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मेरु मंदर पुराण
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मुनिवरु मुळग मूंड निरैज मूवुलग नुच्चि ।
कनैकळलरस निट्रल चैवलमाणु कंडाय ॥ १०६ ।। हे धीरवीर राजन् वैजयंत! ज्ञानावरणीय,दर्शनावरणीय मोहनीय और अंतराय इन कर्मों का प्रात्मा से छूटते समय जिस प्रकार एरण्ड का बीज सूखने पर उछलते समय ऊपर जाता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण घातिया व अघातिया कर्मों का नाश होते ही अनन्त ज्ञानादि गुणों से युक्त यह आत्मा उद्धवगमन करता है अर्थात् सिद्ध लोक में विराजमान होता है। इस संसार में घोर तपश्चरण करने वाले भव्य तपस्वियों के कर्मों की निर्जरा होते ही तीन लोक के ऊपर रहने वाले सिद्धक्षेत्र के शिखर पर जाकर विराजमान होता है । इसको द्रव्य मोक्ष कहते हैं।
भावार्थ-ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन चार कर्मों का नाश होने से केवल ज्ञान उत्पन्न होता है। पाठों कर्म तथा शरीर के नाश होने से जो सम्पूर्ण गुणों का विकास होता है वह भाव मोक्ष है । तथा पाठों कर्मों के छूटने को द्रव्य मोक्ष कहते
उरेत्तविप्पोरूळिन् मै मै युनर्वदु नल्लज्ञानं । पुरैप्पर तेळिदल काक्षि पोरु दिय विरंडु मोंडिर। ट्ररित्तनल लोळ ळ मागु साट्रियमंड. मोंडिन् ।
विर पोलि तारोय वीटिन् मैनेरि यावद मे ।। १०७ ।। स्वयम्भू भगवान फिर कहते हैं कि हे राजा वैजयंत ! पीछे कहे जीवादि तत्त्वों का भली प्रकार श्रद्धान करना सच्चा सम्यक् दर्शन है । जीवादि तत्त्वों को संशय रहित ठीक तौर पर समझना सम्यक् ज्ञान है तथा उसी को अच्छी तरह समझ कर आचरण करना यह सम्यक्-चारित्र है। इन तीनों की एकता होना ही आत्मा का स्वरूप है और ये ही मोक्ष मार्ग है। व्यवहार नय की दृष्टि से इस हो के तीन मार्ग बतलाये हैं और वे तीन मार्ग हैं सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक्चारित्र। इन तीनों को भिन्न २ समझना यह व्यवहार मार्ग है और निश्चय रूप से इन तीनों में एक-प्रात्म-रूप परिणत होना निश्चय मोक्ष मार्ग है ।। १०७ ।।
येळ तरु परुदि मुन्न रिजिय कमलं पोल। तोळ देदिर मुळ दूं केटु पोइनगर तुन्मी सोट् ॥ मुळवयु मळे त मुत्ति करसनाय मुयल्व नॅड.। पळ दिला पुवल्वन ट्रन्मेर् पार वैत्तिनय सोन्नान् ॥ १०८॥
जिस प्रकार सूर्योदय होते ही अंधकार नष्ट हो जाता है और अंधकार नष्ट होने पर कमलों की कली खिल जाती है उसी प्रकार भगवान की वाणी रूपी किरण ने वैजयंत
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