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________________ ७४ । मेरु मंदर पुराण चलन रहित ध्यान कर्मास्रव आने के मार्ग को रोककर जिस प्रकार दीपक के प्रकाश होते ही मन्धकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार महाव्रतियों को उक्न प्रकार संहनन करने से संवर की प्राप्ति हो जाती है ।। १६ ॥ निड्वंदातन मूड, निनप्पुणर् उदिप्पै याकु । मुंबु से ड्र इर्क निड विनयिन कन् मूळ त मादि । निवत्तिदिनोडु पयन सेय्युमादलुइक्कु । मोंड्रिय वगैनाले करणंदोरु मुरुवत्तारोय ।। १०० ॥ अर्थ-हे राजा वैजयन्त ! ऊपर कहे श्लोक में बारह प्रकार का संयम, बारह प्रकार की अनुरक्षा, बाईस प्रकार का परीषहधर्मध्यान, शुक्लध्यान ये सब उत्कृष्ट सम्यग्ज्ञान से उत्पन्न होते हैं। पहले आत्मा से मिले हुये ज्ञानावरणादि पाठ कर्म एक महर्त्ता से अधिक रहनेवाली कर्मस्थिति से कर्मफल को देता है। यह कर्म तत्त्वज्ञान ध्यान में मिश्रित होकर एक-एक समय में उदय में आता है ।। १००।। अनंतमा मनुक्कळ कूडियेंगुलि ययंगं पागिर् । गुणंगळार शेरिय कट्टि गुरणंगळोडाटन् मड्रिर् ॥ ट्ररणंदिडादेयंग लोक पेदर्शमाम् समय काल । मनंतमा लोगयेल्लाम् वर्गण रूपत्ताले ॥ १०१ ॥ अर्थ अनेक परमाणु मिलकर अंगुल के एक भाग क्षेत्र में स्निग्ध रूक्ष गुणों से बंधा हा वर्णादि गुणों से स्वभाव उपलब्धि संस्कार नाम की त्रिशक्ति में स्थिर होकर उत्कृष्ट स्थिति से असंख्यात लोक प्रमाण समय कार्य और जघन्य स्थिति से एक समय को प्राप्त होना काल सम्पत्ति है। सम्पूर्ण लोक में कार्माण वर्गणा है और एमे कार्माण अनन्त योगमेपांव तानु मुडनिड डइरिरण योगिन् । वेगंदान मूलमागिविगर्पमाविरिद गंदम् ।। योगतालुइर्ष देशतोळिविडि योप्प सेंड्रार। पाग मुदिदियु पावत्तार बंधमामे ॥ १०२॥ अर्थ-मन वचन काय के द्वारा भाव परिणामों से मिले हुये आत्मा के मन वचन काय की तीव्रता के कारण नाना विकल्पों से विशाल प्रकृतिबंध प्रात्मप्रदेश में सदैब परस्पर में मिले हुये हैं अर्थात दूध और पानी मिलकर एक होने के समान कर्मास्रव मिलकर प्रात्मा और शरीर दोनों एक रूप में प्रतीत होते हैं। मोहनीय कर्म के परिणाम से अनुभागबंध और स्थिति बंध होते हैं ।। १०२ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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