SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०२ ] मेद मंदर पुराण मनादि मिच्चोद यत्तालरिषु मिच्चत्त मागि । कनाविनुं मैं मैं कानार् पान्मं यांग कालं वंदाल् ॥ विनावि में युनरं व वट्रिनिळंबाळ् विशोषि तना । सनादि मिच्चुव समता लडयुं सम्मत्तं वेंडे ॥७११॥ अर्थ- हे राजन् ! अनादि काल से मिथ्यात्व के तीव्र उदय से हेय उपादेय का स्वरूप न समझने के कारण अपने निज स्वरूप का अनादि काल से लेकर अब तक स्वरूप स्वप्न में भी अनुभव में नहीं आया है। उनके अनुभव में तो स्वपर के भेदज्ञान की भावना अभी तक उत्पन्न नहीं हुई, न प्रापापर के जानने का अभ्यास किया, इस कारण वह आज तक संसार में भ्रमण कर ही रहा है । सम्यक्त्व को धारण करने की लब्धि उत्पन्न हो जाय तो वह जीव सद्गुरु का उपदेश सुनकर उस उपदेश के निमित्त से कर्म क्षयोपशम लब्धि से अनादि काल से प्रात्मा के साथ संबंध करते आये मिथ्यात्व कर्म प्रकृति के उपशम से सम्यक्त्व उत्पन्न कर लेता है ।। ७११। येळवुदु कोडा कोडि सागर तिळिदु निर । पऴदेलां शेय्य वल्ल मिच्यत्त पगडि तन्नं ॥ येळियवे सारं व कोडा कोडि मेलंद मूळ्त । मुळिय मेट्रिदियै सोदि शाम वण्ण मोरंगु वीळुकं ।।७१२ ॥ अर्थ-मोह कर्म को सत्तर कोटाकोडी सागर में कुछ कम होकर आत्म-स्वभाव को प्रगट न होने देने वाले मिथ्यात्व प्रवृत्ति को नाश करने वाले कोडाकोडी सागर में एक अतर्मुहूर्त मैं उस स्थिति को प्रर्थात् मध्यम उत्कृष्ट स्थिति को विशुद्धि लब्धि द्वारा नाश कराता है । ।।७१२।। Jain Education International निड्र कोटिदिये कंडन करणंदोरु नेरिहर् सेय्या । वंदमु नापंत्तोरु पगडिकट् कोलित्त कोळ्दे । वंदुडन कट्टुतीय नविनै तिदि सुरुक्का । वंद मूळतं सेड्रंट विशोदिय वगंद्र पिन्नं । ७१३॥ अर्थ - इस प्रकार उस स्थिति को खंड २ करके प्रति समय में नाश कराते २ इकतालीस प्रकृति मिथ्यात्व कर्म को बंध करने वाले परिणामों का नाश करने से और उनमें प्राकर बंघ होने वाले पाप और पुण्य स्थिति को कम करके एक मुहूर्त के बाद देशना - लब्धि परिणाम का ज्ञान होने के बाद आगे कही जाने वाली ४१ प्रकृतियों का बंध नहीं होता है । प्रर्थात् एक मिथ्यात्व दूसरा नपुंसक वेद, तीसरा नरक आयु, चौथा नरक गति, पांचवा नरक गत्यानुपूर्वी, छठा एकेंद्रिय जाति, सातवां दो इन्द्रिय जाति, श्राठवां तीन इन्द्रिय जाति, नवां चतुरिंद्रिय जाति, दसवां हुडक संस्थान, ग्यारहवां असंप्राप्तासृपाटिका संहनन, बारहवां श्रातप. तेरहवां स्थावर, चौदहवां सूक्ष्म, पंद्रहवां प्रपर्यायात्मक, सोलहवां सार्धारण शरीर, सत्रहवां निद्रा २, अठारहवां प्रचलाप्रचला, उन्नीसवां स्त्यानगृद्धि, वीसर्वा अनंता नुबंधी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy