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मेरु मंदर पुराण
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सिद्धनल्लिरदं से धातु कळ पोलधातु । वोत्तर वगैयदागि योळि युमिदिलंगु मेनि ।। चित्तिरत्ति यट्पट्ट पडयेन देवर सेंड्रार ।
मुत्ति पेट्रिंद कोऊ मदन मुन्नर विळक्कै वेत्तान् ॥१२६।। जिस प्रकार सिद्ध रस में लोहा डुबाने से वह लोहा तत्काल स्वर्णमयी हो जाता है उसी प्रकार अहंत भट्टारक वैजयंत मुनि के शरीर के धातु उपधातु प्रात्म ज्योति से प्रकट होके प्रकाशमान होने लगे। तब चतुणिकाय देव जैसे चित्रकार चित्र लिखता है उसी प्रकार अनेक रंगों से सुशोभित होकर अत्यन्त सुन्दर शरीर को नाना वर्णों से तथा अनेक प्राभरण व सुन्दर २ वस्त्रों सहित आकाश से पुष्प वृष्टि करते हुए वैजयन्त मुनि के सन्मुख वे देवगण नीचे उतर कर आ गए और केवलज्ञानी वैजयंत भगवान से प्रानन्दपूर्वक कहने लगे
"अद्य मे सफलं जन्म, नेत्रे च विमले कृते। स्तातोऽहं धर्मतोर्थेषु जिनेन्द्र तव दर्शनात् ।।
हे भगवन् ! आज आपके दर्शनों से हमारा जन्म सफल हो गया, नेत्र सफल हो गये गात्र सफल हुअा इसलिए हे प्रभु ! हम आपके तीर्थ में उतर कर कर्म रूपी मल को दूर करने के लिये स्नान कर चुके हैं ।।१२६।।।
तेमलर मारि सुन्न सिदारिनर् दिशैकनमूड । धूममूमेळ दं दीप सडरंदन मिडेंद देवर् ॥ ताममुं सांदु मोंदिताम् पनिळदु नोंड्र.।
कामनै कडंद कोमान् कळलडि पर्व लुद्रार् ।। १२७ ॥ तत्पश्चात् केवली वैजयंत भगवान के पास आए हुए चतुर्णिकाय देवों ने स्वर्ग से नाए हुए अत्यन्त सुगंधित पुष्पों की वृष्टि को। परिमल चूर्ण की आकाश से वृष्टि की, तथा महान सुगन्धित धूप खेई। केवल ज्ञान के निमित्त रत्न दोपक जलाए और अष्ट प्रकार से भगवान की पूजा करके स्तुति करने लगे कि
भगवन् दुर्नयध्वान्तौराकीर्णे पथि मे सति । सज्ज्ञान-दीपिका भूयात् संसारावधि-वर्धनी ।। जन्म जोर्णाटवी मध्ये जनुषान्धस्य मे सति । सन्मार्गे भगवन भक्तिर्भवतान्मुक्ति-दायिनी ।। स्वान्त-शान्तिं ममैकान्तामनेकान्तक-नायकः । शान्तिनाथो जिनः कुर्यात् संसृति क्लेश-शांतये ।। कर्णधार भवार्णोधेमध्यतो मज्जता मया । कृच्छ्रेण बोधिनौलब्धा. भूयान्निर्वाण-पारगा।
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