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________________ मेरु मंदर पुराण [ ७७ राजा के हृदय में प्रवेश किया और उनका अज्ञान रूपी अंधकार नष्ट हो गया। अर्थात् आत्मकली खिल गई । आत्म-ज्ञान की कली खिलते ही वह राजा वैजयंत स्वयम्भू तीर्थंकर के चरणों में नत मस्तक होकर उनके द्वारा कहे हुए जीवादि पदार्थों का स्वरूप भली प्रकार समझकर उनको बार २ नमस्कार करने लगा । वह राजा वैराग्य युक्त होकर वहां से लौटकर अपने राज महल में आया और इष्ट मित्र बन्धु जन स्त्री पुत्रादि को बुलाकर इस प्रकार कहने लगा वैरागी मनुष्य के द्वारा अपने कुटुम्ब को उपदेश किस प्रकार दिया जाता है इसके सम्बन्ध में प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचन सार में बतलाया है कि जो मनुष्य विरागता धारण करके मुनि होना चाहता है वह पहले अपने कुटुम्ब के लोगों से पूछकर अपने को मुक्त करावे, जिसकी रीति इस प्रकार है। भो कुटम्बी जनो! आप अनेक क्षेत्रों में कई २ बार भाई बन्धु माता पिता बहन भानजा आदि होते आए हो। मेरी प्रात्मा अलग है, आपकी आत्मा भिन्न है। ऐसा प्राप निश्चय समझे। मेरी आत्मा में ज्ञान-ज्योति प्रकट हुई है। आप जन्म देने वाले मेरे शरीर के माता पिता हो । मेरी आत्मा को आपने उत्पन्न नहीं किया, इसलिये अब आप मेरे से ममत्व भाव छोड दो । मेरे मन को हरने वाली ऐ मेरी स्त्री ! तू मेरी आत्मा के साथ, रमणं नहीं करती अर्थात् प्रसन्न नहीं करती, यह निश्चय से जान । अब इस आत्मा में ममत्व भाव छोड दे ! आत्म-ज्ञान ज्योतिरूपी रमणी प्रकट हो गई है इसलिए अपनी अनुभूति रूपी स्त्री के साथ रमण करना स्वाभाविक बात है । हे मेरे शरीर के पुत्र ! तू मेरी आत्मा से उत्पन्न नहीं हुवा, यह तू निश्चय से समझ ले। इस कारण तू अब मुझसे स्नेह करना छोड दे । आत्मा में ज्ञान की झलक उत्पन्न हो गई है, और वही प्रात्म-झलक पुत्र हैं । इस कारण हे कुटुम्ब के लोगों, मित्रों, परिवार जनों मेरे से समत्व भाव छोड दो। इस प्रकार कहकर प्राणी माता पिता स्त्री पुत्र आदि कुटुम्बी जनों से अपना पीछा छुडावे । अथवा जो कोई जीव, मुनि दीक्षा लेना चाहता है तो वह तो जगत से विरक्त ही है। उनको कुटुम्ब से पूछने का कोई कार्य ही नहीं रहा । परन्तु यदि कुटुम्ब से विरक्त होवे और जब कुछ कहना ही पड़े तब वैराग्य के कारण कुटुम्ब को समझाने को वचन निकालते हैं। यहां पर यह न समझना कि जो विरक्त होवे वह कुटुम्ब को राजी करके छूटे, यदि कुटुम्ब राजी न होवे तो न सही, अर्थात ऐसा न होवे तो वह कुटुम्ब से कभी विरक्त हो ही नहीं सकता। इस सम्बन्ध में कुटुम्ब से पूछने का नियम नहीं है परन्तु यदि कभी किसी जीव को मुनि दीक्षा धारण करते समय कहना ही होवे तो पूर्वोक्त उपदेश वचन निकलते हैं । इस प्रकार वैराग्य होने पर विरक्तता का उपदेश देकर ऊपर कहे अनुसार संसार से निकलने का प्रयत्न करो। इसी प्रकार उपदेश के अनुसार वैजयंत राजा कहने लगे कि हे स्त्री, पुत्र, बन्धु व अन्य कुटुम्बी जनों! सुनो-मैं प्रनादि काल से अभी तक मेरे निज मात्म-स्वरूप को न जानते हुए क्षणिक पंचेद्रिय भोगों में सुख मानकर अभी तक अनेक प्रकार के दुख मैंने सहे, संसार में भ्रमण किया। अब मेरे अन्दर मात्मजागृति उत्पन्न हो गई है इस कारण इस क्षणिक संसार रूपी इन्द्रिय सुख को छोड कर अब मैं प्रात्म-साधना के मार्ग को अपनागा। अब मोक्षमार्ग के धारण करने की भावना मेरी मात्मा में जग चुकी है। ऐसा कहकर वह राजा वैजयंत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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