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________________ ३९. ] मेरु मंदर पुराण तन्नुळ्ळे निड, तन्नै तानरगत्तु ळुइक्कुं। तन्नुळ्ळे निड, तन्न तानरगत्तु वैक्कं ॥ तन्नुळ्ळे निद्र तन्ने तान् द्रडु माद लुइक्कुं। तन्नुलळे निड़, तन्ने तान् सिद्धि यगत्तु वैक्कुं ॥९७६॥ अर्थ-ज्ञान दर्शन से युक्त प्रात्म द्रव्य अशुभ योग में अशुभ परिणाम होकर भ्रमण करने से वह जीव नरक में जाता है । उससे रहित शुभोपयोग रूप अपने स्वभाव में परणति होने से देवगति को प्राप्त कर लेता है। और शुभ अशुभ परिणति से देव, मनुष्य नारको पौर तिर्यंच गति को प्राप्त कर लेता है । वह जीव शुभाशुभ परणति को त्यागकर के शुद्धोपयोग में परणति होने से स्वगुणोपलब्धि अर्थात् मोक्ष सुख को प्राप्त कर लेता है ।।९७६।। येन्नु मिम्मुळिक्कि लक्काय वंदन मिदन कंड। पिन्नु मल्लरत्तै तेरार् पेदै में यादि मार्गळ ॥ पन्नगर् किरैव पंचानुत्तरं पुक्क पंवार । मन्नन् वज्ज रायुदन् कान् वंदु संज यन्तनानान् ॥९७७॥ अर्थ-इस प्रकार अहंत भगवान के द्वारा कहे हुए पागम के अनुसार मेरे न चलने से अब तक इस संसार में परिभ्रमण करता आया हूं। इस जैन धर्म के महत्व को समझने के बाद भी इस मोहनीय कर्म के उदय से यह जीव अज्ञान दशा को प्राप्त होता है । यह कर्म महा बलवान है । हे धरणेंद्र सुनो! अहमिंद्र कल्प से उत्पन्न हुए सिंहसेन नाम का जीव विदेह क्षेत्र से संबंधित हुआ जीव गंध मालनी नाम के देश में वीतशोक नाम के नगर में संजयंत नाम का राजा होकर तपश्चरण करके मोक्ष सुख को प्राप्त हुमा ॥९७७॥ पागत्त मुळिइ नारो स्वित्तु पडिदु शोवा । मागर् पति ळदु मैदन् शयंदनाय वळरंदु माय । भोगत्तु किवरि सित्ति पुगृदु नरकाक्षि भोग। नागत्तु किरै मै पूंड नंवि मिन् वरवि वेडान् ॥६७८॥ __ अर्थ-सुदामा नाम का जीव अच्छे तपश्चरण के फल से ब्रह्मकल्प में जन्म लेकर वहां की आयु को पूर्ण करके जयंत नाम का राजपुत्र होकर कई दिन के पश्चात् संसार से विरक्त होकर जिन दीक्षा ग्रहण कर ली और घोर तपश्चरण करते हुए उस धरणेंद्र की संपत्ति के समान मुझ को भी संपत्ति मिलनी चाहिये ऐसा विचार करके निदान बंध कर लिया और समाधिमरण करके भुवनत्रय कल्प में देव हुआ और वह जीव तू ही है । इस प्रकार आदित्यदेव ने धरणेंद्र से कहा ॥८॥ सेगोत्त मनत्त वेडन् ट्रीविनै तुरप्प सेंद्र। मागवि पेट्र वंद वायुवं काळदु मन्मेल् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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