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________________ मेरु मंदर पुराण [ २२७ ताविला तवत्तिल पयनागिय । देवर तन तोगै सैव दरिंदु पिन् । नावि नोस नरंवि नेळगुरर । ट्राविलावि लयं पईल साले कान् ॥४६०॥ अर्थ-वे सामान्य देव श्रीधर से पुनः कहने लगे कि पूर्व जन्म में आपने व्रतादि का पालन किया था। इसी कारण प्राप देव गति को प्राप्त हुए हैं । यह सभी को प्राप्त नहीं हो सकती। भाग्यवान ही को मिल सकती है। आप भाग्यवान हैं। इसलिये देवगति मिली है । पूजा, स्तुति करने के बाद आप नृत्य मंडप में पधारें। वहां अनेक स्त्रियां देवियां नृत्य गान करती हैं उनको देखिए और सुनिए ।। ४८६ ।। ४६.।। पडं कडंदनि ताकिय वल्गुलार । नुडंगु नुन्निड मोव नुवलरु॥ वडंजु मंद वनयुलइन् पयन् । द डंगु पिन्नेन यद्रवर् सोल्लिनार ॥४६१॥ अर्थ-हे श्रोधर देव ! जरी के वस्त्र, रत्नों के प्राभूषण, अनेक प्रकार के रत्नों से . जडे हुए अत्यन्त सुन्दर पांवों में पैजनी बांध कर नृत्य करने वाली यहां देवियां हैं। यह माप पर मुग्ध होकर प्रापको प्रसन्न करने के लिये नृत्य गान कर रही हैं। आप इनको स्वीकार करें। यह देवगति सम्यक दृष्टि के लिए अच्छी है। किन्तु जो सम्यक्स्व रहित तप व्रत है वह संसार के लिए कारता है। ऐसे व्यक्तियों के लिए कर्म निर्जरा का कारण न होकर संसार का कारण होता है। इसीलिए पूर्वजन्म में हाथी की पर्याय में अणुव्रत धारण कर सम्यक्त्व सहित मापने देवगति प्राप्त की है। आप धन्य हैं ।।४६१॥ नीदि कडवार पेरियो कडा । पावलालमरन नवे सैद पिन् । धातिय कडियुं तिरु मालडि। पोदु कोंडु पुगळं दु परिणदनन् ।।४६२॥ अर्थ-सद्गुणों को प्राप्त हुए जीव नीति शास्त्रों में कहे हए भगवान के वचनों के अनसार चलकर इस लोक व परलोक के साधन करने के लिए प्रयत्न करते हैं। इसी सद्गुरण शिरोमणि श्रीधर देव ने पहले कहे अनुसार पूजा, अर्चा, प्रादि नित्य क्रिया करके। प्रहंत देव की स्तुति की ।।४६२।। पार नहुँद विकानत्ताने पाय निड़न । सरण शरगडं निहिवं शासार नानार् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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