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________________ मेरु मंदर पुराण अरिवु काक्षिय दायें मूंडू मं । पोरियो कररणत. हर पायुविन् ॥ नेरियिन् बाळ पोरुळबु जोवना । मरियिन् बोटदुमादु मामें ॥ ६६ ॥ अर्थ - ज्ञान दर्शन आत्मा का स्वाभाविक लक्षण है। पांच इन्द्रिय, आयु, श्वासोच्छवास मनबल, वचन बल और काय बल इन दश प्रारणों से जीवित प्राये हुये और वर्तमान में जी रहा है तथा भविष्य में भी जीवेगा, ऐसे दश प्रारण हैं। जो जीता मा रहा है उसको जीव कहते हैं । जीव के दो भेद हैं-जीव और प्रजीव । कहा भी है : तिक्काले चदुपारणा इन्द्रिय बलमा उश्रारणपाणी य । ववहारा सो जोवो पिच्छयरणयदो दुचेदरणा जस्स ।। अर्थ - तीन काल में इन्द्रिय, बल, आयु, श्वास, निःश्वास इन चारों प्रारणों को जो धारण करता है वह व्यवहार नय से जीव है और निश्चय नय से जिसके चेतना है वही जीव है ।। ६६ ।। Jain Education International ate free वेव्विने येन्मइन् । केटिलेन्गुरण मेदियोर् केडिला ॥ माक्षि यालुलगं तोळ माटूर । प्रोट्टि वैयुत शंबोन् नोत्तोळिरुमें ॥७०॥ [ ५५ अर्थ - मोक्ष की प्राप्ति करने वाले सम्यग्दृष्टि जीव श्रात्मा को दुःख उत्पन्न करने वाले ज्ञानावरणादि श्राठ कर्मों को नाश करने से अनन्त ज्ञानादि आठ गुरणों को प्राप्त कर इसी काल में नाश न होने वाले व दुःख को न देने वाले मोक्ष पद को प्राप्त होते हैं। इस कारण हे राजन् ! तुझ को यदि संसार के दुःखों का नाश करना है तो सम्पूर्ण परिग्रहों को छोड़कर जिनदीक्षा धारण करो । क्योंकि जिनदीक्षा धारण किये बिना अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति व अनन्त सुख आदि देनेवाले मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती । आठों कर्मों से रहित शुद्ध स्वर्ण के समान कलंक रहित यह जीव सदैव प्रकाशमान होता है ।। ७० ।। माट्रिनिड्रड वैयग मूड्रिनु । माबु परियट्ट मोरंदिनार ॥ रोट्र बीब ट्रोडदिउँ इल्बिने । काट्रि नार् गति नांगीर् सुळलु ॥७१॥ अर्थ - मोक्ष की इच्छा करनेवाले जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं । आत्मा को दुःख देने वाले ज्ञानावरणादि म्राठ कर्मों को नाश करने से अनन्त ज्ञानादि को प्राप्त कर अविनाशी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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