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मेर मंदर पुराण करने के लिये होती है अथवा धूप के अंगार और नैवेद्य के पाक के लिये उत्क्षेप निक्षेप को प्राप्त होती है, अची नोची की जाती है वह भी उसी तरह पुण्य को प्राप्त होती है । जो पुष्प आदि वनस्पति चैत्यगृह की पूजा के लिये छेदे जाते हैं वे भी काय योग के द्वारा पुण्यो. पार्जन करते हैं। अतः उसका भी भला होता है । बागवान फूल से कहता है कि हे फूल ! तुम जिनेन्द्र भगवान् के ऊपर कैसे चढ़ाये जानोगे ? क्योंकि कोई धर्मात्मा जीव नहीं पा रहा है। तुम यहीं पर कम्पित होकर पृथ्वी पर गिर जानोगे। किसी ने कहा भी है कि किसी व्यक्ति ने वाटिका लगवाई किसी ने फूल चुने और किसी ने जिनेन्द्र भगवान् के चरणों में पुष्प चढ़ाये । ये तीनों ही पुरुष एक समान हैं और एक ही समान पुण्य को प्राप्त होते हैं ।६०॥
गोपुरं सुरुवुन सोले गोपुरं कोडियिन् पदि । गोपुरं काऊं शंबोन् माळिगै कुळ कुण्ड्रा। मापुरि येनय तूवै मरिणमुत्त मनलि मुद्र।
नपुरत्तरव मार्प नुवलिय कंडंदु पुक्कान् ॥११॥ अर्थ-उदय गिरि नामक कोट (दीवार) और गोपुर के भीतरी भाग में भ्रमर के द्वारा मधुर रस को खीचने के समान दीखनेवाले तोप से युक्त वर्णभूमि और गोपुरों को ध्वजा से युक्त ध्वजा भूमि को, छोड़कर भागे कल्याणकर नामक कोट और गोपुरों को उल्लघंन कर उसमें रहने वाले कल्पवृक्ष की भूमि को, इससे आगे स्वर्ण द्वारा निर्मित गोपुर के समूह से युक्त गुहांगण भूमि को, तथा किसी भी प्रकार की न्यूनता से रहित नगर के स्तूप और मरिणयों से सुशोभित होनेवाली मोती और स्त्रियों के पैरों में बंधे हुये नूपुर प्रादि मधुर शब्दों से युक्त सातवीं भूमि को उल्लघंन कर भीतर प्रवेश किया ॥११॥
पत्तो पदनाराय बीमन् मरिणय दिर। चित्तिरत्ति यद पट्टतिनिलयतं येदि। मत्तमाल कळिर शंबोन मलैइन बलं बार पोल ।
ट्रोसोळिर् मलगडूवि पल मुरै बलं बंचिट्टान् ॥२॥ अर्थ-शुद्ध स्वर्ण तथा श्रेष्ठ रत्नों से निर्मित प्रत्यन्त शोभायमान श्री निलय में नाकर जिस प्रकार मन्दोन्मत हाथी महा मेरु पर्वत को प्रदक्षिणा करता है उसी प्रकार राजा वैजयन्त गन्दा के फूल को लेकर भगवान् की प्रदक्षिणा करता हुमा पुष्पवृष्टि की।
भावार्ष-शुख स्वर्ण तथा रत्नों से निर्मित सुन्दर निलय को जिस प्रकार महा मदोन्मत्त हाथी महा मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करता है उसी प्रकार राजा वैजयन्त ने पुष्पवृष्टि करते हुए प्रदक्षिणा की ।।६२॥
निरमादिकंड नीलमा कडल् पोल नोग। बिरवन दुरुवन् काना वेळ बर विशोरि तसार ।। शिरं यळिपुनलिर शेल्ल कावळ नामि शीर साल । वरचिनु किरवन दृम्मे इ.वि वर्गलोगिनाने ॥३॥
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