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मेद मंदर पुराण
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मग्न रहने लगा । कापिष्ठ कल्प में रहने वाला देव किरणवेग का जोव चित्रमाला के गर्भ में प्राया । उसने पुत्ररत्न को जन्म दिया। उसका नाम वज्रायुध रखा गया । क्रम से वह यौवनावस्था में प्रवेश किया तब पृथ्वी तिलक नाम के नगर का राजा अतिवेग राज्य करता था । उनके प्रियकारिणी नाम की पटरानी थी । रत्नमाला का जीव श्रीधरा था । वह श्रीधर का जीव प्रियकारिणी के गर्भ में आया । और उसके रत्नमाला नाम की पुत्री हुई। रत्नमाला कुमारी की यौवनावस्था होने पर वज्रायुध से साथ उसका विवाह हो गया ।
तदनंतर रत्नमाला के गर्भ में यशोधरा का जीव स्वर्ग से प्राया और नवमास पूर्ण होने पर उसके पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ। जिसका नाम रत्नायुध रखा गया । रत्नायुध के taarवस्था को प्राप्त होने पर राजकन्या के साथ लग्न कर दिया। इस प्रकार अपराजित महाराज अपने पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र आदि सभी परिवार को देखकर अत्यन्त आनन्दित हुए । कई दिनों के बाद एक दिन पिहिताश्रव नाम के मुनिराज उस नगर में आये । राजा अपराजित ने मुनिराज के पास जाकर भक्ति पूर्वक नमस्कार करके धर्मोपदेश सुना और सुनकर संसार से विरक्त होकर अपने पुत्र को राज्य पद देकर जिन दीक्षा धारण की।
तदनंतर वह चक्रायुध राज्य का परिपालन करता हुआ धर्म ध्यान पूर्वक संसार से विरक्त होकर अपने पुत्र वज्रायुध को राज्य भार सम्हलाकर अपने पिता अपराजित के पास मुनि दीक्षा धारण की।
चक्रायुध मुनि अत्यन्त उम्र बारह प्रकार के निरतिचार तप करते हुए बाईस प्रकार की परीषहों को सहन करते हुए तप में लीन रहने लगे । एक दिन वज्रायुध भी संसार से विरक्त होकर अपने पुत्र रत्नायुध को राज्य भार सम्हला कर अपने पिता चक्रायुध मुनि से जिन दीक्षा ले ली । तदनंतर चक्रायुध ने घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया । केवलज्ञान प्राप्त होते ही चतुरिंगकाय के देवों ने ग्राकर केवलज्ञान की पूजा की और तत्काल ही मोक्ष पद को प्राप्त कर लिया ।
तब वज्रायुध मुनि ने आकर नमस्कार किया और अपने धर्म ध्यान हेतु वापस चले गये । वह चक्रायुध केवली पूर्णभव में भद्रमित्र नाम का व्यापारी था । और सिंहचंद्र राजकुमार हुआ और तप करके ग्रहमिंद्र स्वर्ग में देव हुआ । तदनंतर मध्यलोक में कर्म भूमि में आकर चक्रायुध राजा हो गया । और तप करके केवल ज्ञान को प्राप्त करके मोक्ष पद प्राप्त किया ।
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सप्तम अध्याय समाप्त
भ्रष्टम अध्याय
वह राजा रत्नायुध पंचेंद्रिय विषयों में सदैव रत रहता था। इस प्रकार रत रहते हुए उस नगर के बाहर के मनोहर नामक उद्यान में चतुसंघ सहित वज्रदंत नाम के
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