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मेद मंबर पुराण
अर्थ- हे भगवन् ! मेरा मार्ग दुर्नयरूपी अंधकार से व्याप्त है, मुझे आपके द्वारा प्राप्त सम्यक्ज्ञान रूपी दीपक संसार की मर्यादा को छेदने वाला हो । हे भगवन् ! जन्म-मरण रूपी इस अत्यन्त पुराने जंगल में मैं जन्म से ही अन्धा हूं। इससे मुक्ति दिलाने वाली आपकी भक्ति सन्मार्ग में ले जाये । स्याद्वाद मत के एक नायक श्री शान्तिनाथ भगवान् संसार के - दुःखों की शान्ति के लिये मेरे हृदय में सदा स्थिर रहने वाली शान्ति को करें । हे खेवटिया ! संसार रूपी समुद्र के मध्य में डूबते हुए मैंने बड़ी कठिनाई से ज्ञान रूपी नौका पाई है। यह मुझे मोक्ष रूपी पार पर पहुँचाने वाली होवे ।। १२७ ।।
हे भगवन् ! प्रापको जो कोई देखता है उसको महान् श्रानन्द हो जाता है और जो प्रापको नहीं देखता उसके प्रति श्राप रागद्वेष नहीं करते । जो पूजा नहीं करता उससे आप अप्रसन्न नहीं होते क्योंकि आप अठारह दोषों से रहित हैं और इन दोनों से प्रसन्न अप्रसन्न की भावना का श्रापको कोई मतलब नहीं है । आप पर वस्तु से भिन्न हो । परन्तु एक बात है कि आपके दर्शन, पूजा व स्तुति करने करने वालों को देवगति प्राप्त होती है और जो प्रापसे राग द्वेष आदि करता है उसको पाप तथा नरक गति प्राप्त होती है और पाप पुण्य के अनुसार फल मिलता है - ऐसा आगम का कथन है ।।१२८ ॥
उवत्तल काय्दला लुंट्रिय बडिसल बेळंदोर । कुवत्तल् काय्दलु ट्रिरुन् बोंडू नीहलेयेर् ॥
सुर्गमानर गंदवर् तुन्नुब दुनबु ।
तर्वासन टून्मयो तबिने तन्मयो बरुळ ।। १२८ ।।
हे भगवन्
ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों का नाश होते ही जब चार चतुष्टय प्राप्त होते हैं तब उसी समय देवों के आसन कम्पायमान होते हैं- यह आपके तत्पचरण व बल का ही महात्म्य है, और किसी की शक्ति नहीं हैं। ऐसा ही आपके महान धर्मोपदेश का फल है ।
।। १२६ ।।
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हरंद धातिग नान्मंयु मळिव कनरो ।
निरेंद नान्मे युं बानबर निलेयुडन् तळरा ॥
परंतु वंदु निद्रिरुवडि परबुबदिदु उन् । सिरंद तन्मयो तिरुबरदि यक्कयो बरुळ ॥ १२६ ॥
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कुटु मड्रिले निर् कुटु मूंड नीपुरताय । पटू नोइले एनिलु लोगमुं पट्टाम् ॥
सुट् नोईला एनि लोब्बिरु मुम् सुद्रा ।
मटू नीइल्लाय मुनिबर् कोनायबोर् मायम् ॥ १३० ॥
[ आपके अन्दर कोई दोष नहीं है-ऐसा कहते हैं ? यदि राग द्वेष नहीं
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