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मेरु मंदर पुराण
___अर्थ -पूर्ण चन्द्रमा को देखकर महासागर के समान अत्यन्त शीघ्रता से स्वयम्भू भगवान् का दर्शन करते हुये उसके अन्दर उत्पन्न हुये शुद्ध परिणामों से कर्माश्रव से बंधे हुये बांध रूपी कर्म का नाश करके आगे जाने वाले के समान अत्यन्त तीव्र भक्ति के द्वारा अपेक्षा करते हुये भगवान् की पूजा तथा समस्त मुनिजनों की भक्ति करते हुये अत्यन्त आनन्दित होकर जिनेन्द्र भगवान् की इस प्रकार स्तुति करने लगा :
अहो ! जगत गुरुदेव, सुनियो अरज हमारी । तुम हो दीनदयाल, मैं दुखिया ससारी ॥१॥ इस भव वन में वादि, काल अनादि गंवायो। भ्रमत चतुर्गति मांहि, सुख नहिं दुःख बहु पायो ॥२॥ कर्म महारिपु जोर, एक ना कान करें जी। मन मान्या दुख देहिं, काहू सों नाहिं डरै जी ।।३।। कबहूँ इतर निगोद, कबहुँ नर्क दिखावै ।। सुरनर पशुगति मांहि, बहुविधि नाच नचावें ॥४॥ प्रभु इनके परसंग, भव भव मांहि बुरे जी। जे दुख देखे देव ! तुमसो नांहिं दुरे जी ॥५॥ एक जनम की बात, कहि न सकों सुन स्वामी । तुम अनन्त परजाय, जानत अन्तरयामी ॥६॥ मैं तो एक अनाथ, ये मिलि दुष्ट घनेरे। कियो बहुत बेहाल, सुनियो साहिब मेरे ॥७॥ ज्ञान महानिधि लूट, रंक निबल करि डारयो। इनहीं तुम मुझ मांहि, हे जिन ! अन्त र पारयो ॥६॥ पाप पुण्य मिलि दोइ, पायनि बेड़ी डारी। तन कारागृह मांहि, मोहि दिये दुःख भारी ।।६।। इनको नेक बिगार, मैं कुछ नांहि कियो जी। बिन कारन जगबंधु ! बहुविधि बैर लियो जी ॥१०॥ अब पायो तुम पास, सुनि कर सुजस तिहारो। नीति निपुन महाराज, कीजे न्याय हमारो॥११॥ दुष्टन देहु निकार, साधुन को रख लीजै। बिन भूधरदास' हे प्रभू ! ढोल न कीजै ॥१२॥
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