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________________ मद मंदर पुराण [ ५७ उत्तर - संसरणं संमार: प्रर्थात् द्रव्य क्षेत्र काल और भाव इनको संसार कहते हैं । ये चार प्रकार के होते हैं । १- द्रव्य परिवर्तन - इसका पुद्गल परिवर्तन नाम है । इसके भी २ भेद हैं । पहले का नाम नव कर्म परिवर्तन है । यह नौ कर्म परिवर्तन प्रौदारिक वैक्रियिक, प्राहारक इन तीन शरीर से सम्बन्धित छह पर्याप्ति होने से योग्य पुद्गल वर्गरणा ऐसे २ इनके मौ नाम हैं। कर्म परिवर्तन - ज्ञानावरस्गादि श्राठ कर्मों के रूप होने से पुद्गल वर्गरणाओं को कर्मवर्गरणा कहते हैं । एक जीव एक समय में आठ प्रकार के कर्म होने से योग्य कमवर्गरणा को ग्रहण किया हुआ अन्योन्य समय श्रादिक ग्रवली मात्र प्रबाधा काल बीतने के बाद उसका नाश होने से श्ररणी चढ़ता है। उसके बाद मोह कर्म परिवर्तन में क्रमबद्ध होकर पूर्वोक्त कथनानुसार प्रग्रहीत मिश्र और ग्रहीत मिश्र के समय को प्रनन्तानन्त बार प्रहरण कर छोड़ता है । इसी प्रकार ग्रहरण करते २ वह जीव प्रथम समय में ग्रहरण किये हुये कर्मवर्गरणा के 'अनुसार समय के पश्चात् कर्मत्व भाव परिणामों को प्राप्त होता है । उसके बीच में सम्पूर्ण कार्य को एक कर्मवर्तन का काल समझना चाहिये । २- क्षेत्र परिवर्तन - कोई जीव एक समय में जघन्य अवगाहन से युक्त सूक्ष्म forर्याप्त निगोदी जीव के शरीर को धारण कर उससे अन्योन्य एक २ प्रदेश बृद्धि. प्राप्त हुये श्रवगाहन को धारण करता है, इसी प्रकार एक २ प्रदेश बढ़ते २ महामच्छ के उत्कृष्ट श्रवगाहन के बाहर शरीर को धारण करने में जितना समय लगता है उस काल को क्षेत्र परिवर्तन काल कहते हैं। 1 ३- काल परिवर्तन - एक जीव उत्सर्पिणी काल के प्रथम समय में जन्म धारण करके अन्योन्य जन्म-मरण को प्राप्त कर संसार में परिभ्रमण करनेवाला होकर पुमः चह जीव उत्सर्पिरगी काल में दूसरे समय में उत्पन्न होता है । इसी प्रकार तीसरे समय में क्रमसे जन्म-मरण को बार २ प्राप्त होते हुये उत्सर्पिरंगी काल तथा प्रवसविणी काल के दश कोड़ाकोड़ी सागर अर्थात् बीस कोड़ा-कोड़ी सागर समय को क्रम से जन्म-मरण को बार २ पूर्ण करता है । ऐसा करने से जितना समय होता है उस समय को काल परिवर्तन कहते हैं । ४ - भावपरिवर्तन -- यहां का जीव प्रथम नरक की दश हजार वर्ष की आयु प्राप्त कर वहां की प्रायु को पूर्ण कर वहां से चयकर संसार में प्राता है और पुनः २ भ्रमण कर किसी एक काल में उतना ही आयुष्य को धारण करता है । इसी प्रकार दश हजार वर्ष का जितना समय है उतना समय तक एक हजार वर्ष की आयु प्राप्त करके क्रम से एक २ समय अधिक आयु प्राप्त कर नर्क प्रायु की उत्कृष्ट स्थिति बाईस सागर काल को पूर्ण करता है । इसी प्रकार देव श्रायु की जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष की आयु से लेकर उत्कृष्ट स्थिति ३१ सागर की होती है। मनुष्य व तिर्यंच प्रायु की वस्तु स्थिति जघन्य ग्रन्तर्मुहूर्त से उत्कृष्ट स्थिति कर्मपल्य से क्रम २ से एक २ समय वृद्धि होकर पूर्ण करता है । इस तरह चार प्रकार प्रायुष को पूर्ण करने में जितना समय लगता है वह सब भाव परिवर्तन है । देव भ्रायुष में ३१ सागर से अधिक प्रायु को प्राप्त हुआ जीवं नियम से सम्यक्त्व को प्राप्त करने 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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