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मेरु मंदर पुराण
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ईनमे यदिग मीरा पदगमे सांपरायं । ज्ञानमिन्मै नल्लवाम् पुणिय पावं ॥ तेनुला मलंगल वेंदे तविय में पावमेंड्र ।
तानेला वुइकु मागुमुट्वैि तामपत्तागु ॥६८।। अर्थ-कंठ में अत्यन्त सुगन्धित पुष्पों का हार धारण किये हुये भव्य जिरोमगि हे राजा वैजयन्त ! सुनो। प्रास्रव के दशं भेद होते हैं । अशुभ मास्रव, हीन पानव, अधिक तथा ईपिथ, कषाय प्रास्रव, प्रज्ञान आस्रव, पुण्य प्रास्रव, पाप प्रास्रव, द्रव्य मानव और परिणाम प्राश्रव । ये सभी संसारी जीवों के लिये होते हैं।
भावार्थ-हे भव्य शिरोमणि राजा वैजयन्त! हीन आस्रव, कषाय पासूत्र, अशुभ प्रास्रव, पाप तथा पुण्य प्रास्रव द्रव्य प्रास्रव आदि १० प्रकार के प्रास्रव सभी जीवों के होते हैं। ये अशुभ प्रास्रव क्रोध कषाय के हीन, मंदतर अथवा कषाय के परिणाम नीव हों ता कषाय प्रास्रव होता है। ईर्यापथ आस्रव मुनियों को होता है। सर्वदा ईयापय सहित यत्नाचार पूर्वक चलते समय कदाचित् जीव मर भी जाय तो उससे लगनेवाले पाप का निवारण भी ईर्यापथ साधन ही है। अर्थात् उसमें यत्नाचार पूर्वक क्रिया होने के कारण कदाचित् उनके द्वारा होनेवाले प्रास्रव ईर्यापथ प्रास्रव हैं और कपाय युत होने वाले प्रास्रव कषाय प्रास्रव होते हैं। ज्ञान प्रास्रव, अज्ञान प्रास्त्र व, पुण्य प्रास्रव. पाप के द्वारा होनेवाला पाप प्रास्रव, द्रव्य के द्वारा होनेबाला द्रव्यास्रव परिणाम के द्वारा होनेवाला परिणामानव होता है।
प्राचार्य ने इस श्लोक में यह बतलाया है कि इन प्रानेवाले प्रास्रबों को रोकने के लिये तीन गुप्ति, पांच समिति, दशधर्म, बारह मनुप्रेक्षा, वारह संयम, बाईम परीषह, आदि का पालन करना आवश्यक है। इनको जीतनेवाले महावती मुनि शुद्धोपयोग में लवलीन होकर निश्चल ध्यान में आने वाले प्रास्रव के मार्ग को रोकने से जिस प्रकार दीपक के रहने से अन्धकार नहीं पाता उसी प्रकार ऐसे महा तपस्वियों को ही संवर पदार्थ प्राप्त होता है ।। ६८।
कोपन समिति तम्मं सिवैईरारडक्कं । तापनं परिष वेल्ल तन्म यान मुनिव निड्राल । वेप मोंड्रिलाद सिंदै विनै बळि विलक्कि निकुं। दीप निडुगत्ते सेरु मिरुकु दो सेरिपि दामे ||६
इन प्रास्रवों के द्वार को बन्द करने का मार्ग:
अर्थ-तीन गुप्ति, पांच समिति, दशधर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बारह संयम, बाईस परीषह आदि को जीतनेवाले वीतराग युक्त महामुनि को शुद्धोपयोग में लीन होने से हलन
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