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________________ मेरु मंवर पुराण [ ७६ हमेशा भय को उत्पन्न करने वाली. पशु व मनुष्य गतियों में स्त्री के गर्भ में नौ महिने दुःख को सहन करते समय और अग्नि के समान घोर नरक जैसे कूप में से जन्म लेते समय सर नीचा और पांव ऊपर इस प्रकार होने वाले दुख से रुदन करते समय इस जीव को अर्हत परमेश्वर के चरण कमल के सिवाय और कोई शरण नहीं होता है। भावार्थ- इस समय सत्य भावना के विरारों से ही मेरी आत्मा को लाभ होगा। मैंने मनादि काल से इस पंचेद्रिय क्षणिक सुख के पीछे कितनी बार चौरासी लाख योनियों में जन्म-मरण किया, अनेक पर्यायें धारण की, परन्तु उस पर्याय तथा योनि की जब मुझे याद आती है तो मेरी आत्मा कंपायमान हो जाती है। इस कारण इस परिग्रह पिशाच को देखकर मेर। प्रात्मा में भयानक भय सा मालूम होता है। हे कुमार ! जब पृथ्वी रूप मेरा जन्म था उस समय खोदना, विदीर्ण करना, कूटना, फोडना, पीसना, चूर्ण करना, इत्यादि बाधा देकर लोग मुझे सताते थे, अर्थात् पृथ्वीकाय अवस्था में मैंने दीर्घकाल तक अवर्णनीय दुख सहे। जब मैंने जलकायिक शरीर धारण किया तब सूर्य की प्रचंड किरणों तथा अग्नि की ज्वालानों में मेरा शरीर अत्यंत गर्म होने से मैंने घोर वेदनाएं सहीं । पर्वत की दरारें आदि ऊंचे स्थान से प्रति वेग से नीचे मेरा पतन होते समय, कठिन शिलानों पर टकराते समय मैंने घोर दुख सहन किया। खट्टा, मीठा, क्षार आदि पदार्थों का मेरे साथ जब मिश्रण करके अग्नि में मुझे झोंकते थे तो घोर दुख होता था। ऊंची शिलाओं पर ऊचे २ वृक्षों पर से गिरने से, पांव और हाथों के सहारे नदी में तिरने वाले मनुष्यों के हाथों से ताड़ते समय और बडे २ हाथी मेरे (जलकाय में) अन्दर प्रवेश करने से स्नान करते समय और सून्ड से जल क्षोभ करते समय मुझे समान दुःख होता था। वायूकाय-जब जल अवस्था का त्याग कर मैंने वायू रूप शरीर धारण किया तब वृक्ष आदि के हिलने, चीरने तथा उनके धक्का लगने से मैंने असह्य दुःखों का अनुभव किया। जिसका शरीर अति कठिन है ऐसे प्राणियों के घात से तथा मेरे से भिन्न वायु से टकराने पर मेरा शरीर चूर चूर होकर बहुत दुःखों को सहन किया । अग्नि ज्वालाओं से जब मेरा शरीर स्पर्श हुवा तब तो मेरे प्राण ही निकल गये । . अग्निकाय-जब वायु शरीर को छोडकर अग्नि रूप शरीर को धारण किया तब मेरे ऊपर लोगों ने मिट्टी धूल डालकर मुझे बुझाया, घनघोर वर्षा पडने पर मूसल काष्ठादि से ठोक कर मेरा चूर्ण करके कष्टों का सामना करना पडा, मिट्टी के ढेले, पत्थर तथा वायु के झकोरों से मुझे असह्य दुख उठाना पड़ा। वनस्पतिकाय-जब अग्निकाय शरीर छोडकर मैंने पत्र पुष्प फल कोमल अंकुर वाले शरीर को धारण किया तो लोगों ने ताडना, मर्दन करना, दांतों से चबाना, अग्नि में डालना इत्यादि दुख देना शुरू किया जिसको मैंने सहन किया । झाड लता पौधे, इत्यादि रूप में जब मैंने जन्म लिया तब दुष्ट लोगों के द्वारा मैं छेदन भेदन किया गया जिससे मुझे घोर दुख सहना पडा । इस प्रकार के उन सभी दुखों को कहने में तथा उनका वर्णन करने में मैं मसमर्थ हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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