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मेह मंबर पुराण
[ १२३ सुख दुःखे वैरिणि बधु वर्ग, योगे वियोगे भुवने वने वा। निराकृताशेष-ममत्व बुद्धः,
समं मनो मेऽस्तु सदापि नाथ ॥ सुख पदुख में बैरी व बंधुनों में योग में वियोग में महल में ब बन में इस प्रकार समस्त ममत्व बुद्धि रहित होकर मेरा मन समस्त वस्तुमों में सम भावनासमान होकर रहे ऐसी भावना योगी लोग सपा भाते हैं ।।२१३॥
अनंतमाम पिरवियु लरुदव लुन । पुनरं र पगैवना यनंदं पोलुमा । लनंदमे इवनुर बागि वदवू।
निनत पिन् निदु मगै युरवि नीमये ॥२१४॥ मर्थ-प्रनंत भव भवांतर में इस संजयंत मुनि के तुम अनेक समय में शत्रु और मित्रस्प से विरोधी होते पाये हो। यह संजयंत मुनि तथा विद्युद्दष्ट्र मनेक जन्मों में शत्रु पौर मित्र के रूप में संबंध करते पाये हैं । सर्व विषयों पर विचार करके देखा जाय तो यह संसार शत्रुपौर मित्रों से प्रनादि काल से परिवर्तनशील होकर चला मा रहा है। इस कारण बह दोनों ही शाश्वत नहीं हैं ॥२१४॥
येप्पिरप्पिन पगै युनक्किव नलन मुनियु मोरुरवल्लन् । एप्पि रप्पिन पगै युवर कुंडुमटर धुन किवनल्लन् । इप्पि रप्पिलिप्पग युर बुक्कु नीइप्पडि येळुवायेर ।
शेप्पिरंदुळि पर्ग युरखुषकु नोशंवदेन् निरु बाळा ॥२१॥ मर्थ-अनेक जन्म को धारण करने वाला यह विद्युद्दष्ट्र शत्रु के रूप में तुम्हारे लिए नहीं पाया और संजयंत मुनि के लिए मित्रता का रूप भी धारण करके नहीं पाया। इस संजयंत मुनि को पौर विधुद्दष्ट्र को पूर्व जन्म में किए हुए कर्म से यह उपसर्ग उत्पन्न हमा है। इसी जन्म में किया हुमा यह उपसर्ग हो, ऐसा समझकर उस द्वेष से उनपर तम्हारेदाराकोष करने से संजयंत मनि ने पिछले जन्म में तम्हारे पर उपसर्ग किया हो ऐसा समझना उचित नहीं। इसलिए अब मागे तुम क्या करोगे इस सम्बंध में विचार करके कहो। इसलिए हे धरणेंद्र इन पर कोष तथा उपसर्ग करना मुर्खता है, अत: उपसर्ग न करके डांति धारण करो ॥२१॥
ऐबरि बट्टन येगत्तिल वाळयिर । पस सोलि हाई बने नी विडु ।।
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