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मेर मंदर पुराण
अर्थ-पूनः रत्नायध राजा कहने लगा कि हे प्रभ! जिस प्रकार पतंग दीपक में मग्न होकर अपना प्राण गंवा देता है, हाथी स्पर्शन इन्द्रिय के अधीन होकर तथा मछली रसना इन्द्रिय के अधीन होकर मर जाती है, भौंरा घ्राण इन्द्रिय के वश होकर प्राण खो देता है, हरिण कर्णेद्रिय के विषय के अधीन होकर अपने प्राण खो देता है। इस प्रकार जब जीव एक २ इन्द्रिय भोगों के अधीन होकर अपने प्राण खो देते हैं, तब जो मनुष्य पंचेन्द्रिय विषयों को भोगता है, उसकी क्या हालत होगी। इसलिये हे प्रभु ! पंचेंद्रिय सुखों के लिये जो पाप कार्य नहीं करते थे वे मैने किए । मै अब महान दुखी हूं। मेरी प्रात्मा महान कष्ट भोग रही है । अब इस संसार में परिभ्रमण न करू,इस कारण जिन दीक्षा धारण करने की उत्कंठा मेरे मन में जागृत हो गई है। आप मेरे पर अनुगृहीत होकर मुझे दिगम्बरी जिन दीक्षा देवें । ऐसे मुनि के चरणों में पडकर प्रार्थना की ।।८७२।।
विन पयन ट्रेन वेंगै मुन विडपोल वंजि। शिनक्कळिर् दळवन् शेवोन् मुडियिन मगनुक्किा दिट् ।। तिनत्तिडे नीगि पोगु मारेन वेंदु कोंगे।
मिनर् कोडि कुळात्तु नींगि मीळंदु पोय वनं पुक्काने।।८७३॥ ___अर्थ-मुनिराज ने जिनदीक्षा की सम्मति दे दी। तब वह रत्नायुध अपने नगर में प्राता है और अपने पुत्र को बुलाकर उसका राज्याभिषेक कर देता है। और पींजरे में बन्द पक्षी जैसे पीजरा खुलते ही तुरन्त उड जाता है उसी प्रकार वह रत्नायुध मुनिराज के चरणों में प्रा गया ।।७।।
इई परावेट कालत्तीयु मोर् मुगिले पोलुं । वडिवुड तडक्क वंदन वज्र दंतन पादम् ॥ मुडियुर वनगि मुवार तोळ वेळ डिवं कोंडा । निडि मुरसदिरंद येंगु मेत्तोलि परंद दंड्रे ।।८७४॥
मर्थ-वह रत्नायुध ववदन्त मुनि के चरणों में दोनों हाथ कमलों की कली के समाम जोडकर विनीत भाव से नमस्कार करके प्रार्थना करता. है कि हे स्वामी ! तीन लोक में सम्पूर्ण जीवों के लिये पूज्य ऐसी योग्य जिन दीक्षा ग्रहण करने की मेरी इच्छा हो गई है। वह दीक्षा मुझे प्रदान करें। मुनिराज ने प्रार्थना सुनकर तथाऽस्तु कहा और जिन दीक्षा की स्वीकृति दे दी। दीक्षा लेने के समय अनेक प्रकार के मंगलाचरण बाजे प्रादि बजने लगे।
॥८७४।। वरैनै इरुक्कु वनरायुधंद्र रंद वन्ना। लरवम माले मैंवन् कावला लगत्ति रुंदा ॥ ळ रैइ नुक्करिय वन्नु भगनोडं तुरंविट्ट ळ ळं। पुरैयला नीगि निद्र. पुर्गलं वरंद नोदाल ।।८७५॥
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