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________________ मेरु मंदर पुराण अर्थ-हे अत्यन्त सुन्दर नवरत्न आभूषणों से सुशोभित राजा रत्नायुध ! इस संसार में शाश्वत रहित पंचेन्द्रिय सुख को भोगते हुए अत्यन्त श्रेष्ठ प्रात्म स्वरूप को भूल जाना ऐसा है जैसे एक मनुष्य अपने हाथ में रखे हुए रत्न का मूल्य न जानकर एक कौवे को उडाने के लिये वह रत्न फैंक देता है। उसी प्रकार मनुष्य जन्म को गंवा देता है। भावार्थ-इस संबंध में शुभ चंद्राचार्य ने अपने ज्ञानार्णव ग्रंथ में श्लोक १२ में कहा है। "अत्यन्त दुर्लभेष्वेषु देवाल्लब्धेष्वपि क्वचित् । प्रमादात्प्रच्यवंतेऽत्र केचित् कामार्थलालसाः ।। सुप्राप्यं न पुनः पुसां बोधिरत्नं भवार्णवे। हस्ताद् भ्रष्टं यथा रत्नं महामूल्यं महार्णवे ॥ मानव जन्म, उत्तम कुल, दीर्घ आयु, इन्द्रियों की पूर्णता, बुद्धि की प्रबलता, साताकारी संबंध यह सब अत्यन्त दुर्लभ है। पुण्ययोग से इनको पाकर भी जो कोई प्रमाद में फंस जाते हैं व द्रव्य के और काम भोगों के लाल सावान हो जाते हैं वे रत्नत्रय मार्ग से भ्रष्ट रहते हैं। इस संसार रूपी समुद्र में रत्नत्रय का मिलना मानवों को सुगमता से नहीं होता है । यदि कदाचित् अवसर प्रा जावे तो एलंय धर्म को प्राप्त करके रक्षित रखना चाहिये । यदि सम्हाल न की तो जैसे महा समुद्र में हाथ से गिरे हए रत्न का मिलना फिर कठिन है उसी तरह फिर रत्नत्रय का मिलना दुर्लभ है ।।८७०।। कडलन तोंड नीलक्कानले नीरेंडोडि । युड लिळंदुळे पोल उरुदि योंडोंर्व विड़ि। इडरिनेईनु मिन्ना पइल पुलत्ति वोर चंड्न् । पडुतुयर् नरगं लग्निर् पदैप्पनो वडिगळेडान ॥८७१॥ अर्थ-राजा रत्नायुध इन सब बातों को मुनिराज से सुनकर जैसे हरिण अपने से बलवान व्याघ्र को देखकर चौंकता है, उसी प्रकार चौंक कर जैसे हरिण गर्मी से तापकर इधर उधर भटकता है उसी प्रकार राजा रत्नायुध अपने मन में संसार संबंधी विषयों से प्रत्यंत विरक्त होकर विचार करने लगा कि आज तक मैंने अपने पास रहने वाले प्रात्म-सुख को न समझते हुए मिथ्या ताप ऐसे क्षणिक इन्द्रिय सुख में मोहित होकर संसार में भ्रमण किया। इस प्रकार मन में पश्चाताप करते हुए मुनिराज के चरणों में पड़कर प्रार्थना करने लगा कि हे भगवन् ! मैंने पंचेद्रिय सुखों को ही शाश्वत सुख समझा इससे मेरी प्रात्मा मलिन व दुखी हो गई है । सुख क्षण मात्र भी नहीं मिला है ।।८७१।। येरि इडे पदंगम पोंड मिळ पिडि कळिरु मोंड.म् । करिमद दळियै पोंडस कानति नसुनं पोंडम ॥ विरगिनार् डिर् पोन्नं विळुगि मीने पोंडस । : तेरिविधि नुगरं व बेल्लास तीर यान इरप्प नद्रान् । ८७२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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