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________________ -~~~ -n-amnamrumernment ४०८ ] मेरु मंदर पुराण कारिन् मोरिण कनगं पुळि या कमलं संगिन् । पेरुडय निधिक्करसर् पिन्ने मुन्ने दार् ॥१०३६॥ अर्थ-कई देवांगनाए कुभ कलश, अष्ट मंगल आदि २ लेकर भगवान के समव. सरण में पाई । मेघ वर्षा के समान पद्मनिधि, शंखनिधि के अधिपति देव पुष्प वृष्टि करते हुए भगवान के साथ २ चलने लगे । १०३६।। पन्नगर्गळ पन्मरिणगडिविगंगळाग । मुन्न मिरै पाद परिणदेगिनर् कन् मुरयाल ।। वम्णि मुडि वानगळ शेनि मिशे वेत्त। पन्नरिय धूप कड पनिदेळुबार ॥१०३७॥ अर्थ-भवनवासी देव अपने २ हाथों में रत्नों को दीप लेकर भगवान के पीछे २ चलने लगे। अग्नि कुमार देव अपने मस्तक पर अति सुगन्ध धूपघट को धारण करके भगवान के सम्मुख चलते थे । १.३७।। इरविशाशो येनरिय तोक्कनय विरवन् । दिर बुरुवि नोळि यळगु कंडु शिरदेत्ति ।। परुदि मदि पान्मयुडे मांदर मुरव मेन्नु । मरविंदमुंम् कुमुदंगळं मरल वुड नेदार ॥१०३८॥ अर्थ-एक करोड सूर्य एक करोड चंद्रमा का जितना प्रकाश होता है , उससे भी अधिक भगवान के परमौदारिक शरीर को देखकर भव्य जीव का मुख कमल प्रफुल्लित देखकर भगवान को नमस्कार करते थे ॥१०३८।। कुईनोडु कोडि परुदि मिनिन् मिश कुलव । बडि उख्य वैजयंत वान् कोडि मुन्नेग ॥ वडियि नोलि यविय वेळि नांदि मुन्न येव । पडरुविन येरियु मरुळाळियु मुण्नेग ॥१०३६॥ अर्थ-छत्रत्रय तथा ध्वजा, सूर्य की किरण के समान चमकने वाले ऐसे भगवान के प्रागे २ बढ़ते जा रहे थे। और मेघों की गर्जना को जीतने वाले महान गंभीर मंगल स्तोत्र को अपने मुख से गाते हुए देव लोग भगवान के प्रागे २ चलते थे। प्रात्मा में उत्पन्न हुए कर्म मल को नाश करने वाला धर्म-चक्र भगवान के प्रागे २ चलता था ॥१०३६।। देसु दिशै शिरंद दिशे युडय मडवार्गळ । वास मलर मळे पोळिदु मलरडि पनिंदार् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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