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________________ मेरु मंदर पुराण [ ११७ है। उसी प्रकार भगवान भी उत्तम व्रत रूपी रस्सियों द्वारा तपरूपी बड़े भारी खमे से बंधे हुए थे । वे भगवान् सुमेरु पर्वत के समान उत्तम शरीर धारण किए हुए थे। क्योंकि जिस प्रकार सुमेरु पर्वत प्रकपायमान रूप से खडा है उसी प्रकार उनका शरीर भी अंकपायमान रूप से खड़ा था। सुमेरु पर्वत जिस प्रकार ऊंचा होता है उसी प्रकार उनका शरीर भी ऊंचा था। सिंह, व्याघ्र आदि बड़े-बड़े क्रूर जीव जिस प्रकार सुमेरु पर्वत की उपासना करते हैं अर्थात् वे वहां रहते हैं उसी प्रकार बड़े-बड़े क्रूर जीव भो शांत होकर भगवान् की उपासना करते थे अर्थात् उनके समीप में रहते थे। जिस प्रकार सुमेरु पर्वत इदु तथा. महापुरुषों से उपासित होता है उसी प्रकार भगवान् का शरीर भी इंदु आदि महान् सत्वों से उपासित था । सुमेरु पर्वत जिस प्रकार क्षमा रूपी पृथ्वी के भार को धारण करने में समर्थ होता है उसी प्रकार भगवान का शरीर भी क्षमा धारण करने में समर्थ था। उस समय भगवान ने अपने अंतःकरण को ध्यान में निश्चल कर लिया था तथा उनकी चेष्टा अत्यत गंभार थी इसलिए वे वायु के न चलने से निश्चल हुए समुद्र की गंभीरता को भी तिरस्कृत कर रहे थे अथवा भगवान् किसी अनोखे समुद्र के समान जान पड़ते थे। क्योंकि उपलब्ध समुद्र तो वायु से क्षुभित हो जाता है परन्तु भगवान् परिग्रह रूपी महान वायु से कभी क्षुभित नहीं होते थे । उपलब्ध समुद्र तो जलाशय तथा जल है, तथा महान् जंतुओं प्रादि से भरा रहता है परन्तु भगवान् तो दोष रूपी जल जंतुओं से छुए भो नहीं गये थे। इस प्रकार वृषभदेव भगवान् के समीप धरणेंद्र बड़े आदर से पहुँचा और अतिशय तपरूपी लक्ष्मी से अलंकृत उनके शरीर को देखता हुआ आश्चर्य करने लगा और प्रणाम किया। उनकी स्तुति की और फिर अपना तेज छुपा कर दोनों कुमारों से इस प्रकार सयुक्तिक वचन कहने लगा। हे तरुण पुरुषो ! ये हथियार धारण किये तुम दोनों मुझे विकृत आकार वाले दिखाई दे रहे हो। कहां तो यह शांत तपोवन और कहां यह भयंकर आकार वाले तुम दोनों? प्रकाश और अंधकार के समान तुम्हारा समागम क्या अनुचित नहीं है ? अहो ये भोग बड़े ही निंदनीय हैं। जहां याचना नहीं करना चाहिये वहां भी याचना कराते हैं, सो ठीक ही है क्योकि याचना करने वालों को योग्य और अयोग्य का विचार ही कहां रहता है। यह भगवान् तो भोगों से निस्पृह हैं और तुम दोनों उनसे भोगों की इच्छा कर रहे हो सो यह तुम्हारी शिलातल से कमल की इच्छा आज हम लोगों को प्राश्चर्ययुक्त कर रही है। जो मनुष्य स्वयं भोगों की इच्छा सहित होता है वह दूसरों को भी वैसा ही मानता है । अरे ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो अंत में संताप देने वाले भोगों की इच्छा करता हो? प्रारम्भ मात्र में ही मनोहर दिखाई देनेवाले भोगों के वश हुमा पुरुष चाहे जितना बड़ा होने पर भी लघु हो जाता है। यदि तुम दोनों इन संसारिक भोगों को चाहते हो तो भरत के समीर जाग्रो क्योंकि इस समय वे ही साम्राज्य का भार धारण करने वाले हैं। वे ही श्रेष्ठ राजा हैं। भगवान् तो अंतरंग व बहिरंग परिग्रह का त्याग करके अपने शरीर से निस्पृह हो रहे हैं। अब यह भोगों की इच्छा करने वाले तुम दोनों को भोग कैसे दे सकते हैं? इसलिये जो केवल मोक्ष जाने के लिए उद्योग कर रहा है ऐसे इन भगवान के पास धरणा देना व्यर्थ है। तुम दोनों भोगों के इच्छुक हो। इसलिये भरत की उपासना करने के लिए उनके पास जाम्रो। इस प्रकार जब धरणेंद्र कह चुका तब वे दोनों नमि विन म कुमार उसे इस प्रकार उत्तर देने लगे कि दूसरे के कार्यों में माप को यह क्या प्रास्था है ? प्राप महा बुद्धिमान हैं प्रतः आप यहां से चुपचाप चले जाइये। क्योंकि इस सम्बंध में जो योग्य अथवा भयोम्ब है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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