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________________ ७८ ] मेद मंदर पुराण अपने ज्येष्ठ पुत्र संजयंत को बुलाकर और उसका राज्याभिषेक करके राजगद्दी पर बिठाय । और कुछ धर्मोपदेश करना प्रारंभ किया ॥ १०८ ॥ इळमयु मेळिलं वारणत्ति विलिनींड मायुं । वळमयं किळं युं वारिष्युबिय वन् बरबु पोलुं ॥ वेoिss विळविकन बीयु मायुर मॅड वोदु । कुळ पग लूकं शैवारुनर् विनार पेरिय नीरा ॥ १०६ ॥ हे संजयंत ! सद्गुण सहित प्राप्त किया हुवा ज्ञान, मनुष्य जन्म, बाल अवस्था, सुन्दरता ! यह सब दीखने में पहले पहल बड़े सुन्दर लगते हैं, सब को श्राकर्षित करते हैं । जब इसकी मर्यादा पूर्ण हो जाती है तब आकाश में इन्द्र धनुष के समान क्षणिक यह राज वैभव, पुत्र, कलत्र, बन्धु वर्ग इत्यादि सब अलग हो जाते हैं। जिस प्रकार जोर से वर्षा होने के बाद कूड़ा कर्कट सभी उसके साथ पानी के बेग से बह कर चले जाते हैं उसी प्रकार तीव्र पुण्य द्वारा प्राप्त हुवा यह क्षणिक वैभव तथा सभी मिली हुई सम्पत्ति प्रादि सर्व नष्ट हो हो जाती है । इस प्रकार मेरी प्रायु के नाश होने के पूर्व, मोक्ष मार्ग के साधन के लिये संघ का परित्याग करके मैंने मेरी प्रात्मा के कल्याण करने का सुविचार किया है ।। १०६ ।। Jain Education International कडगळ मलैयुं कारण वानयुं कडलगळ सूळ व fas fasगळ. कयमुमारु नाळिगे पुरुषंतीरा । पत्त यर् नरग मेळ. निगोदमुं पदेरामुन । डल्किदवि डाव बिडमिल्ने युनरि निद्वान् ॥ ११० ॥ भली प्रकार से ज्ञानी जीव यदि उपरोक्त सभी वस्तुनों को यथार्थ ज्ञान द्वारा पूर्णतथा विचार करके देख लेवे तो असंख्यात समुद्र महां मेरु पर्वत देवारण्य, भूतारण्य आदि और अरण्य, देवलोक, समुद्र से घेरे हुए प्रसंख्यात द्वीप, पद्मादि सरोवर, गंगादि नदी, त्रस नाली बाहुल क्षेत्र में भ्रमण करते प्राए हैं । यह सभी असह्य दुख देने वाले हैं। सात नरक निगोद रूप होने वाली भूमि के प्रदेश में हम पूर्व में कितनी बार जन्म और मरण करते आए हैं । हमने कभी जहां जन्म न लिया हो ऐसा कोई क्षेत्र नहीं रहा, न ऐसा कोई पुद्गल परमाणु रहा जो न ग्रहण किया हो । बाल के समान कोई ऐसा स्थान नहीं रहा है, जहां जन्म न धारण किया हो। हमारी आत्मा अनादि काल से इसी प्रकार लोक में भ्रमरण करती आई है ।। ११० । वेरु गुरु तुयंर लुइत तिलगि नुन्मयंगुं पोट । Refari करुविन् मक्कळ यार्कन्द इन् वरु दुम् पोळ, बुं ॥ एरियन नरगिन् मूळगि येळवु बीळ दलरु पोळबुं । श्ररुगरण शरणमल्ला लरन् पिरिविले कंडाय् ।। १११ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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