SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मेरु मंदर पुराण [ १६१ ~ ~ ~ जुआ खेलकर यज्ञोपवीत व मुद्रिका जीत लिया। और निपुणमति दासी ने अपनी चतुराई व निपुणता से मंत्री के भंडारी से उस मुद्रिका आदि को देकर उसके बदले में रत्नों की पेटी लाकर महारानी को दी और इस कार्य से शिवभूति मंत्री की अपकीति हुई और राजा द्वारा वह दंड का पात्र हुा । कारण:-लोभ कषाय अत्यंत निंदनीय है। इस निमित्त से संसार में अपकीर्ति और कलंक का कारण होकर जगत में एक इतिहास । बन कर रह गया। ॥३२१॥ मरिणयिनाल वरिणगनुक्कं मंदिरि तनक्कं वंद । तनिविला तुयरं पटिन ट्रन्मयशाट्र कंडुम् ॥ पनिविला तुयर माकुं पट्रिन परियु नल्ल । तुनिविलादगिळड़े तुयरंगट किरव रावर् ॥३२२॥ अर्थ-उन रत्नों से भद्रमित्र और मंत्री दोनों को महान दुख उत्पन्न हुआ। इस राग से उत्पन्न होने वाले दुख का सम्यक् दृष्टि रहित अज्ञानी जीवों को अनुभव करना पडता है। जब तक सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता तब तक बाह्य वस्तु को अपना कर यह जीव मोह के द्वारा इस संसार में यत्र तत्र भ्रमण कर दुख ही दुख भोगता है । उनको तिल मात्र भी सुख नहीं मिलता है। यह जीव मोह कषाय के निमित्त क्या अनर्थ नहीं करता अर्थात् सब ही करता है । कहा भी है: वनचरभयाद्धावन देवाल्लताकुलवालधिः, किल जडतया लोलो वालवऽविचलं स्थितः । वत सच्चमरस्तेन प्राणैरपि प्रवियोजितः, परिणततृषां प्रायेणवं विधा हि विपत्तयः। चमरी नाम की गाय जंगली गाय होती है। उसकी पूछ के बाल बहुत ही सुन्दर व कोमल होते हैं। उसे अपनी पूछ पर बडा ही प्यार होता है। यह एक प्रकार का लोभ है । इस प्रेम या लोभ के वश होकर वह अपने प्राण गंवाती है। शिकारी या सिंहादिक हिंसक प्राणी जब उसे पकड़ने के लिये पीछा करते हैं तब वह भागकर अपने प्राण बचाना चाहती है। वह उन सभी से भागने में तेज होती है । इसलिए चाहे तो वह भागकर अपने को बचा सकती है । परन्तु भागते २ जहां कहीं उसकी पूछ के बाल किसी झाडी, आदि में उलझ गये कि वह मूर्ख वहीं खडी रह जाती है। एक पैर भी कहीं आगे नहीं धरती । कहीं पूछ के मेरे बाल टूट न जाय, इस विचार में प्रेमवश वह अपनी सुधबुध बिसर जाती है । बालों का प्रेम उसके पीछे पाने वाले यम दंड को उससे बिसरा देता है। बस पीछे से वह पाकर उसे घर लेता है और उसे मार डालता है। इसी प्रकार जिनकी किसी भी वस्तु में प्रासक्ति बढ़ जाती है वह उसको परिपाक में प्राणांत करने तक दुख देने वालो होतो है अतः किसी भी वस्तु की आसक्ति को भला मत समझो, सभी प्रासक्तियों के दुख इसी प्रकार के होते हैं। जिनकी विषय तृष्णा बुझी नहीं है उनको प्रायः ऐसे ही दुःख सहने पडते हैं ।।३२२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy