चराते थे । प्रनेक प्रकार की बांसुरियां बज रही थीं जो कानों को मधुर लग रही थीं । गडरिये किलोलें करते थे । जिस प्रकार गन्ने को मशीन में डालकर पेरा जाता है और उसकी ध्वनि निकलती है वैसी ही आवाजें हो रही थी । इस प्रकार उन वन के अनेक दृश्यों को देखता हुआ वह भद्रमित्र आगे बढ़ता जा रहा था ।। २४८ ।। इन श्रोस इयंब निलंदोरु । पनरु पद्मषंड मदैदि नान् ॥ मन्नम् सुट्रमे लामर कोंडु पोय । तुन्निनान् शियपुरमदु तोंड्रले ॥ २४६ ॥ अर्थ - इस प्रकार वह भद्रमित्र सेठ अनेक प्रकार के मधुर शब्द जंगल में सुनता हुआ शीघ्र ही थोडे समय में अपनी पद्मशंख नगरी में जा पहुँचा, और वहां से अपने बंधु बांधवों को साथ लेकर वापस लौट कर सिंहपुरी नगरी में आ गया || २४६ ।। वळ वरुत्त मोळित्तवन् वाकिळै । कळिविलाद विब येळित्तिरिदित् ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १३५ तोळ्द के शेंड मैच्चाने तुन्निनिन् । ट्रेळिलपर शिल विन् मोळि कूरिनान् ॥२५०।। अर्थ-उस भद्रमित्र ने सिंहपुरी नगरी में प्राकर एक महल में अपने बंधनों को ठहरा दिया और कुछ दिन पाराम करके अपने रत्नों को वापस लेने को उस सद्गुणी शिवभूति मंत्री के पास जाता है पार जाकर वहां अनेक प्रकार की स्तुति करता है ।।२५।। शेपमु पुगंळु मरि सिदैत्त । दोप्पिलाद पिरप्पै युडैत्तिडा ।। शेप्पिन मरिण मेन् मनं शिक्कुना। वोप्पिलान उरैप्पदर् कूकिनान् ।।२५१।। मायं शैद मरच्चप्पैनै यवन् । मायमिल्लवन् द्रनमरिण शेप्पिनै ।। मायं शैदु कोळक्कु मनात्तिना। मायनेशिल वायु से प्पिनात् ॥२५२॥ अर्थ-तब वह शिवभूति मंत्री भद्र मित्र से पहले के समान मृदुवचन न बोलकर दुष्परिणाम से बोलने लगा। उसके मन में कुटिलता की भावना जागृत हो गई और अनेक २ प्रकार से असभ्य वार्तालाप करना प्रारंभ कर दिया कि मायाचार व कपट करने वाला मनुष्य मायाचारी दुराचारी होता है ।। २५१ ।। २५२ ।।। एंगुनी युळे यावनी मट्र नी। एंगु पोवदेन सोलवेंदखें । वगमीदु वंदड्र, मरिण चेप्पु । तके तंदु पोंम् वारिणगनानेंड्रान् ॥२५३॥ अर्थ-पुनः वह मंत्री कहता है कि मैं तुझे नहीं जानता, तू कौन है, कहां से आया है, किस ग्राम में रहता है, कहां को जाना है ? तब आश्चर्य चकित होकर वह भमित्र कहने लगा कि हे मंत्री ! मैं कई दिनों के बाद आया हूं। रत्नों की पेटो मापके पास रखकर मैं अपने पद्मशंख नगर बंधु बांधवों को लेने चला गया था। माप पर मेरा पूर्ण विश्वास है और मेरा नाम भद्रमित्र है ।।२५३।। सेप्पन सेप्पिइट्ट देन सेप्पन । मोप्पिलाद मरिण चेप्पु वैत्तदु ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] मेरु मंबर पुराण तप्पिलीर् मरंविट्ट दोबानेन् । येप्परि पित्तनो वेड. रत्तनन् ॥२५४॥ मर्थ-सदनंतर भद्रमित्र की बात सुनकर मंत्री कहने लगा कि हे वणिक् ! क्या मेरे पास तुमने रत्नों की पेटी रखी थी? भद्रमित्र ने उत्तर दिया हां! तब मंत्री ने कहा तुमने मेरे पास पेटी कब रखी थी? भद्रमित्र ने कहा कि मैंने आप ही के पास तो पेटी रखी थी क्या आप भूल गये ? तब मंत्री ने कहा कि तुम मूर्ख और पागल तो नहीं हो । मेरे पास रत्नों की पेटी कब रखी थी। सचमुच तुम बावले तो नहीं हो ? मेरे को तुम्हारा परिचय ही नहीं है, फिर तुम एकदम पाकर यह कहते हो कि मै रत्नों की पेटी रखकर गया था। तुम असत्य बोलते हो ॥२४॥ पॅड. नानुन कंडरि येनिनि । मंड वेन के मरिण चेप्पु वैत्तनाळ ॥ निंद्र शांदळ वागि नोकाटिनाल । वंड. मंडि म.न नोडे पोगुमे ॥२५५।। अर्थ-शिवभूति मंत्री फिर पूछता है कि भद्र मित्र ! यदि तुमने मेरे पास रत्नों की पेटी रखी है तो बतानो किसके सामने रखी थी। कौन साक्षी है ? जिनके सामने तुमने पेटी रखी हो उनको मेरे सामने लामो, तो मैं मान लूगा, वरना फौरन तुम यहां से चले जाओ। ऐसा डांट-डपट कर उसको भगाने लगा ॥२५॥ नंड शालवु नंबिनिन पेरिनु। कोंडवे युरै ताद्द सोप्पु वैत्तनाळ ॥ भंड मिड: मलदुळ नाळि नाल । येंड, मेन्न नी कंडदु मिनये ॥२५६।। अर्थ-इस बात को सुनकर भद्रमित्र कहने लगा कि हे मंत्री ! तुम सब मंत्रियों में श्रेष्ठ हो, तुम्हारा नाम सत्यघोष है । जिस समय यह पेटी मैं रखकर गया था उस समय तुम और मै दोनों ही थे, और कोई नहीं था। जिस समय मैं पेटी रखने पाया था उस समय आपने यह कहा था कि जब कोई नहीं हो उस समय रत्नों को लाना । सो मेरी रत्नों की पेटी आप के ही पास है । पेटी रखने के बाद प्राज ही मैं वापस लेने आया हूं ॥२५६।। सांड.डिन सत्तिय कोडराम् । प्रांडूनीरांड्रि इन्ने यडि यावकुं॥ तोंड्रिडा मै तरवेंड, सोन नाळ । शांड, वेंड़. जडत्तै परिविलेन ॥२५७॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण अर्थ-हे शिवभूति मंत्री ! आप यदि मुझसे साक्षी चाहते हो तो आप ही मेरे साक्षी हो । दूसरी यह बात है कि आपने यह कहा था कि यदि तुम्हें रत्न देना हो तो एकांत में लाकर देना । इस कारण मैंने एकांत में लाकर पेटी प्रापको दी थीं। ऐसी हालत में तुम्ही साक्षी हो और कोई साक्षी नहीं। तुम्हारी बुद्धि में कोई फेरफार दीखता है । काच और कंचन रत्न आदि यह सभी समय पर मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट कर देते हैं। पाप का बाप लोभ ही है । इस काच और कंचन के लोभ के कारण ही बडे २ जीव नरक में जाते हैं। संसार में सबसे बलवान धन और रत्न हैं । आपकी बुद्धि पर भी रत्नों की पेटी माने पर कुछ फर्क पड गया है। ऐसा दीखता है ॥२५७॥ कनमदोंड्रिले कन पुदतिट्टळ । पिनमवागु मिव्वाळकैयै पेनुवान् ।। अनिगळामरी उस पुगुळं केड । मरिण कन्मेन् मनम् वैत्तदोर मायमे ॥२५८।। अर्थ-एक ही क्षण में यह आत्मा इस शरीर को छोड़कर जाने वाली होने पर भी इस मोह के कारण बंध, मित्र, बांधव आदि की रक्षा करने के लिये प्रात्मा के अच्छे प्राभूषण अथवा जेवर के रूप में सम्यकदर्शनादि गुण तथा लौकिक गुणों का नाश करके रत्नों का इस प्रकार अपहरण करना यह भारी अज्ञानता है, विचार करें। आप सद्गुणी व श्रेष्ठ हैं। इस प्रकार की भावना रखना आपके लिए उचित नहीं हैं ॥२५८।। शैव नंडि शिदैत्तर तेरिनार । कैद वंजन शैदु पिरर मनै । मैय लान मगिळ्वार् किंद मन्मिशै । यैदिडा पळिइन्मै यरिइरो॥२५॥ पिरर् पोसुळ वैत्तल कोडल पिरर् तमक्कीदन माट्न् । मरमेन वेंड, सोन्ने वाय मोळि मरंदिट्टिरो॥ तिरमल दुइक्क वेंडाम् सेप्पु कोंडिरुप्प देडि। मुरै मुरै पित्तनाकि मुडिंद नीर मोगत्ताले ॥२६०॥ अर्थ-हे शिवभूति मंत्री! किसी वस्तु को लेकर गुप्त रूप से अपने पास रखना, अपहरण करना, दूसरों की वस्तु को लेकर वापस न करना ये सभी पाप के कारण हैं । ऐसा उपदेश आपने ही तो दिया था जिस दिन कि मैंने रत्नों की पेटी प्राप के पाप रखी थी । क्या आप अपने उस उपदेश को भूल गये हो ? रत्नों के मोह से आप मुझे ही उल्टा पागल बना रहे हो, क्योंकि शास्त्रों में यह भी कहा है कि Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] मेरु मंदर पुराण ~ ~ -.- -- - - - wwwwwwwwwwwww "मिथ्योपदेश-रहोम्यारव्यान-कूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः । स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्ध राज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहारा: ।। .. अर्थात्-झूठा उपदेश देना, स्त्री पुरुष की एकांत की बात की बात को प्रकट करना झूठे दस्तावेज प्रादि लिखना, किसी का धन अपहरण करना, हाथ चलाने आदि के द्वारा दूसरे के अभिप्राय को जानकर उसे प्रकट कर देना, चोरी करना, चोरी के लिए प्रेरणा करना, चोरी की वस्तु खरीदना, राजा की आज्ञा के विरुद्ध चलना, टैक्स वगैरह नहीं देना, देने लेने के बांट तराजू को कमती बढती रखना, बहुमूल्य वस्तु में अल्प मूल्य की वस्तु मिलाकर असली भाव से बेचना। इस प्रकार का जो उपदेश आपने दिया था कि यह सभी पाप के कारण हैं क्या तुम यह सब भूल गये ? यह सब योग्य है या अयोग्य है, तुम विचार करो। इस प्रकार मिथ्या बात करना ठीक नहीं है। ऐसा भद्रमित्र ने कहा ।। १५९ ।। २६० ॥ येंडलु मेळुवं कोयत्तेरि यरि येन प्रोडि । पोंड, मा रडित्त निडार् पुरप्पड तळ्ळ पोंविट् ॥ डंडव नडित्त शेप्पु कोंडवर कवल मुद्र। शेंड़ वन ट्रेवदोरु शिल पगल पूलिट्टान ॥२६१॥ अर्थ- इस प्रकार भद्रमित्र की बात सुनकर वह शिवभूति मंत्री प्रत्यंत क्रोधित होकर कहने लगा कि अरे धूत ! अपना मुह बंद कर, व्यर्थ क्यों बक रहा है। क्षण भर में तुझको प्राण दंड दे दूंगा। ऐसा कहकर अपने कर्मचारी को बुलाकर आज्ञा दी कि तुम इस दुष्ट को शीघ्र यहां से निकाल दो। तब कर्मचारियों ने मंत्री की आज्ञानुसार उस भद्रमित्र को मारपीट कर बाहर निकाल दिया। वह बेचारा भद्रमित्र दुखी होकर इधर उधर गलियों में घूमता फिरता कह रहा था कि ।।२६१।। शत्तिय कोड नेन्नु जातियाल् वेदि यड़ान् । वित्तत्तार पेरियन ट्र यनेंडियान मिग तेरी ॥ वैत्त वेनमरिणय कोंडु तरुगिलन मन्न केन्मो । पित्तनु मातु मेन्नै पेरु योरुळ्ळडक्कु वाने ॥२६२॥ अर्थ-मैं रत्नद्वीप में जाकर महान प्रयास के साथ व्यापार करके बहुत से रत्नों को इकट्ठा करके इस सिंहपुर नगर में पाया तब यहां के व्यापारियों ने मेरा बहुत सत्कार किया था। इस नगर के वणिक लोगों का विनय सद्गुण देखकर मै अत्यंत प्रसन्न हुमा और यहां के राजा का बडा गुणगान किया, और ऐसी भावना हुई कि इसी सिंहपुर नगर में रहकर मुझे पुन: व्यापार करना चाहिये, और यह सुना कि यहां के राजा का सत्यघोष नाम का मंत्री महान पंडित अनेक पुराणों का ज्ञाता है, प्रजाजनों का विश्वसनीय है, सद्गुणी है ! तो मैंने यह विचार किया कि जो संपत्ति मैं कमाकर लाया हूँ वह इनके पास रख दूं। और पद्म Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १३९ - ~ -~~ -~~~- ~~- ~---- -~- ~~~-.-rawarwww शंख नगर जाकर अपने भाई बंधनों को यहां ले पाऊ। और यहीं व्यापार को ऐसा सोचकर यहां के मंत्री सत्यघोष को मैं रत्नों की पेटी देकर अपने नगर चला गया, और वहां से वापस लौटकर मेरे कुटुम्ब आदि को यहां ले पाया। और बाद में जब मंत्री के पास रखे हुए रत्नों की पेटी मांगने गया कि मुझे मेरी पेटी वापस दे दो, मैं मेरे भाई बंधु कुटुम्ब परिवार को ले पाया हूँ तो इस पर मंत्री ने कहा कि तुम कौन हो? कहां से आये हो? मुझे तो तुमने कोई रत्नों की पेटी कभी दी नहीं ! तुम झूठे हो पागल हो? इस प्रकार बुरा भला कहकर मेरे रत्नों को उन्होंने अपहरण किया और अपने कर्मचारियों द्वारा पिटवाकर मुझे भगा दिया है। इसलिये हे इस नगर के अधिपति सिंहसेन महाराज! आपके शिवभूति मंत्री के पास मैंने मेरे रत्नों की पेटी रखी थी, वह पेटी को वापस नहीं देता है सोआप मुझे मेरे रत्नों की पेटी दिलवा दीजिये। इस प्रकार कहते हुए गली २ के कोने में जोर २ से पुकारता हुया आगे पीछे की सारी बातें बोलता हुमा रात दिन इधर उधर भ्रमण करने लगा ॥२६२ । तनवळी कुदन काना कन्नेनतान् शंकुद्र । मुन्निडादवने कोवित्तू र वयोर कडिप लु.॥ मिन्नन करक्कु कळ्ळर तगळं विट्टान् । लुन्नुवर करिय वाय पोरुळे ला मोरुडें कोंडार ॥२६३॥ अर्थ-वह शिवभूति ब्राह्मण मंत्री अपना कपट व मायाचार प्रजाजनों को प्रगट न हो-इस कारण उसने नगर के निवासियों तथा अपने कर्मचारियों को आदेश दिया कि यह भद्रमित्र वणिक महान् दुष्ट और पापी है, इसके घर जामो और इसका सारा माल लुट कर ले प्रायो। इस आदेश पर कर्मचारी आदि उस भद्रमित्र के मकान पर गये और सारा माल बहुमूल्य सामान वस्त्र प्राभूषण प्रादि सब लूट कर ले पाये ।।२६३।। परमरिणक्किरंदु नागम् परणतयु मिळदंदे पोर । ट्र रिण किरंगु नायकन ट्रोडु पोरुळ मुळ दूं पोग । गुणमरिणइलाद कोडन कळ वनिन पुरुळ कोंडांनिन् । ट्ररिण नगरिलंग वाट पूलिट्ट बलमुट्रान् ॥२६४॥ अर्थ-इस बात को देखकर भद्रमित्र को मौर भी महान् दुःख हना । जिम प्रकार नाग फरिण में रत्न रखता है और वह रत्न उस सपं को मारपीट कर कोई ले जावे तो उसको कितना दुःख होता है उसी प्रकार वह भद्रमित्र वणिक अत्यंत दुखी हुना। क्योंकि भदमित्र के बहुमूल्य आभूषण, वस्त्र व रत्न चले गये तो वह रात दिन गली २ में रुदन करने लगा, पुकारने लगा ॥२६४।। मन्नव नदनै केटु मंदिरि तन्ने कूदि । येन्निव नुरत्त वेन्न विश्व केळिवनोर पित्तन् । ट्रन्नयानरौंद दिल्लं तरुगवेन मरिणचेप्पन्ना। पिन्न पो येन्नै कळ दर्नेडिट्टान पेरिय पूसल ॥२६५।। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेद मंदर पुराख १४० ] धर्म – उस सिंहसेन राजा ने वणिक् के द्वारा सारी चरचा को भली भांति समझकर सत्यघोष मंत्री से पूछा कि यह वरिगक जो कह रहा है यह क्या बात है, सच २ कहो । तब मंत्री यह कहता है कि राजन् यह बरिणक् न मालूम कहां से माया है, मैंने इसको पहले कभी देखा नहीं । एक दिन यह मेरे पास भाया और कहने लगा कि मुझे मेरे रत्नों की पेटी वापस दो तो मैंने उत्तर दिया कि मेरे पास रत्नों की पेटी तुमने कब रखी थी ? यह पागल है और मंत्री को जोर २ कहता हुआ गली २ में चिल्लाता रहता है ।। २६५ ।। करुममे इरेब केळाय कळवडून बिळवे योदुम | धर्म नलुरंक्कुनाने ताक्किल्ला कळवु शेग्यिन् ॥ बोरुवर मुलगिर कळ, करन बरिने येना । पेरियदोन् शब्दं शंद नरसतु पिर तेर ।। २६६॥ अर्थ- वह शिवभूति मंत्री कहता है कि हे महाराज ! मैने चोरी करना हमेशा पाप समझा है और ऐसी मै सब को शिक्षा देता हूं । क्या मैं उसकी चोरी करता था ? क्या में ऐसा काम कर सकता हूँ ? चोरी करने से इस जगत् में अनेक दुख भोगने पडते हैं । यदि में हो ऐसा कार्य करूं तो सारी प्रजा मेरे समान अनुकरण करेगी। इस प्रकार मंत्री के कहने से राजा तथा प्रजा को मंत्री का पूर्ण विश्वास हो गया, और राजा व प्रजा सब उस वणिक् को पागल समझकर आगे के लिये उन रत्नों की कोई खोज व तलाश वगैरह नहीं की ॥ २६६॥ परं येनिक्कळ वन् द्रन्नं पार्तिव नेन्नं पोल । मरंम्यव नॅड. कोंडान् शबदतल वंजि पुंडु ॥ पिररिवन् शं गं मोरा रेनये पिसनेश । कुरं उडो वेंड़, पिन्नु कूपिट्टा नीवि योदि ॥ २६७॥ अर्थ - तदनंतर वह भद्रमित्र श्रेष्ठी कहने लगा कि हे नगरवासियों ! इस मंत्री की चांडाल के वचन के समान बातें सुनकर लोग इसके वचनों पर श्रद्धा करते हो । मैं रत्नों की पेटी इनके हाथ में देकर फंस गया हूं और पागल के समान हो गया हूं। यहां के राजा ने भी उस मंत्री की मीठी मीठी बातों व तार्किक शब्दों को सुनकर उसकी बातों पर विश्वास कर लिया। कभी ये भी फंस जायेगा। इस सिंहपुरी नगरी के सभी लोग मुझे पागल बना कर सभी मेरी हंसी करते हैं । इस प्रकार अविरुद्ध बातें बोलता हुआ वह भद्रमित्र गली गली में घूम रहा है || २६७॥ शिरगम पर पेर्प नुडंवोलं सेडिइन् मोडि । परवेयं शिमिळ पिन, वांगुं पावियै पोल नीयुं ॥ मरं यब नरिव नेतुं मायत्त मरंतु नि ेन् । पेर लद मरिये कोडां येंडूवन् पोसक्केळा ॥ २६८ ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १४१ अर्थ -जिस प्रकार एक शिकारी बहेलिया पक्षी को पकड़ने के लिये जाल बिछाकर अपने शरीर को सूखे पत्तों से ढककर बैठ जाता है और जब पक्षी पा जाता है तो उसको शीघ्र पकड़ लेता है उसी प्रकार यह शिवभूति ब्राह्मण लोगों को धोखा देकर उनको फंसाने के लिये विश्वास दिलाता है और जनता का विश्वास पात्र हो जाता है इसी प्रकार मैंने भी मत्री को विश्वासी समझकर रत्न संभलाये थे। अब वह मंत्री मुझे वापस लौटाता नहीं है। ।।२६८।। पडुमद याने विट्ट पासत्ति नायै विट्ट । कोडि नगर पेयन टन्नै कडिग वेंड्रमै चन्कूर ।। कडियवर पडियिर कंडु शैवदर कंजि.कालै । नेडियदोर् मरत्ति नेरि नित्तमा यळे तिट्टाने ॥२६॥ अर्थ-वह शिवभूति मंत्री विचारता है कि इस भद्रमित्र वणिक को हिंसक पशुओं कुत्ते आदि से मरवा डालना चाहिये । ऐसी आज्ञा मंत्री ने अपने कर्मचारी को दे दी। इस बात से महान् भयभीत होकर भद्रमित्र राजमहल के पास एक बड़ा वृक्ष था उस वृक्ष पर वह चढ गया वहां वही चर्चा करने लगा ॥२६६।। तूयनल्वेद नाण्गुम सोल्लिय जाति यादि । मेयनल्लमच्च नड्र, विरुदु मैयुरत्त लेंड्रम् ॥ तीइनर ट्रोळिल ने म तेरियान वैत्त सेप्पै । माय नी शैदु कोंडाल वरु पळि पाव मंड्रो ॥२७०॥ वह भद्रमित्र वृक्ष पर बैठा बैठा कहने लगा कि हे सत्यघोष कपटी ब्राह्मण ! चारों वेद, छह शास्त्र, अठारह प्राण प्रादि सभी को पढकर अपने आप को ज्ञानी पंडित तथा चार वर्गों में उत्तम ब्राह्मण कहलाता है । ब्राह्मण कुल में जन्म लिया है, राजा का मंत्री पद पाया है, विश्वसनीय बातें बनाता है इसी कारण इसका यश चारों ओर फैला हुआ है। हवन आदि करने वाला है, वैदिक लोगों का गुरु कहलाता है । ऐसा समझकर मैंने मेरे बहुमूल्य रत्नों की पेटी इनको सम्हलाई थी। मेरे दिये हुए रत्नों को हड़प करने से आगे चलकर इस अपकीर्ति और अपमान होगा। इसने इस कार्य से पाप बंध बांध लिया है। ऐसा संत्य समझे। ॥२७॥ कोट वेन् कुडयुं शीय वनयुं चामर युनीत्ताल । वेटिवेल वेदनेन्न नीयेन वेरि लादय ॥ कुट्रमेंडरिंदु मेन्न कुरईलेन सेप्प कोंडाय । मद्रिवो पूदिमाय मागुमिव्वैत्तय्या ।२७१॥ अर्थ-वह वणिक कहता था कि राजा सिंहसेन यदि राज्य शासन के प्रति कोइ लक्ष्य नहीं देगा तो यह राज्यशासन भी कुछ समय में नष्ट हो जायेगा, ऐसी संभावना है। क्योंकि न राजा पृथक है न मंत्री पृथक है। यह मंत्री पर द्रव्य को अपहरण करता है इस Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] मेरु मंदर पुराण कारण यह पापी और दुर्गति का पात्र है । हे मंत्री ! तुम्हारे पास धन की क्या कमी है, उसके पर्ण करने में मेरे समान तमने अन्य कितने लोगो के साथ विश्वासघात किया होगाय मम में नहीं आता। मेरे साथ किया हुअा कपट व मायाचार तुम्हें कभी भी सुख नहीं दे सकता। ॥२७॥ मरं पळि शिरुमै शिद निद वंदैव मनिय वोग्विन् । पर पुगळ पेरुमै शीति येरि प्रोडु शेरविला ॥ मरदुवैत्त रु द्रोट्ट, वैप्पिनै वन्नुवार । तुरंदिडु तिरुवेनड्रो, सुरुदिइ विरुध्दमायतो ॥२७२।। अर्थ-पाप और निंदा से उत्पन्न होने वाला मन अर्थात् पाप और निंदा को उत्पन्न करने वाले इस मन से तूने मेरे रत्नों का हरण कर लिया है, इससे धर्मकीति यश आदि सब तेरे नष्ट होने वाले हैं । तुम यह समझते होंगे कि सबसे सुखी हूँ। तुमको वास्तव में पाप और पुण्य की कदर नहीं है । यह लक्ष्मी-कीर्ति आदि आदि एक दिन सब तेरा साथ छोड़ देंगी, यह सत्य समझो। और यह समझो कि यह सब तेरे लिए दुर्गति का कारण होगा। कहा भी है कि "अन्यायोपाजितं वित्त दशवर्षाणि तिष्ठति ।" इस प्रकार यह नीति है। मायाचार पूर्वक संपादन की हुई मनुष्य की संपत्ति दशवर्ष के पश्चात् छोड़कर चली जाती है। यह नीति के वाक्य हैं; किन्तु तुम क्या इस नीति के वाक्यों से परिचित नहीं हो ? ॥२७२।। डि नून पगळि नूरु मण्णरै मायं शैदिट् । तडुमद याने बोव्व लमच्चरक्काय वंजम् ॥ वोडु विलार तेरि तंगै पोळिनै वैत्त वंदु । प्रडि मिस युरंगुम् पोदिर जिपा नमच्च नामो ॥२७३॥ अर्थ-इस मंत्री द्वारा अन्य अन्य राजाओं का नाश करके तथा हिंसा करके महा कपट से उनके वाहन भंडार आदि आदि को लेना यह सब कपट रूप ही है । मैं सत्यवादी हूं सत्यपने से मेरा नाम सत्यघोष पड़ा हुआ है, मैं जाति से ब्राह्मण हूँ, मुझ पर विश्वास रखना चाहिये, ऐसा इनके बताने पर मैंने रत्नों की पेटी इनको दे दी। परन्तु मैंने जब लौट कर पाने के बाद रत्न मांगे तो उत्तर मिला कि तुम कौन हो? मुझे रत्नों का कुछ मालूम नहीं । मैं तुमको नहीं जानता, मुझे कोई रत्न नहीं दिए-इस प्रकार का मंत्री का मायाचारी जवाब मिल ना क्या उचित है ? ||२७३।। मंदिरं पईड, शाल वल्लवर तमक्कु पेयगळ । मंदिरं पूदि तन्ना लंडि मट्रोंडिर, दोरा॥ वेतुयर नरगत्त इक्कुं वेगत्त मोगप्पेय । मंदिरि भूतिनीयेन ट्रीतिडा वारि डान ॥२७४।। अर्थ-जैसे यंत्र मंत्र करने में समर्थ हुए मनुष्य के द्वारा भूत पिशाच मादि उसके Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ १४३ मंत्र के बल से निकल जाते हैं उसो प्रकार महान दुख को उत्पन्न करने वाले नरक में बैंच कर ले जाने वाले मोह रूपी पिशाच से गृहीत हुआ शिवभूति मंत्री ने अपने अंदर से मायाचार व कपट को क्यों नहीं निकाला? इस प्रकार भद्रमित्र वणिक् वृक्ष पर बैठा हुआ बार बार कहता है । ।।१७४।। नीमयुं गुणमु नीड़ जातियु निरमुं कल्वि । शोमयुं सारुवाग वरिंदु नी शय्यु मायं । नेमैं शैदरसन केठ नाळिन् कनीगु मुंडन् । कूर्मयुगुणमु मेल्लां काटुवन कोडवेंडान् ।।२७५॥ अर्थ-हे सत्यघोष ! आप श्रेष्ठ गुणों को धारण करने वाले हो, उत्तम ब्राह्मण जाति में जन्म लिया है-पापका रूप सुन्दर है, सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता हो आपकी कीर्ति चारों पोर फैली हुई है। ऐसा मापने भी मन में समझ रखा है. परन्त राजा ने जब प्रापको प्रौ मुझको बुलाकर पूछा तो तुम्हारे अन्दर जो कपट है उसको मैंने भली भांति जान लिया है। तुम्हारे जब पाप का उदय पायेगा तब शीघ्र तुम्हें उसका फल मिलेगा ॥२७॥ शोरिमद कळिट वेंदन शेवियुर नाळू बंदिइप्प । परिशिनालकैप्पा केटुं परवरलिडि विट्टान ॥ सुर कुळल् करुंगट चेव्वाय तुडिइडे परवं यल्गुर । ट्रेरिव मादि रामदत्तै चित्त तोंडे छंद बड़े ॥२७६॥ अर्थ-इस प्रकार वह भद्रामित्र रात और दिन सदैव एक ही बात को राजमहल के बगल वाले वृक्ष पर बैठा बैठा कहता था। इतना होने पर भी राजा सिंहसेन ने इस ओर कोई लक्ष्य ही नहीं दिया। एक दिन उस सिंहसेन राजा को रामदत्ता नाम को पटरानी ने भद्रमित्र की बात सुनी और सुनकर उसको एक शंका उत्पन्न हुई ।।२७६।। मुंबु पिन् बोंड, तम्मिल मलंबिला मूर्तिनूल पोर । पिबु मुन् पोंड वेंड, मुरैक्किन्ड्रान ट्रन्न पित्त ॥ नेबदोंड्रन ड्रनि यवत्ता नळत्त राम । मुंबु निड बकेटु पोयिन मुरैइ डेंडाळ ॥२७७॥ अर्थ-वह रानी विचार करने लगी कि यह भद्रमित्र वणिक् वृक्ष पर बैठा बैठा एक ही बात को दोहराता है यह क्या बात है ? और अन्य अन्य लोग इसको पागल कहते हैं वास्तव में यह पागल नहीं है । यदि पागल होता तो एक ही बात को बार बार में दोहराता नहीं । ऐसा विचार कर रानी ने अपने नौकर को भेजकर भद्रमित्र को बुलाया । तत्पश्चात् रानी ने भद्रमित्र को पूछा कि हे वणिक् ! तुम रोज रोज सदा एक ही बात को बार बार दोहराते हो, यह क्या बात है जो भी विषय कहना हो वह प्राद्योपान्त मुझे वर्णन करो। इस प्रकार रानी के वचन सुनकर वह वरिणक रानी को नमस्कार करके कहने लगा कि मै रत्नद्वीप Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] मेरु मंदर पुराण जाकर व्यापार करके अनेक प्रकार के रत्न संपादन करके लाया और आपके मंत्री पर विश्वास करके उन रत्नों को उनके पास रख दिये । जब वह रत्न मैं वापस मांगने गया तो उसने जवाब दिया कि मुझे कोई रत्न ही नहीं दिए न मैं तुमको जानता हूँ और बुरा भला कहकर अपने महल से मारपीट कर निकाल दिया । तब रानी ने कहा कि हे वणिक् ! यह सारी बातें तुमको राजा के सामने कहनी पड़ेंगी ।।२७७।। . वाळार तडतोन् मन्नर मन्नरतं शैग वन पोर् । तोळाल् विलक्कि मुरै केटरं पोट लागिर ॥ ट्राळाळ नल्ला विन् ट्रानिडुन् पूस नांळ । केळादोळिवा निदु वेन्नरु लैंड, केट्टाळ ॥२७८।। अर्थ-इस प्रकार कहकर महारानी रामदत्ता ने भद्रमित्र को बिदा किया और अपने पति सिंहसेन महाराज से जाकर विनम्रता से कहने लगी कि राजा का यह लक्षण है कि अपने राज्य के प्रजाजनों को सुख शांति है या नहीं-धर्म की स्थिति में कोई बिगाड तो नहीं है, कोई अन्याय तो नहीं करता है, दुष्टजन कोई विबाद तो नहीं करता, आदि आदि प्रजा की भलाई के लिए सारी बात देखना । यह राज' का कर्तव्य है कि प्रजा में सुख शांति रहे, अधर्मी नास्तिक लोगों का उच्चाटन करे तथा शत्रुओं को कोई स्थान न देना, शिष्टाचार का पालन करना-सदैव प्रजा के हित का ख्याल रखना। यह सब राजनीति तथा राजा का लक्षण है । हमेशा इस प्रकार की परिपाटी राजाओं की चली आ रही है। धर्मनीति व राजनीति को भूलना नहीं चाहिए । मुझे यह बातें कहना तो नहीं चाहिए, लेकिन जो बात मुझे समझ में प्राई, मैंने कहदी। राजन् ! आपके समान प्रजा पालक-शूरवीर राजा के राज्य में एक दुःखी वणिक् द्वारा प्रति दुःख से कहने वाली बात को आपने आज तक लक्ष्य देकर क्यों नहीं सुना? ऐसा रानी ने राजा से प्रश्न किया। राजनीति में कहा है कि "राजानः प्राणिनां प्रारणाः राजा प्रत्यक्ष देवता" इस उक्ति के अनुसार राजा संपूर्ण प्राणियों की रक्षा करने वाला प्रत्यक्ष देवता के समान होता है। राजा संपूर्ण जीवों का प्राण है ऐसा नीतिकारों का कहना है । एक मनष्य कदाचित यदि कोई अपराध करे तो देवता उस अपराधी को ही दंडित करता है तो राजा एक मनुष्य द्वारा अपराध किए जाने पर कई व्यक्तियों को दंड देता है । इस प्रकार पाप न्यायवान राजा हो । विचार करें ॥२७८।। मत्तकळिटा नळप्पान मत्तनेन्न मंगे। नितं वंदम् मरत्त पोळ दु तेरि नीदि । बेत्रावगया लुरप्पान् मत्तनल्ल नेन्न । मुत्तन्न पल्लाय मुरै नोइदु केळ मो वडान् ॥२७६।। अर्थ-सिंहसेन राजा अपनी पटरानी रामदत्ता की बात सुनकर कहने लगे कि यह वणिक पागल है । प्रतिदिन ऐसा ही कहता है। तब रानी कहने लगी कि यदि पागल होता तो वह अनेक-अनेक बातें बोलता, किन्तु वह तो वृक्ष पर चढ़ कर रोजाना एक ही बात को Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंवर पुराण [ १४५ कहता है और कोई बात नहीं कहता, ऐसी दशा में वह पागल नहीं है। तब राजा ने सारी बातें सुनकर कहा कि हे देवी ! इस संबंध में तुम ही विचार करो ॥२७६।। नीदिये पडित्तान् पोल वळं क्किड़ान् वळक्कु निड़। वेदियन् शयल मेल्लाम विळक्कु पोल काट्ट वल्लन् । सूदि यान् बूदि योडु पोरद पिन्नेन्न सोन्नाळ । यावनि बैंडिल्ला मिशैंदन नेड, सोन्नान् ॥२८०॥ अर्थ-राजा की बात को सुनकर वह रानी कहने लगी कि शास्त्र को मनन किया हुआ पंडित के समान, अविरुद्ध बात अर्थात् न्याय की बात कहने वाले के समान उस वणिक की बातों को मैंने सुनी है । शिवभूति हमारा मन्त्री है। इन दोनों वणिक की और मन्त्री की बातों को सुनने के लिए मुझको अवकाश मिलना चाहिए। मैं आपकी आज्ञा चाहती हूं क्योंकि यदि अन्धेरे में दीपक जलाकर रखा जाय तो अन्धेरा दूर हो जाता है। प्रतः आप मुझको उस मन्त्री के साथ जुना खेलने की स्वीकृति दें। तब राजा ने कहा कि हे प्रिये! तू यदि इस बात का निर्णय ही करना चाहती हो तो अवश्य इस कार्य को करो ।।२८०।। परसन दरुळि नाले मंदिरि यवनैकूवि । पेरिदुपो देशदि याडि पिन्न योई तोडंगा।। उरै शैवाळ सूविलेन्नोडप्प वरिलै पेंड्र। परसुनु मंदिरि यै नोकवगो पेरिवळगि वेडान ॥२१॥ तदनंतर रामदत्ता देवी ने अपने कर्मचारी को भेजकर शिवभूति मन्त्री को राजा के पास बुलाया और रानी ने राजा तथा मन्त्री को नमस्कार किया। तत्पश्चात् रानी ने चतुर होने के कारण दोनों के सामने राजनीति कूटनीति की बातों को तथा कुछ समय हास्य विनोद की चर्चा की और कहने लगी कि हे नाथ ! यह सत्यघोष शिवभूति मन्त्री जुया खेलने में बड़ा चतुर व सामर्थ्यवान है ! इससे कहदो कि यह मेरे साथ जुड़ा खेलकर झसे जीतने का प्रयास करे, परन्तु मेरे से जुमा जीतने की सामर्थ्य इनमें नहीं है । तब राजा ने हंसते हुए मन्त्री की ओर देखा और कहने लना कि रानी ने जो बात कही वह सत्य है । मन्त्री वास्तव में इतना चतुर व सामर्थ्यवान नहीं है । अच्छा मन्त्री के साथ जुड़ा खेलकर तुमको अपनी चतुरता दिखानी चाहिए ॥२८१।। बरैयन सेरिव माई मंदिरि तन्नवल्ले । उरै योंड़मुडियु मेलै उडेप्प निप्पोरि लेन । तिर सेरि कडलंतान उदयान देवि तन्ने । पोरवेंड. पूढम पोळ्धे वेल्वनि पोरि लेडान् ।।२८२॥ पर्थ-वह रामदत्ता महारानी कहने लगी कि हे पर्वत के समान निविड़ हृदय को Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] मेरु मंदर पुराण धारण करने वाले नाथ ! इस मन्त्री को छूत युद्ध में एक ही क्षण में जीत सकती हूँ-इस प्रकार की बात रानी की सुनकर मन्त्री ने कहा कि राजन् ! मैं इन रानी को शीघ्र जुम्रा में हरा दूंगा-इसमें एक क्षण भी नहीं लगेगा ॥२८२।। मुरै मुरै सबदं शैय अरसनु मुगिळ मुगिळ्तु । पिरै नूदर पेद तन्पा लिरुदनन् ट्रेवि पिन्न । मरय वन माविनूलु नाममोदिर मु मीरा। मुरै मुरै वेंड, कोंडाल मूचिया वैतुयिर्तान् ॥२८३॥ अर्थ-इस प्रकार परस्पर विवाद के पश्चात् मन्त्री कहने लगा कि मैं मेरा सामर्थ्य प्रकट करूंगा। तब राजा भ्रम में पड़कर रानी के बगल में बैठ गया। तदनंतर रानी व मन्त्री के बीच में छूत क्रीडा प्रारम्भ हो गई। जुमा के खेल के प्रारम्भ होते हा रामदत्ता देवी ने अपनी चूत क्रीडा के सामर्थ्य से मन्त्री की वज्रकी बनी हुई यज्ञोपवीत जीतली और दूसरी बाजी में मन्त्री की मुद्रिका को जीत ली। तब मन्त्री इन दोनों के जीत लेने के बाद दीर्घ श्वास लेने लगा ॥२८३।। मईलोडु पोरुदु तोट वाळरिपोल मागि इप् । पुयलन मेनिवे' पोडिप्पव निरुंद पोळदिर । कुइन् मुळि वेंड कोंड काटि सेप्पदन वांगुम् । शयलेलाम सेविलितायकु सेप्पिविरिण दिन मेंडाळ ॥२८४॥ अर्थ-जिस प्रकार मादी मोरनी युद्ध करके मोर को जीत लेती है उसी प्रकार वह मंत्री रामदत्ता देवी के साथ द्यूत क्रीडा में अपयश को प्राप्त हुआ। रानी ने जुम्रा में जीती हुई यज्ञोपवीत व मुद्रिका को लेकर भीतर गई और अपनी निपुणमति नाम की दासी को बुलाकर कहा कि यह यज्ञोपवीत व मुद्रिका को लेकर मंत्री के महलों में जावो और यह दोनों वस्तुए मंत्री के भंडारी को बतलाना और यह कहना कि मंत्रीजी ने यह कहा है कि यह दोनों चीजें तुम अपने भंडार में रखलो और इनकी एवज में जो रत्न तुम्हारे भंडार में रखे हैं वह तुम दे दो ।। २८४ ॥ करुबै मेंडनय तीन सोविलन ट्रेवितायां । नेरुगि निडळुद कोंगै निपुन मा मदियि पोगि ॥ सुरुबिरु तुरंगुम् तोंग लम्च्चन्ट्रन माडन् तुन्नि । विरुबि वंदडैद तंडकारिक्कु बेरु सोन्नाळ ॥२८५।। अर्थ-तत्पश्चात् सभी बातों में चतुर वह निपुणमति दासी उस मुद्रिका व यज्ञोपवीत को लेकर मंत्री के महल में पहुँची और उसके भंडारी को बुलाकर जितनी बातें महारानी ने समझाई थी, उनसे भी अधिक चतुराई से बातें बनाकर भंडारी को विश्वास दिलाकर अत्यंत मार्मिक बातें कहने लगी ॥२८५।। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .....PRAM मेरु मंदर पुराण [ १७ चित्तिर मोत्त रामवत्तैयुं सिय्यसेनें। सत्तियं वैत्त नामन् ट्रन्नै मुन्नारण इट्ट.॥ भादिर मित्रन् सेप्पुंडेनिर कोडुक्क पार मेल् । नित्तलु मिट्ट पूशल नेडु पळि विडक्कु मेन्न ॥२८६॥ अर्थ-वह दासी कहने लगी-देखो भंडारीजो यह एक मार्मिक बात है, किसी को प्रकट नहीं होना चाहिए। शिवभूति मंत्री इस समय बड़े कष्ट में हैं, जुप्रा में रामदत्ता महारानी के साथ हार कर उनने सब चीजों को खो दिया है और वह रखे हुए रत्न दिए बिना छुटकारा पा नहीं सकते। मंत्री ने यह मुद्रिका व यज्ञोपवीत जिस पर मंत्री का नाम है दी है । इनको तुम भंडार में रखलो और इनके बदले भद्रमित्र के रत्न मुझे देदो, ताकि वह दुःख से निकले । यदि नहीं दोगे तो मंत्री की अपकीर्ति होगी और रोजाना जो वृक्ष पर चढ़ कर वह चिल्लाता है आपका यह कहना बंद कर देगा ।।२८६।। मत्तग मोततिडोन मंदिरि सोन्न वार्ते । वित्तग रुत्त मकुं वरुम् पळि विलक्क लगा। भद्दिर वागुवल्लि वरदक्कुं पळि योडाय। तित्तलतेंड, निड़ दिदि रो पेंदिर' ॥२८७॥ अर्थ-उस दासी ने भंडारी से यह भी कहा कि मंत्री ने इस संबंध में और और भी बातें कही है कि सत्पुरुषों पर आए हुए अपराधों को कोई रोक नहीं सकता। भरत और बाहुबली के मध्य में होने वाले संघर्षण तथा इन्द्र और उपेन्द्र इन दोनों राजकुमारों में होने वाले दोषों का कथन सब जगह प्रसिद्ध है । उन्हीं के समान मेरा दोष भी इस कलिकाल तक न रहे तथा मेरी अपकीति भी न हो। वास्तव में यह बात सत्य है कि उस भद्रमित्र वणिक ने मुझे रत्नों की पेटी दी, मुझे स्मरण नहीं रहा, मैं भूल गया था और मैंने उस वणिक से यह कह दिया था कि मैंने तुम्हारे रत्न नहीं लिये ॥२८७।। प्रादलालेन् कण्णिंड, मुळत्त विप्पळियं पोगि । मोद नीर वोट्ट मेल्लाम तडडि पडर्व दोंडाय ।। तोदिला गुणत्त वेंदे शप्पवन वैज्ञतु पोइर् । ट्रियादु नानिदि दाडे इल्ले सेप्पेंड, सोन्नेन् ।।२८८॥ अर्थ -पुनः दासी ने कहा कि मंत्री ने यह बात राजा से कही है कि मेरे हाथों से रत्नों का भद्रमित्र को वापिस दे दंगा-यदि नहीं दूंगा तो मेरे सत्यघोष नाम पर कलंक लग जावेगा । सो आज ही विचार करके निर्णय करो। तब सिंहसेन महाराज ने मत्री की बात सुनकर कहा कि सभा के बीच आने वाली अपकीर्ति को रोकने को कोई समर्थ नहीं है तुम भद्रमित्र से यह प्रार्थना करो कि हे वणिक यह रत्नों की पेटी माप वापस लो और अब Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] मेरु मंदर पुराण यह कहते रहो कि इस संबंध में मंत्री का कोई दोष नहीं है । मैं तो वैसे ही पागलपन में मंत्री का नाम ले ले कर वृक्ष पर बैठा बैठा पुकारता था कि मंत्री मुझे रत्नों की पेटी नहीं देता और गली गली में चिल्लाता था सो वास्तव में मैं पागल था और यह भी कहना पड़ेगा कि एक दिगम्बर मुनि के संसर्ग से मेरा पागलपन दूर हो गया। ऐसा करने से कलंक भी नहीं लगेगा और राजा भी इस बात को स्वीकार कर लेगा। इस प्रकार निपुणमति दासी ने भंडारी को समझाया ॥२८॥ निनत्त पिन् शत्तिय कोड नेवुदु नींगु मेंडेन । विनपयन पेरुमै याले कोडुत्तिलन वेंड वंड़ि॥ सिनंकळिट ळव मटन ट्रिरुवुळ्ळ मिरुक्क वेय्यत् । देनक्कोंड मरिय दिल्लै इनिसैव दुरैक्क वेंडिान् ।२८६। मन्नव नदनै केटु वरुपळि विलक्कोनावे । येन्नुनकिंगु वंद पळियोंड, मिल्ल ई डम् ॥ मिन्मरिण सेप्पै ईदौ वनिगनै वेंडि कोळवेन । मुन्ने यन् पित्त तीर्तान मुनिव नेंड रक्के वेंड़े ।२६०। अर्थ-उस चतुर दासी ने मंत्री के गले में रहने वाली यज्ञोपवीत तथा मंत्री के नाम वाली मुद्रिका उस भंडारी को दिखाकर कहा कि रत्नों की पेटी मुझे शीघ्र देदो। इस कार्य में विलम्ब मत करो। साथ में यह भी कहा है कि यह भेद किसी को मालूम न हो। उस भंडारी को दासी की बातों पर पूरा पूरा विश्वास हो गया कि मुद्रिका व यज्ञोपवीत मंत्री की ही है । तब वह भंडारी दोनों को ले लेता है और तिजोरी में रखी हुई रत्नों की पेटी उस निपुणमति दासी को दे देता है ॥२८६-२६०॥ मंदिरि नंडि देंड, वरै पुरै माविनूलुं । तन पल रंगित्तिट्ट वाळियुं तंदु सेप्पुक् ॥ कुरण करिणन ३न्न विट्टानोरुवरु मरियावन्न । मेन कैयिर सेत्पत्ता वेंडोरैत कोंडिनिदिन मेंडाळ् ।२६१। मंदित्त नोकत्ता लिम्मन्नेलाम् वरणक्क बल्लाळ । सिदित्तेंड रत्त सेयिर् ट्रेवरु पिळेक् माटार ॥ वंदिकाराकु मूत्तन् वैत सेप्पदन वांगि। तदिट्टाळ मुगत्तै नोका तामर किळेत्ति यन्नाळ ॥२६२। अर्थ- इस जगत में सभी लोगों को अपने अधीन रखने की सामर्थ्य को रखनेवाली निपुणमति दासी इस सभा में रहने वाले कपटी मन्त्री द्वारा अपने कपट से भद्र मित्र वणिक Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १४६ के अपहरण किए गए रत्नों को वह अपनी बुद्धिमता से भंडारी के पास से लेकर पाई मौर महारानी रामदत्ता देवी को सम्हलाये तब रामदत्ता ने उस निपुणमति की बुद्धि की प्रशंसा करते हुए उसका मुख देखने लगी और माश्चर्य में पड़ गई कि मैंने इस दासी को थोड़ी सी बात कही थी, इसने अपनी चतुरता से इतना बड़ा काम करके दिखलाया है ॥२६१।२६२।। मुरिंदविक करुम मेना मुरुवलितवळोडं पोह। पडकिडंदलगुर् पावाई पट्टदु पवर्ग वेन ॥ नुडंगु नुन्निड ईनाय नीनु वलिय निनित्त पोगि। मडंगल पोलिरंद विदं मंदिर माडं पुक्केन ॥२६३॥ अर्थ-तत्पश्चात रामदत्ता देवी उस दासी को एकांत में ले जाकर पूछने लगी कि हे मेरी प्रिय सहेली निपुणमति ! तुमने क्या षड़यंत्र रचा और किस उपाय से इन रत्नों को तुम निकालकर लाई, किस युक्ति से भंडारी से रत्न निकलवाये ? वह आश्चर्य जनक होकर पूछने लगी कि उस भंडारी ने तुमको दिया ही कैसे? क्या तुमने जादू मंत्र किया था? इसके उत्तर में निपुणमति दासी ने कहा कि हे माता! आपकी प्राज्ञा होते ही आपका स्मरण करते हुए मैं मंत्री के मकान पर पहुंची ॥२६३।। पुक्क पिन् बांडगारी कुलियोप्पान् मेलियु वरण । मोक्कनीयुरत्त वेल्ला मुरतडे याळं सोल्लि ॥ मिक्कवन वेगुळि मावितल मोदिरमं काटि। तक्कदौंड. रत्तपिन्न तंदशेप्पिदु वेंड्रिडाळ ॥२६४॥ अर्थ-तदनंतर वहां जाकर बड़े प्रेम से मंत्री के भंडारी को बुलाया और आपके कहे अनुसार उनसे वार्तालाप की । चतुराई के साथ बात करके उनको आपके द्वारा दी गई यज्ञो. पवीत व मुद्रिका दे दी । तब उस भंडारी को इन यज्ञोपवीत व मुद्रिका को देखकर पूर्ण विश्वास हो गया और उसने मुझसे यज्ञोपवीत व मुद्रिका ले ली और रत्नों की पिटारी मुझे दे दी । ऐसा निपुणमति दासी ने रामदत्ता से कहा ।।२६४॥ करंद पालु मुलै पुगुनी करुदि नॅड. पेरिय वर्ग । निरंद मदि पोन मुगताय नोपुन पाति येंड रत्ताम् ।। रिंदोर् सोळू पुय्यामो वरिप कालन् पालुइर्यो। लिरंद पोरुळे कोडुवंदाय केन्नान संवदन उरत्ताळ ॥२६॥ अर्थ तदनंतर रामदत्ता महारानी दासी के प्रति कहने लगी कि हे निपुणमति ! तेरे मंदर सारे गुण हैं, इसलिए तेरा नाम भी सभी कलामों में निपुण होने से निपुणमति रखा गया है, यह ठीक है । तुम्हारे समान सामर्थ्यवान चतुर स्त्रियों में शिरोमरिण, सर्व कला-सम्पन्न संसार में महान दुर्लभ है । तेरे पास जो यह कला है वह दूसरे के पास नहीं हो सकती। इसी Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] मेरु मंदर पुराण कारण तेरा नाम निपुणमति रखा गया है । यह नाम इसलिए आपका सार्थक नाम है। आज के दिन जो तूने यह काम किया है यह साधारण बात नहीं है । तूने यह महान कार्य किया है। जिस प्रकार किसी जीव को यमराज पकड कर ले जाता है और कठिनता से वापस देता है उसी प्रकार चतुराई से तूने यह काम किया है। तू बड़ी विलक्षण बुद्धिवाली है जोशिवभूति मंत्री के भंडारी से बुद्धिपूर्वक चतुराई से रत्नों की पेटी लाई है, यह अतीव महत्व की बात है। इस कार्य के संबंध में मैं तुझ से अत्यन्त प्रसन्न हूं। अब यह पूछती हूं कि इस कार्य के बदले में तुमको क्या पारितोषिक दूं, यह बतलावो। ऐसा रामदत्ता ने उस दासी से कहा ॥२५॥ मंदारत्तै वंदनयुं वल्लि पोल मन्नवन।। शंदार नुलयाळ वंदनगि तनक होप्पु काटु दलुं । कंदार कळिट, वेदन् कन् कय्यै मरिया कारिंगये। चिता मरिणयो नी येडान् शिर वंडेछंद मुडियाने ॥२६६॥ अर्थ-इस प्रकार आश्चर्यकारक वार्तालाप होने के पश्चात् वह रामदत्ता रानी अपने पति सिहसेन राजा के पास गई और निवेदन किया कि मंत्री के घर पर निपुणमति दासी को भेजकर जो रत्न मंगवाये हैं वह मैं दिखाने लाई हूं। तब वह राजा उन रत्नों को देखकर महान आश्चर्य में पड़ गए और कहने लगे कि हे देवी! तुम तो महान काम धेनु के समान हो। मैंने जैसा विचार कल्पना की वह सकुशल पूर्ण हो गई । वह राजा बड़ा संतुष्ट हुवा ॥२६६।।' मन्नवन् शेप्प काना मट्रिव नमैच्चनाग । मुन्नमेन्नरसु चेंड़ पडियिदु वेड. नक्कान् । कन्नमेन्नडे इनाळे मंदि रित्ताग वेन्न । सोन्न वोव्वनिगन ट्रन्न सोदित्तर कुळ्ळ वृत्तान् ॥२६॥ अर्थ-वह सिंहसेन राजा इन रत्नों को देखकर विचार करता है कि इस शिवभूति मंत्री ने इसी प्रकार अबतक कई प्रजाजनों को फंसाया होगा, मेरे राज्य में प्रजा को कितनी प्रा. पत्ति हुई होगी, कितनी संपत्ति का अपहरण किया होगा! तदनंतर यह राजा एवं रानी दोनों ने मिलकर विचार किया कि उस भद्रमित्र वणिक के रत्नों का अपहरण मंत्री ने किया सो ठीक है, वह वणिक इतने रोज तक वृक्ष पर बैठा बैठा तथा गलियों में पुकारता था। वह बिल्कुल सत्य था । हमने मंत्री के कथनानुसार उसको पागल समझा। उसको कितना दुख हुवा होगा? हमने उसके साथ महान अन्याय किया । और दोनों ने यह विचार किया कि यह रत्न भमित्र को वापिस दे देना चाहिए; किन्तु रत्न वापस देने के पहले उस वणिक की भी परीक्षा करनी चाहिए ।।२६७॥ मरिण चेप्पु नल्ल वल्ले तरुगणवंद वदिर । कुरिण पट्र मरिणय वांगिवरिणगरण ट्रण मरिणइर् कूटि । परिणत्तनन् वरिणगन् ट्रन्न येळेवकन् परिणदु निद्रा। नित्त नावळत्त सोरु पन्चगर किरव वेंड्रान् ॥२६॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुरामा.श्री. कलामसागर श्री महावीर जेन आराधना के अर्थ-इस प्रकार उस सिंहसेन राजा वे अपने भंडारी को बुलाया और प्राज्ञा दी कि राजकीय भंडार में जितने रत्त रखे हैं वे सब यहां लेकर प्रावो। आज्ञा पाते ही वह भंडारी खजाने में से अमूल्य प्रमूल्य रत्न लेकर थाली में भरकर लाया और राना के सामूख रख दिये । तदनतर उस राजा ने उसी समय निपुणमति दासी द्वारा लाए गए रत्नों को भी रत्नों में मिला दिए । राजा मिहसेन ने उस अद्रमिव वणिक को अपने कर्मचारी को भेजकर बुलवाया। भदमित्र ने पाकर अत्यंत विनय से राजा को नमस्कार किया और मंत्री के साथ अब तक जो जो बातें गुजरी वह सब बतलाऊंगा, ऐसो वणिक ने प्रार्थना की चौर सारे हालात बलिक ने बतलाये ॥२७॥ कच्चट्ट मुलइनाळंवेदनुं वरिणग कंड । विच्चेप्पि लुन् सेप्पुंडे लीयेंबुनी येन्नलोडु॥ में चेप्पु मुळिइ नानुं वेदनं वरणंगि पारा। विच्चप्पेन मरिणचेप्पॅड्रा नेरिमरिण कडग केयान् ॥२६॥ अर्थ-लक्ष्मी के समान रूप को धारण करने वाली रामदत्ता देवी तथा सिंहसेन दोनों उस बणिक से कहने लगे कि हे भद्रमित्र श्रेष्ठी! हमारे यहां जो थाली में रखे हुए रत्नों का ढेर है इसमें जो तुम्हारा रत्न हो वो छांटकर बतलाबो और कहो कि ये मेरा रत्न है। तब उस चरिणक ने खड़े होकर राजा को नमस्कार किया और उस थाली में रखे हुए रत्नों के ढेर में से अपने रत्नों को पहचान कर निकाल लिया और राजा से कहा कि यह रत्न तो मेरे हैं और यह मेरे नहीं हैं ॥२६६ उरत्तयन् ट्रन्नै पारा मन्नन् मुन्नि वन योरु। पिरतय मिडि निडार् पित्तनेन्ना ॥ उरेत खेन्नरसु सेंड, लिलावरोट्र तुंचन। मरकूलत्तव' नाम् कन वारिइन मंडिदं दौडाग ॥३०॥ अर्थ-तब वह राजा मन में विचार करने लगा कि यह रत्न मेरे हैं और अन्य रत्न मेरे नहीं हैं, इसकी पहचान करके इस वणिक ने अपने ही रत्न लिये । इस कारण यह वणिक महा विद्वाम व सद्गुणी है व सच्चा है । मैंने इसके गुणों को न देख कर पागल कहकर इसका तिरस्कार किया, यह मेरी महान भूल है। माज तक मंत्री द्वारा कितने लोग दुखी हुए होंगे कितनों को धोखा दिया गया होमा, कुछ नहीं कहा जा सकता। जैसे समुद्र के मध्य में जहाज के चलते समय भूचाल आ जाये तो बैठे हुए लोगों को कितना दुख होता है । उसी प्रकार इस भद्रमित्र को दुःख हुआ होगा। प्रजा का रक्षक मंत्रो होता है। यदि रक्षक ही भक्षक हो जावे तो इससे और बुरी बात क्या हो सकती है ? ऐसा मन में विचार किया। राजा राक्षसरूपेण, मंत्री व्याघ्ररूपेण, प्रजाश्वानरूपेण-यथा राजा तथा प्रजा। अर्थ-इस कहावत के अनुसार यदि राजा राक्षस रूप धारण करेगा, मंत्री व्याघ्र रूप पारण करेगा, तो प्रजा अवश्य श्वान रूप धारण करेगी और जैसी राजा होगा वैसी प्रजा Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mannmanawwaamananawwarAmAAAAAAAAAAnamnna Anamnama १५२ ] मेह मंदर पुराण होगी। राजा और मंत्री यदि धार्मिक रूप धारण करेंगे तो प्रजा भी उनका वैसा ही अनुसरण करेगी। यथा राजा तथा प्रजा'। राजा या मंत्री यदि अन्यायी या अधर्मी होंगे तो प्रजाजनों को दुःखी करेंगे। कहा भी है कि: प्रभुविवेकी प्रमदा सुशोला, तुरंगमाशस्त्रनिपात धीरा॥ विद्वान् विरागी धनिकश्च दाता, भूमंडलस्याभरणानि पंच॥ अर्थ-राजा के पास पांच रत्न रहते हैं। राजा विवेकी, सुशील स्त्री, घोड़े, शस्त्र विद्या धीर, वैरागी विद्वान धनवान होने पर दातार । यह पांचों मनुष्य के लिए प्राभरण है। राजा कैसा होना चाहिए अहमेवमतोमहिपति, इति सर्वप्रकृतिसान्विता । उदधिरेवनीय सुन्दरी, यःस्वभावान् नस्य विमाणमक्षप्रत्॥ अर्थ-राजा लोगों को संपूर्ण प्राणियों को रक्षा करने की सदैव चिंता होनी चाहिए। प्रजा के दुःख को दूर करने में दक्ष होना चाहिए। जैसे समुद्र संपूर्ण नदियों को अपने अंदर समावेश करके गंभीर रहता है और उपमा देने का कारण बन जाता है उसी प्रकार राजा को रहना चाहिए । आपत्ति आने पर भी प्रजा की हर प्रकार की रक्षा करना राजा का कर्तव्य हो बाता है। यौवनं धनसम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकता। एकैकमप्यनर्थाय, किमु यत्र चतुष्टयम् ॥ अर्थ-यौवन का मद, सम्पत्ति का मद, राज मद, अविवेक मद यह एक से एक बढ़कर है । यदि इन चारों मदों से एक भी मद हो जावे तो कितना अनर्थ करता है और यदि चारों मद मिल जावे तो उनकी गति क्या होगी? मंत्री का गुण मेघावो प्रतिभाषतो गुणपरो श्रीमान् शीलं पटः । भावज्ञो गुणदोषेनिपुणता संगीत वाद्यादिषु ॥ मध्यस्थो मृदुवाक्यधीर-हृदयाः तत्पंडितो सात्विका। भाषा भेद सुलक्षणाः सुकाविभिः प्रोक्ताश्र ते मंत्रिणा । अर्थ-जो मंत्री विद्वान होना चाहिए, कलावंत तथा समस्त भाषा का जानकार होना चाहिए । गुणवान 'ऐश्वर्यवान व कीर्तिमान होना चाहिए। मृदुभाषी तथा प्रवा के भावों को समझने वाला होना चाहिए, कवि भी होना चाहिए। प्रजा के कष्ट को दूर करके हित चितवन वाला होना चाहिए। यदि इनसे विपरीत हो जाये तो मंत्री अनेक प्रकार के पाश्य मार्ग में रत होकर सन्मार्ग पर कुठाराघात करप्रे से धर्मार्थ से पुरुषार्थ जो मोक्ष मार्च के साधक है वह नष्ट हो जायेंगे और धर्म को क्षति हो जाएगी। नीतिकारों ने भी कहा है Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १५३ पत्नी प्रेमवती सुताः सविनयका भ्राता गुणालंकृत, स्नेही बंधुजनः सकांति चतुरा नित्य प्रसन्नः प्रभुः। निरोगी चरपरार्थी सपना प्राप्तव्यं भोग धन, पुण्याणां उदयेण संचित फलं कस्यामि संपद्यते। ना अर्थ-सद्गुण वाली स्त्री सुबुद्धि, सुलक्षणपुत्र, स्नेही, बंधु परस्पर स्नेह करने वाले भाई. प्रौढ, मित्र, प्रजा को प्रिय राजा कपट रहित रखी द्रव्य को देकर याचकों की इस करने वाले भाई, प्रौढ मित्र को भोगने वाला धनी यह सभी को प्राप्त हो जाना पूर्व जन्म का फल है। पूर्व जन्म के पुण्य बिना यह प्राप्त नहीं होता। इस कारण उस मंत्री ने दूसरों के धन का अपहरण करके स्वयं धनवान बनकर तथा उसका सुख भोगने की इच्छा से भद्रमित्र वणिक के रत्नों का अपहरण करके अपने को सत्यघोष की पदवी को प्राप्त करके बतलाने वाला प्रजा पर विश्वास दिलाने वाला ६ शास्त्र १८ पुराण मादि का उत्तम पंडित उत्तम कुल में जन्म लिया और मैं ब्राह्मण हूं ऐसा बतलाता है कभी इस प्रकार का पापाचार नहीं कियाऐसा कहने वाला उस सत्यघोष मंत्री ने उस वणिक के रत्नों का अपहरण करके कितनी अपकीर्ति प्राप्त की है ? मंत्री को ऐसा करना उचित है क्या ? और भी कहा है कि कैसा राजा होना चाहिए शिथिल मूल दृढ करे फूल चूट जल सींचे, उरष डरि नवाय भूमिगत ऊरघ खींचे। जो मलिन मुरझाय देखकर तिनही सुधारे, कूडा कंटक गलित पत्र बाहर चुन डारे । लघु वृद्धि करे, भेदे जुगल, बाड़ सवारे फल भखे, माली समान जो नृप चतुर सो संपत्ति बिलसे अखै । ॥३.०11 भदिर मित्तिरावुन चित्तिर मरिण सेप्पिट्ट । मुत्तिर युन्नदागिल वैत्तिडल कोंडु पोग ॥ वत्तिर मुद्रि यान मत्तग यरुक्कु मन्न । मुत्तिरं येन्न देंड. वित्तग रिट्टदेडान ॥३०१॥ अर्थ- राजा सिंहसेन ने उस भद्रमित्र से फिर कहा कि इन रत्नों में जिन २ रत्नों पर तुम्हारी म्होर (सील) लगी हुई है । उनको चुन लो। इस बात को सुनकर वह भद्रमित्र राजा को नमस्कार करके बोला कि इन रत्नों पर जो म्होरें (सील) लगी हुई है वह मेरी म्होर नहीं है, किसी अन्य की म्होर है ॥३०१॥ तिरवेन तिरंदु पार्लिट् । टिरवमट्रेन वल्ला ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] मेरु मंदर पुराण afरवरु विलय कर, कन । निरैयवं किडंद वेंड्रान ॥ ३०२ ॥ अर्थ - इस बात को सुनकर राजा सिंहसेन ने रत्नों ने ढेर में अन्य रत्न व मुद्रिका आदि मिलाकर पुन: भद्रमित्र से कहा कि तुम मुद्रिका आदि इन में से चुन लो तब भद्रमित्र कहने लगा कि कि राजन् मेरे रत्न भी इन रत्नों में बहुत मिले हुए है ।। ३०२ ॥ fort मिक्क विम्मरिणयं निन, मरिण योडु कलक्कु । म तानुळनो वरियादु नीयुरंत्ताय् ॥ येनिला विले विम्मरिण तन्मयं पाकुं । कण मोडिन, कानेन कावल तुरंतान ॥ ३०३ ॥ अर्थ- - इस जगत में आपके अमूल्य रत्नों के साथ मेरे कम मूल्य के रत्नों को मिलाने वालों के समान और अज्ञानी कौन होगा ? कोई नहीं है, इसलिए उन अमूल्य रत्नों में मेरे अल्पमूल्य रत्नों का रखना अज्ञानोपन है । राजा कहने लगा कि है भद्रमित्र तुम्हारी ग्रांखों में कुछ भ्रम है, यह रत्न तुम्हारे ही हैं गौर करके देखो, घबरावो मत, एक बार और देख लो ||३०३ || - मत्तनल्लवन करुमत्तिन, वरुं पयन, टूरिंदु | सित्त वैत्तलार सैवदोर सोळिल वैय्यत्तिले ॥ वंत वेन्मरिण मरंदु वैगलु मळनेर । पित्तनेंडूनं येळेत्तवर पिळत्तदेन, पेरियोय् ॥३०४॥ अर्थ - इस बात को सुनकर वह आप ज्ञानी है, भली प्रकार जाने बिना आप सोच समझकर करता है । यदि मैं अपने कहना ठीक है । मैं अपने रत्नों की पहचान भूल नहीं सकता ॥ ३०४ ।। बग्गिक हाथ जोडकर कहने लगा कि हे राजन् ! कोई कार्य नहीं करते हैं। ज्ञानी प्रत्येक कार्य को रत्नों को भूल जाऊं तो लोगों द्वारा मुझे पागल इप्पर सुरंत सेप्पिलिट्टमा मारिये एल्लाम् । सेure परिसुनीकि सेऴुमरिण कैडर कोंडान् ॥ मै परी शरिदु तन्मं कैकोंडु पिरिदु विट्ट । श्रोप्पिर मत्तनाय मुनिये पोल वरणग निड्रान् ।। ३०५॥ अर्थ -- इस प्रकार कहकर उस रत्नराशि में मिले हुए अपने रत्नों को पहचान कर भद्रमित्र ने ले लिए और अन्य रत्नों को छोड़ दिये। जिस प्रकार एक प्रमत्तगुणस्थानवर्ती तपस्वी अपने सत्यतत्त्व को समझने के बाद अपने सत्स्वरूप ग्रात्म-स्वरूप को प्रर्थात् स्वपर के ज्ञान को समझकर जैसे जडतत्व को भिन्न जानता है, अपने निज स्वरूप में लीन रहता है उसी प्रकार भद्रमित्र श्रेष्ठी ने अन्य रत्नों को छोड दिया और अपने रत्न ले लिये ॥ ३०५ ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ १५५ मणिइ शिरितु भूतिवैत्तन वागुमुन्ने । कुरिणइवान शैव कुट्रम तीर नी कोरिडेन ॥ बरिणइला माळर् पोल पिरन पोरुळ कोंडु वाळू। परिणइले नरस लेंड्रान परूमरिण वैरतोळान् ॥३०६॥ मर्थ—तब वह सिंहसेन राजा बरिणक से कहने लगा कि, मापके यह रत्न इन रत्नों के ढेर में शिवभूति मंत्री ने रखे होंगे। प्रापको दुख देकर वह मंत्री महान अपराधी बन गया है, इसलिये उसी अपराध के बदले तुम अन्य २ रत्नों को भी ले लो। तब राजा की बात सुन कर बणिक कहने लगा कि अपने धर्म को छोस्कर दूसरे की वस्तु को लेकर वस्तु का अपहरण करने वाला मैं नहीं हूं ॥६॥ मणिय सुसमेल्लान पोळिन वलिदिन् वांगि । इनिल वरप्पि निड म निडिडुम पळियु मेदि ।। मिनिनु कडिदु वीयु याकैयं किळयु मोंबल । मन्नव पेरिय दोंड, मक्कळि पिरवि केंड्रान् ॥३०॥ अर्थ-जिस मनुष्य का मन सदैव परिशुद्ध नहीं रहता है-उस मनुष्य की वस्तु को अपहरण करने से इस जगत में उसके जोबन में अनेक प्रकार के संकट सहन करने पड़ते हैं। क्योंकि यह संपत्ति प्राक' श में बिजली की चमक के समान क्षणिक है.। राजा महाराजा के पास संपत्ति होते हुए भी वे क्षणिक संपत्ति के मोह से ही चक्रवर्ती होते हुए भी नरक में गए हैं। यह सब मोह की लीला है। संपत्ति एक स्थान पर स्थिर नहीं रहती। यह संपत्ति चेश्या के समान है जो कभी इसकी बगल में कभी उसकी बगल में जाती है । यह सब पाप पुण्य का फल है। इस कारण किसी को सुख शांति नहीं मिलती एक दिन सब को छोडकर जाना पडेगा । मोहवश मैं अन्य की संपत्ति को स्वीकार करू', यह मेरे योग्य नहीं है ॥३०॥ तानतिर कुरुत्त मंड, तन किळे कोहिर् शाल । बोनत्र छ पुक्कु निडु मेच्चले इळक्क पण्ण ॥ मानते येळिक्कुं तुइक्किल मद्रवर् कडिप याकु । मूनत्त नरगत्त इक्कुं पिरन् पोल्ळुवक्किन वेवे ॥३०८।। हे राजन् ! दूसरे की संपत्ति यदि मोहवश मैं लेकर जाऊंगा तो वह संपत्ति उत्पा. दन के लिए योग्य नहीं होती। वह संपत्ति अपने बंधु बांधव का स्वयं का नाश करती है। यहां तक कि अन्यायवश अन्य की संपत्ति लेने से स्वयं की पहले की संपत्ति भी नष्ट हो जाती है, और नरक में जाना पडता है ।। ३०८।। पेरिळ विब तु पिनिपगं पिरप्पि वदिन् । मारुवान मुबु शेव विनय पळि वरुष वल्लाल् ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण वेरोंडा लाव दुडो विनयबा निड़ दोंडाल । मारिडाय निड़ दल्लान् मट्रिवन शैव दुडो ॥३०॥ अर्थ- इस जन्म में लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, व्याधि, प्राधि यह छहों अनादि काल से शत्रु के समान लगे हुए हैं। पूर्व कर्मानुसार ये साथ चले आ रहे हैं । मैंने पूर्व जन्म में उपार्जन किए हुए पाप के उदय से वे पाप जब उदय में आने पर मंत्री के साथ विरोध उत्पन्न किया । और पाप कर्म का उपशम होते ही पुनः मुझको मेरी वस्तु मिल गई है। यह सब शुभाशुभ कर्मेन्द्रिय से सारी वस्तुए प्राणी को मिलती हैं ऐसा उस भद्रमित्र ने राजा से कहा। ॥३०६॥ नीदि नोदुवान् पोनिडर नंड, सोन्न। तीदिला मोळि ये केळा दिडिरर शीय सेनन् । वेद वारिणगरणे नीदि नूल कंड वेदनोइक् । कोदिला गुरगति नानॅड. वंदन निलंदु सोन्नान् ॥३१०॥ अर्थ-राजा विचार करने लगा कि जिस प्रकार एक विद्वान पंडित बातें करता है उसी प्रकार यह भद्रमित्र निर्दोष वचन बोलता है। यह बणिक न पंडित है, न सिद्धांत शास्त्री है, फिर भी यह सभी शास्त्रों में पारंगत होने के समान वार्तालाप करता है। उच्चकूल में इसने जन्म लिया है। इस प्रकार उसके गुणों का वर्णन किया। तब भद्रमित्र कहने लगा कि मैं प्रशंसा योग्य नहीं हूं। आप सभी शास्त्रों में पारंगत, निपुण, प्रजापालक, धर्म के प्रति प्र.स्था रखने वाले, प्रजा को धर्म की ओर उत्तेजित करने वाले, धर्म में कटिबद्ध हैं, ऐसा राजा पृथ्वी पर होना कठिन है । इस प्रकार राजा के गुणानुवाद गाये ।।३१०॥ वैयगं पेरिनु पोया वाकिनन् मरणं वंदा । लुय्यला मरु देडालु पिरन् पोरुळ कुळ्ळ वयान । तय्यलाय धरम नीदि शमनिले दया बोळक्कं । वयगाम् तन्निलिदं वणिग नाय बंद वेडान् ॥३११॥ राजा मन में विचार करने लगा कि देखो मैंने कितनी वार उलट पलट करके बणिक से पूछा फिर भी वह अपने धर्म पर अडिग रहा । यदि मैं राज्य भी दे दूं तो भी वह प्रलोभन में नहीं आयेगा। यदि और भी कुछ दूतथा इतनी संपत्ति होने पर भी यह बणिक यह विचारता है कि यह मेरी नहीं है इनसे मोह करना व्यर्थ है। ऐसा विचार कर अपनी रानी से राजा कहने लगा कि हे देवी! धर्म नीति, दयाभाव और सम्यक्चारित्र यह सारी बातें बणिक में कूट २ कर भरी हुई है। यह सज्जन व सत्पुरुष है। पागल व पापी नहीं है । धर्मात्मा, श्रेष्ठिक बणिक है। न्यायोपार्जित धन पैदा करने वाला है। निर्दोष है ॥३१॥ एंडलु देविवेंड वादितन् पक्कत्तार पोल । डिन ळुवगै नेजि निगेंदन ळागनीदि । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १५७ कोंडव बूदितन पाल कोन सेट्टि पट्टस् तन्म। मंड लम् तोंगल वेदन वनिग नुक्कोंदु सोनान् ॥३१२॥ अर्थ-वह रामदत्ता पटरानी अपने पति राजा सिंहसेन की बातों को सुनकर जिस प्रकार वादी अपना मुकदमा स्वयं के अनुकूल फैसला होने से प्रसन्न होता है, उसी प्रकार भद्रमित्र बरिणक के रत्नों को मंत्री द्वारा चोरी किये हुए को निपुणमति दासो के द्वारा प्राप्त हुए थे इस बात को सुनकर महारानी बडी प्रसन्न हुई और सिंहसेन राजा ने शिवभूति मंत्री द्वारा इस अपराध को करने पर मंत्री पद से च्युत कर दिया और उस भद्रमित्र बरिणक को मंत्री पद दे दिया ॥३१२॥ मरिणगळं पोन्नु मुत्रं पिरक्कं भूमि । मणिगळं पोन्मुं मुमुत्तुं वैरमु मडक्कु माडम् ।। मरिणगळं पोण्णं मुत्तू वैरयुम् वडित सैद । वरिणगळु तुगिलं सेंदु मल्लवम् कैकोळ्ळेडान् ॥३१३॥ अर्थ-स्वर्ण रत्न आदि उत्पन्न होने वाली भूमि को, मोती वज्र आदि से भरा हया भंडार तथा अमूल्य पाभरण वस्त्र आदि सभी भद्रमित्र को दे दिये। तत्पश्चात् अपने कर्मचारी को आज्ञा दी कि शिवभूति ने आज तक अन्य लोगों की कितनी संपत्ति व धन आदि को लूटा है, पता नहीं। फिर भी इसके धन में जितने भी प्राभूषण रत्न आदि हों वे सब लूटकर ले प्रावो और भद्रमित्र मंत्री को दे दो ।।१३।। इडं पेरिदुडय्यवर पळिइल कार्य । तोडंगिय मुडित्तलाल विडार्गळे बदु ॥ मडंगळ पोनिदि वरिणगन् मंदिरि । रडन् जल कडंदिदु मुडिद देंड्नर् ॥३१४॥ अर्थ-मनः पूर्वक सत्पुरुष लोग किसी भी कार्य को करने की प्रतिज्ञा करते हैं तो उस कार्य को किसी भी प्रकार की आपत्ति आने पर भी पूर्ण करके ही छोडते हैं, अधूरा नहीं छोडते हैं । इसी प्रकार सिंह के समान शूरवीर उस भद्रमित्र ने शिवभूति द्वारा अनेक दुख देने पर भी अपनी सत्यता को नहीं छोडा । इसी कारण भद्रमित्र की गई हुई संपदा मिल गई मार मंत्री पद मिल गया । यह सब पूर्वजन्म के पुण्य का तथा इनके सच्चरित्र का फल है। ऐसी चर्चा परस्पर में सभी लोग करते थे ।।३१४।। मत्तमाल कळिरु पोगुं वळिइन कुळित्त मान । पोइत्तर शैवु बोळ तु पिडित्तिडु पुलयन् पोल ॥ सत्तिय कोडनेन्नु जरित्तिनार ट्रन्न तेदि। वैत्तिद वैयत्तोडु वंजित्ता निन्न येन्ना ॥३१॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] मेह मंदर पुराण अर्थ-वह सिंहसेन राजा का मंत्री जिस प्रकार एक मदमस्त हाथी रास्ते में जाता है, उसको पकडने के लिए खड्डा खोदकर घास बिछाकर उसमें बनावटी हथनी को खडा कर देते हैं और वह हाथी मस्त होकर उस हथनी के पास जाते ही खड्डे में गिर जाता है, उसी प्रकार वह शिवभूति मंत्री अपने महंकार द्वारा सत्यघोष पद को घोषित करते हुए मायाचार कपट के द्वारा स्वयं ही पापों के खड्ड में गिर जाता है। इसलिए मायाचार तथा कपटाचार अधिक समय तक टिक नहीं सकता । शीघ्र ही प्रकट हो जाता है । जैसे तूम्बी के कीचड का लेप कर उसको पानी में डुबो दिया जावे तो वह पानी में डूबी रहती है, कीचड के हटते ही वह तूम्बी ऊपर मा जाती है, उसी प्रकार सत्यघोष मंत्री की सारी बातें पाप कर्म के उदय से जनता के सामने प्रकट हो गई। यह मायाचार प्राणी को भव २ में दुख देता है। मायाचारी व कपट करना उचित नहीं है । तत्वार्थ सूत्र में उमास्वास्वामी ने कहा है कि: __ "माया तैर्यग्योनस्य"-मायाचार तियंच गति के लिए कारण है, इसलिए मनुष्य गति से सुगति प्राप्त करना चाहते हो तो मिथ्या माया निदान इन तीनों शल्यों को त्याग करना चाहिये । व्रत भी मायाचारी को नहीं होता है। निःशल्योक्ती-शल्य रहित मनुष्य को व्रती कहते हैं। यदि शल्य सहित होगा तो उसका कभी संसार से उद्धार नहीं हो सकता। ॥३१५॥ कोबिया वस्सु नीदि कुरै पडा वगैईनान्मा। पाविया मिवन भूलिन् पडिनार कडिगवेन ॥ नाभिकालत्ति निप्पा नडकिड लिन् । दीविगा मरणत्ति नगिळ शैवदु तेरिदु सोनार ॥३१६॥ मरित्त वाय करित्तु मल्लर मुप्पदु सवट्ट तिडो । केडुत्तिरा बडिरोरुत्तिन शान मुत्तालं तीट्रि॥ पडत्तमा उनत्त, कोंडिट डिप्पदि निड़ म पोग । बडित्तला वंड मेंड्रा ररसनप्पडि शेगेंडान् ॥३१७॥ अर्थ-उस समय सिंहसेन राजा अत्यन्त क्रोधित होकर उस पापी सत्यघोष को उसके द्वारा किये हुए अपराध का राजनीति विधान के अनुसार दण्ड देना चाहिये, ऐसा विचार करके राजनीति में भली प्रकार जानने वाले न्यायाधीश आदि से पूछताछ की कि महाराजा नाभि के समय में जो दण्ड विधान था वह अलहदा था, अब इस समय हुडावसपिणी काल है, और कर्मभूमि में परिवर्तन कर रहा है,अतः इनको कौनसे शासनानुसार दण्ड __ चाहिये, ऐसा राजा ने आमंत्रित न्यायाधीशों से पूछा। तब सभी ने मिलकर यह विधान बनाया कि बडे पहलवानों द्वारा गदा डंडों आदि से शिवभूति को बत्तीस बार घूसा मार लगानी चाहिये या एक टोकरी भर बैल का गोबर खिलाना चाहिये और आज तक जितनी संपत्ति मादि की कमाई की है वह सब छीन ली जाय और इस नगर से उसको निकाल दिया जाय। ऐसा समा में सभी नीतिकारों ने विधान बनाया। तब राजा सिंहसेन ने अपने कर्मचारियों को बुलाकर प्राज्ञा दी कि विधानानुसार शिवभूति, को दंड दिया जावे। तब मन्मथ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १५६ सिंह के समान बडे पराक्रमी पहलवान आदि राजा के वचन सुनकर, गदा, प्रायुध लेकर शिवभूति के घर पर गये और उनका घरबार सब जाकर लूट लिया ।।३१६।।३१७।। कुरिण शिल कडवळ पोलुं कोट्रवन कुरिप्पै नोका । परगइन वेजिलै कळदि पाडिकापार्गळ सूळं दार ।। निनवरु पेरिय शेलवं निनिप्पदन मुन्नं नीराय । परिणयिन् मुन्मलरं द सेंदामरित्तडं पोंड दंड ॥३१८॥ मलै मिर्श शिंग वे, वरुत्तु मान कंड, पोल । तलै मिशै शवटै इटु शानगं तीट्रि इट्टार ॥ पुलयर शंडवने सूळ्दुं पोगेन उरैप्प सुद्र। मलै कडर् कलिळ नावा यवरुट्र दुट दंड ॥३१६॥ अर्थ-लोभ के वशीभूत होकर जीव क्या २ काम नहीं करता? वह कार्य प्रकार्य का कभी भी विचार नहीं करता है । गुण भद्राचार्य ने अपने प्रात्मानुशासन में कहा है किः विषधारी सर्प के तुल्य, अनेक भव पर्यंत दुःख देने वाले भोगों को सेवने की अत्यंत उत्सुकता धारण करके मैंने आगे के लिए दुर्गति का बंध किया, अतएव अपने उत्तर भवों को नष्ट कर दिया। और अनादिकाल से लेकर अभी तक मरण के दुख भोगे, तो भी तू उन दुःखों से डरता नहीं है । निर्भय हो रहा है । जिस २ कार्य को श्रेष्ठ जनों ने बुरा कहा उसी २ को तूने अधिकतर चाहा और किया। इससे जान पडता है कि तेरी बुद्धि नष्ट हो गई है और तुझे ग्रागामी सुखी होने की इच्छा नहीं है । इसीलिये तू निन्दित कार्य करके अपने सर्व सुख वृथा नष्ट करना चाहता है । ठीक ही है -काम क्रोध रूप बडे भारी पिशाच का जिसके मन में प्रवेश हो जाता है वह क्या नहीं करता है ? उसको हिताहित का विवेक कहां से रह सकता है ? तत्पश्चात् सभा में रहने वाले सभी लोगों ने मिलकर जैसे पर्वत की चोटी पर बलवान सिंह रहता है उसको क्षुद्र जंतु भी मारकर नोचकर खा जाते हैं, उसी प्रकार सभी लोगों ने उस शिवभूति को खूब मारा पीटा, गोबर खिलाया और पहलवानों के द्वारा गदाओं तथा मुक्का आदि से उसको मरवाया। और मार पीट कर नगर के बाहर निकाल दिया। तब शिवभूति उस नगर को छोडकर अन्य स्थान पर चला गया। उस शिवभूति के सभी कटम्बी जिस प्रकार माल से भरा हा जहाज समद्र में डूब जाता है और संबंधित व्यापारी दुखा होते हैं उसी प्रकार दुखी होकर शिवभूति पर आपत्ति आने पर वे सब दुख समुद्र में डूब गये ।।३१८।।३१६।। मुन्पगर देवनेंड. मोय तुडन पुगळ पट्टान् । पिर्पगल पेयनेड, पिनसेला दिगळ पट्टान् ॥ अंबुरु मिळमै मूपिलरिवयर कोरुव नुतान् । मुन्बुतान् शैदु वंद विधि मुरै उदयत्ताले ॥३२०॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुरारण अर्थ -उस मंत्री के पूर्व जन्म में किए गये पुण्य का जब तक बल था और जब वह राज्य सभा में जाता तब उस समय रास्ते में लोग उसको नमस्कार करते थे। उसकी स्तुति करते थे वही लोग आज उनके अपराध के प्रति इसको अपशब्द कहते हुए, इसके साथ मारपीट करते हैं, तथा घोर निंदा कर रहे हैं। जिस प्रकार मनुष्य यौवन अवस्था में तरुण स्त्रियों के साथ प्रेम करते हैं, वे ही मनुष्य वृद्धावस्था में उसका तिरस्कार करते हैं। वही दशा शिवभूति की हुई । इसका सारांश यह है कि तीव्र पंचेन्द्रिय में लालसा रखने वाले की क्या दशा होती है । इसके संबंध में प्राचार्य कहते हैं: - १६० ] श्राशागर्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमरणपम् । कस्यकिं कियदायाति वृथा वो विषयैषिता ॥ 1 अर्थ - प्रत्येक जीव का आशा रूपी खड्डा इतना विस्तीर्ण है कि जिसमें संपूर्ण संसार यदि भरा जाय तो भी वह संसार उसमें श्ररणुमात्र के तुल्य दीखेगा । अर्थात् सभी संसार उस खड्ड े में डाल देने पर भी वह खड्डा पूरा नहीं हो सकता किंतु वह पडा हुआ सारा संसार एक प्रणु मात्र जगह में ही आ सकता है । परन्तु तो भी ऐसी विशाल प्राशा रखने मात्र में क्या किसी जीव को कुछ भी मिल जाता है ? इसलिये ऐसी आशा रखना सर्वथा वृथा है । यदि आशा रखने से कुछ मिले भी तो किसको ? आशा तो सभी संसारी जीवों को एक सी लग रही है । और प्रत्येक प्राशावान यही चाहता है कि सर्व संसार की संपदा मुझे मिल जाय । अब कहो, वह एक ही सम्पदा किस किस को मिले ? इधर यदि प्रत्येक प्रारणी की आशा का प्रमाण देखा जाय तो इतना बडा है कि एक जगत् तो क्या ऐसे अनंत जगत की संपत्ति उस गर्त में गर्क हो जाय, तो भी वह गर्त पूरा नहीं हो पावेगा । पर प्राता जाता क्या है ? केवल मनोराज्य की सी दशा है। केवल बडी २ आशा करके बैठना प्रथम श्रेणी के मूर्ख का लक्षण हैं । आशा करने वाला केवल अपनी धुन में ही सारा समय निकालता है। करता धरता कुछ नहीं । उसकी बुद्धि धर्म में भी नहीं लगती है और कर्म में भी नहीं लगती है । इसलिये धर्म कर्म बिना वह सुखी कहां से हो ? उसकी दशा एक शेखचिल्ली की सी हो जाती है कि जो सराय के द्वार पर बैठा हुआ भीतर आये हुए घोडे, हाथी, धन, दौलत वगैरह को देखकर अपनाता हुआ खुशी होता था, और रात बसेरा कर जाते हुए दिलगीर होता था । क्या उसको ऐसी केवल आशा घर के निष्क्रिय बैठने से कुछ मिल जाता था ? कुछ नहीं । यही दशा केवल आशाग्रस्त सभी संसारी जीवों की है। इसलिए आशा छोडकर निश्चय व्यवहार रूप धर्म में लगना सभी को उचित है ॥ ३२० ॥ मायसाल से वोव्वि मदिरि वनिगरण ट्रन्न । पेयोत सुळपनि पेरु तुयर मुन्नं सैदान् ॥ मायत्तार, सेप्पुतन के पांगवम् पट्टु पिन्नै । पेयोत्त, सुळंडू. सालप्पेरु तुयर तानु मुद्रान् ॥३२१ ॥ अर्थ-उस मंत्री ने भद्रमित्र के रत्नों को मायाचारी से ठग कर लेकर के उस भद्रमित्र को गली २ में भ्रमण कराया । तदनन्तर रामदत्ता महारानी ने युक्ति पूर्वक उनके साथ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १६१ ~ ~ ~ जुआ खेलकर यज्ञोपवीत व मुद्रिका जीत लिया। और निपुणमति दासी ने अपनी चतुराई व निपुणता से मंत्री के भंडारी से उस मुद्रिका आदि को देकर उसके बदले में रत्नों की पेटी लाकर महारानी को दी और इस कार्य से शिवभूति मंत्री की अपकीति हुई और राजा द्वारा वह दंड का पात्र हुा । कारण:-लोभ कषाय अत्यंत निंदनीय है। इस निमित्त से संसार में अपकीर्ति और कलंक का कारण होकर जगत में एक इतिहास । बन कर रह गया। ॥३२१॥ मरिणयिनाल वरिणगनुक्कं मंदिरि तनक्कं वंद । तनिविला तुयरं पटिन ट्रन्मयशाट्र कंडुम् ॥ पनिविला तुयर माकुं पट्रिन परियु नल्ल । तुनिविलादगिळड़े तुयरंगट किरव रावर् ॥३२२॥ अर्थ-उन रत्नों से भद्रमित्र और मंत्री दोनों को महान दुख उत्पन्न हुआ। इस राग से उत्पन्न होने वाले दुख का सम्यक् दृष्टि रहित अज्ञानी जीवों को अनुभव करना पडता है। जब तक सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता तब तक बाह्य वस्तु को अपना कर यह जीव मोह के द्वारा इस संसार में यत्र तत्र भ्रमण कर दुख ही दुख भोगता है । उनको तिल मात्र भी सुख नहीं मिलता है। यह जीव मोह कषाय के निमित्त क्या अनर्थ नहीं करता अर्थात् सब ही करता है । कहा भी है: वनचरभयाद्धावन देवाल्लताकुलवालधिः, किल जडतया लोलो वालवऽविचलं स्थितः । वत सच्चमरस्तेन प्राणैरपि प्रवियोजितः, परिणततृषां प्रायेणवं विधा हि विपत्तयः। चमरी नाम की गाय जंगली गाय होती है। उसकी पूछ के बाल बहुत ही सुन्दर व कोमल होते हैं। उसे अपनी पूछ पर बडा ही प्यार होता है। यह एक प्रकार का लोभ है । इस प्रेम या लोभ के वश होकर वह अपने प्राण गंवाती है। शिकारी या सिंहादिक हिंसक प्राणी जब उसे पकड़ने के लिये पीछा करते हैं तब वह भागकर अपने प्राण बचाना चाहती है। वह उन सभी से भागने में तेज होती है । इसलिए चाहे तो वह भागकर अपने को बचा सकती है । परन्तु भागते २ जहां कहीं उसकी पूछ के बाल किसी झाडी, आदि में उलझ गये कि वह मूर्ख वहीं खडी रह जाती है। एक पैर भी कहीं आगे नहीं धरती । कहीं पूछ के मेरे बाल टूट न जाय, इस विचार में प्रेमवश वह अपनी सुधबुध बिसर जाती है । बालों का प्रेम उसके पीछे पाने वाले यम दंड को उससे बिसरा देता है। बस पीछे से वह पाकर उसे घर लेता है और उसे मार डालता है। इसी प्रकार जिनकी किसी भी वस्तु में प्रासक्ति बढ़ जाती है वह उसको परिपाक में प्राणांत करने तक दुख देने वालो होतो है अतः किसी भी वस्तु की आसक्ति को भला मत समझो, सभी प्रासक्तियों के दुख इसी प्रकार के होते हैं। जिनकी विषय तृष्णा बुझी नहीं है उनको प्रायः ऐसे ही दुःख सहने पडते हैं ।।३२२।। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] मेरु मंदर पुराण पट्रिनै पदिनाले पदण पट्रिनार। पट ता निडुवै नीरुट परियट्ट तन्नै याकुं॥ पट्रिनै पदिलामै पट्न पट्रि नारै। पट, विट्टिडुंब नीरुट परियट्ट मुळिक्कु कंडिर ॥३२३॥ अर्थ--राग को मन, वचन, काय द्वारा वश में करने वाले द्रव्य क्षेत्र काल, भाव व भव ऐसे पांच प्रकार के संसारी जीवों को परिभ्रमण करना पडता है और रागद्वेष से भिन्न मेरा प्रात्म स्वभाव है ऐसा विचार करने वाला सम्यक्दृष्टि ज्ञानी पंचपरावर्तन का नाश करके प्रात्म शक्ति नाम के मोक्ष सुख को प्राप्त करता है। ऐसा सम्यक्दृष्टि जीव मरण होने के बाद तिर्यंच गति में और ज्योतिष्कदेव, स्त्री पर्याय में, अल्प आयु वाला, दरिद्री, नपुसक, निंद्यकुल में विकृत शरीर आदि को प्राप्त नहीं होता। यह सम्यक् दर्शन की महिमा है। ध्यादृष्टि जोव अपने से भिन्न पर वस्तु में अहंकार ममकार करके संसार परिभ्रमण करता हुमा अनेक दुख उठाता है, ऐसे जीव को मोक्ष की प्राप्ति होना दुर्लभ है ।।३२३॥ मोगमे पिरविक्कु नल्वित्तदु । मोगमे विनतन्नै तन्नै मुडिप्पदु ।। मोगमे मुडिवै केडनिर्पदु। मोगमे पगै मुन्न उयिर कलाम् ॥३२४॥ अर्थ-जन्म मरण रूप संसार के लिये मुख्य मूल कारण परिग्रह ही है । जिससे अज्ञानी जीव पाप कर्म उपार्जन करता है । अज्ञानी जीवों के पाप रूपी बीजभूत को उत्पन्न करने के लिये तथा मोक्ष द्वार को रोकने के लिये परिग्रह ही मूल कारण है। तथा तपश्चर्या के मूल कारण को रोकने में अनन्त सुख देने वाले मोक्ष सुख को रोकने में भी परिग्रह ही मूल कारण है। यही अनादि काल से शत्रु के समान आत्मा के साथ रहकर बंधन का कारण है। मायाचार की निंदा करते हुए प्राचार्य कहते हैं कि: यशोमारीचीयं कनक मृगमाया मलिनिनं, हतोऽश्वत्थामोक्त्या, प्रणयिलघुरासीद्यमसुतः ।। सकृष्णः कृष्णोऽभूत् कपट बहु वेषेण नितरा, मपिच्छद्मालापं तद्विषमिव हि दुग्धस्य महतः ।। मारीच ने स्वर्ण के मृग का रूप रामचन्द्र को छलने के लिए बनाया। इसलिए उसकी निंदा सारे जगत में फैल गई। संग्राम के समय धर्मराज ने एक बार यह घोषणा कर दी कि अश्वत्थामा मारा गया, बस इतने ही कपट के कारण धर्मसुत के प्रेमी जन उन्हें क्षुद्र दृष्टि से देखने लगे । कृष्ण ने बाल्यावस्था में बहुत से कपट वेश धरे थे, इतने ही पर से कृष्ण का पक्ष काला हो गया। थोडा सा भी विष बहुत से दूध में डाल देने से वह सारा दूध बिगड Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १६३ जाता है। इसी प्रकार थोडा सा भी कपट बडे वडों के यश को मलिन कर देता है प्रतएव: भेयं माया महागान्मिथ्याघनतमोमयात् । यस्मिन् लीना न लक्ष्यते क्रोधादिविषमाहयः॥ माया मानो गहरा एक खड्डा है । इसके भीतर सघन मिथ्यादर्शनरूप बहुत अंधकार भरा हुआ है । इसी सघन अंधकार के कारण इस खड्ड में निवास करने वाले क्रोधादिक सर्प तथा अजगर दीख नहीं पाते हैं । जो जीव इस मायागर्त के भीतर आफंसता है उसे ये क्रोधादि भुजंग ऐसा डसते हैं कि फिर वह जीव अनन्तकाल पर्यंत भी सचेत नहीं होता। इसलिये भाई, इस माया से डरो; और भी कहा है कि: प्रछन्नकर्म मम कोपि न वेत्ति धीमान्, ध्वंसं गुणस्य महतोपि हि मेति मंस्थाः। कामं गिलन् धवलदीधिति धौतदाहो, गूढोष्यबोधि न विधुः सविधुन्तुदः कैः।। अर्थ-मैं अमुक एक दुष्कर्म करता हूं, परन्तु छिपकर करता हूं इसलिए इसे कोई भी समझ नहीं सकेगा। इस दुष्कर्म के कारण यद्यपि मुझे बडा भारी पाप लगेगा और अमूल्य व पवित्र मेरे वडे भारी मात्मा गुण का विघात हो जायगा। परन्तु दूसरा कोई समझ नहीं सकता। अरे भाई ! तू ऐसा कभी विचार मत कर । देख, चन्द्रमा में इतना बडा गुण है कि अपनी शीतल किरणों से जगत का अन्धकार दूर करता है तथा सूर्य की किरणों से दिन में संतापित हुए जनों के संताप को दूर करता है। ऐसे चंद्र को राहु चाहे जितना छिपाता रन्तु वह चन्द्र छिप नहीं पाता । छिपाने की हालत में वह यद्यपि दब जाता है परन्तु उस दवे हुए चन्द्र को तथा छिपाने वाले राहु को इन दोनों को ही लोग देखते हैं । ऐसा कौन मनुष्य होगा कि जो ग्रहण के समय उन दोनों के गुप्त कर्म को देख न लेता हो । वस इसी प्रकार चाहे जितना छिपाकर कोई पाप करे परन्तु जाहिर हुए बिना रहता नहीं है । किसी दुष्कर्म को छिपाना इसी का नाम माया या कपट है । जब यह कपट जाहिर हो जाता है मायाचारी के बडे फजीते होते हैं । इसलिये माया रखना बुरा है ।।३२४।। मोगमे तिरियक्कि डैयुयिप्पदु । मोगमे नरगत्तिल विळप्पदु ॥ मोगमे मरमाउदु मुद्रमु। मोगमे भरमासुर निर्पदुम् ॥३२॥ अर्थ-इस परिग्रह रूप पिशाच से गृहस्थ जीव निंदनीय होकर तिर्यंच गति को प्राप्त होता है और वह नर्क कुण्ड में जा पडता है । पाप बध के लिए मूल कारण परिग्रह है। इसको नाश करने के लिए भगवान वीतराग देव द्वारा कहा हुअा अहिंसामयी धर्म तथा मोक्ष Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aara १६४ ] मेह मंदर पुराण मार्ग ही कारण है । कौरव पांडवों पर कलेक के लगने में मूल कारण परिग्रह ही है। भाई बंधु इष्टमित्र प्रादि से क्लेश रखाने वाला यही परिग्रह है। भाई भाई, मां-बाप विरोध तथा प्रापस में शत्रुता भी यह परिग्रह ही कराता है । इसके रहते हुए प्राज तक किसी ने सुख नहीं पाया ।।३२५।। मोगमे निरया निर यायदु। मोगमे मू वुलगिन वलियदु । मोगमे मुनिम किडे पूरदु। मोगमिल्लवर नलमनिवरे ॥३२६॥ अर्थ-यह परिग्रह महान पिशाच के समान है। इसको शांत करने के लिए कोई प्रौषधि नहीं है। तीन लोक की वस्तुएं भी एकत्रित कर ली जांय तो भी शांति नहीं होती। यह सब प्राणियों को दुख दायक है। यह परिग्रह महान तपश्चर्या का नाश करने वाला है। इस कारण महान तपस्वी ही इसको नाश करने को समर्थ हैं। जिस प्रकार अग्नि में लकडी डालने से अग्नि प्रज्वलित होती है उसी प्रकार यह परिग्रह पिशाच के समान है । तपस्थी लोग ही इसका शमन कर सकते हैं, और कोई नहीं ॥३२॥ मेग विल्लोड वींददु पोलवे । भोक, किळयु पोरुळूकेड ॥ सोगमतुयरतुन यागवन् । नेण निद्रव रिन वियबि नार ॥३२७॥ अर्थ-जिस प्रकार विद्यत आकाश में उत्पन्न होकर तत्काल उसी क्षण में नष्ट हो जाती है उसी प्रकार राजभोग संपत्ति, वैभव बंधु, बांधव, हितमित्र, पिता माता, यह सभी जब ऐश्वर्य क्षीण हो जाते हैं फिर कोई भी साथ नहीं देता है। किंतु मोही जीव शरीर संबंधी सभी दाद्य आडंबर को छोडकर मोह ममता से युक्त होकर अन्तमें सभी परिग्रह को तथा मित्र, बंधु, बांधव को छोडकर जाते समय आर्तध्यान रौद्र ध्यान से नीच गति को प्राप्त होता है और महान दुखी होता है । इस प्रकार की चर्चा सभा में बैठने वाले लोग करने लगे। ॥३२७॥ अंगु निद्रव नेगलु मायि। संगै तन्मुरैयेंद्र, तळ वलु ।। मेंगुम वंदिरळाय तिडर का। नुगि नानोडियु नेडिय वायवे ॥३२॥ अर्थ-तदनंतर उस शिवभूति मंत्री ने अपने द्वारा किये हुए कपट तथा मायाचार से प्रत्यन्त दुखी होकर तीव्र पाप को उपार्जन कर लिया, जिसके द्वारा अनेक प्रकार के महान दुख सागर में मग्न हो गया और उनको यह क्षणिक दुख एक वर्ष के दुख के समान प्रतीत होने लगा ॥३२८॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ १६५ M मदले माडमुं मोन्निय शेल्वमुं। कुदले मेन्मोळि यारयुं नीत्तवन् । विदल कोंडु विछंद नन् वदन मेल । मुदलवागिय वेरं मुळेत्तदे ॥३२६॥ अर्थ-प्रत्यन्त सुन्दर महल में रहने वाला, रत्न संपत्ति, अत्यन्त सुन्दर स्त्रियों एवं अपने खजाने को यह शिवभूति मंत्री त्याग करके जाते समय जिस प्रकार रत्नों से भरा हुआ जहाज समुद्र में चलते समय बीच में किसी टक्कर आदि के लगने से डूब जाका है; उसी प्रकार सभी कुछ छोडकर जाते समय वह मंत्री थरथर कांपते हुए नीचे मूर्छा खाकर घबराकर भूमि पर गिर जाता है । उस समय उस मंत्री को सिंहसेन राजा के प्रति महान क्रोध उत्पन्न हुआ और उस क्रोध के निमित्त से प्रात्मा में द्रव्य कर्म, भाव कर्म सहित निदान बंध कर लिया ।।३२६।। यें, तानिये यदुवदेड्रळा। निड वर तति नीरिय वायुर्छ । कुंड वंदु विलगिनु ळायुग । मंड, कट्टिय वायुयु मदे ॥३३०॥ अर्थ-इस प्रकार निदान बन्ध करने के बाद वह मंत्री पुनः अपने मन में विचार करता है कि यह पुत्र, सुन्दर स्त्रियां, संपत्ति प्रादि २ से तथा अनेक प्रकार के रत्नों से भरा हुमा, सुन्दर२ हाथी घोडे आदि अब मुझे कहां से मिलेंगे? अब सब को छोडकर कैसे जाऊ; इस प्रकार मन में अत्यन्त दुखी होकर शोक करने लगा और इस प्रकार वार्तध्यान से तिर्यच गति का उसने बंध कर लिया और प्रायु पूर्णकर तिर्यच हुवा ।।३३०॥ मिस्तु निरि बिळक्कु वींदुळि । भक्कमतिर लग्यु मारु पोल ।। मक्कळायुगं मायं व होळदिने । तिक्क वायुगं सेंड वित्तदे ॥३३॥ अर्थ-जिस प्रकार प्रकाश देने वाला दीपक नष्ट होते ही अंधकार फैल जाता है उसी प्रकार शिवभूति मंत्री ने मरकर अंधकार मय तियंच गति में जाकर पर्याय धारण की। भावार्थ-श्रेष्ठ प्रार्य भूमि, उत्तम कुल, उत्तम वंश, जैन धर्म यह मिलना ही इस जीव को अत्यंत दुर्लभ होता है। ऐसी दुर्लभ मनुष्य पर्याय मिलने पर भी यह जीव पंचेन्द्रिय विषयों में लालायित होकर अनेक प्रकार के कपट मायाचार करके धन संग्रह करता है । इतना करने पर भी इस जीव की तृप्ति नहीं होती। जैसे पशु पर्याय है वैसे ही मनुष्य पर्याय में खा पीकर पशु पर्याय के समान महानिद्यगति में जाकर जन्म लेता है। कितने प्राश्चर्य की बात है ? हिताहित का ज्ञान मनुष्य पर्याय में ही होता है। पशुओं में हेय उपादेय का बोध नहीं होता Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] मेरु मंदर पुराण है, किन्तु यह अज्ञानी मानव प्राणी जिस प्रकार किसी भील के हाथ में अमूल्य मारणक या हीरा दे दें तो वह उसे काच समझ कर कौव्वे उड़ाने के उपयोग में लेता है, उसी प्रकार मानव रत्न प्राप्त करके उसका उपयोग न करने के कारण पंचेन्द्रिय चिडिया उडाने में वह मोती अगाध समुद्र में जाकर पड जाता है और फिर उस रत्न का मिलना अत्यंत दुर्लभ होता है। इसी प्रकार वह मंत्री मनुष्य पर्याय की सारी सामग्री प्राप्त करने पर भी पंचेन्द्रिय विषय भोगों में मग्न होकर अपने पूर्वजन्म में पुण्य के द्वारा सञ्चय किए हुए मानव रत्न को लोभ कषाय की पूर्ति के लिये उसका उपयोग कर अन्त में महान निन्द्य गति को प्राप्त हुआ ।। ३२१।। श्राम गति बोरि पुव्वि । नीच गोतिरम निदितिड ॥ पोयमन्नवन् पोन्नरयर । वायिनन् पयरगंद नागुमें ।। ३३२ ॥ अर्थ-तिर्यंच आयु, तिर्यंच गति, पंचेन्द्रिय जाति, तिर्यच गत्यानुनूपूर्वी नाम, नीच गौत्र आदि ये उस शिवभूति मंत्री के उदय में आने से उस शिवभूति के जीव ने सिंहसेन राजा के कोषागार में गंध नाम की सर्प योनि में जन्म लिया ॥ ३३२ ॥ श्ररसन्मेर करुविर् पोरुळासे इन् । मरियिय मायत्तिन् मदरि मद्रिद ॥ तिर्यक्कायि नन् ट्रियविच्चैगये । मरुवु वारुळ रोमदि मांदरे ॥ ३३३ ॥ अर्थ- -उस राजा सिंहसेन पर किया हुआ बैर ( निदान बंघ) से तथा संपत्ति प्रादि वस्तुओं पर मोहित होने से उस मंत्री ने अपने मन में निदान बंध कर लिया था। इस निदान बंध के कारण तिर्यंच गति में जन्म लिया । परन्तु इस प्रकार स्व-पर पदार्थ के ज्ञानी लोगों के इतनी संपत्ति होने पर रागद्वेष मोह न करने से जो कर्म का बंध होता है, उससे ऐसी निंद्य गति नहीं होती, ज्ञानी लोग ऐसा बंध नहीं बांधते । अज्ञानी लोग ही संसार परिभ्रमरण करके निंद्य गति का बंध बांधते हैं ।। ३३३|| अळविला निधियै विट्टु पिरन् पोरुळदनं मेवल् । कळवुदा निरंडु कुरा मियलबु कारणं कडम्मा ॥ लळविला पोरकुंडा युम् पिरन् पोरुट् किवरळादि । कळवदान् कय दागं कंपोरुळट्र वर्षे ।। ३३४॥ अर्थ-तीन लोक की संपत्ति अपने पास रहने पर भी मुर्ख प्रज्ञानी लोगों की तृष्णा की पूर्ति नहीं होती है । वे मूर्ख लोग इतना होने पर भी दूसरे की संपत्ति का अपहरण करने की भावना रखते हैं । सामान्य रीति से विचार किया जाय तो यह भी एक चोरी है । चोरी Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ and-~-- मेरु मंदर पुराण [ १६७ दो प्रकार की होती है। कार्य चोरी व कारण चोरी । अपने पास कितनी ही संपत्ति रहने पर भी दूसरे का द्रव्य लेना, मायाचार से अन्य का धन लेना, दरिद्रता आने से चोरी करना यह सभी कारण चोरी है । ३३४॥ ईयल्बि नाङ कळवि नार् कट किनिय वान शैग योंड । मुयलुरु मनत्तरागि वांगु व निरैय्य वांगि ॥ कुयलराय कोडुप्प वेल्लाम कुरैयवे कोडुत्तलागु। मुयलुरा रिवै शैयादे योरु पगलोळिय मेलुं ॥३३॥ अर्थ-कार्य चोर:-इसका यह अर्थ है कि कार्य चोरी करने वाले मायाचार से दूसरे के माल को लेते समय अधिक लेना, देते समय कम देना, हमेशा अन्याय द्वारा धन सम्पन्न करना, अन्य का माल चोर लेना आदि यह कार्य चोरी कहलाती है ।।३३५।। मीन् शंड नेरिय पोलुमं विरुविनार वेळकयादि । तान् चंद्रमनत्त मळ्ळर् तास पोरुळदनुक्काग ।। कान चंद्रनेरि पिन मंडिर् सुरु गैइर् कळवु नलिन । कून कोंडु कोळ्ळ कोळ्ळल् कारण कळवुदाने ॥३३६॥ अर्थ-तीव्र परिग्रह की लालसा करने वाले मनुष्य तृष्णा के द्वारा संपत्ति का उपार्जन करने के लिए जिस प्रकार मछली पानी में जाती है उसके जाने के रास्ते का पता नहीं चलता, उसी प्रकार चोर शास्त्र में चोर प्रयोग की विवेचना किए हुए के अनुसार प्रतिश्रमोजनम् निद्रोत्पादनम्, तालोद्धाटनम् ऐसे चोर शास्त्र के विज्ञान के प्रायुध के प्रयोग से दूसरे की संपत्ति को अपहरण करना, ताला तोडना, उसको मूछित कर देना, एडा लगाना मादि २ के प्रयोग द्वारा चोरी करना, यह सब कारण चोर प्रयोग कहलाते हैं ॥३३६।। कोरुळिनै पोलुं शोति तन्नोडुं पुगळे पोकुं । अरुळिनै पोकुं सुद्रम तन्नोडु वायु पोकुं॥ पेरुमैयै पोकुं पेरुत्तन्नोडु पिरप्पै पोकं । तिरुविनै पोकुं तेट्रन तन्नोडु शिरप्पै पोकं ॥३३७॥ अर्थ-"तीरोटु उडमइ उरुही पंडु पोगुम" इस नीति के अनुसार चोरी के द्वारा प्राई हुई संपत्ति थोड़े समय में ही नष्ट हो जाती है, चोर प्रयोग करने से उसको यश कीर्ति का नाश होता है और भगवंत जिनेश का कहा हा धर्म का भी इस कार्य करने से नाश होता है। आगे के लिए दुर्गति का बंध कर लेता है। धैर्य, ऐश्वर्य आदि सभी कीर्ति चली जाती है। इस चोरी के प्रभाव से सुमति का नाश हो जाता है ॥३३७॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मरर पुराण अंगरी कळंदु बोकु मम शिर पिनिय याकू। बैंकयत्तरिय वील्क वेषण नै कविनेद्रि। तोंगुवृत्तोळियुं तूंविर ट्रोलिने युरिक्क पन्नू । कोंगये कुरा मंगै कन्निन कुण्यप्पन्न ॥३३॥ अर्थ-चोर प्रयोग से दूसरे की संपत्ति को हरण करने वाले का शरीर प्रांगोपांग छेदा जाता है । उनको हाथी के पांवों द्वारा मरवा दिया जाता है । शूली पर चढ़ाया जाता है, जिस प्रकार मछली मांस के टुकड़े के लालच से कांटे में अपना गला फंसाकर प्रारण खो देती है उसी प्रकार चोर प्रयोग से चोरी के व्यसनों से चोर प्रयोग करने वाले जीव के प्रांगोपांग प्रादि प्रवयवों को काट देते हैं। इस प्रकार तीव्र वेदना उत्पन्न करने वाले दुःख उत्पन्न करने के लिए चोर प्रयोग ही कारण है ।।३३८।। विळंबेळु नरगत इक्कं वेरुखुरु विलक्कि लाक। मळिवत्ती कुलत्ति लुइक्क मद ना धगत्त ळाक ॥ मिळिवतं सुदृत्ताक पिच्चयु मिडामर काकम् । कळिद नोयुबै याकुं तायर करिय परणं ॥३३॥ अय-चोरी करने वाले जीव चोरी करके अनेक प्रकार के नरक में जा पड़ते हैं। अथवा अत्यंत भयंकर दुःख उत्पन्न करने वाले नरक में जन्म लेते हैं तथा महापाप करने से नीच कुल में जन्म लेते हैं अथवा समय पर खाने को मीन मिले ऐसे निंद्य पर्याय में जन्म लेते हैं या सभी प्रकार के रोग कुष्ट जलोदर मादि से पीडित होते हैं। चोरी करने से अगले भव में माता पिता से विरोध करने वाले होते हैं और माता पिता पुत्र के लिए विरोधी होते हैं। ॥३३॥ मारला कळवदागा विस्मैक्फ मोस्मयोक्क। तीवला माकु मेंड.तेर नवरौ सेप्पु ॥ मूति तानागियाय कळविनै पोदि पोला। नोबियाल प्रमच्चु नोंगा राल्बमुं किळयु नीत्तान् ॥३४०॥ पर्व-इस कारण चोरी करना, चोरी कराना अत्यंत निंदनीय है। यह चोरो इस व परभव में दुखदाता है। ऐसे पोरी का निंद काम करने से शिवभूति अपने मायाचार के कारण मत्री पद से व्युत हो गया, बंधु बांधवों की दृष्टि से गिर गया, उसकी अपकीति हो गई। अतःशानी लोग इस कार्य को निच समझकर त्याग देते हैं। मंदिर बरिर्व येल्लो मनबन मसत्तिबार। शिदिवाधियंदु मोक्का तेस्परिवेश Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ १६६ अंदनन् मिलन ट्रन्न यवन पद बमच्चनाकि । मंदिरं पोल निड़, मण्णिन तांगु मन्नो ॥३४॥ अर्थ-तदनंतर बह राजा शिवभूति मंत्री को कपटाचार मायाचार से चोरी करते हए बरे कार्य करने से मंत्री पद से हटा कर दूसरे को मंत्री पद देने का विचार करके एक बरिणक पुत्र को मंत्री पद दे दिया और अपना राज्य शासन सुख से करने लगा ॥३४॥ तिरंशेरिविलंगु माळि पडिमन्नन् ट्रेवियोडु । मुरै शेरिदिलंगुस कीति युवगै नोड शंवन् । वर शेरिदिलंगुस तिडोळ् वनिगन मदोरु नाळ वाडा। विर शेरिदिलंग वनं सेंड, विरगिर पुक्कान् ॥३४२।। अर्थ-तदनंतर वह सिंहपुर नगर के राजा सिंहसेन अपनी रामदत्ता देवी नाम की पटरानी सहित अत्यंत सुख से समय व्यतीत कर रहे थे । उस समय महा मेरु पर्वत के समान गंभीर धैर्यशाली भद्रमित्र वणिक एक दिन सुख पूर्वक भ्रमण करने के लिए अत्यंत सुगंधित पुष्पों से युक्त प्रतिंग नाम के वन में पहुंचा ।।३४२।। विमाम गंवार मेन्तुं विलंगल इलंगवेरि। यमलमाइलंगुम सिंदै येरुत्तवन् वरदन माविन् । कमल माइलंगुं पांव कैतोळुदिरंजि वाति । तिमिरमां विनगडीर तिरुवर मरुळ्ग वेडान ॥३४३॥ मर्ष-उस सघन वन में रहने वाले विमल गंधर्व नाम के पर्वत की चोटी पर चढकर इधर उधर देखते समय वहां वरधर्म नाम के एक महान तपस्वी मुनी को उस पर्वत पर तपस्या करते देखा । उनको देखकर उनके पास जाकर भद्रमित्र ने साष्टांग नमस्कार करके उनकी स्तुति की, और सामने बैठकर प्रज्ञान वश मेरे द्वारा किए गए कर्मों का नाश हो जाने हेतु कुछ गुरु मुख से उपदेश सुनने का विचार करके अत्यंत निर्मलतपस्वी वरधर्म नाम के मुनि महाराज से प्रार्थना की:-भगवन् मैं अज्ञानी हूँ-सच्चा धर्म के मर्म को मैं नहीं जानता। मुझे जैन धर्म का मर्म बतलाइये, ऐसे प्रार्थना की ।।३४३।। परिवु नाक्षि कांति शांति नल्लडक्क मैंदु । पोरिगळिर् शेरिवु गुत्ति समितियं पोरु वि यास ॥ बरुविय मनत्त वंडम् कारवं शन्न वींद। उरुतव नुरैक लुद्रानुवंद वन् केळ्क लुट्रान् ॥३४४॥ अर्थ-इस प्रकार वह मुनिराज इस भद्रमित्र की प्रार्थना को सुनकर कहने लगे कि हे भव्य प्राणी ! सुनो-सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के प्रति समान परिणाम रखना Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] मेरु मंदर पुराण चाहिए । इन्द्रिय सयम और प्राणि संयम यह दो प्रकार के संयम हैं। पंचेद्रिय विषय में रागद्वेष प्रादि रहित होना इन्द्रिय संयम है। त्रिगुप्ति, पंच समिति, स्थावर और श्रस जीवों पर दया करने को प्राणि संयम कहते हैं। तोन गुप्ति. पांच समिति आदि क्रिया को पालन करने वाले तपस्वी और मनदण्ड और काय दण्ड और वचन दण्ड से युक्त रहने वाले ऋद्धिगारव रसगारव तपगारव से रहित ऐसे वर धर्म मनिराज ने भद्रमित्र को धर्म का उपदेश देना प्रारम्भ किया। और वह भद्रमित्र शांतचित्त होकर बैठकर उपदेश सुनने लगा ।।३४४।। करणयु मरिच मुंडियुरैयुळु मीदल काम । मरुळिला विरैवन् पादं शिरप्पोडु वनंगन मैय ॥ लिरुळ रतेळिदल वेंड्रो किरैव नगर शील । मरुवि निड्रोळुगल माट्रिसुळटि पीर मरुदि देंड्रान् ॥३४५।। अर्थ-मुनि महाराज ने कहा है कि हे भव्य शिरोमरिण भद्रमित्र! तुम आगे की धर्म चर्चा को ध्यान पूर्वक सुनो । गृहस्थाश्रम में रहने वाले भव्य जीवों के लिए संसार रूपी सागर को शनैः शनैः पार करने के लिए प्रथम सम्यकदर्शन उत्पन्न करने के लिए चार प्रकार का दान मुख्य है। सम्यकज्ञान की उत्पत्ति के लिए भव्य साधुजनों को शास्त्रदान सत्पात्रों को भोजनादि अाहार दान तथा भव्य जीवों के रहने के लिए स्थान तथा घबराये हुए को तसल्ली देना अभयदान है और रोग से ग्रसित दुखी प्राणी को औषध देना यह औषध दान कहलाता है। इस प्रकार सदैव चारों प्रकार के दान देना, भगवान की पूजा करना, जिनेन्द्र भगवान द्वारा कही हुई जिनवाणी का शास्त्र स्वाध्याय करना, पांच अणुव्रत, तीन गुणवत चार शिक्षा वत--ऐसे १२ व्रतों का पालन करना यह सब गृहस्थ के कर्तव्य हैं। इनका पालन करना संसार दुःख रूप व्याधि को नष्ट करने के लिए औषधि के समान है ।।३४५।। वदंगळ पन्निरंडु मेरिवय्यग दुइकाट् के इल्ला । मिदं शैयदु वरु दिल वेंतिइड वेन्नै पोंड्रिगि ॥ सिदैत्तिन्ना दन शैदा' मिनियवे शैयदु शिंदै । कंद कडिदोळुग नल्लोर करुणय कोडुत्तलामे ॥३४६॥ अर्थ-सम्यकरूपी रत्न को प्राप्त किया हुआ जीव बारह प्रकार के व्रतों का निर्दोष रूप में सभी जीव को हित करने वाले दयामय धर्म का पालन करना अर्थात् जीव दया पालना, कोई जीव दुखी होने से उसके दुख को देख कर मन में करुणा भाव उत्पन्न होना, किसी पर दुख पाता देख कर उसकी दया करना, किसी के साथ बदला लेने की भावना न रखना, देव मूढता, शास्त्र मूढता, लोक मूढता तीनों मूढता से रहित होना, चौदह अगों का पाठी भिन्नभिन्न रूप से उपदेश देना, संयमी लोगों को शास्त्र देना, सभी शास्त्रदान हैं ।।३४६।। इगियर् मूडमेन्नु मिरुळिनै तुरंदु कोंडु । वेंगदिर पोल तोडि मैमेय विळेक्कि निर्वा ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ मेरु मंदर पुराण मंगपूवादि नलि नरिविन सेरिय दिन् । मंगल तोळिलि नाडु मदियन कोडुत्तलामे ॥३४७।। अर्थ-इस श्लाक में ग्रंथकार ने चार प्रकार के दानों का वर्णन किया है-शास्त्र दान, औषध दान, प्राहारदान और अभयदान । स्व-पर कल्याण तथा साध के वृद्धि एवं शरीर की साधना के लिए सम्यक्दृष्टि श्रावक जो दान देता है उसे आहारदान कहते हैं । यह आहार दान उत्तम मध्यम जघन्य इस तरह तीन प्रकार के पात्रों को दिया जाता है। पात्र का अर्थ ये है कि हिंसा झूठ चोरी कुशील परिग्रह इन पापों से तथा सप्त व्यसनों से रहित, जिनेन्द्र भगवान के कहे हुए वचनों में तथा मार्ग में श्रद्धा रखने वाले गृहस्थ अर्थात् धर्म में आस्था तथा श्रद्धान रखने वाले को दान देना यह जघन्य दान कहलाता है । पांच अणुव्रत चार शिक्षाव्रत, ३ गुण व्रत-इस प्रकार इन बारह प्रकार के व्रतों का पालन करने वाले पहली प्रतिमा से ग्यारह प्रति माधारी जो उत्कृष्ट श्रावक हैं इनको दान देना-मध्यम पात्र दान कहलाता है। और दिगम्बर मूनि को जो दान दिया जाता है वह उत्तम पात्र कहलाता है। लू ले, लंगड़े, दीन, दरिद्री आदि जो जीव हैं उनका दुःख देखकर करुणा भाव सहित दान देना यह करुणा दान है । इनमें कीर्तिदान, समदान आदि आदि दान के कई भेद हैं। केवल प्रशसा के लिए धर्मशाला, औषधशाला, स्कूल, .कालेज आदि खुलाकर अपने नाम के लिए यों कीर्ति फैले यह दान शुभदान नहीं है बल्कि अपनी कीर्ति के लिए है। जो अपने बराबर कोई धर्मात्मा हो उनसे कन्या दान देना लेना धार्मिक भावना रखना-यह समदान है, इसमें भी यह जो दान कहे हैं यह दान जगत में श्रेष्ठ हैं । सत्पात्र दान की महिमा यह है कि सम्यकदृष्टि ज्ञानी पुरुष धन संपत्ति वैभव को सत्पात्रों को दान देकर चक्रवर्ती इन्द्र, तीर्थकर, नागेश्वर के पद को प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं और इसी प्रकार ज्ञानी विषय कषायों से मुक्त होकर चारित्र पालन करता हया उसी भव से मोक्ष जाता है। सबसे पहले भूमि,महल,स्वर्ण, विभूति स्त्री आदि पदार्थों के लोभ रूपी सर्प विष के निवारण के लिए सम्यक् दर्शन सहित तथा वैराग्य रूपी अमोघ मंत्र ही फल प्रद है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। इस प्रकार जो सम्यक्त्व सहित चार प्रकार के दान देता है ऐसा सम्यकदृष्टि इस लोक व परलोक में अपनी कीति से अज्ञानी जीवों का भी कल्याण करता है और स्वयं का भी कल्याण करता है ऐसा विचारना चाहिए ।।३४७।। उडवुनर् वोळुक्कं काक्षियुटवगै नल्लि वंवानाळ् । विडंगोळि वीरं वीडु मैत्तवं दरयंशील॥ मडंगलु मीदानुंडि ईदव नदनाल वैयत्त । तुंडंदु कोंडवर गट कुंडि पोलवदो रुदविरे ॥३४८॥ अर्थ-निर्दोष आहार उत्तम पात्र मुनि को देने वाले भव्य जीवों का शरीर ज्ञान चारित्र, सम्यक्दर्शन, संतोष सुख, नीरोग तथा तपस्वी शरीर दीर्घ प्रायु पराक्रम मोक्ष प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ तप शील सच्चारित्र वाला होता है । इस कारण सत्पात्र दान ही समय है। इन चारों दान से माहार दान श्रेष्ठ है ॥३४८।। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंबर पुराण ऊनोडु तेनं कळल मोडि नंडाय उरि। तानुबंदेवकु.यदिल दानमाम् तानमां तानुमंडा ॥ मूनुन कोडुमे या• मुडन् पटु मूनु नाईं। मान मावबकुँ मदिल वर्षयार पोरुगु मूंड. ॥३४६॥ मर्ष-मच, मांस, मधु इन तीनों मकारों को त्याग करके निर्दोष पाहार देने वाले रातार के द्वारा संतोष पूर्वक देने वाले दान को ही दान कहते हैं। ऊपर कहे अनुसार उत्तम मम्मम, बपन्न इस प्रकार तीन पात्र है। श्रावक को दान देना यह जघन्य दान है । पात्र को भार प्रकार रानरेगा कहा है । सत्पात्रों को दान देना उत्तम दान है ।।३४६ । पुर्व संबालुर उंडगे बलियिना लुइरे पोट्रिन् । मलहनु पेरिपरि बलिइनालुइरे शाल ॥ मलियु मेल नरगसाळंतु नस्लंगळ् पडुमेंडालि । .. कुनै सुंबारा कृषि इर नंद. मामे ॥३५०॥ पर्व-मांस ममण करने वाले जीवों को तथा चोरी करने वाले जीवों को प्राहार दान देने से कुफम मिलता है, वे भोग भूमि में जाकर जन्म लेते हैं नरक में पड़ते हैं इसलिए सप्त व्यसन वाले बीब तथा मांस भक्षण करने वाले जीव को कभी भी आहार दान नहीं देना चाहिए ॥३०॥ बगनिग लरत्ति निदा राँ पिनियाळर मूत्तार। गतिगळ् कुररर् मूगर् कोसतोळिल मनत्त मिलार् ॥ अगत् कनेदि नोक्कळिन् लीद बुरि। मगरिंग मलिद पूणोय महिम बानमामे ॥१५॥ पर्व-दरिद्री मनुष्य व्रताचरण करने वाले भव्य जीव को अथवा व्याधि पीडित, रोग बसित वृद्ध पुरुष, मंगहीन, पंधे, लूले, लंगड़े, व्रतों को पालन करने वालों को अर्थात् एक देशवती श्रावक मादि जघन्य पात्र को दान देना जघन्य दान कहलाता है ॥३५१।। उरविय परिदुमावि मोळक्कत्तै निरति युळ्ळं। पेरि बळि पदाधि नीकि पिररर्फ नंगट्रि पोतीर् ॥ नेरिपिन तागि नींगा बोटिवं विळदल सेय्यु । मुस्तयर कोंब एना उत्तम दान मामे ॥३५२॥ मर्ष-अहिंसा महाव्रत को धारण करके एकेंद्रिय मादि पंचेंद्रिय जीव पर्यंत अर्थात् संपूर्ण जीवों की रक्षा करने वाले, मात्म-साधन में लीन रहने वाले अथवा सामायिक प्रादि पट् भावपश्वक क्रिया में सदैव तल्लीन रहने वाले, पंचेंद्रिय विषयों को रोककर हमेशा प्रारम Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १७३ ध्यान में रत रहने वाले, अपने पर कोई दुष्ट पुरुष द्वारा उपसर्ग करने पर भी दया भाव रखने वाले, सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ऐसे अनंत गुणों से युक्त, मोक्ष की इच्छा करने वाले मुनि को दान देना यही सत्पात्र दान है। यह दान इहलोक और परलोक को सुख देने वाला तथा मोक्ष का देने वाला है। ऐसा समझना चाहिए ।। ३५२ ।। ऊनुडु तेनुंकळळ सुवंदबंप्पिरबु मीदर् । ट्रानमेन्ट रेस तम्मे कोन्हयि कूनै ईवार ॥ दानमुं बयाबु मेल्लास् तांकण्डबार कारण । बीनमेन्ालं केळा रियल्लु -वेरुलगसारे ।। ३५३ ।। धर्व - मधु, मांस, मद्य प्रादि प्रनेक जीव उत्पन्न होने वाले पदार्थ तथा अनन्त काय उत्पन्न होने वाली वस्तु को देना यह दान नहीं है। ऐसा दान देना तथा अपने शरीर का मांस काट कर या दूसरे का मांस काट कर देना यह दान नहीं है । मिथ्या शास्त्र को पढकर दान देने वाले, मिथ्यामतियों के कहे अनुसार चलना, उनको दान देना यह सब मिथ्यात्व है। प्रौर इस प्रकार के दान देने वाले मिथ्यादृष्टि हैं। इसलिए ज्ञानी स्वपर का कल्याण करने वाले संसारी जीवों को सच्चा मार्ग का हित बतजाने वाले महान साधुनों को दान देना उत्तम दान है ।। ३५३ ।। श्रनधमायनन्तमाय गुरणं पुणं दार्व मादि । तनयिला दियल्व निन्दान् ट्रम्मं तन्कन्वंत्तु ॥ निनंतेलं केटु नल्ल सिरप्पदु विनयं नोकुं । कर्नालिसेर कनगं तनगं तनकन् काळत्रौ कळ ु मारे ।। ३५४।। अर्थ - निर्दोष, अंतहित ज्ञान गुरप से सहित राग द्वेष से रहित ऐसे सर्वज्ञ श्रहंत देव का स्मरण करना, उनके वचनों पर विश्वास रखना, सम्यक्त्व सहित उनकी भक्ति, पूजा करना, स्तोत्र पढना इसे भक्ति कहते हैं । जिस प्रकार मलिन धातुद्मों से मिला हुआ सोना प्रग्नि की तपत से शुद्ध होता है उसी प्रकार अनादि काल से आत्मा के साथ मलिन कर्म रूपी कालिमा इनकी ध्यान पूजा व भक्ति से नष्ट होती है ।। ३५४ इरैवनु मुनियु नोलु मियादु मोर्कुट्र मिल्ला । नेरियिनं लेळिवल काक्षियामद निरुत्तु स विट्टि || निरुगु मेन्मययं मूडमारु तोबिनय मिन्द्रि । नेरिविळ कुरन्नलादि यटंम निरंद वेन्द्रान् ॥ ३५५॥ अर्थ - परमात्म स्वरूप भगवंत को अंतरात्मा में रखकर उनका ध्यान रखने वाले निग्रंथ गुरुयों को तथा सभी वस्तुनों का परिज्ञान करा देने वाले परमागम को अर्थात् शास्त्र (जिनवाणी) को संशय रहित होकर उसका ज्ञान कर लेना, संशय रहित श्रद्धा करना यह Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] मेरु मंदर पुराण सम्यकदर्शन है। यह सम्यकदर्शन ही मोक्ष को देने वाला है । सम्यकदर्शन माठ मद, तीन मूढता, छह अनायतन इनसे रहित तथा शंकादि पाठ दोषों से रहित होकर अहंत भगवान द्वारा कहे हुए मार्ग पर श्रद्धान करना-चलना प्रादि व्यवहार सम्यक्दर्शन है ।।३५।। पेरिय कोल पोयिकळव विरमनयि मोरवल् । पोळ् वरदल मत्त मधु पुलसुनाळ नीङ्गल ॥ पेरियदिस दण्डमिरु भोग व दाडल् । मरीयिय सिक्के नान्गुमिव मनयत्तार शीलं ॥३५६॥ अर्थ-त्रस जीवों की हिंसा; असत्य बचन, चोरी, परस्त्री और परिग्रह-कांक्षा इन पांचों पापों को एक देश त्याग करना इसका नाम पांच अणुव्रत है । और मद्य, मांस मधु को नहीं खाना, दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदंडवत, इन तीन गुणवतों को और सामायिक, प्रोषधीपवास,भोगोपभोग परिमाण और अतिथिसंविभाग यह चारों शिक्षा व्रतों को मिलाकर धावक के १२ व्रत होते हैं। इस प्रकार ग्रहस्थ के द्वारा आचरण करने को शीलाचार (श्रावकाचार) व्रत कहते हैं । और पंच व्रतों को पूर्ण रूप से पालन करने को मुनिव्रत कहते हैं। इस प्रकार उन वरधर्म मुनिराज ने भद्रमित्र मंत्री को उपदेश दिया ॥३५६॥ इस प्रकार भद्रमित्र मुनिराज द्वारा उपदेश देने वाला तीसरा अध्याय समाप्त हुआ। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थ अधिकार ॥ पूर्णचंद्र का राज्य परिपालन * अमिर्द करगोळिन् मुनियर उरै शेंड्रोरिप्प । तिमिर मेन निविन तीर्थळूद मदिइर् ॥ कुमुदमेन मलंदुवद माट्र वन कोंडे । यमलनडि मनक्कमला तरुनित्द् वैत्तेढुंदान् ॥३५७।। अर्थ-इस प्रकार वरधर्म मुनिराज का कहा हुआ यह उपदेश जिस प्रकार कुमुदिनी विकसित होती है उसी तरह भद्रमित्र को प्रात्मा में अनादिकाल से चला आया सात प्रकार का उपशम होते ही प्रात्मा में उपशम भाव उत्पन्न हुए और वह अपनी शक्ति के अनुसार व्रत को धारण कर सर्वज्ञ अहंत भगवान की स्तुति करके मुनिराज के सन्मुख खडा हो गया। ॥३५७॥ येळंदु मुनि इरुकमल पादं तो दोत्ति। शेळककग माडमिशै शीय पुरं पोक्कु ॥ मुळंगि येळु मुगिलिर् पोरुन् मुळुईं वरियो' । वळंग मनत्तळुगि युरैत्ताळवन् ट्रनमादा ॥३५८।। अर्थ-तदनंतर वह भद्रमित्र वरधर्म मुनि को नमस्कार करके वहां से चलकर सिंहपुर में जाकर अत्यंत सुन्दर महल में प्रवेश किया। तत्पश्चात् जिस प्रकार आकाश में बिजली चमकती है और मूसलाधार वर्षा होती है उसी प्रकार भद्रमित्र ने अपनी संपत्ति को दीन, अनाथ, याचक जनों को बुला २ कर दान देना प्रारंभ कर दिया । उस भद्रमित्र की माता को इस प्रकार अपने पुत्र का दान देना सहन नहीं हुआ और माता कहने लगी ॥३५८।। कुलं पेरिथ गुणमरिनु वाडिवु कुडि पिरप्पु । पोलंक युडय वर् कलदु पुगल्चि इनितडया॥ इलंगु मनै याळं पोरुळिल्ल विडत्ति गर्छ । मलंगल वर पुरुळागलिनि येळियेत् ॥३५॥ अर्थ-हे भद्रमित्र ! तुम अत्यंत प्रेमी व सद्गुणी,श्रेष्ठी, ज्ञानवान, सुन्दर रूप धारण करने वाले, कुलवान, जगत में कीर्ति के पात्र हो । यह सभी संपत्ति और अनुकूल सामग्री जो मिली हुई है इसका तुमको सदुपयोग करना चाहिये । इस प्रकार की सामग्री पुण्योदय से मिलती है । इसका नाश नहीं करना चाहिये । यदि कदाचित् आगे चलकर गरीबी पा जावे तो बडी कठिनाईयां भुगतनी पडेगी । प्रतः तुम दान मत देवो । घर में संपत्ति रहने से पुत्र, Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] मेर मंदर पुराण बंधु, वांधव, मित्र आदि सभी प्रेम सत्कार करते हैं । यदि संपति न हो तो कोई प्रेम नहीं करता, अतः संपत्ति का नाश नहीं करना चाहिये । ऐसा माता ने भद्रमित्र से कहा ।।३५६।। कावन् मिगुवाय मोलिहिला तरमोडिटिं। पोदरवेनाटु पोरन् मुळ्दु मवनीय ॥ कोदमेरि पोंडवन कोलं. पोंडि सूळंदु । तीवुतनकाकि मनं शिव दोळुगुं वळिनाळ् । ३६०॥ अर्थ-उस भद्रमित्र ने माता के वचनों को सुना किन्तु माता के कहने को माना नहीं और दीन, दुखी, याचक जनों को बराबर दान देता रहा। दान देते समय उसकी माता ने अग्नि के समान प्रांखें लाल करके उसको मारने की भावना करके अशुभ कर्म का बंध कर लिया। और प्रार्तध्यान से अपना जीवन बिताने लगी ।।३६०॥ . प्रांगवन् दन् सोनमरुत्त वळचिइन पोरुळ्ग । नींग वेळु मतित्तिनु मोवुडंबु नीत्त ॥ पूंगोळलि योगिय विंग वनं पुक्कु । वेन्गै मगवाय् मगन् कन् वेरत्तोड़ पिरंदाळ ॥३६१॥ ... अर्थ-उस भद्रमित्र ने अपनी माता के वचनों पर कोई ध्यान नहीं दिया और उसकी माता सुमित्रा सदैव प्रार्तध्यान में लगी रही और मरकर प्रतींग नाम के वन में व्याघ्री उत्पन्न हुई ॥३६१॥ अरुळिनालुहर्कट कीद प्रोपोर निमित्त माग । वेळि नान् माँग वाळुम विमि लिव्वेळे तोट । मिरुळिला देवर् कोयल किट्ट वोर विळक्किन मेले । मरुळिनाल विट्टर पायंदु मरित्तवे पोल्व नोंदे ॥३६२॥ पर्थ-दूसरे को दान देने में धन का नाश होता है। ऐसा विचार व प्रार्तध्यान करने से उस सुमित्रा ने निंद्यगति में जन्म लिया। जिस प्रकार पतंग दीपक के प्रकाश को देखकर उसमें मोहित होकर अपने प्राण गंवा देता है उसी प्रकार सुमित्रा ने प्रार्तध्यान से धन में मोहित होकर अपने प्राण छोड दिये ॥३६२॥ . अप्पच्चक्कान माय कोपलोभत्तिमाले । राप्पट्ट पिरवि याळी वनत्ति तिरियुनाळुळ् । कंपट्ट पोरळे येल्लाम करणे यालियुमंद । मैपट्ट पुगळिनानी वनत्ति विरगिर पुक्कान् ॥३६॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १७७ अर्थ-अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ के कारण उस जंगल में वह सुमित्रा का जीव ब्याघ्री पर्याय को धारण किये हुए हमेशा उस जंगल में घूमती रहती थी। इधर वह भद्रमित्र श्रेष्ठी अनेक दीन दुखियों, याचक जनों को नित्य दान दिया करता था। एक दिन वह भद्रमित्र अपनी स्त्री के साथ घूमने के लिये उसी वन में गया ।।३६३॥ कारणं तानोंडिडिकरमत्तिन करमयाले । वारणिवि लंगुम कोंगे मंगम रोडौ बळ्ळल् ॥ तारणि सोलै कुंडम तन्नुदळे किरियुं पोदिन । वेरनिलिंगुं सिंदै गै निड्दनै कंडान् ॥३६४।। अर्थ-उस सघन वन में घूमते २ अनेक प्रकार के वृक्ष पर्वत प्रादि को देखा और आते समय उस व्याघ्री को भी वन में देखा । जब मनुष्य की प्रायु कर्म की समाप्ति का समय पा जाता है उस समय कोई निमित्त अवश्य मिल जाता है। विधि का ऐसा ही लेख है। उस समय को कोई टाल नहीं सकता। उनकी आयु की समाप्ति का समय मा ही गया हो ऐसा समझ कर उनको वह व्याघ्री दीख पडी ॥३६४।। कंडवत् पेयरमेल्ल कडियदोर् पसिनालु। डिस पवर निर्प वेळंब वेरत्त मोडि। विंडरि विळक्किनमेले मिट्टिल पायं बिट्टदे पोल् । तडिवर मोळिनान् मेर् ट्राय पुलि पायं व बड़े ॥३६५॥ अर्थ-उस व्याघ्री को देखकर वह भद्रमित्र प्रत्यंत भयभीत हो गया और इधर उधर भागने लगा तो पूर्वभव का वैर उस व्याघ्रो को स्मरण हो पाया। और वह व्याघ्री जो कई दिनों से भूखी थी । भूख से व्याकुल होकर प्रति शीघ्र ही जिस प्रकार दीपक पर पतंग उडकर पडता है, उसी प्रकार वह व्याघ्री अपने पूर्व भव के पुत्र भद्रमित्र पर जा झपटी और उसको मारकर खा डाला । ३६५।। वेबिया पसिइन् वाडि बिळु मुईर् किपकंडु । कोविया वंज नेजिर करुण योंडिडि सेत्त ।। तीबिया पिरंदु निड़, मगनयु तिड विद । पाविये पोल किल्लार करुणेयै पैइल्गै मं॥३६॥ अर्थ-भूख से व्याकुल हुई वह व्याघ्री जो पूर्वभव का अपने पेट का भवामित्र नाम का जो पुत्र था और उसने पूर्वजन्म के पुण्योदय से सभी कमाई की थी, उस कमाई में से वह दान माता को सहन न हो सका और वह माता सुमित्रा प्रातध्यान द्वारा भरकर व्याघ्री हुई और अपने पुत्र भद्रमित्र को ही भक्षण कर गई। इस कारण मगे के लिये उसने निचगति Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwer १७८ ] मेरु मंदर पुराण प्रात्त की। इसलिये प्राचार्य कहते हैं कि सदैव करुणादान देना मनुष्य का परम कर्तव्य है । ॥३६६। पिरविगळनंतं तम्मिर् पेट्रताय सुद्रमल्लाल । उरविग बंड मिल्ल यूनिने युंडु वाळवार ॥ मर्मलि मलंतराइतम् मक्कळं तिगिन् रारेन् । रिरवने ईवळुरत्ता ळिड़, तन्मगनै तिडाळ् ॥३६७॥ अर्थ-यह जीव अनादि काल से आज तक अनेक बार जन्म मरण धारण करते हए पाया है। इसकी संख्या को मेरे द्वारा कहना अशक्य है। यदि सारासार विचार करके देखा जावे तो प्रत्येक भव में एकेंद्रिय से पंचेंद्रिय तक हम भाई २, स्त्री का पति, पिता, पुत्र प्रादि २ अनेक बार होते. प्राए हैं । बंधु, बांधव, पुत्र, पिता, मामा मामी, चाचा चाची, काका ताई जो भी संबंधी हैं सभी शुभाशुभ कर्म के प्रभाव से शत्रु मित्र के रूप में हमसे संबंध रखते पाए हैं । यही हाल भद्रमित्र को माता कहलाने वाली व्याघ्री का समझना चाहिए। जिस प्रकार मानव अपनी जिह्वा के लोभ से जीव हिंसा करके अपनी लालसा की पूर्ति कर लेते हैं उसी प्रकार इस संसार में जीव इन्द्रिय-लोलुपता के कारण भक्ष्य अभक्ष्य का विचार न करके उनका सेवन करते हए पेट को कब्र बनाते हैं। यह सभी पूर्व जन्म का किया हया पाप कर्म का उदय समझना चाहिये । इसलिए सर्वज्ञ भगवान के द्वारा प्रतिपादन किया हया शास्त्रों के प्रमाण से प्राणी में हिंसा का भाव पूर्व जन्म के संस्कार से निर्माण होता है । ऐसा भद्रमित्र की माता का हाल एक इतिहास के रूप में बन गया है ।। ३६७।। कदिनार करुदिदिल्लाम् करणयाळीयुं कर्पत् । तरविन मे लुरुमु वीळ सायं ददु पोलभायं टु ॥ . परमव पाने वेंदन ट्रेषिमेर् पट ळळत्तार् । ट्रिरुमगळ नैय्य रामदत्तै नन् शिरुव नानान् ॥३६८॥ अर्थ-वह भद्रमित्र उस व्याघ्रणी के उपसर्ग से मरकर पूर्वजन्म के किये हुए पुण्य के द्वारा दान के प्रभाव से तथा शुभ भावों से मरकर सिंहपुर के राजा सिंहसेन महाराज की पटरानी रामदत्ता देवी के गर्भ में पाया। वह रामदत्ता रानी कौन थी ? उस रामदत्ता ने उस भद्रमित्र पर कौनसा उपकार किया था ? इसका समाधान है कि उस भद्रमित्र वणिक के रत्नों को युक्ति पूर्वक निपुणमति दासी द्वारा शिवभूति मंत्री के भंडारी से चतुराई से मंगाकर रामदत्ता रानी को दिया था। इसी कारण अंत समय में उनके प्रेम से निदान बंध करके रामदत्ता रानी के गर्भ में वह भद्रमित्र का जीव पाया। इस संबंध में प्राचार्य कहते हैं: क्रोधात् व्याघ्रो भवति मनुजो मानतो रासभो स्यात् । मायायाः स्त्रोधनसुखरहितो लोभतः सर्वयोनिः॥ कामात् पारापतिरिति भवेदत्र संबंधभावात् । मोहांध मोही परिजन सुता स्त्री सुता बांधवेषु ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ १७९ क्रोध से मरकर वह सुमित्रा व्याघ्रणी हुई। जयंत मुनि घोर तपश्चरण कर के धरणेंद्र के वैभव को देखकर निदान बंध करके धरणेंद्र हुआ। मोह से भद्रमित्र का जीव रामदत्ता रानी के गर्भ में पाया। इस प्रकार संसार में प्रति मोह करने वाला जीव अगले भव में बंधु भाई पति पुत्र प्रादि होकर दीर्घ संसार में परिभ्रमरण करता है ।।३६८।। कन्निडे वेळुत्तामाम् पोय मुगत्तिडै परकक्काना । नुन्निड तोंड विम्मा कन्नगिल करत्त नोकि ।। पनिडे किडंद नीनसोल पवळ वाय पांडु वाग । मन्निड तोंड मैदर मदिपेट्र दिशय योत्तान् ॥३६॥ अर्थ-महारानी रामदत्ता देवी के गर्भ रहने के कारण उसका मुख कृश हो गया । पेट मोटा हो गया। स्तन काले हो गये। अत्यन्त मृदुभाषिणी हो गई। उनकी दंत पंक्ति दाडिम के दानों के समान तथा होठ लाल माणक के समान प्रकाशमान प्रतीत होने लगे। क्रमशः प्रानंद पूर्वक नव मास पूर्ण हो गये। तत्पश्चात् नौ महिने बाद उसने पुत्ररत्न को जन्म दिया। राजा सिंहसेन अपने पुत्र का चंद्रमा के समान मुख देखकर अत्यन्त संतुष्ट व प्रसन्न हुए । और उनका मुख अत्यंत प्रफुल्लित हो गया। "पुत्र रत्नं महारत्न"। इस कहावत के अनुसार राजा को महान प्रानंद हुआ ।।३६६।। वेयन तिरंड मेंडोन् मेल्लिय लोडुम् वेद । नाइरक्किरनन शेंडदिशे योडु वान योर ॥ पाइरु परवै ज्ञालं पैबोना लाति नायं । शीय चंदिरुनेन ट्रोमै दिसे दोरु पंकिनाने ॥३७०।। अर्थ-पुत्र के जन्म होते ही राजा तथा रामदत्तः देवी दोनों ही को अत्यन्त प्रानन्द हुआ। और पुत्र जन्म की खुशी में दीन,गरीब, दुखी याचकों को ऐच्छिक दान दिया। और शुभ मुहूर्त में विधि पूर्वक नाम संस्कार करके उस बालक का नाम सिंहचन्द्र रखा। अपने नगर में उसके नाम की घोषणा करा दी। ३७०।। मलविला तडतु निड़ मळिनं पोल वळरंदु नन्नार । कुलमेला मेलिय वांगुं कोडुजिलै पयंड. कुंडा ॥ कलयला कडंदु कामं कनिंदन कमल मोट्टिन् । मुलै नल्लार सेतिनार्गळ मुरुगुण्णं, वंडे वत्तान् ॥३७१॥ अर्थ-हमेशा जल से भरे तालाब में जिस प्रकार कमल खिले हुए हैं उसी प्रकार वह सिंहचन्द्र राजकुमार पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान प्रफुल्लित हो रहा था। उस समय राजा ने विचार किया कि यह बालक वृद्धि को प्राप्त कर रहा है प्रतः इसके. विद्याध्ययन का प्रबंध करना चाहिये । तत्पश्चात् उस कुमार को एक प्रोहित पंडित के पास शुभ मुहूर्त में Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ] मेर मंदर पुराण गुरुकुल में भरती कराया। तब वहां के अध्यापक ने अनेक प्रकार के शास्त्र, न्याय, तर्क,व्याकरण व शस्त्र कला आदि २ में उसको निपुण कर दिया । संसार में सबसे श्रेष्ठ एक विद्या ही महान धन है और कोई नहीं है। इस कारण विद्या वाले के पास सभी गुण पा जाते हैं। कहा भी है: विद्या ददाति विनयं, विनयाद्याति पात्रता । पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखं । अर्थ-विद्या से विनय पाता है, विनय से पात्रता प्राती है और पात्रता प्राने से धन संचय होता है । और धन से धर्म की प्राप्ति होती है और धर्म के द्वारा इस लोक और परलोक का साधन है। विद्याधीत्यापि भवंति मूर्खाः । यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् ।। अर्थ-कदाचित् विद्या सीखने पर यदि उसको अभिमान उत्पन्न हो जाय तो उसको मुर्ख के समान समझना चाहिये । विद्या पढने के बाद जिनमें समता नहीं है वह विद्या किस काम की? विद्या पढने के पश्चात् जो सत्क्रियावान होता है तो वह विद्या उसको सदैव के लिये सुख देने वाली है। सुखार्थिनः कुतः विद्या, विद्यार्थिनः कुतः सुखम् । तथाच मातेव रक्षति पितेव हिते नियुक्त । कांतेव चामिरमयत्यनीय खेदं। लक्ष्मी तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्ति । किम् किम् न साधयति कल्यलतेव विद्या। इस प्रकार राजा ने विचार करके अपने पुत्र को सम्पूर्ण विद्याओं में निपुण करा दिया। वह कुमार विद्यानों को प्राप्त करता २ यौवनावस्था को प्राप्त हुआ। राजा ने विचार किया कि कुमार यौवनावस्था को प्राप्त हो गया है इसका अब लग्न करना चाहिये। तत्पश्चात शुभ मुहूर्त में उसका लग्न कर दिया । वह सिंहचन्द्र अत्यन्त सुगंधित पुष्प में जैसे भौंरा मग्न होकर उसका रस लेता है तथा जैसे नदी का मध्य भाग कृश हो गया है, ऐसी नदी के किसी गहरे कुड में लोग क्रीडा करते हैं, उसी प्रकार वह राजकुमार अपनी स्त्री के साथ काम भोग में रत रहने लगा ।।३७१॥ शिलमरल शूळ सिंघ पोदगत्तै पोल । कल पइललगु ला कूमर- कळमु नालुळ ॥ कोले पइल कळिनल याने कोट्रवन् देवि ननपान । मले मिशै मदियं पोल मैंदन मट्रोरुवन् वेदान् ॥३७२।। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १८१ अर्थ-वह राजा सिंहसेन व महारानी रामदत्ता दोनों सुख से समय व्यतीत करते थे। प्रानंद के साथ दोनों दम्पति का समय व्यतीत हो रहा था। इसी समय में रामदत्ता रानी ने पूर्णिमा के चंद्रमा के समान दूसरे पुत्र रत्न को जन्म दिया ।।३७२।। इरवलरेंड. मुनि रिउर् केर वेब बंद । पुरवल कुमार नामं पूर चंदिर नेडागळ ॥ करयोर कडलंताने कावल कुमरर वान । दिरवियु मवियु पोल विरुनिल विचळु नाळाल् ॥३७॥ अर्थ-दूसरे पुत्ररत्न का जन्म होने के बाद सिंहसेन राजा ने उसको देखा और पुत्र जन्मोत्सव की खुशी में प्रजाजन व यांचकों को ऐच्छिक दान दिया और विधिपूर्वक नामकरण संस्कार करके उसका नाम पूर्णचंद्र रखा। वह सिंहचन्द्र और पूर्णचंद्र दोनों राजकुमार जिस प्रकार प्राकाश में सूर्य और चंद्रमा हैं उसी प्रकार वह राजा दोनों कुमारों के साथ मानंद पूर्वक समय व्यतीत करता था ।।३७३।। वारि सूळ वलयन तुयरविडिर । रारि यामदु तानुडनविडं। एरनिदुल गिन पुरि निबुरु। मारि पोर कोडे बंग यम्मन्नने ॥३७४॥ अर्थ-इस प्रकार राजा सिंहसेन अपना समय सुख पूर्वक व्यतीत कर रहा था। समुद्र से चारों ओर घिरे हुए उनके राज्य में प्रजा को यदि थोडा सा भी दुख हो जाता था तो राजा को वडा भारी दुख होता था। तथा जिस प्रकार मेघ वर्षा करके सारी दुनिया को प्रसन्न करता है उसी प्रकार वह सारी प्रजा को हर प्रकार से प्रसन्न और तृप्त रखता था। प्रजा के दुःख को दूर करने वाला तथा प्रजा के लिए बह हितकारक राजा था ।।३०४॥ पोन्नु नन्मणियुं पुनै पूनगर्छ । मण्णु पुण्णर मदोरु नाळपुग ।। पन्नगं मुन्न मामवन पातिडा। मिनिन रत्तिर बीळं देई रूट्रिनान् ॥३७॥ अर्थ-राजा सिंहसेन एक दिन अपने स्वर्ण, रत्न, मोती, मारणक तथा अमूल्य प्राभूषण, वस्त्र आदि से भरे हुए भंडार के तोषाखाने में सहज ही चला जाता है तो पूर्व जन्म में शिवभूति मंत्री का जीव जो मरकर प्रार्तध्यान से सर्प हो गया था वह वहां बैठा हुमा था। उस सर्प ने राजा को देखा और देखते ही पूर्व भव का बैर का स्मरण हो गया और तत्काल राजा को काट खाया । सर्प को काटते ही राजा को विष चढ गया॥३७॥ . Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] मेरु मंदर पुराण पैयर विन विडत्तोडु पार मिशै । मैयलुत्त वेळंदनन् मन्नवन् । वेय्यवनर वत्तोडु मेदिनि । वैश्य नेय्य विछंददु पोलवे ॥३७६॥ अर्थ-वह राजा उस सर्प के विष से ग्रसित होकर जैसे अंधकार फैल जाता है, उसी प्रकार राजा का शरीर विष से अंधकार के समान काला पड़ गया। वह विष इतना भयंकर था कि सारे तोषाखाने में अंधकार सा छा गया। वह राजा विष से मूछित होकर गिर गया ॥३०६॥ कलन नोस कडलुडंदिट्टन । वेल्लइडि येळंद दिया वरुन् । सोनुमेय्यु मरंद नर् सोरं द नर । मल्लियलगु पुत्तिरन मैंदरं ॥३७७॥ अर्थ-उस सिंहसेन के मूछित होकर जमीन पर गिर जाने के बाद जिस प्रकार तालाब का बांध टट जाने पर पानी इधर उधर फैल कर बेकार हो जाता है उसी प्रकार राजा को सर्प के काटने के समाचार सब जगह फैल गये। और कुटुम्बी जनों में हाहाकार मच गया। कर्म की गति बडी विचित्र होती है। मोहो जोव इस मोह के कारण कौन से अनर्थ नहीं करता है ? अर्थात् सभी करता है। क्योंकि उस शिवभूति मंत्री ने माया, छल, कपट, लोभ के द्वारा भद्रमित्र वणिक के रत्नों का अपहरण करके गुप्त रीति से अपने खजाने में रखे थे। परन्तु यह मायाचार कितने दिन रह सकता था। उन रत्नों को अपने निजी पुरुषार्थ से उसने नहीं कमाया था। दूसरे के रत्न होने से उन रत्नों का न्यायपूर्वक राजा ने निर्णय करके भद्रमित्र बणिक को दिलवा दिये थे। फिर भी उन रत्नों के मोह से वह मंत्री प्रार्तध्यान से मरकर सर्प होकर उस सिहसेन राजा के खजाने में बैठा था। उसने यह निदान बंध कर लिया था कि किसी भव में मैं इससे बदला लूगा। इस निदान बंध से खजाने में बैठ कर सर्प होकर उसको काट खाया। यह परिग्रह रूपी पिशाच बड़े २ चक्रवर्ती त्यागी गणों को भी नहीं छोडता है ॥३७७॥ रामदत्तेयु मिन्नोइ रंडिनाल । विराम मुद्दोर मैंगइन वीळं द नल् ॥ करामरी कडल सूळ पडि कावल। निरामे मार पगलं मिरवायते ॥३७८।। अर्थ-राजा सिंहसेन की यह दशा देखकर उस रामदत्ता देवी का राजा के प्रति अधिक प्रेम होने के कारण वह रानी मूर्छित हो गई और दुख से व्याकुल होकर गिर पड़ी। सिंहपुर नगर के अधिपति राजा सिंहसेन के मूर्छित होने के कारण राजमहल व सारे नगर में दिन भो रात्रि के समान प्रतीत होने लगा ॥३७८।। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १८३ गरुड नायवन् कालिली कटकेलाम् । गरुड दंड नेबान नक्कनतिले ।। मरुवि मंदिर मोदवु मन्ननुक् । किरुळ परंदुई रेगिय देगलुं ॥३७६॥ अर्थ-पांव रहित सो को गरुड के समान रखने वाला एक गारुडी (कालबेल्या) राजमहल में आ गया और उसने गरुड मंत्र का जाप्य करना प्रारम्भ किया। तब जितने सर्प थे वे सब सामने प्राकर इकट्ठ हो गये। परन्तु वह भयंकर काटने वाला सर्प वहां नहीं पाया। इतने में राजा सिंहसेन का मरण हो गया ॥३७६।। मैयलुट्रवन् मदिर मोंडिनाल । नेय्योळिक्कि नेरुप्प येरित्तिडा ॥ पयन पननाग मेला मळत् । तुय्यवु नुयक्कोंड रे शंगिड्रेन ॥३८०॥ अर्थ-सिंहसेन राजा की मृत्यु होते ही उस गारुडी ने घृत की आहूति से एक यज्ञ प्रारंभ किया । और मंत्र के द्वारा पाहूति के प्रभाव से सारे सर्पो को बुलाया। तब सारे सर्प इकट्रे हो गये। उन सभी सर्यों को देखकर वह गारुडी कहने लगा कि हे सर्पो ! यदि तुम सुख से जीना चाहते हो तो जो बात मैं आपको कहूं उसको स्वीकार करना पडेगा ॥३८०॥ कुट मिल्लवर् मट्रिन् निरुप्पिनै । युट्र पोदिदं नोरिने योट्टिडं । कुट मिल्लवर् पोनडुवन् ड्रेनि । लिट्र तुम्नुईर येन् केयीलेंडनेन् ॥३८१॥ अर्थ---उस गारुडी ने उन सर्पो से कहा कि यदि तुमने इस राजा को नहीं काटा है और निर्दोष हो तो तुम इस हवन कुण्ड में कूद जानो। यह सब पानी २ हो जायेगा। सों ने गारुडी को यह बात सुनी और गारुडी ने यह बात और कही कि यदि तुमने मेरी बात सुनकर उसे न मानी तो मेरे हाथ से तुम्हारा मरण होगा ॥३८१।। अंजि मट्व नान इरैदिडा। नंजु तारिग नन्निन तोयिनै ।। पुंजु पूम पौगै पुक्कन पोलवे । मुंजु पोइन वंडोळियामये ॥३८२॥ अर्थ-गारुडी की बात को सुनकर वे सभी सर्प प्रत्यन्त भयभीत होकर उसके कहने Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ] मेह मंदर पुराण को मान लिया और जिस प्रकार पानी से भरे हुए तालाब में मछली कूद पडती है, उसी प्रकार सारे सर्प उस हवन कुण्ड में कूद पडे और निर्दोष होने के कारण उस हवन कुण्ड में पानी २ हो गया और सारे सर्प पानी से निकल कर बाहर आ गये । और तत्पश्चात् प्राज्ञा लेकर अपने २ स्थान को चले गये ॥३८२॥ बंद कंदनन् मटन नेरिप्पिन। निड.पुक्किड नीरदु वायदु ॥ शेड. काळ वलत्तिलती मय्या । लंड. लोब शमरम दाइनाय ।।३८३॥ अर्थ-उस राजा सिंहसेन को काटने वाले अंगद नाम के सर्प को भी गारुडी ने मंत्र विद्या द्वारा बलवाया और सों के प्रनसार उसने भी वन कण्ड में प्रवेश किया। कुण्ड में प्रवेश करते ही जिस प्रकार अग्नि में समिध अर्थात् लकडी डालते ही वह लकडी जल जाती है उसी प्रकार वह सर्प तत्काल ही जलकर भस्म हो गया । तदनन्तर अगद नाम का सर्प जो शिवभूति का जीव था वह प्रार्तध्यान से मरकर तीव्र पाप कर्म का बंध करके काल नाम के वन में प्रतिलोभ से वह चमरी नाम का मृग हो गया ।। ८.३।। प्रायु किळयुं मरसु मेल्लाम । माय मेंबवन् पोल मरित्तिडा॥ शीय सेन- तीविन वन्मया। लाईनन् सल्लकी बनत्तानये ॥३८४॥ अर्थ-उस सुनील सिंहसेन राजा ने इस लोक में पूर्व जन्म में किये हुए पुण्य के उदय से प्राप्त स्त्री, भंडार, शयन, वाहन, रथ, पैदल मादि र सर्व साम्राज्य को अनित्य समझ कर तथा जगत को अनित्य बताते हुए उसको ऐसे त्याग दिया जैसे कोई शरीर में से प्राण छोड़ना है। उसी प्रकार वह इस शरीर को छोड देता है। सर्प के काटते हो उसके तीव्र विष द्वारा मरकर उस राजा के जीव ने सल्लकी नाम के वन में जाकर हाथी की पर्याय धारण की। । ३८४।। प्रसनी कोड मेनुं पेय रायवन् । कसनि संदु कडातयल यानय ।। विसनी यापिडी सूळविलंगन मे। लसन मिगुव दाग वमरं वनन् ॥३८५॥ अर्थ-इस प्रकार हाथी की पर्याय धारण किया हुमा सिंहसेन राजा का जीव प्रसनी खोड' नाम से प्रसिद्ध होकर वह हाथी उस सल्लकी नाम के जंगल में जितने हाधी थे उन सन हाथियों में प्रधान होकर सुख पूर्वक काल व्यतीत करता था। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १८५ भावार्थ-प्राचार्य वृहद् सामयिक पाठ में श्लोक ५१ में कहते हैं कि परिग्रह ही इस जीव के पतन का कारण है। अनादि काल से इस ही के कारण जीव संसार में परिभ्रमण कर रहा है। "लक्ष्मी कीर्ति कलाकलाप-ललना-सौभाग्य-भाग्योदया- . स्त्यज्यंये स्फुट मात्मनेह सकला एते सतामजितैः । जन्मांभोधिनिमज्जिकर्मजनकः किं साध्यते कांक्षितं, यत्कृत्वा परिमुच्चते न सुधियस्त त्रादरं कुर्वते ।। 12 . T IC, लक्ष्मी, धन, पुत्र राजपाट, सांसारिक यश, कला, चतुराई, स्त्री आदि सर्व पदार्थ मात्र इस देह के साथ हैं। प्रात्मा का और इनका साथ कभी हो सकता है। एक दिन प्रात्मा को छोडना ही पड़ता है। फिर इनके पैदा करने में, इकट्ठा करने में, प्रबंध करने में बहुत रागद्वेष, मोह व बहुत पाप का संचय करना पडता है। उस पाप से इस आत्मा को संसार समुद्र में डूबना पडता है, दुर्गति के अनेक कष्टों को सहना पडता है, तथा जो बुद्धिमानों के लिये इष्ट है अर्थात् मोक्ष व स्वाधीन आत्मिक सुख है वह और दूर होता चला जाता है । इन स्त्री पुत्र, धनादि के भीतर मोह करने से प्रात्म-ध्यान व वैराग्य नहीं प्राप्त होता जो मोक्ष का साधक है। प्रयोजन यह है कि धनादि पदार्थों का मोह करना वृथा है। इनका संचय करना भी वृथा है, क्योंकि एक तो ये कभी आत्मा के साथ जाते नहीं,स्वयं छूट जाते हैं । दूसरे इनके मोह में प्रात्मा का उद्धार नहीं होता है। प्रात्मा पवित्र नहीं हो सकतो है। इसलिये ज्ञानी को राग ही नहीं करना चाहिये। इनको उत्पन्न करने का भी मोह छोड देना चाहिये। और प्रात्म-कार्य में लग जाना चाहिये। जिस वस्तु को बडे परिश्रम से कष्ट सह करके एकत्र किया जावे और फिर उसे छोडना ही पडे उस वस्तु की प्राप्ति के लिये बुद्धिमान लोग कभी भी चाह नहीं करते हैं । अतः धनादिकी चाह छोडकर स्वहित करना ही हमारा कर्तव्य है ।।३८५॥ नावि नारु कुळलगळ विरिदिडा । अधि पोन कलावि किडंदन ॥ देविय तेरुदा रेडुत्त त्त य । रोवं वण्ण नुरैतुड नोविनार ॥३८६।। __ अर्थ-पिछले श्लोक में कहे अनुसार राजमहल में सिंहसेन महाराज के मरण हो जाने के बाद अत्यन्त सुन्दर काले बालों से युक्त राजा की रामदत्ता पटरानी जैसे मोर अपने पंखों को फैला कर नीचे गिरा देता है उसी प्रकार वह अपने पति (राजा सिंहसेन) के मोह से मछित होकर नीचे गिर गई। सब महल की दासियों ने अनेक प्रकार से उपचार करके उसको सचेत किया और उठाकर बैठा किया। पति वियोग से शोकाकुल होकर वह रानी दुख से विलाप कर रही है । उस दुख को शांत करने के लिये अनेक स्त्रियां और दासियां कई प्रकार की धार्मिक बातें कह करके उनको समझाना प्रारंभ किया ।।३८६। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ] मेरु मंदर पुराण तोंड्र नन्निले यादुडनेकेड । लींड्र तायरु मीटु वैत्तेगलु ॥ मांडू वरळ वैदलुं वैयगम् । तोंड्र नंड़ तोडंगिन वल्लवों ॥। ३८७ || ७ अर्थ- वे इस प्रकार समझाने लगीं कि प्रजा को पुत्रवत् पालन करने वाली हे राजमाता ! इस संसार में जितनी वस्तुएं हैं वे सब की सब अस्थिर हैं । उनमें एक भी स्थिर नहीं है । हमको जन्म देने वाले माता, पिता, भाई, बहन इत्यादि जितने भी प्रेमी संगी संगाती हैं वे सब एक दिन छोड़कर चले जाने वाले हैं, ऐसा अनादि काल से होता आया है । यह कोई नवीन बात नहीं है । प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, व्यय रूप से परिमरणन करना है । भावार्थ - यह संसार एक महान भयानक जंगल के समान है । आत्मा अपने स्वरूप को भूल कर पर स्वरूप में तन्मय होने तथा उसी मोह के कारण परिवर्तनशील संसार में परिभ्रमण कर रहा है । परवस्तु के मोह के काररण हिताहित का विचार इस जीव को कभी नहीं हुआ ? उसी को अपना मानकर अनादि काल से जन्म मरण करता आया है । यह जीव अनादिकाल से मोह के वशीभूत होकर चौरासी लाख योनियों में जन्म करते हुए छोडता आया है । जिस पर्याय को धारण किया, उस पर्याय को अपना मानकर छोडते समय दुख करता है । इसलिये यह जीव पंच परावर्तन रूप संसार में अनादि काल से चक्कर लगाता प्रा रहा है। एक क्षण के लिये भो विश्रांति नहीं लेता है । यह सब राग और मोह की महिमा है । इस संबंध में अमितगति आचार्य ने तत्व भावना में कहा है चित्रव्याघातवृक्षे विषय सुखनृरणास्वादनासक्त-चित्ताः । निस्त्रिंशैरारमंतो जन हरिणगणाः सर्वतः संचरद्भिः ॥ खाद्य ंते यत्र सद्यो भवमररणजराश्वापदैर्भीमरूपैः । तत्रावस्थां क्व कुर्मो भवगहनवने दुःखदावाग्नितप्ते ॥ ३२॥ अर्थ-जैसे कोई एक सघन जंगल हो जहां बडे २ टेढे २ वृक्षों का समूह हो, दावाग्नि लगी हुई हो। चारों तरफ से सिंह आदि हिंसक प्राणी घूमते हो और जहां तृण को चरने वाले हरिण निरन्तर हिंसक प्राणियों के द्वारा खाए जाते हों ऐसे वन में कोई रहना चाहें तो कैसे रह सकता है ? जो रहे वही प्रपत्ति में फंसे। इसी प्रकार यह संसार भयानक है। जहां करोडों आपत्तियां भरी हुई हैं जहां निरन्तर दुःखों की आग जला करती है जहाँ प्राणी नित्य जन्मते हैं, वृद्ध होते हैं, मरण को प्राप्त होते हैं। यह प्रारणी इन्द्रिय सुख में मग्न होकर बेखबर रहते हैं । ऐसे जीव शीघ्र ही काल के ग्रास होते हैं, इस प्रकार जगत में सुख शांति कैसे मिल सकती है ? बुद्धिमान प्रारणी को तो इससे निकलना ही ठीक है । आचार्य गुणभद्र ने भी Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १८७ पात्मानुशान में कहा हैं: "प्रसामवायिक मृत्योरे-कमालोक्य कञ्चन । देशं कालं विधि हेतुं निश्चिताः संतु जंतवः।।७।। अर्थ-इस संसार रूपी भयंकर राक्षस से बचने के लिये तुम कहीं भी जामो, एक देश को छोडकर दसरे देश में जानो। एकान्त में भी ऐसे स्थान पर जाग्रो जहां मत्य से संबंध न हो। ऐसा कोई एक काल देखो जिसमें मृत्यु न पा सकती हो। कोई ऐसा ढंग सोचो कि जिस प्रकार चलने फिरने से मृत्यु प्रपना अाक्रमण न कर सके। कोई एक ऐसा कारण मिलानो कि जिससे मृत्यु की दाढ न लग सकती हो। यह सब जब तुम करलो तब तो तुमको निश्चित होना चाहिये कि यहां तो काल नहीं पाएगा। परन्तु यह याद रखो जब तक तुमने इस शरीर से संबंध नहीं छोडा है तब तक ऐसा देश काल हेतु कभी नहीं मिलने वाला है। ऐसे देशादिक तो तभी मिलेंगे जब कि तुम शरीर से स्नेह हटाकर वीतरागता धारण कर अध्यात्म चितवन करने लगोगे क्योंकि ऐसा संबंध तो संसार में कहीं भी नहीं है । एक मात्र संसार छूटकर होने वाली चिदानंद दशा को प्राप्त होने पर है। इसलिये शरीर रक्षा के प्रयत्न में लगे रहने से मृत्यु से छूटना असंभव है । इसलिए इस मोह को छोडना चाहिये । संसार में आज तक कोई वस्तु स्थिर नहीं है। माता, पिता, कुटुम्ब, कबीला सब अनेक २ अायु कर्म के अनुसार मर्यादा छोडकर चले जाते हैं। यह संसार मसार है । इसलिये पाप शांति धारण करें ऐसा धर्मोपदेश राजमाता को दिया ।।३८७॥ शेल्वमं शिलनाळिडये केडु। मल्ललैंड. मुरादवरुम् मिले ।। मल्ने वेंड पुयत्तेलिन मन्नव । रेन इल्ने इम्मणि लिरंदवर ॥३८८॥ अर्थ-पुनः कहने लगी कि हे राजमाता ! संपत्ति, धन, दौलत आदि की तथा सब को मर्यादा पूर्ण होते हो इनका नाश हो जाता है । इस जगत में दुःख को प्राप्त न हुप्रा हो ऐसा प्राणी माज तक देखने में नहीं आया। संसार में शत्रुओं को जीत कर अपनी कीर्ति फैलाने वाले राजा महाराजाओं को भी इस पृथ्वी को छोड़कर जाना पड़ा और अनादि काल से अब तक कितने चले गये हैं, इसकी कोई गिनती नही है ॥३८८।। इरंदवर किरगि नामु मुळुदुमे लिड कारु। पिरंदनं पिरवि दोरं पेट सुटत्तै येन्नि । ळिरंदनाळलगे यादा देवरुक्केंडळ दुमेन्न । तिरतेरिदु नरं दु देवि शिरिदु पोय तेरिनाळे ॥३६॥ अर्थ-हे माना! हमारे राजा सिंहसेन मरण को प्राप्त हुए हैं इस विरह के दुःख Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ] मेरु मंदर पुराण करने से आपको कोई लाभ नहीं होगा। मेरा पति मर गया। इसका विचार करने से कोई फायदा नहीं है, क्योंकि इसी प्रकार भव भवांतरों में कई २ कई वार गजा हुए होंगे और संयोग वियोग अब तक होता चला ग्रा रहा है। यदि उन सब का दम्ब करोगे तो कितना महान असह्य दुख होगा, इसका विचार करो। परम्परा से सत्पुरुषों द्वारा कही हुई बातों की याद करो। आप स्वयं ज्ञानी हो सब जानती हो । अव व्यर्थ ही प्रापको शोक करना उचित नहीं। पाप शोक करना छोड दो इस प्रकार उपचार की बातों को कहकर रामदत्ता रानी को शांत किया ।।३८६।। तेरिनाळ मयंदर तम्नै तरुगेन चप्प नोंद । वेरु पोनडंदु वंदागिरंजि निडवर नोकि ॥ पेरिलेनुं मैचूटि यरसने पिरिदे नेन्न । वारिळि वरयै पोल वोळ दडि तोळ दु वीळं दार ।।३६०।। अर्थ-तदनंतर उस रामदत्ता रानी ने अपने दोनों पुत्र सिंहचंद्र व पूर्णचन्द्र को दामी द्वारा बुलवाया। उन दोनों ने आते ही माता के चरणों में नमस्कार किया। रामदना देवी अपने दोनों पुत्रों से कहने लगी कि पुत्रों ! हमने पूर्व भव में अच्छे पुण्यों का संपादन नहीं किया इसलिये आपके पिता के हाथ से तुम्हारा राज्याभिषेक न हो सका और वे राज्याभिषेक किये बिना ही संसार से बिदा हो गये। इस बात को सुनकर दोनों पुत्र शोकाकुल होकर चरणों में गिर पडे ।।३६०॥ तिरुवनमाळवर तेट्रि शीय चंदिरने नोकि । मरुगुला मगडं सूटि मन्मुळुदाळ्ग वेंड, ॥ पोरुविला ळदनिर् पिन्नै पूर चंदिर नैनोकि । यरशिळंङ कुमर नायनी यमरं दिनि रिक वडाइळ ॥३६॥ प्रथं–तत्पश्चात् रामदत्ता देवी अपने सिंहचन्द्र और पूर्णचन्द्र दोनों कुमारों को धैर्य देते हुए कहने लगी कि हे कुमारो! तुम दोनों को अपने राज्य की जिस प्रकार तुम्हारे पिता राज्य का शासन करते थे उसी प्रकार अब सम्हाल करना चाहिये। ऐसा आशीर्वाद देती हुई प्राज्ञा दो कि सिंहचन्द्र का राज्याभिषेक करो और पूर्णचन्द्र को युवराज पद देओ ॥३६॥ इदिर विभवं तन्न इरु वगियिर सैदु मयिद । रंदरं पिरिदोंड़े डि ईबत्त ळळं, नाळुळ ॥ शिदुर कळित्त शीय शेनन ट्रन वार्ते केटु । वंदनर शांतिरन्य मदियेबा तुरंद मादर् ॥३६२॥ अर्थ-राजमाता की आज्ञा के अनुसार सिंहचन्द्र का राज्याभिषेक करके राज्यपद Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १८९ दिया और पूर्णचन्द्र को युवराज पदवी दी। राजा सिंहचन्द्र सुखपूर्वक राजशासन करने लगा। राजा सिंहसेन के मरण का हाल सुनकर उस नगर में विराजमान शांतिमति व हिरण्यमति यह दोनों प्रायिकाए माता रामदत्ता के पास प्राई ।।३६२।। अंग नूल पपिंड. बल्ला ररवमिरंद लिक्कुं सोल्लार । शिगं नरपाचलादि नोन बोडु शरितु निडान ॥ तंगिय कारण नेजिर् दुरिमा रयिर् गट केल्ला । तिंगळ वेन कुनाइन् देविय कंजु सोनार ॥३९३॥ अथ-वे प्रायिकाए कैसी थी? सम्पूर्ण जीवों पर दया करने वाली, भव्य जीवों को अमृत रूपी धर्मोपदेश का पान कराने की शक्तिवाली, व्रत में अपने शरीर को शुष्क करने वाली, सस्थावर प्रादि सभी जीवों पर दया भाव तथा हित करने में कटिबद्ध थीं। ऐसी वे दोनों श्रेष्ठ प्रायिकाएं चन्द्रमा के समान श्वेत वस्त्र धारण किये रामदत्तामाता से कहने लंगी कि हे राजमाता! ॥३६३॥ अंगर बल्गु त्तारि लरददि येनेय मंगे। मगल मिळंद तेमनोगंडं पावं वाडि ॥ शंगय वनय कंगळ सिदरी नो अळुद पोळ, । वेंकळि यान वेंदन वेळिप्पडा नोळिग उडान् ॥३६४॥ अर्थ-प्रापने अपने पति के मरण होने पर अपने शरीर में रहने वाले शृगार माणक मोती रत्न प्रादि आभरणों को उतार कर त्याग दिया। यह पूर्व में किये हुए पाप कर्म का उदय ही है। ऐसा समझो ! क्योंकि परम्परा से ऐसा ही चला पा रहा है कि जहां जहां जन्म है वहां मरण है । यदि तुम पति के वियोग से दुख करोगी तो वे कभी वापस लौटकर नहीं पा सकते। इस कारण शोक करना भूल जायो। दुख करना संसार बंध का कारण है। क्योंकि पाप ज्ञानवान हो । इस विषय को भली प्रकार समझती हो। फिर भी हम तो निमित्त कारण हैं। आपको सांत्वना देना हमारा मुख्य कर्तव्य है ॥३६४।। पार्वत्ति नरत्ति सिदै यातमा यदनिर पिन्न । वदत्तै उडिय वाय विलंगिडे पिरंदु तीमै ॥ भारत्तै यडंदु सेंड, नरगति पदैप्पर कंडाय । नरोत्त मनत्तैयागि यनित्तमे निनक्के वेंड्रार् ॥३६॥ अर्थ- माताएं पुनः कहने लगी कि हे माता दुख करने से प्रार्तध्यान होता है और प्रार्तध्यान से महान निंद्यगति में जन्म लेना पडता है और वहां अनेक प्रकार के नरक के यातायात के दुखों को सहन करना पडता है। इस कारण इस जगत में उत्पन्न होने वाले पंचेन्द्रिय विषय सुख अनित्य हैं, क्षणिक हैं, कभी भी शाश्वत किसी को रहते नहीं। सब पुण्य पाप Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] मेरु मंदर पुराण - - - का फल है । पुण्य की समाप्ति पर सुख क्षण भर भी नहीं ठहरता। यह वेश्या के समान है जिस प्रकार वेश्या धनिक लोगों की बगल में कभी इसके पास कभी उसके पास रहती है, उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी चंचल है । इसलिए पुनः समझो और प्रार्तध्यान व शोक को शांत करो। ऐसा माथिका माताजी ने कहा ॥३६५।। अळूदि गीसोगन तन्नि लरिय विप्परवि यालाम् । शेळुम् पयनिळत्तिडादे तिरुवंर शेरुदु सिदै । येळदं नल्विशोदि तन्नालिडर् कडल कडंदु पटि। लदिय विनयै विल्लु मरत्त वि तमैक्क वेंडार ॥३६६।। अर्थ-हे देवी! शोकरूपी समुद्र में निमग्न न होकर इस मनुष्य जन्म में अगले भव के लिए शांत और सुख के मार्ग का साधन करना यही तुमको श्रेयस्कर है। क्योंकि मनुष्य गति महान कठिनता से प्राप्त होती है। इस पर्याय से जैन धर्म को भली भांति समझ लो। और धर्म को समझ कर पाशा रूपी समुद्र में न डूबते हुए कर्मों के उपशम करने के लिये शक्ति के अनुसार व्रत नियम ग्रहण करो। उत्तम स्त्री पर्याय को पाकर उससे धर्म का साधन कर लेना यही ठ है। क्योंकि यह स्त्री पर्याय अत्यन्त निंद्य है। पूर्व भव में किए हए मायाचार के कारण, यह निद्य पर्याय प्राप्त हुई है। इसलिए हे देवी! इस शरीर को व्रत और तप के साधन में लगाकर इसका उपयोग करो। यह प्रात्मा अनादि काल से पंचेन्द्रिय विषयों में रत होकर संसार में परिभ्रमण करता आया है। भोगों को ही सुख मानकर जैसे चक्षुरिद्रिय के आधीन होकर पतंग आग में गिर पडता है उसी प्रकार यह प्राणो एक २ इन्द्रियों के वश में होकर संसार सागर में डूबकर महान दुख को भोग रहा है । अतः हे देवी ! आप इस शरीर से भविष्य के लिये व्रत वगैरह का पालन करते हुए नियम से साधन करो, इसी में भलाई है। एक कवि ने कहा है: तनुवं संघद सेवेयोल मनमनात्म ध्यानदभ्यास दोल् । धनम दानसु त्जेयोल दिनमनहद्धर्म कार्य प्रवर्तने । योल्पर्वनोल्दु नोंपि मलोलिदी युष्यमं मोक्षचितने योलतिचुव सद्गृहस्थननघं रत्नाकरा धीश्वरा ! । अर्थ-शरीर का उपयोग मुनि प्रायिका श्रावक श्राविका की सेवा करना मन को प्रात्मध्यान के अभ्यास में लगाना, धन का उपयोग दान व पूजा में लगाना, दिवस भगवान की पूजा आदि में व व्रत विधान में लगाना तथा अपने शेष समय को मोक्ष चितन में व्यतीत करने वाला ही सद्गृहस्थ कहलाता है, और वही पाप रूपी बीज को नष्ट कर अंत में मोक्ष रूपी सामग्री को प्राप्त कर संसार में मनुष्य जन्म को सफल बनाता है। यही मनुष्य जन्म का सार है । अतः हे रामदत्ता देवी! इस पर्याय को धर्म साधन में लगाए रखना हो श्रेष्ठ है। अब आगे के लिए शुभ गति का बंध करो ऐसा दोनों प्रायिकाओं ने धर्मोपदेश दिया ॥३६६। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ १६१ तुवर पर्श नागिर ट्रोय विलच्य मुंडागि नाळ । यवत्तमे पोकिजादे येम्मै मुम्माटर केट। तवत्तोडु विरदं शीलं तक्क न तांगि सिद। युवोड्डु वेरुप्पि नोंडि युरुदिक्क नुळक्क वेडार ॥३६७॥ अर्थ-हे देवो! क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकार के कषायों से उत्पन्न होने वाले कृष्ण, नील और कापोत इन तीन लेश्याओं के दुष्परिणामों को व्रत विधान के द्वारा क्षय करना, पांच अरगुवत तीन गुणवत, चार शिक्षा व्रत ऐसे बारह व्रतों को ग्रहण कर शक्ति के अनुसार तपश्चरण करना ही दुखों का नाश करने वाला मुक्ति का मार्ग है। अतः समस्त सांसारिक भोग सामग्री आदि का त्याग करके संतोष पूर्वक धर्म ध्यान के मार्ग को स्वीकार करना चाहिये । ऐसा प्रायिकाओं ने उपदेश दिया ।।३६७॥ अरुन्तवतार्गळ सोल्लि केटलु निरामइ सित्त। निरुलिय तवत्तदागि बेदन मगर्नकूवि ।। पोरु दिय सेल्वं सुटे पोपुदं पोल मायुं । पिरु विम गुणत्तिनाय नी तिरुवरम् मरव वेडाळ ॥३९८॥ अर्थ-इस प्रकार दोनों प्रायिकाओं ने रामदत्ता देवी को उपदेश देकर उनके दुख को शांत किया। धर्मोपदेश सुनने के पश्चात् उस रामदत्ता माता की इच्छा प्रायिका के धर्मोपदेश के अनुसार द्रत पालन करने की हुई। तदनन्तर वह अपने ज्येष्ठ पुत्र सिंहचन्द्र को बुलाकर कहने लगी कि हे सद्गुरण शिरोमणि कुमार सिंह चन्द्र यह संपत्ति माल, खजाना, हाथी, घोडे सेना आदि सब क्षणिक हैं । इसमें रत होकर जिनेंद्र भगवान द्वारा कहे हुए सद्धर्म मार्ग को कभी भूलना नहीं चाहिये । अब मेरे मन में संयम धारण करने की भावना जागृत हुई है। ।।३६ एंडलु मजि नेज तिळन् शिंगनडप्पदे पोर् । सेंड वन पळिदेळदूं सेप्पिय देनकोलेन । मिडिगळ पूनि नाळ मेल वित्तवं तोडगि नोदर् । कोंडिय दुळ्ळ मेन उसमुद्र नाग मोत्तान् ॥३६॥ अर्थ-इस प्रकार माता के वचनों को सुनकर वह सिंहचन्द्र मन में प्रत्यन्त भय. भीत होकर माता के चरणों में नमस्कार करके खडा होकर पूछने लगा कि हे माता! मापने जो बात कहो वह मेरे समझ में नहीं आई। आप क्या कह रही हैं ? इसलिए पाप मुझे मन्यो तरह से पुनः कहो। ऐसी प्रार्थना की तब वह रामदता देवी सुनकर कहने लगी कि हे पुत्र ! संसार प्रसार है, सर्व वस्तु क्षण भंगुर हैं मेरे मन में संयम भाव ग्रहण करने की इच्छा हुई है। माता के ऐसे वचन सुनकर सिहचन्द्र कुमार अत्यन्त शोकाकुल होकर मूच्छित होकर नीचे गिर गया ।।३६६॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ ] मेर मंदर पुराण कडगमु मुग्युिं सिंद कर्पगं पोन वेळदु। पडिविशे किडंद वीरन परिजन ते तेरि ॥ अडियनेन पिळत्त देनकोलडि कनिर तुरत्तर केन्न । नेडिदु नी हरैय्य नींगळ पिळत्तदोंडिल्ल एंडाळ ॥४००॥ अर्थ-कुमार सिंहचन्द्र के मूच्छित होने से शिर के पाभरण मुकुट हार आदि इधर उधर बिखर गये और वह मूच्छित पडा रहा । उस समय वहां की दासियों प्रादि ने शीतोपचार से कुमार को जागृत किया। तब वह सिंहचन्द्र माता से प्रार्थना करने लगा कि हे माता ! आप इस राजमहल को छोडकर जाने की इच्छा कर रही है, सो मेरे द्वारा ऐसा कौनसा अपराध हो गया है ? तब माता कहने लगी कि हे पुत्र आपने कोई अपराध, भूल व गलती नहीं की है । किंतु मेरे मन में प्रात्म-कल्याण करने की तथा इस पर्याय से आगे की पर्याय का तपश्चरण के द्वारा सुधार करने की भावना उत्पन्न हुई है, और कोई दूसरी बात नहीं है ।४००। मरं पुरिदिलंगु वैवेल मन्नवन् देवि युळ ळं । तिरपुरिदेळद वण मरिद पिन सीय चंदन ॥ रुरंग पुरिदरिगळंड, तोळ दोउन् पडलु नील । निरंपुरिदेळंद वैबा नेरि मैई नीकितारे ॥४०१॥ अर्थ-रामदत्ता नाम की पटरानी के इस प्रकार तपश्चरण करने के विचारों को सुनकर कुमार ने कहा कि आप घर में ही रह कर पडोस के मंदिर में विराजकर धर्म साधन करो ताकि हमको भी प्रापकी सेवा का और धर्मोपदेश सुनने का अवसर मिले। हम अज्ञानी कुमारों को एकदम छोडकर प्रापका जाना ठीक नहीं। इस प्रार्थना को सुनकर माता कहने लगी कि बेटा तुम ज्ञान के भंडार हो । प्रजा वत्सल ज्ञानी, दान व धर्म में लीन हो राज्य कार्य में चतुर व निपुण हो । मुझे शीघ्र स्वीकृति दो। इस प्रकार अपने पुत्र को कहकर संतोषित किया। सिंहचन्द्र ने अपने मन में विचार किया कि मेरी माता ने तप करने का दृढ विचार कर लिया और यह रुकने वाली नहीं है। ऐसा समझकर माता को दीक्षा लेने की स्वीकृति दे दी। वह माता अपने छोटे पुत्र पूर्णचन्द्र से पूछकर वन की मोर चली गई और वहां विराबने वाली प्रायिका माता से दीक्षा लेने की प्रार्थना की ॥४०॥ प्रनिचत्तं पोदु कोइवार पोलमी मयिर बांगि । परिणचप्पं येनय कोंगै पारिण निर परत्तिन बोकि ।। सनि चित्त बैत नंगै तामर पूवि मन्न। पनि सुत्तन् सूट्टवेळ विहाबोर परिवाळ ॥४०२॥ अर्थ-तब मायिका ने रामदत्ता देवी के मन में तीव्र वैराग्य की भावना को देखकर उसको तथाऽस्तु कहकर दीक्षा की अनुमति दी। उसी समय मारिका माता की अनुमति मेकर रामदत्ता ने अपने शरीर के वस्त्र माभरण मादि को उतार दिया,और उन्हें त्याग करके Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ १६३ बारह भावना का चितवन करते हुए मन से एकाग्रचित्त होकर शुद्ध श्वेत वस्त्र धारण कर मायिका दीक्षा ग्रहण की ॥४.२॥ परसिर कुमरन 4 पोनळ विड़ि ईदु पिन्न । पिरस निड़ राद पिडि पिरान ट्रिरु शिर प्पि यट्रि। मरै इरुदवळ सीलु मिरामै तन् नुरवै कंडु । विरै मलर् सोरिंदु वाळ ति मोंडु तन्नगरं पुक्कान् ।।४०३।। अर्थ-उस समय पूर्णचन्द्र अपनी रामदत्ता माता को दीक्षा दिलवाकर उनके चरणों में भक्ति पूर्वक माता के वियोग में अश्रु गिराते हुए उनको नमस्कार किया । दीक्षा उत्सव पर याचक व भिक्षुओं को इच्छित दान दिया और वीतराग भगवान का पंचामृतभिषेक किया तथा पूजा स्तुति करके विसर्जन किया और लौटकर वापस घर पाया ।।४०३॥ मत्तमाल कळिरु वान्क इळंददु पोंडि राम । तत्तय पिरिंदु शोय चंदिरन् शालवाडि ॥ मुत्तनि मुलैनात मुरुषलुं शिरिय नोक्कुम् । पित्तन् वाब पट्ट नल्ल पिरसं पोट्रि रिद वंड ॥४०४।। अर्थ-जिस प्रकार हाथी अपनी सूड में जरा सा घाव हो जाने पर महान व्याकुल हो जाता है और सूड को ऊंची ही रखता है उसी प्रकार सिंहचन्द्र राजा को माता के वियोग न दख हा। उन्होंने अपनी स्त्री के साथ मोह छोड दिया और जो हास्य विनोद आदि करते थे-उनमें वैसे पहले के समान भाव नहीं रहे । जिस प्रकार पित्त का रोगी मीठी वस्तु को खाते ही थूक देता है उसी प्रकार राजा को भी भोगोपभोग विषय भोग आदि में अरुचि होने लगी और शनैः २ संसार भोगों से उसको विरक्तता हो गई ।।४०४।। ईड्रदा येवं दड्रि इरंदनाळ शिरंद वन बिर् । . ट्रोंडिना नादला- पिरिविन मातुमा मुद्रा ।। नांड वर काय नंडि यनुव मामेरु वागि । तोंड, मेळ पिरवि तोरु तोडंदु वीडैदु कारु ॥४०५।। अर्थ-यह सिंहचन्द्र इसी जन्म की रामदत्ता देवी की कुंख से पैदा हुआ अर्थात् इसी रामदत्ता देवी ने भद्रमित्र वणिक के रत्नों को दासी के द्वारा देने के कारण से उनपर स्नेह होने के कारण रामदत्ता देवी के गर्भ में आकर जन्म लिया था। सत्य है सत्पुरुष के द्वारा थोडा सा भी उपकार हो जावे तो उसका आगे बढकर बहुत उपकार हो जाता है । उस समय अल्प किया हया उपकार भी मेरु के समान सात भव तक उसकार के लिये निमित्त बन जाता है। 11४०५॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] मेरु मंदर पुराण पगै वरतं नन्व पोल मैंदोडि पवळ वायार् । मुगै मुलै कण्णं तोळ मुरु वलुं शेरिय बंद ।। उवगै नोडु नाळि लुरुतव नुरुवन् वंदान । पुगरिला नेरिविळक्कुं पूर चंदिर नेबाने ॥४०६॥ अर्थ-शनैः २ सिंहचन्द्र के भावों में तीव्र वैराग्य की भावना होने के कारण अपनी स्त्रियों के साथ, हास्य विनोद व सांसारिक बातें न करना, विषय भोग आदि के वातावरण में मौन रहना । विरोध की चर्चा तथा स्नेह पूर्वक बात न करना । किसी प्रकार का भी व्यवसाय न करना माध्यस्थ भाव से रहना। किसी पर भी स्नेह न करना इस प्रकार रहते हुए संसार भोग के कारण हैं ऐसा विचार कर वह सब चीजों की ओर से उदासीन भाव होकर समय व्यतीत करता था। एक दिन महाव्रतधारी पूर्णचन्द्र नाम के महामुनि चर्या के लिये बिहार करते हुए राजमहल के बाहर से जा रहे थे ।।४०॥ . वंद.मादवन ट्रन सेंदा मरै यडि वनंगि पतु । एवं मिलुवगै यदि ये पोन् मंगलगं कैदि ॥ इंदु वानुदलि नारो डेदिर कोंडु परिणदु पुक्कु। सुंदर तलत्ति नेटि तुगळडि तुगिलि नीकि ।।४०७।। प्रर्थ-उस समय सिंहचन्द्र ने अपयी स्त्री सहित मुनि महाराज को देखा पार दोनों दम्पतियों ने नवधा भक्ति सहित पडगाह कर अपने घर पर लाये और उच्चासन पर बिठा दिया। तदनंतर भक्ति सहित मुनिराज का पादप्रक्षाल किया और चरणों का गंधोदक मस्तक पर लगाकर प्रष्ट द्रव्य से उनको पूजा की। अपने घर में स्वयं के लिये जो शुद्ध पाहार बनाया था उसी में से थाल में परोसकर नवधा भक्ति तथा मन वचन, काय से शुद्धि पूर्वक उन पूर्णचन्द्र मुनिराज को प्राहार दिया। वे मुनिराज निरंतराय आहार लेकर बैठ गये। और अपनी नित्य क्रिया आहार में लगे हुए दोषों के परिमार्जन हेतु मंत्र का जाप्य व सिद्ध भगवान का ध्यान किया। तदनंतर दोनों दम्पतियों ने मुनि महाराज को हाथ जोडकर नमस्कार किया ।।४०७॥ मरिण मलर कळस नीरान् मासर कळुवि वासम् । तनिविळा पाले शांदं सरुविनलरुच्चि ताट्रि।। इन इिला मुनिषन् पाद पनिदु नालमिदं मींदान् । कनिइ नाळ परिणयं पोळदि लमरर शिरप्पुच्चैदार ।४०८। अर्थ-तदनंतर उन मुनि महाराज को बाहर लाकर उच्चासन पर बिठाया । आहार दान के प्रभाव से देवों ने महाराज सिंहचन्द्र के घर पर पुष्प वृष्टि, स्वर्ण वृष्टि, रत्न वृष्टि दातार की स्तुति, दिव्यनाद इस प्रकार पंचवृष्टि की । मुनि के आहार तथा तप के प्रभाव को देखकर अन्य लोगों के मन में जैन धर्म व जैन मुनि के प्रति ऐसी भावना उत्पन्न हुई कि अहा! Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -~~~-~ ~- ~ मेर मंदर पुराण [ ११५ दिगम्बर मुनि को आहार देने के प्रभाव से इन लोगों के घर पर देवों ने रत्नादि की वृद्धि की ।। ४०८ ।। वंदव नियम मुट्रि इरुंद माबंदवन वाळ ति । अंदमुं पिरवि कोंडु बिल्लयो वरूळ गेन । अंद मुंडागुं पान्गै यनिय बकरंद बत्तान् । मैंद मट्वं इलाकु माट्रिड सुचिये याम ॥४०६॥ अर्थ-सिंहचन्द्र ने मुनि महाराज से हाथ जोडकर नतमस्तक होकर प्रार्थना की कि हे प्रभो ! सांसारिक जीवों के लिये संसार का अंत है या नहीं ? इस विषय में मुझे धर्मोपदेश देकर मेरी शंका दूर कीजिये । तब मुनिराज ने सिंहचन्द्र को उपदेश दिया कि जीव दो प्रकार के हैं। एक भव्य दूसरा अभव्य । भव्य जीव के संसार का अंत होता है, अभव्य का अंत नहीं होता । उसको चारों गतियों में हमेशा भ्रमण करना पडता है॥४०६॥ पान्मइन् परिशेन नेग्निर् पळ तलु काट्रल पिदि। ईनमाय पेरिगिवद तिलइडे कनियु मिव्वा ।। ट्र न मोंडि लाद पान्मै उई रिडे कनियुं बोटे । तानं पनि रंडिन् मेय् मै तवत्तिले यडुत्तपोळदे ॥४१०॥ अर्थ-संसारी भव्य जीव कर्मों की निर्जरा करके तपश्चरण द्वारा मोक्ष जा सकता है। जिस प्रकार एक आम के कच्चे फल (कैरी) को तोडकर घास में पकाते हैं, उसी प्रकार वह भव्य संसारी जीव कर्मों को परिपक्व करके संसार से मुक्त हो जाता है ।।४१०॥ मेयतवत्तनम तार्नु वेड्वर् पडिमं तामि । सित्तरं मोळिकन मोंडि लिळ तोडर पाटि नीगि । पत्तर पन्नि रंडाम तवत्तोडु पई, तन कन् । उत्तम काक्षि ज्ञान मोळकरी येळुत्तल कंडाय ॥४११॥ अर्थ-सिंहचन्द्र ने पुन: पूछा कि हे महाराज वास्तविक तपश्चरण का क्या लक्षण है ? मुनि महाराज ने बतलाया कि भव्य जोव को अहंत भगवान के रूप को धारण करने के लिए रुचि व श्रद्धान पूर्वक अंतरंग परिग्रह का त्याग करना परमावश्यक है। मात्मा से संबं. धित सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को अंतरंग में पूर्णतया मनन करना चाहिये इससे मोक्ष की प्राप्ति होती है । रत्नत्रय के दो भेद हैं। एक व्यवहार, दूसरा निश्चय रत्नत्रय । भगवान जिनेन्द्र देव के कहे हए वचनों पर श्रद्धान करना सम्यकदर्शन है और उस पर पूर्ण ज्ञान द्वारा लक्ष्य देना-सम्यक्ज्ञान व उसके अनुसार माचरण करना सम्यक्रचारित्र है। यह तो व्यवहार धर्म है । और अपने अंदर भेद विज्ञान के द्वारा स्वपर को जानकर पर से भिन्न अपने प्रात्मा में लीन होना यह निश्चय चारित है। हे गुरुदेव ! सच्चे गुरु का लक्षण Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंबर पुराण १९६] क्या है ? मुनि महाराज उपदेश करते हैं किः wammanormonomous - - विषयाशावशातीतो निरारंभोऽपरिग्रहः । ज्ञान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ।। अर्थ-जो रसना इन्द्रिय के लंपट हो, अनेक प्रकार के रसों के स्वादी हो, आशा व कर्णेन्द्रिय के वशीभूत हो, अपने यश व प्रशंसा सुनने की अभिलाषा रखने वाले, अभिमानी, चक्षु इन्द्रिय के वशीभूत, भाभरण वस्त्रादि देखने के इच्छुक, कोमल शय्या सुगन्ध वस्तु, विषयों में लंग्टता प्रादि वासनाएं जिनमें हैं ऐसे साधु वीतराग मार्ग में नहीं हैं। ऐसा समझना चाहिये । ऐसे साधु सराग धर्म में लीन होकर संसार समुद्र में डूबने वाले हैं। जो विषय व भाभा के प्राधीन न हो वह साधु नमस्कार के योग्य है। जिनका विषय में अनुराग है वह मात्मा रहित बहिरात्मा है। फिर गुरु कैसा होना चाहिये:-जो बस,स्थावर जीव के घातक न हो, पाप न करते हों वे गुरु कहलाते हैं। इसके अतिरिक्त २४ प्रकार के अन्तरग व बहिरंग परिग्रहों से विरक्त हो । स्वजन धन. धान्य, स्त्री, पुत्र, घर, दास, दासो. माणक, रत्न, सोना, रुपया, शय्या, वस्त्र रूप जाति, कुल, अपयश, यश मान्यता, अमान्यता, ऊंचपना, नीचपना, निर्धनपना. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र मादि वरणं इत्यादि प्रकार के सभी बाह्य परिग्रह हैं। मिथ्यात्व, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद. हास्य, रतिं, परति शोक भय जुगुप्सा, कोध, मान, माया, लोभ, यह १४ प्रकार के अन्तरंग परिग्रह हैं। मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से जीवों के तत्वार्थ का श्रदान न होना । अतत्त्व को तत्त्व समझना, कुगुरु में गुरुबुद्धि करना, कुमागम को भागम मानना, कुधर्म को धर्म समझना, देह के रूप जाति कुल को ही प्रात्मा जानना आदि सब मिथ्यात्व है। जिस कर्म के उदय से निश्चलपना, उदारपना होकर स्त्रियों के साथ रमने की इच्छा रूप परिणाम करना पुरुषवेद है। मार्दव का प्रभाव, मायाचारादिक की अधिकता, काम का प्रवेश, नेत्र विभ्रमादि करके सुख के लिए पुरुष से रमने की इच्छा करना स्त्रीवेद कहाता है। काम की अधिकता, भंडशीलता, स्त्रीपुरुष दोनों के साथ रमने की इच्छा, जिसकी कामानि ईंटों के भट्ट के समान प्रज्वलित रहती है वह नपुंसक वेद है। हंसी का परिणाम रखना हास्य परिग्रह है । देशादिकों में उत्सुकता तथा अपने अन्दर राग उत्पन्न करने वाले पदार्थों को जो अनिष्ट लगे उसमें अपने परिणाम करना परति परिग्रह है। इष्ट का वियोग होते समय क्लेश परिणाम होने का नाम शोक परिग्रह है। अपना मरण होने से विरह का भय रखना भय परिग्रह है। घृणित वस्तुं को देखकर उसका स्पर्श करना, देखना, ग्लानि करना, दूसरे के कुल शोलादिकों में दोष प्रकट करना, तिरस्कार करना अथवा पर के असहाय रोगों को देखना, जुगुप्सा परिग्रह है। अपने व दूसरों के घात कर डालने के परिणाम तथा पर के उपकार करने का प्रभाव परिणामों में क्रूरता रखना क्रोष है। रूप, लावण्य, उच्च जाति कुल ऐश्वर्य, विद्या, रूप आदि का मान करना,दूसरे पर कठोर दृष्टि रखना मान परिग्रह है। मन में कपट भाव होकर वक्र परिणाम होना, दूसरों को ठगने के परिणाम से परिणामों में कुटिलता होना माया परिग्रह है। पर द्रव्य में चाह रूप होना, अपने उपकार के लिये सांसारिक वस्तुएं प्राप्त करने की अभिलाषा रखना लाभ परिग्रह है। यह मूल प्रात्मा का घात करने वाले १४ प्रकार के अन्तरंग परिग्रह हैं। इस प्रकार अन्तरंग व बहिरंग परिग्रहों का बिनके त्याग हो उन्ही को सच्चा गुरु समझना चाहिये ॥४११।। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेक मंबर पुराण [ १९७ तानेन पडुव वेट्ट. विनविट्ट तन्मै तंग। नूनमे लनंत नान् मै इरुमयु मुरम याको ।। यानेन देन नींगु विनडि या सुझं । यानेन देन नींगा देनिन तोडर मेंडान ॥४१२।। अर्थ-देह मै, मैं ही देह हूँ इस प्रकार कहने से मिथ्यात्व कर्म का बंध होता है । मैं ऐसें भाव को उत्पन्न करने वाले अहंकार भाव से संसार-बंधन नहीं छूटता है। इस कारण सारी वस्तुओं को पर समझ कर मेरी आत्मा एक ही है, अनन्त चतुष्टय रूप है, ज्ञान दर्शन चारित्रमयी है, ऐसा निश्चय करके एकांत में अपने अन्दर भावना करने से कर्मों की निर्जरा होकर वह आत्मा परमात्मा हो जाती है। ऐसा उन पूर्णचन्द्र मुनि ने राजा सिंहचन्द्र को धर्म का स्वरूप बतलाया ।।४१२॥ एंड्रलु मेनंदु यानु मिवय्यन मयंगि कोळ्ना । निड्रियान् गदिगनांगिर सुळंडन नेरियरिंद ॥ विड नानिवट्रि नींगा दोळ वने लेन्ग लींगा। तोडि नालोंड. निल्लादोळि कवित्तोडचि येडान ॥४१३॥ अर्थ-इस प्रकार मुनिराज का धर्मोपदेश सुनकर वह राजा प्रार्थना करता है कि हे प्रभु ! यह सब मित्र, इष्ट बन्धु, स्त्री, पुत्र, बांधव, कुटुम्ब, परिवार सर्व मेरा ही है-ऐसी बंदि करके मैंने मेरे सच्चे प्रात्म-स्वरूप की पहचान नहीं की। और उसको भलकर पहचान न होने के कारण संसार रूपी समुद्र में मग्न होकर अनेक प्रकार के दुख भोगे। अब प्रापके धर्मोपदेश के प्रभाव से संसार बंधन को नष्ट करने के लिए संयम भार को ग्रहण करने की इच्छा हुई है। भावार्थ-ग्रंथकार ने इस श्लोक में छोटे राजकुमार पूर्णचन्द्र की वैराग्य की भावना दर्शाई है। मुनिराज के प्राहार होने के पश्चात् राजकुमार पूर्णचन्द्र ने भी प्रश्न किया कि संसार का अन्त होता है या नहीं ? तो मुनिराज ने कहा हे भव्य प्राणी सुनो संसारी जीव दो प्रकार के हैं। एक भव्य दूसरा अभव्य । भव्य जीव तपश्चरण के द्वारा कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त कर सकता हैं और अभव्य जीव तपस्या करने पर भी संसार से मोक्ष नहीं पा सकता है । जिस प्रकार ठोरडू मूग को कितना ही सिझोया जावे तो भी वह कठोर ही रहता है, उसी प्रकार प्रभव्य मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता। ममकार होने से कर्म बंध होता है। संसार में सब पदार्थ नश्वर हैं । प्रात्मा से विनश्वर पदार्थों का संबंध नहीं है । मात्मा में शुद्ध भावना रखने तथा ध्यान करने से कम से वह प्राणी कर्मों की निर्जरा करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है। तत्व भावना में अमितगति प्राचार्य ने कहा है कि: 'चित्रव्याघातवृक्षे विषयसुख-तृणास्वादनासक्तचित्ताः। निस्त्रिशरारमन्तोजनहरिणगणाः सर्वतः संचरद्भिः ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ ] मेरु मंदर पुराण खाद्यते यत्र सद्यो भव मरण जराश्चापदैर्भीमरूपैः । तत्रावस्थां कुर्मो भवगहनवने दुःख-दावाग्नि-तप्ते । अर्थ-जैसे ऐसा कोई सघन जंगल हो जहां बडे टेढे २ वृक्षों के समूह हों व दावाग्नि लगी हुई हो और चारों तरफ सिंह व्याघ्र प्रादि हिंसक प्राणी घूमते हों और जहां तिनके को चरने वाले हरिण निरन्तर हिंसक प्राणियों के द्वारा खाये जाते हों ऐसे वन में कोई रहना चाहे तो कैसे रह सकता है ? जो रहे वही आपत्ति में फंसे । इसी तरह यह संसार भयानक है। जहां करोडों आपत्तियां भरी हुई हैं तथा जहां निरन्तर दुखों की आग जला करती है । व जहां प्राणी नित्य जन्मते हैं बूढे होते हैं तथा मर जाते हैं, बेखबर रहते हैं, बस शीघ्र ही काल के गाल में दबाए जाते हैं, ऐसे संसार बन में सुख शांति कैसे मिल सकती है ? बुद्धिमान प्राणी को तो इससे निकलना ही ठीक है ॥४१३॥ नेरुप्पिड किडंद सेंबिर पट्ट नीर तुळ्ळि पोलुं । विरुप्पिडे किडंद उळ्ळत्तेढुंद वे कत्ति निन्ब ।। तिरुत्तिय सेय्यु मेंड, पुलत्तिनै सेरिय निट्रल । नेरुप्पै नै तेळित विप्पा ने©दव निनप्प नोंडे ॥४१४॥ अर्थ-राजा सिंहचन्द्र मुनि महाराज का उपदेश सुनकर प्रार्थना करने लगा कि हे प्रभु ! मैं संसार भंवर में रुलता २ असह्य दुखों को प्राप्त हुआ हूं। जिस प्रकार तपे हुए तवे पर पानी डालने से वह पानी शीघ्र ही जल जाता है, उसी प्रकार पूर्व जन्म में किया हुआ। कर्म रूपी समूह को इस भव में शांत करने के बजाय उलटा पंचेंद्रिय विषयों को बढाने का उपाय किया है। जैसे अग्नि को शांत करने के लिए घी की आहूति उसमें डाल दी जावे तो वह कभी भी शांत नहीं हो सकती बल्कि अधिक भभकती है, इसी प्रकार मैंने उसके ठीक उपाय न समझकर पंचेन्द्रिय विषय के द्वारा उसको बुझाने का प्रयत्न किया परन्तु वह बढता ही गया। दुख अधिकाधिक होता गया ।।४१४॥ भूमियेंदरत्त बंदु पोर दिय पुलत्ति नास्सेमै । यो विलंदुयित्त वेरारे सुवै इन्म युनंदु मोट्ट.म् ॥ मेवुदर केळुदल मेंड, विट्टदै मेंड लंडिल । कूवल मंडुगं पोलु गुरगत्तमे निनक्कि नेडान् ।।४१५॥ अर्थ-इस लोक और परलोक में अनेक बार जन्म लेकर अनेक प्रकार के इन्द्रिय सुखों का अनुभव करने पर भी नवीन सुख का अनुभव नहीं हुमा । दुख ही दुख का अनुभव हुआ । इस कारण मेरे सच्चे असली प्रात्म-सुख को प्राप्त करने की इच्छा हुई है । इसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार एक व्यक्ति गन्ना खाकर उसके छिलके फैंकने के बाद दूसरा मनुष्य उसको खाकर स्वाद की इच्छा करता है, उसी प्रकार मैं भी अनादि काल से जिस प्रकार अनेक राजा महाराजा इस पृथ्वी के सार को लेकर अन्त में निःसार समभकर फेंके Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेद मंदर पुराण [ १६६ हुए गन के छिलके के समान सार रहित संपत्ति को सारभूत समझकर आत्म कल्यारण नहीं कर पाते। उसी प्रकार मेरा श्रात्मा भी बिगड गया है। इस काररण मुझको तिलमात्र भी सुख का लेश नहीं प्राया । दूसरी बात यह है कि एक छोटे कुए में रहने वाले मैढक अर्थात् कूप मंडूक के समान अल्प विषय सुख का अहंकार करके संसार में मैंने भ्रमरण किया । और इस परवस्तु के मायाचार से नरक गति तियंचं गति मनुष्य गति आदिर निद्य पर्यायों में भ्रमण किया । ४१५। पेरर् करु पिरवि काक्षि पेरुं तवन् तिरुदु माम् । सिरपुडे कुल नल यार्क सेरिवित्त सेळं तवत्तै ॥ मरपल मायाकु मिवेयुं वंदनुगा बेंडू. 1 तिरत कि ते लिंग नाम तेरिय चोन्नान् ॥ ४१६॥ अर्थ - सिंहचन्द्र कहता है कि हे भगवन् ! सभी पर्यायों में श्रेष्ठ मनुष्य पर्याय प्राप्तकर संयमी होकर मन, वचन, काय के द्वारा रुचिपूर्ण तप करने से सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की प्राप्ति होती है । तप से ही उच्च कुल, आर्य भूमि, सर्व लक्षण से युक्त सुन्दर शरीर, संसार के सभी वैभव प्राप्त होते हैं । परन्तु मैंने शरीर से पंचेन्द्रिय विषय रूप संसार का नाश करने के लिए तप नहीं किया, और तप न करने से पंचेन्द्रिय विषयों की लालसा करके संसार में भ्रमण किया । इस प्रकार उस सिंहचन्द्र ने विचार करके अपने 'लघु भ्राता पूर्णचन्द्र को बुलाया और उसे निश्चय तथा व्यवहार धर्म का सच्चा स्वरूप समझाया । ।। ४१६ ।। · मुन्नं से तवत्तिन् वंदु मुडिद नर्वयत्तै कंडार् । पिन्नु मत्तवत्तै शंदु पेरुं पयनुगरं दि डादे || मिन्नंजु नुगं बिनादं वेटकं इन् वेळं दु पोगं । वनेंजर किल्ले कंडाय् माट्रिडं सुगम मेंड्रान् ॥४१७॥ अर्थ - हे भाई पूर्णचन्द्र ! पूर्व जन्म में उपार्जन किए हुए शुभ फल से मिली हुई संपत्ति पंचेन्द्रिय के विषय सुख के संबंध में विचार करके देखा जाय तो यह सब पूर्व जन्म में किये गये तपश्चरण द्वारा ही हमको मिले हैं। हम मनुष्य पर्याय से संयम धारण करके तपश्चरण करें तो इसमें भी महान् मोक्ष फल की प्राप्ति हो सकती है । यदि मनुष्य पर्याय को प्राप्त करके भी तपस्या प्रादि न करें तो पंचेन्द्रिय विषय भोगों से अगले भव में प्रत्यन्त महान मोक्ष सुख की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती ||४१७॥ तव दानं शील मरिवनर सिरप्पि वट्रार् । द्विरुदिय मनत्ति नारं तिरुवेंडु पिरिबल् सेल्लाक् ।। पोर दिये निर्क भूमि पुगलोंडु कीति पोगि । परंवेंद्र मबर्ग नींगा पगै वरु पनिवर् कंडाय् ॥४१८ ॥ 9 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ] मेरुमंदर पुराण से अर्थ - इसलिए चार प्रकार के दान देना, बारह प्रकार के अन्तरंग बहिरंग तप करना, भगवान की पूजा अभिषेक करना यह शुभ परिणाम को देने वाले हैं। और पुण्य ही चक्रवर्तीपद प्राप्त होता है । यह पुण्य क्षणिक है और संसार के लिये कारण है। जब तक यह पुण्य रूपी लक्ष्मी है, तब तक त्रारणी श्रानन्द मनाता है । पुण्य की समाप्ति पर जितना वैभव सुख शांति मिली हुई है, उनका नाश हो जाता है। जब तक पुण्य है, तब तक मित्र बांधव सब अपने हैं । पुण्य के समाप्त होते ही मित्र भी शत्रु बन जाते हैं। यह सब पुण्य का प्रभाव है ।।४१८ ।। वेळकेयुं बेगुळि तानं बेंचलु मन् सोलार् मेर् । ट्राक्षिय मुबल मनत्तिरुविनं तवरुशैयुं ॥ सूक्षियं पेरुमै तानु मुर्याचयु ममैच्चुमादि । माक्षियं सैदु मन्नर् सेल्वत्ते वळर्क मेंड्रान ॥४१६ ॥ अर्थ - अधिक आशा करना, अति लोभ करना, कठोर शब्द बोलना, अति क्रोध करना, अपनी स्त्री पर अधिक स्नेह करना श्रादि करने से राजा की संपत्ति नष्ट हो जाती है । जिस प्रकार सत्यंधर राजा ने अपनी स्त्री विजया रानी से अधिक मोह करने से अपने राज्य को नष्ट कर दिया। क्षत्र चूडामरिण में लिखा है : -- पुनरैच्छदयं दातु, काष्ठाङ्गाराय काश्यपीम् । अविचारितंरम्यं हि, रागांधानां विचेष्टितम् ॥ १३ ॥ विषयों में मोहित जन कर्तव्याकर्तव्य का विचार किये बिना ही स्वकृत कार्य को अच्छा मानते हैं । अतएव सत्यंधर ने विषयासक्त हो पूर्वापर विशेष विचार किये बिना ही काष्टाङ्गार को राज्य देने का दृढ निश्चय किया । भौर भी कहा है परस्पराविरोधेन, त्रिवर्गो यदि सेव्यते । अनर्गलमतः सौख्यमपवर्गोऽप्यनुक्रमात् ॥ १६॥ जो मनुष्य धर्म, अर्थ, और काम पुरुषार्थ को यथा समय एक दूसरे के विरोध रहित सेवन करता है, वह निर्बाध सुख को पाता है और परम्परा से मोक्ष भी पा लेता है ।।४१६॥ इनयन् पल सोलि येळिन् मुडि बिक्कींबु | • कनै कळ लरुसर सूड कावलन् पोगि थेंब ।। · मुनिवरन् शररण मूगि मुडि मुक्त् द्र रंतु निङ्गान् । शिनं मिस येनिये नीत्त सेरिद कर्प गरौ योत्तान् ॥४२० ॥ अर्थ - इस प्रकार राजा सिंहसेन अपने भ्राता पूर्णचन्द्र को राजतंत्र के विषयों की जानकारी कराके राज्य सम्हला कर महाभिषेक करवे राज्यपद दिया और वहां से निकलकर पूर्व में पूर्णचन्द्र मुनिराज द्वारा दिये हुए उपदेश के अनुसार जिन दीक्षा ग्रहण की ||४२० ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २०१ पनयिसै मनित्तोल नंजु परिव दोर फरिणयप्पोल । मरिणमुडि या कुंजि मनत्तिड मासु नीकि । गुरण मरिण इलक्क मेनबत्तीरि रंड रिंगदु कोमान् । पनिवि नाल् शील माल पदिनेनारिरं दरित्तान ॥४२१॥ अर्थ-जिस प्रकार सर्प अपने मुख के रत्न को और अपने दांतों में रहने वाले विष को छोडता है, उसी प्रकार राजा सिंहचन्द्र ने अपने राज्य चिन्ह वस्त्राभूषण आदि का मन पूर्वक त्याग करके पंचमुष्टि केशलोंच किया और अंतरंग बहिरंग परिग्रहों का त्याग किया। अठारह हजार शीलदोषों मन वचन काय पूर्वक त्याग कर चौरासी हजार उत्तरगुणों की वृद्धि करते हुए वह सिंहचन्द्र मुनि तपश्चरण करने लगे ।।४२१।। दयावेनुं तय्यलाळे सालवू सेरिंदु तन्क । नुशाविनु मुरुदि तोळ नुडन् पुरणरं दुरक्क मेन्नु । मयाल सेय्यु मडंदै तन्नै मनत्तग दगट्रि मान्बि । नया उइर तिरुवक वैत्त नरं तव कोडिये यन्नल् ॥४२२॥ अर्थ-जीव दया रूपी स्त्री के साथ मिलकर, मन शोधन रूपी स्नेह से युक्त निद्रा रूपी रस्सी को त्याग कर वह सिंहचन्द्र मुनि तपरूपी स्त्री के साथ मग्न होकर तपश्चरण ... करने लगे। क्योंकि संसार में सभी व्यर्थ हैं । कहा भी है: "दारा पुत्रा नराणां परिजननिकरो बंधु वर्गप्रियाश्च । माता भ्राता श्वसुर कुल बलं भोग-भृत्यादिशस्त्रं ॥ विद्यारूपं विमल-वपुराधावन मान तेजः । सर्वं व्यर्थं मरणसमये धर्म एको सहायः ॥ स्त्री, पुत्र, पुरुष, परिजन, माता, भ्राता, श्वसुर, कुल, बल, भोग, भाई, बंधु, शस्त्र,विद्या, रूप,सुन्दर शरीर, कीर्ति, मान, तेज यह सब मरण समय में व्यर्थ हैं। धर्म ही एक सहाई है। इस प्रकार विचार करके इनको व्यर्थ समझ कर वह सिंहचन्द्र मुनिराज सच्चे मात्म सुख में मग्न हो जाते हैं। कहा है: धैर्य यस्य पिता क्षमा च जननी शांतिश्चिरं गेहिनी । सत्यं सूनुरयं दया च भगिनी भ्राता मन:-संयमः॥ शय्या भूमितलं दिशोऽपि वसनं ज्ञानामृतं भोजन मेते यस्य कुटुम्बिनो वद सखे कस्माद्भयं योगिनः ।। अर्थ-जिरका धैर्य पिता है, क्षमा माता है, शांति रूपी चिर स्थायी स्त्री है, सत्य Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ] मेरु मंदर पुराण रूपी पुत्र है, दया जिनकी भगिनी है, मन का संयम भाई है, भूमि तले जिनकी शय्या है, दिशा रूपी वस्त्र है, ज्ञान रूपी भोजन से सदैव तृप्त हैं, ऐसा जिनके पास शाश्वत कुटुम्ब है; उस योगी के पास भय किस प्रकार रह सकता हैं। इस प्रकार वे सिंहचन्द्र मुनि अपने श्रात्मस्वरूप में मग्न थे || ४२२ ॥ त्रिगळु कुदिच वेळ्कै नीकि में वसम् वर । पुणे व पोरि शेरी पुयिर कळिवु पोटू द || fat वन् दोरुक्क नेरिविळक्कमु सेयु । मनसन तवत्तिनो दरुं दवत् पोरु दिनान् ॥४२३॥ अर्थ - कर्म निर्जरा के कारण होने के निमित्त से सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करके, अपने शरीर को प्रात्मध्यान का साधन हो इस प्रकार शरीर को आत्म साधन में तपाते हुए, प्राणि संयम और इन्द्रिय संयम को प्राधीन करने वाले मोक्ष मार्ग के लिये कारण होने वाले बाह्य व अभ्यतंर और अनशनादि तप को उत्तरोत्तर तपने लगे ||४२३ ।। पुगा मिगिर् पोरि मुगु मनसनं पोरुंडिदिन् । नेगा उडवुडाइन पडादु नाळ्ग नीदि मादवन् ॥ पुगाविनं सुरुक्क मैयुडंपंडु पोरिगळं । मिगाविन विरुवि याव मोदुरिय मेविनान् ॥ ४२४॥ अर्थ - प्रतिदिन स्वादिष्ट आहार करने से इन्द्रिय मद की वृद्धि होती है, और विषय कषायों की वृद्धि होना कर्मास्रव का कारण है। ऐसा समझकर उत्तरोत्तर उपवास करते हुए शरीर संयम व इन्द्रिय संयम की वृद्धि करने लगे। ऐसा करने से मन आत्मध्यान स्थिर होता है । इस प्रकार सिंहचन्द्र मुनि आगम के अनुसार एक २ ग्रास आहार में कम करने लगे और अवमोदर्य तप करना प्रारंभ कर दिया ।।४२४ ।। इरुत्तल पोदल् निट्रल् मन्निडे किडत्तलिल्लइर् । वरत्त मंदिडा में योंवुं कायगुत्ति मादवत् ॥ तिरप्पिरं शेल् देशकाल भाव मेंल्ले सेनुं । वृत्ति संख मम् मेनुं विऴुत्तवं पोरुदिनान् ॥४२५॥ अर्थ-उठते बैठते, खडे होते तथा सोते समय पृथ्वी पर चलने वाले सूक्ष्म जीव जंतुों को बाधा न पहुँचे। इस प्रकार जीवों की रक्षा करने के लिये काय गुप्ति सहित वे मुनि प्रवृति करते थे । श्राहार के समय वह सिंहचन्द्र मुनि व्रतपरिसंख्यान तथा ईर्यापथ शुद्धि पूर्वक धीरे २ गमन करते थे । इस प्रकार वह मुनि बाह्य तप का पालन करते थे । भावार्थ-मुनि सिंहचन्द्र ने इन्द्रिय संयम और प्राणि संयम दोनों को मनःपूर्वक अपने अधीन कर लिया था । जीवों की रक्षा के निमित्त काय गुप्ति द्वारा वे मुनि बाह्य और अभ्यं Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण [ २०३ तर दोनों प्रकार के तपों को पालते थे। अनशन अवमोदर्य, व्रत परिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्त शय्यासन और काय क्लेश इस प्रकार छह बाह्य तप और प्रायश्चित्त,विनय, यावत्य स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान यह छह अभ्यंतर तप, इस प्रकार बारह तपों को परिपूर्ण पालन करते हुए प्रात्म-साधना में लीन रहते थे। बाह्म और मध्यंतर ये तप दो प्रकार के हैं। दोनों ही तप चरित्र में अन्तर्भूत हो जाते हैं । अनशनादि बाह्म तप का संबंध भोजन प्रभृति बहिर्भूत पदाथों के त्याग से है । इसी प्रकार अंतरंग तप भी चारित्र में अन्तर्भूत है। प्रायश्चित्तादिक अंतरंग तप के द्वारा संवर पौर निर्जरा दोनों हो कार्य होते हैं ॥४२॥ नवक्केला मिडमिदेड, नावदन पुलत्तिनिर । सुवै कनमेबल विट्टर तुरंदु निड़ बद्रिनुं ॥ दुखत्तल कायद लिडि योत्त निड़ सित्त मैत्तवन् । सुवं परित्याग मागु मादव तोडुद्रि नान ॥४२६॥ अर्थ-सभी पंचेन्द्रिय विषयों में रागद्वेष रहित होकर समता भाव से युक्त वे सिंहचन्द्र मुनि दुख को उत्पन्न करने वाले, रसनाइन्द्रिय को सुख पहुँचाने वाले रसों का त्याग करके रस परित्याग तप को तपते थे। भावार्थ-इस प्रकार के मुनिराज इन्द्रियों के दमन दर्प की हानि, संयम के उपरोध निमित्त घृत तैलादि छह रस अथवा खारा, मीठा, कडुग्रा, तीखा, कषायला इन छहों रसों का कम से त्याग करते हुए रस परित्याग तप का पालन करने लगे ।।४२६॥ कवंद मोरि कूग पेइ निवंद काडु पाळग। मुवदि याने वारि युळुवै निड़ ळन् वनं ।। कुविदरवु वेबुलि कुमिरुमाल वरमुळे । युवंदि राज शोय मुंड पोलवे रुरंदनन् ॥४२७॥ अर्थ-भूत प्रेतों के रहने के स्थान, प्राणियों की पीडा रहित स्थान, शून्यागार, गिरिगुफा आदि स्थानों में तथा सिंह, व्याघ्र ऐसे क्रूर हिंसक प्राणियों के रहने के स्थानों में, पर्वत की चोटी पर ऐसे स्थानों में रहकर वे मुनि तपस्या व ध्यान करते थे। इस तप को विविक्तशय्यासन नाम का दुर्धर तप कहते हैं ।।४२७।। वेनल वेबु कान् मलं वेयिन् निलइन् मेवियुम् । वान मारि सोरु नान् मरं मुवमं मरुवियुं। ऊनरक्कुं वन परिण कडर् पुरत्त वेळ्ळिडै । काने याने पोल मूंड. काल योगु तागिनान् ॥४२८॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] मेरु मंदर पुराण अरियवा युलगलां विलइला वरु कलत् । तिरेय मेय्यनिदवर् शैगें सोन् मनंगळायिन् ।। मरियमा शिन केडुक्कु मद्दिवार मागिय । पेरिय यर् मनकोळ पेरुतंवं पोरुदिनान् ।।४२६॥ अर्थ-सिंहचन्द्र मुनि गर्मी के दिनों में पर्वत की चोटी पर, वर्षा काल में वन में वृक्ष के नीचे, सर्दी में नदी के किनारे पर बैठकर तपस्या करते थे। इस प्रकार प्रागम के अनुसार वह तप करते थे। अलम्य तप, रत्नत्रय साधन करने वाले ऐसे वे सिंहचन्द्र मुनि अपने शरीर से सम्पूर्ण मोह त्याग कर अनादि काल से कर्मरूपी शत्रु के दल का नाश करने के लिये मन, वचन, काय से वे कठिन तपश्चरण करते हुए बाह्य और अभ्यंतर तपों में सदा सर्वथा लीन रहते थे ॥४२८।।४२६।। पेरर् करिय काक्षि मैयुनचि नल्लोळुक्किनमें । लिरप्पंदाय मैमोळि मनत्तळं तिरंजुदल् ॥ शिरप्पुड यरत्तवर् केदिरेळुच्चि यादित्। तिरत्त नाल विनयंमु शिरंदु मादवम् शेदान् ॥४३०॥ अर्थ-सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र सहित तपस्या करने वाले वे सिंहचन्द्र मुनि दर्शन विनय, ज्ञान विनय, चारित्र विनय, तप विनय और उपचार विनय इस प्रकार पांच प्रकार के विनय से युक्त तपस्या करते थे। सम्यकदर्शन में शंकादि प्रतीचार रहित परिणाम करना दर्शन विनय है। ज्ञान में संशयादि रहित परिणाम करना तथा अष्टांगरूप अभ्यास करना ज्ञान विनय हैं। हिंसादि परिणाम रहित निरतिचार चारित्र पालने रूप परि. णाम करना चारित्र विनय है। तप के भेदों को निर्दोष पालन रूप परिणाम करना तप विनय है । रत्नत्रय के धारक मुनियों के अनुकूल तथा तीर्थादिक का वंदन रूप परिणाम करना उपचार विनय है ।।४३०।। पेरुत्त नोंबु वन पिनिणळ पी. भूविभोग माम । तिरुत्तयेवि नगिळ् ध्यान नखद तोंडुडिनार् ॥ विरुत्तर् वालर् मेल्लिया ररत्तै मेविनिडवर् । वरुत्त नीकि योंबु वय्या वच्चमु मरुविनान् ॥४३१॥ अर्थ-सिंहचन्द्र मुनि बाल, वृद्ध, तथा रोग से पीडित मुनियों की मनः पूर्वक वैयाबत्य करने में परिपक्व थे । इस प्रकार वैयावृत्य के साथ २ दुर्द्धर कायोत्सर्ग तप भी करते थे। उस तपस्या के समय पाने वाले बाईस प्रकार के परिषह सहन करते हुए कर्म रूपी शत्रु का सामना कर आत्मानुभव का स्वाद लेते थे। वे २२ परिषह इस प्रकार हैं:-क्षुधा. तुषा. उष्ण, दंशमशक, शीत,नग्नत्व,अरति, स्त्री परीषह-परिषह,चर्या निषद्या, शयन, भाक्रोश. बंध Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २०५ याचना, मलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान तथा प्रदर्शन परिषह । ।।४३१॥ या कनिच्च निर्को मेळुत्तिन् मेर् पळत्त सोल्ल । वाकु निड़, मिळु मच्चोल वशत्तदां सेवियुमुळळम् ।। नोकु मप्पोरळिन् मै मै नुगंवेळु देळिवि वटै । याकु नल्लोळुकिर् शाल वरुदं वन् विवि शेंडान् ।।४३२॥ अर्थ-वाचना, पृच्छना. धर्मोपदेश देना, अनुप्रेक्षा तथा ग्राम्नाय इस प्रकार पांच प्रकार से स्वाध्याय करने में वे मुनि तत्पर थे। इन पांच प्रकार के स्वाध्याय करने से मन. बचन और काय स्वाधीन होते हैं। इनमें स्वाधीन होने से पंचेन्द्रिय संबंधी विषय याबीन होने से यह मन रागद्वेषादि की प्रोर नहीं जाता। इसको स्वाध्याय तप कहा है। इस प्रकार वे मूनि पांच प्रकार के तप करने में मग्न थे ॥४३२।। प्रर्त रौतिरत्त शिदै यरवेरिदु इरै मादिर् । पेत मुत्ति कन् वैक्कं धरम शुक्किल ध्यान ।। मोत्तु डनुळ्ळ वैत्ता नुदिरं दन विनेगळ् पिन्न । . पातिव कुमरन सिदै परममा मुनिवनानान ॥४३३।। अर्थ-प्रार्तध्यान व रौद्रध्यान के नाश करने वाले धर्मध्यान को एकाग्रचित्त से चितन करते समय उनके कर्मरूपी बंध शिथिल होने लगे । ऐसे वे मुनि कर्मों की शिथिलता हेतु धर्मध्यान में निमग्न हो गये ।।४३३।। वंसित्त मगट्रि ज्ञान काक्षी नल्लोळक्क पेनि । मिच्चत्तं वेदनादि यगत्तिन मेल विरुष्प माट्रि ॥ वैयत्त तन काय देश मुदर पुरतन बु माट्रि। विच्चित्ति इडि सेडान वित्सर्ग तवत्ति नोड ॥४३४॥ अर्थ-मिथ्यात्व को नाश कर सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक् चारित्र को धारण कर स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद ऐसे तीन वेद तथा छह कषाय हास्य, रति, परति, शोक, भय, जुगुप्सा और क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय आदि को वैराग्य भावों से नाश कर प्रात्मध्यान में मन को लोन करते हुए अंतरंग, बहिरंग परिग्रह का नाश करके सर्वसंघ परित्याग के साथ शरीर के ममत्व का त्याग करके उपशम भावना में लीन हो गये ।।४३४ । प्रडक्कनीरारु शिद यारिरंडोडु मुंड्रि। तुडिप्पर परिशै वेल्लू तोंड्रिय वोळक्कं तन्नाल ।। तडुप्पिड्रि युलग मोंड्रिर ट्रन्नेल्लै विरियं पोळदं । बडु पडा विपुल मेन्यूँ मनपर्यत्तै पेट्रान् ॥४३५॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] मेरु मंदर पुराण मर्थ-तत्पश्चात् पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय यह पांच स्थावर व एक त्रसकाय और स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कणे ये पांच इन्द्रियाँ और एक मन ये सब मिलकर बारह प्रकार के इन्द्रिय संयम और प्राणि संयमों का पालन करते हुए तथा इनके साथ२ बाईस परीषहों को सहन करते हुए विपुलमति नाम के मनःपर्यय नामक अवधिज्ञान को प्राप्त हुए ।।४३५।। शीरणि यडक्कं शदोर पट्टा काय शैल्ल । चारण तन्य पेट, माववन् शेरिकु नाळुट् ॥ पोरणि यान वेंदन पूरचंदिरन् द्रन चिदै । बारणि मुलैनाद वससें. मयंगु निड़े ॥४३६॥ अर्थ-तदनंतर वह सिंहचन्द्र मुनिराज बारह प्रकार के संयम से युक्त सम्पूर्ण परिः ग्रह को त्यागकर प्रात्मध्यान में मग्न होकर असंख्यात कर्मों की निर्जरा करने वाले हो गये मोर प्राकाश मार्ग से जाते समय उस सिंहपुर नाम के नगर को देखा और उस नगर के राज करने वाले पूर्णचन्द्र राजा को अपनी पटरानी के साथ विषयभोगादि में मग्न होने का सारा हाल जान लिया ।।४३६॥ इसइन मेल सून माऊ मिळय वर मुलई निब । पसैन्न मासुनमे कन्निन् पुलंगळिर् परंदु वंदु । विसईनाल नाळे विळक्किन् बोळु विट्टिलं पोंड वेंदन । इसयुनाळि रायवत्री मुनिय वादिरंजि ॥४३७।। अर्थ-जिस प्रकार अच्छे संगीत तथा वाद्यों में मृग प्रादि लवलीन होते हैं, उसी प्रकार राजा पूर्णचन्द्र संगीत वाद्यों में मदमस्त हो रहा था। जैसे पतंग मोह के कारण दीपक में पडकर अपने प्रारण खो देता है, उसी प्रकार राजा पूर्णचन्द्र भोग विलास में मग्न होकर काल व्यतीत कर रहा था। समय पाकर बह रामदत्ता प्रायिका एक दिन उन चारण ऋद्धिधारी मुनि सिंहचन्द्र के पास गई और भक्ति पूर्वक नमस्कार करके बैठ गई ।।४३७ । पुडय वर मेलिय पोंगु कडयवर सेल्वं पोल । इंडयदु मेलिय वीगि येळंदेने तिरुद कोङगै ।। कडयव रिड हर कोळडि यड व पोल् । इडयडि यडय कंडु तुरंद वेम्मिरंद पोट्रि ॥४३८॥ अर्थ-तत्पश्चात् दोनों हाथ जोडकर, जिस प्रकार एक याचक तथा दरिद्री विनय के साथ हाथ जोडकर एक धनी के पास चरणों में पड़कर अपनी इच्छा प्रकट करता है उसी प्रकार वह प्रायिका सिंहचन्द्र मुनि के चरणों में नतमस्तक होकर प्रार्थना करने लगी कि हे भगवन् ! राजसंपदा, सक्ष्मी, स्त्री, वाहन, सैन्य मादि २ बाहरी विषय तथा पंचेंद्रिय विषय Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा मंदर पुराण [ २०७ बाह्य परिग्रह आदि को मन, वचन, काय से त्याग कर प्रत्यन्त घोर संयम भार को धारण कर दुर्द्ध र तपश्चरण में लीन रहने वाले प्राप ही हैं। इस कारण मैं आपके चरणों में नमस्कार करती है ||४३८।। कांबेन तिरंडु मंद रुळ्ळत्तै कनट्र मेट्रोळ् । पाँबिन तुरिये पोल पसे यट्र तिरे यक्कंडुं || तेंबलिल मुळिइनादं तिरत्त ळि वेरुतु पोंडु | ु कांबुर्ड पडवि सेरं व कावल पादम् पोट्रि ।।४३६। अर्थ - हे मुनि ! प्राप तरुण पुरुष को प्रथवा मन को चलायमान करने वाली स्त्री का रूप देखकर उनके गुण व दोषों को भली भांति त्याग कर जंगल में संयम पूर्वक तप करने वाले हो । इसलिए आपको बारम्बार नमस्कार हो ||४३६|| पेरिय वर् पावं सेरंद पेदैयर, शिंदपोल | करिय मेनू कोंबल कालत्तार करुप्पोळिय कंडुम || पुरवलर् सेल्वं पाकिर् र्पुवं पोलु मेंडू: । 9 मरुविय वरसु नीच मादव पादं पोट्रि ||४४०॥ अर्थ - पवित्र ज्ञान को पाकर प्रज्ञानी लोगों का पाप नाश होने के समान अपने मस्तक. के केश श्वेत होने के पूर्व ही जैसे वर्षा में अधिक पानी पडने पर पानी का बुलबुला शीघ्र ही नष्ट हो जाता है उसी प्रकार यह वाह्य राजसंपत्ति क्षरण में नष्ट होने वाली है, ऐसा जानकर, उसको त्याग कर संयम पूर्वक धर्मध्यान में लीन होने वाले स्वामी आपको नमस्कार हो || ४४० ॥ एत गुणनं इब्वारेतिय विराम दौ । पारं पगर केटु परिंगवन निरुतु पिम्नं ॥ वार्ते मुंडिरैव केळुन मादवत्तिय् रेनुं । पार्थिव कुमरन् पालदेन मुनि पगर्ग वेंड्रान् ॥ ४४१ ॥ मंगल तोळिलगळ मुद्रि मरिण मुडि कवित्त, बंदु | तिगळ् वेन् कुडं नीळर् शीय वासन त्तिरुदान् ॥ पोंगु सामरं गळ् वीस पोन्मलै कुवडु तन्निर् । शिंग वेरिव तोतान् शीय मा शेनन् मैदन् ॥४४२॥ अर्थ- -इस प्रकार रामदत्ता प्रायिका ने भावभक्ति से स्तुति करके नमस्कार करती हुई एक और बैठकर उन मुनिराज से प्रार्थना करने लगी कि हे भगवन् ! आपके मुखारविंद पवित्र कीजिये। इस प्रार्थना को सुनकर उन सिंहचन्द्र प्रार्थिका माता एकाग्रचित्त से शांत होकर धर्मामृत का से धर्म के चार शब्द सुनाकर मुझे मुनिराज ने कुछ धर्मोपदेश दिया। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ] मेरु मंदर पुराण पान करती हुई अत्यन्त तृप्त हुई । और पुनः नमस्कार करके कहने लगी कि हे प्रभो ! मैं कुमार पूर्णचन्द्र के विषय में कुछ पूछना चाहती हूँ। आप दया करके इसका उत्तर सुझे दीजिये । मेरे इस प्रश्न के पूछने में आपके धर्मध्यान में बाधा तथा अंतराय होने से जो कष्ट होगा उसकी मैं क्षमा चाहती हूं। आप थोडा सा विषय का प्रतिपादन करें। इस पर मुनिराज ने कहा कि पाप किस संबंध में क्या पूछना चाहती हैं कहिये! ।। ४४१।।४४२।। इळंशिंग वेटै सूळं द इरु पुलि पोदंग पोर । कळं कंडु मुळंगुं यान कावल कुमरर सूळ्दार ॥ उळंकोंड वमै चरादि सूळ बंदूर कोळ्वट्ट । तिळन् तिंग ळागि पूर चंदिर निरुदिट्टाने ॥४४३॥ अर्थ-पुनः वह रामदत्ता प्रायिका कहने लगी कि हे गुरुवर ! पूर्णचन्द्र नाम का राजकुमार अपनी दैनिक धार्मिक क्रियाओं से निवृत्त होकर रत्न जडित मुकुट को मस्तक पर धारण करके राज्यसभा में राज्यगद्दी पर बैठ जाता है। उन पर लगा हुआ रत्नजडित धवल छत्र अत्यन्त शोभायमान होता है। वह पूर्णचन्द्र राजसिंहासन पर इस प्रकार बैठता है जैसे मेरु पर्वत की चोटी पर कोई पराक्रमी सिंह हो पाकर विराजमान हो गया हो ।४४३।। कामत्तिरुविन मंजरियुं कमल तिरुवं कडलमिदु । पूमैतछंद विळंकोडियुं पुनमेन्म यिलु मनै यार्गळ ॥ वाम कुरुव शिलै कोलि मलर कन नंबु तेरिदुमनम् । काम कोमान् विल्लिगळ् पोर् कडिदार मन्नन् पुडसूळ्दाररा४४४। अर्थ-राजा पूर्णचन्द्र के चारों ओर अनेक देशों के राजा महाराजा आकर बैठे थे उस समय वह ऐसा प्रतीत होता था मानों एक बबरी शेर के चारों ओर कई सिंहों ने घेरा डाल रखा हो तथा जैसे चन्द्रमा को चारों तरफ से कई नक्षत्रों ने घेर रखा हो। इसी प्रकार उस सभा में मंत्रीमंडल, प्रजाजन सभी बैठे हुए थे ।।४४४।। पानिवर तरु तिर कोंडु पैबोना । लातिपि मनिन येपिद सेप्पेन ॥ वार कडं कामुलैयार मगचिर । पोर कडा यान यान पुरिटु सेल्नाळ् ॥४४५॥ अर्थ-राज्यसभा ऐसी शोभायमान दिख रही थी, मानो सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र की सभा में इन्द्र, इन्द्राणियां; देव देवियां, अप्सरा. प्रादि २ ने सौधर्म कल्प के इन्द्र को चारों तरफ से घेर रखा हो। वह पूर्णचन्द्र रति, लक्ष्मी, धन, धान्य आदि २ से प्रत्यन्त शोभायमान हो रहे थे ।४४५॥ Jain Education Infernational Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंतर पुराण [ २०६ कमिस यवन यान् कंडु कावल । विन्मिश इन्बमुं वेदर सेल्वमुं॥ पुण्णिय मिलाववर्किल् पूमग । ळेण्णव दुम् सेयाडि यबिनेन् ॥४४६॥ अर्थ-उस राज्यसभा में महाराजा पूर्णचन्द्र को अनेक देशों के पाये हुए राजा लोग पाकर अनेक प्रकार की भेंट अर्पण करते हैं और उस भेंट को वहां का भंडारी (खजाञ्ची) उठाकर अपने खजाने में रखता है। राज्यसभा समाप्त होने के पश्चात् राजा पूर्णचन्द्र रनवास में पधार जाते हैं और सदैव अपनी रानी के साथ हास्य विनोद आदि विषय भोगों में लीन रहते हैं। वे एक समय भी रिक्त नहीं रहते। हमेशा काम भोग के विषय में मग्न रहते हैं । विषय भोग में मग्न रहने वाले प्राणी को कुछ नहीं सुहाता है न उसमें कोई विवेक और गुण ही रहता है। विषयासक्तचित्तानां गुणः को वा न नश्यति । न वैदुष्यं न मानुष्यं नाभिजात्यं न सत्यवाक् ।। भावार्थ-जो मनुष्य विषय भोग में आसक्त हो जाता है उसके प्रायः सभी गुणों की इतिश्री हो जाती है । अर्थात् ऐसे मनुष्यों में विद्वत्ता, मनुष्यता, कुलीनता और सभ्यता मादि एक भी गुण नहीं रहता। इसी प्रकार पूर्णचन्द्र विषयभोगों में प्रासक्त रहते थे। पराराधनजाद् दैन्यात् पैशुन्यात् परिवादतः । पराभवाक्तिमन्येभ्यो न बिभेति हि कामुकः॥ भावार्थ-जो मनुष्य विषय भोगों में आसक्त हो जाता है, वह उसके कारण होने बाली दरिद्रता, चुगली, बदनामी और अपमान आदि वचन कहने वाले मनुष्यों की परवाह नहीं करता। इसी प्रकार पूर्णचन्द्र भी अपनी बुराइयों की परवाह नहीं करते थे और दिनब-दिन कामवासनाओं में विषयासक्त होते जा रहे थे । और भी कहा है: पाकं त्यागं विवेकं च, वैभवं मानितामपि । कामार्ताः खलु मुञ्चति, किमन्यै स्वञ्च जीवितं ।। भावार्थ-कामासक्त प्राणी भोजन, दान, विवेक, धन, दौलत और बड़प्पन आदि का जरा भी विचार नहीं करते। और तो क्या ? भोग विलास के पीछे वे अपनी जान पर भी पानी फेर देते हैं। इस प्रकार वे पूर्णचन्द्र भी इन बातों पर कोई ध्यान नहीं दे रहे थे। उनका सारा समय विषय भोगों में व्यतीत होता था। वह रामदत्ता माता माथिका कहने लगी कि एक दिन मैने उस पूर्णचन्द्र के राजमहल में जाकर उनसे धर्म की बातें कहने की भावना करके कहा कि हे राजकुमार ! देवलोक Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ] मेरु मंदर पुराण के इन्द्रिय विषय सुख और इस लोक में दिखने वाले राजसंपत्ति, यह वैभव सुख, स्त्रियां व भोग सामग्री यह सभी पूर्व जन्म के पूण्य संचय बिना इस लोक में प्राप्त नहीं होती है।। प्राणियों ने पुण्य संचय किया है उन्हीं को प्राप्त होती है। जिन्होंने पुण्य का संचय नहीं किया है उनको राज्य संभोग आदि सुख नहीं मिलता है। जिस मनुष्य के हृदय में विषय वासना बैठी हुई है, उनको मोक्ष लक्ष्मी स्पर्श नहीं करती। ४४६।। उरुवमु ळगु नल्लोळियि कीतियुं । सेरु विड वेलवल तिरलुं सिंद से । पोरुळवे वरुवलुं भोगमुम् नल्ल । तिरु बुडे येरत्तदु सँगैयंड्रनन् ॥४४७॥ प्रर्थ-हे मुनिराज ! दूसरी बात इस संबंध में मुझे यह कहना है कि सुन्दर शरीर, रूप, लावण्य, राज्यसंपदा तथा युद्ध में शत्रुओं को जीतने की सामर्थ्य पराक्रम आदि यह सभी प्राप्त करने के लिए एक जैनधर्म ही कारण है ।।४४७।। निलत्तिड येकुरं वित्तै नीट्टिले । मलै तल मळेइला तारु तानवरा ॥ कुलत्तिडै इबमु मिल्यै पुनियम् । तलत्तलेवर सेयाद वर्कट केंडनन् ॥४४८॥ अर्थ-भूमि में बीज बोए बिना अंकुर की प्राप्ति नहीं होती है । पर्वत के ऊपर यदि पानी की वर्षा न हो तो ऊपर से झरता हुमा पानी तालाब व कुओं में नहीं पाता है। उसी प्रकार पुण्य के कारण होने वाले व्रत, नियम, अनुष्ठान, पूजा आदि किये बिना इस मानव को उस पंचेन्द्रिय सुख की प्राप्ति नहीं होती है । इस प्रकार मैंने पूर्णचन्द्र राजकुमार को उपदेश द्वारा समझाया था।।४४८।। कारण मिल्लये विने कार्य । पोरणि वेलिनाय मुनस मुणियम् ॥ कारण माग नीरुडुत्त कनियुं । शीररिण सेल्ववं शरिद उन्नये ।।४४६।। अर्थ-हे पूर्णचंद्र ! कारण बिना कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती। वैसे ही पूर्व पुण्य के बिना सद्गुरण, सद्बुद्धि भी नहीं मिलती है। यह सारा वैभव मापको पुण्य द्वारा प्राप्त हना है । अब मनुष्य जन्म का सार्थकपना यही है कि आप भोग में रत न रहकर करीर से पाने के लिए धर्म साधन में उपयोग कर लो यही मनुष्य जन्म का सार है। इस प्रकार उस रामदत्ता प्रायिका ने राजकुमार को धर्म-मार्ग पर चलने का उपदेश दिया ॥४४९॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण [ २११ मणिन् मेल महिंद सेल्व मेल्वर । वेणि नी पुष्णिय मोंड संगन ॥ पुनियन मेल पट्टवेल पोल वच्चोले । येन्निडा विगळं दव नेळंदु पोइनान् ।।४५०।। अर्थ-यह सभी राज्य वैभव आदि पुण्य के प्रताप से प्राप्त होते हैं । यदि तुम पागे चलकर इससे भी अधिक संपत्ति वैभव को प्राप्त करने को इच्छा रखते हो तो व्रत अनुष्ठान प्रादि धारण करो और उन ही के अनुसार तुमको नियम पूर्वक चलना चाहिये । और शक्ति के अनुसार व्रत, पूजा, उद्यापन करना चाहिये । इस प्रकार मैंने पूर्णचंद्र को समझाया और धर्म मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। इन बातों को सुनकर पूर्णचन्द्र को जिस प्रकार बिच्छू काटने से वेदना होती है उसी प्रकार मेरा उपदेश उनको बुरा लगा और मेरी बात को न मानकर तिरस्कार किया और वह उठकर चला गया ।। ४५०।। पुलंगन मेल पुरिवळ पोरगळोंबिये। विलंगु पेलि यवन वींदु पोगुमो । इलंगु शेबोन नेरलिरैव नल्लरत् । तलंगल वेळानव नडयु मोसोलाय ॥४५१॥ मर्थ-वह पूर्णचन्द्र पंचेंद्रिय सुख में मग्न होकर तिर्यंच गति में पडकर नाश को प्राप्त होगा। इनका जीवन सुधरना अत्यंत कठिन है । मैंने ऐसा ही समझा है । अतः वीतराग भगवंत के द्वारा कहे हुए धर्म को वह स्वीकार करेगा या नहीं अथवा पशु के समान ही खा पीकर व्यर्थ ही अपने जीवन को बिताएगा? इस संबंध में प्राप कहें। रामदत्ता आर्यिका के वचनों को सुनकर सिंहचन्द्र मुनि अवधिज्ञान व मनःपर्यय ज्ञान द्वारा जानकर कहने लगे ॥४५१॥ मादवि युरन्त बेल्ला मादवन मनत्तै नोकुं । पोदि ळनरं वत्री मुरवलन पुरिदु कोळ्ळं ॥ यादु नी कवल वेंडा मदनुक्के येतुबाग । मोदु मिक्कदय केटु नी यवर कुरक्क वेडान् ॥४५२।। अर्थ-है माता ! सुनो ! जैन धर्म को पूर्णचंद्र अवश्य ग्रहण करेगा। इसके बारे में कोई संदेह मत करो। उसको सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी। किस कारण से उसको सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी उसको दृष्टांत द्वारा समझाता हूं ॥४५२।। प्रडकरी पोदि दुइर्कनरुळि नैयूरियारि । तोडक्कयु मुडिव मोत्तु तोडुत्त दोर् मपमै सन्न ।। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- -- - - - -- -- -- - २१२ ] मेरु मंदर पुराण येडुत्त ड नाट्रि वार् पोन् ट्रिदत्तै ययिर् कुमाकू। वडुप्परि दिसून माधव नुरेक्क कुट्रान् ॥४५३॥ अर्थ-वे मुनि सम्यक्त्व युक्त सब जीवों में दया भाव रखने वाले पक्षपात रहित जीवों को कल्याण का मार्ग बताने वाले अठारह दोष रहित अहंत भगवान के वचनों को कहने की सामर्थ्य रखने वाले थे। उन मुनिराज ने तब पूर्णचन्द्र के पूर्वभव का वृत्तांत कहना प्रारंभ किया ॥४५३३॥ इस प्रकार पूर्णचन्द्र का राज्य परिपालन का विवेचन करने वाला चौथा अधिकार समाप्त हुआ। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पंचम अधिकार ॥ (विद्युईटा, रामदत्ता, पूर्णचन्द्र व सिंहसेन का स्वर्गवास जाना) वासनिड़ राद सोल मळेयेन मदुकळ पैदु । मसुतेन मुळंग मंजै मुगिलन वगवि मुत्तिन ।। रूसला मलंगं लार् पोट्रोडंगीय नडंगळोवाक् । कोषल येव तुंडी कुवलयं पुगडु नाडे ॥४५४॥ अर्थ-अत्यंत सुगन्ध से भरे हुए पुष्पों के वन में जिस प्रकार खिले हुए पुश्प के अन्दर भ्रमर मग्न होकर सुगध रस का रसास्वादान करता उडता रहता है और उन भ्रमरों के अत्यन्त मधुर शब्द सुनकर मयूर आदि प्रानन्द से नृत्य करते हैं तथा सुन्दर स्त्रियां जिम प्रकार प्रानन्द पूर्वक नृत्य करती हैं ऐसा सभी लोगों के द्वारा प्रशंसनीय महा रमणोक कौशल नाम का देश था। उस सर्व सम्पत्ति से युक्त प्रसिद्ध कौशल देश में तिलक रूप के समान रहने वाला तथा वहां के अच्छे २ गोपुरों से युक्त महल, अनेक पंडित विद्वानों से युक्त, बुद्ध ब्राह्मणों से भरपूर वहां वृद्ध नाम का नाम था । उस ग्राम में मृगायन नाम का अति सुन्दर क्षमा धारण करने वाला एक ब्राह्मण रहता था ।।४।४।। तिरुत्तगु नाडि दर्षात तिलद माय तिगळं डुं सेंड्रार्। वरुत्तीर माड मदर मरैयव हरैयुमांड। विरुत्त नगिरामन् तन्नुळ् मिरुगायन नेड, मिक्का । नोरुत्तनं कुळनांति युरुव कोंड नय्य निरान् ॥४५॥ अर्थ-अत्यन्त सुन्दर मृग के समान चालवाली, गुणवान मदुरा नाम की उनकी स्त्री थी । जैसे नख व अंगुली एक साथ ही रहते हैं वैसे ही वे दोनों दम्पत्ति साथ २ रहते थे। उस मदुरा की दांतों की पंक्ति अनार के दानों के समान थी तथा होठ लाल परवल के समान युर्ख थे। उनकी आंखें हरिणी की पाखों के समान और भृकुटी धनुष के समान थी। इन दोनों के सुलक्षण वाली एक वारुणी नाम की कन्या थी ।।४५५॥ प्रदिर् पड नडत्तलिल्ला ळवन् मनकिळत्ति यन् सोल। मदुरै येनं डोरैक पट्टाळ् मगळं वारुरिणया मुत्तिन् । कदिर् नगै करुन् कटौवाय काल् परं देछंदु पोन्निन् । पिदिर् परंदिरुद कौंगै पिनयना लोरुत्ति यानाळ् ॥४५६।। अर्थ-जिस प्रकार सूर्यास्त होते ही कमल निस्तेज हो जाते हैं, उसी प्रकार कारण पाकर | Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] मेरु मंदर पुराण वह मृगायन ब्राह्मण दुख से पीडित होकर मरण को प्राप्त हुआ। वह मदुरा अपने पति के मर जाने से महान् दुखी हुई। उस मृगायन नामक ब्राह्मण ने मरकर अयोध्या में प्रतिबल नामक राजा की पटरानी सुमति के गर्भ में जाकर पुत्री रूप में जन्म लिया ॥४५६॥ कदिर् मरे पुळुदिर् कांड कमलमुं पोल् । मदुरैयुं मगळु वाड मरव्यवन् मरित्त पोगि। यदिर् वरु पिरवि इल्लारियरा वयोद्दि याळ । मति बलन दनक्कु देवि सुमातिक्कुमरिवे यानान् ॥४५७॥ इरनिय बदियेबाळ पेरिळमईलनय सायल । वरिशिले मुरुवच्यौवाय वल्लिदान वळर द पिन्न ।। तारणिमे लरस रिल्लाम तैय्यल. तरुग वेन्न । सुरमै नाडुडेय तोंडर रिन् पुयम् तुन्नु वित्तार ॥४५॥ अर्थ-वह कन्या शनैः २ बडी होने लगी और बढते २ मोर के इधर उधर फुदकने के समान किशोर अवस्था में पाई। उसकी भृकुटी धनुष के समान, आंखें कमल के पत्ते के समान दीखने लगी। उस कन्या का नाम हिरणवती रखा गया। उसकी तरुणावस्था होने .पर उसके सौंदर्य व रूप को देखकर अनेक राजकुमार उसके साथ लग्न करने को प्राये। तदनंतर अवसर पाकर सुरम्य देश के अधिपति पूर्णचन्द्र के साथ उसका विवाह संस्कार कर दिया गया ॥४७॥४५८।। पोदन पुरत्त वेदन पूरचंदिर- तोगे । मादनं पुनरंदु वंद विवत्त मयंगु नाळुट् ।। कादलान मधुरेयेंद कावलन ट्रेवितन बान् । मावराळुरुत्ति यानान मद्रवनी कंडाये ॥४५॥ अर्थ-उस सुरम्य देश को पोदनपुर भी कहते हैं । विवाह के पश्चात् वह पूर्णचंद्र अपनी रानी के साथ विषय भोगों में सदा लीन रहता था। कालवश उस ब्राह्मण मृगायन की स्त्री मदुरा मर कर पूर्णचन्द्र की स्त्री हिरणवती के गर्भ में आकर कन्या उत्पन्न हुई। वह जीव कोनसा है । यदि तू प्रश्न करेगी तो वह जीव तू ही है ।।४५६॥ अरु तव नरुळि नालप्प भदिर भित्तिरंदान् । ट्रिरु दिय गुरगत्त निन् पाल् शीय चंदिर निडानेन् ।। वरुदु नुन्निड ईनाळोवारुणि वंदुन् कादर । पोदिय पुदल्व नाय पूरचंदिर नडानाळ ॥४६०॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २१५ मर्थ-पूर्वभव में वरदत्त मुनिराज के उपदेश के प्रभाव से मैंने (सिंहचंद्र) सुगति प्राप्ति के अनन्तर आपके (आर्यिका रामदत्ता) गर्भ से जन्म लिया। मेरा पूर्वभव भद्रदत्त बरिणक नाम का जीव था। मेरे जन्म होने के बाद मापने संस्कार सहित मेरा नाम सिंहचन्द्र रखा । मौर पूर्वभव में वारुणी नाम की जो ब्राह्मण पुत्री थी उसके जीव ने तुम्हारे गर्भ में पाकर पूर्णचन्द्र नाम का पुत्र होकर जन्म लिया ।।४६०।। प्रादलावन् कनिगां। कादल यायिनायनी॥ पोदुला मलग लानु । कोदिला गुरगत्त नाने ॥४६१॥ अर्थ-इस कारण पूर्वभव के संस्कार से तुम्हारे प्रति हमारा प्रेम अधिक हो गया है। इस प्रकार इसी उपदेश से उनको सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी। क्योंकि पूर्वजन्म के संस्कार से सारी बातें प्राप्त होती हैं। मोह कंदमूल के समान है । बार २ इसी प्रेम के कारण किसी भी पर्याय में पहुंचे, एक दूसरे का संबंध होकर प्रेम का कारण बन ही जाता है। इस कारण है प्रायिका माता ! पूर्व जन्म के मोह का ही संस्कार है। इसलिये पूर्णचन्द्र को अवश्य सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी॥४६॥ विनयेनु कुयव नम्मै दुरु वियट्रल कंडाय । अनगना मुरुवम् तन्नै पेन्नुरु वाकियेंगे । मनविय मगळु माकि मगळये मैंद नाकि । निनविनाल मुडित्त निड्रार् नीदियार् कडक्क वल्लार ।४६२। अर्थ-इस नाम कर्म से जिस प्रकार कुभकार मिट्टी के बरतन को अपनी भावनाओं के अनुसार छोटा बडा बनाता है; उसी प्रकार मनुष्य शुभाशुभ भावों के अनुसार अपनी पर्याय धारण कर लेता है। पूर्व जन्म के संस्कार से पुत्र, माता, भगिनी, भाई, बंधु, पिता, पिता से पुत्र, पुत्र से पिता, माता से पुत्री, पुत्री से माता इस प्रकार शुभाशुभ अर्थात् मोह कर्म के वश जीव अनेक विचित्र पर्यायों को धारण कर लेता है। इसी तरह संसार में जितने प्राणी हैं वे सब पूर्व जन्म के पाप पुण्य के अनुसार फल वाले होते हैं ।।४६२॥ भद्दिर बाहु वेन्नू परममा मुनिवन् पारि । लुत्तमन् पादं सेंदु इन पिदा विड़, मुनिवनागी । इत्तळ मेनिड़ निनक्कु वंदिदत्तै योदि। सित्त मै मोळिकन् मूड सेरिवित्त कुरव नानान् ।४६३। अर्थ- इस संसार में उत्तम गुण को धारण किये ऐसे भद्रबाहु मुनि के चरण में शरण गया है ऐसा तुम्हारा पिता है, वह मुनि दीक्षा लेकर निर्दोष चारित्र को प्राप्त कर यहां Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ] मेरु मंदर पुराण माकर मुझे धर्मोपदेश करके मेरी आत्मा को सुख और शांति करने वाला वही मेरा गुरु है । शांतमामदिये शरंदु तैय्यलायुन पयंदाळ् । कांदि तानाई नाळक् कावलन् शीय सेनन् । पांदळान् मरितुपोगि सल्लगी वनत्त कमा। वेंदनाय मुनिय वेरिट्टि पेरसनि कोडम् ॥४६॥ अर्थ हे आर्यिका माता! तुझको जन्म देने वाली तुम्हारी माता ने शांतिमति नाम की प्रायिका के पास जाकर दीक्षा ग्रहण की थी। तुम्हारा पतिदेव राजा सिंहसेन था। वे सर्प के काटने से मरकर सल्लकी नाम के वन में बलवान हाथी हुए। वह हाथी सभी हाथियों में बलिष्ठ था। वह गजराज अनेकों को कष्ट व उपसर्ग देता था। उस वन के भीलों का नाम प्रशनी कोड रखा था। वह हाथी मद से अधिक बलवान होने के कारण निःसंग होकर अकेला निरंकुश रूप से घूमा करता था ।।४६४।। नागांद देन्नै काना मदत्तिनालंदनांगं । वेगांद तालिन् मेले वेगुळिया लोडि बंद ॥ तागा सेत्ति यानेढुंदे नंगु वंदेने काना। वेगांद नेरि पुक्किन् मै कंडव नोरुव नोत्ते । ४६५।। अर्थ-पर्वत चोटी पर मैं (सिंहचन्द्र) जिस समय तपस्या कर रहा था, उस समय मुझे देखकर अत्यंत क्रोधित होकर वह हाथी मुझे मारने को प्राया। मुझे चारणऋधि प्राप्त थी, इसलिये उसके प्रभाव से मैं प्राकाश में जाकर खडा रह गया। उस हाथी ने मुझे चारों ओर देखा और न दीखने के कारण भयभीत होकर वहीं खडा रह गया ॥४६५।। बैंकंद कडवा कूटोत्तेन्न मेलोक्किल पार्क । सिगं मा पुरत्त बेंदे शीय मा शेन प्रोनि ॥ इंगु वंदि याने यानाय पावत्तालिदनै विद्यार। पोगि वीळ् नरगं तन्निर पोरुंद वो मुचि येडेन ॥४६६॥ अर्थ-उसी समय वह हाथी सहज ही ऊपर की ओर देखने लगा तो उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि आकाश में कोई यमराज ही मुझे पकडने खडा है । तब उस हाथी को मैंने देखकर ऊपर से कहा कि हे सिंहपुर के राजा अधिपति सुनो! तुमने असह्य पाप के उदय से जंगल में अशुभ कर्म के उदय से अशुभ तथा निंद्य पशु पर्याय में जन्म लिया है । तुम्हारा प्राचरण वर्तमान में यदि देखा जाय गे मरकर नरक जाने का कार्य कर रहा है ।।४६६॥ प्ररसनाय पेरियविंब तळूद कंदड कनाले। करिय राय पेरिय तुंवत्तऴ्द विक्कानिर कडेन ॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २१७ पेरियदोर पावत्तलिप्पिरविर्य पेरिदु मंजिर् । तिरुवर मरुवयान शीय चंदिर डिटेन ॥४६७॥ अर्थ-पुनः सिंहचन्द्र मुनि कहते है कि हे गजराज ! तुम पूर्वभव में राजसभा में अत्यन्त गौरव पूर्वक राज्यगद्दी पर राज्य करते हुये सिंहसेन नाम के राजा थे । सूर्य का प्रकाश चारों दिशामों में चमक रहा हो ऐसा मैंने मेरी आंखों से देखा था। अब इस समय मैं देख रहा हूं कि हाथी की पशु पर्याय में जन्म लिया है । और भीलों के द्वारा तुम कष्ट सहन कर रहे हो। इस लिये भविष्य में यदि अच्छी गति प्राप्त करने की इच्छा रखते हो तो तुम जैन धर्म को स्वीकार करो। मुनिराज ने उस गजराज को कहा कि पूर्वजन्म में जो सिंहसेन तुम राजा थे उनका तुम्हारा पुत्र मैं सिंहचन्द्र हूँ ॥४६७॥ येंडलु मेळंद पोद तिरंद वेप्पिरवि तन्न । एंडव नरिंदु मूच्चित्तर वर पोल वीळं दान ॥ निड़ दोर पडिइर् ट्रेरि निरै तवन् पोल निड़ान । सेंड यां नरत्तै कूर सेविन ताळ्तलोडं ॥४६८॥ इस प्रकार कहते ही उस हाथी को पूर्वभव का जाति स्मरण उत्पन्न हो गया । मौर वह मूच्छित होकर जमीन पर गिर गया । तदनन्तर वह हाथी थोडी देर में सचेत होकर खडा हुमा । उस हाथी का यह हाल देखकर. पुनः प्राकाश में से नीचे पाकर उन मुनिराज ने धर्म का उपदेश देना प्रारंभ किया और हाथी भक्ति से ध्यान पूर्वक उपदेश सुनने लगा। __ मुनि महाराज ने धर्म की महिमा का उपदेश उस हाथी को सुनाते हुए यह कहा कि यह भोग सुख सामग्री अनेक भवों से भोगने में पा रहे हैं। चक्रवर्ती पद, देवपद मादि कई प्रकार की संपत्ति वैभव का प्रानन्द लेते २ इसका खूब अनुभव हो गया है । परन्तु इसमें से आज तक क्षण २ में नष्ट होता हुआ कोई पदार्थ शाश्वत देखने में नहीं पाया। यह प्रात्मा अनादि काल से शुभाशुभ कर्म के फल से इस जगत में तेली के बैल के समान जैसे वह पट्टो बांधे चारों ओर घूमता है उसी प्रकार चारों गतियों में घूमता फिरता है। हमने इस मोर माजतक लक्ष्य नहीं दिया। कहा भी है: भोगानभुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः। कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णानजीर्णा वयमेव जीर्णाः। विषयों को हमने नहीं भोगा, किन्तु विषयों ने हमारा ही भुगतान कर दिया हमने तप को नहीं तपा,किन्तु तप ने हमें ही तपा डाला। काल का खातमा नहीं हुमा, किन्तु हमारा ही खातमा हो चला तृष्णा का बुढापा नहीं पाया किन्तु हमारा ही बुढापा मा गया।क्यों. कि जब तक तृष्णा नहीं मिटती तब तक मोक्ष नहीं होता। कहा भी है: अंगं गलितं पलितं मुडम् , दशनविहीनं जातं तुण्डम् । वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डम् , तदपि न मुञ्चत्याशा-पिण्यम् । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ] मेह मंत्र पुराण अंश शिथिल हो गये हैं. बूढापे में सिर के बाल सफेद हो गये हैं मह में दांत नही रहे हैं, हाथ में ली हुई लकडी के समान शरीर कांपता है, तो भी मनुष्य प्राशा रूपी पात्र को नहीं त्यागता है। इस कारण हे गजराज! इससे भिन्न मात्म सुख का अनुभव माज तक इस जीव को नहीं पाया। प्राचार्य कुन्दकुन्द भी कहते हैं: सुदपरिचिदाणुभूया सव्वस्स वि कामभोगबंध कहा। एयत्तस्सु बलंभो रण वरिण सुलहो विहत्तस्स ।। यद्यपि इस समस्त जीव लोक को काम भोग विषय कथा एकत्व के विरुद्ध होने से प्रत्य-त विसंवाद करने वाले हैं, मात्मा का महान बुरा करने वाले हैं, कई बार सुनने में पाया है, परिचय व कई बार अनुभव में आ चुका है। यह जीव, लोक-संसार रूपी चक्र के मध्य में स्थित है जो निरन्तर अनेक बार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव का परावर्तन रूप करने से भ्रमण करता है। समस्त क्षेत्र को एकछत्र राज से वश करने वाले बलवान मोह के द्वारा राग रूपी सांकल से बैल की भांति जोता. जाता है । वेग से बढ़े हुए तृष्णा रूपी रोग के संताप से जिसके अन्तरंग में शोक व पीडा हुई है। मृग की तृष्णा के समान श्रांत संतप्त होकर इन्द्रियों के विषयों की ओर दौडता है। इतना ही नहीं इस काम में आपस में भाचार्यत्व को करता है तथा दूसरे को कहकर भी अंगीकार कराता है। इसलिए काम भोग की कथा सब को सुख से प्राप्त होती है । भिन्न आत्मा का जो एकत्व रूप है वह सदा अंतरंग में प्रकाशमान है तो भी वह कषायों के साथ एक रूप सरोखा हो रहा है। इसलिए उसका अत्यन्त तिरोभाव अर्थात् वह माच्छादन हो रहा है। इसलिए अपने में आत्म ज्ञान न होने से अपने माप ने कभी भी स्वयं को नही जाना, तथा दूसरे ज्ञानी जनों की सेवा संगति भी नहीं की इसलिए वह एकत्व की भावना न सुनने में आई और न कभी अनुभव में ही आई । यद्यपि वह एकत्व निर्मल भेद ज्ञान होकर प्रकाश में प्रकट होता है परन्तु पूर्व में एकत्व भावना के परिचय न होने के कारण महानदुर्लभ है ।।४६८।। याकयुं किळयु मादि यावयु निड़ विल्ले । बोकिय विनइन ट्रबम विलक्कला मरनु मिल्ल । तीकदि सारंदु सेल्बुळि तुनयु मिल्ल । नीकर गुरणंगळल्ल निड़ तानिल्ल यड़ें ॥४६६॥ अर्थ-प्रतः हे गजराज ! तुम मिथ्यात्व और परिग्रह रूपी पिशाच के निमित्त से चारों गतियों में भ्रमण करते हुए आते समय तुम को उस दुख से रक्षा करने वाला कोई नहीं है। जितने भी आज तक इस शरीर संबंधी पुत्र, मित्र, बंधु, बांधव प्राप्त होते आये हैं, वे सब पाप पुण्य के सगे हैं। परन्तु जब पुण्य संचय समाप्त हो जाता है तो सब अपने २ ठिकाने चले जाते हैं। परन्तु आज तक जितना २ तुमने उनके संरक्षण के लिए पाप किया उस पाप के भोगी तुम ही हुए । कोई भी दूसरा इसको बंटा नहीं सका, न संसार में तेरा दुख बंटाने वाला कोई साथी मिला। इसलिए तेरी रक्षा करने के लिए जैन धर्म ही है। तेरी मात्मा को सुख शांति पहुंचाने वाला तू स्वयं ही है और कोई अन्य नहीं है। कहा भी है: Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेव मंवर पुराण [ २१९ सातों शब्दजु बाजते, घर घर होते राग । ते मंदिर खालो परे, बैठन लागे काग ।। परदा रहती पदमिनो करती कुल की कान । घडो जु पहुंची काल की डेरा हुमा मसान ।। जिस मकान में पूर्व में अनेक प्रकार के गाने गाये जाते थे प्राज वे खाली पड़े हैं, कोए बैठे हुए हैं । जो महारानी पद्मनी पहले परदे में रहती थी और कुल की प्रान के कारण बाहर नहीं पाती थी, वही प्राज काल के प्रा जाने के कारण सबके सामने मरघट में पडी है । कहा है: सुबह जो तस्ते शाही पर बडा सजधज के बैठाया। दोपहर के वक्त में उनका हुमा है बास जंगल का ।। वाताभ्रविभ्रममिद वसुधाधिपत्यम् । पापातमात्रमधुरो विषयोपभोगः ।। प्रारणास्तृणाग्रजलविंदुसमा नराणां । धर्मः सखा परमहो परलोकयाने ॥ इस समस्त पृथ्वी तल का आधिपत्य तीव वायु के वेग से तितर बितर हुए मेघ के समान अस्थिर है । तथा मानव संबंधी सभी विषय भोग प्रापात मधुर हैं अर्थात् उपभोग काल में ही यह विषयोपभोग मधुर होते हैं, परिणाम में नहीं । तथा मनुष्यों के प्रारण तृण के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिंदु के समान चंचल हैं अर्थात् न जाने ये प्राण पखेरू कब इस सन को छोडकर उड़ जायेंगे। अहो! यह कितने पाश्चर्य की बात है कि इन नश्वर सभी वस्तुओं के लिये मनुष्य सारे प्रयत्न करता रहता है । तो भी ये सभी वस्तुएं मनुष्य के सदा सहचर नहीं होती। सर्वदा सहचर हो वहतो एक धर्म ही है,जो परलोक प्रयारणकाल में भी साथ नहीं छोडता । अर्थात् परलोक जाने के समय मनुष्यों का एक मात्र सखा धर्म ही होता है। अतः परलोक में सच्ची मित्रता निभाने वाला यह प्राराधित एक मात्र धर्म ही है जिसे विषयाभिलाषी जन भूले बैठे हैं ॥४६॥ उंदुनाम विट्ट वल्ला पुर्गल मोड मिल्लै । पंडु नाम पिरंबिडाद पदेशमु मुलबि निल्छ । कोंडु नायिट या गुण मिला पूदिगंमय । मंडिना पुलत्तिल बोळवन् बिनै घरबाई लड़न ।।४७०॥ अर्थ-के गजराज! अनादि काल से आज तक यह जीव समस्त पुद्गल पर्याय, संपूर्ण योनियों को धारण करता तथा छोडता आया है, कोई भी पर्याय शेष नहीं रही है। संसार में जितने भी जीव हैं इन सबों ने अनादिकाल से समस्त पुद्गल पर्याय को मथुर Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] मेर मंदर पुराण परिणामों के द्वारा कर्म, नौकर्म को ग्रहण कर अनुभव न किया हो ऐसी कोई वस्तु नहीं है। जितने संसार में प्रदेश हैं उनमें हम जन्म मरण करते पाए हैं। ऐसा कोई शरीर नहीं है जिस को हमने ग्रहण नहीं किया हो। हमारा यह शरीर महान अशुचिमय है । इसके निमित्त हमारा आत्मा अनेक प्रकार के दुख उठा रहा है। पंचेंद्रिय विषयों में लवलीन होने के कारण कर्म परमाणु आकर आस्रव कर रहे हैं और इसी प्रास्रव के कारण आत्मा इस संसार में परिभ्रमण कर रही है । और इसी कारण हम अनेक प्रकार से दुखी हो रहे हैं ।।४७०।। अरियदिवुलगिन् वेंडोल तिरुमोळि यवन पेट्रार । पेरिय नर काक्षि ज्ञान उळुक मामवट्रि पिन्न । वरुविन वाइलेला मडक्क मुन मिडेंद पांव । निरु सेरे सेल्लमिद नेरियै नी निनक्क बेंडेन ॥४७१॥ अर्थ-इस लोक में घाती कर्म को नाश करके केवलज्ञान को प्राप्त हुए अहंत भगवान तथा उनके मुख से निकले हुए परमागम ही अथवा जिनवाणी पर ही श्रद्धा रखना सम्यकदर्शन है। उसको संशय रहित होकर जानना सम्यक्ज्ञान है । उसको जान कर उसके अनुसार चलना सम्यक्चारित्र है। इस प्रकार कहे हुए धर्म व्यवहार के अनुसार पालन करनेसे तथा आने वाले अशुभ कर्मों को रोकने के लिए प्रात्मभावना के द्वारा भक्तिपूर्वक आचरण करने से अनादि काल से आत्मा के अन्दर लगे हुए कर्मों की निर्जरा होती है । यह निर्जरा मोक्षमार्ग के लिए कारण है और यही आगे चलकर मोक्ष का देने वाली है। इसी प्रकार आचरण करना व्यवहार धर्म है । . भावार्थ-जीवादि तत्त्वों पर श्रद्धान रखना सम्यकदर्शन है। इसी तत्त्व को तथा अनेक प्रकार के स्वरूप को समझ लेने से सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति होती है । यह सब समझ लेने के बाद तत्त्वों के अनुसार चलना सम्यक्चारित्र है । इस प्रकार बार बार विचार करना तथा आराधना करना यह निश्चय रत्नत्रय के लिये कारणभूत है । इसकी भावना भाने से स्वपर का आत्मघात न हो अर्थात् परपीडा न हो ऐसे रत्नत्रय के प्रकाश में चलने से आत्मोद्धार और लोकोद्धार होता है । यह रत्नत्रय आत्मा का भूषण तथा प्रकाशक है इसी को मोक्ष मार्ग कहते हैं। इसी मोक्ष मार्ग में अपने प्रात्मा की स्थापना करो। तदनन्तर उसी का ध्यान व भावना करो। प्रात्मा में हमेशा विचरण करो । अन्य द्रव्यों में विचरण मत करो। इस प्रकार ग्रंथकार ने कहा है आचार्य ने जैन धर्म के सार को समझने के पहले व्यवहार रत्नत्रय को समझने का आदेश दिया है । वह इस प्रकार है: "द्रव्य छह हैं, जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । तत्त्व सात हैं जीव, अजीव, प्रास्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष। इनमें पाप और पुण्य मिलने से नौ पदार्थ होते हैं । अस्तिकाय पांच हैं-जीवास्तिकाय, अजीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय . Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २२१ और आकाश अस्तिकाय यह पांच पंचास्तिकाय हैं। छह द्रव्यों में से काल द्रव्य को छोडकर शेष पांच द्रव्य बहुप्रदेशा हैं। यह सब मिलाकर २७ तत्त्व होते हैं। इन पर श्रद्धा रखना व्यवहार सम्यक्दशन है । निश्चयसम्यक दर्शन के लिये भी ये ही साधन होते हैं । कुन्दकुन्दाचार्य ने भ्रष्ट पाहुड में गाथा नं० ३० में कहा है: "गतये लव एवं भमिप्रोसि दीहसंसारे । इय जिगाव रेहिं भरियं तं रयरणत्तं समायरह || सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को रत्नत्रय कहते हैं । रत्नत्रय के व्यवहार और निश्चय की अपेक्षा दो भेद हैं। इनमें से व्यवहार रत्नत्रय तो इस जीव को कई बार प्राप्त हुआ है । परन्तु निश्चय रत्नत्रय की ओर संकेत करते हुए गाया में 'सुप्रलद्धो" लिखा गया है, जिसका अर्थ होता है रत्नत्रय के सम्यक् प्रकार से प्राप्त न होने से अर्थात् निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति न होने से यह जीव अनादि संसार में भटकता रहा है । ऐसा तीर्थंकर परमदेव ने कहा है । अतः हे भव्य प्रारणी ! तू उस निश्चय रत्नत्रय का अच्छी तरह आचरण कर अथवा उसका अच्छी तरह प्रादर कर । पुनः श्लोक ३१ में कहा है: अप्पा अप्पमिरो सम्माइट्ठी हवेई फुडु जीवो । जाणइ तं मण्णाणं वरदिह चारित्तमग्गुत्ति ॥ -- अर्थ- - प्रात्म-श्रद्धान में तत्पर जीव निश्चय से सम्यकदृष्टि है और व्यवहार नय से जीवादि तत्वों का श्रद्धान करने वाला सम्यकदृष्टि है । जो आत्मा को जानता है वह निश्चय से सम्यक्ज्ञान है, और व्यवहार नय से जो सात तत्त्वों को जानता है वह सम्यक्ज्ञान है । जो आत्मा में चरण करता है प्रथात् उसी में लीन होता है वह निश्चय से चारित्र का मार्ग है, और पाप क्रिया से विरत होना व्यवहार से चारित्र का मार्ग है ।। ४७१ ।। वेरुवुरु तुंब माक्कुं विलंगिनु ळेळंडु वोळ्दल् । नरगिडं मरुवं तुंब नरर्केलाम् कुडुंब मोंबन् ॥ मरुविय देव लोगिन् बळुत्तरल् वान वर्कान् । दुरुवमाय् निड़ तुंबम् सोन्न नगितिकु मेंड्र ेन ॥४७२ ॥ अर्थ- हे गजराज ! अनादि काल से जीव ने पंचेंद्रिय के विषय के निमित्त छल कपट करके निंदनीय नीच गति में जन्म लेकर सदैव दुःख ही दुःख पाया और हमेशा भय ही खाया। इस पाप कर्म के उदय से नरक में रहने वाले जीव को दुःख ही दुःख सहन करना पडता है । मनुष्य गति में स्त्री, पुत्र, मित्र, बंधु आदि के संरक्षण करने की चिता तथा दुख हमेशा बना रहता है । देवलोक में जन्म लेने से जब देव गति से सुख को छोडकर जाना पडता है उस समय उसको अनेक प्रकार का दुख भोगना पडता है । इस प्रकार चारों गतियों में कष्ट ही कष्ट भोगना पडता है || ४७२ || Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] मेरु मंदर पुराण मनत्तिडे पिरक्कुं तुंबम वंदोर मवट्रिन्द्र बम् । तनुत्तनिर् पिरक्कुं तुंबम् तानियल तुंब ।। मेनच्चोल पट्ट नांगु मिया वर्षा मागुमिन्न । निगत्तर पुनरि निड़ तोगति नींगु मेंडेन ॥४७३॥ अर्थ-मनुष्य पर्याय प्राप्त करने के बाद संज्ञी जीवों को हमेशा संसार में मन की इच्छा पूर्ण करने की भावना होने पर भी पूर्वजन्म में उपार्जन किए अशुभ कर्म से अनेक प्रकार के दुखों को भोगना पडता है। शरीर से उत्पन्न होने वाले शारीरिक दुख तथा मानसिक, स्वाभाविक और पागंतुक ऐसे चार प्रकार के दुख सभी संसारी जीवों में पाये जाते हैं। अतः हे गजराज ! तुम इन सभी दुखों पर विचार करके यदि भगवान अहंत देव के वचनों के अनुसार पाचरण करोगे तो यह सांसारिक सारे दुख नाश होकर अंत में क्रम २ से मोक्ष की प्राप्ति होगी । ऐसा मुनिराज ने गजराज से कहा ।।४७३।। विनयत्तोडिरेजि केळकु मुनिय पोल विळंबि देल्लाम् । मनो वैत्त वनगि केटु वदंगळ् पग्निरेंडु मेवि ॥ पनयोत्त तडक्क मानल्लुयुर् गळे पाद काकुं । मुनियोत्तु करुण वैत्तौ उईरै युमोंबिर् दंड ॥४७४॥ अर्थ-इस प्रकार मुनिराज के उपदेश को सुनकर वह हाथी अत्यन्त भक्ति पूर्वक जिस प्रकार प्राचार्य द्वारा धर्म शास्त्र का किसी मुनिराज को उपदेश देने पर वे मनःपूर्वक प्राचरण करते हैं, उसी प्रकार धर्मोपदेश सुनकर जैसे निग्रंथ मुनि सपूर्ण जीवों पर दया करते हैं उसी प्रकार वह हाथी दयालु होकर संपूर्ण जीवों की रक्षा करने लगा ।।४७४।। पो कोलै कळव काम पुलै सुत्तेन कळ्ळगट्रि। मैयुरै दिशयिनोडु पोरुळि नै वरु दुमेनि ॥ नईनु वदंग नैया वगैना नागराजन ।। शै मा शैय मत्तिर दुवै निडाल पोलचंद्रान ॥४७॥ अर्थ-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ऐसे पांच पापों का स्थूल त्याग व देशवत, दिग्व्रत और अनर्थदंडवत इन तीनों व्रतों को तथा भोगोपभोगपरिमारण शिक्षाव्रत प्रादि का ग्रहण कर अपने शरीर को व्रत उपवास के द्वारा कृश होने पर भी जैसे दूसरी प्रतिमा वाला श्रावक व्रत को निरतिचार पालन करता है उसी प्रकार वह हाथी भी निरतिचार व्रतों का पालन करने लगा ।।४७५॥ उवर्काडु वेरुप्पि नोंड्रि युडवोडु पुलंगडम मेर् । ट्र वर पसै नांगु नीगि सोन पनि रंडु मुन्नि । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा मंदर पुराण शेवर शंगं इड्रिसेत्तं शांति ईनन्मं तीयं । कुवसल कार्याविड्र पक्कं लिंग नोन नद्रि शंड्रान् ॥ ४७६ ॥ अर्थ -- इस प्रकार वह गजराज उस व्रत को निरतिचार श्राचरण करते हुए तथा म से और २ बढाते हुए वैराग्य भावना में महान तत्पर हो गया और क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों को त्याग कर शास्त्र में कहे हुए बारह भावनाओं का चितवन करते हुए दुश्चारित्र को त्याग दिया । मन में होने वाले हर्ष व विषाद को भी त्याग कर व्रत अत्यन्त उत्कर्ष परिणाम करने वाला हो गया अर्थात् कभी २ एक २ मास तक प्रश्न जल को भी ग्रहण नहीं करता था ।।४७६ ।। बारणं तिङ् विटू वट्रिय तुवलुं पुनं । 6 पारयाग पातं करुन तवं पथि पान्में | • कारण मिदुमेवान् पोर, कालंगळ् पलवु नो । नीरने पोडुं ग्रूप केशरी नदियं पुक्कान् ||४७७॥ [ २२३ अर्थ - इस प्रकार गजराज अपने व्रतों में तत्पर रहकर सदैव बारह भावनाभों के चितवन में लीन रहता था । उस वन में अन्य सभी हाथी जो चारा घास खाते थे उस खाए हुए सूखे घा व टुकडों को हो खा खाकर वह हाथी वन में गुजर करता था। इस प्रकार व्रत को निरतिचार रूप से पालन करने वाले भव्य जीव के समान उस व्रत को वह हाथी निर तिचार पालन करता था । व्रत का श्राचरण करते समय एक दिन वह गंजराज चतुर्दशी का उपवास करके दूसरे दिन रूपकेशरी नाम की नदी पर पानी पीने चला गया ||४७७।। उरेनु करिघ व मुरुतंग नोंबुमुद्रि । वरंनि पिळिंब वे पोल् ट्रीय कायताट्रायिम् ॥ करैयिने शां नीरुळ कैयिनं नीट कैमा । निरेयिनु करसन कालगळ, निडसिडं कुळिप्प निड्रान् ॥ ४७८ । अर्थ - वह उपवास किया हुआ हाथी धीरे २ नदी के पानी में उतरता है । वहां गहरा कीचड था । शरीर की शिथिलता के कारण उस हाथी के दोनों पांव कीचड में फंस गये और वह हाथी विह्वल हो गया । पानी पीकर जब वह हाथी कीचड में से पांव उठाकर ऊपर चलने लगा तो उसके पांव कीचड में फंस जाने के कारण वह वहीं खड़ा रह गया । ||४७६॥ | प्रक्कन तमैच्च नाग चमर मायवने बिट्ट । कुक्कुड वडिविर पोवाय् पिरंद वक्कु वदन् काना ॥ मिक्केळुम वनलुं कोपिसोड मेलेरि निद्रि । चिक्केन कब धोरत् कायमुं त्यागं शैवान् ॥४७६ ॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] मेह मंदर पुराण अर्थ-महान प्रयत्न करने पर भी उस गजराज के पांव कीचड से बाहर न निकल सके । जब पानी से पांव न निकल सके तो वह वहां ही खडा रह गया । तब पूर्वभव का सिंहसेन राजा का मंत्री सत्यघोष का जीव निदान बंध करके अंगद नाम का सर्प हुमा था मोर वही सर्प मरकर चमरी मृग हुमा मौर वहां से चयकर कुक्कुड सर्प हुमा। उस समय उस कुक्कुड सर्प की कीचड में फसे हुए हाथी की मोर सहज ही दृष्टि गई। देखते ही पूर्व जन्म का यह मेरा वैरी है, ऐसा जाति स्मरण हो गया । जाति स्मरण होते ही उस सर्प ने हाथी को काट लिया। काटते ही हाथी को विष चढ़ गया ।।४७९॥ मलइने सूळं द मंजि नंजु वंदेंगुस सूळ । निलइ निर् दळदलिडि निड. माववन न् पादम् ।। तलैमिश कोंडु पज मंदिरं शिव शैदु । निले इला उडंबु नीगि नेरियिर् सासारं पुक्कान् ।।४८०॥ अर्थ-जिस प्रकार पर्वत मेघ के समूह के घिरने से काला दीखता है , उसी प्रकार उस कुक्कुड सर्प के विष से वह हाथी काला २ दीखने लगा । परन्तु जब प्राण छोडने लगा तब प्रातरौद्रध्यान न करके शुभध्यान से सिंहचन्द्र मुनि का ध्यान करते हुए बारहवें सहस्रार स्वर्ग में जाकर देव हुआ ।।४८०॥ प्रायुगतियु माणु पुग्वियु मक्क विक्कं । येय नल्विनैग ळल्ला युद्धंध वट्रोडुम् शेंड.॥ पाय नल्ल मळि मेल्लोर पातिव ननितु वंदु । मेयिनानेछंद देपोल विनयीनान् मुडित्तेढुवान ॥४८॥ अर्थ-वह देव की प्रायु, गति, नाम कर्म, प्रानुपूर्वी नाम कर्म सभी उस देव गति योग्य पूर्व जन्म में किए हुए पुण्यं कर्म के फल से सहस्रार कल्प में रहने वाले उत्पादशय्या नाम के सिंहासन में सम्पूर्ण आभूषण से युक्त १६ वर्ष के तरुण बालक के समान उत्पादजन्म को प्राप्त हुआ ।।४८१।। माने तन्नुरुष नीगि इरवि मुर् पिरभ तोईि। वानत्त विल्ल पोल वडिवेला समैदु मूतिर् ॥ ट्रेनत्त वलंग लान पेर सीवर नेववागु । मानुत्त नोकिनार तस् वडिक्कनु किलक्क मानान् ॥४८२॥ अर्थ-प्रशनी कोड नाम का वह हाथी अपनी पर्याय को छोडकर सहस्रार नाम के विमान में जिस प्रकार आकाश में इन्द्रधनुष अत्यंत शुभ्र प्रकाशमान दीखता है, उसी प्रकार एक अन्तर्मुहूर्त में सर्वांग अंगोपांग को प्राप्त होकर अत्यन्त शोभायमान प्रकाशित होने लगा और महान सुन्दर रूप को धारण कर सभी को मोहित करने वाला श्रीधर नाम का देव हो गया ।।४८२॥ . Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ awr -- मेरु मंदर पुराण [ २२५ मुडियुं कुंडलमुं तोडु मारमं कुळयु पूर्नु । __ कडमुं कळलुं पटु कलावमुं वीळ नूलु। मुडनियल बागि तोडि योळि युमिळं दिलंगु मोनि । पडरोळि परप्प मजिर परुदिई निरुंद पोल्दिन ॥४८३॥ अर्थ-उस स्वर्ग में उत्पाद शय्या से जब जन्म लेते हैं तब वहां जन्म लेने वाले किरीट (मुकुट), मोती का हार, कुन्डल, फूलों का हार, हाथ का कुन्डल, पहवस्त्र, जरी मख. मल के वस्त्र आदि २ सोलह आभूषणों सहित सूर्य के समान प्रकाशित होते हुए. उत्पाद शय्या से उठकर इस प्रकार बैठते हैं जिस प्रकार गहरी निद्रा में सोकर कोई जाग कर बैठा हुआ है। ॥४८३॥ कारण मलगळ यारि कर्पग मरंगळ वीळं द । वारणि मरस मेंगुम मुळंग नंदन वनत्तिल ।। वेरियं दातु मेरि मंद मारुरंगळ वीस् । शीररिण कोंगै यार देवर सेंड सेरं दार ॥४८४।। अर्थ-उस देवलोक में रहने वाले कल्पवृक्षों से जिस प्रकार मेघ को बून्द बरसती है, उसी प्रकार फूल बरसते थे। वहां अनेक प्रकार के भेरी वाद्य आदि बाजे बजते थे। अति सुगन्ध वायु चलती थी । वहां रहने वाले सामान्य देव तथा देवियां उस श्रीधर नाम देव की सेवा करने को तैयार हो गये ॥४०४।। येतिक्कं पाति देनो यावरो यान्विनारो । सित्ततु किनय देशं यारदो वेंडि रुंदु ॥ तत्तुंर पोदि लंद बवत्तै शारं देछंद मोदि । कैतल पडिगं पोल कंडदु करुदिर ट्रेल्लाम् ॥४८५।। अर्थ-वह श्रीधर देव शय्या से उठता है और चारों दिशाओं में देखकर आश्चर्य चकित होकर विचारता है कि यह कौनसा स्थान है। मैं कहां से आया हूं, ऐसा सुन्दर व रमणीय स्थान मैंने कभी नहीं देखा । ऐसी सुन्दर स्त्रियां कहां से आई । मंगल गीत गान हो रहे हैं। ऐसा विचार करते २ उसको भव प्रत्यय नाम का अवधि ज्ञान हो गया। अवधिज्ञान होते ही जैसे हाथ में प्रत्यक्ष वस्तु स्पष्ट दीखती है उसी प्रकार उसने भव प्रत्यय ज्ञान से पिछले भव का सारा हाल जानकर समझ लिया ।।४८५।। दंतिय तुडकमाय वरिंदु यान मुन्वु शैद । मंदमादवत्तिर् पेट तुरक्क मंदारं सूळद ।। विदिर विमान मेन्नै यद्दिक्कु सूळ प्रोदि । वंदु निडिरेजुगिड़ा बार् वानवर तांगलेंडान् ॥४८६॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] मेह मंदर पुराण पर्व-उस श्रीधर देव ने पूर्वभव में मै प्रशनीकोड हाथी की पर्याय में था। उस पर्याय को त्यागकर इस समय मैं देव पर्याय में है। ऐसा अपने प्रवधिज्ञान से पूर्वभव को जान लिया। महो! कितने प्राश्चर्य की बात है कि पूर्वजन्म में मैंने अल्पव्रत को धारण किया था और उसी ब्रत के प्रभाव से प्राज मैने देव पर्याय धारण की है। क्या जैन धर्म सामान्य है ? केवल अल्पमात्र व्रत धारण करने से मुझे देव पर्याय मिली ! जब कोई प्राणी महाव्रतों को पालन करता है तो क्यों न उसको मोक्ष की प्राप्ति होगी। इस प्रकार विचार करके धर्म के प्रभाव से वह अत्यन्त प्रानन्दित हुमा । वहां की देवियां मंदार प्रादि सुगंधित पुष्पों की वर्षा करती हुई उनकी स्तुति कर रही थी।।४०६ ।। पाडवार् मदुर गीतं देविमार मिन्नुप्पोनिन् । राडवाररंभ पार्गकरिव पोरिलय तोड़ ॥ मुतामेलंद बोस बुंदुभि योस पेंड.। नोडिया तबत्तिया पारिवव निरुव पोल्दिल॥४७॥ अर्थ-उन देवियों के सुन्दर वाद्य व गीत उस श्रीधर देव के कानों को बहुत सुन्दर लगे। इस प्रकार ये देवियां सुन्दर २ वाद्य और गीतों के साथ नृत्य करती थीं। कई देवियां उनकी प्रशंसा करती थी । कानों को मधुर सुनाई देने वाले बाजे प्रादि बज रहे थे । तब उस समय वहां के देव और देवियां कहने लगी कि हे देव ! प्राप उत्कृष्ट प्रायु तथा रूप संपत्ति आदि को प्राप्त कर इस देव लोक में रहने के समय तक इस संपत्ति मौर इन स्त्रियों का उपयोग करके यहां के मानन्द का अनुभव करें। पुनः वहां के सामान्य देवों ने कहा कि प्राप भिन्न २ स्वर्गों के भिन्न २ सुखों के प्रानंद का अनुभव करें। आप के द्वारा जो कार्य यहां होना है उस कार्य के लिये हम प्रार्थना करते हैं सो सुनो ॥४८॥ बेंडि वतिय उपर मायबु । मोडि वग्यग मुळ्ळळवं सेलम ।। मॅड. सोल्लि इरेजिय वानवर । निड, पिन सेयु नीविगळोदिनार ॥४८॥ अर्थ-हे देव ! प्राप प्रथम त्रिमंजी नाम की बावडी के जल में स्नान करें और प्रहन भगवान के दर्शन करें। पूजा, अर्चा, भक्ति, स्तुति प्रादि करें ।।४।। मंजन सयत्तार् मदिपोन् मुग । तम् सोलारदु मुन्न पमरंदु नी॥ पंच कायं पनित्त पिरानशि। कंबलि सैवमर्व शिरप्पुनि ॥४८॥ . Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २२७ ताविला तवत्तिल पयनागिय । देवर तन तोगै सैव दरिंदु पिन् । नावि नोस नरंवि नेळगुरर । ट्राविलावि लयं पईल साले कान् ॥४६०॥ अर्थ-वे सामान्य देव श्रीधर से पुनः कहने लगे कि पूर्व जन्म में आपने व्रतादि का पालन किया था। इसी कारण प्राप देव गति को प्राप्त हुए हैं । यह सभी को प्राप्त नहीं हो सकती। भाग्यवान ही को मिल सकती है। आप भाग्यवान हैं। इसलिये देवगति मिली है । पूजा, स्तुति करने के बाद आप नृत्य मंडप में पधारें। वहां अनेक स्त्रियां देवियां नृत्य गान करती हैं उनको देखिए और सुनिए ।। ४८६ ।। ४६.।। पडं कडंदनि ताकिय वल्गुलार । नुडंगु नुन्निड मोव नुवलरु॥ वडंजु मंद वनयुलइन् पयन् । द डंगु पिन्नेन यद्रवर् सोल्लिनार ॥४६१॥ अर्थ-हे श्रोधर देव ! जरी के वस्त्र, रत्नों के प्राभूषण, अनेक प्रकार के रत्नों से . जडे हुए अत्यन्त सुन्दर पांवों में पैजनी बांध कर नृत्य करने वाली यहां देवियां हैं। यह माप पर मुग्ध होकर प्रापको प्रसन्न करने के लिये नृत्य गान कर रही हैं। आप इनको स्वीकार करें। यह देवगति सम्यक दृष्टि के लिए अच्छी है। किन्तु जो सम्यक्स्व रहित तप व्रत है वह संसार के लिए कारता है। ऐसे व्यक्तियों के लिए कर्म निर्जरा का कारण न होकर संसार का कारण होता है। इसीलिए पूर्वजन्म में हाथी की पर्याय में अणुव्रत धारण कर सम्यक्त्व सहित मापने देवगति प्राप्त की है। आप धन्य हैं ।।४६१॥ नीदि कडवार पेरियो कडा । पावलालमरन नवे सैद पिन् । धातिय कडियुं तिरु मालडि। पोदु कोंडु पुगळं दु परिणदनन् ।।४६२॥ अर्थ-सद्गुणों को प्राप्त हुए जीव नीति शास्त्रों में कहे हए भगवान के वचनों के अनसार चलकर इस लोक व परलोक के साधन करने के लिए प्रयत्न करते हैं। इसी सद्गुरण शिरोमणि श्रीधर देव ने पहले कहे अनुसार पूजा, अर्चा, प्रादि नित्य क्रिया करके। प्रहंत देव की स्तुति की ।।४६२।। पार नहुँद विकानत्ताने पाय निड़न । सरण शरगडं निहिवं शासार नानार् ॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ] मेरु मंदर पुराण करणमेला वेंड ने कंडवर्गाळ् काय । मरणमिला वीडेदन मट्रोर पोरुळु ॥४६३॥ अर्थ-स्तुति करते समय श्रीधर देव भगवान से प्रार्थना करता है कि हे प्रभु! जिस वन में सिंह व्याघ्र आदि रहते है, ऐसे सल्लकी नामक वन में मैंने हाथी की पर्याय को धारण किया था। परन्तु मेरे पूर्व जन्म के भाग्य के उदय में आने से सिंहचन्द्र मुनि मुझे मिल गये। वे मनि अपने वचनामत के अनुसार मुझे भी वहीं धर्मामृत वचन सुनाकर मेरी प्रात्मा को जागृत कराया । अर्थात् पंच पापों का त्याग कराया। इसी कारण पशु पर्याय को त्यागकर धर्म ध्यान से अब उत्कृष्ट पर्याय को धारण को है । यह आपके वचन की हो शक्ति है जो मैं निंद्य पर्याय को छोडकर देवगति में आया । अब मन, वचन, काय त्रिगुप्ति से आपको देखकर अति अनुभव में लीन होकर स्वानुभूति को प्राप्त होकर जन्म मरण को नष्ट करके मोक्ष प्राप्त करना दुर्लभ नहीं है , बडा सुलभ है। यह इस कारण सुलभ है कि आपके वचनों में महान शक्ति है ।। ४६३|| निळोल निड्र न्ने वंदडैदा याट्रा। यळोकि येंद मिला विवत्तै याकि ॥ वळत्तरा मुत्तिइन् कन् वैक्कु निन् पोपीद । निळसेरा माट्रा नेडु वळिये सेल्वार ॥४६४॥ अर्थ-हे भगवन् ! आपकी छाया के समान हमेशा हमेशा आपके चरण कमल का जाप्य करने वाले जीव इस संसार रूपी समुद्र से तैरकर अत्यन्त सुख को देने वाले मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है। प्रापकी पूजा, अर्चा, स्तुति, ध्यान करने वाला जीव अधिक दिन संसार में परिभ्रमण नहीं करता है ।।४६४॥ कामनै युं कालन युं वेंड लग मुंडि नुक्कुं। सेम नेरि प्रळि सेंदामर पुल्लि ॥ प्रमुदिरा पिडि कोळ् पोन्नेइल लुन मनियनिन । नाम नवि दादार वोटुलग नन्नारे ॥४६५॥ अर्थ-हे भगवन् ! पाप कामदेव रूपी यमराज को जीतकर तीन लोक के प्राणियों को अनन्त सुख उत्पन्न करने वाले वचनामृत को पिलाकर देवेंद्र चक्रवर्ती पद को देने वाले हैं और देवों के द्वारा निर्माण किये हुए १००८ दल के कमलों में चार अंगुल अधर विराजमान होने वाले हैं । आप हमेशा कभी भी शोक को न उत्पन्न करने वाले प्रशोक वृक्ष के नीचे विराजने वाले हैं और आप पर पुष्पवृष्टि मेघों की बून्दों के समान होती रहती है। देव आपकी स्तुति करते हैं, और स्तुति करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। ऐसे श्रीधर देव ने भगवान की स्तुति करते हुए प्रार्थना की ।।४६५।। इप्पडित्त दित्तेगिय पिनरे। तुप्पडं तोंड वायवर् तुभिना ।। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण . [ २२६ रोप्पिलाद विबत्त कुळित्तन । नेप्पडि तुरकत्तियल डि येल ॥४६६॥ अर्थ- इस प्रकार श्रीधर देव अत्यन्त भक्ति पूर्वक पूजा ध्यान करने के पश्चात् वहां से रवाना होकर अपने निवास स्थान पर प्राया। श्रीधर के अपने स्थान पर पाते सुशोभित होकर जैसे सुन्दर २ स्त्रियां पाती हैं उसी प्रकार वहां देवांगना आई। तब श्रीधर देव, देवांगना के साथ हास्य विनोद आदि में महान मग्न हुमा । उस मग्न होने का विवरण करना अशक्य है ।।४६६|| देवों के निवास स्थान के पटलों का वर्णन वंडिन मेल् वैयित्त मुप्पोळ् नांगिरन । दोडिन मेलोंड़, मूंड. मूंडोंबुदु ॥ बंडू, मेलोंड, मान तुर कप्पुर। निड़ मेलुर कोळ् निड़ नीवियाल ॥४६७।। . अर्थ-स्वर्ग लोक के पटल-क्रम से सौधर्म, ईशान कल्प में ३२ पटल हैं । सनतकूमार, माहेन्द्र देवों के स्थान में ७ पटल हैं। ब्रह्म ब्रह्मोत्तर देवों के स्थान में ४ पटल हैं। लांतव, कापिष्ठ कल्प में दो पटल हैं । शुक्र महाशुक्र कल्प में एक पटल है। शतार सहस्रार में एक पटल है। प्रानत, प्राणत कल्प में दो पटल हैं। प्रारण, अच्युत कल्प में ३ पटल हैं। नववेयक स्वर्ग में ६ पटल हैं । नवानुदिश में एक पटल है। पंचानुत्तर में एक पटल है । इस प्रकार सौधर्म, ईशान कल्पों में पटलों की संख्या है ।।४६७।। प्रायु का प्रमारण इरंदु मेळुनीरेंदु नीरेळुमा। ईरडु मेर्सेडि रुपत्ति रंडैद ।। तिरंड वट्रिन मेलोंड, सेंड्रायुग । मुरंडेळ कडन् मुप्पत्त मूड मे ॥४९॥ अर्थ-सौधर्म ईशान देव की आयु २ सागर । सनत्कुमार माहेन्द्र देव की ७ सागर । ब्रह्मा, ब्रह्मोत्तर देवों की १० सागर । लांतव, कापिष्ठ देवों की आयु १६ सागर । शुक, महा पटल के देवों की आयु १६ सागर । शतार सहस्रार देवों की १८ सागर । प्राणत, प्राणत देवों की आयु २० सागर । पारण व अच्युत कल्प के देवों की आयु २२ सागर । नववेयेक कल्प के देवों की २३ से ३१ सागर । नवानुदिश में रहने वाले की एक एक सागर क्रम से बढ़ती जाती है। अधिक से अधिक ३३ सागर की आयु होती है। नवानुदिश में रहने वाले जीवों की प्राय ३२ सागर होती है। पंचानुत्तरस्वर्ग के देवों की प्रायु ३३ सागर है । इस प्रकार उपरोक्त प्रायु उत्कृष्ट प्रायु है ।।४६८।। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. ] मेरु मंदर पुराण wwaunikarisauntarwaseercuitoenovocreetamcordastiscoomwater wwwwwwwbhauANAHUILanuuuuuralian.A.LAamanMAN कडर् कोराइर तांडु कडंदमिर । । तुडंद्र उपसि तीर मनत्त ना ॥ कडधै नाळ् पदिनेंदु कळित्त इर् । तडक्क मिल्लइन् पत्तर देवरे ॥४६६॥ अर्थ-एक सागर आयु वाले देवों को एक हजार वर्ष के बाद भूख लगती है । वह भूख मानसिक आहार से तृप्त होती है। एक सागर आयु वाले देव १५ दिन में एक बार श्वासोच्छवास लेते हैं। और इन्द्रिय विषयभोग का भी अनुभव मनुष्य के समान करते हैं। ॥४६ ॥ देवों के शरीर की ऊंचाई येळ मुळं मुदर् केळर वोळंदिडे । योळि मुळङ् कर्पदुच्चिइन् मूंड्रै ॥ विळु मुळं मरयेदुडन वीळं दुमे । लुळि मुळं मोड्नुत्तर तोकमे ॥५००॥ अर्थ-सौधर्म, ईशान स्वर्ग के देवों के शरीर की ऊंचाई ७ हाथ। सनत्कुमार माहेन्द्र पटल के देवों की ऊंचाई ६॥ हाथ । ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर देवों की ६ हाथ ऊंचाई । लांतव कापिष्ठ कल्प के देवों की ।। हाथ। शुक्र महाशुक्र देवों की ५ हाथ । शतार, सहस्रार स्वर्ग में रहने वाले देवों के शरीर की ऊंचाई ४॥ हाथ । पारणत, प्रागत स्वर्ग के देवों की ४ हाथ । पारण व अच्युत स्वर्ग के देवों की ऊंचाई ३॥ हाथ होती है। हेट्ठिम अवेयक के हेट्टिम मज्झिम उवरिम ऐसे तोनों विमानों के देवों के शरीर की ऊंचाई २५ हाथ । नवानुदिश कल्प के देवों की ऊंचाई १ हाथ । मध्यम अवेयक के हेट्ठिम मज्झिम उवरिम् विमानों में २ हाथ है। उवरिम अवेयक के हेट्टिम मज्झिम उवरिम विमानों में १॥ हाथ है। उवरिम ग्रेवेयेक स्वर्ग के देवों की ऊंचाई २ हाथ । पंचारगुत्तर पटल स्वर्ग के देवों की ऊंचाई १ हाथ । इस प्रकार देवों के शरीर की ऊंचाई समझना चाहिये ।।५००। सोद मीशानर तर मेलिरुवर तम् । मोदि मन्नोंड्रि रंडम मुरैयुरु॥ नीदिया निलंकीळ मूर. नाळेदा । लोदियाल मेल मुन्नाल वरुनर् वेर ॥५०१॥ अर्थ-सौधर्म ईशान स्वर्ग के देव अपनी २ अवधि से तीसरे नरक तक का हाल जानते हैं। सनत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग के देव अपने अवधिज्ञान द्वारा दूसरे नरक के हाल . जानते हैं। ब्रह्म ब्रह्मोत्तर स्वर्ग के देव तथा लांतव, कापिष्ठ पटल के देव अवधि से तीसरे सातवें नरक तक का हाल जानते हैं। शुक्र, महाशुक्र शतार व सहस्रार यह चार प्रकार के स्वर्ग के Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुरारण mass गागरा PRO देव चार नरक तक का हाल जानते है । अनत, प्रारणत, अच्युत स्वर्ग के देव पांचवें नरक का हाल जानते हैं ।। ५०१ । । श्रार दावदं केवच्च मायं दिडु | नोरिल विरुवकु मेळावदाम् ॥ मारिला चव्व सिद्धिइल् वानव । रूरिता प्रदि नाळिगं युट् कोळं ||४०२ || अर्थ - नव ग्रैवेयक पटल के रहने वाले देव छठे नरक तक का हाल जानते हैं । नवानुदिश पंचागुत्तर नामके स्वर्ग के देव सातवें नरक तक का हाल जानते हैं । सर्वार्थसिद्धि नाम के विमान में रहने वाले देव त्रस नाडी में रहने वालों के हालात जानते हैं ।। ५०२।। मिडंडन् मेनियै तडरिल कांडलि । नडैयु मिन् सोलिर सिद इन् मेवलिन् ॥ मडनल्लारिन् वरुं पय नंदुव । रवि लोदियिर् सोन मुन्नं वरु ।।५०३ ॥ अर्थ – सौधर्म और ईशान स्वर्ग के देव कामभोग मनुष्य के समान करते हैं । सनत्कुमार, माहेन्द्र स्वर्ग के देवों के देवियों के स्पर्शन से ही काम वासना की तृप्ति हो जाती है ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लांतव और कापिष्ठ स्वर्ग के देवों की देवियों के देखने से ही कामभोग का लालसा तृप्त होती है । शुक्र, महाशुक्र, शतार सहस्रार नाम के देवों के देवियों के शब्द सुनते ही काम की तृप्ति हो जाती है । आरणत, प्रारणत, आररण, अच्युत स्वर्ग के देवों को स्मरण मात्र से ही तृप्ति हो जाती है ।। ५०३ ।। [ २३१ पल्ल मंदिन मेर् पनिरडांवदै । येल्ले याग विरंडि रंडेरिडु ॥ मल्लनात्वरु केळु मिक्कैम्बत्तैयि । पल्ल मान् देवि येर् पर मायुवे ।। ५०४ ।। अर्थ-उन देवियों के साथ रहने वाली देवियों की आयु ७ पल्य की होती है । सौधर्म कल्प में रहने वाले देवों की आयु ५ पल्य की होती है। सौधर्म स्वर्ग से ऊपर रहने वाली देवियों की आयु एक एक पल्य बढ़ती जाती है । प्रणत, प्रारणत, आरण स्वर्ग में रहने वाले देवों के साथ की देवियों की प्रायु ७ पत्य होतो है । अन्त में रहने वाले अच्युत स्वग की देवियों की श्रायु ५ पल्य की होती है ।। ५०४ ।। मोंगमिन् मुनिवन दिवम् पोलवे । तोगये यनेयवर तोडच इंड्रिये ॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ] मेरु मंदर पुराण सोग मोडु रुतुय रिडि तानियल। पागु नब्लग मिदिरत्तर्वारबमे ॥५०॥ अर्थ-अहमिन्द्र स्वर्ग में रहने वाले देव मोह रहित रहते हैं, जैसे साधु का परिणाम शुद्ध रहता है, और काम सेवन से रहित होते हैं । विशुद्ध परिणाम के अनुभव से ही सुख और शांति को पाते हैं ॥५०५।। सोदमर शिरुमै जोदिड रुत्तम । मोविय वर करलुत्त उत्तमम् ॥ नीदिया निलंकोळ् मेल वर्षा निदा। मेव मि लिडयन पलवु मागुमे ॥५०६॥ अर्थ-सौधर्म, ईशान कल्प के देवों की उत्कृष्ट प्रायु १ पल्य के होती है। नीच जाति के देवों की प्रायु जैसे सौधर्म, ईशान कल्प के देवों को उत्कृष्ट प्रायु होती है उसी प्रकार इनकी जघन्य प्रायुष्य होती है । मध्यम प्रायु अनेक प्रकार की है ५०६।। इदुवयरुलगु मदनियवि नन् कनन् । शदिर मंचासार कर्पत्तिन् वळि॥ यदि पेर ववन रुमत्ति यायुग । मधुर नन्मोळि वमिव मेविनान् ॥५०७॥ अर्थ-इस प्रकार देवलोक में रहने वाले देवों की आयु, उनके काम व विषयभोग तथा प्रायु का क्रम इस प्रकार होता है। वह श्रीधर नाम का देव सहस्रार कल्प में सूर्यप्रभा नाम के विमान में मध्यम आयुष्य को प्राप्त करने वाला बारहवें कल्प में उत्पन्न हुमा। वह देव वचन प्रवीचार नाम के शब्दों से विषय सुख से तृप्त होता था ॥५०७।। पदिनर कान मिर्श पट्टवायुगं । पदिनरु वरुडमा इरंग कडदुना॥ पदिनर पदननाळ् विटुयित्तिर। पदिनरु भावने यार पाडुमे ॥५०॥ अर्थ-बारहवें स्वर्ग के सुख को अनुभव करने वाले श्रीधर देव की प्रायु सोलह हजार वर्ष से कुछ अधिक थी। सोलह हजार वर्ष में वह देव एक बार मानसिक आहार करता था। और माठ महिने में एक बार श्वास निश्वास लेता था। वह देव सदैव षोडश भावना का चितवन किया करता था ॥५०८॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ramaroorno मेरु मंदर पुराण [ २३३ नालरि मुळ मियलबा मोर् मातिरै। माल्वर येनुवळ पाय निनै पुळि ॥ शालवु नेनिय वर् पोल वैदलु। मालुरु मुरुप्पल वागु मेनियान ॥५०॥ अर्थ-उस श्रीधर देव की ऊंचाई साढे चार हाथ थी। वह देव विक्रिया ऋद्धि धारक था और प्रति क्षण में छोटा बडा शरीर तथा रूप को बना लेता था। और उस रूप से सभी को मोहित करता था ।।५०६।। वास मोरोंजनै निड, नारिडु । देसु मोरोजन सेंद्रे रित्त डुं । दूरिण मासैद मेनिइन गुरगम् । पेसला पडियदु वंड, पोडिनाल् ॥५१०॥ अर्थ-उस श्रीधर देव के शरीर में अनेक प्रकार के आभूषण कंठहार आदि थे। उनके गले में पूष्पहार कभी भी नहीं मुरझाता था। उनके शरीर में सुगंध सदेव पाती है और वह सुगंध एक योजन तक फैल जाती है । तथा शरीर का प्रकाश भी एक योजन तक पडता है । उस देव का गुण प्रकट करना अशक्य है ।।५१०।। मुन् सैं नल्विनैनान मुगिलिन् मिन्नना । रिन् से वायव रेंदु कोंगैयर् ॥ बंदिडै सूळं दिड वनंग वानव । रंदमीलिइन् बत्त ळमरन् मेविनान् ॥५११॥ अर्थ-पूर्व जन्म में किये हुए पुण्य कर्म के उदय से इस प्राणी को स्त्री, पुत्र, धन, संपत्ति प्रादि वैभव मिलते हैं । वैसे ही सभी देवों द्वारा पूजनीय चारों ओर से सब के द्वारा नमस्कार करने योग्य प्रादि२सारी वात श्रीधर को पूण्योदय से ही प्राप्त हई थी। वह श्रीधर देव भोगपभोग में सानन्दअपना जीवन व्यतीत करता था। नीच भीलों के द्वारा निकृष्ट जंगल में ताडे जाने वाले हाथी को एक दिगम्बर साधु के उपदेश का निमित्त मिलने से पूर्व जन्म का जाति स्मरण होते ही उसने अणुव्रत धारण किया । और उस व्रत को मन मचन से धारण करने से श्रीधर नाम का देव हो गया । अल्प व्रत की शक्ति क्या सामान्य है ? प्राज कल के नास्तिक लोग धर्म से च्युत होनेवाले कहते हैं कि व्रतों की आवश्यकता नहीं है । यह व्रत तो संसार के कारण हैं । ऐसा कहने वाले इस अल्पव्रत के उदाहरण को यदि भली भांति समझ लें तो विदित होगा कि व्रत का कितना महान महत्व है। व्रत का तिरस्कार करने वाले आज कल के विद्वानों को इस ओर दृष्टिपात करना चाहिये । क्योंकि केवल व्रताचरण के भय से व्रत नियमादि का तिरस्कार करके केवल अध्यात्मबाद का पुरुषार्थ करने वाले तथा Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ] मेर मंदर पुराण RadsadeatmusbadenuatuavanaunaugmenadurnainamastatinatantatuLLAIMADIRAMAMAAdlinedarmernama मोक्ष की इच्छा करने वालों को व्रत का महत्व क्या है ? इसके समझने की अत्यन्त प्रावश्यकता है। जैन सिद्धांत में अनेकांत दृष्टि रखी है। एकांत नहीं है। इस कारण एकांत अनेकांत को भली प्रकार देखा जाय तो जैन धर्म का निचोड मालूम होकर मोक्षमार्ग की परिपाटी का भली प्रकार से ज्ञान हो सकता है। इसलिए केवल एकांत को पकड कर ही मोक्ष की इच्छा करना चाहते हैं वह उचित नहीं। इस प्रकार वह श्रीधर देव बारहवें स्वर्ग में मानन्द पूर्वक स्वर्ग सुख का भोग भोगते हुए काल व्यतीत करने लगा ।। ५११।। मंदिरि तमिलनु मरित्त मालवन । तंदर मिड्रि वानरम दागि नान् ॥ सिंदूर कळिदिन मेल सेरिंद वंदिनाल । वेंतुयररा वरवत्तै वोटिनान् ॥५१२॥ अर्थ-इधर सत्यघोष नाम के मंत्री का मरण होने के बाद सिंहसेन राजा ने धमिल नाम के ब्राह्मण को मंत्री पद दिया । तदनन्तर वह ब्राह्मण मंत्री मरकर सल्लकी नाम के वन में बंदर हो गया। पूर्व जन्म के प्रेम के कारण उस बंदर ने उस हाथी को कुक्कुड सर्प द्वारा काटा हुमा देखकर सर्प पर उपसर्ग किया और मार डाला ।।५१२॥ रगं वान रत्तिन लुई रिळंदु पोय । नरग मूंडा वदै ननि येन्नरु । पेरिय मादुयर मदुद्र दादवम् । विरंगिनाल विनै कनिन् रुदयन्सेय्यवे ॥५१३॥ अर्थ-पूर्व जन्म में उपार्जन किया हुआ शिवभूति नाम के मंत्री का जीव वह कुक्कुड सर्प मरकर अत्यन्त दुख देने वाले तीसरे नरक में जाकर उत्पन्न हुआ ।।५१३।। वोट्टगं कळुदै नाय पांबु वासियु। निट्टदोर कुळिइन मिक्केळंदु नारि९॥ मट्टिडै वीळं ददि लमैंद याकै यात् । सुट्टदो पैनत्त नि पोल तूंगिनान् ॥५१४॥ अर्थ-वह कुक्कुड सर्प का जीव गधे, ऊंट, सर्प, कुत्ता, घोडा आदि पशुओं के सडे हुए मांस की दुर्गंध के समान घोर नरक में अत्यन्त दुख को भोगते हुए काला सिर धारण किया हुमा व नीचे मुंह ऊपर पांव हुए एक योजन ऊपर से नीचे गिर जाता है और उसका मुंह चूर २ हो जाता है ।।५१४॥ मुयुडंबदु प्रोरु मूळ्त मेगखें । परेंमिड भूमिमेर पवित्त पोळविने ॥ Jain Education international Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २३५ तडियोडु दंडु वाळेंदि सूळं दिडा। कडयर वदुकिनार काळमेनियार् ॥१५॥ अर्थ--उस नरक में अत्यन्त दुर्गंध को प्राप्त हुए वह नारकी जीव अंतर्मुहूर्त में शरीर को धारण करने वाला होकर ऊपर से नीचे गिर जाता है, और गिरते ही उस नरक में रहने वाले अन्य २ नारकी तलवार मुद्गर, बरछी आदि २ शस्त्रों से उसके टुकडे २ कर डालते हैं ।।५१५॥ तिरितनर सेक्कुर लुट् तेचिइ। . लुरित्तनर किळिळे पुयोप्प सुट्रिडा ॥. वेरित्त नर निरत्त मुळ्ळि लव मेट्रि निन् । रुरत्तन रेविरेबिर् वळंब मुळ्ळिन मेल् ॥५१६॥ अर्थ-उस नारकी जीव के शरीर को वहां के नरक में रहने वाले अन्य २ नारकी घाणी में पेलने लगे। उसके शरीर के चमडे को खींच कर अलग कर दिया। और उसके मांस के लोथडे को तीक्ष्ण कांटों के झाड में फेंक दिया ॥५१६।। शीकुळि पुटपुग नूकि नार् शिलर् । वाकिनार से विनर युरुकि वायिर्ड। तूकि मुन्मधगै यार् पुडैत्तिरु ।। पाकवाय पिळंदिडु वारु माई नार् ॥५१७॥ अर्थ-तत्पश्चात् पुराने नारकी जीवों ने इस नवीन नारकी जीव को नारकीय कुंड में डाल दिया। तथा ताम्बे व लोहे को तपाकर गलाकर गर्म २ इसके मुंह में डाल दिया। तीक्ष्ण कांटों को चुभा २ कर मारने लगे ॥५७॥ मलैयन पेरियदो रिरुम्बु वदिन। युलै येळर् पोर् कनत्त रग सुट्टिा ॥ निले यळर कुट्टत्त वेंदु नोडिया।। तुलइन् बलि येन बेधुंदु बीळुमे ॥५१८॥ अर्थ-पुनः उस नारको को अग्नि कुण्ड में डाल दिया। उसमें जिस तरह भात . पकता है तथा अन्न को चूल्हे पर चढाने पर जैसे वह अन्न खदबदाता है, सीझता है ; उसी प्रकार अनेक प्रकार की तीव्र वेदना को वह नारकी भोगने लगा ।५१८।। पंजळ उलरंदु नापरंद वेट कैया। मजिन मडुत्तु ड नटुंगि वीळविडा॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] मेरु मंदर पुराण तुंजिनुं तुंजिडा तुयर माकड। लेंजलि लायुग मिरक्क मोडि लान् ॥२१६।। अर्थ-इस प्रकार असह्य दुख को सहन करते हुए जब प्यास से उस नारकी की जिह्वा सूख जाती है तब पुराने नारकी यह कहकर कि यह पानी है पीवो और विप को पिला देते हैं, जिसके पीते ही वह नारकी मूर्छा खाकर नीचे गिर पडता है । नरक में अपमृत्यु न होने के कारण वहां के रहने वाले नारकी जीवों द्वारा अनेक प्रकार के दुख उसको भोगना पडता है ॥५१६॥ निड, निडट वें पशियै नोकुवा। नोंडि निडवर निनदिट्ट वक्कनम् ॥ सेंड्, नंजद्दिश युं सेरिविडा। पोंड निड डट्रिडु कनंदोरु पुगा ॥५२०॥ अर्थ-जब तीव्र क्षुधा उत्पन्न होती है तब विष मिश्रित अन्न उसको देते हैं । उस अन्न के खाते ही पेट में असह्य पीडा व जलन और अनेक प्रकार की वेदना होती है। इससे वह प्रधीर होकर गिर जाता है और तडफडाता है ।।५२०।। मुळ मिशै मुप्पत्तोर विल्लुयरं दव। नेळु मिशै पुगै मुप्पतोंड, कादमुम् ॥ विळु मुडन् वेंकनल वेन्नै पोंड डे । तेळु कडट्रानु मीदवनि यर्कये ॥५२१॥ अर्थ-तीसरे नरक में उत्पन्न हुआ कुक्कुड नामड का सर्प जो शिवभूति मंत्री का जीव था , वह ३१ धनुष उच्छेद ऐसे शरीर को धारण कर जमीन से उडकर वहां से सिर नीचा किये जमीन पर गिर जाता है । ऐसे नारकी की प्रायु नरक में सात सागर की होती है और पायु समाप्त होने तक इसी प्रकार का घोर दुख भोगना पडता है ॥५२१।। नेरुप्पिन युमिळं बिडं निळल् कळ् पुविकडिल् । विरुप्पुरु मवै विपरीत मायवरु।। सेरुच्चया दारिले तिरियं तीवळी । युरैप्प देन वनिनि नरगदुद्दे ॥५२२॥ अर्थ-वह नारकी नरक के दुखों को अर्थात् गर्मी के ताप को दूर करने के लिए एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठता है। और बैठते ही हवा चलते ही उस पेड के पत्ते तीक्ष्ण शस्त्र के समान उसके शरीर पर गिर जाते हैं । और शरीर चूर २ हो जाता है । अर्थात् ऐसी अत्यंत गर्म वायु चलती है मानों अग्नि में डाल दिया गया हो। वहां से उठकर मन की शांति के लिये वह और २ जगह जाता है तो कहीं भी कोई शांति का साधन नहीं मिलता है । उस Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २३७ नरक में उप नवीन नारकी जीव के साथ सभी नारकी प्रेम का व्यवहार न करके परस्पर में सभी मिलकर उसको मारते हैं, पीटते हैं । इस प्रकार नरक में रहकर उस मंत्री का जीव नाना प्रकार के दुख भोग रहा है ।।५२२ । नागत पोलु नागं नागत्ताल नागमैद । नागत्तै नागं तुयुत्तु नागंदा नरग मेयिद ।। मेसिनोडु तिगळ् बोळं दुडन् किडंद देन्न । नागत्तिन् कोंबु मुत्तुम् नरियनुं कुरुवन् कोंडान् ।।५२३॥ अर्थ-पर्वत के समान रहने वाले गंभीर मश्वनो कोड नाम के हाथी के शरीर को कुक्कुड सर्प के द्वारा काटे जाने से वह अन्तिम समय शुभ ध्यान में लीन होकर मरकर देवगति को प्राप्त हुअा। और उस सर्प का जीव बंदर द्वारा मारे जाने के कारण तीसरे नरक में गया। तदनन्तर नर नाम का भील जिस स्थान में वह हाथी मरण को प्राप्त हुना था उस भूमि पर पाकर हाथो के शरीर के दांत व गजमोतियों को चुन २ कर ले गया ।।५२३।। वंतमु मुत्तम कोंडु पनमित्तन दृम्न कंडु । बेतिरल वेग्नींदु बदुव कोंडु पोनान् । सुंदर मुत्तुं कोंबुम कोंड पिन वनिमन् पूर। चंदिरन् शरणं सारंदु शालवं शिरप्पु पेट्रान् ॥५२४॥ अर्थ-तत्पश्चात् वह भील गजमोती व गजदन्तों को सिंहपुर नगर में ले गया और वहां धनमित्र नाम के व्यापारी को कुछ गजमोतो व गजदन्त बेच दिये और बाकी बचे उमने अपने पास रख लिए । तदनन्तर वह व्यापारी उन गजमोती व गजदन्तों को उस नगर के अधिपति राजा पूर्णचन्द्र के चरण कमलों में जाकर भेंट किया और आशीर्वाद प्राप्त किया। ५२४।। पबोनुम् मरिणयुं मुत्तं पवळमुं पयिड मंजिर् । कोवि रंडिनयं नालु कालगळाय कईदु कूटि ॥ वं मरिण मुल नार्गळ् सूळयट्रवनै पेरि । कोंबिड पिरंव मुत्त माल कोंडनि विरुदान ॥५२५।। अर्थ-राजा पूर्णचन्द्र हाथी के दांत व मोतियों को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हया पौर उस व्यापारी को भेंट स्वरूप कुछ देकर विदा किया। राजा ने मोतियों को पलंग के चारों पायों में भरकर सोने के लिये पलंग तैयार कराया। और बाकी गजमोतियों का कंठ हार बनवाकर गले में धारण कर लिया। विषय भोग में मग्न हुअा जीव क्या २ नहीं करता? सब कुछ करता है। क्योंकि राजा पूर्णचन्द्र को भगवान जिनेन्द्र देव के द्वारा कहे हुए वचनों पर श्रद्धा नहीं थी। हमेशा इन्द्रिय सुख में मग्न रहता था। स्त्री व संसार भोगों की अोर अधिक रुचि थी। धर्म के प्रति उसको श्रद्धा नहीं थी। यह सभी कर्म की विचित्र लीला थी ।।५२५।। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ । - मेरु मंदर पुराण इमिन्दं माट्रिन ट्रन्म केटपिन् यार मिल्ल । पोंगिय पुलत्ति नीगि येरंदले पडादु पोवार् ।। शिगवेरनय काळे किवन नी सेप्पुतीमै । पंगनल्ल रत्ति नागु मेननिंदु वंदु पोनान् ।।५२६॥ अर्थ-इस प्रकार हे रामदत्ता प्रायिका माता! इस लोक में कर्म की विचित्रता महान बलवान है । जब यह कर्म की विचित्रता इस जीव को घेर लेती है तब हिताहित का ज्ञान उसको नहीं रहता। इन्द्रिय लम्पटी जीव संसार में क्या नहीं कर सकता ? सब कुछ करता है। उसको हिताहित का विचार कहां से हो? इस कारण हे माता ! सिंह के समान पराक्रमी पूर्णचन्द्र राजा को सारा वृत्तांत कह दो। ऐसे सिंहचन्द्र मुनि ने रामदत्ता प्रायिका से कहा । तदनन्तर यह आर्यिका सिंहचन्द्र मुनि को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके सिंहपुर नगर में आई ॥५२॥ मादवन पावमेट्रि मनोगर वनत्ति निड। मादरत्तोडुं पोगि यरसन मगनै कंडु ।। कादलुं कळिप्पु नींY कदैयि नै युरैप्प केळा । मेदिनी किरै वन शाल वेंतुइर् तवल मुद्रान ॥५२७॥ अर्थ-प्रायिका माता ने राजमहल में रहने वाले पूर्णचंद्र को देखा और बडी शांति से रागद्वेष को नष्ट करने वाले वैराग्य भावना का उपदेश ब सारा वृत्तांत कहने लगी। राजा . पूर्णचंद उपदेश सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुप्रा और धर्म के प्रति उसे पूर्ण विश्वास और श्रद्धान हो गया ।।५२७॥ मन्निनु किरव नायु यरत्तिन परंदु मुन्न । पुणिय मुलरंद योल्दिन विलंगिडे पुक्कु वीळं दान ।। .. विन्निनु किरव नानान विलंगि निन् ररत्त मेवि । येन्नलुं दादै नीयु नल्ल तींगरिंदु कोळळे ॥५२८।। अर्थ तदनन्तर वह प्रायिका पुनः अपने छोटे पुत्र पूर्णचंद को संबोधित कर कहने लगी कि आपका पिता जो सिंहसेन राजा था उसने इस राज्य को करते हुए इस भव को छोडकर दूसरे जन्म में पशु गति में हाथी की पर्याय पाई । और जब वह वन में मदोन्मत्त होकर विचर रहा था उस समय मुनि सिंहचन्द्र ने उसको धर्मोपदेश दिया और उस उपदेश से जैन धर्म को हृदय में धारण कर आयु के अवसान में शरीर छोडकर देवगति को प्राप्त हुा । इस लिये इस संबंध में अच्छा कौनसा है और बुरा कौनसा है-उस धर्म को सुनकर स्वीकार करो ॥५२८ । इलंगोळि मगुडं सूडि इरुनिल किळव नायुम् । पुलंगन मेर् पुरिनेछंदु विलंगिडे पुरिदु वीळं दान् ।। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Runeutenabretockassworostrotatindustainamabacasuariuanruirectalstontinentat.comaadar मेरु मंदर पुराण [ २३६ विलंगिडै पुलंगडम्मै वेरुत्त बिन्नुलगिर् सेंड्रा । 'नलं कलंदारी नाय नीरिंदु कोनल्ल देड्राळ् ।।५२६॥ अर्थ-नवरत्न द्वारा निर्माण किये हुए किरीट को धारण करने वाले हे बालक ! इस राज्य के सुख वैभव को धारण करने वाले, हे कुमार ! तुम्हारे पिता इस जन्म से दूसरे जन्म में हाथी को पर्याय में हुए। किन्तु कर्मवश मनुष्य पर्याय नहीं मिली। तिर्यंच गति में जाकर हाथी होकर मनिराज से अणुव्रत ले लिया और उस व्रत का पालन करते हए धर्मध्यान पूर्वक मरकर अच्छी गति को प्राप्त किया। रत्नमयी कंठों के धारण करने वाले कुमार ! य द अच्छी गति में तुम को जाना है तो कौनसे धर्म को स्वीकार करना चाहते हो बतायो। ॥५२६॥ पट्रिनार् भूति पांबाय चमर माय कोळि पांबाम् । शत्तार् ट्रीइल वेबु नरगत्तै सेरिंदु निड्रान् ।। कोट्रवेर् कुमर नीइप्पिर वियै कुरग वंजिर् । शेटमुम् पट्र नीगि तिरुवरम् पुनर्ग वेंड्राळ ।।५३०॥ अर्थ- इस प्रकार वह रामदत्ता प्रायिका पुनः अपने पुत्र को कहने लगी कि हे पुर्णचंद! वह शिवभूति नाम का मंत्री इस संपत्ति के मोह से मरकर सर्प की योनि में गया। पुनः वहां से मरकर चमरी मृग हुआ । चमरी मृग की पर्याय छोडकर कुक्कुड सर्प हुअा। सिंहसेन राजा क्रोध, मान, माया प्रादि से निदान बंध करके मरकर हाथी हुमा और शिवभूति के जीव सर्प द्वारा वह हाथी काटा गया। और वह सर्प आर्त रौद्र ध्यान से मरकर तीसरे नरक में गया। इस कारण हे कुमार ! पंचेन्द्रिय विषयों में तुम लीन हो रहे हो । तुमको भी उनके समान ही गति न मिले, इस कारण तुम जैन धर्म धारण करो ।।५३०।। अरस उन दादै युट्र तरुंद वन् शीय चंदन् । ट्रिरिविद उलग मेत्त तिरुवडि पनि केटेन । प्रोरुवि नी मरत्तै इदप्पिरप्पु नीरगुत्ति डादे । मरुव नीयरत्तै इंदमाद्दु वडविड्राळ ॥५३१॥ अथ -वह माता पुनः कहने लगी कि हे पूर्णचन्द्र ! यह मैं तुम को अपनी बुद्धि से नहीं बता रही हूं। मुनिराज से जो वृत्तांत व उपदेश सुना है वैसा ही कह रही हूँ। तुम्हारा पिता सिंहसेन धर्म को छोडकर मरकर हाथी बना और हाथी ने मुनिराज का उपदेश सुनकर अरणवत लेकर महान तप किया। और संकल्प विकल्प छोडकर उत्तम गति को प्राप्त हुआ। इस कारण विषय वासनाओं को छोडकर तुम जैन धर्म को अपनायो।।५३१॥ प्रांग व रुरत्त विन् सोलर विळक्के रिप्प उळ्ळ । नोंगियतिरुळ नींग नेरिइन सिरिदु कंडान् । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ] मेरु मंदर पुराण तांगरुं तुंबं मुद्रान् ट्रा पार्कादलार् पिन् । ट्रींगला मींग मुझे कोंबोड़ तीईस वंशान् ।। ५३२ ।। अर्थ - रामदत्ता मार्थिका ने अपने पुत्र पूर्णचन्द्र को उपदेश देकर जैन धर्म की ओर प्रवृत कर लिया । पूर्णचंद्र ने अपने माता के हितोपदेश को ग्रहण किया। जिस प्रकार अंधकार में दीपक रखते ही सम्पूर्ण घर में प्रकाश पडता है उसी प्रकार अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट कर पूर्णचन्द्र की भात्मा में धर्म का प्रकाश पड गया। तब सभी बात जानकर कि अपने पिता ने हाथी की पर्याय को छोडा था। और उसी हाथी के दांत व गजमोती का उसने जो पलंग व गले का हार बनाया या तुरन्त उसको तोडकर चूर २ कर दिया और जला दिया ।।५३२ । • पाम्मयक गुवित्त तोळ्बिर् पेदोडिं पवळ वायार् । नीरयंगुरित यामे मनलग दगं निर्प || शीर्मयंगुदिप मन्मे शेरियनन् सेरियोस् । कूर्मयंगुबिक्कु मे वेर् कुमरतुक् कुरर् कोवे ।।५३३ ।। अर्थ- हे धरणेंद्र ! सुनो, पूर्णचन्द्र को उनकी माता का उपदेश सुनते ही उनके हृदय में पूर्व पुण्योदय से सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई । तब प्रत्यन्त सुन्दर स्त्री से तथा सर्व कुटुम्ब परिवार से मोह को त्याग दिया। संसार की सभी वस्तुओं से श्ररुचि उत्पन्न हो गई, और सम्यक्दर्शन की उत्पत्ति हो गई । सम्यक्ज्ञान सहित प्रात्मा की भोर रुचि उत्पन्न हुई । ।।५३३ ।। कलयर बलगु लाई कावलिर् कळुमल् कामन् । थलं मलैयनय सेल्व नरगतु वीऴ्कु माय ॥ मलय विला मेरि बिट्ट मर्याग नार् मेरियै पट्टिन् । निलैला माट्रि निड्र सुरकु निमित्त मेंड्रान् ।। ५३४।। 9 अर्थ- - इस प्रकार सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक् चारित्र के होने पर सम्यक्ज्ञान से पुरुष ' के ज्ञान और विवेक गुरणादिक को नाश करने वाले स्त्रियों के हाव भाव विलास तथा मोह को शीघ्र ही त्याग कर दिया। उसे संसार से अरुचि पैदा हो गई। हेय श्रौर उपादेय को भली प्रकार जानकर वह पूर्णचन्द्र राजसंपत्ति विषयभोग प्रादि क्षणिक सुखों को हेय समझने लगे । ऐसी पूर्वधारणा जम गई। स्त्रियों के साथ रहने पर विषय कषाय का बध प्रबंध रूप में हो गया। मन में विचार करता है कि हे आत्मा ! क्षणिक सुख के लालच में मग्न होकर संसार रूपी समुद्र में पडकर महान दुख को सहन किया। यदि इस समय मेरी माता ( रामदत्ता प्रायिका) मुझे उपदेश न देती तो न मालूम कितने समय तक इस घोर दुख में पडा रहना पडता । इस प्रकार भगवान की वाणी में श्रद्धान करने वाला हो गया । यदि मेरी जिनेन्द्र वाणी पर श्रद्धा न होती तो न मालूम कब तक संसार सागर में पड़ा रहता । ऐसा विचार किया ।। ५३४ ।। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंटर पुराण [ २४१ अंजिनान माटे चाल वरंगि नान कुलंगडं में । नंजये पोलु मेंड, नईगि नान् दोंडगंल सैयान् ॥ वंजमुं पडिरं पदमं सेटमुम् कळिप्पु मादि। पंचनु वदंगळो? सोलंगळू पईड, सेंडान् ॥५३५॥ अर्थ-राजा पूर्णचन्द्र ने विचारा कि संसार महान दुख का कारण है। प्रतः इससे भयभीत होकर पंचेंन्द्रिय सुख को नाशवान समझकर इन्द्रिय संयम और प्राणि संयम को पालन करने वाला हो गया। और मिथ्यात्व, माया, असत्य, निदान, क्रोध, मान, माया, लोभ आदिको त्याग कर उन्होंने सप्तशील को धारण किया । अर्थात् अणुव्रत धारण किया। ५३५॥ शित्तम मुळिकन् मंदिर जिनवरन् सेलू पुदम् । मत्तगनिदु नांदु मंगल पयिड, वैय्यत् ।। दुत्तमर् तम्म येत्ति शरणं पुकार योंबि । तत्वं पदंड, वानं तवत्तोडु क्याविर् संहान् ॥४३६॥ अर्थ-तदनन्तर मन, वचन काय के द्वारा अहंत भगवान का स्मरण करने लगा। पाप के नाश करने वाले चत्तारि दंडक को स्मरण करने योग्य अहंत, सिद्ध,प्राचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु ये पांच परमेष्ठी हैं । मेरी आत्मा की रक्षा करने वाले हैं । और कोई नहीं है। ऐसा विचार करके रक्षा मंत्र का जाप्य करने लगा। और शक्ति के अनुसार जीवों की रक्षा करते हुए संयम पालन करने वाला हो गया ।। ५३६।। इरै वन दरत्तै दल सेरं दपिनि राय दत्त । करकेळु वेलिनाने केविडादिरंदु नोट.॥ निरैयळि कालाले निदानत्तु निड, सेडाळ । करैइला वायु नींगि कर्पमा सुक्किलत्ते ॥५३७॥ अर्थ-सर्वज्ञ वीतराग देव का कहा हमा जिनधर्म उस पूर्णचन्द्र को उनकी माता रामदत्ता प्रायिका ने सुनाया और अपने पुत्र को वहीं छोडकर उसी राजमहल में ही रह गई । और राजमहल में रहकर सभी प्रणवतों को उनका प्राचरण कराने लगी। उनकी माता ने विचारा कि अगले भव में यह पूर्णचंद्र मेरे गर्भ से जन्म ले ऐसा मोह के उदय से उसने निदान बंध कर लिया। तत्पश्चात् इस पंच अणुव्रत के प्राचरण के फल से मायु के अन्त में उस माता ने समाधिमरण करके महाशुक्र कल्प नाम के दशवे स्वर्ग में जाकर जन्म लिया। मोह की महिमा अत्यन्त विचित्र है। इस जीव के संसार में परिभ्रमण करने के लिये प्रारमा के साथ शत्रु के समान यह मोह कर्म लगा हुआ है । इस कारण यह जीव संसार में मोह के कारण दुख को दुख ना समझ कर सुख मानता है । फल स्वरूप अनादि से माज तक अनेक प्रकार के दुख उठा रहा है। परन्तु मोह रूपी बंधन से दुख उठाकर भी प्रखंड अनिवाशी प्रात्मसुख को प्राप्त करना नहीं चाहता है ।।५३७।। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ بنقلهمعلمندبندند تردد برنلیدمیلا - هما २४२ ] मेरु मंदर पुराण पागर प्रभयेन्नू विमानत्तु परुधि पोल । पागर प्रभनेन्नुं देवनाय पाव तोंड्रि ।। नागर वंदिरजं विद मूतिय नडुवि इरुंदाळ् । सागरं पत्तोडारु तनक्कु वाळ नाळदामे ॥५३८।। अर्थ-उस महाशुक्र कल्प में भास्कर प्रभा नाम के विमान में सूर्य के प्रकाश के समान प्रकाश होने वाला रामदत्ता माता का जीव भास्कर नाम का देव हुआ। तब वहां पाकर सामान्य देवों ने उस देव को नमस्कार किया। वह सोलह सागर आयु को प्राप्त करने वाला हो गया। प्राचार्य कहते हैं कि: अणुमात्तं व्रतमल्पकालमिरे मुन्न तच्छल प्राप्तियि । प्रणुतक्ष्मापतिपादेनिन्नधिकदि सम्यग्वताचार लक्षणमं शाश्वतवांतु देव पदमं कैवल्यमं को बेनें । देरिणसुत्तुज्जुगिपातने सुखियला रत्नाकरराधोश्वरा ।। अरणमात्र व्रत अल्प काल तक रहने से उसके फल से आगे चलकर पृथ्वी का अधिपति हुआ अर्थात् चक्रवर्ती हुआ। सम्यकदर्शन अणुव्रत तथा महाव्रत व तपश्चरण करने से शाश्वत मोक्ष पद करने की इच्छा करने वाले तथा महाव्रत की रक्षा करने वाले मोक्ष पद पाने के इच्छुक नहीं हैं क्या ? तथा सुखी नहीं है क्या ? अर्थात् वही जीव सुखी है ऐसा मन में विचार किया ॥५३८॥ इरट्टा माइत्तांडिड विट्टिन् नमुद मुन्ना । वोरेट्टां पक्कन् तन्न इडे इडे विटुइतु ॥ मोरिट्टिन पादियाय नरगत्ति लवदि योट्टा। प्रोरेटु गुरणंगळ् वल्लउडबंदु मुळम यरं दान् ॥५३६। मर्थ- इस प्रकार भास्कर देव सोलह हजार वर्ष में एक बार आहार करता था। और पाठ महिने में एक बार श्वास निश्वास लेता था। अपनी अवधि के द्वारा वह देव चौथे नरक तक का हाल जानता था। उसके साथ २ उसको व्रत के प्रताप से अणिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशत्व आदि आठ प्रकार की ऋद्धियां प्राप्त हो गई। उसका शरीर पांच हाथ प्रमाण था ।।५३६।। मिन्नरि शिलंबि नोस मिळिरुमे कलैइनोस । इन्नरंबि से ईनोस येळंद गीदत्ति नो सै॥ मिन्नुडं किडयि नाद विळंदुला मुळिई नो से । तन्नुळं कवर विन सोल् वीचारत्तोडु नाळाल् ॥५४०॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwww-mommaa मेर मंदर पुराण [ २४३ अर्थ-वह भास्कर देव उस देव लोक में अत्यन्त सुन्दर देवांगना के पांव के नुपूर के शब्दों को तथा बोना, बांसुरी के शब्द व मधुर वचनों को सुनकर वचन प्रवीचार से अपने कामभोग को मानन्द सहित तृप्ति करते हुए स्वर्ग सुख का अनुभव करने लगा ॥५४॥ कोंद्र वन् पूर चंदन गुणक्कडं ट्रोंडि पोगि । मटुंद विमानत्तिन् कन् वैडूर्य प्रभ तन्नुट् ॥ पेट्रियार् ट्रोंडि तानु वैडूर्य प्रभनानान् । मुद्र, मुन्नुरत्त वायु मुदल विम्मुर्ति कामे ॥५४॥ अर्थ इधर पूर्णचन्द्र राजा सम्यक्दर्शन सहित निरतिचार व्रतों का पालन करते हुए समाधिमरण करके शुभ परिणामों से वैडूर्य प्रभा नाम के विमान में वैडूर्य प्रमा नाम का देव हुआ । पूर्व में कहे हुए भास्कर देव के समान हो उस वैडूर्य प्रभा की प्रायु भी उतनो ही थी। और उसी के समान वह भी विषयभोग में तृप्त वा ॥५४१॥ पाडलिन् मवांगयं पवळ बाईना। राडलिन् मयांगियु मरंबइ यारोडु ॥ माडम सोलयु मलयुं वावियु । यूडु पोय नीड वर बंदु बैगुनाळ ॥५४२॥ अर्थ-इस प्रकार भास्कर तथा वैडूर्य प्रभा दोनों देव उस लोक में गीत, वाद, नाट्य प्रादि क्रियानों को देखकर संतोष व प्रानंद मानने लगे। और स्त्रियों के साथ भोय भोगते हुए सुख से काल व्यतीत करने लगे ।।५४२॥ तूयचंदिरन कल पेरुग नाडोरु। तीयवत् काळगतेयुं मार पोइर् ॥ चीय चंदिरन् दुवं पेरुग नारो। कायमं कषाय, कश्षि मानवे ॥५४३॥ अर्थ-इधर सिंहचन्द्र मुनि महान उग्र तपश्चरण करने लगे। जैसे चंद्रमा को राह ग्रस्त करता है और राहु को छोडकर जाते ही चांदनी निर्मलता से फैल जाती है, उसी प्रकार सिंहचन्द्र मुनि के तपश्चर्या की प्रतिदिन वृद्धि होते हए उनका शरीर कृश होने लगा। शरीर के कृश होने के साथ २ लोभ, मान, क्रोध, मादि कषायें भी क्षीण हो गई ॥१४॥ ईदिळा रादन विदियि लेदरा। नादलु केद्र वारन पानमं॥ साद्रिय वगनार सुरुक्कि शेग्यमे । लेट्रिनान् दन्न निडिलंगुं सिबयान ॥५४॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] मेरु मंदर पुराण अर्थ-इस प्रकार तपश्चरण के द्वारा मुनि सिंहचन्द्र ने शरीर के क्षीण होने के साथ २ चारों आराधनाओं से चारों कषायों को क्षीण किया और अपनी शक्ति के अनुसार चारों प्रकार के आहारों में कमी करते हए अात्म बल को बढाया। और अात्म ध्यान के बल से दर्शन, ज्ञान, चारित्र की आराधना करते हुए तप आराधना की वृद्धि करने लगे। इस प्रकार तप आराधना के साथ २ शुद्ध आत्मा के ध्यान में निमग्न होते हुए इन्द्रिय तथा प्राणि संयम को निरतिचार पालन करने वाले हो गये ।।५४४।। शित्तमै मुळिगळिर् सेरिंदु यिर्केला । मित्तिर नाय पिन् वेद नादि । लोत्तेळु मगत्तना युवगै युळ्ळलाय । तत्त वत तवत्तिनार् दनुवै वाटिनान् ॥५४५।। अर्थ तदनन्तर वह मुनि सिंहचन्द्र मन, वचन, काय से त्रस स्थावर जीवों की रक्षा करते हुए शुभाशुभ कर्म को उत्पन्न करने वाले, साता और असाता वेदनीय कर्मों के द्वारा उत्पन्न होने वाला सुख, दुख, हर्ष, विषाद में समता भाव धारण करने वाले होकर तपश्चरण स्वरूप को भली भांति जानकर दुर्द्ध र तपस्या में लीन रहने लगे ।।५४५।। तिरुदि नार् तेऊ कंडेळुम नोसर पो। नरंबेला मेछंदन नल्ल मांदरी ॥ लरंगिन नयन मुळ्ळरुंद वक्कोडि । इरुंद मैं काटि निड्रिलगुं नीरवे ॥५४६॥ अर्थ-इस प्रकार वे मुनि दुद्ध र तप करने लगे। उनका शरीर अत्यन्त शुष्क होकर हड्डियों का पींजरा सा दीखने लगा। और उनकी प्रांखें तप के बल से अंदर घुस गई। देखने वाले भव्य जन उनका तपश्चरण देखकर विचार करने लगे कि साक्षात् मोक्ष व मोक्ष का मार्ग यही है । और हमको भी इनको देखकर, और इनके समान पाचरण करने से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है-ऐसा भव्य जीव अनुभव करने लगे।।५४६।। तवत्तळ ले©दुइराम पोट्रादु वै । तुवक्कर चुडचुड तोंड नो रोळि ॥ निवत्तला निट्रोळि तुळुबु मूर्तिया । नुवत्तलं कायदलु मोरवि नान् दरो॥५४७॥ अर्थ-इस प्रकार उनके शरीर के कृश हो जाने के बाद वह मुनि प्रात्मध्यान रूपी अग्नि से कर्म सहित आत्मा को जैसे स्वर्ण को बार २ तपा कर शुद्ध करते हैं उसी प्रकार अनादिकाल से प्रात्मा में लगे हुए कर्म रूपी मल को मुस में डालकर आत्मा की कीट कालिसा को क्रम से नाश करने लगे। तपश्चरण करते हुए उन मुनिराज ने केवलमात्र शरीर को. रखते हुए कषाय उत्पन्न होने वाले परिग्रह का त्याग कर दिया ॥५४७।। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण तनुवदु तनुवदाय तनुवदायदु । मननिरं पोरं तवं मगिच येदुव || निनैवदु विनs ने निंडू दिर्तदु । मुनिवनुं तनदु मेर् कोळिन् मुट्रिनान् ||५४८६ ॥ अर्थ -- उनका हृदय क्षमाभाव से युक्त हो गया। वे क्षमाभाव अभ्यन्तर तप की भावना से युक्त होकर प्रत्यन्त संतोष पूर्वक तपश्चररण करने में लीन हो गये || ५४८ || यरिई नुन् मोल्गिय देन्न दन्न दाय् । परिषैयें वेंडूव परम मा मुनि ॥ येरुगनं हृदय कमल तुळ्ळिरि इत्त । तेरिव शिद्धरै सेळि सेति नान् ||५४६ ॥ अर्थ - इस प्रकार अत्यन्त दुर्द्धर तपश्चरण के साथ २ बाईस परीषह को सहन बलिष्ठ हुए सिंहचंद्र मुनिराज वीतराग शुद्धोपयोग अपने हृदय कमल में धारण करके श्री सिद्ध पर करते हुए तथा जीतते हुए ग्रात्म बल से भावना से युक्त होकर प्रहंत परम देव को मेष्ठी को अपने मस्तक में स्थापित किया ||५४६ || सेनि ईलिडुं कवशत्तोडत्तिरम् । " पनरु पूवरु पांगि नाय पिन ॥ तन्नुंडंबु ईरिने तडरु वाळन । उनि वद मुनि योदिनान् ।। ५५० ॥ [ २४५ अर्थ - प्रपने हृदय में अर्हत, सिद्ध, आचार्य की स्थापना करके कर्म निर्जरा के लिये उनको शस्त्र रूप बना लिया । तदनन्तर पंच नमस्कार मंत्र का एकाग्रचित्त से मनन करने लगे । तब जैसे २ प्रत भगवान का ध्यान करने लगे वैसे २ अंकुर चमकने लगे और वैसे ही कर्मों की निर्जरा होने लगी ।। ५५० ।। कन्नि नार् कळंक मिन्नलयै कंडिडा । पन्तुर पेरियवरं पांद सेरं दव || पुन्निय युरदियै सेविइर् पूरिया । विन्नुल मडेंदनन् वेंडि वीरने ।। ५५१ ।। अर्थ - इस प्रकार उन सिंहचंद्र मुनि ने ध्यान करते हुए सम्यक्दर्शन और ज्ञान के चल से दोष रहित तत्वार्थ स्वरूप को भली भांति अपने अन्दर समझ लिया । और ग्रहंत भगवान के चरण ही मुझे शरण हैं और कोई शरण नहीं है—यह स्मरण करने लग गये । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ] मेरा मंदर पुराण "अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम । तस्मात् कारुण्यभावने, रक्ष रक्ष जिनेश्वर ! ॥ अर्थात् इस पद के अनुसार भगवान के चरण ही मुझे शरण हैं, और कोई शरण नहीं है । भगवान का कहा हुआ सप्त तत्व, नवपदार्थ, पंचास्तिकाय, षट् द्रव्य प्रवचन मात्र का द्वादशांग शास्त्र यही मेरा शरण है, और कोई शरण नहीं है । ऐसा अन्त समय में स्मरण करते हुए वह सिंहचन्द्र मुनि समाधिपूर्वक मरण कर देवगति को प्राप्त हुआ ।। ५५१ ।। पोरुविल उलगेनुं पुरवलकुं नर । किरिव माम् केवच्च दबदावदे || मरुविनान् मालोळि विमान मदिर । प्रितयंकरत्तिनै पेरिय वीरने ।। ५५२॥ अर्थ- वह मुनि समाधि पूर्वक शरीर को छोडकर नव वैयक नामक ऊपरी अत्यंत शोभायमान प्रीतंकर नाम के विमान में प्रीतंकर नाम का देव हो गया ।। ५५२ || मुप्पत्तोराळियान् मुंडिद वायुग । मुप्पत्ती राईर तांडु विट्टुना ॥ पत्तोर् पक्कi कंडदुविर्तिडा । सुप्तोर् नान् गदि शयरें वाऴ्तुमे ।। ५५३ ।। अर्थ - प्रीतंकर नाम के देव की आयु ३१ सागर की थी। वह देव इकत्तीस हजार वर्ष बीतने के बाद एक बार मानसिक आहार करता था । और १५३ दिन में एक बार श्वासोच्छवास लेता था । वह हमेशा अहंत भगवान के स्मरण में लीन रहता था ।। ५५३ ।। प्रवधिया नरगमा रावदांदिडा । - युवfव या वरुं पय नोंडू मिड्रिये ॥ शिवगति पवर्कु पोलिवकुं न बने । यवधिई नुदयत्ता लागु मिबमे ।। ५५४ ।। अर्थ - वह प्रीतंकर अपने अवधिज्ञान से छठे नरक तक के हाल को जानता था । उनको स्त्रियों की कामेच्छा नहीं रहती । मोक्ष में रहने वाले प्रहमिंद्र देव के समान प्रात्म सुख का अनुभव करते हैं। और हमेशा यही भावना भाते रहते हैं सिद्धर सतत विशुद्धर बोधस । मृद्धर नेनेदु नानीग । सिद्धरसद्रोन्यु लोहवनंहिददात्म | सिद्धियपडेवे निन्नेनु ॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २४७ सिद्ध भगवान का सतत ध्यान करते हुए मन में यह भावना भाते थे कि हमको म किस बात की परवाह है ? जैसे सिद्ध भगवान का ध्यान करने वाले जीव ऐसी भावना भावे हैं कि सतत हमें सिद्ध भगवान के ध्यान में रहने से जैसा लोहा गलने से सिद्धरस हो जाता है उसी प्रकार हमारा प्रात्मा शुद्ध है । ऐसा मानकर मानन्द में रत रहते हैं ।। ५५४ ।। अंजिर पथरुळि येरिवनानया । लंजिरंडडि नडंदिरेंज लल्लदु ॥ अंजि वंदोरु वर तम्माने इरुसेला । रंजोला रिन्मया रगर्नाल्लदिरर् ॥५५५॥ अर्थ - अत्यंत सुन्दर स्त्रियों का संसर्ग अथवा काम सेवन की इच्छा न होने से वह ग्रहमिंद्र देव हमेशा बालब्रह्मचारी रहते हैं। जहां भगवान के पंच कल्मारणक महोत्सव पूजा उत्सव श्रादि २ कल्पवासी देवों द्वारा करते समय वे देव अपने अवधिज्ञान द्वारा जानकर नीचे उतरकर सात पेंड जाकर परोक्ष में भगवान को नमस्कार करते हैं; किंतु वहां तक नहीं जाते हैं ।। ५५५ ।। इवमे इडैयर वेळूद लल्लवु । बमं कवलयुं तोगे येन्नवर् ॥ कन्नु नंबर मिला वर्गामदित्तवन् । सुन्नु पिन पाळदेवा मूर्ति यायिनान् ।।५५६॥ अर्थ --- अहमिद्र को अल्प सुख के अलावा और अधिक कोई सुख नहीं है और स्त्रियों को देखने की इच्छा तथा उनका स्मरण भी नहीं होता। इस प्रकार उस नवत्रैवेयक में जन्मे हुए महमिंद्र देव प्रायु के अवसान तक शरीर व मानसिक सुख का अनुभव करने वाले होते हैं । ।। ५५६ ॥ प्र तवं पौर दिय शीलमादिया । ट्रिरु दिय मालव देव राईनार ॥ पेरु तुयर, बिलंगोट्रि बिनेइल बोळंदु पिन् । पोरु दिना निरयेत्तु बूति पोगिये ।। ५५७।। अर्थ -- इस प्रकार श्रेष्ठ देवपद होने का कौनसा कारण है ? प्राचार्य बतलाते हैं कि श्रेष्ठ तप अथवा निरतिचार व्रतों के पालन करने से जैसे राजा सिंहसेन, सिंहचन्द्र मुनि, रामदत्ता माविका तथा पूर्णचन्द्र ये चारों श्रेष्ठ देवगति को प्राप्त हुए ; उसी प्रकार निरतिचार व्रतों के पालने व श्रेष्ठ तप करने से देवगति प्राप्त होती है । और पाप कर्म के उदय से शिवभूति नामक मंत्री का जीव सर्प, चमरी मृग, और कुक्कुड सर्प होकर मरकर तीसरे नरक में गया ।। ५५७ ॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] मेरु मंदर पुराण पर्शबनुम तनकुत्ताने पावंगळ् पयिड, सोल्लि । नगैय्यम नंबुताने नल्विनै केदु वाइर् ॥ पगेयुर विरंडुम पाव पुणिय वयंगळाद । लिगन मदयानै पादळिरंडिनु तेळिद दंडो ।५५८। अर्थ-शत्रु परिणाम से युक्त जीव के अपनी आत्मा के प्रास्रव करने वाले कार्य को करने से उस जीव को पाप का बंध होता है और शुभ भाव को प्राप्त होने वाले कार्य करने से पुण्य बंध का करने वाला शुभास्रव होता है। सम्पूर्ण जीवों पर दया करने से शुभ परिणाम होते हैं। अन्य जीवों के प्रति द्वेषभाव होने से विरोध के कारण पाप बध होकर हमेशा पाप का कारण होता है। महान बलिष्ठ अशनीकोड नाम का हाथी सर्प के द्वारा काटे जाने से शांत भाव को धारण कर उत्तम देवगति को प्राप्त हुआ। और कुक्कुड नाम के सर्प को द्वेष भाव तथा दुष्परिणाम से तीसरे नरक में जाना पडा ।।५५८।। वारि युळवे कैमा वलइड पटु मुईव । नीळर नायनल्ल विनयदु निड पोदिर् ।। कोळरि येरु तन्ने कुरु नरि येनुं कोल। नीळर नाय नल्ल विनयदु नीगि नांगे ॥५५६।। अर्थ-अत्यन्त भयंकर सिंह, सियार, भालू, बलवान हाथी आदि यदि मनुष्य के सामने आ जाये तो पूर्वभव के पुण्योदय से बच जाते हैं। यदि पूर्वभव का पुण्य संचय न हो तो नहीं बच सकता। इसी तरह यदि पाप कर्म का उदय आ जावे तो मामूली गीदड भी उस को मार सकता है ।।५५६।। तीगति मेलवि नै नीकि सिंदै इन् । नोकिला पोरुळेयु नौकि ईबत्तै । वीकि यिम् माट्रिनै नीकि वीटिने । याकुनल्लरत्तिनै यमरं दु शैमिने ।।५६०॥ अर्थ-मन, वचन, काय के शुभ परिणाम से तिर्यंच गति, नरक गति में ले जाने वाले अशुभ परिणामों को त्यागकर मतिज्ञान,श्रुतज्ञान को प्राप्तकर, स्वसंवेदन नाम के प्रत्यक्ष अनुभव के द्वारा प्रात्मस्वरूप को उत्पन्न करते हुए तथा इस संसार सुख को रोकते हुए तथा सार सूख को उत्पन्न करने वाले रत्नत्रयरूपी अात्म धर्म की शांति व प्रेम से सभी जीव पाराधना करने से संसार दुख से छूट कर अत्यन्त सुख की प्राप्ति करते हैं। अत: हे भव्य जीव! यदि तू संसार बंध से छूटना चाहता है तो सम्यक्ज्ञान पूर्वक सम्यकदर्शन, ज्ञान, चारिव धर्म की पाराग्रना कर । ताकि सहज ही मोक्ष सुख की प्राप्ति हो जाय ।।५६०।।। इति-सिंहसेन, रामदत्ता, सिंहचन्द्र, पूर्णचन्द्र मुनि को देव गति को प्राप्त करने वाला पांचवाँ अधिकार समाप्त हुआ। इस ससारख Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ षष्ठम अधिकार ॥ वेट्रिवेल वेदनुं वेंदन ट्रेवियुं । कोट्य कुमररु कोवै यैदिनार ।। मदिद निलत्तिडे वंदु नाल्वरु । मुद्रन उरै पन् केळुरग राजने ।।५६१।। अर्थ-हे धरणेंद्र सुनो! वैराग्य को प्राप्त हुए सिंहसेन महाराज तथा उनकी पटरानी रामदत्ता देवी तथा इनके दोनों राजकुमार सिंहचन्द्र पूर्णचन्द्र अपनी २ प्रायु के अवसान कर देवगति को प्राप्त हुए । तदनंतर ये चारों देवगति की प्रायु पूर्ण करके इस कर्मभूमि में पाकर अवतार लेने के पश्चात् उनके विषय का अब विवेचन करेंगे ।।५६१॥ पागर पिरभ नाम पावै यायुगं । सागर तळ्ळदु पदिन नाळिन । नागरिर पिरिवे ना नडुगिर ट्राटेवू । पागर प्रभयुट् पारिजातमे ॥५६२॥ अर्थ हे धरणेंद्र! भास्कर प्रभा नाम के विमान में उस रामदत्ता प्रायिका का जीव भास्कर प्रभा नाम का महद्धिक देव हुप्रा और अपनी सोलह हजार वर्ष की प्रायु जब पूर्ण होने लगी तो १५ दिन पूर्व ही वहां के भास्कर प्रभा नाम के स्वर्ग में कल्प वृक्ष चलाय. मान होने लगे ॥५६२।। कर्पगं शालिप्पदु कंड देवरु। मद्रवर् शिंदयुं मडुगि वाडिनार ॥ कर्पगत्तोडे यलुं कंठ माल युं। पोपळिदनिगळं मासु पोर्तवे ।।५६३॥ अर्थ-कल्प वृक्षों के चलायमान होने से वहां के भास्कर नाम के परिवार देवताओं में भय उत्पन्न होने लगा पौर भास्कर देव के गले का कंठाहार (माला) मुरझाने लगी। ॥५६॥ मदियोळि पदिन नाडोरु मायं दिडा। विदियोळि मासुरि ई वीयु मारु पोन ॥ मुदिर मदयनै योळि मति मासुरिक् । कदिर कळंडिडवदु कंडु वाडि नान् ।।५६४।। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ] मेरु मंदर पुराण अर्थ-षोडश कला से युक्त पूर्ण चंद्र राजा का जीव जिस प्रकार चंद्रमा की कला पूर्णमासी से प्रमावस तक कम होती जाती है उसी प्रकार भास्कर देव की सुन्दर शरीर की कला क्षोण होतो देखकर उस देव के मन में अत्यन्त दुख उत्पन्न होने लगा ॥५६४।। देवनायमळिये शरीदं नान्मोद । लोविला वगै यवनुट्र विबमोर ।। तावमाय तिरंडु वंदडुव दुःरवमा । मूवनाळग वैइन मुडिद तुंबमे ।। ५६५।। अर्थ-पंद्रह दिन के अन्त में होनेवाले घोर मारणांतिक दुख से वह दुखी हो गया, सोलह हजार वर्ष देवांगनाओं के साथ भोगे हुए संपूर्ण सुख जैसे जंगल में प्राग लगते ही सब नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार इतने वर्षों का वह मानन्द उस भास्कर देव का तत्काल नष्ट हो गया। अर्थात् देवांगना का मुख एक क्षण में नष्ट होता देखकर अत्यन्त दुखी हुए। क्योंकि यह संसार चक्र की विचित्रता है ।। ५६५।। सूकरमागि तोड्रि तुयरुरु मुइर्ग डुंब । तागरमागे निई वन्वुडं पिडिद लाट्रा। नागरकिरैव रागि विनिने नन्नि वीळवार् । सोगयुं तुयरु नम्मार सोल्ललाम् पडियदोंड्रो ॥५६६।। अर्थ-शरीरधारी संसारी को कितना ही दुख होने पर भी शरीर छोड़ने की भावना नहीं रहती। शरीर को छोडते समय महान दुख होता है, जो अवर्णनीय है । जिस प्रकार एक शूकर निंद्य पर्याय का जीव अपनी पर्याय को छोडता है उसको भी मरण समय में शरीर छोडने पर दुख होता है । उसी प्रकार देवगति का सुख भी आयु की समाप्ति पर जीव को दुखी कर देता है । उस दुख का वर्णन किया जाना असंभव है ।।५६६।। कानेरि कवरप्पट्ट कर्पगं पोलवाडि । वानव निरंद पोदिन वंदु सामान देवर् ॥ तेनिव रलंग लाइत् देवर तं मुलगिर् चिन्हाळ् । वानवरिशंदु पिन्ने वळुत्तर् मरवि वेडार ॥५६७॥ अर्थ-जिस प्रकार आग लगने पर जलता हुआ कल्पवृक्ष कंपायमान होता है उसी प्रकार भास्कर देव को दुखी होते देख कर वहां के रहने वाले सामान्य देव उसके पास आकर समझाने लगे कि हे महद्धिक देव ! आप अपने पूर्व जन्म में पुण्योपार्जन करने से यहां देवपद को प्राप्त हुए । अब प्रायु पूर्ण हो गई है । आप घबरामो मत । इस स्वर्ग में रहने वाले सभी देवों की आयु पूर्ण होने के बाद उनको कंठ की माला व आभरण मुरझा जाते हैं । ऐसा होना देव Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण mawowe - KRISILIWIhanian गति का स्वाभाविक नियम है। प्रतः आप घबरानो मत । प्रब आपकी प्राय पूर्ण हो गई है। ऐसा वे सामान्य देव समझाने लगे ||५६७॥ करणं करणंदोरं वेरा मुडंबिनै कंडु पिन्नु । मणंदुडन पिरिदं वट, किरंगु वार् मदि लादार् ॥ पुरणरंदवै पिरियं पोळ्दुं पुदिय वंदस्युं पोळदु । मुनरं, दुरु कवले कावळु लुळ पुगारुळ्ळ मिक्कार् ॥५६८।। अर्थ-एक एक समय उत्पन्न होकर नष्ट होने वाला यह शरीर क्षणिक और अनित्य है। ऐसे शरीर रूपी नाशवान पुद्गल पर्याय को छोड़कर जाने में यह अज्ञानी जीव घबराता है । अपने धारण किये हुए शरीर को छोडना, दूसरे शरीर को धारण करना यह पुद्गल पर्याय की परिपाटी है। यह किसी के साथ शाश्वत रूप में नहीं रहता है। इस प्रकार स्वरूप को जिसने भली प्रकार जान लिया है वह सम्यकदृष्टि हैं। एक शरीर छोडता है दूसरा प्राप्त करता है। इसी को समझ लेना सम्यक्त्व है। शरीर को छोडते समय जो दु:ख करता है वह मिथ्या दृष्टि है। परन्तु संसार स्वरूप को अच्छी तरह समझा हुआ जो सम्यक्दृष्टि है वह शरीर छोडते समय दुखी नहीं होता। वह विचार करता है कि प्रायु समाप्त होने पर शरीर को छोडना ही पड़ेगा। वे कभी भी शरीर को छोडते समय डरते नहीं है। वे विचार करते हैं कि: "नष्टे वस्त्रे यथाऽऽत्मानं, न नष्टं मन्यते तथा । नष्टे स्वदेहेऽप्यात्मनं, न नष्टं मन्यते बुधः ।। यस्य सस्पंदमाभाति निस्पंदने समं जगत् । अप्रज्ञमक्रियाभोगं स शमं याति नेतरः ।। शरीरकंचुके नात्मा संवृतो ज्ञानविग्रहः । नाऽऽत्मानं बुध्यते तस्माद् भ्रमत्यति चिरं भवे ॥५६८।। अरं पोळिब मुंडि लादिया लिरंडु मागुम् । इरंद दर् किरंगि नालुं यादोंड म पिन्न यदा ।। पिरंदुळि पेरियु तुंबम् पिनिक्कु नल्विनय याकु । मरं पुरणरं दिरवन् पांद शिरप्पि नोडर्डंग उडाइ ॥५६६।। अर्थ-धर्म, अर्थ, काम इन तीन पुरुषार्थों में सबसे पहला धर्म पुरुषार्थ है । उस धर्म पुरुषार्थ से सभी इन्द्रिय विषयभोग सुख सामग्री प्राप्त होती है। इसलिये हे भास्कर देव! प्राप पूर्वभव के इन्द्रिय सुख को स्मरण करोगे तो पार्तध्यान से निंद्यगति अथवा तिथंच गति को प्राप्त करोगे। ऐसा सामान्य देवों ने उनको समझाया। अतः आप इस समय शुभ भावना । को उत्पन्न करने वाले अहंत भगवान के चरण कमलों का स्मरण करो। इससे पाप को सुभ मति प्राप्ति होगी ।।७.६६।। : ' Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ] मेद मंदर पुरारण व रुत मारियुरु मेळुगु नीरुट् । सेंदु पोल तिन्नॅड्रिरेवन शिरप्पो डोंडि । निड नाळुलप्प मिनि नोगि नानु निलौ सेरं वा । नंजय निदानसाले परिवेया युरगर कोवे ।।५७० ॥ अर्थ - इस प्रकार सामान्य देवों द्वारा कहने के बाद शीघ्र ही जिस प्रकार लाख को अग्नि के सामने रखते हो पिघल जाती है और अग्नि से अलग करने के बाद पुनः वह लाख जम जाती है, उसी प्रकार भास्कर देव का मन दृढ हो गया और धर्म में रुचि हो गई। वह भगवान की पूजा, स्तुति, स्रोत, भक्ति पूर्वक करता रहा । तत्पश्चात् वह क्रम २ से प्रायु पूर्ण करके जिस प्रकार आकाश में बिजली चमकती २ बद हो जाती है उसी प्रकार क्षण भर में उसकी प्रायु समाप्त हो गई। और पूर्व जन्म में निदान बंध करने के कारण इस कर्मभूमि में आकर स्त्री पर्याय को धारण किया ।। ५७० ॥ कावलन पोल दीप सागरं सूळ निड़ । नावलं ती तन्नुऴ् भरतत्त नडुव नोंगि ॥ सेवलं नतिर् सेडि शिरगिनं विरिक्त तीवं । मेवलुट्रेव दुःखं बिलंगुम् वेदंड मुंडे ।। ५७१ ॥ अर्थ -- असंख्यात द्वीप समुद्रों से घिरा हुआ यह जम्बूद्वीप है । इस जम्बूद्वीप के बीच में भरतखंड है । भरतखंड के बीच में जैसे एक हंस पक्षी उडने के लिये पंख पसारता है और उडने का प्रयत्न करता है, उसी प्रकार का विजयार्द्ध नाम का पर्वत है ।। ५७१ ।। श्राळिये शेरितु कंड मारंयु मडिपडत्त । बेळमा निरंगळ् विनोर् वेदर विजेयर्गळ सूळ । बाळियंगंगे शिवु वंबडि यडेंबु कुंड्रम । पालियन तक्कै व भरतन पोंडिलंगु नि ॥ २७२ ॥ अर्थ - महालवण समुद्र पूर्वापर से भरतादि छह खंड घेरे हुए हैं। उस भरत खंड में गंगा सिंधु नदियों से घिरा हुआ यह विजयार्द्ध पर्वत जैसे भरत चक्रवर्ती अपने हाथ को पसार कर याचक जनों को दान देता है, उसी प्रकार विजयार्द्ध पर्वत का प्राकार है ।। ५७२ ।। व इogम पुय्य कंडू परं तु नीळ । मोनू मोंड माय वाइर्तविग मोडि ।। · बबु पत्तै मेर, सेंड्रगिद मरुंगुस पुक्कु । विजय मग मागि पप्यत्तु बीळं व वेपिन् ।। ५७३॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २५३ अर्थ-उस पर्वत की दक्षिण पश्चिम की चौडाई ५० योजन तथा लम्बाई २५ योजन है। पर्वत के दक्षिणी पार्श्व में नो हजार से कुछ अधिक और उत्तर दिशा में दस हजार से कुछ अधिक चौडाई है। उस पर्वत के नीचे दस योजन, ऊपर पचास योजन चौडाई है। वहां विद्याधरों के निवास करने का स्थान है ॥५७३॥ निड़ मुप्पंदु परि नेरिइ नार सेडियागि । सेंडून शक्क वालर वियोगर पुरंगळागु। मंड्रिय कुंडिर् पत्तु मैंदुयर् सूळियामे । लोडि निडोळिरुं कूडंमगुडं पोलोवदामे ॥५७४॥ अर्थ-उस स्थान पर दस योजन ऊपर में समान रूप में है। उसके बाजु में दस-दस योजन उत्तर श्रेणी और दक्षिण श्रेणी है। वहां चक्रवाल नाम के प्रसिद्ध व्यंन्तर देव का निवास स्थान है । और शेष दस योजन के उच्छेद में चूलिका है । वह चूलिका राजा के मुकुट के समान नो प्रकार की है ॥५७४।। इमयेत्ति निरमोरंगुं निलंगळ् पोंडिलंगुस वेळ्ळि । शिम येत्ति निरुमहंगुस सेंड विजयर्गळ् सेडि॥ समय्येत्त नांग दाव दुःखुमेर् ट्रिळिवु तन्निन् । नययोप्पर विजंया लिव्विंजयर् नागर् कोवे ॥५७५॥ अर्थ - हे धरणेंद्र सुनो ! विजयाद्ध पर्वत के उत्तर दक्षिण दोनों बाजू में ही दक्षिण श्रेणी उत्तर श्रेणी नाम के नगर हैं । और वहां उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी नाम के चतुर्थ काल में ऋद्धि को प्राप्त हुए मनुष्य जिस प्रकार रहते हैं उसी प्रकार अत्यन्त शीलवान, गुणवान, विद्याधर रहते हैं ॥५॥ येळमुळं विवेक नुदि हिलिवदु मेट्र, मिल्छ। पळुविला वरड नूर पुव्व कोडिई निर कोळ्मेत् ।। येळमुळ माइरत्ताडवत्त नान्गु निकुंम् । मुळु विल्लंड्युरु कोडाकोडि मूवार मुन्निर् ॥५७६॥ अर्थ-उन विद्याधरों के शरीर का उत्सेद पांच सौ धनुष से कम नहीं रहता है। और उनकी जघन्य मायु सौ वर्ष से कम नहीं होती है और पूर्व करोड से अधिक मायु उनकी नहीं होती है । दुखमा, दुखमा-दुखमा यह दोनों काल चौरासी लाख वर्ष प्रमाण हैं। पांच सौ धनुष अठारह कोडा कोडी काल प्रमाण है। पहले कहे हुए उत्सर्पिणी, मवसर्पिणी दोनों काल के प्रमाण है। उत्सर्पिणी काल में मायु व शरीर का उच्छेद होता है। मोर भवसर्पिणी काल . में प्रायु व शरीर का उच्छेद कम होता है ।।५७६॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ] मेरु मंदर पुराण नागते सूळ नागरौप्पोल मिकुं । नागरी विलंगि नागं नागसे चूळ व वांगु ॥ नागत्तै यडेंद नागर नागरौ यॅड. मन्नार् । नागत किरैव वेंड्रा मागल, किरंबन ट्राने ।। ५७७।। प्रथं - लांव कल्प के आदित्य देव ने धरणेंद्र से पुनः कहा कि हे भवन के अधिपति ! विजयार्द्ध पर्वत के चारों ओर काले मेघ के समान बड़े २ हाथी रहते हैं । औौर जाही जूही के फूल के समान बेल चारों मोर वहां फैली हुई है। उस पर्वत में जन्म लेने वाले देवों को उसको छोडकर जाने की इच्छा नहीं होती है ।। ५७ मरुविला पळितिर पाय्वं मरगत कविरं मान्ग । लरुगरण करित कान नीरन सेल्व पोलुं ॥ बेरिमलर् दुबंद नील मलिलल बगले बंडू. 1 कुरुगु वर कुबळं बट्ट में कोल बळं नारे ।। ५७८ ।। • अर्थ - उस पर्वत की पृथ्वी स्फटिक मरिण में जैसे मरकत का पत्थर जोडा गया हो और जोडने से उसके प्रकाश को देखकर वहां के रहने वाले हरिण, इस को हरा भरा घास समझ कर खाने को दौडते हैं अथवा इसको पानी समझकर पीने को दोडते हैं । उसी प्रकार बहां की भूमि प्रत्यन्त शोभायमान है । और उस नीलर्माण रत्नों से युक्त भूमि को देखकर वहां रहने वाली स्त्रियां प्रत्यन्त आतुरता से मानो पानी का सरोवर है ऐसा समझकर वहां जाकर देखने लगती हैं ।। ५७८ || वेळ मुम्मद बिळं तेरलुं । बाळंइन् कनियुं सुळयुं मळाय् ॥ बीळं वेळ्ळरु वित्तिरळ् बेदिन् । सूळ माळ मुळंगुव दु: खुमे ॥ ५७६ ॥ अर्थ - उस विजयार्द्ध पर्वत से उत्पन्न होने वाला पानी कैसा है सो बताते हैं । जैसे हाथी के कर्ण मल, कपोत मल जैसा उत्पन्न होता है उसी प्रकार उस पर्वत में पानी के भरने निकलते हैं । और पर्वत की चोटी पर से पानी के गिरने की बडी कलकलाहट की आवाज होती है ।। ५७६ । वरुडपाय वेळ मरिणत गळ् । कविर गळा येळिल बाने सेरिजन ।। मरि थिय मानिदि यालि मलं मिशं । इरुतु नीळ, बिळ तोंड्डु पोंड़वे ।।५८० ॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंतर पुराण [ २५५ अर्थ - इस प्रकार संपत्ति से युक्त उस पर्वत पर प्रष्टापद जीवों के भागते समय वहां की पृथ्वी से धूल उडती है वह प्राकाश में फैलकर सूर्य के प्रकाश को ढक देती है । जैसे बड के वृक्ष को जटाएं नीचे तक चारों ओर फैल जाती हैं उसी प्रकार विद्याधरों के विमान नीचे उतर कर आते हैं और उसी प्रकार वह धूल ऊपर से नीचे प्राती है ।। ५८० ।। मलेकन वंजियं कुंबन विन् सोला । रकम सेरिदजिलं पारडि । तलोळंब सेवामरं पोदुपो । निलतगम् पोदिविकडंदवे ॥ ५८१ ॥ अर्थ-उस विजयार्द्ध पर्वत पर रहने वाली स्त्रियां अत्यन्त मधुर वचन बोलने वाली तथा पांव में बने हुए नूपुर के मधुर शब्द करने वाली, अनेक प्रलंकार से युक्त, अत्यन्त सुन्दर रूपवान हैं । और जब वे स्त्रियां चलती हैं तो उनके पांव के तलवे मानों लाल कमल ही उछल कर गिर रहे हों - इस भांति प्रतीत होते हैं ।। ५८१ ॥ बोनन् पवळस् पडिगं मणि । यदि मोळि यूड कळंबुळळ लाय् ॥ ignis fकडंदवे मालवरं । सुंबर को विरंगुव दुःखुमे ।। ५८२ ॥ अर्थ- वह पर्वत स्वर्ण, स्फटिक, नीलमरिण प्रादि नवरत्नों से निर्मित प्रत्यन्त प्रकाश से युक्त है । उस पर्वत को देखने से ऐसा मालूम होता है कि जैसे कोई शहर ही सोमा हुआ हो। ऐसा वह पर्वत प्रतीत होता है ।।५८२ ॥ पेरिसुरा उयरं वा निडं पोंड़ ळिलू । बेरियुला मलर पदरं मिलनं ॥ सेरियुं बिजम्र् सेइळे यारोडुं । फुरंबिला कुरुवंदन रोप्परे ।। ५८३ ॥ अर्थ-सुगंधित लताओं से तथा मंडपों से युक्त तथा रत्नों को धारण किये हुए स्त्रियों के साथ वहाँ रहने वाले विद्याधर कुमार उत्तरकुरु नाम के उत्तर भोग भूमि में जैसे मनुष्य विषय भोगों को भोगते हैं उसी प्रकार विद्याधर इन्द्रिय भोगों का अनुभव करते हैं । ५६३ किनर मिवुनस् सेंव गीत माय्न् । तिसरंचि मेळंब बेळाल बळि ॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] मेरु मंदर पुराण मिन्निनाडु मरबयर् मेवलार् । पोन्नुलगदु पोलु मोर् पालेलाम् ॥५८४॥ अर्थ-उस विजयाद्ध पर्वत के एक अोर वीणा, वाद्य, संगीत सहित वहां की रहने वाली शशिदेवी विद्याधरियां अत्यन्त शोभायमान नृत्य करती है । उस नृत्य कला को देखकर ऐसा मालूम होता था जैसे स्वर्ग की अप्सरायें ही नृत्य कर रही हों ।।५८४।। कोंगु वागै कुडिसं कुरुंदुनल् । वेग सेनवगं तन्वर्ग पाडलं ॥ वांगु वाळयुं ताळयुं पुरणयुं । पांगिनोगिन पार्मिश इल्लये ॥५८५॥ अर्थ-उस पर्वत पर नारियल के वृक्ष जाहीजूही की लता, नीबू का झाड, ताड वृक्ष, केले के झाड तथा चम्बल आदि नाम के अनेक जाति के वृक्ष अनेक प्रकार के सुन्दर २ फूलोंदार सुगन्धित वृक्ष आदि उस पर्वत पर हरे भरे सुशोभित दिखाई देते थे। उस पर्वत की उपमा देने को संसार में ऐसी अन्य और कोई वस्तु नहीं हैं ।।५८५॥ कळ्ळु मीळं दल रुंकळ नीर चुने । पुळळोलिप्प वंडार. तेळू पूम पोगै । बेळ्ळ मार दुळ विड्रि विळवय । छुल्ल वण्ण मुरेत्तर करियवे ॥५८६॥ अर्थ-कनेर के पुष्प, अनेक प्रकार की लतानों में लगे हुए पुष्पों की वाटिका, पानी का तालाब, हरे भरे वृद्धिंगत धान की फसल, वहां की अत्यन्त सुन्दर भूमि, सुगन्धित धान की बाली प्रादि का वर्णन कहां तक किया जावे, वहां की भूमि अत्यन्त सुन्दर व अवर्णनीय है। ॥५८६॥ मट्रिंद मलै मिस वडत्तेन सेडियिर् । कोट्रव रुरै पदि कोडियूर् गळार् । सुद्र पट्टि रुंदवै नट्रोरु बदिर् । ट्रेकोरु पुरिनल दरणि तिलगमे ॥५८७।। अर्थ-इस विजयाद्ध पर्वत पर उत्तर दक्षिण श्रेणी में करोड से अधिक संख्या के ग्रामों से चारों ओर घेरे हुए विद्याधर राजाओं के नगर थे । वह नगर एक सौ दस थे। वहां की श्रेणी में धरणी तिलक नाम का एक नगर है । ५८७॥ कोडिमिडै गोपुर वीदि वायला । वडिवुडै मगळिरुं मैंदरु मलिइन् ।। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण . [ २५७ तडियिडु मिडंबेरा बडयुं मानगर् । कडलिङ नदिपुगुं काक्षि बागुमे ॥५८८।। अर्थ-उस धरणी तिलक नगर में अधिक से अधिक ऊंचाई में तथा ध्वजामों से युक्त गोपुर थे। और गोपुर के प्रासपास बडी २ गलियां थीं। उस नगर में सुन्दर स्रिय इतनी भीड रहती थी कि जिससे माने जाने में बडी बाधा होती थी। इस प्रकार स्त्रियों व पुरुषों से भरा हुआ वह नगर था। उस गली में आने जाने वाली स्त्रियां तथा पुरुषों के चलने फिरने में ऐसे शब्द होते थे जैसे पर्वत पर से नदी के पानी के गिरने की आवाज होती है। यदि खडा होकर वहां के लोगों के मावागमन को देखा जावे तो ऐसा मालूम होता था कि जैसे नदी के दोनों किनारे बह कर जा रहे हों ॥५८८॥ सुर बुयर् कोरियुड तोंडल काळयर् । नरै विरि मर मलर् नंगे मंगयर् ।। पोरि यिह पुलंगळं भेग भूमिय । बरिवन तळि नगर् पोलु मानगर् ॥५८६॥ अर्थ-ऐसे उस महानगर में निवास करने करने वाली तरुण स्त्रियां सर्वगुण सम्पन्न व रूप में सुन्दर, मधुर शब्दों से युक्त एक क्षण में मन्मथ को वश में करने वाली थी। वहां के रहने वाले मनुष्य इष्ट विषय व काम सेवन में यहां के मनुष्यों के समान ही भोग भोगते थे। जैसे महंत भगवान का समवसरण ही यहां उतरा हो ऐसा सदैव वह नगर प्रतीत होता था ॥५८६।। नरंवि निनोलि नाडग माडुनल् । लरंवे यरने यारोलियाय पिळि ।। सुरुबुनुं मौलि सूदेरि कोदयर् । करुवि नन् मोळि युं कब सेय्युमे ।।५६०॥ अर्थ-उस नगर में वीणा के तथा नृत्य करने वाली स्त्रियों की पैजनी के मधर शब्द कान में अत्यन्त मधर सनाई दे रहे थे। अनेक प्रकार के विषय भोग संबंधी अनेक कलापों से स्त्री और पुरुष युक्त थे। ऐसे स्त्री और पुरुष उस नगर में निवास करते थे ।।५९. । मळे युन मिन्नन माळिगंयू डुला। मुळेय नार् पुरवत्तुरु पच्चिले। कुळय वांगि विडङ्कनम् पुळ्ळपुग । वळलुं कव्वै यमरं बतंरोर् पाल् ॥५६१॥ पर्थ-उस नगर में महलों पर इधर उधर घूमने वाली सुन्दर स्त्रियों को पांसें Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] मेरु मंदर पुराण हरिणी की प्रांख के समान अत्यन्त सुन्दर दीख पडती थीं। वे तरुण स्त्रियां कटाक्ष दृष्टि से जिस मनुष्य की ओर देख लेती थी उसी मनुष्य को अपने नेत्रों के कटाक्ष से वश में कर लिया करती थी ।। ५२ ।। मदि यडंद नेडुड् कोडि माडवर । कदिबन् विजयर् कोनदि वेगनाम् ॥ frfasरंडन नीडिय तोळि नान् । विदिइन् विजै कडंद नेडंद ॥ ५६२॥ अर्थ-उस नगर में आकाश में चंद्र मंडल को स्पर्श करने वाली ऐसी बडी २ ऊंची २ ध्वजाएं थीं । ऐसी ध्वजात्रों से अलंकृत धररणी तिलक नाम का वह नगर था । उस नगर का अधिपति पद्मनिधि के समान सम्पूर्ण पुरुषों की तथा नगर निवासियों तथा याचकों की इच्छा पूरी करने वाला सभी विद्याओं में निपुण प्रतिवेग नाम का राजा था ।। ५६२ ।। विल विकला विळुनि दिवेंद्र यायुवा । मिलक्कन मिया वयु मिरुंद कोंव नाळू || सुलक्कनं यां पेयर् तुनार् गडोळ् वलि । विलक्किय पुयत्तदि वेगन ट्रेविये ।। ५६३|| अर्थ - शत्रु राजाओं के भुजबल को नाश करने की शक्ति रखने वाले उस राजा प्रतिवेग की सर्व प्रकार के गुणों से सम्पन्न जैन धर्म में परायण तथा धर्म में प्रासक्ति रखने वाली सर्व सुन्दर सुलक्षणा नाम की पटरानी थी। यह पटरानी पूर्वजन्म में रामदत्ता का जीव ही यहां प्राकर सूर्य के प्रकाश के समान चमकने वाली महारानी हुई। इस सुलक्षणा पटरानी के गर्भ में मास्कर नाम का देव का जीव प्राया और नव मास पूर्ण होने के बाद श्रीधरा नाम की कन्या उस पटरानी के उत्पन्न हुई ।। ५8३ । rofesन् नोळियळां पार्व तानवळ् । बरु शिलै तिरुनुवन् मामडंदै पार् ॥ ट्रिरुवेन तोड्रिनाळ् शीवरं यदाम् । मरुविय पुरुऴ् वळि बंद नाममें ||५६४॥ कोटू व नाम कुलमल इर् ट्रोड्रिय । by सुलक्कने कनग पाति युऴ् । कर्पग कोडियडु वळरं दु कामदं । पपुंडे मुलेयरं पेळंबु प्रतवे ।। ५६५ ।। अर्थ - प्रतिवेग नाम के कुलपर्वत के समान गंभीर और पतिव्रता श्रेष्ठ लक्षण Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५६ मेरु मंदर पुराण वाली सुलक्षणा नाम की पटरानी के श्रीधर नाम की पुत्री जिस प्रकार श्रेष्ठ भूमि में कल्प लता उत्पन्न होकर फैल जाती है उसी प्रकार वह पुत्री क्रमशः बढ़ने लगी || ५६४ ।। ५६५।। मुत्तनि मुगिन् मुलै मुळरि वानमुग । तत्यङ् किळवियै तरुशगनेनुं ॥ वित्तग नळगेयान् वेंदर् कीदं नर् । मुत्ति पेट्रार मुत्तानं मूर्तिये ॥ ५६ ॥ अर्थ - वह श्रीधरा अनेक प्रकार के मोती, मारणक आदि के कंठों को गले में धारण करके कमल के समान मुख वाली वह कन्या अत्यन्त सोभाग्यशाली थी। उस श्रीधरा कन्या का प्रत्यन्त पराक्रमी दर्शक नाम से प्रसिद्ध अलकापुर के अधिपति के साथ विधि पूर्वक विवाह संस्कार कर दिया गया। वह दर्शक सदैव अपनी श्रीधरा रानी के साथ विषय भोग में तल्लीन रहता था ।। ५६ ।। प्रमुं कुळगळं तिरुत्ति यम्मले । इळ मईलनय वळोडौ यंदरा ॥ तुळमलि युवगै नोडु नाळिनाल् । वळरोळि वैडूर्य प्रभै वानवन् ।। ५६७ ॥ अर्थ - नवरत्न आदि आभरणों से तथा अनेक गुणों से सुशोभित वह श्रीधरा चौर समय जैसे मोती से मोती और मारक से उसी प्रकार वे विषय भोग में दोनों मग्न उसके पति दोनों काम भोग में समय व्यतीत करते मारक मिलने में चमक व प्रकाश अधिक बढता है, थे ।। ५६७।। इरै वळे इरामै तत्रिळय काळंमेर् । पिरविलेन वयिर् पिरक्कु माय् विडि ।। निरंतव पयनेना निनंत सिदइन् । मरुविला तिरुविनाळ् बैट्र होडिना ।। ५६८ ।। अर्थ - पूर्व में रामदत्ता प्रायिका ने पूर्णचन्द्र के राजमहल में यह निदान बंध कर लिया था कि यह मेरा छोटा लडका पूर्णचन्द्र ही मेरा पुत्र हो । ऐसा निदान बंध कर लेने से उसी पुत्र का जीव गर्भ में श्राया । और वह श्रीधरा नाम की कन्या उत्पन्न हुई ||५६८ || मंगेयाय् मैंद नाय् वाणिर् ट्रेवनाय् । मंगा वैडूर्य प्रभन् ट्रोंड्रिनान् ॥ इfig माट्रिन् दियत्व सोदरं । संगय निडुंगन तिरुविनाममे ।। ५६६ ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] मेरु मंदर पुराण अर्थ-पूर्व जन्म में वारुणी का जीव स्त्री मरण करके पूर्णचंद्र हुआ था और वह मरण करके पुनः उस श्रीधरा रानी के गर्भ में आकर लडकी उत्पन्न हुई । बढते २ वह कन्या सर्वगुण सम्पन्न हो गई । तब उसका नाम यशोधरा रख दिया। संसार की विचित्रता बलवान है । यह सब मोह की माया है ॥५६॥ अंगयु मडिगळु मलरंद तामरै। कोंगयुं कुळल्गळं कुरुंचे कोंड़ याम् ॥ वेंगयर् पोरव कन्वेय वेंड तोळ । पंकय मलर मिस पावै पावये ॥६००॥ अर्थ-उस यशोधरा का मुख लाल कमल के समान अत्यन्त सुन्दर था। उसके नेत्र हिरणी के नेत्र के समान एवं भृकुटी इन्द्र धनुष के समान थी। इस प्रकार वह कन्या सुशोभित होकर पृथ्वी को शोभित करने लगी ।।६००। मेघरवत्तोडु मिदं पेरोलि । पागर पुरत्तव रिर्रवन् पारोडु ॥ नागर् तं मिडत युंम नडुक्कुं विजंगट । काकरन सूर्या वरुत्तनागुमे ॥६०१॥ अर्थ-वहां मेघ की गर्जना के समान आवाज करने वाली तथा सूर्य के प्रकाश के समान प्रकाशवान, ऐसा भास्कर नामक नगर का अधिपति प्रतापी सूर्यावर्त नाम का राजा राज्य शासन करता था।॥६०१॥ निरैमदि यनय मुक्कुडे नीळलि । निरवन तिरंदडि निरंद सिवयान । पोरिकडम् पुलंगन मेन मिक्क पोल्दिनु । नेरियला नेरिच्चेला नीदिया नवन् ॥६०२॥ अर्थ-वह सूर्यावर्त राजा सूर्य के समान प्रतापी, शत्रु समूह को सदेव परास्त करने वाला, अत्यंत धार्मिक था। देव, शास्र, गुरु में भक्ति रखने वाला, शीलगुण सम्पन्न, चार प्रकार के दानों में हमेशा रत तथा सदैव जीवों पर दया करने वाला, तीन छत्रों के नीचे रहने वाला तथा सदैव भगवान के चरण कमलों की पूजा में रत रहता था। वह धर्मज्ञ तथा पापभीरु भी था॥६.२॥ पाटन मूंड्रान् मल यरसर् तम् वलि । माट्रिय पुयवली मदमंग तन ॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण - [ २६१ नेट्रिय वडं सुमंवेळुव कोंगये। याट्र ळि वेळ विया लन्न लैंदिनान् ॥६०३।। अर्थ - उत्साह शक्ति, आलोचना शक्ति, प्रभुत्व शक्ति इन तीनों शक्तियों से युक्त, . विजयार्द्ध पर्वत पर रहने वाला, सब राजाओं को अपने आधीन करने वाला वह सूर्यावर्त राजा अलकापुरी का अधिपति था। उसका श्रीधरा की कूख से जन्म लेने वाली यशोधरा नाम की कन्या के साथ जैन उपाध्यायों के द्वारा विधि पूर्वक पाणिग्रहण संस्कार किया गया और यशोधरा उसकी पटरानी बनी ॥६०३।। आर्यावर्तत्तुळ लारप्पोलवच । सूयांवर्तनुं तोग तन्नलं ॥. . वारिवर्तत्तुळ ळमिळ दिन् वांगिय । तारियान परुगुनाळ शासरत्तिनुळ ॥६०४॥ अर्थ-आर्यावर्त नाम की उत्तम भोगभूमि में रहने वाले मनुष्य के समान यह सूर्यावर्त नाम का राजा अपनी पटरानी यशोधरा के साथ विषयभोग में मग्न हो गया और आनंद पूर्वक समय व्यतीत करने लगा।॥६०४।। कामरं देवियर वदनत्तामर । तेमरु वंडेन सेंगट शीधर ।। . नामद याने शासरत्तिन् वळियिप । पूमरु कुळलि तन् पुदलव नाईनान् ।।६०५॥ अर्थ-सुलक्षण से युक्त, देवांगना के तुल्य, कमलपुष्पवत् सुन्दर वदन वाली यशोधरा थी और कमल को जिस प्रकार भ्रमर सदैव उसकी सुगन्ध के लिये घेरे रहता है, उसी प्रकार पूर्व जन्म में हाथी की पर्याय में सभी हाथियों से घिरा हुअा अशनी कोड नाम के हाथी ने पंचाणवत ग्रहण करने के फल से सहस्रार कल्प में जन्म लिया हुमा वह श्रीधर देव अपनी माय को पूर्ण करके वहां से यशोधरा रानी के गर्भ में आ गया ॥६०५।। श्रीधर निशोधरै शिरुवनाय मन्निर् । केवमाम तिमिर् केड किरण वेगनाय ॥ मादिरं तन्नयुं वनक्कु विजया। लोदनो वट्टत्ति नोरुव नाईनान् ॥६०६॥ अर्थ-उस श्रीधर देव का जीव यशोधरा देवी के गर्भ से जन्म लेकर पुत्र उत्पन्न हुआ। उस पुत्र का नामकरण संस्कार करके किरणवेग ऐसा नाम रखा गया। अब वह अपनी विद्या के सामर्थ्य से समुद्र से घिरा हुआ उस पृथ्वी में जन्म लेकर उपमा रहित हो गया॥६.६॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] मेरु मंदर पुराण कुंजिगळ करवळे सुरुळिन कोत्तन । मंजिला मदियिन दिय: वान् मुगं ॥ कुंजर तडक्क तिन् पुयंगन् मार्वगं । पंजिन मेल्लनैनल पदुमै केन्बवे ॥६०७॥ अर्थ-उस किरण वेग के सर के बाल स्त्रियों के हाथों में रंग बिरंगी चूडियां जैसे चमकती हैं, वैसे चमकते थे। उसका मुख कलंकरहित चंद्रमा के समान सुशोभित था। उनके हाथ हाथी की सून्ड के समान थे। उनका वक्षस्थल लक्ष्मी निवास करने के स्थान के समान प्रत्यन्त विशाल था ॥६०७।। इड यरि येट्रिन तिडयो वेदरन् । तुडे कडन् माळिगे तूनगळ् पोलुमे । नडे विडे योदुक्कुमा नळिनं कालडि । यडेयलर करि योडु कूट्र मन्नने ॥६०८॥ अर्थ-उस किरणवेग का कटिभाग सिंह के कटिभाग के समान शोभायमान था। उनके पांव कदलीस्तम्भ के समान तथा वह तरुण सांड के समान यौवनवान दीखता था। चलते समय उनके पांव के तलवे कमल पुष्प के समान दीखते थे। उनके पास पास के देश के शत्रु राजा उनको देखकर कांपते थे। ऐसा वह पुत्र महान पराक्रमी था ।।६०८।। कले गुण नलगळिर् कामनन्न वन् । मलै मिस मन्नई कणि वल्लि कन् । मुलै मलि भोगत्तिन मीइम्वन् मोगुना । निले इन्म सूर्यावरुत्त नेन्निनान् ॥६०६।। अर्थ-वह किरणवेग संगीतादि ६४ कलाओं में परिपूर्ण तथा मन्मथ के समान यौवनावस्था को प्राप्त हुआ था। ऐसा वह किरणवेग विजयाद्ध पर्वत पर रहने वाली कुमारी के साथ विषय भोग आदि का आनन्द पूर्वक सुख भोगता था। वह आर्यावर्त राजा, यह संसार अनित्य है-ऐसा समझ कर अनित्य भावना का चितवन करने लगा ।।६०६।। कळिट्रि नुक्करस निडालुम कालवै। येळट्रि सेरिद पोदाव दिल्लनम् ॥ वेळिट्रिनिर् कट्टिय विनइन् तुय । रळट्रिन वीळ पोदु मुंडावदिल्लये ॥६१०॥ अर्थ-जिस प्रकार एक बलवान हाथी पानी पीने को जाते समय अपने दोनों पावों को कीचड में फंसाकर शक्तिहीन हो जाता है और प्रयत्न करने पर भी उनके दोनों पांव Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २६३ कीचड से नहीं निकलते उसी प्रकार वह विचारता है कि मैं कर्मरूपी कीचड़ में फंसकर उससे उठकर ऊपर पाने की शक्ति न होने के कारण संसार रूपी कीचड में फंसकर महान दख को भोगने वाला हो गया हूँ। परन्तु मैंने उस कीचड से उठकर मैंने ऊपर आने का पुरुषार्थ नहीं किया। यह मेरी बडी भारी भूल है। पद्मनंदी प्राचार्य ने भी तत्व भावना में श्लोक ५ में लिखा है: "लब्ध्वा जन्म कुले शुचौ वरवपुर्बुध्वाश्रुतं पुण्यतो। वैराग्यं च करोति यः शुचितया लोके स एकः कृती॥ तेनेवोज्झितगौरवेण, यदि वा ध्यानामृतं पीयते । प्रासादे कलशस्तदा, मणिमयो हेमःसमारोपितः ।। पुण्य के उदय से पवित्र कुल में जन्म पाकर व उत्तम शरीर का लाभ कर जो कोई शास्त्र को समझ कर व वैराग्य को पाकर पवित्र तप करता है वही इस लोक में एक कृतार्थ पुरुष है । यदि वह तपस्वी होकर मद को छोडकर ध्यान रूपी अमृत का पान करता रहे तो मानो उसने स्वर्णमई महल के ऊपर मरिणमयी कलश ही चढा दिया है। अर्थात प्रात्मध्यानी ही सच्चे तपस्वी हैं और वे ही कर्मों को काटकर मोक्ष के अधिकारी होते हैं। पुनः विचार करने लगा कि दिनकर-करजाले शैत्यमुष्णत्वमिंदोः । सुर-शिखरिणि जातु प्राप्यते जंगमत्वम् ।। न पुनरिह कदाचिद् घोर-संसार-चक्र । स्फुटमसुखनिधाने, भ्राम्यता शर्म पुंसा ॥६८॥ (तत्व भावना) मिध्यादृष्टि हिरात्मा, आत्मज्ञान रहित ही जीव चारों गतिमई संसार के चक्कर में नित्य भ्रमण करता है । प्रज्ञानी को, संसार ही प्यारा है। वह संसार के भोगों का ही लोलुपी होता है। इसलिए वह गाढे कर्मों को बांधकर कभी दुख, कभी कुछ सांसारिक सुख उठाया करता है। उसको स्वप्न में भी आत्मिक सच्चे सख का लाभ नहीं है चार्य ने यहां तक कह दिया है कि असंभव बातें यदि हो जाय अर्थात् सूर्य की किरणें गरम होती हैं वे ठंडी हो जावे, व चंद्रमा में ठंडक होती है सो गर्मी मिलने लगे तथा सुमेरु पर्वत सदा स्थिर रहता है सो कदाचित् चलने लग जाय परन्तु मिथ्यादृष्टि जीव को कभी भी प्रात्मसुख नहीं मिल सकता है । इसलिये हमें उचित है कि मिथ्यात्व रूपी विष को उगलने का उद्यम करें और सम्यकदर्शन को प्राप्त करें। भेद विज्ञान को हासिल करें व मात्मा के विचार करने वाले हो जावें। इस ही उपाय से मुक्ति के अनन्त सुख का लाभ होता है। श्री पानंदि मुनि परमार्थ विंशति में कहते हैं दुःखव्यालसमाकुले भववने हिंसादिदोषदु मे। नित्यं दुर्गतिपल्लिपाति कुपये भ्राम्यति सर्वेगिनः ॥ तन्मध्ये सुगुरु-प्रकाशित-पये प्रारब्धमानो जनो। यात्यानंदकरं परं स्थिरतरं निर्वाणमेकं पुरं ॥१०॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] मेर मंदर पुराण इन दुखरूपी हाथियों से भरे हुए व हिंसादि पापों के वृक्षों को खोटे मार्ग में नित्य पटकने वाले संसार वन में सर्व ही प्राणो भटका करते हैं। इस वन के बीच में जो चतुर पुरुष सुगुरु के दिखाये हुए मार्ग में चलना शुरू कर देता है वह परमानन्दमई उत्कृष्ट व स्थिर एक निर्वाण रूपी नगर में पहुंच जाता है ॥६१०॥ मउंदयर मनत्तिनुस कडिदु मायं दिडु । मुडंबोदु किळयन बुळ्ळं वैत्तवन ॥ दडंगन वेम्मुलयवर् सूळचांबिय । मडंगल पोल मल निड, निलैत्तिन वंदनन् ॥६११॥ अर्थ-इस शरीर संबंधी पुत्र, मित्र. बंधु, बांधवादिक जितने भी दीखते हैं वे सब मसद्भूत चारित्र हैं। और वे असद्भूत चारित्र होने से क्षणिक और चंचल हैं, शीघ्र ही नष्ट होने वाले हैं। इस प्रकार वह पार्यावर्त विचार करके कि यह सब अनित्य है, एकत्व भावना का चितवन करने लगा और इस प्रकार भावना भाते समय उनकी महारानी प्रादि सब कुटुम्ब के लोग वहां उनके पास माये तब उनको संबोधन करके ससार को असारता का उपदेश देकर वैराग्य युक्त होकर विजयाई पर्वत पर से नीचे आ गये । और नीचे आकर उस जंगल में घोर तपश्चरण करने वाले निग्रंथ मुनिराज को देखा और देखते हो शीघ्रता से उनके पास बाकर भक्ति पूर्वक स्तुति करके बारंबार नमस्कार किया। तत्पश्चात् बहुत विनय के साथ उनसे प्रार्थना करने लगा कि हे प्रभु ! प्रष्ट कर्मों के मर्मों को तथा स्वरूप को समझने की मेरी भावना है । कृपा करके उसको मुझे समझाकर प्रतिपादन करें ॥११॥ मलविन् माववन मामुनि चंदिरन् । ट्रलव नन्नवन् दन् चरणंबुयम् ।। निलनु रप्परिणदेत्ति निड्रेन्विने । फलमेनो पनिक्केंड, पनिंदनन् ॥६१२॥ परिप्रोडा लोगम् तम्ने यारिरुळ पोल निड़.। मरुदले शेयुं ज्ञान काक्षिया वरनुं वाळि॥ नेरियं वायरिंडि नोडिनम् नमिर्दम् पूशि । सेरिय नावत्त लुक्कुंतीय नल वेदनीयम् ॥६१३॥ मथं-तदनन्तर पार्यावर्त राजा की प्रार्थना को सुनकर वे मुनिराज कहने लगेमानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अंतराय ये चार घातिया कर्म हैं और प्रायु,नाम,गोत्र, वेदनीय ये प्रघातियां कर्म हैं । ये घातिया कर्म आत्म स्वभाव को हमेशा घात करते आये हैं । इस कारण यह सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यकचारित्र के निज स्वरूप को घातते हैं, और संसार में परिभ्रमण कराने वाले हैं । ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय जिस प्रकार अंधकार में रखी हुई वस्तु दिखाई नहीं देती उसी प्रकार दर्शन और ज्ञान का आवरण करके अपने मात्म-स्वरूप का प्रावरण कर देते हैं । और उसमें सात तथा असाता वेदनीय दोनों कर्म विष Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- - - - - - - - मेरु मंदर पुराण , [ २६५ और अमृत के समान हैं । जैसे मनुष्य खड्गधारा में लगे हुए मधुविदु के लोभ से उसको जीभ से चाटता है और उसकी धार से जिह्वा कट कर खून निकलता है उसी प्रकार जिह्वा इन्द्रिय के लोभ के कारण ऐसा करने से साता कर्म मधु की बून्द है और असाता कर्म खड्ग की धार के समान है । श्री उमास्वामी ने तत्वार्थ सूत्र में कहा है: "प्राद्योज्ञान-दर्शनावरण-वेदनीय-मोहनीयऽऽयुनर्नाम-गोत्रांतरायाः ॥ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय ये पाठ मूल प्रकृतियां हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय,अन्तराय ये चार घातिया कर्म हैं । क्योंकि जीव के अनुजीवी गुणों को नष्ट करते हैं। प्रायु, नाम, गोत्र और वेदनीय ये चार अघातिया कर्म हैं । जलो हुई रस्सी की तरह इनके रहने से भी अनुजीवी गुणों का नाश नहीं होता। अब जीवों के उन गुणों को कहते हैं जिनको कि कर्म घातते हैं। केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंतवीर्य और क्षायिक सम्यक्त्व तथा क्षायिक चारित्र और क्षायिक दानादि इन क्षायिक भावों को तथा मतिज्ञान प्रादि (मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्यय) क्षायोपशमिक भावों को भी ये ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्म घातते हैं। अर्थात् ये जीव के सम्पूर्ण गुणों को प्रगट नहीं होने देते। इसी वास्ते ये घातिया कर्म कहलाते हैं । अब प्रघातिया कर्मों का कार्य बताने के लिए पहले आयु कर्म का कार्य बतलाते हैं। कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ और मोह अर्थात् अज्ञान, असंयम तथा मिथ्यात्व से वृद्धि को प्राप्त हुआ संसार अनादि है। उसमें जीव का अवस्थान रखने वाला प्रायु कर्म है। वह उदय रूप होकर मनुष्यादि चार गतियों में जीव की स्थिति करता है। जैसे कि काठ(खोडा) जेलखानों में अपराधियों के पांव को बांध रखने के लिये रहता है, अपने छेद में जिसका पैर प्रा जाय उसको वाहर नहीं निकलने देता। उसी प्रकार उदय को प्राप्त प्रायु कर्म जीवों को उन २ गतियों में रोक कर रखता है । अब नाम कर्म का कार्य कहते हैं: नामकर्म, गति आदि अनेक तरह का है। वह नारकी वगैरह जीव की पर्यायों के भेदों को, तथा जीव के एक गति से दूसरी गति रूप परिणमन को कराता है। अर्थात् ति चित्रकार की तरह वह अनेक कार्यों को किया करता है। भावार्थ-जीव में जिनका फल हो सो जीव-विपाकी पुद्गल में जिनका फल हो सो पुद्गल-विपाकी, क्षेत्र-विग्रह गति में जिनका फल हो सो क्षेत्र-विपाकी तथा च शब्द से भव-विपाकी । यद्यपि भव-विपाकी प्रायुकर्म को ही माना है; परन्तु उपचार से आयु का अविनाभावी गति कर्म भी भव-विपाकी कहा जा सकता है इस तरह नाम कर्म जीव-विपाकी आदि चार तरह की प्रकृतियों के रूप परिमणन करता है। अब गोत्र कर्म के कार्य को कहते हैं:कुल की परिपाटी के क्रम से चला पाया जो जीव का आचरण उसको गोत्र संज्ञा Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] मेरु मंदर पुराण है । उसे गोत्र कहते हैं । उस कुल परम्परा में उत्तम आचरण होय तो उसे उच्च गोत्र कहते है। जो निंद्य आचरण होय वह नीच गोत्र कहा जाता है । जैसे सियार का एक बच्चा बचपन से सिंहनी ने पाला, वह सिंह के बच्चों के साथ ही खेला करता था। एक दिन खेलते हुए बे सब बच्चे किसी जंगल में गये। वहां उन्होंने हाथियों का समूह देखा । देखकर जो सिंहनी के बच्चे थे वे तो हाथी के सामने हुए, लेकिन वह सियार जिसमें कि अपने कुल का डरपोकपने का संस्कार था - हाथी को देखकर भागने लगा । तब वे सिंह के बच्चे भी अपना बडा भाई समझकर उसके साथ पीछे लौटकर माता के पास आये । और उस सियार की शिकायत की कि हमको शिकार से इसने रोका। सिंहनी ने उस सियार के बच्चे से एक श्लोक कहा जिस का मतलब यह है कि हे बेटा ! तू अब यहां से भाग जा, नहीं तो तेरी जान नहीं बचेगी । शूरोसि कृतविद्योऽसि, दर्शनीयोसिपुत्रक । यस्मिन् कुलेत्वमुत्पन्नो गजस्तत्र न हन्यते ॥ अर्थ - हे पुत्र ! तू शूरवीर है, विद्यावान है, रूपवान है परन्तु । हुआ है, उस कुल में हाथी नहीं मारे जाते । जिस कुल में तू भावार्थ - कुल का संस्कार अवश्य श्रा जाता है। चाहे वह कैसे भी विद्यादि गुणों कर सहित क्यों न हो। उस पर्याय में संस्कार नहीं मिटता । में तू पैदा अब वेदनीय कर्म के कार्य को कहते हैं इन्द्रियों का अपने २ रूपादि विषय का अनुभव करना वेदनीय है । उसमें दुख रूप अनुभव करना असातावेदनीय है और सुख रूप अनुभव करना साता वेदनीय है । उस सुख दुख का जो प्रनुभव कराये वह वेदनीय कर्म है ।। ६१२ । ६१३ ।। मत्तत्तिन् माक्कु मोगं वान् रळं पोलुमाय् । चितिरकारि नाम शिरुमयं पेरुमयुं शै ।। गोतिरं कुलाल नोक्कुं पोरुनेळिने कोळामर काक् । वैत्तवत् पोलुमंद रायंगन् मन्न वेंड्रान् ॥ ६१४ ॥ अर्थ - हे राजन् ! यह कर्म इस प्राणी को चारों गतियों में भ्रमण कराने का कारण है और अनेकों दुखों को उत्पन्न करने वाले हैं । प्रायु कर्म जैसे अपराधी के पांव में बेडी डाल देते हैं उसी प्रकार यह कर्म जकड़े रहता है। जिस प्रकार चित्रकार चित्र को छोटा-बडा करता है, इसी प्रकार नाम कर्म है। शुभाशुभ ऊंच नीच नाम यह कर्म ही करता है । गोत्र कर्म - कुम्हार जैसे बर्तन को छोटा बडा बनाता है, उसी प्रकार ऊँचा नीचा करना यह गोत्र कर्म का कार्य है। अंतराय कर्म - जिस प्रकार राजा याचक लोगों को दान करता है और भंडारी उसको दान देता देख कर रोक देता है उसी प्रकार अन्तराय कर्म आत्मा की शक्ति को प्रकट नहीं होने देता है । दर्शनावरणीय कर्म- जैसे दर्शन करते समय भगवान के मन्दिर का दरवाजा बंद रहता है— दर्शन नहीं होता, उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म म्रात्मा पर श्रावरण करता है ||६१४।। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ २६७ मुडिविला कोडुमै ताय मोगंदान् मुन्ममिल्ला । कडिय तीविनेगळेला कट्टवे तानु कंटु ॥ केडुवळितान् केडामुन् केडेंद विनक्कु मुट्टा। तडुत्तलु करिय मोग मरसन विनगेट केंद्रान् ॥६१५।। अर्थ-हे राजन् ! अनेक प्रकार के दुख को देने वाला यह मोहनोय कर्म अनादि काल से आत्मा को दुख देता पा रहा है। जब तक मोहनीय कर्म का नाश नहीं होता तब तक आत्मा के साथ लगे हुए मोहनीय कर्म जनित दुःख भी नष्ट नहीं होते । यह कर्म महा बलवान है। जैसे सेना में सेनापति प्रधान होता है उसी तरह पाठों कर्मों में मोहनीय कर्म प्रधान है। इस कर्म के नष्ट होने पर अन्य कर्म अपने पाप खिर जाते हैं । इसको जीतना अत्यत कठिन है॥६१५॥ मबियिना लार्व सेट्र मयक्कत्तान् विनयवट्रान् । कदिगळुळ कळुमक्काय मारिलोंड्रामक्कायं ।। पोविय वैबोरियै याक्कं पोरिगळार पुळत्तमेवि । विदियिनाम् वेळके शेट्र मीटुमच्चुळट्रि यामे ॥६१६।। अर्थ-प्रज्ञान से रागद्वेष तथा मोह उत्पन्न होता है। मोह से आत्मा में कर्म का बंध होता है। उन कर्मों से छह काय के जीवों में जिस २ पर्याय में जीव जाकर अपनी भावना के अनुसार पर्याय धारण करता है , वैसे ही पूर्व जन्म में किया हुआ शुभाशुभ परिणाम के अनुसार पर्याय प्राप्त करता है। यह प्रात्मा अनादि काल से मोह के कारण अनेक पर्याय को धारण करता हुमा संसार में परिभ्रमण करता आ रहा है ॥६१६।। परियट्ट मिदनै वेल्वार् पान्मै यार् पान्मेइल्लार् । तिरिवटें पोल नानगु गदिगळ्ट तिरिवरेन्न ।। किरियेद्र विरमै तन्नै किरण वेगन कन्वैत्तु । पोरियोक्क भोगं विटु पुरवलन मुनिव नानान् ॥६१७॥ अर्थ-जो ज्ञानी भव्य जीव हैं वे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव को जानकर मोक्ष पुरुषार्थ के द्वारा तपश्चरण करके मोक्ष भी प्राप्त कर लेते हैं। इस मार्ग को न जानने वाले संसारी जीव कुम्भकार के चक्र के समान है जैसे चक्र एक ही जगह चक्कर करता रहता है उसी प्रकार यह जीव एक ही जगह भ्रमण करता रहता है। इस प्रकार मुनिराज ने आर्यावर्त को उपदेश दिया। उस उपदेश.को सुनकर वह प्रानंदित हुआ और पुनः मूनियों को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके अपने नगर में लौटकर आ गया। अपने पुत्र किरणवेग को बुलाकर उस नगर का अधिपति बनाया अर्थात् उसका राज्याभिषेक कर दिया। और मन, वचन, काय से सर्वसंघ, कुटुम्ब परिवार प्रादि का त्याग करके जिनदीक्षा को धारण कर लिया ॥६१७॥ येरिमुयं गिलंगु वेळान टुरंद पिनिसोदर यान् । करिकुळर् करुंगट सेवाय सूर्यावरत्तन ट्रेवि ।। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] मेरु मंदर पुराण शिरिदरै योडु शेंड्र, गुरण वदि पादं सेरंदु । वरिसैर् ट रंदु मंजे मयिरु गुत्तिरंद वत्तार् ॥६१८।। अर्थ-उम आर्यावर्त राजा ने जिनदीक्षा लेने के पश्चात् रति तिलोत्तमा के समान रूप को धारण करने वाली वह यशोधरा व उसकी माता श्रीधरा इन दोनों ने भी वैगग्य भावना को भाते हुए जिनमति नाम की प्रायिका के पास जाकर आर्यिका दीक्षा धारण कर ली।६१८। अंग पूवादि नूलु लच्चियर् कुरिय प्रोदि । वेंगडु काननन मेवल वेरु पटुरैदल विट्ट । शिंगनर पायचलादि नोन वोडु सेरिदु सेंबोन् । वंगमे यनय तोळ्गळ वदिमाशडेय नोट्रार ।।६१६॥ तवक्कोडि इरंडु पोल तांगरुं कोळ्गे तांगि । युवत्तल् काय विडि शित्तत्तोत्तु निड्रोळुगु नाळुळ ॥ नवैक्केला मिडमिब्पोग मेंड्र, नकिरण वेगन् । शिवत्तिरै युरइन शित्तायदन नकूडन् सेरं दान ॥६२०॥ अर्थ-तदनन्तर इन दोनों प्रायिकाओं ने घोर तपश्चरण करते हुए अंगांग, पूर्वाग आदि शास्त्रों का अध्ययन किया और त्रिकाय योग को धारण कर सिंह निष्कृत व्रत को धारण करके उपवास सहित घोर तपश्चरण करने लगी। तपश्चरण करके शरीर को कृश किया। और दोनों प्रायिकाए निर्दोष चरित्र को परिपालन करने लगी। इधर इस संसार को, इन्द्रिय भोगों को दुख का कारण समझ कर उस किरणवेग ने भली प्रकार से संसार भोगों के विषय को अच्छी तरह से जान लिया और विजयाद्ध पर्वत की दक्षिण दिशा में सिद्धायतन नाम के अकृत्रिम चैत्यालय में गया ॥६१६ ६२०॥ ऐय, कादमोंगि यागंड नीडडि ईनुच्चि । यै यैदिर पादि नीळ मगलमाम शिकरन् तन्न ।। पैयों म परवैयलगुर पट्टिगै सूटु पोल । मैयोंद्रि मलरं द कन्नार वनप्पिर काविरंडु सूळं द ॥६२१॥ अर्थ-वह विजयाद्ध पर्वत पच्चीस कोस ऊंचा व पच्चीस कोस ही चौडा था। उस के ऊपर शिखर था, उस शिखर की ऊचाई साढे बारह कोस थी। उस पर प्रकृत्रिम चैत्यालय था उस चैत्यालय के चारों ओर दो उपवन थे ।।६२१॥ वेदिगै तोरणंगळ वंदन कांतियारं द । सेदिय मरंगनान् नगु दिस दोरं सेरिदं का ।। ळादियोडंद मिल्लावरिन् कोईलदुम् । वोदिग डोरं नान्गु गोपुरं विळंगु निड्रे॥६२२॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ २६६ ___अर्थ-उस चैत्यालय की वेवियां तोरण से घिरी हुई थी। उस चैत्यालय के चारों ओर अत्यंत प्रकाशमान चैत्य वृक्ष हैं और जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करने जाने को चार वीथी है। चारों वीथियों पर चार ही गोपुर हैं ॥६२२ । कनगमन्यरिणयं कंबम् कुमुरम पालिकालु । मननिर मूतमांड पावंगळ कूडशाल ॥ विमवेन वेबमूडम पुराणम मेळुखि बग्योन् । ट्रन विडं प्रोडवेंडोर तले बन दिहक्क यामे ।।६२३।। प्रायतं कादमागि यवनर यगल मागि। यायवन् काल कुरेद तुपरना यमलमागि । नोदिया निड़ गंद कुग्गिळू ट्रिट्टागि । वायद लोर मूड.मुन्नु मंडयम् पलवमामे ॥६२४॥ अर्थ-उस अकृत्रिम चैत्यालय के स्तम्भ रस्मों से निर्मित हैं जो अत्यन्त प्रकाशमान और शोभायमान दिखते हैं। और उसके बाहर नर्तन मंडप में जिस प्रकार नर्तकी नृत्य करती है उसी प्रकार के अनेक रंगों से चित्रित चित्राम हैं। और मागम के अनुसार द्वादशांग भाव को वहां चित्रित किया गया है और उसमें महंत भगवान के प्रतिमा कृत चित्र हैं उस चैत्यालय के निचले भाग से ऊपर के भाग तक एक कोस चौडा, सवाकोस ऊंचा और सवा कोस लम्बा इस प्रकार एक सौ माठ संख्या वाले मंडप हैं ।।६२३॥६२४॥ स्तपै चेदियमर जयंतयाम । मा पेरु कोडिमलिमानतंबनर् ॥ गोपुरन कोडिनिर तोरण मि । बापिमानंदय बंद बंदवे ॥२॥ अर्थ-यह स्तूप चैत्यवृक्ष और वैडूर्य नाम के रत्नों की म्यबा, महान सुशोभित मानस्तंभ, विशेष सुन्दर गोपुर प्रादि यह सभी पूर्वी दिशा में थे। जिनके पास पास कई तालाबरा पाड मामिस बंद किरण बेगनर । कूटमालुरै विडंकुरुगु मेषु॥ नीरियादिळिदु पिलितत्तिन् मेलबरा। कोडुनीळगोपुरकर बिग ॥२६॥ - अर्थ-वह किरणवेग अनेक प्रकार के विचित्र नृत्य करने वाली नर्तकी के समान चंचल घोडे पर चढकर सिहायतन नाम के मंडप में जाने के लिये शीघ्रता से चैत्यालय के पास नीचे माकर घोडे से उतरा पोर पोरी दूर पैवस पब कर गोपुर के माये माकर जिनेन्द्र Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] मेरु मंदर पुराण भगवान के मंडप में गया और जैसे सुन्दर कमल की कली आपस में जुडी हो उसी प्रकार दोनों हाथ जोडकर किरणवेग ने भक्ति पूर्वक नमस्कार किया ।। ६२६॥ मलर कैई नंदिमामेरु सूळ्वरु । मलर कदि नरुक्क निर किरण वेगन् ट्रान् ॥ पलसुरे वलं वर परमन् कोइलु । मिलेयुरु कदबंग नोंगि निड्रवे ॥ ६२७| अर्थ -- तत्पश्चात् वह किरणवेग अपने हाथ में अत्यन्त सुगंधित पुष्प लेकर जिस प्रकार मेरु पर्वत को सूर्य प्रदक्षिणा देकर आता है उसी प्रकार वह जिनेन्द्र भगवान की स्तुति करता हुआ तीन प्रदक्षिणा देकर भगवान के मंदिर में जाता है और मंदिर में घुसते समय उस चैत्यालय के द्वार अपने प्राप खुल जाते हैं ||६२७॥ केडुकल कंड बन्नाय् केन् केलिर् पोर् । कुडे मुम्मं नोळळं कोने कांडलु । मडि मिसै गलर् सोरिंदरट्रि बि नार् । पडि मिस कलिरु पोर् परिंग वेळंदनन् ||६२८ ॥ अर्थ-किवाडों के खुलते ही जिस प्रकार एक नाव नदी में जाते समय रास्ता भूल कर दूसरी जगह जाने तथा पुनः प्रयत्न करने पर अपने सही रास्ते पर आ जाने से मल्लाह प्रसन्न होता है उसी प्रकार वह किरणवेग महंत भगवान के प्रतिकृत को देखकर प्रत्यन्त संतोष व मानन्द सहित भगवान के चरण कमलों में वह सुगन्धित पुष्प अर्पण कर साष्टांग नमस्कार करके खडा हो गया ॥ ६२८ ॥ मरिण निलं. सेंदनम् कोंडु मट्टिया । वरिगप्पेर बरुच्वनं विदियि नचिया || विनंला रिरंवनं परिंदेळंद पिन् । ट्र. रिण पहु विनय वन् द्र. दि तोडंगि नान् । ६२६ । अर्थ-तत्पश्चात् सुगन्धित चन्दन मिश्रित पानी से शुद्ध की गई भूमि पर बैठ कर अष्टद्रव्य से भगवान की पूजा की व कर्म निर्जरा का कारण भूत प्रत्यन्त भक्ति पूर्वक जिन स्तुति की ।। ६२९ ।। अरिविना लरिया व वरिवनी । पोरिनाल भोगिमल्लनि ॥ मरुविलाद गुरणत्तने वाल्तु मा । टूरिविलेन येनर वेदने ॥६३०॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २७१ अर्थ-भक्तिपूर्वक पूजा स्तुति करके वह किरणवेग प्रार्थना करता है कि हे प्रभो ! आपने मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ऐसे चार ज्ञानों को तथा पांचवें केवलज्ञान को प्राप्त करके चार घातिया कर्मों को नष्ट किया है और उस केवलज्ञान के द्वारा तीन लोक में चराचर वस्तु को तथा उसकी द्रव्य पर्याय को जानने की शक्ति प्रापने प्राप्त की है। और पचेन्द्रिय क्षणिक सुख को विष के समान समझकर उसको त्याग करके प्रतीन्द्रिय शाश्वत सुख को प्राप्त किया है। आप में अनन्त गुण विद्यमान हैं । हम अल्प ज्ञानियों में स्तुति करने की योग्यता नहीं है । इसलिये हम आपके गुणानुवाद तथा स्तुति करने में असमर्थ हैं ।।६३०॥ ओड्रि यावयु मुन्म इनालेना। प्रोड्रलामयु मुन्मयु मोदिना ॥ योंड्रिडादन पोलु निन्वाय मोळि । योंड्रिडा विनै योडुळ वारुळम् ॥६३१॥ अर्थ--जीवादि द्रव्य द्रव्याथिक नय की अपेक्षा एक है और पर्यायाथिक दृष्टि से अनेक हैं। ऐसा आपने अपने केवलज्ञानादि द्वारा बतलाया है। परन्तु आपके वचन पर मिथ्यादृष्टि लोग विश्वास नहीं करते हैं ।। ६३१॥ नित्तमाम् पोरुळ् निड गुरगत्तेना । नित्तमु मलनिड गुरगत्तेना ॥ . नित्त मुंडि निलाद निन्याय मुळि। नित्तमुं निनै वार् विन नोंगुमें ॥६३२॥ अर्थ जीवादि द्रव्य निश्चय नय से एक होने पर भी वह द्रव्याथिक अपेक्षा से नित्य है। पर्यायाथिक नय की अपेक्षा से प्रनित्य है । इसी प्रकार प्रापका वचन अनेकांतमय है और अनेक प्रकार का है। भावार्थ - ग्रंथकार का कहना है कि भगवान की वाणी अनेकांतमय है। क्योंकि प्रत्येक पदार्थ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप से युक्त है। द्रव्याथिक नय की अपेक्षा वस्तु नित्य है मोर पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा अनित्य है । पालाप पद्धति में कहा है कि"नयभेदा उच्यन्ते-अर्थात् नय के भेदों को कहते हैं: पिच्छय-ववहारणया मूलमभेया गयारण सव्वाणं । रिणच्छयसाहणहेऊ दव्वयपज्जत्थिया मुबह ॥ सम्पूर्ण नयों के निश्चय नय और व्यवहार नय ये दो मूल भेद हैं । निश्चय का हेतु द्रव्याथिक नय है और व्यवहार का हेतु पर्यायार्थिक नय है । निश्चय नय द्रव्य में स्थित है और व्यवहारनय पर्याय में स्थित है। श्री अमृतचंद्राचार्य ने भी समयसार में गाथा १६ की। टीका में "व्यवहारनयः किल पर्यायाश्रितत्वात्" निश्चयस्तु द्रव्याश्रितत्वात्" इन शब्दों द्वारा Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] मेरमंदर पुराण यह बतलाया है कि व्यवहारनय पर्याय के माश्रय है और निश्चयनय द्रव्य के प्राश्रय है। पति निश्चयनय का विषय द्रव्य है पार व्यवहारनय का विषय पर्याय है। ववहारो य बियप्पो भेदो तह पज्जयो ति एयट्ठो ॥५७२।। ।गो जी.) व्यवहारेण विकल्पेन भेदेन पर्यायेण । (समयसार गाथा १२ टीका) ' व्यवहार, विकल्प, मेद और पर्याय बह सब एकार्थवाची शब्द हैं । क्योंकि निश्चय नय का विषय द्रव्य है और व्यवहारनय का विषय पर्याय है। प्रतः निश्चय नय का हेतु द्रव्याथिकनय है भोर व्यवहार का हेतु पर्यायार्थिक नय है ।।६३२॥ अलगिला परि विनकन नगिवन् । बुलगेला मुळांगिय उन्ने यन् ॥ मबमिलाद ममत्तिरे त्तपिन् । नलगि लामेय देन करणवायदे ॥६३३॥ अर्थ-माप अपने केवल ज्ञान रूपी प्रकाश के द्वारा सर्व द्रव्य पर्यायों को एक ही समय में जानने वाले हैं। हे भगवन् ! आपके समान मेरे कलंक रहित मन, वचन, काय से ध्यान करने से मेरे अन्दर भी भापके समान गुण आ जाते हैं ।।६३३।। बेरियार मलर् मोतु सेल पोदु पू। मारियाय मू लोग मेडक्कु मा ।। बीरिया दरिद बिनैतीर मल् । बारि यावर कायर वेदने ॥६३४॥ अर्थ-हे धर्मचक्र के अधिपति ! हे त्रिलोकीनाथ ! पाप लाल कमल पर गमन करने वाले हैं। देवों के द्वारा पुष्प दृष्टि करने योग्य हैं । अनन्त गुण व अनन्त शक्ति से युक्त प्राप की स्तुति करने से कर्मों का नाश होता है । इस कारण पाप भक्ति,स्तुति के योग्य हैं। देवागम स्तोत्र में समंतभद्राचार्य ने भगवान की स्तुति करते समय भगवान के प्रति यह प्रश्न उठाया कि हे भगवन् ! "देवागम-नभोयान-चामरादि-विभूतयः। मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ॥ हे भगवन् ! मापके समवसरण में देवों का प्रागमन, माकाश गमन, छत्र-चंबर आदि की विभूति जो देखने में पा रही है इसलिये पाप यह कहते होंगे कि इन विभूतियों के कारण मुनि हमारे दर्शन करते हैं। परन्तु इन विभूतियों के कारण से तो पाप महामुनियों के द्वारा स्तुति करने योग्य नहीं हो सकते; क्योंकि इस प्रकार विभूति तो मायामयी मस्करी आदि इन्द्रजालियों में भी पाई जाती है। देव प्राज्ञा-प्रधानी हैं, देवों का भावागमन व अन्य २ विभूति पापमें समझ कर हमारे समान परीक्षा प्रधानी स्तुति करना नहीं मानते हैं। इसलिए Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण [ २७३ स्तवन आगम के प्राश्रय है । इस स्तवन का हेतु देवों का मागम विभूति सहित है तो यह हेतु भी पागम प्राधित है। यह विभूति ऐसी है कि प्रतिवादी को तो प्रमाण सिद्धि नहीं देती है। सबसे पहले देवागम आदि को देखे बिना कैसे माने ? और प्रागम प्रमाणवादी के यहां भी माया आदि से प्रवर्तन करने वाला है सो इसको कैसे साधे ? पुनः प्रमाणवादी कहते हैं कि जो सच्चा देव पागम मावि विभूति सहितपना भगवान में है वह मायामयी में नहीं है इसलिये वही हेतु (कारण)हो, यह विचार ठीक नहीं। इस प्रकार तुम कहोगे तो भी सच्ची विभूति भगवान के प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध नहीं होती। प्रागम से यदि कहा जाय तो प्रागम प्रमाण है । इसलिए इस हेतु से भगवान आप सिद्ध नहीं होते हैं । सिद्ध भगवान मुझे पूछते हैं कि जो अंतरंग व बहिरंग शरीरादि मोह जो हमारा है दूसरे का नहीं है इसलिये हम स्तुति करने योग्यहैं । इसी प्रकार मेरी स्तुति करना चाहिये पुनः प्राचार्यकहते हैं: "अध्यात्म बहिरप्येष विग्रहादिमहोदयः । दिव्यः सत्यो दिवौकस्स्वप्यस्ति रागादिमत्सु सः ।२।(मा.मी.) __ अध्यात्म अर्थात् आत्माश्रित, शरीराश्रित अंतरंग शरीर प्रादि का महान् उदय, पसीना आदि मलका न आना बाह्य देवों द्वारा किये हुए गंधोदक वृष्टि, विध्यपना ये बातें सच्चे मायामयी में नहीं पाये जाते हैं । चक्रवर्ती आदि मनुष्यों में यह दिव्य शरीर नहीं रहता। फिर भी हमारे द्वारा स्तुति करने योग्य आप नहीं हो सकते हैं। इस हेतु से भगवान माप हमारे स्तुति करने योग्य नहीं हैं। अंतरंग और बहिरंगपना सच्चे इन्द्रजाली में नही पाया जाता बल्कि कषाय रागादि सहित स्वर्ग के देवों में पाया जाता है। इस कारण माप स्तुति करने योग्य नहीं है। जो भगवान के घातिया कर्मों के नाश से ऐश्वर्यपना है, वैसा रागादि सहित देवों में नहीं है । इसलिये हमारी स्तुति करना चाहिये। पर भगवान के घातिया कर्मों के नाम से उत्पन्न हुप्रा केवलज्ञान तो साक्षात् दीखता नहीं यह पागम आश्रित है। इसके अलावा अन्यवादी जो प्रमाण सम्प्लव को मानने वाले अनेक प्रमाणों से सिद्ध मानते हैं । यह पागम प्रमाण से सिद्ध हुआ। इसमें कौनसा दोष है ? प्राचार्य इसका उत्तर देते हैं कि ऐसा प्रमाण सम्प्लव इष्ट नहीं है। प्रयोजन विशेष जहां होता है वहां प्रमाण सम्प्लव इष्ट है। पहले सिद्ध प्रामाण्य प्रागम से सिद्ध हुमा तभी उसके हेतु को प्रत्यक्ष देखकर अनुमान से सिद्ध करें, पीछे उसको प्रत्यक्ष जाने। वहां प्रयोजन विशेष होता है। ऐसे प्रमाण सम्प्लव होता है। केवल पागम से ही अथवा प्रागमाश्रित हेतु जनित अनुमान से प्रमाण नही। फिर काहे को प्रमाण सम्प्लव कहना। ऐसे २ विग्रह ऐश्वर्यों से भी भगवान परमात्मा नहीं माने जाते हैं । फिर भगवान्, संमत भद्राचार्य को कहते हैं कि हमारा तीर्थकर सम्प्रदाय है। मोक्ष मार्ग स्वयं धर्म तीर्थ को हम चलाते हैं। इस कारण हम स्तुति करने योग्य हैं । इसका प्राचार्य उत्तर देते है: "तीर्थकृत्समयानां च परस्परविरोधतः । सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद्गुरुः ।। (प्रा.मी.) Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २७४ ] मेरु मंदर पुराण हे भगवन् ! यदि हम तीर्थकर कहेंगे तो उसके द्वारा भव्य तिर जाते हैं, ऐसे धर्मतीर्थ को पाप करते हो तो इस प्रकार करने से तीर्थकर कहेंगे या तीर्थंकर प्रागमन कहेंगे तो इसमें भी परस्पर विरोध होता है । सभी में प्राप्तपना नहीं हैं । इसलिये कोई एक गुरु स्तुति करने योग्य होता है. सभी देव नहीं होते। . हे भगवन् प्राप्त ! तुम्हारे तीर्थकरपने हेतु से महानपना साधे तो यह तीर्थकरपना अनुमान प्रमाण से तो सिद्ध नहीं होता । प्रत्यक्ष आप दीखते नहीं, और उसका लिंग भी नहीं दिखता। और पागम से साधे तो पूर्ववत् आगम का साधन ठहरे पुनः यह विचार हो। इस कारण इन्द्रादिक विषय में भी असभव ही है। तो भी बौद्ध धर्म आदि अन्यमती भी सब अपने २ को तीर्थंकर माने हैं। फिर तुम्हारे में और उनमें अन्तर ही क्या है। वे भी सर्वज्ञ नहीं। इस कारण परस्पर पागम विरुद्ध कहता है। जो विरुद्ध न कहे तो मतभेद काहे का । इसलिए तोर्थकरपने का हेतु है तो कोई भी इस महानपने को नहीं साधे। यहां मीमांसक मत वाले यह कहते हैं कि इसी से पुरुष तो कोई भी सर्वज्ञ महान स्तुति करने योग्य नहीं है, कल्याण के अर्थ तो वेद ही कल्याण के उपदेश का साधन है ? __ बेद आप ही स्वयं अपने अर्थ को नहीं कहता । वेद का अर्थ पुरुष ही करते हैं उनमें परस्पर में विरोध देखा गया है। भट्ट के सम्प्रदायी तो वेद का वाक्याथं भावना को मानते है। प्रभाकर के सम्प्रदायी नियोग को वाक्यार्थ मानते हैं, वेदान्त वाले विधि को वाक्यार्थ मानते हैं। इनमें आपस में विरोध है। नास्तिकवादी चार्वाक तथा शून्यवादी यह कहते हैं कि जब कोई वस्तु ही सत्यार्थ नहीं है तब किसका प्राप्त और काहे की परीक्षा विवाद का प्रयास करना ? कोई वस्तु है ही नहीं इसका निश्चय कैसे करें? तुम नास्तिक हो और यह कहते हो कि कोई वस्तु ही नहीं है तो तम्हारी बात कौन मानेगा। क्योंकि सर्व वस्तु का जानने वाला सर्वज्ञ प्राप्त है। वस्तू का स्वरूप कोई किस प्रकार मानता है कोई किस प्रकार मानता है इसकी परीक्षा भी करना चाहिये और परीक्षा होय तो प्रमाण सहित ज्ञान से होय है। प्रमाणरूप ज्ञान है और सर्वथा सच्चा ज्ञान सर्वज्ञ देव का है, सो वह सर्वज्ञ अदृष्ट है उसका निश्चय करना चाहिये । और जो थोडा ज्ञान वाला हो सो अपने ज्ञान के ही प्राश्रय होता है । सो साधक और बाधक प्रमाण का कैसे निश्चय होय । वादी प्रतिवादी निष्पक्ष निश्चय करे तो कोई प्रकार की बाधा नहीं होवे और इसी प्रकार निश्चय करना ही परीक्षा है । फिर मीमासक कहते हैं कि अल्प ज्ञानी को तो सिद्ध होय और सर्वज्ञ की सिद्ध नहीं ऐसा कैसे ? जो अल्पज्ञ प्रात्मा की सिद्धि है उसके निषेध के लिये इस श्लोक में "कश्चिदेव भवेद्गुरुः ऐसा कहा है अर्थात कहिये कौन गुरु है ? ज्ञानरूप प्रात्मा है वही गुरु है वही महान है। जिससे इस आत्मा और पुद्गल के संबंध में ज्ञानावरणादि कर्मों के प्रावरण से अल्प ज्ञपना दोषसहित पना है । जब प्रावरण दूर हो गया तो प्रात्मा सर्वज्ञ वोतराग हो गया। यह प्रमाण से सिद्ध है । ऐसा प्राप्त सर्वज्ञ का निश्चय हो जाय और भगवान के वचनों का निश्चय हो जाय और आगमानुसार सब निश्चय हो जाय । ऐसा निश्चय करके देवागमादि विभूति सहितपना से और विग्रहादि महोदयपना से तथा तीर्थकरपना से तो प्राप्त सिद्ध न Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २७५ हुप्रा । अतः भली प्रकार निश्चय हुमा है असंभवता बाधक प्रमाण जिसमें है ऐसे अहंत भगवान प्राप ही संसारी जीवों के स्वामी हो, प्रभु हो इस कारण अत्यन्त दोषों का और कर्मों के मावरण की हानि का तथा समस्त तत्वों का ज्ञातापना होने से समस्त मुनियों ने प्रापका स्तवन किया है। इस प्रकार प्राचार्य समंतभद्र स्वामी ने निरूपण किया। तब साक्षात् भगवान ने पूछा जो अत्यन्त दोष और कर्मों के प्रावरण हानि मेरे में निश्चय की सो कैसे? फिर प्राचार्य कहते हैं: "दोषावरणयोर्हानिनिःशेषास्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ॥४॥ (आ.मी.) __ दोष और प्रावरण की हानि सामान्य तो प्रसिद्ध है । एक देश हानि से थोडे ज्ञान वाले के एक देश निर्दोषपना और एक देश ज्ञानादिक उसकी हानि के कार्य देखिये हैं। इस कारण निर्दोष प्रावरण की हानि किस तरह देखिये है। यहां प्रति शायन अर्थात् हानि वृद्धि होती देखिये है जैसे कनक पाषाण में कीट कालिमा प्रादि अंदरूनी व बाहर का मैल ताव देने से मैल का अभाव हो जाता है वैसे मला ज्ञान के नाश के लिये जो सम्यकदर्शन, सम्यक यकज्ञान, सम्यक्चारित्र के पालने से सब प्रकार के दोषों को तथा कर्मों के प्रावरण का प्रभाव हो जाता है, ऐसा सिद्ध हुआ है। कर्मों के प्रावरण तो ज्ञानावरणादिक कर्म पुद्गल के परिरणाम हैं और दोष प्रज्ञान रागादिक जीव के परिणाम है । फिर यदि यहां कोई यह कहे जैसे प्रतिशायन हेतु दोषों के प्रावरण की हानि संपूर्ण साधी तैसे कहुँ बुद्धि प्रादि गुण भी हानि बधती २ देखिये हैं .सो यह भी कहीं पूर्ण सधे हैं ? इमका यह उत्तर है कि बुद्धि प्रादि की सम्पूर्ण हानि प्रात्मा विष साधते हैं तो आत्मा के जडपना मावे और बडपना माने से बडा भारी दोष लगे तो जीव और पुद्गल का संबंध बंध पर्याय में क्षयोपशम रूपबुद्धि है। उसका प्रभाव होता है सो प्रात्मा का स्वाभाविक ज्ञानादि गुण तो सारा प्रकट हो जाता है और बंध पर्याय का प्रभाव हो जाता है। पुद्गल कर्म जड रूप भिन्न हो जाता है उमो प्रकार पुद्गल के बुद्धि आदि गुण का प्रभाव का व्यवहार है। ऐसे वीतराग सर्वज्ञ पुरुष अनुमान से सिद्ध होता है । इसलिये अहंत भगवान को नमस्कार किया है ॥६३४॥ मारि मुक्कुळिन मायं दु पिरंदुमार् । द्वार नत्तिलेन नाळ तुयर् पोय बन् । पार माय उन पार मडैद पिन् । बारि बोळंद बन माल करै सेंबरं वाम् ॥६३५॥ पर्य हे भगवन् ! सम्पूर्ण जीवों पर दया करने वाले आपके चरणकमल में प्ररण माये हुए जीव का सभी दुख नाश होता है । जिस प्रकार समुद्र में पड़े हुए मनुष्य को यदि बीच में उसके हाथ में कहीं लकडी का टुकड़ा मिल जावे तो वह मनुष्य उसके सहारे से समुद्र के किनारे पहुंच सकता है। उसी प्रकार तुम्हारे चरणकमल में पल्प स्तुति करने मात्र से इस • क्षणिक संसार रूपी पटवी में रहने वाला भव्य जीव संसार समुद्र से तिर कर इष्ट स्थान पर Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] मेरु मंबर पुराण पहुंच सकता है ॥६३५।। पोंग शाय मरे पूमळे मंडिलम् । शिंग मेंदन पिडि सेलू कुडे । येंग यूवम दामोळि दुंदुभि । मॅगडि विनै तीर वेळगुंमे ॥६३६॥ हे भगवन् ! आपके ऊपर ढोरने वाले चंवर, पुष्प-वृष्टि, प्रभा मंडल, सिंहासन, अशोक, वृक्ष, मीन छत्र, दिव्यध्वनि और देववाद्य को देखते ही आपके दर्शन मात्र से सर्व पापों का नाश हो जाता है ॥६३६।। विलंकरसनय वोक्काळे वीर नै । इलंगि निडि पळिदत्ति इन्वर्ग । वलंकोंडु मुनियरि चंदिरन नव । नलं कल सेवडि मुडियिर् ट्रीटिनान् ॥६३७॥ इस प्रकार स्तुति करके राजा किरणवेग अनन्त वीर्य से युक्त जिनेन्द्र भगवान की अनेक प्रकार से स्तुति करते हुए प्रदक्षिणा देकर उस चैत्यालय के प्राकार तथा मंडप में विराजमान भगवान के दर्शन कर सभामंडप में पाया और वहां सिंहचन्द्र मुनि को देखा। मनिराज को देखकर मन, वचन, काय से भक्तिपूर्वक कर-बद्ध होकर पंचाग नमस्कार करके खडा हो गया ॥६३७॥ अरुंतव नरसने कुशल मोविन । तिरुदिय गुरगत्तिना निदि शोय वेन ॥ ट्रिरुंदव मिळुदु मादगत्तुं वोटिनुं । पोरंदु कारण मरुळ् पोट्रियेंड नन् ॥६३८। अर्थ-उन मुनि ने किरणवेग राजा को सद्धर्म वृद्धिरस्तु ऐसा प्राशीर्वाद दिया अर्थात् सद्धर्म की वृद्धि हो। और कहने लगे कि हे किरणवेग 'जीयात्' अर्थात् जयवन्त हो, ऐसा शुभ आशीर्वाद देकर पूछा कि राजन कुशल है । मुनिराज के वचनों को सुनकर वह किरणवेग संसारी भोग से विरक्तसा होकर चरण कमल में नमस्कार करके कहने लगा कि हे प्रभु ! हे परम गुरु ! संसार में कुशलता कहां से आयेगी। जब तक यह जीव संसार बंधन से स्टकर प्रखंड मोक्ष सुख को प्राप्त नहीं करता तब तक आत्मा को सुख कहां से मिल सकता है? अतः हे प्रभ! मोक्ष सुख को प्राप्त करने की जिन दीक्षा देकर मेरी रक्षा कीजिये। ॥६३८॥ इंदु विनेळि लोडुत्तिलंगु पारमे । निड़ पिडि ईनिळलिरंद चारनन् । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २७७ मंड्रत्लर मुडइनाय मांद. वोटुमाम् । सेंड्र तत्वं तिळियामै तेरलाल् ॥६३९॥ __ अर्थ-किरणवेग की प्रार्थना सुनकर उस चैत्यालय में स्थित अशोकवृक्ष के नीचे चंद्रशिला पर विराजमान चारण ऋद्धिधारी हरीचंद्र मुनि कहने लगे। हे भव्य शिरोमणि राजा किरणवेग सुनो ! जीवादि तत्वों के न जानने वाले संसारी जीव इस संसार में हमेशा भ्रमण करते रहते हैं। जीवादि तत्व को समझे हुए सम्यक्दृष्टि जीव स्वर्गादि सुख की इच्छा करते हैं। इस क्षणिक राज लक्ष्मी को एक दिन छोडना ही पडेगा । इसलिए इसको राजी खुशी से छोडकर आत्म-कल्याण में लगना, यही ज्ञानी जीवों को उचित है। तत्व भावना में कहा है "नानारंभपरायणैर्नरवरैरावय॑ यस्त्यज्यते । दुःप्राप्योऽपि परिग्रहस्तृणमिव प्राणप्रयाणे पुनः । आदावेव विमुञ्च दुःखजनक तत्वं त्रिधा दूरतश्वेतो मस्करि मोदक व्यतिकरं हास्यास्पदं मा कृथाः ॥ यहां प्राचार्य कहते हैं कि राजलक्ष्मी आदि २ बडी २ सम्पत्ति बडी मेहनत से एकत्रित की जाती है, जो प्रत्येक को मिलना असंभव है । परन्तु करोडों की सम्पत्ति कैसे भी वह कमाई गई हो शीघ्र छोडकर जाना पड़ता है। जब मरण का समय आ जाता है उस समय हाथ से जैसे तिनका गिर जाता है उसी प्रकार सब छूट जाता है । ज्ञानवान प्राणी को उचित है कि पहले ही मन, वचन, काय से उसको छोड दे। इससे पहले सारे परिग्रह को त्याग करे । ज्ञानी को स्वयं मोह त्याग कर सब छोड देना चाहिये। यदि परिग्रह न हो तो नवीन परिग्रह को बढाना नहीं चाहिये । परिग्रह को ग्रहण करके वास्तव में छोडना हंसी का स्थान है। किसी ने एक फकीर को बहुत से लड्डू दिये। उनमें से एक लड्डू विष्टा में गिर गया। तब उस लोभी फकीर ने उस लड्डू को उठा लिया। तब एक वृद्ध प्रादमी ने कहा कि तुमने इस लड्डू को क्यों उठाया तो जवाब मिला कि मैं घर जाकर इसको फेंक दूंगा। तब उस वृद्ध ने हा कि जब इस लड्डू को फैकना ही था तो उठाने की क्या आवश्यकता थी। इस प्रकार प्राचार्यों ने कहा कि इसको ग्रहण करना बद्धिमानी नहीं है। यह प्रात्मा के घात करने का कारण है । वास्तव में चेतन अचेतन का परिग्रह आत्मा को सैकडों दुखों में पटकने वाला है। इसलिए जो निर्विकल्प सुख को चाहते हैं, प्रात्मीय आनन्द का अनुभव करते हैं उनको भगवान द्वारा कहे हुए तत्वों को मानने से ही अविनाशी निर्विकल्प सुख की प्राप्ति हो सकेगी ॥६३६॥ अत्ति नित्त मनित्त मवाचिय । मोत्त वेट मै योट्र में सूनियं॥ तत्वं मिवै योंड्रिय तन्मयाल । मित्तमारं वेरेयन वेंडिनाल ।।६४०॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] मेरु मंदर पुराण अर्थ - श्री भगवान की वाणी अनेकांतमयी है । वह अनेकांत अस्तित्व, नास्तित्व श्रवाच्य, भिन्नत्व, अभिन्नत्व और शून्यत्व ऐसे छह नयों से युक्त होकर वस्तु स्वरूप को भिन्न २ रूप से मानते हैं । कोई नित्य तत्त्र को मानता है, कोई अनित्य तत्व को, कोई वाच्य तत्व को, कोई श्रवाच्य तत्व को मानता है । इस प्रकार मानना मिथ्यात्व है ।। ६४० ।। नित्तमे तत्वमें निड्रवन् । 9 शित्तं वैत्त पोरुडेरिंदु शेप्पुमें । नित्तमे पेंड्र कोळळियु मंड्र े निल । तत्वंदान पेरर् पाडु मिल्लये ॥६४१ ॥ अर्थ- वस्तु सर्वथा नित्य है ऐसा कहने से उस वस्तु के अनेक रूप उत्पाद व्यय, श्रादि स्वरूप को कैसे बताया है? यदि वह नित्य ही होता तो किसी भी वस्तु की उत्पत्ति नहीं हो सकती । वस्तु स्यात् श्रनित्य भी है और नित्य भी है ऐसा समझना चाहिये । यदि वस्तु को नित्य ही कहा जावे तो यह वस्तु उत्पाद, व्यय, ध्रुव रूप है ऐसा नहीं कह सकते । इस संबंध में प्राचार्य समंतभद्र ! आत्म-मीमांसा में श्लोक ३७ में कहते हैं: "नित्यत्वे कांतपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते । प्रागेव कारकाभावः क्व प्रमाण क्वतत्फलम् ॥ free rain वादी के कहने के अनुसार वस्तु कूटस्थ रहने से एक सी रहे । उसी पक्ष में कूटस्थ रहने में होने वाली क्रिया या उसकी शक्ति अथवा परिस्पंद चलना या एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाना ऐसी अनेक प्रकार की क्रिया नहीं बन सकती है। क्योंकि कारक, कर्त्ती कर्म आदि का कूटस्थ में पहले से प्रभाव है, और वह कभी पलटता नहीं। और यदि पलटे नहीं तो कारक को प्रवृत्ति कैसे बने ? पुनः जब कारक का प्रभाव हो जायगा तो प्रमारण कहां और प्रमाण का फल प्रमिति कहां से ? इसलिये प्रमाण का कर्ता हो तब प्रमाण और प्रमिति संभव होती है । अकारक प्रमाता नहीं होता है । जो कोई भी किसी के प्रति साधत न हो तो अवस्तु ठहरे, तब श्रात्मा की शुद्धि भी नहीं होती। ऐसा कहने से नित्यात्मा में दूषण श्राता है । फिर वह सांख्यमती कहते है कि हम अव्यक्त पदार्थ कारण रूप है उसको सर्वथा नित्य मानते हैं और कार्य रूप व्यक्त पदार्थ को अनित्य मानते है । इसलिये उससे विक्रिया बनती हैं। वहां व्यक्त जो पदार्थ है वह किसके निमित्त से छिपा हो उसको प्रगट होना है ऐसे तो अभि व्यक्ति और नवीन अवस्था का होना उत्पत्ति है ऐसा व्यक्त पदाथ को नवीन मानकर विक्रिया होती है. प्राचार्य फिर उसके लिये कहते हैं ।। ६४१ ।। निलंइन तन्मये तोङ् केडि । इलैयेनिलिरैवनु तुलु मिलैयाल् ॥ निलंडला मावु नीक मिन्मइर् । ट्रोलविला वीट तोट्र मिल्लये ।। ६४२ ॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ २७९ अर्थ-वस्तु उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप से युक्त होते हए सत्य है। यदि वस्तु इस प्रकार न रह कर सदैव ही नित्य रहे तो संसार से कोई भी जीव मुक्त न होकर उसको संसार में ही रहना पडेगा। और भगवान के मुख से कहा हुमा शास्त्र भी असत्य मानना पडेगा। सर्वदा नित्य ही है ऐसा कहा जाय तो प्राप्तेष्टम्, संसार इष्टम, मोक्षेष्टम् इस प्रकार कहे हुए सभी वचन असत्य हो जायेंगे ॥६४२।। विनै इनै शैदलुं तुयित्तलु मिले । निनवदु तोड्रि मीदुर्गव, निलै ॥ इनय तान वेडिय विट्ट मारोडु । मुनैदलुं शेयु नित्त मुटु वेंडिनाल् ॥६४३॥ अर्थ-तत्व सदैव नित्य ही है ऐसा कहने से शुभाशुभ कर्म, पाप-पुण्य यह सभी नहीं बन सकते हैं और जप, तप, ध्यान, व्रत, नियम तथा उसका फल स्वर्ग, नरक प्रादि बन नहीं सकते । यदि यह नहीं बने तो जीव के द्वारा किए जाने वाले पाप कर्म नहीं संभवते । ऐसे दीखने वाले सभी कूटस्थ हो जायेंगे । ६४३॥ कडन् कोडुत्तान कोळान कोंडवन कोडान । मडंदै तन् शिरुवनु वळचि ये दिडान् । ट्रोडगिये नन मुडित्तोदि नान् सोलान् । ट्रिडं पोरु ळेरिणट् मून्ड्र. मारदुं ॥६४४॥ अर्थ-बस्तु सर्वथा नित्य ही है ऐसा कहने से संसार की सभी वस्तु लेन देन तथा सारा ब्यवहार बन्द हो जावेगा। और सभी व्यावहारिक क्रियाओं का भी प्रभाव हो जायेगा। व्यावहारिक क्रियाओं का प्रभाव हो जाने से पूर्वापर विरोध आता है। इस कारण जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा हा वचन कथंचित् नित्य अनित्य है ऐसा मानने से सभी व्यवहार क्रिया बन सकती है । स्वर्ग मोक्ष भी तभी बन सकता है ।।६४४।। तन्सोले मारागि मेोळळिदं तन् । पिन् पिरन् कोळ् पिडि तिट्ट तिट्टमा ॥ मोनबदि नोडु मारद उम् पोरु । निड्दे येव वर् निर्क निर्कवे ॥६४५॥ अर्थ-सर्वथा नित्य ही है ऐसा कहने वाले बातचीत कहना सुनना दृष्टांत आदि जो व्यवहार की बातें है, यह संभावित नहीं होती है। इसी प्रकार पूर्वापर विरुद्ध कहने वाले क्षणिकवादियों का कहना भी घटित नहीं होता है ६४५।। अनित्तमे तत्वमेन्नु मातन । निनप्पु वाचगमुं पोरंळु विना ।। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ] मेर मंदर पुराण वनंत्तु मक्कन तोट्टर केट्ट पिन् । नेनेत मिल्नेब देते कोंडेत्तयो ॥६४६॥ __अर्थ-सर्वथा नित्य है । सर्वथा नित्यवादी कहने वाले की बात से उनके द्वारा किए जाने वाले व्यवहार में चलने वाली सभी क्रिया कैसे सभव होतो है। यदि वह नित्यवादी इस प्रकार नित्य कहने से वस्तु को देखकर या न देखकर कहता है । अथवा तुम्हारे कथन की पुष्टि करता है। यदि नित्य है तो व्यवहार बातचीत कैसे करते हैं । तुम स्वयं बोल रहे हो इसी बात से तुम्हारे नित्यवाद पने का खंडन हो रहा है ॥ ४६॥ करण करणंदोरुं तोमु केडुमाय । तनंदवे त्तत्वं निल इल्ले निर । कनकनंदोरु केट्टवन केटि नै । युनरंदु सोल्लमो विल्लयो उडनिल् ॥६४७।। अर्थ-प्रतिक्षण में प्रत्येक वस्तु का उत्पाद व्यय ध्रौव्य कहा जाता है प्रत्येक वस्तु क्षण २ में परिणमन करने वाली है। इसलिए प्रत्येक वस्तु नित्यानित्य से युक्त है । और परिणमनशील ही सारी वस्तुएं है ऐसा भगवान के द्वारा कहे वचन हैं । यदि वस्तु का सर्वदा नास्तिकपना कहोगे तो वस्तु में भेद करके कैसे कह सकते हो? इस प्रकार प्रत्येक वस्तु में सत्यासत्य, नित्यानित्य पाबहार चलता ही रहता है यदि इस प्रकार न चलेगा तो संसार का लोप हो जायेगा ॥६४७।। प्रविदं वव्विळक्के इरुळे केड । शिवंदु नि रियु मेन शेप्पिना । निवंदु निहोर वन् सोलु मोंड्रिडि । लुवंद नित्तमु नित्तमु मुट्टि नान् ॥६४८।। अर्थ-जिस प्रकार दीपक कभी बडे प्रमाण में जलता है और अन्त में छोटे प्रमाण में होकर बुझ जाता है। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु बनती है और बिगडती है । ऐसा कहना क्षणिक बौद्धमत वालों का वचन है । जैसे दीपक के बुझने से उसका नाश हो जाता है वैसे प्रात्मा का नाश हो जाता है। ऐसा भरिणक मत बौद्ध धर्म वाले कहते हैं। यह बात पूर्वापर विरोध है ॥६४८॥ मायं व वन फंड वप्पोरुळं मनत् । तायं दु तोंड, मवन् सोलु मेडिडिन् । मायं व नंतर मनत्तेप्पोरलैंयु । मायंदु सोनु व दावदु मागुमे ॥६४६॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २८१ अर्थ - प्रथम समय में अपनी पर्याय का नाश होना देखकर भविष्य में उत्पन्न होने वाली पर्याय को कहना और अनादि काल से परंपरा से चली हुई वस्तु को नहीं कहना चोर वर्तमान और भविष्य की बात कहना श्रागम के विरुद्ध है । यदि क्षणिक कहेंगे तो आगे की बात कैसे कह सकता है। इस कारण प्रत्यक्ष विरोध है || ६४९ ॥ सित्तमुन्नंदु पिन्नंदु तत्तमि । लत्तियंतं वेरागुरिर् सोन्नदा ॥ मति यंतम् वेल्लवे याय विडि । नित्त मोटिना निड्र डोंडू न् मं यात् ।। ६५० । अर्थ- -मन में भविष्य की वस्तु का बार बार स्मरण करना यह सब उस विषय के लिये परस्पर विरोध आता है । और यह वस्तु परस्पर प्रापस में संबंधित है, ऐसा कहने से उस संबंध में विरोध नहीं आता है । इसलिए वस्तु नित्य है और अनित्य है, प्रत्येक द्रव्य या वस्तु नित्यानित्य है ऐसा कहने में विरोध नहीं आता है। क्योंकि वस्तु व्यवहारनय से प्रनित्य है और निश्चयनय से नित्य है । ऐसा कहने से वस्तु प्रतिपादन में बाधा नहीं पाती है ।। ६५० ।। प्ररिव नाम किरं मरियं मेरिण । लरिव नामवन् यार्कोलरदिलोम् ॥ नेरि नाट्रव शैयिवु निड्रोडिया । नरिव नॅड्रिडि लांगव निलये ॥ ६५१ । । . अर्थ- ज्ञानी प्रागे पीछे दोनों समय को जानता है— प्रत्येक क्षरण में ऐसा यदि कहते हो तो क्षरण २ में जीव कैसे नष्ट हो जाता है, यह समझ में नहीं प्राता और तपश्चरण करने वाला साधु अधिक दिन तक कैसे टिक सकता है ? नहीं टिक सकता है । इसलिए वह ज्ञानी साधु तुम्हारे मत के अनुसार प्रनित्य है ऐसा कहना आपके मतानुसार गलत है । और तुम्हारे मत के लिए ही यह बाघा है । इसलिए प्रत्येक वस्तु का उत्पाद व्यय घ्रौव्य मानना विरोध का परिहार है। क्षणिक बौद्धमत वाले जो कहते हैं कि वह सत्य है तो इससे नित्यत्व एकांत मत में दूषरण है । इसलिये जो वे क्षणिक एतांतवादी कहते है वह सिद्ध पौर कल्याणकारी है। उनके मत के निराकरण के लिये तथा ऐसे मत बालों के लिये प्राचार्य, समंतभद्र प्राप्तमीमांसा के श्लोक ४१ में कहते हैं: "क्षणिकांत पक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्यसंभवः । प्रत्यभिज्ञाद्यभावान कार्यारम्भः कुतः फलम् ॥ क्षणिक एकांत का पक्ष में भी परलोक, बंध मोक्ष प्रादि का मानना असंभव होता है । क्योंकि पहले तथा पिछले समय में जो प्रवस्था होती है उसका जोडरूप ज्ञान तथा स्मरण ज्ञान मादि के प्रभाव से कार्य का प्रारंभ संभव नहीं होता। कार्य के प्रारंभ बिना पुण्य पाप Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ] मेद मंदर पुरारण सुख दुख प्रादि का फल फिर किस से होय ? अर्थात् नहीं होता है । यदि क्षणिक पक्ष में संतान को कार्य करने वाला कहा जाय तो संतान परमार्थभूत क्षणिक एकांत में संभव नहीं है । एक अन्वयी ज्ञाता द्रव्य ग्रात्म द्रव्य ठहरे। तब संतान सत्य ठहरे सो क्षणिक पक्ष में ऐसा होता नहीं । इसलिये क्षणिक एकांत मत हितकारी नहीं है। परलोक बंध, मोक्ष यदि संभव न हो तो काहे का हितकारी है । जैसा नित्यत्व आदि एकांत है वैसा ही यह है। इसलिए ऐसे मत का परीक्षावान आदर नहीं करता । आगे इस क्षणिक एकान्त पक्ष में सत् कार्य बनता नहीं है । जो कहे तो मत में विरोध आवे । अब प्रसत् रूप ही कार्य कहे जिसमें क्या दोष है ? इसके लिये आचार्य प्राप्त मीमांसा में श्लोक ४२ में कहते हैं: - " यद्यसत् सर्वथा कार्यं तन्मा जनि खपुष्पवत् । मोपादाननियामोऽभून्मां श्वासः कार्यजन्मनि ॥ के जो कार्य है सो सर्वथा असत् उत्पन्न होता है। ऐसा माना जाय तो वह कार्य प्रकाश फूल की तरह मत हो । पुनः उपादान आदि कार्य के उत्पन्न होने को कारण है । जिसका नियम ठहरता नहीं है । फिर यदि उपादान का नियम न ठहरे तब काम के उत्पन्न होने का विश्वास ठहरता नहीं । इस कारण यही कार्य नियम से उत्पन्न होगा । जैसे जौ के पैदा होने के लिए जो बीज ही है ऐसा उपादान कारण का नियम होय तिस काररण ते वही काम उत्पन्न होने का विश्वास ठहरे, सो क्षणिक एकांत पक्ष में असत्कार्य माने तब यह नियम ठहरता नहीं है ।। ६५१ ।। बारि योटिल वला करितिट्ट पोर् । पार मोदंगळ् पत्तुं पई ड्रव ॥ तावत्तोड़ मरितरि वैदिडि । नेरि नित्तमो मोट्टिन नातुमे ।। ६५२ ॥ अर्थ - नदी का पानी वेग से बहते समय बगुला किनारे पर बैठ जाता है किंतु उसको दृष्टि पानी के बहाव को ओर न रहकर नदी में रहने वाली मछली की तरफ रहती है, दूसरी तरफ वह दृष्टि नहीं रखता । बगुला की इष्ट वस्तु मछली है । उसको अन्य वस्तु कोई मतलब नहीं रहता । उसी प्रकार संसार में रहने वाला भव्य जीव क्षमाशील, वीर्य ध्यान प्रज्ञा, उपाय दया, बल, ज्ञान, व उपयोग यह दस प्रकार विषय को भली भांति अभ्यास कर मोक्ष की प्राप्ति करने की इच्छा से इन ऊपर कही हुई बातों की ओर ध्यान देकर अन्त में मोक्ष की इच्छा की भावना सहित मरण करके बुद्ध होकर उसी भव में तप करके मोक्ष को जाता है। ऐसा यदि कहते हो तो जीव नित्य है ऐसा मत तुम्हारे से सिद्ध होता है। जीव अनित्य नहीं है, नित्य है ऐसा सिद्ध होता है । अगर प्रनित्य कहते हो तो तुम्हारे मत के अनुसार ही नित्य सिद्ध होता है । इस विषय को दीपंकर बुद्ध नाम की जातक गाथा में लिखा है । मैंने बुद्ध होकर यदि जन्म लिया है तो मुझे क्या करना चाहिये ऐसा विचार कर उपरोक्त दसों बातों पर पारविद्या में परिपूर्ण होकर पुनः दूसरे जन्म में गौतम बुद्ध होकर जन्म लिया । 1 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण [ २८३ इस प्रकार उपरोक्त विषय के अनुसार जीव अनित्य है, तुम्हारे मत के अनुसार जीव शाश्वत नित्य है ऐसा सिद्ध होता है ।।६५२॥ मेवं प्रोटिल बिछंदवत् तुळ्ळि पोल् । वंद पावन योडवन् मायु मेल ॥ मैदु पोन बनलन् मद्रार् कोलो। बंद मोंडिला पाळ् मुत्तिनादने ।।६५३॥ अर्थ-अग्नि से सपे हुए गर्म तवे पर पानी डालने से जिस प्रकार वह पानी तुरन्त ही सूख जाता है, उसी प्रकार जीव अपने परिणाम के अनुसार मर जाता है । यदि ऐसा तुम कहोगे तो कौनसा जीव मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है ।।६५३॥ पावलालनित्तं पिडित्तात् नाम् । पोदि यानयुं भोग वेरिदव ।। रोदु नलगळु मोट्टर केट्ट पिन् । - यादि नानिल यायै निरुत्तु वार् ॥६५४॥ अर्थ-इसलिये आप लोगों के अपने मत के अनुसार कहे जाने वाले सभी विषय संभव नहीं है। इसलिये इन सभी बातों पर तुम्हारे मत के अनुसार विचार करके देखा जाय तो बौद्ध लोग कहने वाले का मत संभवता नहीं। यदि वस्तु क्षण २ में नष्ट होती है । ऐसा कहोगे तो पुनः वही वस्तु कहां से आ जाती है ।।६५४।। नौ बेन सोल्लि नान् सोन्न वन्न । मौवधक्कनत्तिले येळिंदु पोदलाल् ॥ नव्वये नव्वये नविद्रि मल्लदु । मोन्विन यनित्त मेंबार्गळ् मूटिार ॥६५५।। अर्थ-सर्वथा तत्व अनित्य है ऐसा कहने वाले अनित्यवादी से यह पूछते हैं क प्रनित्यवादी साधने वाले मुंह से नमः कहते हैं। पहला अक्षर 'न' यह अनित्य हुमा या नहीं । इस शब्द का नाश हुमा या नहीं? तुम्हारी दृष्टि से वह न शब्द अनित्य हो गया पुनः मः अक्षर कहने से वह भी अनित्य हो गया । उस म अक्षर के उच्चारण करते ही उसका नाश हो गया जब न, म का नाश हो गया तो पुनः नमो शब्द की उत्पत्ति कहां से हो गई । तब हृदय में नमः शब्द का अर्थ कहां से होता है ? ॥६५५।। वासत्तै पोल्वर मेनिन मा मलर् । नासत्तं शेलाव मुन्नन्नु मुट्टि। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ] मरु मंदर पुराण वासत्तै वैतुप्पिन मायु मारु पोल् । पेसिडो पिरिदोड्डु निर्कवे ॥६५६।। अर्थ-पुष्पों में रहने वाली सुगंध, पुष्प के सूख जाने पर वह दूसरे पुष्पों में चली जाती है । इसी प्रकार "न" अक्षर को कहने वाले मरने के बाद म अक्षर का उच्चारण होता है । यदि तुम ऐसा कहते हो तो एक मनुष्य मरने के बाद पुनः उत्पन्न होता है जैसे म अक्षर की बाद में उत्पत्ति होती है। ऐसा कहा जाय तो उस सुगन्ध पुष्प के मरने (सूखने) के पहले ही अपने समीप से रहने वाले पुष्प की सुगन्ध को देखकर मरण को प्राप्त होना तुम कहोगे तो "म" ऐस। अक्षर को कहने वाले मनुष्य मरने के पहले ही उनके पास रहने वाले मनुष्य को "न" ऐसा कहने वाले अक्षर को अपने पास खडा रहने वाले "म" नाम के अक्षर को देखकर मर जाता है, ऐसा अर्थ निकलता है। क्या वह पहले ऐसा देखकर मर गया यह अर्थ तुम्हारे मत के अनुसार निकलता है ।।६५६ ।। मुर्कनत्तुरै त्तवन मुडिद पोळदि निर् । पिर्कन तुरै पवन पिरक्कु मेंड्रलान् । मुर्कनत्तवनोडु पिर्कनत्तव । निकुं मैंड्र र दिडि नित्तमागुमे ॥६५७॥ अर्थ-अतीत काल में कहा हुअा मनुष्य भविष्य में उत्पन्न होने वाले मनुष्य को वह समझकर कहता है । ऐसा यदि तुम कहोगे तो वह जीव नित्य है ऐसा तुम्हारे मत के अनुसार वह जीव नित्य है ऐसा सिद्ध होता है ॥६५७।। नविन शय निनित्तान् शयान पिन । योविन शैदव नदन् पयंड्र, वा ।। निव्वर्ग यनित्तमे येंड्र रे पवर् । शेय्यु नल् विनेगळं पयनु मिल्लये ॥६५८।। अर्थ-सर्वदा जीव अनित्य है, ऐसा कहा जावे तो पुण्य कार्य की इच्छा करने वाला जीव भविष्य में शुभ कार्य करने की इच्छा कैसे करेगा और उसके फल को कैसे भुगतेगा? इसलिये वस्तु को यदि अनित्य ही कहा जावे तो शुभाशुभ प्राचरण करने वाले को शुभाशुभ कार्य का फल का अनुभव कैसे होगा ? अर्थात् नहीं होगा। ऐसा आपके मत के अनुसार सिद्ध हुआ। पर कर्मों के अनुसार जीव शुभ अशुभ फल भोगता है। यह तुम्हारे मत के अनुसार कैसे सिद्ध हुप्रा । प्राप्तमीमांसा में कहा है: "सर्वथाऽनभिसंबंधः सामान्य-समवाययोः। ताभ्यामर्थो न संबंधस्तानि श्रोणि ख-पुष्पवत् ।। सामान्य और समवाय का वैशेषिकों ने सर्वथा संबंध माना है । फिर इन दोनों से Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २८५ भिन्न पदार्थ द्रव्य,गुण, कर्म यह संबंध रूप नहीं होता है । जिससे परस्पर अपेक्षा रहित सर्वथा भेद माना है। इससे यह सिद्ध हुआ कि परस्पर अपेक्षा बिना सामान्य समवाय और अन्य पदार्थ यह तीनों ही आकाश के फूल के समान अवस्तु हैं । वैशेषिक ने कल्पना मात्र वचन जाल किया है । ऐसे कार्य-कारण, गुणगुणी, सामान्य-विशेष इनके अन्यपने का एकांत भेद एकांत की तरह श्रेष्ठ नहीं ॥६५८।। मरित्तदु विदुवेन उनर मन्वनर । वरक्केडु मनित्तदुळिलं यानि ॥ लरक्केड वेट्रिन विळक्के यदेनु । मरित्तुनर् अनर् वदं मयक्क मागुमे ॥६५६।। अर्थ-एक वस्तु को देखकर पुनः कई दिनों बाद वह वस्तु देखने में आती है वह प्रत्यभिज्ञान, है, जो सर्वथा अनित्य है । ऐसा तत्वशास्त्रों में देखने में नहीं पाया और अंधेरे में यदि दीपक को लाकर रखा जावे और उजाले को कहे कि यह दोपक है तो भ्रम उत्पन्न होता है ॥६५।। तम्वियन देशमे काल भावमेन् । रब्वियम् पिडितंद विळक्कि देंडळु ॥ मेव्वर्ग युस केडि निदुव देंडुळु । मध्वदु मिदुविन पेररिव मिल्लये ॥६६०॥ अर्थ-इस संबंध में जैनाचार्य कहते हैं कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार वस्तु नित्यानित्य है, उसी प्रकार दीपक हमेशा रहता ही है-ऐसा कहने वाले प्रत्यभिज्ञान अनित्य है। पहले दीपक था ऐसा कहने वाले वह दीपक अनित्य है । ऐसा तुम्हारे मत के अनुसार शास्त्र में नहीं है । इसलिए वस्तु हमेशा नित्यानित्य है ।।६६०।। अंड नाम पिरिदन मडिकडा मिव । रिड वंदारेन उरैत्ति यावरं ॥ सेंड्ररि दिरंजुव देवरि विना । लोंड, निड्रिडा वगै युरैक्कु नलिनार् ॥६६१॥ अर्थ-सर्वथा अनित्य ऐसा कहने वाले मत की अपेक्षा में विचार करके देखा जाये तो वस्तु अनित्य ही मानने से कल मैंने अमुक मनुष्य को देखा था यह कैसे संभव है ? क्योंकि सर्वथा अनित्य ऐसा कहने वाला वह वस्तु अनित्य होने के बाद यह मनुष्य कल देखा था यही कहना असाध्य नहीं है । इस कारण स्वपर द्रव्य चतुष्टय की अपेक्षा से नित्यानित्य है ऐसा तुम्हारे मत से सिद्ध होता है पौर स्वद्रव्य की अपेक्षा से कल देखा हुमा मनुष्य यही है ऐसा कहना तुम्हारे मत के अनुसार सिद्ध नहीं होता है । यदि पाप ऐसा कहोगे कि वस्तु सर्वथा पनित्य है, यह किस ज्ञान के द्वारा कहते हो? ॥६५॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] मेर मंदर पुराण मुन्न कत्ति निरपवन मुरि कनत्तु निडवनु । पिन्ने कमत्तु पिरप्प गर्नु पिरिदु पिरिये पुरविल्लै ॥ येन्नि माददु विइब कोंड विड मोर बन् । दृन्नक्कानो मावलिनु सामाद ब त माट्रे॥६६२॥ अर्थ-भूतकाल में मरण करके वर्तमान काल में रहने वाला और भविष्यत काल में उत्पन्न होने वाला यह समय मापस में सम्बर नहीं होता. ऐसा यदि कहा जावे तो संसार का ही प्रभाव हो जाय तो जन्म मरण का भी प्रभाव हो गया तो जीव का भी प्रभाव हो गया और जब जीव का प्रभाव हो गया तो मोक्षमार्ग का भी प्रभाव हो जायगा ॥६६२॥ दानं शीलं तवं बरुवं क्या करमा दृडमादिल । बारिपन मनिर् पिरंदिरंदु बंदु बोड़ पेहमोरु बन् । ट्रानं किलनेन् पराएं तर मादरुत्त वोटिन पेर् । ट्रानेडार सोर् पोळिलारो बीड़ पेरुवारे ॥६६३॥ अर्थ - दान करने से, शील, संयम, व्रत, तप मादि से, जीव दया पालन, जीवों की रक्षा करने से, व्रत उपवास प्रादि शुभाचरण से जीव मरकर देवगति में जन्म लेकर वहां के सुख का अनुभव कर वहां की देव पर्याय व आयु को पूर्ण कर मध्य लोक में प्रार्य क्षेत्र में अर्थात् रत क्षेत्र में जन्म लेकर तपश्चर्या करके कर्म का क्षय करके वह जीव मोक्ष की प्राप्ति करता है। यह पागम का कहा हुअा सर्वथा अनित्य है । ऐसा कहने वाला किसी मत का कोई शास्त्र नहीं है अर्थात् संसार नाम की कोई वस्तु ही नहीं बन सकती ॥६६३।। येलवर्गयु केटुळ्ळत्तिल बवं कनत्तुदुवित्तु । बने वरुमि सेन्दानम् मुडियं कनत्तु वंददर्को । वेल्ला वगैयु मिद्राय बंदु मवर्को वोडा। निल्ला दंवत्तदु पोव नियल्वे निद्रवदर्के निल् ॥६६४॥ अर्थ-समस्त मतों की दृष्टि से विचार करके देखा जावे तो यह मागम पार्ष पर. म्परा से विरुद्ध पडता है । एक समय में रहने वाले जीव का नाश दूसरे समय में माने वाले बीव को मोक्ष होता है यदि ऐसा कह दिया जाय तो पहले समय में नाश हुमा जीवपना दूसरे समय में कहाँ से पा सकता है? ॥६६४।। प्रदत्तदन्नप्पिन वरुन गंद मवर्कु वीड़ तानागिल । मुन्दै कनंकोरवन् शंदु मुंग्विारेन पयन् पेदार ॥ सिदिप्पिलान् द्रवन् तन्न यरिया ममोर् सेरिविद्वान् । बदु परिदुम् वोडवू पान्म किंब पाळवी ॥६६॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ २८७ अर्थ-संतान के अवसान में प्राने वाले स्कंध को मोक्ष होता है। ऐसा यदि कहते हो तो पहले समय में किये गये तप के प्रभाव से उस जीव को कौनसा फल मिलता है? और किस फल का अनुभव करता है? इस प्रकार कहने वाले एकांत अनित्य मत वालों को मोक्ष की प्राप्ति कहां से होती है ? अर्थात् कहीं से नहीं होती। ६६५।। इट्ट मारुं विट्ट. मेर् कोळिदु तन सीन् मारागि । तिट्ट मंड मरुतलिप्प तेरा तनित्त मेंवाड्रन् । सेट्टर केट्टे पोइडुग तडयाट्ररुत्तु वोडेदुं । शिट्टर सोर् कदचित्ते येनित्त मेंवार तिरुवरमे ॥६६६॥ अर्थ-अनित्य पात्मवाद से युक्त बौद्ध दर्शन में प्रात्मा सर्वथा नित्य होने से बुद्धि इच्छा ज्ञानादि का नाश होना यही निर्वाण है। अथवा जैसे दीपक बुझ जाता है उसी प्रकार प्रात्मा का नाश होता है, इसी को निर्वाण कहते हैं। अर्थात् जिस प्रकार दीपक बुझ जाने उजाला नहीं है, उसी प्रकार प्रात्मा शरीर में से निकल जाने के बाद दीखता नहीं है, बस इसी को निर्वाण कहते हैं । इस प्रकार यह क्षणिक बौद्ध मत है ॥६६६।। वैर मुंड यन् वैयत्तुहर् कण्मेन् मायै मैदन् । शैइर् विडसया मुन्नूरा नरक्केड मनित्तं सोना ।। नईरिन इल्लं येंड्रा नूनिन युंग वेंड्रान् । पईरिनार कोल युम सोन्नान मुत्तियुम पाळेट्टिान् ।।६६७॥ अर्थ-बौद्ध मत वाले,बौद्धमत कहलाने वालों में परस्पर में विरोध पाता है अर्थात् प्रसंगत है। उनका तत्व संसार का नाश कर मोक्ष प्राप्त करने का विषय जैन सिद्धांत के विरोध का कारण है। भावार्थ-यह बौद्धमत मायादेवी के समान. है । इस लोक में रहने वाले जीव दयामयी धर्म को न जानने वाले सर्वग क्षणिक अथवा नाश होना ऐसे कहने वाले जीवों को अनात्मवाद से क्षणिक हैं, ऐसा प्रतिपादन करने वाले, मरे हुए जानवर का मांस खाने का समर्थन करने वाले, जंगल में कोई जीव हिंसा कर रहा हो उसका विरोध न करने बाले तथा कोई जीव का घात करके मांस लाकर देने और खिलाने में कोई दोष न होना ऐसा कहने वाले तथा मोक्ष में किसी वस्तु का या बीव का न होना ऐसा बौद्धमत वाले प्रतिपादन करते हैं । ॥६६७॥ भावचिय यावर सोल्लार पोळिन येलरि वेळामै । प्रवाचिर. सोबार मोरळिन् मेलरि. वेळूद ॥ बवाचि. सोनार सोलप्पा पोळु मुंगे। बवाधिय पक्वान् हुन् सोन्मार माय तंचित तायत्ते ।।६६८॥ For-Private & Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ] मेर मंदर पुराण अर्थ-सर्वथा वस्तु को अवाच्य कहने वाले कहते हैं कि एक वस्तु के जाने हुए ज्ञान से कहने वाले शब्द को अवाच्य कहते हैं। एक शब्द कहने के बाद पुनः दूसरा शब्द नहीं कहते हैं क्योंकि लोक में रहने वाली वस्तुओं को शब्दों के द्वारा कहने में नहीं आता, इस कारण वह शब्द अवाच्य है ऐसा कहने वाले सभी वचनीय अवाच्य होते हैं ॥६६८।। मदुर मेंड्रोरुरेत्त सोल्लान् मदुरं तान् वशिक् पोटु । मदुरत्तिन् विकल्प येल्लाम् वैत्तरी वरिदं वन्नाम् ।। यदुर सोल्लमाय वादला लवाचि पम्मा । मदुरे ताम् मधुरच्चोल्लार सोल्लपडं सोल्लपडादाम् ॥६६६॥ अर्थ-इस प्रकार जिह्वा पर रहने वाली मिश्री आदि मीठी वस्तु के स्वाद को इतना सा है ऐसा कहना साध्य नहीं है। उसी प्रकार सत्य ऐसे विषय को कहना साध्य न होने के कारण वह शब्द अवाच्य होता है। भावार्थ-इस संबंध में प्राचार्य समंतभद्र ने प्राप्तमीमांसा में श्लोक ५४ में कहा है "स्कंधाः संततयश्चैव संवृतित्वादसंस्कृताः । स्थित्युत्पत्तिव्ययास्तेषां, न स्युः ख रविषारणवत् ॥ स्कंधाः-रूप, वेदना, विज्ञान,संज्ञा और संस्कार यह पांच स्कंध हैं। इनमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण के परमाणु तो रूप स्कंध हैं, उनका भोगना वेदना स्कंध है और सविकल्प, निविकल्प ज्ञान विज्ञान स्कंध हैं । वस्तुओं के नाम को संज्ञा स्कंध कहते हैं । तथा ज्ञान, पुण्य, पाप की वासना को संस्कार स्कंध कहते हैं। उनकी संतान को संतति कहना स्कंध संतति है । ऐसे लोग प्रसंस्कृत हैं अकार्य रूप हैं उनकी बुद्धि उपचार करि कल्पित है। बौद्धमती सर्वथा परिणामों को भिन्न २ मानते हैं। वह संतान संप्रदाय आदि कल्पना मात्र है। इस कारण उस स्कंध संतति की स्थिति, उत्पत्ति, विनाश संभव नहीं है । इससे यह स्कंध संतति बिना किये हैं। कार्य कारण रूप नहीं है । जिसकी बुद्धि कल्पित है उसके काहे की स्थिति और काहे की उत्पत्ति विनाश ? यह तो गधे के सींग की तरह कल्पित है। इससे पहले जो यह कहा था कि बिरूप कार्य के लिए हेतु का व्यापार मानिये हैं । ऐसा कहना भी बिंगडे है । स्कंध संतान ही जब झूठा है तब क्या बाकी रहा जिसके अर्थ हेतु का व्यापार मानिये । ऐसा क्षणिक एकांत पक्ष है वह श्रेष्ठ नहीं जैसे नित्य एकांत पक्ष श्रेष्ठ नहीं वैसे यह भी परीक्षा किये सवाध है । पुनः श्लोक ५५ में कहा हैःपुनः नित्यत्व यह दोनों सर्वथा एकांत माने उसका दूषण दिखाते हैं: विरोधान्नोभयकात्म्यं स्याद्वाद-न्याय-विद्विषाम् । प्रवाच्यतैकान्ते ऽप्युक्ति वाच्य मितियुज्यते ।।५७॥ जो लोग स्याद्वाद न्याय के विद्वेषी है उनके नित्यत्व भनित्यत्व यह दोनों पक्ष एक Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २८६ स्वरूप नहीं बने है जैसे जीना और मरना इन दोनों में विरोध है । यह एक स्वरूप नहीं होता है । विरोध दूषण के भय से प्रवक्तव्यैकांत मानना यह भी प्रयुक्त है । इसी कारण "अवाच्य” है । ऐसी उक्ति कहना भी उचित नहीं। ऐसा कहने से प्रवक्तब्यपने का एकांत तो रहा नहीं । अवक्तव्य शब्द से तो वक्तव्य हो गया । इस प्रकार नित्य आदि एकांत विरुद्ध ठहरा । अनेकांत की सिद्धि हुई । शून्यवादी के आशय को नष्ट करने के लिये तथा अनेकांत के ज्ञान की दृढता के लिये स्याद्वाद न्याय के अनुसार नित्यानित्यवादी आचार्य कहते हैं || ६६६।। वैय्यत्तु वोर्ते केल्लाम् वाचिय पिल्लमागिल । पोय्यता सुरकि कंड्रार् गळा वरिप्पूतलत्तारू ॥ मे यत्ता नलु सोल्ला दुनर्मु बेरादल वेडुम् । वैयत्तु वळक्कु लोडि वनु माराई नाने || ६७०॥ अर्थ- - इस जगत् में कहने में आने वाली ऐसी कोई वस्तु ही यदि न हो तो संसार में रहने वाले सभी प्राणियों के वचन ही असत्य हो जायेंगे । और शास्त्र में कहे जाने वाले सभी शब्द प्रवाच्य होंगे। इस प्रकार प्रवाच्य होने से प्रवाच्य मत के कहने के अनुसार तो भागम के सभी विषय विरुद्ध होते हैं ।। ६७० ।। गुरण गुरिण वेरे येन्निर् कूडिय मुडि विट्रागु । मुनर् वोड काक्षियादि युयिरिन् वेरळवु मागं ॥ गुरण गुरिण तन्मं यॅड्रि कुळु वलुं पिरिवु मागु । मुनरं बिडा दुइरिकिकु मोरो वळि कुरिणयु मंड्राम् ॥ ६७१ ॥ अर्थ - तुम्हारे मत के अनुसार गुरणों से युक्त वस्तु को यदि भिन्न कहा जाय तो वस्तु दूसरे स्थान से आकर मिली है-ऐसा कहना पडेगा । यदि ऐसा कह दिया जाये तो प्रात्म- गुणों से मुक्त ग्रात्मा में रहने वाले दर्शन और ज्ञान गुण भिन्न हैं ऐसा मत तुम्हारे से भिन्न होगा । इस प्रकार गुणी और गुरण भिन्न है, ऐसा कहते हैं इस तरह कहने से संसार में जितनी वस्तु है, उनकी तुम्हारे मत के अनुसार कोई भी स्थिति नहीं होगी । प्रत: यह कहना पड़ेगा कि संसार में गुरण रहित कोई भी वस्तु नहीं है ।।६७१ ॥ मयक्कमे से मार्वमां बंद कारनंग । ईर् परिणाम मिट्टि योळिय मोइ कट्टु थोडं ॥ कक्क मिनिले इट्रागि कयत्तिर्ड कल्लु पोलास् । बियप्पुरु तबसि नालेन् पेरुवदु वेरेन् बारेल् ॥६७२॥ अर्थ- गुण मौर गुणी दोनों भित्र २ हैं, यदि ऐसा कह दिया जाय तो रागद्वेष Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. ] मेह मंबर पुराण परिणाम से कर्म बंध का कारण नहीं होगा। इस प्रकार होने से मोक्ष, बंध प्रादि का भी मभाव होगा। जैसे पानी से भरे हुए तालाब में एक पत्थर डाल दिया जाय और वह डालते ही नीचे चला जाता है उसी प्रकार वह होगा । जैसे एक मनुष्य को तपश्चरण के द्वारा आत्मा के साथ बंधे हुए कमों के अलग होने से तपश्चरण करने पर भी सफलता नहीं होगी अर्थात् सभी धर्म विफल होंगे उसी प्रकार मोक्ष का तुम्हारे मत के अनुसार प्रभाव होगा। इनका मत बाधा सहित है, यह माप्तमीमांसा में श्लोक २८ में दिखाते हैं: "पृथक्त्वैकांतपक्षेऽपि पृथकत्वादपृथकतुतौ । पृथक्त्वे न पृथकत्वं स्यादनेकस्थोह्यसौ गुणः ॥ पृथक्त्व कहिये पदार्थ सब भिन्न ही है ऐसा एकांत पक्ष होने से पृथक्त्व नामा गुणों से गुण और गुणी इन दोनों पदार्थों के भिन्न २ पना होने से दोनों अभिन्न ही होते हैं । ऐसे यह पृथक्त्व नामा गुण ही नहीं ठहरता है। जिससे पृथक्त्व गुण को एक को अनेक पदार्थों में होना मानते हैं तो पृथक्त्व गुरण कहना ही निष्फल हो गया। जो वैशेषिक द्रव्य, गुरण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ऐसे छह पदार्थ मानते हैं। उनके उत्तर भेद इस प्रकार हैं:-द्रव्य नौ, गुण चौवीस, कर्म पांच, सामान्य दोय प्रकार, विशेष एक तथा समवाय एक है। तिनमें गुण के चौबीस भेदों में एक पृथक्त्व नामा भी गुण है सो यह गुण सर्व द्रव्य गुण आदि २ पदार्थों को भिन्न २ करता है ऐसा माना है। फिर नैयायिक प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धांत, अवयव, नर्क, निर्णय, बाद, जल्प वितन्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रह स्थान इस प्रकार सोलह पदार्थ माने हैं । इनको भी भिन्न २ हो मानते हैं । तिनका पदार्थों का सर्वथा भिन्न पक्ष होने से प्रश्न करते हैं कि पृथक्त्व गुण से द्रव्य गुण ये दोनों भिन्न हैं या अभिन्न । यदि अभिन्न कहा जाय तो सर्वथा भिन्न का एकान्त पक्ष कैसे ठहरे ? फिर कहे जो द्रव्य, गुण, पृथक्त्व ते भिन्न है तो द्रव्य, गुण, अभिन्न ठहरे । पृथक्त्व गुण न्यारा है तिसने द्रव्य, गुण का कहा किया कुछ भी नहीं किया जिससे पृथक्त्व गुण एक है और अनेक में ठहरा मानते हैं। इस प्रकार ऐसा कहने से सर्वथा भेदकादी नैयायिक वैशेषिक मत के सर्वथा पृथक्त्व एकांत पक्ष में दूषण दिखाया ॥६७२।। उडवि नुळुइरे पोल गुण गुणी योंडो डोंड । विडं पडि कंड इंडेल वेरन विळंब लागुस । शेडं पुरिदुरै वेराग पोरुळं बेरामेन बानेल । मडंदै पेन् माड़ालू मगळला पुरुळ मुंडो ॥६७३॥ अर्थ-जिस प्रकार जीवात्मा एक शरीर को छोडकर दूसरा शरीर धारण करता है. और दूसरा शरीर छोडकर तीसरा शरीर धारण करता है उसी प्रकार गुण और गुणी का स्वरूप है, ऐसा कहते हैं । इस प्रकार कहने से जीव नाम के पदार्थ का भी प्रभाव होगा। इस प्रकार गुण और गुणी का स्वरूप है । ऐसा कह दिया जाय तो जीव नाम के पदार्थ का अभाव हो जायगा। प्रात्मा नाम का कोई पदार्थ ही नहीं रहेगा। इस प्रकार गुण, गुणी तादात्म्य संबंधी है। गुण, गुणी कहना व्यवहार नय की दृष्टि से है। अग्नि और उष्णता को जिस Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९१ मेद मंदर पुराण प्रकार अलग नहीं किया जा सकता उसी प्रकार गुरणमुरगी का संबंध है । कुमारी व स्त्री कहने में व्यवहार है परन्तु निश्चयं दृष्टि से एक ही है ।।६७३ ।। येत्ति रत्तालु मुंड े तत्व मेंड्र बेंडुम् । वित्तग नावि नारिर् गुरण गुरिण विकर्प वेंडार् ॥ ७ पित्तन् न नुनर्बु शैगं सुख दुःखं पिरिवु मुंड्राय् । तत्व मोळियु मारुं बीडंदान् पाळ दामे || ६७४।। अर्थ- गुणगुणी सर्व प्रकार से तत्व स्वरूप से एक ही हैं ऐसा कहने के अनुसार उसमें पीछे कहे अनुसार सर्वथा गुणी भिन्न गुण भिन्न ऐसा कहना, जैसे एक मनुष्य मरकर सुख दुख यह दोनों एक ही रहता है उसी प्रकार सर्वथा गुण गुणी को भिन्न ऐसा कहने वाले मत की दृष्टि को भी इसी प्रकार उनके मन से मोक्ष का प्रभाव होता है । अर्थात् मोक्ष की सिद्धि नही होती है ।। ६७४ ।। वंडून उरेप्पान् केट्पानुन मोनान्गु वेडां । निलों मिड्रा मुळ वेनि लोंडू मंड्रा । मेड्रिडा नानुगुं वेंडि प्रांतियेंडू रं क्कु पोळ्दु | निड्रवै भ्रांति याग निलं पेट्र विकर्ष मेल्लं ।। ६७५।। अर्थ- संसार में समस्त जीव एक ही है । ऐसा कहने वाले और उसी प्रकार तत्व को अभिन्न कहने वाले और चारों यह एक ही हैं ऐसा कहने वालों के मत की दृष्टि से प्रत्यक्ष विरोध होता है । कहना सुनना यह सभी भिन्न २ क्रियाएं हैं। ऐसा कहने से सर्वदा अभिन तत्व का संभव नहीं होता है । इस प्रकार कहने सुनने तथा जानने वाले तथा मत के शास्त्रों को जानने वाले ये चारों प्रभिन्न २ हैं । ऐसा कहने से यह चारों विषय भिन्न २ हैं ऐसा नहीं कह सकते || ४७५ ।। ु ड्र ेन उत्त मेर्कोळुडन सेल्लु मेदु प्रोडु | निदो रेडुत्तु काटु निड्र दन् पोरुण, मुडिक्कि || लोंड्र ेड्र मेबर्कोळ् तन् सोल्लळिवु मारदि योडि । निड्रव पक्कं सेरं दा नेरि पिरि तिन्मे याळे ॥ ६७६ ॥ अर्थ - सर्वथा भिन्न है ऐसा कहने वाले तत्व को अच्छी तरह से विचार करके देखा जाय तो हेतु दृष्टांत, उपनय प्रादि प्रात्मा से संबंधित नहीं होते । और उनसे संबंध न होने के कारण उनके मत में बाधा आती है। पहले प्रकरण में सर्वथा भिन्न ऐसा कहने वाले मत के तत्व के प्रकार, यह भी प्रत्यक्ष में विरोध प्राता है ७६ ।। वंडून उरंक्कु नल योदुवा नोंड्रन ड्रेड । निड्र तुलो वानोडुत्तिम् वीडमते ॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -~- ~rawwww..-... २६२ ] मेर मंदर पुराण मॅड्रेनि लोंड्रन डागुमामेनि लाळयदान्टा । नोंड्रेन उरत्तु पेट्र ऊदिययेन् कोलोवे ॥६७७॥ प्रर्थ-जीवादि सभी द्रव्य एक परमात्मा बहु प्राधेयवर्ती है। यथा-मृतपिण्डमेकं, बहुभांडरूपं, सुवर्णमेकं बहु भूषणात्मकं । गोक्षीरमेकं बहुधेनुजातं, एक परमात्म तत्त्वं बहुदेशवति ॥ अर्थात् एक मृत्तिका पिंड में बहुत से बर्तन तैयार होते हैं, एक स्वर्ण में कई आभूपण तैयार होते हैं। दूध एक ही है किंतु गायों की संख्या अनेक है। उसी प्रकार एक परमात्मा अनेक रूप धारण करता है ऐसा सर्वथा अभिन्न मत वालों का मत है इस प्रकार अभिन्न मतों द्वारा कहना सर्वथा भिन्न है ऐसा लोग कहते हैं सर्वथा भिन्न सर्वथा अभिन्न है ऐसा कहने वाले दोनों ही मत वालों से मोक्ष मार्ग में बाधा आती है, इनके मत पर श्रद्धान करना उचित नहीं। यह भिन्न है ऐसा कहने वाले अद्वैतवादी का मत ठीक नहीं, ऐसा कहने से कोई लाभ नहीं है ॥६७०॥ वंडन उरैक्कू मारि तीवेयिर कोदुंगुमोडि । तिन नडिडा रिडा मन्न चोरु तेडिये पशितुरुंगु ॥ मेंड्रिडा विरंडुरैकु मेन्नै पाकि लेला । मोड्न उरकु वाये युन्मत्त चरित मायते ॥६७८॥ अर्थ -यदि अभिन्न मत वाले ऐसा कहेंगे तो पानी के बरसने, धूप को देखने तथा अग्नि के जलते समय, अर्थात् धूप में चलते समय, वन में वृक्ष के नीचे बैठने आदि सारी बातें सारे तत्त्व प्रसिद्ध ठहरे । यह पांव के नीचे की मिट्टी को खाकर अपनी भूख क्यों नहीं मिटाता रोटी को क्यों ढंढता है। ऐसा अभिन्न मत वालों के कहने में प्रत्यक्ष रूप से विरोध आता है। ॥६७ ॥ विन्मदि येनिला मन्त्र कर्कळि । मुनिला नीरगत्तुरवु पोल ॥ कण्णुरु कउंवोरा कायं पोलवु । मेनिला कायोत्तु ळुइर मोंडे निल ॥६७९॥ अर्थ-बहुत से फलों से भरे हुए पात्र में प्राकाश में रहने वाले चंद का चिंब प्रत्येक पात्र में प्रतिबिंबित होता है, उसी प्रैकार एक प्रात्मा सम्पूर्ण शरीर में दिखता है । इस प्रकार तुम कहते हो तो-॥६७६।। छायकु तन्मै तानेंगु मोत्तपो। लायु नरि यिब तुंब मादिगळ् ॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ v-rrr - - - - - rrrrrrr मेक मंदर पुराण [ २६३ कायत्तु लुइर्गळ क्केगुं मुत्तिति । लेयु मंडियोंडा दिब्वेडुत्तुरं ॥६८०॥ अर्थ-अनेक जल के पात्रों जैसे चंद्र का प्रतिबिंब दिखने के समान अनेक शरीर में रहने वाले प्रात्मा को सुख दुख प्रादि विशेष युक्त विषय को उपमा देने में नहीं पाती। इसलिये भापके मत प्रत्यक्ष और प्रमाण से बाधित होते हैं ।।६८०॥ कार्तुळुवू कडत्तुरंतिमया। लोर तुळुबु नर वादिग लुत्तोवा ॥ नीत्तुळुबुनर् वादिग लुत्तोवा । नेर् तुळंब देगनमेंडिडिल् ।।६८१॥ अर्थ-कहीं मिट्टी के पात्र में रहने वाला पानी हवा से हिलता है । उसी प्रकार कदाचित् यह ज्ञान चलायमान होता है अथवा हिलता है यदि ऐसा कहो तो वह बात कई विषयों में संभव होती है, कई विषयों में संभव नहीं होती है। मिट्टी के बर्तन में रहने वाला पानी चंद्रमा के चलायमान होने के समान चंचल दीखता है तो प्राकाश में चंद्रमा चलायममान नहीं दीखता है, यदि आप ऐमा कहोगे तो।।६८१॥ इंब तुंब मुमिर कल याकग्य । वेब दिडं वेडुत्तुरे याल वरं ॥ मुन्स पुण्णिय पाव मुडित्तदर् । पिन् पिरंद लिरत्तलु मिल्लये ॥६८२॥ अर्थ-सुख दुख आदि इस आत्मा के नहीं हैं, शरीर को सुख दुख उत्पन्न होता है। इस प्रकार इसके लिये उदाहरण दिया जाय तो एक जीव पूर्व जन्म में उपार्जन किया हमा पाप और पुण्य का अनुभव करके पुनः जन्म और मरण धारण करता है । यह कभी जीव नाश होता है ऐसा सिद्ध हुआ इसलिये जीव और प्रास्मा भिन्न २ है ऐसा सिद्ध हुमा ॥६८२॥ वारियेन् मेन् मरि निपंव चार्यतान् । नीरि नींगुदलिल्लये निन्नुर । योर मोरइर् निर्ष उडवुयिर् । पेर नीपिन मागि पिळत्तदे ॥६५३॥ मर्थ-घडे के पानी में प्रकाश में रहने वाला चंद्र का प्रतिबिंब पडता है। वह प्रतिविब पानी को छोडकर इधर उधर नहीं जाता है। इसलिये भिन्न २ मत वाले पाप लोगों के द्वारा कहे जाने वाला अभिन्न तत्व जोव घडे में रहने वाले चंद्र के समान इस शरीर से पृथक नहीं होता यदि ऐसा कहा जावे तो संभवता नहीं ॥६८३॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ ] मेरु मंदर पुराण इदयं चायेयं पोलिरंडुयिर् । निड्रन कंडिलं निकु काटिदु ॥ वंडियं चायें पोला निरंडुइर् । निड्र कुंडागिलुं निड्र दिल्लये ॥ ६८४ ॥ ॥ अर्थ- चंद्रमा की छाया के समान रहने वाले जीव को हमने देखा नहीं और छाया के समान जीव और शरीर रहता है ऐसा यदि कहोगे तो तुम्हारे द्वारा कहे जाने वाले दृष्टांत से इस तत्व का संबंध न होने से श्रापका मत सिद्ध नहीं होता ।। ६८४ ।। कडं कडं दोरा काय मदायव । डंबंडंबु तोरा मुई रौंड्र निल् ॥ कडंद कंदु ळि काय निलंकुमा । रुंडंबुडं दुळियं मुइर् निर्पदां ॥ ६८५ ॥ अर्थ- प्रत्येक पानी के पात्र में आकाश में रहने वाले चंद्रमा के दीखने के समान हर एक शरीर में उत्पन्न होने वाले सभी जीवों को एक ही है ऐसा कहेंगे तो उस घड़े के फूट जाने के बाद केवल आकाश ही रहता है । उसी प्रकार शरीर को छोड जाने के बाद उस आत्मा को रहना चाहिये था। परन्तु आपके मत के अनुसार यह नहीं घटता है । इस कारण आपके दिये जाने वाले उदाहरण से यह मत सिद्ध नहीं होता है ।। ६६५॥ कुडतुळं कुडमिड्र इरुंदमर् । ट्रिडत्तिनुं कविनुक्कियल पोत्तपो ॥ लुडंबुळ मुडविड्रि इरुंद वेव् । विsत्तिनु मुंहगेत्तिडल वेंडुमें ।। ६८६ ॥ अर्थ-घट में, घट से रहित पृथ्वी में यह प्राकाश प्रादि में समान रूप से रहता है । इस प्रकार आपके दृष्टांत के द्वारा सभी में रहता था, परन्तु रहता नहीं । इस कारण तुम्हारा मत संभवता नहीं ||६८६|| उडंबि मुइर तोळि लालुई । रुबि नुन्मं युनर् तिडुमत्तोळि || लडंगलं मिल्लावळी या रुइर् । तोडरंदु निड़ में सोल्लुव देन् कोलो ।। ६८७ ॥ अर्थ - शरीर से युक्त इस श्रात्मा के गुण प्रात्मा को ही मालूम होते हैं। शरीर की कोई पता नहीं पडता । शरीर भिन्न है, श्रात्मा भिन्न है। तथा शरीर जड है ।। ६८७ | Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६५ मेरु मंदर पुराण उडंबु तानुइर् कोयदु मुंडेनि । रडंद तन्नुरै ज्ञाल विरोधिया । मुडंबु तन्नळ वायुड निड. पिन् । विडं पडित्तुइरबुदु वीळंददे ॥६८८॥ अथे-शरीर के नाश होने के पश्चात् जीव रहता है, यदि आप ऐसा कहोगे तो तुम्हारे द्वारा माने गये अभिन्न मत माने जा सकते हैं, यह ठीक है, परन्तु तुम्हारे अभिन्न मत के समान पुद्गल को छोडकर जाने वाले जीव को देखने वाला कोई नहीं है । जीव के निकल जाने के बाद पुद्गल मात्र ही दीखता है । और पूर्व जन्म में अशुभ कार्य के द्वारा पापोपार्जन किया हुमा जीव शरीर प्रमारण होता है यदि ऐसा कहना है तो सम्पूर्ण जगत में इसका प्रचार है यह बात जगत में प्रसिद्ध है। इसलिये सदैव जीवात्मा एक ही कहना, यह तुम्हारा अभिन्न मत मागम के विरुद्ध प्राता है ।।६८८।। तत्तु वंनिदु वैदुव दंडनि । लुत्तौ वामय विटुइ रोंड, दान् । शित्तिय दुव दिन् महर् सिद यान्। मुत्ति यद मुयलुथ देन्कोलो ॥६८९॥ अर्थ-तत्त्वों का स्वरूप दो प्रकार का है। जीव तत्त्व का एक प्रकार से रहना, ऐसा कहना भ्रम है। जीव अपने धारण किये हुए शरीर को छोडकर जाने के बाद दूसरा शरीर धारण नहीं करता-यदि आप ऐसा कहेंगे तो मोक्ष की प्राप्ति की इच्छा करने वाले ज्ञानी लोग तपस्या क्यों करते हैं ? तपस्या करने से क्या लाभ है? आप के कहे गये मत के अनुसार ज्ञानी लोग तपश्चरण करते हैं । अतः ऐसा सिद्ध नहीं होता ॥६८६॥ काक्षिये नुडित्तिडा काटि युव, विट । ताक्षिया लोंडेनि लंवग नुक्किळ् । माक्षियां वैयगमट्र, नक्कु योन् । ट्राक्षिया लोंडेवि लार विलक्कु वार ॥६६०॥ अर्थ-इस लोक में दीखने वाले पुरुष प्रवृत्ति दुष्टम् , शास्त्र प्रवृत्ति दुष्टम् , लोक प्रवृत्ति दुष्टम्, ऐसा कहने के लिये शास्त्र प्रवृत्ति ऐसा कहने में विरोध रहित परस्पर में भिन्न २ स्थिति को बतलाया हुआ उसके स्वाभाविक गुणों से भली भांति न जानकर तथा न समझते हुए अपने द्वारा किया हुआ सर्वथा अभिन्न तत्व के बराबर है । ऐसा ग्रहण करके कहने वालों का यह मत है। जिस प्रकार अंधे को रात दिन समान दीखता है उसी प्रकार एकांत मत वाले को कितना ही समझाया जावे वह अपने हठवाद को नहीं छोडता है ।॥१९॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] मह मंदर पुराण सुत्त सूनियं तत्तुव मेंबवन् । सुत्त सूनिय मागिलु निर्किलं ॥ सुत्त मूनियं तत्त्व मल्लदाम् । सुत्त नियंतान् मुदलल्लवो ॥६६१॥ अर्थ - वस्तु सर्वथा शून्य है ऐसा कहने वाले मत भी ठीक नहीं हैं; क्योंकि जो वस्तु सामने प्रत्यक्ष में दिखाई दे रही है उसको यदि शून्य कहा जायेगा तो प्रत्यक्ष रूप कहने में बाधा आती है । इस कारण सर्वदा वस्तु को शून्य कहने वाले स्वतः शून्य ही होते हैं; क्योंकि शून्य ऐसा कहने वालों की बात प्रत्यक्ष में दिखाई दे रही है ।। ३६१।। सोन्न सूनिय वादियुं सूनिय । मुन्न मिल्लदो मुन मुंडायदो || मुन्न मिल्लदर् केन्भो कि तानिलै । पिन इल्लदर केषिळं यायदे ||६६२|| अर्थ- - इस कारण प्रत्यक्ष वस्तु को शून्य कहने वाले स्वयं शून्य होते हैं । जानी हुई वस्तु को शून्य कहना सर्वथा असत्य है । भूतकाल में वस्तु थी या नहीं यदि ऐसा उनसे पूछा जाय तो यदि वे ऐसा कह दें कि वस्तु नहीं थी तो अनादि काल से चली आ रही वस्तु को सर्वथा शून्य कहना,अथवा हमारे सामने प्रत्यक्ष में जो वस्तु दीख रही है, उसको शून्य कहना तथा भविष्यत काल में उसी वस्तु का नाश न होना, इसका प्रापके मत से प्रत्यक्ष में विरोध माता है ।। ६६२ ।। तोट्रं वीदल तोडरंदु निलै पेर । लावुं पोरुळिन् निगळ् वादलार् ॥ ट्रोट्र मायं दिडल् सूनिय मेंड्रिडि । नेट्र वारुरंता निले मदे ।।६६३।। अर्थ - उत्पाद, व्यय रूप होकर रहने वाले को यदि ऐसा कहाजावे कि यह शून्य है तो उस तत्त्व को किस प्रकार माना जायेगा । ऐसा कहने वाले तथा सुनने वालों के मत के अनुसार यह ठीक नहीं है । ऐसा कहने से उस वस्तु में विरोध आता है ।। ६६३ ।। sट्ट दिट्ट मेरिंदु तन्कोळिनं । विट्टु मारेदि तन् सोल विरोधिया ॥ केट्ट वारिव तीनेरि केळिनी । मट्टुला मुडियाय् नल्लवा नेरि ॥ ६६४॥ अर्थ- वे हरिचन्द्र मुनिराज किरणवेग को संबोधन करते हैं कि हे राजा किरणवेग ! Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ २६७ आगमेष्टम् प्रतिज्ञानेष्टम्, कर्म-फल- संबंधेष्टम्, संसारेष्टम्, मोक्षेष्टम् आदि इष्टों को और लोक प्रवृत्ति दुष्टम्, पुरुष प्रवृत्ति दुष्टम्, शास्त्र प्रवृत्ति दुष्टम्, इस प्रकार तीनों दृष्टियों को नाश कर तथा अपने अभिप्रायों को त्यागकर विरोध होने वाले नित्यमेव प्रनित्यमेव. प्रवाच्यमेव, भिन्नमेव, अभिन्नमेव, शून्यमेव ऐसे इन छह प्रकार के तत्त्वों का त्याग करके आगे, सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ऐसे इन तत्त्वों का मैं प्रतिपानन करूंगा उसको ध्यान पूर्वक सुनो ! ऐसा हरिचन्द्र मुनिराज ने उस किरणवेग से कहा ।। ६६४।। उन्मेइल्लद निकुयु मिलें । युन्मै इल्लद निर्कु न मिलं ॥ युन्मं इल्लद निर् पयनु मिले । युन्मं इल्लवर् कुन्मुयु मिल्लेये ॥ ६६५ ॥ अर्थ - पुनः वे हरिचन्द्र मुनिराज कहने लगे कि सत्स्वरूप में वचनीय नहीं है । और उस वचन में ज्ञान भी नहीं है । सत्य रहित वस्तु असत्य वस्तु सत्य ऐसे गुरण नहीं है । ऐसा सुख बोध नाम के ग्रंथ विशेष रूप से विवेचन किया है। इस संबंध में विशेष विवरण को श्रत्तियन् वयत्तालेंड्र नित्तमां । 1 सित्तमं मोळियुं तिरि विन्मया ॥ नित्तमे वेतिरेगत नित्तमाम् । सित्तमं मोळियं सिदे वेदलाल् ||६६६|| अर्थ - अस्तित्व रूप से रहने वाले सत्यगुरण को निश्चय से सदैव सत्य गुरण को जानने वाले मन के द्वारा कहने वाले वचनों का नाश न होने कारण निश्चय से गुण और गुणी दोनों एक ही हैं । ऐसा जानने वाले मन, वचन स्यात् नित्य स्वरूप है। इससे एक द्रव्य, अन्वयव्यतिरेक गुणों से नित्यानित्य होता है । सत्य ऐसे कहा हुआ प्रस्तित्व स्वरूप उत्पाद व्यय से युक्त है ||६६६ ।। श्रन्वयं व्यतिरेग मनंद मत्त् । तन्मयार् पोरु डानिगळं पडि | सोनिगळं व तनिचोल्ल लिलैयत् । तन्मयार् पोरुडान दबाचियम् । ६९७|| रहने वाली वस्तु में फल ही नहीं है । पांचवें अध्याय में समझ लेना चाहिये । के ।। ६६५।। अर्थ - निश्चय गुण पर्यायगुण को प्राप्त होकर अनन्त गुण से युक्त ऐसे जोबादि जीव के विषय को सामान्य रीति से सामान्य रूप में तुम्हारे विषय को उस द्रव्य के विशेष गुणों की शक्ति न कहने के कारण प्रवाच्य होता है । यह स्याद्वाद रूप नहीं है । इसलिये यह तत्त्व वाच्याऽवाच्य रूप कहलाता है : । ६६७।। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. ] मेह मंदर पुराण मन्वयं वेतिरेग मट्र पोरट् । सोन नल्लरि विर्षय नादिइर् ॥ भिन्न मादलिर् भिन्नमुमा पोर। नन्वयं वेंडलादिय वटै चोल ॥६९८॥ __ अर्थ-पीछे कहे हुए जीवादि द्रव्य के तादात्म्य अन्वय तथा व्यतिरेक ऐसे दो प्रकार के गुण हैं । यह दोनों गुण व्यवहार की अपेक्षा से भिन्न. तथा निश्चय की अपेक्षा से अभिन्न हैं। इसी विभाव विषय को जीतने का विवेचन करूंगा। इसे सुनो ॥६६८।। माट्रि निड. पिन वोटिनु निकुंनल । सादल पटि येळं मुनर् बन वयं ॥ माट्रि निड्दु वोटिलिल्लामै यात्। बेट मै युन सि वेतिरेगमे ॥६६॥ मर्थ-प्राचार्य अन्वय, व्यतिरेक गुणों के बारे में दृष्टांत पूर्वक विवेचन करते हैं। हे किरणवेग राजा! सुनो। पन्वयगुण,व्यतिरेक गुणों को उत्पन्न करने के लिए निमित्त कारण होने से यह जीव नरकगति, देवगति, मनुष्यगति, तियंचगति इन चार गतियों में भ्रमण करता है। इसलिए यह जीव अन्वय गुणों से युक्त होकर उपादान कारण से होने वाले विभाव गुण को प्राप्त होकर इन चारों गतियों में भ्रमण करता है । जिस प्रकार सोना अन्वयगुण को प्राप्त होकर उपादान कारण होकर कुन्डल, कडा प्रादि पर्यायों में परिणमन होता है, उसी प्रकार यह जोव भी उपादान कारण को प्राप्त होकर संसार में अनेक पर्यायों को धारण करके संसार में परिभ्रमण करता है ॥६९६॥ अन्वयं व्यतिरेग अन्वयं वेतिरेगत्तैयाकला। लिनव पिर पादि ये याकलाल ॥ पोनिनपोर निद्र लवन् पय । निन्न बोई योंइंदलु मुक्कुमें ॥७००॥ अर्थ-पूर्व में कहे हुए गुण और गुणी से युक्त वह द्रव्य सदैव केवल व्यवहार नय में भिन्न होने पर भी निश्चय नय से आपस में एक रहते हैं। अपने स्वभाव को छोडकर दूसरे स्वभाव में परिणत नहीं होते। अतः यह जीवद्रव्य, ज्ञान, दर्शन, गुण से युक्त है । गुण और गुणी में प्रदेश रूप से भेद नहीं होता है। वचनों के द्वारा गुण और गुग्णी ऐसा कहा जाता है परन्तु निश्चय से नहीं है ।।७.०॥ येंद्र, मिगु नयं पोळ तम्मु । मोंड. योंड. बिट्टो रित्तिन कनू । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेद मंदर पुराण सेंड्र निडून कंडरियामै या । लोंडू मास् पोरुळोड गुरांगळे ॥७०१ ॥ अचेतनत्ति चेदन मिन्म युं । चेतन त्तलथ चेतन मिन्मयु ॥ मो मूर्ति ये मूर्ति योन ड्रन्मयुं । ती दिलादव सूनियं सेप्पि नेन् ॥७०२ ॥ अर्थ - प्रचेतन द्रव्य में चेतन गुरण नहीं, चेतन द्रव्य में अचेतन गुरण नहीं । मूर्ति रूप द्रव्य में अरूपी गुरण नहीं है । इसलिये सर्वदा नाश नही है । कथंचित् प्रशून्य ऐसे परमागम में महंत जिनेन्द्र के द्वारा कहा हुश्रा श्रनेकांतवाद है । इस अनेकांतवाद में केवल एकांतवाद को ही मानकर यदि एकांत कोटि सिद्ध करेंगे तो सिद्ध नहीं होगा । प्रत्येक द्रव्य के साथ स्यात् शब्द का प्रयोग किया है । इसलिये व्यवहार की अपेक्षा से महंत भगवान के वचन के अनुसार हमने प्रतिपादन किया है । यह मार्ग एकांत और अनेकांत रूप में कहे हुए पर किसी भी प्रकार की शंका नहीं करना चाहिये ||७०१ ।। ७०२ ।। सोन्न वारु विकर्ष मोरु पोरुट् । तन्मं इलेवन मुबलारु मा ॥ ट्रिम्मै इल्लिटु में में इवट्टिन मेर् । सोन्न भंगम मेळ्ळ् सोल्लु वाम् ||७०३ ॥ अर्थ - पूर्व में कहे हुए नित्य, अनित्य, श्रवाच्य, भिन्न, अभिन्न और शून्य यह छह प्रकार के भेद एक ही वस्तु में होते हैं । श्राप्तेष्ट प्रादि छह द्रव्य पूर्वोक्त तीनों दृष्टांतों में परस्पर में एक होकर रहने के कारण ये छहों स्वभाव से एक ही वस्तु में रहते हैं । इस प्रकार सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए ग्रागम से इस भेद को भली प्रकार समझने के लिए सप्तभंगों का मैं विस्तार से विवेचन करूंगा, तुम सुनो ॥७०३॥ उन्मे नलिन मै युन्मै इन्मयु मुरक्कोनामै । युन्मै नल्लिन्मे युन्मे योडुक्कु नामै ॥ [ २६६ ननिय मून्ड्र माग नयभंग मेळु मोड्रिर । 0 कन्नुरि मन्नमंगळ कडा वीट्रि नयगळ्वेदे ||७०४ ॥ अर्थ - हे भव्य शिरोमणि राजा किरणवेग ! वस्तु के कथन करने के लिये सात भंग ( तरह) होते हैं । स्यात् प्रस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्तिनास्ति, स्याद्द्मवक्तव्य, स्यादस्तिश्रव क्तव्य, ख्यान्नास्ति प्रवक्तव्य, और स्यादस्ति नास्ति प्रवक्तव्य । एक पदार्थ में परस्पर विरोध न करके प्रविरोध रूप से प्रमाण अथवा नय के वाक्य से यह सत् है प्रादि की जो कल्पना की जाती है वह सप्त भंगी है। प्रस्ति द्रव्य और नास्ति द्रव्य इनको पृथक २ करके यदि एक को Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] मेरु मंदर पुराण ही ग्रहण करोगे तो यह मिथ्या है । इससे वस्तु की सिद्धि नहीं होती। प्रत्येक वस्तु कथंचित् सत् है और कथंचित् असत् है ।।७०४॥ उंडेन पट्ट देक इल्लया सुरुव मिड़े। लुंडेन पट्टवंड्र यामिदं उलग मेल्ला ॥ मुंडेन पट्ट देके इल्लया मारें नेन्नित् । वंडुनुं कौदै यावाळ् मगळिला उरुव मंड्रो ॥७०५॥ अर्थ-ऐसा अस्ति कहने वाले द्रव्य को नास्ति न कहना इससे व्यवहार नहीं रहेगा और तोन लोक में रहते वाले सभी द्रव्य एक ही होंगे, ऐसा होगा। अस्ति रूप वस्तु को नास्ति रूप स्वभाव कैसे कहा जायेगा? इस प्रकार का यदि प्रश्न होगा तो इस संबंध में प्राचार्य दृष्टांत देते हैं कि एक मनुष्य की बहिन दूसरे की अपेक्षा पत्नी है। इसी प्रकारे दूसरे की अपेक्षा लडकी होने के कारण अस्ति हो गई और दूसरे को अपेक्षा नास्ति हो गई। एक की अपेक्षा से वह स्त्री माता है । इस कारण वह नास्ति हो गई। इस प्रकार एक ही द्रव्य में व्यवहार न होगा तो संसार में सभी वस्तु बिना व्यवहार के एक ही होगी। यदि वस्तु में व्यवहार नहीं होगा तो सारी वस्तु गडबड हो जायेगी ।।७०५।। अत्तियां कुंभ मेंड्रा लुलगला मडमवायो। वैत्ततन् निडत्त देनिन्न मटेंगु कुंभ मेडाल ।। वैत्तदन् निडत्त देनिन मटेंगु मिलामै याले । नत्तियुडत्तन् रागि लुलग नर् कुंभ मामे ॥७०६॥ अर्थ-घट अस्ति रूप है क्योंकि घडा सभी जगह न रहने के कारण उस समय वहां रहने के कारण वह घट अस्ति रूप हो गया। और वही घट दूसरों की अपेक्षा से नास्ति रूप हो गया। क्योंकि घट स्वक्षेत्र की अपेक्षा से अस्ति हो गया। और परक्षेत्र की अपेक्षा से नास्ति हो गया। इस प्रकार प्रस्ति नास्ति नहीं होगा तो एक ही घट तीन लोक में है ऐसा होगा। इसलिए स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्त्रकाल, स्वभाव की अपेक्षा से द्रव्य, अस्ति रूप एवं परद्रव्य की अपेक्षा से नास्ति रूप होता है ।।७०६॥ इदुवदु वलामै युंडै लिदु वदु वेन्नलागु । मिदु वदु वलाम इनड़ लिदु वदु विलामें याले ।। पोदु प्रोडु विशेडयिडि पोम पोरुळ पोन पिन्न । विवि विलक्कि लामै याले शूनियमांगु वेदे ॥७०७॥ अर्थ-हे राजा किरणवेग सुनो! वस्तु ऐसे बतलाया हुआ जो द्रव्य है वह यदि मास्ति न होगा तो द्रग्य कूटस्थ होगा । एक २ वस्तु में रहने वाले विशेष गुणों का और उस द्रव्य का प्रभाव हो जाता है। इस प्रकार प्रभाव होने से अस्तित्व व नास्तित्व यह साध्य Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाम 4 . मेक मंदर रामह नहीं है । इसलिये वस्तु में रहने वाले अनेक भेदों को कह नहीं सकते ॥७०७।। प्रत्तियालति जीवनरिविना लरिव नेन्नि । लत्ति माराय वेल्ला गुरगत्तंयु मडय पदि । नत्तियाम् भंग तोडि जोव नै नाति येन्नु । मितिर भंगमेळू पोरु ळिड इरंद वारे ॥७०८॥ अर्थ - यह अात्मा सत्स्वरूप ऐसे अस्ति रूप से चेतन नाम के ज्ञानादि गुण गुणी से युक्त तत्स्वरूप या अनादि काल से अस्ति रूप है क्योंकि अस्ति रूप को दूसरे अचेतन ऐसे असत स्वरूप है। यदि ऐसा मान लिया तो अस्ति द्रव्य नास्ति रूप होता है। इसलिये जीव पदार्थ को स्याद् अस्ति, स्याद् नास्ति इस प्रकार मानकर प्रत्येक द्रव्य में ७ भंग होते हैं ।।७०८।। उन्मयु मिन्म तानु मोरु पोरु ट्रन्म यागु । वन्मै सोल्लु मंड्राय भंग मद्रौ विरंडिर् ॥ कन्नुरु पोरुळ योर् सोल सोलाम यतुरिय काटुं। तिन्नि यो डवाचि येतिन सेरिविन् सेप्पु मूंडम ॥७०६॥ अर्थ-स्यात् अस्ति स्यात् नास्ति ये दोनों वस्तु एक ही स्वभाव के गुण के भेद हैं । क्योंकि स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव इनकी अपेक्षा से अस्ति हो गया। प्रौर पर द्रव्य परक्षेत्र, परकाल, परभाव की अपेक्षा नास्ति हो गया। यह दोनों भेद एक ही द्रव्य में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार रहने वाले स्यात् अस्ति-नास्ति नाम का तीसरा भंग हो गया। इस प्रकार स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति यह दोनों ही एक समय में कहने में समर्थ न होने के कारण स्याद् अवक्तव्य यह चौथा भंग हो मया। स्याद् अस्ति स्याद् नास्ति स्याद अस्ति नास्ति ऐसे तीन अवाच्य को एक ही समय में कहने को साध्य नहीं होता। इसी प्रकार अन्य २ भंगों के संबंध में जान लेना चाहिये ।।७०६।। सेप्पिय भंग मेळ बत्तुक्क डोरं सेल्लु । मिप्पडि वुरैत वेल्ला मेव कारत्तो दौडिर् ॥ रप्पित्ति नयंगळागि तडमाद्रं तन्ने याकुं। मैपड बुनरं द पोदिन बोटि नै विळक्कं वेदे ॥७१०॥ अर्थ-हे राजा किरपवेग! यह उपरोक्त सप्त प्रकार के भंग जीवादि सभी द्रव्यों में रहते हैं। इन सात भंगों को प्रस्ति नास्ति ऐसे भिन्न २ रूप से कल्पना ग्रहण करगे तो व्यवहार का लोप हो जायगा और सप्तभंग विषय को अन्य मिथ्यादृष्टि लोगों के एक २ नय को पकड कर ही मोक्ष मार्य को न समझने के कारण संसार भ्रमण होता है । इस कारस द्रव्य सम्पूर्ण तौर पर एक ही है भिन्न २ नहीं है। ऐसा कहने वाले अन्य प्रारमो मोक्ष को प्राप्ति कैसे कर सकते हैं? | ७१०॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ] मेद मंदर पुराण मनादि मिच्चोद यत्तालरिषु मिच्चत्त मागि । कनाविनुं मैं मैं कानार् पान्मं यांग कालं वंदाल् ॥ विनावि में युनरं व वट्रिनिळंबाळ् विशोषि तना । सनादि मिच्चुव समता लडयुं सम्मत्तं वेंडे ॥७११॥ अर्थ- हे राजन् ! अनादि काल से मिथ्यात्व के तीव्र उदय से हेय उपादेय का स्वरूप न समझने के कारण अपने निज स्वरूप का अनादि काल से लेकर अब तक स्वरूप स्वप्न में भी अनुभव में नहीं आया है। उनके अनुभव में तो स्वपर के भेदज्ञान की भावना अभी तक उत्पन्न नहीं हुई, न प्रापापर के जानने का अभ्यास किया, इस कारण वह आज तक संसार में भ्रमण कर ही रहा है । सम्यक्त्व को धारण करने की लब्धि उत्पन्न हो जाय तो वह जीव सद्गुरु का उपदेश सुनकर उस उपदेश के निमित्त से कर्म क्षयोपशम लब्धि से अनादि काल से प्रात्मा के साथ संबंध करते आये मिथ्यात्व कर्म प्रकृति के उपशम से सम्यक्त्व उत्पन्न कर लेता है ।। ७११। येळवुदु कोडा कोडि सागर तिळिदु निर । पऴदेलां शेय्य वल्ल मिच्यत्त पगडि तन्नं ॥ येळियवे सारं व कोडा कोडि मेलंद मूळ्त । मुळिय मेट्रिदियै सोदि शाम वण्ण मोरंगु वीळुकं ।।७१२ ॥ अर्थ-मोह कर्म को सत्तर कोटाकोडी सागर में कुछ कम होकर आत्म-स्वभाव को प्रगट न होने देने वाले मिथ्यात्व प्रवृत्ति को नाश करने वाले कोडाकोडी सागर में एक अतर्मुहूर्त मैं उस स्थिति को प्रर्थात् मध्यम उत्कृष्ट स्थिति को विशुद्धि लब्धि द्वारा नाश कराता है । ।।७१२।। निड्र कोटिदिये कंडन करणंदोरु नेरिहर् सेय्या । वंदमु नापंत्तोरु पगडिकट् कोलित्त कोळ्दे । वंदुडन कट्टुतीय नविनै तिदि सुरुक्का । वंद मूळतं सेड्रंट विशोदिय वगंद्र पिन्नं । ७१३॥ अर्थ - इस प्रकार उस स्थिति को खंड २ करके प्रति समय में नाश कराते २ इकतालीस प्रकृति मिथ्यात्व कर्म को बंध करने वाले परिणामों का नाश करने से और उनमें प्राकर बंघ होने वाले पाप और पुण्य स्थिति को कम करके एक मुहूर्त के बाद देशना - लब्धि परिणाम का ज्ञान होने के बाद आगे कही जाने वाली ४१ प्रकृतियों का बंध नहीं होता है । प्रर्थात् एक मिथ्यात्व दूसरा नपुंसक वेद, तीसरा नरक आयु, चौथा नरक गति, पांचवा नरक गत्यानुपूर्वी, छठा एकेंद्रिय जाति, सातवां दो इन्द्रिय जाति, श्राठवां तीन इन्द्रिय जाति, नवां चतुरिंद्रिय जाति, दसवां हुडक संस्थान, ग्यारहवां असंप्राप्तासृपाटिका संहनन, बारहवां श्रातप. तेरहवां स्थावर, चौदहवां सूक्ष्म, पंद्रहवां प्रपर्यायात्मक, सोलहवां सार्धारण शरीर, सत्रहवां निद्रा २, अठारहवां प्रचलाप्रचला, उन्नीसवां स्त्यानगृद्धि, वीसर्वा अनंता नुबंधी Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण क्रोध, इक्कोसवां अनंतानुबंधी मान, बाईसवां अनन्तानुबन्धी माया, तेईसवां अनन्तानुबंधी लोभ, चोबीसवां स्त्रोवेद, पच्चीसवां तिथंच आयु.. छब्बीसवां तिर्यंच गति, सत्ताइसवां तिर्यग्गत्यानुपूर्वी. अट्ठाईसवां न्यग्रोध संहन न उन्तीसवां स्वाति संहनन, तीसवां वामन संहनन, इकतीसवां कुब्जक संहनन, बत्तीसवां कीलक संहनन, तेतीसवां नाराच संहनन, चौतीसवां अर्द्ध नाराच संहनन, पैतीसवां वज्र वृषभनाराच संहनन, छत्तीसवां उद्योत, संतीसवां अप्रशस्त विहायोगति, अडतीसवां दुर्लभ, उन्तालीसवां दुःस्वर, चालीसवां अनादेय, इकतालीसवां नीच गौत्र इस प्रकार यह इकतालीस प्रकृतियां हैं ।।७१३।। करणंदोरु मनंद मांगु गुरण मुडे विशोदि तोंडा। कनंदोरं कटु गिड़ विनत्तिवि सुरुंगि कट्टा ॥ कनंदोरु पडिय नंदोम् नल्विनै भाग मेट्रा। कनंदोरु मळविर् कटुं तीविन भागं वोळ्कुं ॥७१४॥ अर्थ-अनादि काल से उपाजित किये हुए ज्ञानावरणादि पाठों कर्मों की स्थिति को घटाकर अंतः कोडाकोडी सागर प्रमाण कर लेने की योग्यता प्रा जाना तथा दारु लता अस्थि और शैल रूप अनुभाग वाले चार घातिया कर्मों की अनुभाग शक्ति को घटाकर केवल दारु और लता के रूप में ले पाने की शक्ति हो जाना इसको प्रायोग्यलब्धि कहते हैं ।।७१४॥ इन्गै पयंद दाय विदन बिन वंद दर्पमत्त। मौवगै पयत्तै शैया बंद मूळतत्ति नोगं ।। कौवै शै विनक्कु कालन् पोलपु पुवारिग तोडि। शब्वि इट्रिदि नोडु भागत्तै सिदैक्कु निझे ।।७१५।। अर्थ-इस प्रकार के फल देने वाली प्रायोग्यलब्धि के प्राप्त हो जाने के बाद मागे उत्पन्न होने वाली करण लब्धि में प्रायोग्य लब्धि के समान ही इस परिणाम के फल को देते हुए तथा सम्पूर्ण कर्मों के क्षय स्वरूप मोक्ष को अनेक नय निक्षेप प्रमाणों के द्वारा भली भांति जानकर दर्शन मोहनीय कर्मों के उपशम करने योग्य परिणाम का हो जाना कारणलब्धि है ॥७१५॥ विविइनि केपत्तोडु गुणंद शेंगमत्तै शय्या। पुदिय वाम विदिइन् भागं तिदीये मुन्पोल कट्टा ।। पवररु पलगं ळारं पयंव पुवाणि नींग । बतिशयं पलवू मैय्यु मरिण येट्टि विशोदि तोंडा ॥७१६॥ अर्थ – इस क्रम से निक्षेप गुण सहित संक्रमण करके कभी भी न होने वाले मबीन पुण्य बंध का अनुभाग और स्थिति गति का अधिक बंध होकर छह प्रकार के फल को उत्पन्न करने वाले ऐसे प्रपूर्व करण परिणाम को छोडकर प्रात्मा में अतिशय गुण उत्पन्न करने वाले अनिवृत्ति करण नाम का परिणाम उत्पन्न होता है 11७१६॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ] मेरु मंदर पुराण पन्द सन्दत्तं चान्द नाल्वर्ग पयत्तं याका । वेंडुला विनै केट्टमो कट्ट मोरंगु शय्या ॥ निड्र गुणत्तच्चेडि निक्केवन् तन्नै याका । कुंड्रिय विनगेट् केंड्र गुणंद संगमत्तं शया ॥७१७॥ अर्थ - इस प्रकार परिणाम उत्पन्न होने के पश्चात् पाप और पुण्य इन दोनों कर्मों में पाप कर्म को संत उदीरणा और पुण्य कर्मों को बंध उदीरणा कहते हैं । तदनन्तर उस स्थिति को कम करके गुण श्रेणी में आरोहरण करते २ गुरण निक्षेप कर उसके परिणाम से पुन: अपने स यक्त्व की वृत्ति करता है । ७१७ ।। नियेट्टि करणं पिन्नै पेंदर करणं शैया । विदियेंद कोडा कोडि मूळ्त मेल कोळ् मुन्नि ॥ तन्नं विट्टु नड्डु वनंद मूकत् माय् निडेदितन् कन् । विनै इने कीळु मेलु मंदर वेळियै शैया ॥७१८ ॥ अर्थ- - तदनन्तर निवृत्तिकरण लब्धि के परिणाम एक अन्तर्मुहूर्त के बाद क्रम से वृद्धि करते हुए मिथ्यात्व कर्म की अन्तः कोडाकोडी उत्कृष्ट स्थिति को तथा अन्तर्मुहूर्त की मध्यम तथा जघन्य स्थिति को अंतर्मुहूर्त में आत्मा में रहने वाले मिथ्यात्व कर्म के तीन भाग करके एक भाग ऊपर, और भाग नीचे करके अन्त में आत्म-ज्योति की वृद्धि करता है ।। ७१८ ।। वेळिइन् मेल् मिच्चत्ततिन् वेम्मयं तन्मै शैया । वेळिइन् कीळू मिच्च मेल्लां विरगुळि येळंद पोदि । लळविला ज्ञानं काक्षि येक्करणत्तेळंद वट्ठाल् । वेळिइन् मेनिड्र तुंडन कंड मूंड्रागि नीळं ॥७१६॥ तिरिथिर् पैदरत्त पोदिर् ट्रिरिविद मागि बीळं । वर पोल् मिच्चं चम्मा चम्मत्त मागि ॥ विरगिनाल बीळं द मूनं ड्रो दनंतानु वेधि नान्गाम् । तिरं इनं यवित्तान् माट्रान् तिन् कडर् करये कानुं ॥ ७२० ॥ अर्थ - श्रात्म-ज्योति प्रगट हो जाने के बाद आत्मा में लगे हुए बाह्य और अभ्यंतर कर्मों की निर्जरा होकर सत्ता में रहने वाले तथा उदय में आने वाले पाप कर्मों का नाश करते समय अनन्त गुण से युक्त सम्यक्दर्शन का आत्मा में प्रादुर्भाव होने के पश्चात् श्रात्मा में अनादि काल से बंधे हुए कर्मों की निर्जरा होकर, खंड २ तीन टुकडे होकर, इस तरह नीचे गिर जाते हैं, जिस प्रकार कि चक्की में अनाज को डालते ही सबसे पहले उसके तीन टुकडै हो जाते हैं । मिथ्यात्व के तीन भाग होते हैं। मिध्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्य, सम्यक् प्रकृति। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ३०५ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायरूपी तरंगों का उपशम होकर सम्यक विशुद्ध परिणाम को प्राप्त हया यह जीव संसार रूपी सागर का अन्त करके मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है ।।७१६।।७२०॥ मिच्चत्त यगडि मेळू विरगिनान् लुवस मिप्प । उच्घत्ति नि वीर मुपशम सम्मत्तिट्टि । मिच्चत्त पगड़ि वंदमुदल व्यापार नींगा। बच्चत्तै विनिकट काकि येद मूळतळबु निकुं ॥७२१।। अर्थ-मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व, सम्यक प्रकृति और अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ इन सात प्रकृतियों का क्रम से उपशम करके रत्न पर्वत पर से मनुष्य के नीचे गिरने में वह जो रहने का समय होता है वह जीव उपशम सम्यक दृष्टि होता है। सम्यक्दृष्टि जीव एक मुहूर्त पर्यंत मिथ्यात्व प्रकृति का बंध करने वाली प्रकृति, कर्म प्रकृति को रोकता है ।।७२१॥ उपशम कालत्तुळळो अनंतानुवंधि तोंड्रिर् । कुबद शादं शम्याट्टि यांगुण त यदु ॥ मुपशम कालत्तिन पिन् मूंड्रत्तोंड दय मादल । सववभा मिच्चं सम्मा मिच्चिल तन्म तानां ॥७२२।। अर्थ-उस उपशम काल के अन्तर्मुहर्त तक अनन्तानुबंधी क्रोध, अनन्तानुबंधी मान, अनन्तानुबंधी माया और अनंतानुबंधी लोभ इन चारों कषायों में से किसी भी एक कषाय का रत्न पर्वत पर से मनुष्य के नीचे गिरने के समय तक के बीच का समय के समान भाग वाले को सासादन गुणस्थान प्राप्त होता है। उस उपशम काल के अनन्तर उक्त प्रकृतियों में मिश्र प्रकृति का उदय हो जावे तो वह मिश्र गुणस्थानी कहा जाता है। सम्यक्प्रकृति का यदि उदय हो जाय तो वह सम्यक्दृष्टि गुणस्थान कहलाता है ।।७२२।। वेदगं मुदित्त पोदिन मैयुनर प्रोडु काक्षि । कोयादु मो कुटु मैदा तेरिपुदि विनंगडंमै ॥ बोदियुं काक्षि दान पूरण शेंड. निड.: घाद वेदक मुन्नेले काक्षि काई कमदामें ॥७२३॥ अर्थ-सम्यक् प्रकृति का यदि उदय हो जावे तो वह अपने प्रात्म-स्वरूप को जान लेता है । और सम्यक्त्व सहित ज्ञान वाला होकर, सम्पूर्ण दोषों से मुक्त होकर पाप कर्मों का नाश करता है । तब वह सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान पूर्ण हो जाने के बाद वह वेदक सम्यक्त्व पूर्व में कहे हुए सात प्रकृतियों का नाश करने वाला क्षायिक सम्यक दृष्टि कहलाता है। इस प्रकार क्षायिक गुण को प्राप्त हुए भव्य जीव को क्षायिक सम्यक्दृष्टि कहते हैं ।।७४॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ मेह अंदर पुराण मक मिलाने यादि नाल्बकुँ मूड मागु। मुत्तिडा तुवस मिप्पा नाल्बरु कुपस मित्तां ॥ केडुत्तव ररुवर कागिर केटिन कनाय दागं । तडप मा दे मेंडान दृत्व तवत्त वत् ॥७२४॥ अर्थ-जीव अजीव तथा तत्वों के स्वरूप को जानने वाले निग्रंथ महा तपस्वी हरी. चंद नाम के मुनि उस किरणवेग राजा को इस प्रकार प्रात्मा के साथ लगे हुए सभी कर्मों के भेदों का विवेचन करते हुए कहते हैं कि हे राजन् ! सुनो। असंयत, देशसयत, प्रमत्त अप्रमत्त, यह चार गुणस्थान पर्यंत उपशम सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व इन तीनों में से कोई एक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। इन कमों के नाश करने से उपशम श्रेणी चढने वाले अपर्वकरण, अनिवत्तिकररम, तथा सक्षम सांपराय क्षोणकषाय, सयोग केवली, प्रयोग केवली ऐसे छह गुणस्थानों में एक क्षायिक सम्यक्त्वी रहता है ।।७२४ । काक्षियु मरिख मिन्न कदिर्प बैंबोरियं वेड । पूक्षि सालोळक्कं सांगि पुरिदेनु ध्यान वाळाल् ॥ बेटक वेररुत्तु घाति विनंगळे वेंड पोदि । लाक्षि मूउलग मागु मरस मरि मो वडान् ।।७२५॥ अर्थ-वह सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान पहले कहते आये हुए के समान प्रकाशमान होकर वृद्धि होते हुए पंचेन्द्रिय विषयों को नाश कर सम्यक्चारित्र को प्राप्त होकर धर्मध्यान मौर शुक्न ध्यान इन आयुधों से राग, द्वेष मोह रूपी संसार बेल का उच्छेद कर घातियां कर्मों का नाश कर इस तीन लोक में भरे हुए चराचर वस्तुओं को एक ही समय में जानने की सामर्थ्य रखने वाले केवलज्ञान को प्राप्त.होता है ।।७२५॥ मादयन मलरं द वाय मै मारिण विळ केरिप्प मैय । लादिय मंद कार मगंड तमनरि काक्षि ॥ योदिय वगइर् ट्रोड उलप्पि ला पोरुळे कंडा। नेद मडिला मै केदु विय .व नॅड. सोन्नान् ॥७२६।। इस प्रकार हरिचंद्र मुनिराज सत्य अहिंसामयी धर्म का स्वरूप राजा किरणवेग के समझ में आ जाये इस प्रकार राजा को समझा दिया। उस समय राजा किरणवेग ने अपने मन में उन मुनिराज के उपदेश से अन्दर में रहने वाले मिथ्यात्व रूपी अन्धकार को दूर किया पौर धर्म में रुचि रखने वाले उन हरिचंद्र मुनि के चरणों में नतमस्तक होकर विनय से प्रार्थना करने लगा कि हे प्रभु! निर्दोष गुणों से भरे हुए मोक्ष पद प्राप्त कराने वाली मुझे दिगम्बरी बिन दीक्षा प्रदान करें। इसको प्राप्त करने की उत्कंठा मेरे मन में हो गई है। ॥२६॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेव मंदर पुराख विरि तिर वींदु सोंडल वेळ्ळं वेनत्तुयरस वेले।। सिरि भुवनत्ति नेल्ले तिमिर् गणार गति गळासै॥ येरि पुरि वडव इंबर दोप मादाळि निडिन् । बुरैयचं बोनि सित्ति पत्तनं तुइक्कु मेंडान् ॥७२७॥ मर्थ–पुनः मुनिराज से प्रार्थना करता है कि मेरी प्रात्मा अनादि काल से संसार रूपी तरंग में उथल पुथल हो रही है । आज तक इस संसार में चिरस्थान मुझे कहीं भी नहीं मिला। इस संसार रूपी समुद्र में दुख जल प्रवाह के समान है। तीन लोक में भरे हुए दुख तालाब के समान हैं। समुद्र के बीच में रहने वाले द्वीप के समान यह चारों गति हैं । यह दुख राग रूपी समुद्र में बडवानल के समान हैं। सुख रत्नद्वीप के समान रहता है । अब मैं शीघ्र ही हे प्रभु ! आपके नौका रूपी चरण कमलों का सहारा लेना चाहता हूं। और सद्धर्म रूपी नाव में बैठकर इस संसार रूपी से पार होना चाहता है । बस यही मेरी अभिलाषा है । ऐसा विचार कर राजा किरणवेग ने जिनदीक्षा लेने का दृढ विचार कर लिया ॥७२७॥ भोगंमुं पेरुळु मेल्लां मेघमुम तिरयुं पोलं । सोगमुं तुयरुं याकुं तोडुकडर् सुष्ट्र मागुं ॥ नागमुं निलमुं पेट्राल नालंदु नाळिल् वेराम ।। योगि याय विनय वेल्व निरव वेड र शैवाने ॥२८॥ अर्थ-इस प्रकार विचार करके मूनि महाराज से वह प्रार्थना करता है कि हे प्रभु भोगोपभोग ऐश्वर्यादि जितने भी पंचेंद्रिय विषयों को उत्पन्न करने वाली भोग सामग्री है वह सब आकाश में बादलों के समूह के तथा समुद्र की तरंगों के समान क्षणिक है । मेरे शरीर संबंधी भाई, बंधु, मित्र, कुटुम्बी, पुत्र इन सब को अभी तक मैंने अपना ही समझा है, यही कल्पना मात्र करता पाया हूँ। इनको जितना २ अपना समझा उतने २ दुख के कारण होते गये। इनके द्वारा आज तक मुझे कोई सुख प्रतीत नहीं हुप्रा । मैंने देवगति, साम्राज्य भी प्राप्त किया परन्तु वहां भी सुख नहीं मिला, उसको भी मुझे छोडना पडा, उनको भी मारमा से भिन्न समझा । इस कारण प्रब संसार समुद्र से तारने के लिये मुझे दिगम्बरी जिन दीक्षा प्रदान करें। इसको ग्रहण कर कर्म रूपी शत्रुओं का नाश करके मोक्ष रूपी लक्ष्मी को प्राप्त करने की इच्छा मेरे मन में प्रकट हुई ॥७२८।। प्रहं तवं दानं शील मरिव नर् शिरप्पु नांगुं । तिरिदिय गुणप्ति नार? सेदिक्कु वीदि यागु ।। मरंतव मरिदु शील माद,व दागि दानें। पोरुवि नर्शिरप्पोडोंड्रि पुरवल शेल्ग वेडान् ॥७२॥ अर्थ-किरणवेग की प्रार्थना को सुनकर मुनिराज कहने लगे कि राजन् ! तपश्चरण का मूल यह है कि, चार प्रकार दान देना, शीलाचार से रहना. सर्वक भगवान की पूजा, पर्चा Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ] मेरु मंदर पुराण करना, धर्म पर रुचि पूर्वक दृढ श्रद्धान रखना आदि यह सब भव्य सम्यकदृष्टि के लिये प्रथम मोक्ष जाने का मार्ग है। इस प्रकार के तपश्चरण के भाव को प्राप्त करके संसार में रहकर ही धर्म मार्ग पर चलना यही अच्छा है। यही आगे चलकर मोक्ष मार्ग का साधन होगा। एक दम से तप भार को सम्हालना बडा कठिन होगा । तप तीक्षण तलवार की धार के समान है। प्रत्येक प्राणी को यह तपश्चरण भार मिलना महान दुर्लभ है। आप संसार में रहकर ही, सत्पात्रों को दान देवें, पूजा, अर्चा, शास्त्र, स्वाध्याय करो। धर्म पर श्रद्धा रखो तो सहज ही मोक्ष प्राप्त करने की सामग्री प्राप्त होगी। इस प्रकारगृहस्थाश्रम में ही रहकर क्रिया पूर्वक धर्म ध्यान करके समय को बिताना चाहिये ।।७२६ । अरुळिय मूड मेन कन विने पर वैरिदु वोट । तरुयेनिलरिय वंदत्तवत्ति नार् पयनु मिल्ले ।। अरिय वत्तवति नडि पिरप्पिनै कडक्कोनादे । लरुविय देन् कोलेन् वरंदव नमैग बेंड्रान् ।।७३०॥ अर्थ-हरिचंद्र मुनि का उपदेश सुनकर पुन: किरणवेग प्रार्थना करने लगा कि शील दान, पूजा आदि ही कर्मों के नाश करने के कारण नहीं हैं। ये तो पुण्य बंध के कारण हैं। यदि पुण्य को मोक्ष का देने वाला समझा जावे तो तपश्चरण ही क्यों किया जावे। इतने महान तीर्थकरों ने क्यों तपश्चरण किया ? आप ही तो यह कहते है कि बिना संसार छोडे कल्याण नहीं होता है । फिर मुझे ही आप ऐसा उपदेश देते हो कि गृहस्थाश्रम में ही रहकर षक्रिया, दान, पूजा आदि करो, ऐसा आपने क्यों कहा ? तब मुनिराज ने कहा कि यदि तुम्हारे मन में तपश्चरण करके कर्मों की निर्जरा करने की भावना उत्पन्न हुई हो और जिन दीक्षा लेने की शक्ति हो तो दिगम्बरी दीक्षा लो वरना दीक्षा लेकर फिर उसमें बाधाएं पड नावे, यह ठीक नहीं । और इसी कारण हमने घर पर ही रहकर धर्म ध्यान करने का उपदेश दिया था। ऐसा हरिचन्द्र मुनि ने किरगवेग को समझाया ।।७३०।। संकयर करुंगेट शौवाय शीरडि पर यलगुर् । कोंगेगळ् वींगत्तेइंदु नुडंगिडे कोडिय नागळ् ॥ वेंगळियान वेंदन विवदियान् तिरुवै मेव । वंग व नुमिळ पट्ट तंबलं पोल वानार् ॥७३॥ अर्थ-हरिचन्द्र मुनि राज के कहने के बाद राजा किरणवेग वैराग्य से युक्त होकर संसार शरीर भोग से विरक्तता धारण कर. जिस प्रकार एक मनष्य पान खाकर चबाकर तुरन्त ही थूक देता हैं उसी प्रकार किरण वेग ने अपनी पटरानी,राज्य वैभव प्रादि सर्व सम्पत्ति भोग सामग्री का एकदम त्यागकर कर दिया ।।७३१॥ पर मारिण मुडियि तोंडे पट्टमुं कुळयि पूर्नु । तर मरिंग यारं ताम मंगवं शेन्न वीरम् ।। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ३०१ अरुविले पट्ट विट्ट वरस नाल् मुनिय पट्ट । परिसनं पोल चाय इळंदु पोय वीळ्द वंड्रे ॥७३२॥ अर्थ-तदनन्तर उन मुनिराज ने "तथास्तु" कहकर शास्त्रोक्त विधि के अनुसार किरणवेग को जिन दीक्षा की अनुमति दे दी। उसने अपने मस्तक पर रहने वाले मुकुट, छत्र, चांद तथा अन्य २ वस्त्राभूषण आदि को जिस प्रकार एक राजा क्रोधित होकर अपने शत्रु राजा को अपनी हद से बाहर निकाल देता है , उसी प्रकार सारे अलंकारों को उतार कर फेंक दिये और कानों में कुण्डल रत्नों, के हार उतार कर अलहदा रख दिये ।।७३२॥ कुंदळमागि नोलं कुळंड्रेलूंद नैय कुंजि । मंदिर पदंगळ् सोल्लि धन्. कंयाल वांगु मेल्ले ॥ येंडर करणं शिद कौवळि यळय दाग । विदिय सिरगु वीळ्दं परवं पोलेछंद वेगं ॥७३३॥ अर्थ-तत्पश्चात् हरिचन्द्र मुनिराज ने राजा किरण वेग को पूर्वमुखी बिठा कर शास्त्रानुसार विधि व मंत्र पूर्वक प्राचार्य भक्ति, सिद्ध भक्ति आदि को पढकर "ॐ नमः सिद्ध भ्यः" ऐसा बोलकर सिद्ध भगवान को नमस्कार किया और अपने हाथों से पंचमुष्ठि केश-लुंचन किया। केश-लुंचन करते समय जिस प्रकार पक्षी के पंख उखाड कर फेंकते समय वह पक्षी भाग नहीं सकता उसी प्रकार पंचेन्द्रिय विषयों के सुख को त्याग कर वे केश-लुंचन करके मन में स्थिर हो गये ॥७३३ । दंडिने कोवित्तादि वरुमात्तिन् वळिय नागि। विडं गारवंयळ वेय्य परिशय वेंडू.वीरन् । मुंड मोरैदा दोडि मुनिमै इर् दृनिय नागि । दंडुळि मुगिलिर सेल्लुं चारणतन्मै पेट्रान् ॥७३४॥ अर्थ-वे किरणवेग मुनि मन,वचन और काय ऐसे तोन दड को त्याग कर आत्मभावना में लीन हो गये और पुनः उत्तम क्षमादि दस धर्मों का पालन करते हुए, रसगारव, ऋद्धिगारव, और सात गारद ऐसे तीनों गारवों को त्यागकर क्षुत्पिापासादि परीषह को जीतकर दस प्रकार के मुंडनों से युक्त होकर आकाश में जैसे मेघ समह जाते हैं, उसी प्रकार उन्होंने आकाश में गमन करने वाली चारण ऋद्धि प्राप्त कर ली ।।७३४।। तिरिविद योगु तागि तिरिव दोर शिगरि पोल । मरुविय कोळगै नींगा मादवर् मरुळ चल्वान् ॥ फरि यर शदन पोल कांचन कुगये सें । करिइळ वेरु पोल बरुंदव निरुंद नाळाल् ॥७३॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरमंदर पुराण . पर्व-उन किरणय मुनि ने चारणऋद्धि प्राप्त करके ऐसा त्रिकाल योग धारण किया कि वहां अन्य सभी मुनिमरण उनके तपश्चरण के महत्व को देखकर लज्जित हो गये। उन मुनिराज के चारणऋद्धि तथा तपश्चरण के बल से उनको भाकाश मार्ग में जाते देखकर मुनिगण विचार करते हैं कि हमको इतना समय मुनि दीक्षा लिये हुए हो गया माज तक हमें ऐसी ऋद्धि प्राप्त नहीं हुई। इन नवीन दीक्षित मुनि को इतनी जल्दो ऐसी महान् ऋद्धि केसे प्राप्त हो गई। तदनन्तर वे किरणवेग मुनि इधर उधर विहार करते हुए कांतन नाम के पर्वत पर सिंह के समान वृत्ति धारण किये हुए वहां तप करने लगे ।।७३५ । येरि मूगि यनै कुळ्ग यशोधरै इलंगु वान्मेर् । दिरिगिड़ बनय कुळ्गै शिरिदर योडुम् शंवोन् । विरिगिड कुगइन पाडं मंत्तवन दृन्ने बाति । हरिगिड विनय रागि इरेवन् पालिरुंद काले ॥७३६।। मर्थ-वे मुनिराज निरतिचार पूर्वक व्रतों का पालन करते हुए उस पर्वत की गुफा उपवास किये हए विराज रहे थे। एक दिन यशोधरा तथा श्रीधरानाम की दोनों पार्थिकाएं प्रसिधारा के समान चारित्र को पालन करती हुई उस कांतनगिरि पर्वत पर पाई और उनने भक्तिपूर्वक मुनिराज को नमस्कार किया ।।७३६।। विदिइनार् गतिग नान मेविनिडार् कंड मुन् । मदियिनार् पेरिय नीरार् मक्कळाय् वंदु तोडि। विदियिनार् ट्रानं पूजे मंत्तवं शैयदु वोट । गतिगळे कडंदु शेल्वार् कारिग यार्गळ् शेल्लार् ॥७३७॥ अर्थ-तदनन्तर मुनिराज की भक्ति स्तुति करके पुनः नमस्कार करके वे आयिकाएं बैठ गई। मुनिराज ने उन दोनों को “सद्धर्मवृद्धि" ऐसा शुभाशीर्वाद दिया। उन यशोधरा श्रीधरा प्रायिकाओं ने विनयपूर्वक प्रार्थना की कि हे प्रभु ! यह जीव संसार में अनादि काल से परिभ्रमण करता पाया है, इसके उद्धार होने का कौनसा उपाय है ? वह हमें कृपा करके बतलाइये । मुनिराज ने कहा कि जीव के उद्धार होने का एक जैन धर्म ही कारण है । चारों गतियों में भ्रमण करते हुए इस जीव को अपने २ परिणामों के अनुसार उच्च नीच गतियों में जाना पड़ता है। जब तक यह जीव भगवान के द्वारा कहे हुए मोक्ष मार्ग को बतलाने वाले वचन व तत्वों को भली भांति से जानकर उस पर सम्यक्त्व सहित श्रद्धा नहीं करता है तब तक यह जीव संसार में परिभ्रमण करता ही रहेगा। जिस समय इस जीव को जिनेंद्र भगवान की वाणी में श्रद्धा हो जाती है, उस समय प्राणी स्वपर भेद-विज्ञान को प्राप्त कर लेता है । तब यह थोडे समय में ही तपश्चरण के द्वारा कर्मों का नाश करके संसार से मुक्त • हो जाता है। भावार्थ-ग्रंथकार ने इस श्लोक में यह विवेचन किया है कि जीव का कल्याण जैन धर्म ही कर सकता है। जैन धर्म पालन करने वाले को भगवान के द्वारा कहे हुए तत्वों पर Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - -- - -- -- - - -- - मेरु मंदर पुराण [ ३११ रुचि रखना चाहिये । वह प्राणी भव्य होना चाहिये । आर्य कुल में जन्म, भगवान जिनेन्द्र के प्रति निदानबंध रहित भक्ति, देव पूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय प्रादि क्रिया के द्वारा जो पुण्य बंध होता है वह मागे चलकर कर्म निर्जरा तथा शरीर भोग आदि से विरक्तता उत्पन्न कराता है। इसीसे तपश्चरण के द्वारा कर्मों का नाश करके संसार से मुक्ति को पाता है। प्रश्न-दीक्षा के योग्य कौन व्यक्ति होता है। उत्तर देश-जाति-कुलोत्पन्नः क्षमा-संतोष-शीलवान् । मोक्षाभिलाषिको धर्म गुरु-भक्तो जितेन्द्रियः ॥ शांतो दांतो दयायुक्तो मदमाया-विवजितः। शास्त्ररागी कषायघ्नो दोक्षायोग्यः भवेन्नरः ।। उत्तम देश उत्तम जाति,उत्तम कुल में जन्म, क्षमा शील व संतोषी,शीलवान,मोक्ष की अभिलाषा रखने वाला, दयावान, गुरु भक्ति में परायण, जितेन्द्रिय, शांत स्वभावी, दानी, संपूर्ण प्राणियों पर दया रखने वाला, पाठ मद से रहित, शास्त्रज्ञ, कषाय रहित ऐसा जीव जिन दीक्षा के योग्य है। इस संबंध में प्राचार्य कुंदकुंद ने प्रवचनसार में तीसरे अध्याय में क्षेपक श्लोक १५ में कहा है कि: "वण्णेसु तीसु एक्को कल्लासंगोतवासहो वयसा । समुहो कुंछारहिदो लिंगग्गहणे हवदि जोग्गो। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीन वर्णों वाले व्यक्ति में कोई भी हो, आरोग्यवान, शीलवान, तपवान, उत्तम कुलवान, बालक व अतिवृद्ध भी न हो, निर्विकार, अभ्यतर-बाह्य, परम चैतन्य परिणति से विशुद्ध, ज्ञानवान, व्यभिचार दुराचार से रहित, योग्य, जिन लिंग धारण करने योग्य ऐसा जीव दीक्षा लेने योग्य होता है। स्त्रियों के लिये मोक्ष प्राप्ति नहीं होती है। इसका कारण यह है कि उनमें परिपूर्ण बाह्य अंतरंग परिग्रह के त्याग करने की शक्ति नहीं होती। क्योंकि स्त्री पर्याय विकार सहित है । पूर्णतया महाव्रत नहीं पाल सकती हैं। इस संबंध में अधिक विवेचन प्रवचनसार ग्रंथ से समझ लेना चाहिये ।।७३७।। ईदिरन् ट्रेविमा मिरैमै शै मुरै मै इल्लै । पंदोडि मगळि रावार पावत्ता पेरिय नीरा ।। मैदे पेरामै पेट्रा लिळंदिडल माद, पेन्नि । संदरत्तनय तुंबत्तांगति नींगु वारगळ् ॥७३८॥ मर्थ-देव लोक में सौधर्म इन्द्र के समान इन्द्रानी शचीदेवी को दूसरे को माज्ञा देने को सामर्थ्य नहीं है। उसने पूर्वजन्म में पापोदय से स्त्री पर्याय को धारण किया है। और Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ] मेरु मंदर पुराण मायाचार के कारण स्त्रीरूप में जन्म लिया है। और उनको यदि संतान न हो तो दुख होता है। और यदि सन्तान होकर पुत्र का मरना हो जाय तो महान दुख होता है। यदि अपना पति दूसरी स्त्री के साथ प्रेम करता है तो उस स्त्री को दुख होता है । स्त्री स्वतंत्र नहीं है; क्योंकि: "पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने । पुत्रो रक्षति वार्धक्ये, न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति ।। इस प्रकार इस श्लोक के अनुसार स्त्री स्वतंत्र कभी नहीं रह सकती, वह अपने दुख से तथा चंचल बुद्धि होने के कारण मोक्ष प्राप्त करने की अधिकारिणी नहीं होती ।।७३८।। विरद शीलत्त रागि दानमत्तवरक शेदु । अरुगनै शरण मूगि यांदवर शिरप्पु शंदु ।। करवि नर् कनवर पेनुं कऍडे माळरिद । उरुवत्ति नीगि कर्प तुत्तम देवरावार् ॥७३६।। अर्थ-पुनः वह मनिराज प्रायिकाओं से कहने लगे कि पंचाणुव्रत,शीलाचार निग्रंथव्रत को धारण करके तपश्चरण करने वाले निग्रंथ व सत्पात्रों को चार प्रकार के दान का देना और अहंत वीतराग जिनेन्द्र देव की भक्ति पूजा करना, ऐसे गुणों को प्राप्त हुए पतिव्रता स्त्रियों के द्वारा किये जाने वाले पुण्य के फल से अगले जन्म में देवमति के सुख का अनुभव करके वहां से चयकर उच्च कुल में जन्मी हुई स्त्रियों में यह सभी गुण रहते हैं। ऐसी कुल-. वान स्त्रियां इस जगत् में बहुत दुर्लभ हैं । "कार्येषु दासी कर्णेषु मंत्री, रूपेसु लक्ष्मी क्षमया धरित्री। स्नेहे च माता, शयनेसु रंभा, षट्कर्मयुक्ता कुलधर्मपत्नी ॥ इस प्रकार जिन स्त्रियों में ये गुण हों वे ही सच्ची स्त्रियां हैं । और अपनी स्त्री पर्याय को धारण करके पंचाणुव्रत का पालन करके मनुष्य पर्याय में आकर जिन दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करने की भागी होती हैं ।।७३६।। मादवं तांगि वैय्यत्तय्यराय बंदु तोंडि। येव मुडिडि वीडु मैयदु वर तैयलाग । नीगि नीदिया नोट बंदीर नीविरि पिरवि नीमि । घाति करिंदु वीडु कालत्ता लडेदि रेंड़ान् ॥७४०॥ अर्थ-ऐसी उत्तम स्त्रियां संयम धारण करके देवगति का सुख प्राप्तकर चक्रवर्ती पद का अनुभव करके जिन दीक्षा धारण कर मोक्ष सुख को प्राप्त करती हैं। इस कारण तुम दोनों शीलवतानुष्ठान आदि क्रिया को निरतिचार पालन करो। इससे अगले जन्म में मनुष्य Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा मंदर पुराण [ ३१३ पर्याय को प्राप्त करलोगे और इस व्रत के पालन करने से मोक्ष पद की प्राप्ति होगी । ||७४०|| तूंबन तडक्कै मावे तुयर् दु नरगं पुक्कं । कांवल कंडलुगळेल्ला मवल मुटुरिदिल् पोंदु ॥ मेंबलिलाद वेल्ला विलग नुं सुळं मींडुम् । पांबदाय् पदले वगर् पाविदान् परिरगमित्तान् ॥ ७४१ ॥ अर्थ- वह आदित्य देव आदित्य से कहने लगा कि अश्वनी कोड नाम के हाथी को सर्प ने काटा और वह सर्प मर कर तीसरे नरक में जाकर वहां सात हजार वर्ष तक अपने द्वारा पाप उपार्जन किया हुआ प्रसह्य दुख का अनुभव कर संस्थावर श्रादि अनेक पर्यायों को धारण कर वहां से चयकर उस सर्व के जीव ने उस स्थान पर जन्म लिया था जिस जगह वे किररणबेग मुनिराज ध्यान मग्न थे ।। ७४१ ।। seae मिथेंब केट वरत्तिन रागि पोग । पेरियवन् कुये सेर पिरयेइ रिलगं वंगाम् || तेरियल विळित्तु काना विरं बने पिडित्त पोदि । लरुग बेंड रैप्प मीळा वच्चिय रदने कंडार् ॥७४२ ।। अर्थ – उस समय उन मुनिराज ने उन दोनों यशोधरा व श्रीधरा श्रयिकाओं को उपदेश दिया और उपदेश सुनकर वहां से प्रायिकाओं ने अन्यत्र प्रयाण किया । उनके जाते ही उन मुनिराज ने अपने स्थान को छोडकर पर्वत की गुफा में प्रवेश किया। गुफा में प्रवेश करते ही वह सर्प ( अजगर ) जो अन्दर बैठा था, उसने इन मुनिराज को देखते ही मुंह में लेकर निगलना शुरू कर दिया । उस वक्त उन मुनिराज ने "अर्हत" इस प्रकार जोर से उच्चारण किया। यह अत शब्द उन दोनों जाती हुई आर्यिकाओं के कान में पडे । वे तुरन्त ही वापस आई और उन्होंने उस गुफा में प्रवेश किया। उन आर्यिकाओं ने देखा कि वह प्रजगर मुनिराज को निगल रहा है ।। ७४२ ।। ais as शीरि विळित्तन् लुमिळं दु थेंब । लगंड मुं शिलिपं वंगां दरवुंबकं सादु नादन् । नुगन् तिरंड नैय तोळं पट्टि यांगुटू पोल्दिन् । मुगङ कंडार् मुनिव नोड मूवरुं विळंग पट्टार् ।। ७४३ ॥ अर्थ-उन प्रायिकाओं ने ऐसा देखकर उन मुनिराज की दोनों भुजानों को पकडकर वे उन्हें बाहर खेंचने लगी । उस समय वह बलवान अजगर उन दोनों भायिकाओं को भी पकडकर निगलने लगा ||७४३ || aoret शनि शौव्वायोडरव तान् विलुंगिट्टे पो । More वेगन ट्रनोडे यारि यांगने कडंमै ॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेद मंदर पुराण नेरिगिय वरवं कोळ्ळ निड्स में मे तम्मे । लोoक्किय मनत्तगागि युडंबु विट्टोरुगं सेंड्रार् ॥७४४॥ पाविट्टन मेलोर् कोंब पनित्तिला मनत्ति नार् पोय् । काविट्ट कत्तिरे कडल पेटून कुरिशें कंमा ॥ पेर् पेटू विमानतिन कन् मुनि वर्ग प्रभनानान् । ट्री पत्तं पुरे मादर् देवक्कु तिलद मानार् ।।७४५।। अर्थ - जिस प्रकार सर्प को अंगार, केतु और शनि को राहु ग्रसित करता है उसी प्रकार मुनि व दोनों आर्यिकामों को वह अजगर निगल गया। उस समय वे तीनों समता धारण कर शांतिपूर्वक परीषह सहन करके देवगति को प्राप्त हुए। पापी अजगर ने तीनों को निगलते हुए किसी प्रकार का हलन चलन नहीं किया और कई दिन पश्चात् वह दुष्ट पापी अजगर मरकर चौथे नरक में गया । वे मुनि कापिष्ठ नाम के कल्प में शांति पूर्वक शरीर को छोडकर सोलह हजार वर्ष की प्रायु धारण करने वाले रुचिकर नाम के विमान में रवि प्रभा नामका महद्धिक देव हुआ और वे दोनों प्रार्यिकाएं प्रत्यन्त गुरण को प्राप्त करने वाले सामान्य देव हुए ।। ७४४ ।। ७४५ ।। ३१४ ] मरुविला गुणत्तिनार् पोय् वानवराग मायाक् । करुविनार पांव पोगि नरग नांगाव देवि ॥ roब वो विरडरं याम् पुगे युयरं देळंदु वीळु । Heat डिरंड वैविल्लु यरं वो रुडंव पेट्रान् ॥७४६ ॥ अर्थ - इस प्रकार दोष रहित गुरण को प्राप्त कर वह तीनों जीव देवलोक में उत्पन्न हुए और प्रतिद्वेषी वह पापी अजगर का जीव मरकर चौथे नरक में गया । वह पापी सर्प साढे बासठ धनुष शरीर की ऊंचाई को प्राप्त हुआ और पापोदय से साढ़े बारह हजार योजन ऊंचा उछल कर फिर नीचे गिर गया। इससे वह अत्यन्त दुखित हुआ उसका सारा शरीर छिन्न भिन्न हो गया ।। ७४६ ।। परत्तिनुं काक मिल्लं नवदु मिदने यार्यवु । मरत्तिनुंगिल्ले के मेवदु मदित्तिवर् तम् ॥ पिरत्तिने रिदु कोन्मिन् ट्रो गति पिरवि पेंजिल । मरतं नोतरत्तोडोंड वाळु नीर वैय्यत्तिरे ॥७४७॥ अर्थ- हे उत्तम कुल में उत्पन्न हुए मानव प्राणियों ! इस श्रात्मा को सुख शांति देने बाला अहिंसा धर्म के अतिरिक्त और कोई धर्म संसार में नहीं है । इस प्रकार भली भांति मनमें विचारते हुए उत्तम चारित्र धारण करके धर्मध्यान पूर्वक मरकर वह मुनि देवगति को प्राप्त हुआ। और वह सपं पाप के कारण मरकर नरकों में गया । इसलिये हे भव्यजीव ! यदि Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ ३१५ प्रच्छी गति पाना है तथा दुख से छुटकारा पाना है तो अच्छा कार्य करके सदैव धर्मध्यान में लीन रहो। ऐसा हरिचन्द्र मुनि ने कहा ॥७४७।। मन्नु देवियु मिळं य्य मैदनु । मिन्नव रायिना रिणिय केवच ।। शेनिई लिरंदव शीय चंदिरन् । द्रनवर उरैपत केळ धरण बेंद्रनन ॥७४८॥ अर्थ-राजा सिंहसेन और उनकी पटरानी रामदत्ता देवी तथा उनका छोटा राजकुमार पूरणचन्द्र इन तीनों जोवों ने कापिष्ठ नाम के कल्प में जन्म लिया। आगे ऊपर अवेयक में अहमिंद्र होकर जन्म लिया हुआ राजा सिंहसेन का ज्येष्ठ पुत्र सिंहचन्द्र उस अहमिंद्र लोक में प्रायु को पूर्णकर कर्म भूमि में पाया। इस विषय का हम प्रतिपादन करेंगे। हे धरणेंद्र ! उसको लक्ष्य पूर्वक सुनो-ऐसा प्रादित्य देव ने धरणेंद्र से कहा ।।७४८।। राजा सिंहसेन, रामदत्ता देवी व पूर्णचन्द्र इन तीनों जीवों का स्वर्ग प्राप्त कराने वाला छटा अध्याय पूर्ण हुआ। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सप्तम अधिकार ॥ चक्रायुष को मोक्ष प्राप्ति उलग मेन तिरुविनिडे यदि यन जंबूइत् । सलनिलवु भरत मलि धर्म खंड मदनिर्॥ पुलवर् कुगळ वरिय पुरि चक्कर पुरमेन् । एलगुडेय विरब नुरं नगर मेन उळदे ॥७४६॥ मर्च-विस प्रकार मनुष्य शरीर के मध्य में नाभि होती है उसी प्रकार जम्बू के मध्य में सुमेरु पर्वत है। उस पर्वत के दक्षिण भाग में जम्बू द्वीप से संबधित भरत क्षेत्र है। नस भरत क्षेत्र के मार्य खंड में विद्वानों द्वारा वर्णन करने योग्य ऐसा भगवान के समवसरण के समान प्रत्यंत सुशोभि । चक्रपुर नाम का सुन्दर नगर है ।।७४६॥ किडग मवि डेरुख किड माळिगै ईनोळंग। नदुबरसन माळिगे ईनमरं दिरंद नगरम् ॥ नुरंगुदिरे वेदिग योडार कुलमलंग। मदुबद मलै युरेव दीपमदु वर्नत्ते ॥७५०॥ अर्थ--उस पट्टन के चारों पोर घेरे हुए एक महान गहरी खाई है। चारों ओर सुंदर रास्ते हैं। उसके अंतर्गत छोटी २ गलियां हैं। बडे २ ऊचे सतखणे महल मकानात हैं। उन सबके बीच में राजा का राजमहल है। यदि सभी को विचार करके देखा जाय तो जिस प्रकार जम्बूढीप शोभायमान है उसी की उपमा के अनुसार यह पट्टन है। इस नगर के चारों मोर विस्तार पूर्वक गहरी खाई ई तथा छोटी २ नदियोंके समान गलियां हैं। बड़े सामन्तों के मकानात बने हुए हैं। रजा के राज महल मानों मेरु पर्वत ही है ऐसे प्रतीत होते हैं। इसलिये इस नगर को ग्रंथकार ने जम्बूद्वीप की उपमा दी है। ७५०।। तोग यनैयार कनडमार मिड मोह पाल । पाग पदि नुदलि यगळ पाडु मिर पोर पाल ॥ मेंग मेन वेग मुडे माग निल योरपाल । पूग मोदलाय मलि पुरंवनय दोरुपाल् ॥७५१॥ प्रथं-उस नगर में किनारे पर नरमयूर के समान सुन्दर शरीर वाली स्त्रियों के मृत्य करने की नृत्यशाला बनी हुई है। मोर मष्टमी व पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान प्रकाशमान मुखवाली स्त्रियां वहां नृत्य करती हैं। आकाश में जैसे काले मेघों का समूह रहता है। . Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ३१७ उसी प्रकार वहां मदनमस्त हाथियों के बांधने की गज शालाए थी। उस नगर के बाहर उद्यान में सुपारी, कदली, प्राम, नारंगी आदि २ के वृक्ष सुशोभित थे।७५१।। वारिणने येळंदु वरं वासिनिले योरुपा। लणुरयु वेर् पडे यडक्कु मिड मोरपार ।। ट्रेनुलवु कूदलवर् तिळक्कुं तेरु वोरुपा। लाने निस वरंवरिणग रवरिडंग लोरुपाल् ॥७५२॥ अर्थ-अत्यन्त जातिवन्त सुन्दर वेग से चलने वाले घोडे के ठान थे। शत्रुशाली वैरियों को नाश करने वाले शस्त्र शालाएं मानों बैरी को जिस प्रकार प्रांख फाड २ कर देखा जाता है उसी प्रकार शस्त्र शालाएं बनी हुई थीं। स्त्रियां अपने सिर में बालों को गूंथ कर जिस प्रकार मस्तक नीचा करके जाती हैं , उसी प्रकार सुन्दर २ गलियां थीं। वहां के व्यापारी लोगों की पृथक २ मंडियां थीं।।७५२।। कंदं मलर् कंदम् विळं कैलव रोरुपा। लंदनिला वरिव नुरे याले यंग कोरुपाल् ॥ वंदुलग मिरजं मन्न निरुक्कु निडमोरुपा । लेदं मिला विण्णविड मियाकुं मुरै परिदे ॥७५३॥ अर्थ-अत्यन्त सुगन्धित चूर्ण मसाले आदि बनाने वाले लोगों की दुकानें अलग २ स्थानों पर थीं। भगवान अहंत देव के चैत्यालय वहां एक ओर बने हए थे। मानवों के द्वारा पूजनीय राजमार्ग, राजमहलात एक अोर थे। इस प्रकार नगरी की शोभा का वर्णन करना मेरी अल्प बुद्धि में अशक्य है। इस प्रकार वह चक्रपुर नगर शोभनीय था ॥७५३।। इन्नग रिवर किरव नेत्तरिय कीति । मण्णन रपराजितन वयप्पुलि योडप्पा ।। नन्न मनैयार मदन नांड कैप्पुयत्त । तुन्निय वसुंदरि तुळुबिय नलत्ताळ ॥७५४॥ अर्थ-उस नगर की कीर्ति चारों ओर फैली थी। उस चक्रपुर नगर का अपराजित नाम का राजा था। उसकी सर्व गुण सम्पन्न, सुन्दर, शुभ लक्षण वालो, हंसगामिनी वसुन्धरा नाम की पटरानी थी ॥७५५।। मळले किळि तेनमिदं वान् करंबु नल्लि याळ । कुळलोत्तेळु मुळि मदनन् कोहि मैलं शाय ।। लुळं र कोलि नोकत्तुरु वोक्कोहि ईनोडु । मळलुत्तिडं वेळ नंडा नमरं दुळ गुं वळिनाळ ॥७५५॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५ ] मेरा मंदर पुराण अर्थ - तोते के शब्द, वीरणानाद के समान मधुर शब्द बोलने वाली हरिण की प्रांख के समान नेत्र वाली, पुष्पलता के समान शरीर युक्त वह वसुन्धरा मन्मथ को मर्दन करने वाली थी। ऐसी सुलक्षरगा पटरानी के साथ वह राजा विषय भोग तथा सुखोपभोग में प्रानंद के साथ समय व्यतीत करता था ।। ७५५।। बेशुडय शीय चंदन् केवच्चत्तिन् वळ वि । बास मुलवं कुळलि मंगे तन् वैटू ट् ॥ तूसु पोदि पावैयन तोंड्र यवन मन्नोर्क । काश केड वंददोरु मामरिणय दानान् ॥७५६॥ अर्थ - अत्यंत प्रकाशमान से युक्त पूर्व जन्म में तप के बल से उपार्जन किया हुआ ग्रहमिंद्र प्राप्त किया प्रीतंकर नाम का देव जो पूर्व जन्म का सिंहसेन राजा का जीव था वह मिंद्र नामदेव की आयु पूर्ण करके वसुन्धरा रानी के गर्भ में आया और नवमास पूर्ण होने के बाद पुत्ररत्न का जन्म हुआ। पुत्र के जन्मोत्सव के उपलक्ष में उस राजा ने प्रजाजन तथा याचकों की इच्छा पूर्वक दान देकर उनको तृप्त किया ||७५६ ॥ शेक्कर मलिवारिण निर्डतिगंळन बंदान् । कक्कुलं विळंग वण्रग ट्रोंडिय कनते ॥ fafteरमशालि विनं येट्टु वेरुमें । तक्क पयरं चक्करायुध नैन्निट्टार ||७५७।। अर्थ- वह पुत्र शुक्ल पक्ष की द्वितीया के चंद्रमा के समान वृद्धि करता हुआ पूर्णिमा चंद्रमा के समान अपने कुल को प्रकाशित करने वाला हो गया। जन्म होते ही बालक के सम्पूर्ण शुभ लक्षणों को देखकर राजा ने मन में विचार किया कि इस पुत्र के शुभ लक्षण ऐसे हैं जैसे शुभ कार्य करके यह मोक्ष में जावेगा । उसका नामकरण संस्कार करके शुभ मुहूर्त में उसका नाम चक्रायुध रखा गया ||७५७ || मंगयर् तङ कक्कु वट्टिलिंबु निरंमदिपोर् । पुंगुदवि शिनिडै सिगं पोगगत्ति नडिनर् ॥ शंकमल निल मडंदै शेनि मि यनिंदु | पोंगुमी मिलुडेय विडं पोल नडंदाने ||७५८ ।। अर्थ- - वह चक्रायुध बालक अपनी माता के स्तनपान से वृद्धिगत होता हुआ क्रम से सैनः २ बढने लगा । वह बालक सिंह के बच्चे के समान घुटनों के बल चलने लगा और गिरते पडते उठने लगा और शनैः २ चलने लगा ।।७५८ ।। अंजु वरुडं कडंदु नामगळोळाडि । जिले मुदर् पडे पई ड्र पिनं टॅबूस ।। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ ३१६ शेंजरम वरिद शिल डितिरन् मारन् । मैंद नोडु पोर् तोडगि वाळि तोड लुट्रान् ॥७५६॥ अर्थ-जब वह बालक पांच वर्ष का हो गया तब राजा ने एक उपाध्याय पंडित के पास कला शास्त्र प्रादि २ सीखने के लिये उनके प्राधीन कर दिया। बाद में वह राजकुमार थोडे दिनों में तर्क व्याकरण, शस्त्र-शास्त्र मादि अनेक कलाओं में उत्तीर्ण होकर युवावस्था को प्राप्त हमा ।।७५६।। अंगदन मननपराजित नरिंदु । कोंगरंतु पोलु मुले कुब्वैयन् सेव्वाय ॥ संगुळलि चित्तिर नन् माल येनुं शोंबोन् । वांगनय तोळि तुनै यागमलि बित्तान् ॥७६०॥ अर्थ-यौवनावस्था को प्राप्त हुए चक्रायुध कुमार को देखकर राजा अपराजित ने उस कुमार के लिये अत्यन्त सुन्दर सर्वगुण सम्पन्न शीलवान एक राजा की कन्या चित्रमाला के साथ विवाह कर दिया ॥७६०॥ कापिष्ठ स्वर्ग से किरणवेग का भरत क्षेत्र में प्राकर जन्म लेना। मिति नोडु मेषं विळ याडवदु पोल । वन्न नडे मोडष नमरं दोळ गुं वळिनान् ।। मन्नरुक्क वेगन मलि काविट्टत्तिन बळ वि । येन्नबर् कांपुक्ल्ब नागिय बदरित्तान् १७६१॥ अर्थ-चक्रायुध राजा अपनी पटरानी चित्रमाला के साथ विविध भांति के इन्द्रिय जनित सुखोपभोग करते हुए आमन्द से समय व्यतीत कर रहा था। देवयोग से निमित्त पाकर पूर्वभव का राजा किरणवेग का जीव जो संसार से विरक्त होकर दुर्द्धर तपश्चर्या करके समाधिपूर्वक शरीर को त्यागकर उत्तम देवगति को प्राप्त हुना, वह वहां से उत्तम स्वर्गीय सुखों का दीर्घकाल तक अनुभव करके वहां से चयकर इस कर्म भूमि में चक्रायुध रानी की पटरानी चित्रमाला के गर्भ में पाया और नवमास पूर्ण होने पर रानी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया ।।७६१॥ वानत्तु मिन्नु मुन्नान् मविइने पयंददे पोर । ट्रेनुत्त मुळि बिनादेवन पेट्र पोक्वि ।। नूनत्तै वैश्यत्तिन कनगदि निडवविमन्नन् । मामत यु?य नाम वायुर नेमिट्ठार ॥७६२॥ अर्थ-जिस प्रकार शुक्ल पक्ष की द्वितीया में प्राकाश अत्यन्त निर्मल रहता है उसी प्रकार अत्यन्त सुन्दर मुख कमल से सुशोभित उस चित्रमाला की कुक्षि से परम तेजस्वी पुत्र - Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ] मेरु मंदर पुराण रत्न के जन्मोत्सव के निमित्त राजा ने याचक जनों को विविध भांति दान देकर पुत्रोत्सव हर्षोल्लास पूर्वक मनाकर नाम संस्कार करके पुत्र का वज्रायुध नाम रखा ।।७६२।। मदि कलै वळरत्तानुं वळवदे पोल मैंदन ।। विदिइ नार् कलयुं वेदर विजयुं विळंग प्रॉगि ॥ नुदि कोंड वेर्क नल्लार् नोक्किनु किलक्कमाना । नदि पति यदनै यारायं द रिवै यर् पुरणर्क लुट्रान् ॥७६३।। अर्थ-जिस प्रकार शुक्ल पक्ष की चंद्रकला दिनोंदिन बढती जाती है उसी प्रकार राजकुमार वज्रायुध शैनः २ वृद्धि को प्राप्त होता हुआ अल्प काल में ही सकल विद्याओं तथा कलानों में तथा मायुधादि में भो निपुणता प्राप्त करके यौवनावस्था में प्रवेश किया। तत्पश्चात् एक दिन राजा चक्रायुध ने अपने पुत्र को सर्व विद्याओं व सुलक्षणों से सम्पन्न तथा तरुण अवस्था देखकर विवाह संस्कार करने का विचार किया। ७६३।। * पृथ्वी तिलक नगर का वर्णन * मरुंद वान् कुरुंचि मुल्ल नैदलुं मयंगि वानोत् । तिरुदु विन विगर्प मिड्रि इलंगिय सोलेत्तागि । परुदि इन वेम्मै याट पदार्ग सूळ माड यूदर् । पिरुदिवि तिलक मेन्यूँ पेरुडे नगर मुंडे ॥७६४॥ अर्थ-जिस प्रकार देवगण सर्व सम्पत्ति व सुख सामग्रियों से सम्पन्न रहते हैं तथा इच्छानुसार पूर्ण रूपेण इन्द्रिय सुखों का भोगोपभोग करते रहते हैं , उसी प्रकार इस पृथ्वी में छह प्रकार की ऋतुए प्रजाजनों के मनोनुकूल सुखदायिनी थी। पृथ्वी के चारों ओर वनो. पवन होने के कारण प्रजाजनों को शीत-उष्णादि की कोई बाधा नहीं होती थी। बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर ये छह ऋतुएं सदा पृथ्वी पर बनी रहती थीं; जिससे कि सभी प्रजाजन सदा सुखी रहते थे। उस नगर का नाम पृथ्वीतिलक नगर था ।।७६४।। मट्दि नगर् कु नादन मालदिवेगन मांड। पेट्रि यान् दनक्कु देवि पिरिय कारिणि बाळा ॥ मटि वर तमक्क मंगें इरतन माल यानाळ । सेट्र निरवत्तु देवनायवच्चीवर तान् ॥७६५॥ अर्थ-पृथ्वीतिलक नगर का राजा प्रति तिलक था। उनकी पट्टरानी सर्व गुरण सम्पन्न, अत्यंत सुन्दर, शीलवान थी। जिसका नाम प्रियकारिणी था। जो पूर्व जन्म में श्रीधरा नाम की स्त्री थी, वह आर्यिका दीक्षा लेकर उत्तम चारित्र पालन करके दुर्वर तपश्चर्या करती हुई अंत में समाधि पूर्वक शरीर को त्याग करके देवगति को प्राप्त हुई। वहां के Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ १२१ स्वर्गीय सुखों का दीर्घकाल तक उपभोग करके वहां की प्रायु पूर्ण करके इस नगर के राजा प्रतितिलक की पट्टरानो प्रियकारिणी के गर्भ में प्राई और नवमास पूर्ण होने के बाद उत्पन्न हुई । उसका नाम रत्नमाला रखा गया ॥७६५।। * रत्नमाला की शोभा का वर्णन . कपंग वल्लिई करिण मंजरिये पोहुँ । पोर् पुर तिरुविन पांद पूमग ळिरके कामन् ।। नर्कनत्तूरिण नंग तन् करणे काळूरु ।। पोदिर कबळी नल्लार् पुगळेन परंदव लगुल् ॥१६॥ अर्थ-वह रत्नमाला द्वितीया के चन्द्रमा की कला के समान शनैः शनै: बढ़ती गई और उसके शरीर की शोभा दीप्तिमान होती गई। उसका चरणतल रक्तकमल के समान सुन्दर, एडी तरकश को भांति, जंघा कदलो के समान सुशोभित थी। जिस प्रकार महापुरुषों की कीर्ति सर्वत्र फैल जाती है उसी प्रकार उस रत्नमाला कन्या के सौंदर्य की शोभा सर्वत्र फैल गई। उसका विशाल हृदय स्वर्ण कलश के समान प्रत्यंत सुन्दर था ।।७६६।। मिन् सुळि नर को कोर कैइर् ट्रामम् देय तोळ । पोन् पुनै यमि सेपि निने मुलै बलंपुरिइन् । दन् सुरि पोल नंगै मगल विरुक्क कोव्वं । नन् कनिया सेम्बाय मुरुष नर शिरिय मुत्तम् ॥७६७॥ अर्थ-रत्नमाला का कटिभाग केहरि के समान, नामि पानी में उठने वाले भवर के समान, कंठ शंख के समान, स्तन सुन्दर स्वर्ण कलश के समान, प्रपर टेसु पुष्प के समान रक्त तथा दंत, पंक्तियां मुक्ताफल मोती के समान प्रत्यंत मुशोभित लगती थीं ।।७६७।। मुगतिर यळपलाए पोन्बोळगुब दोक मूर्छ। बगुत्त तन्मुगत्तिर् केट बळ गैर कादुम् ॥ नगत्तिनु कन्लोप्पिल्ले नचिले पुरवं मंग। मुगत्तिनु कोप्पु तिगन् मुयलिटि इरुवं रामे ॥७॥ पर्थ-उसके कान अत्यंत सुन्दर विशाल थे। नयन मृग के समान तण वृकुटि झुके हुए धनुष के समान थी ।।७६८।। मेरि, मंतोळुगि मी निलत्तिन् कविर येल्लास । परंवोह कई बाकि तदान करि पंदन ।। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण पुरंबुळ वळमु सोल्लिर पुरिदुळो पार्ष कन्न। तिरंबिडा वर्गय सेग्युं शेप्पुव दिनि मनेन्नो ॥७६६॥ पर्य-उसके केश इस प्रकार चमकते थे जैसे कि अनेक नील रत्न एक साथ एकत्रित होकर प्रकाशमान होते हैं। उसकी शोभा जिसने एक बार देखली उसकी इच्छा किसी अन्य स्त्री को देखने की नहीं होती थी। उसमें इतने सुलक्षण विद्यमान थे जिसकी उपमा संसार में किसी अन्य स्त्री से नहीं की जा सकती बी ॥७६६॥ मइलिय लन्नं पोलु मेन्नई मान्ने नोक्षं। कुइल् कुळन मळले नल्लि या मोळिमलर् कोडिय नाडन् । नियल वेला सूदरार चक्करायुद नरितु पिन्ने । तेव्यले बज्जिरायुवक तरुगरण तदु विट्टान ॥७७०॥ पर्व-इस प्रकार भनेक शुभलक्षणों से सम्पन्न राजकुमारी रत्नमाला के गुण तथा सुन्दरता की प्रशंसा मुप्तचर दूतों द्वारा सुनकर चक्रायुध राजा ने अपने सुयोग्य राजकुमार बचायुष के साथ सुभविवाह करने का विचार किया। समय पाकर अतितिलक राजा ने अपने दूतों को रत्नमाला के पिता के पास विवाह निश्चित करने के लिये भेज दिया।।७७०॥ तूबर बंडुरंत माद केटदिवेगन सोमान् । पोदुलास कुळलें मैंदन पुनरं विडिर पुगचि तामेन ॥ ट्रियादुनी रुरतदेल्ला मिसदन नेन्न प्पिन्न । मोदि नूल वर्गन वेल्वि यागुदि मेरियिर सैवार् ॥७७१॥ मर्च-राबा चक्रायुध के दूतं पृथ्वीतिलक नगर में जाकर अतितिलक राजा के पास माकर विवाह के संबंध में विचार-विमर्श किया। इसे सुनकर राजा प्रतितिलक अंत्यंत हर्ष पूर्वक कहने लगा कि यह तो परम सौभाग्य है कि वचायुष जैसे सुयोग्य राजकुमार के साथ यदि मेरी पुत्री का शुभ विवाह हो जाय तो जगत में विशेष रूप में कीर्ति व मान्यता फैल बायेगी। हे दूत ! जो तुम शुभ संदेश राजा की ओर से हमारे लिये लाये हो, वह हमें मान्य है। मेरी सम्मति अपने राजा से जाकर कहो। तत्पश्चात दूत वापस चक्रपुर नगर में पाकर राजा से सभी शुभ समाचार कहे। यह मंगलमय समाचार सुनते ही राजा ने एक ज्योतिषी को बुलाकर शीघ्र हो विवाह का मुहूर्त निकलवाया और पं. जैनोपाध्य के द्वारा विवाह संस्कार सम्पन्न किया ।॥७७१।। करि मलर कोरिय नाळे कावल कुमर नेवि । वरि उतरक्के वेळ पिग्यिोडु मगळ्ववं पोर् ॥ कोहि मलर पंचर कंडम वावियं काउमेदि । परिमिस पट्ट विम्बर परिविधि नुगड नाळिल ॥७७२।। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ३२३ अर्थ-सुगंधित सुन्दर सुमन की भांति मृदु शरीर वाली परम सुन्दरी राजकुमारी रत्नमाला के साथ विधिपूर्वक कुमार वज्रायुध का शुभ विवाह सम्पन्न हो गया और बाद में दोनों दम्पति अत्यंत हर्षोल्लास पूर्वक परस्पर में रतिक्रीडा करते हुए स्वछंद रूप से वनोपवन में इस प्रकार रहने लगे जैसे कोई मदोन्मत्त गज हस्तिनी के साथ वन प्रदेश में स्वच्छंद हो कर भोगोपभोग करके सुखी होता है. ।।७७२॥ इब नीर कडले येरि इशोदर यान देव । नंबिनार शिरुवनाना नर गण माले कंड.॥ नंदिय मदिये फंड नळि कडल पोंड ज्ञाल । मंदमिलुवगै यैद वरद नायुव नेंड्रारे ।।७७३।। अर्थ-पूर्वजन्म में यशोवरा नाम की जो प्रायिका थी वह अपने उत्तम तप के प्रभाव से समाधि पूर्वक शरीर को त्यागकर कापिष्ठ कल्प में पर्याय प्राप्त की और स्वर्गीय संखों को भोगने के बाद वहां की आयु पूर्ण हो जाने पर स्वर्ग से चलकर पृथ्वीतल में रत्नमाला के गर्भ से पुत्र रत्न रूप में जन्म लिया। उसका जन्म होते ही प्रजाजनों में इस प्रकार अपार हर्ष उत्पन्न हुआ जैसे पूर्ण चंद्रमा के समय सागर में ज्वार भाटा उठता है। उसका नाम रत्नायुध रखा गया ।।०७३।। वारि सूळ वैयत्तिन् कन् धरमय केडेक्क बंद । . पारिजादत्तिन् कंडिर् परि विडि बद्दु मैंदन् । वेरिसूळ कूद लार वेल्विया लेवि ईबम् । पूरिया मनत्त नागि भोगत्ति नाट्र वीळंवान् ॥७७४॥ अर्थ-कल्पवृक्ष प्राप्त हो जाने पर जिस प्रकार सांसारिक समस्त सुखों की उपलब्धि से प्राणी हर्षित होता है, उसी प्रकार रत्नायुध राजकुमार सर्व सुविधाओं एवं सुखों से समन्वित प्राप्त हुआ। और वह राजकुमार अनेक राजकन्याओं के साथ विवाह करके सुखपूर्वक काल व्यतीत करने लगा ।।७७४॥ तानुं तन्मगर्नु पिन्ने यवन् मगन् मगनु मायपे । राणंदत्तछंदु गिड़ नल्लपरादितन् पो॥ यूनन तीर तवत्ति लोट, शेरित मादवन येत्ति । ईनं तोविन कटकाकु मुपाय मोन्निरंच मेंड्रान् ॥७७॥ अर्थ-उस समय अपराजित राजा अपने पुत्र पौत्रादि विपुल परिवार को देखकर प्रत्यंत हर्षित हुप्रा । कुछ दिनों के बाद एक पिहितास्रव नामक मुनि महाराज कहीं से विहार करते हुए प्राकर नगर के उद्यान में ठहरे। मुनिराज का शुभागमन सुनकर राजा. अपराजित अपनी रानी सहित विनीतभाव से जाकर दर्शन बंदनं करके मुनि महाराज से निवेदन किया कि Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ] मह मंगर पुराण हे स्वामिन् ! अनादि काल से प्रात्मा के साथ रहने वाले कर्म शत्रु को नाश करने के लिये कौनसा प्रयत्न है ? ॥७७५।। विनयुइर कटु वोटिन् मै मै ये रितु तेरि । तिन यनत्तानं पदिर सेरिविला नेरिये मेविट ॥ तनं विन नोकि निड तन्मै यनाग नोक । विनयनंतान नीगुं विकारंगे फोडु मेंड्रान् ॥७७६॥ अर्थ-यह सुनकर पिहितास्रव मुनिराज कहने लगे कि हे राजन् ! कर्म स्वरूप, जीवस्वरूप, जीव के परिणाम द्वारा पाने वाले आस्रवों का स्वरूप तथा मोक्ष स्वरूप को सम्यज्ञान से रुचिपूर्वक समझकर दर्शनविशुद्धि को प्राप्त करने पर द्रव्य में रागद्वेष रहित होकर सम्यक्चारित्र को पाकर अनादिकाल से आत्मा के साथ लगे हुए कर्म शत्रु को नष्ट करके मात्मा के शुद्ध स्वरूप को वीतराग परिणति द्वारा दर्शन करने से सभी कर्मों का नाश होकर मोक्ष पद की प्राप्ति होती है ।।७७६।। येईल मुडिय मन्नन् चक्करायुदनुक्कीदु । कंड़े नत्तिरंड तोळाय कुवलयं कातु शिण्णाळ ॥ रो. मन् कावलुपार शिरवनुक्की पोगि। निद्रिता निळमै नींगु नोयन तोळ्दु नीत्तान् ॥७७७॥ अर्थ-इस प्रकार पिहितासव मुनिराज के द्वारा धर्म के यथार्थ स्वरूप को सुनकर अपराजित राजा ने अपने राजपुत्र चक्रायुध के राजतिलक कर दिया। पुनः राजा अपने पुत्र को उपदेश देता है कि हे राजकुमार ! मेरे समान न्यायनीति के द्वारा तुम भी राज्य करना जैसा कि मैं अब तक करता पाया हूं। और राज्य करते २ जिस प्रकार इस राज्य संपत्ति को मैंने स्याग करके तुम को राजतिलक देकर जिन दोक्षा धारण कर रहा हूं, उसी प्रकार तुम भी राज्य शासन न्यायनीति पूर्वक करते हुए राज्य संपदा त्याग करके, अपने पुत्र को राज्यभार संभलाकर मोक्ष सुख की प्राप्ति के लिये जिन दीक्षा ग्रहण करना ॥७७७॥ अपराजितत् मादवनायिन पिन । नुवरोद मुडुत्त निलत यला ॥ चक्करायुदनुं तळराम निरुत् । बपराजितनुं मवनाइनने ॥७७८॥ पोरिमीदु पुलत्तेळु भोग मेला । मिरवादिरवू पगलं नुगरा ।। निरैया बोळिय पिनेरपिनि। बिरगे इव यें. बेहतनने ॥७७॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ३२५ अर्थ- अपराजित राजा के दीक्षा लेने के बाद उनका पुत्र चक्रायुध न्यायपूर्वक राज्य करते समय अपने पराक्रम से जिस प्रकार वन में सिंह से सब भयभीत होकर मान जाते हैं उसी प्रकार सब शत्रु राजानों को इसने परास्त कर लिया। राजा चक्रायुध राज करते हुए पंचेंद्रिय सुख को मर्यादा पूर्वक भोगता था । वह मन में विचार करने लगा कि अनादि काल से पंचेंद्रिय सुखों को भोगने पर भी प्रात्मा की तृप्ति इनसे नहीं हुई। जिस प्रकार अग्नि में ईंधन डालने से वृद्धि होती है उसी प्रकार पंचेंद्रिय सुख को जितना २ अधिक भोगा जावे उसकी तृप्ति नहीं होती है; बल्कि वृद्धि ही होती है । विचार करने से वैराग्य भावना उसके मन में उत्पन्न हो गई ।।७७८६ ।। ७७६॥ रिवालरिया वरिया वदनार् । पिरिदाम् विनय-पिनिया वदना ॥ निरंया दुनिला दुविरु पुरगिन् । रुरवे मुयल्वा रुग्णर् बंड्रिलरे ||७८० ॥ ग्रथं- - इस प्रकार वैराग्य भावना से युक्त होकर चक्रायुध राजा मन में विचार करने लगा कि पदार्थों के हेयोपादेय स्वरूप को भली भांति न जानकर वीतराग शुद्ध स्वरूप से युक्त आत्मा के स्वरूप को न जानने वाले अंज्ञानी जीव पंचेंद्रिय जन्य विषयों में मग्न होकर उस क्षणिक विषय सुख के लिये अनेक प्रकार के पापों का संचय करके उससे तीव्र कर्मास्रव का बंध करके इस चतुर्गति में भ्रमरण करते चले आ रहे हैं ||७८०|| विनयान् वरुवियम् वेरुतिडवे । तनं ये नुदलि तळरा वर्गया ॥ निनै वान् विनं नोगि निरंदुडने । पुरवैया दुपोरुंदु मनंत सुगं ॥ ७८१ ॥ अर्थ- शुभाशुभ कर्मों के द्वारा आने वाले संसार-सुख को त्याग कर भ्रात्म-भावना में मग्न होकर उन कर्मों को चार प्रकार के धर्मध्यान ( प्राज्ञाविचय, अपायविचय, विपाक विषय और संस्थान विश्चय के द्वारा कर्मों का नाश करने से अनंत प्रात्मसुख की प्राप्ति होती है । ऐसा विचार किया । भावार्थ -- धर्मध्यान के दस भेद इस प्रकार से हैं: 1 दसहं धम्मभारणारणं । दशानां धर्मध्यानानामपाय विचयोपायविचय-विपाकविचय, विरागविचय- लोकविचय- भवविचय- जीवविचय- माज्ञाविचय- संस्थानविवय- संसारविचय लक्षणनाम् । तत्र विचयः परीक्षा । १) सन्मार्गान्मिथ्यादृष्टयो दूरमेवापेता इति चिन्तनमपायविचयः । मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रेभ्यो वा जीवस्य कथमपायः स्यादिति चितनमपाय विचयः । (२) दर्शन मोहोदयादिकारणवशाज्जीवाः सम्यक्दर्शनादिभ्यः पराङ्मुखाः इति चिन्तनमुपायविचयः। ३) कर्मणां ज्ञानाव ररणादीनाम् द्रव्य-क्षेत्र-भय-काल- भाब-प्रत्ययं फलानुभवनं प्रति Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ] मेर मंदर पुराण प्रणिधानं विपाकविषयः। (४) संसारदेहविषयेषु दुःखहेतुत्वानित्यत्वचितनं विरागदिचय: (५) ऊधिोमध्यलोकविभागे नानाद्यनिधनादिस्वरूपेण वा लोकस्वरूपचिंतनं लोक विचयः। (६) नरकादिचतुर्गति-भव-चिंतनं भवविचयः (७) संति (विद्यमान) जीवा उपयोगस्वभावा अनाद्यनिधना मुक्ते नररूपा इत्यादि जीव-स्वरूप-चिंतनम् जीवविचयः । (८) सर्वज्ञागमं प्रमाणीकृत्यात्यंतपरोक्षार्थावधारणमाज्ञाविचयः । सर्वत्र ज्ञातार्थसमर्थनंवा, हेतुसामर्थ्यात् । (६) अधोमध्योवलोकस्य शराववजमृदंगाद्याकारचिंतनं संस्थानविचयः (१०)स्वोपात्तकर्म-विपाक-वशादात्मनो भवांतरा वासिससारः। तत्र परिभ्रमण जीवः पिता भूत्वा पुत्र पौत्रश्च भवति, माता भूत्वा दासो भवति, दासो भूत्वा स्वाम्यपि भवतिइति चितनं संसार विचयः । एतेषां द्वादशसंयमप्रभृतीनां दशधर्म्यध्यानपर्यंतानामनुष्ठाने यः कश्चित् क्रोधादिवशावसिको दोषो जातस्तत्रालोचनां कर्तुमिच्छामि । धर्मध्यान के चार भेद के साथ २ दशभेद भी हैं: १. अपायर्यावचय, उपायविचय, विपाकविचय, विरागविचय, लोकविचय, बहुविचय, जीवविचय, माज्ञाविचय, संस्थानविचय तथा संसारविचय भेद से दश प्रकार हैं। १. सन्मार्गान्मिथ्यादृष्टयो दूरमेवमुपेता इति चिंतनमयपायविचयः । मर्ष-मिथ्यादृष्टि जीव सन्मार्ग से दूर हैं, उन्हें वह पद किस प्रकार प्राप्त होगा, यह चितन करना अपापविचय है। मिथ्या दर्शन ज्ञान चारित्र से समन्वित जीव का कैसे सन्मार्ग में प्रवेश होगा, यह चिंतन अपापविचय है। २. दर्शन मोह के उदय होने के कारण जीव सम्यक् दर्शनादि से पराड्.मुख हो रहे हैं । यह चिंतन करना उपायविचय है । ३. ज्ञानावरणादिक कर्मों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव प्रत्यय फल के अनुभव प्रति प्रणिधान विपाकविचय है। ४. संसार शरीर विषयों में दुख के कारणभूत अनित्यत्व का चिंतन करना विराग विचय है। २. कचलोक, अधोलोक, और मध्यलोक के स्वरूप का चिंतन करना लोकविचय है ६. नरक, निगोदादि चारों गतियों में होने वाले दारुण दुःखों का चितन करना भवविचय है। ७. उपयोग स्वभावी अनादि निधन मुक्ति श्री से इतर अन्य जीव स्वरूप का चिंतन करना बीवविचय है। ८. सर्व शास्त्रों को प्रमाणित करके अत्यन्त परोक्षार्थ अवधारण प्राज्ञाविचय है । अथवा हेतु सामर्थ्य से सर्वज्ञ ज्ञानार्थ का समर्थन करना। १. अधोलोक, मध्यलोक, ऊर्वलोक के मृदगांदि आकार (स्वरूप) का चिंतन करना संस्थान विचय है। १०. पूर्वभव में अपने द्वारा किये गये सद् असद् कर्म विपाक के वश से आत्मा का भवान्तर में जन्म धारण करना संसार है। उस अपार संसार सागर में परिभ्रमण करता हुमा Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंवर पुराण [ ३२७ जीव पिता हो जाने के बाद पुत्र पौत्र होता है, माता होकर भगिनी भार्या और कन्या होता है, स्वामी होकर सेवक होता है, यह चिंतन करना संसार विचय है। इन बारह प्रकार से संयम आदि तथा दश प्रकार के धर्मध्यान पर्यंत अनुष्ठान करने में जो कोई क्रोधादि वश से देवसिक दोष उत्पन्न हो गया हो उसकी आलोचना करने की इच्छा करता हूँ॥७८१॥ मुडि विल्लदु मुन्नमु मेन करणदर् । दृडयाम् विनय तवनोदि इनिर् ।। टूडेवन् निनि यौवरसन नीनया। वडिवेल बन् वज्जिर वायुदन् मेल् ॥७८२॥ अर्थ-इसलिये मेरे अंदर अनादि निधन ऐसे आत्मस्वरूप को न समझ कर मैं अनेक पाप कर्मों का उदय करता हुअा संसार में भ्रमण करता पाया हूँ। इस कारण मैं इन बंधे हुए कर्मों की निर्जरा करके जिनदीक्षा लेकर अपना कल्याण करने की मेरो भावना है। इस प्रकार नह चक्रायुध राजा वैराग्ययुक्त होकर अपने पुत्र वज्रायुध को बुलाकर कहने लगा ।।७८२॥ मुडियु पडियं मुदला यिनचे । तडै वेलरसन नपराजित नाम् ॥ वडिविन मुनि वन् नडिमामलर । मुडिइन् ननिया मुनियायिनने ॥७८३॥ अर्थ-हे वज्रायुध ! अनादि काल से मैंने स्वपर का ज्ञान न करके तथा अपने प्रात्म स्वरूप को न जानकर बाह्य पंचेन्द्रिय स्वरूप में मग्न होकर विषयांध होकर मैंने समय व्यर्थ ही बाह्य वस्तुओं में गंवा दिया। अब मेरे प्रात्मा में इन पंचेंद्रिय सुखों से विरक्त होकर आत्म-कल्याण हेतु जिन दीक्षा लेने की भावना है, अब तुम इस राजभार को सम्हालो। तदनन्तर राजा ने पुत्र का राज्याभिषेक किया और कहने लगा कि जैसे मैंने अब तक राजभार सम्हाला है, उसी प्रकार तुम भी धर्मध्यान पूर्वक प्रात्म-कल्याण हेतु अपने पुत्र को राज्यभार देकर जिन दीक्षा लेना। यही मनुष्य जन्म का सार है । ऐसा उपदेश देकर उसने चक्रायुध अपराजित नाम के मुनि के पास जाकर भक्ति पूर्वक नमस्कार किया और गुरु से प्रार्थना की कि मेरी आत्मा का इस संसार से उद्धार करो। मुनि महाराज ने तथाऽस्तु कहा मौर विधि पूर्वक जिन दीक्षा दे दी ।।७८० चक्करायुधनु पोगि तादै तन्पादं सांदु। मिक्कमा मुनिवनागि वेळ्ळि. यादि योगि ॥ निक्कु वेविनंग नींग विरापगल पडिम निड.। पक्कनोन पिरवि योडु भावने पईड, शेंड्रान् ॥७४८॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ] मेक मंदर पुराण इस प्रकार उस चक्रायुध राजा ने अपराजित मुनि से जिन दीक्षा ग्रहण की और तीनों काल अर्थात् प्रातः, मध्याह्न तथा सांयकाल में योग धारण करने वाले हो गये । वह पक्षोपवास, मासोपवास करते हुए धर्मध्यान से युक्त तपश्चरण करने लगे ।।७८४।। . नेरिवळि येंगुम् सेल्लुमीचि नर् पचि निड। शेरिवि निर् पुरिगळारु सेरित शैयमत्तनागि ॥ येरुवर्ग काय मोवि येरुळ पुरि येडक्त्तोड़ें। मरुतर वेरियं सिंदै वळुवर तळुवि निडान् ।।७८५॥ अर्थ-वे चक्रायुध मुनिराज अपने प्रात्म-चिंतन में समय को व्यतीत करते हुए स्पर्श, रस, गंध मादि विषयों को रोकते हुए, सम्यक्चारित्र में रत होकर षट्काय जीवों के संयम का पालन करते हुए प्रात्म गुण की वृद्धि के लिये आने वाले कर्मों का नाश करने के लिये धर्मध्यान में लीन हो गये ॥७८५।। वेळ्कर पसियि नोइल वेंडलिर पेरामै तन्निर् । काक्षि ई लिरुत्तल पोदल् किडत्तलि लुडामै तन्निर् ॥ काक्षिई लरिविन ज्ञान मिन्मेर कलंगि चित्त । माक्षिय शलाव कत्तु परिष पन्मूड वेडान् ॥७८६॥ वेप्प, कुळिलं मासु शिर्प, तुरतुं वेजोर् । सेप्पलं कोलयुं तिल कुत्तलं तीय ऊरं॥ तुप्पुरळ वाई ना तोडचियां परिष युळ्ळिट् । कोप्पिला पुरत्तु निड प्रोवदु मोरंगु वेडान् ॥७८७।। अर्थ-वे मुनिराज आत्म-भावना की स्थिरता तथा सम्यकज्ञान के बल से बाईस परीषह को जीतने वाले हो गये । बाईस परीषहों के नाम इस प्रकार हैं: (१) क्षुधा (२) पिपासा (३) शीत (४) उष्ण (५) दंश मशक (६) नग्नता (७) परति (८) स्त्री (8) निषद्या (१०) चर्या (११) शय्या (१२) आक्रोश (१३).बध (१४) याचना (१५) अलाभ (१६) रोग (१७) तृण स्पर्श (१८) मल (१६) सत्कार पुरस्कार (२०)प्रज्ञा (२१) प्रज्ञान (२२) प्रदर्शन । ये परीषह मोक्ष मार्ग के साधन में आने वाले कष्टों को देने वाली हैं। यह परीषह पूर्वोपाजित कर्मों के उदय से होती हैं ॥७८६॥७८७।। चेतन मिदरमायुं शेल्वन निर्ष वायु । मेदुवि नियबि नागुं विकारियाय विकारि इडि। योदिय उरुव मागि इतरमा युलग मागि । नीवि यार पोरुळ्ग निड निल मै यै निनत्तु निडान् ।।७८८॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ३२९ - -- - - - अर्थ-जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ऐसे इन छह द्रव्यों में से जीव तो जीव द्रव्य है और बाकी पांचों अजीव द्रव्य हैं। जीव द्रव्य और पुदगल द्रव्य इन दोनों के मिलने से गमनागमन की शक्ति उत्पन्न होती है और धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य हैं सो स्थिर हैं। यह परस्पर सहकारी कारण होने से प्ररूपते हैं । व्यवहार नय से जीव और पुद्गल द्रव्य विभाव पर्याय रूप हैं । और धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये अविकारी हैं । और उसमें पुद्गल द्रव्य वर्ण, स्पर्श, रस और गंध से युक्त हैं। उसमें जोव, अजोव, धर्म, अधर्म, प्राकाश और काल ये प्रमूर्तिक है। यह प्रत्येक द्रव्य उत्पाद व्यय ध्रौव्य से युक्त है । इस प्रकार चक्रायुध मुनि मन में भेद ज्ञान.से विचार कर कि इससे भिन्न यह प्रात्मा है । ऐसा समझ कर अपने प्रात्म-स्वरूप में मग्न हो गये ।।७८८।। अनुविना लळक्क मूंड, कयंगिय पदेशमागु । मनुविनुक केग मागु मनंद मा काय देश । मिनला काल मंडा मेदिळि वाय नंदम् । परिण विला भवंग रुप्पोपाद मूर्चन निनंतान् ॥७८६॥ अर्थ-पुद्गल द्रव्य परमाणु वाले हैं। और अपने प्रदेश से तीन लोक में फैलते हैं। यदि तीन लोक में इनके नाप की जावे तो जीव, धर्म, अधर्म, इनके प्रसंख्यात परमा गु होते हैं। पुद्गल परमाणु और काल प्रदेश इनका एक प्रदेश होता है । आकाश के अनन्त प्रदेश होते हैं। यह छह द्रव्य परस्पर विरोध रहित प्रापस में मिले हुए रहते हैं । निश्चय परमार द्रव्य काल व्यवहार पर्याय की अपेक्षा से भूत, भविष्यत् और वर्तमान ऐसे काल तीन प्रकार के हैं। और उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, ये दोनों काल अनादि से चले आये हुए हैं। गर्भ, उपपाद मौर सम्मूर्छन ये तीनों जीव के जन्मस्थान कहलाते हैं। इसमें कौनसा छोडना है और कोनसा ग्रहण करना है-इन सारी बातों पर विचार करके हेय उपादेय का विचार कर जो पदार्थ, उपादेय था उसको ग्रहण कर लिया ॥७८९॥ उदयक्कि लुपशमत्तिर् केटिर् केटवियु तन् कट् । पदमोत्त परिणामत्तास पचं पावत्तै युन्नि ।। इदमुत्ति इद° पाय मिरदन तिरयन तोय । मद मदर् कुपायं तन्नै इद मिन्मै मनत्तुळ वैत्तान् ॥७९॥ अथं-ऐसे हेय उपादेय के बारे में जानकर उपादेय को ग्रहण कर वह मुनिराज ने २१ प्रकृतियों में से कर्म प्रकृति के उदय से सेनी पचेंद्रिय जीवों को काललब्धि के निमित्त से ७प्रकार के दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय को उपशम करके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय कर्म के क्षय और क्षयोपशम परिणाम से उत्पन्न होने से पांच प्रकार के परि. णामों को अपने मन में ध्यान करके मोक्ष सुख को प्राप्त करने में सामर्थ्य रखने वाले सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों को व्यवहार और निश्चय नय के सम्बन्ध में भली भांति समझकर मोक्ष हेतु धर्मध्यान को धारण किया। ७९ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. ] मेरु मंदर पुराण विनयेट्टि नुदयत्तागुं विकारंगळ् विपाक मेंड.। मनं वैत्तुमुनिवन् सोल्ल बज्जरायुधनं भोग। तनै विट्ट मनत्तनागि सेदंगै चोरडिइर सेल्लु । मन मुक्कु मिरद माल यार वत्ति नरिदिर् पोंडार् ॥७६१॥ मर्थ-पाठों कमों के उदय से विकारी भाव यह सब कर्म के विपाक हैं-ऐसा मन में विचार करके अपने पिता वक्रायुध मुनि जिस प्रकार वैराग्य से युक्त तपस्या करते थे उसी प्रकार वज्रायुध ने भी अपने मन में वैराग्य लाकर स्त्री, पुत्र, वैभव आदि को त्याग कर दिया ॥७६१।। भोगित्त भोगन ताने पुदिय वै यागि तोडि। मोगत्त पेरुक्क लल्लान् मुडिवंदा चेल्व मायुं ॥ मेगत्तिन् मिनिन् मोयु मिवटै नामुन्नं नींगि। नागत्तै वोट नल्गु नद्रवं पुरिदु मेंड्रान् ॥७६२॥ अर्थ-राजा वजायुध ने सोचा कि भोगोपभोगवस्तु ही मुझे प्रिय दीखती है इनको अनादि काल से मैं देखता पा रहा है। भोगोपभोग वस्तु ही सारी देखता आया हूँ । वास्तव में मात्मा का स्वरूप ही एक सच्चा है । आज तक भोगोपभोगवस्तु कोही भोगते हुए अनेक प्रकार का अनुभव किया और इस सम्पत्ति को मैंने मेरी समझ कर भोगा । वह प्राकाश की बिजली को चमक के समान क्षणिक है। इसलिये यह सारी पुद्गल वस्तुएं क्षणिक हैं। सभी मर्यादा पूर्ण होने पर प्रात्मा से अलग होने वाली हैं। इसलिए यह सब वैभव आदि मुझको छोडे इससे पूर्व ही मैं इनको छोड दूं तो ठीक है । अतःप्रखंड मोक्ष सुख को उत्पन्न करने वाले मोक्ष मार्ग को ग्रहण करने की मन में भावना उनके उत्पन्न हुई अर्थात् दीक्षा लेने की भावना जागृत हुई। ॥६ ॥ इरद नायुदन कूवि मडियिनै ईदु वेदन् । विरमना मनंत्त नागि वेळ्कइन् वोळ्दु पोगि। नुरंयुना बगैर पिन्ना लक्कर विडत्तिर् पाव । निरंना लुदयं शेय्य निड्डूिं तुंव मेंडान् ॥७६३॥ अर्थ-इस प्रकार वज्रायुध ने वैराग्य से युक्त होकर अपने पुत्र रत्नायुध को बुलाया और उसको राज्यभार सम्हला दिया और कहा कि यदि तुम इस संसार में लीन होंगे तो पूर्व कर्म के उदय से इस सारी सम्पत्ति का नाश होकर अनेक प्रकार के सुख दुख भोगने पडेंगे। इसलिये इस संपत्ति में मोहित न होकर परम्परा मोक्ष प्राप्ति हेतु की भावना से पंचेन्द्रिय विषयों में मूच्छित न होकर भगवान जिनेन्द्र के कहे हुए मार्ग में रुचि रखकर यथाशक्ति अपने जीवन को सुधारने की उत्कंठा रखो ॥७६३।। तिरुमलि यार माल तिळक्कं तिन् पुयत्तरागि। युरुमलि कळिदि नुच्चि योगिय कुडई नीळल् । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेद मंदर पुराण [ ३३१ बरुमवर् मुन्बु ताम्र से मल्विनं मायंद पोवि । नेरि रु तिरुवि नोनार कुळं यरा ईयल् वर् कंडाय् ॥ ७९४ ।। अर्थ - हे राजकुमार सुनो ! मोती का हार माला, अनेक प्रकार के रत्न आभरण आदि को धारण कर हाथी पर बैठकर सफेद छत्र को धारण कर नगर में घूमने वाले राजा लोगों के पूर्व जन्म में उपार्जन किये हुये पुण्य ही का यह सब फल है । यदि प्रशुभ कर्म का उदय श्री जावे तो सभी संपदा का क्षणभर में नाश हो जाता है । और राजा भी पराधीन हो जाते हैं । चक्रवर्ती के पास कितनी संपदा होती है । इस बारे में प्राचार्यों ने त्रिलोकसार में गाथा ६८२ में कहा है: "चुलसी दिलक्खभाद्दिभरहा हया विगुणणवयकोडी प्रो । वरण हि चोट्स रयरणं चक्कित्थीश्रो सहस्सछाउदी || चौरासी कल्याण रूपी हाथी हैं, चौरासी लाख रथ हैं, अठारह करोड घोडे हैं। छह ऋतु योग्य 'वस्तु का देने वाला कालनिधि है । भाजन पात्र का दायक महाकालनिधि है । न का दायक पांडुनिधि है । प्रायुध का दायक माणवकनिषि है । वादित्र का दायक शंख निधि है । वस्त्र का दायक पद्मनिधि है । श्राभूषरण का दायक पिगल निधि है । नाना प्रकार की रत्ननिधियां हैं । ये नौनिधि हैं। चक्र प्रसि छत्र, दंड, मरिण, चमर, काकिरणी, यह सात चेतन और गृहपति, सेनापति, गज, घोडा, शिल्पी, स्त्री, पुरोहित ये सात सचेतन, ऐसे चौदह रत्न हैं । छियानवें हजार स्त्रियां हैं। ऐसी चक्रवर्ती की संपदा है। इतना होने पर भी चक्रवर्ती की तृप्ति नहीं हुई । यह सभी पूर्व जन्म के पुण्य का उदय है परन्तु इनको संसार का कारण तथा क्षणिक समझकर चक्रवर्ती भी इसको त्याग कर जिन दीक्षा ले लेता है । इस प्रकार हे पुत्र ! तुम भी प्रजा का न्यायपूर्वक पालन करते हुए धर्मध्यान करना और भविष्य में तुम भी अपने पुत्र को सदुपदेश देकर राज्याभिषेक करके जिन दीक्षा धारण करना ।।७६४।। पचनल्ल मळि इन् कट् परुमरिण पवळत्तिन् काळ् । मंजिन मेंलन सोलार्गळ वरुडमा पोटू इंड्रार् ॥ मुन्वताम् शेद तीमै मुळेतुळि कनत्तिन् बेराय । तुंजि नार् पोल मालं तुगनिल तुरंवर् कंडाय् ॥७६५॥ अर्थ – हे कुमार ! अत्यंत मृदु शय्या पर सोने वाले श्रीमंत भी पूर्व जन्म के पुण्य संचय के बाद जब पाप कर्म का उदय आ जाता है तो उनको भी कंटकीय भूमि पर सोना पडता है और महान नीच से नोच कर्म करना पडता है । यह प्रत्यक्ष में देखने में आता है । ॥७६५॥ कडल् विळंयमदं मन्न कवळं तुर् कळत्तिर् कामत् । तुडि इडे मगळि रेंद तुयर मुटू रिदि नुंडा || रुडेय कल कमी नदि यूर् तोरुं पुक्कु पेटू । वsगिने यमरं दुवांगळ् नल्बिने देविंद कालं ॥७६६॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ ] मेरु मंदर पुराण अर्थ-क्षीरसमुद्र के पानी के समान प्रत्यंत मधुर, दूध प्रादि भोजन सामग्री को लाकर एक सोने के पात्र में रखकर उनकी स्त्रियां अपने पति को देते समय उनकी इच्छा न होने पर भी उन स्त्रियों की भावना को पूर्ण करने के लिये वे भोजन करते हैं । पर पूर्वजन्म में पाप कर्म के उदय से सारी संपत्ति वैभव होने पर भी उसका भोग नहीं कर सकते 鹭 | राजा होने पर भी तीव्र पाप के उदय होने पर निद्य कर्म करके घर २ जाकर भीख मांगना पडता है। फिर भी पेट नहीं भरता । महान दरिद्रता घ्राने पर भी वह मरने की इच्छा नहीं करता है । अनेक कष्ट सहता है । यह सब पाप कर्म का उदय है ।।७६६ ।। तुरं इनं नुय्य वाय कंडुगि लुडुप्पि नोंदु । करंब थोनरळु मलगुर् कर्पग वल्लियेन्नार || तेर हिडे बीळवु तोडां शिलतुनि युडुप्पर शेल्व । मोरुवर् कन् नेंडू निल्ला बुरुदि कोंडोळुगु गेंड्रान् ॥७६७॥ • अर्थ - प्रत्यन्त मधुर रेशम के वस्त्रों को पहनने वाली स्त्रियां कितना मोह करती है । यह सब पुण्य कर्मों के उदय का कारण है और तब तक ही भोगता है । पाप कर्म के उदय माने पर वे ही फटा हुआ मैला कपडा पहन कर गुजर करती हैं। ऐसी यह क्षणिक संपत्ति है, जो वेश्या के समान है । प्राज इसकी बगल में कल उसकी बगल में है। इस कारण धर्म ध्यान करो। इसी में सुख शांति है ||७६७|| इनयन् पलवं शोलि बज्जराय दनुं पिन्नं । तनै यनं वित्तु पोगि चक्करायुवनं शारं तु ॥ मुनिवनर कमल मन वडिइ नं मुडिइर् ट्रोटि । विनइन् पयन् कडमं वेदविन नडिंग केंड्रान् ।।७६८ ।। अर्थ - इस प्रकार धर्मोपदेश अपने कुमार को राजा वज्रायुध ने दिया और उस पुत्र रत्नायुष को राज्यभार देकर उसका राज्याभिषेक किया और अपने पिता मुनि चक्रायुध के पास जाकर प्रार्थना की कि हे भगवन्! अनादिकाल से संसार रूपी समुद्र में डूबता तैरता आया हूं । मेरा इस जगत से उद्धार करो। ऐसी प्रार्थना की ।।७८८ || पुले मगरेरिनुं शाल पुथबलि युडंय रागिन् । निल मगट् किरंब रागि निड्रिडं तिरुवु मंगे । मलं इन कुलत्त रेनुं पुयवदिम मायं व पोळ बिर् । टूलं निल नुरुति योझार ताळने तुळेय रावार ॥७६॥ हे भगवन् ! नीच जाति में जन्म लिया हुआ जीव पूर्व जन्म के पुण्योदय से राजसुख के भांग भोगता है । और श्रेष्ठ कुल में जन्मा जीव यदि पूर्व कर्म का पापोदय श्रा जाय तो वह नीव लोग के समान श्राचरण करता है ।।७६६ ।। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण [ ३३३ विन वसमा यविद बोरिला वाट्कै तन्न।। निनदोरु मुळ्लि निड,नहुगिड़ मडगि नोद.॥ विनं गळे वेडिटेंडन विळुक गुणं पोहंदि मोळा । निनवर मुलर मैव निदियान वंद देंड्रान् ॥८००॥ अर्थ-कर्म से उत्पन्न होने वाले इस भयानक ससार में यदि मन में प्रात्म-कल्याण का विचार न किया जाय तो हमेशा संसार में वह रुलता ही रहता है । और उसको अनेक प्रकार के शोक दुख उत्पन्न होते हैं इसलिये संयम पूर्वक जिन दीक्षा लेकर पूर्व जन्म के किये हुए कर्म का तपश्चरण द्वारा नाश कर मोक्ष सुख को प्राप्त करने की मेरी भावना हुई है। मैं आपके पवित्र चरण कमलों की शरण में आया है। ऐसे अपने पिता चक्रायुध मुनि से वजायुध कुमार ने प्रार्थना की ।।६००। समें तमम शांति कांति दम्या मालिदि याक नोकि । यम वरु तोळिल रंडि येच्चंग लेळ मिड्रि॥ नमर पिरग्ब विडियोळिवल मादव मिदामे । अमंग विडिरवन् सोल्ल वरंतवन तोडगि नाने ॥८०१॥ ___ अर्थ-इस प्रकार मुनि चक्रायुध ने वज्रायुध कुमार की प्रार्थना सुनकर पुनः धर्मोपदेश दिया उस उपदेश को सुनकर वह अत्यन्त प्रभावित हुमा और उत्तम क्षमा धर्म को धारण कर वह कुमार पंचेन्द्रिय विषयों को त्याग कर सम्यकचारित्र को प्राप्त कर, प्रात्मा का स्वरूप समझ कर षट् काय के जीवों की रक्षा करने वाले होकर सात प्रकार के भयों से रहित हो गया। और अपने मित्र, बंधु, बांधवादि स्त्री, पुत्रादि पर समता भाव होकर सर्व कुटुम्ब का परित्याग करके उस कुमार वज्रायुध ने मुनि चक्रायुध से जिनदीक्षा ग्रहण की। 1८०१॥ अरियन शैय बना रांडव रंड्रियारे । वरिशइन् मन्नन् मैंदन मैंदन बग्यं तन्न । योरुदुगळ् पोल विट्टा लगेला मिरज निड़ा। रिरधिरे यंडि निड बिरुळ कवि ळलु मुंडो। ॥८०२॥ अर्थ-सज्जन लोगों के प्राचरण में कितने भी कष्ट हों, उसको वे मधूरा नहीं छोडते, पूरा ही करते हैं। और वे ही उसका फल भोगते हैं । यही सज्जनों का लक्षण है। इन्हीं को सज्जन कहते हैं । इस प्रकार सद्गुणों को प्राप्त हुए राजा अपराजित (मुनि) उनका पुत्र चक्रायुध मुनि और चक्रायुध का पुत्र (मुनि) वजायुध ये तीनों ही तपश्चरण भार को धारण कर एकत्व भावना में स्थिर हो गये। जिस प्रकार सूर्य अन्धकार का नाश कर देता है। उसी प्रकार के तीनों महामुनि सद्गुण से युक्त अपने प्रज्ञानाचंकार को नाश करने वाले हो गये ।।८०२॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ] मेर मंदर पुराण तिक्कर मलै पोल शिवन तिति चिन्ना। लकन बंदुदयतुच्चि पर बदे पोल बंदु ॥ चक्क रायुदनुं पिन्ने तरबर मुग्यि शारंदु । सुस्किलध्यानं तन्नाल विनंयिक दूर्कलुद्रान् ॥८०३।। मर्ष-जिस प्रकार महामेरु पर्वत के चारों मोर दिग्गज पर्वत रहते हैं , उसी प्रकार कुछ समय तक संघ के साथ विहार करते हुए ध्यानाध्ययन में समय व्यतीत करते हुए वे पक्रायुष मुनि जिस प्रकार सूर्य उदय होकर बारह बजे मध्य में माता है और तीव्र प्रकाशमान होता है उसी प्रकार वे संघों का परित्याग कर एक पर्वत को चोटी पर विराजमान होकर शुक्ल ध्यान के बल से कर्म शत्रु का नाश करने लगा ॥८०३॥ परिशेर् सुरुक्कि वैय्य दुच्चियार वडिवु तन्ने । पुरुषत्ति निन् मूकि नुनि इट्रान् पोरुंद वैयतु ।। तिरिविद योगि नोडं सेंद्र.वंदाडुम् सिदै । युरुव मटि बने युन्न विनेगळे ळुडेंद वंड्रे ॥८०४॥ अर्थ-वे मूनि शुक्लध्यान के बल से बंध का कारण होने वाले परिग्रहादि को मन:पूर्वक त्यागकर त्रिगुप्ति धारक हो गये। पौर सच्चे सुख को प्राप्त किये हुए सिद्ध परमेष्ठी को नाशादृष्टि से अपने में स्थापना करके ध्यान करने लगे। इस प्रकार मिथ्यात्व, अविरत, प्रमादे और कषाय यह चारों जो बंध के कारण हैं इनका नाश कर आत्म-भावना में लीन होकर स्व-संवेदन ज्ञान से अनुभव में आने वाले सिद्धों के समान निश्चय रत्नत्रय स्वरूप की भावना करते २ दर्शन मोहनीय की सात प्रकृतियां अर्थात मिथ्यात्व, सम्यकमिथ्यात्व, सम्यकप्रकृति, अनन्तानुबधी क्रोध, मान, माया, लोभ इस प्रकार सातों प्रकृत्तियों का नाश कर दिया ॥८०४।। मोगणि यत्ति नोडु मप्पत्तेळ पगडि वींडा । वेग योगत्तो डोडा वेळंद शुक्किल ध्यानं ।। वेग योगत्ति नोरेन् पगडि वोळ वळंद वेय्योन् । मेग योगत्तिन वोटिन विरिवन वनंद नानमै ॥८०५॥ अर्थ-उन मुनिराज ने पृथक्त्ववितर्कवीचार वाले शुक्ल ध्यान से ज्ञानावरणी की पांच, दर्शनावरणीय की नौ, मोहनीय की अट्ठाईस, अंतराय की पाँच, नरक गति, तिर्यंच गति, एकेंद्रिय आदि चार जाति, पांच संस्थान, पांच संहनन, अप्रशस्त वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, नरक-गत्यानुपूर्वी, तिर्यंच-गत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ दुभंग, दुःस्वर, अनादेय अयशकीति, नरकायु, असाता वेदनीय नीच गोत्र, ऐसे चौरासी प्रकृतियों का नाश किया। जिस प्रकार सूर्योदय होते ही मेघपटव दूर हो जाते हैं, उसी प्रकार उसी क्षण में चक्रायुध मुनि ने घातिया कर्मों का नाश होते ही अनंत सुख Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - मेरु मंदर पुराण अनंतवीर्य अनंतदर्शन और अनंतज्ञान ऐसे अनंत चतुष्टय को प्राप्त कर लिया ॥८०५।। वेय्यव नेळलं बैय्य व्यापारि पदनं पोल । वय्य मिलनंद नान्म येळंदवक्कनत्तु वानोर् ॥ मेयरु विVिबै येल्ला मरेत्तुडन वंदु सूळंदु । पुय्यरु तत्ति नान पुगळंदडि परव लुद्रार् ।।८०६॥ अर्थ-जिस प्रकार सूर्य के उदय होते ही संसारी प्राणी अपने २ कार्य में लग जाते हैं , उसी प्रकार अनादि काल से लगे हुए घातिया कर्मों का नाश होते ही प्रात्मा में रहने वाले अनन्त चतुष्टय उसी क्षण में प्रकाशित हो गये। और चतुणिकाय देवों ने प्राकर चक्रायुध केवली भगवान की भक्ति पूर्वक पूजा, स्तुति करके नमस्कार किया ।।०६।। गाति नानमै कडदोय नी कडई नान्म यडंदोय नी । वेद नान्गुं विरितोयनी विकल नान्मै विरित्तोय नी॥ केव नान्म केडुत्तोय नो केडिलिब कडलोय निन् । पाद कमवं परिणवारे युलगं परिणय वरुवारे ।।८०७॥ अर्थ-वे देव चक्रायुध केवली भगवान को विनय से भक्तिपूर्वक नमस्कार तथा उनकी स्तुति करके कहने लगे कि हे प्रभु! ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चारों कर्म रूपी शत्रु अनादिकाल से लगे हुए हैं। इन घातिया कर्मों को आप ही नाश करने वाले हो। प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुपयोग इन चारों योगों के प्रतिपादन करने वाले प्राप ही हो। मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्यय चारों ज्ञानों को प्राप्त करने वाले, अनन्त सुख, को प्राप्त करने वाले तथा शारीरिक, मानसिक, आगन्तुक और स्वाभाविक इन संसार के दुखों के कारण होने वाले पापों का नाश करने वाले आप ही हो। जितने प्राशी मापके घरण कमल की स्तुति करने वाले हैं, वे ही जीव आपके समान पद को प्राप्त कर लेते हैं । भाग्यवान के अलावा प्रापके चरण कमलों की पूजा स्तुति अन्य को प्राप्त नहीं होती है ।।०७।। पविन कुद्र मरिवोय नी परम नान्मै यो वोय नो। इव मैय्यु इरुकु मळिपोय नी इन्ना पिरवि योरिवोय नो॥ कदमुं मदमुं कामनयुं कडंदु कालर् कांवोय निन् । पद पंगया गळपनिवारे युलगं परिणय वरुवारे ॥८०८॥ अर्थ-क्षुत्पिापासादि बाईस परीषह को जीतने वाले, एकेंद्रियादि षटकाय जीवों को अभयदान देने वाले तथा संसार रूपी दावानल को नाश करने वाले प्राप ही हो। क्रोध, मान, माया, लोम इन चारों कषायों को जीतकर कालरूपी यमराज को नाश करने वाले Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा मवर पुराण मापके चरण कमलों की जो भव्य जीव भक्ति व स्तुति करते हैं वे आपके समान हो जाते हैं । 1८०० शिदिप्परिय गुणत्तोय नी देवरेत्तुं तिरलोय नी । पंदम् परियु मेरियोय निनपाद कमलं पनिवारुक ।। कंद मिळा विवंत येळित्तु मुत्ति येगत्तिरुत्तु । मेंदै पादं पनिवारिव्यु लग परिणय वरुवारे ॥८०६।। मर्थ-अनन्त गुणों को प्राप्त करने वाले, चतुर्णिकायिक देवों द्वारा पूजनीय माप ही हो। कर्म बंध को नष्ट करने वाले रत्नत्रय धर्म रूपी मार्ग को प्राप्त करने वाले आप ही हो।प्रापके चरण कमलों की पूजा भक्ति करने वाले भव्यजीव मोक्ष प्राप्ति करने वाले तथा मापके समान अनन्त चतुष्टय को प्राप्त होते हैं ।।८०६।। मलर् मळे पोलिदु मारि मुगिलेन वंदु वानो। रल कडन मुगिलोडोंडि मुळंगुव रनैय्य देन । उलगुडे इरयन पाद मुळ्ळ मैमुळि योडोंड्रि। निले ला पिरवि नींगु नेरियिनार्दू दिगळ् सोन्ना॥१०॥ अर्थ-इसी प्रकार चतुणिकाय के देवों ने केवली भगवान के पास आकर जैसे मेघों की वर्षा होती है,उसी प्रकार उन्होंने पुष्प वृष्टि करते हुए भक्तिपूर्वक पूजा स्तुति की ।।१०।। माइडे येवत्तंजु विनै केट्ट वक्कनत्ते । पोयुलगुच्चि पुक्कान् पोरुदि यन् गुरणंगळोडुम् ।। तूय वान मलर सोरिंदु तुदित्तिडन मन पोनार् । माय मिरवत्ति नान् वज्जि रायुव नवनगि पोनान् ॥८११॥ अर्थ-चतुणिकायिक देव उन चक्रायुध केवली भगवान की स्तुति करते हुए पातिया कर्मों का नाश किए हुए, अनन्त ज्ञानादि गुण तथा सिद्ध पद को प्राप्त हुए, उन भगपान की वे देव परिनिर्वाण पूजा करके पुनः भगवान को स्तुति स्तोत्र पाठ पढ करके वहां से सोट कर अपने इष्ट स्थान को चले गए। माया कषाय से रहित चक्रायुध केवली भगवान को निर्वाण कल्याण की पूजा समाप्त करके तपोवन की तरफ चले गये ॥११॥ बनिगनाय धरुम मेवि मन्नाय माधवत्ता। लिनेला केवच्चेत्तु नमर ना इंगु वंदु ॥ तरिणविला तवत्तिन् माद यरिंदु चक्ररायुदन् पो। इनला उल पुकानिदु बरत्तियर के या ॥१२॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण [ ३३७ अर्थ - पूर्व जन्म का वणिक भद्रमित्र श्रेष्ठी का जीव श्रावक व्रत को धारण कर भगवान द्वारा कहे हुए वचनों के अनुसार पूजादान प्रादि षट् क्रिया में प्राचररण करने वाला होने के कारण अपनी माता व्याघ्ररणी के द्वारा भक्षित किया हुआा जीव उन राजा सिंहसेन महाराज की पटरानी रामदत्ता देवी के गर्भ में ग्राकर जन्म लिया। नामकरण संस्कार करके सिंहचन्द्र ऐसा नाम रखा गया । श्रागे चलकर घोर तपश्चरण करके उसके फल से नव वैयिक नामक ग्रहमिंद्र कल्प में देव उत्पन्न हुआ। वहां देवगति के सभी सुख भोगकर धायु के प्रवसान पर कर्म भूमि में प्राकर चक्रायुध होकर धर्मध्यान पूर्वक घातिया कर्मों का नाश करके मोक्ष पद को प्राप्त कर लिया। जैन धर्म की यही महिमा है ।। ६१२ ॥ सातवां अधिकार समाप्त ॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अष्ठम अधिकार ॥ बज्रायुध का अनुत्तर विमान में जन्म लेना प्ररस नाय नल्लरद नायु दन् । पिरस मार् कुळर् पिनय्य नारुंडु ॥ वर शै तोळवन् मगिळबं वार्तेयै । युर शवन् निनि युरगराजने ॥८१३॥ अर्थ हे धरणेंद्र सुनो! राजा रत्नायुध अपनी पटरानी सहित विषय भोगों को विष के समान समझ कर उसको त्याग दिया। इस संबंध में मैं विवेचन करूंगा। लक्ष्य पूर्वक सुनो।।१३।। वाम मेगले मैलं शायलार् । काम कोटियुट कळुमं कावला ।। सेम नल्लरं सेप्पिट्टि इंड। यामै पोलव नवल मैदुमे ॥१४॥ अर्थ-कंठ में रत्नमयो स्वर्ण मोती युक्त आभरण धारण करने वाली स्त्रियों में भनेक प्रकार के विषय भोग में लवलीन रहने वाले उस राजा से यदि कोई व्यक्ति जैन धर्म को बात कहे तो जैसे कछुवा किसी आदमी को देखते ही घबरा कर पानी में घुस जाता है, उसी प्रकार वह राजा रत्नायुध अंतःपुर में जाकर बैठ जाता था। अर्थात् उनको यदि जैन धर्म की महिमा कोई बताता तो प्रांख लाल हो जाती थी। जब तक जीव को देशनालब्धि प्राप्त नहीं होती तब तक जैन धर्म को धारण करने की रुचि उत्पन्न नहीं होती ॥८१४|| अरसु मिबं, किळयु मायुवं । विर से तारवन् वीय में नान् ।। रिर यडुत्त विप्पडि मिशंदन् । तरसु निर्प दे याम वेन्नु में ॥१५॥ अर्थ-अत्यन्त सुगंधित फूलों के हार को धारण किये हुए राजा रत्नायुध को राज सुख, बंधु, मित्र, स्त्री, पुत्र में मुझे शांति है और ये ही सदा शाश्वत रहेंगे-ऐसे यह विचार सदैव ही बने रहते थे। किन्तु यह राज संपदा, वैभव, मालखजाना, बंधु-बांधव हमेशा स्थिर रहने वाले नहीं हैं । ऐसा विचार उनको कभी नहीं होता था। भावार्थ-पंथकार कहते हैं कि इन्द्रिय सुख में मग्न हुमा जीव सदैव इसीको सुख समझता है। दूसरी बात में कोई ध्यान जाता ही नहीं है। कहा है कि एक राजा रात्रिके Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेद मंदर पुराण समय पढे २ यह विचार करता है कि मेरे समान संसार में कोई सुखी नहीं है । “चेतोहरायुवतयः सुहृदानुकूलाः । सद्-बांधवाः प्ररणयगर्भ गिरश्च भृत्याः ॥ गर्जन्ति दन्तिनिवहास्तरलास्तुरंगाः । सम्मीलने नयनयोनंहि किंचिदस्ति ॥ अर्थ- मेरे पास मन को हरने वाली अनेक सुन्दर रानियां हैं, मित्र वर्ग सभी धनुकूल हैं, भ्रातृ वर्ग सभी अच्छे हैं, सेवक हमारी आज्ञा में सदा तैयार रहते हैं और द्वार पर हाथी, घोडे आदि वाहन गर्जना करते रहते हैं । इस प्रकार उपर्युक्त तीन चरणों की रचना शयन कक्ष में लगे हुए श्यामपट्ट पर करके राजा सो गया तत्पश्चात् कोई संस्कृत का विद्वान राजमहल में चोरी करने के लिये घुसा था उसने जब इस श्लोक को देखा तो चौथे चरण की रचना इस प्रकार की कि राजन् ! तुम्हारे नेत्रों के बन्द हो जाने पर तुम्हारा कुछ भी नहीं रह जाता। अर्थात् आँखों के मुंद जाने पर प्राणी का कुछ भी नहीं रहता । प्रातः काल राजा ने जब श्लोक के अन्तिम चरण को देखा तो उसकी आंखें खुल गई और उसने अपने धन वैभव को क्षणिक मान लिया । इस प्रकार पंचेंद्रिय विषयांध जो मनुष्य हैं उनको धर्म कर्म का विवेक नहीं रहता है । अतः वह राजा विषयभोगों में मग्न होकर अधे के समान विचारता था ।। ८१शा पोरिइन् भोगमं पुष्णि येत्तिन् वन् । रुव देंड्रना नुंब रिवमं ॥ मरुविल् गोड मट्रिले मायंद वर् । पिरवि युं मिले यॅड. पेशुमे ॥ ८१६॥ अर्थ संसार को उत्पन्न करने वाले इन्द्रिय विषय भोग पूर्व जन्म में उपार्जित किए हुए पुण्य पाप के फल से इस भव में सुलभता से मिलते हैं । यह ज्ञान राजा रत्नायुध को विदित नहीं था । वह अपने मन में विचार करता है कि नरक, स्वर्ग, मोक्ष प्रादि ये सब झूठे हैं। मरा हुआ मनुष्य लौटकर संसार में कभी नहीं प्राता, इसलिए पाप पुण्य कोई वस्तु नहीं पुण्य संचय करके प्रारणी देवगति को गया, स्वर्ग में गया, यह कहना सभी मूर्खपना है क्योंकि ऐसा किसी ने देखा न सुना है । ८१६ ।। [ ३३५ कद्र मादं राय काम शहवत्तिर् । पेट्र विवस मिळंक विट्ट, पोय् ॥ • मटू मिबं मेल्वर वरंतुद । सुट्ट इनरी बिट्टदोक्कुमे ॥ ६१७॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० ] मेद मंदर पुराण अर्थ - पुनः रत्नायुष यह विचार करता है कि संसार में धर्म कोई वस्तु नहीं है । अपने द्वारा पंचेंद्रिय सुख को भोगना, खाना पीना यह ठीक है। मरकर वापस दूसरी पर्याय धारण करना कायक्लेश तप करना धर्मध्यान करना यह सब पागलपन व मूखं है । देवलोक मैं जाना और मरकर वापत प्राना यह किसने देखा है ? यह सब मुर्खता है। ऐसा वह मानता था और कहता था कि जिस प्रकार एक कुत्ता रोटी का टुकडा लेकर नदी की ओर जाता है मौर अपनी परछाई पानी में देखकर यह समझता है कि दूसरा कुत्ता पानी में और है उसकी रोटी पकड़ने को अपना मुंह खोलता है तो वह अपने मुंह की रोटी भी पानी में गिरा देता है । इसी प्रकार वह विचार करता है। संसार में वर्तमान परिस्थिति को न सुधार कर श्रागे का विचार करना मूर्खता है ।। ८१७ ।। तोंवत्तार तंवं तुइत्तलल्लदु । वत्ता पिल्लं लुss वेष्णुद | लंविर् कांचिर माकि मांगरणी । तिन् कुटु ववर सिदं वण्णमे ||८१८ || भी नहीं है। अर्थ - तपश्चरण से उत्पन्न होने वाले दुख को ही अनुभव करता है । सुखलेश मात्र देवगति मिलना, विषय सुख का त्याग करना अथवा विष से प्रमृत मिलना ऐसी भावना वह रत्नायुध करता है और मानता है ||८१८ || विनंगळ् वेरुपट्टुदयं शेदला । लिनेय्य सिदय नागि शेलनान् ॥ मुनिवन् वज्ञ दंतन मुइ मलर् ॥ वनमनो गरम् वंदु नान्निनाम् ॥ ८१६ ॥ अर्थ - इस प्रकार मिथ्यात्व कर्म के उदय से राजा नास्तिक मत के अनुसार विषय सेवन की प्रतिपादन करता था। उसी समय नगर में वज्रदन्त नाम के मुनिराज मनोवेग नाम के उद्यान में चतुविध संघ सहित आकर विराजमान हुए। वे अत्यन्त गंभीर निस्पृही थे । सिंह के समान धीरवीर तथा पराक्रमी थे । सम्यकूदर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीन धारा धनाओं में रात दिन पुरुषार्थ करने वाले थे। ऐसे मुनिराज रत्नायुध राजा के उद्यान में पधारे ॥८१॥ मेरुमाल्वन पत्तिरालत्तुल् । वाररणं मलं शूळ निड्र बुं ॥ वीर मादवर् शूळ मंत्त वन् । तारकं मदि तानु मोत्तनन् ||८२०॥ अर्थ - प्रत्यन्त निर्दोष व्रत सहित तप करने वाले वे मुनि जिस प्रकार मेरु पर्वत के चारों भोर नंदनवन तथा दिग्गज पर्वतादि होते हैं, उसी प्रकार उन वस्त्रदन्त मुनि के चारों Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ३४१ श्रोर निर्दोषव्रत तथा चारित्र को पालने वाले मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविका प्रादि सब बैठते थे । देखनेवाले भव्य जीवों को ऐसा दीखता था जैसे चंद्रमा के चारों ओर नक्षत्र प्रकाशित होते हैं । उसी प्रकार उन वज्रदन्त मुनिराज के चारों ओर क्षुल्लक, क्षुल्लिका, धावक, श्राविका प्रादि शोभायमान होते थे ।।८२० ॥ पिरवि माकडल पेयकुं माट्रला । लिरंव नन्नव नेंदु कोळ्ग यान् ।। मरुविन मादवन् वैय्य मूंड्रिनु । मुरवि निड्रया रोद वंड्रि नान् ॥८२१॥ अर्थ - संसार रूपी समुद्र को पार करने के लिये सम्यक्त्व के बल से भगवान के समान सम्यक् चारित्र को प्राप्त किये हुए मुनि वज्रदन्त इस लोक में जीव के जन्म और मरण के संबंध में प्रतिपादन करने वाले त्रैलोक्य प्रज्ञप्ति नाम के ग्रंथ का स्वाध्याय करते हुए अपने संघ के त्यागियों को उपदेश देते थे || ३२१ ॥ नोंड्रि रंडोरु मूंड्र नालें दाय । 9 निड्र बोरिने रिइन् वाळुइ ॥ ड्र नीर मर निल नेरुप्पु कार् । 8 ट्रॅड्रि काय मंददि वाळुमे ।। ८२२|| नंदु शिपि शकांदि नावन कुंद रेंबु कोपादि मूंडून ॥ दु तुंबडावि नाल वंन् । तिदियं पशु नरर् नरगर् देवराम् ||८२३॥ 1 अर्थ - उस संघ के त्यागियों ने प्रश्न किया कि शास्त्र में प्रतिपादन किया हुआ विषय कौनसा है तो आचार्य कहते हैं कि संसारी जीवों के मुख्य दो भेद हैं। एक स्थावर और दूसरे त्रस एकेंद्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेंद्रिय जीव इनकी मार्गरणा से अर्थात् स्थावर पांच हैं, और त्रस चार हैं। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायु-. कायिक और वनस्पतिकायिक यह तो पांच स्थाबर हैं और दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेंद्रिय ये चार त्रस हैं। लट, शंख, सोंप, कीटक आदि दो इन्द्रिय जीव हैं । चिऊंटी खटमल बिच्छु प्रादि तेइन्द्रिय जोव हैं । भ्रमर, मक्खी, मच्छर, पतगा श्रादि चौइन्द्रिय जीव हैं और पशु, पक्षी, मनुष्य, नारकी, देव श्रादि पंचेंन्द्रिय जीव हैं ||२२||२३|| उळुवल कल्लुदलर्डत्त लोडुकाय् । तळगळावि मण्णु इर्गळ् मायं दिजु । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२] - मेरु मंदर पुसरण मळले याद द लवित्त लावि याय्त । तळलुडवन तानु मायुमे ॥२४॥ मर्थ-हलम चलन से, कूदने फांदने से, माग जलाने से पृथ्वीकाय जीव को बाधा होतो है, और वे मर जाते हैं । पानी में उठने वाली तरंगों से तथा अनछना पानी को गर्म करने से अथवा पानी पृथ्वी पर मलने से जलकायिक जीवों का घात होता है ।।२४।। तिर यलप्प बुं तोहर्काच। तर ननप्पशांक नी रुहर् ॥ वर योडिट्वं वट्ट मादिगळ्। पोर, वात कायंगळू पोंड मे ॥२५॥ मर्थ-गर्म पानी में ठंडा पानी या ठंडे पानी में गर्म पानी मिला देने से, अग्नि के बुझाने प्रादि से अग्निकायिक जीवों को बाधा होती है । हवा चलने, पंखा हिलाने आदि से वायुकायिक जीवों को हानि पहुँचती है ।।८२५।। वेयितुं मारियु मिक्क वातम्। मइल् शवि पड तीयोडादिया। पइर् मरं मुदल पशिय कायमा। मुहर्ग नोंदु तुयर लक्कु मे ॥२६॥ मयं-अधिक धूप पडने, अधिक बल वृष्टि तथा प्रांधी व वायू के वेग से तथा धान को मायुषों द्वारा काटने प्रादि से वनस्पति काय के जीवों को महान दुख होता है । और उससे वृक्ष खेती प्रादि नष्ट हो जाती हैं ॥८२६।। माल्कउर् पिरंवालु मावदेन । मेल वेग्विन निकुं माय बिरिन् । बाल वळे मकरंगळ शिप्पि मोन् । काल नन्नवर कैइन् मायुये ॥२७॥ अर्थ-शंख, सीप मादि अनेक प्रकार के दो इन्द्रिय जीव समुद्र में उत्पन्न होते हैं उनका रक्षक कोई नहीं रहता। पाप कर्म के उदय से धीवर लोग जाल को पानी में डालकर बीव को पकड लेते हैं और मार डालतें है। इससे जीव की हिंसा होती है और जिन्होंने इस बीब को मारा है। वे भी अनन्त काल तक दुख को सहते हुए संसार में परिभ्रमण करते हैं। ॥२७॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण मलयं वावियं कानुमेवियं । वलयुं विल्लं वान् पोरियु मादिया । यले संवारगळ कंजि नेजंळिन् । तुलं विलाय तुयर् वेळक्कुमे ॥८२८ ॥ अर्थ - तिच गति में उत्पन्न हुए पशु पर्वतों में सरोवर के निकट जंगल में, पानी की नाली में रहने वाले जीव हिंसकों के द्वारा मारे जाते हैं । बलवान पशुओं के द्वारा उनका भक्षण होता है और महान दुख सहन करना पडता है ||८२३|| ऊन काररुं पोर्से वीररुं । ती वेल्वियं तीय देवसु ॥ मोन मानव रादि दुवर् । तानुडंविर्ड शाब जातिये ॥ ८२६ ॥ अर्थ- मांसभक्षी मनुष्य योद्धा लोगों के द्वारा प्रज्ञान से तथा प्रज्ञानी लोगों के द्वारा करने वाले यज्ञ, चांडाल यादि नीच जाति तथा अनेक पापी मनुष्यों के द्वारा. हरिण, बैल, भैंसे बादि की बलि दी जाती है। इससे भी उन जीवों को महान कष्ट भोगने पडते हैं । = २६ कूरिरुंवि नार् कुडुमि पोळबुं । भार मेट्र्युं पादं यापवं ॥ बारणं तुयरंदु मट्रय । बेरु मूदियु मेरंदु नैय्युमे ॥६३०॥ [ २४३ अर्थ - अत्यन्त बडे शरीर को प्राप्त हुए हाथी को अंकुश मारने तथा पांवों में लोहे को सांकलों से बांधे जाने से उनके दर्द होने से तीव्र तथा प्रसह्य दुख सहना पडता है। तथा घोडे, बैल, ऊंट प्रादि जीवों को गाडी में जोता जाता है। हल चलवाया जाता है। समय पर दाना पानी नहीं मिलता है मौर इस कारण उन जोवों को महान बाधा व दुख जोबना पडता है ।।६३०|| इप्पड विलांगिर पिरप्पार् कडा । मेडि पट्ट वेरेंडि बिडिन् । मे पडत्तुर बाबु विऴुत्तव । सोप्पिन् मायति नोकुळ बागलुं ॥६३१॥ अर्थ- पहले कहे अनुसार पशु पर्याय में कौनसे जीव उत्पन्न होते हैं ? बाह्य और अभ्यंतर परिग्रहों को मनःपूर्वक जिन्होंने श्याय नहीं किया और नितंब मेष को धारण कर मायाचार करने वाले को पशु शरीर धारण करना पडता है ॥६३९॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण मोग मोडु मिच्चोदयत्तालु मर् । ट्रेग मागि नांगिल विलंगा इडं। काग मेयन कारेगे यार मनत् ।। तागु मायं विलागि ने याकुमे ।।८३२॥ पर्थ-अत्यन्त तीव चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से दर्शन मोहनीय, मिथ्यात्व कर्म के उदय से एकेंद्रिय पर्याय में और मिथ्यात्व से मंदतर प्रौदयिक परिणामों के उदय से दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय प्रौर पंचेंद्रिय इन चार जातियों में तथा परिणामों के अनुसार तियंचगति में जन्म लेता है । और स्त्रियों में अत्यन्त मोहित रहने के कारण मायाचार सहित होने के कारण तिथंच गति में जन्म लेता है ।।८३२॥ उळ्ळं मैमुळि योंड दलु मिला। वेळ्ळ मान्दरं वीळ्वर विलंगिडे । तळ्ळ वारं शेयातनं तेडुमक् । कळळ नेजिनर बोळगति युमिदे ॥३३॥ मंडि निड़, पिरं पोर वांगुवार । तिड, तेनोडु कट पुलसिर् शेल्वार ॥ निड. नीदि केडुत्तय लार् मने। योंड, वारळ लुंगति युमिवे ॥८३४॥ अर्थ-मन, वचन, काय इन तीनों में से एक २ के प्राधीन होने वाले प्रज्ञानी जीव निद्यनीय पशु गति में जन्म लेते हैं। इस प्रकार मनुष्य गति को प्राप्त होकर अपने करने योग्य धर्म कार्य को न करके कपटाचार तथा, मायाचार करने से जोव तियंच गति में जन्म लेता है। न्यायालय में जाकर झूठ बोलना, झूठी गवाही देना, झूठा काम करना, दूसरे के द्रव्य को अन्याय से शक्ति पूर्वक हरण करना, अपने बल से दूसरे को आधीन कर लेना, पैसा लेकर मूठी गवाह देना, दूसरे को ठगना यह सभी मायाचार कहलाता है। और मद्य, मांस, मधु को सेवन करने वाले, अहिंसा धर्म को नाश करने वाले, अपनी विवाहिता स्त्री को छोडकर परस्त्री सेवन करने वाले तियंच गति में जन्म लेते हैं ॥८३३।।८३४।। वंडला दुइरिल्ले येनच्चोला। निइती नेरि इर् शेरिवार्गळु ॥ मोंड. नलवळक्कोर दुई गनुळे । बेडि याकु नर वीळ्गतियं विवे ॥३५॥ मर्थ-इस जगत में परमात्मा एक ही है दूसरा कोई नहीं है, ऐसा कहने वाले तथा शास्त्रों की रचना करके प्रचार करने वाले, उसी के अनुसार चलने वाले, प्रतिवादी के अनुकूल Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -Amar मेर मंदर पुराण [ ३४५ होकर उनके माफिक झूठो गवाह देना, उनके अनुकूल मुकदमा जीतना ऐसे जीव तियंच गति में जन्म लेते हैं ।।६।। इल्लं नविनै तोविनै इन्नुइ । रिल्लये इरंदार्गळ् पिरत्तलु ॥ मिल्लये तुरकत्तोडु वीडनुं । सोल्लिनार सुळलं गतियु मिदे ॥८३६॥ __ अर्थ-पुण्य पाप को उत्पन्न करने वाला कोई द्रव्य नहीं है । जीव द्रव्य भी नहीं है। जो जीव है वह शून्य है । मरा हुआ मनुष्य पुनः नहीं जन्म लेता और देवगति मनुष्य गति मोक्ष प्रादि का प्रतिपादन करना मिथ्या है। इस प्रकार नास्तिक लोग झूठा प्रचार करने वाले तियंच गति में जाते हैं ।।८३६।। प्ररस नीति येळित्तवं मन्ननु । मरस रीति यळित्त वमंचनु । पुरैनार् पिरर पुनर् तोप्पेनुं । निरय नैयदि विलंगि निपरे ॥३७॥ अर्थ-राजनैतिक में राज किया हया राजा, मंत्री प्रादि मोहनीय कर्म के तीद उदय से अपनी स्वस्त्री को छोडकर परस्त्री के ऊपर दृष्टि रखने वाले अथवा लग्न की हुई स्त्री दूसरे पुरुष पर दृष्टि रखने वाली, उग्र परिणाम रखने वाली यह सब नियम से नरक में जाते। हैं । तथा मंद परिणामी होने से भी नरक में जाते हैं ।। ८३७॥ परद नायुदन दून मेग विजय माम् याने येदप् । पिरसमार् वनत्तिरुदं पेरंदवन् विलंगिन बाटक ।। युरै शेवा निदन केळा पिरप्पिन युनरं दिट्ट, निन् । विरविय कवळं कोंडा दौळि, वे तुइर्त दंडे ॥३०॥ अर्थ-इस प्रकार पहले कहे हुए मनोहर नाम के सुन्दर उद्यान में घोर तपश्चरण करने वाले वचदन्त मुनिराज अपने चतुर्विध संघ को तिर्यच मति में जन्म लेने वाले विषय का प्रतिपादन करते थे। जहां मुनिराज उपदेश दे रहे थे उससे कुछ दूरी पर उस रत्नायुध नाम के राजा का मेघ विजय नाम का हाथी बंधा हुआ था। उस हाथी को मुनिराज के उपदेश से जाति स्मरण होकर देशनालब्धि उत्पन्न हो गई। उस हाथी का महावत उस हाथी को मांस मिश्रित चारा सामने रखकर खिलाने लगा तो उस हाथी ने उमको छूना भी नही, वैसा का बैसा वह चारा पडा रहा ॥३०॥ पिरर् मने पिळत्त नजिर् पेरियव नोरुवन् पोल । निर मदं पुलरंदु नंदु नोचनेन संदे नॅड.॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण मर मुळिदुरुवि योंबि कवळगळ् वांगा नींग ।। वर कळ लरसर कोरि यरिंदव हनति नारे ८३६॥ अर्थ-इस प्रकार व्रती पुरुष नौति विरुद्ध ऐसी अन्य परस्त्री के साथ भोग करके, विषयभोग भोगने के बाद मन में पश्चाताप करके खडा होकर अपनी प्रात्म-निन्दा करते हुए ऐसी प्रतिज्ञा करता हो कि मैं पागामी ऐसा काय नहीं करू गा । उसी प्रकार वह हाथी मनुष्य के समान अपने निंद्य माचरण करने के संबंध में विचार करता है कि मैंने निंद्य तिर्यंच गति में बन्म लिया है। वह मात्म-निंदा करते हुए तथा अब आगे मैं इस प्रकार का कोई पार कर्म नहीं करूंगा ऐसा निश्चय करके वह हाथी खडा रह गया। उस समय वहां महावत ने मांस मिश्रित रखे हुए पाहार को हाथी द्वारा न छूने पर यह सारी बातें उस महावत ने राजा रत्नायुध को जाकर कही कि वह हाथी चारा नहीं ले रहा है ।।८३६॥ मन्नन बंदमच्च रोड मरंदरि पुलबर तम्मै । येन्निदर् कुद्रदेन्न बियादि मट्रि यादु मिल्लै ॥ मिन्नुमिळदिलंगुम पूनोय् विलगत् पोनि वेळ । मुन्निनार पिरप्पु नरं व दुःखु मिव्वुइपि नड्रार् ॥८४०॥ अर्थ-यह समाचार सुनकर राजा रत्नायुध तथा मंत्री और वैद्य आदि हाथी के पास माये और वैद्य से मंत्री ने कहा कि इस हाथी को कौनसा रोग हो गया ? तब वैद्य ने हाथी के रोग की चिकित्सा की । चिकित्सा के बाद वैद्य कहता है कि इस हाथी को कोई रोग नहीं है मोर यह दीर्घ श्वास लेता है। मेरे समझ में इस हाथी को पूर्व जन्म का जाति स्मरण हो गया है। ऐसा इसके देखने से प्रतीत होता है ।।६४०॥ अयोडु वादपित्तं विकारत्तै यडदंदिल्लै । मैग्लुं वैय्य दोंड मादि दर् कद्र विल्लै ॥ कैमल इवन के यूनिर कवळंगळू वैत्त पोदि । नय्य मोंडिडि वांगि नरिंददु पिरप्पै येंड्रार ॥८४१॥ अर्थ-वह वैद्यराज उस राजा से कहते हैं कि इस हाथी को कोई रोग नहीं है। और कोई विषधारी जीव ने भी इस को नहीं काटा है। मेरे विचार से ऐसा प्रतीत होता है कि इसको पूर्व जन्म का जाति स्मरण हो गया है यदि इसकी परीक्षा करनी है तो मांस रहित मोजन देकर परीक्षा करनी चाहिये ।।०४१॥ तेनुलां तारि नानु मप्पडि शंग वैन्न । मनि लायतूय नल कवळंग लुळयर् ।। भानमा वांगक्कंड मन्ननु वियदु पिन्न । कारिपन मायुनिवन ट्रम्ने कंडडि पमिदु सोन्नान् ।।८४२॥ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण [ ३४७ अर्थ-तब वैद्य के वचन सुनकर रत्नायुध ने हाथी के महावत को बुलाकर प्राज्ञा दी कि इस हाथी को मांस रहित पाहार देना। तत्पश्चात् महावत ने परिशुद्ध आहार लाकर हाथी के सामने रखा । उस पाहार को देखते ही तुरन्त हाथी ने खा लिया। ऐसा देखकर राजा ने पाश्चर्यचकित होते हुए अपने मनोहर नाम के उद्यान में वज्रदन्त मुनिराज के पास जाकर नमस्कार करके हाथी के संबंध में प्रश्न किया । ८४२।। मकर याळ वल्लमैंद नोरुवने कंड्रम । पुगर् मुग कळिट्रिन् मन्नन् मुनिवन वनंगि पिन्न । शिगरमाल यानं कुद्र वरुळुग वेंड, सेप्प । निगरिला पोदि पार पार तरस नी के नयु वेडान् ॥८४३॥ अर्थ-जिस प्रकार वीणा के मधुर शब्द को सुनकर मृग अधीन होता है उसी प्रकार रत्नायुध का हाल हो गया। वह वज्रदन्त मुनिराज को अत्यन्त विनय के साथ नमस्कार करके कहने लगा कि हे प्रभु ! मेरा यह हाथी प्रतिदिन देने वाले मांस मिश्रित पाहार को न खाकर के चुपचाप खडा रहता है और मांस रहित चारे को देने से वह खाने लग जाता है। इसका क्या कारण है ? इस पर महातपस्वी बदन्त मुनिराज प्रपने अवधिज्ञान के द्वारा कहने लगे कि राजन् ! उसका कारण मैं विस्तार से कहता हूं सुनो ! ॥८४३।। मट्रिद भरदत्तिन् करत्तिन पुरत्तिन् मन्नर् । पेट्रि यार पेरिय मन्नन् पिरदि वद्दिर नेन्वा नाम् ।। वेट्रि वेल घेदन देवि वसुंदरी विलगेल पोलुं । कपिनाळ पुदलवन् प्रीति करने वानोरुव नानान ॥४४॥ अर्थ-हे राजन् ! इस भरत क्षेत्र में हस्तिनापुर नाम का नगर है। उस नगर में प्रीतिचन्द्र नाम का राजा राज्य करता था। उनके शीलवान अति सुन्दरी नाम की पटरानी थी। इन दोनों के प्रति सुलक्षण और चतुर प्रोति कर नाम का पुत्र था ।।८४४।। चित्तिा मधि बानाम मंदिरि तुनवि तीन सोल । मुत्तनि मुरुधर सव्वाप कबाल याम कमले योप्पाळ् ।। वित्तग पुदल वन ट्रानुं विचित्र मति येवानां । मत्तमाल कळिद, बंदन मगनुक्कन्ड्रोरुव नाना ॥४॥ अर्थ-उस प्रीतिचंद्र राजा के चित्रमति नाम का मंत्री था। उस मंत्री के कोमल शरीर वाली सर्वगुण सम्पन्न कमला नाम की स्त्री थी। इन दोनों के विचित्रमति नाम का पुत्रना। इस त्रीतिकार राजकुमार और विचित्रमति दोगों के घनिष्ट मित्रता थी और पानंद पूर्वक समय को प्रतीत करते थे ॥४॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T V - - - - - ३४८ ] मेक मंबर पुराण अरुमरिण यार मारिरवर मनंग नन्नार् । मरुविय पुलत्त चिदै माशुन मन्न नीरा ।। दरम नल्लूरुचि येन्नू सादुविन पादं सेरंदु। तिरुवर मरुळ केटोर पुलंगन मेल वेरुमु चेंड्रार ।।८४६।। अर्थ-इस प्रकार समय को व्यतीत करते हुए वे दोनों यौवनावस्था को प्राप्त हुए । कई दिनों के बाद उस हस्तिनापुर नगर के समीप के उद्यान में धर्मरुचि नाम के मुनिराज विहार करते २माए । मुनिराज के प्रागमन के समाचार सुनकर इन दोनों ने वहां जाकर भक्ति पूर्वक नमस्कार किया और मुनिराज ने इन दोनों को धर्मोपदेश दिया। उन दोनों ने धर्मोपदेश सुनकर संसार के सुख को क्षणिक समझा और भोगोपभोग से विरक्त हो गये।।८४६।। मादिरै सुळंद्र, मट्टिर पुलंगन मेल् मट्रि वटै।। यावं तुरक्क माट्रिन् सुळट्रिय तगलु मागिर ॥ काट्रि यम् मनत्तु मी कडला तेळिवे याकु । मादल साल तुरवेंड्रोदु मरु मरंवळिक वेंड्रार् ।।८४७॥ पर्थ-तदनन्तर वह प्रीतिकर राजकुमार और मंत्री का पुत्र विचित्रमति ने मुनिराज को नमस्कार करके पूछा कि हे प्रभु! मद्यपान किया हुम्रा मनुष्य जैसे उसके नशे में मनमाने माचरण करता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व कर्म के उदय से पंचेन्द्रिय सुख के लिये हेयोपादेय वस्तु को न समझकर इस संसार में यह जीव भ्रमण करता है । उस मिथ्यात्व को स्याग करके सम्यक्त्व को धारण कर जिन दीक्षा ग्रहण करके तपश्चर्या सहित ध्यान अग्नि से कर्म का क्षय करने से हेयोपादेय को जानने योग्य विशुद्ध परिणाम की प्राप्ति होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिये आप जिन दीक्षा देकर हमारा उद्धार करो। ऐसी दोनों ने प्रार्थना की ।।८४७॥ मावव नरुळि चित्ति वरुकमट्रि वर्गट्ट केन्ना । पोवनि कुजि वांग पुनरं दु मादवत्तिर् सेंड्रा॥ रादरम पन्नु नाम तरसिळं कुमरन पालिन् । माविरं पिलगु नल्ल वार्ते मामुनिव नानान् ॥८४८॥ प्रथं-उस समय धर्मरुचि महाराज ने दोनों को स्वात्मलब्धि धर्मवृद्धि ऐसा आशीर्वाद दिया। पौर राजा तथा मंत्री के पुत्रों को दोक्षा दे दी । दीक्षा ग्रहण करने के बाद यह प्रीतिकर मनि अत्यन्त निर्मल तपश्चरण के फल से लोगों के अत्यंत प्रिय हो गये। ये प्रिय क्यों हो गये थे क्योंकि उनको ऋद्धि प्राप्त हो गई थी ॥८४८।। मुनि इळ कळिरु पोल वार् मुगिळ् मुले तडंगट शेवाय । बनिदेय रोडं बानोर मडंवैयर् मगिळू माउस ॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ३४ चिनिदइन् पुरत्त विट्टार खिळं कुमर नाय । बानग मामुनिवन पुक्का नन्नगर शरिगें केंद्रे ॥४॥ अर्थ-पंचेंद्रियः विषया सुख से वैराग्या प्राप्त करके ये दोनों मुनि जहां स्त्री, पुरुष, पशु प्रादि न थो. वाहां नगर के समीप एक उद्यान में जाकर विराजे। वहां ऋद्धि को प्राप्त हुए प्रीतिकर मनिराज ने चर्या के लिये जाते समय ऐसा नियम लिया था कि मैं पाहार उनके हाथ से लंगा, जो व्रती हो, कुल जाति से शुद्ध हो, सम्यकदृष्टि श्रावक हो, भगवान जिनेंद्र के प्रति पूरा. श्रद्धानी हो, नवधाभक्ति सहित. पुण्यपुरुष हो, ऐसे पाक्क के हाथ से माहार लूमा ८४६॥ कादिरिडिमन्निर कण्णुमत्तळ नोकि । माट्रिन फेस्यिं नूछ काळ् बग्य पिरि नरप्पदे पो।। पेट्र नान् मीनोडेंगु पिर मन विखंदोई। मादिन्. वेन्. तुमर तोर मांद्वान् पोल पुस्कान् ॥५०॥ अर्थ-इसा प्रकार निथमा लेकार माहार के लिये जातोसमय हवा बड़े जोर से चला रही थीं। उस वायु के वेग को देखते हुए कोई जीव जन्तु मेरे पांव के नीचे न आ जाये व ईर्या समिति पूर्वक एक पैर छोडकर जिस प्रकार हाथो मंद २ गतिः से जाता है या कोई तीक्ष्ण तलवार की धार पर चलता हों, उसीके समान वे मुनि अत्यन्त धीरे २ सावधानी से आहार के लिए जा रहें.थे। वे किस प्रकार जा रहे थे.? प्राचार्य कहते हैं कि इस प्रकार वह मुनिराज उस रास्ते में श्रावकों के घर देखते २ चले जा रहे थे जैसे व्याधिग्रस्त मनुष्य दवा लेने के लिये राजवैद्य का घर तलाश कर रहा हो, उसी प्रकार उच्च वंश, नवधा भक्ति महित सम्यकहष्टि आहार देने वाले को ढूंढ रहे थे। यह आहार देना औषधि के समान है। यदि कोई सम्यक्दृष्टि धर्मात्मा व्रती कोई प्राहार दें देवे तो.मैं उसी श्रावक के घर माहार लूंगा। ऐसा विचार करते २. श्रावका के घर के बाहर से जा रहे थे ।।५।। काइ कडिग बुध्दिर्शने तन्नमत्तै शारं। माय मिरवत्ति नान बंदिर कोळ्ळ मद ।। यमा तिरंड तोळाळ विमिय दानं शेयर । केयु नकुलत्तुः तोंडकेदु वे निरंच बेंद्राळ ॥५१॥ अर्थ-इस प्रकार प्रीतिकर मुनिराजनेगी २ में चर्या के लिये जाते समय देखा कि कहा एक घर बुद्धिसेना नामाकी वेश्या'का'था। उसके घर के सामने से जाते समय उसने उस मुनि को देखकर उनके सामने हाथ फैलाकर उनकों रोक लिया और वह वेश्या प्रार्थना करने लगी कि हे प्रभु! मुनिःमादिः सत्पापों को दान देने के लिये हमको कोनसा माचरण व्रत धारणा करना चाहिये ।।८५१॥ . तन्नः निर्दित्तल तक्कोर पळिच्चुबल या बोगड़ि। इन्नुभिर करुळे बिल्पुलै सुतेन कळ्ळ्नि मोहा।। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेव मंदर पुराण मन्निय गति लिट्रल माय निन् मनत्त रावल। पन्नरं कुलत पाणं पान मैक्कु निमित्त मेंडान् ॥८५२॥ पर्व-तब मुनिराज मौन छोडकर बुद्धिसेना वेश्या को उपदेश देने लगे कि देवी ! सबसे पहले मुनिराज को बाहार देने के लिये उत्तम कुल में जन्म लेना पडता है । सत्य और असत्य का निर्सय करना पड़ता है । पाप के द्वारा उपार्जन किया हुमा कर्म और पाप को मैंने बिना जाने प्रज्ञान से किया है। इस कारण पाप कर्म के उदय से निंद्य पर्याय धारण की है। यदि तुम्हारी वेश्या वृत्ति रूपी पाप छोड़ने का विचार हो जाय तो सच्चे गुरु के पास जाकर प्रात्म-शुदि का प्रायश्चित्त लेना चाहिये। पच परमेष्ठी का स्तोत्र पाठ ग्रादि भक्ति सहित करना चाहिये। मद्य, मांस, मधु का त्याग कर देना चाहिये । सम्यकदर्शन पूर्वक भगवान जिनेंद्र द्वारा कहे हुए प्राब्रम को पढना चाहिये और मायाचार से रहित होकर चारित्र का पालन करना चाहिये । इस प्रकार पालन करना यह उच्च कुल का कारण है ।।८५२।। मरुतंवनुरत्त विन् सोलर वमिर् दार मांडि । तिरंदिय मुरगत्ति नाळु पुलसुत्तेन कळि ळ नीमि ।। पोरंदुव शोल म. माटव पनि कोंडाळ । तिरिंदु पोइमुनिवन कानिन् विचित्र मदिय शेरंदान् ॥८५३॥ अर्थ-इस प्रकार प्रीतिकर मुमिराज ने उस बुद्धिसेना वेश्या को उपदेश दिया। उस वेश्या ने यह उपदेश सुनकर प्रण किया कि माज से मैं मधु, मांस, मद्य सेवन नहीं करूंगी, पापाचरण नहीं करूंगी। शीलव्रत धारण करूंगी। इस प्रकार उस प्रीतिकर मुनि के पास उस वेश्या ने प्रतिज्ञा ली। उस दिन मुनिराज मौन धारण करने के बाद बन में जहां विचित्रमति मुनिराज थे वहां वापस लौटकर मा गये ।।८५३॥ विचित्र मति' वीर विळित्त देन् कोलेन्न । प्रवित्तिर मुनिर पईबोर् कण्णे यार पट्ट वेल्लाम् ॥ बिरित्तुङ नुरेप्प केटु वियंदु वै तुइतु पेटके। मुरुत्तेळ विरुखके नाम मुंरुव मुम तेरिस केट्टान् ॥८५४।। मर्थ-इस उद्यान में विराजित विचित्रमति मुनिराज ने प्रीतिकर मुनिराज से पूछा कि हे वीर्याचार को निरतिचार पालन करने वाले मुनिराज माहार लेकर पाने में प्रापको इतनी देर किस प्रकार हो गई। वे प्रीतिकर मुनि कहने लये, हे विचित्रमति सुनो ! पाहार के निये बाते समय गली में एक वेश्या बुद्धिसेना का घर था। उसके घर के सामने से जिस समय मैं निकला तो उस वेश्या ने मुझे रोक लिया। वह वेश्या अनेक ग्राभूषणों को पहने हुए तथा सत्र प्रकार के शृगार से सजी हुई थी। उसने मुझसे कई प्रश्न पूछे और मैंने उनका धर्मोपदेश के रूप में प्रागम गगमानुसार उत्तर दिया। उसने उपदेश सुनकर पांचों पापों का त्यागकर, पांच प्रणवत ग्रहण किये। इस प्रकार विचित्रमति मुनि को वह प्रीतिकर कह रहे थे । विचित्रमति के Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण श्री महावीर खेन रहर विचारों में विकार की उत्पत्ति हो गई। अतः विचित्रमति पूछते हैं कि उस वेश्या के हाव भाव शृंगार कैसा है? कैसो उसकी सुन्दरता है? ||८५४॥ विनंईन् देळुच्चि तलाल वेदने वसत्तनागि। मुनि यवन् दुनियनागि पारनक्केंद्र, पोनान् । ट्रन दिडं कुरुग कंड तैयला ळुवंदु शाल। विनयत्ति केटाल विरत्तिन फलन यड़े ।।०५५॥ अर्थ-क्योंकि बाल अवस्था से जिनको संसार से विरक्तपना हो गया था और पंचेद्रिय विषय भोगों से लालसा हट चुकी थी। बचपन से ही जिन्होंने घोर तपस्या की थी। परन्तु कर्मगति बलवान है। संसार चक्र में कब कौन कैसे फंस जावे, कहा नहीं जा सकता। उसी प्रकार विचित्रमति मुनिराज ने हाव भाव शृंगार आदि सारे वेश्या के बान लिये । और मायाचार से उस विचित्रमति ने प्रीतिकर मुनि से कहा कि मैं पाहार के लिये नगर में जा रहा है। वह मुनि अयोध्या नगरी में माकर जिस गली में वह बुद्धिसेना वेश्या रहती थी उसो के घर के बाहर होकर चर्या के लिये जाने लगे। उन मुनिराज को देखकर उस वेश्या ने नमस्कार किया और प्रार्थना की कि कल जो मुनिराज पधारे थे उनसे जो मैंने पंचारणवत ले लिये हैं। उन व्रतों से मुझे कौन से फल की प्राप्ति होगी। ८५५॥ मोग रागत वाय पाद गळे मुनिवन् सोल्ल। भोग रागत्त वार्तं पुदियनु मुनिव नॅड.॥ नाग रागत्तिर् केट्टार कदंगळे नवि पिन्नू । वेग रागत्तनाग मेल्लि येल बेरुप्प सोनाळ ॥५६॥ येलुबु तोलिंगळ वेन्नं सून कुडर् मलं कन मूळ । कळद नत्तोर नरंतु वळुप्पि बैर कंडाल् ॥ विलगि सेंरलिडि बेरुत्तमिळं दु वतुं पोवार । कलंदिवै किरंद कुप्पै कंडु कामुरब देनो ॥८५७॥ अर्थ-वह वेश्या कहने लगी कि हे मुनिराज ! यह शरीर मांस रक्त से युक्त है। इस में तिल भर भी सार नहीं है। इसलिए ऐसे निद्य शरीर पर माप मोह मत करो और ऐसे मोह का त्याग करो। तीन लोक में प्राप्त होने वाले मनुष्य जन्म को पाकर उत्तम कुल में जन्म लेकर संयम धारण किया है । ऐसे संयम को त्यागकर अधोगति को लें जाने वाले गंदे विचार अथवा पाप विचार जो मापने किया है यह आपके लिये दुखदायक है। ऐसे विचारों का स्याग करो। क्योंकि किसी कवि ने कहा है: नारी संग यौवन गया, द्रव्य गया मद पान । प्राण गये कुसंग में, तीनों गये निदान । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ] मेरमंदर पुराल शीश सफल सतन नमैं, हाथ सफल प्रभुसेव । पाद सफल सतसंमतें तब पावे कुछ भेव ।। सत संगति में मति बढे ज्यों बौझे में घास । रज्जब कुसंग न बैठिये, होय बुद्धि का नाश । नारी की संगति करने से यौवन का नाश होता है, मद्य पान करने से द्रव्य नष्ट होता है, कुसंगत से प्राणों का नाश होता है, इस प्रकार इन तीनों का नाश होता है। मस्तक की सफलता साधुमों के नमस्कार करने में है। प्रभु की सेवा करने में हाथों की सफलता है। गुणीजनों की संगति से पैर सफल होते हैं और तभी कुछ भेद पा सकता है। अच्छे मादमियों की संगति करने से बुद्धि इस प्रकार बढती है जैसे घास का बोझा होता है, और कुसंग में बैठने से बुद्धि का नाश होता है। इसी प्रकार मनुष्य को सत्संगति न मिलकर कुसंगत मिलने से बुद्धि नष्ट हो माती है।।८५६।८५७॥ उन बोर्ड वार्ते पातलुवत्तलु मुनिबुं कामत् । तुने तुरंद निहाल तूयवे यागु मंदि। पिनमिदु पिनतै सेरं दाल पिळत्त देन पेरिय विब । मन युमे लेन्न शाल सुळित्तवळ बेरुत्तु पोनाळ ॥५॥ पर्थ--इस काम विकार को उत्पन्न करने के लिये स्त्री पुरुष को विकार से देखना, विकार भाव की तथा खोटी अश्लील बातें करना ये सब काम भोग के कारण होते हैं । प्रेम की गातें परस्पर में काम भोग के लिये कारण होती है। स्त्रियों के काम वासना न होने पर भी बलात्कार करने पर वह प्रेम के साथ सेवन करने के समान उत्सुक होतो हैं । इस प्रकार उन मुनिराज को उस वेश्या ने वैराग्य पूर्वक बातें कह कर विकार भाव दूर करने की कोशिश की। तब वह मुनिराज कहने लगे कि यदि मुर्दे के साथ भी विषयभोग किया जावे तो अधिक मानन्द प्राता है । ऐसा सुनकर तुरन्त ही उस वेश्या ने अपना मुह दूसरी तरफ मोड लिया। ॥ ५ ॥ मालं शावन्न सुन्नं मंजन वान कलिंगम् वेरा। शाल नाळिरक्किनुंदर गुरणं सेन्धि येळिविडावा ॥ मनुला मुरंदै सेरंदा लोर कनस्तळियुं वणंम् । बानलाम वनगुम सील मायब लेन्नादु सोन्नान् ॥५६॥ पर्व-पुष्पहार, चन्दन, अच्छे सुगंधित द्रव्य, अनेक प्रकार के मुगन्धित चूर्ण, रेशमी बहुमूल्य वस्त्र एक स्थान पर रहने से इसका नाश नहीं होता है। और वही वस्तु शरीर का स्पर्श होते ही एक क्षण में नाशमान हो जाती है। इन सभी विषयों को वेश्या के समझाने पर थी उन मुनिराज ने अपने महावत धारण किए मेष को छोड दिया। तत्पश्चात् उस वेश्या Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - wmr. मेह मेवर पुराण [ १५६ को कहने लगे कि हम दोनों परस्पर स्पर्म करें। ऐसा कहकर वे अयोग्य बातें उस देशया से कहने लगे। इस संबंध में एक कवि क्षत्र चूडामलि में कहता है: विषयासक्तचित्तानों, गुणः को वा न नश्यति । न पैदुष्यं न मानुष्य, नाभिजात्यं न सत्यवाक् ।। जो मनुष्य विषयभोग में मासक्त हो जाता है उसके सभी गुणों की इतिश्री हो जाती है पांच ऐसे मनुष्यों में विद्वत्ता, मनुष्यता, कुलीनता और सत्यता नादि एक गुण भी नहीं रहता। "पराराधनजात् दैन्यात, पैशून्यान् परिवादतः । पराभवात किमन्येभ्यो, न विभेति हि काषुकः॥ जो प्राणी विषयभोगों में प्रासक्त हो जाता है उसके कारण वह अपनी दीनता, चुमली, बदनामी, अषमान प्रादि की पर्बाह नहीं करता। पाक त्यागं विवेक चे, वैभवं मानितापि च । कामार्ताः खलु मुञ्चन्ति, किमन्यैः स्वञ्च जीवितम् ।। कामासक्त प्राणी भोजत, दान, विवेक, धन, दौलत और बडप्पन प्रादि का जरा भी विचार नहीं करते, और औरों की बात क्या ? भोम विलास के पीछे वे अपनी जान पर भी पानी फेर देते हैं। ८५९॥ मोगताल मुडे युरविन नाट्त मुनिदलिदि। भोगत्ताल कबुमि निकु पुल्लरि बाळरागुं । शेगर् कामु युरवे शेर्दन मदोंड, मैंटिट् । तागता निनक्क माटो तरवत तिळिदु निडान् ॥८६॥ मर्थ-मोहनीय कर्म के उदय से इस अशुचिमय शरीर को देखकर प्रासद होना इस का निराकरण न करते हुए इस शरीर की काम वासना में लवलीन होना यह अज्ञानी मूर्ख जीवों को ही प्रिय है। परन्त ज्ञानी जीव इसके प्रति घृणा करते हैं। बंडे २ चक्रवर्ती तीर्थकरें मुख मोडकर इस अशुचिमय शरीर के द्वारा मोह छोडकर मोक्ष की प्राप्ति करते हैं । परन्तु प्रज्ञानी जीव मोह की तीव्रता, पंचेंद्रिय विषय वासना का गाढ प्रेम होने के कारण इसी में सुख शांति समझकरं छोडना नहीं चाहता है। इसी प्रकार इस मुनि की दशा है । यह चारित्र मोहनीय कर्म का उदय ही यह कार्य कर रहा है। मांस भक्षी जीवे भक्षण करने योग्य इंस निध शरीर (मास) में सुखं समझने वाले ऐसें पापी जीव मोहांध जीव बार २ निघगत में में पाने की भावमा करते हैं। इस प्रकार वह विचित्रमति मुमि अपने महावत से व्युत हो गये। 4.0 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ] अरु मनर पुराण पुळु कुलं पोदिद याकै पुरिगद नेन पोरुंदिनेन मुन । नळु कुर्डबिन कट्चंद्र बार् वत्ता लेंड्र तन्नं ॥ इळित्तिडा दळुक्कु चोरु पुळुक्कुल दिच्चै तन्नाल् । वळुक्कि नान् मा याट्र केडुक्कु मातवत्तिन् मादो ||८६१ ॥ अर्थ - कृमि, कीटों से भरे हुए इस दुर्गंधमय शरीर के सम्पर्क से अपवित्र हुआ यह आत्मा प्रनादि काल से इस शरीर के मोह से ही आज तक संसार में दुख का अनुभव करता आ रहा है । ऐसी अपने मन में भावना न करके अनेक निंद्य और दुर्गंध युक्त मलों से भरे हुए शरीर पर मोहित होकर तपश्चरण से वह मुनि पतित हो गया ।।८६१ ।। पोरि पुळत्तेकुंद भोगदास पोगविट्ट । वेरुत्तेळु मनत्तरागि वीटिवय् विळयु मंड्रि | मरुत्तेदि राग सेल्लिन् माट्रिडे सुळल्व रेन्नुं । तिरत्तिनं निनंत लिल्लान् शीलत्ति निळिदु सेड्रान् ॥ ८६२॥ अर्थ - यह मानव प्राणी पंचेन्द्रिय भोग सम्बन्धी रागद्वेष को त्यागकर शुद्धात्म स्वरूप में एकाग्रमन से शांति से मोक्ष की प्राप्तिकर लेता है । इस प्रकार न होने से इसके विरुद्ध विषयभोगों में राग करने वाला होता है। इस प्रकार भगवान के मुख से निकला हुआ श्रुतज्ञान व प्रागम को वह मुनि अनुभव न करके अपने धारण किये हुए शीलगुण तथा तपचरण से च्युत होकर विषयभोग में मोहित हो गया ।। ६६२ || उडु नाम विट्ट वल्ला उरु विल्लै युलगत्तिन् कन् । वडुलाम् कुंबलागि मासेलां तिरडं दंड्रि || कंड वोंडिले कामं कन्नि नै पुवैत्त काल । तं नाम विट्ट वास युवट्ट मेंड्र नवि ळादान् ॥८६३॥ • • अर्थ- ज्ञान, दर्शन, चेतना स्वरूप मेरा श्रात्मा है। इसका अनुभव न करते हुए प्रमा सेभित्र पंचेंद्रिय विषय मेरा है, यह जड पुद्गल से युक्त शरीर ही मेरा है, ऐसी भावना करके इस संसार में अनेक प्रकार के दुख का भोगने वाला कारण हो गया। इस शरीर के संबंध में भली भांति विचार करके देखा जाय तो अनेक प्रकार की कृमि कीटों का स्थान इन स्त्रियों का शरीर अत्यन्त निद्य है। ऐसा विचार करके यह मूढ जीव अपने सच्चे स्वरूप की पहचान न होने के कारण दुर्गंध से भरे हुए शरीर के मोह से अधोगति में पडकर अनेक दुख से भरा हुआ संसार समुद्र में भ्रमण करता है। यह चारित्र मोहनीय कर्म की विचित्रता है । चारित्र मोहनीय कर्म के तीव्र उदय से वह विचित्रमति मुनि कामांध होकर पशु के समान हिताहित का विचार न करके अपने पद से च्युत हो गया || ८६३|| Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण विलंबिला वास माने मताल बेथंद कुंदर् । ट्रस ईसिन ट्रिळिंब काळं तान् द्र रंविट्टदे पोल् ॥ मनं मन तवतु बेंड कंडुसुन वनंगि सांड | निलं निन ट्रिळिय पिन्नं नेरिळं इगळं विट्टाळ ॥। ८६४|| अर्थ - अत्यन्त सुगंधित फूलों को स्त्रियों के माथे पर धारण करने से वे पुष्प एकदम दुर्गंधित होकर मुरझा जाते हैं और मुरझा जाने पर वे स्त्रियां उनको फेंक देती हैं । मोर एक बार फेंक देने पर कोई उसको ग्रहरण करने की इच्छा नहीं करता है । उसी प्रकार बुद्धिसेना नाम की वेश्या ने मुनि को घर के बाहर देखकर नमस्कार किया था। जब इनके मन में सम्यक्ज्ञान का प्रभाव देखा और यह देखा कि यह मुनि पद से स हो गये हैं तो अपने मन में उस वेश्या ने ऐसा विचार करके उन मुनिराज को धिक्कारा ॥ ६६४ । । पुगळ, वरंबाये बुध्दि शेर्न यान् तोगे तन्मे । इगळवन् केळंद कोवत् त्रिसेंव सोगतोडेमि ॥ सगँ मेडुं कुल माळं शारला मवावं तेडि । यगनग रेंड पुक्का नाव दोड्रिलामें काना ।।८६५॥ [ ३५५ श्रर्थ -- तत्पश्चात् वहाँ विश्चित्रमति सुनि, उस वेश्या के द्वारा की जाने वाली निंबा को देखकर मन में बुराई का विचार ठान लिया कि इस वेश्या के साथ विषयभोग करने का उपाय सोचना चाहिये और वह इधर उधर भटकने लग कर्डमन पुरुत्तु वंदन गंधमित्तिर मँवाना । मुडल सुर्वे तंडु शेल्वा नुवप्प दोर् पडियि नूनें ॥ मडेवनाय् समेत्तु काटि मद मन्ननालत् । तुडि विडं बुध्दि शेर्म तभयं कुन्नि ममे ॥१८६६॥ अर्थ - वह मांस भक्षण लोलुपी एक गंधमित्र नाम का राजा था । हेय उपादेय के बिचार से शून्य हुआ वह विचित्रमति मुनि मन में विचार करता है कि इसी राजा के द्वारा मेरी इच्छा पूरी हो सकती है। इस कारण इस राजा को अपनी ओर आकर्षित कर लेना चाहिये। ऐसा विचार करके वह राजमहल में पहुँचा । और उनके रसोइया के साथ मिलकर वह मुनि अत्यन्त मधुर स्वादिष्ट मांस को लाकर उसको देने लगा । तब वह राजा रुचिकर मांस लाने वाले उस मुनि पर प्रति प्रेम करने लगा। वह राजा उस पर प्रसन्न होकर कहने लगा कि तुम इस मांस लाने के बदले में कुछ इनाम मांगो, तुम्हारी इच्छा की मैं पूर्ति करूंगा । यह सुनकर वह मूनि कहने लगा कि तुम्हारे नगर में जो बुद्धिसेना नाम की वेश्या है, उससे मेरी विषयभोग करने की इच्छा है । आप उसको पूरा कीजिये । ऐसा सुनते ही राजा ने तुरंत उस बुद्धिसेना वेश्वा को बुलाकर प्रज्ञा दी कि तुम इस विचित्रमति के साथ विषयभोग करो। तब राजा की आज्ञा मानकर वह वेश्या उस मुनि को अपने घर ले गई ।। =६६ ।। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ] मेरा मंदर पुराण मौवलं कुळलीक्ागं मयंगि मादवत्तं विट्ट न । सेव्वि ये काटि तोट्र सेरिविट्ट पांव तन्नात् ॥ नौ उडल विट्ट, वंदनो वलिय निव्वाणं याना । निव्वनत्ति यांड्रि लोग पचति इयंबल केळा ॥८६७॥ अर्थ- सुन्दर रूप से युक्त उस वेश्या के साथ मुनि ने अपने पद से च्युत होकर विषय भोग करते हुए तथा मांस भक्षण करते हुए कुछ समय बाद ही प्रार्तध्यान से मरकर हाथी की पर्याय में जन्म लिया ||८६७|| अप्पर पर नोविट्टल मुद्रऴुवि इ.ड्र. । में पड उनरु तोंड्र विरद शोलत्त वाय ।। पिडित दंडून शेंगे यदिळ मुले नादं । तुप्पुरळ तोंडे सेव्वाय पर्यानिवु सोल्लि निड्रान् ||८६८ ॥ अर्थ - इस प्रकार वह हाथी अपनी इस पर्याय में पूर्व जन्म में किये हुए पाप के उदय से स्मरण कर आत्मा में ग्लानि कर रहा है और ग्लानि होने को अपने निद्या मांस मिश्रित भोजन को न खाकर चुपचाप खडा हुआ है । यह पूर्वजन्म में वेश्या के साथ मोहित होने के कारण मद्य सेवन करके दुर्ध्यान से मरकर हाथी हुआ है। ऐसा मुनि वष्त्रायुध ने कहा । ॥६६८।। 77779. विरितिरै वेतिज्ञाल कायलर् बिळुम वेनो । येरि पुरं नरगड़ि वीळु बिडार तुंब वेळ्ळ ॥ तिरं पोर कडले नोंगि तुरंवुडन सरिदु नोर् पिन । वज्रमेदिर् कोळ वीडुं कानड दलगु मन्न् ॥ ८६९ ॥ अर्थ - पुनः वह मुनिराज कहते हैं कि हे राजा रत्नायुष ! यह जीव अपने ग्रात्मस्वरूप को भली भांति न जानने के कारण पंचेन्द्रिय विषय में लीन होकर प्रन्त समय में विषय कषायों के तीव्र परिणामों से मरकर अग्नि के समान रहने वाले घोर नरक कुण्ड में कर अनेक दुखों को भोगता है। इससे देवगति व मनुष्य गति प्राप्त नहीं कर सकता है । इसलिये हे राजन् ! जन्म मरण रूप संसार को त्यागकर मनः पूर्वक प्रारिपसंयम और इन्द्रिय संयम धारण कर बारह प्रकार के तप आदि करने से ही देव पद व मोक्ष पद की प्राप्ति इस प्रारणो को हो सकती है ।८६६ ।। बिले ला मनिये विट्ट: तसेच नाळ तायै विट्ट कासेतं मेथ लंड्रिं । तन्नडि याळ योंबल ॥ NO ❤ निलंडला भोग मेवि निङ्ग नल्लरतं नींग | मित्र कुला मकर पैबुं तेंदु तोळ बंद वेंड्रात् ॥ ८७० ॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण अर्थ-हे अत्यन्त सुन्दर नवरत्न आभूषणों से सुशोभित राजा रत्नायुध ! इस संसार में शाश्वत रहित पंचेन्द्रिय सुख को भोगते हुए अत्यन्त श्रेष्ठ प्रात्म स्वरूप को भूल जाना ऐसा है जैसे एक मनुष्य अपने हाथ में रखे हुए रत्न का मूल्य न जानकर एक कौवे को उडाने के लिये वह रत्न फैंक देता है। उसी प्रकार मनुष्य जन्म को गंवा देता है। भावार्थ-इस संबंध में शुभ चंद्राचार्य ने अपने ज्ञानार्णव ग्रंथ में श्लोक १२ में कहा है। "अत्यन्त दुर्लभेष्वेषु देवाल्लब्धेष्वपि क्वचित् । प्रमादात्प्रच्यवंतेऽत्र केचित् कामार्थलालसाः ।। सुप्राप्यं न पुनः पुसां बोधिरत्नं भवार्णवे। हस्ताद् भ्रष्टं यथा रत्नं महामूल्यं महार्णवे ॥ मानव जन्म, उत्तम कुल, दीर्घ आयु, इन्द्रियों की पूर्णता, बुद्धि की प्रबलता, साताकारी संबंध यह सब अत्यन्त दुर्लभ है। पुण्ययोग से इनको पाकर भी जो कोई प्रमाद में फंस जाते हैं व द्रव्य के और काम भोगों के लाल सावान हो जाते हैं वे रत्नत्रय मार्ग से भ्रष्ट रहते हैं। इस संसार रूपी समुद्र में रत्नत्रय का मिलना मानवों को सुगमता से नहीं होता है । यदि कदाचित् अवसर प्रा जावे तो एलंय धर्म को प्राप्त करके रक्षित रखना चाहिये । यदि सम्हाल न की तो जैसे महा समुद्र में हाथ से गिरे हए रत्न का मिलना फिर कठिन है उसी तरह फिर रत्नत्रय का मिलना दुर्लभ है ।।८७०।। कडलन तोंड नीलक्कानले नीरेंडोडि । युड लिळंदुळे पोल उरुदि योंडोंर्व विड़ि। इडरिनेईनु मिन्ना पइल पुलत्ति वोर चंड्न् । पडुतुयर् नरगं लग्निर् पदैप्पनो वडिगळेडान ॥८७१॥ अर्थ-राजा रत्नायुध इन सब बातों को मुनिराज से सुनकर जैसे हरिण अपने से बलवान व्याघ्र को देखकर चौंकता है, उसी प्रकार चौंक कर जैसे हरिण गर्मी से तापकर इधर उधर भटकता है उसी प्रकार राजा रत्नायुध अपने मन में संसार संबंधी विषयों से प्रत्यंत विरक्त होकर विचार करने लगा कि आज तक मैंने अपने पास रहने वाले प्रात्म-सुख को न समझते हुए मिथ्या ताप ऐसे क्षणिक इन्द्रिय सुख में मोहित होकर संसार में भ्रमण किया। इस प्रकार मन में पश्चाताप करते हुए मुनिराज के चरणों में पड़कर प्रार्थना करने लगा कि हे भगवन् ! मैंने पंचेद्रिय सुखों को ही शाश्वत सुख समझा इससे मेरी प्रात्मा मलिन व दुखी हो गई है । सुख क्षण मात्र भी नहीं मिला है ।।८७१।। येरि इडे पदंगम पोंड मिळ पिडि कळिरु मोंड.म् । करिमद दळियै पोंडस कानति नसुनं पोंडम ॥ विरगिनार् डिर् पोन्नं विळुगि मीने पोंडस । : तेरिविधि नुगरं व बेल्लास तीर यान इरप्प नद्रान् । ८७२॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ] मेर मंदर पुराण अर्थ-पूनः रत्नायध राजा कहने लगा कि हे प्रभ! जिस प्रकार पतंग दीपक में मग्न होकर अपना प्राण गंवा देता है, हाथी स्पर्शन इन्द्रिय के अधीन होकर तथा मछली रसना इन्द्रिय के अधीन होकर मर जाती है, भौंरा घ्राण इन्द्रिय के वश होकर प्राण खो देता है, हरिण कर्णेद्रिय के विषय के अधीन होकर अपने प्राण खो देता है। इस प्रकार जब जीव एक २ इन्द्रिय भोगों के अधीन होकर अपने प्राण खो देते हैं, तब जो मनुष्य पंचेन्द्रिय विषयों को भोगता है, उसकी क्या हालत होगी। इसलिये हे प्रभु ! पंचेंद्रिय सुखों के लिये जो पाप कार्य नहीं करते थे वे मैने किए । मै अब महान दुखी हूं। मेरी प्रात्मा महान कष्ट भोग रही है । अब इस संसार में परिभ्रमण न करू,इस कारण जिन दीक्षा धारण करने की उत्कंठा मेरे मन में जागृत हो गई है। आप मेरे पर अनुगृहीत होकर मुझे दिगम्बरी जिन दीक्षा देवें । ऐसे मुनि के चरणों में पडकर प्रार्थना की ।।८७२।। विन पयन ट्रेन वेंगै मुन विडपोल वंजि। शिनक्कळिर् दळवन् शेवोन् मुडियिन मगनुक्किा दिट् ।। तिनत्तिडे नीगि पोगु मारेन वेंदु कोंगे। मिनर् कोडि कुळात्तु नींगि मीळंदु पोय वनं पुक्काने।।८७३॥ ___अर्थ-मुनिराज ने जिनदीक्षा की सम्मति दे दी। तब वह रत्नायुध अपने नगर में प्राता है और अपने पुत्र को बुलाकर उसका राज्याभिषेक कर देता है। और पींजरे में बन्द पक्षी जैसे पीजरा खुलते ही तुरन्त उड जाता है उसी प्रकार वह रत्नायुध मुनिराज के चरणों में प्रा गया ।।७।। इई परावेट कालत्तीयु मोर् मुगिले पोलुं । वडिवुड तडक्क वंदन वज्र दंतन पादम् ॥ मुडियुर वनगि मुवार तोळ वेळ डिवं कोंडा । निडि मुरसदिरंद येंगु मेत्तोलि परंद दंड्रे ।।८७४॥ मर्थ-वह रत्नायुध ववदन्त मुनि के चरणों में दोनों हाथ कमलों की कली के समाम जोडकर विनीत भाव से नमस्कार करके प्रार्थना करता. है कि हे स्वामी ! तीन लोक में सम्पूर्ण जीवों के लिये पूज्य ऐसी योग्य जिन दीक्षा ग्रहण करने की मेरी इच्छा हो गई है। वह दीक्षा मुझे प्रदान करें। मुनिराज ने प्रार्थना सुनकर तथाऽस्तु कहा और जिन दीक्षा की स्वीकृति दे दी। दीक्षा लेने के समय अनेक प्रकार के मंगलाचरण बाजे प्रादि बजने लगे। ॥८७४।। वरैनै इरुक्कु वनरायुधंद्र रंद वन्ना। लरवम माले मैंवन् कावला लगत्ति रुंदा ॥ ळ रैइ नुक्करिय वन्नु भगनोडं तुरंविट्ट ळ ळं। पुरैयला नीगि निद्र. पुर्गलं वरंद नोदाल ।।८७५॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ ३५९ अर्थ-जिस समय रत्नायुध की दीक्षा हो रही थी उस समय उसकी माता रत्नमाला जो राजमहल में बैठी थी तुरन्त ही उसने भो मुनिराज से दीक्षा ग्रहण करसी पोर उसने अनेक प्रकार के व्रत उपवास करके अपने शरीर को कृश कर दिया ॥७॥ कच्चनि मुल नार पार् कादल पोट्रवत्तिन् कन्न। मेच्चिय मनत्तनागि वेइलिनै यादि योगिन् । पच्चुदि इंडिनिड़, कालंगळ पल नोट्रिर् । तच्चुद कर्प पुक्का नरदन माले यो९॥८७६॥ अर्थ-तत्पश्चात् रत्नायुध जैसे राजमहल में रहते समय पंचेंद्रिय विषयों में प्रानंद. भोगता था उससे भी अधिक पानंद दीक्षा लेने पर तपश्चर्या करते समय भोगता था। और निरतिचार पूर्वक तपश्चरण करते हुए अन्त समय में सल्लेखना विधि से रत्नायुष मुनि पौर उनको माता रत्नमाला दोनों ने सन्यास विधि से शरीर छोड करके दोनों अच्युत नामक कल्प में देवपद को प्राप्त किया ।८७६।। इरुवत्तीराळि कालत्तिरवत्ति रायिरत्तान् । डोरुवित्तान् ममुद मुन्ना बुंवरिन् पत्तं युदार ॥ मरुवित्तान योगि निडान् वज्जरायुधनु पिन्न । नरगत्ताळ रविन श ग नविद्र. वन् नरगर कोवे ॥८७७॥ अर्थ -आदित्य देव कहने लगा कि हे धरणेंद्र सुनो! इस प्रकार अच्युत कल्प को प्राप्त हुए वे दोनों जोव बाईस सागर प्रायु से युक्त और बाईस हजार वर्ष में एक बार मानसिक आहार लेने वाले हो गये। इस प्रकार वे देवगति के सुख को अच्छी तरह से अनुभव करने लगे। इधर वे बचायुव मुनि प्रात्म योग में लवलीन थे। अब पीछे कहे हुए नरक में रहने वाले सर्प के जीव के विषय में कहूंगा । उसको लक्ष्य पूर्वक सुनो।।८७७॥ परुमित्त कडलगळ पंक प्रयैर् पत्तुं पेट्.। नरगत्ति नरिबिर पोंदु नाळ वगै याळि कालं ।। .. तिरत्तावरतीर् सेंड.तीयवान् तुयर मुद्र.। . भरवत्तिर् कच्च येन्न पुरत्तिन् वे नानान् ॥८७८॥ अर्थ-उस सर्प का जीव पंकप्रभा नाम के चौथे नरक में उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की आयु का अनुभव कर वहां से प्रायु पूर्ण कर उस स्थावर पर्याय में जन्म लिया। और वहां अनेक दुखों का अनुभव करने के बाद इस भरतक्षेत्र संबंधी एक देहात में भील होकर उत्पन हुमा ।।८७ ॥ तारण किरण नेन्न बेडन् दन् मनविताळंद। बारिने यनयक को मंगि तन् सिलवन् मिक्क ॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] मेह मनर पुराण метоломлДААса Аллллллллллллллллллллллллллллллллллллоомоними तारुण नागि तोडि तलैला ताळतुंडम् । कूरेरि कवरंद दुप्पान् कोडुमयार् कनवि योप्पान् ॥८७६॥ अर्थ-उस भील का नाम तारण किरण था। उसकी स्त्री का नाम मंगी या । उन दोनों के प्रतिसार नाम का पुत्र हुमा । उस पुत्र का शरीर अत्यन्त काला था। वह सदैव दुष्ट कार्य किया करता था ।।८७६।। पावंता नुरुवन् कोंडै वुइरेयुं पडुक वेंडि। चापं शेंज चरंगळेदि तिरिगिड तनेयान् वंदु ॥ कोबंता नादि युळ ळान् कोल इला नंवत्तोड़ें। वेपंता नुइर् गट काकि विलंगन् मेलेरि नाने ॥८८०॥ मर्थ-वह अतिसार क्रम से बढतेर यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ। वह अत्यन्त क्रूर व दुष्ट स्वभाव का हो गया था। वह निरपराधी प्राणियों की हिंसा किया करता था । अनतानुबंधी क्रोध से युक्त था। ऐसा वह भील हिंसानन्द में आनन्द मानने वाला था। एक दिन हिंसा करते २ वह उसी पहाड पर चला गया ॥८८०॥ वरनिश योगि निड वज्रायुद नै काना। वेरियन विळित्तु बेरत्तेकैद दोर् कोवति याल् ॥ वर ने मुरुक्कु वान् पोर् कनत्तिड बंदु कूडि। तेरिविलान सैदि तीय शेप्पुबर् करिय बोंड़े ॥८८१॥ अर्थ-उस पर्वत पर जाने के बाद पर्वत की चोटी पर प्रतिमायोग में स्थिर उन वायुध मुनि को देखते ही उस भील ने उनके पास जाकर अत्यंत क्रोध से उपसर्ग करना प्रारंभ कर दिया। उस समय वह भील किस प्रकार मुनिराज पर उपसर्ग कर रहा था-वह कहने में नहीं पाता ॥१॥ कूर नुन पगळि कोंडु शेविहर्ड कुडयुं कुत्तुं । कार् मुगं कोंडु निड, मत्तगत्तडिक्क कैयिर् ॥ कूर् मुळिन् शलागै येंद्र. कुरंगिड कोडियै सुदि । मोर विळक कडैयुं पादत्तडिक्क नीइन् मुळं ये निरं ॥८८२॥ अर्थ-उस भील ने अति तीक्ष्ण बाण को अपने हाथ में लेकर उस वज्रायुध मुनि के घुटने में मारना शुरू किया और अपने हाथ में धनुष लेकर उनके सिर पर मार दिया। तीक्ष्ण मायुध को शरीर में घुसाना, कांटेदार लकडी से मारना, शरीर को घसीटना आदि २ अनेक प्रकार के उपसर्ग किए । महान उपसर्ग करने से मुनि के शरीर से इस प्रकार रक्त बहने लगा कि जिस प्रकार पहाड से पानी की धारा बहकर नीचे गिरती है । पुनः उस कांटेदार लकडी को मेकर उन मुनिराज को मारना प्रारम्भ कर दिया।।२।। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ ३६१ मच्चु मुळ कोंड सुद्र, मडित्तिहुं वैर वारिण। युच्चि युट कुरत्तिनुत्ति तोडि पंगेरियं कल्लात् ।। कैचिल कनये कोतु कावळ वैद यांगि। येचुर तोंड, मिव्वारिडुवै कळनेगं शैवान् ॥८८३॥ अर्थ-उस भील को इतने उपसर्ग से शांति नहीं हुई तब बडे २ कांटेदार डंडों से मुनिराज को मारने लगा और कांटे मस्तक पर चुभाना,पत्थर बरसाना,कंकर फेंकना इत्यादि उपसर्ग करते हुए उन पर बाणों की वर्षा करने लगा। इस प्रकार अनेक प्रकार के घोर उपसर्ग उन मुनिराज पर किये ॥८८३॥ येरि सोरिदट्ट वरण मिवनं शैद विडुवं यल्लान् । सैरिव बोंडिड्रि निड़ मुनिनु पीरत्तु शिद ।। चरुम नदि यानुं तोडं सेंड तन्नुडंबु नीगि । तिरुमलि युलगत्तच्चि सेन्चट्ट सिध्द पुक्कान् ॥८॥ अर्थ-उस भील के द्वारा किए गए उपसर्गों की ओर ध्यान न देते हुए वह वजायुध मुनि अपने प्रात्मध्यान में लीन होते हुए, प्राज्ञा विचय, अपाय विचय. विपाक विचब, संस्थान विचय ऐसे चार प्रकार के पर्म्यध्यान को अपने में भाते हुए अपने शरीर को त्यागकर के वह महमिंद्र देव हो गये ।।८८४॥ मुप्पत्तु मूंड, तम्नाल मुरणिय वाळि कालं। मुप्पत्तु मूडि यांडा इर मि. विट्ट, मुन्ना ॥ मुप्पत्तु मूड पक्क मुइर् पिड मुडिवु पेट्रान् । मुप्पत्तु मूंड दिच्चारिन ला मनिवन् दाने ॥५॥ अर्थ-सर्वदोष प्रायश्चित्त विधि को निरतिचार रूप पालन करने से वह बजायुध मुनि सर्वार्षसिद्धि नाम के महमिंद्र स्वर्ग में देव हो गये । उनकी माषु तीस सागर की और तेतीस पक्ष में एक बार श्वास निःश्वास लेते थे। तेतीस हजार वर्ष में एक बार मानसिक माहार करते थे ।।८८५॥ प्रवथि तन विमानत्तिन् कोळ् नाळिगे येळवं सेनु । मुदि गळ यादुभिडि योपिला उरु वत्ताळे ॥ शिवमति यारप्पोल वियत्तु शरीबिरुवान् । ट्रवनेरि निड बोरन ट्रन्म या ररिय बल्लार् ॥८६॥ अर्थ-उस सर्वार्थ सिद्धि कल्प में रहने वाले देवों को अपने विमान से नीचे रहने Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ] मेरु मंदर दास वाले त्रस नाडी तक के जीवों को अपने अवधिज्ञान द्वारा जानने की शक्ति होती है। मौर वे सिद्ध परमेष्ठी के समान रागरहित होकर वीतराग भावना से युक्त होते है । और स्त्री रहित बाल ब्रह्मचारी रहते हैं । पूर्व जन्म में अच्छे दुद्ध र तपश्चरण करते समय उस भील के द्वारा घोर उपसर्ग को सहने वाले वीर पुरुष वजायुष मुनि के समान कोई दूसरा नहीं है ।। ८८६ ।। कून शिलै पगळि कोतु कोडिय वन् कुळय वांगि । मानगळं मरेयुं बोळत मुनिवने वरुत्तिप्पावि । तान् शिलं नाळि लेळा नरगत्तै शेरवु काटिर् । 1 ट्रेन सुडुतीयिनी पोर् ट्रिगेत्तु पोय् नितत्तु वोळ वान् ॥ ८८७॥ वीळ दंव कनतु दंडाल विळ प्पर वटुक्कि हट्ट. सूळ बेव रुरुक्कु शैविन् कुट्ट व मुंडेंबु काटिट् ॥ टाळ व वन् ट्रन्नै बांगि शक्कि लिट्टर तिट्टाट्ट । सूळ मुळ्ळिलाय मेट्रि तुयरंगळ पल शेदार ॥ ६८८ ॥ अर्थ- वह पापी भील जंगल के पशु पक्षियों को मारकर खाया करता था। इस तीव्र पाप के उदय के कारण से थोडे दिनों में मरकर वह सातवें नरक में गया। उस नरक की भूमि में उस भील का जीव जाकर पड़ते ही वहां के पुराने नारकी महान घोर दुख देने लगे । ताम्बे को गर्म करके गलाकर प्रमृत बताकर उसके मुंह में डालते । जिस प्रकार धारणी में तिलों को डालकर तेल निकाला जाती हैं, उसी प्रकार उसको घाटी में पेलने लगे । प्रत्यंत तीक्ष्ण कांटेदार वृक्ष पर चढाकर उसको ऊपर से नीचे गिराते थे । नीचे गिरते हो जैसे बगैर पानी के मछली तडफडाती है, उसी प्रकार वह नारकी तडफडाता था । इस प्रकार घोर दुख सहता था । उस नारकी की आयु तेतीस सांगर की थी और पांच सौ धनुष ऊंचा उसका शरीर वा ॥८८॥ . पाव तान नडि मंदिर पाविवान् पुडे यूट्टे । योविला वेळंबु बीडयूर विल व्यरं तु बंधार् ॥ ट्राविला तुंब मुद्रान् तझिलं तळकाद । वायु वा लांगु पेट्र वाळि कालसे येंसाम् ॥८८॥ प्रारवत्ता लोव नानं यायिना नोरुव निड्र । वेरता नरगसाळंब विळंबिय विलार्ग ळिव ॥ भारतं मुडिय शेंद्रा पनगर किरैव पारा । या शेट्रगं लिङ्गि पगं नयनिं कंडाय् ॥८०॥ अर्थ -- वह भील का जीव नारकी पहले भव का सत्यघोष नाम के मंत्री का जीव था। इस प्रकार प्रशस्त राग परिणति से सिंहसेन राजा का जीव हाथी की पर्याय में हुआ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण या । उस सिंहचन्द्र मुनि महाराज के साथ बैर भाव धारण करने वाले सत्यघोष नाम के मंत्री ने कई बार नरक में जाकर प्रत्यन्त दुख भोगकर जन्म मरण किया। उस समय में राग द्वेष परिणति से रहित वह जीव कर्म से मुक्त होकर संसा र बंधन को तोडकर अनन्त सुख को प्राप्त हो गया। इसलिये भवन लोक के अधिपति हे धरणेंद्र ! इस कर्म बंध का कारण एक बैरत्व ही इस जीव का है। और कोई नहीं है। इसलिये आप भली प्रकार से मनन करके विचार करो ऐसा प्रादित्य नाम के देव ने धरणेंद्र से कहा ॥८८६८१00 इति बजायुध मुनि सर्वार्थसिद्धि नाम के विमान में जाने वाला पाठवां अध्याय पूर्ण हुमा ॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ नवम अधिकार ॥ * बलदेव का स्वर्ग जाना . मंदिरि मन्नन् म्मिन् मारुमारागि कोळ्मै ।। विदिय यदु शेल्लु येल्ल ये मुडिय चंद्रार् ।। वंदवर तम्मिर कूडु मळवि निन्न ट्रिळय नाय । मेंदन तागु मुद्र माट्रिनो युरक्क लुट्रेन ॥६॥ अर्थ-सत्यघोष मंत्री व राजा सिंहसेन इन दोनों में बैर होने के कारण तथा मंत्री का दुर्गुणी होने के कारण मंत्री का जीव सातवें नरक में गया और सिंहसेन राजा सद्गुणीहोने के कारण सर्वार्थसिद्धि में गया। इस प्रकार उन शुभाशुभ गुणों के अनुसार उनको गति का भी बंध होता है। प्रत्येक जीव अपने परिणामों के अनुसार शुभ अशुभ गति को प्राप्त होता है । पुनः मंत्री व राजा का जीव मध्य लोक में आकर जन्म लेगा और उनकी पटरानी रामदत्ता देवी तथा सिंहसेन राजा का छोटा राजकुमार और वह रामवत्ता पटरानी इन दोनों की कथा प्रामे कहूँमा । ऐसा प्रादित्य देव ने घरसेंद्र से कहा ।।६६१॥ पोवोडु तोळर्गळ, शैट्रि पोरिवंडुम नैमिरं पाड । तादोडु मदुकळ् वीयुं धातकी युय दीप ॥ मोदिय पुगंग नानूलयिर मुळ्ळ गंड । वैविगे इरंडि चक्क वाळतिन् विळंगु निरे ।।८६२॥ अर्थ-भरत क्षेत्र में धातकी खंड नाम का द्वीप है । उस द्वीप का चार लाख योजन विस्तार है । उसके चारों ओर घेरा हुमा लवण समुद्र है। उसके बाद चारों तरफ कालोदषि समुद्र है । इन दोनों समुद्रों से घिरा हुमा वज्रवेदी के समान और चऋवाल गिरि के समान वृत्ताकार रूप से वह द्वीप प्रकाशमान है ॥१२॥ मंदर मिरंडु यांड कुलमले पनिरंडि । नंदरत्तार नाले कामव मगत्तु कोळ्वान् ।। . मंवर मवर्कु मेलवार् शोदुवै वडकरै कट् । . कंदिल यन्न नाडु कायर तगय बुंडे ॥६॥ अर्थ-ग्रंथकार ने इस घातकी खंड द्वीप का वर्णन किया है। इस द्वीप में गंगा सिंधु सीता सीतोदा मादि मादि मठाईस नदियां हैं। वहां बहने वाली सीतोदा नाम की नदी के - किनारे पर गंषिला नाम की एक नगरी है ।।१३॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ timanumanuadanamaANAamirmwarrrr wwwwwwwwwwww------------ मेर मंदर पुराण [ ३६५ विलंमल वीळारु वि वेळ मुम्मंद तेरल वेरि । कलंदुरन शत्रु मार कयंवले पट्ट काले ॥ संजलं पिरिद कादलार तमक्कंड पोळंदि । ललगलं कुळलिनार् कोल मर दिनी दोगु नाटुळ् ॥८६४! अर्थ-उस धातकी खंड द्वीप में रहने वाले ऊंचे २ पर्वतों पर से पानी के झरने नीचे बह २ कर छोटे २ तालाब प्रादि के रूप में बहते हुए सरोवर में मिल जाते हैं। इस प्रकार सर्व प्रकार शोभने वाली गंधिला नाम की नगरी है। उस नगरी के बहकर जाने वाले पानी में जिस प्रकार छोटे २ शंख. मोती ग्रादि बहते जाते हैं और उनकी आवाज होती है उसी प्रकार उस नगर में रहने वाली स्त्रियों के जाते आते समय उनके पांव की पैजनियों के मधुर २ शब्द सुनाई देते थे ॥१४॥ कदळि इन कुल गळ् शपोर् कुळ कनि कांड, नांड। मवले ये शेरिद व मईलन्न चाय लातं ॥ कुदले यम पुदलवकुन्न कोडुत्तेडुत्तुबक्कुं शवन् । मलय माउ मूदुरयोदि मानगर मामे ॥६५॥ अर्थ-उस गंधिला देश के मुख्य २ नगर सुन्दर और सोने के वर्ण के समान शोभायमान हैं। उस देश में कदलीफल, ताड वृक्ष के फल अनेक प्रकार के पेड चारों ओर महान सुशोभित होते थे। वहां के लोग कदली के गुच्छे.सुपारी के गुच्छे, ताड के गुच्छे लाकर अपने२ घरों में हमेशा बांधे रखते थे। घर में रहने वाले छोटे बच्चे जब उन गुच्छों को देखते थे तो उनको लेने के लिये रोने लग जाते थे। तब उन बच्चों को उनके माता पिता उन गुच्छों के फल फूल दे देते थे ।।८६॥ इरवि पोदाब वोपत्तिळेवर् बदन मेन्नु । मरविंद मलरत्तोंड, मरसन ट्रानरुपदासन् ।। पर पुरै माड मूदूर् मट्रिबर् किरवन ट्रेवि । सुरि कुळर् चैववाय तोग सूक्दै बाळाम् ॥६६॥ अर्थ- उस नगर में बड़े २ महल शोभायमान होते थे। उस गंधिला देश से संबंधित अयोध्या नाम की नगरी थी जिसका प्रहदास नाम का अधिपति था जो प्रत्यन्त प्रतापी था । जिस प्रकार सूर्य उदय होते समय अपने प्रकाश से कमलों को प्रफुल्लित कर देता है उसी प्रकार वहां का राजा अपनी प्रजा को तथा अपनी स्त्री को सुख देने वाला था। उसकी पटरानी का नाम सुरता पा जो सर्व गुण सम्पन्न महान सुन्दर थी ।८६६। मच्चुद किरव नाय वरदन माल येंद । कन्चरिण मुल नाटकु पुरल्बनाम् पिरंद काले । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aamanmamamaleramananmirmwom. Miwwaprnwrwinar मेर मंदर पुराण मा बेल वेबर कंजियन्नवर नहुंद वैयत् । विच्चे ये निरंत वीतभय निवनें. सोन्नार् ।।८६७॥ प्रर्ष-उस पच्युत कल्प में देव हुमा रत्नमाला प्रायिका का जीव वहां के देवगति का सुख का अनुभव करके वहां से व्युत होकर अयोध्या का अधिपति राजा अहंदास की पटरानी मुरता के गर्भ में पाया और नवमास पूर्ण होने के बाद उसने पुत्र रत्न को जन्म दिया। पुनोत्पत्ति की खुशी में राजा प्रहंदास ने अत्यन्त प्रानन्दित होकर उस देश के या चकों की इच्छा के अनुसार अनेक प्रकार के दान दिये। और उस पुत्र का नाम संस्कार करके बोत भय नाम रखा ।।८९७|| मदंर मन्नन् देवि बडिनुन पगळि वाट कट् । शिट्रिट पर यल्गुर शिनबत्तै शिरुव नागि । सुद्रिय कादलाल बंदि रतनायुंदनुत्तोंड। बेटि बेळ्वीरन पेहं विबोड नेड, सोनार् ॥८६८।। अर्थ-उस महदास की दूसरी रानी और थी जो सर्वगुण सम्पन्न थी और उसका नाम जिनदत्ता था । उस जिनदत्ता के गर्भ में पूर्व जन्म के रत्नायुध राजा का जीव जो तप करके प्रत्युत स्वर्ग में देव हुमा था, वह वहां देवलोक का सुख भोगकर आयु के अवसान पर इस जिनदत्ता रानी के गर्भ में पाया और नवमास पूर्ण होने के बाद पुत्ररत्न को जन्म दिया। पौर नाम संस्कार करके उसका नाम विभीषण रखा गया ।८६८।। राम केशवर गळागि येळिन् यदि नीळ मेग । तरा तळ तिळिव पोलवार दरुयम पुगळं पोंड्रम् ॥ करामलि कडलिनोद मदि योडु पेरुगुं वणम् । पराभवं पगेवर काकं पडियिनाल वळलु सेंडाल ॥८६॥ अर्थ-वह विभीषण अत्यन्त सुन्दर शरीर वाला था। जिस प्रकार नीले रंग का बारस नाचे उतर कर पाया हो। ऐसे वे वीतभय (बलराम) और विभीषण (केशव) पूर्ण मासी के चंद्रमा के समान प्रकाशमान मालूम होते थे। कम से ये दोनों वृद्धि को प्राप्त हुए। ये महान बलबान तथा शत्रु राजामों को परास्त करने वाले थे |६| कुल मले इरंड पोल कोद्रव कुमर रोंगि । निल मगट निरव राग निड़ तंपगवन बि ।। मसे मिस परुदि योड़ माल् कड लिरंड बंदु । निममिरे पोरुब पोंड, निद्र, पोर् तोगि नारे ॥१०॥ प्रर्ष-ये दोनों पराक्रमी कुमार कुलगिरि पर्वत के समान उन्नत होकर भली भांति प्रजा के प्रति वात्सल्य भाव रखकर राज्य करते थे। इस प्रकार न्यायपूर्वक राज्य करते २ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण -ra... mminarwwin-nawwara... .... देखकर उनके विरोधी वासुदेव और प्रतिवासुदेव तथा वीतभय और विभीषण ये दोनों हाथी पर बैठकर सेना सहित युद्ध स्थल की भोर प्रस्थान करने लगे ॥९००। तुरगं कडिरंगळान पुरा वेरि वीर राणार् । करि मगरंगळान कादर पडे काल दाग।' पोर पडे बीरर कैवाळ् पुरंडळु मीम्म लाग। करै शेरि नावाय तेराय कावलर् कामरागार ||०१॥ अर्थ-युद्ध करते समय दोनों ओर के योद्धा अपने २ घोड़ों पर बैठकर परस्पर अपने प्रायुधों का प्रयोग करते थे। जिस प्रकार समुद्र में मगरमच्छ इधर उधर भागते हैं उसी प्रकार योद्धा लोग रणभूमि पर दौड धूप करते थे। जिस प्रकार हाथी को रथ में जोता जाता है और वह हाथी उस रथ को खींचता है उसी प्रकार योद्धा परस्पर एक दूसरे को घसीट कर ले जाते थे। वे सैनिक योद्धा अपने २ हाथों में शस्त्र लेकर युद्ध करते समय ऐसे प्रतीत होते थे, मानों समुद्र में छोटी २ मछलियां उछल कूद कर रही हो। उस समय यदि उस रपको देखा जाय तो चे रथ समुद्र में बहकर जाने वाले बडे २ जहाज के समान प्रतीत होते थे। इन राजामों को देखा जाय तो उस दल में छोटी २ मछली के समान प्रतीत होते थे ॥१.१॥ विलोड़ विलवंदे वेलोड वेल्वंदेट । मल्लोडु मल्ल लेट वाट् प. बाळोडेट। पोल कलि याने योडु तेगळं सम्मिलेट । मल्लले पुरवि योडु पुरवी नाट् और पोरे ॥६०२॥ अर्थ-ये दोनों राजा युद्ध करते समय में अपने-अपने हाथों में शस्त्र, बल्लम, माले आदि लेकर परस्पर में घनघोर युद्ध करते थे। जैसा प्रतिपक्षी राणा प्रपने हाथ में प्रस्थ नेता था उसी के समान दूसरी पोर के राजा भी वैसा ही शस्त्र लेकर लडते थे। और हाथी के ऊपर चढकर युद्ध करते समय जो प्रायुध घे रखते पे उसी के समान दूसरे पक्ष वासे भी पस्त्र रखते थे। इस तरह घमासान युद्ध करने लगे ॥६०२।। काळपोर कवलि कान कलि दुग्न मॉब पोर । कोल पोर कोरिह नीटं कुडे यो मद, बीच ।। वेल पोर कुरुवि कुंचि मिळि बिट्टे मील। माल्वर शेंदर दादिन कुमिळि बंदळगई ॥१०॥ अर्थ-उस युद्ध में जिस प्रकार बड़ी भारी मांधी या बालने पर मंगलबार वृक्ष उखड कर गिर जाते हैं, उसी प्रकार युद्ध में शस्त्र के रा परस्पर में शाम कामी भास होता था। उन प्रायुधों के प्रयोग से हाथियों के शरीर में वाण मासे थे और उनके Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] मेरु मंदर पुराण शरीर में से रक्त की धारा इस प्रकार निकलती थी मानों नीलमणि के पर्वत के अंदर से पानी की धारा निकलती हो ॥६०३|| विपडे शरंगळ् वीळं तु मेगंगळ् पोल मायं च । मरपडे युडन ट्रेळंदु महंगल पोर पोरुदु मायं द ।। विर्पयं पिळद वैवा दिलिइन मिन्ने पोंछ । कोट वर् कुडैग डि नरंददुकुरुदि यारे ॥६०४॥ अर्थ-वर्षा काल में जिस प्रकार जल वृष्टि होती है उसी प्रकार दोनों राजानों के दल में सिंह के समान बाणों की वर्षा होती थी। इस प्रकार परस्पर घमासान युद्ध हो रहा था। उस समय शस्त्रों के द्वारा हाथियों को छिन्न भिन्न कर दिया अर्थात् महान तीक्ष्ण शस्त्रों से हाथियों के टुकडे २ कर दिये । वे शस्त्र बिजली की चमक के समान चमकते थे । नदी के प्रवाह के समान उन हाथियों का रक्त निकलकर बहता था। उनके खून में मरे हुए योद्धा बह २ कर जाते थे ।।९०४|| काल पोर पेन्न नेटि कनिगळ पोर ले गळ वोळंद। . कोल पोर कुळित्त यान करवि शेर् कंद्र मोत्त । वेल पोरविकरंद धीर देर्गनार विळ म नोइन् । माल पोरक्किडंद नेजिन मैदर पोन् मयंगि नारे ।।६०५।। अर्थ--युद्ध के समय ऐसा प्रतीत होता था मानों ताड वृक्ष के फल पककर जोर की हवा चलने से गिर जाते हैं। उसी प्रकार उस भीषण युद्ध में से योद्धाओं के मस्तक कट २ कर गिर जाते थे। कई शस्त्रों के प्रहारों से मूच्छित होकर गिर जाते थे ।।६.५।। उहमिटिड मील मले यन उएंड वेलन् । वरमिश परदि पोल मन्नवर बंदु बीळदार ।। कर पोह कलंगळ पोल तेर तोग विळ पोन । पुरविगळ करय शारं व तिरं यम पोरुतु मायं व ॥६०६॥ अर्थ-जिस प्रकार नीलमणि पर्वत पर गिरने पर पत्थर चूर २ हो जाता है उसी प्रकार बाणों के लगकर गिरने से हाथियों के टुकडे २ हो जाते थे। पर्वत के ऊपर जैसे अनेक राजा लोग बैठे हों उसी प्रकार राजा लोग हाथी पर बैठकर युद्ध करते थे। युद्ध में हजारों शत्रु की सेना मर जाती थी। जिस प्रकार समुद्र से जाने वाले जहाज कहीं टकरा कर समुद्र में दूब जाता है उसी प्रकार उस राजा के रथ प्रादि वाहन युद्ध की मार से टुकडे २ होकर नीचे मुक जाते थे ।।१०६॥ कोट बेन मन्नर वेळ कुंवत तलुबि बोळ बार। बेटि पोर कोगिन कोंगे मेमिनार तम्मै योत्तार । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण [ ३६६ प्रट बोर केरकरके कौविय नरिकन्नादि। पटिय कुरळि शेल्वाग्न मुगं पात पोलुं1०७॥ अर्थ-हाथी के ऊपर रहने वाले राजा लोग तीक्ष्ण शस्त्रों से घायल होकर नीचे पडते समय हाथी के मस्तक को ऊपर से जिस प्रकार जयश्री के स्तन को पकड कर कामी लोग प्रानन्द को प्राप्त होते हैं , उसी प्रकार राजा लोग घायल होते समय हाथी के वक्ष स्थल को पकड कर नीचे गिर जाते थे। उन कटे हुए हाथों को उस समय गीदड अपने मुख में चमकीले शस्त्र सहित जाते समय उसका मुख शस्त्र में ऐसा दीखता था जैसे कोई दूसरा गीदड हो जा रहा हो ॥६०७॥ विळदुडन् किउंद वेळं विट्ट मूर्चन गळ् पांदळ । सेलू कुगें शिरिदु पोंदु शिरंब दो पोरि । नळदुग्न किउंद वीर ररुगु सेनरिय कंड। मुळंजि युरंगु शिगं मुनिवदे पोन मुरंड्रार् ॥८॥ अर्थ-उस युद्ध में सैनिकों के अवयव छिन्न भिन्न होकर पड़े हुए थे। पडे हुए घायल हाथी श्वास इस प्रकार छोडते थे मानों कोई एक बडा अजगर सर्प अपने विल से बाहर पाकर फुकार कर रहा हो। उसी प्रकार हाथी श्वास निःश्वास लेते थे। उस समय घायल पडे हुए सैनिक लोग जब बैरी लोग उनके सामने से चले जाते थे तब मरते समय भी पडे २ गर्जना करते थे ॥१०॥ वासिग ललक्क वाळि पायं विर मनं कलंगि। बोसिन पारमेलाय विळदंन वर पोंड। पूरालिर पोंडस बोरर तुरा मा मेन्यूँ पोयन्न । लासयार् पोरदु बीळंदा रबैय राताले ॥६०९॥ अर्थ-उस युद्ध में अनेक घोडे मरण को प्राप्त हुए। उस लड़ाई में प्राण छोडते समय योद्धा ऐसा मन में विचार करते थे कि यह मरण हमारे लिए शुभ है क्योंकि युद्ध में वीर पुरुष यदि मरण करता है तो वह देवलोक में आकर पैदा होता है। ऐसा शास्त्रों में कहा है । हमको मरना ही है। परन्तु पुढस्थल में भगवान का स्मरण करते हुए प्राण छोडेने तो हम देवगति में जाकर जन्म लेंगे और वहां अनेक मप्सरामों के साथ सुख से जीवन बिताने HEOL करल कवरंबेळंदु कारण सावं कार। पकने मारिजि पलंकेर पलं बड़.॥ कुसरे पुरवियोमा हरलेन कोळंबर शाये। पर मनुतापोर पुलं पोनु मेरोबार ॥१॥ मर्ष-उस युद्ध में प्रतिवासुदेव बारा बाण को घोडे हुए देख वासुदेष की सेना पीचे Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ] मेह महर पुराण माम बाती बी। उन बाणों को देखकर बलदेव वीतभय ने अपने हलायुष को लेकर उस भूमि को मासमयी रक्तमयी बना दिया ॥१०॥ कारि कालिर् पोंगी कार पर युज्यपकाना। माद्रवन स पोल पर नुनै पळि दूरि ॥ तोट्र नान तोद.वोरर तोडुपर बिट्ट. तसंस। कार्प यन् कोंडु पोनार कावल रवन काना ॥११॥ पर्थ-वासुदेव का शत्र प्रतिवासुदेव था। उनकी सेना बडाकर ऐसे पीछे भाग गई जैसे पोषी चलती है और मांबी के वेग से समुद्र की लहरें चलती है। उसी प्रकार गिरते पडते बैठते सारी सेना भाग जाती थी। इसको देखकर प्रतिवासुदेव वारणों की वर्षा करने लगा। वासुदेव की सेना घबडा कर पीछे हट गई। इसको देखकर केशव थोडा घबराया ॥११॥ येरियुरु मेन्न शीरि इरंजिल यदु मेल्ले । सुरि युळं शेंगट पेलवाय शीय तोंड बेरि ।। बरि शिले कुरिलय बप्पु मारियप्पमं परतान् । बोरविम तुडेंद कोरर शेरिण मेल विनगलोत्तार ।।१२। अर्थ- उस समय बलदेव अपने हाथ में धनुष को धारण करते समय वहां रहने वाला एक देवता उनके पुण्य के प्रभाव से वहां माकर खडा हो गया और उसने सिंह रूप धारण कर लिया और कहने लमा कि मेरे ऊपर तुम चढकर युद्ध भूमि में बाण दृष्टि करो। बह बसदेव उस देवता पर बैठकर चलने लगा। उसे देखकर प्रतिवासुदेव की सेना बैंसे कोई अनि कर्म निर्जरा करके क्षपक श्रेएगो चढ़ता हो उसी प्रकार प्रतिवासुदेव की सेना पीछे हटने लगी ।।६१२. पारमेर परंव देंगुस परिवि पं करवबंगे । शेर पट्टळर बानि सेवककलन शेल्लनींग ॥ मारेदिरं दवने काना भरिव तनुसेनैवकाना । शोरिनन् गरुडनेरिसेंद्र. केशक मेदिदातान् ॥१३॥ पर्थ - युद्ध में मरे हुए लोगों के मांस को देखकर गिद्ध पक्षी प्रकाश में मंडरा रहे है। उस समय वासुदेव प्रति वासुदेव ने अपने मरुड पक्षी पर चटकर युद्ध में प्रवेश कर पन: पुर प्रारम्भ कर दिया ॥१३॥ प्राकम् दुखय मेर् मदि यौळियपिवई पोर। दिशक्किळ गटन मेल केशवन ट्रॉर सिदि।। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ३१ वेरुक्कोंडु शेने योड वोळंदोळि मदिई निड्रा। नुरुत्तेळ कालन् पोल उडंड, चक्करत विट्टान् ।।६१४॥ पनडु कडलिर् शेल्लुं परुदि पोलाळि शेल्ल । मुडि मन्नर् नपुंगि इट्टार मुदुगिट्ट दरशर शेनै ।। पडे मन्न राते©दार माटवन् पक्कत्तुळळार् । मिडेगति राळि मेरु सूळवलं परुदि पोल ।।१५।। अर्थ-इस प्रकार युद्ध प्रारम्भ होने के बाद जिस प्रकार सूर्य पूर्वाचल से उदय होकर पच्छिम को जाते समय चंद्रमा का प्रकाश क्षीण दीखता है उसी प्रकार वासूदेव की सेना एक दम शिथिल होकर भाग गई। पुण्यहीन प्रतिवासुदेव अतिक्रोध से अपने हाथ में रहने वाले चक्र को वासुदेव पर चलाया। जिस प्रकार सूर्य समुद्र के बीच में होकर जाता है उसी प्रकार वह चक्र इस सेना के बीच में होकर प्राते देखकर वासुदेव घबडाया और उनकी सेना भी पीछे हट गई। उस समय में प्रतिवासुदेव के सैनिक लोगों ने जयघोष किया। उस प्रतिवासुदेव के द्वारा चलाया हुआ चक्र प्रायुध वासुदेव के पास पाकर जैसे पहाड की परिक्रमा देते हैं उसो तरह वह चक्र उनकी तीन प्रदक्षिणा कर उनके चरणों में गिर गया ।।१४।।१५।। केशवन ट्रन्नै सूळंदु वल पक्कं केळुम कंडु। पेशोना वगनाळि पिडित्तवन ट्रिरित्तु विट्टान् ।। मूसु तेम कवसन् कोंदु मुइवर मागु पुक्कुत्त् । देशर दुरुवि योडि दिशं विळक कुरुत्त देंड्रे ॥१६॥ अर्थ-चक्रायुध के परिक्रमा देकर चरणों में गिरते ही वासुदेव ने यथायोग्य उसकी पूजा करके हाथ लगाकर दाहिनी तरफ ले लिया। अपना विरोधी जो प्रतिवासुदेव था तुरन्त उसी पर वह चक्र छोड दिया। वह चक्र सीधा जाकर प्रतिवासुदेव के सोने में जाकर घुस गया और तत्काल वह मरण को प्राप्त हो गया। वह चक प्रतिवासुदेव के लगा और उसे मारकर पुनः वासुदेव के पास लौटकर या गया। और उसने दया करके वहां रख लिया। ॥ १६॥ करु मुगिलुरुमि नोडि केशवन के नाळि । युरु मिडि पुंड नील मलई लोनाने वीळप ।। विरुळ परंदिट्ट देंगुम यावरूं नटुंगि घोळंदा । . रोरुवरर्ग निड़ दूंडो तिरुवेन उरै तिट्टारे ॥१७॥ अर्थ-विभीषण के हाथ से वह चक्र जाकर प्रतिवासुदेव को लगा और वह मर गया। मरते ही उसकी सेना में हाहाकार मच गया, और सैनिक लोग मूच्छित हो गये। वहां पर साधारण लोग यह चर्चा कर रहे थे कि यह लक्ष्मी एक स्थल में वास नहीं करती। जब तक Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ] मेह मंबर पुराण पुष्य रहता है. लक्ष्मी रहतो है । जब पुण्य समाप्त हो जाता है तब एक क्षण भी वहाँ लक्ष्मी नहीं ठहर सकती॥१७॥ मलमिश मदिय नीळर् परवि पोन् मत्त याने । तल निशं कुडयी नीळल तरणीय मुळुदु मांग ।। निलविश इ.काएं निद्रव रिल्ल येनुं । तल वन तानिव्वाळि तडिददु कोडिदि डार् ॥१८॥ अर्थ-प्रतिवासुदेव के मर जाने के बाद वासुदेव जिस प्रकार उदयाचल में सूर्य का प्रकाश दीखता है, उसी प्रकार वह वासुदेव महान बडे हाथी पर बैठकर अपने घर धवल छत्र को धारणकर जब वापस पाया तो उस राजधानी के लोग कहते थे कि यह लक्ष्मी वैभत्र पुण्य के माधीन है। एक जगह स्थिर नहीं रहती। यह शरीर भोगोपभोग आदि सब क्षणिक है। प्रतिवासुदेव का पुण्य समाप्त होते ही वह उसी का चलाया हुया चक्र वापस जाकर उस ही को मार दिया। यह पुण्य पाप का फल है । ऐसी चर्चा नगर में हो रही थी |१८|| गरुडन इळिदु कैमामि वंदु पुरोदन् काट । कुरवळुरयं कोडि शिल बलं वंदेंदी॥ पेरियव निड पोतिन् वेदर विजयगळ् विन्नोर । सरु तिर योडं बंदु ताळवंडि परवि नानं नारे ॥१९॥ अर्थ-तत्पश्चात् वह वासुदेव गरुड पर से उतर कर हाथी पर बैठ गया और वहां जो राजपुरोहित थे उनके कहने के अनुसार महान तपस्वी तथा कोटशिला रूपी पर्वत की प्रदक्षिणा की। तदनन्तर वहां रहने वाले विद्याधर राजा, भूमिगोचरी, व्यंतर देवों के अधिपतियों ने अपनी २ शक्ति के अनुसार उनको भेट दी और राजा की स्तुति की ।।९१९॥ मलरेन मलय यदि वैतवन् मन्नर सूळ । वलर कदिराळि पिन् पोय विश यति पोडत मोळंदु । निल मगडिलगं पोलु मग्रोविया पुरत नी। मल योड मदीयं पोल मन्नवर तुन्नि नारे ॥२०॥ अर्थ-तदनन्तर वह विभीषण अपने भुज-बलों के द्वारा जिस प्रकार एक फूल को । हाथ में लिया जाता है उसी प्रकार उस कोटशिला पर्वत को अपनी अंगुली से उठा लिया। वह विभीषण अपने बड़े भाई वीतमय सहित अनेक राजा महाराजाओं को साथ लेकर दिग्विजय को गया। जाते समय वह चक्र उनके मागे २ चलता था। इस प्रकार वे सभी राज्यों पर विजय पाकर अयोध्या नगरी में प्राये ॥२०॥ मबि बोड़ करोय येगं करमा कडले पोल । पुरियर, काबल पुगं पातिवर पुक्क पोल्विन ॥ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंबर पुराण [ ३॥ विदि यरि पुलवर सूळंतु वेदि शीयासनोत्तु । मदियन्न कुडयो नीळल वैत्तु शायरगळ वीस ॥२१॥ अर्थ-जिस प्रकार पूर्णमासी के चंद्रमा तथा मेघ मंडल को देखकर समुद्र वृद्धि को प्राप्त होता है उसी प्रकार वीतभय और विभीषण को देखकर अयोध्यानगरी की जनता अत्यन्त मानन्दित हुई । वहां के राजपुरोहित द्वारा वीतभय को राजसिंहासन पर विराजमान कराया। ॥९२१॥ पार् कडर् तेन्नोर परुदियिन् कडिय कुंभ । माद वायिरत्तोरेखि नमरराव पट्ट । नूर कडल केद्धि यार कनुनित्त मंविरंगळ सोल्लि । येटवा राटिनार गळेटिनार् पाति बंदर् ॥२२॥ अर्थ-बासुदेव को राज्यसिंहासन पर प्रारूढ करने के पश्चात् जिस प्रकार भगवान के अभिषेक के लिए १००८ गण बुद्धों से तथा रत्न घटों से क्षीर सागर से पानी लाते हैं, उसी प्रकार अनेक घटों से वासुदेव का राज्याभिषेक किया गया, और सभी अयोध्यावासियों ने तथा कई सजानों ने स्तुति की ।।६२२॥ मुडिय दन् पिननिबार मुरशेकन् मुरशेंकन मुळंदग मुम्मै । पडिमिश येरस रोरेनायिरर् पनिय विज ॥ तडवरं यरस रैवत्तजि नुक्किरट्टि ताळ । पडरोळि परप्प वेन्ना इरवर विनोर् पनिवार् ॥२३॥ अर्थ-राजा वासुदेव का राज्याभिषेक करते समय अठारह प्रकार के वाद्यों की गर्जना हुई और जयघोष को ध्वनि हुई। तीन खंड के सोलह हजार मुकुटबद्ध राजा तथा विजयाद्ध पर्वत पर रहने वाले विद्याधर सभी ने मिलकर तथा आठ हजार गण बद्धों ने उनको नमस्कार किया ॥२३॥ याने इन दोगुदि नार्पत्तिरंड नूराइरंतेर् । यान मददुबे वासि योबदिन कोडि काला ॥ कानु कार्पत्तिरंडु कोडितानवर कडेवर । तानमानंग लेनाइर् मह पदबाये ॥२४॥ अर्थ-उस समय रामकेशव के पास बियालीस लाख हाथी, बियालीस लाख रथ, नौ करोड घोडे, बियालीस करोड योद्धा तथा पाठ हजार विद्याधर प्रादि सभी मिलाकर बह प्रकार की सेना उनके पास थी ।।१२४॥ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ] मेर मंदर पुराण प्राळि वेल् तंडु शंग मरु मरिण विल्लु वैवा । ळेळु मा लिरत नंग लेळायिर ममरर काप । माळे मेरवलन् मादे वियरेन्ना इरत्ति रेट्टि । वेळ मेट्रिर कोंडे, नाड़ मेललत्त दामे ॥२५॥ अर्थ-उन केशव और वासुदेव के पास चक्रायुध, बेलायुध, दंडायध जय शख जयखंड मणि आदि २ सात प्रकार के प्रायुध रत्न रहते थे। इनमें एक २ प्रायुधों की रक्षा के लिये सात हजार व्यंतर देव रहते थे। और स्वर्ण, मोतियों आदि से निर्मित किए हुए प्राभूषणों वाली सोलह हजार रानियां होती हैं। तथा राजा को भेंट देने वाली अनेक रानियां केशव के होती हैं ॥२५॥ माल दंड मोग वाळि कलप्पयि पलन वागुं । नालु नल्लि यक्कर नाला इरवर कापि यदि शेल्व ।। रेल वार् कुळलिन् मादे वियर मेन्ना इरवर । मेलु लाम् मदिय पोलुं मेवि यान् विरुव पट्टार् ॥२६॥ अर्थ-मणियों के दण्डायुध, अतिशक्तिशाली बाण, हलायुध, रत्नों के अनेक प्रकार के मायुध यह सभी वीतभय के पास रहते हैं। इनकी चार हजार यक्ष यक्षिणियों द्वारा रक्षा की जाती है । और चंद्रमा के समान पटरानियां उस बलदेव' के थीं ।।१२६॥ कंदिले नाटु कंड मंद्रि निर कामर शेल्व । तिदु वानुवलि नारो डिव नीर कंडले याडि ॥ येंद रत्तिरै वन् पोल वांडुगळ पलवू शेंड्रार् । तिरर् कळिट, वेदन् विवोडनन् वियोग मानान् ॥६२७।। अर्थ-उस गंधिल देश में तीन खंड की संपत्ति को प्राप्त हुआ वह विभीषण नाम का अर्द्ध चक्रवर्ती उसका भोग भोगते हुए आनंद रूपी समुद्र में लीन हो गया था। और दोनों भाई सुख पूर्वक भोगोपभोग के साथ प्रानद सहित काल व्यतीत करते थे । समय पाकर वह तीन खंड का अधिपति विभीषण मरण को प्राप्त हुआ ॥२७॥ अरुमरिण यिळंब नागम् पोर् पलनलं वंदाट । पेरुगिय पेरुगिय तुयर् मुट पिरविय वेरुवि पिन्नान् । मरुविय पोरुळु नाडु मैंदर गक् कोंदु माटे । विरगिना लेरियुं वीतराग मा मुनिव नानान् ॥२८॥ अर्थ-विभीषण के मरण को देखकर, जिस प्रकार नागफरिण में से रत्न चला जावे और उस रत्न के चले जाने से नाग को महान दुख होता है, उसी प्रकार बलदेव को Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ३७५ -- - - -- - -- - - - - - - -- -- - --- - - - - - - - -- महान दुख उत्पन्न हुप्रा । और उसने पापमय संसार से डर कर अपने राजकुमार को राज्यसंपत्ति सम्हलाकर वैरागी होकर जिन दाक्षा ग्रहण करली ।।६२८॥ वलं बुरि वण्ण नारादने इना लुडंबु विट्टिट् । तिलांतव कप पुक्कान् यानव निड्र. वंदेन् । पुलंगण मेर् पुरिदु नोंद केशवन् पुक्क देश । मिलंगि पोय ईर यानं नरगिर कंडिडरै युट्न् ।।६२६॥ अर्थ-शंख वर्ण के समान वह रहने वाला नवीन दीक्षित बलदेव सम्यक्दर्शन, सम्यकज्ञान, चारित्र और तप इन चार प्रकार की आराधनानों की भावना से इस शरीर को छोडकर लांतव कल्प के विमान में जो देव हुअा था उस देव का जीव मैं ही हैं। और संजयंत मुनिके केवलज्ञान अथवा मोक्षकल्याण की पूजा करने के लिये मैं यहां आया हूँ। धरणेंद्र सुनो! धरणेंद्र ने पूछा कि आदित्यदेव क्या आप ही संजयंत मुनि के मोक्ष कल्याण की पूजा के लिए आए हो? यदि हां तो यह बताओ कि पंचेंद्रिय विषयों में लीन हुआ विभीषण नाम का वासदेव मरकर किस क्षेत्र में गया है। देव ने कहा कि मैंने अवधिज्ञान से जान लिया है वह दूसरे नरक में गया है। अब उसके नरक में से निकलने का धर्मोपदेश करूंगा सो सुनो। ॥२६॥ इति बलदेव स्वर्ग जाने वाला नवा अध्याय समाप्त हुआ। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दशम अधिकार ।। • नरक में रहने वाले विमोषण को मादित्य देव द्वारा धर्मोपदेश चक्कर प्रभ तन्पानिर् पदर कावं वैत्तु । चक्कर प्रभ तनपा निड़ वन टन्नै काना॥ मिक्क वेन तुयर मुटे नवन् ट्यर नींग वेन्नि । येक्क नत्तवने करियेरवि बन्ने बैंडेन ॥३०॥ मर्थ-उस शर्करा नाम के दूसरे नरक में उत्पन्न हुए नारकी विभीषण को देखकर मन्य नारकी लोग उसको दुख देने लगे। तब उसके दुख को दूर करने के लिए वह लांतव देव वहां जाकर धर्मोपदेश करने लगा कि हे नारकी! सुनो, भापको मालूम है वह नारकी जीव का पहले जन्म में कौन था? सुनो! ॥९३०॥ मदुरै यानाग बेवाइल वाणि मगळाय नीपिन् । सदुर मै बत्तै यानेन पूरचंदिर नानाम् ॥ विदियिमा नोन्नोडु मासुषकं पुक्कु विमं । पदियिर, शीदर याने नेन् मगळि सोदरे युमानाय ॥३१॥ अर्थ है नारकी! मैं कई भव पहले मदुरा नाम की ब्राह्मणी स्त्री पर्याय में थी और तुमने मेरी कुक्षी से वारुणी नाम की पुत्री होकर जन्म लिया था। वहां से आयु पूरी करके सिंहसेन राजा की पटरानी रामदत्ता हो गई। उस रामदत्ता देवी के गर्भ से तूने छोढा पुत्र पूर्णचंद्र नाम होकर जन्म लिया। वहां पूर्णतया मेरे साथ अच्छे व्रताचरण का पालन करके शुभ प्राचरणों के फल से महाशुक्र के कल्प में देव पर्याय धारण की । वहां देवगति के सुख भोगकर प्रायु के अवसान पर वहां से चयकर विद्याधरों के लोक में श्रीधरा नाम की राजश्री होकर जन्म लिया। उस श्रीधरा के उदर से पूर्वजन्म के भव भवांतर के संबंध के कारण यशोधरा नाम की लडकी उत्पन्न हुई ॥३१॥ कंदियाय नोन्नोडु काविट्ट कप पुक्कुं। वंदिया निरद माल मग्निन् मेललाग नीयु॥ मंदरतिळि देन मैंद नरवना युवनु मागि । शिदे मातवत्तोडोंद्रियेच्छंद शेंड. मोळंडोम ॥३२॥ अर्थ-प्रतदन्तर मापने मेरे साथ प्रायिका दीक्षा लेकर उत्तम तपश्चरण करके उस पुष्य के कम से कापिष्ठ नाम के कल्प में देव पर्याय धारण की। वहां से प्रायु पूर्ण करके मध्य Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ३७७ लोक में कर्मभूमि में लाकर रत्नमाला नाम की राजश्री होकर जन्म लिया । रत्नमाला की कुक्षी से रत्नायुष नाम का पुत्र हुआ। तदनन्तर रत्नायुध व रत्नमाला धर्मध्यान सहित तपश्चरण करके उस पुण्य के प्रभाव से प्रच्युत स्वर्ग में देव हुए। वहां के देवसुख का अनुभव करके तुम इस मध्य लोक में आये ।। ३२ ।। धातकी तीवर् कीळं कंदिलं ययोबिन्ग | नेदनि लिराम नानि केशवना इरंदिव ॥ बेबनी नरगताळं दाय् विळंबध तंवत्ति लांत पुरके । नोदिया लुन्नं कडिङ गुरुविया नुरैक् वंवेन् ॥ ९३३॥। अर्थ - द्यातकीखंड द्वीप में गांधिल नाम का देश है । उस देश में अयोध्या नाम की नगरी है। उस नगरी में दोष रहित ऐसा मैं बलराम हुश्रा और तुम वासुदेव हुए । अब तुम मररण करके दूसरे नरक में प्राये और मैं तपश्चरण करके लांतव नाम के कल्प में देव हुआ हूँ । मैंने अवधिज्ञान द्वारा जाना कि तुम्हारा दूसरे नरक में जन्म हुआ है तो मैं आपके प्रेम के कारण यहां आकर आपको शीघ्र इस नरक से मुक्त हो जाने का धर्मोपदेश देने भाया हूँ । ।।६३३।। यॅड्रलु मिरंद मेलं पिरविग लरिदिट्टेन्न । चंदु वनंगि बीळंदु मयगिना नवनं पेट्रि ॥ इन्दिर विभव सेनु निड्र दोंड्रिया मिले वेन् तुथर् नरगिन् वोळा बुयिर्गळु मिल्ले पेंड्र ेन् ॥ ६३४ ॥ अर्थ-उस वासुदेव को श्रादित्य देव द्वारा दिया हुआा उपदेश सुनकर भवस्मृति हो गई और देव के चरणों में गिर पडा। देव ने धैर्य बंधाया और कहा कि हे नारकी ! सभी जीवों को देवगति प्राप्त नहीं होती औौर नरक में जाकर किसी ने दुख नहीं भोगा हो, ऐसा कोई जीव नहीं है ।। ६३४ ।। - माटिडे सुळं बाळु मुईर, कटकु चंदु शेल्वं । तोट्रिन तोडरन माय्व लियेल्गु नी कवल वेंडा || 10 मटू वर केरिय वम् पेरि देंद्र मयंग वेंडा । मादर केळिवु कीळ नरगत्तो बियल वरिंदाल ।। ३५ ।। अर्थ - गतियां चार होती हैं। देवगति, मनुष्यगति, तियंचगति और नरकगति । मनुष्य को सुख संपत्ति प्रादि का मिलना तथा नाश होना यह अनादि काल से चला प्राया सब पूर्व जन्म के पुण्य पाप का फल है । मैं पूर्व जन्म के पुण्य के फल से देवगति में जन्म लेकर वहाँ सुख भोग रहा हूँ। तू नरक गति में प्राकर नरकों के दुख भोग रहा है । परन्तु इस प्रकार की चिंता बिल्कुल मत करो कि मेरा भाई तो स्वर्ग में गया है और मैं नरक में भाकर जन्मा हूँ । इस दूसरे नरक में तुमको अधिक दिन तक दुख का अनुभव करना पड़ेगा ऐसा मन में विचार Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ] मह मंदर पुराण मत करो। क्योंकि जिस नरक में तुम रहते हो उस नरक के नीचे नरक में रहने वाले नारकियों को तुम से भी अधिक दुख हैं। यदि ऐसा मन में विचार कर लेगा तो इससे तुम्हारा दुख कम हो जायेगा। अब तुम से नीचे के नरकों में रहने वालों के संबंध में संक्षेप में वर्णन करता हूँ ।।६३॥ येळ्ळ नरग नाम मिरद नम् चक्क वालु । वाळिय पंकम् धूममं तमंतम तमत्त मांगु । पाळि इन्दगन्गळ शेरिण पगित कदोप्प बंद । वेळिनु पुगवेन्वत्तु नांगु लक्कंगळामे ॥६३६॥ अर्थ-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा, इस प्रकार सात नरक हैं। इन नरकों में श्रेणीबद्ध होकर रहने वाले पुष्प, प्रकोणक ग्रादि २ सभी मिलकर चौरासी लाख बिल रहते हैं।।९३६।। वंड, मुन्दु मैळ मोव, पत्तोडोंद्र । निड़ मूंड्रोडु पत्तु निरैयत्तु पुरंगळ मेन्मे ।। लोंड, मूंडूळ पत्तु मोरु पत्तेळिरु पत्तीरि । निड़ मंड्रोड.मुप्पानाळि कोळ पुरै तोरायु ॥३७॥ अर्थ-सातवे नरक में पांच बिल हैं। छठे नरक में पांच लाख कम एक लाख बिल हैं, पांचवें नरक में तीन लाख व चौथे नरक में दस लाख बिल हैं। पन्द्रह लाख बिल तीसरे नरक में है। तथा दूसरे नरक में पच्चीस लाख व पहले नरक में तीस लाख बिल हैं। इस प्रकार एक के ऊपर एक बिल रहते है । पहले नरक में रहने वालों की प्रायु उत्कृष्ट एक सागर की होती है। दूसरे नरक की उत्कृष्ट आयु तीन सागर होती है। तीसरे नरक की उत्कृष्ट पायु सात सागर तथा चौथे नरक की दस सागर की उत्कृष्ट प्रायु होती है । सत्रह सागर की आयु पांचवें नरक की और बाईस सागर की उत्कृष्ट प्रायु छठे नरक की तथा सातवें नरक की उत्कृष्ट प्रायु तेतीस सागर की होती है। इस प्रकार के क्रम से नारकी जीवों की प्रायु होती है ॥६३७॥ मुदला नरगत्तिन मुदर पुरयिर् । पदि नाइर, मांडुगळां शिरुमं ॥ विवि यान मिगैया युग मेळन कीळ । पवियार् परमा युग मल्लन वाम् ।।३।। अर्थ-पहले पटल में रहने वाले नारकी जीवों की आयु नव्वे हजार वर्ष की होती है। दूसरे पटल के नारकियों की आयु ६० लाख वर्ष, तीसरे पटल में रहने वालों की संख्यात पूर्व कोटि वर्ष की होती है। चौथे पटल में एक सागर की आयु में से दसवें भाग में एक भाग रहती है। पांचवें पटल में दस भाग के दो भाग अायु रहती है। छठे पटल में एक सागर के तीन भाग प्रायु होती है । सातवें पटल में एक सागर में चार भाग प्रायु होती है । पाठवें पटल Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ ३७९ में एक सागर का पांचवा भाग, नवें पटल में एक सागर का छठा भाग, दसवें पटल में एक सागर का सातवां भाग, ग्यारहवें पटल में एक सागर का पाठवां भाग व बारहवें पटल में एक सागर का नवां भाग होता है । तेरहवें पटल में पूर्ण एक सागर प्रमाण तक उनकी आयु होती है।९३८॥ मुळ मूं.यर वा मुबलाम पुरइन् । मुळ मूं. विल्लेळ् विरला रुळकी । लेछु वाइड यूर विल्ल बळवू । वळुवा विरुदोर मिरत्ति यदाम् ।।६३६॥ अर्थ-पहले नरक के प्रथम पटल में रहने वाले जीव का उत्सेध तीन हाथ रहता है। उसके बाद प्रथम नरक के अन्तिम पटल में उत्सेध सात धनुष, तीन हाथ, छह अंगुल होता है। दूसरे नरक में अन्तिम पटल में क्रम से बढ़ते २ पंद्रह धनुष, दो हाथ, बारह अंगुल उत्सेध है । तोसरे नरक में अन्तिम पटल में क्रम से बढ़ते २ इकत्तीस धनूष, एक हाथ उत्सेध है। चौथे नरक में बासठ धनुष, दो हाथ है। पांचवें नरक में एक सौ पच्चीस धनुष है। छठे नरक में दो सौ पच्चास धनुष है। सातवें नरक में नारकियों का उत्सेध पांच सौ धनुष रहता है । बीच में रहने वाले नारकी जीव तथा ऊपर रहने वाले नारकियों का उत्सेध इससे दुगुना रहता है। ॥३६॥ पुगे येंदु मुवर् पुरै पुक्क वा । मुग यार विळुवा रुळवा युवेला ॥ पुगये ळोडन्यूर विल कावद मून् । है गै यार विळुवार मुदलिटि नूळार् ॥६४०॥ अर्थ-प्रथम पटल में रहने वाले नारकी जीव पांच सौ योजन नीचे से ऊपर गेंद के समान उछलता उडता जाता है और वहां से उडकर पांच योजन से नीचे गिर जाता है । प्रथम पटल से तीसरे नरक तक रहने वाले नारकी जीव पांच सौ धनुष ऊपर उडकर फिर . ऊपर से सर नीचे मौर ऊपर पांव करके नीचे गिर जाते हैं ।।९४०।। येळवा यदिरट्टि इरट्टिय दाम् । वळुवा विरुवाय पुरै दोरं बरा ।। वेळुवा नरग तियल बा यवैङयू । ट्रोळिया दूविळं तेळमोजनये ॥४१॥ अर्थ- इस प्रकार प्रथम नरक में जितने नारकी ऊपर उछलते हैं, उसके १५९ .. योजन तक ऊपर उछल कर नीचे गिर जाते हैं। इस प्रकार वृद्धि होकर सातवें नरक में रहने वाले जीव ५०० योजन ऊपर उछल कर नीचा सर करके गिर जाते हैं। इसी प्रकार उनकी प्राय है। तब तक इस नरक में रहना पड़ता है। उस वक्त तक ऐसा ही दुःख भो है । उस वक्त तक ऐसा ही दुख भोगना पड़ता है। वहां सुख लेश मात्र भी नहीं है ।।६४१।। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. ] मेर मंदर पुराण येरि वें पडया लिवर बोळवे ळला। रुळ वेतुयरल्ल दुडंबु विडार ॥ करुवागि कडुं परिणाम मिड । येरिया वगैया युष या लिने ॥६४२॥ अर्थ-उस नरक में रहने वाले सभी नारको जीव तीक्षण प्रायुध को लेकर जिस समय नया नारकी नीचे गिरता है उस समय उस प्रायुध से गिरने वाले नारकी जीव पर प्रहार करते हैं और उस नये नारकी का शरीर चूर २ हो जाता है । इस प्रकार नारकी जीवों का शरीर खंड २ होकर पुनः जिस प्रकार पारा खंड २ होकर जुड जाता है , उसी प्रकार उसका शरीर पुनः जुड जाता है और दुख भोगता है ॥४२॥ विनये तुयरत्तं विळं प्पद लाल् । निन वा शेयल मट्रिले नीयिरै॥ मुने मुटुवर कोळ ळ देवरिवन् । उन मुनिन शैवन नेंड ड या ॥६४३॥ अर्थ-उस नरक में रहने वाले नारकी जीव पूर्व जन्म में किए हुए कर्मों के उदय से पुराने नारकी जोव नवीन नारकी को दुख देते हैं। कोई यह नहीं कहता कि तुमको दुख अभी नहीं दिया जायेगा , इनको मारो मत , इन की रक्षा करो, ऐसा कहने वाले कोई नहीं मिलेंगे । और भवनवासी देव उस नरक में जाकर आपस में कलह कराते हैं । वैर भाव की याद दिलाते हैं और आपस में लड़ाते भिडाते हैं ।।६४३।। कन, मिड इन्ड्रि येळ पशिया । सुन उडून वंदुलगत्तुळ नन् । सिने हल्लेन कायं द विरुबिन नी । रणयं बडिया लनया बडुमे ॥१४४।। अर्थ-उन नारकी जीवों को अत्यन्त तीव्र भूख लगती है। उनकी खाने की तीव्र इच्छा होती है तब सभी नारकी जीवों को चारों मोर.विष पीर तपे हुए लोहे की कढाई में गर्म पानी डालकर उस पानी को स्पर्श कराते ही सारा अंग व हाथ पांव जल जाते हैं। वह प्रादित्य देव कहने लगा कि हे श्यामवर्ण शरीर धारण किये हुए नारकी सुनो ! ॥४४॥ मेरु नेरिरुप्पु वटै इट्टवक्कनत्ति नुळळे । मोरेन उरुक्कुं. शीत वेप्पंग निकीळ मे। लार्व मोलरिवन द्रव नलिने बाब तमिर् । कार मुगिल बम्प गीत वेप्पंगळा कंडाय ॥४॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण [ ३८१ - अर्थ- उस नरक भूमि में इतनी उष्णता रहती है कि यदि एक लोहा का मारी गोला डाला जावे तो वह लोहे का गोला भी गल जाता है । इतनी वहां उष्णता रहती है। और उसके नीचे की भूमि महान शीत भूमि है। चौथे नरक में उष्णता रहती है । पांचवे नरक में शीत उष्ण दोनों रहती हैं। छठे और सातवें नरक में केवल शीत ही रहता है। ||९४५॥ बडिय बदक्कु मार विगुवन येटु मेय्यिन् ।। मान विल दोंड.नम्मै मार मुन शेय्य वंदन ॥ कीडिय पावत्तालेळ नरगत्तु मिरट्टि कोळ कोळ । मंडत्ति मरुगित्ति में मरुगु तोमि विनंगळाले ॥६४६॥ अर्थ-नरक में नारकी जीवों की इच्छा के अनुकूल कोई वस्तु नहीं मिलती है। बल्कि उनकी इच्छा के विपरीत ही मिलती है। आठ प्रकार के वैक्रियिक उन नारकियों को दुख देते हैं। वहां के नारकी जीव पाप कर्म के किये हुए कार्यों को याद दिला कर परस्पर कलह निर्माण कर पुराने नारकी उनका तमाशा देखने खड़े हो जाते हैं। उनके किये कर्म के अनुसार इस प्रकार दुख का अनुभव करते हैं ।।६४६।। ईयल्वि नाम तुंब मेंड, मेळ नरगत्तु नींगा। मयरिगळ शैव वेल्लां वंदु वंदुट, नींगुम् ॥ पुय लुरु तरक्क वंदे पुलसु तेन कळ ळं युंडा । लुयहला वगैर शंव युरुक्कि वाय पैगिंडारे ।।९४७॥ अर्थ-हे नारकी! पूर्वजन्म में तू विभीषण नाम का राजा था। तुने रागद्वेष द्वारा पाप संचय करके इस नरक में जन्म लिया है। इसलिये हे नारकी ! इन सात नरकों के दुखों से ये नारकी जीव मुक्त नहीं होते हैं । जितना २ उन्होंने बांधा है उतना २ भोगना पडेगा । पूर्व जन्म में मद्य, मांस, मधु के सेवन करने के फल से इस नरक में पैदा होने वाले जीवों को पुराने नारकी जीव अत्यन्त घोर कष्ट न वेदनाएं देते हैं ।।९४७॥ परमरि वडक्क मान्म कुडि पिरप्पडिय वंदिर् । पिरर मन नलत्तिर् शेरंदार पेरळर् कुंट्ट तन्निन् । मुरग दुरुगं सेप्पु पावै ये मयंग मूचित् । परिवळिदलं वादा तरद गिडार्ग ळया ॥६४८॥ - अर्थ हे नारकी सुनो! ज्ञान, संयम, उत्तम कुल, उत्तम जाति को नाश करके दूसरे की स्त्रियों के साथ भोग भोगने से उस पाप के फल से यह पाप के कारण लोहे के सभ को गरमकर उससे मालिंगन कराते हैं। उसके दुख के कारण वह महान शोक करता है। ॥४८॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१] मेह मंबर पुराण खून सुर्व तुरुदि योरा रुळ ळ तिर् कोडिय रागि। कुन शिल कनयोडेरि कोले तोळिल पुरिंदु दार् ॥ तान शेलविट्ट नाय पोर् करिय नाय कवर जि। वान शिल इलव मेदि बंदु वीळ दरद, गिट्टार् ॥६४६॥ मर्च-अहिंसा व्रत को नाश करके अपने हाथ में लिये शस्त्र बाण, धनुष के द्वारा जीवों की हिंसा तथा बात करने से, उस हिंसा में संतोष मा खाने से, खाने की अनुमति देने से,मांस आदि की बिक्री करने इत्यादि पापों से यह जीव नरक में उत्पन्न होते हैं । और वह नारकी जीव कुत्ते का रूप धारण कर नारकी जीवों को काटता है। कांटेदार वृक्ष पर चढ़ता है । और वहां कांटे चुभने पर वह नीचे प्राकर गिर जाता है। ॥४६॥ मन यरम मरंदु मंडिनिडवान् कुडिकनयत् । धनं बलि यनिन् वांगि शालवं तळर्व शेवार ॥ नुन मुरिविलाद मुळि ळन् मद्दिग पुडयि मुंगि । निन बरु तुयरं तुयित्तु नेडिदुयिर् पार्ग ळ या ॥६५०॥ मर्थ हे नारकी सुनो ! अहंत भगवान के द्वारा कहे हुए धर्म को न ग्रहण कर अधर्म को स्वीकार कर दूसरे की संपत्ति को बल द्वारा छीन लेना वाला जीव इस पाप कार्य के कारण नरक में जन्मता है। कांटे से युक्त डंडों से, लोहे के घन से उस नारकी जीव के सिर में मारते हैं । उससे नारकी जीव का मस्तक चूर २ हो जाता है और उसको महान दुख होता है ॥ ५ ॥ बलह लुइर् वार्यदन् मारुविल कोंडार् । निलंय गळ वरिनीनं बंदोळ ग निड्रार ॥ विलइन् मुडे कोंडुनलं विनर्गळ कंडाय । निलइल पेरुं शोरकुळिर निद्र. रुळल गिहार ॥५१॥ मर्च-जाल को नदी में बिछा कर मछली को पकडकर मारकर उसको बेचकर जो प्राणी अनाज धान मादि खरीदता है उस जीव को वे नारकी जीव शूल स्तंभ का निर्माण कर उस पर बिठा देते हैं। ऐसे वह नारकी जीव प्रत्यन्त पूर्वजन्म के पाप के कारण दुख सहता है। पूर्वजन्म में मांस को प्रेम से जो खरीदता है, खाता है, बेचता है उन प्राणियों को वे नारको नरक में महान दुर्गधित खड्ड में डालकर दुख देते हैं ।।९५१।। इ, युइर् वल्विन इरंद वर् पिरप्पेन । सोल्लिनवर सेवरुक्कि वाइर पंदुइर् वार । कवि योडु पुनरंदु कडे नल्लोळक मेन्वां। रेइल तुयर मंदि युळल गिडार ॥६५२।। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ ३८३ अर्थ-जीव नाम की कोई वस्तु नहीं है, पाप पुण्य नहीं है, स्वर्ग मोक्ष नहीं है, एक बार जीव मरने के बाद उसका पुनर्जन्म नहीं है-ऐसा कहने वाले नास्तिक जीवों को नरक में तांबे को गलाकर उनके मुख में डाल देते हैं। और भगवान के द्वारा कहे हुए पागम का तिरस्कार करके सम्यक्त्व हीन होकर अधर्म का प्रचार करने वाले तथा सम्यक्चारित्र मादि कुछ नहीं है ऐसा कहने वाले को नारका जीव अवर्णनीय दुख देते हैं । ६५२॥ पौयुरै पुनदु पोरुळ वांगि नवर्गळ कंगम् । कैयुगिरि नूशीय चे कायंद शेरिप्पंवार ॥ वयं पुगळ माववर वैदनगळ कारी। नयुक्कि वायिर पेय निड, सुळलगेंड्रार ॥५३॥ अर्थ-असत्य वचन को बोलकर दूसरे की संपत्ति को हरण तथा उपार्जन करके प्राजीविका करने वाले लोगों को नरक में पुराने नारकी छोटी २ सुइयों को गर्म करके उनके नाक में चुभा देते हैं । महातपस्वी मुनियों की भक्ति स्तुति करने वालों की निंदा करने वालों को नरक में नारकी जीव उनका रक्त मौर विष को उनके मुख में डालकर उनको मार डालते हैं ।।६५३॥ वोळ विकनै येळित्तुड नळ क्कुरणर् रत्तार । तुळ क्कन लिय पुड पुडत्तु विळ गिड्रार ॥ वळ क्किनवर् नन्नेरि यिन् मद्दिगे येडुत्तु । विळ प्पर वदुक्क विनये कोडिय देंवार ॥६५४॥ अर्थ-सम्यकचारित्र को नाश । र कुमति, कुश्रुति ऐसा धर्म का प्रचार करने वाले जीवों को नरक में नारकी जीव उनके शरीर में शस्त्रों से घाव करके अनेक प्रकार के छोटे २ कीडे उत्पन्न करके उनको अत्यन्त दुख देते हैं । सत् शास्त्र तर्क आदि प्रमाण द्वारा सिमागम की निंदा करने वाले उस दुराचारी के शरीर को खंड २ करके महान कष्ट देते हैं ॥४| मिक्क येगुळि कनली इटटु नगर गुहार । सेक्कुर लिडंपल तिलत्ति नेरि गेडार ।। चक कर संबंद पिन नरत्तिने मरंदा । रेक्कत्तुन मिक्क तुयरत्तिड युळेपार ॥५५॥ अर्थ-प्रत्यन्त क्रोध से दूसरे का घर जलाना, घास के ढेर को जलाना प्रादि पाप के कारण जैसे घाणी में तिल को पेल देते हैं उसी प्रकार नरक में घाणी में डालकर पेलते हैं । राजा की प्राज्ञा भंग करके इतर मोगों की संपत्ति हरण करने वालों को प्रसह्य बनाए देते हैं ॥५ ॥ कोले कळव पौ पोरळि नाश इन मगिळं वा । मलइन् मिस बेटेन उपट्ट बिलगेंडार ॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ ] मह मंबर पुराण कुलनलं कुडिप्पेरिय कळिय मेवं ।। पुलै मगळिर कार कळिर पुळक्कळेन पोरिवार ।।९५६॥ अर्थ-जीव का बध करना अथवा हिंसा करना, दूसरों की वस्तु चुराना, असत्य बोलना, अति परिग्रह का संपादन करना,अधिक की पाशा करना ऐसे जीवों को नरक में वृक्ष पर चढाकर उसे नीचे गिरा देते हैं। इससे उनको महान दुख या कष्ट होता है । अपने पति को छोडकर अन्य पुरुषों के साथ विषयभोग करने वालों को वे नारकी जीव जैमे अग्नि में पडा हुमा जीव तिलमिलाता हुआ दुखी होता है उसी प्रकार नरक में अग्नि डालकर जन को जला देते हैं ।।९५६।। तोलिने उरित्तिडु निनत्तडि सुवेत्तार । सोलि पुग नी निर्यु सोरिय उरिगिंडार ॥ माल कुड मन्नवर वंजन शंदमैच्चर् । शालक्कळ निरत्ति लुरत्तामं कनै तिरुप्पार ॥९५७॥ इनय तुयरेनरिय उडेय वेळु निलत्तिल् । विनई लिरंडा नरगिन वोळं व उनै मीटल् ॥ मुनिवरिरै तनक्कु मरिदाय उळदागुं। इनि येनुर येन्निनु मिदं शिरि दुरैप्पेन ॥६५८॥ अर्थ-जीवों के शरीर के चर्म को खींचकर खाने वाले मनुष्य को वे नारकी जीव जब वह चलता फिरता है तब उस पर आग बरसाते हैं । उस अग्नि से उस नारकी जीव का चर्म जलाते हैं । इससे वह अत्यन्त दुख पाता है। उस दुख का वर्णन करना यहां अशक्य है । मानव प्राणी को रक्षण करने वाले राजा के साथ द्रोह करना इत्यादि कपट बुद्धि से किये हुए अत्याचारी को नरक में दुख देते समय वह नारकी जीव हाहाकार मचा देता है । उस समय वहां के नारकी कहते हैं कि इस पाप कर्म के फल से तूने नरक में जन्म लिया है । अब तुमको इस नरक से छुटकारा कराने के लिये गणधर अहंत भी शक्य नहीं है । कोई से भी साध्य नहीं है और इसके सिवाय कोई धर्मोपदेश करने वाला भी नहीं है। इसलिए हे वासुदेव! इस समय तेरी धर्म मार्ग को ग्रहण करने की इच्छा है तो मैं दूसरा मार्ग बता देता हूं। तुम सुनो! ॥९५७।१९५८11 पोरि पुलं वेरुत्तेल तवत्तमर नागि । मरत्तोडु मलिदोळिरु माळि मन्न नागि । पोरि पुर मिशे पोलि मनत्तोडु पुनरं दाय । करुत्तु मुई मेनि नरगत्तिङ गरण मानाय ॥६५॥ अर्थ-हे नारकी ! पंचेन्द्रिय विषयों को त्यागकर वैराग्य को प्राप्त होकर तूने देवलोक में जन्म लिया। तत्पश्चात् वहां से चयकर मध्यलोक में कर्मभूमि में प्राकर चक्रवर्ती Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मेवर पुराण [ ३८५ पद को प्राप्त किया। अववान अहंत देव के पथार्य स्वरूप को न जानकर पंचेंद्रिय विषयों के कारण तूने नरक में जन्म लिया है ॥५॥ प्ररत्तो पुनरंबार लोग मई वायो। मरत्तो भलिवेळ निलत्तु मुरे बायो॥ तिरत्ति निवि रंग्यु निनत्तुरवि सेरि । नरपोर पोरुळुरंप नुन बल्लल फंडु वण्णं ॥६६०॥ अर्थ-अब दया रूपी धर्म के प्राचरण करने से तुमको सद्गति प्राप्त होगी। इसके अतिरिक्त नरक से छुटकारा पाने के लिये कोई दूसरा उपाय नहीं है। यदि तुम इससे अधिक क्रोध करने वाले होंगे तो इस नरक के मुकाबले में दुख अन्य ठिकाने पर नहीं है। इन दोनों के फलों को भली प्रकार देखो पौर प्रात्मा में सुख उत्पन्न करने वाले मार्ग को ग्रहण करो। मैं पापको दुख के नाश करने वाले उपदेश को कहूँगा । सुनो ! ।।६६०॥ मुनत्तुन मिरी वंदवर् कन मेन मुनिद लिड़ि। निने तिरिषु मुन्न यन्धि पयन बेंडे॥ मनत्तिन् मरमेषिन् मिगु पावस वहम् बंदा । लुनै पिनै विलंगि निडे युयित्तिारै याकं ॥९६१॥ अर्थ-हे नारकी ! इस नरक में तुझको दुख देने वाले नारकी जीव तुम्हारे ऊपर क्रोध न करें, तमको कष्ट वेदनाए न देखें-ऐसे मार्ग का तम अागे के लिये प्राचरण करो। इस समय तुमको मन में ऐसा विचार करना चाहिये कि मेरे पूर्वजन्म के किये हुए पापों का फल है । जो मुझे ही भोगना पडेगा। यह मेरे द्वारा किए हुए हैं। इसको सहन करने का साहस होना चाहिये । इसको भोगे बिना मेरा छुटकारा नहीं होगा। इसके अलावा और कोई उपाय नहीं है। कर्म के नाश करने का धर्म के प्रतिरिक्त और कोई अन्य उपाय नहीं है। ऐसा . मादित्यदेव ने विभीषण को कहा ।।९६१॥ परिवन मोदलेवर् शरणं पोगदियायिर् । पिरवि मह सुळिान वळि येळगुवल पिळेति ।। करघु शेरि उन लोड बत्तु वै पेळिता। लिव इल पल तीविन कळेदि ये नि ॥६६२॥ अर्थ-पंचपरमेष्ठी की पूजा स्तोत्र प्रादि को सदेव अपने मनःपूर्वक करते रहने से तेरे चारों गति के भ्रमण के दुख का नाश होगा। तुम अपने क्रोध के द्वारा भारमा के गुण का यदि नाश करोगे तो पुन: २ तुमको संसार में भ्रमण करना पडेगा ।।२।। बोटिनै विळेकु नल काधिन बिट्टि । .. मोतु मर कत्तुपर मुळंगलिन बोळ बाप ।। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ~ ~ ३८६ ] मेरु मंवर पुराण मीटु नरगत्तिर विळाद वगै वेळं डिर् । काक्षितले निड्रोळ्गु कादन मुद नीते ॥९६३॥ अर्थ-मोक्ष को प्राप्त करने वाले सम्यक्त्व को छोडकर हमेशा अग्नि के समान प्रात्मा को जलाने वाली यह संसार रूपी दावाग्नि है। उस दावाग्नि में जन्म लेकर अनादि काल से दुख भोगते आये हैं । इस कारण पुनः नरक में अब मैं कभी न आऊ ऐसी यदि तुम इच्छा रखते हो तो अन्य द्रव्य की अपेक्षा से रहने वाले बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रहों को त्याग करके भगवान जिनेन्द्र देव के कहे हुए वचनों पर श्रद्धान करो तत्पश्चात् हेय उपादेय को ठीक समझकर हेय पदार्थ को तजकर, उपादेय को ठीक ग्रहण करने वाले बनो ||६ ३॥ वेगळ मद मायै मिग पलिवै विनकुप् । पुगु, वळि नल्ल वल पोरै वळेवु शम्मै । नगै योडु वंतिद लिवै नल्वि नैकु वायदल् । पगै युर परिणव तेळि विन् वंगळे पयक्कं ॥९६४॥ अर्थ-क्रोध मान, माया और लोभ ये चार प्रकार के कषाय पाप कर्म के प्रास्रव के उत्पन्न करने वाले हैं। उत्तम क्षमा,मार्दव, प्रार्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग,प्राकिंचन और उत्तम ब्रह्मचर्य इन दस धर्मों तथा पागम पर श्रद्धा भक्ति स्तुति आदि करना । दातारों के सात गुणों से तथा पुण्य के उदय से दिगम्बर मुनि ऐसे उत्तम सत्पात्र को दान देना, यह सभी पुण्य का कारण है। इसको भली प्रकार जानकर इन्द्रिय संयम और प्राणि संयम इन दोनों संयम, अभ्युदय नाम के निःश्रेयसपद अर्थात् मोक्ष पद को प्राप्त कराने वाले हैं ।।६ ४॥ येड्रि गदि नींगु वदेनंड्रेद मुरवेडां। निड विन नोंगिय कनत्तिदव नींगु ।। मंडित्तुयर नींगु वदर कर्व मेळ मागि । लोंड्र. मुनै लिड्. विनै योरुक्कु मिनि मिक्के ॥९६५।। अर्थ-यह नरक के दुख मुझ को छोडकर कब जायेंगे-इसका दुख तथा चितवन मत करो तथा पार्तध्यान मन में मत करो। इस प्रकार विचार करने से संसार के दुख उत्पन्न नहीं होंगे। इसलिए तुम नरक के दुखों को शांति से सहन करो। सारे दुख समाप्त हो जायेंगे ॥६६॥ सेंड डुनदायुग मुस सेरिदु पेरि दोळिय । निड्र पेरंतुय रिक्वु नोंगु शिल नाळिल् । वेंद्र वर तमर नेरि इन मै युनरु काक्षि । योंडि योळि गुण, कन विने येटु मुडन केडकं ।।९६६॥. अर्थ-तुम्हारी नरक की आयु बहुत बीत चुकी है अब थोडा समय और बाकी है यह भी पूरा जायेगा, चिंता मत करो। इसलिये तुम आगे सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ३८७ सम्यक्चारित्र को प्राप्तकर अहंत भगवान द्वारा कहे हुए धर्म को मन में धार कर धर्मध्यान का स्मरण करते रहो। इस प्रकार करते जानोगे तो थोडे ही दिनों में प्रात्मा में लगे हुए कर्मों का नाश होकर इससे शीघ्र ही मुक्ति पा लोगे ॥६६६।। धळरि युवै वाइन मदकरि के यी नंजिर । शूळेरि यगत्तिर पोरिर् सुरा वेरि कडलिर् कानि ।। नीळर नागि निकुं निनरयत्तु विळामर काकुं। केळिनि येरत्तै पोल किडप दोभिल्लै कंडाय ।।६६७॥ अर्थ-दुष्ट मृग, सर्प, व्याघ्र, सिंह मादि मौर मदमस्त हाथी आदि को जंगल में चारों ओर यदि आग लग जाये तो बीच में रहने वाले जीवों को, युद्ध भूमि में योद्धाओं को तथा समुद्र में रहने वाले जीवों को संकटकाल में धर्म ही शरण है और कोई शरण नहीं है । उसी प्रकार नरक में पड़े हुए जीवों की रक्षा करने वाला भी धर्म ही है। ऐसा जानकर अब तुम भी यही भावना करो कि धर्म ही सच्चा साथी है अन्य कोई नहीं है। ऐसी श्रद्धा रखकर धर्माचरण करो। अब उस धर्म के स्वरूप को मैं कहूंगा १९६७॥ उधर तं मुलगि नूयीक मुलगिनु किर मै याकुं। विय पिरप्पिन वांगि वीटिन कन वैक्कु मैये ॥ नमावि नल्लरत्तै पोलुं तुनै इल्ल नमक्कु नाडिन् । कंवमि निल में यगि त्तिरु वरं कैकोळ झेंड्न् ॥६६॥ __ अर्थ-अर्हत भगवान के द्वारा कहे हुए धर्म को धारण किये हुए जीव को देवति का सुख मिलता है और अन्त में मोक्ष सुख भी इस धर्म के प्रभाव से मिलता है। इसलिये हे मेरे भाई ! तुम्हें प्रात्म-सुख को देने वाले इस धर्म के अलावा और कोई नहीं है। ऐसा तुम स्वीकार करो ॥६६॥ येंडलु मिरप्प वेन् कनलत्तु विन्निलत्तु वदिन् । ट्रोला उरुवि सुनिलं मोळि बळि निलेने । निड्रन नेड, मिद निरयेत्तु नींग लिडि। येडव निरज नड्रेड्रि यानेन दुलगं पुक्केन ॥६६६॥ अर्थ-इस प्रकार धर्मोपदेश उस नारकी जीव को कहते ही वह नारकी पुन: इम प्रकार हाथ जोडकर कहने लगा कि हे स्वामी! तुमने मेरे प्रेम से देवगति से आकर मुझे नरक से उद्धार करने के लिये धर्म का उपदेश दिया है। यदि आपके द्वारा दिये उपदेश के वचनों का उल्लंघन करके चलूंगा तो पुन: मुझे और कहां मुख मिल सकता है ? उस नारकी ने चरणों में पडकर नमस्कार किया। तत्पश्चात् मैं उसको धर्म का उपदेश व सद्धर्म वृद्धि हो ऐसा कह कर अपने स्वस्थान को पा गया ।। । इति प्रादित्यदेव द्वारा विभीषण को नरक में उपदेश देने वाला दसवां अध्याय समाप्त हमा . Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ग्यारहवां अधिकार ॥ .वीतभय और विभीषण का मोक्ष जाना * निरं पोरं शांति योंवि निड़ दोदिन में सिदि । तरिवन् शरण मूळ गि यारुहर, करळि येव ।। पिरवि नोरु विञ्चित्त विरंब पेयिरंबिर पेट्र। बर नेरि यदथिन् बदिंग कर शिळं कुभर नानां ॥१७॥ अर्थ-इस प्रकार वह मादित्य देव विभीषण को उपदेश देकर पुन: देवगति में प्रा गया। वह नारकी जीव क्षमा प्रादि परिणाम को धारण करके प्रारिण सयम और इन्द्रिय संयम को निरतिचार पालन करते हुए संसार का सुख शाश्वत नहीं है-ऐसी मन में भावना करते हुए अहंत भगवान का स्मरण करते हुए जिस प्रकार सिह रस में लोहा गलाने से स्वर्ण बन जाता है उसी प्रकार वह नारको जीव अपनी आयु पूर्णकर वहां से चयकर उसने मध्यलोक में एक राजा के घर राजपुत्र होकर जन्म लिया ॥९७०॥ मद्रिद बोपत्तिन् कनिरेवत बयोति याळू। कोट वन् शिरियन् माविन् कारलो शुसी में कोविन् । पेट्रि याळ, वइट.शोवामावेन शिरुव नानि । कोटवर कुलंगळे न्नं कुल मनं विळंके योतान् ॥६७१॥ अर्थ-वह नारकी जीव इस मध्यलोक में जम्बूद्वीप से संबंधित अयोध्या नगरी के श्री वर्मा नाम का जो राजा राज्य करता था जिनकी पटरानी का नाम सुषमा देवी था, उसके गर्भ में प्राकर पुत्र रूप में जन्म लिया,उसका नामकरण संस्कार करके सुदामा ऐसा नाम रखा गया। वह सुदामा अपने वंशके लिये दीपक के प्रकाश के समान प्रकाशमान हो गया 18७१" विन येत्तिन् मुनिव नुत्त विजइन वळरंद वीर । निने वत्तु तोव वैदर निल केत्तरसु मेवि।। कनमोत्त्यो बुहरकु मौंदु कमल पून तक्त्तु वैय्योन् । ट्रन योत्तु मरै मुगत्तार तम्मुलं तोय्यिर् पट्टाण ॥७२॥ अर्थ-वह सुदामा राजकुमार धीरे २ वृद्धि को प्राप्त हुआ और संपूर्ण शास्त्र व शस्त्र कला में प्रत्यन्त प्रवीण हो गया। और सर्वगुण सम्पन्न होकर अपने विरोधी शत्रुदल को बीतने की शक्ति प्राप्त करने वाला हो गया। जिस प्रकार मेघ गर्जना करके जगत के जीवों को शांति करने के लिये पानी वृष्टि करता है, उसी प्रकार वह सुदामा अपने राज्य में करीब Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेद मंदर पुराण [ ३८६ जनता को दान देने वाला हो गया मौर कमल पत्र के समान प्रत्यन्त सुन्दर कन्या के साथ उसका लग्न हो गया ।।६७२ ।। श्रळलिडे वंदर्मेंद नौ वळ रणियु मे । निळलिडे इरुप्पदे पो निरयत्तु तुयरं तीर ॥ कुळलन मोळिई नादं कुवि मुलं ततु वैगि । पळवि नं तुनिक पान्मै बंदुदित्त नाळा ||६७३॥ अर्थ - जिस प्रकार एक मनुष्य गर्मी के दिनों में धूप में जाते समय उस घूप के ताप से अत्यन्त व्याकुल होकर वृक्ष की छाया के नीचे बैठकर विश्राम करता है, उसी प्रकार वह सुदामा राजकुमार पूर्वजन्म में अनुभव किये हुए दुखों को भूलकर पंचेंद्रिय सुख में मग्न होकर अपनी पटरानी के साथ अनेक प्रकार के विषयभोगों में रत हुआ, काल व्यतीत करने लगा । उस समय में इस प्रकार इन्द्रिय भोगों में लीन होने पर भी पूर्वजन्म के तीव्र पुण्योदय के कारण आत्मा में जागृति थी ।।६७३|| तमिल मिल बिनेकु मारा मनंदमा मुनिवन् पांद । वंदवन वनंगि माट्रिन वडिवेला मुडिय केटिट् ॥ डिदिर विभवं तन्नं येरि युरु शरुगि नोंगि । वेतिर वेंदर् वीरन मेत्तव दरस नानान् ॥ ६७४॥ अर्थ - कर्म नाश करने के लिये उद्यत सम्यक्त्व से युक्त महा तपस्वी व्रतधारी एक दिगम्बर मुनि बिहार करते २ श्राये और अयोध्या नगरी के उद्यान में विराजे। मुनिराज के आगमन के समाचार सुनकर उस सुदामा राजा ने उन मुनिराज के पास जाकर नमस्कार किया और उनके द्वारा कहे हुए प्रात्मतत्त्व के उपदेश को सुनकर वैरागी होकर जिन दीक्षा ले ली । ६७४ || योगं कन् मूंड्रम शिंदे युड सेल वडंगि मुटु मोगङ कन् मुदुगिट्टोड मुनिमं में सुगड कोंडु ॥ नागंग नडुंग नोट्र रावनं नान्गि भगि । भोगळ् पुगळ लाट्रा पोम्मनर् कथं पुक्कान् ॥७५॥ अर्थ - जिन दीक्षा के ग्रहण करने के बाद वह सुदामा मुनि मन, वचन, काय को अपने वश में करके इन्द्रिय संयम और प्राणि संयम का पालन करते हुए मोहनीय कर्म का संवर करने वाला हो गया। इस प्रकार सुदामा मुनिराज के तपश्चररण के महत्व को समझकर स्वर्ग से देव भी प्राकर भक्ति पूजा करने लगे। इस प्रकार वे मुनि घोर तपश्चरण करते हुए समाधि मरण करके ब्रह्मलोक में देव पर्याय धारण की ॥ ९७५ ॥ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९. ] मेरु मंदर पुराण तन्नुळ्ळे निड, तन्नै तानरगत्तु ळुइक्कुं। तन्नुळ्ळे निड, तन्न तानरगत्तु वैक्कं ॥ तन्नुळ्ळे निद्र तन्ने तान् द्रडु माद लुइक्कुं। तन्नुलळे निड़, तन्ने तान् सिद्धि यगत्तु वैक्कुं ॥९७६॥ अर्थ-ज्ञान दर्शन से युक्त प्रात्म द्रव्य अशुभ योग में अशुभ परिणाम होकर भ्रमण करने से वह जीव नरक में जाता है । उससे रहित शुभोपयोग रूप अपने स्वभाव में परणति होने से देवगति को प्राप्त कर लेता है। और शुभ अशुभ परिणति से देव, मनुष्य नारको पौर तिर्यंच गति को प्राप्त कर लेता है । वह जीव शुभाशुभ परणति को त्यागकर के शुद्धोपयोग में परणति होने से स्वगुणोपलब्धि अर्थात् मोक्ष सुख को प्राप्त कर लेता है ।।९७६।। येन्नु मिम्मुळिक्कि लक्काय वंदन मिदन कंड। पिन्नु मल्लरत्तै तेरार् पेदै में यादि मार्गळ ॥ पन्नगर् किरैव पंचानुत्तरं पुक्क पंवार । मन्नन् वज्ज रायुदन् कान् वंदु संज यन्तनानान् ॥९७७॥ अर्थ-इस प्रकार अहंत भगवान के द्वारा कहे हुए पागम के अनुसार मेरे न चलने से अब तक इस संसार में परिभ्रमण करता आया हूं। इस जैन धर्म के महत्व को समझने के बाद भी इस मोहनीय कर्म के उदय से यह जीव अज्ञान दशा को प्राप्त होता है । यह कर्म महा बलवान है । हे धरणेंद्र सुनो! अहमिंद्र कल्प से उत्पन्न हुए सिंहसेन नाम का जीव विदेह क्षेत्र से संबंधित हुआ जीव गंध मालनी नाम के देश में वीतशोक नाम के नगर में संजयंत नाम का राजा होकर तपश्चरण करके मोक्ष सुख को प्राप्त हुमा ॥९७७॥ पागत्त मुळिइ नारो स्वित्तु पडिदु शोवा । मागर् पति ळदु मैदन् शयंदनाय वळरंदु माय । भोगत्तु किवरि सित्ति पुगृदु नरकाक्षि भोग। नागत्तु किरै मै पूंड नंवि मिन् वरवि वेडान् ॥६७८॥ __ अर्थ-सुदामा नाम का जीव अच्छे तपश्चरण के फल से ब्रह्मकल्प में जन्म लेकर वहां की आयु को पूर्ण करके जयंत नाम का राजपुत्र होकर कई दिन के पश्चात् संसार से विरक्त होकर जिन दीक्षा ग्रहण कर ली और घोर तपश्चरण करते हुए उस धरणेंद्र की संपत्ति के समान मुझ को भी संपत्ति मिलनी चाहिये ऐसा विचार करके निदान बंध कर लिया और समाधिमरण करके भुवनत्रय कल्प में देव हुआ और वह जीव तू ही है । इस प्रकार आदित्यदेव ने धरणेंद्र से कहा ॥८॥ सेगोत्त मनत्त वेडन् ट्रीविनै तुरप्प सेंद्र। मागवि पेट्र वंद वायुवं काळदु मन्मेल् ॥ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ३६१ नागत्तिर् टोंडि मुंडा नरगत्तु पुक्कुत्ति में। वेगत्तिल विलंगि लैंदु पोरि युलुस सुळंड, सेल्वान् ॥१७॥ अर्थ-हे धरणेंद्र सुनो! यह अत्यन्त निंद्य पाप कर्म को किया हया वह भील मरकर सातवें नरक में गया। और वहां से चयकर सर्प योनि में जन्म लिया और वहां से मरकर तीसरे नरक में गया। इस प्रकार पर्याय को धारण करके एकेंद्रिय आदि अनेक पर्याय को धारण करने वाला हुमा ।।९७६।। वंदिदं भरवत्तिन् कन भूतर मन वनत्ति । नंदरत्तनिइर् सेल्लुं नदि ययि रावदिइन् । ट्रन करे तापद' तले वन् को,गन् पनि । मन्दनसेर् संगि मैंदन शिरुगम शेर मिरुग नानाम् ।।८।। अर्थ-इस प्रकार वह जीव अनेक पर्यायों को धारण करता हुआ जम्बू द्वीप संबंधी मध्यलोक में भूतारण्य नाम के जंगल में होकर जाते समय ऐरावत नाम की नदी के किनारे पर तपस्या करने वाले उन तपस्वियों में एक क्रोसिंह नाम का अधिपति था, जिसके शंखिरणी नाम की एक स्त्री थी , उसके गर्भ में आकर उसने जन्म लिया । इसका नाम मृगसिंह रखा गया ।।६८०॥ परल मिशै किडंदु मुळ्ळिन् पलगैर् द यिड म पंन । वेरि नडु पगलि निड, मिरावडां वरुड पुक्कुं॥ करै युडै मडैर् सेरं दु कलन पिन्नोडि काम। तुरै युडे युवरिर शोत कुडंगळे तळुवि तोळाल् ॥९८१॥ अर्थ-वह मृगसिंह नाम का तापसी एक कठिन शिला पर बैठता और लोहे के कांटों पर सोता, पंचाग्नि तप को तपता, वर्षाकाल में खडा रहता, शीतकाल में तालाब में बैठता, ऐसा वह तारसो तप करता था ।।६८१॥ तूंगुरि किडंदुम् नल्लार तोळिनै पुनंदु तूयमै। दांगि यतवत्तिर् सेल्वान् वानत्तोर् विज वेदन् । तीगिला विजु मालि तिवितिलगत्तु नादन् । मांगु वंदवनें कडांगन्ने तानिदानम् शैवान् ॥९८२॥ . अर्थ-स्त्रियों के भूजों को प्रालिंगन करता, हेय उपादेय तत्व से रहित, इस प्रकार मिथ्या तप को करते समय, एक दिन पृथ्वी तिलक नगरं का अधिपति विद्युन्माली अपनी विद्या के बल से प्राकाश में जा रहा था। उस समय उस मिथ्यात्वी तापसी ने यह निदान बंध कर लिया कि ऐसी विद्या मुझको प्राप्त हो जाय तो ठीक है ।।२।। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ ] मेरु मंदर पुराण मद्रिवन् दनक पोन द्रवत्तिन् मेलेनक्कु वंदि । चुद्रभु शेल वेंदुम तोक्कड निर्क वेंड्रि ॥ पेट्रि ये निनत्तु सेंड्र पिरपिन् कनीगि वेळ्ळि । वेपिन् कन् वडाक्किर् सेडि कनग पल्लवत्तु वेदन् ।।३।। अर्थ-उस मृगसिंह नाम के तापसी ने कौन सा निदान बंध कर लिया? उसने यह निदान बंध कर लिया कि मुझे अच्छे २ बंधु मिले, आकोश में गमन करने की विद्या प्राप्त हो जाय, चक्रवर्ती पद मिल जावे। मैं जो तपस्या करता हूँ इसके फल से मुझे उक्त सब मिल जावे । इस निदान बंध से वह तापसी मर गया विजयाद्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी से सम्बन्धित कनक पल्लव नाम के नगर में वज्रदन्त नाम का राजा था ।।६८३।। वज्जिर दतंनुक्कुं मादर् वित्तु प्रभैक । मिच्चयार् टोंड्रि वित्तुवंत नेंड्रियेव पट्टाण ॥ बज्जिर पिळवु पोलुं वेरत्ताल वंदपाव । तिच्च गै मुनिक्क निवनंद वमच्चन् कंडाय ॥९८४॥ अंर्थ:-उस राजा की पटरानी का नाम वित्धुप्रभा था। उस रानी के गर्म में प्राकर वह तापसी पुत्र हुमा । उस पुत्र का नाम विद्य द्दष्ट्र रखा। वह अनन्तानूबंधी क्रोध के उदय से संजयंत मुनि को देखते ही क्रोधित हुमा सिंहसेन राजा के समय शिवभूति नाम का मंत्री अर्थात वह सत्यघोष नाम का मंत्री था। उस समय का किया हुआ बैर यहां तक नहीं छूटा, बल्कि प्रत्येक भव में उपसर्ग करता आया है । ऐसा समझना चाहिये । इस प्रकार मैं कहने वाला तुम को मालूम हो गया क्या ? इस तरह उन्होंने पूछा ।।९८४॥ वेरत्ताल वेदर् केंड पगवनाय वेय्य तुंव । भारत मुडिय चंडान् पगैव नाय तनकुत्ताने ।। बेरत्तै वेरु मिडि वेदन कोटिळिब। भारत मुडिय चंद्रान् पन्नगर् किरव वेंड्रान् ॥१८॥ अर्थ-इस प्रकार आदित्य देवने धरणेंद्र की तरफ देखकर कहा कि हे धरणेंद्र सुनो! एक भव में सिंहसेन राजा पर किया हुआ शिवभूति द्वारा बैर इस भव तक तीव्र क्रोध के रूप में शत्रु भाव से अब तक पा रहा है। तीव्र बंध करके अनेक नरक गति आदि अशुभ गतियों में दुख प्राप्त करने वाला तू हो गया। शुभ परिणाम को धारण किये हुए सिंहसेन राजा ने शुभ गति को धारण कर प्रागे चलकर मोक्ष गति को प्राप्त कर ली ॥८५। मांदिरि नांग मापिन् वानरत्ति नागं । तेरि नरगन् मिक्क मासुन नरगन् वेडन् । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेव मंदर पुराण [ ३९३ अंदमा नरगन् नाग मारळ नरगण मद्र.म् । मैंदन संगिक्यु वित्तुदतंन् टन बरविवामे ॥८६॥ अर्थ----उस शिवभूति मंत्री ने अपनी पर्याय को छोडकर प्रागंध नाम की सर्प पर्याय को धारण किया । पुनः वह शरीर को छोड़कर चमरी मृग हो गया। उस चमरी मृग की पर्याय को छोडकर पुनः अजगर सर्प हो गया। उस पर्याय को छोडकर चौथे नरक में गया। वहां से नरक की मायु पूरी कर इस मध्य लोक में भील हो गया। भील की पर्याय छोडकर तीसरे नरक में गया। उस नरक में से निकल.कर मृगसिंह नाम का तापसी हुअा। वहां को मायु पूर्ण करके मरकर निदान बंध कर लिया कि मैं चक्रवर्ती बन जाऊं। ऐसा बंध करके वह विद्युद्दष्ट्र नाम का विद्याधर हो गया ॥८६॥ मन्नवन् मत्तयान शासारणं विज वेदन् । पिन्न काविट्ट देवन् पेरिय बज्जरायुदन् पिन् ।। पन्न तवत्तिर् पंचानुत्तरत्तमरन् पार् मेल । मन्त्रिय पुगळि नान् संजयवन् इन् वरविदामे ॥९८७॥ अर्थ-राजा सिंहसेम मरकर के मशनीकोड नाम का हाथी हो गया। तत्पश्चात् वह हाथी पंचारणुव्रत को धारण कर मरकर सहस्रार कल्प में देव हुमा। तदनन्तर वहां से प्राकर विद्याधरों में किरणवेग नाम का राजा हुमा । तत्पश्चात् इन्द्रिय भोग भोगकर वहां से विरक्त होकर अन्त में दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण करके समाधिपूर्वक मरण कर कापिष्ठ कल्प में देव हुमा। वहां से चयकर बचायुष राजा हमा। वहां के राजभोग को भोग अन्त में वैराग्य को प्राप्तकर तपश्चरण करके पचानुत्तर विमान में महमिंद्र देव हुमा । वहां से मनुष्य लोक में आकर संजयंत मुनि होकर तपश्चरण करके मोक्ष चले गये ।।६८७॥ बरत योरवर काकि युरुवर काकि युरुवर पिरवि दोरुं। तुयरत्तै पिळत्तल सोम्ना लिवरगळे सोल बेंडाम् ।। मयरि कन् मरत्ति नीगि नाग पासत्तं वांगि। युइरोत्तिगिवनो बोडियोलुगुनी युरगर् कोवे ॥१८॥ अर्थ-हे धरणेंद्र सुनो! परस्पर मापस में विरोध होने के कारण अनेक भव २ में दुख सहन करना पडता है। यह बात तुम्हारे अनुभव में प्रत्यक्ष में प्राई होगी। इस समय सिंहसेन महाराज मोर शिवभूति मंत्री इन दोनों का चारित्र ही वर्णन किया है। ये दोनों ही कथा नायक हैं । इस कारण अब तू विक्षुहष्ट्र पर क्रोध करना छोड दो भौर उनको बंधन से मुक्त करो और उन पर दयाभाव रखो ।।६८८॥ येड्लु मिरवन ट्रेन्नरगत्तु लिडुवै तीर्ता। इन्द्र, मिप्पिरवि येल्ला निवारेनक्कु सोल्लि ।। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] मेरु मंदर पुराण वेंद्रवररत्तिर् काक्षि विमल मदाग सेवा । पेंड्रन किरंव नोये इन्न मंडूरुळि सेवन् ॥ ६६६ ॥ अर्थ- - इस प्रकार आदित्यदेव द्वारा कहा हुआ सुनकर धरणेंद्र प्रादित्यदेव से कहने लगे कि हे स्वामी ! मैं पूर्वजन्म में नरक में जब पडा था, तब तुमने वहां मुझे धर्मोपदेश दिया था। उसको सुनकर तुम्हारी कृपा से मैने इस समय चक्रवर्ती होकर जन्म लिया है। अब तुम मेरे ऊपर प्रत्येक भव में उपकार करते हुए आये हो, और मुझ में सम्यक्त्व उत्पन्न किया है । इसलिए आप मेरे गुरु हैं और आगे किए जाने वाले जो कार्य हैं उनको अब कहूंगा ।। ६८६ ॥ विजइन् वलियिर् पोगि मेदक्कोर् तम्मै वव्वि । नंचिरं वकुं वित्तु दंतन् ट्रन् कुलत्तु मिक्क | विजयं परितु बीळं व शिर गुडे परवे पोल् । विजैमा नगरत्तुळ्ळे इरुत्तुव निवरं इंड्रे ॥ ६०॥ अर्थ-विद्या बल से आकाश में गमन करने आदि की जो शक्ति विद्युद्दष्ट्र को प्राप्त है वह प्रागे के लिये विद्या रूप न रहे। जिस प्रकार पक्षी के पंख टूट जाने के बाद वह पक्षी उड नहीं सकता उसी प्रकार यह विद्याधर कहीं विद्या के बल से भाग न जाय, ऐसा करेंगे ।।६६०॥ ड्रिडा उप वादित्ताव निप्पलं पोरेन्न । पोंडिडा रवेंद कुळादि वर्ग ळे वेगुळि नोंगा ॥ दोंड्रिडा उरंतु मेना निरंव निन्नरुळि नाले । कुल नार्के माविज पनिशैर्गेड्रान् ॥ अर्थ- - इस प्रकार घरणेंद्र की बात सुनकर आदित्य देव कहने लगा कि हे धरणेंद्र ! इस विद्यावर द्वारा कहे हुए अपराध को क्षमा करो। इस पर धरणेंद्र कहता है कि है स्वामी सुनो ! मैं इनके द्वारा किये हुये अपराध के बारे में बिना प्रायश्चित्त दिये नहीं छोडूंगा और विद्याधर की महाविद्या कभी भी इनको साध्य न हो, बल्कि ये विद्याएं स्त्रियों को साध्य हो इस विद्याधर को साध्य न हो । और इसके अतिरिक्त इस पंचम काल में ऐसी विद्या किसी को भी साध्य न हो ऐसी मेरी इच्छा है ।।६६१ ६१ ॥ इब्वन्नं शैविट्टेने लिस्ट पिळं पिरंडु मिन्नु । efore तनय मेनि कर्डयर्तन् कळिव्य नाले ॥ येव्वळियान मोडि वेळिय वर तम्मे येल्लाम् । कव्यं गळ पलवं शैवर् मेल्वरुं कालत्तेंड्रान् ॥ ६२ ॥ अर्थ - पुनः वह धरणेंद्र कहता है कि यदि मैं इस प्रकार नहीं करूंगा और विद्याधर Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण [ ३९५ को यदि संतोष से छोड दूंगा तो अगले काल में पुनः यह किसी दूसरे के साथ उपसर्ग करेगा ९९२॥ मोवलंकुळलि नारुमा विज यडिप्पडप्पार । शवियां सजि येदन ट्रिरुवडि कमलं सरं वन ॥ कौविय मिडिनिड, शिरप्पयरं दोदि नल्ला । लेव्वगै विज येनु मेदिर पर लोळिग बेंड्रान् ।।६६३॥ अर्थ-विद्याधरों के लोक में सुन्दर २ केशों वाली स्त्रियां हैं। वे सभी संजयंत मुनि के चरण कमलों को मन, वचन, काय से स्मरण करतो हैं। सभी ये विद्याए स्त्रियों को प्राप्त होंगी। यदि उसी श्रद्धा से पुरुष इस विद्या को साधेगे तो वे सफल नहीं होंगे ॥९६३ । तरै मडिलग मन्न तडवर इवन कन् मेनाट् । पिर मरि मुदल विज येडि पड पिनय नारु ।। किरि मंदानिक्कुलत्तु मैंदर कागेंड्रि तन्वे । रिरिमदं मेंडोर कुंडि निरव नालयं समैत्तान् ॥६६४॥ अर्थ-इस प्रकार धरणेंद्र के कहने के बाद जिन संजयत मुनि ने जिस पर्वत पर मोक्ष प्राप्त किया था उस पर्वत पर जाकर उपवास करने वाली स्त्रियों को ब्राह्मी आदि महाविद्या सिद्ध होंगी। इस विद्युद्दष्ट्र के वंश में उत्पन्न होने वाले को यह विद्या सिद्ध नहीं अतिरिक्त कुछ नहीं होगा। यह मुनि जिस पर्वत पर से मोक्ष प्राप्त किया हो उस पर्वत का होगी। इसके नाम हीमंत रखकर उस पर्वत पर एक मंदिर का निर्माण करा दिया ||१६४॥ मंजुलामल मेंलमलि मानगर । पजनन् मरिण योडु पशुं पन्नार् । सजयंद भट्टारक शेट्टगं । नजुगर किरैवन् शंदु नाटि नान् ॥६६॥ अर्थ-तत्पश्चात् धरणेंद्र हीमंत पर्वत पर संजयंत नाम मुनि के तपश्चरण के स्थान पर मंदिर बनाकर उसमें संजेयंत मुनि की प्रतिमा स्थापित कर दी ।।६६५| मुळवु तन्नुमै मुंदै मुळंगिन । मुळे मळ इन मुरंड वलंबुरि ।। सुळल निळे तिट्टन कागळम् । कुळलोगिन वीरणं कुळांगळे ॥६६६॥ निरैद किन्नरर् गीत निल मिस । येरवे येमिन्नि नगनो माडि नार ॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ ] मेह मंदर पुराण सुरंद कादलिर सोदळ कागनर् । करं कुवित्तुरगर किरे येतिनान् ॥६ ॥ अर्थ - मंदिर का निर्माण कराके प्रतिष्ठा सहित मूर्ति विराजमान की और अनेक प्रकार के वाद्य वीणा बांसरी अादि बाजों के शब्द जिस प्रकार समद्र में घोष होता है, उसी प्रकार सदैव वोणा बांसुरी प्रादि वाद्य बनते रहे, ऐसा प्रबंध कर दिया। उस पर्वत पर अनेक किन्नरियों तथा देवियों ने प्राकर कई प्रकार बाजे बजाये तथा नृत्य किया। उस समय वह धरणेंद्र संजयंत मुनि की अनेक प्रकार से स्तुति स्तोत्र-आदि करने लगा ||१६||१९|| कल इला वरि वनी कलनिला वळुगु नी । मले विला मवनु नो मरुविला मदनु नी ।। युलगि नुळ ळायु नी युलगि नुळ लायोर । निलला निलये नी यागिलु मिरव नी ॥८॥ अर्थ-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय इन चार ज्ञानों को छोडकर एक ही समय में चराचर वस्तु को जानने की सामर्थ्य रखने वाले पाप ही हैं। वस्त्राभरण आदि का त्याग करने पर भी शरीर से सुशोभित दिखने वाले आप ही हैं । मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त करने वाले भाप ही हैं । प्रत्येक द्रव्य स्वभाव को जानकर प्रतिपादन करने वाले पाप ही हैं । यह तीन लोक अापके ज्ञान में सदैव झलकने पर भी आप उससे भिन्न हैं ॥११॥ अमल नी यरिव यरुग नी यचल नी। विमल नी वीर नो वेर मिलोस्व नो॥ तुमिल नी तुरव नी सुगत नो शिरवनु नी । कमल नो करण नी केवल चेल्ब नी ॥६॥ अर्थ-निर्मल अथवा निर्विकार स्वरूप को राप्त हुए पाप ही हैं । सम्पूर्ण वस्तुओं में पाप ही योग्य हैं। चलन रहित पाप ही हैं । निजात्म रूप को आपने ही प्राप्त किया है। अनन्त वीर्यादि गुण को प्राप्त हुए भी पाप ही हैं। वैरभाव न रखने वाले पाप ही हैं। प्राप ही प्रौं कार स्वरूप हैं । बाह्य अभ्यंतर परिग्रह से रहित पाप ही हैं । अनन्त सुख को भी प्राप ही ने प्राप्त किया है। मोक्ष मंगल भी प्राप ही हैं । पद्मासन रूप भी आप ही हैं । रूपातीत भी आप ही हैं। कैवल्यरूप भी प्राप ही हैं। निश्चय पात्म द्रव्य स्वरूप होने वाले और कैवल्य लक्ष्मी को भी प्राप्त किये हुए पाप ही है REEM हरव बी ईश नी येंगुणत्तलव नी। पोरि इला परिव नी पूशन किरब नी ।। माविला वय नो मादवत्तलेबनी। शिरिय यानिन गुणं सेप्पुरर् करिय नी ॥१०.०॥ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ३६७ अर्थ--नाथ भी पाप ही हैं। मादि अन्त भी पाप ही हैं । अनन्त ज्ञानादि पाठ गुणों को प्राप्त किये हुए भी आप ही हैं। प्रतींद्रिय ज्ञान रूप भी पाप ही हैं। तीन लोक में रहने वाले जीवों के द्वारा पूजनीय भी पाप ही हैं। प्राप हो स्वयंभू हैं । तपश्चरण करने वाले गणघरादिकों में भी श्रेष्ठ प्राप ही हैं। इस प्रकार मेरे समान अल्पमति द्वारा प्रापके गुणों का वर्णन करना मेरे लिये अशक्य है । आप ऐसे गुणों को धारण करने वाले हैं ॥१०००। इनैयन् तुदिगळ सोल्लि इरुक्कयो इरंड नान्गु । मणमलि वनक्कंदोरु मूवगै सुळट्रि मान् विन् । विनयर वेरिद कोन विन्नव रोड मिन्न। कन कळ लुरगर कोमान् कैतोळ दिरंजि पोनान् ॥१००१॥ अर्थ-घातिया अधातिया कर्मों का शुद्धोपयोग द्वारा नाश किये संजयंत सिद्ध भगवान को चणि काय के देवों ने स्तुति और पूजा करके उस भगवंत को मन, वचन, काय से भक्ति आदि करके अहंत, सिद्ध, साधु को गर्भ, उपपाद और संमूर्छन ऐसे तीनों शरीर के नाश करने के लिये तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया। इस प्रकार भक्ति सहित पूजा स्तुति करके वह देव अपने भुवनत्रय कल्प में लौटकर गया ॥१००१।। मादक्क पोददावि तावनुं विज वेदन् । मेवक्क तरुळ वेरस विडतक्क दें. मिक्क । कोपत्त युपशमिप्पित्तरुळि नं कोंडु निक। नोदक्क नोति युळ्ळानु वलुदर् कळ्ळं वैत्तान् ॥१००२॥ अर्थ-तत्पश्चात् सम्यकदर्शन प्राप्त हुना वह मादित्य देव, विद्याधरों के राजा विद्युद्दष्ट्र के क्रोध का नाश करना चाहिये इस बारे में पुनः कहने लगा कि मैं कुछ धर्म की बातें कहता हूं सुनो ! ऐसा सुनकर उस विद्युद्दष्ट्र ने धरणेंद्र के चरणों में पडकर नमस्कार किया ।।१००२॥ मदकरि मसगं पोलवार वसं वरल वैय्य मंदिर । कदि बदि यागु मागा विधि वशं बरुद लोंड.॥ मदि पेरि दुडेय नीरार माट्रिड इन्व मेवार । विदियर वेरिय बेग्लुं विजयाल विज वेंदे ॥१००३॥ अर्थ-प्रादित्य देव ने कहा कि डांस,मच्छर के समान धारण किया हमा शरीर है। यह मानव प्राणी अपनी ज्ञान शक्ति तथा मनोबल से मदमस्त हाथी को अपने उपयोग से अपने वश में कर लेता है उसी प्रकार यह मनुष्य क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त होकर शुक्लध्यान द्वारा इस तीन लोक का अधिपति होने योग्य सिद्ध पद को प्राप्त कर लेता है। इसलिये सम्यकदर्शन को प्राप्त हुमा जीव इस पंचेंद्रिय विषय ऐसा क्षणिक सुख का नाश करने के लिये सदैव इच्छा रखते हैं। परन्तु संसार सुख में मन नहीं होते ॥१००३।। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] मेरु मंदर पुराण कोपत्ति कुडेय घोडि नरगतं कुरुगि पल्काल । विलंगिनु सुळंडू बंदाय् ॥ " वेबत्तिन् वेधि नि तापत्तं सनिक्कु नीळ यापत्तं यगट्टि इन्च मूर्ति नीयाग वेंड्रान् ॥ १००४ ॥ पोलु नल्लरस मैवि । अर्थ- - इस कारण प्रापके इस विषय को न जानते हुए इस प्रकार क्रोध करके अनेक बार नरक में जाना पडा । इसके सिवाय क्रोध पाप बैर के कारण अनेक तिर्यंच, पशु प्रादि पर्यायों में जाकर दुख भी भोगना पडा । अतः इस दुख का नाश करने के लिये कर्मों का नाश करके अनन्त सुख को धारण करने वाले हो जावो ||१००४ || अळलिडे मलये यदि वंदव नम्मलक्कीऴ् । निळलिडे पेटूविब नीर् पिंड पैक निवम् ।। सुळलवु मुळुवै निर्प तळिरि नं करितु मेल्लु । मुळे गुरु मिबम् पोलु बिलंगुरु मिब मेंड्रान् ॥ १००५।। अर्थ - हे विद्य ुद्दष्ट्र सुनो! इस संसार के सुख दुख कैसे हैं सो बतलाते हैं । एक मनुष्य अपने मस्तक पर भारी पर्वत को धारण कर उसी को छाया में खडे होने के समान है । और एक हरिण जंगल में चारों ओर सिंह, व्याघ्र प्रादि क्रूर प्राणियों के भ्रमण करने के बीच में कोमल घास खाने के समान यह संसार सुख है ।। १००५ ।। श्ररुळिलार किल्ले इन्ब मार्गलि युलत्तिन् कट् । पोरुळि लार किंब मिल्ला वायरोर् पोन् कोळ वारिर् ॥ रिविला किल्ले पेंड्र . तीनेरि शेल नींगन् । 9 मरुळिला मनतं याय् नो मनयर मरुवुर्गेड्रान् ॥। १००६ ॥ - एक कवि ने कहा है कि: असल् लिल्लारक्कू अल्लुग मिल्लई रुल इल्लारकू । इव्वुलगा विल्लई | इस जगत के मानवों के पास यदि संपत्ति नहीं है तो उनको तिलमात्र भी सुख नहीं है । एक कवि ने पुन: कहा हैः "माता निंदति नाभिनंदति पिता भ्राता न संभाषते । भृत्याः कुप्यति नानुगच्छति सुता कांता च नालिंगते ॥ प्रर्थस्यार्थन शंकयात् कुरुते, स्वालापमात्र सुहृत् । तस्मादर्थमुपाश्रय शृणु सखे ह्यर्थेन सर्वे वशाः ॥ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ३६६ इस प्रकार विचार करके देखा जावे तो इस जगत में मनुष्य को बाह्य सुखों से कोई सच्चा सुख नहीं मिल सकता; परन्तु यह प्रज्ञानी प्रारणी इस पंचेन्द्रिय सुख को ही सब सुख मानकर संसार में दुख भोगता आ रहा है । इससे भिन्न ऐसे सद्धर्म के सार को जब तक न समझे तब तक इस जीव को सुख का मार्ग स्वप्न में भी उनके ज्ञान में नहीं आयेगा । इसलिये हे विद्युद्दष्ट्र ! अहत भगवान द्वारा कहे हुए धर्म को समझकर उस पर विश्वास करो। इसके अतिरिक्त इस आत्मा को सच्चा सुख देने वाली और कोई वस्तु नहीं है इसका परिपूर्ण पालन करो। ऐसा आदित्य देव ने कहा ।।१००६ ।। अरसन् संजयंदनाग ववकु नो यमच्चनाग । पेरिव मादेवियानेन् पिन्नय भवंगडोरुं || मरुविना मगिळ शेंड्र पिरुप्पु मटूदनु कप्पा । लोरु वरा लुक् लागा बुलंदन पिरधि मेनान् ॥ १००७॥ अर्थ - हे विद्युद्दष्ट्र सुनो ! वह संजयंत भगवान पूर्वजन्म में सिंहसेन राजा की पर्याय में थे । तुम उनके शिवभूति अपर नाम सत्यघोष नाम के मंत्री थे और मैं उनकी रामदत्ता नाम की पटरानी थी। तत्पश्चात् हम कई २ जन्म लेकर अनेक प्रकार के सुख दुख भोगते श्राये हैं और इसी प्रकार पीछे अनादि काल से कई २ बार जन्म मरण करते आये हैं । उनका वर्णन शक्य या साध्य नहीं है ।। १००७ ।। इनयन केटु तन्नं इळित्तंद विद्य ुदंतन् । मनमलि करुत्रु नींगि वानवन् ट्रन्नं वाळू ति ॥ कनैकळ लरसन् ट्रन्मेर करुविनार् पिरवि दोरुं । निनैविलेन शदतीमं नींगु माररळ गेंड्रान् ॥१००८ ॥ अर्थ- - इस प्रकार श्रादित्य देव द्वारा कहा हुआ वह विद्युद्दष्ट्र विद्याधर पूर्व जन्म से श्राज तक किये हुए कर्मों पर दुखित हुआ और पश्चाताप किया, क्रोध को त्यागकर आदित्य को नमस्कार करके कहने लगा कि सिंहसेन राजा के पहले भव से आज तक किये हुए कर्मों का नाश करने के लिये उसका उपाय बतायें। ऐसी प्रार्थना की ।। १००८ ।। इरे वन युलग मेत विरुंद संजयंदन् पादं । नरं युला मलर्ग डूवि वनैगन् नमो वेंड्रे ति ॥ योरिवि लेन् शंद तीमै पोरुक्क बेंड्रवुनन् पोनान् । उरुदि निड्र रेत वानो नुवंदु तन्नुलगं पुक्कान् ॥ १०० ॥ अर्थ - इस बात को सुनकर आदित्यदेव उस विद्युद्दष्ट्र से कहने लगा कि सुनो ! इस मोक्ष को प्राप्त हुए संजयंत मुनि की प्रष्ट द्रव्य से पूजा करो व नमस्कार करो। यह सुनकर उस बिद्याधर ने तीन बार नमस्कार करके भगवान की प्रष्ट द्रव्य से पूजा की और उन भगवान Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ] मेह मंदर पुराण की मूर्ति के सामने खडे होकर प्रार्थना करने लगा कि हे नाथ ! मैंने भव २ में पाप पर अनेक प्रकार के उपसर्ग किये हैं। आप उनको क्षमा करें। और लौटकर अपने नगर में गया और मादित्यदेव अपने पवन लोक में गया ॥१००६॥ करुविना लोरुव नेडम कडु नवं नरगि नाळं वान् । पोरैना लुरुवन् पुत्ते लुलग दि वीडु पुक्कान् ।। करुवोडु पोरइ नाय पयनिवै कंडु पिन्नू । पोरै योडु सेरविलादार् पुल्लरि वाळ रंड्रे ॥१०१०॥ अर्थ-क्रोध परिणाम से शिवभूति मंत्री के जीव ने अनेक नरकादि दुखों को भोगे। क्षमा धारण करनेवाले सिंहसेन राजा ने देव सुख को प्राप्त करके जिन दीक्षा लेकर दुर्द्ध र तप करके मोक्ष प्राप्त किया । इसलिये क्षमा भाव से तथा शांत भावना से उत्तम होने वाले फल का ज्ञान होने के बाद भी यदि जीव के मन में क्षमा भाव नहीं उतरता है तो वह संसार में ही दीर्घकाल तक परिभ्रमण करता है ।।१०१०॥ । ग्यारहवां अध्याय समाप्त हुआ। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ बारहवां अधिकार ॥ * भगवान का बिहार घातिय कडिंदु वेंदन केवल शल्व नानान् । वेदिय नमच्चन् विजे वेद नाय वियंदु पोनान् ॥ पोदनी कुळलि नाळू पुदल वन देव राणा । यादिनी इवर्गळ शैग यंडिडि लियंब लुटेन ॥१०११॥ अर्थ-सिंहसेन राजा ने अन्तिम भव में संजयंत मुनि होकर घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान को प्राप्त किया, और अघातिया कर्मों का नाश करके मोक्ष में चले गये । शिवभूति मंत्री दुष्ट विद्यावर केवलज्ञान की पूजा को देखकर पाश्चर्य चकित होकर अपने विद्याधरों में गया। रामदत्ता देवी अगले भव में भुवनेंद्र कल्प में प्रादित्य देव हो गया । राजा सिंहसेन का छोटा पुत्र भवन .लोक में धरणेंद्र होकर जन्म लिया । अब प्रागे चलकर इन दोनों का विवेचन करूगा, सुनो ! ॥१०११॥ वेदिग वेदंडत्तिन् विल्लुनान् वीकिटे पो। लोद नीरुडुत्त मन्मेलुत्तर मदुरे येन्यूँ ॥ पोदुडु तळिर कन् मिडि पोरि बंडुम तेनुं पाड। तादोडु मदुकळ वोयुं तन् पनै सोले दुंडे ॥१.१२॥ अर्थ-महा लवरण समुद्र से घेरा हवा इस भरत क्षेत्र में अत्यन्त सुन्दर नाना प्रकार के वन उपवनों से सुशोभित उत्तर मथुरा नाम का नगर है ।।१०१२।। पगर किड कोडाद बोन् माळिगे पाय नल्ला । रगिर पुगे यगत्तु निद्रा रणिवर मदन चूळं ६ ॥ मुगिर कोडि निम्नु पोंड, तोंड.वार कुळा मुळेग । तुगि रि योड़ मंजं तोडंगिय नडंग ळोवा ॥१०१३॥ अर्थ-उस नगर में लगी हुई ध्वजा हवा से उड रही थी। उस ध्वजा से बंधे हुए घंटों (टोकरों) के शब्द मेघ की गर्जना के समान मालूम होते थे। उन शब्दों को सुनकर मयूर अत्यन्त प्रानन्द से घूमते थे। और उस नगर के प्रत्यन्त उन्नतशोल गोपुर थे। उस गोपुर के ऊपर प्राकाश में उत्पन्न होने वाले बिजली के ममान प्राभरण करने वाले वहां की रहने वाली स्त्रियों के रत्नों के प्राभूषण प्रादि चमकते थे ॥१०१३।। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ ] मरु मंदर पुराप कामने कौव्वे सेवान् करिगळे निगळम् पैव । ताममे मेलियं वन्नं शंकरं शिपि यकें ॥ शेममार शिरं पुनर्के तोतोलिन् मरैय वर्के । वाममें कलेनारे वशीय मन्नगर तुळ्ळे ॥ १०१४ ॥ अर्थ- -उस नगर में स्त्री पुरुष को कोई दुख नहीं देता था । केवल दुख देने वाला एक मन्मथ ही था, दूसरा कोई नहीं था । और लोहे की जंजीर ही उनके लिये बंधन का कारण थी और कोई नहीं था । धूप के ताप के अतिरिक्त और कोई शुष्क करने वाला उनको नहीं था। पानी को रोकने के लिये एक तालाब था । अग्नि से ब्राह्मरण लोग होमादि के लिये उस अग्नि का उपयोग करते थे और कोई उपयोग में नहीं लाता था । पुरुष को वश में करने के लिये एक स्त्री ही थी अन्य कोई नहीं था ।। १०१४ || सिनंदले लिङ्ग वेंदर् तिन पुयम् शिदेत वीरर् । तनंद वोरिय नॅबाना मन्नगर् किरंव नल्लार् ॥ मनंदोर मिरुंद कामन् वन्मेयान् मारि योप्पा | ननंदले युलगि नुळ्ळ नवें यलास तीर निड्रान् ॥१०१५।। अर्थ - इस प्रकार अत्यन्त सुन्दर उत्तर मथुरा नाम के नगर में शत्रुदल का नाश करने वाला पराक्रमी अनंतवीर्य नाम का राजा था। वह राजा मन्मथ के समान महान सुन्दर था और मेघ वृष्टि के समान सारी प्रजाजनों की इच्छा पूरी करता था और याचकों को इच्छित दान देता था । उनकी राजधानी तथा देशों में कोई दुखी नहीं था ।। १०१५ ।। पारि नावतं. शारंद पवळत्तिन् कोळंदै योपान् । मेरुमालिनी सेबां लौवंदन् मादेविमिक्काऴ् ॥ वारिवा यमिदं मन्ना ळमिर्द, मामवि येवाळाम् । कारोंड्रो डिरंडु मिन पोर् कालर् कळ वि निड्रार् ॥१०१६॥ . अर्थ-उस राजा को पारिजात वृक्ष में जैसे मरिण को पिरोया जाता है, लता पर चढाया जाता है उसी प्रकार अत्यन्त सुन्दर उस राजा के मेरु मालिनी और अमृतमती नाम की दो पटरानियाँ थी, इन दोनों में मेरु मालिनी बढी पटरानी थी। प्रमृतमती छोटी पटरानी थी । । १०१६।। मगरवे रिरंडु तोळा वारि युट्टिरिव दे पोमार् । शिगर माल याने यान विमार पुयंग लाग ॥ निगरिला विव वेळळ कडलिडे नोंदु नाळ ळ, पुगरिलार् वारिणन् बंदिव्विद वकुं पुबल्व रानार् ॥ १०१७।। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४० ३ अर्थ - जिस प्रकार समुद्र में नर मंगर मत्स्य अपने दोनों पंखों से छोटे मच्छर को अपनी बगल में लेकर घूमता रहता है । उसी प्रकार वह राजा अपनी दोनों पटरानियों को - अपनी बगल में लेकर काल व्यतीत करता था। वह आदित्य देव और धरणेंद्र के जीव दोनों ने एक २ पटरानियों के गर्भ में जन्म लिया ।। १०१७।। मालिनि तन् कनादि तापनन् मामेरु वानान् । पालन माळि मदिगद् भवनन् मंदरनु माग ॥ वेल ये सरिद वाळि पोर्कळि शिरंतु वेदान । ज्ञात्तु फिडरैतीर नडक्कं कथं गत्तै योत्तान् ।। १०१८ ।। अर्थ - मेरु मालिनी पटरानी की कुक्षि से प्रादित्य देव के जीव ने जन्म लिया । उसका नाम मेरु रखा गया और अमृतमति नाम की रानी की कुक्षि से धरणेंद्र के जीव ने जन्म लिया उसका नाम मंदर रखा गया। यह दोनों राजकुमार कल्प वृक्ष के समान याचकों की इच्छा पूर्ण करने वाले हो गये ||१०१८ ।। मंग कोंगे यन्नं कुवट्टि निन् ट्रिळिंबु नल्ल । शिंग पोदंगळ पोल तबिशिडं तवळ दु शेंडू ॥ पंगतलंगळ पोलुं पवळच्चोरडियं पारा । मंगे तन् सेनिं सूट नडंबिट्टा माले याग ॥ १०१ ॥ अर्थ- ये दोनों बालक अपनी माता के स्तनों का दूध पीकर वृद्धि को प्राप्त हुए । सिंहनी के बच्चों के समान घुटनों के बल चलते थे । शनैः २ वे खडे होने लगे ।। १०१६ ।। २ नाविळ कोंचि नल्लकले यल्गु नलत्तं युंडु । माविळ कळिरु तेरवाळ विट्रोळिल वल्लरागि ।। तेविळंकुमरर् पोल तेसोडु तिळंक्कु मेनि । कोविळंकुमरर् कामन कुनिशिलं किलक्क मानार् ।। १०२० ।। अर्थ - तदनन्तर ये दोनों राजकुमार चौसठ कलाओं में निपुण होकर अर्थात् राज्य कला, शास्त्र कला, शस्त्र कला, अश्व कला, हस्ति कला, प्रारोहण कला प्रादि २ अनेक कलानों में प्रवीरण होकर मौवनावस्था को प्राप्त हुए ।। १०२० ।। कडेदं नल्ललगं वेन्न करुतिडं वेळुत्तु चूळ । मडंगल पोन मोई विन् मनतिनं कनत्तळिक्कुम् ।। तडंगरणम् पाग नल्लार् तमुविल नानेट्रि तानं । डंगि निड्रनंगन् मैंदरुळ्ळतं येळिक्क लुट्रान् ।। १०२१। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ] मेरु मंदर पुराण अर्थ-ये दोनों राजकुमार सिंह के समान तरुणावस्था को प्राप्त हुआ मन्मथ के समान तरुण स्त्रियों को अपने वश में करने के लिये कामदेव के समान सुशोभित होते थे। वे यौवनावस्था को प्राप्त होकर विवाह के योग्य हुए ॥१०२१॥ कैचिले कुळय्य वांगि कन मळे पोळिदु काम । विच्चेयै मैंदरुळ्ळ ते त माटाव नंगन् । वज्जिरं पंजिर ट्र.या बडु पडु मेनुं काम । विच्चेयै मैंद रुळ्ळ तेळुत्तोना देंड, पोनान् ॥१०२२॥ अर्थ-इस प्रकार मन्मथ के तुल्य शोभने वाले मेरु और मन्दिर के ऊपर कामदेव ने प्रवेश किया फिर भी वे कामदेव के वश में नहीं हुए तब कामदेव निरुत्तर होकर चला गया ॥१०२२॥ कायत्ति नुवप्न काम भोगत्तिन् वेरपुर मादाम् । मायत्तिन वडिय मेल्लान् नेनिप्पिला मनत्ति नार्गळ ।। नोयुत्त नुचि शेल्ब नुर योत्त विळमै देसु । कायत्तु विल्ल योत्त कामनुकिउमंगुंगे॥१०२३॥ ये दोनों मन में विचार करने लगे कि यह शरीर प्रशुचि है, पंचेन्द्रिय सुख क्षणिक हैं। तथा इन्द्रिय सुख विष के समान है। इन पंचेंद्रिय सुखों से आज तक तिल मात्र भी सुख की प्राप्ति नहीं हुई। यह सुख प्रात्मा को व्याधि के समान हैं। यह राज्य संपदा, पंचेंद्रिय सुख पानी के फेन के समान क्षणिक हैं । यह यौवनावस्था प्राकाश में इन्द्र धनुष के समान क्षणिक है। ऐसा मन में विचार कर मेरु और मन्दिर दोनों कुमार संसार से विरक्त हो गये। इस कारण इन दोनों पर मन्मथ का कोई प्रभाव व असर नहीं पडा ।।१०२३॥ अनित्त मरणिन् मै युर विन्म पिरि विन्म। युनर करिय माद लग मूद्र.तरलुव' ॥ निनप्पिल वरं सेरिप्पुरिचि पोवि पेर एकदमै । मनतिन कर निनत्तु मनैयरत्तोलगं वळिमाळ ॥१०२४॥ अर्थ-वे मेरु और मंदर दोनों राजकुमार अपने मन में इस प्रकार भावना भाने लगे कि यह शरीर अनित्य है । बधु. मित्र कलत्र प्रादि कोई भी रक्षण करने में समर्थ नहीं हैं। सारी बाह्य वस्तुए शरीर व प्रात्मा दोनों भिन्न हैं । यह मेरी आत्मा अनन्त गुणों से युक्त है। उसका लक्षण, ज्ञान, दर्शन तथा चेतना है। यह संसार प्रात्मा से भिन्न है और सार रहित है। इस लोक में रहने वाले प्रात्मा का ज्ञान, दर्शन, स्वभाव गुरण है। फिर भी विभाव गुरणों से उत्पन्न होने के कारण विभाव गुण को प्राप्त हुई आत्मा संसार में परिभ्रमण करती है। इस मात्मा के विभाव गुण से रागद्वेष उत्पन्न होकर यह विभाव परणति को प्राप्त हो जाता है। शरीर संबंधी प्रशुचि को प्रास्रव उत्पन्न होने वाले संसार भावना तथा कमों का नाश करने Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ n awwwmarwarramme मेरु मंदर पुराण [ ४०५ वाली निर्जरा भावना बोधि दुर्लभ भावना को भाने लगे। इस प्रकार बारह अनुप्रेक्षाओं को सतत अपने हृदय में भाते थे ।।१०२४।। अमल नल वारियगत्तान निळर पोल। तुमिल मिड मूवुलगं तोंड. मरि उदय ॥ विमलनेनु मरिवन मलर पोळिय बिन्नोर । कमल मिस पुलावियोर कावग मददन् ॥१०२।। __ अर्थ-इस प्रकार भावना भाते २ एक दिन तीन लोक की चराचर वस्तु को जानने वाले केवलज्ञान को प्राप्त हए श्री विमलनाथ तीर्थंकर महंत केवली भगवान का समवसरण इधर उधर विहार करते हुए उत्तर मथुरा नगरी के उद्यान में आकर विराजमान हो गया। ॥१०२५॥ अनगन् विनयगल वेदरुळ मेनु मळविर् । कनग नवमरिण मय मोर कमल नरमल रो॥ शने यगल मुडंय वद निवळ ग डोरु मरवार । मन मगिळ नउन विल वानव रमत्तार् ॥१०२६॥ अर्थ-कर्म मल से रहित उन विमलनाथ भगवान के भव्य जीवों के कर्मों का नाश करने के लिये समवसरण सहित विहार करते समय देवेंद्र ने अपने द्वारा भगवान के चरणकमल के नीचे कमल निर्माण करके कमल की कणिका के ऊपर जैसे देव स्त्री नृत्य करती हैं ऐसा निर्माण किया। बास मलर नांगि नवन मेवि इरै बानो। रोजन इरंडगंड मंडब मुंड मै ता॥ रोशनेबरुळ मेन वेळिन् मरिण पुन मुत्ति । नोजने कन् मूडगंड बोदियुड नमत्तार् ॥१०२७॥ अर्थ-तीन लोक के नाथ विमलनाथ तीर्थकर उस कमल पर चार अंगुल अधर विहार करने वाले ऐसा समझकर उस मुख्य मंडप का निर्माण किया और उसके लिये तोन योजन चौडी गली का निर्माण किया ॥१०२४॥ मारुदियुं वास मय मागि मंदस वीसि । पारिन् मलि नडगळ परिविड मुयंडार ॥ कारिन् मिस वंदु वरुणन कमल मादि। बेरि मल कमळ नर नीतुंबले बिट्टान ॥१०२८॥ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwraneuinuterature...... १०६ ] मेरु मंदर पुराण अर्थ-तदनन्तर वायुकुमार देवों ने वहां को धूलि को साफ किया। वरुणकुमार देवों से सुगंधित पानी की वर्षा की ।।१०२८।। इंदिरनु मेन्मै युल कांति यरु मिरवन् । वंदेळंद रुळं पोळु देंडे विर् वनंग ॥ इंदिरतं कोणु मेछंदा निरु निलत्तु । नंदरंग डोरं द वरिवर् कियल विदाने ॥१०२६।। पर्थ-उस समय सौधर्म इन्द्र तथा पाठ प्रकार के लोकांतिक देवों ने भगवान के सन्मुख पाकर नमस्कार किया। यह सभी ग्रहंत भगवान का अतिशय समझना चाहिये । ॥१०२९॥ इडि मुरसन् तिमिले कंडे काळमेळिर शंकम् । तुडि मुळव मोंदै तुन वंदन्नु मै शेगंडे ॥ कडन मुगिलि नोलि करंदु दिशिगळ विम्म वोलित्त । तड मलरिन विश इरै वन दानोदुंगुम पोळ्दे ॥१०३०॥ प्रयं-वहां देवों द्वारा मेघ को गर्जना के समान अनेक प्रकार की जय, घंटा आदि दुभि होने लगी। अर्थात् भगवान महंत देव के विहार करते समय समुद्र में तूफान के समान ध्वनि होती है उसी प्रकार सभी तरह के वाद्य बजने लगे ॥१०३०।। इन्नरंबिन याळ कुळलगळ वीरण मुदलेंदि । किन्नरियर् किळे नरबि नोदि नर्गळ् गोतं । पोनवरु मरिण यमिदं मींड, मलरेंदि । पन्नरिय वगई मिल मउंदै यदि पनिंदाळ् ।।१०३१॥ अर्थ-किन्नर देव आदि वीणावाद, तंतुवाद, बांसुरी आदि सहित संगीत के रूप में भगवान की स्तुति करके भक्ति पूर्वक उस भूमि को सुवर्ण और रत्नों से सुशोभित करते थे। इस प्रकार स्तुति करके सम्पूर्ण प्राणी का हित करने योग्य जल प्रादि तथा पुष्पों से वृष्टि करते थे . तथा भगवान के चरणों में नम्रीभूत होकर नमस्कार करते थे ।। १०३१॥ सुंदरियर् वंदरियर् तुरकत्तिळं पिडिय । रंदर इनंदरत्तिन वारिण नडं पायडार् ॥ मंदर नन्मलर मळेगळ् वंडिनंगळ शूळ । विदिर कोनेछंदरुळं वीदि वेंगुम पोळिदार् ॥१०३२॥ पर्थ-ज्योतिष तथा व्यंतर देवों की स्त्रियां, कल्प लोक में नृत्य करने वाली स्त्रियां भगवान के सामने के मंडप में पृथ्वी से अधर खडे होकर नृत्य करती थी। भगवान महंत देव Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४०७ जिन २ गलियों में होकर विहार करते थे वहां २ कल्पवासी देव कल्प वृक्षों को लाकर जैसे मेघ जल की वृष्टि करता है उसी प्रकार वे देव वृष्टि करते थे ॥१०३२।। वाम नर् कन् मनिन् मरिदेळंदु नडं पुरिदार । कामं बिल वग वरसर् करणन् सुळन् ळंबार ।। केमकर नामगळो रायिरत्तोरिलैं । तामंगलं पाड वर्गळा विदिर पडिदार् ॥१०३३॥ अर्थ-सुन्दर रूप को धारण किये हुए देवलोक आकाश में उडकर ऊपर प्रधर नृत्य किया करते थे। भवनवासी देव भी अत्यन्त सुन्दर नृत्य करते थे। कल्पवासी देव सम्पूरणं जगत में रहने वाले जीवों की शांति प्रदान करने वाल भगवान की एक हजार पाठ नामों से स्तुति करते थे ॥१०३३॥ शंकमल मुंड्रिरंड. पंकय मलरं दन् । वंकमलत्तरियन ट्रिरुडियिनै वैत्तळ विर् ॥ ट्रिगंळन कुडे मुम्मयुं मंडलम शेरिद । पोंगिय वेन्शामर गळ पूमळे पुळिदार् ॥१०३४॥ प्रर्थ-एक लाल कमल के ऊपर मानों दो कमल उत्पन्न हुए हों। ऐसे प्रतीत होने के माफिक देवों के द्वारा निर्माण किया हुआ कमल, पुष्पों पर प्रतीद्रिय ज्ञान स्वरूप ऐसे विमल. नाथ तीर्थकर अपने चरण रखते ही चंद्रमा के समान धवल वर्ण को प्राप्त हुमा तीन छत्र व प्रभामंडल सहित इन्द्रों के द्वारा चंवर ढोरते हुए भगवान के ऊपर पुष्प वृष्टि करते थे ।१०३४। मादवर् गन् मलरडि पनि, पिने दार् । शोदमनो डेन्मे युलगांतर तो देति ॥ नाद नेविर् वैत्य मुगरागि मुन्नडदार् । घाति केड वंदतिरु वोडु शाशि शेंड्रार् ॥१०३५॥ अर्थ-उस समवसरण में तपश्चरण करने वाले दिव्य मुनिगण भगवान के चरणो में नमस्कार करके भगवान के पीछे २ गमन करने लगे। सौधर्म इन्द्र के साथ माठ प्रकार के लोकांतिक देव भगवान को नमस्कार करके उनका मुख भगवान की तरफ करके पीछे २ चलते थे। उनको पीठ नहीं दिखाते थे। घाती कर्मों का नाश किये केवली भगवान के पीछे साथ शची प्रादि देवियां विहार करती थी ।।१.३५। पूर कलशं मुदलेन् मंगलेंगळेवि । बेरि मलर् मडंदै योडु मेविन रिळंबार ॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -~~~ -n-amnamrumernment ४०८ ] मेरु मंदर पुराण कारिन् मोरिण कनगं पुळि या कमलं संगिन् । पेरुडय निधिक्करसर् पिन्ने मुन्ने दार् ॥१०३६॥ अर्थ-कई देवांगनाए कुभ कलश, अष्ट मंगल आदि २ लेकर भगवान के समव. सरण में पाई । मेघ वर्षा के समान पद्मनिधि, शंखनिधि के अधिपति देव पुष्प वृष्टि करते हुए भगवान के साथ २ चलने लगे । १०३६।। पन्नगर्गळ पन्मरिणगडिविगंगळाग । मुन्न मिरै पाद परिणदेगिनर् कन् मुरयाल ।। वम्णि मुडि वानगळ शेनि मिशे वेत्त। पन्नरिय धूप कड पनिदेळुबार ॥१०३७॥ अर्थ-भवनवासी देव अपने २ हाथों में रत्नों को दीप लेकर भगवान के पीछे २ चलने लगे। अग्नि कुमार देव अपने मस्तक पर अति सुगन्ध धूपघट को धारण करके भगवान के सम्मुख चलते थे । १.३७।। इरविशाशो येनरिय तोक्कनय विरवन् । दिर बुरुवि नोळि यळगु कंडु शिरदेत्ति ।। परुदि मदि पान्मयुडे मांदर मुरव मेन्नु । मरविंदमुंम् कुमुदंगळं मरल वुड नेदार ॥१०३८॥ अर्थ-एक करोड सूर्य एक करोड चंद्रमा का जितना प्रकाश होता है , उससे भी अधिक भगवान के परमौदारिक शरीर को देखकर भव्य जीव का मुख कमल प्रफुल्लित देखकर भगवान को नमस्कार करते थे ॥१०३८।। कुईनोडु कोडि परुदि मिनिन् मिश कुलव । बडि उख्य वैजयंत वान् कोडि मुन्नेग ॥ वडियि नोलि यविय वेळि नांदि मुन्न येव । पडरुविन येरियु मरुळाळियु मुण्नेग ॥१०३६॥ अर्थ-छत्रत्रय तथा ध्वजा, सूर्य की किरण के समान चमकने वाले ऐसे भगवान के प्रागे २ बढ़ते जा रहे थे। और मेघों की गर्जना को जीतने वाले महान गंभीर मंगल स्तोत्र को अपने मुख से गाते हुए देव लोग भगवान के प्रागे २ चलते थे। प्रात्मा में उत्पन्न हुए कर्म मल को नाश करने वाला धर्म-चक्र भगवान के प्रागे २ चलता था ॥१०३६।। देसु दिशै शिरंद दिशे युडय मडवार्गळ । वास मलर मळे पोळिदु मलरडि पनिंदार् ॥ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण काशिनि नीदि मुदलानवं करंद । वीस नेळि वास मल रेरिय कनत्ते ।। १०४० ।। अर्थ - तीन लोक के अधिपति जिनेंद्र भगवान के देवों द्वारा निर्माण किये, कमल के ऊपर से जाते समय दिक्कुमारिकाएं भगवान पर वृष्टि होती देखकर अत्यन्त प्रानन्द मनाती थी। भगवान जहां २ विहार करते थे उन २ क्षेत्रों में प्रतिवृष्टि अनावृष्टि नहीं होती थी । ।। १८४० ।। मूगर मोळिदार बिडइन् मुडवर्क नडंदार् । शोग मुकिंदा नेवरुं शेविडर मोळि केटार् ॥ कौव मुळिंदोर कुबिदर, कुरुडर विळिपेट्रा । वेग मुळिदा रियन बीर नेळं वोळुदे ।। १०४१|| अर्थ - विभाव पर्याय के उत्पन्न करने वाले मोहादि कर्म को जीतकर अनंतवीर्य श्रादि से युक्त स्वस्थान को प्राप्त हुए श्रहंत भगवान द्वारा विहार करते समय गूंगे लोग बोलने लगे, बहरे सुनने लगे, लंगडे चलने लगे, दुखी जीव सुखी होते थे, क्रोधी लोग कषाय का त्याग करते थे। अंधे लोग देखने लगते थे ।। १०४१ ।। | ४०६ पिरवि रु प युडेय पनिनकुल मोदला । बुरवि इर वाद उर वायव निलत्तु ॥ किरेव निर कादलोड मंगगं दिर् कोंडार् । मरमलि विलाळि युडं मनवनं वंदे || १०४२ ॥ अर्थ - जन्म से ही परस्पर बैर रखने वाले नेवला, सर्प, चूहा, बिल्ली आदि २ जीव भगवान के विहार करने के क्षेत्रों में मित्रता के साथ परस्पर खेलते थे और सभी जीव धर्मचक्र प्राप्त हुए भगवान को नमस्कार करते थे ।। १०४२ ॥ ॥ afoetगडोर विमलन् कमल मेर् कोन् । fsaat येळंदरुळि बंदविवं कंडान् ॥ soar मिनू मंद रे यनंदु सिलर् शोनार् । मौ वन् मलर् तुयवरुं मलरडि परिणदां ।। १०४३ ॥ अर्थ - पाप कर्म को नाश किये हुये विमलनाथ तीर्थकर को देवों द्वारा निर्माण किये ये लाल कमल पर विराजमान हुए जाते देखकर कई राजकुमार महाराज लोग भगवान के समवसरण के आने के समाचार सुनकर राजसिंहासन से उतरकर उनने भगवान को नमस्कार किया ।। १०४३। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४१० । मेह मंदर पुराण येळाड येळंदु वंदागिरे बने इरंजि येति । पाळि यान वेदर पल कल मवर्कु नगि ॥ येळु यरुलगं तन्नु निरळ केड वेळुव कोविन् । शूळोलि यनय पादं तोळ दु नामेळ ग वेंड्रार् ।।१०४४॥ मुरंडन शंक मेंगुस मुळंगिन मुरस निड.। तुरंग ममेरियान मेन् मन्नर तोडयलेंदि। निरंदनर नेळिव बंड निलमगन् मुदुगु नोडु। करंदन कडिय वाय कडुविन कुळांग ळगे ॥१०४५॥ अर्थ-तदनन्तर राजा ने समवसरण पाने का समाचार सुनकर उस समाचार देने वाले बनपाल को अनेक वस्त्र प्राभरण वगैरह दे दिये। तदनन्तर भगवान के समवसरण की पूजा के लिये दुंदुभि भेरी प्रादि बजवाई। इस भेरी को सुनकर प्रजाजन स्नान आदि से निवृत होकर शृंगार प्रादि करके अपने २ हाथों में प्रष्ट प्रकार के द्रव्य ले राज दरबार में एकत्रित हो गये ।।१०४४।१०४५|| शंदन कोळंबि नारंव. चंदिर कातं शेप्पुं । कुकुम कुळंबु विम्मु मिरविइन कुळवि चेप्पु ॥ मिदिर नील चेप्पु मगिर पुगे पुगंत्त वैदि । मैंव र शूळंदु निड्रार मयोर कुळाम् पोल वंदे ॥१०४६॥ प्रर्थ-उस समय सभी राजा, महाराजा, पुरुष स्त्रियां सारे प्रजाजन अनेक प्रकार बाजे बाद्य लेकर जिस प्रकार प्राकाश में मेघ गर्जना करता है, उसी प्रकार वाद्यों की प्रावाज महित भगवान के समवसरण की मोर धीरे २ गमन किया ॥१०४६।। विशंबुर विरितु नाम विरमलर माल पैदु । पशु पोर्नु मरिणयुं मिन्नुं पडलिगे पलवु मेंदि । येशुंबरा कडात वेळ तरसिळं कुममर् वंदार । विशुविन मेल विनयुर् पाद मरुक्कर ता मिरुषरोत्तार ।१०४४। अर्थ-उस समय सभी जनता एवं स्त्रियां प्रादि अपने २ सुगंध द्रव्य, पूजा पात्र मे लेकर उन राजा महाराजानों के साथ जा रही थी। जाते समय वह शोभा ऐसी प्रतीत होती थी मानों आकाश से इन्द्र ही उतर कर प्रांया हो। ऐसे पाते हुए वे दोनों मेरु मौर मंदर गोमते थे॥१० ॥ । बारहवां अध्याय समाप्त । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तेरहवां अधिकार ॥ • समवसरण का वर्णन : योजनै पन्नि रंडि नुबंर कोन् ;वर काना। पेशोन् वगई निड पेरुमिद मलिंद दिया । मोशन इरंजि नार्ग कैदिना रिरवन् कोइल। बोसु वेन् चामरोदि परिचंद मुळंदु विट्टार ।।१०४८।। अर्थ-बारह योजन लम्बे समवसरण भूमि में भगवान के पास जाने के लिये चार वीथियां (मार्ग) हैं । एक २ वीथो में एक २ मानस्तंभ है । इस प्रकार चार मान स्तम्भों को दूर से देखते ही मानियों के मान गल जाते हैं। इस प्रकार मानस्तंभ को देखते ही मेरु मौर मंदर दोनों राजकुमार अपने २ वाहनों से उतरकर समवसरण के समीप मा गये ||१०४८।। यानई निळिंदु मानांगरणत्तिरु काद बीदि । मान पीडत्तै माधि नळ बुळ मदिले यदि ।। कानुर कमल पोदिर् केतोळु दिरंजि वाति । यूनंतिर् तूयत्तानाम् कनं पुक्कार कोश पोये ।।१०४६।। अर्थ-क्रम से उन दोनों राजकुमारों ने धूलि नाम की शाला को छोडकर वहाँ रहने वाली प्रासाद नाम की चैत्यभूमि में प्रवेश किया प्रौर उत्तर वीथी में रहने वाली मनुष्य के हृदय प्रमाण वलि पीठ के पास पहुँचकर उस बलिपीठ पर पुष्प चढाकर नमस्कार किया और मागे चलकर प्रासाद नाम की चैत्य भूमि के मध्य भाग में प्रवेश किया ॥१०४६।। प्रांगद नगत्तु वोदि नडुव नार्काद मोंगि । पांगिन मा दिर्श इर पन्निरोचन कारण नि:। वांगु कांतम् पोल मानं वांगु नन्मानत्तबम् । पांगिनार ट्रोरनं वेदि मंगलं पलवू सूळंद ॥१०५०।। प्रर्थ-उस समवशरण की चारों दिशाओं की चार वीथियों में चार मानम्तंभ बारह योजन दूर से मनुष्य को दीखते हैं। और वह मानस्तंभ जैसे लोह चुम्बक दूर पड़ी हुई नई को खींच लेता है उसी प्रकार उसको देखते ही मनुष्य की भावना उसी मोर लग जाती है और भावना खिंचते ही मन गलित हो जाता है। उ के चारों मोर वेदियो तथा तोरण है । पौर चारों तरफ प्रष्ट मंगल द्रव्य हैं ॥१०५०॥ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ ] मेरु मंदर पुराण वईर नपडिगं वैडूर्य मडि नडुव नुच्चि । युयरत्तिन भाग मोक्कं पडिग मेर् कोळ वोकम् ॥ वेइल विड़ तामर कोळ मेलाइरम नडुवि रट्टि। तुयरिन केडुक्कुं सित्त पडिमै नाट्रि शयु मामे ॥१०५१॥ अर्थ-उस मानस्तंभ का उत्सेध चार कोस का है । वह वैडूर्य मणियों से निर्मित है। उस मानस्तंभ को दो कोस तक के विस्तार में बीच में स्फटिक मरिण तथा रत्नों से निर्मित किया है। उस मानस्तंभ के ऊपर मेघाडम्बर (गुमटो) नीचे से एक कोस चौडा, बीच में दो कोस और कार एक कोस निर्मित किया गया है । उन स्तंभों पर नीचे चारों ओर सिद्ध परमेष्ठो के जिनबिंब विराजमान हैं । बारह योजन दूर से उनके दर्शन होते हैं ।।१०५१।। नानुग भूत दुच्चि पालिग कमलप्पोदिन् । मेल वैत शंबोर् कुबत्तुच्चि मेर् पलगे तन्निर् ॥ पानिर पगडु पालं पदुमै मेर पुळिय देवि । मेन मुडि पदुम राग मिरुबदोचन विळक्कुं॥१०५२।। अर्थ-उम मानस्तंभ के ऊपर चतुर्मुखी यक्ष यक्षिणी की मूर्ति का निर्माण कर कलश रखा गया है। कलश पर फलक रखा गया है । फलक पर लक्ष्मी देवी की मूर्ति विराजमान की गई है । उस लक्ष्मी देवी के सिर पर दोनों प्राजू बाजू श्वेत हाथियों द्वारा अभिषेक करने का दृश्य दिखलाया है । इस लक्ष्मी देवी के किरोट लगे हुए का प्रकाश बीस योजन दूरी तक फैला हुअा है ।।१०५२॥ मणिमय माय शुक्कं नांड मंगलगंळेदि । येनिपेर नि नान्गा मंद-मानत्तंबत्तै । इनैला वलंकोंडेति इजि पोय कोस नील । मरिण निल तगळि मावि नळ बुळ मदिल कंडार् ॥१०५३॥ अर्थ-उस रत्नमयी लक्ष्मी देवी के नीचे जो फलक है उसके कौने में पाठ मंगल द्रव्य हैं , जो उसके नीचे चारों ओर लटकते हुए हैं। इस प्रकार चारों ओर के मानस्तंभों की प्रदक्षिणा देकर दोनों राजकुमार आगे बढे और उसके बाहर रहने वाली एक कोस चैत्य भूमि को तथा वहां को वेदियों को उलांघ कर दूसरी खातिका भूमि में प्रवेश किया ॥१०५३।। पाळमु निरंतु मुंडे यागिलु मल येबानि । लूळि पेरंदालुं पेरा विदन नानोळिप्प नेडिन् । काळि वंदिरे वन् पाद मॉदु पूम पटें पोतं । शूळन् तान् किडंद दोत्तु तोंड, मिप्परिग येंड्रान् ॥१०५४।। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४१३ HTTTTTI अर्थ-वह खातिका (खाई) परिपूर्ण पानी से भरी हुई है । उसको देखते ही ऐसा विदित होता है जैसे कोई दूसरा समुद्र ही हो। संसार रूपी तरंगों ने हमको नहीं छोडा तो भगवान को देखते ही मेरे मन की तरंगे हमें क्या छोड देगी? ऐसी भावना इन्होंने की । वह खातिका ऐसी दीखती थी कि उस पर फूलों से प्रावरण कर दिया हो । मानो यह भगवान मुझे छोड देंगे । ऐसी कल्पना उन दोनों राजकुमारों को उत्पन्न हुई ।।१०५४॥ परिणत्तेळित्तनय वारि वासवान् सुवय तारंवङ् । कनगु वा काळंदु तोंड्रि यडेंदवर् तान् मट्टागि ॥ पनि उयर विलादु पोदिर पइंड.वोन् शवीदि । मरिणयोळि परंदु वान विर्कळाय् मयंगु निड़े ॥१०५५।। अर्थ-उस खाई में जैसे नीलरत्न का चूर्ण करके किसी ने डाला हो ऐसी शोभायमान होती थी। उस खातिका के पानी में यदि उतरकर देखा जाय तो उसमें घुटने तक का हो पानी था और वह भूमि के समान दीखता था। इस रत्न के प्रकाश से वह स्वर्ण से निर्मित वीथी ऐसी दीखती थी जैसे प्राकाश में पांच वर्ण वाला इन्द्रधनुष ही हो। उसी प्रकार देखने से मनुष्य को भ्रांति उत्पन्न करती थी ।।१०५।। कादत्ति नरय गंड रवातिगे कमलमादि । पो कोय तंगै यदि पोन् सैदों रणं कडंदु ॥ मेदक्क मरिणइ नाय पादत्त वीदिनिड्र। बादि गोपु रत्ति नादि निलयळ वागि पोन् ॥१०५६॥ अर्थ-वे दोनों कुमार उस खातिका में से पुष्पों को लेकर उस दो कोस वाली ग्वातिका को उलांघकर साढे तीन कोस विस्तार वाली वीथी में रहने वाले उदयतर नाम के गोपुर में जो नीचे के भाग में स्वर्ण और रत्नों से निर्माण किया था-प्रवेश किया ॥१०५६।। पालिगै मुदल वाय परिचंद मुडय व । मालयुं शांदु मोंदि वनंगिनरागि पोगि ॥ शीलं पोर शंपो निजिशिलंगळीरोंब दोंगि । माले पोर शूळ कादमगल वल्लिवनत्तै शेरं वार् ॥१०५७॥ अर्थ-उस गोपुर में निर्माण की हुई वेदियों का अठारह धनुष का उत्सेध था। उस को छोडकर आगे चलकर एक कोस से युक्त लता भूमि में प्रवेश किया ॥१०५७।। वल्लि मंडपंगळ पंदर् वैर वालुगत्तलंगळ् । विलुमीळ दिलंगुस भूमि विळद पूवनइन् वोय ॥ . Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ ] मेरु मंदर पुराण पुल्लं वंडोश भूमि देव ने पाडल पोलु । मेल्ले ई लिडंग लिव्वा रियंबुदर करिय दोंडे ॥१०५८॥ अर्थ-उस तीसरी लता भूमि में लता मंडप अत्यन्त सुन्दर ब शोभायमान दिखाई पडते थे। लता मंडप के नीचे वज्र को चूर्ण करके जैसे एक ढेर लगा दिया हो ऐसा प्रतीत होता था। उस लता मंडप पर लगे हुए पुष्पों की सुगंध का रस खींचने वाले भ्रमर झंकार शब्दों से इस प्रकार के अत्यन्त मधुर शब्द करते थे मानो वे भगवान के गुणगान ही कर रहे हों। ऐसे उन शब्दों की मधुर ध्वनि कानों में सुनाई पडती थी ॥१०५८।। मल्लिगै मुल्ले मौवन मालदि माद विनर् । पल्लिदळ पत्ति पित्ति शवग कुरिचि वेच्चि । सोल्लिय पिरतुं शेवि शूटेन सेरिय पूत । वल्लि नन् मलक यदि वंदु गोपुर मडैदार् ॥१६५६॥ अर्थ-उस लता भूमि में रहने वाले जाई जूही चंपा केवडा केतकी चमेली आदि के सुगन्धित पुष्पों को हाथ में लेकर वे दोनों कुमार उदयतर गोपुर में पहुँच गये ।।१०५६।। काद मूंभिरंडुयरंदु काद नीनडगंड वायदल । कादमाय शिरप्पु मुम्मै पडिमै मुन्निलय दागि। ज्योति युट कुळितु वायदल जोदिड देवर् काप । पोदरं पदागै शूळंद दुदय गोपुर मदामे ॥१०६०॥ अर्थ-वह उदयतर गोपुर तीन कोस उत्सेध वाला तथा चौडाई में दो कोस का था। उसके अन्दर जाने वाले द्वार की चौडाई एक कोस प्रमाण थी। उस द्वार पर अष्ट मंगल द्रव्य लटक रहे थे। उस द्वार के रक्षक ज्योतिष देव थे । और चारों ओर अत्यन्त शोभायमान ध्वजाएं फहरा रही थी ।।१०६०।। विल्लङ यूरगन् ड्र, यंदु वेळ्ळिया लियंड्र, शेन्नि। सोल्लिय वगै नाले सुरुंगि पोर् सूटदागि।। वल्लि मुनिले येट्टाले कोडि इडे मदिलि नि । सोलिय गोपुरत्त तोल्लुदु पूचिदरि पुक्कार् ॥१०६१॥ अर्थ-उस गोपुर का विस्तार पांच सौ धनुष का था। इसके संबंध में विस्तार से आगे वर्णन किया जावेगा । इस गोपुर की ऊंचाई तीन खरण की है। जिस पर अनेक रंग की ध्वजाए हैं। उन दोनों राजकुमारों में उदयतर नाम के गोपुर में पहुँचकर फूल चढाये और पुष्पांजलि करके उस बन भूमि में प्रवेश किया ।।१०६१।। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४१५ पल निर पायड भूमि परमरण दरिद् पोल । उलगला मडंगु मेनु मुळिळरु कादमागि ॥ निलविय मदिलिन् भूल निड़ कट्रियेंग नांगिर । पल वन मागि पैवोन् मदिलिने शूळं द दुंडे ॥१०६२।। अर्थ-उस सुन्दर वनभूमि का विस्तार जिस प्रकार अहंत केवली भगवान का विस्तार है, उसी प्रकार का था। कितने ही लोग उसमें समा जाय किंतु पता नहीं पडता था। ऐसी वह वनभूमि सभी जीवों को आकर्षित करने वाली थी। उस वन भूमि के चारों पोर उदयतर नाम को वेदिका है। उस वेदी के चारों तरफ प्रीतिधर नाम की दूसरी वेदिका है। और वनभूमि के बीच में और कोनों में अर्थात् एक २ कोने में चार-चार स्तूप हैं । उस भूमि में अनेक प्रकार के वृक्ष हैं ॥१०६२।। कुट्टिय तिरुमलंगुम गोपुर तुयर मागि । येटुळ तूवै निड विजिक्कु ळेट्टे यापे। घट्ट वेनकडय सेदि मरंग ट्टि वटै शारं द । वेटुळ वपनुक्कादि पादव मिवदि निप्पाल ॥१०६३॥ अर्थ-उस वनभूमि के कौनों के.स्तूपों के दोनों बाजू में जितनी ऊंचाई में वे गोपुर हैं । उतना ही विस्तार उसके चबूतरे का है। एक २ चबूतरे के साथ दो-दो स्तूप हैं । इस प्रकार चारों चबूतरों के मिलाकर पाठं स्तूप हो जाते हैं। और एक २ कोने में छत्रत्रय सहित दो-दो चैत्य वृक्ष हैं। सभी मिलाकर पाठ चैत्य वृक्ष हैं। उन चैत्य वृक्षों की बाजू में एक २ कल्प वृक्ष है । इस प्रकार दोनों मिलकर पाठ कल्प वृक्ष हैं ।।१०६३।। वीदिये सारंयु मुक्कोन वट्ट नार शेदुर मागि । नीदिया निड वावि येट्ट, मुंडि वढें यदि योदिय वगर्र नोडि कुळिलु वाय पशि योंडिर् । पोदु कोंडोंड्रि मन्नोर् पनिवर् पोयतूबै येपद ॥१०६४॥ अर्थ-उस वन भूमि में महावीथी के कोने में जाते समय एक २ कोने में एक २ बावडी है। उसके प्रागे वृत्ताकार से युक्त एक और बावडी है। इस प्रकार एक २ कोने से संबंधित तीन बावडी हैं। कुल मिलाकर चौबीस तडाग (बावडियां) हैं। इन दोनों मेरु और मंदर राजकुमारों ने पहले कौने के तीसरे नम्बर के तडाग में जाकर स्नान किया और स्नान करके मागे वृत्ताकार नाम के तडाग में दांतुन आदि क्रियामों से निवृत्त होकर चतुष्कोण में रहने वाली पुष्प वाटिका में प्रा गये । और वहां से पुष्प लेकर स्तूप के पास गये ॥१०६४॥ तिरकर कोसमोंगि शिनंग केंडिशेयु मोडि । परुदि योर् कोशमागि पकर्य गत्त सोल । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ ] मेद मंदर पुराण feofs युबरं व सोग मेकिळंबाळं शेंबगं । तिरुवळि मांडु कोळद्दिशं मामरंगळ् ॥ १०६५॥ अर्थ – उस स्तूप का उत्सेष प्राधा कोस है । तथा उसका मध्य भाग उतना ही विस्तार वाला है । उसके पूर्व दिशा में प्रशोक वृक्ष तथा दक्षिण दिशा में चम्पक वृक्ष हैं। पच्छिम दिशा में नाग केसर का वृक्ष एवं उत्तर दिशा में प्राम्र वृक्ष हैं। इस प्रकार महान ॐ चे २ कल्प वृक्ष वहां सुशोभित होते है ।। १०६५ ।। प्राडगत्तियन् रिरंडु गोपुरत्तकवं सेंड्र । नाडग शाळे मूंडू निळेना लेट्ट पांहि || 2 • यूड शेड्रांडु नल्ला ज्योतिडर् देविमार्गळ् । वीडिल पलवु निड्र बोदिई निरुमरंगुम ।। १०६६ ।। अर्थ – स्वर्णमयी उस वन भूमि की महावीथी के दोनों बगल के उदयतर नाम के गोपुर में प्रीतिकर नाम के गोपुर तक एक से एक बढकर तीन खरण तक हैं। एक २ मंजिल में जाने के लिये आठ २ पंक्ति है। उन पंक्तियों में ज्योतिषवासी देवाङ्गनाओं द्वारा नृत्य करने की नाट्य शालाएं हैं ॥१०६६॥ बोनुं मनिई नात्युं कुविड्रं वे पाद वादि । सैपोन् मंगलंगळ वेदि तोरणं सरिदयावु । मुंबर् तं मुलगं भोग भूमियु मड्रिनार् पोळ् । वं पोनि मुळइ नारु मैदेरु माळद वेंगुस ।। १०६७॥ प्रर्थ–सोने नौर रत्नों प्रार्दि से निर्मितें चैत्यवृक्ष, स्तूप, भ्रष्ट मंगल द्रव्य, वेदी के द्वार पर तोरण आदि अत्यन्त सुन्दर हैं । उस वनभूमि में देवाङ्गनाएं, देवपुरुष, देवकुम मनुष्य ये सभी वहां रहते हैं १०६७।। कुइलिश मुळर माग कविन मेर् द्र ं विपाड । मइळ् नडं पहलु मेगंस् वानवर् मड नल्लार ॥ पुर्याळयन् मिन्नुपोळ सोळं वाय् पोळिषु तड्रि । कयल विळि पिरळ कामं कनिय निड्रांडि नारे ॥१०६८ ॥ अर्थ – उस वनभूमि में रहने वाले पक्षियों के द्वारा होने वाले शब्द प्रत्यन्त सुस्वर प्रतीत होते हैं । भ्रमरों के गुंजार शब्दों की ध्वनि और देवकुमार द्वारा होने वाले संगीत आदि को सुनकर जिस प्रकार मयूर अत्यन्त प्रानंदित होकर अपने दोनों पंखों को फैलाता है, उसी प्रकार देवाङ्गनाएं नृत्य करती थी ।। १०६८ ।। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंबर पुराण कर्पगमा नल्लार्गळ कामन शेखिदे पोर। कर्पग मरत कामखिगळ् शेरिंग काम ।। विपई ळोबियं कंड वेदिगे अँड. मीळवार । तप्पुवट नडयिदाळ लोळयिना ळयर मेन्ना ॥१०६६॥ प्रर्थ-जिस प्रकार पतिव्रता स्त्रियां अपने पति से बार २ प्रालिंगन करती हैं , उसी प्रकार लताएं व कल्पवृक्ष परस्पर में लिपटे हुए थे। उस वनभूमि में रहने वाले मणियों के समूह के प्रकाश को देखकर वे मेरु और मंदर इसी प्रकाश को भगवान का मंदिर समझ कर जाते हैं, परन्तु भ्रम समझकर वापस लौटकर आ जाते हैं। ऐसी वह मरिण चमकती थी। उस भूमि के प्रभाव से चलने में श्रम प्रश्रम का कुछ भी पता नहीं चलता था। इसी से वह भूमि भ्रमायमान प्रतीत होती थी॥१०६९।। मधुकरं तुंबिवं वन शिर परब म । पोदिय विळ पोदिन मोदू पोर्तन पुगळ ला ॥ मदि योळि परंव भूमि विदि युळि किडंदवल्लि । पोलिय पोदिन मैदु पोर्ल कन् वांग ळा ॥१०७०॥ वनमिदु विषिई नदि वाविये शार्दु मैंद । रिण मळरवि सोन वेट्टदु मरत्ति नान्गु । शिनदोरं शेरिव शीय वन मिश देवकोमा । ननय पुरपरिमै तूबै यरुचित्तु पिरिवि सेरंवार ।।१०७०॥ अर्थ-जिस प्रकार चंद्रमा की किरणें चारों प्रोर फैल जाती हैं, उसी प्रकार वहां की विशाल वनभूमि में रहने वाले पुष्पों में निवास करने वाले भ्रमर प्रादि की ध्वनि चारों पोर गूंजती है । उसका वर्णन करना मेरी अल्प बुद्धि में अशक्य है । उस भूमि को देखने के पश्चात् पौर कोई दूसरी वस्तु देखने की इच्छा ही नहीं होती ॥१०७०॥ • इरुनिदि इरंच सेन्नि इमै यम् विश्वन पॉद । मरुविय देन सेवोन मयवास घेळ्ळि शूहि॥ युर मळि युदयत्तिकै मिरमडि यागु पिरिदि। सरमेनु निजि यदु निळय्य नट्टाळेतागुं॥१०७१॥ मर्थ-ऐसी वनभूमि में वे दोनों राजकुमार पहुंचे और वहां अत्यन्त सुगंधित पुष्पों को अपने हाथ से तोडे । वहां पाठ कल्प वृक्ष हैं। और पाठ ही चैत्य वृक्ष हैं। एक २ चैत्य वृक्ष में चार २ शाखाएं हैं । एक २ शाखा में एक २ जिन बिम्ब हैं। उस चैत्य वृक्ष के पास पहुँचकर मेरु और मंदर दोनों राजकुमारों ने भगवान की पूजा की। वहां से प्रागे चलकर बनभूमि में रहने वाले प्रीतंकर नाम की वेदी पर पहुंच गये। वहां शंखनिधि और पानिधि Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण ४१.८ ] ऐसी २ निधियां हैं। इन दोनों निधियों के अधिपति वहां के देव हैं। वहां रहने वाली उदयतर वेदी इतनी ऊंची है कि मानो हिमवन पर्वत ही यहां श्रा गया है, ऐसा प्रतीत होता था । उससे दुगुनी ऊंची पांच सौ धनुष वाली प्रीतंकर नाम की पांच वेदियां है ।।१०७१ ॥ कोडि मिडंगोपुरंग ळोंगिन नांगु गात । 9 मिडि मुरसि द्यव वानो रियटू मंजिर प्यो येयं ॥ पडि मेगळिद पंच निकगंळे पुडेय बोर् । कुडमुगं पदमम् तेमाग़ोंत्तन कोनंदाने ।। १०७२ ।। अर्थ -- उस प्रीतंकर वेदी के कौने में अधिक से अधिक प्रकाशमान ऊंची ध्वजाओं से युक्त चार गोपुर हैं । वे गोपुर चार कोस उत्सेध वाले हैं। जिस समय वहां देवलोग भगवान को पूजन करते हैं उस समय मेघ की गर्जना के समान अनेक प्रकार के वाद्यों की ध्वनि होती है | भगवान के अभिषेक के लिये बडे २ सोने के घड़ों को थहां स्थापित करते हैं और उन घडों पर सोने तथा पुष्पों की मालाएं व पल्लव आदि से उन घडों को सुशोभित करते हैं । ।।१०७२।। गोपुर तिरु मरुंगुम कुडवरं यनय तोळार । पागर प्रम पोळ पडरोळि भवनवेंदर् ॥ नागरु किरैवर् कोमानळं पुगक् द ळगंळारं ६ । वेदिरं पिडित्तु काकुं पुरत्तुकार कोडिइन वीदि ॥ १०७३॥ अर्थ-उन गोपुर के द्वारों पर अस्ताचल पर्वत के समान भुजाओं वाले सूर्य के प्रकाश से युक्त भवनवासी देवों के अधिपति चमर वैरचित नाम का भुवनेंद्र और देवेंद्र प्रादि के प्रधिपति जो देव हैं वे भगवान की स्तुति व गुणगान करते हुए अपने हाथों में दण्ड तथा घोटों मादि को धारण कर खड़े रहते हैं । उन गोपुर के अन्दर के भाग में जो ध्वजा भूमि है वह पांचवें प्रकार की महावीथी कहलाती है ।। १०७३ ।। ऐदुंबीर चरमगि पायिर तेंवदाय । पंदिइन् वरुक्क माय मंडलं पत्तिनु भाग || fnfra तिरट्ट येr दिक्किनु कामि बटुं । मंगल तनिन् मार वंदन पंदिन मीत || १०७४ !! अर्थ- पांच प्रकार नाम की महावीथी के कौने में अर्थात् एक २ कोने में चतुष्कोण के रूप में क्रम रूप से एक हजार अस्सी, एक हजार अस्सी इस प्रकार दो हजार अस्सी प्रौर अस्सी पंक्तियां हैं । इन सब को मिलाकर गिनती करने से ग्यारह लाख, साठ हजार चार सौ हो जाती हैं । यह संख्या एक २ कौने की है। चारों कौनों में रहने वालों की संख्या छियालीस लाख, पैंसठ हजार छह सौ मेखला होती है ॥ १०७४ ।। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४१६ मूंड, विट्ट शदुर मागि मुकुमरिण पीडत्तुच्चि । यूड़ि विल्लेरंडु सुद्रा युरंदिर कांद पयं बु । नीड्वे पोड़, कन्निनेकिन मरिण इरंद तंडि । नांड पल्लिगे इनुच्चि पळग मेळ् पदाग यामे ॥१०७५।। अर्थ-तीन धनुष प्रमाण से युक्त रहने वाले चतुष्कोण की पीठ के ऊपर दो धनुष चारों ओर दो कोस उत्सेध वाले हैं। इनसे वह पीठ देखने में अत्यन्त सुन्दर व शोभायमान मालूम होती है । और उस पीठ पर एक फलक है ।।१०७५॥ शिंग मालियाने माल शिरिवयन्नं गरुड नेरु । पंकय मगर माळि पविगळास पदाग पत्तुं ॥ पोंगिया काय मेन्तुं पुनरि वेडिरै गळ् पोलुं। मंगलक्किळ वन् कोइल् मदिल सूळं दाडु निड़े ॥१०७६॥ अर्थ-सिंह. हाथी. फलों का हार, मयर. हंस पक्षी, गरुड, वषभ, कमल पृष्प, मगरमच्छ व समुद्र मादि इस प्रकार के लक्षणों से युक्त पाठ प्रकार को ध्वजाए समुद्र से उठने वाली जलतरग के समान जिनेंद्र भगवान के समवसरण के प्रागे वेदी के चारों ओर ध्वजाएं फहराती हैं ॥१०७६।। मुडिमरिण मुत्त माल नानं . किंकिनि गळ मोइत्त । कोजि निरै कोडि नांगो उरुपत्ता रिलक्कं कोमा । नुड यन वै वत्तारा इरमुंडि लुलावुगिड़। परियितु काद मूंड्राय पयोदि पोर् सूळं ददामे ॥१०७७॥ अर्थ-उस ध्वजास्तंभ के शिखरों में मोती के हार नृत्य करने वाली नर्तकियों के पावों में पैजनी के समान छोटी २ घंटियों सहित फहराने वाली ध्वजारो की संख्या चार करोड छियासठ लाख पचपन हजार है। यह भूमि तीन कोस चौडी होकर समवसरण को घेरे हुए है ।।१०७७॥ पलभरिण पई पत्ति पित्ति न पडिगम पैवोन् । निलंगळे दागि निड़ नाटक शाल दोहें।। मुलयु मेगलेयु मुत्तमालयं कुलाव मिन् पोर् । पल नई पैलुं भादरं भवन तम् पवळ वायार ॥१०७८॥ अर्थ-वहां अनेक प्रकार के रत्नों से निर्माण को हुई बार प्रकार की वेदियां हैं। उस वीपी में रहने वाली नृत्य शालाए, मेखला भरण मोती प्रादि से युक्त भवन तथा देवांगनाएं नृत्य करती हैं ॥१०७८ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० ] मेरु मंदर पुराण पुढक्क माविट्ट मोळि याळानं पुनरं व वहिन् । तळच्चवि पोल वाई पदाग याम तरणी तन्नं ॥ मळं कैमा बेंदर वंदु मंगल मरदि नदि । कुळत्तेढु पोळिलं मूळ कल्याण गोपुरत्तै सारं दार् ॥१०७६।। अर्थ-जिस प्रकार हाथी को ठान में क्रम से बांध दिया और तब उस हाथी के कान जैसे हिलते रहते हैं उसी प्रकार ध्वजाएं वहां फहराती हैं। यह सम्पूर्ण ध्वजाएं ऐसी मालूम होती हैं, मानों सम्पूर्ण जनता को दान देने के लिये अपने हाथ फैलाये हुए हैं। इस प्रकार की ध्वजा भूमि को उलांघकर कल्याणतर नाम की वेदी में वे दोनों मेरु व मंदर पहुंच गये ॥१.७६।। मुवनडु विरुदि कोश मंडरै यरैय कंड्रिट् । डुदयत्तिन मुत्ति योंगि तमरिण येत्ति येंड, नाना ॥ विदभरिण येनिंदु सेन्नि विडेंद वेन कोडिय दागि । मविलिन तगत्तट्टाळे मलिदं वेळ निलत्तदामे ॥१०८०॥ अर्थ-उस कल्याणतर वेदी की चौडाई नीचे तीन कोस और बीच में डेढ कोस उसके ऊपरी भाग में तीसरा हिस्सा उत्सेध होकर उदयतर और कल्याणतर का पहला उत्सेध जितना प्रमाण है उतना ही परिमाण है। जिस प्रकार सिर में सुन्दर २ रत्न मोती तथा रत्न सोने से निर्मित पाउडर (स्त्रियों के सर पर माथे पर पीछे से अगले ललाट तक) धारण करती हैं । उसी प्रकार उस कल्याणतर नाम की वेदियों की सात प्रकार के भिन्न २ रूपों से सजावट की गई थी।॥१८॥ पत्तर काद मोंगि बोर गोपुरंग नांगु। मुत्तमत्तुरक्क मेळ योत्त वेळ निलत्तवागि ।। पत्तु नामस वा मेळ भवत्तोडर् पवन काट । वैत कनाडि वायबल मरुगिरंतु यदामे ॥१०८१॥ अर्थ-बह स्वर्णमयी कल्याणतर गोपुर सात मंजिल की ऊंचाई में है , और पांच कोस चौडाई में है । उस गोपुर द्वार पर एक महान बना काच लगा हुआ है, जिसमेंवहां जाने वाले को सात भव तक का ब्यौरा उस काच में दीखता है। अर्थात पूर्व भव व आगे के भवों का हाल प्रत्यक्ष मालूम होता है ।।१०८१॥ उरत नामत बाप पुरत्तगतुदयं पोल । पेरुत गोपुरंग नागु पेरविले मनिय माले । तरति नार, परत्तु ताळं दुशन शन वेन्न करें। परित्त मादिशबु बोदि परवि पोलुळित निड्रे॥१०५२।। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४२१ अर्थ-इस प्रकार चारों दिशामों में चार कल्याणतर गोपूर हैं। उन गोपूरों के अदर सूर्य के समान अत्यन्त प्रकाशमान जयघंटा है । जिसकी ध्वनि दूर २ तक चारों दिशाओं में सुनाई देती है ।।१०८२।। उरत्त गौपुरत्तु वायवल कापव रुलग पालर् । निरैत वळ निलत्तदाय नाटक शाल इनकट । तरत्तिना निरत्त मिनिटा नडं पुरियु मादर । विरित्तुना मुरत्त देवर् मेवुमा देवि मारे ॥१०८३॥ अर्थ-उस कल्याणतर गोपुर के दोनों ओर अगल-बगल में लोकपाल नाम के देव रक्षण करते हैं। उस गोपुर में रहने वाली वीथी की अगल-बगल में सात मंजिल से युक्त नाट्य शालाए बनी हुई हैं जिनमें लोकपाल देवों की स्त्रियां बिजली की चमक के समान प्रकाशमान होती हुई नृत्य करती हैं ।।१०८३।। वडि वुड पोडत्तिप्पाल मरिणत्तिरळ् मलरं द नांगु । विडवं कन् मिक्का दिक्क येळप्पन पोंड, शित्त ॥ पडिमंगळिरुद सिद्ध पादवं पबिड पोंदु । कुडइन् मदि निंदु वोदि नांगिनुं कुलावु मिप्पाल् ॥१०८४॥ अर्थ-उस कल्याणतर गोपुर में रहने वाली वृक्षभूमि में चार दिशाओं में एक २ बलिपीठ है । उसके अंदर सिद्धायतन नाम के वृक्ष हैं । उन वृक्षों में चार शाखाएं हैं। उन एक २ शाखा में एक २ सिद्धों की प्रतिमा है। उस वृक्ष के फूलों के भगवान के ऊपर तीन छत्र हैं। वे सुन्दर प्रतीत होते हैं। उन फूलों का सुगंध तथा प्रकाश चारों दिशाओं में फैल जाती है ॥१०८४॥ अन्जुडरु विळंतूब येरिवना लयत्त सूळव।। मजुर निमिरंदु माळ तलंगळ पग्निरडं वागि । पेजंन मलै यै सूळद दविमुरव मनैय नान्गास् । इंजि गोपुरगं नार् पालुङय वान तडगं नानगम् ॥१०८५॥ अर्थ-अनन्तज्ञान को प्राप्त हुए केवली भगवान के विराजमान होने का मंदिर है। जिसको घेरे हए कल्याणतर वेदी और गोपर में रहने वाले कल्पवक्षों की वीथी में प्रत्यन्त प्रकाशमान बारह मंजिल से युक्त स्तूप हैं । जो आकाश को स्पर्श किये हुए हों ऐसे प्रतीत होते हैं । जिस प्रकार नंदीश्वर द्वीप में चारों दिशामों में अनंतगिरि दधिमुख प्रादि चार पर्वत हैं, उसी प्रकार वहां भी चार स्तूप हैं और चारों दिशाओं में चार बावडियां हैं ॥१०८५३॥ नदै भप्रै शयंदै पूरनामत्त वादि । बंद मादिक्कि नागिल वारियै तेळित्त पोळ दिल् ॥ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ ] मेरु मंदर पुराण मुंद परप्पै योर्वा मुन् पिन्नेळ, भवत्तं कान्वार् । शिवं शैद वç पार्क तेळिक्क नोयायुं तीरुं ॥। १०८६ ॥ अर्थ - उस नंदीश्वर द्वीप की भूमि में रहने वाली बावडियों के नाम अर्थात् पूर्व दिशा में रहने वाली बावडी का नाम नंदा, दक्षिण दिशा की बावडो का नाम भद्रा, पच्छिम दिशा की बावडी का नाम जयंता और उत्तर दिशा में रहने वाली बावडी का नाम पूर्णा है । ॥१०८६॥ वास निड्रं राव शोले भदिळिन् दगत्तु मांड | प्रोचनं यगंडू देनु मुळगेळा महंगिनाळु || मासं पोग ळगंडू तोडू. मरुमरंग निळत्त दागि । मासिला मणिड्र नायमरंगळा शेरिददेंगुम् ।। १०८७॥ अर्थ -- पूर्व दिशा की बावडी के जल को मनुष्य गंधोदक के रूप में अपने मस्तक पर डालते हैं, जिससे उसके श्रागे के और पीछे के दो भवों का ज्ञान हो जाता है । दक्षिण दिशा की बावडी के जल को देखने से आगे और पीछे के भवों को जान लेते हैं। पश्चिम दिशा की बावडी के जल को देखने से अपने मन में जो इच्छा होती है वह पूर्ण हो जाती है । तथा उत्तर दिशा की पूर्णा नाम की बावडी के जल को देखकर मस्तक पर डाल लेने से सम्पूर्ण व्याधियों का नाश हो जाता है ।। १०८७ पळ निरं पइड्र फळंगकं शेरिदं शागं । निळेतळंदोशिय काना निरैय वन् शिरंग कोंडि ॥ मळू निरेंविरुदं मट्ट वांगिनार 'ट्रांगपारा | मिळयना मिळाद वर्कु विरुंदेऴुदुडं तेनं ।। १०८८ ।। अर्थ - उस कल्याणतर गोपुर में रहने वाले कल्पवृक्ष नाम की भूमि का चार कोस का विस्तार है । वह भूमि इतनी विशाल है कि तीन लोक के जीव श्राकर बैठ जाँय तो सब का समावेश हो जाता है । वह भूमि बैठने में कम नहीं पडती है। वहां रहने वाले कल्पवृक्षों की रत्नों से सजावट की गई है। वह वृक्ष अनेक प्रकार के फल पुष्प आदि से भरे हुए हैं । फल व पुष्पों से उन वृक्षों की शाखाएं झुकी हुई हैं । उन फलों की सुगंध के अधीन होकर भ्रमर तथा अन्य पक्षी मधुर रस का आस्वादन लेते हुए उन्हीं में रहते हैं । वे पक्षी उन फूलों के रसों को खींच रहे हैं इसलिये कि उस वृक्ष का बोझ कम हो जावे । जैसे २ उन शाखाओं में से वे पक्षी मधुर रस को खींचते हैं वैसे २ फूल व शाखाएं मुरझा सी जाती हैं। वे शाखाएं झुकी हुई हवा से इस प्रकार हिलतो हैं। मानों लोगों को बुलार कर दान दे रही हों । १०८८ ।। शिरप्पोडिगडेंट देवर् शेरि पोकि ळवनंचेदंर् । र कते मरप्परेड्रां सोब्रुथ विनि येन्नंड्रिप || Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -~~~-rrrrrrrrrr. मेरु मंदर पुराल [ ४२३ पिरप्परिदृदिरुंद वीरन पेरुमय सिरिदु काट । विरप्पवु मुयरं व देव राजना लियंड देड्रो॥१०८६॥ अर्थ-तदनन्तर वे मेरु व मंदर दोनों राजकुमार उस समवसरण में रहने वाले कल्पवृक्ष की भूमि से अष्ट द्रव्य सहित प्रांगण वाली उस भूमि में प्रवेश करते ही ऐसा मालूम होता था जैसे कि देवलोक में प्रवेश कर रहे हैं। ऐसा मानन्द प्रतीत होता था कि उसके समान अन्य कोई स्थान ही नहीं है । उस भूमि वर्णन करना अवर्णनीय है । इस प्रकार भगवान के अतिशय को दिखाने वाले देवों ने समवसरण की रचना की ।।१०८६॥ पळिक्कु नळमि देवावियुट् बत्तु । कुळिक्क वोदवर काना कोट्टि शिरिप्पर नोका ॥ पळिक्कर तळतै वेळकप्परप्पेंड, पातुं मोक्वा । रुकिप्पिकं वीवटें पित्ति बैंड, पो कद्र. निपार् ॥१०६०॥ अर्थ-वे दोनों कुमार उस रत्नजडित भूमि में रहने वाली बावडियों में अपने २ हाथ पांव धोने तथा स्नान करने उतरे इनको ऐसा करते देखकर वहां के रहने वाले लोग हंसने लगे। क्यों हंसने लगे ? वास्तव में बावडियों में पानी नहीं था बल्कि स्फटिक मरिण के समान वे जल पूर्ण बावडियां प्रकाशमान हो रही थीं । उसी को पानी समझकर वे नीचे उतरे थे। कितु केवल प्रकाश देखकर ही तथा पानी न होने के कारण वे मेरु और मंदर वहां से वापस लौटकर और कहने लगे कि काच सा है पानी नहीं है ।। ६०॥ कदिर मरिण माउन सम्मै कन्नुरुवार तर साये । यदिर् वरु बार योप विडंदिरंदे निर्षर् ।। मदुरमाम् तन सोदामे तमक्केदिर मादमाग । वेदिरेबिर् मोळिगिन गिहारोत्ति सुवरेंगु मेंगुम् ॥१०६१॥ अर्थ-स्फटिक मरिण से निर्माण किए उन मंदिरों की चमक से अपने ही प्रतिबिम्ब को उसमें देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि जैसे उसी के समान दूसरे मादमी का प्रतिबिम्ब हो ऐसा समझकर वे वहां से हट जाते थे। जब वे बोलते थे तो उनकी भावाज ऐसे नूंजती पी मानों भादमी बोल रहा हो ॥१०६१॥ घर पुरयु माळिगइनिरेगळवै योर पाम् । परुवियोळि तेरुव पळ मंडपग ळोपाल । मरुविना मरि बरिय माड निरं यह पाल । परुमरिणय तूनिरंय पाडळिडमुरुपाळ् ॥१०६२॥ -उस कल्पवृक्ष को भूमि में बडे २ पर्वतों के समान विशाल भवन ये। दूसरी Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪ ] मेद मंदर पुराण मोर सूर्य की किरणों को जीतने वाले अनेक मंडप थे। एक ओर बडे २ स्तंभों से निर्माण की हुई संगीत शालाएं थीं ।। १०६२।। नाटक मडदयरंगळाडुमिड मुटु पाल् । काडवर्गळ वूडि विळ्याडुमिड मोरुपाळ || कोडयर्स कंड्रम निड्र विड मोरुपा । लाडग नवंदिगं य कूड मिड पोर पाळ ॥१०६३॥ अर्थ - वहां नृत्य करने वालों की नृत्यशालाएं एक मोर हैं। पुरुषों के खेलने का स्थान क्रीडाशाला के रूप में एक तरफ है । निर्माण किये हुए कृत्रिम पर्वत एक ओर हैं। स्वर्ण से निर्माण किये हुए महल तथा दीवारें एक ओर थीं ।। १०६३॥ वान करुविन ट्रीनसुवंय वारिनंदि योरुपाळ । तेन सरिव पून तडंगळ् शिरं पई ड्र वोरुपाळ ॥ वायं द मरिणतळंगळ् वल्लिमंडपगं ळोरुपाळ । सूकंद सेवोन् वेदिगय वागुम् शिळ वोरुपाळ् ॥ १०६४॥ अर्थ - उस कल्पवृक्ष की भूमि में इक्षुरस के समान माठे पानी की नदी है । दूसरी मोर फूलों और कमलों की लता से युक्त बावडी है । लता मंडप एक तरफ है तथा स्वर्ण निर्मित कई स्थानों पर कोट बने हुए हैं ।। १०६४।। मंजमाळ पंजमळि युडयंविड मोरुपा । लुंजन मिशं येन सोळव राडुमिड मोरुपाळ् ॥ पंजियन याग़ळोडु मैंरिङ मुरुषा । लिजियद नगत्तिनै ईयंविड वोनादे ॥ १०६५।। अर्थ- सोने के लिये मखमल के गद्दे, पलंग आदि एक ओर हैं। स्त्रियों के बैठने की जगह एक ओर है । स्त्रियों का भूला तथा पुरुष स्त्रियों-दम्पतियों के बैठने का स्थान एक तरफ है । इस कल्पवृक्ष भूमि का वरणन करना मेरे लिए अशक्य हैं ।। १०६५ ।। मळे यनय निळे युडेय मादवर्ग कोरुपाळ् । विळेयमर वेरिदरुम विरोचनगं ळोरु पान् । मळ विन् मोळि निळं युनळ मौनधर रोरुपाळ । निले पनिइन वेयिन मकैई नींगळिळ रोस्पाळ ॥१०६६॥ अर्थ-पर्वत के समान तपस्वियों की तपस्या करने के स्थान एक तरफ हैं। संसार में होने वाले दुःख का नाश करने, सद्गुणी उपाध्यायों के स्थान वहाँ एक ओर हैं। और व्रत Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * - -- मेरु मंदर पुराण [ ४२५ के धारण किए मुनि लोग एक तरफ बैठते है और सर्दी, गर्मी, बरसात में हमेशा समान रूप में रहने वाले मुनियों के स्थान एक ओर ही हैं ।।१०९६॥ उक्कतवर् तत्ततवर् रोरुपाळ । मिक्कतवर् धोरतवर् मेमिड मोरुपान् ।। तोक्कनळ काय मन वशिवलिगमेरुपाल । पक्कमुद नोन् बुडेय परम तव रोरुपाल् ॥१.१७॥ अर्थ-उग्र तप को प्राप्त हुए तपस्वियों के स्थान एक ओर हैं । दीप्त तप को प्राप्त हए तपस्वियों तथा प्रायिका मातापों के स्थान अलग २ हैं। महातप व घोर तप को करने वाले मुनियों के स्थान एक तरफ हैं। मनोबल और वचनबल को प्राप्त हुए मुनियों का स्थान तथा पक्षोपवास, मासोपवास तप करने वाले मुनियों के स्थान एक पोर हैं ।।१०६८।। मासुमळं बाय तिवळ मूकुज्य भरुवान् । पसरिय पेरुंतवर्ग ळिरुंद विडमोरुपाळ ॥ बासनर नंयमदु पाळमुदु विन्मे । ळासै यर् उरै शैमुळि येरंतवर्ग ळोपाळ ॥१०६८।। अर्थ-अपने शरीर में होने वाले मलयुक्त मल्लौषधि ऋद्धिधारी, प्रामों षधि,खेलीषधि, विडौषधि सवौं षधि प्रादि २ ऋद्धिधारी मुनियों के स्थान एक तरफ हैं । क्षीर रस ऋद्धि, सर्पिः रसऋद्धि, यानी घृतऋद्धिधारी मुनियों का स्थान एक ओर हैं ॥१०६८।। मुदळिरुदि नडुव नोरु पदमदु कोंडन् नूळ । विदि मकुदु मरिङर् शिळर् मूळ पद मेवि ।। मुदनडुवु मुख्य उनर् वार् संविन्न मदिकन् । मविहन पुगे पनि रंडिन् वरु मुळिग करिवार ॥१०६६। अर्थ-जिनागम के प्रथम एक पद, अंत का एक पद, मध्य का एक पद को लेकर संपूर्ण प्रागम के जानने वाले कोष बुद्धि मुनियों के स्थान एक तरफ थे। प्रथम में एक पद को जानने वाले बीज बुद्धि मुनि तथा अपने स्थान से बारह योजन दूर रहने वाले शब्दों को भली प्रकार सुनने वाले तथा समझने वाले दूर श्रवण ऋद्धिधारी मुनि का स्थान एक तरफ है । ॥१.१६ मदिय ववि सुद मिरुदु विपुलमतिज्ञान । मदि शयर्ग लनगार केवली ळीरुपाल । विदिरलनु मावि विगुवनै बलव लोरुपान् । मदियिन् बरु चारण नन्मा मुनिव रोरुणल् ॥११.०॥ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ४२६ ] मेरु मंदर पुराण अर्थ-मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, ऋजुमति, विपुलमति मुनि तथा इतर केलियों के स्थान एक ओर थे। आकाश में सूर्य के समान गमन करने वाले, चलने वाले चारण ऋद्धिधारी मुनियों के ग्थान पृथक् थे तथा अणिमा, महिमा ऋद्धिधारियों के स्थान एक तरफ थे ॥११००।। वेदमरु नांगैनयत्त विनयत्तं मिगमेवि । योदुवद् केर्पव रैप्पवरनिरुक्तर ॥ वदियगळ् कट्रमर वादमयि योर कन । मेवगय शिवनै कन मेवुनर्गकोर पाळ् ॥११०१॥ अर्थ-प्रथमानुयोग. चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग को भली भांति पढने वाले, मनन करने वाले सुनने वाले तथा मानव के प्रति उपदेश देने वाले, सुनकर उसको ग्रहण करने वाले और धर्मध्यान व शुक्ल ध्यान वाले महामुनियों का स्थान एक पोर था। ॥११०१॥ पुक्क विंड सक्करन ट्रन पडे योदुंग पोदु । मिक्कतवर पानिमिश मेयमिग यडिसिळ् । पुक्कुळग मुंडिडिनु पोदु पगलेल्ने । तक्कतवर् मुवन मुनिवर् शाट मुडियारे ॥११०२॥ अर्थ-उस कल्पवृक्ष की भूमि को बाह्य से यदि देखा जावे तो ऐसा स्थान बहुत ही कम देखने में प्राता है। उस स्थान पर यदि चक्रवर्ती भी अपने दल सहित पा जावे तो वह भूमि कम पडती। उस भूमि में अक्षीण महानस ऋद्धिधारी महामुनि रहते हैं। जिसके घर में ऐसे मुनि आहार लेते हैं उसके घर में प्रक्षीण महानस ऋद्धि हो जाती है। और यदि चक्रवर्ती का दल भी वहां भोजन करने के लिये मा जावे तो कमती नहीं होता है ।।११०२॥ इनयमुनि धन मिनिन् वीदि हरुमरंगिर्। कनगमरिण वेदिगै बिल्ल डय कोडियवनिन् । निनयं मळि निळगळे यवैदर परिणदेत्ति । येनगमन राइजि याशिर माग्दार ॥११०३॥ अर्थ-इस प्रकार उस कल्पवृक्ष की भूमि में ऋद्धि सम्पन्न मुनिराज रहते हैं । यह छठे कल्पवृक्ष की भूमि है। वहां स्वर्ण तथा रत्नों से निर्मित एक धनुष ऊँची वेदी है । ऐसी उस भूमि में रहने वाले मुनियों को नमस्कार करके वहां से आगे सातवें प्राकार नाम के गृहांगण भूमि की महावीथी में प्रथम श्रेणी में रहने वाले जयाश्रय मंडप में वे दोनों मेरु और मंदर राजकुमार गये ॥११.३॥ कडितळ धुळ्ळ नरंग। कोडि निरत्त सयाशिरं कोशत्ति ॥ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४२७ ---- ------- --- नुडन कंड दोरोचन योकमुम् । कडन दायदु कावद मागुमे ॥११०४॥ अर्थ-वह जयाश्रव मंडप बडी २ ध्वजारों से तथा उसका अर्द्ध भाम छोटो २ ध्वजाओं से परिपूर्ण था। उस जयाश्रव मंडप की एक कोस की चौडाई है और एक कोस की ही ऊंचाई है ॥११०४।। माविरत्तेळ मामवि वान् कड । लोद मेर वुडन् पुगुमार पो॥ नादन मानगर मुंड्रिलिन् वायदळ वाय । पोदुवार् पुगुवार कन्मिडेदरार् ११०५।। अर्थ-जिस प्रकार पूर्णिमा के चंद्रमा को देखकर समुद्र उमड पडता है, और छोटी २ नदियां उसमें प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार उस जयाश्रव मंडप संबंधी मंदर में रहने वाले भव्य जीव सदैव ही वहां निवास करते हैं। मौर उनको देखकर महान मानन्द होता है। ॥११०५॥ सुंदरत्तरकं पवळत्तिरळ । पंदि पंदि परंदन पार मिशे ।। इंदुविन कदि रोडिर विवक दिर् । वंदु वालु गमायिन पोलुमे ॥११०६॥ अर्थ-उस जयाश्रव मंडप की जो भूमि है वह मोतियों और पन्नों में निर्मित है। उसको देखने से ऐसा प्रतीत होता है जैसे चंद्रमा व सूर्य की किरणें तथा बालू मिट्टी की कगो हो॥११०६॥ मरै तलत्तरं जोतिरमंडिलं । वरत्त कंकम शंदन मंडिळम् ।। निरत्त शकमळंग निमकिश । नरत्तल तेळतामरै पोलुमे ॥११०७॥ अर्थ-उस जयाश्रव मंडप को चंदन कपूर प्रादि का मिश्रण करके जमीन पर साथिया प्रादि से पूरा गया था। तथा सूर्य और चंद्रमा मांडे गये थे। उनको देखने से ऐसा प्रतीत होता था, जैसे पुष्कर द्वीप के बाहर रहने वाले ज्योतिषी देवों के रहने वाले सूर्य और चंद्रमा जिस प्रकार गमन रहित स्थिर रहते हैं वैसा ही प्रतीत होता था। वह मंडप कमल के फूलों से पूरा गया था । वह देखने में पुष्कर द्वीप के समान प्रतीत होता था ॥११०॥ माळिगै निरं मंडप मल्लवु । माळि मानवर् देवरॉदुळि ॥ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ ] मेह मंदर पुराण नाळु नाळु नंल्लिवम् पयप्पन । शूळि यान यै शूळ पिडि पोळ् वन् ॥११०८।। अर्थ-उस जयाश्रय नाम के मंडप में अनेक प्रकार के महल कई मंजिल वाले हैं। उसको देखने से ऐसा मालूम होता जैसे एक हाथी के चारों ओर कई २ छोटे २ हाथी हों। इस प्रकार कई मंजिल का वह मंडप था। उस ऊची मंजिल में रहने वाले जीवों को अत्यन्त मानन्द उत्पन्न होता था ।।११०८।। शिप्पि शैग मुडियन् शैविन ।। तुप्पुरुवं युरप्पन नन्नेरि ॥ तप्पिनार् तडुमा विरिप्पन् । विप्पडिय विट्रि मेनिप्पळ ॥११०६।। अर्थ-उस मंडप में रहने वाले महल की मंजिल पर पूर्वजन्म में उपार्जन किया हुआ तथा संचय किया हुपा पाप और पुण्य का लेखा जोखा उसमें लिखा हुआ था और महाव्रत को धारण करके भ्रष्ट होना तथा मरण को प्राप्त हुए दुख को भोगना आदि अनेक विषय वहां लिखे हुए थे।।११०६।। मंदिर येनि, पुर शिडिग । इन्दिरत्तु वस मिड निड्न शंदिरत्तिरळिन पुळगत्तिड । वंदु नित्तिळ माळ ग नाइवे ॥१११०॥ अर्थ-उस जयाभव मंडप के अंदर स्वर्णमयी एक पीठ है । उस पीठ के मध्य भाग में इन्द्र ध्वज नाम की एक पताका है। वह ध्वजस्तंभ चंद्रमा की किरण के समान प्रकाशमान हो रहा था। उस स्तंभ के शिखरों को मोती आदि अनेक प्रकार के हारों से सुशोभित किया गया था।॥१११०॥ सुंदिरतिरन् मामरिण सूडिन । मिब मिन् परप्पिन मिळिरतु विळ बीसुव ।। पेन् लुगिर् कोडि काळ पोर पार्पिन ।। मंदरत्ति याडुव पोळ मे ॥११११॥ अर्थ-उस ध्वजा स्तंभ को अत्यंत सुन्दर दर्पण से निर्माण किया हुमा शीशा के समान श्रेष्ठ रत्नों से जड दिया गया था। वे रत्न बिजली के समान चमकते थे। उस स्तंभ पर लगी हुई ध्वजाए जब हवा चलने पर लहराती हैं, उस समय ऐसा मालूम होता है कि जैसे हंस पक्षी अपने परों को फडफडाता है ।।११११।। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण कारिन् मेळवं कदलि कोडि । तार मणिगळ शेलिप्प वोलिप्पन् ॥ वारि मोदु वरु परितेरिडं । तार् मरिणयत् शेलित्तोलि पोलुमे ।।१११२॥ अर्थ - मेघ मंडल पर लहराने वाली पताकानों के हलन चलन होने से ध्वजानों पर रहने वाली फूल के समान उन घंटियों (टोकरें ) के शब्द अत्यन्त मधुर होते थे । वे शब्द कैसे थे जैसे सूर्योदय होते समय सूर्य ऊपर आता है और छोटे २ घंटे आदि बजते हैं, उसी प्रकार शब्द होते थे ।। १११२ ।। इंद वान् वान् कोडि ये कडंदेगलुं । बंदु तोंड्र, मगोदय मंडपं ॥ सुंदरं मात्तू निरं यायिर । तें कोइन् मुगत्ति निरुंददे ।। १११३ ॥ अर्थ - इस जयाश्रव मंडप को उलांघ कर जाते ही उसके सामने महोदय नाम का मंडप है । वह मंडप एक हजार स्तंभों से निर्माण किया हुआ है और भगवान के मंदिर के सन्मुख है ।।१११३ ।। म मंडप तुमरि पोडिगं । सोर किलत्ति इरुक्कै सुदक्कडन् ॥ मुद्रम् वंदो मूर्ति कोंडलन्न । पेट्रिया लिरुंदाल वलत्तिरिई ॥ १११४ ॥ अर्थ - उस मंडप के अंदर रत्नों से देवी की मूर्ति विराजमान है। श्रुतज्ञान नाम निर्मित की हुई पीठ है । उस पीठ पर सरस्वती का समुद्र जिस प्रकार इकट्ठा होकर आया हो उसी के समान दिखाने वाली वह देवी थी । और उसके बाई बाजू श्रुत है ।। १११४ । । [ ४२६ सोर्विन् मादवर् सूल् सुदकेवलि । तारगं नडुचंदिरन् पोलववन् ।। कार् पैविर् कुदवं बडि यालुइर् । afa मिडि यरतै लिक्कुमे ।। १११५ ।। अर्थ-उस सरस्वती देवी के दाहिने भाग में अनेक मुनि बैठे हुए हैं और उनके बीच एक श्रुतवली । जैसे मेघ बादलों से वर्षा करता है उसी प्रकार वे मुख कमल से भव्य जीवों को उपदेश करते हैं ।। १११५ ।। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ४३० ] मेरु मंदर पुराण मेरुविन येट्टयु मेक्यि । वारणं मलै पोलवन मंडप ॥ मेर निपुल वेंडिसंयुः मिदन् । नेर् मुनि दोर् पोडिग नंडरी १११६।। अर्थ-उस महोदय मंडप के चारों दिशा में जिस प्रकार महामेरु पर्वत रहता है। उसी प्रकार बडे २ मंडप हैं। उन मंडपों के सामने बलिपीठ है ।।१११६।। वल्लिनन् मरिण पोन्मय मागिय । वेल्लि पगलं वलि येदुमी ॥ देल्लि शैपिरै वन्नगर् वायीलुट् । शेल्लवल्लि कन् मंडप मेडुम ॥१११७॥ अर्थ-वह बलिपीठ योग्य प्रमाण से उत्सेध तथा चौडाई आदि योग्य प्रमाण से युक्त है । वह पीठ सोना और रत्नों से निर्मित की हुई है। उसकी बलिपीठ की भव्य जीव पूजा करने के लिये अंदर जाते समय सुगंधित एक लता मंडप है ।।१११७॥ पोदरा मरिण पीडत्ति नप्पुरं । वायदा वीदिये नोकिय मंडप ॥ नीदिया निधि कोक निरंदर । मीदल मेविहरुप्प विरळ ॥१११८॥ अर्थ-उस रत्नों से निर्माण किये हुए बलिपीठ को छोडकर आगे जाने पर एक महावीथी आती है। उसके दोनों ओर दो मंडप हैं। वे मंडप नवनिधि के अधिपति कुबेर के समान दान करने वाले ऐसे प्रतीत होते हैं ॥१११८।। । पाडळोडु पइंड्रिल येंपळ। कूडि नीडु नीला बल्ल मिन्नन् ॥ तोडु माडुव वच्चुर देविय । राडु माडग शालयप्पालवे ॥१११९॥ अर्थ-उस मंडप को छोडकर भागे की वीथी से भीतर जाते समय वहां सुन्दर २ पाभरणों को धारण किए हुए कुबेर की स्त्रियों के नृत्य करने की नाट्यशालाएं हैं। इस प्रकार वे दोनों राजकुमार उस समवसरण के वैभव को देखकर आगे बढ रहे थे ॥१११६॥ बेट्रि मुटु विदिक्कनतूवंग। कुद्र. निड्रेन वॉगि योरोचने । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण सुद्र वेरुळ वेदिगं तोरणं । वेट्रि वेन् कोडि माळय मेळेलां ।।११२० ।। अर्थ - यहां तक सात प्रकार के गृहांगरण भूमि में रहने वाली वस्तुओं का प्राधिक्य विशेषकर वर्णन किया गया है। उस गृहांगरण भूमि के कौने में रहने वाले स्तूप हैं। एक योजन उत्सेध से युक्त एक स्तूप है। वह स्तूप सभी भव्य जीवों को अत्यन्त सुन्दर व मनोहर दीखता है । उसके चारों प्रोर वेदी है और स्तूपों पर चारों ओर सफेद ध्वजाए हैं। और वे पुष्पों के हार मोती के हारों से युक्त है ।।११२० || डिपि निर् पिरपिन् मनंयुतिडें । तुडिये वेंड्र विरिमुळ विनळ || afsa योप्पन वैय्यग तुव इप् । डिपिनागुमट ळ ळबुं सोल्नुधास् ॥ ११२१॥ अर्थ - पहले कहे हुए स्तूप के विस्तार से होकर बीच में कमती विस्तार होकर बीच में मृदंग के रूप में रह गया है। उस गृहांगरण भूमि के कोने में लोक स्तूप नाम का श्रादि स्तूप है । उसका स्वरूप आगे कहेंगे ।। ११२१ ।। महिम ळोगमुं मंदरतयुं । मोत्तवं तुरक्क नर्के योप्पबुं ॥ सिद्दि शेवट्टवं सिद्धरुपियुं । पट्रियल कलेत्तेरुं भव्य कूडमुं ।। ११२२|| [ ४३१ अर्थ - मध्य लोक में एक स्तूप मेरु पर्वत के समान है, और स्वर्ग का स्तूप नवग्रह के समान है । तथा एक सर्वार्थ सिद्धि के समान स्तूप है । और एक राग को नाश करने वाला भव्य स्तूप है ।। ११२२ ॥ वीत शोगमु मै मै विळक्कुमेन् । ट्रोदु नामत्त वंड्रि नोंडुळ्ळवाम् ॥ काद पाद मगंड्र विल्लोंगिमे । ळे मिळ वळकांळू वट्ट मिगिदे ।।११२३ ॥ Nirik अर्थ- स्वभाव से ही प्रकाशमान शोक रहित एक बोधिनाम का स्तूप है। इस प्रकार स्तूप कौने २ में रहने वाले सभी वीथियों में क्रम से है। वहां प्रदक्षिणा में आने वाले जीवों को चार भागों में से एक भाग आने जाने के रास्ते के लिए है । बाहर की भूमि से वह स्तूप एक धनुष ऊंचा है ।। ११२३ ।। वानवर् कोन् मनत्तेनि चंदवत् । ट्रामिंग विय पुरुं तरणीं तन्मे ये ॥ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ ] मेरु मदर पुराण यानिव बुरै पदर केळंद मदिदु । वूनमे यागिळु मुळिय बल्लनो ॥११२४।। अर्थ-देवेंद्र अपने मन में यह विचारता है कि इसी प्रकार के समवसरण की रचना करना चाहिये । कुबेर द्वारा तैयार किए हुए समवसरण को देखकर सभी लोग आश्चर्य करें ऐसा वर्णन करने में मेरी शक्ति नहीं है फिर भी मेरी अल्प बुद्धि के अनुसार समवसरण का वर्णन करूंगा। सुनो! ॥११२४।। कोसमुं कोस, मिरंडु कोसमुं। कोस नानगेट्ट. मुन्नागि रेट्ट.माय ॥ कोसमोर पत्तोडे ळोंड, मुम्मदिर् । कोसमो रारुपोय कोई लेदिनार् ॥११२५॥ अर्थ-उस समवसरण की दो कोस प्रमाण प्रासाद भूमि है। दो कोस विस्तार से युक्त खातिका भूमि है। चार कोस विस्तार वाली बलिभूमि है । आठ कोस विस्तार वाली उद्यान भूमि है । बारह कोस विस्तार वाली ध्वजा भूमि है । सौलह कोस वाली गृहांगण भूमि है । और महान विशाल वीथियां हैं। इस प्रकार समवसरण भूमि का उल्लंघन कर वे दोनों मेरु और मंदर कुमार भीतर रहने वाले नील नाम के मंदिर में पहुँच गये ॥११२५।। कामुंग मुंड मे ळं. पत्तोडेळ् । कार्मुग कुरैद मुम्मविलि नोकमुं कार्मुग मीरायिर मुंड. माय पिन् । मरियमा लुयन निळं कळंबवे ॥११२६॥ अर्थ-उस समवसरण में रहने वाली सात भूमि एक से एक बढकर ऊंची है । बाहर से अंदर प्राते समय उदयतर वेदी दो हजार दस धनुष ऊंची है। प्रीतंकर वेदी चार हजार धनुष ऊंची है। और तीसरी कल्याण कारक नाम की वेदी छह हजार धनुष ऊंची है। ॥११२६॥ बार मळि मुळं मावर् नडंगकुं। कमिळि कवळिक्कोडि ईटमम् ।। सेर्विन् मद, मुरंत्तनन् सुंदर । मौरिनन् मवि यतिनै योदमे ॥११२७॥ अर्थ-उनमें नर्तन करने वाली देवाङ्गनामों की नाट्यशालाएं बनी हुई हैं । वहां पर रहने वाली ध्वजा पताकामों के स्थानों के संबंध में विवेचन किया जा चुका है। अब प्रहंत केवली भगवान के समवसरण में विराजमान लक्ष्मी मंडप का वर्णन करूंगा ॥११२७।। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४३३ मकर वन् कोडियवन् ट्रन्न बेड्वन् । नगरमुं तनदिड मागनाटि योन् । पुगररु पोन्नेयिळाम पट्टामरं । शिगरमाम् तिरु निळं यदि शेप्पुवाम् ॥११२८॥ प्रर्थ-मकरध्वज नाम के कामदेव को जीता हा जो स्थान है वह स्थान देवों के द्वारा निर्मित है। उस स्थान के विषय में जो स्वर्ण के कमलों से बनाया है उसके सम्बन्ध में विवेचन करूगा ॥११२८॥ देवर् कोन ट्रिस दिशं कंडु सोप्पिय । मूबुलग परसर् गळादि मूदुरै ॥ मेविय विदन यान विळंब लुदु । नावलर नगुवदोर वाइ लागुमे ॥११२६॥ अर्थ-देवेंद्र के द्वारा एक २ दिशा में जो इस प्रकार की रचना की गई है। इसके बारे में लीन लोक के नाथ जिनेंद्र भगवान के रहने वाले श्री निलय का वर्णन किया है। वे इसका वर्णन करने में अशक्य है । फिर भी अल्प बुद्धि के अनुसार वर्णन किया है । ज्ञानी लोग देखकर इसकी हास्य न करके इसमें जो रहने वाले विषय हैं उनको ग्रहण करें ॥११२६॥ इविड मिव्वन्न मागि नंडोनि । लग्विड मम्वन्नवागि तोड्रिडु।। मिन्बड दिग्विड मळगि देंडिडि । नश्चिड तोचिड मळगि दामे ॥११३०॥ अर्थ-उस समवसरण में जाकर उस मकरध्वज नाम के कामदेव को जीतने वाले स्थान को देखकर प्रशंसा करते हुए भागे एक दूसरी भूमि में पहुँच गये , जो कि इससे भी अधिक सुन्दर थी ॥११३०॥ उच्चमे नीच माय नीच मुच्च माय । इन्वेया लोरुव नुक कियलु मार पो । लुच्चने नोचमाय नीच मुच्चमा। इच्चे इन पडियिना लेंगुस तोंड मे ॥११३१॥ मर्थ-उस मणिमय भूमि की चमक से उस भूमि का ऊंचा नीचा सम विषमपन म नहीं पड़ता था। एक मनष्य के भ्रंदर जिस प्रकार उसकी इच्छा कमती बदती हो जाती है, उसी प्रकार उस भूमि की ऊंचाई नीचाई मालूम नहीं होती थी॥११३१॥ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण मोचन मंड नर यगंड दोंगिय । दोचने नांगुमेर कोश मैंदु कोळ ॥ माशिला पोन्मरिण पत्ति रेट्टिना। लाशे पोर परंद बिल्ल वयवत्तदा ॥११३२॥ अर्थ-उसके मध्य में रहने वाला श्री निलय चौदह कोस विस्तार वाला है। उसका उत्सेध चार योजन पांच कोस है और वह अत्यन्त सुन्दर रत्नों से निर्मित किया गया है। ॥११३२॥ तलंदन मेर् शगवि कन् मूंड. तम्मिस । इलंगु पट्टिगैयु में नूरु विर्कळे ॥ विलगं कंड.यरं दन वेरु वेळि। मलर दु विर् पयिंड. वज्जिर मयंगळं ॥११३३॥ पर्थ-चौदह कोस चौडाई ऐसी भूमि के ऊपर तीन जगती है । वह एक के ऊपर एक है ऐसे कम से है। वे जगती एक से एक बढकर पांच धनुष विशाल है । और यथा योग्य उत्सेध वाली होकर वज और रत्नों की किरणों से. प्रकाशमान होती है ॥११३३॥ मार बळ वयरं द पोन वरंडगत्तिन् मेर । कानुगं शेगदि इन् कवलि कट किडे ॥ पार विर् पत्तिरं कूडस कोटग । नोर्म यार हुनुमुप्पत्ति रट्टि नीडवे ॥११३४॥ अर्थ-उस जगती का स्थल मनुष्य के हृदय के प्रमाण है । और वहां एक धनुष का बीच में अंतर छोडकर मंडप है। दस धनुष को छोडकर राजमहल के भवन एक-एक धनुष के अन्तर से छोटे २ घर लोगों के बैठने के लिये बनाये हैं। वे साठ धनुष के अन्तर से हैं ॥११३४।। तलमिरंडि वट्रिन् वायदल कावला। निलय मंतराळत्तु निड वेंगणु॥ तलयोळु नूरु मुर शगदिन् मुर शगविन मुरै। निरै इरंडेळुवुदु नापत्तेटुमां ॥११३॥ अर्थ--उस जगती स्थल के मंडप के ऊपर दो कुंभ हैं। पहली जगती के मंडप पर रहने वाले सात सौ बहत्तर घर हैं। दूसरी जगती के मंडप पर सात सौ चालीस घर हैं और नीसरी जगतो के मंडप पर सात सौ पाठ घर हैं ॥११३५।। कूडत्ति नेनवे कोटगं कोडि। पोडत्ति निलवत्तेळाइरंकळि ॥ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण [ ४३५ ..MAMMYeonadaNVAN.AAAAAAAAAABANJALA mean -careonward नट मूंड, नवसोंड, माय । नोडुद्र मुबलदाम शगंदि निड़वे ॥११३६॥ अर्थ-इस प्रकार पहली जगली के मंडप के चारों प्रोर वरण्डक ध्वजाए हैं । ये ध्वजाए संख्या में सत्तर हजार तीन सौ इक्यासी हैं । ११३६।। येळवत्तु नान्गै यायिरत्तु मारिय। . बुळकुट विरंडु नूद, येलुवत्तबुदु ।। मिलुत्तोरायिर तैबत्तारु माम् । पलुवट्र शगदिमेल मेर्पदाग यामै ॥११३७॥ अर्थ-दूसरी जगती के मंडप के ऊपर चौहत्तर हजार दो सौ उन्नासी वरण्डक ध्वजाए हैं। तीसरी जगती के मंडप पर सतत्तर हजार छप्पन ध्वजाए हैं ।।११३७।। इरंडु नट्रेलुव तेला इरत्तोड । किरंड तोळ्ळाइर तिरुवदा मुदर ॥ किरंद नद्ररुवत्ताइर तोडु। निरंद नानूरु कन्नडु नवु निडवे ॥११३८॥ अर्थ-वहां रहने वाले घरों के ऊपर दो लाख सतत्तर हजार अस्सी ध्वजाए हैं। कुछ दूसरे मकानों पर दो लाख छियासठ हजार चार सौ ध्वजाए हैं ॥११३८।। सुन्ने एटेट्टु नांगैदिरंडिडे । सोन्ने तानत्तिन् मूंडावदिन ट्रोगै ॥ इन्न कूडत्त कोटगं तनमिश सोन सोन्न वै येंगम् किरट्टि ये ।।११३६।। अर्थ-तीसरी जगती मंडप पर दो लाख चौपन हजार आठ सौ अस्सी ध्वजाए हैं। इस प्रकार वहां की ध्वजारों का वर्णन किया गया है ।। ११३६।। पट्टि केतलत्तिन् मेर् पैंबोर कोइलि । नेट्ट लातिश मुगत्तिरुंद मंडव ॥ तुट्टोलि तिरंड कावद मोंड्रो कम। विट्टोलि तुळुव वेन् शुडरि निडवे ॥११४०।। मकर वाय मेडपत्तरेय वायनार । शिगर बाय जिनकरं शिवन शै मूर्तिगळ ॥ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण पगरोना तन परिवारमं तन्नोडु। पुगरिळा वानंदम पोड़ तोड़ मे ॥११४१॥ अर्थ-ऊपर कही हुई ध्वजाए बीच में रहने वाले अहंत भगवान के चारों ओर हैं। त्रिमेखला जगती के ऊपर रहने वाले मकान तथा ध्वजाए सूर्य के प्रकाश के समान प्रतिभासित होती हैं। वह मण्डप एक कोस ऊंचा है। उस मंडप में रहने वाले स्थान २ के चारों दिशामों को छोडकर उसमें रहने वाले चारों द्वारों से युक्त जो जिन चैत्यालय हैं उनके कौनों में छह चैत्यालय हैं। एक २ चैत्यालय के मध्य भाग में रहने वाले अनेक चैत्यालय और हैं। उनका वर्णन करना साध्य नहीं, ऐसे भगवान के प्रतिबिम्ब प्रातिहार्यों सहित हैं। वे काच के समान चमकदार देखने में प्रतीत होते हैं ॥११४०॥११४ ।। विल्लुमेळ दिडु मरिण मिडेंद मेनिय । नल्ल नामंगना ळार मेविन् । शेल्व मुंतिन्मयु मरिवं वेंड्रियु । नळ गुव नाट्रिकु मुगमु नान्गवे ॥११४२॥ अर्थ-वह जिन प्रतिमा अत्यन्त प्रकाशमान चौबीस तीर्थकरों के नामों से प्रसिद्ध है। उन प्रतिमाओं के दर्शन करने वाले भव्य जीवों को संपत्ति,पराक्रम तथा ज्ञान प्रादि की प्राप्ति होती है । वहां के प्रत्येक प्रतिबिम्ब चतुर्मुखी हैं ॥११४२।। नाद नुळ्ळ रु नान् मुगं पोळ नळ । वायद नान कुडमंडप नांगिनुत् ॥ शांत कुंभ मंजंगन मैंदुवित् । ळोदु मैंबदु मोंगि यगंडवे ॥११४३॥ अर्थ-उन चतुर्मुखी जिन बिम्ब चतुराननत्व के सामने वहां चार वीथी हैं । जगती तल मंडपों के चार द्वार हैं । प्रत्येक द्वार के बाहर चबूतरा है जिस पर स्वर्ण के कुम्भ लगे हुए हैं। इस चबूतरे का उत्सेध पांच सौ धनुष है। इसी प्रकार प्रत्येक वीथी में प्रत्येक द्वार पर चबूतरे हैं ॥११४३॥ मारि पोळ मुळेगुव मजिन मेळ् । मेरि नानमुग शंख मिरंडळ ॥ कारि नुन्मळि सूर्य नेर् पोनिन् । वारिन वंविळि कंडयु मागुमे ॥११४४॥ पर्थ मेघ की गर्जना के समान अनेक प्रकार की भेरी शंख आदि वाद्य बजते रहते हैं । चबूतरे से नीचे उतरते समय बीच में एक जयघंटा है ।।११४४॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३७ मेरु मंदर पुराण कडिगैयुं जाममुं कलंद संदियु । मुडिविनिर् कंडे शंगगंल भंरिग ॥ इडियन तम्मिले मुळगि इन्नोलि । पडुवदा मुप्प दोजन परक्कुमे ॥११४५॥ अर्थ-चौबीस मिनट के बाद जयघंटा बजता है। तीसरी घडी में शंख बजता है। मध्याह्न में बारह बजे जयघंटा बजता है । इस प्रकार तीन प्रकार से वाद्य ध्वनि होती रहती है। इन वाद्यों के शब्दों की ध्वनि तीन योजन तक सुनाई पडती है ।।११४५।। पेरुमलर मारिय मेरि यादिइन् । ट्रिरु निल वायुदलग लिरु महंगिस ।। मरुविय कवि गलेंदि कंदप्प । धश्सर्ग डेविमार् पाडलागुमे ॥११४६।। अर्थ-यह बजने वाले वाद्य और देवों के द्वारा पुष्पों की वृष्टि से युक्त चैत्यालयों क दोनों ओर गंधर्व स्त्रियां वीणा आदि अनेक वाद्यों के संगीत करने के मंडप हैं ॥११४६।। मंगल निरयवे वायदल तोरण । पंदिई निरयवं पडिमुडि वेला ॥ मिगंला बायबलु काव लोंबलिर् । ट्रगि नार् सोद मीशान लादरे ॥११४७॥ अर्थ-जगतीतल नाम की भूमि के चारों ओर अष्ट मंगल द्रव्य क्रम रूप से पंक्ति. बार स्थित है । द्वार में मर्कर तोरण से युक्त पंक्ति है । इस द्वार पर सौधर्म ईशान स्वर्ग के देव रहते हैं ॥११४७॥ इरवि येनरिय वाम परिधि इनिड । मरुविय देनमरिण योलिशै मंडल ॥ तुरुवर पिवळवा योलियिर् ट्रोड्रिडं। तिर निले येम्मेला तिर निलयमे ॥११४८।। अर्थ-प्रसंख्यात सूर्य इकट्ठे होकर उनका प्रकाश होने के समान उन श्री निलयों में रहने वाले रत्नों का प्रकाश ऐसा होता है कि उनकी उपमा देने को अन्य कोई वस्तु नहीं है ॥१४॥ पलनेरि योलिमनि पईड परियु । मिलवयुं बल्लियु मिरंद कृडम ॥ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. ] मेर मंदर पुराण विले यलगुन मडनल्लार मेगलं गलु। मुल गलुं पुन्मय कुरुषकु मुद्र मे ॥११४६॥ मर्थ-इस जगतीतल के चारों मोर भनेक प्रकार के रत्नों से युक्त तथा नाना प्रकार के चित्रों से निर्माण किये हुए उन लता आदि चित्रकला को देखते ही ऐसा प्रतीत होता है मानों गणिका स्त्री मेखला भाभूषण धारण किये हुए हो ॥११४६।। तुबर परी नागिलार् किर बन् ट्रोनगर । सुवतले नांगिरु काद मोंगिमा । तवर किर नगर सुवरलगलं पादमे । लुवप्प मंडो जन विरिंदगड़े वे ॥११५०॥ अर्थ-चार प्रकार की कषायों से रहित भव्य जीवों के नाथ कहलाने वाले जिनेश्वर के समवसरण में लक्ष्मीवर मंडप की जो वेदी है उसका उत्सेध चार कोस का है । और उन चार भागों में एक भाग चौडा है । वह तीन योजन विस्तार वाला है ॥११॥ तलंगलि नुयर मामरुवत्तु नांगुविर् । विलक्कुड नरुपत्तु नांगु वोल्दंब ॥ निलंगन मुन्नोट्रेलुव तोरदु कोल् । तलंदन मंडलगन् मूवाइ रंगळाम् ॥११५१॥ अर्थ-पिछली कही हुई वेदी पर उस गोपुर का उत्सेध चौसठ धनुष के आगे वह मेखला ऊंचाई तथा चौडाई में रहती है। उस मेखला के ऊपर एक के ऊपर एक तीन २ ऐसे पच्चीस मंदिर हैं। नीचे छोटी मेखलांत्रों पर छोटे २ चबूतरे हैं ॥११५१॥ प्रायवित्तलं बोरं मंडल मेट्टिने । माय चंडोळि दिरंद वेट्टिन मेर् ॥ दय मंडलत्तोग इलक्क मैंदिनों। डाइर मरुवत्तु नांगु मामे ॥११५२।। अर्थ-इस प्रकार प्रथम स्थल में उससे ऊपर कम होते २ आगे जाकर तीन सौ पिचहत्तर इन मंजिलों में पाठ ही चबूतरें रह जाते हैं। ये सभी मिलकर दो लाख चौसठ होते हैं ।।११५२॥ कडितडत्तळ धुळ्ळ बरंडगम् । पडियि नाळि नानगिर परंदन ।। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४३९ कोडि निरेंदन कोइ निलंगळे । मडनल्लार कलै पोल वळववे ॥११५३॥ अर्थ-यहां तक कहे हुए निलयों में वरण्डक ध्वजाए चार धनुष छोडकर चारों पोर होती हैं। उनको यदि लक्ष्य पूर्वक देखा जाय तो स्त्रियों को पूर्णतया पाभरण पहने हुए के समान प्रतीत होती हैं ।। ११५३।। देसुला तिरुनिल येत्तिन मेनिलं। कोस नीडगंड वज्जिर तडक्क माय । मासिला मरिणगळान मलिद तन् मिशे । कोश नान गुयरं दु पुर कोंबु मागुमे ॥११५४॥ अर्थ---उस प्रकाशमान श्री निलय गोपुर के तीन सौ पिचहत्तर मंदिरों में एक कोस लबा उस पर रत्नों से निर्मित चार कोस का पूर्ण कलश है ।।११५४।। इरवि वंदुदय मेरि इरुंददु पोलु मिद । तिरुं निल येत्तिनुच्चि सेंवोर् शंवर कुंबत्तम शेन्नि । मरुविय कमलसुट् शम्मामरिण पाद मोंगि । विरगिनार कोशं पादं विरिंदु कीळ सुरंगिटार मेल।११५५। अर्थ-उदयाचल पर्वत पर सूर्य के उदय होने के समान स्वर्ण से निर्मित शिखरों के कमलों में पद्म रागमणि रत्न एक कोस उत्सेध होकर एक कोस का चौथा हिस्सा अर्थात् एक पाव कोस हिस्से के समान विशाल है । ११५५।। इत्तलतगत्ति नुळ्ळा लिन मरिण कुमुद वीदिन् । वैत्त पोर् कमलं सूळंदु कावद माय तन पान ॥ मुत्त मालेगळ पोय गंध कुडियिनै मुळुदु सूळंद । तत्तु नीर गंगे कूडं तन्मिश शंड्रर्दडे ॥११५६॥ अर्थ - इस प्रकार तीन सौ पिचहत्तर मंदिरों से युक्त ऐसे गोपुर में नीचे रहनेवाले मंडप में बारह कोस का महान विशाल तथा नीचे रहने वाले मंडप के मध्य भाग में कुमुद पुष्पों के समान स्वर्णमयी कमल एक कोस चोडाई से युक्त वृत्ताकार है । उस कमल पुष्प पर मोतियों के हार लटके हुए हैं। यदि लक्ष्यपूर्वक उसको देखा जाय तो जैसे गंगा नदी का पानी ऊपर से नीचे गिर रहा हो उसी प्रकार प्रतीत होता है।॥११५६।। परुमरिण कूड मोडिन् पक्कत्ति निरर्ड वटै । मरुविय विरडं लूवै मंडलम मट्रिदन् कट् ॥ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० ] मेरु मंदर पुराण पेरिय देन्नान्गु मेट्ट, विल्लुयरं दगडू तन् हुन् । नरं यत्तन् नरैय निड वंदर नुगम दामे ॥११५७।। अर्थ-पीछे कहे हुए श्री निलय नाम के गोपुर के दो चबूतरे हैं। एक-एक चबूतरे पर रत्नों से निर्मित एक महल है। उस महल की बगल में गोल स्तूप है। उस स्तूप की बगल में छोटे बडे दो स्तप और हैं। उस महल के मध्य भाग का उत्सेध बत्तीस धनुष का है, और बड़ा स्तूप सोलह धनुष का है। उसकी चौडाई चार धनुष है। छोटा स्तूप पाठ धनुष उत्सेध वाला और चौडाई में दो धनुष प्रमाण है, और मध्यभाग का स्थान खाली है।।११५७।। निलगंनान् किरड्रो ड्रागि निड्र माकूडमागि । इलंगु मंडलं कडंद मिडै नुग भिरडं वागुं॥ मलिदु वेन् कोडिग निमंडल मुंडि नूरुं । विलंगम् मेलेलं दवन्न क्कुलात्तिनार पत्त नान्गां ।।११५८।। । अर्थ-उस चबूतरे के मध्यभाग के महल चार मंजिल के हैं। उस महल की अगल बगल में स्तूपों से ऊपर तक दो चबूतरों के समान उसका उत्सेध है। उस चबूतरे के बीच में खाली भूमि है जिसका उत्सेध दो धनुष है। उस चबूतरे की बगल में पर्वत पर उडने वाले हंस पक्षी के समान एक सौ चार श्वेत ध्वजाए हैं ।।११५८।। ईरट्टाइरमु मीरारिलक्क, कोडियेट्टुं । वारत्त येट्टार कोइन मंडल कोडिरनीटम् ॥ तेरट्टार् कोइर् कोळेत्तळत्तिन मेल वरंडगत्त । वोरिट्टिन पादि योनबा नेट्टम सेळ् दानत्ताळे ॥११५६॥ अर्थ-मोहनीय कर्म को सम्पूर्ण नाश किये हुए श्री जिनेंद्र भगवान के गोपुर में रहने वाले चबूतरे ध्वजाओं से युक्त है। वे ध्वजाए आठ करोड बारह लाख तेरह हजार हैं। वह गोपुर कैसा है? मानों बड़े-बड़े रथों का निर्माण करके खडा किया गया है। नीचे के भाग में पिचहत्तर हजार आठ सौ चौरासी वरण्डक ध्वजाएं हैं ।।११५६॥ इरंडिनो डिरंडु नूरु तलंदोरं कुरंदु सेन्नि । इरंडिनो विरंडु नूर तोग योरु कोडि नार्पत्त् ॥ तिरंडिलक्कं कनार पत्त् तोराईर् मिवटि नोडु । . वरंडग पदागै नूट नापत्तु नांगुमामे ॥११६०॥ अर्थ-अभी तक कहे हुए वरण्डक ध्वजा से ऊपर २ एक २ मंजिल में दो सौ दो कम होते २ ऊपर की मंजिल में तीन सौ पिचहत्तर ध्वजाए हैं। इस तरह सभी ध्वजाए मिलकर एक करोड बियालीस लाख इकतालीस हजार एक सौ चालीस हैं ॥११६०।। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [४१ नरंडगं मंडलत्तिन वंदवक्कोडिइन कुप्पं ।। इरंडयं तोगुप्प कोइर कोडिपिन दोटमांगु ।। तिरंडु वंदिळियुं देवर् सित्तिर कोडन काना । मरुंडु निनं ड रैपर वैयत्तिलदो बडवि देंडे ॥११६१॥ अर्थ-इस श्रीनिलय में रहने वाली तथा चबूतरे पर लगी हुई वरण्डक ध्वजारों को वहां के देव देखकर अत्यन्त आनन्दित होते हैं । और यह कहते हैं कि ऐसी ध्वजाए जगत में और कहीं नहीं हैं ॥११६१॥ देवर वियप्पुरुक्कं शित्तिर कुंड शंदार् । कावद मिरंडु येव वायवल गळगंड़ काद। . मूवुलगत्ति नल्ल मरिण मुत्तिन वरत्ताय । कावलर् मुडिगळ् पोलुं कुड़मिय कदव मेल्लां ॥११६२।। अर्थ-उस विचित्र कूट नाम से प्रसिद्ध मंडप के अंदर बारह कोस का विस्तीर्ग तथा तीन सौ पिचहत्तर मंजिल से युक्त वह गोपुर है। उस गोपुर के द्वार का चौवट स्वर्गमयो है जो रत्नों से मोतियों से निर्मित है। वह एक कोस का विशाल होकर चक्रवर्ती के मुकुट के समान दिखता है ।।११६२।। कद काल कंदप्पट्टि कंधुगळ् वैरं नाना। विदमरिण पईड पत्ति यायिर तगत्तु पैंबो ।। निलत्त वल्लिगळिनुळ्ळा लिरुंद पत्तिरि कन् मुत्तिन् । कदलि के कंबिनं पुर् कमलंगळ् सेरिद बढ़ ळ् ॥११६३।। मर्थ-उस गोपुर के दरवाजे के किवाडों के बीच के अडवे (चौखटे) (दो पागलों के बीच का फ़ेम) रत्नों से पंक्ति युक्त खिले हुए निर्माण किये हुए थे। इस प्रकार यह एकएक हजार है । उनके बीच में सोने को लताएं तथा भिन्न २ छ. पट्टी से जकडे हुए हैं । पुनः सोने के कमलों के पुष्पों से प्रत्यन्तं सुशोभित किया है ।।११६३ । मरुविय मरगदत्तिन कोट्ट गळ् वंडुमट्ट । परुगुव पोलुं पैबोर् किं पोरि इरुंद पांगिर् ।। दिर मुदन मंगलंग सेरिंदन शेवंग माल । यरमु मनंगन् विल्लुमाइंड परंद मादो ॥११६४॥ अर्थ-उस कमल में हरे २ रत्न हैं। वे रत्न दिखने में ऐसे प्रतीत होते हैं, जैसे कमल के बीच में रहने वाले भ्रमर उसका रसास्वादन ले रहे हैं। उस द्वार में मंगलमई तथा Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] मेह मरर पुराण मुशोभित अनेक प्रकार के सोने से निर्माण किये हुए चित्र हैं ॥११६४।। पुळग, पिरयुं कवि नीलत्तिन् शवियु पोदा । रळगमु नुदलु नल्लार वदनमु मनय मोट्टिन् । ट्रळय विळताम मुत्तिन् दामंगळ वैरत्ताम् । मिळवेइन् विरि पोट्राम मिमिनित्ताम् ॥११६॥ वंबु कोंडेळुईं कुछंद मणि योळि परंद वायद । रंबोडे इरुंदु यरंद मरिणय पीडत्तुच्चि ॥ कुंवंगळिरुंद वट्रिर्द, बंगळ कोटपडादे । येवं रत्तऴ्दु दिक्क परिम माकु नि ॥११६६॥ अर्थ- उस द्वार के बिलों के नीचे व ऊपर चंद्रमा के समान हरे रत्नों से जडाई की गई है। वह दोखने में ऐसा सुशोभित होता है जैसे स्त्री के नीले रंग के केश ही हों। वहां मोती तथा वज्र के हार टंगे हुए प्रातःकाल के सूर्योदय के समय पीले रंग के समान प्रतीत होते हैं। उन द्वारों पर लगे हुए रत्न आदि का प्रकाश उस समवसरण के बीच में बडा सुंदर चमकदार प्रतीत होता है । उसमें रहने वाले स्वर्ण की पीठ पर धूपघट हैं। उनमें सदैव धूप जलती है उसकी सुगन्ध चारों ओर फैली रहती है ।।११६५।११६६।। वोदिगळगंड, कादं वेदिगै इरंड वागु । मोदिय कुंभतिप्पा लोंबदु तूबै निकुं॥ नोदिया ट्रोरणं तवधि र पत्तवत् ट्रिडै निड वोप्पार्। पोदोड़ वलिगळेदुम पोन शे पीडंगळामे ॥११६७॥ अर्थ-उस द्वार के अंदर की महावीथी की चौडाई एक कोस है । उस महावीथी के कोनों को देखने जाने के लिये दो मार्ग हैं । उस द्वार पर रहने वाले अस्सी धूपघट हैं । उसमें चारों दिशामों में पूजा करने योग्य चार बलिपीठ हैं ॥११६७॥ कोशम वैदिर गंद कुडिनै शूळ वंदु ।। मासिला पडिग पित्ति मार्बळ उयर दि रिट्टा ॥ लास पोनिर विलाद निलंगळ् पनि रंड वागि। ईशन मागणंग ळीरारिरुक्क तानिक्कुमारे ॥११६८॥ अर्थ-पंद्रह कोस से प्रदक्षिणा देकर घूम करके आने पर कलंक रहित उस भूमि में एक कोट है । उस कोट में बारह समाए हैं जिनमें इतनी जगह है कि कितने ही भव्य प्राणी वहां आकर बैठें वह स्थान कम नहीं पडता ॥११६८।। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा मंदर पुरारण [ ४४३ fafter मंकन मूंड्राय् विर्शिय वोरि यन् ट्रन् कोइर । चक्कर पोडं काद मिरंडगंड्र यर्बु कोमान् ॥ ट्रक्कदन नळवदाइ पोन्मरिण मय मागि नाना । पक्कमु मेर लागं पडि पदि नारदामें ।। ११६६ ॥ अर्थ - अनन्त सुखोत्सव, अनंत लघुत्व व अनन्त विचित्र ऐसे गुणों को प्राप्त हुए प्रनन्त वीर्य के धारक प्रहंत भगवान के रहने के स्थान में धर्म चक्र पीठिका है। उस पीठिका का विस्तार दो कोस का है । और जितना भगवान का प्राकार है उतना ही इस पीठिका का आकार है ।।११६६ ॥ उरं शंब पोड तुंबर वलं क्रोन् मंडल मोर, कोस । तरं नल वरंड कत्त तगत्तळव देयाय् ॥ विरं मलर् मारि मेला मुगत्तवाय् विळंद पोदिन् । टूरयिन वगत्तु नान्गु चदुभुग सूत मामे ।। ११७० ॥ अर्थ - श्रहंत भगवान के विराजने के स्थान पर जहां बलिपीठ है वह एक कोम का है। वहां वरण्डक नाम की ध्वजाए महान सुन्दर है। वहां देवों द्वारा पुष्प वृष्टि के स्थान में चारों दिशाओंों में चार मा खडे किये हैं ।। ११७० ।। चक्करं चावपोल तनुविले युमिळ चेनि । मिक्कमा मनिसे यारं विळंगु माइरत्तदागि || दिक्कुलास पोळ्दु काद नान्गदाय् शेरिदिरुदात् । विर्कन् मूंड्राय रख्पेराळि तान् विळंगु नि ।। ११७१ ।। अर्थ- देवेंद्र के धनुष के समान चतुर्मुख ऐसे भूतों के शरोर अत्यन्त चमकदार हैं। उनके मस्तक को रत्नों से सजाया गया है । वह सजा हुआ मस्तक तथा किरीट चमकता रहता है । उसका प्रकाश चार कोस तक पड़ता है। समवसरण का जब चलना बन्द हो जाता है तब तीन कोस तक प्रकाश पडता है ।। ११७१ ।। S मुन्नं पोडत्तिर् पादं कुरेंद कंड्र यंद बारे । येन मइलु मिल्ला वोक्कोडि पोडं तन्मेर ॥ सोनवा रुयरंदि तेंदु कोशमाम् तलत्तिन् मोदु । मन्त्रिय गदं कुडियिन मंडपमं कादमामे ।। ११७२ ॥ अर्थ - पहले कहे हुए प्रथम बलिपीठ की एक कोस की चौडाई है। उतना ही उत्सेध है । । वहां की लगी हुई ध्वजाओं में हंस, मयूर आदि पक्षियों के चिन्ह अंकित है। यह ध्वजाए Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुमंदर पुराण ४४४ ] बलिपीठ पर हैं । उस ध्वजा पीठ पर एक कोस चौडा गंध कुटी मंडप है । यह सभी मिलकर समवसरण में गंध कुटी का स्थान एक कोस विस्तार वाला है ।। ११७२. वान् पळिगालियंडू नालेंदु विल्लयरं द । नान्गु तंबंगळेंद नवमरिण मालं वाईर् ॥ शूळदं तनडुबेन् मुत्तमाले गळ् पत्तु बिल्लु । ताळं, दुशम्मुगिलि निड्रम तारं वंदिळिव पोंडू ।। ११७३ ॥ अर्थ- -उस गंधकुटी का मंडप स्फटिक मरिण से युक्त है और भगवान की ऊंचाई से बीस धनुष ऊंचा हैं । उस समवसरण के चारों कोनों में चार स्तंभ है । मंडप में ऊपर से नीचे तक रत्नों के हार लटके हुए हैं। बीच में एक मोतियों का हार ऊपर से नीचे दो घनुष प्रमाण लटका हुआ है । यदि दृष्टि डालकर देखा जाय तो वह ऐसा प्रतीत होता कि मानो आकाश से पानी बरस रहा हो ।।११७३ ।। मूंडू विल परंद गंडू मुळुमारिण पोटं शोय । मेंडू. मे लेळ व पोंडू विरंदन वंद पट्ट || तांडू पोनन म पोन् वोसियु नुन् टुगिलु मेवि । तोंडू मंडपत्ति नुळळार सुखरु मिळविरवि पोंड्र ॥। ११७४ ॥ ❤ अर्थ - इस मंडप का मध्य भाग तीन भाग उत्सेध तथा यथा योग्य इसका विस्तार है । रत्नों द्वारा निर्मित पीठ है। वह पीठ ऐसी लगती है मानों सिंह को उठाकर ले जा रहा हो । उम सिंह के समान पीठ पर स्वर्णमयी बिछोना, रेशमी पट वस्त्र बिछा हुआ है । उस पर चार अंगुन प्रधर जिनेंद्र भगवान विराजमान हैं। वे सूर्य के समान प्रकाशमान होते हैं । ।।११७४।। विल्लर यगंड, यरं दविळ मरिण पीड मेय । वेल्लै निन् ट्रिरु मरंगु मियक्कर् चामरं ईथक्क || नझेलिर् पीट मेवि नाग विदिररु नाना । विलुमिळ दिलंगु तोन् मेल् विळगुं चामरयराणा । ११७५ । अर्थ - उन प्रत भगवान के विराजमान रहने को पीठ प्रावा धनुष चौडी है । उस के चारों ओर तथा भगवान के आजू बाजू यक्ष देव व भवनवासी देव चंवर ढोरते हैं ।। ११७५० तामरं तत्तेदु पोम्मलं तन्नै चूळं द । कामर कनि येन कुळात्ति निन् नांगि लाद || चामरं तोगुदि नान्गु पत्तु नूराइर तान् । शोमरं बैंड मुंड कुडे इनान् बुडेय वामें ।। ११७६॥ 3 Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४४५ अर्थ-पानी से भरे हुए कमल के तालाब को मानो पक्षी मेरु पर्वत को प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान पर ढोरे जाने वाले धवल चंवर चालीस लाख थे जो चंद्रमा को किरण के समान दोखते थे। मानों चंद्रमा को किरणों को जीत रहे हो, ऐसे वे श्वेत चंवर दीख रहे थे ।।११७६।। करुत्ति नालडि वानोर् करत्ति नार कडेवंडि। युरत्त मंडवत्ति मुंब लुरगोर मूंड, पोल ॥ निरत्त मुन्निलत्तदा येन्दु विल्लोंगि योक्क । तर तलं कीळवगि यरैयरे मेल वागि ॥११७७॥ अर्थ-इस समवसरण की रचना देवों के अतिरिक्त किसी मनुष्य के द्वारा नहीं हो सकती है । जिनेंद्र भगवान की गंध कुटी के मंडप के ऊपर जिस प्रकार उर्द्ध व लोक, मध्यलोक और अधोलोक की रचना होती है, उसी प्रकार गंध कुटी की रचना होती है। यह गंध कुटी तीन मंजिल की है। नीचे की मेखला की पीठ का उत्सेध बीस धनुष है। दूसरे नंबर की मेखला की पीठ का उत्सेध दस धनुष ऊंचा तथा ऊपर का उत्सेध भी दस धनुष ही ऊचा है ।।११७७।। पडिगळिन् पंदि वायवल पर मन दुरुवमंगम् । कुडेय मुनिलंग न मुम्मै युलगिनु किर मै योदि ॥ इड इरंदिर वन् कोइर् किर मै कोंडिरुंद दुळ्ळार । कडैला वरिवन् गंद कुडिय माळिगे इदामे ॥११७८।। अर्थ-भगवान के गुणों को दूसरा भव्य जन जैसे समझा रहा हो इस भांति उस मंडप का निर्माण किया गया था। उस केवली भगवान की गंध कुटी इस प्रकार की है । ॥११७८॥ कुडत्तिशै कोडिनिरै पीडत्तिन मिशै । योडिनिलाय पिडि विल्लरुव दोगि मेर् ।। कडियुला मलर मिड कवडु केदमा। कुडियिनै सोळं दु कुलावि निडवे ॥११७६॥ अर्थ-ध्वजारों से परिपूर्ण ध्वजापीठ के पच्छिम भाग में अशोक नाम का वृक्ष है। वह वृक्ष साठ धनुष ऊंचा है। उसकी शाखाएं पुष्प तथा फलों से भरी हुई हैं। वह अशोक वृक्ष भगवान के चारों ओर से घिरा हुआ है ।।११७६।। मुत्तमा मारिण मुदन् माल ताळं दु पून् । दोत्तु मेर् दैदन सुरुबु वंडु तेन् । ट्रत्तिइन् पिरस मुंडेळुव तम्मोलि । मौइत्तलार कडन् मुगिन् मुळक्क मुगिन मुक्कुमे ॥११८०॥ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---- --2444444 मेरु मंदर पुराण अर्थ-उस अशोक वृक्ष की शाखाओं में मोती, रत्न तथा पुष्पों के हार लटक रहे हैं और उस वृक्ष के फूल खिले हुए हैं। वे पुष्प अत्यन्त सुगन्धित है। उस सुगन्ध के मधुर रस का रसास्वादन करने के लिए भ्रमर अपनी इच्छानुसार रसास्वादन करके उड जाते थे, और उडते समय उनके झींकार शब्द कानों में ऐसे मनोहर लगते थे जैसे कि मेघ गरज रहा हो ॥११८०॥ तरुवलि तलनल तडत्तिन् मोदला। विरुदुवु मलर मलरुड म दिडे ।। मरगत मरिणगळाय मुरिगळ वांडूळ । ररुमरिण यालि यंड्र रसोग निदे ॥११८१॥ अर्थ-उस वृक्ष की शाखाएं अत्यन्त बलिष्ठ हैं । उस वृक्ष से षट् ऋतुओं के फल फूल भगवान के अतिशय के प्रभाव से सदैव उत्पन्न होते हैं। उस वृक्ष के पत्ते ऐसे सुशोभित होते थे मानों हरे रत्नों की मरिणयां चमक रही हों ॥११८१॥ मुत्तम वाय शेरिंदन निरैद मुम्मदि । यौत्तु मू वुलगिनु किरै मै योदुव ॥ पत्तिइर कुइंदु निलाइरिंदु मेर् । शित्तिमा वेदै मुक्कवि सेरं दवे ॥११०२॥ अर्थ-उस अशोक वृक्ष के चारों ओर मोतियों के हार लटके हुए थे, मानों एक के ऊपर एक चंद्रमा ही पाया हो। अहंत भगवान के ऊपर तीन श्वेत छत्र लगे हुए हैं जो रत्नों समान देदीप्यमान होकर चमक रहे हैं ॥११८२।। पुंडरीगत्तोडु पुनरं द चाय पोर् । पिडियिन कोळ निळर् ब्रम्ह मूतिइन् । मंडलम् मलरडि वनंगि पिन्ट्रन । कंडवर पिरवि येळ कान निदे ।।११८३॥ अर्थ-उस वृक्ष के नीचे जहां जिनेन्द्र भगवान विराजमान है, पीछे की ओर प्रभामंडल है जैसे लाल कमल सहित कांति को प्रकाश करता हो। इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों में नमस्कार करके जो भव्य जीव प्रभामंडल को देखते हैं वे अपने पहले के सात भवों को जान लेते है ॥११८३॥ अंदमिलु वगयरान वानवर् । बुंदुभि मुलक्कोलि तोउरंद रावळ ॥ बंदुडन् वीळं द वानवर पै पूमळे ।। पवियं परवयं पिरवु मागवे ॥११८४॥ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ ४४७ अर्थ-अर्हत भगवान के चरण कमलों को भक्ति पूर्वक नमस्कार करके प्रानन्दित व संतोषित हुए वे देव अपने अनेक प्रकार के वाद्यों को बजाते रहते हैं । तथा वाद्य गर्जना व पुष्प वृष्टि करते रहते हैं ।।११८४।। मादवर तुरक्क मादवर् पुरियु मादर । जोतिडर वान वंदरर भवनर तन तोगै येन्नार ॥ मेदगु भवनर वान वंदरर विळंगुर् देवर् । सोदमनादि वानोर मन्नर सोल्लरि विळंगां ॥११८५॥ अर्थ–१ गणधर देव अनेक प्रकार के ऋद्धिवारी आदि महामुनि, २ कल्प वासिनी देवियां,३ ज्योतिषी देवियां,४ भवन वासिनी देवियां,५ व्यंतर देवों की देवांङ्गनाएं, ६ सौधर्म आदि कल्पवामी देव, ७भवनवासी देव, ८ व्यंतर देव, ६ ज्योतिषी देव, १० आर्यिकाएं, ११ चक्रवर्ती राजा महाराजा तथा मनुष्य प्रादि, १२ सिंह, व्याघ्र, सर्प आदि अनेक प्रकार के तियं च जीव भगवान के उपदेश सुनने वालों की इस प्रकार बारह सभाए हैं ॥११८॥ पनिरुगणमुं शूळ परुदिई नडुव नुच्चि । मनियवरुक्क नुत्तुं मंदर मुलग मूडिन् । तन्नडु विरुंद दोत्तुं तारग नडुवट सोम। नेन्नवु मिरुंद कोमान दृन्निडं कुरुगि नारे ॥११८६॥ अर्थ—ऊपर कही हुई बारह सभाए प्रदक्षिणा रूप में है जिस प्रकार चंद्रमा के चारों पोर तारे अर्थात् मध्यलोक में रहने वाले मेरु पर्वत को चंद्रमा और तारे घेरे रहते हैं, उसी प्रकार तीसरी पीठ में रहने वाले गंधकुटी में विराजमान भगवान अहंत के पास वे दोनों मेरु मौर मंदर राजकुमार पहुँच गये ।।११८६।। मेरुवं शूळ वोडं विरिगति रिरंटु पोल । दूकोन मंडलतं यूकुंबलं कोन मंडलत्ति नुळ्ळान् ॥ मारि पोन् मलर् सोंरि, वलं वोडुं परिणदु पुक्कार । तोरणं कडंद पोळ दिर द.रविनु किरै वन टोंड ॥११८७॥ अर्थ-महामेरु पर्वत को दोनों मेरु और मंदर सूर्य और चंद्रमा जैसे मेरु की प्रदक्षिणा देते हैं, उसी प्रकार दोनों पुष्प वृष्टि करते हुए प्रदक्षिणा दे रहे हैं। इस प्रकार प्रदक्षिणा देते हुए भीतर रहने वाली गंधकुटी के पास पाकर स्तूपों को दस प्रकार के तोरणों को छोडकर भीतर जाकर अहंत भगवान के मुख का दर्शन किया ॥११७॥ करंगळ मुन् कुविवं बुळ कमलंगळ विरितु कन्निर् । सोरिवन परंद रोमं पुळगंग रित्त बाय सोल् ॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ ] मेह मरर पुराण लरिंदन सुरंद कादलडि मुरै पुडुब लोयंद। विरिपन विनंगळेला मिरवि मुन निरुळ योत्ते ॥११८८॥ प्रर्य-उस भगवान के मुखकमल को देखते ही दोनों हाथों को कमलों की कली के समान बोडते ही उनके मन में प्रत्यन्त मानन्द उत्पन्न होता है। प्रानन्द होते हुए इस प्रकार उनके हृदय कमल विकसित होकर दोनों नेत्रों में प्रानन्दाश्रु निकल पडते हैं । तब उसी समय उनके शरीर में रोमांच खडे हो गये। उनके हृदय में जो मानन्द पा था उस पानंद को हम वर्णन करने में अशक्य हैं, वे दोनों कुमार आगे न बढकर भगवान के सामने खडे हो गये। खडे होते ही ऐसा प्रतीत होता था मानों दोनों सूर्य चंद्र ही आकर उपस्थित हुए हों । इस प्रकार वहां पर प्रकाश होने से जैसे अन्धकार नष्ट होता है, वैसे इन दोनों कुमारों के हृदय में छिपा कर्म रूपी अन्धकार नष्ट होने लगा ॥११८८॥ तुंव मार नेमियान काक्षि नल्लोळ क्क भाय । शवंवन् मुन्बु निड़ धरुम चक्करत्ति मुंवर ॥ मैदेरा नवर्गळेरि वलं कोडार चनइन् मुदि। तुंबि पोर परिणदेख्दु वाळ तु बु तोडंगि नारे ॥११८६॥ अर्थ-प्रकाश से परिपूर्ण ऐसे मंडप में क्षायिकज्ञान, दर्शन, चारित्र ऐसे प्रात्म स्वभाव गुण को प्राप्त और उनके सामने धर्म चक्र से युक्त रहने वाले केवनी भगवान के पीठ के ऊपर चढकर ये दोनों राजकुमार पाठ प्रकार की पूजा सामग्री से भगवान की पूजा की और साष्टांग नमस्कार कर खडे हो गये , और खडे होकर भगवान की स्तुति करना प्रारम्भ कर दिया॥११८६॥ कामादि कडंददुवू कवलप्पन नहुँददुवं कमल पोदिर । पूमारि पोळिय वेळंबळि य, पोन्नेइन् मंडलत्त सोग ॥ तेमारि मलर पोळिय शीय वनयमरंददुवं दवर कोमान् । ट्रामादि येनिंदु पनिदेख्ददुवं तत्व मेंडगवु वेन ॥११६०॥ अर्थ-वे दोनों राजकुमार इस प्रकार स्तुति करने लगे कि हे भगवन् ! हे रागद्वष परिषहों को जीतने वाले भगवन् ! आपको मोक्ष लक्ष्मी ने वर लिया है चतुर्णिकाय देवों ने पाकर पुष्पवृष्टि की। देवेंद्र ने आपके चरण कमलों के नीचे दो सौ पच्चीस स्वर्ण कमलों की रचना की है। प्राप उनको स्पर्श न करके चार अंगुल अंतरिक्ष ऊचे गमन करते हैं । जैसे पक्षी दोनों पांव समेट कर चलते हैं उसी प्रकार अप भी चलते हैं। और देवन्द्र तीन प्रकार की वेदी अशोक वृक्ष, सुरपुष्प वृष्टि, दिव्यध्वनि, सिंहासन, भामंडल, चामर आदि तुम्हारे अतिशय सदैव रहते हैं। जब वे रहते हैं तब देवेंद्र पाकर षोडश प्राभरणों से सुशोभित होकर नमस्कार करने योग्य प्रापको नमस्कार करता है ।।११६०।। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ ४४६ बोरु मोळिय पदिनेट्टा युलगरीय वियंवियदु मोळि कोन् मुंडिर् । ट्रिरु मरुवाय तिगळ गिड़ तिरुमूर्ती यदनळगुं देव निवान् ।। मरुवि नर्कु मल्ल वर्षा मोत्तिरुदुम प्रडेदु वधु वातननगुं। पेरुमयमु.वतिशयमु पिरारिग ये मूवलगोर पिरा नागिड़ाय ॥११६१॥ अर्थ-हे भगवन् ! आपकी दिव्यध्वनि एक प्रकार होने पर भी सात सौ महाभाषा और अठारह सौ क्षुल्लक लघुभाषा में परिणत होकर इस लोक में रहने वाले जीवों को प्राप आपकी भाषा में समझ लेते हैं। मन ज्योति, काय ज्योति, वाग्ज्योति से युक्त एक हजार आठ लक्षण को प्राप्त. परमौदारिक दिव्य शरीर को प्राप्त हुये हे भगवन् ! प्रापके पास आये हुए भव्य जीवों पर और तुम्हारे पास न आने वाले मिथ्यादृष्टि जीवों पर दोनों पर समान भाव रखते हैं । अपने पास आये हुए भव्य जीवों को उपदेश देने की शक्ति स्वभाव से रखते हैं। इसलिये पाप साक्षात् हितोपदेशी हैं । सम्पूर्ण राग नष्ट होने के कारण आप पूर्ण वीतरागी हैं । सम्पूर्ण चराचर वस्तु एक साथ जानने के कारण हो आप सर्वज्ञ हैं। यह सभी अतिशय कर्मक्षय होते ही स्वभाव से प्राप्त होते हैं । इसलिये आप इस लोक में रहने वाले समस्त जीवों के स्वामी कहलाते हैं ।।११६१॥ विलंगरसन वलिविलाक्कि वेर् पोळिदु विमल माय वेळिदा युन्मे । विलंगु पोरि यायिरत्तोट्टिींव ळगारं नविळनाट मियल्वाइन् सोर् ॥ पुलं तनक्किन्नमुदागि वज्जिर पूण शरिंदानि येरैद यापा। इलंगु वटि वुडय तिरु मूर्तीयल पतिशय नेम्मिरैव नीये ॥११९२॥ अर्थ-सिंह इतना पराक्रमी व क्रूर होने पर भी अपना वैरभाव छोडकर आप को शरण लेकर हाजिर रहता है। आपके शरीर में रजोमल के प्रभाव से आपके शरीर में दूध के समान रक्त रहता है । और आपके शरीर में एक हजार पाठ लक्षण होकर उपमातीत ऐसे अतिशय स्वभाव से होते हैं। इसकी भक्ति से श्रीदेवी आदि सदैव सेवा करने में तत्पर रहती है । आप सभी समचतुरस्त्र संस्थान को प्राप्त होकर आपका शरीर वज्रवृषभ नाराच संहनन वाला है । इस प्रकार अनुपम गुणों को प्राप्त हुए, हे हमारे स्वामी ! । ११६२।। शामै पार्शयिमै पोळि, चदुमुगमाय मेंयिरुगिरुवम् मळविर केट । काय मिश युलवि नल कल केल्ला मिरवनु माय करुम केटि। नोचन नानूरगत्ति नुइर कळिव पार्शकळ ब सरुक नींग । तेशि नोडु तिळेत्तिरुंद तिरुमूर्ति यतिराय नेम शेल्व नोये ॥११९३॥ अर्थ-छाया रहितत्व, निर्मुक्तित्व, निनिमेषत्व चतुगननत्व को प्राप्त होकर समान नख केशत्व प्राप्त होकर इस धरती के ऊपर गमन न करते हुए प्राकाश में चलने वाले आप सर्व विद्येश्वरत्व को प्राप्त करने वाले हैं । आप जहां विराजते हैं वहां चारों तरफ चार योजन Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ] मेरु मंदर पुराण तक प्रशांति नहीं होती है, अकाल और दुर्भिक्ष नहीं होते हैं, अकाल वृष्टि नहीं होती है । श्रापके चार घातिया कर्मों का नाश होता है। आपके परमोदारि शरीर देखकर आपकी स्तुति करने की भावना होती है ।। ११६३ ।। • तिरुमलिइन् वियत्तगवु मनतुइ रिन् मैत्तिरि चुन तिक्का काय । निरुमलमाय् विळं गुद लेव्विरुदुवं वंदुड निगळ व निलत्तु पंगुळ ॥ पेरुमे योजुमंगलंगं लर वालि पूमारि नरं काटुम् पोन । मरे मलरि निरं मोल वानवरिन् वरुमतिशय नम्मानीय ।। ११६४ ॥ अर्थ- आप की सभी को आश्चर्य करने योग्य वाक्प्रवृत्ति, सर्वजीवों में मैत्रीभाव, बदऋतु के फलफूल, धान्यादि उत्पन्न होकर धान्य समृद्धि होना । अष्ट मंगल द्रव्य, पुष्पवृष्टि मंद २ वायु का बहना, सोने से निर्मित श्रेणी के कमलों का देवों द्वारा निर्माण होना । ये सभी देवकृत अतिशय हैं । ऐसे अतिशय को प्राप्त हे भगवन् ! ग्राम हमारे लिये स्वामी हैं । ११६४॥ अळंदु विनं परं पुरं केडने तुलगु मलोग सुबेद नगत्ति नोंगे। बळंदरि विन मुगत्ता लेप्पुरुळु मुन दगत्तडविक इदोय् वंदु ॥ शेळकुंड शेरिविरुदु मुळंगु मेळिन् मुगिल पोल विराग मिट्टि । येळंबरुळि बिरुदे पोरुळ, मरुळिय वेगळिरैव नीये ॥। ११६५ ।। अर्थ - आत्मा के अंदर प्रनादिकाल से बंधे हुए चार घातिया कर्मों का नाश कर लोक और अलोक में रहने वाले सभी द्रव्य पर्यायों को अपने केवलज्ञान के बल से जानने की शक्ति को प्राप्त किये हे भगवन् ! आप चाकाश से मेघ समूह पर्वत पर उतरकर गर्जना करने के समान है । और आपको किसी प्रकार का दुख नहीं है। इस प्रकार आप किसी प्रकार कष्ट को न प्राप्त हो कर 'त्रमेखला पीठ में विराजमान होकर समस्त चराचर पदार्थों को प्रापकी पवित्र दिव्यध्वनि से कहने वाले हे भगवन् ! ।। ११६५ ।। शकंमल तुलवु मुंड्रन ट्रिबडि यं निनतिडवे सित्ति यन्तु । मंगने बंदवरं यडविडे वदन मेर कोर्डरंड्रा यदळ नोंगि ॥ ariai कोडुं नं यया होळिव वर गणेडंतु यरिन वोळक्काना । वंग वर मेलरुळ पुरिषु मुनिबु भगत् द्रिरुंदनं येस्मिरैव मीय ॥ ११९६ ॥ अर्थ-लाल कमल के ऊपर विहार करने वाले प्रापके चरण कमलों को अपने मन में भावना कर आपके स्वरूप को जानकर आपकी भक्ति करने वाले जीवों को मोक्ष लक्ष्मी बरती है । परन्तु प्राप दुखी जीवों को देखकर दुखों को नाश करने की भावना नहीं करते हैं । और सुखी जीवों को अधिक भक्ति करने वाले समझकर प्राप उनसे प्रेम नहीं करते हैं। ऐसे समभावों के धारक हे भगवन् ! ।।११९६ ॥ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [४५१: श्री महावीर जैन आराधना के पोटु वगैयार पोरुळेला मोंड्र येडूरुळ, शंद पोटुव लाद । विदि वगयार पोळेलावेरे अँड्रन्विरंडु मोड़ ड स् ॥ पोदुविरिव पोरुनिगळ, वाल विव्वेरा योंड़ मा मेंड्रा लुन सोन् । मेदि फेरि मिलादाकु मारागितोंड्रादो वानोर कोवे ।११६७॥ अर्थ- हें देवधिदेव भगवन् ! तुमने उपदेश दिया है कि सब ही जीवादि द्रव्य सामान्य रूप से एक हैं और विशेष गुणों से भिन्न २ हैं । ऐसा भव्य जीवों को समझाया है । अस्तित्व, नास्तित्व, स्वभाव पर्याय, विभाव पर्यायों से परिरणमन करते हैं । इसी तरह अल्प ज्ञानी लोग आपके उपदेश को नहीं समझते है । अतः उन्हें प्रापके अनेकांत मन में विरोध भागता है । जैसे कि समंतभद्राचार्य ने कहा हैं: - अनेकांतोऽप्यनेकांतः प्रमारणनयसाधनः । अनेकांतः प्रमाणस्ते स्यादेकांतोऽपितान्नयात् ॥ अर्थ - अनेकांत भी कथंचित् प्रमारणनयों के निमित्त से अनेकांत है । अनेकांत माण दृष्टि से कथंचित् अनेकांत रूप है । और विवक्षित नय दृष्टि से कथंचित् एकांत रूप है । ।।११६७।। प्रादिया याविला गेंदमा यदमिला यडेया देदु । पोदि याय पोदिलाय पुरत्तायप्पुरिळी निक्कुंमगत्ताय मूंड. ज्योतियाय् ज्योतिलाय् सुरुंगदाय् पेरुगादाय् तोंड्रामाया । नदि या नीदिलाय निर्नपरियाय विनंप्पगं येम्मिरैवं नोय ॥२१६८ ॥ अर्थ- ज्ञानदर्शन से युक्त स्वभावरूप श्रात्मस्वरूप को प्राप्त हुए हे भगवन् ! द्रव्यार्थिक नय के तन्मय से अनादि कहलाने वाले संसार का त्यागकर अन्तरहित तत्व को प्राप्त होकर शाश्वत रहने वाले आप ही हैं । इन्द्रिय सुख को त्यागकर प्रतींद्रिय सुख को प्राप्त होने वाले श्राप ही हैं । प्रवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान को प्राप्त हुए आप ही हैं। परपदार्थ प्रापके अन्दर न घुसने के कारण स्वपदार्थ को जानने वाले स्वयंभू प्राप ही हैं । सकलगुरणों को ज्ञानानंद. स्थिति को प्राप्त हुए प्राप ही हैं। शुद्ध दर्शन, ज्ञान, चारित्र को प्राप्त हुए आप ही हैं। ग्रात्म ज्योति को प्राप्त हुए प्राप ही हैं । प्रापके प्रन्दर प्रात्म-ज्योति के अलावा बाहर का अन्य कोई प्रकाश नहीं है । ग्रापमें सभी गुण कभी कम ज्यादा नहीं होते हैं । द्रव्याधिकनय से जन्म-मरण रहित होकर नीतियुक्त प्रारंभ स्वभाव से युक्त प्राप ही हैं। पर्यायार्थिक नय से नीति स्वरूप से रहित होने वाले प्राप ही हैं । प्रचिन्त्य स्वरूप प्राप ही है । कर्म शत्रु के नाश करने वाले भाप ही हैं। इसलिये माप ही हमारे स्वामी हैं ॥ २२६८ ॥ " कामर बुंदुभि करणं कडिमलर मामळं पुळिय कवीर पोगं । मरु पूस पिंडि इन कोळ मंडलस् पोम् दिशं कुलब तिंगळ बट्टं ॥ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ ] मेरु मंदर पुराण तामह मड़े नेय मरिण मुक्कुडे कोळ मिक्क बिनै युडेय सेल्लुं । शेम मुड नेरियरुळि सोय बने यमरं बने यम् शेल्बनीय ॥११६६॥ पर्व-मापको किसी प्रकार की इच्छा नहीं है, तो भी देवों के वाथ हमेशा बजते रहते हैं । चतुर्णिकाय देव पुष्पवृष्टि करते हुए छत्र चामर चारों मोर ढोरते रहते हैं। सुगंधित पुष्पों से युक्त हारों को पहनते रहते हैं अशोक वृक्ष के फूलों को देवों द्वारा माप पर बरसाये जाते हैं। अपने प्रभामंडल के किरणों से चारों ओर फैले हुए हैं। मानों तीनों प्रकार के चंद्रमंडल खडे हुए के समान तीन छत्र माप के ऊपर सदेव प्रकाशमान हैं। और अपनी दिव्यध्वनि से मोक्ष मार्ग का उपदेश देते हुए, सिंहासन पर विराजमान हे भगवन् ! भाप ही माश्वत संपत्ति को देने वाले हैं। इस प्रकार दोनों कुमारों ने भगवान की स्तुति की । ॥११ ॥ इने यन तुबिई नो डिरें मेल्ले इन् । विनेगळिन परगळ व मेंदर कन् । मुनिम बडिविन मुस्वि नितम् । विनमळे मुबलरल बेरिय वेनिनार ॥१२०॥ अर्थ-इस प्रकार उन दोनों कुमारों के भगवान की स्तुति करके भक्ति से नमस्कार करते समय कर्मपिंड का भार हल्का हो गया। इस प्रकार हल्का होने से उन दोनों कुमारों ने सर्वोत्कृष्ट वैराग्ययुक्त संसार शरीर भोग से विरक्त परिणाम होने से उन भगवान के पास निग्रंथ दीक्षा धारण कर कर्मनाश करने का विचार किया ॥१२००॥ येत्तरं गुरगत्तव तिरव यामुई। गोत्तिरं कुलमिव येरुळ वाळिनि ।। नोट: पिरवि नीर कडले नींदु नर । ट्रेप याम् तिरुवुर वेंडिरिरै जिग ॥१२०१॥ अर्थ-इस प्रकार मन में विचार कर कहने लगे कि गणधरादि मुनियों के अधिपति! हे स्वामी सुनो! हमारा कुल उच्च है, इसलिये अत्यन्त दुस्तर संसार रूपी समुद्र से पार करने के लिये से तुरूप मुनि दीक्षा का अनुग्रह करो। इस प्रकार भगवान से प्रार्थना की ॥१२०१॥ मडिगळ कडगम मृत्तिन् पून्गळुम् । करि मिरी कांचियु नानु माडयं ॥ वरिवर तडकैयाल वांगि विट्टवें। विड़ सुडर विळक्किन मुन् निमंतु वोळं दवे ॥१२०२॥ अर्थ-इस प्रकार भगवान ने इनकी प्रार्थना सुनकर तथाऽस्तु कहा। तदनन्तर वे दोनों कुमार जैसे अपराधी दुष्ट आदमी को हद्द पारकर देते हैं, उसी प्रकार अपने शिर के Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -~-~~-~~------- ------- -- - -- --- -- - ----- -- ----------------------- -- मेरु मंदर पुराण [ ४५३ मुकुट, हस्तककरण, मेखला (करधनी) अनेक प्रकार के राज्य चिन्ह रत्नों के ग्राभरण, वस्त्र, शस्त्र आदि निकाल कर अपने हाथों से दूर फेंकने लगे ।।१२०२।। कुरु नेरि पइडल कुंजि येजोला । नेरिभये परनेरि निनप्प नीकुमेन् ।। ररिवन तडि मुदलंबदं सोला। नेरिमै यो नीकिनार नोंडि तोळिनार ॥१२०३॥ अर्थ-तदनन्तर उन दोनों राजकुमारों ने पूर्वाभिमुख पर्यङ्कासन से बैठ कर ॐ नमः सिद्ध भ्यः इस प्रकार तीन बार बोलकर पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए विधिपूर्वक पंचमुष्ठि केश लुंचन किया ।।१२०३।। मर्पु यत्तार् मयिर् वांगि निबर् । कर्पग भिल मलर कळंड दुत्तनर ॥ मट वानवरंन मथिर मालयार । सुट्रिवान कालिडं तोळ दिट्टार्गळे ॥१२०४।। अर्थ-तत्पश्चात् दोनों कुमारों ने भगवान की साक्षी पूर्वक दीक्षा विधिपूर्वक ग्रहण की। दीक्षा लेने के बाद उन कुमारों के लुंचन किये हुए सिर ऐसे दिखने लगे जैसे कल्प वृक्ष की लता पतझड होने से स्पष्ट दिखाई देती है। इसी प्रकार सिरमुंडन के साथ दस प्रकार का मुंडन भी कर लिया। दस प्रकार के मुंडन निम्न प्रकार हैं । __ मन मुंडन, इन्द्रिय मुंडन, चार कषाय मुंडन, वचन मुंडन, तन मुंडन, हस्त मुंडन, पाद मुंडन । तदनन्तर केश खंचन किए हुए बालों को देवों ने भक्ति से उठाकर समुद्र में क्षेपण कर दिए ।।१२०४।। शीलमुं वदंगळं शेरिद वेल्लइन् । मालयुं शांदमु मेंदि वानवर ॥ कोलमा दवर गुरणं पुगळं विरैजिना। रेलवन पिरिये ळडेंद वेबवे ॥१२०५॥ अर्थ-उन दोनों मुनिराज की शीलाचार सहित महावत को धारण करते समय देवों ने पुष्पवृष्टि करते हुए प्रष्ट द्रव्य से पूजा की। दीक्षा लेने के कुछ समय पश्चात उन दोनों मुनिराजों को सप्तऋद्धियां प्राप्त हो गई ॥१२०५।। पोदि या रंदुमा मरंदुभावव । नीदि नारसुवै बलिकन् मूडिन् । Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ ] अर्थ मेरा मंदर पुराण डोबिना कुरं पडा बुरंबु ळू णिवे । यादियां मादव रिद्धि वण्णवे ।। १२०६ ॥ - वह सप्तऋद्धियां निम्न प्रकार से हैं: बुद्धिऋद्धि छह प्रकार की, औषधऋद्धि पांच प्रकार की, तपऋद्धि चार प्रकार की रसऋद्धि चार प्रकार की, बलॠद्धि तीन प्रकार की, अक्षीण, ऋद्धि दो प्रकार की, विक्रिया दि माठ प्रकार की ।। १२०६ ॥ तुवर, पर्स नानुगोड तोड व पत्तुमा । सुवपुं नीरा कळिई युळ्ळस तुयमा ॥ तनत्तवर, पुरपत्तु मासु तन्नषु । मुवत्तल काय विलामया लोरुवि नार्गळे ॥। १२०७ ।। अर्थ- कोष, मान, माया, लोभ इन चार कषायों से युक्त, मिथ्यात्व, नपुंसक बेद, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इन चौदह प्रकार के परिग्रहों को अभ्यंतर (वैराग्य रूपी पानी से मनःपूर्वक शुद्ध तप का आचरण करते हुए तथा बाह्य परिग्रह जो क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य सुवर्ण धन, धान्य, दास, दासी, कुप्य, भांड इन बाह्य १० परिग्रहों को त्यागकर निष्परिग्रही बन गये ।। १२०७॥ वोळुक्क नीर कुळित्तड्डु तंबरति नै । वळुकिला मादवच्चां मट्टिया || विळुग्गुरण मरिण मैनि सेति नार । तोळिर ट्रोर्ड शील मा माले शूडिनार ॥१२०८ ।। अर्थ – सम्यक् चारित्र रूपी जल से स्नानकर प्रकाश रूपी भ्रम्बर धारण करके महातप रूपी सुगंध चंदन, सम्यक्ज्ञान रूपी गुणाभरण को धारण किया । तत्पश्चात् शीलाबार को धारण किया || १२०८ || विदि मनर, तर्म बेल बंद केवलत् । तदि पदि तनक्किळ वरस राग नर ॥ सुदमलि केवल पट्ट् सुडिनार । विदियिना लिरं वने वंदिरंजिनार ।। १२०६॥ अर्थ-कर्म रूपी वैरी को जीतकर केवलज्ञान को प्राप्त हुए भगवंतों की युवराज पदवी धारण करने के समान ही वे हो गये अर्थात् वे दोनों मुनि श्रुतकेवली होकर भगवान के पास प्राकर उन्होंने नमस्कार किया || १२०६ ॥ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४५५ इरव निन्नडि यडे युलगियर्फयुं । पेरु परु लळवै युं पिळत्त नीदियुं ॥ मरविन मनमिग वरुदर केदगें । पिरविइन् विकर्षमुं वोटिन पेट्रिएं ॥१२१०॥ ___ अर्थ-तदनन्तर वे दोनों श्रुतकेवली भगवान से करबद्ध प्रार्थना करने लगे कि हे प्रभु ! तीन लोक का स्वरूप, जीवादि तत्वों का प्रमाण, उन तत्वों को मिथ्यात्व के कारण बाधा पाने वाले पाप कर्म, आत्मा के अन्दर आकर बंध के होने वाले कारण तथा संसार तथा मोक्ष के स्वरूप का माप विवेचन कीजिये ।।१२१०॥ अरुळेन विरैजलु मरिण कट्टिणपुर । मुरसु निदिर् वदि ने दु केवल ।। तिरुविडु तूदि पोल सेंज्वल वल्लिदान । मरुविनान् मुनिवर तस् मरणतगत्तये ॥१२११॥ अर्थ-इस प्रकार बियालीस प्रकार के प्रश्न करने के बाद भगवान की दिव्यध्वनि ऐसी प्रगट हुई, जिस प्रकार मेघों की गर्जना होती है। उसी प्रकार गर्जना के समान भगवान के सर्वाङ्ग से दिव्यध्वनि के खिरने के बाद सम्पूर्ण भव्य जीव जो बारह सभाओं में बैठे थे , उन सब के ऊपर जलवृष्टि के समान दिव्यध्वनि खिरने लगी ॥१२११।। पोर तिरुमोळियुमे पदिनेन पाडेयाय । मरुविय दोजन मिगुदि मंडल ॥ तरुगिडै मुडि वदनगत्त वर्केला । मरुवर्ग यालिनि तायोलित्तदे ॥१२१२।। अर्थ-उपमा रहित दिव्यध्वनि एक होने पर भी वह सात सौ पठारह भाषाओं में परिणत होकर भगवान विमलनाथ स्वामी के ६-६० योजन विस्तार वाले समवसरण की बारह सभाओं में बैठे हुए भव्य जीव अपनी २ भाषा में एक साथ समझ गये ऐसी वह भगवान की वारणी प्रगट हुई ॥१२१२।। बिनविय पोळेला विळुगि मैत्तवर । मनं वलि मोळिवाळि वांगि येप्पोर ॥ बनित्तनियागं नार्पत्तिरंडदाय । मुनिवरचंदु मामुरिण वर् कोदिनार ॥१२१३॥ अर्थ-जिस समय भगवान की दिव्य ध्वनि खिरने लगी उस समय ये दोनों मेरु Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ ] मेह मंदर पुराण व मंदर श्रुतकेवली, भगवान के द्वारा बाणी खिरी हुई को श्रुतज्ञान के बल से अशरूप में जानकर उसको सूत्ररूप में गूंथ लिया ।।१२१३।। मुडिविडे यगलमायद मोंडूळ मुळ । विडेइनै कइरगंड्रेळ नीळमा । यडिई नेळगंड नीडयर मीरेळ माय । वडि बुड़े युलग मूवांत शूळंददे ॥१२१४॥ अर्थ-हे भव्य मेरु व मंदर सुनो! इस लोक के शिखर में मध्य लोक में पूर्वापर विस्तार एक राजू है । तथा ब्रह्मलोक में पांच राजू चौडा व सात राजू अधोलोक में चौडाई में है। दक्षिण उत्तर सब जगह सात राजू है। ऊंचाई चौदह राजू है । यह लोक चारों ओर धनोदधिवात, घनवात, तनुवात इन तीन वातवलयों से वेष्टित है ।। १२१४।। मुळंदै कावद मेळ् मुडिदुळि । मुळंजिलै गावद मूंड, बीळं दोर्प ।। ले©दिवा रेळ करैद चन्ड्रिड । बिछंदवा रोळिंद दोंडागु मेन मुगं ॥१२१५॥ अर्थ-इस प्रकार नीचे सात राजू , मध्य में एक राजू, लोक शिखर में एक राजू ब्रह्मलोक में पांच राजू इस प्रकार लोक का स्वरूप है ॥१२१५।। अरे मुळ मेळ शेंडूगु नान् मुळं। पेरुग विवाट्रिनार पेरुगि शेंड्र मे ॥ ळर येळ कायट्रि नैगइर् कंड मेर् । पेरुगिय पडियिनार पिन् सुरुंगुमे ॥१२१६॥ अर्थ-मध्य लोक से ऊपर साढ़े तीन राजू जाकर वहां पर पांच राजू चौडा होकर फिर क्रम से घटता हुआ सिद्ध शिला के पास लोक शिखर पर एक राजू चौडा रह गया। ॥१२१६॥ पोदुवि नालोंड, माम् नाळिपाइरं । विविइना सुलगिरंगगग रिनार ॥ मुद नडु विदि यान् मूंड. मागिनार । गति रना निलत्ति नांगानु मेंबवे ॥१२१७॥ अर्थ-सामान्य से लोक का स्वरूप इस प्रकार है। लोक का स्वरूप एक प्रकार है और दूसरा लोक त्रसनाडी और बाह्य के भेद से दो प्रकार है। और अधो, मध्य, ऊर्व के भेद Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण [ ४५७ से तीन प्रकार है। पौर नरक, तिर्यच, मनुष्य और देवगति के भेद से चार प्रकार है। ॥१२.१७॥ अंजुमाम पंजत्ति कायत्तारमा। मेंजिय कालत्तोडेळुनारगर ॥ नंजुदारि कनर रुळियर मेलव । रंजोला रिलादव रगदियार किडम् ॥१२१८॥ अर्थ-पंचास्तिकाय की अपेक्षा से लोक पांच प्रकार का है। जीव, पुद्ग, धर्म, अधर्म माकाश और काल ये छह प्रकार का है। और नरक लोक, भवनवासी लोक, मनुष्य लोक, ज्योतिष लोक, कल्पवासी लोक, अहमिंद्र लोक और सिद्ध लोक यह सात प्रकार के लोक हैं। ॥१२१८॥ नि गोदमे निरं यंग ळंजु तनिडे । पगावळ बगलमोर केइट्र वागुमे ।। मिगादोर केरुवान् मेरु वैदिडा। पगानर किरंडु मेर् भवनं पत्तुमाम् ॥१२१६॥ अर्थ-निगोद में पूर्वापर की अपेक्षा से चोडाई सात राजू है। उत्तर-दक्षिण सर्वत्र सात राजू है । इस प्रकार क्रम से घटता २ अधोलोक में पूर्वापर एक राजू , ऊपर जाकर क्रम से घटता हुआ एक राजू की ऊंचाई पर 3 राजू है अर्थात् ३ राजू है। इससे प्रागे क्रम से कम होता हुआ मध्यलोक में एक राजू रह गया ।।१२१६।। वंडर योडर पर योडार माय । निड्वोंडुरक्क मोर् कर निडवा ॥ मंडि येळ निलप्पुरै नपित्तोंव दिर । सेंड्र विदिरगत् तेंडिशैयुं शेरिणये ॥१२२०॥ अर्थ-चित्राभूमि के ऊपर ,३ राजू उत्सेध में सौधर्म ईशान कल्प है । उस पर डेढ राजू पर सनत्कुमार कल्प है। उसके ऊपर छह युगल कल्प तक प्राधा २ राजू उत्सेध है। अन्त में एक राजू उत्सेध प्रहमिंद्र लोक है। इसके अतिरिक्त सात नरक पटल प्रधोलोक में छह राजू ऊंचाई में है । सातों नरकों में उनचास पटल हैं। पाठ दिशाओं में श्रेणीबद्ध बिल हैं। और बीच में एक २ इन्द्रक बिल हैं ।।१२२०।। पारेट्टां विदिक्फि लोंडोंडा गवं विक्किलामे । लुरिट्ट सेरिणबंदम् पुरंदोंडोळि दोंड्राइ कोळ ॥ नूरिट्टाइरंगळे शमैगरें मैंदु मूवै। तेरिट्टी रैदु मूंडोंडेदिला वैदु कोळाम् ॥१२२१॥ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेद मंदर पुरारण ४५८ ] अर्थ-- पहले नरक के प्रथम पटल में दिशा में श्रेणीबद्ध उनचास बिल हैं श्रीर विदिशा में अडतालीस बिल हैं। यह प्रथम पटल में है । पीछे एक २ पटल में एक २ बिल कम होता गया है । अन्त के उनचासवें पटल में एक २ बिल है। विदिशा में नहीं है । प्रथम नरक में तेरह पटलों में सब तीस लाख बिल हैं । द्वितीय नरक में ग्यारह पटलों में पच्चीस लाख बिल हैं। तीसरे नरक में तो पटलों में पंद्रह लाख बिल हैं। चौथे नरक में सात पटलों में दस लाख बिल हैं। पांचवें नरक में पाँच पटलों में तीन लाख बिल हैं। छठे नरक में तीन पटलों में पांच कम एक लाख हैं । सातवें नरक में एक पटल में पांच ही बिल हैं। कुल मिलाकर चौरासी लाख बिल हैं ।। १२२१|| असुरर नागर पोन्नर तीवरेत् । डिसपर तीयवरुदगर, वायुवर ॥ विशै इन् मिन्नवर, मेग रागमत् । दशनिकायमां भवनर तांगळे ॥। १२२२ ॥ अर्थ - भवनवासी देवों में असुकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार, दिक्कुमार, अग्निकुमार, उदधिकुमार, वायुकुमार, विद्युत्कुमार, मेघकुमार ये दस प्रकार के देवों के भेद हैं ।। १२२२।० प्ररुवत्तु नांगु नांगोšवत्तेळ पत्ति रंडुम । शेरवुद्र तोन्नुट्रारुं शेप्पिय वेळ पत्तारं || मरुवद्र वसुरर नागर, पोन्नर, वायुकळ मट्टै । रु वकुं वेरु नगईरं भवनंगळामे ।। १२२३ ॥ प्रथं-दोष रहित असुरकुमार के चौसठ लाख भवन हैं। नागकुमार के चौरासी लाख भवन हैं । सुपर्णकुमार के बहत्तर लाख भवन हैं, वातकुमार के छिनवे लाख भवन हैं और छह प्रकार के देवों के एक २ के छिहत्तर २ लाख हैं ।। १२२३ ।। भवनर तं भवनंगळ कोडि येळोडु । शिवनिय वेळुवत्तोडरंडु ल्लक्क माम् ।। वरं यशुरर् कायु वान् कड । मई र तनु वैयदोंगि नार ॥। १२२४॥ अर्थ - भवनवासी देवों के सब मिलाकर सात करोड बहत्तर लाख भवन हैं । असुर कुमार देव की उत्कृष्ट प्रायु एक सागर है, और एक शरीर की ऊंचाई पच्चीस धनुष है । ।। १२२४।। पल मूंड्रिरंडरं इरंतु मूवरं । शोलिय नागर नर, सुवरपर तीवरो ॥ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५६ मेरु मंदर पुराण उल्लव ररुवकुं मायु नागर्छ । विल्लुमूवैदु मेलवर कोरैदु माम् ॥१२२५।। अर्थ-नागकुमार देव की आयु उत्कृष्ट तीन पल्य, सुपर्ण कुमार देव की उत्कृष्ट प्रायु अढाई पल्य, अग्नि कुमार की उत्कृष्ट प्रायु दो पल्य है और शेष सब देवों की प्रायु डेढ २ पल्य है। नागकुमार देव की शरीर की ऊंचाई पंद्रह धनुष है । शेष सब देवों ऊंचाई दस २ धनुष की है ।।१२२५।। मानव रुर विडं मंदरत्तिनं । तानडु वुडैयदु दीप सागर ॥ मूनमि लिरंडर इरंडु माय पुगे । तान वट्रिडै योंवत्तंदु लक्क माम् ॥१२२६।। अर्थ-मनुष्यों के रहने के स्थान जम्बूद्वीप, धातकी खंड, पृष्कराड़ ऐसे ये अढाई द्वीप हैं। इनको दो समुद्र घेरे हुए हैं। उनके नाम लवण तथा कालोदधि है। इन प्रढाई · द्वीप और दोनों समुद्रों का विस्तार पैंतालीस लाख योजन है ।।१२२६।। पारियर म्लेंचरावार मानव ररत योर्वा । ररियर दरुम कंडम नूळ वत्ति नावार् ॥ वारियुट्टिवु तोन्नुदारु मट्टै कंडत्तुम् । शेरुन ररत्तै शेरार म्लेचराय सेप्पपट्टार ॥१२२७॥ वंड्रदाम् कालर वालर कोंबर सेवियर् शीयम् । पंड्रिमान् कुरंगु कीरि योट्टगं करडि यादि । वंडला मुगत्तर पल्ल मायुगं कादमोक्कं । तिडिडा पळत्तं मन्ने मुळ जि मरत्तुन सेार ॥१२२८।। अर्थ-मनुष्य में प्रार्य और म्लेच्छ ऐसे दो भेद हैं । धर्म मार्ग के अनुसार चलने वाले को प्रार्य कहते हैं , और वे एक सौ सत्तर धर्म क्षेत्र कर्म भूमि के प्रार्य खंडों में उत्पन्न होते हैं। महालवण समुद्र तथा कालोदधि समुद्र के दोनों तटों पर चौवीस अंतर्वीप म्लेच्छक्षेत्र हैं। सब छियानवें क्षेत्र हैं। उनमें एक टांग वाले हरिण, घोडे, तथा सुपर, ऊंट, सिंह, वानर, रीछ प्रादि के समान मख वाले, लंबे कान वाले प्रादि नाना प्रकार के म्लेच्छ मनुष्य एक पल्य की आयु वाले रहते हैं, तथा कर्मभूमि के एक सौ सत्तर क्षेत्रों में पांच २ म्लेच्छ खंड हैं । कुल मिलाकर पाठ सौ पचास खंड हैं। उन म्लेच्छों का,शरीर दो हजार धनुष उत्सेध रहता है, और वे फल फूल और मीठी मिट्टी खाकर जीवन व्यतीत करते हैं। बे म्लेच्छ वृक्ष के कोटरों तथा गुहा प्रादि में रहते हैं ॥१२.७॥१२२८।। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. ] मेरु मंबर पुराण इमैयमा लिमयमुं निडव नीलियुं । शिमय नरिक्कियुम शिकरि यामले ॥ तमैनडु वुडय वेळ नाडि बद्रिनुट् । समय मा रुडय वाम् भरत रेवतं ॥१२२६॥ अर्थ-हिमवन पर्वत,महाहिमवन पर्वत,निषध पर्वत,नील पर्वत,रुक्मि पर्वत शिखरी पर्वत ऐसे छह कुलाचलों के बीच में भरतादि सात क्षेत्र हैं। भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ऐसे सात क्षेत्र हैं । मेरु की दक्षिण दिशा में भरत क्षेत्र है और उत्तर दिशा में ऐरावत क्षेत्र है । ये दोनों क्षेत्र अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी काल का परिवर्तन वाले हैं ॥१२२६॥ नन्मयुं नन्मयुं नन्मयायटुं। नन्मइर् द्रीमयुं तोमै नन्मयुं ॥ तिनिय तीमयुं तीमै तीमयन् । टेनिय कालमेट्रिळिवे याकुमे ॥१२३०॥ अर्थ-ये छह प्रकार के काल निम्न प्रकार से है: सुषमा सुषमा, सुषमा, सुषमादुषमा, दुषमा सुषमा, दुषमा, दुषमा दुषमा (इसी को अति दुषमा भी कहते हैं ) इस प्रकार अवसर्पिणी के छह भेद हैं। इसी को उलटा पढने से उत्सपिणी के छह भेद हो जाते हैं। ये दोनों सर्पिणी के समान घटते बढते रहते हैं ॥१२३०।। प्रोरु मुळ पविन यांडुवि युंबिमेल । वरुशिल यारईरं पल्लमंड दि ॥ पेरुगिय परिशिनार् पिन सुरुंगी वन् । तोर मुळ पविन यांडामुर् कर्षमाम् ॥१२३१॥ अर्थ-उत्सर्पिणी काल के मनुष्यों की ऊंचाई प्रथम काल में एक हाथ उत्सेध तथा पन्द्रह वर्ष की प्रायु होती है। पुनः बढते २ छठे काल में छह हजार धनुष की ऊंचाई वाले तथा तीन पल्य की प्रायु वाले उत्तम भोगभूमि में मनुष्य होते हैं। तदनंतर उत्सर्पिणी काल में जैसे वृद्धि होती जातो है उसी प्रकार अवसर्पिणी काल में कम होते २ अंत में एक हाथ उत्सेधक पंद्रह वर्ष की प्रायु वाले हो जाते हैं। दोनों कालों को मिलाकर एक कल्प काल होता है ।।१२३१॥ माळिगळ कोडा कोडिय इरिनिल । मालु मंदिरंडोड़ा नालु कालंगळिर ॥ द्राबि लांडुनातिरायिरं। मेलवर विविकप्पट्टवे ॥१२३२॥ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेह मंदर पुराण [ ४६१ अर्थ-यह अवसर्पिणी काल दस कोडाकोडी सांगर का होता है। उसमें चार कोडाकोडी सुषमासुषमा पहला काल है। तीनं कोडाकोडी सागर का दूसरा सुषमा काल है। दो कोडाकोडी सागर का तीसरा सूषमा दुषमा काल है। बियालीस हजार वर्ष कम एक कोडाकोडी सागर का चौथा दुषमा सुषमा काल होता है। यह चौथा काल अनवस्थित कर्म भूमि है . और कम से कम होते २ इस काल में पांचसो धनुष्य उत्सेध वाले मनुष्य होते हैं। इनकी प्रायु एक कोटि पूर्व की उत्कृष्ट होती है। इनका शरीर पांच वर्णका होता है। ये महान पराक्रमी व बलशाली होते हैं। प्रतिदिन पाहार करते हैं। अनेक प्रकार के भोगोपभोगों को भोगने वाले, धर्म में अनुरक्त, प्रेसठ शलाका पुरुष इस काल में होते हैं ।।१२३२।। करुम, भोगमुमिरुमै यु मुडन् । मरिय मुन्निगंळ ळ भरत रेवत ॥ मिरुमैय मुदल मुक्कालम् भोगत्तिन् । मरुविय करमत्तं मरे मूंड मे ॥१२३३॥ अर्थ-पहले कहे हुए सात भूमि में भरत व ऐरावत क्षेत्रों में कई दिनों तक भोगभूमि रहती है अर्थात् सुषमा सुषमा, सुषमा, सुषमा दुःषमा इन तीनों कालों में भोगभूमि की रचना रहती है और शेष तीनों कालों में कर्मभूमि को रचना होतो है ।।१२३३।। नम्न युट् टीम युट् टीमै नन्मयुट् । पन्नलं पिरमरं परम तीर्थ ॥ मन्नर पलवरं वासु देवरं। तन्नुरु पर्ग वरु शमरर तामुमा ॥१२३४॥ अर्थ-अवसर्पिणी के तीसरे काल के अंत में तथा चौथे काल के प्रारंभ में ब्रह्मार्थी (प्रात्मार्थी) ऐसे तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रति वासुदेव, चमराधीश मादि सामान्य राजा उत्पन्न होते हैं ॥१२३४।। उत्तर दिक्करण कुरवमुत्तमं । मद्दम मरिवरुडंमि रम्मय ॥ मत्तग मैवप मैरणि य मिवै। नित्तमाय भोगंग निड़ भूमिये ॥१२३५॥ अर्थ-उत्तर कुरुक्षेत्र व दक्षिण कुरुक्षेत्र ऐसे ये दो क्षेत्र हैं। ये दोनों उत्तम भोग भूमि है। हरिक्षेत्र, रम्यकक्षेत्र, ये दोनों मध्यम भोगभूमि है। तथा हेमवत क्षेत्र, हैरण्यवत क्षेत्र ये दोनों जघन्य भोगभूमि है । यह सदैव भोगभूमि में अवस्थित हो रहते हैं ॥१२३५॥ मूहि रंगोरु पल्ल मुरैयु ळायुग । मांड विकार मार नाळिरन् । Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ] मेरु मंवर पुराण इंड्रिय प्रोक मुंडिरंडोर नाळ् विडा। दोंड्रिय पशिकेड वमुद मुन्बरे ॥१२३६।। अर्थ-उत्तम भोगभूमि में रहने वाले मनुष्यों की आयु तीन पल्य की होती है। मध्यम भोगभूमि में रहने वालों की आयु दो पल्य तथा जघन्य भोगभूमि के रहने वालों की आयु एक पल्य होती है। उत्तम भोगभूमि के मनुष्यों के शरीर की ऊंचाई छह हजार धनुष की होती है। मध्यम भोगभूमि के मनुष्यों की ऊंचाई चार हजार धनुष तथा जघन्य भोगभूमि में रहने वाले मनुष्यों की ऊंचाई दो हजार धनुष होती है। उत्तम भोगभूमि में रहने वाले मनुष्य तीन दिन के बाद एक बार आहार लेते हैं। मध्यम भोगभूमि के दो दिन के बाद एक बार तथा जघन्य भोगभूमि के मनुष्य एक दिन छोड कर आहार लेते हैं ।।१२३६।। उरत मुक्काल मूंडादि युळ्ळ माम् । निरंत वैन्नूरुविर पुव्व कोडियु॥ मरत्तियेळिरंडु नोट्रिरुपत्तैवदु । मुरैत्तिला मंडिला दिक्कु मोक्कनाळ ॥१२३७॥ अर्थ-सुषमा सुषमा काल, सुषमा काल, सुषमा दुषमा काल ये तीनों उत्तम, मध्यम, जघन्य भोगभूमि में जिस प्रकार मनुष्य रहते हैं उसी प्रकार यहां भी भरत, ऐरावत क्षेत्रों में रहते हैं और चौथे काल में उनका शरीर पांच सौ धनुष ऊचा और एक कोटि पूर्व की प्रायु होती है। कर्मभूमि की रचना होती है व मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति हो जाती है और पांचवे काल में घटते-घटते प्रागे चलकर सात हाथ की ऊंचाई और एक सौ बीस वर्ष की प्राय वाले इस काल के अन्त में होते हैं, फिर कम होते २ छठे काल के प्रारंभ में उनकी आयु बीस वर्ष व ऊंचाई दो हाथ की तथा अन्त में पंद्रह वर्ष आयु व एक हाथ की ऊंचाई रह जाती है॥१२३७॥ नोट-चौरासी लाख वर्ष को चौरासी लाख वर्ष से गुणा करने से एक पूर्व वर्ष की संख्या निकलती है, उसको एक कोटि से गुणा करने से एक कोटि पूर्व वर्ष हो जाते हैं । करमत्त कच्चै नसु कच्चै कामिग । मरुविय मा कच्च कच्चगावदि ॥ इरुमै इला व इलगंलावद। पोरविला पोक्कल पोक्कला वदि ॥१२३८॥ अर्थ-कर्मभूमि से सम्बंध रखने वाले कच्छ, सुकच्छ, महाकच्छ, कच्छावती, मावर्ता, लाङ्गलावर्ता, पुष्कलावती, पुष्कला ये नगर हमेशा सीता नदी के उत्तर में रहते हैं । ॥१२३८।। मन्नु तेन कर बच्चे नर सुबच्चे मा। तुन्नुमा बच्चये बच्चगा वदि । Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण सोन्न नल्लिरमये सुरमै तोमिला। मन्नर् मन् रमणीय मंगलावती ॥१२३६॥ अर्थ-सीता नदी के दक्षिण तट पर रहने वाले वत्सा, सुवत्सा, महावत्सा, वत्सकावती, रम्य, सुरम्य, रमणीय, मंगलावती आदि देश रहते हैं ।।१२३६॥ परवलं पदुमै नर्पदुमै मापदं। मरुषु मप्पदुमये पदुमकावती ॥ तिरि विनर् शंकये नदिनै शादुदै । करैय तेनकुमुदये चरितो कान्वरिल ॥१२४०॥ अर्थ-सीतोदा नदी के दक्षिण किनारे पर, पद्म, सुपध, महापन, पद्मावती, पद्मकावती, शंख, नलिना, कुमुद, सरिता इत्यादि देश हैं ॥१२४०।। वडत्तडत्तिन् वप्प नन्न वप्पयु । मिडरिला मा वप्प वप्पगावती ॥ सुडरुड कंदये सुगंद तोमिला। कडलुडै कंदिल गवमालिनी ॥१२४१॥ मर्थ-सीतोदा नदी के उत्तरी किनारे पर वप्रा, सुवप्रा, महावप्रा, विप्रावती, गंधा, सुगंधा, गंधिला, गंधमालिनी आदि देश हैं ॥१२४१॥ नालु मुन् नदियिनुम् । नालु नाल्वरनुम् ॥ नालु नालिरट्टियाय । विदेग ताडु निडवे ॥१२४२॥ मर्थ-वहां बारह विभमा नदी, सोलह प्रकार के पर्वत मौर बत्तीस विदेह के देश हैं। ॥१२४२।। शीव इन बक्क रै। यावि याय् बलं मुरै॥ योविय बन्नादुगळ । नीदि योडु निद्रवे ॥१२४३॥ अर्थ-पहले कहे हुए कच्छ मादि वत्तीस देश सीतोबा नदी के उत्तरी किनारे से प्रारंभ होकर क्रम से प्रदक्षिणा रूप में रहते हैं ॥१२४३॥ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४] मेह मंबर पुराण सोलिये बन्नाडुगळ् । देळ्ळिय मलयुनुस् ॥ सुळे या रिरंडि न । नल्लकडं मारु माम् ॥१२४४॥ अर्थ-पीछे कहे हुए कच्छ मादि बत्तीस देश हैं वे एक २ विजयार्द्ध पर्वतों से उत्पन्न होने वाले दो क्षुल्लक नदियों से छह खण वाले हो गये हैं ।।१२४॥ शेविलेंदु नूरुयर दु। पूज्य कोडियायुग ॥ मिव्वगय नाटु लैंड.म। वेम्बिनंग डोर् परे ॥१२४५॥ प्रर्थ-इस प्रकार जो बत्तीस देश हैं उनमें रहने वाले मनुष्यों की ऊंचाई पांच सौ धनुष है और पूर्व कोटि प्रायु वाले होते हैं। यह काल भेद से रहित होकर तपश्चरण करके मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ।।१२४५॥ सुमेर नान गुग्य। नब ना नांगिनु॥ मिलै वेरु पाडि बट। सोन सोन यावं यं ॥१२४६॥ अर्थ-चार प्रकार के मेरू चार देश में अर्थात् धातकी खंड व पुष्कराद्ध में दो २ अर्थात् चार होती हैं । जम्बूद्वीप में कहे हुए के समान ही चारों होते हैं ॥१२४६॥ प्रोडि नोंडि रट्टियाए । सेंड दीपं सागर। मेडन मलै पुरैत्तु । निडवा रोयंबु वाम् ॥१२४७।। भर्ष-दोनों पापस में विस्तीर्ण से युक्त एक को एक धेरै हुए, असंख्यात द्वीप असंख्यात समुद्र मानुषोत्तर पर्वत के बाह्य प्रदेश में रहने वाले तिर्यचों का तथा द्वीप समुद्रों का विवेचन करते हैं सो सुनो ॥१२४७॥ इरुत्तंदु कोडकोरि। मा मुत्तार पलंगट् ॥ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४६५ कुरिय रोम मेन वाम् । तेरियं दीपं सागरं ॥१२४८।। अर्थ- मानुषोत्तर पर्वत के बाह्य प्रदेश में असंख्यात्त द्वीप तथा असंख्यात समुद्र हैं। यह वर्णनातीत हैं। उनकी संख्या कितनी है यदि ऐसा पूटा जाय तो उसकी संख्या पच्चीस कोडाकोडी उद्धार पल्य के रोमों की संख्या प्रमाण है ।।१२४८।। उबरि तन्नीर् तेन सुरै। तिवरु परने मिक्कु विन ।। सुवैय्य नोरिन् वारिग । ळवंयुमेळ दागुमे ॥१२४६॥ अर्थ-लवण समुद्र खारे पानी से युक्त है तथा इक्षुवर, घृतवर, क्षीरवर, वारुणीवर 'के समुद्र हैं,तथा अपने २ नाम के से स्वाद वाले हैं , तथा शेष सर्व समुद्र इक्षुरस समान मधुर स्वाद वाले हैं ।।१२४६।। सागरं जलचरंगट् । काक रगं लळ्ळ वाम् ॥ माग मादि पादनाल । भोगभूमि तीवे लाम् ॥१२५०।। अर्थ-असंख्यात द्वीप समूद्रों में जलचर प्राणी वही हैं। असंख्यात द्वीप समृद्र सभी स्थानों में हैं। चतुष्पाद वाले हाथी, सिंह, मृग आदि जो जीव जिस भूमि में रहते हैं उसे तिर्यग् भूमि या तिर्यग् लोक कहते हैं ।।१२५०।। मुडिद दीपं मागर। तद वै विलगुं मीन् । विडगं निरंदन । मुडिविडा उरंगको ॥१२५१॥ प्रर्थ-अन्त में रहने वाले प्राधे स्वयंभू रमणद्वीप और पूरे स्वयंभू रमण समुद्र इन दोनों में अढाई द्वीप और कालोदधि तथा लवणोदधि समुद्र हैं। इनमें जितने जीव रहते हैं, उनसे कहीं अधिक स्वयंभू रमण समुद्र में रहते हैं। उनकी संख्या का कहना असंभव है। ॥१२५१॥ येलु सागर तीवत्ति नट्ट वाय । सूळ किडंद नंदीश्वर दीवाति ॥ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ] मेरु मंदर पुराण लूळि यूळिवानोर वंदिरं वनं । ताळु मदन पेट्रिय साट् वाम् । १२५२। अर्थ - जम्बूद्वीप आदि सात द्वीपों को सातों समुद्र घेरे हुए हैं । श्राठवां नंदीश्वर द्वीप है । यह नंदीश्वर द्वीप अनादि निधन है, और वहां के रहने वाले बावन अकृत्रिम चैत्यालयों को पूजा चतुरिंगकाय देव आकर करते हैं । अब आगे चलकर मैं प्रकृत्रिम चैत्यालयों का विवेचन करूंगा ।। १२५२ ।। अरवत्तु मूंड्र नोडाय नूट्रिना । लेरिप पट्टिरुंदन कोडियोचनं ॥ शेरि वुटु विलक्क में बत्तु नान्गोडु । मरुव तीवत्तु ळगल मागमे ।।१२५३ ।। अर्थ - नंदीश्वर द्वीप का एक सौ तिरेसठ करोड, चौरासी लाख योजन का व्यास है ।।१२५३ ।। निलंगळ पोन् मणिगळा निरेंद्बुदिरुंदन | विलंगलुं कयंगळं वीतरागरं ॥ पुलंगळाळ, वेल्वन भोगभूमि यो । डिलंगु वानवरिंड तन्नै येरुमे ॥। १२५४।। अर्थ - उस नंदीश्वर द्वीप की भूमि स्वर्ण और रत्नों से परिपूर्ण है। वहां के पर्वत और सरोवर जिस प्रकार वीतराग भगवान निर्दोष हैं उसी प्रकार वे भी निर्दोष दीखते हैं । नंदीश्वर द्वीप का सभा मंडप देवों को हास्य के समान दीखता है ॥। १२५४।। कन्नैयुं मनत्तैयुं कवरं वु कोळ्वन् । वन मेगले ईनार वडिवु पोलवं ॥ विनवर, किरं वरं विडाद वेट् कय । वेनिला विडंगळा लियांड्रिरुंददे ।। १२५५ ॥ अर्थ - इस जम्बूद्वीप को देखने वाले मनुष्यों का हृदय तथा मेत्र आकर्षित होते हैं । जिस प्रकार एक सुन्दर स्त्री जो अनेक प्रकार के शृंगारों से युक्त हो, उसके देखने से चित्त आकर्षित हो जाता है, उसी प्रकार यह द्वीप देवों के हृदयों को आकर्षण करता है ।। १२४.५ ॥ O इलदै वल्लि कन्मरिण पालियंड्र तन् । शलदि शूळ, पोयदु तरणी मुंड्र डे ॥ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुरारण उलगिनु फिर व ना लयंगळा लिम्मु । उलगिनु कि मै कोंडोंगु गिडूदे ।। १२५६ ।। अर्थ - यह नंदश्वर द्वीप श्रनेक प्रकार की सुन्दर लताओं से अलंकृत है । प्रौर तीन लोक के नाथ कहलाने वाले प्रहंत भगवान के चैत्यालय वहां प्रत्यत श्रेष्ठ प्रकाशमान है। ।। १२५६ ।। पन् चिरै किडंद सोर्पा मारुडन् । बिन् शिरं कळमेन विट्टु वीरने || वन् शिरप्पोड वंदडेद वानवर् । कन् शिरं पडुवदु कामर् भूमि यात् ।। ११५७ ॥ लोक छोडकर प्रति सुन्दर प्रष्ट द्रव्य पूजा सामग्री के थाल भक्ति के साथ पूजा करते हैं, और वहीं निवास करते हैं ।। १२५७ ।। अर्थ-संगीत तथा नृत्य करने वाली देवाङ्गनानों के साथ वहां के देव अपना देवहाथ में लेकर नंदीश्वर द्वीप अंजन मलंग नान्गागु मांगवन् । मंजिल मादिशै नडुव निड्रन || वंजन मूलमा यगंड्र यरं वन । वेंजिलापिरं पुगै नांगो डंवदे ।। ११५८ ।। अर्थ -- उस दोषरहित नंदीश्वर द्वीप की भूमि के मध्य में चारों दिशाओं में प्रर्थात् पूर्व, पच्छिम, उत्तर व दक्षिण इनमें एक-एक अन्जनगिरि पर्वत है । कुल मिलाकर चार हैं । अन्जनगिरि पर्वत चौरासी योजन उत्सेध वाले हैं । एक हजार योजन का अवगाह है और चौरासी हज़ार योजन का विस्तार समवृत्त है ।। ११५८ ।। मद्रिद मलं इन् मादिविकन् वाविगळ् । पेट्रियार, किडंदन पेरिय शालवु ॥ मुद्र नीर् शूळ्द लार ट्रदिभुगंगळेन् । टूटू पेर मलै कळतडत्ति लुळ्ळवे ।। १२५ ।। [ ४६७ अर्थ - यहां तक कहे हुए अन्जनगिरि पर्वत के चारों दिशाओं में चार बावडियां हैं ।। १२५ ।। श्रारं पुगे पत्ते यगडू यरं दन् । वाय् मैया नीरिन् वरंगळ वाविहन् ।। शूळन् तान् किडंद नाल वनंगडं पेय । रेळिलं शंबगं तेमाव सोममे ॥ १२६० ।। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ ] मेर मंदर पुराण अर्थ-उस बावडी के मध्य में रहने वाले दधिमुख पर्वत की ऊंचाई व चौडाई दस हजार योजन है। उन बावडियों के चारों दिशाओं में चार वन हैं। जिनके अशोक वन, सप्तच्छदवन, चंपकवन पोर आम्रवन ये नाम हैं ।।१२६०॥ वनत्तिड पुरंबडि वावि कोनत्तिन् । मनत्तिनुक्किरदि शैमलैंग नित ।। तनक्कुयर् वगल माइरंग योजने । यनप्पल विडंगळालिरवि शेग्युमे ॥१२६१।। अर्थ-उन चारों बनों के बाहरी दोनों कोनों में रतिकर नामक दो पर्वत हैं । उन रतिकर पर्वतों का उत्सेध तथा चौडाई एक हजार योजन है। ये देखने में प्रत्यंत सुंदर दिखाई देते हैं ।।१२६१।। मल नल मनि पोनिन मयम वागिय । पलवडि वुडयन परमन कोइल्ग । निलविय मगुडमा इलंगुम पारिलुस । मलतुं माइरं पुगंग लाळंववे ॥१२६२।। अर्थ-उस नंदीश्वर द्वीप में रहने वाले, अजनगिरि, दधिमुख और रतिकर नाम के पर्वतों के कार सोने तया रस्नों के अहंत भगवान के चैत्यालय हैं। वे अत्यंत प्रकाशमान मुकुट के समान प्रकाशित हैं। वे नोचे से कार तक एक हजार विस्तार वाले हैं ।।१२६२।। वनंगळु तउंगळु मलइन मामरिण । तलंगन मे निड्रन तमनि येत्ति यन् ॥ दिलंगु तोरण मुडे वेदि शूळं तु नल। ललगंला दर मरिण यालियंडवे ॥१२६३॥ अर्थ-नंदीश्वर द्वीप में रहने वाले वन, तडाग, बावडी, पर्वत रत्नों से परिपूर्ण हैं। वहाँ के मालय (भवन) स्वर्ण से युक्त हैं। उनके चारों ओर वेदियां हैं। उन वेदियों में पुष्प हार लटके हुए हैं ।।१२६३।। मंजन बंजन मालयु नान्गुळ । वैजिडा विमुगत्ती रट्टागुमे ॥ पंजि पोलिरदि करत्तन्नानगुळ । मंजिला तन नल वामन कोयिले ॥१२६४।। अर्थ-काले बादलों के समान अजनगिरि पर्वत चार हैं । वषिमुख नाम के सोलह Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण पर्वत हैं । चारों ओर रहने वाले रतिकर पर्वत बत्तीस हैं । उन सभी बावन पर्वतों पर बावन चैत्यालय, अकृत्रिम एक सौ पाठ, एक सौ आठ जिन बिम्बों से विभूषित हैं ॥१२६४।। प्रायत मैंबदिर ट्रिरट्टि योजने। यायदंकाल कुरैदल दोकमा । माय तम् तन्नर यगल माइलन । वाइन मूंड डंय मुन् मंडबंगळाम् ॥१२६५॥ अर्थ-उन चैत्यालयों की लंबाई सो योजन है। उनकी ऊंचाई पिचहत्तर योजन है तथा चौडाई भी पचास योजन है। इस प्रकार विस्तार वाले चैत्यालयों में वेदियां हैं। वे तीन द्वारों से युक्त हैं। उसके आगे मंडप है। गंधकुटी का प्रथम मंडप पूर्व दिशा में है। उस मंडप को पीठिका मंडप कहते हैं ।।१२६५।।। मालयं शालंगळ वास मार्दएँ । शालबुं ताळं दुळ वासलिबुडे । पालिग मुदल परिचदेंग नूडेंटु । माल वेयं दन मलिदिरंदवे ॥१२६६॥ अर्थ-उस गंधकुटी मंडप के तीनों द्वारों पर फूलों के हार लटके हुए हैं। उनमें खिडकियां हैं। उस मंडप के चारों ओर एक सौ पाठ मंगल द्रव्य हैं , और भिन्न-भिन्न उपकरण हैं ।।१२६६।। प्रालयत्तळवदा यमैदु कोयिन् मुन्। पालिरंदन पल्लवादिया । माडलं पाडलु ममरंदु कान्वव । रुडु शेंड्रन वल बुळक्कलत्तवे ॥१२६७॥ अर्थ-इन अकृत्रिम चैत्यालय के पूर्व भाग में अनेक प्रकार की नाटय-शालाएं तथा वाद्यमंडप हैं , जिनमें नृत्य संगीत होते हैं ।।१२६७॥ इजिगळं पोना लियई गोपुर । मुन्सोन वळविनान् मुडिद माडिरी ॥ येजोलार मुगमेन विरंदवत्तोडु। वंजिमेगल यन वंदु शूळ्दवे ॥१२६८॥ अर्थ-उस मंदिर के चारों मोर पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण कोट हैं जिनके बीच में गोपुर हैं। वे देखने में प्रत्यंत सुंदर प्रतीत होते हैं ॥१२६८।। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० ] मेर मंदर पुराण उगप्पुडे पेयचि ईट्रिनुमुवल् मरिणद रोकम् । युगत्तिनु किरवर् तोट मुळ्ळिड मलाद देशं ।। शगत्तदु वडिव दीप सागरं तनदिडक्कै । नगत्तवर् नागर मक्कळ विलंगुरै ज्ञालं काटुं ॥१२६९।। अर्थ-उस मंडप में उत्सपिणी, अवसर्पिणी इन दोनों कालों के स्वरूप हैं। उस काल में मनुष्यों की प्रायु प्रादि का उत्सेध तथा तीर्थंकरों का स्वरूप एवं असंख्यात द्वीपों का स्वरूप, विजयाद्ध पर्वत के ऊपर रहने वाले विद्याधरों के स्वरूप व देव-मनुष्य-तिर्यंच के रहने वालों के स्वरूप उस दीवार में चित्रित ६६।। तुरक्कत्तुं वीटिनु तोडि नारदुं । शिरप्पदु विगपं, तोय नल्वि नेगळिर् ॥ पिरप्प, गतिगळिर पेयरुं पेट्रियं । रित्तन पुराणत्तार कूरु गिड़वे ॥१२७०॥ अर्थ-देवलोक में उत्पन्न होने वाले सुख तथा पुण्य पाप को, चतुर्गति में रहने वाले सुखदुख को एवं भव्य जीवों के संसार को नाश करने वाले सुखदुख के भावों को चित्रित किया है। उन चित्रों को देखते ही चारों गतियों के सुख दुख की शीघ्र ही कल्पना हो जाती है। ॥१२७०।। कंडवर काक्षि पै तूपन् शंदुडन । . पंडुश तीविनै परप्प तीर्पन ॥ वंडुरै पिडिनल वामन सेवडि। कंडवर शेयुं शिरप्पदुम् काटुमे ॥१२७१।। अर्थ-भीतर के मंडप में लिखे चित्रों को देखकर मनुष्य का हृदय अत्यंत आनंदित होकर उस अशोक वृक्ष के नीचे रहने वाले अहंत भगवान के चरण कमलों में नमस्कार कर के आगे बढ़ते ही वहां भगवान के पंच कल्याणको के भाव चित्रित किये हुए हैं ।।१२७१।। उळक्कल मंडप मुंबु तूब याम्। तळत्तेळु सेदित्तर मुन्निड्दु ॥ अळं पदि लाडुम् वैजयंते यांकोडि । वळक्किन् मानत्तंव मैद वंददे ॥१२७२॥ अर्थ-उस गंधकुटी के पूर्व दिशा में रहने वाले भीतर के उत्कीर्ण मंडपों का विवेचन यहां तक किया गया है। उस उत्कीरणं मंडप की पूर्वदिशा में एक स्तूप है। उसके मागे एक चैत्य वृक्ष है । उसके आगे वैजयंत नाम की ध्वजा है। उसके बाद मानस्तंभ है । ॥१२७२॥ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४७१ गोपुरत्तिन् पुरंगुणक्क दान दिशं । वापि मानंद या माशिलाद नीर् ॥ पूविना निरैदु पोन् मरिण इनाय दोर् । सोपनं शूळं दवे तिगत्तु मागुवै ॥१२७३।। अर्थ-पूर्व दिशा में रहने वाली वेदी के बाहर पूर्व दिशा में नंदा नाम की बावडी - है। वह बावडी अत्यंत निर्मल जल तथा कमलों से भरी हुई स्वर्णमयी सोपान वाली है। उस बावडी के चारों ओर वेदी सहित मंडप है ।।१२७३।। गंदकुडि मंडबगं नूटेट्ट वै कानिर । पंदि योरु मूड, निरै यागि वैडूर्य यत् ॥ तंब मिशै इरुंद तलमंड डैय ताम् । मंदरंग दम्मिडै यनेगं शिलै यामे ॥१२७४।। अर्थ-उस गंधकुटी के एक सौ पाठ मंडप हैं। उनको देखने से तीन पंक्ति से युक्त उत्तर दक्षिण तथा पश्चिम में छत्तीस-छत्तीस वेदियां हैं। कुल मिलाकर एक सौ आठ वेदियां हैं, और वैडूर्य रत्नों से निर्मित वहां चार स्तंभ है। उनपर तोन २ प्रकार से युक्त स्तूप हैं। यह सब परस्पर स्पर्श न करते हुए भिन्न २ हैं ॥१२७४।। शम्मनि मंडपत्ति निडे शीय वन मीदु। . वम्मलइन मिशै इरुंद वरुक्क नवन् पोल ।। वेम्मै विनयं केड मिरुंद तिरु कुरुवं । तन्मळ वैङनरु धनवागि युयरंदनवे ॥१२७५॥ अर्थ-रत्नों से निर्मित उस गंधकुटी के मध्यभाग में स्वर्णमयी सिंहासन है। वह सिंहासन ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे उदयाचल से उगता हुआ सूर्य यहां पाकर विराजमान हो गया हो। उसी प्रकार पाप कर्म को नाश करने वाले जिनेंद्र भगवान की पांच सौ धनुष उत्सेध वाली पद्मासन प्रतिमाएं वहां पर विराजमान हैं। ।१२७५।। इरु मरुंगुम चामरैग ळियक्क मियक्क । मरुविय मंडलमुं मलर पिडियु मुक्कुडयुं॥ विले मलगळ सोरिदमर रेत विननींग । परवु पन्निरंडुं सूळं दिलंद वांगे ।।१२७६॥ अर्थ-जिनेन्द्र प्रतिमाओं के दोनों पाश्वों में धवल चंवर को ढोल रहे हों-इस Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ ] मेरु मंदर पुराण प्रकार प्रभामंडल से युक्त अशोक वृक्ष, छत्रत्रय आदि हैं और वहां प्रत्यंत सुगंधित पुष्पवृष्टि करते हुए देव स्तुति भक्ति आदि करते हैं ।। १२७६ ।। ज्ञाल मोर, मूंडू डे यानदु मै में इन् । मेलेळ कावल देवर विरुबि युं ॥ काल मनादि परंपरैइन् कट् । टालय मक्कनमेव दलालु ।। १२७७।। अर्थ - प्रनादिकाल से परंपरा से चले श्राये देवों के क्रमानुसार तीन लोक के नाथ श्री जितेंद्र भगवान की प्रतिमा की पूजा के लिये भक्ति के साथ प्राकर पूजा करके उस नंदीश्वर द्वीप में रहने वाले प्रकृत्रिम चैत्यात्रय में प्रवेश किया ।। १२७७ ।। सोब मनादि सुरेंदिरर मै मै कट् । कोदिय पेट्रिइन् मुटु मुळे कलं ।। मादळेंदिय वाचिय कोडनं । योड वेळंदुडन् यावरु बंदार् ।। १२७८ ।। अर्थ - वहां से निकलकर जिनेंद्र भगवान की पूजा के लिये अपने हाथ में प्रष्ट द्रव्य की सामग्री लेकर देव नंदीश्वर द्वीप में आ गये ।।१२७८ || संगु मुरंड्रन तारै गळ पेरसोल । aj मुळंगिन पेरिय मौवोलि ॥ पुंगिय बाद मडितुळि माल्कड । लंगेळु वोसयै वेंडून थंडू ॥ ११७६॥ अर्थ - शंखवाद्य, भेरीवाद्य आदि अनेक वाद्यों के शब्द वहां सुनाई देते थे । वे शब्द वायु के द्वारा जैसे समुद्र में रहने वाली तरंगों के शब्द होते हैं उसी प्रकार उन वाद्यों के शब्द सुनाई देते थे || १२७६ गिर्कोडि बेन कुडे तोक्कु निरंदन । मगत्तवर मंगलं पाडवरोश | पुति शं विम्म वोलित्त मनत्तिन् । मिगत्तेळु मानंदरागि इरुंदार ॥। १२८० ॥ अर्थ – बजाए, धवल छत्र प्रादि वहां दीखने में आते थे। जिनेंद्र भगवान के मंगलमयी होने वाले गीतगान चारों ओर फैले हुए थे । उस समवसरण को देख कर देव उछल रहे थे ।। १२८० ॥ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर मंदर पुराण [ ४७३ - --- -- - - - परंद वरंबयर पाडलोडाड। निरंद वीयाळ कुळल् किन्नर गीतं ॥ तुरंगमु मावोडु मानमु मेरि । विरुविय वन्न मरिणदु वियंदार ॥१२८१॥ अर्थ-देवियों के संगीत और नृत्यादि सदैव होते रहते हैं। इसके अतिरिक्त किन्नर, किंपुरुष देव वाद्य करते हुए अपने २ वाहनों पर चढकर अलंकारों से सजधज कर समवसरण में पाते हैं ।।१२८१॥ विक्किरियै पल वेटु मडुत्तव । रक्किरियै कन्-नळित्तवर तम्मोडु ।। पोक्क मुरत्तु नडित्तुडने शिलर् । नक्कनर तक्कवर गाण मुळिवे ॥१२८२॥ अर्थ-देवलोग वहां पाठ प्रकार की ऋद्धियों के बल से परस्पर में हास्य विनोद नृत्य आदि करते थे ।।१२८२।। वंविगळ वंदनै शैदिर वन पुग। ळंद मिलादन कॉडडि ताळ्द नर् ।। कंदिर मोदिय काळ पदागे इन् । वंदनर ताम पल रागिय वानोर् ॥१२८३॥ अर्थ-मंगलगीत, स्तुतिपाठ आदि अनेक प्रकार के स्तोत्र आदि मंगलमयी गीत प्रादि करके भक्ति के साथ भगवान की स्तुति करके चरणकमलों में नमस्कार किया। अनेक देव ध्वजामों को पकडकर वाद्यों सहित वहां आ गये ॥१२८३॥ येळुच्चि मुळावोलि पेंगु मियेव । पळिच्चि वेळुद नर् पन्नवर कौन ॥ वळक्किनिल वंदुलग नडुमै मै इत् । तोळिर किर शोदमनेवलि नाले ॥१२८४॥ अर्थ-देवों के भागमन के समय उनके द्वारा बजाए जाने वाले वाद्यों के शब्द पारों मोर फैले हुए थे। देवों ने वाद्यों के साथ परंपरा के अनुसार वहां आकर नंदीश्वर द्वीप की पूजा की ॥१२८४॥ कत्तिगै पंगुनि याडिय कासरु । सुक्किल पक्क नल्लट्टमि तनिल् ॥ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ r७४ 1 मेरु मंदर पुराण वत्तवोर पादिइल वंदु नंदिसर । पुक्कवर मै मै तोडंगिन रंड्रे॥१२८५॥ अर्थ----कार्तिक, फाल्गुण व प्राषाढ मास के अंतिम मास में अष्टमी से पूर्णमासी तक नंदोश्वर द्वीप के बावन चैत्यालयों में सब देव मिलकर पूजा प्रारंभ करते हैं ॥१२८५॥ प्रक्कन मिक्क वरंवय राडु नर । पक्क मेळुद वियाल कुळल् पन्नोलि ।। तोक्कु मुरंड वलं बुरि दुंदुभि । नक्कन वान मुक्किन मादो ॥१२८६॥ अर्थ-उस नंदीश्वर द्वीप के मंदिरों में जिन बिम्बों की पूजा करते समय देवाङ्गनाए नृत्य करती हैं , और वीणा वाद्य तथा शंख आदि के शब्दों की ध्वनि चारों ओर दूर तक गूंजने लगती है ।।१२८६।। सल्लरि तन्नुमै भेरि मुळावलि । येल्ले तमक्कि येन वेळंदन ॥ सेल्लिनर तम्मेदिर सोल्लिनर तम्मोलि। योल्लेनु माकडलो शेई नोंडे ॥१२८७॥ अर्थ-झलमरी वाद्य, भेरीवाद्य तथा अनेक प्रकार के वाद्यों की ध्वनि चारों ओर फैल जाती है । परस्पर देवांगना वहां इस प्रकार वर्तालाप करती हैं, उसकी प्रति ध्वनि ऐसी मालुम होती है, मानों समुद्र की तरंग ही उठकर गूंज रही हो ।।१२८७।। तुंवर नारदर तोक्कुडन मिक्कव । रेगुं मियाळि से वोडोलि तोट्ट नर् ॥ तंगिय किन्नरर् तम्मि दुनंगळे । लंगिय गीत मोडाई नर तामे ॥१२८८॥ अर्थ-तुम्बरुनाद करने वाले देवऋषि वीणा नाद करते हुए पाते हैं, और किन्नर देवियां आकर अपनी सामर्थ्य से वहां संगीत नृत्य गान आदि करती हैं ॥१२८८।। शक्करन मुददेवर कडाम् शैद । मिक्कशिल्वत्त यावर विळंबुवा ॥ रक्कन मुच्चगत्तुळ्ळव रालयं । तोक्क वेदोडगि शिरप्पोडुमे ॥१२८६॥ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकल मेरु मंदर पुराण [ ४७५ अर्थ- सौधर्म इन्द्र प्रादि देवों के द्वारा किए हुए उनके ऐश्वर्य का वर्णन करने वाले देव तथा तीन लोक में रहने वाले प्रकृत्रिम चैत्यालयों के जो देव हैं वे ही भगवान की पूजा करते हैं । दूसरे अन्य कोई नहीं कर सकते ।। १२८६ ॥ शक्करन् शमर नोशन् वैर नान् देव राजर् 1 तोक्क वानवर नांदु भागमाय् तोगुत्तु कोंडु || मिक्क बतिक्कै मेवि विरगुळि शिरप्पयर्ंद । पक्कत्तेन्नाळु शेवर पदिने नाळिगे योर्पाले ॥। १२६०॥ अर्थ- सौधर्म इन्द्र, चमरेंद्र, श्रसुरेंद्र, ईशान कल्प के देव, वैरोचन नामके असुर कुमार देव तथा देवों के राजा सभी मिलकर भगवान की पूजा करते हैं । उस नंदीश्वर द्वीप के चारों दिशाओंों के जिनालयों में शुक्लपक्ष की अष्टमी से लेकर पूर्णमासी तक एक दिन में एक-एक पहर तक प्रदक्षिणारूप से करते रहते हैं । अर्थात् रात ब दिन बराबर पूजा करते रहते हैं । कोई भेद भाव नहीं है ।। १२६०॥ प्रक्कनतगत्तु पजं मंदर तालयत्तुट् । पुक्कु चारगरिन् मिक्का रिपोट्रि शेपर | तिक्कट्टि लिरै वन् पादं शेरिंदुलगांति देवर् । तक्क वच्चिर पेयेल्लाम् तान् शिदित्ति रुप्प रंड्र ।। १२६१ ।। अर्थ- कार्तिक, फाल्गुण व आषाढ इन तीन माह के शुक्लपक्ष में पूजन करके जम्बूद्वीप का एक मेरू, धातकी खंड के दो मेरू तथा पुष्करार्द्ध द्वीप के दो मेरू इस प्रकार पांच मेरू के अकृत्रिम चैत्यालयों में रहने वाली प्रतिमाओं के सम्यक्त्व तथा चारण ऋद्धि को प्राप्त हुए मुनिगरण दर्शन करते हैं । ब्रह्मलोक के अंत में रहने वाले ब्रह्मऋषि लौकांतिक देव भगवान के चरण कमलों का ध्यान वहीं से करते हैं ।। १२६१।। नान विदिमुदल विदिगळरदु मंजनांगत् । तानमबै यदि मंजनागं मवै वांग || वानवर कन् मरिणक्कुडत्तु नंदेयनुं धावि । पानंदन मुगंद मुगं पदुम मलर सूटि ।। १२६२ ॥ अर्थ - जिनेंद्र भगवान का अभिषेक तथा पूजा करने की विधि को भली भांति जान कर अभिषेक का गंधोदक लेकर नंदा गाम की बावडी के पानी को विधि पूर्वक लेकर छान कर कलश भर कर उस पर लाल कमल रख देते हैं ।। १२६२।। अंजलिनो डिरैव नाल यत्ते वलंमाय् । वंदवर कनिड्रिडत्तिन् मरिंगक्कदवं तिरप्प | Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ ] मेरु मंदर पुराण वंदमी नल्लरी विरेवन् ट्रिरुवरुवम् कानार् । वंदेछंद वानंदत्तिन् मयांगि मिगत्तुवित्तार् ॥१२६३॥ अर्थ-श्रद्धापूर्वक उस मंदिर के दर्शन करने जाते समय प्रदक्षिणा देते हुए मंदिर के किवाड अपने आप खुल जाते हैं। उस समय वे भगवान के गर्भगृह में जाकर उनका रूप देख कर भक्ति से स्तुति करते हैं ।।१२६३।। अनंतवरि वालनंत वीर्यनु मानाय । अनंद देरिशि अनंद विब मुडे योय ॥ मनं शेयलिन वनंगिनवर पनिदुलग मेत्त । निनैद पडि यदि विनं नीतुयर्व नड्रे॥१२९४॥ अर्थ-वे देव इस प्रकार स्तुति करते हैं कि हे भगवन् ! पाप अनंत ज्ञानों से युक्त हैं। अनंत दर्शन, अनंत सुख को प्राप्त हुए पाप को मन, वचन, काय से नमस्कार करने वाले को उसकी मन की जो भी इच्छा होती है उसे पूर्ण करते हैं, और पाप की भक्ति करने वाले को क्रम से तपश्चरण करके आगे जाकर मोक्ष की प्राप्ति करा देते हैं ॥१२६४॥ येंड्र, निड, तुवित्तिरैव नाल येत्तिनुळ्ळा। लड़ शेड पुक्कमर रासरवर तांगळ ॥ बैंड्रवर् तमिर वन ट्रिरुवरुवदनुक्केप । निड्रवर्गळ् पैद शिरप्पेवनिने परिदे ॥१२६५॥ अर्थ- इस प्रकार स्तुति करते हुए देवेंद्रों ने भगवान के मंदिर में प्रवेश कर जिनेंद्र भगवान का पंचामृत अभिषेक प्रारंभ किया॥१२६५।। तोळ्ग रायिर् तळुत्तिन मणिक्कुडं सोदमन् मुदलानोर् । वीळु मेरुविन् नरुविन् वीळ्व नर् वेंड वरतम्मेनि ॥ यून्नि यूळि दोरायत्ति विन यवतीर्थ मूवुलत्तोर । ताळु मप्पयर् तांडग मायिर् मुगत्तुडन् पडित्तारे ॥१२६६॥ अर्थ-सौधर्म इन्द्र आदि देव अपने शरीर में विक्रिया के बल से एक हजार पाठ भुजाए निर्माण कर उनमें रत्न कलशों को लेकर जिनेंद्र भगवान का अभिषेक करने लगे। उस अभिषेक को देखने वाले भव्य पुरुषों को ऐसा प्रतीत होता था, मानो मेरू पर्वत से कई नदियों का प्रवाह नीचे गिर रहा हो। वहां के देवों ने एक हजार मुख बना कर सहस्त्र जिह्वानों से भगवान की स्तुति की। स्तुति करने से उनके पापरूपी रज धुल गई ॥१२६६।। Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४७७ कन्ग ळायिर् मुडयव चक्करन् घातिय कडिदोर् तम् । पन्बला मुडनिरुंद वप्पडिमत्तै पलमुरै पारतारा ॥ वनगै या ट्रेळु दिरेवन् द्रन चरणत वाळ तोडु मरु चित्तान् । पेंगळिर पिरप्पिल लविदिरारिण यिप्येरुन शिरप्पुडन् शंदाळ् ॥१२६७॥ अर्थ-देवेंद्र अपने एक हजार नेत्रों को बनाकर भगवान को देखता हुआ भी तृप्त नहीं हुआ, और बार २ साष्टांग नमस्कार किया। तत्पश्चात् अष्ट द्रव्य से भगवान की पूजा अर्चा की। उनकी शची इन्द्राणी पुनः गर्भ में न माने के लिये स्त्री लिङ्ग छेदकर मोक्ष जाने की अभिलाषा वाली ने अपने इन्द्र सहित भक्तिभाव से पूजा करी ॥१२६७।। गंदमं कडि मालगुं शुन्नमुं कारगिलिडं दूप । नंदइन् दलवारिम् दीपमु नल पल सरुवालु। मंद मिल्ल नल्ल वगैइन नंडपल तोडंगि निरुचित्तार । चंदिरादि कोळ मुद्दे वर मिदिरर् सोदमन् मोदलानोर् ॥१२९८॥ अर्थ-तत्पश्चात् भवनवासी, ब्यंतरदेव तथा ज्योतिषी देव, सौधर्म इन्द्र आदि कल्पवासी देव सभी ने मिलकर भक्ति पूर्वक अद्भुत नृत्य किया। तदनंतर सुगंध, चंदन, धूप तथा पुष्पों से नंदा नामकी बावडी के जल से, नैवेद्य से, दीप से भगवान की पूजा की ।।१२९८॥ मट विदिरर् तम्मोडुं पडिदिरर् मै मै कन् मुम्मै कन् । नुद, नर् शिरप्पुळे कलं तांगिनर् देवियर् तम्मोंडु ॥ पेट्रियार् पिरप्परुक्कु नचिरप्पिनै शंदु चक्कर पिन्न । कुट मिल्ल नल्लरि वुडै इरेवन् हुन् गुणतुदि सोल लुट्रान् ॥१२६६॥ अर्थ-इन्द्र और प्रतिइन्द्रों ने इन कार्यों में भाग लेने के लिये मन, वचन, काय से अपनी २ पूजा योग्य वस्तुओं को थाली में सजाकर अपनी २ देवाङ्गनामों के साथ वहां पाये और सौधर्म इन्द्र ने संसार का नाश करने वाली नंदीश्वर की पूजा करने के पश्चात् स्तुति प्रारंभ की ॥१२९६।। अरुग नी पूसक्करुग नाय । पेरियें यायि नै पेनस इन्मया ॥ लोरुव नायिनै योप्प व रिन्म यार । हरुव मायिनै तोट्र मदिन मयार् ॥१३००॥ अर्थ--भव्यजीवों के द्वारा पूजा करने योग्य देव पाप ही हैं। इसलिए माप महत पद को प्राप्त हुए हैं। आपके स्त्रियों को इच्छा न होने के कारण मापने महान पद को प्राप्त Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ ] मेरु मंदर पुराण किया है। मापके समान अन्य और कोई देव न होने के कारण आप ही वीतरागी हैं । जन्म मरण रहित होने से माप का नाम प्रभव है ।।१३००॥ येरियं पोल्वं नि येन्विन काळिद । मुरुग सुटुइर् तूपत्तै शैदलाल् ॥ तरुवु नीळलुं पोल्वं नी सारंद वर् । पेरिय तुंब पिरप्पिन नोतलाल् ॥१३०१॥ अर्थ-प्रष्ट कर्मों को ध्यानाग्नि से नष्ट कर प्रात्मा को परिशुद्ध कर लेने कारण माप शुद्ध सोने के समान हैं । आपके चरणों में जो भव्य जीव पाते हैं उनको, जैसे पथिकजनों को छाया सुख पहुँचाती है उसी प्रकार संसार के दुःखों से शांति मिलती है ।।१३०१॥ अरिवनी यरिया पोरुळिनमै यार । मुरै यु नोइले मुटु वुचि यार् ॥ करुवु नी इलै कायव दोडिन् मै यार । इरैव नी युलगि यावु मिरज लाल ॥१३०२॥ प्रर्थ केवलज्ञानी होने के कारण ऐसी कोई वस्तु शेष नहीं है जिसको आप न जानते हों। इसलिये आप ही सर्वज्ञ हो । जगत में रहने वाली चराचर वस्तुओं के जानने में प्राप को तनिक भी व्यवधान नहीं है, तथा क्रोध न होने के कारण आप में राग द्वेष नहीं है । इसलिये तीन लोक के नमस्कार करने योग्य प्राप ही स्वामी हो। इस संबध में एक प्राचीन ताड पत्र पुस्तक में इस प्रकार स्तुति का उल्लेख है: यः पुण्यः पुरुषोत्तमो हरिहरः शंभुः स्वयंभूविभुविष्णुजिष्णुमहेश्वरांतकमहितः स्थाणुः पुराणोऽच्युतः। सर्वज्ञः सुगतोऽजितः पशुपतिस्तीर्थंकरः शंकरः; सिद्धो बुद्ध उमापतिज्जिनपतिः पापादपायात्स वः ॥१॥ अर्थ-यो भगवान् पुण्यः शुभस्वभावो वा धर्मस्वरूपो वा । भवतीति सर्वत्र क्रियाध्याहार।। पुरुषोत्तमः त्रिलोकोदरवर्तिनां सर्वेषाम् पुरुषारणाम मध्ये प्रस्यैव श्रेष्ठत्वात्पुरुषोतमः । हरिहरः हरिश्चासौ हरश्चेति हरिहरः । हरति स्वीकरोति क्षायिकसम्यक्वादि-गुणानिति हरिः। हरत्यपाकरोति स्वस्य परेषामप्यघमिति हरः । प्रत्ययभेदादर्थभेद इति वचनात् । प्रहारप्रहरादिवत् । एकधातुसमुत्पन्नयोरपि हरिहरशब्दयोरर्थभेद इति प्रतीयत एव । शंभूः, शमभ्युदयनिःश्रेयसलक्षणं यस्मात् भवतीति शम्भः। स्वयंभूः स्वयमेव परोपदशेमन्तरेण मोक्षमार्गमनतिष्ठन्ननंतचतुष्टयाढ्योभवतीति स्वयम्भूः । विभुः विश्वव्यापी इत्यर्थः । विष्णुः केवलज्ञानेन विश्वं वेष्टिमाप्नोति इति विष्णुः। जिष्णुमहेश्वरांतकमहितः । जिष्णुश्च महेश्वरश्व जिष्णुमहेश्वरौ , तयोरन्तकाभ्यां महितः, जिष्णुमहेश्वरान्तकमहितः । प्रकटीकृतो Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४७९ विद्भिरिति जिष्णुमहेश्वरांत कमहितः । स्थाणुः परमपदे तिष्ठतीति स्थाणुः । प्राप्तसंतानापि अक्षपानोदिकाले प्रवृत्तत्वात् पुराणः । सर्वेषामपि पुरुषाणां पूर्वः इत्यर्थः । अच्युतः ज्ञानादिस्वरूपात कदापि न च्यतः इत्यच्यतः। सर्वज्ञः गुणपर्यायात्मकान जीवपुद्गलधर्माधर्मकाश कालाख्यान सर्वानपि पदार्थान् युगपत् जानातीति सर्वज्ञः। तदुक्तं:- "यः सर्वाणि चराचराणि विविध-द्रव्याणि तेषां गुणान् , पर्यायानपि भूतभाविभवतः सर्वान् सदा सर्वथा । जानीते युगपत्प्रतिक्षणमतः सर्वज्ञ इत्युच्यते । सर्वज्ञाय जिनेश्वराय महते वीराय तस्मै नमः" । इति । सुगतः सुष्ठुगतः । सुशब्दस्य शोभन-वाचित्वात् सुगत।। अजितः सांख्य-सौगत-चार्वाक-योग-मीमांसकादि-प्रवादि-परिकल्पित-युक्तिभिः जेतुमशक्यत्वादजितः । पशुपतिः पशुं मंदबुद्धीनपि धर्मोपदेशेन पातिति पशुपतिः । तीर्थंकर-तीर्थ-प्रवचन-भव्यजन-पुण्य-प्रेरणा-समुत्पन्न-कण्ठताल्वौष्ठ घट-व्यापार-रहितत्वात् तदभीष्ट-वस्तुकथननि शेष-भाषात्मक-मधुरगंभीर-दिव्यभाषां करोति समुत्पादयति इति तीर्थंकरः । शंकरः शमभ्युदयनिःश्रेयसरूपं सुखं भव्य जनानां हितोपदेशेन रोतीति शंकरः । सिद्धा सकल-कर्म-मलरहितत्वान्निष्पन्नः सिद्धः । बद्धः बध्यते येन स्वस्मिन स्वरूपं जानातीति बुद्धः। उमापतिः कीर्तिवल्लभो लक्ष्मीपतिश्चेति उमापतिः। जिनपतिः, अनेक-भवगहन-विषम-व्यसन्नापन्न हेतून कर्मठकर्मारातीन् जयतीति जिनः। अप्रमत्तादिगुणास्थानवर्तिनः एकदेश-जिनास्तेषां पतिः स एवंविधः जिनपतिः । समवसरणपरिवेष्टितं त्रैलोकेश्वर-निरतिशयं विभूत्यष्ट-महा-प्रातिहार्य-चतुस्त्रिशदतिशयसमन्वितो द्वादशगणपरिवेष्टितं त्रैलोक्येश्वर-मुकुट-तटघटित-मणि-मरीचिपुजरंजितारुणचरणारविंदो भगवदर्हत्परमेश्वरो वः युष्मान् अपायात् भवजापाप परिहृत्य पापात् रक्षतु इत्यर्थः। सद्धर्मरक्षितो राजा राजा सद्धर्मरक्षितः । परस्पर-निमित्तत्वं वनपालोवनं यथा । अर्थ-हे भगवन् ! पाप पुण्य अर्थात् शुभस्वरूप वा धर्म स्वरूप हो। तीन लोक के मध्यवर्ती समस्त पुरुषों में तुम्हारे ही श्रेष्ठ होने से तुम पुरुषोत्तम हो। हे भगवन् ! तुम ही हरि हो और हर हो। आपने क्षायिक सम्यक्त्वादि गुण स्वीकार किये हैं इसलिये आपका नाम हरि सार्थक है। आपने सब प्राणियों के पापों को दूर किया है इसलिये आप हर हो। यहां हन हरणे धातु एक ही है परन्तु घञ और घ प्रत्यय के भेद से अर्थ भेद है । जैसे प्रहार और प्रहर शब्दों में अर्थभेद है । प्रहार का अर्थ है चोट । प्रहर का अर्थ पहर या तीन घंटा समय । इसी तरह एक धातु होने पर भी हरि और हर दोनों शब्दों में अर्थभेद प्रतीत होता ही है । आप ही शंभू हो। आप से सुख प्राप्त होता है । अभ्युदय निःश्रेयस दोनों से सुख मिलते हैं । हे भगवन् ! आप ही स्वयंभू हो । स्वयं ही परोपदेश के बिना मोक्ष मार्ग का अनुष्ठान करते हुए अनंत चतुष्टय से परिपूर्ण होते हैं , इसलिये पाप स्वयंभू हैं। विभु अर्थात् विश्वव्यापी भी पाप हैं। प्रापने केवलज्ञान से सब विश्व को वेष्टन कर लिया है, इसलिये आप ही सच्चे विष्णु हो। जो वेष्टन करे वह विष्णु है। जिष्णुमहेश्वरांतकमहितः । जिष्णु अर्थात् जपनशील देव और महेश्वर अर्थात् महादेव, इन दोनों के अन्तकों से महित पूजित आप ही हो—ऐसा विद्वानों ने प्रकट किया है। हे भगवन् ! आप ही स्थाणु हो, क्योंकि आप परमपद में स्थित हो, इसलिये आपको स्थाणु शब्द से कहा है। परंपरा को प्राप्त अनादि काल से अविनाशी होने से प्राप ही पुराण हो, अनादि हो, सर्व पुरुषों में प्रथम हो यह अर्थ हुआ । आप ही अच्युत हो, अपने ज्ञानादि स्वरूप से कभी च्युत नहीं हुए और न होवेगो, इसलिये ही आप सच्चे अच्युत हो। गुण पर्याय स्वरूप जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश काल, नाम के Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० ] मेरु मंदर पुराण सभी पदार्थों को एक साथ जानते हो, इसलिये आप सर्वज्ञ हो । सो ही कहते हैं । जो सभी चर अचर नाना प्रकार सब द्रव्यों को और उनके सब गुरणों को और भूतकाल, भावीकाल, वर्तमान काल की सब प्रकार सब पर्यायों को सदा एक साथ प्रतिक्षरण जानते हैं, इसलिये उन्हें सर्वज्ञ कहते हैं । ऐसे सर्वज्ञ जिनेश्वर महावीर को नमस्कार हो । इति । प्राप सुगत हो । क्योंकि शोभन रूप से आप सब के सब प्रकार गत ज्ञाता हो । आप ही अजित हो । सांख्य, सौगत, चार्वाक्, योग, मीमांसक आदि परवादीगणों से परिकल्पित युक्तियों द्वारा अजेय हो । भाप ही पशुपति हो । पशु अर्थात् मंद बुद्धि जनों को भी धर्मोपदेश से रक्षा करते हो, अतः पशुपति हो । प्राप ही तीर्थंकर हो । तीर्थ अर्थात् प्रवचन को भव्यजनों की पुण्य प्रेरणा से समुत्पन्न कण्ठ तालु ओष्ठ जिह्वा घट श्रादि के ब्यापार से रहित होने से भव्य जनों को अभीष्ट वस्तु का कथन करने से संपूर्ण भाषात्मक मधुर गंभीर दिव्य भाषा रूप से उत्पन्न करते हैं । अतः आप तीर्थंकर को नमस्कार हो । आप शंकर हो । शं अर्थात् प्रभ्युदय निःश्रेयस को करने वाले हो । सुख को भव्यजनों को हितोपदेश से करते हो । इसलिये शंकर हो । सकल कर्म मलसे रहित होने से श्राप बने हो । शुद्ध हुए हो, अत: सिद्ध हो । प्राप ही बुद्ध हो; अपने में अपने स्वरूप को जिन्होंने जिससे जान लिया है ऐसे ज्ञान वाले श्राप . ही बुद्ध हो । उमापति भी प्राप ही हो। उमा अर्थात् कीर्ति के वल्लभ पति तथा उमा अर्थात् लक्ष्मी के पति हो । अतः उमापति श्राप ही हो। जिनपति भी आप ही हो। अनेक भव वन में विषम दुखों में पटकने वाले कारणों को मिथ्यात्वादि को कर्मठ दृढ कर्म वैरियों को जीतते हैं सौ जिन हैं । अप्रमत्तादि या असंयत आदि गुरणस्थानवर्ती श्रावक साधु एक देश जिन हैं । उनके पति श्राप ही हो। इसलिये जिनपति हो । ऐसे समवसरण से परिवेष्टित, त्रैलोक्य के ईश्वर, जिससे बढकर अन्य नहीं, ऐसा निरतिशयविभूतिरूपं प्रष्ट महाप्रातिहार्यों से तथा चौतीस प्रतिशयों से सहित, अनंत चतुष्टय मंडित, द्वादशग परिवोष्टित, त्रैलोक्यनाथ, देवेंद्रादिक के मुकटतट में लगी मणियों के किरणसमूह से रंगे गये हैं लाल चरण कमल जिनके ऐसे भगवान् श्रहंत परमेश्वर तुम सब को भव में होनेवाले दुःखों से हटाकर रक्षा करें । का श्लोक है कि जो अच्छे राजा होते हैं वे सद्धर्म की रक्षा करते हैं । तथा सदूधर्म भी उस राजा की रक्षा करता है। ऐसा परस्पर में निमित्त है । जैसे माली बगीचे की रक्षा करता है तो बगीचा भी माली की रक्षा करता है, इसी प्रकार सर्वत्र परस्पर निमित्त नैमित्तिक संबंध है ।। १३०२ ।। मुळवु नी मुळुदुक्कु मिरंव नी । मुळ तन्वडिविन मुळुदागि नी ॥ मुळ कंडुनरं दा इंब मुटु नी । मुळ विरित्तु नान्मुग नागिनी ।। १३०३ ॥ अर्थ- इस लोक में चराचर वस्तु को देखने की शक्ति आप में ही है । आपका स्वरूप सर्वव्यापी होकर अनंत ज्ञान से सर्व पदार्थ को देखने वाले तथा जानने वाले हैं। सम्पूर्ण सुखको प्राप्त हुए श्राप ही हो। जीवादि सकल पदार्थों को दिव्यध्वनि के द्वारा चारों अनुयोग रूप में कहकर चतुर्मुख को प्राप्त हुए आप ही हैं ।। १३०३ || Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण युन्मं तानिन्मं युन्मे इन्मयान् । तिनिय तन्नोडवाचियं सेप्पिडिर् ॥ पण भंगंगळेळ, पुरुट्क्कििल्लये । लुनमैदान् पोस्ट किल्ले यॅड्रोदि नाय् ।। १३०४ ।। अर्थ – स्याद् अस्ति, स्याद्नास्ति स्याद् ग्रस्ति नास्ति, स्याद् अवक्तव्य, स्याद् अस्ति श्रवक्तव्य, स्याद् नास्ति श्रवक्तव्य, स्याद् अस्ति नास्ति श्रवक्तव्य इस प्रकार सप्तभंग है । इन सातों के बिना द्रव्यादि वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती। ऐसे सप्तभंगी नय के व्याख्यान करने वाले माप ही हैं ।। १३०४ । । सुद्र नी यव तुंब नीकलार् । पट्ट. नीइले पटुवं तीर्थलान् ॥ मुद्र नीयुनरं दाय् मूवुलगत्तिन् । पेट्रि तन्नं नी यावर्कस् पेसलाल ।।१३०५ ।। अर्थ - प्रापके चरण में प्राए हुए भव्यजीवों का दुख नाश करने के लिए आप बंधु के समान हैं। मोह से उत्पन्न हुए रागद्वेष आदि परीषहों का नाश करने वाले चराचर वस्तु तथा सम्पूर्ण पदार्थों के गणधरादि के समान आप हितोपदेशी हैं ।। १३०५ ।। roa नीयग दिक्क लिरुत्त लालू । उरुव नी युडंबोड सेन्नाळेलाम् ॥ मरुवि दान वर वाळूति पिव्वाट्ट नार 1 पोरविला पुणियत्तोडुं पोइ नार् ।। १३०६ ।। [ ४८१ अर्थ - सदैव के लिए जन्म मरण से रहित पुनर्जन्म न होने के कारण आप अजन्मा हैं । प्ररूपी हैं । मोक्ष प्राप्त करने वाले हैं। आप द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का नाश करने के कारण लोकांतिक तथा चतुरिंगकायदेव श्राकर प्रकृत्रिम चैत्यालयों में प्राकर आपकी स्तुति करके पुण्यबंध कर लेते हैं ।। १३०६ ॥ इमेय वर पोल विच्चिरप्पं शेदव । - रिमे यवरलगत्तं यदि इंगुवन् ॥ विमं यवर् शेयं शिरष्पेंदु मंदि पो । इमं यवर् वोळच्चित्ति पगत्तिरुपरे ।। १३०७ ॥ अर्थ - जैसे नंदीश्वर द्वीप की देवलोग पूजा करते हैं, उसी पूजा को मनुष्य लोग यहां पूजा करने से देवलोक को प्राप्त होते हैं। वहां से चयकर कर्मभूमि में आकर अच्छे कुल Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ ] मेरु मंदर पुराण में जन्म लेकर राजा महाराजा तथा तीर्थकर तक होते हैं, और क्रम से मोक्ष को जाते हैं। ॥१३०७॥ येन्वर्ग वियंदरर् किड मिदागवू । पन्नवर् पनित्तनर पल्ल मायुग ॥ मुन्निलतेंगनु मुरव रोकमुं। पण्णुरु शिलंगळ पत्तागु मेवंवे ॥१३०८॥ मर्थ-पाठ प्रकार के देव इसी मध्य लोक में रहने वाले देव हैं, ऐसा भगवान ने कहा, मोर व्यंतर देव का शरीर आठ धनुष प्रमाण होता है ।।१३०८।। पाईरं योजन याळ्द दोंगिय । ताईर मिलाद नूराइरं पुगे । यायिरं पत्तडि यगल मायदु । मेय नाल् वनत्तदु मेरु वेबवे ॥१३०६॥ अर्थ-पृथ्वी के नीचे महामेरु पर्वत की एक हजार यौजन पीठ है-नींव है। इस मेरू पर्वत की बड की चौडाई दस हजार नव्वे योजन है प्रोर क्रम से घटते घटते भूमि के ऊपर दस हजार योजन विस्तार है और भूमि पर भद्रशाल वन है। इससे ऊपर दस हजार योजन की चौडाई पर नंदन वन है। जिनके ऊपर सौमनस और पांडुक वन है। ऐसे चार वन हैं। ॥१३०६॥ तुगनिल मोदु पत्तिलाद वेण्ण रु नर । पुगै मिर्श नट्रोरु पत्तु वान पुगे ।। इगळविला जोतिड रोलकै यिट्रल्लै । यगनिलत्ति यंगु वर पुरत्तु निर्परे ॥१३१०॥ अर्थ-चित्राभूमि के ऊपर सात सौ नम्वे योजन के ऊपर एक सौ दस योजन तक ज्योतिषी देव.रहते हैं। मध्यलोक के अढाई द्वीप में ज्योतिषी देव गमन करते हैं। मानुषोत्तर पर्वत के वाह्य प्रदेश में ज्योतिषी देव स्थिर हैं ॥१३१०॥ इरवि पत्तिन् मिस येनवदिन मिशे। येरविदं पगवना मीन्ग नान् मिशे॥ युरै शंद पुदर् कुयर् नानगु मंडिन् मेल। विरगि नाल वेळि ळ याळ शोव्वाय शनि ॥१३११॥ अर्थ-पहले कहा हा सात सौ नव्वे योजन पर तारागरण हैं। उससे ऊपर दस योजन जाकर सूर्य का विमान है। उससे अस्सी योजन जाकर चंद्रमा का विमान है। चंद्रमा Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४८३ से अर्थात् माठ सौ पस्सी योजन से चार योजन ऊपर जाकर सत्ताईस नक्षत्र हैं। उससे चार योजन ऊपर जाकर बुध का विमान है । उससे तीन योजन ऊपर जाकर शुक्र का विमान है। उससे तोन योजन ऊपर जाकर बृहस्पति का विमान है। उससे तीन योजन ऊपर मङ्गल (अंगार) का विमान है। उससे तीन योजन ऊपर जाकर शनि का विमान है। इस प्रकार एक सौ दस योजन में अर्थात् इस भूमि से नौ सौ योजन तक ज्योतिषी देवों का निवास है । इसो को ज्योतिर्लोक कहते हैं । यह सब एक राजू में फैले हुए हैं ।।१३११।। कोळवान तारग केकिन मेलुमा। मेळ वान् शिले युयरं देग पल्लमा ॥ वाळ नाळ जोतिडर् कंडि मूवलं । कोळ वायुग मीरारंग ळंजरे ॥१३१२॥ इरंडु नान्गु मुन्नान्गुमे ळारु मर । ट्रिरंडिनो वेळ वदामिदु वरुक्कंनु । तिरंड नद्र, मुप्पत्तिरंडुर्मु शेलु। मिरंडि रंडर सागरत्तीविने ॥१३१३॥ अर्थ-तारागण, सूर्य और चंद्रमा के नीचे और ऊपर रहते हैं। ज्योतिष देवों की आयु एक पल्य होती है। भवनवासी और व्यंतर देवों की जघन्य आयु दस हजार वर्ष की होती है। मध्यम भूमि के ढाई द्वीप के जम्बूद्वीप में चंद्र और सूर्य दो-दो होते हैं। महालवण समुद्र में चार चंद्रमा और चार सूर्य होते हैं। धातकी खंड में बारह चंद्रमा और बारह सूर्य रहते हैं। कलोदधि समुद्र में बयालीस चंद्रमा और बयालीस सूर्य रहते हैं। पुष्कराई द्वीप में बहत्तर चंद्रमा और एक सौ बत्तीस सूर्य अढाई द्वीप में गमन करते हैं ।।१३१२॥१३१३।। * देवलोक का वर्णन : तुरक्कत्ति नियर के सोल्बिर् शोल्लय पडलंदोरु । मिरप्प विदिरगं शेनि बंदम् किन्नगमुं मागुं ।। तिरतुळि शेरिण वंद मिरुदु नादिशयुं शेंड्र। वरक्कदिराळि वेद नरुवदो डिरडेन ड्राने ॥१११४॥ अर्थ-स्वर्ग लोक के एक एक पटल एक एक इन्द्रक श्रेणी बद्ध विमान प्रादि के तिरेसठ पटल होते हैं। सौधर्म कल्प में प्रथम पटल के तिरेसठ तिरेसठ श्रेणीबद्ध विमान हैं। ॥१३१४॥ सोल्लिय पडलंदोरु मरो वंड, सुरुंगि चड़ । नलिशं येनुदिशै कट्टिशदोरु मरो वंडागुं । Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ ] मेरु मंदर पुराण विलमिळदिलंगुम शंबोन् विमारणत्तिन कनने वेंडिर् । सोलुदुं केटक सोदमोशान तोडक्क भाग ॥१३१५।। अर्थ-सौधर्म कल्प की 'दशाओं में श्रेणीबद्ध तिरेसठ विमान हैं और ऊपर जाकर एक एक कम होकर अंत के अनुत्तर पटल में एक एक श्रेणीबद्ध विमान है। अति किरणों से युक्त श्रेणीबद्ध रहने वाले विमान सौधर्म कल्प में रहने वाले श्रेणीबद्ध विमानों की संख्या के विषय में आगे वर्णन करेंगे ॥१३१५॥ इलक्क मिन्नान्गु मेळु नान्गु मुन्नानगु मेटु । मिलक्क नागिरंडिर् कागु मेलिरंडि रंडिर् किव्वा ।। रिरक्कत्तिल पादि येन्नंजाइर मारु मागि। विलक्किला विमान नान्गु नूरु मुन्नूरु मामे ॥१३१६॥ नूदि नोडुरु पत्तोंड्र मेटिम तिरयत्तिक । नूट्रि नूडेळ मागु मध्यम मुम्मई ट्रोन ॥ नूट्रि नोडोंड, मागमुपरिम मुम्मइन् कन् । नाव मोंबत्तैदा मनुदिशानुत्तरत्ते ॥१३१७॥ अर्थ-सौधर्म कल्प में बत्तीस लाख विमान हैं। ईशान कल्प में अठाईस लक्ष विमान हैं । सनत्कुमार कल्प में बारह लाख विमान हैं। महेंद्र कल्प में आठ लाख विमान हैं। ब्रह्म ब्रह्मोत्तर दोनों कल्पों में दो दो लाख अर्थात् चार लाख विमान हैं। लांतव कापिष्ठ कल्प में पचास हजार विमान हैं। शुक्र महा शुक्र में चालीस हजार विमान हैं। शतार सहस्रार कल्प में छह हजार विमान हैं। प्रानत प्राणत कल्प में चारसौ विमान हैं। पारण अच्यूत कल्य में तीन सौ विमान हैं। नीचे के तीन ग्रेवेयिक में एक सौ ग्यारह विमान हैं। मध्यम के तीन प्रैवेयिक में एक सौ नौ विमान हैं । ऊपर के तीन ग्रैवेयिक में इक्यासी विमान हैं । नवानुदिश कल्प में नौ विमान हैं। पंचागुत्तर कल्प में पांच विमान हैं ॥१३१६।१३१७।। इंदिरर सामानिकर तात्तिगर पारिडदर । कंद पालर कापरानी कर कीनर किल् विळियर् ॥ विदिरादि गळिर् पत्तु मरसर गळ कुरव रंड्रि। मंदिरर् शूदि शूळ दिरुपर कांजुगि यादि पोल्वा॥१३१८॥ अर्थ-इन्द्रसामानिक देव, त्रायस्त्रिंश देव, पारिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल, दण्डनायक, अनीक, प्रकीर्णक, किल्बिषिक देव, माभियोग्य इस प्रकार दस जातियां प्रत्येक स्वर्ग में होती हैं, और जिस प्रकार कर्मभूमि में राजा मंत्री प्रादि होते हैं उसी प्रकार वहां देवों में भी राजा मंत्री आदि होते हैं ।।१३१८।। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा मंदर पुराण नडुव नेन् पुगे कोळुपाय नंदिईचिरगोट् तीट्रिर् । कुडे मलरं विरुंद पोल डिरंडरं तीवोडोत्तु ॥ कडेला वरिवु काक्षि युडैय वर् कळुवि निड्र । fasमदु वलगत्तुच्चि येतरं तिरत वामे ॥१३१६॥ अर्थ - अनंतज्ञान, अनंतदर्शन आदि को प्राप्त हुए सिद्धपरमेष्ठी के सिद्धक्षेत्र तीन लोक के शिखर के ऊपर जो सिद्धशिला है, वह आठ योजन प्रमाण मोटाई में छत्राकार सिद्धशिला है । उसके उपर सिद्धक्षेत्र में सिद्ध भगवान विराजमान हैं। वह सिद्धशिला गोल पैंतालीस लाख योजन चौडी है । ऐसे सिद्ध भगवान भव्य जीवों के द्वारा स्तुति करने योग्य हैं ।। १३१६ || [ ४८५ मतिश्रुतमवदि मांड मनपच्चं केवलमाम् । विदियमां पारणं वेंडिन् विकर्पंग ळियावु मांगुम् ॥ मदिसुदं परोक मागुं मटू पञ्चक्क मागुं । विदिवै विगुलन् तूलं सकल निच्चयमु मामे ॥१३२० ॥ अर्थ – सम्यक्ज्ञान में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्ययज्ञान, केवलज्ञान इस प्रकार ज्ञान पांच प्रकार के हैं। इन एक एक का विस्तार से विवेचन करना मेरे द्वारा अशक्य है । ग्रथ विस्तार के भय से मैंने यहां विवेचन नहीं किया है, अन्य ग्रंथ से जान लेवें । क्योंकि ये पांचों ज्ञान अनंत विकल्पों से युक्त हैं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान परोक्ष हैं । अवधिज्ञान एक देश प्रत्यक्ष है तथा मन:पर्ययज्ञान स्थूल व सूक्ष्म है । केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है । १३.२० ।। मदिइनुं करुत्तु कन् कूडिरंड माम् विशेडं पत्ताम् । fafeng कन् कूडांगु विचारने नीकं तेदूं ॥ मति सुरति शेन्ना सिंदे मद्रिवै परोक्क मांगु । सुदमदन् मुन्धु सेल्लु मदियुनर् परोक्क मामे ।।१३२१ ।। 1 अर्थ - मतिज्ञान के प्रर्थावग्रह व व्यंजनावग्रह दो भेद हैं । यह विशेष रूप से दस प्रकार का होता है । स्पर्शन, रसना, घ्रारण, चक्षु, श्रोत्र और मन ये छह भेद हैं । इन से एक एक उत्पन्न होने वाले छह अर्थावग्रह हैं । चक्षु और मन के व्यञ्जनावग्रह नहीं हैं । अर्थात् चार भेद हैं । ये दोनों अर्थावग्रह के छह और व्यंजनावग्रह के चार इस प्रकार दोनों मिलाकर दस भेद हैं । अर्थावग्रह के ऊपर ईहा, आवाय, धारणा ये तीन हैं। स्पर्शनादि इन्द्रियों के भेद भिन्न भिन्न प्रकार से होते हैं । ये सभी मिलकर अठाईस होते हैं । यह बहु, बहुविध, एक एकविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, निःसृत, अनिःसृत, उक्त, अनुक्त, ध्रुव, अध्रुव ये बारह पदार्थ हैं । इनको गुणा करने से तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं। यह मति, स्मृति, संज्ञा, चिता, अभिनिबोध इन पर्यायों को धारण करते हुए परोक्ष है, मतिज्ञान पूर्वक श्रुतज्ञान परोक्ष है ।। १३२१ ।। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ ] मेरु मंदर पुराण वैपु नय नळव वाईल् मार्कनै गुरगजीवन गळ । सेप्पिय सुदत्तिय शेंड्र, विकर्षमाम् सदादि योडु ।। मैप्पड उन तोटिन् विन गळे केडुक्कु मेंड.। पैपोरु पमाणमाग पुण्णिय किळवन सोन्नान् ॥१३२२।। अर्थ-नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव ऐसे चार प्रकार होकर उत्पन्न होने वाले निक्षेप, द्रव्याथिक, पर्यायाथिक नयों से उत्पन्न होने वाले, नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ, एवंभूत ऐसे सात नयों के द्वारा उत्पन्न होने वाले, अध्यात्मभाषी, उपचरित, अनुपचरित, असद्भूत, सद्भूत, व्यवहार, शुद्धनय, अशुद्धनय, इन भेदों से छह प्रकार है। द्रव्यप्रमाण, भावप्रमाण, प्रत्यक्ष प्रमाण, परोक्ष प्रमारण, लौकिक प्रमाण, परमार्थ प्रमाण होकर यह निक्षेप नय प्रमाण से गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व सम्यक्त्व, संज्ञित्व, पाहार ये चौदहमागंणा के स्थान हैं। और मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, असंयत, देशसंयत, प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृतिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांत कषाय, क्षीणमोह, सयोगकेवली, प्रयोगकेवली ऐसे ये चौदह गुणस्थान हैं। सूक्ष्मपर्याप्ति, सूक्ष्म अपर्याप्ति, बादर अपर्याप्ति, बादर एकद्रियपर्याप्ति, द्वींद्रिय अपर्याप्ति पर्याप्ति, तींद्रिय पर्याप्ति अपर्याप्ति, चौइन्द्रि पर्याप्ति अपर्याप्ति. असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्ति अपर्याप्ति, सज्ञीपर्याप्ति, इस प्रकार चौदह जीव समास हैं। यह सभी प्रहंत भगवान की दिव्यध्वनि द्वार। निकले हुए शब्दों को भाव शुद्धि से परिपूर्ण गणधर देवों के द्वारा द्रव्यागम नाम के शास्त्र के बारह अंग और चौदह पूर्व में द्रव्यागम की रचना को गई थी। सत् , संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्प, वहुत्व ऐसे ये भाव श्रुत कर्मोपशम काललब्धि के अनुसार उत्पन्न हो जाय तो कर्मों का नाश होकर परमात्म पद को प्राप्त हो जाय-ऐसा गणधर देवों ने कहा है।१३२२। अंग पूव्वादि नूलगळागमं पमारण मागुं। शिगिय मदि सुदंगळ विभंग, तीय ज्ञान । मंगवे मूडन् संदेयं विपरीत माणु। तंगिय सन्निक्किप्पार् ट्रानेला मूढ मामें ॥१३२३।। अर्थ-अंगपूर्वादि द्वादशांग चतुर्दश पूर्व को गणधर ग्रंथरूप में रचना किया हुआ श्रुतज्ञान ग्रंथरूप प्रमाणरूप है। कर्म के उदय से इसके विरुद्ध कुमति, कुश्रुत विभंग ये तीनों मिथ्यात्व को उत्पन्न करते हैं। यह मिथ्यात्व मूढत्व, विपरीत और संशय को उत्पन्न करने वाले हैं। संज्ञी पंचेंद्रिय जीव के शरीर को छोड कर शेष तेरह प्रकार के जीव-सुमति ज्ञान से युक्त हैं ॥१३२३॥ अरु तत्तिर कामत्तिन कनौ विरंडगत्तुं सेंड्र। विरुत्तत्तै तेळिविलाम विशदमामूडमागु ॥ मोरुत्तुळि शेरिद लिडि युलावल संदेग मागुं। विरुद्धमा युनर् दल सोल्लल् विपरीत नयमदामे ।।१३२४॥ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४५७ अर्थ-पंचेद्रिय जीव द्वारा अर्थ और काम भोग में परिणति करते हुए धर्म मार्ग को न जानते हुए पंचेंद्रिय विषय में मग्न रहना यही मिथ्यात्व का कारण है। मच्चे देव, गुरु, शास्त्र में संशय करना संशय मिथ्यात्व है। भगवान के कहे हुए वचनों में विपरीतना समझना विपरीत मिथ्यात्व है।।१३२४।। अराघाति मानग ळात रल्लर नल्लरेंड्र। विरागादि येल्ल मार्ग विकर् पत्तं विडुदलें ॥ मुरोगादि योब लिडि वुईर् कोल दरुम मेंड म्। वरागादि पिरवि याने वैयत्तु किरैव ने म् ॥१३२५।। अर्थ-राग द्वेष परिणाम से युक्त मनुष्य को देव कहना, पाप कार्य करने वाले मनुष्य को गुणी कहना और वैराग्य भावना से रहित धर्म-मार्ग मानना, सांसारिक विकल्पों को नाश करने एवं रोग आदि दुःखों के परिहार करने में जीवहिंसा आदि को धर्म मानना, जन्म मरण करने वाले जीवों को देव मानना, यह सभी विपरीत मिथ्यात्व है ।। १३२५।। विकार मिल्लोरुवन् शंग युलगत्तिल् विकारमेंड । मवावोडु मनवि नोगांद बरै मादवगळंड म ।। तगादन यावं शय्यवल्लर तलैव रेंड्र म्। तोगा विरि पोरुळ्ग किल्ले सूनिय मल्ल देंड्र म् ।।१३२६।। अर्थ-विकार गुण रहित कार्य को विकार ऐसे कहना, रागादि विकार रहित गृहस्थ को महातपस्वी कहना, अति क्रूर हिसा करने वाले प्राणी को वीर पुरुष कहना. जोव को सदा शून्य मानना और जीव कोई द्रव्य हो नहीं है ऐसा कहना-यह विपरीत मार्ग है। इसको शून्य मत कहते हैं ।।१३२६।। तन्ने कोंड यिर योवल तक्क नर् करुण मॅडम् । पिन्नता नून युन्गै पेरुंदव मावदेड । मुन्निट्राम् कनत्ति यावु मुट्टर केडुडोदि । पिन्नत्ता नित्तमुत्ति कुळक्कन पेशलामे ।।१३२७॥ अर्थ-अपने प्राण को नाश करके दूसरे का रक्षण करना-इसी को दया कहना, मांस खाने को धर्म कहना, प्रात्मा क्षरण २ में नाश होकर नया उत्पन्न होना-ऐसा कहना, बिना तपश्चरण के प्रात्मा का कल्याण मानना, यह सब क्षणिकवाद है ।।१३२७।। अरिविने वीडा मंडियाचारतागु मंडि। इरैवनर् कादलाला मिविरंडालु मागु ॥ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ ] मेक मंदर पुराण HaryawwwmumArarianAnam नेरि मुत्ति किल्ले नित्तं मुत्तने जीवन म्। परिविन नंड्रे येंड्र, मळत्तलाम् पिळत्तलीदि ॥१३२८।। मर्थ-केवल दर्शन से ही मोक्ष होना कहना, केवल ज्ञान ही तथा चारित्र से ही मोक्ष होना-ऐसा कहना, भक्ति से मोक्ष होना कहना, इसके अतिरिक्त मोक्ष मार्ग के लिये मौर कोई मार्ग ही नहीं है ऐसा कहना तथा जीव हमेशा नित्य ही है-ऐसा कहना, इस प्रकार विवेचन करना मिथ्यामार्ग का पोषक है ॥१३२८॥ इरैव मट्रेन कोलेदु विनै मण्नर मिगुदर् केंड्रम् । कर कळलरसर् केटा ररुतव हरैक लुद्र ॥ नेरियिना लेटुंतत्त निमित्तत्तै निरैय पेट । सेरिय मिक्कल्ल दीन मामदु शप्पक्केळ मिन् ॥१३२६॥ अर्थ-मेरू मंदर ने प्रश्न किया कि कर्मरूपी शत्रु के द्वारा प्रात्म-बंधन के लिए कारण कौनसा है ? तो भगवान ने बतलाया कि ज्ञानावरणादि पाठ कर्म क्रम से आने वाले प्रशुद्ध चेतना परिणामों से कर्म पाकर आत्मा में प्रास्रव करते हैं। प्रास्रव कौन २ से हैं, यह बतलाते हैं ।।१३२६।। परमनोल् पळित्तल मायत डियुरल् पिळक वोदल् । कुरवर् मारादल सुरेदगं कोंडुळि करत्तत्तट्रिनन् । मरुतु तुवर्ग नागिन् ज्ञान माचर्यमुट। पेरुगिला वरण ज्ञान काक्षि यै पिनिक्कु मिक्के ॥१३३०॥ अर्थ-अठारह दोष रहित ऐसे अहंत परमेश्वर के मुखारविंद से निकली हुई दिव्यध्वनि के शब्दों को गरगधर देव उस दिव्यध्वनि को अंशरूप में गूंथ कर उसको सूत्रबद्ध करते हैं । उस सूत्रबद्ध को अवर्णवाद अर्थात् उस सूत्र की निंदा करना, उसका नाश करना, उसके अन्दर विघ्न उपस्थित करना, उस सूत्र के विरुद्ध अपने मनोकल्पित रचना करके कहना, प्राचार्य, उपाध्याय सर्वसाधु की निंदा करना, भष्य जीवों द्वारा प्राग मानुसार उपदेश को छुपाना, झूठे शास्त्रों का प्रचार करना, क्रोध, मान, माया, लोभ से सम्यक्त्व रहित होना, यह सभी ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय कर्म के प्रास्रव के कारण हैं ॥१३३०।। तन्मुद लुयिरै कोरल वरत्तुदल पड़ेगळे दि । इन्नुयिर नडुंग चेर लेरि इड लुरुप्परुत्तर ॥ विन्मुद ळीद लुळेळ वरुंद वेन् तुयर दिल् । इन्न इडर ईनु मसाद वेदत्त वोटुम् ॥१३३१॥ अर्थ-स्वपर जीवों की हिंसा तथा दूसरे जीवों पर उपसर्ग करना, जीवों की शिकार करना, दूसरे के घर को प्राग लगाना, गंज जलाना, आयुध दूसरों को देना, क्रूर कृत्य Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arrerana मेह मंदर पुराण [ vee करना, दुख देने वाले निंद्य कार्य करना ये सब प्रसातावेदनीय कर्म के बंध के कारण हैं । ५१३३१॥ उर शैव गुणंगळिडि करुणये युळि ळझेळ । मरुविय मनत्तिनगि यिर्गळिन् वरुत्तमोंबि ।। तुरु नयत्ताल वंदे, तुंबत्तं तुनिय नोरि। पेरिय विबत्तै याकं सादान् पिनिक्कु मिक्के ॥१३३२।। अर्थ-इस क्रूर परिणाम को त्यागकर समताभाव को धारण कर कारुण्य, प्रशम, अनुकंपादि धर्मानुराग से युक्त परिणाम को धारण करना, दुखी जीवों पर अपनी शक्ति अनुसार कृपा कर दुख दूर करना, मिथ्यामार्ग से पाने वाले दुखों को तथा उपसर्गों को रोकना । इससे अनंत सुख को देने वाले सातावदेनीय कर्म का बंध होता है। घातिया कर्मों को नाश किये हुये अहंत भगवान तथा उ.के प्रालय को जिन धर्म का मार्ग का यथाथ स्वरूप समझ कर धर्म का ऐसा उपदेश देना जो सभी भव्य जीव समझ सकें, यह सभी सातावेदनीय कम के बंध के कारण हैं। इसी प्रकार इसके विपरीत कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र मिथ्वात्वी साधु को नमस्कार करना , षट् अनायतनों को मानना ये सभी दर्शन मोहनीय के बंध के कारण हैं। ॥१३३२॥ प्ररुग नालयंग नूलग ळर नेरि तमक्कु माराय । पोळ कडेरादु माराम् पोरु ळुर तरुगनादि । पेरुमय पोरादु कुटम् पिरंगि नार तमै इरै जल । मरु मिच्चत्त मट्टि नेरिमय कुरुक्कु मिक्के ॥१३३३॥ प्रर्थ-सम्यक् चरित्र को नाश करना, त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करना, दुष्ट परिणामों से राग द्वेषादि परिणामों को उत्पन्न करना, इनसे चारित्र को नाश करने बाले चारित्र मोहनीय कर्म का बंध होता है ॥१३३३।। पोळकत्तं येळित्तल कायत्तूवन निर्प तम्मै । येळित्तिडल् किळहर सेर्द नोकुद लादि यालु ॥ वळुक्किला चेट मार्व मयक्कमा मै यंदालु। मोळुक्कत यळिक्कुं मोग मुडन वंदु पिगिक्कु मिस्के। १३३४॥ अर्थ-इस प्रकार अनादि काल से मोह को उत्पन्न करने वाले माठ प्रकार के कर्मों से तथा परिग्रह वांछा से जीव का वध करना, चोरी करना, असंयम में आनंद मानना मादि से प्रशुभ लेश्या परिणाम होता है। इन परिणामों से बहु प्रारम्भ परिग्रह को उत्पन्न करने से तीव्र नरकायु का कर्म बंध होता है ।।१३३४॥ मरुळ शैयुं बिनै मुन्नेट्टिन् माटोणा उदयत्तालुं । पोळ कोले कळवु पोय्यिर पुरिदेळु मुवगै पालुं । Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० ] मेरु मंदर पुराण तिरिविद तोर लंच मुरुक्कि पेरारंवत्तु । मरु मानिरं वायु माट्रोना उदयत्ताले ।। १३३५॥ अर्थ- सत्य स्वरूप को जानने वाले सम्यकदशन की शुद्धि से उत्पन्न होने वाले घातीश्रघाती कर्मों को जोते हुए अहंत परमेष्ठी में, तथा निश्चय व्यवहार रत्नत्रय मार्ग में भक्ति रखना, हेयोपादेय से समताभाव रखना, धर्मध्यान व शुकल ध्यान से इस लोक और परलोक में अपने को उत्पन्न होने वाले सुख की इच्छा न करते हुए और पाप पुण्य के नाश करने के लिये प्रयत्न करना, मोक्ष पुरुषार्थ में ही निमग्न होना, सत्पात्रों को प्रौषधि, शास्त्र, अभय और आहार चार प्रकार के दान देना, देव पूजा, गुरु उपास्ति, शास्त्र – स्वाध्याय आदि षट् क्रियाओं का पालन करना, शील पालना यह सब उत्तम भोग भूमि का कारण है ।। १३३५ । वंचनं मनत्तु वैत्तु वाकोडु कार्य वेराय । नजन वोळुक्कं पट्रि नल्लोळु कळित लालु || जिडामूडमादि मूंडू मिच्चुदयत्तालुं । ❤ सेम् संवेव् विलक्कि लुयिक्कु मायुगं सेरिक्कु मिक्के । १३३६ । अर्थ- मायाचार करना, कपट को मन में धारण करना, मन, वचन काय से विष के समान हिंसादि दुष्ट क्रियाओं का पालन करना, अहिंसादि मार्ग को नाश करने वाली लोक मूढता, पाखंड आदि मिथ्यात्व के उदय से संज्ञी असंज्ञी ऐसे तिर्यंच गति में उत्पन्न होता है । ।। १३३६॥ मैयां तेळिवि लागुं वें वर् गुणतुळार्वम् । सेम्मै वानू करुण सिंह युट् कलक्क मिन्मै || इम्मंयाम् भोग वेडां मुनिवर कट कीद लादि । तम्मिनादि भोगभूमि मक्कळा युगं कडामे ॥ १३३७।। अर्थ-दर्शनविशुद्धि रहित मायाचारी करने से भोगभूमि में रहने वाले तिर्यंचगति का कारण होता है । इसलिये मायाचार रहित सम्यक्त्व पूर्वक आचरण करने से कर्मभूमि के मनुष्य की प्रायु का बंध होता है ।। १३३७ ।। उत विरगंगळ माय मोंड्रिड ळंदभूमि । · तिरिक्कय वायु वांगु सेपिय गुरगंगळ, मायं ॥ पोरुत्त मिल्लाद पोदु मंद मद्दिमंगळागिल । वत्त मिल् करुम भूमि मक्कळा युगंगळामे ।। १३३८ ।। अर्थ - धर्मध्यान से उत्पन्न होने वाले सम्यक्त्व रुचि से संसार संबंधित पंचेंद्रिय विषय सुखों से वैराग्य को प्राप्त होकर क्षमाभाव धारण कर समता भाव से देवाधिदेव Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४६१ भगवान होने वाले चरम शरीर को धारण कर मोक्ष जाने वाले तीर्थंकर पद को प्राप्त कर लेते हैं ।। १३३८ ॥ प्रारत्तेळ विरुप्पि नालु मांडू नरकाक्षि यालुं । वेरुत्तेळ मनत्तिनालु मिक्क नर् पोरइ नालुं ॥ शिरपुडे शमत्तिनालुं देवर शाकु भूमि । पिरप्पिने मैकु मक्कळा युगं पिनिक्क् मिक्के ।। १३३६ ।। नेरिs वै पेरदारंद निलत्तुळ विलगुंमावार् । श्ररिवंड्र मुदल् विलंगुम् तेळि विला मरिणद रागु ॥ मरुविलां तेळिविनाळे वायु तेयुक्कळ शेंडू । सेर बोरि विलंगिल शिरिय दोर् करुरणे यालुं । १३४०। ७ अर्थ - इस मार्ग को पालन न करते हुए जीवों पर अल्पदया भाव रखने वाले इस कर्मभूमि में तिर्यंच प्रायु का श्रास्रव कर लेते हैं । एकेंद्रिय प्रादि चतुरिंद्रिय पर्यंत पशु पर्याय तक तीव्र मोह से नीच मनुष्य गति का बंध होता है । कदाचित् सैनी, असैनी पंचेंद्रिय पशुगति का बंध होता है ।। १३३६।१३४० ।। विरद मिल् काक्षि तीमै विरविय वोळुक् मार्व । मरुविय सरितकुत्ति समितै पन्निरंडु सिदे || रुममुं तवसुं देवारायुगं तन्नै याकुं । विरत शीलंगळ मिच्चं विरविन दालु मामे ॥। १३४१॥ 1 अर्थ - प्रसंयत सम्यकदृष्टि जीव हेयोपादेय रहित अज्ञान रूप आचरण को पालन करे और इन्द्रिय भोगों संबंधी विषयों की इच्चा करे तो कुगति को प्राप्त होता है । तीन गुप्ति, पांच समिति द्वादश भावना, दश प्रकार के धर्मों को पालन करने से उत्तम, मध्यम, जघन्य देवायु का कर्मबंध होता है । सम्यक्त्व को त्याग कर मिथ्या चारित्र को पालन करने से उस परिणाम के अनुसार कर्म का बंध होता है । १३४१ ।। नर्गुणं पोरामै तीय कदंगळे नविनल्ल । सोकं युरळ दल तूय वोळ क्किन् में तुयर मंदल ॥ कुद्रतल मनो वाकायं कोटं पोल्लाच्चिरिपुं । मट्रिपळित्तल नामं पिनित्तलु केटु वामे ।। १३४२ ।। अर्थ- सम्यक्त्व आदि गुरणों को छोडकर काम भाग आदि शास्त्रों को पढना, दूसरे को दुश्चारित्र कथा कहना, धर्म की निंदा करना, अपने सत्तारूपी चारित्र का स्थागना, दुष्टा Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ ] मेरु मंबर पुराण चार धारण करना, रागद्वेष आदि से युक्त मन, वचन काय का होना, दूसरे को हास्य द्वाग कटुवचन बोलना ये सब बंध का कारण है ।।१३४२।। तूय काक्षियं सुरुक्क मिल विनयम मिरप्पि वंदशील । माय नल्लुपयोगं, वेग माट्रिय तवन त्यागं । चाय रिदु श समादि वै यावच्च मावच्चं ताविन्न । माय मिन्नरि विलक्कल तुळक्किंडि यरत्तु वच्चळताळू।१३४३। मर्थ-दर्शन विशुद्धि, चार प्रकार का विनय, निरतिचार शीलवत, अभीक्षण ज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधु समाधि, वैयावृत्यकरण, पावश्यकापरिहाणि शुद्धि, मायाचार रहित मार्ग प्रभावना, चलन रहित प्रवचन, वात्सल्य ॥१३४३।। अरिव नागम माचरियन पलसुरुदि वलारं बुमुं । शेरिय निड्रिडं तीर्थगरत्तुंव शैयु नट्रिरु नामं ॥ मरुविलिगुण नल्ल नगुणत्ति निल वेय्यग तुइर् तम्मै । कुरुगु नामंग नल्लव सालवं गुण वेगळाले ॥१३४४॥ अर्थ-अहंत भक्ति, प्रवचन भक्ति, प्राचार्य व बहुश्रुतभक्ति इस प्रकार सोलह प्रकार की भावना है । वह तीर्थकर प्रकृति के बंध का कारण है। इसके अलावा शुभनामकर्म प्रकृति का शुभ गुणों से इस लोक में जीव सद्गुण भावना से शुभ परिमाण से शुभ नाम प्रकृति आस्मा के अंदर उत्पन्न होतो है ॥१३४४॥ पिरगळे पळित्तु तन्न पुगळ्टुडन् पिरर्ग निड। मरुविला गुरगत्तै मायुत् तीगुरणं परप्पि माराय । निरविला माय वोळुकत्तै पुगळं दु नल्लोर । निर युला वोळक्कं कायंबार नोचगोतिरम दांगु ॥१३४५।। अर्थ-धामिक प्रादि जन के गुणों की, उत्कृष्ट तपस्वियों की निंदा करना, दूसरे को देखकर उसकी निंदा करना, खोटे शास्त्रों की स्वाध्याय करना, कुचारित्र वाले की प्रशंसा करना, यह सब नीच गोत्र के कारण हैं ।।१३४५॥ अब विगुरत्तिन मारा यरविन युळ्ळिट्टार। इरैनि निड्रोळ गल् तन्नः इळित्तल पातुंड नल्ल ॥ बरंपुगळं विडंद रन्न पोक्कं शेय्यामै तम्मार । पिरंदुलगिरेंज निकुंगोतिरं सेव्यु मेंडान ॥१३४६॥ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४६३ -- - -- -- -- --- - -- - - --- ___ अर्थ-पीछे कहे हुए दुर्गुणों को त्यागना, प्रहंत भगवान के स्वरूप प्राचार्य, उपाध्याय को नमस्कार करना, मृनि की चर्या के अनुसार मार्ग पर द्वारापेक्षण करना, तत्पश्चात् भोजन करना, अहिंसामयी भोजन करना, शरीर में निर्ममत्व भाव होना यह सब उच्च गोत्र के कारण हैं ॥१३४६।। कोलय कोबित्तु शैया कोडइन इड विलक्का । विले येनिनु वंदु नंडिदुळि कायं दु नेंजर ॥ पुलैसुत्तेन कळ ळ मेविपिरन् शेल्वम् पोरादु वोव्व । वले शय वंदराय मैंदुम वंदडयु मेंडान् ॥१३४७॥ अर्थ-आत्मा रौद्रध्यान में तत्पर होकर अनेक प्रकार के जीव हिंसा को करना, दूसरे को दान देने वाले के अंतराय कम डालना, दान न देने वाले को देखकर तिरस्कार करना तथा कषाय करना , मद्य, मांस, मधु का सेवन करना , दूसरे की वस्तु को जबरदस्ती से छोनना, इनसे तीव्र अंतराय कर्म का बध होता है ।।१३४७।। सोन्न कारणंगळ भाव योगत्तिल पडिहर सोल्लि । नुन्नलां पडियवल्ल रैक्किनुं सोगिळादा ॥ वेन्नमुम् नार्कनत्तुळ यावरु मिरैजि येत्ति । तुन्निय विनय वेल्लत्तोडंगिनार मलर मंड्रे ॥१३४८॥ अर्थ-पिछले कहे हुए दुर्गुण, मन, वचन, काय से प्रात्म-प्रदेश परिस्पंद में प्रवेश होकर आत्मा को अनेक कुगतियों में भ्रमण के कारण होते हैं। उस पाप कर्म के होने वाले दुख को इस जिह्वा द्वारा कहना असाध्य है । ऐसे समझ कर केवलो भगवान ने उन मंदिर और मेरू दोनों गणधरों को समझाया। इसको सुनकर समवसरण की बारह सभागों के सभी भव्य जीवों ने उठकर भगवान को नमस्कार किया और वहां स्थित अन्य केवलियों को नमस्कार किया, तत्पश्चात् सभी गणधरों को नमस्कार किया। तदनंतर ये लोग सम्यक. दृष्टि होकर कर्म निर्जरा के लिये प्रयत्नशील बन गये ॥१३४८।। प्रायुवं करण{ पोरियु मग्गति । वायुq केडुद लाल मरण मट्वे ।। पोळि पेरुद लाम् पिरवि पोमिड । तेयु मोंडि रंडु मूंड्रांगणंगळे ॥१३४६॥ अर्थ-उस गति में स्थित होने वाले प्रायुष, मन, वचन, काय, इन्द्रिय, श्वास, उच्छवास आदि दस प्राणों के नाश होने को मरण कहते हैं। पुनः कार्मारणकाय सहित दस प्राणों के धारण करने को जन्म कहते हैं। एक शरीर को छोडकर दूसरे शरीर को धारण करने को समय अथवा विग्रहगति कहते हैं ॥१३४६।। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण दुरैत विप्पिरप्पुपपादमूर्चने। करुप्प मुमा मुम्मद्दे वर नारगर ॥ कुरैत्त बट पपादं जरायुजं । करुप्पु मानवगळ काव दागुमे ॥१३५०॥ अर्थ-पीछे कहा हा जन्म-उपपाद, गर्भ, सम्मूर्छन ऐसे तीन प्रकार का होता है। इन तीनों में से उपपाद जन्म देव नारको को होता है। और मनुष्यों को जरायुगर्भ तथा सम्मुर्छन भी होता है । शेष सब तिर्यंचों के गर्भ सम्मूर्छन होता है ।।१३५०।। नम्मि नुनियवर नाल्खुि कारुराळ् । सम्मुच्च पिरवियर् विलंगि लैंबोरि ॥ विम्मिनार सम्मुच्चम् करुपत्तावदां । तम्मिलु शेरा युगं मंडम् पोदमाम् ॥१३५१॥ अर्थ-पंचेंद्रिय लब्धि पर्याप्त मनुष्य एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, ते इन्द्रिय, चौइन्द्रिय सम्मूर्छन होकर जन्म लेते हैं। तिर्यंच गति में कहीं पंचेंद्रिय जीव होकर जन्मते हैं , कहीं सम्मूर्छन हुप्रा जन्म लेता है और कहीं गर्भ जन्म में भी जन्म लेते हैं अर्थात् तिर्यंच जीव जरायु, अंडज और पोतज में भी जन्म लेते हैं ॥१:५१।। यावयुं तोर्शवि युडय शनियां । तावलं तुळशवि शनिय शनियां ॥ मेवुरुं तिरुवरं मेवुगं सन्निग । कोविला पिरप्पि वदि योनि योबदाम् ॥१३५२॥ अर्थ-सभी जीवों की उत्पत्ति का स्थान (योनि) नौ प्रकार की है। कणेंद्रिय मन को प्राप्त हुए संज्ञी जीव को सैनी जीव कहते हैं । इसमें कहीं मन रहित असैनी सर्प प्रादि होते हैं ।।१३५२।। विनै युयिर् तत्तमिल विडुदल वीडदु । तनगुण नोगंलु दवियं शूनियं ॥ मुनै यवरुड नुरल मुवल्व नंड्र वा। ननग नाय गुरणंगळ मनंद मागुमे ॥१३५३।। अर्थ-जीव और कर्म अनादि काल से परस्पर में रागपरिणति मिलकर यह प्रात्मा पुद्गल के निमित्त से संसार में परिभ्रमण करते पा रही हैं। इस प्रात्मा का अपने शुद्ध स्वरूप, स्वपर ज्ञान से भिन्न २ करके शुद्ध चैतन्य बल से पर को त्याग करके अपने स्वरूप में स्थित Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ram मेरु मंदर पुराण [ ४६५ होना ही मोक्ष है । प्रात्मा के कम बंध का कारण अशुद्ध चेतन परिणाम जो रागादि भावरूप हैं, वे ही बंध के कारण हैं। यदि उसको शुद्ध चैतन्य आत्मा स्वरूप के बल के द्वारा त्याग करेगा वही आत्मा लोकाग्र विराजमान होने के योग्य सिद्ध परमेष्ठी बन जाता है। ऐसा भगवान ने कहा है ॥१३५.३।। ऐंबतंगणधरर् घाति यांगण । तेंवत्तँदि रट्टि पत्ताम् पूर्वद ॥ रैबदि निरट्टि नार्पत्तेट्रोरिय । रंबदि निरट्टि योंवान् विगुवनर् ॥२३५४॥ अर्थ-उन विमलनाथ तीर्थंकर की सभा में पचपन गणघर थे। एक हजार एक पूर्व अङ्गधारी थे। अवधिज्ञानी मुनि चार हजार आठ सौ थे। विक्रिया ऋद्धिधारी गणधर नौ सौ थे ॥१३५४।। विलिक्कल शेयत ररुवत्तेनाइरम् । इलक्क मूनं ड्रेटेट्टा इरंगळ सावध ॥ रिलक्क मोड्राइर मूंड, कांतिय । रिलक्क नागिरंतु सावगियर् ॥१३५५॥ अर्थ-सम्पूर्ण संयमी लोग अडसठ हजार थे। नवीन संयमो तीन लाख चौसठ हजार थे। आर्यिका तीन लाख तीन हजार थी। श्राविकाएं चार लाख, श्रावक दो लाख थे। ॥१३५५॥ इनय वाम् विमल नार गरगत्तु नादराय । विनवला मरवेरि वेद नागि नै । मनत्तुर वानरुक्कोदि मट्रवर । विनै कन् मेनिने बुरिइ विविक्त मेविनार ॥१३५६॥ अर्थ-मेरू और मंदर ये दोनों श्री विमलनाथ भगवान के मुख्य गणधर थे। उनने फर्मा को नष्ट करने के लिये चारों अनुयोगों को प्रावक और यतियों के लिये उपदेश करने हेतु अपनी आत्मा में बंधे हुए कर्मों को क्षय करने के frये एकांत स्थान को प्राप्त किया। जिस प्रकार गाय भैंस अपने २ झुन्ड के साथ जाती हैं, अलग २ नहीं जाती हैं, उसी प्रकार दोनों मेरू और मंदर एक साथ निर्जन पहाड को चोटी पर पहुँच गये ।।१३५६।। इनत्तिडे पिरिदु पोमेरिरंडु पोर् । कनत्ति पिरिदु पोय कान मेक्यि । वनत्ति पेरवर युच्चि मणिनार । निने पिने तन् कने निरुत्ति निडरां ॥१३५७॥ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ ] मेरु मंदर पुराण अर्थ-जिस प्रकार एक चंदन वृक्ष को काटने वाले को वह चंदन वृक्ष सुगंध ही देता है या छाया देता है उसही प्रकार अपने को दुख देने वाले को भी सुख देने वाले धर्मोपदेश देकर उनकी तृप्ति कर देते हैं और समता भाव सदैव धारण करते हैं ।।१३५७।। वरत्तुनु कुळि शमरत्ति नीळलु। मरैपिनुं शीतमां संदम् पोलवू ॥ निरत्तु निडिनाद शैद वर्षा मिवमा । मुरै कनिन् रत्तम पोरै योडोंबिनार ॥१३५८।। अर्थ-गर्व रहित उत्तम मार्दव से युक्त सम्पूर्ण जीवों को समताभाव से देखकर उन भव्य जीवों को धर्मोपदेश देकर आर्जव गुण से युक्त थे। जिस प्रकार स्फटिक मरिण भीतर बाहर एक सा रहती है उसी प्रकार बाह्य-अभ्यंतर से ये दोनों सम्यक् चारित्र से युक्त थे। ॥१३५८।। मार्तवत्ताल वळ दारुयिर्कलां। पार्तरं पगंदुळं पंजिन् मेल्लिय ।। रचिवत्तगं पुंर मारिण विळकि तोत् । तूर्तम योरुवगै योळगु नीररे ॥१३५६।। अर्थ-इष्ट अनिष्ट वस्तु में रागद्वेष रहित रहने वाले मदर प्रौर मेरू उत्तम सत्य धर्म को पालन करने वाले होकर पंचेंद्रिय विषयों से अत्यंत अलिप्त थे ।।१३५६।। प्रविमुं सेटमु मयक्क मिन्मया। लारुयिर् कुरुदि पेल्लाद सोल्लिला ।। रोर् विडत्तर तोरुविय पोलत्तिन् मीटुळं । सोविड तुनशेला तूयइिनार् ॥१३६०॥ अर्थ-स्पर्शन , रसना, घ्राण , चक्षु, श्रोत्र पंचेंद्रिय तथा मन अर्थात् पृथ्वी, अप , तेज, वायु, वनस्पति और त्रस जीव की रक्षा करना ये छह प्रकार के प्राणि संयम हैं। द्वादश तप को निरतिचार पूर्वक पालन करते हुए निरतिचारी तथा अकिंचन्य धर्म को पालन करने वाले थे। इसके अतिरिक्त भव्य जीवों को तत्वों का रूपदेश करने वाले उत्तम त्याग धर्म वाले थे ।।१३६॥ अरुवगै पोरिवळी पचि नींगियुं । मरवग काय येरुळि नोंबियुं ॥ शेरित वं पनिरंडि शेलापिने । तुरुवु मैत्वागमुं तुन्नि नागळे ॥१३६१।। Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेव मंबर पुराण [ ४६ ... - ~ .- -- -- -- ---- - अर्थ-स्त्रियों की स्तुति करना, प्रेम से देखना, उनकी प्रशंसा करना, रुचिकर प्रहार लेते समय प्रेम रखना, स्त्रीसहवास करना, उनसे हास्यादि करना मादि से रहित उत्तम ब्रह्मचर्य को पालन करने वाले थे ॥१३६१।। मावर पुगळवल पातल मद्रव रट्ट बैंड्रा । लावरी तुंडल पुक्क बव्वगत्तुरंद लबल ।। मेवम केटल मेवि शिरितिडलविळे नोकल । येद मिडि पटि नीगि इलंगु मुळ्ळत्त राणार ॥१३६२॥ अर्थ-चर्या को जाते समय चार हाथ भूमि को देखकर जीवों को बाधा न हो, वे ईर्यापथ शुद्धि से मंद २ गति द्वारा गमन करने वाले थे। संपूर्ण जीवों से दमा के भाव के साथ बात करते थे। एषणा समिति पूर्वक एक बार प्रती श्रावक के घर जाकर शुद्ध माहार लेने वाले थे। मलमूत्र को निजंतु स्थान में त्याग कर ब्युत्सर्ग समिति के पालन करने वाले थे, और वस्तु को रखते तथा उठाते समय यत्नाचार पूर्वक रखना आदि पादान निक्षेप सिमति का पालन करने वाले थे। इस प्रकार पांचों समिति के पालन करने वाले थे ॥१३६२॥ मुन्नगत्तळवु नोकि मुंबु पिन पिरियच्चेल्ला। रिन् सोलुं पिरर तमक्कु मिदत्तन पंडिचोला । रंबु नोतुहरै योंबि यळव मैंदुब राकुं। तुंवर कोडल वैत्तल मलगेळे तुरत्तल शैयार ॥१३६३॥ अर्थ-पर्यकासन, पद्मासन, खङ्गासन, वीरासन, गोदूहन आदि से सामायिक तथा ध्यान करना । चर्या मार्ग से आहारं के लिये जाना। सोते समय हलन चलन नहीं करना, जीव को बाधा न हो इसलिये हाथ पैर नहीं पसारना । संकोच करके रखना. इस तरह कायगुप्ति का पालन करते थे। भव्य जीवों को धर्मोपदेश के सिवाय मौन धारण करने वाले थे। इस प्रकार वचन गुप्ति पालन करते थे। रत्नत्रय वृद्धि करने योग्य श्रावक श्राविका के हाथ से शुद्ध आहार लेते थे। मन का सदेव एकाग्र चित्त रख कर मौनवृत्ति के पालन करने वाले थे ।।१३६३॥ इरुत्तले किउत्तल निट्र नियंगुवल मुडक्कल मोटल् । तिरुत्ति यव्वाकु तीम शिरदिडा वोलक मोवि ॥ युरेत्तुहर कुरुदि मगिमोंवुव कोप्पिर कोंडुम् । परिक्कद पावे मारे पदर तुरंविट्टारे ॥१३६४॥ अर्थ-सुख दुख मादि में समान भाव रखने वाले, तीन लोक के नाथ प्रहंत भगवान का स्मरण करने वाले, अहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करने वाले, कर्मेंद्रिय से भाने वाले दोषों का प्रायश्चित्त लेने वाले थे। अपने शरीर Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ मेरु मंदर पुराण से मोह का त्याग, प्रात्मा और शरीर भिन्न है, ऐसा समझने वाले, आत्मा-स्वरूप में लीन रहने वाले , षट्कर्म को सदैव निरतिचार पूर्वक पालन करने वाले तथा चलन रहित ध्यान में मग्न रहने वाले थे। १३६४।। ननमै तीमै कन्नोत्तु नादन द्रन पादमोदि । तन्मै कन्निड्रार् तम्मै पनिंदु तम् पिलेप्पिन मोंडु ॥ पिन्नं तंपाल वर्दयूँ पिळं मुन मरुत्तु कायं । तन्नत्तान् विटु निडार तडवर शूळि योत्तार ॥१३६॥ अर्थ-सघन जंगल में जहां श्मसान भूमि हो, भूत प्रेत हो ऐसे श्मसान में, जहां सिंह, सर्प, व्याघ्र प्रादि कर प्राणियों का स्थान हो -ऐसे भयानक जंगल में बैठ कर एकाग्र चिता निरोध किया हुअा ध्यान से युक्त प्रार्तरोद्र ध्यान से रहित समय को प्रात्म-ध्यान में संतोषपूर्वक बिताने गले थे ।।१३६५।। प्रातपयोगं तांगि यरुंदवर निड पोल्दिर् । पाद पोदु कोंडु पनिदन पनियच्चेर् ॥ शीत पंकयंगळ कुंव विरिदं शंकमलंशिद। मादवर् मरत्तै शेर मगिळं दु वान वोळिद वंड ॥१३६६॥ अर्थ-ऋतु, अयन, वर्ष इस प्रकार मर्यादा सहित ध्यान करने वाले, आत्मध्यान करने वाले होकर अपने शरीर को कृश किया था। इस शरीर के साथ साथ कषायों तथा इन्द्रियों को भी कृश करके पाने वाले प्राश्रय मार्ग को रोकने वाले होकर आत्म गुणों का विकास करके सम्यक् दर्शन को वृद्धि करने वाले थे ॥१३६६।। कूग पेय कवंद मोरि टाकिनी कुलवं काडु । नागमा नागं शीय मुळुवै शेर मलै मुलंजु ॥ येगमाय वेगमेवि इराजमा शोयं पोल । योगमे भोगमाग वुवंदव रुरैदु शेंड्रार ॥१३६७॥ इरुदु नल्लयन मांड येच्ने शैदिरंदु निडु । मरिय मुक्काल योगं वळगुं मगित्तै विटु । तिरिविद करणं तन्नै शेरिय वैत्तरिवं युंड्रि। पोरुविलार शिदै योगं तन्मये पोरंदि नारे ॥१३६८।। अर्थ-वे मेरू और मंदर दोनों मुनिराज, जैसे म्यान में रखी हुई खङ्ग और म्यान पृथक २ रहती है, उसी प्रकार आत्मा और शरीर को भिन्न समझने वाले, स्वपर भेद भावना Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ४९९ से युक्त, आत्मा को दुख देने वाले कर्मों की पर्याय को शुक्ल ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा दहन करते हुए , स्वर्ण में मिश्रित कालिमा कीट को तपाकर दूर करके सोने को शुद्ध करते है, उसी प्रकार प्रात्मा को शुक्लध्यान रूपी अग्नि के द्वारा मुष में प्रात्मरूपी स्वर्ण को रख कर कर्म रूपी कीट को भस्म कर आत्म-शुद्धि करने वाले थे ।।१३६७५१३६८।। उडंबुई रुरवा नेरेंड डंबे विटुडे पार्ताम् । कतुपर विनंगळवा ळुरुक्कोडु नेरुप्पुइर् कट ।। केडम परियाय मव्वाकिट्ट मामेंड बदवे। कडंतम् वडिवैकळाकळंड पोच पोलक्कं डाल ॥१३६६॥ अर्थ-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान के प्रावरणों को मनःपर्यय ज्ञानावरणी, केवल ज्ञानावरणी कर्मों के प्रावरण को नाश करते हुए, अनंत गुणों से युक्त प्रात्म-स्वरूप की वृद्धि करते हुए अनादि काल से प्रात्मा के साथ चिपक कर पाए हुए चक्षु, अचक्षु , आदि कर्मों को दर्शनावरणीय आदि पाठ कर्मों को नाश करके अनंत दर्शन से युक्त प्रात्मगुण को प्राप्त कर सम्यकदर्शन और सम्यकज्ञान के बल से सदैव ज्ञान के बल से प्रात्मस्वरूप की सतना भावना भाने वाले थे॥१३६॥ मतिश्रुतप्रवधि यामा वरणत्ति लरिवु म । विदियर केडबंडागि येनंद माय विरियं काक्षि ॥ पोदुविना लरिविन मुंबु पुलत्तं कोनं डनेक मायतन् । विवियर के डवंडागि विरियुमा नुन्निनारे ॥१३७०॥ अर्थ-अतींद्रिय युक्त शुद्ध चैतन्य प्रात्मद्रव्य नाम के प्रात्मसुख को व इन्द्रिय सुख को उत्पन्न करने वाले मोह सुख को पांच प्रकार के ज्ञानावरणाय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय आदि पांच कर्मों को नाश करने से हमको प्रत्यंत सुख देने वाले प्रात्मसुख को प्राप्ति होगी॥१३७०॥ सुगदुख मोग मागि सुळलुं चेतवे सुगत्तै । तगै वै शं येतरायं तम्मोडु मोगनींग ॥ मुगै विट्ट ना, पोल मुळंदु वंदेळंद नंद । सुगमट्र डागु मेंड, तुळक्कर निनंदु निड्रार् ॥१३७१॥ अर्थ-वीर्यान्तराय कर्म आत्मा से अलग होते ही उसी समय तीन लोक को एक ही समय में जानने वाले, अनन्तवीर्य नाम का गुण प्राप्त होगा। इस प्रकार भावना भाते थे। ॥१३७१।। घोयंतराय नीगं विकलत्ति.नींगि वीरम् । कार्य कडेलादु कनत्तिले मुडित्तळंदु ।। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०.] .मेरु मंदर पुराण मूरि मूवुलगं तन्न यदलु मागु माट्रल । वीर्यमागु मेंड्रिव् विदि युळि निबिट्टारे ॥१३७२॥ अर्थ-तदनंतर प्रात्मा के साथ लमे हुए आठ प्रकार के द्रव्य कर्म का नाश होते ही रूप, शब्द, स्पर्श रस, गंध इत्यादि का नाश होकर ज्ञान से जानने योग्य अगुरुलघुत्व गुण को प्राप्त कर तीन लोक के अग्रभाग में रहने वाले तनुवात में अपना प्रात्मा चलायमान न होते हुए कब जाकर विराजमान होगा-ऐसी भावना निरंतर भाते थे ।।१३७२।। उरुवमो मेलियु मूरु नाम सुवयु मिडाय। तेरिवर नुन्मत्तागि नोर्पमुं शिरप्पु मिड्राय । मरविय विनेगळटै मायं दवक्कनत्तु सेंड । तिरिवर उलगत्तुच्चि निट्टलु सिदित्तारे ॥१३७३॥ अर्थ-गुण गुणी से युक्त जीवादि अनंत द्रव्यगुण कहलाने वाले द्रव्य सामान्य और विशेष से तथा द्रव्याथिक और पर्यायाथिक इस तरह दो प्रकार से है, और विशेष से द्रव्याथिक पदार्थ के तन्मय से अस्तित्व है। पर्याय कहने से अनित्य है। स्याद्वाद के सप्तभंगीनय से नाम स्थापना द्रव्य भावों से उत्पाद व्यय सहित है। द्रव्य पात्मा गुण है इस प्रकार दोनों गुणी मात्म-भावना के बल से अपनी २ आत्मा हमेशा शाश्वत है। ज्ञानदर्शन से युक्त है। शेष जो द्रव्य हैं, वे आत्मा से भिन्न तथा अन्यत्व है। इससे प्रात्मा-पर वस्तु से इस प्रकार भिन्न है । उनकी आत्मा अप्रमत्तगुणस्थान नाम के क्षपक श्रेणी को प्राप्त हुई ॥१३७३॥ .. गुणगुरिण निलम युं गुरणंग निद्रलु । मन मुड मट्र वर् तत्तं सिदिया। वनवरं पमादं विट्ट पमत्तरा। इनला सेशिमेलेरि नागळे ॥१३७४॥ विनंगळेळ विरगिनाल वीळं व वक्करण । मुनिवर पुवारिण नन मुनिवराइनार ॥ विनयला निल तळरं दिट हुदिधिग। तनै यडेविट्ट वाल्वगै इनार पिन्नं ॥१३७५॥ अर्थ-अप्रमत्त गुणस्थान को प्राप्त होने के बाद मिथ्यात्व, सम्यक मिथ्यात्व, सम्यकप्रकृति, अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार दर्शन मोहनीय इस प्रकार सात प्रकृतियों का नाश किया। तदनंतर ये दोनों मुनिराज अपूर्वकरण नामके आठवें गुणस्थान को प्राप्त हुए। बंध, सत्व, उदय, उदीरणा, इन चार प्रकार के उत्पन्न होने वाले कर्मों की निर्जरा करने लगे। भिन्न २ होते हुए भी अपने अन्दर ही वृद्धि होने वाले पृथक्त्व, वितर्कत्व Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुमंदर पुरंग महार वेन को ५०१ वीचार ऐसे प्रथम शुक्ल ध्यान को प्राप्त होकर अनिवृत्तिकरण नाम के नवें गुरणस्थान को प्राप्त होकर, उस गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त में समय को व्यतीत करते हुए वे दोनों मेरू और मंदर मुनियों के नो समय शेष रहने के बाद प्रथम समय में सोलह प्रकृतियों को नष्ट कर दिया ।। १३७४ ।। १३७५ । । * सोलह प्रकृतियों के नाम निम्न प्रकार के हैं # निड्र ुळि निलाद सुक्किलत् ध्वानत्तो । दंड्र वरण येट्टि मुनिवराई नार् ॥ शेंड्र शिलपल कमंगळ शेंड्रपिन् । वेंड्रनर् विनंगळी रट्टे वीररे ।। १३७६ ॥ अर्थ - १ नरकगति २ तिर्यंचगति ३. नरकगत्त्यानुपूर्वी ४ तिर्यक् गत्यानुपूर्वी ५. एकेंद्रिय ६. दोन्द्रिय ७. ते इन्द्रिय ८. चौइन्द्रिय ६. स्थावर १०. सूक्ष्म ११. साधारण १२. तप १३. उद्योत दर्शनावरणी की तीन १४. स्त्यानगृद्धि १५. निद्रानिद्रा १६. प्रचला प्रचला यह सोलह प्रकृतियां हैं ।।१७६ ।। तीगति इरंड बटुप् पूर्विगरगांगु जाति । या निद्र नुप्पं पोटुवेइल विळक्कि बटुं ॥ याकु नाम काक्षि यावर रणध्यान तोटि । नोकरूं पसले निद्द यागु मीरट्टे नित्तार् ॥ १३७७॥ अर्थ-तीसरे समय में नपुंसक वेद कर्म का नाश किया। चौथे समय में स्त्री वेद कर्म को नाश करने के पश्चात् पांचवें समय में रति, अरति, हास्य, भय, जुगुप्सा और शोक ऐसे छह प्रकृतियों का नाश किया । तदनंतर छठे समय में पुरुष वेद को जीत कर वे दोनों मुनिराज अनिवृत्ति नाम के गुणस्थान को प्रारूढ हुए थे ।। १३७७॥ वेगळिये मानमाय मुलोब मा मिक्क नांगु । पगडिय पच्च पच्चक्कनत्तदा मेट्टं नीत्तु ॥ मगर वेळंदसदं मुरुविक पिननुरुक्कळर् पोल् । तोग युडप्पेडि बंद तन्नयु मुडैत्तिट्टि पाल् ॥ १३७८ ॥ अर्थ -- दूसरे समय में अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ ये कषाय तथा प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ इन आठों को नाश किया || १३५८ ॥ मट्ठेत्ती पोल बेंबुस मोय् कुळलातं वेदं । केपि निरदि याचं पयमुवर् परदि शोकं ॥ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ ] मेरु मंदर पुराण बिट्टब पोळवु वैति पोलेळं पुंगवेद । मट्टवर वेदनीत वरिण येट्टि मुनिवरारणार् ॥ १३७६॥ नल्लवांचलन कोद मान माय लोभं तन्नं । • सोल्लिय मोरंइन मूंड्र तानत्तिर् टू बकरुत्तु ॥ पुल्लिदा मुलोगं तन्नं वीळ तंब मूळ्ततिपि । नेनं हर शुद्धि पेट्रा रिश्वत्तेन् तेन्मोग नोते ।। १३८० ॥ अर्थ - तदनंतर संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकृतियों में से सातवें समय में संज्वलन क्रोध को और माठवें समय में मान को, नवें समय में माया को नाश कर निवृत्तिकरण गुणस्थान को उलांघ करके सूक्ष्ल सपरायिक गुणस्थान का अंतर्मुहूर्त में संज्वलन लोभ कषाय का नाश करके संपूर्ण श्रठाईस मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का नाश किया । मोहनीय कर्म की अठाईस प्रकृतियां निम्न प्रकार हैं-क्षपक श्रेणी के प्रारोह में दर्शन मोहनीय की सात प्रकृति । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में तेरह नाम कर्म की । दर्शनावरणीय कर्म में ३ प्रकृति | चारित्र मोहनीय कर्म की २० प्रकृति । तदनंतर सूक्ष्म सांपरायिक गुणस्थान में संज्वलन लोभ मिलकर २८ प्रकृति होती हैं। इन कर्मों को नाश करके शुद्धात्म पररणति को प्राप्त हुए ।। १३७६ ।। १३८० ।। बिय बिनैक्कु मूल मागु मोगत्तं वोळता । रंबर पडिगं शेंबन् चडतु विट्टदनं योत्ता ॥ बड्रागं सियुड निड्रोर मूळ्त तीट्रिन् । मुन् बिनांगरणत्तु निदै पसले कन् मुरिय चंड्रार् ॥१३८१ ॥ अर्थ – तत्पश्चात् मेरू और मंदर दोनों मुनिराज २८ कर्म प्रकृतियों को जीत कर सत्परिणाम को प्राप्त कर एकत्व वितर्क, अवीचार नाम के द्वितीय शुक्ल व्यान को प्राप्त किया। क्षीण कषाय नाम के गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त में दो समय में निद्रा प्रचला ऐसे दो प्रकृतियों को नाश किया ।। १३८१ ।। उरु करणं कडंद पोवु वोरुनाल्वर् कण मर कूडि । प्रोरगिर वेळ तन्निर् पोदिया वरण मैंदुम् ।। मरुवि निड्र दितं कालत्तंदरा पेंदानंदुस् । तरगि इरेऴव रंवक्कत्तिले तीरं वा रं ।। १३८२ ।। अर्थ - क्षीणकषाय नाम के गुरणस्थान में अंत में एक समय शेष रहने पर चक्षुदर्श नावरणीय, प्रचक्षुदर्शनावरणीय, श्रवधिदर्शनावरणीय, केवलदर्शनावरणीय ऐसे चार, मतिज्ञानवरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय अवधिज्ञानावरणीय, मन:पर्यय ज्ञानावरणीय, केवलज्ञाना Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ५०३ वरणीय ऐसे पांच प्रकृति व दानांतराय, लाभांतराय, भोगान्तराय, उपभोगांतराय, वीर्यान्तराय यह पांचों मिलकर इस प्रकार १४ प्रकृतियों को नाश किया ॥१३८२॥ मालवा इरुळे नीकि वैयत्त तुई लेप्पुं । कालै वायरुक्कं पोल घातिगनारणगु नींग ।। मेलिला मुरंगु नानमै विळित्तुल गणत्तुम् कान । मालिला मनत्तु चिदै यरुक्कन तुवित्त बेंद्रे ॥१३८३॥ अर्थ-जिस प्रकार रात्रि का अंधकार प्रातःकाल सूर्य का प्रकाश होने पर दूर हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, और अंतराय इन चारों का नाश होते ही अनंपत चतुष्टय प्रकट होते ही केवलज्ञान रूपी सूर्य का उदय हुआ ।५३८२।। बुळ्ळेळू तीई नाल वेंदोळि पेट्र विरग पोल । वेळ्ळयध्यानं तन्नाल वेदेरि युवळमेनि ॥ पळ्ळि कोंडोडुवं मूत्तल पशित्त नोय वेळकै इंडि। पिळ्ळे यादित्तन पोल पिरप्पिर डूतिरुंदार ॥१३८४॥ अर्थ -तदनंतर ये दोनों केवली शुक्लध्यान के बल से आत्म प्रकाश को प्राप्त कर संसार का कारण जन्म, मरण, जरा और व्याधि, शोक, भय, वद्धावस्था, भूख, प्यास, पसीना, निद्रा आदि १८ दोषों को नाश कर वीतराग शुद्धोययोगी हो गये ॥१३८४॥ भयं पगै पनित्त लावं सेट्रमे कचि शोकं । वियंदिडल वेगुळि शोगं वेरर्तिडल विलंबरेवदं । मयगुदल तेळिदल् सिदै वरुंदुदल् कळित्तल मायम् । ईयं बरं तिरत्त विन्न यावयु मेरिंदुरुंदार ॥१३८५॥ अर्थ-आत्मा के विरोध करने वाले राग, द्वेष, शोक, पाश्चर्य, सुख, दुःख, संतोष मादि अठारह दोषों को नाश किया। श्री भगवान समंतभद्राचार्य ने भी इसी प्रकार कहा है: स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्रविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धन न बाध्यते ॥ (देवागम) हे भगवन! पाप ही पूज्य हो, युक्ति शास्त्र से अविरोधी वचन होने से आपके वचन ही अविरुद्ध हैं। क्योंकि प्रत्यक्ष, अनुमान, पागम प्रादि प्रमाणों से बाधा नहीं पाती है । ॥१३८५॥ प्राइडे यमरर्तङ वन मुडियोडा सनंतुळंग । पाय नल्लवदि येन्नु परुदि यार् कंडवेल्लां ॥ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ ] मेर मंदर पुराण पाइर् कणि नान यदि बदि याग चूळं दु । माइरं विशुंबुम् मण्णु मरैय् वानवर्गळ वंदार ।।१३८६।। अर्थ-उस समय केबलज्ञान के अतिशय से देवों के पास न कंपायमान हए । देवों ने अवधिज्ञान से जान लिया कि मेरू और मंदर दोनों को केवलज्ञान हो गया है। तभी सभी देव पुष्प वृष्टि, जय २ कार आदि करते हुए सपरिवार प्रागए ।।१३८६।। मुळंगिन मुरसमेंगुस मुरंड्रन शंग मुन्ने । ये दन रेरु शीयं यानं मावेरि विन्नोर ।। निळूद पूमारि विन्ने विळुगिन पदार्ग वेळळ । मेळंद वेत्तारवं कीति ईयंबिन काळ मेंगुम् ।।३१८७॥ अर्थ--उस समय भगवान के के बलज्ञान का अतिशय चारों ओर फैल गया था। और देव दुंदुभि, शंख, पटहा आदि बजने लगे। तब देव अपने २ वाहनों पर बैठ कर भगवान के केवलज्ञान कल्याणक की पूजा मनाने के लिए धवल छत्र, ध्वजाओं को धारण कर आगए । १३८७ । अरवं यर् नडंपुरिदा रंबर मरगंमाग। नरं पोलि पोलिद वेंगु नन्निनार मन्नै विन्नोर ॥ करंगळु कुविदं कन्निर् पुळिदन घातिनान्मै । युरं कडिदिरुंद वीररुरु तुन येडि पनिंदार ।।१३८८॥ अर्थ-उस समय में देवाङ्गनाए आकाश में नृत्य करती थीं। उनके द्वारा बजाए गए वाद्यों की ध्वनि तथा संगीत के मधुर शब्द सुनाई देते थे। मध्यलोक में रहने वाले सभी जीव अपने दोनों हाथों को कमल के समान जोड कर आनंदाश्रु सहित भगवान के दर्शन कर रहे थे ॥१३८८॥ पिडि कुडयुं शीय वनडे शामरयु म। मंडवर किरय मैत्तानन्नवर् कुरिय वाट्रा॥ लुंडर वमिर्दस् वंदिगुण मिनेन नोलित्त वूळि। कंडवर कळले वाति काम कोडनग निड्र ॥१३८६।। मर्थ-अशोक वृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, छत्र, सिंहासन, धवल चंवर, दुंदुभि तथा भामंडल इन पाठ प्रतिहार्यों को देवों ने निर्माण किया उस समय भगवान की दिव्यध्वनि प्रगट हुई। तब केवली भगवान कहने लगे कि हे संसारी भव्य जीवो ! सुनो। इस प्रकार अनंत चतुष्टय (ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य) से मंडित मानों भगवान स्वयं ही संबोधन कर रहे हों ऐसा मालूम पडता था। इस प्रकार उनके मुखारविंद से निकली हुई Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु मंदर पुराण [ ५०५ दिव्यध्वनि चारों दिशाओं में फैल रही थी। इस प्रकार सभी उपस्थित भव्य जीवों को मोक्ष मार्ग का उपदेश मिला। उसे सुनकर सभी आनंदित हुए ।। ३८६।। मंदर मिरंडे चळं द धातकी मलमळ पोल । विदिरर विज वेंदर मन्नव रेणे योगळ ।। सुंदर मलरुं सांदुं दूपमुं मेंदिमेरु । मंदर नामर् पादं पनिंदु वाळ्तोडेळधार ।।१३६०।। अर्थ-तत्पश्चात् जम्बूद्वीप, धातकीखंड, पुष्कर ऐसे अढाई द्वीप में रहने वाले सुमेरु के चारों ओर कुलगिरि पर्वत के समान, शतेंद्र, विद्याधर राजा, भूमिपति इन सभी भव्यजीव आदि ने भक्ति पूर्वक भगवान की पूजा अर्चा आदि करके अंत में नमस्कार करके करबद्ध होकर स्तुति के लिये खडे हो गये ।। १३६।। वेरु कुरु तुयरोड विळवेळ तुयरु । करवुरु तुयरोडु कडेवरु तुरुं ।। मरुविय वुइर् विन मरुवर् वरुळं। पोरु वरु तिरुवडी पुगळ तर वडेदुं ॥१३६१॥ अर्थ-सभी देव मिलकर इस प्रकार भगवान को स्तुति करने लगे हे भगवन् ! आप सदैव प्रात्मा में स्वाभाविक दुख को उत्पन्न करने वाले नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव इन चार गतियों के दुखों को नाश करने वाले धर्मोपदेश को देने वाले हैं। आपके चरणकमलों को हम नमस्कार करते हैं । अापके चरण कमल हमारी रक्षा करें।।१३६१॥ परुदिइ नोळि वेल पगै पशि पिनि केड । वरुवन मलर् मिशै मदननै नलिवन ॥ उईरुरु तोडर् वर वेरिवन उलगिनी। लरियन् पेरिय नुमडिइन यडेदुं ।।१३६२॥ अर्थ-सूर्य और चंद्रमा के प्रकाश को जीतने वाले, आत्मज्योति को आप प्राप्त हुए, और अनादि निधन द्रव्य कर्म और भाब कर्म को नाश किये हुए ऐसे मापके पवित्र धरण कमल को नमस्कार करते हैं ।।१३६२।। मुर पोरि मरै कड मुळे दु मोर् कनमदि । लरियु नल्लरि उडे रब इरव नुम्मडिइन । युरुतवर् मनमिश युरै वन उईहरु । पिरविय वर वेरि पेरुमय्य शरणं ॥१३६३।। Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ मेह मंदर पुराण मर्ष-ऋमवर्ती जानने वाले इन्द्रिय ज्ञान के नाश होते ही सम्पूर्ण पदार्थों को एक साब जाननेवाले केवलज्ञान रूपी सूर्य के प्रकाश से युक्तं, जन्म-मरण रूपी संसार को नाश करने वाले मापके पवित्र चरस कमलों को शरण हम ग्रहण करते हैं । अर्थात् भव २ में हमें मापके चरण कमलों को शरण मिले ।।१३९३॥ कुलिगमो डिमलु कुविधुले पुणरु नर । ततं मे ये नयुबन तेवनेरि बरवन । । उसगिर्न योर नोडि यगवै नळगुव । मलेविल निलय जुम्मल मलर यडेंदु ॥१३६४॥ पर्ष-स्त्री के रूप को देखते हो कामीपुरुष काम विकार को प्राप्त होते हैं, ऐसे सोग भी प्रापके निग्रंथ वीतराग स्वरूप को देखकर अपने हृदय में मोक्ष जाने की इच्छा करके तदनुकूल चारित्र प्राप्त करने की भावना उत्पन्न करते हैं। ऐसे मापके पवित्र चरण कमल हमारी रक्षा करें ।।१३६४। उयर वर उयरिय दुलगिनी नुईर् गळिन् । मयर वर बरमुं बरुळ व बमरर् गळ ॥ मयर् वर मरिण मुनि यनिवन पनिवार । तुयर् वर वेरियु नुन तुने यडि तुळंदु ॥१३६॥ भर्व-इस संसार में रहने वाले भव्य जीवों के दुखों को नाश करने वाले, धर्मोपदेश को देने वाले, ऐसे पवित्र चरण कमलों की शरण में रहने वाले. पूजा स्तोत्र पढने वालों को मापके चरण कमल हमेशा रक्षा करें ॥१३॥ इनबन तुदियो नो रिमयव रिर वर । मनमलि युवगैइन वळिपडु मुरैनाळ ॥ विनवळि यामुम्मै योगु वियोग से। कनमलि यूनिल योगिगळानार् ॥१३९६॥ अर्थ-इस प्रकार चतुर्णिकाय देवों ने स्तोत्र आदि पढकर दोनों मेरू और मंदर कवली भगवान को नमस्कार किया और जाते समय तुरंत ही उनने प्रयोगकेवली गुणस्थान को प्राप्त कर लिया। अर्थात् शेष घातिया कर्मों को नाश कर मुक्त हो गये ॥१३६६॥ माइ दिनो वतु वेविने । माय वेळंदु नत्तुल गुच्चियै ॥ मेईनर विनवर मन्नवर, मेनिकट । काय शिरप्पोहु वंदन रंगे ॥१६॥ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेद मंदर पुराण [ ५०७ पर्व-सयोग केवली गुणस्थान के प्रनंतर वे दोनों मंदर और मेरू प्रन्तर्मुहूर्त में पिच्चासी (८५) कर्म प्रकृतियों का नाश करके उर्द्ध व गमन करके सिद्ध शिला पर विराजमान हो गये । उस समय अग्नि कुमार देव तथा मनुष्य सभी मिलकर जिस स्थान पर निर्वा हुआ था, भागवे ।। १३६७।। परि शांवर सुन्नं पूमाले धूमै । मिन्नन पलवु मेदि इमयव रिरंजु मिल्ने || मिन्न न मुनिवर मेनि मरंदन् विमंधु नोंकि 1 पन्नरं तुदिय रागि वानवर पनदु पोनार् ॥१३९८ " अर्थ-स्वर्णहार, चंदन के सुगंधित द्रव्य, पुष्पहार, कपूर प्रादि द्रव्यों से भगवान के नख और केशों को लेकर भगवान का कृत्रिम पुतला बनाया और अग्निकुमार देवों ने उस को जला दिया। तत्पश्चात् सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को उन्होंने प्राप्त कर लिया था, इस कारण उन देवों ने उस भस्मि को अपने ललाट पर लगाया, और विधि पूर्वक निर्वाण कल्याण पूजा करके वे देव अपने-अपने स्थान को चले गये ॥१३६८ मुडिविला त माट्र मुतल किलिय मूत्रमिदं मुरईट्रोंड्रि इलाम विनं मोदला मोग मेरिवार वमिला बिबल्बिर ट्रोडि ।। कडेला घाति के काक्षिवलि येरिनियम कम्नेतोंङ्गि । तोडर् बेला मरखेरिदुं तोंड नाद्गुणत्तिलु नर् स्वयंवु मानर्॥ १३६॥ अर्थ - इस प्रकार दोनों मेरू व मंदर मुनिराज ने मिथ्यात्व नामक दर्शन मोहनीय कर्म के नाश होते ही सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन तीनों के बल से मोहनीय कर्म का नाश किया । तदनंतर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अंतराय मोहनीय, आयु और गोत्र इत्यादि प्राठों कर्मों का नाश करके अनंतज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंतवीमं ऐसे चार चतुष्टय को प्राप्त हुए ।।१३६६ ।। मन मलिंद बोलियन मलर् मिरंद विरं यनवं मलगुसंधिन् । तुनि युमिळव तन्मे इनुं तोडियव परिवत्तुळ ळे तोंड़ि ॥ इन पिरिg मिलरागि इमयवरं मादवरु मिरेजियेत्त । पनिवरिय शिवगति इनमरं दिरुदा ररवमिदं मुंडारं ।। १४०० ॥ अर्थ - विमलनाथ तीर्थंकर के उपदेश को सुनकर मेरू व मंदर रत्न प्रकाश के समान, पुष्पों की सुगंध के समान शुद्धात्म स्वभाव से युक्त उपमातीत श्रात्मानंद अनंत सुख को प्राप्त कर वे दोनों गगणधर विमलनाथ भगवान के उपदेश के निमित्त से मोक्षपद को प्राप्त हुए । सत्संगति से अत्यंत नीच जीव भी यदि साधु या भगवान का निमित्त Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८] - मेरु मंदर पुराण --------- --- मिल जाता है तो वह शीघ्र ही संसार सागर से तिर जाता है। इस प्रकार मेरू व मंदर भगवान विमलनाथ के उपदेश से तथा उनके पवित्र चरण कमलों के प्रभाव से शीघ्र ही तिर गये ॥१४००। मदुरै नल्लि राम देवन मलइर् शोदरै काविट्ट । तदिर कळ लमरन पिन्नु भरतन माल वानोन ।। विदियिना लच्चुदैकन वीत पीतन् निलांदै। कदि पदि. यादित्तावन् मेरु नल्लगति वेंदन ॥१४०१॥ अर्थ-ये मेरू मंदर कौन थे? इस संबंध में प्राचार्य संक्षेप में बतलाते हैं: मेरू नाम का जीव पूर्वभव में मदुरा नाम के ब्राह्मण की स्त्री थी। तदनंतर वह स्त्री मरकर रामदत्ता देवी हो गई अर्थात् सिंहसेन महाराज की पटरानी हो गई। तदनंतर वह आर्यिकां दीक्षा लेकर स्वर्ग में जाकर भास्कर नाम का देव हो गया। वहां से चयकर विजयार्द्ध पर श्रीधरा हो गई। वहां से तपकर के कापिष्ठ स्वर्ग में देव हो गई। तत्पश्चात् वहां से रत्नमाला नाम की स्त्री पर्याय धारण की। तदनंतर तप करके अच्युत नाम के कल्प में देव हुआ। इसके पश्चात् वहां से चयकर वीतभय नाम का बलदेव हुआ। तत्पश्चात् लांतव कल्प में आदित्य देव हुआ। इसके बाद कर्मभूमि में आकर मनुष्य पर्याय धारण कर मेरू नाम होकर तपश्चरण करके मोक्ष प्राप्त कर लिया ।।१४०१॥ वारुणो पूर चंदन वानवन् मंगै वानोन् । येरणि इरद नायुदन् नच्चुदन् विवीडन । नारळल नरगन् वेद नमरण पिन् सयंदनं पुर् । ट्रारणि तरणन पैदार मंदरन् शिवगति कोन् ॥१४०२॥ अर्थ यह मंदर नाम का जीव पूर्वभव में वारुणी नाम की ब्राह्मण की स्त्री थी। वह तपश्चरण करके पूर्णचंद नाम का सिंहसेन राजा का छोटा पुत्र होकर जन्म लिया। तदनंतर तपश्चरण करके वह देव हो गया। तदनंतर यशोधरा नाम की स्त्री हुई। पुनः बह तप करके देव गति को प्राप्त किया। वहां से चय कर मध्यलोक में रत्नायुध राजा हमा। वहां से तप करके अच्युत कल्प में देव हमा। वहां से चय कर विभीषण नाम का वासुदेव हमा। वहां से नरक में गया। नरक से आकर श्रीधाम नाम का राजा हुआ। वहां से तप' करके ब्रह्मलोक में जाकर देव हुप्रा । वहां से प्राकर जयंत नाम का राजा हुआ। तदनंतर धरणेंद्र हुआ। इसके पश्चात् मंदर नाम का राजा का पुत्र हुआ । इस प्रकार यह दोनों मेरू और मंदर तप करके मोक्ष को चले गये ।।१४०२॥ इनैयदु वेगुळिई नियलबु माट्रियल। पिनैयदु विनेगळि नियल्बु पट्रियल् ॥ पिनयदु पोरुळिन दियलदु वोटियल् । पिनयदु तिरुवर डियल्बु तानुमे ॥१४०३॥ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुमंदर पुराण [ ५० प्रर्थ - क्रोध या मायाचार से दुखी हुए सत्यघोष की कथा इस पुराण में वर्णन की गई है । यह पुराण केवल सत्यघोष को लेकर ही है । क्योंकि यह पर द्रव्य में प्रासक्त लोभ तथा मायाचार के द्वारा अनेक बार नरकों में जाकर कष्ट व दुख भोगता रहा । इसका विवेचन यहां तक किया गया। इस पुराण में पापी पुरुष तथा पुण्यात्मा पुरुषों का विवेचन किया गया है । सत्यघोष को पाप कर्म के उदय से दुख हो दुख भोगना पडा, और इन दोनों पुण्यवान पुरुषों को पुण्यानुबनी कर्म के कारण मुक्ति मिली। इस जीव को सुख और शांति का देने वाला जैनधर्म के अतिरिक्त कोई सहायक नहीं है। ऐसा समझकर भव्य जीवों को इस लक्ष्मो संपत्ति को क्षणिक समझकर इसका सदुपयोग सत्कार्यों में करके जैन धर्म को सा अङ्गीकार करना चाहिये, और अपनी आत्मा को निर्मल बनाना चाहिये ।।१४०३ ।। रमल दुरुदि शैवार् कडा मिले । मरमला दिडर्शय बरुवदु मिले || नेरि ईवं इरंडयुं निदु नित्तमं । कुरुगु मी नरनेरि कुटू नींगवे ।। १४०४ ।। अर्थ - प्रात्मा को सुख देने वाला जैन धर्म ही है । दूसरा कोई नहीं । म्रात्मा को दुख देने वाला मिथ्यात्व के समान और कोई पाप नहीं है । इसलिए भव्य जीव जैनधर्म का भली भांति मनन करके सदैव पाप को उत्पन्न करने वाले रागद्वेषादि को त्याग करके सच्ची आत्मा को सुख ' देने वाला सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र सहित निश्चय व व्यवहार धर्म की आराधना करके स्वानुभूति के रसिक बनें ।।१८०४ ॥ प्राकुच देदेनि लरतं याकुम । पोकुव देदे निल बेगुळि पोकुग ॥ " मोकुवदेदेनिल, ज्ञान नोकुग । काकुवदे देनिल, विरदम् काकवे ।। १४०५ ॥ प्रथं - प्रत्येक जीव को ग्रहण करने योग्य क्या है और छोडने योग्य क्या है - इसका विचार करके यदि देखा जाय तो सर्व प्रथम मिथ्यात्व क्रोधादि ही संसार के मूल कारण हैं । ऐसा समझ कर उनको त्याग कर सम्यक् दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्र यह रत्नत्रय ही ग्रहण करने योग्य हैं, और यही मोक्ष के मार्ग होने से आत्म स्वरूप में धारण करने योग्य हैं। जो भव्य प्राणी इस पवित्र चरित्र - पुराण को मन, वचन, काय से भक्ति पूर्वक पढता है, मनन करता है उस भव्य जोव को इस ज्ञान को प्राराधना से शीघ्र हो स्वर्ग मोक्ष फल की प्राप्ति होती है ।।१८०५ ।। इति श्री वामनमुनि रचित मेरू मंदर पुराण में मेरू मंदर का मोक्षगमन तथा उनके पूर्वभव का वर्णन करने वाला तेरहवां अधिकार समाप्त हुआ और ग्रंथ पूर्ण हुआ । ॥ इति जनं जयतु शासनम् Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] मेर मंदर पुराण पौष शुक्ला २ रविवार सं० २०२८ वोर निर्वाण सं० २४४८ तदनुसार ता० ११ दिसम्बर सन् १९७१ मध्याह्न काल में पार्श्वनाथ चूलगिरि पर अनुवाद रूप में लिखकर समाप्त किया। माइरत्तु नानूदिन मेलु निल्यूडान् । पाप पुगळ् येरुक्कळ मंबरर् "पार" ५॥ तवराज राजकुर मुनिवन् टुंद । भवरोग मंदिरमाम् पाटु ॥ १४०५ श्लोक रूप में प्रत्यंत पवित्र तपस्या करने वाले मेरू और मंदर इन दोनों का परित्र लिखवाया है ।। इति भद्रं । Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O SRC 0000. 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