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________________ ३०४ ] मेरु मंदर पुराण पन्द सन्दत्तं चान्द नाल्वर्ग पयत्तं याका । वेंडुला विनै केट्टमो कट्ट मोरंगु शय्या ॥ निड्र गुणत्तच्चेडि निक्केवन् तन्नै याका । कुंड्रिय विनगेट् केंड्र गुणंद संगमत्तं शया ॥७१७॥ अर्थ - इस प्रकार परिणाम उत्पन्न होने के पश्चात् पाप और पुण्य इन दोनों कर्मों में पाप कर्म को संत उदीरणा और पुण्य कर्मों को बंध उदीरणा कहते हैं । तदनन्तर उस स्थिति को कम करके गुण श्रेणी में आरोहरण करते २ गुरण निक्षेप कर उसके परिणाम से पुन: अपने स यक्त्व की वृत्ति करता है । ७१७ ।। नियेट्टि करणं पिन्नै पेंदर करणं शैया । विदियेंद कोडा कोडि मूळ्त मेल कोळ् मुन्नि ॥ तन्नं विट्टु नड्डु वनंद मूकत् माय् निडेदितन् कन् । विनै इने कीळु मेलु मंदर वेळियै शैया ॥७१८ ॥ अर्थ- - तदनन्तर निवृत्तिकरण लब्धि के परिणाम एक अन्तर्मुहूर्त के बाद क्रम से वृद्धि करते हुए मिथ्यात्व कर्म की अन्तः कोडाकोडी उत्कृष्ट स्थिति को तथा अन्तर्मुहूर्त की मध्यम तथा जघन्य स्थिति को अंतर्मुहूर्त में आत्मा में रहने वाले मिथ्यात्व कर्म के तीन भाग करके एक भाग ऊपर, और भाग नीचे करके अन्त में आत्म-ज्योति की वृद्धि करता है ।। ७१८ ।। Jain Education International वेळिइन् मेल् मिच्चत्ततिन् वेम्मयं तन्मै शैया । वेळिइन् कीळू मिच्च मेल्लां विरगुळि येळंद पोदि । लळविला ज्ञानं काक्षि येक्करणत्तेळंद वट्ठाल् । वेळिइन् मेनिड्र तुंडन कंड मूंड्रागि नीळं ॥७१६॥ तिरिथिर् पैदरत्त पोदिर् ट्रिरिविद मागि बीळं । वर पोल् मिच्चं चम्मा चम्मत्त मागि ॥ विरगिनाल बीळं द मूनं ड्रो दनंतानु वेधि नान्गाम् । तिरं इनं यवित्तान् माट्रान् तिन् कडर् करये कानुं ॥ ७२० ॥ अर्थ - श्रात्म-ज्योति प्रगट हो जाने के बाद आत्मा में लगे हुए बाह्य और अभ्यंतर कर्मों की निर्जरा होकर सत्ता में रहने वाले तथा उदय में आने वाले पाप कर्मों का नाश करते समय अनन्त गुण से युक्त सम्यक्दर्शन का आत्मा में प्रादुर्भाव होने के पश्चात् श्रात्मा में अनादि काल से बंधे हुए कर्मों की निर्जरा होकर, खंड २ तीन टुकडे होकर, इस तरह नीचे गिर जाते हैं, जिस प्रकार कि चक्की में अनाज को डालते ही सबसे पहले उसके तीन टुकडै हो जाते हैं । मिथ्यात्व के तीन भाग होते हैं। मिध्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्य, सम्यक् प्रकृति। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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