SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मेरु मंतर पुराण [ २०६ कमिस यवन यान् कंडु कावल । विन्मिश इन्बमुं वेदर सेल्वमुं॥ पुण्णिय मिलाववर्किल् पूमग । ळेण्णव दुम् सेयाडि यबिनेन् ॥४४६॥ अर्थ-उस राज्यसभा में महाराजा पूर्णचन्द्र को अनेक देशों के पाये हुए राजा लोग पाकर अनेक प्रकार की भेंट अर्पण करते हैं और उस भेंट को वहां का भंडारी (खजाञ्ची) उठाकर अपने खजाने में रखता है। राज्यसभा समाप्त होने के पश्चात् राजा पूर्णचन्द्र रनवास में पधार जाते हैं और सदैव अपनी रानी के साथ हास्य विनोद आदि विषय भोगों में लीन रहते हैं। वे एक समय भी रिक्त नहीं रहते। हमेशा काम भोग के विषय में मग्न रहते हैं । विषय भोग में मग्न रहने वाले प्राणी को कुछ नहीं सुहाता है न उसमें कोई विवेक और गुण ही रहता है। विषयासक्तचित्तानां गुणः को वा न नश्यति । न वैदुष्यं न मानुष्यं नाभिजात्यं न सत्यवाक् ।। भावार्थ-जो मनुष्य विषय भोग में आसक्त हो जाता है उसके प्रायः सभी गुणों की इतिश्री हो जाती है । अर्थात् ऐसे मनुष्यों में विद्वत्ता, मनुष्यता, कुलीनता और सभ्यता मादि एक भी गुण नहीं रहता। इसी प्रकार पूर्णचन्द्र विषयभोगों में प्रासक्त रहते थे। पराराधनजाद् दैन्यात् पैशुन्यात् परिवादतः । पराभवाक्तिमन्येभ्यो न बिभेति हि कामुकः॥ भावार्थ-जो मनुष्य विषय भोगों में आसक्त हो जाता है, वह उसके कारण होने बाली दरिद्रता, चुगली, बदनामी और अपमान आदि वचन कहने वाले मनुष्यों की परवाह नहीं करता। इसी प्रकार पूर्णचन्द्र भी अपनी बुराइयों की परवाह नहीं करते थे और दिनब-दिन कामवासनाओं में विषयासक्त होते जा रहे थे । और भी कहा है: पाकं त्यागं विवेकं च, वैभवं मानितामपि । कामार्ताः खलु मुञ्चति, किमन्यै स्वञ्च जीवितं ।। भावार्थ-कामासक्त प्राणी भोजन, दान, विवेक, धन, दौलत और बड़प्पन आदि का जरा भी विचार नहीं करते। और तो क्या ? भोग विलास के पीछे वे अपनी जान पर भी पानी फेर देते हैं। इस प्रकार वे पूर्णचन्द्र भी इन बातों पर कोई ध्यान नहीं दे रहे थे। उनका सारा समय विषय भोगों में व्यतीत होता था। वह रामदत्ता माता माथिका कहने लगी कि एक दिन मैने उस पूर्णचन्द्र के राजमहल में जाकर उनसे धर्म की बातें कहने की भावना करके कहा कि हे राजकुमार ! देवलोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy