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________________ मेह मंदर पुराण है तो आपने कर्मों का नाश कैसे किया? इस लोक में संसारी जीवों में रहते हुए प्रापको निष्परिग्रही कैसे कहते हैं? मिट्टी में से निकला हुवा सोना भट्टी के द्वारा तपाने पर भी मिट्टी रूप नहीं होता. उसी प्रकार ज्ञानावरणादि पाठ कर्मों का नाश होने के बाद पुन: संसार का बंध नहीं होता, इस कारण आप प्रबंध हैं । कोई यह कहता है कि आप बंधु नहीं है ? आपकी भावना सम्पूर्ण जीवों पर रक्षा करने की है और जगत के सारी प्राणी मात्र को बंधु की दृष्टि से देखते हैं इसलिये आप बन्धु हैं । इस प्रकार तपश्चरण करने वाले पाप ही सच्चे तपस्वी हो, यह पाश्चर्य को बात है ।। १३०॥ परिवु नीइले योंड्रल तेमक्कवै यनेगं। पिरबिनी इलै यानगळो पिरविइर् पेरियोम् ॥ सेरिबवोर् गति युनविकल्ले घमक्कु नागि व ट्राल । बरियनी येम्म यान्ट्कोंडं वशिइदु पेरिदे ॥ १३१॥ हे भगवान् ! मापको केवल ज्ञान के प्रतिरिक्त विकल्प को उत्पन्न करने वाला और कोई ज्ञान नहीं है । दूसरे जोवों के मतिज्ञान व अवधिज्ञान है। परन्तु केवलज्ञान नहीं है । पाप जन्म-मरण से रहित हैं, मागे आपका जन्म-मरण नहीं है, परन्तु संसारी सम्पूर्ण जीवों के जन्म मरण होता है । पाप गति में रहित हैं अर्थात् प्रगति हैं । हमको चारों गतियों के दुख हैं। इस कारण सभी जीव प्रापकी स्तुति करते हैं तथा प्रापका माश्रय लेते हैं ।। १३१ ।। येड, वानव रिरवन मरंजु इप्पोळ दे । येंद्र, मबुलगळ वयररु वियप्प ॥ निदोर् पडिनिरुमिया वारिबैय्यर् सूळ । शंडनन् धरणेदिरन् शिरप्पाडु विरंदे ॥१३२॥ ___ इस प्रकार वैजयंत केवली भगवान की स्तुति पाठ करते हुऐ सम्पूर्ण देवों को आश्चर्य करने वाले ऐसे उपमा रहित रूप को धारण कर अपनी देवियों सहित भवनलोक के अधिपति इन्द्र अपने हाथ में पूजा द्रव्य लेकर उन केवली भगवान की पूजा करने पाए ॥१३२॥ निळलुमिळ दिलंगु मेनि निरैयदि मुणमं शंवर् । कळलरिणदि लंगुम पादंगकमलंगळ कामने युम् ।। पुळलळिदिलंगु नल्लार बडिबिनार कुळं य वांगुम् । तळलुरु तन्म तंद तरणनन दूरुव पाने ॥१३३॥ उस परणेन्द्र के मन्मथ के समान सुशोभित शरीर का प्रकाश चारों मोर फैला हवा था। उनका मुखकमल सम्पूर्ण कलापों के समान प्रकाशमान था। उनका शरीर स्वर्ण के समान चमकता था। उनके चरण लाल बमल के समान तथा केश नील मरिण के समान चमक रहे थे। उनके देखते ही सम्पूर्ण स्त्रियां चंचल हो जाती बो॥ १३३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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