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________________ ४५६ ] मेरु मंदर पुराण वैपु नय नळव वाईल् मार्कनै गुरगजीवन गळ । सेप्पिय सुदत्तिय शेंड्र, विकर्षमाम् सदादि योडु ।। मैप्पड उन तोटिन् विन गळे केडुक्कु मेंड.। पैपोरु पमाणमाग पुण्णिय किळवन सोन्नान् ॥१३२२।। अर्थ-नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव ऐसे चार प्रकार होकर उत्पन्न होने वाले निक्षेप, द्रव्याथिक, पर्यायाथिक नयों से उत्पन्न होने वाले, नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ, एवंभूत ऐसे सात नयों के द्वारा उत्पन्न होने वाले, अध्यात्मभाषी, उपचरित, अनुपचरित, असद्भूत, सद्भूत, व्यवहार, शुद्धनय, अशुद्धनय, इन भेदों से छह प्रकार है। द्रव्यप्रमाण, भावप्रमाण, प्रत्यक्ष प्रमाण, परोक्ष प्रमारण, लौकिक प्रमाण, परमार्थ प्रमाण होकर यह निक्षेप नय प्रमाण से गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व सम्यक्त्व, संज्ञित्व, पाहार ये चौदहमागंणा के स्थान हैं। और मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, असंयत, देशसंयत, प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृतिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांत कषाय, क्षीणमोह, सयोगकेवली, प्रयोगकेवली ऐसे ये चौदह गुणस्थान हैं। सूक्ष्मपर्याप्ति, सूक्ष्म अपर्याप्ति, बादर अपर्याप्ति, बादर एकद्रियपर्याप्ति, द्वींद्रिय अपर्याप्ति पर्याप्ति, तींद्रिय पर्याप्ति अपर्याप्ति, चौइन्द्रि पर्याप्ति अपर्याप्ति. असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्ति अपर्याप्ति, सज्ञीपर्याप्ति, इस प्रकार चौदह जीव समास हैं। यह सभी प्रहंत भगवान की दिव्यध्वनि द्वार। निकले हुए शब्दों को भाव शुद्धि से परिपूर्ण गणधर देवों के द्वारा द्रव्यागम नाम के शास्त्र के बारह अंग और चौदह पूर्व में द्रव्यागम की रचना को गई थी। सत् , संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्प, वहुत्व ऐसे ये भाव श्रुत कर्मोपशम काललब्धि के अनुसार उत्पन्न हो जाय तो कर्मों का नाश होकर परमात्म पद को प्राप्त हो जाय-ऐसा गणधर देवों ने कहा है।१३२२। अंग पूव्वादि नूलगळागमं पमारण मागुं। शिगिय मदि सुदंगळ विभंग, तीय ज्ञान । मंगवे मूडन् संदेयं विपरीत माणु। तंगिय सन्निक्किप्पार् ट्रानेला मूढ मामें ॥१३२३।। अर्थ-अंगपूर्वादि द्वादशांग चतुर्दश पूर्व को गणधर ग्रंथरूप में रचना किया हुआ श्रुतज्ञान ग्रंथरूप प्रमाणरूप है। कर्म के उदय से इसके विरुद्ध कुमति, कुश्रुत विभंग ये तीनों मिथ्यात्व को उत्पन्न करते हैं। यह मिथ्यात्व मूढत्व, विपरीत और संशय को उत्पन्न करने वाले हैं। संज्ञी पंचेंद्रिय जीव के शरीर को छोड कर शेष तेरह प्रकार के जीव-सुमति ज्ञान से युक्त हैं ॥१३२३॥ अरु तत्तिर कामत्तिन कनौ विरंडगत्तुं सेंड्र। विरुत्तत्तै तेळिविलाम विशदमामूडमागु ॥ मोरुत्तुळि शेरिद लिडि युलावल संदेग मागुं। विरुद्धमा युनर् दल सोल्लल् विपरीत नयमदामे ।।१३२४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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