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मेर मंदर पुराण
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अर्थ-अर्हत भगवान के चरण कमलों को भक्ति पूर्वक नमस्कार करके प्रानन्दित व संतोषित हुए वे देव अपने अनेक प्रकार के वाद्यों को बजाते रहते हैं । तथा वाद्य गर्जना व पुष्प वृष्टि करते रहते हैं ।।११८४।।
मादवर तुरक्क मादवर् पुरियु मादर । जोतिडर वान वंदरर भवनर तन तोगै येन्नार ॥ मेदगु भवनर वान वंदरर विळंगुर् देवर् ।
सोदमनादि वानोर मन्नर सोल्लरि विळंगां ॥११८५॥ अर्थ–१ गणधर देव अनेक प्रकार के ऋद्धिवारी आदि महामुनि, २ कल्प वासिनी देवियां,३ ज्योतिषी देवियां,४ भवन वासिनी देवियां,५ व्यंतर देवों की देवांङ्गनाएं, ६ सौधर्म आदि कल्पवामी देव, ७भवनवासी देव, ८ व्यंतर देव, ६ ज्योतिषी देव, १० आर्यिकाएं, ११ चक्रवर्ती राजा महाराजा तथा मनुष्य प्रादि, १२ सिंह, व्याघ्र, सर्प आदि अनेक प्रकार के तियं च जीव भगवान के उपदेश सुनने वालों की इस प्रकार बारह सभाए हैं ॥११८॥
पनिरुगणमुं शूळ परुदिई नडुव नुच्चि । मनियवरुक्क नुत्तुं मंदर मुलग मूडिन् । तन्नडु विरुंद दोत्तुं तारग नडुवट सोम।
नेन्नवु मिरुंद कोमान दृन्निडं कुरुगि नारे ॥११८६॥ अर्थ—ऊपर कही हुई बारह सभाए प्रदक्षिणा रूप में है जिस प्रकार चंद्रमा के चारों पोर तारे अर्थात् मध्यलोक में रहने वाले मेरु पर्वत को चंद्रमा और तारे घेरे रहते हैं, उसी प्रकार तीसरी पीठ में रहने वाले गंधकुटी में विराजमान भगवान अहंत के पास वे दोनों मेरु मौर मंदर राजकुमार पहुँच गये ।।११८६।।
मेरुवं शूळ वोडं विरिगति रिरंटु पोल । दूकोन मंडलतं यूकुंबलं कोन मंडलत्ति नुळ्ळान् ॥ मारि पोन् मलर् सोंरि, वलं वोडुं परिणदु पुक्कार ।
तोरणं कडंद पोळ दिर द.रविनु किरै वन टोंड ॥११८७॥ अर्थ-महामेरु पर्वत को दोनों मेरु और मंदर सूर्य और चंद्रमा जैसे मेरु की प्रदक्षिणा देते हैं, उसी प्रकार दोनों पुष्प वृष्टि करते हुए प्रदक्षिणा दे रहे हैं। इस प्रकार प्रदक्षिणा देते हुए भीतर रहने वाली गंधकुटी के पास पाकर स्तूपों को दस प्रकार के तोरणों को छोडकर भीतर जाकर अहंत भगवान के मुख का दर्शन किया ॥११७॥
करंगळ मुन् कुविवं बुळ कमलंगळ विरितु कन्निर् । सोरिवन परंद रोमं पुळगंग रित्त बाय सोल् ॥
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