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________________ २१० ] मेरु मंदर पुराण के इन्द्रिय विषय सुख और इस लोक में दिखने वाले राजसंपत्ति, यह वैभव सुख, स्त्रियां व भोग सामग्री यह सभी पूर्व जन्म के पूण्य संचय बिना इस लोक में प्राप्त नहीं होती है।। प्राणियों ने पुण्य संचय किया है उन्हीं को प्राप्त होती है। जिन्होंने पुण्य का संचय नहीं किया है उनको राज्य संभोग आदि सुख नहीं मिलता है। जिस मनुष्य के हृदय में विषय वासना बैठी हुई है, उनको मोक्ष लक्ष्मी स्पर्श नहीं करती। ४४६।। उरुवमु ळगु नल्लोळियि कीतियुं । सेरु विड वेलवल तिरलुं सिंद से । पोरुळवे वरुवलुं भोगमुम् नल्ल । तिरु बुडे येरत्तदु सँगैयंड्रनन् ॥४४७॥ प्रर्थ-हे मुनिराज ! दूसरी बात इस संबंध में मुझे यह कहना है कि सुन्दर शरीर, रूप, लावण्य, राज्यसंपदा तथा युद्ध में शत्रुओं को जीतने की सामर्थ्य पराक्रम आदि यह सभी प्राप्त करने के लिए एक जैनधर्म ही कारण है ।।४४७।। निलत्तिड येकुरं वित्तै नीट्टिले । मलै तल मळेइला तारु तानवरा ॥ कुलत्तिडै इबमु मिल्यै पुनियम् । तलत्तलेवर सेयाद वर्कट केंडनन् ॥४४८॥ अर्थ-भूमि में बीज बोए बिना अंकुर की प्राप्ति नहीं होती है । पर्वत के ऊपर यदि पानी की वर्षा न हो तो ऊपर से झरता हुमा पानी तालाब व कुओं में नहीं पाता है। उसी प्रकार पुण्य के कारण होने वाले व्रत, नियम, अनुष्ठान, पूजा आदि किये बिना इस मानव को उस पंचेन्द्रिय सुख की प्राप्ति नहीं होती है । इस प्रकार मैंने पूर्णचन्द्र राजकुमार को उपदेश द्वारा समझाया था।।४४८।। कारण मिल्लये विने कार्य । पोरणि वेलिनाय मुनस मुणियम् ॥ कारण माग नीरुडुत्त कनियुं । शीररिण सेल्ववं शरिद उन्नये ।।४४६।। अर्थ-हे पूर्णचंद्र ! कारण बिना कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती। वैसे ही पूर्व पुण्य के बिना सद्गुरण, सद्बुद्धि भी नहीं मिलती है। यह सारा वैभव मापको पुण्य द्वारा प्राप्त हना है । अब मनुष्य जन्म का सार्थकपना यही है कि आप भोग में रत न रहकर करीर से पाने के लिए धर्म साधन में उपयोग कर लो यही मनुष्य जन्म का सार है। इस प्रकार उस रामदत्ता प्रायिका ने राजकुमार को धर्म-मार्ग पर चलने का उपदेश दिया ॥४४९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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