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मेरु मंदर पुराण
जब मैंने कुन्थु जीव आदि पर्यायों में शरीर धारण कर दो इन्द्रिय से इन्द्रिय आदि में जन्म लिया तब अत्यन्त वेग से चलने वालो गाडियां मोटर आदि वाहनों के नीचे प्राकर दबने से प्रारणों का विसर्जन किया । इसके अतिरिक्त घोडे बैल आदि के खुरों के नीचे आने तथा प्रग्नि पानी का वेग मेरे पर गिरने व मनुष्यों के द्वारा कुचले जाने आदि २ स मुझे असह्य दुख भोगना पड़ा। उक्त पर्याय को छोड़कर पंचेन्द्रिय में घोडा हाथी बैल प्रादि २ पर्याय में जन्म लिया तब मनुष्यों द्वारा मेरे पर बोझा लादकर, मेरे ऊपर चढकर असह्य दुख दिया, मुझे लाठी चाबुक आदि से मारकर घोर कष्ट दिया। घास, दारणा, चारा आदि का न मिलना, सरदी गरमी वर्षा का सहना, कान, नाक छिदाना, नुकीली वस्तु से प्रहार करना इस प्रकार नीच व दुष्ट प्राणियों के द्वारा मैंने अत्यन्त वेदनाएँ सहन कीं। इसके अतिरिक्त पांव टूट जाने पर लंगडा कर चलना, गिर पडना, तडपना क्रूर पशुत्रों द्वारा भक्षण होना, hoवे गीध आदि नीच पक्षियों द्वारा नोंच नोंच खाया जाना, ऐसे घोरातिघोर कष्टों के समय मेरी रक्षा करने वाला भी कोई नहीं था। मेरी पीठ पर अधिक बोझा लादने से मैं जख्मी हो गया, जिसमें कीट लटें श्रादि पड़ जाने से विषैले जानवर मांस नोंच २ कर खाते थे । अब पापों का उपशम होने अथवा पूर्व जन्म के पुण्य संचय से मैंने मनुष्य पर्याय धारण की है। परन्तु इन्द्रियों की न्यूनता या दरिद्रता आदि असाध्य रोगों से मैंने महान दुख पाया अर्थात् दरिद्रता का अनुभव किया। प्रिय पदार्थ न मिलना, कांटे, कीले आदि पदार्थों का संयोग होना, दूसरों की नोकरी करना, शत्रु से पराजय होना आदि २ दुखों से मैं बहुत ही व्याकुल बन गया था । धन कमाने को इच्छा से असह्य दुखदायक कर्माश्रव के कारण असि मसि आदि षट् कर्मों में मैंने रात दिन प्रयत्न किया। ऐसे नाना प्रकार की विपत्तियां मुझे सता रही थी ।
कुछ शुभोदय से देवगति में जन्म हुवा तो वहां भी मैंने यही दुख देखा कि यहां से दूर हटो, शीघ्र चले जावो, प्रभु के आने का समय है. उनके प्रस्थान की सूचना देने का नक्कारा बजावो । और यह ध्वजा हाथ में पकड़ कर खड़े हो जावो । अरे दीन ! इन देवाङ्गनाओं की रक्षा कर, स्वामी की आज्ञानुसार वाहन रूप धारण कर ! अत्यन्त पुण्य रूपी धन जिसके पास है क्या तू ऐसे इन्द्र का दास है ? जिसके पास अतिशय रूप सामग्री है । क्या भूल गया है ? क्यों व्यर्थ खड़ा हुआ है। इन्द्र के आगे २ क्यों नहीं भागता ? इस प्रकार देवगति में अधिकारियों के वचन सुन कर मुझे घोर अपमान सहना पड़ा। इन्द्र की अप्सराम्रों के समान सुन्दर सुन्दर देवाङ्गनाएँ मुझे कब मिलेंगी, यह अभिलाषा रही। मैंने देव पर्याय में रहकर ऐसा ही मानसिक दुख का अनुभव किया। इस प्रकार घोर दुख सहन करते २ मेरा दीर्घ काल चला गया ।
अतः परीषह उपसर्ग श्रादि दुख प्राने पर विषाद करने से कुछ भी लाभ नहीं होगा । खिन्न हुए पुरुषों को क्या कोई दुख छोड देगा ? यह दुख तो अपने ही काररण तथा निमित्त से हुआ है। ऐसा विचार कर उत्तम २ भावनाओं से उपसर्ग सहन करना चाहिये । यदि इस शरीर को देखकर भय उत्पन्न होता है तो ऐसा कहना भी उचित नहीं है; क्योंकि मैंने स्वयं ही अशुभ शरीर असंख्यात बार धारण किया है। देखा भी है। सारी पर्यायें मेरे परिचय में हैं। अब इस समय उत्कृष्ट प्रार्य क्षेत्र कर्म भूमि में, उत्तम मनुष्य कुल में मेरा जन्म हुआ है और मुझे पंचेद्रियों के अनुकूल सम्पूर्ण भोग सामग्री प्राप्त हुई है इसलिये अब इस शरीर के द्वारा कुछ आत्म-हित करने की भावना मुझ में जागृत हो गई है । जितने भी
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