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________________ मेरु मंदर पुराण क्रोध, इक्कोसवां अनंतानुबंधी मान, बाईसवां अनन्तानुबन्धी माया, तेईसवां अनन्तानुबंधी लोभ, चोबीसवां स्त्रोवेद, पच्चीसवां तिथंच आयु.. छब्बीसवां तिर्यंच गति, सत्ताइसवां तिर्यग्गत्यानुपूर्वी. अट्ठाईसवां न्यग्रोध संहन न उन्तीसवां स्वाति संहनन, तीसवां वामन संहनन, इकतीसवां कुब्जक संहनन, बत्तीसवां कीलक संहनन, तेतीसवां नाराच संहनन, चौतीसवां अर्द्ध नाराच संहनन, पैतीसवां वज्र वृषभनाराच संहनन, छत्तीसवां उद्योत, संतीसवां अप्रशस्त विहायोगति, अडतीसवां दुर्लभ, उन्तालीसवां दुःस्वर, चालीसवां अनादेय, इकतालीसवां नीच गौत्र इस प्रकार यह इकतालीस प्रकृतियां हैं ।।७१३।। करणंदोरु मनंद मांगु गुरण मुडे विशोदि तोंडा। कनंदोरं कटु गिड़ विनत्तिवि सुरुंगि कट्टा ॥ कनंदोरु पडिय नंदोम् नल्विनै भाग मेट्रा। कनंदोरु मळविर् कटुं तीविन भागं वोळ्कुं ॥७१४॥ अर्थ-अनादि काल से उपाजित किये हुए ज्ञानावरणादि पाठों कर्मों की स्थिति को घटाकर अंतः कोडाकोडी सागर प्रमाण कर लेने की योग्यता प्रा जाना तथा दारु लता अस्थि और शैल रूप अनुभाग वाले चार घातिया कर्मों की अनुभाग शक्ति को घटाकर केवल दारु और लता के रूप में ले पाने की शक्ति हो जाना इसको प्रायोग्यलब्धि कहते हैं ।।७१४॥ इन्गै पयंद दाय विदन बिन वंद दर्पमत्त। मौवगै पयत्तै शैया बंद मूळतत्ति नोगं ।। कौवै शै विनक्कु कालन् पोलपु पुवारिग तोडि। शब्वि इट्रिदि नोडु भागत्तै सिदैक्कु निझे ।।७१५।। अर्थ-इस प्रकार के फल देने वाली प्रायोग्यलब्धि के प्राप्त हो जाने के बाद मागे उत्पन्न होने वाली करण लब्धि में प्रायोग्य लब्धि के समान ही इस परिणाम के फल को देते हुए तथा सम्पूर्ण कर्मों के क्षय स्वरूप मोक्ष को अनेक नय निक्षेप प्रमाणों के द्वारा भली भांति जानकर दर्शन मोहनीय कर्मों के उपशम करने योग्य परिणाम का हो जाना कारणलब्धि है ॥७१५॥ विविइनि केपत्तोडु गुणंद शेंगमत्तै शय्या। पुदिय वाम विदिइन् भागं तिदीये मुन्पोल कट्टा ।। पवररु पलगं ळारं पयंव पुवाणि नींग । बतिशयं पलवू मैय्यु मरिण येट्टि विशोदि तोंडा ॥७१६॥ अर्थ – इस क्रम से निक्षेप गुण सहित संक्रमण करके कभी भी न होने वाले मबीन पुण्य बंध का अनुभाग और स्थिति गति का अधिक बंध होकर छह प्रकार के फल को उत्पन्न करने वाले ऐसे प्रपूर्व करण परिणाम को छोडकर प्रात्मा में अतिशय गुण उत्पन्न करने वाले अनिवृत्ति करण नाम का परिणाम उत्पन्न होता है 11७१६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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