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मेरु मंदर पुराण
- वश में करके पंच महाव्रत आदि को निरतिचार पालन करते हुए अर्हत स्वयम्भू तीर्थकर के
अतरङ्ग व बहिरङ्ग तप के द्वारा पंचेन्द्रिय विषयों को जर्जरित करके अपने वश में कर लिया। अंतरङ्ग व बहिरंग तप के साथ २ दुर्द्ध र तपस्या के द्वारा उत्तरोत्तर मूलगुण व उत्तर गुणों के साथ कर्म की निर्जरा करने लगे। और रत्नत्रय (सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) की वृद्धि करने लगे । छोटे राजकुमार वैजयंत को राज्य भार सोंपने के पश्चात् जैसे वह राजकुमार शनै २ राज्य की वृद्धि करता है उसी प्रकार यह वैजयंत, संजयंत और जयंत तीनों मुनि धर्म की वृद्धि करते हुए मोक्ष रूपी लक्ष्मी पद की प्राप्ति की ओर बढ़ने लग ॥ १३ ॥
प्रांगवरंग पूर्व कादि नूलोदि या' । तान् गरु कोळ गै तांगि तामुडन् सेंड, पिन्ना ।। लोंगिय उलग मूंड. मोरुवळी. पडुक्क लुट ।
पांबिनाल वैजयंतन परुप्पद शिगरं सेंदान् ।।१२४॥ तदनंतर वैजयंत, संजयंत और जयंत तीनों मुनि अङ्ग निमित्त और और अंग पूर्व परमागम का पूर्ण रूप से अध्ययन करते हुए निरतिचार चारित्र का पालन करने लगे। वैजयंत मुनि अपने घोर तपश्चरण द्वारा घातिया कर्मों की निर्जरा करके एक समय में लोक प्रलोक को जानने की इच्छा करने वाले होकर सर्व संघ को त्याग करके एक विशाल पर्वत पर जाकर तपश्चरण करने लगे ।। १२४ ।।
मळ पनिवेळ गडांगि मलैमिस मलयपोल । वेळिल पेरलिंड्र पोळ दिनेदं सुक्लध्यानं ॥ पळविनै मुळ दुं पारप्परंदन वरंग नान्म ।
मुळे इई पोळगिटेन विळ क्किन मुनिराळ्डामो ॥१२५॥ कहा है कि:गिरि-कंदर-दुर्गेषु ये वसंति दिगम्बराः । पाणिपात्र पुटाहारास्ते यांति परमां गतिम् ॥
इस प्रकार गिरि कंदर वन दुर्ग पर्वत की चोटी पर ये वैजयंत मुनि तपस्या करते हुए ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानो इस पर्वत पर एक छोटा और पर्वत ही हो। इस तरह दुर्द्धर तप करते हुए आत्म-योग में मग्न हुए । प्रथम व द्वितीय शुक्ल ध्यान से प्रात्मा को घात करने वाले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चारों घातिया कर्मों को जीत कर केवल ज्ञान को प्राप्त होकर अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्तसुख आदि चार चतुष्टय से युक्त हुए । तब जिस प्रकार एक दीपक से सारा अन्धकार क्षण में नष्ट हो जाता है उसी प्रकार अनादि काल से कर्मरूपी अंधकार से ढके हुवे प्रात्मा को केवल ज्ञान दीप प्रकट होते ही ज्ञानावरणादि चारों घातिया कर्म नष्ट हो गये ।। १२५ ।।
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