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________________ मेद मंदर पुराण [ ३८६ जनता को दान देने वाला हो गया मौर कमल पत्र के समान प्रत्यन्त सुन्दर कन्या के साथ उसका लग्न हो गया ।।६७२ ।। श्रळलिडे वंदर्मेंद नौ वळ रणियु मे । निळलिडे इरुप्पदे पो निरयत्तु तुयरं तीर ॥ कुळलन मोळिई नादं कुवि मुलं ततु वैगि । पळवि नं तुनिक पान्मै बंदुदित्त नाळा ||६७३॥ अर्थ - जिस प्रकार एक मनुष्य गर्मी के दिनों में धूप में जाते समय उस घूप के ताप से अत्यन्त व्याकुल होकर वृक्ष की छाया के नीचे बैठकर विश्राम करता है, उसी प्रकार वह सुदामा राजकुमार पूर्वजन्म में अनुभव किये हुए दुखों को भूलकर पंचेंद्रिय सुख में मग्न होकर अपनी पटरानी के साथ अनेक प्रकार के विषयभोगों में रत हुआ, काल व्यतीत करने लगा । उस समय में इस प्रकार इन्द्रिय भोगों में लीन होने पर भी पूर्वजन्म के तीव्र पुण्योदय के कारण आत्मा में जागृति थी ।।६७३|| तमिल मिल बिनेकु मारा मनंदमा मुनिवन् पांद । वंदवन वनंगि माट्रिन वडिवेला मुडिय केटिट् ॥ डिदिर विभवं तन्नं येरि युरु शरुगि नोंगि । वेतिर वेंदर् वीरन मेत्तव दरस नानान् ॥ ६७४॥ अर्थ - कर्म नाश करने के लिये उद्यत सम्यक्त्व से युक्त महा तपस्वी व्रतधारी एक दिगम्बर मुनि बिहार करते २ श्राये और अयोध्या नगरी के उद्यान में विराजे। मुनिराज के आगमन के समाचार सुनकर उस सुदामा राजा ने उन मुनिराज के पास जाकर नमस्कार किया और उनके द्वारा कहे हुए प्रात्मतत्त्व के उपदेश को सुनकर वैरागी होकर जिन दीक्षा ले ली । ६७४ || Jain Education International योगं कन् मूंड्रम शिंदे युड सेल वडंगि मुटु मोगङ कन् मुदुगिट्टोड मुनिमं में सुगड कोंडु ॥ नागंग नडुंग नोट्र रावनं नान्गि भगि । भोगळ् पुगळ लाट्रा पोम्मनर् कथं पुक्कान् ॥७५॥ अर्थ - जिन दीक्षा के ग्रहण करने के बाद वह सुदामा मुनि मन, वचन, काय को अपने वश में करके इन्द्रिय संयम और प्राणि संयम का पालन करते हुए मोहनीय कर्म का संवर करने वाला हो गया। इस प्रकार सुदामा मुनिराज के तपश्चररण के महत्व को समझकर स्वर्ग से देव भी प्राकर भक्ति पूजा करने लगे। इस प्रकार वे मुनि घोर तपश्चरण करते हुए समाधि मरण करके ब्रह्मलोक में देव पर्याय धारण की ॥ ९७५ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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