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________________ ४१४ ] मेरु मंदर पुराण पुल्लं वंडोश भूमि देव ने पाडल पोलु । मेल्ले ई लिडंग लिव्वा रियंबुदर करिय दोंडे ॥१०५८॥ अर्थ-उस तीसरी लता भूमि में लता मंडप अत्यन्त सुन्दर ब शोभायमान दिखाई पडते थे। लता मंडप के नीचे वज्र को चूर्ण करके जैसे एक ढेर लगा दिया हो ऐसा प्रतीत होता था। उस लता मंडप पर लगे हुए पुष्पों की सुगंध का रस खींचने वाले भ्रमर झंकार शब्दों से इस प्रकार के अत्यन्त मधुर शब्द करते थे मानो वे भगवान के गुणगान ही कर रहे हों। ऐसे उन शब्दों की मधुर ध्वनि कानों में सुनाई पडती थी ॥१०५८।। मल्लिगै मुल्ले मौवन मालदि माद विनर् । पल्लिदळ पत्ति पित्ति शवग कुरिचि वेच्चि । सोल्लिय पिरतुं शेवि शूटेन सेरिय पूत । वल्लि नन् मलक यदि वंदु गोपुर मडैदार् ॥१६५६॥ अर्थ-उस लता भूमि में रहने वाले जाई जूही चंपा केवडा केतकी चमेली आदि के सुगन्धित पुष्पों को हाथ में लेकर वे दोनों कुमार उदयतर गोपुर में पहुँच गये ।।१०५६।। काद मूंभिरंडुयरंदु काद नीनडगंड वायदल । कादमाय शिरप्पु मुम्मै पडिमै मुन्निलय दागि। ज्योति युट कुळितु वायदल जोदिड देवर् काप । पोदरं पदागै शूळंद दुदय गोपुर मदामे ॥१०६०॥ अर्थ-वह उदयतर गोपुर तीन कोस उत्सेध वाला तथा चौडाई में दो कोस का था। उसके अन्दर जाने वाले द्वार की चौडाई एक कोस प्रमाण थी। उस द्वार पर अष्ट मंगल द्रव्य लटक रहे थे। उस द्वार के रक्षक ज्योतिष देव थे । और चारों ओर अत्यन्त शोभायमान ध्वजाएं फहरा रही थी ।।१०६०।। विल्लङ यूरगन् ड्र, यंदु वेळ्ळिया लियंड्र, शेन्नि। सोल्लिय वगै नाले सुरुंगि पोर् सूटदागि।। वल्लि मुनिले येट्टाले कोडि इडे मदिलि नि । सोलिय गोपुरत्त तोल्लुदु पूचिदरि पुक्कार् ॥१०६१॥ अर्थ-उस गोपुर का विस्तार पांच सौ धनुष का था। इसके संबंध में विस्तार से आगे वर्णन किया जावेगा । इस गोपुर की ऊंचाई तीन खरण की है। जिस पर अनेक रंग की ध्वजाए हैं। उन दोनों राजकुमारों में उदयतर नाम के गोपुर में पहुँचकर फूल चढाये और पुष्पांजलि करके उस बन भूमि में प्रवेश किया ।।१०६१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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