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________________ मेरु मंदर पुराण . [४६ पूमाले मोदलाय पुनयाद तिरुमुर्ति । कामादि वेंड यरंद कडवु ळे रमे ।। कामादि वेंड यदं कडवळे.. रैदानु। कोमानिन् तिरुवरुवन् कोंडु वप्पाररियरे ॥६४॥ अर्थ-तत्पश्चात् पुष्पों के हार इत्यादि अलंकारों से अलकृत परमौदारिक शरीर काम क्रोध मद आदि दोषों को जीतकर प्रकाशमान करने वाले ये ही देव हैं, ऐसा कोई दूसरा देव नहीं, ये ही भगवंत हैं, रागदि दोष को जीतकर स्वभावगुण सहित ये ही. जिनेन्द्रदेव हैं, ऐसा भक्तिभाव पूर्वक उच्चारण करते हुये बोले कि हे भगवन् ! आपके सुन्दर रूप को मनमें धारण कर संतोष के साथ जो स्मरण व ध्यान करता है वह प्राणी शीघ्र संसार सागर से पार हो जाता है । ऐसा ध्यान व स्मरण करने वाला भव्य जीव संसार में महादुर्लभ है। निराभरणभासुरं विगतरागवेग दयात् । निरंबरमनोहर प्रकृतिरूपनिर्दोषतः॥ निरायुधसुनिर्भयं विगतहिंस्यहिंसाक्रमात् । निरामिषसुतृप्तिमद्विविधवेदनानांक्षमात् ॥ चत्यति॥ श्री भगवान् का रूप अलंकार अत्यन्त सुन्दर दिखाई देता है । भगवान् अपने शरीर का शृङ्गार बस्त्राभूषणों से क्यों नहीं करते ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जिन्होंने सम्पूर्ण रूप से राग भाव का नाश किया हैं कदाचित् मन में राग द्वेष अथाव विषय भोग की इच्छा रहे तो शृङ्गार आदि करने की भावना मनमें होती है और तभी शरीर का शृङ्गार करते हैं तथा तभी अपने पास सुन्दर २ पदार्थ रखने की इच्छा उत्पन्न होती है परन्तु भगवान ने सम्पूर्ण रूप से विषय वासना का नाश कर दिया है, इस कारण उनके मन में शृङ्गार आदि की भावना उत्पन्न ही नहीं होती। भगवान का शरीर राग-द्वेषादि नष्ट हो जाने के कारण अत्यन्त सुन्दर दीखता है । तीन लोक के जीव भी उनके दिब्य शरीर को देखकर प्रसन्न होते हैं। राग-द्वेषादि विकारों से सर्वथा रहित होने कारण भगवान् निर्विकारी होते हैं, इसलिये समस्त विकारों को छिपाने के लिये उनको वस्त्रादि की आवश्यकता नहीं होती। भगवान ने सम्पूर्ण पापों का नाश कर दिया है। मोह कर्म से उत्पन्न लज्जा ही एक भेद है. इस कारण भेद का नाश अथवा मोह कर्म का नाश होने से भेद ज्ञान उत्पन्न होता है । भगवान् सदैव निर्विकारी हैं। वे अपने पास एक भी वस्त्र नहीं रखते । वे निर्भय हैं, जीव की हिंसा वगैरह नहीं करते और न वैसा उपदेश ही देते। भगवान् परम दयालु हैं-भव्य जीवों को सदा दयामय ही उपदेश देते हैं, इसलिये उनको अस्त्र-शस्त्रादि पास में रखने की अावश्यकता नहीं होती। -भगवान् आहार नहीं करते-आहार न होने पर भी ज्ञानामृत भोजन से वे सदा तृप्त रहते हैं। ऐसी विलक्षण तृप्ति उनके समान अन्य किसी को नहीं होती। इस प्रकार भगवान् के स्मरण व ध्यान करने वाले विरले ही भव्य जीव होते हैं ।।६४॥ विळक्कस पळिगे पोल विरिंदोलि मूनड ई मेनि । पळप्परिय योळि ग्गत्तळ लिरुप्प वेंड रैयुमे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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