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में मंदर पुराण व दुःख न देनेवाली कीर्ति से सिद्धगति को प्राप्त हुये सिद्धजीव को इस लोक में रहनेवाले भव्य जीव नमस्कार करके कलक रहित तीन लोक में प्रकाशमान होता है।
भावार्थ-मोक्ष की इच्छा करनेवाले सम्यग्दृष्टि जीव आत्मा को दुःख देनेवाले ज्ञानावरणीय, दशनावरणीय, मोहनीय,वेदनीय,प्रतराय,गोत्र,प्रायु नाम इन आठ कर्मों के नाश करनेसे अनन्त ज्ञानयुक्त क्षायिक सम्यक्त्व, समस्त लोकालोक विषयों को जाननेवाला क्षायिक ज्ञान, समस्त लोक को जाननेवाला क्षायिक दर्शन, अनन्त पदार्थों का जाननेवाला ज्ञानमय भेदाभावरूप क्षायिक वीर्य शक्ति, केवल ज्ञान को जाननेवाला क्षायिक सक्ष्मत्व एक दीपक में अनेक दीप प्रकाशमान होनेवाले के समान एक शुद्ध परमेष्ठी रहने के क्षेत्र में शंका कांक्षादि दोष रहित अनन्त शुद्धात्मा को अवकाश दान देने के सामर्थ्य युक्त क्षायिक अवगाहन, लोक के पिंड समान गुरुत्व, रूई के समान अगरुलघुत्व अर्थात् क्षायिक अगुरुलधुत्व अनन्त सुख क्षायिक अव्यावाध और अनन्त गुणरूप क्षायिक अव्यायाध ऐसे आठों गुणों से युक्त सिद्ध भगवान होते हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, प्रायु, नाम, वेदनीय, गोत्र अंतराय रूपी मल से कर्मों से रहित होने से यथाक्रम क्षायिक ज्ञान, दर्शन, अव्याबाव, सम्यक्त्व प्रवगाहन, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व और वोर्य ऐसे विशेष गुणों से युक्त रहते हैं। ये गुण कभी भी नाश नहीं होते और वे सिद्ध भगवान् दुख से रहित तीन लोक के पात्र होते रहते हैं । भव्य जीव ऐसे गुणों की आराधना तथा नमस्कार करने से कर्मकलंक से रहित होकर जैसे १६ (सोलह) ताव देने से स्वर्ण शुद्ध होता है उसी प्रकार शुद्ध कर्मकलंक से रहित सिद्ध भगवान् सिद्धावस्था को प्राप्त होते हैं।
प्रश्न-सिद्ध भगवान का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-चौदहवें गुणस्थान के प्रत समय में शरीर अंगोपांग के नाश होने से अंतिम के शरीर से वे सिद्ध भगवान् छोटे शरीरवाले होते हैं। मनुष्य के हाथ में रहनेवाले वस्त्र कुम्हार के हाथ में रहनेवाले शकोरे मटके आदि का. जैसे संकोच-विस्तार होता है और छोड़ते ही जिस प्रकार में वह पहले था उसी आकार में आ जाता है उसी प्रकार प्रात्मा सम्पूर्ण कर्मों के नाश होने से वह अपने स्वरूप में रहता है।। ७१ ।।
मारण डंबु मिडागति नान् गेदु । मोन मिल विलंगिलु मोर् नानगै॥ वारिगन् बंदु क्लिंगु मरिणदना।
मीन मिल्लवं यैदिडु नारगन् ।॥७२॥ अर्थ-पीछे कहे हुये मुक्त जीव से विपरीत जीव अधोलोक, मध्यलोक तथा पाताल लोक और द्रव्य क्षेत्र काल भाव इन क्षेत्रों में हमेशा जन्म-मरण प्राप्त करते रहते हैं। कर्म रूपी वायु के वेग से चारों गतियों में सर्वदा भ्रमण करते रहते हैं।
भावार्थ-प्राचार्य ने इस श्लोक में पंचपरिवर्तन स्वरूप का वर्णन किया है । प्रश्न-परिवर्तन किसे कहते हैं ?
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