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________________ मेरु मंदर पुराण एक मड्रिड पत्ताक्तरिदंन कोडाकोडि | याळिगळागुमांडू निलयेल्ल तंद मूळतं ॥ मोळं मोवात्तिनुक्कु मुदल मुम्मे ईट्रिनुक्कु । माळिय नामगोद तायुमुत्पत्त मं ।। १०३ । अर्थ - प्रज्ञान रूपी मोहनीय कर्म का काल सत्तर कोड़ाफोड़ी सागर, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय व अन्तराय का तीस कोड़ाकोड़ी सागर, नाम, कर्म व गोत्र का उत्कृष्ट Para बीस कोड़ाफोड़ी सागर, प्रायु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर होती है । मध्यम स्थिति अनेक प्रकार है ।। १०३ ॥ नंजन उक्कं पावं नल विनै नाविलियट्ट । वंजुवेयमिदम् पोल विन्वतं याकुमार ।। पुंजिय पंद संद उदय मोडुनि बाकि । एंजिना लुदयं चैपिय नाकुमण्णा ।। १०४ ॥ Jain Education International अर्थ- हे राजा वैजयन्त ! पापानुबन्धी पाप जीव को विष के समान परिणामों के अनुसार सदैव उत्पन्न होता रहता है । जीव के अग्र भाग में रखे हुये अमृत के समान अधिक सुख देनेवाले ये पुण्य कर्म हैं, और पुण्यानुबंधी पुण्य कर्म से इस बंधे हुये कर्म की निर्जरा करके द्रव्य क्षेत्र काल भाव और भव ऐसे पांचों के उदय में आकर उस स्थिति के अनुसार कर्मफल को उत्पन्न करता है ।। १०४ ।। योगमे पावंतम्म लुइरिने यात कम्मं । योगमे पायंताम् बंदुइरिनै युट्र पोळ निन् || योगमे पांच तमु मुइरिन् कन् विडदल् वीडाम् । योगमे पांच तम्मु लुबंदेळ मरस बेंड्रान् ।। १०५. ॥ अर्थ - हे भव्य शिरोमणि राजा वैजयत ! यह शुभाशुभ श्रास्रव मन वचन काय से आत्मा के बंधे हुये कर्मों को शुद्ध निश्चय नय से तथा शुद्ध परिणामों का श्रात्मा में प्रवेश करने एवं शुभाशुभ मन वचन के परिणाम का आत्मा से छूट जाने को भावमोक्ष कहते हैं । इस प्रकार से शुद्ध निश्चयरूप मन वचन काय रूप परिणामों में श्रानन्दित होकर इस मार्ग से चलने से संसार से पार हो सकेगा । इस प्रकार स्वयम्भू तीर्थकर ने राजा वैजयन्त को उपदेश दिया ।। १०५ ।। [ ७५ विनयर बिट्ट, पोळ दिन बेडित वेरंडम् पोल । निनैव गुणंगलेट्ट, निरेंदुनी रोविक श्रोडि || 9 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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